सार्वजनिक प्रवचन - ब्रह्म तत्व का स्वरूप नई दिल्ली, १७ फरवरी १९८१ आदर से और स्नेह के साथ आपने मेरा जो स्वागत किया है यह सब देख करके मेरा हृदय अत्यन्त प्रेम से भर आया। यह भक्ति और परमेश्वर को पाने की महान इच्छा कहाँ देखने को मिलती है ? आजकल के इस कलियुग में इस तरह के लोगों को देख करके हमारे जैसे एक माँ का हृदय कितना आनन्दित हो सकता है आप जान नहीं सकते| आजकल घोर कलियुग है, घोर कलियुग। इससे बड़ा कलियुग कभी भी नहीं आया और न आएगा। कलियुग की विशेषता है कि हर चीज़ के मामले में भ्रान्ति ही भ्रान्ति है इन्सान को। हर चीज़ भ्रान्तिमय है। इन्सान इतना बुरा नहीं है जितनी कि यह भ्रान्ति बुरी है। हर चीज़ में, अंग्रेजी में जिसे अजीब कहते हैं, हर चीज़ में जिसे समझ में नहीं आता कि यह बात सही है कि वो बात सही है, कोई कहता है यह करो और कोई कहता है वो करो, कोई कहता है इस रास्ते जाओ भाई, तो कोई कहता है उस रास्ते जाओ। तो कौन से रास्ते जायें? हर मामले में भ्रान्ति है पर सबसे ज़्यादा धर्म के मामले में भ्रान्ति है। पर जो सनातन है, जो अनादि है, वो कभी भी नष्ट नहीं हो सकता, कभी भी नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि वो अनन्त है। वो नष्ट नहीं हो सकता। उसका स्वरूप कोई कुछ बना ले, कोई कुछ बना ले, कोई कुछ ढकोसला बना ले, और कोई कुछ ढकोसला बना ले, कोई उसको पैसे में बेचे, कोई उसको कोई और तरीके से बेचे, कुछ उसका रूप बना लीजिए, लेकिन जो तत्व है वह सनातन है और वो जो तत्व है उसका नाम है ब्रह्मतत्व। इसी ब्रह्मतत्व से सारी सृष्टि की रचना हुई। इस ब्रह्मतत्व को पाना ही जीवन का लक्ष्य है। और दुनिया भर के काम आप करते रहे हैं और करते रहेंगे, अनेक जन्मों में भी किए हैं और अनेक जन्मों में करते रहे हैं और करते रहेंगे। अनेक जन्मों में आपने भक्ति की है और माँगा है कि हमें यह ब्रह्म तत्व प्राप्त हो, यह आज की भक्ति का फल नहीं है और आश्चर्य की बात तो यह है कि इसी घोर कलियुग में ही यह मिलने वाला है। लेकिन पुराण आप पढ़े तो उसमें बहुत साफ तरीके से लिखा है कि इसी घोर कलियुग में ही जब इन्सान दलदल में फंस जायेगा तभी यह चीज़ मिलने की है। इसका मतलब कभी भी यह नहीं कि जो पहले हो चुके हैं, जो द्रष्टा थे, जो साधुसन्त हो गए हैं, जो गुरु हो गए हैं, जो सत्गुरु हो गए हैं और जो कुछ भी हमारे वेद और पुराणों में लिखा है वह झूठ है। एक शब्द भी झूठ नहीं है। और झगड़ा लेकर वो लोग बैठते हैं और बातें करते हैं कि वेद में यह लिखा है और पुराण में यह लिखा है, तो दोनों का मेल कैसे बैठे। यह झगड़े बहुत होते हैं और कोई सनातन बनता है और कोई कुछ बनता है और मुझे हंसी आती है। इसी के बारे में थोड़ी सी आज चर्चा करूंगी क्योंकि यह बड़ा झगड़ा हमारे देश में चल रहा है। हमारे अन्दर तीन तरह की शक्तियाँ विराजती हैं। पहली जो शक्ति है मुख्यत: जो शक्ति है वो है इच्छाशक्ति। अगर परमात्मा की इच्छा ही नहीं होती तो संसार क्यों बनाते। उनकी इच्छाशक्ति के अन्दर से ही बाकी की शक्तियाँ निकली हैं। इसी शक्ति को हमारे सहजयोग भाषा में महाकाली की शक्ति कहते हैं। इसी शक्ति की वजह से आज आप भी भक्ति में रस ले रहे हैं। क्योंकि अन्दर इच्छा ही होती है कि भक्ति में चलें, भक्ति का मजा आ रहा है, भक्ति में रहे, परमात्मा को याद करें, उनको बुलायें। यह मानव ही करता है। जानवर तो नहीं करता, जानवर तो भक्ति नहीं करता। मानव ही करता है। उसके साथ हमारे अन्दर एक दूसरी शक्ति है वो है इच्छा शक्ति को क्रिया में लाने वाली, क्रियान्वित करने वाली शक्ति, क्रियाशक्ति। उसे सहजयोग भाषा में माँ सरस्वती की शक्ति कहते हैं। मैं कोई हिन्दू धर्म सिखा रही हूँ या मुसलमान धर्म सिखा रही हूँ या सिख धर्म सिखा रही हैँ, वो मेरे समझ में नहीं आई । जो बात मैं सिखा रही हूँ वो तत्व की सिखा रही हूँं, वो सब धर्म में एक है। इसलिये कोई भी यह न सोचे कि मैं उन्हीं माँ काली और माँ सरस्वती की बात कर रही हूँ जिसे कि हिन्दू धर्म में लोग मानते हैं। यदि अच्छा नहीं लगता तो उसको आप क्रियाशक्ति कह लीजिए। लेकिन वो महासरस्वती की शक्ति है। और जो तीसरी शक्ति है वो हमारे अन्दर विराजती है। परमात्मा ने हमारे अन्दर दी हुई है। इसी शक्ति से हम धर्म को धारण करते हैं। धर्म का मतलब यह नहीं कि हम इस धर्म के हैं या उस धर्म के हैं, लेकिन अन्दरूनी धर्म जो हम धारण करते हैं। यानि | अब हम जानवर नहीं, ये तो बात सही है। पहले अमीबा थे। अमीबा से होते होते आज हम मनुष्य बन गए। और यह जो हम मनुष्य बने हैं, इसके दस धर्म हैं। और वह दस धर्म हमारे अन्दर बसते हैं। इसको हम जोड़ के नहीं रखते। संजोया नहीं तो हम धर्मच्युत हो जाते हैं, गिर जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि आप कोई पठन करें या कुछ करें या भाषण सुनें। इसका मतलब है धर्म में आप स्थित रहें । जैसे कि सोने का धर्म है कि उसका रंग खराब नहीं होता। जैसे कि एक कार्बन का है कि उसके अन्दर चार वेलेस्लीज होती हैं। उसी प्रकार मानव का धर्म है। उसके अन्दर दस धर्म हैं। मानव के अन्दर धर्म के प्रति | जाग्रति भी है। यह दस धर्म कोई नाम देने लायक चीज़ नहीं हैं। अब यह दस धर्म को जब हमने बिठा लिया, इस धर्म से ही | हमारी उत्क्रान्ति हुई है, हम अमीबा बने। धर्म हमारे अन्दर बदलते गये। जब इन्सान के धर्म में हम आ गये तो हम इन्सान कहलाने लगे। जैसे कि जानवर को अपा किसी गंदी जगह पर बिठा दीजिये उसको गंदगी नहीं आती। लेकिन इन्सान को गंदगी का मालूम है। वो इन्सान जो है उसका धर्म जानवर से ऊँचा है। अब जो दशा आने वाली है वह धर्म से परे है। अब आपको कोई धर्म का पालन नहीं करना पड़ेगा। आप हो ही जाएंगे धर्म में, धर्मातीत जिसे कहते हैं। और इसी तरह से यह तीन गुण हमारे अन्दर हैं। जैसे कि इच्छाशक्ति से हमारे अन्दर गुण आता है वो तमोगुण और जो क्रियाशक्ति से आता है वो रजोगुण और हमारे धर्म की शक्ति से हमारे अन्दर जो गुण उत्पन्न होता है वो है सत्वगुण। इस प्रकार हमारे अन्दर तीन गुण हैं और इन्हीं तीनों गुणों के हेर-फेर से जिसे अंग्रेजी में permutations and combinations से ही अनेक जातियाँ तैयार हुई हैं। यह क्या है? आप अपने को हिन्दू कहें, ईसाई कें, मुसलमान कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। सब एक चीज़ है। अब देखिये इन्सान में भी कितनी चीज़ें एक जैसी है। सब हंसते एक जैसे हैं, रोते एक जैसे हैं। सिर्फ भाषा का फर्क है। इस वजह से हम समझ नहीं पाते कि सारी सृष्टि चराचर में जो एक ही ब्रह्म तत्व बहुता है, वो ही ब्रह्मतत्व जो उसकी ही भाषा अनेक हो जाती हैं, माने प्याले अगल हों लेकिन उसके अन्दर जो अमृत है वो सब जगह एक ही है। अब झगड़ा लोग यह करते हैं कि प्याले ठीक हैं कि अमृत ठीक है, झगड़ा यह है। असल में दोनों ही ठीक हैं। कुछ-कुछ ऐसे भी प्याले भगवान बना देते हैं कि उसमें पूरा का पूरा अमृत आकर बैठ जाता है। आखिर अमृत भी तो प्याले में ही आयेगा। यही झगड़े की बात है कि लोग प्याला और अमृत को अलग समझते हैं। यानि यही ब्रह्मतत्व को जानने के लिये ही वेद लिखे गये। वेद तब लिखे गये। 'वेद' 'विदु' से होता है। 'विदु' शब्द का मतलब है जानना। और अगर सारे वेद पढ़ करके भी आपने अपने को नहीं जाना तो वेद व्यर्थ हैं। वेद का अर्थ ही खत्म हो गया अगर आपने अपने को नहीं जाना। आप गये और वहाँ आपके बहुत भाषण हुए लैक्चर हुए और आपने अपने को नहीं जाना। आप सिद्ध ही कैसे करेंगे कि परमात्मा है? कोई सिद्धान्त है। आपके पास? आपके बच्चे आजकल यहाँ मन्दिर में नहीं आयेंगे । कहेंगे कि क्या भगवान हैं, कोई सिद्धता नहीं। इसलिये जब अपने को जान लेते हैं तो आपके अन्दर से ही ब्रह्म बहना शुरु हो जाता है। मैं यहाँ आपको वही चीज़ देने आई हूँ। जिसको आप हजारों वर्षों से खोज रहे थे। यह आपकी अपनी ही है। आपकी अपनी ही है, सिर्फ मुझे उसकी कुंजी मालूम है। मैं कुछ अपना नहीं दे रही हूँ। आपका जो है आपको ही सौंपने आई हूँ। आप अपने को जान लीजिये और इस ब्रह्म तत्व को पा लीजिये। यही आत्मसाक्षात्कार है, क्योंकि आत्मा का प्रकाश ही ब्रह्म तत्व है। यही परमात्मा का साक्षात्कार है, क्योंकि आत्मा को जाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। बगैर आँख के आप देख नहीं सकते। उसी तरह जब तक आपने आत्मा को जाना नहीं परमात्मा को जान नहीं सकते। लेकिन मैं अगर कहूँ कि आप आत्मा को जानिये, आत्मा को जानिये, तो आप भी रटें, आप आत्मा को जानिये, आत्मा को जानिये। रटने से नहीं जान सकते। उसको पाना होगा। यह घटना घटित होनी होगी। अपने देश में तीन तरह की व्यवस्था इन तीन चीज़ों से होती है। पहली तो व्यवस्ता यह हुई कि हम इस ब्रह्म तत्व को जानें, उसके लिये कुछ क्रिया करें, होम करें, हवन करें। निराकार ही को सोच रहे थे इस वक्त। उन्होंने साकार की बात तब नहीं करी। उस वक्त उन्होंने निराकार की बात ही करी कि हम निराकार को जानें । होम करें, हवन करें, ये करें, वो करें, मन्त्र कहें । किसी 6. तरह से जागृति हो जाये। इसके फलस्वरूप संसार में अवतरण हुए। जब आपने अमृत को माना जो कि निराकार है तो वो साकार होकर संसार में आया। उसको आना ही पड़ेगा। अगर साकार नहीं आयेगा तो आप कैसे जानियेगा। जैसे कि एक दीप की लौ देख रहे हैं। दिखने को तो आकार है लेकिन सब तरफ फैली हुई है। उसी प्रकार निराकार साकार नहीं होगा तो आप निराकार को जान ही नहीं सकेंगे । इसलिये संसार में अनेक अवतरण हये। उसमें से श्री विष्णु जी के अवतरण हये हैं। उसकी वजह है कि श्री विष्णु जी ही हमारे अन्दर धर्म की संस्थापना करते हैं। और हमारा उत्क्रान्ति का मार्ग बनाते हैं। इसलिये श्री विष्णु जी की स्थापना हुई इसका मतलब कभी भी नहीं कि शिवजी का कोई महत्व नहीं। बहुत से लोग कहते हैं कि भई , हम विष्णु जी को मानते हैं और शिवजी को नहीं मानते। यह तो भई ऐसा ही हुआ कि हम अपनी नाक को मानते हैं और आँख को नहीं मानते, जब कि वे एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। समझ लीजिये विराट श्री विष्णु जी का सबसे बड़ा स्वरूप है। उसके अन्दर अगर उनका हृदय है तो उसमें शिवजी बसे हैं। और ब्रह्म देव जी हैं। वो उनकी क्रिया शक्ति को सम्भाले हुये हैं। उन्होंने क्रिया करके सारी सृष्टि रची और जब लोगों ने इन पंच महाभूतों को ही, उसी को, सोचा कि उनकी सेवा करने से या उनको जागरूक करने से ही परमात्मा को जानें, तो वो साक्षात्कार परमात्मा के जो विष्णु स्वरूप जी अंग हैं, कहना चाहिए कि विष्णु स्वरूप जो उनके अवतरण हैं, वह हुए। संसार में आप जानते हैं कि दशावतार हये। अब हुए हैं कि नहीं हुए, इसकी सिद्धता देने के लिए हम आये हैं इस संसार में। क्योंकि किसी ने बता दिया इसलिये आपने विश्वास कर लिया । लेकिन यह दस अवतरण हुए हैं और इन्हीं अवतरणों के सहारे ही हमारी उत्क्रान्ति हुई है। याने पहले-पहले सब लोग मछलियों में ही थे। समुद्र में ही जीव धारणा हुई है। सब लोग कहते हैं। और उसके बात कुछ मछलियाँ बाहर की ओर चली आईं। उन मछलियों को पहली बार लाने वाला मत्स्य अवतार हुआ। वो श्री विष्णु का स्वरूप था। उसके बाद आप जानते हैं कि वो दस रूप में आते रहे। यह अगवाई करने का जो कार्य है वो परमात्मा को ही करना पड़ा। यह परमात्मा का कार्य है। उसे मनुष्य नहीं कर सकता। या एक मछली नहीं कर सकती। इस लिये पहले जो अगवाई करने का काम था उसके लिये साक्षात् परमात्मा संसार में अवतरित हुए। इसमें कोई शक नहीं। लेकिन जब लोगों ने दूसरी चीज़ शुरू कर दी, भक्ति। कि परमात्मा तो संसार में अवतार ले रहे हैं तो इसको समझ के | उन्होंने भक्ति शुरू कर दी। तो उसी में लिपट गये वो। माने यह है कि फूल के अन्दर शहद है समझ लीजिये। तो आपको फूल का शहद लेना चाहिए, यह तो बात सही है। लेकिन शहद फूल के बगैर तो नहीं होता। लोगों ने कहा कि भाई, फिर फूल की बात करो। एक शहद की बात करने लग गये, एक फूल की बात करने लग गये। उसके बाद उन्होंने कहा कि, फूल की बात करो । तो फूल ही में अटक गये वह लोग। अपने मन से मूर्तियाँ बनानी शुरू कर दीं । उसकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं करी। उसमें जागृति नहीं दी। उसको कायदे से नहीं बिठाया। और शुरू हो गया| तो अटक गए। तब लोगों ने शुरू किया , बन्द करो भाई , अब निराकार की बात करो। वो कभी निराकार से साकार में जायें , साकार से निराकार में जायें । यह झगड़ा चल गया। और झगड़ा कोई है ही नहीं। एक के बगैर दूसरा नहीं है और दूसरे के बगैर पहला नहीं है। ऐसी सीधी बात है। क्योंकि दोनों ही बातें बन गईं। एक ने फूल की बात करी और एक ने शहद की करी और दोनों ही बातें ही रह गईं। बातें रह गई, बातें ही रह गईं और आज तक बातें ही रह गई हैं। तो दोनों ही बात सही हैं। वो भी सही है, यह भी सही है। उसका खण्डन इसलिये हुआ, उन्होंने खण्डन इसलिये किया कि जब जनसाधारण में देखा कि एक तरफ खूब बहते चले आ रहे हैं तो उनको खींच कर दूसरी तरफ ले आये कि बाबा, यहाँ ठिकाने से बैठो। जब देखा कि इस तरफ बहुत बहते जा रहे हैं तो फिर उनको उस तरफ ले आयें। जो लो रहे हैं वो एक ही इन्सान हैं। उनका नाम है आदिगुरु दत्तात्रेय जी, आदिनाथ हैं, आदि गुरु हैं। वो ही अनेक बार संसार में आयें और उन्होंने कहा कि, भाई, हाँ ठीक है, अवतरण हये हैं, मानिये इसे। लोग अवतरण को चिपक गये। 'राम , राम, राम'। रास्ते में जा रहे तो 'राम, राम', बाज़ार में जाओ तो 'राम, राम', इधर देखो तो, 'राम, राम'। कोई किसी की अकल नहीं रह गई कि इस तरह से राम का नाम नहीं लेना चाहिए। हर समय राम को आप इतना सस्ता किये दे रहे हैं। उसका भी एक तरीका है। तब फिर उन्होंने कहा कि चलिये यह भी बात बन्द करिये। वो ही उनके यहाँ अनेक अवतरण हुए हैं। उन्होंने अपना ही इसलिये खण्डन किया। वही संसार में राजा जनक के रूप में आये थे। और राजा जनक ने एक नचिकेता को ही आत्मसाक्षात्कार दिया था। राजा जनक के बारे में आप जानते हैं कि उनको लोग 'विदेही' कहते हैं। और उनसे लोगों ने पूछा कि, 'भाई, आपको विदेही कैसे कहते हैं?' नारद ने कहा कि, 'तुमको विदेही कैसे कहते हैं? तुम तो संसार में रहते हो, तुम विदेही हो?' 'कहा बहुत आसान है। भई ऐसा करो शाम को बात करना। अभी तो तुम एक काम करो। एक कटोरे में दूध है। उसे लेकर चलो। और शाम को मुजे बताना।' अब वो दूध का कटोरा ऐसा था कि उसमें दूध छलक जाएगा। परन्तु उन्होंने कहा था कि, एक बूंद भी नहीं छलकना चाहिए, इसी को देखते रहना और छलकना नहीं चाहिए, इसी को देखते रहना और छलकना नहीं चाहिए एक भी बूंद। तब मैं बताऊंगा कि मुझे विदेही क्यों कहते हैं। शाम तक विचारे वो अपने लिये घूम रहे हैं। वो उसके साथ सारी दुनिया में गये और परेशान हो गये। जब शाम को लौटे तो उन्होंने कहा, 'अब तो बताइये मैं तो तंग आ गया सारा दिन इस तरह आपके साथ घूमता रहा।' कहने लगे, 'पहले तो यह बताओ कि तुमने क्या देखा?' उन्होंने कहा, 'क्या देखा! मैं क्या देखता ? मैं तो पूरे समय दूध ही देखता रहा कि गिर न जाए।' कहने लगे, 'मैं शोभा यात्रा में गया। फिर मेरा बड़ा भारी दरबार था और वहाँ नृत्य हुआ, कुछ नहीं देखा तुमने?' कहने लगे, 'कुछ नहीं देखा। राजा जनक ने कहा कि, 'बेटे मेरा यही हाल है। मैं कुछ देखता नहीं हूँ। मैं सारे समय अपने चित्त को देखता रहता हूँ कि कहीं छलक न जाए मेरा सारा चित्त।' यह अवतरण है। राजा जनक भी एक अवतरण है। बहुत बड़े अवतरण हैं। वो इस संसार में गुरू के रूप में आये। इन्हें जिसको कि आज हम लोग सिर फुटीवल करते हैं, मुहम्मद साहब भी वही हैं। कोई अन्तर नहीं। और उनकी जो लड़की थी वो साक्षात् जानकी ही थी। इसकी आपको हम सिद्धता दे देंगे। बेकार में हम।| हाँ अगर मुसलमान खराब हैं तो वो दूसरी बात है। लेकिन मुहम्मद साहब नहीं थे। उन्होंने भी वही बात करी। और फिर जब मुहम्मद साहब ने देखा कि मुसलमान इतने गधे हो गए तब वो संसार में आए और आपको मालूम है कि गुरु नानक के नाम से संसार में उन्होंने कार्य किया। वो सभी निराकार ही की बात कर रहे थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि इन्सान चिपक जाएगा। किसी चीज़ में और उन्होंने हमारे धर्म को हमेशा सम्भाला और आखिरी बार वो आए थे शिरड़ी के साईंनाथ बन कर। ऐसे इनके अनेक अवतरण हये हैं। और यह कोई इन्सान नहीं थे। यह परमात्मा का सबसे अबोधिता का तत्व था, जिसे इनोसन्स कहना चाहिए, उसके अवतरण थे। और उनका जीवन भी उसी तरह से अत्यन्त निष्पाप और निर्मल था। और वो साक्षात् शक्ति उनके साथ या तो बहन जैसी जनक की लड़की सीताजी थीं, मुहम्मद साहब की लड़की फातिमाजी थीं और आपको मालूम है कि गुरू नानक जी की बहन नानकी यह जानकीजी थीं, जो साक्षात थीं । इसमें कोई शंका की बात नहीं है मेरे लिये| लेकिन आपके लिये हो सकती है । लेकिन इसको मैं सिद्ध कर सकती हूँ। क्योंकि जब तक आपके आँख नहीं आती आप इसको नहीं मान सकते, ठीक है। लेकिन आपको आँख देने पर तो मानना ही पड़ेगा कि सफेद सफेद है, झूठ झूठ है। तो किस बात का झगड़ा है फिर। यह तो अंधेरे में ही लोग आपस में एक-दूसरे को मार रहे हैं। एक बार आँख खुलने पर, मैं बताती हूँ आपसे, आप यह सारे संसार की जो सबसे बड़ी माया है उसको पहचान लेंगे । यह सब लोग एक हैं। इनमें कोई अन्तर नहीं। अब जो हमने वेद वगैरह रचे और जिससे हमने पंच महाभूतों का.. हमने कहा, कि पांच महाभूतों को मानिये और उसका उससे करिये। ठीक है, तो निराकार की बात हो गई। लेकिन साकार भी चीज़ है। भक्ति भी है और साकार परमात्मा राम, श्रीराम, परशुराम। इतना ही नहीं श्रीकृष्ण साक्षात् इस संसार में आयें। अवतरण उन्होंने किया। यह साक्षात श्री विष्णु के अवतरण हैं, इसमें कोई शंका की बात नहीं मेरे लिये। और शिव अवतरण नहीं लेते| शिव का अवतरण नहीं होता। ब्रह्मदेव ने भी एक ही अवतरण लिये हैं। लेकिन शिवजी ने कभी अवतरण नहीं लिया, क्योंकि वो सदाशिव हैं। विष्णु के अवतरण हुए हैं और उन अवतरणों में आपको जान लेना चाहिए कि उन्होंने संसार में आ करके हमें आज मनुष्य बना दिया। उनकी वजह से हम बने हैं। और उन्हीं की वजह से हमने यह भी जाना है कि संसार में अवतार आते हैं । लेकिन श्रीकृष्ण जी ने यह बातें सिर्फ एक अर्जुन से बताईं। एक अर्जुन से बताई। सबसे नहीं बताई। सब जनसाधारण को बताने की बात है। भक्ति का मार्ग चल रहा था। भक्ति में लोग अह्वान कर रहे थे परमात्मा को। और इधर लोग जो हैं वेद में वो लोग जितने भी पंचमहाभूतों को जागरूक कर रहे थे। और एक बहुत गुप्त तरीके से दुसरा जो मार्ग बन रहा था उसमें राजा जनक जैसे लोग प्रयत्न कर रहे थे कि आत्मा का साक्षात्कार हो जाए। लेकिन यह बात गुप्त। श्रीकृष्ण ने यह बात एक अर्जुन से बताई और वह भी घूमा-फिराकर बताई क्योंकि उन्होंने देखा , कि अभी समझ में नहीं आ रही इनके बात। अब गीता पर फिर मैं कभी बोलूंगी। आज तो इतना समय नहीं है। अब जब हमने देखा बाद में कि लोगों में ऐसा है और लोग बेकार में झगड़ा कर रहे हैं तब स्वयं नानक जी संसार में आए थे वो। और उन्होंने सोचा कि मैं ही तो था और मेरी ही जगह अब मेरे ही यह शिष्य लोग अब झगड़ा कर रहे हैं। वो उन्होंने आ करके समझाया कि भाई, क्यों झगड़ा कर रहे हो? वो चीज़ एक ही थी, चीज़ एक ही थी। अब जो यह गुप्त रूप से काम हो रहा था वो उसके बाद। आपको आश्चर्य होगा, बहुत आश्चर्य की बात है कि उस वक्त जो दो बच्चे पैदा हुए थे सीताजी के, वो लव और कुश उन्हें कहते हैं। आपको आश्चर्य होगा और अभी भी आपको पता है कि नहीं, लेकिन हमको तो पता है। आप पता करें, कि दोनों हिन्दुस्तान छोड़ कर उत्तर की ओर चले गये। उसमें से लव जो थे वो कोकेशियस की तरफ गये और जा करके इन्होंने वहाँ राज किया। और इसलिये रशिया वरगैरह में 'स्लाव' कहते हैं, सलव। इसलिये स्लाव कहते हैं उनको। उनकी भाषा ही स्लाव है। और कुश जो थे वो चीन की तरफ गये और उन्होंने अपने को 'कुशान' कहलवाया। पता नहीं, इन लोगों को भी पता है कि नहीं कि लव और कुश की खानदान है और आपस में लड़ रहे हैं, बेवकूफ जैसे। दोनों ही लव और कुश के खानदान हैं। एक स्लाव कहलाते हैं, एक कुशान कहलाते हैं। और दोनों में ही सारे संस्कृत शब्द हैं। जरा बिगाड़े हुए। जैसे वो किसी चीज़ को कहेंगे कि बहत अच्छा है या किसी को मिलेंगे तो नमस्ते करेंगे तो 'खोशे, हरो शिवाय।' उनके इसमें 'प्रवद' कहेंगे, उनके आपने यहाँ सुना होगा न्यूज पेपर 'प्रवद' । वह आपके वेद से 'वद' और 'प्र' माने जिसे कहना चाहिए 'जागरूक'। उनकी सार भाषा में आप देखिये सारा संस्कृत में ही है। इधर मैं चीन गई थी, मुझे अब भी वहाँ के सारे शब्द संस्कृत के बने हैं। लेकिन वो भी नहीं जानते कि हम भाई - बहन हैं। और मूर्ख जैसे लड़ रहे हैं। क्या करें? कौन उनको समझाये कि तुम दोनों जुड़वे भाई के लड़के हो और क्या कर रहे हो? किस चीज़ के लिये लड़ रहे हो? इससे कोई तुम्हारे माँ को सुख होने वाला है ? अब जो यह बीच की धर्म व्यवस्था हमारे अन्दर बनी हुई है जिसमें अवतरण होते गए और बहुत ही गुप्त रूप से कार्य होता गया। तो उस वक्त यही दोनों बेटे इस संसार में बार-बार पैदा उसके बारे में हम लोगों को मालूमात नहीं। लेकिन हुए। झगड़ा करने में हम लोग बहुत होशियार हैं । पर उसकी हमें मालूमात नहीं, क्योंकि इतिहास में कोई इस चीज़ को कोई लिखता और महावीर बन कर आए और हम लोग झगड़ा कर रहे हैं। अरे अगर हिन्दू राम को मानते हैं तो उन्हीं के यह दोनों बेटे है? बुद्ध हैं। झगड़ा किस चीज़ का कर रहे हो तुम ? और फिर भी हम उस चीज़ की आपको सिद्धता दे सकते हैं। अब बहुत से लोगों का यह कहना है कि यह चीज़ किताब में लिखी नहीं। हरेक चीज़ किताब में लिखने की होती भी नहीं। किताब पढ़ कर आप पूरी बात, गीता तो मेरे समझ में बहुत ही थोड़े लोगों के समझ में आई है। उसकी बहुत ही सरल सी बात है। बहुत ही सीधी सी बात है कि किसी की खोपड़ी में आई ही नहीं। सबके खोपड़ी में से चली गई। तो इसमें यह समझ लेना चाहिए कि मैं जो बात कर रही हूँ उसमें से बहुत सी बातें आपको किताबों में भी नहीं मिलेंगी। क्योंकि मैं जानती हूँ और आपको बता रही हूँ और उसकी मैं आपको सिद्धता दे सकती हूँ कि यह बुद्ध और महावीर जो थे वो कोई और दूसरे नहीं थे। यह श्रीराम के लड़के लव और कुश थे। वो अपने ही थे, कोई पराये नहीं थे। कोई कहते हैं कि हम बुद्ध धर्मी हो गये, हम जैनी हो गये। अरे वो हैं कौन? सब सनातन ही तो हैं। जब आप कहते हैं कि हम सनातनी हैं तो आपको सोचना भी चाहिए कि सनातन का आँचल बहुत बड़ा है। उसके नीचे सब लोग आ गए, कोई छूटने वाला नहीं। यही बुद्ध जब कि आये और संसार में इन्होंने सिखाया कि आप मूर्ति पूजा नहीं करो, यह नहीं करो, वो नहीं करो। क्योंकि लोगों ने मूर्ति पूजा की हद कर दी थी, उन्होंने इसके लिए सिखाया। और फिर देखा कि वो चीज़ छूट कर बुद्ध धर्म इतनी बुरी तरह से फैल गया है और उन्होंने इतनी बेवकूफियाँ शुरू कर दी हैं तो खुद उन्होंने ही इस संसार में जन्म लिया और वो ही हमारे हिन्दू धर्म के संस्थापक, जिन्हें हम मानते हैं, आदि शंकराचार्य जी वो ही थे। यह बुद्ध ही थे। वे फिर से आये अपना खण्डन करने के लिये | क्योंकि इन बुद्ध लोगों को कौन समझाए, कि 'बुद्ध' माने जागरूक। जिसने जान लिया ऐसे कितने बुद्ध हैं? बुद्ध, बेवकूफ। जैसे वो उनसे कहा कि, 'पूजा नहीं करो', तो एक दाँत लेकर के बैठ गये, फलाना लेकर के बैठ गये, और उसी से झगड़ा। इन्सान को कोई न कोई बहाना चाहिए झगड़ा करने के लिये। और सबमें एक ही तत्व है, सबमें एक ही तत्व है। पर झगड़ा पता नहीं क्यों? कैसे ढूँढ़ लेते हैं? कोई न कोई बात झगड़े की ढूँढ़ लेते हैं। आदि शंकराचार्य ने कहा था कि, 'न योगे न सांख्येन', योग, सांख्य से कुछ नहीं होने वाला, माँ की ही कृपा से ही सब कुछ होने वाला है। उन्होंने बहुत बड़ी किताब लिखी थी 'विवेक चूड़ामणि'। पता नहीं आप लोग पढ़ते हैं कि नहीं। पढ़ते होंगे जरूर, क्योंकि आप लोग सनातन धर्मी है। लेकिन जिन्होंने इसकी संस्थापना करी वो तो पढ़ते ही होंगे । इतनी बड़ी किताब विवेक चूड़ामणि लिखने के बाद उन्होंने एक दूसरी किताब लिखी जो 'सौन्दर्य लहरी' है। पता नहीं आप लोग पढ़े होंगे। सारा उसमें माँ का वर्णन है, पूरा । यहाँ तक कि सब उनका आकार-प्रकार, उनका तौर तरीका, उनको कौनसा तेल पसन्द है, सर में कौनसा तेल लगाती हैं। इतना बारीक लिख गये। विवेक चूड़ामणि तो इतनी भारी चीज़ लिख दी और अब यह माँ का वर्णन। यह क्या लिख रहे हैं कहने लगे। उसके सिवाय इलाज नहीं। माँ के सिवाय इलाज नहीं। वो ही सब करेंगी। यह शक्ति का काम है। इसलिये हम सब शक्ति के पुजारी हैं। आज तक आप किसी भी धर्म में रहे, आप सब शक्ति के पुजारी हैं। वेद में माँ को 'ई' करके कहा गया है। 'ई' शब्द से, उसका शब्दों का फर्क है, लेकिन शक्ति को ही पाना है। और शक्ति भी क्या शक्ति है? यह ब्रह्म की शक्ति है। और ब्रह्म क्या है? यह परमात्मा की इच्छा है, और परमात्मा का प्यार है। अगर परमात्मा को आपसे प्यार न होता तो यह सरदर्द को क्यों लेते ? यह सारी सृष्टि बनाना भी एक बड़ा भारी सर दर्द है । इतनी सारी सृष्टि उन्होंने बनाई क्योंकि उनको आपसे प्यार था। और आज भी उसी प्यार में वो चाहते हैं कि आप उनके साम्राज्य में उतरें। यह सारे झगड़े थे। झगड़ों में कुछ नहीं । सबसे बड़ी सनातन बात यह है कि हम ब्रह्म शक्ति से बने हैं और हमें उसको पाना है। और अगर आपने उसे जाना नहीं तो आपने शक्ति को पाया नहीं। .कहने लगे कि, 'वहाँ वारकरी लोग होते हैं। एक-एक महीना, दो-दो महीना पैदल चल कर के जाते हैं। मैं बहत पैदल चल कर जाता था। महीना-महीना पैदल चलता था, वहाँ जाता था। तो मेरा सर ही फोड़ देते थे लोग। और उसमें परेशान हुआ, भगवान नहीं मिले। फिर मैंने सोचा, अब और कोई सा धर्म कर लें । फिर मैंने सब धर्म किये। यह धर्म किया, वो धर्म किया, मेरे हाथ पैर टूट गये। मेरी हालत खराब हो गई। मेरी तन्दुरुस्ती चौपट हो गई। मैंने कहा कि यह कैसा भगवान है। इसको मैं खोज रहा हूँ। और यह मेरी तन्दुरुस्ती ही चौपटा देगा, तो मैं कैसे उसको जानूंगा?' और जब उन्होंने जाना कि हम वहाँ गये हुए हैं तो हमसे मिलने आये और कहने लगे कि, 'माँ अब बताओ मैं क्या करूं ?' मैंने कहा, 'बेकार में तुम इधर से उधर , अपने दल बदलते रहे। अपने माथे पर लिखा हुआ बदलने से कुछ नहीं होता कि मैं फलाना हँ, ठिकाना हूँ। तुम सिर्फ इन्सान हो, पहली बात। और दूसरे तुम परमात्मा के पुत्र हो। तुम आत्मा हो और कुछ नहीं। उसको तुम्हें पाना है।' इस तरह से अपने ऊपर बन्धन मत मारो। लड़ाई-झगड़े होते हैं। आत्मा ही सनातन है, उसको पाना है, आत्मा ही एक चीज़ है जिसे पाना है। सबने यही कहा है कि क्यों भाई, इधर-उधर भटकते हो। अपने ही अन्दर खोजो, अपने ही अन्दर आत्मा है। जब आत्मा को पाइयेगा तभी आपको पता होगा कि इन सब मूर्तियों का भी क्या अर्थ है? यह क्या चीज़ है?और इसका हमारे अन्दर स्थान कहाँ है? उनको जागरूक कैसे करना है? इनको जागरूक कैसे करना है? इनकी प्राण प्रतिष्ठा कैसे करनी है? तो सिर्फ ब्रह्म की बात ही नहीं है। ब्रह्म को पाना है और उसके बाद इस सारी ब्रह्मविद्या को आपको पूरी तरह से जान लेना है। है। सारी ब्रह्म विद्या आप जान जाएंगे| यही सहजयोग है। इसको सहज कहते हैं क्योंकि सहज आपके साथ पैदा हुआ आपके अन्दर कुण्डलिनी शक्ति है, जो आपके साथ पैदा हुई है। यह जीवन्त है । कोई मरी हुई चीज़ नहीं है, जीवन्त है । जैसे कि अंकुर होता है उस तरह से वो आपके अन्दर स्थित है। वो जागरूक हो जाती है। और वो जागरूक होने के बाद आपके अन्दर से ठण्डी-ठण्डी हवा जैसे चैतन्य की लहरियाँ, जिसका वर्णन आदि शंकराचार्य आदि सबने किया हुआ है, ईसामसीह ने भी किया है, वह बहने लग जाती है। तो आप अपनी शक्ति को प्राप्त होके और उसके बाद इस ब्रह्म को प्राप्त होने के बाद।| यह ब्रह्मविद्या आपको जाननी है | हिन्दुस्तान में भी सहजयोग बहुत जोर से फैल रहा है। लेकिन उसका ज़्यादा हिस्सा महाराष्ट्र में बहुत ज़्यादा चल रहा है। इसकी वजह यह है कि सन्तों की भूमि है, और वहाँ लोगों ने सन्तों को भुलाया नहीं। वामपंथियों ने बड़ी मेहनत करी है। आपके यहाँ भी गुरु नानक और कबीर जैसे बड़े-बड़े सन्त हये। लेकिन हम लोगों ने उनको माना नहीं असल से। दक्षिण में महाराष्ट्र में ऐसी बात है कि न जाने कैसे क्यों मेरी यह समझ नहीं आता कि हो सकता है रामचन्द्र जी वहाँ पैदल चल कर गए थे, सीता जी के भी वहाँ चैतन्य फैले हुए हैं। लेकिन लोगों में जरा इस मामले में गहराई है । वो इस बात को जानते हैं। और ज्ञानेश्वर जी ने बहुत साफ-साफ लिखा था कि कुण्डलिनी नाम की शक्ति हमारे अन्दर है। और वो अम्बास्वरूप माताजी जब होंगी तभी आपको उसकी प्राप्ति हो सकती है, आदि अनेक चीज़ें उन्होंने लिख कर रखी हैं। शायद इसी वजह से वो इससे जागरूक हैं। इंग्लैण्ड में भी लोग बहुत जागरूक हैं, क्योंकि इंग्लैण्ड में बड़े भारी 'विलियम ब्लैक' करके कवि हुए हैं। उन्होंने लिखा है कि वो समय आयेगा जब इंग्लैण्ड में यह कार्य शुरू होगा। और उन्होंने यहाँ तक कि हमारे आश्रम की जगह तक लिख दी। जहाँ मैं रहती हूँ उस जगह का नाम भी लिख दिया। लेकिन मैं यह नहीं कहँगी कि यहाँ सन्तों ने मेहनत नहीं करी। सन्तों ने बड़ी मेहनत करी है। बिहार में मैं गई थी। बिहार में देखा कि सारा का सारा चैतन्य भरा पड़ा है। बंगाल में, पंजाब में सारा चैतन्य भरा पड़ा हुआ है। पंजाब तो ऐसा चैतन्य से भरा है । लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि देश विभाजन हो गया तो क्या हो गया ? पता नहीं, लोगों की श्रद्दा ही टूट गई है। और श्रद्धा में एक तरह की नरमाई आ गई। और उसकी वजह से मनुष्य इस ओर नहीं जाता कि उसको पाना है। वो उच्छृंखल है। थोड़ी देर के लिये वो भगवान के पास आ गया, वो सोचता है बहुत हो गया। रास्ते चलते कोई भगवान मिल गया तो सोचता है बहुत हो गया। उसके बाद उनकी अपनी दूसरी परवाह लगी रहती हैं। उसमें कुछ मेहनत करनी पड़ेगी। कुछ उसके प्रति वाकई श्रद्धा से लगना पड़ेगा। उधर ध्यान देना होगा। इसलिये मैं देखती हूँ कि जितना फैलाव होना चाहिए उतना होता नहीं है। लोग इस पर श्रद्धा से बैठते नहीं। मेहनत करते नहीं । लेकिन मुझे बड़ी खुशी हुई कि पिछली मर्तबा मैं आई थी और इस मर्तबा भी आप लोगों ने मुझे यहाँ बुलाया और इतनी श्रद्धा के साथ आप लोगों ने मेरी बातचीत सुनी है। और इसे पा भी लीजिए। पूरी तरह से पाकर के मैं तो चाहँगी कि यहाँ पर आप कभी भी चाहें यहाँ पर हमारे बहुत से सहजयोगी लोग रहते हैं जिन्होंने इस चीज़ को माना है और पाया हुआ है। यहाँ पर बहुत से लोग ऐसे हैं जो कि यह जानते हैं, ब्रह्मविद्या को भी। उनसे भी आप लाभ उठा सकते है। बस इतना जानना है कि इसमें कोई पैसा और कोई चीज़ नहीं चाहिए। परमात्मा को आप पैसे से नहीं खरीद सकते। और जब पाने की बात है तब तो आपको कोई मेहनत भी नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन पाने के बाद संजोना पड़ता है। उससे पहले आपको कोई भी मेहनत नहीं करनी। उसके पहले ही आपके पास है, सहज । इसलिये हो जाता है। | पर आज सहजयोग 'महायोग' की स्थिति में आ गया है क्योंकि पहले सहजयोग जो था जनक के समय में तो एक नचिकेता के ही लिये बना था। उसके बाद एक दो फूल आये, फिर तीन-चार और फूल आये। लेकिन आज समय है वो | 'बहार' आ गई है। और इस बहार में अनेक फूल फल होने वाले हैं। सिर्फ आप अपनी तह तक, आप अपनी गहराई तक उतरिये। असल में होता क्या है कि अब देखो कि यह औरतें चली जा रही हैं। इसका क्या मतलब हैं? कि इनमें गहराई नहीं है बिल्कुल! चीज़ को पा लो मैं कहती हैँ। पा करके थोड़ा उसमें गहरे उतरो । थोड़ी सी गहराई में उतरना चाहिए। और उस गहराई में आपका सारा पूर्वजन्म का पुण्यकृत है। उसमें आप फिर समाइये। पहले थोड़ी सी मेहनत करके गहराई में आप उतर जाइये । | और उसके बाद वहाँ जो पूर्वसंचित जितना कुछ है उसे आप पाइयेगा। लेकिन इस तरह से लोग क्या हैं? एक माताजी का भाषण सुन गये, दूसरे का सुन गये। इस तरह से जो लोग करते है ऐसे लोगों के लिये सहजयोग नहीं है। पर इसका नुकसान बाद में होगा। अभी इसके जो फायदे हैं उनको लेना चाहिए। इससे अनेक फायदे होते हैं। उनका लड़का एकदम पागल जैसा था। वो अभी यहीं है। उसका पागलपन एकदम ठीक हो गया। कितने ही लोग हैं यहाँ दुनिया में जिनको लाभ हुआ है, जिनकी तन्दुरुस्ती ठीक हो गई। क्योंकि यह सारे सात चक्रों में सारे ही देवता विराजते है। वो जागरूक हो जाने से उनका आशीर्वाद मिलता है। आपके हर तरह के प्रश्न हल होंगे जब कि आप योग में उतरेंगे। कृष्ण ने भी कहा है कि 'योगक्षेम वहाम्यहम्'। योग से पहले आप भगवान से कहें भगवान यह कर दो, वो कर दो। आपका सम्बन्ध ही नहीं है भगवान से, तो क्षेम कैसे होगा। फिर आप कहें कि मैं भगवान से गिड़गिड़ाता रहा। भगवान ने मेरा काम ही नहीं किया। पहले आप 'योग (कनेक्शन)' करवा लीजिए। योग के बाद फिर आपको कहना भी नहीं पड़ेगा कि फिर क्षेम, क्योंकि आप उनके साम्राज्य में आ गये। आप उनके नगर के वासी हो गए तो वो आपको सम्भालेंगे और देखेंगे। और देखते ही यहाँ हरेक सहजयोगी आपको बताएगा, एक-एक आदमी अगर लिखने जाए तो पोथी लिख के रख सकता है क्योंकि कितने चमत्कार हुए हैं । ऐसे-ऐसे दूर्घटनायें हुई हैं कि लोग ८०-८० फुट से गिर गए और जैसे कि किसी ने उठा लिया हो। बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो गई हैं। वो सब बताने बैठू तो उसका कोई अन्त ही नहीं। आज आपके मंदिर में परदेस से भी बहुत लोग आ गये हैं। यह गणेश की पूजा कर रहे हैं और यह शिवजी की पूजा कर रहे हैं और यह विष्णु जी की पूजा कर रहे हैं। इसलिये नहीं कि मैंने उनसे कहा। इसलिये क्योंकि वो जान गये हैं कि यह बात सही है। वो जान गये हैं। उनके अंदर जो चीज़ है उसे जान गए हैं। उंगलियों पे आप महसूस कर सकते हैं कि आपके कौन से चक्र पकड़े हुए हैं। और उन चक्रों पर कौन से देवता हैं। उनको आप जान सकते हैं और पूछ सकते हैं, यह देवता हैं या नहीं। इतना ही नहीं आप लोग जब मुहम्मद साहब को जानेंगे, ईसामसीह को जानेंगे। जिन्होंने अब तक कुछ नहीं जाना वो और जान जाएंगे। और यह लोग जितना जानते हैं आप लोग नहीं जानते। वजह यह है कि इन लोगों में और हमारे में फर्क है। हम योग भूमि में रह रहे हैं। भारतवर्ष की जो छत्र-छाया है उसमें हम लोग झट से पार हो जाते हैं। कोई समय नहीं लगने वाला। आप सबके सब बहुत जल्दी पार हो जाएंगे, मुझे मालूम है। मैं जानती हूँ एक क्षण भी नहीं लगने वाला। लेकिन चलने वाला नहीं वो। क्योंकि जो चीज़ आसानी से मिल जाती है उसकी कदर नहीं होती। और इन लोगों के एक-एक पर मैंने तीन-तीन महीने हाथ तोड़े। तो इनको बड़ी कदर है। यह गहराई में उतर गए हैं। यह गहराई में उतर गए हैं। उसको इन्होंने बिल्कुल ब्रह्मविद्या को साक्षात पा लिया है। तो जो भारतीय, जो कि अनेक जन्मों से पुण्य से इस भारत वर्ष में पैदा हुआ है, वो इनसे कम पड़ जाता है । और यह पुण्य आपके पास बहुत है। क्योंकि आप अपनी गहराई नहीं छू पाते। यह मैं आपसे पहले ही आगाह ( सचेत) करती हूँ कि पार करने को तो मैं कर दूँगी, लेकिन आगे का आपको देखना होगा । आगे जो मेहनत है वो आपको करनी पड़ेगी। अगर नहीं करी तो 'जो पाया सो खोया' होता है अनेक बार। अनेक लोगों का ऐसे होता है। मैंने देखा है एक साहब आए थे और चिल्लाने लग गए, एक बड़े भारी आगन में प्रोग्राम हो रहा था, 'माताजी, माताजी, मेरे तो अन्दर से तो बहुत आग निकल रही है। मेरे अन्दर से, मैं मर रहा हूँ। आप मुझे ठीक करिये। सारे बदन में फाले और न जाने क्या-क्या है।' मैंने कहा, 'अच्छा आपके यहाँ आते हैं।' बहुत भीड़ थी उनके यहाँ, वहाँ। करते-करते उनके पास पहुँचे | हम। उनकी कुण्हलिनी जागरूक करने से पाँच मिनट में उनका सब कुछ ठीक हो गया। पाँच मिनट के अन्दर। वो अभी भी हैं। यहाँ पर। उसके बाद कभी वो आये नहीं। कभी उन्होंने पता नहीं किया, कुछ नहीं किया। एक दिन मैं बाजार गई थी कोई चीज़ खरीदने, वहाँ मिले। अरे, वहाँ एकदम से पाँव छुआ। मैंने कहा, 'कौन है भाई?' कहने लगे, 'माँ, भूल गए आप?' मैंने कहा, भाई मुझे तो याद नहीं और मुझे याद भी नहीं रहता । असल बात करो।' फिर उन्होंने बताया। बात कहने लगे, 'मैंने आपका फोटो अपने मोटर में भी रखा है। मैंने अपने मन में भी रखा है। आपके शरणागत हँ।' ये है, वो है। मैंने कहा , 'भाई देखो , सहजयोग जो है वो सामूहिक काम है। अकेले का काम नहीं है कि आप घर में ले गये या जंगल में बैठ करके, उसमें नहीं। जहाँ दस लोग बैठेंगे वहीं यह कार्य होने वाला है। तो वही हम रहेंगे। और जहाँ एक अकेला सोचेगा कि माँ को हम हथिया लें तो हम हाथ आने वाले नहीं। ऐसे हमें लोग नहीं चाहिए । वो चाहिए कि जो सब मिल करके काम करें।' और फिर एक साल बाद फिर पहुँचे कि फिर मुझे कोई तकलीफ होने लग गई है। तो मैंने कहा कि, 'अब आ गये आप ठिकाने!' तो कहने लगे कि, 'क्या माँ मुझे सजा मिली है?' तो मैंने कहा कि, 'सजा नहीं है। यह जिस छत्र-छाया में आप बैठते हैं उसको आप छोड़ करके अगर आप गए तो उसे वह छत्र-छाया क्या करेगी? फिर से उस छत्र-छाया में आ जाएं। यह सामूहिक कार्य है।' और इस सामूहिक कार्य को सबको सामूहिक तरीके से करना है। अगर आप चाहें कि माँ का फोटो हम घर ले गए और रोज़ हम आरती, पूजा कर रहे हैं। तो सो बात मुझे मंजूर ही नहीं है। सबको एक होना है। यह बहुत बड़ा सामूहिक कार्य है। सबको मिल-जुल के रहना है। सब भाई-बहन हैं। और हैं कि नहीं, वो। आप उसका साक्षात्कार करियेगा । जो लोग सहजयोग में इस तरह ब्रह्मविद्या को पाते हैं उनके बहुत से प्रश्न दूर हो गए। उनकी तंदुरुस्तियाँ ठीक हो गईं। उनके मन ठीक हो गए। खानदान ठीक हो गए। आपस की रिश्तेदारियाँ ठीक हो गई हैं और सबसे बड़ा कि उनका लक्ष्मी तत्व भी जागरूक हो गया है । इससे बहुत रईस तो कोई भी नहीं होता। इसके कोई सी भी चीज़़ 'बहुत' नहीं होती। 'अतिशयता' तो होती ही नहीं। लेकिन समृद्ध हो गए हैं, समर्थ हो गए हैं, और दूसरों का भला कर रहे हैं। अपने को भी ठीक रखें और दूसरों को भी ठीक रकें। सहजयोग में पार होने के बाद आप लोगों की जागृति कर सकते हैं। और लोगों को पार करा सकते हैं। यह शक्ति आपमें आ जाती है। कोई भी हो, पढ़ा नहीं हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता । कौन साधु-संत लोग पढ़े लिखे थे ! इसको पढ़ने की जरूरत नहीं। यह अन्दर होता है। आजकल संसार में बहुत से बड़े-बड़े लोग जन्म ले रहे हैं। बहुत से बड़े-बड़े जीव जन्म ले रहे हैं और यह लोग सब पैदाइश से पार हैं। और वो जानते हैं कुण्डलिनी का शास्त्र। यहाँ पर भी बहुत से बच्चे ऐसे हैं कि बचपन से ही कुण्डलिनी का शास्त्र जानते हैं। हमारे भी यह है, नातिन है और हमारे चार, जिसमें तीन तो नातिन हैं और एक लड़की का लड़का है। वो भी चारों के चारों पार हैं और बचपन से ही वो कुण्डलिनी का शास्त्र जानते हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी, छ:-छः महीने के बच्चे भी, आपको दिखा देंगे। अभी एक लड़की लाए थे, पार है, छः महीने की। वो बता रही थी कि कौनसा चक्र पकड़ रहा है। बराबर उंगली मुँह में डाल रही थी और बराबर बता रही थी कि कौनसा चक्र पकड़ा है। इतने ज्ञानी लोग आज पैदा हो रहे हैं कि और उनको जानने के लिए ऐसे माँ-बाप बनना चाहिए, ऐसे नाना-नानी और बाबा-दादी बनना चाहिए कि जिससे आप उनको समझ सकें। और बहुत बड़ा काम संसार में होने वाला है और उसकी तैयारी करें। | आज मैं यहीं तक कहूँग और बाद में कभी मौका होगा तो कल्की की बात कहँगी, जो अच्छी नहीं रहेगी इतनी। क्योंकि उसमें फिर आपको समझाने वाला कोई नहीं होगा। उसमें फिर आखिरी सफाई का मामला है। वो समय आने से पहले ही सब लोग पार हो जाएं। जिसके लिए आज तक आपने भगवान को माना उसका साक्षात करें, और आप उसे लें, यही मुझे आपसे विनती है। और मैं माँ के रूप में आपको समझाती हूँ। किसी भी बात का बुरा न मानें और इसे बुद्धि में न बैठाएं, चौखट पर, कि माँ ने ऐसा क्यों कहा, माँ ने वैसा क्यों कहा। मैं एक भी बात झूठ नहीं बोलती हूँ और मुझे आपसे कुछ भी लेने का नहीं। चुनाव भी जीतने का नहीं। मेरा कोई लेना नहीं बन पड़ता। आपको बस देना ही देना है। इसलिये आप इस तरह की बेकार की बातें कभी न सोचना कि माँ ने ऐसे क्यों कहा, वैसे क्यों कहा। माँ को सच बोलना पड़ेगा। हालांकि बहुत मिठास से बता रही हूँ सब बात, लेकिन हो सकता है कि, बुद्धि है न मैंने पहले ही कहा, यह हर चीज़ को पकड़ लेगी, जिससे झगड़ा खड़ा हो और यह आप ही से झगड़ा आप अपना कर रहे हैं, किसी दूसरे से नहीं, क्योंकि आपको अपनी शक्ति पानी है, आपको समर्थ होना है और आपको अपनी आत्मा को जानना है । इसमें कोई शक नहीं। और वही कार्य है और उसके मामले में बेकार के झगड़े अपने ही से मत करें। आपने पढ़ा लिखा होगा, उसको एक तरफ रख दीजिये। सारे पढ़-लिखने से भी ऊँची चीज़ है आत्मा को पढ़ लेना। 'एक ही अक्षर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होए।' यह प्रेम वो नहीं है, अपने बच्चों को प्यार करो, यह प्रेम नहीं है! यह परमात्मा का प्रेम है, जो ब्रह्मशक्ति के रूप में आपमें से बहना शुरू हो जाता है। इसे आप प्राप्त करें । बहुत - बहत धन्यवाद आप लोगों का! अब डाक्टर हो, वैज्ञानिक हो, कोई हो यह चीज़़ सब ज्ञानों से परे है। इसको आप पा लें। उसके बाद आप फिर बात करें । बस ऐसे हाथ करना है सीधे। उसमें कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं। ऐसे सीधे हाथ करके और आप आँख बन्द कर लें, बस। | ---------------------- 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page0.txt सार्वजनिक प्रवचन - ब्रह्म तत्व का स्वरूप नई दिल्ली, १७ फरवरी १९८१ आदर से और स्नेह के साथ आपने मेरा जो स्वागत किया है यह सब देख करके मेरा हृदय अत्यन्त प्रेम से भर आया। यह भक्ति और परमेश्वर को पाने की महान इच्छा कहाँ देखने को मिलती है ? आजकल के इस कलियुग में इस तरह के लोगों को देख करके हमारे जैसे एक माँ का हृदय कितना आनन्दित हो सकता है आप जान नहीं सकते| आजकल घोर कलियुग है, घोर कलियुग। इससे बड़ा कलियुग कभी भी नहीं आया और न आएगा। कलियुग की विशेषता है कि हर चीज़ के मामले में भ्रान्ति ही भ्रान्ति है इन्सान को। हर चीज़ भ्रान्तिमय है। इन्सान इतना बुरा नहीं है जितनी कि यह भ्रान्ति बुरी है। हर चीज़ में, अंग्रेजी में जिसे अजीब कहते हैं, हर चीज़ में जिसे समझ में नहीं आता कि यह बात सही है कि वो बात सही है, कोई कहता है यह करो और कोई कहता है वो करो, कोई कहता है इस रास्ते जाओ भाई, तो कोई कहता है उस रास्ते जाओ। तो कौन से रास्ते जायें? हर मामले में भ्रान्ति है पर सबसे ज़्यादा धर्म के मामले में भ्रान्ति है। पर जो सनातन है, जो अनादि है, वो कभी भी नष्ट नहीं हो सकता, कभी भी नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि वो अनन्त है। वो नष्ट नहीं हो सकता। उसका स्वरूप कोई कुछ बना ले, कोई कुछ बना ले, कोई कुछ ढकोसला बना ले, और कोई कुछ ढकोसला बना ले, कोई उसको पैसे में बेचे, कोई उसको कोई और तरीके से बेचे, कुछ उसका रूप बना लीजिए, लेकिन जो तत्व है वह सनातन है और वो जो तत्व है उसका नाम है ब्रह्मतत्व। इसी ब्रह्मतत्व से सारी सृष्टि की रचना हुई। इस ब्रह्मतत्व को पाना ही जीवन का लक्ष्य है। और दुनिया भर के काम आप करते रहे हैं और करते रहेंगे, अनेक जन्मों में भी किए हैं और अनेक जन्मों में करते रहे हैं और करते रहेंगे। अनेक जन्मों में आपने भक्ति की है और माँगा है कि हमें यह ब्रह्म तत्व प्राप्त हो, यह आज की भक्ति का फल नहीं है और आश्चर्य की बात तो यह है कि इसी घोर कलियुग में ही यह मिलने वाला है। लेकिन पुराण आप पढ़े तो उसमें बहुत साफ तरीके से लिखा है कि इसी घोर कलियुग में ही जब इन्सान दलदल में फंस जायेगा तभी यह चीज़ मिलने की है। इसका मतलब कभी भी यह नहीं कि जो पहले हो चुके हैं, जो द्रष्टा थे, जो साधुसन्त हो गए हैं, जो गुरु हो गए हैं, जो सत्गुरु हो गए हैं और जो कुछ भी हमारे वेद और पुराणों में लिखा है वह झूठ है। एक शब्द भी झूठ नहीं है। और झगड़ा लेकर वो लोग बैठते हैं और बातें करते हैं कि वेद में यह लिखा है और पुराण में यह लिखा है, तो दोनों का मेल कैसे बैठे। यह झगड़े बहुत होते हैं और कोई सनातन बनता है और कोई कुछ बनता है और मुझे हंसी आती है। इसी के बारे में थोड़ी सी आज चर्चा करूंगी क्योंकि यह बड़ा झगड़ा हमारे देश में चल रहा है। हमारे अन्दर तीन तरह की शक्तियाँ विराजती हैं। पहली जो शक्ति है मुख्यत: जो शक्ति है वो है इच्छाशक्ति। अगर परमात्मा की इच्छा ही नहीं होती तो संसार क्यों बनाते। उनकी इच्छाशक्ति के अन्दर से ही बाकी की शक्तियाँ निकली हैं। इसी शक्ति को हमारे सहजयोग भाषा में महाकाली की शक्ति कहते हैं। इसी शक्ति की वजह से आज आप भी भक्ति में रस ले रहे हैं। क्योंकि अन्दर इच्छा ही होती है कि भक्ति में चलें, भक्ति का मजा आ रहा है, भक्ति में रहे, परमात्मा को याद करें, उनको बुलायें। यह मानव ही करता है। जानवर तो नहीं करता, जानवर तो भक्ति नहीं करता। मानव ही करता है। उसके साथ हमारे अन्दर एक दूसरी शक्ति है वो है इच्छा शक्ति को क्रिया में लाने वाली, क्रियान्वित करने वाली शक्ति, क्रियाशक्ति। उसे सहजयोग भाषा में माँ सरस्वती की शक्ति कहते हैं। मैं कोई हिन्दू धर्म सिखा रही हूँ या मुसलमान धर्म सिखा रही हूँ या सिख धर्म सिखा रही हैँ, वो मेरे समझ में नहीं आई । जो बात मैं सिखा रही हूँ वो तत्व की सिखा रही हूँं, वो सब धर्म में एक है। इसलिये कोई भी यह न सोचे कि मैं उन्हीं माँ काली और माँ सरस्वती की बात कर रही हूँ जिसे कि हिन्दू धर्म में लोग 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page1.txt मानते हैं। यदि अच्छा नहीं लगता तो उसको आप क्रियाशक्ति कह लीजिए। लेकिन वो महासरस्वती की शक्ति है। और जो तीसरी शक्ति है वो हमारे अन्दर विराजती है। परमात्मा ने हमारे अन्दर दी हुई है। इसी शक्ति से हम धर्म को धारण करते हैं। धर्म का मतलब यह नहीं कि हम इस धर्म के हैं या उस धर्म के हैं, लेकिन अन्दरूनी धर्म जो हम धारण करते हैं। यानि | अब हम जानवर नहीं, ये तो बात सही है। पहले अमीबा थे। अमीबा से होते होते आज हम मनुष्य बन गए। और यह जो हम मनुष्य बने हैं, इसके दस धर्म हैं। और वह दस धर्म हमारे अन्दर बसते हैं। इसको हम जोड़ के नहीं रखते। संजोया नहीं तो हम धर्मच्युत हो जाते हैं, गिर जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि आप कोई पठन करें या कुछ करें या भाषण सुनें। इसका मतलब है धर्म में आप स्थित रहें । जैसे कि सोने का धर्म है कि उसका रंग खराब नहीं होता। जैसे कि एक कार्बन का है कि उसके अन्दर चार वेलेस्लीज होती हैं। उसी प्रकार मानव का धर्म है। उसके अन्दर दस धर्म हैं। मानव के अन्दर धर्म के प्रति | जाग्रति भी है। यह दस धर्म कोई नाम देने लायक चीज़ नहीं हैं। अब यह दस धर्म को जब हमने बिठा लिया, इस धर्म से ही | हमारी उत्क्रान्ति हुई है, हम अमीबा बने। धर्म हमारे अन्दर बदलते गये। जब इन्सान के धर्म में हम आ गये तो हम इन्सान कहलाने लगे। जैसे कि जानवर को अपा किसी गंदी जगह पर बिठा दीजिये उसको गंदगी नहीं आती। लेकिन इन्सान को गंदगी का मालूम है। वो इन्सान जो है उसका धर्म जानवर से ऊँचा है। अब जो दशा आने वाली है वह धर्म से परे है। अब आपको कोई धर्म का पालन नहीं करना पड़ेगा। आप हो ही जाएंगे धर्म में, धर्मातीत जिसे कहते हैं। और इसी तरह से यह तीन गुण हमारे अन्दर हैं। जैसे कि इच्छाशक्ति से हमारे अन्दर गुण आता है वो तमोगुण और जो क्रियाशक्ति से आता है वो रजोगुण और हमारे धर्म की शक्ति से हमारे अन्दर जो गुण उत्पन्न होता है वो है सत्वगुण। इस प्रकार हमारे अन्दर तीन गुण हैं और इन्हीं तीनों गुणों के हेर-फेर से जिसे अंग्रेजी में permutations and combinations से ही अनेक जातियाँ तैयार हुई हैं। यह क्या है? आप अपने को हिन्दू कहें, ईसाई कें, मुसलमान कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। सब एक चीज़ है। अब देखिये इन्सान में भी कितनी चीज़ें एक जैसी है। सब हंसते एक जैसे हैं, रोते एक जैसे हैं। सिर्फ भाषा का फर्क है। इस वजह से हम समझ नहीं पाते कि सारी सृष्टि चराचर में जो एक ही ब्रह्म तत्व बहुता है, वो ही ब्रह्मतत्व जो उसकी ही भाषा अनेक हो जाती हैं, माने प्याले अगल हों लेकिन उसके अन्दर जो अमृत है वो सब जगह एक ही है। अब झगड़ा लोग यह करते हैं कि प्याले ठीक हैं कि अमृत ठीक है, झगड़ा यह है। असल में दोनों ही ठीक हैं। कुछ-कुछ ऐसे भी प्याले भगवान बना देते हैं कि उसमें पूरा का पूरा अमृत आकर बैठ जाता है। आखिर अमृत भी तो प्याले में ही आयेगा। यही झगड़े की बात है कि लोग प्याला और अमृत को अलग समझते हैं। यानि यही ब्रह्मतत्व को जानने के लिये ही वेद लिखे गये। वेद तब लिखे गये। 'वेद' 'विदु' से होता है। 'विदु' शब्द का मतलब है जानना। और अगर सारे वेद पढ़ करके भी आपने अपने को नहीं जाना तो वेद व्यर्थ हैं। वेद का अर्थ ही खत्म हो गया अगर आपने अपने को नहीं जाना। आप गये और वहाँ आपके बहुत भाषण हुए लैक्चर हुए और आपने अपने को नहीं जाना। आप सिद्ध ही कैसे करेंगे कि परमात्मा है? कोई सिद्धान्त है। आपके पास? आपके बच्चे आजकल यहाँ मन्दिर में नहीं आयेंगे । कहेंगे कि क्या भगवान हैं, कोई सिद्धता नहीं। इसलिये जब अपने को जान लेते हैं तो आपके अन्दर से ही ब्रह्म बहना शुरु हो जाता है। मैं यहाँ आपको वही चीज़ देने आई हूँ। जिसको आप हजारों वर्षों से खोज रहे थे। यह आपकी अपनी ही है। आपकी अपनी ही है, सिर्फ मुझे उसकी कुंजी मालूम है। मैं कुछ अपना नहीं दे रही हूँ। आपका जो है आपको ही सौंपने आई हूँ। आप अपने को जान लीजिये और इस ब्रह्म तत्व को पा लीजिये। यही आत्मसाक्षात्कार है, क्योंकि आत्मा का प्रकाश ही ब्रह्म तत्व है। यही परमात्मा का साक्षात्कार है, क्योंकि आत्मा को जाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। बगैर आँख के आप देख नहीं सकते। उसी तरह जब तक आपने आत्मा को जाना नहीं परमात्मा को जान नहीं सकते। लेकिन मैं अगर कहूँ कि आप आत्मा को जानिये, आत्मा को जानिये, तो आप भी रटें, आप आत्मा को जानिये, आत्मा को जानिये। रटने से नहीं जान सकते। उसको पाना होगा। यह घटना घटित होनी होगी। अपने देश में तीन तरह की व्यवस्था इन तीन चीज़ों से होती है। पहली तो व्यवस्ता यह हुई कि हम इस ब्रह्म तत्व को जानें, 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page2.txt उसके लिये कुछ क्रिया करें, होम करें, हवन करें। निराकार ही को सोच रहे थे इस वक्त। उन्होंने साकार की बात तब नहीं करी। उस वक्त उन्होंने निराकार की बात ही करी कि हम निराकार को जानें । होम करें, हवन करें, ये करें, वो करें, मन्त्र कहें । किसी 6. तरह से जागृति हो जाये। इसके फलस्वरूप संसार में अवतरण हुए। जब आपने अमृत को माना जो कि निराकार है तो वो साकार होकर संसार में आया। उसको आना ही पड़ेगा। अगर साकार नहीं आयेगा तो आप कैसे जानियेगा। जैसे कि एक दीप की लौ देख रहे हैं। दिखने को तो आकार है लेकिन सब तरफ फैली हुई है। उसी प्रकार निराकार साकार नहीं होगा तो आप निराकार को जान ही नहीं सकेंगे । इसलिये संसार में अनेक अवतरण हये। उसमें से श्री विष्णु जी के अवतरण हये हैं। उसकी वजह है कि श्री विष्णु जी ही हमारे अन्दर धर्म की संस्थापना करते हैं। और हमारा उत्क्रान्ति का मार्ग बनाते हैं। इसलिये श्री विष्णु जी की स्थापना हुई इसका मतलब कभी भी नहीं कि शिवजी का कोई महत्व नहीं। बहुत से लोग कहते हैं कि भई , हम विष्णु जी को मानते हैं और शिवजी को नहीं मानते। यह तो भई ऐसा ही हुआ कि हम अपनी नाक को मानते हैं और आँख को नहीं मानते, जब कि वे एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। समझ लीजिये विराट श्री विष्णु जी का सबसे बड़ा स्वरूप है। उसके अन्दर अगर उनका हृदय है तो उसमें शिवजी बसे हैं। और ब्रह्म देव जी हैं। वो उनकी क्रिया शक्ति को सम्भाले हुये हैं। उन्होंने क्रिया करके सारी सृष्टि रची और जब लोगों ने इन पंच महाभूतों को ही, उसी को, सोचा कि उनकी सेवा करने से या उनको जागरूक करने से ही परमात्मा को जानें, तो वो साक्षात्कार परमात्मा के जो विष्णु स्वरूप जी अंग हैं, कहना चाहिए कि विष्णु स्वरूप जो उनके अवतरण हैं, वह हुए। संसार में आप जानते हैं कि दशावतार हये। अब हुए हैं कि नहीं हुए, इसकी सिद्धता देने के लिए हम आये हैं इस संसार में। क्योंकि किसी ने बता दिया इसलिये आपने विश्वास कर लिया । लेकिन यह दस अवतरण हुए हैं और इन्हीं अवतरणों के सहारे ही हमारी उत्क्रान्ति हुई है। याने पहले-पहले सब लोग मछलियों में ही थे। समुद्र में ही जीव धारणा हुई है। सब लोग कहते हैं। और उसके बात कुछ मछलियाँ बाहर की ओर चली आईं। उन मछलियों को पहली बार लाने वाला मत्स्य अवतार हुआ। वो श्री विष्णु का स्वरूप था। उसके बाद आप जानते हैं कि वो दस रूप में आते रहे। यह अगवाई करने का जो कार्य है वो परमात्मा को ही करना पड़ा। यह परमात्मा का कार्य है। उसे मनुष्य नहीं कर सकता। या एक मछली नहीं कर सकती। इस लिये पहले जो अगवाई करने का काम था उसके लिये साक्षात् परमात्मा संसार में अवतरित हुए। इसमें कोई शक नहीं। लेकिन जब लोगों ने दूसरी चीज़ शुरू कर दी, भक्ति। कि परमात्मा तो संसार में अवतार ले रहे हैं तो इसको समझ के | उन्होंने भक्ति शुरू कर दी। तो उसी में लिपट गये वो। माने यह है कि फूल के अन्दर शहद है समझ लीजिये। तो आपको फूल का शहद लेना चाहिए, यह तो बात सही है। लेकिन शहद फूल के बगैर तो नहीं होता। लोगों ने कहा कि भाई, फिर फूल की बात करो। एक शहद की बात करने लग गये, एक फूल की बात करने लग गये। उसके बाद उन्होंने कहा कि, फूल की बात करो । तो फूल ही में अटक गये वह लोग। अपने मन से मूर्तियाँ बनानी शुरू कर दीं । उसकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं करी। उसमें जागृति नहीं दी। उसको कायदे से नहीं बिठाया। और शुरू हो गया| तो अटक गए। तब लोगों ने शुरू किया , बन्द करो भाई , अब निराकार की बात करो। वो कभी निराकार से साकार में जायें , साकार से निराकार में जायें । यह झगड़ा चल गया। और झगड़ा कोई है ही नहीं। एक के बगैर दूसरा नहीं है और दूसरे के बगैर पहला नहीं है। ऐसी सीधी बात है। क्योंकि दोनों ही बातें बन गईं। एक ने फूल की बात करी और एक ने शहद की करी और दोनों ही बातें ही रह गईं। बातें रह गई, बातें ही रह गईं और आज तक बातें ही रह गई हैं। तो दोनों ही बात सही हैं। वो भी सही है, यह भी सही है। उसका खण्डन इसलिये हुआ, उन्होंने खण्डन इसलिये किया कि जब जनसाधारण में देखा कि एक तरफ खूब बहते चले आ रहे हैं तो उनको खींच कर दूसरी तरफ ले आये कि बाबा, यहाँ ठिकाने से बैठो। जब देखा कि इस तरफ बहुत बहते जा रहे हैं तो फिर उनको उस तरफ ले आयें। जो लो रहे हैं वो एक ही इन्सान हैं। उनका नाम है आदिगुरु दत्तात्रेय जी, आदिनाथ हैं, आदि गुरु हैं। वो ही अनेक बार 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page3.txt संसार में आयें और उन्होंने कहा कि, भाई, हाँ ठीक है, अवतरण हये हैं, मानिये इसे। लोग अवतरण को चिपक गये। 'राम , राम, राम'। रास्ते में जा रहे तो 'राम, राम', बाज़ार में जाओ तो 'राम, राम', इधर देखो तो, 'राम, राम'। कोई किसी की अकल नहीं रह गई कि इस तरह से राम का नाम नहीं लेना चाहिए। हर समय राम को आप इतना सस्ता किये दे रहे हैं। उसका भी एक तरीका है। तब फिर उन्होंने कहा कि चलिये यह भी बात बन्द करिये। वो ही उनके यहाँ अनेक अवतरण हुए हैं। उन्होंने अपना ही इसलिये खण्डन किया। वही संसार में राजा जनक के रूप में आये थे। और राजा जनक ने एक नचिकेता को ही आत्मसाक्षात्कार दिया था। राजा जनक के बारे में आप जानते हैं कि उनको लोग 'विदेही' कहते हैं। और उनसे लोगों ने पूछा कि, 'भाई, आपको विदेही कैसे कहते हैं?' नारद ने कहा कि, 'तुमको विदेही कैसे कहते हैं? तुम तो संसार में रहते हो, तुम विदेही हो?' 'कहा बहुत आसान है। भई ऐसा करो शाम को बात करना। अभी तो तुम एक काम करो। एक कटोरे में दूध है। उसे लेकर चलो। और शाम को मुजे बताना।' अब वो दूध का कटोरा ऐसा था कि उसमें दूध छलक जाएगा। परन्तु उन्होंने कहा था कि, एक बूंद भी नहीं छलकना चाहिए, इसी को देखते रहना और छलकना नहीं चाहिए, इसी को देखते रहना और छलकना नहीं चाहिए एक भी बूंद। तब मैं बताऊंगा कि मुझे विदेही क्यों कहते हैं। शाम तक विचारे वो अपने लिये घूम रहे हैं। वो उसके साथ सारी दुनिया में गये और परेशान हो गये। जब शाम को लौटे तो उन्होंने कहा, 'अब तो बताइये मैं तो तंग आ गया सारा दिन इस तरह आपके साथ घूमता रहा।' कहने लगे, 'पहले तो यह बताओ कि तुमने क्या देखा?' उन्होंने कहा, 'क्या देखा! मैं क्या देखता ? मैं तो पूरे समय दूध ही देखता रहा कि गिर न जाए।' कहने लगे, 'मैं शोभा यात्रा में गया। फिर मेरा बड़ा भारी दरबार था और वहाँ नृत्य हुआ, कुछ नहीं देखा तुमने?' कहने लगे, 'कुछ नहीं देखा। राजा जनक ने कहा कि, 'बेटे मेरा यही हाल है। मैं कुछ देखता नहीं हूँ। मैं सारे समय अपने चित्त को देखता रहता हूँ कि कहीं छलक न जाए मेरा सारा चित्त।' यह अवतरण है। राजा जनक भी एक अवतरण है। बहुत बड़े अवतरण हैं। वो इस संसार में गुरू के रूप में आये। इन्हें जिसको कि आज हम लोग सिर फुटीवल करते हैं, मुहम्मद साहब भी वही हैं। कोई अन्तर नहीं। और उनकी जो लड़की थी वो साक्षात् जानकी ही थी। इसकी आपको हम सिद्धता दे देंगे। बेकार में हम।| हाँ अगर मुसलमान खराब हैं तो वो दूसरी बात है। लेकिन मुहम्मद साहब नहीं थे। उन्होंने भी वही बात करी। और फिर जब मुहम्मद साहब ने देखा कि मुसलमान इतने गधे हो गए तब वो संसार में आए और आपको मालूम है कि गुरु नानक के नाम से संसार में उन्होंने कार्य किया। वो सभी निराकार ही की बात कर रहे थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि इन्सान चिपक जाएगा। किसी चीज़ में और उन्होंने हमारे धर्म को हमेशा सम्भाला और आखिरी बार वो आए थे शिरड़ी के साईंनाथ बन कर। ऐसे इनके अनेक अवतरण हये हैं। और यह कोई इन्सान नहीं थे। यह परमात्मा का सबसे अबोधिता का तत्व था, जिसे इनोसन्स कहना चाहिए, उसके अवतरण थे। और उनका जीवन भी उसी तरह से अत्यन्त निष्पाप और निर्मल था। और वो साक्षात् शक्ति उनके साथ या तो बहन जैसी जनक की लड़की सीताजी थीं, मुहम्मद साहब की लड़की फातिमाजी थीं और आपको मालूम है कि गुरू नानक जी की बहन नानकी यह जानकीजी थीं, जो साक्षात थीं । इसमें कोई शंका की बात नहीं है मेरे लिये| लेकिन आपके लिये हो सकती है । लेकिन इसको मैं सिद्ध कर सकती हूँ। क्योंकि जब तक आपके आँख नहीं आती आप इसको नहीं मान सकते, ठीक है। लेकिन आपको आँख देने पर तो मानना ही पड़ेगा कि सफेद सफेद है, झूठ झूठ है। तो किस बात का झगड़ा है फिर। यह तो अंधेरे में ही लोग आपस में एक-दूसरे को मार रहे हैं। एक बार आँख खुलने पर, मैं बताती हूँ आपसे, आप यह सारे संसार की जो सबसे बड़ी माया है उसको पहचान लेंगे । यह सब लोग एक हैं। इनमें कोई अन्तर नहीं। अब जो हमने वेद वगैरह रचे और जिससे हमने पंच महाभूतों का.. हमने कहा, कि पांच महाभूतों को मानिये और उसका उससे करिये। ठीक है, तो निराकार की 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page4.txt बात हो गई। लेकिन साकार भी चीज़ है। भक्ति भी है और साकार परमात्मा राम, श्रीराम, परशुराम। इतना ही नहीं श्रीकृष्ण साक्षात् इस संसार में आयें। अवतरण उन्होंने किया। यह साक्षात श्री विष्णु के अवतरण हैं, इसमें कोई शंका की बात नहीं मेरे लिये। और शिव अवतरण नहीं लेते| शिव का अवतरण नहीं होता। ब्रह्मदेव ने भी एक ही अवतरण लिये हैं। लेकिन शिवजी ने कभी अवतरण नहीं लिया, क्योंकि वो सदाशिव हैं। विष्णु के अवतरण हुए हैं और उन अवतरणों में आपको जान लेना चाहिए कि उन्होंने संसार में आ करके हमें आज मनुष्य बना दिया। उनकी वजह से हम बने हैं। और उन्हीं की वजह से हमने यह भी जाना है कि संसार में अवतार आते हैं । लेकिन श्रीकृष्ण जी ने यह बातें सिर्फ एक अर्जुन से बताईं। एक अर्जुन से बताई। सबसे नहीं बताई। सब जनसाधारण को बताने की बात है। भक्ति का मार्ग चल रहा था। भक्ति में लोग अह्वान कर रहे थे परमात्मा को। और इधर लोग जो हैं वेद में वो लोग जितने भी पंचमहाभूतों को जागरूक कर रहे थे। और एक बहुत गुप्त तरीके से दुसरा जो मार्ग बन रहा था उसमें राजा जनक जैसे लोग प्रयत्न कर रहे थे कि आत्मा का साक्षात्कार हो जाए। लेकिन यह बात गुप्त। श्रीकृष्ण ने यह बात एक अर्जुन से बताई और वह भी घूमा-फिराकर बताई क्योंकि उन्होंने देखा , कि अभी समझ में नहीं आ रही इनके बात। अब गीता पर फिर मैं कभी बोलूंगी। आज तो इतना समय नहीं है। अब जब हमने देखा बाद में कि लोगों में ऐसा है और लोग बेकार में झगड़ा कर रहे हैं तब स्वयं नानक जी संसार में आए थे वो। और उन्होंने सोचा कि मैं ही तो था और मेरी ही जगह अब मेरे ही यह शिष्य लोग अब झगड़ा कर रहे हैं। वो उन्होंने आ करके समझाया कि भाई, क्यों झगड़ा कर रहे हो? वो चीज़ एक ही थी, चीज़ एक ही थी। अब जो यह गुप्त रूप से काम हो रहा था वो उसके बाद। आपको आश्चर्य होगा, बहुत आश्चर्य की बात है कि उस वक्त जो दो बच्चे पैदा हुए थे सीताजी के, वो लव और कुश उन्हें कहते हैं। आपको आश्चर्य होगा और अभी भी आपको पता है कि नहीं, लेकिन हमको तो पता है। आप पता करें, कि दोनों हिन्दुस्तान छोड़ कर उत्तर की ओर चले गये। उसमें से लव जो थे वो कोकेशियस की तरफ गये और जा करके इन्होंने वहाँ राज किया। और इसलिये रशिया वरगैरह में 'स्लाव' कहते हैं, सलव। इसलिये स्लाव कहते हैं उनको। उनकी भाषा ही स्लाव है। और कुश जो थे वो चीन की तरफ गये और उन्होंने अपने को 'कुशान' कहलवाया। पता नहीं, इन लोगों को भी पता है कि नहीं कि लव और कुश की खानदान है और आपस में लड़ रहे हैं, बेवकूफ जैसे। दोनों ही लव और कुश के खानदान हैं। एक स्लाव कहलाते हैं, एक कुशान कहलाते हैं। और दोनों में ही सारे संस्कृत शब्द हैं। जरा बिगाड़े हुए। जैसे वो किसी चीज़ को कहेंगे कि बहत अच्छा है या किसी को मिलेंगे तो नमस्ते करेंगे तो 'खोशे, हरो शिवाय।' उनके इसमें 'प्रवद' कहेंगे, उनके आपने यहाँ सुना होगा न्यूज पेपर 'प्रवद' । वह आपके वेद से 'वद' और 'प्र' माने जिसे कहना चाहिए 'जागरूक'। उनकी सार भाषा में आप देखिये सारा संस्कृत में ही है। इधर मैं चीन गई थी, मुझे अब भी वहाँ के सारे शब्द संस्कृत के बने हैं। लेकिन वो भी नहीं जानते कि हम भाई - बहन हैं। और मूर्ख जैसे लड़ रहे हैं। क्या करें? कौन उनको समझाये कि तुम दोनों जुड़वे भाई के लड़के हो और क्या कर रहे हो? किस चीज़ के लिये लड़ रहे हो? इससे कोई तुम्हारे माँ को सुख होने वाला है ? अब जो यह बीच की धर्म व्यवस्था हमारे अन्दर बनी हुई है जिसमें अवतरण होते गए और बहुत ही गुप्त रूप से कार्य होता गया। तो उस वक्त यही दोनों बेटे इस संसार में बार-बार पैदा उसके बारे में हम लोगों को मालूमात नहीं। लेकिन हुए। झगड़ा करने में हम लोग बहुत होशियार हैं । पर उसकी हमें मालूमात नहीं, क्योंकि इतिहास में कोई इस चीज़ को कोई लिखता और महावीर बन कर आए और हम लोग झगड़ा कर रहे हैं। अरे अगर हिन्दू राम को मानते हैं तो उन्हीं के यह दोनों बेटे है? बुद्ध हैं। झगड़ा किस चीज़ का कर रहे हो तुम ? और फिर भी हम उस चीज़ की आपको सिद्धता दे सकते हैं। अब बहुत से लोगों का यह कहना है कि यह चीज़ किताब में लिखी नहीं। हरेक चीज़ किताब में लिखने की होती भी नहीं। किताब पढ़ कर आप पूरी बात, गीता तो मेरे समझ में बहुत ही थोड़े लोगों के समझ में आई है। उसकी बहुत ही सरल सी बात 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page5.txt है। बहुत ही सीधी सी बात है कि किसी की खोपड़ी में आई ही नहीं। सबके खोपड़ी में से चली गई। तो इसमें यह समझ लेना चाहिए कि मैं जो बात कर रही हूँ उसमें से बहुत सी बातें आपको किताबों में भी नहीं मिलेंगी। क्योंकि मैं जानती हूँ और आपको बता रही हूँ और उसकी मैं आपको सिद्धता दे सकती हूँ कि यह बुद्ध और महावीर जो थे वो कोई और दूसरे नहीं थे। यह श्रीराम के लड़के लव और कुश थे। वो अपने ही थे, कोई पराये नहीं थे। कोई कहते हैं कि हम बुद्ध धर्मी हो गये, हम जैनी हो गये। अरे वो हैं कौन? सब सनातन ही तो हैं। जब आप कहते हैं कि हम सनातनी हैं तो आपको सोचना भी चाहिए कि सनातन का आँचल बहुत बड़ा है। उसके नीचे सब लोग आ गए, कोई छूटने वाला नहीं। यही बुद्ध जब कि आये और संसार में इन्होंने सिखाया कि आप मूर्ति पूजा नहीं करो, यह नहीं करो, वो नहीं करो। क्योंकि लोगों ने मूर्ति पूजा की हद कर दी थी, उन्होंने इसके लिए सिखाया। और फिर देखा कि वो चीज़ छूट कर बुद्ध धर्म इतनी बुरी तरह से फैल गया है और उन्होंने इतनी बेवकूफियाँ शुरू कर दी हैं तो खुद उन्होंने ही इस संसार में जन्म लिया और वो ही हमारे हिन्दू धर्म के संस्थापक, जिन्हें हम मानते हैं, आदि शंकराचार्य जी वो ही थे। यह बुद्ध ही थे। वे फिर से आये अपना खण्डन करने के लिये | क्योंकि इन बुद्ध लोगों को कौन समझाए, कि 'बुद्ध' माने जागरूक। जिसने जान लिया ऐसे कितने बुद्ध हैं? बुद्ध, बेवकूफ। जैसे वो उनसे कहा कि, 'पूजा नहीं करो', तो एक दाँत लेकर के बैठ गये, फलाना लेकर के बैठ गये, और उसी से झगड़ा। इन्सान को कोई न कोई बहाना चाहिए झगड़ा करने के लिये। और सबमें एक ही तत्व है, सबमें एक ही तत्व है। पर झगड़ा पता नहीं क्यों? कैसे ढूँढ़ लेते हैं? कोई न कोई बात झगड़े की ढूँढ़ लेते हैं। आदि शंकराचार्य ने कहा था कि, 'न योगे न सांख्येन', योग, सांख्य से कुछ नहीं होने वाला, माँ की ही कृपा से ही सब कुछ होने वाला है। उन्होंने बहुत बड़ी किताब लिखी थी 'विवेक चूड़ामणि'। पता नहीं आप लोग पढ़ते हैं कि नहीं। पढ़ते होंगे जरूर, क्योंकि आप लोग सनातन धर्मी है। लेकिन जिन्होंने इसकी संस्थापना करी वो तो पढ़ते ही होंगे । इतनी बड़ी किताब विवेक चूड़ामणि लिखने के बाद उन्होंने एक दूसरी किताब लिखी जो 'सौन्दर्य लहरी' है। पता नहीं आप लोग पढ़े होंगे। सारा उसमें माँ का वर्णन है, पूरा । यहाँ तक कि सब उनका आकार-प्रकार, उनका तौर तरीका, उनको कौनसा तेल पसन्द है, सर में कौनसा तेल लगाती हैं। इतना बारीक लिख गये। विवेक चूड़ामणि तो इतनी भारी चीज़ लिख दी और अब यह माँ का वर्णन। यह क्या लिख रहे हैं कहने लगे। उसके सिवाय इलाज नहीं। माँ के सिवाय इलाज नहीं। वो ही सब करेंगी। यह शक्ति का काम है। इसलिये हम सब शक्ति के पुजारी हैं। आज तक आप किसी भी धर्म में रहे, आप सब शक्ति के पुजारी हैं। वेद में माँ को 'ई' करके कहा गया है। 'ई' शब्द से, उसका शब्दों का फर्क है, लेकिन शक्ति को ही पाना है। और शक्ति भी क्या शक्ति है? यह ब्रह्म की शक्ति है। और ब्रह्म क्या है? यह परमात्मा की इच्छा है, और परमात्मा का प्यार है। अगर परमात्मा को आपसे प्यार न होता तो यह सरदर्द को क्यों लेते ? यह सारी सृष्टि बनाना भी एक बड़ा भारी सर दर्द है । इतनी सारी सृष्टि उन्होंने बनाई क्योंकि उनको आपसे प्यार था। और आज भी उसी प्यार में वो चाहते हैं कि आप उनके साम्राज्य में उतरें। यह सारे झगड़े थे। झगड़ों में कुछ नहीं । सबसे बड़ी सनातन बात यह है कि हम ब्रह्म शक्ति से बने हैं और हमें उसको पाना है। और अगर आपने उसे जाना नहीं तो आपने शक्ति को पाया नहीं। .कहने लगे कि, 'वहाँ वारकरी लोग होते हैं। एक-एक महीना, दो-दो महीना पैदल चल कर के जाते हैं। मैं बहत पैदल चल कर जाता था। महीना-महीना पैदल चलता था, वहाँ जाता था। तो मेरा सर ही फोड़ देते थे लोग। और उसमें परेशान हुआ, भगवान नहीं मिले। फिर मैंने सोचा, अब और कोई सा धर्म कर लें । फिर मैंने सब धर्म किये। यह धर्म किया, वो धर्म किया, मेरे हाथ पैर टूट गये। मेरी हालत खराब हो गई। मेरी तन्दुरुस्ती चौपट हो गई। मैंने कहा कि यह कैसा भगवान है। इसको मैं खोज रहा हूँ। और यह मेरी तन्दुरुस्ती ही चौपटा देगा, तो मैं कैसे उसको जानूंगा?' और जब उन्होंने जाना कि हम वहाँ गये हुए हैं तो हमसे मिलने आये और कहने लगे कि, 'माँ अब बताओ मैं क्या करूं ?' मैंने कहा, 'बेकार में तुम इधर से उधर , अपने दल बदलते रहे। अपने माथे पर लिखा हुआ बदलने से कुछ नहीं होता कि मैं फलाना हँ, ठिकाना हूँ। तुम सिर्फ इन्सान हो, पहली बात। और दूसरे तुम परमात्मा के पुत्र हो। तुम आत्मा हो और कुछ नहीं। उसको तुम्हें पाना है।' इस तरह से अपने ऊपर बन्धन मत मारो। लड़ाई-झगड़े होते हैं। आत्मा ही सनातन है, उसको पाना है, आत्मा ही एक चीज़ है जिसे पाना है। 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page6.txt सबने यही कहा है कि क्यों भाई, इधर-उधर भटकते हो। अपने ही अन्दर खोजो, अपने ही अन्दर आत्मा है। जब आत्मा को पाइयेगा तभी आपको पता होगा कि इन सब मूर्तियों का भी क्या अर्थ है? यह क्या चीज़ है?और इसका हमारे अन्दर स्थान कहाँ है? उनको जागरूक कैसे करना है? इनको जागरूक कैसे करना है? इनकी प्राण प्रतिष्ठा कैसे करनी है? तो सिर्फ ब्रह्म की बात ही नहीं है। ब्रह्म को पाना है और उसके बाद इस सारी ब्रह्मविद्या को आपको पूरी तरह से जान लेना है। है। सारी ब्रह्म विद्या आप जान जाएंगे| यही सहजयोग है। इसको सहज कहते हैं क्योंकि सहज आपके साथ पैदा हुआ आपके अन्दर कुण्डलिनी शक्ति है, जो आपके साथ पैदा हुई है। यह जीवन्त है । कोई मरी हुई चीज़ नहीं है, जीवन्त है । जैसे कि अंकुर होता है उस तरह से वो आपके अन्दर स्थित है। वो जागरूक हो जाती है। और वो जागरूक होने के बाद आपके अन्दर से ठण्डी-ठण्डी हवा जैसे चैतन्य की लहरियाँ, जिसका वर्णन आदि शंकराचार्य आदि सबने किया हुआ है, ईसामसीह ने भी किया है, वह बहने लग जाती है। तो आप अपनी शक्ति को प्राप्त होके और उसके बाद इस ब्रह्म को प्राप्त होने के बाद।| यह ब्रह्मविद्या आपको जाननी है | हिन्दुस्तान में भी सहजयोग बहुत जोर से फैल रहा है। लेकिन उसका ज़्यादा हिस्सा महाराष्ट्र में बहुत ज़्यादा चल रहा है। इसकी वजह यह है कि सन्तों की भूमि है, और वहाँ लोगों ने सन्तों को भुलाया नहीं। वामपंथियों ने बड़ी मेहनत करी है। आपके यहाँ भी गुरु नानक और कबीर जैसे बड़े-बड़े सन्त हये। लेकिन हम लोगों ने उनको माना नहीं असल से। दक्षिण में महाराष्ट्र में ऐसी बात है कि न जाने कैसे क्यों मेरी यह समझ नहीं आता कि हो सकता है रामचन्द्र जी वहाँ पैदल चल कर गए थे, सीता जी के भी वहाँ चैतन्य फैले हुए हैं। लेकिन लोगों में जरा इस मामले में गहराई है । वो इस बात को जानते हैं। और ज्ञानेश्वर जी ने बहुत साफ-साफ लिखा था कि कुण्डलिनी नाम की शक्ति हमारे अन्दर है। और वो अम्बास्वरूप माताजी जब होंगी तभी आपको उसकी प्राप्ति हो सकती है, आदि अनेक चीज़ें उन्होंने लिख कर रखी हैं। शायद इसी वजह से वो इससे जागरूक हैं। इंग्लैण्ड में भी लोग बहुत जागरूक हैं, क्योंकि इंग्लैण्ड में बड़े भारी 'विलियम ब्लैक' करके कवि हुए हैं। उन्होंने लिखा है कि वो समय आयेगा जब इंग्लैण्ड में यह कार्य शुरू होगा। और उन्होंने यहाँ तक कि हमारे आश्रम की जगह तक लिख दी। जहाँ मैं रहती हूँ उस जगह का नाम भी लिख दिया। लेकिन मैं यह नहीं कहँगी कि यहाँ सन्तों ने मेहनत नहीं करी। सन्तों ने बड़ी मेहनत करी है। बिहार में मैं गई थी। बिहार में देखा कि सारा का सारा चैतन्य भरा पड़ा है। बंगाल में, पंजाब में सारा चैतन्य भरा पड़ा हुआ है। पंजाब तो ऐसा चैतन्य से भरा है । लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि देश विभाजन हो गया तो क्या हो गया ? पता नहीं, लोगों की श्रद्दा ही टूट गई है। और श्रद्धा में एक तरह की नरमाई आ गई। और उसकी वजह से मनुष्य इस ओर नहीं जाता कि उसको पाना है। वो उच्छृंखल है। थोड़ी देर के लिये वो भगवान के पास आ गया, वो सोचता है बहुत हो गया। रास्ते चलते कोई भगवान मिल गया तो सोचता है बहुत हो गया। उसके बाद उनकी अपनी दूसरी परवाह लगी रहती हैं। उसमें कुछ मेहनत करनी पड़ेगी। कुछ उसके प्रति वाकई श्रद्धा से लगना पड़ेगा। उधर ध्यान देना होगा। इसलिये मैं देखती हूँ कि जितना फैलाव होना चाहिए उतना होता नहीं है। लोग इस पर श्रद्धा से बैठते नहीं। मेहनत करते नहीं । लेकिन मुझे बड़ी खुशी हुई कि पिछली मर्तबा मैं आई थी और इस मर्तबा भी आप लोगों ने मुझे यहाँ बुलाया और इतनी श्रद्धा के साथ आप लोगों ने मेरी बातचीत सुनी है। और इसे पा भी लीजिए। पूरी तरह से पाकर के मैं तो चाहँगी कि यहाँ पर आप कभी भी चाहें यहाँ पर हमारे बहुत से सहजयोगी लोग रहते हैं जिन्होंने इस चीज़ को माना है और पाया हुआ है। यहाँ पर बहुत से लोग ऐसे हैं जो कि यह जानते हैं, ब्रह्मविद्या को भी। उनसे भी आप लाभ उठा सकते है। बस इतना जानना है कि इसमें कोई पैसा और कोई चीज़ नहीं चाहिए। परमात्मा को आप पैसे से नहीं खरीद सकते। और जब पाने की बात है तब तो आपको कोई मेहनत भी नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन पाने के बाद संजोना पड़ता है। उससे पहले आपको कोई भी मेहनत नहीं करनी। उसके पहले ही आपके पास है, सहज । इसलिये हो जाता है। | पर आज सहजयोग 'महायोग' की स्थिति में आ गया है क्योंकि पहले सहजयोग जो था जनक के समय में तो एक 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page7.txt नचिकेता के ही लिये बना था। उसके बाद एक दो फूल आये, फिर तीन-चार और फूल आये। लेकिन आज समय है वो | 'बहार' आ गई है। और इस बहार में अनेक फूल फल होने वाले हैं। सिर्फ आप अपनी तह तक, आप अपनी गहराई तक उतरिये। असल में होता क्या है कि अब देखो कि यह औरतें चली जा रही हैं। इसका क्या मतलब हैं? कि इनमें गहराई नहीं है बिल्कुल! चीज़ को पा लो मैं कहती हैँ। पा करके थोड़ा उसमें गहरे उतरो । थोड़ी सी गहराई में उतरना चाहिए। और उस गहराई में आपका सारा पूर्वजन्म का पुण्यकृत है। उसमें आप फिर समाइये। पहले थोड़ी सी मेहनत करके गहराई में आप उतर जाइये । | और उसके बाद वहाँ जो पूर्वसंचित जितना कुछ है उसे आप पाइयेगा। लेकिन इस तरह से लोग क्या हैं? एक माताजी का भाषण सुन गये, दूसरे का सुन गये। इस तरह से जो लोग करते है ऐसे लोगों के लिये सहजयोग नहीं है। पर इसका नुकसान बाद में होगा। अभी इसके जो फायदे हैं उनको लेना चाहिए। इससे अनेक फायदे होते हैं। उनका लड़का एकदम पागल जैसा था। वो अभी यहीं है। उसका पागलपन एकदम ठीक हो गया। कितने ही लोग हैं यहाँ दुनिया में जिनको लाभ हुआ है, जिनकी तन्दुरुस्ती ठीक हो गई। क्योंकि यह सारे सात चक्रों में सारे ही देवता विराजते है। वो जागरूक हो जाने से उनका आशीर्वाद मिलता है। आपके हर तरह के प्रश्न हल होंगे जब कि आप योग में उतरेंगे। कृष्ण ने भी कहा है कि 'योगक्षेम वहाम्यहम्'। योग से पहले आप भगवान से कहें भगवान यह कर दो, वो कर दो। आपका सम्बन्ध ही नहीं है भगवान से, तो क्षेम कैसे होगा। फिर आप कहें कि मैं भगवान से गिड़गिड़ाता रहा। भगवान ने मेरा काम ही नहीं किया। पहले आप 'योग (कनेक्शन)' करवा लीजिए। योग के बाद फिर आपको कहना भी नहीं पड़ेगा कि फिर क्षेम, क्योंकि आप उनके साम्राज्य में आ गये। आप उनके नगर के वासी हो गए तो वो आपको सम्भालेंगे और देखेंगे। और देखते ही यहाँ हरेक सहजयोगी आपको बताएगा, एक-एक आदमी अगर लिखने जाए तो पोथी लिख के रख सकता है क्योंकि कितने चमत्कार हुए हैं । ऐसे-ऐसे दूर्घटनायें हुई हैं कि लोग ८०-८० फुट से गिर गए और जैसे कि किसी ने उठा लिया हो। बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो गई हैं। वो सब बताने बैठू तो उसका कोई अन्त ही नहीं। आज आपके मंदिर में परदेस से भी बहुत लोग आ गये हैं। यह गणेश की पूजा कर रहे हैं और यह शिवजी की पूजा कर रहे हैं और यह विष्णु जी की पूजा कर रहे हैं। इसलिये नहीं कि मैंने उनसे कहा। इसलिये क्योंकि वो जान गये हैं कि यह बात सही है। वो जान गये हैं। उनके अंदर जो चीज़ है उसे जान गए हैं। उंगलियों पे आप महसूस कर सकते हैं कि आपके कौन से चक्र पकड़े हुए हैं। और उन चक्रों पर कौन से देवता हैं। उनको आप जान सकते हैं और पूछ सकते हैं, यह देवता हैं या नहीं। इतना ही नहीं आप लोग जब मुहम्मद साहब को जानेंगे, ईसामसीह को जानेंगे। जिन्होंने अब तक कुछ नहीं जाना वो और जान जाएंगे। और यह लोग जितना जानते हैं आप लोग नहीं जानते। वजह यह है कि इन लोगों में और हमारे में फर्क है। हम योग भूमि में रह रहे हैं। भारतवर्ष की जो छत्र-छाया है उसमें हम लोग झट से पार हो जाते हैं। कोई समय नहीं लगने वाला। आप सबके सब बहुत जल्दी पार हो जाएंगे, मुझे मालूम है। मैं जानती हूँ एक क्षण भी नहीं लगने वाला। लेकिन चलने वाला नहीं वो। क्योंकि जो चीज़ आसानी से मिल जाती है उसकी कदर नहीं होती। और इन लोगों के एक-एक पर मैंने तीन-तीन महीने हाथ तोड़े। तो इनको बड़ी कदर है। यह गहराई में उतर गए हैं। यह गहराई में उतर गए हैं। उसको इन्होंने बिल्कुल ब्रह्मविद्या को साक्षात पा लिया है। तो जो भारतीय, जो कि अनेक जन्मों से पुण्य से इस भारत वर्ष में पैदा हुआ है, वो इनसे कम पड़ जाता है । और यह पुण्य आपके पास बहुत है। क्योंकि आप अपनी गहराई नहीं छू पाते। यह मैं आपसे पहले ही आगाह ( सचेत) करती हूँ कि पार करने को तो मैं कर दूँगी, लेकिन आगे का आपको देखना होगा । आगे जो मेहनत है वो आपको करनी पड़ेगी। अगर नहीं करी तो 'जो पाया सो खोया' होता है अनेक बार। अनेक लोगों का ऐसे होता है। मैंने देखा है एक साहब आए थे और चिल्लाने लग गए, एक बड़े भारी आगन में प्रोग्राम हो रहा था, 'माताजी, माताजी, मेरे तो अन्दर से तो बहुत आग निकल रही है। मेरे अन्दर से, मैं मर रहा हूँ। आप मुझे ठीक करिये। सारे बदन में फाले और न जाने क्या-क्या है।' मैंने कहा, 'अच्छा आपके यहाँ आते हैं।' बहुत भीड़ थी उनके यहाँ, वहाँ। करते-करते उनके पास पहुँचे | 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page8.txt हम। उनकी कुण्हलिनी जागरूक करने से पाँच मिनट में उनका सब कुछ ठीक हो गया। पाँच मिनट के अन्दर। वो अभी भी हैं। यहाँ पर। उसके बाद कभी वो आये नहीं। कभी उन्होंने पता नहीं किया, कुछ नहीं किया। एक दिन मैं बाजार गई थी कोई चीज़ खरीदने, वहाँ मिले। अरे, वहाँ एकदम से पाँव छुआ। मैंने कहा, 'कौन है भाई?' कहने लगे, 'माँ, भूल गए आप?' मैंने कहा, भाई मुझे तो याद नहीं और मुझे याद भी नहीं रहता । असल बात करो।' फिर उन्होंने बताया। बात कहने लगे, 'मैंने आपका फोटो अपने मोटर में भी रखा है। मैंने अपने मन में भी रखा है। आपके शरणागत हँ।' ये है, वो है। मैंने कहा , 'भाई देखो , सहजयोग जो है वो सामूहिक काम है। अकेले का काम नहीं है कि आप घर में ले गये या जंगल में बैठ करके, उसमें नहीं। जहाँ दस लोग बैठेंगे वहीं यह कार्य होने वाला है। तो वही हम रहेंगे। और जहाँ एक अकेला सोचेगा कि माँ को हम हथिया लें तो हम हाथ आने वाले नहीं। ऐसे हमें लोग नहीं चाहिए । वो चाहिए कि जो सब मिल करके काम करें।' और फिर एक साल बाद फिर पहुँचे कि फिर मुझे कोई तकलीफ होने लग गई है। तो मैंने कहा कि, 'अब आ गये आप ठिकाने!' तो कहने लगे कि, 'क्या माँ मुझे सजा मिली है?' तो मैंने कहा कि, 'सजा नहीं है। यह जिस छत्र-छाया में आप बैठते हैं उसको आप छोड़ करके अगर आप गए तो उसे वह छत्र-छाया क्या करेगी? फिर से उस छत्र-छाया में आ जाएं। यह सामूहिक कार्य है।' और इस सामूहिक कार्य को सबको सामूहिक तरीके से करना है। अगर आप चाहें कि माँ का फोटो हम घर ले गए और रोज़ हम आरती, पूजा कर रहे हैं। तो सो बात मुझे मंजूर ही नहीं है। सबको एक होना है। यह बहुत बड़ा सामूहिक कार्य है। सबको मिल-जुल के रहना है। सब भाई-बहन हैं। और हैं कि नहीं, वो। आप उसका साक्षात्कार करियेगा । जो लोग सहजयोग में इस तरह ब्रह्मविद्या को पाते हैं उनके बहुत से प्रश्न दूर हो गए। उनकी तंदुरुस्तियाँ ठीक हो गईं। उनके मन ठीक हो गए। खानदान ठीक हो गए। आपस की रिश्तेदारियाँ ठीक हो गई हैं और सबसे बड़ा कि उनका लक्ष्मी तत्व भी जागरूक हो गया है । इससे बहुत रईस तो कोई भी नहीं होता। इसके कोई सी भी चीज़़ 'बहुत' नहीं होती। 'अतिशयता' तो होती ही नहीं। लेकिन समृद्ध हो गए हैं, समर्थ हो गए हैं, और दूसरों का भला कर रहे हैं। अपने को भी ठीक रखें और दूसरों को भी ठीक रकें। सहजयोग में पार होने के बाद आप लोगों की जागृति कर सकते हैं। और लोगों को पार करा सकते हैं। यह शक्ति आपमें आ जाती है। कोई भी हो, पढ़ा नहीं हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता । कौन साधु-संत लोग पढ़े लिखे थे ! इसको पढ़ने की जरूरत नहीं। यह अन्दर होता है। आजकल संसार में बहुत से बड़े-बड़े लोग जन्म ले रहे हैं। बहुत से बड़े-बड़े जीव जन्म ले रहे हैं और यह लोग सब पैदाइश से पार हैं। और वो जानते हैं कुण्डलिनी का शास्त्र। यहाँ पर भी बहुत से बच्चे ऐसे हैं कि बचपन से ही कुण्डलिनी का शास्त्र जानते हैं। हमारे भी यह है, नातिन है और हमारे चार, जिसमें तीन तो नातिन हैं और एक लड़की का लड़का है। वो भी चारों के चारों पार हैं और बचपन से ही वो कुण्डलिनी का शास्त्र जानते हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी, छ:-छः महीने के बच्चे भी, आपको दिखा देंगे। अभी एक लड़की लाए थे, पार है, छः महीने की। वो बता रही थी कि कौनसा चक्र पकड़ रहा है। बराबर उंगली मुँह में डाल रही थी और बराबर बता रही थी कि कौनसा चक्र पकड़ा है। इतने ज्ञानी लोग आज पैदा हो रहे हैं कि और उनको जानने के लिए ऐसे माँ-बाप बनना चाहिए, ऐसे नाना-नानी और बाबा-दादी बनना चाहिए कि जिससे आप उनको समझ सकें। और बहुत बड़ा काम संसार में होने वाला है और उसकी तैयारी करें। | आज मैं यहीं तक कहूँग और बाद में कभी मौका होगा तो कल्की की बात कहँगी, जो अच्छी नहीं रहेगी इतनी। क्योंकि उसमें फिर आपको समझाने वाला कोई नहीं होगा। उसमें फिर आखिरी सफाई का मामला है। वो समय आने से पहले ही सब लोग पार हो जाएं। जिसके लिए आज तक आपने भगवान को माना उसका साक्षात करें, और आप उसे लें, यही मुझे आपसे विनती है। और मैं माँ के रूप में आपको समझाती हूँ। किसी भी बात का बुरा न मानें और इसे बुद्धि में न बैठाएं, चौखट पर, कि माँ ने ऐसा क्यों कहा, माँ ने वैसा क्यों कहा। मैं एक भी बात झूठ नहीं बोलती हूँ और मुझे आपसे कुछ भी लेने का नहीं। चुनाव भी जीतने का नहीं। मेरा कोई लेना नहीं बन पड़ता। आपको बस देना ही देना है। इसलिये आप इस तरह की बेकार की बातें कभी न सोचना कि माँ ने ऐसे क्यों कहा, वैसे क्यों कहा। माँ को सच बोलना पड़ेगा। हालांकि बहुत मिठास से बता रही हूँ सब 19810217_Sarvajanik Karyakram - Brahma tatwa ka Swarup_Delhi_H_TC.pdf-page9.txt बात, लेकिन हो सकता है कि, बुद्धि है न मैंने पहले ही कहा, यह हर चीज़ को पकड़ लेगी, जिससे झगड़ा खड़ा हो और यह आप ही से झगड़ा आप अपना कर रहे हैं, किसी दूसरे से नहीं, क्योंकि आपको अपनी शक्ति पानी है, आपको समर्थ होना है और आपको अपनी आत्मा को जानना है । इसमें कोई शक नहीं। और वही कार्य है और उसके मामले में बेकार के झगड़े अपने ही से मत करें। आपने पढ़ा लिखा होगा, उसको एक तरफ रख दीजिये। सारे पढ़-लिखने से भी ऊँची चीज़ है आत्मा को पढ़ लेना। 'एक ही अक्षर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होए।' यह प्रेम वो नहीं है, अपने बच्चों को प्यार करो, यह प्रेम नहीं है! यह परमात्मा का प्रेम है, जो ब्रह्मशक्ति के रूप में आपमें से बहना शुरू हो जाता है। इसे आप प्राप्त करें । बहुत - बहत धन्यवाद आप लोगों का! अब डाक्टर हो, वैज्ञानिक हो, कोई हो यह चीज़़ सब ज्ञानों से परे है। इसको आप पा लें। उसके बाद आप फिर बात करें । बस ऐसे हाथ करना है सीधे। उसमें कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं। ऐसे सीधे हाथ करके और आप आँख बन्द कर लें, बस। |