रु् ॐ fनिर्मला योग वर्ष । पक 5 जनवरी-फरवरी-1983 द्विमासिक पुढ़ 1 ए रि ॐ मेव सक्षात. श्री कल्क्री साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी. मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निरमला देवी नमो नमः ॥ पन धरती माता से क्षमा याचना ! है धरा वसुन्धरा माँ । क्षमा करो हे, क्षमा ।। हे भूदेवी ! हे जननी । क्षमा करो, हे माँ ॥ हे जन्मदात्री ! पालनकत्त्री माँ । हे माँ॥ क्ष मा करो, हे जीवनधारिणी ! आश्रयदायिनी माँ । क्षमा करो, हे माँ ॥ क्षितिज मिलता गगन पर । तू गगनांगन है, तू जीवन का प्राङ्गण है ।॥ उगता है सूरज, बहता है समीर । तुझे सजाने, तुझे संवारने के लिये ।। निशि में नभमण्डल पर चमकते । नक्षत्र तारे, तुझे बहलाने के लिये || वन, उपवन, वाटिका, तेरे ही हैं गहने । कलकल करती नदियाँ, करतीं तेरा हो गुरगगान है।। पक्षियों का कलरव, जीवन की ध्वनि । तेरी ही तान हैं ॥ हे पवित्रता की मृर्ति ! सहजता की जननी । तुझे मेरा शत्-शत् प्रणाम है । हे पृथ्वी माँ ! क्षमा करो, क्षमा करो । क्षमा करो, हे माँ ॥ %3D -एक बालक धरती माँ का ज सम्पादकीय सर्वमंगल मंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये व्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।। सष्टि स्थितिविनाशानां शक्ति भुते सनातनि । गुणाश्रेय शरणागतदीनात्तपरित्राणपरायणे ।| गुरगमेय नारायणिण नमोऽस्तुते सर्वस्यात्तिहरे देवि नारायरिण नमोऽस्तृते ।॥ श्रीदुर्गासप्तशती माँ, तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करने वाली मङ्गलमयी हो, कल्याणदायिनी शिवा हो, सभी पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो, तुम्हें नमस्कार है । तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुरणों का आधार तथा सर्व- गुणमयी हो। नारायरिण, तुम्हें नमस्कार है । शरण में आये हुए दोनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायरिण देवि तुम्हें नमस्कार है ।। श्री नारायरिंण साक्षात् श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देवी नमो नमः । सर्वस्वरूपिणि साक्षात् ॐ त्वमेव साक्षात् निर्मला योग १ निर्मला योग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली- ११०००७ संस्थापक : परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी : डॉ शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र श्री आर०डी०कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा :श्री मार्क टेलर श्रीमती क्रिस्टाइन पेट नीया २२५, अदम्स स्ट्रीट, १/ई. ब्र कलिन, न्यूयार्क-११२०१ यू.एस.ए. १६५० ईस्ट फ़िफ्थ एवेन्यू वैन्क्रवर, बी.सी. कनाडा- वी ५ एन. १ एम २ यू.के. श्री गेविन ब्राउन ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़रमेंशन सविसे ज लि., नाथ गावर स्ट्रीट लन्दन एन.डब्लू. १ २ एन.डी. भारत श्री एम० बी० रत्नान्नवर १३, मेरवान मेन्सन गंजवाला लेन, बोरीवली (पश्चिमी) बम्बई-४०००४२ १६० श्री राजाराम शंकर रजवाड़े ८४०, सदाशिव पेठ, पुरण-४११०३० इस अंक में : पृष्ठ १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. माताजी द्वारा फ़ान्स में दिये गये बक्तव्य का हिन्दी रूपान्तर ४. प. पू. माताजो का पत्र ५. बिकमिंग ६. प. पू. माताजी का पत्र ७. श्री शिव के १०८ नाम १ २ ३ १० ११ १६ २१ ८, एक सहजयोगी का पत्र &. त्योहार २४ २४ निमला योग २ ले रेन्स, फ्रान्स में ५ मई १६८२ को सहत्रार पूजा दिवस के शुभावसर पर माताजी श्री श्री श्री निर्मला देवी जी द्वारा दिये गये वक्तव्य का हिन्दी रूपान्तर आज का शुभ दिन हुम सब जिज्ञासुवृत्ति वाले है अथवा खोला जाता है, उस समय समस्त वाता- भक्तों के लिये प्रत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि 5 मई वरण अत्यधिक चैतन्यता से भरपूर हो जाता है । 1970 के दिन हो उस महान शाश्वत एवं सनातन और समस्त आकाश में अत्यन्त ज्योतिर्मय उजाला जीवात्मा के अन्तिम चक्र को खोलने का प्रभुत कार्य फैल जाता है और फिर सम्पूर्ण वस्तु घरती पर आ उस दिव्यात्मा द्वारा सम्पन्न किया गया था। यह जाती है । यह इस तीव्रता से आती है जैसे मूसला- विश्व भर की समस्त आध्यात्मिक घटनाओं से घार बर्षा पड़ रही हो [अथवा एक जलप्रपात पूर्ण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसको अत्यन्त सतकंता से वेग से चल रहा हो। हम अनजाने में ही हतबुद्धि सावधानी पूर्वक सामन्जस्य एवं तारतम्य के साथ हो स्तब्ध रह जाते हैं । इस घटना की तीव्रता इतनी सम्पन्न किया गया है । यह तथ्य मानव प्राणी की अधिक मात्रा में तथा इतनी अ्कस्मिक थी कि मैं बुद्धि और समझ के बाहर है अर्थात् मानवीय सूझ- उसकी श्रेष्टता एवं महत्वपूर्ण ऐश्वर्य से चकित बुझ की मर्यादा (सीमा) के बन्धन में नहीं है कि होकर स्तब्ध, निश्चेष्ट एवं शान्त रह गई। मैंने स्वर्ग में कामकाज किस प्रकार से होता है । यह सनातन कुण्डलिनी को ज्वलन्त विशाल अग्निकुण्ड आप लोगों का सौभाग्य औ्और ईश्वर का अतुल प्रेम की तरह उत्थान करते हुये देखा था और वह भट्टी है कि जिसके द्वारा ये आक्चर्य चकित चमत्कार अत्यन्त शान्तावस्था घटित होते हैं। इस घटना के घटित हुये बिना एवं प्रज्वलित आकार धारण किये हुये थी, जैसे लोगों को सामूहिक रूप से साक्षात्कार प्रदान किया किसी घातु को अत्यन्त गर्म करने से बह बहुरंगी जाना सम्भव नहीं था। यहाँ या वहाँ केवल एक या वन जाती है । इसी प्रकार कुण्डलिनी भी एक सुरंग दो व्यक्तियों को ही जागृति प्रदान की जा सकती थी जेसी भट्टी या अ्रग्निकुंड के सदृश दिखाई पड़ती है। प्रन्तु उस दशा में सामूहिक रूप से जागृति दिये जाने जैसे आप इन पौधों को देखते हैं जो कोयले को का कार्य सम्भव नहीं हो सकता था। जानते हैं सहस्रार में सात प्रधान चक्रों की सीटे हैं और यह एक टेलिस्कोप की तरह आसन) वर्तमान हैं । मानव शरीर के अन्दर एक और एक के पश्चात एक आयो-शूट, शूट, शूट कुछ सहस्र नाड़ियाँहैं जिनको पलेम्स के नाम से पूकारा जाता इसी तरह से और देवतागरण पधारे और उन्होंने है और वे सब की सब प्रत्येक सोलह हजार शक्तियाँ अपने २ स्थान पर आसन जमाये, ये सुनहरी आसन धारण करती हैं। प्रत्येक नाड़ी विशिष्ट प्रकृति के और उन्होंने समस्त शिरभाग को की भांति मनुष्य के साथ व्यवहार करती है। इन सब नाहियों ऊपर उठा लिया शऔर इसको खोल डाला और के परिवर्तन से, और संयुक्तता से हो मानव जीव फिर इस मूसलाधार वर्षा ने मुझे पूर्णतया भिगो कर की देखभाल की जाती है। जैसे ही सहर्रार खुलता तर-बतर कर दिया । मैं यह सब देखती की देखती में थी, परन्तु जाजल्यमान जलाने के लिये रखते हैं। ये विद्युत उत्पादन करते से फैलाव में हैं जैसा कि आप 1. गुम्बद निर्मला योग ३ रह गई और आनन्दोल्लास में खो गई। यह दूश्य (यह स्थायित्व) एक आदर्शभय स्थिति है परन्तु उस विल्कुल बैसा ही था जैसे कोई कलाकार अपनी शान्त चुप्पी के पशचात् आप करुणा और प्रेम रचना को देख रहा हो। मैंने महान सिद्धि को वाहल्य से ओत-प्रोत हो जाते हैं और आप उन लोगों उपलब्धि का आनन्द लिया । इस हपोल्लास के की ओर पकर्षित किये जाते हैं जिन्हें प्रभी तक यह सुन्दरतम अनुभव के पश्चात बाह्य अवस्था में आकर ज्ञात नहीं हुआ है कि [अखेि] क्या हैं ? (इस तथ्य का मैंने चारों ्र प्रवलोकन किया और पाया कि जीव- बोध कराने के लिये हो उन्हें इन अनजान लोगों की प्रोर खींच लाया जाता है ।) तत्पश्चात आप पड़े हैं और मैं प्रत्यन्त शांतावस्था में आ गई और अपना ध्यान लाखों लोगों के सहस्रार पर लगाने के तुरन्त इच्छा व्यक्त की कि मुझे अपने प्याले अमृत से प्रयास में जुट जाते हैं, फिर आप उन समस्याओं । को जो सहस्रार में वर्तमान होती हैं, देखना प्रारम्भ कर देते हैं। यदि आप सहस्रार को खोलने की आपकी जीवात्मा का सुन्दरतम भाग सेहलार इच्छा करते हैं जो एक अत्यन्त कठिन कार्य है, है। यह बृहत सहख्रदल कमल ब विध रंगों से कयोंकि दिव्पता की धारा को मानव जीवधारियों विभूषित और फूले हये अंगारों के सदृश दिखाई देते में प्रवाहित किया जाना मानव जीवधारियों के ही हैं। यह एक ऐसी वस्तु है जिसका अवलोकन बहुत माध्यम से सम्भव होता है। यह शक्ति बरापके अन्दर से लोगों ने किया है, परन्तु इस मूसलाधार वर्षं की विच्यमान हो सकतो है परन्तु इस धारा का प्रवाह गिरता हआरा देखने का दृश्य बिल्कुल वेसा ही है मानव जीवधारी के माध्यम से ही किया जाता है । जैंसा ये अंगारे फब्वारा बनाते हैं और बहुरगा बहुत धारी मानव कितने अन्वे हैं अर्थात् कअन्धकार में डूबे परिपूरित करने चाहिये, सारे रोड़़े पत्थर ही नहीं अपने समस्त जीवनकाल की अवधि में, मैं रंगीन फब्वारा । एकु सुगन्धि को फद्वारा; जब्र सी उद्बुद्ध आत्माओं (realised souls) को नहीं फैलाते आप एक फूल को रंग प्रदर्शन और सुगन्ध जान पाई है। उनको केसे पाया जायें ? उनका पार श्पने विचार में लाते हैं । लोगों ने सहस्रार के कैसे पाया जाये ? इसको किस प्रकार से सम्पन्न सम्बन्ध में बहुत ही कम लिखा है क्योकि उन्होंने किया जाये ? अत: मैंने लोगों की तलाश शुरू की जो भी कुछ देखा है वह वाह्य रूप से देखा है और और मुझे एक सत्तर वर्षीया बृद्धा मिली जो उनके लिये यह सम्भव भी नहीं है कि वे इसे किसी के लिये प्रत्थन्त आकुल-ब्याकुल थी। जब बह आन्तरिक रूप से देख पा सक । यदि आप अन्दर से मेरे सान्निध्य में अराई तो उसे पूरणं शान्ति का पहुँच पा भी जायं और समस्त सहस्रार खुला हुआ अनुभव हुआ। उसका सहस्र्रार बहुत थका मान्दा, नहीं है, तब उस स्थिति में अाप उसकी सुन्दरता घिसा विटा सा था औोर मेरे सहचर्य में, वह किसी अन्य कुछ के बारे में त्िचार कर रही थी परन्तु सारी बन्द कर दिया जाता है तब आप इसकी आत्मा के सम्बन्ध में नहीं, और उसका मस्तिष्क झिरी में से गुजर कर बाहर निकल जाते हैं। अन्धकार अ्रोर बादलों से ढका हुआ था| बारम्बार, परन्तु अप एक विशालाकार सहल्दल कमल को पुन. २ मुझे उसको बोध प्रकाश से प्रकाशमय बनाना अपनी कल्पना में लाइये और आप आन्तरिकता में पड़ता था । परन्तु फिर भी उसे जागृति प्राप्त नहीं हो प्रभा मंडल पर बिराजते हैं और बैठे हुये उन पा रही थी। बहुत सारे लोग, जो शुरू-शुरू में मेरे पंखुड़ियों के दल का अवलोकन करते हैं और वे पास आते हैं, केवल प्रपतने रोग निवारण कराने के समस्त सुन्दर विचित्र रंगो में रंगे और सुगन्धित उद्देश्य से ही आते हैं (मेरे पास) । यह शक्ति युक्त होते हुये और आनन्दोल्लास की धन्यता से स्पन्दन सामर्थ्य की योग्यता मेरे अन्दर बाल्यावस्था से ही करता रहता है । उस स्थिति में स्थित रहना ही विद्यमान थी। पहिले भी मैं साक्षात्कार प्रदान कर को नहीं देख सकते; क्योंकि जवकि यह सारा का निर्मला योग सकती थी, परन्तु जिज्ञासु को अत्यन्त सावधान एवं आरम्भ कर दिया। इस भौति से सामूहिक उत्क्रान्ति सहज होना पड़ता था तदर्थ । ऐसे गुरग प्रधान का श्रीगरेश हुआ । पूरुषों में से मैं किसी को भी मुलाकात का समय नहीं देती थी क्योंकि मैं बनवास में तों रहती नहीं, ि सहस्र्रार आपकी जागृति है-चेतना है । जय मैं तो एक सामान्यजन की तरह से रहती थी आऔर यह प्रकाशमय बन जाती है तो आप उस आस पास, पड़ौस में सामान्यजनों के बीच ही रहती दिव्य की तकनीक में प्रवेश कर जाते हैं। अब ये थी। उस अर्थ में वे सब सजगता से सावधान नहीं तकनीक दो प्रकार की हैं, एक उस दिव्य की रहते थे और मूझे उन के बीच में रहकर यह कार्य तकनीक दूसरी वह तकनीक जिसका अनुसरण अरप सम्पन्न करना पड़ता था। उनसे कै से बार्तालाप कर रहे हैं। आप दिव्य की भांति कार्य नहीं कर किया जाये कि वास्तविक संसार की क्या सत्ता है सकते परन्तु आप दिव्यशक्ति का प्रयोग कर सकते और मिथ्या क्या है जिसमें वे रहते हैं ? एक भद्र हैं और उसको चतुराई पूर्वक व्यवहार में ला सकते महिला जो सर्वप्रथम मेरे पास आई और हैं। उदाहरणा्थ, दिव्य समस्त जगत की घटनाओं साक्षात्कार पा गई, वह मेरे पास केवल इस हेतू की देखभाल करता है। प्रत्येक क्षुद्रातिक्षुद्र करणा भी आाई थी कि वह खोजने के विचार की पकड़ में थी । दिव्य के अधिकार में है। जब आपका सहस्रार उसने खोजा और पाया। यह एक प्रत्यन्त हर्षोल्लास का दिन नहीं था क्योंकि वह उन व्यक्तियों में अस्थि का स्पर्श क रती है तब आपके सहस्रार में से एक नहीं थी जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से साक्षात्कार एक ज्वलनशील सामथ्थ्यं जसी कोई वस्तु तैयार प्राप्त किया था । इस महत्वपूर्ण घटना के पश्चात रहती है और जैसे ही ब्रह्मरंध्र में शिरग्रभाग की बहुत एक हो समय में एक साथ पाने लगे । १६७० अस्थि की क्षेत्र खुलता है तब अ्रत्मा की करुणा, में वीडी (महाराष्ट्र प्रदेशान्तगत) के स्थान पर दया उस ज्वलनशील पदार्थ को सुलगाती है और हम प्रोग्राम कर रहे थे। वहाँ एक भद्र पुरुप ने सांध्य काल में साक्षात्कार पा लिया । द सबके सब ही नहीं होते परन्तु उनमें से काफी अधिक कालीन प्रोग्राम में बाधाओं ने विध्न डालना आरम्भ संख्या में, सारी लम्बाई में ही नहीं वरन् बिल्कुल कर दिया, वे सब पक्षपात किये जाने के उपालम्भ देने लगे । मैंने वातावरण में झांकक र देखा तो पद्धति है जिससे आप उद्बोधन, बोध ज्ञान, प्रकाश- मुझे उल्टे किस्म की चैतन्य लहरियां प्राप्त होती मय, इनलाइटनमेन्ट प्राप्त करते हैं। अत: (आप के प्रतीत खुल जाता है और परापकी कुण्डलिनी खोपड़ी की अपका नाड़ी तन्तुजाल प्रकाशमय हो जाता है। वे दूसरे दिन प्रातः सत घेरे में परिधि में-यह वही प्रकार है, ढंग है, बा हुई। क्योंकि वे गलत दिशा में प्रवाह कर रही थीं। सायंकाल की सभा में मैंने दूढ़ता से सख्त सहस्त्रार में सात केन्द्र विद्यमान है। इस प्रकाश से रुख अपनाया, मुझे तीव्र ग्राक्रीश था, मैं पहिले कभी भी इतनी क्रोधित नहीं हुई थी और मैंने उन सबको हैं। मेरा मन्तव्य है अप नहीं देखते हैं। परन्तु यह वुरी तरह से डांट डपट दिया। महान आश्चर्य का विषय था कि उनमें से बारह पुरुषों ने आत्म चेतन मस्तिष्क आपके साथ समन्वय का अनुभव साक्षात्कार प्राप्त कर लिया। यह एक महान महत्व- करता है अर्थात तादात्मय कर लेता है। विचार पूर्ण उपलब्धि थी । तत्पश्चात बहुत सों ने एक २ शक्ति जो हृदय से अलग की गई है, हृदय के साथ करके साक्षात्कार प्राप्त किया। उनमें से बापस जाते समय टून में साक्षात्कार पाया था । अक्समात तादात्मय स्थापित कर एकाकार हो जाती है। जहाँ ही उन्होंने चैतन्य लहरियों का अनुभव करना जहां भी आपका ध्यान जाता है आप सामूहिक रूप अन्दर) बहुत सी ऐसी वस्तुयें होती है क्योंकि अरपके ही आप उनकी सम्बन्धित स्थितियों को देख सकते आपके चेतन मस्तिष्क कार्य करती है। आपका एकाकार हो जाती है । यह घ्यान के साथ भी निमला योग ५ू से कार्य करते हैं। आपके घ्यान की समस्त क्रियायें बहुत सी पुस्तकें उपलब्ध हैं जिन्हें यदि आप पढ़ना आशीषयुक्त होती हैं। आपका ध्यान स्वयं प्रभाव- चाहें तो वे ईश्व र विरोधी अर्थात् नास्तिकता के एक उरद्वुद्ध प्रकोशमय आपकी इच्छाये और भी अधिक महस्व परण है क्यो- सहस्रार उनमें रुचि नहीं लेता है । वह इनको शाली है। श्धका श्यान अत्यस्त महत्वपूर्ण है । कार्यों को सुझाती हैं । कि यह एक ऐसी वस्तु है जो एक्यता के सूत्र में यह विषतुल्य है । वापस बन्द कर देता है । मूत्र बँधी है। आपकी इच्छायें और उ्यान एकरूप हो जाते हैं । आत्मा के लिये जो अच्छा कल्याणकारी वह कभी भी नहीं चाहेगा कि विषाक्त विचार उसके मन में अरयं । आप यदि विष का पान आरम्भ करें है उसी की आप आकांक्षा करते हैं और प्रापका तो भी यह बन्द हो जाता है। इसी प्रकार वे लोग घ्यान वहीं जाता है जहाँ कहीं भी आध्यात्मिक जो क्रोधी स्वभाव के हैं, अत्यधिक क्रद्ध प्रकृति के शक्ति का प्रवाह (उद्गार) होगा। प्राथमिकतायें हैं और समस्त प्रन्य समस्यायें जो ईगो से सम्बन्धित बड़ी शीघ्रता से बदलती हैं। वे लोग जो प्राचीन हैं। यदि वे सहस्र्रार को बलात दवाना चाहते हैं एवं मौलिक है और उस्क्रान्त नहीं हैं, इस घटना या उसकी दबाने काা प्रयास भी करते हैं तो यह को नहीं खोज पा सकते हैं परन्तु वे जीवधारी सहस्रार बन्द होना आरम्भ हो जाता है। वे लोग जो जिनका मानसिक विकास हो चुका है उन के पास ध्यान है जिसके द्वारा वे जांच पड़ताल की कोशिश हुके हैं, तथा जो गलत किस्म की पूस्तकें पढ़ते हैं कर सकते हैं। त्रे सर्वप्रथम तो यही देखना चाहेंगे या ग्लत किस्म के माँ-बाप से हैं अथवा जो भ्रष्ट कि कुण्डलिनी किस प्रकार से उठाई जाती है । मिश्याचारी गुरुजनों द्वारा दुराग्रही बनाये जा देशवासी हैं अथवा भ्रष्टाचारी आजीविका कमाते हैं, ये सब सहस्रार को, स्वस्थ ढंग से, बढोतरी वे देखना चाहते हैं यह एक त्क संगत है। एक करने में सहायता नहीं करते वरन सहस्रार को सन्तुलित व्यक्ति के लिये प्रश्नसूचक कुछ भी नहीं बढ़ने देना ही नहीं चाहते हैं है। इस प्रकार के व्यक्तियों को कुछ सख्या हमारे में ही विद्यमान है । वे बस हो गये हैं और उनपर उंगली उठ नहीं सकती अर्थात सन्देहरहित हैं । वे चाहता ठीक से स्थायित्व प्राप्त कर लेते है । (सरल) हैं, वे विवे कशील हैं, आध्यात्मिक हैं। उनके गुरणों में भी कुछ दोप हो सहस्रार में परमानन्द की प्राप्ति का अनुभव यह केवल मात्र सहस्रार ही हैं जो बढ़ना आत्मा नहीं । जितना भी कोमल एवं दे सूक्ष्मग्राही सहस्रार होगा उतना ही अधिक आत्मा , सर्वोपरि वे में यह आध्यात्मिक गुरणों को ग्रहण करता है। है मासूम स वास्तव में शान्ति का अनुभव सहस्रार में सकते हैं जो आपके सहस्त्रार के साध्यम से ठीक होता है किये जा सकते हैं । सर्वप्रथम श्रापको अपने घ्रहें ही होता है क्योंकि वह मस्तिष्क है और मस्तिष्क को दबाना है; क्योंकि यदि ईगो वहां है तो वह नवंस सिस्टम का संग्रह है । सेन्ट्रल न्वस सिस्टम सहस्रार पर दवाव डालेगी। सर्वोच्च अहं की मात्रा भी कम करनी चाहिये क्योंकि यह भी सहस्रार पर संक्षप संग्रह भी बहीं पर है। अत: सहस्तरार के केवल अपना दबाव डालेगी और पोडित करेगी। अतः खोलने मात्र से कायं सम्पूर्णं नहीं हो जाता है सहस्र्रार को पूरां स्वस्थ अस्वथा में रखना आवश्य- कोय है । प्रत्येक को यह सोच-विचार करना चाहिये नाड़ियों की अपनी विविध शक्तियों के साथ और कि प्रत्येक की प्राथमिकताओं में परिवर्तन अवश्य जो उचित् एवं यथार्थ ढंग से (सुचारू रूप से) कार्य आना है । कुछ लोग अधिक समय ले लेते हैं क्योंकि कर सकें । परन्तु वे लोग जो साक्षात्कार के पदचात् वे विचार पूर्वक सावधानी से प्रयास करते हैं । ऐसी भी अपनी अपव्ययी (उड़ाऊपन)की आदतों में आसक्त (केन्द्रीय नाड़ी संस्थान ) अ्रथवा चेतना स्वयं का हमें अधिक से अधिक चैनल्स रखनी फडती हैं जो निर्मला योग ६ हो उनके वशोभूत रहते हैं वे नाडियों में गतिरोध चाहिये। वह अपने चेतन चित्त के माध्यम से कर उत्पन्न कर देते हैं और विराट के लि ये हानिकारक सकता है, जैसा मैंने कहा कि प्रत्येक साधक को वास्तव में सिद्ध होते हैं । ऐसे लोगों को वास्तव में आपको ठीक करना चाहिये क्योंकि साक्षात्कार के सहजयोग छोड़ देना चाहिये, जिससे औरों का पश्चात जो कुछ भी आप चाहते हैं, जो भी आपकी बचाव हो सके अथवा ऐसे लोगों को निकाल बाहर इच्छा होती हैं वह दिव्य इच्छा मनोरथ का एक किया जाना चाहिये ्रौर हम सब को ऐसे लोगों से भाग हो जाता है और आप जो भी कार्य सम्पादन सम्बन्ध विच्छेद कर लेना चाहिये क्योंकि ऐसे ही करते हैं वह दिव्य कार्य का एक अंग हो जाता है । लोग उस दिव्य के महान् कार्य को सम्पन्न किये अत: हम सबको अच्छी तरह स्मरण रखना चाहिये कि सजग प्रयास द्वारा अर्थात् चेतन प्रयत्नों के माध्यम से हम बास्तव में अपने आपको खोज पा सकते हैं अर देखें यदि हम तदर्थ वास्तव में जाने का विरोध करते हैं । प्रत्येक वह मानव जीवघारी जो सहस्रार का विकास करना चाहता है उसे जानना चराहिये ईमादार भी हैं । कि इसका विकास बुरी संगति से नहीं करना चाहिये वरन् उसे अन्य सहजयोगियों की सुसंगति करनी चाहिय। उसे अपने अवकाश स्वयंनहीं बिताना सकते हैं कि सहस्रार के फेलाव प्रसार का केवल है श्रौर न ही अपना समय व्यर्थ खोना है। परन्तु अवकाश के समय का अधिकांश भाग अन्य सहज शीलता की आविश्यक्ता होती है, बृद्धि विवेक की योगीजनों की संगत के साथ बिताना चाहिये । यदि हम ईमानदार व्यक्ति हैं तो हम देख मात्र मार्ग सामूहिकता हो है । इसके लिये सहन- जरूरत पड़ती है और एक पैगम्बर का डील डौल चाहिये जो आप हैं और आपको प्रोफेटों जैसी बातें करनी चाहिये सहस्त्रार के पश्चात जब आप सहख्ार के ऊपर । वास्तव में, आपको अपने आपको हो जाते हैं, उस समय आप देख सकते हैं कि यह शिक्षित बनाना है कि एक पेंगम्बर किस भाँति से पत्त महत्वपूर्ण है और यह कि ये सब नाड़ी बातालाप करता है । यह कपट, छल या प्रभिनय पंज इकठी की जा कर रखी जानी चाहिये । श्रर नहीं है क्योंकि अरब आप जागृति पा गये हैं । जब समस्त केन्द्र (चक्र) और उनके देवगणों की अखण्डता और समन्वयता को अरक्षण्य बनायें रक्ख । यह कार्य चेतना के प्रयास के साथ भी किया जा सकता है, श्रपने आपकी चौकसी करते हुये पने विचारों की चौकसी करते हुये ग्रप अपने अहं का तथा सर्वोच्च अहं का अवलोकन करना आरम्भ कर दें। आप यह देखने के योग्य हो जाये गे कि आप अपने आपको कैसे धोखा दे रहे हैं श्रर करनी पड़ती है। आप अपनी त्रुटियों के लिये. अपने आप से कितनी वेईमानो करते हैं प्और किस भाँति अपने आपको आश्वस्त करते हैं। श्राप करने का प्रयास कभी न करें । यदि आप इसे सत्य अपनी अहं यात्रा को किस प्रकार की मौज-मस्ती से मना रहे हैं । तक कि आप जागृत नहीं किये गये थे, तब तक जो कुछ भी आप ऐसा कार्य करते थे सब बनावटी सहस्रार, एक नियंत्रणक्ता मार्गदर्शक, विस्तृत उत्कान्त सामर्थ्य और बढ़ोतरी के लिये तथा फैलाव के लिये सदैव सन्नध-तेयार रखने हैं । प्रत्येक को अपनी बढ़ोतरी की स्वतः चोकसी था । पलत कीय कलापों को त्क से खरा सच्चा सिद्ध सिद्ध करना चाहेंगे तब आप इस पर मनन एवं विचार भी करंगे। हमारे पास इस पर मनन एवं विचार करने के लिए समय नहीं है । हमें किसी सहज योग भाव (spirit) सद्श्य लोगों के और के लिये सोच विचार एवं मनन करना है । लिये है । अतः अन्य सब वस्तुओं को छोड़ देना क्योंकि ये अ्रत्य भी आपके मस्तिष्क में भरे पड़े हैं । निर्मला योग ७ और जब इन अन्यों के विषय में सोच विचार (being) में प्रवेश कर सकते हैं और उनकी आरम्भ कर देंगे और उनके पुनर्जीवन के सम्बन्ध कुण्डलिनी उठाते हैं। सहस्रार को प्रकाशमय होते में बातचौत करंगे तो आपका सहस्त्रार, निश्चय हये भी आपको एक नया प्रकाश देता है जिससे से, अपने साइज़ में उन्नति करेंगा और फेलकर आप समस्त सूक्ष्मातिसूक्षम देखते हैं, समस्त विलक्षण अति विलक्षण एवं मर्मज्ञ हो जायेगा| सुक्ष्मग्राही संवेदन शीलता की बृद्धि होगी । गहनता भी आप उच्चतर से उच्वतम विकास करना आरम्भ आयेगो । यह एक पेड़ के सदृश है, जब यह कर देते हैं तब आरप चैतन्य लहरियों को अपने उगता है, बढ़ता है इसकी जड़े फेल जाती है । अतः चारों ओर प्रकाश के रूप में देख सकते हैं । ो अपने खोलों से बाहर निकलना है और अपने पंख फैलाने हैं। आप प्रपने चित्त की छोटी २ वस्तुओं को निकाल बाहर करें ग्रथवा उनका रुचि नहीं लेते हैं परन्तु आ्रश्चर्यचकित हो जायेंगे परित्याग करदे पको एक महान स्पन्न व्यक्तित्व कि आप प्रत्येक वस्तु के सिद्धहस्त केसे हो गये- की तरह से रहना है जिसको अन्यों की सहायता, जेैसे कि श्रपका मस्तिष्क वही प्रादर्भाव कर रहा मागदर्शन, में देनी है। एवं रहस्यमयता वात्ावरण में देख सकते हैं । जब आप बहुत-सी चीज़ो में कोई भी (कुछ भी) सहारा और जागृति हजारों की संख्या है जिसकी आपने इच्छा की थी । और यह वही है जिसका श्रीकृष्ण भगवान ने वचन दिया था जो स्वयं वास्तव में विराट हैं। सो आप अपने मस्तिष्क यदि फांस में सहस्त्रार दिवस एक नया शक्ति के मास्टर हो गये हैं क्योंकि वास्तव में जीवात्मा सञ्ालन (dynamism) इस देश में स्थापित मस्तिष्क की मास्टर है। जितनी अधिक श्रप करता है तो मुझे पुरण विश्वास है कि यह लोगों के प्रपनी जीवात्मा को अपने ध्यान में लायेगे उतना विचारों को ऊपर से ऊपर ही पकड़ लेगा और ही अधिक सहस्त्रार साइज में बढ़ोत्तरी करेगा । इसकी प्रतिध्वनि चित्त में गँजती रहेगी ना उनकी जीवात्मा में इसको स चा रित कर सहजयोगी हो जाते हैं। यह सर्व- शक्तिमान ईश्वर देगी और वे एक नये सिरे से सोच विचार प्रारम्भ के लिये एक सर्वाधिक महान् वस्तु होगी यह कहने कर देंगे । अव नये नये बही सफलताओं के प्रवेश के लिये कि "देखिये ! यह घटना घटित हो गई हैं । द्वार खुलेंगे अर्थात् अब नई नई घटनाये घटित होगी अतः फ़िलहाल बह अपने आक्रोश को और करोध को और लोग सत्य की ओर तर्क से (logically) स्थगित कर देगा, सो वह भ्रपकी त्र टियों के लिये जानो आ्रारम्भ कर दंगे । वे सही निर्णयों पर आपको क्षमा प्रदान कर सकता है और हट को पहुँचने लगेंगे और जो और बृथा होगा उसका परित्याग कर देंगे। । उनकी उसका प्रकाश फंलेगा र ग्राप एक शाक्ति सम्पन्न और विवकानी हरकतों को भी माफी दे सकता है । मानव को अपने परमरपिता की श्रेष्ठता महानता औ्र कीर्ति यश प्रताप को दर्शन लाभ लेने हेतु कुछ भी निरथंक, अपध्ययी सहस्रार आत्मा के लिये राजसिंहासन है और उत्थान करने दीजिये । उसे ईश्वर की दयालुता राजा उससे भी बड़ा है। राजसहासन विशील एवं करुणा को करने की शक्ति भी प्राप्त करने है । जिस प्रकार आत्मा से व्यवहार करते हैं वही आपके सहस्रार में भी प्रकट होता है । प्रौर इसी प्रकारान्तर से आप चित्त के द्वारा दिव्य के कार्य कलापों का सम्पादन सहन दीजिये । उसे सहस्रार को इतने परिमारा (ग्रायाम) तक विकास करते देखने दीजिये कि वह अपने चेतन अथवा रीति से आप साक्षात्कार दे सकते हैं । तब फिर [आप विलक्षण रहस्यमय जीवात्मा बन जाते हैं। आप सजग प्रयास के माध्यम से अन्य (व्यक्तियों) की जीवात्मा कर सके । सहस्रार का एक मन्त्र है । वह है "निर्मला", निर्मला योग जिसका अर्थ है कि प्रत्येक को स्वच्छ, सुथरा, पवित्र यहो कारण है कि मैंने सहस्त्रार दिवस यहां मनाने और निष्कलङ्क रहना चाहिये । यही आपकी का निश्चय किया । फान्सीसी सहजयोगियों का सम्पत्ति है। आप इसको स्वच्छ और साफ़ सुथरा उत्तरदायित्व (जिम्मेदा री) अत्यधिक मात्रा में है। रखने का प्रयत्न कोजिये प्रर निश्रयपूर्वक एक पग उन्हें [अपने रहन-सहन, व्यवहार, आचार के ढंग, और अग्रसर हो जायेगी। यह एक और बहुत अधिक विधि, तरीकों को बदलना पड़ेंगा अ्थात् अपनी संख्या में परिमारण में (नये आयाम में) वेग आचार विचार संहिता में परिवर्तन लाना होगा । से क्लूदना होगा। नुतन उन्हें कृपायुक्त, करुणामय, सुशोल तथा स्वस्थ होना -वास्तविक सच्चा खरा मानव बनना है। परन्तु आज पैरिस में उपस्थित होना एक महान् उन्हें साथ ही साथ सूदढ़ सहजयोगी भी बनना है प्रसन्नता का द्योतक है । फ्रांस के पेरिस नगर पर जिससे जब अन्य लोग उन पर दुष्टिपात करें तो समस्त संसार का ध्यान आकर्षित होना आवश्यक उन्हें उनमें (सहजयोगियों में) थेष्ठता का दर्शन है। यह देश जिसको शापित किया गया तथा समस्त देवगरणों द्वारा विसार दिया गया है क्योंकि । सहस्रार दिवस समारोह से पूर्व मानव जीवात्माओं ने अत्यन्त त्रुटिपुर्ण, भ्रष्ट मार्ग कल में भी हम सफलतापूरवक कार्यक्रम सम्पन्न कर अपनाया है। इस देश में सर्वत्र देवता लोगों को क हैं। मुझे यह सब देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्रतिष्ठित होने दीजिये । ध्यान है और जो कुछ भी हम ध्यान घरते हैं अरथवा जिस किसी पर भी हम अपना ध्यान केन्द्रित करते कामनायुक्त शुभाशी्वाद देती हूै । जिन्होंने सहत्रार हैं, उसकी रिपोर्ट हमें सहस्रार के द्वारा प्राप्त हो की प्रगति एवं विक्रास के लिये एवं इसे प्रकाशमय जाया करती है। अतः हम मंगल कामना करते हैं बनाने के लिये स्तुति-प्रार्थना आदि कार्य किये हैं कि फ्रान्स देश का सहस्रार खुल जाये और फ्रान्स जिससे वे इतनी विशालता से फैलाव कर सकते हैं। का ध्यान प्रात्मा की ओर लगे, के न्द्रित हो और अतः वे उस सम्प णं के साथ एकता स्थापित कर यहां के निवासी शाश्वत सनातन जीवन व्यतीत एकाकार हो जाय । करे । यह एक अत्यन्त महत्वपूर्णं देश है जिसमें सम्भ्रान्त, सभ्य विद्वान् लोगों का निवास है । दृष्टिगोचर हो प्राप्त होती है । व्योंकि यह केवल मात्र अब मैं संसार के समस्त केन्द्रों को अपनी मंगल भगवान आपका कल्याण करें । अमृत-वाणी ( १) क्या जीवन में यह विलक्षण घटना बहु-संख्यक जन समुदाय को उपलब्ध होना सम्भव है जिसके द्वारा वे अपने स्वयं के सृजनात्मक जगत को सर्वव्यापी शक्ति के महान् विश्व में धूरणांन करते (reveluing) देख सके ? मेरा एक मात्र उत्तर है-हाँ। मेरा एक मात्र प्रश्न है-क्यों नहीं ? -परम पूज्य श्री माताजी (२ ) ध्यान निरन्तर चिर वात्सल्यमयो मां भगवती के सान्निध्य स्थित रहने की अवस्था है । इसके अरतिरिक्त कुछ भी नहीं । -परम पूज्य श्रीमाताजी निमला योग ६ श्री माताजी प्रसन्न मत्प्रिय सहजयोगी ! मानव चित्त में बहुत भ्रम भरे हुए हैं। भ्रम छुटने से ही मानव चित्त ज्ञानरूप और आनन्दमय होगा । कुण्डलिनी जागृति से आपके बहुत से भ्रम छूट गये हैं १. आपने यह जान लिया है कि मनुष्य में कुण्ड- लिनी एक जागृत शक्ति है, कल्पना नहीं। ७. विश्व का निर्माण क्यों और केसे हुआ परमात्मा का अस्तित्व है ? ये प्रश्न मूलभूत हैं। देवगगणा भी इन्हें समझ नहीं सके । परन्तु मैंने जो कुछ भी कहा है इसकी सच्चाई चैतन्य लहरियों से जान सकते हैं । इसके लिए चेतन्य लहरियों का अच्छा ज्ञान होना चाहिए । ? क्या जब औप अनुभव द्वारा सीख गे कि प्रेम प्रौर सत्य एक ही है और अनुभव द्वारा ही सूक्ष्म ब्रह्म-तत्व को पहचानेंगे कि ब्रह्म विकार रहित है तब आपका भ्रम छूटेगा। बरह्मतत्त्व आपके अन्दर कमल के समान खि लेगा और उसकी सुगन्ध चारों तरफ़ फेलेगी। जब आपका चित्त ब्रह्म के समान होगा तब आपका भ्रम, जो मिथ्या है, टूटेगा। २. यह शक्ति समस्त मानव जाति में है। उसका उद्दीपन स्वस्थ मनुष्य में सहज स्वाभाविक रूप से होता है । ३. यह उद्दीपन किसी कार्य से नहीं होता है । किन्तु साधक यदि दुष्कर्मी है तो यह उद्दीपन कार्य नहीं होता है कारण, कुण्डलिनी सुप्ता- वस्था में भी उसके कम्मों से अवगत होती है । उसे विवेक है । साधक की मां होने के नाते उसके भले बुरे का ज्ञान होता है कुण्डलिनी की ब्रह्मतत्त्व सूर्य के समान है फिर भी उसकी किरें जल (मिथ्या) पर प्रतिबिम्बित होकर मानव चित्त को विचलित करती है। किन्तु जब आपका नित्त स्वयं व्रह्म हो जाबेगा तब विचलित नहीं होगा जो ध्यान धारणा से संभव है। ध्यान का अर्थ है प्रेममयी भगवती का सात्निध्य । कृपा से साधक का रुग्ण मन व शरीर ठीक होता है । ाडे ४. कुण्डलिनी भगवतो की इच्छाशक्ति है । वह भगवतो के सङ्कुल्प मात्र से जागृत होती है । उच्चकोटि के मनुष्य को इसके लिए काफ़ो प्रयास करना पडता है। किन्तु इसमें उसका कोई दोष नहीं । शव आपके अन्दर सामूहिक चेतना जागृत हो गई है । यही सामूहिक चेतना ब्रह्मशक्ति है । यह सम्पूरणं विश्व में है । करण-करण में फली है। यह जड़ता में जड़, चेतना में सौन्दर्य, जाग्रत में अरनन्द और सहजयोग में चिदानन्द, परमयोग में परमानन्द और भगवती में ब्रह्म भूत्व शक्ति है । यह सब आपने समझ लिया, जाने लिया अब इसका अनुभव कीजिए। मन को स्थर बनाकर, समर्पित करके भ्रमरहित वनिए यही मे रा ५. ब्रह्मातत्व, जोकि चेतन्य लहरी के रूप में अप के शरीर से बहुता है आपके शरीर, मन एवं अहङ्कार को साफ़ करता रहता है। जब भी चैतन्य आपके चक्र धुमिल पड़ते हैं तब ये लहरियाँ आपको सूचित करती रहती हैं । ६. जब आप स्वस्थ शरीर, शुद्ध मन और अहङ्कार हृदय रहित होते हैं तब आत्मानन्द मितने लगता है। [आशीर्वाद है । आनन्द की लहरें आत्मा में वहने लगती हैं क्योंकि आत्मा का आनन्द निलप होता है । सर्वदा आपकी ही माँ, निर्मला निमला योग १० ओल्ड अलर्सफ़ोर्ड परम पूजनीय माताजी श्री निर्मला देवीजी दिनाङक १८ मई १६८० ई० बिकमिंग' (उचित्, अनुरूप, युक्ति होना) यहकेवल मात्र इस कारण विश्लेषण क़ायम है यह उन्हें पगला देने वाली से है कि मैंने आपको जन्म दिया प्रक्रिया है । यही बात है कि वे अ्रपने साक्षात्कार है । मैं आपको सूचित करना के साथ चिपके हये हैं, संलग्न हैं। प्रत्येक वस्तु पदार्थ चाहती है कि पूर्वकाल में किसी के दूसरे आकार अथवा पक्ष का विवेचनात्मक आप देख रहे हैं पंजों का दूसरों की चिकित्सा कर उन्हें विश्लेषण, टाँगों का विश्लेषण, नाखूनों का विश्ले- भला चंगा बना देते हैं। सहज- पण किया जाता है। और उनको दूरबीन पर योग में आप व्याख्यान दे सकते चढ़ाया जाता है और उसका निरीक्षण परीक्षण हैं, गराप अपनी समस्याप्रों को जान सकते है, यप भी किया जाता है। वहाँ पैरों से ऊपर चढ़ने का अपने अ्सपास के पड़ौस से भी अनभिज्ञ नहीं है। काम लिया जाता है और आप लगे हैं चरणों और आप अ्पने आपको स्वच्छनिर्मल रख सकते हैं तथा पाँवों का विश्लेषण करने । देखिये सारा का सारा अन्य लोगों को भी साफ़-सुथरे बना सकते हैं । यह प्रयोजन ही निष्फल हो गया जब आपके हाथ जो साक्षात्कार के साथ एक गठरी में बँंधा है । कितनी भी कूछ लगा अथवा जो सिर पर आ पड़ा तभी सुन्द र उत्साही एवं साहसिक कुदान है जो केवल आप उसका विवेचनात्मक अध्ययन प्रारम्भ कर इच्छामात्र से प्रथम जागृति है। यही से अपने देते हैं। अतः आपको कहना है और चाहिये भी श्रब समाप्त हो गया है सम्पूर्ण हो गया है, अब मैं ने भी यह नहीं किया था। आप विश्लेषण करना । शुभारम्भ किया है । परन्तु वे ही समस्त वस्तुयें जो पहिले कौतहलवद्धंक दृष्टिगोचर हो रही थीं जब कि आपने इच्छा की थी, वे एक विलक्षण ही व्यक्ति बन गया हूँ ।" एक दूसरा रहस्यमय सुन्दर अकार के रूप में आपके अन्दर आ विराजीं । उस समय में आप, अराप निश्चय से है, तब अपकी इस जागृति में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अपने चक्रों को, उनकी समस्याओं को महसूस करते बस्तु हैं। आपको स्वीकार करना चाहिये कि जब हैं और तत्काल ही उनका विश्लेषण करना आरम्भ एक पूरुष, मृत, समाप्त होकर चला गया है। "मैं कर देते हैं। सबसे विकट समस्या पश्चिम वालों के एक भिन्न व्यक्ति हैं, अलग थलग हैं। अब लोग साथ यह है कि वे विश्लेषरण आरम्भ कर देते हैं । इसकी स्वीकारोक्ति को कितना दूष्कर कार्य समझ आप उनको कोई भी मामला दें वे तत्काल ही उस रहे हैं क्योंकि वहाँ श्री अहं जी विराजते हैं ।यह आप का विश्लेषरण आरम्भ कर देते हैं। उनको कोई भी को आज्ञा नहीं देगी और कहेगी कि "हे भगवान् दीजिये वे विश्लेषण कर बैठेंगे। एनेलिसिस यह कैसे हो सकता है, मेरे कहने का तात्पर्य यह है जब आपको साक्षात्कार की उपलब्धि हो जाती वस्तु विवेचनात्मक विश्लेषण) एक महान् वस्तु बन गई कि आपमें पूर्णतः परिवर्तन आ गया है, क्या आप और यही कारण हैं जिस प्रकार से यह विवेचन कल्पना कर सकते हैं कि आप लोग, लोगों को *Becoming-परम पूजनीय माताजी के अंग्रेजी में दिये गये भाषण का हिन्दी अनूवाद । निर्मला योग ११ साक्षा्कार करा सकते हैं । आप किसी को भी कह अप्रतिबद्ध शक्तिशाली हैं और यही शक्ति है आपके देखिये वे तत्काल कहेंगे कि "ओह मैं यह जानता माध्यम से प्रवाहित हो रही है और आप साक्षात्कार है।" वे सब के सब भाग खड़े होंगे, उनमें से कोई प्रदान कर रहे हैं। [शर यह भी है कि आपका भी विश्वास नहीं लायेगा परन्तु श्रापको ज्ञान है कि भ्राता कुछ न कुछ विशिष्टता लिये भी हो सकता आप साक्षात्कार दे सकते हैं । कोई भी विश्वास हैं । श्रद्धा केवल धद्धा ही नहीं हैं क्योंकि मैं कह रही नहीं करेगा। एक बार एक योगी महाराज मेरे हूँ, पास आये श्ीर] [कहने लगे कि माँ यह कैरसे हो सकता तो इसे देख पाया है कि यह वास्तव में है । क्या है ? वह विश्वास ही नहीं कर सके कि वे हुआ यदि अपने इसे देख भी लिया परन्तु आप इस साक्षात्कार दे राकते हैं। वे दया के पात्र योगी में विश्वास तो नहीं ल। पा रहे हैं। अब मुझे क्या बेचारे काफ़ो वर्षों से योगाभ्यास कर रहे थे । कहना चाहिये ? यदि आ्प विश्वास करते हैं कि यह आरम्भ में बह विश्वास नहीं करता था-वही योगी ऐसा है-सत्य है, तो यह श्रद्धा हुई। कल्पना अब फटाक-फटोक साक्षात्कार दे रहा है। यदि कीजिये श्रद्धा का अर्थ है-तात्परय है अन्धापन । यह विश्वास भी करे तो भी आप साक्षात्कार दे सकते हैं आपकी अखिों को और खोल रहा है यह देखने के परन्तु इसमें समय का अरधिक लगना स्वाभाविक लिये कि यह क्या है और इसको स्वीकार करना है-क्योंकि "विद्वासो फलदायक की उतक्ति कि यह यथावत है-ऐसा ही है। उस समय श्रद्धा चरितार्थ हये बिना नहीं रहती। वे विश्वास ही नहीं उमड़ेगी, उभरेगी । कर सकते हैं अत: अनुरूपता (becoming) के लिये अरापको विश्वास धारण करना ही पड़ेगा, हाँ आप साक्षात्कार प्रदान कर रहे हैं। निःसन्देह, श्रापकी सहायता करती है । यह और कुछ नहीं है आप इसको श्वेत वस्त्र के समान ग्रपनी खों के कैवल थद्धा की शक्ति है। मुझे यह कहने में, कहना सामने देख रहे हैं। फिर भी आप कह रहे हैं कि यह चाहिये कि श्रद्धी की शक्ति सर्वाधिक यूक्ति शक्ति वस्त्र श्वेत नहीं काला है। शर्ट व्ल्यू है। अतः यह काला नीला व्यवहार ही निकृष्ट है । हैं-बोधन करते हैं कि आपने अब तक जो भी आप साक्षात्कार प्रदान कर रहे हैं । कसे कल्पना कर रहे हैं कि आप मनो- चिकित्सिक के पास जा रहे हैं । आ१ तो साइके और इतना त्वरित है। यह इतना कुछ अधिक ट्रिस्ट को भी साक्षात्कार करा सकते हैं। वह डॉक्टर मात्रा में उत्कृष्ट ह जो आपकी चिकित्सा करने जा रहा है, आप उसको जाना है और फिर आप विस्मित होते हैं, आशचर्य साक्षात्कार दे सकते हैं । आप विश्वास करिये, आप में इबकी लगाते हैं फिर आप श्रद्धा करने की स्थिति दे सकते हैं । परन्तु जब आप उससे कहें गे कि मैं में आते हैं। अब जब मैं अरापको अपने हाथ (इस आपको साक्षात्कार कराना चाहता है तो वह भाग प्रकार) मेरे सामने फैलाने को कहती है और 'बन्धन खड़ा होगा। परन्तु आप अपने में विश्वास घारण देने को कहती हैं तो निহवयपूर्वक यह काम करता कीजिये। यह वह स्थान है जिस पर आपको श्रद्धा- निष्ठा लानी है । यह श्रद्धा भक्ति जो आपने साक्षा- आरम्भ कर देते हैं कि जब माँ इस प्रकार अपने त्कार के रूप में प्राप्त की है, सब सहजयोग द्वारा ही आप पर क्रिया करती हैं अर्थात् अपने हाथ को सुलभ हुई हैं। यह एक अतुलनीय शक्ति है। यह एक सर्वव्यापी शक्ति है जो अत्यन्त, अबाधित, तभी हम अनुभव करने लगते हैं कि हम माताजी में क्योंकि यह अन्धी है, चक्षहोन हैं, परन्तु आप ने इस स्टेज पर, यह श्रद्धा की ही शक्ति है कि जो becoming) है । क्योंकि इसी समय आप विचारते कुछ आप ज्ञान प्राप्त किया है उसका कोई मूल्य ही नहीं हैं। यह सव कुछ इतना महान् हैं, इतना विशाल है कि आपने इसे पहिले कभी नहीं है-कार्य परिणति होती है । तत्पचात् आप देखना झटकाती हैं तो इसका अनुभव हम सबको होता है । निर्मला योग १२ हैं और माताजी हमारे में है और हम इस तादात्मय रखते है । यह तृतीयावस्था है । अब इस तृतीया- एक रूपकता के प्रति सजग भी रहते हैं। वे ही वस्था में, अ्राप इस तृतीयावस्था तक उत्थान कर हमारी सर्वातीत लाभदायकत्व बन जाती हैं। तभी पहुँच पाये हैं-केवल एकमात्र मार्ग पूर्ण धद्धा है । श्रद्धा का उदय होना आरम्भ हो जाता है । [आप] श्रद्धा के बारे में सर्वप्रथम तो आपको कुछ वस्तुएं इसका बोध ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि यह सौखनी पड़ंगी, उनमें से एक तो है शिष्टाचार, विन्यास, विश्लेषण, विवेचन की परिधि से बाहर परत्तु धद्धा के साथ यदि आप शिष्टाचार सीख है। केवल मृत वस्तु अर्थात् जड़ वस्तुओं का ही आप कर पारंगत हो गये, उस दशा में आप इसके विश्लेषण कर सकते हैं । चेतन का (जीवित अवस्था सम्बन्ध में कुछ भी बुराई (अनिष्टता) का अनुभव में) आप नहीं कर सकते हैं। वह संजीवन के भी नहीं कर गे । परन्तु यदि आपको इसके लिये बल किया गया अथवा जोर जवरदस्ती की गई उसे सिद्ध (प्रत्यक्षीकरण) कर नहीं सकते । अल्: तो आपको अरुचिकर प्रतीत होगा। यह मिश्रित आप आत्मसमपरण प्रारम्भ कर देले हैं। जब आप अवस्था बेरकरोर रहेगी। सो श्रद्धा के विकास हेतु समर्पण करना आरम्भ कर देते हैं और श्रद्धा आनी सर्वप्रथम तो प्रापको अपने आप स्पष्टता से समानता शुरू होती है तब अ्रपकी चेतना वरतमान दशा से से कहना पड़गा। कि "क्या आप नहीं देख रहे हैं कि औ्र ऊपर उठती है और ये छोटी-छोटी क्षुद्र-ुद्र घटना घटित हो रही है ? क्या आप नहीं देख पा रहे वस्तुएं जो रहस्यमय बन जाती हैं आप से विदा हो है कि यह ऊपर की ओर उठ रही है-उत्थान कर जाती हैं। यह तृतीय स्तर है जहाँ आपके तीनों रही है ? क्या आप समझ नहीं पा रहे हैं ?" अपने आप से कहिये, 'क्या यह त्वरित शक्तिमान नहीं है ? की क प्रयोग बाहर है-यह वह है जो कुछ कि यह है। सो आप गुरग दूश्यम।न हो सकते हैं। परन्तु वे आप पर अपना प्रभाव नहीं डालगे। सो प्राथमिक स्तर पर आप सुखासन से वराजकर सोच विचार कीजिये आप इच्छायें, कामनायें रखते थे । द्वितीयावस्था कि यह कितनी आश्चयंजनक है, सह कितनी 1. महान् है। आप महासागर से बात करें, पूछ्पों से बात करें अर्थात् में जो एक बड़ो भारी चीज़ है, अराप रपनी इच्छाओं की अभीष्ट की पूर्ति होते देख सकते हैं । परन्तु ये ये मानव जीवधारियों से कहीं श्रेष्ठत र हैं। सब रहस्यवादिताये आप में भी मिश्रित हैं-धुली ये जड़ वस्तुयें चेतन से कहीं वहतर हैं । उनसे कहिये मिली हुई है। तुतीयावस्था में पराव उन्हें देख सकते क्या आप ऐसा नहीं सोचते हैं ? आप म्युजियम पुरातत्व संग्रहणालय) में जाइये और वहाँ उन यह तृतीय अवस्था वही है जब कि प्रत्येक को देखना समस्त मूर्तियों को सम्बोधित कीजिये कि "मैंने पड़ता है कि वे आप पर प्रभाव डालकर प्रभावित खोज पाया है, और मैंने उपलब्धि की है अर्थात मैं तो नहीं कर पा रही हैं। आप पकड़ भी देख पा ने ढुंढ लिया है और पाकर धिकार में कर लिया रहे हैं। परन्तु उस समय आप इसे पकड़ (केचिंग) है । अपने अ्राप से कहिये । इस प्रकार अपने आप नहीं कहते हैं । शप इसे रेकार्डिग (recording) से कहने से अप श्रद्धा का विकास कर लेंगे । और कोई मार्ग नहीं है । बहुत से लोगों ने मुझसे (माता उपकरण मात्र हैं । आप केवल रेकारडिग हैं । उसका जी से) यह प्रश्न किया है कि "श्रद्धा का विकास किस प्रकार किया जाये, अब यह एक निकृष्टतम निरर्धक वस्तु है । यहाँ आप कुण्डलिनी को आप उसके अन्दर इतने शक्तिशाली बन जाते जान रहे हैं, आप साक्षात्कार दे रहे हैं और हैं (हो जाते हैं) कि इस कैचिग (पकड़) का प्रभाव फिर पीछे मुड़ते हैं और पूछते हैं कि माँ, हम न्यूनतम हो जाता है। आप उस प्रभाव का रेकार्ड श्रद्धा को कैसे विकसित करे ?" इस (मूर्खता) को हैं, परन्तु वे आप पर अपना प्रभाव नहीं डालती हैं। ( कहते हैं। आप सोचते हैं कि हम यन्त्र हैं- प्रभाव क्रमशः क्षुद्रातिक्षुद्र होता चला जाता है । निर्मला योग १३ समझ पाना मेरे बलबूते और समझ के वाहर की सुचना के लिए बताती है। इन फ़ोटोग्राफ्स को आप चीज़ है । मेरा तात्पर्य है कि यहाँ क्या हो रहा है लोगों ने स्वयं ही विकसित किया है । और ग्रापने और आप कर क्या रहे हैं? वेराव आरम्भ करती है। मेरे कहने का मतलब है थी कि यह फोटोग्राफो मूझे इस प्रकार से पकड़ लेगी। कि यह तर्क वितरकं, अ्रालोचना प्रत्यालोचना में नहीं यह तथ्य निश्चय से सही है। यह विकास आदिशक्ति लगती वरन् अपने में आत्मसात, (समा) विलय कर लेती है । यह वार-बार फटती भी नहीं है निस्सन्देह यह बिना कहे ही रह जाता है कि यह केवल सोखकर जजब कर लेती है । यह सोखने की आपने विकसित किया है। मैं स्वयं भी नहीं जानती प्रक्रिया अथवा आत्मसात प्रक्रिया में कई अन्य थी। आपको आश्चरय होगा कि मैंने भी यह देखना प्रकार से भी बाधायें पहुँचाई जाती हैं। [आत्मसात के माध्यम से ही आप बढ़ोत्तरी पा सकते हैं। एक अधिक प्रभावशाली हैं । क्योंकि ये मूर्तियाँ निर्माण पेड़ करसे बढ़ता है ? यह केवल मात्र आत्मसात से । की जाती है इसके अनुरूप कि जैसे मैं पहिले थी । इस आत्मसात का मुख क्या है ? निविचारिता है । निर्विचार क्या है ? जहाँ आरप इसके सम्बन्ध में सोच मेरी सत्ता है। मैं स्वयं भी चकित हुई कि यह तो विचार नहीं करते हैं । अब, जब मैं अपसे आग्रह चेतन्य लहरियां बाहर फेक रही है और जीवन भी, करतो है कि आपको सोचविचार नहीं करना है। अ्र मेरा फ़ाटों इतना श्रष्ठ अया । प्रधान समस्या कुछ निचली अवस्था में लोग कहेंगे "ओह, अ्राप जानते हैं वह अ्रत्यधिक प्रभुत्व स्थापित करने वाली के साथ केसे सम्पर्क साधा जाये । आप कर सकते हैं (dominating) है यह शासकीय प्रभुत्व भाव से एक सौ व्यक्तियों से सम्पर्क, और अाप दो सौ सम्पन्न है मुझे कहना चाहिये। परन्तु यह आरात्मसात व्यक्तियों से भी सम्पक साध सकते हैं। अधिक से की प्रक्रिया तभी हो सकती है जब आप में धद्धा अधिक प्रप] एक हजार से सम्पर्क स्थापित कर हो। और यह सारी की सारी आपके अान्तरिक में सकते हैं । क्या आप इस समूह को देखते हैं, यह चली जाती है, आप एक शिशु की भांति चूसते अत्यन्त सरल है, यदि आपको कुछ व्याकुलता का रहिये, रस पान करते रहिये। समस्त वस्तु आपके अनुभव हो आप कुछ घन राशि व्यय कीजिये और अन्दर जाती है, जैसे किसी झील या खाड़ी में जिस आपका अभोष्ट सिद्ध हुआ| सहज योग एक घटना में कोई दरार नहीं है, यह सम्पूर्ण को प्रतिबिम्बित करती है, समस्त सृष्टि इसमें समायी है पूरणंरूपेण । यह धद्धा फिर अपना अपना ही तरीक़ा अपनाया है। मैं स्वयं नहीं जानती (Holy Ghost) की सहायता से हुआ है परन्तु आरम्भ किया है कि ये फोटोग्राफस इन मूर्तियों से वयोंकि यह वर्तमान की वस्तु है; यह वह है जैसी इस बात की थी कि इतनी अरधिक संख्या में लोगों है, जागृति है, और साक्षात्कार भी है । इसका हल किस भाँति से होगा। यह मेरे लिये एक अत्यन्त विकट समस्या थी । हूं यह ऐसा नहीं था कि मैं आपको पुस्तक दे द्ती हूँ यदि इसके अन्दर दरारें पड़ जायें, फिर फेलाव विस्तार होता है । यह भ्रम क्या है ? व्यग्रता और घवराहट क्या वस्तु हैं ? ऐसी ही स्थिति श्रद्धा की भी है जो द्वितीय से प्रारम्भ होकर तृतीय तक जाती है। हैँ. और वापस ले लेती हैं। इसको पढ़ती है श्रर कहती है कि "हाँ, मैने इसे पा लिया है, मैं हो गया हैं यह वास्तविक होना है, पकाना है (परिपक्वावस्था उदाहरणार्थ, अब हम सामान्य सा मामला, अपने में पहुँचाना है), प्रौढता को पहुँचाना है और यह फोटोग्राफ़ का ले लेते हैं । पहिले फोटोग्राफ़ नहीं सजीव पद्धति है। अब मैं इसे कैसे करू? और करते थे । केवल मेरे जोवनकाल की अवधि यहाँ इसका उत्तर प्रस्तुत है-फोटोग्राफ में । यद्यपि हुआ में ही ये फ़ोटोग्रापुस आरम्भ हुये हैं । यह आपकी टी. वी. वालों ने मूझे परदे पर दिखाने के लिये १४ निमंला योग शभी आभन्वित नहीं किया है, परन्तु भारत में मैं रखती थी । एक सम्वन्धी उसके पास आयी परद पर आ चुकी हैं, केवल पूना में, यहाँ नहीं यह एक दुष्कर कार्य भी प्रतीत होता है। पहिले तो मजाक़ बनाती थी। और भी कई प्रकार की उन्हें सब वस्तुओं को एक स्थान पर जुटाना पड़ेगा, वुरी हुरकत उस फोटो के साथ करती थी । वह फिर मुझे जाना पड़ेगा, जैसा कि सदैव होता रहता उस फोटो को मेरे सामने लाई और कहने है। जो कुछ भी है आपके समस्त प्रचार माध्यम लगी कि सब काला और अस्पष्ट हो गया है। सो मेरे फोटो के माध्यम से प्रयोग में लाये जा सकते मैंने उससे पूछा कि वहाँ और कौन था । उसने हैं ओर धन्यतायुक्त वताया कि मेरा एक सम्बन्धी प्रया था जिसके और वह उस फोटोग्राफ की हँसी उड़ाया करती थी, । क वया ही सुन्दर सुखद यह है । और फोटोग्राफ, यदि आप वचार करो तो कारण इसकी यह दश हो गई है अर्थात् विकृति मेरा प्रतिनिधित्व करता है मेरा विचार है आप उसका प्रस्तुतीकरण सही ढंग से नहीं कर पा रहे इसको समूद्र में पधरा देते क्योंकि उस पर से मेरा हैं। मैं प्राशचर्यचकित हो गई कि मेरा फोटोग्राफ ध्यान हट चुका है। इसमें से चंतन्य लहरिया नहीं इतना ऋधिक शक्तिशाली है कि बहुतसी मूतियां आयेगी क्योंकि मेरा ध्यान उठ गया है, चला गया को एक साथ पधराने से भी नहीं, माँ पृथ्वी की है। अब अरपकी समझ में आया कि समस्या क्या उपज से भी बढ़कर, क्योंकि इसमें बहुत से तत्व बन गई है। मैं देख सकती है कि प्रापको फोटो को मौजुद हैं। उदाहरणर्थि आप द ख रहै है कि इसमें इस प्रकार से नहीं रखना था । अतः सिद्ध हुआ कि प्रकाश तत्व है, इसमें जल तत्व भी विद्यमान है, इसमें भू-तट्व वर्तमान है । यदि वायु सही हालत में नहीं बह रही विद्यमान रहता है। यह बात सच है कि पृथ्वीमाता है तो फोटोग्राफ ठीक नहीं आयेगा । और इसी ने जो मृर्तियां बनाई हैं वे भी वायत्र शन्स रखती हैं प्रकार इसमें ईयर तत्व (आकाश तत्व ) भी मौजूद और वे भी प्रदर्शित करती हैं कि उनमें वायत्रे शन्स इन पाँचों तत्वों को मिलाकर भी आप मूर्ति मोजूद हैं । परन्तु वे कुण्डलिनी को जागृति नहीं दे का निर्माण नहीं कर सकते । ईथर तत्व इस में है । सकती क्योंकि मेरा फोटोग्राफ अपने में मेरी इच्छा यदि आप एक फोटो यहाँ पर खींचते हैं आप इस सड्कत्प को सँजोये रखता है। वे नहीं कर सकते हैं। को दूसरे स्थान पर प्रषित कर सकते हैं। आप फोटो यदि वे कर सकते तो स्टोनहैन्ज भी कर सकते । यदि तो भेज सकते हैं परन्तु मूर्ति को नहीं, क्योंकि वह आप इन मूर्तियों के निकट जायें, औौर मैं भी बहाँ पर एक ही स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। आप उस मूर्ति का उपस्थित होऊ, तो वे वायब्रे शन्स नहीं देंगी। आप फोटो मात्र ही भेज सकते हैं । अत: इसमें ईथर भी को केवल यह करना पड़ेगा कि एक हाथ मेरी ओर सम्मिलित है अतः सिद्ध हुआ कि फोटो मूर्ति से फैलाना पड़ेगा और दूसरा उन की ओर। तब फिर अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली है। यद्यपि फोटो वे वायत्र शन्स उगलना आरम्भ कर देगी, एक पुनउत्पादन ( reproduction) है परन्तु एक उन्हें मेरी ग्राज्ञा को मानना पड़ेगा । यहां तक कि वास्तविक सत्य का प्रतिबिम्ब है जो पांचों तत्वों से श्री गरणेश जी की मूर्ति भी, जो अब ठीक दशा में यूक्त है । सो आपके लिये यह एक प्र तिनिधि के रूप है, परन्तु आरम्भिक काल में यह वायव्र शन्स नहीं में है। यह बिल्कुल मेरे जैसा ही है क्योंकि मेरा ध्यान देती थी, जब तक कि इसको इस बिधि द्वारा इसी में सक्निहित रहता है। हमने इसके साथ प्रयोग परिष्कृत न किया गया उनमें प्रधिकरण हीनता भी किये हैं । एक योगिनी मेरा फोटो अपने पास का भाव नहीं है परन्तु इन फोटोग्राफ्स का शिष्टा- आरी गई है मैंने उससे कहा अच्छा होता कि आप एक फोटोग्राफ में ओर एक स्टेच्यू (मूर्ति) में भी सम्मिलित है और वायु तत्व भी अत्यधिक अन्तर है। क्योंकि मेरा ध्यान वहाँ पर तो परन्तु MEX निमला योग १५ चार पालन करना भी महत्वपूर्ण है जिसके बिना और उसे रिकार्ड करते हैं । यह तृतीय अवस्था है। श्रद्धा का विकास नहीं हो पाता है। आपको एक चतुर्थ अवस्था को तुरीय अवस्था कही जाता है। फोटोग्राफ सदव अपनी पाकिट में रखना चाहिये । चतुर्थ घ्रवस्था में आप त्रिगुरणात्मकता पर अर्थात् इसको आदर सत्कार दोजिये जितना सम्भव हो तीनों गुणों पर अधिकार जमा ले ते हैं हावी हो सके । इसको सजावट के लिये प्रयोग मत कीजिये जाते हैं । और आप पञ्चभूतों का, पञ्चतत्वों का बल्कि इसकी पूजा कीजिये । आप प्रातः उठकर नियत्त्रण करते है । दर्शन कीजिये । यह मैं आपको इसलिये बता रही है कि श्रद्धा की समस्या सामने वह बिना इस शिष्टा- चार के चित्त में उपज कर विकसित न हो सकेगो। मुझे ही आपको ये समस्त बस्तुएँ समझानी पड़ती ने वर्षा करा दी थी ) यह ऐसे कार्य होता है, आप हैं । यही इस अवतरण की सबसे निकृष्ट भाग हैं इन तीनों गुणों के स्वामि हो जाते हैं । इसको ऐसे क्योंकि अन्य सभी आवश्यक कार्य [आपने पूर्ण भी वरणन किया जाता रहा है कि प्राथमिक रूप में कर दिये हैं । अर्थात् जो लोग लार्ड जीसस क्राइस्ट आप कार में बैठे हुये हैं । इसे कोई हाँक (चला) के ईस स्थिति में पहुँचकर आप कहते हैं कि यह सक्रिय है । आपने देखा कि कल क्या हुआ था। (माँ अनुयायी हैं, वे इस फोटोग्राफ का दर्शन प्रात: रहा है वह आपका बायाँ और दायाँ भाग प्रयोग में काल अवश्य करते हैं। विशेषतया हिस्द्र घर्मावलम्बी ला रहा हैं प्रतः सोकर उठते ही चरण वन्दना करते हैं, सायं और एक्सीलेटर और कार हॉकी जा रही है। फिर काल भी नमन करते हैं, सोने से पूर्व भो, बाह्यगमन वह आपको सिखाता है कि कार कैसे चलाई जाती से पूर्व भी, बाहर से आकर भी वे नमन अवश्य है। तब आप सोखना आरम्भ करते हैं। अपने बाय करते हैं। इसी प्रकार जब आपके पास फोटो है तो और दायं भाग एवसीलेटर और वक का प्रयोग आ्प भी उसे पर इसी समझ-बुभझ के साथ काम करते हैं। फिर तीसरी अवस्था आती है जब आप कीजिये ओर धारणा रखिये कि माँ सदेव हमारे साथ है। आपकी आश्र्य होगा कि समस्त कार्य हैं । क्योंकि अपके पीछे जो आदमी बैठा है उसकी केसे सफल होंगे। । आप यह भी कह सकते हैं कि ब क 1. चालक बन जाते हैं । परन्तु फिर भी आप चिन्तातुर चिन्ता करते रहते हैं, जो ग्रापको जताता है कि आप व्या गलती कर रहे हैं और आ१ने क्या भूल । तत्पश्शचात् चोथी ग्रवस्था आती है और प्राप श्रद्धा आापकी सहायता करेगी। यह घावों पर की मरहम का काम करेगी। अप प्रत्ये क समय में एक दक्ष बन जाते हैं। और आप अन्य लोगों को भी सी दशा में नहीं रह सकते। आप स देव संक्रामक डाइव करते हैं। आप किसी को भी आर्डर कर पकड़ की शिकायत नहीं करते रह सकते कि हाय में सकते हैं, आप सूर्य को ऑर्डर दे सकते हैं आप पकड़ा गया आदि आ्रदि । आप देखते हैं कि हाथी चन्द्रमा को भी आर्डर दे स कते हैं । ऑर्डर, आर्डर चलता रहता है और कुत्त भौकते ही रह जाते हैं का अर्थ है उनसे कह दना मात्र काफ़ी है । मेरा यही स्थिति आपकी भी है। आप] परवाह न करें। तात्पर्य है कि किसी प्रकार का भी अधिकारयुक्त चलते चलिये अपने सहज मार्ग पर माँ को हृदय में (dominating) का प्रश्न ही नहीं होना चाहिये। धारण करते। आपके समस्त कार्य निर्विध्नतापूर्वक आपने इच्छा व्यक्त की ओऔर तत्काल हो उसकी पूर्ति सिद्ध हो जायेंगे उनकी महिमा ही ऐसी है । हो गई । यह कहा ओर वह हुआ। सो तृतीय जागृति उस समय आती है जब आप यह सब देखभाल करना आरम्भ कर देते हैं नाम से पुकारा करते हैं। तत्पश्चात् पाँचवीं स्टेज अब हम इस चतुर्थ स्टेज को तुरीय दशा के निर्मला योग १६ आरती है, जिसमें स्थित होने से जो उपलब्धियाँ आप मुझे नीचे की ओर नहीं खींचेंगे तो मैं श्रपको प्াप्त होती हैं। मैं उनके नामों की गणना तथा उन बहुत ऊर बहुत दूरी पर खींच लूगी । अतः आप से उनके नाम गिनाना नहीं चाहती हैं क्योकि इनमें मेरी यहीं विनती है कि आप मुझे नीचे न खींचिये । आप लोगों की आसक्ति बढ़ जायेगी और आप उत यह इसी प्रकार से है कि जिस प्रकार से यह पर चिपक जायेंगे । वे इतनी साफ़ सुथरी नहीं बिकमिंग (becoming) होने जा रही हैं । अब यह हैं । वे एक दूसरे के साथ संयुक्त हो सकते हैं परन्तु एक मूल आधार है; बुनियादी निर्माण और आप] वे सब तुरीय दशा में हैं। जब आप उपयुक्तता से अ्रव समस्त सुन्दर वस्तुओं को महसूस कर रहे हैं श्रौढ़ वन जायेगे तब आप इस पञ्वम अवस्था में जो मध्यवर्ती हैं कुद पड़ेंगे, जिसमें अप कुछ कह भी न पायेंगे और रूप से संवारी सजाई जा सकती है और यथोचित न कुछ निणय हो ले पायेंगे । केवल आपके मुख से सुधड़ता से की जा सकती हैं। परन्तु याद रहे यह कुछ ग्रनायास ही फिसल जायेगा इसको फिसलना बुनियादी (slip out) भी नहीं कह सकते । यहै कार्य करती अब आप इस स्टेज पर या उस स्टेज पर अपने को है। यह एक अवस्था है। वहाँ आप समस्त जमाने का अ्र्थात् फ़िक्स करने का प्रयत्न करने की परिस्थितियों को संभालते हैं प्रीर यहाँ पर बैठे कोशिश न करें तो अच्छा है । क्योंकि यह एक ही बैठे। बैठे हुये होने की दशा में ही आप एक सामान्य सी वस्तु है उन लोगों के लिये जो अभी दूसरे के चक्रों के सम्बन्ध में जानकारी भी रखते हैं तक इसी के लिये सोच विचार करने में लगे हये हैं । तब म्ाप इन पर स्वामित्व नहीं रखते बल्कि इस तब फिर माँ हमें बताइये कि हम किस स्टेज पर दशा में आप प्रवेश भी पा सकते हैं, कर सकते हैं । स्थित हैं ? यह साधारण है। जब आ्रप अपने आपको अब उदाहरण के लिये मैं आपको बताती है कि मैं बढ़ाकर विकसित करगे तब यह आपके साथ भी आपके Sub-conscious में प्रवेश कर सकती है । घटित होगी। आपको कोई भी निर्धारित नहीं आपके सामूहिक चेतना में प्रवेश कर सकती है और आपके supra-corscious में भी प्रवेश कर सकती और ये समस्त वस्तुएं पुनः उचित् निर्माण बिकमिंग अर्थात् युक्ति का है । वस्तु करनी पड़ेगी । यह आपके साथ घटित होगी यही सब कुछ है. इतिश्री है । इसको प्रगति करने दीजिये, इसको बढ़ोतरी करने का अवसर दो जियेगा । परन्तु आप अभी भी उस अवस्था पर हैं जहाँ पर आप में से बहुत से सन्देहरहित चेतना या जागृति में स्थित हैं । परन्तु हैं। आपके समस्त क्षेत्रों में जहाँ मे री इच्छा हो मैं जा सकती है । यह भी तब जब कि अरपने इस पर पुर्ण रूप से दक्षता करली हो। जब अराप इसमें प्रवेश करते ह मैं फिर भी आपको यही कहूँगी हैं। जब आप इस मकान के स्वामी हैं आप इसके अन्दर प्रवेश कर सकते हैं । उस समय आप सप्तम कि मौलिक इच्छा अभी भी वहाँ नहीं है और वह अवस्था में प्रवेश करते हैं और यह वही अवस्था है जिसमें कि आप हैं। [आपका] वहां होना ही (आप फी उपस्थिति ही) पर्याप्त है केवल वहा होना ही कभी-कभी ऐसा भी होता देखा गया है कि बना ठोक है। कुछ भो अस्तित्व नहीं है । कोई सत्ता नहीं बनाया मकान ही गिरा दिया जाता है क्योंकि उस है। परन्तु आप केवल अपने ही लिये हैं । रब आप इन सातों प्रवस्थाओं में पहुँच सकते हैं । क्यों कभी-कभी नींव में ही कुछ बुनियादो गलतियाँ हो सुदृढ़ भी नहीं है। यह मौलिक इच्छा जो साफ़ सुथरी बना दी जायेगी। आप देख सकते हैं कि की बुनियादे पअ्र्थात् नींव ही सुदृढ़ नहीं होती हैं। कि मैं इन सबसे परे खड़ी हैं (स्थित हैं) और मैं जाती हैं जिससे आप अपने प्रापको नीचे ले जाते हैं, प्रथमावस्था में नीचे उतर आई है और मैं आप ठीक नीचे और तब आपको विदित होता है कि, ११।। लोगों को ऊपर खींचने का प्रयास कर रही है । यदि ओह, यह अभी तक वहाँ है, इसको बाहर करो । निर्मला योग १७ आपको उन समस्त वस्तुों को घास पात की तरह हैं अरथवा क्या क हने जा रहे है । क्या आप एक हेटाना है, निराई करनी हैं। इस काय में आपको वास्तविकता से सचेत रहना है परन्तु आप आत्म सौभाग्यशाली हैं कि आपके भी कोई एक ऐसा है करुणा के जाल में न फैस जाना, श्प कभी भी जो आप से अत्यन्त प्रेम करता है। और बह आपको इस अपराध वृत्ति के व्यापार में नहीं फसना । परन्तु यह समस्त वस्तूएँ दे सकता है । [आप अत्यधिक अपने आप कतई निश्चित् दुृढ यथाथ भाव वृत्ति भाग्यशाली हैं जोवात्मा हैं । आप इसका सदुपयोग अपनायें, "यथा बहुत अच्छा यह मेरी कार है, मैं हो करें। ईश्वर आपको सर्दव सुखी, प्रसन्न रखे । इसे सूधार कर ठीक दशा में करू गा"। यदि अपि इस कार के काम में दक्ष भी ही गये और कोर आप जहाँ कहीं भी हों, आपको अपनी श्रद्धा में अनुपर्योगी है तो इसकी लाभ हो क्या हुआ इज्छा बढहोत्तरी करनी है। पराप सबको क्रद्धा की बहुतायत कार के समान है । कुण्डलिनी ही वह इच्छा है, यदि से ग्रावश्यकता होगी। जब तक श्रद्धो उद्गम रूप आपको कुण्डलिनी दुर्बल है तो इसको सजीव बनाइये सहारा देकर और इसको सुधारने का प्रयास कोजिये । इसको ऊपर उठाने को कोशिश ग्राप उगायगे, पोषित कर बड़ा करेंगे। श्रद्धा को भी कोजिये । इसको भोजन खिलायें, अपनी कुण्डलिनी का पोषण युक्ति विकमिंग के माध्यम में भी है कि श्रद्धा फलदाय क:) आपने अब सन्देह की कर। [अन्य समस्त इच्छाओ को एक ही इच्छी के सीमा को पार कर लिया है । सो अब श्रद्धा अपना साथ तटस्थ एवं समभाव में रख । सोच विचारकर कार्य सञ्चालन करेगी। डच्छाके सम्बन्ध में कह रहे हैं ? आाप सर्वाधिक परन्तु एक बात अर है वह यह कि इस स्टेज पर, के में (source) है। इसी से आप जज्य करने का काम लेगे- यही एक पौवे की तरह से हैं जिसको प्राप बढ़ाते ही जाइये क्योंकि (शास्त्रकारों ने कहा ही कुछ कहने की आदत डाले कि हम कया कह रहे "CHARMINAR' India's Largest Sellers of Asbestos Cement Products HYDERABAD ASBESTOS CEMENT PRODUCTS LTD. Marketing Divisions : Sanatnagar, Hyderabad-500018 Himalaya House, 23, Kasturba Gandhi Marg, New Delhi-110001 Chanakya Place, Gardener Road, Patna-800001 Works : Hyderabad (A.P.), Ballabgarh (Haryana) & JASIDIH (Bihar) निर्मला योग १८ : : ॐ माँ : : परम पूज्य माताजी का पत्र परमेश्वरी राज्य के प्राप अधिकारी। हो फिर ऐसे बैठकर रोते क्यों हो ? इस राज्य में आपके बड़े परमप्रिय सहजयोगी, हर एक मनुष्य को शान्ति चाहिए, धन भाई देवताओं के रूप में कुण्डलिती के मार्ग पर बैठे चाहिए । अपनी सत्ता चाहिए। पर इन सभी बातों है उन्हें पहचानिए। उन्हें सराहिए और जागृत का मूलस्थान प्रभु-परमेश्व र ही है, त व क्यों न हम की जि उसी की चाहत और उसे ही पाने की इच्छा कर ? उसी की चाहत करें। परमेश्वर की शान्ति हमें मिले औ्ौर परमेश्वर हमें मिले यही हमारी लालसा भी छाँत में चलने की विद्या प्राप्त की जिए अपने आप] वयों न हो ? सहजयोगी औीर साधारण इत्सान की में नम्रता लाइए। वह आपको उस पार ले जायेगी सन्तुष्टता (समाधान में) यहीं श्न्तर होना चाहिए। जहाँ से सभी बातों का उद्गम है जहां पर सब परमेश्वर पाने की लालसा भी हमें उसी के चरणों स््रोत हैं। उसी को पाना चाहिए, उसी को पाने की में शपित करने का साहस दे। एक वही है, उसी चेष्टा करनी चाहिए। बाकी सब तो(सहज) आसानी के चरगों में और केवल उसी पर हो ध्यान केन्द्रित से मिलती है । ध्यान धारण, तपस्विता, प्रेम और होना चाहिए। इसलिए तपस्विता चाहिए । इसलिए शान्तिमय जीवन, यह् शातरण आप छोड़ देते हो सारे लोभ, मोह छूटने चाहिएं । जिससे चिपके रहें और मुझे आसानी से पाने की चाह रखते हो । ऐो सा इस संसार में क्या है ? जहाँ सभी शान्ति पाते परन्तु प्रापञ्िचिक बातों से आपको कितना लगाव हैं, श्रौर जहाँ पर सब कुछ नष्ट हो जाता है उन्हीं है ? स्वयं के ही वारे में सोचने की कितनी हट है । चरणों की महत्ता समझनी चाहिए। तभी आपको उसे क्यों नहीं आसानी से छोड़ देते ? मैं महामाया महता प्राप्त होगी हमने ये किया, हमने बो किया है इसलिए आप सत्य से मत दूर भागिए मूझे पाने व्यर्थं की कल्पना क्यों कर ? जो प से की चेण्टा कीजिए मैं त्राप लोगों की ही है। बड़े-बड़े कुण्डलिनी आपकी माँ है; माँ के अरञचल की ऐसी बन रहा है वह सारी परमेश्वर की सत्ता है, ऋषि मुनियों को भी जो नहीं मिला वह तुम्हें दिया परमेश्वर का चमत्कार है यह बात दिमाग में लानी है । वह बहुत वड़ी सम्पत्ति है। उसी के बल पर पड़ेंगी। बह चमत्कार देखने वाले ही केवल आप हैं । हजारों ग्रह, तारे निर्माण किये। श्रापके नवनिर्माण इसलिए परमेव्वर से प्रार्थना कर-"मे रा, मैं, मैं में बहुत बड़ा अर्थ है। उसे आपको समझना चाहिए निकल जाए. हम तुम्हारे ही एक अङ्ग है, हे प्रभू, यह स्व' का अर्थ लगाइए । वह सह जयोगियों के ही सुत्य हमारे रोम-रोम में भर दो । फिर परमेश्वर समझ में आएगा। यह बहुत बड़ी कला है । यह कला का यह आनन्द हमारे तन-मन के करण-करण को छू हमने आपको सिखाई, क्या हआ [? जिसे भी लाभ कर सुन्दर राग से यह जीवन भर जाएगा । होना है वह रोने नहीं बेठता इसका मतलब आपको यह सब पूरी मानव जाति को सम्मोहित करेगा । इस विश्व का माग प्रकाश से प्रकाशित करेगा अपने हृदय मे अमर्यादित प्रेमधारा बहने दो क्यों में डब जायेंगे, उसी में मग्न हो जायेंगे। विश्व की कि 'प्रेम' अमर्याद है । तुम्हारा ध्यान म्यादातीत प्रापत्चिक बातों से किसी को सन्तूष्टता नहीं मिलती। बातों पर हो । 1 लाभ नहीं हुआ है। अगर आप इस कला में निपुण । होंगे तो इस कला के दरवाजे खोलकर आप इसी प लोगों के पास इस भष्डार की चाबी है, जो निर्मला योग १६ हमने आपको सौंपी है। अरे, दरवाजे खोलने के दिशाओं में अपकी किरणें लिए आपकी हथेलियाँ तो धूमनी चाहिएं । यह सब अपने पह् फैलाइए । सारे संसार का कल्याण आप आप लोगों ने प्रासानी से छोड़ दिया है और जिसे ही के हाथों से होने वाला है निष्क्रियता छोडड़ आसानी से छोड़ना चाहिए उसे पकड़ कर चिपके दीजिए । जो अभी तक पार नहीं हैं, जिन्हें आशीर्वाद बैठे हैं। सवेरे हमें जगकर ध्यान में बैठना चाहिए। नहीं मिला है, उन्हीं से सम्पर्क साधकर सहजयोग अपने आप क्रोध, द्वेष, परनिन्दा, क्रूरता ये सभी बातें छोड़ देनी चाहिएं । फैलनी चाहिये । सिखाने की चैष्टा कीजिए । तब परमेश्वर का राज्य आप ही का है । वह सब माङ्गल्य अापको मिले इसलिए हमारा प्रयत्न चालू है । लन्दन में बारह लोगों को तथ्यार कर रही है, वे लोग अन्दर से आज गुरुपूरिणमा है, हमें दक्षिणा क्या दी ? आप पैसे देंगे तो ये इस गुरुभाऊलि के पाँव की धूलि समान भी नहीं है। ये सोच लीजिए। तुम्हारे हृदय बहुत सच्चे हैं। उनके साथ आप लड़ाई मत करिए । देने चाहिएं । वह भी पवित्र और साफ़ होना अपने आपको जानिए । चाहिए। अपने मन को साफ़ करके स्वच्छ बनाना तरह बनाया है। उसे साफ़ रखिये । मूझे सब चाहिए। इस मामले में आलस] छोड़ दीजिए । मालूम है। मेरे सामने ज्यादा होशियार मत बनिए । प्रतिज्ञा कीजिए सवैरे उठकर घण्टाभर भजन- पूजन आप लॉगो में व ध्यान धारणा करेंगे। शाम को भी आरती व हैं । उसी तरह आपका भी कल्याण हो यह ध्यानधारणा करनो चाहिए। अरे, जो शैंतानों के आशीर्वाद ग्राज दे रही हैं । (भूतों के) शिष्य हैं वे श्मशान में जाकर मेहनत करते हैं और अाप लोगों को सब कुछ प्रासानी से चाहिए, ये बात समझ में नहीं आती। आ्रा१ स में बैठ कर व्यर्थ की गण्प हाकना छोड़ दीजिए। अपना] समय बेकार मत गंवाइये। समय का चक्र चालू ही रहेगा। जाएगा तो लगेड़ापन आएगा । सन्तुष्टता कम सभी चावियाँ इकट्रा करके खाली े रहेगी तो अपने आप ही आपकी हालत भी ठीक क्या ? आपको परमेश्वर की सत्ता नहीं स्वीकार करनी है तो शैतानों का राज्य आयेगा और इसलिए पास के बातावरण पर निर्भर नहीं है । वातावरण आप स्वयं ही ज़़िम्मेदार हैं । [आप] सहजयोग के कैसा भी क्यों न हो वह उसे सुखदायी ही लगना अधिकारी हो इसलिए आपको विशेष रूप से छाँटा चाहिए । अगर ऐसा नहीं है तो वह सन्तुष्टता वाह्य है । यह बात पक्की समझ लौजिए । न हीं तो इस है आन्तरिक नहीं है। परमेश्वर आपको अपने आनन्द का सञ्चय कहीं ीर चला जाएगा| और चरणों में स्थान दे। आपके पागलपन की वजह से दूसरे लोग अधिकारी बन जायगे। इसलिए अपने अ्राप लाइए और जाग जाइए। पाँव जमाकर खड़ हो जाइए। हर एक क्षण को अनेक देशायें हैं, उन प्रप लोगों को मन्दिर की कुछ लोग आनन्द साग र में डूब रहे सन्तुष्टता और प्रापञ्चिक इच्छायें ये दोनों एक ही ऊँचाई पर होने चाहिये, जैसे हमारे दोनों पाँव एक साथ बढ़ते हैं। अगर एक पाँव छोटा रहू हाथ लौट जाये नहीं रहेगी। सहजयोगी की सन्तुष्टता उसके आस- में सयानापन आपकी माँ निर्मला श्री माताजी के मूल मराठी पत्र का हिन्दी रूपान्तर । निमंला योग २० शिवं शिवकरं शान्तं, अभिवात्मानं शिवोत्तमम् । शिवमार्ग प्रणेतारं, प्रणतोऽस्मि सदाशिवम् ॥ हम आपके शिश नितान्त श्रद्धा व भक्ति भाव से उस पावन प्रभु के सम्मुख नमन करते हैं जो परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी जी के हृदय कमल में वास करता है । वह हमारे उद्धार का उद्गम-स्थल है । ओ्ो३म् श्री शिव के १०८ नाम शिव १२. वत्सल १. देवासुर गुरु १३. शङ्कर २. १४. शम्मु स्वयम्भु ३. लोकोत्तर सुखालय १५. पशुपति ४. सर्वसह १६. क्षमाक्षम ५. स्वधृत १७. प्रिय भक्त ६. १८. एक नायक कामदेव ७. श्री बत्सल १६. ास साधु साध्य हृत्सुण्डरीकासीन जगद् हितैपिन् २०. शुभद १. सर्वसत्वावलम्बन २१. १०. शर्वरीपति व्याघ्रकोमल ११.. २२. निमंला योग २१ विश्वसाक्षिन वैरद ५०. R2. नित्यनृत्य ५१. बायु वाहन २४. सबववास कमण्डलु घर २५. ५ू२. नदीश्वर महायोगी २६. ५३. प्रसदस्व २७. सद्योगी ५४. २८. सुखानिल सदाशिव ५५. नागभूषण २६. आत्मा ५६. केलाश शिखर वासिन् ३०. आनन्द ५७. त्रिलोचन चन्द्रमौलि ३१. ५८. पिनाक पानी ३२. महेश्वर ५६. श्रमण सुधापति ३३. ६०. प्रचलेश्वर अ्रमृतपा ६१. ३४. व्याघ्रच्माम्बर ३५. अमृतमय ६२. उन्मत्तवेष ३६.. प्ररणतात्मक ६३. प्रेतचारिन् ६४. पुरुष ३७. प्रच्छन्न हर ६५. ३८. सूक्ष्म ६६- ३६ रुद्र करिणकरप्रिय भीम पराक्रम ६७. ४० कवि नटेश्वर ६८. ४१. अमोघदण्ड ६६. नटराज ४२ नीलकण्ठ ईश्वर ह१ परमशिव 2२ ७०, जटिन् ७१. पुष्पलोचन ७२. परमात्मा ४५. परमेश्वर ध्यानाधार ७३. ४६. बीरेश्वर ब्रह्माण्डहृत ७४. ४७. कामशासन ७५. सवश्वर ४८. कामेश्वर *३२ ७६. जितकाम निर्मला योग २२ जितेन्द्रिय ६३.. कालकाल ७७. ৫४. बैयाघ्रधु्य अतीन्द्रिय ७८. &५. शत्रुप्रमथिन् नक्षत्रमालिन ७६. ह६. सर्वाचार्य अनाद्यन्त ८०. आत्मयोनि ७. सम ८१. नभयोनि आत्मप्रसन्ना ८. ८२. ২. नरनारायरण प्रिय करुणा सांगर ८३. १००. रसज्ञ शूलिन् ८४. १०१. भक्तिकाय महेष्वासः ८५. १०२. लोक वीराग्रणी निष्कलङ्क ८६. १०३. चिरन्तन निस्यसुन्दर ८७. १०४. विश्वम्बरेइ्वर अर्धनारीश्वर ८८. १०५. नवात्मन् उमापति ८६. १०६. नवयेरुसलमेश्वर रसद ०. १०७. आ्रादिनिमंलात्मा ११. उग्र १०८. सहजयोगीप्रिय महाकाल ह२. प्रिय ! मुमुक्षुगरण सावधान हमारे भीतर एक बन्धुघाती छली (Judas) विद्यमान है । वह हमारे साथ चलता है, हमारे साथ क्रिया करता है, देवी माँ की स्तुति गान करता है। किन्तु वह एक भयङ्कर नाग है। छद्य वेष में पिशाच का दूत है । कपट से यीशू को सूली पर चढ़ाने (Crucifixion) के पीछे उसका हाथ था । वह सम्भवतः वह पूतना की भाँति, जो बाल गोवित्द को विष देने आई थी, एक नारी हो सकती है। अपनी पूज्य माँ के ममत्व में एकत्व के रस को हम पहचाने श्औरौर उनके दैवी तत्व की प्रज्वलित लो (मशाल) के प्रकाश में अपने सम्मुख प्रशस्त पथ का दर्शन करें । सहजयोग की नौका में सवार उसे डूबाने को तत्पर ऐसे छुपे कालने मियों से सावधान । परमात्मा आपको उस मेघावी के लिये पर्याप्त ज्ञान प्रदान करे। दुरात्मा-मानसिक कुप्रवृत्तियों के साक्षात् स्वरूप को पहचानने परम पूजनीय श्री माताजी निर्मला योग २३ प्रिय बन्धु ! श्री माताजी को प्रेम संबके लिये प्रवाहित हो रहा है। जिस प्रकार उन्होंने हमें सांस लेने के लिये पीने के लिये निर्मल जल, भ्रमरण करने के लिये खुली जगह और देखने के लिये गगन शुद्ध वायु, का निर्माण किया है, उसी प्रकार हमारी चेतना को शान्ति प्रदान करने के लिये उनका यह पवित्र प्रेम है। हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि हम उनके इस प्रेम के लिये किस प्रकार उपहार भट करें । अंतः हम उन्हें अपने हृदयासन पर आसोन होने के लिये अत्यन्त श्रद्धापूर्वक आमन्धित करते हैं । हम नतमस्तक होकर प्रेमपूर्वक उनको अलंकृत करते हैं । फ्रेम से उनका अभिषेक करते हैं । हम प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे हृदयाङ्गन में सदा निवास करें । जय माता जी आपका ही सी. एल. पटेल त्यौहार १४ जनवरी ८३ १६ जनवरी ८३ ११ फरवरी ८३ मकर संक्रान्ति वसन्त पञ्चमी महा शिवरात्रि परम पू. माताजी का जन्म दिवस २१ मार्च ८३ होली ईस्टर रविवार २८-२९ मार्च ८३ ३ अप्रेल ८३ ७ अप्रैल ८३ परम पू. माताजी का विवाह दिवस नवरात्रि १४-२१ अप्रैल ८३ २१ अप्रैल ८३ २५ अ्रप्रैल ८३ रामनवमी महावीर-जयन्ती हनुमान जयन्ती महासहस्रार दिवस आदि शंकराचार्य जन्म दिवस २७ श्रप्रेल ८३ ५ मई ८३ १७ मई ८३ नसिंह जयन्ती बुद्ध पूरिणमा गुरु पूरिणमा श्री २५ मई ८३ २६ मई ८३ २४ जुलाई ८३ कृष्ण जन्माष्टमी ३१ अगस्त ८३ निमला योग २४ ---------------------- 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-0.txt रु् ॐ fनिर्मला योग वर्ष । पक 5 जनवरी-फरवरी-1983 द्विमासिक पुढ़ 1 ए रि ॐ मेव सक्षात. श्री कल्क्री साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी. मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निरमला देवी नमो नमः ॥ पन 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-1.txt धरती माता से क्षमा याचना ! है धरा वसुन्धरा माँ । क्षमा करो हे, क्षमा ।। हे भूदेवी ! हे जननी । क्षमा करो, हे माँ ॥ हे जन्मदात्री ! पालनकत्त्री माँ । हे माँ॥ क्ष मा करो, हे जीवनधारिणी ! आश्रयदायिनी माँ । क्षमा करो, हे माँ ॥ क्षितिज मिलता गगन पर । तू गगनांगन है, तू जीवन का प्राङ्गण है ।॥ उगता है सूरज, बहता है समीर । तुझे सजाने, तुझे संवारने के लिये ।। निशि में नभमण्डल पर चमकते । नक्षत्र तारे, तुझे बहलाने के लिये || वन, उपवन, वाटिका, तेरे ही हैं गहने । कलकल करती नदियाँ, करतीं तेरा हो गुरगगान है।। पक्षियों का कलरव, जीवन की ध्वनि । तेरी ही तान हैं ॥ हे पवित्रता की मृर्ति ! सहजता की जननी । तुझे मेरा शत्-शत् प्रणाम है । हे पृथ्वी माँ ! क्षमा करो, क्षमा करो । क्षमा करो, हे माँ ॥ %3D -एक बालक धरती माँ का 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-2.txt ज सम्पादकीय सर्वमंगल मंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये व्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।। सष्टि स्थितिविनाशानां शक्ति भुते सनातनि । गुणाश्रेय शरणागतदीनात्तपरित्राणपरायणे ।| गुरगमेय नारायणिण नमोऽस्तुते सर्वस्यात्तिहरे देवि नारायरिण नमोऽस्तृते ।॥ श्रीदुर्गासप्तशती माँ, तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करने वाली मङ्गलमयी हो, कल्याणदायिनी शिवा हो, सभी पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो, तुम्हें नमस्कार है । तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुरणों का आधार तथा सर्व- गुणमयी हो। नारायरिण, तुम्हें नमस्कार है । शरण में आये हुए दोनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायरिण देवि तुम्हें नमस्कार है ।। श्री नारायरिंण साक्षात् श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देवी नमो नमः । सर्वस्वरूपिणि साक्षात् ॐ त्वमेव साक्षात् निर्मला योग १ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-3.txt निर्मला योग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली- ११०००७ संस्थापक : परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी : डॉ शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र श्री आर०डी०कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा :श्री मार्क टेलर श्रीमती क्रिस्टाइन पेट नीया २२५, अदम्स स्ट्रीट, १/ई. ब्र कलिन, न्यूयार्क-११२०१ यू.एस.ए. १६५० ईस्ट फ़िफ्थ एवेन्यू वैन्क्रवर, बी.सी. कनाडा- वी ५ एन. १ एम २ यू.के. श्री गेविन ब्राउन ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़रमेंशन सविसे ज लि., नाथ गावर स्ट्रीट लन्दन एन.डब्लू. १ २ एन.डी. भारत श्री एम० बी० रत्नान्नवर १३, मेरवान मेन्सन गंजवाला लेन, बोरीवली (पश्चिमी) बम्बई-४०००४२ १६० श्री राजाराम शंकर रजवाड़े ८४०, सदाशिव पेठ, पुरण-४११०३० इस अंक में : पृष्ठ १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. माताजी द्वारा फ़ान्स में दिये गये बक्तव्य का हिन्दी रूपान्तर ४. प. पू. माताजो का पत्र ५. बिकमिंग ६. प. पू. माताजी का पत्र ७. श्री शिव के १०८ नाम १ २ ३ १० ११ १६ २१ ८, एक सहजयोगी का पत्र &. त्योहार २४ २४ निमला योग २ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-4.txt ले रेन्स, फ्रान्स में ५ मई १६८२ को सहत्रार पूजा दिवस के शुभावसर पर माताजी श्री श्री श्री निर्मला देवी जी द्वारा दिये गये वक्तव्य का हिन्दी रूपान्तर आज का शुभ दिन हुम सब जिज्ञासुवृत्ति वाले है अथवा खोला जाता है, उस समय समस्त वाता- भक्तों के लिये प्रत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि 5 मई वरण अत्यधिक चैतन्यता से भरपूर हो जाता है । 1970 के दिन हो उस महान शाश्वत एवं सनातन और समस्त आकाश में अत्यन्त ज्योतिर्मय उजाला जीवात्मा के अन्तिम चक्र को खोलने का प्रभुत कार्य फैल जाता है और फिर सम्पूर्ण वस्तु घरती पर आ उस दिव्यात्मा द्वारा सम्पन्न किया गया था। यह जाती है । यह इस तीव्रता से आती है जैसे मूसला- विश्व भर की समस्त आध्यात्मिक घटनाओं से घार बर्षा पड़ रही हो [अथवा एक जलप्रपात पूर्ण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसको अत्यन्त सतकंता से वेग से चल रहा हो। हम अनजाने में ही हतबुद्धि सावधानी पूर्वक सामन्जस्य एवं तारतम्य के साथ हो स्तब्ध रह जाते हैं । इस घटना की तीव्रता इतनी सम्पन्न किया गया है । यह तथ्य मानव प्राणी की अधिक मात्रा में तथा इतनी अ्कस्मिक थी कि मैं बुद्धि और समझ के बाहर है अर्थात् मानवीय सूझ- उसकी श्रेष्टता एवं महत्वपूर्ण ऐश्वर्य से चकित बुझ की मर्यादा (सीमा) के बन्धन में नहीं है कि होकर स्तब्ध, निश्चेष्ट एवं शान्त रह गई। मैंने स्वर्ग में कामकाज किस प्रकार से होता है । यह सनातन कुण्डलिनी को ज्वलन्त विशाल अग्निकुण्ड आप लोगों का सौभाग्य औ्और ईश्वर का अतुल प्रेम की तरह उत्थान करते हुये देखा था और वह भट्टी है कि जिसके द्वारा ये आक्चर्य चकित चमत्कार अत्यन्त शान्तावस्था घटित होते हैं। इस घटना के घटित हुये बिना एवं प्रज्वलित आकार धारण किये हुये थी, जैसे लोगों को सामूहिक रूप से साक्षात्कार प्रदान किया किसी घातु को अत्यन्त गर्म करने से बह बहुरंगी जाना सम्भव नहीं था। यहाँ या वहाँ केवल एक या वन जाती है । इसी प्रकार कुण्डलिनी भी एक सुरंग दो व्यक्तियों को ही जागृति प्रदान की जा सकती थी जेसी भट्टी या अ्रग्निकुंड के सदृश दिखाई पड़ती है। प्रन्तु उस दशा में सामूहिक रूप से जागृति दिये जाने जैसे आप इन पौधों को देखते हैं जो कोयले को का कार्य सम्भव नहीं हो सकता था। जानते हैं सहस्रार में सात प्रधान चक्रों की सीटे हैं और यह एक टेलिस्कोप की तरह आसन) वर्तमान हैं । मानव शरीर के अन्दर एक और एक के पश्चात एक आयो-शूट, शूट, शूट कुछ सहस्र नाड़ियाँहैं जिनको पलेम्स के नाम से पूकारा जाता इसी तरह से और देवतागरण पधारे और उन्होंने है और वे सब की सब प्रत्येक सोलह हजार शक्तियाँ अपने २ स्थान पर आसन जमाये, ये सुनहरी आसन धारण करती हैं। प्रत्येक नाड़ी विशिष्ट प्रकृति के और उन्होंने समस्त शिरभाग को की भांति मनुष्य के साथ व्यवहार करती है। इन सब नाहियों ऊपर उठा लिया शऔर इसको खोल डाला और के परिवर्तन से, और संयुक्तता से हो मानव जीव फिर इस मूसलाधार वर्षा ने मुझे पूर्णतया भिगो कर की देखभाल की जाती है। जैसे ही सहर्रार खुलता तर-बतर कर दिया । मैं यह सब देखती की देखती में थी, परन्तु जाजल्यमान जलाने के लिये रखते हैं। ये विद्युत उत्पादन करते से फैलाव में हैं जैसा कि आप 1. गुम्बद निर्मला योग ३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-5.txt रह गई और आनन्दोल्लास में खो गई। यह दूश्य (यह स्थायित्व) एक आदर्शभय स्थिति है परन्तु उस विल्कुल बैसा ही था जैसे कोई कलाकार अपनी शान्त चुप्पी के पशचात् आप करुणा और प्रेम रचना को देख रहा हो। मैंने महान सिद्धि को वाहल्य से ओत-प्रोत हो जाते हैं और आप उन लोगों उपलब्धि का आनन्द लिया । इस हपोल्लास के की ओर पकर्षित किये जाते हैं जिन्हें प्रभी तक यह सुन्दरतम अनुभव के पश्चात बाह्य अवस्था में आकर ज्ञात नहीं हुआ है कि [अखेि] क्या हैं ? (इस तथ्य का मैंने चारों ्र प्रवलोकन किया और पाया कि जीव- बोध कराने के लिये हो उन्हें इन अनजान लोगों की प्रोर खींच लाया जाता है ।) तत्पश्चात आप पड़े हैं और मैं प्रत्यन्त शांतावस्था में आ गई और अपना ध्यान लाखों लोगों के सहस्रार पर लगाने के तुरन्त इच्छा व्यक्त की कि मुझे अपने प्याले अमृत से प्रयास में जुट जाते हैं, फिर आप उन समस्याओं । को जो सहस्रार में वर्तमान होती हैं, देखना प्रारम्भ कर देते हैं। यदि आप सहस्रार को खोलने की आपकी जीवात्मा का सुन्दरतम भाग सेहलार इच्छा करते हैं जो एक अत्यन्त कठिन कार्य है, है। यह बृहत सहख्रदल कमल ब विध रंगों से कयोंकि दिव्पता की धारा को मानव जीवधारियों विभूषित और फूले हये अंगारों के सदृश दिखाई देते में प्रवाहित किया जाना मानव जीवधारियों के ही हैं। यह एक ऐसी वस्तु है जिसका अवलोकन बहुत माध्यम से सम्भव होता है। यह शक्ति बरापके अन्दर से लोगों ने किया है, परन्तु इस मूसलाधार वर्षं की विच्यमान हो सकतो है परन्तु इस धारा का प्रवाह गिरता हआरा देखने का दृश्य बिल्कुल वेसा ही है मानव जीवधारी के माध्यम से ही किया जाता है । जैंसा ये अंगारे फब्वारा बनाते हैं और बहुरगा बहुत धारी मानव कितने अन्वे हैं अर्थात् कअन्धकार में डूबे परिपूरित करने चाहिये, सारे रोड़़े पत्थर ही नहीं अपने समस्त जीवनकाल की अवधि में, मैं रंगीन फब्वारा । एकु सुगन्धि को फद्वारा; जब्र सी उद्बुद्ध आत्माओं (realised souls) को नहीं फैलाते आप एक फूल को रंग प्रदर्शन और सुगन्ध जान पाई है। उनको केसे पाया जायें ? उनका पार श्पने विचार में लाते हैं । लोगों ने सहस्रार के कैसे पाया जाये ? इसको किस प्रकार से सम्पन्न सम्बन्ध में बहुत ही कम लिखा है क्योकि उन्होंने किया जाये ? अत: मैंने लोगों की तलाश शुरू की जो भी कुछ देखा है वह वाह्य रूप से देखा है और और मुझे एक सत्तर वर्षीया बृद्धा मिली जो उनके लिये यह सम्भव भी नहीं है कि वे इसे किसी के लिये प्रत्थन्त आकुल-ब्याकुल थी। जब बह आन्तरिक रूप से देख पा सक । यदि आप अन्दर से मेरे सान्निध्य में अराई तो उसे पूरणं शान्ति का पहुँच पा भी जायं और समस्त सहस्रार खुला हुआ अनुभव हुआ। उसका सहस्र्रार बहुत थका मान्दा, नहीं है, तब उस स्थिति में अाप उसकी सुन्दरता घिसा विटा सा था औोर मेरे सहचर्य में, वह किसी अन्य कुछ के बारे में त्िचार कर रही थी परन्तु सारी बन्द कर दिया जाता है तब आप इसकी आत्मा के सम्बन्ध में नहीं, और उसका मस्तिष्क झिरी में से गुजर कर बाहर निकल जाते हैं। अन्धकार अ्रोर बादलों से ढका हुआ था| बारम्बार, परन्तु अप एक विशालाकार सहल्दल कमल को पुन. २ मुझे उसको बोध प्रकाश से प्रकाशमय बनाना अपनी कल्पना में लाइये और आप आन्तरिकता में पड़ता था । परन्तु फिर भी उसे जागृति प्राप्त नहीं हो प्रभा मंडल पर बिराजते हैं और बैठे हुये उन पा रही थी। बहुत सारे लोग, जो शुरू-शुरू में मेरे पंखुड़ियों के दल का अवलोकन करते हैं और वे पास आते हैं, केवल प्रपतने रोग निवारण कराने के समस्त सुन्दर विचित्र रंगो में रंगे और सुगन्धित उद्देश्य से ही आते हैं (मेरे पास) । यह शक्ति युक्त होते हुये और आनन्दोल्लास की धन्यता से स्पन्दन सामर्थ्य की योग्यता मेरे अन्दर बाल्यावस्था से ही करता रहता है । उस स्थिति में स्थित रहना ही विद्यमान थी। पहिले भी मैं साक्षात्कार प्रदान कर को नहीं देख सकते; क्योंकि जवकि यह सारा का निर्मला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-6.txt सकती थी, परन्तु जिज्ञासु को अत्यन्त सावधान एवं आरम्भ कर दिया। इस भौति से सामूहिक उत्क्रान्ति सहज होना पड़ता था तदर्थ । ऐसे गुरग प्रधान का श्रीगरेश हुआ । पूरुषों में से मैं किसी को भी मुलाकात का समय नहीं देती थी क्योंकि मैं बनवास में तों रहती नहीं, ि सहस्र्रार आपकी जागृति है-चेतना है । जय मैं तो एक सामान्यजन की तरह से रहती थी आऔर यह प्रकाशमय बन जाती है तो आप उस आस पास, पड़ौस में सामान्यजनों के बीच ही रहती दिव्य की तकनीक में प्रवेश कर जाते हैं। अब ये थी। उस अर्थ में वे सब सजगता से सावधान नहीं तकनीक दो प्रकार की हैं, एक उस दिव्य की रहते थे और मूझे उन के बीच में रहकर यह कार्य तकनीक दूसरी वह तकनीक जिसका अनुसरण अरप सम्पन्न करना पड़ता था। उनसे कै से बार्तालाप कर रहे हैं। आप दिव्य की भांति कार्य नहीं कर किया जाये कि वास्तविक संसार की क्या सत्ता है सकते परन्तु आप दिव्यशक्ति का प्रयोग कर सकते और मिथ्या क्या है जिसमें वे रहते हैं ? एक भद्र हैं और उसको चतुराई पूर्वक व्यवहार में ला सकते महिला जो सर्वप्रथम मेरे पास आई और हैं। उदाहरणा्थ, दिव्य समस्त जगत की घटनाओं साक्षात्कार पा गई, वह मेरे पास केवल इस हेतू की देखभाल करता है। प्रत्येक क्षुद्रातिक्षुद्र करणा भी आाई थी कि वह खोजने के विचार की पकड़ में थी । दिव्य के अधिकार में है। जब आपका सहस्रार उसने खोजा और पाया। यह एक प्रत्यन्त हर्षोल्लास का दिन नहीं था क्योंकि वह उन व्यक्तियों में अस्थि का स्पर्श क रती है तब आपके सहस्रार में से एक नहीं थी जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से साक्षात्कार एक ज्वलनशील सामथ्थ्यं जसी कोई वस्तु तैयार प्राप्त किया था । इस महत्वपूर्ण घटना के पश्चात रहती है और जैसे ही ब्रह्मरंध्र में शिरग्रभाग की बहुत एक हो समय में एक साथ पाने लगे । १६७० अस्थि की क्षेत्र खुलता है तब अ्रत्मा की करुणा, में वीडी (महाराष्ट्र प्रदेशान्तगत) के स्थान पर दया उस ज्वलनशील पदार्थ को सुलगाती है और हम प्रोग्राम कर रहे थे। वहाँ एक भद्र पुरुप ने सांध्य काल में साक्षात्कार पा लिया । द सबके सब ही नहीं होते परन्तु उनमें से काफी अधिक कालीन प्रोग्राम में बाधाओं ने विध्न डालना आरम्भ संख्या में, सारी लम्बाई में ही नहीं वरन् बिल्कुल कर दिया, वे सब पक्षपात किये जाने के उपालम्भ देने लगे । मैंने वातावरण में झांकक र देखा तो पद्धति है जिससे आप उद्बोधन, बोध ज्ञान, प्रकाश- मुझे उल्टे किस्म की चैतन्य लहरियां प्राप्त होती मय, इनलाइटनमेन्ट प्राप्त करते हैं। अत: (आप के प्रतीत खुल जाता है और परापकी कुण्डलिनी खोपड़ी की अपका नाड़ी तन्तुजाल प्रकाशमय हो जाता है। वे दूसरे दिन प्रातः सत घेरे में परिधि में-यह वही प्रकार है, ढंग है, बा हुई। क्योंकि वे गलत दिशा में प्रवाह कर रही थीं। सायंकाल की सभा में मैंने दूढ़ता से सख्त सहस्त्रार में सात केन्द्र विद्यमान है। इस प्रकाश से रुख अपनाया, मुझे तीव्र ग्राक्रीश था, मैं पहिले कभी भी इतनी क्रोधित नहीं हुई थी और मैंने उन सबको हैं। मेरा मन्तव्य है अप नहीं देखते हैं। परन्तु यह वुरी तरह से डांट डपट दिया। महान आश्चर्य का विषय था कि उनमें से बारह पुरुषों ने आत्म चेतन मस्तिष्क आपके साथ समन्वय का अनुभव साक्षात्कार प्राप्त कर लिया। यह एक महान महत्व- करता है अर्थात तादात्मय कर लेता है। विचार पूर्ण उपलब्धि थी । तत्पश्चात बहुत सों ने एक २ शक्ति जो हृदय से अलग की गई है, हृदय के साथ करके साक्षात्कार प्राप्त किया। उनमें से बापस जाते समय टून में साक्षात्कार पाया था । अक्समात तादात्मय स्थापित कर एकाकार हो जाती है। जहाँ ही उन्होंने चैतन्य लहरियों का अनुभव करना जहां भी आपका ध्यान जाता है आप सामूहिक रूप अन्दर) बहुत सी ऐसी वस्तुयें होती है क्योंकि अरपके ही आप उनकी सम्बन्धित स्थितियों को देख सकते आपके चेतन मस्तिष्क कार्य करती है। आपका एकाकार हो जाती है । यह घ्यान के साथ भी निमला योग ५ू 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-7.txt से कार्य करते हैं। आपके घ्यान की समस्त क्रियायें बहुत सी पुस्तकें उपलब्ध हैं जिन्हें यदि आप पढ़ना आशीषयुक्त होती हैं। आपका ध्यान स्वयं प्रभाव- चाहें तो वे ईश्व र विरोधी अर्थात् नास्तिकता के एक उरद्वुद्ध प्रकोशमय आपकी इच्छाये और भी अधिक महस्व परण है क्यो- सहस्रार उनमें रुचि नहीं लेता है । वह इनको शाली है। श्धका श्यान अत्यस्त महत्वपूर्ण है । कार्यों को सुझाती हैं । कि यह एक ऐसी वस्तु है जो एक्यता के सूत्र में यह विषतुल्य है । वापस बन्द कर देता है । मूत्र बँधी है। आपकी इच्छायें और उ्यान एकरूप हो जाते हैं । आत्मा के लिये जो अच्छा कल्याणकारी वह कभी भी नहीं चाहेगा कि विषाक्त विचार उसके मन में अरयं । आप यदि विष का पान आरम्भ करें है उसी की आप आकांक्षा करते हैं और प्रापका तो भी यह बन्द हो जाता है। इसी प्रकार वे लोग घ्यान वहीं जाता है जहाँ कहीं भी आध्यात्मिक जो क्रोधी स्वभाव के हैं, अत्यधिक क्रद्ध प्रकृति के शक्ति का प्रवाह (उद्गार) होगा। प्राथमिकतायें हैं और समस्त प्रन्य समस्यायें जो ईगो से सम्बन्धित बड़ी शीघ्रता से बदलती हैं। वे लोग जो प्राचीन हैं। यदि वे सहस्र्रार को बलात दवाना चाहते हैं एवं मौलिक है और उस्क्रान्त नहीं हैं, इस घटना या उसकी दबाने काা प्रयास भी करते हैं तो यह को नहीं खोज पा सकते हैं परन्तु वे जीवधारी सहस्रार बन्द होना आरम्भ हो जाता है। वे लोग जो जिनका मानसिक विकास हो चुका है उन के पास ध्यान है जिसके द्वारा वे जांच पड़ताल की कोशिश हुके हैं, तथा जो गलत किस्म की पूस्तकें पढ़ते हैं कर सकते हैं। त्रे सर्वप्रथम तो यही देखना चाहेंगे या ग्लत किस्म के माँ-बाप से हैं अथवा जो भ्रष्ट कि कुण्डलिनी किस प्रकार से उठाई जाती है । मिश्याचारी गुरुजनों द्वारा दुराग्रही बनाये जा देशवासी हैं अथवा भ्रष्टाचारी आजीविका कमाते हैं, ये सब सहस्रार को, स्वस्थ ढंग से, बढोतरी वे देखना चाहते हैं यह एक त्क संगत है। एक करने में सहायता नहीं करते वरन सहस्रार को सन्तुलित व्यक्ति के लिये प्रश्नसूचक कुछ भी नहीं बढ़ने देना ही नहीं चाहते हैं है। इस प्रकार के व्यक्तियों को कुछ सख्या हमारे में ही विद्यमान है । वे बस हो गये हैं और उनपर उंगली उठ नहीं सकती अर्थात सन्देहरहित हैं । वे चाहता ठीक से स्थायित्व प्राप्त कर लेते है । (सरल) हैं, वे विवे कशील हैं, आध्यात्मिक हैं। उनके गुरणों में भी कुछ दोप हो सहस्रार में परमानन्द की प्राप्ति का अनुभव यह केवल मात्र सहस्रार ही हैं जो बढ़ना आत्मा नहीं । जितना भी कोमल एवं दे सूक्ष्मग्राही सहस्रार होगा उतना ही अधिक आत्मा , सर्वोपरि वे में यह आध्यात्मिक गुरणों को ग्रहण करता है। है मासूम स वास्तव में शान्ति का अनुभव सहस्रार में सकते हैं जो आपके सहस्त्रार के साध्यम से ठीक होता है किये जा सकते हैं । सर्वप्रथम श्रापको अपने घ्रहें ही होता है क्योंकि वह मस्तिष्क है और मस्तिष्क को दबाना है; क्योंकि यदि ईगो वहां है तो वह नवंस सिस्टम का संग्रह है । सेन्ट्रल न्वस सिस्टम सहस्रार पर दवाव डालेगी। सर्वोच्च अहं की मात्रा भी कम करनी चाहिये क्योंकि यह भी सहस्रार पर संक्षप संग्रह भी बहीं पर है। अत: सहस्तरार के केवल अपना दबाव डालेगी और पोडित करेगी। अतः खोलने मात्र से कायं सम्पूर्णं नहीं हो जाता है सहस्र्रार को पूरां स्वस्थ अस्वथा में रखना आवश्य- कोय है । प्रत्येक को यह सोच-विचार करना चाहिये नाड़ियों की अपनी विविध शक्तियों के साथ और कि प्रत्येक की प्राथमिकताओं में परिवर्तन अवश्य जो उचित् एवं यथार्थ ढंग से (सुचारू रूप से) कार्य आना है । कुछ लोग अधिक समय ले लेते हैं क्योंकि कर सकें । परन्तु वे लोग जो साक्षात्कार के पदचात् वे विचार पूर्वक सावधानी से प्रयास करते हैं । ऐसी भी अपनी अपव्ययी (उड़ाऊपन)की आदतों में आसक्त (केन्द्रीय नाड़ी संस्थान ) अ्रथवा चेतना स्वयं का हमें अधिक से अधिक चैनल्स रखनी फडती हैं जो निर्मला योग ६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-8.txt हो उनके वशोभूत रहते हैं वे नाडियों में गतिरोध चाहिये। वह अपने चेतन चित्त के माध्यम से कर उत्पन्न कर देते हैं और विराट के लि ये हानिकारक सकता है, जैसा मैंने कहा कि प्रत्येक साधक को वास्तव में सिद्ध होते हैं । ऐसे लोगों को वास्तव में आपको ठीक करना चाहिये क्योंकि साक्षात्कार के सहजयोग छोड़ देना चाहिये, जिससे औरों का पश्चात जो कुछ भी आप चाहते हैं, जो भी आपकी बचाव हो सके अथवा ऐसे लोगों को निकाल बाहर इच्छा होती हैं वह दिव्य इच्छा मनोरथ का एक किया जाना चाहिये ्रौर हम सब को ऐसे लोगों से भाग हो जाता है और आप जो भी कार्य सम्पादन सम्बन्ध विच्छेद कर लेना चाहिये क्योंकि ऐसे ही करते हैं वह दिव्य कार्य का एक अंग हो जाता है । लोग उस दिव्य के महान् कार्य को सम्पन्न किये अत: हम सबको अच्छी तरह स्मरण रखना चाहिये कि सजग प्रयास द्वारा अर्थात् चेतन प्रयत्नों के माध्यम से हम बास्तव में अपने आपको खोज पा सकते हैं अर देखें यदि हम तदर्थ वास्तव में जाने का विरोध करते हैं । प्रत्येक वह मानव जीवघारी जो सहस्रार का विकास करना चाहता है उसे जानना चराहिये ईमादार भी हैं । कि इसका विकास बुरी संगति से नहीं करना चाहिये वरन् उसे अन्य सहजयोगियों की सुसंगति करनी चाहिय। उसे अपने अवकाश स्वयंनहीं बिताना सकते हैं कि सहस्रार के फेलाव प्रसार का केवल है श्रौर न ही अपना समय व्यर्थ खोना है। परन्तु अवकाश के समय का अधिकांश भाग अन्य सहज शीलता की आविश्यक्ता होती है, बृद्धि विवेक की योगीजनों की संगत के साथ बिताना चाहिये । यदि हम ईमानदार व्यक्ति हैं तो हम देख मात्र मार्ग सामूहिकता हो है । इसके लिये सहन- जरूरत पड़ती है और एक पैगम्बर का डील डौल चाहिये जो आप हैं और आपको प्रोफेटों जैसी बातें करनी चाहिये सहस्त्रार के पश्चात जब आप सहख्ार के ऊपर । वास्तव में, आपको अपने आपको हो जाते हैं, उस समय आप देख सकते हैं कि यह शिक्षित बनाना है कि एक पेंगम्बर किस भाँति से पत्त महत्वपूर्ण है और यह कि ये सब नाड़ी बातालाप करता है । यह कपट, छल या प्रभिनय पंज इकठी की जा कर रखी जानी चाहिये । श्रर नहीं है क्योंकि अरब आप जागृति पा गये हैं । जब समस्त केन्द्र (चक्र) और उनके देवगणों की अखण्डता और समन्वयता को अरक्षण्य बनायें रक्ख । यह कार्य चेतना के प्रयास के साथ भी किया जा सकता है, श्रपने आपकी चौकसी करते हुये पने विचारों की चौकसी करते हुये ग्रप अपने अहं का तथा सर्वोच्च अहं का अवलोकन करना आरम्भ कर दें। आप यह देखने के योग्य हो जाये गे कि आप अपने आपको कैसे धोखा दे रहे हैं श्रर करनी पड़ती है। आप अपनी त्रुटियों के लिये. अपने आप से कितनी वेईमानो करते हैं प्और किस भाँति अपने आपको आश्वस्त करते हैं। श्राप करने का प्रयास कभी न करें । यदि आप इसे सत्य अपनी अहं यात्रा को किस प्रकार की मौज-मस्ती से मना रहे हैं । तक कि आप जागृत नहीं किये गये थे, तब तक जो कुछ भी आप ऐसा कार्य करते थे सब बनावटी सहस्रार, एक नियंत्रणक्ता मार्गदर्शक, विस्तृत उत्कान्त सामर्थ्य और बढ़ोतरी के लिये तथा फैलाव के लिये सदैव सन्नध-तेयार रखने हैं । प्रत्येक को अपनी बढ़ोतरी की स्वतः चोकसी था । पलत कीय कलापों को त्क से खरा सच्चा सिद्ध सिद्ध करना चाहेंगे तब आप इस पर मनन एवं विचार भी करंगे। हमारे पास इस पर मनन एवं विचार करने के लिए समय नहीं है । हमें किसी सहज योग भाव (spirit) सद्श्य लोगों के और के लिये सोच विचार एवं मनन करना है । लिये है । अतः अन्य सब वस्तुओं को छोड़ देना क्योंकि ये अ्रत्य भी आपके मस्तिष्क में भरे पड़े हैं । निर्मला योग ७ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-9.txt और जब इन अन्यों के विषय में सोच विचार (being) में प्रवेश कर सकते हैं और उनकी आरम्भ कर देंगे और उनके पुनर्जीवन के सम्बन्ध कुण्डलिनी उठाते हैं। सहस्रार को प्रकाशमय होते में बातचौत करंगे तो आपका सहस्त्रार, निश्चय हये भी आपको एक नया प्रकाश देता है जिससे से, अपने साइज़ में उन्नति करेंगा और फेलकर आप समस्त सूक्ष्मातिसूक्षम देखते हैं, समस्त विलक्षण अति विलक्षण एवं मर्मज्ञ हो जायेगा| सुक्ष्मग्राही संवेदन शीलता की बृद्धि होगी । गहनता भी आप उच्चतर से उच्वतम विकास करना आरम्भ आयेगो । यह एक पेड़ के सदृश है, जब यह कर देते हैं तब आरप चैतन्य लहरियों को अपने उगता है, बढ़ता है इसकी जड़े फेल जाती है । अतः चारों ओर प्रकाश के रूप में देख सकते हैं । ो अपने खोलों से बाहर निकलना है और अपने पंख फैलाने हैं। आप प्रपने चित्त की छोटी २ वस्तुओं को निकाल बाहर करें ग्रथवा उनका रुचि नहीं लेते हैं परन्तु आ्रश्चर्यचकित हो जायेंगे परित्याग करदे पको एक महान स्पन्न व्यक्तित्व कि आप प्रत्येक वस्तु के सिद्धहस्त केसे हो गये- की तरह से रहना है जिसको अन्यों की सहायता, जेैसे कि श्रपका मस्तिष्क वही प्रादर्भाव कर रहा मागदर्शन, में देनी है। एवं रहस्यमयता वात्ावरण में देख सकते हैं । जब आप बहुत-सी चीज़ो में कोई भी (कुछ भी) सहारा और जागृति हजारों की संख्या है जिसकी आपने इच्छा की थी । और यह वही है जिसका श्रीकृष्ण भगवान ने वचन दिया था जो स्वयं वास्तव में विराट हैं। सो आप अपने मस्तिष्क यदि फांस में सहस्त्रार दिवस एक नया शक्ति के मास्टर हो गये हैं क्योंकि वास्तव में जीवात्मा सञ्ालन (dynamism) इस देश में स्थापित मस्तिष्क की मास्टर है। जितनी अधिक श्रप करता है तो मुझे पुरण विश्वास है कि यह लोगों के प्रपनी जीवात्मा को अपने ध्यान में लायेगे उतना विचारों को ऊपर से ऊपर ही पकड़ लेगा और ही अधिक सहस्त्रार साइज में बढ़ोत्तरी करेगा । इसकी प्रतिध्वनि चित्त में गँजती रहेगी ना उनकी जीवात्मा में इसको स चा रित कर सहजयोगी हो जाते हैं। यह सर्व- शक्तिमान ईश्वर देगी और वे एक नये सिरे से सोच विचार प्रारम्भ के लिये एक सर्वाधिक महान् वस्तु होगी यह कहने कर देंगे । अव नये नये बही सफलताओं के प्रवेश के लिये कि "देखिये ! यह घटना घटित हो गई हैं । द्वार खुलेंगे अर्थात् अब नई नई घटनाये घटित होगी अतः फ़िलहाल बह अपने आक्रोश को और करोध को और लोग सत्य की ओर तर्क से (logically) स्थगित कर देगा, सो वह भ्रपकी त्र टियों के लिये जानो आ्रारम्भ कर दंगे । वे सही निर्णयों पर आपको क्षमा प्रदान कर सकता है और हट को पहुँचने लगेंगे और जो और बृथा होगा उसका परित्याग कर देंगे। । उनकी उसका प्रकाश फंलेगा र ग्राप एक शाक्ति सम्पन्न और विवकानी हरकतों को भी माफी दे सकता है । मानव को अपने परमरपिता की श्रेष्ठता महानता औ्र कीर्ति यश प्रताप को दर्शन लाभ लेने हेतु कुछ भी निरथंक, अपध्ययी सहस्रार आत्मा के लिये राजसिंहासन है और उत्थान करने दीजिये । उसे ईश्वर की दयालुता राजा उससे भी बड़ा है। राजसहासन विशील एवं करुणा को करने की शक्ति भी प्राप्त करने है । जिस प्रकार आत्मा से व्यवहार करते हैं वही आपके सहस्रार में भी प्रकट होता है । प्रौर इसी प्रकारान्तर से आप चित्त के द्वारा दिव्य के कार्य कलापों का सम्पादन सहन दीजिये । उसे सहस्रार को इतने परिमारा (ग्रायाम) तक विकास करते देखने दीजिये कि वह अपने चेतन अथवा रीति से आप साक्षात्कार दे सकते हैं । तब फिर [आप विलक्षण रहस्यमय जीवात्मा बन जाते हैं। आप सजग प्रयास के माध्यम से अन्य (व्यक्तियों) की जीवात्मा कर सके । सहस्रार का एक मन्त्र है । वह है "निर्मला", निर्मला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-10.txt जिसका अर्थ है कि प्रत्येक को स्वच्छ, सुथरा, पवित्र यहो कारण है कि मैंने सहस्त्रार दिवस यहां मनाने और निष्कलङ्क रहना चाहिये । यही आपकी का निश्चय किया । फान्सीसी सहजयोगियों का सम्पत्ति है। आप इसको स्वच्छ और साफ़ सुथरा उत्तरदायित्व (जिम्मेदा री) अत्यधिक मात्रा में है। रखने का प्रयत्न कोजिये प्रर निश्रयपूर्वक एक पग उन्हें [अपने रहन-सहन, व्यवहार, आचार के ढंग, और अग्रसर हो जायेगी। यह एक और बहुत अधिक विधि, तरीकों को बदलना पड़ेंगा अ्थात् अपनी संख्या में परिमारण में (नये आयाम में) वेग आचार विचार संहिता में परिवर्तन लाना होगा । से क्लूदना होगा। नुतन उन्हें कृपायुक्त, करुणामय, सुशोल तथा स्वस्थ होना -वास्तविक सच्चा खरा मानव बनना है। परन्तु आज पैरिस में उपस्थित होना एक महान् उन्हें साथ ही साथ सूदढ़ सहजयोगी भी बनना है प्रसन्नता का द्योतक है । फ्रांस के पेरिस नगर पर जिससे जब अन्य लोग उन पर दुष्टिपात करें तो समस्त संसार का ध्यान आकर्षित होना आवश्यक उन्हें उनमें (सहजयोगियों में) थेष्ठता का दर्शन है। यह देश जिसको शापित किया गया तथा समस्त देवगरणों द्वारा विसार दिया गया है क्योंकि । सहस्रार दिवस समारोह से पूर्व मानव जीवात्माओं ने अत्यन्त त्रुटिपुर्ण, भ्रष्ट मार्ग कल में भी हम सफलतापूरवक कार्यक्रम सम्पन्न कर अपनाया है। इस देश में सर्वत्र देवता लोगों को क हैं। मुझे यह सब देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्रतिष्ठित होने दीजिये । ध्यान है और जो कुछ भी हम ध्यान घरते हैं अरथवा जिस किसी पर भी हम अपना ध्यान केन्द्रित करते कामनायुक्त शुभाशी्वाद देती हूै । जिन्होंने सहत्रार हैं, उसकी रिपोर्ट हमें सहस्रार के द्वारा प्राप्त हो की प्रगति एवं विक्रास के लिये एवं इसे प्रकाशमय जाया करती है। अतः हम मंगल कामना करते हैं बनाने के लिये स्तुति-प्रार्थना आदि कार्य किये हैं कि फ्रान्स देश का सहस्रार खुल जाये और फ्रान्स जिससे वे इतनी विशालता से फैलाव कर सकते हैं। का ध्यान प्रात्मा की ओर लगे, के न्द्रित हो और अतः वे उस सम्प णं के साथ एकता स्थापित कर यहां के निवासी शाश्वत सनातन जीवन व्यतीत एकाकार हो जाय । करे । यह एक अत्यन्त महत्वपूर्णं देश है जिसमें सम्भ्रान्त, सभ्य विद्वान् लोगों का निवास है । दृष्टिगोचर हो प्राप्त होती है । व्योंकि यह केवल मात्र अब मैं संसार के समस्त केन्द्रों को अपनी मंगल भगवान आपका कल्याण करें । अमृत-वाणी ( १) क्या जीवन में यह विलक्षण घटना बहु-संख्यक जन समुदाय को उपलब्ध होना सम्भव है जिसके द्वारा वे अपने स्वयं के सृजनात्मक जगत को सर्वव्यापी शक्ति के महान् विश्व में धूरणांन करते (reveluing) देख सके ? मेरा एक मात्र उत्तर है-हाँ। मेरा एक मात्र प्रश्न है-क्यों नहीं ? -परम पूज्य श्री माताजी (२ ) ध्यान निरन्तर चिर वात्सल्यमयो मां भगवती के सान्निध्य स्थित रहने की अवस्था है । इसके अरतिरिक्त कुछ भी नहीं । -परम पूज्य श्रीमाताजी निमला योग ६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-11.txt श्री माताजी प्रसन्न मत्प्रिय सहजयोगी ! मानव चित्त में बहुत भ्रम भरे हुए हैं। भ्रम छुटने से ही मानव चित्त ज्ञानरूप और आनन्दमय होगा । कुण्डलिनी जागृति से आपके बहुत से भ्रम छूट गये हैं १. आपने यह जान लिया है कि मनुष्य में कुण्ड- लिनी एक जागृत शक्ति है, कल्पना नहीं। ७. विश्व का निर्माण क्यों और केसे हुआ परमात्मा का अस्तित्व है ? ये प्रश्न मूलभूत हैं। देवगगणा भी इन्हें समझ नहीं सके । परन्तु मैंने जो कुछ भी कहा है इसकी सच्चाई चैतन्य लहरियों से जान सकते हैं । इसके लिए चेतन्य लहरियों का अच्छा ज्ञान होना चाहिए । ? क्या जब औप अनुभव द्वारा सीख गे कि प्रेम प्रौर सत्य एक ही है और अनुभव द्वारा ही सूक्ष्म ब्रह्म-तत्व को पहचानेंगे कि ब्रह्म विकार रहित है तब आपका भ्रम छूटेगा। बरह्मतत्त्व आपके अन्दर कमल के समान खि लेगा और उसकी सुगन्ध चारों तरफ़ फेलेगी। जब आपका चित्त ब्रह्म के समान होगा तब आपका भ्रम, जो मिथ्या है, टूटेगा। २. यह शक्ति समस्त मानव जाति में है। उसका उद्दीपन स्वस्थ मनुष्य में सहज स्वाभाविक रूप से होता है । ३. यह उद्दीपन किसी कार्य से नहीं होता है । किन्तु साधक यदि दुष्कर्मी है तो यह उद्दीपन कार्य नहीं होता है कारण, कुण्डलिनी सुप्ता- वस्था में भी उसके कम्मों से अवगत होती है । उसे विवेक है । साधक की मां होने के नाते उसके भले बुरे का ज्ञान होता है कुण्डलिनी की ब्रह्मतत्त्व सूर्य के समान है फिर भी उसकी किरें जल (मिथ्या) पर प्रतिबिम्बित होकर मानव चित्त को विचलित करती है। किन्तु जब आपका नित्त स्वयं व्रह्म हो जाबेगा तब विचलित नहीं होगा जो ध्यान धारणा से संभव है। ध्यान का अर्थ है प्रेममयी भगवती का सात्निध्य । कृपा से साधक का रुग्ण मन व शरीर ठीक होता है । ाडे ४. कुण्डलिनी भगवतो की इच्छाशक्ति है । वह भगवतो के सङ्कुल्प मात्र से जागृत होती है । उच्चकोटि के मनुष्य को इसके लिए काफ़ो प्रयास करना पडता है। किन्तु इसमें उसका कोई दोष नहीं । शव आपके अन्दर सामूहिक चेतना जागृत हो गई है । यही सामूहिक चेतना ब्रह्मशक्ति है । यह सम्पूरणं विश्व में है । करण-करण में फली है। यह जड़ता में जड़, चेतना में सौन्दर्य, जाग्रत में अरनन्द और सहजयोग में चिदानन्द, परमयोग में परमानन्द और भगवती में ब्रह्म भूत्व शक्ति है । यह सब आपने समझ लिया, जाने लिया अब इसका अनुभव कीजिए। मन को स्थर बनाकर, समर्पित करके भ्रमरहित वनिए यही मे रा ५. ब्रह्मातत्व, जोकि चेतन्य लहरी के रूप में अप के शरीर से बहुता है आपके शरीर, मन एवं अहङ्कार को साफ़ करता रहता है। जब भी चैतन्य आपके चक्र धुमिल पड़ते हैं तब ये लहरियाँ आपको सूचित करती रहती हैं । ६. जब आप स्वस्थ शरीर, शुद्ध मन और अहङ्कार हृदय रहित होते हैं तब आत्मानन्द मितने लगता है। [आशीर्वाद है । आनन्द की लहरें आत्मा में वहने लगती हैं क्योंकि आत्मा का आनन्द निलप होता है । सर्वदा आपकी ही माँ, निर्मला निमला योग १० 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-12.txt ओल्ड अलर्सफ़ोर्ड परम पूजनीय माताजी श्री निर्मला देवीजी दिनाङक १८ मई १६८० ई० बिकमिंग' (उचित्, अनुरूप, युक्ति होना) यहकेवल मात्र इस कारण विश्लेषण क़ायम है यह उन्हें पगला देने वाली से है कि मैंने आपको जन्म दिया प्रक्रिया है । यही बात है कि वे अ्रपने साक्षात्कार है । मैं आपको सूचित करना के साथ चिपके हये हैं, संलग्न हैं। प्रत्येक वस्तु पदार्थ चाहती है कि पूर्वकाल में किसी के दूसरे आकार अथवा पक्ष का विवेचनात्मक आप देख रहे हैं पंजों का दूसरों की चिकित्सा कर उन्हें विश्लेषण, टाँगों का विश्लेषण, नाखूनों का विश्ले- भला चंगा बना देते हैं। सहज- पण किया जाता है। और उनको दूरबीन पर योग में आप व्याख्यान दे सकते चढ़ाया जाता है और उसका निरीक्षण परीक्षण हैं, गराप अपनी समस्याप्रों को जान सकते है, यप भी किया जाता है। वहाँ पैरों से ऊपर चढ़ने का अपने अ्सपास के पड़ौस से भी अनभिज्ञ नहीं है। काम लिया जाता है और आप लगे हैं चरणों और आप अ्पने आपको स्वच्छनिर्मल रख सकते हैं तथा पाँवों का विश्लेषण करने । देखिये सारा का सारा अन्य लोगों को भी साफ़-सुथरे बना सकते हैं । यह प्रयोजन ही निष्फल हो गया जब आपके हाथ जो साक्षात्कार के साथ एक गठरी में बँंधा है । कितनी भी कूछ लगा अथवा जो सिर पर आ पड़ा तभी सुन्द र उत्साही एवं साहसिक कुदान है जो केवल आप उसका विवेचनात्मक अध्ययन प्रारम्भ कर इच्छामात्र से प्रथम जागृति है। यही से अपने देते हैं। अतः आपको कहना है और चाहिये भी श्रब समाप्त हो गया है सम्पूर्ण हो गया है, अब मैं ने भी यह नहीं किया था। आप विश्लेषण करना । शुभारम्भ किया है । परन्तु वे ही समस्त वस्तुयें जो पहिले कौतहलवद्धंक दृष्टिगोचर हो रही थीं जब कि आपने इच्छा की थी, वे एक विलक्षण ही व्यक्ति बन गया हूँ ।" एक दूसरा रहस्यमय सुन्दर अकार के रूप में आपके अन्दर आ विराजीं । उस समय में आप, अराप निश्चय से है, तब अपकी इस जागृति में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अपने चक्रों को, उनकी समस्याओं को महसूस करते बस्तु हैं। आपको स्वीकार करना चाहिये कि जब हैं और तत्काल ही उनका विश्लेषण करना आरम्भ एक पूरुष, मृत, समाप्त होकर चला गया है। "मैं कर देते हैं। सबसे विकट समस्या पश्चिम वालों के एक भिन्न व्यक्ति हैं, अलग थलग हैं। अब लोग साथ यह है कि वे विश्लेषरण आरम्भ कर देते हैं । इसकी स्वीकारोक्ति को कितना दूष्कर कार्य समझ आप उनको कोई भी मामला दें वे तत्काल ही उस रहे हैं क्योंकि वहाँ श्री अहं जी विराजते हैं ।यह आप का विश्लेषरण आरम्भ कर देते हैं। उनको कोई भी को आज्ञा नहीं देगी और कहेगी कि "हे भगवान् दीजिये वे विश्लेषण कर बैठेंगे। एनेलिसिस यह कैसे हो सकता है, मेरे कहने का तात्पर्य यह है जब आपको साक्षात्कार की उपलब्धि हो जाती वस्तु विवेचनात्मक विश्लेषण) एक महान् वस्तु बन गई कि आपमें पूर्णतः परिवर्तन आ गया है, क्या आप और यही कारण हैं जिस प्रकार से यह विवेचन कल्पना कर सकते हैं कि आप लोग, लोगों को *Becoming-परम पूजनीय माताजी के अंग्रेजी में दिये गये भाषण का हिन्दी अनूवाद । निर्मला योग ११ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-13.txt साक्षा्कार करा सकते हैं । आप किसी को भी कह अप्रतिबद्ध शक्तिशाली हैं और यही शक्ति है आपके देखिये वे तत्काल कहेंगे कि "ओह मैं यह जानता माध्यम से प्रवाहित हो रही है और आप साक्षात्कार है।" वे सब के सब भाग खड़े होंगे, उनमें से कोई प्रदान कर रहे हैं। [शर यह भी है कि आपका भी विश्वास नहीं लायेगा परन्तु श्रापको ज्ञान है कि भ्राता कुछ न कुछ विशिष्टता लिये भी हो सकता आप साक्षात्कार दे सकते हैं । कोई भी विश्वास हैं । श्रद्धा केवल धद्धा ही नहीं हैं क्योंकि मैं कह रही नहीं करेगा। एक बार एक योगी महाराज मेरे हूँ, पास आये श्ीर] [कहने लगे कि माँ यह कैरसे हो सकता तो इसे देख पाया है कि यह वास्तव में है । क्या है ? वह विश्वास ही नहीं कर सके कि वे हुआ यदि अपने इसे देख भी लिया परन्तु आप इस साक्षात्कार दे राकते हैं। वे दया के पात्र योगी में विश्वास तो नहीं ल। पा रहे हैं। अब मुझे क्या बेचारे काफ़ो वर्षों से योगाभ्यास कर रहे थे । कहना चाहिये ? यदि आ्प विश्वास करते हैं कि यह आरम्भ में बह विश्वास नहीं करता था-वही योगी ऐसा है-सत्य है, तो यह श्रद्धा हुई। कल्पना अब फटाक-फटोक साक्षात्कार दे रहा है। यदि कीजिये श्रद्धा का अर्थ है-तात्परय है अन्धापन । यह विश्वास भी करे तो भी आप साक्षात्कार दे सकते हैं आपकी अखिों को और खोल रहा है यह देखने के परन्तु इसमें समय का अरधिक लगना स्वाभाविक लिये कि यह क्या है और इसको स्वीकार करना है-क्योंकि "विद्वासो फलदायक की उतक्ति कि यह यथावत है-ऐसा ही है। उस समय श्रद्धा चरितार्थ हये बिना नहीं रहती। वे विश्वास ही नहीं उमड़ेगी, उभरेगी । कर सकते हैं अत: अनुरूपता (becoming) के लिये अरापको विश्वास धारण करना ही पड़ेगा, हाँ आप साक्षात्कार प्रदान कर रहे हैं। निःसन्देह, श्रापकी सहायता करती है । यह और कुछ नहीं है आप इसको श्वेत वस्त्र के समान ग्रपनी खों के कैवल थद्धा की शक्ति है। मुझे यह कहने में, कहना सामने देख रहे हैं। फिर भी आप कह रहे हैं कि यह चाहिये कि श्रद्धी की शक्ति सर्वाधिक यूक्ति शक्ति वस्त्र श्वेत नहीं काला है। शर्ट व्ल्यू है। अतः यह काला नीला व्यवहार ही निकृष्ट है । हैं-बोधन करते हैं कि आपने अब तक जो भी आप साक्षात्कार प्रदान कर रहे हैं । कसे कल्पना कर रहे हैं कि आप मनो- चिकित्सिक के पास जा रहे हैं । आ१ तो साइके और इतना त्वरित है। यह इतना कुछ अधिक ट्रिस्ट को भी साक्षात्कार करा सकते हैं। वह डॉक्टर मात्रा में उत्कृष्ट ह जो आपकी चिकित्सा करने जा रहा है, आप उसको जाना है और फिर आप विस्मित होते हैं, आशचर्य साक्षात्कार दे सकते हैं । आप विश्वास करिये, आप में इबकी लगाते हैं फिर आप श्रद्धा करने की स्थिति दे सकते हैं । परन्तु जब आप उससे कहें गे कि मैं में आते हैं। अब जब मैं अरापको अपने हाथ (इस आपको साक्षात्कार कराना चाहता है तो वह भाग प्रकार) मेरे सामने फैलाने को कहती है और 'बन्धन खड़ा होगा। परन्तु आप अपने में विश्वास घारण देने को कहती हैं तो निহवयपूर्वक यह काम करता कीजिये। यह वह स्थान है जिस पर आपको श्रद्धा- निष्ठा लानी है । यह श्रद्धा भक्ति जो आपने साक्षा- आरम्भ कर देते हैं कि जब माँ इस प्रकार अपने त्कार के रूप में प्राप्त की है, सब सहजयोग द्वारा ही आप पर क्रिया करती हैं अर्थात् अपने हाथ को सुलभ हुई हैं। यह एक अतुलनीय शक्ति है। यह एक सर्वव्यापी शक्ति है जो अत्यन्त, अबाधित, तभी हम अनुभव करने लगते हैं कि हम माताजी में क्योंकि यह अन्धी है, चक्षहोन हैं, परन्तु आप ने इस स्टेज पर, यह श्रद्धा की ही शक्ति है कि जो becoming) है । क्योंकि इसी समय आप विचारते कुछ आप ज्ञान प्राप्त किया है उसका कोई मूल्य ही नहीं हैं। यह सव कुछ इतना महान् हैं, इतना विशाल है कि आपने इसे पहिले कभी नहीं है-कार्य परिणति होती है । तत्पचात् आप देखना झटकाती हैं तो इसका अनुभव हम सबको होता है । निर्मला योग १२ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-14.txt हैं और माताजी हमारे में है और हम इस तादात्मय रखते है । यह तृतीयावस्था है । अब इस तृतीया- एक रूपकता के प्रति सजग भी रहते हैं। वे ही वस्था में, अ्राप इस तृतीयावस्था तक उत्थान कर हमारी सर्वातीत लाभदायकत्व बन जाती हैं। तभी पहुँच पाये हैं-केवल एकमात्र मार्ग पूर्ण धद्धा है । श्रद्धा का उदय होना आरम्भ हो जाता है । [आप] श्रद्धा के बारे में सर्वप्रथम तो आपको कुछ वस्तुएं इसका बोध ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि यह सौखनी पड़ंगी, उनमें से एक तो है शिष्टाचार, विन्यास, विश्लेषण, विवेचन की परिधि से बाहर परत्तु धद्धा के साथ यदि आप शिष्टाचार सीख है। केवल मृत वस्तु अर्थात् जड़ वस्तुओं का ही आप कर पारंगत हो गये, उस दशा में आप इसके विश्लेषण कर सकते हैं । चेतन का (जीवित अवस्था सम्बन्ध में कुछ भी बुराई (अनिष्टता) का अनुभव में) आप नहीं कर सकते हैं। वह संजीवन के भी नहीं कर गे । परन्तु यदि आपको इसके लिये बल किया गया अथवा जोर जवरदस्ती की गई उसे सिद्ध (प्रत्यक्षीकरण) कर नहीं सकते । अल्: तो आपको अरुचिकर प्रतीत होगा। यह मिश्रित आप आत्मसमपरण प्रारम्भ कर देले हैं। जब आप अवस्था बेरकरोर रहेगी। सो श्रद्धा के विकास हेतु समर्पण करना आरम्भ कर देते हैं और श्रद्धा आनी सर्वप्रथम तो प्रापको अपने आप स्पष्टता से समानता शुरू होती है तब अ्रपकी चेतना वरतमान दशा से से कहना पड़गा। कि "क्या आप नहीं देख रहे हैं कि औ्र ऊपर उठती है और ये छोटी-छोटी क्षुद्र-ुद्र घटना घटित हो रही है ? क्या आप नहीं देख पा रहे वस्तुएं जो रहस्यमय बन जाती हैं आप से विदा हो है कि यह ऊपर की ओर उठ रही है-उत्थान कर जाती हैं। यह तृतीय स्तर है जहाँ आपके तीनों रही है ? क्या आप समझ नहीं पा रहे हैं ?" अपने आप से कहिये, 'क्या यह त्वरित शक्तिमान नहीं है ? की क प्रयोग बाहर है-यह वह है जो कुछ कि यह है। सो आप गुरग दूश्यम।न हो सकते हैं। परन्तु वे आप पर अपना प्रभाव नहीं डालगे। सो प्राथमिक स्तर पर आप सुखासन से वराजकर सोच विचार कीजिये आप इच्छायें, कामनायें रखते थे । द्वितीयावस्था कि यह कितनी आश्चयंजनक है, सह कितनी 1. महान् है। आप महासागर से बात करें, पूछ्पों से बात करें अर्थात् में जो एक बड़ो भारी चीज़ है, अराप रपनी इच्छाओं की अभीष्ट की पूर्ति होते देख सकते हैं । परन्तु ये ये मानव जीवधारियों से कहीं श्रेष्ठत र हैं। सब रहस्यवादिताये आप में भी मिश्रित हैं-धुली ये जड़ वस्तुयें चेतन से कहीं वहतर हैं । उनसे कहिये मिली हुई है। तुतीयावस्था में पराव उन्हें देख सकते क्या आप ऐसा नहीं सोचते हैं ? आप म्युजियम पुरातत्व संग्रहणालय) में जाइये और वहाँ उन यह तृतीय अवस्था वही है जब कि प्रत्येक को देखना समस्त मूर्तियों को सम्बोधित कीजिये कि "मैंने पड़ता है कि वे आप पर प्रभाव डालकर प्रभावित खोज पाया है, और मैंने उपलब्धि की है अर्थात मैं तो नहीं कर पा रही हैं। आप पकड़ भी देख पा ने ढुंढ लिया है और पाकर धिकार में कर लिया रहे हैं। परन्तु उस समय आप इसे पकड़ (केचिंग) है । अपने अ्राप से कहिये । इस प्रकार अपने आप नहीं कहते हैं । शप इसे रेकार्डिग (recording) से कहने से अप श्रद्धा का विकास कर लेंगे । और कोई मार्ग नहीं है । बहुत से लोगों ने मुझसे (माता उपकरण मात्र हैं । आप केवल रेकारडिग हैं । उसका जी से) यह प्रश्न किया है कि "श्रद्धा का विकास किस प्रकार किया जाये, अब यह एक निकृष्टतम निरर्धक वस्तु है । यहाँ आप कुण्डलिनी को आप उसके अन्दर इतने शक्तिशाली बन जाते जान रहे हैं, आप साक्षात्कार दे रहे हैं और हैं (हो जाते हैं) कि इस कैचिग (पकड़) का प्रभाव फिर पीछे मुड़ते हैं और पूछते हैं कि माँ, हम न्यूनतम हो जाता है। आप उस प्रभाव का रेकार्ड श्रद्धा को कैसे विकसित करे ?" इस (मूर्खता) को हैं, परन्तु वे आप पर अपना प्रभाव नहीं डालती हैं। ( कहते हैं। आप सोचते हैं कि हम यन्त्र हैं- प्रभाव क्रमशः क्षुद्रातिक्षुद्र होता चला जाता है । निर्मला योग १३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-15.txt समझ पाना मेरे बलबूते और समझ के वाहर की सुचना के लिए बताती है। इन फ़ोटोग्राफ्स को आप चीज़ है । मेरा तात्पर्य है कि यहाँ क्या हो रहा है लोगों ने स्वयं ही विकसित किया है । और ग्रापने और आप कर क्या रहे हैं? वेराव आरम्भ करती है। मेरे कहने का मतलब है थी कि यह फोटोग्राफो मूझे इस प्रकार से पकड़ लेगी। कि यह तर्क वितरकं, अ्रालोचना प्रत्यालोचना में नहीं यह तथ्य निश्चय से सही है। यह विकास आदिशक्ति लगती वरन् अपने में आत्मसात, (समा) विलय कर लेती है । यह वार-बार फटती भी नहीं है निस्सन्देह यह बिना कहे ही रह जाता है कि यह केवल सोखकर जजब कर लेती है । यह सोखने की आपने विकसित किया है। मैं स्वयं भी नहीं जानती प्रक्रिया अथवा आत्मसात प्रक्रिया में कई अन्य थी। आपको आश्चरय होगा कि मैंने भी यह देखना प्रकार से भी बाधायें पहुँचाई जाती हैं। [आत्मसात के माध्यम से ही आप बढ़ोत्तरी पा सकते हैं। एक अधिक प्रभावशाली हैं । क्योंकि ये मूर्तियाँ निर्माण पेड़ करसे बढ़ता है ? यह केवल मात्र आत्मसात से । की जाती है इसके अनुरूप कि जैसे मैं पहिले थी । इस आत्मसात का मुख क्या है ? निविचारिता है । निर्विचार क्या है ? जहाँ आरप इसके सम्बन्ध में सोच मेरी सत्ता है। मैं स्वयं भी चकित हुई कि यह तो विचार नहीं करते हैं । अब, जब मैं अपसे आग्रह चेतन्य लहरियां बाहर फेक रही है और जीवन भी, करतो है कि आपको सोचविचार नहीं करना है। अ्र मेरा फ़ाटों इतना श्रष्ठ अया । प्रधान समस्या कुछ निचली अवस्था में लोग कहेंगे "ओह, अ्राप जानते हैं वह अ्रत्यधिक प्रभुत्व स्थापित करने वाली के साथ केसे सम्पर्क साधा जाये । आप कर सकते हैं (dominating) है यह शासकीय प्रभुत्व भाव से एक सौ व्यक्तियों से सम्पर्क, और अाप दो सौ सम्पन्न है मुझे कहना चाहिये। परन्तु यह आरात्मसात व्यक्तियों से भी सम्पक साध सकते हैं। अधिक से की प्रक्रिया तभी हो सकती है जब आप में धद्धा अधिक प्रप] एक हजार से सम्पर्क स्थापित कर हो। और यह सारी की सारी आपके अान्तरिक में सकते हैं । क्या आप इस समूह को देखते हैं, यह चली जाती है, आप एक शिशु की भांति चूसते अत्यन्त सरल है, यदि आपको कुछ व्याकुलता का रहिये, रस पान करते रहिये। समस्त वस्तु आपके अनुभव हो आप कुछ घन राशि व्यय कीजिये और अन्दर जाती है, जैसे किसी झील या खाड़ी में जिस आपका अभोष्ट सिद्ध हुआ| सहज योग एक घटना में कोई दरार नहीं है, यह सम्पूर्ण को प्रतिबिम्बित करती है, समस्त सृष्टि इसमें समायी है पूरणंरूपेण । यह धद्धा फिर अपना अपना ही तरीक़ा अपनाया है। मैं स्वयं नहीं जानती (Holy Ghost) की सहायता से हुआ है परन्तु आरम्भ किया है कि ये फोटोग्राफस इन मूर्तियों से वयोंकि यह वर्तमान की वस्तु है; यह वह है जैसी इस बात की थी कि इतनी अरधिक संख्या में लोगों है, जागृति है, और साक्षात्कार भी है । इसका हल किस भाँति से होगा। यह मेरे लिये एक अत्यन्त विकट समस्या थी । हूं यह ऐसा नहीं था कि मैं आपको पुस्तक दे द्ती हूँ यदि इसके अन्दर दरारें पड़ जायें, फिर फेलाव विस्तार होता है । यह भ्रम क्या है ? व्यग्रता और घवराहट क्या वस्तु हैं ? ऐसी ही स्थिति श्रद्धा की भी है जो द्वितीय से प्रारम्भ होकर तृतीय तक जाती है। हैँ. और वापस ले लेती हैं। इसको पढ़ती है श्रर कहती है कि "हाँ, मैने इसे पा लिया है, मैं हो गया हैं यह वास्तविक होना है, पकाना है (परिपक्वावस्था उदाहरणार्थ, अब हम सामान्य सा मामला, अपने में पहुँचाना है), प्रौढता को पहुँचाना है और यह फोटोग्राफ़ का ले लेते हैं । पहिले फोटोग्राफ़ नहीं सजीव पद्धति है। अब मैं इसे कैसे करू? और करते थे । केवल मेरे जोवनकाल की अवधि यहाँ इसका उत्तर प्रस्तुत है-फोटोग्राफ में । यद्यपि हुआ में ही ये फ़ोटोग्रापुस आरम्भ हुये हैं । यह आपकी टी. वी. वालों ने मूझे परदे पर दिखाने के लिये १४ निमंला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-16.txt शभी आभन्वित नहीं किया है, परन्तु भारत में मैं रखती थी । एक सम्वन्धी उसके पास आयी परद पर आ चुकी हैं, केवल पूना में, यहाँ नहीं यह एक दुष्कर कार्य भी प्रतीत होता है। पहिले तो मजाक़ बनाती थी। और भी कई प्रकार की उन्हें सब वस्तुओं को एक स्थान पर जुटाना पड़ेगा, वुरी हुरकत उस फोटो के साथ करती थी । वह फिर मुझे जाना पड़ेगा, जैसा कि सदैव होता रहता उस फोटो को मेरे सामने लाई और कहने है। जो कुछ भी है आपके समस्त प्रचार माध्यम लगी कि सब काला और अस्पष्ट हो गया है। सो मेरे फोटो के माध्यम से प्रयोग में लाये जा सकते मैंने उससे पूछा कि वहाँ और कौन था । उसने हैं ओर धन्यतायुक्त वताया कि मेरा एक सम्बन्धी प्रया था जिसके और वह उस फोटोग्राफ की हँसी उड़ाया करती थी, । क वया ही सुन्दर सुखद यह है । और फोटोग्राफ, यदि आप वचार करो तो कारण इसकी यह दश हो गई है अर्थात् विकृति मेरा प्रतिनिधित्व करता है मेरा विचार है आप उसका प्रस्तुतीकरण सही ढंग से नहीं कर पा रहे इसको समूद्र में पधरा देते क्योंकि उस पर से मेरा हैं। मैं प्राशचर्यचकित हो गई कि मेरा फोटोग्राफ ध्यान हट चुका है। इसमें से चंतन्य लहरिया नहीं इतना ऋधिक शक्तिशाली है कि बहुतसी मूतियां आयेगी क्योंकि मेरा ध्यान उठ गया है, चला गया को एक साथ पधराने से भी नहीं, माँ पृथ्वी की है। अब अरपकी समझ में आया कि समस्या क्या उपज से भी बढ़कर, क्योंकि इसमें बहुत से तत्व बन गई है। मैं देख सकती है कि प्रापको फोटो को मौजुद हैं। उदाहरणर्थि आप द ख रहै है कि इसमें इस प्रकार से नहीं रखना था । अतः सिद्ध हुआ कि प्रकाश तत्व है, इसमें जल तत्व भी विद्यमान है, इसमें भू-तट्व वर्तमान है । यदि वायु सही हालत में नहीं बह रही विद्यमान रहता है। यह बात सच है कि पृथ्वीमाता है तो फोटोग्राफ ठीक नहीं आयेगा । और इसी ने जो मृर्तियां बनाई हैं वे भी वायत्र शन्स रखती हैं प्रकार इसमें ईयर तत्व (आकाश तत्व ) भी मौजूद और वे भी प्रदर्शित करती हैं कि उनमें वायत्रे शन्स इन पाँचों तत्वों को मिलाकर भी आप मूर्ति मोजूद हैं । परन्तु वे कुण्डलिनी को जागृति नहीं दे का निर्माण नहीं कर सकते । ईथर तत्व इस में है । सकती क्योंकि मेरा फोटोग्राफ अपने में मेरी इच्छा यदि आप एक फोटो यहाँ पर खींचते हैं आप इस सड्कत्प को सँजोये रखता है। वे नहीं कर सकते हैं। को दूसरे स्थान पर प्रषित कर सकते हैं। आप फोटो यदि वे कर सकते तो स्टोनहैन्ज भी कर सकते । यदि तो भेज सकते हैं परन्तु मूर्ति को नहीं, क्योंकि वह आप इन मूर्तियों के निकट जायें, औौर मैं भी बहाँ पर एक ही स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। आप उस मूर्ति का उपस्थित होऊ, तो वे वायब्रे शन्स नहीं देंगी। आप फोटो मात्र ही भेज सकते हैं । अत: इसमें ईथर भी को केवल यह करना पड़ेगा कि एक हाथ मेरी ओर सम्मिलित है अतः सिद्ध हुआ कि फोटो मूर्ति से फैलाना पड़ेगा और दूसरा उन की ओर। तब फिर अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली है। यद्यपि फोटो वे वायत्र शन्स उगलना आरम्भ कर देगी, एक पुनउत्पादन ( reproduction) है परन्तु एक उन्हें मेरी ग्राज्ञा को मानना पड़ेगा । यहां तक कि वास्तविक सत्य का प्रतिबिम्ब है जो पांचों तत्वों से श्री गरणेश जी की मूर्ति भी, जो अब ठीक दशा में यूक्त है । सो आपके लिये यह एक प्र तिनिधि के रूप है, परन्तु आरम्भिक काल में यह वायव्र शन्स नहीं में है। यह बिल्कुल मेरे जैसा ही है क्योंकि मेरा ध्यान देती थी, जब तक कि इसको इस बिधि द्वारा इसी में सक्निहित रहता है। हमने इसके साथ प्रयोग परिष्कृत न किया गया उनमें प्रधिकरण हीनता भी किये हैं । एक योगिनी मेरा फोटो अपने पास का भाव नहीं है परन्तु इन फोटोग्राफ्स का शिष्टा- आरी गई है मैंने उससे कहा अच्छा होता कि आप एक फोटोग्राफ में ओर एक स्टेच्यू (मूर्ति) में भी सम्मिलित है और वायु तत्व भी अत्यधिक अन्तर है। क्योंकि मेरा ध्यान वहाँ पर तो परन्तु MEX निमला योग १५ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-17.txt चार पालन करना भी महत्वपूर्ण है जिसके बिना और उसे रिकार्ड करते हैं । यह तृतीय अवस्था है। श्रद्धा का विकास नहीं हो पाता है। आपको एक चतुर्थ अवस्था को तुरीय अवस्था कही जाता है। फोटोग्राफ सदव अपनी पाकिट में रखना चाहिये । चतुर्थ घ्रवस्था में आप त्रिगुरणात्मकता पर अर्थात् इसको आदर सत्कार दोजिये जितना सम्भव हो तीनों गुणों पर अधिकार जमा ले ते हैं हावी हो सके । इसको सजावट के लिये प्रयोग मत कीजिये जाते हैं । और आप पञ्चभूतों का, पञ्चतत्वों का बल्कि इसकी पूजा कीजिये । आप प्रातः उठकर नियत्त्रण करते है । दर्शन कीजिये । यह मैं आपको इसलिये बता रही है कि श्रद्धा की समस्या सामने वह बिना इस शिष्टा- चार के चित्त में उपज कर विकसित न हो सकेगो। मुझे ही आपको ये समस्त बस्तुएँ समझानी पड़ती ने वर्षा करा दी थी ) यह ऐसे कार्य होता है, आप हैं । यही इस अवतरण की सबसे निकृष्ट भाग हैं इन तीनों गुणों के स्वामि हो जाते हैं । इसको ऐसे क्योंकि अन्य सभी आवश्यक कार्य [आपने पूर्ण भी वरणन किया जाता रहा है कि प्राथमिक रूप में कर दिये हैं । अर्थात् जो लोग लार्ड जीसस क्राइस्ट आप कार में बैठे हुये हैं । इसे कोई हाँक (चला) के ईस स्थिति में पहुँचकर आप कहते हैं कि यह सक्रिय है । आपने देखा कि कल क्या हुआ था। (माँ अनुयायी हैं, वे इस फोटोग्राफ का दर्शन प्रात: रहा है वह आपका बायाँ और दायाँ भाग प्रयोग में काल अवश्य करते हैं। विशेषतया हिस्द्र घर्मावलम्बी ला रहा हैं प्रतः सोकर उठते ही चरण वन्दना करते हैं, सायं और एक्सीलेटर और कार हॉकी जा रही है। फिर काल भी नमन करते हैं, सोने से पूर्व भो, बाह्यगमन वह आपको सिखाता है कि कार कैसे चलाई जाती से पूर्व भी, बाहर से आकर भी वे नमन अवश्य है। तब आप सोखना आरम्भ करते हैं। अपने बाय करते हैं। इसी प्रकार जब आपके पास फोटो है तो और दायं भाग एवसीलेटर और वक का प्रयोग आ्प भी उसे पर इसी समझ-बुभझ के साथ काम करते हैं। फिर तीसरी अवस्था आती है जब आप कीजिये ओर धारणा रखिये कि माँ सदेव हमारे साथ है। आपकी आश्र्य होगा कि समस्त कार्य हैं । क्योंकि अपके पीछे जो आदमी बैठा है उसकी केसे सफल होंगे। । आप यह भी कह सकते हैं कि ब क 1. चालक बन जाते हैं । परन्तु फिर भी आप चिन्तातुर चिन्ता करते रहते हैं, जो ग्रापको जताता है कि आप व्या गलती कर रहे हैं और आ१ने क्या भूल । तत्पश्शचात् चोथी ग्रवस्था आती है और प्राप श्रद्धा आापकी सहायता करेगी। यह घावों पर की मरहम का काम करेगी। अप प्रत्ये क समय में एक दक्ष बन जाते हैं। और आप अन्य लोगों को भी सी दशा में नहीं रह सकते। आप स देव संक्रामक डाइव करते हैं। आप किसी को भी आर्डर कर पकड़ की शिकायत नहीं करते रह सकते कि हाय में सकते हैं, आप सूर्य को ऑर्डर दे सकते हैं आप पकड़ा गया आदि आ्रदि । आप देखते हैं कि हाथी चन्द्रमा को भी आर्डर दे स कते हैं । ऑर्डर, आर्डर चलता रहता है और कुत्त भौकते ही रह जाते हैं का अर्थ है उनसे कह दना मात्र काफ़ी है । मेरा यही स्थिति आपकी भी है। आप] परवाह न करें। तात्पर्य है कि किसी प्रकार का भी अधिकारयुक्त चलते चलिये अपने सहज मार्ग पर माँ को हृदय में (dominating) का प्रश्न ही नहीं होना चाहिये। धारण करते। आपके समस्त कार्य निर्विध्नतापूर्वक आपने इच्छा व्यक्त की ओऔर तत्काल हो उसकी पूर्ति सिद्ध हो जायेंगे उनकी महिमा ही ऐसी है । हो गई । यह कहा ओर वह हुआ। सो तृतीय जागृति उस समय आती है जब आप यह सब देखभाल करना आरम्भ कर देते हैं नाम से पुकारा करते हैं। तत्पश्चात् पाँचवीं स्टेज अब हम इस चतुर्थ स्टेज को तुरीय दशा के निर्मला योग १६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-18.txt आरती है, जिसमें स्थित होने से जो उपलब्धियाँ आप मुझे नीचे की ओर नहीं खींचेंगे तो मैं श्रपको प्াप्त होती हैं। मैं उनके नामों की गणना तथा उन बहुत ऊर बहुत दूरी पर खींच लूगी । अतः आप से उनके नाम गिनाना नहीं चाहती हैं क्योकि इनमें मेरी यहीं विनती है कि आप मुझे नीचे न खींचिये । आप लोगों की आसक्ति बढ़ जायेगी और आप उत यह इसी प्रकार से है कि जिस प्रकार से यह पर चिपक जायेंगे । वे इतनी साफ़ सुथरी नहीं बिकमिंग (becoming) होने जा रही हैं । अब यह हैं । वे एक दूसरे के साथ संयुक्त हो सकते हैं परन्तु एक मूल आधार है; बुनियादी निर्माण और आप] वे सब तुरीय दशा में हैं। जब आप उपयुक्तता से अ्रव समस्त सुन्दर वस्तुओं को महसूस कर रहे हैं श्रौढ़ वन जायेगे तब आप इस पञ्वम अवस्था में जो मध्यवर्ती हैं कुद पड़ेंगे, जिसमें अप कुछ कह भी न पायेंगे और रूप से संवारी सजाई जा सकती है और यथोचित न कुछ निणय हो ले पायेंगे । केवल आपके मुख से सुधड़ता से की जा सकती हैं। परन्तु याद रहे यह कुछ ग्रनायास ही फिसल जायेगा इसको फिसलना बुनियादी (slip out) भी नहीं कह सकते । यहै कार्य करती अब आप इस स्टेज पर या उस स्टेज पर अपने को है। यह एक अवस्था है। वहाँ आप समस्त जमाने का अ्र्थात् फ़िक्स करने का प्रयत्न करने की परिस्थितियों को संभालते हैं प्रीर यहाँ पर बैठे कोशिश न करें तो अच्छा है । क्योंकि यह एक ही बैठे। बैठे हुये होने की दशा में ही आप एक सामान्य सी वस्तु है उन लोगों के लिये जो अभी दूसरे के चक्रों के सम्बन्ध में जानकारी भी रखते हैं तक इसी के लिये सोच विचार करने में लगे हये हैं । तब म्ाप इन पर स्वामित्व नहीं रखते बल्कि इस तब फिर माँ हमें बताइये कि हम किस स्टेज पर दशा में आप प्रवेश भी पा सकते हैं, कर सकते हैं । स्थित हैं ? यह साधारण है। जब आ्रप अपने आपको अब उदाहरण के लिये मैं आपको बताती है कि मैं बढ़ाकर विकसित करगे तब यह आपके साथ भी आपके Sub-conscious में प्रवेश कर सकती है । घटित होगी। आपको कोई भी निर्धारित नहीं आपके सामूहिक चेतना में प्रवेश कर सकती है और आपके supra-corscious में भी प्रवेश कर सकती और ये समस्त वस्तुएं पुनः उचित् निर्माण बिकमिंग अर्थात् युक्ति का है । वस्तु करनी पड़ेगी । यह आपके साथ घटित होगी यही सब कुछ है. इतिश्री है । इसको प्रगति करने दीजिये, इसको बढ़ोतरी करने का अवसर दो जियेगा । परन्तु आप अभी भी उस अवस्था पर हैं जहाँ पर आप में से बहुत से सन्देहरहित चेतना या जागृति में स्थित हैं । परन्तु हैं। आपके समस्त क्षेत्रों में जहाँ मे री इच्छा हो मैं जा सकती है । यह भी तब जब कि अरपने इस पर पुर्ण रूप से दक्षता करली हो। जब अराप इसमें प्रवेश करते ह मैं फिर भी आपको यही कहूँगी हैं। जब आप इस मकान के स्वामी हैं आप इसके अन्दर प्रवेश कर सकते हैं । उस समय आप सप्तम कि मौलिक इच्छा अभी भी वहाँ नहीं है और वह अवस्था में प्रवेश करते हैं और यह वही अवस्था है जिसमें कि आप हैं। [आपका] वहां होना ही (आप फी उपस्थिति ही) पर्याप्त है केवल वहा होना ही कभी-कभी ऐसा भी होता देखा गया है कि बना ठोक है। कुछ भो अस्तित्व नहीं है । कोई सत्ता नहीं बनाया मकान ही गिरा दिया जाता है क्योंकि उस है। परन्तु आप केवल अपने ही लिये हैं । रब आप इन सातों प्रवस्थाओं में पहुँच सकते हैं । क्यों कभी-कभी नींव में ही कुछ बुनियादो गलतियाँ हो सुदृढ़ भी नहीं है। यह मौलिक इच्छा जो साफ़ सुथरी बना दी जायेगी। आप देख सकते हैं कि की बुनियादे पअ्र्थात् नींव ही सुदृढ़ नहीं होती हैं। कि मैं इन सबसे परे खड़ी हैं (स्थित हैं) और मैं जाती हैं जिससे आप अपने प्रापको नीचे ले जाते हैं, प्रथमावस्था में नीचे उतर आई है और मैं आप ठीक नीचे और तब आपको विदित होता है कि, ११।। लोगों को ऊपर खींचने का प्रयास कर रही है । यदि ओह, यह अभी तक वहाँ है, इसको बाहर करो । निर्मला योग १७ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-19.txt आपको उन समस्त वस्तुों को घास पात की तरह हैं अरथवा क्या क हने जा रहे है । क्या आप एक हेटाना है, निराई करनी हैं। इस काय में आपको वास्तविकता से सचेत रहना है परन्तु आप आत्म सौभाग्यशाली हैं कि आपके भी कोई एक ऐसा है करुणा के जाल में न फैस जाना, श्प कभी भी जो आप से अत्यन्त प्रेम करता है। और बह आपको इस अपराध वृत्ति के व्यापार में नहीं फसना । परन्तु यह समस्त वस्तूएँ दे सकता है । [आप अत्यधिक अपने आप कतई निश्चित् दुृढ यथाथ भाव वृत्ति भाग्यशाली हैं जोवात्मा हैं । आप इसका सदुपयोग अपनायें, "यथा बहुत अच्छा यह मेरी कार है, मैं हो करें। ईश्वर आपको सर्दव सुखी, प्रसन्न रखे । इसे सूधार कर ठीक दशा में करू गा"। यदि अपि इस कार के काम में दक्ष भी ही गये और कोर आप जहाँ कहीं भी हों, आपको अपनी श्रद्धा में अनुपर्योगी है तो इसकी लाभ हो क्या हुआ इज्छा बढहोत्तरी करनी है। पराप सबको क्रद्धा की बहुतायत कार के समान है । कुण्डलिनी ही वह इच्छा है, यदि से ग्रावश्यकता होगी। जब तक श्रद्धो उद्गम रूप आपको कुण्डलिनी दुर्बल है तो इसको सजीव बनाइये सहारा देकर और इसको सुधारने का प्रयास कोजिये । इसको ऊपर उठाने को कोशिश ग्राप उगायगे, पोषित कर बड़ा करेंगे। श्रद्धा को भी कोजिये । इसको भोजन खिलायें, अपनी कुण्डलिनी का पोषण युक्ति विकमिंग के माध्यम में भी है कि श्रद्धा फलदाय क:) आपने अब सन्देह की कर। [अन्य समस्त इच्छाओ को एक ही इच्छी के सीमा को पार कर लिया है । सो अब श्रद्धा अपना साथ तटस्थ एवं समभाव में रख । सोच विचारकर कार्य सञ्चालन करेगी। डच्छाके सम्बन्ध में कह रहे हैं ? आाप सर्वाधिक परन्तु एक बात अर है वह यह कि इस स्टेज पर, के में (source) है। इसी से आप जज्य करने का काम लेगे- यही एक पौवे की तरह से हैं जिसको प्राप बढ़ाते ही जाइये क्योंकि (शास्त्रकारों ने कहा ही कुछ कहने की आदत डाले कि हम कया कह रहे "CHARMINAR' India's Largest Sellers of Asbestos Cement Products HYDERABAD ASBESTOS CEMENT PRODUCTS LTD. Marketing Divisions : Sanatnagar, Hyderabad-500018 Himalaya House, 23, Kasturba Gandhi Marg, New Delhi-110001 Chanakya Place, Gardener Road, Patna-800001 Works : Hyderabad (A.P.), Ballabgarh (Haryana) & JASIDIH (Bihar) निर्मला योग १८ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-20.txt : : ॐ माँ : : परम पूज्य माताजी का पत्र परमेश्वरी राज्य के प्राप अधिकारी। हो फिर ऐसे बैठकर रोते क्यों हो ? इस राज्य में आपके बड़े परमप्रिय सहजयोगी, हर एक मनुष्य को शान्ति चाहिए, धन भाई देवताओं के रूप में कुण्डलिती के मार्ग पर बैठे चाहिए । अपनी सत्ता चाहिए। पर इन सभी बातों है उन्हें पहचानिए। उन्हें सराहिए और जागृत का मूलस्थान प्रभु-परमेश्व र ही है, त व क्यों न हम की जि उसी की चाहत और उसे ही पाने की इच्छा कर ? उसी की चाहत करें। परमेश्वर की शान्ति हमें मिले औ्ौर परमेश्वर हमें मिले यही हमारी लालसा भी छाँत में चलने की विद्या प्राप्त की जिए अपने आप] वयों न हो ? सहजयोगी औीर साधारण इत्सान की में नम्रता लाइए। वह आपको उस पार ले जायेगी सन्तुष्टता (समाधान में) यहीं श्न्तर होना चाहिए। जहाँ से सभी बातों का उद्गम है जहां पर सब परमेश्वर पाने की लालसा भी हमें उसी के चरणों स््रोत हैं। उसी को पाना चाहिए, उसी को पाने की में शपित करने का साहस दे। एक वही है, उसी चेष्टा करनी चाहिए। बाकी सब तो(सहज) आसानी के चरगों में और केवल उसी पर हो ध्यान केन्द्रित से मिलती है । ध्यान धारण, तपस्विता, प्रेम और होना चाहिए। इसलिए तपस्विता चाहिए । इसलिए शान्तिमय जीवन, यह् शातरण आप छोड़ देते हो सारे लोभ, मोह छूटने चाहिएं । जिससे चिपके रहें और मुझे आसानी से पाने की चाह रखते हो । ऐो सा इस संसार में क्या है ? जहाँ सभी शान्ति पाते परन्तु प्रापञ्िचिक बातों से आपको कितना लगाव हैं, श्रौर जहाँ पर सब कुछ नष्ट हो जाता है उन्हीं है ? स्वयं के ही वारे में सोचने की कितनी हट है । चरणों की महत्ता समझनी चाहिए। तभी आपको उसे क्यों नहीं आसानी से छोड़ देते ? मैं महामाया महता प्राप्त होगी हमने ये किया, हमने बो किया है इसलिए आप सत्य से मत दूर भागिए मूझे पाने व्यर्थं की कल्पना क्यों कर ? जो प से की चेण्टा कीजिए मैं त्राप लोगों की ही है। बड़े-बड़े कुण्डलिनी आपकी माँ है; माँ के अरञचल की ऐसी बन रहा है वह सारी परमेश्वर की सत्ता है, ऋषि मुनियों को भी जो नहीं मिला वह तुम्हें दिया परमेश्वर का चमत्कार है यह बात दिमाग में लानी है । वह बहुत वड़ी सम्पत्ति है। उसी के बल पर पड़ेंगी। बह चमत्कार देखने वाले ही केवल आप हैं । हजारों ग्रह, तारे निर्माण किये। श्रापके नवनिर्माण इसलिए परमेव्वर से प्रार्थना कर-"मे रा, मैं, मैं में बहुत बड़ा अर्थ है। उसे आपको समझना चाहिए निकल जाए. हम तुम्हारे ही एक अङ्ग है, हे प्रभू, यह स्व' का अर्थ लगाइए । वह सह जयोगियों के ही सुत्य हमारे रोम-रोम में भर दो । फिर परमेश्वर समझ में आएगा। यह बहुत बड़ी कला है । यह कला का यह आनन्द हमारे तन-मन के करण-करण को छू हमने आपको सिखाई, क्या हआ [? जिसे भी लाभ कर सुन्दर राग से यह जीवन भर जाएगा । होना है वह रोने नहीं बेठता इसका मतलब आपको यह सब पूरी मानव जाति को सम्मोहित करेगा । इस विश्व का माग प्रकाश से प्रकाशित करेगा अपने हृदय मे अमर्यादित प्रेमधारा बहने दो क्यों में डब जायेंगे, उसी में मग्न हो जायेंगे। विश्व की कि 'प्रेम' अमर्याद है । तुम्हारा ध्यान म्यादातीत प्रापत्चिक बातों से किसी को सन्तूष्टता नहीं मिलती। बातों पर हो । 1 लाभ नहीं हुआ है। अगर आप इस कला में निपुण । होंगे तो इस कला के दरवाजे खोलकर आप इसी प लोगों के पास इस भष्डार की चाबी है, जो निर्मला योग १६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-21.txt हमने आपको सौंपी है। अरे, दरवाजे खोलने के दिशाओं में अपकी किरणें लिए आपकी हथेलियाँ तो धूमनी चाहिएं । यह सब अपने पह् फैलाइए । सारे संसार का कल्याण आप आप लोगों ने प्रासानी से छोड़ दिया है और जिसे ही के हाथों से होने वाला है निष्क्रियता छोडड़ आसानी से छोड़ना चाहिए उसे पकड़ कर चिपके दीजिए । जो अभी तक पार नहीं हैं, जिन्हें आशीर्वाद बैठे हैं। सवेरे हमें जगकर ध्यान में बैठना चाहिए। नहीं मिला है, उन्हीं से सम्पर्क साधकर सहजयोग अपने आप क्रोध, द्वेष, परनिन्दा, क्रूरता ये सभी बातें छोड़ देनी चाहिएं । फैलनी चाहिये । सिखाने की चैष्टा कीजिए । तब परमेश्वर का राज्य आप ही का है । वह सब माङ्गल्य अापको मिले इसलिए हमारा प्रयत्न चालू है । लन्दन में बारह लोगों को तथ्यार कर रही है, वे लोग अन्दर से आज गुरुपूरिणमा है, हमें दक्षिणा क्या दी ? आप पैसे देंगे तो ये इस गुरुभाऊलि के पाँव की धूलि समान भी नहीं है। ये सोच लीजिए। तुम्हारे हृदय बहुत सच्चे हैं। उनके साथ आप लड़ाई मत करिए । देने चाहिएं । वह भी पवित्र और साफ़ होना अपने आपको जानिए । चाहिए। अपने मन को साफ़ करके स्वच्छ बनाना तरह बनाया है। उसे साफ़ रखिये । मूझे सब चाहिए। इस मामले में आलस] छोड़ दीजिए । मालूम है। मेरे सामने ज्यादा होशियार मत बनिए । प्रतिज्ञा कीजिए सवैरे उठकर घण्टाभर भजन- पूजन आप लॉगो में व ध्यान धारणा करेंगे। शाम को भी आरती व हैं । उसी तरह आपका भी कल्याण हो यह ध्यानधारणा करनो चाहिए। अरे, जो शैंतानों के आशीर्वाद ग्राज दे रही हैं । (भूतों के) शिष्य हैं वे श्मशान में जाकर मेहनत करते हैं और अाप लोगों को सब कुछ प्रासानी से चाहिए, ये बात समझ में नहीं आती। आ्रा१ स में बैठ कर व्यर्थ की गण्प हाकना छोड़ दीजिए। अपना] समय बेकार मत गंवाइये। समय का चक्र चालू ही रहेगा। जाएगा तो लगेड़ापन आएगा । सन्तुष्टता कम सभी चावियाँ इकट्रा करके खाली े रहेगी तो अपने आप ही आपकी हालत भी ठीक क्या ? आपको परमेश्वर की सत्ता नहीं स्वीकार करनी है तो शैतानों का राज्य आयेगा और इसलिए पास के बातावरण पर निर्भर नहीं है । वातावरण आप स्वयं ही ज़़िम्मेदार हैं । [आप] सहजयोग के कैसा भी क्यों न हो वह उसे सुखदायी ही लगना अधिकारी हो इसलिए आपको विशेष रूप से छाँटा चाहिए । अगर ऐसा नहीं है तो वह सन्तुष्टता वाह्य है । यह बात पक्की समझ लौजिए । न हीं तो इस है आन्तरिक नहीं है। परमेश्वर आपको अपने आनन्द का सञ्चय कहीं ीर चला जाएगा| और चरणों में स्थान दे। आपके पागलपन की वजह से दूसरे लोग अधिकारी बन जायगे। इसलिए अपने अ्राप लाइए और जाग जाइए। पाँव जमाकर खड़ हो जाइए। हर एक क्षण को अनेक देशायें हैं, उन प्रप लोगों को मन्दिर की कुछ लोग आनन्द साग र में डूब रहे सन्तुष्टता और प्रापञ्चिक इच्छायें ये दोनों एक ही ऊँचाई पर होने चाहिये, जैसे हमारे दोनों पाँव एक साथ बढ़ते हैं। अगर एक पाँव छोटा रहू हाथ लौट जाये नहीं रहेगी। सहजयोगी की सन्तुष्टता उसके आस- में सयानापन आपकी माँ निर्मला श्री माताजी के मूल मराठी पत्र का हिन्दी रूपान्तर । निमंला योग २० 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-22.txt शिवं शिवकरं शान्तं, अभिवात्मानं शिवोत्तमम् । शिवमार्ग प्रणेतारं, प्रणतोऽस्मि सदाशिवम् ॥ हम आपके शिश नितान्त श्रद्धा व भक्ति भाव से उस पावन प्रभु के सम्मुख नमन करते हैं जो परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी जी के हृदय कमल में वास करता है । वह हमारे उद्धार का उद्गम-स्थल है । ओ्ो३म् श्री शिव के १०८ नाम शिव १२. वत्सल १. देवासुर गुरु १३. शङ्कर २. १४. शम्मु स्वयम्भु ३. लोकोत्तर सुखालय १५. पशुपति ४. सर्वसह १६. क्षमाक्षम ५. स्वधृत १७. प्रिय भक्त ६. १८. एक नायक कामदेव ७. श्री बत्सल १६. ास साधु साध्य हृत्सुण्डरीकासीन जगद् हितैपिन् २०. शुभद १. सर्वसत्वावलम्बन २१. १०. शर्वरीपति व्याघ्रकोमल ११.. २२. निमंला योग २१ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-23.txt विश्वसाक्षिन वैरद ५०. R2. नित्यनृत्य ५१. बायु वाहन २४. सबववास कमण्डलु घर २५. ५ू२. नदीश्वर महायोगी २६. ५३. प्रसदस्व २७. सद्योगी ५४. २८. सुखानिल सदाशिव ५५. नागभूषण २६. आत्मा ५६. केलाश शिखर वासिन् ३०. आनन्द ५७. त्रिलोचन चन्द्रमौलि ३१. ५८. पिनाक पानी ३२. महेश्वर ५६. श्रमण सुधापति ३३. ६०. प्रचलेश्वर अ्रमृतपा ६१. ३४. व्याघ्रच्माम्बर ३५. अमृतमय ६२. उन्मत्तवेष ३६.. प्ररणतात्मक ६३. प्रेतचारिन् ६४. पुरुष ३७. प्रच्छन्न हर ६५. ३८. सूक्ष्म ६६- ३६ रुद्र करिणकरप्रिय भीम पराक्रम ६७. ४० कवि नटेश्वर ६८. ४१. अमोघदण्ड ६६. नटराज ४२ नीलकण्ठ ईश्वर ह१ परमशिव 2२ ७०, जटिन् ७१. पुष्पलोचन ७२. परमात्मा ४५. परमेश्वर ध्यानाधार ७३. ४६. बीरेश्वर ब्रह्माण्डहृत ७४. ४७. कामशासन ७५. सवश्वर ४८. कामेश्वर *३२ ७६. जितकाम निर्मला योग २२ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-24.txt जितेन्द्रिय ६३.. कालकाल ७७. ৫४. बैयाघ्रधु्य अतीन्द्रिय ७८. &५. शत्रुप्रमथिन् नक्षत्रमालिन ७६. ह६. सर्वाचार्य अनाद्यन्त ८०. आत्मयोनि ७. सम ८१. नभयोनि आत्मप्रसन्ना ८. ८२. ২. नरनारायरण प्रिय करुणा सांगर ८३. १००. रसज्ञ शूलिन् ८४. १०१. भक्तिकाय महेष्वासः ८५. १०२. लोक वीराग्रणी निष्कलङ्क ८६. १०३. चिरन्तन निस्यसुन्दर ८७. १०४. विश्वम्बरेइ्वर अर्धनारीश्वर ८८. १०५. नवात्मन् उमापति ८६. १०६. नवयेरुसलमेश्वर रसद ०. १०७. आ्रादिनिमंलात्मा ११. उग्र १०८. सहजयोगीप्रिय महाकाल ह२. प्रिय ! मुमुक्षुगरण सावधान हमारे भीतर एक बन्धुघाती छली (Judas) विद्यमान है । वह हमारे साथ चलता है, हमारे साथ क्रिया करता है, देवी माँ की स्तुति गान करता है। किन्तु वह एक भयङ्कर नाग है। छद्य वेष में पिशाच का दूत है । कपट से यीशू को सूली पर चढ़ाने (Crucifixion) के पीछे उसका हाथ था । वह सम्भवतः वह पूतना की भाँति, जो बाल गोवित्द को विष देने आई थी, एक नारी हो सकती है। अपनी पूज्य माँ के ममत्व में एकत्व के रस को हम पहचाने श्औरौर उनके दैवी तत्व की प्रज्वलित लो (मशाल) के प्रकाश में अपने सम्मुख प्रशस्त पथ का दर्शन करें । सहजयोग की नौका में सवार उसे डूबाने को तत्पर ऐसे छुपे कालने मियों से सावधान । परमात्मा आपको उस मेघावी के लिये पर्याप्त ज्ञान प्रदान करे। दुरात्मा-मानसिक कुप्रवृत्तियों के साक्षात् स्वरूप को पहचानने परम पूजनीय श्री माताजी निर्मला योग २३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_I.pdf-page-25.txt प्रिय बन्धु ! श्री माताजी को प्रेम संबके लिये प्रवाहित हो रहा है। जिस प्रकार उन्होंने हमें सांस लेने के लिये पीने के लिये निर्मल जल, भ्रमरण करने के लिये खुली जगह और देखने के लिये गगन शुद्ध वायु, का निर्माण किया है, उसी प्रकार हमारी चेतना को शान्ति प्रदान करने के लिये उनका यह पवित्र प्रेम है। हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि हम उनके इस प्रेम के लिये किस प्रकार उपहार भट करें । अंतः हम उन्हें अपने हृदयासन पर आसोन होने के लिये अत्यन्त श्रद्धापूर्वक आमन्धित करते हैं । हम नतमस्तक होकर प्रेमपूर्वक उनको अलंकृत करते हैं । फ्रेम से उनका अभिषेक करते हैं । हम प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे हृदयाङ्गन में सदा निवास करें । जय माता जी आपका ही सी. एल. पटेल त्यौहार १४ जनवरी ८३ १६ जनवरी ८३ ११ फरवरी ८३ मकर संक्रान्ति वसन्त पञ्चमी महा शिवरात्रि परम पू. माताजी का जन्म दिवस २१ मार्च ८३ होली ईस्टर रविवार २८-२९ मार्च ८३ ३ अप्रेल ८३ ७ अप्रैल ८३ परम पू. माताजी का विवाह दिवस नवरात्रि १४-२१ अप्रैल ८३ २१ अप्रैल ८३ २५ अ्रप्रैल ८३ रामनवमी महावीर-जयन्ती हनुमान जयन्ती महासहस्रार दिवस आदि शंकराचार्य जन्म दिवस २७ श्रप्रेल ८३ ५ मई ८३ १७ मई ८३ नसिंह जयन्ती बुद्ध पूरिणमा गुरु पूरिणमा श्री २५ मई ८३ २६ मई ८३ २४ जुलाई ८३ कृष्ण जन्माष्टमी ३१ अगस्त ८३ निमला योग २४