निर्मला योग मई जुन-1983 द्विमासिक बर्ष २ अक ७ बाे ्० +t प ॐ त्वमेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी, मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निर्मला देवी नमो नमः |। प पन पी !! ॐ माँ !! मिथ्या ५ मई, १९७५ सहस्रार दिवस पर पर मपूज्य माताजी द्वारा दिया गया सन्देश को आप जानने लगोगे तब सत्य अपने आप ही मन (आत्मसात होगा) । और महा आनन्द अनेकानेक प्राशीोर्वाद ! की लहरें पूरे व्यक्तिर्व को वेर लेंगी । इस पत्र प्रिय दामले, में बसेगा में मैं मिथ्या क्या है वह बताने जा रही है। वह सब आपका पत्र मिला। सहस्रार पर खिचाव आना वहुत अच्छा लक्षण है। क्योंकि सहस्त्रार के को बताइए और उस पर सोच-विचार कीजिए । इस संसार में जन्म लिया और मिथ्या शुरू । माध्यम से मनुष्य का हृदय अनन्त आपका नाम क्या है ? गौँव क्या है ? देश क्या है ? किरणों से भरा जाता है और राशि क्या है ? भविष्य क्या है ? इस तरह की हैं । कितनी बातें आपके साथ चिपकती हैं या चिपकार्यी परन्तु इस अन्तःस्थिति के लिए सहस्रार पर खिचाव जातो हैं । एक बार ब्रह्मरन्ध्र बन्द होते ही अनैक ना जरूरी है हृदय का खिचाव हम जानते हैं, प्रकार के मिथ्या विचार प्रापके मन के आत्म के) जो मूक (Silent) है और एकतफ़ी है, मतलब भाव हो जाते हैं। जैसे कि, ये चीजें मेरी, ये मेरा, भावात्मक होता है, परन्तु सहस्रार का खिचाव वह मेरा वर्गरा भुठे विचार मन में बसते हैं । उसी की स्थिति, घरमं और प्रकार मेरा शरीर निरोगी और सुन्दर रहना चेतना एक होकर चैतन्य को ही (प्रभूप्रम को ही) चाहिए ऐसे बन्धनकारक मिथ्यावादी विचार जो याद करने लगती है तब ऐसी स्थिति (सहस्रार पर कि मनूष्य ने स्वयं वनाये हुए हैं हमारी बुद्धि में खि चाव अ्रना ) अती है ये सब अपने प्राप घटित बस जाते हैं। उसके बाद ये मेरा भाई, ये मेरा बाप, होता है । यह सब आपकी कुण्डलिनी का करियमा ये मेरी माँ इस तरह के मिथ्या रिश्ते सिर पर बैठते होता है। किन्तु आरपका व्यक्तित्व ऐसा हो कि हैं । फिर धीरे धीरे प्रहङ्कार जम गया कि मैं अमीर, कुण्डलिनी शक्तिशाली बन सके। यह सम्पदा पिछले मैं गरीब, मैं अनाथ या मैं बड़े खानदान का इस अनेक जन्मों से कमायी है। इसलिए यह जन्म उच्च तरह का पागलपन सिर पर सवार हो जाता है । बहुत से अधिकारियों को और राजनीतिज्ञों को (Politicians)घमण्ड की, मतलब गधेपन की, बाधा होती है। उसके बाद क्ोध, द्वष, संयम, विरह, दुःख, यह अगर जानोगे तो ये भी समझना चाहिए कि प्यार के पीछे छिपा हुआा मोह, लालसा के परद में शरीर भी एक मिथ्या दर्शन ही है। यह स्थिति बसी हुई संस्कृति, इन सभी मिथ्या अआाचरणों को अनतःस्थिति के लिए नये दरवाज खुलते सामूहिक होता है । वहाँ मनुष्य है कि ऐसे हीरे मेरे काम के लिए मिले । मेरा शरीर यहाँ होते हुए भी मैं सभी जगह हैं, आना मुश्किल है परन्तु अगर धीरे-धीरे मिथ्या मनुष्य प्यार से गले लगाता है। (जेष कबर पृष्ठ ४ पर ) ी सम्पादकीय स्तुता सुरंः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता । करोतु सा नः शुभहेतु रीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।। ( दुर्गासप्रशती, प्चमोध्यायः, श्लोक ८१) काल में प्रपने अभीप्] की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्र ने पूर्व बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले । हम, साक्षात्, परमपरमेश्वरी श्रादिशक्ति माताजी से प्रार्थना करते हैं कि सम्पूरण विश्व शीघ्र आपकी शरण में आकर अ्पना जीवन सार्थक करे । निर्मला योग १ निर्मला योग ाग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली-११०००७ : परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी संस्थापक : डॉ शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र : श्री आर. डी. कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा श्रीमती क्रिस्टाइन पेटू नीया : लोरी टोडरिक यू.एस.ए. २२५, श्रदम्स स्ट्रीट, १/ई ४५१८ बुडग्रीन ड्राइव ब्र कलिन, न्यूयार्क-११२०१ वैस्ट बैन्कूवर, बी.सी. वी. ७ एस. २ वी १ यू.के. भारत श्री गेविन ब्राउन श्री एम० बी० रत्नान्नवर ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़रमॅशन सर्विसेज लि., १३, मेरवान मेन्सन गंजवाला लेन, बोरीवली ा १६० नार्थ गावर स्ट्रीट लन्दन एन डब्लू. १२ एन.डी. (पश्चिमी) बम्बई-४०००६२ श्री राजाराम शंकर रजवाड़ं ८४०, सदाशिव पेठ, पुरण-४११०३० इस अक में पृष्ठ १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. निमंला ३ ४. लक्ष्मी तत्त्व १३ द्वितीय कवर ५. िथ्य क * नि र्मला' पत १८ जनवरी १९८० को राहुरी में मराठी प्रवचन का हिन्दी रूपान्तर जिसमें परमपूज्य श्री माताजी ने स्वतः पूर्णं मन्त्र स्वनाम निर्मला' (निः- म+ ला) में निहित गृढ़ भाव की विश्लेषणपूरणं विशद व्याख्या की है। ायोगी एक पारिवारिक स्थितियां असन्तोषजनक हैं। हमारे यह हर्ष की बात है कि सब सहज साथ एकश्रि त हुए हैं । जय हम इस भाति एकत्रित चारों और सम्पूर्ण जो कुछ भी है सब खराब है । होते हैं तब हम परस्पर हित की अनेक बातों पर हम किसी चीज़ से सन्तुष्ट नहीं हैं । विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं और उन विषयों पर अनेक सूक्ष्म बातें एक दूस रे को बता सकते हैं । दो-एक दिन पहले मैने अपने की स्वच्छ, गदि दोष-मुक्त करने की विधि वताई थी। स्वयं प्रापको यदि हम उसकी गहराई में जायें तो देखेंगे कि उसके माँ का नाम ही निर्मला है और इसमें अनेक समुद्र सतह पर जल अत्यन्त गदला होता है । उसके ऊपर अनेक वस्तुएं तेरती रहती हैं। किन्तु स्वयं आरपकी भीतर कितना सौंदर्य, कितनी धन सम्पदा और कितनी शक्ति है । तब हम भूल जायंगे कि सतह को जल मंला है। शक्तियां हैं । इस नाम में पहला शब्द नि:' है जिसका अर्थ । कोई वस्तु जिसका वास्तव में अस्तित्व देखते हैं वह सब माया (भ्रम) है कहने का अभिपाय है कि हम बारों औ्रर जो सर्वप्रथम आप हैं 'नहीं नहीं है किन्तु जिसका अस्तित्व प्रतीत होता है, उसे को स्मरण रखना चाहिये कि यह सब जो दिखता महामाया (भ्रम) कहते हैं। सम्पूर्ण विश्व इसी है यह कुछ नहीं है। यदि आपको 'नि:' भावना प्रकार है। यह दिखता है किन्तु वास्तव में नहीं है। अपने प्रन्दर प्रतिष्ठित करना है तो जब भी आपके यदि हम इसमें तल्लीन हो जाते हैं तो प्रतीत होता मन में विचार आये तो कहिये यह कुछ नहीं है यह है यही सब कुछ है। तब हमें लगता है हमारी सब भ्रम है, मिथ्या है । दूसरा विचार आये कहिये आरथिक अवस्था अच्छी नहीं है, सामाजिक व यह कुछ नहीं है। आपको बारम्बार यह भाव लाना मिमंला योग ३ हैं तो इन पराकाष्ठाओं (प्रसीम शरवस्थाओं) में स्थिति का कारण 'निः' से सम्बन्धित है । आप न इधर न उधर, न इस स्थिति में हैं और ने उस है। तब प्राप 'निः शब्द का अर्थ समझ पायेंगे। आपको जो कुछ माया-रूप दिखता है यह सम्पूर्णतः भ्रम मात्र नहीं है, इस दृश्यमान के पर स्थिति में, अर्थात डावडोल स्थिति में हैं । 'नि:' भो कुछ है। किन्तु अ्रपने जन्मों के इतने बहुमूल्य स्थिति ध्यानयोग में सर्वश्रेष्ठ रूप में प्राप्त की जा वर्ष हमने बृथा गंवा दिये हैं कि हम वे वस्तुएं सुकती है । अपने जीवन में नि:' विचार का जिनका वास्तव में अस्तित्व नहीं है उनको महत्व ग्रनुसरण करने से आप निर्विचार' स्थिति प्राप्त देते हैं और इस भांति हमने पापों के ढेर इकट्र कर लिये हैं । इन सब वस्तुओं में हमने आनन्द-लाभ करने का प्रयास किया है, किन्तु वास्तव में इनमें से हमें कुछ भी आनन्द प्राप्त नहीं हुआ। तत्व रूप आपके मन में कोई विचार आता है, चाहे वह अच्छा से ये सब कुछ नहीं है । कर लगे । सवंप्रथम आपको निविचार होना चाहिये । जब ही अरथवा बुरा, तब विचारों का ताँता-सा लग जाता है । एक के बाद दूसरा विचार अता रहता अतः दृष्टिकोण यह होना चाहिये कि यह सब है। कुछ लोग कहते हैं कि बुरे विचार का अच्छे "कुछ नहीं" है । केवल ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब विचार से प्रतिकार करना चाहिये, अर्थात् एक मिथ्या है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अरापको यह दिशा से आने वाली गाडी को जब विपरीत दिशा दष्टिकोण अपनाना है। तब आप सहज योग को मे अराने वाली गाडी से धकेला जाये तो दोनों एक समझगे । साक्षात्कार के पश्चात् श्रनक सहज मुध्य स्थान पर रुक जायगी । कहीं तक यह टीक हैं योगियों का यह होता है कि वे सोकते हैं कि हमें किन्तु कभी-कभी यह हानिकारक भी हो सकता है। सिद्धि (साक्षात्कार) प्राप्त है, हमें पूज्य मीताजी का एक कृविचार जब एक सुविचार द्वारा दबाया जाता है तो यह भीतर ही भीतर दबा रहता है । क्यों नहीं है । उन आशीर्वाद प्राप्त है तो हम समूद्ध के विचार में परमात्मा का अर्थ है समृद्धि । यदि श्राप विचार करें कि क्या कारण है कि साक्षात्कार किन्तु यह एकाएक उभर सकता है। रनेक व्यक्तियों है। वे अपने सामान्य के साथ ऐसा ही होता के पश्चात् भी आपका 'स्वभाव नहींी बदला, तब विचारों को दबा रखते हैं और अपने से कहते हैं प्रप देखेगे कि आपकी आत्मा का स्वरूप नहीं बदला । देखिये, 'स्व' अर्थात् आरत्मा और 'भाव हमें परोपकारी होना चाहिये, अपने आचरण अच्छे रखने चाहियें, इत्यादि । कभी-कभी ऐसे लोग बडे अथाति स्वरूप के योग से बना 'स्वभाव शब्द उपदरव-प्रस्त हो सकते हैं। अचानक एकदम यह कितना सुन्दर है। बताइये, क्या आपने अपनी कोध के वशीभूत हो जाते हैं और लोग चकित हो शात्मा को स्वरूप प्राप्त कर लिया है । यदि आप जाते हैं कि ये सज्जन व्यक्ति कसे इतने क्रोध-ग्रस्त 'आत्मा' में स्थित हो गये तो आप देखेंगे कि भीतर हो गये। वे अपनी निजो मानसिक शान्ति भी खो इतना सौंदर्य है कि आपको बाह्य सब कुछ नाटक बंठते हैं। उनका सम्पूर्ण आन्तरिक सौदर्य समाप्त सा प्रतीत होगा। जब तक आपको यह साक्षी स्थिति हो जाता है । अतः वाञ्छनीय यही है कि हम सदव जागृत नहीं होती, आरपने 'निः शब्द का अनुसरण निर्विचार रहें । अपने मस्तिक से छोटे विचारों पर नहीं किया, उसके अनुसार आचरण नहीं किया। प्रतिबन्ध लगा दें। तब आप स्वतः ही मध्य में यदि प्राप जानते हैं कि 'निः' अपके भीतर प्रतिष्ठित नहीं हुप्रा है, फिर भी आष भावुक, अहङ्कारी, हठी अथवा विनम्र व निराश होते रहते रहेंगे । आपको समस्त प्रयत्न करने चाहिये । अब आप निमला योग ४ पूछने, 'मां. बिना विचार किये हम काम कैसे कर आपने पहले कभी भाषण नहीं दिया, भाषण का सकते हैं ?" अब आपके विचार क्या है? वह कला का आापको कुछ ज्ञान नहीं अथवा प्रस्तुत वास्तव में खोखले हैं। निविचार परवस्था में आप विपय का अपको कुछ विशेष ज्ञान नहीं किन्तु परमात्मा की शक्ति के साथ एकरूप हो जाते हैं चमत्कार अर्थात् बँद (अर्थात् प्राप स्वयं) समुद्र (अर्थात् स्वम्भित हो जायेगे कि यह ज्ञान भण्डार आप में परमात्मा) में ग्राकर मिल जाती है। तब परमात्मा कहाँ से उमड़ पड़ा । किन्तु जहाँ एक बार आप की शक्ति भी शआपके भीतर आ जाती है। क्या आप निविचारिता में गह रे उतरे, सब कूछ वहाँ से की अंगुली सोचती है ? क्या यह फिर भी चल नहीं (निर्विचरिता से ) आता है, न कि आपके मस्तिष्क रही ? अपने विचारों को परमात्मा को समर्पित से । कर दें और अपने विषय में सोचने का भार उस पर छोड़ दं । किन्तु यह कठिन-मा है क्योंकि प्राप निर्विवार स्थिति में नहीं हैं । आप इतना कमाल का बोलगे कि लोग ! अब मैं आपको अपना रहस्य बताती हैं । आप प्रार्थना कीजिये, "माँ, मेरे लिये कृपया ऐसा कर दीजिये" । आप पाश्चर्य करेंगे । मैं अरापकी विनती अनेक लोग कहते हैं हमने सब परमात्मा को पर विचार नहीं करती । केवल उसे अपनी समर्पण कर दिया है। किन्तु यह केवल मोखिक निर्विचारिता को समर्पित कर देती हैं। सम्पूर्ण होता है, वास्तव में नहीं । समर्पण मौखिक क्रिया संयन्त्र बहाँ क्रियाशील होता है। उसे (विचार को) नहीं है। निर्विचारिता प्राप्त करने के लिये, जिसका उस संयन्त्र (निर्विचारिता) में डालिये और माल अर्थ है आपका विचार करना बन्द कर देना, आपको समर्पण करना पड़ता है। जब आपको विचार उस सयन्त्र-यों कहें नो रव प्रथवा शान्त संयन्त्र को क्रिया बन्द हो जाती है तब आरप मध्य में ् जाते काम तो करने दीजिये । अपनो सारी समस्याएं हैं । मध्य में आते ही तुरन्त आप निर्विवार चेतना । में पहेँच जाते हैं अर्थात् आप परमात्मा की शक्ति के अत्यन्त कठिन है क्योंकि उनको प्रत्येक बात के बारे साथ एकरूप हो जाते हैं और जब ऐसा हैता हूँ में सोचने की प्रादत होती है । तब वह (परमात्मा) आपकी देख-रेख करता है । वह प्रापकी छोटी-छोटी बातों के विषय में सोचता है। यह आश्चर्षजनक है । किन्तु पकरके तो समय आप निर्विचारिता में प्रवेश करने की क्षमता देखें और आप देखगे कि आपका पहला रास्ता प्राप्त कीजिये । अ्राप देखगे सब कुछ स्वतः ही स्पष्ट रालत था । अतः एक बार जब आप निविचारिता हो जाता है। आप जो अनुसन्वान करते हैं वह भी का स्वाद लेते हैं तो आप देखते हैं कि आपको निविवार अवस्था में करना चाहिये। नि्विचार समस्त प्रेरणायें समस्त शक्तियाँ और [अन्य सर्वस्व अवस्था में कार्य-रत रहने का अभ्यास कीजिये । प्राप्त होने लगता है । निविचारिता में अरापके मन में इस भाँति ग्राप अरति उत्कृष्ट रीति से अपना अनु- जो विचार आता है वह एक अन्तः स्फूुरण संधान कार्य कर सकते हैं । मैं [अनेक विषयों पर (inspiration) होता है । [आप चकित होंगे। बोलती है। अपने जीवन में मैंने कभी विज्ञान का प्रत्येक आपके सामने ऐसे आयेगी मानो थाली अध्ययन नहीं किया और उस वि वय में कुछ नहीं तेयार होकर अपके सम्मूख श्रा जाता है । आप उनको सौंपिये किन्तु बुद्धि-जीवियों के लिये यह किसी विषय को समझते की कोशिश करते वस्तु में परोस कर आपके सम्मूख प्रस्तुत कर दी गई । जानतो । फिर यह स व ज्ञान कहाँ से आता है ? प वक्तुता देने खड़े होते हैं, केवल नि्विचारिता निविचारिता से । मै वोलती जाती हैं और जो कुछ में प्रवेश कोजिये प्रोर श्रीगणेश कर दीजिये। यद्यपि होता है उसे देखती रहती है। मेरे वाणीरूपी নिमला योग ५ू घडी निविचारिता में है यह हमेशा स्थिर ( शान्त) रहती है। यदि कोई कार्य करना हो तो बह उचित् कम्प्यूटर में मानो यह सब कुछ पहले से तयार करा कराया रखा था । यदि आप निर्विचार [अवस्था] में नहीं हैं तो प्राप उस कमप्यूटर(अर्थातु निर्विचारिता) समय पर हो जाता है । फिर मन में कुछ पश्चात्ताप का उपयोग नहीं कर रहे है और अथअने मस्तिष्क को नहीं होता कि यह समय पर हुआ अर्थवा देरी से । उसके ऊपर प्रतिष्ठित करते हैं (अर्थात् आपका जब भी हो, मुझे कोई चिन्ता नहीं। निर्विचारितारुपी और परपके सब कार्य मानव मस्तिष्क शक्ति, जो सीमित है, उसके बल पर होते हैं) निर्विचारिता आनन्दमग्न थी क्योंकि मैं तारागणों को देखना एक प्राचीन कम्प्यूटर है श्और इसकी शक्ति से चाहती थी। वह सौंदर्य लन्दन में उपलब्ध नहीं विपूल परिमाण में सही कार्य किया गया है। यदि आप प्रपने मस्तिष्क का प्रयोग करते हैं और इस कम्प्यूटर का आश्रिय नहीं लेते तो प्राप निश्चित आभिलापा थी माँ उसकी इस छुटा को देखें। कभी- रूप से गलतियाँ करेंगे। कम्प्यूटर निष्क्रिय रहता है कल मेरी गाड़ी(कार) खराब हो गई। किन्तु मैं होता । [अत: मैं वह देखना चाहती थी। इसका सौंदय सम्पूर्ण आकाश में व्याप्त था। आकाश की कुभी मूझे उस और भी देखना आवश्यक होता है। मैं उसका आनन्द लाभ कर रहो थी। संक्षेप में नि्विचार अवस्था में जो कुछ भी घटित होता पको किसी वस्तु का दास नहीं होना चाहिये है वह प्रबुद्ध प्रकाशमान होता है। हिन्दी, मराठी तथा संस्कृत भाषाओों में किसी शब्द से पहले 'प्र' युक्त करने से उसका अर्थ होता है प्रकाशित, आपको सर्वत्र ले जाते हैं मानो अपने हाथों पर उठा प्रकाशमान । प्रकाश कभी बोलता नहीं। यदि आप कमरे की बत्ती जला दें. तो वह बत्ती(दोप) बोलेगी है । वह सब कुछ जानते हैं और उन्हें कुछ भी बताने नहीं प्रथवा कोई विवार प्रापको नहीं देगी। वह की आवश्यकता नहीं। किन्तु पको देखना है अप केवल सब कुछ दृष्यमान (प्रकट) कर देगी । यही मुख्य घारा (निर्विचारिता) में हैं अथवा नहीं । बात निविचारिता रूप प्रकाश के वा रे में है । यदि आप इसमें नहीं हैं और आप कहीं किनारे पर निर्विचार, निरहङ्कार ( अ्र्थात् अहङ्कार र हित) अटके हैं तो प्रवाह, तरङ्ग आती है और आपको इत्यादि सब शब्दों के पहले 'नि:' जुड़ा है। आप] मुख्य धारा में ले जाती है, एक बार, दो बार, तीन इसे (अ्र्थात 'निः' को) अपने भीत र स्थापित बार। किन्तु यदि आप फिर भी किनारे पर अकर कीजिये और तब आप निर्विकल्प अरवस्था में आ्रा अटक जाते हैं, तब आप कहते हैं "माता जी, मेरा जायेंगे। पहले निर्विचार, तत्पश्चात् निविकल्प । कोई कार्य सुवारु रूप से नहीं होता । वास्तव में होगा तब आपकी समस्त सन्देह व शङ्कायें समाप्त हो भी नहीं। कारण, आप किनारे पर अटके हैं। जाती हैं और आपको प्रतीत होता है कि कोई शक्ति है जो काम करती है । यह शक्ति अत्यन्त द्रूत गति से काम करती है और अत्यन्त सक्षम है। आप श्चर्य करेंगे यह सब कसे घटित होता है। यदि आप निविचार अवस्था में हैं तो परमात्मा कर, ऐगी सरलतापूर्वक । वह सब प्रबन्ध कर देते श्री गणेश की जो आप स्तुति गान करते हैं वह अ्त्यन्त सुन्दर है । इसमें कहते हैं ' धारा স (प्रवाह) में प्रवाहित. अर्थ है प्रकाशमान मुख्य धारा (प्र+ वाह)। आप घारी मुख्य जिसका यही बात समय के विषय में है । मैं कभी घड़ी इसमें अपनो पृथक् लहर, तरङ्ग न मिलायें । श्री की तरफ़ नहीं देखती । कभी-कभी यह रुक जाती गणेश की आरती में यह भी आता है "निर्वाणी है, कभी गलत समय बताती है। किन्तु मेरी असली रक्षवे" अर्थात् के समय मेरी रक्षा करें । आप मही मृत्यु निर्मला योग शक्ति है । यह सौंदरय एवं प्रेम से परिपूर्णं है । जब यह भी कहते हैं "रक्षः रक्षः परमेश्वरः" हे परमात्मा आप मेरी रक्षा करें । किन्तु आप स्वयं प्रेम की शक्ति जागृत होती है तब वह 'ला शक्ति ही प्रपनी रक्षा करना चाहते हैं । फिर परमात्मा वन जाती है। यह आपको चारों ओोर से वेर लेती आपकी रक्षा क्यों कर ? वह (परमाल्मा) कहते हैं है । जब वह क्रियाशील होती है तब चिन्ता कैसी ? "उसे अपनी रक्षा अपने आप ही करने दो । मैं तब आ्रपकी कितनी शक्ति होती है ? क्या श्रप बृक्ष इस बात पर वल देना चाहती हैं कि आपको से एक फल भी बना सकते हैं। फल की तो बात गहराई में जाना सीखना चाहिये और निविचारिता क्या आप एक पतत्ता अथवा जड़ भी नहीं बना में ही सब कुछ प्राप्त करना चाहिये । तभी अ्राप सकते। केवल मात्र 'ला शक्ति यह सब कार्य करती निर्विकल्प स्थिति प्राप्त कर सकते हैं । है । आपको जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ है वह भी इसी शक्ति का काम है । इसी शक्ति से निः' आपको निरासक्त रहना चाहिये। यहां भारत तथा 'म' (निर्मला नाम के प्रथम व द्वितीय अंवा) में लोग कहते हैं "मेरा बेटा, मेरी बेटी । " इङ्गलेंड शक्तियों का जन्म हुआ है 'नि:' शक्ति श्री व्रह्मदेव में इसके विपरीत होता है वहँ बेटा, बेटी किसी की श्री सरस्वती शक्ति है। सरस्वती शक्ति में आप से कोई लगाव (आसक्ति ) नहीं होती। वे केवल को नि:' के गुरण अर्जन ( प्राप्त ) करने चाहिये। निः अपने स्वयं के बारे में सोचते हैं। यहाँ हर चीज में झक्ति प्राप्त करने का अर्थ है पृर्णतः निरासक्त मेरा, मेरा' मेरा लड़का, मेरी लड़की, मेरा मकान बनना । आपको पूरी तरह निरासक्त बनना चाहिये। और अन्त में विचारों में केवल 'मैं' और 'मेरा' हो बाकी रह जाता है, इसके अतिरिक्त श्रर कुछ नहीं। आपको कहना चाहिये मेरा कुछ भी नहीं है, वह हमारा दूसरों से नाता जोड़ती है । 'ल' शब्द सब कुछ आपका ही है। सन्त कबीर कहते हैं "जब 'ललाम, 'लावन्ध' में आता है ला शब्द में उसका तक बकरी जीवित रहतो है तब तक वह 'मैं, करती है। किन्तु उसको मारने के बाद उस की आँतों उससे (माधु्य से) प्रभर वित करना चाहिये। दूसरों के तारों से जो ताँत (जिससे धुनिया रूई धुनता है) से वातचीत करते समय आपको इस शक्ति का बनती है । उसमें से 'तू ही-तू ही आवाज़ आती प्रयोग करना चाहिये। चराचरमें यह प्रेम की है। आ्पको भी 'तू ही-तू ही रहना चाहिए। जब आप 'मैं नहीं है मेरा कोई कर्तव्य है ? आ्रपको अपने सारे विचार प्रथम (नि:) अस्तित्व नहीं है इस भावना में दुढ स्थित हो जाते शक्ति पर छोड़ देने चाहिये क्योंकि विचारों का हैं तभी श्रप निः शब्द को समझ सक गे । 'ला' शक्ति में प्रेम का समावेदश (सम्मिलित) है अपना ही विशेष माधुर्य है और अरापको दूसरों को मैं भावना में मग्न शक्ति व्याप्त है । ऐसी स्थिति में आपका क्या जन्म उस प्रथम शक्ति से ही होता है अ्न्तिम (ला) शक्ति, जो प्रेम और सौंदर्य की शक्ति है, उससे प्राप प्रब निर्मला नाम के अन्तिम अक्षर ला के को प्रेम के अ्रनन्द का रसास्वादन करना चाहिये। विषय में विचार करें। मेरा दूसरा नाम है 'ललिता । यह कैसे करें ? अपने आपको दूसरों के प्रति प्रेम- देवी का आशीर्वाद है । य यह (शस्त्र) है। जब 'ला' अर्थात् 'देवी ललिता रूप किसी ने अनुमान लगाया है कि वह दूसरों से घारण करती है अरथवा जब शक्ति ललत अर्थात् कितना प्रेम करता है ? यह बढ़ता ही रहना क्रियाशील रूप में परिणत होती है अर्थात् जब उस चाहिये में चैतन्य लहरियाँ प्रवाहित होती हैं जो आप अपनी और इस भाव में कितना आनन्द लेते हैं ? क्या इस हथेलियों पर अनुभव कर रहे हैं, वह श क्ति 'ललिता बारे में आपने सोचा है ? मानवों के विषय में मैं ह उसका आयुध भाव में भूल जाय, उस भाव में खो जाये । क्या । आप दूसरों को कितना प्यार करते हैं निर्मला योग कह नहीं सकती, किन्तु प्रपने स्वयं के विषय में मैं जल, तेज, वायु और काश) में अपने स्वयं के कह सकती है कि मैं दूसरों से प्रेम करने में [अत्यन्त विशुद्ध दिव्य प्रेम को भरते हैं, सं चारित करते हैं । आनन्द अनुभव करती हैं। अनुभव के र, केसे चारों अपने हृदय के प्रम की शक्ति (हमारा बा्यां पाश्व) ओर प्रेम की गङ्गा बह रही है, वह अनुभूति कितनी को अपनी क्रिया क्षक्ति (हमारा दा्ां पाव्वं) आनन्ददायक है। एक गायक को देखिये, वह कसे में पहुँचाना चाहिये, जसे प्राप कपड़े पर रंगों से अपने स्वयं के राग में अपने आपको भुल जाता है, चित्रण करते हैं। ज व इस भाँति क्रिया शक्ति में उसमें खो जाता है और सर्वत्र उस सङ्गीत को प्रम शक्ति का सम्मिश्ण किया जाता है तब वह प्रवाहित होते अनुभव करता है। इसी भांति प्रेम व्यक्ति अत्यन्त मधुर बन जाता है रर क्रमश: वह भी अबाधित रूप से प्रवाहित होना चाहिये। यतः माधुयं, प्रम उसके व्यक्तिर्व और उसके प्राचरणों आप ललाम शक्ति, जो चैतन्य लहरियों के रूप में में प्रकाशसान होता है। वह प्रेम प्रवाहित होकर विशुद्ध दिव्य प्रेम की शक्ति है उसे पहले अपने भीतर जागृत करें । क दूसरों को प्रभावित करता है और उसकी प्रत्येक क्रिया अत्यन्त रसमय हो जाती है। वह व्यक्ति इुतना आकर्षणयुक्त बन जाता है कि आप आ्राप आप देखें कि आ्राप दूसरों की ओर किस दृष्टि धुण्टों उसके सहवास में ग्रानम्द और प्रसन्नता का से देखते हैं। कुछ निम्न स्तर के लोग दूस रों से चूराने अथवा उनसे कूछ लाभ उठाने के भीव से दयक और दूसरों के मन को जीतने वाला बनना देखते हैं, कुछ दूसरों के दोषों को देखत है। पती चाहिये । इसके फलस्त्र रूप सव अपके मित्र बन नहीं इसमें उन्हें क्या आनन्द अता है। इस भाति वे जाते हैं गौर परस्पर प्रम बढ़ता है । त्येा अनुभव अकेले, अलग-थलग ही जाते हैं श्रर फिर कट करता है कि एक स्थान है जहां उसे प्रम और भोगते हैं । यह स्त्रयं कष्टों को निमन्त्रण देना है। बात्सल्य मिल सकता है । मझे तो दुस रों से कुछ करते हैं । आपका] प्र म दूसरों को अनन्द- अनुभव श्रुतः आपको प्रेम की में अनन्द ा ईश्व रीय शक्ति को प्रपने भोतर विक सित करना सबसे मिलने, भेट करने आता है। चाहिये । आपको 'ललाम' शक्ति का जो चैतन्य लहरो रूप में दिव्य प्रेम को शक्ति है-उपयोग करना चाहिये। जाहिये। जब भी कोई विचार आये तो सोचिये दूसरे व्यक्ति को देखने मात्र से आप निरविचारिता में पहुँन जाय । इससे दूसरो व्यक्ति भी निविचार हो जायेगा । अतः आप अपने को एवं दूसरे को भी प्रथात दिव्य प्रेम की शक्ति सदव स्वच्छ, निमल हमें सदैव निर्विचारिता ('नि:' शक्ति ) में रहना ईश्वर के प्रेमरूपी पविव गड्गा में यह गन्द कहा से प्रा गई ? ऐसो चित्त-वृत्ति से हमारो 'ला' शक्ति विशुद्ध दिव्य प्रेम का बन्धन दं । 'निः शक्ति ओर 'ला' शक्ति को बँधने दें । 'ला' शक्ति परथात् चैतन्य लहरियों के रूप में प्रम की शक्ति को नि:' शक्ति प्र्थात् निर्विचारिता में पहेँचाना, परिणत करना है। दोनों को बन्धन देना लाभप्रदः लोगों से, जो बड़े प्रभिमानी हैं अथवा जो सोचते हैं पूछे तो मैं केवल उसकी कुण्डलिनी की अवस्था के कि वे बड़े काम करने वाले, कर्मबीर हैं, उनसे मैं विषय में बता सकती है अरथवा उसका कौन सा चक्र अपनी बाय पाश्व (side) को उठाने को बताती हैं। इस समय पकड़ा हमा है अरथवा बहुधा पकड़ी रहता इस भाँति हम अपने स्वयं के पश्च तत्वों (पृथ्वी, है। इसके ग्रतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझ सकती कि रहेगी और उस स्वच्छता के आनन्द में हम विभोर रहेंगे । आप दूसरों की टीका-टिप्पणी (Criticism) न है। बहुत से करे । यदि आप मुझसे किसी व्यक्ति के विषय में निर्मला योग ८ वह कंसा है, उसका स्वभाव केसा है, इत्यादि । करें कुछ लोगों का रोप भी मनोहारी होता है । यदि इस विषय में मुझसे पूछा जाय तो मैं कहूँगो, इस मधुर, मनोहारी शक्ति की ललित' शक्ति कहते स्वभाव होता क्था है ? यह परिवर्तनशील होता है। हैं लोगों ने इसके भाव को बिल्कुल विक्कृत कर नदी इस समय यहाँ बह रही है। बाद में उसका कर दिया है। वे कहते है यह सहार की शक्ति है। बहाव कहाँ होगा, कौन बता सकता है ? इस समय किन्तु यह विल्कुल ठोक नहीं है । यह शक्ति अति आप कहाँ हैं ? यही विचार करने की बात है। आग मनोरम, नृजनात्मक और कलात्मक है। मानो नदी के इस किनारे पर खडे हैं तो पपको बिचित्र आपने एक बीज बोया। उसके कुछ अश्ञ नष्ट हो लगता है कि नदी यहाँ बह रही है। मैं समुद्र की जाते हैं, जिसे 'ललित' शक्ति कहते हैं। किन्तु यह दिशा में खड़ी हैं। इस कारण मैं जानती हूं इसका विनाश अत्यन्त कोमल श्रीर सरल होता है तब उद्गम-स्थल कोन सा है। अतः अपि किसी को भी बीज उग कर एक बृक्ष वनता है जिसमें पत्ते होते हैं। व्यर्थ, निकम्मा न कहें । प्रत्येक उ्य क्ति वदलता फिर पत्त झड़ते हैं। यह क्रिया भी अत्यन्त सुकोमल रहता है, यह अवश्य होता है। सहजयोग का कार्य व सरल होती है। तब फूल आते हैं। जब फूल फल परिवर्तन लाना है । सहजयोग में विश्वास करने बनते हैं, तब उनके अंश भड कर गिर जाते हैं और वाले व्यक्तियों को किसी को नहीं कहना चाहिये कि तब फल आते हैं। उन फलों को भी खाने के लिये वह बेफार हो गया है प्रत्येक को स्बतन्त्रता होनी काटा जाता है। खाने पर आपको स्वाद प्राप्त होता चाहिये। आप सब जानते हैं हमारी वतमान स्थिति है वह भी यही शक्ति है । इस प्रकार ये दोनों क्तियाँ का म बरती है । आप जानते हैं विना काटे, केवल अपने स्वयं का आत्म-सम्मान करते हैं, बल्कि संवारे आप कोई मति नहीं बना सकते । यदि अप दूसरों का भी सम्मान करते हैं। जिसमें अरत्म- समझ, लें कि यह काटना संवारना भी उसी जाति सम्मान तहीं है, वह दूसरों का कभी आदर नहीं की क्रिया है तो यदि श्रापको कभी हिसा करना पडे तो आपको बुरा अनुभव नहीं करना नाहिए। वह भी आवश्यक है। किन्तु एक कलाकार इसे कलापूर्ण हुँग से करता है और कला हीन व्यक्त इसे बेढंगे तरीके से करता है। सो आप में कितनी कला है इस व श क्या है। यदि आप इस भाँति सोचंगे तो आप न कर सकता । हमें ललाम शक्ति का विकास करना चाहिये। एक पुस्तक लिखकर भी मैं इसका आनन्द पर्याप्त रूप से बरन नहीं कर सकती क्योंकि सौंदर्य को प्रकट करने के लिये शब्द अ्रसमर्थ है। अर्थात यदि आपको 'मुस्कान' का वर्णन करना हो तो आप केवल कह सकते हैं कि स्नायु करसे (हरकत) करते हैं । आप उसके प्रभाव को नहीं यदि कोई पूछे इस चित्र में क्या विशेषता है तो बता सकते । यह तो के वल अनुभव की वस्तु है। आप शब्दों में नही बता सकते । आप बस उन्हें आप केवल इस शक्ति को जाग्रत और विकसित निहारते हैं । कुछ चित्र ऐसे होते हैं कि ्रप उनकी होने का अव्सर दं । पुर यह शक्ति निर्भर करती है | कभी आप एक चित्र को देखते हैं और ग्रापकी इच्छा करती है आप इसकी ओर देखते ही रहें। प्रान्दोलन प्रोर देखने मात्र से निर्विचार हो जाते हैं। इस निर्विचार अवस्था में आप उसके आनन्द का रसा- 'ललाम शक्ति से मनुष्य को एक प्रकार का स्वादन करते हैं । यह अवस्था संवोत्कृष्ट है। इसकी सौदर्य, एक भव्यता प्और स्वाभाव में माधुर्य प्राप्त किसी अन्य वस्तु से तुलना अथवा मुस्क रा कर व्यक्त होता है। इस शक्ति को अपने वचन, कर्म तथा करने के स्थान पर आपको इस स्थ ति के आनन्द अन्य क्रिया-कलापों में विकसित करने का प्रयास का मन भरकर रसास्वादन करना ही उचित् है। निमला योग ६ इसका बरान करने के लिये न कोई शब्द है, न कोई तब तक आप कह सकते हैं कि यदि ईश्वर आपसे भाव-भंगी (मुखाकृति) पर्याप्त है । आ्पको इसका प्रेम करते हैं तो उन्हें पआपके पास [आना चाहिये, भोतर अनुभव करना है। सबको यह अनुभव लाभ किन्तु साक्षात्कार-प्राप्ति के पश्चात् आप ऐसा न कह होना चाहिए । सकेंगे । क्योंकि 'म शक्ति के बल पर आपको दूसरी दो शक्तियों का सन्तुलन करना है । संगीत में आप नि:' श्रर 'ला' के मध्य में 'म' शब्द अ्रत्थन्त को रागों का सन्तूलन करना पडता है, चित्रकला में रोचक है । 'म' महालक्ष्मी का प्रथम अक्षर है। 'म अ्रापको रङ्गों का सन्तुलन करना पड़ता है। इसी धर्म (पवित्र आचरण) की शक्ति है औरर हमारा भाँति आपको नि.' और 'ला शक्तियों का सन्तुलन उत्क्रान्ति की भी । 'म' शक्ति में आपको समझना होता है, फिर उसे अत्मसात करनेा होता है अर पको परिश्रम करना पड़ेगा। अनेक बार आप पूर्णंता (mastery) कुशलता, प्राप्त करनी होती हैं । उदाहरण के लिये, एक कलाकार में ल' शक्ति से उसके सृजन का विचार अ्रकुरित शक्ति द्वारा वह उसका निर्माण करता है और म' शक्ति के द्वारा बह उसे अपने विचार के बनाता है । प्रत्येक पग पर वह देखता है कि क्या वहुत ज्यादा कोमों में फंसा रहने वाला सहजयोगी यह उसके विचार के अनुरूप है और यदि नहीं तो भी ठीक नहीं वह उसमें करने की कोशिश करता है वह सक्रिय करना चाहिये और देखना चाहिये अब तक यह बार-बार करता है। यदि कोई बस्तु करना आवश्यक है । इस सन्तुलन प्राप्ति के लिये वह खो बैठते हैं। जो सहजयोगी इस सन्तुलन को बनाये रखता है वह उच्चतम स्तर पर पहुँच जाता है । होता है नि' बहुत भावुक सहजयोगी ठीक नहीं। इसी तरह अनुरूप । आपको अपने प्रेम की शक्ति को सुधार यह 'म' शक्ति है अर्थात् वह कसी क्रियाशील रही है उदाहरणार्थ, मैं किसी ठीक नहीं है तो एक बार, दो बार, एक ढॅँग से काम करती है किन्तु उसमें भी मैं प्रत्येक बार कुछ बदल कर देती हैं । आपने देखा होगा कि हर बार कुछ नवोनता कोई नया तरीक़ा होता है। बार-बार करें । इस सूधार कार्य में परिश्मे लगता है। हम यदि एक तरीक़ से काम नहीं चलता, दूसरा तरीक़ा प्पने स्वयं का भी यह न होता तो उत्क्रान्ति की क्रिया असम्भव थी । इस कोई ढंढिये । किसी भी पद्धति पर अटल नहीं होना के लिये परमात्मा को महान् परिश्रम करना पड़ता है। हमें 'म' शक्ति अजित करनी है और उसे संभाल कर रखना है। यदि यह न किया जाय तो दूस री दोनों शक्तियँ समाप्त हो जाती हैं. क्योंकि यह शक्ति सन्तुलन बिन्दु (centre of gravity) खोजनी होंगी। मैं सदैव वृक्ष की जड़ का उदाहरण है। आपको सन्तुलन बिन्दू पर स्थित रहना चाहिये और हमारी उत्क्रान्ति का सन्तुलन बिन्दु 'म' शक्ति है । अन्य दोनों शक्तिय्याँ तभी प्रापके भोतर सकिय क्रमशः नचे और नीचे पृथ्वी के भीतर उतरती होंगो जब आप उत्क्रान्ति शक्ति के अनुरूप उन्नति कर । किन्तु उसके लिये आपको 'म शक्ति को पूर्णतःसमझना होगा औरउसे विकसित करना होगा । सुधार करना चाहिए । यदि अपनाइये । यदि यह भी असफल रहता है तो और चाहिये । आप प्रात: उठते हैं, सिदूर लगाते हैं. श्री माँ को नमस्कार करते हैं । यह सब यान्त्रिक mechanical) होता है । यह सजीव प्रक्रिया नहीं है । सजीव प्रक्रिया में अरपको नित्य नई पद्धतियां देती हैं । बाधाओं से मोड़ लेते हुए, बचते हुए, यह चली जाती है। यह बाधाओं से झगड़ती नहीं । बाधाओं के विना जड़े बृक्ष को संभाल भी नहीं सकती थीं। अत: समस्याएं, बाधाएँ अरावश्यक हैं । वे न हों तो आप उन्नति भी नहीं कर सकते । वह जब तक आप आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं हैं शक्ति, जो आपको बाधाओं पर विजय पाना निर्मला योग १० सिखाती है, वह 'म' शक्ति है। अत: यह 'म' शक्ति 'माताजी अर्थ वाचक किसी भी शुभ नाम का प्रथम अर्थात् मा की शक्ति है। उसके लिये प्रथम वश्यक क्षर म होता है अरर यह कार्य मेरे भीतर 'म शक्ति द्वारा किया गया है। यदि केवल 'नि' और ल' दो वस्तु है बुद्धिमानी । शक्तियाँ ही होती, तो यह कार्य सम्भव नहीं था। है मैं तीनों शक्तियों सहित आई है, किन्तु 'म' शक्ति सोचिये कोई व्यक्ति वडा कोमल स्वभाव धर कहता है, 'माँ मैं अ्यन्त मूदु हैं. मैं क्या कर मवचच है। आापने देखा 'म 'शक्ति माँ की शक्ति सता हैं । मैं उससे कहती है अपने को बदलो और एक सिंह बनो। यदि कोई दूस रा व्यक्ति सिंह है, तो मैं उसे बकरी बनने को कहती है। अन्यथा काम नहीं चलता। आपको अपने तरीके बदलने होंगे। जो व्यक्ति ्पने तरीक नहीं वदल सकता, वह सहजयोग नहीं फेला सकता, क्योंकि वह एक ही तरीके पर जमा रहता है जिससे लोग ऊब जाते हैं । आपको नये मा्गे खोजने हगि । इसी माँ पर और माँ को हम पर पुर्ण अधिकार है क्यों भाँति 'म' शक्ति कार्य करती हैं । माहिलाय इसमें कि वह हमें अपार प्यार करती है। उसका प्रेम मिपणा होती हैं। वे प्रतिदिन नये व्यकञ्जन (भज्य मङ्गल है । यह सिद्ध करना होगा कि वह आपकी माँ है । यदि कोई अरकर कहे "मैं प्रापकी माँ है" तो क्या आप मान लेगे ? नहीं, आप स्वीकार नहीं करेंगे । र को सिद्ध करना होगा । मातृत्व मां ब्धा है ? माँ ने अपने हृदय में हमें स्थान दिया है हमें नितान्त नि:स्वार्थपूर्ण है । वह सदैव हमारी पदार्थ, recipes) बनाती है और पति जानन की कामना करती है र उसके में हमारे लिये हृदय बात्सल्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। माँ में उत्सुक रहते हैं कि आज क्या बना है । श्रपकी आस्था तभी प्राप्त होगी जब आप यह समझ लेगे कि आरपकी बास्तविक शोभा, प्रथ्थात यह वह शक्ति है जिसके द्वारा आप अपना सन्तुलन और एकाग्रता प्राप्त करते हैं । जब आप इस शक्ति को उच्चतम स्तर पर विक सित कर लेते आपको आत्मा उनमें ही बास करती है। ग्राप हैं तब आप अपने सन्तुलन तथा बृद्धि स्तर से चेतन्य दसरों को यह सिद्ध करके दिखायें । सहजयोगी में सहरियां अनुभव करते हैं । यदि ग्राप में बुद्धिमानी ऐसी सामरथ्य होनी चाहिये। अन्य लोगों को पता नहीं है तो ग्राप में उक्त लहरियां प्रभावित नहीं है कि वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है। उसके लिये होंगी। आप में प्रेम और क्रियाशीलता दोनों शुक्तियों में सन्तुलन आवश्यक है । वह इतना मनोहा री होना चाहिये कि विन्ता जाने अन्य लोग ऐसे ब्यक्ति से अ्रधिकतम चैतन्य निश्चित बुद्धिमान व्यक्ति होता है। वास्तव में यह प्रभावित हों । सहजयोगी को यह गुरण अजन करना बुद्धिमत्ता हो है जो प्रवाहित हो रही है। इस माप- चाहिये । दण्ड से यह निश्चित हो सकता है कि आप किस स्तर के सहजयोगी हैं। लहरियों-सम्न्न व्यक्ति ती घर जाकर ग्राप विचार करें कि इन तीनों नि', ला भ्र 'म' शक्तियों को कसे सक्रिय कर प्रयोग जब आप सन्तुलन तथा बुद्धि खो देते हैं तो करें । 'नि: शक्ति आपके परिवार में पूर्ण सोंदर्य स्वाभाविक रूप से आपके चक्र पकड़े (बाघाग्रस्त) अऔर गम्भीरता, गहराई लायेगी । जन-सम्पर्क के जाते है । जय आ्आपके चक्र वाघाग्रस्त हों तो समझ आप नये-नये मार्ग और साधन खोजें। इन शक्तियाँ लोजिये आपका सन्तुलन बिगड़ गया है। [असन्तुलन का आप सहजयोग के प्रचार के लिये उपयोग करें । संकेत करता है कि 'म' शक्ति आप में दुर्बल है । उनके उचित् उपयोग के लिये पकी 'नि:' शक्ति, निमंला योग ११ । सहजयोग में पूर्ण सिद्धता, निपुराता प्राप्त होगी । अर्थात् क्रियाशक्ति, प्रत्यन्त बलशाली होनी चाहिये यद्यपि आप में 'ला' शक्ति अ्र्थात् प्रेम की शक्ति होनी अभी तक वे सिद्ध नहीं हये हैं। आपको सिद्धता चाहिये, किन्तु यह 'निः' शक्ति के साथ-साथ संयुक्त प्राप्त करनी है। सिद्ध सहजयोगी वह है जो पूर्ग रूप से क्रियान्वित होनी चाहिये। यदि एक तरीक़ा रूप से परमात्मा से एकरूप हो जाये और उसे सफल नहीं होता, तो दूसरा तरीक़ा अपनाइये । अपने वृश में कर ले । उसको उसके लिये सर्वस्व पहले लाल और पीला लें, यदि यह उपयुक्त नहीं अपित करना होता है । मैं जा रही हैं। उसके बाद रहता तो लाल और हरा उपयोग करें और यदि देखेंगे आप अपनी सिद्धता का किस भांति और यह भी ठीक नहीं रहता तो प्रौर अन्य कोई उपयोग किस क्षेत्र में उपयोग करते हैं । कर । हठी होना किसी बात पर अड़ना बुद्धिमानी नहीं है। हठधर्मी व्यक्ति सहजयोग में कुछ नहीं कर सकता। आपका उद्देश्य तो केवल सहजयोग करता है। आपको उसका बुरा नहीं मानना चाहिये। का प्रचार करना है, तो विभिन्न मार्ग अवलम्वन कर देखिये । आप जो भी आग्रह करते हैं वही में नहीं होना चाहिये, क्योंकि आपका मार्ग दर्शन स्वीकार कर लेती है क्योंकि मैं जानती है कि करना मेरा कर्तव्य है । कुछ लोग निराश हो जाते साधारण मानव मेरी भांति नही है। हठघ्मी है। अप ध्याने रख अपकी सिद्ध बनना है। टूसरे व्यक्ति क्या कर बैठे, कहा नहीं जा सकता । अप स्वीकार कर आप सिद्ध हैं । ज्यों ही वे आपको देखें उसे पराकाष्ठी अर्थात् हद्द पर जाने की स्थिति अने दे। 'म शक्ति से मैं यह सब जानती हैं। किन्त कर। यदि यह होता है तो सब शुभ होगा। आप सहजयोगियों को किसी एक बात पर हठ नहीं करना चाहिये। आपकी माँ हठ नहीं करती। जो भी स्थिति हो, स्वीकार कर लें । आप जो भी कर, भोज के लिये पूजा या किसी [अन्य] कार्यक्रम के लिये बातों के लिये मना कभी-कभी मैं अरपको कुछ म शक्ति के सिद्धान्त प्रनूसार आपको निराश उन्हें स्पष्ट हो आप सिद्ध हैं। आप इसके लिये यत्न न एक दिन मैंने आपसे कहा था कि [आप अपने सब मित्र ओर सम्बन्धियों को मध्याह्न अथवा रात्रि ध्यान रखें अरप एक महत्वपूर्णं कार्य कर रहे हैं मुझ में कोई इच्छा नहीं है । मुझ में 'निः', 'ला', 'म' कोई शक्ति नहीं है । मुझ में कुछ भी नहीं है । मैं । आमन्त्रित कर । साथ ही कुछ सहजयोगियों को भी आमन्त्रित करें और अपने सब अतिथियों को आत्म- भी नहीं जानती मैं स्वयं इन शक्तियों की साक्षात्कार प्रदान कर । यदि एक साल तक आप यह मूर्त्तस्वरूप है । मैं केवल सब खेल देखती है । ऐसा करें तो बड़ा लाभकारी होगा। जब जीवन में इस प्रकार परिवर्तन आ जायेगा तब मनुष्यों में सिद्ध सहजयोगीजन होंगे जिन्हें सबको प्रनेक आशीर्बाद । निमला योग १२ लक्ष्मी तत्त्व नई दिल्ली ९ मार्च १९७९ कृषण ने गीता में कहा है कि 'योगक्षेम वहाम्य- चाहिये, connection होना चाहिये जब तक हम । इसका मतलब है-पहले योग। १हले वो क्षेम आपका योग घटित नहीं होता, तब तक क्षेम नहीं कहते, (पर) पहले उन्होंने 'योग' कहा, अ्ौर उसके होता । क्षेम का मतलब है, आपकी चारों तरफ़ से बाद क्षेम । क्षेम का मतलब होता है, आपका रक्षा लक्ष्मी तत्त्व की जागृति । well-being (कुशल-मङ्गल) अ्रपका लक्ष्मी तत्व । तो पहले योग होना चाहिये कृष्ण ने सिर्फ ये कहा है कि 'वहाम्यहम्'-"मैं करूगा, पर करसे करू गा, सो नहीं कहा। सो मैं जब तक योग नहीं होता तब तक परमात्मा से आपसे बताती है, वह किस तरह से होता है । प्पसे कोई मतलब नहीं। आपको पहले योग, माने 'परमात्मा से मिलन होना चाहिये, आपके अन्दर आत्मा जागृत होनी चाहिये। जब आपके अन्दर आत्मा जागृत हो जाती है, तब आप परमात्मा के ँ। तैब उसमें ज्योति आ जाती है, क्योंकि आत्मा दरबार में असल में जाते हैं, नहीं तो प्राप रटट ज्योति पा लेती है । और उस ज्योत के कारण तोते के जैसे कहा करते हैं। जो कुछ भी बात होती नाभि चक्र में जो लक्ष्मी तत्त्व है वह जागृत हो है, बाहर ही रह जाती है । अन्दिर का आपा जब तक अप जानते नहीं, जब तक आप अपने को जाएगा, चोरों त रफ़ से आप देखियेगा कि अपकी पहुचानते नहीं, तब तक आप परमात्मा के राज्य में खुशहाली होने लगेगो। आते नहीं और इसीलिये आ्राप उसके अधिकारो नहीं हैं जो परमात्मा ने कही है । जब योग घटित होता है, तब कुण्डलिनी त्रिकोणाकार प्रस्थि से उठकर के ब्रह्मयरन्ध्र को छेदती है, जाता है। जेसे ही लक्ष्मी तत्त्व अापमें जागृत हो कोई आदमी रईस हो जाए-जिसे हुम 'पसे- वाला' कहते हैं, जरूरी नहीं कि वह 'खुशहाल है । बहुत से लोग परमात्मा को इसका दोष देते हैं, अधिकतर पसे बाले लोग महादुःखी होते हैं। जितना कि तो इतनी परमात्मा की भक्ति कर रहे हैं, पैसा होगा, उतने ही वो गधे होते हैं, उतनी ही हम इतनी हम पूजा कर रहे हैं, इतने स र के बल खड़ उनके घर के अन्दर गन्दगी आती है -शराब, होते हैं, ये करते हैं, वो करते हैं, धूप चढ़ाते हैं, दुनिया भर की चीज, मक्कारीपन, भुठापन- हर सुबह से शाम तक रटते बैठते हैं, तो भी हमें तरह की चीज़ उनके अन्दर रहती है। हर समय परमात्मा क्यों नहीं मिलते ? परमात्मा से बात मन में डर, भय-कभी सरकार अआकर पकड़ती है, कि करने के लिये, आपका उनसे 'सम्बन्ध' होना खाती है, कि हमारा पैसा जाता है, कि ये होता है, निर्मला योग १३ वो होता है। जो बहुत रईस लोग हैं, ता भी कोई लक्ष्मी पति नहीं क्योंकि उनके अन्दर लक्ष्मी का में रहे चाहे अमीरी में रहे, वह बादशाह होता है। तत्त्व नहीं जागृत हुआ है। सिर्फ पेसा कमा लिया। वह बादशाह के जेसा रहता है। छोटी-छोटी चीज पैसा उनके लिये मिट्टी जैसा है, उससे कोई उनको के पीछे, दो-दो कौड़ी के पीछे, सुख नहीं है। जो आादमी बादशाह होता है, वह चाहे गरीबी इसके पीछे, उसके पीछे परेशान होने वाला लक्ष्मोपति नहीं हो सकता । इसीलिये लक्ष्मी-तत्त्व जागृत नहीं होता । इसीलिये नाभि-चक्र की बड़ी जोर की पकड़ हो जाती है । मैं ने पिछली मतंबा बताया था कि लक्ष्मो जी उस आदमी के अन्दर Materialism (भीतिकवाद) कैसी बनी हैं। उनके हाथ में दो कमल हैं-बो आ जाता है। वह जड़वादी हो जाता है । छोटी- छोटी चीज का उसे बड़ा खयाल रहता है। ये मेरा, लक्ष्मी का तत्त्व समझता चाहिये। गुलाबी रंग के हैं और एक हाथ से दान करती हैं और एक हाथ से वो आश्रय देती हैं। गुलाबी रंग ये मेरा-ये में रा बेटा है, ये मेरा फ़लाना है, ये का द्योतक होता है-प्रेम' । जिस हिकाना-ये सारी चीज जिस [आादमी में शर गई में प्रेम नहीं है वो लक्ष्मीपति नहीं हो सकता । उस तो लक्ष्मीपति नहीं । इसकी चीज़़ मारू कि उसकी ची ज मारू कि ये लूं कि बो ल कि सब 'मेरे लिये मनुष्य के हृदय का घर का फुल होता है कमल के फूल के अन्दर भौरे जैसा होना चाहिये-इस तरह से जो आदमी सोचता है जानवर जो कि बिल्कुल शुषक होता है-उसके कृँटे वो भी लक्ष्मीमति नहीं । चुभते हैं जरा आप हाथ में लीजिये तो-उसको तक वो स्थान देती हैं । अपनी गोद में उसको सुलाती हैं उसको शान्ति देती हैं। ऐसा होना चाहिये जसे कमल जो दूसरों के लिये सोचता हैं - अगर मेरा अच्छा आलोशान मकान है तो इसमें कितने लोग आकर बैठे । अगर मेरे पास ऋलीशान चीजें हैं तो लक्ष्मीपति का मतलब है कि उसका दिल बहुत कितने लोगों को प्राराम होगा केसे मैं दूसरे लोगों बड़ा है। जो अपने घर आए हुए अतिथियों को, की मदद कर पाऊँगा। किस तरह से मैं उनको किसी को भी अत्यन्त आनन्ददायी होता है-वो अपने में स्थान दं ग । 'मदद का भी सवाल लक्ष्मीपति है। लेकिन अधिकतर आप रईस लोग नहीं उठता; आदमी यह सोचता है कि ये मेरे हो देखते हैं कि महाभिखारो होते हैं । उनके घर आप अपने हैं। इनके साथ जो भी करना है मैं अ्रपने साथ जाइये तो उनकी एकदम जान निकल जाती है, कि ही कर रहा है-तब असल में लक्ष्मी तत्त्व जागृत मेरे दो पैसे ख्च हो जाएँगे । जिस आादमी को हर हो जाता है । समय ये फ़िक्र लगी रहती है कि 'मेरे आज चार पैसे यहाँ खर्च हो रहे हैं, दो पसे बहाँ खर्च हो रहे हैं, इसको जोड़ के रखो, उसको कहाँ बचाऊँ, उस होनी चाहिये । ऐसा आदमो 'सुरभित' होना चाहिये को क्या करू-वो आदमी लक्ष्मीपति नहीं । न कि उससे हर समय घमण्ड की बदबू आए । आदमी लक्ष्मी पति नहीं हो सकता । जो अत्यन्त 'नम्र होना चाहिये। कमल का फूल प्रापने हृदय कमल के जसा उसका रहन-सहन, उसकी शक्ल कञ्जू स कञ्जूस है, बो कञ्जूस है, तो लक्ष्मीपति नहीं है । देखा है उसमें हमेशा थोड़ी- सी भुका न रहती है। कञ्जूस आदमी दरिद्री होता है-महादरिद्री होता कमल कभी भी तनकर खड़ा नहीं ह है। उसमें बादशाहत नहीं होती। जिस आदमी की थोड़ी-सी झुकान डण्टल में प्रा जाती है । उसी तबियत में बादशाहत नहीं होती, उसे लक्ष्मीपति प्रकार जो कम से कम लक्ष्मी जी के हाथ में जो नहीं कहना चाहिये। होता, उसमें कमल हैं दोनों में इसी तरह की 'सुकुमारिता है । निमला योग १४ दूसरों से बात करते समय तो बहुत ठण्डी तबियत स्वरूप, माँ स्वरूप बनाया हुआ है लक्ष्मीजी का से, आनन्द से, प्रेम भरा इस तरह से बात करता स्वरूप । एक कमल पर लक्ष्मीजी खड़ी हो जाती है-झूठा नहीं होता, तो Plastic के नहीं होते हैं, हैं । आप सोचिये कि एक कमल पर खड़ा होना, वो कमल प्रसल में होते हैं। माने भ्रादमी में कितनी सादगी होनी चाहिये, बिल्कुल हुल्का, उसमें कोई दोष नहीं। कमल पर भी वो खड़ा हो सके- ऐसा आदमी उसे होना ऐसा मनुष्य असल में कमल के जे सा होना चाहिये। एक हाथ से दान बहुते ही रहना है, बहत जाहिये, जो किसी को अपने बीझ से न दबाए । जो हो रहना है। हमने अपने पिता को देखा है। पिता की बात हम देखते हैं, वहुत दानी आ्रादमी थे। हो बहुत ही न म्र होना चाहिये। जो दिखाते फिरते हैं देते ही रहते थे। उनके पास कुछ स्यादा ही जाए ' बाँटते ही रहते थे । मजा ही नहीं अता जब तक तो बांटे नहीं। अगर उनसे कोई कहता कि 'आप आँख उठाकर नहीं देखते तो कहने लगते कि "मैं क्या देखं । जो देने वाला हैं दे रहा है, मैं तो सिर्फ बीच में खड़ा है-उसमें देखना क्या ? मुझे तो शम के अन्दर ये तत्त्व जागत हो जाता है, तो पहली लगतो है कि लोग कहते हैं कि 'तुम' दे रहे हो । चीज प्राती है - सन्तोष' । ऐसे तो किसी चीज़ का इस तरह का दानत्व वला आदमी जो होता है, वो अन्त ही नहीं है, अप जानते हैं कि Economics अपने लिये कुछ भी संग्रह नहीं करता है और दूसरों (अर्थवास्त्र) में कहते हैं, को बाटता रहता है, दूसरों को देता रहता है। देने satiable होती हो नहीं है in general (सामान्य- में ही उसको श्रातन्द आता है, लेने में नहीं-यह तया कोई भी चाहत की तुप्ति नहीं होती) । आज प्रादमी लक्ष्मीपति है। जो अपने ही बारे में सोचता आपके पास ये है तो कल वो चाहिए। बो है तो वो रहे-मेरा कसे भला होगा, मैरे बच्चों का भला होगा, मैं केसे होऊँगा-ऐसे अादमी को जैसा दौड़ता रहता है, उसकी कोई हद ही नहीं लक्ष्मीपति नहीं कहते । उसमें कोई शोभा नहीं होती, होती। आज यह मिला, तो बो चाहिये, वो मिला वह असल में भिखारी होता है । और लक्ष्मीपति तो वो चाहिये । एक हाथ से तो आध्रय देता है, अनेक को अपने घर में, जो भी आए, उससे अत्यन्त प्रेम से मिलना, उस से ग्रत्यन्त प्रेम से, अपने बेटे जैसे उसकी सेवा संतोष प्रा जाता है । जब तक आदमी को सन्तोष करनी । उसके यहाँ नोकर-चाकर, घर में नहीं आएगा, वह किसी भी चीज का मजा नहीं ले जानवर - अनेक लोग इसके आश्रय में होते हैं और सकता । क्योंकि 'सन्तोष जो है वह वर्तमान की वह जानते हैं कि वह हमारा आश्रय दाता है । कोई चीज़ है present की चीज, और 'अ्शा' जो है हमें तकलीफ़ होयेगी, वो हमें देखेगा । रात को उठ Future ( भविष्य) की चीज है; 'निराशा' जो है ये कर के भी देखेगा चुपके से करता है । वो ये बताता Past (भुतकाल) की चीज़ है । [आप] जब सन्तोष नहीं, जताता नहीं, दुनिया को दिखाता नहीं कि मैंने में खड़े रहते हैं तो fully satisfied, ( पूर्णतया उनके लिये इतना कर दिया, वो कर दिया-एकदम सन्तुष्ट), तब आप पूरा उसका आनन्द उठा रहे हैं, चुपके से करता है । परमात्मा भी हु-बहु ऐसा है । तो एक श्नी कितना भी रहता है तो भी कहते हैं, 'अ्रे ! उसके तो ढिंकाना है, वो लक्ष्मीपति नहीं हो सकता । 'मातृत्व उनमें होना चाहिये । मां का हृदय होना चाहिये, तब उसे लक्ष्मीपति कहना चाहिये। ये सब लक्ष्मीपति के लक्षण हैं और जब आप कोई भी wants करसे चाहिये, वो चाहिये तो वो चाहिये । आदमी पागल लेकिन आदमी को सन्तोष आता है । उसे जो आपको मिला हुआ है। नहीं तो उनके पास निमंला योग १५ पास है- मुझे तो चाहिये । तो काहे को मिला है ? रहने लग गए फिर वो मिल गया तो उसको वो चाहिये । कभी मैंने पुछा. 'यह कैसे हुआ ? कहने लगे कि हम भो ऐसा आदमी अपने जीवन का आनन्द नही उठा सारा पैसा ब्बाद क रते थे, हमें होश ही नहीं था सकता, कभी भी वो ऊँचा नहीं उठ सकता । रात कि हम करसे रहते थे, कहाँ रहते थे । दिन उसकी नजर जो है ऐसी ही बढ़ती रहेगी, जो चीजें विल्कुत व्यर्थ हैं, जिनका कोई भी महत्त्व नहीं जिनका जीवन में कोई भी महत्व नहीं, जिनका और ऐसी चीज़ों की एकदम मना किया है। अब, अपने जीवन के प्रानन्द से कोई भी सम्बन्ध नहीं, ऐसी पीज़ के पीछे वो भागता है । इनके बाल-बच्चे अच्छे हो गए । । इसीलिये, जो गुरुजन हो गए हैं, उन्होने शराब शराब तो इतनी हानिक र चीज़ है कि इस तरफ से बोतल आई शराब की, उस तरफ़ से लक्ष्मी जी चली गई-सीधा' हिसाब । उन्होंने देखा कि पुर पहले योग घटित होना चाहिये-फिर क्षम आपकी शराब की बोतल अनदर आरा गई, उधर से होता है। हमारे सहजयोग में -यहां पर भी अने क वो चली गई ऐसे आदमी को कभी भी लक्ष्मी का रनोग आये हये हैं जो कि हमारे साथ सहजयोग में सूख नहीं निल सकता। जिनके घर में शराब चलती रहे और जिन्होंने पाया और इसमें प्रगति की है। है, उनके बर में लक्ष्मीजी का सुख नहीं हो सकता। इनकी सबकी Financial (ग्राधिक) प्रगति हुई है हां, उनके यहाँ पैसा होंगा, लेकिन लड़के रुपया सबकी-A to Z । कोई-कोई लोगों के पास तो उड़ाएँगे, बीवी भाग जाएगी- कुछ न कुछ गड़बड़ लामों रुपया आया । जिनके पास एक रुपया नहीं हो जाएगा। वच्चे भाग जाएगे-कुछ न कुछ तमाशे था उनको लाखों रुपया मिला। ऐसे भी लोग हमारे होंगे। अज तक एक भी घर आप मुझे बताय, यहाँ हैं जिन्होंने-अब देखिये, अभी भी जो आए जहाँ शराव चलती है और लोग खुहाल हों। 'हो हुए हैं अंग्रेअ लोग, जो India (भारत) आना चाहते ही नहीं सकता खुशहाली शराब के विल्कुल थे, तो इन्होंने कहा कि कसे जाएं ? पैसा तो है इन के पास। इनकी भो बड़ी प्रगति हो गई। बैसे भी इमको बहुत पसा-वैसा मिल गया और काफ़ी आाराम से रहने लगे। तो, जब आने लगे तो इन्हें एक Firm (संस्था) ने कह दिया, 'प्रच्छा, तुम मुपत वाहिये। आखिर वो लोग कोई पागल नही थे । में जाओ, हम तुम्हारा पैसा दे देंगे, क्योंकि तुम । हो विरोध में रहती है । इसीलिये गुरुजनों ने जो मना किया है - खास कर हरएक' ने; क्यों किया ? हमको सोचना उन्होंते हजार बार इस चीज़ को मना किया कि ा राब पीना बरी बात है। शराब सत पियो, हैमारा यह काम कर देना। शराव मत पियो । शराब तो एक ऐसी चीज़ है कि छोटी-छोटी चीज़ में परमात्मा मदद करता है। ये भगवान ने पीने के लिये तो कभी भी नहीं बना ई और इतना रुपया आपके पास बच जाता थी पालिश करने के लिये बनाई थी- पॉलिश करने है कि आपको समझ नहीं आता कि क्या करू'। ये के लिये। कल लोग 'फ़िनायल' पीने लगेंगे ! क्या लोग पहले Drugs लेते ये, शराब लेते थे और कहें आदमी के दिमाग को ! कुछ भी पीने लग जाएं दुनिया भर की चीजें करते थे । उसमें बहुत रुपया तो कोन कथा कर सकता है ? आदमी का दिमारा निकल जाता था । अब मैंने देखा है कि इनके घर इतना चौपट है कि कोई भी चीज उसकी समझ में अच्छे हो गए हैं, घरों में सब चीज़े ग्रा गईं, अच्छे से आ जाए, पीने लग जाएगा । उसे किसने कहा था सब Music (स्गीत) सुनते हैं, सब अच्छे-प्रच्छे शराब पीने के लिये ? शोक इनके अन्दर आा गए म सब बढ़िया तरीके से अब ये पॉलिश की चीज़ आप शराब के नाम निमला योग १६ से जब पीते हैं तो ब्रापके भी जितने भी Liver हैं, ये दस ध्म हमारी नाभि में होते हैं। इसीलिए (जिगर) है, Intestines (अन्त्डिया) हैं, सब इन गुरुआरों ने मना किया हुआ है कि पप अपने पॉलिश हो जाते हैं। यहां तक कि Arteries धम्मों को बनाने के लये पहली चीज़ है-शराब या (घमनिर्या) यपकी पॉलिश होकर के Stiff (सर्त) कोई सी भी ऐसी आादत न ल गा एं जिससे प्राप उसके हो जाती हैं। Arteries इतनी Stiff हो जाती है कि गुलाम हो जाएँ । अगर पको ये गुलामी करनी उसकी जो स्नायू है, तो प्राप स्वतंन््रता की बात क्यों करते हैं ? लोग जना सकते । माने, न तो यो बढ़ सकते हैं, न घट तो सोचते हैं कि गुलामी करना ही स्वतन्त्रता है । आपको अ्रगर कोई मना करे कि बेटे शराव नहीं हैं वो अपने को स्थितिस्थापक नहीं सकते हैं - बस जमते ही जाते हैं। Arteres जो हैं एकदम एक size की हो जाती हैं, तो लन भी पियो तो लोग सोचते है कि देखो, ये मृझे रोकते टोकते हैं, मेरी "स्व-तन्त्र-ता" छीनते हैं। मनुष्य भी दबाव न हो, उसके ऊपर में कोई पफुलाव न हो इतना पागल है उसकी मना इसलिये किया जाता ग्रर एकदम नली जैसे बन जाए Arteries, तो है कि बेटे, तुम दूसरों गुलामी मत करो'। नही चल पाता, खुन भी अटक जाता है । जब कोई उसमें क्या होगा ? ऐसा पॉलिश का गुर चढ़ता जाता है जिसकी कोई हृद नहीं, और मनुष्य भी जब कभी कोई बात बड़े लोग बताते हैं तो पॉलिश बन जाता है । ऐसा आदमी बड़ा कृत्रिम उसको विकारना चाहिये- न कि उसको रटते होता है। ऊपर से बड़ी अच्छाई दिलाएगा शराबी वेठना चाहिये, सुबह से शाम तक। उसको विचारना आदमी है; ऊपर से- वाह ! बड़ा शरोफ़ है, ऐसा नाहिये, उसको सोचना चाहिये कि उन्होंने ऐसी है, वैसा है। सब ऊपरो चीज़ । जो अपने बीवी बात 'क्यों कही; कोई न कोई इसकी दजह हो बच्चों को भूा नार सकता है, जो ग्रपने बोवी सकती है । ऐसे इतने बड़े ऊँचे लोगों को ऐसी बात तवों से ज्यादती कर सकता है, वो आदमी कितना कहने की ज़रूरत व या पडी थी ? क्यों इस चीज को भी भला बाहर करके घूसे उसका व्या परथ बार-बार उन्होंने मना किया है ? ये सोचना चाहिये निकलता है, वता इये ? इसलिये श राब की इतनी ओर वितारना चाहिये ्र कोई भी मनुष्य जरा मनाही की गई है, इतनी मनाही कर गए हैं, सी सा भी बेठकर सोंचे तो बह समझ तकता है कि इस कुदर गन्दो ये चीज हम लोगों ने अपना ली हैं, जिस के कारण हमारे यहां से लक्ष्मी-तत्व चला गया है। भारत से तो लक्ष्मी-तत्त्व विल्कुल पूरी तरह से चला गया है। यहाँ पर लक्ष्मी-तत्त्व है ही नहीं; और किस लिये कर गये हैं ? अब मुसलमानों को इतनो मनाही है शराब की ले किन उनसे ज्यादा कोई पीता ही नहीं। क्यों मनाही कर गए ? सोचना चाहिये । मोहम्मद साहब जेने आदमी क्यों मनाही कर गए ? नानक साहब इतनी मनाही कर गए-सिवखों से ज्यादा तो लंदन में कोई पीता ही नहीं। उनके आगे तो अग् ज हार गए। है कि नहीं बात ? कोन-से धर्म में शराब को क का पाया है। नीभि में ही विष्णुजी का जो अच्छा कहा है ? कोई भी धर्म में नहीं काहा । लेकिन स्थान है, श्रर विष्णु या जिसे हम लक्ष्मी, उनकी सब घर्म में लोग इतना ज्यादा पीते हैं और गुरुों जागृत करना भी बहुत कठिन है। क्योंकि लक्ष्मी-तत्त्व जो है, बो ही परमात्मा के जो शक्ति भानते हैं -इसी में हमारो खोज शुरू होती है । जब हम Amoeba (अमीवा) में रहते, तो हम खाना खोजते थे । जरा उससे बड़े जानवर का अपमान करते हैं। हमारी सारी नाभि चक्र और] उसके चारों हो गए तो और कुछ खाना पीना और सङ्ग-साथी तरफ़ दस जो हमारे धमं हैं, जो कि गुरुओं ने बनाए ढूंढते हैं । उसके बाद हम इन्सान बन गए तो हम निमंला योग १७ वहाँ हैं । अ्रगर मनुष्य के दस घर्म नहीं रहे, तो वो राक्षस हो जाएगा । जैसे ये सोने का धर्म होता है कि ये खराब नहीं होता, इसी तरह से आपके अन्दर सुबह से शाम तक क्या खाना जो दस धर्मं हैं, वो आपको बनाए रखने हैं-जो सता खोजते हैं । हम इसमें पसा खोजते हैं । बहुत से लोग तो खाने पीने में मरे जाते हैं। बहुत से लोग तो है, क्या नहीं खाना है, ये करना है, वो करना है । इसी में सारे बर्बाद रहते हैं। जिन लोगों को अति करें-औ्र उसके उपधर्म भी हैं-तो आपका कभी खाने की बीमारी होती है, बो भी लक्ष्मी-पति कसे? भी उद्धार नहीं हो सकता, कभी भी आप पार नहीं वो तो भिखारी होते हैं, ऐसे तो जिनका कि दिल ही हो सकते। पहले, जब तक आप घम को नहीं बनाते नहीं भरता । एक मुझे कहने लग गई- एक हमारे हैं, तब तक आप 'वर्मातीत नहीं हो सकते - बमं से यहां बह आई थीं रिश्ते में, कहने लगीं कि 'मेरे बाप ऊपर नहीं उठ सकते । पहले इन घ्मों को बनाना के यहाँ ये था, वो था'। 'अरे !' मैंने कहा, 'तुम में पड़ता है और इसीलिए इन गुरुप्रों ने बहुत मेहनत तो दिखाई देना चाहिये । तुम्हारे अन्दर तो ज़रा की, वहुत मेहनत करी है । इनकी मेहनत को हम भी सन्तोष नहीं तुम्हें कि ये खाना चाहिये, तुमको लोग बिल्कुल मटियामेट कर रहे हैं, अपनी अ्रक्ल की वो खाने को चाहिये; घुमने को चाहिये । कोई वजह से । सब इसको खत्म कर रहे हैं । "इन घरमों सन्तोष तुम्हारे बाप ने दिया कि नहीं दिया तुमको? को बनाना हमारा पहला परम कतंव्य है ।" अगर वाक़ई तुम्हारे बाप इतने लक्ष्मीपति थे तो कुछ तो तुम्हारे अन्दर सन्तोष होता ! "मिली तोको प्रापसे या घर्म से कोई मतलब नहीं है - आप मिला, नहीं तो नहीं मिला ।' मानव घर्म हैं । अगर इन धर्मों की आप अरवहेलना ले किन आजकल के जो निकले हुए हैं, उन गुरु शराब पीते हैं ? लेओं और हमको भी एक बोतल जब ये स्थिति की आ जाती है-जब लाओ, श्रर आपको कोई हजा नहीं। अच्छा, आप औरतें रख रहे हैं ? तो ठीक है, दस औरतं रखिये श्रया कि सत्ता में नहीं रहा, पसे में नहीं रहा, और एक हमारे पास भी भिजवा दीजिये, या अपने किसी चीज़ में उसे बह आनन्द नहीं मिला, जिसे बीवी-बच्चे हमारे पास भेज दीजिये । आपकी जेब खोज रहा था, तब आनन्द की खोज शुरू हो जाती में जितना रुपया है. हमारे पास दे दीजिये-हमें आप है । वो भी नाभि चक्र से हो होती है। इसी खोज से कोई मतलब नहीं। आपको जो भी घन्धा करना अरमोबा) से इन्सान है कर । आपके बस पसं में जितना पैसा है इधर जमा कर दीजिये, फिर आप जैसा है, वैसा करें ! मनुष्य उसकी सत्ता खत्म हो गई, जब उसको समझ में के कारण आज हम Amoeba ( बने । और इसी खोज के कारण, जिससे हम परमात्मा को खोजते हैं, हम इन्सान से अतिमानव आज ही एक किस्सा है, वता रही थीं हमारे साथ होते हैं । 'प्रपा' को पहचानते हैं । आत्मा को आई हुई हैं कि इनकी वहन, राजकन्या है वो भी, । इसीलिये लक्ष्मी-तत्त्व और उनके पति बहुत शराबी, कबाबी, बहुत बुरे आदमी थे। और तो एक गुरु के शिष्य थे । इन्होंने जाकर उनसे बताया कि ये आदमी मारता है, और लक्ष्मी-तत्त्व जो बैठा हुआ है, उसके चारों पीटता है, सताता है, औरत रख ली है । उससे कुछ तरफ़ 'धर्म हैं। मनुष्य के दस धर्म बने हुए हैं। कहो। वो औरतं रखता है । और राजकुमार है, अब आप Modern (आधुनिक) हो गए तो आप लेकिन क्या करं उसका इतना खराब हो रहा है। भई प्रप तो कहने लगे कि रहने दो, तुमको क्या करना है ? Modern हो गए। क्या कहने आपके ! लेकिन ये उनसे रुपये ऐंठते गए, रुपया ऐंठते गए । 'गुरुजी पहचानते हैं- इसी खोज से बहुत जरूरी चीज़ है । सब धर्म उठाकर चुल्हे में डाल दीजिये । तो आपके अन्दर दसों धर्म हैं ही ये स्थित' हैं, ये को मतलब उनके रुपये से ! निर्मला योग १८ ये कोई गुरु हुए जो अपसे रूपये एठते है ? आप के नहीं देता ? एक है-वो अधनङ्गा नाचना सिखा गुरु हो ही कैसे सकते हैं ? जो आपके पसे के बूते रहे हैं- ग्रधमं सिखा रहे हैं । कौन-से धर्म में लिखा पर रहते हैं। ये तो Parasites हैं । अापके नोकरों है इस तरह की चीज ? दूसरे आजकल के गुरुओं के से भी गए गूजरे हैं। कम से कम आपके नौकर आप बारे में यह भी जानना चाहिये कि अपने ही हुँग से का कुछ काम करते हैं । जो लोग आपसे रुपया ले कोई चोज निकाल ली है। इनका पहले के गुरुओं करके जीते हैं, ऐसे दूष्टों को तो विल्कुल राक्षसों के साथ कोई नहीं मेल बैठता । 'वो' जैसे रहते थे की योनी में डालना चाहिए। और ऐसे दूण्टों के जैंसी उनकी सिखावन थी, जैसा उनका वर्ताव था, पास जाने वाले लोग भी महामुर्ख हैं, मैं कहती है । वो देखते क्यों नहीं? क्या यप परमात्मा को खरीद बैठता । सकते हैं? क्या आ्रप किसी गुरु को खरीद सकते हैं ? अगर कोई गुहु हो तो क्या बो अयने को बेचेगा। , जो उनकी बातें थीं, उनके इनका कोई मेल नहीं शपने घर्म के जो अनेक इतिहास चले रहे हैं, जिसको कि आप कह सकते हैं कि किसी भी घर्म उसकी अपनी एक शान होती है। उसको आप में लिखित, वही चीज, बही चीज कही जाती है। खरीद नहीं सकते । कोई भी चाहे । एक ही चीज़ अपने शङ्कराचाय को पढ़ तो आप सहजयोग समझ से आप उसको मात कर सकते हैं। आ्रापके 'प्यार लगे आप केबर को पढ़, आप सहजयोग समझ से, अपकी श्द्धा' से, आपके 'प्रेम' से भक्ति' से । लगे; नानिक को पढ़ं, आप समझ लेंगे; मोहम्मद को और किसी चोज से वो वश में अाने वाली चीज पढ़ अप समझ ल गे; Christ को पढ़े तो समझ नहीं है। उसको अपनी एक 'शान' होती है। तो लंगे; कन्प्यूशियस और सुकरात से लेकर सबको अपनी एक 'प्रतिष्ठा में रहता है। उसकी एक देखे तो सहजयोग ही सिखाते हैं। और ये जो सब 'बादशाहत' होती है। उसको क्या परवाह होगी ? आपको सर के बल उड़ना और फ़लाना और डिकाना और दुनिया भर की चीज़ अपको सचा ? - नचाकर मारते हैं-इनको कसे आप गुरु मान लेते है?"एक ही गुरु की पहचान है-जो मालिक को पराप है रईस, तो बेठे अरपने घर में । उसको कया वो पत्तल में भी खी सकता है, वो चाह जमन पर सकता है । वो जैसा रहना चाहे, रहे। उसे आ्प से मिलाए, वेही गुरु है और बाको गुरु नहीं।" कोई मतलब नहीं। उसको तो सिर्फ ग्रापके प्यार' से, आपकी श्रद्धा से और आपकी 'तीज से । अगर हुसी चीज़ कोदेखना । ले किन इन्सान इंतना Super- आपको खोज है तो सर आँों पर आपको उठा ficial (उथला) हो गया है कि वो 'सर्कस को ले गा । 'ऐसे गुरु को खोजना चाहिये, जो आपको देखता है । कितने ताम-झाम लेकर के आदमी वूम परमात्मा की बात वताए, जो अपको आत्मा की रहा है। कितनी हॅडियाँ सर पर रखकर चल रहा पहचान कराए जो मालिक से मिलाएं वही गुरु है। बाल कसे बनाकर चल रहा है । क्या सीग लगा माना हुआ है। सत्य पर अगर आप खड़े हुए हैं, तो आपको कर चल रहा है। "गुरु की सिर्फ एक ही पहुंचान है, कि वो सिवाय मालिक के और कोई बात नहीं जानता । उसी में रमा रहता है। वहो गरु, माने आप से ऊचा इन्सान है ।" जिसे दिखे, उसी को ! ये तो अगुरु भी नहीं है-राक्षस हैं, 'राक्षस ! अंगुठियाँ निकालकर आाप को देते हैं । जो आदमी आ्रापको अंगूठी निकाल कर देता है, वो क्या परमात्मा की वात करता होगा ? आपका चित्त अगुठी में डालता है, आपको दिखाई जिनको आप पैसा देते हैं, जो आपको बेवकफ़ गुरु ले किन जिनको आप खरीदते हैं, बाजार में, निर्मला योग १६ बनाते हैं; जो आपको Hypnotise (सम्मोहित ) जोओो, वहां भी सवा रुपया चढ़ाओ]। और इसी करते हैं, उनके साथ आप लगे हुए हैं, तो इस तरह चक्कर की बजह से हर जगह गड़बड़, हुर जगह के लोगों को क्या कहा जाए ? और इस कलियुग में, गडवड़ हो गई है ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी जो इस घोर कलियूग में, तो ऐसे अनेक अ जीव तरह के पवित्र जगह रह गई हो। एक-एक नमूने हैं । मैं आपको बताऊँ, किसका वरणन करू, किसका कहैं । ऐसे कभी न गुरु हुए, न होंगे, मेरे खयाल से जिस तरह से हो रहे हैं आजकल । क और इसी चुक्कर की वजह से हमारे जो जवान वेटे हैं, जो जवान लोग हैं, सोचते है कि परमात्मा है कि तमाशा है ये सब ? क्योंकि वो तो प्रपनी बुद्धि पर वो ऐसी चिपकन होती है उस चीज़ की कि रखते हैं न, अभी साबूत हैं दिमाग उनके। उनको अभी एक देहरादून से एक देवी जी आई थीं उन अविश्वास हो रहा है । सारे घर्मों में ये हो गया है, की कुण्डलिनी एकदम ऐसे जमी हुई थी। तो मैंने आपको आश्र्य होगा। कहा कि 'तुम कौन गुरु इससे बताया कि उनके पास गई ! मैंने कहा कि आपने उसके बारे में पेपर में पढ़ा कि नहीं पढ़ा? एक साहब-जवान हैं. बहुत होशियार और इज्जीनियर एक अ्रठारह साल की लड़की के साथ उन्होंने जो कुछ भी गड़बड़ किया था, उस लड़की ने और ये मुसलमान औ्रर ये Fanaticism ( धर्मान्धता) इन पच्चीस ओर लड़कियों ने Blitz पत्रिका) में और इसमें और उसमें सब कुछ छापा ये मुल्ला लोग है, सब पंसा खाते हैं और सब था-दस साल पहले छापा था। कहने लगी 'हम ( ने पढ़ा, पर वह सब झूठ है। 'हमने कहा', झुड हैं ! महान् समझते हैं और सब लोग उनके सामने तो, आपको क्या मिला उनसे ?' तो उनको वडा झुकते हैं। फिर उन्होंने Pope (पोप) को भी देखा । बुरा लग गया। कहने लगीं, 'मै तो शादीशुदा औरत वो भी एक नमूना है। तो विल्कुल अविश्वास से हैं, मैं ऐसो, मैं वैसी है। शरादमी के दरवाजे जाना ही क्यों ?' ले किन यह नहीं इसमें कोई अर्थ नहीं - सब झूठ है। बो हमारे पास करि वो औरत बदमाश है, ये नहीं कि वो खराब अए तो हमने कहा-यह बात नहीं। औरत है। पर उस पर Hypnosis (सम्मोहन) है, hypnotised (सम्मोहित ) । कोई उनको Freedom (स्वतन्त्रता) नहीं । गुरु जाकर ! आप जाइये, वहाँ पर सेवा करिये । इतनी बड़ी-बड़ी पेटियाँ रखी रहेंगी उसमें आप पंसा डालिये । से वा का मतलब है-पसा डालिये ! और लोग घर से पसे भर-भरकर ले जाते हैं, बहाँ डालने के लिये । यह आप देख लीजिये, कही भी जाकर के के बीचों बीच है, जहां परमात्मा साक्षात् आपसे इतनी बड़ी-बड़ी ट्ू के रखो रहेंगी भी पैर छुते हैं तो कोई एक रुपया दे जाता है, कभी का अनुभव करें, इसमें जमें। जब तक आप सहज पाँच रुपया रख जाता है ! मुझे आती है हसी ! योग में जमते नहीं, तब तक आप पूरी तरह से इसका मतलब आदत पड़ गई है न। हनुमान जी के मं्दिर अनुभव नहीं कर सकते । जो जम गए उन्होंने के पास गईं ? उन्होंने बडे Algeria (अल्जीरिया) से हमारे पास आए ये थे । वो भी इसी आन्दोलन में कि ये किस कदर (विलिटज़-एक महै अ्रर इस तरह से ये लोग दुष्टता करते हैं और जनता ) के पैसे पर जीते हैं और अपने को बड़ा । फिर मैंने कहा 'ऐसे भरकर अ्राए। उन्होंने कहा कि ये सब धोखा है । "जब सत्य है तभी उसका झूठ निकलता है। जब सत्य होता है तो उसी के आधार पर लोग भठ बनाते हैं न । सत्य भी कोई चीज है । Absolute (परम) भी कोई चीज़ है । तुम देखना सहजयोग में । बेठेगे सात मंज््जल पर अच्छा हमने कहा, ' "सहजयोग जो है, ये धर्मान्धिता और अविश्वास । आररे ! हमारे मिलते हैं। आप स्वयं इसका साक्षात्कार करें, इस निर्मला योग २० पा लिया, मिल जाता है । 'जिन खोजा तिन पाया पर खोजा ही नहीं तो कोई आपके पेर पर तो सत्य तरह से घटित होता है ? कसे बन पड़ता है ? ये बैठने नहीं बाला कि 'भई मूझे खोज । उसकी अपनी आप घीरे धीरे, जैसे-जे से इस में गुज़ रते जाते हैं भाप प्रतिष्ठा है । खोजना चाहिए लेकिन उसको खोजने खुद इसको समझते हैं दूसरों को भी ये सुख दे सकते हैं । ग्रौर ये किस । से सत्य से आनन्द उत्पन्न होता है । सत्य और पनन्द दोनों एक ही चीज़ हैं, एक ही चीज हैं दोनों। जैसे चन्द्र की चन्द्रिका होती है या जिस तरह से सूर्य अ्ब इनमें से बहुत-से लोग हैं, छः महीने पहले हमारे पास में आए। 'सिर्फ छ: महीने पहले' हमारे पास में आए । अब ये डॉ. बरजोजी साहब हैं । ये का उसका अपना प्रकाश होता है, उसी प्रकार सत्य और आनन्द दोनों चीजें एक साथ हैं । जब हमारे पास छुः महीने पहले आए और ये बहुत बडे आप सत्य को पा लेते हैं, तो आनन्द-विभोर हो डॉक्टर है लन्दन के, इसके प्रलावा जरमती में भी जाते हैं, प्रानन्द में रमभ्राण हो जाते हैं Practice(ब्यवसाय )करते हैं । जब से इन्होंने पाया है, इसके पीछे पड़ गए हैं । तब से कै सर ठीक किये ले किन ये सिर्फ लेकचरवाजी नहीं है कि अआपको हैं, दुनिया भर की बीमारियां ठीक की हैं और अब मैं लेकवर देती रहे सुबह से शाम तक । लेक्चर से कहते हैं कि इसको पाने के बाद सब कुछ तो मेरा गला थक गया । अब पाने की बात है कि irrelevent(अरसङ्गत) लगता है। क्योकि 'जब आप कुछ पाओ, आत्मा' को पाओ । बहुत-से लोग ऐसे बिल्कुल सूत्र पर ही काम करने लग गए, जब आपने भी देखे हैं 'हमें तो कुछ हुआ नहीं माताजी माने को ही पकड़ लिया, तो ना़ी चीजें हिलाना बड़े अच्छे हो गए ! होना चाहिए' । सूत्र कुछ मुश्किल नहीं अगर नहीं हुआ तो कुछ गड़बड़ है आपके प्न्दर | कोई न कोई तकली फ है अप बोमार हैं, इसीलिये इसे सह-ज (सहज) कहते हैं। 'सह माने आप mentally ( मानसिक रूप से) ठोक नहीं हैं, प्राप ने कोई गलत गुरु के सामने अपना मत्था टेका है। अगर आपने अपना मत्था ही जो कि परमात्मा इस प्रकार आप सब इसके अधिकारी हैं, अपके साथ, 'ज' माने पेदा हुआ । अप भी इसके अधिकारी हैं-हर एक रादमी इसका अधिकारी है भोर इसको पा लेना चाहिये। जैसे एक दीप दूसरे दीप को जला सकता है, उसी प्रकार ने इतनी शान से बनाया है, इसको किसी गलत आदमी के सामने टेक दिया है तो खत्म हो गया मामला । आपको हमें भी अन्धता से नहीं विश्वास एक Realized Soul (साक्षात्कार प्राप्त) दूसरे को Realization (साक्षात्कार) दे सकता है। लेकिन Realised soul होना चाहिए। अरगर एक दोप जला हुआ ही नहो, तो दूसरे को क्या करेगा ? जब दूसरा दीप जल जाता है तो वो तीसरे को जला सकता है। इसी प्रकार ये घटना घटित होती है, और आदमी के अन्दर लाइट(प्रकाश) आ जाती है । करना चाहिये। गलत बात है। हम चाहते हैं आप पाओ औ्रर उसके बाद भी अगर आपने अविश्वास किया तो आपसे बड़ा मुखं कोई नहीं। शर उसके बाद भी अगर आप जमे नहीं, तो पके लिये क्या कहा जाए ? जब आप पा लेते हैं तो इसमें जमिये । और जमने के बाद ग्राप देखिये कि आपकी पूरी शक्तियाँ आप Light देखते हैं। जो भी हैं, उस तरह से हाथ से बहुती हैं और आप फिर दूसरों को भी इस आनन्द को दे सकते हैं । हैं देखना जब होता है, तब वहाँ आप नहीं होते। अब लाइट आने का सतलब यह नहीं कि । यह भी एक दूसरी एक अजीव-सी चीज़ है कि लोग लाइट देखना चाहते निर्मला योग २१ है। सारी बीमारी आपकी ठीक हो सकती हैं। इसी जैसे कि समझ लीजिये कि अरप जब बाहर हैं, तो आप इस Building ( भवन) को देख सकते हैं, तरह की बड़ी भारी देवदायिनी, श्राशीर्वाददायिनी', लेकिन जब आप अन्दर आ गए, तो क्या देखियेगा? इस तरह की बड़ी भारी शक्ति आपके अन्दर में है। कुछ भी नहीं ! तब तो सिर्फ़ आ्राप 'होते' मात्र हैं, इस तरह की गलत धारणाएं कर नेना, कि हम आप देखते नहीं है । जहां-जहां देखना होता है तो बन्दर हो जाएँगे, या मेंढक हो जाएँगे-ग्रापको सोंचना कि आप प्रभी बाहर हैं । लाइट जो लोगों अ्रतिमानव जो बनाने वाली चीज़़ है, तो प्रापको को दिखाई देती है, वो Short circuit (पथूज क्या मेंढक बनाएगी ? इस चीज को आप समझ उड़ना) हो जाता है न, वैसी लाइट है, जिसे स्पार्क लें। (चिङ्गारी) बोलते हैं । इसलिये जिस जिस को लाइट दोख रही हो, वो मुझे बताएँ-आज्ञाचक्र टूटा है उस अदमी का । उसको ठीक करना पड़ेगा । अब 'यह कठिन होता है ! तो, उसके लिये कठिन है जो बेवकूफ़ है, जिसको मालूम नहीं, जो इसका अधिकारी नहीं, उसके लिये कठिन है। "जो ये सारे चक्र भी कूण्डलिनी अपने से ठीक करती इसका अधिकारी है, जो इसके सारे ही काम-काज चलती है। "वो आपकी माँ है", आप हरएक को जानता है, उसके लिये यह बाएँ हाथ का खेल है । अवग-प्रलग माँ हैं. वो आप जिसको हो सकता है कि हम इसके अधिकारी हैं और हम सुरति कहते हैं, वही यह सुरकति है। और यह अपने आप से इसके सारे काम जानते हैं, इसीलिये आसानी से हो चढ़ती है और अपने आप आपको ठीक करके वही जाता है ।" बहरहाल आाप अपनी आँख से भी देख पहँचा देती है। आप में अगर कोई दोष है, वो भी जागृति देख हम समझ सकते हैं । वह भी वो बता देतो है कि सकते हैं, इसका चढ़ना भी देख सकते है । और इस क्या दोष ठीक करना है। कोई ग्रलतेी हो गई तो की लोगों ने फ़िल्म-विल्म भी बनाई है पर जो भी ठीक हो सकता है, लेकिन अपने को Receptive लोग बहुत शङ्कापुर्ण होते हैं, उनके लिये सहजयोग इच्छुक - जरा मूश्किल से पनपता है । इस चीज को पाना सकते हैं इसका उठना। आप इसकी हम स्थिति) में रहना चाहिये- mood (प्रापति कि हम इसे ले ले, प्राप्त कर लें और हो जाएँ । चाहिये और इसको लेना चाहिये । अब कल भी एक बात जो उठी थी, वह आज भी दिमाग में किसी के उठ रही है कि कुण्ड लिनी में हम रह रहे हैं-कलियुग में, [असल में हम ये Awakening (जागृति) तो, लोग कहते हैं, कि बड़ी मुश्किल चीज़ है, बड़ी कठिन चीज़ है, यह कंसे होती है । इसमें कोई नाचते हैं. कोई बन्दर जेैसे नाचते हैं, कोई कुछ करते हैं । कुछ भी नहीं होता हमने हजारों की कुण्डलिनी जागत की हुई हैं ग्रोर आध्यात्म की चौज को अगर समझते होते प्रीर पार किया हुआ है ऐसा कभी भी नहीं होता है। आजकल जो ज़माना आ गया है, जिस जमाने कहंगे कि अध्यात्मिक दृष्टि से हम लोग बहुत ही पयादा, बहुत ही ज्यादा कमजोर है। Insensitive अ्र्थात् संवेदना हमारे अन्दर नहीं है । हम ! हम कभी भी गलत गुरुं के पीछे नहीं भागते । जो परमात्मा ने प्रापके उद्धार के लिये चीज लेकिन हमारे अन्दर सच को पहबानने की शक्ति, रखी हुई है, अपके पुनर्जन्म के लिये आपकी माँ है, बहुत कम हो गई है, क्षीण हो गई है । हम यह वह आपको कोई भी दुःख नहीं देती। उल्टे आपको नहीं पहचान सकते, कि सच्चाई क्या है ! उसकी वो 'प्रत्यन्त सुखदायी है। केंसर ज सी बीमारी वजह यह है कि इतने कृत्रिम हो गए हैं, इतने कुण्डलिनी के awakening (जागृति) से ठीक होती artificial (कृत्रिम) हो गए-आप artificial हो निर्मला योग २२ या तो फिर ये कहो कि तुम परमात्मा में या धर्म में विल्कुल विश्वास नहीं करते और अगर जरा भी विश्वास करते हो, तो जो अधम है, इसको पर जैसे गाँव में, शप्रभी भी मैं देखती हैं कि गवि नहीं करना चाहिये। कोई जरूरत नहीं किसी को में लोग एकदम पहवान लेते हैं। वो पहुँचान लेते हैं पीने की । ये भी एक गलतफहमी है कि Business कि कौन असल है और कोन नकल है । गीँव के लागी के लिए करना पड़ता है, इसके लिये । जो आदमी में नब्ज होती है इस चीज को पहचानने को । वो अपने को धोखा देना चाहता है उसे तो कोई नहीं जाइएगा तो आपकी सत्य को पहचानने की शक्ति कम हो जाएगी। समझते हैं, कि ये ग्रादमी नक़ली है और ये आदमी असली है। बचा सकता । हमारे पति भी आप जानते हैं सरकारी नोकरी उन्होंने बहुत बड़ी Shipping ( जहाजी) पर शहर के लोग तो आप जानते हैं, कृ्र म में रहे हैं हो जाते हैं। Artificially रहते हैं, इस लिये सत्य की पहचान नहीं होती और इसलिये भी जितने कम्पना चलाई, उसके बाद आज भी बहुत बड़ी चोर हंग के लोग हैं, ये सब श्रापक शहर के पाछ कि झा राब मेरे बस की नहीं और जिन्दगी भर उन्हों लगे हैं । ने छुई नहीं, एक बूंद भी और भगवान की कृपा से ये सारे शहरों में [आते हैं, गाँव में कोई नहीं बहुत successful (सफल) हैं । सब उनको मानते हैं, सब उनकी इ्जत करते हैं। प्रज तक होते हैं, , काम करता । य्योंकि आपके जेव में पसे आपकी जेव से उनको मतलब है । वो क्यों गाँव में किसी शराबी आदमी का कहीं पूतला बना है कि ये महान् शराबी थे। मुझे एक भी बताएँ, एक भी देश । इंगलैण्ड में लोग इतनी शराब पीते हैं, मैंने सहजयोग हमारा गाँव में चलता है उअसल में किसी को देखा नहीं कि ये बड़ा शराबी खड़ा हुआ शहर में तो हम यों ही आते हैं ले किन हमारा है, इसकी पूजा हो रही है । कि शराब पीता था । काम तो गाँव में ही होता है। गाँव के लोग सौधे- किसी शराबी की आज तक संसार में कहीं भी सादे, सरल, परमात्मा से सम्बन्धित लोग होते हैं, मान्यता हुई है ? फिर आ्पका Business इससे वो इसको बहुत आसानी से पा लेते हैं। उनको एक कैसे बढ़ सकता है । अगर आपकी इज्जत ही नहीं जाएँगे ? क्षर भी नहीं लगता । रहेगी तो प्रपका Business कैसे ? इज्जत से Business होता है । घोखाधडी से Business ले किन शहर के लोगों में एक तो शहर की नहीं है। जो आदमी एक बार खड़ा हो जाए तो आबोहवा की वजह से और यहाँ के तौर-तरीकों कहते हैं 'एक आदमी खड़ा हुआ है 'ये' । की वजह से आदमो इतना अपने को बदल देता है, स क़दर अपने को धर्म से गिरा देता है- इस तरह से अपने को आप इन चक्कूरों में, इन ग्रब ये इसमें क्या हुआ साहब, सब लोग पीते है sOCieties में, इसमें इस तरह से क्यों मिलाते चले Business के लिये पीना चाहिये।" मानो जैसे जाते हैं। आप अपने व्यक्तिरव को संभालें, इसी के Business ही भगवान है "उसको तो पीना ही अन्दर परमात्मा का वास है । श्जकल के जमाने चाहिये, फिर उसके अलावा Business कैसे में ये बातें करना ही बेवक फी है और कहना ही बेवकूफ़ी है। लेकिन आप नहीं जानते कि आपने चलेगा ।" निर्मला योग २३ अपने को कितना तोड़ डाला है, अपने को कितना जाएगा ? आप पूरी तरह से स्वतन्त्र हैं। आप चाहें तो परमात्मा को स्वीकार करें, अपने जीवन में. और चाहें. तो शैतान को । दोतों रास्ते आपके लिए गुलाम कर लिया है। इन सब चीजों में अपने को बहा देने के बाद परी तरह परमात्मा ने खोज रखे हैं। आपको मैं क्या दे सकती है ? आप ही वताइये। अब] कम से कम सबको ये व्रत लेना चाहिए कि हम रखुद जो हैं, हमारी इस्जत है। परमात्मा ने हमको औ्र सवसे बड़ी मेहनत की है। मैं आपसे बतातो हैं कि गुरुम्रों ने कितनी आफते उठाई हैं। स्खुद एक amoeba से इन्सान बनाया है। एक amoeba इतनी ही मेहनत, आपके पीछे सारे जितने भी छोटा-सा, उससे इन्सान बनाना कितनी कठिन चीज़ है। हजारों चीजों में से गुजार करके इतनी योनियों करी है। इनको कितना सताया, हमने उनको कितना में से गुजार के आज आपकी जैसी एक सुन्द र छला । उनकी कितनी तकलीफ़, बो सारी बर्दाश्त परमात्मा ने बनाकर रखी है । फिर अरापको उसने freedom देदी, स्वतन्त्रता दे दी कि तुम चाहो तो अच्छाई को वरण करो और चाहो तो बुराई को । जिस चीज को चाहो तुम अपना सकते हो। तुम्हें बुराई को अपनाना है चलो बुराई करो, अच्छाई आत्मिक संवेदन है इसको भूल गए । हम पहचान को अपनाना है अच्छाई करो ি प्रवतार हो गए, उन्होंने, गुरुरों ने, कितनी मेहनत चीज करके उन्होंने ग्रापको बिठाने की कोशिश की । लेकिन कलियुग कुछ ऐसा आया, बवण्डर जैसा कि हम सब कुछ भुल गए और हपारी जो भी ही नहीं पाते किसी इन्सान की शक्ल देखकर कि अब, आपको भी सोचना चाहिये कि जिस ये असली है कि नक़ली है-्ाश्चर्य है। शक्ल से परमार्मा ने हमें बनाया है, 'इतनी मेहनत से जाहिर हो जाता है अगर कोई प्रादमी वाकई वनाया है, उसने वो भी इन्तजाम हमारे आन्दर परमात्मा का आदमी है। उसकी शक्ल से जाहिर जरूर कर दिये होंगे जिससे हम उसको जाने प्रौर होता है । हम यह पहचानना ही भूल गए कि यह उसको समझ और अ्रपने को जाने और हमारा हमारे अन्दर की जो sensitivity है, जो हमारे मतलब बया है, हम क्यों संसार में अराए हैं, हमारा अन्दर की संवेदनशोलता है वो पूरी तरह से खत्म क्या fulfilment है ? मनुष्य ने यह कभी जानने हो गई। जब श्री रामचन्द्रजी संसार में आये थे की कोशिश नहीं की कि आखिर हम इस संसार में सब लोग जानते थे कि ये एक अवतार हैं । श्रीकृष्ण क्यों आए हैं ? Scientist यह क्यों नहीं सोचते कि जी जब आये थे तब सब लोग जानते थे कि ये हैम amoeba से इन्सान क्यों बनाए गए? हमारी अवतार है। लेकिन आज ये जमाना आ गया कि कौन-सी ऐसी बात है कि जिसके लिए परमात्मा ने कोई किसी को पहचानता नहीं । ईसा मसीह के इतनी मेहनत की और उसके बाद हमें स्वतन्त्रता समय में भी ऐसा ही हुग्रा । लेकिन उस समय कुछ दे दी ? लोगों ने तो उनको पहचाना। लेकिन आज ये समय आ गया कि सब भूतों और राक्षसों को लोग बस इस जगह परमात्मा भी आपके आगे जाते हैं क्योंकि आप स्वतन्त्र हैं। रापकी स्वतन्त्रता परमात्मा नहीं छीन सकते। अगर आपको परमात्मा के साम्राज्य में बिठाना है, अरापको अगर राजा और एक ही चीज़ माँगनी चाहिए कि प्रभु बनाना है, तो आपको परतन्ब करके कैसे बनाया तुम हम।रे अन्दर जागो जिससे हम अपने को जाए ? आपको क्या hypnosis करके बनाया पहचानें। भात्मा को पहचाने बग्गर हम परमात्मा झुक अवतार मानते हैं । इस चक्कर से अपने को हटा लेना चाहिये २४ निमंला योग का नहीं जान सकते, नहीं जाने सकते, नहीं जान सकते । बाकी सब बेकार है । ये सब circus है । देंगे नहीं तब तक आपकी प्रगति नहीं होगी । ये सिर्फ, जिसको कहते हैं वाहरी तमाशे हैं । इस बाहरी तमाशे से अपने को सन्तुष्ट रखने से कोई देना पड़ेंगा, जेसे-जैसे आप देते रहेंगे, वैसे- फ़ायदा नहीं। । कोई अगर हम लोग परमात्मा को कौन घोखा दे सकता है। बो तो आप बड़ी भारी Boat तयार करते हैं, Ship तैयार को खुब अच्छे से जानता है । आ्राप अपना ही करते हैं, अगर हम उसको पानी में नहीं छोड़े नुक्सान कर रहे हैं। आपको पाना चाहिये, क्योंकि तो उसका क्या अर्थ निकलता है ? उसी प्रकार आपकी अपनी शक्ति है, आपकी अपनी सम्पदा है, है, अगर मनुष्य परमात्मा को पाकर के और आपके अन्दर सारा स्रोत है । [आपके अन्दर भरा घर में बेठ जाए, तो ऐसे दोप से फ़ायदा क्या सब कुछ है इसमें जमना चाहिए । सहजयोग में जब तक अरप लोगों को प ग्रपने को ही धोखा दे रहे हैं । वेसे आप आगे बढ़ेंगे र्] | इसे आपको लेना चाहिए और फिर कि जो जलाकर के आप table के नीचे रख दीजिये । दीप इस लिए जलाया जाता है कि दूसरों द्ूसरों को प्रकाश दे। उससे आप अ्रपने अन्दर अपने को भी देख सकते है और दुसरों को भी देख सकते हैं। आप सहजयोग में जब मैं आती है तो लोग बहुत आते हैं, मैं जानती है । लेकिन यहाँ पर सबका कहना है कि माँ आगे लोग नहीं जाते। अब यहाँ अपने भी चक्र देख स कते हैं और दूसरों के भी देख पर हमने ऐसे लोग देखे हैं कि जिन से हमें कोई सकते हैं। आप अपने भी आनन्द को देख सकते हैं उम्मीद नहीं थी, वो कहाँ के कहाँ पहेंच गाए । प्रौर और दूसरों की व्यथा को भी देख सकते हैं। और जो कि बहुत हम सोचते थे, तो वहीं के बहीं जमे आप ये समझते हैं कि दूसरों को किस तरह से देना बेठे हैं। फिर लेकर आ गए वहीं मि रदर्द, वही वाहिये। जगह ये चंीज़ रोक रही है उसको आफते, वही परेशानियाँ वही ये हो रहा है, वही बो हो रहा है, अभी भी उनका level उतना ही ऊँचा उठा है । ये किस तरह से इसको हमें बनाना चाहिये । किस आज के लिये इतना काफ़ी है। हम लोग अब जरा ध्यान करें, देख कितने लोग पार होते हैं । "शलस्य सहजयोग का सबसे बड़ा दुश्मन है ।" श्री माताजी आरती के पश्चात् हर सहजयोगी को ३ वार श्री माताजी के स्वास्थ्य हेतु निम्न प्रार्थना करनी चाहिए । क्योंकि परमपूज्य श्री माताजी की अपनी कोई इच्छा नहीं, वह तो हम सभी सहजयोगियों की इच्छा पर निर्भर करती हैं । श्री माताजी हम सम्पूर्ण विश्व के सहजयोगी प्रापके स्वास्थ्य की कामना करते हैं ।" निर्मला योग २५ू श मिथ्या ( कवर २ का शेवाश ) इन सभी से छुटकारा पाना है ऐसा जब सोचोगे सूर्य देखने की ताक़त और हिम्मत आती है। और यत्न शुरू करते हो मिथ्या ज्ञान प्राप्त होता है। फिर पिगला नाईी पर से चित्त फिसल कर निद्धि एक कादम अपने दम पे लेगा तो काम बन जाएगा । वगै रा प्रलोभनों में मतुष्य फसता है। कुण्डलिनी का दर्शन तथा चक्रदर्शन आदि सारा मिथ्या हो है इसीलिए अापकी मांँ बनकर आयो है। आप के जो वयोकि उससे कोई लाभ नहीं होता, उल्टा नुकसान होता है। जो-जो नियम व संयम श्राचरण आपस में भी सहजयोग पर बात करें तो बहुत में लाना जरू री है इसकी जिद पकड़ते हैं वह सभी अच्छा है। चित्त हमेशा अ्रपने अन्तरीय उड्डान पर चित्त को बन्धनकारक होता है और मुक्ति का माग रखिये । बाहर का जितना हो सके उतना भूल ही नहीं मिलता । परन्तु सभी मिथ्या श्रात्म - जाइए। उसकी सारी व्यवस्था होती है ये विश्वास साक्षात्कार से नहीं जाते । किन्तु धीरे-धीरे ये भी रसखिये । उसके कितने ही प्रमाण हैं। उसके बाद कुछ छट सकते हैं। अगर पूर्णं सङ्कल्प से मिथ्यां की भी करते समय चित्त प्राम्मस्वरूप रहता है। संसार हृदय से निकाला जाये तो अरात्मा के शुद्धस्वरूप का असंसार ये भेद नहीं रहता क्योंकि भेद दिखानेवाला दर्शन होता है और फिर वही शुद्ध स्वूप आत्मसात विकृत अँधेरा खत्म होकर ज्ञान के प्रकाश में सारा होता है । कितनी मेहनत से मनुष्य को बनाया है केवल परतु अभी तक तो वैसा कुछ नहीं बन रहा है । प्रश्न हैं वे लिखकर भेजिए। ध्यान में बैठिए। 1 ही शुभ घटित होता है । फिर कृष्ण द्वारा संहार हो प्रोर तब मानवचित्त अनन्त, अनादि सत्यप्रेममय या क्ाइस्ट का बधस्तम्भ । शिवस्वरूप में मग्त हो जाता है। इसी सत्य की पहचान उस चित्त में होती है। ओर केवल यही दिखाकर नहीं होगा, उसको चलकर काटना होगा, जॉनने के लिए यह मानवचित्त है । उस आत्मा में तभी सब कुछ समझ में आएगा । ये सब बताकर समझ में अने वाला नहीं, मार्ग इस चित्त को उतरना चाहिए। जो चित मिथ्या का तयाग करते -करते अग्रमर होगा और जो सब कुछ है, पर नहीं है का मिथ्या वन्धन तोडेगा वही चित्त क्रम निश्चित करती है । कुछ दिनों वाद उसकी भी आर्मस्वरूप होगा।। आत्मा कभी भी खराब नहीं जरूरत नहीं पड़ेंगी। परन्तु ग्रभी तो सव कोई चिट्ठी होती और न ही न्ट होती। केवल मानव चित्त ही लिखिए और उसमें अपनी प्रगति लिखिए। फिर अपनी इच्छा के पीछे भागकर अपना मार्ग छोड आने के बाद देखते हैं विराट की कितनी नाडियाँ देता है । यह माया है, इसे जान-बुझकर बनाया है जागृत हुई हैं। इसके बगेर चित्त की तैयारी नहीं होती। इसीलिए के पवित्र आश्वल में होगी यही दीख रहा है। इस माया से इरने के बजाय उसे पहचानिए तब वही आपका मार्ग प्रकाशित करेगी। जसे सूर्य को विदेशों में इसका प्रसार होगा। बादल ढक देते है और उसके दर्शन भीकरा सकते हैं । माया मिथ्या है यह जानते ही वह अलग हट जाती तब मैने गिने-चुने २०, २५ लोगों को बुलाकर सब है औ्र सूर्य का दर्शन होता है । मूर्य तो सदासर्वदा रूपरेखा वनायी। है ही परन्तु वादल का काम ब्या होता है ? वादलों की बजह से हो मत में सूर्य-दर्शन की तीव्र इच्छा पैदा होती है। फिर सूर्य क्षणभर के लिए चमकता है और छिप जाता है। इस कारण अँखों को आपकी चिट्टियाँ आती हैं तब मैं अगला कार्य- इस कार्य की बढ़ोत्तरी भारत-भूमि आगे यह कार्य जोर पकड़ने पर सारे देश- लन्दन में आज ५ मई को सहस्रार दिन मनाया । सबको अनेकानेक आशीर्वाद और [अनन्त प्रेम । सदैव आपकी माँ, निमंला Edited & Published by Sh. S. C. Rai, 43, Bunglow Road, Delhi-110007 and Printed at Ratnadeep Press, Darya Gani, New Delhi-110002. One Issue Rs. 5.00, Annual Subscription Rs. 20.00 Foreign [ By Airmail E4 S81 ---------------------- 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-0.txt निर्मला योग मई जुन-1983 द्विमासिक बर्ष २ अक ७ बाे ्० +t प ॐ त्वमेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी, मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निर्मला देवी नमो नमः |। प पन पी 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-1.txt !! ॐ माँ !! मिथ्या ५ मई, १९७५ सहस्रार दिवस पर पर मपूज्य माताजी द्वारा दिया गया सन्देश को आप जानने लगोगे तब सत्य अपने आप ही मन (आत्मसात होगा) । और महा आनन्द अनेकानेक प्राशीोर्वाद ! की लहरें पूरे व्यक्तिर्व को वेर लेंगी । इस पत्र प्रिय दामले, में बसेगा में मैं मिथ्या क्या है वह बताने जा रही है। वह सब आपका पत्र मिला। सहस्रार पर खिचाव आना वहुत अच्छा लक्षण है। क्योंकि सहस्त्रार के को बताइए और उस पर सोच-विचार कीजिए । इस संसार में जन्म लिया और मिथ्या शुरू । माध्यम से मनुष्य का हृदय अनन्त आपका नाम क्या है ? गौँव क्या है ? देश क्या है ? किरणों से भरा जाता है और राशि क्या है ? भविष्य क्या है ? इस तरह की हैं । कितनी बातें आपके साथ चिपकती हैं या चिपकार्यी परन्तु इस अन्तःस्थिति के लिए सहस्रार पर खिचाव जातो हैं । एक बार ब्रह्मरन्ध्र बन्द होते ही अनैक ना जरूरी है हृदय का खिचाव हम जानते हैं, प्रकार के मिथ्या विचार प्रापके मन के आत्म के) जो मूक (Silent) है और एकतफ़ी है, मतलब भाव हो जाते हैं। जैसे कि, ये चीजें मेरी, ये मेरा, भावात्मक होता है, परन्तु सहस्रार का खिचाव वह मेरा वर्गरा भुठे विचार मन में बसते हैं । उसी की स्थिति, घरमं और प्रकार मेरा शरीर निरोगी और सुन्दर रहना चेतना एक होकर चैतन्य को ही (प्रभूप्रम को ही) चाहिए ऐसे बन्धनकारक मिथ्यावादी विचार जो याद करने लगती है तब ऐसी स्थिति (सहस्रार पर कि मनूष्य ने स्वयं वनाये हुए हैं हमारी बुद्धि में खि चाव अ्रना ) अती है ये सब अपने प्राप घटित बस जाते हैं। उसके बाद ये मेरा भाई, ये मेरा बाप, होता है । यह सब आपकी कुण्डलिनी का करियमा ये मेरी माँ इस तरह के मिथ्या रिश्ते सिर पर बैठते होता है। किन्तु आरपका व्यक्तित्व ऐसा हो कि हैं । फिर धीरे धीरे प्रहङ्कार जम गया कि मैं अमीर, कुण्डलिनी शक्तिशाली बन सके। यह सम्पदा पिछले मैं गरीब, मैं अनाथ या मैं बड़े खानदान का इस अनेक जन्मों से कमायी है। इसलिए यह जन्म उच्च तरह का पागलपन सिर पर सवार हो जाता है । बहुत से अधिकारियों को और राजनीतिज्ञों को (Politicians)घमण्ड की, मतलब गधेपन की, बाधा होती है। उसके बाद क्ोध, द्वष, संयम, विरह, दुःख, यह अगर जानोगे तो ये भी समझना चाहिए कि प्यार के पीछे छिपा हुआा मोह, लालसा के परद में शरीर भी एक मिथ्या दर्शन ही है। यह स्थिति बसी हुई संस्कृति, इन सभी मिथ्या अआाचरणों को अनतःस्थिति के लिए नये दरवाज खुलते सामूहिक होता है । वहाँ मनुष्य है कि ऐसे हीरे मेरे काम के लिए मिले । मेरा शरीर यहाँ होते हुए भी मैं सभी जगह हैं, आना मुश्किल है परन्तु अगर धीरे-धीरे मिथ्या मनुष्य प्यार से गले लगाता है। (जेष कबर पृष्ठ ४ पर ) 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-2.txt ी सम्पादकीय स्तुता सुरंः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता । करोतु सा नः शुभहेतु रीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।। ( दुर्गासप्रशती, प्चमोध्यायः, श्लोक ८१) काल में प्रपने अभीप्] की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्र ने पूर्व बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले । हम, साक्षात्, परमपरमेश्वरी श्रादिशक्ति माताजी से प्रार्थना करते हैं कि सम्पूरण विश्व शीघ्र आपकी शरण में आकर अ्पना जीवन सार्थक करे । निर्मला योग १ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-3.txt निर्मला योग ाग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली-११०००७ : परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी संस्थापक : डॉ शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र : श्री आर. डी. कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा श्रीमती क्रिस्टाइन पेटू नीया : लोरी टोडरिक यू.एस.ए. २२५, श्रदम्स स्ट्रीट, १/ई ४५१८ बुडग्रीन ड्राइव ब्र कलिन, न्यूयार्क-११२०१ वैस्ट बैन्कूवर, बी.सी. वी. ७ एस. २ वी १ यू.के. भारत श्री गेविन ब्राउन श्री एम० बी० रत्नान्नवर ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़रमॅशन सर्विसेज लि., १३, मेरवान मेन्सन गंजवाला लेन, बोरीवली ा १६० नार्थ गावर स्ट्रीट लन्दन एन डब्लू. १२ एन.डी. (पश्चिमी) बम्बई-४०००६२ श्री राजाराम शंकर रजवाड़ं ८४०, सदाशिव पेठ, पुरण-४११०३० इस अक में पृष्ठ १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. निमंला ३ ४. लक्ष्मी तत्त्व १३ द्वितीय कवर ५. िथ्य 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-4.txt क * नि र्मला' पत १८ जनवरी १९८० को राहुरी में मराठी प्रवचन का हिन्दी रूपान्तर जिसमें परमपूज्य श्री माताजी ने स्वतः पूर्णं मन्त्र स्वनाम निर्मला' (निः- म+ ला) में निहित गृढ़ भाव की विश्लेषणपूरणं विशद व्याख्या की है। ायोगी एक पारिवारिक स्थितियां असन्तोषजनक हैं। हमारे यह हर्ष की बात है कि सब सहज साथ एकश्रि त हुए हैं । जय हम इस भाति एकत्रित चारों और सम्पूर्ण जो कुछ भी है सब खराब है । होते हैं तब हम परस्पर हित की अनेक बातों पर हम किसी चीज़ से सन्तुष्ट नहीं हैं । विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं और उन विषयों पर अनेक सूक्ष्म बातें एक दूस रे को बता सकते हैं । दो-एक दिन पहले मैने अपने की स्वच्छ, गदि दोष-मुक्त करने की विधि वताई थी। स्वयं प्रापको यदि हम उसकी गहराई में जायें तो देखेंगे कि उसके माँ का नाम ही निर्मला है और इसमें अनेक समुद्र सतह पर जल अत्यन्त गदला होता है । उसके ऊपर अनेक वस्तुएं तेरती रहती हैं। किन्तु स्वयं आरपकी भीतर कितना सौंदर्य, कितनी धन सम्पदा और कितनी शक्ति है । तब हम भूल जायंगे कि सतह को जल मंला है। शक्तियां हैं । इस नाम में पहला शब्द नि:' है जिसका अर्थ । कोई वस्तु जिसका वास्तव में अस्तित्व देखते हैं वह सब माया (भ्रम) है कहने का अभिपाय है कि हम बारों औ्रर जो सर्वप्रथम आप हैं 'नहीं नहीं है किन्तु जिसका अस्तित्व प्रतीत होता है, उसे को स्मरण रखना चाहिये कि यह सब जो दिखता महामाया (भ्रम) कहते हैं। सम्पूर्ण विश्व इसी है यह कुछ नहीं है। यदि आपको 'नि:' भावना प्रकार है। यह दिखता है किन्तु वास्तव में नहीं है। अपने प्रन्दर प्रतिष्ठित करना है तो जब भी आपके यदि हम इसमें तल्लीन हो जाते हैं तो प्रतीत होता मन में विचार आये तो कहिये यह कुछ नहीं है यह है यही सब कुछ है। तब हमें लगता है हमारी सब भ्रम है, मिथ्या है । दूसरा विचार आये कहिये आरथिक अवस्था अच्छी नहीं है, सामाजिक व यह कुछ नहीं है। आपको बारम्बार यह भाव लाना मिमंला योग ३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-5.txt हैं तो इन पराकाष्ठाओं (प्रसीम शरवस्थाओं) में स्थिति का कारण 'निः' से सम्बन्धित है । आप न इधर न उधर, न इस स्थिति में हैं और ने उस है। तब प्राप 'निः शब्द का अर्थ समझ पायेंगे। आपको जो कुछ माया-रूप दिखता है यह सम्पूर्णतः भ्रम मात्र नहीं है, इस दृश्यमान के पर स्थिति में, अर्थात डावडोल स्थिति में हैं । 'नि:' भो कुछ है। किन्तु अ्रपने जन्मों के इतने बहुमूल्य स्थिति ध्यानयोग में सर्वश्रेष्ठ रूप में प्राप्त की जा वर्ष हमने बृथा गंवा दिये हैं कि हम वे वस्तुएं सुकती है । अपने जीवन में नि:' विचार का जिनका वास्तव में अस्तित्व नहीं है उनको महत्व ग्रनुसरण करने से आप निर्विचार' स्थिति प्राप्त देते हैं और इस भांति हमने पापों के ढेर इकट्र कर लिये हैं । इन सब वस्तुओं में हमने आनन्द-लाभ करने का प्रयास किया है, किन्तु वास्तव में इनमें से हमें कुछ भी आनन्द प्राप्त नहीं हुआ। तत्व रूप आपके मन में कोई विचार आता है, चाहे वह अच्छा से ये सब कुछ नहीं है । कर लगे । सवंप्रथम आपको निविचार होना चाहिये । जब ही अरथवा बुरा, तब विचारों का ताँता-सा लग जाता है । एक के बाद दूसरा विचार अता रहता अतः दृष्टिकोण यह होना चाहिये कि यह सब है। कुछ लोग कहते हैं कि बुरे विचार का अच्छे "कुछ नहीं" है । केवल ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब विचार से प्रतिकार करना चाहिये, अर्थात् एक मिथ्या है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अरापको यह दिशा से आने वाली गाडी को जब विपरीत दिशा दष्टिकोण अपनाना है। तब आप सहज योग को मे अराने वाली गाडी से धकेला जाये तो दोनों एक समझगे । साक्षात्कार के पश्चात् श्रनक सहज मुध्य स्थान पर रुक जायगी । कहीं तक यह टीक हैं योगियों का यह होता है कि वे सोकते हैं कि हमें किन्तु कभी-कभी यह हानिकारक भी हो सकता है। सिद्धि (साक्षात्कार) प्राप्त है, हमें पूज्य मीताजी का एक कृविचार जब एक सुविचार द्वारा दबाया जाता है तो यह भीतर ही भीतर दबा रहता है । क्यों नहीं है । उन आशीर्वाद प्राप्त है तो हम समूद्ध के विचार में परमात्मा का अर्थ है समृद्धि । यदि श्राप विचार करें कि क्या कारण है कि साक्षात्कार किन्तु यह एकाएक उभर सकता है। रनेक व्यक्तियों है। वे अपने सामान्य के साथ ऐसा ही होता के पश्चात् भी आपका 'स्वभाव नहींी बदला, तब विचारों को दबा रखते हैं और अपने से कहते हैं प्रप देखेगे कि आपकी आत्मा का स्वरूप नहीं बदला । देखिये, 'स्व' अर्थात् आरत्मा और 'भाव हमें परोपकारी होना चाहिये, अपने आचरण अच्छे रखने चाहियें, इत्यादि । कभी-कभी ऐसे लोग बडे अथाति स्वरूप के योग से बना 'स्वभाव शब्द उपदरव-प्रस्त हो सकते हैं। अचानक एकदम यह कितना सुन्दर है। बताइये, क्या आपने अपनी कोध के वशीभूत हो जाते हैं और लोग चकित हो शात्मा को स्वरूप प्राप्त कर लिया है । यदि आप जाते हैं कि ये सज्जन व्यक्ति कसे इतने क्रोध-ग्रस्त 'आत्मा' में स्थित हो गये तो आप देखेंगे कि भीतर हो गये। वे अपनी निजो मानसिक शान्ति भी खो इतना सौंदर्य है कि आपको बाह्य सब कुछ नाटक बंठते हैं। उनका सम्पूर्ण आन्तरिक सौदर्य समाप्त सा प्रतीत होगा। जब तक आपको यह साक्षी स्थिति हो जाता है । अतः वाञ्छनीय यही है कि हम सदव जागृत नहीं होती, आरपने 'निः शब्द का अनुसरण निर्विचार रहें । अपने मस्तिक से छोटे विचारों पर नहीं किया, उसके अनुसार आचरण नहीं किया। प्रतिबन्ध लगा दें। तब आप स्वतः ही मध्य में यदि प्राप जानते हैं कि 'निः' अपके भीतर प्रतिष्ठित नहीं हुप्रा है, फिर भी आष भावुक, अहङ्कारी, हठी अथवा विनम्र व निराश होते रहते रहेंगे । आपको समस्त प्रयत्न करने चाहिये । अब आप निमला योग ४ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-6.txt पूछने, 'मां. बिना विचार किये हम काम कैसे कर आपने पहले कभी भाषण नहीं दिया, भाषण का सकते हैं ?" अब आपके विचार क्या है? वह कला का आापको कुछ ज्ञान नहीं अथवा प्रस्तुत वास्तव में खोखले हैं। निविचार परवस्था में आप विपय का अपको कुछ विशेष ज्ञान नहीं किन्तु परमात्मा की शक्ति के साथ एकरूप हो जाते हैं चमत्कार अर्थात् बँद (अर्थात् प्राप स्वयं) समुद्र (अर्थात् स्वम्भित हो जायेगे कि यह ज्ञान भण्डार आप में परमात्मा) में ग्राकर मिल जाती है। तब परमात्मा कहाँ से उमड़ पड़ा । किन्तु जहाँ एक बार आप की शक्ति भी शआपके भीतर आ जाती है। क्या आप निविचारिता में गह रे उतरे, सब कूछ वहाँ से की अंगुली सोचती है ? क्या यह फिर भी चल नहीं (निर्विचरिता से ) आता है, न कि आपके मस्तिष्क रही ? अपने विचारों को परमात्मा को समर्पित से । कर दें और अपने विषय में सोचने का भार उस पर छोड़ दं । किन्तु यह कठिन-मा है क्योंकि प्राप निर्विवार स्थिति में नहीं हैं । आप इतना कमाल का बोलगे कि लोग ! अब मैं आपको अपना रहस्य बताती हैं । आप प्रार्थना कीजिये, "माँ, मेरे लिये कृपया ऐसा कर दीजिये" । आप पाश्चर्य करेंगे । मैं अरापकी विनती अनेक लोग कहते हैं हमने सब परमात्मा को पर विचार नहीं करती । केवल उसे अपनी समर्पण कर दिया है। किन्तु यह केवल मोखिक निर्विचारिता को समर्पित कर देती हैं। सम्पूर्ण होता है, वास्तव में नहीं । समर्पण मौखिक क्रिया संयन्त्र बहाँ क्रियाशील होता है। उसे (विचार को) नहीं है। निर्विचारिता प्राप्त करने के लिये, जिसका उस संयन्त्र (निर्विचारिता) में डालिये और माल अर्थ है आपका विचार करना बन्द कर देना, आपको समर्पण करना पड़ता है। जब आपको विचार उस सयन्त्र-यों कहें नो रव प्रथवा शान्त संयन्त्र को क्रिया बन्द हो जाती है तब आरप मध्य में ् जाते काम तो करने दीजिये । अपनो सारी समस्याएं हैं । मध्य में आते ही तुरन्त आप निर्विवार चेतना । में पहेँच जाते हैं अर्थात् आप परमात्मा की शक्ति के अत्यन्त कठिन है क्योंकि उनको प्रत्येक बात के बारे साथ एकरूप हो जाते हैं और जब ऐसा हैता हूँ में सोचने की प्रादत होती है । तब वह (परमात्मा) आपकी देख-रेख करता है । वह प्रापकी छोटी-छोटी बातों के विषय में सोचता है। यह आश्चर्षजनक है । किन्तु पकरके तो समय आप निर्विचारिता में प्रवेश करने की क्षमता देखें और आप देखगे कि आपका पहला रास्ता प्राप्त कीजिये । अ्राप देखगे सब कुछ स्वतः ही स्पष्ट रालत था । अतः एक बार जब आप निविचारिता हो जाता है। आप जो अनुसन्वान करते हैं वह भी का स्वाद लेते हैं तो आप देखते हैं कि आपको निविवार अवस्था में करना चाहिये। नि्विचार समस्त प्रेरणायें समस्त शक्तियाँ और [अन्य सर्वस्व अवस्था में कार्य-रत रहने का अभ्यास कीजिये । प्राप्त होने लगता है । निविचारिता में अरापके मन में इस भाँति ग्राप अरति उत्कृष्ट रीति से अपना अनु- जो विचार आता है वह एक अन्तः स्फूुरण संधान कार्य कर सकते हैं । मैं [अनेक विषयों पर (inspiration) होता है । [आप चकित होंगे। बोलती है। अपने जीवन में मैंने कभी विज्ञान का प्रत्येक आपके सामने ऐसे आयेगी मानो थाली अध्ययन नहीं किया और उस वि वय में कुछ नहीं तेयार होकर अपके सम्मूख श्रा जाता है । आप उनको सौंपिये किन्तु बुद्धि-जीवियों के लिये यह किसी विषय को समझते की कोशिश करते वस्तु में परोस कर आपके सम्मूख प्रस्तुत कर दी गई । जानतो । फिर यह स व ज्ञान कहाँ से आता है ? प वक्तुता देने खड़े होते हैं, केवल नि्विचारिता निविचारिता से । मै वोलती जाती हैं और जो कुछ में प्रवेश कोजिये प्रोर श्रीगणेश कर दीजिये। यद्यपि होता है उसे देखती रहती है। मेरे वाणीरूपी নिमला योग ५ू 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-7.txt घडी निविचारिता में है यह हमेशा स्थिर ( शान्त) रहती है। यदि कोई कार्य करना हो तो बह उचित् कम्प्यूटर में मानो यह सब कुछ पहले से तयार करा कराया रखा था । यदि आप निर्विचार [अवस्था] में नहीं हैं तो प्राप उस कमप्यूटर(अर्थातु निर्विचारिता) समय पर हो जाता है । फिर मन में कुछ पश्चात्ताप का उपयोग नहीं कर रहे है और अथअने मस्तिष्क को नहीं होता कि यह समय पर हुआ अर्थवा देरी से । उसके ऊपर प्रतिष्ठित करते हैं (अर्थात् आपका जब भी हो, मुझे कोई चिन्ता नहीं। निर्विचारितारुपी और परपके सब कार्य मानव मस्तिष्क शक्ति, जो सीमित है, उसके बल पर होते हैं) निर्विचारिता आनन्दमग्न थी क्योंकि मैं तारागणों को देखना एक प्राचीन कम्प्यूटर है श्और इसकी शक्ति से चाहती थी। वह सौंदर्य लन्दन में उपलब्ध नहीं विपूल परिमाण में सही कार्य किया गया है। यदि आप प्रपने मस्तिष्क का प्रयोग करते हैं और इस कम्प्यूटर का आश्रिय नहीं लेते तो प्राप निश्चित आभिलापा थी माँ उसकी इस छुटा को देखें। कभी- रूप से गलतियाँ करेंगे। कम्प्यूटर निष्क्रिय रहता है कल मेरी गाड़ी(कार) खराब हो गई। किन्तु मैं होता । [अत: मैं वह देखना चाहती थी। इसका सौंदय सम्पूर्ण आकाश में व्याप्त था। आकाश की कुभी मूझे उस और भी देखना आवश्यक होता है। मैं उसका आनन्द लाभ कर रहो थी। संक्षेप में नि्विचार अवस्था में जो कुछ भी घटित होता पको किसी वस्तु का दास नहीं होना चाहिये है वह प्रबुद्ध प्रकाशमान होता है। हिन्दी, मराठी तथा संस्कृत भाषाओों में किसी शब्द से पहले 'प्र' युक्त करने से उसका अर्थ होता है प्रकाशित, आपको सर्वत्र ले जाते हैं मानो अपने हाथों पर उठा प्रकाशमान । प्रकाश कभी बोलता नहीं। यदि आप कमरे की बत्ती जला दें. तो वह बत्ती(दोप) बोलेगी है । वह सब कुछ जानते हैं और उन्हें कुछ भी बताने नहीं प्रथवा कोई विवार प्रापको नहीं देगी। वह की आवश्यकता नहीं। किन्तु पको देखना है अप केवल सब कुछ दृष्यमान (प्रकट) कर देगी । यही मुख्य घारा (निर्विचारिता) में हैं अथवा नहीं । बात निविचारिता रूप प्रकाश के वा रे में है । यदि आप इसमें नहीं हैं और आप कहीं किनारे पर निर्विचार, निरहङ्कार ( अ्र्थात् अहङ्कार र हित) अटके हैं तो प्रवाह, तरङ्ग आती है और आपको इत्यादि सब शब्दों के पहले 'नि:' जुड़ा है। आप] मुख्य धारा में ले जाती है, एक बार, दो बार, तीन इसे (अ्र्थात 'निः' को) अपने भीत र स्थापित बार। किन्तु यदि आप फिर भी किनारे पर अकर कीजिये और तब आप निर्विकल्प अरवस्था में आ्रा अटक जाते हैं, तब आप कहते हैं "माता जी, मेरा जायेंगे। पहले निर्विचार, तत्पश्चात् निविकल्प । कोई कार्य सुवारु रूप से नहीं होता । वास्तव में होगा तब आपकी समस्त सन्देह व शङ्कायें समाप्त हो भी नहीं। कारण, आप किनारे पर अटके हैं। जाती हैं और आपको प्रतीत होता है कि कोई शक्ति है जो काम करती है । यह शक्ति अत्यन्त द्रूत गति से काम करती है और अत्यन्त सक्षम है। आप श्चर्य करेंगे यह सब कसे घटित होता है। यदि आप निविचार अवस्था में हैं तो परमात्मा कर, ऐगी सरलतापूर्वक । वह सब प्रबन्ध कर देते श्री गणेश की जो आप स्तुति गान करते हैं वह अ्त्यन्त सुन्दर है । इसमें कहते हैं ' धारा স (प्रवाह) में प्रवाहित. अर्थ है प्रकाशमान मुख्य धारा (प्र+ वाह)। आप घारी मुख्य जिसका यही बात समय के विषय में है । मैं कभी घड़ी इसमें अपनो पृथक् लहर, तरङ्ग न मिलायें । श्री की तरफ़ नहीं देखती । कभी-कभी यह रुक जाती गणेश की आरती में यह भी आता है "निर्वाणी है, कभी गलत समय बताती है। किन्तु मेरी असली रक्षवे" अर्थात् के समय मेरी रक्षा करें । आप मही मृत्यु निर्मला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-8.txt शक्ति है । यह सौंदरय एवं प्रेम से परिपूर्णं है । जब यह भी कहते हैं "रक्षः रक्षः परमेश्वरः" हे परमात्मा आप मेरी रक्षा करें । किन्तु आप स्वयं प्रेम की शक्ति जागृत होती है तब वह 'ला शक्ति ही प्रपनी रक्षा करना चाहते हैं । फिर परमात्मा वन जाती है। यह आपको चारों ओोर से वेर लेती आपकी रक्षा क्यों कर ? वह (परमाल्मा) कहते हैं है । जब वह क्रियाशील होती है तब चिन्ता कैसी ? "उसे अपनी रक्षा अपने आप ही करने दो । मैं तब आ्रपकी कितनी शक्ति होती है ? क्या श्रप बृक्ष इस बात पर वल देना चाहती हैं कि आपको से एक फल भी बना सकते हैं। फल की तो बात गहराई में जाना सीखना चाहिये और निविचारिता क्या आप एक पतत्ता अथवा जड़ भी नहीं बना में ही सब कुछ प्राप्त करना चाहिये । तभी अ्राप सकते। केवल मात्र 'ला शक्ति यह सब कार्य करती निर्विकल्प स्थिति प्राप्त कर सकते हैं । है । आपको जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ है वह भी इसी शक्ति का काम है । इसी शक्ति से निः' आपको निरासक्त रहना चाहिये। यहां भारत तथा 'म' (निर्मला नाम के प्रथम व द्वितीय अंवा) में लोग कहते हैं "मेरा बेटा, मेरी बेटी । " इङ्गलेंड शक्तियों का जन्म हुआ है 'नि:' शक्ति श्री व्रह्मदेव में इसके विपरीत होता है वहँ बेटा, बेटी किसी की श्री सरस्वती शक्ति है। सरस्वती शक्ति में आप से कोई लगाव (आसक्ति ) नहीं होती। वे केवल को नि:' के गुरण अर्जन ( प्राप्त ) करने चाहिये। निः अपने स्वयं के बारे में सोचते हैं। यहाँ हर चीज में झक्ति प्राप्त करने का अर्थ है पृर्णतः निरासक्त मेरा, मेरा' मेरा लड़का, मेरी लड़की, मेरा मकान बनना । आपको पूरी तरह निरासक्त बनना चाहिये। और अन्त में विचारों में केवल 'मैं' और 'मेरा' हो बाकी रह जाता है, इसके अतिरिक्त श्रर कुछ नहीं। आपको कहना चाहिये मेरा कुछ भी नहीं है, वह हमारा दूसरों से नाता जोड़ती है । 'ल' शब्द सब कुछ आपका ही है। सन्त कबीर कहते हैं "जब 'ललाम, 'लावन्ध' में आता है ला शब्द में उसका तक बकरी जीवित रहतो है तब तक वह 'मैं, करती है। किन्तु उसको मारने के बाद उस की आँतों उससे (माधु्य से) प्रभर वित करना चाहिये। दूसरों के तारों से जो ताँत (जिससे धुनिया रूई धुनता है) से वातचीत करते समय आपको इस शक्ति का बनती है । उसमें से 'तू ही-तू ही आवाज़ आती प्रयोग करना चाहिये। चराचरमें यह प्रेम की है। आ्पको भी 'तू ही-तू ही रहना चाहिए। जब आप 'मैं नहीं है मेरा कोई कर्तव्य है ? आ्रपको अपने सारे विचार प्रथम (नि:) अस्तित्व नहीं है इस भावना में दुढ स्थित हो जाते शक्ति पर छोड़ देने चाहिये क्योंकि विचारों का हैं तभी श्रप निः शब्द को समझ सक गे । 'ला' शक्ति में प्रेम का समावेदश (सम्मिलित) है अपना ही विशेष माधुर्य है और अरापको दूसरों को मैं भावना में मग्न शक्ति व्याप्त है । ऐसी स्थिति में आपका क्या जन्म उस प्रथम शक्ति से ही होता है अ्न्तिम (ला) शक्ति, जो प्रेम और सौंदर्य की शक्ति है, उससे प्राप प्रब निर्मला नाम के अन्तिम अक्षर ला के को प्रेम के अ्रनन्द का रसास्वादन करना चाहिये। विषय में विचार करें। मेरा दूसरा नाम है 'ललिता । यह कैसे करें ? अपने आपको दूसरों के प्रति प्रेम- देवी का आशीर्वाद है । य यह (शस्त्र) है। जब 'ला' अर्थात् 'देवी ललिता रूप किसी ने अनुमान लगाया है कि वह दूसरों से घारण करती है अरथवा जब शक्ति ललत अर्थात् कितना प्रेम करता है ? यह बढ़ता ही रहना क्रियाशील रूप में परिणत होती है अर्थात् जब उस चाहिये में चैतन्य लहरियाँ प्रवाहित होती हैं जो आप अपनी और इस भाव में कितना आनन्द लेते हैं ? क्या इस हथेलियों पर अनुभव कर रहे हैं, वह श क्ति 'ललिता बारे में आपने सोचा है ? मानवों के विषय में मैं ह उसका आयुध भाव में भूल जाय, उस भाव में खो जाये । क्या । आप दूसरों को कितना प्यार करते हैं निर्मला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-9.txt कह नहीं सकती, किन्तु प्रपने स्वयं के विषय में मैं जल, तेज, वायु और काश) में अपने स्वयं के कह सकती है कि मैं दूसरों से प्रेम करने में [अत्यन्त विशुद्ध दिव्य प्रेम को भरते हैं, सं चारित करते हैं । आनन्द अनुभव करती हैं। अनुभव के र, केसे चारों अपने हृदय के प्रम की शक्ति (हमारा बा्यां पाश्व) ओर प्रेम की गङ्गा बह रही है, वह अनुभूति कितनी को अपनी क्रिया क्षक्ति (हमारा दा्ां पाव्वं) आनन्ददायक है। एक गायक को देखिये, वह कसे में पहुँचाना चाहिये, जसे प्राप कपड़े पर रंगों से अपने स्वयं के राग में अपने आपको भुल जाता है, चित्रण करते हैं। ज व इस भाँति क्रिया शक्ति में उसमें खो जाता है और सर्वत्र उस सङ्गीत को प्रम शक्ति का सम्मिश्ण किया जाता है तब वह प्रवाहित होते अनुभव करता है। इसी भांति प्रेम व्यक्ति अत्यन्त मधुर बन जाता है रर क्रमश: वह भी अबाधित रूप से प्रवाहित होना चाहिये। यतः माधुयं, प्रम उसके व्यक्तिर्व और उसके प्राचरणों आप ललाम शक्ति, जो चैतन्य लहरियों के रूप में में प्रकाशसान होता है। वह प्रेम प्रवाहित होकर विशुद्ध दिव्य प्रेम की शक्ति है उसे पहले अपने भीतर जागृत करें । क दूसरों को प्रभावित करता है और उसकी प्रत्येक क्रिया अत्यन्त रसमय हो जाती है। वह व्यक्ति इुतना आकर्षणयुक्त बन जाता है कि आप आ्राप आप देखें कि आ्राप दूसरों की ओर किस दृष्टि धुण्टों उसके सहवास में ग्रानम्द और प्रसन्नता का से देखते हैं। कुछ निम्न स्तर के लोग दूस रों से चूराने अथवा उनसे कूछ लाभ उठाने के भीव से दयक और दूसरों के मन को जीतने वाला बनना देखते हैं, कुछ दूसरों के दोषों को देखत है। पती चाहिये । इसके फलस्त्र रूप सव अपके मित्र बन नहीं इसमें उन्हें क्या आनन्द अता है। इस भाति वे जाते हैं गौर परस्पर प्रम बढ़ता है । त्येा अनुभव अकेले, अलग-थलग ही जाते हैं श्रर फिर कट करता है कि एक स्थान है जहां उसे प्रम और भोगते हैं । यह स्त्रयं कष्टों को निमन्त्रण देना है। बात्सल्य मिल सकता है । मझे तो दुस रों से कुछ करते हैं । आपका] प्र म दूसरों को अनन्द- अनुभव श्रुतः आपको प्रेम की में अनन्द ा ईश्व रीय शक्ति को प्रपने भोतर विक सित करना सबसे मिलने, भेट करने आता है। चाहिये । आपको 'ललाम' शक्ति का जो चैतन्य लहरो रूप में दिव्य प्रेम को शक्ति है-उपयोग करना चाहिये। जाहिये। जब भी कोई विचार आये तो सोचिये दूसरे व्यक्ति को देखने मात्र से आप निरविचारिता में पहुँन जाय । इससे दूसरो व्यक्ति भी निविचार हो जायेगा । अतः आप अपने को एवं दूसरे को भी प्रथात दिव्य प्रेम की शक्ति सदव स्वच्छ, निमल हमें सदैव निर्विचारिता ('नि:' शक्ति ) में रहना ईश्वर के प्रेमरूपी पविव गड्गा में यह गन्द कहा से प्रा गई ? ऐसो चित्त-वृत्ति से हमारो 'ला' शक्ति विशुद्ध दिव्य प्रेम का बन्धन दं । 'निः शक्ति ओर 'ला' शक्ति को बँधने दें । 'ला' शक्ति परथात् चैतन्य लहरियों के रूप में प्रम की शक्ति को नि:' शक्ति प्र्थात् निर्विचारिता में पहेँचाना, परिणत करना है। दोनों को बन्धन देना लाभप्रदः लोगों से, जो बड़े प्रभिमानी हैं अथवा जो सोचते हैं पूछे तो मैं केवल उसकी कुण्डलिनी की अवस्था के कि वे बड़े काम करने वाले, कर्मबीर हैं, उनसे मैं विषय में बता सकती है अरथवा उसका कौन सा चक्र अपनी बाय पाश्व (side) को उठाने को बताती हैं। इस समय पकड़ा हमा है अरथवा बहुधा पकड़ी रहता इस भाँति हम अपने स्वयं के पश्च तत्वों (पृथ्वी, है। इसके ग्रतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझ सकती कि रहेगी और उस स्वच्छता के आनन्द में हम विभोर रहेंगे । आप दूसरों की टीका-टिप्पणी (Criticism) न है। बहुत से करे । यदि आप मुझसे किसी व्यक्ति के विषय में निर्मला योग ८ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-10.txt वह कंसा है, उसका स्वभाव केसा है, इत्यादि । करें कुछ लोगों का रोप भी मनोहारी होता है । यदि इस विषय में मुझसे पूछा जाय तो मैं कहूँगो, इस मधुर, मनोहारी शक्ति की ललित' शक्ति कहते स्वभाव होता क्था है ? यह परिवर्तनशील होता है। हैं लोगों ने इसके भाव को बिल्कुल विक्कृत कर नदी इस समय यहाँ बह रही है। बाद में उसका कर दिया है। वे कहते है यह सहार की शक्ति है। बहाव कहाँ होगा, कौन बता सकता है ? इस समय किन्तु यह विल्कुल ठोक नहीं है । यह शक्ति अति आप कहाँ हैं ? यही विचार करने की बात है। आग मनोरम, नृजनात्मक और कलात्मक है। मानो नदी के इस किनारे पर खडे हैं तो पपको बिचित्र आपने एक बीज बोया। उसके कुछ अश्ञ नष्ट हो लगता है कि नदी यहाँ बह रही है। मैं समुद्र की जाते हैं, जिसे 'ललित' शक्ति कहते हैं। किन्तु यह दिशा में खड़ी हैं। इस कारण मैं जानती हूं इसका विनाश अत्यन्त कोमल श्रीर सरल होता है तब उद्गम-स्थल कोन सा है। अतः अपि किसी को भी बीज उग कर एक बृक्ष वनता है जिसमें पत्ते होते हैं। व्यर्थ, निकम्मा न कहें । प्रत्येक उ्य क्ति वदलता फिर पत्त झड़ते हैं। यह क्रिया भी अत्यन्त सुकोमल रहता है, यह अवश्य होता है। सहजयोग का कार्य व सरल होती है। तब फूल आते हैं। जब फूल फल परिवर्तन लाना है । सहजयोग में विश्वास करने बनते हैं, तब उनके अंश भड कर गिर जाते हैं और वाले व्यक्तियों को किसी को नहीं कहना चाहिये कि तब फल आते हैं। उन फलों को भी खाने के लिये वह बेफार हो गया है प्रत्येक को स्बतन्त्रता होनी काटा जाता है। खाने पर आपको स्वाद प्राप्त होता चाहिये। आप सब जानते हैं हमारी वतमान स्थिति है वह भी यही शक्ति है । इस प्रकार ये दोनों क्तियाँ का म बरती है । आप जानते हैं विना काटे, केवल अपने स्वयं का आत्म-सम्मान करते हैं, बल्कि संवारे आप कोई मति नहीं बना सकते । यदि अप दूसरों का भी सम्मान करते हैं। जिसमें अरत्म- समझ, लें कि यह काटना संवारना भी उसी जाति सम्मान तहीं है, वह दूसरों का कभी आदर नहीं की क्रिया है तो यदि श्रापको कभी हिसा करना पडे तो आपको बुरा अनुभव नहीं करना नाहिए। वह भी आवश्यक है। किन्तु एक कलाकार इसे कलापूर्ण हुँग से करता है और कला हीन व्यक्त इसे बेढंगे तरीके से करता है। सो आप में कितनी कला है इस व श क्या है। यदि आप इस भाँति सोचंगे तो आप न कर सकता । हमें ललाम शक्ति का विकास करना चाहिये। एक पुस्तक लिखकर भी मैं इसका आनन्द पर्याप्त रूप से बरन नहीं कर सकती क्योंकि सौंदर्य को प्रकट करने के लिये शब्द अ्रसमर्थ है। अर्थात यदि आपको 'मुस्कान' का वर्णन करना हो तो आप केवल कह सकते हैं कि स्नायु करसे (हरकत) करते हैं । आप उसके प्रभाव को नहीं यदि कोई पूछे इस चित्र में क्या विशेषता है तो बता सकते । यह तो के वल अनुभव की वस्तु है। आप शब्दों में नही बता सकते । आप बस उन्हें आप केवल इस शक्ति को जाग्रत और विकसित निहारते हैं । कुछ चित्र ऐसे होते हैं कि ्रप उनकी होने का अव्सर दं । पुर यह शक्ति निर्भर करती है | कभी आप एक चित्र को देखते हैं और ग्रापकी इच्छा करती है आप इसकी ओर देखते ही रहें। प्रान्दोलन प्रोर देखने मात्र से निर्विचार हो जाते हैं। इस निर्विचार अवस्था में आप उसके आनन्द का रसा- 'ललाम शक्ति से मनुष्य को एक प्रकार का स्वादन करते हैं । यह अवस्था संवोत्कृष्ट है। इसकी सौदर्य, एक भव्यता प्और स्वाभाव में माधुर्य प्राप्त किसी अन्य वस्तु से तुलना अथवा मुस्क रा कर व्यक्त होता है। इस शक्ति को अपने वचन, कर्म तथा करने के स्थान पर आपको इस स्थ ति के आनन्द अन्य क्रिया-कलापों में विकसित करने का प्रयास का मन भरकर रसास्वादन करना ही उचित् है। निमला योग ६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-11.txt इसका बरान करने के लिये न कोई शब्द है, न कोई तब तक आप कह सकते हैं कि यदि ईश्वर आपसे भाव-भंगी (मुखाकृति) पर्याप्त है । आ्पको इसका प्रेम करते हैं तो उन्हें पआपके पास [आना चाहिये, भोतर अनुभव करना है। सबको यह अनुभव लाभ किन्तु साक्षात्कार-प्राप्ति के पश्चात् आप ऐसा न कह होना चाहिए । सकेंगे । क्योंकि 'म शक्ति के बल पर आपको दूसरी दो शक्तियों का सन्तुलन करना है । संगीत में आप नि:' श्रर 'ला' के मध्य में 'म' शब्द अ्रत्थन्त को रागों का सन्तूलन करना पडता है, चित्रकला में रोचक है । 'म' महालक्ष्मी का प्रथम अक्षर है। 'म अ्रापको रङ्गों का सन्तुलन करना पड़ता है। इसी धर्म (पवित्र आचरण) की शक्ति है औरर हमारा भाँति आपको नि.' और 'ला शक्तियों का सन्तुलन उत्क्रान्ति की भी । 'म' शक्ति में आपको समझना होता है, फिर उसे अत्मसात करनेा होता है अर पको परिश्रम करना पड़ेगा। अनेक बार आप पूर्णंता (mastery) कुशलता, प्राप्त करनी होती हैं । उदाहरण के लिये, एक कलाकार में ल' शक्ति से उसके सृजन का विचार अ्रकुरित शक्ति द्वारा वह उसका निर्माण करता है और म' शक्ति के द्वारा बह उसे अपने विचार के बनाता है । प्रत्येक पग पर वह देखता है कि क्या वहुत ज्यादा कोमों में फंसा रहने वाला सहजयोगी यह उसके विचार के अनुरूप है और यदि नहीं तो भी ठीक नहीं वह उसमें करने की कोशिश करता है वह सक्रिय करना चाहिये और देखना चाहिये अब तक यह बार-बार करता है। यदि कोई बस्तु करना आवश्यक है । इस सन्तुलन प्राप्ति के लिये वह खो बैठते हैं। जो सहजयोगी इस सन्तुलन को बनाये रखता है वह उच्चतम स्तर पर पहुँच जाता है । होता है नि' बहुत भावुक सहजयोगी ठीक नहीं। इसी तरह अनुरूप । आपको अपने प्रेम की शक्ति को सुधार यह 'म' शक्ति है अर्थात् वह कसी क्रियाशील रही है उदाहरणार्थ, मैं किसी ठीक नहीं है तो एक बार, दो बार, एक ढॅँग से काम करती है किन्तु उसमें भी मैं प्रत्येक बार कुछ बदल कर देती हैं । आपने देखा होगा कि हर बार कुछ नवोनता कोई नया तरीक़ा होता है। बार-बार करें । इस सूधार कार्य में परिश्मे लगता है। हम यदि एक तरीक़ से काम नहीं चलता, दूसरा तरीक़ा प्पने स्वयं का भी यह न होता तो उत्क्रान्ति की क्रिया असम्भव थी । इस कोई ढंढिये । किसी भी पद्धति पर अटल नहीं होना के लिये परमात्मा को महान् परिश्रम करना पड़ता है। हमें 'म' शक्ति अजित करनी है और उसे संभाल कर रखना है। यदि यह न किया जाय तो दूस री दोनों शक्तियँ समाप्त हो जाती हैं. क्योंकि यह शक्ति सन्तुलन बिन्दु (centre of gravity) खोजनी होंगी। मैं सदैव वृक्ष की जड़ का उदाहरण है। आपको सन्तुलन बिन्दू पर स्थित रहना चाहिये और हमारी उत्क्रान्ति का सन्तुलन बिन्दु 'म' शक्ति है । अन्य दोनों शक्तिय्याँ तभी प्रापके भोतर सकिय क्रमशः नचे और नीचे पृथ्वी के भीतर उतरती होंगो जब आप उत्क्रान्ति शक्ति के अनुरूप उन्नति कर । किन्तु उसके लिये आपको 'म शक्ति को पूर्णतःसमझना होगा औरउसे विकसित करना होगा । सुधार करना चाहिए । यदि अपनाइये । यदि यह भी असफल रहता है तो और चाहिये । आप प्रात: उठते हैं, सिदूर लगाते हैं. श्री माँ को नमस्कार करते हैं । यह सब यान्त्रिक mechanical) होता है । यह सजीव प्रक्रिया नहीं है । सजीव प्रक्रिया में अरपको नित्य नई पद्धतियां देती हैं । बाधाओं से मोड़ लेते हुए, बचते हुए, यह चली जाती है। यह बाधाओं से झगड़ती नहीं । बाधाओं के विना जड़े बृक्ष को संभाल भी नहीं सकती थीं। अत: समस्याएं, बाधाएँ अरावश्यक हैं । वे न हों तो आप उन्नति भी नहीं कर सकते । वह जब तक आप आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं हैं शक्ति, जो आपको बाधाओं पर विजय पाना निर्मला योग १० 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-12.txt सिखाती है, वह 'म' शक्ति है। अत: यह 'म' शक्ति 'माताजी अर्थ वाचक किसी भी शुभ नाम का प्रथम अर्थात् मा की शक्ति है। उसके लिये प्रथम वश्यक क्षर म होता है अरर यह कार्य मेरे भीतर 'म शक्ति द्वारा किया गया है। यदि केवल 'नि' और ल' दो वस्तु है बुद्धिमानी । शक्तियाँ ही होती, तो यह कार्य सम्भव नहीं था। है मैं तीनों शक्तियों सहित आई है, किन्तु 'म' शक्ति सोचिये कोई व्यक्ति वडा कोमल स्वभाव धर कहता है, 'माँ मैं अ्यन्त मूदु हैं. मैं क्या कर मवचच है। आापने देखा 'म 'शक्ति माँ की शक्ति सता हैं । मैं उससे कहती है अपने को बदलो और एक सिंह बनो। यदि कोई दूस रा व्यक्ति सिंह है, तो मैं उसे बकरी बनने को कहती है। अन्यथा काम नहीं चलता। आपको अपने तरीके बदलने होंगे। जो व्यक्ति ्पने तरीक नहीं वदल सकता, वह सहजयोग नहीं फेला सकता, क्योंकि वह एक ही तरीके पर जमा रहता है जिससे लोग ऊब जाते हैं । आपको नये मा्गे खोजने हगि । इसी माँ पर और माँ को हम पर पुर्ण अधिकार है क्यों भाँति 'म' शक्ति कार्य करती हैं । माहिलाय इसमें कि वह हमें अपार प्यार करती है। उसका प्रेम मिपणा होती हैं। वे प्रतिदिन नये व्यकञ्जन (भज्य मङ्गल है । यह सिद्ध करना होगा कि वह आपकी माँ है । यदि कोई अरकर कहे "मैं प्रापकी माँ है" तो क्या आप मान लेगे ? नहीं, आप स्वीकार नहीं करेंगे । र को सिद्ध करना होगा । मातृत्व मां ब्धा है ? माँ ने अपने हृदय में हमें स्थान दिया है हमें नितान्त नि:स्वार्थपूर्ण है । वह सदैव हमारी पदार्थ, recipes) बनाती है और पति जानन की कामना करती है र उसके में हमारे लिये हृदय बात्सल्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। माँ में उत्सुक रहते हैं कि आज क्या बना है । श्रपकी आस्था तभी प्राप्त होगी जब आप यह समझ लेगे कि आरपकी बास्तविक शोभा, प्रथ्थात यह वह शक्ति है जिसके द्वारा आप अपना सन्तुलन और एकाग्रता प्राप्त करते हैं । जब आप इस शक्ति को उच्चतम स्तर पर विक सित कर लेते आपको आत्मा उनमें ही बास करती है। ग्राप हैं तब आप अपने सन्तुलन तथा बृद्धि स्तर से चेतन्य दसरों को यह सिद्ध करके दिखायें । सहजयोगी में सहरियां अनुभव करते हैं । यदि ग्राप में बुद्धिमानी ऐसी सामरथ्य होनी चाहिये। अन्य लोगों को पता नहीं है तो ग्राप में उक्त लहरियां प्रभावित नहीं है कि वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है। उसके लिये होंगी। आप में प्रेम और क्रियाशीलता दोनों शुक्तियों में सन्तुलन आवश्यक है । वह इतना मनोहा री होना चाहिये कि विन्ता जाने अन्य लोग ऐसे ब्यक्ति से अ्रधिकतम चैतन्य निश्चित बुद्धिमान व्यक्ति होता है। वास्तव में यह प्रभावित हों । सहजयोगी को यह गुरण अजन करना बुद्धिमत्ता हो है जो प्रवाहित हो रही है। इस माप- चाहिये । दण्ड से यह निश्चित हो सकता है कि आप किस स्तर के सहजयोगी हैं। लहरियों-सम्न्न व्यक्ति ती घर जाकर ग्राप विचार करें कि इन तीनों नि', ला भ्र 'म' शक्तियों को कसे सक्रिय कर प्रयोग जब आप सन्तुलन तथा बुद्धि खो देते हैं तो करें । 'नि: शक्ति आपके परिवार में पूर्ण सोंदर्य स्वाभाविक रूप से आपके चक्र पकड़े (बाघाग्रस्त) अऔर गम्भीरता, गहराई लायेगी । जन-सम्पर्क के जाते है । जय आ्आपके चक्र वाघाग्रस्त हों तो समझ आप नये-नये मार्ग और साधन खोजें। इन शक्तियाँ लोजिये आपका सन्तुलन बिगड़ गया है। [असन्तुलन का आप सहजयोग के प्रचार के लिये उपयोग करें । संकेत करता है कि 'म' शक्ति आप में दुर्बल है । उनके उचित् उपयोग के लिये पकी 'नि:' शक्ति, निमंला योग ११ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-13.txt । सहजयोग में पूर्ण सिद्धता, निपुराता प्राप्त होगी । अर्थात् क्रियाशक्ति, प्रत्यन्त बलशाली होनी चाहिये यद्यपि आप में 'ला' शक्ति अ्र्थात् प्रेम की शक्ति होनी अभी तक वे सिद्ध नहीं हये हैं। आपको सिद्धता चाहिये, किन्तु यह 'निः' शक्ति के साथ-साथ संयुक्त प्राप्त करनी है। सिद्ध सहजयोगी वह है जो पूर्ग रूप से क्रियान्वित होनी चाहिये। यदि एक तरीक़ा रूप से परमात्मा से एकरूप हो जाये और उसे सफल नहीं होता, तो दूसरा तरीक़ा अपनाइये । अपने वृश में कर ले । उसको उसके लिये सर्वस्व पहले लाल और पीला लें, यदि यह उपयुक्त नहीं अपित करना होता है । मैं जा रही हैं। उसके बाद रहता तो लाल और हरा उपयोग करें और यदि देखेंगे आप अपनी सिद्धता का किस भांति और यह भी ठीक नहीं रहता तो प्रौर अन्य कोई उपयोग किस क्षेत्र में उपयोग करते हैं । कर । हठी होना किसी बात पर अड़ना बुद्धिमानी नहीं है। हठधर्मी व्यक्ति सहजयोग में कुछ नहीं कर सकता। आपका उद्देश्य तो केवल सहजयोग करता है। आपको उसका बुरा नहीं मानना चाहिये। का प्रचार करना है, तो विभिन्न मार्ग अवलम्वन कर देखिये । आप जो भी आग्रह करते हैं वही में नहीं होना चाहिये, क्योंकि आपका मार्ग दर्शन स्वीकार कर लेती है क्योंकि मैं जानती है कि करना मेरा कर्तव्य है । कुछ लोग निराश हो जाते साधारण मानव मेरी भांति नही है। हठघ्मी है। अप ध्याने रख अपकी सिद्ध बनना है। टूसरे व्यक्ति क्या कर बैठे, कहा नहीं जा सकता । अप स्वीकार कर आप सिद्ध हैं । ज्यों ही वे आपको देखें उसे पराकाष्ठी अर्थात् हद्द पर जाने की स्थिति अने दे। 'म शक्ति से मैं यह सब जानती हैं। किन्त कर। यदि यह होता है तो सब शुभ होगा। आप सहजयोगियों को किसी एक बात पर हठ नहीं करना चाहिये। आपकी माँ हठ नहीं करती। जो भी स्थिति हो, स्वीकार कर लें । आप जो भी कर, भोज के लिये पूजा या किसी [अन्य] कार्यक्रम के लिये बातों के लिये मना कभी-कभी मैं अरपको कुछ म शक्ति के सिद्धान्त प्रनूसार आपको निराश उन्हें स्पष्ट हो आप सिद्ध हैं। आप इसके लिये यत्न न एक दिन मैंने आपसे कहा था कि [आप अपने सब मित्र ओर सम्बन्धियों को मध्याह्न अथवा रात्रि ध्यान रखें अरप एक महत्वपूर्णं कार्य कर रहे हैं मुझ में कोई इच्छा नहीं है । मुझ में 'निः', 'ला', 'म' कोई शक्ति नहीं है । मुझ में कुछ भी नहीं है । मैं । आमन्त्रित कर । साथ ही कुछ सहजयोगियों को भी आमन्त्रित करें और अपने सब अतिथियों को आत्म- भी नहीं जानती मैं स्वयं इन शक्तियों की साक्षात्कार प्रदान कर । यदि एक साल तक आप यह मूर्त्तस्वरूप है । मैं केवल सब खेल देखती है । ऐसा करें तो बड़ा लाभकारी होगा। जब जीवन में इस प्रकार परिवर्तन आ जायेगा तब मनुष्यों में सिद्ध सहजयोगीजन होंगे जिन्हें सबको प्रनेक आशीर्बाद । निमला योग १२ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-14.txt लक्ष्मी तत्त्व नई दिल्ली ९ मार्च १९७९ कृषण ने गीता में कहा है कि 'योगक्षेम वहाम्य- चाहिये, connection होना चाहिये जब तक हम । इसका मतलब है-पहले योग। १हले वो क्षेम आपका योग घटित नहीं होता, तब तक क्षेम नहीं कहते, (पर) पहले उन्होंने 'योग' कहा, अ्ौर उसके होता । क्षेम का मतलब है, आपकी चारों तरफ़ से बाद क्षेम । क्षेम का मतलब होता है, आपका रक्षा लक्ष्मी तत्त्व की जागृति । well-being (कुशल-मङ्गल) अ्रपका लक्ष्मी तत्व । तो पहले योग होना चाहिये कृष्ण ने सिर्फ ये कहा है कि 'वहाम्यहम्'-"मैं करूगा, पर करसे करू गा, सो नहीं कहा। सो मैं जब तक योग नहीं होता तब तक परमात्मा से आपसे बताती है, वह किस तरह से होता है । प्पसे कोई मतलब नहीं। आपको पहले योग, माने 'परमात्मा से मिलन होना चाहिये, आपके अन्दर आत्मा जागृत होनी चाहिये। जब आपके अन्दर आत्मा जागृत हो जाती है, तब आप परमात्मा के ँ। तैब उसमें ज्योति आ जाती है, क्योंकि आत्मा दरबार में असल में जाते हैं, नहीं तो प्राप रटट ज्योति पा लेती है । और उस ज्योत के कारण तोते के जैसे कहा करते हैं। जो कुछ भी बात होती नाभि चक्र में जो लक्ष्मी तत्त्व है वह जागृत हो है, बाहर ही रह जाती है । अन्दिर का आपा जब तक अप जानते नहीं, जब तक आप अपने को जाएगा, चोरों त रफ़ से आप देखियेगा कि अपकी पहुचानते नहीं, तब तक आप परमात्मा के राज्य में खुशहाली होने लगेगो। आते नहीं और इसीलिये आ्राप उसके अधिकारो नहीं हैं जो परमात्मा ने कही है । जब योग घटित होता है, तब कुण्डलिनी त्रिकोणाकार प्रस्थि से उठकर के ब्रह्मयरन्ध्र को छेदती है, जाता है। जेसे ही लक्ष्मी तत्त्व अापमें जागृत हो कोई आदमी रईस हो जाए-जिसे हुम 'पसे- वाला' कहते हैं, जरूरी नहीं कि वह 'खुशहाल है । बहुत से लोग परमात्मा को इसका दोष देते हैं, अधिकतर पसे बाले लोग महादुःखी होते हैं। जितना कि तो इतनी परमात्मा की भक्ति कर रहे हैं, पैसा होगा, उतने ही वो गधे होते हैं, उतनी ही हम इतनी हम पूजा कर रहे हैं, इतने स र के बल खड़ उनके घर के अन्दर गन्दगी आती है -शराब, होते हैं, ये करते हैं, वो करते हैं, धूप चढ़ाते हैं, दुनिया भर की चीज, मक्कारीपन, भुठापन- हर सुबह से शाम तक रटते बैठते हैं, तो भी हमें तरह की चीज़ उनके अन्दर रहती है। हर समय परमात्मा क्यों नहीं मिलते ? परमात्मा से बात मन में डर, भय-कभी सरकार अआकर पकड़ती है, कि करने के लिये, आपका उनसे 'सम्बन्ध' होना खाती है, कि हमारा पैसा जाता है, कि ये होता है, निर्मला योग १३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-15.txt वो होता है। जो बहुत रईस लोग हैं, ता भी कोई लक्ष्मी पति नहीं क्योंकि उनके अन्दर लक्ष्मी का में रहे चाहे अमीरी में रहे, वह बादशाह होता है। तत्त्व नहीं जागृत हुआ है। सिर्फ पेसा कमा लिया। वह बादशाह के जेसा रहता है। छोटी-छोटी चीज पैसा उनके लिये मिट्टी जैसा है, उससे कोई उनको के पीछे, दो-दो कौड़ी के पीछे, सुख नहीं है। जो आादमी बादशाह होता है, वह चाहे गरीबी इसके पीछे, उसके पीछे परेशान होने वाला लक्ष्मोपति नहीं हो सकता । इसीलिये लक्ष्मी-तत्त्व जागृत नहीं होता । इसीलिये नाभि-चक्र की बड़ी जोर की पकड़ हो जाती है । मैं ने पिछली मतंबा बताया था कि लक्ष्मो जी उस आदमी के अन्दर Materialism (भीतिकवाद) कैसी बनी हैं। उनके हाथ में दो कमल हैं-बो आ जाता है। वह जड़वादी हो जाता है । छोटी- छोटी चीज का उसे बड़ा खयाल रहता है। ये मेरा, लक्ष्मी का तत्त्व समझता चाहिये। गुलाबी रंग के हैं और एक हाथ से दान करती हैं और एक हाथ से वो आश्रय देती हैं। गुलाबी रंग ये मेरा-ये में रा बेटा है, ये मेरा फ़लाना है, ये का द्योतक होता है-प्रेम' । जिस हिकाना-ये सारी चीज जिस [आादमी में शर गई में प्रेम नहीं है वो लक्ष्मीपति नहीं हो सकता । उस तो लक्ष्मीपति नहीं । इसकी चीज़़ मारू कि उसकी ची ज मारू कि ये लूं कि बो ल कि सब 'मेरे लिये मनुष्य के हृदय का घर का फुल होता है कमल के फूल के अन्दर भौरे जैसा होना चाहिये-इस तरह से जो आदमी सोचता है जानवर जो कि बिल्कुल शुषक होता है-उसके कृँटे वो भी लक्ष्मीमति नहीं । चुभते हैं जरा आप हाथ में लीजिये तो-उसको तक वो स्थान देती हैं । अपनी गोद में उसको सुलाती हैं उसको शान्ति देती हैं। ऐसा होना चाहिये जसे कमल जो दूसरों के लिये सोचता हैं - अगर मेरा अच्छा आलोशान मकान है तो इसमें कितने लोग आकर बैठे । अगर मेरे पास ऋलीशान चीजें हैं तो लक्ष्मीपति का मतलब है कि उसका दिल बहुत कितने लोगों को प्राराम होगा केसे मैं दूसरे लोगों बड़ा है। जो अपने घर आए हुए अतिथियों को, की मदद कर पाऊँगा। किस तरह से मैं उनको किसी को भी अत्यन्त आनन्ददायी होता है-वो अपने में स्थान दं ग । 'मदद का भी सवाल लक्ष्मीपति है। लेकिन अधिकतर आप रईस लोग नहीं उठता; आदमी यह सोचता है कि ये मेरे हो देखते हैं कि महाभिखारो होते हैं । उनके घर आप अपने हैं। इनके साथ जो भी करना है मैं अ्रपने साथ जाइये तो उनकी एकदम जान निकल जाती है, कि ही कर रहा है-तब असल में लक्ष्मी तत्त्व जागृत मेरे दो पैसे ख्च हो जाएँगे । जिस आादमी को हर हो जाता है । समय ये फ़िक्र लगी रहती है कि 'मेरे आज चार पैसे यहाँ खर्च हो रहे हैं, दो पसे बहाँ खर्च हो रहे हैं, इसको जोड़ के रखो, उसको कहाँ बचाऊँ, उस होनी चाहिये । ऐसा आदमो 'सुरभित' होना चाहिये को क्या करू-वो आदमी लक्ष्मीपति नहीं । न कि उससे हर समय घमण्ड की बदबू आए । आदमी लक्ष्मी पति नहीं हो सकता । जो अत्यन्त 'नम्र होना चाहिये। कमल का फूल प्रापने हृदय कमल के जसा उसका रहन-सहन, उसकी शक्ल कञ्जू स कञ्जूस है, बो कञ्जूस है, तो लक्ष्मीपति नहीं है । देखा है उसमें हमेशा थोड़ी- सी भुका न रहती है। कञ्जूस आदमी दरिद्री होता है-महादरिद्री होता कमल कभी भी तनकर खड़ा नहीं ह है। उसमें बादशाहत नहीं होती। जिस आदमी की थोड़ी-सी झुकान डण्टल में प्रा जाती है । उसी तबियत में बादशाहत नहीं होती, उसे लक्ष्मीपति प्रकार जो कम से कम लक्ष्मी जी के हाथ में जो नहीं कहना चाहिये। होता, उसमें कमल हैं दोनों में इसी तरह की 'सुकुमारिता है । निमला योग १४ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-16.txt दूसरों से बात करते समय तो बहुत ठण्डी तबियत स्वरूप, माँ स्वरूप बनाया हुआ है लक्ष्मीजी का से, आनन्द से, प्रेम भरा इस तरह से बात करता स्वरूप । एक कमल पर लक्ष्मीजी खड़ी हो जाती है-झूठा नहीं होता, तो Plastic के नहीं होते हैं, हैं । आप सोचिये कि एक कमल पर खड़ा होना, वो कमल प्रसल में होते हैं। माने भ्रादमी में कितनी सादगी होनी चाहिये, बिल्कुल हुल्का, उसमें कोई दोष नहीं। कमल पर भी वो खड़ा हो सके- ऐसा आदमी उसे होना ऐसा मनुष्य असल में कमल के जे सा होना चाहिये। एक हाथ से दान बहुते ही रहना है, बहत जाहिये, जो किसी को अपने बीझ से न दबाए । जो हो रहना है। हमने अपने पिता को देखा है। पिता की बात हम देखते हैं, वहुत दानी आ्रादमी थे। हो बहुत ही न म्र होना चाहिये। जो दिखाते फिरते हैं देते ही रहते थे। उनके पास कुछ स्यादा ही जाए ' बाँटते ही रहते थे । मजा ही नहीं अता जब तक तो बांटे नहीं। अगर उनसे कोई कहता कि 'आप आँख उठाकर नहीं देखते तो कहने लगते कि "मैं क्या देखं । जो देने वाला हैं दे रहा है, मैं तो सिर्फ बीच में खड़ा है-उसमें देखना क्या ? मुझे तो शम के अन्दर ये तत्त्व जागत हो जाता है, तो पहली लगतो है कि लोग कहते हैं कि 'तुम' दे रहे हो । चीज प्राती है - सन्तोष' । ऐसे तो किसी चीज़ का इस तरह का दानत्व वला आदमी जो होता है, वो अन्त ही नहीं है, अप जानते हैं कि Economics अपने लिये कुछ भी संग्रह नहीं करता है और दूसरों (अर्थवास्त्र) में कहते हैं, को बाटता रहता है, दूसरों को देता रहता है। देने satiable होती हो नहीं है in general (सामान्य- में ही उसको श्रातन्द आता है, लेने में नहीं-यह तया कोई भी चाहत की तुप्ति नहीं होती) । आज प्रादमी लक्ष्मीपति है। जो अपने ही बारे में सोचता आपके पास ये है तो कल वो चाहिए। बो है तो वो रहे-मेरा कसे भला होगा, मैरे बच्चों का भला होगा, मैं केसे होऊँगा-ऐसे अादमी को जैसा दौड़ता रहता है, उसकी कोई हद ही नहीं लक्ष्मीपति नहीं कहते । उसमें कोई शोभा नहीं होती, होती। आज यह मिला, तो बो चाहिये, वो मिला वह असल में भिखारी होता है । और लक्ष्मीपति तो वो चाहिये । एक हाथ से तो आध्रय देता है, अनेक को अपने घर में, जो भी आए, उससे अत्यन्त प्रेम से मिलना, उस से ग्रत्यन्त प्रेम से, अपने बेटे जैसे उसकी सेवा संतोष प्रा जाता है । जब तक आदमी को सन्तोष करनी । उसके यहाँ नोकर-चाकर, घर में नहीं आएगा, वह किसी भी चीज का मजा नहीं ले जानवर - अनेक लोग इसके आश्रय में होते हैं और सकता । क्योंकि 'सन्तोष जो है वह वर्तमान की वह जानते हैं कि वह हमारा आश्रय दाता है । कोई चीज़ है present की चीज, और 'अ्शा' जो है हमें तकलीफ़ होयेगी, वो हमें देखेगा । रात को उठ Future ( भविष्य) की चीज है; 'निराशा' जो है ये कर के भी देखेगा चुपके से करता है । वो ये बताता Past (भुतकाल) की चीज़ है । [आप] जब सन्तोष नहीं, जताता नहीं, दुनिया को दिखाता नहीं कि मैंने में खड़े रहते हैं तो fully satisfied, ( पूर्णतया उनके लिये इतना कर दिया, वो कर दिया-एकदम सन्तुष्ट), तब आप पूरा उसका आनन्द उठा रहे हैं, चुपके से करता है । परमात्मा भी हु-बहु ऐसा है । तो एक श्नी कितना भी रहता है तो भी कहते हैं, 'अ्रे ! उसके तो ढिंकाना है, वो लक्ष्मीपति नहीं हो सकता । 'मातृत्व उनमें होना चाहिये । मां का हृदय होना चाहिये, तब उसे लक्ष्मीपति कहना चाहिये। ये सब लक्ष्मीपति के लक्षण हैं और जब आप कोई भी wants करसे चाहिये, वो चाहिये तो वो चाहिये । आदमी पागल लेकिन आदमी को सन्तोष आता है । उसे जो आपको मिला हुआ है। नहीं तो उनके पास निमंला योग १५ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-17.txt पास है- मुझे तो चाहिये । तो काहे को मिला है ? रहने लग गए फिर वो मिल गया तो उसको वो चाहिये । कभी मैंने पुछा. 'यह कैसे हुआ ? कहने लगे कि हम भो ऐसा आदमी अपने जीवन का आनन्द नही उठा सारा पैसा ब्बाद क रते थे, हमें होश ही नहीं था सकता, कभी भी वो ऊँचा नहीं उठ सकता । रात कि हम करसे रहते थे, कहाँ रहते थे । दिन उसकी नजर जो है ऐसी ही बढ़ती रहेगी, जो चीजें विल्कुत व्यर्थ हैं, जिनका कोई भी महत्त्व नहीं जिनका जीवन में कोई भी महत्व नहीं, जिनका और ऐसी चीज़ों की एकदम मना किया है। अब, अपने जीवन के प्रानन्द से कोई भी सम्बन्ध नहीं, ऐसी पीज़ के पीछे वो भागता है । इनके बाल-बच्चे अच्छे हो गए । । इसीलिये, जो गुरुजन हो गए हैं, उन्होने शराब शराब तो इतनी हानिक र चीज़ है कि इस तरफ से बोतल आई शराब की, उस तरफ़ से लक्ष्मी जी चली गई-सीधा' हिसाब । उन्होंने देखा कि पुर पहले योग घटित होना चाहिये-फिर क्षम आपकी शराब की बोतल अनदर आरा गई, उधर से होता है। हमारे सहजयोग में -यहां पर भी अने क वो चली गई ऐसे आदमी को कभी भी लक्ष्मी का रनोग आये हये हैं जो कि हमारे साथ सहजयोग में सूख नहीं निल सकता। जिनके घर में शराब चलती रहे और जिन्होंने पाया और इसमें प्रगति की है। है, उनके बर में लक्ष्मीजी का सुख नहीं हो सकता। इनकी सबकी Financial (ग्राधिक) प्रगति हुई है हां, उनके यहाँ पैसा होंगा, लेकिन लड़के रुपया सबकी-A to Z । कोई-कोई लोगों के पास तो उड़ाएँगे, बीवी भाग जाएगी- कुछ न कुछ गड़बड़ लामों रुपया आया । जिनके पास एक रुपया नहीं हो जाएगा। वच्चे भाग जाएगे-कुछ न कुछ तमाशे था उनको लाखों रुपया मिला। ऐसे भी लोग हमारे होंगे। अज तक एक भी घर आप मुझे बताय, यहाँ हैं जिन्होंने-अब देखिये, अभी भी जो आए जहाँ शराव चलती है और लोग खुहाल हों। 'हो हुए हैं अंग्रेअ लोग, जो India (भारत) आना चाहते ही नहीं सकता खुशहाली शराब के विल्कुल थे, तो इन्होंने कहा कि कसे जाएं ? पैसा तो है इन के पास। इनकी भो बड़ी प्रगति हो गई। बैसे भी इमको बहुत पसा-वैसा मिल गया और काफ़ी आाराम से रहने लगे। तो, जब आने लगे तो इन्हें एक Firm (संस्था) ने कह दिया, 'प्रच्छा, तुम मुपत वाहिये। आखिर वो लोग कोई पागल नही थे । में जाओ, हम तुम्हारा पैसा दे देंगे, क्योंकि तुम । हो विरोध में रहती है । इसीलिये गुरुजनों ने जो मना किया है - खास कर हरएक' ने; क्यों किया ? हमको सोचना उन्होंते हजार बार इस चीज़ को मना किया कि ा राब पीना बरी बात है। शराब सत पियो, हैमारा यह काम कर देना। शराव मत पियो । शराब तो एक ऐसी चीज़ है कि छोटी-छोटी चीज़ में परमात्मा मदद करता है। ये भगवान ने पीने के लिये तो कभी भी नहीं बना ई और इतना रुपया आपके पास बच जाता थी पालिश करने के लिये बनाई थी- पॉलिश करने है कि आपको समझ नहीं आता कि क्या करू'। ये के लिये। कल लोग 'फ़िनायल' पीने लगेंगे ! क्या लोग पहले Drugs लेते ये, शराब लेते थे और कहें आदमी के दिमाग को ! कुछ भी पीने लग जाएं दुनिया भर की चीजें करते थे । उसमें बहुत रुपया तो कोन कथा कर सकता है ? आदमी का दिमारा निकल जाता था । अब मैंने देखा है कि इनके घर इतना चौपट है कि कोई भी चीज उसकी समझ में अच्छे हो गए हैं, घरों में सब चीज़े ग्रा गईं, अच्छे से आ जाए, पीने लग जाएगा । उसे किसने कहा था सब Music (स्गीत) सुनते हैं, सब अच्छे-प्रच्छे शराब पीने के लिये ? शोक इनके अन्दर आा गए म सब बढ़िया तरीके से अब ये पॉलिश की चीज़ आप शराब के नाम निमला योग १६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-18.txt से जब पीते हैं तो ब्रापके भी जितने भी Liver हैं, ये दस ध्म हमारी नाभि में होते हैं। इसीलिए (जिगर) है, Intestines (अन्त्डिया) हैं, सब इन गुरुआरों ने मना किया हुआ है कि पप अपने पॉलिश हो जाते हैं। यहां तक कि Arteries धम्मों को बनाने के लये पहली चीज़ है-शराब या (घमनिर्या) यपकी पॉलिश होकर के Stiff (सर्त) कोई सी भी ऐसी आादत न ल गा एं जिससे प्राप उसके हो जाती हैं। Arteries इतनी Stiff हो जाती है कि गुलाम हो जाएँ । अगर पको ये गुलामी करनी उसकी जो स्नायू है, तो प्राप स्वतंन््रता की बात क्यों करते हैं ? लोग जना सकते । माने, न तो यो बढ़ सकते हैं, न घट तो सोचते हैं कि गुलामी करना ही स्वतन्त्रता है । आपको अ्रगर कोई मना करे कि बेटे शराव नहीं हैं वो अपने को स्थितिस्थापक नहीं सकते हैं - बस जमते ही जाते हैं। Arteres जो हैं एकदम एक size की हो जाती हैं, तो लन भी पियो तो लोग सोचते है कि देखो, ये मृझे रोकते टोकते हैं, मेरी "स्व-तन्त्र-ता" छीनते हैं। मनुष्य भी दबाव न हो, उसके ऊपर में कोई पफुलाव न हो इतना पागल है उसकी मना इसलिये किया जाता ग्रर एकदम नली जैसे बन जाए Arteries, तो है कि बेटे, तुम दूसरों गुलामी मत करो'। नही चल पाता, खुन भी अटक जाता है । जब कोई उसमें क्या होगा ? ऐसा पॉलिश का गुर चढ़ता जाता है जिसकी कोई हृद नहीं, और मनुष्य भी जब कभी कोई बात बड़े लोग बताते हैं तो पॉलिश बन जाता है । ऐसा आदमी बड़ा कृत्रिम उसको विकारना चाहिये- न कि उसको रटते होता है। ऊपर से बड़ी अच्छाई दिलाएगा शराबी वेठना चाहिये, सुबह से शाम तक। उसको विचारना आदमी है; ऊपर से- वाह ! बड़ा शरोफ़ है, ऐसा नाहिये, उसको सोचना चाहिये कि उन्होंने ऐसी है, वैसा है। सब ऊपरो चीज़ । जो अपने बीवी बात 'क्यों कही; कोई न कोई इसकी दजह हो बच्चों को भूा नार सकता है, जो ग्रपने बोवी सकती है । ऐसे इतने बड़े ऊँचे लोगों को ऐसी बात तवों से ज्यादती कर सकता है, वो आदमी कितना कहने की ज़रूरत व या पडी थी ? क्यों इस चीज को भी भला बाहर करके घूसे उसका व्या परथ बार-बार उन्होंने मना किया है ? ये सोचना चाहिये निकलता है, वता इये ? इसलिये श राब की इतनी ओर वितारना चाहिये ्र कोई भी मनुष्य जरा मनाही की गई है, इतनी मनाही कर गए हैं, सी सा भी बेठकर सोंचे तो बह समझ तकता है कि इस कुदर गन्दो ये चीज हम लोगों ने अपना ली हैं, जिस के कारण हमारे यहां से लक्ष्मी-तत्व चला गया है। भारत से तो लक्ष्मी-तत्त्व विल्कुल पूरी तरह से चला गया है। यहाँ पर लक्ष्मी-तत्त्व है ही नहीं; और किस लिये कर गये हैं ? अब मुसलमानों को इतनो मनाही है शराब की ले किन उनसे ज्यादा कोई पीता ही नहीं। क्यों मनाही कर गए ? सोचना चाहिये । मोहम्मद साहब जेने आदमी क्यों मनाही कर गए ? नानक साहब इतनी मनाही कर गए-सिवखों से ज्यादा तो लंदन में कोई पीता ही नहीं। उनके आगे तो अग् ज हार गए। है कि नहीं बात ? कोन-से धर्म में शराब को क का पाया है। नीभि में ही विष्णुजी का जो अच्छा कहा है ? कोई भी धर्म में नहीं काहा । लेकिन स्थान है, श्रर विष्णु या जिसे हम लक्ष्मी, उनकी सब घर्म में लोग इतना ज्यादा पीते हैं और गुरुों जागृत करना भी बहुत कठिन है। क्योंकि लक्ष्मी-तत्त्व जो है, बो ही परमात्मा के जो शक्ति भानते हैं -इसी में हमारो खोज शुरू होती है । जब हम Amoeba (अमीवा) में रहते, तो हम खाना खोजते थे । जरा उससे बड़े जानवर का अपमान करते हैं। हमारी सारी नाभि चक्र और] उसके चारों हो गए तो और कुछ खाना पीना और सङ्ग-साथी तरफ़ दस जो हमारे धमं हैं, जो कि गुरुओं ने बनाए ढूंढते हैं । उसके बाद हम इन्सान बन गए तो हम निमंला योग १७ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-19.txt वहाँ हैं । अ्रगर मनुष्य के दस घर्म नहीं रहे, तो वो राक्षस हो जाएगा । जैसे ये सोने का धर्म होता है कि ये खराब नहीं होता, इसी तरह से आपके अन्दर सुबह से शाम तक क्या खाना जो दस धर्मं हैं, वो आपको बनाए रखने हैं-जो सता खोजते हैं । हम इसमें पसा खोजते हैं । बहुत से लोग तो खाने पीने में मरे जाते हैं। बहुत से लोग तो है, क्या नहीं खाना है, ये करना है, वो करना है । इसी में सारे बर्बाद रहते हैं। जिन लोगों को अति करें-औ्र उसके उपधर्म भी हैं-तो आपका कभी खाने की बीमारी होती है, बो भी लक्ष्मी-पति कसे? भी उद्धार नहीं हो सकता, कभी भी आप पार नहीं वो तो भिखारी होते हैं, ऐसे तो जिनका कि दिल ही हो सकते। पहले, जब तक आप घम को नहीं बनाते नहीं भरता । एक मुझे कहने लग गई- एक हमारे हैं, तब तक आप 'वर्मातीत नहीं हो सकते - बमं से यहां बह आई थीं रिश्ते में, कहने लगीं कि 'मेरे बाप ऊपर नहीं उठ सकते । पहले इन घ्मों को बनाना के यहाँ ये था, वो था'। 'अरे !' मैंने कहा, 'तुम में पड़ता है और इसीलिए इन गुरुप्रों ने बहुत मेहनत तो दिखाई देना चाहिये । तुम्हारे अन्दर तो ज़रा की, वहुत मेहनत करी है । इनकी मेहनत को हम भी सन्तोष नहीं तुम्हें कि ये खाना चाहिये, तुमको लोग बिल्कुल मटियामेट कर रहे हैं, अपनी अ्रक्ल की वो खाने को चाहिये; घुमने को चाहिये । कोई वजह से । सब इसको खत्म कर रहे हैं । "इन घरमों सन्तोष तुम्हारे बाप ने दिया कि नहीं दिया तुमको? को बनाना हमारा पहला परम कतंव्य है ।" अगर वाक़ई तुम्हारे बाप इतने लक्ष्मीपति थे तो कुछ तो तुम्हारे अन्दर सन्तोष होता ! "मिली तोको प्रापसे या घर्म से कोई मतलब नहीं है - आप मिला, नहीं तो नहीं मिला ।' मानव घर्म हैं । अगर इन धर्मों की आप अरवहेलना ले किन आजकल के जो निकले हुए हैं, उन गुरु शराब पीते हैं ? लेओं और हमको भी एक बोतल जब ये स्थिति की आ जाती है-जब लाओ, श्रर आपको कोई हजा नहीं। अच्छा, आप औरतें रख रहे हैं ? तो ठीक है, दस औरतं रखिये श्रया कि सत्ता में नहीं रहा, पसे में नहीं रहा, और एक हमारे पास भी भिजवा दीजिये, या अपने किसी चीज़ में उसे बह आनन्द नहीं मिला, जिसे बीवी-बच्चे हमारे पास भेज दीजिये । आपकी जेब खोज रहा था, तब आनन्द की खोज शुरू हो जाती में जितना रुपया है. हमारे पास दे दीजिये-हमें आप है । वो भी नाभि चक्र से हो होती है। इसी खोज से कोई मतलब नहीं। आपको जो भी घन्धा करना अरमोबा) से इन्सान है कर । आपके बस पसं में जितना पैसा है इधर जमा कर दीजिये, फिर आप जैसा है, वैसा करें ! मनुष्य उसकी सत्ता खत्म हो गई, जब उसको समझ में के कारण आज हम Amoeba ( बने । और इसी खोज के कारण, जिससे हम परमात्मा को खोजते हैं, हम इन्सान से अतिमानव आज ही एक किस्सा है, वता रही थीं हमारे साथ होते हैं । 'प्रपा' को पहचानते हैं । आत्मा को आई हुई हैं कि इनकी वहन, राजकन्या है वो भी, । इसीलिये लक्ष्मी-तत्त्व और उनके पति बहुत शराबी, कबाबी, बहुत बुरे आदमी थे। और तो एक गुरु के शिष्य थे । इन्होंने जाकर उनसे बताया कि ये आदमी मारता है, और लक्ष्मी-तत्त्व जो बैठा हुआ है, उसके चारों पीटता है, सताता है, औरत रख ली है । उससे कुछ तरफ़ 'धर्म हैं। मनुष्य के दस धर्म बने हुए हैं। कहो। वो औरतं रखता है । और राजकुमार है, अब आप Modern (आधुनिक) हो गए तो आप लेकिन क्या करं उसका इतना खराब हो रहा है। भई प्रप तो कहने लगे कि रहने दो, तुमको क्या करना है ? Modern हो गए। क्या कहने आपके ! लेकिन ये उनसे रुपये ऐंठते गए, रुपया ऐंठते गए । 'गुरुजी पहचानते हैं- इसी खोज से बहुत जरूरी चीज़ है । सब धर्म उठाकर चुल्हे में डाल दीजिये । तो आपके अन्दर दसों धर्म हैं ही ये स्थित' हैं, ये को मतलब उनके रुपये से ! निर्मला योग १८ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-20.txt ये कोई गुरु हुए जो अपसे रूपये एठते है ? आप के नहीं देता ? एक है-वो अधनङ्गा नाचना सिखा गुरु हो ही कैसे सकते हैं ? जो आपके पसे के बूते रहे हैं- ग्रधमं सिखा रहे हैं । कौन-से धर्म में लिखा पर रहते हैं। ये तो Parasites हैं । अापके नोकरों है इस तरह की चीज ? दूसरे आजकल के गुरुओं के से भी गए गूजरे हैं। कम से कम आपके नौकर आप बारे में यह भी जानना चाहिये कि अपने ही हुँग से का कुछ काम करते हैं । जो लोग आपसे रुपया ले कोई चोज निकाल ली है। इनका पहले के गुरुओं करके जीते हैं, ऐसे दूष्टों को तो विल्कुल राक्षसों के साथ कोई नहीं मेल बैठता । 'वो' जैसे रहते थे की योनी में डालना चाहिए। और ऐसे दूण्टों के जैंसी उनकी सिखावन थी, जैसा उनका वर्ताव था, पास जाने वाले लोग भी महामुर्ख हैं, मैं कहती है । वो देखते क्यों नहीं? क्या यप परमात्मा को खरीद बैठता । सकते हैं? क्या आ्रप किसी गुरु को खरीद सकते हैं ? अगर कोई गुहु हो तो क्या बो अयने को बेचेगा। , जो उनकी बातें थीं, उनके इनका कोई मेल नहीं शपने घर्म के जो अनेक इतिहास चले रहे हैं, जिसको कि आप कह सकते हैं कि किसी भी घर्म उसकी अपनी एक शान होती है। उसको आप में लिखित, वही चीज, बही चीज कही जाती है। खरीद नहीं सकते । कोई भी चाहे । एक ही चीज़ अपने शङ्कराचाय को पढ़ तो आप सहजयोग समझ से आप उसको मात कर सकते हैं। आ्रापके 'प्यार लगे आप केबर को पढ़, आप सहजयोग समझ से, अपकी श्द्धा' से, आपके 'प्रेम' से भक्ति' से । लगे; नानिक को पढ़ं, आप समझ लेंगे; मोहम्मद को और किसी चोज से वो वश में अाने वाली चीज पढ़ अप समझ ल गे; Christ को पढ़े तो समझ नहीं है। उसको अपनी एक 'शान' होती है। तो लंगे; कन्प्यूशियस और सुकरात से लेकर सबको अपनी एक 'प्रतिष्ठा में रहता है। उसकी एक देखे तो सहजयोग ही सिखाते हैं। और ये जो सब 'बादशाहत' होती है। उसको क्या परवाह होगी ? आपको सर के बल उड़ना और फ़लाना और डिकाना और दुनिया भर की चीज़ अपको सचा ? - नचाकर मारते हैं-इनको कसे आप गुरु मान लेते है?"एक ही गुरु की पहचान है-जो मालिक को पराप है रईस, तो बेठे अरपने घर में । उसको कया वो पत्तल में भी खी सकता है, वो चाह जमन पर सकता है । वो जैसा रहना चाहे, रहे। उसे आ्प से मिलाए, वेही गुरु है और बाको गुरु नहीं।" कोई मतलब नहीं। उसको तो सिर्फ ग्रापके प्यार' से, आपकी श्रद्धा से और आपकी 'तीज से । अगर हुसी चीज़ कोदेखना । ले किन इन्सान इंतना Super- आपको खोज है तो सर आँों पर आपको उठा ficial (उथला) हो गया है कि वो 'सर्कस को ले गा । 'ऐसे गुरु को खोजना चाहिये, जो आपको देखता है । कितने ताम-झाम लेकर के आदमी वूम परमात्मा की बात वताए, जो अपको आत्मा की रहा है। कितनी हॅडियाँ सर पर रखकर चल रहा पहचान कराए जो मालिक से मिलाएं वही गुरु है। बाल कसे बनाकर चल रहा है । क्या सीग लगा माना हुआ है। सत्य पर अगर आप खड़े हुए हैं, तो आपको कर चल रहा है। "गुरु की सिर्फ एक ही पहुंचान है, कि वो सिवाय मालिक के और कोई बात नहीं जानता । उसी में रमा रहता है। वहो गरु, माने आप से ऊचा इन्सान है ।" जिसे दिखे, उसी को ! ये तो अगुरु भी नहीं है-राक्षस हैं, 'राक्षस ! अंगुठियाँ निकालकर आाप को देते हैं । जो आदमी आ्रापको अंगूठी निकाल कर देता है, वो क्या परमात्मा की वात करता होगा ? आपका चित्त अगुठी में डालता है, आपको दिखाई जिनको आप पैसा देते हैं, जो आपको बेवकफ़ गुरु ले किन जिनको आप खरीदते हैं, बाजार में, निर्मला योग १६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-21.txt बनाते हैं; जो आपको Hypnotise (सम्मोहित ) जोओो, वहां भी सवा रुपया चढ़ाओ]। और इसी करते हैं, उनके साथ आप लगे हुए हैं, तो इस तरह चक्कर की बजह से हर जगह गड़बड़, हुर जगह के लोगों को क्या कहा जाए ? और इस कलियुग में, गडवड़ हो गई है ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी जो इस घोर कलियूग में, तो ऐसे अनेक अ जीव तरह के पवित्र जगह रह गई हो। एक-एक नमूने हैं । मैं आपको बताऊँ, किसका वरणन करू, किसका कहैं । ऐसे कभी न गुरु हुए, न होंगे, मेरे खयाल से जिस तरह से हो रहे हैं आजकल । क और इसी चुक्कर की वजह से हमारे जो जवान वेटे हैं, जो जवान लोग हैं, सोचते है कि परमात्मा है कि तमाशा है ये सब ? क्योंकि वो तो प्रपनी बुद्धि पर वो ऐसी चिपकन होती है उस चीज़ की कि रखते हैं न, अभी साबूत हैं दिमाग उनके। उनको अभी एक देहरादून से एक देवी जी आई थीं उन अविश्वास हो रहा है । सारे घर्मों में ये हो गया है, की कुण्डलिनी एकदम ऐसे जमी हुई थी। तो मैंने आपको आश्र्य होगा। कहा कि 'तुम कौन गुरु इससे बताया कि उनके पास गई ! मैंने कहा कि आपने उसके बारे में पेपर में पढ़ा कि नहीं पढ़ा? एक साहब-जवान हैं. बहुत होशियार और इज्जीनियर एक अ्रठारह साल की लड़की के साथ उन्होंने जो कुछ भी गड़बड़ किया था, उस लड़की ने और ये मुसलमान औ्रर ये Fanaticism ( धर्मान्धता) इन पच्चीस ओर लड़कियों ने Blitz पत्रिका) में और इसमें और उसमें सब कुछ छापा ये मुल्ला लोग है, सब पंसा खाते हैं और सब था-दस साल पहले छापा था। कहने लगी 'हम ( ने पढ़ा, पर वह सब झूठ है। 'हमने कहा', झुड हैं ! महान् समझते हैं और सब लोग उनके सामने तो, आपको क्या मिला उनसे ?' तो उनको वडा झुकते हैं। फिर उन्होंने Pope (पोप) को भी देखा । बुरा लग गया। कहने लगीं, 'मै तो शादीशुदा औरत वो भी एक नमूना है। तो विल्कुल अविश्वास से हैं, मैं ऐसो, मैं वैसी है। शरादमी के दरवाजे जाना ही क्यों ?' ले किन यह नहीं इसमें कोई अर्थ नहीं - सब झूठ है। बो हमारे पास करि वो औरत बदमाश है, ये नहीं कि वो खराब अए तो हमने कहा-यह बात नहीं। औरत है। पर उस पर Hypnosis (सम्मोहन) है, hypnotised (सम्मोहित ) । कोई उनको Freedom (स्वतन्त्रता) नहीं । गुरु जाकर ! आप जाइये, वहाँ पर सेवा करिये । इतनी बड़ी-बड़ी पेटियाँ रखी रहेंगी उसमें आप पंसा डालिये । से वा का मतलब है-पसा डालिये ! और लोग घर से पसे भर-भरकर ले जाते हैं, बहाँ डालने के लिये । यह आप देख लीजिये, कही भी जाकर के के बीचों बीच है, जहां परमात्मा साक्षात् आपसे इतनी बड़ी-बड़ी ट्ू के रखो रहेंगी भी पैर छुते हैं तो कोई एक रुपया दे जाता है, कभी का अनुभव करें, इसमें जमें। जब तक आप सहज पाँच रुपया रख जाता है ! मुझे आती है हसी ! योग में जमते नहीं, तब तक आप पूरी तरह से इसका मतलब आदत पड़ गई है न। हनुमान जी के मं्दिर अनुभव नहीं कर सकते । जो जम गए उन्होंने के पास गईं ? उन्होंने बडे Algeria (अल्जीरिया) से हमारे पास आए ये थे । वो भी इसी आन्दोलन में कि ये किस कदर (विलिटज़-एक महै अ्रर इस तरह से ये लोग दुष्टता करते हैं और जनता ) के पैसे पर जीते हैं और अपने को बड़ा । फिर मैंने कहा 'ऐसे भरकर अ्राए। उन्होंने कहा कि ये सब धोखा है । "जब सत्य है तभी उसका झूठ निकलता है। जब सत्य होता है तो उसी के आधार पर लोग भठ बनाते हैं न । सत्य भी कोई चीज है । Absolute (परम) भी कोई चीज़ है । तुम देखना सहजयोग में । बेठेगे सात मंज््जल पर अच्छा हमने कहा, ' "सहजयोग जो है, ये धर्मान्धिता और अविश्वास । आररे ! हमारे मिलते हैं। आप स्वयं इसका साक्षात्कार करें, इस निर्मला योग २० 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-22.txt पा लिया, मिल जाता है । 'जिन खोजा तिन पाया पर खोजा ही नहीं तो कोई आपके पेर पर तो सत्य तरह से घटित होता है ? कसे बन पड़ता है ? ये बैठने नहीं बाला कि 'भई मूझे खोज । उसकी अपनी आप घीरे धीरे, जैसे-जे से इस में गुज़ रते जाते हैं भाप प्रतिष्ठा है । खोजना चाहिए लेकिन उसको खोजने खुद इसको समझते हैं दूसरों को भी ये सुख दे सकते हैं । ग्रौर ये किस । से सत्य से आनन्द उत्पन्न होता है । सत्य और पनन्द दोनों एक ही चीज़ हैं, एक ही चीज हैं दोनों। जैसे चन्द्र की चन्द्रिका होती है या जिस तरह से सूर्य अ्ब इनमें से बहुत-से लोग हैं, छः महीने पहले हमारे पास में आए। 'सिर्फ छ: महीने पहले' हमारे पास में आए । अब ये डॉ. बरजोजी साहब हैं । ये का उसका अपना प्रकाश होता है, उसी प्रकार सत्य और आनन्द दोनों चीजें एक साथ हैं । जब हमारे पास छुः महीने पहले आए और ये बहुत बडे आप सत्य को पा लेते हैं, तो आनन्द-विभोर हो डॉक्टर है लन्दन के, इसके प्रलावा जरमती में भी जाते हैं, प्रानन्द में रमभ्राण हो जाते हैं Practice(ब्यवसाय )करते हैं । जब से इन्होंने पाया है, इसके पीछे पड़ गए हैं । तब से कै सर ठीक किये ले किन ये सिर्फ लेकचरवाजी नहीं है कि अआपको हैं, दुनिया भर की बीमारियां ठीक की हैं और अब मैं लेकवर देती रहे सुबह से शाम तक । लेक्चर से कहते हैं कि इसको पाने के बाद सब कुछ तो मेरा गला थक गया । अब पाने की बात है कि irrelevent(अरसङ्गत) लगता है। क्योकि 'जब आप कुछ पाओ, आत्मा' को पाओ । बहुत-से लोग ऐसे बिल्कुल सूत्र पर ही काम करने लग गए, जब आपने भी देखे हैं 'हमें तो कुछ हुआ नहीं माताजी माने को ही पकड़ लिया, तो ना़ी चीजें हिलाना बड़े अच्छे हो गए ! होना चाहिए' । सूत्र कुछ मुश्किल नहीं अगर नहीं हुआ तो कुछ गड़बड़ है आपके प्न्दर | कोई न कोई तकली फ है अप बोमार हैं, इसीलिये इसे सह-ज (सहज) कहते हैं। 'सह माने आप mentally ( मानसिक रूप से) ठोक नहीं हैं, प्राप ने कोई गलत गुरु के सामने अपना मत्था टेका है। अगर आपने अपना मत्था ही जो कि परमात्मा इस प्रकार आप सब इसके अधिकारी हैं, अपके साथ, 'ज' माने पेदा हुआ । अप भी इसके अधिकारी हैं-हर एक रादमी इसका अधिकारी है भोर इसको पा लेना चाहिये। जैसे एक दीप दूसरे दीप को जला सकता है, उसी प्रकार ने इतनी शान से बनाया है, इसको किसी गलत आदमी के सामने टेक दिया है तो खत्म हो गया मामला । आपको हमें भी अन्धता से नहीं विश्वास एक Realized Soul (साक्षात्कार प्राप्त) दूसरे को Realization (साक्षात्कार) दे सकता है। लेकिन Realised soul होना चाहिए। अरगर एक दोप जला हुआ ही नहो, तो दूसरे को क्या करेगा ? जब दूसरा दीप जल जाता है तो वो तीसरे को जला सकता है। इसी प्रकार ये घटना घटित होती है, और आदमी के अन्दर लाइट(प्रकाश) आ जाती है । करना चाहिये। गलत बात है। हम चाहते हैं आप पाओ औ्रर उसके बाद भी अगर आपने अविश्वास किया तो आपसे बड़ा मुखं कोई नहीं। शर उसके बाद भी अगर आप जमे नहीं, तो पके लिये क्या कहा जाए ? जब आप पा लेते हैं तो इसमें जमिये । और जमने के बाद ग्राप देखिये कि आपकी पूरी शक्तियाँ आप Light देखते हैं। जो भी हैं, उस तरह से हाथ से बहुती हैं और आप फिर दूसरों को भी इस आनन्द को दे सकते हैं । हैं देखना जब होता है, तब वहाँ आप नहीं होते। अब लाइट आने का सतलब यह नहीं कि । यह भी एक दूसरी एक अजीव-सी चीज़ है कि लोग लाइट देखना चाहते निर्मला योग २१ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-23.txt है। सारी बीमारी आपकी ठीक हो सकती हैं। इसी जैसे कि समझ लीजिये कि अरप जब बाहर हैं, तो आप इस Building ( भवन) को देख सकते हैं, तरह की बड़ी भारी देवदायिनी, श्राशीर्वाददायिनी', लेकिन जब आप अन्दर आ गए, तो क्या देखियेगा? इस तरह की बड़ी भारी शक्ति आपके अन्दर में है। कुछ भी नहीं ! तब तो सिर्फ़ आ्राप 'होते' मात्र हैं, इस तरह की गलत धारणाएं कर नेना, कि हम आप देखते नहीं है । जहां-जहां देखना होता है तो बन्दर हो जाएँगे, या मेंढक हो जाएँगे-ग्रापको सोंचना कि आप प्रभी बाहर हैं । लाइट जो लोगों अ्रतिमानव जो बनाने वाली चीज़़ है, तो प्रापको को दिखाई देती है, वो Short circuit (पथूज क्या मेंढक बनाएगी ? इस चीज को आप समझ उड़ना) हो जाता है न, वैसी लाइट है, जिसे स्पार्क लें। (चिङ्गारी) बोलते हैं । इसलिये जिस जिस को लाइट दोख रही हो, वो मुझे बताएँ-आज्ञाचक्र टूटा है उस अदमी का । उसको ठीक करना पड़ेगा । अब 'यह कठिन होता है ! तो, उसके लिये कठिन है जो बेवकूफ़ है, जिसको मालूम नहीं, जो इसका अधिकारी नहीं, उसके लिये कठिन है। "जो ये सारे चक्र भी कूण्डलिनी अपने से ठीक करती इसका अधिकारी है, जो इसके सारे ही काम-काज चलती है। "वो आपकी माँ है", आप हरएक को जानता है, उसके लिये यह बाएँ हाथ का खेल है । अवग-प्रलग माँ हैं. वो आप जिसको हो सकता है कि हम इसके अधिकारी हैं और हम सुरति कहते हैं, वही यह सुरकति है। और यह अपने आप से इसके सारे काम जानते हैं, इसीलिये आसानी से हो चढ़ती है और अपने आप आपको ठीक करके वही जाता है ।" बहरहाल आाप अपनी आँख से भी देख पहँचा देती है। आप में अगर कोई दोष है, वो भी जागृति देख हम समझ सकते हैं । वह भी वो बता देतो है कि सकते हैं, इसका चढ़ना भी देख सकते है । और इस क्या दोष ठीक करना है। कोई ग्रलतेी हो गई तो की लोगों ने फ़िल्म-विल्म भी बनाई है पर जो भी ठीक हो सकता है, लेकिन अपने को Receptive लोग बहुत शङ्कापुर्ण होते हैं, उनके लिये सहजयोग इच्छुक - जरा मूश्किल से पनपता है । इस चीज को पाना सकते हैं इसका उठना। आप इसकी हम स्थिति) में रहना चाहिये- mood (प्रापति कि हम इसे ले ले, प्राप्त कर लें और हो जाएँ । चाहिये और इसको लेना चाहिये । अब कल भी एक बात जो उठी थी, वह आज भी दिमाग में किसी के उठ रही है कि कुण्ड लिनी में हम रह रहे हैं-कलियुग में, [असल में हम ये Awakening (जागृति) तो, लोग कहते हैं, कि बड़ी मुश्किल चीज़ है, बड़ी कठिन चीज़ है, यह कंसे होती है । इसमें कोई नाचते हैं. कोई बन्दर जेैसे नाचते हैं, कोई कुछ करते हैं । कुछ भी नहीं होता हमने हजारों की कुण्डलिनी जागत की हुई हैं ग्रोर आध्यात्म की चौज को अगर समझते होते प्रीर पार किया हुआ है ऐसा कभी भी नहीं होता है। आजकल जो ज़माना आ गया है, जिस जमाने कहंगे कि अध्यात्मिक दृष्टि से हम लोग बहुत ही पयादा, बहुत ही ज्यादा कमजोर है। Insensitive अ्र्थात् संवेदना हमारे अन्दर नहीं है । हम ! हम कभी भी गलत गुरुं के पीछे नहीं भागते । जो परमात्मा ने प्रापके उद्धार के लिये चीज लेकिन हमारे अन्दर सच को पहबानने की शक्ति, रखी हुई है, अपके पुनर्जन्म के लिये आपकी माँ है, बहुत कम हो गई है, क्षीण हो गई है । हम यह वह आपको कोई भी दुःख नहीं देती। उल्टे आपको नहीं पहचान सकते, कि सच्चाई क्या है ! उसकी वो 'प्रत्यन्त सुखदायी है। केंसर ज सी बीमारी वजह यह है कि इतने कृत्रिम हो गए हैं, इतने कुण्डलिनी के awakening (जागृति) से ठीक होती artificial (कृत्रिम) हो गए-आप artificial हो निर्मला योग २२ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-24.txt या तो फिर ये कहो कि तुम परमात्मा में या धर्म में विल्कुल विश्वास नहीं करते और अगर जरा भी विश्वास करते हो, तो जो अधम है, इसको पर जैसे गाँव में, शप्रभी भी मैं देखती हैं कि गवि नहीं करना चाहिये। कोई जरूरत नहीं किसी को में लोग एकदम पहवान लेते हैं। वो पहुँचान लेते हैं पीने की । ये भी एक गलतफहमी है कि Business कि कौन असल है और कोन नकल है । गीँव के लागी के लिए करना पड़ता है, इसके लिये । जो आदमी में नब्ज होती है इस चीज को पहचानने को । वो अपने को धोखा देना चाहता है उसे तो कोई नहीं जाइएगा तो आपकी सत्य को पहचानने की शक्ति कम हो जाएगी। समझते हैं, कि ये ग्रादमी नक़ली है और ये आदमी असली है। बचा सकता । हमारे पति भी आप जानते हैं सरकारी नोकरी उन्होंने बहुत बड़ी Shipping ( जहाजी) पर शहर के लोग तो आप जानते हैं, कृ्र म में रहे हैं हो जाते हैं। Artificially रहते हैं, इस लिये सत्य की पहचान नहीं होती और इसलिये भी जितने कम्पना चलाई, उसके बाद आज भी बहुत बड़ी चोर हंग के लोग हैं, ये सब श्रापक शहर के पाछ कि झा राब मेरे बस की नहीं और जिन्दगी भर उन्हों लगे हैं । ने छुई नहीं, एक बूंद भी और भगवान की कृपा से ये सारे शहरों में [आते हैं, गाँव में कोई नहीं बहुत successful (सफल) हैं । सब उनको मानते हैं, सब उनकी इ्जत करते हैं। प्रज तक होते हैं, , काम करता । य्योंकि आपके जेव में पसे आपकी जेव से उनको मतलब है । वो क्यों गाँव में किसी शराबी आदमी का कहीं पूतला बना है कि ये महान् शराबी थे। मुझे एक भी बताएँ, एक भी देश । इंगलैण्ड में लोग इतनी शराब पीते हैं, मैंने सहजयोग हमारा गाँव में चलता है उअसल में किसी को देखा नहीं कि ये बड़ा शराबी खड़ा हुआ शहर में तो हम यों ही आते हैं ले किन हमारा है, इसकी पूजा हो रही है । कि शराब पीता था । काम तो गाँव में ही होता है। गाँव के लोग सौधे- किसी शराबी की आज तक संसार में कहीं भी सादे, सरल, परमात्मा से सम्बन्धित लोग होते हैं, मान्यता हुई है ? फिर आ्पका Business इससे वो इसको बहुत आसानी से पा लेते हैं। उनको एक कैसे बढ़ सकता है । अगर आपकी इज्जत ही नहीं जाएँगे ? क्षर भी नहीं लगता । रहेगी तो प्रपका Business कैसे ? इज्जत से Business होता है । घोखाधडी से Business ले किन शहर के लोगों में एक तो शहर की नहीं है। जो आदमी एक बार खड़ा हो जाए तो आबोहवा की वजह से और यहाँ के तौर-तरीकों कहते हैं 'एक आदमी खड़ा हुआ है 'ये' । की वजह से आदमो इतना अपने को बदल देता है, स क़दर अपने को धर्म से गिरा देता है- इस तरह से अपने को आप इन चक्कूरों में, इन ग्रब ये इसमें क्या हुआ साहब, सब लोग पीते है sOCieties में, इसमें इस तरह से क्यों मिलाते चले Business के लिये पीना चाहिये।" मानो जैसे जाते हैं। आप अपने व्यक्तिरव को संभालें, इसी के Business ही भगवान है "उसको तो पीना ही अन्दर परमात्मा का वास है । श्जकल के जमाने चाहिये, फिर उसके अलावा Business कैसे में ये बातें करना ही बेवक फी है और कहना ही बेवकूफ़ी है। लेकिन आप नहीं जानते कि आपने चलेगा ।" निर्मला योग २३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-25.txt अपने को कितना तोड़ डाला है, अपने को कितना जाएगा ? आप पूरी तरह से स्वतन्त्र हैं। आप चाहें तो परमात्मा को स्वीकार करें, अपने जीवन में. और चाहें. तो शैतान को । दोतों रास्ते आपके लिए गुलाम कर लिया है। इन सब चीजों में अपने को बहा देने के बाद परी तरह परमात्मा ने खोज रखे हैं। आपको मैं क्या दे सकती है ? आप ही वताइये। अब] कम से कम सबको ये व्रत लेना चाहिए कि हम रखुद जो हैं, हमारी इस्जत है। परमात्मा ने हमको औ्र सवसे बड़ी मेहनत की है। मैं आपसे बतातो हैं कि गुरुम्रों ने कितनी आफते उठाई हैं। स्खुद एक amoeba से इन्सान बनाया है। एक amoeba इतनी ही मेहनत, आपके पीछे सारे जितने भी छोटा-सा, उससे इन्सान बनाना कितनी कठिन चीज़ है। हजारों चीजों में से गुजार करके इतनी योनियों करी है। इनको कितना सताया, हमने उनको कितना में से गुजार के आज आपकी जैसी एक सुन्द र छला । उनकी कितनी तकलीफ़, बो सारी बर्दाश्त परमात्मा ने बनाकर रखी है । फिर अरापको उसने freedom देदी, स्वतन्त्रता दे दी कि तुम चाहो तो अच्छाई को वरण करो और चाहो तो बुराई को । जिस चीज को चाहो तुम अपना सकते हो। तुम्हें बुराई को अपनाना है चलो बुराई करो, अच्छाई आत्मिक संवेदन है इसको भूल गए । हम पहचान को अपनाना है अच्छाई करो ি प्रवतार हो गए, उन्होंने, गुरुरों ने, कितनी मेहनत चीज करके उन्होंने ग्रापको बिठाने की कोशिश की । लेकिन कलियुग कुछ ऐसा आया, बवण्डर जैसा कि हम सब कुछ भुल गए और हपारी जो भी ही नहीं पाते किसी इन्सान की शक्ल देखकर कि अब, आपको भी सोचना चाहिये कि जिस ये असली है कि नक़ली है-्ाश्चर्य है। शक्ल से परमार्मा ने हमें बनाया है, 'इतनी मेहनत से जाहिर हो जाता है अगर कोई प्रादमी वाकई वनाया है, उसने वो भी इन्तजाम हमारे आन्दर परमात्मा का आदमी है। उसकी शक्ल से जाहिर जरूर कर दिये होंगे जिससे हम उसको जाने प्रौर होता है । हम यह पहचानना ही भूल गए कि यह उसको समझ और अ्रपने को जाने और हमारा हमारे अन्दर की जो sensitivity है, जो हमारे मतलब बया है, हम क्यों संसार में अराए हैं, हमारा अन्दर की संवेदनशोलता है वो पूरी तरह से खत्म क्या fulfilment है ? मनुष्य ने यह कभी जानने हो गई। जब श्री रामचन्द्रजी संसार में आये थे की कोशिश नहीं की कि आखिर हम इस संसार में सब लोग जानते थे कि ये एक अवतार हैं । श्रीकृष्ण क्यों आए हैं ? Scientist यह क्यों नहीं सोचते कि जी जब आये थे तब सब लोग जानते थे कि ये हैम amoeba से इन्सान क्यों बनाए गए? हमारी अवतार है। लेकिन आज ये जमाना आ गया कि कौन-सी ऐसी बात है कि जिसके लिए परमात्मा ने कोई किसी को पहचानता नहीं । ईसा मसीह के इतनी मेहनत की और उसके बाद हमें स्वतन्त्रता समय में भी ऐसा ही हुग्रा । लेकिन उस समय कुछ दे दी ? लोगों ने तो उनको पहचाना। लेकिन आज ये समय आ गया कि सब भूतों और राक्षसों को लोग बस इस जगह परमात्मा भी आपके आगे जाते हैं क्योंकि आप स्वतन्त्र हैं। रापकी स्वतन्त्रता परमात्मा नहीं छीन सकते। अगर आपको परमात्मा के साम्राज्य में बिठाना है, अरापको अगर राजा और एक ही चीज़ माँगनी चाहिए कि प्रभु बनाना है, तो आपको परतन्ब करके कैसे बनाया तुम हम।रे अन्दर जागो जिससे हम अपने को जाए ? आपको क्या hypnosis करके बनाया पहचानें। भात्मा को पहचाने बग्गर हम परमात्मा झुक अवतार मानते हैं । इस चक्कर से अपने को हटा लेना चाहिये २४ निमंला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-26.txt का नहीं जान सकते, नहीं जाने सकते, नहीं जान सकते । बाकी सब बेकार है । ये सब circus है । देंगे नहीं तब तक आपकी प्रगति नहीं होगी । ये सिर्फ, जिसको कहते हैं वाहरी तमाशे हैं । इस बाहरी तमाशे से अपने को सन्तुष्ट रखने से कोई देना पड़ेंगा, जेसे-जैसे आप देते रहेंगे, वैसे- फ़ायदा नहीं। । कोई अगर हम लोग परमात्मा को कौन घोखा दे सकता है। बो तो आप बड़ी भारी Boat तयार करते हैं, Ship तैयार को खुब अच्छे से जानता है । आ्राप अपना ही करते हैं, अगर हम उसको पानी में नहीं छोड़े नुक्सान कर रहे हैं। आपको पाना चाहिये, क्योंकि तो उसका क्या अर्थ निकलता है ? उसी प्रकार आपकी अपनी शक्ति है, आपकी अपनी सम्पदा है, है, अगर मनुष्य परमात्मा को पाकर के और आपके अन्दर सारा स्रोत है । [आपके अन्दर भरा घर में बेठ जाए, तो ऐसे दोप से फ़ायदा क्या सब कुछ है इसमें जमना चाहिए । सहजयोग में जब तक अरप लोगों को प ग्रपने को ही धोखा दे रहे हैं । वेसे आप आगे बढ़ेंगे र्] | इसे आपको लेना चाहिए और फिर कि जो जलाकर के आप table के नीचे रख दीजिये । दीप इस लिए जलाया जाता है कि दूसरों द्ूसरों को प्रकाश दे। उससे आप अ्रपने अन्दर अपने को भी देख सकते है और दुसरों को भी देख सकते हैं। आप सहजयोग में जब मैं आती है तो लोग बहुत आते हैं, मैं जानती है । लेकिन यहाँ पर सबका कहना है कि माँ आगे लोग नहीं जाते। अब यहाँ अपने भी चक्र देख स कते हैं और दूसरों के भी देख पर हमने ऐसे लोग देखे हैं कि जिन से हमें कोई सकते हैं। आप अपने भी आनन्द को देख सकते हैं उम्मीद नहीं थी, वो कहाँ के कहाँ पहेंच गाए । प्रौर और दूसरों की व्यथा को भी देख सकते हैं। और जो कि बहुत हम सोचते थे, तो वहीं के बहीं जमे आप ये समझते हैं कि दूसरों को किस तरह से देना बेठे हैं। फिर लेकर आ गए वहीं मि रदर्द, वही वाहिये। जगह ये चंीज़ रोक रही है उसको आफते, वही परेशानियाँ वही ये हो रहा है, वही बो हो रहा है, अभी भी उनका level उतना ही ऊँचा उठा है । ये किस तरह से इसको हमें बनाना चाहिये । किस आज के लिये इतना काफ़ी है। हम लोग अब जरा ध्यान करें, देख कितने लोग पार होते हैं । "शलस्य सहजयोग का सबसे बड़ा दुश्मन है ।" श्री माताजी आरती के पश्चात् हर सहजयोगी को ३ वार श्री माताजी के स्वास्थ्य हेतु निम्न प्रार्थना करनी चाहिए । क्योंकि परमपूज्य श्री माताजी की अपनी कोई इच्छा नहीं, वह तो हम सभी सहजयोगियों की इच्छा पर निर्भर करती हैं । श्री माताजी हम सम्पूर्ण विश्व के सहजयोगी प्रापके स्वास्थ्य की कामना करते हैं ।" निर्मला योग २५ू श 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-27.txt मिथ्या ( कवर २ का शेवाश ) इन सभी से छुटकारा पाना है ऐसा जब सोचोगे सूर्य देखने की ताक़त और हिम्मत आती है। और यत्न शुरू करते हो मिथ्या ज्ञान प्राप्त होता है। फिर पिगला नाईी पर से चित्त फिसल कर निद्धि एक कादम अपने दम पे लेगा तो काम बन जाएगा । वगै रा प्रलोभनों में मतुष्य फसता है। कुण्डलिनी का दर्शन तथा चक्रदर्शन आदि सारा मिथ्या हो है इसीलिए अापकी मांँ बनकर आयो है। आप के जो वयोकि उससे कोई लाभ नहीं होता, उल्टा नुकसान होता है। जो-जो नियम व संयम श्राचरण आपस में भी सहजयोग पर बात करें तो बहुत में लाना जरू री है इसकी जिद पकड़ते हैं वह सभी अच्छा है। चित्त हमेशा अ्रपने अन्तरीय उड्डान पर चित्त को बन्धनकारक होता है और मुक्ति का माग रखिये । बाहर का जितना हो सके उतना भूल ही नहीं मिलता । परन्तु सभी मिथ्या श्रात्म - जाइए। उसकी सारी व्यवस्था होती है ये विश्वास साक्षात्कार से नहीं जाते । किन्तु धीरे-धीरे ये भी रसखिये । उसके कितने ही प्रमाण हैं। उसके बाद कुछ छट सकते हैं। अगर पूर्णं सङ्कल्प से मिथ्यां की भी करते समय चित्त प्राम्मस्वरूप रहता है। संसार हृदय से निकाला जाये तो अरात्मा के शुद्धस्वरूप का असंसार ये भेद नहीं रहता क्योंकि भेद दिखानेवाला दर्शन होता है और फिर वही शुद्ध स्वूप आत्मसात विकृत अँधेरा खत्म होकर ज्ञान के प्रकाश में सारा होता है । कितनी मेहनत से मनुष्य को बनाया है केवल परतु अभी तक तो वैसा कुछ नहीं बन रहा है । प्रश्न हैं वे लिखकर भेजिए। ध्यान में बैठिए। 1 ही शुभ घटित होता है । फिर कृष्ण द्वारा संहार हो प्रोर तब मानवचित्त अनन्त, अनादि सत्यप्रेममय या क्ाइस्ट का बधस्तम्भ । शिवस्वरूप में मग्त हो जाता है। इसी सत्य की पहचान उस चित्त में होती है। ओर केवल यही दिखाकर नहीं होगा, उसको चलकर काटना होगा, जॉनने के लिए यह मानवचित्त है । उस आत्मा में तभी सब कुछ समझ में आएगा । ये सब बताकर समझ में अने वाला नहीं, मार्ग इस चित्त को उतरना चाहिए। जो चित मिथ्या का तयाग करते -करते अग्रमर होगा और जो सब कुछ है, पर नहीं है का मिथ्या वन्धन तोडेगा वही चित्त क्रम निश्चित करती है । कुछ दिनों वाद उसकी भी आर्मस्वरूप होगा।। आत्मा कभी भी खराब नहीं जरूरत नहीं पड़ेंगी। परन्तु ग्रभी तो सव कोई चिट्ठी होती और न ही न्ट होती। केवल मानव चित्त ही लिखिए और उसमें अपनी प्रगति लिखिए। फिर अपनी इच्छा के पीछे भागकर अपना मार्ग छोड आने के बाद देखते हैं विराट की कितनी नाडियाँ देता है । यह माया है, इसे जान-बुझकर बनाया है जागृत हुई हैं। इसके बगेर चित्त की तैयारी नहीं होती। इसीलिए के पवित्र आश्वल में होगी यही दीख रहा है। इस माया से इरने के बजाय उसे पहचानिए तब वही आपका मार्ग प्रकाशित करेगी। जसे सूर्य को विदेशों में इसका प्रसार होगा। बादल ढक देते है और उसके दर्शन भीकरा सकते हैं । माया मिथ्या है यह जानते ही वह अलग हट जाती तब मैने गिने-चुने २०, २५ लोगों को बुलाकर सब है औ्र सूर्य का दर्शन होता है । मूर्य तो सदासर्वदा रूपरेखा वनायी। है ही परन्तु वादल का काम ब्या होता है ? वादलों की बजह से हो मत में सूर्य-दर्शन की तीव्र इच्छा पैदा होती है। फिर सूर्य क्षणभर के लिए चमकता है और छिप जाता है। इस कारण अँखों को आपकी चिट्टियाँ आती हैं तब मैं अगला कार्य- इस कार्य की बढ़ोत्तरी भारत-भूमि आगे यह कार्य जोर पकड़ने पर सारे देश- लन्दन में आज ५ मई को सहस्रार दिन मनाया । सबको अनेकानेक आशीर्वाद और [अनन्त प्रेम । सदैव आपकी माँ, निमंला Edited & Published by Sh. S. C. Rai, 43, Bunglow Road, Delhi-110007 and Printed at Ratnadeep Press, Darya Gani, New Delhi-110002. One Issue Rs. 5.00, Annual Subscription Rs. 20.00 Foreign [ By Airmail E4 S81