(ও ॐ fनिर्मला योग द्विमासिक नवम्बर-दिसम्बर 1983 वष २ अके १० ह ॐ र्व मेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात, श्री सहस्त्रार स्वामिती मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निमंला देवी नमो नमः ॥ पी प भा पक परम वन्दनीय माताजी श्री निर्मला देवी जो के संयुक्त राज्य ग्रमेरिका की यात्रा (१६८१) के सम्बन्ध में डा० वारेन के संक्षिप्त पत्र का हिन्दी रूपान्तर बातों से (शरीरस्थ) देवतागरण इतने अधिक] कृषित हये कि वस्दनीय माताजी के चक्र इतने अनतोगत्वा स्नेह युक्त माताजी संयुक्त राज्य कुछ अ्मेरिक के दौरे पर मानव कल्यारार्थं विमानारूढ हुई। विमान यात्रा में माता जी के सात्निध्य में जो सक्रिय हो गये कि उनसे (कोप को) सहन करना प्रेरणा प्राप्त हुई वही कुछ शब्दों में प्रापके सम्मुख दुषकर हो गया। जब मानव समुदाय अ्रपने स्वयं है- को अथवा अन्य दूसरे व्यक्तियों को हानि पहुँचाने का दूरतिक्रम करते हैं अथवा अपनी सामर्थ्यं की प्रस्तुत भविष्य के गर्भ में जो कुछ भी छिपा है वह वरिधि के बाहर कार्य करने की चेष्टा ही नहीं अधिकतर वहाँ के निवासी भक्त मण्डली की आ- ध्यात्मिक क्षुधा एवं जिज्ञासा पर निभर करता है कि वे कहाँ तक अपने ओपको इस योग्य प्रदशितकेसे विभित्न उदाहर ण देखे हैं कि जब मानव अपनी बरन दुःसाहस भी करते हैं तो देवतागरण लोगों से परावृत हो जाते हैं। मैंने स्वयं बरिटेन में बहुत-से करते हैं। एक ओर तो माता जी का कथन है कि वे अपने अवतरण की अमेरिका में सार्वजनिक से घोषणा करंगी। दूसरी ओर उनको इस बात की आर्मा के अरथवा ईश्वर के विरुद्ध कार्य करते हैं । प यह कुछ श्रच्छी बात प्रतीत नहीं होती है। माता भी चिन्ता है कि (सम्भव है) बहत से इस अवसर जी का कथन हैं कि ऐसी ही तत्सम घटनाएं आस्ट्रोलिया में भी (अन्य देशों की तरह) घटित को चूक जायेंगे क्योंकि वहाँ के निवासी प्रहंका र ग्रस्त है और उनके मन पर अशुद्ध ज्ञान एवं पाखण्डी हुई है। ऐसे समुदाय एवं वर्ग विशेष को यथा गुरुआों का प्रभाव काफ़ी जमा हुआाहै। अमेरिका सम्मत हल्की-सी चेतावनी भी दी गई थी, सावधान विश्व भर का विशुद्धि चक्र है और यहीं से अहंकार भी कराया जा चुका है कि पुनररावृत्ति न हो । का आारम्भ माना जाता है। हमें प्रा्थना करनी चाहिये कि यह अशुद्ध ज्ञान निर्मला विद्या में परि- वर्तित हो जाये र अ्रहं ( ego) स्वयं इस तथ्य जब परम वरेण्यम माता जी का शुभागमन अ्रमेरिका में होगा तो विश्व भर के पार व्यक्ति को स्वीकार करे कि अ्रव तक का अजित समस्त (realised souls) की सामूहिक प्रकृति एवं प्रवृत्ति का विकास होगा और सुदृढ़ रहेगा। वे सब जो इस तथ्य को स्वीकार नहीं करेंगे और अपने ज्ञान उपयोगी नहीं हैं। बास्तव में यह ज्ञान आत्म साक्षात्कार के मार्ग को सोमित करता है श्रतः पुराने स्वार्थी व्यक्तिगत (कुत्सित) विचारों, कार्य- कलाप एवं बोधता (feelings) में निमग्न रहेंगे वे आध्यात्मिकता के स्तर से गिर जायेंगे। सामूहिक यात्रा में अधिकाधिक पार हो। उनका अनन्त स्नेह प्रकृति (collective being) के साथ विकास का अलभ्य पारितोषिक आत्म साक्षात्कार की स्थिरता गतयवरोध की सम्भावना प्रबल हो जाती है। परन्तु माता जी की प्रबल इच्छा है कि इस एवं कृपा यथा पूर्व से भी अ्रधिक मात्रा में उसड पड़ रहा है । अभी थोड़े दिन व्यतीत ह ये कि विटेन में के रूप में प्राप्त होना निश्चय है। सबके सब अ्रधिका- शेष कबर पृष्ठ ३ पर) सम्पादकोय कृष्णेन संस्तुते देवी शश्वभ्यवत्या सदाम्बिके । रूपं देहि जयंदेहि यशोदेहि द्विषो जहि ॥ श्री दुर्गासप्तशती "देवि अम्बिके ! भगवान् विष्णु नित्प निरन्तर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, वश दो, काम क्रोध प्रादि शत्र मों का नाश करो" । ५ आाज हम साक्षात् परवरह्म परमेश्व री श्री माता जी से प्रार्थना करते हैं कि हमें वह दें कि हम उनके दर्शाए मार्ग पर समस्त विश्व को लाने में सक्षम हो सके । शक्ति निर्मला योग १ निर्मला योग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली-११०००७ संस्थापक : परम पूज्य माता जी थ्री निर्मला देवी : डॉ. शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र श्री आर. डी. कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा :लोरी टोडरिक श्रीमती क्िस्टाइन पैटू नीया २२५, अदम्स स्ट्रीट, १/ई. ब्रूकलिन, न्यूयाक-११२०१ यू.एस.ए. ४५४८ बुडग्रीन ड्राइव बैस्ट बैन्कूवर, बी.सी. बी. ७ एस. २ वी १ यू.के. श्री गेविन बाउन भारत श्री एम० बो० रत्नान्नवर ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़मॅंशन १३. मेरवान मेन्सन सर्विसेज़ लि., गंजवाला लेन, बोरीवली (पश्चिमी) बम्बई-४०००६२ श्री राजाराम शंकर रजवाड़े ८४०, सदाशिव पेठ, पुर्णे-४११०३० १६० नार्थ गावर स्ट्रीट लन्दन एन.डब्लू. १२ एन.डी. पष्ठ इस अंक में : .। १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. परमपूज्य माताजी का प्रवचन ४. परमपूज्य ५. परम वन्दनीय माताजी के संयूक्त राज्य अमेरिका की यात्रा (१६८१) के सम्बन्ध में डॉ० वारेन के सक्षिप्त पत्र का हिन्दी रूपान्तर ६. सहजयोगी की चाह ७. सन् १६८४ में माताजी का दिल्ली में कार्यक्रम १ २ माताजी का सार्वजनिक भाषण ११ द्वितीय कवर चतुर्थ कवर चतुर्थं कवर निर्मला योग श्री गणेशाय नमः परमपूज्य श्री माताजी का प्रवचन सहत्रार दिवस, ५ मई १६८३ गोरई क्रीक, बम्बई पप सबकी ओोर से मैं बम्बई के तो भी अपने अन्दर आप जानते है सात चक्र हैं, एक सह जयोगी व्यवस्थापक जिन्होंने साथ अपने आप । उसके अलावा और दो चक्र जो यह इन्तजामात किये हैं. उनके हैं, उसके बारे में अप लोग बातचीत ज्यादा नहीं श्रर मेरी करते वो हैं 'चन्द्र का चक्र और 'सूर्य का चक्र लिये धन्यवाद देती हैं. । तरफ़ से भी मैं अनेक धन्यवाद फिर एक हम्सा चक्र है. इस प्रकार तीन चक्र श्रीर देती हैं। उन्होंने बहुत सुन्दर जगह आ गए। तो, सात रौर तीन-दस । उसके ऊपर हम लोगों के लिये हूंढ़ रखी है । ये भी एक और चार चक्र हैं। सहस्रार से ऊपर अर चार चक्र परमात्मा की देन है कि इस बक्त जिस चीज़ के हैं। और उन चक्रों के ब। रे में भी मैंने आप से बारे में बोलने बाली थी, उन्हीं पेड़ों के नीचे बैठकर बत्ताया था- अर्थ-विन्दु, विन्दु, वलय और प्रदक्षिणा ऐसे चार चक्र हैं। सहजयोग के बाद भी, जब कि सहस्रार खुल गया है, उस पर भी ये चार चक्रों में चौदह वर्ष पूर्व कहना चाहिये या जिसे तेरहै आापको जाना है-अ्र्धविन्दु, बिन्दु वलय श्रर वर्ष हो गए और अ्रब चौदहवो वर्ष चल पड़ा है। यह प्रदक्षिणा । इन चार चक्रों के बाद कह सकते हैं कि सहस्रार की बात हो रही है। महान् कार्य संसार में हुआ था, जबकि सहस्रार खोला गया। हर सहस्रार दिन पर बताया हुआ है कि क्या हुआ था, किस हैम लोग सहजयोगी हो गए। इसके बारे में मैंने अनेक बार आपसे और दूसरी तरह से भी आप देखें, तो हमारे अन्दर चौदह स्थितियाँ, सहस्रार तक पहुँचने पर भी हैं। अगर उसको विभाजित किया जाए तो सात तरह से ये घटना हुई, क्यों की गई और इसका महात्म्य क्या है । ले किन चौदहरवा जन्म दिन एक बहुत ब डी चीज चक्र अगर इडा नाड़ी पर और सात पिगला नाडी है। क्योंकि मनुष्य चौदह स्तर पर रहता है, और पर है। जिस दिन चौदह स्तर को लांघ जाता है3 तो वो फिर पूरी तरह से सहजयोगी हो जाता है । इसलिये आज सहजयोग भी सहजयोगी हो ग या । मनुष्य जब चढ़ता है, तो वो सोधे नहीं चढ़ता । बो पहले left (बाये) में आता है, फिर right (दायें) में जाता है. फिर left में अाता है, फिर अपने अन्दर इस प्रकार परमात्मा ने चौदह right है जाता है । और कुण्डलिनी जो है, वो भी स्तर बनाए हैं। अगर अप गिनिये, सीधे तरीके से, जब चढ़ती है तो इन दोनों में विभाजित होती हुई निर्मला योग ३ पड़ेगा। चढ़ती है । इसकी वजह ये है कि मैं अरापको अगर राजना, समझाऊँ कि दो रस्सी और दोनों रस्सियाँ इस पहले भी मैंने बहुत कहे हैं लेकिन आज के प्रकार नीचे उतरते वक्त या ऊपर चढ़ते वकत भी दिन विशेषकर के, हम लोगों को समझना चाहिए दो अवगुण्ठन लेतो हैं। जब दो अवगुण्ठन लेती हैं, कि सहस्रार के दिन राजना क्या है, विराजना तो उसके left और right इस प्रकार से पहले क्या है। left और फिर right, दोनों के अवगुण्ठन होने से, फिर right वाली ।ight को आ जाता है। eft गे पेड़ श्रीफल का है। नारियल को श्रीफल कहा वाली left को चली जाती है । बिराजना-ये शब्द आपके सामने अब आप यहाँ बेठे हैं, ये पेड़ों को आप देखिये । जाता है । नारियल को थीफल कहा जाता है । थरी फल, जो नारियल है, इसके बारे में आपने कभी लेकिन बड़े सोचने की आप अगर इसको देखें, तो मैं ग्रापको दिखा सकती है। समझ लीजिये इस तरह से आया । अब सोचा या नहीं, पता नहीं । इसने एक चक्कर लिया, और दूसरे चक्तकर लेने में चीज़ है-'इसे श्रीफल क्यों कहते हैं ?' फिर आ गई इसी तरफ़ । इस तरफ़ से आया, इस ने एक चककर लिया, फिर दूसरा चक्कर लिया, फिर इस तरफ़ । इस प्रकार दो रवगू०उन उसमें तही। सबसे अच्छा जो ये फल होता है, समृद्र के होते जाते हैं। इसलिये आपकी जव कुण्डलिनी चढ़ती है, तो चक्र पर आपको दिखाई देता है, कि left पकड़ा है या right, क्योंकि कुण्डलिनी तो एक है। फिर आपको एक ही चक्र पर दोनों चीज दिखाई देती हैं। इस प्रकार आप देखें कि left सफ़ा ई, गन्दगी हर चोज इसमें होती है । ये पानी पकड़ा है यो right पकड़ा है । ये समुद्र के किनारे होता है, और कहीं होता किनारे । वजह ये है कि समुद्र जो है, ये घर्म है । जहाँ धर्म होगा, वहीं श्रीफल फलता है। जहां धर्म ले किन नहीं होगा, वहाँ श्रीफल नहीं होगा । समुद्र के अन्दर 'सभी' चीज़ं बसी रहती हैं। हर तरह की भी 'नमक से भरा होता है। इसमें नमक होता है । ईसा मसीह ने कहा था कि 'तुम संसार के नमक हो। तो इस प्रकार हमारे अन्दर left प्र right, माने हर चीज में शराप घुस सकते हो, 'हर चीज़' में अ गर दोनों का विभाजन किया जाए, एक चक्र का, आप स्वाद दे सकते हो। नमक हो-नमक के बरगर तो सात दूनी चोदह स्थितियाँ तो पहले ही cross (पार) करनी पडती अन्दर लेते हैं, श्रगर हमारे अन्दर नमक न हो तो हैं, जब प्राप सहस्रार तक पहुँचते हैं । और अगर वो प्राण-शक्ति भी कुछ कार्यं नहीं कर सकती । ये इसको आप समझ लें कि सात ये, और उपर के catalyst (कार्य-साधक) है । और ये नमक जो है, सात-इस तरह भी तो चौदह का एक मार्ग बना । ये हमें जीने का, संसार में रहुने का, प्रपत्च में रहने । वैसे ही हमारे अन्दर चौदह इन्सान जी नहीं सकता। जो हम ये प्राण-शक्ति की पूर्ण व्यवस्था नमक करती है । अगर मनुष्य में में इसलिये, 'चौदह चीज़ जो हैं वो कुण्ड लिनी नमक न हो, तो वो किसी काम का इन्सान नहीं । शास्त्र में बहुत महत्त्वपूर्ण, बहुत महत्त्पूर्ण हैं । लेकिन परमात्मा की तरफ जब ये चीज़ उठती है, बहुत महत्त्वपूर्ण चीज है । और जब तक हम इस तो वो सब नमक को नीचे ही छोड़ देती है-'सब' चीज़ को पूरी तरह से न समझ लें, कि इन चौदह चीज छूट जाती हैं। औ्र जब इन पेड़ों पर सूर्य की चीजों से जब हम परे उठेंगे, तभी हम सहजयोग के रोशनी पड़ती है श्रौर, सूरयं की रोशनी पडने पर पूरी तरह से प्रधिकारी हैं । हमको आांगे बढ़ते ही जब इसके पत्तों का रस और सारे पेड़ का रस, रहना चाहिए औोर उसमें पूरी तरह से रजते रहना ऊपर की ओर खिच आता है-क्योंकि evapora- निरमला योग ४ tion होता (भाप बनता) है; तब इसमें से जो, इस है जो हमारा brain (मस्तिष्क) है, ये हमारी सारी उत्क्रान्ति का फल हैं । अज तक जितना , हमारा evolution (उत्रान्ति) हुआा है - जो amoeba (एक कोशिकीय जन्तु) से आज हम इन्सान बने हैं, वो सब हमने इस brain के फल स्वरूप पाया है यै जो brain है, ये सव कुछ- जरूर देना होता है श्रीफल दिये बर्गेर पूजा सम्पन्न जो कूछ हमने पाया है इस brain से । इसी में सब नहीं होती । श्रीफल भी एक अजीब तरह से बना तरह की शक्तियाँ, सब तरह का इसी में सब पाया तना में से जो यही पानो ऊपर बहुता है-वो सब कुछ छोड़कर के, उन चौदह चीजों को लॉघ करके ऊपर जाकर के, श्रीफल बनता है। वही श्रीफल प्राप हैं। और देवी को थीफल हुआ्रा है। दुनिया में ऐसा कोई सा भी फल नहीं, जसे श्रीफल है । उसका कोई-सा भी हिस्सा वेकार नहीं जाता। इसका एक-एक हिस्सा इस्तेमाल होता है। इसके पत्तों से लेकर हर चीज इस्तेमाल होती हैं और उसका जो प्रकाश हम रे नर सहजयोग है और धोफल का भी - हरएक चीज़ इस्तेमाल के बाद सात परतों में फैलता है, दोनों तरफ़ से वो होती है । हदा धन संब्चित है । अब इस हृदय के अन्दर जो आत्मा विराजती तभी हो सकता है. जब ग्रादमी का सहखार खुला हो। अभी तक हम इस दिमाग से वो ही काम करते 1 प्रा देखे] कि श्रीोफल भी मनुष्य के सहस्रार हैं। आत्म-साक्षािकार से पहले, सिवाय इसके कि हम जैसा है । जसे बाल अपने हैं, इस तरह से श्रीफल अहड्कार और के भी बाल हैं। यही श्रीफल है इसमें बाल होते दोनों के माध्यम से जो कार्य करना है, वो करते हैं। हैं ऊर में, इसके protection (रक्षा) के लिये। मृत्यु से protection हमें बालों से मिलता है । इस अर अहङ्गार - इन दोनों के सहारे हम सारे कार्य लिये बालों का बड़ा महान् मान किया गया है- करते हैं। लेकिन realization (साक्षात्कार ) के Super-ego (प्रति-अ्रहकार) इन अहङ्कार और प्रतिअ्रहङ्कार, या आप कहिये मन' ब।ल वहुत महान् है, ग्रौर बड़ी शक्तिशाली चीज़ क्योंकि आ्रापको protect करते हैं । इनसे आपकी realization से पहले, हृदय में ही विराजमान है, रक्षा होती है। औीर इसके अन्दर जो हमारे जो cranial bones हैं, जो होड्डियो हैं, वा भी आप वाला । उसका काम, वो जसा भी हैं, देखने का देखते हैं कि श्रीफल के अन्दर में वहत कड़ा-सा इस तरह का एक ऊपर से आवरण होती है । उसके हैं बाद हम आत्मा के सहारे कार्य करते हैं। आत्मा, श्रलग-क्षेत्रज्ञ बना हुआ देखते रहने विल्कुल मात्र-वो करता भहता है लेकिन उसका प्रकाश हमारे चित्त में नहीं है, वो हमसे अलग है, वो हमारे चित्त में नहीं है । वाद हमारे अन्दर grey matter ओर white matter ऐसी दो चीजें हमारे अन्दर होती हैं। श्री- फल में भी आप देख-white matter प्र Realization के बाद तो हमारे चित्त में आ matter.........प्रर उसके अन्दर पानी होता है, जाता है, पहले। पहले चित्त में [श्राता है । और चित्त आप जानते हैं कि void (भवसागर ) मे बसा है । उसके अन्दर भी पानी होता है-वो limbic area उसके बाद उसका प्रकाश सत्य में अ जाता है, क्योंकि हमारा जो मस्तिष्क है, उसमें प्रकाश ्ा जाने से हम सत्य को जानते हैं । जानते-माते ये तो ये साक्षात् श्रीफल जो है, ये ही हमारा- नहीं कि वृद्धि से जानते हैं, पर साक्षात् में जानते हैं गर इनके लिये ये फल है, तो हमारे लिये ये फल कि ये है 'सत्य' । उस के बाद उसका प्रकाश हृदय grey जो हमारे में cerebrospinal fluid होता है होता है। निमंला योग ५. में दिखाई देता है हृदय प्रगाढ-हृदय बढ़ने लग और अहङ्गार' दोनों का लय हो जाता है । लेकिन जाता है, विश्ाल' होने लगता है, उसकी आनन्द ऐसे बात करने से तो किसी की समझ ही में नहीं की शक्ति बढ़ने लगती हैं। इसलिये 'सच्चिदानन्द- आयेगा, 'इसका लय कैसे होगा ?' मन और चित्त और आनन्द-सत् मस्तिक में, चत् हमारे अहङ्कार का। तो, वो मन के पीछे लगे रहते हैं, ९ सतु, धर्म में र आनन्द हमारी आ्मा में- प्रकाशित अहड्गकार के पीछे स्लगे रहते हैं अहङ्कार को मारते होने लगता है। उसका प्रकाश पहले धीरे-धीरे रहो, तो मन बढ़ जाता है; मन को मारते रहो तो फेलता है, ये आप सव जानते हैं। उसका प्रकाश अहड्कार बढ़ जाता है। उनके समझ ही में नहीं आता, धीरे-धी रे सूक्ष्म क्योंकि हम जिस स्थूल व्यवस्था में रहते हैं, उस मन और अहंकार को किस तरह से जोता जाए ? बढ़ता है, सूक्ष्म चीज़ होती है. पहले बहुत कि ये पागलपन क्या हैं । ये किस तरह से जाए ? व्यवस्था में उस सूक्ष्म को पकड़ना कठिन हो जाता है। धीरे-धीरे वो पकड़ अ जाती है। उसके बाद आप बढ़ने लग जाते हैं, अग्रसर होते हैं। सहस्रार का चक्र पर काम करने से मज और अहङ्कार एक पर्दा खुलने से ही कुण्डलिनी ऊपर आ जाती है उसका पूरी तरह से लय हो जाता है । और वो लय लेकिन उसका प्रकाश चारों तरफ़ जब तक नहीं होते ही हृदय और ये जो brain है, इनमें पूरा फैलेगा। सिर्फ' ऊपर कुण्डलिनी आ जाने से आप सामञ्जस्य पहले आ जाता हैं-concord । ने सदाशिव के पीठ को नमस्कार कर दिया । आ्रप लेकिन एकता नहीं [आरती । 'इस एकता को ही, हम के अन्दर की आत्मा का प्रकाश घघला-धुधला को पाना है। तो आ्पका जो हृदय है, वही सहस्रार बहने लगा, लेकिन अभी इस मस्तिषक में वो पूरा हो जाता है, और आ्पका जो सहस्रार हैं, वही खिला नहीं । उसका एक ही द्वार है-'आज्ञा-चक्र । आज्ञा- जो हैं, हृदय । जो आप सोचते हैं, वही आपके हृदय में है, में हैं, वही आप सोचते ऐसी जब गति हो जाए तो कोई भी तरह की अब आश्चर्य की बात है कि आप अगर मस्तणक और जो कुछ श्रापके हृदय से इसको फैलाना चाहें तो नहीं फेला सकते । अपना मस्तिष्क और अपना हृदय-इसका अव बड़ा श्रशङ्का कोई भी तरह का अविश्वास, किसी भी सन्तुलन दिखाना होगा। आपको तो पता ही है, कि तरह का भय, कोई-सी भी चीज़ नहीं रहती। जब आप अपने बुद्धि से बहुत ज्यादा काम करते हैं, तो heart-failure (हृदय-गति रुकना ) हो जाता है । और जब आप heart (हृदय) से बहुत ज्यादा काम करते हैं, तो आपका brain (मस्तिष्क) फेल भय करने की कोई बात नहीं। देखो तो बेकार हो जाता है। इनका एक सम्बन्ध ब ना ही हुआ है, चीज को डर रहे थे; 'ये देखो, प्रकाश लेकर । फिर पहले से बना हुआ है। बहुत गहन सम्बन्ध है। और वी श्रपनी बुद्धि से तो समझ लेता है, पर फिर उस गहन सम्बन्ध की वजह से, जिस बवत आप पार हो जाते हैं, इसका सम्बन्ध और भी गहन होना पड़ता है। हृरदय प्रोर इस brain ( मस्तिष्क) का सम्बन्ध बहुत ही घना होना चाहिये। जिस बक्त ये पूरा integrate (एक) हो जाता है, तव चित आपका जो है, पूर्णतया परमेश्वर-स्वरूप हो जाता है । आपके हैं। जैसे आदमी को भय लगता है, तो उसे क्या करते हैं ? उसे brain से सिखाते हैं, देखो भाई, तुम डरता है। ले किन जब दोनों चीज एक हो जाती हैं-प्रप इस बात को समझने की कोशिश कीजि ये-कि जिस मस्तिष्क से आप सोचते हैं, जो आप के मन को समझाता है और सम्भालता है, वही आपका मन अगर हो जाए; यानि, समझ लीजिये कि ऐसा कोई instrument (यन्त्र) हो कि जिसमें accelerator ऐसा ही कहा जाता है हठ योग में भी कि 'मन निर्मला योग ६ whe (गति बढ़ाने वाला) और brake (रोकने वाला), आप जान लेंगे कि 'नज़र पपनी हमेशा ऊँची रखें। दोनों automatic (स्वचालित) हों, और दोनों प्रगर कोई भी सीढ़ो पर पराप खड़े हैं, ले किन आप एक' हों-जब चाहे तो वो brake बन जाए. और को नजर ऊँचो है, तो वो आ्दमी उस' आदमी से जब चाहे तो वो accelerator हो जाए -और बो ऊँचा है 'जो ऊपर ख ड़े होकर भी नजर नीची सब जानता है । रखता है। इसीलिये कभी-कभी बड़े पुराने सहज ऐसी जब दशा आर जाए, तो आप पुरे गुरु । लोग बताते गये ऐसी दशा हमको आानी चाहिये । अभी तक श्प लोग काफ़ी उन्न ति कर गए हैं, स्तर पर पहेँच गए हैं। जरूर अव आपको कहना चाहिए कि अब आप श्रीफल हो गये हैं । लेकिन मैं हमेशा आगे की बात इसलिये करती है कि इस पेड़ नेजर हमेशा उपर रखनी चाहिए । अब इसे भी पर प्रमर चढ़ना हो, तो क्या आपन दता है. कि किस तरह से लोग चढ़ते हैं ? अगर एक मादमो को चढ़ाकर देखिये तो आप समझ जाएंगे कि वो एक डोर बौँध लेता है जारों तरफ़ से अपने, अरर उस है न तो हम श्रीफल बन सकते हैं। योगो भी 'घक से नीचे चले आते हैं हो है कि 'माँ ये तो बड़े पुराने सहजयोगी थे । इतने साल से आपके साथ रहे, ये किया, वी किया-पर नजर तो उनकी हमेदा नीचे रही ! तो में क्या कह अगर जर नीचे रखी तो वो चले प्राये] नीचे | काफ़ी ऊँचे काँ म नजर ऊपर है। इन सबकी नजर ऊपर है, क्यो कि बर्गर नजर ऊपर किये हुए वो जानते है कि न हम सूर्य नो पा सकत हैं, न ही ये कार्य हो सकता डोर को ऊपर फेसाते जाता है। वो डोर जब ऊपर फेस जाता है, तो उस पर वो चढ़ता है । इसी तरह से अ्पनी डोर को ऊँची फेसाते जाना है। और यही बृक्ष को बहुत समझना चाहिये। सहजयोग श्राप वृक्ष से बहुत अच्छे से देखना चाहिये ग्और जब आप सोख लगे, तभी आपका चढना वहत अच्छे से सोख सकत हैं। बड़ा भारी ये आरापके लिये जल्दी हो सकेगा। गुरू है । जैसे कि जब हम वृक्ष की ओर देखते हैं, तो पहले देखना चाहिये कि ये अपनी जड़ों को कसे पर ज्यादातर हम डोर को नीचे हो फसति वैता है। पहले अपनी जड़ को ये सम्भाल लेता है रहते हैं । सहजयोग में जाने के बाद भी डोर हम शर जड़ को सम्भालने के लिये ये क्या करता है। नीचे की तरफ़ फॅसाते हैं, श्रर कहते हैं कि 'माँ हमारी तो कोई प्रगति नहीं हुई। आव होगी कसे? चित्त है--"इसमें ये घूसा चला जाता है और उसी जब तुम डोर ही उल्टी तरफ फॅसा कर नी चे उतरने चित्त से वो खींचता है, उस सर्वव्यापी शक्ति को । की व्यवस्था करते हो। जिस वत नेचि उतरता है, ये तो उल्टा पेड है, ऐसा कहिये तो ठीक है। उस तो फिर डोर को फैसाने की भी जारूरत नहीं आप सवेध्यापी शक्ति को ये जड खींचने लग जाता है, जरा-सी ढील दे दीजिये, ढर-ढर-इर अराप नैचि उले पीर इसको खींचने के बाद में आरिविर उसको खींच आएँगे वह तो इन्तजाम से बना हुआा है- नीचे आाने का । ऊपर चढ़ने का इन्तजाम बनाना पडती है और इसी प्रकार वो श्रीफल बना हुआ है । है । तो कुछ बनने के लिए मेहनत करनी पड़ती है । श्रर जो पाया है, उसे खोने के लिये कोई मेहनत की जरूरत नहीं-आप सीधे चले [आाइये] जमीन को अत्यन्त प्रिय है और इसी सहस्रार को समर्पण पर; उसमें कोई तो प्रश्न खड़ा नहीं होता। जड़ में धुसा जाता है । ये हमरा धर्म है, ये हमारा कर करना क्या है ? फिर उसकी नजर ऊपर जाती ँ आपका सहस्रार भी इसो श्रीफल जैसा है। मा करना चाहिये । अनेक लोगों ने कल मुझसे कहा कि माँ, हाथ में तो ठण्डा आता है, प र में भी ठण्डा इसको अगर आप समझ ले, इस बात को, तो आता है, पर यहां नहीं आता ।' वहाँ कौन बैठा निमंला योग हुआ है ? बस इसको जान लेना चाहिये, यहाँ से ठण्डक आ जाएगी। इसी प्रकार आप लोग के भी श्रीफल हैं, उसको पूरी तरह से परिपक्व, उसको परिपकव करने का पा. एक ही तरीक़ा है कि अपने हृदय से सामञ्जस्य से एकाकार होने की चौज़ है। हृदय औ्र वहाँ जो बैठे हुए हैं, वो सारे ही चीजो का वनायें । हृदय फूल हैं। इस पेड़ की जो नीचे गढ़ी हुई जड़े हैं, व में और मुस्तिषक में कोई भी अन्तर तहीं है । हृदय भी उसी से जन्मी हैं। इसकी जो तना हैं, जो मेहनत है, इसका जो evolution (उत्क्रान्ति) कारते हैं। दोनों चीजें जब एकाकार हो जायेगी है, यह 'सब कुछ अन्त में जाकर के वी फल बना। तभी आपको पूरा लाभ होगा। उस फल में सब कुँछ निहित है। फिर से आप उस फल को जमीन में डाल दीजिये, फिर से बही सारी चीज निकल परायेगी । "वो सबका अ्र्थ यही है; बो बड़ी secret (रहस्यमयी) बात है । उनकी समझ सबका अन्त वही है। सारे संसार में जो कूछ भी में नहीं आने वाली- क्योंकि उनका जीवन ही रोज आज तक परमात्मा का कार्य हुआ है, जो भी उन्हों मर्रा का उसी level (स्तर) का है । उस पर बो ने कार्य किया है, उसका सारा समग्र-स्व रूप, फल- चलते हैं। लेकिन आपका level अलग है आप अपने स्वरूप आज का हमारा यह महायोग है । [और 1evel से रहिये । दूसरों की ओर अधिकतर जब उसकी स्वामिनी कौन हैं ? आप जानते हैं । तो ऐसे शुभ अवसर में आकर के आपने ये प्राप्त किया है, क्या हैं, इनका क्या होने वाला है। यह कहाँ जायगे सौ धन्य समझना चाहिए और इस श्रीफल स्वरूप इनकी समझ में न हीं आता, इनकी गति ही क्या है? होकर के और सम्र्पित होना चाहिये। इसकी मे इच्छा करते हैं और मस्तिषक से उसकी पूर्ति अब सवसाधारण लोगों के लिये सहजयोग एक आप देखते हैं तो दया-दृष्टि से, क्योंकि यह वेचारे यह कौन-से मार्ग में पहुँचने वाले हैं ? इसको समझ करके और आप लोग यह समझे कि इनको अगर पेड़ से तभी फल हटाया जाता है जब वी परि- समझाने से समझ आ जाये सहजयोग, तो बहुत पक्व होता है, अच्छा है-समझाया जाए। ले किन अग र यह लोग बो माँ को नहीं दिया जाता। इसलिये परिपक्वता पुरवाह न करें तो इनके आागे सर फोड़ने से कोई आनी चाहिये । बचपना छोड़ देना चाहिए। जब तक बचपना रहेगा, आप पेड़ से चिपके रहेंगे । लेकिन समर्पण के लिये पेड़़ पर चिपका हुआ फल किस काम का ? उस पेड़ से हटाकर के जो अगर वो समर्पित हो तभी माना जाता है कि पूजा सम्पन्न हुई। इसलिये सहजयोग को समझने के लिये एक हुआ है औ्ौर उसी उँचे स्तर पर इसे रखें और उसी बड़ा भारी आपके सामने प्रतीक रूप से स्वयं साक्षात् सम्पन्न अद्मुत स्थ ति को प्राप्त होने पर ही आप श्रीफल ही खड़ा हुआ है यह बड़ी मेहरबानी अपने को धन्य समझ सकते हैं । इसलिये हमको हो गई कि आज यहाँ पर हम लोग सव एकत्रित व्यर्थ चीज़ों के लिये अपनी खोपड़ी फाइ़ने की कोई हुए और इस महान् समारोह में इन सब पेड़ों ने जरूरत नहीं । किसी से argue (बहस) करने की भी हमारा साथ दिया है। यह भी सारी बातों से ज़रूरत नहीं। पर पअपनी स्थिति को बनाये रखना नादित, यह भी स्पन्दित और यह भी सुन रहे हैं; चाहिए । नोचे उतरना नहीं चाहिए । जब तक यह उसी ताल पर यह भी नाच रहे हैं। यह भी समझ रहैं हैं कि बात क्या है । नहीं तो बेकार है । पकने से पहले फ़ायदा नहीं । अपने श्रीफल को फ़ोड़ने से कोई फ़ायदा नहीं। इसको बचाकर रख । इसका कार्य ऊँचा है । बहुत ना इसको बड़ी ऊँची चीज के लिये आपने पाया नहीं होगा तब तक सहजयोग का पूरा-पूरा आप में जो कुछ समर्पण पाना था वो नहीं पाया। जो निर्मला योग LF कुछ अ्पनाना था, वो नहीं पाया। जो कुछ growih ग्रागे बढ़ाना चाहिये। कितनी भी रुकावटे गराये, (वृद्धि) थी वो नहीं पाई। जो आपकी पूरी तरह घर बाले हैं amily वाले हैं, ये हैं, बो हैं, तमाशे से सरदारगीरी पूरी उ्नति होने की थी, वो नहीं हैं, इनका कोई मतलब नहीं। ये सब प्रापके हो उके हुई और आप गलतफहमी में फंस गये। इसलिये हजार बार । इस ज न्म में आपको पाने का है और किसी भी मिथ्या चीज़ पर आप यह न सोच कि हम आपके पाने से और लोग पा गये तो उनका धन्य कोई बड़े भारी सहजयोगी हो गये या कुछ हो गये। है, उनकी भाग्य है। नही पा गये तो क्या स्राप क्या जब आप बहुत बड़े हो जात हैं तो आप भुक् जाते उनको अपने हाथ से पकड़कर ऊपर ले जाओगे ? यह तो ऐसा हो गया कि आप समूद्र में जाय और अपने पेर में बडे-बड़े पत्थर जोड़ लें और कहें कि देखिये, इन तीन पेड़ों की योर, हवा उल्टी समुद्र, देखो, मुझे तो तैराकर ले जाओ ।' समुद्र तरफ़ बह रही है। वास्तव में तो पेड़ो को इस तरफ कुहेगा कि भई ! ये पत्थ र तो छोड़ो पहले पैर के, झक जाना चाहिये जवकि हवा इस तरप् बह स्ही नहीं तो केसे ले जाऊंगा, मैं ? पैर में बड़े-बड़े पप है। लेकिन पेड़ किस तरफ़ भुके जा रहे हैं ? आप ने लोट वाँघ दिये तो उनको कटवा ही देना लोगों ने कभी mark किया है कि सारे पेड़ों की अच्छा है अर नहीं कटबा सकते तो कम से-कम ये हैं, आप झुक जाते हैं। दिशा उधर है । वयों ? वहाँ से तो हवा ग्राकरक करो कि उनसे परे रहो। इस तरह की चीज़़े जो-जो उसको घकेले जा रही है फ़िर तो भी पेड़ उसी प्रापने पैर में बाँध रखी हैं, उसे एकदम तोड़-ताड़ तर क्यों भुक रहे हैं ? श्रर अगर हं ये हवा न चले तो न जाने और कितने ये लोग भुक जायें । कर ऊपर उठ जाओ । कहना, 'जाइये, पको जो क्योकि करना है करिये लेकित हम से कोई मतलब नहीं ये जानते हैं कि सबको देने वाला "वो" है उसके क्योंकि और ऐसे ही कितनी बाधायें हैं अऔर यह प्रति नतमस्तक होकर के बो झुक रहे हैं और 'वो फ़ालतू की बाधायें लगा लेने से कोई फ़ायदा नहीं। देने वाला जो है, वो है "धरम । हमारे अन्दर जो जिस तर ह से ये पेड़ देखिये, इतना भारी फल घम है जब बो पूरी तरह से जागृत होगा, पूरा तस्ह मको उद्या लेते हैं-ऊपर। कितना भारी होता से कार्यान्वित होगा, तभी हमारे अन्दर के श्रीफ उसका इतने मीठे, सुन्दर और पौष्टिक होंगे। फिर तो आपके जीवत से हो संसार आपको जानेगा और की उसने ऊपर उठाया है। इसी प्रकार पपको भी किसी चीज़ से नहीं जानेंगा, अ्राप लोग कसे हैं । है यह फल, इसके अन्दर पानी होता है। इस फल इस सर को उना है। और इस सर को उठाते वक्त ये याद रसना चाहिए कि स र को नत मस्तक अब चौदह वार आप इसका जन्मदिन इस होना चाहिये, समुद्र की ओर 1 समुद्र जो है, ये धर्म सहस्रार का मना रहे हैं । ओर न जाने कितने साल का लक्षण है। इसको धर्म की ओर नतमस्तक होना और इसका मनाएँगे। लेकिन जो भी आरापने इस चाहिए । बहुत-से सहजयोगी यह समझते ही नहीं हैं सहस्रार तक जन्मदिन मनाया उसी के साथ-साथ कि जब तक हम 'धर्म में पूरी तरह नहीं उतरते, आपका भी सहस्रार खुल रहा है और बढ़ रहा है। हम सहजयोंगी हो ही नहीं सकते । हर तरह की गलतियाँ करते रहते हैं । जैसे वहुत-से लोग हैं, कोई भी तरह का compromise (समझौता) तम्बाकू खाते हैं, सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं, ये करना, कोई भी तरह की बातों में अपने को ढील सब करते रहते हैं और फिर कहते हैं हमारी सहज दे देना, सहजयोगियों को शोभा नहीं देता। जो योग में प्रगति नहीं हुई। तो होगी केसे ? अ1प आदमी सहजयोगी हैं वो बोरस्वपूर्ण अपना मार्ग अपने ही पीछे हाथ घो करके लगे हैं । निमंला योग ६ सहजयोग के कुछ छोटे-छोटे नियम हैं, बहुत simple (सादे) हैं-इसके लिये प्रापको शक्ति मिली है वो पूरी तरह से आप अपने आचरण में व्यवहार में लायें । और सबसे बड़ी चीज जो इनके (पेड़ों के) अगर कर रहे हैं तो आपने वो चीज़ पा ली जो मैं कह रही थी कि सामज्जस्य अआरना चाहिए । तो वो सामञ्जस्य आपके अन्दर आ गया । जिसे हम कह सकते हैं प्रेम एक ही शक्ति है झुकाव में है वो नतमस्तक होना, रर उस प्रेम को अपने अन्दर से दर्शित करना । जो कुछ आपने और प्रेम ही से सब अराकारित होने से सब चीज़ परमात्मा से पाया, उस प्रेम को परमात्मा को सुन्दर, सुडौल और व्यवस्थित हो सकती है। जो समर्पित करते हुए याद रखना चाहिए कि सबके सिर्फ शुध्क विचार है उसमें कोई अर्थ नहीं। और प्रति प्रेम हो । शुष्क विचार तो आप जानते ही हैं, वो सिर्फ अहङ्कार से आता है और जो मन से आने वाली अन्त में यही कहना चाहिये कि जिस मस्तिष्क में, चोज है वो दूसरी-ऊपर से जरूरो उसको खूबसूरती जिस सहस्रार में प्रेम नहीं हो, वहीँ हमारा वास नहीं ला देती है लेकिन अन्दर से खोखली है। इसलिए है। सिर्फ दिमाग में प्रेम ही की बात आानी चाहिये कि प्रेम के लक्षण में क्या करना है। गहराई से दूसरी चीज सुन्दर होती है लेकिन नी रस होती है, सोच, तो मैं फिर वही कह रही है कि द्िल को केसे दुसरी चाज सुन्दर होती है लेकिन नी रस होती है. हम प्रेम में ला सकते हैं । यही सोचना चाहिये कि खोखली । दोनों चीजज़ों का सामज्जस्य इस तरह से क्या ये मैं प्रेम में कर रहा हूँ ? ये क्या प्रेम में बात हो रही है ? सारी चीज़ मैं प्रेम में कर रही है । ये सब कुछ बोलना मेरा, करना-धरना क्या प्रेम में हो रहा है ? किसी को मार-पीट भी सकते हैं आप प्रेम में। इसमें हज नहीं। अगर झूट वात हो तो मार के बाद में, सहजयोग में शरने के बाद में सारे विरोध सकते हैं-कोई हज नहीं । लेकिन यह क्या प्रेम में छूटकर के जो चीज विरोधात्मक लगती है, बो ऐसा हो रहा है ? देवीजी ने इतने राक्षसों को मारा, वो लगता है कि वो एक ही चीज़ के दो अ्रङ्ग हैं। और भी प्रेम में ही मारा। उन से भी प्रेम किया, उससे यह प्रापके अन्दर हो जाना चाहिये। जिस दिन ये वो ज्यादा नहीं, और भी राक्षस के महाराक्ष्षस न चीज़ घटित होगी, तब हमें मानना पड़ेगा कि हमने बन जाये और अपने भक्तों को प्रेम की वजह से, अपने सहस्रार का १४वां जन्मदिन पूरी तरह से उनको बचाने के लिये, उनको मारा। उस अनन्त मनाया । शक्ति में भी प्रेम का ही भाव है जिससे उनका हित हो वही प्रेम है । एक चीज गन्दी होती है लेकिन शुध्क होती है, पूरणंतया खोखली होती है । एक नीरस है, तो दूसरी बैठ हो नहीं सकता क्योंकि एक दूसरे के विरोध में हैं । (आत्म-साक्षात्कार) लेकिन Realization परमात्मा आप सबको सुखी रखे और इस शुभ अवसर पर हमारी ओर से और सारे देवताओं की अर से, परमात्मा की ओर से आप सब को अनन्त तो क्या आप इस तरह का प्रेम कर रहे हैं कि जिससे उनका हित हो ? यह सोचना है। और आशीर्वाद । निरमला योग १० बम्बई ४ मई, १६८३ परमात्मा को खोजने वाले सभी ऐसा आँगन होना चाहिए। ऐसे प्राङ्गण में, मैं ही बेठ और मैं ही उठँ |" साधकों को मेरा प्रणाम ! फिर वह मिलने के बाद वह मतुष्य यह नहीं जानता है कि दूसरी बात सोचने लगते हैं कि यह चीज़ ले वह वह अपनी सारी इच्छाओं में सिर्फ चेज़ ले। इस तरह जो यह पाया हआ है इसका परमात्मा ही को खोजता है। से ु भी आनत्द नहीं उठाते । आज यह हुआ] कि हमने अगर वह किसी संसार की वस्तु मात्र के पीछे दौडता एक मोटर खरीद ली, उसके बाद मोटर के लिए भी है, वह भी उस परमात्मा ही को खोजता है, हाय तोवा करके बह विसी तरह से प्राप्त की । उस हालांकि रास्ता गलत है। अगर वह बड़ी कीर्ति के बाद हमें चाहिए कि [अब एक बड़ा मकान बनाले और मान-सम्पदा पाने के लिए ससार में कार्य और वह भी बनाने के बाद में हाय तोवा हुई तो करता है, तो भी वह परमात्मा को ही खोजता है। फिर आर चाहे अरोर कुछ कर लें। इस तरह से चीज़ और जब वह कोई शक्तिशाली व्यक्ति बन क र संसार आपने पाई थी वास्तविक, जि सके लिए आपने इतनी में विचरण करता है, तब भी वह परमात्मा को परेशानी उठाई थी, उसका आनन्द तो इतना भी हो खोजता है। ले किन परमात्मा को खोजने का आपने प्राप्त नहीं किया और लगे दूसरी जगह दौड़ने। रास्ता जरा उल्टा बन पड़ा। जैसे कि वैस्तुमात्र जो जब तक वह मिली नहीं तब तक हवस रही; और है, उसको जब हम खोजते हैं-पैसा और सम्पत्ति, जैसे हो बह चीज़ मिल गयी, वो खत्म हो गयी| सम्पदा-इसकी ओर जब हम दौड़ते हैं तो व्यवहार लेकिन परमात्मा को पाने के बाद में ये सारी जो में देखा जाता है कि ऐसे मनुष्य सुखी नहीं होते उन पेसों की विवश्वनाएं, अधिक पेसा होने के आनन्दकी सृष्टि की हुई है. उस कलाकार ने जो कुछ कारण बुरी आदते लग जाना, वच्चों का व्य्थ जाना इसमें रचा हुआ है, बारीक-सारीक सब कुछ, वो आदि 'अनेक" अनर्थ हो जाते हैं। जिससे मनष्य सारा का सारा रानन्द अन्दर झरने लग जाता है । सोचता है कि "ये पैसा मैंने किस लिए कमाया? यह जो चीज आज ऐसी लगती है कि मिलनी चाहिए-- मैंने किसलिए ली ?" जिस वक्त यहाँ से और मिलने पर फिर व्य्थं हो जाती है, वही चीज सृष्टि है, ये बनाने में परमात्मा ने जो कूुछ भी । वस्तुमात्र जाना होता है तो मनुष्य हाथ फेलाकर चला जाता आपने अ्र्थ में खड़ी हो जाती है। अगर और कोई है। ले किन यही वस्तु, जब आप परमात्मा को पा वस्तुमात्र आपने ली, उसका आनन्द ही जब आप लेते हैं, जब आप अत्मा पा लेते हैं और जब आप उठा नहीं सकते हैं, तो उसको पाने की इच्छा करना का चित्त आत्मा पर स्थिर हो जाता है, तब यही भी तो बेकार ही है। जब उस चीज का आनन्द खोज एक बड़ा सुन्दर स्वरूप धारण कर लेती है । परमात्मा के प्रकाश में वस्तुमात्र की एक नयी दिशा चीज के लिए इतनी ज्यादा आफत मचाने की क्या दिखाई देने लग जाती है। मनुष्य की सौंदर्य दृष्टि एक गहनता से हर चीज को देखती है । जैसे कि आज यहाँ बड़ो सुन्दर वातावरण है, औ्र सारे तरफ से बृक्ष हैं । ये सब अ्राप देख रहे हैं । जब आपने लीजिये, चाहा कि मैं इसे खरीद लूं । आरपका मन परमात्मा को पाया नहीं तब आप यह सोचते हैं किया कि इसे हम खरीद लं, कोई अच्छी-सी चीज़ कि "अगर ऐसे वृक्ष में भी लगा लूं तो कैसा रहेगा? दिखाई दी। जैसे औरतों को है कि कोई जेवर मेरे घर में ऐसे एक क्षण भी नहीं आप उठा सकते तो उस जरूरत है ? वस्तुमात्र में भी-कोई वस्तु को आपने , समझ बुक्ष होने चाहिए । मेरे पास खरीद लें । अब खरीदने के बाद उसका सर दर्द हो निमंला योग ११ तो जो वस्तुमात्र से जो तकलीफ़ें होती हैं वह न ले जाये, तो इसे पहनो मत, तो बेङकु में रखो, खत्म हो जाती हैं । सारी दुष्टि ही वदल जाती है । अब यह परेशानी एक बनो रही। और इसका आनन्द और समझ लीजिये प्रगर किसी श्रर की वस्तु है तब तो उठा हो नहीं सके। और जब भी पहने, तो जो तो बहुत ही अच्छा है । माने उसका सरदर्द तो है देखे वह ही जल जाए इससे । माने उसकी आनन्द नहीं, मजा आप उठा रहे हैं । जैसे समझ लीजिए एक की जो स्थिति है वह तो एकदम खत्म हो चुकी बड़ा बढ़िया कालीन किसी के यहाँ विछा हुआ है । औ्र वचा उसका जो कुछ भी नीरसता का जो शअरपना ह नहीं भगवान की कृपा से । दूसरे का है । अनुभव है, वह गढ़ता है, और दुखदायी होता है। उस वक्त आप अयर उस कालीन की छोर देखते हैं। उसी की जगह जब अप परमात्मा को प्राप्त करते हैं तो आप ये नहीं सोचते कि इसने कहाँ से खरीदा, और आप कोई चीज़ खुरीदते हैं तो यही सोचते हैं कौन-से बाजार से । उस वक्त एक तान होकर उसे और अगर आपको परमात्मा का गया। इसको Insure (बीमा) कराओ कि इसे चोर ा कि इसको मैं किसे द । ये किस के लिए सुख द।यी देखते हैं, होगी। इसका शौक़ किसको आाया । क्योंकि अपने साक्षात्कार हो चुका है, तो आपके अन्दर कोई तो सब शोक़ पूरे हों गये । शौक़ एक ही वच जाता विचार हो नहीं अाएगा उसके बारे में । आप कोई है कि किसे क्या दं । फिर खयाल बनता है कि देखो विचार ही नहीं करंगे कि ये कितने पैसे का खरीदा. उस दिन उन्होंने कहा था कि हमारे पास ये चीज़ कुछ नहीं। जो उसमें अनन्द है 'पूरा का पूरा' तो नहीं है । तो आपने वह चीज़ उन्हें ले जाके देदी । जिस कलाकार ने उसे बनाया है उसका पूरा का इसलिए नहीं कि आप कोई बड़ा उपकार करते हैं। परा आप आनन्द उठा रहे हैं और जिसका है, वह दे दी, बस। जैसे पेड़ है, कोई उपकार करता थोडे ही सरदद लिए बेठा हैँ कि इस पर कोई चल न जाएं नहीं तो खराब हो जाएगा। और अपनो नजर से तो आाप उसका पूरा का पूरा आनन्द, स्वाद ले रहे दे देता है। इसी प्रकार प्रपने जकर के वह चाज़ है क्योंकि आपका उसके साथ कोई सम्बन्ध ही बना हि है, अपने को कहता है उसमें फल आ गये, वह फल किसी को दे दी । अब देखिये उसमें आपके प्रेम की नहीं है, प्राप दूर ही से उसे देख रहे हैं । और दूर जो भावना आ गयी आपने अपनी आ्रत्मा से जो ही के दर्शन सुन्दर होते हैं। जब आप दूर हटकर चीज़ उनको दे दी, उनका खयाल करके। उस चीज को देखते हैं, तभी पूरी-की-पूरी चीज भी चीज़ । जसे शबरी के बेर । श्री रामचन्द्र जी ने आपके अन्दर उतर सकती है । इतने प्रेम से खाये । और उसके बाद उसकी इतनी प्शंसा की, सीता जी को भी। तो लक्ष्मण जी नाराज हो रहे थे । सीता जी ने कहा, 'देव रजी श्राप जरा चखकर तो देखिये। ऐसे बेर मैंने ज़िन्दगी का जो हाल हुआा में नहीं खाये। तो भाभी पर विश्वास करके उन्होंने करे थोड़े दिन और हम लोग गरीब बने रहें । न तो एक बेर खाया, कहने लगे ये तो स्वर्गीय है । उस बच्चों का पता है न घर का पता है, न बीवी का शवरी के बेर में इतना आनन्द इसलिए आया कि पुता है, न पति का पता है, न कोई प्रेम का पता है । नित्तान्त प्रेम से उसने वह बेर तोड़ के, अ्रपने दांत जब जिन देशों में बच्चों को लेकर के मार दिया से देखकर के, विल्कुल 'अ्रबोध" तरी के से in- जाता है पेदा होते ही । इतनी दुष्टता वहाँ पर होती nocently उसने परमात्मा के चरणों में रखा । है, इतनी महादृष्टता वहाँ लोग करत हैं कि जिसकी उसी प्रकार हो जाता है । 'छोटी-सी' बहुत-से लोगो का यह कहना कि माँ इस देश में परमात्मा की बात बहुत की जाती है लेकिन यहाँ लोग गरीब क्यों हैं?"" अमीरी की बजह से इन देशों कि इस लिए मैं कहती हैं, भगवान कोई इन्तहा नहीं। कोई सोच भी नहीं सकता कि निर्मला योग १२ इस मर्यादा-रहित दुष्टता के आप भागीदार हैं बादशाह है, उसको महलों में रखें तो भी वादशाह अभी एक साहब से वार्तालाप हआ्रा तो उन्होंने कहा है उसको भूखा रहना पड़े तो भी वह बादशाह है, कि परदेस में लोग कम से कम ईमानदार हैं । मैंने वह कोई चीज की माँग नहीं करता । वो ही बाद- कहा ईमानदार तो औरंगजेव भी था टोपियाँ सिल-सिल करके वेचता था और सरकार नहीं है, कोई भी चीज़ की ददात नहीं है, किसी से उसने एक पैसा नहीं लिया। लेकिन लेता तो चीज की रुज नहीं है । वह ही असल बादशाह है, ग्रच्छा रहता कुछ । कम से कम इतने व्राह्मरणों को बाकी ये तो नक़ली हैं बादशाह । जो कि बादशाहत मारता न। हिटलर भी बड़ा ईमानदार आदमी था । योड़ी बहुत मिलने के बाद "यह चाहिए, वह चाहिए, एक पेसा जो था वह अपने सरकारी ख जाने से नहीं बह चाहिए" माने आ्रापकी बादशाहत क्या है? अन्दर निकालता था । लेकिन उसकी ईमानदारी का क्या की जिसके अन्दर व।दशाहत जागृत हो गयी, वो फायदा ? इतनी दुष्टता उसमें आ गयी, मानो हर हालत में रह सकता है हर परिस्थिति में रह इन्सान में अगर कोई चीज बहुत ज्यादा आ्र जाती सकता है, हर दशा में रह सकता है और कोई है, तो वह दूसरी तरफ़ एक दूसरा ही आकार ले दुनिया की चीज़ नहीं जो उसे भुका दे । हमारे लेती है। अगर वह ईमानदारी को, उसने सोचा कि सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इस भारतवर्ष में तो देश जो हे मैरा बहुत बड़ा है तो उसमें ईमानदारी अनेक हो ही गये और बाहर भी बहुत-से हो गये से रहना है, तब ये गुण वड़ा अच्छा हैं । कारण अगर पके अन्दर कोई गन्दी बात घुस सत्ता जो है 'स्थायी सत्ता है। इस तरह की क्षण जाये तो अ्च्छा है कि आप खुद सन्तुलित रहें । शाहत में होता है, जिसको किसी भी चीज की माँग । अपनी पर उसके क्योंकि वो अपनी बादाहित में सन्तुष्ट हैं, उसकी भग्र नहीं कि जो क्षण में यहाँ पर तो बड़े बने बेठे हैं शरर उसके बाद पड़ गये जमीन पर का तारा टिक गया है, ऐसे ही परमात्मा को पाया । जैसे ध्र व अब वहुत-से लोग अपने को बड़े सत्ताधीडा समभते हैं । सत्ता के लिए दोड़त हैं। सत्ता के लिए तो हैआी मनुष्य टिका रहता है । उसको भय नाम की मालूम नहीं, उसको लालसा नाम की चीज़ दौड़-दौड़ कर कोई सुखी नहीं हुआ। एक यह चीज़ कि किस बक्त उतर जाएं, पता नहीं। किस वक्त इन मालुम नही, उसको लालच नाम की चीज़ मालूम नहीं। ऐसा मनुष्य जब इस देश में तंयार होगा तो की शह मिले और किस वक्त उतर जाएँ सत्ता से, किसी को पता नहीं। आज ताज हे और कल काटे लग जाएँ । इस सत्ता का कोई टिकाना नहीं ग्रौर हम लागी की कोई भी ऊपर से कारयदे कानून उस सत्ता से आप कुछ अपना भी अ्र दूसरो की में रहेगा। वह बेकावदा चलेगा ही नहीं। क्योंकि भी खास लाभ नहीं कर सकत । पर जो परमात्मा की सत्ता पर बैठा है, जिसमें परमात्मा की सत्ता है, जिसके अन्दर परमात्मा बोलता है, जिसके अन्दर परमात्मा की शक्ति बहती हैं, वो आ्रादमो 'अ्सल है, बह भी बदल जाएगा। पर उस मानव को तैयार में बादशाह है, सत्ताधीश है । बादशाहत है उसके करना होगा जिसने परमात्मा को पाया है ऐसे पास । वह bribe (रिश्वत) काहे को लेने चला ? मानव जब तक तेयार नहीं होयंगे वे लड़खडाते ही बादशाह कोई bribe (रिश्वत) लेता है क्या ? वह रहेगे । पहले जवकि उनको किसी भी बड़े भारी क्यों बेईमानी करने चला ? वह बादशाह है । उस चुनाव में जाना पड़ता है, तो चुनाव में आके कहेंगे को अगर आप जमीन पर सुला दीजि ये तो भी कि "साहब हम तो गरीबों के लिए ये करेंगे वह लादने की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपने आप वह मस्ती कायदे भी कहाँ से आये हैं? क़ायदे भी परमात्मा ही के किये हुए अपने अन्दर आये सृजन जितना भी विपय्यास हआ हुए हैं। उसका जो मनुष्यों ने कर दिया निर्मला योग १३ करेंगे ऐसा करेंगे, दुनिया भर के सारे आश्वासन लोग रोज देखते हैं, रोजमर्रा देखते हैं। आपको तो होंगे। और जब वह सत्ताधोश हो जायेंगे तो "साहब माझूम है वाल्मीकि की कथा, मूझे फिर से बताने हमको यह चाहिये, हमको यह चाहिए । और की जुरूरत नहीं। पर जो तथ्य है उससे आप बहुत हम तो सबसे बड़े रारीब हो गये।" के लिए करने की कोई जरूरत ही दिखाई नहीं देती materialislic (भौतिक) हो गए हैं । सब देश में ही है। उनसे भी ज्यादा गरीव ये हो जाते की वजह लोग इस तरह से हो गए हैं। वो बात ही पसे की से वह सब अपने लिए हो headache (सरददं) । करते हैं । वह बोलते ही हैं कि हमारी क़ीमत इतने लेकिन जिसने परमात्मा को एक बार पा लिया, वो हुजार रुपये, हमारी कीमत... कोई चीज़ की माँग नहीं करता । वह कभी मांगता कीमत लगा ली है । ऐसी हालत में इन लोगों का हो नहीं है, वह कोई भिलारी कभी नहीं हो सकता। चित्त इस बेंकार की चीज से कैसे हटाना चाहिए ? मैंने कहा, 'वह बादशाह हो जाता है । ये बाद- उसका हटाने का भी वही मार्ग है, जैसे मैंने शाहत अपने अन्दर हमको स्थापित करनी है । अब कि आत्मा का दर्शन इनके अन्दर होना चाहिए । कोई लोग कहते हैं कि साहब "हिन्दुस्तान में इंतनी आत्मा के प्रकाश में ही मनुष्य देख सकता है कि चोरी-चकारी और ये सब चलीं । इसका इलाज कितनी क्षुद्र वस्तु है । जैसे समझ लीजिए अन्धेरे क्या है"? इसका इलाज बहुत सीधा है! आत्म में कोई चीज चमक रही है, तो उन्होंने सोचा कि साक्षात्कार को प्राप्त करें। व्षोकि अभी अ्न्धेरे में हैं, अज्ञान में हैं, इसलिए ऐसी र्दी चीजों के पीछे हीरा-बीरा होगा ।" लगे उसके पीछे दौड़ने ! और भागते हैं। इसमें रखा क्या है ? यह तो सब यहीं वो होरा इधर से उधर भाग रहा है। उसके बाद छोड़ के जाने का है । एक छोटी सी चीज जो रोज में प्रकाश आ गया, देखा यह तो जुगनू था, जुगनू देख रहे हैं वह ही भुल जाते हैं। किसी के मय्यद पीछे हम लोग परेशान रहे । ये तो जुगनू था ! इस पे चले गये, वहां से आए और उसके बाद लगे के लिए क्यों इतनी परेशानी उठानी ! इसलिए ये bribe (रिश्वत) लेने। 'अरे ! अभी मय्पद देखकर प्रकाश हमारे अन्दर आना जरूरी है । आ रहे हो, bribe क्या ले रहे हो ? अभी देखा नहीं वह चला गया वेसे के बैसे ! उसी तरह से आप भी जाने वाले हैं । लेकिन यह कहने से नहीं होने बाला, व्योंकि गरीबों फ्यादा है। क्योंकि बच्चे बहुत ज्यादा बेशमी से | सबने अपनी कहा "साहब बढ़़िया कोई चीज चमक रही है, कोई के अब बहुत-से लोग कहते हैं कि हम वहुत धर्मात्मा है । ऐसे भी बहुत-से लोग हैं, वह कहते हैं कि हम तो बड़े ब्मात्मा हैं । हम बड़े बामिक कार्य सिफ्फ आत्म-साक्षात्कार होने के बाद में घटित होता है। उसके बाद में आदमो छनता है और उस करते हैं, हमने इतने हैोस्पिटल (hospital) बना के अन्दर की यह जो छोटी-छोटी क्षुद्र वातें फ़ट से दिये, इतने स्क्ूल वना दिये, ये बना दिये वो बना निकल जाती हैं। यह दिये । ये भी काम से अज तक किसी ने तप्ि तो मैंने पायी देखी नहीं। किसी को मैंने तुप्त देखा नहीं, उसके बाद कुछ लोग ऐसे हैं कि जो सो वते शान्त देखा नहीं। इससे प्रेममय देखा नहीं, उसके हैं क्रि हमारे बचचों के लिए यह करना चाहिए, अन्दर कोई सौन्दर्यं भी देखा नहीं। क्योंकि ये जो हमारी बीवो, 'हमारा' बच्चा, 'हमारा यह, आप काम कर रहे हैं, परमात्मा से सम्बन्ध किये 'हमारा' वह । इस ममत्त्व के चक्कुर के सबने थपेड़ बर, योग के वरगेर, अापके अन्दर एक संस्था तैयार खाए हुए हैं, कोई एक ने नहीं खाए। जब बच्चे बड़े हो रही है, जिसे हम 'अहङ्कार कहते हैं। यहङ्कार हो जाते हैं तो ऐसे अदमी को अच्छा थपेड़ देते हैं । नाम है उसका । वो अहङ्कार हमारे अ्न्दर जमते निमला योग १४ जाता है और कभी-कृभी तो वो अहङ्कार ऐसा हो जाता है कि मानो जसा कोई बड़ा भारी सर पर मिलने के लिए सूदामा जी गये थे । पहले उनसे योग एक अहङ्कार का जहाज बना हुआा है । इस धटित हुआ । ये कहानी बड़ी मा मिक है । जब उन अहङ्कार के सहारे हम चलते रहते हैं और इस का योग श्री कृण्ण से घटित हुआ, उसके बाद उन अहङ्कार से हम बड़े सुखी होते हैं कि कोई अगर हम से कहे कि भई 'श्राप बड़े घर्मार्मा हैं, इन्होंने हप्रा या तब तक उनका क्षेम नहीं हुआ था । वड़ी संसार की सेवा करी और इन्होंने ये दिया इसलिए जब तक आपका योग घटित नहीं होगा और वो किया। लेकिन इसमें कीई सत्य तो है शपका क्षेम हो ही नहीं सकता है । कभी-कभी नहीं। क्योकि सेवा भी किसकी करने की है ? जब काकतालीय व्याय से हो भी जाए-थोड़ा-बहुत, परमात्मा का आशोवाद मिल जाता है तो चराच र इधर-उधर-तो भी वह मानना नहीं चाहिए सारी सृष्टि में फैली हुई परमेद्वरी शक्ति पर आप कि आपने पाया है । पर बिल्कुल पूरी' तरह का हाथ आ जाता है । आप यहीं बंठे-बैठे सबकी से आपका क्षम तभी धटित हो सकता है जब सेवा कर रहे हैं, अगर सेवा उसका नाम हो, तो। लेकिन जब वही आपके अन्दर से बह रही हो और करना हो ्पकी एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी जब आ्प उनसे ही एकाकार हो गये तो आप किस जितनी भी आपकी इच्छाएं है, मैंने बता दिया वे किसकी सेवा कर रहे हैं ? अगर ये हाथ मेरा दूख सब 'बैंकार हैं, अर उनको प्राप्त करने से आप रहा है तो इस हाथ को अ्गर मैं रगड़ रही हैं तो कभी-भी सुखी भी नहीं हो सकते, आनन्द की तो क्या मैं इसकी सेवा कर रही हैं ? इस तरह का बात छोड़ ही दौजिए । झुठा अहङ्गार मनुष्य के मन में फिर जागृत नहीं होता। और अहङ्कार मनुष्य को महा मुर्ख बना देता है। ये 'पहली देन है अहंकार की, कि अहंकार से मनुष्य महाभूखं, जिसको अंगेरजी में stupid करेंगे । हैं कहते हैं. बो हो जाता है। [और उसके अनुभव मैं देखती हैं तो मुझे आश्चरयं लगता है कि इनका कब अ्रहंकार उतरेगा और ये देखंगे अपने 'जितनी भी घृणित चीजें हैं, उन्हें को शीशे में । जैसे नारद जी ने एक बार देखा था अपने को तालाब में, कि कितने बड़ अहकार आप विलकुल अन्धकार में पड़ हुएहै। और किर क्षेम वो बना देत हैं । ज से इनके पास का क्षेम हुआ जब तक उनका योग घटित नहीं मप योग को प्राप्त कर । औ्र 'इस योग को प्राप्त और एक तरह के लोग दुनिया में होते हैं, कि जो सोचते हैं कि वड़ा हमने sacrifice(त्याग) कर दिया । हम तो बड़ा suffer ( कष्ट सहन ) जेसे बहुत-से लोग होते हैं, सोचते भगवान के लिए उपवास करो । भगवान के एक-एक लिए अपने शरीर पर छुरी चलाओ । भगवान के लिए अपने शरीर पर करो से । ऐसे पागल लोगों को भी बताना चाहिए कि ये शरीर परमात्मा ने बड़ी मेहनत से बनाया है । एक छोटे लोग इस तरह के हैं कि से amoeba (अमोबा) से आपको इन्सान बनाया अब इससे आगे जो कहते हैं कि 'हम बड़े भक्ति करते हैं और हम खुब है बह़ी मेहनत करके; किसी वजह से । और आप भगवान को मानते हैं। जयादातर लोग भगवान को पाना क्या है ? किसलिए बनाया परमात्मा ने? के पास इसीलिए जाते हैं "मुझे पास करा दो, मुझे आपने तो अपने को कुछ भी नहीं बनाया जो नौकरी दे दो, मूझे ये कर दो। ये ऐसे कहने बनाया है 'उसी' की जीवन्त शक्ति ने बनाया है भी नहीं होने वाला । क्योंकि कृष्ण ने कहा वह क्यों बनाया है आपको? 'कि अ्राप [एक दिन कुछ । से कुछ है कि 'योग क्षेम वहाम्यहं पहले योग को प्राप्त करो परमात्मा के साम्राज्य में आएं, उसमें पदा्पण करें निर्मला योग १५ hc और इसलिए उन्हों आपका स्वागत हो । इसलिए उन्होंने प्र।पको ये और चाहे कोई माने तो माने । सुनदर स्वरूप दिया हुआ है। इसलिए नहीं दिया ने कहा कि हम तो ये विश्वास करते हैं कि मनुष्य है कि आप इधर-उधर भटकते रहें। लेकिन उधघर को खूब Suffer (वष्ट सहन) करना चाहिए । दृष्टि हमारी नहीं है त ! हम लोग यही सोचते हैं खूब Sufferings (कष्ट भोगना) होनी चाहिए । कि अ्रगर माताजी के आत्म-साक्षात्कार की तरफ़ बह इतना दू.ख उठाये दु.ख उठाने से ही परमात्मा हम मुड़े तो भई फिर क्या होगा ! जाएँगे। 'सहजयोग तो सम्पास के महाविरोध में है। यहां तक कि कोई 5aint (सन्त) है उसको कोई 'महाविरोध !' अगर कोई सन्यासी आ जाए तो दूख दे रहा है तो वे कहते हैं कि ठीक ही है तुमको हम उससे कहते हैं कि जाकर कपड़े ब दल कर परमात्मा ऋ्रच्छे से मिल जाएगा। जितना दुख हो, आओ । सहजयोग सामान्य लोगों के लिए, जो भेलो। जैसे ज्ञानेश्वर जी को हमने काफी सताया । गृहस्थी में रहते हैं, उनके लिए है। गृहस्थी बड़ा रामदास स्वामी को हमने कभी माना नही। तुका भारी महायज्ञ है, उस महायज्ञ में जो गुज़रा है वही सहजयोग में आता है, सन्यासियों में हैमीरी जितने भी-नानक साहब हैं, कबीरदास हैं-सबको विश्वास बिल्कुल नहीं है। व्योकि कपड़े पहुनकर पुरेशान किया और यही कहकर कि "तुम तो सन्त के आप किसको जता रहे हैं ? जो सन्यासी होता है हो, तुम तो गुस्सा ही नहीं हो सकते । हम सन्त नहीं वह तो सन्यासी है अन्दर से, वह क्या बाह्य में ग्रपने हैं। माने यह कि जैसे सारे गुस्से का ठेका हमने ले ऊपर में कुछ sign board (नामपट) लगा कर रखा है और सारा सहने का ठेका आपने ले रखा नहीं ूमता है कि "मै सन्यासी हूं" । ये झूँठे sign है !" और ऐसे जो Jew लोग थे देखिए, उन पर board लगाने की क्या जरूरत है ? और गलत- कितनी बड़ी आफत आरा गयी । भगवान ने एक फ़हमी में अपने को रखना, अपने ही को आप हिटलर भेज दिया उनके लिए- जाओ इनको cheat (धोखा) कर रहे हैं । तो दूसरों को करेंगे ही । जिसने अपने ही को धोखा दिया है वह दूसरों को भी धोखा ही देगा। तो इस प्रकार के भी तो ईस तरह की विक्षिप्त कल्पनाएँ अगर दिमाग में विचार के कुछ लोग होते हैं कि जो प्रपने शरीर को हों, तो भी मनुष्य कभी भी सुख नहीं पा सकता इस देना और दुनिया भर के दुःख सहना और तरह की बड़ी ही ज्यादा तीव्र भावनाएँ किसी के दु हम सन्यासी हो मिलता है । यह उनका अपना विचार था । यानी राम की तो हालत ही खराब कर दी । और भी ये suffer करना है करने दो । अब वह उल्टे बैठ गए हैं वह सब दुनिया को suffer कराएँगे। र दुख परेशानी उठाना - इसका बड़ा अच्छा उदाहुरण है प्रति कभी भी नहीं वनानी चाहिए। क्योंकि सभी Jews (यहदी) लोग । अपने यहाँ भी ऐसे बहुत सारे हैं जो उपवास, तपास ओर दुनिया भर की न फ़तें करके, सिवाए बीमारी के और कूछ नहीं उठाते । पर Jew लोगों ने ये कहा कि हम मसीह को नहीं मानते हैं क्योंकि यह कहता है कि में पड़ ही नहीं सकता, अगर वह धर्म है तो । उसको मैं तुम्हारे सारे पापों को खींच लूंगा अपने रन्दर । और सही बात है जब उनकी जागृति हो जाती है हमारे आज्ञा चक्र पर, तो वह खींच लेते हैं । लेकिन धर्म है । और धर्म को कोई छु ही नहीं सकता क्योंकि हम ईसामसीह को नहीं मानेंगे क्योंकि वह Jew धर्म शाश्वत है धर्म को कौन छू सकता है ? आनी] था। इसलिए Jew लोग उनको नहीं मान सकते । जानी और मरना-जीना तो चलता रहता है, लेकिन परमात्मा की सन्तान हैं। किसी से भी हप बनाना नहीं चाहिए । कोई भी आप प्रश्न उठाइये । जैसे कि कोई कहेगा कि आज हिन्दू घर्मं जो है, ये बड़ी ईसा विपत्ति में पड़ा है। मैं तो कहती हैं कि कभी विपत्ति कोई हाथ भी नहीं लगा सकता अगर वह धर्म है, तो । पर वह politics ( राजनीति) नहीं हैं । वह छू। जजा निमंला योग १६ धर्म नष्ट नहीं हो सकता । अगर पप ही धर्मंच्युत नहीं आने वाला। ये मुझे suit ही नहीं क२ सकता, हो जाएं तो धर्म नष्ट हो जाएगा, और नहीं तो इसकी allergy है मुझको। आप allergic ही हो आपका धर्म कोई नहीं तोड़ सकता । किसी की जाते हैं । और इसलिये पहले सहजयोग में बताया ही मजाल नहीं कि आपका ध्म तोड़ । पर धर्म को नहीं जाता हैं कि तृुम ये नहीं करो, वो नहीं करो। पहले अपने अन्दर जागृत करना चाहिए । जब वह अरपने-प्राप आप करने लग जाते हैं । क्योंकि तक आपके अन्दर धर्म जागृत नहीं होगा, जोकि आपके अन्दर अ्रपका जो परम-गुरु आत्मा है। आप देख रहे हैं (चित्र में) गोल बना हुमा है, इसके शिव स्वरूप आत्मा जागृत हो करके वही आपको अ्न्दर आपके दस धर्म हैं, ये वम जव आपके अन्दर समझा देता है कि भई देखो ये चौज चलने वाली जागृत हो जायेगे तो जो धर्म आाप नष्ट कर रहे नहीं हैं अब हम से । क्योंकि आप अब आत्मा हो हैं रोज, रोज, किसी न किसी वजह से-क्योंकि गये इसलिए अब आत्मा वोलेगा । और बाक़ी जो आपकी बहुत सारी इच्छाएँ हैं. आपमें लानसाएँ चीज है गौरा हो जाती है, और मुख्य हो जाता हैं, वासनाएँ हैं, बहत-सी आदतं पड़ गयी है, इसकी है पत्मा व जह से जो आपके अन्दर को धमें रोज नष्ट हो रहा है वह जागृन होते ही आप धाम क हो जायेगे। क्योंकि आप दूस रा काम कर ही नहीं सकते । जसे मैं विवियाँ रही और मनुष्य इस प्रकार बढ़ता रहा । कभी भी नहीं कहती है कि आप शराब मत पीग्रो। लेकिन ग्राज समा दूसरा है । जैसे कि पहले एक मैं नहीं कहती हैं, क्योंकि कहने से अाघे लोग उठ जायेंगे, फायदा क्या ? मैं कहती है : अच्छा पार हो का तना बना, उसमें से पत्तियाँ, शासखाएँ सब निकलीं जायो । माँ के तरीके उल्टे होते हैं न । चलो भई लेकिन ये 'सब जिस लिए हुआ है, वो है इसका पहले पार हो जाओो | फिर मैं कहैंगी अच्छा अव पीकर देखो शराब, पी नहीं सकते उलट हो जायेगी फुल बेठे हुए हैं । इन फूलो का फल बनाने का काम उलटी हों जायेगी। घर्म जब जागृत हो गया अन्दर यही मैं करती तो वह फेक देगा अपकी शराब को । आप पी नहीं वह फल हो सक ते हैं। तो सारे ही ध्मों ने इसको सकते । एक साहब ने कोशिश की । उनके तो खून पूष्ट किया है। सारे ही जितने प्रवर्तक हो गये सब निकल आया । उन्होंने कहा, भगवान बचाए रखे मैं ने इसको पूष्ट किया है । जितने दुनिया के महात्मा तो जाऊँ। और उनको इतनी बदबू आने लग गयी हो गये उन्होंने इसे पुष्ट किया है । जितने सन्त, जो कभी उनको शराब में बदबू नहीं आती थी, वो साधु द्रष्टा हो गये उन्होंने इसे सञ्जोया है उनको बदबू आने लग गयी। सड़ें से बुत बदबू आ रही थी। अब मैंने अवतरण हुए हैं, स वने इसमें कार्य किया है। ये कहा इसे सात साल से चढ़ाते रहे पेट में, उसकी कोई एक का कार्य नहीं कि 'हम साहब फ्लां के नहीं आयी ? कहने लगे पता नहीं मेरी जीभ पुजारी हैं, हम इनको मानते, उनको नहीं मानते । मरी हुई थी । धर्म इस तरह इतने जोर से आपके ये तो ऐसे हो गया : मैं इस अख को मानता है, अन्दर जागृत हो जाता है कि फिर पाप और पुथ्य इस अँख को नहीं नानता। ये 'सारे के सारे' अपके जो है जैसे नी र व क्षीर विवेक हो जाता है उस तरह शरीर के अन्दर बसे हुए हैं, और इन 'सबका समग्र से अलग-प्रलग हो जाता है और आप जान जाते हैं integrated जो प्रयत्न है, उस प्रयतन का फल कि ये मेरे लिए रास नहीं आएगा, यह मेरे माफिक आपका श्रात्म-साक्षात्कार है । और बह समा आज इस प्रकार हमारी श्रज तक की संसार की गति- वीज से अंकुर निकला, अंकुर निकलने के बाद पेड फल । तो आज मैं देख रही हैं मेरे आगे अनेक फ हैं और कुछ नहीं। और अरप सब कहने लगे: अजीब से श्र पनपा है । प्रौर 'जितने भी इस संसार के जैसी उसमें নिमंला योग १७ गया है कि इन सब के फलस्वरूप जो इच्छाएँ कुछ समझते ही नहीं। फ़ायदा क्या हुआ ? 'पसाय- थीं इन सब महानुभावों की, वो पूर्ति हों । वह आज दान- अरभी कोई बता रहा था, उस पर इतनी बड़ी का सभय है। और यह काम पता नहीं क्यों, मुझे किताब किसी ने लिखी है । मैंने कहा उनको तो मिला ! हालांकि ये काम और कोई कर भी नहीं सकता । ये तो माँ ही कर सकती है । जब पहाड़ों ने लिखा है, और क्या लिखा है ? सारे सहजयोग जैसी कुण्डलिनियाँ उठानी पड़ती हैं तब पता चलता है, पसीने छुट जाते हैं । और इसलिए एक मां पर की है । अगर आप ठीक से पढ़ें तो आपकी ये काम आ बैठा है। मैं कोई आपकी गुरु-शुरु नहीं समझ में आ जाएगा कि सारा सहजयोग बता गये है । न ही मूझे श्रप से कुछ ह मेरा काम है वह मुझे करना है। और आप अगर लिख रहे हैं ? उसमें लिखने का 'क्या है ? वह तो चाहें तो मैं कर सकती है, पर आप न चाहें तो पाने का होता है [और जो यथार्थ है, वह पाया जबरदस्ती यह काम हो नहीं सकता । अगर आप जाता है उसके बारे में बातचीत नहीं की जाती। की इच्छा हो तभी हो सकता है आपके अन्दर यह शुद्ध जागृत नहीं हो तो मैं इसे नहीं कर सकती । अब बहुत-से लोग तो मुझ से मारा-मारी करने पर प्रा जाते हैं। लड़ाई करते हैं, झगड़ा करते हैं। 'ऐसे कसे सहज-योगो उस दशा में न पाए जाएँ जैसे कि वडे हो सकता है । और कुण्डलिनी ऐसे करेसे जागृत हो यगी-जन होते हैं। लेकिन उनकी जागृति हो गयी सकती है । पर होती है तो फिर क्या करें । अ्गर है। और वह योग की तरफ वर्धमान हो रहे हैं। वो होती है तो उसे मैं क्या करू। 'ऐसे कै से ? मैंने कहा, 'होती जरूर है । इसमें कोई शङ्का नहीं ।' अब अगर इस तरह से आप मुझसे लड़ाई करने पर आमादा रहें कि कैसे होती है, तो मैं आप से क्या । कहै ? होती है, और जरूर होनी चाहिए । और ये अर शअ्रप अपने में पलायन कर गये। माने प कार्य करने का समय, ये आज की शुभ बेला आयी चाहते कुछ है नहीं। प्राप 'अपने बारे में सोचिये । हुई है। इसे कृतयुग कहते हैं । और इस में जो यहाँ लोग आ्राए हैं, उनमें से हो सकता है, कुछ कार्य होगा, जिसमें 'जितने भी बड़े-ब ड़े अवतार, खोपड़ी खराब हो गयी वो सारा सहजयोग उन्हों का वर्णन है और उसी की उन्होंने भविष्यवाणी लेना-देना है सिर्फ जो हैं। अब उस पर क्या गराप इतनी वड़ी-बड़ी किताबें अग र इच्छा नहीं हो और यह इच्छा से बहरहाल मुझे श्राशा है आज आप में बहुत- लोग यहां पार हुए वेठे हैं। आप ही जैसे दिखाई देते हैं, आप ही जैसे । हो सवता है शुरू में वहुत-से बढ़ रहे हैं। उनको देखकर के आप इसमें से पलायन मैं मत करिये । वहुत-से लोग होते हैं कि 'साहब, गया था, वहां एक साहब थे, वह कुछ ऐसा-बैसा तो इसका मतलब है आपने उनको देखा कर रहे थे। कृत युग लोग ऐसे हों कि उनकी जागृत भी न हो । पर महानुभाव द्रष्टा और मुनि, तीर्थंकर [शरादि जितने वराबर अषि अगर negative (विकार-युक्त) आदमी होगि तो उसी के पास जाके घमकेंगे और उसी की वजह से आप भाग भी खड़े होंगे। लोग हो गये, उन सबके ग्रापको अ्राशीवाद हैं। और उनके आशीर्वाद-स्वरूप आप यह समग्र integ- rated प्राशीर्वाद प्राप्त करते है । इसमें कै से होता है, इस लिए, यह जानना चाहिए कि सहजयोग को क्या होता है, ये अप स्वयं जाने अ्रर देखें, बजाए प्राप्त करने के लिए सिर्फ आप में 'शुद्ध-इच्छा' होनी वयोंकि चाहिए । और कोई चीज़ की जरूरत नहीं इसके कि अपनी बुद्धि के दायरे में रहें । । [अगर अभी तक धर्म भी एक बुद्धि के ही दायरे में हैं, हर आपके अन्दर शुद्ध इच्छा हो, जो स्वयं साक्षात् एक चीज बुद्धि के दायरे में हैं । मैं देखती हूँ इतनी कुण्डलिनी है, वही शुद्ध इच्छा है । औ्रौर जब यह बड़ी-बड़ी किताबें लोगों ने लिख मारीं। लेकिन वह शुद्ध इच्छा की शक्ति जागृत हो जाती है, तभी निर्मला योग १८ और दूसरी अज की ओर भी वड़ी शुभ बात कुण्डलिनी का जागरण होता है। यह शुद्ध इच्छा आप सबके अन्दर है। लेकिन अभी जागृत नहीं है। है कि गौरी जी का सप्तमी का दिन है, और उस इसको जागृत करना और सहस्तरार में इसका छेदन वक्त भी ऐसा ही था। क्योंकि गौरी जो है, वह कराना यही कार्य करना आज का सहजयोग । कुण्डलिनी है। और वही जो कन्या मानी जाती है, virgin (कुमारी) है वह इसलिए virgin है पर इसमें 'बहत' कुछ प्रा जाता है। बैयोकि कि ग्रभी उसका योग शिव से नहीं हुआ है इस जब प्रप एक फल को देखते हैं, तो उसमें सभा कुछ लिए बह virgin है। और इस शुभ मुहूर्त पर, जब दिया हुआ, इस पेड़ को, सारा कुछ उसके अन्दर कि हुआ्रा। निहित होता है। अगर आप उसका एक बीज उठा कर देखें तो उसके अन्दर उतन सारे पड बन हुए सह जयोग का कार्य करना शुरू किया। रहते हैं जो उसमें से निकलने वाले हैं । इस प्रकार सहजयोग अत्यन्त गहन और प्रगाढ़ है, किन्तु अत्यन्त' 'विशाल है । इसमें 'सभी जितना कुछ परमात्मा का कार्य हुआ है संसार में, वह सारी का सारा निहित है । वह गौरी स्थान पर है, यह कार्य घटित शऔर जब यह कार्य घटित हुआ, उस सके बाद मैंने श्रर आप जानते हैं आज 'हजारों में लोग पार हो रहे हैं। आज अगर मैं किसी देहात में बोलती होती तो इससे सात गूना लोग बैठे होते। और बेटते ही हैं। शहरों में आना तो time (समय) आशा है आप लोग अपने आत्म-साक्षात्कार को बर्वाद करना है क्योंकि लोग वैसे ही पार नहीं प्राप्त करेंगे एक और आज के दिन की विशेष होते । होने के बाद मेरा सर चाट जाते हैं । और बात यह है कि सहस्रार को खोलने का कार्य, जो वह भी मेंरा, परेशान कर देते हैं ग्रौर कोई जमते कि महत्त्वपूर्ण था, मेरे लिए वही मुख्य कायं था । नहीं । अगर आ्ाप सी आदमियों को पार कराईये, मैंने अनेक लोगों की कुण्डलिनियों को सूक्ष्म रूप से उसमें पचास भादमी तो सर चाटने के लिए आते जाना था । और यह सोचती थी कि मनुष्य क्या दोष हैं ्र उन दोषों का अगर मैं सामूहिक तरह से इस कार्य को करना चाहती है-जोकि ससय से सहजयोग को लेते हैं, वयोंकि वह level (स्तर) के क्या हैं और पचास आदमी ज़ो वच जाते हैं, उसमें से पच्चीस फ़ीसदी आदमी ऐसे होते हैं कि जो गहनता कि है सामूहिक का-तो किस प्रकार सारे जो कुछ भी नहीं है लोगों के, वह शक्ति नहीं है उनके अन्दर, वह इनके मेलमिलाप permutation-combinations हैं, उसको किस तरह से छेड़ा जाए क एक ही हैं, जो बहुत सीधे-सरल परमात्मा के बहुत नजदीक झटके में सब लोग पार हो जाएँ । और इस पर मैंने बहुत गहन बिचार किया था। और उसमें जो वह इतनी 'गहन' है और इस कदर बह प्राकलन कुछ मुझे समझ में आयो उस हिसाब से ५ मई के करते हैं कि आश्चर्य होता है । और एक रात में दिन सहस्रार खोला गया-उस हिसाब से । और आज की रात, पूरी रात, मैं समुद्र के किनारे अकेले जैसे कि 'प्रकाश फेल जाए, एकदम 'आग जैसे जागो थी और जागत वक्त पूरे समय में सोच रही लग जाए । इस तरह से 'कोई भी village थी कि किस से इस सहस्रार का आवरण दूर होगा। और जैसे ही मौका मिला, सवेरे के समय ये सहस्रार खोला गया । आज का दिन इसलिए भी बहुत शुभ है। सूझ बूझ नहीं है। और अगर गाँव के लोग जो होते पृथ्वी माता से नजदीक रहते हैं उनकी जो शक्ति है ही उनमें इतना बदल आ जाता है । और ऐसा : (गाँव) में मैं जाती हैं तो छः सात हजार आदमी कम नहीं आते। से तरह और अपने यहाँ वम्बई में आज कम-से-कम निर्मला योग १६ Mho इतने वर्षो से कार्य कर रहे हैं तो भी मैं कहती है अन्दर बहना शुरू हो जाती है, जो सर्वव्यापी शक्ति लोग आए हैं। नहीं तो मैंने यहां तो एक से है। उस शक्ति को किस तरह से चलाना है, अपने वहुत शुरू किया था । तो उस हिसाव से काफी लोग अन्दर स्थायी कैसे करना है, उसका उपयोग कैसे आए हैं। करना है, ये सारी बातें आपको सीख लेनी चाहिए । प्रौर इस सीखने में अरपको कोई समय नहीं लगता । पर आपको जान लेना चाहिए कि सहजयोग अगर आपके अन्दर सद-इच्छा है तो सब चीज हो जैसे मराठी में कह। गया है कि 'ये रा गबळियाचे सकती है। अर्थातु इाप जानते हैं कि इसके लिए काम नोहे। बीरों का काम है । जनमें ये वीरश्री पैसा-बैसा कुछ नहीं दे सकते । हमारा कोई orga- हो, बही सहजयोग में अ सकते हैं। नहीं तो आधे nisation ( लोग आते हैं कि 'मां, हमारी बीमारी ठीक क रद, membership (सदस्यता) नहीं है । कुछ भी नहीं या उसके बाद आते हैं मेर। सर चाटने के लिए उसके लिए सह जयोग नहों है । सह जयोग है अपनी पा लें, अआप श्रगर सभी पा लें, तो मेरे खयाल से आत्मा को पाने के लिए। उसे आप पहले प्राप्त करें, आवे बग्बई का तो उद्घार हो ही गया। आने के बाद आरापकी तन्दुरुस्ती भी ठीक हो जाएगी। इतता ही सिर्फ जमना चाहिए। इसकी वड़ी आवश्यकता है । नहीं आपकी तन्दुरुस्ती ठीक हो जाएगी, पर आप दूसरों की भी तन्दरुस्ती ठीक कर सकते हैं। सबसे बड़ी तो बात यह है कि एक दीप जब जल जाता है तो अनेक दीपों को जला सकता है । इसी प्रकार आप भी अनेकों को जागृत कर सकते हैं। संस्था) नहीं है । हमारे यहाँ कोई । है। यह सबको पाने की चीज है । आर 'सब' जब बहुत गहन है, और है भी एक लीलामय । बडा ही मजेदार है । वहुत ही लीलामय चीज है। अगर आप इसमें आ जाएँ, इतना माधुयं इस के अन्दर है । कृष्ण ने सारा माधुर्य इसमें भरा हुआा है। [और सब तरह की इतनी 'सुन्दर इसकी रचना है कि सहजयोग एक 'जीवन्त' प्रणाली है । यह मरी उसको जानने पर मनुष्य सोचता है कि "वया मैं हुई प्रणाली नहीं जिसके लिए आप श्रपना मेम्बर- शिप बना ले या पाँच रुपया दे दें, चार आना, है ? क्या मैं 'इतना धामिक है?" धर्म और विनोद मेम्बर हो जाएँ, ऐसा नहीं है । 'आपको' कुछ होना तो हम समझ भी नहीं सकते । लेकिन घर्म जहाँ पड़ता है। आपको बदलना पड़ता है। 'সपमें हैम हसाये श्रर आनन्द विभोर कर दे, वही धर्म फ़क आना पड़ता है। और वह आने के बाद आप को स्थायी होना पड़ता है और वृक्ष की तरह खड़ा होना पड़ता है। ऐसे जो लोग होंगे वही सहजयोग और सूबूद्धि दें कि इसमें आप जमें श्रौर आगे बढ़े। के योग्य होते हैं। आजकल बातें तो लोग बहुत बहुत-से लोग इसमें बढ़ गये हैं, बम्बई शहर में । करते हैं कि समाज में ये सुधारणा होनो चाहिए 'बहुत' लोग हैं। उ्यादा से ज्यादा लोग अब हो गये और यह अपने देश में होना चाहिए। लेकिन सहज हैं, मेरा कहना है। यहाँ सब तो आ्ाए नहीं हैं। जो योग में जब आप आएँगे नहीं तब तक अपके देश भी हैं आए हुए हैं । ले किन और इसके अलावा बहुत में न कोई मदद कर सकते हैं, जैसे मैंने आपको समझाया । 'इतना मुन्दर हैं अन्दर से? ब्या मैं 'इतना विनोदी कुछ असली है । परमात्मा आप सबको आत्मसाक्षाकार द ।। सुधारणा हो सकती है, न आप किसी की से लोग हैं जो यह कार्य अनेक केन्द्रों में कर रहे हैं, मुफ्त में कर रहे हैं। आप उनसे मिलिए और अपनी प्रगति करिये सहजयोग एक प्रेम की शक्ति है, परमात्मा के प्रेम की शक्ति । और 'वह प्रेम की शक्ति प्रापके परमात्मा घ्राप सबको गराशीर्वाद दे ! निमंला योग २० (कवर पृष्ठ २ का शेष) धिक vibrations का आनस्द पाये गे प्र उल्हास क्यक्तित्व को भूज जाता है और अन्तिम एक्यती का की बृद्धि होगो। उनका अ्रहं (eg०) एवं प्रति सोपान आरम्भ हो जाती है। मह (super ego) कम से कम होकर विलुप्त हो जायेंगे। वहुधा वन्दनीय माताजी प्रास्ट्रलिया की माताजी ईश्वर की सामूहिकता के रूप में प्रतिष्ठित हैं । अत: उन्हें जानने का मार्ग केवल सामूहिकता को आत्म समर्पण ही है और यही एक ऐसा बिन्दु है जहां हमें प्रपने प्रति ईमानदार होता पाय उदाहरण प्रस्तुत करती रहती हैं कि वहाँ के निवासियों में मान्यता ( recognisation) को मात्रा में विषुलता है । यह अबोधता ( मासूमियत) (innocence) से आती है, जो वस्तुतः यथार्थ है। ह। में एक बार फ़िर पुनरावृत्ति करता है कि माता अवोधता जब सत्य के सम्पर्क में ग्राकर मिलती है तो जी इस तथ्य को बारम्बार उजागर नहीं करेंगी । ज्ञान का उदय होता है। अवोधता सत्य सङ्कम से ज्ञान बन जाती है। यदि अकृत्रिम हानि की मात्रा परन्तु वास्तव में आपका हरास हो रहा है। यह अत्यधिक है तो मान्यता अपती गति से गतिमान माया की कार्य प्ररेणालो है जिससे आप शिक्षा प्राप्त होकर हानि की आपूर्ति में सहायता करती है। आपको अपना विकास होता हुआ सा प्रतीत होगा करने हेतु घकेले जाते हैं। अतः आप से उनका अनुरोध है कि आप गम्भीरता से ईमानदारी से माताजी का कथन है कि अस्ट्र लिया में अपने निर्धारित मार्ग का अनुसरण कर जिसमें मान्यता इतनी दढ है कि आत्मसमर्पण की द्वितीय शापकी] सामूहिकता का विकास आरात्मसमर्पण के सोपान शीघ्रता से सहज ही में प्राप्त हो जाती है। साहचर्य में सम्पन्न हो। जैसा मैंने कहा था यह वैसा जब यह घटित हो जाती है तो वास्तविक एकता नहीं है-नहीं है-यह पपात्म समर्पण नहीं है में विलम्ब नहीं लगता । परन्तु इस सम्पण एकता वास्तव में मानसिक प्रक्रिया है । में एक खतरा है कि ये विकास एवं सामूहिकता तो आप निःसंदेह अपने भाई-बहनों के प्रति अऔर एक प्रावश्यक अर्ग बन जाते हैं। माताजी ने बार- अधिक स्नेह एवं प्रसन्नता में बृद्धि का अनुभव वार आग्रह किया है और चेतावनी भी दी है कि करगे अतः माताजी के प्रति स्नेहिक होना स्वतः माताजी से प्रेम करना ही पर्याप्त नहीं है सिद्ध है । वरन् सामूहिक रूप से परस्पर स्नेह सिक्त होने से ही प्रसन्न कर सकते हैं । वहत सारे सहजयोगियों मंगल कामना करनी है। आपके चित्त में शुद्धता ने माताजी को अत्मसमर्पण किया है (वे दावा समग्र एकाग्रता का होना आवश्यक है । इसमें करते हैं कि हमने ऐसा किया है) परम्तु वे परस्पर पवित्रता तथा स्थिरता का पुट भी देना है क्या स्नेहशील दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं तथा प्रपने सहजयोगी नित्य प्रति प्रभ्यास करके अपने मानसिक सहजयोगियों की देखभाल की सूचारु रूप से नहीं करते हैं तथा कभी-कभी असामूहिकता (एका ्ी) माताजी की कृपा (grace) का पूर्ण आनन्द भी ग्रहण कर लेते हैं। माताजी इससे प्रधिक प्रोर उठाइये । कुछ न कह सकेंगी क्योंकि यह एक पाठ्यक्रम है जिसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा स्वयं ही हुदयङ्गम करना है। पाठ याद हो जाने के पश्चात् वह अपने यदि ऐसा ही है प्रत्येक सहजयोगों को यू.एस.ए. में ही नहीं आप आदि शक्ति माताजी को वरन विश्व भर में सहज योग के प्रचार प्रसार की उद्वेगों को त्यूनातित्यून करने का प्रयत्न करते हैं । स्नेहसिक्त ! -वारेन 11-9-81 Registered wilh the Registrar of Newspapers under Regn. No. 36999/81 सहजयोगी की चाह अर्वान ओर अम्बर में, है माँ ! फुल बन हम जीवन के, महके गे महकायं गे । से तेरे पदकमल सजायगे । हम गायगे, जलायेगे । सुमन मुगन्ध नक्षत्र तारों तक हम, प्रेम - पुण्य मालाओं तेरा सन्देश सुनायेंगे । गायेगे गायेंगे, हम गायगे, गोत प्रेम के गांयंगे ।। १ ॥ गीत प्रम के गायगे|५।। ज्योति से उयोति जलायंगे, क्यों खोजे जल थल, नभ में प्रम-प्रकाश फेलाय गे । क्यों खोज त्रिभुवन में । शीश भका कर तेरे चरगों पर, होरे, मोती, तारे, या हम धन्य घन्य हो जायगे । चमकते प्रमांगन में । गायेगे, हम गायगे, गायेंगे, हम गायेंगे, गीत प्रेम के गायगे॥२॥ गीत प्रेम के गायेगे ॥६॥ सहजयोग अपनायेगे, ते री इच्छा बत कर, हम जीवन सहज बनायगे । ते रे हो बन जाय । अ्रथ जोवन का पायेगे, होकर 'परम के, हम जीवन सकल बनायगे। परम प्रम पाय । हम गायेंगे, गायगे, गोत प्रेम के गायेगे |३॥ गायेंगे, हम गायेंगे, गीत प्रेम के गायगे|६॥ गाय गे |६॥ सहज प्रेम की क्रान्ति, जन मानस में जायेंगे। 8 जय माता जी लाल बनतगे हम तेरे, निमंल प्रेम कहलायेंगे। गायेंगे हम गायेंगे, सी. एल. पटेल गीत प्रेम के गायगे ॥४॥ सन् १६८४ में परम पूज्य माताजी का दिल्ली में कार्य-क्रम १२ बजे अपराह् ग्राम तुगाना जिला मेरठ ११-३-८४ १२-३-८४ से १३-३-८४ तथा १५-३-८४ से १७-३-८४ एवं २०-३-८४ मावलंकर आडिटोरियम, रफी मार्ग ६ वजे संध्या सनातन घर्म मन्दिर शंकर रोड न्यु राजेन्द्र नगर ६-३० बजे संध्या १४-३-८४ सेमोनार, गढगङ्गा, गढ़मुक्तेश्वर १८-३-८४ वे १६-३-८४ Edited & Published by Sh S. C. Rai, 43. Buingiow Road, Delhi-110007 and Printed at Ratnadeep Press, Darya Gani, New Delhi-110002. [One issue Rs. 5.00, Annual Subscription Rs 20.00 Foreign [By Airmail E4 $ 8] ---------------------- 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-0.txt (ও ॐ fनिर्मला योग द्विमासिक नवम्बर-दिसम्बर 1983 वष २ अके १० ह ॐ र्व मेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात, श्री सहस्त्रार स्वामिती मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निमंला देवी नमो नमः ॥ पी प भा पक 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-1.txt परम वन्दनीय माताजी श्री निर्मला देवी जो के संयुक्त राज्य ग्रमेरिका की यात्रा (१६८१) के सम्बन्ध में डा० वारेन के संक्षिप्त पत्र का हिन्दी रूपान्तर बातों से (शरीरस्थ) देवतागरण इतने अधिक] कृषित हये कि वस्दनीय माताजी के चक्र इतने अनतोगत्वा स्नेह युक्त माताजी संयुक्त राज्य कुछ अ्मेरिक के दौरे पर मानव कल्यारार्थं विमानारूढ हुई। विमान यात्रा में माता जी के सात्निध्य में जो सक्रिय हो गये कि उनसे (कोप को) सहन करना प्रेरणा प्राप्त हुई वही कुछ शब्दों में प्रापके सम्मुख दुषकर हो गया। जब मानव समुदाय अ्रपने स्वयं है- को अथवा अन्य दूसरे व्यक्तियों को हानि पहुँचाने का दूरतिक्रम करते हैं अथवा अपनी सामर्थ्यं की प्रस्तुत भविष्य के गर्भ में जो कुछ भी छिपा है वह वरिधि के बाहर कार्य करने की चेष्टा ही नहीं अधिकतर वहाँ के निवासी भक्त मण्डली की आ- ध्यात्मिक क्षुधा एवं जिज्ञासा पर निभर करता है कि वे कहाँ तक अपने ओपको इस योग्य प्रदशितकेसे विभित्न उदाहर ण देखे हैं कि जब मानव अपनी बरन दुःसाहस भी करते हैं तो देवतागरण लोगों से परावृत हो जाते हैं। मैंने स्वयं बरिटेन में बहुत-से करते हैं। एक ओर तो माता जी का कथन है कि वे अपने अवतरण की अमेरिका में सार्वजनिक से घोषणा करंगी। दूसरी ओर उनको इस बात की आर्मा के अरथवा ईश्वर के विरुद्ध कार्य करते हैं । प यह कुछ श्रच्छी बात प्रतीत नहीं होती है। माता भी चिन्ता है कि (सम्भव है) बहत से इस अवसर जी का कथन हैं कि ऐसी ही तत्सम घटनाएं आस्ट्रोलिया में भी (अन्य देशों की तरह) घटित को चूक जायेंगे क्योंकि वहाँ के निवासी प्रहंका र ग्रस्त है और उनके मन पर अशुद्ध ज्ञान एवं पाखण्डी हुई है। ऐसे समुदाय एवं वर्ग विशेष को यथा गुरुआों का प्रभाव काफ़ी जमा हुआाहै। अमेरिका सम्मत हल्की-सी चेतावनी भी दी गई थी, सावधान विश्व भर का विशुद्धि चक्र है और यहीं से अहंकार भी कराया जा चुका है कि पुनररावृत्ति न हो । का आारम्भ माना जाता है। हमें प्रा्थना करनी चाहिये कि यह अशुद्ध ज्ञान निर्मला विद्या में परि- वर्तित हो जाये र अ्रहं ( ego) स्वयं इस तथ्य जब परम वरेण्यम माता जी का शुभागमन अ्रमेरिका में होगा तो विश्व भर के पार व्यक्ति को स्वीकार करे कि अ्रव तक का अजित समस्त (realised souls) की सामूहिक प्रकृति एवं प्रवृत्ति का विकास होगा और सुदृढ़ रहेगा। वे सब जो इस तथ्य को स्वीकार नहीं करेंगे और अपने ज्ञान उपयोगी नहीं हैं। बास्तव में यह ज्ञान आत्म साक्षात्कार के मार्ग को सोमित करता है श्रतः पुराने स्वार्थी व्यक्तिगत (कुत्सित) विचारों, कार्य- कलाप एवं बोधता (feelings) में निमग्न रहेंगे वे आध्यात्मिकता के स्तर से गिर जायेंगे। सामूहिक यात्रा में अधिकाधिक पार हो। उनका अनन्त स्नेह प्रकृति (collective being) के साथ विकास का अलभ्य पारितोषिक आत्म साक्षात्कार की स्थिरता गतयवरोध की सम्भावना प्रबल हो जाती है। परन्तु माता जी की प्रबल इच्छा है कि इस एवं कृपा यथा पूर्व से भी अ्रधिक मात्रा में उसड पड़ रहा है । अभी थोड़े दिन व्यतीत ह ये कि विटेन में के रूप में प्राप्त होना निश्चय है। सबके सब अ्रधिका- शेष कबर पृष्ठ ३ पर) 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-2.txt सम्पादकोय कृष्णेन संस्तुते देवी शश्वभ्यवत्या सदाम्बिके । रूपं देहि जयंदेहि यशोदेहि द्विषो जहि ॥ श्री दुर्गासप्तशती "देवि अम्बिके ! भगवान् विष्णु नित्प निरन्तर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, वश दो, काम क्रोध प्रादि शत्र मों का नाश करो" । ५ आाज हम साक्षात् परवरह्म परमेश्व री श्री माता जी से प्रार्थना करते हैं कि हमें वह दें कि हम उनके दर्शाए मार्ग पर समस्त विश्व को लाने में सक्षम हो सके । शक्ति निर्मला योग १ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-3.txt निर्मला योग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली-११०००७ संस्थापक : परम पूज्य माता जी थ्री निर्मला देवी : डॉ. शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र श्री आर. डी. कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा :लोरी टोडरिक श्रीमती क्िस्टाइन पैटू नीया २२५, अदम्स स्ट्रीट, १/ई. ब्रूकलिन, न्यूयाक-११२०१ यू.एस.ए. ४५४८ बुडग्रीन ड्राइव बैस्ट बैन्कूवर, बी.सी. बी. ७ एस. २ वी १ यू.के. श्री गेविन बाउन भारत श्री एम० बो० रत्नान्नवर ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़मॅंशन १३. मेरवान मेन्सन सर्विसेज़ लि., गंजवाला लेन, बोरीवली (पश्चिमी) बम्बई-४०००६२ श्री राजाराम शंकर रजवाड़े ८४०, सदाशिव पेठ, पुर्णे-४११०३० १६० नार्थ गावर स्ट्रीट लन्दन एन.डब्लू. १२ एन.डी. पष्ठ इस अंक में : .। १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. परमपूज्य माताजी का प्रवचन ४. परमपूज्य ५. परम वन्दनीय माताजी के संयूक्त राज्य अमेरिका की यात्रा (१६८१) के सम्बन्ध में डॉ० वारेन के सक्षिप्त पत्र का हिन्दी रूपान्तर ६. सहजयोगी की चाह ७. सन् १६८४ में माताजी का दिल्ली में कार्यक्रम १ २ माताजी का सार्वजनिक भाषण ११ द्वितीय कवर चतुर्थ कवर चतुर्थं कवर निर्मला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-4.txt श्री गणेशाय नमः परमपूज्य श्री माताजी का प्रवचन सहत्रार दिवस, ५ मई १६८३ गोरई क्रीक, बम्बई पप सबकी ओोर से मैं बम्बई के तो भी अपने अन्दर आप जानते है सात चक्र हैं, एक सह जयोगी व्यवस्थापक जिन्होंने साथ अपने आप । उसके अलावा और दो चक्र जो यह इन्तजामात किये हैं. उनके हैं, उसके बारे में अप लोग बातचीत ज्यादा नहीं श्रर मेरी करते वो हैं 'चन्द्र का चक्र और 'सूर्य का चक्र लिये धन्यवाद देती हैं. । तरफ़ से भी मैं अनेक धन्यवाद फिर एक हम्सा चक्र है. इस प्रकार तीन चक्र श्रीर देती हैं। उन्होंने बहुत सुन्दर जगह आ गए। तो, सात रौर तीन-दस । उसके ऊपर हम लोगों के लिये हूंढ़ रखी है । ये भी एक और चार चक्र हैं। सहस्रार से ऊपर अर चार चक्र परमात्मा की देन है कि इस बक्त जिस चीज़ के हैं। और उन चक्रों के ब। रे में भी मैंने आप से बारे में बोलने बाली थी, उन्हीं पेड़ों के नीचे बैठकर बत्ताया था- अर्थ-विन्दु, विन्दु, वलय और प्रदक्षिणा ऐसे चार चक्र हैं। सहजयोग के बाद भी, जब कि सहस्रार खुल गया है, उस पर भी ये चार चक्रों में चौदह वर्ष पूर्व कहना चाहिये या जिसे तेरहै आापको जाना है-अ्र्धविन्दु, बिन्दु वलय श्रर वर्ष हो गए और अ्रब चौदहवो वर्ष चल पड़ा है। यह प्रदक्षिणा । इन चार चक्रों के बाद कह सकते हैं कि सहस्रार की बात हो रही है। महान् कार्य संसार में हुआ था, जबकि सहस्रार खोला गया। हर सहस्रार दिन पर बताया हुआ है कि क्या हुआ था, किस हैम लोग सहजयोगी हो गए। इसके बारे में मैंने अनेक बार आपसे और दूसरी तरह से भी आप देखें, तो हमारे अन्दर चौदह स्थितियाँ, सहस्रार तक पहुँचने पर भी हैं। अगर उसको विभाजित किया जाए तो सात तरह से ये घटना हुई, क्यों की गई और इसका महात्म्य क्या है । ले किन चौदहरवा जन्म दिन एक बहुत ब डी चीज चक्र अगर इडा नाड़ी पर और सात पिगला नाडी है। क्योंकि मनुष्य चौदह स्तर पर रहता है, और पर है। जिस दिन चौदह स्तर को लांघ जाता है3 तो वो फिर पूरी तरह से सहजयोगी हो जाता है । इसलिये आज सहजयोग भी सहजयोगी हो ग या । मनुष्य जब चढ़ता है, तो वो सोधे नहीं चढ़ता । बो पहले left (बाये) में आता है, फिर right (दायें) में जाता है. फिर left में अाता है, फिर अपने अन्दर इस प्रकार परमात्मा ने चौदह right है जाता है । और कुण्डलिनी जो है, वो भी स्तर बनाए हैं। अगर अप गिनिये, सीधे तरीके से, जब चढ़ती है तो इन दोनों में विभाजित होती हुई निर्मला योग ३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-5.txt पड़ेगा। चढ़ती है । इसकी वजह ये है कि मैं अरापको अगर राजना, समझाऊँ कि दो रस्सी और दोनों रस्सियाँ इस पहले भी मैंने बहुत कहे हैं लेकिन आज के प्रकार नीचे उतरते वक्त या ऊपर चढ़ते वकत भी दिन विशेषकर के, हम लोगों को समझना चाहिए दो अवगुण्ठन लेतो हैं। जब दो अवगुण्ठन लेती हैं, कि सहस्रार के दिन राजना क्या है, विराजना तो उसके left और right इस प्रकार से पहले क्या है। left और फिर right, दोनों के अवगुण्ठन होने से, फिर right वाली ।ight को आ जाता है। eft गे पेड़ श्रीफल का है। नारियल को श्रीफल कहा वाली left को चली जाती है । बिराजना-ये शब्द आपके सामने अब आप यहाँ बेठे हैं, ये पेड़ों को आप देखिये । जाता है । नारियल को थीफल कहा जाता है । थरी फल, जो नारियल है, इसके बारे में आपने कभी लेकिन बड़े सोचने की आप अगर इसको देखें, तो मैं ग्रापको दिखा सकती है। समझ लीजिये इस तरह से आया । अब सोचा या नहीं, पता नहीं । इसने एक चक्कर लिया, और दूसरे चक्तकर लेने में चीज़ है-'इसे श्रीफल क्यों कहते हैं ?' फिर आ गई इसी तरफ़ । इस तरफ़ से आया, इस ने एक चककर लिया, फिर दूसरा चक्कर लिया, फिर इस तरफ़ । इस प्रकार दो रवगू०उन उसमें तही। सबसे अच्छा जो ये फल होता है, समृद्र के होते जाते हैं। इसलिये आपकी जव कुण्डलिनी चढ़ती है, तो चक्र पर आपको दिखाई देता है, कि left पकड़ा है या right, क्योंकि कुण्डलिनी तो एक है। फिर आपको एक ही चक्र पर दोनों चीज दिखाई देती हैं। इस प्रकार आप देखें कि left सफ़ा ई, गन्दगी हर चोज इसमें होती है । ये पानी पकड़ा है यो right पकड़ा है । ये समुद्र के किनारे होता है, और कहीं होता किनारे । वजह ये है कि समुद्र जो है, ये घर्म है । जहाँ धर्म होगा, वहीं श्रीफल फलता है। जहां धर्म ले किन नहीं होगा, वहाँ श्रीफल नहीं होगा । समुद्र के अन्दर 'सभी' चीज़ं बसी रहती हैं। हर तरह की भी 'नमक से भरा होता है। इसमें नमक होता है । ईसा मसीह ने कहा था कि 'तुम संसार के नमक हो। तो इस प्रकार हमारे अन्दर left प्र right, माने हर चीज में शराप घुस सकते हो, 'हर चीज़' में अ गर दोनों का विभाजन किया जाए, एक चक्र का, आप स्वाद दे सकते हो। नमक हो-नमक के बरगर तो सात दूनी चोदह स्थितियाँ तो पहले ही cross (पार) करनी पडती अन्दर लेते हैं, श्रगर हमारे अन्दर नमक न हो तो हैं, जब प्राप सहस्रार तक पहुँचते हैं । और अगर वो प्राण-शक्ति भी कुछ कार्यं नहीं कर सकती । ये इसको आप समझ लें कि सात ये, और उपर के catalyst (कार्य-साधक) है । और ये नमक जो है, सात-इस तरह भी तो चौदह का एक मार्ग बना । ये हमें जीने का, संसार में रहुने का, प्रपत्च में रहने । वैसे ही हमारे अन्दर चौदह इन्सान जी नहीं सकता। जो हम ये प्राण-शक्ति की पूर्ण व्यवस्था नमक करती है । अगर मनुष्य में में इसलिये, 'चौदह चीज़ जो हैं वो कुण्ड लिनी नमक न हो, तो वो किसी काम का इन्सान नहीं । शास्त्र में बहुत महत्त्वपूर्ण, बहुत महत्त्पूर्ण हैं । लेकिन परमात्मा की तरफ जब ये चीज़ उठती है, बहुत महत्त्वपूर्ण चीज है । और जब तक हम इस तो वो सब नमक को नीचे ही छोड़ देती है-'सब' चीज़ को पूरी तरह से न समझ लें, कि इन चौदह चीज छूट जाती हैं। औ्र जब इन पेड़ों पर सूर्य की चीजों से जब हम परे उठेंगे, तभी हम सहजयोग के रोशनी पड़ती है श्रौर, सूरयं की रोशनी पडने पर पूरी तरह से प्रधिकारी हैं । हमको आांगे बढ़ते ही जब इसके पत्तों का रस और सारे पेड़ का रस, रहना चाहिए औोर उसमें पूरी तरह से रजते रहना ऊपर की ओर खिच आता है-क्योंकि evapora- निरमला योग ४ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-6.txt tion होता (भाप बनता) है; तब इसमें से जो, इस है जो हमारा brain (मस्तिष्क) है, ये हमारी सारी उत्क्रान्ति का फल हैं । अज तक जितना , हमारा evolution (उत्रान्ति) हुआा है - जो amoeba (एक कोशिकीय जन्तु) से आज हम इन्सान बने हैं, वो सब हमने इस brain के फल स्वरूप पाया है यै जो brain है, ये सव कुछ- जरूर देना होता है श्रीफल दिये बर्गेर पूजा सम्पन्न जो कूछ हमने पाया है इस brain से । इसी में सब नहीं होती । श्रीफल भी एक अजीब तरह से बना तरह की शक्तियाँ, सब तरह का इसी में सब पाया तना में से जो यही पानो ऊपर बहुता है-वो सब कुछ छोड़कर के, उन चौदह चीजों को लॉघ करके ऊपर जाकर के, श्रीफल बनता है। वही श्रीफल प्राप हैं। और देवी को थीफल हुआ्रा है। दुनिया में ऐसा कोई सा भी फल नहीं, जसे श्रीफल है । उसका कोई-सा भी हिस्सा वेकार नहीं जाता। इसका एक-एक हिस्सा इस्तेमाल होता है। इसके पत्तों से लेकर हर चीज इस्तेमाल होती हैं और उसका जो प्रकाश हम रे नर सहजयोग है और धोफल का भी - हरएक चीज़ इस्तेमाल के बाद सात परतों में फैलता है, दोनों तरफ़ से वो होती है । हदा धन संब्चित है । अब इस हृदय के अन्दर जो आत्मा विराजती तभी हो सकता है. जब ग्रादमी का सहखार खुला हो। अभी तक हम इस दिमाग से वो ही काम करते 1 प्रा देखे] कि श्रीोफल भी मनुष्य के सहस्रार हैं। आत्म-साक्षािकार से पहले, सिवाय इसके कि हम जैसा है । जसे बाल अपने हैं, इस तरह से श्रीफल अहड्कार और के भी बाल हैं। यही श्रीफल है इसमें बाल होते दोनों के माध्यम से जो कार्य करना है, वो करते हैं। हैं ऊर में, इसके protection (रक्षा) के लिये। मृत्यु से protection हमें बालों से मिलता है । इस अर अहङ्गार - इन दोनों के सहारे हम सारे कार्य लिये बालों का बड़ा महान् मान किया गया है- करते हैं। लेकिन realization (साक्षात्कार ) के Super-ego (प्रति-अ्रहकार) इन अहङ्कार और प्रतिअ्रहङ्कार, या आप कहिये मन' ब।ल वहुत महान् है, ग्रौर बड़ी शक्तिशाली चीज़ क्योंकि आ्रापको protect करते हैं । इनसे आपकी realization से पहले, हृदय में ही विराजमान है, रक्षा होती है। औीर इसके अन्दर जो हमारे जो cranial bones हैं, जो होड्डियो हैं, वा भी आप वाला । उसका काम, वो जसा भी हैं, देखने का देखते हैं कि श्रीफल के अन्दर में वहत कड़ा-सा इस तरह का एक ऊपर से आवरण होती है । उसके हैं बाद हम आत्मा के सहारे कार्य करते हैं। आत्मा, श्रलग-क्षेत्रज्ञ बना हुआ देखते रहने विल्कुल मात्र-वो करता भहता है लेकिन उसका प्रकाश हमारे चित्त में नहीं है, वो हमसे अलग है, वो हमारे चित्त में नहीं है । वाद हमारे अन्दर grey matter ओर white matter ऐसी दो चीजें हमारे अन्दर होती हैं। श्री- फल में भी आप देख-white matter प्र Realization के बाद तो हमारे चित्त में आ matter.........प्रर उसके अन्दर पानी होता है, जाता है, पहले। पहले चित्त में [श्राता है । और चित्त आप जानते हैं कि void (भवसागर ) मे बसा है । उसके अन्दर भी पानी होता है-वो limbic area उसके बाद उसका प्रकाश सत्य में अ जाता है, क्योंकि हमारा जो मस्तिष्क है, उसमें प्रकाश ्ा जाने से हम सत्य को जानते हैं । जानते-माते ये तो ये साक्षात् श्रीफल जो है, ये ही हमारा- नहीं कि वृद्धि से जानते हैं, पर साक्षात् में जानते हैं गर इनके लिये ये फल है, तो हमारे लिये ये फल कि ये है 'सत्य' । उस के बाद उसका प्रकाश हृदय grey जो हमारे में cerebrospinal fluid होता है होता है। निमंला योग ५. 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-7.txt में दिखाई देता है हृदय प्रगाढ-हृदय बढ़ने लग और अहङ्गार' दोनों का लय हो जाता है । लेकिन जाता है, विश्ाल' होने लगता है, उसकी आनन्द ऐसे बात करने से तो किसी की समझ ही में नहीं की शक्ति बढ़ने लगती हैं। इसलिये 'सच्चिदानन्द- आयेगा, 'इसका लय कैसे होगा ?' मन और चित्त और आनन्द-सत् मस्तिक में, चत् हमारे अहङ्कार का। तो, वो मन के पीछे लगे रहते हैं, ९ सतु, धर्म में र आनन्द हमारी आ्मा में- प्रकाशित अहड्गकार के पीछे स्लगे रहते हैं अहङ्कार को मारते होने लगता है। उसका प्रकाश पहले धीरे-धीरे रहो, तो मन बढ़ जाता है; मन को मारते रहो तो फेलता है, ये आप सव जानते हैं। उसका प्रकाश अहड्कार बढ़ जाता है। उनके समझ ही में नहीं आता, धीरे-धी रे सूक्ष्म क्योंकि हम जिस स्थूल व्यवस्था में रहते हैं, उस मन और अहंकार को किस तरह से जोता जाए ? बढ़ता है, सूक्ष्म चीज़ होती है. पहले बहुत कि ये पागलपन क्या हैं । ये किस तरह से जाए ? व्यवस्था में उस सूक्ष्म को पकड़ना कठिन हो जाता है। धीरे-धीरे वो पकड़ अ जाती है। उसके बाद आप बढ़ने लग जाते हैं, अग्रसर होते हैं। सहस्रार का चक्र पर काम करने से मज और अहङ्कार एक पर्दा खुलने से ही कुण्डलिनी ऊपर आ जाती है उसका पूरी तरह से लय हो जाता है । और वो लय लेकिन उसका प्रकाश चारों तरफ़ जब तक नहीं होते ही हृदय और ये जो brain है, इनमें पूरा फैलेगा। सिर्फ' ऊपर कुण्डलिनी आ जाने से आप सामञ्जस्य पहले आ जाता हैं-concord । ने सदाशिव के पीठ को नमस्कार कर दिया । आ्रप लेकिन एकता नहीं [आरती । 'इस एकता को ही, हम के अन्दर की आत्मा का प्रकाश घघला-धुधला को पाना है। तो आ्पका जो हृदय है, वही सहस्रार बहने लगा, लेकिन अभी इस मस्तिषक में वो पूरा हो जाता है, और आ्पका जो सहस्रार हैं, वही खिला नहीं । उसका एक ही द्वार है-'आज्ञा-चक्र । आज्ञा- जो हैं, हृदय । जो आप सोचते हैं, वही आपके हृदय में है, में हैं, वही आप सोचते ऐसी जब गति हो जाए तो कोई भी तरह की अब आश्चर्य की बात है कि आप अगर मस्तणक और जो कुछ श्रापके हृदय से इसको फैलाना चाहें तो नहीं फेला सकते । अपना मस्तिष्क और अपना हृदय-इसका अव बड़ा श्रशङ्का कोई भी तरह का अविश्वास, किसी भी सन्तुलन दिखाना होगा। आपको तो पता ही है, कि तरह का भय, कोई-सी भी चीज़ नहीं रहती। जब आप अपने बुद्धि से बहुत ज्यादा काम करते हैं, तो heart-failure (हृदय-गति रुकना ) हो जाता है । और जब आप heart (हृदय) से बहुत ज्यादा काम करते हैं, तो आपका brain (मस्तिष्क) फेल भय करने की कोई बात नहीं। देखो तो बेकार हो जाता है। इनका एक सम्बन्ध ब ना ही हुआ है, चीज को डर रहे थे; 'ये देखो, प्रकाश लेकर । फिर पहले से बना हुआ है। बहुत गहन सम्बन्ध है। और वी श्रपनी बुद्धि से तो समझ लेता है, पर फिर उस गहन सम्बन्ध की वजह से, जिस बवत आप पार हो जाते हैं, इसका सम्बन्ध और भी गहन होना पड़ता है। हृरदय प्रोर इस brain ( मस्तिष्क) का सम्बन्ध बहुत ही घना होना चाहिये। जिस बक्त ये पूरा integrate (एक) हो जाता है, तव चित आपका जो है, पूर्णतया परमेश्वर-स्वरूप हो जाता है । आपके हैं। जैसे आदमी को भय लगता है, तो उसे क्या करते हैं ? उसे brain से सिखाते हैं, देखो भाई, तुम डरता है। ले किन जब दोनों चीज एक हो जाती हैं-प्रप इस बात को समझने की कोशिश कीजि ये-कि जिस मस्तिष्क से आप सोचते हैं, जो आप के मन को समझाता है और सम्भालता है, वही आपका मन अगर हो जाए; यानि, समझ लीजिये कि ऐसा कोई instrument (यन्त्र) हो कि जिसमें accelerator ऐसा ही कहा जाता है हठ योग में भी कि 'मन निर्मला योग ६ whe 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-8.txt (गति बढ़ाने वाला) और brake (रोकने वाला), आप जान लेंगे कि 'नज़र पपनी हमेशा ऊँची रखें। दोनों automatic (स्वचालित) हों, और दोनों प्रगर कोई भी सीढ़ो पर पराप खड़े हैं, ले किन आप एक' हों-जब चाहे तो वो brake बन जाए. और को नजर ऊँचो है, तो वो आ्दमी उस' आदमी से जब चाहे तो वो accelerator हो जाए -और बो ऊँचा है 'जो ऊपर ख ड़े होकर भी नजर नीची सब जानता है । रखता है। इसीलिये कभी-कभी बड़े पुराने सहज ऐसी जब दशा आर जाए, तो आप पुरे गुरु । लोग बताते गये ऐसी दशा हमको आानी चाहिये । अभी तक श्प लोग काफ़ी उन्न ति कर गए हैं, स्तर पर पहेँच गए हैं। जरूर अव आपको कहना चाहिए कि अब आप श्रीफल हो गये हैं । लेकिन मैं हमेशा आगे की बात इसलिये करती है कि इस पेड़ नेजर हमेशा उपर रखनी चाहिए । अब इसे भी पर प्रमर चढ़ना हो, तो क्या आपन दता है. कि किस तरह से लोग चढ़ते हैं ? अगर एक मादमो को चढ़ाकर देखिये तो आप समझ जाएंगे कि वो एक डोर बौँध लेता है जारों तरफ़ से अपने, अरर उस है न तो हम श्रीफल बन सकते हैं। योगो भी 'घक से नीचे चले आते हैं हो है कि 'माँ ये तो बड़े पुराने सहजयोगी थे । इतने साल से आपके साथ रहे, ये किया, वी किया-पर नजर तो उनकी हमेदा नीचे रही ! तो में क्या कह अगर जर नीचे रखी तो वो चले प्राये] नीचे | काफ़ी ऊँचे काँ म नजर ऊपर है। इन सबकी नजर ऊपर है, क्यो कि बर्गर नजर ऊपर किये हुए वो जानते है कि न हम सूर्य नो पा सकत हैं, न ही ये कार्य हो सकता डोर को ऊपर फेसाते जाता है। वो डोर जब ऊपर फेस जाता है, तो उस पर वो चढ़ता है । इसी तरह से अ्पनी डोर को ऊँची फेसाते जाना है। और यही बृक्ष को बहुत समझना चाहिये। सहजयोग श्राप वृक्ष से बहुत अच्छे से देखना चाहिये ग्और जब आप सोख लगे, तभी आपका चढना वहत अच्छे से सोख सकत हैं। बड़ा भारी ये आरापके लिये जल्दी हो सकेगा। गुरू है । जैसे कि जब हम वृक्ष की ओर देखते हैं, तो पहले देखना चाहिये कि ये अपनी जड़ों को कसे पर ज्यादातर हम डोर को नीचे हो फसति वैता है। पहले अपनी जड़ को ये सम्भाल लेता है रहते हैं । सहजयोग में जाने के बाद भी डोर हम शर जड़ को सम्भालने के लिये ये क्या करता है। नीचे की तरफ़ फॅसाते हैं, श्रर कहते हैं कि 'माँ हमारी तो कोई प्रगति नहीं हुई। आव होगी कसे? चित्त है--"इसमें ये घूसा चला जाता है और उसी जब तुम डोर ही उल्टी तरफ फॅसा कर नी चे उतरने चित्त से वो खींचता है, उस सर्वव्यापी शक्ति को । की व्यवस्था करते हो। जिस वत नेचि उतरता है, ये तो उल्टा पेड है, ऐसा कहिये तो ठीक है। उस तो फिर डोर को फैसाने की भी जारूरत नहीं आप सवेध्यापी शक्ति को ये जड खींचने लग जाता है, जरा-सी ढील दे दीजिये, ढर-ढर-इर अराप नैचि उले पीर इसको खींचने के बाद में आरिविर उसको खींच आएँगे वह तो इन्तजाम से बना हुआा है- नीचे आाने का । ऊपर चढ़ने का इन्तजाम बनाना पडती है और इसी प्रकार वो श्रीफल बना हुआ है । है । तो कुछ बनने के लिए मेहनत करनी पड़ती है । श्रर जो पाया है, उसे खोने के लिये कोई मेहनत की जरूरत नहीं-आप सीधे चले [आाइये] जमीन को अत्यन्त प्रिय है और इसी सहस्रार को समर्पण पर; उसमें कोई तो प्रश्न खड़ा नहीं होता। जड़ में धुसा जाता है । ये हमरा धर्म है, ये हमारा कर करना क्या है ? फिर उसकी नजर ऊपर जाती ँ आपका सहस्रार भी इसो श्रीफल जैसा है। मा करना चाहिये । अनेक लोगों ने कल मुझसे कहा कि माँ, हाथ में तो ठण्डा आता है, प र में भी ठण्डा इसको अगर आप समझ ले, इस बात को, तो आता है, पर यहां नहीं आता ।' वहाँ कौन बैठा निमंला योग 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-9.txt हुआ है ? बस इसको जान लेना चाहिये, यहाँ से ठण्डक आ जाएगी। इसी प्रकार आप लोग के भी श्रीफल हैं, उसको पूरी तरह से परिपक्व, उसको परिपकव करने का पा. एक ही तरीक़ा है कि अपने हृदय से सामञ्जस्य से एकाकार होने की चौज़ है। हृदय औ्र वहाँ जो बैठे हुए हैं, वो सारे ही चीजो का वनायें । हृदय फूल हैं। इस पेड़ की जो नीचे गढ़ी हुई जड़े हैं, व में और मुस्तिषक में कोई भी अन्तर तहीं है । हृदय भी उसी से जन्मी हैं। इसकी जो तना हैं, जो मेहनत है, इसका जो evolution (उत्क्रान्ति) कारते हैं। दोनों चीजें जब एकाकार हो जायेगी है, यह 'सब कुछ अन्त में जाकर के वी फल बना। तभी आपको पूरा लाभ होगा। उस फल में सब कुँछ निहित है। फिर से आप उस फल को जमीन में डाल दीजिये, फिर से बही सारी चीज निकल परायेगी । "वो सबका अ्र्थ यही है; बो बड़ी secret (रहस्यमयी) बात है । उनकी समझ सबका अन्त वही है। सारे संसार में जो कूछ भी में नहीं आने वाली- क्योंकि उनका जीवन ही रोज आज तक परमात्मा का कार्य हुआ है, जो भी उन्हों मर्रा का उसी level (स्तर) का है । उस पर बो ने कार्य किया है, उसका सारा समग्र-स्व रूप, फल- चलते हैं। लेकिन आपका level अलग है आप अपने स्वरूप आज का हमारा यह महायोग है । [और 1evel से रहिये । दूसरों की ओर अधिकतर जब उसकी स्वामिनी कौन हैं ? आप जानते हैं । तो ऐसे शुभ अवसर में आकर के आपने ये प्राप्त किया है, क्या हैं, इनका क्या होने वाला है। यह कहाँ जायगे सौ धन्य समझना चाहिए और इस श्रीफल स्वरूप इनकी समझ में न हीं आता, इनकी गति ही क्या है? होकर के और सम्र्पित होना चाहिये। इसकी मे इच्छा करते हैं और मस्तिषक से उसकी पूर्ति अब सवसाधारण लोगों के लिये सहजयोग एक आप देखते हैं तो दया-दृष्टि से, क्योंकि यह वेचारे यह कौन-से मार्ग में पहुँचने वाले हैं ? इसको समझ करके और आप लोग यह समझे कि इनको अगर पेड़ से तभी फल हटाया जाता है जब वी परि- समझाने से समझ आ जाये सहजयोग, तो बहुत पक्व होता है, अच्छा है-समझाया जाए। ले किन अग र यह लोग बो माँ को नहीं दिया जाता। इसलिये परिपक्वता पुरवाह न करें तो इनके आागे सर फोड़ने से कोई आनी चाहिये । बचपना छोड़ देना चाहिए। जब तक बचपना रहेगा, आप पेड़ से चिपके रहेंगे । लेकिन समर्पण के लिये पेड़़ पर चिपका हुआ फल किस काम का ? उस पेड़ से हटाकर के जो अगर वो समर्पित हो तभी माना जाता है कि पूजा सम्पन्न हुई। इसलिये सहजयोग को समझने के लिये एक हुआ है औ्ौर उसी उँचे स्तर पर इसे रखें और उसी बड़ा भारी आपके सामने प्रतीक रूप से स्वयं साक्षात् सम्पन्न अद्मुत स्थ ति को प्राप्त होने पर ही आप श्रीफल ही खड़ा हुआ है यह बड़ी मेहरबानी अपने को धन्य समझ सकते हैं । इसलिये हमको हो गई कि आज यहाँ पर हम लोग सव एकत्रित व्यर्थ चीज़ों के लिये अपनी खोपड़ी फाइ़ने की कोई हुए और इस महान् समारोह में इन सब पेड़ों ने जरूरत नहीं । किसी से argue (बहस) करने की भी हमारा साथ दिया है। यह भी सारी बातों से ज़रूरत नहीं। पर पअपनी स्थिति को बनाये रखना नादित, यह भी स्पन्दित और यह भी सुन रहे हैं; चाहिए । नोचे उतरना नहीं चाहिए । जब तक यह उसी ताल पर यह भी नाच रहे हैं। यह भी समझ रहैं हैं कि बात क्या है । नहीं तो बेकार है । पकने से पहले फ़ायदा नहीं । अपने श्रीफल को फ़ोड़ने से कोई फ़ायदा नहीं। इसको बचाकर रख । इसका कार्य ऊँचा है । बहुत ना इसको बड़ी ऊँची चीज के लिये आपने पाया नहीं होगा तब तक सहजयोग का पूरा-पूरा आप में जो कुछ समर्पण पाना था वो नहीं पाया। जो निर्मला योग LF 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-10.txt कुछ अ्पनाना था, वो नहीं पाया। जो कुछ growih ग्रागे बढ़ाना चाहिये। कितनी भी रुकावटे गराये, (वृद्धि) थी वो नहीं पाई। जो आपकी पूरी तरह घर बाले हैं amily वाले हैं, ये हैं, बो हैं, तमाशे से सरदारगीरी पूरी उ्नति होने की थी, वो नहीं हैं, इनका कोई मतलब नहीं। ये सब प्रापके हो उके हुई और आप गलतफहमी में फंस गये। इसलिये हजार बार । इस ज न्म में आपको पाने का है और किसी भी मिथ्या चीज़ पर आप यह न सोच कि हम आपके पाने से और लोग पा गये तो उनका धन्य कोई बड़े भारी सहजयोगी हो गये या कुछ हो गये। है, उनकी भाग्य है। नही पा गये तो क्या स्राप क्या जब आप बहुत बड़े हो जात हैं तो आप भुक् जाते उनको अपने हाथ से पकड़कर ऊपर ले जाओगे ? यह तो ऐसा हो गया कि आप समूद्र में जाय और अपने पेर में बडे-बड़े पत्थर जोड़ लें और कहें कि देखिये, इन तीन पेड़ों की योर, हवा उल्टी समुद्र, देखो, मुझे तो तैराकर ले जाओ ।' समुद्र तरफ़ बह रही है। वास्तव में तो पेड़ो को इस तरफ कुहेगा कि भई ! ये पत्थ र तो छोड़ो पहले पैर के, झक जाना चाहिये जवकि हवा इस तरप् बह स्ही नहीं तो केसे ले जाऊंगा, मैं ? पैर में बड़े-बड़े पप है। लेकिन पेड़ किस तरफ़ भुके जा रहे हैं ? आप ने लोट वाँघ दिये तो उनको कटवा ही देना लोगों ने कभी mark किया है कि सारे पेड़ों की अच्छा है अर नहीं कटबा सकते तो कम से-कम ये हैं, आप झुक जाते हैं। दिशा उधर है । वयों ? वहाँ से तो हवा ग्राकरक करो कि उनसे परे रहो। इस तरह की चीज़़े जो-जो उसको घकेले जा रही है फ़िर तो भी पेड़ उसी प्रापने पैर में बाँध रखी हैं, उसे एकदम तोड़-ताड़ तर क्यों भुक रहे हैं ? श्रर अगर हं ये हवा न चले तो न जाने और कितने ये लोग भुक जायें । कर ऊपर उठ जाओ । कहना, 'जाइये, पको जो क्योकि करना है करिये लेकित हम से कोई मतलब नहीं ये जानते हैं कि सबको देने वाला "वो" है उसके क्योंकि और ऐसे ही कितनी बाधायें हैं अऔर यह प्रति नतमस्तक होकर के बो झुक रहे हैं और 'वो फ़ालतू की बाधायें लगा लेने से कोई फ़ायदा नहीं। देने वाला जो है, वो है "धरम । हमारे अन्दर जो जिस तर ह से ये पेड़ देखिये, इतना भारी फल घम है जब बो पूरी तरह से जागृत होगा, पूरा तस्ह मको उद्या लेते हैं-ऊपर। कितना भारी होता से कार्यान्वित होगा, तभी हमारे अन्दर के श्रीफ उसका इतने मीठे, सुन्दर और पौष्टिक होंगे। फिर तो आपके जीवत से हो संसार आपको जानेगा और की उसने ऊपर उठाया है। इसी प्रकार पपको भी किसी चीज़ से नहीं जानेंगा, अ्राप लोग कसे हैं । है यह फल, इसके अन्दर पानी होता है। इस फल इस सर को उना है। और इस सर को उठाते वक्त ये याद रसना चाहिए कि स र को नत मस्तक अब चौदह वार आप इसका जन्मदिन इस होना चाहिये, समुद्र की ओर 1 समुद्र जो है, ये धर्म सहस्रार का मना रहे हैं । ओर न जाने कितने साल का लक्षण है। इसको धर्म की ओर नतमस्तक होना और इसका मनाएँगे। लेकिन जो भी आरापने इस चाहिए । बहुत-से सहजयोगी यह समझते ही नहीं हैं सहस्रार तक जन्मदिन मनाया उसी के साथ-साथ कि जब तक हम 'धर्म में पूरी तरह नहीं उतरते, आपका भी सहस्रार खुल रहा है और बढ़ रहा है। हम सहजयोंगी हो ही नहीं सकते । हर तरह की गलतियाँ करते रहते हैं । जैसे वहुत-से लोग हैं, कोई भी तरह का compromise (समझौता) तम्बाकू खाते हैं, सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं, ये करना, कोई भी तरह की बातों में अपने को ढील सब करते रहते हैं और फिर कहते हैं हमारी सहज दे देना, सहजयोगियों को शोभा नहीं देता। जो योग में प्रगति नहीं हुई। तो होगी केसे ? अ1प आदमी सहजयोगी हैं वो बोरस्वपूर्ण अपना मार्ग अपने ही पीछे हाथ घो करके लगे हैं । निमंला योग ६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-11.txt सहजयोग के कुछ छोटे-छोटे नियम हैं, बहुत simple (सादे) हैं-इसके लिये प्रापको शक्ति मिली है वो पूरी तरह से आप अपने आचरण में व्यवहार में लायें । और सबसे बड़ी चीज जो इनके (पेड़ों के) अगर कर रहे हैं तो आपने वो चीज़ पा ली जो मैं कह रही थी कि सामज्जस्य अआरना चाहिए । तो वो सामञ्जस्य आपके अन्दर आ गया । जिसे हम कह सकते हैं प्रेम एक ही शक्ति है झुकाव में है वो नतमस्तक होना, रर उस प्रेम को अपने अन्दर से दर्शित करना । जो कुछ आपने और प्रेम ही से सब अराकारित होने से सब चीज़ परमात्मा से पाया, उस प्रेम को परमात्मा को सुन्दर, सुडौल और व्यवस्थित हो सकती है। जो समर्पित करते हुए याद रखना चाहिए कि सबके सिर्फ शुध्क विचार है उसमें कोई अर्थ नहीं। और प्रति प्रेम हो । शुष्क विचार तो आप जानते ही हैं, वो सिर्फ अहङ्कार से आता है और जो मन से आने वाली अन्त में यही कहना चाहिये कि जिस मस्तिष्क में, चोज है वो दूसरी-ऊपर से जरूरो उसको खूबसूरती जिस सहस्रार में प्रेम नहीं हो, वहीँ हमारा वास नहीं ला देती है लेकिन अन्दर से खोखली है। इसलिए है। सिर्फ दिमाग में प्रेम ही की बात आानी चाहिये कि प्रेम के लक्षण में क्या करना है। गहराई से दूसरी चीज सुन्दर होती है लेकिन नी रस होती है, सोच, तो मैं फिर वही कह रही है कि द्िल को केसे दुसरी चाज सुन्दर होती है लेकिन नी रस होती है. हम प्रेम में ला सकते हैं । यही सोचना चाहिये कि खोखली । दोनों चीजज़ों का सामज्जस्य इस तरह से क्या ये मैं प्रेम में कर रहा हूँ ? ये क्या प्रेम में बात हो रही है ? सारी चीज़ मैं प्रेम में कर रही है । ये सब कुछ बोलना मेरा, करना-धरना क्या प्रेम में हो रहा है ? किसी को मार-पीट भी सकते हैं आप प्रेम में। इसमें हज नहीं। अगर झूट वात हो तो मार के बाद में, सहजयोग में शरने के बाद में सारे विरोध सकते हैं-कोई हज नहीं । लेकिन यह क्या प्रेम में छूटकर के जो चीज विरोधात्मक लगती है, बो ऐसा हो रहा है ? देवीजी ने इतने राक्षसों को मारा, वो लगता है कि वो एक ही चीज़ के दो अ्रङ्ग हैं। और भी प्रेम में ही मारा। उन से भी प्रेम किया, उससे यह प्रापके अन्दर हो जाना चाहिये। जिस दिन ये वो ज्यादा नहीं, और भी राक्षस के महाराक्ष्षस न चीज़ घटित होगी, तब हमें मानना पड़ेगा कि हमने बन जाये और अपने भक्तों को प्रेम की वजह से, अपने सहस्रार का १४वां जन्मदिन पूरी तरह से उनको बचाने के लिये, उनको मारा। उस अनन्त मनाया । शक्ति में भी प्रेम का ही भाव है जिससे उनका हित हो वही प्रेम है । एक चीज गन्दी होती है लेकिन शुध्क होती है, पूरणंतया खोखली होती है । एक नीरस है, तो दूसरी बैठ हो नहीं सकता क्योंकि एक दूसरे के विरोध में हैं । (आत्म-साक्षात्कार) लेकिन Realization परमात्मा आप सबको सुखी रखे और इस शुभ अवसर पर हमारी ओर से और सारे देवताओं की अर से, परमात्मा की ओर से आप सब को अनन्त तो क्या आप इस तरह का प्रेम कर रहे हैं कि जिससे उनका हित हो ? यह सोचना है। और आशीर्वाद । निरमला योग १० 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-12.txt बम्बई ४ मई, १६८३ परमात्मा को खोजने वाले सभी ऐसा आँगन होना चाहिए। ऐसे प्राङ्गण में, मैं ही बेठ और मैं ही उठँ |" साधकों को मेरा प्रणाम ! फिर वह मिलने के बाद वह मतुष्य यह नहीं जानता है कि दूसरी बात सोचने लगते हैं कि यह चीज़ ले वह वह अपनी सारी इच्छाओं में सिर्फ चेज़ ले। इस तरह जो यह पाया हआ है इसका परमात्मा ही को खोजता है। से ु भी आनत्द नहीं उठाते । आज यह हुआ] कि हमने अगर वह किसी संसार की वस्तु मात्र के पीछे दौडता एक मोटर खरीद ली, उसके बाद मोटर के लिए भी है, वह भी उस परमात्मा ही को खोजता है, हाय तोवा करके बह विसी तरह से प्राप्त की । उस हालांकि रास्ता गलत है। अगर वह बड़ी कीर्ति के बाद हमें चाहिए कि [अब एक बड़ा मकान बनाले और मान-सम्पदा पाने के लिए ससार में कार्य और वह भी बनाने के बाद में हाय तोवा हुई तो करता है, तो भी वह परमात्मा को ही खोजता है। फिर आर चाहे अरोर कुछ कर लें। इस तरह से चीज़ और जब वह कोई शक्तिशाली व्यक्ति बन क र संसार आपने पाई थी वास्तविक, जि सके लिए आपने इतनी में विचरण करता है, तब भी वह परमात्मा को परेशानी उठाई थी, उसका आनन्द तो इतना भी हो खोजता है। ले किन परमात्मा को खोजने का आपने प्राप्त नहीं किया और लगे दूसरी जगह दौड़ने। रास्ता जरा उल्टा बन पड़ा। जैसे कि वैस्तुमात्र जो जब तक वह मिली नहीं तब तक हवस रही; और है, उसको जब हम खोजते हैं-पैसा और सम्पत्ति, जैसे हो बह चीज़ मिल गयी, वो खत्म हो गयी| सम्पदा-इसकी ओर जब हम दौड़ते हैं तो व्यवहार लेकिन परमात्मा को पाने के बाद में ये सारी जो में देखा जाता है कि ऐसे मनुष्य सुखी नहीं होते उन पेसों की विवश्वनाएं, अधिक पेसा होने के आनन्दकी सृष्टि की हुई है. उस कलाकार ने जो कुछ कारण बुरी आदते लग जाना, वच्चों का व्य्थ जाना इसमें रचा हुआ है, बारीक-सारीक सब कुछ, वो आदि 'अनेक" अनर्थ हो जाते हैं। जिससे मनष्य सारा का सारा रानन्द अन्दर झरने लग जाता है । सोचता है कि "ये पैसा मैंने किस लिए कमाया? यह जो चीज आज ऐसी लगती है कि मिलनी चाहिए-- मैंने किसलिए ली ?" जिस वक्त यहाँ से और मिलने पर फिर व्य्थं हो जाती है, वही चीज सृष्टि है, ये बनाने में परमात्मा ने जो कूुछ भी । वस्तुमात्र जाना होता है तो मनुष्य हाथ फेलाकर चला जाता आपने अ्र्थ में खड़ी हो जाती है। अगर और कोई है। ले किन यही वस्तु, जब आप परमात्मा को पा वस्तुमात्र आपने ली, उसका आनन्द ही जब आप लेते हैं, जब आप अत्मा पा लेते हैं और जब आप उठा नहीं सकते हैं, तो उसको पाने की इच्छा करना का चित्त आत्मा पर स्थिर हो जाता है, तब यही भी तो बेकार ही है। जब उस चीज का आनन्द खोज एक बड़ा सुन्दर स्वरूप धारण कर लेती है । परमात्मा के प्रकाश में वस्तुमात्र की एक नयी दिशा चीज के लिए इतनी ज्यादा आफत मचाने की क्या दिखाई देने लग जाती है। मनुष्य की सौंदर्य दृष्टि एक गहनता से हर चीज को देखती है । जैसे कि आज यहाँ बड़ो सुन्दर वातावरण है, औ्र सारे तरफ से बृक्ष हैं । ये सब अ्राप देख रहे हैं । जब आपने लीजिये, चाहा कि मैं इसे खरीद लूं । आरपका मन परमात्मा को पाया नहीं तब आप यह सोचते हैं किया कि इसे हम खरीद लं, कोई अच्छी-सी चीज़ कि "अगर ऐसे वृक्ष में भी लगा लूं तो कैसा रहेगा? दिखाई दी। जैसे औरतों को है कि कोई जेवर मेरे घर में ऐसे एक क्षण भी नहीं आप उठा सकते तो उस जरूरत है ? वस्तुमात्र में भी-कोई वस्तु को आपने , समझ बुक्ष होने चाहिए । मेरे पास खरीद लें । अब खरीदने के बाद उसका सर दर्द हो निमंला योग ११ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-13.txt तो जो वस्तुमात्र से जो तकलीफ़ें होती हैं वह न ले जाये, तो इसे पहनो मत, तो बेङकु में रखो, खत्म हो जाती हैं । सारी दुष्टि ही वदल जाती है । अब यह परेशानी एक बनो रही। और इसका आनन्द और समझ लीजिये प्रगर किसी श्रर की वस्तु है तब तो उठा हो नहीं सके। और जब भी पहने, तो जो तो बहुत ही अच्छा है । माने उसका सरदर्द तो है देखे वह ही जल जाए इससे । माने उसकी आनन्द नहीं, मजा आप उठा रहे हैं । जैसे समझ लीजिए एक की जो स्थिति है वह तो एकदम खत्म हो चुकी बड़ा बढ़िया कालीन किसी के यहाँ विछा हुआ है । औ्र वचा उसका जो कुछ भी नीरसता का जो शअरपना ह नहीं भगवान की कृपा से । दूसरे का है । अनुभव है, वह गढ़ता है, और दुखदायी होता है। उस वक्त आप अयर उस कालीन की छोर देखते हैं। उसी की जगह जब अप परमात्मा को प्राप्त करते हैं तो आप ये नहीं सोचते कि इसने कहाँ से खरीदा, और आप कोई चीज़ खुरीदते हैं तो यही सोचते हैं कौन-से बाजार से । उस वक्त एक तान होकर उसे और अगर आपको परमात्मा का गया। इसको Insure (बीमा) कराओ कि इसे चोर ा कि इसको मैं किसे द । ये किस के लिए सुख द।यी देखते हैं, होगी। इसका शौक़ किसको आाया । क्योंकि अपने साक्षात्कार हो चुका है, तो आपके अन्दर कोई तो सब शोक़ पूरे हों गये । शौक़ एक ही वच जाता विचार हो नहीं अाएगा उसके बारे में । आप कोई है कि किसे क्या दं । फिर खयाल बनता है कि देखो विचार ही नहीं करंगे कि ये कितने पैसे का खरीदा. उस दिन उन्होंने कहा था कि हमारे पास ये चीज़ कुछ नहीं। जो उसमें अनन्द है 'पूरा का पूरा' तो नहीं है । तो आपने वह चीज़ उन्हें ले जाके देदी । जिस कलाकार ने उसे बनाया है उसका पूरा का इसलिए नहीं कि आप कोई बड़ा उपकार करते हैं। परा आप आनन्द उठा रहे हैं और जिसका है, वह दे दी, बस। जैसे पेड़ है, कोई उपकार करता थोडे ही सरदद लिए बेठा हैँ कि इस पर कोई चल न जाएं नहीं तो खराब हो जाएगा। और अपनो नजर से तो आाप उसका पूरा का पूरा आनन्द, स्वाद ले रहे दे देता है। इसी प्रकार प्रपने जकर के वह चाज़ है क्योंकि आपका उसके साथ कोई सम्बन्ध ही बना हि है, अपने को कहता है उसमें फल आ गये, वह फल किसी को दे दी । अब देखिये उसमें आपके प्रेम की नहीं है, प्राप दूर ही से उसे देख रहे हैं । और दूर जो भावना आ गयी आपने अपनी आ्रत्मा से जो ही के दर्शन सुन्दर होते हैं। जब आप दूर हटकर चीज़ उनको दे दी, उनका खयाल करके। उस चीज को देखते हैं, तभी पूरी-की-पूरी चीज भी चीज़ । जसे शबरी के बेर । श्री रामचन्द्र जी ने आपके अन्दर उतर सकती है । इतने प्रेम से खाये । और उसके बाद उसकी इतनी प्शंसा की, सीता जी को भी। तो लक्ष्मण जी नाराज हो रहे थे । सीता जी ने कहा, 'देव रजी श्राप जरा चखकर तो देखिये। ऐसे बेर मैंने ज़िन्दगी का जो हाल हुआा में नहीं खाये। तो भाभी पर विश्वास करके उन्होंने करे थोड़े दिन और हम लोग गरीब बने रहें । न तो एक बेर खाया, कहने लगे ये तो स्वर्गीय है । उस बच्चों का पता है न घर का पता है, न बीवी का शवरी के बेर में इतना आनन्द इसलिए आया कि पुता है, न पति का पता है, न कोई प्रेम का पता है । नित्तान्त प्रेम से उसने वह बेर तोड़ के, अ्रपने दांत जब जिन देशों में बच्चों को लेकर के मार दिया से देखकर के, विल्कुल 'अ्रबोध" तरी के से in- जाता है पेदा होते ही । इतनी दुष्टता वहाँ पर होती nocently उसने परमात्मा के चरणों में रखा । है, इतनी महादृष्टता वहाँ लोग करत हैं कि जिसकी उसी प्रकार हो जाता है । 'छोटी-सी' बहुत-से लोगो का यह कहना कि माँ इस देश में परमात्मा की बात बहुत की जाती है लेकिन यहाँ लोग गरीब क्यों हैं?"" अमीरी की बजह से इन देशों कि इस लिए मैं कहती हैं, भगवान कोई इन्तहा नहीं। कोई सोच भी नहीं सकता कि निर्मला योग १२ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-14.txt इस मर्यादा-रहित दुष्टता के आप भागीदार हैं बादशाह है, उसको महलों में रखें तो भी वादशाह अभी एक साहब से वार्तालाप हआ्रा तो उन्होंने कहा है उसको भूखा रहना पड़े तो भी वह बादशाह है, कि परदेस में लोग कम से कम ईमानदार हैं । मैंने वह कोई चीज की माँग नहीं करता । वो ही बाद- कहा ईमानदार तो औरंगजेव भी था टोपियाँ सिल-सिल करके वेचता था और सरकार नहीं है, कोई भी चीज़ की ददात नहीं है, किसी से उसने एक पैसा नहीं लिया। लेकिन लेता तो चीज की रुज नहीं है । वह ही असल बादशाह है, ग्रच्छा रहता कुछ । कम से कम इतने व्राह्मरणों को बाकी ये तो नक़ली हैं बादशाह । जो कि बादशाहत मारता न। हिटलर भी बड़ा ईमानदार आदमी था । योड़ी बहुत मिलने के बाद "यह चाहिए, वह चाहिए, एक पेसा जो था वह अपने सरकारी ख जाने से नहीं बह चाहिए" माने आ्रापकी बादशाहत क्या है? अन्दर निकालता था । लेकिन उसकी ईमानदारी का क्या की जिसके अन्दर व।दशाहत जागृत हो गयी, वो फायदा ? इतनी दुष्टता उसमें आ गयी, मानो हर हालत में रह सकता है हर परिस्थिति में रह इन्सान में अगर कोई चीज बहुत ज्यादा आ्र जाती सकता है, हर दशा में रह सकता है और कोई है, तो वह दूसरी तरफ़ एक दूसरा ही आकार ले दुनिया की चीज़ नहीं जो उसे भुका दे । हमारे लेती है। अगर वह ईमानदारी को, उसने सोचा कि सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इस भारतवर्ष में तो देश जो हे मैरा बहुत बड़ा है तो उसमें ईमानदारी अनेक हो ही गये और बाहर भी बहुत-से हो गये से रहना है, तब ये गुण वड़ा अच्छा हैं । कारण अगर पके अन्दर कोई गन्दी बात घुस सत्ता जो है 'स्थायी सत्ता है। इस तरह की क्षण जाये तो अ्च्छा है कि आप खुद सन्तुलित रहें । शाहत में होता है, जिसको किसी भी चीज की माँग । अपनी पर उसके क्योंकि वो अपनी बादाहित में सन्तुष्ट हैं, उसकी भग्र नहीं कि जो क्षण में यहाँ पर तो बड़े बने बेठे हैं शरर उसके बाद पड़ गये जमीन पर का तारा टिक गया है, ऐसे ही परमात्मा को पाया । जैसे ध्र व अब वहुत-से लोग अपने को बड़े सत्ताधीडा समभते हैं । सत्ता के लिए दोड़त हैं। सत्ता के लिए तो हैआी मनुष्य टिका रहता है । उसको भय नाम की मालूम नहीं, उसको लालसा नाम की चीज़ दौड़-दौड़ कर कोई सुखी नहीं हुआ। एक यह चीज़ कि किस बक्त उतर जाएं, पता नहीं। किस वक्त इन मालुम नही, उसको लालच नाम की चीज़ मालूम नहीं। ऐसा मनुष्य जब इस देश में तंयार होगा तो की शह मिले और किस वक्त उतर जाएँ सत्ता से, किसी को पता नहीं। आज ताज हे और कल काटे लग जाएँ । इस सत्ता का कोई टिकाना नहीं ग्रौर हम लागी की कोई भी ऊपर से कारयदे कानून उस सत्ता से आप कुछ अपना भी अ्र दूसरो की में रहेगा। वह बेकावदा चलेगा ही नहीं। क्योंकि भी खास लाभ नहीं कर सकत । पर जो परमात्मा की सत्ता पर बैठा है, जिसमें परमात्मा की सत्ता है, जिसके अन्दर परमात्मा बोलता है, जिसके अन्दर परमात्मा की शक्ति बहती हैं, वो आ्रादमो 'अ्सल है, बह भी बदल जाएगा। पर उस मानव को तैयार में बादशाह है, सत्ताधीश है । बादशाहत है उसके करना होगा जिसने परमात्मा को पाया है ऐसे पास । वह bribe (रिश्वत) काहे को लेने चला ? मानव जब तक तेयार नहीं होयंगे वे लड़खडाते ही बादशाह कोई bribe (रिश्वत) लेता है क्या ? वह रहेगे । पहले जवकि उनको किसी भी बड़े भारी क्यों बेईमानी करने चला ? वह बादशाह है । उस चुनाव में जाना पड़ता है, तो चुनाव में आके कहेंगे को अगर आप जमीन पर सुला दीजि ये तो भी कि "साहब हम तो गरीबों के लिए ये करेंगे वह लादने की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपने आप वह मस्ती कायदे भी कहाँ से आये हैं? क़ायदे भी परमात्मा ही के किये हुए अपने अन्दर आये सृजन जितना भी विपय्यास हआ हुए हैं। उसका जो मनुष्यों ने कर दिया निर्मला योग १३ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-15.txt करेंगे ऐसा करेंगे, दुनिया भर के सारे आश्वासन लोग रोज देखते हैं, रोजमर्रा देखते हैं। आपको तो होंगे। और जब वह सत्ताधोश हो जायेंगे तो "साहब माझूम है वाल्मीकि की कथा, मूझे फिर से बताने हमको यह चाहिये, हमको यह चाहिए । और की जुरूरत नहीं। पर जो तथ्य है उससे आप बहुत हम तो सबसे बड़े रारीब हो गये।" के लिए करने की कोई जरूरत ही दिखाई नहीं देती materialislic (भौतिक) हो गए हैं । सब देश में ही है। उनसे भी ज्यादा गरीव ये हो जाते की वजह लोग इस तरह से हो गए हैं। वो बात ही पसे की से वह सब अपने लिए हो headache (सरददं) । करते हैं । वह बोलते ही हैं कि हमारी क़ीमत इतने लेकिन जिसने परमात्मा को एक बार पा लिया, वो हुजार रुपये, हमारी कीमत... कोई चीज़ की माँग नहीं करता । वह कभी मांगता कीमत लगा ली है । ऐसी हालत में इन लोगों का हो नहीं है, वह कोई भिलारी कभी नहीं हो सकता। चित्त इस बेंकार की चीज से कैसे हटाना चाहिए ? मैंने कहा, 'वह बादशाह हो जाता है । ये बाद- उसका हटाने का भी वही मार्ग है, जैसे मैंने शाहत अपने अन्दर हमको स्थापित करनी है । अब कि आत्मा का दर्शन इनके अन्दर होना चाहिए । कोई लोग कहते हैं कि साहब "हिन्दुस्तान में इंतनी आत्मा के प्रकाश में ही मनुष्य देख सकता है कि चोरी-चकारी और ये सब चलीं । इसका इलाज कितनी क्षुद्र वस्तु है । जैसे समझ लीजिए अन्धेरे क्या है"? इसका इलाज बहुत सीधा है! आत्म में कोई चीज चमक रही है, तो उन्होंने सोचा कि साक्षात्कार को प्राप्त करें। व्षोकि अभी अ्न्धेरे में हैं, अज्ञान में हैं, इसलिए ऐसी र्दी चीजों के पीछे हीरा-बीरा होगा ।" लगे उसके पीछे दौड़ने ! और भागते हैं। इसमें रखा क्या है ? यह तो सब यहीं वो होरा इधर से उधर भाग रहा है। उसके बाद छोड़ के जाने का है । एक छोटी सी चीज जो रोज में प्रकाश आ गया, देखा यह तो जुगनू था, जुगनू देख रहे हैं वह ही भुल जाते हैं। किसी के मय्यद पीछे हम लोग परेशान रहे । ये तो जुगनू था ! इस पे चले गये, वहां से आए और उसके बाद लगे के लिए क्यों इतनी परेशानी उठानी ! इसलिए ये bribe (रिश्वत) लेने। 'अरे ! अभी मय्पद देखकर प्रकाश हमारे अन्दर आना जरूरी है । आ रहे हो, bribe क्या ले रहे हो ? अभी देखा नहीं वह चला गया वेसे के बैसे ! उसी तरह से आप भी जाने वाले हैं । लेकिन यह कहने से नहीं होने बाला, व्योंकि गरीबों फ्यादा है। क्योंकि बच्चे बहुत ज्यादा बेशमी से | सबने अपनी कहा "साहब बढ़़िया कोई चीज चमक रही है, कोई के अब बहुत-से लोग कहते हैं कि हम वहुत धर्मात्मा है । ऐसे भी बहुत-से लोग हैं, वह कहते हैं कि हम तो बड़े ब्मात्मा हैं । हम बड़े बामिक कार्य सिफ्फ आत्म-साक्षात्कार होने के बाद में घटित होता है। उसके बाद में आदमो छनता है और उस करते हैं, हमने इतने हैोस्पिटल (hospital) बना के अन्दर की यह जो छोटी-छोटी क्षुद्र वातें फ़ट से दिये, इतने स्क्ूल वना दिये, ये बना दिये वो बना निकल जाती हैं। यह दिये । ये भी काम से अज तक किसी ने तप्ि तो मैंने पायी देखी नहीं। किसी को मैंने तुप्त देखा नहीं, उसके बाद कुछ लोग ऐसे हैं कि जो सो वते शान्त देखा नहीं। इससे प्रेममय देखा नहीं, उसके हैं क्रि हमारे बचचों के लिए यह करना चाहिए, अन्दर कोई सौन्दर्यं भी देखा नहीं। क्योंकि ये जो हमारी बीवो, 'हमारा' बच्चा, 'हमारा यह, आप काम कर रहे हैं, परमात्मा से सम्बन्ध किये 'हमारा' वह । इस ममत्त्व के चक्कुर के सबने थपेड़ बर, योग के वरगेर, अापके अन्दर एक संस्था तैयार खाए हुए हैं, कोई एक ने नहीं खाए। जब बच्चे बड़े हो रही है, जिसे हम 'अहङ्कार कहते हैं। यहङ्कार हो जाते हैं तो ऐसे अदमी को अच्छा थपेड़ देते हैं । नाम है उसका । वो अहङ्कार हमारे अ्न्दर जमते निमला योग १४ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-16.txt जाता है और कभी-कृभी तो वो अहङ्कार ऐसा हो जाता है कि मानो जसा कोई बड़ा भारी सर पर मिलने के लिए सूदामा जी गये थे । पहले उनसे योग एक अहङ्कार का जहाज बना हुआा है । इस धटित हुआ । ये कहानी बड़ी मा मिक है । जब उन अहङ्कार के सहारे हम चलते रहते हैं और इस का योग श्री कृण्ण से घटित हुआ, उसके बाद उन अहङ्कार से हम बड़े सुखी होते हैं कि कोई अगर हम से कहे कि भई 'श्राप बड़े घर्मार्मा हैं, इन्होंने हप्रा या तब तक उनका क्षेम नहीं हुआ था । वड़ी संसार की सेवा करी और इन्होंने ये दिया इसलिए जब तक आपका योग घटित नहीं होगा और वो किया। लेकिन इसमें कीई सत्य तो है शपका क्षेम हो ही नहीं सकता है । कभी-कभी नहीं। क्योकि सेवा भी किसकी करने की है ? जब काकतालीय व्याय से हो भी जाए-थोड़ा-बहुत, परमात्मा का आशोवाद मिल जाता है तो चराच र इधर-उधर-तो भी वह मानना नहीं चाहिए सारी सृष्टि में फैली हुई परमेद्वरी शक्ति पर आप कि आपने पाया है । पर बिल्कुल पूरी' तरह का हाथ आ जाता है । आप यहीं बंठे-बैठे सबकी से आपका क्षम तभी धटित हो सकता है जब सेवा कर रहे हैं, अगर सेवा उसका नाम हो, तो। लेकिन जब वही आपके अन्दर से बह रही हो और करना हो ्पकी एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी जब आ्प उनसे ही एकाकार हो गये तो आप किस जितनी भी आपकी इच्छाएं है, मैंने बता दिया वे किसकी सेवा कर रहे हैं ? अगर ये हाथ मेरा दूख सब 'बैंकार हैं, अर उनको प्राप्त करने से आप रहा है तो इस हाथ को अ्गर मैं रगड़ रही हैं तो कभी-भी सुखी भी नहीं हो सकते, आनन्द की तो क्या मैं इसकी सेवा कर रही हैं ? इस तरह का बात छोड़ ही दौजिए । झुठा अहङ्गार मनुष्य के मन में फिर जागृत नहीं होता। और अहङ्कार मनुष्य को महा मुर्ख बना देता है। ये 'पहली देन है अहंकार की, कि अहंकार से मनुष्य महाभूखं, जिसको अंगेरजी में stupid करेंगे । हैं कहते हैं. बो हो जाता है। [और उसके अनुभव मैं देखती हैं तो मुझे आश्चरयं लगता है कि इनका कब अ्रहंकार उतरेगा और ये देखंगे अपने 'जितनी भी घृणित चीजें हैं, उन्हें को शीशे में । जैसे नारद जी ने एक बार देखा था अपने को तालाब में, कि कितने बड़ अहकार आप विलकुल अन्धकार में पड़ हुएहै। और किर क्षेम वो बना देत हैं । ज से इनके पास का क्षेम हुआ जब तक उनका योग घटित नहीं मप योग को प्राप्त कर । औ्र 'इस योग को प्राप्त और एक तरह के लोग दुनिया में होते हैं, कि जो सोचते हैं कि वड़ा हमने sacrifice(त्याग) कर दिया । हम तो बड़ा suffer ( कष्ट सहन ) जेसे बहुत-से लोग होते हैं, सोचते भगवान के लिए उपवास करो । भगवान के एक-एक लिए अपने शरीर पर छुरी चलाओ । भगवान के लिए अपने शरीर पर करो से । ऐसे पागल लोगों को भी बताना चाहिए कि ये शरीर परमात्मा ने बड़ी मेहनत से बनाया है । एक छोटे लोग इस तरह के हैं कि से amoeba (अमोबा) से आपको इन्सान बनाया अब इससे आगे जो कहते हैं कि 'हम बड़े भक्ति करते हैं और हम खुब है बह़ी मेहनत करके; किसी वजह से । और आप भगवान को मानते हैं। जयादातर लोग भगवान को पाना क्या है ? किसलिए बनाया परमात्मा ने? के पास इसीलिए जाते हैं "मुझे पास करा दो, मुझे आपने तो अपने को कुछ भी नहीं बनाया जो नौकरी दे दो, मूझे ये कर दो। ये ऐसे कहने बनाया है 'उसी' की जीवन्त शक्ति ने बनाया है भी नहीं होने वाला । क्योंकि कृष्ण ने कहा वह क्यों बनाया है आपको? 'कि अ्राप [एक दिन कुछ । से कुछ है कि 'योग क्षेम वहाम्यहं पहले योग को प्राप्त करो परमात्मा के साम्राज्य में आएं, उसमें पदा्पण करें निर्मला योग १५ hc 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-17.txt और इसलिए उन्हों आपका स्वागत हो । इसलिए उन्होंने प्र।पको ये और चाहे कोई माने तो माने । सुनदर स्वरूप दिया हुआ है। इसलिए नहीं दिया ने कहा कि हम तो ये विश्वास करते हैं कि मनुष्य है कि आप इधर-उधर भटकते रहें। लेकिन उधघर को खूब Suffer (वष्ट सहन) करना चाहिए । दृष्टि हमारी नहीं है त ! हम लोग यही सोचते हैं खूब Sufferings (कष्ट भोगना) होनी चाहिए । कि अ्रगर माताजी के आत्म-साक्षात्कार की तरफ़ बह इतना दू.ख उठाये दु.ख उठाने से ही परमात्मा हम मुड़े तो भई फिर क्या होगा ! जाएँगे। 'सहजयोग तो सम्पास के महाविरोध में है। यहां तक कि कोई 5aint (सन्त) है उसको कोई 'महाविरोध !' अगर कोई सन्यासी आ जाए तो दूख दे रहा है तो वे कहते हैं कि ठीक ही है तुमको हम उससे कहते हैं कि जाकर कपड़े ब दल कर परमात्मा ऋ्रच्छे से मिल जाएगा। जितना दुख हो, आओ । सहजयोग सामान्य लोगों के लिए, जो भेलो। जैसे ज्ञानेश्वर जी को हमने काफी सताया । गृहस्थी में रहते हैं, उनके लिए है। गृहस्थी बड़ा रामदास स्वामी को हमने कभी माना नही। तुका भारी महायज्ञ है, उस महायज्ञ में जो गुज़रा है वही सहजयोग में आता है, सन्यासियों में हैमीरी जितने भी-नानक साहब हैं, कबीरदास हैं-सबको विश्वास बिल्कुल नहीं है। व्योकि कपड़े पहुनकर पुरेशान किया और यही कहकर कि "तुम तो सन्त के आप किसको जता रहे हैं ? जो सन्यासी होता है हो, तुम तो गुस्सा ही नहीं हो सकते । हम सन्त नहीं वह तो सन्यासी है अन्दर से, वह क्या बाह्य में ग्रपने हैं। माने यह कि जैसे सारे गुस्से का ठेका हमने ले ऊपर में कुछ sign board (नामपट) लगा कर रखा है और सारा सहने का ठेका आपने ले रखा नहीं ूमता है कि "मै सन्यासी हूं" । ये झूँठे sign है !" और ऐसे जो Jew लोग थे देखिए, उन पर board लगाने की क्या जरूरत है ? और गलत- कितनी बड़ी आफत आरा गयी । भगवान ने एक फ़हमी में अपने को रखना, अपने ही को आप हिटलर भेज दिया उनके लिए- जाओ इनको cheat (धोखा) कर रहे हैं । तो दूसरों को करेंगे ही । जिसने अपने ही को धोखा दिया है वह दूसरों को भी धोखा ही देगा। तो इस प्रकार के भी तो ईस तरह की विक्षिप्त कल्पनाएँ अगर दिमाग में विचार के कुछ लोग होते हैं कि जो प्रपने शरीर को हों, तो भी मनुष्य कभी भी सुख नहीं पा सकता इस देना और दुनिया भर के दुःख सहना और तरह की बड़ी ही ज्यादा तीव्र भावनाएँ किसी के दु हम सन्यासी हो मिलता है । यह उनका अपना विचार था । यानी राम की तो हालत ही खराब कर दी । और भी ये suffer करना है करने दो । अब वह उल्टे बैठ गए हैं वह सब दुनिया को suffer कराएँगे। र दुख परेशानी उठाना - इसका बड़ा अच्छा उदाहुरण है प्रति कभी भी नहीं वनानी चाहिए। क्योंकि सभी Jews (यहदी) लोग । अपने यहाँ भी ऐसे बहुत सारे हैं जो उपवास, तपास ओर दुनिया भर की न फ़तें करके, सिवाए बीमारी के और कूछ नहीं उठाते । पर Jew लोगों ने ये कहा कि हम मसीह को नहीं मानते हैं क्योंकि यह कहता है कि में पड़ ही नहीं सकता, अगर वह धर्म है तो । उसको मैं तुम्हारे सारे पापों को खींच लूंगा अपने रन्दर । और सही बात है जब उनकी जागृति हो जाती है हमारे आज्ञा चक्र पर, तो वह खींच लेते हैं । लेकिन धर्म है । और धर्म को कोई छु ही नहीं सकता क्योंकि हम ईसामसीह को नहीं मानेंगे क्योंकि वह Jew धर्म शाश्वत है धर्म को कौन छू सकता है ? आनी] था। इसलिए Jew लोग उनको नहीं मान सकते । जानी और मरना-जीना तो चलता रहता है, लेकिन परमात्मा की सन्तान हैं। किसी से भी हप बनाना नहीं चाहिए । कोई भी आप प्रश्न उठाइये । जैसे कि कोई कहेगा कि आज हिन्दू घर्मं जो है, ये बड़ी ईसा विपत्ति में पड़ा है। मैं तो कहती हैं कि कभी विपत्ति कोई हाथ भी नहीं लगा सकता अगर वह धर्म है, तो । पर वह politics ( राजनीति) नहीं हैं । वह छू। जजा निमंला योग १६ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-18.txt धर्म नष्ट नहीं हो सकता । अगर पप ही धर्मंच्युत नहीं आने वाला। ये मुझे suit ही नहीं क२ सकता, हो जाएं तो धर्म नष्ट हो जाएगा, और नहीं तो इसकी allergy है मुझको। आप allergic ही हो आपका धर्म कोई नहीं तोड़ सकता । किसी की जाते हैं । और इसलिये पहले सहजयोग में बताया ही मजाल नहीं कि आपका ध्म तोड़ । पर धर्म को नहीं जाता हैं कि तृुम ये नहीं करो, वो नहीं करो। पहले अपने अन्दर जागृत करना चाहिए । जब वह अरपने-प्राप आप करने लग जाते हैं । क्योंकि तक आपके अन्दर धर्म जागृत नहीं होगा, जोकि आपके अन्दर अ्रपका जो परम-गुरु आत्मा है। आप देख रहे हैं (चित्र में) गोल बना हुमा है, इसके शिव स्वरूप आत्मा जागृत हो करके वही आपको अ्न्दर आपके दस धर्म हैं, ये वम जव आपके अन्दर समझा देता है कि भई देखो ये चौज चलने वाली जागृत हो जायेगे तो जो धर्म आाप नष्ट कर रहे नहीं हैं अब हम से । क्योंकि आप अब आत्मा हो हैं रोज, रोज, किसी न किसी वजह से-क्योंकि गये इसलिए अब आत्मा वोलेगा । और बाक़ी जो आपकी बहुत सारी इच्छाएँ हैं. आपमें लानसाएँ चीज है गौरा हो जाती है, और मुख्य हो जाता हैं, वासनाएँ हैं, बहत-सी आदतं पड़ गयी है, इसकी है पत्मा व जह से जो आपके अन्दर को धमें रोज नष्ट हो रहा है वह जागृन होते ही आप धाम क हो जायेगे। क्योंकि आप दूस रा काम कर ही नहीं सकते । जसे मैं विवियाँ रही और मनुष्य इस प्रकार बढ़ता रहा । कभी भी नहीं कहती है कि आप शराब मत पीग्रो। लेकिन ग्राज समा दूसरा है । जैसे कि पहले एक मैं नहीं कहती हैं, क्योंकि कहने से अाघे लोग उठ जायेंगे, फायदा क्या ? मैं कहती है : अच्छा पार हो का तना बना, उसमें से पत्तियाँ, शासखाएँ सब निकलीं जायो । माँ के तरीके उल्टे होते हैं न । चलो भई लेकिन ये 'सब जिस लिए हुआ है, वो है इसका पहले पार हो जाओो | फिर मैं कहैंगी अच्छा अव पीकर देखो शराब, पी नहीं सकते उलट हो जायेगी फुल बेठे हुए हैं । इन फूलो का फल बनाने का काम उलटी हों जायेगी। घर्म जब जागृत हो गया अन्दर यही मैं करती तो वह फेक देगा अपकी शराब को । आप पी नहीं वह फल हो सक ते हैं। तो सारे ही ध्मों ने इसको सकते । एक साहब ने कोशिश की । उनके तो खून पूष्ट किया है। सारे ही जितने प्रवर्तक हो गये सब निकल आया । उन्होंने कहा, भगवान बचाए रखे मैं ने इसको पूष्ट किया है । जितने दुनिया के महात्मा तो जाऊँ। और उनको इतनी बदबू आने लग गयी हो गये उन्होंने इसे पुष्ट किया है । जितने सन्त, जो कभी उनको शराब में बदबू नहीं आती थी, वो साधु द्रष्टा हो गये उन्होंने इसे सञ्जोया है उनको बदबू आने लग गयी। सड़ें से बुत बदबू आ रही थी। अब मैंने अवतरण हुए हैं, स वने इसमें कार्य किया है। ये कहा इसे सात साल से चढ़ाते रहे पेट में, उसकी कोई एक का कार्य नहीं कि 'हम साहब फ्लां के नहीं आयी ? कहने लगे पता नहीं मेरी जीभ पुजारी हैं, हम इनको मानते, उनको नहीं मानते । मरी हुई थी । धर्म इस तरह इतने जोर से आपके ये तो ऐसे हो गया : मैं इस अख को मानता है, अन्दर जागृत हो जाता है कि फिर पाप और पुथ्य इस अँख को नहीं नानता। ये 'सारे के सारे' अपके जो है जैसे नी र व क्षीर विवेक हो जाता है उस तरह शरीर के अन्दर बसे हुए हैं, और इन 'सबका समग्र से अलग-प्रलग हो जाता है और आप जान जाते हैं integrated जो प्रयत्न है, उस प्रयतन का फल कि ये मेरे लिए रास नहीं आएगा, यह मेरे माफिक आपका श्रात्म-साक्षात्कार है । और बह समा आज इस प्रकार हमारी श्रज तक की संसार की गति- वीज से अंकुर निकला, अंकुर निकलने के बाद पेड फल । तो आज मैं देख रही हैं मेरे आगे अनेक फ हैं और कुछ नहीं। और अरप सब कहने लगे: अजीब से श्र पनपा है । प्रौर 'जितने भी इस संसार के जैसी उसमें নिमंला योग १७ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-19.txt गया है कि इन सब के फलस्वरूप जो इच्छाएँ कुछ समझते ही नहीं। फ़ायदा क्या हुआ ? 'पसाय- थीं इन सब महानुभावों की, वो पूर्ति हों । वह आज दान- अरभी कोई बता रहा था, उस पर इतनी बड़ी का सभय है। और यह काम पता नहीं क्यों, मुझे किताब किसी ने लिखी है । मैंने कहा उनको तो मिला ! हालांकि ये काम और कोई कर भी नहीं सकता । ये तो माँ ही कर सकती है । जब पहाड़ों ने लिखा है, और क्या लिखा है ? सारे सहजयोग जैसी कुण्डलिनियाँ उठानी पड़ती हैं तब पता चलता है, पसीने छुट जाते हैं । और इसलिए एक मां पर की है । अगर आप ठीक से पढ़ें तो आपकी ये काम आ बैठा है। मैं कोई आपकी गुरु-शुरु नहीं समझ में आ जाएगा कि सारा सहजयोग बता गये है । न ही मूझे श्रप से कुछ ह मेरा काम है वह मुझे करना है। और आप अगर लिख रहे हैं ? उसमें लिखने का 'क्या है ? वह तो चाहें तो मैं कर सकती है, पर आप न चाहें तो पाने का होता है [और जो यथार्थ है, वह पाया जबरदस्ती यह काम हो नहीं सकता । अगर आप जाता है उसके बारे में बातचीत नहीं की जाती। की इच्छा हो तभी हो सकता है आपके अन्दर यह शुद्ध जागृत नहीं हो तो मैं इसे नहीं कर सकती । अब बहुत-से लोग तो मुझ से मारा-मारी करने पर प्रा जाते हैं। लड़ाई करते हैं, झगड़ा करते हैं। 'ऐसे कसे सहज-योगो उस दशा में न पाए जाएँ जैसे कि वडे हो सकता है । और कुण्डलिनी ऐसे करेसे जागृत हो यगी-जन होते हैं। लेकिन उनकी जागृति हो गयी सकती है । पर होती है तो फिर क्या करें । अ्गर है। और वह योग की तरफ वर्धमान हो रहे हैं। वो होती है तो उसे मैं क्या करू। 'ऐसे कै से ? मैंने कहा, 'होती जरूर है । इसमें कोई शङ्का नहीं ।' अब अगर इस तरह से आप मुझसे लड़ाई करने पर आमादा रहें कि कैसे होती है, तो मैं आप से क्या । कहै ? होती है, और जरूर होनी चाहिए । और ये अर शअ्रप अपने में पलायन कर गये। माने प कार्य करने का समय, ये आज की शुभ बेला आयी चाहते कुछ है नहीं। प्राप 'अपने बारे में सोचिये । हुई है। इसे कृतयुग कहते हैं । और इस में जो यहाँ लोग आ्राए हैं, उनमें से हो सकता है, कुछ कार्य होगा, जिसमें 'जितने भी बड़े-ब ड़े अवतार, खोपड़ी खराब हो गयी वो सारा सहजयोग उन्हों का वर्णन है और उसी की उन्होंने भविष्यवाणी लेना-देना है सिर्फ जो हैं। अब उस पर क्या गराप इतनी वड़ी-बड़ी किताबें अग र इच्छा नहीं हो और यह इच्छा से बहरहाल मुझे श्राशा है आज आप में बहुत- लोग यहां पार हुए वेठे हैं। आप ही जैसे दिखाई देते हैं, आप ही जैसे । हो सवता है शुरू में वहुत-से बढ़ रहे हैं। उनको देखकर के आप इसमें से पलायन मैं मत करिये । वहुत-से लोग होते हैं कि 'साहब, गया था, वहां एक साहब थे, वह कुछ ऐसा-बैसा तो इसका मतलब है आपने उनको देखा कर रहे थे। कृत युग लोग ऐसे हों कि उनकी जागृत भी न हो । पर महानुभाव द्रष्टा और मुनि, तीर्थंकर [शरादि जितने वराबर अषि अगर negative (विकार-युक्त) आदमी होगि तो उसी के पास जाके घमकेंगे और उसी की वजह से आप भाग भी खड़े होंगे। लोग हो गये, उन सबके ग्रापको अ्राशीवाद हैं। और उनके आशीर्वाद-स्वरूप आप यह समग्र integ- rated प्राशीर्वाद प्राप्त करते है । इसमें कै से होता है, इस लिए, यह जानना चाहिए कि सहजयोग को क्या होता है, ये अप स्वयं जाने अ्रर देखें, बजाए प्राप्त करने के लिए सिर्फ आप में 'शुद्ध-इच्छा' होनी वयोंकि चाहिए । और कोई चीज़ की जरूरत नहीं इसके कि अपनी बुद्धि के दायरे में रहें । । [अगर अभी तक धर्म भी एक बुद्धि के ही दायरे में हैं, हर आपके अन्दर शुद्ध इच्छा हो, जो स्वयं साक्षात् एक चीज बुद्धि के दायरे में हैं । मैं देखती हूँ इतनी कुण्डलिनी है, वही शुद्ध इच्छा है । औ्रौर जब यह बड़ी-बड़ी किताबें लोगों ने लिख मारीं। लेकिन वह शुद्ध इच्छा की शक्ति जागृत हो जाती है, तभी निर्मला योग १८ 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-20.txt और दूसरी अज की ओर भी वड़ी शुभ बात कुण्डलिनी का जागरण होता है। यह शुद्ध इच्छा आप सबके अन्दर है। लेकिन अभी जागृत नहीं है। है कि गौरी जी का सप्तमी का दिन है, और उस इसको जागृत करना और सहस्तरार में इसका छेदन वक्त भी ऐसा ही था। क्योंकि गौरी जो है, वह कराना यही कार्य करना आज का सहजयोग । कुण्डलिनी है। और वही जो कन्या मानी जाती है, virgin (कुमारी) है वह इसलिए virgin है पर इसमें 'बहत' कुछ प्रा जाता है। बैयोकि कि ग्रभी उसका योग शिव से नहीं हुआ है इस जब प्रप एक फल को देखते हैं, तो उसमें सभा कुछ लिए बह virgin है। और इस शुभ मुहूर्त पर, जब दिया हुआ, इस पेड़ को, सारा कुछ उसके अन्दर कि हुआ्रा। निहित होता है। अगर आप उसका एक बीज उठा कर देखें तो उसके अन्दर उतन सारे पड बन हुए सह जयोग का कार्य करना शुरू किया। रहते हैं जो उसमें से निकलने वाले हैं । इस प्रकार सहजयोग अत्यन्त गहन और प्रगाढ़ है, किन्तु अत्यन्त' 'विशाल है । इसमें 'सभी जितना कुछ परमात्मा का कार्य हुआ है संसार में, वह सारी का सारा निहित है । वह गौरी स्थान पर है, यह कार्य घटित शऔर जब यह कार्य घटित हुआ, उस सके बाद मैंने श्रर आप जानते हैं आज 'हजारों में लोग पार हो रहे हैं। आज अगर मैं किसी देहात में बोलती होती तो इससे सात गूना लोग बैठे होते। और बेटते ही हैं। शहरों में आना तो time (समय) आशा है आप लोग अपने आत्म-साक्षात्कार को बर्वाद करना है क्योंकि लोग वैसे ही पार नहीं प्राप्त करेंगे एक और आज के दिन की विशेष होते । होने के बाद मेरा सर चाट जाते हैं । और बात यह है कि सहस्रार को खोलने का कार्य, जो वह भी मेंरा, परेशान कर देते हैं ग्रौर कोई जमते कि महत्त्वपूर्ण था, मेरे लिए वही मुख्य कायं था । नहीं । अगर आ्ाप सी आदमियों को पार कराईये, मैंने अनेक लोगों की कुण्डलिनियों को सूक्ष्म रूप से उसमें पचास भादमी तो सर चाटने के लिए आते जाना था । और यह सोचती थी कि मनुष्य क्या दोष हैं ्र उन दोषों का अगर मैं सामूहिक तरह से इस कार्य को करना चाहती है-जोकि ससय से सहजयोग को लेते हैं, वयोंकि वह level (स्तर) के क्या हैं और पचास आदमी ज़ो वच जाते हैं, उसमें से पच्चीस फ़ीसदी आदमी ऐसे होते हैं कि जो गहनता कि है सामूहिक का-तो किस प्रकार सारे जो कुछ भी नहीं है लोगों के, वह शक्ति नहीं है उनके अन्दर, वह इनके मेलमिलाप permutation-combinations हैं, उसको किस तरह से छेड़ा जाए क एक ही हैं, जो बहुत सीधे-सरल परमात्मा के बहुत नजदीक झटके में सब लोग पार हो जाएँ । और इस पर मैंने बहुत गहन बिचार किया था। और उसमें जो वह इतनी 'गहन' है और इस कदर बह प्राकलन कुछ मुझे समझ में आयो उस हिसाब से ५ मई के करते हैं कि आश्चर्य होता है । और एक रात में दिन सहस्रार खोला गया-उस हिसाब से । और आज की रात, पूरी रात, मैं समुद्र के किनारे अकेले जैसे कि 'प्रकाश फेल जाए, एकदम 'आग जैसे जागो थी और जागत वक्त पूरे समय में सोच रही लग जाए । इस तरह से 'कोई भी village थी कि किस से इस सहस्रार का आवरण दूर होगा। और जैसे ही मौका मिला, सवेरे के समय ये सहस्रार खोला गया । आज का दिन इसलिए भी बहुत शुभ है। सूझ बूझ नहीं है। और अगर गाँव के लोग जो होते पृथ्वी माता से नजदीक रहते हैं उनकी जो शक्ति है ही उनमें इतना बदल आ जाता है । और ऐसा : (गाँव) में मैं जाती हैं तो छः सात हजार आदमी कम नहीं आते। से तरह और अपने यहाँ वम्बई में आज कम-से-कम निर्मला योग १६ Mho 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-21.txt इतने वर्षो से कार्य कर रहे हैं तो भी मैं कहती है अन्दर बहना शुरू हो जाती है, जो सर्वव्यापी शक्ति लोग आए हैं। नहीं तो मैंने यहां तो एक से है। उस शक्ति को किस तरह से चलाना है, अपने वहुत शुरू किया था । तो उस हिसाव से काफी लोग अन्दर स्थायी कैसे करना है, उसका उपयोग कैसे आए हैं। करना है, ये सारी बातें आपको सीख लेनी चाहिए । प्रौर इस सीखने में अरपको कोई समय नहीं लगता । पर आपको जान लेना चाहिए कि सहजयोग अगर आपके अन्दर सद-इच्छा है तो सब चीज हो जैसे मराठी में कह। गया है कि 'ये रा गबळियाचे सकती है। अर्थातु इाप जानते हैं कि इसके लिए काम नोहे। बीरों का काम है । जनमें ये वीरश्री पैसा-बैसा कुछ नहीं दे सकते । हमारा कोई orga- हो, बही सहजयोग में अ सकते हैं। नहीं तो आधे nisation ( लोग आते हैं कि 'मां, हमारी बीमारी ठीक क रद, membership (सदस्यता) नहीं है । कुछ भी नहीं या उसके बाद आते हैं मेर। सर चाटने के लिए उसके लिए सह जयोग नहों है । सह जयोग है अपनी पा लें, अआप श्रगर सभी पा लें, तो मेरे खयाल से आत्मा को पाने के लिए। उसे आप पहले प्राप्त करें, आवे बग्बई का तो उद्घार हो ही गया। आने के बाद आरापकी तन्दुरुस्ती भी ठीक हो जाएगी। इतता ही सिर्फ जमना चाहिए। इसकी वड़ी आवश्यकता है । नहीं आपकी तन्दुरुस्ती ठीक हो जाएगी, पर आप दूसरों की भी तन्दरुस्ती ठीक कर सकते हैं। सबसे बड़ी तो बात यह है कि एक दीप जब जल जाता है तो अनेक दीपों को जला सकता है । इसी प्रकार आप भी अनेकों को जागृत कर सकते हैं। संस्था) नहीं है । हमारे यहाँ कोई । है। यह सबको पाने की चीज है । आर 'सब' जब बहुत गहन है, और है भी एक लीलामय । बडा ही मजेदार है । वहुत ही लीलामय चीज है। अगर आप इसमें आ जाएँ, इतना माधुयं इस के अन्दर है । कृष्ण ने सारा माधुर्य इसमें भरा हुआा है। [और सब तरह की इतनी 'सुन्दर इसकी रचना है कि सहजयोग एक 'जीवन्त' प्रणाली है । यह मरी उसको जानने पर मनुष्य सोचता है कि "वया मैं हुई प्रणाली नहीं जिसके लिए आप श्रपना मेम्बर- शिप बना ले या पाँच रुपया दे दें, चार आना, है ? क्या मैं 'इतना धामिक है?" धर्म और विनोद मेम्बर हो जाएँ, ऐसा नहीं है । 'आपको' कुछ होना तो हम समझ भी नहीं सकते । लेकिन घर्म जहाँ पड़ता है। आपको बदलना पड़ता है। 'সपमें हैम हसाये श्रर आनन्द विभोर कर दे, वही धर्म फ़क आना पड़ता है। और वह आने के बाद आप को स्थायी होना पड़ता है और वृक्ष की तरह खड़ा होना पड़ता है। ऐसे जो लोग होंगे वही सहजयोग और सूबूद्धि दें कि इसमें आप जमें श्रौर आगे बढ़े। के योग्य होते हैं। आजकल बातें तो लोग बहुत बहुत-से लोग इसमें बढ़ गये हैं, बम्बई शहर में । करते हैं कि समाज में ये सुधारणा होनो चाहिए 'बहुत' लोग हैं। उ्यादा से ज्यादा लोग अब हो गये और यह अपने देश में होना चाहिए। लेकिन सहज हैं, मेरा कहना है। यहाँ सब तो आ्ाए नहीं हैं। जो योग में जब आप आएँगे नहीं तब तक अपके देश भी हैं आए हुए हैं । ले किन और इसके अलावा बहुत में न कोई मदद कर सकते हैं, जैसे मैंने आपको समझाया । 'इतना मुन्दर हैं अन्दर से? ब्या मैं 'इतना विनोदी कुछ असली है । परमात्मा आप सबको आत्मसाक्षाकार द ।। सुधारणा हो सकती है, न आप किसी की से लोग हैं जो यह कार्य अनेक केन्द्रों में कर रहे हैं, मुफ्त में कर रहे हैं। आप उनसे मिलिए और अपनी प्रगति करिये सहजयोग एक प्रेम की शक्ति है, परमात्मा के प्रेम की शक्ति । और 'वह प्रेम की शक्ति प्रापके परमात्मा घ्राप सबको गराशीर्वाद दे ! निमंला योग २० 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-22.txt (कवर पृष्ठ २ का शेष) धिक vibrations का आनस्द पाये गे प्र उल्हास क्यक्तित्व को भूज जाता है और अन्तिम एक्यती का की बृद्धि होगो। उनका अ्रहं (eg०) एवं प्रति सोपान आरम्भ हो जाती है। मह (super ego) कम से कम होकर विलुप्त हो जायेंगे। वहुधा वन्दनीय माताजी प्रास्ट्रलिया की माताजी ईश्वर की सामूहिकता के रूप में प्रतिष्ठित हैं । अत: उन्हें जानने का मार्ग केवल सामूहिकता को आत्म समर्पण ही है और यही एक ऐसा बिन्दु है जहां हमें प्रपने प्रति ईमानदार होता पाय उदाहरण प्रस्तुत करती रहती हैं कि वहाँ के निवासियों में मान्यता ( recognisation) को मात्रा में विषुलता है । यह अबोधता ( मासूमियत) (innocence) से आती है, जो वस्तुतः यथार्थ है। ह। में एक बार फ़िर पुनरावृत्ति करता है कि माता अवोधता जब सत्य के सम्पर्क में ग्राकर मिलती है तो जी इस तथ्य को बारम्बार उजागर नहीं करेंगी । ज्ञान का उदय होता है। अवोधता सत्य सङ्कम से ज्ञान बन जाती है। यदि अकृत्रिम हानि की मात्रा परन्तु वास्तव में आपका हरास हो रहा है। यह अत्यधिक है तो मान्यता अपती गति से गतिमान माया की कार्य प्ररेणालो है जिससे आप शिक्षा प्राप्त होकर हानि की आपूर्ति में सहायता करती है। आपको अपना विकास होता हुआ सा प्रतीत होगा करने हेतु घकेले जाते हैं। अतः आप से उनका अनुरोध है कि आप गम्भीरता से ईमानदारी से माताजी का कथन है कि अस्ट्र लिया में अपने निर्धारित मार्ग का अनुसरण कर जिसमें मान्यता इतनी दढ है कि आत्मसमर्पण की द्वितीय शापकी] सामूहिकता का विकास आरात्मसमर्पण के सोपान शीघ्रता से सहज ही में प्राप्त हो जाती है। साहचर्य में सम्पन्न हो। जैसा मैंने कहा था यह वैसा जब यह घटित हो जाती है तो वास्तविक एकता नहीं है-नहीं है-यह पपात्म समर्पण नहीं है में विलम्ब नहीं लगता । परन्तु इस सम्पण एकता वास्तव में मानसिक प्रक्रिया है । में एक खतरा है कि ये विकास एवं सामूहिकता तो आप निःसंदेह अपने भाई-बहनों के प्रति अऔर एक प्रावश्यक अर्ग बन जाते हैं। माताजी ने बार- अधिक स्नेह एवं प्रसन्नता में बृद्धि का अनुभव वार आग्रह किया है और चेतावनी भी दी है कि करगे अतः माताजी के प्रति स्नेहिक होना स्वतः माताजी से प्रेम करना ही पर्याप्त नहीं है सिद्ध है । वरन् सामूहिक रूप से परस्पर स्नेह सिक्त होने से ही प्रसन्न कर सकते हैं । वहत सारे सहजयोगियों मंगल कामना करनी है। आपके चित्त में शुद्धता ने माताजी को अत्मसमर्पण किया है (वे दावा समग्र एकाग्रता का होना आवश्यक है । इसमें करते हैं कि हमने ऐसा किया है) परम्तु वे परस्पर पवित्रता तथा स्थिरता का पुट भी देना है क्या स्नेहशील दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं तथा प्रपने सहजयोगी नित्य प्रति प्रभ्यास करके अपने मानसिक सहजयोगियों की देखभाल की सूचारु रूप से नहीं करते हैं तथा कभी-कभी असामूहिकता (एका ्ी) माताजी की कृपा (grace) का पूर्ण आनन्द भी ग्रहण कर लेते हैं। माताजी इससे प्रधिक प्रोर उठाइये । कुछ न कह सकेंगी क्योंकि यह एक पाठ्यक्रम है जिसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा स्वयं ही हुदयङ्गम करना है। पाठ याद हो जाने के पश्चात् वह अपने यदि ऐसा ही है प्रत्येक सहजयोगों को यू.एस.ए. में ही नहीं आप आदि शक्ति माताजी को वरन विश्व भर में सहज योग के प्रचार प्रसार की उद्वेगों को त्यूनातित्यून करने का प्रयत्न करते हैं । स्नेहसिक्त ! -वारेन 11-9-81 1983_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_VI.pdf-page-23.txt Registered wilh the Registrar of Newspapers under Regn. No. 36999/81 सहजयोगी की चाह अर्वान ओर अम्बर में, है माँ ! फुल बन हम जीवन के, महके गे महकायं गे । से तेरे पदकमल सजायगे । हम गायगे, जलायेगे । सुमन मुगन्ध नक्षत्र तारों तक हम, प्रेम - पुण्य मालाओं तेरा सन्देश सुनायेंगे । गायेगे गायेंगे, हम गायगे, गोत प्रेम के गांयंगे ।। १ ॥ गीत प्रम के गायगे|५।। ज्योति से उयोति जलायंगे, क्यों खोजे जल थल, नभ में प्रम-प्रकाश फेलाय गे । क्यों खोज त्रिभुवन में । शीश भका कर तेरे चरगों पर, होरे, मोती, तारे, या हम धन्य घन्य हो जायगे । चमकते प्रमांगन में । गायेगे, हम गायगे, गायेंगे, हम गायेंगे, गीत प्रेम के गायगे॥२॥ गीत प्रेम के गायेगे ॥६॥ सहजयोग अपनायेगे, ते री इच्छा बत कर, हम जीवन सहज बनायगे । ते रे हो बन जाय । अ्रथ जोवन का पायेगे, होकर 'परम के, हम जीवन सकल बनायगे। परम प्रम पाय । हम गायेंगे, गायगे, गोत प्रेम के गायेगे |३॥ गायेंगे, हम गायेंगे, गीत प्रेम के गायगे|६॥ गाय गे |६॥ सहज प्रेम की क्रान्ति, जन मानस में जायेंगे। 8 जय माता जी लाल बनतगे हम तेरे, निमंल प्रेम कहलायेंगे। गायेंगे हम गायेंगे, सी. एल. पटेल गीत प्रेम के गायगे ॥४॥ सन् १६८४ में परम पूज्य माताजी का दिल्ली में कार्य-क्रम १२ बजे अपराह् ग्राम तुगाना जिला मेरठ ११-३-८४ १२-३-८४ से १३-३-८४ तथा १५-३-८४ से १७-३-८४ एवं २०-३-८४ मावलंकर आडिटोरियम, रफी मार्ग ६ वजे संध्या सनातन घर्म मन्दिर शंकर रोड न्यु राजेन्द्र नगर ६-३० बजे संध्या १४-३-८४ सेमोनार, गढगङ्गा, गढ़मुक्तेश्वर १८-३-८४ वे १६-३-८४ Edited & Published by Sh S. C. Rai, 43. Buingiow Road, Delhi-110007 and Printed at Ratnadeep Press, Darya Gani, New Delhi-110002. [One issue Rs. 5.00, Annual Subscription Rs 20.00 Foreign [By Airmail E4 $ 8]