fनिर्मला योग GII IP मई-जून १६८५ वर्ष ४ अक १६ द्विमासिक ॐ त्वमेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी, मोक्ष प्रदायिनी माता देवी नमो नमः ॥ निमंला जी. श्री L जय श्री माता जी 15 मां निर्मला के प्रति केवल तुम्हीं तुम हो सबमें, का नाश जो, हे मां ! वही प्रकाश हो । के रता तम सब आकारों के आकार हो ।।६।। हो जाते विलीन शब्द जिसमें, अंत करता, अज्ञानता का तुम वही प्राकाश हो ।॥ १ ॥ हो । वही ज्ञान परम विचारों अंत आत्म तत्व के तुम, सब विज्ञानों के ज्ञान हो ॥७॥ करता, ज्ञान का हो तुम वही निर्विचार विकारों का नाश करता जो, माल जिस में, जाते हैं । हो अपूर्व अभिशाप अरपूव ॥२॥ क्षमा तुम वही निर्विचार हो घुल हो हो जाते हैं । पवित्रता, हो नि्विकल्प, तुझमें विकल्पहीन निर्गरण निराकार हो जिसमें, अनुपम, जाते हैं II5॥ हम सब पाप घूल हो। जब जो चाहे मिल जाता है । हे मां ! कामवेनु कल्पतरू हो, गुणाकार लीन हो जाते है ।1३॥ निषकलंक चंद्रमा, निस्ताप सूरज, हो, चित् असत् के अन्त हो जाते हैं । आनंद सत् शीतल प्रकाश आता है ।६।। मृत्यु को होता अंत जहां, हर जीवन अनंत पाढे हैं ।॥४॥ कैसे व्यक्त करें महिमा तेरी, ने ति नेति गाते वेद हैं । हो जाते लुप्त सब सापेक्ष जिसमें, वही तुम निहित सर्वस्व, किचित कोई पाते भेद हैं ॥१० । नि:' में हो । "परम" सहज वक्ता, सहजद्रष्टा, सहजज्ञाता, सहजयोग के मरम हो ॥५॥ पाकर दर्शन 'सहज' में तेरे, हे माँ ! कृतज्ञता से भर जाते हैं । जीवन धन्य हो जाता है, है, भवसागर से तर जाते हैं ।।११॥ देता भ्रमजाल जो, वही काट ज जर सत्य साक्षात्कार हो । सी० एल० पटेल ho ज ी ho to सम्पादकीय "साई बिन दर्द करेजे होय" श्री कबीर आत्म साक्षात्कार के पश्चात् कुण्डलिनो सहस्र्रार छेद कर बाहर चलो जाती है । इसी समय आत्मा और परमात्मा का एकाकार होता है। यह परम श्रनन्द का समय है । श्री कबीर दास जी कहते हैं कि यह स्थिति बराबर बनी रहनी चाहिए । जबर कभी भी इस स्थिति में अरभ्यान्तर होता है अ्र्थात् निर्विचारिता भंग होती है हृदय में दर्द का अनुभव होता है । क्योंकि निर्विचारिता के अ्रभाव में ग्रात्मा और] परमात्मा का एकीकरण सम्भव नहीं है। आरज हम सभी सहजयोगीजन धन्य हैं कि परम परमेश्वरी अ्दिशक्ति श्री माता जी मानव रूप धारण कर यह स्थिति हमें सहज ही सुलभ करा रही हैं। हम सभी धन्य हैं और साथ ही आभारी भी । सहजयोग के इस परम पुनीत सन्देश को जनमानस तक पहुंचाना हमारा करत्तव्य है। निर्मला योग निर्मला योग ४३, बंगलो रोड दिल्ली-११०००७ संस्थापक परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी : डॉ शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र श्री आर. डी. कुलकरारी प्रतिनिधि कनाडा : लोरी हायने क श्रीमती क्रिस्टाइन पेंट नीया २७०, जे स्ट्रीट, १/सी ब्रुकलिन, न्यूयाक्क-११२०१ यू .एस.ए. ३१५१, होदर स्ट्रीट वेन्कूवर, बी. सी. बी ५ जेड ३ के २ न यू .के. श्री गेविन ब्राउन भारत श्री एम. बो. रत्नान्नवर १३, मेरवान मैन्सन गंजवाला लेन बोरीवली (पद्चिमो) बम्बई-४०००४२ ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़र्मेशन सविस] लि. १३४ ग्रंट पोर्टलेण्ड स्ट्रीट रनन्दन ड्लू. १ एन. पी. एच. ५ू न द थ पृष्ठ इस अंक में न १. सम्थादकोय २. प्रतिनिधि ३. माता-पिता का बकचों के सा ४. महाशिवरात्रि पूजा ५. निमंल वाणी ६. प्रपंच ओर सहजयोग १ २ थ तथा शिक्षकों का दात्रों के साथ सम्बन्ध १५ का पा ता १६ निर्मला योग श्री माता जी निर्मला देवी माता-पिता का बच्चों के साथ तथा शिक्षको का छात्रों के साथ सम्बन्ध सहज मन्दिर, दिल्ली १५ दिसम्बर, १६८३ सहजयोग क्या है और उसमें मतुष्य integrated (सम्यक) बात नहीं है। इसमें inte- क्या -क्या पाता है, आप जान सकते gration (समग्रता) नहीों है। ओर प्राज का सहजयोग जो हैं वह integration ( समग्रता) कि है। दोनों चीजों का integration (विलय एकीकरण, समग्रीकरण) होना चाहिये न कि combination (एकत्रीकरण) होना चाहिये । Integration (विलय, एकीकरण, समग्रीकरण) हैं। ले किन आज में आपको एक छोटी-सी बात बताने वाली है माता-पिता की सम्वन्ध बच्नों के साथ कैसा होना चाहिये। सबसे पहले बच्चों के साथ हमारे दो सम्बन्ध बन ही जाते हैं, जिसमें एक तो भावना होती है, अर combination (एकत्रीकरणा) में ये फर्क हो औ्र एक में कर्तव्य होता है। भावना और कत्तव्य दो अलग अलग चीज़ बनी रहती हैं। जैसे कि कोई हैनी चाहिये, और कत्तब्य हमारी भावना होनी मां है, बच्चा अगर कोई गलत काम करता गलत बातें सीखता है, तो भी अपनी भावना के कारण कहती है, "ठीक है, चलने दो। आजकल बच्चे ऐसे ही हैं, बच्चों से क्या कहना । जैसा भी हमारा बच्चा है, ठीक रास्ते पर चले और हमारा है ठीक है ।" दूसरी मां होती है कि बो सोचती है बच्चा ठीक रास्ते पर इसलिये चले, क्योंकि हमें कि वो बच्चों को कतव्य-परायण बनाए । परायण बनाने के लिये वो फिर बच्चों से कहती है बताते कि बो ठीक रास्ते पर चले, तो इसका मत- कि "सवेरे जल्दी उठना चाहिये आपको । पढने लब है हम भावना-प्रधान हैं। ये तो बहुत आसान बैठना चाहिये। फिर आप जल्दी से ये समय से करना चाहिये। वहां बैठना चाहिये, क्या कहें ? जाने दीजिये । बच्चे से कहने में बच्चे यहां उठना चाहिये, ऐसे कपड़े पहनना इन सब चीज़ों के पीछे में लगी रहती है। जाता है कि हमारी जो भावना है वो कर्तव्य 1 चाहिये । जैसे कि हमें अपने बचचे के प्रति प्रेम है । तो हम कहेंगे कि प्रेम है, इसीलिये हमारा करत्तव्य है: उससे प्रम है। अगर हम अपने बच्चे को ये नही कत्तव्य- है कि हम इस चौज़ को सोचे कि "हम बच्चों से स्कूल जाइये । दुःखी हो जाते हैं, तकलीफ होती है उन को । उनको क्यों दुःखी करें?" चाहिये ।" श्र एक होता है ये सोचा जाए कि प्रब इसे कहना चाहिये कि ये सम्यक नहीं है, "नहीं, कितना भी हो तो भी बच्चों को जो दुःख निमंला योग ३ पताम है एकदम धो करके, माज करके, बिलकुल साफ और फिर कहा कि "अच्छा अगर दूसरा आ सकता है तो बहुत अच्छी बात है। अ्रब] मै नहीं रोऊगा, क्योंकि उसमें मैं तुमको दुध दूंगा । कर दं ।" जब integration (समग्रीकरण) हो जाता है तब मनुष्य इस तरह से अपना ही बर्ताव कर लेता है कि जिसका सबसे बहा प्रभाव वच्चों पर बर्ताव कैमा है । और इसकी जो छाप बच्चे पर पड़ता है । तो बच्चे हमेशा ये देखते रहते हैं कि आपका पड़ती है वड़ी गहरी होती है, वनिस्बत इसके कि श्रप सुबह-शाम वच्चे को लेकचर देते रहें | जैसे पिताजी तो हैं प्रालसी नम्बर एक, समझ लीजिये, ोर या तो शराब पीते हैं, सिगरेट पीते हैं । या मां बहुत गुस्सैली है, बच्चों को मारती, पोटती भिडकती रहती इसलिये जो लोग सहजयोगो यहां पर हैं, या जिनके वच्चे यहाँ पर पढते हैं, उनको समझ लेना चाहिये कि क्या आाप में वो मम्यक (integrated) ज्ञान आया है कि नहीं। सम्यक ज्ञान प्राने पर मनुष्य कितना भी मझाए तो वुरा नहीं लगेगा, कितना भी प्रेम करे तो भी खराब नही होगा । है। तो उसका असर बच्चों पर अपने अ्राप पड़ जाता है । ऊषर से अ्राप उन्हें कितने भी सदुपदेश दें, कितनी भी बात बताएं, वो ये देखते हैं कि ये लोग कैसे हैं । बताने से कुछ नहीं होने वाला। जो फ़र्क होता है वो देखने से होता है कि हमारे मां-वाप का बर्ताव कैसा है । उनका दुसरों के साथ बर्ताव केसा है और उनका हमारे साथ बताव केसा है । उनका आपस में बर्ताव कैसा है । बच्चे हमेशा ये देखते रहते हैं । शप लोगों पर मेरा अनंत प्रेम है, अरौर बहुत वार आपको मैं समझाती भी है, लेकिन न आप लोग बुरा मानते हैं, न ही आप बिगड़ गए हैं । इस- की वजह ये है कि म ज्ञान से काम करना है चीज अगर बच्चे जानते हैं कि अाप पूरी तरह से उनको ध्यार करते हैं तो एक बार की भी झिड़की बहुत होती है । लेकिन प्रगर आप हर समय भिड़कते एक छोटा सा किस्सा है कि एक औरत वहुत रहें तो वच्चे कहेंगे कि इनकी तो प्रादत ही भिड़- कने की है। इसलिये बच्चों को बहुत हो संभाल कर शा दुष्ट स्वभाव की थी । और ससुर बुड्ढे हो गए थे । तो उनको बो दूध वरगैरह देती थी तो एक वड़ा और प्यार से रखना चाहिये । गंदा सा बतन थी मिट्टो का, उस में दिया करती थी। और वो विचारे उसी में दूध पीते थे । और वो बच्चा जो था उनका, वो ले जा ना वास्तव में मैं तो यही कहूँगी कि प्यार हो से रख्िये । और जब कभी भी बच्चे में कोई दोष देखें, ्पने दादा को देता था । एक दिन वो बर्तन टूट कुछ देख, दो-चार बार देखने के बाद शांति से गया। तो बच्चा जोर-जोर से रोने लगा । तो उनको विठा करके कहें कि ये ठीक नहीं है। आपको उन्होंने कहा "इसमें रोने की कौन सी वात है ? आश्चय होगा कि आपका उनके साथ अगर सद- वो तो टूट गया, सो टूट गया। इसमें रोने की कौन व्यवहार रहा, तो इस घबड़ाहट में, कि कहीं इनका ज्यार न खत्म हो जाए, एक दम ठीक हो जाएगे। रह। था मा, कि जब तुम बुड्ढी होोगी, तो मैं लेकिन आपने अगर कोई प्यार ही कभी बच्चे को जताया नही, हर समय "ये ठीक से रखो, वो ठीक रखों, इसे ये करो, वो करो," करते रहे, तो करके दूध सी बात है ?" तो बच्चे ने कहा कि मैं ये सोच को किस चोज में दुध दंगा ?" तब उसका तुम दिमाग जगा कि देखो बच्चे ने बात समझ ली. मे निर्मला योग बच्चे ये सोचेंगे कि यह तो इनकी आदत है, एक न ही अति-कर्तव्य के बहाव में किन्तु आ्रार्मा के बहाव में चलना चाहिये। अ्रर जब आप प्रात्मा के आदेश से चलेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि ग्रापकी गयात्मोत्रति तो होगी हीं, साथ में आपके बात औ्र कह दो तो क्या कर ली। अरत: अ्रपना व्यवहार सम्यक होना चाहिये । अपने देश में भी हमने देखे हैं कि लोग अपने देखा देखी आपके बच्चों की भी होगी । वच्चों के लिये भूठ बोलेंगे चोरी करेंगे, चकारी करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। यहाँ तक कि उनका वस चले तो देश भी वेच डाल । [अर कुछ लोग गया है कि देश में स्कूल कम हैं। स्कूल होते हैं, परदेश में खास करके, बो अ्पने बच्नों की लोग बन। एंगे, वना भी सक ते हैं, पैसा भी बना इतनी भी परवाह नहीं करते हैं कि अ चचे सकते हैं, बच्चे पढ़ भी जाएगे graduates मर रहे हों तो उनके मुंह में पानी डाल. द । ये । दोनों चीजें सम्यक नहीं हैं। उनको यही रहता है कि हमारा carpet (कालोन) गन्दा नहीं होना चाहिये, हमारा door (दरवाजा) साफ़ रहता सिफ एक ही बात से था कि हमारे देश में ग्राज चाहिये और हमारी गाडी ठीक रहनी चाहिये ग्रोर ऐसे नागरिकों की जरूरत है जो एक विशेष रूप के वचचों को काम करना चाहिये । उनके पीछे में पड़े दशवादी हों। और ये विशेष रूप के अदर्शवादी रहते हैं । और यहाँ हम बच्चों को खराब करते हैं । वच्चे कहाँ तथार होंगे ? उनके लिये कोई ऐसी ख सिकर माँ बच्चों को बहुत खराब करती हैं। शाला होनी चाहिये जहाँ इसकी पूरी व्यवस्था हो । पिता भी कभी-कभी बच्चों को खराव करते हैं ये सहजयोग का स्कूल इसलिये नहीं बनाया तो बहत (स्नातक) भी हो जाएंगे, और सव हो जाएगा सहजयोग का स्कूल बनाने का मेरा विचार उसी प्रकार teachers (अध्यापकों ) का भी हाल है । अगर teachers ( अ्ध्यापक) चिड़चिड़े तो पहले अपनी ओर देखना चाहिये कि हम बच्चों को क्यों खराव करते हैं ? इस कदर उनको व्यार नहीं देना चाहिये कि जिससे बच्चे खराव हो जाएं, श्रप की बात न सून, मन मानी करें, या बच्चे ये न सोचे कि, "हाँ ये तो...हम इनको सब खराव इस तरह है, हर समय "ये खराव, वो की बैकार की बातों में दिमाग लगाते होंगे, तो बच्चे भी वसे (भौतिकतावादी) । या तो teache (अध्यापक) भी over-indulgent, माने बच्चों को बहुत प्यार हो जाएंगे, materialistic समझा लंगे । ये तो अपने हाथ की बात है। इस कदर हम अपने अति-प्यार से उनको गलत रास्ते दुलार में, उनको पढ़ाई-लिखखाई न दें, तो बच्चे भी वैसे हो जाएं । इसलिये teachers (अध्यापकों) पर भी बड़ा उत्तर-दायित्व है कि वो अपने जीवन को इस तरह से सूधार कि बच्चों के सामने एक बड़ा भारी आदर्श खड़ा हो जाए, जो लोग याद करें कि "हमारे एक teacher (अध्यापक) थे, उनकी एक विशेषता ये थी । उनको एक विशेषता थी । पर डाल देते हैं। उमी प्रकार कभी कभी उनके साथ बहुत सख्ती करने से भी उनको हम इस तरह के बना देते हैं कि वो हमसे मंह मोड़ लेते हैं । फिर हमारा बो मुंह नहीं देखना चाहते । दोनों चीज़ के बीचों-बीच सहजयोग है, सुपुम्ना नाड़ी पर । अत: सुषुम्ना नाड़ी पर चलना चाहिये । न तो अ्रति-प्यार के बहाव में रहना चाहिते, और होता था और बहुत पहुँचा हुआ होता था। इसी- तो ये काम बहुत पहुँचे हुए लोगों का है । पहले गुरू जो होता था realised soul (साक्षात्कारी ) निमंला योग ५ लिये अब आ्रापका गोत्र जो है, आपकी university करगे बच्चों में झगड़ा और उनमें जो उत्पात (विश्वविद्यालय) सहजयोग है । [और सहजयोग करने की बाते हैं, उसको किस तरह से निकाल देना की योग्यता के ही हमारे teachers (अ्रध्यापक) होने चाहिये, और वहाँ के बच्चे होने चाहिये । 'एक आदर्शवादी उत्तम, अ्रतिउत्तम विद्यार्थी इस स्कूल मे निकलेंगे । चाहिये, और उसका केसा किसी तरह से पूरी तरह से नाश कर देना चाहिये, ये सब कुछ मैं चाहती हैं कि parents ( अ्रभिभावकों) को भी सिखाया जाए । इसका मतल ब ये नहीं कि वो बड़ रईस बन करके और बड़े कहीं वो बनकर घुमें गे। लेकिन ऐसे होगे कि इस संसार की आधार हों, जेसे कि श्री गणश अरधार हैं । इसी प्रकाार हमें प्रनेक आरधार खड़े करने हैं । इसीलिये हन सहजयोग को संसार वदल सकता है । और तो कोई मुझे माग व्यवस्था में ही एक स्कूल चलाने के पीछे लगे हुए दिखाई नहीं देता । है। और इसी प्रकार एक बड़ा स्कूुल भी बम्बई में बनने वाला है । उसका भी श्री गणेश हो गया है, उसका भी foundation stone (नींव) पढ़ ले किन इसकी गतिविधियों का जब प्रच्छे से सब काम शुरू हो जाएगा, तब अ्राप देखियेगा, parents (अभिभावकों) में भी बहुत बदलाव आ्रा जाएगा, और बच्चे भी बदलंगे। इसी तरह से सारा इसलिये ग्राप समझ ल कि अपका] भी वड़ा महत्व है, और उस महत्व को अपने नजर में रखते हुए आप सब लोग उस अरोर बढ़, ओ्र इस स्कूल गया है । को बहुत यशस्वो करं । यह होगा। ओर आशा है आप लोग सब अपने दिल को पूरी तरह से साफ करके अरोर इस अओर बढ़ कि हम अपने बच्चों को एक विशेष रूप के आदर्शवादी मैं इस तरह की आप सबको आशीर्वाद देती हैं। विद्यार्थी बनाएंगे। और 'सब मिल करके काम With best compliments from पवा A WELL WISHER निमंला योग श्री माता जी निर्मला देवी महाशिवरात्रि पूजा' पंढरपुर २६ फरवरी १६८५ इस आधुनिक युग में, एक स्थान माता-पिता को देखने के लिए आए थे । जब मैं अपने माता-पिता की सेवा में) व्यस्त था । वे अ्रत्यधिक अपवित्र हो जाता उसी ईंट पर, जिसे मैंने फेंका था, खड़े रहे।" जो कि पवित्र होना चाहिए, ( है । इन दिनों ऐसी अव्यवस्थित दशा है, और जबकि हम एक अत्यन्त अब इस सम्पूरण कथानक को एक वहुत ही महत्वपूर्ण चीज स्थापित करने की युक्तितपूर्ण ढंग से देखना चाहिए । ईश्वर स्वयं हर कोशिश में हैं। जैसा कि एक छोटे अंकुर को तरह का चमत्कार करने में सक्षम है हम लोग पत्थरों में से बाहर आने में अनेक कठिनाइयों का भी जो ईश्वर द्वारा उत्पन्न किए गए हैं कुछ ऐसे सामना करना पड़ता है। इस के लिए हमें अपने कार्य करते हैं जो चमस्कारपूर्ण लगते हैं। अगर हम अपने मस्तिष्क को तन्दरुस्त रखना होगा और १०० वर्ष पूर्व की संसार की दशा को देखें तो हमें बहुत सी चीजें ऐसी मिलगी जो चम कारपूरण यह देखने का प्रयास करना होगा कि हम अपने होंगी। एक सौ वर्ष पूर्व कोई ऐसा नहीं सोच सकता घेयं व बुद्धिमत्ता से क्या क्या प्राप्त कर सकते हैं। था कि (आज) हम इतने सुदूर इस स्थान पर ये सब प्रबन्ध कर पायगे। लेकिन यह सभी चमत्कार परमात्मा की शक्ति से उत्पन्न होते हैं। इस हैं. हरेक चीज की ओर सही दुष्टिकोण रखना होगा । यह बहुत ही महत्वपूर्ण है । मे रे विचार से हम सब लोगों के लिए ज का दिन बहुत महान है क्योंकि यह श्री विट्ठुल बन जाते हैं। परमात्मा के चमत्कारों की व्याख्या जी-विराट-का स्थान है। यह वही जगह है जहाँ नहीं को जा सकती और न ही करनी चाहिए । वह श्री विट्ठल अपने एक भक्त पुत्र के सामने प्रगट हमारे मस्तिष्क से परे है। मनुष्य को भगवान के हुए थे और जब उस ( " प्रच्छा बहा भी कर सकता है । चमत्कार के बहुत ही सूक्ष्मतम अश के हम भी भागी भक्त) ने उनको कहा शस्तित्व का आभास कराने के लिए परमात्मा कुछ होगा आप एक इंट पर खड़े रहें वे खड़े रहे । कहते हैं कि वे खड़े इंतजार करते रहे । यहमूरत्ति जिसे हम देख रहे हैं. कुछ लोग कहते हैं कि यह मूरक्ति पृथ्वी माता ( के गर्भ) से उत्पन्न हुई इसी रेत पर । इसको ले जाते हुए पुण्डरीकाक्ष ने कहा था "ये वही (विट्ठल जी) हैं जो मुझे व मेरे वह (परमात्मा) तीनों आयाम में विचर सकता है और चौथे आरायाम में भी। वह जो कुछ नाहे सब कर सकता है । इसको आप प्रपनी दिनचर्या में देख चुके हैं कि कितने चमत्कार होते रहते हैं । यह कसे *निमंला योग' ( अंग्रेजी ) मई जून १६८४ के पृष्ठ ६-१२ का हिन्दी प्नुवाद । निर्मला योग य। होता है ? इसको आप नहीं समझ सकते । वह उन वस्तुओं में भी कार्य करता है जो नि्जीवहैं । लोग अनुभूति के लिए मैं इसके लिए द चकित रह जाते हैं कि यह सब कैसे होता है। अतः प्रयोग नहीं करूंगो। वह कितना शक्तिशाली है, वह यह सब देखकर हमें स्वयं विश्वास करना चाहिए कितना चमत्कारी है, कितना महान है । (त्मा कि वह (ईश्वर) है और वह जो चाहे सब कुछ कर के मस्तिष्क में ग्राने का) दूसरा अर्थ है, मानव सकता है। हम उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। मस्तिष्क निर्जीव वस्तु मृजन कर सकता है । परन्तु इसके विषय में यानि ईश्वर के चमत्कार के बारे में जब प्रात्मा मस्तप्क में अ जाती है तव आप सजीव कोई तर्क नहीं होना चाहिए। "यह कैसे होता है ? वस्तुएं उत्पन्न करने लगते हैं, कुण्डलिनी का सरजीव येह केसे हो सकता है ?" मस्तिष्क की क्षमता असीमित होनाT, परमात्मा की 'समझना शब्द प्राप इसको समझा नहीं कार्य । यहाँ तक कि नि्जीव भी सजीव की भाति व्यवहार करने लगता है क्योंकि अाप निजीव में सकते । इसे (आप तभी समझ सकते हैं) जब आप मस्तिष्क की उस अवस्था को प्राप्त कर चूके हों उनकी आत्मा को स्पशं कर देते हैं । जब प्राप अपनी अनुभुति द्वारा विহ्वास करें कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है । ऐोसी धारणा होनी अत्यन्त दुष्कर है। यह बहुत कठिन है क्योंकि न्यूक्लियस में उस परमाणु की 'आत्मा' रहती है । हम सीमित व्यक्ति हैं । हम लोगों की शक्ति सीमित अगर ग्राप अत्मा हो जाए (यदि आप अपनी है । हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि ईश्वर तुलना एक परमाणु से करें), तो यह इसी प्रकार ड जिस प्रकार प्रत्येक अणु या परमाणु के अंदर होगा जैसे कि परमाणु का मस्तिष्क न्यूक्लियस हो इनना सर्व-शक्तिमान केसे है ? क्योंकि हमारे पास ( इसके लिए) क्षमता नहीं है । यह परमात्मा जो ओर इस मस्तिष्क (अर्थात न्यूक्लियस) का हम लोगों का निर्माता है, हमारा रक्षक है, जिसकी नियंत्रण, इस न्यूक्लियम में स्थित आत्मा करे । इस यह इच्छा है कि हमारा अस्तित्व वना रहे, जो प्रकार आपके पास चि त्त यानि शरीर है अणू का स्वयं ही हमारा ध्रस्तित्व है वह सर्व शक्तिमान पूरा शरीर ) , व तब न्यूक्लियस और उस व्यूक्लियस ईश्वर ही है। सर्वशक्तिमान । वह जो कुछ भी के अंदर 'आत्मा है । चाहे आपके साथ कर मकता है। वह दूसरे विश्व की संरचना कर सकता है तथा इस संसार का इभी प्रकार हमारा शरीर है-हमारा चित्त। और उसके बाद हमारे पास न्युक्लियस है यानि मस्तिष्क, तथा 'अत्मा हृदय में है । मस्तिष्क का सतालन 'अत्मा के द्वारा होता है । यह कैसे ? इसे प्रकार, हृदय के चारों शोर सात 'अौरा -हैं (जिसको कितने ही गुरणा बढ़ी सकते हैं। 7 (7 raised to power आप सभी के हृदय ' 16,000, ७. पर १६,००० की शक्ति )। औरा] का स्थान आपके सिर के ऊपर है किन्तु वह प्रापके (Auras) सातों चक्रों की निगरानी करते हैं । विनाश भी कर सकता है। ऐसा तभी होता है जब उसकी ऐसी इच्छा ही । 'शिव पुजा के लिए पण्डरपुर मेरा विचार इसलिए हुआा कि 'शिव' प्रत्मा का प्रतिनिधित्व (represent) करता है तथा 'ग्रात्मा आने का ( Auras) - ते ज मंडल में निवास करती है । 'मदाशिव हृदय में प्रतिबिम्बित है। आपका मस्तिष्क ही "विट्ठल' है । अतः 'आत्मा' को आपके मस्तिस्क में लाने का अर्थ होगा आप के मस्तिष्क आलोकित करना । आपके मस्तिष्क आलोकित रही हैं-अ्रात्मा इन औरा' यह आत्मा इन 'औरा (Auras) के द्वारा को देखती रहती है । देखती रहती है-मैं पुनः कह (Auras) के द्वारा होने का अर्थ है आप के सीमित क्षमता वाले देखती रहती है। ये औरा (Auras) मस्तिष्क में ि निर्मला योग াe श स्थित सातों चक्रों के व्यवहार पर निगरानी नहीं होता । यदि आप के पास कुछ है, आपको रखते हैं। ये मस्तिष्क में कार्यरत सभी नसों उससे कोई मोह नहीं रहता । आप मोह ग्रस्त (Nerves) की भी निगरानी करते हैं । 'देखते नहीं होते क्योंकि आरमा निलिष्त ( detached) रहते हैं। लेकिन जब आप आत्मा जो कुछ भी हो आप मस्तिषक में लाते हैं तब आप दो कदम आगे किसी तरह के लगाव की चिन्ता नहीं करते । बढ़ जाते हैं । क्योंकि जव आपकी कुण्डलिनी ऊपर एक क्षण के लिए भी आप का लगाव नहीं होता । उठती है तो वह सदाशिव को स्पर्श करती है और सदाशिव आत्मा को सूचित करते हैं । यहा (detachment) को समझने के लिए हमें अपने सुचित करने का मतलब है प्रतिवरिम्बित होते हैं को अपने है । पूर्णरूप से निलिष्त मैं तो कहंगी कि त्रपनी आत्मा की निलिप्तता श्रपको प्रच्छा तरह से अध्ययन करना चाहिए ्पष्ट रूप से कि कैसे हम लोग मोह में फंसे हुए हैं। सबसे पहले हम लोगों का मोह मस्तिष्क के द्वारा है, अधिकांशतः मस्तिष्क से । क्योंकि हमारे सभी संस्कार (conditioning) हमारे दिमाग में भरे वह 'पहली अवस्था है-जहां प्रौरा' मस्तिष्क के विभिन्न आत्मा में । अतः चौकसी करते हुए ' चक्रों से संचार स्थापित करना शुरू कर देते हैं वे एकबद्ध या सम्यक (Integration) करते हैं । लेकिन जब आप अत्मा को अपने मस्तिष्क पड़ें हैं और हम लोगों का अहम् भी मस्तिष्क में है । में लाते हैं यह 'दूसरों अवस्था है । वस्तुतः तब आप पूर्णरूप से 'अत्म साक्षात्कार' पाते हैं, पूर्ण रूप से । क्योंकि तव आपका 'स्व, जो कि आत्मा है, अपका मस्तिष्क वन जाता है। यह क्रिया प्रति मस्तिष्क द्वारा होता है। जिसके कारण भावात्मक गतिशील होती है । यह मनुष्य के अंदर पांचवां' लगाव मस्तिष्क के द्वारा होता है तथा हमारे आयाम (dimension) खोलती है । पहले जब आप साक्षात्कार पाते हैं व भामूहिक चेतना में इसीलिये यह कहा गया है कि साक्षात्कार के पश्चात् आते हैं तथा आप कुण्डलिनी को ऊपर उठाने अलिप्त-भाव (detachment) के अभ्यास द्वारा लगते हैं, तब आप 'चौथे' आयाम को पार कर 'शिवतत्व' का प्रभ्यास कर ना चाहिए । जाते हैं। परन्तु जब श्रप की आत्मा मस्तिष्क में आ जाती है, तब आप 'पांचवां ग्रायाम बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि अ्रप 'कतर्त्ता' (Doer) बन जाते हैं। उदाहरण के लिए मान लो मस्तिष्क है "इस वस्तु को ऊपर उठाओ", आप मस्तिष्क के जरिए होता है- परन्तु यह हमारे अतः भावात्मक मोह भी हमारे मस्तिषक द्वारा होता है और हमारे संस्कार (conditionings) मस्तिष्क में है और हमारा सब अरहंकारी मोह भी हकारमय लगाव भी मस्तिष्क के द्वारा होते हैं । ब] प[अलिस्त] भाव] (detachment) का अभ्यास कैसे करें ? चूंकि किसी भी वस्तु से हमारा लगाव कहता इसको अपना हाथ लगाते हैं व उसको ऊपर उठा लेते हैं । अरतः अ प कत्त्ता' हुए। परन्तु ज ब मस्तिष्क श्रात्मा बन जाता है, तब आत्मा ' जाती है और जब आत्मा 'कत्ता है तब आप कहाँ जा रहा है ?" सहजयोग के अभ्यास में यदि पूर्णतया 'शिव' हो जाते हैं-'आत्म-साक्षात्कारी आपको ऊपर उठना है तो आपको अपने यंत्र' (Self realised)। उस अवस्या में यदि आप (Instrument) को नाराज हों तो भी आपको मोह (attachment) को नहीं । इस बात को आपको निश्चित रूप से नहीं होता। आपका किसी भी चीज से मोह जानना चाहिए । चित्त (ध्यान) द्वारा होता है । अत: इस के लिए हमें अपना चित्त (ध्यान) नियंत्रित करना चाहिए 'कर्ता हो जिगको हम "चित्तनिरोध" कहते हैं। "यह (चित्त) सुधारना होगा-दूसरे के यंत्र निर्मला योग ब अपने चित्त की केवल निगरानी करें कष्ट दीजिये यह कहाँ जा रहा है ? आप स्वयं की निगरानी होता है कर जेसे ही आप अपने को, प्रपने ध्यान को देखना इसी वजह से लोग हिमालय पर गये देखिए ! शुरू करेंगेध्राप अ्रपनी आत्मा से एकरूप हो जाएंगे । चकि यदि अ्राप को अपने 'ध्यान की निगरानी कितनी वाधाग्रों का सामना करना पड़ा । अत: करनी है, तो आप को प्रपनी आत्मा बनना पड़ेगा। हिमालय पर प हैचने में तो आप कल्पना कर सकति अन्यथा आप इसकी निगरानी कैसे करेरंगे ? । आपको जो ग्ाराम दायक प्रतीत उसको थोड़ा कष्टप्रद बनाइये। इस स्थान पर आने में ही हम लोगों को हैं ? साक्षात्कार के पश्चात् (लोग) अपने शरीर को हिमालय पर ले जाया करते थे। (वे शरीर से कहते थे) "अच्छा, अब ये सब सहन करो। देखें, अ्रब ग्राप इसमें कैमे उतरते हैं ?" जिसे आप तप कहते हैं उसकी श्रव (ग्रात्मसाक्षात्कार के बाद) शुरूआत होती है। एक तरह से यह एक तपस्या हैं, जिसकी ही आरासानो] से सहन कर सकते हैं । भूत या क्योकि अरब आप साक्षात्वकार पाए हुए जीवात्मा किसी अन्य चीज द्वारा पकड़ नहीं जा सकते । वह (realized souls) हैं । यह सब आनन्द-मग्न स्थिति विलग (detached) हैं । इस बिलगाव (detach- में इस शरोर को इस योग्य बनाएं । शिवजी के ment) की निगरानी करनी चाहिए व उमे अपने लिये कोई फ्क नहीं कि वे कव्रिस्तान में रहें या अ्रब आप देख पका ध्यान किध र जा रहा है ? सबसे पहले ग्रापका लगाव मोटे तोर पर शरोर से है। आप देखिए से लगाव को नहीं जानता। वह कहीं भी मो लते हैं। वह कत्रिस्तान में जाते हैं और वहीं सो जाते हैं । क्योंकि वह लिप्त नहीं !शिव" प्रपने शरीर अप बहुत हैं । वह किसी लगावों के जरिए देखना चाहिए। प्रपने कैलाश पर या कहीं भी । आप लोग साक्षात्कार प्राप्त जोवात्माएं (realised souls) हैं परन्तु अभी शुद्ध अरत्मा (spirit) नहीं (बने हैं) । क्योंकि वास्तव में प्रभी वह आत्मा (spirit) ग्राप के मुस्तिष्क में नहीं आ्रागी है। फिर भी आप साक्षात्कारी जीवा।त्मा (realised प्रापका ध्यान कहाँ है ? आप देखं। मनुष्य का वित्त बहुत हो खराब होता है। बहुत ही उलभा हुआ, निरथक । मस्तष्क की इस उलझी स्थिति के लिये स्पष्टीकरखा दिया जाता है "हमने यह इस लिये किया या पड़ता है। स्पष्टीकरण की कोई ज रूरत नहीं, न देना चाहिए, न स्वीकार करना चाहिए और न माँगना चाहिए। कोई स्पष्टीकरण नहीं । बिना किसी र्पष्टोकरण के रहना उत्तम है । सरल हिंदी दुसरों को स्पष्टीकरण देना souls) हैं । अत: आप कम से कम अपने ध्यान (नित्त) को निगरानी कर सकते हैं। आप यह कर सकते हैं। आप अपने ध्यान (चित्त) की निगरानी स्पष्ट रूप से कर सकते को नियत्रित भी कर सकते हैं। यह बहुत आसान है। अपने 'ध्यान' को नियंत्रित करने के लिए- इसे हैं । [और तब अपने ध्यान कहा है जंसे राखह, तँसे ही रहूँ । अर्थात् जिस तरह भी आप मुझे रखें, मैं उसी दश में रहैंगा, और मैं अ्रनन्द उठाऊंगा। कबीर दास इसके ग्रागे केवल इस वस्तु पर से उस श्रन्ध वस्तु पर लगाए । अ पनी प्राथमिकताओं (priorities) में परिवर्तन लाए। यह सब कृछ करना होगा, अभी। साक्षाकार कहते हैं, "यदि ग्राप मुझे हाथी यानि राजसी के पर चात पूर्णं निर्तिप्ति भाव । नवारी पर जाने को कहें, मैं जाऊंगा। यदि अराप पदल जाने को कहें, मैं पैदल जाऊंगा। " जेसे राखहूं, अरत: इस विपय में कोई प्रतिक्रिया चाहिए। कोई प्रतिक्रिया नहीं । किसी दरोर आराम मांगता है। आपका चित कहां तेसे ही रहे। जा रहा है यह सतत देखते रहने से इ से थोड़ा नहीं (होनी निर्मला योग १० तरह की सफाई नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं (होनी आप देखें । जब आप एक बार ऐसा सोचना शुरू चाहिए) | कर द, एक समस्या उठ खड़ी होती है । आप हिष्पी बन जाएंगे बहुत लोगों की धारण है कि यदि प्रब दूसरी बात भोजन के बिषय में है। पशुभ् शिवजी की तरह व्यवहार किया जाय तो आप की की यह सबसे पहली जरूरत है। भी शिव वन जाएगे। कई लोग इस प्रकार का तरह मनुष्य भोजन पर किसी तरह का ध्यान नहीं चाहे नमक भी विश्वास रखते हैं कि यदि प्राप गांजा लें तो हो या नहीं, चाहे यह है या बह, भीजन पर कोई ध्यान नहीं। वास्तव में यह याद नहीं रखना चाहिए लेते थे । (लोग नहीं सोचते कि ) वह (शिवजी ) कि सुबह अपने क्या खाया है?लेकिन हम इस विषय गांजा इस संसार से खत्म करने के लिए लेते थे । में मोचते रहते हैं, हम कल क्या खाने जा रहे हैं ? उनके लिए यह क्या मतलब रखता है, चाहे उनके हम भोजन का उपभोग इस शरीर को चलाने के लिए गांजा हो या नहीं। आ्रप उनको कूछ भी दीजिए आप भी शिव बन जाएंगे क्योंकि शि वजी गांजा लिए नहीं करते, परन्तु इस जिह्वा (जोभ) के आनंद की प्रत्यविक संतूष्टि के लिए । आप जब यह एक बार समझ लगे कि (स्वाद से प्राप्त) अनन्द एक स्थूल ध्यान का प्रतीक है किसी भी प्रकार का रोसा आनंद अरति स्थूल होता है, सनसनीदार व उत्तेजक होता है यह बहुत ही स्थूल है । उनके लिए कोई मतलब नहीं रखता। वह कभी भी 'होश खोये मालूम नहीं देगे। इसका कोई सवाल नहीं । वह सब कूछ खाते थे । (शिवजो) जैसे सभी चीजों के प्रति निर्लिष्त थे, लोग वैसे हो रहने को सोचते हैं। वह अपनी दिखावे के बारे में तनिक भी चिन्तित नहीं थे । शिवजी के लिए दिग्खावा क्या ? वह जिस प्रकार भी दिखलायी पडते हैं, उनकी लेकिन जत्र मैं कहती हैं "कोई आमोद-प्रमोद नहीं" इसका यह तात्पर्य नहीं कि अ्राप एक गुम्भीर व्य क्ति बन जाएं या ऐसे जैसे कि परिवार में कोई मर गया हो । आपको शिव की तरह होना चाहिए -बिल्कुल अलिप्त । सुन्द रता है। वह इसके लिए थे । भी नहीं चाहते कुछ अतः किसी ची ज में लिप्त होना कुरूपता है भ्रभद्रता है । लेकिन आप जैसा चाहें वेसा वस्त्र पहन सकते हैं। यदि आप साधारण वस्त्र में भी हैं, वह (शिवजी) शादी के लिए एक ऐसे बल पर तो अाप प्रत्यधिक शानदार व्यक्ति लगेंगे लेकिन सवार होकर आए जो ते ज दौड़ता था । यरप गौर कर, वे बेल पर अपने दोनों पेर इस तरह करके बेठे थे। और बैल तेज भागा जा रहा था। वे बैल को पकड़े हुए तरह था । वे ग्रपनी शादी के लिए जा रहे थे। उनकी की निखार हुई है, वह शक्ति प्रदान करती है ताकि बरात में कोई आदमी एक प्राँख का, तो कोई बिना नाक का, हर तरह के हास्यास्पद व्यक्ति जा रहे थे। और उनकी पत्नी ( पा्वती) लोगों द्वारा शिवजी के प्रति अभद्र वातें करने से अजीब बेचैनी मह- बहुत ऐ सा नहीं कि अआप कहें, "ठीक है, त ब ऐसी दशा में हम एक चद्दर लपेट कर रहेंगे थे और उनका पेर इस आप के अंदर, अ्रात्मा के जरिए जिस सुन्द रता आाप जो चाहें वस्त्र धारण कर लें। इससे अपकी सुन्दरता में कोई अंतर नहीं होता सुन्दरता हर समय बनी हुई है। । आप की सूस कर रही थीं। वह (शिवजी) जरा भी चिन्तित नहीं थे कि उनकी इज्जत क्या है ? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आप हिप्पी बन जाएं। परन्तु क्या प्राप उस अवस्था को प्राप्त कर चूके हैं ? उस प्रवस्था को आप तभी प्राप्त कर सकते हैं जब आप की आत्मा प्राप के मस्तिष्क में आ जाती निर्मला योग ११ है। रहंकारयुक्त व्यक्ति के लिए यह बहुत कठिन आप लगाव महसूस करते हैं । चूंकि जब आप स्वयं है औ्र यही कारण है कि वे लोग आनन्द नहीं उठा पाते हैं। थोड़े से वहाने से ही वे लुढ़क इस वात को समझ रहे हैं ? क्योंकि 'अप' में व जाते हैं। और आत्मा जो कि आनन्द का स्रोत है प्रकट नहीं होती, दिखलायी नहीं पड़ती है । लिप्त हो जाते हैं ? 'आनन्द ही सुन्दरता है आनन्द स्वयं सुन्दरता है। 'वह हैं, तब आप क से उससे लिप्त होंगे ? क्या आप आपके 'उस के बीच अन्तर तथा दूरी है, आप उससे ' हूँ, दूसरा कोन है ? सम्पूर्णं परन्तु, यह 'मैं परन्तु इस अरवस्था को पाना पड़ता है। है, दूसरा कौन है ? सब कुछ 'मैं हूं, दूस रा विश्व में विभिन्न तरीकों से लगाव आता है। आप इसमें थोड़ा आगे बढ़े तो आपका अपने परिवार से लगाव हो जायेगा । मेरे वच्चे का क्या होगा ? मेरे पति का क्या होगा ? मेरी मां का, मेरी पत्नी का क्या होगा ? यह, वह, सब निरर्थक । कौन है ? ऐसा नहीं है कि यह मस्तिष्क की तरंग या मस्तिष्क के अहम् ( अहंकार) का भोंका है । अत: दूसरा कौन है ? कोई नहीं । तुम्हारा बाप कीन है व तुम्हारी माँ कीन है ? कोन तुम्हारा पति है और कौन तुम्हारी पत्नी के मस्तिष्क में अ्रा जाए और आप विराट के स्वयं है ? शिवजी यह सब कुछ नहीं जानते हैं। उनके अंग प्रत्यंग बन जाएं । जेसे कि मैं वता चुकी हूँ, लिए 'वह औऔर 'उनकी शक्ति अपूथक वस्तुएं हैं । बिराट ही मस्तिष्क है। तब श्राप जो कुछ भी तः 'वह एक व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। कोई करते हैं, चाहे आप [अपनी नाराजगी दिखाते हैं, चाहे 'द्व तभाव' नहीं है । द्वैतभाव होता है तभी आप स्नेह दिखाते हैं. चाहे अ्रपनी करुणा दिखाते हैं या कहते हैं मेरी' पत्नी यह तभी सम्भव है जब अराप की आत्मा आप आप लगातार कहते जाते जो कुछ भी, यह आत्मा है जो ऐसा व्यक्त करती । हैं 'मेरी' नाक, 'मेरा' कान, 'मेरा' हाथ, मेरा, है । क्योंकि मस्तिष्क अ्रपना अस्तित्व खो चुका है । सीमित कहा जाने वाला मस्तिष्क असोमित थात्मा बन चुका है । है। हैं मेरा, मेरा, मेरा आप नीचे गिरते जाते हैं । जब तक आप 'मेरा कहेंगे वहाँ कुछ न कुछ द्व तभाव होगा। लेकिन जब 'मैं (श्रीमाता जी) ऐसे विषय में मैं कैसे उपमा (समानता ) कहती है, 'मैं मेरी' नाक, तब कोई द्वेतभाव नहीं दूं, मुझे नहीं मालूम । सचमुच मुझे मालूम है । दिव-शक्ति अर्थात शक्ति-शिव । कोई द्वैतभाव नहीं । परन्तु हम यह कर सकते हैं कि इसको नहीं है । फिर भी हम पूर्णरूप से द्व तभाव में रहते समझने की कोशश कर । यदि रंग को समुद्र हैं और उसके कारण लगाव होता है। यदि द्व तभाव में डाल दिया जाय तो समुद्र रंगोन हो जाएगा यह संभव नहीं है। लेकिन आप इसे समझने की डोल दिया जाय तो रंग अपना अस्तित्व पूर्णातया समुद्र में कहां? यदि आप ही सूर्य हैं और आप ही सूर्य का खो देगा। अब आप दूसरी तरह से सोच । यदि आप ही शब्द है तथा आप ही उसका अरथ समूद्र को रंगीन कर दिया जाय और उसे वाता- वरण में बिखेर दिया जाय या आशिक रूप से किसी हिस्से में, या किसी स्थान पर या किसी अरणु नहीं है तो लगाव कैसा ? यदि अआप ही प्रकाश हैं ओर आप ही दीपक, तब द्व तभाव कहां? यदि आप कोशिश करें । यदि थोड़ा सा सोमित रंग ही चन्द्रमा हैं और आप ही चन्द्रिका तो द्वं तभाव प्रकाश तब दवँ तभाव कहाँ? परन्तु जब पृथकता होती है, वहां द्व त होता है। और इस पृथकता के कारण निर्मला योग १२ पर या किसी भी वस्तु पर, तो सब कुछ रंगीन हो जाएगा| इस पर ६पान दे रह हो, उस पर ध्यान दे रहे हो, लिप्त हो रहे हो। अ अलग हो जाप्रो । केवल मस्तिष्क बनो। केवल मस्तिष्क अलग हो जायओ, [प्रात्मा समुद्र की भांति है जिसके अंदर पृथक हो जाओ । रोशनी भरी पड़ी हैं। और जब इस समुद्र (रूपा 'गरत्मा) को अ्रापके मस्ति्क के छोटे प्याले में उड़ल दिया जाता है तब प्याला रपना अस्तित्व के रंग से पूर्णांतया भर जायगा | यह अपने स्खो देता है परर सव कुछ प्राध्यात्मिक (spiritual ) अरप होगा । हो जाता है। सभी कुछ। आप सब कुछ अध्या- हैं यह घटित नहीं होगा। अ्रतः इसके लिए वास्त- त्मिक वना मकते हैं । हरेक चीज आप जिस नीज विक रूप से, निश्चय से तपस्या करनी होगी । को भी स्पर्श करें वह आध्यात्मिक हो जाती है । रेत प्राध्यात्मिक हो जाता है, जमीन ध्यात्मिक हो जाती है, वातावरण आध्यात्मिक बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र इत्यादि भी आध्यात्मिक बन जाते हैं । प्र उसके बाद यह निलिष्त मस्तिक आत्मा जब तक आपके नित्त पर ये सीमाएं हरेक व्यक्ति को । मैं आप लोगों के साथ हैं । अत: उ सके लिए प्रापको पूजा करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन वह अवस्था प्राप्त करनी है, अ्रौर उस अवस्था को पाने के लिए आप को पुजा करना आवश्यक है । मुझे उम्मीद है कि मेरी इस जिन्दगी में आप में से बहुत से लोग 'शिव तत्व' वन जाएंगे। लेकिन प यह न सोचे कि मैं प्राप लोगों को दू:ख उठाने के आध्यात्मिक हो जाता है । सब कुछ यह आर्मा समुद्र (की भांति असोम) है। जबकि आप का मस्तिष्क सोमित है। आ्पके सीमित मस्तिष्क में निलप्तता लिए कह रही हैं। इस प्रकार के उत्थान में किसी मस्तिषक की सभी (detachment) लानी होगी सोमाओं को तोड़ना होगा। ताकि जब यह समुद्र इस मस्तिष्क को प्लावित कर देता है त यह उस छोटे प्याले को तोड़ दे, और उस प्याले का करण-करण प्रकार का दृःख नहीं है। यदि यह समझ लें कि यह पुर्ण आरानन्दमय अवस्था है। उस समय आप 'निरानंद हो जाते हैं। सहस्त्रार में इसी आनन्द का नाम 'निरानंद है और अप को मालूम है, 'आपकी रंग में रंगा जाय । सम्पूरणं वातावरण, प्रत्येक वस्तु, माँ' का नाम 'नि रा' है [अत: अ्राप 'निरानंद हो जिस पर भी आपकी दृष्टि जाय, रंग जानी चाहिए। जाते हैं । आत्मा का रंग, अत्मा का प्रकाश है, श्रोर ये अ्रात्मा अ्रतः आज शिव की पूजा विशेष महत्व (अ्र्थ) सोचता है, सहयोग प्रदान करता है, सब कुछ रखती है। मुझे आशा है आज की इस पूजा में प्राप जो भी बाह्य रूप में, स्थूल-रूप में करगे, वह अति सूक्ष्मत र रूप में भी घटित होगा और मैं यही कारण है कि आज मैंने शिवतत्व को आपकी आ्रत्मा को प्रापके मस्तिष्क में पहुँचाने की कोशिश कर रही है । परन्तु कभी कभी यह कटिन होता है, क्योंकि आपका मस्तिष्क अभी भी लिप्त का प्रकाश कार्यान्वित होता है कार्य करता है, करती है । कुछ मस्तिष्क में लाने का निश्वय किया है । इसका पहला तरीका है कि आप अपने मस्तिषक प्रवस्था में है । यह कह कर शिवतत्व की ओर लाएं "ए, मस्तिष्क महाशय ! तुम कहाँ जा रहे हो ? तुम को प्रपने को पृथक (निर्लिष्त) करने की कोशिश निर्मला योग १३ कर । क्रोध, वासना, लालच सभी वस्तुओं को कम हैं। अ्रत निषकलंक को ग्राप क्या धोने जा रहे हैं ? करने की कोशिश करें । आज मैंने डॉ० वारेन से कोई कह सकता है कि, माँ ! जब हम अ्राप के कहा- 'सभी को कम खाने के लिए कहो, पेटू चरण पखारते हैं तो हमें पानी में अरप के बाडब्रेशन की तरह नहीं" देखिए कभी कभी किसी बड़ी ) इतना दावत में ज्यादा खा लें, लेकिन हर समय उस तरह निलिप्त है कि इसको धोने की जरुरत ही नहीं । नहों गखा सकते । यह एक सहजयोगी की निशनी ऐसी अवस्था में श्राप पूर्णतया घुल जाते हैं, पूरां- नहीं है । नियंत्रण करने की कोशिश करें । अपनी बातचीत को नियंत्रित करे, चाहे अाप ग्रपनी वात में नाराज़गी प्रकट कर या दया भावना दश्शाएं या कृत्रिम करुर्णा । मिलते हैं । लेकिन यह (कमलबत् चरण एक तया स्वच्छ । इसके वाद हम देवी का पूजन करेंगे क्योंकि गोरी' जो कुमारी कन्या है, उसकी पूजा होनी चाहिए। अतः हम 'कुमारी कन्या के १०८ नामों मैं जानती है आपमें से कुछ लाग उयादा नहीं का उच्चारण क र गे उसके उपरान्त शिव पूजा ठीक है। मैं यह बात कई वार । मैं अप लोगों की कर पाएंगे। बतलाने की कोशिश करूगो सहायता करने की कोशिश करूगो लेकिन आप लोगों में से अ्रधिकांश लोग इसको कर सकते हैं । और प्रापको इसके लिए प्रयास करना चाहिए । करेंगे । मुझे खेद है, इस छोटे भाषण में मैं प को इसके विषय में सब कुछ नहीं बता सकती। परन्तु आपके साक्षात्कार में निलिष्तता स्वयं व्यक्त होना श्रतः शज से हम लोग गहरे र्तर पर सहजयोग शुरू ही जाना चाहिए। निलिप्तता । समर्पण करना प्रारम्भ करने जा रहें हैं । जहां प्राप में से पहुँच न सके। परन्तु अ्राप में से अ्रधिकाश लोगों को और गहराई में उतरने की कोशिश करनी चाहिए । प्रत्येक को| इसके लिए ज्यादा पढ़ लिखे या उच्च पद वाले व्यक्ति की प्रापको ज़रूरत नहीं है। नहीं, निर्लिप्त हैं कि मैं यह सब नहीं समझती । मैं अरप क्या है ? कुछ नहीं। क्योंकि आप जब निलिप्त हैं, [पप स्वतः सम्पित है । जब अप किसी दूसरी चीजों से लिप्त हैं तो आप समर्पित नहीं हैं। कच्ट लोग कुछ मुझको समर्पित करने को क्या है ? मैं तो ऐसी हूँ। बिल्कुल नहीं । लोगों से क्या पा सकती है ? कुछ भी नहीं ? मैं इतनी निलिष्त है । परन्तु जो व्यक्ति ध्यान में उतरते हैं, सर्मापत होते हैं, वह गहराई में उतरते हैं। क्योंकि वे प्रथम जड़ों की भाँति होते हैं । जिन्हें दूसरों के लिए प्रधिक गहराई में जाना है जिससे प्ौर दूसरे लोग अनुः अतः आज हम सभी प्राथना कर क, "हे प्रभु ! हमें शक्ति और वह प्राकर्षण स्त्रोत प्रदान कर - जिसके द्वारा हम खुशियों के अन्य सभी आकर्षण, सरण कर सक । अ्रहकार के आनन्द को, या अन्य सभी चीजें जिसके अब आज की पूजा के लिए हम लोग संक्षिप्त वारे में हम सोचते हैं, सभी का परित्याग कर दे । में धी गणश' बोलेंगे। इसके लिए मेंरे पर घोने या लेकिन हम शित्रतत्व स्वरूप' निर्मल आनन्द' में उस पर कुछ लगाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ पु्णतया गौता लगाएं (अ्र्थात आनद मन्न हो अथवशीष कहेंगे जायें) ।" आरप] प्राप मैं आशा करती है मैं भ्राप लोगों को यह सम- 'शिव' हर समय स्त्रच्छ, शुद्ध व निष्कलंक निममला योग १४ और जब आरप एक बार निलिप्त हो जाते हैं, उपस्थित है और अज क्यों इतना बड़ा दिन है । आप प्रपने को एक जिम्मेवार 'अभियुक्त महसूस जो लोग यहाँ (मौजुद) हैं, बड़े ही भाग्यशाली करना शुरू कर देंगे । जिम्मेवार । अहम् ( ग्रहंकार) व्यक्त करने वाली जिम्मेवारी नहीं, रपितू जिम्मे- वारी जो स्वयं कार्यान्वित होती है। जो स्वयं रापको यहां रहने के लिए व यह सब सुनने के लिए अभिव्यक्त होती है । स्वयं प्रकट होती है । झाने में सफल रही हैं कि मैं आज यहां क्यों व्यक्ति हैं । आपको सोचना चाहिए कि आप के प्रति परमात्मा कितने दयालू थे कि उन्होंने ग्राज परमात्मा आपको सूखी रखे । चुना । * निर्मल वाणी * एक वात ध्यान में र्वनो चाहिए कि आात्म-साक्षात्कार के बाद परमेश्वर के राज्य में प्रस्थापित होने तक वहुत बाधाएं हैं, और श्री कल्कि शक्ति का संबध इसी से सलग्न है । आ्रत्म-साक्षात्कार प्राप्त होने के बाद भी जो लोग अपनी पुरानी अदतों व प्रवृत्तियों में मग्न स्थिति कहते हैं । हैं उनकी स्थिति को योगभ्रष्ट' आप ग्रपने चित्त की छोटी छोटी वस्तुश्रों को निकाल बाहर करें, उनका परित्याग करं । आपको एक महान् सम्पन्न व्यक्तित्व की तरह मे रहना है, जिसे औरों को सहायता मार्ग-दर्शन, सहारा और जागृति, हजारों की संख्या में देना है । के पवित्र निर्मला", जिसका अर्थ है कि प्रत्येक को स्वच्छ, सुथरा, सहस्रार का एक मन्त्र है। वह है और निष्कलङ्क रहना चाहिए । क] जब आत्मा का द्वार खुलता है तो किसी भी ची इसीलिए ये माँ गणेश को प्रिय हैं। जो मिलने पर दूसरी किसी भी चीज़ की चाहत नहीं रहती। इस तरह की स्थिति जब आती है तब पूर्ण आत्म-साक्षात्कार हुआ यह समभझिए। फिर उसी में रत हो जाएंगे, अ्रर ज की कमी नहीं रहती। माँ यही द्वार खोलती हैं । धन्य-धन्य लगता है । निमंला योग १५ कीe नछ श्री माता जी का प्रवचन पी प्रपंच और सहजयोग' ड० एन्टोनियो डि सिल्वा हाई स्कूल, दादर, बम्बई, २६ नवम्बर, १६८४ प्राप्त नही कर सकते । यह बात उन्होंने प्रनेक वार परमेक्व र को प्राप्त करना, सत्य की खोज में रहने वाले आप सब लोगों को हमारा नमस्वार । क ही है। प्रपंच छोड़कर ये कल्पना अपने देश में बहुत सालों से आई है । इमका कारण है श्री गौतम बुद्ध ने प्रपच छोड़ा और जंगल गये अर उन्हें वहां आत्मसाक्षात्कार आ्राज का विषय है "प्रपंच ग्रौर सहजयोग" सर्व प्रथम 'प्रपंच' यह क्या शब्द है ये देखते हैं। 'प्रपंच पंच हुँआ। परन्तु वे अगर संसार में रहते तो भी उनहें साक्षित्किर होता। समझ लोजिए हमें दादर जाना हैं, तो हम सीधे मार्ग से इस जगह पहँच सकते हैं । परन्तु अगर हम भिवंडी गए, वहां से पूना गये. वहां से और चार-पांच जगह घुमकर दादर पहुँचे । एक रास्ता सीधा और दुस रा घूम-धामक र है। बहुत माने हमारे में जो पंच महाभूत हैं, उनके द्वारा निर्माण की हुई स्थिति । परन्तु उससे पहले े 'प्र अने से उसका अथ दूसरा हो जाता है । वह है इन पंचमहाभूतों में जिन्होंने प्रकाश डाला वह 'प्रपंच' है। घमकर आया हुमरा माग ही सचचा है, ये बात " (समस्त "अवघाची संसार सुखाचाकरीन संसार सुम्ख मय बनाऊंगा) ये जो कहा है वह सुख नहीं। उस समय सुगम मार्ग नहीं था इसलिए वे प्रपंच में मिलना चाहिए। प्रपंच छोड़कर अन्यत्र परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती । बहुतों की बनाया। इसलिए क्या हमें भी दुगम बना लेना कल्पना है कि 'योग का मतलब है कहीं हिमालय चाहिए ? अरथात् जो सुगम है उसे सभी ने बताया में जाकर बेठना और टण्डे होकर मर जाना मार्ग से गए । जो सुगम है उसे उन्होंने दुर्गम दुरगम हैं। 'सहज है । सहज समाधि में जाना। सभी संत- । ये योग नहीं है, ये हठ है। हठ भी नहीं, बल्कि थोडी साधुओं ने बताया है, "नहज समाधी लागो"। मूर्खता है । ये जो कल्पना योग के बारे में है अत्यन्त करबीर ने विवाह किया गा। गुरु नानक जी ने गलत है। विशेषकर महाराष्ट् में जितने भी विवाह किया था। जनक से ले कर अब तक जितने साधु-सन्त हो गये वे सभी गृहस्थी में रहे । उन्होंने भी बड़-बड़े अ्रवकधुत हो गए हैं उन सभी ने विवाह प्रपंच किया है केवल रामदास स्वामी ने प्रपंच किया था । और उनके बा द बहुत से आए । उन्होंने नहीं किया। परन्तु 'दास बोध' (श्री रामदास स्वामी विवाह नहीं किया, परन्तु किसी ने भी विवाह विरचित मराठी ग्रंथ ) में हर एक पन्ने पर प्रपंच संस्था को गलत नहीं कहा बह रहा है। प्रपंच छोड़कर आराप परमात्मा को कहते हैं वह गलत है ऐो सा नहीं कहा है । तो सर्व- प्रौर जिसे हम प्रपंच । से अनुवादित । मराठी भाषण * निर्मला योग १६ प्रथम हमें प्रपने दिमाग से ये कल्पना हटानी चाहिए हमने कुछ प्राप्त किया भी तो उसका क्या फायदा ? कि अगर हमें योग मार्ग से जाना है तो हमें प्रपच छोड़ना होगा । उलटे अगर आप प्रपंच करते हैं तो वहां बैठकर आपने कहा, "देखिए, मैं कैसे पानी के आपको सहजयोग में जरूर आना चाहिए । समझ लीजिए किसी जंगल में आपको ले गये ग्रौर ?" तो उसमें कीन- सी विशेष वरगर रह सकता है बात है ? पानी में रहकर भी आपको पानी की शुरू में इस दादर में जब हमने सहजयोग शुरू जरूरत नहीं है, आप पानी में रहकर भी पानी से किया तो सब लोग प्रपंच की शिकायतें ले कर आते अलिप्त हैं, ऐसी जब आपकी स्थिति हो, तब सच्चा थे मेरी सास ठीक नहीं है, मेरा पीतसरे ठीक नहीं प्रपंच हो सकता है । और आज हमें उसी की जरूरत है, मेरी पत्नी ठीक नहीं है, मेरे बच्चे ठीक नहीं है। उस प्रपंच की । हैं। इस तरह सभी प्रपंच की जो छोटी-छोटी शिकायते हैं वही लेकर सहजयोग में आते थे । शुरू में ऐसे ही होता है। हम परमात्मा के पास नचिकेता ने सोचा, ये जनक राजा जो प्रपने सर पर प्रपंच की तकलीफों से तंग आकर या प्रपंच के मुकुट पहनते हैं, इनके पास सब दास-दासो हैं, ापको जनक जी के बारे में मालूम होगा । दुःखों को के पास जाकर भी यही मांगते हैं, मेरा घर ठीक रहे । मेरे बच्चे ठींक रहें । हमारी ऐसे क्या महान हैं ? तो उनके गुरू ने कहा, "तुम गृहस्थी सुख । ही जाओ धर देखो ये कसे महान है ?" तो मनुष्य की वृत्ति यहां तक हल्की होती है, और नचिकेता एकदम उनके आ्रगे जाकर खड़ा हुआ और उसी छोटेपन से बह देखता है। परन्तु यह छोटापन- कहने लगा, "श्राप मुझे आत्म-साक्षात्कार दोजिए हलकापन जरूरी है। वह नहीं होगा तो आगे का मेरे गुरू ने कहा है, आ्रप आत्म-साक्षात्कार देते हैं । मामला नहीं बनने वाला । पहली सीढ़ी के बरगर सो कृपा करके ्रप मूझे आरत्म-साक्षात्कार दोजिए।" दूसरी सीढ़ी पर नहीं पर सकते । तो सहजयोग की उन्होंने कहा, "देखो, तुम सारे विश्व का व्रह्मांड सबसे बड़ी सीढ़ी प्रपंच होना जरूरी है । हम भी मांगते तो मैं देता, पर तुम्हें मैं प्रात्म-साक्षात्कार संन्यासी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते । नहीं नहीं दे सकता । उसका कारण है, उस चीज का दे सकते । क्या करें ? तत्व ही जिसे मालूम नहीं, उस मनुष्य को आत्म- मामला नहीं बनता । उसके लिए व्यथ का बड़प्पन साक्षात्कार कैसे दें ? जो मनुष्य तत्व को समझेगा किस लिए? उसका कारण है कि हमने बाह्य में वही उसमें उतर सकता है । तो प्रपंच का तत्व है सुन्यासी के कपड़े पहने हैं, पर अरन्दर से क्या आप सन्यासी हैं ? सन्यास एक भाव है । ये कोई कपड़े पहनकर दिखावा नहीं है कि हम संन्यासी हैं, हमने प्रपंच में नहीं उतरे । संन्यास लिया है, हमने घर छोड़ा, ये छोड़ा, वह छोड़ा, ऐसा कहकर जो लोग कहते हैं कि हम योग मार्ग तक पहुँचेंगे, ये अपने आपको भुलावा है । प्रगर से पूछा, तो उन्होंने कहा कि अब तुम मेरे साथ आप हैं, आपमें पलायन भाव रहो। और बाकी सब कहानी तो आपको मालूम करने के लिए जाते हैं, और परमेश्वर नत्य गायन होता रहता है, ये जब हमारे भ्राथम *हे परमात्मा में आते हैं तो हमारे गुरू इनके चरण छुते हैं ? ये दुर क से रहे । सभी खुशी से रहें ।" बस बहुत बार करके देखा, पर 'प्र' और वह 'प्र' माने प्रकाश । वह जब तक आपमें जागृत नहीं होता तव तक आप 'पंच' में हैं नचिकेता ने जब उपरोक्त सवाल रा जा जनक पलायनबादी (escapism ) है तो उसका कोई इलाज नहीं है । जिस में थोड़ी भी सुबुद्धि है उसे सोचना है । मुझे वह फिर से कहने है। परन्तु अन्त में नचिकेता समझ गया, इस मनुष्य (राजा जनक) का किसी भी प्रकार का लगाव की आवश्यकता नहीं मनुष्य चाहिए कि यहां हम प्रपंच में हैं यहां से निकलकर निर्मला योग १७ नहीं है, या कहिए चिन्ता नही है, न किसी चीज के जलाती है, खाना बनाती है, सभी प्रकार के काम प्रति प्रत्मीयता है कि जिसे हम संसार कहते हैं, इस तरह की चीजों की । और ये एक अवधूत की भागती है । सब कुूछ उसे करना पड़ता है, परन्तु तरह रहने वाला मनुष्य है। सिर पर मुकुट धारण करेगा घरती पर भी सो जाएगा, जैसे बादशाह है। है कि बच्चा गिर न जाय ।" इसी तरह साधु-सन्ती उसे कोई आराम की जरूरत नहीं। कहीं तो पलंग पर सोएगा, गहियों पर लेटेगा, जमीन पर ही पड़ा है। वे सभी कार्य करते हैं किन्तु वे सब करते समय रहेगा, ऐसा ये बादशाह है। उसे किसी भी चीज की उनका सारा चित्त अ्रपनी आत्मा पर होता है । ये परवाह नहीं । उसे किसी ने भी पकड़ा नहीं है । जो सभी लोग विल्कुल श्रापकी तरह गृहस्थाश्रम में मनुष्य प्रपंच में है उसको न किसी प्राराम की और रहने वाले होते हैं, उनके बाल-बच्चे होते हैं । सब न किसी गुलामी की आादत लगती है । उसे किसी कुछ होते हुए भी इनमें जो वैचित्र्य है वह आपको पत्थर पर सर टिकाकर सोने को कहो तो वह सो तत्व में आकर पहचानना चाहिए। वह क्या वेचित्र्य सकता है। चोकर सकता है, और दावत भी खा सकता है । उसे कल अपने में आने पर अपने को भी उससे क्या लाभ करती है । उन कामों में कभी भुकती है, कभी उसका सारा चित्त पूरे समय उस वच्चे पर रहता का है । सभी तरह के कामों का उन्हें ज्ञान होता (रूखी-सूखी रोटी) भी खा है ? और वही माने 'सहजयोग' है | वह वैचिश्रय अगर पूछा जाए, भई अब आश्रम बनाना है, तो होते हैं ये देखना जरूरी है। क्योंकि प्रपंच में अाप सीमेन्ट से लाभ और हानि पहले देखते हैं । लाभ कितना है ? सबंप्रथम कहना ये है कि कहां मिलेगा ? सव कुछ बता देगा । उसे अ्न्दर से परमात्मा उन सभी से परे है, ऐसा कहा जाता है । किसी चीज की पकड़ नहीं। ये बात तत्व की बात परन्तु बहुतों को उसका मतलब मालूम नहीं। और आजकल के समय में परमात्मा की बात करने से केसे कर ? तो वह सव कुछ बता देगा । लेकर सभी वारतें बता देगा। ये कहां मिलेगा ? वो हानि कितनी है ? है। इसे आप समझ लौजिए । लोगों को लगता है "इन महिला को अरभी आधुनिक नामदेव जी ने एक कविता लिखी है और वही शिक्षा वर्गरह मिली नहीं है और ये कोई पुराने नानक साहब ने भी वन्दनीय मानकर गुरु ग्रन्थ जमाने की बेकार नानी-दादी की रही कथाए सुना साहिब में सम्मिलित की है । वह अत्यन्त सुन्दर है। हैं।" परन्तु परमेश्वर है और वह रहेगा। वह अनंत उसका मैं केवल यहां पर शरशय वरणन करती हैं। उस कविता में कहा है, प्राकाश में पतंग उड़ रही में है । परन्तु तरह कार्यान्वित होता है यह देखना चाहिए । परमेश्वर हमारे साथ प्रपंच में किस है और एक लड़का हाथ में उस पतंग की डोर पकड़ सर्वप्रथम प्रब देखें कोई समस्या है । किसी ने कर खड़ा है । वह सबसे बात कर रहा है, हंस रहा है, आगे पीछे जा रहा है, यहां वहां भाग रहा है । मुझ से कहा, माताजी, मेरे घर में तकलीफ है, परन्तु उसका सारा चित्त ( Attention) उस पतंग मुझे काम-धंधा नहीं है ।" इस तरह की बातें, पर है ।" दूसरे दोहे में उन्होंने कहा है "बहुत सी औरतें पानी भरकर ले जा रही हैं और मारगं से ऐसा है, वे सा है" अ्रर थोड़े दिनों के बाद वह कहता जाते समय आपस में मज़ाक कर रहो हैं, घर की है, "मताजी, सब कुछ ठीक हो गया।" तो ये सब यह वह बातें कर रही हैं। परन्तु उनका सारा चित्त केसे होता है ? यह देखना चाहिए। एक दिन की सर पर रखे घडड़़ों पर है कि पानी न गि रे"। इसी बात है, हमारी एक शिष्या है, विदेशी है। मैं तरह और एक दोहे में माँ का वर्णन है, "एक माँ 'शिष्या' वरगैरा तो कहती नहीं हैं 'बच्चे' ही कहती बच्चे को गोद में लिए सभी काम करती है। चूल्हा है। तो दोनों लड़कियाँ थीं। वे दोनों जर्मनी में अत्यन्त छोटी-छोटी बातें, जड़-लौकिक बातें "ये Tl. निर्मला योग १८ एक मोटर में जा रही थीं । और जर्मनी में जाती हैं । उसके परे वे जा नहीं सकते । और इस- ऑटोबान' करके बहत बड़े रास्ते होते हैं। [शर लिए 'प्रपंच करना बहुत कठिन काम है, ऐसा सब उस पर से बड़ी तेजी से गाड़ियाँ इधर-उधर दोड़ती लोग कहते हैं। इसका इलाज क्या है ? इसका हैं । तो उन्होंने मुझे चिट्टी लिखी, दोनों तरफ से इलाज ये है कि उसका जो कारण है, उस कारण ट्रक, बड़ो-बड़ी वसे, बड़ी-बड़ी कार, जो 'डबल- लोडर्स' होती हैं, वह सब जा रही थीं अरौर बीच में टुूट गया था उस ब्रेक से वह लड़ रही थी। परन्तु हमारी मोटर । उसका ब्रक भी काम नहीं कर रहा था और गाड़ी भी 'बर्बलिंग (कंपन) करने लगी । तो मुझे लगा कि अब मैं गयी, अब तो मैं बच ही से कारण भी नष्ट हो गया और उसका परिणाम नहीं सकती । अगर ब्रक भी कूछ ठीक रहता तो भी नष्ट हो गया । ये ऐसे होता है। आप विश्वास उम्मीद थी । पर वह ठीक नहीं था ।" तो उस करिए या मत करिए, पर ये बात होती है। परन्तु के परे जाना होगा। उसका जो कारण था, ब्रेक जब उसे महसूस हुआ्रा, इन सबके परे भी कुछ है कोई शक्ति है और वह शक्ति कारण के परे होने कुछ स्थिति में उसमें एक तरह की प्रेरसा आ गरयी । जिसे हम कहेंगे इमरजेन्सी की प्रेरगा। वह लोग मेरे पास ग्राकर कहुते हैं, "माताजी हम इतना निर्माण हो गया। वह है कि 'ग्ब सव कुछ गया, अब कुछ भी नहों रा, विनाश का समय या गया।" तो शरणागत होकर उसने कहा, "श्री माताजी, अ्रब सिद्धिविनायक के मन्दिर में रोज जाकर खड़े रहते आपको जो करना है वह करें । मैं तो औँख मुंद हैं, लेती है।" श्रर उसने अँखे मुंद लीं। उस की चिट्ठी हैं, परन्तु तब भी हमारा कुछ भी अच्छा नहीं हुआ्रा, में लिखा था, "थोडो देर बाद मैंने देखा तो मेरी कार अच्छी तरह से एक तरफ आकर रुकी हुई किया फिर हम इसे क्यों भजे ?" ठीक है । परन्तु खड़ी थी और मेरा बरेक भी ठीक हो गया था।" अब माताजी ने कूछ नहीं किया था, ये आप देखिए। क्या कोई कतेक्श न (सम्बन्ध) हुआ है ? अ्रापका यह कैसे होता है ? मतलब यह जो परिणाम हआ जब तक कनेव्शन नहीं हआ, तब तक प्रच्छा है वह किसी न किसी कारणवश हु[श है मतलब होगा ? भगवान तक आपके टेलोफोन की कनेक्शन 'कारण व परिणाम' । समझ लीजिए आपके घर तो होना चाहिए। इस तरह प्राप रातदिन परमेश्वर में झगड़ा है। उसका कारण है अप्रापकी पत्नी या की पूजा करते हैं ? परन्तु क्या आप जो बोल रहे आपकी माँ या आरापके पिताजी या कोई 'ग्' मनुष्य हो उस परमेश्व र को औ्र उसका परिणाम है घर में श्रशन्ति मनुष्य सर्वसाधारण बृद्धि का होगा वह परिणाम हे परमात्मा, मुझे आप देते हैं कि नहीं ?' कहकर से ही लड़ता रहेगा। अभी मुझे इससे लड़ना है । फिर कोई दूसरी लड़ाई निकल आएगी किर किमलिए देता है ? आपका कोई कनेक्शन होगा तोसरो । अब जो कारण है उस पर कोन सोचते तो आप कुछ भारत सरकार से मांग सकते है, हैं ? कुछ लोग सूक्ष्म बुद्धि के होते हैं । वे उसका क्योंकि आ्रप उसके नागरिक हो, परमात्मा के जो 'कारण हैं उससे लड़ते हैं। उस कारण से लड़ाई साम्राज्य के नहीं । पहले उसके साम्राज्य के नाग- करने पर वह कारण भी उनसे लड़ना शुरू कर देता रिक बनिए, फिर देखिए उसकी याद करने के है । और 'कारण प्रौर परिराम इमके चक्कर में पहले ही परमेश्वर ये करता है कि नहीं । श्रब पड़ने से वे दोनों ही समस्या वैसो को वैसी रह ये अन्ध-विश्वास मे नहीं होती है । अब बहुत से भगवान को याद करते हैं परन्तु हमें गया। हम इतना करते हैं, मन्दर में जाते हैं केन्सर हो घंटे-धंटे । मंगल के दिन तो विशेष करके जाते इस भगवान ने हमारा कुछ भी श्रच्छा नही आप जिस भगवान को बूला रहे हैं उसका आपका कैसे सुनाई दिया है ? चाहे जो । जो धंथे करो, चाहे जैसा चर्ताय करो और उसके बाद उसके सामने बैठ जाना। उस परमात्मा ने प्रापको समझ लीजिए यहाँ पर वेठे-बैठे ही कोई अगर निमंला योग १६ इंग्लेण्ड की रानी को कहेगा कि वह हमारे लिए ये यहां के साहित्यिक और बुद्धिजीवी लोग विचारों पर चलते हैं । [्रोर विचार कहां तक जाएंगे, इसका करने लगी ? तो यहां तो परमात्मा है और बह कोई ठिकाना नहीं है । किसी विचार का किसी से मेल नहीं है । इसलिए इतने भगड़े हैं। तो इन साम्राज्य में अ्रभी आरए नहीं हैं। केवल उन पर विचारों के परे जो शक्ति है, उसके वारे में प्रपने देश तानाशाही करना हे परमात्मा'। जैसे कोई वे आप में परम्परागत अनादिकाल से बताया गया है । की जेब में बैठे हैं। औ्र [अब] [अआरपको ये भी विचार उस तरफ कुछ ध्यान देना जरूरी है परन्तु इन विचारवान लोगों में इतना अहंकार है कि वे उधर सुस्मरण कहा है, स्मरण नहीं कहा हैं। सुस्मरण ध्यान देने के लिए तयार नहीं । हो सकता है शायद इसमें उनके पेट का सवाल है । परन्तु सहजयोग में आने के बाद पेट के लिए आप अशीर्वादित होते हैं। माने जहां मनुष्य का सम्बन्ध होकर आपमें मांगल्य परमात्मा से सम्बन्ध घटित होने के बाद आपकी की आशीर्वाद आया हुआ है तभो वह सुस्मरण समस्याएं ऐसे हल होती हैं कि आपको आश्चर्य होगा। ऐसा हमने क्या किया है ? इतना हमें है । उसका असर युवा पीढ़ी पर होता है। वे कहते परमात्मा ने कैसे दे दिया ? इतनी सही व्यवस्था हैं "इस परमात्मा का क्या अर्थ हुआआा ? परमात्मा कसे हो गयी ?" ऐसा सवाल भप पपने आपसे नहीं करती, वह नहीं करती। वह प्रापके लिए क्यों परमात्मा आपके लिए क्यों करने लगा ? आप उनके नहीं है कि हमें परमात्मा का स्मरण करना है । करते समय भी 'सू' कहा है। ये देखिए, "सु" माने क्या ? जैसे 'प्र' शब्द है वैसे ही 'सु' शब्द है। 'सु' होगा । अन्यथा तोते की तरह विना समझे बोलना ह पूछ ' का नाम लैकर यहां दो बाबा आए और हमारी माँ कर चकित रह जाते हैं । ज्ञानदेव की 'ज्ञानेश्वरी का आखरी पसायदान (दोहा) आपने सुना होगा । उन्होंने जो वर्णंन किया है वह आज की स्थिति है । अरथं हुआ ? इसलिए उनका कहना ठीक लगता ये सब अब घटित होने वाला है । जिस चीज की है। फिर उनकी तरह और लोग भी कहते हैं "पर- जो इच्छा करेगा वह (परमेश्वरी आनन्द) उसे मात्मा है ही नहीं।" परन्तु सर्वप्रथम अपनी समझ प्राप्त होगी। परन्तु वह करने के पहले आप केवल में ये गलती हुई है कि क्या हमारा परमात्मा के साथ कुण्डलिनी का जागरण कर लीजिए । उसके विना कोई सम्बन्ध हुआ्रा है ? क्या हमारा उन पर अधि- मैं आपको कोई वचन नहीं दे सकती । और न कार है ? हमने उनके लिए क्या किया है ? ये तो मिनिस्टर (मन्त्री) लोगों की तरह आश्वासन देती देखना चाहिए । पहले उनके साथ प्रपना कनेक्शन हूं । जो बात है वह मैं अ्पनी बोली में अपने ही ढंग से कह रही हैं। कोई साहित्यिक भाषा में नहीं बोल रही हूं । जैसे कोई मां अपने बच्चे को घरेलू वातें अब सहजयोग माने परमात्मा से सम्बन्ध समझाती है उसी तरह मैं आपको समझा रही हैं । 'सह' माने अपने गापमें जो संपक्षा है वह प्राप्त कीजिए। आ्प] कहते साथ, 'ज माने जन्मा हुआा जन्म से ही आपमें हैं हम प्रपंच में बंध गए हैं। 'बंध गए हैं माने योग (सम्बन्ध जोड़ना), योग सिद्धि का जो अधिकार क्या ? तो फालतू बातों का आपको महत्व लगने है, वह माने 'सहजयोग' है । आपमें परमात्मा ने लगा । मुझे नौकरी मिलनी चाहिए, वो क्यों नहीं कूण्डलिनी नाम की एक शक्ति रखी है वह आपमें मिल रही है, क्योंकि बेकारी ज्यादा है ? माने स्थित है । प्राप विश्वास कीजिए या न कीजिए। बेकार ज्यादा हैं इसलिए । बेकारी क्यों ज्यादा है ? क्योंकि ऊपरी (बाह्य) अ्रांखों] (दष्टि) वाले लोगों बेकारों की संख्या बढ़ रही है । वो बढ़ती ही को कुछ कहना कठिन है। विशेषकर अ्पने जाएगी इन कारणों के परे कैसे जाना है ? उसका का पैसा ले गये, वहां कोई गले में काला घागा बांध गये और रुपया ले गए। ऐसे परमात्मा का क्या (सम्बन्ध) जोड़ लीजिए । जोड़ना। सहज इस शब्द में निमंला योग २० इलाज है कि वह जो शक्ति हमारे चारों तरफ है कितने प्रवोंध होते हैं । उनके सामने हम गाली- उसका आह्वान करना होगा। अपने में बह शक्ति गलौच करते हैं, बुरे शब्द बोलते हैं । ऐसे वाता- मूलाधार चक्र में रहती है। मूलाधार में ये जो वरण में हम उनको पालते हैं, जहां सब अ्रमंगल शक्ति है वह प्रपंच में कैसे कार्यान्वित है यह आप देखिए । अपना ध्यान उस (शक्ति की) तरफ होना चाहिए । यर सर्वप्रथम ये विचार होता चाहिए कि है । उन्हें जो इच्छा करने देते हैं या कहिए उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देते । य ही (बच्चे) तो प्रापके घर के गणेा हैं उनके संवर्धन में पालन- पोषण में अ्रपका ध्यान नहीं है । आजकल तो इंग्लैण्ड में ८० वर्ष की प्रायु की औरतें भी शादी कर ती हैं। तो मूलाधार में जो कुण्डलिनी शकिति है वह श्री गणेश की कृपा से बहां बैठी है। अच इस महाराष्ट्र बहुत बड़ा वरदान है कहना चाहिए । यहां जो श्रव क्या कहे कुछ सम झ में नहीं आता । वहां की अष्टविनायक हैं वह अपके लिए परमात्मा का गंद यहाँ मत लाग्रो। वहां की गंद वहीं रहने दोजिए । बहुत बड़ा उपकार हैं। इसी कारण महाराष्ट्र में ते प्रति शहारणे त्यांचे वेल रिकामे, (जो ज्यादा में सहजयोग स्थापित कर सको हैं। व्योंकि औरी गणेश का जो प्रभाव है उसो का रप पर आवरण की प्रप्रसेन्नता हम पर न हो उसका निश्वय करना है। उसी आवरण [के कारख सवमुत् मेरी बहुत मदद हुई है। ये श्रीगणेश आपके मूलाधार में विराजमान हैं । अब कोई डॉक्टर है तो वह अपने करते हैं। प्रथम जनन शरर उसके बाद पालन । शरर को सयाने हैं उनकी खोपड़ी खाली है।) तो श्रोगणेश होगा श्रीगणेश हममें वेठकर हमारे बच्चों का पालन घर में श्रीगरेश का फोटो रखेगा बनाएगा उस श्रीगरेश का ओर डॉक्टरी का क्या सम्बन्ध होते ही कितनी खुशियां छा जाती हैं । उस बच्चे से है ये उसकी समझ में नहीं आएगा और उस बह कितनी अ्रानम्द की लह र घर में फेलती है । परन्तु स्वीकार भी नहीं करेगा परन्तु उस श्रागणेश के विना डॉक्टरी भी बेकार है। अब ये जो श्रीगणेश सा महसूस होता है। ऐसा ल गता है उस घर में जाए शक्ति आपमें है उसी के कारण आपके बच्चे पंदा नहीं । क्योंकि वहाँ बच्चों की गुनगुनाहृट नही, हृति हैं। प्रब जरा सोचिए. एक माता-पिता जिस तरह उनके चेहरे हैं उसी तरह का बंचा पंदा होता है । हजारों, करोड़ों लोग इस देश में हैं, दूसरे देशो जमाना कुछ दूसरा हो । मन्दिर भी वह जो भोला गणेश (वच्चा) है वह घर के सभी वहां जाकर नमस्कार करेगा। परन्तु लोगों को अ्रानन्द देता है। किसी घर में बच्चा पेदा । जिस घर में बच्चा नहीं होता वहाँ कैसा खालीपन का हूंसना नहीं, खिलखिलाना नहीं, वह मस्ती नहीं । ऐसे घर में कोई माधुय नहीं । परन्तु श्राजकल है। जिन देशों को अ्रमीर affluent कहते हैं उन देशों में बच्चे पदा ही नहीं होते । उनकी आवादो घटती जा रही है । और हमारे भारत देश की आवादी बढ़ती जा रही है । तो इसका जो नियमन है वह कौन करता है ? वह इसलिए लोग कहते हैं यह बहुत बुरा है । आपके देश की श्रावादी इतनी नहीं वढनी चाहिए । मान लिया, परन्तु कहना ये है कि जो बच्चे प्राज जन्म प्रापका ये कतव्य है कि अपने घर में जो गणेश ले रहे हैं उनमें भी अरवन होती है । वे क्यों उन वच्चे) है उनमें जो बाल्यवत् अवोधिता है उसे देशों में जन्म लेने लगे ? वे कहेंगे वहां रोज पति- स्वीकार करे । वह अवोधिता ग्रपने में ग्रानी पन्नी तलाक लेते हैं ग्रौर बच्चों को जान से मार । क्योंकि यहां में हैं। परन्तु हर एक का वच्चा या तो उसके माता- पिता को तरह होता है, नहीं तो दादा-दादी या उस परिवार के किसी व्यक्ति के चेहरे पर होता है । श्रीगरोश करते हैं चाहिए । घर में छोटे बच्चे होते हैं । छोटे बच्चे डालते हैं । वही हमारे साथ होगा निरम्मला योग २१ (भारत में) मां-बाप को बच्चों के प्रति जो अस्था, और मनुष्य में एक नये तरह को 'आयाम शुरू हो जो प्रेम, जो सहज-बुद्धि है वह इन लोगों में (ग्रमीर जाता है उस आयाम को हम सामूहिक चेतना देशों में) बिल्कुल नहीं है । आपको सुनकर ग्राश्चर्य होगा कि लंदन शहर में मां-बाप एक हपते में दो को साधारणतया दिखाई नहीं देतीं, नहीं बच्चों को मार देते हैं । जितना सुनोगे उतना कम होतीं, वे सहज में ही होने लगती हैं। है। मूझे तो रोज ही धव्का सा लगता है । ओर उन्हें उसका कुछ भी असर नहीं है। क्योंकि अरहंकार में इतने डूबे हैं कि इसमें कुछ अनुचित है ये महसस चेतना-शक्ति अपने में ग्राने लगती है उस शक्ति से ही नहीं करते। वहां जाकर मालूम हुआ हिन्दुस्तानी मनुष्य कितना अच्छा है। यहां (भारत) के टेलोफोन से एक चमत्कार घटित होता है। जो बच्चे बेकार ठीक नहीं हैं। माईक ठीक नहीं हैं। है, जो किसी काम के लायक नहीं हैं, माने जो शराव नहीं हैं। सब कुछ मान लिया। पर लोग तो ठीक है । उस अच्छाई में जो गहन से गहने है। वह है जीज ही नहीं देखी थी । अब मालूम होता है कि गणोश तत्व । नहीं है वहां सब कुछ गलत होता है । जहाँ बच्चे बिगड रहे हैं उसका दोष में समाज से ज्यादा माँ- बाप को देती है । आजकल मां भी नौकरी करती हैं । बाप तो करते ही हैं। तब भी जितना समय प अपने बच्चों के साथ काटते हैं, वह कितना गहन है ये देखना जरूरी है । अब सहजयोग में आने पर क्या होता है ये देखना जरूरी है। मतलब सहजयोग का सम्बन्ध आपके बचचों के साथ किस तरह है ये देखना जरूरी है। सहजयोग में आपकी गणेश शक्ति जो जागृत होती है वह कुण्डलिनी शक्ति के कारण है तब प्रथम मनुष्य सुबुद्धि प्राती है । हम उसे विनायक (गणेश) कहते हैं। शर बच्चों की भी हो गयी तो फिर सब एकदम वही सबको सुबुद्धि देने वाला है । मैंने ऐसे बच्चे देखे हैं, जिन्हें लोग मेरे पास लेकर आते हैं, कहते हैं, बच्चा क्लास में एकदम ( 'शुन्य) है, खाली मस्ती करता है, मास्टरजी से उल्टा-सीधा बोलता है । मैंने उससे कहा, मुझे कुछ नहीं आता और मास्टरजी भी मुझे डाँटते रहते हैं । फिर मैं क्या करू ? वही सम्मान करने की रूढी चली ा रही है परन्तु बच्चा फर्स्ट क्लास फस्स्ट (प्रथम श्रेणी प्रथम स्थान) सच्ची सत्ता श्रीगराश की है। उनकी सत्ता जिनके में पास हुआ है। ये कैसे हुआरा है ? वह गणेश अपने में जागृत होते ही वह शक्ति परापमें बहने लगती है सब ऐरे-गरे नत्थ-खेरे अरज [श्राएंगे कल चले जाएंगे कहते हैं। उस नयी चेतना में जो चीजें पहले मनुष्य अनुभव ये नया आयाम या कहिए ये जो एक नयो मनुष्य संच्चा समर्थ हो जाता है और उस समर्थता रेलगाड़ियां ठीक नरेरा पीते हैं-- अरजकल आपको मालूम है ड्रनग -हमने तो कभी चरस नाम की वरगैरा चलता है और जिस घर में गणोेग तत्व ठीक प्राजकल स्कूलों में चरस बिकती है । ये सब मुर्खता, सूबद्धि न होने के कारण होती है वह सुबुद्धि जागृत होते ही जो लोग इंग्लैण्ड, अमेरिका में चरस लेते हैं वे यह सब छोड़कर अच्छे नागरिक बन गए हैं । ये सहजयोग की शक्ति है। बच्चों में शिष्टाचार आरता है। मैं देखती हैं आजकल बच्चों में शिष्टा- चार नहीं है क्योंकि माँ-बाप प्रापस में लड़ते हैं, करते । उनसे चाहे बच्चों का आदर नहीं जैसा व्यवहार करते हैं। जैसी मां-बाप की प्रकृति, वैसी ही बच्चों की बन जाती है और वे वैसे ही असभ्य आचरण करते हैं। माता-पिता की कुण्डलिनी अगर जागृत हो गयी सहजयोग में प्राकर में कायदे से व्यवहार करते हैं। पहले अात्म-सम्मान जागृत होता है। उपदेश करने से आत्म-सम्मान जागृत नहीं होता। परन्तु सहजयोग में कुण्डलिनी जागृति से मनुष्य में सम्मान आता है । पूछा, तुम ऐ से क्यों करते हो ? उसने सत्ताधीश है उसी का अपने देश में जो मनुष्य पास हो उन्हीं के चरणों में झुकना चाहिए । बाकी निमला योग २२ दखिए । उन्हें पूजनीय बनाइए और अपने गणेश को भी आप अपनी कुण्डलिनी जागृत करवाइए । उनका कोई मतलब नहीं, बेकार हैं वे लोग। जिन्होंने गरणेश को अपने आप में जागृत किया है उनके सामने झुकना चाहिए । परन्तु सहजयोग की विशेषता ये है कि ये सहज में होता है। उसके लिए कुछ भी करने की आवश्यकता गणेश शक्ति जागृत होते ही आदमी में बहुत नहीं । कुण्डलिनी जागृत होने पर मतुष्य में सुबुद्धि अती है गौर उस मनुष्य का सारा व्यक्तित्व एक अन्तर आ जाता है । नजर इधर-उधर दौड़ती रहती है, चचल रहती है, आज्ञाचक्र पकड़ता है । हरदम पागलों की तरह इधर-उधर देखते रहना, जिसे कहते हैं तमाशगीर । जकल तमाशगीरों की वड़ी भा री संख्या है । महाराष्ट्र में भी शुरू हुआ है। हम ज ब छोटे थे, स्कूल, कॉलेजों में पढ़ते थे तब हमने ऐसे तमाशगीर नहीं देखे थे । परन्तु अब ये नये लोग निकल हैं । ये लोग हरदम अपनी अँखे इधर से उधर दौड़ाते जसे कि आजकल पुरुषा की विशेष प्रकार का हो जाता है । आब यहां पर जो माहित्यिक लोग होंगे वे कहेंगे माताजी कोई भ्रामक (विचित्र) कहानियाँ सुना रही हैं। परन्तु प्रापको सुनकर आइचर्य होगा अरहमद नगर जिले में सहज- योग के कारण दस हजार लोगों ने शराब छोड़ी है । मैं शराबबंदी हो जाय वर्गरा नहीं बोलती है । मैं नहीं बोलती । आप] जैसे भी हो आप कुछ अइ । प्राकर अपना आत्मा रूपी दिया जलाइए । रहते हैं। उससे बहुत शक्ति नष्ट होती है और दिया जलने के बाद शरीर में क्या दोष हैं वे आपको उसमें किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं है। Joyless दिखाई देंगे । जब दिया नहीं जलेगा तब तक साडी Pursuit (नीरस क्रिया) कहना चाहिए उसीमें में क्या लगा है ये नहीं दिखাई देगा । उसी तरह अपना सारा चित्त लगाकर अपनी ख इंधर-उधर एक बार दिया जला कि सब कुछ दिखाई देगा । घुमाते रहते हैं । हरदम इधर-उधर देखना, जसे विल्कुल थोडा सा भी जल गया तो भी आ्ापको रास्ते के विज्ञापन देखना । गलती से कोई विज्ञापन दिखाई देगा कि प्रपनी क्या क्या तरुटियाँ हैं । शराप ही ग्रपने गुरु बनिए औ्और अ्रपने आपको अच्छा महत्वपूर्ण काम चूक गया। फिर से अ्रख घुमाकर बनाइए स्वयं को पवित्र बनाइए। जो लोग पवित्र उनके अआानन्द की कोई सीमा नहीं। उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहता । किसी ने कहा है "जब मस्त हुए फिर क्या बोलें ?" अरब हम इसमें एकाग्र दुष्टि अराती है। ऐसी एकाग्र दृष्टि व मस्ती में आ्रए हैं तो उस मस्ती की हालत में प्रब देखना छुट गया तो उन्हें लगेगा जेसे अपना कुछ वह विज्ञापन पढ़गे। हर-एक चीज देखना जरूरी है । ये जो आंखों की बीमारी है यह एकदम नष्ट होकर मनुष्य सहजयोग में एकाग्र होता है । तब होते हैं व गणश शक्ति अगर जागृत हो जाती है, उसे '"कटाक्ष निरीक्षण पड़ेगी वहां कुण्डलिनी जागूत हो जायगी। जिसकी तरफ आप देखेंगे उसमें पवित्रता आ्रा जाएगी। इतना पावित्य आखों में आ हम क्या बोले ? ऐसी स्थिति हो जाती है । पवित्रता आनन्दमयी है अऔर केवल आनन्दमयो ही नहीं, पूर व्यक्तित्व को सुगंधमय कर देती है । ऐसा मनुष्य कहीं भी खड़ा होगा तो लोग कहेंगे " हे भाई इसमें कुछ तो भी कुछ विशेष वात है इस मनुष्य में ।" अकेले गणेश का काम है । और ये गराश आपके जिन्हें विशेष नहीं बनना है उनके लिए सहजयोग घर ही में है । आपने अपने गणेश को पहचाना नहीं है। जिन्हें विशेष बनना है वे बनगे। आप हो ये सर्वविदित है । वह आपको अरजन करना है, कमाना है । जिन्हें विशेष बनना है, उन प्रापंचिक लोगों के लिए, घर-गृहस्थी में रहने वाले लोगों के लिए सहजयोग है। जिन्हें कहते हैं । आ्रापकी कटाक्ष दृष्टि जहाँ जाएगा। ये केवल नहीं। अगर पहचाना होता तो अपनी पवित्रता में विशेष वनने वाले स्थित होते। जो पवित्र है वही करना चाहिए । परन्तु प्रापने य्रवने गणेश को नहीं पूजा। कोई बात नहीं। अपने घर में बच्चे हैं, उनके गणेश को निमला योग २३ साड़ियां बनाने का अराजकल रिवाज ही नहीं रहा । पहले जमाने में बूढ़े लोगों के पास पैसा रहता था, उनके लिए सब-बूछ ठीक-ठाक रहता था। अब बुढ़े लोगों को कोई पूछत। नहीं । उनके लिए शादी- व्याह में एकाध साड़ी खरीदना भी मूश्किल हो [अगर आपको नर्क गया है जिस समय ये गूरु-शक्ति आापमें जागृत होती है तब ये जो बुढ़ापन, वृद्धरव अराता है, उसमें तेजस्विता जागत हो जाती है । अब हम एक बड़े बुजर्ग आदमी को ले । अपने पिता भी कभी-कभी कुछ बनना नहीं, जो समझते हैं हम विल्कुल ठीक हैं, हमें कुछ नहीं चाहिए माताजी, तो भाई ठीक है, आपको हमारा नमस्कार । आप पधारिए । [आप पर हम जबरदस्ती नहीं कर सकते । [प्रगर आपको पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त केरनी है तो हमें आपकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है। में जाना है तो बेशक जाइए, और अग र स्वग में आना है तो आइए। हम आप पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं कर सकते । सवप्रथम अपने प्रपंच में सुख का कारण बचचा विल्कुल मूम क तरह बतवि करते हैं । माँ महा- होता है। गर्भारम्भ से ही घर में आनन्द शुरू हो मु्वा का तर्ह बतावि करती है। बाहर से जो लोग जाता है । माता के कष्टों की समाप्ति के पश्चात व च्चे का अत्यन्त उल्लास के बौचे जन्म होता है । जाभियों पर नही तो जात-पात के लड़ाई-भगड़ी आजकल मैंने देखा है जो लोग पार हैं उनके जो बच्चे होते हैं, वे जन्म से ही पार होते हैं, चाहे वे लोग कहीं भी रहें । कितने ही बड़े-वड़े आावसपिकों हैो होना चाहिए, देशस्थों की देशस्थों से । ऐसा नहीं को जन्म लेना है । सबको मैं देख रही हैं। वे कह रहे हैं, "ऐसा कौन है जो हमारी आत्मा को रखेगा ?" ऐसे-वेसे लोगों के यहाँ साधु सन्त नहीं जन्म लेते। ऐसे बड़े-बड़े आत्म-पिड अराज जन्म लेने वाले हैं और उनके लिए ऐसे लोगों की जरूरत है हमारे पिताजी ये क्या हो गए ? पहले जमाने के जो जिनके प्रपंच सचमूच ही प्रकाशित हैं । और ऐसे प्रकाशित प्रपंच निर्मारणा करने के लिए प्रप सहज- योग अ्रपनाकर अपनी कुण्डलिनी जागृत करवा लीजिए । ते हैं उनके सामने किस तरह रहना है उसे नहीं मालूम । चिल्लाती रहती है, सारा श्र्यान उसका पर रहता है। कोंकरा स्थ की शादी कोंकणस्थ से हुआ तो सास लड़ती है। ये जो बुड्ढे लोगों की अजीब बात हैं, ये तब खत्म हो जाती हैं श्रर उसके सुचारू सथान पर उस बुढ़ेपन में एक त रह की "तेजस्विता" आ जाती है । वह व्यक्ति अ्पने सम्मान के साथ खडा रहता है । आपको लगेगा "अरे बाप रे ! दादोजी कोंडदेव (शिवाजी के जमाने के लोग ) वर्ग र लोग थे, क्या वही यहाँ खड़े हो गए ?" और तुरन्त उनके सामने हम विनम्र हो जाते हैं । तो इस युवा पीढ़ी में जो खलबली मची हुई वह होने के बाद दूसरे चक्र से जिसे हम है। बात-बात पर तलाक, पत्नी के साथ लड़ाई, 'स्वाधिष्ठान' चक्र कहते हैं उससे प्रपंच में बहुत से मां-बाप से नहीं बनती, घर में रह नहीं सकते, घर लाभ होते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का पहला काम है, से बाहर भाग जाना, छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई- झगड़े, ये सब हो रहा है। काम-धंधा नहीं, पसे घरों में मैंने देखा है, पिता की कोई इज्जत नहीं, नहीं, सभी बुरी आदत, सब तरफ से आजकल की माँ की कोई इज्जत नहीं। छोटे-छोटे १५, १६ साल युवा पीढ़ी एक बड़े संक्रमण-काल की तरफ बढ़ के बच्चे ही सब कुछ हैं । अजकल वाजार में मैं रही है । उनकी पृष्ठभूमि (background) बहुत देखती हैं हमारे जैसे वयस्क लोगों के लिए साड़ी महान है। पर मैं कहती हैं महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि खरीदना एक समस्या है। सभी साड़ियाँ युवा तो बहुत ही महान है । पर वह सब भूलकर भी अब संगीत का अपने [पपकी गुरु-शक्ति को प्रबल बनाना । बहुत से लड़कियों के लिए ही हैं पढ़ेंगे नहीं, सुनेंगे नहीं । बड़े-बूढ़े लोगों के लिए निर्मला योग २४ महाराष्ट्र वड़ी परम्परा है। उस तरफ किसी का ध्यान नहों। कितना साहित्य है अपनी भाषा में पर वह सब वह खत्म होने जा रही है । उसका हमने कितना किताब कोन पढ़ता है ? गंदो किताब सड़क पर खरीद कर पढ़ना । कुछ अत्यन्त नकली, super- ficial (जो गहराई में नहीं जाते, बस ऊपर ऊपर उतराते पीढ़ी वनती जा रहो है । इस युवा पोढ़ो को अगर मुझसे कहा था सवंप्रथम इस युवा वर्ग की जागृति इसी तरह रखा तो ये इसी हवा में खो जाएगी। किसी काम की नहीं रहेगी। मुझसे पूछिए प्राप, मैं बेठे साधु-सन्त नहीं समझ पाते कि साधारण लोगों अ्रमेरिका गई थी तो ६५% पुरुष वेकार हैं । वहां के जो लोग हैं उन्हें एक डर है। वहा 'एडस नाम उनको चेतना की क्या अवस्था है । ये (साधारण की कोई बीमारी है। उससे सभी यूवा लोग मर लोग) ताल-मजोरे अवश्य वजाते हैं, किन्तु उन रहे हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इससे गोतों व भजनों के पीछे क्या भाव है यह कैसे में कितना ज्ञान है ? साधु-सन्तों का लाभ उठाया है ? इसका ज्ञान सहजयोग में अराने पर वयस्क लोगों को होता है क्योंकि तब उन्हें मालूम होता है कि हम पहले जो थे उससे कितने को युवा ऊँचे उठ गए हैं । मेरे बचपन में मेरे पिताजी ने रहते हैं) इस तरह होनो चाहिए । दसवीं मंजिल (चेतना के स्तर) पर की, जो ग्रभो पहलो मंजिल पर भो नहीं पहुँचे, वे नहीं छुटकारा मिले ? उसका कारण है, 'ये के रने समझते । जत्र वे पहलो मंजिल (अ्रात्म-साक्षात्कार) में क्या हज है ? इसमें क्या बुरा है ? हो गए होंगे पर पहुँचंगे तब उन्हें पता वलेगा कि उससे ऊपर श्री रामदास स्वामी, हमें उनसे क्या मतलब ? बह औोर भी मंजिल हैं । सब वातें रखिए अपने पास । रहे हैं । बड़े आए माँडर्न वनने वाले ! वे ( अ्रमेरिकन) मॉडनं कहां गए हैं। वह देखिए एक बहत वडी चेतना है। उसे 'ऋतंभरा शक्ति' कहते हम श्रब मॉडन बन तो इस सवसाधारण मानवी चेतन ा के परे एक बार उस देशों में जाकर । वहां के माँडनं लोगों की क्या स्थिति है ये जरा जाकर देखिए। यहाँ लेखकगण यही बैठकर वहां के वरन लिखते रहते हैं। वहां जाकर देखिए । वहां के वयस्क लाग रात- जीवन के साथ खिलवाड कर रहे हैं, ये क्या हमें दिन एक ही वात सोचते हैं, हम केस तरह परत्म- हत्या कर ? एक ही विचार है उतका, अत्महस्या । यही एक रास्ता है उनके पास । तो हवा में खत्म होने वाले जो ये लोग हैं उनकी तरह प्रापको माँडन होना है तो आपको हमारा ननस्कार ! परन्तु प्राप को अपनी शक्ति में खड़े रहना है और कोई विशेष बनना है, तो आप जो चले जा रहै हैं सो रुकना पडगा। जरा शांत होकर सोविए ये (विदेशी) जो युवा-पढ़ी की पार कराना बहुत आसान काम है। सारे दोड़े रहे हैं, जो Rat race (अ्रधाधुंध दोड़) चल रहो है उसमें मैं भी क्या भाग रहा है ? एक मिनट शान्त होकर सोचना चाहिए हम।रो भारतोय भी विऊं, बस ! किसी ने कुछ विशेष तरह के कपड़े विरासत कया है ? सम्पत्ति के बटवारे में यदि एक पहने ती मैं भा पहनूगा, इतना हो ! सब कुछ कतरन ( छोटा दुकड़ा) कम-उ्यादा मिली तो भोलापन ! परन्तु कभी-कभी इस भोलेपन से ही कोर्ट में लड़ते जाते हैं ! परन्तु प्रप्ने इस देश को अनर्थ हो सकता है । परन्तु यही युवा पोढ़ो ग्राज ह। वह अपको सहज में प्राप्त होतो है। वह प्राप्त के होने के बाद प्रपको अपने जीवन का दर्शन होगा । हम क्या हैं, कितने महान हैं और हम ये जो अ्पने शাभा देता है ? कितनी आ्रापके पास संपदा है आपने अपनी क्या इज्जत रखी ? आपको अपने बारे में कुछ पता नहीं है। ये आप समझने की कोशिश की जिए और सहजयोग में प्रपनी जागृति कराइए । पीढ़ी है । ये भी पर- इसी तरह आजकल की युवा मात्मा के साम्राज्य में सहज में अ सकती है । इस सारे भोलेपन में गलत काम करते हैं । इनका सब भोलापन ही है। एक लड़का सिगरेट पीता है तो मैं निर्मला योग २५ कहां से कहां पहुँच सकती है । आज अपने देश में भी पूरी नही होती । प्रापकी एक इच्छा हुई तो किस बात की कमी है ? कोई कहेगा खाने की है । वह पूरी होगी परन्तु साधारणतया ऐसा होता । आज एक हुई, कल दूसरी, उसके बाद लगता है हम ज्यादा ही खाते हैं और दूसरों को तीसरी । एक बात स्पष्ट है जो हमने इच्छा की वह भी देते हैं मैं जब भी यहाँ आती है तो सबको शुद्ध इच्छा नहीं थी। अगर वह शुद्ध इच्छा होती हाथ जोड़कर बोलती रहती हैं, अरब खाना बस तो वह पूरी होने के बाद हमें पूर्ण समाधान होता । करिए मुझे अ्रब नहीं चाहिए । हर - एक मनुष्य वहां परन्तु ऐसा है नहीं । मतलब आपकी इच्छा शुद्ध कहता है हिन्दुस्तान में खाने की कुछ करमी नहीं नहीं थी। अशुद्ध इच्छा में रह । इसलिए एक के दिखाई देती, क्योंकि इतना खिलाते हैं, प्राग्रह कर बाद दूसरी, तीसरी, चौथी इस चक्कर में श्राप घूमते रह। अव शुद्ध इच्छा साक्षात कुण्डलिनी है । कमी किस बात की है ? लोग भी बहुत से वाद- क्योकि वह परमात्मा की इच्छा है। ये जागत होते ही जो आ्राप इच्छा करोगे जो जे वांछिल, तो ते लाहो (जो जिसकी इच्छा है बह उसे प्राप्त होगा ।) इतना कि आप क हें गे अब मूझे कुछ नहीं चाहिए। आपकी जो इच्छाएं हैं वे पूरी होती हैं. परन्तु वे इच्छाएं जड़ वस्तुओं की नहीं होती। उनमें एक तरह को प्रगल्भत, उदात्तता होती है। और आपकी जो छोटो-छोटी बातें हैं वह कृष्ण के कथना- नुसार "योग क्षे में वहाम्यहम्" जब आपका योग घटित होगा तो क्षेम होगा ही परम्तु पहले योग परन्तु मुझे तो ऐसा कुछ दिलाई नहीं देता । मुझे नहीं 1 करके । लगता है खाना ही न खाएं । तो प्रपने यहां विवाद चर्चा करने में नंबर एक हैं। वे प्रगर यहां ख ड़े होंगे तो मुझसे भी जबरदस्त भाषण देंगे, सभी बातों में । बहुत होशियार हैं हम लोग । कुछ ज्यादा ही होशियार ! सब कुछ है हमारे पास, सोना-चांदी, सब कुछ । कमी किस बात की है ? सोचकर देखिए हममें किस बात की कमी है । एक ही कमी है कि हमें ये ज्ञान नही कि हम कोन हैं ? मैं कोन हैं ? इसका अभी तक ज्ञान नही है । जिस हूँ समय ये घटित होगा तब पूरा शरीर पुल कित हो उठेगा श्रर आापके शरीर से प्रेम अथति चैतन्य की कहा है, "क्षम योग" नहीं कहा है। "योग क्षेम बहाम्यहम्" पहले योग घटित होना जरूरी है। सुदामा को पहले कृ' र को जाकर मिलना पड़ा तब उसकी सुदामा नगरी सोने की बनी। आपका कहना है हम यही वैठे रहेंगे और हाथ में सब कुछ शर जाय । क्यों ? परमात्मा पर आप इतना अधिकार क्यों जताते हैं। किसलिए? चार पैसों के फूल 84 लहर वहने लगेंगी केवल ये घटना प में घटित होनी चाहिए। इसकी कोई गारंटी नही दे सकताा । होगा तो होगा, नहीं तो नहीं भी आज नहीं तो कल घटित होगा। इस प्रपंच में आ्रापकी आथिक समस्याएं हैं। महाराष्ट्र में देखो तो "श्री माताजी गरीबों को लिए और परमारमा वो दे आए इसलिए ? आप से बया लाभ होगा?" आप बया है, गरीब हैं उलटे इस में आपकी बड़ी गलती है। वहत से लोग या अ्रमीर, या मध्यम ? फिर आपको क्या लाभ मैंने देखे हैं जो शिवभक्त हैं। वे शिव-शिव' करते चाहिए ? आप चाह मध्यम हो, मीर हो, रईस हो, चाहे गरीब, किसी को भी संतोष नही। रेडियो के हृदय में बैठे हैं। फिर ऐसा क्यों ? उन्हें हार्ट है तो वी. डी. ओ. चाहिए वी डी. श्रो. है अटेक ्यों हुआ ? क्योंकि शि व नाराज हो गये। तो एयरकंडीशनर चाहिए और उसके बाद जहाज चाहिए। और आगे व्या, व ह परमात्मा ही तो उसे भी लगेगा ये अ्रादमी मूझे क्यों परेशान कर े ! साधारण नियम है । इच्छाएं सामान्यरूप से कभी रहते हैं और उन्हें हार्ट अरटक होता है । शिव आप आ्प किसी मनुए्य को ऐसे बुलाते रहे बार-बार, है । कल आप राजीव गांधी के घर जाकर "राजीव, राजीव" जाने Economics (अ्र्थशास्त्र) का एक सबं- रहा ऐ से कहते रहे तो लोग आपको निमंला योग २६ लड़ रहे हैं। क्या वे लोग सुखी हैं ? स्वतन्त्रता भी केद कर लेगे न परमात्मा की प्राप्ति हो रही है और न ही प्रपंच संभाली जाती है उनसे ? दूसरे कहते हैं हम कम्यू- की ऐसी स्थिति है इसलिए 'मध्य मार्ग' में निस्ट (साम्यवादी) हैं किन्तु सच्चे कपिटलिस्ट ाना जरूरी है । और मध्य मार्ग को की मार्ग कहते हैं। वहां से जब कुण्डलिनी का पूजो) है ये सब ऊपरी बातें हैं । इसमें अ्राप लोग जागरण होता है तब मनुष्य बीचों-बौच (मध्य में) मत उलभिए । आप अपने -अाप में (अपने आकर समाधानी होता है। बिल्कुल समाधानी वन जाता है । । यही हुआ्रा है। और इससे आापको 1 ( पूंजीपति) हम हैं क्योंकि हमारे पास शक्ति ( की सुषुम्ना नाड़ी भीतर) परमात्मा का साम्राज्य लाइए प्रोर उसके नागरिक बनिए। फिर देखिए आप क्या बनते हैं। उस के लिए प्रपंच छोड़ने की जरूरत नहीं है। पैसे देने की जरूरत नहीं है । इसमें क्या पैसे देने ? ये तो जीवन प्रक्रिया है आपमें। किसी पेड़ को आपने पसे दिए तो क्या वह अपको फूल देता है ? उसे क्या मालूम पैसा क्या चीज है ? उसी तरह परमात्मा है । उन्हें पसे वर्गरा नहीं मालूम। किसी बाबाजी को ले पात हैं य्रौर उसे कहते हैं, ये लो पैसे । गाँव में हमारे विषय में कहा माताजी पैसे नहीं लेतीं । तो कहते हैं अच्छा १० पैसे नहीं तो २५ ले लोजिए । परन्तु पसे किस चोज के दे रहे हो? ये (आत्म- साक्षात्कार) तो आप हो का है। इसे बया खुद खरीदोगे ? प्रेम के द्वारा सब कुछ काम होता है । वह प्रम प्राप्त करना होगा, जो अ्जकल प्रपंच में वह प्हले आप सोख लोजिए । बह सीखे बगर नहीं है । और जो प्रेम नजर आता है वह गलत गलत-सलत करते हो। फिर कुछ वंगड गया तो तरीके का है । क्रिसी पेड को आपने देखा होगा । उसे क्यों दोष देते हो ? परमात्मा है या नही. यही उसका रस ऊपर आता रहता है और जिस जिस भाग को चाहिए उसे देते देते वह अपनी जगह तक जाता है । वह किसी फूल पर या पत्ते पर नहीं अटकता । अटक गया तो बस वह पत्ता भी खत्म वाले हैं । परन्तु उसके लिए आपकी तैयारी है ? और वह पेड़ भी खत्म औ्ीर फूल भी खत्म । उसो बुद्धि ज्यादा चलती है श्ो माताजी क्या कह रही तरह हम लोगो का है । हमारा प्रेम माने "मेरा । बेटा ! वह तो दृनिया का नवाव शाह हो गया। आपकी समस्याएं अगर आपको बुद्धि से हल मेरी वेटी, मेरा काम", 'मेरा-मेरा चलता रहता होतीं तो हमें इतनी मेहनत करने की जरूरत है। वह क्या आपका है ? लेकिन ये कह सुनकर कितना भी कह छोड़िए 'मेरा- बाली नहीं हैं। आपकी राजकीय समस्याएं मेरा' नहीं छुटने वाला। उसे छुड़वाने के लिये आप हल नहीं होने वालो, त सामाजिक [और प्रपच की कृण्डलिनी उठनीं चाहिए। वह उठने के बाद और आप पार होने के बाद 'तुम्हारा -तुम्हारा की हमे capitalist (पूंजीपति) हैं उसी के लिए शुरूप्रात होती है । कबीर ने कहा है जब वकरी जकल संतोषी देवी का वरत चला है। संतोषी नाम की कोई देवी है ही नहीं। निकाली तो लगे सब व्रत रखने। जो स्वयं सिनेमा वालों ने यह संतोष का स्त्रोत है उसे क्या कहेंगे वह संतोषी है । श्रीर इसी तरह कुछ गलत-सलत बना ते रहते हैं । ब्रत रखना, आज खट्टा नहीं खाना, ये करना, वह नहीं करना। कूछ तमाशे करते रहना और फिर परमात्मा को दोष देना, हम इतना परमात्मा को सेवा करते हैं फिर भी हम बीमार हैं । उसके बारे में कुछ दिमाग से नोचना च हिए । परमात्मा के जी नियम हैं उनका विज्ञान है । सिद्ध करने के लिए हम आए हैं। बिल कूल सिद्ध करने के लिए । आपके हाथों में चैतन्य वहेगा । आपके हाथों को उंगलियों पर परमात्मा मिलने हैं ? जरा दिमाग ठंडा कीजिए फिर होगा। नहीं थो। परन्तु वे आपकी वुद्धि से हल होने नहीं होने वाला । की तो विलकुल हो नहीं । रा जकीय प्रशन ये है कि निमंला योग २७ जीवित होती है तब बार-बार 'मी-मी (मैं-मैं) अगर इस बार आप चूक गए तो समझ लीजिए करती है । "मैं मैं मैं" करती है। लेकिन वह मरने हमेशा के लिए चूक गए । आपकी सारी प्रापंचिक के बाद उसकी अत निकाल कर उसका तार समस्याएं खत्म होकर ाप परमात्मा के प्रपंच में खींचकर घुंदके आवाज आ्राती है "तुही-तुही-तूही" । उसी तरह नहीं मिलने वाला । सारे दृनिया भर के दुःख मनुष्य का है । एक बार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत होती है तब लगता है सब कुछ 'तुम्हारा कहते हैं । परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि आप है। मनुष्य 'अकर्म' में उतरता है । फिर ये बच्चे, जाकर विद्ठल (परमात्मा) के चरणों में सर फोड़़ सगे-सोदरे सभी तुम्हारे ! लोगों को आश्चर्य होता है, ये सब कैसे होता है ? इस बम्बई शहर में इतने और उसे केसे जगाना है ? उसके लिए कुछ करने लोगों की प्रापंचिक स्थिति में सुधार आया है कि की जरूरत नहीं है । वह साक्षात् अ्रापमे है । केवल आपको आश्चर्य होगा। परन्तु हम उस तरफ देखते कुण्डलिनी का जागरण होने के बाद, जिस तरह ही नहीं । हमें विश्वास ही नही है । नहीं करते तो मत करिए । पता नहीं आपका अपने स्वयं पर भी है । जिस घर में परमात्मा का दिया जलता रहेगा भरोसा है या नहीं, परमात्मा ही जाने ! अब ये वहाँ दुःख दर्द कहां ? गरीबी और परेवानियाँ व्यर्थ वर्तमान पत्र (समाचार पत्र) वादिता कहां ? वहाँ तो सुख का संसार होना चाहिए । छोड़कर सचमुच की बर्तमान स्थिति में क्या हो रहा है ये देखना चाहिए । श्रीकृष्ण आए, कुछ एक परम्परा लेकर आए और उन्होंने कृषि का कार्य शक्ति है वह जागृत करवा लीजिए और सारे किया। एक बीज बोया । आज वह संपदा भपको संसार के प्रपंच का उद्धार कीजिए । मैं आपको इस स्थिति तक लाई है । आप फूलों से फल वनने हाथ जोड़कर विनती करती है । वाजे हो में बांधी जाती है तो उसमें से अते हैं। उनके प्रपच में [आए वगैर आपको सूख बुःख परमात्मा के चरणों में ग्राने से खत्म होते हैं, ऐसा ल । श्री विठ्ठल को अपने प्रापमें जागृत करना है । दिया जलाया जाता है, उसी तरह अरापमें वह जलता और इसीलिए हम गाँव-गाँव सब जगह घूमते हैं । आपको मेरी नम्र विनती है कि ये जो प्रापमें । वह आपको प्राप्त कर लेना चाहिए । अशुद्धि-संशोधन गत मार्च-अप्रेल १६८५ गरक में पृष्ठ १४ पर मुद्रित परमपूज्यनीय श्री माता जी के "कुण्डलिनी भौर श्री गणश पूजा" शीर्षक प्रवचन में पंक्ति संख्या ६-७ में "श्रष्ट-विनाशक" के स्थान पर "गरष्ट- विनायक" पढ़ें । अशुद्धि के लिये क्षमा-याचना है । -सम्पादक निमंला योग २८ Registered with the Registrar of Newspapers under Regn. No. 36999/81 जय श्री माता जी 4 भजन पर पाया 'सहज में अचूक, मातृप्रम कौन सहाई, मां बिन मेरो दवाई ॥ मां बिन ॥ मां विन कौन सहाई ॥ ते रो र् सिर पर मेरे मौत खड़ी थी, सब दुख दूर हुये, मां का जब नाम लिया, जीवन नेया जब डूब रही थो ।| ग्रानंद मगन हआ मन, मातृचरणों का ध्यान किया। नव जीवन दान दियो मां ने, स्पर्श से, शीतल के मां मा ही पार लगाई ।। मां बिन ।। त्रिविध ताप नसाई ॥ मां विन ॥ घनधोर अधेरा] अेरा चाह गई चिता मिटी, कट गये भव पाशा, छाया जब, नहि पाई पथ सूझ मातृप्रेम में मेरी, हो गई पूरी आशा । करुणा की किरणे, मां हो मार्ग दिखाई ॥ मां बिन ॥ फुट पड़ी प्रेम मांँ सहज सुलभ, का भातृप्रेम सुखदाई ॥ मां विन ॥ के नाते, अंत समय कोई काम न आते । भठे सिद्ध हुये प्रेम धीरज घरम जग क्षमा करुण, सत्य ध्यान धारणा । ही अब छुट गये सब रिश्ते नाते, मां सबका, सद्गुरु मां ने मुझको अपनाई ।। मां विन ॥ परम ज्ञान सिखलाई ॥ माँ बिन ॥ हे माँ ! तुम हो मेरी मां, हो तुम हम सब की मां, मां हो तुम प्रेममयी, हो तुम सब जग की माँ । डाक्टर, वेद्य, विटामिन, इंजेक्शन. किसी ने न पीर हटाई । मां ! तेरे दर्शन को, निर्मला देवालयों के भी चक्कर काटे, कहीं हे नयन रहे अ्रकुलाई ॥ माँ विन ॥ दिखाई %3D प्रास न सी० एल० पटेल क Edited & Published by Sh. S. C. Rai, 43, Bunglow Road, Delhi-110007 and Printed at Ratnadeep Press, Darya Ganj. New Delhi-110002. One Issue Rs. 7.00, Annual Subscription Rs. 30.00 ; Foreign [ By Airmail £ 7 $ 141 ho नte ---------------------- 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-0.txt fनिर्मला योग GII IP मई-जून १६८५ वर्ष ४ अक १६ द्विमासिक ॐ त्वमेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी, मोक्ष प्रदायिनी माता देवी नमो नमः ॥ निमंला जी. श्री 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-1.txt L जय श्री माता जी 15 मां निर्मला के प्रति केवल तुम्हीं तुम हो सबमें, का नाश जो, हे मां ! वही प्रकाश हो । के रता तम सब आकारों के आकार हो ।।६।। हो जाते विलीन शब्द जिसमें, अंत करता, अज्ञानता का तुम वही प्राकाश हो ।॥ १ ॥ हो । वही ज्ञान परम विचारों अंत आत्म तत्व के तुम, सब विज्ञानों के ज्ञान हो ॥७॥ करता, ज्ञान का हो तुम वही निर्विचार विकारों का नाश करता जो, माल जिस में, जाते हैं । हो अपूर्व अभिशाप अरपूव ॥२॥ क्षमा तुम वही निर्विचार हो घुल हो हो जाते हैं । पवित्रता, हो नि्विकल्प, तुझमें विकल्पहीन निर्गरण निराकार हो जिसमें, अनुपम, जाते हैं II5॥ हम सब पाप घूल हो। जब जो चाहे मिल जाता है । हे मां ! कामवेनु कल्पतरू हो, गुणाकार लीन हो जाते है ।1३॥ निषकलंक चंद्रमा, निस्ताप सूरज, हो, चित् असत् के अन्त हो जाते हैं । आनंद सत् शीतल प्रकाश आता है ।६।। मृत्यु को होता अंत जहां, हर जीवन अनंत पाढे हैं ।॥४॥ कैसे व्यक्त करें महिमा तेरी, ने ति नेति गाते वेद हैं । हो जाते लुप्त सब सापेक्ष जिसमें, वही तुम निहित सर्वस्व, किचित कोई पाते भेद हैं ॥१० । नि:' में हो । "परम" सहज वक्ता, सहजद्रष्टा, सहजज्ञाता, सहजयोग के मरम हो ॥५॥ पाकर दर्शन 'सहज' में तेरे, हे माँ ! कृतज्ञता से भर जाते हैं । जीवन धन्य हो जाता है, है, भवसागर से तर जाते हैं ।।११॥ देता भ्रमजाल जो, वही काट ज जर सत्य साक्षात्कार हो । सी० एल० पटेल ho ज ी ho to 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-2.txt सम्पादकीय "साई बिन दर्द करेजे होय" श्री कबीर आत्म साक्षात्कार के पश्चात् कुण्डलिनो सहस्र्रार छेद कर बाहर चलो जाती है । इसी समय आत्मा और परमात्मा का एकाकार होता है। यह परम श्रनन्द का समय है । श्री कबीर दास जी कहते हैं कि यह स्थिति बराबर बनी रहनी चाहिए । जबर कभी भी इस स्थिति में अरभ्यान्तर होता है अ्र्थात् निर्विचारिता भंग होती है हृदय में दर्द का अनुभव होता है । क्योंकि निर्विचारिता के अ्रभाव में ग्रात्मा और] परमात्मा का एकीकरण सम्भव नहीं है। आरज हम सभी सहजयोगीजन धन्य हैं कि परम परमेश्वरी अ्दिशक्ति श्री माता जी मानव रूप धारण कर यह स्थिति हमें सहज ही सुलभ करा रही हैं। हम सभी धन्य हैं और साथ ही आभारी भी । सहजयोग के इस परम पुनीत सन्देश को जनमानस तक पहुंचाना हमारा करत्तव्य है। निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-3.txt निर्मला योग ४३, बंगलो रोड दिल्ली-११०००७ संस्थापक परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी : डॉ शिव कुमार माथुर सम्पादक मण्डल श्री आनन्द स्वरूप मिश्र श्री आर. डी. कुलकरारी प्रतिनिधि कनाडा : लोरी हायने क श्रीमती क्रिस्टाइन पेंट नीया २७०, जे स्ट्रीट, १/सी ब्रुकलिन, न्यूयाक्क-११२०१ यू .एस.ए. ३१५१, होदर स्ट्रीट वेन्कूवर, बी. सी. बी ५ जेड ३ के २ न यू .के. श्री गेविन ब्राउन भारत श्री एम. बो. रत्नान्नवर १३, मेरवान मैन्सन गंजवाला लेन बोरीवली (पद्चिमो) बम्बई-४०००४२ ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़र्मेशन सविस] लि. १३४ ग्रंट पोर्टलेण्ड स्ट्रीट रनन्दन ड्लू. १ एन. पी. एच. ५ू न द थ पृष्ठ इस अंक में न १. सम्थादकोय २. प्रतिनिधि ३. माता-पिता का बकचों के सा ४. महाशिवरात्रि पूजा ५. निमंल वाणी ६. प्रपंच ओर सहजयोग १ २ थ तथा शिक्षकों का दात्रों के साथ सम्बन्ध १५ का पा ता १६ निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-4.txt श्री माता जी निर्मला देवी माता-पिता का बच्चों के साथ तथा शिक्षको का छात्रों के साथ सम्बन्ध सहज मन्दिर, दिल्ली १५ दिसम्बर, १६८३ सहजयोग क्या है और उसमें मतुष्य integrated (सम्यक) बात नहीं है। इसमें inte- क्या -क्या पाता है, आप जान सकते gration (समग्रता) नहीों है। ओर प्राज का सहजयोग जो हैं वह integration ( समग्रता) कि है। दोनों चीजों का integration (विलय एकीकरण, समग्रीकरण) होना चाहिये न कि combination (एकत्रीकरण) होना चाहिये । Integration (विलय, एकीकरण, समग्रीकरण) हैं। ले किन आज में आपको एक छोटी-सी बात बताने वाली है माता-पिता की सम्वन्ध बच्नों के साथ कैसा होना चाहिये। सबसे पहले बच्चों के साथ हमारे दो सम्बन्ध बन ही जाते हैं, जिसमें एक तो भावना होती है, अर combination (एकत्रीकरणा) में ये फर्क हो औ्र एक में कर्तव्य होता है। भावना और कत्तव्य दो अलग अलग चीज़ बनी रहती हैं। जैसे कि कोई हैनी चाहिये, और कत्तब्य हमारी भावना होनी मां है, बच्चा अगर कोई गलत काम करता गलत बातें सीखता है, तो भी अपनी भावना के कारण कहती है, "ठीक है, चलने दो। आजकल बच्चे ऐसे ही हैं, बच्चों से क्या कहना । जैसा भी हमारा बच्चा है, ठीक रास्ते पर चले और हमारा है ठीक है ।" दूसरी मां होती है कि बो सोचती है बच्चा ठीक रास्ते पर इसलिये चले, क्योंकि हमें कि वो बच्चों को कतव्य-परायण बनाए । परायण बनाने के लिये वो फिर बच्चों से कहती है बताते कि बो ठीक रास्ते पर चले, तो इसका मत- कि "सवेरे जल्दी उठना चाहिये आपको । पढने लब है हम भावना-प्रधान हैं। ये तो बहुत आसान बैठना चाहिये। फिर आप जल्दी से ये समय से करना चाहिये। वहां बैठना चाहिये, क्या कहें ? जाने दीजिये । बच्चे से कहने में बच्चे यहां उठना चाहिये, ऐसे कपड़े पहनना इन सब चीज़ों के पीछे में लगी रहती है। जाता है कि हमारी जो भावना है वो कर्तव्य 1 चाहिये । जैसे कि हमें अपने बचचे के प्रति प्रेम है । तो हम कहेंगे कि प्रेम है, इसीलिये हमारा करत्तव्य है: उससे प्रम है। अगर हम अपने बच्चे को ये नही कत्तव्य- है कि हम इस चौज़ को सोचे कि "हम बच्चों से स्कूल जाइये । दुःखी हो जाते हैं, तकलीफ होती है उन को । उनको क्यों दुःखी करें?" चाहिये ।" श्र एक होता है ये सोचा जाए कि प्रब इसे कहना चाहिये कि ये सम्यक नहीं है, "नहीं, कितना भी हो तो भी बच्चों को जो दुःख निमंला योग ३ पताम 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-5.txt है एकदम धो करके, माज करके, बिलकुल साफ और फिर कहा कि "अच्छा अगर दूसरा आ सकता है तो बहुत अच्छी बात है। अ्रब] मै नहीं रोऊगा, क्योंकि उसमें मैं तुमको दुध दूंगा । कर दं ।" जब integration (समग्रीकरण) हो जाता है तब मनुष्य इस तरह से अपना ही बर्ताव कर लेता है कि जिसका सबसे बहा प्रभाव वच्चों पर बर्ताव कैमा है । और इसकी जो छाप बच्चे पर पड़ता है । तो बच्चे हमेशा ये देखते रहते हैं कि आपका पड़ती है वड़ी गहरी होती है, वनिस्बत इसके कि श्रप सुबह-शाम वच्चे को लेकचर देते रहें | जैसे पिताजी तो हैं प्रालसी नम्बर एक, समझ लीजिये, ोर या तो शराब पीते हैं, सिगरेट पीते हैं । या मां बहुत गुस्सैली है, बच्चों को मारती, पोटती भिडकती रहती इसलिये जो लोग सहजयोगो यहां पर हैं, या जिनके वच्चे यहाँ पर पढते हैं, उनको समझ लेना चाहिये कि क्या आाप में वो मम्यक (integrated) ज्ञान आया है कि नहीं। सम्यक ज्ञान प्राने पर मनुष्य कितना भी मझाए तो वुरा नहीं लगेगा, कितना भी प्रेम करे तो भी खराब नही होगा । है। तो उसका असर बच्चों पर अपने अ्राप पड़ जाता है । ऊषर से अ्राप उन्हें कितने भी सदुपदेश दें, कितनी भी बात बताएं, वो ये देखते हैं कि ये लोग कैसे हैं । बताने से कुछ नहीं होने वाला। जो फ़र्क होता है वो देखने से होता है कि हमारे मां-वाप का बर्ताव कैसा है । उनका दुसरों के साथ बर्ताव केसा है और उनका हमारे साथ बताव केसा है । उनका आपस में बर्ताव कैसा है । बच्चे हमेशा ये देखते रहते हैं । शप लोगों पर मेरा अनंत प्रेम है, अरौर बहुत वार आपको मैं समझाती भी है, लेकिन न आप लोग बुरा मानते हैं, न ही आप बिगड़ गए हैं । इस- की वजह ये है कि म ज्ञान से काम करना है चीज अगर बच्चे जानते हैं कि अाप पूरी तरह से उनको ध्यार करते हैं तो एक बार की भी झिड़की बहुत होती है । लेकिन प्रगर आप हर समय भिड़कते एक छोटा सा किस्सा है कि एक औरत वहुत रहें तो वच्चे कहेंगे कि इनकी तो प्रादत ही भिड़- कने की है। इसलिये बच्चों को बहुत हो संभाल कर शा दुष्ट स्वभाव की थी । और ससुर बुड्ढे हो गए थे । तो उनको बो दूध वरगैरह देती थी तो एक वड़ा और प्यार से रखना चाहिये । गंदा सा बतन थी मिट्टो का, उस में दिया करती थी। और वो विचारे उसी में दूध पीते थे । और वो बच्चा जो था उनका, वो ले जा ना वास्तव में मैं तो यही कहूँगी कि प्यार हो से रख्िये । और जब कभी भी बच्चे में कोई दोष देखें, ्पने दादा को देता था । एक दिन वो बर्तन टूट कुछ देख, दो-चार बार देखने के बाद शांति से गया। तो बच्चा जोर-जोर से रोने लगा । तो उनको विठा करके कहें कि ये ठीक नहीं है। आपको उन्होंने कहा "इसमें रोने की कौन सी वात है ? आश्चय होगा कि आपका उनके साथ अगर सद- वो तो टूट गया, सो टूट गया। इसमें रोने की कौन व्यवहार रहा, तो इस घबड़ाहट में, कि कहीं इनका ज्यार न खत्म हो जाए, एक दम ठीक हो जाएगे। रह। था मा, कि जब तुम बुड्ढी होोगी, तो मैं लेकिन आपने अगर कोई प्यार ही कभी बच्चे को जताया नही, हर समय "ये ठीक से रखो, वो ठीक रखों, इसे ये करो, वो करो," करते रहे, तो करके दूध सी बात है ?" तो बच्चे ने कहा कि मैं ये सोच को किस चोज में दुध दंगा ?" तब उसका तुम दिमाग जगा कि देखो बच्चे ने बात समझ ली. मे निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-6.txt बच्चे ये सोचेंगे कि यह तो इनकी आदत है, एक न ही अति-कर्तव्य के बहाव में किन्तु आ्रार्मा के बहाव में चलना चाहिये। अ्रर जब आप प्रात्मा के आदेश से चलेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि ग्रापकी गयात्मोत्रति तो होगी हीं, साथ में आपके बात औ्र कह दो तो क्या कर ली। अरत: अ्रपना व्यवहार सम्यक होना चाहिये । अपने देश में भी हमने देखे हैं कि लोग अपने देखा देखी आपके बच्चों की भी होगी । वच्चों के लिये भूठ बोलेंगे चोरी करेंगे, चकारी करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। यहाँ तक कि उनका वस चले तो देश भी वेच डाल । [अर कुछ लोग गया है कि देश में स्कूल कम हैं। स्कूल होते हैं, परदेश में खास करके, बो अ्पने बच्नों की लोग बन। एंगे, वना भी सक ते हैं, पैसा भी बना इतनी भी परवाह नहीं करते हैं कि अ चचे सकते हैं, बच्चे पढ़ भी जाएगे graduates मर रहे हों तो उनके मुंह में पानी डाल. द । ये । दोनों चीजें सम्यक नहीं हैं। उनको यही रहता है कि हमारा carpet (कालोन) गन्दा नहीं होना चाहिये, हमारा door (दरवाजा) साफ़ रहता सिफ एक ही बात से था कि हमारे देश में ग्राज चाहिये और हमारी गाडी ठीक रहनी चाहिये ग्रोर ऐसे नागरिकों की जरूरत है जो एक विशेष रूप के वचचों को काम करना चाहिये । उनके पीछे में पड़े दशवादी हों। और ये विशेष रूप के अदर्शवादी रहते हैं । और यहाँ हम बच्चों को खराब करते हैं । वच्चे कहाँ तथार होंगे ? उनके लिये कोई ऐसी ख सिकर माँ बच्चों को बहुत खराब करती हैं। शाला होनी चाहिये जहाँ इसकी पूरी व्यवस्था हो । पिता भी कभी-कभी बच्चों को खराव करते हैं ये सहजयोग का स्कूल इसलिये नहीं बनाया तो बहत (स्नातक) भी हो जाएंगे, और सव हो जाएगा सहजयोग का स्कूल बनाने का मेरा विचार उसी प्रकार teachers (अध्यापकों ) का भी हाल है । अगर teachers ( अ्ध्यापक) चिड़चिड़े तो पहले अपनी ओर देखना चाहिये कि हम बच्चों को क्यों खराव करते हैं ? इस कदर उनको व्यार नहीं देना चाहिये कि जिससे बच्चे खराव हो जाएं, श्रप की बात न सून, मन मानी करें, या बच्चे ये न सोचे कि, "हाँ ये तो...हम इनको सब खराव इस तरह है, हर समय "ये खराव, वो की बैकार की बातों में दिमाग लगाते होंगे, तो बच्चे भी वसे (भौतिकतावादी) । या तो teache (अध्यापक) भी over-indulgent, माने बच्चों को बहुत प्यार हो जाएंगे, materialistic समझा लंगे । ये तो अपने हाथ की बात है। इस कदर हम अपने अति-प्यार से उनको गलत रास्ते दुलार में, उनको पढ़ाई-लिखखाई न दें, तो बच्चे भी वैसे हो जाएं । इसलिये teachers (अध्यापकों) पर भी बड़ा उत्तर-दायित्व है कि वो अपने जीवन को इस तरह से सूधार कि बच्चों के सामने एक बड़ा भारी आदर्श खड़ा हो जाए, जो लोग याद करें कि "हमारे एक teacher (अध्यापक) थे, उनकी एक विशेषता ये थी । उनको एक विशेषता थी । पर डाल देते हैं। उमी प्रकार कभी कभी उनके साथ बहुत सख्ती करने से भी उनको हम इस तरह के बना देते हैं कि वो हमसे मंह मोड़ लेते हैं । फिर हमारा बो मुंह नहीं देखना चाहते । दोनों चीज़ के बीचों-बीच सहजयोग है, सुपुम्ना नाड़ी पर । अत: सुषुम्ना नाड़ी पर चलना चाहिये । न तो अ्रति-प्यार के बहाव में रहना चाहिते, और होता था और बहुत पहुँचा हुआ होता था। इसी- तो ये काम बहुत पहुँचे हुए लोगों का है । पहले गुरू जो होता था realised soul (साक्षात्कारी ) निमंला योग ५ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-7.txt लिये अब आ्रापका गोत्र जो है, आपकी university करगे बच्चों में झगड़ा और उनमें जो उत्पात (विश्वविद्यालय) सहजयोग है । [और सहजयोग करने की बाते हैं, उसको किस तरह से निकाल देना की योग्यता के ही हमारे teachers (अ्रध्यापक) होने चाहिये, और वहाँ के बच्चे होने चाहिये । 'एक आदर्शवादी उत्तम, अ्रतिउत्तम विद्यार्थी इस स्कूल मे निकलेंगे । चाहिये, और उसका केसा किसी तरह से पूरी तरह से नाश कर देना चाहिये, ये सब कुछ मैं चाहती हैं कि parents ( अ्रभिभावकों) को भी सिखाया जाए । इसका मतल ब ये नहीं कि वो बड़ रईस बन करके और बड़े कहीं वो बनकर घुमें गे। लेकिन ऐसे होगे कि इस संसार की आधार हों, जेसे कि श्री गणश अरधार हैं । इसी प्रकाार हमें प्रनेक आरधार खड़े करने हैं । इसीलिये हन सहजयोग को संसार वदल सकता है । और तो कोई मुझे माग व्यवस्था में ही एक स्कूल चलाने के पीछे लगे हुए दिखाई नहीं देता । है। और इसी प्रकार एक बड़ा स्कूुल भी बम्बई में बनने वाला है । उसका भी श्री गणेश हो गया है, उसका भी foundation stone (नींव) पढ़ ले किन इसकी गतिविधियों का जब प्रच्छे से सब काम शुरू हो जाएगा, तब अ्राप देखियेगा, parents (अभिभावकों) में भी बहुत बदलाव आ्रा जाएगा, और बच्चे भी बदलंगे। इसी तरह से सारा इसलिये ग्राप समझ ल कि अपका] भी वड़ा महत्व है, और उस महत्व को अपने नजर में रखते हुए आप सब लोग उस अरोर बढ़, ओ्र इस स्कूल गया है । को बहुत यशस्वो करं । यह होगा। ओर आशा है आप लोग सब अपने दिल को पूरी तरह से साफ करके अरोर इस अओर बढ़ कि हम अपने बच्चों को एक विशेष रूप के आदर्शवादी मैं इस तरह की आप सबको आशीर्वाद देती हैं। विद्यार्थी बनाएंगे। और 'सब मिल करके काम With best compliments from पवा A WELL WISHER निमंला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-8.txt श्री माता जी निर्मला देवी महाशिवरात्रि पूजा' पंढरपुर २६ फरवरी १६८५ इस आधुनिक युग में, एक स्थान माता-पिता को देखने के लिए आए थे । जब मैं अपने माता-पिता की सेवा में) व्यस्त था । वे अ्रत्यधिक अपवित्र हो जाता उसी ईंट पर, जिसे मैंने फेंका था, खड़े रहे।" जो कि पवित्र होना चाहिए, ( है । इन दिनों ऐसी अव्यवस्थित दशा है, और जबकि हम एक अत्यन्त अब इस सम्पूरण कथानक को एक वहुत ही महत्वपूर्ण चीज स्थापित करने की युक्तितपूर्ण ढंग से देखना चाहिए । ईश्वर स्वयं हर कोशिश में हैं। जैसा कि एक छोटे अंकुर को तरह का चमत्कार करने में सक्षम है हम लोग पत्थरों में से बाहर आने में अनेक कठिनाइयों का भी जो ईश्वर द्वारा उत्पन्न किए गए हैं कुछ ऐसे सामना करना पड़ता है। इस के लिए हमें अपने कार्य करते हैं जो चमस्कारपूर्ण लगते हैं। अगर हम अपने मस्तिष्क को तन्दरुस्त रखना होगा और १०० वर्ष पूर्व की संसार की दशा को देखें तो हमें बहुत सी चीजें ऐसी मिलगी जो चम कारपूरण यह देखने का प्रयास करना होगा कि हम अपने होंगी। एक सौ वर्ष पूर्व कोई ऐसा नहीं सोच सकता घेयं व बुद्धिमत्ता से क्या क्या प्राप्त कर सकते हैं। था कि (आज) हम इतने सुदूर इस स्थान पर ये सब प्रबन्ध कर पायगे। लेकिन यह सभी चमत्कार परमात्मा की शक्ति से उत्पन्न होते हैं। इस हैं. हरेक चीज की ओर सही दुष्टिकोण रखना होगा । यह बहुत ही महत्वपूर्ण है । मे रे विचार से हम सब लोगों के लिए ज का दिन बहुत महान है क्योंकि यह श्री विट्ठुल बन जाते हैं। परमात्मा के चमत्कारों की व्याख्या जी-विराट-का स्थान है। यह वही जगह है जहाँ नहीं को जा सकती और न ही करनी चाहिए । वह श्री विट्ठल अपने एक भक्त पुत्र के सामने प्रगट हमारे मस्तिष्क से परे है। मनुष्य को भगवान के हुए थे और जब उस ( " प्रच्छा बहा भी कर सकता है । चमत्कार के बहुत ही सूक्ष्मतम अश के हम भी भागी भक्त) ने उनको कहा शस्तित्व का आभास कराने के लिए परमात्मा कुछ होगा आप एक इंट पर खड़े रहें वे खड़े रहे । कहते हैं कि वे खड़े इंतजार करते रहे । यहमूरत्ति जिसे हम देख रहे हैं. कुछ लोग कहते हैं कि यह मूरक्ति पृथ्वी माता ( के गर्भ) से उत्पन्न हुई इसी रेत पर । इसको ले जाते हुए पुण्डरीकाक्ष ने कहा था "ये वही (विट्ठल जी) हैं जो मुझे व मेरे वह (परमात्मा) तीनों आयाम में विचर सकता है और चौथे आरायाम में भी। वह जो कुछ नाहे सब कर सकता है । इसको आप प्रपनी दिनचर्या में देख चुके हैं कि कितने चमत्कार होते रहते हैं । यह कसे *निमंला योग' ( अंग्रेजी ) मई जून १६८४ के पृष्ठ ६-१२ का हिन्दी प्नुवाद । निर्मला योग य। 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-9.txt होता है ? इसको आप नहीं समझ सकते । वह उन वस्तुओं में भी कार्य करता है जो नि्जीवहैं । लोग अनुभूति के लिए मैं इसके लिए द चकित रह जाते हैं कि यह सब कैसे होता है। अतः प्रयोग नहीं करूंगो। वह कितना शक्तिशाली है, वह यह सब देखकर हमें स्वयं विश्वास करना चाहिए कितना चमत्कारी है, कितना महान है । (त्मा कि वह (ईश्वर) है और वह जो चाहे सब कुछ कर के मस्तिष्क में ग्राने का) दूसरा अर्थ है, मानव सकता है। हम उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। मस्तिष्क निर्जीव वस्तु मृजन कर सकता है । परन्तु इसके विषय में यानि ईश्वर के चमत्कार के बारे में जब प्रात्मा मस्तप्क में अ जाती है तव आप सजीव कोई तर्क नहीं होना चाहिए। "यह कैसे होता है ? वस्तुएं उत्पन्न करने लगते हैं, कुण्डलिनी का सरजीव येह केसे हो सकता है ?" मस्तिष्क की क्षमता असीमित होनाT, परमात्मा की 'समझना शब्द प्राप इसको समझा नहीं कार्य । यहाँ तक कि नि्जीव भी सजीव की भाति व्यवहार करने लगता है क्योंकि अाप निजीव में सकते । इसे (आप तभी समझ सकते हैं) जब आप मस्तिष्क की उस अवस्था को प्राप्त कर चूके हों उनकी आत्मा को स्पशं कर देते हैं । जब प्राप अपनी अनुभुति द्वारा विহ्वास करें कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है । ऐोसी धारणा होनी अत्यन्त दुष्कर है। यह बहुत कठिन है क्योंकि न्यूक्लियस में उस परमाणु की 'आत्मा' रहती है । हम सीमित व्यक्ति हैं । हम लोगों की शक्ति सीमित अगर ग्राप अत्मा हो जाए (यदि आप अपनी है । हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि ईश्वर तुलना एक परमाणु से करें), तो यह इसी प्रकार ड जिस प्रकार प्रत्येक अणु या परमाणु के अंदर होगा जैसे कि परमाणु का मस्तिष्क न्यूक्लियस हो इनना सर्व-शक्तिमान केसे है ? क्योंकि हमारे पास ( इसके लिए) क्षमता नहीं है । यह परमात्मा जो ओर इस मस्तिष्क (अर्थात न्यूक्लियस) का हम लोगों का निर्माता है, हमारा रक्षक है, जिसकी नियंत्रण, इस न्यूक्लियम में स्थित आत्मा करे । इस यह इच्छा है कि हमारा अस्तित्व वना रहे, जो प्रकार आपके पास चि त्त यानि शरीर है अणू का स्वयं ही हमारा ध्रस्तित्व है वह सर्व शक्तिमान पूरा शरीर ) , व तब न्यूक्लियस और उस व्यूक्लियस ईश्वर ही है। सर्वशक्तिमान । वह जो कुछ भी के अंदर 'आत्मा है । चाहे आपके साथ कर मकता है। वह दूसरे विश्व की संरचना कर सकता है तथा इस संसार का इभी प्रकार हमारा शरीर है-हमारा चित्त। और उसके बाद हमारे पास न्युक्लियस है यानि मस्तिष्क, तथा 'अत्मा हृदय में है । मस्तिष्क का सतालन 'अत्मा के द्वारा होता है । यह कैसे ? इसे प्रकार, हृदय के चारों शोर सात 'अौरा -हैं (जिसको कितने ही गुरणा बढ़ी सकते हैं। 7 (7 raised to power आप सभी के हृदय ' 16,000, ७. पर १६,००० की शक्ति )। औरा] का स्थान आपके सिर के ऊपर है किन्तु वह प्रापके (Auras) सातों चक्रों की निगरानी करते हैं । विनाश भी कर सकता है। ऐसा तभी होता है जब उसकी ऐसी इच्छा ही । 'शिव पुजा के लिए पण्डरपुर मेरा विचार इसलिए हुआा कि 'शिव' प्रत्मा का प्रतिनिधित्व (represent) करता है तथा 'ग्रात्मा आने का ( Auras) - ते ज मंडल में निवास करती है । 'मदाशिव हृदय में प्रतिबिम्बित है। आपका मस्तिष्क ही "विट्ठल' है । अतः 'आत्मा' को आपके मस्तिस्क में लाने का अर्थ होगा आप के मस्तिष्क आलोकित करना । आपके मस्तिष्क आलोकित रही हैं-अ्रात्मा इन औरा' यह आत्मा इन 'औरा (Auras) के द्वारा को देखती रहती है । देखती रहती है-मैं पुनः कह (Auras) के द्वारा होने का अर्थ है आप के सीमित क्षमता वाले देखती रहती है। ये औरा (Auras) मस्तिष्क में ि निर्मला योग াe श 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-10.txt स्थित सातों चक्रों के व्यवहार पर निगरानी नहीं होता । यदि आप के पास कुछ है, आपको रखते हैं। ये मस्तिष्क में कार्यरत सभी नसों उससे कोई मोह नहीं रहता । आप मोह ग्रस्त (Nerves) की भी निगरानी करते हैं । 'देखते नहीं होते क्योंकि आरमा निलिष्त ( detached) रहते हैं। लेकिन जब आप आत्मा जो कुछ भी हो आप मस्तिषक में लाते हैं तब आप दो कदम आगे किसी तरह के लगाव की चिन्ता नहीं करते । बढ़ जाते हैं । क्योंकि जव आपकी कुण्डलिनी ऊपर एक क्षण के लिए भी आप का लगाव नहीं होता । उठती है तो वह सदाशिव को स्पर्श करती है और सदाशिव आत्मा को सूचित करते हैं । यहा (detachment) को समझने के लिए हमें अपने सुचित करने का मतलब है प्रतिवरिम्बित होते हैं को अपने है । पूर्णरूप से निलिष्त मैं तो कहंगी कि त्रपनी आत्मा की निलिप्तता श्रपको प्रच्छा तरह से अध्ययन करना चाहिए ्पष्ट रूप से कि कैसे हम लोग मोह में फंसे हुए हैं। सबसे पहले हम लोगों का मोह मस्तिष्क के द्वारा है, अधिकांशतः मस्तिष्क से । क्योंकि हमारे सभी संस्कार (conditioning) हमारे दिमाग में भरे वह 'पहली अवस्था है-जहां प्रौरा' मस्तिष्क के विभिन्न आत्मा में । अतः चौकसी करते हुए ' चक्रों से संचार स्थापित करना शुरू कर देते हैं वे एकबद्ध या सम्यक (Integration) करते हैं । लेकिन जब आप अत्मा को अपने मस्तिष्क पड़ें हैं और हम लोगों का अहम् भी मस्तिष्क में है । में लाते हैं यह 'दूसरों अवस्था है । वस्तुतः तब आप पूर्णरूप से 'अत्म साक्षात्कार' पाते हैं, पूर्ण रूप से । क्योंकि तव आपका 'स्व, जो कि आत्मा है, अपका मस्तिष्क वन जाता है। यह क्रिया प्रति मस्तिष्क द्वारा होता है। जिसके कारण भावात्मक गतिशील होती है । यह मनुष्य के अंदर पांचवां' लगाव मस्तिष्क के द्वारा होता है तथा हमारे आयाम (dimension) खोलती है । पहले जब आप साक्षात्कार पाते हैं व भामूहिक चेतना में इसीलिये यह कहा गया है कि साक्षात्कार के पश्चात् आते हैं तथा आप कुण्डलिनी को ऊपर उठाने अलिप्त-भाव (detachment) के अभ्यास द्वारा लगते हैं, तब आप 'चौथे' आयाम को पार कर 'शिवतत्व' का प्रभ्यास कर ना चाहिए । जाते हैं। परन्तु जब श्रप की आत्मा मस्तिष्क में आ जाती है, तब आप 'पांचवां ग्रायाम बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि अ्रप 'कतर्त्ता' (Doer) बन जाते हैं। उदाहरण के लिए मान लो मस्तिष्क है "इस वस्तु को ऊपर उठाओ", आप मस्तिष्क के जरिए होता है- परन्तु यह हमारे अतः भावात्मक मोह भी हमारे मस्तिषक द्वारा होता है और हमारे संस्कार (conditionings) मस्तिष्क में है और हमारा सब अरहंकारी मोह भी हकारमय लगाव भी मस्तिष्क के द्वारा होते हैं । ब] प[अलिस्त] भाव] (detachment) का अभ्यास कैसे करें ? चूंकि किसी भी वस्तु से हमारा लगाव कहता इसको अपना हाथ लगाते हैं व उसको ऊपर उठा लेते हैं । अरतः अ प कत्त्ता' हुए। परन्तु ज ब मस्तिष्क श्रात्मा बन जाता है, तब आत्मा ' जाती है और जब आत्मा 'कत्ता है तब आप कहाँ जा रहा है ?" सहजयोग के अभ्यास में यदि पूर्णतया 'शिव' हो जाते हैं-'आत्म-साक्षात्कारी आपको ऊपर उठना है तो आपको अपने यंत्र' (Self realised)। उस अवस्या में यदि आप (Instrument) को नाराज हों तो भी आपको मोह (attachment) को नहीं । इस बात को आपको निश्चित रूप से नहीं होता। आपका किसी भी चीज से मोह जानना चाहिए । चित्त (ध्यान) द्वारा होता है । अत: इस के लिए हमें अपना चित्त (ध्यान) नियंत्रित करना चाहिए 'कर्ता हो जिगको हम "चित्तनिरोध" कहते हैं। "यह (चित्त) सुधारना होगा-दूसरे के यंत्र निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-11.txt ब अपने चित्त की केवल निगरानी करें कष्ट दीजिये यह कहाँ जा रहा है ? आप स्वयं की निगरानी होता है कर जेसे ही आप अपने को, प्रपने ध्यान को देखना इसी वजह से लोग हिमालय पर गये देखिए ! शुरू करेंगेध्राप अ्रपनी आत्मा से एकरूप हो जाएंगे । चकि यदि अ्राप को अपने 'ध्यान की निगरानी कितनी वाधाग्रों का सामना करना पड़ा । अत: करनी है, तो आप को प्रपनी आत्मा बनना पड़ेगा। हिमालय पर प हैचने में तो आप कल्पना कर सकति अन्यथा आप इसकी निगरानी कैसे करेरंगे ? । आपको जो ग्ाराम दायक प्रतीत उसको थोड़ा कष्टप्रद बनाइये। इस स्थान पर आने में ही हम लोगों को हैं ? साक्षात्कार के पश्चात् (लोग) अपने शरीर को हिमालय पर ले जाया करते थे। (वे शरीर से कहते थे) "अच्छा, अब ये सब सहन करो। देखें, अ्रब ग्राप इसमें कैमे उतरते हैं ?" जिसे आप तप कहते हैं उसकी श्रव (ग्रात्मसाक्षात्कार के बाद) शुरूआत होती है। एक तरह से यह एक तपस्या हैं, जिसकी ही आरासानो] से सहन कर सकते हैं । भूत या क्योकि अरब आप साक्षात्वकार पाए हुए जीवात्मा किसी अन्य चीज द्वारा पकड़ नहीं जा सकते । वह (realized souls) हैं । यह सब आनन्द-मग्न स्थिति विलग (detached) हैं । इस बिलगाव (detach- में इस शरोर को इस योग्य बनाएं । शिवजी के ment) की निगरानी करनी चाहिए व उमे अपने लिये कोई फ्क नहीं कि वे कव्रिस्तान में रहें या अ्रब आप देख पका ध्यान किध र जा रहा है ? सबसे पहले ग्रापका लगाव मोटे तोर पर शरोर से है। आप देखिए से लगाव को नहीं जानता। वह कहीं भी मो लते हैं। वह कत्रिस्तान में जाते हैं और वहीं सो जाते हैं । क्योंकि वह लिप्त नहीं !शिव" प्रपने शरीर अप बहुत हैं । वह किसी लगावों के जरिए देखना चाहिए। प्रपने कैलाश पर या कहीं भी । आप लोग साक्षात्कार प्राप्त जोवात्माएं (realised souls) हैं परन्तु अभी शुद्ध अरत्मा (spirit) नहीं (बने हैं) । क्योंकि वास्तव में प्रभी वह आत्मा (spirit) ग्राप के मुस्तिष्क में नहीं आ्रागी है। फिर भी आप साक्षात्कारी जीवा।त्मा (realised प्रापका ध्यान कहाँ है ? आप देखं। मनुष्य का वित्त बहुत हो खराब होता है। बहुत ही उलभा हुआ, निरथक । मस्तष्क की इस उलझी स्थिति के लिये स्पष्टीकरखा दिया जाता है "हमने यह इस लिये किया या पड़ता है। स्पष्टीकरण की कोई ज रूरत नहीं, न देना चाहिए, न स्वीकार करना चाहिए और न माँगना चाहिए। कोई स्पष्टीकरण नहीं । बिना किसी र्पष्टोकरण के रहना उत्तम है । सरल हिंदी दुसरों को स्पष्टीकरण देना souls) हैं । अत: आप कम से कम अपने ध्यान (नित्त) को निगरानी कर सकते हैं। आप यह कर सकते हैं। आप अपने ध्यान (चित्त) की निगरानी स्पष्ट रूप से कर सकते को नियत्रित भी कर सकते हैं। यह बहुत आसान है। अपने 'ध्यान' को नियंत्रित करने के लिए- इसे हैं । [और तब अपने ध्यान कहा है जंसे राखह, तँसे ही रहूँ । अर्थात् जिस तरह भी आप मुझे रखें, मैं उसी दश में रहैंगा, और मैं अ्रनन्द उठाऊंगा। कबीर दास इसके ग्रागे केवल इस वस्तु पर से उस श्रन्ध वस्तु पर लगाए । अ पनी प्राथमिकताओं (priorities) में परिवर्तन लाए। यह सब कृछ करना होगा, अभी। साक्षाकार कहते हैं, "यदि ग्राप मुझे हाथी यानि राजसी के पर चात पूर्णं निर्तिप्ति भाव । नवारी पर जाने को कहें, मैं जाऊंगा। यदि अराप पदल जाने को कहें, मैं पैदल जाऊंगा। " जेसे राखहूं, अरत: इस विपय में कोई प्रतिक्रिया चाहिए। कोई प्रतिक्रिया नहीं । किसी दरोर आराम मांगता है। आपका चित कहां तेसे ही रहे। जा रहा है यह सतत देखते रहने से इ से थोड़ा नहीं (होनी निर्मला योग १० 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-12.txt तरह की सफाई नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं (होनी आप देखें । जब आप एक बार ऐसा सोचना शुरू चाहिए) | कर द, एक समस्या उठ खड़ी होती है । आप हिष्पी बन जाएंगे बहुत लोगों की धारण है कि यदि प्रब दूसरी बात भोजन के बिषय में है। पशुभ् शिवजी की तरह व्यवहार किया जाय तो आप की की यह सबसे पहली जरूरत है। भी शिव वन जाएगे। कई लोग इस प्रकार का तरह मनुष्य भोजन पर किसी तरह का ध्यान नहीं चाहे नमक भी विश्वास रखते हैं कि यदि प्राप गांजा लें तो हो या नहीं, चाहे यह है या बह, भीजन पर कोई ध्यान नहीं। वास्तव में यह याद नहीं रखना चाहिए लेते थे । (लोग नहीं सोचते कि ) वह (शिवजी ) कि सुबह अपने क्या खाया है?लेकिन हम इस विषय गांजा इस संसार से खत्म करने के लिए लेते थे । में मोचते रहते हैं, हम कल क्या खाने जा रहे हैं ? उनके लिए यह क्या मतलब रखता है, चाहे उनके हम भोजन का उपभोग इस शरीर को चलाने के लिए गांजा हो या नहीं। आ्रप उनको कूछ भी दीजिए आप भी शिव बन जाएंगे क्योंकि शि वजी गांजा लिए नहीं करते, परन्तु इस जिह्वा (जोभ) के आनंद की प्रत्यविक संतूष्टि के लिए । आप जब यह एक बार समझ लगे कि (स्वाद से प्राप्त) अनन्द एक स्थूल ध्यान का प्रतीक है किसी भी प्रकार का रोसा आनंद अरति स्थूल होता है, सनसनीदार व उत्तेजक होता है यह बहुत ही स्थूल है । उनके लिए कोई मतलब नहीं रखता। वह कभी भी 'होश खोये मालूम नहीं देगे। इसका कोई सवाल नहीं । वह सब कूछ खाते थे । (शिवजो) जैसे सभी चीजों के प्रति निर्लिष्त थे, लोग वैसे हो रहने को सोचते हैं। वह अपनी दिखावे के बारे में तनिक भी चिन्तित नहीं थे । शिवजी के लिए दिग्खावा क्या ? वह जिस प्रकार भी दिखलायी पडते हैं, उनकी लेकिन जत्र मैं कहती हैं "कोई आमोद-प्रमोद नहीं" इसका यह तात्पर्य नहीं कि अ्राप एक गुम्भीर व्य क्ति बन जाएं या ऐसे जैसे कि परिवार में कोई मर गया हो । आपको शिव की तरह होना चाहिए -बिल्कुल अलिप्त । सुन्द रता है। वह इसके लिए थे । भी नहीं चाहते कुछ अतः किसी ची ज में लिप्त होना कुरूपता है भ्रभद्रता है । लेकिन आप जैसा चाहें वेसा वस्त्र पहन सकते हैं। यदि आप साधारण वस्त्र में भी हैं, वह (शिवजी) शादी के लिए एक ऐसे बल पर तो अाप प्रत्यधिक शानदार व्यक्ति लगेंगे लेकिन सवार होकर आए जो ते ज दौड़ता था । यरप गौर कर, वे बेल पर अपने दोनों पेर इस तरह करके बेठे थे। और बैल तेज भागा जा रहा था। वे बैल को पकड़े हुए तरह था । वे ग्रपनी शादी के लिए जा रहे थे। उनकी की निखार हुई है, वह शक्ति प्रदान करती है ताकि बरात में कोई आदमी एक प्राँख का, तो कोई बिना नाक का, हर तरह के हास्यास्पद व्यक्ति जा रहे थे। और उनकी पत्नी ( पा्वती) लोगों द्वारा शिवजी के प्रति अभद्र वातें करने से अजीब बेचैनी मह- बहुत ऐ सा नहीं कि अआप कहें, "ठीक है, त ब ऐसी दशा में हम एक चद्दर लपेट कर रहेंगे थे और उनका पेर इस आप के अंदर, अ्रात्मा के जरिए जिस सुन्द रता आाप जो चाहें वस्त्र धारण कर लें। इससे अपकी सुन्दरता में कोई अंतर नहीं होता सुन्दरता हर समय बनी हुई है। । आप की सूस कर रही थीं। वह (शिवजी) जरा भी चिन्तित नहीं थे कि उनकी इज्जत क्या है ? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आप हिप्पी बन जाएं। परन्तु क्या प्राप उस अवस्था को प्राप्त कर चूके हैं ? उस प्रवस्था को आप तभी प्राप्त कर सकते हैं जब आप की आत्मा प्राप के मस्तिष्क में आ जाती निर्मला योग ११ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-13.txt है। रहंकारयुक्त व्यक्ति के लिए यह बहुत कठिन आप लगाव महसूस करते हैं । चूंकि जब आप स्वयं है औ्र यही कारण है कि वे लोग आनन्द नहीं उठा पाते हैं। थोड़े से वहाने से ही वे लुढ़क इस वात को समझ रहे हैं ? क्योंकि 'अप' में व जाते हैं। और आत्मा जो कि आनन्द का स्रोत है प्रकट नहीं होती, दिखलायी नहीं पड़ती है । लिप्त हो जाते हैं ? 'आनन्द ही सुन्दरता है आनन्द स्वयं सुन्दरता है। 'वह हैं, तब आप क से उससे लिप्त होंगे ? क्या आप आपके 'उस के बीच अन्तर तथा दूरी है, आप उससे ' हूँ, दूसरा कोन है ? सम्पूर्णं परन्तु, यह 'मैं परन्तु इस अरवस्था को पाना पड़ता है। है, दूसरा कौन है ? सब कुछ 'मैं हूं, दूस रा विश्व में विभिन्न तरीकों से लगाव आता है। आप इसमें थोड़ा आगे बढ़े तो आपका अपने परिवार से लगाव हो जायेगा । मेरे वच्चे का क्या होगा ? मेरे पति का क्या होगा ? मेरी मां का, मेरी पत्नी का क्या होगा ? यह, वह, सब निरर्थक । कौन है ? ऐसा नहीं है कि यह मस्तिष्क की तरंग या मस्तिष्क के अहम् ( अहंकार) का भोंका है । अत: दूसरा कौन है ? कोई नहीं । तुम्हारा बाप कीन है व तुम्हारी माँ कीन है ? कोन तुम्हारा पति है और कौन तुम्हारी पत्नी के मस्तिष्क में अ्रा जाए और आप विराट के स्वयं है ? शिवजी यह सब कुछ नहीं जानते हैं। उनके अंग प्रत्यंग बन जाएं । जेसे कि मैं वता चुकी हूँ, लिए 'वह औऔर 'उनकी शक्ति अपूथक वस्तुएं हैं । बिराट ही मस्तिष्क है। तब श्राप जो कुछ भी तः 'वह एक व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। कोई करते हैं, चाहे आप [अपनी नाराजगी दिखाते हैं, चाहे 'द्व तभाव' नहीं है । द्वैतभाव होता है तभी आप स्नेह दिखाते हैं. चाहे अ्रपनी करुणा दिखाते हैं या कहते हैं मेरी' पत्नी यह तभी सम्भव है जब अराप की आत्मा आप आप लगातार कहते जाते जो कुछ भी, यह आत्मा है जो ऐसा व्यक्त करती । हैं 'मेरी' नाक, 'मेरा' कान, 'मेरा' हाथ, मेरा, है । क्योंकि मस्तिष्क अ्रपना अस्तित्व खो चुका है । सीमित कहा जाने वाला मस्तिष्क असोमित थात्मा बन चुका है । है। हैं मेरा, मेरा, मेरा आप नीचे गिरते जाते हैं । जब तक आप 'मेरा कहेंगे वहाँ कुछ न कुछ द्व तभाव होगा। लेकिन जब 'मैं (श्रीमाता जी) ऐसे विषय में मैं कैसे उपमा (समानता ) कहती है, 'मैं मेरी' नाक, तब कोई द्वेतभाव नहीं दूं, मुझे नहीं मालूम । सचमुच मुझे मालूम है । दिव-शक्ति अर्थात शक्ति-शिव । कोई द्वैतभाव नहीं । परन्तु हम यह कर सकते हैं कि इसको नहीं है । फिर भी हम पूर्णरूप से द्व तभाव में रहते समझने की कोशश कर । यदि रंग को समुद्र हैं और उसके कारण लगाव होता है। यदि द्व तभाव में डाल दिया जाय तो समुद्र रंगोन हो जाएगा यह संभव नहीं है। लेकिन आप इसे समझने की डोल दिया जाय तो रंग अपना अस्तित्व पूर्णातया समुद्र में कहां? यदि आप ही सूर्य हैं और आप ही सूर्य का खो देगा। अब आप दूसरी तरह से सोच । यदि आप ही शब्द है तथा आप ही उसका अरथ समूद्र को रंगीन कर दिया जाय और उसे वाता- वरण में बिखेर दिया जाय या आशिक रूप से किसी हिस्से में, या किसी स्थान पर या किसी अरणु नहीं है तो लगाव कैसा ? यदि अआप ही प्रकाश हैं ओर आप ही दीपक, तब द्व तभाव कहां? यदि आप कोशिश करें । यदि थोड़ा सा सोमित रंग ही चन्द्रमा हैं और आप ही चन्द्रिका तो द्वं तभाव प्रकाश तब दवँ तभाव कहाँ? परन्तु जब पृथकता होती है, वहां द्व त होता है। और इस पृथकता के कारण निर्मला योग १२ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-14.txt पर या किसी भी वस्तु पर, तो सब कुछ रंगीन हो जाएगा| इस पर ६पान दे रह हो, उस पर ध्यान दे रहे हो, लिप्त हो रहे हो। अ अलग हो जाप्रो । केवल मस्तिष्क बनो। केवल मस्तिष्क अलग हो जायओ, [प्रात्मा समुद्र की भांति है जिसके अंदर पृथक हो जाओ । रोशनी भरी पड़ी हैं। और जब इस समुद्र (रूपा 'गरत्मा) को अ्रापके मस्ति्क के छोटे प्याले में उड़ल दिया जाता है तब प्याला रपना अस्तित्व के रंग से पूर्णांतया भर जायगा | यह अपने स्खो देता है परर सव कुछ प्राध्यात्मिक (spiritual ) अरप होगा । हो जाता है। सभी कुछ। आप सब कुछ अध्या- हैं यह घटित नहीं होगा। अ्रतः इसके लिए वास्त- त्मिक वना मकते हैं । हरेक चीज आप जिस नीज विक रूप से, निश्चय से तपस्या करनी होगी । को भी स्पर्श करें वह आध्यात्मिक हो जाती है । रेत प्राध्यात्मिक हो जाता है, जमीन ध्यात्मिक हो जाती है, वातावरण आध्यात्मिक बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र इत्यादि भी आध्यात्मिक बन जाते हैं । प्र उसके बाद यह निलिष्त मस्तिक आत्मा जब तक आपके नित्त पर ये सीमाएं हरेक व्यक्ति को । मैं आप लोगों के साथ हैं । अत: उ सके लिए प्रापको पूजा करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन वह अवस्था प्राप्त करनी है, अ्रौर उस अवस्था को पाने के लिए आप को पुजा करना आवश्यक है । मुझे उम्मीद है कि मेरी इस जिन्दगी में आप में से बहुत से लोग 'शिव तत्व' वन जाएंगे। लेकिन प यह न सोचे कि मैं प्राप लोगों को दू:ख उठाने के आध्यात्मिक हो जाता है । सब कुछ यह आर्मा समुद्र (की भांति असोम) है। जबकि आप का मस्तिष्क सोमित है। आ्पके सीमित मस्तिष्क में निलप्तता लिए कह रही हैं। इस प्रकार के उत्थान में किसी मस्तिषक की सभी (detachment) लानी होगी सोमाओं को तोड़ना होगा। ताकि जब यह समुद्र इस मस्तिष्क को प्लावित कर देता है त यह उस छोटे प्याले को तोड़ दे, और उस प्याले का करण-करण प्रकार का दृःख नहीं है। यदि यह समझ लें कि यह पुर्ण आरानन्दमय अवस्था है। उस समय आप 'निरानंद हो जाते हैं। सहस्त्रार में इसी आनन्द का नाम 'निरानंद है और अप को मालूम है, 'आपकी रंग में रंगा जाय । सम्पूरणं वातावरण, प्रत्येक वस्तु, माँ' का नाम 'नि रा' है [अत: अ्राप 'निरानंद हो जिस पर भी आपकी दृष्टि जाय, रंग जानी चाहिए। जाते हैं । आत्मा का रंग, अत्मा का प्रकाश है, श्रोर ये अ्रात्मा अ्रतः आज शिव की पूजा विशेष महत्व (अ्र्थ) सोचता है, सहयोग प्रदान करता है, सब कुछ रखती है। मुझे आशा है आज की इस पूजा में प्राप जो भी बाह्य रूप में, स्थूल-रूप में करगे, वह अति सूक्ष्मत र रूप में भी घटित होगा और मैं यही कारण है कि आज मैंने शिवतत्व को आपकी आ्रत्मा को प्रापके मस्तिष्क में पहुँचाने की कोशिश कर रही है । परन्तु कभी कभी यह कटिन होता है, क्योंकि आपका मस्तिष्क अभी भी लिप्त का प्रकाश कार्यान्वित होता है कार्य करता है, करती है । कुछ मस्तिष्क में लाने का निश्वय किया है । इसका पहला तरीका है कि आप अपने मस्तिषक प्रवस्था में है । यह कह कर शिवतत्व की ओर लाएं "ए, मस्तिष्क महाशय ! तुम कहाँ जा रहे हो ? तुम को प्रपने को पृथक (निर्लिष्त) करने की कोशिश निर्मला योग १३ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-15.txt कर । क्रोध, वासना, लालच सभी वस्तुओं को कम हैं। अ्रत निषकलंक को ग्राप क्या धोने जा रहे हैं ? करने की कोशिश करें । आज मैंने डॉ० वारेन से कोई कह सकता है कि, माँ ! जब हम अ्राप के कहा- 'सभी को कम खाने के लिए कहो, पेटू चरण पखारते हैं तो हमें पानी में अरप के बाडब्रेशन की तरह नहीं" देखिए कभी कभी किसी बड़ी ) इतना दावत में ज्यादा खा लें, लेकिन हर समय उस तरह निलिप्त है कि इसको धोने की जरुरत ही नहीं । नहों गखा सकते । यह एक सहजयोगी की निशनी ऐसी अवस्था में श्राप पूर्णतया घुल जाते हैं, पूरां- नहीं है । नियंत्रण करने की कोशिश करें । अपनी बातचीत को नियंत्रित करे, चाहे अाप ग्रपनी वात में नाराज़गी प्रकट कर या दया भावना दश्शाएं या कृत्रिम करुर्णा । मिलते हैं । लेकिन यह (कमलबत् चरण एक तया स्वच्छ । इसके वाद हम देवी का पूजन करेंगे क्योंकि गोरी' जो कुमारी कन्या है, उसकी पूजा होनी चाहिए। अतः हम 'कुमारी कन्या के १०८ नामों मैं जानती है आपमें से कुछ लाग उयादा नहीं का उच्चारण क र गे उसके उपरान्त शिव पूजा ठीक है। मैं यह बात कई वार । मैं अप लोगों की कर पाएंगे। बतलाने की कोशिश करूगो सहायता करने की कोशिश करूगो लेकिन आप लोगों में से अ्रधिकांश लोग इसको कर सकते हैं । और प्रापको इसके लिए प्रयास करना चाहिए । करेंगे । मुझे खेद है, इस छोटे भाषण में मैं प को इसके विषय में सब कुछ नहीं बता सकती। परन्तु आपके साक्षात्कार में निलिष्तता स्वयं व्यक्त होना श्रतः शज से हम लोग गहरे र्तर पर सहजयोग शुरू ही जाना चाहिए। निलिप्तता । समर्पण करना प्रारम्भ करने जा रहें हैं । जहां प्राप में से पहुँच न सके। परन्तु अ्राप में से अ्रधिकाश लोगों को और गहराई में उतरने की कोशिश करनी चाहिए । प्रत्येक को| इसके लिए ज्यादा पढ़ लिखे या उच्च पद वाले व्यक्ति की प्रापको ज़रूरत नहीं है। नहीं, निर्लिप्त हैं कि मैं यह सब नहीं समझती । मैं अरप क्या है ? कुछ नहीं। क्योंकि आप जब निलिप्त हैं, [पप स्वतः सम्पित है । जब अप किसी दूसरी चीजों से लिप्त हैं तो आप समर्पित नहीं हैं। कच्ट लोग कुछ मुझको समर्पित करने को क्या है ? मैं तो ऐसी हूँ। बिल्कुल नहीं । लोगों से क्या पा सकती है ? कुछ भी नहीं ? मैं इतनी निलिष्त है । परन्तु जो व्यक्ति ध्यान में उतरते हैं, सर्मापत होते हैं, वह गहराई में उतरते हैं। क्योंकि वे प्रथम जड़ों की भाँति होते हैं । जिन्हें दूसरों के लिए प्रधिक गहराई में जाना है जिससे प्ौर दूसरे लोग अनुः अतः आज हम सभी प्राथना कर क, "हे प्रभु ! हमें शक्ति और वह प्राकर्षण स्त्रोत प्रदान कर - जिसके द्वारा हम खुशियों के अन्य सभी आकर्षण, सरण कर सक । अ्रहकार के आनन्द को, या अन्य सभी चीजें जिसके अब आज की पूजा के लिए हम लोग संक्षिप्त वारे में हम सोचते हैं, सभी का परित्याग कर दे । में धी गणश' बोलेंगे। इसके लिए मेंरे पर घोने या लेकिन हम शित्रतत्व स्वरूप' निर्मल आनन्द' में उस पर कुछ लगाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ पु्णतया गौता लगाएं (अ्र्थात आनद मन्न हो अथवशीष कहेंगे जायें) ।" आरप] प्राप मैं आशा करती है मैं भ्राप लोगों को यह सम- 'शिव' हर समय स्त्रच्छ, शुद्ध व निष्कलंक निममला योग १४ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-16.txt और जब आरप एक बार निलिप्त हो जाते हैं, उपस्थित है और अज क्यों इतना बड़ा दिन है । आप प्रपने को एक जिम्मेवार 'अभियुक्त महसूस जो लोग यहाँ (मौजुद) हैं, बड़े ही भाग्यशाली करना शुरू कर देंगे । जिम्मेवार । अहम् ( ग्रहंकार) व्यक्त करने वाली जिम्मेवारी नहीं, रपितू जिम्मे- वारी जो स्वयं कार्यान्वित होती है। जो स्वयं रापको यहां रहने के लिए व यह सब सुनने के लिए अभिव्यक्त होती है । स्वयं प्रकट होती है । झाने में सफल रही हैं कि मैं आज यहां क्यों व्यक्ति हैं । आपको सोचना चाहिए कि आप के प्रति परमात्मा कितने दयालू थे कि उन्होंने ग्राज परमात्मा आपको सूखी रखे । चुना । * निर्मल वाणी * एक वात ध्यान में र्वनो चाहिए कि आात्म-साक्षात्कार के बाद परमेश्वर के राज्य में प्रस्थापित होने तक वहुत बाधाएं हैं, और श्री कल्कि शक्ति का संबध इसी से सलग्न है । आ्रत्म-साक्षात्कार प्राप्त होने के बाद भी जो लोग अपनी पुरानी अदतों व प्रवृत्तियों में मग्न स्थिति कहते हैं । हैं उनकी स्थिति को योगभ्रष्ट' आप ग्रपने चित्त की छोटी छोटी वस्तुश्रों को निकाल बाहर करें, उनका परित्याग करं । आपको एक महान् सम्पन्न व्यक्तित्व की तरह मे रहना है, जिसे औरों को सहायता मार्ग-दर्शन, सहारा और जागृति, हजारों की संख्या में देना है । के पवित्र निर्मला", जिसका अर्थ है कि प्रत्येक को स्वच्छ, सुथरा, सहस्रार का एक मन्त्र है। वह है और निष्कलङ्क रहना चाहिए । क] जब आत्मा का द्वार खुलता है तो किसी भी ची इसीलिए ये माँ गणेश को प्रिय हैं। जो मिलने पर दूसरी किसी भी चीज़ की चाहत नहीं रहती। इस तरह की स्थिति जब आती है तब पूर्ण आत्म-साक्षात्कार हुआ यह समभझिए। फिर उसी में रत हो जाएंगे, अ्रर ज की कमी नहीं रहती। माँ यही द्वार खोलती हैं । धन्य-धन्य लगता है । निमंला योग १५ कीe 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-17.txt नछ श्री माता जी का प्रवचन पी प्रपंच और सहजयोग' ड० एन्टोनियो डि सिल्वा हाई स्कूल, दादर, बम्बई, २६ नवम्बर, १६८४ प्राप्त नही कर सकते । यह बात उन्होंने प्रनेक वार परमेक्व र को प्राप्त करना, सत्य की खोज में रहने वाले आप सब लोगों को हमारा नमस्वार । क ही है। प्रपंच छोड़कर ये कल्पना अपने देश में बहुत सालों से आई है । इमका कारण है श्री गौतम बुद्ध ने प्रपच छोड़ा और जंगल गये अर उन्हें वहां आत्मसाक्षात्कार आ्राज का विषय है "प्रपंच ग्रौर सहजयोग" सर्व प्रथम 'प्रपंच' यह क्या शब्द है ये देखते हैं। 'प्रपंच पंच हुँआ। परन्तु वे अगर संसार में रहते तो भी उनहें साक्षित्किर होता। समझ लोजिए हमें दादर जाना हैं, तो हम सीधे मार्ग से इस जगह पहँच सकते हैं । परन्तु अगर हम भिवंडी गए, वहां से पूना गये. वहां से और चार-पांच जगह घुमकर दादर पहुँचे । एक रास्ता सीधा और दुस रा घूम-धामक र है। बहुत माने हमारे में जो पंच महाभूत हैं, उनके द्वारा निर्माण की हुई स्थिति । परन्तु उससे पहले े 'प्र अने से उसका अथ दूसरा हो जाता है । वह है इन पंचमहाभूतों में जिन्होंने प्रकाश डाला वह 'प्रपंच' है। घमकर आया हुमरा माग ही सचचा है, ये बात " (समस्त "अवघाची संसार सुखाचाकरीन संसार सुम्ख मय बनाऊंगा) ये जो कहा है वह सुख नहीं। उस समय सुगम मार्ग नहीं था इसलिए वे प्रपंच में मिलना चाहिए। प्रपंच छोड़कर अन्यत्र परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती । बहुतों की बनाया। इसलिए क्या हमें भी दुगम बना लेना कल्पना है कि 'योग का मतलब है कहीं हिमालय चाहिए ? अरथात् जो सुगम है उसे सभी ने बताया में जाकर बेठना और टण्डे होकर मर जाना मार्ग से गए । जो सुगम है उसे उन्होंने दुर्गम दुरगम हैं। 'सहज है । सहज समाधि में जाना। सभी संत- । ये योग नहीं है, ये हठ है। हठ भी नहीं, बल्कि थोडी साधुओं ने बताया है, "नहज समाधी लागो"। मूर्खता है । ये जो कल्पना योग के बारे में है अत्यन्त करबीर ने विवाह किया गा। गुरु नानक जी ने गलत है। विशेषकर महाराष्ट् में जितने भी विवाह किया था। जनक से ले कर अब तक जितने साधु-सन्त हो गये वे सभी गृहस्थी में रहे । उन्होंने भी बड़-बड़े अ्रवकधुत हो गए हैं उन सभी ने विवाह प्रपंच किया है केवल रामदास स्वामी ने प्रपंच किया था । और उनके बा द बहुत से आए । उन्होंने नहीं किया। परन्तु 'दास बोध' (श्री रामदास स्वामी विवाह नहीं किया, परन्तु किसी ने भी विवाह विरचित मराठी ग्रंथ ) में हर एक पन्ने पर प्रपंच संस्था को गलत नहीं कहा बह रहा है। प्रपंच छोड़कर आराप परमात्मा को कहते हैं वह गलत है ऐो सा नहीं कहा है । तो सर्व- प्रौर जिसे हम प्रपंच । से अनुवादित । मराठी भाषण * निर्मला योग १६ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-18.txt प्रथम हमें प्रपने दिमाग से ये कल्पना हटानी चाहिए हमने कुछ प्राप्त किया भी तो उसका क्या फायदा ? कि अगर हमें योग मार्ग से जाना है तो हमें प्रपच छोड़ना होगा । उलटे अगर आप प्रपंच करते हैं तो वहां बैठकर आपने कहा, "देखिए, मैं कैसे पानी के आपको सहजयोग में जरूर आना चाहिए । समझ लीजिए किसी जंगल में आपको ले गये ग्रौर ?" तो उसमें कीन- सी विशेष वरगर रह सकता है बात है ? पानी में रहकर भी आपको पानी की शुरू में इस दादर में जब हमने सहजयोग शुरू जरूरत नहीं है, आप पानी में रहकर भी पानी से किया तो सब लोग प्रपंच की शिकायतें ले कर आते अलिप्त हैं, ऐसी जब आपकी स्थिति हो, तब सच्चा थे मेरी सास ठीक नहीं है, मेरा पीतसरे ठीक नहीं प्रपंच हो सकता है । और आज हमें उसी की जरूरत है, मेरी पत्नी ठीक नहीं है, मेरे बच्चे ठीक नहीं है। उस प्रपंच की । हैं। इस तरह सभी प्रपंच की जो छोटी-छोटी शिकायते हैं वही लेकर सहजयोग में आते थे । शुरू में ऐसे ही होता है। हम परमात्मा के पास नचिकेता ने सोचा, ये जनक राजा जो प्रपने सर पर प्रपंच की तकलीफों से तंग आकर या प्रपंच के मुकुट पहनते हैं, इनके पास सब दास-दासो हैं, ापको जनक जी के बारे में मालूम होगा । दुःखों को के पास जाकर भी यही मांगते हैं, मेरा घर ठीक रहे । मेरे बच्चे ठींक रहें । हमारी ऐसे क्या महान हैं ? तो उनके गुरू ने कहा, "तुम गृहस्थी सुख । ही जाओ धर देखो ये कसे महान है ?" तो मनुष्य की वृत्ति यहां तक हल्की होती है, और नचिकेता एकदम उनके आ्रगे जाकर खड़ा हुआ और उसी छोटेपन से बह देखता है। परन्तु यह छोटापन- कहने लगा, "श्राप मुझे आत्म-साक्षात्कार दोजिए हलकापन जरूरी है। वह नहीं होगा तो आगे का मेरे गुरू ने कहा है, आ्रप आत्म-साक्षात्कार देते हैं । मामला नहीं बनने वाला । पहली सीढ़ी के बरगर सो कृपा करके ्रप मूझे आरत्म-साक्षात्कार दोजिए।" दूसरी सीढ़ी पर नहीं पर सकते । तो सहजयोग की उन्होंने कहा, "देखो, तुम सारे विश्व का व्रह्मांड सबसे बड़ी सीढ़ी प्रपंच होना जरूरी है । हम भी मांगते तो मैं देता, पर तुम्हें मैं प्रात्म-साक्षात्कार संन्यासी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते । नहीं नहीं दे सकता । उसका कारण है, उस चीज का दे सकते । क्या करें ? तत्व ही जिसे मालूम नहीं, उस मनुष्य को आत्म- मामला नहीं बनता । उसके लिए व्यथ का बड़प्पन साक्षात्कार कैसे दें ? जो मनुष्य तत्व को समझेगा किस लिए? उसका कारण है कि हमने बाह्य में वही उसमें उतर सकता है । तो प्रपंच का तत्व है सुन्यासी के कपड़े पहने हैं, पर अरन्दर से क्या आप सन्यासी हैं ? सन्यास एक भाव है । ये कोई कपड़े पहनकर दिखावा नहीं है कि हम संन्यासी हैं, हमने प्रपंच में नहीं उतरे । संन्यास लिया है, हमने घर छोड़ा, ये छोड़ा, वह छोड़ा, ऐसा कहकर जो लोग कहते हैं कि हम योग मार्ग तक पहुँचेंगे, ये अपने आपको भुलावा है । प्रगर से पूछा, तो उन्होंने कहा कि अब तुम मेरे साथ आप हैं, आपमें पलायन भाव रहो। और बाकी सब कहानी तो आपको मालूम करने के लिए जाते हैं, और परमेश्वर नत्य गायन होता रहता है, ये जब हमारे भ्राथम *हे परमात्मा में आते हैं तो हमारे गुरू इनके चरण छुते हैं ? ये दुर क से रहे । सभी खुशी से रहें ।" बस बहुत बार करके देखा, पर 'प्र' और वह 'प्र' माने प्रकाश । वह जब तक आपमें जागृत नहीं होता तव तक आप 'पंच' में हैं नचिकेता ने जब उपरोक्त सवाल रा जा जनक पलायनबादी (escapism ) है तो उसका कोई इलाज नहीं है । जिस में थोड़ी भी सुबुद्धि है उसे सोचना है । मुझे वह फिर से कहने है। परन्तु अन्त में नचिकेता समझ गया, इस मनुष्य (राजा जनक) का किसी भी प्रकार का लगाव की आवश्यकता नहीं मनुष्य चाहिए कि यहां हम प्रपंच में हैं यहां से निकलकर निर्मला योग १७ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-19.txt नहीं है, या कहिए चिन्ता नही है, न किसी चीज के जलाती है, खाना बनाती है, सभी प्रकार के काम प्रति प्रत्मीयता है कि जिसे हम संसार कहते हैं, इस तरह की चीजों की । और ये एक अवधूत की भागती है । सब कुूछ उसे करना पड़ता है, परन्तु तरह रहने वाला मनुष्य है। सिर पर मुकुट धारण करेगा घरती पर भी सो जाएगा, जैसे बादशाह है। है कि बच्चा गिर न जाय ।" इसी तरह साधु-सन्ती उसे कोई आराम की जरूरत नहीं। कहीं तो पलंग पर सोएगा, गहियों पर लेटेगा, जमीन पर ही पड़ा है। वे सभी कार्य करते हैं किन्तु वे सब करते समय रहेगा, ऐसा ये बादशाह है। उसे किसी भी चीज की उनका सारा चित्त अ्रपनी आत्मा पर होता है । ये परवाह नहीं । उसे किसी ने भी पकड़ा नहीं है । जो सभी लोग विल्कुल श्रापकी तरह गृहस्थाश्रम में मनुष्य प्रपंच में है उसको न किसी प्राराम की और रहने वाले होते हैं, उनके बाल-बच्चे होते हैं । सब न किसी गुलामी की आादत लगती है । उसे किसी कुछ होते हुए भी इनमें जो वैचित्र्य है वह आपको पत्थर पर सर टिकाकर सोने को कहो तो वह सो तत्व में आकर पहचानना चाहिए। वह क्या वेचित्र्य सकता है। चोकर सकता है, और दावत भी खा सकता है । उसे कल अपने में आने पर अपने को भी उससे क्या लाभ करती है । उन कामों में कभी भुकती है, कभी उसका सारा चित्त पूरे समय उस वच्चे पर रहता का है । सभी तरह के कामों का उन्हें ज्ञान होता (रूखी-सूखी रोटी) भी खा है ? और वही माने 'सहजयोग' है | वह वैचिश्रय अगर पूछा जाए, भई अब आश्रम बनाना है, तो होते हैं ये देखना जरूरी है। क्योंकि प्रपंच में अाप सीमेन्ट से लाभ और हानि पहले देखते हैं । लाभ कितना है ? सबंप्रथम कहना ये है कि कहां मिलेगा ? सव कुछ बता देगा । उसे अ्न्दर से परमात्मा उन सभी से परे है, ऐसा कहा जाता है । किसी चीज की पकड़ नहीं। ये बात तत्व की बात परन्तु बहुतों को उसका मतलब मालूम नहीं। और आजकल के समय में परमात्मा की बात करने से केसे कर ? तो वह सव कुछ बता देगा । लेकर सभी वारतें बता देगा। ये कहां मिलेगा ? वो हानि कितनी है ? है। इसे आप समझ लौजिए । लोगों को लगता है "इन महिला को अरभी आधुनिक नामदेव जी ने एक कविता लिखी है और वही शिक्षा वर्गरह मिली नहीं है और ये कोई पुराने नानक साहब ने भी वन्दनीय मानकर गुरु ग्रन्थ जमाने की बेकार नानी-दादी की रही कथाए सुना साहिब में सम्मिलित की है । वह अत्यन्त सुन्दर है। हैं।" परन्तु परमेश्वर है और वह रहेगा। वह अनंत उसका मैं केवल यहां पर शरशय वरणन करती हैं। उस कविता में कहा है, प्राकाश में पतंग उड़ रही में है । परन्तु तरह कार्यान्वित होता है यह देखना चाहिए । परमेश्वर हमारे साथ प्रपंच में किस है और एक लड़का हाथ में उस पतंग की डोर पकड़ सर्वप्रथम प्रब देखें कोई समस्या है । किसी ने कर खड़ा है । वह सबसे बात कर रहा है, हंस रहा है, आगे पीछे जा रहा है, यहां वहां भाग रहा है । मुझ से कहा, माताजी, मेरे घर में तकलीफ है, परन्तु उसका सारा चित्त ( Attention) उस पतंग मुझे काम-धंधा नहीं है ।" इस तरह की बातें, पर है ।" दूसरे दोहे में उन्होंने कहा है "बहुत सी औरतें पानी भरकर ले जा रही हैं और मारगं से ऐसा है, वे सा है" अ्रर थोड़े दिनों के बाद वह कहता जाते समय आपस में मज़ाक कर रहो हैं, घर की है, "मताजी, सब कुछ ठीक हो गया।" तो ये सब यह वह बातें कर रही हैं। परन्तु उनका सारा चित्त केसे होता है ? यह देखना चाहिए। एक दिन की सर पर रखे घडड़़ों पर है कि पानी न गि रे"। इसी बात है, हमारी एक शिष्या है, विदेशी है। मैं तरह और एक दोहे में माँ का वर्णन है, "एक माँ 'शिष्या' वरगैरा तो कहती नहीं हैं 'बच्चे' ही कहती बच्चे को गोद में लिए सभी काम करती है। चूल्हा है। तो दोनों लड़कियाँ थीं। वे दोनों जर्मनी में अत्यन्त छोटी-छोटी बातें, जड़-लौकिक बातें "ये Tl. निर्मला योग १८ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-20.txt एक मोटर में जा रही थीं । और जर्मनी में जाती हैं । उसके परे वे जा नहीं सकते । और इस- ऑटोबान' करके बहत बड़े रास्ते होते हैं। [शर लिए 'प्रपंच करना बहुत कठिन काम है, ऐसा सब उस पर से बड़ी तेजी से गाड़ियाँ इधर-उधर दोड़ती लोग कहते हैं। इसका इलाज क्या है ? इसका हैं । तो उन्होंने मुझे चिट्टी लिखी, दोनों तरफ से इलाज ये है कि उसका जो कारण है, उस कारण ट्रक, बड़ो-बड़ी वसे, बड़ी-बड़ी कार, जो 'डबल- लोडर्स' होती हैं, वह सब जा रही थीं अरौर बीच में टुूट गया था उस ब्रेक से वह लड़ रही थी। परन्तु हमारी मोटर । उसका ब्रक भी काम नहीं कर रहा था और गाड़ी भी 'बर्बलिंग (कंपन) करने लगी । तो मुझे लगा कि अब मैं गयी, अब तो मैं बच ही से कारण भी नष्ट हो गया और उसका परिणाम नहीं सकती । अगर ब्रक भी कूछ ठीक रहता तो भी नष्ट हो गया । ये ऐसे होता है। आप विश्वास उम्मीद थी । पर वह ठीक नहीं था ।" तो उस करिए या मत करिए, पर ये बात होती है। परन्तु के परे जाना होगा। उसका जो कारण था, ब्रेक जब उसे महसूस हुआ्रा, इन सबके परे भी कुछ है कोई शक्ति है और वह शक्ति कारण के परे होने कुछ स्थिति में उसमें एक तरह की प्रेरसा आ गरयी । जिसे हम कहेंगे इमरजेन्सी की प्रेरगा। वह लोग मेरे पास ग्राकर कहुते हैं, "माताजी हम इतना निर्माण हो गया। वह है कि 'ग्ब सव कुछ गया, अब कुछ भी नहों रा, विनाश का समय या गया।" तो शरणागत होकर उसने कहा, "श्री माताजी, अ्रब सिद्धिविनायक के मन्दिर में रोज जाकर खड़े रहते आपको जो करना है वह करें । मैं तो औँख मुंद हैं, लेती है।" श्रर उसने अँखे मुंद लीं। उस की चिट्ठी हैं, परन्तु तब भी हमारा कुछ भी अच्छा नहीं हुआ्रा, में लिखा था, "थोडो देर बाद मैंने देखा तो मेरी कार अच्छी तरह से एक तरफ आकर रुकी हुई किया फिर हम इसे क्यों भजे ?" ठीक है । परन्तु खड़ी थी और मेरा बरेक भी ठीक हो गया था।" अब माताजी ने कूछ नहीं किया था, ये आप देखिए। क्या कोई कतेक्श न (सम्बन्ध) हुआ है ? अ्रापका यह कैसे होता है ? मतलब यह जो परिणाम हआ जब तक कनेव्शन नहीं हआ, तब तक प्रच्छा है वह किसी न किसी कारणवश हु[श है मतलब होगा ? भगवान तक आपके टेलोफोन की कनेक्शन 'कारण व परिणाम' । समझ लीजिए आपके घर तो होना चाहिए। इस तरह प्राप रातदिन परमेश्वर में झगड़ा है। उसका कारण है अप्रापकी पत्नी या की पूजा करते हैं ? परन्तु क्या आप जो बोल रहे आपकी माँ या आरापके पिताजी या कोई 'ग्' मनुष्य हो उस परमेश्व र को औ्र उसका परिणाम है घर में श्रशन्ति मनुष्य सर्वसाधारण बृद्धि का होगा वह परिणाम हे परमात्मा, मुझे आप देते हैं कि नहीं ?' कहकर से ही लड़ता रहेगा। अभी मुझे इससे लड़ना है । फिर कोई दूसरी लड़ाई निकल आएगी किर किमलिए देता है ? आपका कोई कनेक्शन होगा तोसरो । अब जो कारण है उस पर कोन सोचते तो आप कुछ भारत सरकार से मांग सकते है, हैं ? कुछ लोग सूक्ष्म बुद्धि के होते हैं । वे उसका क्योंकि आ्रप उसके नागरिक हो, परमात्मा के जो 'कारण हैं उससे लड़ते हैं। उस कारण से लड़ाई साम्राज्य के नहीं । पहले उसके साम्राज्य के नाग- करने पर वह कारण भी उनसे लड़ना शुरू कर देता रिक बनिए, फिर देखिए उसकी याद करने के है । और 'कारण प्रौर परिराम इमके चक्कर में पहले ही परमेश्वर ये करता है कि नहीं । श्रब पड़ने से वे दोनों ही समस्या वैसो को वैसी रह ये अन्ध-विश्वास मे नहीं होती है । अब बहुत से भगवान को याद करते हैं परन्तु हमें गया। हम इतना करते हैं, मन्दर में जाते हैं केन्सर हो घंटे-धंटे । मंगल के दिन तो विशेष करके जाते इस भगवान ने हमारा कुछ भी श्रच्छा नही आप जिस भगवान को बूला रहे हैं उसका आपका कैसे सुनाई दिया है ? चाहे जो । जो धंथे करो, चाहे जैसा चर्ताय करो और उसके बाद उसके सामने बैठ जाना। उस परमात्मा ने प्रापको समझ लीजिए यहाँ पर वेठे-बैठे ही कोई अगर निमंला योग १६ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-21.txt इंग्लेण्ड की रानी को कहेगा कि वह हमारे लिए ये यहां के साहित्यिक और बुद्धिजीवी लोग विचारों पर चलते हैं । [्रोर विचार कहां तक जाएंगे, इसका करने लगी ? तो यहां तो परमात्मा है और बह कोई ठिकाना नहीं है । किसी विचार का किसी से मेल नहीं है । इसलिए इतने भगड़े हैं। तो इन साम्राज्य में अ्रभी आरए नहीं हैं। केवल उन पर विचारों के परे जो शक्ति है, उसके वारे में प्रपने देश तानाशाही करना हे परमात्मा'। जैसे कोई वे आप में परम्परागत अनादिकाल से बताया गया है । की जेब में बैठे हैं। औ्र [अब] [अआरपको ये भी विचार उस तरफ कुछ ध्यान देना जरूरी है परन्तु इन विचारवान लोगों में इतना अहंकार है कि वे उधर सुस्मरण कहा है, स्मरण नहीं कहा हैं। सुस्मरण ध्यान देने के लिए तयार नहीं । हो सकता है शायद इसमें उनके पेट का सवाल है । परन्तु सहजयोग में आने के बाद पेट के लिए आप अशीर्वादित होते हैं। माने जहां मनुष्य का सम्बन्ध होकर आपमें मांगल्य परमात्मा से सम्बन्ध घटित होने के बाद आपकी की आशीर्वाद आया हुआ है तभो वह सुस्मरण समस्याएं ऐसे हल होती हैं कि आपको आश्चर्य होगा। ऐसा हमने क्या किया है ? इतना हमें है । उसका असर युवा पीढ़ी पर होता है। वे कहते परमात्मा ने कैसे दे दिया ? इतनी सही व्यवस्था हैं "इस परमात्मा का क्या अर्थ हुआआा ? परमात्मा कसे हो गयी ?" ऐसा सवाल भप पपने आपसे नहीं करती, वह नहीं करती। वह प्रापके लिए क्यों परमात्मा आपके लिए क्यों करने लगा ? आप उनके नहीं है कि हमें परमात्मा का स्मरण करना है । करते समय भी 'सू' कहा है। ये देखिए, "सु" माने क्या ? जैसे 'प्र' शब्द है वैसे ही 'सु' शब्द है। 'सु' होगा । अन्यथा तोते की तरह विना समझे बोलना ह पूछ ' का नाम लैकर यहां दो बाबा आए और हमारी माँ कर चकित रह जाते हैं । ज्ञानदेव की 'ज्ञानेश्वरी का आखरी पसायदान (दोहा) आपने सुना होगा । उन्होंने जो वर्णंन किया है वह आज की स्थिति है । अरथं हुआ ? इसलिए उनका कहना ठीक लगता ये सब अब घटित होने वाला है । जिस चीज की है। फिर उनकी तरह और लोग भी कहते हैं "पर- जो इच्छा करेगा वह (परमेश्वरी आनन्द) उसे मात्मा है ही नहीं।" परन्तु सर्वप्रथम अपनी समझ प्राप्त होगी। परन्तु वह करने के पहले आप केवल में ये गलती हुई है कि क्या हमारा परमात्मा के साथ कुण्डलिनी का जागरण कर लीजिए । उसके विना कोई सम्बन्ध हुआ्रा है ? क्या हमारा उन पर अधि- मैं आपको कोई वचन नहीं दे सकती । और न कार है ? हमने उनके लिए क्या किया है ? ये तो मिनिस्टर (मन्त्री) लोगों की तरह आश्वासन देती देखना चाहिए । पहले उनके साथ प्रपना कनेक्शन हूं । जो बात है वह मैं अ्पनी बोली में अपने ही ढंग से कह रही हैं। कोई साहित्यिक भाषा में नहीं बोल रही हूं । जैसे कोई मां अपने बच्चे को घरेलू वातें अब सहजयोग माने परमात्मा से सम्बन्ध समझाती है उसी तरह मैं आपको समझा रही हैं । 'सह' माने अपने गापमें जो संपक्षा है वह प्राप्त कीजिए। आ्प] कहते साथ, 'ज माने जन्मा हुआा जन्म से ही आपमें हैं हम प्रपंच में बंध गए हैं। 'बंध गए हैं माने योग (सम्बन्ध जोड़ना), योग सिद्धि का जो अधिकार क्या ? तो फालतू बातों का आपको महत्व लगने है, वह माने 'सहजयोग' है । आपमें परमात्मा ने लगा । मुझे नौकरी मिलनी चाहिए, वो क्यों नहीं कूण्डलिनी नाम की एक शक्ति रखी है वह आपमें मिल रही है, क्योंकि बेकारी ज्यादा है ? माने स्थित है । प्राप विश्वास कीजिए या न कीजिए। बेकार ज्यादा हैं इसलिए । बेकारी क्यों ज्यादा है ? क्योंकि ऊपरी (बाह्य) अ्रांखों] (दष्टि) वाले लोगों बेकारों की संख्या बढ़ रही है । वो बढ़ती ही को कुछ कहना कठिन है। विशेषकर अ्पने जाएगी इन कारणों के परे कैसे जाना है ? उसका का पैसा ले गये, वहां कोई गले में काला घागा बांध गये और रुपया ले गए। ऐसे परमात्मा का क्या (सम्बन्ध) जोड़ लीजिए । जोड़ना। सहज इस शब्द में निमंला योग २० 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-22.txt इलाज है कि वह जो शक्ति हमारे चारों तरफ है कितने प्रवोंध होते हैं । उनके सामने हम गाली- उसका आह्वान करना होगा। अपने में बह शक्ति गलौच करते हैं, बुरे शब्द बोलते हैं । ऐसे वाता- मूलाधार चक्र में रहती है। मूलाधार में ये जो वरण में हम उनको पालते हैं, जहां सब अ्रमंगल शक्ति है वह प्रपंच में कैसे कार्यान्वित है यह आप देखिए । अपना ध्यान उस (शक्ति की) तरफ होना चाहिए । यर सर्वप्रथम ये विचार होता चाहिए कि है । उन्हें जो इच्छा करने देते हैं या कहिए उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देते । य ही (बच्चे) तो प्रापके घर के गणेा हैं उनके संवर्धन में पालन- पोषण में अ्रपका ध्यान नहीं है । आजकल तो इंग्लैण्ड में ८० वर्ष की प्रायु की औरतें भी शादी कर ती हैं। तो मूलाधार में जो कुण्डलिनी शकिति है वह श्री गणेश की कृपा से बहां बैठी है। अच इस महाराष्ट्र बहुत बड़ा वरदान है कहना चाहिए । यहां जो श्रव क्या कहे कुछ सम झ में नहीं आता । वहां की अष्टविनायक हैं वह अपके लिए परमात्मा का गंद यहाँ मत लाग्रो। वहां की गंद वहीं रहने दोजिए । बहुत बड़ा उपकार हैं। इसी कारण महाराष्ट्र में ते प्रति शहारणे त्यांचे वेल रिकामे, (जो ज्यादा में सहजयोग स्थापित कर सको हैं। व्योंकि औरी गणेश का जो प्रभाव है उसो का रप पर आवरण की प्रप्रसेन्नता हम पर न हो उसका निश्वय करना है। उसी आवरण [के कारख सवमुत् मेरी बहुत मदद हुई है। ये श्रीगणेश आपके मूलाधार में विराजमान हैं । अब कोई डॉक्टर है तो वह अपने करते हैं। प्रथम जनन शरर उसके बाद पालन । शरर को सयाने हैं उनकी खोपड़ी खाली है।) तो श्रोगणेश होगा श्रीगणेश हममें वेठकर हमारे बच्चों का पालन घर में श्रीगरेश का फोटो रखेगा बनाएगा उस श्रीगरेश का ओर डॉक्टरी का क्या सम्बन्ध होते ही कितनी खुशियां छा जाती हैं । उस बच्चे से है ये उसकी समझ में नहीं आएगा और उस बह कितनी अ्रानम्द की लह र घर में फेलती है । परन्तु स्वीकार भी नहीं करेगा परन्तु उस श्रागणेश के विना डॉक्टरी भी बेकार है। अब ये जो श्रीगणेश सा महसूस होता है। ऐसा ल गता है उस घर में जाए शक्ति आपमें है उसी के कारण आपके बच्चे पंदा नहीं । क्योंकि वहाँ बच्चों की गुनगुनाहृट नही, हृति हैं। प्रब जरा सोचिए. एक माता-पिता जिस तरह उनके चेहरे हैं उसी तरह का बंचा पंदा होता है । हजारों, करोड़ों लोग इस देश में हैं, दूसरे देशो जमाना कुछ दूसरा हो । मन्दिर भी वह जो भोला गणेश (वच्चा) है वह घर के सभी वहां जाकर नमस्कार करेगा। परन्तु लोगों को अ्रानन्द देता है। किसी घर में बच्चा पेदा । जिस घर में बच्चा नहीं होता वहाँ कैसा खालीपन का हूंसना नहीं, खिलखिलाना नहीं, वह मस्ती नहीं । ऐसे घर में कोई माधुय नहीं । परन्तु श्राजकल है। जिन देशों को अ्रमीर affluent कहते हैं उन देशों में बच्चे पदा ही नहीं होते । उनकी आवादो घटती जा रही है । और हमारे भारत देश की आवादी बढ़ती जा रही है । तो इसका जो नियमन है वह कौन करता है ? वह इसलिए लोग कहते हैं यह बहुत बुरा है । आपके देश की श्रावादी इतनी नहीं वढनी चाहिए । मान लिया, परन्तु कहना ये है कि जो बच्चे प्राज जन्म प्रापका ये कतव्य है कि अपने घर में जो गणेश ले रहे हैं उनमें भी अरवन होती है । वे क्यों उन वच्चे) है उनमें जो बाल्यवत् अवोधिता है उसे देशों में जन्म लेने लगे ? वे कहेंगे वहां रोज पति- स्वीकार करे । वह अवोधिता ग्रपने में ग्रानी पन्नी तलाक लेते हैं ग्रौर बच्चों को जान से मार । क्योंकि यहां में हैं। परन्तु हर एक का वच्चा या तो उसके माता- पिता को तरह होता है, नहीं तो दादा-दादी या उस परिवार के किसी व्यक्ति के चेहरे पर होता है । श्रीगरोश करते हैं चाहिए । घर में छोटे बच्चे होते हैं । छोटे बच्चे डालते हैं । वही हमारे साथ होगा निरम्मला योग २१ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-23.txt (भारत में) मां-बाप को बच्चों के प्रति जो अस्था, और मनुष्य में एक नये तरह को 'आयाम शुरू हो जो प्रेम, जो सहज-बुद्धि है वह इन लोगों में (ग्रमीर जाता है उस आयाम को हम सामूहिक चेतना देशों में) बिल्कुल नहीं है । आपको सुनकर ग्राश्चर्य होगा कि लंदन शहर में मां-बाप एक हपते में दो को साधारणतया दिखाई नहीं देतीं, नहीं बच्चों को मार देते हैं । जितना सुनोगे उतना कम होतीं, वे सहज में ही होने लगती हैं। है। मूझे तो रोज ही धव्का सा लगता है । ओर उन्हें उसका कुछ भी असर नहीं है। क्योंकि अरहंकार में इतने डूबे हैं कि इसमें कुछ अनुचित है ये महसस चेतना-शक्ति अपने में ग्राने लगती है उस शक्ति से ही नहीं करते। वहां जाकर मालूम हुआ हिन्दुस्तानी मनुष्य कितना अच्छा है। यहां (भारत) के टेलोफोन से एक चमत्कार घटित होता है। जो बच्चे बेकार ठीक नहीं हैं। माईक ठीक नहीं हैं। है, जो किसी काम के लायक नहीं हैं, माने जो शराव नहीं हैं। सब कुछ मान लिया। पर लोग तो ठीक है । उस अच्छाई में जो गहन से गहने है। वह है जीज ही नहीं देखी थी । अब मालूम होता है कि गणोश तत्व । नहीं है वहां सब कुछ गलत होता है । जहाँ बच्चे बिगड रहे हैं उसका दोष में समाज से ज्यादा माँ- बाप को देती है । आजकल मां भी नौकरी करती हैं । बाप तो करते ही हैं। तब भी जितना समय प अपने बच्चों के साथ काटते हैं, वह कितना गहन है ये देखना जरूरी है । अब सहजयोग में आने पर क्या होता है ये देखना जरूरी है। मतलब सहजयोग का सम्बन्ध आपके बचचों के साथ किस तरह है ये देखना जरूरी है। सहजयोग में आपकी गणेश शक्ति जो जागृत होती है वह कुण्डलिनी शक्ति के कारण है तब प्रथम मनुष्य सुबुद्धि प्राती है । हम उसे विनायक (गणेश) कहते हैं। शर बच्चों की भी हो गयी तो फिर सब एकदम वही सबको सुबुद्धि देने वाला है । मैंने ऐसे बच्चे देखे हैं, जिन्हें लोग मेरे पास लेकर आते हैं, कहते हैं, बच्चा क्लास में एकदम ( 'शुन्य) है, खाली मस्ती करता है, मास्टरजी से उल्टा-सीधा बोलता है । मैंने उससे कहा, मुझे कुछ नहीं आता और मास्टरजी भी मुझे डाँटते रहते हैं । फिर मैं क्या करू ? वही सम्मान करने की रूढी चली ा रही है परन्तु बच्चा फर्स्ट क्लास फस्स्ट (प्रथम श्रेणी प्रथम स्थान) सच्ची सत्ता श्रीगराश की है। उनकी सत्ता जिनके में पास हुआ है। ये कैसे हुआरा है ? वह गणेश अपने में जागृत होते ही वह शक्ति परापमें बहने लगती है सब ऐरे-गरे नत्थ-खेरे अरज [श्राएंगे कल चले जाएंगे कहते हैं। उस नयी चेतना में जो चीजें पहले मनुष्य अनुभव ये नया आयाम या कहिए ये जो एक नयो मनुष्य संच्चा समर्थ हो जाता है और उस समर्थता रेलगाड़ियां ठीक नरेरा पीते हैं-- अरजकल आपको मालूम है ड्रनग -हमने तो कभी चरस नाम की वरगैरा चलता है और जिस घर में गणोेग तत्व ठीक प्राजकल स्कूलों में चरस बिकती है । ये सब मुर्खता, सूबद्धि न होने के कारण होती है वह सुबुद्धि जागृत होते ही जो लोग इंग्लैण्ड, अमेरिका में चरस लेते हैं वे यह सब छोड़कर अच्छे नागरिक बन गए हैं । ये सहजयोग की शक्ति है। बच्चों में शिष्टाचार आरता है। मैं देखती हैं आजकल बच्चों में शिष्टा- चार नहीं है क्योंकि माँ-बाप प्रापस में लड़ते हैं, करते । उनसे चाहे बच्चों का आदर नहीं जैसा व्यवहार करते हैं। जैसी मां-बाप की प्रकृति, वैसी ही बच्चों की बन जाती है और वे वैसे ही असभ्य आचरण करते हैं। माता-पिता की कुण्डलिनी अगर जागृत हो गयी सहजयोग में प्राकर में कायदे से व्यवहार करते हैं। पहले अात्म-सम्मान जागृत होता है। उपदेश करने से आत्म-सम्मान जागृत नहीं होता। परन्तु सहजयोग में कुण्डलिनी जागृति से मनुष्य में सम्मान आता है । पूछा, तुम ऐ से क्यों करते हो ? उसने सत्ताधीश है उसी का अपने देश में जो मनुष्य पास हो उन्हीं के चरणों में झुकना चाहिए । बाकी निमला योग २२ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-24.txt दखिए । उन्हें पूजनीय बनाइए और अपने गणेश को भी आप अपनी कुण्डलिनी जागृत करवाइए । उनका कोई मतलब नहीं, बेकार हैं वे लोग। जिन्होंने गरणेश को अपने आप में जागृत किया है उनके सामने झुकना चाहिए । परन्तु सहजयोग की विशेषता ये है कि ये सहज में होता है। उसके लिए कुछ भी करने की आवश्यकता गणेश शक्ति जागृत होते ही आदमी में बहुत नहीं । कुण्डलिनी जागृत होने पर मतुष्य में सुबुद्धि अती है गौर उस मनुष्य का सारा व्यक्तित्व एक अन्तर आ जाता है । नजर इधर-उधर दौड़ती रहती है, चचल रहती है, आज्ञाचक्र पकड़ता है । हरदम पागलों की तरह इधर-उधर देखते रहना, जिसे कहते हैं तमाशगीर । जकल तमाशगीरों की वड़ी भा री संख्या है । महाराष्ट्र में भी शुरू हुआ है। हम ज ब छोटे थे, स्कूल, कॉलेजों में पढ़ते थे तब हमने ऐसे तमाशगीर नहीं देखे थे । परन्तु अब ये नये लोग निकल हैं । ये लोग हरदम अपनी अँखे इधर से उधर दौड़ाते जसे कि आजकल पुरुषा की विशेष प्रकार का हो जाता है । आब यहां पर जो माहित्यिक लोग होंगे वे कहेंगे माताजी कोई भ्रामक (विचित्र) कहानियाँ सुना रही हैं। परन्तु प्रापको सुनकर आइचर्य होगा अरहमद नगर जिले में सहज- योग के कारण दस हजार लोगों ने शराब छोड़ी है । मैं शराबबंदी हो जाय वर्गरा नहीं बोलती है । मैं नहीं बोलती । आप] जैसे भी हो आप कुछ अइ । प्राकर अपना आत्मा रूपी दिया जलाइए । रहते हैं। उससे बहुत शक्ति नष्ट होती है और दिया जलने के बाद शरीर में क्या दोष हैं वे आपको उसमें किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं है। Joyless दिखाई देंगे । जब दिया नहीं जलेगा तब तक साडी Pursuit (नीरस क्रिया) कहना चाहिए उसीमें में क्या लगा है ये नहीं दिखাई देगा । उसी तरह अपना सारा चित्त लगाकर अपनी ख इंधर-उधर एक बार दिया जला कि सब कुछ दिखाई देगा । घुमाते रहते हैं । हरदम इधर-उधर देखना, जसे विल्कुल थोडा सा भी जल गया तो भी आ्ापको रास्ते के विज्ञापन देखना । गलती से कोई विज्ञापन दिखाई देगा कि प्रपनी क्या क्या तरुटियाँ हैं । शराप ही ग्रपने गुरु बनिए औ्और अ्रपने आपको अच्छा महत्वपूर्ण काम चूक गया। फिर से अ्रख घुमाकर बनाइए स्वयं को पवित्र बनाइए। जो लोग पवित्र उनके अआानन्द की कोई सीमा नहीं। उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहता । किसी ने कहा है "जब मस्त हुए फिर क्या बोलें ?" अरब हम इसमें एकाग्र दुष्टि अराती है। ऐसी एकाग्र दृष्टि व मस्ती में आ्रए हैं तो उस मस्ती की हालत में प्रब देखना छुट गया तो उन्हें लगेगा जेसे अपना कुछ वह विज्ञापन पढ़गे। हर-एक चीज देखना जरूरी है । ये जो आंखों की बीमारी है यह एकदम नष्ट होकर मनुष्य सहजयोग में एकाग्र होता है । तब होते हैं व गणश शक्ति अगर जागृत हो जाती है, उसे '"कटाक्ष निरीक्षण पड़ेगी वहां कुण्डलिनी जागूत हो जायगी। जिसकी तरफ आप देखेंगे उसमें पवित्रता आ्रा जाएगी। इतना पावित्य आखों में आ हम क्या बोले ? ऐसी स्थिति हो जाती है । पवित्रता आनन्दमयी है अऔर केवल आनन्दमयो ही नहीं, पूर व्यक्तित्व को सुगंधमय कर देती है । ऐसा मनुष्य कहीं भी खड़ा होगा तो लोग कहेंगे " हे भाई इसमें कुछ तो भी कुछ विशेष वात है इस मनुष्य में ।" अकेले गणेश का काम है । और ये गराश आपके जिन्हें विशेष नहीं बनना है उनके लिए सहजयोग घर ही में है । आपने अपने गणेश को पहचाना नहीं है। जिन्हें विशेष बनना है वे बनगे। आप हो ये सर्वविदित है । वह आपको अरजन करना है, कमाना है । जिन्हें विशेष बनना है, उन प्रापंचिक लोगों के लिए, घर-गृहस्थी में रहने वाले लोगों के लिए सहजयोग है। जिन्हें कहते हैं । आ्रापकी कटाक्ष दृष्टि जहाँ जाएगा। ये केवल नहीं। अगर पहचाना होता तो अपनी पवित्रता में विशेष वनने वाले स्थित होते। जो पवित्र है वही करना चाहिए । परन्तु प्रापने य्रवने गणेश को नहीं पूजा। कोई बात नहीं। अपने घर में बच्चे हैं, उनके गणेश को निमला योग २३ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-25.txt साड़ियां बनाने का अराजकल रिवाज ही नहीं रहा । पहले जमाने में बूढ़े लोगों के पास पैसा रहता था, उनके लिए सब-बूछ ठीक-ठाक रहता था। अब बुढ़े लोगों को कोई पूछत। नहीं । उनके लिए शादी- व्याह में एकाध साड़ी खरीदना भी मूश्किल हो [अगर आपको नर्क गया है जिस समय ये गूरु-शक्ति आापमें जागृत होती है तब ये जो बुढ़ापन, वृद्धरव अराता है, उसमें तेजस्विता जागत हो जाती है । अब हम एक बड़े बुजर्ग आदमी को ले । अपने पिता भी कभी-कभी कुछ बनना नहीं, जो समझते हैं हम विल्कुल ठीक हैं, हमें कुछ नहीं चाहिए माताजी, तो भाई ठीक है, आपको हमारा नमस्कार । आप पधारिए । [आप पर हम जबरदस्ती नहीं कर सकते । [प्रगर आपको पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त केरनी है तो हमें आपकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है। में जाना है तो बेशक जाइए, और अग र स्वग में आना है तो आइए। हम आप पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं कर सकते । सवप्रथम अपने प्रपंच में सुख का कारण बचचा विल्कुल मूम क तरह बतवि करते हैं । माँ महा- होता है। गर्भारम्भ से ही घर में आनन्द शुरू हो मु्वा का तर्ह बतावि करती है। बाहर से जो लोग जाता है । माता के कष्टों की समाप्ति के पश्चात व च्चे का अत्यन्त उल्लास के बौचे जन्म होता है । जाभियों पर नही तो जात-पात के लड़ाई-भगड़ी आजकल मैंने देखा है जो लोग पार हैं उनके जो बच्चे होते हैं, वे जन्म से ही पार होते हैं, चाहे वे लोग कहीं भी रहें । कितने ही बड़े-वड़े आावसपिकों हैो होना चाहिए, देशस्थों की देशस्थों से । ऐसा नहीं को जन्म लेना है । सबको मैं देख रही हैं। वे कह रहे हैं, "ऐसा कौन है जो हमारी आत्मा को रखेगा ?" ऐसे-वेसे लोगों के यहाँ साधु सन्त नहीं जन्म लेते। ऐसे बड़े-बड़े आत्म-पिड अराज जन्म लेने वाले हैं और उनके लिए ऐसे लोगों की जरूरत है हमारे पिताजी ये क्या हो गए ? पहले जमाने के जो जिनके प्रपंच सचमूच ही प्रकाशित हैं । और ऐसे प्रकाशित प्रपंच निर्मारणा करने के लिए प्रप सहज- योग अ्रपनाकर अपनी कुण्डलिनी जागृत करवा लीजिए । ते हैं उनके सामने किस तरह रहना है उसे नहीं मालूम । चिल्लाती रहती है, सारा श्र्यान उसका पर रहता है। कोंकरा स्थ की शादी कोंकणस्थ से हुआ तो सास लड़ती है। ये जो बुड्ढे लोगों की अजीब बात हैं, ये तब खत्म हो जाती हैं श्रर उसके सुचारू सथान पर उस बुढ़ेपन में एक त रह की "तेजस्विता" आ जाती है । वह व्यक्ति अ्पने सम्मान के साथ खडा रहता है । आपको लगेगा "अरे बाप रे ! दादोजी कोंडदेव (शिवाजी के जमाने के लोग ) वर्ग र लोग थे, क्या वही यहाँ खड़े हो गए ?" और तुरन्त उनके सामने हम विनम्र हो जाते हैं । तो इस युवा पीढ़ी में जो खलबली मची हुई वह होने के बाद दूसरे चक्र से जिसे हम है। बात-बात पर तलाक, पत्नी के साथ लड़ाई, 'स्वाधिष्ठान' चक्र कहते हैं उससे प्रपंच में बहुत से मां-बाप से नहीं बनती, घर में रह नहीं सकते, घर लाभ होते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का पहला काम है, से बाहर भाग जाना, छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई- झगड़े, ये सब हो रहा है। काम-धंधा नहीं, पसे घरों में मैंने देखा है, पिता की कोई इज्जत नहीं, नहीं, सभी बुरी आदत, सब तरफ से आजकल की माँ की कोई इज्जत नहीं। छोटे-छोटे १५, १६ साल युवा पीढ़ी एक बड़े संक्रमण-काल की तरफ बढ़ के बच्चे ही सब कुछ हैं । अजकल वाजार में मैं रही है । उनकी पृष्ठभूमि (background) बहुत देखती हैं हमारे जैसे वयस्क लोगों के लिए साड़ी महान है। पर मैं कहती हैं महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि खरीदना एक समस्या है। सभी साड़ियाँ युवा तो बहुत ही महान है । पर वह सब भूलकर भी अब संगीत का अपने [पपकी गुरु-शक्ति को प्रबल बनाना । बहुत से लड़कियों के लिए ही हैं पढ़ेंगे नहीं, सुनेंगे नहीं । बड़े-बूढ़े लोगों के लिए निर्मला योग २४ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-26.txt महाराष्ट्र वड़ी परम्परा है। उस तरफ किसी का ध्यान नहों। कितना साहित्य है अपनी भाषा में पर वह सब वह खत्म होने जा रही है । उसका हमने कितना किताब कोन पढ़ता है ? गंदो किताब सड़क पर खरीद कर पढ़ना । कुछ अत्यन्त नकली, super- ficial (जो गहराई में नहीं जाते, बस ऊपर ऊपर उतराते पीढ़ी वनती जा रहो है । इस युवा पोढ़ो को अगर मुझसे कहा था सवंप्रथम इस युवा वर्ग की जागृति इसी तरह रखा तो ये इसी हवा में खो जाएगी। किसी काम की नहीं रहेगी। मुझसे पूछिए प्राप, मैं बेठे साधु-सन्त नहीं समझ पाते कि साधारण लोगों अ्रमेरिका गई थी तो ६५% पुरुष वेकार हैं । वहां के जो लोग हैं उन्हें एक डर है। वहा 'एडस नाम उनको चेतना की क्या अवस्था है । ये (साधारण की कोई बीमारी है। उससे सभी यूवा लोग मर लोग) ताल-मजोरे अवश्य वजाते हैं, किन्तु उन रहे हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इससे गोतों व भजनों के पीछे क्या भाव है यह कैसे में कितना ज्ञान है ? साधु-सन्तों का लाभ उठाया है ? इसका ज्ञान सहजयोग में अराने पर वयस्क लोगों को होता है क्योंकि तब उन्हें मालूम होता है कि हम पहले जो थे उससे कितने को युवा ऊँचे उठ गए हैं । मेरे बचपन में मेरे पिताजी ने रहते हैं) इस तरह होनो चाहिए । दसवीं मंजिल (चेतना के स्तर) पर की, जो ग्रभो पहलो मंजिल पर भो नहीं पहुँचे, वे नहीं छुटकारा मिले ? उसका कारण है, 'ये के रने समझते । जत्र वे पहलो मंजिल (अ्रात्म-साक्षात्कार) में क्या हज है ? इसमें क्या बुरा है ? हो गए होंगे पर पहुँचंगे तब उन्हें पता वलेगा कि उससे ऊपर श्री रामदास स्वामी, हमें उनसे क्या मतलब ? बह औोर भी मंजिल हैं । सब वातें रखिए अपने पास । रहे हैं । बड़े आए माँडर्न वनने वाले ! वे ( अ्रमेरिकन) मॉडनं कहां गए हैं। वह देखिए एक बहत वडी चेतना है। उसे 'ऋतंभरा शक्ति' कहते हम श्रब मॉडन बन तो इस सवसाधारण मानवी चेतन ा के परे एक बार उस देशों में जाकर । वहां के माँडनं लोगों की क्या स्थिति है ये जरा जाकर देखिए। यहाँ लेखकगण यही बैठकर वहां के वरन लिखते रहते हैं। वहां जाकर देखिए । वहां के वयस्क लाग रात- जीवन के साथ खिलवाड कर रहे हैं, ये क्या हमें दिन एक ही वात सोचते हैं, हम केस तरह परत्म- हत्या कर ? एक ही विचार है उतका, अत्महस्या । यही एक रास्ता है उनके पास । तो हवा में खत्म होने वाले जो ये लोग हैं उनकी तरह प्रापको माँडन होना है तो आपको हमारा ननस्कार ! परन्तु प्राप को अपनी शक्ति में खड़े रहना है और कोई विशेष बनना है, तो आप जो चले जा रहै हैं सो रुकना पडगा। जरा शांत होकर सोविए ये (विदेशी) जो युवा-पढ़ी की पार कराना बहुत आसान काम है। सारे दोड़े रहे हैं, जो Rat race (अ्रधाधुंध दोड़) चल रहो है उसमें मैं भी क्या भाग रहा है ? एक मिनट शान्त होकर सोचना चाहिए हम।रो भारतोय भी विऊं, बस ! किसी ने कुछ विशेष तरह के कपड़े विरासत कया है ? सम्पत्ति के बटवारे में यदि एक पहने ती मैं भा पहनूगा, इतना हो ! सब कुछ कतरन ( छोटा दुकड़ा) कम-उ्यादा मिली तो भोलापन ! परन्तु कभी-कभी इस भोलेपन से ही कोर्ट में लड़ते जाते हैं ! परन्तु प्रप्ने इस देश को अनर्थ हो सकता है । परन्तु यही युवा पोढ़ो ग्राज ह। वह अपको सहज में प्राप्त होतो है। वह प्राप्त के होने के बाद प्रपको अपने जीवन का दर्शन होगा । हम क्या हैं, कितने महान हैं और हम ये जो अ्पने शাभा देता है ? कितनी आ्रापके पास संपदा है आपने अपनी क्या इज्जत रखी ? आपको अपने बारे में कुछ पता नहीं है। ये आप समझने की कोशिश की जिए और सहजयोग में प्रपनी जागृति कराइए । पीढ़ी है । ये भी पर- इसी तरह आजकल की युवा मात्मा के साम्राज्य में सहज में अ सकती है । इस सारे भोलेपन में गलत काम करते हैं । इनका सब भोलापन ही है। एक लड़का सिगरेट पीता है तो मैं निर्मला योग २५ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-27.txt कहां से कहां पहुँच सकती है । आज अपने देश में भी पूरी नही होती । प्रापकी एक इच्छा हुई तो किस बात की कमी है ? कोई कहेगा खाने की है । वह पूरी होगी परन्तु साधारणतया ऐसा होता । आज एक हुई, कल दूसरी, उसके बाद लगता है हम ज्यादा ही खाते हैं और दूसरों को तीसरी । एक बात स्पष्ट है जो हमने इच्छा की वह भी देते हैं मैं जब भी यहाँ आती है तो सबको शुद्ध इच्छा नहीं थी। अगर वह शुद्ध इच्छा होती हाथ जोड़कर बोलती रहती हैं, अरब खाना बस तो वह पूरी होने के बाद हमें पूर्ण समाधान होता । करिए मुझे अ्रब नहीं चाहिए । हर - एक मनुष्य वहां परन्तु ऐसा है नहीं । मतलब आपकी इच्छा शुद्ध कहता है हिन्दुस्तान में खाने की कुछ करमी नहीं नहीं थी। अशुद्ध इच्छा में रह । इसलिए एक के दिखाई देती, क्योंकि इतना खिलाते हैं, प्राग्रह कर बाद दूसरी, तीसरी, चौथी इस चक्कर में श्राप घूमते रह। अव शुद्ध इच्छा साक्षात कुण्डलिनी है । कमी किस बात की है ? लोग भी बहुत से वाद- क्योकि वह परमात्मा की इच्छा है। ये जागत होते ही जो आ्राप इच्छा करोगे जो जे वांछिल, तो ते लाहो (जो जिसकी इच्छा है बह उसे प्राप्त होगा ।) इतना कि आप क हें गे अब मूझे कुछ नहीं चाहिए। आपकी जो इच्छाएं हैं वे पूरी होती हैं. परन्तु वे इच्छाएं जड़ वस्तुओं की नहीं होती। उनमें एक तरह को प्रगल्भत, उदात्तता होती है। और आपकी जो छोटो-छोटी बातें हैं वह कृष्ण के कथना- नुसार "योग क्षे में वहाम्यहम्" जब आपका योग घटित होगा तो क्षेम होगा ही परम्तु पहले योग परन्तु मुझे तो ऐसा कुछ दिलाई नहीं देता । मुझे नहीं 1 करके । लगता है खाना ही न खाएं । तो प्रपने यहां विवाद चर्चा करने में नंबर एक हैं। वे प्रगर यहां ख ड़े होंगे तो मुझसे भी जबरदस्त भाषण देंगे, सभी बातों में । बहुत होशियार हैं हम लोग । कुछ ज्यादा ही होशियार ! सब कुछ है हमारे पास, सोना-चांदी, सब कुछ । कमी किस बात की है ? सोचकर देखिए हममें किस बात की कमी है । एक ही कमी है कि हमें ये ज्ञान नही कि हम कोन हैं ? मैं कोन हैं ? इसका अभी तक ज्ञान नही है । जिस हूँ समय ये घटित होगा तब पूरा शरीर पुल कित हो उठेगा श्रर आापके शरीर से प्रेम अथति चैतन्य की कहा है, "क्षम योग" नहीं कहा है। "योग क्षेम बहाम्यहम्" पहले योग घटित होना जरूरी है। सुदामा को पहले कृ' र को जाकर मिलना पड़ा तब उसकी सुदामा नगरी सोने की बनी। आपका कहना है हम यही वैठे रहेंगे और हाथ में सब कुछ शर जाय । क्यों ? परमात्मा पर आप इतना अधिकार क्यों जताते हैं। किसलिए? चार पैसों के फूल 84 लहर वहने लगेंगी केवल ये घटना प में घटित होनी चाहिए। इसकी कोई गारंटी नही दे सकताा । होगा तो होगा, नहीं तो नहीं भी आज नहीं तो कल घटित होगा। इस प्रपंच में आ्रापकी आथिक समस्याएं हैं। महाराष्ट्र में देखो तो "श्री माताजी गरीबों को लिए और परमारमा वो दे आए इसलिए ? आप से बया लाभ होगा?" आप बया है, गरीब हैं उलटे इस में आपकी बड़ी गलती है। वहत से लोग या अ्रमीर, या मध्यम ? फिर आपको क्या लाभ मैंने देखे हैं जो शिवभक्त हैं। वे शिव-शिव' करते चाहिए ? आप चाह मध्यम हो, मीर हो, रईस हो, चाहे गरीब, किसी को भी संतोष नही। रेडियो के हृदय में बैठे हैं। फिर ऐसा क्यों ? उन्हें हार्ट है तो वी. डी. ओ. चाहिए वी डी. श्रो. है अटेक ्यों हुआ ? क्योंकि शि व नाराज हो गये। तो एयरकंडीशनर चाहिए और उसके बाद जहाज चाहिए। और आगे व्या, व ह परमात्मा ही तो उसे भी लगेगा ये अ्रादमी मूझे क्यों परेशान कर े ! साधारण नियम है । इच्छाएं सामान्यरूप से कभी रहते हैं और उन्हें हार्ट अरटक होता है । शिव आप आ्प किसी मनुए्य को ऐसे बुलाते रहे बार-बार, है । कल आप राजीव गांधी के घर जाकर "राजीव, राजीव" जाने Economics (अ्र्थशास्त्र) का एक सबं- रहा ऐ से कहते रहे तो लोग आपको निमंला योग २६ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-28.txt लड़ रहे हैं। क्या वे लोग सुखी हैं ? स्वतन्त्रता भी केद कर लेगे न परमात्मा की प्राप्ति हो रही है और न ही प्रपंच संभाली जाती है उनसे ? दूसरे कहते हैं हम कम्यू- की ऐसी स्थिति है इसलिए 'मध्य मार्ग' में निस्ट (साम्यवादी) हैं किन्तु सच्चे कपिटलिस्ट ाना जरूरी है । और मध्य मार्ग को की मार्ग कहते हैं। वहां से जब कुण्डलिनी का पूजो) है ये सब ऊपरी बातें हैं । इसमें अ्राप लोग जागरण होता है तब मनुष्य बीचों-बौच (मध्य में) मत उलभिए । आप अपने -अाप में (अपने आकर समाधानी होता है। बिल्कुल समाधानी वन जाता है । । यही हुआ्रा है। और इससे आापको 1 ( पूंजीपति) हम हैं क्योंकि हमारे पास शक्ति ( की सुषुम्ना नाड़ी भीतर) परमात्मा का साम्राज्य लाइए प्रोर उसके नागरिक बनिए। फिर देखिए आप क्या बनते हैं। उस के लिए प्रपंच छोड़ने की जरूरत नहीं है। पैसे देने की जरूरत नहीं है । इसमें क्या पैसे देने ? ये तो जीवन प्रक्रिया है आपमें। किसी पेड़ को आपने पसे दिए तो क्या वह अपको फूल देता है ? उसे क्या मालूम पैसा क्या चीज है ? उसी तरह परमात्मा है । उन्हें पसे वर्गरा नहीं मालूम। किसी बाबाजी को ले पात हैं य्रौर उसे कहते हैं, ये लो पैसे । गाँव में हमारे विषय में कहा माताजी पैसे नहीं लेतीं । तो कहते हैं अच्छा १० पैसे नहीं तो २५ ले लोजिए । परन्तु पसे किस चोज के दे रहे हो? ये (आत्म- साक्षात्कार) तो आप हो का है। इसे बया खुद खरीदोगे ? प्रेम के द्वारा सब कुछ काम होता है । वह प्रम प्राप्त करना होगा, जो अ्जकल प्रपंच में वह प्हले आप सोख लोजिए । बह सीखे बगर नहीं है । और जो प्रेम नजर आता है वह गलत गलत-सलत करते हो। फिर कुछ वंगड गया तो तरीके का है । क्रिसी पेड को आपने देखा होगा । उसे क्यों दोष देते हो ? परमात्मा है या नही. यही उसका रस ऊपर आता रहता है और जिस जिस भाग को चाहिए उसे देते देते वह अपनी जगह तक जाता है । वह किसी फूल पर या पत्ते पर नहीं अटकता । अटक गया तो बस वह पत्ता भी खत्म वाले हैं । परन्तु उसके लिए आपकी तैयारी है ? और वह पेड़ भी खत्म औ्ीर फूल भी खत्म । उसो बुद्धि ज्यादा चलती है श्ो माताजी क्या कह रही तरह हम लोगो का है । हमारा प्रेम माने "मेरा । बेटा ! वह तो दृनिया का नवाव शाह हो गया। आपकी समस्याएं अगर आपको बुद्धि से हल मेरी वेटी, मेरा काम", 'मेरा-मेरा चलता रहता होतीं तो हमें इतनी मेहनत करने की जरूरत है। वह क्या आपका है ? लेकिन ये कह सुनकर कितना भी कह छोड़िए 'मेरा- बाली नहीं हैं। आपकी राजकीय समस्याएं मेरा' नहीं छुटने वाला। उसे छुड़वाने के लिये आप हल नहीं होने वालो, त सामाजिक [और प्रपच की कृण्डलिनी उठनीं चाहिए। वह उठने के बाद और आप पार होने के बाद 'तुम्हारा -तुम्हारा की हमे capitalist (पूंजीपति) हैं उसी के लिए शुरूप्रात होती है । कबीर ने कहा है जब वकरी जकल संतोषी देवी का वरत चला है। संतोषी नाम की कोई देवी है ही नहीं। निकाली तो लगे सब व्रत रखने। जो स्वयं सिनेमा वालों ने यह संतोष का स्त्रोत है उसे क्या कहेंगे वह संतोषी है । श्रीर इसी तरह कुछ गलत-सलत बना ते रहते हैं । ब्रत रखना, आज खट्टा नहीं खाना, ये करना, वह नहीं करना। कूछ तमाशे करते रहना और फिर परमात्मा को दोष देना, हम इतना परमात्मा को सेवा करते हैं फिर भी हम बीमार हैं । उसके बारे में कुछ दिमाग से नोचना च हिए । परमात्मा के जी नियम हैं उनका विज्ञान है । सिद्ध करने के लिए हम आए हैं। बिल कूल सिद्ध करने के लिए । आपके हाथों में चैतन्य वहेगा । आपके हाथों को उंगलियों पर परमात्मा मिलने हैं ? जरा दिमाग ठंडा कीजिए फिर होगा। नहीं थो। परन्तु वे आपकी वुद्धि से हल होने नहीं होने वाला । की तो विलकुल हो नहीं । रा जकीय प्रशन ये है कि निमंला योग २७ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-29.txt जीवित होती है तब बार-बार 'मी-मी (मैं-मैं) अगर इस बार आप चूक गए तो समझ लीजिए करती है । "मैं मैं मैं" करती है। लेकिन वह मरने हमेशा के लिए चूक गए । आपकी सारी प्रापंचिक के बाद उसकी अत निकाल कर उसका तार समस्याएं खत्म होकर ाप परमात्मा के प्रपंच में खींचकर घुंदके आवाज आ्राती है "तुही-तुही-तूही" । उसी तरह नहीं मिलने वाला । सारे दृनिया भर के दुःख मनुष्य का है । एक बार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत होती है तब लगता है सब कुछ 'तुम्हारा कहते हैं । परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि आप है। मनुष्य 'अकर्म' में उतरता है । फिर ये बच्चे, जाकर विद्ठल (परमात्मा) के चरणों में सर फोड़़ सगे-सोदरे सभी तुम्हारे ! लोगों को आश्चर्य होता है, ये सब कैसे होता है ? इस बम्बई शहर में इतने और उसे केसे जगाना है ? उसके लिए कुछ करने लोगों की प्रापंचिक स्थिति में सुधार आया है कि की जरूरत नहीं है । वह साक्षात् अ्रापमे है । केवल आपको आश्चर्य होगा। परन्तु हम उस तरफ देखते कुण्डलिनी का जागरण होने के बाद, जिस तरह ही नहीं । हमें विश्वास ही नही है । नहीं करते तो मत करिए । पता नहीं आपका अपने स्वयं पर भी है । जिस घर में परमात्मा का दिया जलता रहेगा भरोसा है या नहीं, परमात्मा ही जाने ! अब ये वहाँ दुःख दर्द कहां ? गरीबी और परेवानियाँ व्यर्थ वर्तमान पत्र (समाचार पत्र) वादिता कहां ? वहाँ तो सुख का संसार होना चाहिए । छोड़कर सचमुच की बर्तमान स्थिति में क्या हो रहा है ये देखना चाहिए । श्रीकृष्ण आए, कुछ एक परम्परा लेकर आए और उन्होंने कृषि का कार्य शक्ति है वह जागृत करवा लीजिए और सारे किया। एक बीज बोया । आज वह संपदा भपको संसार के प्रपंच का उद्धार कीजिए । मैं आपको इस स्थिति तक लाई है । आप फूलों से फल वनने हाथ जोड़कर विनती करती है । वाजे हो में बांधी जाती है तो उसमें से अते हैं। उनके प्रपच में [आए वगैर आपको सूख बुःख परमात्मा के चरणों में ग्राने से खत्म होते हैं, ऐसा ल । श्री विठ्ठल को अपने प्रापमें जागृत करना है । दिया जलाया जाता है, उसी तरह अरापमें वह जलता और इसीलिए हम गाँव-गाँव सब जगह घूमते हैं । आपको मेरी नम्र विनती है कि ये जो प्रापमें । वह आपको प्राप्त कर लेना चाहिए । अशुद्धि-संशोधन गत मार्च-अप्रेल १६८५ गरक में पृष्ठ १४ पर मुद्रित परमपूज्यनीय श्री माता जी के "कुण्डलिनी भौर श्री गणश पूजा" शीर्षक प्रवचन में पंक्ति संख्या ६-७ में "श्रष्ट-विनाशक" के स्थान पर "गरष्ट- विनायक" पढ़ें । अशुद्धि के लिये क्षमा-याचना है । -सम्पादक निमंला योग २८ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_III.pdf-page-30.txt Registered with the Registrar of Newspapers under Regn. No. 36999/81 जय श्री माता जी 4 भजन पर पाया 'सहज में अचूक, मातृप्रम कौन सहाई, मां बिन मेरो दवाई ॥ मां बिन ॥ मां विन कौन सहाई ॥ ते रो र् सिर पर मेरे मौत खड़ी थी, सब दुख दूर हुये, मां का जब नाम लिया, जीवन नेया जब डूब रही थो ।| ग्रानंद मगन हआ मन, मातृचरणों का ध्यान किया। नव जीवन दान दियो मां ने, स्पर्श से, शीतल के मां मा ही पार लगाई ।। मां बिन ।। त्रिविध ताप नसाई ॥ मां विन ॥ घनधोर अधेरा] अेरा चाह गई चिता मिटी, कट गये भव पाशा, छाया जब, नहि पाई पथ सूझ मातृप्रेम में मेरी, हो गई पूरी आशा । करुणा की किरणे, मां हो मार्ग दिखाई ॥ मां बिन ॥ फुट पड़ी प्रेम मांँ सहज सुलभ, का भातृप्रेम सुखदाई ॥ मां विन ॥ के नाते, अंत समय कोई काम न आते । भठे सिद्ध हुये प्रेम धीरज घरम जग क्षमा करुण, सत्य ध्यान धारणा । ही अब छुट गये सब रिश्ते नाते, मां सबका, सद्गुरु मां ने मुझको अपनाई ।। मां विन ॥ परम ज्ञान सिखलाई ॥ माँ बिन ॥ हे माँ ! तुम हो मेरी मां, हो तुम हम सब की मां, मां हो तुम प्रेममयी, हो तुम सब जग की माँ । डाक्टर, वेद्य, विटामिन, इंजेक्शन. किसी ने न पीर हटाई । मां ! तेरे दर्शन को, निर्मला देवालयों के भी चक्कर काटे, कहीं हे नयन रहे अ्रकुलाई ॥ माँ विन ॥ दिखाई %3D प्रास न सी० एल० पटेल क Edited & Published by Sh. 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