निर्मला योग द्विमासिक वर्ष ४ अक २१ सितम्बर प्रक्टूबर १६८५ परी + पुज ्र ई कि ॐ ्वमेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी, मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निमला देवी नमो नमः ॥ ी णा ी निर्मल धुन" (तज : रघुपति राधव राजा राम) भज मन प्यारे मां का नाम, भज मन प्यारे निरमल नाम ।। भज मन ।। का माँ का नाम है प्रम महान, मां का नाम है मोक्ष का ज्ञान । मंगल माँ का नाम, जन ग सबको मिलता है वरदान ।। भज मन ।। क्य। गोरे हैं और क्या काले, सब हैं उनकी गोद के पाले । क्या गरीब प्रोर क्या धनवान, सारी जग उनकी सर्तान ।। भज मन ।। न हिन्दू न मुसलिम जात, न कोई सिख न क्िस्तान । कोई नीच न कोई महान, मां का प्यार है एक समान ।। भज मन ।। अपने तन को मंदिर जान, तज दे रे मिथ्या अ्रभिमान । हर प्राणी में माँ की जान, इसी से होगा अब कल्यान ।। भज मन ॥ निर्मल नाम निर्मल नाम, निमंल निर्मल निर्मल नाम । निमल माँ का निर्मंल नाम, निर्मल निर्मल माँ का नाम ।। भज मन ।। माँ का नाम माँ का नाम, माँ का निर्मल निमल नाम । मां का नाम निमंल नाम, सबसे प्यारा माँ का नाम ।। भज मन ।। -रतन विश्वकर्मा निर्मला योग द्वितोय कवर म सम्पादकीय "दुखिया मूवा दुःख कौ, सुखिया सुख की झूरि । सदा अनंदी राम के, जिनि सुख दुःख मेल्हे दूरि ॥।" - श्री कबीर मध्य मार्ग ही आनन्द का मार्ग है । अति चाहे जो भी हो वर्जित है । श्री कबीर दास जी कहते हैं कि दुःखिया भी मर रहा है और सुखिया भी मर रहा है, एक अत्यन्त दूसरा अत्यन्त सुख से । दु:ख से और राम के जन ही सदा आनन्द मनाते हैं जो सुख श्रौर दुःख दोनों से ही दूर रहते हैं । यह स्थिति निर्विचारिता में ही प्राप्त की जा सकती है । ॐ त्वमेव साक्षात् नमो नमः । निर्विचारिता साक्षात् शरी आदिशक्त माताजी श्री निर्मला देवी निमंला योग १ निर्मला योग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली-११०००७ संस्थापक : परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी सम्पादक मण्डल डॉ शिव कुमार माथुर श्री आनन्द स्वरूप मिश्र : श्री आर. डी. कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा : लोरी एवं कैरी हायनेक 1540, टेलर वे वैस्ट बैन्कूवर, B.C. VIS 1N4 यू एस.ए. श्रीमती क्रिस्टाइन पेंट् नीया २७०, जे स्ट्रीट, १/सी ब्रुकलिन, न्यूयार्क-११२०१ यू के. श्री गेविन ब्राउन भारत ध्री एम. बी. रत्नान्नवर १३, मेरवान मैन्सन गंजवाला लेन, बोरीवली (पश्चिमी) बम्बई-४०००९२ ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़र्मेशन सर्विस लि., १३४ ग्रंट पोर्टलेण्ड स्ट्रीट लन्दन डब्लू. १ एन. ५ पो. एच. इस अंक में पृष्ठ १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. विश्व 'निर्मल' धमं की स्थापना ४. देवताओं के विषय में प्राथमिक ज्ञान ५. कुण्डलिनी श्रर श्री शिवशक्ति व श्री विष्णुशक्ति ६. श्री गणापत्यथर्व शीर्षम् ७. निमंल धुन (अ्रारती) ८. माता निर्मला महिमा २ ३ ६ १२ २० -.. द्वितीय कवर चतुर्थ कवर निमंना योग विश्व 'निर्मल' धर्म की स्थापना सहज मन्दिर, नई दिल्ली २६-३-१६८५ आज आप लोग हमारा जन्म- दिवस मना रहे हैं । यह एक बड़ी सन्तोष की बात है क्योंकि इस कलियुग में कौन मां का birthday (जन्म इससे हमने क्या-क्या सुख हैमें क्या फायदे हुए, उठाया, यही सब मैं सुनती रहती हूं । इस से हमारा जो कुछ भी लाभ हुआ हैं, जो भी हमारा अच्छा हुआ है, बो एक बजह से, एक कारण से हुआ है दिन) इस उम्र में मनाता है। इसलिए कि हमने अपनी आत्मा की प्राप्त कर लिया । यह द्योतक है कि आप लोग इस लेकिन प्रकाश जब आपके प्रन्दर ा गया, जब कलियुग में जन्म लेकर के भी अपने आप दीप हो गए, तब दीप को आप कहीं छिपा के मातुधर्म से परिचित ही नहीं लेकिन उसका नहीं रख सकते । दीप को आपको उधाड कर रखना चाहिए । और सहजयोग, कितनी वार मैंने कहा कि, 'समाजोन्मुख' है, समाज की ओर उन्नुख इस उम्र में तो जन्म दिन मनाना माने एक- है, वही सहजयोग है । जो प्रकाश फैलाता नहीं है एक साल घटता ही जा रहा है। और हुत से काम ऐसे प्रकाश का कोई भी उपयोग नहीं। तो हर करने के बचे हुए हैं वहत से अभी कार्य मुझे सहजयोगी को सोचना चाहिए कि मैंने कोन से दिखाई दे रहे हैं जो कि अधूरे से हैं । उन पर दायरे में, कौन से अन्दाज से, सहजयोग फैलाया । मेहनत करनी होगी, ध्यान देना पड़ेगा, तभी बो पहले तो अपने व्यक्तित्व में विशेषता आ जाय, और उस विशेषता को पाने पर मैंने कितने व्यक्तियों ॐ |।ि अवलम्बन भी करते हैं। पूरी तरह से होंगे । को चमत्कृत किया। दिल्ली में जो काम मैंने कल कहा था कि हमें अपनी सभ्यता की ओर ध्यान देना चा हिए। हमारो सांस्कृतिक स्थिति भी ठीक करनी चाहिए । और लीजिए, किसी भी देश में, तो पहला सवाल उठता तीसरी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है वो ये कि है कि यहां के मानव की स्थि ति क्या है ? इनमें हमारी जो आत्मिक उन्नति है, उसकी प्रोर हमें कौन-कौन से ध्यान ही नहीं देना चाहिए, पर जसे कोई एक conditionings ( संस्कार, आदतें) हैं, इनके शहीद सर पर कफन बाँध करके किसी कार्य में अन्दर कितना अहंकार है ? उसका माप दंड संलग्न होता है, उसी प्रकार हमें 'सरफरोशी की देखा जाता है [पऔर फिर सोचते हैं कि तमन्ना ले करके सहजयोग करना चाहिये । जब यह कार्य होगा या नहीं। सबसे बड़ा प्रश्न है मानव तक हमारे अन्दर ये बात नहीं अआरती, तब तक सहजयोग सिर्फ हमारे ही लाभ के लिये पराज कोई-सा भी कार्य आप हाथ में ले दोष हैं इनकी कौन-सी का । मानव की संख्या कितनी भी बड़ी हो लेकिन है। इससे अगर उसकी स्थिति ठीक न हो तो कोई सा भी निमंला योग कार्य ठीक से सम्पन्न हो नहीं सकता । यह सबसे का प्रकाश जब आप दूसरों को देते हैं तो शरीर का बड़ा कार्य सहजयोग ने किया है कि इसने मानव सुख आपको महसूस ही नहीं होता । आपको तो आत्मा ही का आनन्द इतना ज्यादा मिलता है कि आप उस आत्मा के आनन्द में पूरी तरह से डूब सहजयोगो एक ईमानदार, सच्चे, मेहनती, ऐसे जाते हैं। "शत्मनेव आत्मनः तुष्टः" आत्मा से ही लोग तेयार हुए हैं जो इस देश में बहुत ही दुर्लभ आत्मा तुष्ट हो जाता है, उसको और कोई सन्तोष हैं, बहुत दूर्लभ लोग हैं, जो कि जो बोलते हैं वैसा की जरूरत नहीं पड़ती । और कोई चीज में वो करते हैं, जो सोचते हैं वैसा ही जानते हैं, ऐसे खोजता ही नहीं । इतनी इसमें तृष्ति हो जाती है, दूलंभ लोग सहजयोग ने तंयार कर दिये हैं । यह जिसको कि कहते हैं कि वो 'अमृतपान' कर लेता विचार से सहजयोग का बड़ा भारी आशोर्वाद इस है । और अमृत पीने के बाद और कोई चीज पीने की जरूरत नहीं रह जाती। यह स्थिति जब आपकी आ जाय तब मानना चाहिये कि आप सहजयोगी में मनवन्तर कर दिया। मानव में इतना अन्तर ला दिया, इसमें इतनी बिशेष प्रगति कर दी । आज देश पर है । ले किन अरब भी ऐसे बढ़िया लोग अगर हो हो गए हैं, नहीं तो आप अधूरे हैं । जायें अगर एक वढ़िया कारीगर हो और उसे कोई काम ही न हो तो उसकी कारीगरी बेकार अब आप जातते हो हैं कि हमारी तो उम्र जाती है। सो हरेक सहजयोगी को यही सोचना काफी हो गई है और लगातार चौदह वर्ष से हमने चाहिए कि मैं क्या कारीगरी कर सकता है। पर मेहनत की है । पूरा तप पूरा हो गया कहना वो भी अपने शरीर की तकलीफे, अपने ग्राराम की चाहिये । लेकिन ज्यादा १२ साल की मेहनत बहुत बात पहले सोचता है । नहीं तो यह सोचता है कि ज्यादा रही। और इसके बाद भी १२ साल और किस तरह से इसमें कुछ रुपया लग जायेगा या मेहनत करनी पड़ेगी, ऐसा लगता है । लेकिन आप लोग कितनी मेहनत करते रहे हैं वो देखना चाहिए। कोई न कोई बहाने जरूर आपका मन ढंढेगा, कि यह नहीं हो सकता, इसमें मेरी family (परिवार) थोड़ा-बहुत कुछ खचा हो जाएगा, तो ये केसे हो ? वास्तव में आनन्द को आप खरीद नहीं स कते, उसको सिर्फ भोग सकते हैं । लेकिन जिस चीज को है मेरे बच्चे हैं, मेरा घर है, मेरा ये है, मेरा हम प्राप्त करते हैं, जिसको हम लेते हैं, अपनाते हैं, अपने अन्दर उसका सूख उठाते हैं, वो चीज अऔर है और सहजयोग चीज और है इसमें जो आनन्द मिलता है, वो सिर्फ बांटने से ही मिलता है और कोई तरीका इसका नहीं है। उसके लिए हो सकता है उसकी अगर पाना है तो आपको जान लेना है कि आपको योड़ी बहुत तकलीफें उठा नी पड़ेंगी. थोड़ी परेशानियाँ उठानी पड़ेंगी, पर वो कर जब तक आप आत्मा की इच्छा को पूरी वो है । ले किन सब चीज से परे जो आनन्द की सुष्टि चाहिए कि उस आत्मा को जो इच्छा है उसे पूरी . बहुत तकलीफ बिल्कुल नहीं रह जाती, क्योंकि आ्रत्मा की सुख मिलता है । शरीर के की प्रोर प्राप रहेंगी, आपके सारे कार्य वैसे ही जमे रहेंगे। कुछ नहीं देखते । नहीं करियेगा आपकी बाकी स ब इच्छाएं वैसी बनी सुख नहीं घटित होने का, क्षेम घटित हो नहीं सकता, योग जब तक पूरी तरह से नहीं होगा। लेकिन जैसे ही आपने योग को प्राप्त कर लिया और योग में आप स्थित हो गए, देखिये आ्रापके सारे आप अपने को आजमा (परख) कर देखिए कि जब आप अपने आत्मा को प्राप्त होते हैं, प्और आत्मा निर्मला योग प्रश्न एकदम से ही हल हो जाते हैं। आप लोगों के करना है, न जाने कहीँ से चीजें जुटती जाएंगी, न हुए हैं न प्रश्न हल कि नहीं ? सबके हृए हैं । तब जाने कहाँ से डन्तज़ामात होते जाएगे, न जाने कसे फिर आगे बढ़ के देखिये कि जो हम सोचते हैं यह सब चीज होते जाएगा, हो जाएगा, सब हमारे लिये प्रश्न हैं, जो हम सोचते हैं हमारे लिये बड़ी मुश्किले हैं । आप यह सिर्फ सोच क र देखिये कि "नहीं, हम सहजयोग के कार्य में संलग्न हैं, श्रौर परमात्मा हमको देखने वाले हैं", आप देख आपमें जो देवता बैठे हैं, वो सब जानते हैं कि लीजियेगा कि आपके सारे ही प्रश्न 'एक-साथ" साफ हो जाएंगे। कुछ । देखिए, पहले प्राप पूरी तंयारी कर ले । क्योंकि आप क्या हैं? आप कितने सच्चे हैं कितने भूठे हैं ? आप अपने कितने ऊपर हैं कितने नीचे हैं, सब चीज वो जानते हैं। और जब तक वो ये जानते हैं कि आप अ्रभो पूरी तरह से संलग्न नहीं हैं तो आपकी मदद नहीं करते। लेकिन जेैसे ही वो समझ जाते हैं कि नहीं यह सिर्फ अपने ही स्वार्थ और अपने ही लाभ के लिए नहीं आए हैं, ले किन यह सहजयोग करने आए हैं, अ्रौर सहजयोग जो कि समाजोन्मुख है, उसको बढ़ावा देने आए हैं तो आपको पराइचर्य होगा कि 'चारों तरफ से वर्षा होती है आरशोर्वाद की, चारों तरफ से जैसे सुगधित वातावरण हो करके, आपको ऐसा लगता है एक बार प्रापसे मैंने बताया था कि कुण्डलिनी जो है, वो कारण और परिणाम and effect से परे रहती है। ओर जब प्राप कुण्डलिनी में जागृत हो जाते हैं तो उस का कारण भी मिट जाता है और परिणाम मिट हो जाएगा। जब Cause ही मिट गया तो उसका effect भी मिट ही जाएगा। से परे, Cause आपको इसके दर्शन होते हैं । काफी आप जानते हैं कि यह बात होती रहती है, और घटित हल्का-हल्का, जैसे '"कुछ बोझा ही नहीं अब मेरे हो रही है । जो कभी भी हम सोचते नही थे, ऐसी सर पर, सब काम हुए जा रहा है", और अपने चीजें हमें मिल गईं, यह हमने प्राप्त कर लिया, आप सब सामान जुटते जाता है। उस स्थिति में इतना हमें सुख मिल गया, सब कुछ हमने पा हमें आना चाहिए। तब अ्प देखिए हर आदमी लिया सहजयोग में, अब भी हम परेशान हैं, छोटी- बहुत कार्य कर सकता है और बहुत बढ़ा छोटी चीजों के लिये तो ये बड़ी मूश्किल हो सकता है । जाएगी। क्योंकि अब तो कम से कम सोच लेना चाहिए कि हमने कितना इसमें सुख, कितना आराम, कितनी सुरक्षा पाई है और यही सहजयोग अब हम दूसरों को देते हैं, तो वो भी इसको पा सकते हैं । लेकिन जब हम दूसरों को देते हैं तो हम इसको बहुत अधिक पाते हैं। मैं जानती है कि अभी दिल्ली में काफी मेहनत हम लोगों को व्यक्तिगत भी करनी है। और फिर उसके बाद सामूहिक । और हो सकता है कि आप लोग सब अ्रपने पड़ोसी, रिश्तेदार सबसे इसकी बात कर सकते हैं, सबको बुला सकते हैं और कह सकते हैं । हमारे लिये 'हजारों परमात्मा के दूत लगे हुए हैं। न जाने करोड़ों के हाथ हैं, करोड़ों की शक्तियां हैं, सारी आपके पीछे लगी हुई हैं। एक आदमी हमारे बच्चे हैं, हमारे रिश्तेदार हैं, हमारे पहचान खड़ा हो जाता है कि मुझे सहजयोग का कार्य वाले हैं, सबसे हम यह बात कर सकते हैं । हो हिन्दुस्तान में यह व्यवस्था बहुत अ्रच्छी है कि निर्मला योग ५ू सकता है उनमें से दो ही चार इसको मानें । लेकिन जब वो आपकी स्थिति को देखगे, जानेंगे कि आप में कितना फर्क अा गया है, तो वो जरूर प्रयत्नशील होंगे। कुछ तो होंगे हो । इस प्रकार अप सहजयोग को पूरी तरह से बढ़ावा दे सकते हैं। है ? जब तुम चलाने लग जाओो । मोटर चलानी आतों है ? जब तुम चलाने लग जाओो। इसी प्रकार यह सुक्ष्म बुद्धि कब आाती है ? जब आती है आ जाती है । कैसे आती है ? सो तटस्थता से । अराप साक्षी हर इन्सान, वो चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, या स्वरूप होकर हरेक चीज को देखना शुरू कर दे, बच्चा ही, जब इस प्रकाश को प्राप्त करता ध्यान करें, और अपना समय ज्यादा सहजयोग के योग में विचार में विताएं, तो आ जाएगी। लेकिन कब है तो उसका 'अधिकार' है कि वह है. स्थित हो। लेकिन उसका करतव्य है कि वह योग आएगी कैसे आएगी यह तो जब होग। तभी होगा । और इसलिए वो चीज अभी तक अगर हमारे अन्दर नहीं आई है तो हमें उस और और अग्रसर होना चाहिए। इसलिए मैंने कहा कि अब जरा कोशिश जोरों से करनी चाहिये, बहुत जोरों में कोशिश करनी चाहिये । प्रदान करे। प्रापके पास शक्ति है, आपके पास सव कुछ है, औ्र तब भी अगर आपने योग प्रदान नहीं किया, तो यह कहाँ तक युक्ति संगत होगा, मैं यह नहीं कह सकती । मैंने इनसे कहा था कि पूजा में ऐसे लोगों हैमारे दिल्ली के Centre (केन्द्र) पर बहुत से को बुलाइये जो कि वास्तव में कुछ पा चुके हैं । प्रश्न ऐसे खड़े हुए हैं, जिनके बारे में मैं जरूर बात- और जो कोई पा सकता है, उसको देना आपका परम करतव्य है । हर जन्म दिन के दिन कोई न प्रश्न है और किस तरह से उनका आप हल निकाल कोई एक नया निश्चय करते हैं । और मेरी समझ सकते हैं। वो मुश्किल काम नहीं । लेकिन जो हम में अब आ रहा है कि मुझे भी एक नया निश्चय मन से सोचते हैं, विचारते हैं, और जिन तक्कों को कर लेना चाहिए । और नया निश्चय जो है कि करके हम किसी एक इरादे पर पहच भी जाते हैं, वो "हमने जो विश्व घरमें बनाया है, जो हमने तो भी हम जब तक पूरी तरह से अ्रपने हंसा चक्र विश्व धर्म को स्थापना की है, जिसको हम मानते को जीत न लें, माने कि हमारे अन्दर जब तक हैं, उसकी म्यादाओं में जो नहीं रहता है, उसे discretion (विवेक) न आ जाए, जय त क हमारे सहजयोगी कहलाने का अधिकार नहीं, ऐसा मैंने अन्दर यह सुबुद्धि न आ जाए, जब तक हमारे अन्दर सोचा है, कि एक नया निश्चय हम लोग करें । जो पूरी तरह से कोई चीज अच्छी है या बुरी है, कोई इसकी मर्यादाओं में रहता है वही इस धर्म का चीज सहजयोग के लिये लाभदायक है या नहीं है, पालन करने वाला हो सकता है । जो विश्व धर्म यह समझने की सूक्ष्म बुद्धि हमारे अन्दर जब तक न को मानता है, वो श्रगर इसमें नहीं रहे तो उसको आ जाए, समझ न आ जाए, तब तक सहजयोग हम सहजयोगी मानने को तेयार नहीं। जैसे कि समझ लोजिए कि कोई सहजयोगी है, और वो dowry (दहेज) लेता है तो वह सहजयोगी और वो समझ कैसे आरतो है ? कोई पूछता है, नहीं हो सकता । कोई है, वह जाति-पाति विचार कसे आती है ? तुम्हें साइकल चलानी कैसे आती रखता है, वो सहजयोगी नहीं हो सकता । कोई चीत करूंगी और इन लोगों को बताऊंगी कि क्या ब आपने पाया नहीं। निर्मला योग ऊंच-नीच विचार रखता है, वह सहजयोगी नहीं बहुत सिगरेट भी पी लेते हैं, तम्बाकू भी खा लेते हो सकता । तो आज मैंने यही निश्च्य किया है कि हैं, आप सहजयोगी सहजयोग की आज से जो भी कोई इन्सान श्रपने को सहजयोगी मर्यादाएं है उस मयाँदा में जो मनुष्य नहीं रहेगा, कहलायेगा उसमें विश्व घर्म की पूरी कल्पना होनी वो विश्व धर्म को नहीं मान सकता । और ये चाहिए। इतना ही नहीं कि कल्पना में हो, लेकिन विश्व बर्म हमारा जो है, इसको पूरी तरह से स्वच्छ उसके आचरण अरर व्यवहार में अगर यह बात नहीं हो, समझ लौजिये कि किसी सहजयोगी ने विश्व निर्मल घम है. इसमें कोई भी अशुद्ध बात ऐसी हरकत की, तो उसको सहजयोग में रहने का हम प्ने नहीं दे सकते इसलिए जो अशुद्ध है वो अधिकार नहीं है, उसको कहना लिये आप प्रायश्चित करें और प्रायश्चत स्वरूप जिन्होंने पूरी तरह से 'विश्व निमंल धर्म' को माना, पहले आप अपने को ठीक करे, [श्रौर तभी आप और उसकी तरह अपना आचरण किया । यही सहजयोग में आ सकते हैं । ऐसा करने से संकीरणंता निश्चय आज हमने ग्रपने जन्म दिन के दिन किया आ जाए, लोग कहें कि कम लोग हो गए, कोई हुआ है, श्रोर आशा है आप लोग इसे प्रेम से हज नहीं। भगवान के दरबार में भी बहुत कम स्वीकार करेंगे । जगह बची हुई है । आपको पता नहीं है। वहाँ कितने लोगों को आप घुसेडियेगा ? नक में भी जगह नहीं रह गई ! तो कहीं बीच में ही लटका और यह कैसा होना नाहिए, इसकी गहनता क्या कर लोगों को रखना पड़ेगा । इसलिए जो आधे] है] इसके बारे में मैं किसी दिन और बताऊँगी, अधुरे लोग हैं, जो कहीं के न रहें. ऐसे लोगों को लेकिन प्रभी तना जरूर जान लेना है कि मोटे सहजयोग में नहीं आना चाहिए। बेकार में परेशान तौर से जो बातें आप जानते हैं, वो कम से कम करने से कोई फायदा नहीं। जो लोग सहजयोग में आप लोग नहीं कर सकते, जो बहुत ही साधारण आएं वो लोग सहजयोग की मर्यादाओं में रहें, उसको अपने आचरण में लाएं, उसको अपने सहज नहीं" वो चीज आप नहीं कर सकते । और व्यवहार में लाएं । अपने प्रडोसी-पड़ोसी सबको उसके बारे में पूरी तरह से बताएं, ओर यह कहे आप छट्टी दीजिए कि "हम विश्व धर्मं में विश्वास करते हैं और हम बहुत से लोगों को हमने देखा है, बीमारी के लिए किसी भी घरमं में विश्वास नहीं करते ।" लोग ऐसा नहीं कहते हैं, उनको हम सह जयोगी नहीं ले आएंगे, फिर तीसरी बीमारी ले आएंगे । वजह मानेगे ।" जो लोग डरते हैं समाज से यह कहने में ये है कि एक बार ठीक होने के बाद आपको सहज कि हम विश्व धर्म के योगी हैं जो यह कहने में डरते होना चाहिए। अगर राप सहज नहीं हुए तो फिर हैं, कि हम सहजयोगी हैं ऐसे लोगों के लिए सहज- से आप असहज हो गए, तो फिर से आप वोमार नहीं हैं। जो रखना है, क्योंकि यह सिर्फ विश्व धर्म नहीं है यह चाहिये कि इसके इसमें नहीं आ सकता । इसमें वही लोग रहेंगे ब] यह विश्व धर्म की क्या-क्या विशेषताएं हैं, तरीके से भी आ्राप जो देख सकते हैं कि "यह चीज अगर प उससे छुटकारा नहीं पा सकते तो हमें । हम आप से जूझ नहीं सकते । और जो ठीक होने आएंगे, उसके बाद दूसरी फिर बीमारी ५। योग नहीं है । सहजयोग की मर्यादाएं बिल्कुल आपको पूरी तरह से माननी पड़ंगी। हो जाते हैं । फिर आपको कोई बीमारी लग जाती है। फिर जिन्दगी भर हम अ्रपको धोबी जैसे घोते ही रहें क्या ? जैसे कि बहुत से लोग हैं, वो कहते है कि माँ थोड़ी- तो आपको भी अपने को निर्मत रखना चाहिए, हम थोड़ो-बहुत शराब-वराब पी लेते हैं निर्मला योग और इस घम को इस तरह से मानना चाहिए कि "यह हमारा अलंकार है, यह हमारी शोभा है, लोग अपना व्यवहार, जीवन इस तरह से बनाएं यही हमारी विशेषता है। इसीलिए आज हम कि आप सार्थ हों, आपका जो स्वयं है, उसका संसार में इतने ऊंचे स्थान पर बैठे हैं।" अंग-अंग अर्थ निकले, सार्थ (ग्र्थ पूर्ण) हो जाएं । और उसी में इसका विचार होना चाहिए। प्रत्यंग से vibra- के साथ आप समर्थ हो जाएं । यही हमारा आपको tions (चेतन्य लहरियां) कहते हैं। यह समझ लेना आशीर्वाद है, कि सब लोग अपनी शक्ति में समर्थ चाहिए, कि परमात्मा इतने लालायित हैं आपको हो करके इस प्रेम की शक्ति से सारे संसार को इससे सुशोभित करने के लिए । लेकिन आप कितने प्लावित करें । इसके प्रति जाकरूक हैं और आप इसके लिए सिद्ध हैं यह आपको ख़ुद समझ लेना चाहिए । हमसे जितना हो सकता है आपसे बता देते हैं, और यही चोड़ी पूजा नहीं होगी, एक साधारण पूजा हन मापदंड चलेगा कि जब तक आप सहजयोग के घम वाली है। पहले तो गेश जी के नाम से पेर धो का पालन नहीं करेंगे, तब तक आप सहजयोग में करके उसका चरणामृत बनाया जाएगा और अन्दर आ नहीं सकते, अपको पूजा का अधिकार उसके बाद में चरण धो करके उसका जिसे ये लोग नहीं, किसी चीज का अघिकार नहीं रह जाता औ्र जो लोग इस मर्यादा में रहेंगे उनको ही यह बाद में हाथ से हम च रणामृत बना देंगे, और उस अधिकार रहेगा। हो सकता है उसमें से चार-पाँच वक्त में १०८ नाम देवी के लिए जाएंगे। बस और लोग ही रह जाए, कोई हज नहीं, [आसानी कुछ ज्यादा पूजा नहीं है पआज । रहेगी। तो इसके प्रति अत्यन्त जागरूक रह करके आप आ्राज क्योंकि हमारा जन्म दिन है बहुत लम्बी- 'तीर्थ कहते हैं, वो बनाया जाएगा। और उसके । मेरा शरीर यहाँ होते हुए भी मैं सब जगह हैं । यह प्रगर जानोगे तब ये भी समझना चाहिए कि, शरीर भी एक मिथ्या-दर्शन है यह स्थिति आना बहुत कठिन है । परन्तु धीरे बीरे आप अगर मिथ्या को जानोगे तो सत्य अपने अ्रप ही मन में बसेगा और महाग्रानन्द की लहरे पूरे व्यक्तित्व को घेर लेंगी। -श्री माताजी मेहट केवल ब्रह्मशक्ति सच्ची खुशी देने वाली व संतोष देने वाली चीज है । बाकी सव कुछ मिथ्या है । आप यही बात जीवन के हर क्षण याद रखिए तब सहजयोग आपकी समभझ में आएगा। -श्री माताजी निर्मला योग ८ देवताओं के विषय में प्राथमिक ज्ञान (१) एक कल्प (cosmic cycle, सृष्टि) के सुख व समृद्धि की दासी हैं । जगत की उत्पत्ति आरम्भ से पहले चरम तत्व (ultimate reality) करने वाले श्री बरह्मदेव बहुत कम अवतार लेते हैं । एकमेव (undifferentiated) परब़रह्म के रूप में एक उदाहरण है श्री हृजरत अली। पेगम्बर रहता है। जब कल्प के प्रारम्भ में यह एकमेव तट्व मोहम्मद साहब के दामाद, उनकी पूत्री फातिमा परब्रह्म से अंशों में विभाजित हो जाता है : (१) के पति। धरी व्रह्मदेव की पत्नी श्री सरस्वती श्री सदाशिव, जो आदि पिता हैं और (२) श्री सौन्दर्य, कला व । आदि शक्ति, जो आदि माता हैं । सदाशिव, सनातन (eternal) साक्षी है। उस पिता सदा शिव की कार्यशक्ति, जिसे (Holy Ghost) भी कहते हैं। पैंगम्बर संगीत की देवी हैं। (३) एक अरवतार पूर्णस्वरूप में अवतरित हो सकता है (अवतार) (अशावतार) । इनमें सबसे विख्यात श्रर समय अरथवा आशिक रूप में ॐ प्रणब, अरथवा आदि शब्द की शक्ति द्वारा को दृष्टि से निकटतम श्री विण्णु के प्रवतार हैं आदि शक्ति तब सम्पूर्ण सृप्टि का स जन करती है । श्री राम व श्री कृषर ॐ उन तीन बीज शक्तियों का व्यक्त स्वरूप है जो होते हैं : पिता, आदि गुरु, पुत्र और माता । अवतार चार श्रेणी के मृष्टि की रचना करती है-'अ' इच्छा की बीज ट शक्ति, श्री महाकाली 'उ' क्रिया की वीज शक्ति, पिता स्वरूप: महासरस्वती, 'म' उत्क्रान्ति की बीज शक्ति, श्री महालक्ष्मी । श्री विष्णु लगभग ८,००० वर्ष पूर्व भारत में श्री राम के रूप में अवतरित । श्री राम एक हुए ॐ देवी सरल भाव (innocence) और राजा के पुत्र थे अ्रर युवराज (राज सिहासन के पवित्रता के भावों का भी द्योतक है । जो तत्व उत्तराधिकारी) की भांति उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई ब्रह्माण्ड (cosmos) में स्वध्याप्त हैं। बाद में थी । वे उसी प्रका र, के 'दार्शनिक राजा' थे जिस यह (ॐ) हाथी के मुख वाले देवता, श्री गणेश के प्रकार का वर्णन प्लेंटो ने अरपने लेखों में किया था। वे एक अद्वितीय साहस, कौशल एवं शील से सम्पन्न योद्धा थे । अपने जीवन को उन्होंने एक (२) उसके बाद और हमारे इस भौतिक जगत मेंच के रूप में प्रस्तुत किया जिस पर उन्होंने की उत्पत्ति से पहले देव लोक का सुजन होता है दिखाया कि एक अत्यन्त धर्मानुकूल जीवन किस तीन प्रमुख देवता हैं : श्री शिव, श्री विष्णु औ्र प्रकार विताया जा सकता है । ध्री राम अपने जीवन द्वारा मानव सम्बन्धों में आदर्श आचरण का एक सम्पूर्ण नमूना प्रस्तुत करते हैं । क्या पुत्र, क्या पति, क्या भाई, क्या पिता और क्या राज, ) हैं । उक्रान्ति के प्रत्येक क्षेत्र में उनका आचरण पूर्ण आदर्श था । वह गामी सोपान का शिलान्यास करने के लिये बह दाहिने हृदय चक्र के देवता हैं और इस सूक्ष्म स्त र । उनकी पत्नी श्री लक्ष्मी पर वह मानव में एक पिता, पुत्र, पति आदि के रूप में मूर्तिमान हुआ है । श्री बृरह्मदेव इन तीनों में से श्री शिव कभी अवतार नहीं लेते वह विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति के प्रतीक हैं । उनकी पत्नी, (शक्ति) श्री पार्वती हैं। श्री विष्णु उत्क्रान्ति के सूत्रधार (guide अवतार ग्रहण करते हैं निर्मला योग रख सके और अतिशयताओं (extremes) से बच सके । जब कुण्डलिनी की ऊर्जा भवसागर के क्षेत्र को आलोकित करती है तब मनुष्य स्वयं अपना स्वामी लिये आवश्यक गुरों को जागृत करने की क्षमता को स्थापित करता है। श्री विष्णु श्री कृष्ण के रूप में भी लगभग (स्वयं अपना गुरू) बन जाता है । ६,००० वर्ष पूर्व भारत में ही अवतरित हुए। वह सर्व शक्तिमान परमेश्वर (विराट) श्री सर्वत्रव्यापी पूत्र स्वरूप महानता के ्योतक हैं । श्री कृष्ण की एक उल्लेख- नीय विशेषता यह है कि वह योगेश्वर, अ्रर्थात योग के श्रधिपति हैं, समस्त साँसारिक कतंद्य बड़ी सफलता पूर्वक निभाते हुए भी सांसारिक आसक्तियों मेरी मां है। श्री जीसस ने आज्ञा चक्र में क्षमा से पूर्ण ग्रलिप्त उन्होंने मानव चेतना को एक प्रदान करने, क्षमा प्राप्त करने, और पापों व कर्मों लीला (जगत को एक खेल अथवा फ्रीड़ा या नाटक के मंच के रूप में देखना) के भाव से परिचित किया । दिव्य शिशु 'जीसस' मानव शरीर में कराया । जिससे मानव अपने अह भाव से उत्पन्न साक्षात ॐ (प्रणव) था। दिव्य शिशु (श्री गणेश ) उनकी स्वकीय (निजी) इच्छाओं के कारण आने वाले हस्तक्षेपों से मुक्त होकर प्रपने निर्लिप्त कार्यों से उस परम अरवचेतन की एक अनासक्त यन्त्र बन : २००० व्ष पूर्व श्री गणेश इजराईल में जीसस क्राइस्ट के रूप में अवतरित हुए । उनकी शक्ति के फलों से मूक्ति पाने की क्षमता को प्रस्थापित इस प्रथ्वी पर गश्रपने योद्धास्व रूप में भी श्री कार्तिकेय रूप में आया। कर कार्य कारता है। श्री कृषण का साक्षी भाव मातृ स्वरूप : विशुद्धि चक्र में स्थित है । कुण्डलिनी शक्ति द्वारा इसे मानव में जागृत किया जा सकता है । श्रीं श्रादि शक्ति महाजननी, जिसे ईसाई मत में Holy Ghost या Holy Spirit (पवित्र ्रत्मा) कहते हैं। वह भी अवतार ग्रहण करती हैं, कभी अपने निजी रूप में, जसे १०,००० वष श्री व्रह्मा, श्री विष्णु और श्री शिव के अवो- पूर्व श्री दुर्गा के रूप में अथवा अपने वहुमुखी स्वरूपों में से किसी एक स्वरूप में । वही इस सृष्टि र स्वरूप श्री अदि गुरू का आविभवि होता है। लप नाटक की सूत्रघार है । उदाहरणतः अरपने वे श्री विष्णु को उनके उत्क्रान्ति कार्य में सहायता मातृ स्वरूप में उन्होंने श्री क्राइस्ट को मां (मेरी) देने के लिये अनेक बार अवरतरित होते हैं । का अवतार लिया, राम अवतार के समय वे उनकी पत्नी बनकर आई और श्री कृष्ण के समय राधा वनकर, आदि गुरु नानक के समय वह उनकी बहन लाओं नू, सुकरात, राजा जनक, मोहम्मद, गुरु नानकी बनकर आई और आदि] गुरु मोहम्मद दि गुरू स्वरूप : घिता (Innocence) सम्मिलन से परमेश्व र के एक श्री ग्रादि गुरू स्वरूप के दस प्रमुख अवतरण हुए है : श्री अ्ब्राहम, मूसा, कन्ययूशियस, जरातुस्त्रा नानक, सिरडी के साई बाबा । ( उत्तरार्वं में ) श्री शआदि गुरू स्वरूप हमारे मूक्ष्म शरीर उस क्षेत्र से सम्बन्धित हैं जिसे भवसागर कहते हैं । साहब की पुत्री फातिमा बनकर आई। (१९वीं शताब्दी के आज : इन अवतरणो में मानव को वे सिद्धान्त प्रदान किये हैं जिनसे वह अपने देनन्दिन जोवन में सन्तुलन बनाये प्रदि शक्ति का चरम व सम्पूरण अवतरण निमंजा योग १० वतंमान काल में इस पृथ्वी पर स्वर्ण यूग का हैं जो प्रकृति की शक्तियों पर नियन्त्रण करते हैं : आरम्भ करने के लिये कार्य-रत है। इस श्रवतरंण (जन्म) में उनका नाम है श्री माताजी निर्मलादेवी । (पुथ्वी), वरुण (समुद्र) इत्यादि । इन देवताओं श्री माता जी, जो समस्त देवताओं की विभिन्न से सम्पूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर व्यक्ति अन्त में शक्तियों की पूञ्ज हैं अपने मात्र प्रेम में उनके समस्त पंच महोभूतों पर नियन्त्रण कर सकता गुणों का एकीकरण करती हैं। श्री माता जी की लोक का देवता (Celestial beings) भी होते श क्ति से मानव में समस्त देवताओं के गुण जागृत हो जाते हैं । उनमें सन्ताप हरने ( comfort) ( Gabriel), श्री भँरव (Michael ) । मार्ग दर्शन करने (counsel) और उद्धार करने ( redeem) की शक्तियां हैं । इन्द्र (व्षा), वायु, (हुवा, पवन) अग्नि, भूमि देव हैं; जैसे फरिस्ते (Archangels), श्री हुनुमान अ्रसत् (evil) के क्षेत्र में भो विभिन्न श्रेरियों दृष्ट (Satan) प्रात्माएं होती हैं। ये शक्तियां (४) सारे देवता एक ही परमात्मा के विभिन्तु मानव को उसकी आ्राध्यास्मिक परिणत्ति (ऊंचाइयाँ) प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न करने में प्रयत्नशील कोई चक्र अथवा नाड़ी पर नियन्त्रण क रते हैं। वे रहती हैं। जब श्री माता जी १६७२ में प्रमरीका चिरकाल जीवन्त हैं और सहजयोग के महान कार्य गई थीं तब उन्होंने इन दूष्ट शक्तियों के नाम, जो में सहायता के लिये सदैव क्रियाशंल रहते हैं। आज मानव शरीर में विद्यमान हैं । बताए थे । मन्त्रों की कला में प्रवीणता प्राप्त कर गौर विशेष अरर मानव के आध्यात्मिक कुलेवर (सन्तान) को के पहलू हैं। वे भीतरी तन्त्र के किसी विशेष तत्व, कर, हृदय में श्रद्धा भाव को जागृत कर, सहजयोगी दह जो हानि पहुँचा सकते हैं उसके प्रति सावधान परमात्मा के इन सब पहलुओं के सम्पर्क में स्थित किया था । अपने पिछले अवत रणों में उन्होंने हो सकता है तर सहायता और संरक्षरण प्राप्त कर उनका संहार कर दिया या और अब फिर नष्ट सकता है । अन्त में देवी गूरण प्रस्फुटित एवं विकसित कर दिया जायगा। इस अवधि में हमारे लिये हितकर है कि होते हैं और चक्रों में प्रकट होते हैं । हम उनके आगमन का लाभ उठायें औ्र आत्म साक्षात्कार के द्वारा आध्यात्मिक प्रारी (५) देवता मानव के अतिरिक्त इतर अस्तित्वों के एक विस्तीणं क्षेत्र पर शासन करते हैं : वन जायं । जय श्री माता जी। सत् (goodness) के क्षेत्र में देव गण होते पार होने के बाद आपको ये मालूम होना चाहिए कि हमारे स्वभाव में क्या क्या दोष है। हमारा स्वभाव ही हमारी शक्ति है। जब आप अपने आत्मा के, मत्तलब अपने स्वयं के, बन जाओगें तब तो वहाँ पर सुन्दरता ही नजर अआएगी शऔर बाहर की दुनिया नाटक नजर आएगी। -श्री माताजी निर्मला योग ११ परमपूज्य माताजी का प्रवचन कुण्डलिनी और श्री शिवशक्ति व श्री विष्णुशक्ति अमर हिन्द मण्डल, बम्बई २४ सितम्बर १६७९ जब तक शिवशक्ति का मेल जीव से नहीं होता तथ तक योग धटित नहीं होता है। यह मेल जब घटित होता है तब योग घटित होता है शिव अलिप्त भाव से हृदय में 'क्षेत्रज्ञ' की तरह रहता है । ज्योति, जो जागृत है, ज्योतिर्मय है, वह आरत्मा है । बाकी सुष्तावस्था में है, अरथात जिसमें जागृति नहीं है। जागृति का अर्थ है, हमारा जो जागतिक स्वभाव है या जो सामूहिक चेतना है, उसे प्राप्त होना। जिसे 'अलख कहते हैं या जो 'परोक्ष' है वह हमारे मतलब (क्षेत्र+ ज्ञ) क्षेत्र को जानने बाला। हमारे अन्दर ऐसा कोई है जो हम जो कुछ कर चित्त में जागृत होता है, उसे ही जागृति कहते हैं । रहे हैं उसे जानता है । हम ये जानते हैं कि, अगर हमने अपने आ्ापको ठगने का प्रयास किया और सी ज्योति जलती है और उससे एक गैस लाईट का अपने साथ प्रतारणा की तो अपने हृदय में कोई बड़ा प्रकाश मिलता है तब वह गेस एक बड़ी बैठा है जो है वह 'शिव' है । वह अपने हृदय में आत्मास्वरूप का है । लेकिन ये जो गैस पाईपों से बह रही है बैठा हुआ है । जब तक शिवशक्ति श्र आत्मा का उसे हम सूप्त कहेंगे । क्योंकि वह अभी तक प्रका- योग घटित नहीं होता तब तक ये दोनों शक्तियाँ शित नहीं हुई है। इसलिए सूप्त है। प्रज्ज्वलित अलग समझनी चाहिए । आत्मा की जो शक्ति है केवल वह छोटी-सी ज्योत है। हमारे हृदय में बह साक्षीस्वरूप, चिन्मय है। वह अनन्त है । वह आत्मास्वरूप वह जागृत है, बाकी सुप्तावस्था कभी भी दूषित नहीं हो सकती । उसे आप कभी है कुण्डलिनी जो हमारे अन्दर बैठी हुई है वह भी मार नहीं सकते । आत्मा निलप है, वह किसी शिवशक्ति है । महाकाली की शक्ति हमारी से भी लिप्त नहीं होती । वह अलग कुछ देखती रहती है। मैंने ऊपर कहा है गैस लाईट के भीतर एक छोटी- यह जानता है। वह जाननेवाला जो प्रज्ज्वलित गैस लाईट बनती है उसी तरह इस योग में शुद्ध है और सब कुण्डलिनी में बैठी रहती है । इच्छा हमने प्रयोग में नहीं लायी है । वह शुद्ध स्वरूप है । वहै कुण्डलिनी में बैठी रहती है। जब ये किसी संयोग से या संकल्प मैं उदाहरण के तोर पर बताती है | गेस से जागृत होती है तब वह ऊपर उठकर सदाशिव लाईट (जिसमें बाहर कांच की चिमनी होती है) के स्थान पर जाकर मिलती है । तब हृदय में बेठी के भीतर छोटी-सी ज्योति जलती है, एक छोटी-सी हुई आत्मा को एक चिनगारी मिलती है और उसी ज्योति होती है । वेसे ही अपने हृदय में एक ज्योति चिनगारी से यह शक्ति प्रज्ज्वलित होती है । है। वह आत्मा है। वह बदिस्त (भीतर स्थित) *मराठी प्रवचन का हिन्दी अनुवाद । निर्मला योग १२ वसे तो शिवशक्ति आत्मा की शक्ति नहीं है दस धर्मं मनुष्य में होने ही चाहिएं । वे अगर नहीं परन्तु है भी शुरू में आपने देखा होगा कि हैं तो वह व्यक्ति मनुष्य धर्म से च्युत है अर्थात वह परमात्मा और उनकी शक्ति एक ही है । सूर्य और मनुष्य नहीं। या तो वह राक्षस वनता है, नहीं तो उसकी किरणें एक ही हैं। चाँद और चाँद की जानवर बनता है। मानव रहने के लिए वे दस धर्म किरणं एक ही हैं। ये दो नहीं हैं। उसी प्रकार पेट में स्थित रहते हैं । यह बिल्कुल सच बात है । परमात्मा और उनकी शक्ति दो नहीं हैं। परन्तु अब इन दस ध्मों की रक्षा करने के लिए परमेश्वर मनुष्य प्राणी के समझ में नहीं आता कि दो चीजें ने एक दूसरो व्यवस्था मनुष्य में बना रखी है। यह मनुष्य नहीं जानता कि हमें इस घम में रहना क्योंकि, उनमें सूजन घटित हो रहा है। [अगर वह चाहिए । मानव बनने तक विष्णुश क्ति ने इस परमेश्वर में समायी रहेगी तो कुछ भी सु जन नहीं संसार में स्वयं प्रवतार लिए । आपको यह मालूम हो सकता। जब पूरव्रहा' स्थापित होता है तब है परमेश्वर के अवतरण हुए हैं स्वप्रथम आप सारी सृजन- क्रिया घटित होतो है । इसी शिवशक्ति मछली थे उस समय मछलो रूप में हुआ बाद से एकाकार हुआ है। कछुए के बाद बाद शिवशक्ति से ही क्रियाशक्ति निकलती है। वराह (सूअर) रूप से हुआ है। मतलब हर-एक एकाकार हैं पर वे दोनों एक-दूसरे से अलग हैं । । बाद कुप्ड लिनी पहले घटित होती है । उसके में कूम (कछुआ) रूप से की क्रियाशक्ति और शिवशक्ति के मिलने से विष्णू- जगह आपको ये दिखायी दिया जैसे-जेसे मनुष्य शक्ति निकलती है । विष्णुशक्ति ज्ञानशक्ति है। उन्नति होती गयो बैसे-वैसे परमेश्वर ने स्वयं इस (चेतना) में आया उसे संसार में जन्म लिया और आपका मार्गदर्शन ज्ञान कह सकते हैं । पुस्तकी ज्ञान को ज्ञान नहीं किया । क्योंकि उनके बगैर आपका कौन मार्गदर्शन समझते । जब मनुष्य परमात्मा की खोज में भटकता करेगा ? और केवल विष्णुशक्ति ही अवतार लेती है तब कहना चाहिए कि उसका विषणुतत्व पूर्णं है। बाकी कोई शक्ति अवतरित नहीं होती। उसका रूप से जागृत हुआ है [अंगर ये विष्णुतत्व उसमें कारण है अवतार की जरूरत उत्क्रान्ति के लिए सहजयोग थोड़ा निम्नस्तर का होती है। उत्क्रान्ति का कार्य विष्णुशक्ति से होता हैं । इसलिए केवल विष्णुशक्ति ही प्रवतार लेती है । जिसे हम सहजयोग में महाकाली शक्ति या यह विष्णुश क्ति सभी के पेट में स्थित है। शिवशक्ति कहते हैं, वह भी कभी-कभी अवतरित विष्णुशक्ति से धारण होता है। हम लोगों में धर्म होती है। जब-जब भक्तों पर विपत्ति आई तब-तब के बारे में बहुत विकृत कल्पनाएं हैं। लेकिन घर्म देवी ने संसार में आकर अपनी छत्र छाया से भक्तों । तब वे भी अवतार लेती हैं। मतलव जो हमारे संवेदना जागृत नहीं हुआ तो होता है । को संरक्षण दिया वैसा न होकर अत्यन्त शाश्वत व सनातन है। यह कल्पनाएँ' नहीं हैं यह 'वास्तविकता है । मतलब ' परन्तु मुख्य अ्रवतरण जो उत्क्रांतो में मदद देते हैं कार्बन में अगर बार अणुभार हैं तो सारे कार्बन वह है विष्णुशक्ति के । में चार ही अणुभार होंगे। अगर सोने का रंग पीला है और वह खराब नहीं होता तो बह सोने का धर्म है । प्रत्येक चीज जो अपना अ्रपना घम मिला हुआ है - (बिच्छू -सांप) । वह विष्णुश क्ति अवतरण कहते हैं। इतना ही नही वे विराट हैं । है। ये धर्म प्रगत (उत्क्रान्त) होकर आज मानव स्थिति तक आया है मानव के दस धर्म हैं । ये उनकी एक पेशी हैं। ये जो पेशियाँ हैं वे जागृत होनी अब विष्णुशक्ति अवतरण श्रीकृष्ण का है । इसलिए उसे सम्पूर्ण का पूर्ण प्रादुर्भावयुक्त समझ लीजिए अगर ये विश्व विराट है तो आप निमंला योग १३ उन्होंने मनुष्य के लिए ये घमं बनाया है । ये कार्य होने के लिए यह कुण्डलिनी ये शक्ति जो शिव- शक्ति है, वह स्वयं बह्मरध् को छेदकर ऊपर आती है। उस समय साक्षात्कार घटित होता है। इसके दूसरा मार्ग नहीं है। किसी ने कहा चाहिए और उन्हें मालूम होना चाहिए कि उस सम्पूर्ण का वे एक हिस्सा हैं, अवयव हैं और इस लिए आज हम यहां सहजयोग प्रदान कर रहे हैं । ब मनुध्य विशुद्धि चक्र तक आया । यह चक्र लिये कोई भी श्री कृष्ण का है । माने इसमें सबसे अधिक सोलह एक ही मार्ग कैसे ? एक ही रास्ता है ? पेड़़ में अंकुर पंखुड़ियाँ हैं व सोलह हजार नाड़ियाँ हैं । श्री कृष्ण स्थिति तक अ्ने के बाद मनुष्य ने अरपनों सर ऊपर होना ये एक ही मार्ग है आव और घ्मों में इसके उठाया । उसमें से मानव प्राणं बन गया। विशेषता है कि उसमें 'मैं-पन 'अरह भाव आया । अमक है । ये जो उसमें प्रत्येक घटक अलग आना ये एक ही मारग है । वेसे ही कुण्डलिनी जागत उसकी बारे में बताया गया है कि नहीं ? इसके बारे में बहुत वाद-विवाद होता है । आपने क्रिश्चयन घर्म देखा तो उस में हर तरह से कुण्डलिनी का वर्णन 'मैं होने का भाव है। उस प्रत्येक घटक की जा किया है। श्री क्राइस्ट ने कहा है कि, मैं दरवाजा हूँ परमास्मा ने अलग किया वह एक विशेष क्रिया से मैं ही मार्ग हैं। श्री क्राइस्ट स्वयं कुण्डलिनों का घटित होता है अपने में 'अहंकार व 'प्रति- अरहंकार' ये दोनों बढ़कर ब्रह्मरंध्र के पास जो जगह है यहां आकर मिलते हैं। तब वे एक के ऊपर एक जमा हो जाते हैं । तब वहां स्वस्ति क सतुलन नहीं ? ये किसी ने सवाल किया तो मैं कहंगी पूरा ( कृण्डलिनी तत्व है । नमाज माने दरवाजा व रास्ता हैं । परन्तु उन्होंने कुण्डलिनी- इस शब्द का प्रयोग नहीं किया। इसके बाद मुसलमान धर्म में कुण्डलिनी के बारे में कहा है कि balance) होता है। जमा होने पर तालू ( ब्रह्मरन्र) भर जाती है । बह्मरंध्र का रध्र अ्रथति दूस रा कुछ भी नहीं। कृण्डलिनी ऊपर केसे उठानी है यही उसमें बताया है। पहले जब सोहम्मद साहिब थे तब उन्होंने बताया कि अपने दोनों हाथ फैलाकर घुटनों की सहायता से आप नमाज पढ़िए । तब लोग हंसते छिद्र भर जाता है। तालू भरने के बाद आप सब अलग-अलग हो जाते हैं तब आप मानव बन जाते हैं। इस तरह से आप 'अ 'ब 'क ' तैयार हो जाते हैं। ये सब अपने आपको अलग-अलग समझते हैं । हम निराले- तुम निराले, वे निराले । ह' ये सब थे । ये किसलिए करना है ? उनके (मोहम्मद साहब के अनुयायियों, मुसलमानों के) साथ आज भी हम कुण्डलिनी की बातें नहीं कर सकते । तो उस समय की तो बत ही दूस री थी। स्वयं मोहम्मद साहब परन्तु सचमुच अाप अलग-अलग नहीं हैं। आपमें एक ही शक्ति है । परन्तु उस (बोध, चेतना) को प्राप्त हुए आएगी ? इसलिए परमेश्वर ने आपको पहले बगर आपके दिमाग में ये बात क से दत्तात्रेय के अवतरण थे । परन्तु दत्तात्रय की स्थिति व्या थी वह देखने लायक थी। दत्तात्रेय के अवतरण मोहम्मद साहब को उसका सम्मान प्राप्त अलग-अलग बनाया है। मनुष्य को परमेश्वर ने स्वतन्त्रता दी है । नहीं था। उन लोगों ने ये बात नहीं समझी । तो आपको (मानव को अन्य प्राणियों से) भिन्न बनाया भी उन्होंने लोगों को बताया । श्राप मुसल है। अब अ्प थोड़ा स्वयं सोखे । स्वयं सीखने पर तरह नमाज पढ़िए । नमाज के जितने भी प्रकार आप जान सकोगे कि आप उस सम्पूर्ण के एक हैं वे सारे चक्रों को गति देने वाले हैं अर कृण्डलिनी अवयव हैं, घटक हैं ये जो एक घटक है वह जब जागृत करने वाले हैं । तो ये जो दूसरी शक्ति है जागृत होकर उस सम्पूर्ण से एकाकार होगा तभी वह विष्णुशक्ति के रूप में [आप में वास करती है । उसे (उस धटक को) अपना पूर्णत्व प्राप्त होगा मानों की। । ये जो गूरु लोग हैं दत्तावेय जी का रूप हैं । उन्हें निर्मला योग १४ महाराष्ट्र में हम लोग बहुत सम्मान देते हैं। ये हानिकारक होते हैं । अव हमारे यहां जो कट्टर सभी पेट में विराजित है । उनके तत्व जागत होने लोग होंगे उनको खासकर पेट की तकलीफ होगी चाहिए । बहुत से लोग दत्तात्रेय के भक्त हैं। पर क्योंकि कट्टरता विष्णुतत्व को बहुत हानिकारक सब के पेट खराब हैं। केसी आश्चर्य की बात है ? है इतना हो नहीं, गुरुतत्व का भी इससे विनाश आप दत्तात्रेय के शिष्य हैं तो प्रापका पेट अति होता है । जिस मनुष्य में कट्टरता है मतलब हम उत्तम होना चाहिए। आपका पेट ही खराब होगा। बहुत बड़े हैं हिन्दू, व्राह्मण, क्रिश्चिवन या मुसलमान (कारण आपका गुरु तस्व जागृत नहीं है ।) दत्तात्रेय ऐसे कट्टर कहलाने वाले लोग, सहजयोग नहीं कर की उपासना करने बैठे हैं। दत्तात्रेय कोई ग्रापके सकते । आपको क्या मालूम आरज तो आपने यहां के नौकर नहीं हैं । दत्तात्रेय क्या हैं ये हमें पता है । इसलिए हम उनका वरणंन भी नहीं कर सकते । और आप तो इतने बड़े तत्व को शआह्वान करते आप यहीं (हिन्दू, मुसलमान आदि) सब कुछ हैं ? हैं। उसके लिए आपकी तैयारी है क्या ? और हिन्दुस्तान में तो ये बात कह नहीं सकते क्योंकि इसका आपको प्रधिकार है क्या ? अनाधिकार यहां कहा गया है 'पका पुतः जन्म होता है। चेष्टा करने वाले ये ग्राजकल के तथाकथित गुरु तो आप पूर्व जन्म में क्या थे, क्या सालूम ? हो भी इधर मक्कार (दम्भी) बैठे हैं। उन्हें जरा भी सकता है पूर्व जन्म में आप अंग्रेज हों । और यहां अधिकार नहीं कि वे दत्तात्रेय का ताम भी ले। जो वड़े सन्त लोग हुए हैं वे अंग्रेज बनकर जन्मे ये सारे अनाधिकारी गुरु दुर्गति की ओरोर जाते र प्रापको भी ले जाते हैं। ओर इसी तरह से आपने जो दत्तात्रय का तत्व स्वयं अपने में जागृत होते लगा है वे (अंग्रेज) यहां आकर जन्मे हैं ? करने का जो सोचा है उसमें बहुत दोष हैं और इसी दोष के कारण पेट में तकलोफ होतो है। जन्म लिया है कल मुसलमान धर्मे में जन्म लगे या चायना में । किस बात से आप तय करते हैं घर हैं। और वहां के लोग प्राप यहां जन्मे हों। हैं जल के नेता लोगों को देखकर मूझे शक अब प्रापको समझना चाहिए कि जब हम धम के बारे में बाते करते हैं तब बाह्य घम से ज्यादा अब सहजयोग से अआपको पता लगेगा कि क्या अन्दर के धम को ओर ध्यान देता चाहिए । दोष है । उसका एकत्व कसे साधना है? किस तरह में अपने अआप में द्तात्रेय जागत करते हैं ? विशेषतः हमारे अवत रणों ने दिखाए हैं। राम की एक वार देत्तावेय जागत होने पर धरमं ग्रपने प्राप हो बात देखिए। एक भौल जाति की औरत, जिसके हो जागत होता है । तब अधमं करना हो बड़ा मुश्किल होता है । मुख्य बात ये है कि, इन गुरुप्रों साफ नहीं, बिलकुल वूढ़ी शऔरत उसने बेर तोड़े ने क्या कहा है ये अप जान लो। पहली बात ये है और मुंह में डालकर जूठे बनाए आप खाओगे एक कि उसके अनेक प्रमाण अपने यहां दिखाए हैं । दांत टूटे हुए, बुद़िया, नहाने से वंचित, दांत भी न भी अपने महाराष्ट्रियों को तो जूठे का बहुत य को किसी भी नशे की आदत नहीं होनी ही मनुष्य चाहिए। कोई कहते हैं साईंनाथ (सिरडी वाले) ख्पाल है ! परन्तु राम ने वे अत्यन्त प्यार से खाए । चिलम पोते थे । उनकी तो बात ही अरलग थी । सीताजी से कहा, "मैं त्रापको एक भी नहीं दूंगा परन्तु आपको कोई नशा नहीं करना है । कोई भी सारे मैं ही खाऊंगा, मैंने ऐसे बेर कभी नहीं खाए नशा ही, तम्बाकू हो, शराब हो, सभी गुरुतत्व के हैं। मुझे ऐसा स्वाद भी कभी नहीं आया। तो मैं विरोध में हैं । शराब क्यों नहीं पीनी ? उससे अपने आपको कैसे दें? तो वह भील औरत कहती है मेरे धर्म को और गुरुतत्व को हानि पहुँचती है । फिर पास और भी रखे हैं पर वे दांत से तोड़े हुए हैं । कट्ू रता और ध्मान्धता भो प्र्ने नाभि चक्र को फिर सीताजी को दिए। लक्ष्मण जी को आ गुस्सा निमंला योग १५ tho रहा था । ये क्या मामला है। उनके समझ में नहीं आर रहा था । सीताजी ने कहा ये सच बात है ऐसे वेर मैंने कभी नहीं खाए । और हमारे देवर जी को भी दीजिए । फिर दौड़कर लक्ष्मण जी ने वे बेर लिए। इस त रह का सुन्दर वर्णन है । समय वे परमेश्वर द्वारा दी हुई अपनी शक्ति खींचते रहते हैं । और इसलिए अआपने देखा होगा ऐसे लोगों को हमेशा कुछ न कुछ बीमारी रहती है थोड़े औरतो हमें दीजिए । अ्रब ये गक्ति विष्णुशक्ति पऔर शिवशक्ति है । इस विष्णुशुक्ति से ही ये चक्र बने हैं । स्वाधिष्ठान चक्र भी विष्णुशक्ति से निकला हुआ है। जब इन छह चक्रों को छेदकर कुण्ड लिनी ऊपर जाती है तब वह सम्पूर्ण शुद्ध विद्या कही जाती है । जो शुद्धतस्व विदूर के घर जाकर श्री कृष्ण जी ने खाना खाया । उन्होंने स्वयं ग्वालों की नाति में जन्म लिया। हम कोई बहुत बड़े हैं (यह धर्मान्धता ) माने है वह परमेश्वर की इच्छा से उन चक्रों को छेदकर आपको हिन्दू घर्म बिल्कुल ही समझ में नही आया। जाते समय उनको जागृत करके जाता है । मतलब सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा है और सब उसी की (चारों) ओर घुम रहे हैं । एक ही परमेश्वर सभी हो जाते हैं। वे जागत होते ही उनके (गुण में रहता है । ये अनेकों बार कहा तब भी हमने विपयक) लाभ हमें मिलने लगते हैं। जात-पांत बनाकर रखी है। जात-पात मनुष्य 'स्वभाव' के कारण (अनुसार) होती है । प्रत्येक का 'स्वभाव अ्रलग-प्रलग होता है। ये बहुत ही लक्ष्मी का क्या काम है। लक्ष्मी माने अति अमीर गहरी बात है। 'स्व' भाव उस 'स्व को अभी जाना मनुष्य नहीं, बहुत पसे वाला नहीं। लक्ष्मी का नहीं। आप किस आधार पर जाति बनाते हो ? मतलब है एक हाथ से दान, एक हाथ से अश्रय इस तरह से हमारा ये विष्णुतत्व खराब होता है । और अन्य दो हाथों में कमल जो कंजूस प्रर कदू मतलव पहले से ये कल्पनाएं बनाकर रखना-ये मनुष्य है उसमें लक्ष्मीतत्व बिल्कुल नहीं है जो ठीक नहीं, वह ठीक नहीं। आपको कैसे पता चला ? ये आप कैसे पहचानोगे ? यह कि आपमें बैठे हुए जो सुप्त देवता हैं वे जागृत के लक्ष्मीतत्व जागृत होते हो आपको मालू म है मनुष्य कमल की तरह अत्यन्त प्रममय अर्थात् जिसके घर में कोई भी जाए, यहां तक कि भौरे जैसा काँटे वाला भी उसके घर जाए, तो उसे वह संरक्षण दे ऐसा जो करता है वही हम।रे यहाँ जाता है। पर इस तरह के चक्र का विष्णुतत्व जागृत हुआ तो उसके आगे लक्ष्मीपति हमारे यहां कितने हैं ? नहीी के बराबर स्वाधिष्ठान चक्रों के बारे में मैंने कहा है कि, ये ही हैं। परन्तु आप उसे लक्ष्मीपति कहते हैं जो पैसे क्रियाशक्ति स्वाघिष्ठान चक्र से कार्यान्वित है जिन वाले हैं जिनके पास इतने पेसे हैं कि गधे पर लादें । उन लोगों को कभी भी घर्म नहीं मिलता । श्री लोगों को स्वाधिष्ठान चक्र की बहुत तकलीफ होती क्राइस्ट ने कहा है, जिन लोगों के पास अति पैसा है है क्योंकि सारी शक्ति विष्णुतत्व से स्वाधिष्ठान वे कभी भी प्रभू के साम्राज्य में नहीं आ सकते । चक्र में खिचती है। जो ग्रति कर्मी मनुष्य होता है किसी ऊंट को सूई की छेद में डाला तो वह जा उसे समय ही नहीं मिलता कि मेरी उत्क्रान्ति होनी सकेगा लेकिन ऐसा मनुष्य (पैसे वाला मनुष्य) सहजयोग में नहीं आ सकेगा। इसका कारण है चाहिए। उसका उन्हें विचार ही नहीं पराता । पूरे कि ऐसे मनुष्य को सभी जगह पैसा ही पैसा नजर इसके लिए पहले आपका विषणुतत्व जागृत होना चाहिए । वह आपके नाभि चक्र में है । नाभि लक्ष्मीपति माना लोगों को अत्यधिक कर्म करने की आदत है उन चाहिए और मेरा विशेष कोई प्र्थ निकालना १६ निमंला योग आता है । और कुछ भी नहीं दिखाई देता । न तो अपने मां-बाप, न भाई-बहन, न पत्नी, कुछ भी है, बादशाह होता है। ऐसे नहीं दिखाई देता। केवल मैं कितना बड़ा औ्और मेरे पास कुछ भी न होते हुए भी मौज-मस्ती में रहता मनुष्य को देखकर आपको लगेगा कि ये जो शक्ति है वह उसमें तृप्त पास कितना पैसा । फिर वह पेसा खत्म होते ही है प्रब कुछ शप्रागे की सोचना चाहिए, कुछ औ्र उसे मालूम होता है वह मनुष्य कहां गया है । दूसरा होना चाहिए। अब तक जो सन्तोष हुआ, बहुत पसा होने से भी अ्रापको मालूम है मनुष्य को खूब हुआ। अब और कुछ नहीं चाहिए। जो प्रपंच नखरे सूजते हैं, बह कहां खच करे । पेसा बस थोड़ा (ग्रहस्थ धर्म) हुए बहुत हुए। इसके अआगे क्या है ? जागृत (प्रग्रसर) अगर अपने में जागृत हो गयो तो ही मनुष्य की होता है । फिर उसमें भी मनुष्य का दिमाग चलता उन्नति हो सकती है। मतलब उसका चित्त पैसों है । पहले एक व्राह्मण को बुलाएंगे। मैं तुम्हें पैसे के बजाय समाधान पर आने से वह उन्नति मागे देता है, तुम पूजा करो। नहीं तो किसी मन्दिर के पर आने लगता है । अगर समाधान ही पंसों से लिए सो पांच सौ रुपया चंदा दे देगा। वाह ! वाह ! नहीं पया (तो उसका तो उल्टा परिणाम निकलता हमने चंदा दिया। नहीं तो एक मन्दिर ही बनाएंगे। इस (अपनी आर्मा के) मन्दिर का क्या होने वाला मकान बनाने के बाद लगा अब मोटर खरीद ले, है? यहां है कि नहीों भगवान अपने आपमें ? यहां तब मनुष्य धार्मिकता की शर बहुत हो, जिससे समाधान मिले ऐसी विष्णुशक्ति र है ।) मतलब एक मकान बनाना है तो बनाया, मोटर के बाद लगेगा एक विल्डिंग बना ले, कुछ ना कुछ हमेशा चलता ही रहेगा। मतलब कभी भी हमें सन्तोष नहीं मिलेगा। ये जड़्व स्थूल है । उससे य को कभी सन्तोष मिलने वाला नहीं । के भगवान आपने जागृत किए कि नहीं । आपमें ही बैठा हुआ आत्मा है। [आपमें ही परमात्मा है। आ्रप उसी को क्यो नहीं जागृत मनुष्य ये जड़ वस्तु है जड़ वस्तु से हमेशा जड़ता आती है। करते ? कारण ये है कि मनुष्य को प्रपने आपको जड़ता से समाधान नहीं आएगा। मानिए किसी को देखना बड़ा कठिन लगता है। वह अपने प्रपको कुर्सी की आदत हो गयी तो बह जमीन पर नहीं नहीं देख सकता । उसके लिए कुण्डलिनी की व्यवस्था है । ये कुण्डलिनी एकदम उठती है, ऊपर आती है। क्यों ? सबके सब देवता जागृत होते हैं। अब बहुतों को लगता है कुण्डलिनो जाग्रण माने बैठ सकता । माने कुर्सी उसे चिपक गयी। मतलब जड़ता जो है वह मनुष्य को आदतें डालती है। किसी भी जड़ वस्तु की मनुष्य को आदत जब लग जाती है वह धीरे-धीरे उसी में लीन होने बहुत बड़ा भारी काम है । पर वैसा कुछ नहीं है । आपने कल देखा कितना आसान काम है। कल लगता है । और उसका जो कुछ सत्व है वह नष्ट कितने लोगों को पार किया ? कल कित ने लोगों को ठंडी लहरें शयीं ? ये अरत्यन्त आसान काम है । परन्तु ये जो कर सकता है उसी को आता है । जिसे नहीं आता है उसे इसमें नहीं पड़ना चाहिए जिसे इसका हो जाता है । किसी भी जड़ बस्तु से मनुष्य में समाधान नहीं आ्रा सकता । केवल परमेश्वरी तस्व से समाधान अर सकता है । जब तक प्रापका आत्मा ्रापसे पलावित नही अनाधिकार चेष्टा नहीं करनी चाहिए । होता प्रस्फुटित नहीं होता, स्तंभित नहीं होता तब तक आपको कभी भी सन्तोष नहीं मिल सकता। आप चाहे जितने भी पैसे कमाओ, चाहे जिस सत्ता पर जाकर बेठो, परन्तु तब भी आप का मुंह लटका हुआ ही रहेगा। परन्तु ऐसा एक मनुष्य जिसके अ्रधिकार है उसके लिए ये पूरी लीला है । जो कुछ महत्वपूर्ण है जैसे श्वास-प्रश्वास, रक्त संचालन ) वह सब आसान होना चाहिए। तो प्रव ये जो शिवशक्ति आप में बांयी तरफ है वही सदाशिव है व प्रापमें यहां (हृदय चक्र) पर विराजित है । क्योंकि , उनमें निमंना योग १७ आत्मा ओर शक्ति दोनों है । उस स्थिति में जब अपको क्षमा माँग नी चाहिए। शिव से कहना कुण्डलिनी ब्रह्मरन्ध्र को छेदती है तब वह प्रकाश चाहिए, हमारी गलती हो गयी आप करुणासागर सभी ओर फैलता है और आप एक नयी अवस्था हो, दयासागर हो । प्राप हमें माफ कर दीजिए। में पहुँच जाते हैं। एक नये औयाम में उतर आते अब हम ठीक से चलगे । हैं। आपकी चेतना को एक नया रूप मिलता है । मतलब आपकी चेतना में प्रज्ज्वलितता आती है । इसमें 'प्र शब्द का प्रयोग किया गया है। 'प्र माने उनमें ज्यादा से ज्यादा दो-चार सच्चे गुरू हैं । बाकी जो प्रकाशित है वह । अन्दर एक दीप है, पर वह संब ठग हैं। और भयंकर कि उनके फोटो घर में जला हुआ नहीं है। उसका कोई मतलब (साथंकता) रखे हैं । अब मैं कहती है अब कलियुग खत्म हो नहीं है। वह जलाने से ही प्रज्ज्वलित होता है। वैसे गया है और संत्ययुग की शुरूआत हुई है उन ही आपका चित्त है, वह तब प्रज्ज्व लित होता है, उससे प्रकाश फेलता है और उस प्रकाश में सब केन्सर की बीमारियाँ होंगी, और सहजयोग के कुछ दिखाई देता है । अब आपको कुछ नहीं दीख बगर वह ठीक नहीं होंगी। रहा है। अलख है, अपरोक्ष है ऐसा कुछ लोग रखिए अगर पने इन गुरुआओं की ओर गरन्दे लोगों बोलते हैं। और उसी के कारण कुछ नहीं समझ आता कि इसका क्या उपाय है ? उपाय है । अरपमें प्रकाश है। आपको आर्म-साक्षात्कार होना चाहिए। रही हैं। बगर आत्मसाक्षात्कार के आपकी अविद्या नहीं जाएगी। और ये घटित होना बहुत जरू री है । बह परमेश्वर का कार्य है। उन्हें ये कार्य करना ही है। उन्होंने इस संसार का सुन्दर सपना रचा है भठापन कितना पक्का हो गया है। इस और उनकी ये रचना फलीभूत नहीं हुई तो घ्मान्धता से और इस तरह के मन्दिरों में जाकर परमेश्वर का कोई प्र्थ (महिमा) नही रहेगा। और इधर-उधर जाकर अपना जीवन बर्बाद कर तो उन्हें ये कार्य करना ही है और वह करसे करना रहे हैं। कुछ तो मार्ग दिखाइए, प्रकाश दीजिए है ये उन्हें मालूम है । यहां से बहां इस महाराष्ट्र में इतने गुरु हैं। ला गुरुग्रों की वजह से आपको कैन्सर, ल्युके मिया, इसलिए पआ्राप व्यान की सेवा की तो उसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे । ये एक माँ के प्यार से व अत्यन्त करुणा से कहै सहजयोग से आापमें प्रकाश आएगा इस प्रकाश से अप जानोगे बाहर कितने गन्दे काम हो रहे हैं। ये ये मनुष्य का शरीर आपका पता नहीं परमात्मा ने कितनी मेहनत से बनाया है। कितनी योनियों से बहुत से लोग कहते हैं. माताजी, हम शिव के निकालकर आपको इस स्थिति में लाया है। इस प्रयोग करना चाहिए । हम बिलकुल सच बात है, (बिना कुण्डलिनी जागरण) कौन हैं ? परमेश्वर ने हमें किस स्थिति से यहां (इस स्थिति में) लाया है? कितने प्यार से, अनाधिकार वेष्टा करने से शिवशक्ति जो है वह कितना पालन- पोषण करके आज हमारो उन्होंने क्रोधित होगी। वह शिवशक्ति परपके अस्तित्व का इतनी सुन्दर सुन्दर भक्त हैं। फिर भी उन्हें हृदय की शिकायत ! स्वतन्त्रता का हमें शिव के भक्त माने निश्चित हृदय विकार ! स्थिति बनायी है। इस इतने हुए मनुष्य देह को, अपने मन को और इस पूरे मानव व्य क्तित्व को कोन सी स्थिति में लाया है, कहां बिठाया है, इस का विचार करिए। अपनी मान्यता (मैं कोन है) होनी चाहिए। एक बाना कारण है । (अनाधिकार चेष्टा करने से) आपका बने इस लिए अपको हृदय की तकलीफ होती है । परन्तु उसका इलाज है । तो क्या करना चाहिए ? क्षमा मांगनी चाहिए। शिवजी से अस्तिर्व ही नष्ट होगा इसलिए निरमला योग १८ (सेनिक पोषाक) होना वाहिए मनुष्य में समझदारी गुरुप्रों के प्रकार देखकर मुझे इतना दुःख इतना का कि, हम कौन हैं ? कहां जाएंगे ? हमें क्या क्रोध आता है कि कभी-कभी लगता है प्रगर संहार- चाहिए ? तो आप आइए ओर प्रपना कल्याण शक्ति प्रयोग की तो इनका सहज संहार परमेश्वर करबा लीजिए । उन गुरुआं के पीछे बेकार में प्रपने कर सकते हैं । पर संहार करके भी क्या करें ? आपको मत परेशान करिए। श्र 'स्व को प्राप्त वयोंकि, कलियुग वाली स्थिति हो गयी है "यदा होने के बाद उन गुरु प्रों से केसे छुटकारा पाता है " हुआ है | ये सीख लोजिए । उनसे बहस करने और लड़ने परन्तु इस दुनिया में ऐसे कोन से साधु हैं ? मत जाइए। वह आपके बस का नहीं है । यह आपसे परिमारणाय साधुनां विनाशायात् दुष्कृत्ताम् नहीं होगा। ये बात सत्य है आप कितने भी दुष्कृत्यों का मुख्य है साधु में इसलिए पहले इनके बलशाली हों पर फिर भी वे लोग अत्यन्त दूष्ट होते दिमाग में घुये हुए दूष्कृत्य निकाजने पड़ेंगे। तभो हैं और उनमें इतनी गंदी विद्याएं होती हैं श्रोर वे उनको पार कर सकते हैं । अत्यन्त नाजुक स्थिति इतने पतित होते हैं (कि आप उनसे लड़ नहीं सकते) है । मुझे दीख रहा है कि आपके मस्तिष्क में वे तो मुझे बारम्बार कहना है कि ऐसे लोगों के पीछे घुसे हैं । तो इन्हें निकालना चाहिए, वे (मस्तिष्क आप गए भी हों तो उन्हें सहजता में छोड देता स्वच्छ करने चाहिएं । वे ठीक से निकालकर आपको चाहिए। अगर आपने उन्हें सहज में छोड़ दिया तो आपकी जगह विठाना है। और प्रापकी जो संपदा उससे बहुत लाभ होने वाले हैं। कभी-कभी इन है वह आपमें विठानो है । यदाहि घर्मस्य ग्लनिर्भंवति भारत आपको ये साक्षात्कार की दुतिया (परमात्मा का साम्राज्य) की पहचान बहुत दिनों से नहीं हो रहो हैं क्योंकि 'नि:' शब्द का मतलब जानकर आप उसका अनुस रण नहीं कर रहे हैं । समझ लीजिए आप इस शब्द के मतलव को तरह अचरण नहीं कर पा रहे हैं, मतलब अ्राप कभी भावुक अरर कभी धमण्डी बन रहे हो, परन्तु अ्रपकों इसका अत्यंत दुःख हो रहा है। तब आप इस दुनिया की अरतिशय स्थित पर उतारू हो । मतलब न अाप इस दुनिया में हैं और न उस मिथ्या दूनिया में हैं। परमात्मा की इस दूनिया में केवल आप ध्यान घारण द्वारा हो अपने आपको ले जा सकोगे । के बल निः' शब्द का अपको अपने जोवन में अनुपरण करना है, फिर आप निर्विचार वन सकते हैं। श्री माताजी मैं कभी भी घड़ी नहीं देखती। मेरी असलो घड़ी तो निर्विवारिता में है । वह हमेशा के लिए रुकी हुई है। जिस समय जो बात करनी है और करनी चाहिए बिल्कुल उसी समय वह हो जाती है। -श्री माताजी १६ निर्मला योग श्री गणपत्यथर्व शीर्षम् हमारे कान जो सत्य है उसी को सुन । हमारे नयन जो शुद्ध है उसी को देख। हमारा तन-मन-धन ईश्वर की स्तुति में लगा रहे- ध्रवण करने वाले इससे ईश्वरी ज्ञान को प्राप्त करें, ना मेरी आवाज सूने । इसी प्रार्थना से, इसी ज्ञान से, इसी प्ररणा से परम् परमेश्वरी माता जी की करें। हमारा ध्यान प्रकाशित औ्र समृद्ध हो तथा सभी सहजयोगी पुजन बांधव करुरणामय एवं निरामय आनंद का लाभ उठाएं । प्रार्थना- "र्वमेव साक्षात् श्री गणेश साक्षात् माताजी श्री निर्मला देव्ये नमो नमः ।" श्री जीसस साक्षात श्री आदिशक्त ॐ नमस्ते गणपतये । त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि त्वमेव केवलं कर्ताऽसि । त्वमेव केवलं धर्ताऽसि । त्वमेव केवलं हर्ताऽसि । त्वमेव सर्व खल्विदं व्रह्मासि । त्वं साक्षादात्माsसि नित्यम् ॥१॥ आप ही साक्षात् तत्व है । आप ही साक्षात् सभी क्रियाओं के कत्त्ता हैं। जो घटित हुए हैं, होते हैं, तथा होंगे। आप ही साक्षात् हैं support) करते हैं। जो सभी आधारितों (supported) को घारण निर्मला योग २० thc प्राप ही साक्षात् हैं जो सभो रक्षितों की रक्षा करते हैं । आप हो साक्षात् सर्वत्र निरंतर प्रतीत होने वाले आत्मा हैं । ऋतं वचिम्र सत्यं वचित्र ॥२॥ मे रो वाचा विशुद्ध एवम् पवित्र तत्व का उच्चारण करे। श्रव त्वं माम् । अब बक्तारम्, अव श्रोतारम् अ्रव दातारम्, अरव घातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । पश्चात्तात्, अव पुरस्तात् । अ्रबोत्तरात्तात् अ्व दक्षिणात्तात् । अब चोधत्तात्, अवाधरात्तात् । सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३।| आप मेंरी ओोर हम सब को, जो इस स्तूति का गायन कर रहे हैं, जो सुन रहे हैं, जो इसे दूसरे को प्रदान करते हैं एवस् जो इसे स्वोकार करते हैं परोर इससे संलन्त रहते हैं, उनकी पू्र दिशा से, पदिवम दिशा से, उत्तर दिशा से, दक्षिण दिशा से तथा ऊपर एवम् नीचे से, सभो दिशागं से सर्वत्र रक्षा करें। त्वं वाङ मयस्त्वं चिन्मयः । त्वमानन्दमयस्त्व बरह्ममयः त्वं सचिचिदानन्दाद्वितीयोऽसि । त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।।४।। शब्दों से प्रतीत होने वाला ईश्व र तस्व आप का स्वरूप है । विशुद्ध चित्त जिससे ईश्वर का ज्ञान होता है वह आपका स्वरूप है । विशुद्ध प्रानंद जो ईश्वर से प्राप्त होता है वह प्रापका स्वरूप है । औप बरह्ममय हैं। आप संपूरण ग्रद्वितीय सच्चिदानंद स्वरूप हैं । निर्मना योग २१ ल आप साक्षात् वहा है । विशुद्ध ज्ञान आप का स्वरूप है । सर्व जगदिदं त्वत्तो जायते । सर्व जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति । सर्व जगदिदं त्वयि लयमेष्यति । सर्व जगदिदं त्वयि प्रत्येति । त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः । त्वं चत्वारि वाकपदानि ।॥५।॥ यह संपूर्ण जगत् आप के कारण निर्माण होता है। यह संपूर्ण जगत् आप के कारण स्थित है । यह संपूरों जगत आप के कारण प्रतीत होता है। यह संपूर्ण जगत का विलय आप में होता है। और उसके पश्चात केवल आप ही साक्षीस्वरूप रहते हैं। आप पृथ्वी हैं, आप जल हैं, आप बायु हैं, आप अश्नि हैं, आप अकाश हैं । परा, पश्यंति, मध्यमा, वैखरी आप का स्वरूप है गुरगत्रयातीत: त्वं देहत्रयातीतः । त्वं । त्वं कालत्रयातीतः । त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् । त्वं शक्तित्रयात्मकः । त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् । त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अ्रग्निस्त्वं |त वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्यं व्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥ आप सर्व, रज, तम तीनों गुणों के परे हैं। आप स्थूल-सूक्ष्म तथा कारण तीनों देहों (शरीरों) के परे हैं निर्मला योग २२ प्रप वर्तमान, भुत, भविष्य तीनों कालों के परे हैं । आप निरंतर मुलाधार चक्र में स्थित हैं । महालक्ष्मो, महासरस्वती, महाकाली शक्तियां आप में कार्यान्वित हैं । जो ईश्वर से तादात्म्य पाते हैं वे योगी आपका घ्यान करते हैं । आप ब्रह्मी, विष्णु, रुद्र हैं। आप इन्द्र, अ्रग्नि, वायु हैं। आप मध्या ह्र काल के सूर्य एवं पूर्णमासी के चन्द्रमा हैं। इन सबके द्वारा प्रोकारस्वरूप आप भू-लोक, वायु-मंडल, आकाश में भरे हैं, तथा उनके भी परे हैं। गणादि पूर्वमुच्चार्य, वर्णीदि तदनन्तरम् । अनुस्वारः परतरः । अर्धेन्दुलसितम्, तारेण ऋद्धम् । एतत्तव मनुस्वरूपम् । गकारः पूर्वरूपम्, शकारो मध्यरूपम् । अ्रनुस्वारश्चान्त्यरूपम् बिन्दुरुत्तररूपम् । नादः सन्धानम्, संहिता सन्धिः । सैषा गणेशविद्या | गणके ऋषिः, निचुद् गायत्रीच्छन्दः । गणपतिर्देवता । ॐ गं गणपतथे नमः ॥७ ॥ गरणों में प्रथम जो आप हैं उनका उच्चारण करके तत्पश्चात वर्णमाला का उच्चारण करते हैं। अरधथ-चन्द्र मा धारण किए हुए आप सभी अक्षरों के परे हैं । आप तारे और चन्द्रमा के भी परे हैं। ग' प्रथम रूप 'अ' मध्यम रूप और अनुस्वार अंतिम रूप तथा बिन्दु उत्तर रूप, इनका अनुसंधान वेकदों का ज्ञान देने वाला है । यही गणेश विद्या है । इनके ऋषि गणक हैं तथा छंद गायत्री हैं। [और देवता गणपति हैं। ॐ गं गरणपतये नमः | २३ निमंला योग एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दंती प्रचोदयात् ॥८॥ हम एक दंत ( श्री गणेश) को जाने । वक्रतुंड (जो दुष्टों का नाश करता है) का ध्यान करें। वह दंती (श्री गणेश) हमें प्रेरणा दें। एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् । रदं च वरदं हस्तविध्राणं मषकध्वजम् ।। रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् । रक्तगन्धानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ।। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारण मच्युतम् । आविर्भृतं च सृष्टयादो प्रकृते: पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ।।8॥ एक दंत जिनके चार हाथ हैं, जिन्होंने पाश, अकुश और शक्ति को धारण किया है औौर अभय प्रदान किया है, मुषक जिनका वाहन है । आप के वस्त्र लाल हैं, आप लाल रंग से सुशोभित किए जाते हैं। लाल रंग का गंध अप को लगाया जाता है। आप किए जाते हैं । मक की पूजा में लाल रंग के फूल अपेण अपने भक्तों के प्रति आप को असीम प्रेम है, आप सारे विश्व के रचयिता हैं । विश्व का प्रारंभ, विश्व का निर्माण होने से पहले आ्रप थे। आप प्रकृति व पूरुष इनके भी परे हैं। इस प्रकार अप को ध्यान करने बाला योगी सभी योगियों में श्रेष्ठ है । निर्मला योग २४ नमो वरातपतये । नमो गणपतये । नमः प्रमथपतये । लंबोदरायेकदन्ताय । नमस्तेऽस्तु विध्ननाशिने शिवसुताय । श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥ १० ॥ ॐ नमो निर्मला जी सहाय नमो नमः । ॐ जीसस आप की शक्ति की हम सभी शरण हैं। हमारी स्मृति एवं क्रियाशीलता आापको अपित है । आप उन्हें प्रकाशित करें । आप ही वह शब्द हैं जो संबसे पहले था। आप ही वह शब्द हैं जो सबके अंत होने के बाद भी रहेगा। श्री गणश आप को बारबार प्रणाम । श्री शिवजी के गणों के नेता श्री गणेश प्राप को प्रणाम । वासनाग्रों पर नियंत्रण करने की शक्त देने वाले गणेश अआप को प्रणाम । लंबोदर गणेश अप को प्रणाम । एकदंत श्री गरणेश आप को प्रणाम । विध्नों का विनाश करने वाले गरश आाप को प्रणाम । आदिशक्ति माताजी निर्मला देवी के प्रिय पुत्र श्री गणेश आप को प्रणाम । प्रसाम। आदिशक्ति माताजी को प्रसन्न रखने वाले श्री गणेश अरप को प्रणाम । (चतुर्थ कवर पृष्ठ का शेष) हे मां ! तेरी भव्यता से मन मुग्ध हुआ देख रहा, तन में चैतन्य भरा है ।।१५॥ भक्ति-भाव भर जाते हैं । पद कमल स्पशं करने बरबस, मस्तक हमारे झुक जाते हैं ।। १३॥ सुध-बुध खो कर मन, मुक्त विचार हो जाता है । तल्लीन तेरे चरणों पर, सत्चिदानंद से भर जाता है ।।१६।। सम्पूर्ण मुक समर्पण, से आते हैं। হबद न मुख करुणा-सागर के सामने, तेरे बालक बन कर जिसने, सजल नयन हो जाते हैं।।१४।। परम सोभाग्य पाया है । आानंदातिरेक से गद्गद् हृदय, नि्भला विद्या के प्रकाश में, 'भरम सहजयोग का पाया है ।।१७॥॥ वाणी ने मौन धरा है । Registered with the Registrar of Newspapers under Regn. No. 36999/81 ॐ L जय श्री माताजी 5 माता निर्मला महिमा सब रंगों की जननी शुभता, विराट की शक्ति, वीरायंगता खिल ब्रह्मांड की स्वामिनी हो । प्रभु की परम प्रकृति प्रदिवक्ति, सब जग की तुम जननी हो ।। १॥ तुम धवला हो । मानव-नित को निर्मल करने वाली, माता निमंला हो ।।७।। गंभी रों की गंभीरता, है असीम अखण्ड विस्तार तेरा, अगाघ ते री गहराई है । वोरों की वीरता हो । धीरों की धोरता तुम, चंचल- चित की स्थिरता हो । ॥॥ समस्त लोकों भुवनों में सत्ता तेरी समाई है ।॥२॥ भक्ति भावों की अभिव्यक्ति, तेरी श्क्ति अनन्त अपार, सबकी जोवनी शक्ति हो । सकल सृष्टि रचाई है। ग्रह नक्षत्र तारों भरे नभ के नीचे, हरी भरी घरती मनोहारी बनाई है ॥ ३॥ सत्तिदानंद दायिनी तुम, जीवन्मुक्तों को मुक्ति हो ।।8।॥ सब आधारों की आधार, अमर ज्योति है प्रकाश तेरा, परम पबित्रता हो । अनन्त जीवन का प्राण है। तेरा प्रेम ही सत्य है, नीले गगन की गहराइयों की, तुम नीरवता हो ।।४।॥ परमानन्द तेरा ज्ञान है ।।१०॥ तेरी आँखों में परम शान्ति का, मानवी-चेतना की पराकाष्ठा, जब ज्ञान तेरा आता है। सांगर समाया है । नक्षत्र-तारे खचित अंतरिक्ष में, साम्राज्य नीरवता का छाया है ।।५। तुझको जानने के बाद, कुछ शेष नहीं रह जाता है ।। ११॥ असंख्प तारों को गंथने वाली, हे माँ ! तुम आकाश गंगा हो । सब जग को तारने वाली, बहु-आयामी गति तेरी है उपमायें सब तुझसे पाते हैं । तुझमें उत्पन्न होते संब, तुझमें ही समा जाते हैं ।। १२॥ तुम विश्व गंगा हो । । इ॥ (शेष तृतोय कवर पूष्ठ पर) Edited & Published by Sh. S. C. Rai, 43, Bunglow Road, Delhi-110007 and Printed at Ratnadeep Press, Darya Gani, New Delhi-110002. One issue Rs. 8.00, Annual Subscription Rs. 40.00 ; Foreign [ By Airmail £ 9 $ 16] ---------------------- 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-0.txt निर्मला योग द्विमासिक वर्ष ४ अक २१ सितम्बर प्रक्टूबर १६८५ परी + पुज ्र ई कि ॐ ्वमेव साक्षात्, श्री कल्की साक्षात्, श्री सहस्रार स्वामिनी, मोक्ष प्रदायिनी माता जी, श्री निमला देवी नमो नमः ॥ ी णा ी 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-1.txt निर्मल धुन" (तज : रघुपति राधव राजा राम) भज मन प्यारे मां का नाम, भज मन प्यारे निरमल नाम ।। भज मन ।। का माँ का नाम है प्रम महान, मां का नाम है मोक्ष का ज्ञान । मंगल माँ का नाम, जन ग सबको मिलता है वरदान ।। भज मन ।। क्य। गोरे हैं और क्या काले, सब हैं उनकी गोद के पाले । क्या गरीब प्रोर क्या धनवान, सारी जग उनकी सर्तान ।। भज मन ।। न हिन्दू न मुसलिम जात, न कोई सिख न क्िस्तान । कोई नीच न कोई महान, मां का प्यार है एक समान ।। भज मन ।। अपने तन को मंदिर जान, तज दे रे मिथ्या अ्रभिमान । हर प्राणी में माँ की जान, इसी से होगा अब कल्यान ।। भज मन ॥ निर्मल नाम निर्मल नाम, निमंल निर्मल निर्मल नाम । निमल माँ का निर्मंल नाम, निर्मल निर्मल माँ का नाम ।। भज मन ।। माँ का नाम माँ का नाम, माँ का निर्मल निमल नाम । मां का नाम निमंल नाम, सबसे प्यारा माँ का नाम ।। भज मन ।। -रतन विश्वकर्मा निर्मला योग द्वितोय कवर 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-2.txt म सम्पादकीय "दुखिया मूवा दुःख कौ, सुखिया सुख की झूरि । सदा अनंदी राम के, जिनि सुख दुःख मेल्हे दूरि ॥।" - श्री कबीर मध्य मार्ग ही आनन्द का मार्ग है । अति चाहे जो भी हो वर्जित है । श्री कबीर दास जी कहते हैं कि दुःखिया भी मर रहा है और सुखिया भी मर रहा है, एक अत्यन्त दूसरा अत्यन्त सुख से । दु:ख से और राम के जन ही सदा आनन्द मनाते हैं जो सुख श्रौर दुःख दोनों से ही दूर रहते हैं । यह स्थिति निर्विचारिता में ही प्राप्त की जा सकती है । ॐ त्वमेव साक्षात् नमो नमः । निर्विचारिता साक्षात् शरी आदिशक्त माताजी श्री निर्मला देवी निमंला योग १ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-3.txt निर्मला योग ४३, बंगलो रोड, दिल्ली-११०००७ संस्थापक : परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी सम्पादक मण्डल डॉ शिव कुमार माथुर श्री आनन्द स्वरूप मिश्र : श्री आर. डी. कुलकर्णी प्रतिनिधि कनाडा : लोरी एवं कैरी हायनेक 1540, टेलर वे वैस्ट बैन्कूवर, B.C. VIS 1N4 यू एस.ए. श्रीमती क्रिस्टाइन पेंट् नीया २७०, जे स्ट्रीट, १/सी ब्रुकलिन, न्यूयार्क-११२०१ यू के. श्री गेविन ब्राउन भारत ध्री एम. बी. रत्नान्नवर १३, मेरवान मैन्सन गंजवाला लेन, बोरीवली (पश्चिमी) बम्बई-४०००९२ ब्राउन्स जियोलॉजिकल इन्फ़र्मेशन सर्विस लि., १३४ ग्रंट पोर्टलेण्ड स्ट्रीट लन्दन डब्लू. १ एन. ५ पो. एच. इस अंक में पृष्ठ १. सम्पादकीय २. प्रतिनिधि ३. विश्व 'निर्मल' धमं की स्थापना ४. देवताओं के विषय में प्राथमिक ज्ञान ५. कुण्डलिनी श्रर श्री शिवशक्ति व श्री विष्णुशक्ति ६. श्री गणापत्यथर्व शीर्षम् ७. निमंल धुन (अ्रारती) ८. माता निर्मला महिमा २ ३ ६ १२ २० -.. द्वितीय कवर चतुर्थ कवर निमंना योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-4.txt विश्व 'निर्मल' धर्म की स्थापना सहज मन्दिर, नई दिल्ली २६-३-१६८५ आज आप लोग हमारा जन्म- दिवस मना रहे हैं । यह एक बड़ी सन्तोष की बात है क्योंकि इस कलियुग में कौन मां का birthday (जन्म इससे हमने क्या-क्या सुख हैमें क्या फायदे हुए, उठाया, यही सब मैं सुनती रहती हूं । इस से हमारा जो कुछ भी लाभ हुआ हैं, जो भी हमारा अच्छा हुआ है, बो एक बजह से, एक कारण से हुआ है दिन) इस उम्र में मनाता है। इसलिए कि हमने अपनी आत्मा की प्राप्त कर लिया । यह द्योतक है कि आप लोग इस लेकिन प्रकाश जब आपके प्रन्दर ा गया, जब कलियुग में जन्म लेकर के भी अपने आप दीप हो गए, तब दीप को आप कहीं छिपा के मातुधर्म से परिचित ही नहीं लेकिन उसका नहीं रख सकते । दीप को आपको उधाड कर रखना चाहिए । और सहजयोग, कितनी वार मैंने कहा कि, 'समाजोन्मुख' है, समाज की ओर उन्नुख इस उम्र में तो जन्म दिन मनाना माने एक- है, वही सहजयोग है । जो प्रकाश फैलाता नहीं है एक साल घटता ही जा रहा है। और हुत से काम ऐसे प्रकाश का कोई भी उपयोग नहीं। तो हर करने के बचे हुए हैं वहत से अभी कार्य मुझे सहजयोगी को सोचना चाहिए कि मैंने कोन से दिखाई दे रहे हैं जो कि अधूरे से हैं । उन पर दायरे में, कौन से अन्दाज से, सहजयोग फैलाया । मेहनत करनी होगी, ध्यान देना पड़ेगा, तभी बो पहले तो अपने व्यक्तित्व में विशेषता आ जाय, और उस विशेषता को पाने पर मैंने कितने व्यक्तियों ॐ |।ि अवलम्बन भी करते हैं। पूरी तरह से होंगे । को चमत्कृत किया। दिल्ली में जो काम मैंने कल कहा था कि हमें अपनी सभ्यता की ओर ध्यान देना चा हिए। हमारो सांस्कृतिक स्थिति भी ठीक करनी चाहिए । और लीजिए, किसी भी देश में, तो पहला सवाल उठता तीसरी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है वो ये कि है कि यहां के मानव की स्थि ति क्या है ? इनमें हमारी जो आत्मिक उन्नति है, उसकी प्रोर हमें कौन-कौन से ध्यान ही नहीं देना चाहिए, पर जसे कोई एक conditionings ( संस्कार, आदतें) हैं, इनके शहीद सर पर कफन बाँध करके किसी कार्य में अन्दर कितना अहंकार है ? उसका माप दंड संलग्न होता है, उसी प्रकार हमें 'सरफरोशी की देखा जाता है [पऔर फिर सोचते हैं कि तमन्ना ले करके सहजयोग करना चाहिये । जब यह कार्य होगा या नहीं। सबसे बड़ा प्रश्न है मानव तक हमारे अन्दर ये बात नहीं अआरती, तब तक सहजयोग सिर्फ हमारे ही लाभ के लिये पराज कोई-सा भी कार्य आप हाथ में ले दोष हैं इनकी कौन-सी का । मानव की संख्या कितनी भी बड़ी हो लेकिन है। इससे अगर उसकी स्थिति ठीक न हो तो कोई सा भी निमंला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-5.txt कार्य ठीक से सम्पन्न हो नहीं सकता । यह सबसे का प्रकाश जब आप दूसरों को देते हैं तो शरीर का बड़ा कार्य सहजयोग ने किया है कि इसने मानव सुख आपको महसूस ही नहीं होता । आपको तो आत्मा ही का आनन्द इतना ज्यादा मिलता है कि आप उस आत्मा के आनन्द में पूरी तरह से डूब सहजयोगो एक ईमानदार, सच्चे, मेहनती, ऐसे जाते हैं। "शत्मनेव आत्मनः तुष्टः" आत्मा से ही लोग तेयार हुए हैं जो इस देश में बहुत ही दुर्लभ आत्मा तुष्ट हो जाता है, उसको और कोई सन्तोष हैं, बहुत दूर्लभ लोग हैं, जो कि जो बोलते हैं वैसा की जरूरत नहीं पड़ती । और कोई चीज में वो करते हैं, जो सोचते हैं वैसा ही जानते हैं, ऐसे खोजता ही नहीं । इतनी इसमें तृष्ति हो जाती है, दूलंभ लोग सहजयोग ने तंयार कर दिये हैं । यह जिसको कि कहते हैं कि वो 'अमृतपान' कर लेता विचार से सहजयोग का बड़ा भारी आशोर्वाद इस है । और अमृत पीने के बाद और कोई चीज पीने की जरूरत नहीं रह जाती। यह स्थिति जब आपकी आ जाय तब मानना चाहिये कि आप सहजयोगी में मनवन्तर कर दिया। मानव में इतना अन्तर ला दिया, इसमें इतनी बिशेष प्रगति कर दी । आज देश पर है । ले किन अरब भी ऐसे बढ़िया लोग अगर हो हो गए हैं, नहीं तो आप अधूरे हैं । जायें अगर एक वढ़िया कारीगर हो और उसे कोई काम ही न हो तो उसकी कारीगरी बेकार अब आप जातते हो हैं कि हमारी तो उम्र जाती है। सो हरेक सहजयोगी को यही सोचना काफी हो गई है और लगातार चौदह वर्ष से हमने चाहिए कि मैं क्या कारीगरी कर सकता है। पर मेहनत की है । पूरा तप पूरा हो गया कहना वो भी अपने शरीर की तकलीफे, अपने ग्राराम की चाहिये । लेकिन ज्यादा १२ साल की मेहनत बहुत बात पहले सोचता है । नहीं तो यह सोचता है कि ज्यादा रही। और इसके बाद भी १२ साल और किस तरह से इसमें कुछ रुपया लग जायेगा या मेहनत करनी पड़ेगी, ऐसा लगता है । लेकिन आप लोग कितनी मेहनत करते रहे हैं वो देखना चाहिए। कोई न कोई बहाने जरूर आपका मन ढंढेगा, कि यह नहीं हो सकता, इसमें मेरी family (परिवार) थोड़ा-बहुत कुछ खचा हो जाएगा, तो ये केसे हो ? वास्तव में आनन्द को आप खरीद नहीं स कते, उसको सिर्फ भोग सकते हैं । लेकिन जिस चीज को है मेरे बच्चे हैं, मेरा घर है, मेरा ये है, मेरा हम प्राप्त करते हैं, जिसको हम लेते हैं, अपनाते हैं, अपने अन्दर उसका सूख उठाते हैं, वो चीज अऔर है और सहजयोग चीज और है इसमें जो आनन्द मिलता है, वो सिर्फ बांटने से ही मिलता है और कोई तरीका इसका नहीं है। उसके लिए हो सकता है उसकी अगर पाना है तो आपको जान लेना है कि आपको योड़ी बहुत तकलीफें उठा नी पड़ेंगी. थोड़ी परेशानियाँ उठानी पड़ेंगी, पर वो कर जब तक आप आत्मा की इच्छा को पूरी वो है । ले किन सब चीज से परे जो आनन्द की सुष्टि चाहिए कि उस आत्मा को जो इच्छा है उसे पूरी . बहुत तकलीफ बिल्कुल नहीं रह जाती, क्योंकि आ्रत्मा की सुख मिलता है । शरीर के की प्रोर प्राप रहेंगी, आपके सारे कार्य वैसे ही जमे रहेंगे। कुछ नहीं देखते । नहीं करियेगा आपकी बाकी स ब इच्छाएं वैसी बनी सुख नहीं घटित होने का, क्षेम घटित हो नहीं सकता, योग जब तक पूरी तरह से नहीं होगा। लेकिन जैसे ही आपने योग को प्राप्त कर लिया और योग में आप स्थित हो गए, देखिये आ्रापके सारे आप अपने को आजमा (परख) कर देखिए कि जब आप अपने आत्मा को प्राप्त होते हैं, प्और आत्मा निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-6.txt प्रश्न एकदम से ही हल हो जाते हैं। आप लोगों के करना है, न जाने कहीँ से चीजें जुटती जाएंगी, न हुए हैं न प्रश्न हल कि नहीं ? सबके हृए हैं । तब जाने कहाँ से डन्तज़ामात होते जाएगे, न जाने कसे फिर आगे बढ़ के देखिये कि जो हम सोचते हैं यह सब चीज होते जाएगा, हो जाएगा, सब हमारे लिये प्रश्न हैं, जो हम सोचते हैं हमारे लिये बड़ी मुश्किले हैं । आप यह सिर्फ सोच क र देखिये कि "नहीं, हम सहजयोग के कार्य में संलग्न हैं, श्रौर परमात्मा हमको देखने वाले हैं", आप देख आपमें जो देवता बैठे हैं, वो सब जानते हैं कि लीजियेगा कि आपके सारे ही प्रश्न 'एक-साथ" साफ हो जाएंगे। कुछ । देखिए, पहले प्राप पूरी तंयारी कर ले । क्योंकि आप क्या हैं? आप कितने सच्चे हैं कितने भूठे हैं ? आप अपने कितने ऊपर हैं कितने नीचे हैं, सब चीज वो जानते हैं। और जब तक वो ये जानते हैं कि आप अ्रभो पूरी तरह से संलग्न नहीं हैं तो आपकी मदद नहीं करते। लेकिन जेैसे ही वो समझ जाते हैं कि नहीं यह सिर्फ अपने ही स्वार्थ और अपने ही लाभ के लिए नहीं आए हैं, ले किन यह सहजयोग करने आए हैं, अ्रौर सहजयोग जो कि समाजोन्मुख है, उसको बढ़ावा देने आए हैं तो आपको पराइचर्य होगा कि 'चारों तरफ से वर्षा होती है आरशोर्वाद की, चारों तरफ से जैसे सुगधित वातावरण हो करके, आपको ऐसा लगता है एक बार प्रापसे मैंने बताया था कि कुण्डलिनी जो है, वो कारण और परिणाम and effect से परे रहती है। ओर जब प्राप कुण्डलिनी में जागृत हो जाते हैं तो उस का कारण भी मिट जाता है और परिणाम मिट हो जाएगा। जब Cause ही मिट गया तो उसका effect भी मिट ही जाएगा। से परे, Cause आपको इसके दर्शन होते हैं । काफी आप जानते हैं कि यह बात होती रहती है, और घटित हल्का-हल्का, जैसे '"कुछ बोझा ही नहीं अब मेरे हो रही है । जो कभी भी हम सोचते नही थे, ऐसी सर पर, सब काम हुए जा रहा है", और अपने चीजें हमें मिल गईं, यह हमने प्राप्त कर लिया, आप सब सामान जुटते जाता है। उस स्थिति में इतना हमें सुख मिल गया, सब कुछ हमने पा हमें आना चाहिए। तब अ्प देखिए हर आदमी लिया सहजयोग में, अब भी हम परेशान हैं, छोटी- बहुत कार्य कर सकता है और बहुत बढ़ा छोटी चीजों के लिये तो ये बड़ी मूश्किल हो सकता है । जाएगी। क्योंकि अब तो कम से कम सोच लेना चाहिए कि हमने कितना इसमें सुख, कितना आराम, कितनी सुरक्षा पाई है और यही सहजयोग अब हम दूसरों को देते हैं, तो वो भी इसको पा सकते हैं । लेकिन जब हम दूसरों को देते हैं तो हम इसको बहुत अधिक पाते हैं। मैं जानती है कि अभी दिल्ली में काफी मेहनत हम लोगों को व्यक्तिगत भी करनी है। और फिर उसके बाद सामूहिक । और हो सकता है कि आप लोग सब अ्रपने पड़ोसी, रिश्तेदार सबसे इसकी बात कर सकते हैं, सबको बुला सकते हैं और कह सकते हैं । हमारे लिये 'हजारों परमात्मा के दूत लगे हुए हैं। न जाने करोड़ों के हाथ हैं, करोड़ों की शक्तियां हैं, सारी आपके पीछे लगी हुई हैं। एक आदमी हमारे बच्चे हैं, हमारे रिश्तेदार हैं, हमारे पहचान खड़ा हो जाता है कि मुझे सहजयोग का कार्य वाले हैं, सबसे हम यह बात कर सकते हैं । हो हिन्दुस्तान में यह व्यवस्था बहुत अ्रच्छी है कि निर्मला योग ५ू 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-7.txt सकता है उनमें से दो ही चार इसको मानें । लेकिन जब वो आपकी स्थिति को देखगे, जानेंगे कि आप में कितना फर्क अा गया है, तो वो जरूर प्रयत्नशील होंगे। कुछ तो होंगे हो । इस प्रकार अप सहजयोग को पूरी तरह से बढ़ावा दे सकते हैं। है ? जब तुम चलाने लग जाओो । मोटर चलानी आतों है ? जब तुम चलाने लग जाओो। इसी प्रकार यह सुक्ष्म बुद्धि कब आाती है ? जब आती है आ जाती है । कैसे आती है ? सो तटस्थता से । अराप साक्षी हर इन्सान, वो चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, या स्वरूप होकर हरेक चीज को देखना शुरू कर दे, बच्चा ही, जब इस प्रकाश को प्राप्त करता ध्यान करें, और अपना समय ज्यादा सहजयोग के योग में विचार में विताएं, तो आ जाएगी। लेकिन कब है तो उसका 'अधिकार' है कि वह है. स्थित हो। लेकिन उसका करतव्य है कि वह योग आएगी कैसे आएगी यह तो जब होग। तभी होगा । और इसलिए वो चीज अभी तक अगर हमारे अन्दर नहीं आई है तो हमें उस और और अग्रसर होना चाहिए। इसलिए मैंने कहा कि अब जरा कोशिश जोरों से करनी चाहिये, बहुत जोरों में कोशिश करनी चाहिये । प्रदान करे। प्रापके पास शक्ति है, आपके पास सव कुछ है, औ्र तब भी अगर आपने योग प्रदान नहीं किया, तो यह कहाँ तक युक्ति संगत होगा, मैं यह नहीं कह सकती । मैंने इनसे कहा था कि पूजा में ऐसे लोगों हैमारे दिल्ली के Centre (केन्द्र) पर बहुत से को बुलाइये जो कि वास्तव में कुछ पा चुके हैं । प्रश्न ऐसे खड़े हुए हैं, जिनके बारे में मैं जरूर बात- और जो कोई पा सकता है, उसको देना आपका परम करतव्य है । हर जन्म दिन के दिन कोई न प्रश्न है और किस तरह से उनका आप हल निकाल कोई एक नया निश्चय करते हैं । और मेरी समझ सकते हैं। वो मुश्किल काम नहीं । लेकिन जो हम में अब आ रहा है कि मुझे भी एक नया निश्चय मन से सोचते हैं, विचारते हैं, और जिन तक्कों को कर लेना चाहिए । और नया निश्चय जो है कि करके हम किसी एक इरादे पर पहच भी जाते हैं, वो "हमने जो विश्व घरमें बनाया है, जो हमने तो भी हम जब तक पूरी तरह से अ्रपने हंसा चक्र विश्व धर्म को स्थापना की है, जिसको हम मानते को जीत न लें, माने कि हमारे अन्दर जब तक हैं, उसकी म्यादाओं में जो नहीं रहता है, उसे discretion (विवेक) न आ जाए, जय त क हमारे सहजयोगी कहलाने का अधिकार नहीं, ऐसा मैंने अन्दर यह सुबुद्धि न आ जाए, जब तक हमारे अन्दर सोचा है, कि एक नया निश्चय हम लोग करें । जो पूरी तरह से कोई चीज अच्छी है या बुरी है, कोई इसकी मर्यादाओं में रहता है वही इस धर्म का चीज सहजयोग के लिये लाभदायक है या नहीं है, पालन करने वाला हो सकता है । जो विश्व धर्म यह समझने की सूक्ष्म बुद्धि हमारे अन्दर जब तक न को मानता है, वो श्रगर इसमें नहीं रहे तो उसको आ जाए, समझ न आ जाए, तब तक सहजयोग हम सहजयोगी मानने को तेयार नहीं। जैसे कि समझ लोजिए कि कोई सहजयोगी है, और वो dowry (दहेज) लेता है तो वह सहजयोगी और वो समझ कैसे आरतो है ? कोई पूछता है, नहीं हो सकता । कोई है, वह जाति-पाति विचार कसे आती है ? तुम्हें साइकल चलानी कैसे आती रखता है, वो सहजयोगी नहीं हो सकता । कोई चीत करूंगी और इन लोगों को बताऊंगी कि क्या ब आपने पाया नहीं। निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-8.txt ऊंच-नीच विचार रखता है, वह सहजयोगी नहीं बहुत सिगरेट भी पी लेते हैं, तम्बाकू भी खा लेते हो सकता । तो आज मैंने यही निश्च्य किया है कि हैं, आप सहजयोगी सहजयोग की आज से जो भी कोई इन्सान श्रपने को सहजयोगी मर्यादाएं है उस मयाँदा में जो मनुष्य नहीं रहेगा, कहलायेगा उसमें विश्व घर्म की पूरी कल्पना होनी वो विश्व धर्म को नहीं मान सकता । और ये चाहिए। इतना ही नहीं कि कल्पना में हो, लेकिन विश्व बर्म हमारा जो है, इसको पूरी तरह से स्वच्छ उसके आचरण अरर व्यवहार में अगर यह बात नहीं हो, समझ लौजिये कि किसी सहजयोगी ने विश्व निर्मल घम है. इसमें कोई भी अशुद्ध बात ऐसी हरकत की, तो उसको सहजयोग में रहने का हम प्ने नहीं दे सकते इसलिए जो अशुद्ध है वो अधिकार नहीं है, उसको कहना लिये आप प्रायश्चित करें और प्रायश्चत स्वरूप जिन्होंने पूरी तरह से 'विश्व निमंल धर्म' को माना, पहले आप अपने को ठीक करे, [श्रौर तभी आप और उसकी तरह अपना आचरण किया । यही सहजयोग में आ सकते हैं । ऐसा करने से संकीरणंता निश्चय आज हमने ग्रपने जन्म दिन के दिन किया आ जाए, लोग कहें कि कम लोग हो गए, कोई हुआ है, श्रोर आशा है आप लोग इसे प्रेम से हज नहीं। भगवान के दरबार में भी बहुत कम स्वीकार करेंगे । जगह बची हुई है । आपको पता नहीं है। वहाँ कितने लोगों को आप घुसेडियेगा ? नक में भी जगह नहीं रह गई ! तो कहीं बीच में ही लटका और यह कैसा होना नाहिए, इसकी गहनता क्या कर लोगों को रखना पड़ेगा । इसलिए जो आधे] है] इसके बारे में मैं किसी दिन और बताऊँगी, अधुरे लोग हैं, जो कहीं के न रहें. ऐसे लोगों को लेकिन प्रभी तना जरूर जान लेना है कि मोटे सहजयोग में नहीं आना चाहिए। बेकार में परेशान तौर से जो बातें आप जानते हैं, वो कम से कम करने से कोई फायदा नहीं। जो लोग सहजयोग में आप लोग नहीं कर सकते, जो बहुत ही साधारण आएं वो लोग सहजयोग की मर्यादाओं में रहें, उसको अपने आचरण में लाएं, उसको अपने सहज नहीं" वो चीज आप नहीं कर सकते । और व्यवहार में लाएं । अपने प्रडोसी-पड़ोसी सबको उसके बारे में पूरी तरह से बताएं, ओर यह कहे आप छट्टी दीजिए कि "हम विश्व धर्मं में विश्वास करते हैं और हम बहुत से लोगों को हमने देखा है, बीमारी के लिए किसी भी घरमं में विश्वास नहीं करते ।" लोग ऐसा नहीं कहते हैं, उनको हम सह जयोगी नहीं ले आएंगे, फिर तीसरी बीमारी ले आएंगे । वजह मानेगे ।" जो लोग डरते हैं समाज से यह कहने में ये है कि एक बार ठीक होने के बाद आपको सहज कि हम विश्व धर्म के योगी हैं जो यह कहने में डरते होना चाहिए। अगर राप सहज नहीं हुए तो फिर हैं, कि हम सहजयोगी हैं ऐसे लोगों के लिए सहज- से आप असहज हो गए, तो फिर से आप वोमार नहीं हैं। जो रखना है, क्योंकि यह सिर्फ विश्व धर्म नहीं है यह चाहिये कि इसके इसमें नहीं आ सकता । इसमें वही लोग रहेंगे ब] यह विश्व धर्म की क्या-क्या विशेषताएं हैं, तरीके से भी आ्राप जो देख सकते हैं कि "यह चीज अगर प उससे छुटकारा नहीं पा सकते तो हमें । हम आप से जूझ नहीं सकते । और जो ठीक होने आएंगे, उसके बाद दूसरी फिर बीमारी ५। योग नहीं है । सहजयोग की मर्यादाएं बिल्कुल आपको पूरी तरह से माननी पड़ंगी। हो जाते हैं । फिर आपको कोई बीमारी लग जाती है। फिर जिन्दगी भर हम अ्रपको धोबी जैसे घोते ही रहें क्या ? जैसे कि बहुत से लोग हैं, वो कहते है कि माँ थोड़ी- तो आपको भी अपने को निर्मत रखना चाहिए, हम थोड़ो-बहुत शराब-वराब पी लेते हैं निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-9.txt और इस घम को इस तरह से मानना चाहिए कि "यह हमारा अलंकार है, यह हमारी शोभा है, लोग अपना व्यवहार, जीवन इस तरह से बनाएं यही हमारी विशेषता है। इसीलिए आज हम कि आप सार्थ हों, आपका जो स्वयं है, उसका संसार में इतने ऊंचे स्थान पर बैठे हैं।" अंग-अंग अर्थ निकले, सार्थ (ग्र्थ पूर्ण) हो जाएं । और उसी में इसका विचार होना चाहिए। प्रत्यंग से vibra- के साथ आप समर्थ हो जाएं । यही हमारा आपको tions (चेतन्य लहरियां) कहते हैं। यह समझ लेना आशीर्वाद है, कि सब लोग अपनी शक्ति में समर्थ चाहिए, कि परमात्मा इतने लालायित हैं आपको हो करके इस प्रेम की शक्ति से सारे संसार को इससे सुशोभित करने के लिए । लेकिन आप कितने प्लावित करें । इसके प्रति जाकरूक हैं और आप इसके लिए सिद्ध हैं यह आपको ख़ुद समझ लेना चाहिए । हमसे जितना हो सकता है आपसे बता देते हैं, और यही चोड़ी पूजा नहीं होगी, एक साधारण पूजा हन मापदंड चलेगा कि जब तक आप सहजयोग के घम वाली है। पहले तो गेश जी के नाम से पेर धो का पालन नहीं करेंगे, तब तक आप सहजयोग में करके उसका चरणामृत बनाया जाएगा और अन्दर आ नहीं सकते, अपको पूजा का अधिकार उसके बाद में चरण धो करके उसका जिसे ये लोग नहीं, किसी चीज का अघिकार नहीं रह जाता औ्र जो लोग इस मर्यादा में रहेंगे उनको ही यह बाद में हाथ से हम च रणामृत बना देंगे, और उस अधिकार रहेगा। हो सकता है उसमें से चार-पाँच वक्त में १०८ नाम देवी के लिए जाएंगे। बस और लोग ही रह जाए, कोई हज नहीं, [आसानी कुछ ज्यादा पूजा नहीं है पआज । रहेगी। तो इसके प्रति अत्यन्त जागरूक रह करके आप आ्राज क्योंकि हमारा जन्म दिन है बहुत लम्बी- 'तीर्थ कहते हैं, वो बनाया जाएगा। और उसके । मेरा शरीर यहाँ होते हुए भी मैं सब जगह हैं । यह प्रगर जानोगे तब ये भी समझना चाहिए कि, शरीर भी एक मिथ्या-दर्शन है यह स्थिति आना बहुत कठिन है । परन्तु धीरे बीरे आप अगर मिथ्या को जानोगे तो सत्य अपने अ्रप ही मन में बसेगा और महाग्रानन्द की लहरे पूरे व्यक्तित्व को घेर लेंगी। -श्री माताजी मेहट केवल ब्रह्मशक्ति सच्ची खुशी देने वाली व संतोष देने वाली चीज है । बाकी सव कुछ मिथ्या है । आप यही बात जीवन के हर क्षण याद रखिए तब सहजयोग आपकी समभझ में आएगा। -श्री माताजी निर्मला योग ८ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-10.txt देवताओं के विषय में प्राथमिक ज्ञान (१) एक कल्प (cosmic cycle, सृष्टि) के सुख व समृद्धि की दासी हैं । जगत की उत्पत्ति आरम्भ से पहले चरम तत्व (ultimate reality) करने वाले श्री बरह्मदेव बहुत कम अवतार लेते हैं । एकमेव (undifferentiated) परब़रह्म के रूप में एक उदाहरण है श्री हृजरत अली। पेगम्बर रहता है। जब कल्प के प्रारम्भ में यह एकमेव तट्व मोहम्मद साहब के दामाद, उनकी पूत्री फातिमा परब्रह्म से अंशों में विभाजित हो जाता है : (१) के पति। धरी व्रह्मदेव की पत्नी श्री सरस्वती श्री सदाशिव, जो आदि पिता हैं और (२) श्री सौन्दर्य, कला व । आदि शक्ति, जो आदि माता हैं । सदाशिव, सनातन (eternal) साक्षी है। उस पिता सदा शिव की कार्यशक्ति, जिसे (Holy Ghost) भी कहते हैं। पैंगम्बर संगीत की देवी हैं। (३) एक अरवतार पूर्णस्वरूप में अवतरित हो सकता है (अवतार) (अशावतार) । इनमें सबसे विख्यात श्रर समय अरथवा आशिक रूप में ॐ प्रणब, अरथवा आदि शब्द की शक्ति द्वारा को दृष्टि से निकटतम श्री विण्णु के प्रवतार हैं आदि शक्ति तब सम्पूर्ण सृप्टि का स जन करती है । श्री राम व श्री कृषर ॐ उन तीन बीज शक्तियों का व्यक्त स्वरूप है जो होते हैं : पिता, आदि गुरु, पुत्र और माता । अवतार चार श्रेणी के मृष्टि की रचना करती है-'अ' इच्छा की बीज ट शक्ति, श्री महाकाली 'उ' क्रिया की वीज शक्ति, पिता स्वरूप: महासरस्वती, 'म' उत्क्रान्ति की बीज शक्ति, श्री महालक्ष्मी । श्री विष्णु लगभग ८,००० वर्ष पूर्व भारत में श्री राम के रूप में अवतरित । श्री राम एक हुए ॐ देवी सरल भाव (innocence) और राजा के पुत्र थे अ्रर युवराज (राज सिहासन के पवित्रता के भावों का भी द्योतक है । जो तत्व उत्तराधिकारी) की भांति उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई ब्रह्माण्ड (cosmos) में स्वध्याप्त हैं। बाद में थी । वे उसी प्रका र, के 'दार्शनिक राजा' थे जिस यह (ॐ) हाथी के मुख वाले देवता, श्री गणेश के प्रकार का वर्णन प्लेंटो ने अरपने लेखों में किया था। वे एक अद्वितीय साहस, कौशल एवं शील से सम्पन्न योद्धा थे । अपने जीवन को उन्होंने एक (२) उसके बाद और हमारे इस भौतिक जगत मेंच के रूप में प्रस्तुत किया जिस पर उन्होंने की उत्पत्ति से पहले देव लोक का सुजन होता है दिखाया कि एक अत्यन्त धर्मानुकूल जीवन किस तीन प्रमुख देवता हैं : श्री शिव, श्री विष्णु औ्र प्रकार विताया जा सकता है । ध्री राम अपने जीवन द्वारा मानव सम्बन्धों में आदर्श आचरण का एक सम्पूर्ण नमूना प्रस्तुत करते हैं । क्या पुत्र, क्या पति, क्या भाई, क्या पिता और क्या राज, ) हैं । उक्रान्ति के प्रत्येक क्षेत्र में उनका आचरण पूर्ण आदर्श था । वह गामी सोपान का शिलान्यास करने के लिये बह दाहिने हृदय चक्र के देवता हैं और इस सूक्ष्म स्त र । उनकी पत्नी श्री लक्ष्मी पर वह मानव में एक पिता, पुत्र, पति आदि के रूप में मूर्तिमान हुआ है । श्री बृरह्मदेव इन तीनों में से श्री शिव कभी अवतार नहीं लेते वह विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति के प्रतीक हैं । उनकी पत्नी, (शक्ति) श्री पार्वती हैं। श्री विष्णु उत्क्रान्ति के सूत्रधार (guide अवतार ग्रहण करते हैं निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-11.txt रख सके और अतिशयताओं (extremes) से बच सके । जब कुण्डलिनी की ऊर्जा भवसागर के क्षेत्र को आलोकित करती है तब मनुष्य स्वयं अपना स्वामी लिये आवश्यक गुरों को जागृत करने की क्षमता को स्थापित करता है। श्री विष्णु श्री कृष्ण के रूप में भी लगभग (स्वयं अपना गुरू) बन जाता है । ६,००० वर्ष पूर्व भारत में ही अवतरित हुए। वह सर्व शक्तिमान परमेश्वर (विराट) श्री सर्वत्रव्यापी पूत्र स्वरूप महानता के ्योतक हैं । श्री कृष्ण की एक उल्लेख- नीय विशेषता यह है कि वह योगेश्वर, अ्रर्थात योग के श्रधिपति हैं, समस्त साँसारिक कतंद्य बड़ी सफलता पूर्वक निभाते हुए भी सांसारिक आसक्तियों मेरी मां है। श्री जीसस ने आज्ञा चक्र में क्षमा से पूर्ण ग्रलिप्त उन्होंने मानव चेतना को एक प्रदान करने, क्षमा प्राप्त करने, और पापों व कर्मों लीला (जगत को एक खेल अथवा फ्रीड़ा या नाटक के मंच के रूप में देखना) के भाव से परिचित किया । दिव्य शिशु 'जीसस' मानव शरीर में कराया । जिससे मानव अपने अह भाव से उत्पन्न साक्षात ॐ (प्रणव) था। दिव्य शिशु (श्री गणेश ) उनकी स्वकीय (निजी) इच्छाओं के कारण आने वाले हस्तक्षेपों से मुक्त होकर प्रपने निर्लिप्त कार्यों से उस परम अरवचेतन की एक अनासक्त यन्त्र बन : २००० व्ष पूर्व श्री गणेश इजराईल में जीसस क्राइस्ट के रूप में अवतरित हुए । उनकी शक्ति के फलों से मूक्ति पाने की क्षमता को प्रस्थापित इस प्रथ्वी पर गश्रपने योद्धास्व रूप में भी श्री कार्तिकेय रूप में आया। कर कार्य कारता है। श्री कृषण का साक्षी भाव मातृ स्वरूप : विशुद्धि चक्र में स्थित है । कुण्डलिनी शक्ति द्वारा इसे मानव में जागृत किया जा सकता है । श्रीं श्रादि शक्ति महाजननी, जिसे ईसाई मत में Holy Ghost या Holy Spirit (पवित्र ्रत्मा) कहते हैं। वह भी अवतार ग्रहण करती हैं, कभी अपने निजी रूप में, जसे १०,००० वष श्री व्रह्मा, श्री विष्णु और श्री शिव के अवो- पूर्व श्री दुर्गा के रूप में अथवा अपने वहुमुखी स्वरूपों में से किसी एक स्वरूप में । वही इस सृष्टि र स्वरूप श्री अदि गुरू का आविभवि होता है। लप नाटक की सूत्रघार है । उदाहरणतः अरपने वे श्री विष्णु को उनके उत्क्रान्ति कार्य में सहायता मातृ स्वरूप में उन्होंने श्री क्राइस्ट को मां (मेरी) देने के लिये अनेक बार अवरतरित होते हैं । का अवतार लिया, राम अवतार के समय वे उनकी पत्नी बनकर आई और श्री कृष्ण के समय राधा वनकर, आदि गुरु नानक के समय वह उनकी बहन लाओं नू, सुकरात, राजा जनक, मोहम्मद, गुरु नानकी बनकर आई और आदि] गुरु मोहम्मद दि गुरू स्वरूप : घिता (Innocence) सम्मिलन से परमेश्व र के एक श्री ग्रादि गुरू स्वरूप के दस प्रमुख अवतरण हुए है : श्री अ्ब्राहम, मूसा, कन्ययूशियस, जरातुस्त्रा नानक, सिरडी के साई बाबा । ( उत्तरार्वं में ) श्री शआदि गुरू स्वरूप हमारे मूक्ष्म शरीर उस क्षेत्र से सम्बन्धित हैं जिसे भवसागर कहते हैं । साहब की पुत्री फातिमा बनकर आई। (१९वीं शताब्दी के आज : इन अवतरणो में मानव को वे सिद्धान्त प्रदान किये हैं जिनसे वह अपने देनन्दिन जोवन में सन्तुलन बनाये प्रदि शक्ति का चरम व सम्पूरण अवतरण निमंजा योग १० 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-12.txt वतंमान काल में इस पृथ्वी पर स्वर्ण यूग का हैं जो प्रकृति की शक्तियों पर नियन्त्रण करते हैं : आरम्भ करने के लिये कार्य-रत है। इस श्रवतरंण (जन्म) में उनका नाम है श्री माताजी निर्मलादेवी । (पुथ्वी), वरुण (समुद्र) इत्यादि । इन देवताओं श्री माता जी, जो समस्त देवताओं की विभिन्न से सम्पूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर व्यक्ति अन्त में शक्तियों की पूञ्ज हैं अपने मात्र प्रेम में उनके समस्त पंच महोभूतों पर नियन्त्रण कर सकता गुणों का एकीकरण करती हैं। श्री माता जी की लोक का देवता (Celestial beings) भी होते श क्ति से मानव में समस्त देवताओं के गुण जागृत हो जाते हैं । उनमें सन्ताप हरने ( comfort) ( Gabriel), श्री भँरव (Michael ) । मार्ग दर्शन करने (counsel) और उद्धार करने ( redeem) की शक्तियां हैं । इन्द्र (व्षा), वायु, (हुवा, पवन) अग्नि, भूमि देव हैं; जैसे फरिस्ते (Archangels), श्री हुनुमान अ्रसत् (evil) के क्षेत्र में भो विभिन्न श्रेरियों दृष्ट (Satan) प्रात्माएं होती हैं। ये शक्तियां (४) सारे देवता एक ही परमात्मा के विभिन्तु मानव को उसकी आ्राध्यास्मिक परिणत्ति (ऊंचाइयाँ) प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न करने में प्रयत्नशील कोई चक्र अथवा नाड़ी पर नियन्त्रण क रते हैं। वे रहती हैं। जब श्री माता जी १६७२ में प्रमरीका चिरकाल जीवन्त हैं और सहजयोग के महान कार्य गई थीं तब उन्होंने इन दूष्ट शक्तियों के नाम, जो में सहायता के लिये सदैव क्रियाशंल रहते हैं। आज मानव शरीर में विद्यमान हैं । बताए थे । मन्त्रों की कला में प्रवीणता प्राप्त कर गौर विशेष अरर मानव के आध्यात्मिक कुलेवर (सन्तान) को के पहलू हैं। वे भीतरी तन्त्र के किसी विशेष तत्व, कर, हृदय में श्रद्धा भाव को जागृत कर, सहजयोगी दह जो हानि पहुँचा सकते हैं उसके प्रति सावधान परमात्मा के इन सब पहलुओं के सम्पर्क में स्थित किया था । अपने पिछले अवत रणों में उन्होंने हो सकता है तर सहायता और संरक्षरण प्राप्त कर उनका संहार कर दिया या और अब फिर नष्ट सकता है । अन्त में देवी गूरण प्रस्फुटित एवं विकसित कर दिया जायगा। इस अवधि में हमारे लिये हितकर है कि होते हैं और चक्रों में प्रकट होते हैं । हम उनके आगमन का लाभ उठायें औ्र आत्म साक्षात्कार के द्वारा आध्यात्मिक प्रारी (५) देवता मानव के अतिरिक्त इतर अस्तित्वों के एक विस्तीणं क्षेत्र पर शासन करते हैं : वन जायं । जय श्री माता जी। सत् (goodness) के क्षेत्र में देव गण होते पार होने के बाद आपको ये मालूम होना चाहिए कि हमारे स्वभाव में क्या क्या दोष है। हमारा स्वभाव ही हमारी शक्ति है। जब आप अपने आत्मा के, मत्तलब अपने स्वयं के, बन जाओगें तब तो वहाँ पर सुन्दरता ही नजर अआएगी शऔर बाहर की दुनिया नाटक नजर आएगी। -श्री माताजी निर्मला योग ११ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-13.txt परमपूज्य माताजी का प्रवचन कुण्डलिनी और श्री शिवशक्ति व श्री विष्णुशक्ति अमर हिन्द मण्डल, बम्बई २४ सितम्बर १६७९ जब तक शिवशक्ति का मेल जीव से नहीं होता तथ तक योग धटित नहीं होता है। यह मेल जब घटित होता है तब योग घटित होता है शिव अलिप्त भाव से हृदय में 'क्षेत्रज्ञ' की तरह रहता है । ज्योति, जो जागृत है, ज्योतिर्मय है, वह आरत्मा है । बाकी सुष्तावस्था में है, अरथात जिसमें जागृति नहीं है। जागृति का अर्थ है, हमारा जो जागतिक स्वभाव है या जो सामूहिक चेतना है, उसे प्राप्त होना। जिसे 'अलख कहते हैं या जो 'परोक्ष' है वह हमारे मतलब (क्षेत्र+ ज्ञ) क्षेत्र को जानने बाला। हमारे अन्दर ऐसा कोई है जो हम जो कुछ कर चित्त में जागृत होता है, उसे ही जागृति कहते हैं । रहे हैं उसे जानता है । हम ये जानते हैं कि, अगर हमने अपने आ्ापको ठगने का प्रयास किया और सी ज्योति जलती है और उससे एक गैस लाईट का अपने साथ प्रतारणा की तो अपने हृदय में कोई बड़ा प्रकाश मिलता है तब वह गेस एक बड़ी बैठा है जो है वह 'शिव' है । वह अपने हृदय में आत्मास्वरूप का है । लेकिन ये जो गैस पाईपों से बह रही है बैठा हुआ है । जब तक शिवशक्ति श्र आत्मा का उसे हम सूप्त कहेंगे । क्योंकि वह अभी तक प्रका- योग घटित नहीं होता तब तक ये दोनों शक्तियाँ शित नहीं हुई है। इसलिए सूप्त है। प्रज्ज्वलित अलग समझनी चाहिए । आत्मा की जो शक्ति है केवल वह छोटी-सी ज्योत है। हमारे हृदय में बह साक्षीस्वरूप, चिन्मय है। वह अनन्त है । वह आत्मास्वरूप वह जागृत है, बाकी सुप्तावस्था कभी भी दूषित नहीं हो सकती । उसे आप कभी है कुण्डलिनी जो हमारे अन्दर बैठी हुई है वह भी मार नहीं सकते । आत्मा निलप है, वह किसी शिवशक्ति है । महाकाली की शक्ति हमारी से भी लिप्त नहीं होती । वह अलग कुछ देखती रहती है। मैंने ऊपर कहा है गैस लाईट के भीतर एक छोटी- यह जानता है। वह जाननेवाला जो प्रज्ज्वलित गैस लाईट बनती है उसी तरह इस योग में शुद्ध है और सब कुण्डलिनी में बैठी रहती है । इच्छा हमने प्रयोग में नहीं लायी है । वह शुद्ध स्वरूप है । वहै कुण्डलिनी में बैठी रहती है। जब ये किसी संयोग से या संकल्प मैं उदाहरण के तोर पर बताती है | गेस से जागृत होती है तब वह ऊपर उठकर सदाशिव लाईट (जिसमें बाहर कांच की चिमनी होती है) के स्थान पर जाकर मिलती है । तब हृदय में बेठी के भीतर छोटी-सी ज्योति जलती है, एक छोटी-सी हुई आत्मा को एक चिनगारी मिलती है और उसी ज्योति होती है । वेसे ही अपने हृदय में एक ज्योति चिनगारी से यह शक्ति प्रज्ज्वलित होती है । है। वह आत्मा है। वह बदिस्त (भीतर स्थित) *मराठी प्रवचन का हिन्दी अनुवाद । निर्मला योग १२ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-14.txt वसे तो शिवशक्ति आत्मा की शक्ति नहीं है दस धर्मं मनुष्य में होने ही चाहिएं । वे अगर नहीं परन्तु है भी शुरू में आपने देखा होगा कि हैं तो वह व्यक्ति मनुष्य धर्म से च्युत है अर्थात वह परमात्मा और उनकी शक्ति एक ही है । सूर्य और मनुष्य नहीं। या तो वह राक्षस वनता है, नहीं तो उसकी किरणें एक ही हैं। चाँद और चाँद की जानवर बनता है। मानव रहने के लिए वे दस धर्म किरणं एक ही हैं। ये दो नहीं हैं। उसी प्रकार पेट में स्थित रहते हैं । यह बिल्कुल सच बात है । परमात्मा और उनकी शक्ति दो नहीं हैं। परन्तु अब इन दस ध्मों की रक्षा करने के लिए परमेश्वर मनुष्य प्राणी के समझ में नहीं आता कि दो चीजें ने एक दूसरो व्यवस्था मनुष्य में बना रखी है। यह मनुष्य नहीं जानता कि हमें इस घम में रहना क्योंकि, उनमें सूजन घटित हो रहा है। [अगर वह चाहिए । मानव बनने तक विष्णुश क्ति ने इस परमेश्वर में समायी रहेगी तो कुछ भी सु जन नहीं संसार में स्वयं प्रवतार लिए । आपको यह मालूम हो सकता। जब पूरव्रहा' स्थापित होता है तब है परमेश्वर के अवतरण हुए हैं स्वप्रथम आप सारी सृजन- क्रिया घटित होतो है । इसी शिवशक्ति मछली थे उस समय मछलो रूप में हुआ बाद से एकाकार हुआ है। कछुए के बाद बाद शिवशक्ति से ही क्रियाशक्ति निकलती है। वराह (सूअर) रूप से हुआ है। मतलब हर-एक एकाकार हैं पर वे दोनों एक-दूसरे से अलग हैं । । बाद कुप्ड लिनी पहले घटित होती है । उसके में कूम (कछुआ) रूप से की क्रियाशक्ति और शिवशक्ति के मिलने से विष्णू- जगह आपको ये दिखायी दिया जैसे-जेसे मनुष्य शक्ति निकलती है । विष्णुशक्ति ज्ञानशक्ति है। उन्नति होती गयो बैसे-वैसे परमेश्वर ने स्वयं इस (चेतना) में आया उसे संसार में जन्म लिया और आपका मार्गदर्शन ज्ञान कह सकते हैं । पुस्तकी ज्ञान को ज्ञान नहीं किया । क्योंकि उनके बगैर आपका कौन मार्गदर्शन समझते । जब मनुष्य परमात्मा की खोज में भटकता करेगा ? और केवल विष्णुशक्ति ही अवतार लेती है तब कहना चाहिए कि उसका विषणुतत्व पूर्णं है। बाकी कोई शक्ति अवतरित नहीं होती। उसका रूप से जागृत हुआ है [अंगर ये विष्णुतत्व उसमें कारण है अवतार की जरूरत उत्क्रान्ति के लिए सहजयोग थोड़ा निम्नस्तर का होती है। उत्क्रान्ति का कार्य विष्णुशक्ति से होता हैं । इसलिए केवल विष्णुशक्ति ही प्रवतार लेती है । जिसे हम सहजयोग में महाकाली शक्ति या यह विष्णुश क्ति सभी के पेट में स्थित है। शिवशक्ति कहते हैं, वह भी कभी-कभी अवतरित विष्णुशक्ति से धारण होता है। हम लोगों में धर्म होती है। जब-जब भक्तों पर विपत्ति आई तब-तब के बारे में बहुत विकृत कल्पनाएं हैं। लेकिन घर्म देवी ने संसार में आकर अपनी छत्र छाया से भक्तों । तब वे भी अवतार लेती हैं। मतलव जो हमारे संवेदना जागृत नहीं हुआ तो होता है । को संरक्षण दिया वैसा न होकर अत्यन्त शाश्वत व सनातन है। यह कल्पनाएँ' नहीं हैं यह 'वास्तविकता है । मतलब ' परन्तु मुख्य अ्रवतरण जो उत्क्रांतो में मदद देते हैं कार्बन में अगर बार अणुभार हैं तो सारे कार्बन वह है विष्णुशक्ति के । में चार ही अणुभार होंगे। अगर सोने का रंग पीला है और वह खराब नहीं होता तो बह सोने का धर्म है । प्रत्येक चीज जो अपना अ्रपना घम मिला हुआ है - (बिच्छू -सांप) । वह विष्णुश क्ति अवतरण कहते हैं। इतना ही नही वे विराट हैं । है। ये धर्म प्रगत (उत्क्रान्त) होकर आज मानव स्थिति तक आया है मानव के दस धर्म हैं । ये उनकी एक पेशी हैं। ये जो पेशियाँ हैं वे जागृत होनी अब विष्णुशक्ति अवतरण श्रीकृष्ण का है । इसलिए उसे सम्पूर्ण का पूर्ण प्रादुर्भावयुक्त समझ लीजिए अगर ये विश्व विराट है तो आप निमंला योग १३ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-15.txt उन्होंने मनुष्य के लिए ये घमं बनाया है । ये कार्य होने के लिए यह कुण्डलिनी ये शक्ति जो शिव- शक्ति है, वह स्वयं बह्मरध् को छेदकर ऊपर आती है। उस समय साक्षात्कार घटित होता है। इसके दूसरा मार्ग नहीं है। किसी ने कहा चाहिए और उन्हें मालूम होना चाहिए कि उस सम्पूर्ण का वे एक हिस्सा हैं, अवयव हैं और इस लिए आज हम यहां सहजयोग प्रदान कर रहे हैं । ब मनुध्य विशुद्धि चक्र तक आया । यह चक्र लिये कोई भी श्री कृष्ण का है । माने इसमें सबसे अधिक सोलह एक ही मार्ग कैसे ? एक ही रास्ता है ? पेड़़ में अंकुर पंखुड़ियाँ हैं व सोलह हजार नाड़ियाँ हैं । श्री कृष्ण स्थिति तक अ्ने के बाद मनुष्य ने अरपनों सर ऊपर होना ये एक ही मार्ग है आव और घ्मों में इसके उठाया । उसमें से मानव प्राणं बन गया। विशेषता है कि उसमें 'मैं-पन 'अरह भाव आया । अमक है । ये जो उसमें प्रत्येक घटक अलग आना ये एक ही मारग है । वेसे ही कुण्डलिनी जागत उसकी बारे में बताया गया है कि नहीं ? इसके बारे में बहुत वाद-विवाद होता है । आपने क्रिश्चयन घर्म देखा तो उस में हर तरह से कुण्डलिनी का वर्णन 'मैं होने का भाव है। उस प्रत्येक घटक की जा किया है। श्री क्राइस्ट ने कहा है कि, मैं दरवाजा हूँ परमास्मा ने अलग किया वह एक विशेष क्रिया से मैं ही मार्ग हैं। श्री क्राइस्ट स्वयं कुण्डलिनों का घटित होता है अपने में 'अहंकार व 'प्रति- अरहंकार' ये दोनों बढ़कर ब्रह्मरंध्र के पास जो जगह है यहां आकर मिलते हैं। तब वे एक के ऊपर एक जमा हो जाते हैं । तब वहां स्वस्ति क सतुलन नहीं ? ये किसी ने सवाल किया तो मैं कहंगी पूरा ( कृण्डलिनी तत्व है । नमाज माने दरवाजा व रास्ता हैं । परन्तु उन्होंने कुण्डलिनी- इस शब्द का प्रयोग नहीं किया। इसके बाद मुसलमान धर्म में कुण्डलिनी के बारे में कहा है कि balance) होता है। जमा होने पर तालू ( ब्रह्मरन्र) भर जाती है । बह्मरंध्र का रध्र अ्रथति दूस रा कुछ भी नहीं। कृण्डलिनी ऊपर केसे उठानी है यही उसमें बताया है। पहले जब सोहम्मद साहिब थे तब उन्होंने बताया कि अपने दोनों हाथ फैलाकर घुटनों की सहायता से आप नमाज पढ़िए । तब लोग हंसते छिद्र भर जाता है। तालू भरने के बाद आप सब अलग-अलग हो जाते हैं तब आप मानव बन जाते हैं। इस तरह से आप 'अ 'ब 'क ' तैयार हो जाते हैं। ये सब अपने आपको अलग-अलग समझते हैं । हम निराले- तुम निराले, वे निराले । ह' ये सब थे । ये किसलिए करना है ? उनके (मोहम्मद साहब के अनुयायियों, मुसलमानों के) साथ आज भी हम कुण्डलिनी की बातें नहीं कर सकते । तो उस समय की तो बत ही दूस री थी। स्वयं मोहम्मद साहब परन्तु सचमुच अाप अलग-अलग नहीं हैं। आपमें एक ही शक्ति है । परन्तु उस (बोध, चेतना) को प्राप्त हुए आएगी ? इसलिए परमेश्वर ने आपको पहले बगर आपके दिमाग में ये बात क से दत्तात्रेय के अवतरण थे । परन्तु दत्तात्रय की स्थिति व्या थी वह देखने लायक थी। दत्तात्रेय के अवतरण मोहम्मद साहब को उसका सम्मान प्राप्त अलग-अलग बनाया है। मनुष्य को परमेश्वर ने स्वतन्त्रता दी है । नहीं था। उन लोगों ने ये बात नहीं समझी । तो आपको (मानव को अन्य प्राणियों से) भिन्न बनाया भी उन्होंने लोगों को बताया । श्राप मुसल है। अब अ्प थोड़ा स्वयं सोखे । स्वयं सीखने पर तरह नमाज पढ़िए । नमाज के जितने भी प्रकार आप जान सकोगे कि आप उस सम्पूर्ण के एक हैं वे सारे चक्रों को गति देने वाले हैं अर कृण्डलिनी अवयव हैं, घटक हैं ये जो एक घटक है वह जब जागृत करने वाले हैं । तो ये जो दूसरी शक्ति है जागृत होकर उस सम्पूर्ण से एकाकार होगा तभी वह विष्णुशक्ति के रूप में [आप में वास करती है । उसे (उस धटक को) अपना पूर्णत्व प्राप्त होगा मानों की। । ये जो गूरु लोग हैं दत्तावेय जी का रूप हैं । उन्हें निर्मला योग १४ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-16.txt महाराष्ट्र में हम लोग बहुत सम्मान देते हैं। ये हानिकारक होते हैं । अव हमारे यहां जो कट्टर सभी पेट में विराजित है । उनके तत्व जागत होने लोग होंगे उनको खासकर पेट की तकलीफ होगी चाहिए । बहुत से लोग दत्तात्रेय के भक्त हैं। पर क्योंकि कट्टरता विष्णुतत्व को बहुत हानिकारक सब के पेट खराब हैं। केसी आश्चर्य की बात है ? है इतना हो नहीं, गुरुतत्व का भी इससे विनाश आप दत्तात्रेय के शिष्य हैं तो प्रापका पेट अति होता है । जिस मनुष्य में कट्टरता है मतलब हम उत्तम होना चाहिए। आपका पेट ही खराब होगा। बहुत बड़े हैं हिन्दू, व्राह्मण, क्रिश्चिवन या मुसलमान (कारण आपका गुरु तस्व जागृत नहीं है ।) दत्तात्रेय ऐसे कट्टर कहलाने वाले लोग, सहजयोग नहीं कर की उपासना करने बैठे हैं। दत्तात्रेय कोई ग्रापके सकते । आपको क्या मालूम आरज तो आपने यहां के नौकर नहीं हैं । दत्तात्रेय क्या हैं ये हमें पता है । इसलिए हम उनका वरणंन भी नहीं कर सकते । और आप तो इतने बड़े तत्व को शआह्वान करते आप यहीं (हिन्दू, मुसलमान आदि) सब कुछ हैं ? हैं। उसके लिए आपकी तैयारी है क्या ? और हिन्दुस्तान में तो ये बात कह नहीं सकते क्योंकि इसका आपको प्रधिकार है क्या ? अनाधिकार यहां कहा गया है 'पका पुतः जन्म होता है। चेष्टा करने वाले ये ग्राजकल के तथाकथित गुरु तो आप पूर्व जन्म में क्या थे, क्या सालूम ? हो भी इधर मक्कार (दम्भी) बैठे हैं। उन्हें जरा भी सकता है पूर्व जन्म में आप अंग्रेज हों । और यहां अधिकार नहीं कि वे दत्तात्रेय का ताम भी ले। जो वड़े सन्त लोग हुए हैं वे अंग्रेज बनकर जन्मे ये सारे अनाधिकारी गुरु दुर्गति की ओरोर जाते र प्रापको भी ले जाते हैं। ओर इसी तरह से आपने जो दत्तात्रय का तत्व स्वयं अपने में जागृत होते लगा है वे (अंग्रेज) यहां आकर जन्मे हैं ? करने का जो सोचा है उसमें बहुत दोष हैं और इसी दोष के कारण पेट में तकलोफ होतो है। जन्म लिया है कल मुसलमान धर्मे में जन्म लगे या चायना में । किस बात से आप तय करते हैं घर हैं। और वहां के लोग प्राप यहां जन्मे हों। हैं जल के नेता लोगों को देखकर मूझे शक अब प्रापको समझना चाहिए कि जब हम धम के बारे में बाते करते हैं तब बाह्य घम से ज्यादा अब सहजयोग से अआपको पता लगेगा कि क्या अन्दर के धम को ओर ध्यान देता चाहिए । दोष है । उसका एकत्व कसे साधना है? किस तरह में अपने अआप में द्तात्रेय जागत करते हैं ? विशेषतः हमारे अवत रणों ने दिखाए हैं। राम की एक वार देत्तावेय जागत होने पर धरमं ग्रपने प्राप हो बात देखिए। एक भौल जाति की औरत, जिसके हो जागत होता है । तब अधमं करना हो बड़ा मुश्किल होता है । मुख्य बात ये है कि, इन गुरुप्रों साफ नहीं, बिलकुल वूढ़ी शऔरत उसने बेर तोड़े ने क्या कहा है ये अप जान लो। पहली बात ये है और मुंह में डालकर जूठे बनाए आप खाओगे एक कि उसके अनेक प्रमाण अपने यहां दिखाए हैं । दांत टूटे हुए, बुद़िया, नहाने से वंचित, दांत भी न भी अपने महाराष्ट्रियों को तो जूठे का बहुत य को किसी भी नशे की आदत नहीं होनी ही मनुष्य चाहिए। कोई कहते हैं साईंनाथ (सिरडी वाले) ख्पाल है ! परन्तु राम ने वे अत्यन्त प्यार से खाए । चिलम पोते थे । उनकी तो बात ही अरलग थी । सीताजी से कहा, "मैं त्रापको एक भी नहीं दूंगा परन्तु आपको कोई नशा नहीं करना है । कोई भी सारे मैं ही खाऊंगा, मैंने ऐसे बेर कभी नहीं खाए नशा ही, तम्बाकू हो, शराब हो, सभी गुरुतत्व के हैं। मुझे ऐसा स्वाद भी कभी नहीं आया। तो मैं विरोध में हैं । शराब क्यों नहीं पीनी ? उससे अपने आपको कैसे दें? तो वह भील औरत कहती है मेरे धर्म को और गुरुतत्व को हानि पहुँचती है । फिर पास और भी रखे हैं पर वे दांत से तोड़े हुए हैं । कट्ू रता और ध्मान्धता भो प्र्ने नाभि चक्र को फिर सीताजी को दिए। लक्ष्मण जी को आ गुस्सा निमंला योग १५ tho 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-17.txt रहा था । ये क्या मामला है। उनके समझ में नहीं आर रहा था । सीताजी ने कहा ये सच बात है ऐसे वेर मैंने कभी नहीं खाए । और हमारे देवर जी को भी दीजिए । फिर दौड़कर लक्ष्मण जी ने वे बेर लिए। इस त रह का सुन्दर वर्णन है । समय वे परमेश्वर द्वारा दी हुई अपनी शक्ति खींचते रहते हैं । और इसलिए अआपने देखा होगा ऐसे लोगों को हमेशा कुछ न कुछ बीमारी रहती है थोड़े औरतो हमें दीजिए । अ्रब ये गक्ति विष्णुशक्ति पऔर शिवशक्ति है । इस विष्णुशुक्ति से ही ये चक्र बने हैं । स्वाधिष्ठान चक्र भी विष्णुशक्ति से निकला हुआ है। जब इन छह चक्रों को छेदकर कुण्ड लिनी ऊपर जाती है तब वह सम्पूर्ण शुद्ध विद्या कही जाती है । जो शुद्धतस्व विदूर के घर जाकर श्री कृष्ण जी ने खाना खाया । उन्होंने स्वयं ग्वालों की नाति में जन्म लिया। हम कोई बहुत बड़े हैं (यह धर्मान्धता ) माने है वह परमेश्वर की इच्छा से उन चक्रों को छेदकर आपको हिन्दू घर्म बिल्कुल ही समझ में नही आया। जाते समय उनको जागृत करके जाता है । मतलब सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा है और सब उसी की (चारों) ओर घुम रहे हैं । एक ही परमेश्वर सभी हो जाते हैं। वे जागत होते ही उनके (गुण में रहता है । ये अनेकों बार कहा तब भी हमने विपयक) लाभ हमें मिलने लगते हैं। जात-पांत बनाकर रखी है। जात-पात मनुष्य 'स्वभाव' के कारण (अनुसार) होती है । प्रत्येक का 'स्वभाव अ्रलग-प्रलग होता है। ये बहुत ही लक्ष्मी का क्या काम है। लक्ष्मी माने अति अमीर गहरी बात है। 'स्व' भाव उस 'स्व को अभी जाना मनुष्य नहीं, बहुत पसे वाला नहीं। लक्ष्मी का नहीं। आप किस आधार पर जाति बनाते हो ? मतलब है एक हाथ से दान, एक हाथ से अश्रय इस तरह से हमारा ये विष्णुतत्व खराब होता है । और अन्य दो हाथों में कमल जो कंजूस प्रर कदू मतलव पहले से ये कल्पनाएं बनाकर रखना-ये मनुष्य है उसमें लक्ष्मीतत्व बिल्कुल नहीं है जो ठीक नहीं, वह ठीक नहीं। आपको कैसे पता चला ? ये आप कैसे पहचानोगे ? यह कि आपमें बैठे हुए जो सुप्त देवता हैं वे जागृत के लक्ष्मीतत्व जागृत होते हो आपको मालू म है मनुष्य कमल की तरह अत्यन्त प्रममय अर्थात् जिसके घर में कोई भी जाए, यहां तक कि भौरे जैसा काँटे वाला भी उसके घर जाए, तो उसे वह संरक्षण दे ऐसा जो करता है वही हम।रे यहाँ जाता है। पर इस तरह के चक्र का विष्णुतत्व जागृत हुआ तो उसके आगे लक्ष्मीपति हमारे यहां कितने हैं ? नहीी के बराबर स्वाधिष्ठान चक्रों के बारे में मैंने कहा है कि, ये ही हैं। परन्तु आप उसे लक्ष्मीपति कहते हैं जो पैसे क्रियाशक्ति स्वाघिष्ठान चक्र से कार्यान्वित है जिन वाले हैं जिनके पास इतने पेसे हैं कि गधे पर लादें । उन लोगों को कभी भी घर्म नहीं मिलता । श्री लोगों को स्वाधिष्ठान चक्र की बहुत तकलीफ होती क्राइस्ट ने कहा है, जिन लोगों के पास अति पैसा है है क्योंकि सारी शक्ति विष्णुतत्व से स्वाधिष्ठान वे कभी भी प्रभू के साम्राज्य में नहीं आ सकते । चक्र में खिचती है। जो ग्रति कर्मी मनुष्य होता है किसी ऊंट को सूई की छेद में डाला तो वह जा उसे समय ही नहीं मिलता कि मेरी उत्क्रान्ति होनी सकेगा लेकिन ऐसा मनुष्य (पैसे वाला मनुष्य) सहजयोग में नहीं आ सकेगा। इसका कारण है चाहिए। उसका उन्हें विचार ही नहीं पराता । पूरे कि ऐसे मनुष्य को सभी जगह पैसा ही पैसा नजर इसके लिए पहले आपका विषणुतत्व जागृत होना चाहिए । वह आपके नाभि चक्र में है । नाभि लक्ष्मीपति माना लोगों को अत्यधिक कर्म करने की आदत है उन चाहिए और मेरा विशेष कोई प्र्थ निकालना १६ निमंला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-18.txt आता है । और कुछ भी नहीं दिखाई देता । न तो अपने मां-बाप, न भाई-बहन, न पत्नी, कुछ भी है, बादशाह होता है। ऐसे नहीं दिखाई देता। केवल मैं कितना बड़ा औ्और मेरे पास कुछ भी न होते हुए भी मौज-मस्ती में रहता मनुष्य को देखकर आपको लगेगा कि ये जो शक्ति है वह उसमें तृप्त पास कितना पैसा । फिर वह पेसा खत्म होते ही है प्रब कुछ शप्रागे की सोचना चाहिए, कुछ औ्र उसे मालूम होता है वह मनुष्य कहां गया है । दूसरा होना चाहिए। अब तक जो सन्तोष हुआ, बहुत पसा होने से भी अ्रापको मालूम है मनुष्य को खूब हुआ। अब और कुछ नहीं चाहिए। जो प्रपंच नखरे सूजते हैं, बह कहां खच करे । पेसा बस थोड़ा (ग्रहस्थ धर्म) हुए बहुत हुए। इसके अआगे क्या है ? जागृत (प्रग्रसर) अगर अपने में जागृत हो गयो तो ही मनुष्य की होता है । फिर उसमें भी मनुष्य का दिमाग चलता उन्नति हो सकती है। मतलब उसका चित्त पैसों है । पहले एक व्राह्मण को बुलाएंगे। मैं तुम्हें पैसे के बजाय समाधान पर आने से वह उन्नति मागे देता है, तुम पूजा करो। नहीं तो किसी मन्दिर के पर आने लगता है । अगर समाधान ही पंसों से लिए सो पांच सौ रुपया चंदा दे देगा। वाह ! वाह ! नहीं पया (तो उसका तो उल्टा परिणाम निकलता हमने चंदा दिया। नहीं तो एक मन्दिर ही बनाएंगे। इस (अपनी आर्मा के) मन्दिर का क्या होने वाला मकान बनाने के बाद लगा अब मोटर खरीद ले, है? यहां है कि नहीों भगवान अपने आपमें ? यहां तब मनुष्य धार्मिकता की शर बहुत हो, जिससे समाधान मिले ऐसी विष्णुशक्ति र है ।) मतलब एक मकान बनाना है तो बनाया, मोटर के बाद लगेगा एक विल्डिंग बना ले, कुछ ना कुछ हमेशा चलता ही रहेगा। मतलब कभी भी हमें सन्तोष नहीं मिलेगा। ये जड़्व स्थूल है । उससे य को कभी सन्तोष मिलने वाला नहीं । के भगवान आपने जागृत किए कि नहीं । आपमें ही बैठा हुआ आत्मा है। [आपमें ही परमात्मा है। आ्रप उसी को क्यो नहीं जागृत मनुष्य ये जड़ वस्तु है जड़ वस्तु से हमेशा जड़ता आती है। करते ? कारण ये है कि मनुष्य को प्रपने आपको जड़ता से समाधान नहीं आएगा। मानिए किसी को देखना बड़ा कठिन लगता है। वह अपने प्रपको कुर्सी की आदत हो गयी तो बह जमीन पर नहीं नहीं देख सकता । उसके लिए कुण्डलिनी की व्यवस्था है । ये कुण्डलिनी एकदम उठती है, ऊपर आती है। क्यों ? सबके सब देवता जागृत होते हैं। अब बहुतों को लगता है कुण्डलिनो जाग्रण माने बैठ सकता । माने कुर्सी उसे चिपक गयी। मतलब जड़ता जो है वह मनुष्य को आदतें डालती है। किसी भी जड़ वस्तु की मनुष्य को आदत जब लग जाती है वह धीरे-धीरे उसी में लीन होने बहुत बड़ा भारी काम है । पर वैसा कुछ नहीं है । आपने कल देखा कितना आसान काम है। कल लगता है । और उसका जो कुछ सत्व है वह नष्ट कितने लोगों को पार किया ? कल कित ने लोगों को ठंडी लहरें शयीं ? ये अरत्यन्त आसान काम है । परन्तु ये जो कर सकता है उसी को आता है । जिसे नहीं आता है उसे इसमें नहीं पड़ना चाहिए जिसे इसका हो जाता है । किसी भी जड़ बस्तु से मनुष्य में समाधान नहीं आ्रा सकता । केवल परमेश्वरी तस्व से समाधान अर सकता है । जब तक प्रापका आत्मा ्रापसे पलावित नही अनाधिकार चेष्टा नहीं करनी चाहिए । होता प्रस्फुटित नहीं होता, स्तंभित नहीं होता तब तक आपको कभी भी सन्तोष नहीं मिल सकता। आप चाहे जितने भी पैसे कमाओ, चाहे जिस सत्ता पर जाकर बेठो, परन्तु तब भी आप का मुंह लटका हुआ ही रहेगा। परन्तु ऐसा एक मनुष्य जिसके अ्रधिकार है उसके लिए ये पूरी लीला है । जो कुछ महत्वपूर्ण है जैसे श्वास-प्रश्वास, रक्त संचालन ) वह सब आसान होना चाहिए। तो प्रव ये जो शिवशक्ति आप में बांयी तरफ है वही सदाशिव है व प्रापमें यहां (हृदय चक्र) पर विराजित है । क्योंकि , उनमें निमंना योग १७ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-19.txt आत्मा ओर शक्ति दोनों है । उस स्थिति में जब अपको क्षमा माँग नी चाहिए। शिव से कहना कुण्डलिनी ब्रह्मरन्ध्र को छेदती है तब वह प्रकाश चाहिए, हमारी गलती हो गयी आप करुणासागर सभी ओर फैलता है और आप एक नयी अवस्था हो, दयासागर हो । प्राप हमें माफ कर दीजिए। में पहुँच जाते हैं। एक नये औयाम में उतर आते अब हम ठीक से चलगे । हैं। आपकी चेतना को एक नया रूप मिलता है । मतलब आपकी चेतना में प्रज्ज्वलितता आती है । इसमें 'प्र शब्द का प्रयोग किया गया है। 'प्र माने उनमें ज्यादा से ज्यादा दो-चार सच्चे गुरू हैं । बाकी जो प्रकाशित है वह । अन्दर एक दीप है, पर वह संब ठग हैं। और भयंकर कि उनके फोटो घर में जला हुआ नहीं है। उसका कोई मतलब (साथंकता) रखे हैं । अब मैं कहती है अब कलियुग खत्म हो नहीं है। वह जलाने से ही प्रज्ज्वलित होता है। वैसे गया है और संत्ययुग की शुरूआत हुई है उन ही आपका चित्त है, वह तब प्रज्ज्व लित होता है, उससे प्रकाश फेलता है और उस प्रकाश में सब केन्सर की बीमारियाँ होंगी, और सहजयोग के कुछ दिखाई देता है । अब आपको कुछ नहीं दीख बगर वह ठीक नहीं होंगी। रहा है। अलख है, अपरोक्ष है ऐसा कुछ लोग रखिए अगर पने इन गुरुआओं की ओर गरन्दे लोगों बोलते हैं। और उसी के कारण कुछ नहीं समझ आता कि इसका क्या उपाय है ? उपाय है । अरपमें प्रकाश है। आपको आर्म-साक्षात्कार होना चाहिए। रही हैं। बगर आत्मसाक्षात्कार के आपकी अविद्या नहीं जाएगी। और ये घटित होना बहुत जरू री है । बह परमेश्वर का कार्य है। उन्हें ये कार्य करना ही है। उन्होंने इस संसार का सुन्दर सपना रचा है भठापन कितना पक्का हो गया है। इस और उनकी ये रचना फलीभूत नहीं हुई तो घ्मान्धता से और इस तरह के मन्दिरों में जाकर परमेश्वर का कोई प्र्थ (महिमा) नही रहेगा। और इधर-उधर जाकर अपना जीवन बर्बाद कर तो उन्हें ये कार्य करना ही है और वह करसे करना रहे हैं। कुछ तो मार्ग दिखाइए, प्रकाश दीजिए है ये उन्हें मालूम है । यहां से बहां इस महाराष्ट्र में इतने गुरु हैं। ला गुरुग्रों की वजह से आपको कैन्सर, ल्युके मिया, इसलिए पआ्राप व्यान की सेवा की तो उसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे । ये एक माँ के प्यार से व अत्यन्त करुणा से कहै सहजयोग से आापमें प्रकाश आएगा इस प्रकाश से अप जानोगे बाहर कितने गन्दे काम हो रहे हैं। ये ये मनुष्य का शरीर आपका पता नहीं परमात्मा ने कितनी मेहनत से बनाया है। कितनी योनियों से बहुत से लोग कहते हैं. माताजी, हम शिव के निकालकर आपको इस स्थिति में लाया है। इस प्रयोग करना चाहिए । हम बिलकुल सच बात है, (बिना कुण्डलिनी जागरण) कौन हैं ? परमेश्वर ने हमें किस स्थिति से यहां (इस स्थिति में) लाया है? कितने प्यार से, अनाधिकार वेष्टा करने से शिवशक्ति जो है वह कितना पालन- पोषण करके आज हमारो उन्होंने क्रोधित होगी। वह शिवशक्ति परपके अस्तित्व का इतनी सुन्दर सुन्दर भक्त हैं। फिर भी उन्हें हृदय की शिकायत ! स्वतन्त्रता का हमें शिव के भक्त माने निश्चित हृदय विकार ! स्थिति बनायी है। इस इतने हुए मनुष्य देह को, अपने मन को और इस पूरे मानव व्य क्तित्व को कोन सी स्थिति में लाया है, कहां बिठाया है, इस का विचार करिए। अपनी मान्यता (मैं कोन है) होनी चाहिए। एक बाना कारण है । (अनाधिकार चेष्टा करने से) आपका बने इस लिए अपको हृदय की तकलीफ होती है । परन्तु उसका इलाज है । तो क्या करना चाहिए ? क्षमा मांगनी चाहिए। शिवजी से अस्तिर्व ही नष्ट होगा इसलिए निरमला योग १८ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-20.txt (सेनिक पोषाक) होना वाहिए मनुष्य में समझदारी गुरुप्रों के प्रकार देखकर मुझे इतना दुःख इतना का कि, हम कौन हैं ? कहां जाएंगे ? हमें क्या क्रोध आता है कि कभी-कभी लगता है प्रगर संहार- चाहिए ? तो आप आइए ओर प्रपना कल्याण शक्ति प्रयोग की तो इनका सहज संहार परमेश्वर करबा लीजिए । उन गुरुआं के पीछे बेकार में प्रपने कर सकते हैं । पर संहार करके भी क्या करें ? आपको मत परेशान करिए। श्र 'स्व को प्राप्त वयोंकि, कलियुग वाली स्थिति हो गयी है "यदा होने के बाद उन गुरु प्रों से केसे छुटकारा पाता है " हुआ है | ये सीख लोजिए । उनसे बहस करने और लड़ने परन्तु इस दुनिया में ऐसे कोन से साधु हैं ? मत जाइए। वह आपके बस का नहीं है । यह आपसे परिमारणाय साधुनां विनाशायात् दुष्कृत्ताम् नहीं होगा। ये बात सत्य है आप कितने भी दुष्कृत्यों का मुख्य है साधु में इसलिए पहले इनके बलशाली हों पर फिर भी वे लोग अत्यन्त दूष्ट होते दिमाग में घुये हुए दूष्कृत्य निकाजने पड़ेंगे। तभो हैं और उनमें इतनी गंदी विद्याएं होती हैं श्रोर वे उनको पार कर सकते हैं । अत्यन्त नाजुक स्थिति इतने पतित होते हैं (कि आप उनसे लड़ नहीं सकते) है । मुझे दीख रहा है कि आपके मस्तिष्क में वे तो मुझे बारम्बार कहना है कि ऐसे लोगों के पीछे घुसे हैं । तो इन्हें निकालना चाहिए, वे (मस्तिष्क आप गए भी हों तो उन्हें सहजता में छोड देता स्वच्छ करने चाहिएं । वे ठीक से निकालकर आपको चाहिए। अगर आपने उन्हें सहज में छोड़ दिया तो आपकी जगह विठाना है। और प्रापकी जो संपदा उससे बहुत लाभ होने वाले हैं। कभी-कभी इन है वह आपमें विठानो है । यदाहि घर्मस्य ग्लनिर्भंवति भारत आपको ये साक्षात्कार की दुतिया (परमात्मा का साम्राज्य) की पहचान बहुत दिनों से नहीं हो रहो हैं क्योंकि 'नि:' शब्द का मतलब जानकर आप उसका अनुस रण नहीं कर रहे हैं । समझ लीजिए आप इस शब्द के मतलव को तरह अचरण नहीं कर पा रहे हैं, मतलब अ्राप कभी भावुक अरर कभी धमण्डी बन रहे हो, परन्तु अ्रपकों इसका अत्यंत दुःख हो रहा है। तब आप इस दुनिया की अरतिशय स्थित पर उतारू हो । मतलब न अाप इस दुनिया में हैं और न उस मिथ्या दूनिया में हैं। परमात्मा की इस दूनिया में केवल आप ध्यान घारण द्वारा हो अपने आपको ले जा सकोगे । के बल निः' शब्द का अपको अपने जोवन में अनुपरण करना है, फिर आप निर्विचार वन सकते हैं। श्री माताजी मैं कभी भी घड़ी नहीं देखती। मेरी असलो घड़ी तो निर्विवारिता में है । वह हमेशा के लिए रुकी हुई है। जिस समय जो बात करनी है और करनी चाहिए बिल्कुल उसी समय वह हो जाती है। -श्री माताजी १६ निर्मला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-21.txt श्री गणपत्यथर्व शीर्षम् हमारे कान जो सत्य है उसी को सुन । हमारे नयन जो शुद्ध है उसी को देख। हमारा तन-मन-धन ईश्वर की स्तुति में लगा रहे- ध्रवण करने वाले इससे ईश्वरी ज्ञान को प्राप्त करें, ना मेरी आवाज सूने । इसी प्रार्थना से, इसी ज्ञान से, इसी प्ररणा से परम् परमेश्वरी माता जी की करें। हमारा ध्यान प्रकाशित औ्र समृद्ध हो तथा सभी सहजयोगी पुजन बांधव करुरणामय एवं निरामय आनंद का लाभ उठाएं । प्रार्थना- "र्वमेव साक्षात् श्री गणेश साक्षात् माताजी श्री निर्मला देव्ये नमो नमः ।" श्री जीसस साक्षात श्री आदिशक्त ॐ नमस्ते गणपतये । त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि त्वमेव केवलं कर्ताऽसि । त्वमेव केवलं धर्ताऽसि । त्वमेव केवलं हर्ताऽसि । त्वमेव सर्व खल्विदं व्रह्मासि । त्वं साक्षादात्माsसि नित्यम् ॥१॥ आप ही साक्षात् तत्व है । आप ही साक्षात् सभी क्रियाओं के कत्त्ता हैं। जो घटित हुए हैं, होते हैं, तथा होंगे। आप ही साक्षात् हैं support) करते हैं। जो सभी आधारितों (supported) को घारण निर्मला योग २० thc 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-22.txt प्राप ही साक्षात् हैं जो सभो रक्षितों की रक्षा करते हैं । आप हो साक्षात् सर्वत्र निरंतर प्रतीत होने वाले आत्मा हैं । ऋतं वचिम्र सत्यं वचित्र ॥२॥ मे रो वाचा विशुद्ध एवम् पवित्र तत्व का उच्चारण करे। श्रव त्वं माम् । अब बक्तारम्, अव श्रोतारम् अ्रव दातारम्, अरव घातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । पश्चात्तात्, अव पुरस्तात् । अ्रबोत्तरात्तात् अ्व दक्षिणात्तात् । अब चोधत्तात्, अवाधरात्तात् । सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३।| आप मेंरी ओोर हम सब को, जो इस स्तूति का गायन कर रहे हैं, जो सुन रहे हैं, जो इसे दूसरे को प्रदान करते हैं एवस् जो इसे स्वोकार करते हैं परोर इससे संलन्त रहते हैं, उनकी पू्र दिशा से, पदिवम दिशा से, उत्तर दिशा से, दक्षिण दिशा से तथा ऊपर एवम् नीचे से, सभो दिशागं से सर्वत्र रक्षा करें। त्वं वाङ मयस्त्वं चिन्मयः । त्वमानन्दमयस्त्व बरह्ममयः त्वं सचिचिदानन्दाद्वितीयोऽसि । त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।।४।। शब्दों से प्रतीत होने वाला ईश्व र तस्व आप का स्वरूप है । विशुद्ध चित्त जिससे ईश्वर का ज्ञान होता है वह आपका स्वरूप है । विशुद्ध प्रानंद जो ईश्वर से प्राप्त होता है वह प्रापका स्वरूप है । औप बरह्ममय हैं। आप संपूरण ग्रद्वितीय सच्चिदानंद स्वरूप हैं । निर्मना योग २१ ल 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-23.txt आप साक्षात् वहा है । विशुद्ध ज्ञान आप का स्वरूप है । सर्व जगदिदं त्वत्तो जायते । सर्व जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति । सर्व जगदिदं त्वयि लयमेष्यति । सर्व जगदिदं त्वयि प्रत्येति । त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः । त्वं चत्वारि वाकपदानि ।॥५।॥ यह संपूर्ण जगत् आप के कारण निर्माण होता है। यह संपूर्ण जगत् आप के कारण स्थित है । यह संपूरों जगत आप के कारण प्रतीत होता है। यह संपूर्ण जगत का विलय आप में होता है। और उसके पश्चात केवल आप ही साक्षीस्वरूप रहते हैं। आप पृथ्वी हैं, आप जल हैं, आप बायु हैं, आप अश्नि हैं, आप अकाश हैं । परा, पश्यंति, मध्यमा, वैखरी आप का स्वरूप है गुरगत्रयातीत: त्वं देहत्रयातीतः । त्वं । त्वं कालत्रयातीतः । त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् । त्वं शक्तित्रयात्मकः । त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् । त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अ्रग्निस्त्वं |त वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्यं व्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥ आप सर्व, रज, तम तीनों गुणों के परे हैं। आप स्थूल-सूक्ष्म तथा कारण तीनों देहों (शरीरों) के परे हैं निर्मला योग २२ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-24.txt प्रप वर्तमान, भुत, भविष्य तीनों कालों के परे हैं । आप निरंतर मुलाधार चक्र में स्थित हैं । महालक्ष्मो, महासरस्वती, महाकाली शक्तियां आप में कार्यान्वित हैं । जो ईश्वर से तादात्म्य पाते हैं वे योगी आपका घ्यान करते हैं । आप ब्रह्मी, विष्णु, रुद्र हैं। आप इन्द्र, अ्रग्नि, वायु हैं। आप मध्या ह्र काल के सूर्य एवं पूर्णमासी के चन्द्रमा हैं। इन सबके द्वारा प्रोकारस्वरूप आप भू-लोक, वायु-मंडल, आकाश में भरे हैं, तथा उनके भी परे हैं। गणादि पूर्वमुच्चार्य, वर्णीदि तदनन्तरम् । अनुस्वारः परतरः । अर्धेन्दुलसितम्, तारेण ऋद्धम् । एतत्तव मनुस्वरूपम् । गकारः पूर्वरूपम्, शकारो मध्यरूपम् । अ्रनुस्वारश्चान्त्यरूपम् बिन्दुरुत्तररूपम् । नादः सन्धानम्, संहिता सन्धिः । सैषा गणेशविद्या | गणके ऋषिः, निचुद् गायत्रीच्छन्दः । गणपतिर्देवता । ॐ गं गणपतथे नमः ॥७ ॥ गरणों में प्रथम जो आप हैं उनका उच्चारण करके तत्पश्चात वर्णमाला का उच्चारण करते हैं। अरधथ-चन्द्र मा धारण किए हुए आप सभी अक्षरों के परे हैं । आप तारे और चन्द्रमा के भी परे हैं। ग' प्रथम रूप 'अ' मध्यम रूप और अनुस्वार अंतिम रूप तथा बिन्दु उत्तर रूप, इनका अनुसंधान वेकदों का ज्ञान देने वाला है । यही गणेश विद्या है । इनके ऋषि गणक हैं तथा छंद गायत्री हैं। [और देवता गणपति हैं। ॐ गं गरणपतये नमः | २३ निमंला योग 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-25.txt एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दंती प्रचोदयात् ॥८॥ हम एक दंत ( श्री गणेश) को जाने । वक्रतुंड (जो दुष्टों का नाश करता है) का ध्यान करें। वह दंती (श्री गणेश) हमें प्रेरणा दें। एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् । रदं च वरदं हस्तविध्राणं मषकध्वजम् ।। रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् । रक्तगन्धानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ।। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारण मच्युतम् । आविर्भृतं च सृष्टयादो प्रकृते: पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ।।8॥ एक दंत जिनके चार हाथ हैं, जिन्होंने पाश, अकुश और शक्ति को धारण किया है औौर अभय प्रदान किया है, मुषक जिनका वाहन है । आप के वस्त्र लाल हैं, आप लाल रंग से सुशोभित किए जाते हैं। लाल रंग का गंध अप को लगाया जाता है। आप किए जाते हैं । मक की पूजा में लाल रंग के फूल अपेण अपने भक्तों के प्रति आप को असीम प्रेम है, आप सारे विश्व के रचयिता हैं । विश्व का प्रारंभ, विश्व का निर्माण होने से पहले आ्रप थे। आप प्रकृति व पूरुष इनके भी परे हैं। इस प्रकार अप को ध्यान करने बाला योगी सभी योगियों में श्रेष्ठ है । निर्मला योग २४ 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-26.txt नमो वरातपतये । नमो गणपतये । नमः प्रमथपतये । लंबोदरायेकदन्ताय । नमस्तेऽस्तु विध्ननाशिने शिवसुताय । श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥ १० ॥ ॐ नमो निर्मला जी सहाय नमो नमः । ॐ जीसस आप की शक्ति की हम सभी शरण हैं। हमारी स्मृति एवं क्रियाशीलता आापको अपित है । आप उन्हें प्रकाशित करें । आप ही वह शब्द हैं जो संबसे पहले था। आप ही वह शब्द हैं जो सबके अंत होने के बाद भी रहेगा। श्री गणश आप को बारबार प्रणाम । श्री शिवजी के गणों के नेता श्री गणेश प्राप को प्रणाम । वासनाग्रों पर नियंत्रण करने की शक्त देने वाले गणेश अआप को प्रणाम । लंबोदर गणेश अप को प्रणाम । एकदंत श्री गरणेश आप को प्रणाम । विध्नों का विनाश करने वाले गरश आाप को प्रणाम । आदिशक्ति माताजी निर्मला देवी के प्रिय पुत्र श्री गणेश आप को प्रणाम । प्रसाम। आदिशक्ति माताजी को प्रसन्न रखने वाले श्री गणेश अरप को प्रणाम । (चतुर्थ कवर पृष्ठ का शेष) हे मां ! तेरी भव्यता से मन मुग्ध हुआ देख रहा, तन में चैतन्य भरा है ।।१५॥ भक्ति-भाव भर जाते हैं । पद कमल स्पशं करने बरबस, मस्तक हमारे झुक जाते हैं ।। १३॥ सुध-बुध खो कर मन, मुक्त विचार हो जाता है । तल्लीन तेरे चरणों पर, सत्चिदानंद से भर जाता है ।।१६।। सम्पूर्ण मुक समर्पण, से आते हैं। হबद न मुख करुणा-सागर के सामने, तेरे बालक बन कर जिसने, सजल नयन हो जाते हैं।।१४।। परम सोभाग्य पाया है । आानंदातिरेक से गद्गद् हृदय, नि्भला विद्या के प्रकाश में, 'भरम सहजयोग का पाया है ।।१७॥॥ वाणी ने मौन धरा है । 1985_Nirmala_Yoga_H_(Scan)_V.pdf-page-27.txt Registered with the Registrar of Newspapers under Regn. No. 36999/81 ॐ L जय श्री माताजी 5 माता निर्मला महिमा सब रंगों की जननी शुभता, विराट की शक्ति, वीरायंगता खिल ब्रह्मांड की स्वामिनी हो । प्रभु की परम प्रकृति प्रदिवक्ति, सब जग की तुम जननी हो ।। १॥ तुम धवला हो । मानव-नित को निर्मल करने वाली, माता निमंला हो ।।७।। गंभी रों की गंभीरता, है असीम अखण्ड विस्तार तेरा, अगाघ ते री गहराई है । वोरों की वीरता हो । धीरों की धोरता तुम, चंचल- चित की स्थिरता हो । ॥॥ समस्त लोकों भुवनों में सत्ता तेरी समाई है ।॥२॥ भक्ति भावों की अभिव्यक्ति, तेरी श्क्ति अनन्त अपार, सबकी जोवनी शक्ति हो । सकल सृष्टि रचाई है। ग्रह नक्षत्र तारों भरे नभ के नीचे, हरी भरी घरती मनोहारी बनाई है ॥ ३॥ सत्तिदानंद दायिनी तुम, जीवन्मुक्तों को मुक्ति हो ।।8।॥ सब आधारों की आधार, अमर ज्योति है प्रकाश तेरा, परम पबित्रता हो । अनन्त जीवन का प्राण है। तेरा प्रेम ही सत्य है, नीले गगन की गहराइयों की, तुम नीरवता हो ।।४।॥ परमानन्द तेरा ज्ञान है ।।१०॥ तेरी आँखों में परम शान्ति का, मानवी-चेतना की पराकाष्ठा, जब ज्ञान तेरा आता है। सांगर समाया है । नक्षत्र-तारे खचित अंतरिक्ष में, साम्राज्य नीरवता का छाया है ।।५। तुझको जानने के बाद, कुछ शेष नहीं रह जाता है ।। ११॥ असंख्प तारों को गंथने वाली, हे माँ ! तुम आकाश गंगा हो । सब जग को तारने वाली, बहु-आयामी गति तेरी है उपमायें सब तुझसे पाते हैं । तुझमें उत्पन्न होते संब, तुझमें ही समा जाते हैं ।। १२॥ तुम विश्व गंगा हो । । इ॥ (शेष तृतोय कवर पूष्ठ पर) Edited & Published by Sh. S. C. Rai, 43, Bunglow Road, Delhi-110007 and Printed at Ratnadeep Press, Darya Gani, New Delhi-110002. One issue Rs. 8.00, Annual Subscription Rs. 40.00 ; Foreign [ By Airmail £ 9 $ 16]