चैतन्य लहरी अंक ।0 अंड । भारतीय परिशचष्ट ैस ा य "भले ही आप एक दिन साना ना साएँ, आप एक दिन ना सो ए, आप एक दिन दफ्तर ना जाएँ, आप एक दिन वो कुछ भी ना करे जो आप प्रतिदिन करते पर ध्यान - मनन आपको प्रतिदन अवश्य करना है।" श्री माताजी अ मोर बंदना म आज दिवस में वही बन, जो आप बनाना चाहें । आज दिवस मैं वही कहूँ, जो आप कहलवाना चाहे ।। आज दिवस मैं अंश बने, सम्पूर्ण ब्रम्ह तत्व के । आज दिवस मैं प्रेम क, सम्पूर्ण मानव जाति से ।। आप कृपा से विचार हो मेरे, एक साक्षात्कारी आत्मा के श्रीमाताजी बसै हृदय और, मन मे निशदिन मेरे मर. प्रार्थना माँ, कृपया मेरे हृदय में आइए, आप वहाँ बस जाइए । शुध्द कर ल हृदय अपना, मैरे इृदय मैं चरण रख लें, कर सक मैं चरण पूजा । हो न पाये भ्रम मुझे अब, दूर कर दे सब भ्रमों से । रख दे केवल वास्तविकता में, दिखावट की चमक मुझसे दूर कर दें । आनन्द लें चरणों का अपने इृदय में निहा चरणो को अपने हृदय में * अनुवादित श्री माताजी साम श्री माताजी यान घारणा" पर सवेरे आप उठिए, स्नान कर लें, बैठ जाएँं, धोडी चाय ले लें, बोले नहीं, बैठ जाएँ पर सवेरे बोलें नहीं, ध्यान लगाएँ - क्योंकि उस समय दैवी किरणे पहले आती हैं, सूर्य बाद में आता है इसी प्रकार चिड़ियाँ जागती है। इसी प्रकार फूल सिलते हैं। वे सब उसीसे जागृत होते हैं और अगर आप संवेदनशील हैं तो आप को महसूस होगा कि सवेरे उठने से आप की दस साल कम लगने लगेगी। सचमुच, सवैरे उठना कितनी अच्छी बात है, और फिर स्वत: ही आप जल्दी सोरपंगे ये उठनै के लिए है, सौने के लिए मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है, क्यांकि वो आप स्वयं कर लेंगे। फिर सवेरे आपको कैवल घ्यान लगाना चाहिए। ध्यान में अपने विचारों को रोकने का प्रयत्न करिए। मेरी फोटो को सुली औँखो से देखिए, देखेंगे, विचार रोक पार्येंगे। जब आप विचार रोकले तब आप ध्यान में जाएँ। सबसे सरल चीज विचार रोकने के लिये है "लौर्डस प्रयर" ंभगवान की प्रार्थना क्योंकि वह आज्ञा स्थिति में है। तो सवेरे आप वह प्रार्थना या गणेश मंत्र कहं । एक ही चीज है। या आप कहिए "मैं क्षमा करता है।" अतः आप गणेश मंत्र से आरम्भ कर सकते हैं, "लार्डज प्रार्थना" कहिए और फिर कहिए मैं क्षमा करता हूँ।" यह कार्यवान्वित होता है तब आप निर्विचार जागस्क स्थिति में हगे। अय आप ध्यान लगाएँ। उससे पहले कोई ध्यान नहीं है। जब विचार आते हैं या "मुझे घाय पीनी हैं", "मैं क्या क", "अब मुझे क्या करना हैं?" यह कौन है और यह कान है ?" यह सब होगा, अतः पहले आप निर्विचार रूप से जागरूक हो जाइए और उस निर्विचार जागरूकता के पश्चात् ही, पहले नहीं, आपका आत्मिक उत्थान आरम्भ होगा, यह जान लेना चाहिए। ताकिक स्तर पर आप सहज योगा में नहीं बढ सकते। तो पहली चीज है कि आप अपनी निर्विचार जागरूकता को स्थापित करें, तब भी आपको इघर-उधर चक् फैसते महसूस होंगे, भूल जाइए। बस भूल जाईए। अब अपना समर्पण आरम्भ करिए। अब अगर आपका चक्र पकड़ रहा है, तो कहना चाहिए, "मौ, ये मैं आपको समर्पषित करता हूँ।" कुछ भी करने के बजाय आप केवल यह कह सकते हैं। पर उस समर्पण का कोई ताकिक कारण सोचना नहीं चाहिए। अगर आप तब भी तर्क मैं ये क्यों कहूँ, तो कभी नहीं होगा। अगर आपके हृदय में शुध्द करेगे या चिन्ता करेगे - प्रेम और पवित्रता है तो वह सबसे अच्छी चीज है, वो करना ही समर्पण है। सब चिन्ता्ँं अपनी माँ पर छोड़ दीजिए। सब कुछ माँ पर। पर इस अहम से भरे समाज में, समर्पण ही बहुत कठिन है। उसकी बात करते हुए भी मुझे चिन्ता होने लगती है। पर अगर आपको कोई विचार आ रडे हैं या कोई चक पकड रहा है तो बस समर्पण करिए और आप देंगे कि चक सुल जाएँगे सवैरे आप हाथ पैर ना हिलाएँ आप देखेंगे कि इधर उधर कुछ मत करिप, सवेरे बहुत अधिक अपने आपके आधकतर चक ध्यान में सुल जाएँगे। हृदय में प्रेम बसाने का प्रयत्न करिए। वस, इृदय में प्रयत्न करिप और वहाँ गुरु को बसाने का प्रयत्न करिए अपने अंतरतम में। हृदय में स्थापित करने के पश्चात् पूरी श्रध्दा और जी - जान से उनके सामने नत मस्तक हो जाना चाहिए। साक्षात्कार के बाद जो भी आप अपने चित्त से करते हैं, वह काल्पनिक नही होता, क्योंकि अत् आपका चित्त, आपकी कल्पना, आलोकित है। तो अपने आप को इस प्रकार लाइये कि आप अपने गुरू और माँ के चरणों में नম हो जाएँं। और अब मागिए वह स्वभाव और वह वातावरण जो साधना के लिए अनुकूल हो। परमात्मा से एक हो कर रहना "्यान-धारणा" है। परमपून्य श्री माताजी के साथ घ्यान - शुडी कैम्पज में गोष्ठी 18 जून ।988 कृपया अखि बन्द कीजिए। आप सब अखि बन्द कीजिए। अब हम सब वैसे ही मनन करेंगे जैसे कि हम हर जगह करते आए हैं जहाँ जहाँ सार्वजनिक कार्यक्रम हुए हैं। बीया हृदय हम बाई ओर पर कार्य करेंगे और बाया हाथ मेरी ओर होगा सबसे पहले आप , जेो आत्मा हैं [आपको आत्मा को अपना दीया हाथ अपने हदय पर रलिए। हृदय में बसते हैं शिव धन्यवाद देना है कि वो आपके चित्त में प्रकाश लाई है क्योंकि आप संत है और जो प्रकाश आपके दिलों में आया है उसे पूरे विश्व को आलोकित करना है। तो अब आप कृपया अपने हृदय में प्रार्थना करें । "मैरे इस दैव्य प्यार के प्रकाश को समस्त संसार में फैलने दीजिए"। इस लगन और समझ के साथ कि आप दैव्य से जुड़े हैं और जो भी आप चाहेंगे वह होगा, इस सम्पूर्ण विश्वास के साथ। अब अपना दाया हाथ अपने पेट के ऊपरी भाग के बाँई और रखिए। यहाँ बौया भवसागर - है आपके धर्म का केन्द्र। यहाँ आपको प्रार्थना करनी है कि : "समस्त संसार में विश्व निर्मला धर्म फैले। लोग हमारे घार्मिक जीवन से और हमारी सत्यनिष्ठा के दुवारा प्रकाश देखे। इनलाइटमेंट लोग उसे देसे और अपनाएँ विश्व निर्मला धर्म, जिससे उन्हे प्रकाशमयता भलाईभरों उच्च जीवन और उत्थान की इच्छा प्राप्त हो।" बाया स्वाधिष्ठान - अब अपना दौया हाथ, पेट के निचले भाग के बौई ओर ले जाइए। उसे दबाईए| पा कका ये शुध्द विद्या और ब्ञान का केन्द्र है। यहाँ, सहजयोगियों की भाँति आपको कहना है "हमारी माँ ने हमे ये सब समझा दिया है कि दैव्य कैसे कार्य करती है। उन्हेोंनं हमें सब मंत्र और सब शुध्द ज्ञान दिया है जो हम सह सकते है और समझ सकते है। हम सबको उन के विषय मे पूर्ण ज्ञान होना चाहिए मैने देखा है कि अगर एक आदमी लीडर है, उसकी पत्नी को सहजयोग के विष्जय में एक शब्द नही आता, और उसका पति यह जानता ही नही है । कहें "मैं इस ज्ञान में प्रवीण और निपुण होऊ ताकि मैं लोगों को आत्म साक्षत्कार दे स, उन्हे समझा सके कि दैविक नियम क्या है, कुन्डलिनी क्या है और चक क्या है।" "मैरा चित्त सहज योग पर अधिक और इन सांसारिक वष्तुओं पर कम होवे।" पाँई नामी - जब अपना दाँया हाथ अपने पेट के ऊपरी भाग पर रखिए और आँस बन्द कर लीजिए। अय यहाँ बाँई और दबाइए। "माँ ने मुझे आत्मा दी है और मेरे अपने गुरू है जो आत्मा है। मैं स्वरय का गुरू हूँ। काई परित्याग न होवे। मेरे घरित्र में प्रतिष्ठा होवे। मैरे आचरण में उदारता होवे। अन्य सहजयोगियों के लिए प्रेम और समवेदना हो। मैं दिसावा ना कर, पर ईश्वर के प्रेम और उनके कार्य का मुझे गहरा ज्ञान हो, जिससे कि जब लोग मेरे पास आएँ, तो मैं उन्हें सहज म योग के विपय में बता सके और प्रेम और नमता से उन्हें ये महान् ज्ञान दे सके।" बॉया इृदय अब अपना दौया हाथ हृदय पर उठाइए। यहा आप भगवान को धन्यवाद देंगे कि आपने हर्ष के सागर का अनुभव किया है और कमा के सागर को महसूस किया है और हममें क्षमा करने की क्षमता है जैसे हमारी माँ में है, जो हमने देखा है, विशाल है। यहाँ कहे "मेरा हृदय विशाल हो ताकि उसमें संपूर्ण ब्रम्हाँड समा जाए और मेरा प्रेम भगवान के नाम को प्रतिध्वनित करे और हृदय हर पल ईश्वर के प्रेम की सुन्दरता को व्यवत करें। " बाँई विजुष्दी - अब अपना दौया हाथ बाई विशुध्दी पर ले जाइए, गर्दन और कन्ये के कोने पर । मैं दोप की मिथ्या में लिप्त नही होऊँगा क्योंकी मैं ये जानता हूँ की ये मिथ्या है। मैं अपनी त्रूटियों से भागूगा नही, पर उनका सामना करके उन्हे नष्ट करुँगा। मैं दूसरों में दोष नही निकालूंगा, पर अपने सहजयोग के ज्ञान से मैं उनके दोष हटाऊँगा। हमारे पास कितने ही तरीके है जिनसे हम चुपचाप दूसरों के दोष हटा सकते है । मैरी सामूहिकता इतनी महान हो जाए कि संपूर्ण सहजयोग जाति मेरा परिवार मेरे भपने बच्चे, मैरा घर और मेरा सर्वस्व बन जाए। मुझमें पूर्णत: यह भाव आ जाए और अंततः १इनेटली मेरे अन्दर बस जाए कि मैं एक संपूर्ण का अंश हूँ क्योंकि हमारी एक ही माँ है और हमारा ध्यान पूर्ण विश्व की ओर जाए जिससे कि हम ये जान लें कि उनकी समस्याएँ क्या हैं और मेरी शुध्द इच्छा शक्ति इन समस्याओं का कैसे समाधान कर सकती है। ः प्रयत्न कर के उन संसार की समस्याएँ मुझे हृदय में अनुभव हो और मैं अंतत सब को मिटा र्दु और उनकी जड़ें ही समाप्त कर दूं। मैं इन समस्याओं के मूल तक जाऊँ और अपने सन्त होने की शवित से और अपनी सहजयोग शविति द्यारा इन्हें हटाने का प्रयत्न कं। - अब अपना हाथ भेरे माथे पर रखिए। यहाँ पहले कहना है: माया मुझे उन सब की ्षमा करना है जो सहजयोग में नहीं आए है, जो बाहरी सीमा पर सडे हैं और कभी बाहर है तो कभी अन्दर। पर सबसे पहले तो मुझे सब सहजयोगियोंको क्षमा करना है, क्योंकि वे सब मुझसे अच्छे है। मैं ही हूँं जो उनमे दोष निकालता हूँ और मैं ही सबसे नीचे हूँ और मुझे ही उन्हे क्षमा करना है क्योंकि मुझे ये अवश्य जानना है कि अभी मुझे बहुत आगे जाना है। अभी मैं बहुत कम हू और मुझे अपने आप को सूधारना है। नमरता लाने के लिए यहाँ कहना है "नम्रता हमारे हुदय मे बसे, सच्चाई में, केवल दिखावे के लिए नहीं। ईश्वर और सहजयोग के सम्मुख क्षमा के भाव पर कार्य करे ताकि हम वास्तविकता, नतमस्तक हो जाएँ।" पिछला आज्ञा :- अब आपको अपना हाथ अपने सिर के पीछे रखना है और सिर को पीछे करना है और यहाँ कहना है : "है मौ। जो भी हमने आपके साथ अबतक गलती की है या जो गलत बाते हमारे मन ंंबेि मैं आई हैं, जो ओछापन हमने आपको दिसाया है, जैसे भी हमने आपको परेशान किया है या ललकारा है, उस सब के लिए आप हमें क्षमा कर दे।" आपको क्षमा माँगनी चाहिए। आपको अपनी समझ में ये जान लेना चाहिए कि मैं क्या सडस्त्रार । अब सहस्त्रार पर मैं आपके बार बार नहीं बताऊँगी। संहस्त्रार पर आप मुझे धन्यवाद दें, अपना हाथ वहाँ रख कर सात बार घुमाएँ और सात बार मुझे धन्यवाद दें। "श्रीमाताजी, आत्म साक्षात्कार प्रदान करने के लिए कोटि केटि धन्यवाद। 6. श्री माताजी कोटि धन्यवाद कि आपने हमें समझाया कि हम कितने महान हैं और धन्यवाद कि आपने हम पर दैविक आशीर्वाद बरसाया और घन्यवाद कि आपने हरमें ऊपर उठाया, वहँ से ऊपर जहाँ हम ये। इसके लिए भी घन्यवाद कि आपने हमें सम्भाले रसा है और हें सुधारने में और सही रखने में हमारी सहायता की है। अंतमे श्री माताजी, इस बात का भी कन्यवाद कि आप इस पृथ्वीपर आई, यहाँ जन्म लिया, और हम सब के लिए आप इतनी मेहनत से कार्य कर रही हैं। जोर से दबाइप जोर से घुमाइए। अब डाथ नीचे कर लीजीए। सिर सब बहुत गरम कभ हैं। अब अपने आप को एक अचाछा सा बन्धन देंगे माँ के बन्धन में बॉँप से दाँए जाइए। एक बार अच्छी प्रकार समझिए कि आप क्या हैं। आपका आभा औरा क्या हैं। अब दूसरी बार। अब तीसरी बार। अब चौथी बार और अब पाँचवी, छठी और सांतवी। अब अपनी कुन्डलिनी उठाइए धीरे से, बहुत धीरे, पहली बार उठाइए बहुत थीरे से करना है । अब सिर को पीछे करिप और पक गाँठ दीजिए, एक गाँठ। दुसरी बार, बहुत थीरे से कीरेप और ये जान कर करिए कि आप क्या हैं आप एक सन्त हैं। ठीक से करिए, जल्दी में नही। सिर पीछे करिए और वहीँ दो गाँठे दीजिए, एक और दो। अब तीसरी बार करते हैं। फिर तीसरे वाले में तीन गाँठे देनी हैं। बहुत थीरे से करिए। बहुत थीरे । अब ढंग से करिए। अब सिर पीछे करिें। अब तीसरी गाँठ लगाइप। तीन बार। अब अपनी वाइब्रेशन्जू चैतन्य लहरियां? देखिप। वाइब्रेशन्जु ऐसे देखिए। सब बच्चै अपनी बाहब्रेशन्जु पेसे देसें, हाथ रविए। सुन्दर। मुझे वाइब्रेशनज चेलन्य लहरी मिल आपसे रही है। भगवान आपको आशीर्वाद दें। त बहुत धन्यवाद। श्री महादेवी के ।03 नाम श्री ललिता सहस्रानाम में महादेवी के 1000 नाम दिए हुए हैं और ये उन नामों में से ।08 नाम हैं। ये महान देवी, एक छोटे बच्चे की भाँति सरल और निरीह हैं और उनकी धाह पाना कठिन हैं, चारों ओर वही हैं, एकदम पकड में नहीं आने वाली, अनुभव की हर श्रेणी को पार करती हुई, सारे जाने और अनजाने विश्वों में। नाम केवल उनके कुछ पहलुऑ का दर्शन देते हैं । वे पूज्य हैं। श्री माताजी निर्मला देवी पर ध्यान रस कर, इन मन्त्रों द्वारा हम उनके नाम जप सकते हैं। - 7- "औम् साक्षातु श्री माता नमो नम: " एवमस्तु। उनको प्रणाम जो वास्तव में पावन माँ हैं । "औम साक्षात् श्री महाराज्ञी नमो नमः। एवमस्तु। उनको प्रणाम जो वास्तव में महान सामग्राज्ञी हैं । ये मन्त्र हमें याद दिलाते हैं कि, अन्त में, इदय की निष्ठा और आराधना द्वारा ही श्री माताजी निर्मला देवी की सही प्रकृति का ज्ञान हो सकता है। कृपया, दया की सागर आपका आशीर्वाद सदा हम पर हो | श्री माता पावन मौ। न केवल ये इर अचछी वस्तु प्रदान करती हैं, जो कि एक प्रेममयी माँ अपने बच्चे को देती है, पर हम सब भवतोंको उच्च विद्या प्रदान करती हैं, ब्रम्ह विद्या , एवं दैवी चैतन्य लहरियों की विधा भी प्रदान करते है। श्री महाराज्ञी महान साम्राज्ञी देयकर्या समुदद्ता दैवी कार्य के लिए प्रकट होती हैं। जब समस्त दैविक बल असहाय हो जाते हैं और दुष्टता का अन्त नहीं कर पाते तब इनका आगमन महान कैभव से होता हैं । जो यानि कि नापने योग्य विस्तार से परे हैं, जो सिर और सहस्त्रार कुल, अकुला मैं बास करती हैं। विष्णू ग्रंथी किमेदिनी वे श्री विष्णु की माया की गाँठ काटती हैं। तब ही भक्त अपने व्यक्तित्व की अवास्तविकता को देखता है अपने शरीर, मन एवं आज के अवतार में। वह अपने सीमित अहमता के अस्तित्व के प्रति सचेत रहना समाप्त कर देता हैं। भवानी भव की रानी, यानि कि शिव, जा समस्त संसार को जीवन प्रदान करते हैं। भवती प्रिया भक्तों को प्यार करने वाली भविति गम्या भवित से जो प्राप्त होती है। शर्म दायिनी सुख की दाता, दैविक आनंद के साथ । ৪ वे विश्व की संपालक हैं और उन्हें किसी आधार की आवश्यकता नहीं। निरायार सकता और उन्हें पृथक वे शुध्द चेतना हैं जिन्हे व्यवत नहीं किया जा नहीं किया जा सकता। निरन्जना जिन्हे किसी प्रकार की सीमाओं का कन्धन नहीं हैं । अनेक कमर्मों से और अनेक सिद्दान्तों की मन्यताओं से अनछुई। निर्लेपा निर्मला शुध्द, पवित्र, पावन निष्कलंका अन्त्रुटिपूर्ण दीप्ति नित्या अनन्त वे आकारहीन हैं। निराकार निराकुला कभी व्याकुल न होने वाली निर्गुणा और तीन नाडियों हुईडा, पिंगला एवं सुपुम्ना के निगुर्ण तीन गुणों ं परे। वै वो चैतना हैं जो मनकी विशेषताओं से मुवत हैं। निष्कला पूर्ण - अकिभाज्य निष्काम कारई इच्छा नहीं, सब कुछ है उनके पास । निरूपप्लवा जो कभी नष्ट नहीं हो सकती नित्य मुक्ता सदा स्वतंत्र, उनके भक्त भी सदा स्वतंत्र हैं। निर्विकारा का कभी ना बदलने वाला वे कभी नहीं बदलती, वरन् हर परिवर्तन आधार हैं। उनका कोई आधार नहीं क्योंकि वे ही सब कुछ हैं निराम्रय निरन्तरा अन्तर रहित निष्कारणा कारण रहित अर्धात् सब कारणों की कारण निरूपाधी अकेली, माया रहित, अनेकत्व का आधार निरीश्वरा सर्वोच्च बंधन से निरागा मुवत निर्मदा अहंकार रहित निश्चिन्ता चिंता रहित निरअहंकारा अहम् रहित निर्मोहा भ्रम रहित, जैसे कि अवास्तविकता केो वास्तविकता समझ लेना। निर्ममा स्वार्थ रहित निम्पापा पाप माने अज्ञान या अविद्या वे इससे रहित है निःसमशया कौई सन्देह नही हैं। निर्भावा अजन्मी निर्विक्त्पा कोई मानसिक कियाए मही है। निर्बाधा चिंतारहित नि्नाश अनश्वर निष्क्िया सब कार्यों से परे, किसी कार्य में उलझी हुई नहीं निष्परिग्रह कुछ 'नहीं लेतीं, क्योंकि उन्हें किसी चीज की आवश्यकता नही है, क्योंकि वे पूर्णकामीर हैं और उनके पास सब कुछ है। भक्त भी निष्परिग्रह बन जाते है। निस्तूला कोई उनके समान नहीं है नीलीचकुरा काले केशो वाली निरुपाया संकटों से परे निरत्यया उनकी पार करना या उनका उल्लंघन करना असम्भव है। वे सुस, आनन्द और मेक्ष प्रदान करती है सुखप्रदा जो कि मुक्ति का आनन्द हैं। , भवतों के प्रति अत्यन्त करुणाशील सान्ध्रकरूणा महादेवी सर्वोच्च देवी, असीमित सर्वोध्च पूजित, जैसे त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु, िव१ महापूज्या बड़े से बड़े पापो का नाश करने वाली महापातक नाशिनी महाशवित महान शक्ति बडे से बडे देवताओं को भी भ्रम, माया एवं अव्यवस्था में डालने वाली मामाया क सर्वोच्च सृजनहार। महारधी पूर्ण आनन्द - अर्थात् इन्द्रिय सुसों से परे । विश्वरूपा विश्व उनका आकार है एवं जो व्यक्तित्व "विश्व" जागरूक है, वो भी उनका आकार है। उनका कमलों में आसन है, यानि कि चक्कों में। पदमासना भगवती वे विश्व की आधात्री हैं। देवता सहित सब उनकी करते है। पूजा - 10 - रक्षाकारी उधदारक राक्षसारिनि जो राक्षस हैं उन अनिष्ट शक्तियों की संहारिणी हैं परमेश्वरी अन्तिम शासक नित्य-यौवना सदा तस्ण, समय उनको छु नहीं सकता क्योंकि वे उन्ही की सृष्टि है । प्रशंसा के योग्य और सत्यनिष्ठ को ही प्राप्त होने वाली। पूर्व जन्मों के पुण्य लभ्या सद्कार्यों के फल स्वरूप ही उनकी आराधना की प्राप्ति। अचिन्त्य-रूपा विचार तक न पहुच सकनेवाली, क्योंकि मसितिष्क, जो विचार का उपकरण उन्ही की सृष्टि है । है, वे औीतमशव्ति। परा शक्ति वे हर कण में प्रकट होने वाली ऊर्जा हैं और सर्वप्रथम चैतन्य लहरी हवाइब्रेशन हैं। गुरुमूर्त के आकार की । गुरु हैर गुरु स्वयं ही देवी है। आदि शकित सर्वप्रथम कारण एवं आदिकालीन और मौलिक शक्ति। योग की दात्री एवं "जीवात्मा" व्यकितगत आत्मा? से "परमात्मा" हविश्वक। योगदा के मिलन की दात्री। अकेली। विश्व के अनेकत्व की एकांकी आधार। पकाधिनी त इनकी पूजा बड़े आराम से की जा सकती है एवम् शरीर कौ अधिक श्रम सुरकराप्या नहीं करना पड़ता। शोभना-सुलभागति आत्म साक्षात्कार की सबसे सरल राह। सतचित आनन्द रूपिणी "सत्" पानी पूर्ण सत्य। चित्" यानि चेतना और आनन्द। ये परम के तीन, अंग है और इसी कारण वे उनके रूप है। शर्मीली नम्रता। वे हर प्राणी में नम्र शुध्दता के रूप में वास करती हैं। लज्जा शुभकरी दयालु । सबसे महान अचछाई है परम अनुभव का अनुभव और वे ये अपने भवतों को प्रदान करती हैं। अनिष्ट शक्तियों से कुध्द रहती हैं। अण्डिका त्रिगुणातिमका जब वे स्वयं सृष्टि बन जाती हैं। वे तीन गुणों का आकार ले लेती हैं : सत्व गुण, रजो गुण, तमो गुण। ये तीनों गुण मानव शरीर के स्वैच्छिक नाड़ी-मंडल के तीन मार्गों के अनुरूप हैं । महती ध्यान और पूजा के योग्य महान् और अपरिमित एवं सर्वोच्च हस्ती। 11 जीवन की अलौकिकता के आकार की। प्राण-रूपिणी सूक्ष्म अणु, इतनी सूक्ष्म कि समझ से परे| परमाणु जो "पाश" या बन्धनों का नाश करती हैं और मोक्ष प्रदान करती हैं । पाशहन्त्री "बीर" का अर्थ है वे भक्त जो मानवीय शवितयों के विरुध्द संग्राम का वीर माता नैतृत्व कर सकते हैं। वे उनकी मा हैं। श्री गणेश की भी "वीर" कहते हैं। गम्भीरा मौ को, चैतना की एक अधाह और महान अथाह गहराई। शास्त्रों में, झील के सूप में देखा गया है, जिसका अनुमान समय और अवधि दोनों ही नहीं लगा सकते। अभिमानी क्योंकि विश्व की सृष्टिक्ता हैं। गर्विता वै अपने भवतों पर शीघ्रही अनुग्रह बरसाती हैं। क्षिप्रप्रसादिनी सुधाध्ुति सहस्त्रार में महान देवी पर ध्यान लगाएँ तो आनन्द की अमृत धारा बहुती हैं। धर्माचारा हर युग में संदियों से चला आ रहा है कि सही आचरण का संकेत धर्म। वे सही आचरण का आधार हैं। विश्वग्रासा प्रलय के समय विश्व को निगल जाने वाली , "स्व" माने "स्वयं"। "स्त" यानि स्थापित। वे स्वयं में स्थापित हैं स्वस्था वै स्वयं को भक्तों में भी स्थापित कर लेती हैं| प्राकृतिक मिठास, यानि आनन्द। वे अपने भक्तों के हृदयों में आनन्द स्कभाव मधुरा रूप में वास करती हैं। बुध्दिमान और वीर ही उनकी पूजा करते हैं। कायर और मूर्ख उनकी चीर-समर्चिता पूजा कर ही नहीं सकते। परमोदरा सर्वोच्च उद्दारता। वे झट अपने भक्तों की पुकार और प्रार्थना स्वीकार कर लेती हैं। शाश्वती सदा उपस्थित, लगातार। लोकातीता सभी रचित विश्वों से सर्वोपरि । वे सहसरार के ऊपर विराजमान हैं। शर्मात्मिका शान्ति उनका सत है। जिन भक्तों के मन मे शान्ति होती है, वे ही उनका बास हैं। लीला विनोदिनी विश्व जिनका सेल हैं, सृष्टि का कार्य उनका सेल है। 12 श्री सदाशिवा सदाशिव की पावन अर्धारिन पुष्टि पोपण। वे ही जीवन का पोषण दैविक चैतन्य लहीरियों से करती है। चन्द्रीनभा चाद की तरह आलोकित रवि-प्रस्या सूर्य के प्रकार ज्योतिर्मय पावनकृति पावन आकार। सबसे शुध्द जो सर्वस्व पाप घो देता है। विश्व-गर्भा सर्वस्व विश्व उनमें है क्योंकि वे विश्व की माँ हैं। चित्यपित] चेतना की शवित जो अज्ञान और अ्यवस्था को भगा देती हैं। विश्व की कियाओं की मूक साली। विश्वसाक्षिणी विमला साफ,, पवित्र, अनाछुई त्रिमूर्ति को लाभांश देने वाली। वैरदा विलासिनी विश्व उनके आनन्द के लिए है, या वे, अपनी मर्जी से आत्मसाक्षात्कार का पथ सोलती या बन्द करती हैं। विजया सब किया में सफलता का तत्व। अपने भवतों को अपने बच्चों की भाँति प्यार करती हैं| वन्दारूजन बल्सला सहजयोग वायिनी स्वाचिछक आत्म साक्षात्कार प्रदान करती हैं। श्री माताजी का नवरात्रि पूजा सम्देश प्रतिष्ठान ।988 कैसे आर्यना करें पूजा इस भाव से करनी चाहिए कि आप देवी से मौहित हैं। कि आप देवी की प्रशंसा कर रहे हैं। ये बैध्दिक करिया नही है। ये सब आप प्रसन्न करने को कह रहे हैं. . ..... जैसे आप किसीको प्यार करते है तो उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ कहते हैं वैसे ही। उसी प्रकार आप देवी से निवेदन कर रहे हैं। ये बाते सन्तो ने लिखी थीं जिससे कि वे अपने आप को व्यक्त कर सकें कि आप देवी हैं, आप ऐसी हैं और आप वैसी हैं। मेरे पास कितने ही ऐसे पत्र आते हैं जो लोगों की भावनाएं उ्यवत करते हैं। पर ये कई व्याख्यान या पाठयक्म या कुछ और नहीं है। ये उस ठवन की भावना है। पूर्ण भविति में ये करना चांहिए। जो भी कहा जाता है नम्रता से उसे,, दिल में महसूस करने का प्रयत्न कीजिए। जो शब्दयोजना है, प्रार्थना ही है, प्रार्थना ही होनी चाहिए ये कोई बीध्दिक वाद-विवाद नहीं हैं । ये नेड 13 देवी को प्रार्थना है। जब तक आय ये स्स नहीं अपनाएँगे , तब तक आप अधिक दूर नहीं जा पाएँगे। उसे अपनी प्रार्थना में खोल दिजिए अपने हृदय से, पूर्णतः उँडेलते हुए हृदय उंडेल दीजिए। उसमें विश्लेषण करने को कुछ नहीं है, अगर वह आपके हृदय से नहीं निकलता तो जौ आप कहते हैं वह केवल मुँह जुबानी है। अपने हृदय को आलोकित करने के लिए आपको देवी की प्रशंसा करनी पड़ेगी। अपने आपको व्यवत कीजिए ऐसा होना चाहिए कि आपका मन करता हो ये सब कहने को। जब आप ये सब बातें कह रहे हो, तो उनसे पक हो जाइए। जब आप फोटो के सम्मुख ध्यान लगाएँ तो फौटो को हृदय में रखने का प्रयास कीजिए। फहिप माँ मै आपसे प्रेम करता हूँ, कृपया मैरे हृदय में आइए। इस हृदय में बहुत ज्ञान है, इस मैं बहुत सामध्थ्य है, सब कुछ हृदय दुवारा ही जन्मता है। पर अगर आप हुदय बन्द कर लैंगे तो मस्तिष्क निरंकुश हो जाता है और आप बाहर चले जाते हैं। इृदय आत्मा का सिंहासन म है। ये सब कुछ नियंत्रित करता है , सिम्परथेटिक उत्कांती स्वायवत, सिम्पधथेटिक, पैरा - ज्ञान और सब कुछ। तो पहली चीज है कि अपने हृदय को विकसित करने का प्रयत्न कीजिए। "डिव्हाइन कुल ब्रीज" की ओर से दीवाली की शुभकामनाएँ। दिवाली पूजा 26 अवतूबर 89 को फूलौरेन्स में होगी । ---------------------- 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी अंक ।0 अंड । भारतीय परिशचष्ट ैस ा य "भले ही आप एक दिन साना ना साएँ, आप एक दिन ना सो ए, आप एक दिन दफ्तर ना जाएँ, आप एक दिन वो कुछ भी ना करे जो आप प्रतिदिन करते पर ध्यान - मनन आपको प्रतिदन अवश्य करना है।" श्री माताजी अ 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-1.txt मोर बंदना म आज दिवस में वही बन, जो आप बनाना चाहें । आज दिवस मैं वही कहूँ, जो आप कहलवाना चाहे ।। आज दिवस मैं अंश बने, सम्पूर्ण ब्रम्ह तत्व के । आज दिवस मैं प्रेम क, सम्पूर्ण मानव जाति से ।। आप कृपा से विचार हो मेरे, एक साक्षात्कारी आत्मा के श्रीमाताजी बसै हृदय और, मन मे निशदिन मेरे मर. प्रार्थना माँ, कृपया मेरे हृदय में आइए, आप वहाँ बस जाइए । शुध्द कर ल हृदय अपना, मैरे इृदय मैं चरण रख लें, कर सक मैं चरण पूजा । हो न पाये भ्रम मुझे अब, दूर कर दे सब भ्रमों से । रख दे केवल वास्तविकता में, दिखावट की चमक मुझसे दूर कर दें । आनन्द लें चरणों का अपने इृदय में निहा चरणो को अपने हृदय में * अनुवादित श्री माताजी साम 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-2.txt श्री माताजी यान घारणा" पर सवेरे आप उठिए, स्नान कर लें, बैठ जाएँं, धोडी चाय ले लें, बोले नहीं, बैठ जाएँ पर सवेरे बोलें नहीं, ध्यान लगाएँ - क्योंकि उस समय दैवी किरणे पहले आती हैं, सूर्य बाद में आता है इसी प्रकार चिड़ियाँ जागती है। इसी प्रकार फूल सिलते हैं। वे सब उसीसे जागृत होते हैं और अगर आप संवेदनशील हैं तो आप को महसूस होगा कि सवेरे उठने से आप की दस साल कम लगने लगेगी। सचमुच, सवैरे उठना कितनी अच्छी बात है, और फिर स्वत: ही आप जल्दी सोरपंगे ये उठनै के लिए है, सौने के लिए मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है, क्यांकि वो आप स्वयं कर लेंगे। फिर सवेरे आपको कैवल घ्यान लगाना चाहिए। ध्यान में अपने विचारों को रोकने का प्रयत्न करिए। मेरी फोटो को सुली औँखो से देखिए, देखेंगे, विचार रोक पार्येंगे। जब आप विचार रोकले तब आप ध्यान में जाएँ। सबसे सरल चीज विचार रोकने के लिये है "लौर्डस प्रयर" ंभगवान की प्रार्थना क्योंकि वह आज्ञा स्थिति में है। तो सवेरे आप वह प्रार्थना या गणेश मंत्र कहं । एक ही चीज है। या आप कहिए "मैं क्षमा करता है।" अतः आप गणेश मंत्र से आरम्भ कर सकते हैं, "लार्डज प्रार्थना" कहिए और फिर कहिए मैं क्षमा करता हूँ।" यह कार्यवान्वित होता है तब आप निर्विचार जागस्क स्थिति में हगे। अय आप ध्यान लगाएँ। उससे पहले कोई ध्यान नहीं है। जब विचार आते हैं या "मुझे घाय पीनी हैं", "मैं क्या क", "अब मुझे क्या करना हैं?" यह कौन है और यह कान है ?" यह सब होगा, अतः पहले आप निर्विचार रूप से जागरूक हो जाइए और उस निर्विचार जागरूकता के पश्चात् ही, पहले नहीं, आपका आत्मिक उत्थान आरम्भ होगा, यह जान लेना चाहिए। ताकिक स्तर पर आप सहज योगा में नहीं बढ सकते। तो पहली चीज है कि आप अपनी निर्विचार जागरूकता को स्थापित करें, तब भी आपको इघर-उधर चक् फैसते महसूस होंगे, भूल जाइए। बस भूल जाईए। अब अपना समर्पण आरम्भ करिए। अब अगर आपका चक्र पकड़ रहा है, तो कहना चाहिए, "मौ, ये मैं आपको समर्पषित करता हूँ।" कुछ भी करने के बजाय आप केवल यह कह सकते हैं। पर उस समर्पण का कोई ताकिक कारण सोचना नहीं चाहिए। अगर आप तब भी तर्क मैं ये क्यों कहूँ, तो कभी नहीं होगा। अगर आपके हृदय में शुध्द करेगे या चिन्ता करेगे - प्रेम और पवित्रता है तो वह सबसे अच्छी चीज है, वो करना ही समर्पण है। सब चिन्ता्ँं अपनी माँ पर छोड़ दीजिए। सब कुछ माँ पर। पर इस अहम से भरे समाज में, समर्पण ही बहुत कठिन है। उसकी बात करते हुए भी मुझे चिन्ता होने लगती है। पर अगर आपको कोई विचार आ रडे हैं या कोई चक पकड रहा है तो बस समर्पण करिए और आप देंगे कि चक सुल जाएँगे सवैरे आप 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-3.txt हाथ पैर ना हिलाएँ आप देखेंगे कि इधर उधर कुछ मत करिप, सवेरे बहुत अधिक अपने आपके आधकतर चक ध्यान में सुल जाएँगे। हृदय में प्रेम बसाने का प्रयत्न करिए। वस, इृदय में प्रयत्न करिप और वहाँ गुरु को बसाने का प्रयत्न करिए अपने अंतरतम में। हृदय में स्थापित करने के पश्चात् पूरी श्रध्दा और जी - जान से उनके सामने नत मस्तक हो जाना चाहिए। साक्षात्कार के बाद जो भी आप अपने चित्त से करते हैं, वह काल्पनिक नही होता, क्योंकि अत् आपका चित्त, आपकी कल्पना, आलोकित है। तो अपने आप को इस प्रकार लाइये कि आप अपने गुरू और माँ के चरणों में नম हो जाएँं। और अब मागिए वह स्वभाव और वह वातावरण जो साधना के लिए अनुकूल हो। परमात्मा से एक हो कर रहना "्यान-धारणा" है। परमपून्य श्री माताजी के साथ घ्यान - शुडी कैम्पज में गोष्ठी 18 जून ।988 कृपया अखि बन्द कीजिए। आप सब अखि बन्द कीजिए। अब हम सब वैसे ही मनन करेंगे जैसे कि हम हर जगह करते आए हैं जहाँ जहाँ सार्वजनिक कार्यक्रम हुए हैं। बीया हृदय हम बाई ओर पर कार्य करेंगे और बाया हाथ मेरी ओर होगा सबसे पहले आप , जेो आत्मा हैं [आपको आत्मा को अपना दीया हाथ अपने हदय पर रलिए। हृदय में बसते हैं शिव धन्यवाद देना है कि वो आपके चित्त में प्रकाश लाई है क्योंकि आप संत है और जो प्रकाश आपके दिलों में आया है उसे पूरे विश्व को आलोकित करना है। तो अब आप कृपया अपने हृदय में प्रार्थना करें । "मैरे इस दैव्य प्यार के प्रकाश को समस्त संसार में फैलने दीजिए"। इस लगन और समझ के साथ कि आप दैव्य से जुड़े हैं और जो भी आप चाहेंगे वह होगा, इस सम्पूर्ण विश्वास के साथ। अब अपना दाया हाथ अपने पेट के ऊपरी भाग के बाँई और रखिए। यहाँ बौया भवसागर - है आपके धर्म का केन्द्र। यहाँ आपको प्रार्थना करनी है कि : "समस्त संसार में विश्व निर्मला धर्म फैले। लोग हमारे घार्मिक जीवन से और हमारी सत्यनिष्ठा के दुवारा प्रकाश देखे। इनलाइटमेंट लोग उसे देसे और अपनाएँ विश्व निर्मला धर्म, जिससे उन्हे प्रकाशमयता भलाईभरों उच्च जीवन और उत्थान की इच्छा प्राप्त हो।" बाया स्वाधिष्ठान - अब अपना दौया हाथ, पेट के निचले भाग के बौई ओर ले जाइए। उसे दबाईए| पा 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-4.txt कका ये शुध्द विद्या और ब्ञान का केन्द्र है। यहाँ, सहजयोगियों की भाँति आपको कहना है "हमारी माँ ने हमे ये सब समझा दिया है कि दैव्य कैसे कार्य करती है। उन्हेोंनं हमें सब मंत्र और सब शुध्द ज्ञान दिया है जो हम सह सकते है और समझ सकते है। हम सबको उन के विषय मे पूर्ण ज्ञान होना चाहिए मैने देखा है कि अगर एक आदमी लीडर है, उसकी पत्नी को सहजयोग के विष्जय में एक शब्द नही आता, और उसका पति यह जानता ही नही है । कहें "मैं इस ज्ञान में प्रवीण और निपुण होऊ ताकि मैं लोगों को आत्म साक्षत्कार दे स, उन्हे समझा सके कि दैविक नियम क्या है, कुन्डलिनी क्या है और चक क्या है।" "मैरा चित्त सहज योग पर अधिक और इन सांसारिक वष्तुओं पर कम होवे।" पाँई नामी - जब अपना दाँया हाथ अपने पेट के ऊपरी भाग पर रखिए और आँस बन्द कर लीजिए। अय यहाँ बाँई और दबाइए। "माँ ने मुझे आत्मा दी है और मेरे अपने गुरू है जो आत्मा है। मैं स्वरय का गुरू हूँ। काई परित्याग न होवे। मेरे घरित्र में प्रतिष्ठा होवे। मैरे आचरण में उदारता होवे। अन्य सहजयोगियों के लिए प्रेम और समवेदना हो। मैं दिसावा ना कर, पर ईश्वर के प्रेम और उनके कार्य का मुझे गहरा ज्ञान हो, जिससे कि जब लोग मेरे पास आएँ, तो मैं उन्हें सहज म योग के विपय में बता सके और प्रेम और नमता से उन्हें ये महान् ज्ञान दे सके।" बॉया इृदय अब अपना दौया हाथ हृदय पर उठाइए। यहा आप भगवान को धन्यवाद देंगे कि आपने हर्ष के सागर का अनुभव किया है और कमा के सागर को महसूस किया है और हममें क्षमा करने की क्षमता है जैसे हमारी माँ में है, जो हमने देखा है, विशाल है। यहाँ कहे "मेरा हृदय विशाल हो ताकि उसमें संपूर्ण ब्रम्हाँड समा जाए और मेरा प्रेम भगवान के नाम को प्रतिध्वनित करे और हृदय हर पल ईश्वर के प्रेम की सुन्दरता को व्यवत करें। " बाँई विजुष्दी - अब अपना दौया हाथ बाई विशुध्दी पर ले जाइए, गर्दन और कन्ये के कोने पर । मैं दोप की मिथ्या में लिप्त नही होऊँगा क्योंकी मैं ये जानता हूँ की ये मिथ्या है। मैं अपनी त्रूटियों से भागूगा नही, पर उनका सामना करके उन्हे नष्ट करुँगा। मैं दूसरों में दोष नही निकालूंगा, पर अपने सहजयोग के ज्ञान से मैं उनके दोष हटाऊँगा। हमारे पास कितने ही तरीके है जिनसे हम चुपचाप दूसरों के दोष हटा सकते है । मैरी सामूहिकता इतनी महान हो जाए कि संपूर्ण सहजयोग जाति मेरा परिवार मेरे भपने बच्चे, मैरा घर और मेरा सर्वस्व बन जाए। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-5.txt मुझमें पूर्णत: यह भाव आ जाए और अंततः १इनेटली मेरे अन्दर बस जाए कि मैं एक संपूर्ण का अंश हूँ क्योंकि हमारी एक ही माँ है और हमारा ध्यान पूर्ण विश्व की ओर जाए जिससे कि हम ये जान लें कि उनकी समस्याएँ क्या हैं और मेरी शुध्द इच्छा शक्ति इन समस्याओं का कैसे समाधान कर सकती है। ः प्रयत्न कर के उन संसार की समस्याएँ मुझे हृदय में अनुभव हो और मैं अंतत सब को मिटा र्दु और उनकी जड़ें ही समाप्त कर दूं। मैं इन समस्याओं के मूल तक जाऊँ और अपने सन्त होने की शवित से और अपनी सहजयोग शविति द्यारा इन्हें हटाने का प्रयत्न कं। - अब अपना हाथ भेरे माथे पर रखिए। यहाँ पहले कहना है: माया मुझे उन सब की ्षमा करना है जो सहजयोग में नहीं आए है, जो बाहरी सीमा पर सडे हैं और कभी बाहर है तो कभी अन्दर। पर सबसे पहले तो मुझे सब सहजयोगियोंको क्षमा करना है, क्योंकि वे सब मुझसे अच्छे है। मैं ही हूँं जो उनमे दोष निकालता हूँ और मैं ही सबसे नीचे हूँ और मुझे ही उन्हे क्षमा करना है क्योंकि मुझे ये अवश्य जानना है कि अभी मुझे बहुत आगे जाना है। अभी मैं बहुत कम हू और मुझे अपने आप को सूधारना है। नमरता लाने के लिए यहाँ कहना है "नम्रता हमारे हुदय मे बसे, सच्चाई में, केवल दिखावे के लिए नहीं। ईश्वर और सहजयोग के सम्मुख क्षमा के भाव पर कार्य करे ताकि हम वास्तविकता, नतमस्तक हो जाएँ।" पिछला आज्ञा :- अब आपको अपना हाथ अपने सिर के पीछे रखना है और सिर को पीछे करना है और यहाँ कहना है : "है मौ। जो भी हमने आपके साथ अबतक गलती की है या जो गलत बाते हमारे मन ंंबेि मैं आई हैं, जो ओछापन हमने आपको दिसाया है, जैसे भी हमने आपको परेशान किया है या ललकारा है, उस सब के लिए आप हमें क्षमा कर दे।" आपको क्षमा माँगनी चाहिए। आपको अपनी समझ में ये जान लेना चाहिए कि मैं क्या सडस्त्रार । अब सहस्त्रार पर मैं आपके बार बार नहीं बताऊँगी। संहस्त्रार पर आप मुझे धन्यवाद दें, अपना हाथ वहाँ रख कर सात बार घुमाएँ और सात बार मुझे धन्यवाद दें। "श्रीमाताजी, आत्म साक्षात्कार प्रदान करने के लिए कोटि केटि धन्यवाद। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-6.txt 6. श्री माताजी कोटि धन्यवाद कि आपने हमें समझाया कि हम कितने महान हैं और धन्यवाद कि आपने हम पर दैविक आशीर्वाद बरसाया और घन्यवाद कि आपने हरमें ऊपर उठाया, वहँ से ऊपर जहाँ हम ये। इसके लिए भी घन्यवाद कि आपने हमें सम्भाले रसा है और हें सुधारने में और सही रखने में हमारी सहायता की है। अंतमे श्री माताजी, इस बात का भी कन्यवाद कि आप इस पृथ्वीपर आई, यहाँ जन्म लिया, और हम सब के लिए आप इतनी मेहनत से कार्य कर रही हैं। जोर से दबाइप जोर से घुमाइए। अब डाथ नीचे कर लीजीए। सिर सब बहुत गरम कभ हैं। अब अपने आप को एक अचाछा सा बन्धन देंगे माँ के बन्धन में बॉँप से दाँए जाइए। एक बार अच्छी प्रकार समझिए कि आप क्या हैं। आपका आभा औरा क्या हैं। अब दूसरी बार। अब तीसरी बार। अब चौथी बार और अब पाँचवी, छठी और सांतवी। अब अपनी कुन्डलिनी उठाइए धीरे से, बहुत धीरे, पहली बार उठाइए बहुत थीरे से करना है । अब सिर को पीछे करिप और पक गाँठ दीजिए, एक गाँठ। दुसरी बार, बहुत थीरे से कीरेप और ये जान कर करिए कि आप क्या हैं आप एक सन्त हैं। ठीक से करिए, जल्दी में नही। सिर पीछे करिए और वहीँ दो गाँठे दीजिए, एक और दो। अब तीसरी बार करते हैं। फिर तीसरे वाले में तीन गाँठे देनी हैं। बहुत थीरे से करिए। बहुत थीरे । अब ढंग से करिए। अब सिर पीछे करिें। अब तीसरी गाँठ लगाइप। तीन बार। अब अपनी वाइब्रेशन्जू चैतन्य लहरियां? देखिप। वाइब्रेशन्जु ऐसे देखिए। सब बच्चै अपनी बाहब्रेशन्जु पेसे देसें, हाथ रविए। सुन्दर। मुझे वाइब्रेशनज चेलन्य लहरी मिल आपसे रही है। भगवान आपको आशीर्वाद दें। त बहुत धन्यवाद। श्री महादेवी के ।03 नाम श्री ललिता सहस्रानाम में महादेवी के 1000 नाम दिए हुए हैं और ये उन नामों में से ।08 नाम हैं। ये महान देवी, एक छोटे बच्चे की भाँति सरल और निरीह हैं और उनकी धाह पाना कठिन हैं, चारों ओर वही हैं, एकदम पकड में नहीं आने वाली, अनुभव की हर श्रेणी को पार करती हुई, सारे जाने और अनजाने विश्वों में। नाम केवल उनके कुछ पहलुऑ का दर्शन देते हैं । वे पूज्य हैं। श्री माताजी निर्मला देवी पर ध्यान रस कर, इन मन्त्रों द्वारा हम उनके नाम जप सकते हैं। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-7.txt - 7- "औम् साक्षातु श्री माता नमो नम: " एवमस्तु। उनको प्रणाम जो वास्तव में पावन माँ हैं । "औम साक्षात् श्री महाराज्ञी नमो नमः। एवमस्तु। उनको प्रणाम जो वास्तव में महान सामग्राज्ञी हैं । ये मन्त्र हमें याद दिलाते हैं कि, अन्त में, इदय की निष्ठा और आराधना द्वारा ही श्री माताजी निर्मला देवी की सही प्रकृति का ज्ञान हो सकता है। कृपया, दया की सागर आपका आशीर्वाद सदा हम पर हो | श्री माता पावन मौ। न केवल ये इर अचछी वस्तु प्रदान करती हैं, जो कि एक प्रेममयी माँ अपने बच्चे को देती है, पर हम सब भवतोंको उच्च विद्या प्रदान करती हैं, ब्रम्ह विद्या , एवं दैवी चैतन्य लहरियों की विधा भी प्रदान करते है। श्री महाराज्ञी महान साम्राज्ञी देयकर्या समुदद्ता दैवी कार्य के लिए प्रकट होती हैं। जब समस्त दैविक बल असहाय हो जाते हैं और दुष्टता का अन्त नहीं कर पाते तब इनका आगमन महान कैभव से होता हैं । जो यानि कि नापने योग्य विस्तार से परे हैं, जो सिर और सहस्त्रार कुल, अकुला मैं बास करती हैं। विष्णू ग्रंथी किमेदिनी वे श्री विष्णु की माया की गाँठ काटती हैं। तब ही भक्त अपने व्यक्तित्व की अवास्तविकता को देखता है अपने शरीर, मन एवं आज के अवतार में। वह अपने सीमित अहमता के अस्तित्व के प्रति सचेत रहना समाप्त कर देता हैं। भवानी भव की रानी, यानि कि शिव, जा समस्त संसार को जीवन प्रदान करते हैं। भवती प्रिया भक्तों को प्यार करने वाली भविति गम्या भवित से जो प्राप्त होती है। शर्म दायिनी सुख की दाता, दैविक आनंद के साथ । 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-8.txt ৪ वे विश्व की संपालक हैं और उन्हें किसी आधार की आवश्यकता नहीं। निरायार सकता और उन्हें पृथक वे शुध्द चेतना हैं जिन्हे व्यवत नहीं किया जा नहीं किया जा सकता। निरन्जना जिन्हे किसी प्रकार की सीमाओं का कन्धन नहीं हैं । अनेक कमर्मों से और अनेक सिद्दान्तों की मन्यताओं से अनछुई। निर्लेपा निर्मला शुध्द, पवित्र, पावन निष्कलंका अन्त्रुटिपूर्ण दीप्ति नित्या अनन्त वे आकारहीन हैं। निराकार निराकुला कभी व्याकुल न होने वाली निर्गुणा और तीन नाडियों हुईडा, पिंगला एवं सुपुम्ना के निगुर्ण तीन गुणों ं परे। वै वो चैतना हैं जो मनकी विशेषताओं से मुवत हैं। निष्कला पूर्ण - अकिभाज्य निष्काम कारई इच्छा नहीं, सब कुछ है उनके पास । निरूपप्लवा जो कभी नष्ट नहीं हो सकती नित्य मुक्ता सदा स्वतंत्र, उनके भक्त भी सदा स्वतंत्र हैं। निर्विकारा का कभी ना बदलने वाला वे कभी नहीं बदलती, वरन् हर परिवर्तन आधार हैं। उनका कोई आधार नहीं क्योंकि वे ही सब कुछ हैं निराम्रय निरन्तरा अन्तर रहित निष्कारणा कारण रहित अर्धात् सब कारणों की कारण निरूपाधी अकेली, माया रहित, अनेकत्व का आधार निरीश्वरा सर्वोच्च बंधन से निरागा मुवत निर्मदा अहंकार रहित निश्चिन्ता चिंता रहित निरअहंकारा अहम् रहित निर्मोहा भ्रम रहित, जैसे कि अवास्तविकता केो वास्तविकता समझ लेना। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-9.txt निर्ममा स्वार्थ रहित निम्पापा पाप माने अज्ञान या अविद्या वे इससे रहित है निःसमशया कौई सन्देह नही हैं। निर्भावा अजन्मी निर्विक्त्पा कोई मानसिक कियाए मही है। निर्बाधा चिंतारहित नि्नाश अनश्वर निष्क्िया सब कार्यों से परे, किसी कार्य में उलझी हुई नहीं निष्परिग्रह कुछ 'नहीं लेतीं, क्योंकि उन्हें किसी चीज की आवश्यकता नही है, क्योंकि वे पूर्णकामीर हैं और उनके पास सब कुछ है। भक्त भी निष्परिग्रह बन जाते है। निस्तूला कोई उनके समान नहीं है नीलीचकुरा काले केशो वाली निरुपाया संकटों से परे निरत्यया उनकी पार करना या उनका उल्लंघन करना असम्भव है। वे सुस, आनन्द और मेक्ष प्रदान करती है सुखप्रदा जो कि मुक्ति का आनन्द हैं। , भवतों के प्रति अत्यन्त करुणाशील सान्ध्रकरूणा महादेवी सर्वोच्च देवी, असीमित सर्वोध्च पूजित, जैसे त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु, िव१ महापूज्या बड़े से बड़े पापो का नाश करने वाली महापातक नाशिनी महाशवित महान शक्ति बडे से बडे देवताओं को भी भ्रम, माया एवं अव्यवस्था में डालने वाली मामाया क सर्वोच्च सृजनहार। महारधी पूर्ण आनन्द - अर्थात् इन्द्रिय सुसों से परे । विश्वरूपा विश्व उनका आकार है एवं जो व्यक्तित्व "विश्व" जागरूक है, वो भी उनका आकार है। उनका कमलों में आसन है, यानि कि चक्कों में। पदमासना भगवती वे विश्व की आधात्री हैं। देवता सहित सब उनकी करते है। पूजा 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-10.txt - 10 - रक्षाकारी उधदारक राक्षसारिनि जो राक्षस हैं उन अनिष्ट शक्तियों की संहारिणी हैं परमेश्वरी अन्तिम शासक नित्य-यौवना सदा तस्ण, समय उनको छु नहीं सकता क्योंकि वे उन्ही की सृष्टि है । प्रशंसा के योग्य और सत्यनिष्ठ को ही प्राप्त होने वाली। पूर्व जन्मों के पुण्य लभ्या सद्कार्यों के फल स्वरूप ही उनकी आराधना की प्राप्ति। अचिन्त्य-रूपा विचार तक न पहुच सकनेवाली, क्योंकि मसितिष्क, जो विचार का उपकरण उन्ही की सृष्टि है । है, वे औीतमशव्ति। परा शक्ति वे हर कण में प्रकट होने वाली ऊर्जा हैं और सर्वप्रथम चैतन्य लहरी हवाइब्रेशन हैं। गुरुमूर्त के आकार की । गुरु हैर गुरु स्वयं ही देवी है। आदि शकित सर्वप्रथम कारण एवं आदिकालीन और मौलिक शक्ति। योग की दात्री एवं "जीवात्मा" व्यकितगत आत्मा? से "परमात्मा" हविश्वक। योगदा के मिलन की दात्री। अकेली। विश्व के अनेकत्व की एकांकी आधार। पकाधिनी त इनकी पूजा बड़े आराम से की जा सकती है एवम् शरीर कौ अधिक श्रम सुरकराप्या नहीं करना पड़ता। शोभना-सुलभागति आत्म साक्षात्कार की सबसे सरल राह। सतचित आनन्द रूपिणी "सत्" पानी पूर्ण सत्य। चित्" यानि चेतना और आनन्द। ये परम के तीन, अंग है और इसी कारण वे उनके रूप है। शर्मीली नम्रता। वे हर प्राणी में नम्र शुध्दता के रूप में वास करती हैं। लज्जा शुभकरी दयालु । सबसे महान अचछाई है परम अनुभव का अनुभव और वे ये अपने भवतों को प्रदान करती हैं। अनिष्ट शक्तियों से कुध्द रहती हैं। अण्डिका त्रिगुणातिमका जब वे स्वयं सृष्टि बन जाती हैं। वे तीन गुणों का आकार ले लेती हैं : सत्व गुण, रजो गुण, तमो गुण। ये तीनों गुण मानव शरीर के स्वैच्छिक नाड़ी-मंडल के तीन मार्गों के अनुरूप हैं । महती ध्यान और पूजा के योग्य महान् और अपरिमित एवं सर्वोच्च हस्ती। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-11.txt 11 जीवन की अलौकिकता के आकार की। प्राण-रूपिणी सूक्ष्म अणु, इतनी सूक्ष्म कि समझ से परे| परमाणु जो "पाश" या बन्धनों का नाश करती हैं और मोक्ष प्रदान करती हैं । पाशहन्त्री "बीर" का अर्थ है वे भक्त जो मानवीय शवितयों के विरुध्द संग्राम का वीर माता नैतृत्व कर सकते हैं। वे उनकी मा हैं। श्री गणेश की भी "वीर" कहते हैं। गम्भीरा मौ को, चैतना की एक अधाह और महान अथाह गहराई। शास्त्रों में, झील के सूप में देखा गया है, जिसका अनुमान समय और अवधि दोनों ही नहीं लगा सकते। अभिमानी क्योंकि विश्व की सृष्टिक्ता हैं। गर्विता वै अपने भवतों पर शीघ्रही अनुग्रह बरसाती हैं। क्षिप्रप्रसादिनी सुधाध्ुति सहस्त्रार में महान देवी पर ध्यान लगाएँ तो आनन्द की अमृत धारा बहुती हैं। धर्माचारा हर युग में संदियों से चला आ रहा है कि सही आचरण का संकेत धर्म। वे सही आचरण का आधार हैं। विश्वग्रासा प्रलय के समय विश्व को निगल जाने वाली , "स्व" माने "स्वयं"। "स्त" यानि स्थापित। वे स्वयं में स्थापित हैं स्वस्था वै स्वयं को भक्तों में भी स्थापित कर लेती हैं| प्राकृतिक मिठास, यानि आनन्द। वे अपने भक्तों के हृदयों में आनन्द स्कभाव मधुरा रूप में वास करती हैं। बुध्दिमान और वीर ही उनकी पूजा करते हैं। कायर और मूर्ख उनकी चीर-समर्चिता पूजा कर ही नहीं सकते। परमोदरा सर्वोच्च उद्दारता। वे झट अपने भक्तों की पुकार और प्रार्थना स्वीकार कर लेती हैं। शाश्वती सदा उपस्थित, लगातार। लोकातीता सभी रचित विश्वों से सर्वोपरि । वे सहसरार के ऊपर विराजमान हैं। शर्मात्मिका शान्ति उनका सत है। जिन भक्तों के मन मे शान्ति होती है, वे ही उनका बास हैं। लीला विनोदिनी विश्व जिनका सेल हैं, सृष्टि का कार्य उनका सेल है। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-12.txt 12 श्री सदाशिवा सदाशिव की पावन अर्धारिन पुष्टि पोपण। वे ही जीवन का पोषण दैविक चैतन्य लहीरियों से करती है। चन्द्रीनभा चाद की तरह आलोकित रवि-प्रस्या सूर्य के प्रकार ज्योतिर्मय पावनकृति पावन आकार। सबसे शुध्द जो सर्वस्व पाप घो देता है। विश्व-गर्भा सर्वस्व विश्व उनमें है क्योंकि वे विश्व की माँ हैं। चित्यपित] चेतना की शवित जो अज्ञान और अ्यवस्था को भगा देती हैं। विश्व की कियाओं की मूक साली। विश्वसाक्षिणी विमला साफ,, पवित्र, अनाछुई त्रिमूर्ति को लाभांश देने वाली। वैरदा विलासिनी विश्व उनके आनन्द के लिए है, या वे, अपनी मर्जी से आत्मसाक्षात्कार का पथ सोलती या बन्द करती हैं। विजया सब किया में सफलता का तत्व। अपने भवतों को अपने बच्चों की भाँति प्यार करती हैं| वन्दारूजन बल्सला सहजयोग वायिनी स्वाचिछक आत्म साक्षात्कार प्रदान करती हैं। श्री माताजी का नवरात्रि पूजा सम्देश प्रतिष्ठान ।988 कैसे आर्यना करें पूजा इस भाव से करनी चाहिए कि आप देवी से मौहित हैं। कि आप देवी की प्रशंसा कर रहे हैं। ये बैध्दिक करिया नही है। ये सब आप प्रसन्न करने को कह रहे हैं. . ..... जैसे आप किसीको प्यार करते है तो उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ कहते हैं वैसे ही। उसी प्रकार आप देवी से निवेदन कर रहे हैं। ये बाते सन्तो ने लिखी थीं जिससे कि वे अपने आप को व्यक्त कर सकें कि आप देवी हैं, आप ऐसी हैं और आप वैसी हैं। मेरे पास कितने ही ऐसे पत्र आते हैं जो लोगों की भावनाएं उ्यवत करते हैं। पर ये कई व्याख्यान या पाठयक्म या कुछ और नहीं है। ये उस ठवन की भावना है। पूर्ण भविति में ये करना चांहिए। जो भी कहा जाता है नम्रता से उसे,, दिल में महसूस करने का प्रयत्न कीजिए। जो शब्दयोजना है, प्रार्थना ही है, प्रार्थना ही होनी चाहिए ये कोई बीध्दिक वाद-विवाद नहीं हैं । ये नेड 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_10.pdf-page-13.txt 13 देवी को प्रार्थना है। जब तक आय ये स्स नहीं अपनाएँगे , तब तक आप अधिक दूर नहीं जा पाएँगे। उसे अपनी प्रार्थना में खोल दिजिए अपने हृदय से, पूर्णतः उँडेलते हुए हृदय उंडेल दीजिए। उसमें विश्लेषण करने को कुछ नहीं है, अगर वह आपके हृदय से नहीं निकलता तो जौ आप कहते हैं वह केवल मुँह जुबानी है। अपने हृदय को आलोकित करने के लिए आपको देवी की प्रशंसा करनी पड़ेगी। अपने आपको व्यवत कीजिए ऐसा होना चाहिए कि आपका मन करता हो ये सब कहने को। जब आप ये सब बातें कह रहे हो, तो उनसे पक हो जाइए। जब आप फोटो के सम्मुख ध्यान लगाएँ तो फौटो को हृदय में रखने का प्रयास कीजिए। फहिप माँ मै आपसे प्रेम करता हूँ, कृपया मैरे हृदय में आइए। इस हृदय में बहुत ज्ञान है, इस मैं बहुत सामध्थ्य है, सब कुछ हृदय दुवारा ही जन्मता है। पर अगर आप हुदय बन्द कर लैंगे तो मस्तिष्क निरंकुश हो जाता है और आप बाहर चले जाते हैं। इृदय आत्मा का सिंहासन म है। ये सब कुछ नियंत्रित करता है , सिम्परथेटिक उत्कांती स्वायवत, सिम्पधथेटिक, पैरा - ज्ञान और सब कुछ। तो पहली चीज है कि अपने हृदय को विकसित करने का प्रयत्न कीजिए। "डिव्हाइन कुल ब्रीज" की ओर से दीवाली की शुभकामनाएँ। दिवाली पूजा 26 अवतूबर 89 को फूलौरेन्स में होगी ।