भार | सड-।। चतन्य लहरा উ र इर नकारात्मकता में से राकारात्गकता का आनन्द लेना ही एक सहज योगी की क्मता है । धक (१ वंड -।। 6 अगस्त, 1989 श्री भेरव नाथ पूजा कारलेट हैंडटली श्री भैरवनाथ की पूजा करने के लिए एकत्रित हए मेरे विचार में हमने श्री मैरवनाथ जी, जो कि ईडा-नाड़़ी पर हैं और ऊपर- नीचे की ओर विचरण करते है, का महत्व नहीं समझा है। ईडा- नाईी कद्र अतः यह र्वयं को शांत करने का मार्ग हे और भैरवनाथ जी का नाड़ी है। महत्व हमें शांत करने का है । उदाहरणतया अर औौर जिगर की गर्मी ही हमारे कोध का कारण है। जब मनुष्य अत्यधिक कोध में होता है तो श्री भैरवनाथ उसे दुर्बल बनाने के लिए चाल चलते हैं। वे श्री हनुमान जी की सहायता से उस कुद मनुष्य को इस सत्य की अनुभूती कराते हैं कि कोध की मूर्खता में कोई अच्छाई नहीं है। एक वाम-तरफी व्यक्ति सामूहिक नहीं हो सकता। एक उदास अप्रसन्न तथा चितित व्यक्ति के लिये सामूहिकता का आनन्द ले पाना अति कठिन है । जबीकि एक कोधी, राजसिक व्यक्ति दूसरों को सामूहिकता का आनन्द लेने नही देता। परन्तु स्वयं सामूहिकता में रहने का प्रयत्न करता है जिससे उसका उत्थान हो सके। ऐसा व्यक्ति केवल अपनी श्रेष्ठता को ही दिखाना चाहता है। अतः वह सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इसके विपरीत जो व्यक्त हर समय स्विन्न है और सोचता है कि मुझे कोई भी प्यार नही करता, कोई मेरी चिन्ता नहीं करता, और जो हर समय दूसरों से आशा रखता है, वह भी सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इस प्रकार के वाम-तरफी व्यक्ति को हर चीज़ व से उदासी ही प्राप्त होगी। हर चीज़ को अशुभ समझने की नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण हम अपनी बायीं-तरफ को हानि पहुंचाते हैं। श्री भैरवनाध अपनी हाथों में प्रकाशदीप लिए ईड़ा-नाड़ी में ऊपर- नीचे को दौड़ते हुए आपके लिए मार्ग प्रकाशित करते है जिससे कि आप देख सको कि नकारात्मक कुछ भी नहीं। नकारात्मकता हम में कई प्रकार से आ --2 -2- है कि "यह मेरा है" "मेरा बच्चा" "मेरा जाती है। एक नकारात्मक तत्व पति" "मेरी सम्पत्ति" इस प्रकार एक बार जब आप लिप्त हो जाते हैं तो आपके बच्चौं में भी नकारात्मक तत्व आ जाते हैं। परन्तु यदि आप सकारात्मक होना चाहते हैं तो यह सुगम है, इसके लिए आपको देखना है कि आपका चित्त कहां है? हर नकारात्मकता में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहज ज योगी की क्षमता है। नकारात्मकता का कोई अखिलत्व नही, यह केवल अज्ञानता है। अज्ञानता का भी कोई अस्तित्व नहीं। जब हर चीजू केवल सर्वत्र-व्याप्त शक्ति मात्र है तो अज्ञानता का अस्तित्व कैसे हो सकता है? परन्तु यदि आप इससे दूर दौड़ जाओ तो आप कहेंगें इस शक्ति की तहो में छुप जाओ और कि नकारात्मकता है उसी प्रकार से जैसे आप यदि अपने आपको एक गुफा में छिपा लें और गुफ्ा को अच्छी तरह बंद करके कहें कि "सूर्य नहीं है"। बो लोग जो सामूहिक नहीं रह पाते या तो बाई और के होते हैं या दायी- और के। बाई और के लोग नकारात्मकता में सामूहिक हो सकते हैं जैसे की शराबियों का बन्धुत्व ये लोग अंत में पागल-पने तक पहुंच जाते हैं। जबकि दाई-और के लोग मूर्ख हो जाते हैं। यदि एक सहज योगी सामुहिक नही हो सकता तो उसे जान लेना चाहिये कि वह सहज-योगी नही है। भैरवनाथ हमें अँधेरें में भी प्रकाश प्रदान करते हैं क्योंकि वह हमारे अंदर के भूतों और भूत-ही विचारों का विनाश करते हैं। श्री भैरवनाथ श्री गणेश से भी संबंधित हैं। श्री गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान है और श्री भैरव बाई-तरफ जाकर दाई-तरफ चले जाते हैं । अतः हर प्रकार के बंधन और आदतों पर श्री भेरवनाथ की सहायता से विजय पायी श्री भैरव की एक बहुत बड़ी स्वयं भू मूर्ती है। जा सकती है। नेपाल में वहां लोग बहुत बाँई और है। अतः वे श्री भैरव से डरते हैं । यदि किसी को चोरी करने की बुरी आदत हो तो उसे छोड़ने के लिए वह श्री भैरवनाथ के सामने दिया जलाकर उनके सम्मूख अपना अपराध स्वीकार करे तथा इस अनुचित तथा धूर्ततापूर्ण कार्य करने बुरी आदत से बचने में उनकी मदद ले। --3 -3- से भी श्री भैरव नाथ हमारी रक्षा करते हैं । जिस कार्य को हम बहुत ही गुप्त रूप से करते हैं वह भी श्री भैरव से छुपाया नही जा सकता। याद आप अपने में परिवर्तन नही लाते तो वे आपकी बुराइयों का भांडा-फोड़ देते हैं। इसी क तरह उन्होंने सब भयानक तथा झूठे-गुरूओ का भीड़ा-फोड़ दिया है। बाद में श्री भैरव का अवतरण इस पृथ्वी पर श्री महावीर के रूप में हुआ वे नर्क के दार पर खड़े रहते हैं ताकि लोगों को नर्क में पड़ने से बचा सकें। परन्तु यदि आप नर्क में जाना ही चाहें तो वे आपको रोकते नही। अच्छा हो यदि हम अपनी नकारात्मकता से लड़ने का प्रयत्न करें तथा दूसरों का संग पसन्द करने वाले, दूसरों से प्रेम करने वाले तथा चुहल पसन्द लोग बन जाएं। दूसरे आपके लिए वया कर रहे हैं इसकी चिंता किप बिना आप केवल ये सौंचे कि आप दूस्टों का क्या भला कर सकते हैं। आओ हम श्री भैरव नाथ से प्रार्थना करें कि वे हमें एहंसी", "आनन्द" तथा "चुहल " की चेतना प्रदान करें। | 4 अगस्त, 1989। श्री माता जी निर्मला देवी दारा श्री कृष्ण पूजा पर भाषण हयूं - के. ? सफरौन आज हम श्री कृष्णावतार की पूजा करने के लिए एकत्र हुए हैं। श्री कुष्ण जी श्री नारायण तथा श्री विष्णु जी का अवतार हैं। हर अवतरण अपने साथ सभी सद्गुण, शवितियों तथा अपनी पूर्ण प्रकृति को साथ ले कर आते हैं। अतः उनके अवतरण के समय ही उनमें श्री नारायण तथा श्री राम के सभी सद्गुण थे। पिछले अवतरण में जिस अवतार के विचारों का गलत अर्थ लिया गया हो या उनकी कही बातों को अति में ले जाया गया हो तो ----4 -4- अपने अगले अवतरण में वे उन सब बातों में सुधार लाते हैं। यही कारण है कि वे बार-बार अवरतरित होते हैं। श्री विष्णु जी संसार तथा धर्म के रक्षक तो जब वे अवरतारित हुए तो उन्हें देखना पड़ा कि लोग धर्माचरण करें । हैं। आप को ठीक रहने के लिए आत्मसाक्षात्कार लेना होगा और महालक्ष्मी के मध्य मार्ग में रहना होगा। पहले अवतार के विषय में हम कह सकते हैं कि उन्होंने राम रूप में एक परोपकारी राजा की रचना करने का प्रयत्न किया। श्री राम पुरूषोत्तम थे उन्होंने एक पूर्ण मनुष्य के रूप में अपने सारे मानवी सद्गुणों के साथ अवतार लिया। श्री सीता जी के रूप में उन्होंने लक्ष्मी तत्व से विवाह किया और एक साधारण विवाहित जीवन व्यतीत किया.। फिर उन्होंने अपनी पत्नी के बिना एक तपस्वी का जीवन व्यतीत किया। अपने जीवन से उन्होंने दर्शाया कि एक पति का अपनी पत्नी के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए। बाद में उन्हें एक राजा के रूप में अभिनय करना पड़ा। राजा बनने पर उन्होंने पाया कि राक्ण से सीता जी को वापिस लाने पर प्रजा उनकी आलोचना कर रही है। अतः श्री राम जी ने सीता जी को वनवास भेज दिया। श्री राम की तरह से अपने नीचे कार्यरत लोगों में अपने शुभ आचरण दारा आदर्श स्थापित करने की चेतना कितने लोगों में है? महा लक्ष्मी अवतार श्री सीता जी इस नाटक को समझती थी अतः वे घर छोड़ कर चली गई। राजा-रुप में श्री राम ने सिखाया कि प्रजा पर शासन कैसे किया जाना चाहिए। राज्यादर्शों को उन्होंने स्थापित किया । राम-राज्य को सर्वाधिक आदर्श राज्य माना जाता है। उनके राज्य में शांति धी, प्रतिदन्दिता नहीं थी। धर्माचरण, आनन्द, आशीवाद तथा शांति के कारण प्रजा-जन प्रसन्न सदाचार, धे। परन्तु लोग कुछ ऐसी बातें अपना लेते हैं जो किसी अवतार के लिए स्वाभाविक न हो। श्री राम तपस्वी बनकर रहे अतः लोगों ने भी तपस्या का मार्ग पकड़ लिया। लौग रूखे हो गये वे न तो हंसते न मुस्कराते। हर चीज गरम्भीर हो गई। विवाहाभाव में लोगों का संतुलन बिगड़ गया। विवाह आपको संतुलित ---5 -5- करता है। यह समय धा जब श्री कृष्ण जी अवतरित हुए और यह दर्शाया की ईश्वर की पूर्ण रचना केवल एक लीला है, केवल विनोद है। गम्भीर, स्वा या तपस्वी होने की कोई आवश्यकता नही। वास्तव में श्री राम से पूर्व सभी महात्मा विवाह किया करते थे। तब एक निराधार ब्राहमूणाचार का भी आरम्भ हुआ। जातिवाद, जिसका निर्णय मनुष्य के जन्म से न होकर उसके कार्यानुसार किया जाता था, उसको भी तथा-कथित ब्राहमुणाचार ने दुर्बल बना दिया। ब्राहम्णों ने दूसरों पर प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। अतः श्री कृष्ण जी एक ग्वाले के पुत्र के रूप में अवतरित हुए। जब कृष्ण जी केवल पांच वर्ष के थे उन्होंने विभिन्न प्रकार की कीड्राएं तथा लीलाएं की जैसे कालिया सर्प-मर्दन और खेल-खेल में अपनी शक्ति दारा बहुत से राक्षसौं का वध। यद्योपि नाना प्रकार से उन पर यह प्रकट हो चुका था कि वे एक अवतरण है फिर भी मर्यादाओं के हित में उन्होंने यह सत्य कभी नही स्वीकारा। महामाया की ही तरह से। यद्योपि आज साधारण कैमरे भी आपको वास्तविक महामाया का प्रमाण दे रहे हैं और बता रहे हैं कि वे कैसी हैं फिर भी व्यकित को यही दर्शाता है कि उसे कुछ स्मरण नहीं, उसे इस वास्तविकता की कोई स्मृति नही। क्योंकि यदि व्यविति इस सत्य को याद वे कार्य-कलाप रखता हे तो कार्य-कलाप मानवी नही होगें। ईश्वरीय कार्य ठीक न बन जाएंगें जो कि मनुष्यों के लिए क्योंकि मनुष्य उन कार्यों होंगे । को सहन न कर सकेगें वे डर जायेंगे और भय फैल जायेगा। अतः श्री की तरह से व्यवहार किया। कृष्णा जी ने एक साधारण मनुष्य अपने बचपन में उन्हें मक्खन बहुत पसन्द था। विशुद्धि-चक के लिए मक्बन बहुत ही लाभदायक है। चाय में भी थोड़ा मक्बन मिला लें ताकि आपके शुष्क गले को आराम मिले। अपने मित्रों की सहायता से श्री कृष्ण मटकियां ६, तोड़कर सारा मक्वन ्ा जाते थे। छोटे-छोटे झूठ बोल देते। उनकी सब लीलापं. बालसुलभ, मधुर-असत्य केवल मधुरता की भावना जागृत करने के लिए धी। ---6 -6- जब बच्चे मां के साथ इस प्रकार की नट-खटता करते हैं तो वे बहुत ही प्रिय लगते हैं। पूर्वी देशों के लोग अपने बचों की नट-खटता का आनन्द लेते हैं। अपने बच्चों से प्रेमाभाव के कारण ही लोग उनके प्रति कठोर हो जाते हैं। वे अपने कालीन तथा भौतिक वस्तुओं को केवल बेच सकने के लिए ही प्रेम करते हैं। अपने बचों को तो वे बेच नही सकते। बचे और माता-पिता भौतिकता के विचारों के कारण ही एक दूसरे से दूर हो जाते हैं, और भौतिक वस्तुएे बहुत महत्व ग्रहण कर लेती हैं। चोरी ययपि बुरी है फिर भी जो र्त्रियां अपने मक्बन को मथुरा के राक्षसों के लिए ले जाती थी उनका मक्बन श्री कृष्ण जी चुरा लिया करते धे। इन स्त्रियों दारा दिए गए मक्यन को खाकर राक्षसगण शक्तशाली हो रहे थे। अतः श्री कृष्ण जी ने सारे मक्खन को खा लेना ही उचित समझा जिससे कि यह राक्षसों तक न पहुंच पाये। इस चोरी का महत्व हमें इस सत्य में भी प्रतीत होगा कि धोड़े से धन के लालच में हम अपने बच्चों को भूखा रखते हैं। "हर वस्तु विकय के लिए है" इस विचार में घन-लोलुपता छिपी है और इसी के कारण बचचे हम पर स्थायी बोझ बन जाते हैं। बटचों के साथ केवल बोझ की तरह से व्यवहार किया जाता है जीवन के सब मुल्य यद केवल धन पर आधारित हो जाएँ तो बच्चों के लिए परिवार में कोई स्थान नही रह जायेगा। सहज योग के अनुसार बच्चे कुबेर के धन से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं और उनका लालन पालन उसी प्रकार होना चाहिए। बचों को क । अपने गौरव के प्रति जागरूक होना चाहिए और उस गोरव के अनुरूप ही उन्हें व्यवहार करना चाहिए फिर भी बचचौं की छोटी-छोटी कीड्ाओं को अच्छी तरह से समझा जाना चाहिए तथा उनका आनन्द लिया जाना चाहिए। बचपन में ही तो वे प्यार भरी शरारतें कर सकते हैं बड़े होकर नहीं। उन्हें मधुर-शरारतें करने की स्वतंत्रता होनी ही आाहिए नही तो वे बहुत ही गम्भीर बन जायेंगे और तपस्वी भी बन सकते है। बच्चों के प्रति कठोर माता-पिता कभी स्वाभाविक नहीं हो सकते। वे या तो अति-विकृत होते हैं या मौन गर्त में समाकर वे ---7 -7- जीवन का सामना नही कर सकते। दोनों एक ही प्रकार के होते हैं, एक जीवन का सामना करने में असमर्थ हैं तो दूसरो का सामना "जीवन" नही करता। आपको बहुत प्रेम तथा सूझबूझ के साथ अपने बच्चों से बर्ताव करना है। परन्तु बटचों को इस बात का भी ज्ञान होना आवश्यक है कि अनुचित व्यवहार की अवस्था में उनके प्रति आपका सब प्रेम समाप्त हो जायेगा। बच्चे घन आदि को नहीं समझते, वे केवल प्रेम को जानते हैं। अपने बच्चों में जो प्रेम आप स्थापित करते हैं वह अमूल्य निधि बन जाता है। सहज योग ईश्वरीय-प्रेम पर आधारित है और यह तभी कार्य कर सकता है जब लोगों में प्रेम भाव कम हों। अपने बच्चों, परिवार को प्रेम न करके यदि लोग धन, शक्ति तथा प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं तो वे समाज का एक बहुत बड़ा भाग खो रहे हैं। राजा रूप में भी कृष्ण ने लोग्गों को धर्म में स्थापित करना चाहा। इस कार्य के लिए उन्हें पंच-तत्वों की आवश्यकता पड़ी। इन तत्वों की रचना उन्होंने उन पांच स्त्रियों के रूप में की जिनसे उन्होंने विवाह कर लिया। परन्तु वे स्त्रियां उनकी ही अभिन्न अंग हैं योगेश्वर कृष्णपूर्ण तथा अनासक्त थे । परन्तु सांसारिक कार्यों के लिए उनकी पांच पत्नियां थीं तथा सौलह हजार अन्य पत्नियां जो कि वास्तव में उनकी सोलह हजार शक्तियां थी। विशुदी चक्र की सौलह पंखुडियों का गुणान विराट की एक सहस्त्र पंखुडियों से करने पर ।6,000 शक्तियां बनती है । यही ।6,000 शवितयां स्त्रियों के रूप में अवतरित हुई और इन्हें एक दुष्ट राजा ले गया। इस राजा को पराजित करके श्री कृष्ण ने इन शक्तियों को र्वतंत्र कराया तथा उनसे विवाह करके अपनी छत्र-छाया में ले लिया। विशुद्धी की समस्याओं की दशा में हमें विशुद्धि के दोनों ओर स्थित दैवताओं आर सद्गुणी का ज्ञान होना चाहिए जिनके अभाव मैं हम कष्ट उठा का रहे हैं। पकड़ की अबुस्था में हम अपनी दायीं विशुद्धी को देखें। माधुर्य -৪ - कृष्ण जी का परम गुण है। राधा उनकी शकित थी। रा-शक्ति-धा-धारणा करने वाला। और उनकी शक्ति थी। श्री कृष्ण की खूबी उनका आन्हाद आनन्द प्रदान करने वाले सद्गुण एक व्यक्ि जो ऊंचा बोलता है, चचल्लाता है, चीखता योगेश्वर - साक्षीरूप होना थी। है, और शीघ्र कोधित हो जाता है वह दायी किशुद्धी की समस्या का शिकार है । व्यक्ति को समझना चाहिये की किसी की प्रताइना भी करनी हो तो भी हमें प्रेम पूर्वक उससे कहना है कि "आप ये क्या कर रहे है"? "मौन" धारण करके अपनी दायीं किशुद्धी को आराम देना, इसे ठीक करने का सबसे अच्छा उपाय है । दायीं तरफ जिगर से गर्मी का प्रवाह शुरू हो जाता है। यह प्रवाह ऊपर को हृदय को प्रभावित करता है। परिणामतः आप एक उठना शुरू कर सबसे पहले दाये कोधी पति या पिता बन जाते हैं तब यह गर्मी दायी किशुद्धि पर पहुंचती है और आप एक चिड़-चिड़े, उग्र कोधी, हर समय दूसरो पर चिल्लाने वाले व्यक्ति बन जाते हैं। जिस व्यक्ति पर आप कोध करते हैं वह आप से भयभीत हो जायेगा, उसमें हीनता की भावना भी उत्पन्न हो सकती है, वह बामन्तरफी भी बन सकता है। जिस व्यव्ति पर हर समय कोई चि्ल्लाने वाला हो उस व्यक्ति का भाग्य तो ईश्वर ही जानता है। श्री कृष्ण जी के जीवन से हमें सीखना है कैसे वे मधुर बांसूरी बजाकर सारे वातावरण को पूर्णतया शांत कर देते थे। परन्तु आधुनिक काल में मामला बिल्कुल ही विपरीत है। यहां दायी विशुदी टूटने और फटने के समीप है । आज का संगीत शान्ति प्रदान करने के स्थान पर अधिकाधिक उत्तेजित करता है। इस प्रकार का संगीत सहस्त्रार स्वंड, जो कि श्री कृष्ण के विराट तत्व का स्थान है, को शिथिल कर देता है दायी विशुद्धी से यह सहस्त्रार को जाता है। तब आप नशा लेना शुरू कर देते हैं क्योंकि आपका दिमाग शिथिल हो चुका होता है इस प्रकार सस्त नशे लेना आप शुरू कर देते हैं। आप एक ऐक्षी अक्स्था में पहुंच जाते हैं जहां से कोई वापसी नही। जहां केवल आत्म विनाश है। ---9 -9- श्री कृष्ण एक ईश्वरीय राजनीतिज्ञ थे। ईश्वरीय राजनीति क्या है? आपको चिल्लाना नही है। यदि आप किसी को परिणाम किशेष तक ले जाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको विषय परिवर्तन करना होगा। यह बड़ा चतुराई का कार्य है। किसी व्यक्रि के व्यवित को जान लेना चाहिए कि साथ पूर्ण तादात्म्य करना उसके साथ खेलने जैसा है। राजनीति का निष्कर्ष परोपकारिता है। मानव- मात्र के हित का लक्ष्य तुम्हें प्राप्त करना है। यदि आप यह कार्य कर रहे हैं तो अपने या किसी व्यक्ति कविशेष के स्वार्थ के लिए इसके साथ खेल करते रहो । नहीं कर रहे हैं। अतः चीवने की कोई आवश्यकता नहीं। म और इसे परोपकारिता तक ले जाओ। श्री कृष्ण ने हमें मधुरता पूर्वक सत्य बोलने को कहा । ऐसा सत्य जो परोपकार के लिए हो। माना कि आपका सत्य-व्यवहार इस क्षण किसी व्यव्ति विशेष को अच्छा न लगे लेकिन यदि हित ही आपका लक्ष्य है तो भविष्य में वही व्यकवित आपके प्रति अनुग्रहीत होगा। परोपकार के लिए यदि आपको झूठ भी बोलना पड़े तो भी कोई बात नहीं क्योंकि विशुद्धी के शासक श्री कृष्ण इस सत्य को जानते हैं। के सदस्यों तथा सम्बन्धियों को उनकी त्रुटियां अपने अधीन व्यक्तियों परिवार बताने में आप कभी न हिचकिचायें। स्पष्ट रूप से उन्हें वही बतायें जो उचित हो। यह हैं । आपका कर्तव्य है। लोग इस कार्य से भी बचते हैं बहुत से लाग अपने बच्चों के लिए उन्हें बहुत से सिलौने देते चले जाते हैं। अनुशासन का अर्थ शासन नही परन्तु इसका अभिप्राय यह है कि जो भी आप कर रहे हैं वह आप की और दूसरों की आत्मा के हित के लिए है । यही सहज का अनुशासन है। य बायी विशुद्धी बिजली की चमक सी है। यह एक ऐसे व्यक्ति सी है जो चीख- चिल्ला सके जर विष्णुमाया की तरह दोषो को उसाड़ सकें। आपको निडर होना चाहिए । स्वयं को दोषी मानने वाले अधिकतर ज्यश्ति अपना आत्म विश्वास सो बैठते हैं। और अहे उनकी बायी और प्रविष्ट हो जाता है। यह बहुत ही पेचीदा अवस्था है । सावधानी हमें देखना चाहिए कि अपने आप को हम दोषी न मान बैठे। दोष का भाव केवल पूर्वक कल्पना मात्र है। वास्तविकता से बचने की इच्छा के कारण हम अपने आपको दोपी कहते हैं। आपको वास्तविकता का सामना करना है अपनी और दूसरों की त्रुटियों को खोजने --10 -10- का प्रयत्न करो । क्योंकि विष्णु-माया केवल विषुयत मात्र है बिजली लोगों के दोषों पर से पर्दा उठाती है तथा उन पर गर्जती भी है। अपनी बाई विशुद्धी को ठीक करने के लिप आपको ये विधियां अपनानी होंगी। बाई विशुदधी की समस्या वाले व्यव्त को समुद्र - मैं वो हूँ" इत्यादि । पर जाकर जोर से कहना चाहिए "मैं समुद्र का स्वामी हूँ" "मैं 'ये हूँ गले में दायी और श्री कृष्ण जी की शकिति स्वरों में है -यह माधुर्य की शक्ति । विष्णु माया अपनी महान शक्तियों को केवल अपना अस्तित्व बताने के लिए ही प्रयोग अपको विष्णुमाया की ही देन हैं । वही विधुयुत रूप करती है। यह सब चमत्कृत तस्वीरं में कार्य करती है और यह सब कुछ सम्हालती हैं। चाहे वह श्री कृष्ण की बडन है तो भी वे बहुत सूक्ष्म हैं और बड़ी सूक्ष्मता पूर्वक आपकी सहायता करती हैं। इस माइक्रोफोन के अन्दर विद्युत है और आप हैरान होंगे कि इसके अन्दर से चैतन्य लहीरियां बह रही हैं। यहां से जहां आप चाहे ये लहरियां जायेंगी। दूसरी ओर कम्प्यूटर रखकर आप इनहें महसूस कर सकते हैं। कितनी प्रशंसनीय बात है कि इतनी महान शव्ति हमारी बायी और विराज कर स्वयं को दोषी मानने वाले तथा हीन भाव पीड़ित लोगों की रक्षा करती है। अन्तर देखिए। आत्मक्श्वास विहीन लोगो में विष्णुमाया अपनी शक्ति प्रकट करती है जिससे कि उनका आत्म विश्वास जाग उठे। विष्णु माया की बात करते हुए हमें ज्ञान होना चाहिए की वह वहां विशुद्धी पर विराजमान है, जब चाहे हम महान काता बन सकते हैं, दूसरों के दोषों का पर्दाफश कर सकते हैं। हम बिजली या मेघ ध्वनी जो कि हम नहीं हैं की तरह बन सकते अतः यह दोनों तरह के लोगों को संतुलन देती है। मध्य में जब कुंडलिनी उठती है। तो अधिकतर लोगों की विशुद्धी पकड़ी होती है। अतः उन्हें ध्यान रखना है कि वे निर्दोष हैं, और अपने आप में पूरी तरह से संतुलित हैं तथा वे मुध्यम मार्ग में हैं जिससे कि वे मधुर, कस्णामय और अच्छे बन सकते हैं । वहुत से लोग केवल दूसरों का लाभ उठाने के लिए दिखावे मात्र को मधूर हैं ऐसे लोग नर्क में जाएगें क्योंकि वे श्री कृष्ण की शक्ति का दुरूपयोग कर रहें हैं। ---|| -115 हमारे लिए यह समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण हे कि हमारी विशुदी साफ होनी चाहिए। सर्वप्रधम हमारा हृदय सुन्दर और स्वच्छ होना चाहिए जहां से कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी क्शुदी को सुधारे। विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारें क्योंकि आपके सिवाय कोई अन्य इन्हें नही सुधार सकता। देखों कि तुम्हे अपना पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी क्शुदी के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धी पर आकर ही आप "साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कीमियों को जान सकेंगे। श्री कृष्ण की पूजा करते हुए हमें ये जानना है कि अंत में वे बुद्र-तत्व बन जाते हैं पेट पर की चर्बी सूक्ष्म रूप में बुद्धि को पहुंचती है तथा श्री नारायण बुद्धि में प्रवेश कर "विराट" रूप हो जाते हैं अकबर बन जाते हैं और जब वे अकबर बन जाते हैं तभी पदार्थ के अन्दर बुद्धि हज्ञान बन जाते है। यही कारण है कि श्री कृष्ण को पूजने वाले लोग -अहंकार रहित बुद्धिमान बन जाते हैं। उनकी बुद्ि विकसित होती है परन्तु यह अहं ग्रसित नही होती। बिना अर्ह की बुद्धि जिसे मैँं शुद्ध बुद्धि कहती हूं प्रकट होने लगती है। ईश्वर आपको आश्शीवादित करें। पहले स्वयं को जानिये | अगर्त, 1989 पारेचेस्टर हाल लन्दन सबसे पहले हमें समझ लेना चाहिए कि "सत्य" ही सत्य है। न तो हम सत्य की धारणा बना सकते हैं न इसकी सृष्टि कर सकते हैं न ही इसका प्रयोग अपने कार्य के लिये कर सकते हैं । अपने सारे बंधनों में बँधे, घोड़े की तरह अपनी आँंखों के दोनों और ढक्कन लगा कर हम सत्य को नही लोज सकते । हमें स्वतंत्र मनुष्य बनना है। स्वयं सत्य को देखने के लिए वैज्ञानिकों की प्रकार ही हमें उदार-बुदि होना है। अन्धाधुच ---12 -12- किसी की भी शिक्षा या भविष्यवाणी को स्वीकार नहीं करना है । शाश्वत को खोजना और परिवर्तनशील तत्वों की सीमाओं को समेझना ही सब धर्मों का सार है। इसी कारण हम अपना संतुलन खो चुके हैं। यदि हम वास्तव में सत्य को जानना चाहते हैं तो हमें यह समझना होगा कि मानवीय चेतना से हम इसे नहीं जान सकते। इसी तरह सत्य एक कल्पना बनकर रह जाता है। आपको आत्मिक- चेतना पानी है। आत्मिक-चेतना एक अवस्था है जिस पर आप स्वयं आत्मा बन जाते हैं। यह किसी को बनावटी रूप में हिन्दू, मुसलमान या इसाई प्रमाणित कर देना मात्र नही। इन तथाकयित धर्मो के आधार पर मा कोई भी अपराध करना अनुचित है परन्तु आपका अन्तर-मन आपको नहीं रोकेगा। इस प्रकार सभी कुछ केवल बाहूय दिखावा मात्र हो गया है। यहां तक कि ईश्वर और धर्म के अस्तित्व को भी लोग नकारने लगे हैं। जो कि असत्य है। ईश्वर का अस्तित्व नकारने से पूर्व हम सोचें कि क्या हमने ईश्वर को पाने का प्रयत्न किया या केवल अरें-कश ऐसी धारणा बना ली। ईश्वर के विषय में कही-सुनी का निर्णय नही करना चाहिए। लोग जानते हैं कि बातो दवारा हमें परमात्मा के अस्तित्व परमात्मा के विषय में वो जो मन चाहे बोलते रहे उस पर कोई कानूनी रोक टोक नहीं यहां तक कि ईश्वर और पैगम्बरो के विरुद्ध बोल लोग बहुत सा धन अर्जन कर कर सकते हैं। अतः आत्मा को जानने के लिए हमें सर्वप्रधम इन सब उलझनों से ऊपर उठना है और स्वयं को अपने मध्यम नाड़ी संस्थान पर जानना है। जैसे मैं शीत या उम्ण का अनुभव कर सकती हूं आपको भी परमात्मा की सर्वत्र फैली शक्ति का ज्ञान पाना है। यह शक्ति ही सत्य है और सत्य को इसलिए प्रकट करती है कि ईश्वर के प्रति प्रेम ही सत्य है। आपको अपने मध्य नाड़ी संस्थान पर यह सत्य अनुभव करना है यही ा। "बोध" है। कहा जा सकता है कि पाश्चात्य देश बहुत आगे बढ़े है परन्तु विज्ञान से हमने कया बनाया? हाईड्रोजन तथा एटम बम जो राक्षस बनकर हमारे सिर पर बैठे हैं। जिस ---13 -13- जिस कार्य को हम शुरू करते हैं संतुलन विहीन उसे अति तक ले जाते हैं। हमारी सारी बैदिक ऊंचाईयां संकुचित है। यह रेखा की तरह आगे बढ़ती हैं और फिर एक दम पीछे की ओर खींचकर बाँधा उत्पन्न कर देती है। अब आप तेजाब की वर्षा कर सकते हैं। आपने मशीन बना ली है लेकिन वो आपके लिए बनी है । आप मशीनो के लिए नहीं है। परन्तु आपके और मशीनो के बीच कोई सन्तुलन नही। जो कुछ भी हाथ में आया पागलो की तरह उसे लेकर चल पड़े। केवल आत्मा बन कर ही यह संतुलन आप पा सकते हैं। आप यहां सुन्दर फानूस देख रहे हैं । लेकिन बिजली हरोशनी के बिना इनका कोई महत्व नहीं। इसी प्रकार यदि आपके चित्त में आत्मा की ज्योति नहीं तो आप स्वयं का अर्थ भी नहीं जान सकते। बिना अपने मुल से जुड़े यह माइक्रोफोन बेकार है । बिना अपने मूल से जुड़े हम भी सत्य को नहीं जान सकते और सारी समस्याओं का यही कारण हैं। अब में इस यंत्र हशरीर के विषय में बात करती हूँ तो हमें ये जानना है कि यह मूल-ज्ञान है और इसके लिए हमारे पास सूक्ष्म व्यवितत्व होना आवश्यक है। इसे नहीं देख सकते और सूक्ष्म बनने के लिए हमें जड़ों मूल का बुद्धि से हम स्थूल ज्ञान होना चाहिये। मनुष्य की हर किया यहां तक कि धर्म में भी कही कुछ त्रुटि रह गई हैं। यही कारण है कि आज इस प्रकार का स्वांग चल रहा है। हमें शाश्वत को योजना है। ये बात शायद कुछ अजीब लगे। उदाहरणतया बुद्ध जी और महावीर जी ने ईश्वर के विषय में किल्कुल बात नही की। मैंने भी चार वर्ष ईश्वर के विषय में कुछ नही कहा क्योंकि ज्यों ही ईश्विर की बात होती है लोग ईश्वर बनने के लिए अधीर होने लगते हैं। अतः आप पहले आत्मा बन जाइयें। विना आंखों के रंगों को कैसे देखेंगे? आप जिस चीज के अधिकारी हैं, एक मानव होने के नाते जो आपका जन्मसिद अधिकार यानि की आत्मा बनना है उसे पा लेना ही आपके हित में है। सहज योग यही ना है। यह अर्धात् साथ-ज-अर्थात-जन्मी। योग हईश्वर से मिलन पाना आपका जनम सिद्ध अधिकार है। विकास की निधि आप ही है इसे कार्य करना है परन्तु कृपया अपने क बुदि को खोल कर स्वयं को देखिए। में जानती हूं हृदय और कि यह कार्य करेगा। परन्तु इसके विषय में सोचते रहने से आप इसकी धारणा नही बन सकते। धारणाओं के पीछे भागते रहना हमारी खोज की सबसे बड़ी कमी है। --- | 4 -14- हमारे विकास के दौरान हमारे अन्दर जो सुन्दर यंत्र तैयार किया गया उसे आपने देख लिया है। पहला चक़ सर्वाधिक सुन्दर है। क्योंकि यह अबोधिता का प्रतीक है। यह अबोधिता ही हमें वास्तविक आश्रय तथा वास्तविक शक्ति प्रदान करती है। चाहे यह आच्छादित हो, चाहे आप एक निराश व्यवित हो, चाहे लोग ये कहे कि उन्होंने अपनी यही एक चक है जिसका विनाश नहीं हो सकता। अबोधिता का नाश कर दिया है पाि आपको इस चक़ की हमूलधार १ समस्या हो सकती है। परन्तु यह विनाश से परे है । चार पंखुडियो का यह सुन्दर चक शरीर में बर्ति-प्रदेश के तन्तु जाल की देखभालि करता है। हम अपनी स्वछन्दता में ऐसे कार्य भी करते हैं जो हमारे हित में नही होते। फिर भी कुंडलिनी का नाश नहीं हो सकता। आपको आत्म साक्षात्कार देने वाले स्रोत आपकी अपनी मां है। यह प्रेम-मयी मां आपके पूर्व जन्मों के विषय में सब कुछ जानती है। वह जागृत होने के अवसर की प्रतीक्षा में हे कि कब वह आपको पुनर्जन्म दें । वह देवी मां है जो आपको कष्ट नहीं देती) कुंडलिनी के विषय में ये समस्याएं अनाधिकार चेष्टा करने वाले अज्ञानी गुरूओं की देन है । आपके लिए समस्याएं पैदा करना तो दूर रहा कुंडलिनी जागृती के तुरन्त बाद आपकी निर्विचार-समाधि स्थापित हो जाती है। विचार उत्पन्न होते हैं और समाप्त हो जाते हैं। कुंडलिनी उन्हे बढने नहीं देती ओर उन्हें बर्तमान क्षण पर टिकाती है। इस तरह वर्तमान के कक्ष में स्थिर हो कर आप वर्तमान में बढ़ते हैं आप अपनी इच्छा ं जब कुंडलिनी आज्ञाचक को पार करती है तो से सोच सकेंगे या निर्विचार हो सकेंगे। ऐसा सम्भव हो पाता है। दूसरे स्वाधिष्ठान चक़ में -जो कि कला तथा सृजनात्मकता चक है जब कुंडलिनी आती है तो मनुष्य परिवर्तनशील तथा सशक्त हो जाता है। मेरे चार्टर्ड एकाउन्टेंट भाई -जिसे भाषाओं का ज्ञान बहुत कम धा अब संस्कृत, उर्दू तथा मराठी जैसी ---15 न -15- जटिल भाषा मे कविताएं लिखते हैं। कुंडलिनी जब उठती है तो इस चक़ का पोषण अच्छी मां की तरह से करती है। साक्षात्कार के बाद अमजूद अली खों एक बहुत बड़े कलाकार बन गये ज्यों-ज्यों ये कुंडलिनी ऊपर जाती हैं, सृजनात्मकता बहुत शकितशाली, कार्यशील ा और परिवर्तनशील हो जाती है। साध ही वह व्यविति बहुत ही नम्र, मधुर और करूणामय बन जाता है। अतः यह हिंसा, यह कोध आपकी रचना नहीं है। यह आपके जिगर की देन है। कोध में आप नहीं जानते की व्या करें। एक धूर्त शराबी की भांति आपके जी में जो आता है वही करते हैं। परन्तु जागृति से यह सारा कोध सुन्दर ढंग से शांत हो जाता है। आश्चर्य की बात है कि एक सशक्त व्यव्ति भी करूणामय हो जाता है। कहा जाता है कि कुछ राष्ट्रो की अपनी ही क्िशेषताएं हैं। सब कुछ विलय हो जाता है। यह सृजनात्मकता चक आप में शुद्ध ज्ञान प्रकट करता है और आप का मध्य-तन्तु-जाल जागरूक हो उठता है। अपनी अंगुलियों के सिरो पर आप अनुभव करना शुरू कर देते हैं। जैसे कोई मेरे पास मेरा अरहै कार्यरत आये और कहे कि मेरी आज्ञा में पकड़ है। अर्धात पतट आप किसी और का यही बात कहेंगे तो वो कोई पेसा कहेगा? लेकिन यदि है। क्या भी अपना अहं आपको दिखायेगा। किसी को उसके अहं के बारे में बताना बहुत भयानक है। परन्तु आत्म-ज्ञान दारा आपको पता लग जाता है कि अहै आज्ञा चक् में अड़डा हुआ है और इसे निकाल फेंकना है। आपके अन्दर यह सब स्वाभाविक है और जागृती होते ही आपको आत्मज्ञान हो जाता है। और यह चक जो अब तक अटपटे विचार तथा विदवंस वृती को जन्म देता था अब हितकारी, सुखद तथा सुंदर हो जाता है । ये लोग जो हिन्दी का एक शब्द भी न जानते थे अब संस्कृत में गाने लगे हैं। आज का संघर्षरत कलाकार सहज योग में आकर एक महान कलाकार बन जाता है। परन्तु अभी भी प्रलोभन है। जैसे आप महान कलाकार बन जायेगे, आप बहुत धनार्जन करने लगेगें आदि । इन उपलब्धियों से आपकी सन्तुष्ट नहीं हो जाना है इनमें आप सन्तुष्ट होगे भी नहीं। --16 -16- पर आते हैं। यह चक्र एक अब हम तीसरे चक जिसे नाभी-चक कहते हैं इसके इर्द-गिर्द दस पर्ते हैं और जल तथा दूसरी ओर अग्नि तत्व का बना है । हमारे उन्दर हमारा सहज धर्म। कुंडलिनी जब उठती है तो इस चक को प्रकाशित करती है और नाभी या सूर्य चक हमें धार्मिकता प्रदान करता है। रातों रात लोगों ने नशे और शराब त्याग दिए। सर्वोपरि वे अपने सदृगुणों में आनन्दमय हो जाती है। कुछ लोग पूछते है कि इसमें व्या आनन्द है? ये नशा जो आज आप लेते हैं और कल भी जो आपको पीड़ित करता है, ये क्या है? सहजानन्द यदि आज आप लेते हैं तो कल आपकी हालत पहले से बहुत अव्छी होती है। यह आनन्द कभी कम नहीं होता। आपको हानि नहीं पहुंचाता। यह बनाव्टी नही है। यह मदोनमत करने वाला नही है। यह आपके अन्दर से बाहर की बह रहा है। हम में अपनी उदारता का आनन्द लेने की क्षमता है। यह नाभी-चक्र में निहित है। हम हर मामले में भौतिक है। और पदार्थ की सुन्दरता इसी में है कि अपना प्रेम व्यवत करने के लिए हम वह पदार्थ दूसरों को दें। पदार्थ का केवल इतना ही कार्य है। एक विशिष्ट प्रकार से आप अपना प्रेम व्यकत करते हैं। दूसरों की पसन्द के ज्ञान की भावना जो आपने व्यक्त की तथा इस प्रकार की गहराई जो आपने और उस प्रिय समाज में जिसमें कि आपने प्रवेश किया है - विकसित होती है। अब आपको किसी चीज की आवश्यकता नही रह जाती क्योंकि हर व्यकित आप की आवश्यकताओं को पूरा करना चाहता है। आप जो आनन्द बांट रहे हैं वह इस चक से प्राप्त होता है। आपको यह चिंता करने की कोई आवश्यकता नही की क्या खाउँगा? आप वही ्थाएंगे जो आपके हित में है। आप बहुत ही बुदिमान तथा दूसरों को प्रसन्न करने वाले हो जाते हैं। आप अपनी ता मांगो से दूसरों को नाराज नहीं करते। मैं ये चाहता हूं आदि समाप्त हो जाता है। एक बुझी हुई मोमवत्ती को यदि जला दे तो प्रज्जवलित होकर स्वतः ही यह दूसरों को प्रकश देती है इसी प्रकार आप भी स्वतः ही अपनी ज्योति, अपना प्रेम और अपना आनन्द दूसरों को देना शुरू कर देते हैं। किसी को पुनः दस-आदेशों का पालन नहीं करना स्नेही पडता। बो दिन लद गये। अब आप स्वतः ही ईीबिना दुख उठाए बहुत सुन्दर, और तेजस्वी बन जाते हैं। ----17 -17- सहज योगियों के चेहरे पर तेज देखिए। चेहरा दीप्यमान हे। वहुत से लोग अपनी उम्र से दस-बीस वर्ष छोटे लगने लगते हैं। और बहुत ही उत्साही होते हैं। वो कभी धकते नहीं। विशेषतया पश्चिमी देशों में जवान लोग भी जल्दी धक जाते हैं । अधिक सोचना ही हमारी धकान का कारण है। सोचने में ही सारी शव्ति व्यर्थ हो जाती है। हमारे पास आनन्द लेने का सामध्थ्य नही बचती। उदाहरणतया जब आप किसी को खाने पर बुलाते हैं तो पहले उसके पीने साने की कस्तुओं तथा प्रबन्ध के विषय में सोच सोच कर इतने उन्तेजित और घबड़ाये हाते हैं कि वातावरण की उत्तेजना के कारण आपके जतयि वहां से जल्दी ही चले जाना चाहते हैं इस प्रकार सारा आनन्द समाप्त हो जाता है। अब हम सोचते है, तो हमारा दूसरा चक इस्वादिष्ठान हमारे मस्तिष्क को पेट की चर्वी में से भूरे रंग के सूक्ष्म कण भेजता है। यह आपके जिगर, पाचन धेली, प्लीहा, गुर्द तथा पेट के एक हिस्से को भी देखभाल करता है। लेकिन जब आप पागलों की तरह सोच रहे होते हैं तो यह चक अपना सब कार्य छोड़कर आपके मस्तिष्क को भूरे सूक्ष्म कम पहुंचाने में ही लग जाता है। तब आप को कई रोग जेसे जिगर के रोग तथा शक्कर के रोग हो जाते हैं। अधिक मीठा खाने से शक्कर का रोग नहीं होता। काम भारत के गांवो में लोग इतनी चीनी खाते हैं कि कप के अन्दर चम्मच चीनी में सीधा ्वड़ा हो जाता है। रोग नही होता। इसीलिए कि वे कल की परन्तु उन्हें शक्कर का चिंता नहीं करते। वे मेहनत करते हैं, खाते हैं और आराम से सोते हैं। नीद की गोलियों की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः शक्कर रोग आधिक सोचने के कारण होता है। सहज योग में आकर आप इसका इलाज कर सकते हैं। तीसरा रोग-रक्त-केंसर-अत भयानक है। बहुत अधिक सोचने से ही यह रोग होता है। यदि मां घर में छोटी-छोटी चीजों जैसे कालीन आदि के लिए बचचों से लड़ती हो तो बच्चों को भी यह रोग हो सकता है। ऐसे घर में तो चूहा भी नही घुसना चाहता। हर समय सौचने और स्कीमे बनाने का भी बन्चौ पर अव्छा प्रभाव नहीं पडता। आपका प्लीहा एक गत-मापक है। यही जीवन को एक लय देता है। उत्तेजित होकर जब हम विमूदावस्था में होते हैं तो हमारा प्लीहा खराव हो जाता है। प्रात: समाचार-पत्रों में मार- ल -| ৪- धाडू की खबरे पढ़ कर हमें झटका लगता है। समाचार पत्र अच्छी खबरें नही छापते। वे कभी नहीं बताते कि कितने लोगों को साक्षात्कार मिला, या कोई ठीक कार्य हो रहा कतल है। आपके शरीर यंत्र की कार्य-पद्ति बहुत कोमल है। इसे झटके लगते हैं। देर हो जाए तो आप तैयार नाश्ता छोड़ देते हैं। रास्ते की रूकावटे, दफतर में उबलता को यदि आप ऊँचा इस प्रकार हम तनाव-पूर्ण अवस्था में रहते हैं। रात हुआ अफसर। गाये तो पड़ोसी आपको धाना दिखाता है। आपको कोई स्वतंत्रता नहीं। आपको घड़ी के हिसाब से चलना पड़ता है। इन सब चीजो का हम पर बुरा प्रभाव होता है और हम उत्तेजित हो जाते हैं। इस संकट की घड़ी में हमारा प्लीहा लाल रक्त कण छोड़ता है। ु यदि आप हर समय उत्तेजित ही रहते हैं तो बेचारा प्लीहा पागल सा हो जाता परन्तु है वह नहीं जानता की क्या करें। अधिकाधिक रकत क बना कर वह आपके पागलपन से परेशान हो जाता है। ऐसे हालात में यदि कोई और झटका आपको लग जाए तो आपको रवत कैसर हो जाएगा और डाक्टर आपको कह देगें कि एक महीना और जी लीजिए। ज्यों ही कुंडलिनी जागृत हैं। सहज-योग से बहुत लोगो के रक्त केंसर ठीक हो गये होती है। अन्दर की हड़बड़ाहट बहुत हद तक कम हो जाती है। कुंडलिनी इसमें से गुजरती है और बापिस आकर इसका १प्लीहा पोपण करती है। इन चको का विगड़ना ही कैसर तथा अन्य असाध्य रोगों के भय का कारण है। यह दायी और बायी दोनों और को सम्हालता है। जैसे कि अब हृदय चक। हमारे अन्दर ऐसे जीवाणु पेदा करती है जो रोगों का आप जानते हैं हमारी उरोस्थि मुकावला करते हैं। यह हमारी माँ का चक़ है। जब आपकी मां को चुनौती मिलती है आपको स्तन कैंसर हो जाता है। एक चरित्रहीन पुरूष की चितित पत्नी को स्तन कैंसर हो सकता है क्योंकि उसके मातृत्व को चुनौती मिलती है और वह असुरक्षित महसूस करती है। परिणामतः वह इन समस्याओं मे फंस जाती है। आप बहुत सोचते भी है, दायीं 1१. तरफी भी है और भविष्य की चिंता भी करते हैं। लोग आने वाले दस सालों की भी योजना बनाते हैं। अपनी मृत्यु, दफुन-बस्त्र की भी योजना बनाते हैं। भविष्य की चिंता ---19 -19- गर्मी को शांत करने वाले जिगर शरीर के अंदर भयंकर गर्मी उत्पन्न करती है क्योकि ता की ही यह चक उपेक्षा कर देता है। फलस्वरूप यह गर्मी ऊपर की और जाकर शरीर में अस्थमा विकसित कर देती है। अस्थमा अत्यन्त साध्य रोग है। दायां हृदय पति या पिता का चक है। यदि आप एक बुरे पति हैं या आपकी पत्नी कर्कश झगडालू है, यदि आप एक अव्छे पिता नहीं है और या आपके पिता आपके प्रति "दयालु" नहीं हे" तो आपको अस्थमा रोग हो सकता है। यदि आप अपने पिता को क्षमा नहीं कर देते हैं तो आपको अस्थमा रोग सकता है। जब हम पृथ्वी पर आये तो हमने स्वयं माता-पिता से सम्बन्ध चुने। में मानती हूं कि वे गलत, जिदी और सिर-जोर भी हो सकते हैं । वे शराबी भी हो सकते हैं । योदि आप. उन्हें छोड़ भी रहे हो तो भी उन्हें क्षमा कर दे और उनसे क्षमा भी ले लें। जायेंगे। अन्यथा आप समस्याओ को अपने साथ ले परम चैंतन्य लहरी की ओर से आप सब को दीवाली की शुभकामनाएँ ---------------------- 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-0.txt भार | सड-।। चतन्य लहरा উ र इर नकारात्मकता में से राकारात्गकता का आनन्द लेना ही एक सहज योगी की क्मता है । धक (१ 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-1.txt वंड -।। 6 अगस्त, 1989 श्री भेरव नाथ पूजा कारलेट हैंडटली श्री भैरवनाथ की पूजा करने के लिए एकत्रित हए मेरे विचार में हमने श्री मैरवनाथ जी, जो कि ईडा-नाड़़ी पर हैं और ऊपर- नीचे की ओर विचरण करते है, का महत्व नहीं समझा है। ईडा- नाईी कद्र अतः यह र्वयं को शांत करने का मार्ग हे और भैरवनाथ जी का नाड़ी है। महत्व हमें शांत करने का है । उदाहरणतया अर औौर जिगर की गर्मी ही हमारे कोध का कारण है। जब मनुष्य अत्यधिक कोध में होता है तो श्री भैरवनाथ उसे दुर्बल बनाने के लिए चाल चलते हैं। वे श्री हनुमान जी की सहायता से उस कुद मनुष्य को इस सत्य की अनुभूती कराते हैं कि कोध की मूर्खता में कोई अच्छाई नहीं है। एक वाम-तरफी व्यक्ति सामूहिक नहीं हो सकता। एक उदास अप्रसन्न तथा चितित व्यक्ति के लिये सामूहिकता का आनन्द ले पाना अति कठिन है । जबीकि एक कोधी, राजसिक व्यक्ति दूसरों को सामूहिकता का आनन्द लेने नही देता। परन्तु स्वयं सामूहिकता में रहने का प्रयत्न करता है जिससे उसका उत्थान हो सके। ऐसा व्यक्ति केवल अपनी श्रेष्ठता को ही दिखाना चाहता है। अतः वह सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इसके विपरीत जो व्यक्त हर समय स्विन्न है और सोचता है कि मुझे कोई भी प्यार नही करता, कोई मेरी चिन्ता नहीं करता, और जो हर समय दूसरों से आशा रखता है, वह भी सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इस प्रकार के वाम-तरफी व्यक्ति को हर चीज़ व से उदासी ही प्राप्त होगी। हर चीज़ को अशुभ समझने की नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण हम अपनी बायीं-तरफ को हानि पहुंचाते हैं। श्री भैरवनाध अपनी हाथों में प्रकाशदीप लिए ईड़ा-नाड़ी में ऊपर- नीचे को दौड़ते हुए आपके लिए मार्ग प्रकाशित करते है जिससे कि आप देख सको कि नकारात्मक कुछ भी नहीं। नकारात्मकता हम में कई प्रकार से आ --2 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-2.txt -2- है कि "यह मेरा है" "मेरा बच्चा" "मेरा जाती है। एक नकारात्मक तत्व पति" "मेरी सम्पत्ति" इस प्रकार एक बार जब आप लिप्त हो जाते हैं तो आपके बच्चौं में भी नकारात्मक तत्व आ जाते हैं। परन्तु यदि आप सकारात्मक होना चाहते हैं तो यह सुगम है, इसके लिए आपको देखना है कि आपका चित्त कहां है? हर नकारात्मकता में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहज ज योगी की क्षमता है। नकारात्मकता का कोई अखिलत्व नही, यह केवल अज्ञानता है। अज्ञानता का भी कोई अस्तित्व नहीं। जब हर चीजू केवल सर्वत्र-व्याप्त शक्ति मात्र है तो अज्ञानता का अस्तित्व कैसे हो सकता है? परन्तु यदि आप इससे दूर दौड़ जाओ तो आप कहेंगें इस शक्ति की तहो में छुप जाओ और कि नकारात्मकता है उसी प्रकार से जैसे आप यदि अपने आपको एक गुफा में छिपा लें और गुफ्ा को अच्छी तरह बंद करके कहें कि "सूर्य नहीं है"। बो लोग जो सामूहिक नहीं रह पाते या तो बाई और के होते हैं या दायी- और के। बाई और के लोग नकारात्मकता में सामूहिक हो सकते हैं जैसे की शराबियों का बन्धुत्व ये लोग अंत में पागल-पने तक पहुंच जाते हैं। जबकि दाई-और के लोग मूर्ख हो जाते हैं। यदि एक सहज योगी सामुहिक नही हो सकता तो उसे जान लेना चाहिये कि वह सहज-योगी नही है। भैरवनाथ हमें अँधेरें में भी प्रकाश प्रदान करते हैं क्योंकि वह हमारे अंदर के भूतों और भूत-ही विचारों का विनाश करते हैं। श्री भैरवनाथ श्री गणेश से भी संबंधित हैं। श्री गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान है और श्री भैरव बाई-तरफ जाकर दाई-तरफ चले जाते हैं । अतः हर प्रकार के बंधन और आदतों पर श्री भेरवनाथ की सहायता से विजय पायी श्री भैरव की एक बहुत बड़ी स्वयं भू मूर्ती है। जा सकती है। नेपाल में वहां लोग बहुत बाँई और है। अतः वे श्री भैरव से डरते हैं । यदि किसी को चोरी करने की बुरी आदत हो तो उसे छोड़ने के लिए वह श्री भैरवनाथ के सामने दिया जलाकर उनके सम्मूख अपना अपराध स्वीकार करे तथा इस अनुचित तथा धूर्ततापूर्ण कार्य करने बुरी आदत से बचने में उनकी मदद ले। --3 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-3.txt -3- से भी श्री भैरव नाथ हमारी रक्षा करते हैं । जिस कार्य को हम बहुत ही गुप्त रूप से करते हैं वह भी श्री भैरव से छुपाया नही जा सकता। याद आप अपने में परिवर्तन नही लाते तो वे आपकी बुराइयों का भांडा-फोड़ देते हैं। इसी क तरह उन्होंने सब भयानक तथा झूठे-गुरूओ का भीड़ा-फोड़ दिया है। बाद में श्री भैरव का अवतरण इस पृथ्वी पर श्री महावीर के रूप में हुआ वे नर्क के दार पर खड़े रहते हैं ताकि लोगों को नर्क में पड़ने से बचा सकें। परन्तु यदि आप नर्क में जाना ही चाहें तो वे आपको रोकते नही। अच्छा हो यदि हम अपनी नकारात्मकता से लड़ने का प्रयत्न करें तथा दूसरों का संग पसन्द करने वाले, दूसरों से प्रेम करने वाले तथा चुहल पसन्द लोग बन जाएं। दूसरे आपके लिए वया कर रहे हैं इसकी चिंता किप बिना आप केवल ये सौंचे कि आप दूस्टों का क्या भला कर सकते हैं। आओ हम श्री भैरव नाथ से प्रार्थना करें कि वे हमें एहंसी", "आनन्द" तथा "चुहल " की चेतना प्रदान करें। | 4 अगस्त, 1989। श्री माता जी निर्मला देवी दारा श्री कृष्ण पूजा पर भाषण हयूं - के. ? सफरौन आज हम श्री कृष्णावतार की पूजा करने के लिए एकत्र हुए हैं। श्री कुष्ण जी श्री नारायण तथा श्री विष्णु जी का अवतार हैं। हर अवतरण अपने साथ सभी सद्गुण, शवितियों तथा अपनी पूर्ण प्रकृति को साथ ले कर आते हैं। अतः उनके अवतरण के समय ही उनमें श्री नारायण तथा श्री राम के सभी सद्गुण थे। पिछले अवतरण में जिस अवतार के विचारों का गलत अर्थ लिया गया हो या उनकी कही बातों को अति में ले जाया गया हो तो ----4 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-4.txt -4- अपने अगले अवतरण में वे उन सब बातों में सुधार लाते हैं। यही कारण है कि वे बार-बार अवरतरित होते हैं। श्री विष्णु जी संसार तथा धर्म के रक्षक तो जब वे अवरतारित हुए तो उन्हें देखना पड़ा कि लोग धर्माचरण करें । हैं। आप को ठीक रहने के लिए आत्मसाक्षात्कार लेना होगा और महालक्ष्मी के मध्य मार्ग में रहना होगा। पहले अवतार के विषय में हम कह सकते हैं कि उन्होंने राम रूप में एक परोपकारी राजा की रचना करने का प्रयत्न किया। श्री राम पुरूषोत्तम थे उन्होंने एक पूर्ण मनुष्य के रूप में अपने सारे मानवी सद्गुणों के साथ अवतार लिया। श्री सीता जी के रूप में उन्होंने लक्ष्मी तत्व से विवाह किया और एक साधारण विवाहित जीवन व्यतीत किया.। फिर उन्होंने अपनी पत्नी के बिना एक तपस्वी का जीवन व्यतीत किया। अपने जीवन से उन्होंने दर्शाया कि एक पति का अपनी पत्नी के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए। बाद में उन्हें एक राजा के रूप में अभिनय करना पड़ा। राजा बनने पर उन्होंने पाया कि राक्ण से सीता जी को वापिस लाने पर प्रजा उनकी आलोचना कर रही है। अतः श्री राम जी ने सीता जी को वनवास भेज दिया। श्री राम की तरह से अपने नीचे कार्यरत लोगों में अपने शुभ आचरण दारा आदर्श स्थापित करने की चेतना कितने लोगों में है? महा लक्ष्मी अवतार श्री सीता जी इस नाटक को समझती थी अतः वे घर छोड़ कर चली गई। राजा-रुप में श्री राम ने सिखाया कि प्रजा पर शासन कैसे किया जाना चाहिए। राज्यादर्शों को उन्होंने स्थापित किया । राम-राज्य को सर्वाधिक आदर्श राज्य माना जाता है। उनके राज्य में शांति धी, प्रतिदन्दिता नहीं थी। धर्माचरण, आनन्द, आशीवाद तथा शांति के कारण प्रजा-जन प्रसन्न सदाचार, धे। परन्तु लोग कुछ ऐसी बातें अपना लेते हैं जो किसी अवतार के लिए स्वाभाविक न हो। श्री राम तपस्वी बनकर रहे अतः लोगों ने भी तपस्या का मार्ग पकड़ लिया। लौग रूखे हो गये वे न तो हंसते न मुस्कराते। हर चीज गरम्भीर हो गई। विवाहाभाव में लोगों का संतुलन बिगड़ गया। विवाह आपको संतुलित ---5 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-5.txt -5- करता है। यह समय धा जब श्री कृष्ण जी अवतरित हुए और यह दर्शाया की ईश्वर की पूर्ण रचना केवल एक लीला है, केवल विनोद है। गम्भीर, स्वा या तपस्वी होने की कोई आवश्यकता नही। वास्तव में श्री राम से पूर्व सभी महात्मा विवाह किया करते थे। तब एक निराधार ब्राहमूणाचार का भी आरम्भ हुआ। जातिवाद, जिसका निर्णय मनुष्य के जन्म से न होकर उसके कार्यानुसार किया जाता था, उसको भी तथा-कथित ब्राहमुणाचार ने दुर्बल बना दिया। ब्राहम्णों ने दूसरों पर प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। अतः श्री कृष्ण जी एक ग्वाले के पुत्र के रूप में अवतरित हुए। जब कृष्ण जी केवल पांच वर्ष के थे उन्होंने विभिन्न प्रकार की कीड्राएं तथा लीलाएं की जैसे कालिया सर्प-मर्दन और खेल-खेल में अपनी शक्ति दारा बहुत से राक्षसौं का वध। यद्योपि नाना प्रकार से उन पर यह प्रकट हो चुका था कि वे एक अवतरण है फिर भी मर्यादाओं के हित में उन्होंने यह सत्य कभी नही स्वीकारा। महामाया की ही तरह से। यद्योपि आज साधारण कैमरे भी आपको वास्तविक महामाया का प्रमाण दे रहे हैं और बता रहे हैं कि वे कैसी हैं फिर भी व्यकित को यही दर्शाता है कि उसे कुछ स्मरण नहीं, उसे इस वास्तविकता की कोई स्मृति नही। क्योंकि यदि व्यविति इस सत्य को याद वे कार्य-कलाप रखता हे तो कार्य-कलाप मानवी नही होगें। ईश्वरीय कार्य ठीक न बन जाएंगें जो कि मनुष्यों के लिए क्योंकि मनुष्य उन कार्यों होंगे । को सहन न कर सकेगें वे डर जायेंगे और भय फैल जायेगा। अतः श्री की तरह से व्यवहार किया। कृष्णा जी ने एक साधारण मनुष्य अपने बचपन में उन्हें मक्खन बहुत पसन्द था। विशुद्धि-चक के लिए मक्बन बहुत ही लाभदायक है। चाय में भी थोड़ा मक्बन मिला लें ताकि आपके शुष्क गले को आराम मिले। अपने मित्रों की सहायता से श्री कृष्ण मटकियां ६, तोड़कर सारा मक्वन ्ा जाते थे। छोटे-छोटे झूठ बोल देते। उनकी सब लीलापं. बालसुलभ, मधुर-असत्य केवल मधुरता की भावना जागृत करने के लिए धी। ---6 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-6.txt -6- जब बच्चे मां के साथ इस प्रकार की नट-खटता करते हैं तो वे बहुत ही प्रिय लगते हैं। पूर्वी देशों के लोग अपने बचों की नट-खटता का आनन्द लेते हैं। अपने बच्चों से प्रेमाभाव के कारण ही लोग उनके प्रति कठोर हो जाते हैं। वे अपने कालीन तथा भौतिक वस्तुओं को केवल बेच सकने के लिए ही प्रेम करते हैं। अपने बचों को तो वे बेच नही सकते। बचे और माता-पिता भौतिकता के विचारों के कारण ही एक दूसरे से दूर हो जाते हैं, और भौतिक वस्तुएे बहुत महत्व ग्रहण कर लेती हैं। चोरी ययपि बुरी है फिर भी जो र्त्रियां अपने मक्बन को मथुरा के राक्षसों के लिए ले जाती थी उनका मक्बन श्री कृष्ण जी चुरा लिया करते धे। इन स्त्रियों दारा दिए गए मक्यन को खाकर राक्षसगण शक्तशाली हो रहे थे। अतः श्री कृष्ण जी ने सारे मक्खन को खा लेना ही उचित समझा जिससे कि यह राक्षसों तक न पहुंच पाये। इस चोरी का महत्व हमें इस सत्य में भी प्रतीत होगा कि धोड़े से धन के लालच में हम अपने बच्चों को भूखा रखते हैं। "हर वस्तु विकय के लिए है" इस विचार में घन-लोलुपता छिपी है और इसी के कारण बचचे हम पर स्थायी बोझ बन जाते हैं। बटचों के साथ केवल बोझ की तरह से व्यवहार किया जाता है जीवन के सब मुल्य यद केवल धन पर आधारित हो जाएँ तो बच्चों के लिए परिवार में कोई स्थान नही रह जायेगा। सहज योग के अनुसार बच्चे कुबेर के धन से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं और उनका लालन पालन उसी प्रकार होना चाहिए। बचों को क । अपने गौरव के प्रति जागरूक होना चाहिए और उस गोरव के अनुरूप ही उन्हें व्यवहार करना चाहिए फिर भी बचचौं की छोटी-छोटी कीड्ाओं को अच्छी तरह से समझा जाना चाहिए तथा उनका आनन्द लिया जाना चाहिए। बचपन में ही तो वे प्यार भरी शरारतें कर सकते हैं बड़े होकर नहीं। उन्हें मधुर-शरारतें करने की स्वतंत्रता होनी ही आाहिए नही तो वे बहुत ही गम्भीर बन जायेंगे और तपस्वी भी बन सकते है। बच्चों के प्रति कठोर माता-पिता कभी स्वाभाविक नहीं हो सकते। वे या तो अति-विकृत होते हैं या मौन गर्त में समाकर वे ---7 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-7.txt -7- जीवन का सामना नही कर सकते। दोनों एक ही प्रकार के होते हैं, एक जीवन का सामना करने में असमर्थ हैं तो दूसरो का सामना "जीवन" नही करता। आपको बहुत प्रेम तथा सूझबूझ के साथ अपने बच्चों से बर्ताव करना है। परन्तु बटचों को इस बात का भी ज्ञान होना आवश्यक है कि अनुचित व्यवहार की अवस्था में उनके प्रति आपका सब प्रेम समाप्त हो जायेगा। बच्चे घन आदि को नहीं समझते, वे केवल प्रेम को जानते हैं। अपने बच्चों में जो प्रेम आप स्थापित करते हैं वह अमूल्य निधि बन जाता है। सहज योग ईश्वरीय-प्रेम पर आधारित है और यह तभी कार्य कर सकता है जब लोगों में प्रेम भाव कम हों। अपने बच्चों, परिवार को प्रेम न करके यदि लोग धन, शक्ति तथा प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं तो वे समाज का एक बहुत बड़ा भाग खो रहे हैं। राजा रूप में भी कृष्ण ने लोग्गों को धर्म में स्थापित करना चाहा। इस कार्य के लिए उन्हें पंच-तत्वों की आवश्यकता पड़ी। इन तत्वों की रचना उन्होंने उन पांच स्त्रियों के रूप में की जिनसे उन्होंने विवाह कर लिया। परन्तु वे स्त्रियां उनकी ही अभिन्न अंग हैं योगेश्वर कृष्णपूर्ण तथा अनासक्त थे । परन्तु सांसारिक कार्यों के लिए उनकी पांच पत्नियां थीं तथा सौलह हजार अन्य पत्नियां जो कि वास्तव में उनकी सोलह हजार शक्तियां थी। विशुदी चक्र की सौलह पंखुडियों का गुणान विराट की एक सहस्त्र पंखुडियों से करने पर ।6,000 शक्तियां बनती है । यही ।6,000 शवितयां स्त्रियों के रूप में अवतरित हुई और इन्हें एक दुष्ट राजा ले गया। इस राजा को पराजित करके श्री कृष्ण ने इन शक्तियों को र्वतंत्र कराया तथा उनसे विवाह करके अपनी छत्र-छाया में ले लिया। विशुद्धी की समस्याओं की दशा में हमें विशुद्धि के दोनों ओर स्थित दैवताओं आर सद्गुणी का ज्ञान होना चाहिए जिनके अभाव मैं हम कष्ट उठा का रहे हैं। पकड़ की अबुस्था में हम अपनी दायीं विशुद्धी को देखें। माधुर्य 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-8.txt -৪ - कृष्ण जी का परम गुण है। राधा उनकी शकित थी। रा-शक्ति-धा-धारणा करने वाला। और उनकी शक्ति थी। श्री कृष्ण की खूबी उनका आन्हाद आनन्द प्रदान करने वाले सद्गुण एक व्यक्ि जो ऊंचा बोलता है, चचल्लाता है, चीखता योगेश्वर - साक्षीरूप होना थी। है, और शीघ्र कोधित हो जाता है वह दायी किशुद्धी की समस्या का शिकार है । व्यक्ति को समझना चाहिये की किसी की प्रताइना भी करनी हो तो भी हमें प्रेम पूर्वक उससे कहना है कि "आप ये क्या कर रहे है"? "मौन" धारण करके अपनी दायीं किशुद्धी को आराम देना, इसे ठीक करने का सबसे अच्छा उपाय है । दायीं तरफ जिगर से गर्मी का प्रवाह शुरू हो जाता है। यह प्रवाह ऊपर को हृदय को प्रभावित करता है। परिणामतः आप एक उठना शुरू कर सबसे पहले दाये कोधी पति या पिता बन जाते हैं तब यह गर्मी दायी किशुद्धि पर पहुंचती है और आप एक चिड़-चिड़े, उग्र कोधी, हर समय दूसरो पर चिल्लाने वाले व्यक्ति बन जाते हैं। जिस व्यक्ति पर आप कोध करते हैं वह आप से भयभीत हो जायेगा, उसमें हीनता की भावना भी उत्पन्न हो सकती है, वह बामन्तरफी भी बन सकता है। जिस व्यव्ति पर हर समय कोई चि्ल्लाने वाला हो उस व्यक्ति का भाग्य तो ईश्वर ही जानता है। श्री कृष्ण जी के जीवन से हमें सीखना है कैसे वे मधुर बांसूरी बजाकर सारे वातावरण को पूर्णतया शांत कर देते थे। परन्तु आधुनिक काल में मामला बिल्कुल ही विपरीत है। यहां दायी विशुदी टूटने और फटने के समीप है । आज का संगीत शान्ति प्रदान करने के स्थान पर अधिकाधिक उत्तेजित करता है। इस प्रकार का संगीत सहस्त्रार स्वंड, जो कि श्री कृष्ण के विराट तत्व का स्थान है, को शिथिल कर देता है दायी विशुद्धी से यह सहस्त्रार को जाता है। तब आप नशा लेना शुरू कर देते हैं क्योंकि आपका दिमाग शिथिल हो चुका होता है इस प्रकार सस्त नशे लेना आप शुरू कर देते हैं। आप एक ऐक्षी अक्स्था में पहुंच जाते हैं जहां से कोई वापसी नही। जहां केवल आत्म विनाश है। ---9 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-9.txt -9- श्री कृष्ण एक ईश्वरीय राजनीतिज्ञ थे। ईश्वरीय राजनीति क्या है? आपको चिल्लाना नही है। यदि आप किसी को परिणाम किशेष तक ले जाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको विषय परिवर्तन करना होगा। यह बड़ा चतुराई का कार्य है। किसी व्यक्रि के व्यवित को जान लेना चाहिए कि साथ पूर्ण तादात्म्य करना उसके साथ खेलने जैसा है। राजनीति का निष्कर्ष परोपकारिता है। मानव- मात्र के हित का लक्ष्य तुम्हें प्राप्त करना है। यदि आप यह कार्य कर रहे हैं तो अपने या किसी व्यक्ति कविशेष के स्वार्थ के लिए इसके साथ खेल करते रहो । नहीं कर रहे हैं। अतः चीवने की कोई आवश्यकता नहीं। म और इसे परोपकारिता तक ले जाओ। श्री कृष्ण ने हमें मधुरता पूर्वक सत्य बोलने को कहा । ऐसा सत्य जो परोपकार के लिए हो। माना कि आपका सत्य-व्यवहार इस क्षण किसी व्यव्ति विशेष को अच्छा न लगे लेकिन यदि हित ही आपका लक्ष्य है तो भविष्य में वही व्यकवित आपके प्रति अनुग्रहीत होगा। परोपकार के लिए यदि आपको झूठ भी बोलना पड़े तो भी कोई बात नहीं क्योंकि विशुद्धी के शासक श्री कृष्ण इस सत्य को जानते हैं। के सदस्यों तथा सम्बन्धियों को उनकी त्रुटियां अपने अधीन व्यक्तियों परिवार बताने में आप कभी न हिचकिचायें। स्पष्ट रूप से उन्हें वही बतायें जो उचित हो। यह हैं । आपका कर्तव्य है। लोग इस कार्य से भी बचते हैं बहुत से लाग अपने बच्चों के लिए उन्हें बहुत से सिलौने देते चले जाते हैं। अनुशासन का अर्थ शासन नही परन्तु इसका अभिप्राय यह है कि जो भी आप कर रहे हैं वह आप की और दूसरों की आत्मा के हित के लिए है । यही सहज का अनुशासन है। य बायी विशुद्धी बिजली की चमक सी है। यह एक ऐसे व्यक्ति सी है जो चीख- चिल्ला सके जर विष्णुमाया की तरह दोषो को उसाड़ सकें। आपको निडर होना चाहिए । स्वयं को दोषी मानने वाले अधिकतर ज्यश्ति अपना आत्म विश्वास सो बैठते हैं। और अहे उनकी बायी और प्रविष्ट हो जाता है। यह बहुत ही पेचीदा अवस्था है । सावधानी हमें देखना चाहिए कि अपने आप को हम दोषी न मान बैठे। दोष का भाव केवल पूर्वक कल्पना मात्र है। वास्तविकता से बचने की इच्छा के कारण हम अपने आपको दोपी कहते हैं। आपको वास्तविकता का सामना करना है अपनी और दूसरों की त्रुटियों को खोजने --10 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-10.txt -10- का प्रयत्न करो । क्योंकि विष्णु-माया केवल विषुयत मात्र है बिजली लोगों के दोषों पर से पर्दा उठाती है तथा उन पर गर्जती भी है। अपनी बाई विशुद्धी को ठीक करने के लिप आपको ये विधियां अपनानी होंगी। बाई विशुदधी की समस्या वाले व्यव्त को समुद्र - मैं वो हूँ" इत्यादि । पर जाकर जोर से कहना चाहिए "मैं समुद्र का स्वामी हूँ" "मैं 'ये हूँ गले में दायी और श्री कृष्ण जी की शकिति स्वरों में है -यह माधुर्य की शक्ति । विष्णु माया अपनी महान शक्तियों को केवल अपना अस्तित्व बताने के लिए ही प्रयोग अपको विष्णुमाया की ही देन हैं । वही विधुयुत रूप करती है। यह सब चमत्कृत तस्वीरं में कार्य करती है और यह सब कुछ सम्हालती हैं। चाहे वह श्री कृष्ण की बडन है तो भी वे बहुत सूक्ष्म हैं और बड़ी सूक्ष्मता पूर्वक आपकी सहायता करती हैं। इस माइक्रोफोन के अन्दर विद्युत है और आप हैरान होंगे कि इसके अन्दर से चैतन्य लहीरियां बह रही हैं। यहां से जहां आप चाहे ये लहरियां जायेंगी। दूसरी ओर कम्प्यूटर रखकर आप इनहें महसूस कर सकते हैं। कितनी प्रशंसनीय बात है कि इतनी महान शव्ति हमारी बायी और विराज कर स्वयं को दोषी मानने वाले तथा हीन भाव पीड़ित लोगों की रक्षा करती है। अन्तर देखिए। आत्मक्श्वास विहीन लोगो में विष्णुमाया अपनी शक्ति प्रकट करती है जिससे कि उनका आत्म विश्वास जाग उठे। विष्णु माया की बात करते हुए हमें ज्ञान होना चाहिए की वह वहां विशुद्धी पर विराजमान है, जब चाहे हम महान काता बन सकते हैं, दूसरों के दोषों का पर्दाफश कर सकते हैं। हम बिजली या मेघ ध्वनी जो कि हम नहीं हैं की तरह बन सकते अतः यह दोनों तरह के लोगों को संतुलन देती है। मध्य में जब कुंडलिनी उठती है। तो अधिकतर लोगों की विशुद्धी पकड़ी होती है। अतः उन्हें ध्यान रखना है कि वे निर्दोष हैं, और अपने आप में पूरी तरह से संतुलित हैं तथा वे मुध्यम मार्ग में हैं जिससे कि वे मधुर, कस्णामय और अच्छे बन सकते हैं । वहुत से लोग केवल दूसरों का लाभ उठाने के लिए दिखावे मात्र को मधूर हैं ऐसे लोग नर्क में जाएगें क्योंकि वे श्री कृष्ण की शक्ति का दुरूपयोग कर रहें हैं। ---|| 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-11.txt -115 हमारे लिए यह समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण हे कि हमारी विशुदी साफ होनी चाहिए। सर्वप्रधम हमारा हृदय सुन्दर और स्वच्छ होना चाहिए जहां से कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी क्शुदी को सुधारे। विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारें क्योंकि आपके सिवाय कोई अन्य इन्हें नही सुधार सकता। देखों कि तुम्हे अपना पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी क्शुदी के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धी पर आकर ही आप "साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कीमियों को जान सकेंगे। श्री कृष्ण की पूजा करते हुए हमें ये जानना है कि अंत में वे बुद्र-तत्व बन जाते हैं पेट पर की चर्बी सूक्ष्म रूप में बुद्धि को पहुंचती है तथा श्री नारायण बुद्धि में प्रवेश कर "विराट" रूप हो जाते हैं अकबर बन जाते हैं और जब वे अकबर बन जाते हैं तभी पदार्थ के अन्दर बुद्धि हज्ञान बन जाते है। यही कारण है कि श्री कृष्ण को पूजने वाले लोग -अहंकार रहित बुद्धिमान बन जाते हैं। उनकी बुद्ि विकसित होती है परन्तु यह अहं ग्रसित नही होती। बिना अर्ह की बुद्धि जिसे मैँं शुद्ध बुद्धि कहती हूं प्रकट होने लगती है। ईश्वर आपको आश्शीवादित करें। पहले स्वयं को जानिये | अगर्त, 1989 पारेचेस्टर हाल लन्दन सबसे पहले हमें समझ लेना चाहिए कि "सत्य" ही सत्य है। न तो हम सत्य की धारणा बना सकते हैं न इसकी सृष्टि कर सकते हैं न ही इसका प्रयोग अपने कार्य के लिये कर सकते हैं । अपने सारे बंधनों में बँधे, घोड़े की तरह अपनी आँंखों के दोनों और ढक्कन लगा कर हम सत्य को नही लोज सकते । हमें स्वतंत्र मनुष्य बनना है। स्वयं सत्य को देखने के लिए वैज्ञानिकों की प्रकार ही हमें उदार-बुदि होना है। अन्धाधुच ---12 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-12.txt -12- किसी की भी शिक्षा या भविष्यवाणी को स्वीकार नहीं करना है । शाश्वत को खोजना और परिवर्तनशील तत्वों की सीमाओं को समेझना ही सब धर्मों का सार है। इसी कारण हम अपना संतुलन खो चुके हैं। यदि हम वास्तव में सत्य को जानना चाहते हैं तो हमें यह समझना होगा कि मानवीय चेतना से हम इसे नहीं जान सकते। इसी तरह सत्य एक कल्पना बनकर रह जाता है। आपको आत्मिक- चेतना पानी है। आत्मिक-चेतना एक अवस्था है जिस पर आप स्वयं आत्मा बन जाते हैं। यह किसी को बनावटी रूप में हिन्दू, मुसलमान या इसाई प्रमाणित कर देना मात्र नही। इन तथाकयित धर्मो के आधार पर मा कोई भी अपराध करना अनुचित है परन्तु आपका अन्तर-मन आपको नहीं रोकेगा। इस प्रकार सभी कुछ केवल बाहूय दिखावा मात्र हो गया है। यहां तक कि ईश्वर और धर्म के अस्तित्व को भी लोग नकारने लगे हैं। जो कि असत्य है। ईश्वर का अस्तित्व नकारने से पूर्व हम सोचें कि क्या हमने ईश्वर को पाने का प्रयत्न किया या केवल अरें-कश ऐसी धारणा बना ली। ईश्वर के विषय में कही-सुनी का निर्णय नही करना चाहिए। लोग जानते हैं कि बातो दवारा हमें परमात्मा के अस्तित्व परमात्मा के विषय में वो जो मन चाहे बोलते रहे उस पर कोई कानूनी रोक टोक नहीं यहां तक कि ईश्वर और पैगम्बरो के विरुद्ध बोल लोग बहुत सा धन अर्जन कर कर सकते हैं। अतः आत्मा को जानने के लिए हमें सर्वप्रधम इन सब उलझनों से ऊपर उठना है और स्वयं को अपने मध्यम नाड़ी संस्थान पर जानना है। जैसे मैं शीत या उम्ण का अनुभव कर सकती हूं आपको भी परमात्मा की सर्वत्र फैली शक्ति का ज्ञान पाना है। यह शक्ति ही सत्य है और सत्य को इसलिए प्रकट करती है कि ईश्वर के प्रति प्रेम ही सत्य है। आपको अपने मध्य नाड़ी संस्थान पर यह सत्य अनुभव करना है यही ा। "बोध" है। कहा जा सकता है कि पाश्चात्य देश बहुत आगे बढ़े है परन्तु विज्ञान से हमने कया बनाया? हाईड्रोजन तथा एटम बम जो राक्षस बनकर हमारे सिर पर बैठे हैं। जिस ---13 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-13.txt -13- जिस कार्य को हम शुरू करते हैं संतुलन विहीन उसे अति तक ले जाते हैं। हमारी सारी बैदिक ऊंचाईयां संकुचित है। यह रेखा की तरह आगे बढ़ती हैं और फिर एक दम पीछे की ओर खींचकर बाँधा उत्पन्न कर देती है। अब आप तेजाब की वर्षा कर सकते हैं। आपने मशीन बना ली है लेकिन वो आपके लिए बनी है । आप मशीनो के लिए नहीं है। परन्तु आपके और मशीनो के बीच कोई सन्तुलन नही। जो कुछ भी हाथ में आया पागलो की तरह उसे लेकर चल पड़े। केवल आत्मा बन कर ही यह संतुलन आप पा सकते हैं। आप यहां सुन्दर फानूस देख रहे हैं । लेकिन बिजली हरोशनी के बिना इनका कोई महत्व नहीं। इसी प्रकार यदि आपके चित्त में आत्मा की ज्योति नहीं तो आप स्वयं का अर्थ भी नहीं जान सकते। बिना अपने मुल से जुड़े यह माइक्रोफोन बेकार है । बिना अपने मूल से जुड़े हम भी सत्य को नहीं जान सकते और सारी समस्याओं का यही कारण हैं। अब में इस यंत्र हशरीर के विषय में बात करती हूँ तो हमें ये जानना है कि यह मूल-ज्ञान है और इसके लिए हमारे पास सूक्ष्म व्यवितत्व होना आवश्यक है। इसे नहीं देख सकते और सूक्ष्म बनने के लिए हमें जड़ों मूल का बुद्धि से हम स्थूल ज्ञान होना चाहिये। मनुष्य की हर किया यहां तक कि धर्म में भी कही कुछ त्रुटि रह गई हैं। यही कारण है कि आज इस प्रकार का स्वांग चल रहा है। हमें शाश्वत को योजना है। ये बात शायद कुछ अजीब लगे। उदाहरणतया बुद्ध जी और महावीर जी ने ईश्वर के विषय में किल्कुल बात नही की। मैंने भी चार वर्ष ईश्वर के विषय में कुछ नही कहा क्योंकि ज्यों ही ईश्विर की बात होती है लोग ईश्वर बनने के लिए अधीर होने लगते हैं। अतः आप पहले आत्मा बन जाइयें। विना आंखों के रंगों को कैसे देखेंगे? आप जिस चीज के अधिकारी हैं, एक मानव होने के नाते जो आपका जन्मसिद अधिकार यानि की आत्मा बनना है उसे पा लेना ही आपके हित में है। सहज योग यही ना है। यह अर्धात् साथ-ज-अर्थात-जन्मी। योग हईश्वर से मिलन पाना आपका जनम सिद्ध अधिकार है। विकास की निधि आप ही है इसे कार्य करना है परन्तु कृपया अपने क बुदि को खोल कर स्वयं को देखिए। में जानती हूं हृदय और कि यह कार्य करेगा। परन्तु इसके विषय में सोचते रहने से आप इसकी धारणा नही बन सकते। धारणाओं के पीछे भागते रहना हमारी खोज की सबसे बड़ी कमी है। --- | 4 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-14.txt -14- हमारे विकास के दौरान हमारे अन्दर जो सुन्दर यंत्र तैयार किया गया उसे आपने देख लिया है। पहला चक़ सर्वाधिक सुन्दर है। क्योंकि यह अबोधिता का प्रतीक है। यह अबोधिता ही हमें वास्तविक आश्रय तथा वास्तविक शक्ति प्रदान करती है। चाहे यह आच्छादित हो, चाहे आप एक निराश व्यवित हो, चाहे लोग ये कहे कि उन्होंने अपनी यही एक चक है जिसका विनाश नहीं हो सकता। अबोधिता का नाश कर दिया है पाि आपको इस चक़ की हमूलधार १ समस्या हो सकती है। परन्तु यह विनाश से परे है । चार पंखुडियो का यह सुन्दर चक शरीर में बर्ति-प्रदेश के तन्तु जाल की देखभालि करता है। हम अपनी स्वछन्दता में ऐसे कार्य भी करते हैं जो हमारे हित में नही होते। फिर भी कुंडलिनी का नाश नहीं हो सकता। आपको आत्म साक्षात्कार देने वाले स्रोत आपकी अपनी मां है। यह प्रेम-मयी मां आपके पूर्व जन्मों के विषय में सब कुछ जानती है। वह जागृत होने के अवसर की प्रतीक्षा में हे कि कब वह आपको पुनर्जन्म दें । वह देवी मां है जो आपको कष्ट नहीं देती) कुंडलिनी के विषय में ये समस्याएं अनाधिकार चेष्टा करने वाले अज्ञानी गुरूओं की देन है । आपके लिए समस्याएं पैदा करना तो दूर रहा कुंडलिनी जागृती के तुरन्त बाद आपकी निर्विचार-समाधि स्थापित हो जाती है। विचार उत्पन्न होते हैं और समाप्त हो जाते हैं। कुंडलिनी उन्हे बढने नहीं देती ओर उन्हें बर्तमान क्षण पर टिकाती है। इस तरह वर्तमान के कक्ष में स्थिर हो कर आप वर्तमान में बढ़ते हैं आप अपनी इच्छा ं जब कुंडलिनी आज्ञाचक को पार करती है तो से सोच सकेंगे या निर्विचार हो सकेंगे। ऐसा सम्भव हो पाता है। दूसरे स्वाधिष्ठान चक़ में -जो कि कला तथा सृजनात्मकता चक है जब कुंडलिनी आती है तो मनुष्य परिवर्तनशील तथा सशक्त हो जाता है। मेरे चार्टर्ड एकाउन्टेंट भाई -जिसे भाषाओं का ज्ञान बहुत कम धा अब संस्कृत, उर्दू तथा मराठी जैसी ---15 न 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-15.txt -15- जटिल भाषा मे कविताएं लिखते हैं। कुंडलिनी जब उठती है तो इस चक़ का पोषण अच्छी मां की तरह से करती है। साक्षात्कार के बाद अमजूद अली खों एक बहुत बड़े कलाकार बन गये ज्यों-ज्यों ये कुंडलिनी ऊपर जाती हैं, सृजनात्मकता बहुत शकितशाली, कार्यशील ा और परिवर्तनशील हो जाती है। साध ही वह व्यविति बहुत ही नम्र, मधुर और करूणामय बन जाता है। अतः यह हिंसा, यह कोध आपकी रचना नहीं है। यह आपके जिगर की देन है। कोध में आप नहीं जानते की व्या करें। एक धूर्त शराबी की भांति आपके जी में जो आता है वही करते हैं। परन्तु जागृति से यह सारा कोध सुन्दर ढंग से शांत हो जाता है। आश्चर्य की बात है कि एक सशक्त व्यव्ति भी करूणामय हो जाता है। कहा जाता है कि कुछ राष्ट्रो की अपनी ही क्िशेषताएं हैं। सब कुछ विलय हो जाता है। यह सृजनात्मकता चक आप में शुद्ध ज्ञान प्रकट करता है और आप का मध्य-तन्तु-जाल जागरूक हो उठता है। अपनी अंगुलियों के सिरो पर आप अनुभव करना शुरू कर देते हैं। जैसे कोई मेरे पास मेरा अरहै कार्यरत आये और कहे कि मेरी आज्ञा में पकड़ है। अर्धात पतट आप किसी और का यही बात कहेंगे तो वो कोई पेसा कहेगा? लेकिन यदि है। क्या भी अपना अहं आपको दिखायेगा। किसी को उसके अहं के बारे में बताना बहुत भयानक है। परन्तु आत्म-ज्ञान दारा आपको पता लग जाता है कि अहै आज्ञा चक् में अड़डा हुआ है और इसे निकाल फेंकना है। आपके अन्दर यह सब स्वाभाविक है और जागृती होते ही आपको आत्मज्ञान हो जाता है। और यह चक जो अब तक अटपटे विचार तथा विदवंस वृती को जन्म देता था अब हितकारी, सुखद तथा सुंदर हो जाता है । ये लोग जो हिन्दी का एक शब्द भी न जानते थे अब संस्कृत में गाने लगे हैं। आज का संघर्षरत कलाकार सहज योग में आकर एक महान कलाकार बन जाता है। परन्तु अभी भी प्रलोभन है। जैसे आप महान कलाकार बन जायेगे, आप बहुत धनार्जन करने लगेगें आदि । इन उपलब्धियों से आपकी सन्तुष्ट नहीं हो जाना है इनमें आप सन्तुष्ट होगे भी नहीं। --16 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-16.txt -16- पर आते हैं। यह चक्र एक अब हम तीसरे चक जिसे नाभी-चक कहते हैं इसके इर्द-गिर्द दस पर्ते हैं और जल तथा दूसरी ओर अग्नि तत्व का बना है । हमारे उन्दर हमारा सहज धर्म। कुंडलिनी जब उठती है तो इस चक को प्रकाशित करती है और नाभी या सूर्य चक हमें धार्मिकता प्रदान करता है। रातों रात लोगों ने नशे और शराब त्याग दिए। सर्वोपरि वे अपने सदृगुणों में आनन्दमय हो जाती है। कुछ लोग पूछते है कि इसमें व्या आनन्द है? ये नशा जो आज आप लेते हैं और कल भी जो आपको पीड़ित करता है, ये क्या है? सहजानन्द यदि आज आप लेते हैं तो कल आपकी हालत पहले से बहुत अव्छी होती है। यह आनन्द कभी कम नहीं होता। आपको हानि नहीं पहुंचाता। यह बनाव्टी नही है। यह मदोनमत करने वाला नही है। यह आपके अन्दर से बाहर की बह रहा है। हम में अपनी उदारता का आनन्द लेने की क्षमता है। यह नाभी-चक्र में निहित है। हम हर मामले में भौतिक है। और पदार्थ की सुन्दरता इसी में है कि अपना प्रेम व्यवत करने के लिए हम वह पदार्थ दूसरों को दें। पदार्थ का केवल इतना ही कार्य है। एक विशिष्ट प्रकार से आप अपना प्रेम व्यकत करते हैं। दूसरों की पसन्द के ज्ञान की भावना जो आपने व्यक्त की तथा इस प्रकार की गहराई जो आपने और उस प्रिय समाज में जिसमें कि आपने प्रवेश किया है - विकसित होती है। अब आपको किसी चीज की आवश्यकता नही रह जाती क्योंकि हर व्यकित आप की आवश्यकताओं को पूरा करना चाहता है। आप जो आनन्द बांट रहे हैं वह इस चक से प्राप्त होता है। आपको यह चिंता करने की कोई आवश्यकता नही की क्या खाउँगा? आप वही ्थाएंगे जो आपके हित में है। आप बहुत ही बुदिमान तथा दूसरों को प्रसन्न करने वाले हो जाते हैं। आप अपनी ता मांगो से दूसरों को नाराज नहीं करते। मैं ये चाहता हूं आदि समाप्त हो जाता है। एक बुझी हुई मोमवत्ती को यदि जला दे तो प्रज्जवलित होकर स्वतः ही यह दूसरों को प्रकश देती है इसी प्रकार आप भी स्वतः ही अपनी ज्योति, अपना प्रेम और अपना आनन्द दूसरों को देना शुरू कर देते हैं। किसी को पुनः दस-आदेशों का पालन नहीं करना स्नेही पडता। बो दिन लद गये। अब आप स्वतः ही ईीबिना दुख उठाए बहुत सुन्दर, और तेजस्वी बन जाते हैं। ----17 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-17.txt -17- सहज योगियों के चेहरे पर तेज देखिए। चेहरा दीप्यमान हे। वहुत से लोग अपनी उम्र से दस-बीस वर्ष छोटे लगने लगते हैं। और बहुत ही उत्साही होते हैं। वो कभी धकते नहीं। विशेषतया पश्चिमी देशों में जवान लोग भी जल्दी धक जाते हैं । अधिक सोचना ही हमारी धकान का कारण है। सोचने में ही सारी शव्ति व्यर्थ हो जाती है। हमारे पास आनन्द लेने का सामध्थ्य नही बचती। उदाहरणतया जब आप किसी को खाने पर बुलाते हैं तो पहले उसके पीने साने की कस्तुओं तथा प्रबन्ध के विषय में सोच सोच कर इतने उन्तेजित और घबड़ाये हाते हैं कि वातावरण की उत्तेजना के कारण आपके जतयि वहां से जल्दी ही चले जाना चाहते हैं इस प्रकार सारा आनन्द समाप्त हो जाता है। अब हम सोचते है, तो हमारा दूसरा चक इस्वादिष्ठान हमारे मस्तिष्क को पेट की चर्वी में से भूरे रंग के सूक्ष्म कण भेजता है। यह आपके जिगर, पाचन धेली, प्लीहा, गुर्द तथा पेट के एक हिस्से को भी देखभाल करता है। लेकिन जब आप पागलों की तरह सोच रहे होते हैं तो यह चक अपना सब कार्य छोड़कर आपके मस्तिष्क को भूरे सूक्ष्म कम पहुंचाने में ही लग जाता है। तब आप को कई रोग जेसे जिगर के रोग तथा शक्कर के रोग हो जाते हैं। अधिक मीठा खाने से शक्कर का रोग नहीं होता। काम भारत के गांवो में लोग इतनी चीनी खाते हैं कि कप के अन्दर चम्मच चीनी में सीधा ्वड़ा हो जाता है। रोग नही होता। इसीलिए कि वे कल की परन्तु उन्हें शक्कर का चिंता नहीं करते। वे मेहनत करते हैं, खाते हैं और आराम से सोते हैं। नीद की गोलियों की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः शक्कर रोग आधिक सोचने के कारण होता है। सहज योग में आकर आप इसका इलाज कर सकते हैं। तीसरा रोग-रक्त-केंसर-अत भयानक है। बहुत अधिक सोचने से ही यह रोग होता है। यदि मां घर में छोटी-छोटी चीजों जैसे कालीन आदि के लिए बचचों से लड़ती हो तो बच्चों को भी यह रोग हो सकता है। ऐसे घर में तो चूहा भी नही घुसना चाहता। हर समय सौचने और स्कीमे बनाने का भी बन्चौ पर अव्छा प्रभाव नहीं पडता। आपका प्लीहा एक गत-मापक है। यही जीवन को एक लय देता है। उत्तेजित होकर जब हम विमूदावस्था में होते हैं तो हमारा प्लीहा खराव हो जाता है। प्रात: समाचार-पत्रों में मार- ल 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-18.txt -| ৪- धाडू की खबरे पढ़ कर हमें झटका लगता है। समाचार पत्र अच्छी खबरें नही छापते। वे कभी नहीं बताते कि कितने लोगों को साक्षात्कार मिला, या कोई ठीक कार्य हो रहा कतल है। आपके शरीर यंत्र की कार्य-पद्ति बहुत कोमल है। इसे झटके लगते हैं। देर हो जाए तो आप तैयार नाश्ता छोड़ देते हैं। रास्ते की रूकावटे, दफतर में उबलता को यदि आप ऊँचा इस प्रकार हम तनाव-पूर्ण अवस्था में रहते हैं। रात हुआ अफसर। गाये तो पड़ोसी आपको धाना दिखाता है। आपको कोई स्वतंत्रता नहीं। आपको घड़ी के हिसाब से चलना पड़ता है। इन सब चीजो का हम पर बुरा प्रभाव होता है और हम उत्तेजित हो जाते हैं। इस संकट की घड़ी में हमारा प्लीहा लाल रक्त कण छोड़ता है। ु यदि आप हर समय उत्तेजित ही रहते हैं तो बेचारा प्लीहा पागल सा हो जाता परन्तु है वह नहीं जानता की क्या करें। अधिकाधिक रकत क बना कर वह आपके पागलपन से परेशान हो जाता है। ऐसे हालात में यदि कोई और झटका आपको लग जाए तो आपको रवत कैसर हो जाएगा और डाक्टर आपको कह देगें कि एक महीना और जी लीजिए। ज्यों ही कुंडलिनी जागृत हैं। सहज-योग से बहुत लोगो के रक्त केंसर ठीक हो गये होती है। अन्दर की हड़बड़ाहट बहुत हद तक कम हो जाती है। कुंडलिनी इसमें से गुजरती है और बापिस आकर इसका १प्लीहा पोपण करती है। इन चको का विगड़ना ही कैसर तथा अन्य असाध्य रोगों के भय का कारण है। यह दायी और बायी दोनों और को सम्हालता है। जैसे कि अब हृदय चक। हमारे अन्दर ऐसे जीवाणु पेदा करती है जो रोगों का आप जानते हैं हमारी उरोस्थि मुकावला करते हैं। यह हमारी माँ का चक़ है। जब आपकी मां को चुनौती मिलती है आपको स्तन कैंसर हो जाता है। एक चरित्रहीन पुरूष की चितित पत्नी को स्तन कैंसर हो सकता है क्योंकि उसके मातृत्व को चुनौती मिलती है और वह असुरक्षित महसूस करती है। परिणामतः वह इन समस्याओं मे फंस जाती है। आप बहुत सोचते भी है, दायीं 1१. तरफी भी है और भविष्य की चिंता भी करते हैं। लोग आने वाले दस सालों की भी योजना बनाते हैं। अपनी मृत्यु, दफुन-बस्त्र की भी योजना बनाते हैं। भविष्य की चिंता ---19 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_11.pdf-page-19.txt -19- गर्मी को शांत करने वाले जिगर शरीर के अंदर भयंकर गर्मी उत्पन्न करती है क्योकि ता की ही यह चक उपेक्षा कर देता है। फलस्वरूप यह गर्मी ऊपर की और जाकर शरीर में अस्थमा विकसित कर देती है। अस्थमा अत्यन्त साध्य रोग है। दायां हृदय पति या पिता का चक है। यदि आप एक बुरे पति हैं या आपकी पत्नी कर्कश झगडालू है, यदि आप एक अव्छे पिता नहीं है और या आपके पिता आपके प्रति "दयालु" नहीं हे" तो आपको अस्थमा रोग हो सकता है। यदि आप अपने पिता को क्षमा नहीं कर देते हैं तो आपको अस्थमा रोग सकता है। जब हम पृथ्वी पर आये तो हमने स्वयं माता-पिता से सम्बन्ध चुने। में मानती हूं कि वे गलत, जिदी और सिर-जोर भी हो सकते हैं । वे शराबी भी हो सकते हैं । योदि आप. उन्हें छोड़ भी रहे हो तो भी उन्हें क्षमा कर दे और उनसे क्षमा भी ले लें। जायेंगे। अन्यथा आप समस्याओ को अपने साथ ले परम चैंतन्य लहरी की ओर से आप सब को दीवाली की शुभकामनाएँ