चैतन्य लहरी स्वड - ।2 6) Christmas Greetings ु श्री माता जी निर्मला देवी रूस यात्रा पर सोवियत स्वास्थ्य मंत्रालय दारा नियोजित प्रधम विश्व योग सम्मेलन" में श्री माता जी को विशिष्ट रूप से आमन्त्रित किया गया सोवियत चिकित्सकों, वैज्ञानिकों नहीं तधा समाचार संवाददाताओं की पूरी सदन के सम्मूख श्री मां ने केवल भाषण ही तथा दूरदर्शन ने मां दिया, सबको आत्मसाक्षात्कार भी प्रदान किया। सोवियत समाचारों क के भाषण का अत्याधिक प्रसारण किया। जनता की मांग पर 700 लोगों के लिए एक विशेष कार्यकम का आयोजन किया गया। श्रीमाता जी ने कीव तथा लेनिनग्राड में भी कार्यकम किये। अपने श्रोताओं श्रीमाता जी ने उन्हें किश्वास दिलाया कि अमेरिका के बहुत से प्रश्नों का उत्तर देते हुए के पूंजीवाद जिसने वहां के लोगों को पूरी तरह शठ बना दिया है, की तुलना में रूसी साम्यवाद ने उन्हें हानि नहीं पहुँचाई है। स्टालिन के विपय में उन्होंने कहा कि भूतकाल श्री गोर्बाचोब एक आत्म साक्षात्कारी ्यव्ति हैं। उनका समर्थन की भूल जाना ही हितकर है। होना चाहिए। छोटी छोटी बातों के लिए उनका विरोध नहीं होना चाहिए। उन्होंने श्रोताओं से यह प्रश्न पूछने के लिप कहा कि क्या रूस अध्यात्मिकता में विश्व का नेतृत्व करेगा? सभी ने शीतल लहरियों का अनुभव किया। लेनिन ग्राड मास्को तथा कीव में मुख्य सहज- केन्द्र स्थापित कर दिये गये हैं बहुत से अन्य नगरों से सहज कार्यक्र्मों के लिए लगातार निमंत्रण आ रहे हैं। सहज उपचार प्रारम्भ करने के लिए सोवियत स्वास्थ्य मंत्रालय से एक प्रथम सीध पत्र पर हस्ताक्षर किए गए हैं इस वर्ष भारत यात्रा के लिए लगभग 30 रूसी सहज योगी भारत आयेंगे और हम सब उनका सहृदय स्वागत करेंगें। 19-10-1989 के सम्मेलन में मास्को विश्वविद्यालय में श्रीमाता जी के भाषण का सारंश आज में यहां आपको हमारी योग प्ति तथा उसकी ऊंचाइयों के विषय में बताने आई हूँ। हमारे देश में तीन प्रकार के आन्दोलन हुए ब्रहुमाण्ड को चलाने वाले नियमों का पता लगाना प्रथम धा। यह नियम प्रारम्भ में वेदों में विमान थे। -2- विद् अ्धात जानना, परन्तु सत्य का ज्ञान यदि न प्राप्त हो सके तो अध्ययन व्य् है। तीव्र इच्छा अर्वात् भक्ति या समर्पण - एक दूसरा सत्य ज्ञान प्राप्त करने की प्रकार था। व्यव्ति का आत्म साक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील तीसरा महत्वपूर्ण परन्तु गुप्त भागों में सूत्र लिखें हैं। ने प्रारम्भ में तो योग के जिन्होंने 8 रास्ता था। पातांजली शारीरिक अंश जैसे यम नियम आदि के विषय में बताया परन्तु वे भी वही रूक में आपने प्रेम की सुक्ष्म शक्ति जिसे में मतम्भरा-प्रजञा कहती नही गये। लक्ष्य के रूप तक पहुंचना है। हमारे यहां गोरखनाथ, आदिनाथ तथा मर्चिननाथ से बहुत योगी हूँ हुए हैं। जिन्होंने मध्यम मार्ग से मनुष्य की समस्याओं तथा उसके उत्थान को सम्भव की त्रिकोणाकार पवित्र अस्थि में सुप्त शक्ति बनाने के लिए कार्य किया। उन्होंने मनुष्य आठवी सहस्त्र वर्ष पूर्व मार्क-डेय जी ने इसके विषय में बताया। को स्योज निकाला। एक और नौवी शताब्दी में वासुगुप्ता ने इसक विषय में लिखा। अतः अपनी आत्मा को इस नए ज्ञान तक उत्थान करना ही शिखर या सर्वोच्च उपलब्धि है। हर धर्म में यही कहा है कि आप को शाश्वत को स्ोजना है और परिवर्तनशील वस्तुओं से उनकी सीमाओं में ही व्यवहार करना है। परन्तु सारे धर्म पूर्णतया भटक गये हैं। इन्होंने भयानक कटुटरताएं दी है। धर्म के नाम पर लोगों ने लड़ना शुरू कर दिया है । यह शक्ति हर मनुष्य की त्रिकोणाकार अस्थि में रहती है। अमीयोबा से मानव बनने की विकास प्रक्रिया में हमारे मध्य स्नायु पर्यति में कई सूक्ष्म चकों की सृष्टि की गई। वे हमारे है पैरा सिम्पेथेटिक नरवस सिस्टम सूक्ष्म स्नायु मण्डल में है। सत्य को स्योजते समय हमें ये जानना है कि सत्य जो है वही है। जिस अव्स्था स्वयं को नहीं को आप प्राप्त करते हैं आप स्वयं उसे नही देख सकते। जैसे प्रकाश देख सकता। अपने मध्य स्नायु मंडल पर हमें उस सर्वत्र व्यापक शव्ति को तथा उसकी कार्य प्रणाली को जानना है। और ऐसा हम कर सकते हैं । मानव चेतना से हम सत्य को नहीं जान सकते। हमें आत्मा बनना है। आत्मा का स्थान सिर के तालू भाग में है। समस्या कुंडलिनी को उठाकर तालू भाग से बाहर निकालना और उसका संबंध सर्कयापक शात्रित से जोड़ना है! -3- चको में से होती हुई यह सिर के तानू भाग कुंडॉंननी जब उठती है नो को भेदनो हैऔर यह हमारे शारीरक, भावनात्मक, मानासक तथा [अध्यान्मिक तत्वों है। यह विकास को चरम उपलाध्ध है। यह जीकत किया है जो स्वत का पोचण करती उंडी नहरियों के प में हो घाटत होती है। अपनी अंगुलियों के पोरों पर आप इसे अनुभव कर सकते हैं। तब आपको अपनी समस्याएं समझ आएंगी। आधुनिक काल में हम इतने व्यस्त हैं कि हमारे पास किसी चीज के निए समय नही। अतः आधुनिक सहज योग का विकास इस प्रकार किया गया है कि पहले आप ाम आत्म सक्षात्कार को पा लें, एक आरम्भ आपकों प्राप्त हो जाए भर धोडी सी ज्योति जो आपको मिल जाएगी उसके प्रकाश में अपनी त्रुटियों को देख सकें। जञान अनन्त है। जब आप इस क्क्ष में आ जाते हैं तो प्रकाश का बटन दबाते ही आप केो सारी प्रकाश प्रणाती का पता लग जाता है। विदत के ग्रोत तथा इतिहास को जानने के स्थान पर यीदि ी जला ले तो अच्छा है। इस प्रकार सहज योग कार्य करता है। आपको मुख्ाकृतियों में, मैं एक अनुपमं ল आप में से हर व्यत्ित पक चमनत्कार हे। परिवर्तन पाता हूँ। परमात्मा ने धोड़े से देवदूतो की सृष्टि करनी चाहो थी परन्तु यहां से हैं। में स्वयं को एक नये किश्व में पहुंचा हुआ पाता हूँ। एक पूर्णतया भिन्न तो बहुत भार कहीं यादा सुदर किश्व में। " ग्री सी. पी- श्रीवार्तव दीवानी पूजा के भवसर पर : -4- श्री गणेश पूजा लौस डायबलर्टस, रिविटजरलैंड ।। अगर्त,। 989 पूजनीय श्रीमाता जी दारा हर पूजा से पहले हम श्री गणेश का गुणगान करते हैं। श्रो गणेश निर्मतता के प्रतीक हैं। इसी कारण हमारे मन में उनके लिए अत्याधिक मान है जब तक श्री गणेश हमारे अन्दर जागूत नही हो जाते हम परमात्मा के सामराज्य में प्रवेश नही पा सकते। हमें श्री गणेश जी के आशीर्वाद का आनन्द लेना है। और अपनी निर्मलता को अपने अन्दर पूर्णतया विकसित करना है। अतः हम उनका गुणगान करते हैं और वे सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं। शाश्वत निर्मल शिशु-स्वाभाव के कारण वे हमारे उन सबव अपराधो को क्षमा कर देते हैं जो हमने सहज में अपने से पूर्व किये होते हैं वच्चे तो आपने देखें हैं। आप उनसे कभी नाराज हो जाते हैं और कभी तो उन्हें धप्पड भी मार देते हैं। पर बच्चा सब कुछ भूल जाता है। माँ की कोव से जन्म लेने के समय से ही बच्चा अपनी सभी यातनाएं भूल जाता है। परन्तु शनैःशनै जब उसकी रूमरण-शक्ति कार्य करना शुरू करती है तो वह अपने अ्दर कार्यो की छाप इकट्ठी करनी शुरू कर देता शिशुकाल में बच्चे केवल प्रेम करने वालों को ही या रखते हैं। परन्तु बड़े होने पर वे केवल उन्हो को याद रखते हैं जिन्होंने उन्हें हानि पहुंचाई हो। और इस प्रकार वे अपने जीवन को दुखों से परिपूर्ण कर लेते हैं परन्तु गणेश तत्व बहुत ही सूक्ष्म है। यह हर वस्तु में वियमान है। भौतिक-तत्वों में भी यह लहीरियों के रूप में विद्यमान है। कोई भी पदार्थ बिना लहरियों के नहीं होता। पदार्थ के अण-परमाणुओं में भी लहीरियां पायी जा सकती हैं । अतः जड़ में भी सर्व प्रथम श्री गणेश की स्थापना की गई। परिणामतः वे सूर्य, चन्द्र माम पूरे ब्रहमाण्ड तथा परमात्मा की हर सृष्टि में विध्यमान हैं। और वे प्राणी मात्र में भी मौजूद रहते हैं। मनुष्य अपने गणेश तत्व के इस निर्मल गुण पर पर्दा डाल सकता है। वह यह भी कह सकता हैं कि गणेश जी हैं ही नही। इसी कारण ही हम मनुष्यों को भयानक अपराध करते देखते हैं। परन्तु श्री गणेश सदा कार्यरत रहते हैं । हमारे -5- अपराधों के स्वाभाविक दुष्परिणामों को दिखा कर वे अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं। उदाहरण के रूप में यदि आप गणेश जी को नापसन्द कार्य करते हैं तो वे पहले पुरुषों में शारीरिक तथा तो एक सीमा तक क्षमा करते हैं परन्तु तत्पश्चात उनकी असच स्त्रियों में मानसिक रोगों के रूप में प्रकट होने लगती है। यह प्रकृति में भी समस्याएं उत्पन्न कर सकते हैं। प्राकृतिक प्रकोप भी श्री गणेश का ही अभिशाप हैं। जब लोग सामूहिक रूप से बूरे कार्य, दुव्यवहार करने लगते हैं तो उन्हें शिक्षा देने के लिए प्राकृतिक प्रकोप आते हैं। यद्यपि श्री गणेश सर्वत्र विपमान हैं फिर भी उनका सार तत्व दृढ़तापूर्वक अपनी सम्पूर्ण विश्व को विध्वंस इच्छा को प्रकट करने की उनकी सामर्थ्य तथा अपनी इचछा से कर सकने की उनको शक्ति में निहित है| श्री गणेश को एक सूक्ष्म अस्तित्व के रूप में हम मानते हैं क्योंकि मूमक उनका वाहन है अतः हमारे विचार में के बहुत ही सूक्ष्म हैं। वे जितने सूक्ष्म हैं उतने ही महान भी हैं। अपनी बुद्धि के कारण वे देवताओं में सर्वोपरि हैं। विवेक के दाता वे हमें सीखने पर विकश करते हैं । वे हमें आचरण करना सिखाते हैं इसी कारण वे हमारे गुरु ही है। [आपने यदि उनकी उपेक्षा करने का या उनसे दुराचरण करने का प्रयत्न नहीं महागुरु किया तो श्री माँ भी आपका साथ नहीं देंगी। श्री गणेश जी की अवज्ञा करने वाले लोग श्री गणेश और किसी देवता को नही मानते कभी श्री माँ का आदर नही कर पायेंगे। अतः माँ के प्रति समर्पण ही उनकी शक्ति है। इसी कारण वे सब देवताओं से अधिक शवित में कोई उनके समान नही। शवितशाली हैं। बढ़ते हैं श्री गणेश भी उनके साध बढ़ते हमें यह समझना है कि जैसे-जैसे बचे हैं। मनुष्य स्वभावकश बच्चे श्री गणेश को पराजित करने का प्रयत्न कर सकते हैं। अतः माता-पिता का कर्तव्य है कि निर्लिप्त भाव से अपने बच्चों की परवरिश करें जिससे कि बचचों के अन्दर का गणेश तत्व स्थापित हो सकें। विवेक बच्चों के अन्दर श्री गणेश जी का पहला चिन्ह है। यदि बच्चा बुदिमान नहीं है, यदि वह कष्टदायक है और सद्व्यवहार नहीं जानता तो रूपष्ट होता है कि वह श्रो गणेश की अवज्ञा कर रहा है। वर्तमान युग 12 बर मैं बच्चे गणेश तत्व की अवज्ञाग्रस्त है। निर्मलता का आतकमण हो रहा है और लोगों के लिए यह निर्णय कर ले पाना कठिन हो रहा है कि कहां तक बच्चों का साथ दे औौर कहां उनका साथ छोड़ दें। -6- श्री गणेश विवेक के दाता हैं। अतः माता-पिता को अवश्य समझनों है कि "यदि वह विवेक प्रदान करने वाले हैं तो मुझमें भी विवेक होना चाहिए। और यदि मूझे विवेक है तो मुझमें संतुलन है और मैं बच्चों पर कभी कोधित न हूँगा। परन्तु उन्हें उस प्रकार सुधारने का प्रयत्न करुँगा जिस प्रकार वे सुधरेंगे"। उसके विपरीत यदि आप अपने बच्चों के प्रति कठोर होने का प्रयत्न करेंगे तो प्रतिकिया वश वे भटक भी सकते हैं तो श्री गणेश की तरह ही अपनी माँ का सम्मान करना आप अपने बच्चों को सिखाइये। आपकी माँ जो कि पवित्र माँ है और जो आपकी अपनी है। यदि पिता बालक को मां का सम्मान नहीं सिखयाता तो वह बालक कभी ठीक नहीं हो सकता। ययपि अधिकार भाव पिता की ही देन है। फिर भी मां का सम्मान होना ही चाहिए। इसके लिए यह अंति आवश्यक बचचों के सामने माता-पिता का आपसी झंगड़ा उनके है कि माँ भी पिता का मान करें । गणेश तत्व पर अति बुरा प्रभाव डालेगा । सहज योग में बच्चों के पालन पोपण का बहुत महत्व है क्योंकि ईश्वर कृपा से आप सब के बच्चे जन्म से आत्म साक्षात्कारी हैं। आप सद्चरित्र सब को अकश्य पता होना चाहिए कि किस प्रकार आप अपने बचचों को विवेकशील, तथा पवित्र बना पाएगे। सर्वप्रथम उनके विवेक की रक्षा करने का प्रयत्न कीजिए। यदि वे कोई अच्छी बात कहें तो उनकी प्रशंसा करें। परन्तु यह बात असमय पर तथा अशिष्टता पूर्वक नही कही होनी चाहिए। अतः दुराचरण सहन नही किया जाना चाहिए अर्थात आन्तरिक विवेक प्रकाश के रूप में बाहर प्रकट होना ही चाहिए। श्री गणेश कहां तक कार्य करते हैं ? ये देखने के लिए अब हम और अन्दर पैठते हैं। उदाहरणतया जिस पानी को हम चैतन्यित करते हैं वास्तव में हम उसमें गणेशतत्व ही जागृत करते हैं। वह पानी आप के पेट में, अखों में या और जहां कहीं आप उसे डालते हैं वहां गणेश तत्व को ही जागृत करता है। कृमि में इसके चमत्कार आपने देखें हैं। किसी बीज में यदि आप गणेश तत्व जगा दें तो वह दस गुणा-सौ गुणा बड़ा हो । भी चैतन्यित की जा सकती है। सहज जाता है। पृथ्वी माँ-जिसे हम बेजान समझते हैं योगी यदि पृथ्वी पर नंगे पांव चले तो वह चैतन्य से भर जाती है। यह चैतन्य, पेड़ो, घास, फूलों आदि हर वर्तु पर कार्य करता है। जागृत होने पर गणेश तत्व सव कुछ समझता है, वह सब ज्यवस्थित और कार्यान्वित करता है। बीज के अंकुरण के समय उसकी नोक पर एक अण में निहित गणेश तत्व जागृत होता है। इससे ज्ञात होता है कि नीचे की और या पत्थर के चारों और किस प्रकार पानी के स्रोत तक पहुंचना है। परन्तु इसका जञान यहीं तक सीमित होता है कि जीवित रहने के लिए कहां तक जाना है, बहुत ही स्थूल सतह तक अपना पोषण कैसे करना है और पेड़ को बढ़ने कैसे देना है परन्तु यही गणेश तत्व आज्ञाचक पर आकर बहुत ही सूक्ष्म बनना शुरु हो जाता है। आज्ञा चक पर यह अपना अध्यात्मिक दायित्व भी समझता है। वही गणेश तत्व जिसने जड़ की नौक पर कार्य किया वही अब अध्यात्मिकता के लिए कार्य करता है। इसी कारण ध्यान के समय लोग अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। वे श्री गणेश को अपनी कुंडलिनी को ध्यान प्रकिया के लिए कार्य करता जब हम आखें बन्द करते हैं हुआ देखना चाहते हैं। और वे नही देखना चाहते। कुछ तो ध्यान की यह प्रक्रिया कार्य करती हैं। सोने के समय भी आंखें हिलती इलती रहती हैं। यह गणेश तत्व अब आपके चित दारा परिचालित होता है। आपके आर्थर चित का प्रभाव इस पर पड़ता है। हर समय यदि हम ह्त्रियों या पुरूषों को ही ताकनें रहें तो भी हमारे गणेश तत्व का नाश हो जाता है। इस प्रकार के लोगों का उत्थान काठन हो जाता है क्योंकि उनका आज्ञाचक ही विरुदध हो जाता है । अत्याधिक भौतिकता और वस्तु ओं की चिंता भी गणेश तत्व पर कुप्रभाव डालती हैं। इस अवस्था में इसका लोप भी हो सकता है जैसे किसी दुकान पर जाकर हम हर चीज को खरीदने के लालच से भर जायें यरन्तु यदि आप कोई सुन्दर वस्तु दूसरों को प्रसन्न करने के लिए स्वरीद रहे हैं तो इसका प्रभाव आप के गणेश तत्व पर अछछा पड़ेगा। किसी वस्तु विशेष को कर आनन्द लेना आप के उत्थान को बढ़ावा देगा। यदि दूसरों को सुन्दरता का मिल क जलाने की भाव से आप कुछ वरीदते हैं तो आपका गणेश तत्व नाश भी हो सकता है। चह एक बहुत ही मातृत्य युव्त गुण है। जिस प्रकार माँ अपने बचों को प्रसन्न रखना चाहती है, उन्हेै स्वाना देना चाहती है उसी प्रकार आप में भी बत्सलता होनी चाहिए और उसी प्रकार आपको महान गणेश तत्वव को सन्तुष्ट करना चाहिए। कलाकार जब स्वाधिष्ठान दवारा किसी पदार्थ में से सुन्दर कलाकृनियां बनाते हैं तो ताप उन पर ध्यान देने हैं । गणेश स्वाधिष्ठान के शासक नहीं होंगे कोई भी कृति सुन्दर नहीं जब तक थी कान सुन्दर आजकल हास्यार्पद तथा अनैतिक भावों की और झुक रहे हैं। इन कुतयों बन सकती। केन कोई शाश्वत मूल्य नही है। लोग आज इन्हें खरीदेंगे और कल फैंक देंगे। केवल वही त जिसमें गणेश तत्व जागरूक है और जो आपको शांत भार प्रसन्न रस् सकती है, वर प्रशंसनीय है। अतः श्री गणेश आपके अन्दर महान व्यकवितित्व को स्थापित करने हैं और आपके तुच्छ अंशों को जो कि जीवन की विकृतियों का आन्नद लेतें है या तो कम कर देते हैं या पूर्णतया नष्ट कर देतें हैं। मोनालीसा को देख कर आप जानेगें कि वह न तो अभिनेत्री हो सकती है और न ही कोई सांदर्य स्पधा जीत सकती है फिर भी उसका चेहरा बहुत ही शन्त, पवित्र और मातृत्वपूर्ण है। इसका कारण उसके अंदर का गणेश तत्व है। यह माँ है। कहानी इस प्रकार है कि बच्चा खो जाने न कभी रोई और न ही पर यह र्तरी मुस्कराई। एक बार एक छोटा बच्चा उस के पास लाया गया। उसने वच्चे को देखा। वच्चे के प्रति उसके प्यार की मुस्कराहट जो उसके चेहरे पर उस समय प्रकट हुई उसी दर्शाया है। अपने अंडे तोड़ कर उनसे बन्चे को इस महान कलाकार ने मोनालीसा पर बाहर निकालते हुए मगरमच्छ अंखवों से भो सौम्य और माधुर्य छलक पड़ता है। परन्तु आधुनिक बन कर आपके कार्य हास्यास्पद हो जाते हैं। अतः अपने बच्चे के प्राति आपके प्रेम का अत्याधिक महत्व होना चाहिए। परन्तु सहज योगी होने के नाते आपको वच्चे से लिप्त भी नहीं होना चाहिए। अपने प्रेम को सीमावद करना आपको जानना है। उदारता ही सेोमा है। क्या यह मेरे ब्चे के हित में है। क्या में अपने बच्चे को विगाइ़ रही हैँ । क्या में अपने बच्चे के हाथों में सखेल रही हैं या में बच्चे को ठीक तरह से चला रही हु? क्यों कि माता- पिता ही वचपन में बच्चों का मार्ग-दर्शन करते हैं। बच्चों को मी आज्ञाकारी होना हैं। माता-पिता स्वयं ही एक दुसरे के प्रति आज्ञाकारी नहीं है। वे जानते हैं कि समाज ही ऐसा है जहां कि बचचे मां-बाप को परेशान करते रहते हैं । अतः वे भी वैसे ही बन जाते हैं। चिन्ता की कोई बात नहीं। आप सहज योगी हैं अपने वच्चों का पोषण इस -৭ - प्रकार कीजिए कि वे आज्ञाकारी, बूदिमान तथा विचारवान बनें। बदचों को उसी तरह निलिप्त प्रेम करें जैसे एक मगरमच्द अपने छोटे बच्चे को करता है। जीवन में परस्पर मधुर सम्बंध बनाने के लिए ये सब कुछ बहुत हो महत्वपूर्ण , जो अधिक गुणवान नहीं है। जो हम से छोटे हैं, आर्धिक रूप से ठीक नहीं है, है। जिनके पास सहज योग का पर्याप्त ज्ञान नही है और जो सहज योग में आधिक पुराने नहीं है आपको उनकी एक पिता, एक मां की तरह से देखभाल करनी है। आपके पास गणेश तत्व है। उसे जागृत कीजिए। अध्यात्मिक उत्धान को प्राप्त करने के लिए वे सब हम पर निर्भर रह सकें। क्योंकि गुरु तत्व पूर्णतया गणेशतत्व से बंधा है अतः गणेश तत्वहीन व्यवि्ति बहुत ही विकृत हो जाता है। जीवन एक निरंतर प्रक्रिया है और मनुष्य को सदा विराट से जुड़े रहना है| जब तक आप पूरी तरह विराट से नही जुड़े हैं आप विमलता की सामूहिकता को उसी तरह नहीं समझ सकतें जैसे एक बच्चा आकर किसी दुसरे की गोद में बैठ जाता है उसे ये नहीं पता होता कि कौन मां है और कौन पिता। उसके लिए सब एक से हैं। अब हम गणेशतत्व को जो कि चैतन्य लहरियाोँ है। सर्वत्र व्यक्त करने का साथन, यंत्र्य जहीं तथा हेतु मात्र हैं। अतः यह लहीरियाँ गणेश तत्व के सिवाय कुछ भी नहीं है। पर। के बीच प्रेम-भाव है। मां-बच्चे के बीच औंकार है। यही वात्सल्य भाव है, यही माँ बच्चे की दूरी लहरियाँ ही हैं मनुष्य को यही महसूस करना है कि अमी मी वह शिशु ही है। और माँ बच्चे को सारी शक्तियां दे रही है। बच्चे का लालन-पालन, उसके प्रति प्रेम, उसकी सीमाओं की समझ, उसके माध्र्य और विवेक को देखभाल सभी को समझना । यही लहरियाँ हैं। मनुष्य और देवताओं के बीच सारे सम्बंध गणेश तत्व से हैं। जब आप ईश्वर से संबीधित होते हैं तो लहीरियोँ बहती है। वही संबंध आपके हर कार्य से ज्यीजत होना चाहिए। आपको देखना चाहिए कि जो कुछ भी अवछा है उसमें लहरियाँ हैं । आज में आपको सर्कयापक शक्ति हजिसके बारे में हमने सुना हुआ है। के विषय यह शक्ति लहारियों के सिवाय कुछ हूं। में कुछ बहुत ही महल्वपूर्ण बात बताना चाहती के अतिरिक्त लहरियों नही है। परम चैतन्य जहां सब व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है "hee -10- कुछ भी नही। जहां माता-पिता सब विलय हो जाते हैं, कुछ भी बाकी नहीं रहता। जहाँ केवल सूक्ष्म वात्सल्य ही रहता है बस। और केवल यही वस्तु हैं जिसमें से हर चीज सूर्य की किरणें जब निकलती है और अपने आप में स्थिर हो जाती है। उदाहरणतया निकलती हैं तो क्लोराफिल बनातीं हैं। या सागर से उठे हुए बादल पृथ्वी मां का पोषण ाम करने का प्रयत्न करते हैं। हर चीज इसमें हैं। इस परम चैतन्य के अन्दर सभी कुछ निहित है। हम कह सकते हैं कि सभी कुछ केवल ज्ञान, सत्य और प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। परन्तु जब इनकी परतें प्रकट होती हैं तो हम उस चैतन्य की परतों की लपेट में आकर विवेकहीन हो जाते हैं। अज्ञानता अस्तित्वहीन है। प्रकाश के अभाव ा. में अंधेरा होता है। ज्योही प्रकाश होता है अंधेरा अस्तित्वहीन हो जाता है। लोग चैतन्य सागर की तहो में खो जाते हैं। अत: हमें सावधानी पूर्वक समझना हैं कि हम परम बैतन्य में हैं, परम चैतन्य दारा ही हम बनाये गए हैं, हर समय हम इससे घिरे हैं। बस कभी- कभी हम इसकी परतों में सो जाते हैं। और हम खो क्यों जाते हैं? अपने अज्ञान के कारण। यह ज्ञान आता है कि हम विराट के ही अंश हैं यह सब चितविलास कहलाता अब आप कहेंगे "यह कैसे हो सकता है परमचित की मधुर चंचलता का आन्नद। है" उदाहरण के रूप में हम सूर्य को देखते हैं फिर हम झील में पानी को देखते हैं। सूर्य के कारण ही हम पानी को देख सकते हैं फिर मान लीजिए कि हम मृग-तृष्णा देखते ा हैं और सोचतें हैं कि पानी हैं और हम पानी के पीछे दौड़ते हैं। परन्तु यह सब कुछ अपने बदि चातुर्य सूर्य का खेल मात्र है इसी प्रकार परम चैतन्य कार्य करता है और मैं भटक कर हम भूल जातें है कि हम परम चैतन्य ही हैं। इस तरह लीला शुरू होती है। करते हैं। कोई भी कार्य करतें जब आप वंधन देतें हैं तो चैतन्य को कार्यान्वित हए आपको ज्ञात होना चाहिए कि केवल परम चैतन्य ही कार्य करता है। आपको केवल आत्मज्ञान होना चाहिये और यह भी पता होना चाहिये कि यह परम चैतन्य कार्य ाी यह कार्य करेगा। केवल उस समाधि में कूद पड़िये बहुत से लोग करता है। आप यदयपि बुद्धि से यह सत्य जानते हैं, अपने हृदय में वे इसे अनुभव नहीं करते और बहुत ता -11- से लोग जो इसे अपने हृदय में अनुभव करते हैं वो अपने चित से कार्य नहीं करते। अतः आपने केवल इन तीन चीजों को सुधारना है। पहला आपका मस्तिष्क, दूसरा आपका इृदय और तीसरा आपका जिगर। यादि आप इन तीन अंगों को सुधार सकते हैं तो परम चैतन्य कार्य करेंगा। परन्तु घन पर इतना चित्त देना व्यर्थ है। परम चैतन्य आपको सब कुछ उपलब्ध करायेगा। मगर अति-बोधिकता के अभाव में यह धन न भी बनाए तो भी यह अचछी तरह समझ लेना चाहिए कि यह उसके लिए सम्भावनाएं उत्पन्न कर देगा। और यह जानना अति सुखद है कि अब आपको परम चैनन्य का ज्ञान है और आप इसे वश में कर सकतें हैं। इस पर प्रभूत्व जमाये बिना अपने एक जिन्न की भांति । आप इससे कह सकते हैं "यह करो" "वो करो"। आदर पूर्वक यह आपके कार्य करेगा जब आप स्वयं को परम चैतन्य के घेरे में जानेंगे तभी आप अत मधुर, अति प्रिय, हा सनेही तथा विवेकशील बन सकेंगे। आपको ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हो। ++ ८ -1 2- श्रीमाता जी का दीवाली पूजा वार्ता मोन्टेसेटिनी इटली 29-10-1989 सारांश परमात्मा के आनन्द का अनुभव ही दीवाली पूजा का लक्ष्य है। लगभग । 0.00 वर्ष पूर्व श्री राम के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में दिवाली मनाई गई थी। अर्थात उस दिन मानव-हित का राज्याभिषेक हुआ। सुकांत दारा बताये गए परोपकारी सम्राट के गुण श्री राम में थे। परोपकारी राजा का अभिषेक एक आनन्ददायक घटना थी। इस प्रकार - प्रजा हित ही जिसका का कार्य तभी सम्भव है जब लोग ऐसे व्यक्ति का चयन करें एक मात्र लक्ष्य हो। इस प्रकार का लक्ष्य एक सहजयोगी का होता है। अतः हम इस तथ्य तक पहुंचते हैं कि ज्यव्ति को सहज-योगी बनना है। पूंजीवाद और साम्यवाद दो प्रकार के सिद्धांत हैं। पहला धन संचालित है जबकि साम्यवादियों दूसरे का आधार आज्ञा-पालन है - जो कि सहज योगियों के लिए सर्वोत्तम है। मैं आज्ञापालन की भावना इतनी अधिक है कि अपने हित की कोई बात सनते ही वे इसे मान लेते हैं। वे बहुत बुदिमान और गहन हो गये हैं इसके विपरीत हम अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में खरो गये हैं पूंजीवादी देशों में हित-भाव समाप्त हो गया है| जब आपको पागलौं की भीति व्यवहार करने की स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है तो आप अपना सर्वनाश कर लेते हैं। उदाहरण के रूप में लोग किसी भी विवेकहीन फैशन के दीवाने हो जाते हैं उद्यमी लोग जो आपका अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं इस प्रकार के विचार उनकी देन हैं। परोपकार सर्वोच्च है। यदि हम वास्तव में स्वतंत्र हैं तो हमें अपने हित मार की हर बात मान लेनी चाहिए। दीवाली से दूसरे दिन ईश्वर ने नर्कासुर नाम के राक्षस का वध किया। आज दुष्ट लोग पुरस्कृत हो रहे हैं यह दोप क्यों? दुष्कार्यों का आनन्द लेने वाली हमारी दुष्प्रवृति का ही अन्त होना चाहिए। हमें समस्याओं को पहचानना है। आत्मावलोकन करने पर आपका हृदय खुलता है। बिना हृदय खुले आप आत्मानन्द नहीं ले सकते। हृदय खुलते अंश होता है। हो आपके सब बंधन टूट जायेंगे। छोटी-छोटी चीजों में भी आनन्द का अंश होता है| अपनी जाति, राष्ट्रीयता आदि को भूला दीजिये। यदि आप सामूहिकता का अंश नही बन पाते तो आप में कुछ दोष अवश्य हैं । --৭ -13- दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। वे गर्व हीन हैं। दूसरों पर भार १ला नहीं डालती। परन्तु मानव-आचरण इसके विपरोत है, धन मिलते ही मनुष्य घोड़े पर ु , कमल पर विश्राम करतो लक्ष्मी जी पानी में से अवतारत होती है। सवार हो जाता है। लेती हैं। हमें भी स्वयं को अपनी पदवो, वैभव तथा हैं तथा स्वयं को भार -हीन कर शिक्षा के अहं से मुक्त कर लेना चाहिए, इस प्रकार मूर्खता आप में अर्ह भार बढ़ाकर होती हैं। उनका गुरूत्व आपको अधोपतन की ओर ले जाती हैं। लक्ष्मी जी संतुलित खड़ी केन्द्र सुन्दर प्रकार से संतुलित है। इसी प्रकार आपको भी सन्तुलित होना है। आपको पृथ्वी मां पर आश्रित होना है जिससे जरा सी भी घटना के होते ही आप सन्तुलन में आ जॉए। लक्ष्मी जी के दो हाथों में गुलाबी कमल है। गुलाबी रंग उनके स्नेह, आतिथ्यभाव नी व्यक्ति के दार पर । 0 कुत्ते सड़े हों। ध तथा आनन्दमुद्रा को प्रकट करता है। एक कोई भी, एक कुत्ता तक भी, अदर न आ सके। इस धन का क्या लाभ। कोई अति, दूसरों को आनन्द तथा सुख आइम्बर या अंतिकमण नहीं होना चाहिए। कुछ ऐसा हो जो दे सके। यदि अतिथि किसी क्स्तु की प्रशंसा करे और मेजबान यह कहें कि उसने उस वस्तु विशेष को बहुत ही सस्ते में प्राप्त किया है तो इससे प्रकट होगा कि वह व्यक्ति अपने अतिथि को आनन्दित करना चाहता है। वस्तु को मंहगा बताना आकामक होना है। आपको हर चीज में से आनन्द प्राप्त करने की योग्यता होनी चाहिए अन्यथा आप सहजयोगी नहीं है। आपको कलाकारों को प्रोत्साहित करना है । कहा जा सकता है कि यह ईमानदारी नहीं है। कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है परन्तु आप कीचड़ को नहीं देख पाते। कमल अपने सौंदर्य तथा सुगन्धि से पूरे तालाब को ढक लेता है। इसमें कपटता की कोई बात नही। एक सहज योगी होने के नाते अपने कार्य को समझने में ही निष्कपटता ा। है। अपने प्रेम से आप सबको प्रोत्साहित करते हैं । प्रेम से ही आप सबकी सहायता करते हैं सब में आत्म किश्वास उत्पन्न करते हैं। स्वयं से निष्कपट होना ही महत्वपूर्ण है। बुद्धि से देखें कि दूसरे को चौट पहुंचाने के लिए यदि आप कुछ कहने वाले हैं तो ऐसा न करें। दूसरों को प्रसन्न रखने से ही आपको प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है। जो लोग कभी न मुस्कराते हों उनहें आप गुद-गुदाइयें। आपको बाल सुलभ हो जाना है। आनन्दमय हो जाना ही लक्ष्मी जी की विशेषताओं में से एक है। ---6 -14- दूसरे हाथ से लक्ष्मी जी देती हैं। कैमकाली व्यव्त को गुप्त रूप से आवश्यकता एक हाथ ने व्या दिया इसका ज्ञान दूसरे हाथ को ग्रस्त लोगों को धन देना चाहिए। नहीं होना चाहिए। व्यव्ति की आवश्यकता को समझ कर उचित समय तथा स्थान पर ा] देना ही आवश्यक है। यह रोमांचित करने के लिए नहीं होना चाहिए। इससे हदय का अध्यात्मिक उन्नति के लिए देना ही उत्तम है। उदाहरणतया मेरे लिए एक उत्पान हो। मैं अपने आप में पूर्ण हूँ । पुष्प ही पर्याप्त है। एक और हाथ से लक्ष्मी जी रक्षा करती हैं। यह हाथ सभी सहज योगियों के लिए रक्षा का हाथ है। सहजयोगी में क्योंकि आत्मा विद्यमान है। में सदा उनके साथ हूँ। कलाकारों, कला क कीवता, साहित्य, निश्छल राजनीतिज्ञों तथया न्याय-परायण राज्य- कर्मचारियों की, ओर उन सब लोगों की जिन्हें रक्षा की आवश्यकता है रक्षा करो। परन्तु हमें दुसरों की अच्छाई की रक्षा करनी है। वह अनुचित को आश्रय नही देना चाहिए। सहज योगी है या नही हमें उनके चारित्रिक गुणों की रक्षा करनी है। आप शाश्वत, असीम और विश्व रक्षक हो। आपको अत्याचारी नहीं होना चाहिए। किसी सास-बहू को लड़ते देख हम उन्हें "झगडालू" कहते हैं परन तु हम स्वंय भी वैसा ही करते हैं। हम कटार नहीं हैं हम कमल-पुष्प हैं। कमल से चोट कैसे करनी है? यह जानने के लिए हमें सहज योग में गहन होना है। लक्ष्मी की छत्र-छाया प्राप्त होने पर आप महा-लक्ष्मी तत्व में बदते हैं। तब आप विश्व-हितार्थ सोचते हैं कि लोगों को आत्म साक्षात्कार कैसे दिया जाये। आपका दृष्टिकोण परिवर्तित हो जाता है। हम समस्या समाधान के लिए हैं। हमें दायित्व लेना है। यदि आप एक निर्माता हैं तो कुछ महान सृजन कीजिये यदि आप संगीतज्ञ हैं तो सुन्दर संगीत की रचना कीजिए, यदि आप एक सरकारी कर्मचारी हैं तो अपना कार्य भली-भांति कीजिए| मैं तुम्हारी सहायता कूगी। सबका व्यक्ितित्व निखरेगा। सूषुमना के मध्य मार्ग पर यदि आप रहते हैं तो कोई आपका कुछ नही बिगाइ सकता। यदि आप दूसरों में दोष ढूंढते हैं या दूसरों को कश में करने का प्रयत्न करते हैं तो आप सहजयोगी नहीं हैं। नेताओं को भी अधिकार जगाने का प्रयत्न कतई नहीं करना चाहिए। सम्पूर्ण ब्रहम-चैतन्य एक शम्त तत्व है यही सब कुछ चला रहा है। अपने उत्थान में कैलाश सम ऊँचाई तथा हर उपलब्धि पाने के लिए आप को शांत रहना है। ईश्वर आपको आशिर्वादित करे । পce -15- श्रीमाता जी की इस्ताम्बुज यत्रा 30 अनतूबर, 1989 टर्की पहुंचने पर अत्यन्त स्वेद तथा मय अनुभव करते हुए मैंने यह जाना कि हमारे देशों के बीच कितना अन्तराल है। इस शिशु टर्की जिसकी यात्रा श्रीमता जी अब कर रही हैं और तथाकधित महान अमेरिका जहां श्री मां ।972 से जा रहीं हैं। मुस्कराते चेहरों ने मां का स्वागत किया। श्री मां ने बहुत ही प्रसन्न हो कर रहा कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे वे लौट कर अपने जन्म-स्थान वाले घर में आ गयी हो। टर्की और भारत की सामान्यताओं के विषय में उन्होंने बताया। उनके यह पूछने पर कि व्या टर्की में ऐसे महान संत हैं जो इस देश की सुन्दर चैतन्य लहरियों को देते हैं, यह सत्य प्रकाश में आया कि यहां बहुत से सूफी संत रहे और कुमारी मेरी का भी जन्म पश्चिमी टर्की का अभास टर्की के लोगोंको में नेफीशस नामक स्थान पर हुआ सहजता और स्वतंत्रता एक विशाल हृदय प्रदान करता है तथा उनका सहजयोग में प्रवेश भी सुगम बनाता है। प्रस्तुति बाबोते न्यूयार्क ढारा दवारा श्री माता जी की जन-वार्ता इस्ताम्बूल 2 नक्म्बर, ।989 हसारंशिह कुरान का कयन है कि एक समय आपगा जब सातों आकाशों में बादल उठेंगे और पर्वत को तोड़ देंगे । तब जो वर्षा होगी वह पृथ्वी पर शान्ति तथा मानव-मात्र में जो कि परिवर्तन लापगी। इसने साफ शब्दों में सहजयोग तथा कुंडलिनी की जागृति के विषय में कहा है। सर्वशवितमान परमात्मा हमारे के अ्ं को क्श में करेगी मनुष्य पिता हैं। वे हमें किसी भी अन्य पिता से अधिक प्रेम करते हैं। वे चाहते हैं कि हम उनके साम्राज्य में प्रवेश करें। वे नहीं चाहते कि हम दुःख झेलें। विशुद्धी चक को साफ करने के लिए आपको "अत्लाह-ओ-अकबर" कहना है वही करीम तथा अकबर है। जिब्ान्टर की चटूटान न हो कर उनके बहुत ल्लाह रहीम, से रूप हैं जेसे एक पिता-भाई, दादा पुत्र या पति भी हो सकता है। हमारी अन्तरआत्मा ---৪ -16- ही झलक है। अतः हमारे क्दर ान्मा का सामुहिक अस्तित्व सर्वशक्रितमान ईश्वर की आत्मा बनते हो आप सामुहिक भी हो जाने हैं। है। यह प्रमाण-पत्र या सूचना मात्र तथा दुसरो के चको को अपनी नही है। आप अपने मध्य-सनाय मंडल में आकर अपने अंगुलियों के पोरों पर अनुभव कर सकते हैं। आत्म प्रकाश पा कर भपका चित्त ज्योति- पंज बन जाता है। तब आप स्वामि बन जाते हैं। बरी आदते कोड कर आप एक स्वतंत्र दाष्ट लालच भापका चित्त अन्यन्त कम्णामय, तथा शक्निशाली व्यक्रितित्व बन जाते हैं। और वासना-होन निर्मल हो जाती है। आप इतने- शक्ितशाली हो जाते हैं कि आपके कटक्ष मात्र से दूसरे व्यवित में शान्ति तथा प्रेम का उदय हो जाता है। तब चित्त ज्ञा न का विराट के ज्ञान का ग्रोत बन जाता है। चित्त सूक्ष्म हडायनैमिक बन जाता है। और कोई आदत आप को आप इतने सशवत हो जाते हैं कि आप सृजनात्मक हो जाते हैं। दूसरे आप आत्मा बन जाते हैं और आनन्द लेते हैं। साक्षी वश में नही कर सकती। बन नि्लिप्त भाव से आप नाटक को देखते हैं। अपनी समस्याओं का हल तब आप पहले से अचछो तरह करते हैं। आनन्द सागर में आप विलय होने लगते हैं। परमात्मा के साधान्य में आकर हर कदम पर आपको चमत्कार होते मिलते हैं। हर कदम पर किसी आप में शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक को मार्ग-दर्शन करते हुए अनुभव करते हैं। रूप से सुधार आ जाता है। कुछ समय पश्चात् आप दूसरों को प्रकाश देने तथा लोगों के रोगों को दूर करने में तथा इस प्रकार के कार्य जो चमत्कार कहलाते हैं करने में समर्थ हो जाते हैं। ---------------------- 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी स्वड - ।2 6) Christmas Greetings ु 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-1.txt श्री माता जी निर्मला देवी रूस यात्रा पर सोवियत स्वास्थ्य मंत्रालय दारा नियोजित प्रधम विश्व योग सम्मेलन" में श्री माता जी को विशिष्ट रूप से आमन्त्रित किया गया सोवियत चिकित्सकों, वैज्ञानिकों नहीं तधा समाचार संवाददाताओं की पूरी सदन के सम्मूख श्री मां ने केवल भाषण ही तथा दूरदर्शन ने मां दिया, सबको आत्मसाक्षात्कार भी प्रदान किया। सोवियत समाचारों क के भाषण का अत्याधिक प्रसारण किया। जनता की मांग पर 700 लोगों के लिए एक विशेष कार्यकम का आयोजन किया गया। श्रीमाता जी ने कीव तथा लेनिनग्राड में भी कार्यकम किये। अपने श्रोताओं श्रीमाता जी ने उन्हें किश्वास दिलाया कि अमेरिका के बहुत से प्रश्नों का उत्तर देते हुए के पूंजीवाद जिसने वहां के लोगों को पूरी तरह शठ बना दिया है, की तुलना में रूसी साम्यवाद ने उन्हें हानि नहीं पहुँचाई है। स्टालिन के विपय में उन्होंने कहा कि भूतकाल श्री गोर्बाचोब एक आत्म साक्षात्कारी ्यव्ति हैं। उनका समर्थन की भूल जाना ही हितकर है। होना चाहिए। छोटी छोटी बातों के लिए उनका विरोध नहीं होना चाहिए। उन्होंने श्रोताओं से यह प्रश्न पूछने के लिप कहा कि क्या रूस अध्यात्मिकता में विश्व का नेतृत्व करेगा? सभी ने शीतल लहरियों का अनुभव किया। लेनिन ग्राड मास्को तथा कीव में मुख्य सहज- केन्द्र स्थापित कर दिये गये हैं बहुत से अन्य नगरों से सहज कार्यक्र्मों के लिए लगातार निमंत्रण आ रहे हैं। सहज उपचार प्रारम्भ करने के लिए सोवियत स्वास्थ्य मंत्रालय से एक प्रथम सीध पत्र पर हस्ताक्षर किए गए हैं इस वर्ष भारत यात्रा के लिए लगभग 30 रूसी सहज योगी भारत आयेंगे और हम सब उनका सहृदय स्वागत करेंगें। 19-10-1989 के सम्मेलन में मास्को विश्वविद्यालय में श्रीमाता जी के भाषण का सारंश आज में यहां आपको हमारी योग प्ति तथा उसकी ऊंचाइयों के विषय में बताने आई हूँ। हमारे देश में तीन प्रकार के आन्दोलन हुए ब्रहुमाण्ड को चलाने वाले नियमों का पता लगाना प्रथम धा। यह नियम प्रारम्भ में वेदों में विमान थे। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-2.txt -2- विद् अ्धात जानना, परन्तु सत्य का ज्ञान यदि न प्राप्त हो सके तो अध्ययन व्य् है। तीव्र इच्छा अर्वात् भक्ति या समर्पण - एक दूसरा सत्य ज्ञान प्राप्त करने की प्रकार था। व्यव्ति का आत्म साक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील तीसरा महत्वपूर्ण परन्तु गुप्त भागों में सूत्र लिखें हैं। ने प्रारम्भ में तो योग के जिन्होंने 8 रास्ता था। पातांजली शारीरिक अंश जैसे यम नियम आदि के विषय में बताया परन्तु वे भी वही रूक में आपने प्रेम की सुक्ष्म शक्ति जिसे में मतम्भरा-प्रजञा कहती नही गये। लक्ष्य के रूप तक पहुंचना है। हमारे यहां गोरखनाथ, आदिनाथ तथा मर्चिननाथ से बहुत योगी हूँ हुए हैं। जिन्होंने मध्यम मार्ग से मनुष्य की समस्याओं तथा उसके उत्थान को सम्भव की त्रिकोणाकार पवित्र अस्थि में सुप्त शक्ति बनाने के लिए कार्य किया। उन्होंने मनुष्य आठवी सहस्त्र वर्ष पूर्व मार्क-डेय जी ने इसके विषय में बताया। को स्योज निकाला। एक और नौवी शताब्दी में वासुगुप्ता ने इसक विषय में लिखा। अतः अपनी आत्मा को इस नए ज्ञान तक उत्थान करना ही शिखर या सर्वोच्च उपलब्धि है। हर धर्म में यही कहा है कि आप को शाश्वत को स्ोजना है और परिवर्तनशील वस्तुओं से उनकी सीमाओं में ही व्यवहार करना है। परन्तु सारे धर्म पूर्णतया भटक गये हैं। इन्होंने भयानक कटुटरताएं दी है। धर्म के नाम पर लोगों ने लड़ना शुरू कर दिया है । यह शक्ति हर मनुष्य की त्रिकोणाकार अस्थि में रहती है। अमीयोबा से मानव बनने की विकास प्रक्रिया में हमारे मध्य स्नायु पर्यति में कई सूक्ष्म चकों की सृष्टि की गई। वे हमारे है पैरा सिम्पेथेटिक नरवस सिस्टम सूक्ष्म स्नायु मण्डल में है। सत्य को स्योजते समय हमें ये जानना है कि सत्य जो है वही है। जिस अव्स्था स्वयं को नहीं को आप प्राप्त करते हैं आप स्वयं उसे नही देख सकते। जैसे प्रकाश देख सकता। अपने मध्य स्नायु मंडल पर हमें उस सर्वत्र व्यापक शव्ति को तथा उसकी कार्य प्रणाली को जानना है। और ऐसा हम कर सकते हैं । मानव चेतना से हम सत्य को नहीं जान सकते। हमें आत्मा बनना है। आत्मा का स्थान सिर के तालू भाग में है। समस्या कुंडलिनी को उठाकर तालू भाग से बाहर निकालना और उसका संबंध सर्कयापक शात्रित से जोड़ना है! 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-3.txt -3- चको में से होती हुई यह सिर के तानू भाग कुंडॉंननी जब उठती है नो को भेदनो हैऔर यह हमारे शारीरक, भावनात्मक, मानासक तथा [अध्यान्मिक तत्वों है। यह विकास को चरम उपलाध्ध है। यह जीकत किया है जो स्वत का पोचण करती उंडी नहरियों के प में हो घाटत होती है। अपनी अंगुलियों के पोरों पर आप इसे अनुभव कर सकते हैं। तब आपको अपनी समस्याएं समझ आएंगी। आधुनिक काल में हम इतने व्यस्त हैं कि हमारे पास किसी चीज के निए समय नही। अतः आधुनिक सहज योग का विकास इस प्रकार किया गया है कि पहले आप ाम आत्म सक्षात्कार को पा लें, एक आरम्भ आपकों प्राप्त हो जाए भर धोडी सी ज्योति जो आपको मिल जाएगी उसके प्रकाश में अपनी त्रुटियों को देख सकें। जञान अनन्त है। जब आप इस क्क्ष में आ जाते हैं तो प्रकाश का बटन दबाते ही आप केो सारी प्रकाश प्रणाती का पता लग जाता है। विदत के ग्रोत तथा इतिहास को जानने के स्थान पर यीदि ी जला ले तो अच्छा है। इस प्रकार सहज योग कार्य करता है। आपको मुख्ाकृतियों में, मैं एक अनुपमं ল आप में से हर व्यत्ित पक चमनत्कार हे। परिवर्तन पाता हूँ। परमात्मा ने धोड़े से देवदूतो की सृष्टि करनी चाहो थी परन्तु यहां से हैं। में स्वयं को एक नये किश्व में पहुंचा हुआ पाता हूँ। एक पूर्णतया भिन्न तो बहुत भार कहीं यादा सुदर किश्व में। " ग्री सी. पी- श्रीवार्तव दीवानी पूजा के भवसर पर : 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-4.txt -4- श्री गणेश पूजा लौस डायबलर्टस, रिविटजरलैंड ।। अगर्त,। 989 पूजनीय श्रीमाता जी दारा हर पूजा से पहले हम श्री गणेश का गुणगान करते हैं। श्रो गणेश निर्मतता के प्रतीक हैं। इसी कारण हमारे मन में उनके लिए अत्याधिक मान है जब तक श्री गणेश हमारे अन्दर जागूत नही हो जाते हम परमात्मा के सामराज्य में प्रवेश नही पा सकते। हमें श्री गणेश जी के आशीर्वाद का आनन्द लेना है। और अपनी निर्मलता को अपने अन्दर पूर्णतया विकसित करना है। अतः हम उनका गुणगान करते हैं और वे सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं। शाश्वत निर्मल शिशु-स्वाभाव के कारण वे हमारे उन सबव अपराधो को क्षमा कर देते हैं जो हमने सहज में अपने से पूर्व किये होते हैं वच्चे तो आपने देखें हैं। आप उनसे कभी नाराज हो जाते हैं और कभी तो उन्हें धप्पड भी मार देते हैं। पर बच्चा सब कुछ भूल जाता है। माँ की कोव से जन्म लेने के समय से ही बच्चा अपनी सभी यातनाएं भूल जाता है। परन्तु शनैःशनै जब उसकी रूमरण-शक्ति कार्य करना शुरू करती है तो वह अपने अ्दर कार्यो की छाप इकट्ठी करनी शुरू कर देता शिशुकाल में बच्चे केवल प्रेम करने वालों को ही या रखते हैं। परन्तु बड़े होने पर वे केवल उन्हो को याद रखते हैं जिन्होंने उन्हें हानि पहुंचाई हो। और इस प्रकार वे अपने जीवन को दुखों से परिपूर्ण कर लेते हैं परन्तु गणेश तत्व बहुत ही सूक्ष्म है। यह हर वस्तु में वियमान है। भौतिक-तत्वों में भी यह लहीरियों के रूप में विद्यमान है। कोई भी पदार्थ बिना लहरियों के नहीं होता। पदार्थ के अण-परमाणुओं में भी लहीरियां पायी जा सकती हैं । अतः जड़ में भी सर्व प्रथम श्री गणेश की स्थापना की गई। परिणामतः वे सूर्य, चन्द्र माम पूरे ब्रहमाण्ड तथा परमात्मा की हर सृष्टि में विध्यमान हैं। और वे प्राणी मात्र में भी मौजूद रहते हैं। मनुष्य अपने गणेश तत्व के इस निर्मल गुण पर पर्दा डाल सकता है। वह यह भी कह सकता हैं कि गणेश जी हैं ही नही। इसी कारण ही हम मनुष्यों को भयानक अपराध करते देखते हैं। परन्तु श्री गणेश सदा कार्यरत रहते हैं । हमारे 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-5.txt -5- अपराधों के स्वाभाविक दुष्परिणामों को दिखा कर वे अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं। उदाहरण के रूप में यदि आप गणेश जी को नापसन्द कार्य करते हैं तो वे पहले पुरुषों में शारीरिक तथा तो एक सीमा तक क्षमा करते हैं परन्तु तत्पश्चात उनकी असच स्त्रियों में मानसिक रोगों के रूप में प्रकट होने लगती है। यह प्रकृति में भी समस्याएं उत्पन्न कर सकते हैं। प्राकृतिक प्रकोप भी श्री गणेश का ही अभिशाप हैं। जब लोग सामूहिक रूप से बूरे कार्य, दुव्यवहार करने लगते हैं तो उन्हें शिक्षा देने के लिए प्राकृतिक प्रकोप आते हैं। यद्यपि श्री गणेश सर्वत्र विपमान हैं फिर भी उनका सार तत्व दृढ़तापूर्वक अपनी सम्पूर्ण विश्व को विध्वंस इच्छा को प्रकट करने की उनकी सामर्थ्य तथा अपनी इचछा से कर सकने की उनको शक्ति में निहित है| श्री गणेश को एक सूक्ष्म अस्तित्व के रूप में हम मानते हैं क्योंकि मूमक उनका वाहन है अतः हमारे विचार में के बहुत ही सूक्ष्म हैं। वे जितने सूक्ष्म हैं उतने ही महान भी हैं। अपनी बुद्धि के कारण वे देवताओं में सर्वोपरि हैं। विवेक के दाता वे हमें सीखने पर विकश करते हैं । वे हमें आचरण करना सिखाते हैं इसी कारण वे हमारे गुरु ही है। [आपने यदि उनकी उपेक्षा करने का या उनसे दुराचरण करने का प्रयत्न नहीं महागुरु किया तो श्री माँ भी आपका साथ नहीं देंगी। श्री गणेश जी की अवज्ञा करने वाले लोग श्री गणेश और किसी देवता को नही मानते कभी श्री माँ का आदर नही कर पायेंगे। अतः माँ के प्रति समर्पण ही उनकी शक्ति है। इसी कारण वे सब देवताओं से अधिक शवित में कोई उनके समान नही। शवितशाली हैं। बढ़ते हैं श्री गणेश भी उनके साध बढ़ते हमें यह समझना है कि जैसे-जैसे बचे हैं। मनुष्य स्वभावकश बच्चे श्री गणेश को पराजित करने का प्रयत्न कर सकते हैं। अतः माता-पिता का कर्तव्य है कि निर्लिप्त भाव से अपने बच्चों की परवरिश करें जिससे कि बचचों के अन्दर का गणेश तत्व स्थापित हो सकें। विवेक बच्चों के अन्दर श्री गणेश जी का पहला चिन्ह है। यदि बच्चा बुदिमान नहीं है, यदि वह कष्टदायक है और सद्व्यवहार नहीं जानता तो रूपष्ट होता है कि वह श्रो गणेश की अवज्ञा कर रहा है। वर्तमान युग 12 बर मैं बच्चे गणेश तत्व की अवज्ञाग्रस्त है। निर्मलता का आतकमण हो रहा है और लोगों के लिए यह निर्णय कर ले पाना कठिन हो रहा है कि कहां तक बच्चों का साथ दे औौर कहां उनका साथ छोड़ दें। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-6.txt -6- श्री गणेश विवेक के दाता हैं। अतः माता-पिता को अवश्य समझनों है कि "यदि वह विवेक प्रदान करने वाले हैं तो मुझमें भी विवेक होना चाहिए। और यदि मूझे विवेक है तो मुझमें संतुलन है और मैं बच्चों पर कभी कोधित न हूँगा। परन्तु उन्हें उस प्रकार सुधारने का प्रयत्न करुँगा जिस प्रकार वे सुधरेंगे"। उसके विपरीत यदि आप अपने बच्चों के प्रति कठोर होने का प्रयत्न करेंगे तो प्रतिकिया वश वे भटक भी सकते हैं तो श्री गणेश की तरह ही अपनी माँ का सम्मान करना आप अपने बच्चों को सिखाइये। आपकी माँ जो कि पवित्र माँ है और जो आपकी अपनी है। यदि पिता बालक को मां का सम्मान नहीं सिखयाता तो वह बालक कभी ठीक नहीं हो सकता। ययपि अधिकार भाव पिता की ही देन है। फिर भी मां का सम्मान होना ही चाहिए। इसके लिए यह अंति आवश्यक बचचों के सामने माता-पिता का आपसी झंगड़ा उनके है कि माँ भी पिता का मान करें । गणेश तत्व पर अति बुरा प्रभाव डालेगा । सहज योग में बच्चों के पालन पोपण का बहुत महत्व है क्योंकि ईश्वर कृपा से आप सब के बच्चे जन्म से आत्म साक्षात्कारी हैं। आप सद्चरित्र सब को अकश्य पता होना चाहिए कि किस प्रकार आप अपने बचचों को विवेकशील, तथा पवित्र बना पाएगे। सर्वप्रथम उनके विवेक की रक्षा करने का प्रयत्न कीजिए। यदि वे कोई अच्छी बात कहें तो उनकी प्रशंसा करें। परन्तु यह बात असमय पर तथा अशिष्टता पूर्वक नही कही होनी चाहिए। अतः दुराचरण सहन नही किया जाना चाहिए अर्थात आन्तरिक विवेक प्रकाश के रूप में बाहर प्रकट होना ही चाहिए। श्री गणेश कहां तक कार्य करते हैं ? ये देखने के लिए अब हम और अन्दर पैठते हैं। उदाहरणतया जिस पानी को हम चैतन्यित करते हैं वास्तव में हम उसमें गणेशतत्व ही जागृत करते हैं। वह पानी आप के पेट में, अखों में या और जहां कहीं आप उसे डालते हैं वहां गणेश तत्व को ही जागृत करता है। कृमि में इसके चमत्कार आपने देखें हैं। किसी बीज में यदि आप गणेश तत्व जगा दें तो वह दस गुणा-सौ गुणा बड़ा हो । भी चैतन्यित की जा सकती है। सहज जाता है। पृथ्वी माँ-जिसे हम बेजान समझते हैं योगी यदि पृथ्वी पर नंगे पांव चले तो वह चैतन्य से भर जाती है। यह चैतन्य, पेड़ो, घास, फूलों आदि हर वर्तु पर कार्य करता है। 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-7.txt जागृत होने पर गणेश तत्व सव कुछ समझता है, वह सब ज्यवस्थित और कार्यान्वित करता है। बीज के अंकुरण के समय उसकी नोक पर एक अण में निहित गणेश तत्व जागृत होता है। इससे ज्ञात होता है कि नीचे की और या पत्थर के चारों और किस प्रकार पानी के स्रोत तक पहुंचना है। परन्तु इसका जञान यहीं तक सीमित होता है कि जीवित रहने के लिए कहां तक जाना है, बहुत ही स्थूल सतह तक अपना पोषण कैसे करना है और पेड़ को बढ़ने कैसे देना है परन्तु यही गणेश तत्व आज्ञाचक पर आकर बहुत ही सूक्ष्म बनना शुरु हो जाता है। आज्ञा चक पर यह अपना अध्यात्मिक दायित्व भी समझता है। वही गणेश तत्व जिसने जड़ की नौक पर कार्य किया वही अब अध्यात्मिकता के लिए कार्य करता है। इसी कारण ध्यान के समय लोग अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। वे श्री गणेश को अपनी कुंडलिनी को ध्यान प्रकिया के लिए कार्य करता जब हम आखें बन्द करते हैं हुआ देखना चाहते हैं। और वे नही देखना चाहते। कुछ तो ध्यान की यह प्रक्रिया कार्य करती हैं। सोने के समय भी आंखें हिलती इलती रहती हैं। यह गणेश तत्व अब आपके चित दारा परिचालित होता है। आपके आर्थर चित का प्रभाव इस पर पड़ता है। हर समय यदि हम ह्त्रियों या पुरूषों को ही ताकनें रहें तो भी हमारे गणेश तत्व का नाश हो जाता है। इस प्रकार के लोगों का उत्थान काठन हो जाता है क्योंकि उनका आज्ञाचक ही विरुदध हो जाता है । अत्याधिक भौतिकता और वस्तु ओं की चिंता भी गणेश तत्व पर कुप्रभाव डालती हैं। इस अवस्था में इसका लोप भी हो सकता है जैसे किसी दुकान पर जाकर हम हर चीज को खरीदने के लालच से भर जायें यरन्तु यदि आप कोई सुन्दर वस्तु दूसरों को प्रसन्न करने के लिए स्वरीद रहे हैं तो इसका प्रभाव आप के गणेश तत्व पर अछछा पड़ेगा। किसी वस्तु विशेष को कर आनन्द लेना आप के उत्थान को बढ़ावा देगा। यदि दूसरों को सुन्दरता का मिल क जलाने की भाव से आप कुछ वरीदते हैं तो आपका गणेश तत्व नाश भी हो सकता है। चह एक बहुत ही मातृत्य युव्त गुण है। जिस प्रकार माँ अपने बचों को प्रसन्न रखना चाहती है, उन्हेै स्वाना देना चाहती है उसी प्रकार आप में भी बत्सलता होनी चाहिए और उसी प्रकार आपको महान गणेश तत्वव को सन्तुष्ट करना चाहिए। कलाकार जब 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-8.txt स्वाधिष्ठान दवारा किसी पदार्थ में से सुन्दर कलाकृनियां बनाते हैं तो ताप उन पर ध्यान देने हैं । गणेश स्वाधिष्ठान के शासक नहीं होंगे कोई भी कृति सुन्दर नहीं जब तक थी कान सुन्दर आजकल हास्यार्पद तथा अनैतिक भावों की और झुक रहे हैं। इन कुतयों बन सकती। केन कोई शाश्वत मूल्य नही है। लोग आज इन्हें खरीदेंगे और कल फैंक देंगे। केवल वही त जिसमें गणेश तत्व जागरूक है और जो आपको शांत भार प्रसन्न रस् सकती है, वर प्रशंसनीय है। अतः श्री गणेश आपके अन्दर महान व्यकवितित्व को स्थापित करने हैं और आपके तुच्छ अंशों को जो कि जीवन की विकृतियों का आन्नद लेतें है या तो कम कर देते हैं या पूर्णतया नष्ट कर देतें हैं। मोनालीसा को देख कर आप जानेगें कि वह न तो अभिनेत्री हो सकती है और न ही कोई सांदर्य स्पधा जीत सकती है फिर भी उसका चेहरा बहुत ही शन्त, पवित्र और मातृत्वपूर्ण है। इसका कारण उसके अंदर का गणेश तत्व है। यह माँ है। कहानी इस प्रकार है कि बच्चा खो जाने न कभी रोई और न ही पर यह र्तरी मुस्कराई। एक बार एक छोटा बच्चा उस के पास लाया गया। उसने वच्चे को देखा। वच्चे के प्रति उसके प्यार की मुस्कराहट जो उसके चेहरे पर उस समय प्रकट हुई उसी दर्शाया है। अपने अंडे तोड़ कर उनसे बन्चे को इस महान कलाकार ने मोनालीसा पर बाहर निकालते हुए मगरमच्छ अंखवों से भो सौम्य और माधुर्य छलक पड़ता है। परन्तु आधुनिक बन कर आपके कार्य हास्यास्पद हो जाते हैं। अतः अपने बच्चे के प्राति आपके प्रेम का अत्याधिक महत्व होना चाहिए। परन्तु सहज योगी होने के नाते आपको वच्चे से लिप्त भी नहीं होना चाहिए। अपने प्रेम को सीमावद करना आपको जानना है। उदारता ही सेोमा है। क्या यह मेरे ब्चे के हित में है। क्या में अपने बच्चे को विगाइ़ रही हैँ । क्या में अपने बच्चे के हाथों में सखेल रही हैं या में बच्चे को ठीक तरह से चला रही हु? क्यों कि माता- पिता ही वचपन में बच्चों का मार्ग-दर्शन करते हैं। बच्चों को मी आज्ञाकारी होना हैं। माता-पिता स्वयं ही एक दुसरे के प्रति आज्ञाकारी नहीं है। वे जानते हैं कि समाज ही ऐसा है जहां कि बचचे मां-बाप को परेशान करते रहते हैं । अतः वे भी वैसे ही बन जाते हैं। चिन्ता की कोई बात नहीं। आप सहज योगी हैं अपने वच्चों का पोषण इस 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-9.txt -৭ - प्रकार कीजिए कि वे आज्ञाकारी, बूदिमान तथा विचारवान बनें। बदचों को उसी तरह निलिप्त प्रेम करें जैसे एक मगरमच्द अपने छोटे बच्चे को करता है। जीवन में परस्पर मधुर सम्बंध बनाने के लिए ये सब कुछ बहुत हो महत्वपूर्ण , जो अधिक गुणवान नहीं है। जो हम से छोटे हैं, आर्धिक रूप से ठीक नहीं है, है। जिनके पास सहज योग का पर्याप्त ज्ञान नही है और जो सहज योग में आधिक पुराने नहीं है आपको उनकी एक पिता, एक मां की तरह से देखभाल करनी है। आपके पास गणेश तत्व है। उसे जागृत कीजिए। अध्यात्मिक उत्धान को प्राप्त करने के लिए वे सब हम पर निर्भर रह सकें। क्योंकि गुरु तत्व पूर्णतया गणेशतत्व से बंधा है अतः गणेश तत्वहीन व्यवि्ति बहुत ही विकृत हो जाता है। जीवन एक निरंतर प्रक्रिया है और मनुष्य को सदा विराट से जुड़े रहना है| जब तक आप पूरी तरह विराट से नही जुड़े हैं आप विमलता की सामूहिकता को उसी तरह नहीं समझ सकतें जैसे एक बच्चा आकर किसी दुसरे की गोद में बैठ जाता है उसे ये नहीं पता होता कि कौन मां है और कौन पिता। उसके लिए सब एक से हैं। अब हम गणेशतत्व को जो कि चैतन्य लहरियाोँ है। सर्वत्र व्यक्त करने का साथन, यंत्र्य जहीं तथा हेतु मात्र हैं। अतः यह लहीरियाँ गणेश तत्व के सिवाय कुछ भी नहीं है। पर। के बीच प्रेम-भाव है। मां-बच्चे के बीच औंकार है। यही वात्सल्य भाव है, यही माँ बच्चे की दूरी लहरियाँ ही हैं मनुष्य को यही महसूस करना है कि अमी मी वह शिशु ही है। और माँ बच्चे को सारी शक्तियां दे रही है। बच्चे का लालन-पालन, उसके प्रति प्रेम, उसकी सीमाओं की समझ, उसके माध्र्य और विवेक को देखभाल सभी को समझना । यही लहरियाँ हैं। मनुष्य और देवताओं के बीच सारे सम्बंध गणेश तत्व से हैं। जब आप ईश्वर से संबीधित होते हैं तो लहीरियोँ बहती है। वही संबंध आपके हर कार्य से ज्यीजत होना चाहिए। आपको देखना चाहिए कि जो कुछ भी अवछा है उसमें लहरियाँ हैं । आज में आपको सर्कयापक शक्ति हजिसके बारे में हमने सुना हुआ है। के विषय यह शक्ति लहारियों के सिवाय कुछ हूं। में कुछ बहुत ही महल्वपूर्ण बात बताना चाहती के अतिरिक्त लहरियों नही है। परम चैतन्य जहां सब व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है "hee 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-10.txt -10- कुछ भी नही। जहां माता-पिता सब विलय हो जाते हैं, कुछ भी बाकी नहीं रहता। जहाँ केवल सूक्ष्म वात्सल्य ही रहता है बस। और केवल यही वस्तु हैं जिसमें से हर चीज सूर्य की किरणें जब निकलती है और अपने आप में स्थिर हो जाती है। उदाहरणतया निकलती हैं तो क्लोराफिल बनातीं हैं। या सागर से उठे हुए बादल पृथ्वी मां का पोषण ाम करने का प्रयत्न करते हैं। हर चीज इसमें हैं। इस परम चैतन्य के अन्दर सभी कुछ निहित है। हम कह सकते हैं कि सभी कुछ केवल ज्ञान, सत्य और प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। परन्तु जब इनकी परतें प्रकट होती हैं तो हम उस चैतन्य की परतों की लपेट में आकर विवेकहीन हो जाते हैं। अज्ञानता अस्तित्वहीन है। प्रकाश के अभाव ा. में अंधेरा होता है। ज्योही प्रकाश होता है अंधेरा अस्तित्वहीन हो जाता है। लोग चैतन्य सागर की तहो में खो जाते हैं। अत: हमें सावधानी पूर्वक समझना हैं कि हम परम बैतन्य में हैं, परम चैतन्य दारा ही हम बनाये गए हैं, हर समय हम इससे घिरे हैं। बस कभी- कभी हम इसकी परतों में सो जाते हैं। और हम खो क्यों जाते हैं? अपने अज्ञान के कारण। यह ज्ञान आता है कि हम विराट के ही अंश हैं यह सब चितविलास कहलाता अब आप कहेंगे "यह कैसे हो सकता है परमचित की मधुर चंचलता का आन्नद। है" उदाहरण के रूप में हम सूर्य को देखते हैं फिर हम झील में पानी को देखते हैं। सूर्य के कारण ही हम पानी को देख सकते हैं फिर मान लीजिए कि हम मृग-तृष्णा देखते ा हैं और सोचतें हैं कि पानी हैं और हम पानी के पीछे दौड़ते हैं। परन्तु यह सब कुछ अपने बदि चातुर्य सूर्य का खेल मात्र है इसी प्रकार परम चैतन्य कार्य करता है और मैं भटक कर हम भूल जातें है कि हम परम चैतन्य ही हैं। इस तरह लीला शुरू होती है। करते हैं। कोई भी कार्य करतें जब आप वंधन देतें हैं तो चैतन्य को कार्यान्वित हए आपको ज्ञात होना चाहिए कि केवल परम चैतन्य ही कार्य करता है। आपको केवल आत्मज्ञान होना चाहिये और यह भी पता होना चाहिये कि यह परम चैतन्य कार्य ाी यह कार्य करेगा। केवल उस समाधि में कूद पड़िये बहुत से लोग करता है। आप यदयपि बुद्धि से यह सत्य जानते हैं, अपने हृदय में वे इसे अनुभव नहीं करते और बहुत 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-11.txt ता -11- से लोग जो इसे अपने हृदय में अनुभव करते हैं वो अपने चित से कार्य नहीं करते। अतः आपने केवल इन तीन चीजों को सुधारना है। पहला आपका मस्तिष्क, दूसरा आपका इृदय और तीसरा आपका जिगर। यादि आप इन तीन अंगों को सुधार सकते हैं तो परम चैतन्य कार्य करेंगा। परन्तु घन पर इतना चित्त देना व्यर्थ है। परम चैतन्य आपको सब कुछ उपलब्ध करायेगा। मगर अति-बोधिकता के अभाव में यह धन न भी बनाए तो भी यह अचछी तरह समझ लेना चाहिए कि यह उसके लिए सम्भावनाएं उत्पन्न कर देगा। और यह जानना अति सुखद है कि अब आपको परम चैनन्य का ज्ञान है और आप इसे वश में कर सकतें हैं। इस पर प्रभूत्व जमाये बिना अपने एक जिन्न की भांति । आप इससे कह सकते हैं "यह करो" "वो करो"। आदर पूर्वक यह आपके कार्य करेगा जब आप स्वयं को परम चैतन्य के घेरे में जानेंगे तभी आप अत मधुर, अति प्रिय, हा सनेही तथा विवेकशील बन सकेंगे। आपको ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हो। ++ 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-12.txt ८ -1 2- श्रीमाता जी का दीवाली पूजा वार्ता मोन्टेसेटिनी इटली 29-10-1989 सारांश परमात्मा के आनन्द का अनुभव ही दीवाली पूजा का लक्ष्य है। लगभग । 0.00 वर्ष पूर्व श्री राम के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में दिवाली मनाई गई थी। अर्थात उस दिन मानव-हित का राज्याभिषेक हुआ। सुकांत दारा बताये गए परोपकारी सम्राट के गुण श्री राम में थे। परोपकारी राजा का अभिषेक एक आनन्ददायक घटना थी। इस प्रकार - प्रजा हित ही जिसका का कार्य तभी सम्भव है जब लोग ऐसे व्यक्ति का चयन करें एक मात्र लक्ष्य हो। इस प्रकार का लक्ष्य एक सहजयोगी का होता है। अतः हम इस तथ्य तक पहुंचते हैं कि ज्यव्ति को सहज-योगी बनना है। पूंजीवाद और साम्यवाद दो प्रकार के सिद्धांत हैं। पहला धन संचालित है जबकि साम्यवादियों दूसरे का आधार आज्ञा-पालन है - जो कि सहज योगियों के लिए सर्वोत्तम है। मैं आज्ञापालन की भावना इतनी अधिक है कि अपने हित की कोई बात सनते ही वे इसे मान लेते हैं। वे बहुत बुदिमान और गहन हो गये हैं इसके विपरीत हम अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में खरो गये हैं पूंजीवादी देशों में हित-भाव समाप्त हो गया है| जब आपको पागलौं की भीति व्यवहार करने की स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है तो आप अपना सर्वनाश कर लेते हैं। उदाहरण के रूप में लोग किसी भी विवेकहीन फैशन के दीवाने हो जाते हैं उद्यमी लोग जो आपका अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं इस प्रकार के विचार उनकी देन हैं। परोपकार सर्वोच्च है। यदि हम वास्तव में स्वतंत्र हैं तो हमें अपने हित मार की हर बात मान लेनी चाहिए। दीवाली से दूसरे दिन ईश्वर ने नर्कासुर नाम के राक्षस का वध किया। आज दुष्ट लोग पुरस्कृत हो रहे हैं यह दोप क्यों? दुष्कार्यों का आनन्द लेने वाली हमारी दुष्प्रवृति का ही अन्त होना चाहिए। हमें समस्याओं को पहचानना है। आत्मावलोकन करने पर आपका हृदय खुलता है। बिना हृदय खुले आप आत्मानन्द नहीं ले सकते। हृदय खुलते अंश होता है। हो आपके सब बंधन टूट जायेंगे। छोटी-छोटी चीजों में भी आनन्द का अंश होता है| अपनी जाति, राष्ट्रीयता आदि को भूला दीजिये। यदि आप सामूहिकता का अंश नही बन पाते तो आप में कुछ दोष अवश्य हैं । --৭ 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-13.txt -13- दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। वे गर्व हीन हैं। दूसरों पर भार १ला नहीं डालती। परन्तु मानव-आचरण इसके विपरोत है, धन मिलते ही मनुष्य घोड़े पर ु , कमल पर विश्राम करतो लक्ष्मी जी पानी में से अवतारत होती है। सवार हो जाता है। लेती हैं। हमें भी स्वयं को अपनी पदवो, वैभव तथा हैं तथा स्वयं को भार -हीन कर शिक्षा के अहं से मुक्त कर लेना चाहिए, इस प्रकार मूर्खता आप में अर्ह भार बढ़ाकर होती हैं। उनका गुरूत्व आपको अधोपतन की ओर ले जाती हैं। लक्ष्मी जी संतुलित खड़ी केन्द्र सुन्दर प्रकार से संतुलित है। इसी प्रकार आपको भी सन्तुलित होना है। आपको पृथ्वी मां पर आश्रित होना है जिससे जरा सी भी घटना के होते ही आप सन्तुलन में आ जॉए। लक्ष्मी जी के दो हाथों में गुलाबी कमल है। गुलाबी रंग उनके स्नेह, आतिथ्यभाव नी व्यक्ति के दार पर । 0 कुत्ते सड़े हों। ध तथा आनन्दमुद्रा को प्रकट करता है। एक कोई भी, एक कुत्ता तक भी, अदर न आ सके। इस धन का क्या लाभ। कोई अति, दूसरों को आनन्द तथा सुख आइम्बर या अंतिकमण नहीं होना चाहिए। कुछ ऐसा हो जो दे सके। यदि अतिथि किसी क्स्तु की प्रशंसा करे और मेजबान यह कहें कि उसने उस वस्तु विशेष को बहुत ही सस्ते में प्राप्त किया है तो इससे प्रकट होगा कि वह व्यक्ति अपने अतिथि को आनन्दित करना चाहता है। वस्तु को मंहगा बताना आकामक होना है। आपको हर चीज में से आनन्द प्राप्त करने की योग्यता होनी चाहिए अन्यथा आप सहजयोगी नहीं है। आपको कलाकारों को प्रोत्साहित करना है । कहा जा सकता है कि यह ईमानदारी नहीं है। कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है परन्तु आप कीचड़ को नहीं देख पाते। कमल अपने सौंदर्य तथा सुगन्धि से पूरे तालाब को ढक लेता है। इसमें कपटता की कोई बात नही। एक सहज योगी होने के नाते अपने कार्य को समझने में ही निष्कपटता ा। है। अपने प्रेम से आप सबको प्रोत्साहित करते हैं । प्रेम से ही आप सबकी सहायता करते हैं सब में आत्म किश्वास उत्पन्न करते हैं। स्वयं से निष्कपट होना ही महत्वपूर्ण है। बुद्धि से देखें कि दूसरे को चौट पहुंचाने के लिए यदि आप कुछ कहने वाले हैं तो ऐसा न करें। दूसरों को प्रसन्न रखने से ही आपको प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है। जो लोग कभी न मुस्कराते हों उनहें आप गुद-गुदाइयें। आपको बाल सुलभ हो जाना है। आनन्दमय हो जाना ही लक्ष्मी जी की विशेषताओं में से एक है। ---6 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-14.txt -14- दूसरे हाथ से लक्ष्मी जी देती हैं। कैमकाली व्यव्त को गुप्त रूप से आवश्यकता एक हाथ ने व्या दिया इसका ज्ञान दूसरे हाथ को ग्रस्त लोगों को धन देना चाहिए। नहीं होना चाहिए। व्यव्ति की आवश्यकता को समझ कर उचित समय तथा स्थान पर ा] देना ही आवश्यक है। यह रोमांचित करने के लिए नहीं होना चाहिए। इससे हदय का अध्यात्मिक उन्नति के लिए देना ही उत्तम है। उदाहरणतया मेरे लिए एक उत्पान हो। मैं अपने आप में पूर्ण हूँ । पुष्प ही पर्याप्त है। एक और हाथ से लक्ष्मी जी रक्षा करती हैं। यह हाथ सभी सहज योगियों के लिए रक्षा का हाथ है। सहजयोगी में क्योंकि आत्मा विद्यमान है। में सदा उनके साथ हूँ। कलाकारों, कला क कीवता, साहित्य, निश्छल राजनीतिज्ञों तथया न्याय-परायण राज्य- कर्मचारियों की, ओर उन सब लोगों की जिन्हें रक्षा की आवश्यकता है रक्षा करो। परन्तु हमें दुसरों की अच्छाई की रक्षा करनी है। वह अनुचित को आश्रय नही देना चाहिए। सहज योगी है या नही हमें उनके चारित्रिक गुणों की रक्षा करनी है। आप शाश्वत, असीम और विश्व रक्षक हो। आपको अत्याचारी नहीं होना चाहिए। किसी सास-बहू को लड़ते देख हम उन्हें "झगडालू" कहते हैं परन तु हम स्वंय भी वैसा ही करते हैं। हम कटार नहीं हैं हम कमल-पुष्प हैं। कमल से चोट कैसे करनी है? यह जानने के लिए हमें सहज योग में गहन होना है। लक्ष्मी की छत्र-छाया प्राप्त होने पर आप महा-लक्ष्मी तत्व में बदते हैं। तब आप विश्व-हितार्थ सोचते हैं कि लोगों को आत्म साक्षात्कार कैसे दिया जाये। आपका दृष्टिकोण परिवर्तित हो जाता है। हम समस्या समाधान के लिए हैं। हमें दायित्व लेना है। यदि आप एक निर्माता हैं तो कुछ महान सृजन कीजिये यदि आप संगीतज्ञ हैं तो सुन्दर संगीत की रचना कीजिए, यदि आप एक सरकारी कर्मचारी हैं तो अपना कार्य भली-भांति कीजिए| मैं तुम्हारी सहायता कूगी। सबका व्यक्ितित्व निखरेगा। सूषुमना के मध्य मार्ग पर यदि आप रहते हैं तो कोई आपका कुछ नही बिगाइ सकता। यदि आप दूसरों में दोष ढूंढते हैं या दूसरों को कश में करने का प्रयत्न करते हैं तो आप सहजयोगी नहीं हैं। नेताओं को भी अधिकार जगाने का प्रयत्न कतई नहीं करना चाहिए। सम्पूर्ण ब्रहम-चैतन्य एक शम्त तत्व है यही सब कुछ चला रहा है। अपने उत्थान में कैलाश सम ऊँचाई तथा हर उपलब्धि पाने के लिए आप को शांत रहना है। ईश्वर आपको आशिर्वादित करे । পce 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-15.txt -15- श्रीमाता जी की इस्ताम्बुज यत्रा 30 अनतूबर, 1989 टर्की पहुंचने पर अत्यन्त स्वेद तथा मय अनुभव करते हुए मैंने यह जाना कि हमारे देशों के बीच कितना अन्तराल है। इस शिशु टर्की जिसकी यात्रा श्रीमता जी अब कर रही हैं और तथाकधित महान अमेरिका जहां श्री मां ।972 से जा रहीं हैं। मुस्कराते चेहरों ने मां का स्वागत किया। श्री मां ने बहुत ही प्रसन्न हो कर रहा कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे वे लौट कर अपने जन्म-स्थान वाले घर में आ गयी हो। टर्की और भारत की सामान्यताओं के विषय में उन्होंने बताया। उनके यह पूछने पर कि व्या टर्की में ऐसे महान संत हैं जो इस देश की सुन्दर चैतन्य लहरियों को देते हैं, यह सत्य प्रकाश में आया कि यहां बहुत से सूफी संत रहे और कुमारी मेरी का भी जन्म पश्चिमी टर्की का अभास टर्की के लोगोंको में नेफीशस नामक स्थान पर हुआ सहजता और स्वतंत्रता एक विशाल हृदय प्रदान करता है तथा उनका सहजयोग में प्रवेश भी सुगम बनाता है। प्रस्तुति बाबोते न्यूयार्क ढारा दवारा श्री माता जी की जन-वार्ता इस्ताम्बूल 2 नक्म्बर, ।989 हसारंशिह कुरान का कयन है कि एक समय आपगा जब सातों आकाशों में बादल उठेंगे और पर्वत को तोड़ देंगे । तब जो वर्षा होगी वह पृथ्वी पर शान्ति तथा मानव-मात्र में जो कि परिवर्तन लापगी। इसने साफ शब्दों में सहजयोग तथा कुंडलिनी की जागृति के विषय में कहा है। सर्वशवितमान परमात्मा हमारे के अ्ं को क्श में करेगी मनुष्य पिता हैं। वे हमें किसी भी अन्य पिता से अधिक प्रेम करते हैं। वे चाहते हैं कि हम उनके साम्राज्य में प्रवेश करें। वे नहीं चाहते कि हम दुःख झेलें। विशुद्धी चक को साफ करने के लिए आपको "अत्लाह-ओ-अकबर" कहना है वही करीम तथा अकबर है। जिब्ान्टर की चटूटान न हो कर उनके बहुत ल्लाह रहीम, से रूप हैं जेसे एक पिता-भाई, दादा पुत्र या पति भी हो सकता है। हमारी अन्तरआत्मा ---৪ 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_12.pdf-page-16.txt -16- ही झलक है। अतः हमारे क्दर ान्मा का सामुहिक अस्तित्व सर्वशक्रितमान ईश्वर की आत्मा बनते हो आप सामुहिक भी हो जाने हैं। है। यह प्रमाण-पत्र या सूचना मात्र तथा दुसरो के चको को अपनी नही है। आप अपने मध्य-सनाय मंडल में आकर अपने अंगुलियों के पोरों पर अनुभव कर सकते हैं। आत्म प्रकाश पा कर भपका चित्त ज्योति- पंज बन जाता है। तब आप स्वामि बन जाते हैं। बरी आदते कोड कर आप एक स्वतंत्र दाष्ट लालच भापका चित्त अन्यन्त कम्णामय, तथा शक्निशाली व्यक्रितित्व बन जाते हैं। और वासना-होन निर्मल हो जाती है। आप इतने- शक्ितशाली हो जाते हैं कि आपके कटक्ष मात्र से दूसरे व्यवित में शान्ति तथा प्रेम का उदय हो जाता है। तब चित्त ज्ञा न का विराट के ज्ञान का ग्रोत बन जाता है। चित्त सूक्ष्म हडायनैमिक बन जाता है। और कोई आदत आप को आप इतने सशवत हो जाते हैं कि आप सृजनात्मक हो जाते हैं। दूसरे आप आत्मा बन जाते हैं और आनन्द लेते हैं। साक्षी वश में नही कर सकती। बन नि्लिप्त भाव से आप नाटक को देखते हैं। अपनी समस्याओं का हल तब आप पहले से अचछो तरह करते हैं। आनन्द सागर में आप विलय होने लगते हैं। परमात्मा के साधान्य में आकर हर कदम पर आपको चमत्कार होते मिलते हैं। हर कदम पर किसी आप में शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक को मार्ग-दर्शन करते हुए अनुभव करते हैं। रूप से सुधार आ जाता है। कुछ समय पश्चात् आप दूसरों को प्रकाश देने तथा लोगों के रोगों को दूर करने में तथा इस प्रकार के कार्य जो चमत्कार कहलाते हैं करने में समर्थ हो जाते हैं।