आप की मौही सभी आदि गुरूठों की माँ हैं, उन्होंने ही सभी आादि गुरूओं को शिक्षा दी, उन्होंने ही आदिगुरू ओं का सृजन किया, और वे ही आण में से आदि गुरूोकर सजन करती हैं । र वा कर এ Cute ू ३ े संड । अक 5 रविवार 23-7.89 को तागो डी ब्रीस में हुई गुरू पूजा के संकलित अँच गुरु तत्व हमारे अन्दर निहित है। कभी कभी इस तत्व का पोषण किया जा सकता है यरन्तु इस पोपण को अपने अन्दर वनाये रखना पड़ेगा। जब आप किसी तत्व की बाहुय रूप से आराधना करते हैं तो आप आन्तरिक रूप से भी उसकी आराधना करते हैं। नाभी के चारों और भवसागर है जो कि भ्रम का सागर है, वह गुरू तत्व नही हो सकता। भवसागर में छिपे हुए चक हैं जिनको जागृत और प्रकट करना है। इस तत्व कुछ की सीमा स्वाधिष्ठान चक् की परिकृमा से निधारित होती है स्वाधिष्ठान चक्र आपको सृजनात्मकता देता हैं। जो व्यक्ति गुरू है उसे सृजनात्मक व्यक्ति होना पड़ता है । अगर आप सुजनात्मक व्यक्ति नहीं हैं तो आप गुरू नहीं हो सकते । यदि आप सुजनात्मकता में पीछे हैं तो आप गुरू तत्व में भी भीछे हैं वर्योकि गुरु को साथारण मनुष्योंगें से गतिशील व्यक्तित्व बनाने होते हैं। गिरे हुए मनुप्य से उसको एक नया व्यक्तित्व बनाना हैं तो इसको कैसे किया जाय? आपके पास कुंडलिनी जागृत करके लोगों की विमारी दूर करने की शवि्त हैं, यद इतना होने पर भी आप एक नये व्यवितत्व का सृजन नहीं कर सकते तो आप गुरू नही हो सकते। नये व्यव्तत्व को गतिशील व करूणामंय होना चाहिए, आप लोगों को करूणा के दाराही आपको अपनी करूणा की शक्ति का प्रयोग करना हैं। वेदल सकते हैं, कोध के दारा कभी नहीं। अगर आप करूणा की आन्तरिक इच्छा नही महसूस करते और दिखाते हैं तो वह व्यक्ति आपकी चिन्ता नहीं करेगा। बहुत से लोगों को जागृति मिलती हैं, वे आश्रम में पूजा में आते हैं परन्तु उनके गुरू तत्वका सृजन नहीं होता जब तक कि वै बहूुतसे और दूसरे सहजयोगी न बनाएँ गुरू की दूृष्टि इस बातपर रहती हैं कि वह जौर अधिक सहजयोगी केसे बलाता है। चित्त, स्वाधिष्ठान चक्र का बल और शकव्ति हैं। यदि आपका चित्त अस्थिर हैं, दूसरों की आलोनना गें व्यस्त रहता है, तो आपका गुरूतत्व नष्ट हो जाता हैं, सड़जयोग के प्रयत्न व्यर्य हो जाते हैं । आपका या कैंद्रित कम से कम चित्त पवित्र होना चाहिए। आपका चित्त स्वनुशासन , करने से विकसित नहीं होता। आप अपने बच्चों, पत्नी, और परिवार के प्रिय रिश्तेदारों पर अत्यधिक ध्यान देते हैं। जब हमारे चित्त में दूसरों के लिए करूणा और प्रेम आ जाता हैं तभी हम उनकी जागृति के लिए कार्य कर सकते हैं सिर्फ प्रेम की प्रगाढ़ता ही आपको शुध्द चित्त प्रदान कर सकती हैं। चित्त जो कि स्वयं से जुड़ा होता है, पवित्र होता है। आध्यात्मिकता का सुझाय प्रेम हैं। आध्यात्मिकता सेम फली की तरह सूखी नहीं हैं। यदि साबून साफ नहीं कर सकता तो वह किस काम का? यदि प्रत्येक व्यक्ति इस तरह के सूखे आध्यात्मिक आदमी के समीप आने से डरता है तो वह आदमी किस काम का हैं? यदि सृजनात्मकता हमारा ध्येय है तो चित्त को प्रेम और करूणा से शुध्द करना चाहिए। जब आप हहृदय में प्रेम जीर करूणा भर लेते हैं, तो बह आपको गतिशील बता देता है। अपने प्रेम के प्रतिबिंब को दूसरे व्यक्ति में देखने का आनन्द अनन्त हैं, जैसे कि आप अपना प्रतिबिंब दर्पण में देखते हैं। इस तरह आप प्रेम, करूणा दर्पण से शुदित अपने प्रतिबिंब के दारा सृजन करते हैं । यदि आप केवल स्वयं के लिए जीते हैं तो आप कुछ भी विकसित नही हुये हैं , आपने गुरु के प्रति अपना कर्तव्य नही निभाया हैं। यदि आप गुरू तत्व को विकसित कर लेते हैं तो आपके ऊन्दर दुध्दिमता पैदा हो जाती है। बुदध्धिमता तब हैं, जब आप अपनी गलती को जान लेते हैं और उन्हें सुधार लेते हैं, तभी संतुलन आता है आरम्भ में गुरू तत्व सीमित होता हैं, जैसे आप अधिक सहज योगी बनाते हैं यह क्षितिज की तरह अपनी सीमापं बढाता जाता है। ओर सम्पूर्ण संचालन होता है। आप नाभी चक़ अपनी नाभी के्द्र किन्दु है जिसके चारों मां से पाते हैं, इसलिए एक गुरू में माँ के गुण अवश्य होने चाहिए। एक गुरु को अपने बच्चों से प्रेम करना चाहिए, उन्हें सुधारणा चाहिए और उनके विकास में मदद करनी चाहिए। हम प्रेम के साथ सत्य कैसे कह सकते हैं, इमें शिष्य की भलाई देखनी है हो सकता है कि वह आज सत्य को सुनना पसन्द न करे परन्तु एक दिन वह इसके लिए आपको कन्यवाद देगा। यदि शिष्य का ध्येय उत्थान नहीं है तो अच्छा होगा कि उसे अपने पास न रखें। हम व्यर्थ की भौतिक वस्तुओं से प्रेम कर सकते है पर मनुष्य से नहीं। प्रेम के लिए करिप। आपको अपने सारे ज्ञान को प्रेम के साथ ऊपर प्रेम। इस प्रेम को आप दुसरों में स्थापित है उठाना है नहीं तो आपका गुरू तत्व कमजोर रह जाएगा और एक दिन आप स्वयं को सहज योग दायरे से बाहर पायेंगे। पहले आप अपने गुरू तत्व को विकसित करने की कोशिश कीजिए, नहीं तो गुरू पूजा करने का कोई लाभ नही हैं । आज, जब आप मैरी गुरु के रूप में पूजा कर रहे हैं, कितने ही आशीर्वाद क्यों न हो वे तब तक कार्यात्वित नहीं हो सकते जब तक रे - 3 - कि आप गुरू तत्वं को गहराई तक विकसित न करें। देवदूत या देवता बनना सरल हैं परन्तु उे बनाये रखता बहुत कठिन हैं। मैरी इच्छा हैं कि मेरे सभी बच्चे मेरे प्रतिबिंब स्वरूप बन जायें और मेरे प्रतिबिंब में एकीकरण का अनुभव करें। गोष्टी, 22.7.89 के लागो डी ब्रस, माउन्टेन्स, इटली में विषय "सहज योग को किस तरह से प्रस्तुत करें" सहज योग के वे सुनहरे वर्ष, जिनका कि वादा किया गया था अब आ गयें हैं। सहज योग का प्रसार तेजी से हो रहा है और सम्पूर्ण संसार में नये केन्द्र खुले रहे हैं। हिम से दकी पर्वत चूँसला से थिरी हुई सबसे सुन्दर झील के पास हजारों सहज योगी गुरूओं की मां की आरायना के लिए एकत्र हुए। हम सभी को टर्की से अकबर ढवारा लाये गयें शुभ समाचार को सुन कर बहुत प्रसन्नता हुई। ग्रीस के सहज योगियों ने डमें बताया कि उन्होंने श्री माताजी के कार्यक्रम की सफलता के लिए किस प्रकार श्री गणेश की प्रार्थना की । 500 सायक आये, प्रेस, रेडिओ और टेलीवीजन ने समाचार दिये। शायद आप प्रेस पर समुचित ध्यान नहीं दे रहें हैं सहज योग स्थूल से सूक्ष्म तक, जीवन के सभी पहलुओं का वर्णन करता हैं । हमें इसे प्रस्तुत करने के विभिन्न तरीकों के बारे में सोचता है। पुराने सहजयोगियों का यह कर्तव्य हैं कि वे नये लोगों के लिये सहज योग को सरल बतायें। बहुत से देशों में यह लगभग सात दिन की अवधि के पक पाठ्यक्रम त के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा हैं। नये आने वालों को इससे अधिक जानकारी मिलती है, वे अच्छी तरह से सीखते हैं और वे इस तरीके को पसन्द करते हैं । ा आस्ट्रिया के सहजयोगियों ने एक विशेष प्रश्नसूची तैयार की जिसमें उन्हेोंने नये लोगों से पूछा कि उन्हें कान सी चीज ने सबसे अधिक प्रभावित किया और कौन सी चीज ने तकलीफ दी। उन्होंने पुराने सहजयोगियों के करूणामय व्यवहार की प्रसंशा की और जहाँ उच्छसंलता थी उसे भी पैश किया। कुछ पुरानै सहजयोगी अपने ज्ञान को दिखाना चाह रहे थे और अपने सहज योग में बीते वर्षों की संस्या की डींग हांक रहे थे। हमें नये लोगों के हृदय से बात करनी चाहिये दिमाग से नहीं। उनके दिमाग से बात करने में हम <-4- केवल उनके अहंकार में प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं । आस्ट्रिीया के सहजयोगियों ने एक सुन्दर संगीत की टेप सुनाई जिसने सबके हृदय को छू लिया और उसके शत्र्दोने अपना संदेश सबको पहुँचा दिया। सार्वजनिक कार्यक्रम की सफलता सामूहिकता का ठोस परीक्षण है, इस संविप्त नोट के साथ गोष्ठी का समापन हुआ यदि सामुहिकता काफी प्रभावशाली है तो साधक उनके उदाहरण से आकर्षित होंगे। इसलिए प्रत्येक सहजयोगी की इच्छा और प्रयत्न सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं । पक अच्छे साधन होने के साथ ही हमें यह याद रखना चाहिए कि श्री माताजी ही सब कुछ करती हैं। বরाइम अब्रहैम नैतिक गुण या सदाचार, सत्यनिष्ठा, नग्रता और पूर्ण समर्पण के प्रतीक है। चलते राहीका स्वागत वे अपने तंबूसे निकलकर करते थे और जोर डाल कर राही को अपने तंबूमें बुलाते थे और इसको अपना सैभाग्य समझते थे। अत्यन्त कृतार्थ होकर वे पैगंबर अतिथि सत्कार करते थे और अतिथि को स्वर्गसे टपके रत्नोका स्थान द्वेते थे । "मेरे बिना यहाँ से ना जाँप। थोडा अगर आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो अपने दाससे मिले प्रभू, जल लागेदे चरण चोकेदे, कृत्ष की छायामें विश्राम करे तब तक मैं कुछ खाने को ले आरउँ , करें - क्योंकि आप अपने दास के पास ताकि आपको नवीन शव्ति प्राप्त हो। तब आप प्रस्थान आए हैं। कनफयुकषियस उनके व्यवितत्व की तरह, उनके उपदेश स्वाभाविक मानवी और सरल हैं। जिससे कि लोगों को में उनका आसानी से समझ आ सके, उन्होंने अपनी बात समझाने के लिए अपने जीवन प्रयोग किया। उन्होंने कहा कि जीवन पाँच सम्बन्धों मे बैटा हैं जो निय हैं । -5 राजा और मन्त्री । ह ि पति और पत्नी 21 पिता और पुत्र 3४ भाई और भाई 48 मित्र और मित्र 58 इन सम्बन्धों को माननीय और नैत्तिक प्रकार से मानना और निभाना ही स्वर्ग की इच्छा है। उन्होंने आध्यात्मिक और संसारिक मनुष्य में अन्तर पेसे बताया, "वरिष्ठ मनुष्य सही बात को समझता है और निम्न मनुष्य केवल लाम्भदायक बात ही समझता है।" उन जैसे ज्ञानी का विचार था कि पाँच नैतिक गुणों का पालन करना चाहिए, परोपकारिता, सत्यनिष्ठा, उपयुवतता, विवेक और ईमानदारी। राजा जनक और दुघ का क्टोरा श्री माताजी ने राजा जनक के बारे में एक बड़ी सुन्दर कथा सुनाई :- "आप जानते हैं कि राजा जनक को "यिदेह" कहा जाता था। एक बार महान पीडत नारद नै उनसे पूछा, "आदरणीय महाराज अपको विदेह कसे कहा जाता है, आप इस संसार में रहते हैं तो आप विदेह कैसे हो सकते हैं?" राजा जनक ने कहा, "यह बड़ी सीधीसी बात है। मैं आपको इसके बिषय में शाम को बताउँगा। अब आप मेरे लिए कृपया यह छोटा सा कार्य कर दीजिए। इस कटोरे में दूध है। आप यह कटोरा लेकर मेरे साथ आाथ चलप। इस बात का ध्यान रहे कि पक ूंद भी दूध धरती पर ना गिरे। तब ही मैं आपको बताउँगा कि मुझे विदेह क्यों कहा जाता है"। नारद जी कटोरा लेकर जनक के पिछे चलने लगे और हर जगह उनके साथ साथ रहते । उन्हें कटोरा बडे ही घ्यानसे पकड़ना पड़ रहा था क्योंकि कटोरा दुध से लबालब भरा था और जरासे हिलाने से दुघ छलक जाता। वे काफी धक गए। तब शाम को आराम के समय नारद जी ने दूष पूछा "कृपया अब मुझे बताइए। मैं कटोरा लेकर आप के पीछे चलते तंग आ गया राजा जनक ने कहा कि पहले बताइये कि आपने क्या देखा? नारद ने कहा इस दूध के कटौरे के अलावा कुछ भी नाही। राजा जनक ने कहा, "क्या आपने मेरे सम्मान में निकाला गया जुलूस देखा? फिर आपने देखा क्या कि एक दरबार था और उसमें नृत्य का कार्यक्रम था? क्या आपने कुछ भी नही देखा? नारद : "नही महाराज, मैंने कुछ नहीं देखा ' राजा जनक : "मेरे बच्चे, ऐसा ही मेरे साथ है मैं भी कुछ नहीं देखता । पूर्ण समय मैं केवल अपने चित्त पर ध्यान रसता हूँ। वो कियर जा रहा है? इस बात का अवश्य ध्यान रखता हूँ कि दूध की तरह छलक ना जाए" चित्त-निरोध को समझाते हुए, श्री माताजी ने कहा, "इस प्रकार का चित्त तब ही विकसित होता है जब अपने चिलत्त पर ध्यान रसे। चित्त-निरोध का अर्थ है चित्त की बचत। आपका ध्यान धन जमा करने में और संसारिक कस्तुओं में नही, पर अपने घ्यान को ही बचाने में लगाना चाहिए। जैसे आप अपना चन देखते हैं, गाडी चलाते समय सड़क पर प्यान रखते हैं, जैसे अपने बचे को बढ़ता हुआ देखते हैं, जैसे पत्नी की सुन्दरता देखते हैं या पति की देखमाल करते हैं - सब मिलाकर अपने आप को देखिए, अपने ध्यान को देखिए"। श्री माताजी ने जोर ड्राला कि सहज योग में लगन और ईमानदारी का महत्त्व है और दिलसे कनफ्यूशियस कहते हैं, और प्रेम से संगीत होना चाहिए और संलग्नता से प्रार्थना। इसी प्रकार "इमानदारी और लगनता से आत्म पूर्णता पूर्ण होती है। जिसके पास लगनता जैर ईमानदारी हो, वह केवल अपने को ही पूर्ण नहीं करता पर इस गुण से अन्य मनुष्यों को भी पूर्ण करता है।" इस उच्दरण की महत्ता सहज योग में आकर बढ़ जाती हैं । एक लगन पूर्ण और सुला हृदय कुंडलिनी की सुसुमना नाड़ी मार्ग से उठने में बहुत सहायक होता. है। -7 AD-VENTOF THE MA:STERS गुस्ौ का आगमन 35. Janaka X☆. Abraham 16 000 B C 10 000 India. जनक मारत 2 000 B C Mesopotamia. मेसोपटामिया অরञाडम् 1A. Moses 1 300 B C Feypt. मोनेज . मिस्र Zarathustra 1 000 B C Persia. जराघष्ठा परसिया Lao Tze スL *. Confucius 604 R C China. लाओे जे चीन ОИГИСТИS 551 B C China. कनफ्यूशियस चीन 3. SOcrates 469 B C Greece. सॉकेटीज ग्रीस *. Muhammad aттад 570 A D Fiecca. मुहम्मद मक्का Nanaka 16691 hwija. नानक भारत Sai Nath ISS6 A D India. सांईंनाथ भारत •...8 सौकेटीज सौकेटीज ने अपने शिष्यों को सत्यका मार्गदर्शन कराया। इसके लिए उन्होने विचारो के अनेक पहलुओं पर ध्यान दिया जबतक कि सत्य स्थापित नहीं हो गया। वे हमारे सामने आकारा का सिध्दान्त लाए "जैसे उपर, वैसे नीचे"। जो आकार का अनदेखा क्षेत्र है वह ईश्वरीय और दैविक के जौर विराट की स्वीर्गिक परतो पर सांसारिक प्रतिरूप है। जिन क चीजों का सांसारिक सतह पर अस्तित्व है वे केवल अपूर्ण प्रतिबिम्ब हैं और मानव की अपूर्णता और दोषों के असर में होने के कारण कभी भी बदल सकती हैं। परन्तु जिसका निरपेक्षता जीर संपूर्णता में अस्तित्व है वह' दैविक, नर्दोष, उत्तम, अनन्त और कभी ना बदलने वाली है। आत्मा आकार के क्षेत्र से उत्पन्न होती है और सोज और आकांक्षा से होकर वहाँ लाट जाती है। इम सहज योग में इस आत्मिक और कृमिक विकास की ओर कार्य कर रहे हैं अपनी चैक्य लहरियों को शुध्द कर के हम ईश्वर के अधिराज्य में प्रवेश करते हैं। "आगे आने वाले संसार में जो विना दीक्षा - संस्कार ज्ञानवर्षन और आलोकित हुए प्रवेश करेगा, वह मुसीबत में फँसेगा परन्तु जो गुध्द होकर और आलोकिति हो कर पहुँचेगा, उसका वास देवों में होगा"। नानक जैसे ही वे दस वर्ष के हुए, उनकी माँ ने सोचा कि उनका जनेऊ हो जाना चाहिए। जैसे ही ल वे बोले, "सुकिए जनाव , मैं ये चागा क्यों पहनु? नानक को जनैऊ का थागा पहनाया जा रहा था, क क्या ये मुझे भला और दयालु बना देगा?" "मुझे पूरा विश्वास नही हैं।" "तब मुझे इसकी आवश्यकता नही है, इसकी जगह मुझे दया और सन्तोष का चागा दीजिए।" "एक पेड़ की पहचान उसके फलों से होती है और एक आदमी / धर्म उसके कर्मों से पहचाना [ना व 6. और धार्मिक अनुष्ठान, सत्यनिष्ठ जाता है। जो कपड़े, प्रतीक , आकार संस्कार, धार्मिक कृत्य कर्मो की ओर नही जाते, वे इन्सान को आत्मिक उन्नत नही दे सकते। असली कार्य ये है कि हमे अपने दिमाग से दुष्ट प्रवृत्ति को दूर करना है। अगर हम वो नहीं कर सकते तो हमारी सारी तपस्याएं बेकार हैं।" हे जर भगवान का घर है। इसमें ईश्वर ने अपरिमित ज्वाला रख दी "ये शरीर एक राजमडल है" - गुरु नानक साईनाव "मेरे मालिक ने मुझसे कहा कि जो मांगे उसे उदारता से दो| कोई विवेक से नही माँगता। मेरा भन्डार खुला है। कोई भी गाडी लेकर नहीं आता कि बहुमूल्य घन मुझसे ले जाए। में कहता हूँ सोदो जौर खोजी, पर कोई भी इतनी तकलीफ नहीं उठाना चाहता। आपनी परमपूज्य माँ के घ सच्चे बेटे बनो और पूर्णतः अपने आप को भर लो। इमारा क्या होना हैं? यह शरीर इस पृथ्वी को लौट जाएगा और जिस हवा हী हम श्वास लेते हैं वो हवा में पिघल जाएगी यह अवसर फिर नहीं वापस आएगा।" दत्तात्रेय की सृष्टि एक बार नारद मुनी देवी सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती के भास गए। उन्होंने उनसे कहा कि अत्रि की पत्नी अनुसूया सारे संसार में सबसे सचचारत्र और गुणवान स्त्री हैं। देवियों ने अपने अपने पति ब्रह्मा, विष्णु और शिव को, अनुसया की धर्मपरायणता की परीक्षा लेने के लिप भेजा। अनुसुया ने अपने पति के पैर घोप और उसी जल से, ब्रह्मा, विष्णु और महेश जो ब्राहूमण का भेप घारे हुए थे, उन पर छिड़काव किया। वै तीनों बालक में बदल गए। तीनों देवो की शक्ति छिन गई थी कि वे अपने असली रूप में लौट सर्के, और तीनों उसके आश्रम में फैँस गए| सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती अपने पतियों को सोजने आई। तब अनुसूया ने कहा कि क्योंकि ·10 10 उसने इन बालका का पालन इतनै दिन किया है तो उन पर उसका मी कुछ हक बनता है। देवों ने बात मान ली और कहा की अगर के उनकी छोड़ देगी तो को एक ऐसे बालक की सृष्टि करेंगे जिसके तीन सिर और छः मुजाएँं हों। इस तीन सिर वाले दैविक रूप का नाम व्ताक्रेय पड़ा । बीच का सर विष्णु का प्रतीक है, दायाँ सर शिव का और तीसरा सर व्रहूमा का प्रतीक है । जो कुत्ते दत्तात्रेय के साथ दिलाए जाते हैं वे उन परम भक्तो के प्रतीक हैं जो सदा अपने मालिक के वफुरदार रहते मावि गुरु गुरु दत्ताक्रेय आदिगुरू बन्तात्रैय सैध्वान्तिक और आदर्य गुरु हैं। वे आदि-प्रतीक है और मोलिक प्रतिमान है जिसमें से सब गुरू प्रकट हुए हैं। वे गुरु तत्व है। आदिगुरू होने के कारण उन्हेोने मानव को रास्ता दिखाने के लिए कई बार अवतार लिए| वे दस गुरूओं के रूप में आप। जनक से सांई नाथ तक, इस महान् आदर्श ने केवल इसलिए अवतार लिया, कि ये मानव के लिए ईश्वरके प्रेम को रूप दे सकेग बार वार ये इसलिए लौटे कि हमारी गुलतियों को सही कर सके जीर हमें ऐसे जीवन में बापस ले आ जहाँ ईश्वर ही केद्र हो । श्री दत्तात्रैय ने बार बार अवतीरित होकर और सूब मेहनत करके मनुष्य का मार्गदर्शन किया. इस बात से हें यह पुता लगता है की वे एक सरथे गुरु है और उनका प्यार और यैर्य भी छलकता है। गुरू दत्तानेय ही मानवता को भवसागरक पार लें जाते हैं। बे हे भ्रम के विश्वासपाती समुद्रों से सुरक्षा के छोर लक लाते हैं , जहाँ श्री माताजी, श्री दुर्गा की तरह, वहे पसार हमारी प्रतीक्षा करती है। श्री दत्तात्रेय का केवल एक ही कार्य था हमारे] धर्म को स्थापित करना ताकि हम विकसित हो सके। उनकी हर अभिन्यक्ति को बस यही करना था। तीर Tom श्री दत्तात्रैय स्वय श्री ब्रह्मदेव, श्री विष्णु और श्री शिव के तत्य और उन सबकी सरलता और निर्दोषता हैं। उनमें तीनों गुणों का पकीकरण है और सबसे बूड़ी बात तो ये है कि वे स्वयं पवित्रता, निर्दोषता और अवोधिता हैं। बार बार हमें याद आता है श्री माताजी का इस बास पर जोर डालना कि गुरू का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है श्री गणेश। गुरू के विवेक से जन्म लैती है निर्दोषता या अवोधता । 11 - आपने प्रत्यक्ष रूपों मैं जेसे, कनफरयूशियस, जराधृष्ट लाओ जे, नानक मोजेज, पब्राहेम एवम् मुहम्मद, श्री दत्तात्रेय नै कई धर्मों की स्थापना की और मानव धर्म को सुरक्षित रसा। "आदि गुरू दत्तात्रेय ने तमसा नदी के तट पर माँ को पूजा। तमसा नदी ही जापकी थेम्स नदी है। वै स्वयं यहाँ आए और पूजन किया शिव या आत्माके इस महान देश में ।" "दत्तात्रैय ने स्वयं ये कभी नहीं कहा कि "वे" मौलिक गुरू के अवतार हैं और तीनों शक्तियों जो सरलता और निर्दोषता के दारा कार्य करती है, इस घरती पर मार्गदर्शन कराने साथ, के आए है।" श्री माताजी निर्मला देवी। मुडम्मद श्री मुहम्मद ने विस्तृत रूप में ईश्वरीय निर्णय के विन की बात की, और कहा कि जो लोग ाि कोरान के बताए सत्यनिष्ठा के मार्ग पर चलेंगे उन्हें अवश्य स्वर्ग ग्राप्त होगा और जो ईश्वर और उसके दूर्तों से मुँह फेरेंगे, उन्हे नरक में जाना पडेगा । सुरा 24 में ईश्वरीय निर्णय के विन के विषय में बात करते हुए श्री मु्म्मद ने कहा, उस दिन जब उनकी जबान, उनके हाथ और पैर उनके खिलाफ उनके क्मों के हिसाब 24 से गवाही देंगे। हैं और तब वे समझेंे उस दिन ईश्वर उन्हें वो सब अदा कर देंगें जिसके वे हकदार 25 कि ईंध्वर सत्य है जर सब क्स्तुओं को वे ही प्रत्यत करते हैं । सुरा 36 मैं : उस दिन उनके मुँह बद कर दिए जाएँगे और उनके डाव हमसे बोलेंगे, और उनके "65 पैर उनके कम्मों की गवाही देंगें। सुरा 7 से : वो ही है जो हवा को भेजते हैं, जो एक दूत बनकर उसकी दया का समाचार उमें उसकी "57 .... 12 ३ नोप - 12 - दया से पहले दे देती है। जब उन्होंने भारी बादलों को उठा लिया हैं, हम उन्हें मरे हुए देश मैं ले जाते हैं, वहाँ उनपर वर्षा होती है और हर प्रकार की उपज उत्पन्न होती है। इस प्रकार हम मृतकों को उठाएँगेः शायद तुम्हे याद है। " 58 "उस घरती से जो साफ और अच्छी है, उसके पालनहार की इच्छा से, सुब पैदावर उत्पन होती है: परन्तु जो यरती खराव है, वहाँ से कुछ उत्पन्न नही होता। इसी प्रकार हम अलग अलग प्रतीको से उनको समझाते हैं जो आभारी होते है।" मोजेज इनमें दस मूल नैतिक धर्म हैं मानव जाति के लिए। श्री माताजी कहती हैं कि जैसे कार्बन की चार वेलेन्सी होती है, जैसे सोना कभी काला नहीं पडता, वैसे आदमी की दस वेलेन्सी होती हैं। ये दस निर्वाह के बिन्दू हैं जो नाभी चक् की दस परडियों का चित्रण करते हैं। इनके कारण हीं अपने उत्थान लिए हम पवित्र आध्यातोंकता स्थापित कर पाते हैं। मनप्य और कार्बन की वेलेन्सी में महत्वपूर्ण । अन्तर ये है कि मनुष्य अपनी देलेन्सी स्वतंत्रता से चुन सकता है, जब किर प्रकृति के नियम के अनुसार कार्बन की वेलेन्सी बैधी हुई हैं। सिनाई पर्वत पर परमात्मा ने मोजेज़ को यह नियम सुनाए : मैं तुम्हारा परमपिता परगेश्वर हैं .. मेरे सामने तुम्हारा और कोई परमात्मा नहीं है ..... तुम बेकार में अपने ईश्वर का नाम लोगे रविवार का धार्मिक दिन याद रख कर उसे पवित्र रसना· पिता और माता का आदर करो. तुम जान से नहीं मारोगे- तुम व्यभिचार नहीं करोगे- तुम चोरी नहीं करोगे तुम अपने पड़ोसी के विसूथ्द झूठी गवाही नहीं दोगे- ..... तुम अपने पड़ोसी के घर की लालसा नहीं करागे. •13 Mhe - 13 - जराघृष्ट व अच्छाई और बुराई, स्वर्ग और नरक, देवदूत और वैतान, इन सब के विचार हमारे अन्दर ही बसे हैं। इस जगत् में पूर्ण न्ति थी जब तक कि देवदूत अहरिमन ने विद्रोह कर दिया और उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया। इसलिए अनछाई और बुराई की लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक न्याय का अन्तिम दिवस आएगा। तब संसार फिर से नया हो जापगा और बुराई चली সापगी। तुध्य और पवित्र आतमा को स्वर्ग के साम्रा्य का साक्षात्यकार प्राप्त होगा। "वह आत्मा जो बुराई लड़ने में डुरती है, वह इस संसार में अपना दैविक कार्य नहीं कर पाई ा और इस संसार में आकर सारा जीवन व्यर्य गंवा दिया।" "पुनर्जीवन के दिन तुम्हें अहुरा माजूदा को उत्तर देना डोगा अपने विचारों, कवौं और कर्मोका। " नन्द अवैस्टा हमें बताती है कि हमारे जीवन का सबसे उत्तम लक्ष्य होना चाहिए कि हमें समपूर्ण आनन्द प्राप्त हो। ये हमें तब मिल सकता है जब हमें ईश्वर की इच्छा का ज्ञान हो और उस इच्छा का हम पालन करें। "जीने का आनन्द इतना हमारे हृदय में भरने दें कि वो उफन कर गिरने लगे । " शादी १पारसियों का चर्म में सबसे उत्तम चर्म और गुण है। विवाह एक सतीत्व जोरोआसदिनिज्म् अशनीय सीविदा है और बचचे एक आशीर्वाद । औरत ही विवाह और मानवता की शवित को बनाए रखती है। "एक पवित्र नारी अहुरा माजुदा की सबसे उत्तम सृष्टि हैं। •14 - 14 - "नारी सृष्टि का पक चमत्कार है। वह सातों केत्रों में अपने जाकार और अपनी सुन्दरता में ं बाग में पएक लिलता पुष्प है जिसकी महक चारों ओर फैलती है।" उत्तग हैं। यह जीवन के "नारी आदमी को शिष्टाचार और कलीनता सिलाती हैं। वह आदमी को नैतकता की ऊँचाईतक बढ़ावा देती हैं। वह आदमी के जीवन की शकित जिन्दा रखती हैं। री लाजे जे टा औौर पानी टाओ और पानी एक समान हैं क्योंकि पानी को जिस पात्र में भी डाली वो यही रूप ले तेता हैं इसलिए वह सबसे लरचीला, और सहज हैं। टाओें प्रकृत्ति में स्त्रीत्व हैं और सबफी गीं गानी जाती है। इसलिए वह ही कुन्डलिनी हैं। घाटी की आत्मा कभी नहीं गरती। यह हैं कस्यपूर्ण ं। कहा जाता है। कम दिलाई पड़ती है स्त्री।रहस्यपुर्ण स्त्री के दार को स्वर् और घरती की जड़़ पर उसका प्रयोग उसे कभी समाप्त नहीं करेगा।" सासं् लाओ जे की शिक्षाओं से हम ये सीखते हैं कि गुरू का लक्ष्य हैं कि वे दैयिक उजाला फैलाएँ और एक ऐसा मार्ग बने जो ऊन्वेमकों को जागृत करे और उन्हें उच्च स्तर पर ले जाएँ स्वरूप थे जो दैविक शकि्ति व्यक्त लाओ जे गुरू का से ही करते थे। यह उनकी शिक्षानों नहीं गह उनके जीवन में भी दिखता है। वह केयल एक चीज देख सकते थे अर्थात्त असीम और संपूर्ण रूप में टाओ और ईश्वर। कोई समझौता नहीं था। उनका ध्यान पवित्र धा। ल अन्वेपक से प्रेग कर सकते करूणावश शिक्षा प्रदान करता है। लाओ जे किसी भी गुरू असीम थै क्योंकि वह उनमे एक दैविक रूप देखते थे। वह उस रूप से प्रेग करते थे जैर उसीकी और 15 - 15 - उनकी शिक्षा भी संकेत करती थी। गुरु पवित्रता की शिक्षा देता शुध्दता ओर पवित्रता हमें भ्रम और माया से परे ले जाकर दैविक रूप दिलाती है और वहाँ हमें आनन्द से मुक्ति, प्रेम मैं सन्तोष और आत्मा में समपूर्णता प्राप्त होती हैं । जब कोई गुरू बनता है तो वो दैविकता के समुद्र में इूब जाता हैं। इमें शान्ति और सुख प्राप्त होता है, कुछ अन्य अर्थ नही रखता और यह विश्वास हो जाता है कि सव ठीक हो जाएगा क्यींकि इम पविप्रता बन जाते हैं। "संसार का आरंभ वा जार यह आरंभ संसार की माँ हो सकती है। जब आप माँ को जान गए तो अब उसके बालक को जानिए। जब बालक को जान जाएँ तो माँ के पास लौट जाओ और उन्हे कस कर पकड़ लो, और अपने अन्तिम दिनों तक तुम्हें कोई संकट या भय नहीं मिलेगा। " -=--==र====| हमारा वार्षिक शुल्क इस प्रकार हैं. अंग्रजी 200/- हिन्दी 108/- मराठी 108/- आप अपना ड्ाफ्ट विश्व निर्मला चर्म के नामसे भेजे। कत्ि हमारा पता विश्व निर्मला चर्म पोस्ट बॉन्स नं ।90। कोयरूड, पुणे 29. ---------------------- 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-0.txt आप की मौही सभी आदि गुरूठों की माँ हैं, उन्होंने ही सभी आादि गुरूओं को शिक्षा दी, उन्होंने ही आदिगुरू ओं का सृजन किया, और वे ही आण में से आदि गुरूोकर सजन करती हैं । र वा कर এ Cute ू ३ े 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-1.txt संड । अक 5 रविवार 23-7.89 को तागो डी ब्रीस में हुई गुरू पूजा के संकलित अँच गुरु तत्व हमारे अन्दर निहित है। कभी कभी इस तत्व का पोषण किया जा सकता है यरन्तु इस पोपण को अपने अन्दर वनाये रखना पड़ेगा। जब आप किसी तत्व की बाहुय रूप से आराधना करते हैं तो आप आन्तरिक रूप से भी उसकी आराधना करते हैं। नाभी के चारों और भवसागर है जो कि भ्रम का सागर है, वह गुरू तत्व नही हो सकता। भवसागर में छिपे हुए चक हैं जिनको जागृत और प्रकट करना है। इस तत्व कुछ की सीमा स्वाधिष्ठान चक् की परिकृमा से निधारित होती है स्वाधिष्ठान चक्र आपको सृजनात्मकता देता हैं। जो व्यक्ति गुरू है उसे सृजनात्मक व्यक्ति होना पड़ता है । अगर आप सुजनात्मक व्यक्ति नहीं हैं तो आप गुरू नहीं हो सकते । यदि आप सुजनात्मकता में पीछे हैं तो आप गुरू तत्व में भी भीछे हैं वर्योकि गुरु को साथारण मनुष्योंगें से गतिशील व्यक्तित्व बनाने होते हैं। गिरे हुए मनुप्य से उसको एक नया व्यक्तित्व बनाना हैं तो इसको कैसे किया जाय? आपके पास कुंडलिनी जागृत करके लोगों की विमारी दूर करने की शवि्त हैं, यद इतना होने पर भी आप एक नये व्यवितत्व का सृजन नहीं कर सकते तो आप गुरू नही हो सकते। नये व्यव्तत्व को गतिशील व करूणामंय होना चाहिए, आप लोगों को करूणा के दाराही आपको अपनी करूणा की शक्ति का प्रयोग करना हैं। वेदल सकते हैं, कोध के दारा कभी नहीं। अगर आप करूणा की आन्तरिक इच्छा नही महसूस करते और दिखाते हैं तो वह व्यक्ति आपकी चिन्ता नहीं करेगा। बहुत से लोगों को जागृति मिलती हैं, वे आश्रम में पूजा में आते हैं परन्तु उनके गुरू तत्वका सृजन नहीं होता जब तक कि वै बहूुतसे और दूसरे सहजयोगी न बनाएँ गुरू की दूृष्टि इस बातपर रहती हैं कि वह जौर अधिक सहजयोगी केसे बलाता है। चित्त, स्वाधिष्ठान चक्र का बल और शकव्ति हैं। यदि आपका चित्त अस्थिर हैं, दूसरों की आलोनना गें व्यस्त रहता है, तो आपका गुरूतत्व नष्ट हो जाता हैं, सड़जयोग के प्रयत्न व्यर्य हो जाते हैं । आपका या कैंद्रित कम से कम चित्त पवित्र होना चाहिए। आपका चित्त स्वनुशासन , करने से विकसित नहीं होता। आप अपने बच्चों, पत्नी, और परिवार के प्रिय रिश्तेदारों पर अत्यधिक ध्यान देते हैं। जब हमारे चित्त में दूसरों के लिए करूणा और प्रेम आ जाता हैं तभी हम उनकी जागृति के लिए कार्य कर सकते हैं सिर्फ प्रेम की प्रगाढ़ता ही आपको शुध्द चित्त प्रदान कर सकती हैं। चित्त जो कि स्वयं से जुड़ा होता है, पवित्र होता है। आध्यात्मिकता का 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-2.txt सुझाय प्रेम हैं। आध्यात्मिकता सेम फली की तरह सूखी नहीं हैं। यदि साबून साफ नहीं कर सकता तो वह किस काम का? यदि प्रत्येक व्यक्ति इस तरह के सूखे आध्यात्मिक आदमी के समीप आने से डरता है तो वह आदमी किस काम का हैं? यदि सृजनात्मकता हमारा ध्येय है तो चित्त को प्रेम और करूणा से शुध्द करना चाहिए। जब आप हहृदय में प्रेम जीर करूणा भर लेते हैं, तो बह आपको गतिशील बता देता है। अपने प्रेम के प्रतिबिंब को दूसरे व्यक्ति में देखने का आनन्द अनन्त हैं, जैसे कि आप अपना प्रतिबिंब दर्पण में देखते हैं। इस तरह आप प्रेम, करूणा दर्पण से शुदित अपने प्रतिबिंब के दारा सृजन करते हैं । यदि आप केवल स्वयं के लिए जीते हैं तो आप कुछ भी विकसित नही हुये हैं , आपने गुरु के प्रति अपना कर्तव्य नही निभाया हैं। यदि आप गुरू तत्व को विकसित कर लेते हैं तो आपके ऊन्दर दुध्दिमता पैदा हो जाती है। बुदध्धिमता तब हैं, जब आप अपनी गलती को जान लेते हैं और उन्हें सुधार लेते हैं, तभी संतुलन आता है आरम्भ में गुरू तत्व सीमित होता हैं, जैसे आप अधिक सहज योगी बनाते हैं यह क्षितिज की तरह अपनी सीमापं बढाता जाता है। ओर सम्पूर्ण संचालन होता है। आप नाभी चक़ अपनी नाभी के्द्र किन्दु है जिसके चारों मां से पाते हैं, इसलिए एक गुरू में माँ के गुण अवश्य होने चाहिए। एक गुरु को अपने बच्चों से प्रेम करना चाहिए, उन्हें सुधारणा चाहिए और उनके विकास में मदद करनी चाहिए। हम प्रेम के साथ सत्य कैसे कह सकते हैं, इमें शिष्य की भलाई देखनी है हो सकता है कि वह आज सत्य को सुनना पसन्द न करे परन्तु एक दिन वह इसके लिए आपको कन्यवाद देगा। यदि शिष्य का ध्येय उत्थान नहीं है तो अच्छा होगा कि उसे अपने पास न रखें। हम व्यर्थ की भौतिक वस्तुओं से प्रेम कर सकते है पर मनुष्य से नहीं। प्रेम के लिए करिप। आपको अपने सारे ज्ञान को प्रेम के साथ ऊपर प्रेम। इस प्रेम को आप दुसरों में स्थापित है उठाना है नहीं तो आपका गुरू तत्व कमजोर रह जाएगा और एक दिन आप स्वयं को सहज योग दायरे से बाहर पायेंगे। पहले आप अपने गुरू तत्व को विकसित करने की कोशिश कीजिए, नहीं तो गुरू पूजा करने का कोई लाभ नही हैं । आज, जब आप मैरी गुरु के रूप में पूजा कर रहे हैं, कितने ही आशीर्वाद क्यों न हो वे तब तक कार्यात्वित नहीं हो सकते जब तक रे 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-3.txt - 3 - कि आप गुरू तत्वं को गहराई तक विकसित न करें। देवदूत या देवता बनना सरल हैं परन्तु उे बनाये रखता बहुत कठिन हैं। मैरी इच्छा हैं कि मेरे सभी बच्चे मेरे प्रतिबिंब स्वरूप बन जायें और मेरे प्रतिबिंब में एकीकरण का अनुभव करें। गोष्टी, 22.7.89 के लागो डी ब्रस, माउन्टेन्स, इटली में विषय "सहज योग को किस तरह से प्रस्तुत करें" सहज योग के वे सुनहरे वर्ष, जिनका कि वादा किया गया था अब आ गयें हैं। सहज योग का प्रसार तेजी से हो रहा है और सम्पूर्ण संसार में नये केन्द्र खुले रहे हैं। हिम से दकी पर्वत चूँसला से थिरी हुई सबसे सुन्दर झील के पास हजारों सहज योगी गुरूओं की मां की आरायना के लिए एकत्र हुए। हम सभी को टर्की से अकबर ढवारा लाये गयें शुभ समाचार को सुन कर बहुत प्रसन्नता हुई। ग्रीस के सहज योगियों ने डमें बताया कि उन्होंने श्री माताजी के कार्यक्रम की सफलता के लिए किस प्रकार श्री गणेश की प्रार्थना की । 500 सायक आये, प्रेस, रेडिओ और टेलीवीजन ने समाचार दिये। शायद आप प्रेस पर समुचित ध्यान नहीं दे रहें हैं सहज योग स्थूल से सूक्ष्म तक, जीवन के सभी पहलुओं का वर्णन करता हैं । हमें इसे प्रस्तुत करने के विभिन्न तरीकों के बारे में सोचता है। पुराने सहजयोगियों का यह कर्तव्य हैं कि वे नये लोगों के लिये सहज योग को सरल बतायें। बहुत से देशों में यह लगभग सात दिन की अवधि के पक पाठ्यक्रम त के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा हैं। नये आने वालों को इससे अधिक जानकारी मिलती है, वे अच्छी तरह से सीखते हैं और वे इस तरीके को पसन्द करते हैं । ा आस्ट्रिया के सहजयोगियों ने एक विशेष प्रश्नसूची तैयार की जिसमें उन्हेोंने नये लोगों से पूछा कि उन्हें कान सी चीज ने सबसे अधिक प्रभावित किया और कौन सी चीज ने तकलीफ दी। उन्होंने पुराने सहजयोगियों के करूणामय व्यवहार की प्रसंशा की और जहाँ उच्छसंलता थी उसे भी पैश किया। कुछ पुरानै सहजयोगी अपने ज्ञान को दिखाना चाह रहे थे और अपने सहज योग में बीते वर्षों की संस्या की डींग हांक रहे थे। हमें नये लोगों के हृदय से बात करनी चाहिये दिमाग से नहीं। उनके दिमाग से बात करने में हम 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-4.txt <-4- केवल उनके अहंकार में प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं । आस्ट्रिीया के सहजयोगियों ने एक सुन्दर संगीत की टेप सुनाई जिसने सबके हृदय को छू लिया और उसके शत्र्दोने अपना संदेश सबको पहुँचा दिया। सार्वजनिक कार्यक्रम की सफलता सामूहिकता का ठोस परीक्षण है, इस संविप्त नोट के साथ गोष्ठी का समापन हुआ यदि सामुहिकता काफी प्रभावशाली है तो साधक उनके उदाहरण से आकर्षित होंगे। इसलिए प्रत्येक सहजयोगी की इच्छा और प्रयत्न सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं । पक अच्छे साधन होने के साथ ही हमें यह याद रखना चाहिए कि श्री माताजी ही सब कुछ करती हैं। বরाइम अब्रहैम नैतिक गुण या सदाचार, सत्यनिष्ठा, नग्रता और पूर्ण समर्पण के प्रतीक है। चलते राहीका स्वागत वे अपने तंबूसे निकलकर करते थे और जोर डाल कर राही को अपने तंबूमें बुलाते थे और इसको अपना सैभाग्य समझते थे। अत्यन्त कृतार्थ होकर वे पैगंबर अतिथि सत्कार करते थे और अतिथि को स्वर्गसे टपके रत्नोका स्थान द्वेते थे । "मेरे बिना यहाँ से ना जाँप। थोडा अगर आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो अपने दाससे मिले प्रभू, जल लागेदे चरण चोकेदे, कृत्ष की छायामें विश्राम करे तब तक मैं कुछ खाने को ले आरउँ , करें - क्योंकि आप अपने दास के पास ताकि आपको नवीन शव्ति प्राप्त हो। तब आप प्रस्थान आए हैं। कनफयुकषियस उनके व्यवितत्व की तरह, उनके उपदेश स्वाभाविक मानवी और सरल हैं। जिससे कि लोगों को में उनका आसानी से समझ आ सके, उन्होंने अपनी बात समझाने के लिए अपने जीवन प्रयोग किया। उन्होंने कहा कि जीवन पाँच सम्बन्धों मे बैटा हैं जो निय हैं । -5 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-5.txt राजा और मन्त्री । ह ि पति और पत्नी 21 पिता और पुत्र 3४ भाई और भाई 48 मित्र और मित्र 58 इन सम्बन्धों को माननीय और नैत्तिक प्रकार से मानना और निभाना ही स्वर्ग की इच्छा है। उन्होंने आध्यात्मिक और संसारिक मनुष्य में अन्तर पेसे बताया, "वरिष्ठ मनुष्य सही बात को समझता है और निम्न मनुष्य केवल लाम्भदायक बात ही समझता है।" उन जैसे ज्ञानी का विचार था कि पाँच नैतिक गुणों का पालन करना चाहिए, परोपकारिता, सत्यनिष्ठा, उपयुवतता, विवेक और ईमानदारी। राजा जनक और दुघ का क्टोरा श्री माताजी ने राजा जनक के बारे में एक बड़ी सुन्दर कथा सुनाई :- "आप जानते हैं कि राजा जनक को "यिदेह" कहा जाता था। एक बार महान पीडत नारद नै उनसे पूछा, "आदरणीय महाराज अपको विदेह कसे कहा जाता है, आप इस संसार में रहते हैं तो आप विदेह कैसे हो सकते हैं?" राजा जनक ने कहा, "यह बड़ी सीधीसी बात है। मैं आपको इसके बिषय में शाम को बताउँगा। अब आप मेरे लिए कृपया यह छोटा सा कार्य कर दीजिए। इस कटोरे में दूध है। आप यह कटोरा लेकर मेरे साथ आाथ चलप। इस बात का ध्यान रहे कि पक ूंद भी दूध धरती पर ना गिरे। तब ही मैं आपको बताउँगा कि मुझे विदेह क्यों कहा जाता है"। नारद जी कटोरा लेकर जनक के पिछे चलने लगे और हर जगह उनके साथ साथ रहते । उन्हें कटोरा बडे ही घ्यानसे पकड़ना पड़ रहा था क्योंकि कटोरा दुध से लबालब भरा था और जरासे हिलाने से दुघ छलक जाता। वे काफी धक गए। तब शाम को आराम के समय नारद जी ने दूष पूछा 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-6.txt "कृपया अब मुझे बताइए। मैं कटोरा लेकर आप के पीछे चलते तंग आ गया राजा जनक ने कहा कि पहले बताइये कि आपने क्या देखा? नारद ने कहा इस दूध के कटौरे के अलावा कुछ भी नाही। राजा जनक ने कहा, "क्या आपने मेरे सम्मान में निकाला गया जुलूस देखा? फिर आपने देखा क्या कि एक दरबार था और उसमें नृत्य का कार्यक्रम था? क्या आपने कुछ भी नही देखा? नारद : "नही महाराज, मैंने कुछ नहीं देखा ' राजा जनक : "मेरे बच्चे, ऐसा ही मेरे साथ है मैं भी कुछ नहीं देखता । पूर्ण समय मैं केवल अपने चित्त पर ध्यान रसता हूँ। वो कियर जा रहा है? इस बात का अवश्य ध्यान रखता हूँ कि दूध की तरह छलक ना जाए" चित्त-निरोध को समझाते हुए, श्री माताजी ने कहा, "इस प्रकार का चित्त तब ही विकसित होता है जब अपने चिलत्त पर ध्यान रसे। चित्त-निरोध का अर्थ है चित्त की बचत। आपका ध्यान धन जमा करने में और संसारिक कस्तुओं में नही, पर अपने घ्यान को ही बचाने में लगाना चाहिए। जैसे आप अपना चन देखते हैं, गाडी चलाते समय सड़क पर प्यान रखते हैं, जैसे अपने बचे को बढ़ता हुआ देखते हैं, जैसे पत्नी की सुन्दरता देखते हैं या पति की देखमाल करते हैं - सब मिलाकर अपने आप को देखिए, अपने ध्यान को देखिए"। श्री माताजी ने जोर ड्राला कि सहज योग में लगन और ईमानदारी का महत्त्व है और दिलसे कनफ्यूशियस कहते हैं, और प्रेम से संगीत होना चाहिए और संलग्नता से प्रार्थना। इसी प्रकार "इमानदारी और लगनता से आत्म पूर्णता पूर्ण होती है। जिसके पास लगनता जैर ईमानदारी हो, वह केवल अपने को ही पूर्ण नहीं करता पर इस गुण से अन्य मनुष्यों को भी पूर्ण करता है।" इस उच्दरण की महत्ता सहज योग में आकर बढ़ जाती हैं । एक लगन पूर्ण और सुला हृदय कुंडलिनी की सुसुमना नाड़ी मार्ग से उठने में बहुत सहायक होता. है। -7 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-7.txt AD-VENTOF THE MA:STERS गुस्ौ का आगमन 35. Janaka X☆. Abraham 16 000 B C 10 000 India. जनक मारत 2 000 B C Mesopotamia. मेसोपटामिया অরञाडम् 1A. Moses 1 300 B C Feypt. मोनेज . मिस्र Zarathustra 1 000 B C Persia. जराघष्ठा परसिया Lao Tze スL *. Confucius 604 R C China. लाओे जे चीन ОИГИСТИS 551 B C China. कनफ्यूशियस चीन 3. SOcrates 469 B C Greece. सॉकेटीज ग्रीस *. Muhammad aттад 570 A D Fiecca. मुहम्मद मक्का Nanaka 16691 hwija. नानक भारत Sai Nath ISS6 A D India. सांईंनाथ भारत •...8 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-8.txt सौकेटीज सौकेटीज ने अपने शिष्यों को सत्यका मार्गदर्शन कराया। इसके लिए उन्होने विचारो के अनेक पहलुओं पर ध्यान दिया जबतक कि सत्य स्थापित नहीं हो गया। वे हमारे सामने आकारा का सिध्दान्त लाए "जैसे उपर, वैसे नीचे"। जो आकार का अनदेखा क्षेत्र है वह ईश्वरीय और दैविक के जौर विराट की स्वीर्गिक परतो पर सांसारिक प्रतिरूप है। जिन क चीजों का सांसारिक सतह पर अस्तित्व है वे केवल अपूर्ण प्रतिबिम्ब हैं और मानव की अपूर्णता और दोषों के असर में होने के कारण कभी भी बदल सकती हैं। परन्तु जिसका निरपेक्षता जीर संपूर्णता में अस्तित्व है वह' दैविक, नर्दोष, उत्तम, अनन्त और कभी ना बदलने वाली है। आत्मा आकार के क्षेत्र से उत्पन्न होती है और सोज और आकांक्षा से होकर वहाँ लाट जाती है। इम सहज योग में इस आत्मिक और कृमिक विकास की ओर कार्य कर रहे हैं अपनी चैक्य लहरियों को शुध्द कर के हम ईश्वर के अधिराज्य में प्रवेश करते हैं। "आगे आने वाले संसार में जो विना दीक्षा - संस्कार ज्ञानवर्षन और आलोकित हुए प्रवेश करेगा, वह मुसीबत में फँसेगा परन्तु जो गुध्द होकर और आलोकिति हो कर पहुँचेगा, उसका वास देवों में होगा"। नानक जैसे ही वे दस वर्ष के हुए, उनकी माँ ने सोचा कि उनका जनेऊ हो जाना चाहिए। जैसे ही ल वे बोले, "सुकिए जनाव , मैं ये चागा क्यों पहनु? नानक को जनैऊ का थागा पहनाया जा रहा था, क क्या ये मुझे भला और दयालु बना देगा?" "मुझे पूरा विश्वास नही हैं।" "तब मुझे इसकी आवश्यकता नही है, इसकी जगह मुझे दया और सन्तोष का चागा दीजिए।" "एक पेड़ की पहचान उसके फलों से होती है और एक आदमी / धर्म उसके कर्मों से पहचाना [ना व 6. 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-9.txt और धार्मिक अनुष्ठान, सत्यनिष्ठ जाता है। जो कपड़े, प्रतीक , आकार संस्कार, धार्मिक कृत्य कर्मो की ओर नही जाते, वे इन्सान को आत्मिक उन्नत नही दे सकते। असली कार्य ये है कि हमे अपने दिमाग से दुष्ट प्रवृत्ति को दूर करना है। अगर हम वो नहीं कर सकते तो हमारी सारी तपस्याएं बेकार हैं।" हे जर भगवान का घर है। इसमें ईश्वर ने अपरिमित ज्वाला रख दी "ये शरीर एक राजमडल है" - गुरु नानक साईनाव "मेरे मालिक ने मुझसे कहा कि जो मांगे उसे उदारता से दो| कोई विवेक से नही माँगता। मेरा भन्डार खुला है। कोई भी गाडी लेकर नहीं आता कि बहुमूल्य घन मुझसे ले जाए। में कहता हूँ सोदो जौर खोजी, पर कोई भी इतनी तकलीफ नहीं उठाना चाहता। आपनी परमपूज्य माँ के घ सच्चे बेटे बनो और पूर्णतः अपने आप को भर लो। इमारा क्या होना हैं? यह शरीर इस पृथ्वी को लौट जाएगा और जिस हवा हী हम श्वास लेते हैं वो हवा में पिघल जाएगी यह अवसर फिर नहीं वापस आएगा।" दत्तात्रेय की सृष्टि एक बार नारद मुनी देवी सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती के भास गए। उन्होंने उनसे कहा कि अत्रि की पत्नी अनुसूया सारे संसार में सबसे सचचारत्र और गुणवान स्त्री हैं। देवियों ने अपने अपने पति ब्रह्मा, विष्णु और शिव को, अनुसया की धर्मपरायणता की परीक्षा लेने के लिप भेजा। अनुसुया ने अपने पति के पैर घोप और उसी जल से, ब्रह्मा, विष्णु और महेश जो ब्राहूमण का भेप घारे हुए थे, उन पर छिड़काव किया। वै तीनों बालक में बदल गए। तीनों देवो की शक्ति छिन गई थी कि वे अपने असली रूप में लौट सर्के, और तीनों उसके आश्रम में फैँस गए| सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती अपने पतियों को सोजने आई। तब अनुसूया ने कहा कि क्योंकि ·10 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-10.txt 10 उसने इन बालका का पालन इतनै दिन किया है तो उन पर उसका मी कुछ हक बनता है। देवों ने बात मान ली और कहा की अगर के उनकी छोड़ देगी तो को एक ऐसे बालक की सृष्टि करेंगे जिसके तीन सिर और छः मुजाएँं हों। इस तीन सिर वाले दैविक रूप का नाम व्ताक्रेय पड़ा । बीच का सर विष्णु का प्रतीक है, दायाँ सर शिव का और तीसरा सर व्रहूमा का प्रतीक है । जो कुत्ते दत्तात्रेय के साथ दिलाए जाते हैं वे उन परम भक्तो के प्रतीक हैं जो सदा अपने मालिक के वफुरदार रहते मावि गुरु गुरु दत्ताक्रेय आदिगुरू बन्तात्रैय सैध्वान्तिक और आदर्य गुरु हैं। वे आदि-प्रतीक है और मोलिक प्रतिमान है जिसमें से सब गुरू प्रकट हुए हैं। वे गुरु तत्व है। आदिगुरू होने के कारण उन्हेोने मानव को रास्ता दिखाने के लिए कई बार अवतार लिए| वे दस गुरूओं के रूप में आप। जनक से सांई नाथ तक, इस महान् आदर्श ने केवल इसलिए अवतार लिया, कि ये मानव के लिए ईश्वरके प्रेम को रूप दे सकेग बार वार ये इसलिए लौटे कि हमारी गुलतियों को सही कर सके जीर हमें ऐसे जीवन में बापस ले आ जहाँ ईश्वर ही केद्र हो । श्री दत्तात्रैय ने बार बार अवतीरित होकर और सूब मेहनत करके मनुष्य का मार्गदर्शन किया. इस बात से हें यह पुता लगता है की वे एक सरथे गुरु है और उनका प्यार और यैर्य भी छलकता है। गुरू दत्तानेय ही मानवता को भवसागरक पार लें जाते हैं। बे हे भ्रम के विश्वासपाती समुद्रों से सुरक्षा के छोर लक लाते हैं , जहाँ श्री माताजी, श्री दुर्गा की तरह, वहे पसार हमारी प्रतीक्षा करती है। श्री दत्तात्रेय का केवल एक ही कार्य था हमारे] धर्म को स्थापित करना ताकि हम विकसित हो सके। उनकी हर अभिन्यक्ति को बस यही करना था। तीर Tom श्री दत्तात्रैय स्वय श्री ब्रह्मदेव, श्री विष्णु और श्री शिव के तत्य और उन सबकी सरलता और निर्दोषता हैं। उनमें तीनों गुणों का पकीकरण है और सबसे बूड़ी बात तो ये है कि वे स्वयं पवित्रता, निर्दोषता और अवोधिता हैं। बार बार हमें याद आता है श्री माताजी का इस बास पर जोर डालना कि गुरू का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है श्री गणेश। गुरू के विवेक से जन्म लैती है निर्दोषता या अवोधता । 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-11.txt 11 - आपने प्रत्यक्ष रूपों मैं जेसे, कनफरयूशियस, जराधृष्ट लाओ जे, नानक मोजेज, पब्राहेम एवम् मुहम्मद, श्री दत्तात्रेय नै कई धर्मों की स्थापना की और मानव धर्म को सुरक्षित रसा। "आदि गुरू दत्तात्रेय ने तमसा नदी के तट पर माँ को पूजा। तमसा नदी ही जापकी थेम्स नदी है। वै स्वयं यहाँ आए और पूजन किया शिव या आत्माके इस महान देश में ।" "दत्तात्रैय ने स्वयं ये कभी नहीं कहा कि "वे" मौलिक गुरू के अवतार हैं और तीनों शक्तियों जो सरलता और निर्दोषता के दारा कार्य करती है, इस घरती पर मार्गदर्शन कराने साथ, के आए है।" श्री माताजी निर्मला देवी। मुडम्मद श्री मुहम्मद ने विस्तृत रूप में ईश्वरीय निर्णय के विन की बात की, और कहा कि जो लोग ाि कोरान के बताए सत्यनिष्ठा के मार्ग पर चलेंगे उन्हें अवश्य स्वर्ग ग्राप्त होगा और जो ईश्वर और उसके दूर्तों से मुँह फेरेंगे, उन्हे नरक में जाना पडेगा । सुरा 24 में ईश्वरीय निर्णय के विन के विषय में बात करते हुए श्री मु्म्मद ने कहा, उस दिन जब उनकी जबान, उनके हाथ और पैर उनके खिलाफ उनके क्मों के हिसाब 24 से गवाही देंगे। हैं और तब वे समझेंे उस दिन ईश्वर उन्हें वो सब अदा कर देंगें जिसके वे हकदार 25 कि ईंध्वर सत्य है जर सब क्स्तुओं को वे ही प्रत्यत करते हैं । सुरा 36 मैं : उस दिन उनके मुँह बद कर दिए जाएँगे और उनके डाव हमसे बोलेंगे, और उनके "65 पैर उनके कम्मों की गवाही देंगें। सुरा 7 से : वो ही है जो हवा को भेजते हैं, जो एक दूत बनकर उसकी दया का समाचार उमें उसकी "57 .... 12 ३ नोप 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-12.txt - 12 - दया से पहले दे देती है। जब उन्होंने भारी बादलों को उठा लिया हैं, हम उन्हें मरे हुए देश मैं ले जाते हैं, वहाँ उनपर वर्षा होती है और हर प्रकार की उपज उत्पन्न होती है। इस प्रकार हम मृतकों को उठाएँगेः शायद तुम्हे याद है। " 58 "उस घरती से जो साफ और अच्छी है, उसके पालनहार की इच्छा से, सुब पैदावर उत्पन होती है: परन्तु जो यरती खराव है, वहाँ से कुछ उत्पन्न नही होता। इसी प्रकार हम अलग अलग प्रतीको से उनको समझाते हैं जो आभारी होते है।" मोजेज इनमें दस मूल नैतिक धर्म हैं मानव जाति के लिए। श्री माताजी कहती हैं कि जैसे कार्बन की चार वेलेन्सी होती है, जैसे सोना कभी काला नहीं पडता, वैसे आदमी की दस वेलेन्सी होती हैं। ये दस निर्वाह के बिन्दू हैं जो नाभी चक् की दस परडियों का चित्रण करते हैं। इनके कारण हीं अपने उत्थान लिए हम पवित्र आध्यातोंकता स्थापित कर पाते हैं। मनप्य और कार्बन की वेलेन्सी में महत्वपूर्ण । अन्तर ये है कि मनुष्य अपनी देलेन्सी स्वतंत्रता से चुन सकता है, जब किर प्रकृति के नियम के अनुसार कार्बन की वेलेन्सी बैधी हुई हैं। सिनाई पर्वत पर परमात्मा ने मोजेज़ को यह नियम सुनाए : मैं तुम्हारा परमपिता परगेश्वर हैं .. मेरे सामने तुम्हारा और कोई परमात्मा नहीं है ..... तुम बेकार में अपने ईश्वर का नाम लोगे रविवार का धार्मिक दिन याद रख कर उसे पवित्र रसना· पिता और माता का आदर करो. तुम जान से नहीं मारोगे- तुम व्यभिचार नहीं करोगे- तुम चोरी नहीं करोगे तुम अपने पड़ोसी के विसूथ्द झूठी गवाही नहीं दोगे- ..... तुम अपने पड़ोसी के घर की लालसा नहीं करागे. •13 Mhe 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-13.txt - 13 - जराघृष्ट व अच्छाई और बुराई, स्वर्ग और नरक, देवदूत और वैतान, इन सब के विचार हमारे अन्दर ही बसे हैं। इस जगत् में पूर्ण न्ति थी जब तक कि देवदूत अहरिमन ने विद्रोह कर दिया और उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया। इसलिए अनछाई और बुराई की लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक न्याय का अन्तिम दिवस आएगा। तब संसार फिर से नया हो जापगा और बुराई चली সापगी। तुध्य और पवित्र आतमा को स्वर्ग के साम्रा्य का साक्षात्यकार प्राप्त होगा। "वह आत्मा जो बुराई लड़ने में डुरती है, वह इस संसार में अपना दैविक कार्य नहीं कर पाई ा और इस संसार में आकर सारा जीवन व्यर्य गंवा दिया।" "पुनर्जीवन के दिन तुम्हें अहुरा माजूदा को उत्तर देना डोगा अपने विचारों, कवौं और कर्मोका। " नन्द अवैस्टा हमें बताती है कि हमारे जीवन का सबसे उत्तम लक्ष्य होना चाहिए कि हमें समपूर्ण आनन्द प्राप्त हो। ये हमें तब मिल सकता है जब हमें ईश्वर की इच्छा का ज्ञान हो और उस इच्छा का हम पालन करें। "जीने का आनन्द इतना हमारे हृदय में भरने दें कि वो उफन कर गिरने लगे । " शादी १पारसियों का चर्म में सबसे उत्तम चर्म और गुण है। विवाह एक सतीत्व जोरोआसदिनिज्म् अशनीय सीविदा है और बचचे एक आशीर्वाद । औरत ही विवाह और मानवता की शवित को बनाए रखती है। "एक पवित्र नारी अहुरा माजुदा की सबसे उत्तम सृष्टि हैं। •14 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-14.txt - 14 - "नारी सृष्टि का पक चमत्कार है। वह सातों केत्रों में अपने जाकार और अपनी सुन्दरता में ं बाग में पएक लिलता पुष्प है जिसकी महक चारों ओर फैलती है।" उत्तग हैं। यह जीवन के "नारी आदमी को शिष्टाचार और कलीनता सिलाती हैं। वह आदमी को नैतकता की ऊँचाईतक बढ़ावा देती हैं। वह आदमी के जीवन की शकित जिन्दा रखती हैं। री लाजे जे टा औौर पानी टाओ और पानी एक समान हैं क्योंकि पानी को जिस पात्र में भी डाली वो यही रूप ले तेता हैं इसलिए वह सबसे लरचीला, और सहज हैं। टाओें प्रकृत्ति में स्त्रीत्व हैं और सबफी गीं गानी जाती है। इसलिए वह ही कुन्डलिनी हैं। घाटी की आत्मा कभी नहीं गरती। यह हैं कस्यपूर्ण ं। कहा जाता है। कम दिलाई पड़ती है स्त्री।रहस्यपुर्ण स्त्री के दार को स्वर् और घरती की जड़़ पर उसका प्रयोग उसे कभी समाप्त नहीं करेगा।" सासं् लाओ जे की शिक्षाओं से हम ये सीखते हैं कि गुरू का लक्ष्य हैं कि वे दैयिक उजाला फैलाएँ और एक ऐसा मार्ग बने जो ऊन्वेमकों को जागृत करे और उन्हें उच्च स्तर पर ले जाएँ स्वरूप थे जो दैविक शकि्ति व्यक्त लाओ जे गुरू का से ही करते थे। यह उनकी शिक्षानों नहीं गह उनके जीवन में भी दिखता है। वह केयल एक चीज देख सकते थे अर्थात्त असीम और संपूर्ण रूप में टाओ और ईश्वर। कोई समझौता नहीं था। उनका ध्यान पवित्र धा। ल अन्वेपक से प्रेग कर सकते करूणावश शिक्षा प्रदान करता है। लाओ जे किसी भी गुरू असीम थै क्योंकि वह उनमे एक दैविक रूप देखते थे। वह उस रूप से प्रेग करते थे जैर उसीकी और 15 1989_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_5.pdf-page-15.txt - 15 - उनकी शिक्षा भी संकेत करती थी। गुरु पवित्रता की शिक्षा देता शुध्दता ओर पवित्रता हमें भ्रम और माया से परे ले जाकर दैविक रूप दिलाती है और वहाँ हमें आनन्द से मुक्ति, प्रेम मैं सन्तोष और आत्मा में समपूर्णता प्राप्त होती हैं । जब कोई गुरू बनता है तो वो दैविकता के समुद्र में इूब जाता हैं। इमें शान्ति और सुख प्राप्त होता है, कुछ अन्य अर्थ नही रखता और यह विश्वास हो जाता है कि सव ठीक हो जाएगा क्यींकि इम पविप्रता बन जाते हैं। "संसार का आरंभ वा जार यह आरंभ संसार की माँ हो सकती है। जब आप माँ को जान गए तो अब उसके बालक को जानिए। जब बालक को जान जाएँ तो माँ के पास लौट जाओ और उन्हे कस कर पकड़ लो, और अपने अन्तिम दिनों तक तुम्हें कोई संकट या भय नहीं मिलेगा। " -=--==र====| हमारा वार्षिक शुल्क इस प्रकार हैं. अंग्रजी 200/- हिन्दी 108/- मराठी 108/- आप अपना ड्ाफ्ट विश्व निर्मला चर्म के नामसे भेजे। कत्ि हमारा पता विश्व निर्मला चर्म पोस्ट बॉन्स नं ।90। कोयरूड, पुणे 29.