भाग-2 खण्ड 3 - 4 चैतन्य लहरी 1990 शुभ जन्म दिन विशेपांक ा ३० ० ॐ शं HAPPY THDAY НАРР) 1 श्रीमाता जी की दक्षिण मारत यात्रा आदि शव्ति ने ह दराबाद, मद्रास, बैंगलोर तथा अहमदाबाद को आशीर्वादत किया। परम चैतन्य ने सुन्दरता- पूर्वक सारा आयोजन किया जिससे प्रेम और आनन्द लहरियों ने मिन्न समुदायों के जिज्ञासुओं के हृदय को खोल दिया। प्रोग्राम के बाद श्री माता जी ने लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिये तथा उनके चक्ों को शुद्ध करने के लिये कई घंटे लगायें। बहुत से लोगों की भयंकर और घातक बीमारियों का इलाज हुआ । हैदराबाद में हम अकस्मात ही शालीवाहन सम्राट की महान मूर्ति के पास पहुँचे। यह सम्राट श्री माता जी के पूर्वजों में से वे। श्रीमाता जी ने बताया कि शालीवाहनों ने इस क्षेत्र में बहुत समय तक राज्य किया। मद्रास में श्री माता जी ने कहा कि सहजयोग लोगों की भव्ति की प्रतिपूर्ति है और अब समय आ गया है कि सहत्रों जिज्ञासुओं को एक साथ ही आत्म साक्षात् आयोजित पूजा हुई क्यों सभी सहजयोगियों ने महियासुर वध की कामना की थी। श्री माता जी, श्री कृष्ण की भूमि पार। प्राप्त हो सकें। बैंगलौर में महिमासूर मर्दिनी की एक अन- से आत्मसाक्षा- गुजरात से बहुत प्रसन्न धी और वहां के लोगों का हृदय बहुत विशाल है। उनकों बहुत ही सुगमता श्री माता जी ने बहुत ही प्रेम की वर्षा की तथा बहुत सी सुन्दर सुन्दर बातें कहीं। यह त्कार प्राप्त हुआ। सब इस चैतन्य लहरी के इस अंक में छापी गयी हैं। प्री iep 2. हैदराबाद पूजा वार्ता १25-2-1990? श्री माता जी निर्मला देवी आप सब लोगों को मिलकर बड़ा आनन्द आया। मुझे इसकी कल्पना भी नहीं थी कि इतने सहजयोगी हैदरा- बाद में हो गए हैं। ये विशेषता हैदराबाद की है कि सब तरह के लोग आपस में घुलमिल गए हैं। अब हम लोगों को सहज योग की ओर नए तरीके से मुडूना है। यह जान लेना आवश्यक है कि सहज योग सत्य स्वरूप है और हम लोग सत्यनिष्ठ हैं इसलिए हमें असत्य को त्याग देना है वरना हममें शुद्धता नहीं आ सकती। वास्तव में असत्यता एक भ्रम है और उससे निकलने के लिए हमें निश्चय कर लेना चाहिए। ऐसी शुद्ध इच्छा मात्र से ही कुण्डलिनी, जो हमारे अन्दर जागृत है, हमारे सामने पेसी स्थिति ला देती है कि हम सत्य और असत्य के भेद को जान जाते हैं और केवल सत्य प्राप्त करने की ही इच्छा सारी गलत धारणाओं को त्याग कर केवल सत्य को अपनाना चाहिए। जैसे कि एक धारणा ,कि गीता में लिखा है कि आपकी जाति जन्म से निर्धारित होती है, परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि व्यासजी जिन्होंने गीता लिली, वे स्वयं एक मछियारन के ऐसे पुत्र धे जिनके पिता का भी पता नहीं था इसलिए व्यास जी तो ऐसी बात लिख ही नही सकते। ऐसा कहा गया है "या देवी सर्वभूतेषु जाति रूपेण सांस्थिता" यानि कि सबके अ्दर बसी उसकी जाति अर्धात जन्मजात रूझान होता है। कुछ लोगों को पैसे की खोज में, कुछ को सत्ता में और कुछ करने लगते हैं। हमें अपनी को परमात्मा की खोज में रूझान है। सहज योग में प्रथम वही लोग आएँगे जो परमात्मा को खोजते हैं और परमे ही को पाना चाहते हैं। जब मनुष्य का सहज योग की ओोर स्झान हो जाता है तो कभी कभी उसे जो दुख्ब होता है कि सहज योग इतनी धीरे धीरे क्यूँ बड़ रहा है। लेकिन हमको यह जान लेना चाहिए जीकन्त चीजू होती है वह धीरे धीरे पनपती है जैसे कि एक वृक्ष का धीरे-धीरे बढ़ना और उस पर पहले एक दो फुलों और फिर धीरे-धीरे अनेकों फूलों का आना। सहज योग एक जीक्त चीज है और इसमें हम किसी से जुबरदस्ती नहीं कर सकते। हम किसी को यूँ ही कह दें कि आप पार हो गए, तो नहीं हो सकता। यह "होना" पडता है और जब तक यह घटित नहीं सकते। होता हम किसी को यूँ ही झूठा प्रमाण पत्र नहीं दे और सभी लोग पार हो जाएँगे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। अनेक कारणों से कई लोग पार नहीं होते। अधिकतर लोग तो सोचते हैं कि इसके लिए तो इतनी तपस्या करनी पहती थी, हिमालय जाना पड़ता था, तो अब यह इतना सहज और सरल कैसे हो सकता है? उन्हें विश्वास नहीं होता क्योंकि उनमें आत्म- विश्वास नहीं है और वे समझ नहीं पाते कि आज का समय ही ऐसा है जब यह कार्य सहज ही होना है। आत्म साक्षात्कार हो जाता है और परम-चैतन्य से पकाकारिता हो जाती है तो यह ज्ञात हो जाता जब है कि हमारे सारे कार्य परम चैतन्य ही करकता है और हम अकर्म में उतर जाते हैं, कोई चिन्ता ही नहीं रहती। लेकिन सहजयोग में आने के बाद शुरू शुरू में कभी मनुष्य जब अल्प दृष्टि से सोचता है तो स्वयं को कर्ता समझ बैठता है परन्तु धीरे-धीरे अनुभवों से कुछ नहीं होता और विश्वास हो जाता है कि परम चैतन्य ही सब कार्य करता है। तब अपने आप सब कार्य बनते जाते हैं। यदि कभी कभी कोई कार्य हमारे मन के विरोध में हो जाप तो यह नहीं सोचना चाहिए के आधार पर उसे समझ आ जाता है कि उसके करने कि परमात्मा ने हमारी मदद नही की। वास्तव में परमात्मा से अधिक न तो हम सोच सकते है, न कर सकते हैं। इसलिए यह मान लेना चाहिए कि हमारे लिए जो उचित धा वह परम चैतन्य ने कर दिया और जो कुछ हो रहा है वह सब अत्यन्त सु्दर है। सहज योग के दो अंग है और एक सहजयोगी को इन दोनो अंगों को सम्भालना चाहिए। ।-पहले तो व्यक्तिगत रूप से ध्यान धारणा वार! हमें अपने अन्दर के दोपों को जान लेना चाहिए और समझ लेना चाहिए कि हमारी कौन सी दशा है अध्थात हम Right Sidedह या Left Sided उमारे कौन-कीन से चक में दोप है, फोटो की ओर ध्यान करके यह सब जाना जा सकता है। उसके बाद ध्यान धारणा दारा उन दोषों को दूर कर लेना चाहिए सहजयोग में ध्यान धारणा की प्रणाली बहुत ही सरल है। सुबह-शाम धारणा हो जाती है। अपने दोषों को दूर करने के बाद हमें सामूहिकता |0-15 मिनट बैठने से भी ध्यान में उतरना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपना हृदय खोल दें। संकुचित प्रवृत्ति का व्यकि्ति कभी सामूहिक नहीं हो सकता। हमें दूसरों के दोष नही देखने चाहिए क्योंकि इससे दूसरों के सब दोष हमारे कन्दर आ जाते हैं। हमें दूसरों के गुण, अ्छाई और सुन्दरता देखनी चाहिए इससे हमारे ं्दर और दूसरों के दोप भी लुप्त हो जाएँगे ये जानना चाहिए कि दूसरे र्वयं से अलग नहीं है इसलिए उनके दोघों को प्रेमशवित दारा दूर करना चाहिए। प्रेम ही सत्य है और सत्य ही प्रेम है, जो प्रेम की शक्ति का इस्तेमाल करता है वह बहुत ऊँचा उठ जाता है । हृदय को खोल करके, प्रेम से, आपको दूसरों की ओर देखना है। उससे बचकर रहना चाहिए। किसी भी सहजयोगी की निन्दा सुनना हमारे सहज योग में एक पाप सा है । हमें देखना चाहिए कि हम कितने प्यार से बोल सकते हैं औोर हममें कितनी क्षमा-शक्ति है। सभी सहजयोगियों सुन्दरता आ जाएगी आप व्यक्तिगत दृष्टि में ओर समाप्टि में प्रगति करते हैं । जो व्यकि्ति सामूहिकता में नहीं उतरता को अपना रिश्तेदार समझना चाहिए। सहजयोग का दूसरा अंग है सहज योग का ज्ञान होना और सहज योग का प्रचार। सहज योग में इस ज्ञान का समझ लेना चाहिए कि किस चक में दोष होने से हाथ या पैर की कौन सी उँगली पकड़ती है, उससे क्या बीमारियां हो सकती हैं, उसका निवारण कैसे करना चाहिए, दूसरों को कैसे ठीक कर सकते हैं अदि सारा कुण्डलिनी का ज्ञान प्राप्तकर लेना चाहिए, विशेपकर स्त्रियों के लिए अति आवश्यक है क्योंकि स्त्री शक्ति स्वस्परणी है। इस ज्ञान से हित्रयां सहज के बच्चों को भी समझ जाएँगी कि सहज में पैदा हुए बच्चों के कार्य ऐसे क्यूँ हैं उनका क्या अर्थ हैं। बुद्धि से इसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। सहजयोग का प्रचार। गर आप एक कमरे में बैठे हैं और एक ही दरबाजा खुला है और दूसरा दरवाजा आपने पोला नहीं तो हवा का प्रवाह रूक जाएगा|। इसी प्रकार यदि आप सहजयोग से दूसरों को प्लवित नहीं करते उनकी मदद नहीं करते, उनकी आत्म साक्षात्कार नहीं देते, उसका प्रचार नहीं गरते तो आप प्रगत नहीं कर सकते। क्योंकि जब पेइु बढ़ता है तो उसकी शासखाएँ बढनी चाहिए और उन शालाओों की छाया में अनेक लोगों को बैठना चाहिए। यह तो कृक्ष की बात है पर आप तो वट-वक्ष के समान हैं इसलिए आपको पूरी तरह से सहजयोग के प्रचार में सहायता करनी चाहिए। उसके प्रति हमें पूरी तन-मन-थन से समर्पित होना चाहिए। कुछ और दूसरी जो चीज़ बहुत जरूरी है, कह है सहजयोगी ऐसे भी है जो पूरा समय सहजयोग का ही विचार करते रहते हैं । ऐसे लोगों के सब प्रश्न छूट जाते हैं और वे सदा आनन्द की स्थिति में रहते हैं हम सब पर एक बहा भारी उत्तरदायित्व है कि हम ऐसे समाज का निर्माण करें जो शुद्ध, निर्मल, हो उसी में हमारी धारणा रहे और उस धर्म में हम स्थित रहें। आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद । 4. हैदराबाद पन्लिक प्रोग्राम १6-7 फरवरी, 9908 श्री माताजी निर्मला देवी सत्य को खोजने वाले आप सभी साधकों को हमारा नमस्कार। कल मैंने सत्य के बारे में बताया था कि सत्य अपनी जगह अटूट और अनन्त है। उसे हम अपने मन,बुद्धि से बदल नहीं सकते, और सत्य यह है कि हम है कि सारी सृष्टि इस चराचर में सूक्ष्मता से फैले हुए ब्रहम चैतन्य के सहारे चल रही है और इसी परम चैतन्य की कृपा से ही आज हम मनुष्य स्थिति में पहुँचे हैं। यह परम चैतन्य हमें बह शुद्ध ज्ञान दे सकता है जिससे हम जान सकें कि हम क्या हैं, कहाँ हैं, हमारी क्या ल्थिति है और हमारा लक्ष्य क्या है। इसी शुद्ध ज्ञान से हम आत्मा स्वरूप हो जाते हैं और आत्मा एक सामूहिक वस्तु होने से हममें सामूर्हिक चेतना का प्रादुर्भाव होता है और हमें ज्ञात हो जाता है कि हम विराट के ही अंग प्रत्यंग हैं। आत्मा हैं। लेकिन परम सत्य यह जब हम परम चैतन्य से एकाकारिता पा लेते हैं तो हमारा चित्त उसके प्रकाश से आलोकित हो जाता है। इस आलोकित चित्र से हम बहुत कुछ जान सकते हैं जो हमने पहले कभी नहीं जाना। इस परम चैतन्य से एका- कारिता प्राप्त करना बहुत सहज़ है। "सहज" के दो अर्थ हैं याद कोई चीज हमारी उत्कान्ति के लिए अत्यावश्यक है अधवा मूलभूत है तो वह सहज ही होनी चाहिए जैसे कि |-आपके साथ पैदा हुआ, 2. सरल अथवा आसान। जीवित रहने के लिए हमारा श्वास लेना अत्यावश्यक है, और वह हम सहज ही लेते हैं। इसी प्रकार परम चैतन्य से पकाकारिता की घटना भी सहज में ही घटित होनी चाहिए। कारण यह है कि यह एक जीव्त्त शक्ति है और इसी के दारा हम अमीबा से मनुम्य स्थिति में पहुंचे हैं। यही शक्ित हमारे अ्दर कार्या्वित होती है और हम इस ऊँची दशा में पहुँच जाते हैं अर्थात आत्मा स्वरूप हो जाते हैं। केल आपको मैंने कुण्डलिनी के बारे में बताया था कि कुण्डलिनी शक्ति हमारे अन्दर Sacrum नामक त्रिकोणाकार अस्थि में 5-1/2 कुण्डलों में हैं और इसमें शव्ति के अनेक तन्तु हैं। इस कुण्डालिनी के नीचे मूलाधार चक हैं जो कुण्डलिनी का घर है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण चक है और इसी के दारा कुण्डलिनी को सब कुछ ज्ञात होता है। यह चक् हमारी अबोधिता या भोलेपन का चक है। जब हम ब्चे होते हैं तो हममे बहुत ही भोलापन होता है। जैसे जैसे हम बड़े होते हैं, इस चक पर आधात आते हैं तो हमारा भोलापन कम होता जाता है। को सम्भालता है और उत्सर्क निसर्ग के सारे कार्य करता है। यह चक्र हमारी करने से कुण्डलिनी का जागरण होता है, यह महापाप है और समझ लेना चाहिए कि वे हमें पतन की ओर ले जा रहे हैं । यह यह चक हमारे Pevic Plexus पवित्रता का चक है और जो लोग रजनीश की तरह गन्दी बातें सिख्वाते है कि Sex चक तो कमल की भाति है जिस पर गन्दगी का कोई छींटा नहीं ठहर सकता। ह कभी गन्दगी इस चक को दक अवश य सकती है परम्तु यह चक्र और इसकी पवित्रता कभी नम्ट नहीं होती जब कभी इस चक में दोम जैसी घातक बीमारियोँ और अन्य कई Psycho- अर्थात मानसिक बीमारियाँ हो जाती हैं। इसी चक् से इडा नाड़ी अर्थाल चन्द्र नाही ऊपर की और जाकर एक संस्था तैयार करती है जो कि एक तरह से हमारा मन है । जब इस मन में कई तरह के कुरसंस्कार आता है या गन्दगी इसे ढक लेती है तो एड्स ह AIDS somatic भर जाते हैं तो यह गु्बारे की तरह कूल कुर सिर में छ जाता है जिसे हम Super ego या प्रति अहंकार कहते हैं। ऐसी स्थिति में गर हम किसी गलत गुरू या तांत्रिक के पास चले जाएं या गलत धर्म को अपना लें तो इससे चनद्र नाह़ी में बहुत दोष आ जाते हैं जिससे हम पागलपन जैसे कई मानसिक विकारों से ग्रसित हो जाते हैं। मूलाधार चक से ऊपर दूसरा चक स्वाधिष्ठान चक् कह लाता है जो सूर्य की गत से चलता है और इसी चक से हमारी दांयी और की पिंगला हसूर्य नाही] चन्द्र नाईी इच्छा शक्ति की और सूर्य नाढ़ी क्रिया शक्ति की जोड़ी है। क्रिया दो प्रकार की होती है एवं बौदिक किया। दोनों ही कियाएं हम सूर्य नाईी से करते हैं। जब सूर्य नाड़ी अधिक चलती है तो उसका प्रभाव स्वाधिष्ठान चक्र पर पबता है। बहुत पढने लिखने या अधिक सोचने से इस चक्र में दोष जषा जाता है। स्वाधिष्ठान चक् हमारे जिगर ह Liver उसके द्वारा हमारे मस्तिष्क में Grey Cells नाडी चलती है जो हमें कार्य करने की शक्ति देती है। -शारीरिक ै और प्लीहा ह Spieen आदि को नियंत्रत कर भेजता है । अति सोचने से Grey Cells का इस्तेमाल बहुत होता है और स्वाधिष्ठान चक् में दोप आने से नए Crey Cellsबन नहीं पाते। ऐसे में मनुष्य पागल सा हो जाता है और उसे कई बीमारियां हो जाती हैं। इस प्रकार जब हम भविष्य के बारे में ज्यादा सोचते हैं तो हमारी सूर्य नाड़ी अधिक चलती है और जब भूतकाल के बारे में ज्यादा सोचते हैं तो चन्द्र नाड़ी अधिक चलती है और जब इन दोनों में सन्तुलन नहीं आता तब तक इन दोनों के बीच की नाईी, जिसे हम सुमुम्ना नाईी या महालक्ष्मी की नाड्ी कहते हैं, कार्यान्वित नहीं होती। जब हम सब चीजों से ऊब कर परमात्मा की खोज आरम्भ करते हैं तो सुमुम्ना नाड़ी का कार्य शुरू होता है। सुमुम्ना नाइी के अन्दर एक बड़ी सूक्ष्म सी नाड़ी होती है में से कुण्डलिनी शक्ति के पहले दो चार धागे और फिर धीरे-धीरे अनेकों धागें या सूत्र ऊपर की ओर उठते जिसे हम ब्रहम नाही कहते हैं। जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो इसी ब्रह्म नाही हैं। इस प्रकार ईद्ा, पिंगला और सुमुम्ना यह तीन नाडियां हमारे अन्दर हैं जो आज्ञा चक् पर मिलती हैं। जब कुण्डलिनी आज्ञा चक से गुजरती है तो यह चक्र जागृत हो जाता है जिससे अहंकार और प्रति अहंकार की दोनों संस्थाएं अ्दर की ओर सिंच जाती है और मध्य में जगह बन जाती है और कुण्डलिनी उसी से होते छेदन कर हमारे सहस्त्रार से बाहर आ जाती है, और हम अपने सर के तालू भाग हुए हमारे ब्रहुमाण्ड का के ऊपर ठंडी ठंडी लहरियों का अनुभव करते हैं। इस प्रकार परमात्मा से हमारा योग घटित होता है। इसी को आत्म साक्षात्कार कहते हैं। आत्मा का स्थान तो आपके हृदय में है परन्तु सातों चक्कों के पीठ आपके सर में हैं। जब कुण्डलिनी शक्ति ब्रहुमरन्ध्र के छेदन करती है तो हृदय में उसका प्रकाश चला जाता है और आत्मा का सम्बन्ध हमारे चित्त से होने के कारण यह चित्र आलोकित हो जाता है फिर आप स्वयं ही अपने गुरू हो जाते हैं क्योंकि आपकी आत्मा ही आपको प्रकाश देती है और आप इन चैतन्य लहरियों से जान सकते हैं कि आप क्या कर रहे हैं, आप में वया दोष है और फिर आप स्वयं ही उसे ठीक भी कर सकते हैं फिर आप सामूहिक चेतना में उतर जाते हैं अर्धात दूसरों के बारे में भी जान सकते है कि उनमें क्या दोष हैं, उन्हें क्या बीमारियां हैं, और फिर उन्हें ठीक भी कर सकते हैं संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कुण्डलिनी हमारी शुद्ध इच्छा हे और बाकी हमारी जितनी भी इच्छाएँ हैं वे अशुद्ध हैं इसीलिए किसी भी इच्छा पूर्ति से मनुष्य को पूर्ण सन्तोप का नही मिलता और यह तो अर्थशास्त्र का सिद्धांत हैं कि पूरी इच्छारँ कभी पूर्ण नही होती। परन्तु जब कुण्डलिनी अर्थात शुद्ध इच्छा हमारे अन्दर जागृत हो जाती है तो हम सारी इच्छाओं को साक्षी स्वरूप में देखते हैं और निश्चिन्त हो जाते हैं। मैंने जापको तीन नादियों और मूलाधार चक् तथा स्वाधिष्ठान चक के विषय में बताया। इन दो चक्रं के अतरिक्त हमारे अन्दर नामिचक, हृदय या अनहत चक्, चककों के बारे में आप हमारी किताबों में पढ़ सकते हैं और जान सकते विशदि चक, आज्ञा चक और सहस्त्रार चक हें । इन हैं। इन चक्रों और तीन नाहियों का जैसे कि हम देखें कि कैंसर कैसे ठीक होता है और वह सहजयोग में कैसे ठीक हो जाता है। जब ईजा और पिंगला नाडी में असन्तुलन आता है तो उन दोनों से जुड़े सभी चकों और चकों के बीच की जगह , जहां से सुप्रुम्ना नाड़ी से होती हुई कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की और जाती है, छोटी हो जाती है। इससे चक्र कुण्डलिनी शक्ति दारा पूर्ण रूप से प्रभावित और प्लावित नहीं हो पाते जिससे चकों की शक्ति कम हो जाती है और इस तरह से चक्ों के दोष अधवा कमजोरी की वजह से बीमारी होने लगती है और जब कोई चक् किकुल टूट जाता है तब हमारे मेसुदण्ड का सम्कन्ध भी हमारे महितष्क से टूट जाता है और मस्तम्क का शरीर पर नियन्त्रण समाप्त हो जाने से शरीर के किसी भी भाग १ में असन्तुलत वृद्धि होने लगती है और इस तरह से कैंसर का रोग घटित होता है अब जब कुण्डलनी का जागरण होता है तो वह टूटे हुए चक् को अपनी शव्ति दारा जोड़ने लगती है और धीरे धीरे चक की शवितहीनता भी समाप्त हो जाती है। तथा मेरुदण्ड का सम्क्ध फिर से मस्तिष्क इससे शरीर की अनियन्त्रित वृद्धि समाप्त हो जाती है और कैंसर ठीक हो जाता है। इसी प्रकार अनेक रोग ठीक हो सकते हैं क्योंकि इन चक्रों की ही खराबी के कारण बीमारी आती है और महत्व इस तरह से भी समझा जा सकता है में भी असन्तुलन आ जाता है की कोशिकाओं ? Cells प के साथ स्थापित हो जाता है। जब यह चक ठीक हो जाते हैं, तो बीमारी भी ठीक हो जाती है। तो होते ही है परन्तु सबसे बह्ी चीज़ यह है कि आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करते हैं। आप अपने गुरू हो जाते हैं और आप समर्थ भी हो जाते हैं और सब बुरी आदतें, जो पहले आप नहीं छोड़ पाए, ़ सहज योग से शारीरिक, मानसिक, भौतिक लाभ अब स्वयं छूट जाती हैं। आपमें सफ्तुलन आ जाता है और चक पूरी तरह से सुलना शुरू हो जाते हैं। स्वभाव में दया, प्रेम, छलकने , लगता है, मुख पर कन्ति आ जाती है। सोचने का दृष्टिकोण और जीवन मूल्य बदल जाते हैं। आप निर्विचारिता में उतर जाते हैं और आनन्द के सागर में रहने लगते हैं आपका सम्क्ध परम चैतन्य से होने के कारण परम चैतन्य आपकी सारी गतिविधियों करता है। इसका अनुभव आपको होने लगता है और आप आश्चर्यचकित होते हैं कि किस तरह से हर एक चीज़ अपने आप घटित होने लगती है। आप परमात्मा के साम्पन्य में आ जाते हैं जो अत्य्त दक्ष, कुशल एवं प्रेममय है और वह आपको इतना सम्भालता है कि आप आश्चर्यचकत हो जाते हैं कि मेरा इतना गौरव और शक्ति कहाँ से आ गई यह सब आपके अत्दर है और आपको इसे प्राप्त करना चाहिए और इससे अपने और सबके जीवन को खुशहाल बनाना चाहिए। यह हुए बगैर संसार बदल नहीं सकता आप विशेष लोग हैं जो इस योग भूमि में पैदा हुए है। आप पर इस विश्व के प्रति एक विशेष उत्तरादायित्व है इसीलिए आप इस योग को प्राप्त करें और उसमें स्वयं को स्थापित करें। आज को सम्भालता है और आपको पूरी तरह से आर्शीवादित का का। वह समय आ गया है जब यह घटत होना ही चाहिए। इसके बाद श्रीमाता जी ने कुछ प्रश्नों के उत्तर दिये जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैं । जब यह प्रश्न पूछ गया कि T.M. Transcendental Medi tat ion) क्या है तो श्रीमाता जी ने अनेकों उदाहरण ऐसे लोगों के दिए जो T. M. के कारण बहुत बुरी दशा में पहुंच गए थे, उनको कई तरह की बीमारियां हो गई थी और फिर सहज योग में ठीक होने के लिए आए सहज योग में ठीक होने पर उन्होंने जाना कि टी0एम0 कितनी बुरी का सूब आर्थिक और मानसिक शोपण करते हैं, उन्हें मूर्ख बनाते हैं और शारीरक एवं मार्नासक दृष्टि से बुरी दशा में पहुंचा देते हैं । चीज़ है । इस प्रकार गलत लोग गुरू बन कर लोगों प्रश्न -क्या कुण्डलिनी केवल सुमुम्ना नाडी से ही ऊपर चढ़ती है या ईडा पिंगला से भी चढ़ सकती है। 2- उत्तर : जब कुण्डलिनी जागृत होती है. तो केवल सुभुम्ना नाड़ी से ऊपर चढ़ती है परन्तु जब कोई कुण्डलिनी जागृत करने की अनाधिकार चेप्ट करता है तो मुलाधार चक पर बैठे श्री गणेश जी अत्यन्त क्रोधित हो जाते हैं और उसकी कजह से ईडा और पिंगला नाडी में अत्यधिक गर्मी उत्पन्न होती है जिससे कई तरह की समस्याप हो सकती हैं। इसलिए कुण्डलिनी जागृत करने का अधिकार परमात्मा से प्राप्त होना चाहिए। पातांजली योग और सहज योग में क्या अन्तर है। इसका नाम सहज योग क्यूँ रखा गया। 3- प्रश्न उत्तर :- पातांजली योग के बारे में हजारों वर्ष पूर्व बताया गया और उसमें यम, नियम आदि अष्टंग योग द्वारा कुण्डलिनी जागरण की व्यवस्था का वर्णन है पर इसमें कई जन्म लग जाते थे। परन्तु अब यह सहज योग है क्योंकि अब इस तरह के लोग भी है और समय भी है - कलियुग का वह समय जिसका वर्णन हमारे आदि ग्रन्थों में किया गया है आज के समय में आत्म साक्षात्कार सबको सहज में ही प्राप्त होना है. इसका नाम सहज योग रखा है । अहमदाबाद प्रौग्राम हसारांश 15-16/2/1990 श्री माता जी निर्मला देवी अहमदाबाद प्रोग्राम में श्री माता जी ने कुण्डलिनी जागरण, चक्कों के बारे में बताया जिसका वर्णन वे कई बार कर चुकी हैं। उन्होंने बताया कि किस प्रकार असन्तुलन के ईड-पिंगला, सुपुमना, नाड़ियों और सभी कारण हमें अनेक रा ग हो जाते हैं और कैसे कुण्डलनी जागरण दारा सन्तुलन स्थापित कर हम उन रोगों से मुक्त हो सकते हैं और सत्य की प्राप्ति कर सकते हैं तो अपने संस्कारों और बुदि के अनुसार ही सत्य की कल्यना करते हैं परन्तु जब हमारी कुण्डलिनी को जान पाते हैं औरगर ये नहीं होता तो बाकी सब व्यर्थ है। नानक साहब ने कहा है"सतगुरू वही जो साहेब हमें उस परम चैतन्य से संबोधत कर देती है तभी हम वास्तविक सत्य ा मिली है" अर्थात सड्गुरु वही है जो परमात्मा की शक्तित से एकाकारिता करा देता है सहज योग में हमें इसी की प्राप्ति होती है | ४ श्री कृष्ण पूजा वार्ता हईसारांश कह मद्रास 89-2-9.0.8 सहज योग का प्रारम्भ अति तुच्छ साधनों से हुआ और फिर यह नदी की तरह एक बड़े प्रवाह में परिवर्तित इस प्रकार सहजयोग को यहां स्थापित कर पाने पर मैं अति प्रसन्न है। आपको याद रखना है कि हो गया। इस कार्य को करने के लिए ईश्वर ने आपको चुना है। सर्वप्रधम हमें परमात्मा के लिए कार्य करना है तब वह हमारे लिए कार्य करेगा। वह आपकी देखभाल करता है। आपपके व्यवितिगत, सामाजिक तथा अ्य समस्याएं सुलझ सकती है। ईश्वर के प्रति समर्पित लोग अपनी समस्याओं को हल करने में समर्थ होते हैं। परम चैतन्य की शवित हमारा पोषण करती है, हमें रास्ता दिखाती है और हर चीज का आयोजन करती है। आशा के विपरीत भी आपके कार्य हो जाते हैं। कुछ लोगों में बढने के लिए सहयोग को काफी समय लगता है अत: स्वयं में पूर्ण विश्वास तथा धेर्य बनाये रखे। परमात्मा के शाश्वत प्रेम में जब हम बंधे है तो चिन्ता किस बात की। हर कार्य अत्यन्त सुन्दरता से हो जाता है। अपने आप में भरोसा रखना, हृदय की पवित्रता तथा परमात्मा के प्रति सचा प्रेम प्रथम आवश्यकता है। परमात्मा आपको कहीं अधिक प्रेम करते हैं परन्तु यह प्रेम एक पिता के प्रेम की तरह से होता है। यदि आप कोई गलती करते हैं तो पिता आपको सुधारते हैं। इसी प्रकार परम चैतन्य आपको सुधारता है। यह आपको इस प्रकार से शुद्ध करता है कि आप सबक सीखव जाते हैं। अतः हमें सदैव याद रखना है कि हम परम चैतन्य है। यह शकित अब बहुत सकिय हो उठी है । नाम की महान शक्षिति के अंग प्रत्यंग जन-साधारण कार्यक्रम मद्रास व्याल्यान श्री माता जी निर्मला देवी है। 3-2-19908 सत्य बेचा नहीं जा सकता, इसे न तो बनाया जा सकता है न आयोजित किया जा सकता है और न ही इसे मस्तिष्क तथा भावना से समझा जा सकता है। अपनी विकास प्रक्रिया में हमने सत्य को सदा अपने मध्य- नाड़ी-तंत्र पर अनुभव किया है उदाहरण के रूप में मैं इस नमूने को अपनी आँखों से देख रही हूँ और कुछ गर्म या ठंडा अनुभव कर रही हैं। आप भी इसका अनुभव कर सकते हैं। इसी प्रकार सत्य को भी आप अपने मध्य स्नायु-तन्त्र पर अनुभव कर सकते हैं। आपके मध्य-स्नायु-तन्त्र पर इसे प्रकट होना ही है यह केविल विचार मात्र नहीं हो सकता कि "यही सत्य है, वह सत्य है"। सत्य निर्बाध है और सब इसका अनुभव कर सकते हैं। जो पूर्ण है और निर्वाध है उसके विषय में न तो वाद-विवाद किया जा सकता है और न ही उसका म अनुभव भिन्न मिन्न प्रकार का हो सकता है। यद हम इस बात को प्रधम दूष्टया स्वीकार कर लें तो हम समझ पायेगें कि इस सत्य का अनुभव करनै के लिए हमें मानव चैतना से आगे जाना हौगा, और ईश्वर की सर्वत्र 19 व्यापक शक्ति ही यह सत्य है। प्रेम सत्य है और सत्य प्रेम है परन्तु यह प्रेम ईश्वरीय है। किसी सीमा में नहीं बंधा होता। पेड़ के अन्दर का रस पेड़ के मिन्न भागों को जीवन प्रदान करता है और ईश्वरीय प्रेम फिर वापिस आ जाता है। यदि यह रस केवल फूल पर ही टिक जाय तो पूरा पेडू मर जायगा और अन्त में फूल भी मर जायगा। अत: यह प्रेम निर्लिप्त प्रेम है। इसी प्रेम ने पुरे ब्रहमां पृथ्वी मां, और ग्रहों के मध्य की दूरी का व्यक्स्थापन किया है इसी ने हमारे विकास की व्यवस्था की है। और हमें मानव चेतना स्तर पर लाया है। परन्तु मानव- चेतना पर्याप्त नहीं है। यदि पऐसा होता तो मनुष्यों के मिन्न मिन्न विचार न होते। हर व्यक्ति समझता है कि वही ठीक है। परन्तु स्वयं को ठीक प्रमाणित करने का यह कोई तरीका नही है। हैं। ईश्वरीय प्रेम तो आधुनिक युग में ईश्वरीय प्रेम की बात करने वाले को लोग विसा-पिटा समझते शाश्वत है। कुछ समय के लिए यह कम हो सकता है परन्तु हमारे उपकार और लक्ष्य प्राप्ति के लिए इसे वापिस आना पडता है। आरिविरकार हम इस पृथ्वी गर क्यों हैं? हम उत्पन्न कयों हुए हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? क्या हर समय धन,सत्ता, संबंध तथा अन्य भावनात्मक चीजों के लिए संघर्ष करना ही हमारा लक्ष्य है। या इससे ऊँचा भी कुछ है। यदि में यह कर रही हूँ कि हमारे चहूँ और सर्वत्र विधमान शक्ति है तो आप के अन्दर, यह समझने के लिए कि इस स्तर पर यह केवल एक परिक्ल्पना है जिसे मैं बाद में प्रमाणित कर दँगी, एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए। परिक्ल्पना के साबित होने पर आपको इसे सल्य के रूप में स्वीकार करना होगा, ईमानदार व्यक्ति होने के नाते भी आपको इसे स्वीकर करना होगा। रयदि यह मानव मात्र के मोक्ष के लिए है, यदि यह मानव जाति के उपकार के लिए है तो क्यों न इसे स्वीकार लें? आरम्भ में ही मने आपको बताया कि सत्य बेचा नहीं जा सकता। परन्तु आज भी बाजार में से बहुत लोग सत्य, ईश्वर तथा बहुत ही चीजों को बेच रहे हैं। सत्य का धन से कोई सम्बंध नहीं है। पैसा मनुष्य की रचना है परमात्मा से संबंध की कमी तथा संबंध की स्थिरता का न होना हमें इस सर्वत्र विष्यमान शवित का अनुभव नहीं हाने देता कुण्डलिनी नामक शक्ति बेंधती है तो आपकी हथेलियों तथा सिर के तालू भाग से शीतल लहरियाँ बहनें लगतीं हैं। अतः आपको स्वयं । परमात्मा से संबंध स्थिर कर पाना संभव है। हमारे अन्दर साट़े तीन लपेटों में विद्यमान है। जागृत होकर जब यह छ: चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रार चक को ही स्वयं को विश्वस्त करना है। कोई अन्य आपको सत्य के विषय में विश्वस्त नहीं करेगा। बीज का यह प्रथम अंकुरण है। यह एक जीक्त किया है और जीवित परमात्मा की जीवित शक्ति है। एक बीज की तरह से स्वतः ही इसका अंकुरण होता है तब आप इस का आश्चर्यजनक तथा अनोखा प्रभाव अपने मानसिक, भावनात्मक तथा आध्यात्मिक व्यव्तित्व पर देखना शुरू कर देते हैं । यह एक पेसा अवलोकन है जिस पर आपकी कल्पना की उडान भी नहीं पहुंच सकती। परन्तु आप वास्तव में वही यशस्वी वस्तु हैं। आपके अन्दर ही वह गौरव है और आप उसी गौरव के लिए तथा उसके सौंदर्य का आनन्द लेने के लिए बने हैं आपको यह आनन्द लेना है। योग प्राप्ति तथा परम शक्ति से एकाकार आपका अधिकार है। यह सब स्वतः घटित होता है। सहज का अभिप्राय है साथ जन्म हुआ धा सुगम। कुंडलिनी हमारे अन्दर की शुद्ध इच्छा है। अर्थशास्त्र का विधान कहता है कि साधारण तथा इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। शुद्ध इच्छा न होने के कारण इच्छायें बढ्ती ही जाती हैं। शुद्ध इच्छछा क्या है? आपको इस का ज्ञान हो या न हो परम शक्ति से पकाकार ही आपकी शुद्ध इच्छा है। जब तक यह इच्छा पूरी नहीं हो जाती 10 जीवन में आपं संतुष्ट नहीं होंगें। शुद्र ईच्छा की यह शक्ति त्रिकोणाकार अस्थि में रहती है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि कुंडलिनी मूलाधार चक् से ऊपर मूलाधार में स्थित है । अतः जो लोग यह कहते हैं रति- किया से कुंडलिनी जागृत होती है वे पूर्णतया गलत ओर वास्तविकता के विरूद हैं। ये म्रष्ट लोग है जो हमारी दुर्बलताओं के साथ खिलवाबू करते हैं। मूलाधार चक् हमारे श्रोणीय प्रदेश हपैलीवक पलैक्शन , जो कि हमारे यौन तथा मलोत्सर्जन के अंगों का उत्तरदायी हैं, की देखभाल करता है। उत्थान के समय हमारी सब गतिविधिया शांत हो जाती हैं और मनुष्य अबोध बन जाता है तब कुंडलिनी सहस्त्रार की और अग्रसर होती है। अंति कुंडलिनी का यह उत्थान पृथ्वी माँ के गुणों वाले या किसी सहजयोगी की मौजूदगी में होता है क्योंकि वह जानता है कि कुंडलिनी को किस प्रकार चढ़ाना है और साक्षात्कार किस प्रकार देना है। कुंडलिनी आपकी अपनी माँ हैं। आपके विषय में वह सब कुछ जानती है। वह आपके हृदय और मस्तिष्क के विषय में सब जानती हैं। त्रिकोणाकार अस्थि में बैठी यह अपनी जागृति के क्षण की प्रतीक्षा करती है। यह कहना कि इसकी जागृत से कष्ट होता है गलत है। अनाधिकार चेष्टा करने वाले लोगों के कारण कष्ट हो सकता है जब हम बहुत अधिक सोचते हैं तो मस्तिष्क के सफेद-कण प्रयोग करते हैं । परन्तु इसका प्रतिस्थापन कैसे होता है? यह कण कैसे बड़ते हैं? यह कोई नहीं जानता। स्वाधिप्ठान चक् चर्बी के कणों को मस्तिष्क के प्रयोग के लिए परिवर्तत करता है। यह आपके जिगर, अग्नाश्य, प्लीहा और आन्त्र तथा गुर्दे के भागों की भी देखभाल करता है, इसे इतना अधिक कार्य करना पड़ता है। यदि आप बहुत भविष्य बादी हैं अधिक सोचते हैं तो इस बेचारे चक को आपके मस्तिष्क के लिए सफेद कण बनाने का कार्य भी करना पड़ता है। परिणामतः ये सभी अंग उपेक्षित हो जाते हैं और इस प्रकार के लोगों को जिगर के रोग हो जाते हैं। आपका अग्नाश्य यदि उपेक्षित हो जाय तो आपके शक्कर रोग हो सकता है। आपके स्वाधिष्ठान को जब कठिन परिश्रम करना पड़ता है तो इसकी समझ में नहीं आता कि क्या करें और क्या न करें। परिणामतः अग्नाशय की उपेक्षा हो जाती हैं। हर समय योजनाएँ बनाते हैं, बहुत स्वाधिष्ठान की अंतिव्यस्तता का तीसरा शिकार प्लीहा होता है प्लीहा शरीर का गतिमापक है। यह लय देता है। आजकल हम कुछ न करते हुये भी व्यस्त रहते हैं । प्लीहा आपात स्थिति के लिए अधिक लाल रवत-कोशिकाएँं बनाता है। जब हम समाचार-पत्रों में चाका देने वाली खबरे पढ़ते हैं तो हमारे अन्दर आपात स्थिति बन जाती है। ऐसी स्थिति में प्लीहा करियान्वित हो उठता है परन्तु यदि हम हर समय उत्तेजनापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं तो प्लीहा की समझ में यह नहीं आता कि इस उत्तेजित व्यव्तित्व का क्या क? यह भी उत्तेजित होकर लाल-रक्त-कोशिकाएँ बनाता चला जाता है। अपनी लय भी नहीं रख पाता और मनुष्य की कैंसर, किशेषतया रक्त कैंसर, पीडित होने की संभावना बढ़ जाती है। जब स्रोत से सम्कन्ध समाप्त हो जाता है तो नियंत्रण भी नहीं रहता। कैंसर रोगी के अन्दर रक्त कण निरंकुश रूप से चलते हैं तथा इस प्रकार विषाणुता प्रारम्भ हो जाती है और कैंसर रोग हो जाता है । जागृत होकर कुंडलिनी इन अ्रकों में से होकर गुजरती है, इन्हें जागृत करती है, इनका योषण करती है और इन्हें ठीक करती है। इस प्रकार आपका चित्त संबंधित चक पर आता है और समस्या का समाधान हो जाता है। 11 इसी प्रकार रक्तचाप, जो कि ्राब गुर्दे के कारण होता है, रोग ठीक डो जाते हैं । तथा भविष्यवादी व्यव्तियों के कई अन्य भविष्यवादी व्यव्तियों का सबसे बडुा शत्रु यह सत्य है कि भविन्य का कोई अस्तित्व ही नहीं होता भविष्य में उनकी आशापे जब पूरी नहीं होती तो वे निराश हो जाते हैं। आशा निराशा के बीच में लटके रहने के कारण उनका व्यकत्व अजीब प्रकार का हो जाता है जिसके कारण उन्हें मनोदैहिक हसाईकोसोमैटिक रोग हो जाते हैं जोकि बहुत मंभीर है। भविष्यवादी लोगी का सबसे बड़ा शत्रु, जोकि उनके दरवाजे पर प्रतीक्षा कर रहा होता है, दिल का दौरा है। यदि आप का चित्त बाहर की ओर योजनाएें बनाने में, धन्नाजन में सत्ता में छोटी-छोटी चीजों के लिए संघर्ष करने में लगा रहता है और अपने हृदय पर, भावनाओं पर यदि आप ध्यान नहीं देते, अपनी पत्नी और परिवार के लिए यदि आपके पास कोई समय नही है, तो आप पक शुघ्क व्यव्ति बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति चाहे देखने में बहुत अच्छे लगें, वास्तव में अच्छे नहीं होते वे अत्यन्त शुष्क होते है और भयानक दिल के दौरे के शिकार भी हा सकते हैं। कारण यह है कि हृदय में आत्मा का निवास है और यदि आप आत्मा की उपेक्षा करते हैं तो दिल का दौरा अनवार्य है । दिल दो प्रकार के होते हैं : अकर्मन्य और अति चुस्त। भविष्यवादी व्यत्तियों के चुस्त दिल होते हैं और इन्हें ही दिल के भयंकर दौरे पड़ते हैं जबकि अकर्मन्य हृदय वाले लोगों को कंठशूल फन्जाइना रोग हो सकता है। अत: सभी रोग, चाहे वे मानसिक हो, भावनात्मक हो, या अध्यात्मिक, सभी चक्रों की खराबी के कारण होते हैं । मोहमासुर मर्दनी पूजा वार्ता श्रीमाता जी निर्मला देवी दारा बैंगलीर है। 3-2-19908 हिन्दी जनुवाद सर्वप्रथम हर स्थान पर मनुष्य को श्री गणेश स्थापित करना होता है। जैसा कि आप जानते हैं कि श्री गणेश मंगल, है। ये तीनों गुण श्री गणेश के विवेक से ही आते हैं अत: आपके पवित्रता और अबोधिता के ग्रोत अन्दर का विवेक सर्वोपरी है। विवेक दारा ही आप जान सकते है कि मंगलमय और पवित्र क्या है। यह विवेक कोई संसारिक विवेक नहीं यह ईश्वरीय विवेक है जो उत्थान के साथ ही हमें प्राप्त होता है अतः विवेक के स्रोत की स्थापित करना हर सहजयोगी का कर्तव्य है। सहजयोगियों के लिए इस विवेक का ओरत परम चैतन्य है या शुद्ध लहरिया जब भी आप कष्ट में हों या पकड़ महसूस करें या आपके सामने किसी उचित अनुचित को स्वीकार करने की बात आयें, अछे बुरे का निर्णय करना हो तो सबसे पहली विवेकपूर्ण बात यह होगी कि आप इसे लहरियों पर परखें । हम सदा भूल जाते हैं कि हमें पक नई चेतना प्राप्ति है, कि हम महान व्यक्ति है, हम भृूल ईश्वर ने हमें क्षण-क्षण के लिए पक विशेष चेतना प्रदान की है, जब भी हम अपने निर्णय लेने के लिए बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो हम भटक जाते हैं केवल लहरियाँ ही एक पेसा साधन है जो आपको बता सकता है कि जो आप कर रहे हैं वह उचित है या अनुचित। यह आदत विकसित करना ही विवेक है और पहले की जाते है कि हम सन्त हैं और 12 तरह से बौद्धिक और भावनात्मक ढंग से निर्णय लेने की आदत अविवेक। कुछ लोग सवा कहते हैं कि मुझे अच्छा लगा। यह केवल बाँ दिक अभिवृत्ति है। कुछ लोग कहते हैं कि मैंने सोचा कि तार्किक रूप से यह इस प्रकार होना चाहिए। हमारे लिए केवल एक ही रास्ता है वह है परम चैतन्य या लहरियाँ और उनकी समझ। लहरियों के एकीकरण पर पूर्ण निर्भरता प्रथम विवेकशीलता है और अपनी लहरियों को स्थिर करना दूसरी। यदि आपकी लहरियां ठीक नही है या आप उनका अनुभव ठीक से नहीं करते हैं तो आपको अपने निर्णय भावनात्मक या बीद्धिक ढंग से लेने पचेगे। परन्तु याद आपके पास लहीरियां हैं और आप उनका अनुभव कर सकते हैं तो आप सुगमता से उचित अनुचित का निर्णय कर सकते हैं । तीसरा सत्य जो हमने जानना है वह यह है कि हम ईश्वर के साम्राज्य में प्रविष्ट हो चुके हैं। यह अन्थविश्वास नहीं है क्योंकि आप शीतल लहरियों का अनुभव कर चुके हैं। आप परम-चैतन्य का अनुभव कर चुके हैं। हम ईश्वर के साम्राज्य में प्रविष्ट हो चुके हैं इस बात पर िश्वास करने के लिए हमें अनुभव प्राप्त हो चुके हैं। इस परम चैतन्य के भरोसे सब कुछ छोड़ देना ही सर्वोत्तम हैं। परम चैतन्य सब ठीक कर लेगा । मान लिया मैं कहीं जा रही हूँ और ड्राईवर कहता है कि हम रास्ता भूल गये हैं इस पर मैं बढ़ी शान्ति का अनुभव करती हूंँ। म सोचती हैं कि मुझे इसी रास्ते से जाना है। मुझे आश्वस्त होना है। जब आप सब कुछ परम चैतन्य पर छोड़ देते हैं तो ऐसे बड़े-बड़े कार्य बन जायेगे कि आप दंग रह जायेगें कि यह कैसे हमारी समस्याओं का हल करता है, कैसे यह हमें रास्ता दिखाता है आप साफ-साफ देख लेते हैं किसी कार्य को करने के लिए संघर्ष करते हुए जब आप यह कह देते हैं कि मैंने इसे ईश्वर पर छोड दिया है तो यह कार्य हो की जाता है। परन्तु यदि आप संघर्षरत रहना चाहे तो परम चैतन्य कहता है कि ठीक है यदि तुम अपने प्रयत्नों फ्लीमूत होते देखना चाहते हों तो लगे रहों जोर धीरे धीरे आपके व्यवहार में परम चैतन्य लुप्त होने लगता है । पूर्ण समर्पण तथा सहजयोग में गहन विश्वास चौथा विवेक तत्व है। आप सहजयोग में कितनी गहराई में हैं यह अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं यदि आपके अदर वह गहराई है तो वह कार्य करेगी। आपके माता-पिता हैं, परिवार है, बच्चे हैं, और आपकी समस्याएँ हैं परन्तु इन समस्याओं को हल करने के लिए आपको संघर्ष नहीं करना है अपनी लहरियों को विकसत करने के लिए आपको कार्यरत रहना हैं [आप किस प्रकार विकसित होते हैं? आपको निर्विचार होना है। निर्विचारिता के बिना यह विकास संभव नहीं। जब आपको मेरे फेटो के सामने बैठकर भी विचार आ रहे हो तो आपको निरर्विचारिता का मंत्र "ओम त्वमेव साक्षात श्री निर्विचारिता साक्षात श्री - नमो नमः " कहना चाहिए। निर्विचार अवस्था को स्थापित कीजिए। इस प्रकार आपकी बौद्िक गहनता का विकास होगा। मुंम हृदय की गहराई का विकसित करना आपकी पक और समस्या है। ध्यान में बैठने से पहले आपको कहना है कि श्रीमाता जी कृपया मेर हृदय में आईये, श्रीमाता जी कृपया मेरे सिर में आइये। " तब आप ध्यान के लिए बैठिए और अपना हाथ अपने हृदय पर रख लीजिए । कुछ लोग केवल यह भी कह सकते हैं कि श्रीमाता जी में आत्मा हूँ। कृपया मेरे हृदय " यह कहना सर्वोत्तम है। हृदय को खुलना अत्यन्त आवश्यक है। बन्द हृदय कहिए कि "मुझे एक विशाल हृदय के सिवाय किसी चीज की आवश्यकता नही । " अपने प्रति अपने हृदय को खोलिए। हर समय स्वयं की चिन्ता न करते रहिये। कभी-कभी लोग अपने कठोर स्वभाव को खोल दीजिए से आपका उत्थान नहीं हो सकता। 13 नियम -निष्ठता और अनुशासन की डींग हांकते हैं। "मैं चार बजे उठा, स्नान किया और पूजा की आदि-आदि"। इस प्रकार के व्यवहार से आपके हृदय का वध हो जायेगा। किसी को भी अपनी अनुशासन बद्धता की डींग नहीं हॉकनी हैं। के लिए नहीं, स्नान कीजए तथा आशा और आनन्द के आप अपने आनन्द के लिए यह सब कर रहे हैं। ध्यान भी आप आनन्द के लिए कर रहे हैं पश्चाताप केवल आनन्द के लिए प्रातः प्रस्न मुद्रा में उठिये, साथ दिन की शुरूआत कीजए। आपको कठोरता पूर्वक स्वयं को अनुशासित नहीं करना है, स्वयं को प्रेम करना है और स्वयं का आनन्द प्राप्त करना है मैंने देखा है लोग मेरी पूजा करते हैं, बड़े प्रसन्नचित होते हैं, आनन्दपूर्वक मालायें पिरोते हैं। और गाते बजाते हैं। दूसरी तरह के लोग वो हैं जो हर समय स्वयं को अनुशासित । "सदा यह करो", यह मत करो" कहते रहते हैं या फिर सोचते रहते है कि मां ने आना ही करते रहते हैं। है समय बहुत कम है आदि-आदि। पूजा किसी औपचारिकता आदि के लिए नहीं होती यह अपने प्रेम सागर में शारोबार होने के लिए होती है। अतः जल्दी मचाने की या किन्ता करते की कोई आवश्यकता नहीं। में यह नहीं देखती कि आपने यहां क्या साज सज्जा की है या क्या कार्य किया है, जो भी आपने किया है ग्रेम से किया है। आपके किये हुए में मैं दोप नही देखती। जो भी आप करते हैं सुन्दर हैं क्योंकि मैं केवल जपका हृदय देखती हैूँ और यह कि आपने हृदय से क्या किया है। आप वृद्ध शबरी के विषय में तो जानते ही है। उसने कुछ बेर इकठूठे किये और हर एक को अपने दाँतो से चवा। जब राम आये तो उसने कहा-खाइये। "क्योंकि आपको खट्टी चीजें पसन्द नहीं हैं अतः सबको चव कर केवल मधुर ही आपके लिए रखे हैं। अपने उग्र स्वमाव तक के कारण लक्ष्मण नाराज हुए कि इस नीच जाति की औरत का इतना साहस कैसे हुआ कि श्रीराम को इस ढंग से फल अर्पण करें । ओर श्रीराम की अंखों से प्रेम अश्रु बह निकले और वह कहने लगे कि मैंने दृूसरी इतने मधुर बेर कभी नहीं खाये। सब कुछ समझ कर सीताज़ी ने भी कुछ फल खाने चाहे। फलों को खाते हुए सीता जी ने उन्हें अमूत तुल्य बताया। अब लक्ष्मण जी ने भी कुछु बेर स्वाने को मांगे परन्तु सीता जी ने कहा तुम्हें बेर नही मिलेंगे। बहुत क्षमा मांगने पर लक्ष्मण जी ने भी कुछ फल कि तुम बहुत नाराज हुए धे अतः खायें ओर उन्हें मधुर पाया। अत: सर्वाच्च ही प्रेम का प्रमाण है। हर कार्य को बहुत प्रेम, सहजता तथा सुन्दरता से करना चाहिए। हर कार्य बहुत मधुरता से होना हर पूजा में मुझे आपको बताना पडता है कि ऐसा चाहिए। माधुर्य के विना पषूजा क्षान्ददायी नही होती। करो, बैसा करो। चिन्ता की कोई बात नहीं। बिना समझें लोग आयोजन शुरू कर देते हैं और यदि ठीक ठाक हो जाये तो भी आनन्दायी नहीं होता। कुछ दिलचर्प घटनायें होनी चाहिएँ, कुछ गलतियाँ होनी चाहिएँ जिससे नाटकीयता बढ़े। इर चीज को गम्भीरता पूर्वक नहीं लेना चाहिए। यह पूर्णतया सत्य है कि हम जो भी हैं जैसे मी हैं प्रेममग्न हैं। प्रेम में आप बाकी सब कुछ भूल जाते हैं। प्रेम ही महत्वपूर्ण हैं। अगर यह अवस्था सब कुछ है तो हम वास्तव में हर चीज़ का आनन्द लेते हैं। विवेक की चरम सीमा केवल यह है क्या हम सहजयोग का आनन्द ले रहे हैं? यहीं मापदंड है। कहीं सहजयोग हमें भारी और कठिन तो नही लग रहा है? याद हम आनन्द ले रहे हैं तो मेरा लक्ष्य पूरा हो गया है, क्योंकि में कार्य इसलिए करती हूं कि आप किसी भी चीज के छोटे छोटे भाग का भी आनन्द लें। जो भी सुन्दर वस्तु आप देखें उसका आनन्द प्राप्त करने की योग्यता आप में होनी चाहिए। 14 सहजयोग एक फूल की तरह से है। यह सुगन्धी से परिपूर्ण है । इस सुगन्धी का आनन्द लेने वाले लोगों को जब में देखती हूँ तो मेरा दिल सिल उठता है। प्रसन्नचित, घर्मपरायण तथा आनन्दमग्न लोगों को देखना अति सुखद होता है। ऐसा दृश्य आप को और कहाँ प्राप्त डो सकता है। ऐसे लोग श्रीगणेश की तरह से होते हैं, नाचते हुए शिशु, जो हमें प्रसन्न भी करते है और हममें विवेक जागृत करने का प्रयत्न भी। इतने अपने अन्दर श्रीगणेश छोटे से शिशु का इतना महान व्योक्व। वे शाश्वत वात्सलय के शिशु हैं। अतः हमें का सौन्दर्य स्थापित करना चाहिए। बकचों को तो आप देखते ही हैं, वे लिलौने से खेलते हैं और फिर उसे फेंक देते हैं, किसी चीज से उन्हें लिप्सा नहीं होती। बच्चे यदि किसी चीज की पकड़ में आ जायें तो वह बचे नहीं है। उनके लिए कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं फिर भी वे आनन्द प्राप्त करते हैं । कचों की तरह से लिप्सा विहीन होकर आपने सहजयोग को समझना है। प्रारम्भ में हमें समझना चाहिए कि हमें देवी को प्रसन्न करना है। यदि देवी प्रसन्न है तो बाकि सभी देवता प्रसन्न है। जब में आप सबको एक परिवार के रूप में, एक दूसरे से प्रेम करते हुए, प्रेम और दे वी - सहानुभूति पूर्ण सामूहिकता में दखती हूँ तो मैं बहुत प्रसन्न होती हूँ| आपका केवल यही गुण मुझे प्रसन्न रख सकता है। ईश्वर आपको आशिर्वादित करें। वियरात्री पूजा व्वर्ता - पूना श्रीमाता जी निर्मला देवी 23-2-1990 में हम अपना आज शिव रात्री है और शिवरात्री में हम शिव का पूजन करने वाले हैं। उसके अनेक उपाधयों, बाह्य मन, अहंकार और बाहय में हम उसकी चालना कर शरीर और सकते हैं, उसका प्रभुत्व पा सकते हैं । इसी तरह जो कुछ अन्तरक्ष में बनाया गया है वो सब कुछ हम जान सकते हैं, उसका उपयोग कर सकते हैं । उसी प्रकार इस पृथ्वी में जो कुछ तत्व हैं और म इस पृथ्वी में जो कुछ उपचा है सब को हम अपने उपयोग में ला सकते हैं । इसका सारा प्रभुत्व हम अपने हाथ पे ले सकते हैं । लेन ये सब बाहूय का आवरण है । जो हम अन्तरतम में हैं वो हम आत्मा हैं । शिव हैं । जो बाथ्य में है वो सब नश्वर है । जो जन्मेगा वो मरेगा, जो निर्माण होगा उसका विनाश हो सकता है । किन्तु जो अन्तरतम में हमारे न्दर आत्मा है, जो हमारा शिव है, जो सदा शिव का प्रांतांबम्य है यो आवनाशी है, नियकाम, स्वछन्द । किसी चीज में वो लिपटा नहीं निरंजन उस शिव के प्रकाश में आलोंकत होते ही हम भी धीरे धीरे सन्यस्त होते जाते हैं। बाह्य में सब अवरण है। वो जहाँ के तहीँ रहते है । लेोकन अन्तरतम मे जो आत्मा अचर, अटूट, आंवनाशी है वो हमेशा के लिए अपने स्थान पे प्रकाशत होते रहता है । 15 हमारा जीवन आत्म साक्षातकार के बाद एक दिव्य, एक भव्य, एक पावत्र जीवन बन जाता है इसीलिए मनुष्य के लिए आत्म साक्षातकार पाना आत आकश्यक है । उसके बगैर उसमें संतुलन नहीं उसमें सच्ची सामूहिकता नहीं आ सकता । उसमें सच्चा प्रेम नहीं आ सकता। और सबसे आ सकता । आधक उसमें सत्य जाना नहीं जा सकता । सो सारा ज्ञान, उसकी शुद्ध ज्ञानता आ जाती है। जसे की विद्या कहा जाता है वो इस आत्मा के प्रकाश में ही जानी जा सक्ती है । जब मनुष्य इस आत्मा के प्रकाश से आलोकित हो जाता है, तो उसका देखना भी निरंजन हो जाता है । वो देखना मात्र होता है। कोई बाज को देखते ववत उसमें कोई उसकी प्रातिकया नहीं होती है । देखता है और देखने से ही पूरा ज्ञान हो जाता है उस तो वो एक तरह से अपने ही बारे में सोचता रहता है। चाज का । तो मनुष्य हमेशा जब आत्म साक्षातकार से प्लावत नहीं होता । वो यही सोचता है कि मैं आज क्या खाना स्वाऊँगा । क्या किसके यहाँ बडा अच्छा खाना मिला धा । आज कौन से खाने का इन्तजाम करे। नहीं तो फिर ये सोचता है कि आज कहाँ मुझे जाना चाहिए । ा । कौन सी कान सी जगह मेरा महत्व होगा जगह मुझे लोग मानेगें । कौन सी सभा में मैं जाकर चौकुंगा । तीसरा सोचगा कि मैं कौन सा कार्य रूपया इक्ट्ठा कर लूँ, बहुत मेरे पास पेसा आ जाए । संसार की सारं सम्पात्त में पा लू । चौथा सोच सकता है कि कितने मेरे बच्चे है, और इनके लिए मुझे क्या करना चाहिए ओर बच्चो के बच्चो के लिए क्या करना चाहिए, और मेरे रिश्तेदार । इस प्रकार के जो कुछ विचार हैं, यह अपने में लॉक्षत है । मैं कहाँ हूँ । मेरा उसमे कौन सा व्शेष लाभ होने वाला है| आज मैं किसको किस तरह से प्रभावत करंगा । कितना बोटया कितना । दूसरा है जो अपने को बहुत नम्रता पूर्वक सबके सामने बार बार झुके नमस्कार करेगा । ये दिखाने के लिए कि मैं बड़ा नम्र हूँ और में सबसे बड आदर से रहता हूँ। बहुत सभा में जाकर वाद् विवाद करगा । मै बहुत सारी किताबें पढूँगा उससे मै अपनी बुद को बड़ा प्रबल कर तूँगा । में बुं्ध से बहुत अपने कर जिसके कारण में बहुत और दुनिया को मैं ठीक कर लूँ है, और उनके लिए मुझे क्या करना चाहिए हैं । कि उसमे मेरा क्या स्थान आज कौन से कपडे पहनूँगा मैं । होशियार, कितना चमत्कार ज्यादा संस्कृती से भरपूर हूँ । कोई तासरा कहेगा कि मै विद्यवानो की को ऐसा विशेष रुप से प्रकाशत कागा कि लोग सोचेगें कि कितना बड़ा लेखक है, कि कितना बडा ववता हैं, कितना बड़ा बोलने वाला है । अपने कल के बारे में सोचता है । हर चीज में आदमी इसमें अपने बारे में सोचता है कि मेरी प्रगोत कैसी होगी उससे मैं क्या कँगा और बहुत से समाज कार्य भी लोग करते हैं । जैसे कि कोई आदमी अगर डूब रहा है तो उसको बचाने के लिए कोई आदमी कुदता है तो वो भी यहा सोच के कि उसके अन्दर जो कुछ में है वो उस आदमी में भी है इसालए वो उसको बचाता है, । उसको पहचान नहीं होता कि आदमी डूब रहा है इसलए उसको बचाता है । और उससे भी ऊँचे कार्य मनुष्य करता है । अपने देश के लिए बहुत त्याग करता, है इसलए कि मेरा देश है । मेरे देश को सुख होना चाहए इस तरह से उसमें भव्यता आने लगती है । उसमें महानता आने लगती है । फिर कोई सोचता है कि मेरी जो कला है, वो ऐसी फैलनी चाहए कि विश्व में हमारे देश की कला फैल। इस तरह से मनुष्य फ़िर इसी प्रकार कोई अपने संगीत के बारे में सोचता है, तो कोई 16 अपने आप को सामूहिकता में अपने आप को घुलते देख कर खुश होता है । पर उस सब में अपेक्षत होता है कि उसे विजय मिले सका यश गान हो । लोग उसका बाह बाह करें । यह अपाक्षत रहता है, इस लिए वो सुख और दुख के चक्कर में फंस जाता सब जगह छपे, लोग उसको बहुत माने और उसकी बड़ी मान्यता रखें और कहीं थी वो खड़ा हो तो कभी भी वो अपमानत न हो कोई उसको किसी भी तरह से नाचा न कहे । कोई भी कितना भी है । यह अपीक्षत रहता है कि. उसका नाम बड़ा संयोजक हो गर वो आत्म साक्षातकारी नहीं है तो उसमें उसका जो बिन्दू आप अपना है, में हूँ, नु जो में का बिन्दू है, वो कितना भी बड़ा उसका परिग बन जाए । पर उसका चित्त उस में दे ही रहता है । उस पनीग ? में उसका चन्त नहीं जाता । किन्तु जब आप अपने आत्मा से एकाकारिता प्राप्त करते हैं , तब वो ओर तरह से बात सोचता हैं कि इसका उपयोग समाज के लिए कैसे हो सकता है। तब बो हर चाज को इस तरह से सोचता है, दुनिया के लिए कैसे हो सकता है । इस आतीरक पीडा के लोग हैं । इनके लिए क्या हो सकता है। इनके लिए क्या करना चाहिए । उसका सारा ही विचार अपने से बदल के उन चीरों की और जाता को देखता है, उस पेड को देखते ही वो सोचता है विधाता ने कितना सुन्दर जब किसी पेड ये पेड बनाया हुआ है काश व में भी ऐसा सुन्दर होता । काश कि मैं भी ऐसा छाया पद होता कि लोग मेरे छाया में आकर के बैठते । क्न्तु में ऐसा नहीं । मुझे ऐसा ही होना चाहिए। उस पेड की स्तुति में वो गाने लग जाए । लेकन जो मनुष्य । जो अपनी आत्मा को जानता नहीं वो हमेशा अपनी ही है । किसी हिमालय को देखेगा तो हिमालय की ही स्तुति गाता रहेगा। आत्म निष्ठ नहीं होता है। स्तुंत गाता रहता है, कि में हमालय पे गया धा, मैंने हिमालय पे ये काम किया । हिमालय में मेरा दो कब्र बना देना । हिमालय पे मेरा देश का झंडा लगा देना । इस प्रकार एक दम दो लेवल, तबते व्यावत हैं । एक जो कि आत्म साक्षातकारी हे, आत्मा के प्रकाश में अपने को सारी चीजों की ओर दृष्ट डालते वव्त एक व्यापकता से देखते हैं और दूसरी बात कि उनमें यह कभी धारणा नहीं होता कोई वेशक उन्हें मार भी कि यह कार्य करने से मेरा नाम बढ जाए, या मेरा यशगान लोग करें । करें, यो कभी भी इस चीज का बुरा नहीं मानते। जैसे की आप देख डाले, सताये, छले, या बुराई सकते हैं इसामसीह को सूली पे चढाया गया । सूली पे चढने के ववत उन्होंने एक प्रार्थना की कि है जगदीश ये लोग जानते नहीं कि ये लोग क्या गलती कर रहे हैं कि इनको तुम माफ कर दो । तो ऐसा जो आत्म साक्षातकारी होता है वो निसफल होता है । उसके अन्दर किसी चीज की हवचाव नहीं रहती। यह चीज होना ही चांहिए् । । वो संकल्प नहीं करता हो जाएगा तो अच्छा , यह बनना ही चाहिए और नहीं हो जाएगा तो भी अच्छा और जब वो किसी यश और जय को स्मरण नहीं करता है, उसका । तो उसको सुख और दुख का चक्कर आता नहीं । सुख और समान हो जाएगा । कोई दुख आया तो उसे भी देख सा है, सुख आया उसे भी देख सकता है और अपेक्षा ही नहीं करता है। दुख में बो 17 खुद वो स्वंय आनन्द में किमोर है ब्यूक आत्मा वो समझता है कि वो रात और दिन का मामला है । चीज की लालसा नहीं करता और होती ही नहीं। उसको कभी आनन्द का ही त है । वो किसी भी भी अपने मन को इंक्न्ट्रोल काबू में नहीं लाना पड़ता । कहते हैं अपने मन व इनद्रियों को बाबू कारए। नहीं होत, कि ये चीज मुझे चांहए ही और वो पूरा काबू में आ जाती है । कोई उसके लिए प्राण लगा रहे हैं । लोग हैं कि कोई न चाज के प्रलोबन में इस तरह से लैडते हैं कि जैसे कि उनके लिए वो ही सब कुछ जिन्दगी है और जब वो चीज मिल जाती हैं उसके बाद फिर दूसरे चीज के लिए दोडने लग जाते हैं । वो सोचते हैं कि मेरे जिन्दगी का सब Temntation अगर वे नहीं मिलती है तो फिर उनको इतना दख होता है कि कुछ खत्म हो चुका । फिर ऐसा मनुष्य है, इसके चित्त में ये शक्त होती है कि उसका का जा चित्त होता वो बहुतकार और हर चीज को जानता हुआ चलता है। चित्त जहाँ मी पहुँच जाए, वो चित्त स्वंय ही कार्यान्वत हो जाता है । अब चित्त जो है ब्रम्हदेव की देन है । लेकिन जब ब्रम्ह देव या ब्रम्हदेव का सिर्फ ब्रम्ह डी रह जाता है तो ऐसा चित्त इतना प्रभाव-शाली होता है, इतना प्रेममय होता है, इतना सूझबूझ वाला होता है और इतना होशयार होता है कि वो अपने कार्य को बड़े ही सुगम तरीके से कर लेता है। मतलब ये कि ऐसे आदमी का चित्त परम चैतन्य से एकाकारिता प्राप्त कर लेता है और जब ये हो गया नो परम चैतन्य तो सारे कार्य को करता ही रहता है । तो जितने भी कर्म है दुनिया के वो सिर्फ ये ब्रम्ह शांवत, ये परम चैतन्य करती है और ये जो कर्म मनुष्य कर रहा है वो उस वदत ये नहीं सोचता है वो तो यही सोचता है कि हो रहा उसको इसकी अनुभूति ही नहीं होती कि मैं कर रहा हूँ । । यह घटित हो रहा है । बन रहा है । । अर्कम में जिसको कहते हैं उतरना क्यूक परम् चैतन्य ही र सारे कार्य कर रहे हैं तो में एक माध्यम बीच में हूँ । नहीं तो मनष्य कहता है कि मैं सारे कार्य करता हूँ परमात्मा पर छोड़ दे । पर छोड़ नहीं सकता। आत्मा के प्रकाश से ही यह हो सकता है । सच बात यह है कि परम चैतन्य ही सब कार्य को कर रहा है, बहुत सुगम तरीके से । इतना सुन्दर उनका कौशल है, है कि आश्चर्य में मनुष्य पड जाता है कि किस तरह वो कार्य नियुव्तियाँ करता है। कर्म तो हम नहीं करते । कर्म तो चैतन्य कर और जब मनुष्य श्रदा स्वरूप अपने एक विशाल रहा है । सारा कर्म वे , हम तो सिर्फ किसी मरी हुई चीज को बना सकते हैं जैसे चांदी से गहने। तो सोचते हैं कि बड़ा कुछ बना दिया । हम तो मरे से मरा बनाते हैं । कार्य जो है, परम चैतन्य करता है । और करते हैं- लेकिन सारा जीवन्त ये जों परम चैतन्य की जो हमें देन मिली हुई है और उसवा जो हें अनुभव हुआ है बो सारा आत्म साभात कार से है । वयुक परम चैतन्य जो है वो आद शाक्त है जो कि शिव की इच्छा शोक्त है । उसी का प्रकाश है । इस परम् चैतन्य के आशीवाद से ही आप लोग सारे कर्म करेंगें । जिससे ये आपमें घाटए हो जाए । आप अदुभुत लोग हो सकते हैं । ho 18 लेकन में यह कर रहा हूँ, यह जब भावना आई, और मैने ये किया और "मै" ये करना चाहता हूं । या कोई जोर जबरदरनी कसी भी चीज की तो इसका मत्तलब ये है कि आत्मा का प्रकाश पूरी तरह से आपये अम्दर अभी नहीं आया है । तो आप अकर्म में आ गये जब आप कोई कार्य ही नहीं कर रहे। जैसे की ये बल्य कहें कि में किजली दे रहा हूँ । तो गलत बात है। आपके अन्दर वही परम चैतन्य कार्य कर रहा है जो लोग आत्म साक्षातकारी है । जिसने आयको वनाया, बढ़ाया आपका शरीर सब चाज जो बरनी है वो उसी परम चैतन्य की कृपा से बनी है। और उसके बाद आज आप जो मनुष्य व बनके भी क्प जो आत्म साक्षातकारी बन गए । तो] पेसे वो भी उस परम चैतत्य का ही आर्शीवाद है मनुष्य में अहंकार केसे आ सकता है । जब वी जानता है कि में कुछ भी नहीं कर सकता । कृष्ण की मुरली ने कहा कि मुझे लोग क्यूं कहते हैं कि में बजती हैं पर मैं तो खेोकली हूँ। सो वो सोललापन जिसको Frelessness: अहंकार राहत कहते हैं पूरी तरह जब हमारे अन्दर स्थापित हो जाता है तब हम सोच सकते हैं कि हमारे अन्दर जो यह विचार धा क हम ये कार्य करते हैं वो कार्य करते ा है कितना दुख दायी था । कितना परेशान करने वाला । क्यक में यह कार्य कर रहा था और "मैने" ये कार्य किया और उस कार्य का कोई "रबड" ही नहीं निकला, इसालए मैं दुखी हो जाता हूँ। मैने मुझे बड़ा यश मिल गया तो और मेरा दिमाग ्राव हो जाता है । किन्तु यह कार्य किया और इसमें मैने यह कार्य नहीं किया । करने वाला परम चैतन्य का सारा कौशल्य है । तो जो हुआ सो ठाक ही है । गर समझे लीजिए हमारा रास्ता कहीं खो गया, हम गलत रास्ते से आ गए । उस समय कोई यह सोच सकता है कि मैं गलत रास्ते से आ गया । बडी गलती हो गई लाकन एक आत्म साक्षातकारी । सोचता है कि यहा से जाना जरूरी होगा इसीलए में जा रहा हूँ । तो उसको दुख नहीं होने वाला उसको आप महलों में रखए वो राजा जैसे रहेगा । और आप उसको जंगलों में राखये तो जंगलों में रह लेंगा। उसको कोई शिकायत होगी कैसे जबाक वो जानता है कि परम चैतन्य ही मुझे इधर से उधर हटा रहा है । उसको मारो या हार पहनाओं दोनों उनके लिए ठीक है । इयक आत्मा जो है वो किसी चीज में चिपकता ही । जब आप किसी चीज में चिपक जाते हैं जैसे क मेरी प्रांतिष्ठा में बड़ा आदमी में छोटा आमी, ऐसा वैसा । तब आपको लगता है कि इन्होंने मेरे साथ ऐसा क्यूँ किया । लेकन असंग में जो आदमी बैठ गया उसको यह महसूस है। नहीं होता वो अपने आत्मा में है तुष्ट रहता है। जब बोलना हे तब बोलता है । नहीं बोलना है तब नहीं बोलता । कसी ने कुछ कह दिया उसे सुन लेता है, गर कुछ जान का बात हुए तो उसे सुन लेता है और अज्ञान की बात होए तो उसे भी सुन लेता हैं । लोगों के बा में उनके दोष न गुण का वर्णन मात्र कर देगा पर यह नहीं कहेगा कि मुझे इनसे नफरत है । दयाक घृणा करना एक पाप है और इसलए उससे कोई पाप ही नहीं हो सकता । जो भी वो करेगा वे पूज्य होगा । समझ लाजए देवी है, यो भूतों को मारती है। नहीं मारे तो पाप फेलेगा । तो दो अपने काम से चूकता नहीं । दयूंक परमु चैतन्य मार रहा है मैं कहाँ मार रहा हैँ । लोकन परम चैतन्य की गवाही देने से पहले उसे एककारिता तो स्थापित होनी चाहए वो वो कोई पाप नहीं। 19 गर आप में यह स्थिति है और आप उस ऊँची दशा पर पहुंच गये कि जहां पर आप परम चैतन्य से बड़े बड़े सन्तो ने इतना बता दिया उसके मुंह एका कारिता प्राप्त हैं उसके लिए आप कह सकते हैं । पर और डरे नहीं । साकेटील केो सत्य बोलने के लिए जहर दिया गया उसको कोई भी प्रलोभन दो, और बो कुछ भी कहो वो जिसे सत्य समझता है वो ही बोलेगा । वयूकि परम चैतन्य सत्य ही बुलबाएगा । उसकी वृद्धि सत्य व असत्य की पहचान जाएगा । कौन सच्चा है कौन झूठा है एक सत्य निष्ठ होगा । दम समझ जाएगी । क्यूंकि उस बुदी पर आत्मा का प्रकाश आ गया वो सुबांद्ध हो जायेगी। एक नजर से वो पहचान सकता है कि कौन कितने-गहरे पानी में है और फिर उसको सब परम चैतन्य ही बता देता है । सो परम चैतन्य का करना धरना और उसका ही सब कुछ पाना है और उसका उपभोग हम हम तो सिर्फ उनकी लीला ही देख ते रहते हैं और गर हम किसी चीज का भोग उठा ही सकते हैं तो उस आत्मा के ही लीला का भोग उठा उसके लाला का, नहीं उठा सकते। उसका उपभोग भी परमात्मा ही उठाते हैं । सकते हैं । अब आध्यात्मक ? जो है वो उस आत्मा के प्रकाश का, उसके कार्य का, , गर जो सरची तरह से इस चीज में समझ लें, उसका साईन्स है सबका एक तरह से विज्ञान है । का जो समझ सकता है कि सारी सृष्ट का विज्ञान ही आत्मा से आता है और जब तक ये विज्ञान हमारे अन्दर नहीं आयेगा तो बाहुय का विज्ञान बिल्कुल ही बेंकार है क्यूकि उसमें बहुत ही थोड़ीसी चीज है विज्ञान की कि वो जड वस्तुओं के बारे में वो आपको समझा देता है । उसमें संतुलन नहीं है । उसमे सामाजिकता नहीं है । उसमें मनुष्यता नहीं है, और उसमें प्रेम नहीं है, उसमें कला नहीं है, उसमें कावता नहीं ह । उसमें आदर नहीं है, है। विज्ञान को समझने के लिए भ मनुष्य को आत्मा को प्रकाश चाहिए । आत्मा के प्रकाश से आप विज्ञान कुछ जो कि मनुष्यी चीज ही नहीं है । एक मशीन जैसी चाज हो जाती 1. के बहुत से छोर खोल सकते हैं, जो अभी तक नहीं खुलें और विज्ञान जाकर उसका पता लगाये । वे जिसने सब कुछ जाना हुआ है उसको जरूरी नहीं कि बो सब कुछ सबको लेकन सब जाना ही हुआ है । जिस ववत मौका आयेगा उस ववत उसे समझाना बताये । क्यूँकि सबको समझना भी तो आना चाहिए । इससे, सहजयोग में भी बहुत से लोग परेशान हो जाते हैं। मेरी में, मेरा भाई इत्याद सहज योग में नहीं । जाने दीजीए । । मेरा बाप सहज योग में नहीं, आप तो हैं न । आप अपने साथ चाहिए । रहिए । जितना मनुष्य अपने साथ आनन्द में रहता है किसी के साथ इतना नहीं रहता क्यूँक सारा कुछ आप ही के अन्दर है । इसलए ये नहीं है उसमें वो नहीं है इसमें, इस तरह की बातें सोचना, फिर यही विचार आता है कि अभी पूरे दा लान हमारे हृदय के ख्ले नही। इसलए हम ऐसा सोचते हैं । जो अब आत्मसाक्षातकारी यही आपके बाप भाई बहन हैं, और इनको तो कोई प्रश्न नहीं। यह प्रश्न उन लोगों को होता है जो अभी भी आधे अन्धकार, आधे प्रकाश में हैं । वो ये सोचते रहते हैं अभी ये मेरा भाई । उसमें फंसा हुडा है, इत्यादि । अपने आप से वो आ जायेगें किसी से जबरदस्ती नहीं हो सकती । इसी तरह का एक आत्म साक्षातकारी नहीं-सेोचता है। वो सब को देखते और आनन्द उठाता है । मनष्य के पागलपन में भी रहता वो आनन्द उठा लेता है और उसके स्थानेपन 20 में भी वो आनन्द उठा लेता है । कोई गर बैवकूफी की बात करता है तो उसका भी आनन्द उठा लेता है और कोई समझदारी की बात करता है तो उठा लेता है । सब चीज में उसे एक आनन्द का सोप दिखाई देता है कोई मनुष्य अगर विक्षप्तता से रहता है तो कहता है कि यह कैसा एक नाटक है। जब । द्या कोध चढ़ रहा एक आत्म साक्षात्कारी करोधी मनुष्य को देखता है तो उसे वया लगता है, वाह अब तो सिर्फ आज्ञा चक् में धा और अब तो सहस्तार में भी चढ़ हैं। अब तो और भी चढ़ गया । गया। उसको घबराहट नहीं होती । उसमें जो यह दृष्टि है इसकी ये किसी में उलझी हुई दृष्टि नहीं है । जिसे निरंजन दवृष्ट कहें या साक्षी स्वरूप में । वो सारे समाज का इतना सुन्दर चिंतरण कर देता है कि हंसी आ जाती है । यानी गम्भीर से गम्भीर बात में भी आप समझ सकते हैं कि बहुत सी बालें ऐसी हैं जो दिखने को गम्भीर लगती हैं लेकिन उसमें एक तरह का छिपा हुआ बडा संदेश है। बो आत्म साक्षातकारियों को तो फौरन इसकी खबर चली जाएगी परम जो उदवग्नता हमारे चैतन्य में और जो आताताई ये काम करेगा उसको ठिकाना हो जाएगा। वो उद्दूविग्नता भी एक तरह अन्दर आ जाए, से कार्यान्वित होती है । कोई आल्लाहदायी चीज होगी वो तो ठीक ही है लेकन कोई ऐसी भी चीज हो और मनुष्य सोचे ऐसे कार्य क्यूँ हो रहे हैं । ऐसे नहीं होने चाहिए । जिसको देखकर उदर्दवग्नता आए फैरन उसका इलाज हो जाएगा । जब मै रूस पहले बार गई धी तो वहाँ योग का एक सैमिनार होने वाला है । तो हमारे घर में ये कहा गया कि अभी अभी जाके आए हो, तो फिर सिर्फ दो दिन के लिए कहा मुझे वहाँ जाना जरूरी है, बयूँकि वहाँ जो इस्टर्न ब्लाक है उसको जाओगे । क्या फायदा है । मैने तोड़ना क्यूँकि बहाँ इस्टर्न ब्लाक मे सभी आयेगे, और उन में से जो लोग पार हो जायेगे वो जाते ही वहाँ से परम चैतन्य अपना काम कर लेगा । मैं यहाँ सिर्फ पैतालीस मिनट बोली और पन्द्रह मिनट Eeal izat ion दिया और उसके बाद वो लोग अपने देश मे गए और वहाँ ये कार्य हो गया। में सो परम चैतन्य के कार्य के लिए जरूरी है कि आत्म साक्षातकारी लोग हो । ये उनका परम चैतन्य का कार्य आत्मसाक्षातकारी लोगो के इच्छा के अनुसार होता है । गर आपकी इच्छा हो तो वो कार्य हो सकता है । पर आपकी इच्छा मे भी शुद्धता होनी चाहिए । ऐसी इच्छा नही जिसमे आप स्थार्थी हो, या अपने ही बारे मे सोचते है, क्यूंकि ये कार्य आत्मा के ही बल पर होता है और जो आत्मा जो अपना निरन्तर और नित्य, है । इस लिए जो मनुष्य आत्म , निराकार, शिव है, वो बिल्कुल स्वछन्द, निस्फुह साक्षातकारी हो जाता है, उसमे ये सारे ही गुण आ जायेगे । ये गुण अगर आप के अन्दर नही आए जैसे बाहुय से आप में सारे आवरण हो आप राजा हो, आप चाहे कुछ भी हो, अन्दर से आप निसफूह । अन्दर से आप किसी चीज को छिपकते नही । अप्नदर से आप किसी लि है। अन्दर के आप छूटे हुए है को देष नही करते । किसी के लिए आपको लालसा नही होती । ये सारे तो आप ही आप छूट जाने किसी को चाहिए । तो आत्मा का सबसे बड़ा प्रकाश यही है कि आपको कोई प्रयत्न नही करना है । वश मे रखने की जरूरत नही । जैसे आप आत्म साक्षातकार मे ही उतरते जाते है उस प्रकाश मे अपने अंधता दूर ही हो जाते है और ये बडा भारी लाभ है और जिसने इस लाभ को अभी तक प्राप्त नही 21 किया उसे ये सोचना चाहिए वक अभी हमारा आत्म साक्षातकार पूरी तरह से फलत नही हुआ। अगर ये पूरी तरह से फालत हुआ है तो हमारे जीवन मे हमारे आस पास के समाज मे हमारे सहजयोग के जो आत्मा एक नवीन तरह का मनुष्य तैयार होना चाहिए जो आत्मा स्वरूप है । समाज में हर जगह जब शिवजी का विवाह हुआ तो वो बिल्कुल के प्रकाश से प्लाव्त है । जिसमे शिव का दर्शन होता है । वैसे ही रूप मे गए जैसे रहते थे । इसका अर्थ ये है आपके पास शारीरिक कोई भी व्यग ही पर जब तक आपके आत्मा का प्रकाश आपके अन्दर है, कोई सी भी आपकी शक्ल हो, कैसे भी आप हो, पर अगर आत्मा का प्रकाश हो तो शिव आपको मानते है । वो निसंग है । इसमे हमारा दो अग दिखाई हैं । एक तो हमारा अग कि जो आज हम विष्णु स्वरूप है जो बाहुय में है और अन्दर का अंग जो है बो हमारे शिव है और उसा शव के जैसे हमे निस्प्रह , स्वछंद और निहासवत होना चाहिए । किसी चीज की आसावत हमारे अन्दर नही आ सकती गर हम आत्मा स्वरूप है । फिर बाहूय मे आप श्री कृष्ण हो जाएँ या आप और कोई हो जाए लेकिन अन्दर का जो शिव है वो अपनी जगह स्थित रहेगा। बाह्य का अग जो है वो महत्वपूर्ण अब नही रहा जब कि आप आत्मा स्वरूप हो गए । तब इन सब चीजो श्री पेकनाथ जब दारका गए तो उन्होने एक के लिए आपकी जो भावनाए है बो एक दम बदल जाएगी । कावट पानी से भरकर भेट के तौर से ले गए लेकिन उन्होने देखा कि एक गधा प्यास से मरा जा रहा था । उन्होने उसको अपना पानी पिला दिया । लोगो ने कहा द्या करते हो इतनी दूर पैदल चल के आप पानी भर के लाए, और इस गधे को पानी पिला दिया । तो उन्होने कहा मेरा श्री कृष्ण यहाँ ये जो भाक्त का सूक्ष्म भाव है वो एक आत्म साक्षातकारी ही समझ तक उतर के आया पानी पीने। सकता है । कि बाहूय को देखना कि हम कावड लेके गए, और "हमने" जा के उनको समार्पत किया। हम कौन होते है ? जब "हम" भाव नही रहा और परम चैतन्य ये कार्य कर दिया इस पागल दुनिया मे वो आए किसी ने समझा नही उन्हे और उन्हे परेशानी और तकलीफे दी । दयूकि वो आत्म स्वरूप वो शिव स्वरूप थे । जो ऐसा मनुष्य है वो बाह्य मे कैसा भी रहे उसकी प्रकाशित रहती है । सबसे बड़ी चीज है अबदारी थे, वो शिव मे स्थित थे, ा शिव र्थाति बाहुय मे भभ ी । अवदारी चीज जो है ये शिव की शवत है । इससे इतना उदार हृदय जो है कि शिव ने राक्षसो तक को वरदान दिया । जो वो अपने मे बडा समाधानी होता है और सब चीज को जानते है । इसी प्रकार जो शिव मे स्थित है सब कुछ जानता है । समझता है । कहेगा नहीं । लेकिन वो सब जानता है और सबसे बडी शिव की शॉक्त है प्रेम । निर्वज्य प्रेम-जिसमे कि कोई व्याज नही देना । बहता हुआ। उनकी करूणा की शक्त इतनी जबरदस्त है कि उस करूणा को देखकर के आप भी अचम्भे में पड़ जाऐगे । इसी तरह एक आत्म क साक्षातकारी मनुष्य कर करुणा का भाव बढता है और उसकी जो नशा चढती है वो ऐसी नशा है कि उसकी प्रवर्व्रत्ति ही ऐसी हो जाती है. कि वो अत्यन्त शवत शाली हो जाता अकेले चमजा नही आता । है, उसका भय, या आशकाएं सब खत्म हो जाती है और बहुत ही सुन्दर कार्य को बड़े खूबी से कर नाता है । और कोई चीज समझाता भी इतनी सुन्दर तरह से है । और जैसे कई सहज योगी सीधे 22 मुँह पर कह देते है कि तुम्हे भूल लग गया, ऐसा नही कहना चाहए । तो अगर किसी का अहंकार भी तोड़ना है तो अगर आप सिर्फ सोच लेगे कि वे अहकारी है तो परम चैतन्य उसकी व्यवस्था कर देगा और उसका अहंकार टूट ही जाएगा । पर सबसे पहले एक आत्म साक्षातकारी मनुष्य को यही सोचना चाहिए कि मैं अब शिव में शरणागत हूँ । मेरी आत्मा में मै शरणागत हूँ और मेरे आत्मा के ही कारण ये परम चैतन्य ये सारा कार्य करने बाला है और इसालए मुझे कोई किसी चीज की चिन्ता नही । मेरा कान बैरी है । कौन मुझे मार सकता है । मैं तो परम में जी रहा हूँ । सारा कार्य ये कर रहा है तो मैं कौन सा कार्य कर रहा हूँ । इस तरह की जब भावना हो जाए तब कहना चाहिए कि हमारे सबको सूब समझते हैं पर इस है । जो हमारी ही सारी शाकत का आधार, जिसे कि हम अन्दर शिव को हमने पहचाना है । हम बाहुय कि अपने शरीर वगैरह शिव को पहचानना चाहए जो हमारे अन्दर हैं, उस शिव को ही हमें मानना चाहिए । सत्त चिल्तानन्द कहते आप सबको आनन्त आशीवाद । ---------------------- 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-0.txt भाग-2 खण्ड 3 - 4 चैतन्य लहरी 1990 शुभ जन्म दिन विशेपांक ा ३० ० ॐ शं HAPPY THDAY НАРР) 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-1.txt 1 श्रीमाता जी की दक्षिण मारत यात्रा आदि शव्ति ने ह दराबाद, मद्रास, बैंगलोर तथा अहमदाबाद को आशीर्वादत किया। परम चैतन्य ने सुन्दरता- पूर्वक सारा आयोजन किया जिससे प्रेम और आनन्द लहरियों ने मिन्न समुदायों के जिज्ञासुओं के हृदय को खोल दिया। प्रोग्राम के बाद श्री माता जी ने लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिये तथा उनके चक्ों को शुद्ध करने के लिये कई घंटे लगायें। बहुत से लोगों की भयंकर और घातक बीमारियों का इलाज हुआ । हैदराबाद में हम अकस्मात ही शालीवाहन सम्राट की महान मूर्ति के पास पहुँचे। यह सम्राट श्री माता जी के पूर्वजों में से वे। श्रीमाता जी ने बताया कि शालीवाहनों ने इस क्षेत्र में बहुत समय तक राज्य किया। मद्रास में श्री माता जी ने कहा कि सहजयोग लोगों की भव्ति की प्रतिपूर्ति है और अब समय आ गया है कि सहत्रों जिज्ञासुओं को एक साथ ही आत्म साक्षात् आयोजित पूजा हुई क्यों सभी सहजयोगियों ने महियासुर वध की कामना की थी। श्री माता जी, श्री कृष्ण की भूमि पार। प्राप्त हो सकें। बैंगलौर में महिमासूर मर्दिनी की एक अन- से आत्मसाक्षा- गुजरात से बहुत प्रसन्न धी और वहां के लोगों का हृदय बहुत विशाल है। उनकों बहुत ही सुगमता श्री माता जी ने बहुत ही प्रेम की वर्षा की तथा बहुत सी सुन्दर सुन्दर बातें कहीं। यह त्कार प्राप्त हुआ। सब इस चैतन्य लहरी के इस अंक में छापी गयी हैं। प्री iep 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-2.txt 2. हैदराबाद पूजा वार्ता १25-2-1990? श्री माता जी निर्मला देवी आप सब लोगों को मिलकर बड़ा आनन्द आया। मुझे इसकी कल्पना भी नहीं थी कि इतने सहजयोगी हैदरा- बाद में हो गए हैं। ये विशेषता हैदराबाद की है कि सब तरह के लोग आपस में घुलमिल गए हैं। अब हम लोगों को सहज योग की ओर नए तरीके से मुडूना है। यह जान लेना आवश्यक है कि सहज योग सत्य स्वरूप है और हम लोग सत्यनिष्ठ हैं इसलिए हमें असत्य को त्याग देना है वरना हममें शुद्धता नहीं आ सकती। वास्तव में असत्यता एक भ्रम है और उससे निकलने के लिए हमें निश्चय कर लेना चाहिए। ऐसी शुद्ध इच्छा मात्र से ही कुण्डलिनी, जो हमारे अन्दर जागृत है, हमारे सामने पेसी स्थिति ला देती है कि हम सत्य और असत्य के भेद को जान जाते हैं और केवल सत्य प्राप्त करने की ही इच्छा सारी गलत धारणाओं को त्याग कर केवल सत्य को अपनाना चाहिए। जैसे कि एक धारणा ,कि गीता में लिखा है कि आपकी जाति जन्म से निर्धारित होती है, परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि व्यासजी जिन्होंने गीता लिली, वे स्वयं एक मछियारन के ऐसे पुत्र धे जिनके पिता का भी पता नहीं था इसलिए व्यास जी तो ऐसी बात लिख ही नही सकते। ऐसा कहा गया है "या देवी सर्वभूतेषु जाति रूपेण सांस्थिता" यानि कि सबके अ्दर बसी उसकी जाति अर्धात जन्मजात रूझान होता है। कुछ लोगों को पैसे की खोज में, कुछ को सत्ता में और कुछ करने लगते हैं। हमें अपनी को परमात्मा की खोज में रूझान है। सहज योग में प्रथम वही लोग आएँगे जो परमात्मा को खोजते हैं और परमे ही को पाना चाहते हैं। जब मनुष्य का सहज योग की ओोर स्झान हो जाता है तो कभी कभी उसे जो दुख्ब होता है कि सहज योग इतनी धीरे धीरे क्यूँ बड़ रहा है। लेकिन हमको यह जान लेना चाहिए जीकन्त चीजू होती है वह धीरे धीरे पनपती है जैसे कि एक वृक्ष का धीरे-धीरे बढ़ना और उस पर पहले एक दो फुलों और फिर धीरे-धीरे अनेकों फूलों का आना। सहज योग एक जीक्त चीज है और इसमें हम किसी से जुबरदस्ती नहीं कर सकते। हम किसी को यूँ ही कह दें कि आप पार हो गए, तो नहीं हो सकता। यह "होना" पडता है और जब तक यह घटित नहीं सकते। होता हम किसी को यूँ ही झूठा प्रमाण पत्र नहीं दे और सभी लोग पार हो जाएँगे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। अनेक कारणों से कई लोग पार नहीं होते। अधिकतर लोग तो सोचते हैं कि इसके लिए तो इतनी तपस्या करनी पहती थी, हिमालय जाना पड़ता था, तो अब यह इतना सहज और सरल कैसे हो सकता है? उन्हें विश्वास नहीं होता क्योंकि उनमें आत्म- विश्वास नहीं है और वे समझ नहीं पाते कि आज का समय ही ऐसा है जब यह कार्य सहज ही होना है। आत्म साक्षात्कार हो जाता है और परम-चैतन्य से पकाकारिता हो जाती है तो यह ज्ञात हो जाता जब है कि हमारे सारे कार्य परम चैतन्य ही करकता है और हम अकर्म में उतर जाते हैं, कोई चिन्ता ही नहीं रहती। लेकिन सहजयोग में आने के बाद शुरू शुरू में कभी मनुष्य जब अल्प दृष्टि से सोचता है तो स्वयं को कर्ता समझ बैठता है परन्तु धीरे-धीरे अनुभवों से कुछ नहीं होता और विश्वास हो जाता है कि परम चैतन्य ही सब कार्य करता है। तब अपने आप सब कार्य बनते जाते हैं। यदि कभी कभी कोई कार्य हमारे मन के विरोध में हो जाप तो यह नहीं सोचना चाहिए के आधार पर उसे समझ आ जाता है कि उसके करने कि परमात्मा ने हमारी मदद नही की। वास्तव में परमात्मा से अधिक न तो हम सोच सकते है, न कर सकते हैं। इसलिए यह मान लेना चाहिए कि हमारे लिए जो उचित धा वह परम चैतन्य ने कर दिया और जो कुछ हो रहा है वह सब अत्यन्त सु्दर है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-3.txt सहज योग के दो अंग है और एक सहजयोगी को इन दोनो अंगों को सम्भालना चाहिए। ।-पहले तो व्यक्तिगत रूप से ध्यान धारणा वार! हमें अपने अन्दर के दोपों को जान लेना चाहिए और समझ लेना चाहिए कि हमारी कौन सी दशा है अध्थात हम Right Sidedह या Left Sided उमारे कौन-कीन से चक में दोप है, फोटो की ओर ध्यान करके यह सब जाना जा सकता है। उसके बाद ध्यान धारणा दारा उन दोषों को दूर कर लेना चाहिए सहजयोग में ध्यान धारणा की प्रणाली बहुत ही सरल है। सुबह-शाम धारणा हो जाती है। अपने दोषों को दूर करने के बाद हमें सामूहिकता |0-15 मिनट बैठने से भी ध्यान में उतरना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपना हृदय खोल दें। संकुचित प्रवृत्ति का व्यकि्ति कभी सामूहिक नहीं हो सकता। हमें दूसरों के दोष नही देखने चाहिए क्योंकि इससे दूसरों के सब दोष हमारे कन्दर आ जाते हैं। हमें दूसरों के गुण, अ्छाई और सुन्दरता देखनी चाहिए इससे हमारे ं्दर और दूसरों के दोप भी लुप्त हो जाएँगे ये जानना चाहिए कि दूसरे र्वयं से अलग नहीं है इसलिए उनके दोघों को प्रेमशवित दारा दूर करना चाहिए। प्रेम ही सत्य है और सत्य ही प्रेम है, जो प्रेम की शक्ति का इस्तेमाल करता है वह बहुत ऊँचा उठ जाता है । हृदय को खोल करके, प्रेम से, आपको दूसरों की ओर देखना है। उससे बचकर रहना चाहिए। किसी भी सहजयोगी की निन्दा सुनना हमारे सहज योग में एक पाप सा है । हमें देखना चाहिए कि हम कितने प्यार से बोल सकते हैं औोर हममें कितनी क्षमा-शक्ति है। सभी सहजयोगियों सुन्दरता आ जाएगी आप व्यक्तिगत दृष्टि में ओर समाप्टि में प्रगति करते हैं । जो व्यकि्ति सामूहिकता में नहीं उतरता को अपना रिश्तेदार समझना चाहिए। सहजयोग का दूसरा अंग है सहज योग का ज्ञान होना और सहज योग का प्रचार। सहज योग में इस ज्ञान का समझ लेना चाहिए कि किस चक में दोष होने से हाथ या पैर की कौन सी उँगली पकड़ती है, उससे क्या बीमारियां हो सकती हैं, उसका निवारण कैसे करना चाहिए, दूसरों को कैसे ठीक कर सकते हैं अदि सारा कुण्डलिनी का ज्ञान प्राप्तकर लेना चाहिए, विशेपकर स्त्रियों के लिए अति आवश्यक है क्योंकि स्त्री शक्ति स्वस्परणी है। इस ज्ञान से हित्रयां सहज के बच्चों को भी समझ जाएँगी कि सहज में पैदा हुए बच्चों के कार्य ऐसे क्यूँ हैं उनका क्या अर्थ हैं। बुद्धि से इसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। सहजयोग का प्रचार। गर आप एक कमरे में बैठे हैं और एक ही दरबाजा खुला है और दूसरा दरवाजा आपने पोला नहीं तो हवा का प्रवाह रूक जाएगा|। इसी प्रकार यदि आप सहजयोग से दूसरों को प्लवित नहीं करते उनकी मदद नहीं करते, उनकी आत्म साक्षात्कार नहीं देते, उसका प्रचार नहीं गरते तो आप प्रगत नहीं कर सकते। क्योंकि जब पेइु बढ़ता है तो उसकी शासखाएँ बढनी चाहिए और उन शालाओों की छाया में अनेक लोगों को बैठना चाहिए। यह तो कृक्ष की बात है पर आप तो वट-वक्ष के समान हैं इसलिए आपको पूरी तरह से सहजयोग के प्रचार में सहायता करनी चाहिए। उसके प्रति हमें पूरी तन-मन-थन से समर्पित होना चाहिए। कुछ और दूसरी जो चीज़ बहुत जरूरी है, कह है सहजयोगी ऐसे भी है जो पूरा समय सहजयोग का ही विचार करते रहते हैं । ऐसे लोगों के सब प्रश्न छूट जाते हैं और वे सदा आनन्द की स्थिति में रहते हैं हम सब पर एक बहा भारी उत्तरदायित्व है कि हम ऐसे समाज का निर्माण करें जो शुद्ध, निर्मल, हो उसी में हमारी धारणा रहे और उस धर्म में हम स्थित रहें। आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद । 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-4.txt 4. हैदराबाद पन्लिक प्रोग्राम १6-7 फरवरी, 9908 श्री माताजी निर्मला देवी सत्य को खोजने वाले आप सभी साधकों को हमारा नमस्कार। कल मैंने सत्य के बारे में बताया था कि सत्य अपनी जगह अटूट और अनन्त है। उसे हम अपने मन,बुद्धि से बदल नहीं सकते, और सत्य यह है कि हम है कि सारी सृष्टि इस चराचर में सूक्ष्मता से फैले हुए ब्रहम चैतन्य के सहारे चल रही है और इसी परम चैतन्य की कृपा से ही आज हम मनुष्य स्थिति में पहुँचे हैं। यह परम चैतन्य हमें बह शुद्ध ज्ञान दे सकता है जिससे हम जान सकें कि हम क्या हैं, कहाँ हैं, हमारी क्या ल्थिति है और हमारा लक्ष्य क्या है। इसी शुद्ध ज्ञान से हम आत्मा स्वरूप हो जाते हैं और आत्मा एक सामूहिक वस्तु होने से हममें सामूर्हिक चेतना का प्रादुर्भाव होता है और हमें ज्ञात हो जाता है कि हम विराट के ही अंग प्रत्यंग हैं। आत्मा हैं। लेकिन परम सत्य यह जब हम परम चैतन्य से एकाकारिता पा लेते हैं तो हमारा चित्त उसके प्रकाश से आलोकित हो जाता है। इस आलोकित चित्र से हम बहुत कुछ जान सकते हैं जो हमने पहले कभी नहीं जाना। इस परम चैतन्य से एका- कारिता प्राप्त करना बहुत सहज़ है। "सहज" के दो अर्थ हैं याद कोई चीज हमारी उत्कान्ति के लिए अत्यावश्यक है अधवा मूलभूत है तो वह सहज ही होनी चाहिए जैसे कि |-आपके साथ पैदा हुआ, 2. सरल अथवा आसान। जीवित रहने के लिए हमारा श्वास लेना अत्यावश्यक है, और वह हम सहज ही लेते हैं। इसी प्रकार परम चैतन्य से पकाकारिता की घटना भी सहज में ही घटित होनी चाहिए। कारण यह है कि यह एक जीव्त्त शक्ति है और इसी के दारा हम अमीबा से मनुम्य स्थिति में पहुंचे हैं। यही शक्ित हमारे अ्दर कार्या्वित होती है और हम इस ऊँची दशा में पहुँच जाते हैं अर्थात आत्मा स्वरूप हो जाते हैं। केल आपको मैंने कुण्डलिनी के बारे में बताया था कि कुण्डलिनी शक्ति हमारे अन्दर Sacrum नामक त्रिकोणाकार अस्थि में 5-1/2 कुण्डलों में हैं और इसमें शव्ति के अनेक तन्तु हैं। इस कुण्डालिनी के नीचे मूलाधार चक हैं जो कुण्डलिनी का घर है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण चक है और इसी के दारा कुण्डलिनी को सब कुछ ज्ञात होता है। यह चक् हमारी अबोधिता या भोलेपन का चक है। जब हम ब्चे होते हैं तो हममे बहुत ही भोलापन होता है। जैसे जैसे हम बड़े होते हैं, इस चक पर आधात आते हैं तो हमारा भोलापन कम होता जाता है। को सम्भालता है और उत्सर्क निसर्ग के सारे कार्य करता है। यह चक्र हमारी करने से कुण्डलिनी का जागरण होता है, यह महापाप है और समझ लेना चाहिए कि वे हमें पतन की ओर ले जा रहे हैं । यह यह चक हमारे Pevic Plexus पवित्रता का चक है और जो लोग रजनीश की तरह गन्दी बातें सिख्वाते है कि Sex चक तो कमल की भाति है जिस पर गन्दगी का कोई छींटा नहीं ठहर सकता। ह कभी गन्दगी इस चक को दक अवश य सकती है परम्तु यह चक्र और इसकी पवित्रता कभी नम्ट नहीं होती जब कभी इस चक में दोम जैसी घातक बीमारियोँ और अन्य कई Psycho- अर्थात मानसिक बीमारियाँ हो जाती हैं। इसी चक् से इडा नाड़ी अर्थाल चन्द्र नाही ऊपर की और जाकर एक संस्था तैयार करती है जो कि एक तरह से हमारा मन है । जब इस मन में कई तरह के कुरसंस्कार आता है या गन्दगी इसे ढक लेती है तो एड्स ह AIDS somatic 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-5.txt भर जाते हैं तो यह गु्बारे की तरह कूल कुर सिर में छ जाता है जिसे हम Super ego या प्रति अहंकार कहते हैं। ऐसी स्थिति में गर हम किसी गलत गुरू या तांत्रिक के पास चले जाएं या गलत धर्म को अपना लें तो इससे चनद्र नाह़ी में बहुत दोष आ जाते हैं जिससे हम पागलपन जैसे कई मानसिक विकारों से ग्रसित हो जाते हैं। मूलाधार चक से ऊपर दूसरा चक स्वाधिष्ठान चक् कह लाता है जो सूर्य की गत से चलता है और इसी चक से हमारी दांयी और की पिंगला हसूर्य नाही] चन्द्र नाईी इच्छा शक्ति की और सूर्य नाढ़ी क्रिया शक्ति की जोड़ी है। क्रिया दो प्रकार की होती है एवं बौदिक किया। दोनों ही कियाएं हम सूर्य नाईी से करते हैं। जब सूर्य नाड़ी अधिक चलती है तो उसका प्रभाव स्वाधिष्ठान चक्र पर पबता है। बहुत पढने लिखने या अधिक सोचने से इस चक्र में दोष जषा जाता है। स्वाधिष्ठान चक् हमारे जिगर ह Liver उसके द्वारा हमारे मस्तिष्क में Grey Cells नाडी चलती है जो हमें कार्य करने की शक्ति देती है। -शारीरिक ै और प्लीहा ह Spieen आदि को नियंत्रत कर भेजता है । अति सोचने से Grey Cells का इस्तेमाल बहुत होता है और स्वाधिष्ठान चक् में दोप आने से नए Crey Cellsबन नहीं पाते। ऐसे में मनुष्य पागल सा हो जाता है और उसे कई बीमारियां हो जाती हैं। इस प्रकार जब हम भविष्य के बारे में ज्यादा सोचते हैं तो हमारी सूर्य नाड़ी अधिक चलती है और जब भूतकाल के बारे में ज्यादा सोचते हैं तो चन्द्र नाड़ी अधिक चलती है और जब इन दोनों में सन्तुलन नहीं आता तब तक इन दोनों के बीच की नाईी, जिसे हम सुमुम्ना नाईी या महालक्ष्मी की नाड्ी कहते हैं, कार्यान्वित नहीं होती। जब हम सब चीजों से ऊब कर परमात्मा की खोज आरम्भ करते हैं तो सुमुम्ना नाड़ी का कार्य शुरू होता है। सुमुम्ना नाइी के अन्दर एक बड़ी सूक्ष्म सी नाड़ी होती है में से कुण्डलिनी शक्ति के पहले दो चार धागे और फिर धीरे-धीरे अनेकों धागें या सूत्र ऊपर की ओर उठते जिसे हम ब्रहम नाही कहते हैं। जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो इसी ब्रह्म नाही हैं। इस प्रकार ईद्ा, पिंगला और सुमुम्ना यह तीन नाडियां हमारे अन्दर हैं जो आज्ञा चक् पर मिलती हैं। जब कुण्डलिनी आज्ञा चक से गुजरती है तो यह चक्र जागृत हो जाता है जिससे अहंकार और प्रति अहंकार की दोनों संस्थाएं अ्दर की ओर सिंच जाती है और मध्य में जगह बन जाती है और कुण्डलिनी उसी से होते छेदन कर हमारे सहस्त्रार से बाहर आ जाती है, और हम अपने सर के तालू भाग हुए हमारे ब्रहुमाण्ड का के ऊपर ठंडी ठंडी लहरियों का अनुभव करते हैं। इस प्रकार परमात्मा से हमारा योग घटित होता है। इसी को आत्म साक्षात्कार कहते हैं। आत्मा का स्थान तो आपके हृदय में है परन्तु सातों चक्कों के पीठ आपके सर में हैं। जब कुण्डलिनी शक्ति ब्रहुमरन्ध्र के छेदन करती है तो हृदय में उसका प्रकाश चला जाता है और आत्मा का सम्बन्ध हमारे चित्त से होने के कारण यह चित्र आलोकित हो जाता है फिर आप स्वयं ही अपने गुरू हो जाते हैं क्योंकि आपकी आत्मा ही आपको प्रकाश देती है और आप इन चैतन्य लहरियों से जान सकते हैं कि आप क्या कर रहे हैं, आप में वया दोष है और फिर आप स्वयं ही उसे ठीक भी कर सकते हैं फिर आप सामूहिक चेतना में उतर जाते हैं अर्धात दूसरों के बारे में भी जान सकते है कि उनमें क्या दोष हैं, उन्हें क्या बीमारियां हैं, और फिर उन्हें ठीक भी कर सकते हैं संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कुण्डलिनी हमारी शुद्ध इच्छा हे और बाकी हमारी जितनी भी इच्छाएँ हैं वे अशुद्ध हैं इसीलिए किसी भी इच्छा पूर्ति से मनुष्य को पूर्ण सन्तोप का 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-6.txt नही मिलता और यह तो अर्थशास्त्र का सिद्धांत हैं कि पूरी इच्छारँ कभी पूर्ण नही होती। परन्तु जब कुण्डलिनी अर्थात शुद्ध इच्छा हमारे अन्दर जागृत हो जाती है तो हम सारी इच्छाओं को साक्षी स्वरूप में देखते हैं और निश्चिन्त हो जाते हैं। मैंने जापको तीन नादियों और मूलाधार चक् तथा स्वाधिष्ठान चक के विषय में बताया। इन दो चक्रं के अतरिक्त हमारे अन्दर नामिचक, हृदय या अनहत चक्, चककों के बारे में आप हमारी किताबों में पढ़ सकते हैं और जान सकते विशदि चक, आज्ञा चक और सहस्त्रार चक हें । इन हैं। इन चक्रों और तीन नाहियों का जैसे कि हम देखें कि कैंसर कैसे ठीक होता है और वह सहजयोग में कैसे ठीक हो जाता है। जब ईजा और पिंगला नाडी में असन्तुलन आता है तो उन दोनों से जुड़े सभी चकों और चकों के बीच की जगह , जहां से सुप्रुम्ना नाड़ी से होती हुई कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की और जाती है, छोटी हो जाती है। इससे चक्र कुण्डलिनी शक्ति दारा पूर्ण रूप से प्रभावित और प्लावित नहीं हो पाते जिससे चकों की शक्ति कम हो जाती है और इस तरह से चक्ों के दोष अधवा कमजोरी की वजह से बीमारी होने लगती है और जब कोई चक् किकुल टूट जाता है तब हमारे मेसुदण्ड का सम्कन्ध भी हमारे महितष्क से टूट जाता है और मस्तम्क का शरीर पर नियन्त्रण समाप्त हो जाने से शरीर के किसी भी भाग १ में असन्तुलत वृद्धि होने लगती है और इस तरह से कैंसर का रोग घटित होता है अब जब कुण्डलनी का जागरण होता है तो वह टूटे हुए चक् को अपनी शव्ति दारा जोड़ने लगती है और धीरे धीरे चक की शवितहीनता भी समाप्त हो जाती है। तथा मेरुदण्ड का सम्क्ध फिर से मस्तिष्क इससे शरीर की अनियन्त्रित वृद्धि समाप्त हो जाती है और कैंसर ठीक हो जाता है। इसी प्रकार अनेक रोग ठीक हो सकते हैं क्योंकि इन चक्रों की ही खराबी के कारण बीमारी आती है और महत्व इस तरह से भी समझा जा सकता है में भी असन्तुलन आ जाता है की कोशिकाओं ? Cells प के साथ स्थापित हो जाता है। जब यह चक ठीक हो जाते हैं, तो बीमारी भी ठीक हो जाती है। तो होते ही है परन्तु सबसे बह्ी चीज़ यह है कि आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करते हैं। आप अपने गुरू हो जाते हैं और आप समर्थ भी हो जाते हैं और सब बुरी आदतें, जो पहले आप नहीं छोड़ पाए, ़ सहज योग से शारीरिक, मानसिक, भौतिक लाभ अब स्वयं छूट जाती हैं। आपमें सफ्तुलन आ जाता है और चक पूरी तरह से सुलना शुरू हो जाते हैं। स्वभाव में दया, प्रेम, छलकने , लगता है, मुख पर कन्ति आ जाती है। सोचने का दृष्टिकोण और जीवन मूल्य बदल जाते हैं। आप निर्विचारिता में उतर जाते हैं और आनन्द के सागर में रहने लगते हैं आपका सम्क्ध परम चैतन्य से होने के कारण परम चैतन्य आपकी सारी गतिविधियों करता है। इसका अनुभव आपको होने लगता है और आप आश्चर्यचकित होते हैं कि किस तरह से हर एक चीज़ अपने आप घटित होने लगती है। आप परमात्मा के साम्पन्य में आ जाते हैं जो अत्य्त दक्ष, कुशल एवं प्रेममय है और वह आपको इतना सम्भालता है कि आप आश्चर्यचकत हो जाते हैं कि मेरा इतना गौरव और शक्ति कहाँ से आ गई यह सब आपके अत्दर है और आपको इसे प्राप्त करना चाहिए और इससे अपने और सबके जीवन को खुशहाल बनाना चाहिए। यह हुए बगैर संसार बदल नहीं सकता आप विशेष लोग हैं जो इस योग भूमि में पैदा हुए है। आप पर इस विश्व के प्रति एक विशेष उत्तरादायित्व है इसीलिए आप इस योग को प्राप्त करें और उसमें स्वयं को स्थापित करें। आज को सम्भालता है और आपको पूरी तरह से आर्शीवादित का का। वह समय आ गया है जब यह घटत होना ही चाहिए। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-7.txt इसके बाद श्रीमाता जी ने कुछ प्रश्नों के उत्तर दिये जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैं । जब यह प्रश्न पूछ गया कि T.M. Transcendental Medi tat ion) क्या है तो श्रीमाता जी ने अनेकों उदाहरण ऐसे लोगों के दिए जो T. M. के कारण बहुत बुरी दशा में पहुंच गए थे, उनको कई तरह की बीमारियां हो गई थी और फिर सहज योग में ठीक होने के लिए आए सहज योग में ठीक होने पर उन्होंने जाना कि टी0एम0 कितनी बुरी का सूब आर्थिक और मानसिक शोपण करते हैं, उन्हें मूर्ख बनाते हैं और शारीरक एवं मार्नासक दृष्टि से बुरी दशा में पहुंचा देते हैं । चीज़ है । इस प्रकार गलत लोग गुरू बन कर लोगों प्रश्न -क्या कुण्डलिनी केवल सुमुम्ना नाडी से ही ऊपर चढ़ती है या ईडा पिंगला से भी चढ़ सकती है। 2- उत्तर : जब कुण्डलिनी जागृत होती है. तो केवल सुभुम्ना नाड़ी से ऊपर चढ़ती है परन्तु जब कोई कुण्डलिनी जागृत करने की अनाधिकार चेप्ट करता है तो मुलाधार चक पर बैठे श्री गणेश जी अत्यन्त क्रोधित हो जाते हैं और उसकी कजह से ईडा और पिंगला नाडी में अत्यधिक गर्मी उत्पन्न होती है जिससे कई तरह की समस्याप हो सकती हैं। इसलिए कुण्डलिनी जागृत करने का अधिकार परमात्मा से प्राप्त होना चाहिए। पातांजली योग और सहज योग में क्या अन्तर है। इसका नाम सहज योग क्यूँ रखा गया। 3- प्रश्न उत्तर :- पातांजली योग के बारे में हजारों वर्ष पूर्व बताया गया और उसमें यम, नियम आदि अष्टंग योग द्वारा कुण्डलिनी जागरण की व्यवस्था का वर्णन है पर इसमें कई जन्म लग जाते थे। परन्तु अब यह सहज योग है क्योंकि अब इस तरह के लोग भी है और समय भी है - कलियुग का वह समय जिसका वर्णन हमारे आदि ग्रन्थों में किया गया है आज के समय में आत्म साक्षात्कार सबको सहज में ही प्राप्त होना है. इसका नाम सहज योग रखा है । अहमदाबाद प्रौग्राम हसारांश 15-16/2/1990 श्री माता जी निर्मला देवी अहमदाबाद प्रोग्राम में श्री माता जी ने कुण्डलिनी जागरण, चक्कों के बारे में बताया जिसका वर्णन वे कई बार कर चुकी हैं। उन्होंने बताया कि किस प्रकार असन्तुलन के ईड-पिंगला, सुपुमना, नाड़ियों और सभी कारण हमें अनेक रा ग हो जाते हैं और कैसे कुण्डलनी जागरण दारा सन्तुलन स्थापित कर हम उन रोगों से मुक्त हो सकते हैं और सत्य की प्राप्ति कर सकते हैं तो अपने संस्कारों और बुदि के अनुसार ही सत्य की कल्यना करते हैं परन्तु जब हमारी कुण्डलिनी को जान पाते हैं औरगर ये नहीं होता तो बाकी सब व्यर्थ है। नानक साहब ने कहा है"सतगुरू वही जो साहेब हमें उस परम चैतन्य से संबोधत कर देती है तभी हम वास्तविक सत्य ा मिली है" अर्थात सड्गुरु वही है जो परमात्मा की शक्तित से एकाकारिता करा देता है सहज योग में हमें इसी की प्राप्ति होती है | 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-8.txt ४ श्री कृष्ण पूजा वार्ता हईसारांश कह मद्रास 89-2-9.0.8 सहज योग का प्रारम्भ अति तुच्छ साधनों से हुआ और फिर यह नदी की तरह एक बड़े प्रवाह में परिवर्तित इस प्रकार सहजयोग को यहां स्थापित कर पाने पर मैं अति प्रसन्न है। आपको याद रखना है कि हो गया। इस कार्य को करने के लिए ईश्वर ने आपको चुना है। सर्वप्रधम हमें परमात्मा के लिए कार्य करना है तब वह हमारे लिए कार्य करेगा। वह आपकी देखभाल करता है। आपपके व्यवितिगत, सामाजिक तथा अ्य समस्याएं सुलझ सकती है। ईश्वर के प्रति समर्पित लोग अपनी समस्याओं को हल करने में समर्थ होते हैं। परम चैतन्य की शवित हमारा पोषण करती है, हमें रास्ता दिखाती है और हर चीज का आयोजन करती है। आशा के विपरीत भी आपके कार्य हो जाते हैं। कुछ लोगों में बढने के लिए सहयोग को काफी समय लगता है अत: स्वयं में पूर्ण विश्वास तथा धेर्य बनाये रखे। परमात्मा के शाश्वत प्रेम में जब हम बंधे है तो चिन्ता किस बात की। हर कार्य अत्यन्त सुन्दरता से हो जाता है। अपने आप में भरोसा रखना, हृदय की पवित्रता तथा परमात्मा के प्रति सचा प्रेम प्रथम आवश्यकता है। परमात्मा आपको कहीं अधिक प्रेम करते हैं परन्तु यह प्रेम एक पिता के प्रेम की तरह से होता है। यदि आप कोई गलती करते हैं तो पिता आपको सुधारते हैं। इसी प्रकार परम चैतन्य आपको सुधारता है। यह आपको इस प्रकार से शुद्ध करता है कि आप सबक सीखव जाते हैं। अतः हमें सदैव याद रखना है कि हम परम चैतन्य है। यह शकित अब बहुत सकिय हो उठी है । नाम की महान शक्षिति के अंग प्रत्यंग जन-साधारण कार्यक्रम मद्रास व्याल्यान श्री माता जी निर्मला देवी है। 3-2-19908 सत्य बेचा नहीं जा सकता, इसे न तो बनाया जा सकता है न आयोजित किया जा सकता है और न ही इसे मस्तिष्क तथा भावना से समझा जा सकता है। अपनी विकास प्रक्रिया में हमने सत्य को सदा अपने मध्य- नाड़ी-तंत्र पर अनुभव किया है उदाहरण के रूप में मैं इस नमूने को अपनी आँखों से देख रही हूँ और कुछ गर्म या ठंडा अनुभव कर रही हैं। आप भी इसका अनुभव कर सकते हैं। इसी प्रकार सत्य को भी आप अपने मध्य स्नायु-तन्त्र पर अनुभव कर सकते हैं। आपके मध्य-स्नायु-तन्त्र पर इसे प्रकट होना ही है यह केविल विचार मात्र नहीं हो सकता कि "यही सत्य है, वह सत्य है"। सत्य निर्बाध है और सब इसका अनुभव कर सकते हैं। जो पूर्ण है और निर्वाध है उसके विषय में न तो वाद-विवाद किया जा सकता है और न ही उसका म अनुभव भिन्न मिन्न प्रकार का हो सकता है। यद हम इस बात को प्रधम दूष्टया स्वीकार कर लें तो हम समझ पायेगें कि इस सत्य का अनुभव करनै के लिए हमें मानव चैतना से आगे जाना हौगा, और ईश्वर की सर्वत्र 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-9.txt 19 व्यापक शक्ति ही यह सत्य है। प्रेम सत्य है और सत्य प्रेम है परन्तु यह प्रेम ईश्वरीय है। किसी सीमा में नहीं बंधा होता। पेड़ के अन्दर का रस पेड़ के मिन्न भागों को जीवन प्रदान करता है और ईश्वरीय प्रेम फिर वापिस आ जाता है। यदि यह रस केवल फूल पर ही टिक जाय तो पूरा पेडू मर जायगा और अन्त में फूल भी मर जायगा। अत: यह प्रेम निर्लिप्त प्रेम है। इसी प्रेम ने पुरे ब्रहमां पृथ्वी मां, और ग्रहों के मध्य की दूरी का व्यक्स्थापन किया है इसी ने हमारे विकास की व्यवस्था की है। और हमें मानव चेतना स्तर पर लाया है। परन्तु मानव- चेतना पर्याप्त नहीं है। यदि पऐसा होता तो मनुष्यों के मिन्न मिन्न विचार न होते। हर व्यक्ति समझता है कि वही ठीक है। परन्तु स्वयं को ठीक प्रमाणित करने का यह कोई तरीका नही है। हैं। ईश्वरीय प्रेम तो आधुनिक युग में ईश्वरीय प्रेम की बात करने वाले को लोग विसा-पिटा समझते शाश्वत है। कुछ समय के लिए यह कम हो सकता है परन्तु हमारे उपकार और लक्ष्य प्राप्ति के लिए इसे वापिस आना पडता है। आरिविरकार हम इस पृथ्वी गर क्यों हैं? हम उत्पन्न कयों हुए हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? क्या हर समय धन,सत्ता, संबंध तथा अन्य भावनात्मक चीजों के लिए संघर्ष करना ही हमारा लक्ष्य है। या इससे ऊँचा भी कुछ है। यदि में यह कर रही हूँ कि हमारे चहूँ और सर्वत्र विधमान शक्ति है तो आप के अन्दर, यह समझने के लिए कि इस स्तर पर यह केवल एक परिक्ल्पना है जिसे मैं बाद में प्रमाणित कर दँगी, एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए। परिक्ल्पना के साबित होने पर आपको इसे सल्य के रूप में स्वीकार करना होगा, ईमानदार व्यक्ति होने के नाते भी आपको इसे स्वीकर करना होगा। रयदि यह मानव मात्र के मोक्ष के लिए है, यदि यह मानव जाति के उपकार के लिए है तो क्यों न इसे स्वीकार लें? आरम्भ में ही मने आपको बताया कि सत्य बेचा नहीं जा सकता। परन्तु आज भी बाजार में से बहुत लोग सत्य, ईश्वर तथा बहुत ही चीजों को बेच रहे हैं। सत्य का धन से कोई सम्बंध नहीं है। पैसा मनुष्य की रचना है परमात्मा से संबंध की कमी तथा संबंध की स्थिरता का न होना हमें इस सर्वत्र विष्यमान शवित का अनुभव नहीं हाने देता कुण्डलिनी नामक शक्ति बेंधती है तो आपकी हथेलियों तथा सिर के तालू भाग से शीतल लहरियाँ बहनें लगतीं हैं। अतः आपको स्वयं । परमात्मा से संबंध स्थिर कर पाना संभव है। हमारे अन्दर साट़े तीन लपेटों में विद्यमान है। जागृत होकर जब यह छ: चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रार चक को ही स्वयं को विश्वस्त करना है। कोई अन्य आपको सत्य के विषय में विश्वस्त नहीं करेगा। बीज का यह प्रथम अंकुरण है। यह एक जीक्त किया है और जीवित परमात्मा की जीवित शक्ति है। एक बीज की तरह से स्वतः ही इसका अंकुरण होता है तब आप इस का आश्चर्यजनक तथा अनोखा प्रभाव अपने मानसिक, भावनात्मक तथा आध्यात्मिक व्यव्तित्व पर देखना शुरू कर देते हैं । यह एक पेसा अवलोकन है जिस पर आपकी कल्पना की उडान भी नहीं पहुंच सकती। परन्तु आप वास्तव में वही यशस्वी वस्तु हैं। आपके अन्दर ही वह गौरव है और आप उसी गौरव के लिए तथा उसके सौंदर्य का आनन्द लेने के लिए बने हैं आपको यह आनन्द लेना है। योग प्राप्ति तथा परम शक्ति से एकाकार आपका अधिकार है। यह सब स्वतः घटित होता है। सहज का अभिप्राय है साथ जन्म हुआ धा सुगम। कुंडलिनी हमारे अन्दर की शुद्ध इच्छा है। अर्थशास्त्र का विधान कहता है कि साधारण तथा इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। शुद्ध इच्छा न होने के कारण इच्छायें बढ्ती ही जाती हैं। शुद्ध इच्छछा क्या है? आपको इस का ज्ञान हो या न हो परम शक्ति से पकाकार ही आपकी शुद्ध इच्छा है। जब तक यह इच्छा पूरी नहीं हो जाती 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-10.txt 10 जीवन में आपं संतुष्ट नहीं होंगें। शुद्र ईच्छा की यह शक्ति त्रिकोणाकार अस्थि में रहती है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि कुंडलिनी मूलाधार चक् से ऊपर मूलाधार में स्थित है । अतः जो लोग यह कहते हैं रति- किया से कुंडलिनी जागृत होती है वे पूर्णतया गलत ओर वास्तविकता के विरूद हैं। ये म्रष्ट लोग है जो हमारी दुर्बलताओं के साथ खिलवाबू करते हैं। मूलाधार चक् हमारे श्रोणीय प्रदेश हपैलीवक पलैक्शन , जो कि हमारे यौन तथा मलोत्सर्जन के अंगों का उत्तरदायी हैं, की देखभाल करता है। उत्थान के समय हमारी सब गतिविधिया शांत हो जाती हैं और मनुष्य अबोध बन जाता है तब कुंडलिनी सहस्त्रार की और अग्रसर होती है। अंति कुंडलिनी का यह उत्थान पृथ्वी माँ के गुणों वाले या किसी सहजयोगी की मौजूदगी में होता है क्योंकि वह जानता है कि कुंडलिनी को किस प्रकार चढ़ाना है और साक्षात्कार किस प्रकार देना है। कुंडलिनी आपकी अपनी माँ हैं। आपके विषय में वह सब कुछ जानती है। वह आपके हृदय और मस्तिष्क के विषय में सब जानती हैं। त्रिकोणाकार अस्थि में बैठी यह अपनी जागृति के क्षण की प्रतीक्षा करती है। यह कहना कि इसकी जागृत से कष्ट होता है गलत है। अनाधिकार चेष्टा करने वाले लोगों के कारण कष्ट हो सकता है जब हम बहुत अधिक सोचते हैं तो मस्तिष्क के सफेद-कण प्रयोग करते हैं । परन्तु इसका प्रतिस्थापन कैसे होता है? यह कण कैसे बड़ते हैं? यह कोई नहीं जानता। स्वाधिप्ठान चक् चर्बी के कणों को मस्तिष्क के प्रयोग के लिए परिवर्तत करता है। यह आपके जिगर, अग्नाश्य, प्लीहा और आन्त्र तथा गुर्दे के भागों की भी देखभाल करता है, इसे इतना अधिक कार्य करना पड़ता है। यदि आप बहुत भविष्य बादी हैं अधिक सोचते हैं तो इस बेचारे चक को आपके मस्तिष्क के लिए सफेद कण बनाने का कार्य भी करना पड़ता है। परिणामतः ये सभी अंग उपेक्षित हो जाते हैं और इस प्रकार के लोगों को जिगर के रोग हो जाते हैं। आपका अग्नाश्य यदि उपेक्षित हो जाय तो आपके शक्कर रोग हो सकता है। आपके स्वाधिष्ठान को जब कठिन परिश्रम करना पड़ता है तो इसकी समझ में नहीं आता कि क्या करें और क्या न करें। परिणामतः अग्नाशय की उपेक्षा हो जाती हैं। हर समय योजनाएँ बनाते हैं, बहुत स्वाधिष्ठान की अंतिव्यस्तता का तीसरा शिकार प्लीहा होता है प्लीहा शरीर का गतिमापक है। यह लय देता है। आजकल हम कुछ न करते हुये भी व्यस्त रहते हैं । प्लीहा आपात स्थिति के लिए अधिक लाल रवत-कोशिकाएँं बनाता है। जब हम समाचार-पत्रों में चाका देने वाली खबरे पढ़ते हैं तो हमारे अन्दर आपात स्थिति बन जाती है। ऐसी स्थिति में प्लीहा करियान्वित हो उठता है परन्तु यदि हम हर समय उत्तेजनापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं तो प्लीहा की समझ में यह नहीं आता कि इस उत्तेजित व्यव्तित्व का क्या क? यह भी उत्तेजित होकर लाल-रक्त-कोशिकाएँ बनाता चला जाता है। अपनी लय भी नहीं रख पाता और मनुष्य की कैंसर, किशेषतया रक्त कैंसर, पीडित होने की संभावना बढ़ जाती है। जब स्रोत से सम्कन्ध समाप्त हो जाता है तो नियंत्रण भी नहीं रहता। कैंसर रोगी के अन्दर रक्त कण निरंकुश रूप से चलते हैं तथा इस प्रकार विषाणुता प्रारम्भ हो जाती है और कैंसर रोग हो जाता है । जागृत होकर कुंडलिनी इन अ्रकों में से होकर गुजरती है, इन्हें जागृत करती है, इनका योषण करती है और इन्हें ठीक करती है। इस प्रकार आपका चित्त संबंधित चक पर आता है और समस्या का समाधान हो जाता है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-11.txt 11 इसी प्रकार रक्तचाप, जो कि ्राब गुर्दे के कारण होता है, रोग ठीक डो जाते हैं । तथा भविष्यवादी व्यव्तियों के कई अन्य भविष्यवादी व्यव्तियों का सबसे बडुा शत्रु यह सत्य है कि भविन्य का कोई अस्तित्व ही नहीं होता भविष्य में उनकी आशापे जब पूरी नहीं होती तो वे निराश हो जाते हैं। आशा निराशा के बीच में लटके रहने के कारण उनका व्यकत्व अजीब प्रकार का हो जाता है जिसके कारण उन्हें मनोदैहिक हसाईकोसोमैटिक रोग हो जाते हैं जोकि बहुत मंभीर है। भविष्यवादी लोगी का सबसे बड़ा शत्रु, जोकि उनके दरवाजे पर प्रतीक्षा कर रहा होता है, दिल का दौरा है। यदि आप का चित्त बाहर की ओर योजनाएें बनाने में, धन्नाजन में सत्ता में छोटी-छोटी चीजों के लिए संघर्ष करने में लगा रहता है और अपने हृदय पर, भावनाओं पर यदि आप ध्यान नहीं देते, अपनी पत्नी और परिवार के लिए यदि आपके पास कोई समय नही है, तो आप पक शुघ्क व्यव्ति बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति चाहे देखने में बहुत अच्छे लगें, वास्तव में अच्छे नहीं होते वे अत्यन्त शुष्क होते है और भयानक दिल के दौरे के शिकार भी हा सकते हैं। कारण यह है कि हृदय में आत्मा का निवास है और यदि आप आत्मा की उपेक्षा करते हैं तो दिल का दौरा अनवार्य है । दिल दो प्रकार के होते हैं : अकर्मन्य और अति चुस्त। भविष्यवादी व्यत्तियों के चुस्त दिल होते हैं और इन्हें ही दिल के भयंकर दौरे पड़ते हैं जबकि अकर्मन्य हृदय वाले लोगों को कंठशूल फन्जाइना रोग हो सकता है। अत: सभी रोग, चाहे वे मानसिक हो, भावनात्मक हो, या अध्यात्मिक, सभी चक्रों की खराबी के कारण होते हैं । मोहमासुर मर्दनी पूजा वार्ता श्रीमाता जी निर्मला देवी दारा बैंगलीर है। 3-2-19908 हिन्दी जनुवाद सर्वप्रथम हर स्थान पर मनुष्य को श्री गणेश स्थापित करना होता है। जैसा कि आप जानते हैं कि श्री गणेश मंगल, है। ये तीनों गुण श्री गणेश के विवेक से ही आते हैं अत: आपके पवित्रता और अबोधिता के ग्रोत अन्दर का विवेक सर्वोपरी है। विवेक दारा ही आप जान सकते है कि मंगलमय और पवित्र क्या है। यह विवेक कोई संसारिक विवेक नहीं यह ईश्वरीय विवेक है जो उत्थान के साथ ही हमें प्राप्त होता है अतः विवेक के स्रोत की स्थापित करना हर सहजयोगी का कर्तव्य है। सहजयोगियों के लिए इस विवेक का ओरत परम चैतन्य है या शुद्ध लहरिया जब भी आप कष्ट में हों या पकड़ महसूस करें या आपके सामने किसी उचित अनुचित को स्वीकार करने की बात आयें, अछे बुरे का निर्णय करना हो तो सबसे पहली विवेकपूर्ण बात यह होगी कि आप इसे लहरियों पर परखें । हम सदा भूल जाते हैं कि हमें पक नई चेतना प्राप्ति है, कि हम महान व्यक्ति है, हम भृूल ईश्वर ने हमें क्षण-क्षण के लिए पक विशेष चेतना प्रदान की है, जब भी हम अपने निर्णय लेने के लिए बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो हम भटक जाते हैं केवल लहरियाँ ही एक पेसा साधन है जो आपको बता सकता है कि जो आप कर रहे हैं वह उचित है या अनुचित। यह आदत विकसित करना ही विवेक है और पहले की जाते है कि हम सन्त हैं और 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-12.txt 12 तरह से बौद्धिक और भावनात्मक ढंग से निर्णय लेने की आदत अविवेक। कुछ लोग सवा कहते हैं कि मुझे अच्छा लगा। यह केवल बाँ दिक अभिवृत्ति है। कुछ लोग कहते हैं कि मैंने सोचा कि तार्किक रूप से यह इस प्रकार होना चाहिए। हमारे लिए केवल एक ही रास्ता है वह है परम चैतन्य या लहरियाँ और उनकी समझ। लहरियों के एकीकरण पर पूर्ण निर्भरता प्रथम विवेकशीलता है और अपनी लहरियों को स्थिर करना दूसरी। यदि आपकी लहरियां ठीक नही है या आप उनका अनुभव ठीक से नहीं करते हैं तो आपको अपने निर्णय भावनात्मक या बीद्धिक ढंग से लेने पचेगे। परन्तु याद आपके पास लहीरियां हैं और आप उनका अनुभव कर सकते हैं तो आप सुगमता से उचित अनुचित का निर्णय कर सकते हैं । तीसरा सत्य जो हमने जानना है वह यह है कि हम ईश्वर के साम्राज्य में प्रविष्ट हो चुके हैं। यह अन्थविश्वास नहीं है क्योंकि आप शीतल लहरियों का अनुभव कर चुके हैं। आप परम-चैतन्य का अनुभव कर चुके हैं। हम ईश्वर के साम्राज्य में प्रविष्ट हो चुके हैं इस बात पर िश्वास करने के लिए हमें अनुभव प्राप्त हो चुके हैं। इस परम चैतन्य के भरोसे सब कुछ छोड़ देना ही सर्वोत्तम हैं। परम चैतन्य सब ठीक कर लेगा । मान लिया मैं कहीं जा रही हूँ और ड्राईवर कहता है कि हम रास्ता भूल गये हैं इस पर मैं बढ़ी शान्ति का अनुभव करती हूंँ। म सोचती हैं कि मुझे इसी रास्ते से जाना है। मुझे आश्वस्त होना है। जब आप सब कुछ परम चैतन्य पर छोड़ देते हैं तो ऐसे बड़े-बड़े कार्य बन जायेगे कि आप दंग रह जायेगें कि यह कैसे हमारी समस्याओं का हल करता है, कैसे यह हमें रास्ता दिखाता है आप साफ-साफ देख लेते हैं किसी कार्य को करने के लिए संघर्ष करते हुए जब आप यह कह देते हैं कि मैंने इसे ईश्वर पर छोड दिया है तो यह कार्य हो की जाता है। परन्तु यदि आप संघर्षरत रहना चाहे तो परम चैतन्य कहता है कि ठीक है यदि तुम अपने प्रयत्नों फ्लीमूत होते देखना चाहते हों तो लगे रहों जोर धीरे धीरे आपके व्यवहार में परम चैतन्य लुप्त होने लगता है । पूर्ण समर्पण तथा सहजयोग में गहन विश्वास चौथा विवेक तत्व है। आप सहजयोग में कितनी गहराई में हैं यह अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं यदि आपके अदर वह गहराई है तो वह कार्य करेगी। आपके माता-पिता हैं, परिवार है, बच्चे हैं, और आपकी समस्याएँ हैं परन्तु इन समस्याओं को हल करने के लिए आपको संघर्ष नहीं करना है अपनी लहरियों को विकसत करने के लिए आपको कार्यरत रहना हैं [आप किस प्रकार विकसित होते हैं? आपको निर्विचार होना है। निर्विचारिता के बिना यह विकास संभव नहीं। जब आपको मेरे फेटो के सामने बैठकर भी विचार आ रहे हो तो आपको निरर्विचारिता का मंत्र "ओम त्वमेव साक्षात श्री निर्विचारिता साक्षात श्री - नमो नमः " कहना चाहिए। निर्विचार अवस्था को स्थापित कीजिए। इस प्रकार आपकी बौद्िक गहनता का विकास होगा। मुंम हृदय की गहराई का विकसित करना आपकी पक और समस्या है। ध्यान में बैठने से पहले आपको कहना है कि श्रीमाता जी कृपया मेर हृदय में आईये, श्रीमाता जी कृपया मेरे सिर में आइये। " तब आप ध्यान के लिए बैठिए और अपना हाथ अपने हृदय पर रख लीजिए । कुछ लोग केवल यह भी कह सकते हैं कि श्रीमाता जी में आत्मा हूँ। कृपया मेरे हृदय " यह कहना सर्वोत्तम है। हृदय को खुलना अत्यन्त आवश्यक है। बन्द हृदय कहिए कि "मुझे एक विशाल हृदय के सिवाय किसी चीज की आवश्यकता नही । " अपने प्रति अपने हृदय को खोलिए। हर समय स्वयं की चिन्ता न करते रहिये। कभी-कभी लोग अपने कठोर स्वभाव को खोल दीजिए से आपका उत्थान नहीं हो सकता। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-13.txt 13 नियम -निष्ठता और अनुशासन की डींग हांकते हैं। "मैं चार बजे उठा, स्नान किया और पूजा की आदि-आदि"। इस प्रकार के व्यवहार से आपके हृदय का वध हो जायेगा। किसी को भी अपनी अनुशासन बद्धता की डींग नहीं हॉकनी हैं। के लिए नहीं, स्नान कीजए तथा आशा और आनन्द के आप अपने आनन्द के लिए यह सब कर रहे हैं। ध्यान भी आप आनन्द के लिए कर रहे हैं पश्चाताप केवल आनन्द के लिए प्रातः प्रस्न मुद्रा में उठिये, साथ दिन की शुरूआत कीजए। आपको कठोरता पूर्वक स्वयं को अनुशासित नहीं करना है, स्वयं को प्रेम करना है और स्वयं का आनन्द प्राप्त करना है मैंने देखा है लोग मेरी पूजा करते हैं, बड़े प्रसन्नचित होते हैं, आनन्दपूर्वक मालायें पिरोते हैं। और गाते बजाते हैं। दूसरी तरह के लोग वो हैं जो हर समय स्वयं को अनुशासित । "सदा यह करो", यह मत करो" कहते रहते हैं या फिर सोचते रहते है कि मां ने आना ही करते रहते हैं। है समय बहुत कम है आदि-आदि। पूजा किसी औपचारिकता आदि के लिए नहीं होती यह अपने प्रेम सागर में शारोबार होने के लिए होती है। अतः जल्दी मचाने की या किन्ता करते की कोई आवश्यकता नहीं। में यह नहीं देखती कि आपने यहां क्या साज सज्जा की है या क्या कार्य किया है, जो भी आपने किया है ग्रेम से किया है। आपके किये हुए में मैं दोप नही देखती। जो भी आप करते हैं सुन्दर हैं क्योंकि मैं केवल जपका हृदय देखती हैूँ और यह कि आपने हृदय से क्या किया है। आप वृद्ध शबरी के विषय में तो जानते ही है। उसने कुछ बेर इकठूठे किये और हर एक को अपने दाँतो से चवा। जब राम आये तो उसने कहा-खाइये। "क्योंकि आपको खट्टी चीजें पसन्द नहीं हैं अतः सबको चव कर केवल मधुर ही आपके लिए रखे हैं। अपने उग्र स्वमाव तक के कारण लक्ष्मण नाराज हुए कि इस नीच जाति की औरत का इतना साहस कैसे हुआ कि श्रीराम को इस ढंग से फल अर्पण करें । ओर श्रीराम की अंखों से प्रेम अश्रु बह निकले और वह कहने लगे कि मैंने दृूसरी इतने मधुर बेर कभी नहीं खाये। सब कुछ समझ कर सीताज़ी ने भी कुछ फल खाने चाहे। फलों को खाते हुए सीता जी ने उन्हें अमूत तुल्य बताया। अब लक्ष्मण जी ने भी कुछु बेर स्वाने को मांगे परन्तु सीता जी ने कहा तुम्हें बेर नही मिलेंगे। बहुत क्षमा मांगने पर लक्ष्मण जी ने भी कुछ फल कि तुम बहुत नाराज हुए धे अतः खायें ओर उन्हें मधुर पाया। अत: सर्वाच्च ही प्रेम का प्रमाण है। हर कार्य को बहुत प्रेम, सहजता तथा सुन्दरता से करना चाहिए। हर कार्य बहुत मधुरता से होना हर पूजा में मुझे आपको बताना पडता है कि ऐसा चाहिए। माधुर्य के विना पषूजा क्षान्ददायी नही होती। करो, बैसा करो। चिन्ता की कोई बात नहीं। बिना समझें लोग आयोजन शुरू कर देते हैं और यदि ठीक ठाक हो जाये तो भी आनन्दायी नहीं होता। कुछ दिलचर्प घटनायें होनी चाहिएँ, कुछ गलतियाँ होनी चाहिएँ जिससे नाटकीयता बढ़े। इर चीज को गम्भीरता पूर्वक नहीं लेना चाहिए। यह पूर्णतया सत्य है कि हम जो भी हैं जैसे मी हैं प्रेममग्न हैं। प्रेम में आप बाकी सब कुछ भूल जाते हैं। प्रेम ही महत्वपूर्ण हैं। अगर यह अवस्था सब कुछ है तो हम वास्तव में हर चीज़ का आनन्द लेते हैं। विवेक की चरम सीमा केवल यह है क्या हम सहजयोग का आनन्द ले रहे हैं? यहीं मापदंड है। कहीं सहजयोग हमें भारी और कठिन तो नही लग रहा है? याद हम आनन्द ले रहे हैं तो मेरा लक्ष्य पूरा हो गया है, क्योंकि में कार्य इसलिए करती हूं कि आप किसी भी चीज के छोटे छोटे भाग का भी आनन्द लें। जो भी सुन्दर वस्तु आप देखें उसका आनन्द प्राप्त करने की योग्यता आप में होनी चाहिए। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-14.txt 14 सहजयोग एक फूल की तरह से है। यह सुगन्धी से परिपूर्ण है । इस सुगन्धी का आनन्द लेने वाले लोगों को जब में देखती हूँ तो मेरा दिल सिल उठता है। प्रसन्नचित, घर्मपरायण तथा आनन्दमग्न लोगों को देखना अति सुखद होता है। ऐसा दृश्य आप को और कहाँ प्राप्त डो सकता है। ऐसे लोग श्रीगणेश की तरह से होते हैं, नाचते हुए शिशु, जो हमें प्रसन्न भी करते है और हममें विवेक जागृत करने का प्रयत्न भी। इतने अपने अन्दर श्रीगणेश छोटे से शिशु का इतना महान व्योक्व। वे शाश्वत वात्सलय के शिशु हैं। अतः हमें का सौन्दर्य स्थापित करना चाहिए। बकचों को तो आप देखते ही हैं, वे लिलौने से खेलते हैं और फिर उसे फेंक देते हैं, किसी चीज से उन्हें लिप्सा नहीं होती। बच्चे यदि किसी चीज की पकड़ में आ जायें तो वह बचे नहीं है। उनके लिए कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं फिर भी वे आनन्द प्राप्त करते हैं । कचों की तरह से लिप्सा विहीन होकर आपने सहजयोग को समझना है। प्रारम्भ में हमें समझना चाहिए कि हमें देवी को प्रसन्न करना है। यदि देवी प्रसन्न है तो बाकि सभी देवता प्रसन्न है। जब में आप सबको एक परिवार के रूप में, एक दूसरे से प्रेम करते हुए, प्रेम और दे वी - सहानुभूति पूर्ण सामूहिकता में दखती हूँ तो मैं बहुत प्रसन्न होती हूँ| आपका केवल यही गुण मुझे प्रसन्न रख सकता है। ईश्वर आपको आशिर्वादित करें। वियरात्री पूजा व्वर्ता - पूना श्रीमाता जी निर्मला देवी 23-2-1990 में हम अपना आज शिव रात्री है और शिवरात्री में हम शिव का पूजन करने वाले हैं। उसके अनेक उपाधयों, बाह्य मन, अहंकार और बाहय में हम उसकी चालना कर शरीर और सकते हैं, उसका प्रभुत्व पा सकते हैं । इसी तरह जो कुछ अन्तरक्ष में बनाया गया है वो सब कुछ हम जान सकते हैं, उसका उपयोग कर सकते हैं । उसी प्रकार इस पृथ्वी में जो कुछ तत्व हैं और म इस पृथ्वी में जो कुछ उपचा है सब को हम अपने उपयोग में ला सकते हैं । इसका सारा प्रभुत्व हम अपने हाथ पे ले सकते हैं । लेन ये सब बाहूय का आवरण है । जो हम अन्तरतम में हैं वो हम आत्मा हैं । शिव हैं । जो बाथ्य में है वो सब नश्वर है । जो जन्मेगा वो मरेगा, जो निर्माण होगा उसका विनाश हो सकता है । किन्तु जो अन्तरतम में हमारे न्दर आत्मा है, जो हमारा शिव है, जो सदा शिव का प्रांतांबम्य है यो आवनाशी है, नियकाम, स्वछन्द । किसी चीज में वो लिपटा नहीं निरंजन उस शिव के प्रकाश में आलोंकत होते ही हम भी धीरे धीरे सन्यस्त होते जाते हैं। बाह्य में सब अवरण है। वो जहाँ के तहीँ रहते है । लेोकन अन्तरतम मे जो आत्मा अचर, अटूट, आंवनाशी है वो हमेशा के लिए अपने स्थान पे प्रकाशत होते रहता है । 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-15.txt 15 हमारा जीवन आत्म साक्षातकार के बाद एक दिव्य, एक भव्य, एक पावत्र जीवन बन जाता है इसीलिए मनुष्य के लिए आत्म साक्षातकार पाना आत आकश्यक है । उसके बगैर उसमें संतुलन नहीं उसमें सच्ची सामूहिकता नहीं आ सकता । उसमें सच्चा प्रेम नहीं आ सकता। और सबसे आ सकता । आधक उसमें सत्य जाना नहीं जा सकता । सो सारा ज्ञान, उसकी शुद्ध ज्ञानता आ जाती है। जसे की विद्या कहा जाता है वो इस आत्मा के प्रकाश में ही जानी जा सक्ती है । जब मनुष्य इस आत्मा के प्रकाश से आलोकित हो जाता है, तो उसका देखना भी निरंजन हो जाता है । वो देखना मात्र होता है। कोई बाज को देखते ववत उसमें कोई उसकी प्रातिकया नहीं होती है । देखता है और देखने से ही पूरा ज्ञान हो जाता है उस तो वो एक तरह से अपने ही बारे में सोचता रहता है। चाज का । तो मनुष्य हमेशा जब आत्म साक्षातकार से प्लावत नहीं होता । वो यही सोचता है कि मैं आज क्या खाना स्वाऊँगा । क्या किसके यहाँ बडा अच्छा खाना मिला धा । आज कौन से खाने का इन्तजाम करे। नहीं तो फिर ये सोचता है कि आज कहाँ मुझे जाना चाहिए । ा । कौन सी कान सी जगह मेरा महत्व होगा जगह मुझे लोग मानेगें । कौन सी सभा में मैं जाकर चौकुंगा । तीसरा सोचगा कि मैं कौन सा कार्य रूपया इक्ट्ठा कर लूँ, बहुत मेरे पास पेसा आ जाए । संसार की सारं सम्पात्त में पा लू । चौथा सोच सकता है कि कितने मेरे बच्चे है, और इनके लिए मुझे क्या करना चाहिए ओर बच्चो के बच्चो के लिए क्या करना चाहिए, और मेरे रिश्तेदार । इस प्रकार के जो कुछ विचार हैं, यह अपने में लॉक्षत है । मैं कहाँ हूँ । मेरा उसमे कौन सा व्शेष लाभ होने वाला है| आज मैं किसको किस तरह से प्रभावत करंगा । कितना बोटया कितना । दूसरा है जो अपने को बहुत नम्रता पूर्वक सबके सामने बार बार झुके नमस्कार करेगा । ये दिखाने के लिए कि मैं बड़ा नम्र हूँ और में सबसे बड आदर से रहता हूँ। बहुत सभा में जाकर वाद् विवाद करगा । मै बहुत सारी किताबें पढूँगा उससे मै अपनी बुद को बड़ा प्रबल कर तूँगा । में बुं्ध से बहुत अपने कर जिसके कारण में बहुत और दुनिया को मैं ठीक कर लूँ है, और उनके लिए मुझे क्या करना चाहिए हैं । कि उसमे मेरा क्या स्थान आज कौन से कपडे पहनूँगा मैं । होशियार, कितना चमत्कार ज्यादा संस्कृती से भरपूर हूँ । कोई तासरा कहेगा कि मै विद्यवानो की को ऐसा विशेष रुप से प्रकाशत कागा कि लोग सोचेगें कि कितना बड़ा लेखक है, कि कितना बडा ववता हैं, कितना बड़ा बोलने वाला है । अपने कल के बारे में सोचता है । हर चीज में आदमी इसमें अपने बारे में सोचता है कि मेरी प्रगोत कैसी होगी उससे मैं क्या कँगा और बहुत से समाज कार्य भी लोग करते हैं । जैसे कि कोई आदमी अगर डूब रहा है तो उसको बचाने के लिए कोई आदमी कुदता है तो वो भी यहा सोच के कि उसके अन्दर जो कुछ में है वो उस आदमी में भी है इसालए वो उसको बचाता है, । उसको पहचान नहीं होता कि आदमी डूब रहा है इसलए उसको बचाता है । और उससे भी ऊँचे कार्य मनुष्य करता है । अपने देश के लिए बहुत त्याग करता, है इसलए कि मेरा देश है । मेरे देश को सुख होना चाहए इस तरह से उसमें भव्यता आने लगती है । उसमें महानता आने लगती है । फिर कोई सोचता है कि मेरी जो कला है, वो ऐसी फैलनी चाहए कि विश्व में हमारे देश की कला फैल। इस तरह से मनुष्य फ़िर इसी प्रकार कोई अपने संगीत के बारे में सोचता है, तो कोई 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-16.txt 16 अपने आप को सामूहिकता में अपने आप को घुलते देख कर खुश होता है । पर उस सब में अपेक्षत होता है कि उसे विजय मिले सका यश गान हो । लोग उसका बाह बाह करें । यह अपाक्षत रहता है, इस लिए वो सुख और दुख के चक्कर में फंस जाता सब जगह छपे, लोग उसको बहुत माने और उसकी बड़ी मान्यता रखें और कहीं थी वो खड़ा हो तो कभी भी वो अपमानत न हो कोई उसको किसी भी तरह से नाचा न कहे । कोई भी कितना भी है । यह अपीक्षत रहता है कि. उसका नाम बड़ा संयोजक हो गर वो आत्म साक्षातकारी नहीं है तो उसमें उसका जो बिन्दू आप अपना है, में हूँ, नु जो में का बिन्दू है, वो कितना भी बड़ा उसका परिग बन जाए । पर उसका चित्त उस में दे ही रहता है । उस पनीग ? में उसका चन्त नहीं जाता । किन्तु जब आप अपने आत्मा से एकाकारिता प्राप्त करते हैं , तब वो ओर तरह से बात सोचता हैं कि इसका उपयोग समाज के लिए कैसे हो सकता है। तब बो हर चाज को इस तरह से सोचता है, दुनिया के लिए कैसे हो सकता है । इस आतीरक पीडा के लोग हैं । इनके लिए क्या हो सकता है। इनके लिए क्या करना चाहिए । उसका सारा ही विचार अपने से बदल के उन चीरों की और जाता को देखता है, उस पेड को देखते ही वो सोचता है विधाता ने कितना सुन्दर जब किसी पेड ये पेड बनाया हुआ है काश व में भी ऐसा सुन्दर होता । काश कि मैं भी ऐसा छाया पद होता कि लोग मेरे छाया में आकर के बैठते । क्न्तु में ऐसा नहीं । मुझे ऐसा ही होना चाहिए। उस पेड की स्तुति में वो गाने लग जाए । लेकन जो मनुष्य । जो अपनी आत्मा को जानता नहीं वो हमेशा अपनी ही है । किसी हिमालय को देखेगा तो हिमालय की ही स्तुति गाता रहेगा। आत्म निष्ठ नहीं होता है। स्तुंत गाता रहता है, कि में हमालय पे गया धा, मैंने हिमालय पे ये काम किया । हिमालय में मेरा दो कब्र बना देना । हिमालय पे मेरा देश का झंडा लगा देना । इस प्रकार एक दम दो लेवल, तबते व्यावत हैं । एक जो कि आत्म साक्षातकारी हे, आत्मा के प्रकाश में अपने को सारी चीजों की ओर दृष्ट डालते वव्त एक व्यापकता से देखते हैं और दूसरी बात कि उनमें यह कभी धारणा नहीं होता कोई वेशक उन्हें मार भी कि यह कार्य करने से मेरा नाम बढ जाए, या मेरा यशगान लोग करें । करें, यो कभी भी इस चीज का बुरा नहीं मानते। जैसे की आप देख डाले, सताये, छले, या बुराई सकते हैं इसामसीह को सूली पे चढाया गया । सूली पे चढने के ववत उन्होंने एक प्रार्थना की कि है जगदीश ये लोग जानते नहीं कि ये लोग क्या गलती कर रहे हैं कि इनको तुम माफ कर दो । तो ऐसा जो आत्म साक्षातकारी होता है वो निसफल होता है । उसके अन्दर किसी चीज की हवचाव नहीं रहती। यह चीज होना ही चांहिए् । । वो संकल्प नहीं करता हो जाएगा तो अच्छा , यह बनना ही चाहिए और नहीं हो जाएगा तो भी अच्छा और जब वो किसी यश और जय को स्मरण नहीं करता है, उसका । तो उसको सुख और दुख का चक्कर आता नहीं । सुख और समान हो जाएगा । कोई दुख आया तो उसे भी देख सा है, सुख आया उसे भी देख सकता है और अपेक्षा ही नहीं करता है। दुख में बो 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-17.txt 17 खुद वो स्वंय आनन्द में किमोर है ब्यूक आत्मा वो समझता है कि वो रात और दिन का मामला है । चीज की लालसा नहीं करता और होती ही नहीं। उसको कभी आनन्द का ही त है । वो किसी भी भी अपने मन को इंक्न्ट्रोल काबू में नहीं लाना पड़ता । कहते हैं अपने मन व इनद्रियों को बाबू कारए। नहीं होत, कि ये चीज मुझे चांहए ही और वो पूरा काबू में आ जाती है । कोई उसके लिए प्राण लगा रहे हैं । लोग हैं कि कोई न चाज के प्रलोबन में इस तरह से लैडते हैं कि जैसे कि उनके लिए वो ही सब कुछ जिन्दगी है और जब वो चीज मिल जाती हैं उसके बाद फिर दूसरे चीज के लिए दोडने लग जाते हैं । वो सोचते हैं कि मेरे जिन्दगी का सब Temntation अगर वे नहीं मिलती है तो फिर उनको इतना दख होता है कि कुछ खत्म हो चुका । फिर ऐसा मनुष्य है, इसके चित्त में ये शक्त होती है कि उसका का जा चित्त होता वो बहुतकार और हर चीज को जानता हुआ चलता है। चित्त जहाँ मी पहुँच जाए, वो चित्त स्वंय ही कार्यान्वत हो जाता है । अब चित्त जो है ब्रम्हदेव की देन है । लेकिन जब ब्रम्ह देव या ब्रम्हदेव का सिर्फ ब्रम्ह डी रह जाता है तो ऐसा चित्त इतना प्रभाव-शाली होता है, इतना प्रेममय होता है, इतना सूझबूझ वाला होता है और इतना होशयार होता है कि वो अपने कार्य को बड़े ही सुगम तरीके से कर लेता है। मतलब ये कि ऐसे आदमी का चित्त परम चैतन्य से एकाकारिता प्राप्त कर लेता है और जब ये हो गया नो परम चैतन्य तो सारे कार्य को करता ही रहता है । तो जितने भी कर्म है दुनिया के वो सिर्फ ये ब्रम्ह शांवत, ये परम चैतन्य करती है और ये जो कर्म मनुष्य कर रहा है वो उस वदत ये नहीं सोचता है वो तो यही सोचता है कि हो रहा उसको इसकी अनुभूति ही नहीं होती कि मैं कर रहा हूँ । । यह घटित हो रहा है । बन रहा है । । अर्कम में जिसको कहते हैं उतरना क्यूक परम् चैतन्य ही र सारे कार्य कर रहे हैं तो में एक माध्यम बीच में हूँ । नहीं तो मनष्य कहता है कि मैं सारे कार्य करता हूँ परमात्मा पर छोड़ दे । पर छोड़ नहीं सकता। आत्मा के प्रकाश से ही यह हो सकता है । सच बात यह है कि परम चैतन्य ही सब कार्य को कर रहा है, बहुत सुगम तरीके से । इतना सुन्दर उनका कौशल है, है कि आश्चर्य में मनुष्य पड जाता है कि किस तरह वो कार्य नियुव्तियाँ करता है। कर्म तो हम नहीं करते । कर्म तो चैतन्य कर और जब मनुष्य श्रदा स्वरूप अपने एक विशाल रहा है । सारा कर्म वे , हम तो सिर्फ किसी मरी हुई चीज को बना सकते हैं जैसे चांदी से गहने। तो सोचते हैं कि बड़ा कुछ बना दिया । हम तो मरे से मरा बनाते हैं । कार्य जो है, परम चैतन्य करता है । और करते हैं- लेकिन सारा जीवन्त ये जों परम चैतन्य की जो हमें देन मिली हुई है और उसवा जो हें अनुभव हुआ है बो सारा आत्म साभात कार से है । वयुक परम चैतन्य जो है वो आद शाक्त है जो कि शिव की इच्छा शोक्त है । उसी का प्रकाश है । इस परम् चैतन्य के आशीवाद से ही आप लोग सारे कर्म करेंगें । जिससे ये आपमें घाटए हो जाए । आप अदुभुत लोग हो सकते हैं । ho 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-18.txt 18 लेकन में यह कर रहा हूँ, यह जब भावना आई, और मैने ये किया और "मै" ये करना चाहता हूं । या कोई जोर जबरदरनी कसी भी चीज की तो इसका मत्तलब ये है कि आत्मा का प्रकाश पूरी तरह से आपये अम्दर अभी नहीं आया है । तो आप अकर्म में आ गये जब आप कोई कार्य ही नहीं कर रहे। जैसे की ये बल्य कहें कि में किजली दे रहा हूँ । तो गलत बात है। आपके अन्दर वही परम चैतन्य कार्य कर रहा है जो लोग आत्म साक्षातकारी है । जिसने आयको वनाया, बढ़ाया आपका शरीर सब चाज जो बरनी है वो उसी परम चैतन्य की कृपा से बनी है। और उसके बाद आज आप जो मनुष्य व बनके भी क्प जो आत्म साक्षातकारी बन गए । तो] पेसे वो भी उस परम चैतत्य का ही आर्शीवाद है मनुष्य में अहंकार केसे आ सकता है । जब वी जानता है कि में कुछ भी नहीं कर सकता । कृष्ण की मुरली ने कहा कि मुझे लोग क्यूं कहते हैं कि में बजती हैं पर मैं तो खेोकली हूँ। सो वो सोललापन जिसको Frelessness: अहंकार राहत कहते हैं पूरी तरह जब हमारे अन्दर स्थापित हो जाता है तब हम सोच सकते हैं कि हमारे अन्दर जो यह विचार धा क हम ये कार्य करते हैं वो कार्य करते ा है कितना दुख दायी था । कितना परेशान करने वाला । क्यक में यह कार्य कर रहा था और "मैने" ये कार्य किया और उस कार्य का कोई "रबड" ही नहीं निकला, इसालए मैं दुखी हो जाता हूँ। मैने मुझे बड़ा यश मिल गया तो और मेरा दिमाग ्राव हो जाता है । किन्तु यह कार्य किया और इसमें मैने यह कार्य नहीं किया । करने वाला परम चैतन्य का सारा कौशल्य है । तो जो हुआ सो ठाक ही है । गर समझे लीजिए हमारा रास्ता कहीं खो गया, हम गलत रास्ते से आ गए । उस समय कोई यह सोच सकता है कि मैं गलत रास्ते से आ गया । बडी गलती हो गई लाकन एक आत्म साक्षातकारी । सोचता है कि यहा से जाना जरूरी होगा इसीलए में जा रहा हूँ । तो उसको दुख नहीं होने वाला उसको आप महलों में रखए वो राजा जैसे रहेगा । और आप उसको जंगलों में राखये तो जंगलों में रह लेंगा। उसको कोई शिकायत होगी कैसे जबाक वो जानता है कि परम चैतन्य ही मुझे इधर से उधर हटा रहा है । उसको मारो या हार पहनाओं दोनों उनके लिए ठीक है । इयक आत्मा जो है वो किसी चीज में चिपकता ही । जब आप किसी चीज में चिपक जाते हैं जैसे क मेरी प्रांतिष्ठा में बड़ा आदमी में छोटा आमी, ऐसा वैसा । तब आपको लगता है कि इन्होंने मेरे साथ ऐसा क्यूँ किया । लेकन असंग में जो आदमी बैठ गया उसको यह महसूस है। नहीं होता वो अपने आत्मा में है तुष्ट रहता है। जब बोलना हे तब बोलता है । नहीं बोलना है तब नहीं बोलता । कसी ने कुछ कह दिया उसे सुन लेता है, गर कुछ जान का बात हुए तो उसे सुन लेता है और अज्ञान की बात होए तो उसे भी सुन लेता हैं । लोगों के बा में उनके दोष न गुण का वर्णन मात्र कर देगा पर यह नहीं कहेगा कि मुझे इनसे नफरत है । दयाक घृणा करना एक पाप है और इसलए उससे कोई पाप ही नहीं हो सकता । जो भी वो करेगा वे पूज्य होगा । समझ लाजए देवी है, यो भूतों को मारती है। नहीं मारे तो पाप फेलेगा । तो दो अपने काम से चूकता नहीं । दयूंक परमु चैतन्य मार रहा है मैं कहाँ मार रहा हैँ । लोकन परम चैतन्य की गवाही देने से पहले उसे एककारिता तो स्थापित होनी चाहए वो वो कोई पाप नहीं। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-19.txt 19 गर आप में यह स्थिति है और आप उस ऊँची दशा पर पहुंच गये कि जहां पर आप परम चैतन्य से बड़े बड़े सन्तो ने इतना बता दिया उसके मुंह एका कारिता प्राप्त हैं उसके लिए आप कह सकते हैं । पर और डरे नहीं । साकेटील केो सत्य बोलने के लिए जहर दिया गया उसको कोई भी प्रलोभन दो, और बो कुछ भी कहो वो जिसे सत्य समझता है वो ही बोलेगा । वयूकि परम चैतन्य सत्य ही बुलबाएगा । उसकी वृद्धि सत्य व असत्य की पहचान जाएगा । कौन सच्चा है कौन झूठा है एक सत्य निष्ठ होगा । दम समझ जाएगी । क्यूंकि उस बुदी पर आत्मा का प्रकाश आ गया वो सुबांद्ध हो जायेगी। एक नजर से वो पहचान सकता है कि कौन कितने-गहरे पानी में है और फिर उसको सब परम चैतन्य ही बता देता है । सो परम चैतन्य का करना धरना और उसका ही सब कुछ पाना है और उसका उपभोग हम हम तो सिर्फ उनकी लीला ही देख ते रहते हैं और गर हम किसी चीज का भोग उठा ही सकते हैं तो उस आत्मा के ही लीला का भोग उठा उसके लाला का, नहीं उठा सकते। उसका उपभोग भी परमात्मा ही उठाते हैं । सकते हैं । अब आध्यात्मक ? जो है वो उस आत्मा के प्रकाश का, उसके कार्य का, , गर जो सरची तरह से इस चीज में समझ लें, उसका साईन्स है सबका एक तरह से विज्ञान है । का जो समझ सकता है कि सारी सृष्ट का विज्ञान ही आत्मा से आता है और जब तक ये विज्ञान हमारे अन्दर नहीं आयेगा तो बाहुय का विज्ञान बिल्कुल ही बेंकार है क्यूकि उसमें बहुत ही थोड़ीसी चीज है विज्ञान की कि वो जड वस्तुओं के बारे में वो आपको समझा देता है । उसमें संतुलन नहीं है । उसमे सामाजिकता नहीं है । उसमें मनुष्यता नहीं है, और उसमें प्रेम नहीं है, उसमें कला नहीं है, उसमें कावता नहीं ह । उसमें आदर नहीं है, है। विज्ञान को समझने के लिए भ मनुष्य को आत्मा को प्रकाश चाहिए । आत्मा के प्रकाश से आप विज्ञान कुछ जो कि मनुष्यी चीज ही नहीं है । एक मशीन जैसी चाज हो जाती 1. के बहुत से छोर खोल सकते हैं, जो अभी तक नहीं खुलें और विज्ञान जाकर उसका पता लगाये । वे जिसने सब कुछ जाना हुआ है उसको जरूरी नहीं कि बो सब कुछ सबको लेकन सब जाना ही हुआ है । जिस ववत मौका आयेगा उस ववत उसे समझाना बताये । क्यूँकि सबको समझना भी तो आना चाहिए । इससे, सहजयोग में भी बहुत से लोग परेशान हो जाते हैं। मेरी में, मेरा भाई इत्याद सहज योग में नहीं । जाने दीजीए । । मेरा बाप सहज योग में नहीं, आप तो हैं न । आप अपने साथ चाहिए । रहिए । जितना मनुष्य अपने साथ आनन्द में रहता है किसी के साथ इतना नहीं रहता क्यूँक सारा कुछ आप ही के अन्दर है । इसलए ये नहीं है उसमें वो नहीं है इसमें, इस तरह की बातें सोचना, फिर यही विचार आता है कि अभी पूरे दा लान हमारे हृदय के ख्ले नही। इसलए हम ऐसा सोचते हैं । जो अब आत्मसाक्षातकारी यही आपके बाप भाई बहन हैं, और इनको तो कोई प्रश्न नहीं। यह प्रश्न उन लोगों को होता है जो अभी भी आधे अन्धकार, आधे प्रकाश में हैं । वो ये सोचते रहते हैं अभी ये मेरा भाई । उसमें फंसा हुडा है, इत्यादि । अपने आप से वो आ जायेगें किसी से जबरदस्ती नहीं हो सकती । इसी तरह का एक आत्म साक्षातकारी नहीं-सेोचता है। वो सब को देखते और आनन्द उठाता है । मनष्य के पागलपन में भी रहता वो आनन्द उठा लेता है और उसके स्थानेपन 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-20.txt 20 में भी वो आनन्द उठा लेता है । कोई गर बैवकूफी की बात करता है तो उसका भी आनन्द उठा लेता है और कोई समझदारी की बात करता है तो उठा लेता है । सब चीज में उसे एक आनन्द का सोप दिखाई देता है कोई मनुष्य अगर विक्षप्तता से रहता है तो कहता है कि यह कैसा एक नाटक है। जब । द्या कोध चढ़ रहा एक आत्म साक्षात्कारी करोधी मनुष्य को देखता है तो उसे वया लगता है, वाह अब तो सिर्फ आज्ञा चक् में धा और अब तो सहस्तार में भी चढ़ हैं। अब तो और भी चढ़ गया । गया। उसको घबराहट नहीं होती । उसमें जो यह दृष्टि है इसकी ये किसी में उलझी हुई दृष्टि नहीं है । जिसे निरंजन दवृष्ट कहें या साक्षी स्वरूप में । वो सारे समाज का इतना सुन्दर चिंतरण कर देता है कि हंसी आ जाती है । यानी गम्भीर से गम्भीर बात में भी आप समझ सकते हैं कि बहुत सी बालें ऐसी हैं जो दिखने को गम्भीर लगती हैं लेकिन उसमें एक तरह का छिपा हुआ बडा संदेश है। बो आत्म साक्षातकारियों को तो फौरन इसकी खबर चली जाएगी परम जो उदवग्नता हमारे चैतन्य में और जो आताताई ये काम करेगा उसको ठिकाना हो जाएगा। वो उद्दूविग्नता भी एक तरह अन्दर आ जाए, से कार्यान्वित होती है । कोई आल्लाहदायी चीज होगी वो तो ठीक ही है लेकन कोई ऐसी भी चीज हो और मनुष्य सोचे ऐसे कार्य क्यूँ हो रहे हैं । ऐसे नहीं होने चाहिए । जिसको देखकर उदर्दवग्नता आए फैरन उसका इलाज हो जाएगा । जब मै रूस पहले बार गई धी तो वहाँ योग का एक सैमिनार होने वाला है । तो हमारे घर में ये कहा गया कि अभी अभी जाके आए हो, तो फिर सिर्फ दो दिन के लिए कहा मुझे वहाँ जाना जरूरी है, बयूँकि वहाँ जो इस्टर्न ब्लाक है उसको जाओगे । क्या फायदा है । मैने तोड़ना क्यूँकि बहाँ इस्टर्न ब्लाक मे सभी आयेगे, और उन में से जो लोग पार हो जायेगे वो जाते ही वहाँ से परम चैतन्य अपना काम कर लेगा । मैं यहाँ सिर्फ पैतालीस मिनट बोली और पन्द्रह मिनट Eeal izat ion दिया और उसके बाद वो लोग अपने देश मे गए और वहाँ ये कार्य हो गया। में सो परम चैतन्य के कार्य के लिए जरूरी है कि आत्म साक्षातकारी लोग हो । ये उनका परम चैतन्य का कार्य आत्मसाक्षातकारी लोगो के इच्छा के अनुसार होता है । गर आपकी इच्छा हो तो वो कार्य हो सकता है । पर आपकी इच्छा मे भी शुद्धता होनी चाहिए । ऐसी इच्छा नही जिसमे आप स्थार्थी हो, या अपने ही बारे मे सोचते है, क्यूंकि ये कार्य आत्मा के ही बल पर होता है और जो आत्मा जो अपना निरन्तर और नित्य, है । इस लिए जो मनुष्य आत्म , निराकार, शिव है, वो बिल्कुल स्वछन्द, निस्फुह साक्षातकारी हो जाता है, उसमे ये सारे ही गुण आ जायेगे । ये गुण अगर आप के अन्दर नही आए जैसे बाहुय से आप में सारे आवरण हो आप राजा हो, आप चाहे कुछ भी हो, अन्दर से आप निसफूह । अन्दर से आप किसी चीज को छिपकते नही । अप्नदर से आप किसी लि है। अन्दर के आप छूटे हुए है को देष नही करते । किसी के लिए आपको लालसा नही होती । ये सारे तो आप ही आप छूट जाने किसी को चाहिए । तो आत्मा का सबसे बड़ा प्रकाश यही है कि आपको कोई प्रयत्न नही करना है । वश मे रखने की जरूरत नही । जैसे आप आत्म साक्षातकार मे ही उतरते जाते है उस प्रकाश मे अपने अंधता दूर ही हो जाते है और ये बडा भारी लाभ है और जिसने इस लाभ को अभी तक प्राप्त नही 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-21.txt 21 किया उसे ये सोचना चाहिए वक अभी हमारा आत्म साक्षातकार पूरी तरह से फलत नही हुआ। अगर ये पूरी तरह से फालत हुआ है तो हमारे जीवन मे हमारे आस पास के समाज मे हमारे सहजयोग के जो आत्मा एक नवीन तरह का मनुष्य तैयार होना चाहिए जो आत्मा स्वरूप है । समाज में हर जगह जब शिवजी का विवाह हुआ तो वो बिल्कुल के प्रकाश से प्लाव्त है । जिसमे शिव का दर्शन होता है । वैसे ही रूप मे गए जैसे रहते थे । इसका अर्थ ये है आपके पास शारीरिक कोई भी व्यग ही पर जब तक आपके आत्मा का प्रकाश आपके अन्दर है, कोई सी भी आपकी शक्ल हो, कैसे भी आप हो, पर अगर आत्मा का प्रकाश हो तो शिव आपको मानते है । वो निसंग है । इसमे हमारा दो अग दिखाई हैं । एक तो हमारा अग कि जो आज हम विष्णु स्वरूप है जो बाहुय में है और अन्दर का अंग जो है बो हमारे शिव है और उसा शव के जैसे हमे निस्प्रह , स्वछंद और निहासवत होना चाहिए । किसी चीज की आसावत हमारे अन्दर नही आ सकती गर हम आत्मा स्वरूप है । फिर बाहूय मे आप श्री कृष्ण हो जाएँ या आप और कोई हो जाए लेकिन अन्दर का जो शिव है वो अपनी जगह स्थित रहेगा। बाह्य का अग जो है वो महत्वपूर्ण अब नही रहा जब कि आप आत्मा स्वरूप हो गए । तब इन सब चीजो श्री पेकनाथ जब दारका गए तो उन्होने एक के लिए आपकी जो भावनाए है बो एक दम बदल जाएगी । कावट पानी से भरकर भेट के तौर से ले गए लेकिन उन्होने देखा कि एक गधा प्यास से मरा जा रहा था । उन्होने उसको अपना पानी पिला दिया । लोगो ने कहा द्या करते हो इतनी दूर पैदल चल के आप पानी भर के लाए, और इस गधे को पानी पिला दिया । तो उन्होने कहा मेरा श्री कृष्ण यहाँ ये जो भाक्त का सूक्ष्म भाव है वो एक आत्म साक्षातकारी ही समझ तक उतर के आया पानी पीने। सकता है । कि बाहूय को देखना कि हम कावड लेके गए, और "हमने" जा के उनको समार्पत किया। हम कौन होते है ? जब "हम" भाव नही रहा और परम चैतन्य ये कार्य कर दिया इस पागल दुनिया मे वो आए किसी ने समझा नही उन्हे और उन्हे परेशानी और तकलीफे दी । दयूकि वो आत्म स्वरूप वो शिव स्वरूप थे । जो ऐसा मनुष्य है वो बाह्य मे कैसा भी रहे उसकी प्रकाशित रहती है । सबसे बड़ी चीज है अबदारी थे, वो शिव मे स्थित थे, ा शिव र्थाति बाहुय मे भभ ी । अवदारी चीज जो है ये शिव की शवत है । इससे इतना उदार हृदय जो है कि शिव ने राक्षसो तक को वरदान दिया । जो वो अपने मे बडा समाधानी होता है और सब चीज को जानते है । इसी प्रकार जो शिव मे स्थित है सब कुछ जानता है । समझता है । कहेगा नहीं । लेकिन वो सब जानता है और सबसे बडी शिव की शॉक्त है प्रेम । निर्वज्य प्रेम-जिसमे कि कोई व्याज नही देना । बहता हुआ। उनकी करूणा की शक्त इतनी जबरदस्त है कि उस करूणा को देखकर के आप भी अचम्भे में पड़ जाऐगे । इसी तरह एक आत्म क साक्षातकारी मनुष्य कर करुणा का भाव बढता है और उसकी जो नशा चढती है वो ऐसी नशा है कि उसकी प्रवर्व्रत्ति ही ऐसी हो जाती है. कि वो अत्यन्त शवत शाली हो जाता अकेले चमजा नही आता । है, उसका भय, या आशकाएं सब खत्म हो जाती है और बहुत ही सुन्दर कार्य को बड़े खूबी से कर नाता है । और कोई चीज समझाता भी इतनी सुन्दर तरह से है । और जैसे कई सहज योगी सीधे 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-22.txt 22 मुँह पर कह देते है कि तुम्हे भूल लग गया, ऐसा नही कहना चाहए । तो अगर किसी का अहंकार भी तोड़ना है तो अगर आप सिर्फ सोच लेगे कि वे अहकारी है तो परम चैतन्य उसकी व्यवस्था कर देगा और उसका अहंकार टूट ही जाएगा । पर सबसे पहले एक आत्म साक्षातकारी मनुष्य को यही सोचना चाहिए कि मैं अब शिव में शरणागत हूँ । मेरी आत्मा में मै शरणागत हूँ और मेरे आत्मा के ही कारण ये परम चैतन्य ये सारा कार्य करने बाला है और इसालए मुझे कोई किसी चीज की चिन्ता नही । मेरा कान बैरी है । कौन मुझे मार सकता है । मैं तो परम में जी रहा हूँ । सारा कार्य ये कर रहा है तो मैं कौन सा कार्य कर रहा हूँ । इस तरह की जब भावना हो जाए तब कहना चाहिए कि हमारे सबको सूब समझते हैं पर इस है । जो हमारी ही सारी शाकत का आधार, जिसे कि हम अन्दर शिव को हमने पहचाना है । हम बाहुय कि अपने शरीर वगैरह शिव को पहचानना चाहए जो हमारे अन्दर हैं, उस शिव को ही हमें मानना चाहिए । सत्त चिल्तानन्द कहते आप सबको आनन्त आशीवाद ।