चैतन्य लहरी खंड 2 गंक १ च 10 1990 हिन्दी आवृत्ति श्री. शिरडी साईनाय श्री. जनक उॐ धर्म স्मलা विश्त श्री. इब्राहिम विश्व श्री. नानक -৬ श्री. मोज मुहम्मद साहब विश्व विश्व নिर्मला निर्मता धर्म श्री. जोराष्ट्रा श्री. सौक्रे टिज श्री. लाओ-से श्री. कनफ्यूशस गुरु को पूजते समय आप अपने अन्तर-निहित गुरु की भी पूजा करते है । अतः गुरु की पूजा करते समय आपके अन्दर के स्वामी की भी पूजा हो जाती है । आप इसका आदर करते हैं, स्तुति करते हैं, जागृत करते हैं, तथा प्रकट करते हैं । श्री माता जी, ( गुरु पूजा) निर्मला धर्म विश्व नमला च्म शर धर्म $13 विश्व निर्मला 1 गुरु पूजा एविगनॉन प्रनैस 8-7-1990 श्रीमाता जी का मापण सहज योग में गुरू पूजा का महत्व अत्यंत भिन्न प्रकार का है। गुरू को पूजते समय आप अपने अन्तर -निहित गुरू की भी का गुरु जागृत हो चुका होता है अतः गुरु की पूजा करते समय आपके न्दर के स्वामी की भी पूजा हो जाती है। आप इसका आदर करते हैं, स्तुति करते हैं, जागृत करते हैं, तथा प्रकट करते हैं । आप इसलिए कर पाते है क्योंकि आपके पूजा करते हैं। ऐसा अन्दर गुरू की सर्वोत्तम विशेषता यह है कि वह आपका साक्षात्कार परमात्मा से करवाता है अर्थात आपके कुंडलिनी को उठाकर वह आपका सम्बन्ध सर्कयापक शकित से स्थापित करता है क्योंकि आपकी गुरू साक्षात आदि-शवित है। अतः करवाते हैं । एक और श्रेष्ठता भी आपको साक्षात्कार देते हुए आप जिज्ञास को परम-चैतन्य से एकाकार का अनुभव तो देते ही हैं आ आप जिज्ञासु का साक्षात्कार आदि शविति से प्राप्त है उसे परम-चैतन्य की स्रोत उस देवी शत्रित से मिलवा भी सकते हैं सहजयोगी होने के कारण क्योंकि आपके अत्दर गुरु है इसलिए आपका उत्तरदायित्व भी बहुत बड़ा है। अपने मंत्रों में हम कहते हैं "श्रीमाता जी, मैं स्वयं का गुरू हूँ" परन्तु इस "में" और "स्वट का गुरू" के मध्य में हमारी उपलब्धि क्या है? मैं कहाँ हुं? में स्वयं का मार्गदर्शन कर सकता हू? क्या है कि मैं पहले अपना और फिर दूसरों का मार्ग दर्शन कर सक? अन्तदर्शन अधथात स्वयं को देखना गुरु तत्व में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। क्या मैं स्वयं का गुरु बन गया मैरा चित्त इतना आत्म-प्रकाशित हूँ? एक स्त्री, एक मां आपकी गुरु है। अतः स्त्रियों में गुरू की विशेषताओं का विकास तथा अभिव्यवित होना अत्यन्त आकश्यक है। परन्तु सित्रयां अभी भी केवल मातायें, पत्नियां तथा सहजयोगनि्याँ मात्र ही हैं । वै ये नही समझती कि वे गुरू भी है। आपकी मर स्त्री है। और एक गुरु भी। अतः आपके अन्दर भी इतनी विशेषताएँ होनी चाहिए कि लोग कहें, इस स्त्री को देखो, यह कितनी अच्छी गुरू है"। अगुआओं से मुझे पता चलता है कि स्त्रियोँ बहुत पीछे हैं और उनमें से बहुत कम को ही वास्तविक सहजयोगिनी कहा जा सकता है। स्त्री सुलभ व्शेमताओं को ईसाई घर्म ने कभी पवित्र नहीं समझा। इस आत्मविश्वास सार की कमी सित्रियों में है जिसके कारण वह यह नहीं समझ पाती कि धर्म अ्दर से स्थापित हो सकता है। यह बाह्य कस्तु नहीं है। समाज में, परिवार में, तथा पारस्परिक सप्बन्धों में धर्म की स्थापना करना गुरू का कार्य है। सभी गुरूओं ने केवल धर्म स्थापना ही की। परन्तु ऐसा करने से पहले न्दर धर्म है या नही? पक धार्मिक हमें स्वयं को देखना है कि हमारे व्यक्िति की प्रथम विशेषता यह है कि वह दूसरों को सुनता है और बात को मानता है। पश्चिमी देशों की रित्रियों की समस्या यह है कि वे दूसरों को शान्ति से सुनना और 2. उनकी बात को मानना भूल चुकी हैं। यही कारण हे कि उनके बच्चे उनकी आज्ञा नही मानते। यदि आज्ञाकारी नहीं है तो कई भी आपकी आज्ञा को नही मानेगा । अतः पहले आप आज्ञा-पालन सीखिये । आप का कोई पता न धा और न ही जो किसी महान व्यकित के कबीर जैसा महान व्यक्षित, जिसकी जाति जा सकता था, अपनी नम्रता के कारण रामदास जी का शिष्य बन गया। लोग आज कबीर पास स्वयं हनि को उनके गुरु से भी अधिक जानते हैं। नम्रता मौलिक गुण है। केवल नम्रता दवारा ही आप आर्शीवाद तथा अपने गुरू के गुण भी प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं मेरे बिम्ब के रूप में पक गुरु को विकसित होना है सर्वप्रथम आपका जीवन पूर्णत: स्कछ होना चाहिए। स्वच्छता सहजयोग का सार है सबको पता होना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं, कहाँ रहते हैं, और किस तरह से बर्ताव करते हैं । वो लोग जो गुरू हैं, जिन्हें जा रहे हैं, आप किस तरह हम नेता भी कहते हैं, वे प्रायः बहुत ही बतंगण में सोचते हैं। उन्हें सदा यह शिकायत होती है कि उनकी देखभाल किसी ने नही की। जैसे वे अत्याचार भावना ग्रस्त हों। कभी वह शिकायत करेगें कि उन्होंने एक दिन सखाना ही नही खाया। नहीं स्ाया तो कोई बात नही। भूख के विचार से ऊपर उठने के लिये आक्श्यक है कि एक गुरू तीन-चार दिन तक स्वयं को भूखा रखें। गुरू अधिक हैं कि आपको कुछ भी साने की इच्छा नहीं होती। यदि अगुआ लोग भी ाने के विचार से ग्रसित होंगे तो सहजयोग में वे पर्यटकें की तरह से होंगे यह गुरु तत्व की अभिव्यकित नहीं है। आपने अपनी गुरू को वास्तविकता में देखा है। मैं नही जानती मैं क्या खाती हूं, वे मुझे क्या देते है, मेरी इच्छा क्या है। वे जो ठीक समझते है मुझे देते रहते हैं । कोई सूचि नहीं होनी चाहिए सचयों पर चित्त लोग हैं। सदा अपने शरीर के विमय को कोई भूख नहीं होती क्योंकि भूल का सम्बन्ध पेट से हैं और लहरियाँ इतनी चाहिए, भौतिक क्तुर्ं नही । आपकी हर सचि का आधार लहीरियाँ होनी को व्यर्थ नहीं करना चाहिए। किसी किशेष प्रकार के स्वाने पर आपका रूझान नहीं होना चाहिए। स्वाद खाने की लत भी एक व्यसन है। जेन ने चाय की किया शुरू की, इस किया में वे बड़ी रस्म है। बिना किसी विचार के वे आपके रूप की और देखने को कहते है और रूप के माध्यम से निर्र्वचार कडवी चाय पीने को देते। यह एक महान समाधि पाने का प्रयत्न करते हैं। एक बार जब आप ये चाय पीते हैं तो, आपका स्वाद बिगड़ जाता है। इसे ठीक करने के लिए वे कुछ मीठी क्तु देते हैं जो कि इतनी अधिक मीठी होती है कि कड्वी लगती है। यह सब जिव्हा को जीतने के लिए किया जाता है। यह जिव्हा को इतने अटके देती है कि पश्चात आप हर तरह का खाना खा सकते हैं। यही कारण है कि जापानी हर चीज स्वा पाते इसके हैं। खाने के विमय में भारतीय सबसे अधिक विगड़े हुए लोग हैं क्योंकि उनकी सित्रियों ने उन्हें अच्छे व्यंजन सखिला कर बिगाड़ रखा है। जिव्हा का स्वाद उनके लिए एक बहुत बडा बंधन है। स्वाद से मुत्त पाने के लिए गांधी जी लोगों को उवले हुए खानों पर सरसें का तेल डाल कर दिया करते थे । गन्ध संवेदना से छुटकारा पाने के लिए गांधी जी लोगों से पालाने साफ करवाया करते थे। लोग होटलों में जाकर पौना घंटा केवल यह निर्णय करने के लिए व्यर्थ कर देते हैं कि चाँच क्या खायें। इस प्रकार के विचार यह प्रश्न कोई न पूछे, मुझसे भी नहीं। क्योकि मुझे इसके विमय मैं साचना पड़ता है। और में तौ निर्विचार रहना चाहती हूँ। खाने त्यागना सहजयोगियों के लिए अत्यंत आवश्यक है। "आप क्या खांयेगे" 3. से हम कितने लिप्त हैं हमें पता होना चाहिए। यह खाना पऐट में जाकर हमारे शारीरिक और गुरू व्यक्स्थ को विगाडता है। यहीं कारण है कि गुरु तत्व को विकसित करने के लिए लोगों को व्रत करने की सला दी जाती थी। व्रत का अभिप्राय है क खाने या व्रत के विषय में सोचना छोड़कर निर्विचार हो जाना। परन लोग ब्रत में केवल खाने के विषय में ही सोचते रहते हैं। इस प्रकार का कोई अभिप्राय ही नहीं रह जाता क्योंकि मानसिक रूप से आप खाते ही रहते हैं । आप यही सोचने हो और कब में खाऊँ। हमें अपनी आदतों और बंधनों से छुटकारा पाना चाहिए। में लगे रहते हैं कि क्व व्रत समाप बच्चों को भी इसका प्रशिक्षण ठीक प्रकार से देना चाहिए। उन्हें नमक या चीनी की परवाह नई होनी चाहिए। सहजयोगी जो कई दिनों तक भूखे रह सकते हैं उनके लए कुछ आकश्यक नहीं। ख्वाने क स्वाद या भूख नाम की चीज सहजयोगियों के लिए नहीं है। उनके लिए केवल पक ही भूख है पवित्र होने की भूष, स्कछ होने की भूख। हर समय खाने के विषय में सोचते रहना। हमारे मह्तिष यह को अस्कछ कर देता है। स्वाद से छुटकारा पाने का प्रयोग आपको करना है। जब तक हम अनतर्दर्शन नहं करते और स्वयं पर प्रयोग नही करते तब तक हमें बंधनों से छट कारा नहीं मिलता। यद्यप कुण्डलिर्न भरसक प्रयत्न कर रही हैं फिर भी इतने अधिक बंधनों के होते हुए वह आपको गुरू नहीं बना पाती सभी साक्षात्कारी गुरू विवाहित थे। उनके बच्चे थे और उन्होंने सामान्य जीवन व्यतीत किया। परन् व्यकव्तितगत जीवन में वे पूर्णतयः निलिप्त थे। पहली नि्लिप्तता खाने से होनी चाहिए। जो भी आपको पसन्न हो वो खाना मत ख्ाईये। यदि आप स्वयं के गुरू है तो अपने शरीर और बंधनों पर काबू पाईये। अपने शरीर का आदर कीजिए और इसे, सब प्रकार का खाना खाने की आदत डालिये। यदि आप इस छोटी से आदत से छुट कारा नहीं पा सकते तो आप सहजयोगी नहीं कहला सकते । होता है । संतुष्ट आत्मा गुरू तत्व की एवं हैं। गुरु सदा आत्म-किभोर शरीर की दूसरी विशेषता यह है कि यह सुख-सुविधाएँ चाहता है। किसी भी जीवन स्तर के रहे हो, बिना किसी सख सुविधा की मांग किये भारत भ्रमण के समय आत्मानन्द में किभोर रहते हैं । वे क्भी कुर्सी या बिस्तर की मांग नही करते। भारत के सहजयोगियों को उनसे बहुत कुछ सीखना है। आप महसूस तो सो ही जायेगा। पश्चिमी सहजयोगी चाहे वह करेंगे कि शारीरिक सु्वों को कोई महत्व नहीं है। किसी भी तरह से शरीर तीसरी बात भौतिक दृष्टिकोण तथा भौतिक पदार्थो के लिए चंचल दृष्टि है। सहजयोगियों की दृष्टि बड़ी स्कछ होनी चाहिए। कामुकता और लालच अन्य बाधार्ए हैं। सहजयोग में कामुकता तो समाप्त हो जाती है परन्तु लालच में लोग फैस जाते हैं। भारतीय लोगों की यह व्शेष समस्या है। लोगों का भौतिक पदार्थों की ओर बड़ा लगाव है क्स्तु के विकय मूल्य पर उनका सदा पाश्चात्य र ध्यान होता है। पुरा -वस्तुओं :ऐे्टीक का उन्हें व्यसन है। भारतीय लोगों को तो समझ नहीं आता कि पश्चिमी लोग इन टूटी-फूटी, सड्डी-गली क्र्तुओं के दीवाने क्यों हैं। एक भारतीय लेखक ने एक बार लिखखा कि बनारस की सड़क पर दो अंग्रेज जा रहे थे और उनके पैरों पर आकर एक पीतल का लोटा गिरा जिससे उन्हें चौट भी लगी। वै बहुत बिगड़े। परन्तु लोटा गिराने वाले भारतीय नै उन्हें बताया कि यह लौटा बहुत मूल्यवान है क्योंकि महाराज अक्बर ने इसका प्रयोग किया था। अंग्रेज इस बात से बहुत प्रभावित हुए और उनसे कहने लगे, कि हम तुम्हें माफ कर देगें अगर यह लोटा हमें ।000 रूपये में दे दो। उस भारतीय ने कहा धा। अतः पुरा- क्स्तुओं के लिए पागलपन हमें त्याग देना अपनी जान बचाने के लिए उनसे पेसा चाहिए। और पुरा क्स्तुओं के पीछे भागने की जगह हमें प्राचीन कला को बढ़ावा देना चाहिए। किसी भी सम्मान उसके आन्तरिक मूल्य तथा सैन्दर्य के लिए ही होना चाहिए। हमें किसी भी कस्तु को क्तु का स्वीकार करने के लिए लहरियों से परसखना चाहिए क्योंकि हम लहरियों की भाषा ही जानते हैं और हमें उसका प्रयोग करना चाहिए। उसके प्रयोग से हम जान जायेंगे कि हमें क्या करना है। सहजयोगियों का यह सोचना कि वे बीमार है बहुत ही बुरा है क्योंकि इससे सहजयोग का नाम बदनाम होता है। यदि अब भी आप सोचते है कि आप बीमार ैं, तो आप सहजयोग से बाहर चले जाईये। या तो आप स्वयं को ठीक कर लीजिए नहीं तो आप सहजयोगी नहीं है। फिर भी छोटी-छोटी समस्याओं की परवाह मतः कीजिये। उदाडरण के रूप में आदि-शकित होते हुए भी में बिना चिन्ता किये कई शारीरिक तथा अन्य समस्याओं का सामना करती हूँ। शरीर जैसा है वैसे ही उसे स्वीकार करना है स्वास्थ्य के विषय में शिकायतें नहीं करनी है। कभी मत सोचों कि आप वृद्ध है या बेकार हैं। अपनी मौँ को देखों। मैं ऐसा नहीं सोचती। अतः यदि आपका कोई गुरु है तो उसका बिम्ब आपके अन्दर होना चाहिए। अपनी मां को देखों, वह कितनी वृढ हैं, कितनी अधिक यात्रा करती हैं और कितना अधिक कार्य वह करती हैं। " आप कह सकते हैं कि वे आदि-शव्ति हैं। का प्रदर्शन आपकी गतिशीलता से होना चाहिए यदि आपमें गतिशीलता नहीं है और यदि आप अब भी स्वयं को दुर्बल पाते हैं तो आप सहजयोगी नही हैं। जो भी आप मांगते हे आपको मिल जाता है। जवानी की मूर्खता रहित । परन्तु उनकी धोड़ी सी शक्ित तो आपके ऊन्दर भी है, इस शक्तित परन्तु आयु की गम्भीरता के साध आप दिन-प्रतिदिन जवान होते जा रहे हैं जन्म से सक्षात्कारी बच्चे बहुत महान होते हैं वे कोई भी गौरवहीन बात नहीं करते और न ही व्यर्थ बोलते है। केवल साड़ियाँ पहनने और बिन्दी लगाने मात्र से आप सहज्योगी आपके जन्म से साक्षात्कारी आत्मार्प बहुत कम बोलती हैं। परन्तु जो भी बोलती हैं परन्तु जो भी बोलती हैं बहुत सुन्दर होता है वे बहुत ही आज्ञाकारी होती है। कया हम भी उनके गुरूतत्व की तरह कार्यरत है? या हमारी गतिविधियाँ उत्थान विरोधी हैं? सहज में आकर भी यदि आप अन्तर्दर्शन नहीं करते तो आप स्वयं की गुरू से तुलना करने वाली बात भूल गये हैं। हम सहजयोगी हैं। सहजयोगी की गरिमा को सामने रखते हुए हमें सब कुछ समझना है। एक जाते। नहीं बन अन्दर गम्भीरता कहां है? केवल आकश्यक बातचीत कीजिए। सहजयोगी को सर्वप्रथम दूसरों के प्रति प्रेम होना चाहिए। यदि आप सदा अपने लिए ही चिन्तित रहते हैं तो आप दूसरों को प्रेम नहीं करते। क्या आप दूसरों के लिए आराम खोजते है? क्या आप दूसरे सहजयोगियों के प्रति करूणामय हैं? क्या आप कठिनाई सहकर भी, उनकी सहायता करते हैं? बहुत से सहजयोगी, सहजयोग से बाहर के लोगों की तरफदारी करके सहजयोगियों का अपमान करते हैं । आप इस नई जाति से सम्बन्धित हैं। सहजयोगी की सहायता करना आपका कर्तव्य है। क्योंकि आपका सिर भी वही है और हाथ भी। उसमें पहले आप हर प्रकार से सहजयोगी की मदद कीजिए और फिर कौई कमी भी हो तो चिन्ता न कीजप। उसे सुधारने का प्रयत्न। यह गौरव तथा सूझ-बुझ केवल मौन से आती है। हर कात बोलते रहना आपको गहन नहीं होने देगा। र्त्रियों के लिए मौन रहना बहुत अच्छा है। अगुआा लोगों ने मुझे बताया है कि रित्रियों के साथ यह बहुत बड़ी समस्या है। परन्तु यदि उन्हें मंच पर आकर बोलने को कहा जाए तो वह कांपने लगेगी कितने वे या तो बोलती रहती हैं या अफवाहें फैलाती रहती हैं । लोग भाषण दे सकते हैं ? याद रखो यदि देने की योग्यता आप में नहीं है तो आप ज्यादा बोलिये भी नही। आपकी मां एक स्त्री हैं और भाषण वह भाषण देती है। भाषण देने की यह योग्यता आप में भी होनी चाहिये। आपकी गुरु होने के नाते मैं आपको बताती हैं कि आपने उत्थान को पाना है अत: व्यर्थ बोलना बंद कर दीजिये "मौनम सर्वधा साधनम" शन्त रहियें। यदि कोई व्यक्ति ज्यादा बोल रहा हो तो चुप रहिये। यदि कोई आलोचना कर रहा है तो भी शान्त रहिये। यदि कोई आकमण कर रहा है तो भी शान्त रहिये। यह शान्ति हर हाल में चुम रहने से ही स्थापित हो सकेगी। चर्च में जाकर लोग इस प्रकार का अनुशासन दिखाते हैं परन्तु वह बनाकटी होता भ है। जिस जगह पर आप अब हैं? वहाँ इस तघा डर होना चाहिए। गुरु तत्व प्रकार का मोन सूझ-बूझ के विकसित न होने के कारण यह शान्ति हममें नहीं है। जब आपका गुरु तत्व विकसित हो जायेगा तब आपके आचरण में आपकी गम्भीरता छलक पडेगी। सहजयोग में विवाह का कोई अधिक महत्व नहीं। कुछ लोगों का चित्त बहुत अधिक विवाह पर होने के कारण विवाह सिरदर्द बन जाता है। आप लोग सहजयोग में आये हैं, आप सन्यासी हैं। आप केवल सहज़योग से विवाहित हैं। कहने मात्र को पति-पत्नि तो है परन्तु यदि आप सहजयोगी नहीं हैं - सब बेकार है । सहजयोग से पहले विवाह एक हास्य मात्र धा। हर तीसरे दिन तलाक हो जाता था| सहजयोग में आकर जब आप विवाहित हुए तो की कि ये कैसे लोग है कि जिनमें लज्जा ही नहीं। विवाहित जीवन में सन्यासियों का त्याग तथा महानता अति भावुक लोग बन गये। यहाँ तक के भारत के गांवों में लोगों ने शिकायत प्रक्ट होनी चाहिए। पति-पत्नि के सम्क्ध गोपनीय हैं। यदि आप जन - साधारण में रोमांस करने लमेंगे तो पूरे सहजयोग को हानि पहुंचायेंगे। पश्चिम में कहते है प्रेम में पडना "फाल इन लव" तो फिर आप गिरेंगे, उठेगें नही। पति के साथ मोह और उसकी चिन्ता व्यर्थ है। आपको साक्षी भाव से पति या पत्नी की अक्स्था को देखना है। विवाह के फारन बाद लोग अपने पुराने संस्कारों के कारण मधुमास की व्यक्स्था करते हैं और इसके तुरन्त बाद आकर कहते हैं "माँ" यह विवाह नहीं निभेगा"। मन्द-2 चलकर आप कोई निर्णय लीजिये। भारतीयों से आप लन्जा भाव सीखिये। जन साधारण में पति-पत्नि कभी इक्टठे नहीं बैठते इसे बुरा समझा जाता है। जन साधारण में अपने सम्बन्ध दर्शाने की आवश्यकता ही क्या है? सार्वजनिक स्थानों पर पुरुष पुरुषों में रहें तथा स्त्रियाँ, रित्रियों में । ईर्र्या भाव तथा सत्ता लोलुपता की भावना के कारण पुरुम नेतागिरी के बारे में चर्चा करते रहते हैं। अपने नेता न बनने की बात सुनकर उन्हें बहुत ठेस पहुंचती है। वे समझतें है कि नेतागिरी कोई ठोस उपलब्धि है। यह व्यर्थ की बात है सहजयोग में नेता नाम की कोई चीज नही है। यह केवल एक ठो मजाक है और आपकी माँ संजीदा मजाक करने वाली है। अत : सावधान रहिये। यह एक परीक्षा है। उस स्तर पर मैं आपकी यरीक्षा लेती हैं। तथा मुझे पता लग जाता है कि कब व्यक्ति अहंम के घोड़े पर सवार द हो गया है अतः हमारा मानसिक दृष्टिकोण मिन्न होना चाहिए तथा हमारी प्राथामिकताओं में भी परिवर्तन तर आना चाहिए। 6. अपने पूरे हमारा उत्थान हमारी पहली प्रार्धामिकता है। उत्थान के लिए यदि आवश्यक हो तो और किसी बंधन में यदि आप बंधे हैं तो उससे छुटकारा पाईये। स्वयं का अन्तर- शरीर को दौडत कीजिये दर्शन कीजिये। स्वयं को जानने के लिए ही आत्म साक्षात्कार है जब आप स्वयं को जान जायेगे तो मन,बुद्धि तथा अहंकार आप को अपने बंधनों का पता चल जायेगा तथा आप उनसे छुटकारा पा सकेगें। आपके दास होने चाहिए। आपके पास साक्षात्कारी होने के बहुत से प्रमाण है। मेरे सामने बैठकर यदि आप प्रकाश-पुण्ज बन जाते है तेो उस प्रकाश को आगे फैलायें। जब आप यह अनुभव करेंगे कि मर्मा मेरे विषय में बात कर रही है, मुझे बता रही है, मुझे सुधार रही है, तब आप अपने अन्दर उतर सकेंगे। सर्कयापक शकित हमारी देखभाल कर रही है। यह क्श्वास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संगीतकारों हंगरी को रेल पर मास्को से मिलान आने को कहा गया। हंगरी का वीजा उनके पास न होने के कारण, ये प्लेटफार्म पर बैठे थे । वीज़ा न होने के कारण उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। वहां की भाषा भी वे न जानते धे और रूपये भी उनके पास बहुत कम थे। इस अक्स्था में भी वे हँस रहे थे और आनन्द ले रहे थे । कितने समर्पित थे वे स आभास तक उन्हें न था। तभी कसटम् के लोगों ने उनसे पूछताछ शुरू कर प्रेम की सीमा पर उन्हें रेल से उतार दिया गया। कि अपनी समस्या का दी। बातचीत के मध्य ही संगीतकारों ने कसटम् अधिकारियों को साक्षात्कार दे दिया। क्या शकित पर विश्वास कर सकते हैं । कसट म अधिकारियों ने सीमा पार ले जाने के लिए अपनी गाड़िया उन्हें दे दी। तभी एक खाली बस आ गई जिसमें दो युगोसलीवयन धे। इ्वाईवर ने उनकी समस्या के विषय की आप प्राप्त हो गया तब वह इाईवर उन्हें मिलान आश्रम तक छोड़ गया। विश्वास होना में पूछा और उसे भी साक्षात्कार अतः आपको अपने में तथा परम-शक्रित में, जो कि आपको चारों ओर से घेरे हुए है, पूरा एक बार जब यह किश्वास आपमें आ जायेगा तो आप यह अनुभव करेगें कि यह शक्तित आप दयालु है और आपकी कितनी सहायक। परन्तु यादि आप इसका अपमान करेंगें तो यह बहुत मत सुनो। यदि कोई आपके गुरु की निन्दा चाहिए। पर ही हानिकारक भी हो सकती है। अतः कभी गुरू निन्दा करता है तो कान्नों पर हाथ रखकर सुनने से इन्कार कर दो। भौतिकतावादी लोग यदि धनार्जन की बातें करें तो आप उन्हें बताये कि यदि मां को धन कमाना होता तो वह केंसर के रोगियों तथा अन्य रोगियों को ठीक करके कमा लेती। वे तो एक पेसा भी नहीं लेती। उनका बहुत बड़ा घर तो उनके के लिए है। सहजयोगियों में अभी उस आत्मक्श्वास की कमी है । लिए न होकर सहजयोगियों के रहने जब भी कोई आपके गुरू के जिससे की वह आकश्यकता पडूने पर दावे के साथ अपनी बात कह सके। विरूढ्ध कोई बात कहें तो आपको प्रभावूर्ण ढंग से उसका विरोध करना है । आध्यात्मिकता के प्रति अपनी संवदिनता को हमें देखना है कुछ सहजयोगी नकारी व्यक्तियों का है तो उसका क्या लाभ। एक अच्छा सहजयोगी जिसमें साथ देते हैं। आप का कम्प्यूटर ही यदि खराब लहरियाँ हैं किसी भी साधारण, निरहँकारी गरीब तथा अशिक्षित व्यक्ति की लहरियों पर देख कर निर्णय लेता है। क्या आप किसी व्यक्िति को उसकी मीठी बातों और उसके पांडित्य से देखते हैं? आप उसे लहरियों । सहजयोगी है। अगुआ लोगों को भी मैने बहुत बार नकारी लोगों का पक्ष लेते हुए पाया है वे मुझे बतायेंगे कि अमुक व्यक्िति बहुत जो भी व्यक्षित दूसरें को उनकी लहौरियों से परखता है वह से देखें अचछा है। क्योंकि उसने इतना धन सहज को दिया है। धन दिया है तो क्या? 7. बहुत से गुरू स्वयं की पकड़ू में होते हैं उनकी जाता है। वे बहुत ही उग्र स्क्भाव के हो जाते हैं। क गुरु को सर्वप्रधम बहुत ही मधुर, कोम तथा अच्छा होना है। उसे कभी कुछ नहीं मंगना चाहिए। सम्मान जीता जाता है मांगा नही जात उच्च आकांक्षाओं के कारण उनका अहंम ब उत्थान हो जाता है आप बुद्धिमान हो जाते हैं, अपनी चेतना तथा आत्मा एक बार जब आपका आ जाते हैं तो सब कुछ ठीक हो जाता है। आपको कोई चीज मांगनी नहीं पडुती किसी बात की शिकाय आप नहीं करते, आदि शक्रित के सभी गुण आपके लिए कार्य करते हैं तथा आपकी देखभाल भी करते हैं परन्तु यदि आप अधकचरे हैं तेो ये गुण आपके साध शरारत करते हैं। वे आपको विचलित करते आप इधर-उधर दौडते हैं। गण मजाकिये भी है और आपके साथ मजाक भी करते हैं और आपके लि समस्याए भी स्ड़ी करते हैं। हमें यह समझना है कि हम यहां विश्व की मुकित के लिये हैं। मुझे आश है कि आप अपना उत्तरदायित्व समझते है, किस तरह कार्य करना है और इसे किस तरह सफल बनाना है। हैं। जान लीजिये कि पक गुरू के रूप में तुम्हें कैसा होन गुरू बनने के लिए आपमें परिपव्वता होनी चाहिए। मेरे साथ बड़ी सावधानी से व्यवहार कीजिये बहुत साधारण होते हुए भी मैं महामाया हूँ। मेरे साथ आप धृष्टता नहीं कर सकते। करने का तात्पर्य यह है कि आप शिष्य नही हैं। एक शिष्य को गुरू से अन्तर रखना पड़ता है। मेरे साथ धृष्टर जी चाहें मेरे कमरे में आकर घंटो बैठकर तुम मुझसे गपशप नहीं कर सकते। उसका अधिकार तु नहीं है। ु पर अपनी इच्छा मत लादिये, ऐसा नहीं हो मेरे बुलाने पर ही तुम्हें आना चाहिए । गुरु चाहिए। हर चीज सुरूपष्ट होनी चाहिए एक दूसरे को भली-भाँति से जानना चाहिए। एक दूसरे के प्रा ईष्ष्या गुर्ओं को नही सुहाती। एक दूसरे की संगति का पूरा आनन्द आप एक दूसरे की अधिक सराहना कीजिए| तब आप गुरूतत्व तक पहुँच स्केंगे गुरू कभी एक दूस से नही लडे। उन्होंने एक दूसरे की बार हुआ केवल राक्षसी प्रवृत्ति के लोग ही साक्षात्कारी लोगों तथा अवतारों के विरूद्ध बोलते हैं। लीजिये और दूसरे लोगों की अपेक सहायता की। वास्तव में एक ही तत्व गुरू तत्व का जन्म बार हम सब एक विमान पर सवार हैं। [और हमें एक बहुत ही सुन्दर क्षेत्र पर उतरना है पर- इससे पहले हमें पूर्ण नम्रता तथा सर्मपण अपने अन्दर विकसित करने होगें। और सर्मपण आपके हृदय में नहीं होंगें तब तक आपका गुरू तत्व जागृत नहीं हो सकता। शिष्य बनव जब नम्रत तक यह ही आप गुरू बनेंगे। मुझसे प्रेम करने से तथा मेरा सम्मान करने से यह नम्रता बड़ी सुगमता से है। में आ जाती ह परमात्मा आपको धन्य करें। उत्तरी अमेरिका राष्ट्रीय पूजा सारश सैनडियागो, मई 28, 1990 ब्रहमाड के नक्शे में अमेरिका विशुद्दी चक है। अतः अध्यात्मिकता के क्षेत्र में यह देश बहुत जर्मनी में हैँसा चक पूजा हुई जिसके लस्वरूप जर्मन लोगों का विवेक विकसित हुआ और उन्हें अपनी पहली की हुई गलांतयों का अहसास हुआ। हित्वपूर्ण है। हँसा चक व्शुद्धी चक का महत्वपूर्ण सहायक चक है। रूस में जाकर साक्षात्कार देने वाले वे पहले लोग धे और बरलिन की दीवार को तोड़कर उन्होंने वीं जर्मनी के लोगों का स्वागत किया। कठिनाईयों, डर और बलिदान के कारण पूर्वी खंड के लोगों का विवेक विकसित हो गया है। रन्तु अमेरिकन लोगों के पास "दैवी विवेक" नहीं है। वैभव ने उन्हें इतना बिगाड़ दिया है कि वे धर्म- धर्म में भेद नही कर सकते। यह जानकर आश्चर्य होता है कि उस आतंक और भय के वातावरण में वहाँ यह ज्ञान उन देशों से कही अधिक बड् पाया जिनमें कैभव तथा जीवन की सुख-सुविधा कहीं अधिक । श्री कृष्ण ने पांडवों की सहायता इसलिए की क्योंकि वे धार्मिक थे, परन्तु अमेरिका सदा दूसरे देशों सरकार जैसी अनुचित चीजों की सहायता करता है। लोगों में देवी विवेक की कमी को जान से तानाशाही र ही कुगुरू इस देश में आ बसे। " लोगों के लिए" होता है अब लुप्त हो गया है। सरकार अब्राहम लिंकन का प्रजातन्त्र जो कि केवल अपने स्वार्थ को देखते हैं। बदमाश तथा धोखेबाज चुनावों में सफल हुए तथा हर देश के नेता धनलोलुप बन गये केवल साक्षात्कार के बाद ही था जनता अब ह प्रवृति पूरे किश्व में फैल गई। जातंत्र सफल हो सकता है। बिना सामूहिकता की भावना के आप उदारता के सुन्दर गुण का आनन्द नहीं प्ति कर सकते। अमेरिका में सहजयोग को फैलाने के लिए आव्श्यक है कि यहां के सहजयोगी अपनी गहनता बढ़ाये तभी वे, सहजयोग को तेजी से बढ़ा पायेंगें ऐसा करने में यदि वे असफल होते हैं तो वे उत्तरदायी गि। हंगरी का एक सहजयोगी उस देश को स्वतंत्र कराने के लिए पर्याप्त रहा। सहजयोगियों को यह मिझना हे कि वे आधार है अतः उन्हें बहुत गहन, विवेकपूर्ण तथा वक्शाल हृदृय होना है अब भी के पने भूतकाल से तथा अपने आकामक संस्कारों से चिपके हुए हैं दूसरोंे से प्रेम तथा करूणा आपका स्क्भाव ना चाहिए क्योंकि आपकी आत्मा भी प्रेम तथाकरूणा ही है आत्मा प्रेम करती है तथा प्रेम के आदान- दान का आनन्द लेती है। अपनी आत्मा की अभव्यवित के लिए हमें इसके स्वभाव को समझना है तथा सच्चे आत्मदर्शन आत्म-विरोधी संस्कारों से छुट कारा पाना है जब गहनता बुती है तो दैवी शवित का संचार होता है र बहुत सुखद अनुभव होता है। दैवी शविति को संचीरित होने के लिए एक पूर्णतया स्क्छ अहम् तथा का धन विहीन माध्यम की आवश्यकता होती है। पड विश्व के किसी अ्य कौने में अमेरका जैसी बहुत सी समस्याएँ नही हैं। सहजयोग को फैला की चिन्ता को लेकर युद्ध स्तर पर निकल पड़ना ही केवल एकमात्र हल है। सामूहिकता के दारा सहजयोगियं के र्तर को सुधारना आवश्यक है। अमेरिका विशुद्धीचक का स्थान है और यह चक सामूहिकता की अभिव्याव प है। दैवी विवेक, एक दूसरा महत्वपूर्ण गुण जिसकी अभिव्यविति अमेरिका में होनी चाहिए और जो स्पर् सब कुछ देखता है, को स्क्छ करने के लिए हमें सामूहिकता में सच्चा ध्यान करना चाहिए ध्या स्प में केवल फोटोग्राफ के सामने वैठना ही नहीं परन्तु पेसा होना चाहिए जो कार्य कर को कार्यान्वित करके और हर अच्छेি कार्य को चमत्कारिक तो कही कुछ खराबी अवश्यक है। अमेरिकन लोग बाधा विहीन, सुख-सुविधा सम्पूर्ण जीवन के आदी हैं इस तरह का जीवन बड़ा उबाऊ होता है। एक चुनौतीपूर्ण स्थिति नीरसता को सरसता में बदल देती है उदाहरण के रूप में एक छोटे कमरे में इतने अधिक लोग रह रहें हो कि उस कमरे को पार करना य यह परम चैतन रूप से सफल ब ना सके। यादि ऐसा नहीं होत वहां स्नान करना एक कठन कार्य हो जाये, बहुत ही रोचक लगता है। बहुत सुख सुविधा चाहने वाले लोगे में सूक्ष्म, दृष्टि नहीं होती। उनके स्कभाव भी भयानक होते हैं। अपनी नीरसता में अमेरिकन लोग विनाशकारी कार्य कर डालते हैं। मैने इतना काम किया और उसने इतना, इस तरह के विचार पति-पत्नि के बीच तलाक और झगड़े की जड़ है। यदि वे एक दूसरे को, प्रसन्न करने के लक्ष्य से कार्य करे तो इसका आनन्द मा? ही उनकी सारी धकान और कष्ट को समाप्त कर देगा। किसी भी उपलब्धि को पाने का सर्वोत्तम तरीक उसे श्री माता जी के चरणों में छोइ़ देना है, क्योंकि जब हम समर्पण कर देते हैं तो दैवी शकवित का संचा हमारे अन्दर होना शुरू हो जाता है। यह संदेश मुहम्मद साहब का धा तथा श्री कृष्ण का भी, जिन्होंने स्पष शब्दों में कहा "सर्व धर्मान् परित्यन्य माम् पकम् शरणम व्रज: और एक बार जब अमेरिका के सहजयोगियें में वह समपण विकासत हो जायेगा तो परमात्मा हर चीज का ध्यान रखेंगे । परन्तु इसके लिए हमें म के प्रति सरमर्पत होना है। परन्तु अभी तक भी हम महत्वाकांक्षी है और हमारी प्राथमकतार्ं अनुचित हैं। है। परन्तु सहजयोग, पक वास्तविकता है। परमात्मा की इच्छा के अनुसा महत्वकंक्षा अनाकश्यव है। यह एक काल्पोनक अवस्था कार्य होंगे। हर कार्य को निविष्न पूर्ण करने की इच्छा सहजयोग का तरीका नहीं है। जो भी हमें प्राप्त होता है उसमें हमें परमात्मा का हाथ दिखाई देना चाहिए। अमेरिका में सहजयोग को गांतशील करने के लिए अंति गहन स्तर के धोड़े से सहजयोंगियों की आवश्यक है। रयदि अमेरिकन लोग इतनी सुगमता से मुर्ख न बन गये होते तो यह झूठे गुरु तथा नकारात्मकता इस देश में जड़ न पकड़ सकती। 10 हैं, यदि इस तथ्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अश्शिर्वादित इस देश की भूमि पर हम रह रहे मे समझते होते तो हम यह तभी समझ सकते कि श्रीकृष्ण ने दुष्ट ताओं का विनाश किया। वे परम चैतन्य योग करवाने वाली दैवी शवित थे। वे ईश्वर ये। वे देवता घे जिन्होंने इस क्षेत्र पर शासन किया। तो ब आपको कैसा होना चाहिए ? योग में हम सबको भी गुरु होना चाहिए। मानसिक रूप में नही परन्तु चचाक्स्था में गुरू होना चाहिए। यदि यह उच्चावस्था प्राप्त हो सके तो | से लोगों ने मुझे कहा है कि मां अमेरिका की चिन्ता छोड़ो, कि योगेश्यवर के इस देश में महान शक्ति विद्यमान है। आप सर्वोच्च योगी बन जायेंगे हि शवित इस स्थान पर विद्यमान है। बहुत नही होने वाला"। परन्तु में जानती हां कुछ हूँ गोद योगेश्वर की उस शवित को आप प्रयोग कर सके तो इस अक्स्था में, जबकि इतिहास एक नया रूप प्रहण कर रहा है आप पूर्ण मानव जाति का बहुत उपकार कर सकते हैं। हर मनुष्य आध्यात्मिकता की बात कर रहा है परन्तु आध्यात्मिकता केवल आप लोगों के पास है। केवल आप लोगों के पास शवितयां हैं और आप ही उन्हें फैला सकते हैं, एक बार जब आप उन्हें फैलाने लर्मंगे तो जीवन के हर क्षेत्र में महान ऊँचाईया जो आप प्राप्त करेंगे, वे बहुत ही आश्चर्यचकत करने वाली होगी। इस देश के शासक श्री योगेश्वर की शक्तियों का प्रयोग आपने करना है। मेरे आशीर्वाद से अपनी बृदधि तथा गहनता से आप वह ऊंचाई प्राप्त कर सकेंगे मुर्खतापूर्ण झगडे तथा बातें छोड़कर कार्य करने का प्रयोग करो। सामूहिक बनो। एक दूसरे को समझने का तथा अपने हृदय खोलने का प्रयत्न करो। आपके न्दर बह गहनता है। इस देश में आपका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि योगेश्वर आपको यहां चाहते थे न्दिर बह और उन्होंने अपने प्रेम के कैभव से आपको धन्य किया है। ** माधुर्य के उस अवतार का माधुर्य तुम्हें अपने में आत्मसात् करके फैलाना है। एक दूसरे का आन-्द लेने का सम्बन्ध, एक दूसरे को समझने का सम्बन्ध शहद की तरह मधुर होना चाहिए। मुझे विश्वास है यह कार्य करेगा, सभी के लिए कार्य करेगा | 1 हे 11 श्री माता जी की सोवियत संघ की यात्रा 25 जून से 2 जुलाई, ।990 मास्को मास्को लेनिनग्रेड और कीव के विशाल खेल स्टेडियम में श्रीमाता जी के कार्यक्रम हुए। और लेनिनग्रेड में ।0,000 से भी अधिक जिज्ञासु उत्लास की सीमा न रही, क्योंकि लगभग सभी जिज्ञासुओं ने अपने साक्षात्कार को हाथ उठाकर स्वीकारा। काश इमारे सभी सहजयोगी भाई-बहन उनकी थिरकती आंखों, चमकते चेहरों और उनके सहस्रार पर नाचती हुए लहरियों की झड़ी का चमत्कारिक दृश्य देख सकते। ससी लोग श्रीमाता जी को तन्लीनता से सुनते और उनके लिए सुन्दर फूल लाते। फोटो वितरण के समय तो सदा इस प्रकार भगदड मच जाती कि पुलिस को ही नियमित करना पड़ता। सोवियत संघ में 25,000 चित्र बटि आप जब श्रीमाता जी ने साक्षात्कार दिया तो हमारे आए। गये और वो भी अपर्याप्त थे । मास्को का सार्कजीनिक कार्यक्रम 25-6-90१ श्री माता जी का मामण है। हममें मानवीय चेतना है और अपने मानसिक सर्वप्रथम हमें जानना है कि पूर्व सत्य व्या हमें हैं। परन्तु मानवीय चेतना से सत्य को जाना नही जा सकता। बाह्य ज्ञान में एक सम्यता की रचना की। प्रदान करने वाली जड़ों का विचार बनाने की स्वतंत्रता भी मनुष्य को एक भिन्न व्यव्तित्व बनना होता है सप्पूर्ण यह एक बड़े पेड की तरह से हैं। परन्तु आपकं इस सभ्यता को पुष्ट ज्ञान प्राप्त करना है। पुर्ण सत्य को जाने बिना आपको बचाया नही जा सकता। किसी भी प्रकार का मानसिक प्रक्षेपण या सिद्धांतवाद अन्त में प्रतिक्षेपण करेगा ही अर्थात आपको इसी से एक तेज़ धक्का लगेगा। क्योंकि इन सिद्धांतों को वास्तक्किता से प्रमाणित करना ही होगा । यह है कि आप केवल शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार या संस्कार न होकर पांवित्र आत्मा है। वास्तक्किता क्या है? वास्तावकता । के उदाहरण दूसरी बात यह है कि हम सभी मानवीय कार्यों को अनुदत्त समझ बैठते हैं। रूप में बिना यह जानने का प्रयत्न किये कि एक बीज से फूल किस प्रकार बना। हम फूल को स्वीकार करते चले जाते हैं। हमारे शरीर रचना में भी बहुत से ऐसे तध्य हैं जिन्हें स्पष्ट नहीं किया जा सकता । परन्तु गर्भाधान के पश्चात जैसे मनुष्य शरीर को अपने अन्दर किसी भी बाह्य वस्तु का स्वीकार न करना। बच्चा गर्भ में रहता है, उसकी पुरिट तथा देखभाल होती है और ठीक समय पर उसका जन्म होता सीमित अक्स्था तक बढ़ता है। सीमाओं को नही लांघता। हर पशु की भी सीमा हैं। आम का पेडु एक होती है। इस सारे कार्य को करने वाली कौन सी शक्ति है? वह शवित जो हमारी पुष्टि देखभाल तधा संतुलन करती है। यह शक्ति पृथ्वी मां में, सूर्य में तथा सर्वत्र विदयमान है। यह विद्यमान तो अक्श्य है परन्तु हमने इससे पहले रखो तथा प्रमाणित होने पर इसे स्वीकार करो। हर मानव अत्यन्त शक्ितशाली है तथा बहुत ही गतिशील जीवन की रचना करने के योग्य भी बिना शक्तित के ग्रोत से जुड़े जिस प्रकार पक यंत्र बेकार होता है उसी तरह देवी प्रेम की शक्रित से जुड़े बिना हम भी बेकार है, अभी तक अधूरे हैं और हमारी अभिव्यक्ति भी अधूरी इसका अनुभव कभी नहीं किया। अपने मस्तिष्क खुले हैं। के 12 गतिशीलता तथा करूणा बहुत ही सीमित है। शीघ्र ही हम हतोत्साहित और सोचते है कि जीवन वास्तव में दुर्गीत है तथा प्रकाशित होने के बाद मानव जीवन इस देवी शक्रित का अनुभव हमारा सीन्दर्य, निराश हो जाते हैं । ब्रहमांण में सर्वोच्च जीवन है। आप अक्श्य साक्षात्कार को प्राप्त कीजिए, है तथा इसकी तकनीक क्या है। जागृत होकर कीजिए तथा स्वयं जानिये कि यह यंत्र कियास क्या कुन्डलनी मानसिक तथा भावात्मक पक्षों की देखभाल करने वाले सात चकों में से गुजरती है। तब आपके ! चित्त में स्थित आत्मा आपके चित्त को जगाती है। यह जागृति इतनी चीज पर डालते है तो यह आपके, शवितशाली है कि जब आप अपना आपके साधियों के तथा पूरे क्श्वि के हितार्थ कार्य करती है। इसके कार्य करने का ढंग ऐसा होता है कि यह हर चीज को समझती है, जानती है तथा है। उसी प्रकार चित्त किसी सफल बनाने के तरीकों का ज्ञान भी इसे है। जैसे सूर्य हर कस्तु को प्रकाशित करता आत्मा भी हम सबके अन्दर सामूहिक शंवित है। परन्तु बिम्ब यादि पत्थर की तरह होगा तो यह कुछ भी नहीं दर्शायिगा। साक्षात्कार पाकर जब आप आत्मा को दर्शाने लगते हैं तो आत्मा के गुणों की अभिव्यकि्ति आप के माध्यम से होने लगती है । आत्मा का प्रथम गुण आपका सामूहिक रूप से चेतन हो जाना है। आप की चेतनता क्स्तृत हो जाती है अर्थात् इस नया क्स्तार प्राप्त होता है जिससे आप अपने तथा दूसरों के चक्के का 1 अनुभव ु अपनी अंगुलियों के अग्र भाग पर कर सकते हैं। यदि आप इन चकों को ठीक करना भी जानते हो तो आप अपनी तथा दूसरों की सहायता कर सकते हैं। आत्मा शान्ति का संस्थाएी बनाई परन्तु वे स्वयं उशांत हैं। आत्मा दारा प्रकाशित व्यक्ति से शांति की किरणें फूट पडती स्रोत है। लोगों ने शांन्ति- हैं। आप इतने शवितशाली हो जाते हैं कि कोई भी व्यसन आपको दास आत्मा श्ति का स्रोत है। नहीं बना सकता। रातों-रात मेंने लोगों को नशे तथा शराब छोड़ते हुए देखा है। आत्मा ही विवेक का पा लेते हैं तो अत्यन्त बुद्धिमान बन जाते हैं। आत्म संवदेना है और आत्म-सम्मान वे सीख लेते हैं । आत्मा ज्ञान का स्रोत है। किसी भी प्रकार का आत्म-साक्षात्कार ही पूर्ण तथा वास्तविक ज्ञान है। खुली आंखों से जब तक आप गोते है दुःसाध्य बच्चे भी जब साक्षात्कार उनमे आ जाती हमारा ज्ञान ओछा है। ज्ञान को देख नहीं लेते आप किसी भी चीज में विश्वास कर लेते हैं। यह अँध-व्श्वास हे जो आपको 1 विनाश की और ले जाता है। व्यसन की तरह से अँध-किश्वास व्यक्ति स्वयं का तथा पूरे समुदाय तक का विनाश कर देता है। सत्य-संवेदना के बिना आप अंध विश्वासी है। आप सब अत्यन्त ज्ञानी बन सकते हैं। अपने और दूसरे जान सकते हैं। अपनी सामाजिक समस्याओं को के विषय में हर चीज को आप जान सकते हैं और उनका समाधान भी कर सकते हैं। स्वयं का तथा अपने चकों को अची तरह से अनुभव कर सकने के कारण आप अपना मूल्यांकन कर सकते हैं। "मैं" "मेरा है जब आप कहते हैं तो यह "मैं" क्या है? यह आत्मा है। दैवी शकित का उदय होने पर आप वही बन जाते हैं जो आप हैं क्योंकि कुण्डालनी शुद्ध इच्छा शक्षित है। अतः हमें केवल है कि हम आत्मा बनना चाहते हैं। शेष सब इच्छाएँ अपवित्र हैं। आज आप कार चाहते हैं, कल घर और सिलसिला चलता रहता है दैवी शक्रित से एकाकार होना ही शुद्ध कड़ना मात्र इच्छा है। यह तभी संभव आप सदा असन्तुष्ट रहते हैं। उस कार्य करेगा औरइसी के आत्मा बन जायें। सहजयोग पूरे विश्व का परिवर्तन दारा ही जब, आप पहुँचते है होगा। समय आपको अल्यन्त सावधान रहना है व्योंक जितनी ऊँचाई पर आप उत्पान के पतन उतना ही भयानक होता है। 13 चिकित्सा सम्मेलन मास्को 829-06-19908 श्री माता जी का माषग चिकित्सा अध्ययन में आज तक हमनें जो भी खोज की वह पहले से विद्यमान है। मानवीय चेतना से जो भी सोज हम कर सकते है उसकी सीमायें हैं। जैसे कि यह कहा गया है कि मनुष्य शरीर बाहर की किसी क्स्तु को अपने अन्दर स्वीकार नहीं करता। परन्तु जब तो शरीर इसको बाहर भ्रूण का आरोपण गर्भ में होता है नहीं फेंकता बल्कि इसकी देखभाल करता है तथा समय पर इसे जन्म देता है। और पस्टोकोलिन की कार्यवधि के विषय में कुछ नहीं बताया जा सकता हमारे शरीर के अन्दर अडेलिन हो जाती है और कभी शान्त। चििकित्सा उपलब्धियों के माध्यम से हम, बहुत सारे तध्यों को रूपष्ट नहीं कर सकते । खोजने तथा जानने के लिए बहुत कुछ बाकी है। चाहूँगी कि आप सब इन वस्तुओं से उच्च ज्ञान प्राप्त करें जिसे भी तक जाना नहीं जा सका। यह सत्य हे या असत्य, इसे जानने के लिए एक वैज्ञानिक की तरह से महितष्क को खुला रखें। इससे पूर्व क्योंकि कभी तो ये गतिशील मैं यह आपको संज्ञान की पूरी तस्वीर देता है। जैसे-2 आप सहजयोग में ऊँचे उठते है तो स्वयं ही इस महान प्रणाली को समझ जाते हैं और कार्यान्वित कर सकते हैं। हम केवल मानव शरीर नही है न ही मनोभाव है और न हम अहम् और बंधन है, हम केवल शुद्ध आत्मा हैं। सर्वत्र विद्यमान प्रेम की शक्ित सारी, जीकत किया जैसे फूलों की रचना, फलों तथा मनुष्यों को बनाना, आदि को करती है। विज्ञान में लोग प्रेम को महत्व केवल परिकल्पना मात्र है। सहजयोगी सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना है कि नहीं देते फिर भी प्रेम के विना चिकित्सक रोगी के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। सबसे पहले चिकित्सक को आत्मा बनाना है। इस सर्वत्र विद्यमान प्रेम शक्नित के फल को ठण्डी अनुभव करना है। यही यह यंत्र है जिससे आपने पहले स्वयं को फिर, दूसरों को स्क्थ करना है। चिकित्सा -विज्ञान में हम कह सकते है कि स्ूम स्नायु- तंतर की देखभाल मध्यम मार्ग करता है तथा दो अन्य मार्ग हमारे दांये तथा बायें स्नायु- तंत्र की देखभाल लहरियों के रूप में उसे अपने सहस्रार पर करते हैं। सहजयोग के अनुसार वांया तथा दांया स्नायु तंत्र हमें सख देता है, दो मिन्न ऊर्जापिं हैं। वांया स्नायु तंतर दायां परामर्श देता है और मध्यम स्नायु तंत्र हमारा उद्धार करता है। यह सब आत्म साक्षात्कार के बाद ही घटित होता है। क्योंकि आपका योग स्थापित होना चाहिए। मानव शरीर में चक् मेरु-रज्जू तथा महितष्क में स्थित है। इनकी संरचना बार्ं तथा दायें हे होती है तथा दोनों के सामंजस्य से मध्य-स्नायु- तंत्र बनता है । सैकरम का अर्थ हे पवित्र, और यूनानी लोगों को इसका ज्ञान धा। यही कारण है कि उन्होंने इस शब्द का प्रयोग चिकित्सा शब्दावली में किया। सहजयोग के अनुसार मूलतः हम तीन प्रकार के लोग हैं। हमारा झुकाव या तो बांई और को हो जाता है या दाई और को। बायां भाग हमारी इच्छाओं का योतक है और अतृप्त इच्छाएँ हमारे सामूहिय अवचेतन में पकत्र हौ जाती है। बायां भाग , इस प्रकार, हमारे मनस की रचना करता है। प्रथम चव का के भी नीचे से इसका प्रारम्भ होकर, ऊर्ध्व गामी हो, यह दृष्टि तंत्र को पार कर प्रति-अर्है का सृजन करता है। मानसिक बंधनों को ही मनावैज्ञानिक शब्दावली में प्रति अ कहते हैं। नीचे का यह केनदर नितम्भ चक्र का पोमक है। पैलविक प्लैक्शस। यह उत्सर्जन किया को नियंत्रित करता है तथा प्रजनन 14 जंगो को निर्देशित करता है। अत: यौन संबंधों के विषय में मानव के विचार अति संयमित होने चाहिए। मनस के विषय में फ्रायड के विचार अंति विकूृत हैं। यौन स्कभाव पर अंकुश रखकर अबोधिता के इ में चलने की सलाह दी। हर चीज चक की रक्षा करने के स्थान पर फ्रायड ने लौगों को उल्टी दिशा यौन-केन्द्र के अतिरिकत कुछ भी न हो। स्व-रचित | को उसने यौन-किया से जोड़ दिया जैसे मानव ! विचारधारा दवारा उसने बताया कि हर पुरूष की अपनी मां के प्रति यौन इच्छा होती है। इस मानसिक यौन-स्वतंत्रता के अर्थ में लिया। प्रक्षेपण पर ही उसके सभी सिद्धांत आधारित थे और लोगों ने उसे 1 किसी ने उसे चुनौती तक नहीं दी। पश्चिम में वह ईसा से भी अंधिक लोकीप्रिय हो गया। परिणामतः एड्ज़ गर्नोरिया तथा सिर्फलिस हसूजाक 8 जैसे यौन अंगों से संबंधित रोग आज इन अंगों को गुप्तांग या हनिजी अंग कहा जाता रहा है। पर इसका अर्थ कभी नही समझा गया। पैले हुए हैं। सदा से शरीर यन्त्र के बाप भाग के विकार मानसिक समस्याओं तथा दाई ओर के विकार अति गतिशीलता { की समस्याओं के लिए उत्तरदायी हैं। अत्यधिक कार्य करना तथा भविष्य की बहुत चिंता करना 3साइकोसोमैटिक8 मनोदैहिक समस्यापएं उत्फन्न करते हैं। अति विचारशील तथा भविष्य के विषय चिंतित महितिष्क दूसरे चक | की सारी ऊर्जा को ले लेता है। अति कार्यरत जिगर के कारण होती हैं। प्लीहा दाये पक्ष की समस्याएं का पोषण न होने से मधुमेह हो जाता है और की दुर्बलता के कारण उच्च रक्त-चाप हो जाता है तथा जिगर की गर्मी बढ्ने के कारण अस्थमा स्पंज की तरह से होने के कारण मस्तिष्क जड़ सा हो जाता है तथा त्याग में अवरोध हो जाता है और मूत्र पूरे शरीर तथा रवत में संचरित होने लगता है। यह कब्ज यकृत की कमजोरी लुकीमिया को जन्म देती है। गुर्दों गर्मी गुर्दों को पहुँचती है। इससे मुत्र का भी कारण बन जाती है। उष्णता रोग का तथा शीतलता आरोग्य का संकेत है। हिलियम गैस के ३ं गर्म करने पर संघर्ष-रत हो गये और शीतल हो जाने पाया गया कि उसके परमाणु परस्पर पर सभी परमाणु ओं में सामन्जस्य स्थापित हो गया । तीसरे प्रकार के रोग ईसाइकोसोमैटिक मनोदीहिक है । मनोदैहिक इसाइकोसोमैटिक लोग शारीरिक मानसिक रोगों से अधिक पीडित होते हैं। कैंसर मनोदैहिक हसाइकोसोमैटि क रोगों की अपेक्षा रोग है। सभी प्रकार के वायरस या तो अति सूक्ष्म - दर्शी मृत पौधे है और या मृत जन्तु हैं जो कि विकास की प्रक्रिया से बाहर चले गये हैं वे समुहिक-अवचेतना नामक क्षेत्र में रहते हैं। चिकित्सक केवल उस सीमा तक पहुँचे हैं कि प्रोटीन कैंसर का कारण बन जाती है। इस अवस्था में मानव रचना में समय से ही शरीर में बने बाई ओर के क्षेत्र व्शेष पर आकरमण होता है। यह सामुहिक 53 और प्रोटीन-58 कैंसर की गति को बढ़ाते हैं। आकरिमक सदमें की अक्स्था अवचेतन का ही क्षेत्र है जिसमें सब मृत परमाणु से मृत-प्राणी इस क्षेत्र के चहुँ और चिपके हुए हैं | रहते हैं। अत: बहुत 1 शरीर विज्ञान में शायद आपने न सुना हो कि सभी तत्वों के मुल में आत्मा कारणसूप विद्यमान है। यह शरीर के पिछले भाग से मुद्रिकाओं के रूप में जुड़ी हुई है। सातों चकों तथा पवित्र से अस्थि में इसका निवास है। यह सात घेरे बनाती है। साक्षात्कार के पश्चात चकों की भाति पररूपर प्रविष्ट होते हुए आप इन्हें देख सकते हैं। लघु-विराम् चिन्ह के समान प्रकाश करना, जो कि लहरियों का चैतन्य है, भी आप देख सकते हैं। यह मृतात्माएं हैं। ग्राही क्षेत्र में अब यह आत्मा हम में प्रतिविम्बित होती है। हाल ही में अमरीका में कुछ लोगों ने कोशिका के ग्राही क्षेत्र के चित्र भी लिए हैं जो कि ठीक 15 वैसे ही दिखाई देते हैं जैसा कि हम आत्म-साक्षात्कार के बाद महसूस करते हैं। मानव पर किसी अ कौशिकाओं दारा प्रतिबिम्बित होता है। इसका प्रभाव ग्राही हरिसैप्टर पर आत्मा का प्रभाव भी इन पड़ता है। यह बाहय आत्मा हमारे किसी एक या सभी चक्रों से जुड़ सकती है। यह कोशिकाओं को प्रभाहि करती है जिसके दुष्प्रभाव के परिणाम स्वरूप, मिर्गी मानसिक रोग, कैन्सर आदि हो जाते हैं। यदि वायरस रोगाणु हों तो इनकी बुराई न होती। इनमें से कोई पक अन्दर जाकर प्रभावित करता परन्तु यह तो एक से दूसरे तक पहुँच सकता है। और मानवीय पकड़ की अक्था में तो यह अत्यंत दुःसा है। मानसिक तनाब, हृदय तथा मिर्गी बाऐें भाग के विकार से होते हैं। माइग्रेन या सिरदर्द रे सभी अस्थि रोग साइकोसोमैटि क है। लुकीमिय ट्यूमर, फाइबरोसिज़ साइकोसोमैटि क हैं। मैनोपाज़ कोई रोग न होकर एक सामान्य स्थिति है। प्लीहा सृजन साइकोसोमैअिक भी हो सकती है। शिआटि का सीमेटि क या साइकोसोमैटि क हो सकती है। सभी मानास रोग बाएँ भाग के विकारों की देन हैं। स्किजोफ्रेनियाँ भी बाई विकृति के कारण होता है शराब का व्यस कर बाई और की समस्यापएँ बना देता है अरिधराईटिंज भी साइकेोसोमैटि क यौन-आसनित सभी बाई और की विकृतियों के कारण शरीर के दाएँ या बाएँ किसी भी से हो सकता है। दांयी और से शुरू हो और विकृत यौन, साइकोसोमैटि क भी हो सकते हैं । घृग्रपान वायें भाग की समस्याओं का सृजन करता है। क्योकि मानव दोष भावना-ग्रस्त होत है। विकृत यौनाचार, नेत्र-वासना, एड्ज, यौनारसकित तथा दुराग्रह सभी शरीर के वाम भाग के विकार मनोरोग शरीर के दोनों भागे के कारण हैं। मल्टीपल कलिरोसिज मध्य-स्नायुतंत्र विकार के कारण होता है। के विकारों से सम्बद्ध हैं। पार्किन्सन रोग बाएँ भाग के विकार के कारण रयूमेटिस्म नाभि तथा मांसपेशिये की अस्क्स्थता शरीर के बाँ भाग की विकृति के कारण होता है अति कर्मी भाविष्यवादी एवं चेतन मस्तिष अत्यधिक अध्ययनशीलता के कारण मानव का चेतन मंस्तिष्क पूर्णस्पेण जड़ हो जाता है। ठीक है कि आप चल रहें है किन्तु चलने के प्रति आपका अचानक सचेत होना आप गिरने का कारण बन जाता है। मैंने अमरीका में आठ वर्ष पूर्व कह दिया था कि ऐसा होगा, " मैंने एडूर के विषय में चौदह वर्ष पूर्व कहा था परन्तु किसी ने ध्यान नहीं दिया। और यह समस्या गर्भीर रूप धारण प्रयोगकर्ता यूपीज रोग ग्रस्त होता है। कर चुकी है। मधुमेह रोग अधिकतर शरीर के दायें भाग के विकारेों के कारण होता है । मधुमेह प्रायः दायी विकृतियों से होता है। दायी और के अत्यधिक प्रयोग से थकान हो सकती है। इस अक्स्था में, क्योंकि विराट से संबंध विचिछिन्न हो जाता है, मनुष्य के रोग ग्रह्त होने की पूरी सम्भावना होती है। प्रोटीन 53 तथा 58 बहुत ही अहंम संचालित तथा निरंकुश है जिसकी कोशिका को यह छू लेते हैं वह अनिष्ट कर बन जाती है। इस प्रकार विषावतता प्रारम्भ हो जाती है। अतः औरतों को स्तन कैंसर हो जाता है। मध्य हृदय मां का चक है। जब किसी र्त्री के मातृत्व को चुनाती मिल जाती है जैसे पति यदि बदचलन हो और पत्नी को सुरक्षित न रखें या पत्नी स्वयं असरक्षित हो तब यह चक प्रभावित हो जाता है। यह चक । 2 साल की आयु तक हृदृय अस्थि में रोगों का मुकाबला करने के लिए जीवाणु उत्पन्न करता है। तब यह जीवाणु पूरे शरीर को भेज दिये जाते हैं भय की अवस्था में हृदय अस्थि 16 डिल जाती है। और दूर नियंत्रक की तरह से सभी जीवाणुओं को युद्ध करने का संदेश भेज देती है। यदि इस प्रकार से प्रभावित स्त्री में सुरक्षा भावना कुन्डलिनी की जागृति से स्थापित कर दें तो कैसा ठीक किया जा सकता है? रोग की बड़ी हुई अक्स्था में यदि रोगी में इच्छा शवित का ड्ास हो गया हो तो स्तन को क्ट वाकर रोगी के अन्दर सुरक्षा की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए। कुछ रोग निष्चेष्ट अंगों के कारण भी हो जाते हैं। निष्क्रियता की अक्स्था में मनुष्य को इृदयशूल हो जाता है। किशुद्धी की पकड़ की अक्स्था में जब आप स्वयं को दोषी मान बैठते हैं तो रवत मे अवरोध ल होने के कारण यह सिर तक नहीं पहुच पाता और इसे वापस हृदय को जाना पडता है। और यह किया इृंदय को कलान्त तथा निष्चेष्ट बना देता है सहजयोग में हम दो प्रकार के अंग मानते है। पहला निम्चेष्ट तथा दूसरा अति सकरिय। चिकित्सकों को पहले स्वयं को अवाठी तरह से स्थापित करके अपना संरक्षण करना चाहिए और तब उन्हें दूसरों का उपचार करना सीखना चाहिए। जिन चित्रों में लहरियों है उनका प्रयोग कीजिए। मनौदैहिक रोगों का पहले बांये भाग से उपचार करना चाहिए। कुछ बच्चे अति कियाशीलता के शिकार होते हैं मधुमेह यही कारण है। गर्भाक्था में मां को बहुत कठिन कार्य नहीं करना चाहिए। उसे अधिक आराम करना चाहिए। बहुत अधिक सोचे बिना उसे कुछ शोतिदायक तथा अच्छी पुस्तक पढ्नी चाहिए। ध्यान लगाना का भी सबसे अच्छा है। गर्भाव्स्था में याद मां जतिकरियाशील हो या भविष्य के विषय में बहुत चिन्तित हो तो रोगी संतान उत्पन्न होती है। यदि मां इस अव्स्था में बहुत उत्तेजित रहती हो तो बच्चे को लुकिमिया रोग हो सकता है। प्लीडा हर आपात स्थिति के लिए होता है क्योंक यह रक्ताणु उत्पन्न करता है। परन्तु यदि आप हर समय उत्तैजित तथा भयभीत रहते हैं तो बेचारे प्लीहा की समझ में कुछ नही आता। यह अनियमित , सनकी हो जाता है । यह अक्स्था बच्चों या व्यसकों किसी की भी हो सकती है। शरीर के बांये भाग से जब कोई समस्या शुरू होती है। और ऐसे में यदि उदासी, दुर्घटना या किसी अन्य प्रकार का सदमा पहुंच जाये तो यह लुकिमिया की शुरूआत कर देता है। सबसे कठिन बात हम लोगों के समझने के लिए यह है कि नकारात्मक शक्रितयोँ कार्यरत हैं। और नकारात्मकता के माध्यम से ही यह कार्य करती है जैसे किसी कुगरु या परामनोविज्ञान, सम्मोहन विदया आदि के माध्यम से। आपकी किसी मृत आत्मा को डाल देने से भी पेसे कार्य होते हैं मनुष्य को बहुत ही स्क्छ आत्मा के ऊपर होना चाहिए। जागृतिकरण के लिए आप धन नही ले सकते। यह एक जीक्त किया है उद्दाहरण के रूप में पृथ्वी में जब हम कोई बीज डालते हैं तो इसके अंकुरण के लिए वह हमसे कोई धन नहीं मांगती। बीज तथा पृथ्वी म के स्वभाव के कारण ही अंकुरण होता है सारी] जीक्त कियाओं को हम अधिकार के रूप में मानते हैं। इसमें कोई अहसान नहीं है। परन्तु कुछ दुष्ट लोग धन से ही संचालित हैं उनमें न तो हृदय की पवित्रता है न ही आंखों की स्कछता। वे सित्रियों में पुरुषों में और बस्तु ओं में दिलचस्पी रखते हर प्रकार की गंदी और न ही वे जागृति का सम्बन्ध हैं। जागृति की वह व्याख्या भी नहीं कर सकते चिकित्सा या अत्य विज्ञान से बता सकते हैं। आकश्यकता पडने पर सहजयोग में हम कुछ हठयोग, व्यायाम करते हैं। किसी शारीरिक समस्या के कारण जब कोई चक़र क्षतिग्रस्त होता है तो हम हठयोग को उपयुक्त व्यायाम बताते हैं। परन्तु जिस प्रकार से लोग हठयोग करते हैं बह सभी औषधियों को एक ही बार में सेवन कर लेने जैसा है । "हठ" 17 का ही प्रयोग होता है इससे आा में ह-ठ दोनों नाडियां प्रयोग होनी चाहिए। परन्तु आजकल केवल "ह" के अन्दर भयंकर असंतुलन हो सकता है। हठयोग को करने वाले लोग अत्यन्त ही शुष्क तथा उग्र स्क्मा के हो सकते हैं। वे अपनी पत्नी और बच्चों को त्याग सकते हैं। हमें हर समय मध्य में होना चाहिए और हमारी कुन्डलिनी स्थाई रूप में स्थित होकर हमारे अन्दर संचीरित रहनी चाहिए। मारनसिक, भावात्मक तथा शारीरिक जीवन के अंतिरिक से सर्वत्र व्यापक शकि आपका आध्यात्मिक जीवन भी है। यह जीवन अत्यन्त ही चमत्कारी तथा आनन्दमय है, जब आप इ दैवी प्रेम शवित को समझ जाते हैं और यह जान जाते है कि किस प्रकार यह सब कुछ कार्यान्वित करते है तो आप आश्चर्यचकित रह जाते हैं । ++++ 18 सहजयोग कार्यक्रम संचालित करने के लिए श्रीमाता जी के परामर्श सहजयोग का मरिचय देने के लिप किसी भी जनमंच से जब कोई सहजयोगी बोलता है तो वह छोड़ता है । उससे नीसिखिंया श्रोतागण अपनी सामूहिकता का प्रतिनिधित्व करता है। क्वता जो छाप न केवल कता को सुनते हैं परन्तु उनका ध्यान उसके राय बनाने का प्रयत्न करता है। श्रोता वेशभूषा पर भी होता है। वे ये देखते है कि क्वता का भाषण उसके दृढ किश्वास को दर्शाता ै । अलंकरित या आडम्बरपूर्ण भाषण श्रोताओं की आत्मा को जागृत नहीं कर सकते। व्यवकति को से बोलना चाहिए और अनुभवगम्य बात करनी चाहिए। आत्मोत्यान की वास्तांवक चिन्ता मनुष्य में हैए। यह चिन्ता मनुष्य के चेहरे से प्रक्ट होनी चाहिए इसके लिए भिन्न दिशाओं में हाथ नही शहिए। लम्बे भाषण नहीं देने चाहिए। अपनी भाषण कला में ही प्रायः व्याव्त खो जाता है। लक्ष्य को 1 बुद्धि-प्रदर्शन अहे की वृद्धि करता है। बिना अत्यधिक गर्भीर हुए कता की मुखाकृति सौम्य होनी , शालीनता तथा सन्तुलन पूर्वक उसे स्वयं घा उसकी वाणी से आनन्द रस टपकना चाहिए गोरव त करना चाहिए तथा उसकी वेपभूपा औपचारिक और बाल उचत प्रकार से बने होने चाहिएं। सामूहिक सभाओं में केन्द्र चालकों को लम्बे भाषण नहीं देने चाहिए। भाषणों को कम करके उन्हें जी के टेप सुनवाने चांहिए। केन्द्र चालक, श्री माता जी तथा सहज-योगी के बीच माध्यम नहीं यह नहीं भूलना चाहिए कि श्री माता जी के आडियो तथा वीडयो टेपें में उनकी लहारयं हैं जो अशुद्धियों को दूर कर सहजयोगियों को आत्मानन्द के अनुभव प्रदान करती है। सखेद की बात है तक बहुत से केन्द्रों ने न तो श्री माता जी के टेप मंगवाए हैं और न ही वे इन्हें सुनवा/दिखवा आडियो तथा वीउियो सूचना पिछले अंक में दे दी गई थी। आडियो/वीडियो टेपों की प्रतियाँ ब नाने या कोई साहित्य अधवा पुस्तिका छापने के लिए श्री माता नी व्यक्तियों/केन्द्रों को सर्त मना किया है। 19 चैक्य लहरी 0661 शिशु पालन हेतु श्री माता जी का परामर्श मिआमी में श्री माता जी ने भारत तथा अमेरिका देशों में शिशु-पालन के विषय में बताया बच्चे विद्यालयों तथा दिवस-देख-रेख केन्द्रों में हैं उन अन-सहजयोगियों की समस्याओं के विष जिनके दम उत्तर दिया कि सहजयोगी और अन में जब श्री माता जी से पूछा गया तो श्री माता जी ने एक सहजयोगी सभी बच्चों को भारत जाना चाहिए तब उन्होंने भारतीय सहज-योग स्कूल के विषय में बताय औपचारिक तथा अनौपचारि बचचों में सुरक्षा तथा आत्म सम्मान की भावना स्थापित होगी। दोनों प्रकार की गतिवधियां वहां होंगी। भिन्न-भिन्न अध्यापक भिन्न गतिीवाधयों में मार्गदर्शन करेंगें संरक्षवं के व्यव्तगत गुणो के माध्यम से सुरक्षा की भावना स्थापित होती है केवल एक मात्र स्थायी संरक्षक क कि वहां जाकर होना आकश्यक नहीं। श्री माता जी ने बताया कि शिशुपालन भारत में सामान्य ज्ञान कहलाने वाली बहुत सी बातें भी पश्चिम के लोग नहीं जानते। उदाहरण के रूप में तेल में तली कस्तुओं को बर्फ सी ठंडी कोका कोला के साथ खाना, अति ठंडे पानी में तैरना, अत्यंत गर्मी से तपत अवस्था में जी ठंडे पेय लेना। यह पश्चिमी लोगों की बीमार करने वाली गतिवधियों के छोटे छोटे उदाहरण हैं । कला भारतीय सभ्यता का एक अंग है। कार्य को क्यों और कैसे किया जाता है इसके विषय में भारतीय माताएँ बच्चों से लगातार बातची करती रहती हैं। बच्चों से बातचीत करने के महत्व पर श्री माता जी ने बहुत जोर दिया। उन्होंने कह कि बच्चों की बात को सुना जाना चाहिये क्योंकि वे भी अत्यन्त समझदार हो सकते हैं । उनसे उन्हीं क आयु स्तर पर आकर बातचीत की जानी चाहिए ताकि वह समझ सके। अमेरिका में बच्चों को खिलाने देकर हम चाहते है कि बच्चे शांत हो जाये। "नहीं" कहने वाले बच्चे को किस तरह सम्भाला जाये जैसे नह मैं खाना नहीं खाना चाहता। इस प्रश्न के उत्तर में श्री माता जी ने परामर्श दिया कि अगले खाने तब बचचों को साने के लिए न कहा जाये। उन्हें समझ आ जायेगी कि यदि वह समय पर खाना नहीं खायेंगे लगेगी । तो भूख श्रीमाता जी ने कहा कि बच्चो को समझाने के स्थान पर अमेरिका में माता-पिता उन्हें चुप करा देते हैं। इससे बच्चों के आत्म-सम्मान के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। बचचे जब कुछ गलती कर रहे हों तो उसकी तरफ से आंख बंद कर लेनी चाहिए याद वे किसी क्तु को तोड़ दे तो उन्हें डांटना नहीं चांहिए परन्तु योद वे कोई अचछा कार्य करे तो उसके लिए तथा वस्तुओं की व्याख्या उनका मार्गदर्शन करती उनकी सराहना अक्श्य करनी चाहिए। बच्चों से बातचीत है। दिवस देख-रेख केन्द्रों में बच्चों की बीमारी के बाहल्य के विषय में जब श्री माता जी से पूछा गया तो उन्होंने कहा "हाँ, अमेरिका के लोग काफी बीमार हैं"। उन्होंने कहा कि मां के मध्य हृदय की समस्या 20 के कारण ऐसा होता है। उन्होंने कहा मैं तुम्हारे हृदय की ठीक बीच में बैठी हूँ। एक शकितशाली मध्य हृदय की स्थापना माताओं के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत में ईश्वरीय चेतना के विपय में श्री माता जी ने व्याख्या पूर्वक बताया। कई कहानियों के माध्यम से उन्होंने समझाया कि किस प्रकार भारतीय ईश्वर की शवित को पहचान लेते हैं, स्वीकार करते हैं तथा उसका भय मानते हैं। अमेरिका में ईसाई मत पर भयंकर अंधकश्वास है। चर्च नेता ईश्वर के लेते हैं। इसाई मत की असत्यता को लोगों का न पहचान पाना श्री माता नाम पर लोगों से धन ऐंठ जी के लिए खेदपूर्ण है । विवाह संबंधों में तथा माता-पिता के रूप में स्त्री-पुरूष के संबंधों के बारे में श्रीमाता जी ने क्याख्यापूर्वक समझाया। भारत में माता - पिता के कर्तव्य सुर्पष्ट और निर्धारित है। पति पूर्णत; पत्नी पर निर्भर करता है श्री माता जी ने कहा कि विना उनके परामर्श के उनके श्री माता जी पर निर्भर करते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय पांतयों को पति कोई निर्णय नही लेते वे घरेलू कार्य का ज्ञान नहीं होता है और इन कार्यों में निर्णय लेना वह नहीं जानते। एक भारतीय सहजयोगी ने स्पष्ट किया कि भारत में उसके विवाह के समय उसे परामर्श दिया तुम राजनीति तथा अर्धनीति आदि के महत्वपूर्ण निर्णय लो और तुम्हारी पत्नी, घर ग्रहस्थी भारत में मातृत्व की गया धा को चलाने तथा बच्चों को पालने आदि साधारण कार्यों के विपय में निर्णय लेगी। 1. शवित को मान्यता प्राप्त है। श्री माता जी ने कहा कि माता-पिता को बच्चों के सामने कमी नहीं झगड़ना चाहिए। झगड़ालू माता-पिता के लिए बच्चों के हृदय में सम्मान विकसित नहीं होता। माता-पिता को एक दूसरे का सम्मान करते देखकर बच्चों के दिल में भी उनके प्राति सम्मान विकसित होता है श्री माता जी ने कहा कि अमेरिका में माता-पिता को शिक्षित करने के लिए हमें एक विद्यालय की आवश्यकता है। रुस की आगामी यात्रा में श्रीमाता जी इस विषय पर विस्तारपूर्वक बतायेंगी। शिशुपालन का ज्ञान अमेरका में लाने के लिए श्री माता जी ने कुछ परामर्श दिये जिनका अनुसरण किया जा रहा है | ---------------------- 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी खंड 2 गंक १ च 10 1990 हिन्दी आवृत्ति श्री. शिरडी साईनाय श्री. जनक उॐ धर्म স्मलা विश्त श्री. इब्राहिम विश्व श्री. नानक -৬ श्री. मोज मुहम्मद साहब विश्व विश्व নिर्मला निर्मता धर्म श्री. जोराष्ट्रा श्री. सौक्रे टिज श्री. लाओ-से श्री. कनफ्यूशस गुरु को पूजते समय आप अपने अन्तर-निहित गुरु की भी पूजा करते है । अतः गुरु की पूजा करते समय आपके अन्दर के स्वामी की भी पूजा हो जाती है । आप इसका आदर करते हैं, स्तुति करते हैं, जागृत करते हैं, तथा प्रकट करते हैं । श्री माता जी, ( गुरु पूजा) निर्मला धर्म विश्व नमला च्म शर धर्म $13 विश्व निर्मला 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-1.txt 1 गुरु पूजा एविगनॉन प्रनैस 8-7-1990 श्रीमाता जी का मापण सहज योग में गुरू पूजा का महत्व अत्यंत भिन्न प्रकार का है। गुरू को पूजते समय आप अपने अन्तर -निहित गुरू की भी का गुरु जागृत हो चुका होता है अतः गुरु की पूजा करते समय आपके न्दर के स्वामी की भी पूजा हो जाती है। आप इसका आदर करते हैं, स्तुति करते हैं, जागृत करते हैं, तथा प्रकट करते हैं । आप इसलिए कर पाते है क्योंकि आपके पूजा करते हैं। ऐसा अन्दर गुरू की सर्वोत्तम विशेषता यह है कि वह आपका साक्षात्कार परमात्मा से करवाता है अर्थात आपके कुंडलिनी को उठाकर वह आपका सम्बन्ध सर्कयापक शकित से स्थापित करता है क्योंकि आपकी गुरू साक्षात आदि-शवित है। अतः करवाते हैं । एक और श्रेष्ठता भी आपको साक्षात्कार देते हुए आप जिज्ञास को परम-चैतन्य से एकाकार का अनुभव तो देते ही हैं आ आप जिज्ञासु का साक्षात्कार आदि शविति से प्राप्त है उसे परम-चैतन्य की स्रोत उस देवी शत्रित से मिलवा भी सकते हैं सहजयोगी होने के कारण क्योंकि आपके अत्दर गुरु है इसलिए आपका उत्तरदायित्व भी बहुत बड़ा है। अपने मंत्रों में हम कहते हैं "श्रीमाता जी, मैं स्वयं का गुरू हूँ" परन्तु इस "में" और "स्वट का गुरू" के मध्य में हमारी उपलब्धि क्या है? मैं कहाँ हुं? में स्वयं का मार्गदर्शन कर सकता हू? क्या है कि मैं पहले अपना और फिर दूसरों का मार्ग दर्शन कर सक? अन्तदर्शन अधथात स्वयं को देखना गुरु तत्व में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। क्या मैं स्वयं का गुरु बन गया मैरा चित्त इतना आत्म-प्रकाशित हूँ? एक स्त्री, एक मां आपकी गुरु है। अतः स्त्रियों में गुरू की विशेषताओं का विकास तथा अभिव्यवित होना अत्यन्त आकश्यक है। परन्तु सित्रयां अभी भी केवल मातायें, पत्नियां तथा सहजयोगनि्याँ मात्र ही हैं । वै ये नही समझती कि वे गुरू भी है। आपकी मर स्त्री है। और एक गुरु भी। अतः आपके अन्दर भी इतनी विशेषताएँ होनी चाहिए कि लोग कहें, इस स्त्री को देखो, यह कितनी अच्छी गुरू है"। अगुआओं से मुझे पता चलता है कि स्त्रियोँ बहुत पीछे हैं और उनमें से बहुत कम को ही वास्तविक सहजयोगिनी कहा जा सकता है। स्त्री सुलभ व्शेमताओं को ईसाई घर्म ने कभी पवित्र नहीं समझा। इस आत्मविश्वास सार की कमी सित्रियों में है जिसके कारण वह यह नहीं समझ पाती कि धर्म अ्दर से स्थापित हो सकता है। यह बाह्य कस्तु नहीं है। समाज में, परिवार में, तथा पारस्परिक सप्बन्धों में धर्म की स्थापना करना गुरू का कार्य है। सभी गुरूओं ने केवल धर्म स्थापना ही की। परन्तु ऐसा करने से पहले न्दर धर्म है या नही? पक धार्मिक हमें स्वयं को देखना है कि हमारे व्यक्िति की प्रथम विशेषता यह है कि वह दूसरों को सुनता है और बात को मानता है। पश्चिमी देशों की रित्रियों की समस्या यह है कि वे दूसरों को शान्ति से सुनना और 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-2.txt 2. उनकी बात को मानना भूल चुकी हैं। यही कारण हे कि उनके बच्चे उनकी आज्ञा नही मानते। यदि आज्ञाकारी नहीं है तो कई भी आपकी आज्ञा को नही मानेगा । अतः पहले आप आज्ञा-पालन सीखिये । आप का कोई पता न धा और न ही जो किसी महान व्यकित के कबीर जैसा महान व्यक्षित, जिसकी जाति जा सकता था, अपनी नम्रता के कारण रामदास जी का शिष्य बन गया। लोग आज कबीर पास स्वयं हनि को उनके गुरु से भी अधिक जानते हैं। नम्रता मौलिक गुण है। केवल नम्रता दवारा ही आप आर्शीवाद तथा अपने गुरू के गुण भी प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं मेरे बिम्ब के रूप में पक गुरु को विकसित होना है सर्वप्रथम आपका जीवन पूर्णत: स्कछ होना चाहिए। स्वच्छता सहजयोग का सार है सबको पता होना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं, कहाँ रहते हैं, और किस तरह से बर्ताव करते हैं । वो लोग जो गुरू हैं, जिन्हें जा रहे हैं, आप किस तरह हम नेता भी कहते हैं, वे प्रायः बहुत ही बतंगण में सोचते हैं। उन्हें सदा यह शिकायत होती है कि उनकी देखभाल किसी ने नही की। जैसे वे अत्याचार भावना ग्रस्त हों। कभी वह शिकायत करेगें कि उन्होंने एक दिन सखाना ही नही खाया। नहीं स्ाया तो कोई बात नही। भूख के विचार से ऊपर उठने के लिये आक्श्यक है कि एक गुरू तीन-चार दिन तक स्वयं को भूखा रखें। गुरू अधिक हैं कि आपको कुछ भी साने की इच्छा नहीं होती। यदि अगुआ लोग भी ाने के विचार से ग्रसित होंगे तो सहजयोग में वे पर्यटकें की तरह से होंगे यह गुरु तत्व की अभिव्यकित नहीं है। आपने अपनी गुरू को वास्तविकता में देखा है। मैं नही जानती मैं क्या खाती हूं, वे मुझे क्या देते है, मेरी इच्छा क्या है। वे जो ठीक समझते है मुझे देते रहते हैं । कोई सूचि नहीं होनी चाहिए सचयों पर चित्त लोग हैं। सदा अपने शरीर के विमय को कोई भूख नहीं होती क्योंकि भूल का सम्बन्ध पेट से हैं और लहरियाँ इतनी चाहिए, भौतिक क्तुर्ं नही । आपकी हर सचि का आधार लहीरियाँ होनी को व्यर्थ नहीं करना चाहिए। किसी किशेष प्रकार के स्वाने पर आपका रूझान नहीं होना चाहिए। स्वाद खाने की लत भी एक व्यसन है। जेन ने चाय की किया शुरू की, इस किया में वे बड़ी रस्म है। बिना किसी विचार के वे आपके रूप की और देखने को कहते है और रूप के माध्यम से निर्र्वचार कडवी चाय पीने को देते। यह एक महान समाधि पाने का प्रयत्न करते हैं। एक बार जब आप ये चाय पीते हैं तो, आपका स्वाद बिगड़ जाता है। इसे ठीक करने के लिए वे कुछ मीठी क्तु देते हैं जो कि इतनी अधिक मीठी होती है कि कड्वी लगती है। यह सब जिव्हा को जीतने के लिए किया जाता है। यह जिव्हा को इतने अटके देती है कि पश्चात आप हर तरह का खाना खा सकते हैं। यही कारण है कि जापानी हर चीज स्वा पाते इसके हैं। खाने के विमय में भारतीय सबसे अधिक विगड़े हुए लोग हैं क्योंकि उनकी सित्रियों ने उन्हें अच्छे व्यंजन सखिला कर बिगाड़ रखा है। जिव्हा का स्वाद उनके लिए एक बहुत बडा बंधन है। स्वाद से मुत्त पाने के लिए गांधी जी लोगों को उवले हुए खानों पर सरसें का तेल डाल कर दिया करते थे । गन्ध संवेदना से छुटकारा पाने के लिए गांधी जी लोगों से पालाने साफ करवाया करते थे। लोग होटलों में जाकर पौना घंटा केवल यह निर्णय करने के लिए व्यर्थ कर देते हैं कि चाँच क्या खायें। इस प्रकार के विचार यह प्रश्न कोई न पूछे, मुझसे भी नहीं। क्योकि मुझे इसके विमय मैं साचना पड़ता है। और में तौ निर्विचार रहना चाहती हूँ। खाने त्यागना सहजयोगियों के लिए अत्यंत आवश्यक है। "आप क्या खांयेगे" 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-3.txt 3. से हम कितने लिप्त हैं हमें पता होना चाहिए। यह खाना पऐट में जाकर हमारे शारीरिक और गुरू व्यक्स्थ को विगाडता है। यहीं कारण है कि गुरु तत्व को विकसित करने के लिए लोगों को व्रत करने की सला दी जाती थी। व्रत का अभिप्राय है क खाने या व्रत के विषय में सोचना छोड़कर निर्विचार हो जाना। परन लोग ब्रत में केवल खाने के विषय में ही सोचते रहते हैं। इस प्रकार का कोई अभिप्राय ही नहीं रह जाता क्योंकि मानसिक रूप से आप खाते ही रहते हैं । आप यही सोचने हो और कब में खाऊँ। हमें अपनी आदतों और बंधनों से छुटकारा पाना चाहिए। में लगे रहते हैं कि क्व व्रत समाप बच्चों को भी इसका प्रशिक्षण ठीक प्रकार से देना चाहिए। उन्हें नमक या चीनी की परवाह नई होनी चाहिए। सहजयोगी जो कई दिनों तक भूखे रह सकते हैं उनके लए कुछ आकश्यक नहीं। ख्वाने क स्वाद या भूख नाम की चीज सहजयोगियों के लिए नहीं है। उनके लिए केवल पक ही भूख है पवित्र होने की भूष, स्कछ होने की भूख। हर समय खाने के विषय में सोचते रहना। हमारे मह्तिष यह को अस्कछ कर देता है। स्वाद से छुटकारा पाने का प्रयोग आपको करना है। जब तक हम अनतर्दर्शन नहं करते और स्वयं पर प्रयोग नही करते तब तक हमें बंधनों से छट कारा नहीं मिलता। यद्यप कुण्डलिर्न भरसक प्रयत्न कर रही हैं फिर भी इतने अधिक बंधनों के होते हुए वह आपको गुरू नहीं बना पाती सभी साक्षात्कारी गुरू विवाहित थे। उनके बच्चे थे और उन्होंने सामान्य जीवन व्यतीत किया। परन् व्यकव्तितगत जीवन में वे पूर्णतयः निलिप्त थे। पहली नि्लिप्तता खाने से होनी चाहिए। जो भी आपको पसन्न हो वो खाना मत ख्ाईये। यदि आप स्वयं के गुरू है तो अपने शरीर और बंधनों पर काबू पाईये। अपने शरीर का आदर कीजिए और इसे, सब प्रकार का खाना खाने की आदत डालिये। यदि आप इस छोटी से आदत से छुट कारा नहीं पा सकते तो आप सहजयोगी नहीं कहला सकते । होता है । संतुष्ट आत्मा गुरू तत्व की एवं हैं। गुरु सदा आत्म-किभोर शरीर की दूसरी विशेषता यह है कि यह सुख-सुविधाएँ चाहता है। किसी भी जीवन स्तर के रहे हो, बिना किसी सख सुविधा की मांग किये भारत भ्रमण के समय आत्मानन्द में किभोर रहते हैं । वे क्भी कुर्सी या बिस्तर की मांग नही करते। भारत के सहजयोगियों को उनसे बहुत कुछ सीखना है। आप महसूस तो सो ही जायेगा। पश्चिमी सहजयोगी चाहे वह करेंगे कि शारीरिक सु्वों को कोई महत्व नहीं है। किसी भी तरह से शरीर तीसरी बात भौतिक दृष्टिकोण तथा भौतिक पदार्थो के लिए चंचल दृष्टि है। सहजयोगियों की दृष्टि बड़ी स्कछ होनी चाहिए। कामुकता और लालच अन्य बाधार्ए हैं। सहजयोग में कामुकता तो समाप्त हो जाती है परन्तु लालच में लोग फैस जाते हैं। भारतीय लोगों की यह व्शेष समस्या है। लोगों का भौतिक पदार्थों की ओर बड़ा लगाव है क्स्तु के विकय मूल्य पर उनका सदा पाश्चात्य र ध्यान होता है। पुरा -वस्तुओं :ऐे्टीक का उन्हें व्यसन है। भारतीय लोगों को तो समझ नहीं आता कि पश्चिमी लोग इन टूटी-फूटी, सड्डी-गली क्र्तुओं के दीवाने क्यों हैं। एक भारतीय लेखक ने एक बार लिखखा कि बनारस की सड़क पर दो अंग्रेज जा रहे थे और उनके पैरों पर आकर एक पीतल का लोटा गिरा जिससे उन्हें चौट भी लगी। वै बहुत बिगड़े। परन्तु लोटा गिराने वाले भारतीय नै उन्हें बताया कि यह लौटा बहुत 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-4.txt मूल्यवान है क्योंकि महाराज अक्बर ने इसका प्रयोग किया था। अंग्रेज इस बात से बहुत प्रभावित हुए और उनसे कहने लगे, कि हम तुम्हें माफ कर देगें अगर यह लोटा हमें ।000 रूपये में दे दो। उस भारतीय ने कहा धा। अतः पुरा- क्स्तुओं के लिए पागलपन हमें त्याग देना अपनी जान बचाने के लिए उनसे पेसा चाहिए। और पुरा क्स्तुओं के पीछे भागने की जगह हमें प्राचीन कला को बढ़ावा देना चाहिए। किसी भी सम्मान उसके आन्तरिक मूल्य तथा सैन्दर्य के लिए ही होना चाहिए। हमें किसी भी कस्तु को क्तु का स्वीकार करने के लिए लहरियों से परसखना चाहिए क्योंकि हम लहरियों की भाषा ही जानते हैं और हमें उसका प्रयोग करना चाहिए। उसके प्रयोग से हम जान जायेंगे कि हमें क्या करना है। सहजयोगियों का यह सोचना कि वे बीमार है बहुत ही बुरा है क्योंकि इससे सहजयोग का नाम बदनाम होता है। यदि अब भी आप सोचते है कि आप बीमार ैं, तो आप सहजयोग से बाहर चले जाईये। या तो आप स्वयं को ठीक कर लीजिए नहीं तो आप सहजयोगी नहीं है। फिर भी छोटी-छोटी समस्याओं की परवाह मतः कीजिये। उदाडरण के रूप में आदि-शकित होते हुए भी में बिना चिन्ता किये कई शारीरिक तथा अन्य समस्याओं का सामना करती हूँ। शरीर जैसा है वैसे ही उसे स्वीकार करना है स्वास्थ्य के विषय में शिकायतें नहीं करनी है। कभी मत सोचों कि आप वृद्ध है या बेकार हैं। अपनी मौँ को देखों। मैं ऐसा नहीं सोचती। अतः यदि आपका कोई गुरु है तो उसका बिम्ब आपके अन्दर होना चाहिए। अपनी मां को देखों, वह कितनी वृढ हैं, कितनी अधिक यात्रा करती हैं और कितना अधिक कार्य वह करती हैं। " आप कह सकते हैं कि वे आदि-शव्ति हैं। का प्रदर्शन आपकी गतिशीलता से होना चाहिए यदि आपमें गतिशीलता नहीं है और यदि आप अब भी स्वयं को दुर्बल पाते हैं तो आप सहजयोगी नही हैं। जो भी आप मांगते हे आपको मिल जाता है। जवानी की मूर्खता रहित । परन्तु उनकी धोड़ी सी शक्ित तो आपके ऊन्दर भी है, इस शक्तित परन्तु आयु की गम्भीरता के साध आप दिन-प्रतिदिन जवान होते जा रहे हैं जन्म से सक्षात्कारी बच्चे बहुत महान होते हैं वे कोई भी गौरवहीन बात नहीं करते और न ही व्यर्थ बोलते है। केवल साड़ियाँ पहनने और बिन्दी लगाने मात्र से आप सहज्योगी आपके जन्म से साक्षात्कारी आत्मार्प बहुत कम बोलती हैं। परन्तु जो भी बोलती हैं परन्तु जो भी बोलती हैं बहुत सुन्दर होता है वे बहुत ही आज्ञाकारी होती है। कया हम भी उनके गुरूतत्व की तरह कार्यरत है? या हमारी गतिविधियाँ उत्थान विरोधी हैं? सहज में आकर भी यदि आप अन्तर्दर्शन नहीं करते तो आप स्वयं की गुरू से तुलना करने वाली बात भूल गये हैं। हम सहजयोगी हैं। सहजयोगी की गरिमा को सामने रखते हुए हमें सब कुछ समझना है। एक जाते। नहीं बन अन्दर गम्भीरता कहां है? केवल आकश्यक बातचीत कीजिए। सहजयोगी को सर्वप्रथम दूसरों के प्रति प्रेम होना चाहिए। यदि आप सदा अपने लिए ही चिन्तित रहते हैं तो आप दूसरों को प्रेम नहीं करते। क्या आप दूसरों के लिए आराम खोजते है? क्या आप दूसरे सहजयोगियों के प्रति करूणामय हैं? क्या आप कठिनाई सहकर भी, उनकी सहायता करते हैं? बहुत से सहजयोगी, सहजयोग से बाहर के लोगों की तरफदारी करके सहजयोगियों का अपमान करते हैं । आप इस नई जाति से सम्बन्धित हैं। सहजयोगी की सहायता करना आपका कर्तव्य है। क्योंकि आपका सिर भी वही है और हाथ भी। उसमें पहले आप हर प्रकार से सहजयोगी की मदद कीजिए और फिर कौई कमी भी हो तो चिन्ता न कीजप। उसे सुधारने का प्रयत्न। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-5.txt यह गौरव तथा सूझ-बुझ केवल मौन से आती है। हर कात बोलते रहना आपको गहन नहीं होने देगा। र्त्रियों के लिए मौन रहना बहुत अच्छा है। अगुआा लोगों ने मुझे बताया है कि रित्रियों के साथ यह बहुत बड़ी समस्या है। परन्तु यदि उन्हें मंच पर आकर बोलने को कहा जाए तो वह कांपने लगेगी कितने वे या तो बोलती रहती हैं या अफवाहें फैलाती रहती हैं । लोग भाषण दे सकते हैं ? याद रखो यदि देने की योग्यता आप में नहीं है तो आप ज्यादा बोलिये भी नही। आपकी मां एक स्त्री हैं और भाषण वह भाषण देती है। भाषण देने की यह योग्यता आप में भी होनी चाहिये। आपकी गुरु होने के नाते मैं आपको बताती हैं कि आपने उत्थान को पाना है अत: व्यर्थ बोलना बंद कर दीजिये "मौनम सर्वधा साधनम" शन्त रहियें। यदि कोई व्यक्ति ज्यादा बोल रहा हो तो चुप रहिये। यदि कोई आलोचना कर रहा है तो भी शान्त रहिये। यदि कोई आकमण कर रहा है तो भी शान्त रहिये। यह शान्ति हर हाल में चुम रहने से ही स्थापित हो सकेगी। चर्च में जाकर लोग इस प्रकार का अनुशासन दिखाते हैं परन्तु वह बनाकटी होता भ है। जिस जगह पर आप अब हैं? वहाँ इस तघा डर होना चाहिए। गुरु तत्व प्रकार का मोन सूझ-बूझ के विकसित न होने के कारण यह शान्ति हममें नहीं है। जब आपका गुरु तत्व विकसित हो जायेगा तब आपके आचरण में आपकी गम्भीरता छलक पडेगी। सहजयोग में विवाह का कोई अधिक महत्व नहीं। कुछ लोगों का चित्त बहुत अधिक विवाह पर होने के कारण विवाह सिरदर्द बन जाता है। आप लोग सहजयोग में आये हैं, आप सन्यासी हैं। आप केवल सहज़योग से विवाहित हैं। कहने मात्र को पति-पत्नि तो है परन्तु यदि आप सहजयोगी नहीं हैं - सब बेकार है । सहजयोग से पहले विवाह एक हास्य मात्र धा। हर तीसरे दिन तलाक हो जाता था| सहजयोग में आकर जब आप विवाहित हुए तो की कि ये कैसे लोग है कि जिनमें लज्जा ही नहीं। विवाहित जीवन में सन्यासियों का त्याग तथा महानता अति भावुक लोग बन गये। यहाँ तक के भारत के गांवों में लोगों ने शिकायत प्रक्ट होनी चाहिए। पति-पत्नि के सम्क्ध गोपनीय हैं। यदि आप जन - साधारण में रोमांस करने लमेंगे तो पूरे सहजयोग को हानि पहुंचायेंगे। पश्चिम में कहते है प्रेम में पडना "फाल इन लव" तो फिर आप गिरेंगे, उठेगें नही। पति के साथ मोह और उसकी चिन्ता व्यर्थ है। आपको साक्षी भाव से पति या पत्नी की अक्स्था को देखना है। विवाह के फारन बाद लोग अपने पुराने संस्कारों के कारण मधुमास की व्यक्स्था करते हैं और इसके तुरन्त बाद आकर कहते हैं "माँ" यह विवाह नहीं निभेगा"। मन्द-2 चलकर आप कोई निर्णय लीजिये। भारतीयों से आप लन्जा भाव सीखिये। जन साधारण में पति-पत्नि कभी इक्टठे नहीं बैठते इसे बुरा समझा जाता है। जन साधारण में अपने सम्बन्ध दर्शाने की आवश्यकता ही क्या है? सार्वजनिक स्थानों पर पुरुष पुरुषों में रहें तथा स्त्रियाँ, रित्रियों में । ईर्र्या भाव तथा सत्ता लोलुपता की भावना के कारण पुरुम नेतागिरी के बारे में चर्चा करते रहते हैं। अपने नेता न बनने की बात सुनकर उन्हें बहुत ठेस पहुंचती है। वे समझतें है कि नेतागिरी कोई ठोस उपलब्धि है। यह व्यर्थ की बात है सहजयोग में नेता नाम की कोई चीज नही है। यह केवल एक ठो मजाक है और आपकी माँ संजीदा मजाक करने वाली है। अत : सावधान रहिये। यह एक परीक्षा है। उस स्तर पर मैं आपकी यरीक्षा लेती हैं। तथा मुझे पता लग जाता है कि कब व्यक्ति अहंम के घोड़े पर सवार द हो गया है अतः हमारा मानसिक दृष्टिकोण मिन्न होना चाहिए तथा हमारी प्राथामिकताओं में भी परिवर्तन तर आना चाहिए। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-6.txt 6. अपने पूरे हमारा उत्थान हमारी पहली प्रार्धामिकता है। उत्थान के लिए यदि आवश्यक हो तो और किसी बंधन में यदि आप बंधे हैं तो उससे छुटकारा पाईये। स्वयं का अन्तर- शरीर को दौडत कीजिये दर्शन कीजिये। स्वयं को जानने के लिए ही आत्म साक्षात्कार है जब आप स्वयं को जान जायेगे तो मन,बुद्धि तथा अहंकार आप को अपने बंधनों का पता चल जायेगा तथा आप उनसे छुटकारा पा सकेगें। आपके दास होने चाहिए। आपके पास साक्षात्कारी होने के बहुत से प्रमाण है। मेरे सामने बैठकर यदि आप प्रकाश-पुण्ज बन जाते है तेो उस प्रकाश को आगे फैलायें। जब आप यह अनुभव करेंगे कि मर्मा मेरे विषय में बात कर रही है, मुझे बता रही है, मुझे सुधार रही है, तब आप अपने अन्दर उतर सकेंगे। सर्कयापक शकित हमारी देखभाल कर रही है। यह क्श्वास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संगीतकारों हंगरी को रेल पर मास्को से मिलान आने को कहा गया। हंगरी का वीजा उनके पास न होने के कारण, ये प्लेटफार्म पर बैठे थे । वीज़ा न होने के कारण उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। वहां की भाषा भी वे न जानते धे और रूपये भी उनके पास बहुत कम थे। इस अक्स्था में भी वे हँस रहे थे और आनन्द ले रहे थे । कितने समर्पित थे वे स आभास तक उन्हें न था। तभी कसटम् के लोगों ने उनसे पूछताछ शुरू कर प्रेम की सीमा पर उन्हें रेल से उतार दिया गया। कि अपनी समस्या का दी। बातचीत के मध्य ही संगीतकारों ने कसटम् अधिकारियों को साक्षात्कार दे दिया। क्या शकित पर विश्वास कर सकते हैं । कसट म अधिकारियों ने सीमा पार ले जाने के लिए अपनी गाड़िया उन्हें दे दी। तभी एक खाली बस आ गई जिसमें दो युगोसलीवयन धे। इ्वाईवर ने उनकी समस्या के विषय की आप प्राप्त हो गया तब वह इाईवर उन्हें मिलान आश्रम तक छोड़ गया। विश्वास होना में पूछा और उसे भी साक्षात्कार अतः आपको अपने में तथा परम-शक्रित में, जो कि आपको चारों ओर से घेरे हुए है, पूरा एक बार जब यह किश्वास आपमें आ जायेगा तो आप यह अनुभव करेगें कि यह शक्तित आप दयालु है और आपकी कितनी सहायक। परन्तु यादि आप इसका अपमान करेंगें तो यह बहुत मत सुनो। यदि कोई आपके गुरु की निन्दा चाहिए। पर ही हानिकारक भी हो सकती है। अतः कभी गुरू निन्दा करता है तो कान्नों पर हाथ रखकर सुनने से इन्कार कर दो। भौतिकतावादी लोग यदि धनार्जन की बातें करें तो आप उन्हें बताये कि यदि मां को धन कमाना होता तो वह केंसर के रोगियों तथा अन्य रोगियों को ठीक करके कमा लेती। वे तो एक पेसा भी नहीं लेती। उनका बहुत बड़ा घर तो उनके के लिए है। सहजयोगियों में अभी उस आत्मक्श्वास की कमी है । लिए न होकर सहजयोगियों के रहने जब भी कोई आपके गुरू के जिससे की वह आकश्यकता पडूने पर दावे के साथ अपनी बात कह सके। विरूढ्ध कोई बात कहें तो आपको प्रभावूर्ण ढंग से उसका विरोध करना है । आध्यात्मिकता के प्रति अपनी संवदिनता को हमें देखना है कुछ सहजयोगी नकारी व्यक्तियों का है तो उसका क्या लाभ। एक अच्छा सहजयोगी जिसमें साथ देते हैं। आप का कम्प्यूटर ही यदि खराब लहरियाँ हैं किसी भी साधारण, निरहँकारी गरीब तथा अशिक्षित व्यक्ति की लहरियों पर देख कर निर्णय लेता है। क्या आप किसी व्यक्िति को उसकी मीठी बातों और उसके पांडित्य से देखते हैं? आप उसे लहरियों । सहजयोगी है। अगुआ लोगों को भी मैने बहुत बार नकारी लोगों का पक्ष लेते हुए पाया है वे मुझे बतायेंगे कि अमुक व्यक्िति बहुत जो भी व्यक्षित दूसरें को उनकी लहौरियों से परखता है वह से देखें अचछा है। क्योंकि उसने इतना धन सहज को दिया है। धन दिया है तो क्या? 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-7.txt 7. बहुत से गुरू स्वयं की पकड़ू में होते हैं उनकी जाता है। वे बहुत ही उग्र स्क्भाव के हो जाते हैं। क गुरु को सर्वप्रधम बहुत ही मधुर, कोम तथा अच्छा होना है। उसे कभी कुछ नहीं मंगना चाहिए। सम्मान जीता जाता है मांगा नही जात उच्च आकांक्षाओं के कारण उनका अहंम ब उत्थान हो जाता है आप बुद्धिमान हो जाते हैं, अपनी चेतना तथा आत्मा एक बार जब आपका आ जाते हैं तो सब कुछ ठीक हो जाता है। आपको कोई चीज मांगनी नहीं पडुती किसी बात की शिकाय आप नहीं करते, आदि शक्रित के सभी गुण आपके लिए कार्य करते हैं तथा आपकी देखभाल भी करते हैं परन्तु यदि आप अधकचरे हैं तेो ये गुण आपके साध शरारत करते हैं। वे आपको विचलित करते आप इधर-उधर दौडते हैं। गण मजाकिये भी है और आपके साथ मजाक भी करते हैं और आपके लि समस्याए भी स्ड़ी करते हैं। हमें यह समझना है कि हम यहां विश्व की मुकित के लिये हैं। मुझे आश है कि आप अपना उत्तरदायित्व समझते है, किस तरह कार्य करना है और इसे किस तरह सफल बनाना है। हैं। जान लीजिये कि पक गुरू के रूप में तुम्हें कैसा होन गुरू बनने के लिए आपमें परिपव्वता होनी चाहिए। मेरे साथ बड़ी सावधानी से व्यवहार कीजिये बहुत साधारण होते हुए भी मैं महामाया हूँ। मेरे साथ आप धृष्टता नहीं कर सकते। करने का तात्पर्य यह है कि आप शिष्य नही हैं। एक शिष्य को गुरू से अन्तर रखना पड़ता है। मेरे साथ धृष्टर जी चाहें मेरे कमरे में आकर घंटो बैठकर तुम मुझसे गपशप नहीं कर सकते। उसका अधिकार तु नहीं है। ु पर अपनी इच्छा मत लादिये, ऐसा नहीं हो मेरे बुलाने पर ही तुम्हें आना चाहिए । गुरु चाहिए। हर चीज सुरूपष्ट होनी चाहिए एक दूसरे को भली-भाँति से जानना चाहिए। एक दूसरे के प्रा ईष्ष्या गुर्ओं को नही सुहाती। एक दूसरे की संगति का पूरा आनन्द आप एक दूसरे की अधिक सराहना कीजिए| तब आप गुरूतत्व तक पहुँच स्केंगे गुरू कभी एक दूस से नही लडे। उन्होंने एक दूसरे की बार हुआ केवल राक्षसी प्रवृत्ति के लोग ही साक्षात्कारी लोगों तथा अवतारों के विरूद्ध बोलते हैं। लीजिये और दूसरे लोगों की अपेक सहायता की। वास्तव में एक ही तत्व गुरू तत्व का जन्म बार हम सब एक विमान पर सवार हैं। [और हमें एक बहुत ही सुन्दर क्षेत्र पर उतरना है पर- इससे पहले हमें पूर्ण नम्रता तथा सर्मपण अपने अन्दर विकसित करने होगें। और सर्मपण आपके हृदय में नहीं होंगें तब तक आपका गुरू तत्व जागृत नहीं हो सकता। शिष्य बनव जब नम्रत तक यह ही आप गुरू बनेंगे। मुझसे प्रेम करने से तथा मेरा सम्मान करने से यह नम्रता बड़ी सुगमता से है। में आ जाती ह परमात्मा आपको धन्य करें। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-8.txt उत्तरी अमेरिका राष्ट्रीय पूजा सारश सैनडियागो, मई 28, 1990 ब्रहमाड के नक्शे में अमेरिका विशुद्दी चक है। अतः अध्यात्मिकता के क्षेत्र में यह देश बहुत जर्मनी में हैँसा चक पूजा हुई जिसके लस्वरूप जर्मन लोगों का विवेक विकसित हुआ और उन्हें अपनी पहली की हुई गलांतयों का अहसास हुआ। हित्वपूर्ण है। हँसा चक व्शुद्धी चक का महत्वपूर्ण सहायक चक है। रूस में जाकर साक्षात्कार देने वाले वे पहले लोग धे और बरलिन की दीवार को तोड़कर उन्होंने वीं जर्मनी के लोगों का स्वागत किया। कठिनाईयों, डर और बलिदान के कारण पूर्वी खंड के लोगों का विवेक विकसित हो गया है। रन्तु अमेरिकन लोगों के पास "दैवी विवेक" नहीं है। वैभव ने उन्हें इतना बिगाड़ दिया है कि वे धर्म- धर्म में भेद नही कर सकते। यह जानकर आश्चर्य होता है कि उस आतंक और भय के वातावरण में वहाँ यह ज्ञान उन देशों से कही अधिक बड् पाया जिनमें कैभव तथा जीवन की सुख-सुविधा कहीं अधिक । श्री कृष्ण ने पांडवों की सहायता इसलिए की क्योंकि वे धार्मिक थे, परन्तु अमेरिका सदा दूसरे देशों सरकार जैसी अनुचित चीजों की सहायता करता है। लोगों में देवी विवेक की कमी को जान से तानाशाही र ही कुगुरू इस देश में आ बसे। " लोगों के लिए" होता है अब लुप्त हो गया है। सरकार अब्राहम लिंकन का प्रजातन्त्र जो कि केवल अपने स्वार्थ को देखते हैं। बदमाश तथा धोखेबाज चुनावों में सफल हुए तथा हर देश के नेता धनलोलुप बन गये केवल साक्षात्कार के बाद ही था जनता अब ह प्रवृति पूरे किश्व में फैल गई। जातंत्र सफल हो सकता है। बिना सामूहिकता की भावना के आप उदारता के सुन्दर गुण का आनन्द नहीं प्ति कर सकते। अमेरिका में सहजयोग को फैलाने के लिए आव्श्यक है कि यहां के सहजयोगी अपनी गहनता बढ़ाये तभी वे, सहजयोग को तेजी से बढ़ा पायेंगें ऐसा करने में यदि वे असफल होते हैं तो वे उत्तरदायी गि। हंगरी का एक सहजयोगी उस देश को स्वतंत्र कराने के लिए पर्याप्त रहा। सहजयोगियों को यह मिझना हे कि वे आधार है अतः उन्हें बहुत गहन, विवेकपूर्ण तथा वक्शाल हृदृय होना है अब भी के पने भूतकाल से तथा अपने आकामक संस्कारों से चिपके हुए हैं दूसरोंे से प्रेम तथा करूणा आपका स्क्भाव ना चाहिए क्योंकि आपकी आत्मा भी प्रेम तथाकरूणा ही है आत्मा प्रेम करती है तथा प्रेम के आदान- दान का आनन्द लेती है। अपनी आत्मा की अभव्यवित के लिए हमें इसके स्वभाव को समझना है तथा सच्चे आत्मदर्शन आत्म-विरोधी संस्कारों से छुट कारा पाना है जब गहनता बुती है तो दैवी शवित का संचार होता है र बहुत सुखद अनुभव होता है। दैवी शविति को संचीरित होने के लिए एक पूर्णतया स्क्छ अहम् तथा का धन विहीन माध्यम की आवश्यकता होती है। पड 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-9.txt विश्व के किसी अ्य कौने में अमेरका जैसी बहुत सी समस्याएँ नही हैं। सहजयोग को फैला की चिन्ता को लेकर युद्ध स्तर पर निकल पड़ना ही केवल एकमात्र हल है। सामूहिकता के दारा सहजयोगियं के र्तर को सुधारना आवश्यक है। अमेरिका विशुद्धीचक का स्थान है और यह चक सामूहिकता की अभिव्याव प है। दैवी विवेक, एक दूसरा महत्वपूर्ण गुण जिसकी अभिव्यविति अमेरिका में होनी चाहिए और जो स्पर् सब कुछ देखता है, को स्क्छ करने के लिए हमें सामूहिकता में सच्चा ध्यान करना चाहिए ध्या स्प में केवल फोटोग्राफ के सामने वैठना ही नहीं परन्तु पेसा होना चाहिए जो कार्य कर को कार्यान्वित करके और हर अच्छेি कार्य को चमत्कारिक तो कही कुछ खराबी अवश्यक है। अमेरिकन लोग बाधा विहीन, सुख-सुविधा सम्पूर्ण जीवन के आदी हैं इस तरह का जीवन बड़ा उबाऊ होता है। एक चुनौतीपूर्ण स्थिति नीरसता को सरसता में बदल देती है उदाहरण के रूप में एक छोटे कमरे में इतने अधिक लोग रह रहें हो कि उस कमरे को पार करना य यह परम चैतन रूप से सफल ब ना सके। यादि ऐसा नहीं होत वहां स्नान करना एक कठन कार्य हो जाये, बहुत ही रोचक लगता है। बहुत सुख सुविधा चाहने वाले लोगे में सूक्ष्म, दृष्टि नहीं होती। उनके स्कभाव भी भयानक होते हैं। अपनी नीरसता में अमेरिकन लोग विनाशकारी कार्य कर डालते हैं। मैने इतना काम किया और उसने इतना, इस तरह के विचार पति-पत्नि के बीच तलाक और झगड़े की जड़ है। यदि वे एक दूसरे को, प्रसन्न करने के लक्ष्य से कार्य करे तो इसका आनन्द मा? ही उनकी सारी धकान और कष्ट को समाप्त कर देगा। किसी भी उपलब्धि को पाने का सर्वोत्तम तरीक उसे श्री माता जी के चरणों में छोइ़ देना है, क्योंकि जब हम समर्पण कर देते हैं तो दैवी शकवित का संचा हमारे अन्दर होना शुरू हो जाता है। यह संदेश मुहम्मद साहब का धा तथा श्री कृष्ण का भी, जिन्होंने स्पष शब्दों में कहा "सर्व धर्मान् परित्यन्य माम् पकम् शरणम व्रज: और एक बार जब अमेरिका के सहजयोगियें में वह समपण विकासत हो जायेगा तो परमात्मा हर चीज का ध्यान रखेंगे । परन्तु इसके लिए हमें म के प्रति सरमर्पत होना है। परन्तु अभी तक भी हम महत्वाकांक्षी है और हमारी प्राथमकतार्ं अनुचित हैं। है। परन्तु सहजयोग, पक वास्तविकता है। परमात्मा की इच्छा के अनुसा महत्वकंक्षा अनाकश्यव है। यह एक काल्पोनक अवस्था कार्य होंगे। हर कार्य को निविष्न पूर्ण करने की इच्छा सहजयोग का तरीका नहीं है। जो भी हमें प्राप्त होता है उसमें हमें परमात्मा का हाथ दिखाई देना चाहिए। अमेरिका में सहजयोग को गांतशील करने के लिए अंति गहन स्तर के धोड़े से सहजयोंगियों की आवश्यक है। रयदि अमेरिकन लोग इतनी सुगमता से मुर्ख न बन गये होते तो यह झूठे गुरु तथा नकारात्मकता इस देश में जड़ न पकड़ सकती। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-10.txt 10 हैं, यदि इस तथ्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अश्शिर्वादित इस देश की भूमि पर हम रह रहे मे समझते होते तो हम यह तभी समझ सकते कि श्रीकृष्ण ने दुष्ट ताओं का विनाश किया। वे परम चैतन्य योग करवाने वाली दैवी शवित थे। वे ईश्वर ये। वे देवता घे जिन्होंने इस क्षेत्र पर शासन किया। तो ब आपको कैसा होना चाहिए ? योग में हम सबको भी गुरु होना चाहिए। मानसिक रूप में नही परन्तु चचाक्स्था में गुरू होना चाहिए। यदि यह उच्चावस्था प्राप्त हो सके तो | से लोगों ने मुझे कहा है कि मां अमेरिका की चिन्ता छोड़ो, कि योगेश्यवर के इस देश में महान शक्ति विद्यमान है। आप सर्वोच्च योगी बन जायेंगे हि शवित इस स्थान पर विद्यमान है। बहुत नही होने वाला"। परन्तु में जानती हां कुछ हूँ गोद योगेश्वर की उस शवित को आप प्रयोग कर सके तो इस अक्स्था में, जबकि इतिहास एक नया रूप प्रहण कर रहा है आप पूर्ण मानव जाति का बहुत उपकार कर सकते हैं। हर मनुष्य आध्यात्मिकता की बात कर रहा है परन्तु आध्यात्मिकता केवल आप लोगों के पास है। केवल आप लोगों के पास शवितयां हैं और आप ही उन्हें फैला सकते हैं, एक बार जब आप उन्हें फैलाने लर्मंगे तो जीवन के हर क्षेत्र में महान ऊँचाईया जो आप प्राप्त करेंगे, वे बहुत ही आश्चर्यचकत करने वाली होगी। इस देश के शासक श्री योगेश्वर की शक्तियों का प्रयोग आपने करना है। मेरे आशीर्वाद से अपनी बृदधि तथा गहनता से आप वह ऊंचाई प्राप्त कर सकेंगे मुर्खतापूर्ण झगडे तथा बातें छोड़कर कार्य करने का प्रयोग करो। सामूहिक बनो। एक दूसरे को समझने का तथा अपने हृदय खोलने का प्रयत्न करो। आपके न्दर बह गहनता है। इस देश में आपका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि योगेश्वर आपको यहां चाहते थे न्दिर बह और उन्होंने अपने प्रेम के कैभव से आपको धन्य किया है। ** माधुर्य के उस अवतार का माधुर्य तुम्हें अपने में आत्मसात् करके फैलाना है। एक दूसरे का आन-्द लेने का सम्बन्ध, एक दूसरे को समझने का सम्बन्ध शहद की तरह मधुर होना चाहिए। मुझे विश्वास है यह कार्य करेगा, सभी के लिए कार्य करेगा | 1 हे 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-11.txt 11 श्री माता जी की सोवियत संघ की यात्रा 25 जून से 2 जुलाई, ।990 मास्को मास्को लेनिनग्रेड और कीव के विशाल खेल स्टेडियम में श्रीमाता जी के कार्यक्रम हुए। और लेनिनग्रेड में ।0,000 से भी अधिक जिज्ञासु उत्लास की सीमा न रही, क्योंकि लगभग सभी जिज्ञासुओं ने अपने साक्षात्कार को हाथ उठाकर स्वीकारा। काश इमारे सभी सहजयोगी भाई-बहन उनकी थिरकती आंखों, चमकते चेहरों और उनके सहस्रार पर नाचती हुए लहरियों की झड़ी का चमत्कारिक दृश्य देख सकते। ससी लोग श्रीमाता जी को तन्लीनता से सुनते और उनके लिए सुन्दर फूल लाते। फोटो वितरण के समय तो सदा इस प्रकार भगदड मच जाती कि पुलिस को ही नियमित करना पड़ता। सोवियत संघ में 25,000 चित्र बटि आप जब श्रीमाता जी ने साक्षात्कार दिया तो हमारे आए। गये और वो भी अपर्याप्त थे । मास्को का सार्कजीनिक कार्यक्रम 25-6-90१ श्री माता जी का मामण है। हममें मानवीय चेतना है और अपने मानसिक सर्वप्रथम हमें जानना है कि पूर्व सत्य व्या हमें हैं। परन्तु मानवीय चेतना से सत्य को जाना नही जा सकता। बाह्य ज्ञान में एक सम्यता की रचना की। प्रदान करने वाली जड़ों का विचार बनाने की स्वतंत्रता भी मनुष्य को एक भिन्न व्यव्तित्व बनना होता है सप्पूर्ण यह एक बड़े पेड की तरह से हैं। परन्तु आपकं इस सभ्यता को पुष्ट ज्ञान प्राप्त करना है। पुर्ण सत्य को जाने बिना आपको बचाया नही जा सकता। किसी भी प्रकार का मानसिक प्रक्षेपण या सिद्धांतवाद अन्त में प्रतिक्षेपण करेगा ही अर्थात आपको इसी से एक तेज़ धक्का लगेगा। क्योंकि इन सिद्धांतों को वास्तक्किता से प्रमाणित करना ही होगा । यह है कि आप केवल शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार या संस्कार न होकर पांवित्र आत्मा है। वास्तक्किता क्या है? वास्तावकता । के उदाहरण दूसरी बात यह है कि हम सभी मानवीय कार्यों को अनुदत्त समझ बैठते हैं। रूप में बिना यह जानने का प्रयत्न किये कि एक बीज से फूल किस प्रकार बना। हम फूल को स्वीकार करते चले जाते हैं। हमारे शरीर रचना में भी बहुत से ऐसे तध्य हैं जिन्हें स्पष्ट नहीं किया जा सकता । परन्तु गर्भाधान के पश्चात जैसे मनुष्य शरीर को अपने अन्दर किसी भी बाह्य वस्तु का स्वीकार न करना। बच्चा गर्भ में रहता है, उसकी पुरिट तथा देखभाल होती है और ठीक समय पर उसका जन्म होता सीमित अक्स्था तक बढ़ता है। सीमाओं को नही लांघता। हर पशु की भी सीमा हैं। आम का पेडु एक होती है। इस सारे कार्य को करने वाली कौन सी शक्ति है? वह शवित जो हमारी पुष्टि देखभाल तधा संतुलन करती है। यह शक्ति पृथ्वी मां में, सूर्य में तथा सर्वत्र विदयमान है। यह विद्यमान तो अक्श्य है परन्तु हमने इससे पहले रखो तथा प्रमाणित होने पर इसे स्वीकार करो। हर मानव अत्यन्त शक्ितशाली है तथा बहुत ही गतिशील जीवन की रचना करने के योग्य भी बिना शक्तित के ग्रोत से जुड़े जिस प्रकार पक यंत्र बेकार होता है उसी तरह देवी प्रेम की शक्रित से जुड़े बिना हम भी बेकार है, अभी तक अधूरे हैं और हमारी अभिव्यक्ति भी अधूरी इसका अनुभव कभी नहीं किया। अपने मस्तिष्क खुले हैं। के 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-12.txt 12 गतिशीलता तथा करूणा बहुत ही सीमित है। शीघ्र ही हम हतोत्साहित और सोचते है कि जीवन वास्तव में दुर्गीत है तथा प्रकाशित होने के बाद मानव जीवन इस देवी शक्रित का अनुभव हमारा सीन्दर्य, निराश हो जाते हैं । ब्रहमांण में सर्वोच्च जीवन है। आप अक्श्य साक्षात्कार को प्राप्त कीजिए, है तथा इसकी तकनीक क्या है। जागृत होकर कीजिए तथा स्वयं जानिये कि यह यंत्र कियास क्या कुन्डलनी मानसिक तथा भावात्मक पक्षों की देखभाल करने वाले सात चकों में से गुजरती है। तब आपके ! चित्त में स्थित आत्मा आपके चित्त को जगाती है। यह जागृति इतनी चीज पर डालते है तो यह आपके, शवितशाली है कि जब आप अपना आपके साधियों के तथा पूरे क्श्वि के हितार्थ कार्य करती है। इसके कार्य करने का ढंग ऐसा होता है कि यह हर चीज को समझती है, जानती है तथा है। उसी प्रकार चित्त किसी सफल बनाने के तरीकों का ज्ञान भी इसे है। जैसे सूर्य हर कस्तु को प्रकाशित करता आत्मा भी हम सबके अन्दर सामूहिक शंवित है। परन्तु बिम्ब यादि पत्थर की तरह होगा तो यह कुछ भी नहीं दर्शायिगा। साक्षात्कार पाकर जब आप आत्मा को दर्शाने लगते हैं तो आत्मा के गुणों की अभिव्यकि्ति आप के माध्यम से होने लगती है । आत्मा का प्रथम गुण आपका सामूहिक रूप से चेतन हो जाना है। आप की चेतनता क्स्तृत हो जाती है अर्थात् इस नया क्स्तार प्राप्त होता है जिससे आप अपने तथा दूसरों के चक्के का 1 अनुभव ु अपनी अंगुलियों के अग्र भाग पर कर सकते हैं। यदि आप इन चकों को ठीक करना भी जानते हो तो आप अपनी तथा दूसरों की सहायता कर सकते हैं। आत्मा शान्ति का संस्थाएी बनाई परन्तु वे स्वयं उशांत हैं। आत्मा दारा प्रकाशित व्यक्ति से शांति की किरणें फूट पडती स्रोत है। लोगों ने शांन्ति- हैं। आप इतने शवितशाली हो जाते हैं कि कोई भी व्यसन आपको दास आत्मा श्ति का स्रोत है। नहीं बना सकता। रातों-रात मेंने लोगों को नशे तथा शराब छोड़ते हुए देखा है। आत्मा ही विवेक का पा लेते हैं तो अत्यन्त बुद्धिमान बन जाते हैं। आत्म संवदेना है और आत्म-सम्मान वे सीख लेते हैं । आत्मा ज्ञान का स्रोत है। किसी भी प्रकार का आत्म-साक्षात्कार ही पूर्ण तथा वास्तविक ज्ञान है। खुली आंखों से जब तक आप गोते है दुःसाध्य बच्चे भी जब साक्षात्कार उनमे आ जाती हमारा ज्ञान ओछा है। ज्ञान को देख नहीं लेते आप किसी भी चीज में विश्वास कर लेते हैं। यह अँध-व्श्वास हे जो आपको 1 विनाश की और ले जाता है। व्यसन की तरह से अँध-किश्वास व्यक्ति स्वयं का तथा पूरे समुदाय तक का विनाश कर देता है। सत्य-संवेदना के बिना आप अंध विश्वासी है। आप सब अत्यन्त ज्ञानी बन सकते हैं। अपने और दूसरे जान सकते हैं। अपनी सामाजिक समस्याओं को के विषय में हर चीज को आप जान सकते हैं और उनका समाधान भी कर सकते हैं। स्वयं का तथा अपने चकों को अची तरह से अनुभव कर सकने के कारण आप अपना मूल्यांकन कर सकते हैं। "मैं" "मेरा है जब आप कहते हैं तो यह "मैं" क्या है? यह आत्मा है। दैवी शकित का उदय होने पर आप वही बन जाते हैं जो आप हैं क्योंकि कुण्डालनी शुद्ध इच्छा शक्षित है। अतः हमें केवल है कि हम आत्मा बनना चाहते हैं। शेष सब इच्छाएँ अपवित्र हैं। आज आप कार चाहते हैं, कल घर और सिलसिला चलता रहता है दैवी शक्रित से एकाकार होना ही शुद्ध कड़ना मात्र इच्छा है। यह तभी संभव आप सदा असन्तुष्ट रहते हैं। उस कार्य करेगा औरइसी के आत्मा बन जायें। सहजयोग पूरे विश्व का परिवर्तन दारा ही जब, आप पहुँचते है होगा। समय आपको अल्यन्त सावधान रहना है व्योंक जितनी ऊँचाई पर आप उत्पान के पतन उतना ही भयानक होता है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-13.txt 13 चिकित्सा सम्मेलन मास्को 829-06-19908 श्री माता जी का माषग चिकित्सा अध्ययन में आज तक हमनें जो भी खोज की वह पहले से विद्यमान है। मानवीय चेतना से जो भी सोज हम कर सकते है उसकी सीमायें हैं। जैसे कि यह कहा गया है कि मनुष्य शरीर बाहर की किसी क्स्तु को अपने अन्दर स्वीकार नहीं करता। परन्तु जब तो शरीर इसको बाहर भ्रूण का आरोपण गर्भ में होता है नहीं फेंकता बल्कि इसकी देखभाल करता है तथा समय पर इसे जन्म देता है। और पस्टोकोलिन की कार्यवधि के विषय में कुछ नहीं बताया जा सकता हमारे शरीर के अन्दर अडेलिन हो जाती है और कभी शान्त। चििकित्सा उपलब्धियों के माध्यम से हम, बहुत सारे तध्यों को रूपष्ट नहीं कर सकते । खोजने तथा जानने के लिए बहुत कुछ बाकी है। चाहूँगी कि आप सब इन वस्तुओं से उच्च ज्ञान प्राप्त करें जिसे भी तक जाना नहीं जा सका। यह सत्य हे या असत्य, इसे जानने के लिए एक वैज्ञानिक की तरह से महितष्क को खुला रखें। इससे पूर्व क्योंकि कभी तो ये गतिशील मैं यह आपको संज्ञान की पूरी तस्वीर देता है। जैसे-2 आप सहजयोग में ऊँचे उठते है तो स्वयं ही इस महान प्रणाली को समझ जाते हैं और कार्यान्वित कर सकते हैं। हम केवल मानव शरीर नही है न ही मनोभाव है और न हम अहम् और बंधन है, हम केवल शुद्ध आत्मा हैं। सर्वत्र विद्यमान प्रेम की शक्ित सारी, जीकत किया जैसे फूलों की रचना, फलों तथा मनुष्यों को बनाना, आदि को करती है। विज्ञान में लोग प्रेम को महत्व केवल परिकल्पना मात्र है। सहजयोगी सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना है कि नहीं देते फिर भी प्रेम के विना चिकित्सक रोगी के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। सबसे पहले चिकित्सक को आत्मा बनाना है। इस सर्वत्र विद्यमान प्रेम शक्नित के फल को ठण्डी अनुभव करना है। यही यह यंत्र है जिससे आपने पहले स्वयं को फिर, दूसरों को स्क्थ करना है। चिकित्सा -विज्ञान में हम कह सकते है कि स्ूम स्नायु- तंतर की देखभाल मध्यम मार्ग करता है तथा दो अन्य मार्ग हमारे दांये तथा बायें स्नायु- तंत्र की देखभाल लहरियों के रूप में उसे अपने सहस्रार पर करते हैं। सहजयोग के अनुसार वांया तथा दांया स्नायु तंत्र हमें सख देता है, दो मिन्न ऊर्जापिं हैं। वांया स्नायु तंतर दायां परामर्श देता है और मध्यम स्नायु तंत्र हमारा उद्धार करता है। यह सब आत्म साक्षात्कार के बाद ही घटित होता है। क्योंकि आपका योग स्थापित होना चाहिए। मानव शरीर में चक् मेरु-रज्जू तथा महितष्क में स्थित है। इनकी संरचना बार्ं तथा दायें हे होती है तथा दोनों के सामंजस्य से मध्य-स्नायु- तंत्र बनता है । सैकरम का अर्थ हे पवित्र, और यूनानी लोगों को इसका ज्ञान धा। यही कारण है कि उन्होंने इस शब्द का प्रयोग चिकित्सा शब्दावली में किया। सहजयोग के अनुसार मूलतः हम तीन प्रकार के लोग हैं। हमारा झुकाव या तो बांई और को हो जाता है या दाई और को। बायां भाग हमारी इच्छाओं का योतक है और अतृप्त इच्छाएँ हमारे सामूहिय अवचेतन में पकत्र हौ जाती है। बायां भाग , इस प्रकार, हमारे मनस की रचना करता है। प्रथम चव का के भी नीचे से इसका प्रारम्भ होकर, ऊर्ध्व गामी हो, यह दृष्टि तंत्र को पार कर प्रति-अर्है का सृजन करता है। मानसिक बंधनों को ही मनावैज्ञानिक शब्दावली में प्रति अ कहते हैं। नीचे का यह केनदर नितम्भ चक्र का पोमक है। पैलविक प्लैक्शस। यह उत्सर्जन किया को नियंत्रित करता है तथा प्रजनन 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-14.txt 14 जंगो को निर्देशित करता है। अत: यौन संबंधों के विषय में मानव के विचार अति संयमित होने चाहिए। मनस के विषय में फ्रायड के विचार अंति विकूृत हैं। यौन स्कभाव पर अंकुश रखकर अबोधिता के इ में चलने की सलाह दी। हर चीज चक की रक्षा करने के स्थान पर फ्रायड ने लौगों को उल्टी दिशा यौन-केन्द्र के अतिरिकत कुछ भी न हो। स्व-रचित | को उसने यौन-किया से जोड़ दिया जैसे मानव ! विचारधारा दवारा उसने बताया कि हर पुरूष की अपनी मां के प्रति यौन इच्छा होती है। इस मानसिक यौन-स्वतंत्रता के अर्थ में लिया। प्रक्षेपण पर ही उसके सभी सिद्धांत आधारित थे और लोगों ने उसे 1 किसी ने उसे चुनौती तक नहीं दी। पश्चिम में वह ईसा से भी अंधिक लोकीप्रिय हो गया। परिणामतः एड्ज़ गर्नोरिया तथा सिर्फलिस हसूजाक 8 जैसे यौन अंगों से संबंधित रोग आज इन अंगों को गुप्तांग या हनिजी अंग कहा जाता रहा है। पर इसका अर्थ कभी नही समझा गया। पैले हुए हैं। सदा से शरीर यन्त्र के बाप भाग के विकार मानसिक समस्याओं तथा दाई ओर के विकार अति गतिशीलता { की समस्याओं के लिए उत्तरदायी हैं। अत्यधिक कार्य करना तथा भविष्य की बहुत चिंता करना 3साइकोसोमैटिक8 मनोदैहिक समस्यापएं उत्फन्न करते हैं। अति विचारशील तथा भविष्य के विषय चिंतित महितिष्क दूसरे चक | की सारी ऊर्जा को ले लेता है। अति कार्यरत जिगर के कारण होती हैं। प्लीहा दाये पक्ष की समस्याएं का पोषण न होने से मधुमेह हो जाता है और की दुर्बलता के कारण उच्च रक्त-चाप हो जाता है तथा जिगर की गर्मी बढ्ने के कारण अस्थमा स्पंज की तरह से होने के कारण मस्तिष्क जड़ सा हो जाता है तथा त्याग में अवरोध हो जाता है और मूत्र पूरे शरीर तथा रवत में संचरित होने लगता है। यह कब्ज यकृत की कमजोरी लुकीमिया को जन्म देती है। गुर्दों गर्मी गुर्दों को पहुँचती है। इससे मुत्र का भी कारण बन जाती है। उष्णता रोग का तथा शीतलता आरोग्य का संकेत है। हिलियम गैस के ३ं गर्म करने पर संघर्ष-रत हो गये और शीतल हो जाने पाया गया कि उसके परमाणु परस्पर पर सभी परमाणु ओं में सामन्जस्य स्थापित हो गया । तीसरे प्रकार के रोग ईसाइकोसोमैटिक मनोदीहिक है । मनोदैहिक इसाइकोसोमैटिक लोग शारीरिक मानसिक रोगों से अधिक पीडित होते हैं। कैंसर मनोदैहिक हसाइकोसोमैटि क रोगों की अपेक्षा रोग है। सभी प्रकार के वायरस या तो अति सूक्ष्म - दर्शी मृत पौधे है और या मृत जन्तु हैं जो कि विकास की प्रक्रिया से बाहर चले गये हैं वे समुहिक-अवचेतना नामक क्षेत्र में रहते हैं। चिकित्सक केवल उस सीमा तक पहुँचे हैं कि प्रोटीन कैंसर का कारण बन जाती है। इस अवस्था में मानव रचना में समय से ही शरीर में बने बाई ओर के क्षेत्र व्शेष पर आकरमण होता है। यह सामुहिक 53 और प्रोटीन-58 कैंसर की गति को बढ़ाते हैं। आकरिमक सदमें की अक्स्था अवचेतन का ही क्षेत्र है जिसमें सब मृत परमाणु से मृत-प्राणी इस क्षेत्र के चहुँ और चिपके हुए हैं | रहते हैं। अत: बहुत 1 शरीर विज्ञान में शायद आपने न सुना हो कि सभी तत्वों के मुल में आत्मा कारणसूप विद्यमान है। यह शरीर के पिछले भाग से मुद्रिकाओं के रूप में जुड़ी हुई है। सातों चकों तथा पवित्र से अस्थि में इसका निवास है। यह सात घेरे बनाती है। साक्षात्कार के पश्चात चकों की भाति पररूपर प्रविष्ट होते हुए आप इन्हें देख सकते हैं। लघु-विराम् चिन्ह के समान प्रकाश करना, जो कि लहरियों का चैतन्य है, भी आप देख सकते हैं। यह मृतात्माएं हैं। ग्राही क्षेत्र में अब यह आत्मा हम में प्रतिविम्बित होती है। हाल ही में अमरीका में कुछ लोगों ने कोशिका के ग्राही क्षेत्र के चित्र भी लिए हैं जो कि ठीक 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-15.txt 15 वैसे ही दिखाई देते हैं जैसा कि हम आत्म-साक्षात्कार के बाद महसूस करते हैं। मानव पर किसी अ कौशिकाओं दारा प्रतिबिम्बित होता है। इसका प्रभाव ग्राही हरिसैप्टर पर आत्मा का प्रभाव भी इन पड़ता है। यह बाहय आत्मा हमारे किसी एक या सभी चक्रों से जुड़ सकती है। यह कोशिकाओं को प्रभाहि करती है जिसके दुष्प्रभाव के परिणाम स्वरूप, मिर्गी मानसिक रोग, कैन्सर आदि हो जाते हैं। यदि वायरस रोगाणु हों तो इनकी बुराई न होती। इनमें से कोई पक अन्दर जाकर प्रभावित करता परन्तु यह तो एक से दूसरे तक पहुँच सकता है। और मानवीय पकड़ की अक्था में तो यह अत्यंत दुःसा है। मानसिक तनाब, हृदय तथा मिर्गी बाऐें भाग के विकार से होते हैं। माइग्रेन या सिरदर्द रे सभी अस्थि रोग साइकोसोमैटि क है। लुकीमिय ट्यूमर, फाइबरोसिज़ साइकोसोमैटि क हैं। मैनोपाज़ कोई रोग न होकर एक सामान्य स्थिति है। प्लीहा सृजन साइकोसोमैअिक भी हो सकती है। शिआटि का सीमेटि क या साइकोसोमैटि क हो सकती है। सभी मानास रोग बाएँ भाग के विकारों की देन हैं। स्किजोफ्रेनियाँ भी बाई विकृति के कारण होता है शराब का व्यस कर बाई और की समस्यापएँ बना देता है अरिधराईटिंज भी साइकेोसोमैटि क यौन-आसनित सभी बाई और की विकृतियों के कारण शरीर के दाएँ या बाएँ किसी भी से हो सकता है। दांयी और से शुरू हो और विकृत यौन, साइकोसोमैटि क भी हो सकते हैं । घृग्रपान वायें भाग की समस्याओं का सृजन करता है। क्योकि मानव दोष भावना-ग्रस्त होत है। विकृत यौनाचार, नेत्र-वासना, एड्ज, यौनारसकित तथा दुराग्रह सभी शरीर के वाम भाग के विकार मनोरोग शरीर के दोनों भागे के कारण हैं। मल्टीपल कलिरोसिज मध्य-स्नायुतंत्र विकार के कारण होता है। के विकारों से सम्बद्ध हैं। पार्किन्सन रोग बाएँ भाग के विकार के कारण रयूमेटिस्म नाभि तथा मांसपेशिये की अस्क्स्थता शरीर के बाँ भाग की विकृति के कारण होता है अति कर्मी भाविष्यवादी एवं चेतन मस्तिष अत्यधिक अध्ययनशीलता के कारण मानव का चेतन मंस्तिष्क पूर्णस्पेण जड़ हो जाता है। ठीक है कि आप चल रहें है किन्तु चलने के प्रति आपका अचानक सचेत होना आप गिरने का कारण बन जाता है। मैंने अमरीका में आठ वर्ष पूर्व कह दिया था कि ऐसा होगा, " मैंने एडूर के विषय में चौदह वर्ष पूर्व कहा था परन्तु किसी ने ध्यान नहीं दिया। और यह समस्या गर्भीर रूप धारण प्रयोगकर्ता यूपीज रोग ग्रस्त होता है। कर चुकी है। मधुमेह रोग अधिकतर शरीर के दायें भाग के विकारेों के कारण होता है । मधुमेह प्रायः दायी विकृतियों से होता है। दायी और के अत्यधिक प्रयोग से थकान हो सकती है। इस अक्स्था में, क्योंकि विराट से संबंध विचिछिन्न हो जाता है, मनुष्य के रोग ग्रह्त होने की पूरी सम्भावना होती है। प्रोटीन 53 तथा 58 बहुत ही अहंम संचालित तथा निरंकुश है जिसकी कोशिका को यह छू लेते हैं वह अनिष्ट कर बन जाती है। इस प्रकार विषावतता प्रारम्भ हो जाती है। अतः औरतों को स्तन कैंसर हो जाता है। मध्य हृदय मां का चक है। जब किसी र्त्री के मातृत्व को चुनाती मिल जाती है जैसे पति यदि बदचलन हो और पत्नी को सुरक्षित न रखें या पत्नी स्वयं असरक्षित हो तब यह चक प्रभावित हो जाता है। यह चक । 2 साल की आयु तक हृदृय अस्थि में रोगों का मुकाबला करने के लिए जीवाणु उत्पन्न करता है। तब यह जीवाणु पूरे शरीर को भेज दिये जाते हैं भय की अवस्था में हृदय अस्थि 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-16.txt 16 डिल जाती है। और दूर नियंत्रक की तरह से सभी जीवाणुओं को युद्ध करने का संदेश भेज देती है। यदि इस प्रकार से प्रभावित स्त्री में सुरक्षा भावना कुन्डलिनी की जागृति से स्थापित कर दें तो कैसा ठीक किया जा सकता है? रोग की बड़ी हुई अक्स्था में यदि रोगी में इच्छा शवित का ड्ास हो गया हो तो स्तन को क्ट वाकर रोगी के अन्दर सुरक्षा की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए। कुछ रोग निष्चेष्ट अंगों के कारण भी हो जाते हैं। निष्क्रियता की अक्स्था में मनुष्य को इृदयशूल हो जाता है। किशुद्धी की पकड़ की अक्स्था में जब आप स्वयं को दोषी मान बैठते हैं तो रवत मे अवरोध ल होने के कारण यह सिर तक नहीं पहुच पाता और इसे वापस हृदय को जाना पडता है। और यह किया इृंदय को कलान्त तथा निष्चेष्ट बना देता है सहजयोग में हम दो प्रकार के अंग मानते है। पहला निम्चेष्ट तथा दूसरा अति सकरिय। चिकित्सकों को पहले स्वयं को अवाठी तरह से स्थापित करके अपना संरक्षण करना चाहिए और तब उन्हें दूसरों का उपचार करना सीखना चाहिए। जिन चित्रों में लहरियों है उनका प्रयोग कीजिए। मनौदैहिक रोगों का पहले बांये भाग से उपचार करना चाहिए। कुछ बच्चे अति कियाशीलता के शिकार होते हैं मधुमेह यही कारण है। गर्भाक्था में मां को बहुत कठिन कार्य नहीं करना चाहिए। उसे अधिक आराम करना चाहिए। बहुत अधिक सोचे बिना उसे कुछ शोतिदायक तथा अच्छी पुस्तक पढ्नी चाहिए। ध्यान लगाना का भी सबसे अच्छा है। गर्भाव्स्था में याद मां जतिकरियाशील हो या भविष्य के विषय में बहुत चिन्तित हो तो रोगी संतान उत्पन्न होती है। यदि मां इस अव्स्था में बहुत उत्तेजित रहती हो तो बच्चे को लुकिमिया रोग हो सकता है। प्लीडा हर आपात स्थिति के लिए होता है क्योंक यह रक्ताणु उत्पन्न करता है। परन्तु यदि आप हर समय उत्तैजित तथा भयभीत रहते हैं तो बेचारे प्लीहा की समझ में कुछ नही आता। यह अनियमित , सनकी हो जाता है । यह अक्स्था बच्चों या व्यसकों किसी की भी हो सकती है। शरीर के बांये भाग से जब कोई समस्या शुरू होती है। और ऐसे में यदि उदासी, दुर्घटना या किसी अन्य प्रकार का सदमा पहुंच जाये तो यह लुकिमिया की शुरूआत कर देता है। सबसे कठिन बात हम लोगों के समझने के लिए यह है कि नकारात्मक शक्रितयोँ कार्यरत हैं। और नकारात्मकता के माध्यम से ही यह कार्य करती है जैसे किसी कुगरु या परामनोविज्ञान, सम्मोहन विदया आदि के माध्यम से। आपकी किसी मृत आत्मा को डाल देने से भी पेसे कार्य होते हैं मनुष्य को बहुत ही स्क्छ आत्मा के ऊपर होना चाहिए। जागृतिकरण के लिए आप धन नही ले सकते। यह एक जीक्त किया है उद्दाहरण के रूप में पृथ्वी में जब हम कोई बीज डालते हैं तो इसके अंकुरण के लिए वह हमसे कोई धन नहीं मांगती। बीज तथा पृथ्वी म के स्वभाव के कारण ही अंकुरण होता है सारी] जीक्त कियाओं को हम अधिकार के रूप में मानते हैं। इसमें कोई अहसान नहीं है। परन्तु कुछ दुष्ट लोग धन से ही संचालित हैं उनमें न तो हृदय की पवित्रता है न ही आंखों की स्कछता। वे सित्रियों में पुरुषों में और बस्तु ओं में दिलचस्पी रखते हर प्रकार की गंदी और न ही वे जागृति का सम्बन्ध हैं। जागृति की वह व्याख्या भी नहीं कर सकते चिकित्सा या अत्य विज्ञान से बता सकते हैं। आकश्यकता पडने पर सहजयोग में हम कुछ हठयोग, व्यायाम करते हैं। किसी शारीरिक समस्या के कारण जब कोई चक़र क्षतिग्रस्त होता है तो हम हठयोग को उपयुक्त व्यायाम बताते हैं। परन्तु जिस प्रकार से लोग हठयोग करते हैं बह सभी औषधियों को एक ही बार में सेवन कर लेने जैसा है । "हठ" 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-17.txt 17 का ही प्रयोग होता है इससे आा में ह-ठ दोनों नाडियां प्रयोग होनी चाहिए। परन्तु आजकल केवल "ह" के अन्दर भयंकर असंतुलन हो सकता है। हठयोग को करने वाले लोग अत्यन्त ही शुष्क तथा उग्र स्क्मा के हो सकते हैं। वे अपनी पत्नी और बच्चों को त्याग सकते हैं। हमें हर समय मध्य में होना चाहिए और हमारी कुन्डलिनी स्थाई रूप में स्थित होकर हमारे अन्दर संचीरित रहनी चाहिए। मारनसिक, भावात्मक तथा शारीरिक जीवन के अंतिरिक से सर्वत्र व्यापक शकि आपका आध्यात्मिक जीवन भी है। यह जीवन अत्यन्त ही चमत्कारी तथा आनन्दमय है, जब आप इ दैवी प्रेम शवित को समझ जाते हैं और यह जान जाते है कि किस प्रकार यह सब कुछ कार्यान्वित करते है तो आप आश्चर्यचकित रह जाते हैं । ++++ 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-18.txt 18 सहजयोग कार्यक्रम संचालित करने के लिए श्रीमाता जी के परामर्श सहजयोग का मरिचय देने के लिप किसी भी जनमंच से जब कोई सहजयोगी बोलता है तो वह छोड़ता है । उससे नीसिखिंया श्रोतागण अपनी सामूहिकता का प्रतिनिधित्व करता है। क्वता जो छाप न केवल कता को सुनते हैं परन्तु उनका ध्यान उसके राय बनाने का प्रयत्न करता है। श्रोता वेशभूषा पर भी होता है। वे ये देखते है कि क्वता का भाषण उसके दृढ किश्वास को दर्शाता ै । अलंकरित या आडम्बरपूर्ण भाषण श्रोताओं की आत्मा को जागृत नहीं कर सकते। व्यवकति को से बोलना चाहिए और अनुभवगम्य बात करनी चाहिए। आत्मोत्यान की वास्तांवक चिन्ता मनुष्य में हैए। यह चिन्ता मनुष्य के चेहरे से प्रक्ट होनी चाहिए इसके लिए भिन्न दिशाओं में हाथ नही शहिए। लम्बे भाषण नहीं देने चाहिए। अपनी भाषण कला में ही प्रायः व्याव्त खो जाता है। लक्ष्य को 1 बुद्धि-प्रदर्शन अहे की वृद्धि करता है। बिना अत्यधिक गर्भीर हुए कता की मुखाकृति सौम्य होनी , शालीनता तथा सन्तुलन पूर्वक उसे स्वयं घा उसकी वाणी से आनन्द रस टपकना चाहिए गोरव त करना चाहिए तथा उसकी वेपभूपा औपचारिक और बाल उचत प्रकार से बने होने चाहिएं। सामूहिक सभाओं में केन्द्र चालकों को लम्बे भाषण नहीं देने चाहिए। भाषणों को कम करके उन्हें जी के टेप सुनवाने चांहिए। केन्द्र चालक, श्री माता जी तथा सहज-योगी के बीच माध्यम नहीं यह नहीं भूलना चाहिए कि श्री माता जी के आडियो तथा वीडयो टेपें में उनकी लहारयं हैं जो अशुद्धियों को दूर कर सहजयोगियों को आत्मानन्द के अनुभव प्रदान करती है। सखेद की बात है तक बहुत से केन्द्रों ने न तो श्री माता जी के टेप मंगवाए हैं और न ही वे इन्हें सुनवा/दिखवा आडियो तथा वीउियो सूचना पिछले अंक में दे दी गई थी। आडियो/वीडियो टेपों की प्रतियाँ ब नाने या कोई साहित्य अधवा पुस्तिका छापने के लिए श्री माता नी व्यक्तियों/केन्द्रों को सर्त मना किया है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-19.txt 19 चैक्य लहरी 0661 शिशु पालन हेतु श्री माता जी का परामर्श मिआमी में श्री माता जी ने भारत तथा अमेरिका देशों में शिशु-पालन के विषय में बताया बच्चे विद्यालयों तथा दिवस-देख-रेख केन्द्रों में हैं उन अन-सहजयोगियों की समस्याओं के विष जिनके दम उत्तर दिया कि सहजयोगी और अन में जब श्री माता जी से पूछा गया तो श्री माता जी ने एक सहजयोगी सभी बच्चों को भारत जाना चाहिए तब उन्होंने भारतीय सहज-योग स्कूल के विषय में बताय औपचारिक तथा अनौपचारि बचचों में सुरक्षा तथा आत्म सम्मान की भावना स्थापित होगी। दोनों प्रकार की गतिवधियां वहां होंगी। भिन्न-भिन्न अध्यापक भिन्न गतिीवाधयों में मार्गदर्शन करेंगें संरक्षवं के व्यव्तगत गुणो के माध्यम से सुरक्षा की भावना स्थापित होती है केवल एक मात्र स्थायी संरक्षक क कि वहां जाकर होना आकश्यक नहीं। श्री माता जी ने बताया कि शिशुपालन भारत में सामान्य ज्ञान कहलाने वाली बहुत सी बातें भी पश्चिम के लोग नहीं जानते। उदाहरण के रूप में तेल में तली कस्तुओं को बर्फ सी ठंडी कोका कोला के साथ खाना, अति ठंडे पानी में तैरना, अत्यंत गर्मी से तपत अवस्था में जी ठंडे पेय लेना। यह पश्चिमी लोगों की बीमार करने वाली गतिवधियों के छोटे छोटे उदाहरण हैं । कला भारतीय सभ्यता का एक अंग है। कार्य को क्यों और कैसे किया जाता है इसके विषय में भारतीय माताएँ बच्चों से लगातार बातची करती रहती हैं। बच्चों से बातचीत करने के महत्व पर श्री माता जी ने बहुत जोर दिया। उन्होंने कह कि बच्चों की बात को सुना जाना चाहिये क्योंकि वे भी अत्यन्त समझदार हो सकते हैं । उनसे उन्हीं क आयु स्तर पर आकर बातचीत की जानी चाहिए ताकि वह समझ सके। अमेरिका में बच्चों को खिलाने देकर हम चाहते है कि बच्चे शांत हो जाये। "नहीं" कहने वाले बच्चे को किस तरह सम्भाला जाये जैसे नह मैं खाना नहीं खाना चाहता। इस प्रश्न के उत्तर में श्री माता जी ने परामर्श दिया कि अगले खाने तब बचचों को साने के लिए न कहा जाये। उन्हें समझ आ जायेगी कि यदि वह समय पर खाना नहीं खायेंगे लगेगी । तो भूख श्रीमाता जी ने कहा कि बच्चो को समझाने के स्थान पर अमेरिका में माता-पिता उन्हें चुप करा देते हैं। इससे बच्चों के आत्म-सम्मान के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। बचचे जब कुछ गलती कर रहे हों तो उसकी तरफ से आंख बंद कर लेनी चाहिए याद वे किसी क्तु को तोड़ दे तो उन्हें डांटना नहीं चांहिए परन्तु योद वे कोई अचछा कार्य करे तो उसके लिए तथा वस्तुओं की व्याख्या उनका मार्गदर्शन करती उनकी सराहना अक्श्य करनी चाहिए। बच्चों से बातचीत है। दिवस देख-रेख केन्द्रों में बच्चों की बीमारी के बाहल्य के विषय में जब श्री माता जी से पूछा गया तो उन्होंने कहा "हाँ, अमेरिका के लोग काफी बीमार हैं"। उन्होंने कहा कि मां के मध्य हृदय की समस्या 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-20.txt 20 के कारण ऐसा होता है। उन्होंने कहा मैं तुम्हारे हृदय की ठीक बीच में बैठी हूँ। एक शकितशाली मध्य हृदय की स्थापना माताओं के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत में ईश्वरीय चेतना के विपय में श्री माता जी ने व्याख्या पूर्वक बताया। कई कहानियों के माध्यम से उन्होंने समझाया कि किस प्रकार भारतीय ईश्वर की शवित को पहचान लेते हैं, स्वीकार करते हैं तथा उसका भय मानते हैं। अमेरिका में ईसाई मत पर भयंकर अंधकश्वास है। चर्च नेता ईश्वर के लेते हैं। इसाई मत की असत्यता को लोगों का न पहचान पाना श्री माता नाम पर लोगों से धन ऐंठ जी के लिए खेदपूर्ण है । विवाह संबंधों में तथा माता-पिता के रूप में स्त्री-पुरूष के संबंधों के बारे में श्रीमाता जी ने क्याख्यापूर्वक समझाया। भारत में माता - पिता के कर्तव्य सुर्पष्ट और निर्धारित है। पति पूर्णत; पत्नी पर निर्भर करता है श्री माता जी ने कहा कि विना उनके परामर्श के उनके श्री माता जी पर निर्भर करते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय पांतयों को पति कोई निर्णय नही लेते वे घरेलू कार्य का ज्ञान नहीं होता है और इन कार्यों में निर्णय लेना वह नहीं जानते। एक भारतीय सहजयोगी ने स्पष्ट किया कि भारत में उसके विवाह के समय उसे परामर्श दिया तुम राजनीति तथा अर्धनीति आदि के महत्वपूर्ण निर्णय लो और तुम्हारी पत्नी, घर ग्रहस्थी भारत में मातृत्व की गया धा को चलाने तथा बच्चों को पालने आदि साधारण कार्यों के विपय में निर्णय लेगी। 1. शवित को मान्यता प्राप्त है। श्री माता जी ने कहा कि माता-पिता को बच्चों के सामने कमी नहीं झगड़ना चाहिए। झगड़ालू माता-पिता के लिए बच्चों के हृदय में सम्मान विकसित नहीं होता। माता-पिता को एक दूसरे का सम्मान करते देखकर बच्चों के दिल में भी उनके प्राति सम्मान विकसित होता है श्री माता जी ने कहा कि अमेरिका में माता-पिता को शिक्षित करने के लिए हमें एक विद्यालय की आवश्यकता है। रुस की आगामी यात्रा में श्रीमाता जी इस विषय पर विस्तारपूर्वक बतायेंगी। शिशुपालन का ज्ञान अमेरका में लाने के लिए श्री माता जी ने कुछ परामर्श दिये जिनका अनुसरण किया जा रहा है |