चैतन्य लहरी 1११0 खंड 2 , अंक ।। व ।2 ३ पन क सहजयोग की स्थापना करने का उत्तरदायित्व हम सबका है। हम सर्व-प्रधम सहजयोग याद आप प्रसन्नचत्त नही है और यदि हंसी आपके अन्तस अपने अन्तस में स्थापित करना है। से फुट नही पडती तो आपमें कोई अभाव अवश्य है जिसका तुरन्त सुधार होना आवश्यक हे। देदीप्यमान श्री. माताजी निर्मलादेवी. श्री गणेश पूजा तिरोल - आसंट्या 26 अगस्त ।990 श्री माता जी का भाषण श्री गणेश के समान सब के चैहरों पर भी अत्यन्त सुन्दर चमक है। आप आपके छोटे, बड़े या वृद्ध होने से कोई फर्क नही पड़ता। श्री गणेश के हमारे अन्दर प्रवाहित श्री गणेश क्योंक सभी देवताओं की शंवत का स्त्रीत होने से ही हमें सौंदर्य प्राप्त होता है। है इसलप उनकी प्रसन्नता की अवस्था में हमें किसी ऊन्य देवता की चिन्ता नही उपकुलपात की भात वे हर एक चक् पर विराजमान रहते है । का उत्थान नही हो सकता क्योंक श्री गणेश जी की आदि-कुमारी-गारी माँ है। सब की श्री गणेश जी के प्रति उदासीनता करनी पडती। उनकी इच्छा के विना कुंडलनी कुंडोलनी पाम ही पाश्चात्य समाज की कठिनाइयों का कारण हम ईसा अवतीरत हुये और उनका संदेश विश्व भर में फैला। है। ईसाई लोग उनकी बताई गयी बातों के अनुसार आचरण नही करते । उनके विश्वास का आधार सत्य नही है। सत्य यह है कि ईसा के रूप में श्री गणेश ही अवतरत हुये। लोग श्री गणेश के प्रकाश में ईसा के महान अवतरण को समझे। याद यह सत्य है तो इसाई उन्होने लोगों को बताया नहीं होनी चांहिये"। कि "आपकी दृाष्ट अस्वच्छ कि अस्वच्छ मली दृष्टि क्या होती है क्योंकि वह तो केवल देखता मात्र है संत ग्यानेश्वर ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा " । अबधिता के इसी गुण को हमारे प्रभु नही जानता वास्तव में कोई महात्मा यह क है "नरंजनी पाही अर्धात विना किसी प्रति-करिया के देखना ईसा प्रकाश में लाये। परन्तु हमने इस गुण को आत्सात नही किया। आज आप श्री गणेश की पूजा कर रहे है पर इस पूजा का अभप्राय क्या पूजा के माध्यम से आप अपने गणेश को जागृत कर उनके गुणों को अपने अन्दर लाना है? श्री गणेश की अबोधिता का अनुभव आपको अपनी दृष्ट में होना चाहिये अभ्यथा यहां बैठ कर श्री गणेश की पूजा करते हुये याद श्री गणेश की तरह आपका चाहते है। आप पावन्ड है। चित्त अपने उत्थान की ओर नही है तो आपकी पूजा व्यर्थ है। श्री गणेश शाश्वत शिशु है। अहं तथा बंधनों से वे परे है। हमें भी अपनी माँ के शाश्वत शिशु बनना है। इस अवस्था उठाना है और सहस्रार में संधार करके अपने को प्राप्त करने के लिये हमें अपनी चित्त को आंधकांधक समय वहां रख कर, बिना किसी प्रांतांकया के , ध्यान मग्न रहना है । कुंडॉंलनी को "प्रंति किया विहीनता" का अभिप्राय केवल देखना मात्र है । में साचे जब आप देखते है तो सत्य, जो कि वास्तव में काव्य है, प्रकट होता है। बिना इसके विषय यही कारण है कि एक कवि किसी साधारण व्यवत से आधक देख पाता है। अन्तीनाहत सौंदर्य आपके अवलोकन में भर जाता है और आप भी इसे देखने लगते है । है वे जिस भी जाति या देश से सम्बन्धित हो प्राय ः अंत सुन्दर होते है । आपने बच्चे तो देखे जापान में एक कुछ पश्चिमी माहलाओं ने यह कह कर कि "जापानी बच्चे बार में एक मंदर में गयी । बच्चे दौड़कर आपको डाइन कहेंगे" मुझे वहां जाने से रोका। मुझसे चिपट गये, वे मुझे वहाँ से जाने ही न दे रहे थे तथा मैरी साड़ी तथा हाथों को मैं जब वहां गयी तो सभी मुझे आश्चर्य हुआ कि जो बच्चे मेरे तथा मेरी पुत्रियों के प्रति इतने मधुर रहे धे। चूम धे वे उन महिलाओं को डाइन कैसे कह सकें। उन बचचों की माताएं भी हैरान धी क्योंकि प्राय ः वे विदेशी महिलाओं को डाइन" तथा पुरूषौं को "राक्षस" कह कर बुलाते थे । तब मुझे अहसास हुआ कि उनके अन्दर श्री गणेश जागृत हो गये है। जन्म के समय सभी का सभी पशुओं का, विशेषतः पक्षियों का, गणेश तत्व पूर्णतया गणेश तत्व जागृत होता है। पक्षी साइबेरिया से आस्ट्रेलिया तक दूरी उड़ कर पार कर सकते है । अवंड होता है। दिशा श्री गणेश ही उनके अन्दर का चुम्बक है। हमारे अन्त ःस्थित ज्ञान श्री गणेश की देन है। यह चुम्बक अबोध तथा निष्कपट व्यवतियों के लोगों को हमसे दूर भगाता है। को हमारी ओर आकार्षत करता है तथा रक्षस प्रवृति इसे चुम्बक में यह दोनों गुण निनाहत है, यह कपटी मनुष्यों को हमारी और आर्कार्णत करता है। लागों की हमसे दूर भगाकर निष्कपट यही कारण है कि अपने भरसक प्रयत्न के बाबजूद हम कुछ लोगों को सहन नही कर सकते। श्री गणेश ही इसका कारण है। पश्चिम में लोगो ने श्री गणेश तत्व की विकृति के विषय में बहुत कुछ कहा। दूरदर्शन तथा यत्र-तत्र इसके विषय में बताया गया। सै पीड़ित है। छोटे छोटे बच्चे गणेश तत्व की समस्याओं दूषित वातावरण के कारण वे इन समस्याओं के शिकार हो जाते है। लोग पान्डियों की तरह अड़ जाते है तथा उनका गणेश तत्व विकृत हो जाता सहजयोग में भी कुछ परन्तु ऐसे लोगों का पक्ष लेने वाले व्यव्त भी है। और देने बाले दोनों के लिये छुटकारा नही पा सकता तथ सहानुभुति देने वाला व्यक्ति भी उन्हीं समस्याओं में फंस जाता है| पर बैठ कर श्री गणेश अधर्वशीर्ष पढो तथा श्री गणेश का ध्यान करो। है। इस प्रकार की सहानुभूति पाने हानिकारक है क्योंकि पानेवाला अपनी धरा मो काम आपकी समस्यं का अंत हो जायेगा। उन समस्याओं के हिस्सेदार बन रहे है। आप वास्तव में किसी वर्याक्ति से प्रेम करते हैं और उसका हित चाहते है तो उसकी ऐसी समस्याओं है कि आप भी से सहानुभूति सह+अनुभुति का अर्ध किसी भी अनुचित वस्तु का साध मत दो। रयाद त्रुटियां अवश्य बता दो। ৮ लोगों को भी विवाह के लिये उत्सक सहजयोग में मैनें कई सन्तर वर्ष के वृद्ध आपके पास बहुत से सहजयोगी मैरे लिये कभी पेसा अकेलापन नही होता जब में वास्तव में स्वयं को अकेला पाऊं। पाया है। सहजयोग में अलेकलापन तो सम्भव ही नही। होते है। अकेले में में सर्वाधिक आनन्द लाभ करती हैं क्योकि यही वह समय होता है जब हम अपनी उपलब्धियों पर दृष्टपात करते है । मूलाधार की समस्याग्रस्त सभी व्यव्ति जान ले कि ये समस्याएं न्क में जाने क पत्र है क्योकि मूलाधार की समस्या के कारण ऐसे रोग उत्पन्न हो जाते है का पक्का प्रमाण मल्टीपन स्लैरोसिज, मांस पेशियों की विकलांगता आंद कहते है । जिन्हें चिकित्सक असाध्य रोग मूलाधार की समस्या के कारण कैसर का भी आरम्भ हो सकसता है। अन्य देशों की अपेक्षा देशों में अंधक केंसर क्यों पाश्चमी होता है? मूलाधार की सराबी के कारण स्कजीफेनया रोयग एडस मूलाधार की समस्या के सिवाए कुछ भी नही । को मृत्योन्मुख एडस् के सिपाही कड कर याद आप अपना बालदान करना चाहे तो हम ऐसे भी हो सकता है। फिर भी स्वयं मूखों के लिये क्या कर सकते है। क्योंकि श्री गणेश ही सुबुद्ि बुद्धिहीनता भी मूलाधार की विकृति के कारण होती है आप विवेक कैसे पाते है? केवल श्री गणेश को के दाता है। जागृत करके । भारत से बड़े आकार की चूंडियां लाने को कहा तो मुझे बताया गया कि आजकल बड़ी चूंड्ियां लोग भिन्न प्रकार के आवश्वसनीय मूर्खताएं करते है। जैसे हाल ही मैं पुरुषों ने चूंड़िया पहनने चुड़िया देने का अभिप्राय उसके पारूष चुंड्यां अमेरिका चली जाती है क्योंकि वहां के उपलब्ध नही है। बड़ी भारत में किसी पुरुम को मूलाधार ठीक न होने के कारण यह सब मूर्खताएं होती है। का निर्णय किया है। को चुनाती देना होता है। में ,उदाहरण के रूप में हम सब स्त्रियां साडीयां पहनती है क्योंकि इस प्रकार हम ग्रामीण साड़ीर उद्योग की सहायता करती है शरीर प्रदर्शन न करके हम स्वयं को अच्छी तरह से ढक सकरती है और तीसरा लाभ यह है कि साई़ी पहनकर हम अपने बच्चों का पोणण सुगमता से कर भारत लोग तर्क संगत विधि से नही सेोचते सकती है। । अतः साड़ी पहनने के कई कारण है परन्तु वे सौचते है कि साड़ी पहनना बहुत व्यवहारिक है तथा भारत में परम्परागत इसका प्रयोग मान लीजये र्याद आप स्त्रियों को साड़ी के स्थान पर कुछ और पहनने को कहे तो यह उन्हें स्वीकार्य नही होगा क्योंकि उनके विचार में साड़़ी संन्दर्य तथा स्त्रीतत्व वृद्धि करती होता है। तलि भारतीय ग्रामीण स्त्रीयां इसमें कोई परिवतन नही करेगी। है। वे परम्परावश विवेक की उस अवस्था तक पहुंच चुकी है कि विदेशों से आये फैशन उन्हें प्रभावित नही कर सकते। पौश्चमी देशों में धोड़ा बहुत बाकी का विवेक भी बाहर जा रहा है। सारे लीग पॉप तथा ऐसा शोर जो आपके शोर-शराबे के संगीत में एकत्र हो जाते है। तथा हिला देने वाले भयंकर इस प्रकार के कार्य विवेकहीनता है। कानों में घुसकर आपके कानों को बहरा कर दें। हर मुझे बताया गया है कि लौग यहां समय वे किसी न किसी प्रकार की उत्तेजना चाहतै है। वर्फ फिसलन के लिये आते है और मैने लोगों को पैराशूट से कूदते हुये भी देखा है । एक है। भारतीय जानता है कि किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा उसका शरीर आंधिक महत्तवपूर्ण यह बहुत से लोग इसके लिये अपने अंग तथा जीवन तक से हाथ धो बैठे। विवेकशील सब उत्तेजना क्यों? विवेकहीनता लोगों के लिये इस प्रकार की उत्तेजना का बहुत आकर्मण होता है। व्यव्ित इस प्रकार की मूख्खतापूर्ण कार्य नही करते। ा श्री गणेश शिशु होते हुये भी विवेक के दाता है । अंत : हम कह सकते है कितने विवेक से वे बातचीत कि विवेक मार्ग पर चलाये जाने पर बच्चे ही विवेक के दाता है। क उनमे से कुछ तो मुझे पूर्ण विश्वास में लेकर आप लोगों की गांतांवाधयीं के विषय श्री गणेश नै आपकी करते है। क शिशु विहीन जगत पुष्प विहीन मस्स्थल सम होता और मां के गर्भ में है। में बताते है। ही आपकी रक्षा रचना की, उन्ही के कृपा से आप उत्पन्न हुये की। आपका पौषण तथा उपयुव्त समय पर आपके अवतरण का दायित्व भी उन्हीं का धा। एक सरल ग्रामीण व्यक्ति अत्यन्त व्यवहारिक तथा मास्तिष्क विकास भी उन्होने ही किया। एक बार एक साध ग्रामीण व्यकत कुछ तेज तर्रार लड़कों के साथ रेलगाड़ी ग्रामीण को तंग करने के लिये एक लड़के नै प्रश्न किया विवेक्शील होता है। कि र्याद में यात्रा कर रहा था। मक्वन की दर पर बिक रहा हो तो अगले स्टेशन पर अन्डे का क्या मूल्य और ्याद आप अन्डे का मूल्य नही बता सकते तौ कम से कम मैरी उम्र ही बता चौथाई पाउन्ड होगा? "तुम बाईस वर्ष के होगे" ग्रामीण ने कहा। ग्रामीण ने उत्तर दिया कि मैरा एक ग्यारह वर्ष का भाई है जो कि आधा पागल है वींजिये। लड़के ने पूछा "आप कैसे जानते है"? अबोधिता के सन्मुख सारी चुस्ती और चालाकी मात खा जाती अबोधिता तुम तो पूरे पागल हो। बहुत से लोगों में ये भावना है कि हम अपनी अबधिता को खो चुके है। और है। एक आन्तरक गुण है, जिसे हम कभी नही खोते। कर लेते है उसी प्रकार आपके अहम बन्धनों और त्रुटियों के बाबजूद भी अबोधिता सदैव विद्यमान जिस प्रकार बादल पूरे आकाश को आच्छादत रहती है। आपको केवल इसका सम्मान करना होता है तथा इसके प्रति सम्मान प्रदिशत करते अबोधिता हुये आचरण करना होता है। स्वयं ही विवेक प्रदान करने वाली एक शक्त है जिसके दारा सुगमता से आप अपनी समस्याएं अबोधिता के इस गुण को लज्जाजनक न माने । सुलभ्झा सकते है। गहन रूप में यांद आप देखें तो श्री गणेश आदि शांवत मां के बच्चे है । औकार से इनकी रचना करती है। आदि शवित मां औकार " ही "शब्द" है। यह प्रधम शब्द है जब सदाशव उस ध्वांन को औंकारं रुप में प्रयोग किया उनके दायें भाग में सभी तत्वों के अणु अलग हुये। शांकत सूृष्टि रचना हेतु और आदि गया, ओंकार अ्थात प्रकाशपूर्ण चेतन्य लहरयां। इसके मध्य में आपके उत्थान की शक्ति निहित है। है और बायें भाग में मनोभाव । वह शिशु कभी अत्याचारी नही होते। याद मां के विरूद्ध कोई कार्य किया जाये तो वे भड़क श्री गणेश भी अत्याचारी नही है। विनोदशील हैं । परन्तु कर अपराधी को दण्ड देते हैं और इस तरह से दैवी न्याय मानव तक पहंचता है। याद हम श्री गणेश के प्रांति समर्पण कर दे तो वे हमारी रक्षा करते है तथा आदि शक्ति मां के अंतारवत तथा मां की मर्यादा प्रदान करते है । विवेक, उचित सूझबुझ ा वे जानते है कि उनसे अधिक शवितशाली कोई भी वे किसी अन्य देवता को नही जानते। देवता नही। यही उनका विवेक है और प्रा्थना के समय आप भी इसे आत्मसात कर ले। पश्चिम में अभी भी बहुत से लोग दूसरों की नकल करने के इच्छुक है । ईश्वर की कृपा से आप सब वे गलत विचारों में फंस कर सत्य से वाचत रह जाते है। अब आप दैखिये कि पश्चिमी समाज किस तरह नर्क में इन बन्धनों से मुक्त हो गये हो। ा इसको समझने का प्रयत्न करते हुये आप स्वयं को एक पूर्णतया भिन्न अवस्था फंस गया है। परन्तु अभी भी आपके बीच कुछ ऐसे लोग होगें इस तरह के आंस्थर लौगो को बाहर फैकने का प्रयत्न में पाकर उस अवस्था का आन्नद लीजीये। जो बन्धनों के झूले पर सवार है। कीजीये, सहानुभूतिक्श उन्हें अन्दर धसीटने का प्रयत्न न कीजीये । करते है तो उनके साथ आपका भी पतन हो जायेगा। पीड़त तो करेंगा परन्तु इस प्रकार उन्हें उनसे सहानुभूति उनकी त्रुटियां उन्हें बता देना उन्हें याद आप विश्व में आप उद्धारक के रूप बचाया जा सकेगा। श्री गणेश की शक्ति आप में विद्मान है, आपको इसका प्रयोग करना है । में है। हुये हुये विशेषतया उनकी पूजा कीजीये। अपने हृदय में श्री गणेश से दया, करूणा तथा क्षमा की याचना करते होने की प्रार्थना करते उनसे अपने अन्तस में प्रकट आइये हम सब अपने बंधनों, दुर्शवचारों तथा दोषपूर्ण जीवन को वायु विलीन हो जाने दे तथा अपनी अबोधिता की कोमल तथा सुन्दर चांदनी को प्रकट अपने अन्तस से पूर्व पाखन्डो, प्रवाहत होने दे। आईये हम इन गुणों को उद्धाटित करे। देवी शक्ति से परिपूर्ण देश आर्सट्या में आज हम लोग है। कटटरपन के अभाव के कारण यह देश अत्यंत अदृभूत है। अपनी सामान्य आंखों से ही दैवी कृपा की वर्षा हम देख सकते है। वर्षा की स्थिती न होते हुये भी आज दैवी कृपा को हम देख सकें। निष्कपट बनने का प्रयत्न कीजीये। चातुर्य हमारे लिये आवश्यक नही। चातुर्य आपका मानसिक दृष्टिकोण है तथा अबोधिता आपका अन्त ःजात गुण है जो कि सर्वत्र ईश्वर आपको धन्य करें। व्याप्त शंवत से सम्बद्ध है। श्री कृष्ण पूजा वार्ता सायंकालीन इपेविक हइंगलैंड ।9-8-90 श्री विष्णु की विकास प्रक्रिया से किस प्रकार सब कुछ विकसति हुआ? हमें इसका हान होना चाहिए। श्री विष्णु के दस अवतार हैं। श्री विण्णु बद् कर विराट, ब्रहइमांड रूप धारण करते हैं। हमारे अंदर विष्णु तत्व की स्थापना अंति सुन्दर रूप से है। इसी के परिणाम स्वरूप हम धन, सत्ता, प्रेम, बच्चे तथा अन्य सभी प्रकार की बस्तुएं पाना चाहते हैं। विकास प्रक्रिया, जिसके कारण हमे विकसित हुए, विष्णु तत्व की सबसे बड़ी देन है। सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्प में भी हमारा विकास हुआ। एक समय भारत स्वतंत्र देश धा फिर यह परतन्त्र हो गया तथा फिर प्रजातन्त्र। अंग्रेज लोगों ने भारतियों के बहुमत को देखते हुए विवेक से कार्य लिया तथा भारत छोड़ दिया। समस्या का सामना जब हम करने लगते हैं तो हमें पता चलता है हम स्वयं ही इसके जन्म-दाता हैं। समस्या के समझने से हमारे अन्दर विवेक जागृत होता है। हमारे मध्य र्नायु-तंत्र पर जागृती की यह घटना विपरीत पशुओं में हर चीज़ अन्तःरचित होती है। वे पशु अर्थात पाश व३ होते हैं। विवेक या मुर्खता को समझने के लिए उनकी कोई पृधक पहचान या व्यावतत्व नईीं होता। विवेक, विकास की महान महानतम उपलब्धि हैं। विकास प्रक्रिया विवेक की रचना करती है। इसके देन, मानव को ही प्राप्त है। प्रयास ओर त्रुटि यों या आत्मान्वेषण के कारण प्राचीन देशों में इस विवेक का विकास हुआ। अब हम देखते हैं कि मुस्लिम देशों समेत बहुत से अन्य देश इस मूर्ख सद्दाम हुसैन का मुकाबला करने के लिए संगठित हुए हैं हिटलर दिया धा और बाकी उसके विरोध में धे। अतः दो प्रकार के लोगों के होने के कारण एक किभाजन के काल में कुछ देशों ने उसका साथ सा हो गया था। परिस्थितियों की रचना हमारी अपनी सृष्टि तथा त्रुंटियों से तो होती ही है परमचैतन्य भी इनकी रचना करता है। अपनी मूर्खता को पहचान कर अपना दृष्टि-कोण बदलने के लिए ही जाता है। विवेक एक प्रकार का प्रकाश है जो कि आपकी समझ को प्रकाशित मछली, मछुआ, वामन अवतार जीयस के रूप में विकसित हुए। फिर वे श्री राम के रूप में आये। वे अतयन्त विवेक्शील, सतर्क, सावधान, औपचारिक तथा सुन्दर व्यक्ति धे। अपनी आपको दौडत किया करता है। देवताओं का विकास भी मानव-वत ही हुआ। जैसे विष्णु के बाद यूनानी पोराणिक कथाओं के पुरूमोत्तम कदव ॥=ि सारी शक्तियों को जानते हुए भी उन्हें अपना विष्णु-अवतार भूलना पड़ा। उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम बनना पड़ा। अर्थात धर्म -सीमाओं में रहते हुए मानव आदर्श उन्हें स्थापित करना पड़ा। यह गुण आज पूर्णतया मर्यादा विहीन व्यक्ति ही विश्व में सफ्ल हैं । ते आज के मानव के विपरीत है क्योंकि 8. संचालन कार्यो में पेसे लोगों का महत्तव- ऐसे व्याक्त का आचरण अत्याचारपूर्ण तथा हास्यास्प्रद होता है । पूर्ण स्थान प्राप्त कर लेना आश्चर्यजनक है। बार लौग ऐसे मनुष्यों को पसन्द करने लगते हैं। मानवीय-त्रुटियाों के कारण ऐसा होता है क्योंकि कई परिपीडन-शील तथा यान-विकृत लोग भी होते यौन विकृत लोग अभत्रस्त होकर तधाकोधत मर्यादाविहीन लोगो के प्रांति श्रद्धावान हो जाते है । एक निरंकुश शासक की ऐसी शक्त के कारण फिर कुछ ऐसी घटना होती है कि लोगों को अपनी गलती का बोध होता है । उनकी शारीरिक शाक्त से तोग बहुत प्रभावित होते है । देश दास बन सकता है। 12 जैसे जर्मन लोगों को हिटलर की गर्लातयों का बौध अब हुआ समस्याओं की अपेक्षा स्ढ़ीबादी समस्याएं आंधक है। राजनैतक यह सढ़ीवाद राजनीत में अल्जीरिया भी धुस गया है। तधा इस्ताम्बूल के लोगों मुझसे रूढ़ीवाद की समाप्त करने की प्रार्थना की है । मुसलमानों में न होकर हर स्थान पर है। सत्य पर आधारित न होने के कारण इसका झुकाव या तो दाएं को हो जाता है या बाएं को। रूट्रीवाद के डर के कारण लोग अवश्य ही इसे समाप्त कर देंगे। |३ यह समस्या केवल हर धर्म में कट्टर लोग है इसका कारण क्या है? दाई ओर झुकने पर यह कटूटर पंध बन जाता है और बाई और के झुकाव से लोग आत्महत्या आदि अपराध सत्य वही जैसे उस दिन टोरेन्टो में एक स्त्री भेंटकर्ता ने मुझसे पूछा "भारत भंयकर ओभशाप है" मैने उत्तर दया। उसने करने लगते है। कट्टरवाद का मूल कारण धर्म का सत्य पर आधारित न होना है है जिसे प्रस्तुत किया गया धा। में जाति प्रथा के विषय में आप क्या सोचती है"? कहा "फर वहां जांतयां क्यों है?" श्री राम की जीवनी बाल्मीकी नै लिखी धी जो कि सन्त बनने से पूर्व डाकू धे। वे मछुआरे थे ब्राहम्ण मैने कहा प्रारम्भ में जाति जन्म से न होकर कार्य से होती थी। गीता के लेखक व्यास एक मछुआरिन ऐसे व्यांक्त में गीता लिखने की योग्यता कैसे आ सकी? गीता में गलत बातें नहीं। पर आत्म-साक्षात्कार पाकर एक मछुआरा ब्राहम्ण बन गया। की अवैध संतान धे। भर दी गयी है कि जाति का संबंध आपके जन्म से है । इसाई धर्म में ईसा ने कहा है "आपकी दृष्टि अस्वचछ नही होनी चाहिये "| मैने उस भेंटवार्ता से पूछा कि व्या तुम पांश्चम में एक भी ऐसा व्याव्त दिखा सकती हो जिसकी ईसा क्योंक आज्ञा पर आरूढध है उन्होनें दृष्टि की ही बात करनी क। है। दृष्टि पूर्णतया स्वच्छ हो। काी सहजयोग में सर्वप्रथम हमने देवी शक्त का अनुभव किया, अनुभव ही शिक्षा का स्त्रोत है। फिर एक सुन्दर सामुहिक जीवन का अनुभव और अब वास्तव में हमें लगता है कि एक ही मां की सन्ताने हम सब एक ही परिवार के सदस्य है। हम इस सत्य को जानते हैं और हमें इस पर हमें वह प्राप्ति हुई जो कोई अन्य अवतार न दे सका। पूर्ण विश्वास है। उन सबसे अधिक समय काफी कार्य हो गया है, यह सोच कर सभी अवतार तक टिक पाना उन उपलब्धियों में से एक है। यहां तक कि सन्त ग्यानेश्वर जैसे व्यावत नै भी तैईस वर्ष की आयु में शी् ही लुप्त हो गये। याद अवतारों की यही अवस्था हैं कि विश्व को देखते ईसा सूली पर चढ़ गये। समाध ले ली। ही वै बोरियां बिस्तर बांध कर कूच की तैयारी कर लेते हैं तो मैं समझती हूँ कि में उन सबसे कहीं बाकी अवतारों मेरा उत्तरदायत्व भी भिन्न प्रकार का है। हूँ और अभी तक कार्यरत हूँ। बहादुर उन्होनें केवल भाषण देना होता धा। ने किसी को आत्म सक्षात्कार नही देना होता था। भाषण में समझती हूं "हमारी परीक्षा अत्यन्त काठन हे"। देकर संसार से चला जाना आंत सुगम है। बहुत से देश सहजयोग से जुड़कर स्वयं इसका परीक्षण कर रहे हैं , स्वभाव तथा स्तर के, भिन्न प्रकार के बन्धनों तथा अहॅ ग्रस्त लोगों पर मिन्न प्रकार हर बार मुझे कुछ नवीनता मिलती है। दूसरे गुरूऔं तथा अवतारों के लिये कार्य करना अत्यन्त साधारण धा क्योंकि उन्होंने कार्य करना हमारी प्रधम परीक्षा है। फिर भी मैनें अच्छा कार्य किया है। सत्य कार्य के लिये केवल सचे लोगों को ही चुना। सभी सहजयोगियों का उत्तरदायित्व उन पर सभी शिष्यों को अपने परिवार, बच्चे तथा भौतिक उपलब्धयों का त्याग करना पड़ता धा। न धा। यहां तक कि शंकराचार्य ने भी अपने शिष्यों को सन्यास लेने के लिये कहा। ईसा बुद्ध महावीर अपने बच्चों, पात्नयों तथा दासों का बोझ अपने सिर पर त सभी के शिष्यों को सन्यास लिना पड़ा। लादे रखना वे न चाहते थे। इसके विपारत सहजयोग में हम यह दर्शाना चाहते हैं कि इस संसार में रह कर भी मनुष्य आत्म-साक्षात्कार पा सकता है। इसके लिए सब कुछ त्याग कर मरने लिए हमें हिमाललय पर जाने की आवश्यकता नहीं है। का के इसी संसार में रह कर कार्य कर ते हुए यही सहज योग को प्रातिष्ठत करना है। यह कांठन कार्य है फिर करूणा के गुण से हम इस कार्य में सफल हुए। करूणा के बिना हम सफल न हो पाते। भी चाहे आपके हों, जैसा भी प्रबन्ध आप कर लें जो भी प्रयत्न आप करें, अच्छे से अच्छे शिष्य विवेक का प्रकाश सभी कुछ असफल हो जायेगा। कैवल करूणा को ही प्रकाशत करता है। विकास प्राकया के मार्ग पर अग्रस र हम सबको अपने अंदर करूणा की मात्रा का केवल अपने परिवार, सम्बन्धिरयों तथा देश के लिए ही नही पूरे विश्व के लिए अन्तस तोलना है। निहित करूणा को। दूसरी बात जो हमें जाननी है वह यह है कि जितने भी अन्य लोग पृथ्वी पर आये किसी ने भी अपने देवत्व का कोई पक्का प्रमाण नही दिया। परन्तु मेरे, आपके अपने तथा आपने फेटोग्राफ तो देखे ही जो वस्तुएं दृष्ट से दिखाई नही पड़ती उन्हें इसके बावजूद भी इस विकास प्राक्या का परीक्षण हमारे अन्तस में होना सवत् व्यापक शक्ति के देवत्व का प्रमाण आपको प्राप्त हो गया है। है। कि प्रकार अदृष्य जगत में कार्य हो रहे हैं। कैमरा पकड़ रहा है। 10 चाहिये और यह प्रकृिया हमारी श्रद्धा का अंग प्रत्यंग बन जानी चाहिये। यह अन्धावश्वास न होकर ऐसा विश्वास है जैसे आप फूलों को देखते हैं। चाहें तो हम यह कहेंगे कि पागल न होते हुये भी आप पागल होने का दोंग कर रहे हैं । पूल देखकर भी यांद आप उनके अास्तत्व को नकारना इस प्रकार का अवतरण हमारे सामने हैं, अपने व्यक्तित्व में कुंडलनी जागृति से गांत प्राप्त विकास प्राक्रया के कारण हम बहुत ऊंचे उठ गये है तथा समय और अपराध से परें हमें अवश्य इस सत्य को, कि हम एक महत्वपूर्ण युग में उत्पन्न हुये हैं। उतार लेना मुख्य समस्या है। फिर भी हम अपनी पदवी नही ग्रहण कर रहे हैं । अन््तारछ में निवास कर रहे हैं। यद्याप में बहुत सारदी प्रतीत होती हैूँ और बातचीत भी सादे ढंग से अपना स्थान लेना चाहिये। करती हैं फिर भी मेरे विषय में आपके हृदय में कोई भय नहीं होना चांहये। परमात्मा दारा आपको दी गयी शक्तयों का आपको ज्ञन होना चाहिये। आप ही वह विशेष व्यक्ति है जिसे परमात्मा के सभी वरदान प्राप्त है। निसन्देह धन के बदले दैवी-वरदान नही मिलते ने यह सोचकर आपको यह उपहार दिदया हे कि आपमें कोई महान कार्य करने की योग्यता हे तथा आप परमात्मा की । परमात्मा की करूणा योजनाओं को कार्यान्वत करेंगे इसी कारण आपको यह शोवत प्रदान की गयी है। विकास प्राकया में श्री राम ने अपने जीवनकाल में ही उन सारी बातों को व्यवहारक परन्तु अभी विकास की एक और सीढ़ी की आवश्यकता थी और यह विकास श्री रूप प्रदान किया। कृष्ण के रूप में, श्री विध्णु यह कधन कि पूरा विश्व एक लीला है और आपको चीजों के विषय में गम्भीर नहीं होना है । सहजयोगियों को पहले श्री राम की तरह बनना है । के सम्पूर्ण अवतार दारा हुआ। कृष्ण का पूर्ण रूप क्या है? उनका परन्तु श्री विष्णु को भी पहले श्री राम बनना पड़ा हमारे लिए अभी तक श्री राम की ही अवस्था है। श्री राम को बहुत से त्याग करने पड़े, दुख उठाने पड़े तथा इस सीमा तक अपमान झेलना पड़ा कि उन्हें अपनी पत्नी का भी त्याग करना पड़ा और सीता के लुप्त हो जाने के कारण वे पुन एक दूसरे से न मिल सके । सहनी पड़ी। इतनी यातनाएं उन्हें कि सहजयोंगियों को भी यह सब यातनापं झेलनी है| मैं यह नही कह रही हूं सहस्रार से ऊपर जाकर क्योंकि आपका पुनर्जन्म हुआ है अतः आपको ईसा दारा झेली गयी यातनाओं की चिन्ता नही करनी है। र्पारवार सुख-सुविधाएं, इन वस्तुओं धन आदि सभी वरदान आपको प्राप्त है। के लालच में याद आप आ गये तो आप जाल में फंस सकते हैं। तो जीवन केवल लीला या आनन्द मात्र ही नहीं है । याद श्री कृष्ण सम बनना चाहते कंस को मार कर पारिवारिक तथा प्रजा इसी प्रकार हमें की काठनाइयों का अन्त करने के बाद ही उन्होने कहा कि जीवन एक लाला है। तभी हम जीवन को लीला कह के कंस तथा अन्य राक्षसों का बध करना है। भी अपने अन्तस एक ओर तो वे गोप गोपियों के साथ लीला करते थे उनके जीवन के दो पहलू थे । सकेगें। और दूसरी और बड़े बड़े कार्य। करने के लिये उन पर प्रलयंकारी वर्षा शुरू कर दी तो सहज ही में श्री कृष्ण ने अपने हाथ पर एक दिन ईष्ष्या के कारण जब इन्द्र ने सभी गोप-गोपयों को समाप्त इस प्रकार उन्होंने दर्शाया की सब एक पर्वत उठा लिया तथा सभी लोग उसके नीचे आ गये। श्री कृष्ण अच्छी तरह जानते थे कि वे विष्णु-अवतार है और अपनी पूर्णवस्था कुछ लीला मात्र है। तक पहुंच चुके है और अब उन्हें लीला की अवधारणा को स्थांपत करना है। भी इसी प्रकार से, जीवन एक लीला मात्र बन रहा है। सहजयोगियों के लिये हमें सर्व- प्रथम सहजयोग सहजयोग की स्थापना करने का उत्तरदायित्व हम सबका हे। याद आप प्रसन्नाचत्त नही है और ्याद हंसी आपके अन्तस अपने अन्तस में स्थापित करना हे। से पूट नही पड़ती तो आपमें कोई अभाव अवश्य है जिसका तुरन्त सुधार होना आवश्यक है । देदीप्यमान आनन्द तथा प्रसन्नावस्था में मुखाकृति तथा आनन्दमय मुद्रा एक सहजयोगी की प्रथम पहचान है। मुझे पता चला है कि केवल पांच प्रतिशत सहजयोरगी होते हुये भी हमें उत्तरदायी होना चाहिये। ही उत्तरदायत्व लेते है। मार्ग है। आप सबको उत्तरदायित्व लेना चाहिये क्योंकि उत्थान का केवल यही एक अपनी कामयां को जीवन लीला या आनन्द कहने मात्र से आपका उत्थान नही होगा। आत्मावलोकन होना ही चाहिये। बहुत से लोग अपने अन्तस में झांकना ही नहीं "मैं पेसा क्या कर रहा हूँ"? "मुझे ऐसा करने की क्या आवश्यकता थी"? ्खोज निकालये। चाहिये। स्वयं देखिये जैसे मुझे पता चला कि किसी एक व्यक्ति छोटी छोटी चीजों के लिए हम आंत क्षुद्र हो जाते है। इतने सारे लोगो में सभी को उपहार मिल जाना ऐसा हो भी सकता है। को उपहार नही मिला। इसके लिऐ शिकायत तो में चमत्कार ही मानूंगी। परमात्मा भी इसका वचन नही दे सकता। लहारयो का वास्तांवक उपहार तो आप पा ही करना या अपमानित महसूस करना उचित नही। इस स्तर के लोग बड़ी क्षुद्र बातें रहे है। अंत ः इस निम्न-स्तर से आपको ऊंचा उठना है। अच्छे बानये और अच्छाई के लिये कार्य कींजिये क्योकि बुरा बनना तो आंत सुगम है। कहते हैं। हमें अपने से उच्चावस्था जिस भी क्षुद्र व्याक्त को हम देखते हैं उसीका अनुसरण आरम्भ कर देते है । के लोगो का अनुसरण करना चाहिये। होगा । याद आप मेरे अनुयायी है तो आपको ऊपर उठना सहजयोग के विस्तार , पुर्णावलोकन तथा दिव्य दर्शन को आपने समझना है। क्षुद्रता के पीछे आप कैसे जा सकते है? है कि आप सहजयोग के लिये कार्य कर रहे सहजयोग क्षांतज से भी परे है। आपका सैभाग्य क 12 - इसकी स्थापना करने की शोक्त आप में है। अवलोकन काजये कि आप क्या है। इस विशेष कार्य के लिये आपको चुना गया है हैं। आत्म-दर्शन करने के उपराम्त अपनी भूमिका इस दिव्य कार्य में जब आप देखेंगे तो मुझे कुछ कहने की आवश्यकता न रहेगी। आप स्वंय कहेंगे "माँ आप ही सभी कुछ कर रही है, हमारे बिना कुछ किये सब हो रहा है " अपने हृदय में आप इस तरह सीचने लगते है और जब जब भी कौई कार्य करते है इसका आनन्द आप प्राप्त करते है। स्वयं को यंत्र मात्र मानते हुये जब आप कहने लगते है "मैं इसका आनन्द ले रहा हूँ, मैं कुछ नही कर रहा, श्री माता जी ही कर रही है", तब आप समझे पाते है कि आपके अन्दर विवेक जाग विवेक आपको प्रकाश प्रदान करता है। उस प्रकाश में आप समझ पायेर्गे कि लाला क्या उठा है। है , हमने आत्मानन्द कैसे लेना है तथा हमें दैवी कार्य को करने के लिये चुना गया है। कीचड़ में से हमे कमल सम लोगो की रचना करनी है । उदार, सुन्दर तथा सुगान्धत श्री कृष्ण की शोक्त परमाप्मा से मिल उपहार का ज्ञान हमें होना चाहिये। कमल हमें बनना है। तो जीवन लीला प्रतीत होने लगता है। जब आप प्राप्त कर लैते है आप में जब यह शोक्त्यां आ जाती है तो आप अपने सद्गुणों का आनन्द लेते है तथा दूसरे आपको देख लोगो को लगता है कि आपसे सीखने तथा जानने के लिये कुछ विशेष है। लोगो तक भी इसका प्रसार करत भा है। अपने चहूँ और फैली उत्तैजना अशोत को देखते हुये हमें आत्म-विवेक दारा इससे उपर उठना है । "ईश्वर आपको आशिष प्रदान करें सा 13 परम पूज्य श्री माता जी निर्मता देवी दारा श्री कृष्ण वार्ता इपैविक - इंग्लैड, 19. अगस्त ।990 हमने विशेष रूप से इंग्लैंड में ही इस पूजा का आयोजन किया है ताक आधक से आधक सहजयोगी आकर अपने में श्री कृष्ण तत्व की जागृत इसका विभन्न भाषाओं गीता बहुत समय पूर्व लिखी गयी| का कार्य कर सके। पर बहुत सी आलोचनाएं, व्याव्याएं और टीकाएं लिखी लोगों को भ्रामत कर दिया। में अनुवाद हुआ तथा इस गयी । आज गीता के इस दुष्प्रयोग ने बहुत से भी लोग इसे केवल पुस्तकीय ज्ञान के रूप में मानकर इसके व्यवसाय में लगे हुये है। मानव के ऊर्ध्वमखी होने में सहायक है लाकन घर्म वास्तव में श्री कृष्ण के कहे गये शब्दो को बड़े ही भ्रमपूर्ण तरीके से टीकाओं में प्रस्तुत किया आधानिक सन्दर्भ में पूर्ण रूप से सत्य उतरता श्री कृष्ण का यह क्थान गया है। है कि जब जब धर्म का हरास होता है और जब जब सन्तों को सताया जाता मैं सन्तों को बचाने, राक्षसों तथा नकारात्मक शांबतयो को समाप्त करने के लिये इस पृथ्वी पर आता हूं। श्री कृष्ण तत्तव की यह जागृत हमारे अन्तस: में होती अत्यन्त आवश्यक है अर्थात हमें उनके गुणों की मैं करना है तभी हमारी शांवतयां उांचत प्रयोजन के प्रांति कार्यरत होगी। जागृति एवं अनुगमन अपने अन्तस अपने बाल्यकाल में श्री कृष्ण ने बहुत से राक्षसों का वध किया। तत्पश्चात वे गोप और गोपयों की कुंडालनी जागरण के लिये उनके साथ सेले उन्होंनें अपने और उनमें श्री राधा की शाक्त को रास के दरा प्रवाहित कया। तात्पर्य यह है कि याद सबसे दुष्ट राक्षस धा। मामा कंस का व्ध किया जो अधवा रक्षसी प्रवृत के है तो उन्हें भी बुरे भी मारा जाना अत्यन्त आवश्यक सम्बन्धी दूष्ट सम्बन्धी को बचाना या उनकी बुराई पर है क्योंकि सहजयोग में किसी पर्दा डालना अनुचित है। में सहजयोग के समान कोई अन्य मार्ग नही संसार समस्त यह न केवल दुष्टों को सहजयोग छोड़ देने का अनुमात देता है ओपतु आवश्यकता पडने पर उन्हें सहजयोग से बाहर दैवक नियमों से आवद है तथा इसे इन नियमों से बंधे रहना है। है। फेंक देता है। कारण यह है कि सहजयोग श्री कृष्ण की कार्यशला यह धी कि बाहर फैंकने के बजाय दुष्टों को समाप्त ही कर दिया 14 अत : उन्होंने अपने मामा का वध किया। लेकिन सहजयोग में हम दुष्ट तथा हमारे उत्थान- जाप । अवरोधक, ईश्वर तथा आध्यात्मिकता विरोधी लोगीं को भी अवसर देते हैं। स्वयं के विनाश के लिए उन्हें पर्याप्त छुट दी जाती है। यह श्री माता जी के अवतार का मातृ-सुलभ पक्ष है। परन्तु श्री कृष्ण के पक्ष में अत्याधक आवेग है। श्री कृष्ण बहुत लम्बे समय तक नहीं रहे और उन्होंने धोडे समय में ही वहुत से रक्षसों का वध किया। वे पंडव पक्ष से लडे उन्हेोंने कोरवों को मारा यद्याप उनका कधन यह धा कि उन्होंने कारवों को नहीं मारा। श्री कृष्ण की कार्य शैली एक और तो मधु के समान अत्यन्त मधुर थी और इसी कारण उनके कृषाकांक्षी उन्हें माधव के नाम से पुकारते हैं । परन्तु दुष्ट व्यव्तियों के लिए उनका ऐसा ठी किया। शिव और शक्ति ने बहुत व्याव्तत्व अत्याधक भयंकर धा। वास्तव में शिव ने शी से रक्षों का वध किया। शक्त ने बहुत से युद्ध किए उन्होंने बहुत से तर्क वितर्क और वाद-विवाद किए लाकन श्री कृष्ण ने कभी वाद-विवाद नहीं किया। मे रक्षासों से एक के बाद एक छुटकारा प्राप्त । उन्होंने उनसे बहुत सी चाल भी खेंली। एक दुष्ट राक्षस जो वहुत से लोगों को सताता था श्री कृष्ण नै उससे युद्ध किया एक चाल चली। श्री कृष्ण एक गुफा में प्रावष्ट हुए। यहां एक संत सो रहा था। संत को शिव से यह वरदान प्राप्त धा जो भी उसकी निद्रा को भंग करे करना जानते थे। बह राय में परिवर्तित हो जाए। श्री कृष्ण ने अपनी शाल ली और धीरे से उस संत पर डाल दी और स्वयं को छुपा लिया। राक्षस गुफ्फ में प्रावष्ट हुआ और सोप हुए संत को कृष्ण समझ कर उन पर लात से प्रहार किया। संत उठ खड़े हुए और जैसे ही उन्होंने अपने तृतीय नेत्र से रक्षस को देखा वह राय हो गया। यह कृष्ण की चाल धी। एक बार कंस के दवारा एक राक्षसी स्त्री बालक कृष्ण का वध करने भेजा गया। उसने अपनी छाती पर विष लगा लिया और बालक कृष्ण को दूध पिलाना प्रारम्भ किया। श्री कृष्ण ने जैसे-जैसे दुग्ध पान करना प्रारम्भ किया उसकी छातीं विकासत होती चली गई और वह समाप्त हो गई। एक अन्य अवसर पर वे जानते थे कि दो रक्षसों ने दो बड़े वृक्षों का रूप धारण कर रखा था। श्री कृष्ण की मां ने उनके मक्बन चुराने पर एक बहुत बड़े मूसल से उन्हें बांध दिया। जब वह चली गई तब श्री कृष्ण अपने छोटे-छोटे पैरों से गए और दोनों पेड़ों को इस मूसल से का. ठोकर मारी। पेड़ गिर गए और रक्षस समाप्त हो गए। श्री कृष्ण इतने चतुर और ज्ञानगम्य हैं क्योंकि वह बुदिरूप हैं। वह विराट हैं। उनका समस्त प्रेम, करूणा और सुन्दरता , गोप और गौपी मात्र के लिए थी। राजा के रूप में उनका जीवन समझ से परे और रहस्यपुर्ण रहा लेकिन सहज योगी समझ सकते हैं जब वे रजा बने उन्हें विवाह करना पड़ा। उन्होंने पांच विवाह किये। वे पांच विवाह वास्तव में पांच तत्वों के पारणामस्वRप 15 थे। श्री कृष्ण जी के पास सोलह हजार शक्तियां धी। याद एक व्यवित लगभग 9 0 वर्ष का होकर किसी र्त्री को अपने पास रखना चाहता है लोग उसे बुरा कहते हैं। भारत में कब्र में तटके हु' व्यक्ति की भी याद कोई स्त्री मदद करती है तो लोग कहते हैं इनके प स्पर बुरे सम्बन्ध थे। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण स्वयं को बदनाम नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने सोचा इन शांवतयों का क्या किया जाए क्योंकि उन्हें तो स्त्री रूप में अवतरत होना पड़ेगा। वे सोलह हजार राजकुमारियां बन गई और एक राजा ने उनका हरण कर लिया और जब राजा इन नारियों को दूषित करना चाहता धा श्री कृष्ण ने आकरमण करके सोलह हजार राजकुमारियों को मुकत करा दिया। उन्हें अपने साथ ले आए और वास्तव में यह ववाह तो उनका अपनी शांक्त से उनसे नियमानूसार विवाह किया। वरण धा। श्री कृष्ण ने उन शकतयों का प्रयोग विभिन्न वस्तुओं के सृजन में किया। याद न हुए होते तो हमें आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान न हु आ होता यद्याप संतों और कृष्ण अवतारत दृष्टाओं के माध्यम से लोगों को आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान हुआ लेकिन किसी अवतार ने इसके बारे में बात नहीं की। वामन परशुराम अवतार आदि हुए में नहीं बोला। पहली बार श्री कृष्ण ने केवल अर्जुन उन दिनों लोग आध्यात्मिकता को जानने की अवस्था में न थे। जो सहजयोगी बाधाओं, समस्याओं तथा पर्याप्त जिज्ञासुओं के अभाव श्री कृष्ण में केवल एक व्याक्त को आध्यात्मिक ज्ञान देने का साहस था। लेकिन कोई भी आध्यात्मिक जीवन के बारे को आध्यात्मिक जीवन के विषय में बताया। के कारण निराश हो जाते हैं उन्हें अवश्य जान लेना चांहए कि श्री कृष्ण के बाद ईसा नै आध्यात्मिकता के विषय में बताने का नेतृत्व लिया। अब्राहम और मोजिज भी इसके विषय में कुछ न बता पाये। उन्होंने ईश्वर के विषय में बताया, आध्यांत्मकता के विभय में नहीं। ईसा के अवतरण से पूर्व किसी ने यह नहीं कहा कि आपको पुर्नजन्म लेना है। केवल श्री कृष्ण ने यह बात कही। श्री राम ने अपने गुरू से कुण्डलनी ज्ञान सीखा परन्तु तब यह गुप्त विज्ञान धा। जिसका ज्ञान कुछ गिने चुने लोगों को दिया जाता था। उसकी तुलना में हम सोचे कि हममें से कितने लोगों को पर्याप्त आध्यात्मिक ज्ञान है। अपनी आध्यात्मिकता का हम न केवल अनुभव करते हैं, हम स्वयं आध्यात्मिक हैं। अवसर का नियम यांद हम इस पर लागू करें तो ईसा के "मैं नहीं सोचती" ईसा के बाद इतने लोग भी हो सकते हैं। श्री कृष्ण और ईसा के समय के बीच में ह60008 हजारों वरषों में कृष्ण का केवल एक शिष्य था। ईसा के 12 शिष्य बने। हमें पता होना चाहिए कि अब नया धमाका हुआ है। इसी कारण मैं इसे बसन्त का समय कहती हूं। हम निसंदेह आध्यांत्मिक भोग हैं। इसमें आध्यात्मिकता है और दैवी शांकति कार्यरत है। इसी कारण कलयुग का अंत होकर अब कृतयुग है । "hok 16 कृतयुग की कार्यशेली ने हमें इतने अधक सहजयोगी दिये हैं। वह समय जब सर्वत्र व्याप्त शक्ति ने कार्य शुरू कर दिया हो। आज से पूर्व किसी को मी शीतल लहारयों का अनुभव नहीं हुआ था। उन्हें शीतलता का अनुभव तो हुआ परन्तु लहारयों विशेषतया इसकी सम्बद्धता शरीर विज्ञान से कभी नहीं की गई। सहजयोग की उपलाब्ध आश्चर्यजनक अ्थात कृतयुग का नहीं। है। युगों की कार्यशैली में विकास प्राक्या का भी योगदान है। इसके कारण सर्वत्र व्याप्त शांक्त ने पृथ्वी पर लोहे के रूप में कार्य करना शुरू किया। कोई भी व्योवत यह प्रश्न कर सकता है कि मां क्यों नहीं अवत्तारत हुई। क्योंकि समय इससे पहले आप परिपवत न था। ने विवेक्शील लोगों की संख्या वहुत कम है। विनाश तथा अन्य छोटी-छोटी घटनाओं की चिन्ता मत कांजये। अब सहजयोगी की उन्नांत होगी, यह फ्ले फूलेगा। लोग जो भी कहते रहें आप उसकी चिन्ता मल कीजिये क्योकि एक बार जब उन्हें आनन्द, प्रसन्नता तथा सत्य की प्राप्ति हो जायेगी आज भी पश्चिमी देशों कत वे सहजयोग नहीं छोड़ेंगे मान लीजिये पांत-पल्न में से कोई एक याद तो, याद वे ईमानदार हैं दृष्ट्रवृत्त है और दूसरे के सहजयोग में जाने में बाधा उत्पन्न करता है तो उसे साफ शब्दों में सहजयोग छोड़ने से इंकार कर देना चाहिए, क्योंकि उसने सहजयोग के अभ्रत सुन्दरता तथा आनन्द की अनुभूति , की है। श्री कुष्ण युद्ध के मैदान में अपने विराट रूप में प्रकट हुए परन्तु अपना बह स्प अर्जुन के आंतारवत किसी को नहीं दिखाया। परन्तु आज, याद आप अपनी आंखों से नहीं देख सकते तो भी आपके पास ऐसे फोटो हैं, जिनमें आप विराट रूप देख सकते हैं। कुछ लोग अपनी अंसखों से भी यह रूप देख सकते हैं और वे इसका अनुभव कर रहे हैं। आप विकासत हो रहे हैं और इसमें बद रहे हैं । यह एक नया साम्राज्य है और श्री कृष्ण ने ही इसके विषय में बताना आरम्भ किया। नाथ-पौधयों का विश्वास भी आध्यात्मकता में धा परन्तु संत ज्ञानेश्वर से पहले उन्होंने भी कभी इसके विषय में बात नहीं की। इसके रहस्य बन जाने से पूर्व मोहम्मद साहिब, साईनाथ तथा कुछ अन्य सुफी संतों ने आध्यात्मिकता के विषय में बताना शुरू किया। गुरू नानकदेव जी, शिरडी ऐांतहासक दृष्ट से हमें श्री कृष्ण जी के प्रत कृतज्ञ होना चाहिये कि उन्होंने पहली गांठ खोली। यही कारण है कि श्री कृष्ण चाहते थे कि इसका इसे विष्णु ग्रन्थी कहते हैं । ज्ञान धीरे-धीरे उद्घाटित किया जाये। अतः उनकी गीता सुस्पष्ट न होकर कूटनीतिक प्रकटन धा। अध्याय में कुडलनी के विभय में लिखा। परन्तु कुडलनी जागरण की योग्यता के अभाव में धर्म के ठेकेदारों ने ग्यानेश्वरी के छठे अध्याय के पढ़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। लोगों को झूठ-मूठ से कुडालनी के विषय में डरा गीता को स्पष्ट करने का प्रधम प्रयत्न ज्ञानदेव जी ने किया और गीता के छठे कर उन्हें इस विषय में न पदने के लिए कहा गया। अंत : पश्चिम में आध्यात्मिकता का परचय है न हो सका। य्याप ईसा का अवतरण हुआ परन्तु उन्हें बालदान होना पड़ा। ईसाई मत में किसी भी अपराध के बावजूद भी व्यक्ति ईसाई ही रहता है मैं एक खूनी को जानती हूं जिससे न्यायालय में जब परिचय पूछा गया तो उसने उत्तर दिया "मैं एक ईसाई हूं। " तब बाइबल पर हाथ रख कर उसे यही बाक्य दोहराने के लिए कहा गया और उसने फिर कहा "में एक ईसाई हूं"। उससे आप हत्या नहीं करेंगे" ईसा ने कहा। घर्म ा यह दयों नहीं पूछा गया कि "तुमने खून क्यों किया?" बनाने वालों ने अध्मियों को धार्म तथा समाज से बाहर कर देने के लिए नियम नहीं बनाए। इसके विपरीत मेरे पिताजी जब अंग्रेजों से लड़ने के लिए कांग्रेस के सदस्य बने तो ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें धर्म से बाहर कर दिया। उनके विचार में ईसा इंग्लैंड में पैदा हुए अतः वे भी एक अंग्रेज थे। परमात्मा धर्म तथा आध्यात्मिकता विरोधी सभी असंगत विचार बहुत प्रचालत हुए तथा इन आयोजित धर्मों के लए बहुत ही सुगम तथा लाभकारी सिद्ध हुए। हिन्दू धर्म की सबसे अचछी बात यह है कि इसमें संगठन नाम की कोई चीज नहीं। वे बौद जैन-धर्मी, नास्तिक, इसाई या कुछ भी हो सकते हैं परन्तु वे हिन्दू भी हो सकते हैं। क्योंकि वे संगठत नहीं होते अतः वै बन्धनमुक्त होते हैं। स्वयं के प्रात उत्तरदायी होने के कारण हिन्दू अत्यन्त नम्र लोग होते हैं। इत्या करके किसी भी हिन्दू को पीडत या पादरी के सामने जाकर स्वीकार नहीं करना होता, उन्हें स्वयं हैी अपने अपराध के लिए उत्तरदायी होना पड़ता है। धर्म में जात प्रधा जैसी बहुत सी कामरयां आ गई जो कि श्री कृष्ण के विचारों से विपरीत है। श्री कृष्ण के नाम पर किसी को अपराध करने का कोई आधकार नहीं क्योंकि उनके अनुसार हर शरीर में आत्मा का निवास है। परन्तु लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि जाति जन्म से होती है श्री कृष्ण का संदेश लोगों तक नहीं पहुंच पाया । उन्होंने कहा था कि आप विराट के अंग-प्रत्यंग है। क्या हाथ की एक कोशिका इसलिए अछूत बन जाती है क्योक वह मास्तष्क में नहीं है? श्री कृष्ण के प्रांत लोगों ने बहुत अन्याय किया, यही कारण है कि जब वे जांतयता के शिकार होते हैं तो मैं उनसे कहती हूं कि तुमने यही विष जाति प्रधा के रूप में फैलाया है। जातिवाद से आपने हारजनों तथा छोटी जाति के लोगों को सताया। अब जातियता आप पर दहाड़ रही है। श्री कृष्ण के जीवन का सौन्दर्य इस बात में है कि जीवन उनके लिए लीला मात्र है उनकी इस "लीला" भाग का दुसूपयोग अमेरिका में बहुत हुआ। श्री कृष्ण की भूमि "अमेरिका" में लोगों ने लीला का अर्थ स्वेच्छाचार समझा। जितने मर्जी विवाह कीजये, बचचों को सड़ने के लिए छोड़ दीजये, पशुओं की तरह व्यवहार कीजिये और काहये "बुराई क्या है?" तो आप क्या सांप या कीडे बनने वाले हैं? पूरा सिद्धांत ही श्री कृष्ण विरोधी हैं। का है जो कि गीता के रूप में पुस्तकीय ज्ञान जनतांग को बेच रहे हैं। परन्तु अब इस अपराध की प्रांतिकिया उन पर भी होने लगी है । कृष्ण ने जीवन को लीला कहा तो आप ये कपड़े क्यों पहन रहे हैं? सन्यासी क्यों बन रहे हैं? ्वांशष्ट प्रकार का खाना खाने को क्यों कहते हैं? ये लोग नशीले कृष्ण-चैतना नामक आंदोलन मुर्ख लोगों पदार्थ सेवन करते हैं तथा उन्हें बेचते हैं । असत्य सदा विनाशात्मक है। केवल सत्य ही रचनात्मक है। ये सब विचार कई बार हमें उलझा देते हैं परमात्मा, श्री कृष्ण, ईसा तथा मोहम्मद साहिब के नाम पर यह सब अपराध किये जाते हैं। "मां नै ऐसा कहा है" यह कहकर भी कुछ लोग अपराध 18 करते हैं। सहजयोगयों के लिए ऐसा कहना वरजित है। इस प्रकार की बातें में बहुत सुन चुकी हूँ| अब कोई भी यह न कहे कि "मां ने ऐसा कहा है । " अपने अंदर इतना विश्वास तथा दायत्व आईये कि सकते आप कह सके कि "में कहता हूं" मैं एक सहजयोगी हूं। आप इस बात को क्यों नहीं कह कि आप एक सहजयोगी हैं। के बाद इमने अपने अंतस के श्री कृष्ण को जागृत कर लिया है। आज की पूजा आपको चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। श्री कृष्ण के माधुर्य तथा विनाश की शोकतयां कार्य करेंगी आप पूर्णतया संरक्षत हैं। श्री कृष्ण ने कहा है "योगक्षेम वहाम्यम्"। मैं आपको योग देता हूं और फिर तुम्हारा उपकार करता हूं। श्री कृष्ण हमारी देखभाल करते है। [आपको कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। हानि पहुंचाने वालों पर श्री कृष्ण की शंक्ति दैवी दण्ड के रूप में टूट पड़ेगी। निसंदेह मां होने के कारण मैं किसी को भी दोडत नहीं करना चाहती फिर भी उन्हें दण्ड मिल जाता मैं क्या क? यह अत्यन्त भयानक भी हो सकती है। हमें अपने अंतस में स्वीकार करना है कि हम अत्यन्त मधुर, सुहृदय तथा सामूहिक रूप से रहेंगे। यद आप सामूहिक गंदी है तो श्री कृष्ण आपका जीवन लेने पर उतारू हो जायेंगे। सामूहिकता को याद आप नाश करने का प्रयत्न करेंगे तो भी यह आपके पीछे पड़ जायेंगे । वे एक भयंकर व्यक्ति हैं । वे अत चालाक, चतुर और सुगम का कार्यकर्ता है। अतः सावधान रहये। याद आप सामूहिक हैं तो वे आपकी शॉकत , आपका पोषण करेंगे और खाने के लिए मक्बन देंगे। अतः आपको सामूहिक होना है। यही मुख्य कार्य है। केवल कार्यक्रम में आकर लुप्त हो जाने वाले व्याक्तयों को जान लेना चाहिए कि इससे कोई लाभ न होगा। आपको सामूहिक बनना है। वे लोग याद सामूहिक नहीं होना चाहते तो हम उन्हें विवश नहीं करना चाहते। परन्तु सामूहिक हुये बिना वे सहजयोगी नहीं है और उनकी सिफारश किसी भी सहजयोगी को नहीं करनी चाहये। सहजयोंगियों का असामूहिक और असहजयोंगियों से कोई मतलब नहीं होना चाहिये। हमारे पास आंत सुन्दर ं हैं। इतने सुन्दर लोग जो एक दूसरे से प्रेम करते हैं और एक दूसरे को ब़येंगे बच्चे पारवार तथा वस्तुप का आनन्द लेते हैं । अत: हमें बाहर के लोगों के पात चक्कर में नही पडूना चाहिये। ऐसा करना किसी सुन्दर व्यवास्थित तथा प्रकाशित स्थान से उठकर अचानक इंक मारते हुए सांपों के बीच चले जाने जैसा है। इस तरह के कार्य करने पर आप ये सांपों के नर्क में जाना चाहते थे तो जाइये। मैं कभी नहीं कहेंगे कि मां ने दोडत किया है। आप सजा नहीं देती। परन्तु हो सकता है कि श्री कृष्ण तुम्हें वहां जाने का प्रलोभन दें। सर्पदंश का अनुभव देना, यहीं उनकी कार्यप्रणाली है। ा श्री कृष्ण के अनुसार हमें विनोदाप्रय होना चाहए अब आप सब लोग आनर्नदत और योग्य व्यक्त हैं। आपमें आध्यात्मिकता है और आप दूसरों की सक्षात्कार दे सकते हैं। गोलयों में भी लोग साक्षात्कार मांगते हैं। कुछ लोगों ने आत्म साक्षात्कारी, आंत प्रसन्न, विनोदशील, "hoe 19 पूर्वी खण्ड में जाकर 5000 लोगों की साक्षात्कार दिया। अर्जनटानिया में जाकर किसी सहजयोगी को बहुत से भौग मिल गये। यह सब मेरे हाथ में है जो बढ़ रहे हैं और कार्य हो रहा है। हर व्यावत को कार्य करना चाहिए। आप एक स्थान चुनिए। मैं वहां जाऊंगी और कार्य हो जाएगा। आप सब ये कार्य कर सकते हैं द्योंकि आपको शाक्तयां प्राप्त हो चुकी हैं यांद आप शक्तयों का प्रयोग नहीं करेंगे तो कुन्द हो जायेंगे। अतः अपनी शांक्तयों का प्रयोग करो और विश्वास करो कि आप में शाकतयां को सहजयोंग का मर्यादाओं में रहकर अत्यन्त सदाचारी पूर्ण हैं, तथा सुन्दर जीवन व्यतीत करना है। अपनी लहरयों का ठीक प्रकार से अनुभव कीजये और अच्छा स्वास्थ्य रखिये। यह बहुत सुगम कार्य हे। याद इस आयु में भी में दिन रात कार्य कर सकती हूं तो आप भी कर सकते हैं। आप सब तो मुझ से कहीं छोटे हैं। सांयकाल को ध्यान के समय आप स्वयं से पूछिये "मैंने सहजयोग के लिए क्या किया?" केवल एक यही प्रश्न। मुझ जैसा या श्री कृष्ण जैसा व्याक्त यह महसूस भी नहीं करता कि र हम कुछ कर रहे हैं। अतः हम क्या पूछ सकते हैं। यदि मैं स्वयं के बारे में सोचना चाहूं तो में खो जाती हूं। यह मेरे लिए संभव नहीं। परन्तु आप स्वयं को अवश्य पहचानये। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, मैं सोचती हूं कि जब तक मै जींवित हूं, मैं नहीं जानती, संभवत: मैं सदा जीवत रहूं। में सर्वदा जीवित हूं परन्तु जब तक में इस पृथ्वी पर हुं मैं सहजयोग को पूर्णतया सुसंस्थापित करके रहूंगी। यह मेरा आप लोगों से बायदा है। "संस्थापनार्थाय : " परमात्मा न केवल धर्म को संस्थापना के लिए परन्तु विश्व निर्मल धर्म, जो कि मानव मात्र के सभी धर्मों से कहीं उच्च है, की संस्थापना के लिए बार-बार पृथ्वी पर अवर्तारत होते हैं। बहुत शीघ्र ही विश्व निर्मल धर्म इस पृथ्वी पर संस्थापित होगा। परमात्मा आपको धन्य करे। 20 श्री इनुमान पूजा वार्ता वे फेक फरट 3। अगस्त 1990 ओस्तित्व में श्री हनुमान निरन्तर हमारे स्वाधिष्ठान से मोस्तष्क तक चलते हुये वे हमारी भावप्य की योजनाओं गातारवाधयों के लिये आवश्यक मार्गदर्शन तथा सुरक्षा मानव की महत्तवपूर्ण भूमिका है। प्रदान करते हैं । या मानांसक प्रदान करते है। जर्मनी एक ऐसा देश है जहां के निवासी अत्यन्त चुस्त तथा उद्यमशील है। शरीर का वे बहुत प्रयोग करते है और अत्यन्त यांन्त्रक है। अपने श्री हनुमान जी से देवता का, जो कि बन्दरसम उन्नत शिशु है, निरन्तर मानव के दायें भाग में दोड़ते रहना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। मानव के अन्तस स्थित सूर्य तत्व को शान्त तथा मृदु रखने के लिए उनसे कहा गया। को नियंत्रत करने के लिये कहा गया, जन्म के समय ही उनसे सूर्य अंत: शिशु सुलभ स्वभाव से उन्होने सोचा यह सोचते हुये कि पेट के अन्दर सूर्य कि सूर्य को ्खा ही क्यों न लिया जाये। उन्होंने विराट है, को आधक अच्छी तरह से नियंत्रत किया जा सकता रूप धारण करके सूर्य को निगल लिया। मानव की दांयी तरफ को नियोंत्रत रखने के लिये उनके बाल प्रयोग उनके चारत्र की सुन्दरता है। दाहनी तरफ के लोगों सुलभ आचरण का बच्चे उत्तपन्न नही होते है। अत्यन्त उद्यमी होने के कारण, योद उनके की प्राय: बटचे हो भी जायें तो भी बचौं के लिये समय अभाव के कारण ऐसे माता-पिता ऐसे लोग अत्यन्त कठोर होने के कारण सदा बच्चों को बच्चे पसन्द नही करते । पर चिलाते रहते है , और उनकी समझ में नही आता कि किस प्रकार बच्चों से कभी कभी तो ये लोग यह सोचते हुये "मुझे तो यह प्रेम प्राप्त तो दे दूं अपने बच्चों के प्रात व्यक्हार करें। कम मैं इसे अपने बच्चों को नही हुआ कम से अत्यन्त आसवत हो जाते है। के व्यवतयों में शिशु इन नितांत उग्र स्वभाव रूप में श्री हनुमान जी विद्यमान रहते है । करने को इनुमान जी अत्यन्त उत्सक रहते हैं। राजा थे, उन्हें अपनी सहायता के लिये किसी सोचव की आवश्यकता थी और इस कार्य के लिये श्री हनुमान जी की रचना हुई| और दास थे और उनके प्रांत इतने समार्पत धे कि कोई अन्य दास अपने स्वामी के प्रांत नहीं हो सकता। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी के कार्य श्री राम सुकरात वोर्णत परोपकारी श्री हनुमान श्री राम के ऐसे सहायक उनके समर्पण के फलस्वरूप ही शारीरक रूप से विकासत होने से पूर्व ही उन्हें नव-सिदियां प्राप्त हो गयी | उनमें सूक्ष्म या पर्वतसम विशालकाय शरीर धारण करने की हो गयी। इन सिद्रियों के फलस्वरूप प्राप्त क्षामता अत्यन्त उग्र स्वभाव के व्यवतर्या को श्री हनुमान इन सिंद्रियों से नियोत्रत 21 जीवन में त्वीव गत से दोड़ते हुये व्यक्ति को आप किस प्रकार नियोत्रत श्री हनुमान जी ऐसे व्याव्त की रचना इस प्रकार करते हैं कि उसे अपनी वे के पैर या हाध अत्यन्त भारी करते है । करेंगे? ऐसे व्यक्त गत धीमी करनी ही पड़ती है। दाहनी और झुके बना देते है जिससे कि वह व्यवत अधाक कार्य न कर सकें। उग्र व्यांक्त को वे अत्यन्त अधिक अकर्मण्य करने वाली तन्द्रा भी दे सकते है। अपनी पूंछ को किसी भी हृद तक बढ़ाकर लोगो को नियोत्रत आप सब कहते है कि सभी बन्दर चार्ले उनमें करना उनकी एक ओर सिद्धि है । वे हवा में उड़ सकते है और इतना विशाल रूप धारण कर सकते है कि है। उनके शरीर दवारा स्थानांतरित हवा का भार उनके शरीर के भार से कहीं अधक यह आरकीमडीज के सिद्धान्त की तरह से है। होता है। वे इतने विशालकाय बन जाते है कि उनका शरीर नाव की तरह से हवा में तैरने लगता हे। हवा में उड़ने की सामध्थ्य के कारण वे संदेश को एक व्यवत से दूसरे व्यावत तक पहुंचा सकते है । आकाश की सूक्ष्मता श्री हनुमान के नियंत्रण में है। वे इस सूक्ष्मता के स्वामी है और इसी के माध्यम से वे संदेश भेजते है। दूरदर्शन आकाशवाणी बिना किसी संयोजक के आकाश मार्ग से वायवीय ईधारय सम्बन्ध स्थापत करना इस महान अभियन्ता श्री हनुमान ध्वनवर्धन उनकी इसी शंवित की देन है। तथा का ही कार्य है। सकते। यह कार्य इंतना पुर्ण है कि आप इसमें कोई आपके यंत्रों में त्रुटि हो सकती है श्री हनुमान की कार्यपूर्णता में नही। वैज्ञानिक जब इन चीजों की खोज करते है तो ये सोचते है कि ये प्रवृत में विद्यमान है परन्तु वे यह कभी नही सोचते कि ऐसा किस प्रकार हो सकता है । मानकर चलते है कि श्री हनुमान जी ने सारे तन्त्र की रचना करके उसके माध्यम त्रुटि नही निकाल का- वे यह यहां तक कि हमारे अन्दर की सुक्ष्म चैतन्य लहारयों से यह कार्य किया है। का हमारे रूनायु के अणुओं पर अनुभव होना भी श्री हनुमान जी कृपा से है । श्री हनुमान को अणिमा नामक अन्य सिद भी प्राप्त है। एक जो उन्हें अणुओं तथा परमाणुओं में प्रवेश करने की शोक्त प्रदान करती है । से वैज्ञानिक सोचते है कि आधुनिक युग में ही उन्होनें अणु परमाणुओं की खोज की है परन्तमु अणु परमाणुओं का वर्णन हमारे धर्मग्रन्धों में भी पाया जाता है। शांक्तयों का कार्यरत होना श्री हनुमान जी की कृपा से ही होता बहुत विद्युत-चुम्बकीय রি 22 वे स्वयं चुम्बक श्री गणेश नै उनके अन्दर चुम्बकीय शांवत भर दी है। भौतिक सतह पर विपुत है। चुम्बकीय शक्षित हनुमान जी की शकत है । है। परन्तु |मि स्वाधष्ठान से उठकर मास्तष्क तक जाते द्रव्य से वे मस्तिष्क तक जाते है। मोस्तष्क के अन्दर वे इसके भिन्न पक्षों के सह सम्बन्धों को सृजन करते याद श्री गणेश हमें विवेक प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सोचने की है। है। शोकित देते है। श्री बुरे विचारों से बचाने के लिये वे हमारी रक्षा करते हैं । विवेकशीलता के गणेश जी हमें विवेक देते है तो श्री हनुमान जी अन्तःकरण । लिये अन्त :करण आवश्यक नही क्योंकि आप बांदमान है, आप जानते हैं क्या अच्छा है क्या बुरा। परन्तु एक व्यक्त्तव को जब नियंत्रत करना हो तो अन्त :करण आवश्यक है क्योंकि यह नियंत्रण हनुमान जी से आता है। मानव के अन्दर अन्त :करण हनुमान जी ही है। असद, विवेक बुद अर्धात असत्य करती है। सहजयोग प्रणाली में हम कहते हैं कि श्री गणेश अध्याक्ष है या इस विश्वावद्यालय दी हुई सूक्ष्म शोवत है और यह हमें सद 3न्त :करण उनकी मैं भेद जानने का विवेक प्रदान वे हमें उपाधियां देते हैं और हमें अपनी अवस्था की गहराई के कुलपीत है । वह हमें निर्विचार तथा निर्विक्ल्प समाधि और आनन्द जानने में सहायता करते हैं । जैसे "यह अच्छा है", "यह हमारे हित परन्तु बौदिक सूझबूझ प्रदान करते हैं। में है", "श्री हनुमान जी की" देन है और बौदिक होने के कारण, पाश्चात्य लोगो के लिये बहुत महत्तवपूर्ण है क्योंक बौदिकता के बिना तो उनकी समझ में ही श्री हनुमान के बिना याद आप सन्त बन भी जायें तो आप इस कुछ ने आता। म अवस्था का आनन्द तो प्राप्त कर लेंगे परन्तु यह नहीं समझे सकेंगे कि यह सन्तावस्था लोगो को साक्षात्कार ठीक है या गलत, आपका हिमालय पर रहना ठीक है या यह सब विवेक, मार्गदर्शन तथा सुरक्षा हमें श्री हनुमान देने के लिये जाना। जी की देन है। जर्मनी, क्योंकि दायें भाग का सार है। अंत श्री हनुमान जी आवश्यक है। की पूजा द्वारा दायें भाग की सुरक्षा प्रदाना करना यहां अत्यन्त परन्तु इसे सारी विवेक बुद्धि के बाबजूद भी श्री हनुमान जी जानते है कि वे पूर्णत: श्री राम कौन है? वे परोपकारी राजा है जो श्री राम के आज्ञाकारी सेवक है । परोपकार के लिये कार्य करते है और स्वयं एक औपचारिक व्यावत है। अत्यन्त श्री हनुमान सदैव उनका संतुलित कार्य करने के लिये उत्सुक रहते है । पुरुष श्री राम स्वयं बहुत आगे नही बढ़ते। विवेक यह है कि जो कुछ भी श्री राम 23 गुरु शिष्य के संबंधों से भी बढ़कर यह कहते है श्री हनुमान उसे कर देते हैं। शिष्य पूर्णतया ईश्यर के दायें और झुके व्यक्ति प्राय: तथा आज्ञापालन में दास सम समर्पत प्रात अपने स्वामी, नौकर या अपने पत्नि के प्रात है। अत्यन्त समार्पत होते है। परन्तु विवेकहीनता की कमी के कारण वे गलत लोगों के दास होते है। राम की सहायता जब आप लेते है तो वे आपको बताते है कि सर्वशाक्षतमान परमात्मा या श्री राम जैसे गुरु के आंतरिकत आपको किसी तब आप एक स्वंतत्र पक्षी होते है और पूरी नौ के प्रात समर्पित नही होना। शांवतयां आपके अन्दर जागृत हो जाती है। आपके अहं के साथ साथ बहुत सी अन्य बुराईयों का श्री यह तथ्य लंका दहन कर रावण की खिल्ली उड़ाने में अत्यन्त हैनुमान करते है । प्रातकार मधुरता से प्रकट हो जाता है कि किस प्रकार वे लोगों का अहं समाप्त कर देते किसी भी अंहंकारी का यांद मजाक उड़ाया जाये तो वह ठीक हो जातार है। जब रावण ने श्री हनुमान से पूछा "तुम केवल एक बन्दर क्यों हो" तो र्याद कोई अंहकारी है। हनुमान जी ने अपनी पूंछ से उसकी नाक को गुदगुदा दिया। व्यवत आपको सताने का प्रयत्न करता है तो श्री हनुमान उसका ऐसा मजाक उड़ायेगे कि आप हम्पर्टी इम्पटी की तरह उसकी अव्स्था को देखकर दंग रह जायेगें। सदाम हुसैन जैसे अहंकारी व्यक्ितयों को नीचा दिखाकर आपकी रक्षा करना श्री हनुमान का कार्य हैं। इन मामले में हनुमान से कार्य करने के लिये कहा गया और अब किस तरह सददाम को काठनाइयों में डाल दिया है, उसकी समझ में नही आता अहंकारी लोगों से आपकी रक्षा करना तथा से उन्होनें याद वह युद्ध को चुनता है तो पूरा ईराक समाप्त हो जायेगा। वह स्वयं समाप्त हो जायेगा, कुवैत समाप्त हो जायेगा और पूरा पैट्रोल समाप्त व्या करें। कि वह होने के कारण सभी लोग ककाठनाई में फंस जायेगें। सददाम का क्या होगा? वह बचेगा ही नही व्योंक यांद अमेरिकन लोगों को लड़ना पड़ा तो वे ईराक के तो अब श्री हनुमान सददाम के मरूतष्क में घुस कर बता सभी राजनींतज्ञो अन्दर जाकर लड़ेंगे। रहे हैं "देखों तुमने ऐसा किया तो इसका परणाम यह होगा"। तथा अहंकारी हनुमान कार्य करते है और यही कारण कि कभी कभी राजानांतज्ञ अपनी नितियां बदल देते व्यव्त्ियों के मास्तष्क में श्री है और अपना कार्य चलाते है है। श्री हनुमान का एक अन्य गुण यह है कि वै लोगों को स्वेचछाधारी बना देते 24 दो अहंकारी व्यकषितयों को मिलवाकर वे उनसे ऐसे हालात पैदा करवा देते है। है कि दोनों नम्र होकर मित्र बन जाते हैं। हमारे अन्तस का हनुमान तत्व हमारे अहं का ध्यान रखने तथा हमें बाल सुलभ, मधुर, विनोदशील और प्रसन्न बनाने में कार्यरत है। श्री राम के सम्मुख नतमस्त यदि श्री गणेश मेरे वे सदा नृत्य भाव में होते है । हो श्री हनुमान सदा उनकी इच्छा को पूर्ण करना चाहते हैं । पीछे बैठते है तो श्री हनुमान मेरे चरणों में । लोग भी आज्ञाकारी हो जायें तो हमें कितनी याद श्री हनुमान की तरह जर्मन गतशील कार्यवाहनी प्राप्त हो सकती है? सीता दारा दिये गये हार में क्योंकि श्री राम न दे अतः श्री हैनुमान नै वह हार न है। इसी घटना से उनके समर्पण का पता चलता पहना। श्री हनुमान जी का हर कात उनके इर्द गिर्द मंडराना सीता जी के अटपटा सीता जी ने उनसे कहा कि केवल एक कार्य के लिये वे वहां रुक सकते तगा। है तो श्री हनुमान जी ने कहा कि जब जब श्री राम जी जुम्हाई लेगें तों चुटकी बजाने के लिये में उनके साथ रहूंगा। सीता जी ने उनसे छूटकारा पाने के लिये फिर भी उन्हें वहां खड़ा हुआ देखकर जब सीता जी ने इसका यह बात मान ली। कारण पुछा तो उन्होंने उत्तर दिया "मैं श्री राम के जुमहाई लेने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ" मैं यहां से कैसे जा सकता हॅूँ? सहजयोग में मैरा संबंध एक गुरू तथा एक मां का है । एक गुरु के सहजयोग विशेषज्ञ बनकर आप स्वयं के गुरू बने। मेरी चिन्ता यह है कि नाते आप सहजयोग का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परन्तु इसके लिये पूर्ण समर्पण पूर्ण समर्पत होकर ही आप सहजयोग को चलाना सीख सकते की आवश्यकता है। श्री हनुमान भी यह सम्पण करते है। करते अतः श्री हनुमान जी उन्हें समर्पण सिखाते है अधवा समर्पण के लिये विवश करते है। किसी प्रकार की बाधाओं, चमत्कारों या विधियों दारा वें शिष्य का गुरु है। अहंकारी लोग क्योंकि समर्पण नही के प्रात समर्पण करवाते हैं । गुरू के प्रति व्याव्त का समर्पण करवाने की शंक्त श्री हनुमान न केवल वे स्वयं समार्पत है वे दूसरों को भी समर्पण करवाते जी की ही है। में उन्होनें है। अहं के कारण आप समर्पण नही कर सकते। अपनी अभव्यावत दशाया है कि दायें पक्ष का भी एक आंत सुन्दर पहलू है। इसका पूर्ण आनन्द 25 प्राप्त करने के लिये अपने गुरू के प्राति आपको दास की भांति समार्पत होना पड़ता बिना किसी संकोच के आपको गुरू के लिये सब कुछ करना होता है। है। निसंदेह गुरु का भी कर्तत्य है कि आपको आत्म साक्षात्कार दे अन्यधा वह गुरु नहीं है किस तरह से आप गुरू को प्रसन्न कर सकते है और उसका सामीप्य प्राप्त कर सामीप्य का अर्थ शारीरिक सारमीप्य नही, इसका अर्थ है एक प्रकार सकते है। मुझसे दूर रहकर भी सहजयोगी अपने हृदय यह शांकत हमें श्री हनुमान से प्राप्त करनी है सभे देवताओं बी रक्षा श्री हनुमान वैसे ही करते हैं जैसे वे आपकी रक्षा करते श्री गणेश शतित प्रदान करते है परन्तु रक्षा श्री हनुमान करते है। अर्जुन के सारथी बने ता श्री हनुमान ही रथ की पताका पर आरूढ का तारतम्य, एक प्रकार की समझ। में मेरा अनुभव कर सकते है। है। जब श्री कृष्ण धे श्री गणेश नही । एक प्रकार से श्री राम स्वयं श्री कृष्ण बन जाते है अत : श्री हनुमान को उनकी सेवा करनी ही होती है। जैसा कि आप जानते है श्री संदेश वाहक गैब्रीयल मेरिया के संदेश लेकर आये देवदूत गैब्रीयल थे । हनुमान और उन्होने "इमैक्यूलेट साल्वे" अ्धात "निर्मल साल्ये" शब्द का प्रयोग किया जो कि मेरा नाम है। जीवनपर्यन्त मेरिया को श्री हनुमान की सेवा स्वीकार करनी मैरिया महालक्ष्मी है और सीता और राधा कान है? पड़ी। सेवा के लिये वहां विद्यमान रहना पड़ा। हैनुमान को उनकी कभी कभी लोग मुझ से प्रश्न करते है कि मां आपको कैसे पता चला? मां आपने कैसे संदेश भेजा? मां आपने किस प्रकार यह कार्य कर दिया, यह श्री हनुमान का उत्तरदायित्व है। मेरे मसतष्क में बनती है श्री हनुगान उन्हें कर डालते है क्योंकि पूरी संस्था भालभाति संयोजित है। जो भी योजना ये सभी संदेश आप लोग कहते है "मां मैने बस आपकी प्रा्थना की" लोगों को कहां से प्राप्त होते है? बहुत से एक व्यक्ति की मां कैन्सर से । जब वह उससे मिलने गया तो किकंतव्यावमूढ हो मर रही है। उसने प्रा्वना की "श्री गाता जी कृपया गेरी] मां को बचा लिजीये"। श्री इनुमान उस सहजयोगी उन्हें इस व्यक्ति के वजन का ज्ञान है। की सच्चाई तथा गहनता को जानते है। इसी कारणवश तीन दिन के अन्दर बह स्त्री ठीक होकर वम्बई लायी जाती है और डाक्टर घोभणा करता है कि उसका कैन्सर ठीक हो चुका है। कई घटनायें जिन्हें कहते है, श्रीं हनुमान आप चमत्कार हुई होती है। दारा की चमत्कार करने वाले वे ही है। आप कितने बादहीन तथा मूर्ख है, यह दिखाने के लिये श्री हनुमान चमत्कार करते हैं: दायें भाग में होने के कारण वे अहं की ओर चले जाते है। अहं के कारण एक मानव आनवायंतः बुदिहीन हो जाता है। हनुमान जी को उन लौगो पर पड़ता इस बुद्रिहीनता का विपरीत असर जब यह पसन्द नही। 26 परन्तु कभी कभी यूपीज रोग कार्य हो सकता है क्योंकि श्री हनुमान है तो उन्हें अनी है| मूर्खता का आभास होता की तरह पुनः अवलोकन करना अत्यन्त कांठन ऐसे व्यांव्तयों से विदयुत चुम्बकीय शांक्त वापिस ले चुके होते है तथा उनके चेतन मास्तष्क से उनका संबंध समाप्त हो चुका होता है | फलस्वरूप उनका चेतन मह्तप्क पूर्ण श्रद्धा से याद ऐसे लोग श्री हनुमान जी की कर देता है। कार्य करना बन्द पूजा क तभी संभवत: उन्हें बचाया जा सके। आपके शरीर पर चर्म रोग हो जाये तो उस पर गेरु मलने से आप ठीक हो उदाहरणतया जाड़े के कारण याद किसी बाधा के कारण हुये चर्म रोग को भी आप ठीक कर सकते सकते है। ओर श्री गणेश का शरीर सिंदूर से ढका हुआ होता है जिसका प्रभाव उनके शरीर के अन्दर की है। गर्मी तथ प्रभाव को संतुलित करने अत्यन्त शीतल है। के लिये वे ऐसा करते है । लोग कहते इसी कारण हम इसे सिन्दूर कहते हैं । कि सिन्दूर केनसर का कारण बन शीतलीकरण कर सकता है कि आप बांयी ओर को झुक सकते है । मनोवैज्ञानिक रोग है और बहुत कम सम्भावना है कि सिन्दूर के अत्यांधक शीतलीकरण से आपका झुकाव बायी और को हो जाये । हे सकता है परन्तु यह आपके अन्दर इतना केन्सर एक आप ऐसे रोगाणुओ वायरस से ग्रस्त परन्तु अत्यन्त दायी ओर झुके उन्हें शान्त करने के लिये उनकी आज्ञा हो जाये कि आप इस रोग से ग्रस्त हो सकें। ब्यवतयों के लिये सिन्दूर लाभदायक है। पर सिन्दूर लगाने से उनका कोध कम हो जाता है मौर वे शानत हो जाते है। हमारी उतावली, जल्दबाजी आक्रमणरशीलता श्री हनुमान उन्होने हिटलर के साथ भी एक चालाकी की। तथा को ठीक करते हैं । हिटलर श्री गणेश को प्रतीक रूप में प्रयोग कर रहा धा अतः स्वास्तिक दक्षणावर्त लाकवाइज होना चांहये धा। प्रयोग में आने वाले स्टेनल को उलट कर श्री हैनुमान ने आदि शवत ने उन्हे ऐसा करने की सल ह दी स्वास्तिक को उलटा करता दिया। परन्तु चाल उन्होने चली। दोनों ने हिटलर को विजय प्राप्त करने से रोक लिया। स्वास्तिक के उलटा होते ही श्री गणेश तधा श हनुमान तो इस तरह की छोटी ा]द होती रहती है। छोटी युक्तयां एक बार मुझे याद है कि जर्मनी में मेरी पूज जर्मनी के लोगो को क्योंकि हनुमान की बहुत आवश्यकता है अंतः पूजा के दिन गलतीवश स्वास्तिक उलटा प्राय मैं इन चीजों को देख लेती हूँ परन्तु उन दिन ऐसा मेरी दाष्ट बाद में जब उस उलटे स्वास्तिक पर पड़ी तो मेरे मुंह रखी गयी। वहां श्री हनुमान बहुत चालाकी करते है । लगा दिया गया। नही हुआ। स हे निकला "हे परमात्मा इस गलती का दुष्प्रभाव किस देश पर होने वाला है। 27 श्री हनुमान मूसलाधार बारश और वेगवान आन्धी अपनी विषुत चुम्बकीय भौतिक तत्व उनके नियंत्रण में है, वे वर्मा धूप और हवा की रचना की तरह जाकर विनाश कर देत है। करते है । शब्ित दारा वे ये सारे कार्य आपके लिये करते है। पूजा या मिलन के लिये वह उचित प्रबन्ध करते हैं । बिना किसी के जाने सुन्दरता से सारे कार्य वे कर डालते है। श्री हनुमान पक तेजस्वी देवदूत है | हमें हर समय कृतज्ञ होना चाहिये। उनके प्रति वें सन्यासी उनके बहुत से या त्यागी नहीं है। सुन्दरता तथा सज्जा उन्हें बहुत प्रिय है। भवतों का विचार है कि वे ब्रहमचारी है और कम बस्त्र धारण करते है। अत: वे नही चाहते कि र्त्रियां उन के दर्शन करें। परन्तु लोग ये नही जानते कि बन्दरों के लिये वस्त्र वै एक सनातन शिशु है और वो भी एक बन्दर बालक। य्याप उनका शरीर विशालकाय है फिर भी आप उनका पहनना अनवार्य नहीं। के होते हुये भी वे मेरी चरणस बड़े बड़े नाखूनों सुन्दर आकार ही द्ेख पाते है। सैवा बड़ी कौमलता से करते है और अब मुझे लगता है कि श्री हनुमान की कृपा से जर्मन लोगों की कार्य प्रणाली भी अत्यन्त कोमल होती चली जा रही है। परमात्मा आप पर कृपा करें। 28 चेतन्य लहरी 1990 श्री महावीर पूजा । सारंश । जून ।6 बार्सिलोना स्पेन 1990 आज पहली बार महावीर पूजा हो रही है। महावीर का त्याग अत्यन्त विकट उनका जन्म एक ऐसे समय पर हुआ जब ब्राहमणवाद नै अत्यन्त भष्ट, स्केच्छाचारी प्रकार का धा। तथा उच्छबल रूप धारण कर लिया धा। मर्यादापुरूमोत्तम श्री राम के पश्चात लोग अत्यन्त गम्भीर, तंग दिल तथा आत्म साक्षात्कार के अभाव में वे सदा एक अवतरण की नकल का औपचारिक हो गये थे। इन बंधनों को समाप्त करने के लिये श्री राम पुनः प्रयत्न आंत की सीमा तक करने लगे। श्री कृष्ण रूप में अवतर्रारत हुये । करने का प्रयत्न किया कि जीवन एक लीला हुखेल & मात्र है। जीवन लीला करता है तो कुछ भी बुरा नही हो सकता। अपने कार्यकलापों के उदाहरण से श्री कृष्ण नै यह प्रदर्शत शुद्ध हृदय से यांद व्यावत श्री कृष्ण के पश्चात लोग आंत लम्पट, स्केच्छाचारी और व्यभचारग्रस्त हो गये लोगों को इस तरह के उग्र आचरण के बन्धनों से मुक्त करने लिये के इस समय भागवान बुद्ध तथा महावीर ने जन्म लिया। अपने परवार श्री महावीर एक राजा धे जन्होने , राज्य तथा सम्पदा का त्याग उनके अनुयाइयों को भी इसी प्रकार का त्याग करने को कहा गया। कर सन्यास ले लिया। उन्हें अपना सिर मुंडवाना पड़ता धा, नंगे पैर चलना पड़ता धा। ्वाना खा लेना पड़ता धा। वे केवल तीन जोड़े कपड़े सूर्यास्त से पूर्व उन्हें केवल पांच धन्टे सोने रस्व सकते थे। की उन्हें आज्ञा धी और हर समय ध्यान में रह कर आत्म उत्थान में प्रयत्नशील होना होता पशु वध और मान्स भक्षण उनके लिये वर्जत धा क्योंकि उस समय के लोग मान्स धा। भक्षण के कारण अंति आकामक हो गये थे। सैन्ट माईकल ईंडा नाई़ी पर श्री महावीर सैन्ट माइकेल का अवतार धे। थे। निवास करते है तथा मूलाधार से सहस्रार तक इस नाड़ी की होने के कारण श्री महावीर नै लोगो को दुश्कार्य न वर्णन बहुत ही स्पष्ट रूप में किया है। उन्होनें लोगो को कर्मकाण्ड से बचाने के लिये परमात्मा देखभाल करते है। बामपक्षी करने की चैतावनी देने के लिये नक का 29 इतने कठिन नियमों के कारण व्यक्ति के लिये आत्मसाक्षात्कार के निराकार तत्व के विषय में बताया। का उम्मीदवार होना भी दुष्कर कार्य हो गया। श्री महावीर के अनुयाइयों नै जैन मत चलाया। जैन का उदगम "जना" मोजज की तरह श्री महावीर के भी कठोर नियम धे । जैसा अधात "ज्ञान प्राप्ति" से है। प्राय ः होता है उनके सिद्धार्तों को भी अति की अवस्था तक ले जाया गया। भारत में आजकल एक प्रधा है झोपडी में किसी ब्राहमण के पास बहुत से खटमल छोड दिये जाते है । खटमल अपना पेट भर लेते है तो जनी लौग उसे बहुत साधन देते है। जब ब्राहमण के रवत से शाकाहार तथा संयम के विषय में कटटर होते हुये भी वे धन लोलुप है। क का रवतपान करने से नही वे एक मच्छर को तो नहीं मारेगे परन्तु धोड़े से रूपयों के लिये किसी व्यक्ति चूकेंगें। लाने के लिये सदा अवतरण हुये है। एक अति से दूसरी अंत की गर्त में गिरने वाले मनुष्यों को संतुतन की धर्मानुयाइयों के मध्य में स्थित न होने के कारण सभी स्थात में धर्म हास्यास्पद प्रतीत होते है। श्री महावीर के सन्यासयों की भांत यादि सहजयोग को आरम्भ किया गया एक सन्यासी का अपनी पत्नी, बच्चों तथा होता तो कितने लोग सहजयोग में आये होते? धन-सम्पत्ती से कोई सरोकार नही होता था। उसे धोड़ा सा याना देकर अनुसरण करने की कठोर आज्ञा दी जाती थी। सहजयोगी के सर्व प्रधम सक्षात्कार दिया जाता है। तथा उसकी कुंडलनी एक बिना किसी शुद्धिकरण उठायी जाती है। या कर्मकाण्ड के उसका स्वागत किया जाता है। उसे नर्क के विषय में कुछ नहीं बताया जाता। केवल आत्मसाक्षात्कार दवारा ही वह पूर्णतया परन्तु आज भी सहजयोगियों में नलिप्पता का अभाव निलिप्तं तथा बुद्धिमान बन सकता है। सहजयोग में वियाह करवाकर लोग सो से जाते हैं । है। वै या ता एक दूसरे के प्रांत चमी लोगों की तरह परस्पर झगड़कर तलाक की बात करने लिप्त हो जाते है या साधारण लगते है । सहजयोगी ये नही समझते कि सहजयौग के लिये उनका ववाह हुआ है। पर सवार हुये थे उसी सागर में वे अब भी गिर रहे तो व्यवित फि्ल्म देखने का, फुटबाल खेलने जिस सागर से निकल कर वह नाव है। उदाइरण के रूप में साक्षात्कार से पूर्व 30 आदि का शीकीन हो सकता है परन्तु के उपराज्त भी इन्ही वे तो सक्षात्कार का या पिकांनक इन चीजों से लिप्सा का अर्ध तो यह है कि ऐसे मनुष्य ने अभी के दीवाने बने रहते है । तक आनन्द की गहनता का स्पर्श भी नही किया। "एक बार जब आप उस गहन आनन्द का स्पर्श कर लेते हे तो किसी अन्य वस्तु की चिन्ता आप नही करते । पूर्णतया आत्म-केनद्रत हाकर स्वानन्द में आप डूब जाते है। "नर्क के विषय में बता कर में तुम्हें भयभीत कर या नही परन्तु श्री महावीर की यह ऐसी पूजा है जिसे मैं अब तक टालती रही हूँ।" उनके शिष्यों को भी कैवल एक सफेद धोती पहननी पड़ती धी, नंगे पावं चलना पड़ता था मेरी समझ में नही आता। यहां तक कि अब सहजयोग में इसके बिलकुल वपरीत है । उठना होता धा। तथा [प्रातः चार बचे सहजयोग आप के लिये केवल आनन्द आप परस्पर संगति का तथा संगीत का आनन्द लेते है। उत्पान नही हो सकता। परन्तु अन्तर-निहित आनन्द के स्पर्श के बिना आपका मात्र ही है आपने अन्तस के आनन्द स्पर्श के पश्चात आप शेष सभभ वस्तुओं का आनन्द लीजीये। श्री महावीर के विषय में एक किरसा है। ध्यान अवस्था में एक दिन उनकी परिणामतः उन्हें आधी धोती फाड़ कर वही छोड़नी पड़ी। छौड़ने के लिये आ पहुंचे। श्री T महावीर ने दया वश अपनी आधी घोती भी उस भिखारी को दे दी तथा स्वयं पत्तो से शरीर धोती पक झाड़ी में उलझ गयी। शेष आधी धोती में जब वे चले तो भिखारी के वेष में श्री कृष्ण उन्हें के लिये अपने घर वापस चले गये को ढांप परन्तु आज उनके कुछ के गांवों में निवेत्र होकर धूमते फिरते है। कर वस्त्र पहनने गिध्या अनुयायी इस वृतान्त "मुझे विश्वास हे कि आप सब उस निम्नावस्था तक न जाकर भी स्वानुशासन अव्श्य सीखोगें | इसके बिना पूर्ण ज्ञान, प्रेम तथा आनन्द की गहनता तक नही पहुंच सकते। की आड़ में भारत "नसंदेह आपको श्री महावीर की सीमा तक जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंक फिर भी भौतिक वस्तुओं की आपके सभाग्यवश मैने आपको आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया है। ओर न लाटिये"। "अपने प्रयोग के प्ंत मैं आश्वसत हूँ कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के बाद शनै शनैे लोग निलिप्त हो जायेंगे " निर्लिप्तता को प्राप्त करने में सभी तोग सहयोग इस दे । माया के सागर से निकलने की आवश्यकता है ताकि सहजयोग भी कहीं दूसरे धर्मों की किसी को मी यह बताने की आवश्यकता नही कि वह क्या तरह बनकर न रह जाये। 31 करे। केवल गहनता का स्पर्श आवश्यक है जिससे कि व्यक्ति अन्तस से त्यागी बन जाये| "सहजयोग इन सभी पैगम्बरों तथा अवतरणो का एकीकरण है। " की विश्वभर में प्गति के लिये सहजयोगियों को सच्चा तथा निष्कपट बनना है और अपने सहजयोग कोई भी महाबीर पूजा क्यों नह हुई? कार्य कलापों का ज्ञान प्राप्त करना है। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये हर सहजयोगी को यह टेप सुनना चाहिये। "परमात्मा आपकी धन्य करें " 32 चैत-य लडरी अगस्त । 990 श्री आदि कुंडालनी पूजा हुआर्सट्या सारांश वह आंदि मां की एक शांकत है जो कि आदि कुंडलनी मूल कुंडलनी है। क मानव मैं कुंडलनी के रूप में प्रातिबिम्बित है। परिवर्तन के इस महान कार्य के लिए उत्तरदायी आदि कुंडलनी को सम्हालने के लिए एक इस अवतरण के लिए बहुत कार्य हुआ। मुक्ति प्रदान करने की शंकत सुदृद मैरू-दंड की रचना हेतु विशेष रूप से कार्य करना पड़ा । , तो आदि] कुंडालनी मैं धी परन्तु उसे जानना था कि मानव की सहायता किस प्रकार की जाय उनकी समस्याएं क्या है, उन्हें सहज योग की तथा अपने उत्थान की समझ तक कैसे लाय इस जांटल विश्व में मूल कुंडलनी समारपत, जिज्ञासुओं की अपेक्षा हममें आदि कुंडलनी से सम्पर्क रखने के लिये मूल- उन्हें स्वयं भी श्री महा माया उर्जा तथा ज्ञान के बहुत से स्त्रोत प्रयोग करने पड़े जाये। हिमालय पर जाने वाले अत्यन्त ने कार्य करना धा। भिन्न प्रकार के बन्धन तथा अन्नर्तबाधाएं है। के सभी पक्षों को समझना पड़ा । कुंडालनी को मानव मात्र के सूप में अवर्तारत होना पड़ा जिससे कि भयभीत हो हम उनसे दूर न हों। पक कुंडालनी और दूसरा सहस्रार। सहस्रार वे दो भागों में विभाजित है। कुंडोलनी को सारी सामग्री, सारी सूचना देता है और कुंडालनी इसे व्यवहारकता देती है। शरीर तथा सहस्रार में बने देवता हर आवश्यक सूचना देते है। सामुहिकता मूल कुंडलनी ध्यान जो कि मस्तष्क तथा सहस्रार तथा व्यवित, दोनों के लिए एक साध कार्य करती है। की शवित है भी अत्यन्त गहन तथा चुर्त होना चाहिये। आदि कुंडलनी तधा सहस्रार की रचना करने के लिए यह सारा कार्य करना इस कांठन कार्य को करने हैतु मूल हर राष्ट्र तथा व्यक्ति के भिन्न बन्धन थे। पड़ा। सहजयोग के लिए मंच स्थापन कुंडलनी को धैर्य के अनन्त सागर की आवश्यकता धी । कार्य आंत जाटल धा व्योंकि पोरिवर्तनशील और सूक्ष्म होते हुये भी यह बड़े स्नेह तथा प्रेम का कार्य धा। की गयी। करने को परम चैतन्य की पूरी बुंदि प्रयोग इस अवतरण का सृजन मानव शरीर धारण कर सामुहक आत्म-साक्षात्कार देने की कला का ज्ञान प्राप्त करना काठन इसमें सफलता प्राप्त हो चुकी है। परमात्मा कार्य धा। यह कार्य सहस्रार द्वारा किया गया। श्री माताजी स्वयं आश्चर्यचकत है कि इतने आंधक की सभी महान यौजनाएं आश्चर्यजनक है। हमारे अन्दर प्रतिबमेबत कुंडालनी को याद हम वास्तव लोग कैसे सहजयोग मैं आ गये है। 33 में समझना चाहते हैं तो हमें मूल कुंडलिनी की कार्य विधि की कुंडलनी के विषय में सोचते ही हम निर्विचार हो जाते है । विषय में सोचने से हमारे चक ठीक हो जाते है। को देखना पड़ेगा। श्री माताजी श्री माताजी के चकों के काी परन्तु हमारे अन्दर आवश्यक गहनता, अब भी बहुत से सहयोगियों में स्वयं को परवर्तित करने पूरे साहस के बिना हम सहजयोग अत्यन्त काठनाइयां सहने के कारण इमारी कुंडॉलनी समर्पण से ही हमारी कुंडलिनी मर्यादा तथा अधिकार होना चाहये। का साहस नही है, वे बहुत से बंधनों में फंसे हुये हैं। को निर्विलम्ब स्थापित नही कर सकते। केवल मूल कुंडलनी के प्रति वास्तावकता में विलीन होना हमारी प्रधम इच्छा होनी चाहिये। उपहत तथा दुर्बल हो गयी है। बलशाली हो सकेगी। त. वास्तविकता ली के पश्चात निर्लिप्तता या सदगुणो की चिन्ता अनावश्यक है। हमारे दिव्य विलीन होने में एक बार दिव्य हो जाने के पश्चात हो जाने के कारण ये स्वतः ही हममें आ जाते है। हमारी कुंडलनी अत्यन्त सुन्दर तथा गूल कुंडलिनी को प्रांतिबम्बित करने वाली हो जाती है। आर्शीवाद प्राप्त हो जाता बिना कोई तय किये हम सब के पहले दिन से ही भौतिक उपलब्धियों के रूप में आर्शीवाद केवल प्रलोभन मात्र है और श्री माताजी ने इनमें हमें और आगे बढ़ना है। है। बिना हमारे शुद्धिकरण बिना न फंसने की चेतावनी दी है। हमें कुछ बताये और बिना हमसे कुछ मांगे, साक्षात्कार हमें प्रदान किया गया। सक्षात्कार के पश्चात हम अपनी कुंडलनी से बंध गये है । इसकी विधि का उसका प्रयोग जानकर हमें अपनी अत : । विश्व का समस्याओं का समाधान करना चाहिये। १ ज्ञान भी होना चांहिये यदि हम परिवर्तित करना चाहते है तो हमें आदर्श, दृढप्रातिज्ञ होना पड़ेगा तथा जिस महान स्वयं को तैयारी की अवस्था कार्य के राध हम सम्बन्ध हुये है उसे पूरी तरह समझना होगा। में रख निष्कपटता से यद हम इच्छा करेंगे तो एक दिन महायोगी बन जायेंगे। ---------------------- 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी 1११0 खंड 2 , अंक ।। व ।2 ३ पन क सहजयोग की स्थापना करने का उत्तरदायित्व हम सबका है। हम सर्व-प्रधम सहजयोग याद आप प्रसन्नचत्त नही है और यदि हंसी आपके अन्तस अपने अन्तस में स्थापित करना है। से फुट नही पडती तो आपमें कोई अभाव अवश्य है जिसका तुरन्त सुधार होना आवश्यक हे। देदीप्यमान श्री. माताजी निर्मलादेवी. 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-1.txt श्री गणेश पूजा तिरोल - आसंट्या 26 अगस्त ।990 श्री माता जी का भाषण श्री गणेश के समान सब के चैहरों पर भी अत्यन्त सुन्दर चमक है। आप आपके छोटे, बड़े या वृद्ध होने से कोई फर्क नही पड़ता। श्री गणेश के हमारे अन्दर प्रवाहित श्री गणेश क्योंक सभी देवताओं की शंवत का स्त्रीत होने से ही हमें सौंदर्य प्राप्त होता है। है इसलप उनकी प्रसन्नता की अवस्था में हमें किसी ऊन्य देवता की चिन्ता नही उपकुलपात की भात वे हर एक चक् पर विराजमान रहते है । का उत्थान नही हो सकता क्योंक श्री गणेश जी की आदि-कुमारी-गारी माँ है। सब की श्री गणेश जी के प्रति उदासीनता करनी पडती। उनकी इच्छा के विना कुंडलनी कुंडोलनी पाम ही पाश्चात्य समाज की कठिनाइयों का कारण हम ईसा अवतीरत हुये और उनका संदेश विश्व भर में फैला। है। ईसाई लोग उनकी बताई गयी बातों के अनुसार आचरण नही करते । उनके विश्वास का आधार सत्य नही है। सत्य यह है कि ईसा के रूप में श्री गणेश ही अवतरत हुये। लोग श्री गणेश के प्रकाश में ईसा के महान अवतरण को समझे। याद यह सत्य है तो इसाई उन्होने लोगों को बताया नहीं होनी चांहिये"। कि "आपकी दृाष्ट अस्वच्छ कि अस्वच्छ मली दृष्टि क्या होती है क्योंकि वह तो केवल देखता मात्र है संत ग्यानेश्वर ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा " । अबधिता के इसी गुण को हमारे प्रभु नही जानता वास्तव में कोई महात्मा यह क है "नरंजनी पाही अर्धात विना किसी प्रति-करिया के देखना ईसा प्रकाश में लाये। परन्तु हमने इस गुण को आत्सात नही किया। आज आप श्री गणेश की पूजा कर रहे है पर इस पूजा का अभप्राय क्या पूजा के माध्यम से आप अपने गणेश को जागृत कर उनके गुणों को अपने अन्दर लाना है? श्री गणेश की अबोधिता का अनुभव आपको अपनी दृष्ट में होना चाहिये अभ्यथा यहां बैठ कर श्री गणेश की पूजा करते हुये याद श्री गणेश की तरह आपका चाहते है। आप पावन्ड है। चित्त अपने उत्थान की ओर नही है तो आपकी पूजा व्यर्थ है। श्री गणेश शाश्वत शिशु है। अहं तथा बंधनों से वे परे है। हमें भी अपनी माँ के शाश्वत शिशु बनना है। इस अवस्था उठाना है और सहस्रार में संधार करके अपने को प्राप्त करने के लिये हमें अपनी चित्त को आंधकांधक समय वहां रख कर, बिना किसी प्रांतांकया के , ध्यान मग्न रहना है । कुंडॉंलनी को "प्रंति किया विहीनता" का अभिप्राय केवल देखना मात्र है । में साचे जब आप देखते है तो सत्य, जो कि वास्तव में काव्य है, प्रकट होता है। बिना इसके विषय यही कारण है कि एक कवि किसी साधारण व्यवत से आधक देख पाता है। अन्तीनाहत सौंदर्य 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-2.txt आपके अवलोकन में भर जाता है और आप भी इसे देखने लगते है । है वे जिस भी जाति या देश से सम्बन्धित हो प्राय ः अंत सुन्दर होते है । आपने बच्चे तो देखे जापान में एक कुछ पश्चिमी माहलाओं ने यह कह कर कि "जापानी बच्चे बार में एक मंदर में गयी । बच्चे दौड़कर आपको डाइन कहेंगे" मुझे वहां जाने से रोका। मुझसे चिपट गये, वे मुझे वहाँ से जाने ही न दे रहे थे तथा मैरी साड़ी तथा हाथों को मैं जब वहां गयी तो सभी मुझे आश्चर्य हुआ कि जो बच्चे मेरे तथा मेरी पुत्रियों के प्रति इतने मधुर रहे धे। चूम धे वे उन महिलाओं को डाइन कैसे कह सकें। उन बचचों की माताएं भी हैरान धी क्योंकि प्राय ः वे विदेशी महिलाओं को डाइन" तथा पुरूषौं को "राक्षस" कह कर बुलाते थे । तब मुझे अहसास हुआ कि उनके अन्दर श्री गणेश जागृत हो गये है। जन्म के समय सभी का सभी पशुओं का, विशेषतः पक्षियों का, गणेश तत्व पूर्णतया गणेश तत्व जागृत होता है। पक्षी साइबेरिया से आस्ट्रेलिया तक दूरी उड़ कर पार कर सकते है । अवंड होता है। दिशा श्री गणेश ही उनके अन्दर का चुम्बक है। हमारे अन्त ःस्थित ज्ञान श्री गणेश की देन है। यह चुम्बक अबोध तथा निष्कपट व्यवतियों के लोगों को हमसे दूर भगाता है। को हमारी ओर आकार्षत करता है तथा रक्षस प्रवृति इसे चुम्बक में यह दोनों गुण निनाहत है, यह कपटी मनुष्यों को हमारी और आर्कार्णत करता है। लागों की हमसे दूर भगाकर निष्कपट यही कारण है कि अपने भरसक प्रयत्न के बाबजूद हम कुछ लोगों को सहन नही कर सकते। श्री गणेश ही इसका कारण है। पश्चिम में लोगो ने श्री गणेश तत्व की विकृति के विषय में बहुत कुछ कहा। दूरदर्शन तथा यत्र-तत्र इसके विषय में बताया गया। सै पीड़ित है। छोटे छोटे बच्चे गणेश तत्व की समस्याओं दूषित वातावरण के कारण वे इन समस्याओं के शिकार हो जाते है। लोग पान्डियों की तरह अड़ जाते है तथा उनका गणेश तत्व विकृत हो जाता सहजयोग में भी कुछ परन्तु ऐसे लोगों का पक्ष लेने वाले व्यव्त भी है। और देने बाले दोनों के लिये छुटकारा नही पा सकता तथ सहानुभुति देने वाला व्यक्ति भी उन्हीं समस्याओं में फंस जाता है| पर बैठ कर श्री गणेश अधर्वशीर्ष पढो तथा श्री गणेश का ध्यान करो। है। इस प्रकार की सहानुभूति पाने हानिकारक है क्योंकि पानेवाला अपनी धरा मो काम आपकी समस्यं का अंत हो जायेगा। उन समस्याओं के हिस्सेदार बन रहे है। आप वास्तव में किसी वर्याक्ति से प्रेम करते हैं और उसका हित चाहते है तो उसकी ऐसी समस्याओं है कि आप भी से सहानुभूति सह+अनुभुति का अर्ध किसी भी अनुचित वस्तु का साध मत दो। रयाद त्रुटियां अवश्य बता दो। ৮ 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-3.txt लोगों को भी विवाह के लिये उत्सक सहजयोग में मैनें कई सन्तर वर्ष के वृद्ध आपके पास बहुत से सहजयोगी मैरे लिये कभी पेसा अकेलापन नही होता जब में वास्तव में स्वयं को अकेला पाऊं। पाया है। सहजयोग में अलेकलापन तो सम्भव ही नही। होते है। अकेले में में सर्वाधिक आनन्द लाभ करती हैं क्योकि यही वह समय होता है जब हम अपनी उपलब्धियों पर दृष्टपात करते है । मूलाधार की समस्याग्रस्त सभी व्यव्ति जान ले कि ये समस्याएं न्क में जाने क पत्र है क्योकि मूलाधार की समस्या के कारण ऐसे रोग उत्पन्न हो जाते है का पक्का प्रमाण मल्टीपन स्लैरोसिज, मांस पेशियों की विकलांगता आंद कहते है । जिन्हें चिकित्सक असाध्य रोग मूलाधार की समस्या के कारण कैसर का भी आरम्भ हो सकसता है। अन्य देशों की अपेक्षा देशों में अंधक केंसर क्यों पाश्चमी होता है? मूलाधार की सराबी के कारण स्कजीफेनया रोयग एडस मूलाधार की समस्या के सिवाए कुछ भी नही । को मृत्योन्मुख एडस् के सिपाही कड कर याद आप अपना बालदान करना चाहे तो हम ऐसे भी हो सकता है। फिर भी स्वयं मूखों के लिये क्या कर सकते है। क्योंकि श्री गणेश ही सुबुद्ि बुद्धिहीनता भी मूलाधार की विकृति के कारण होती है आप विवेक कैसे पाते है? केवल श्री गणेश को के दाता है। जागृत करके । भारत से बड़े आकार की चूंडियां लाने को कहा तो मुझे बताया गया कि आजकल बड़ी चूंड्ियां लोग भिन्न प्रकार के आवश्वसनीय मूर्खताएं करते है। जैसे हाल ही मैं पुरुषों ने चूंड़िया पहनने चुड़िया देने का अभिप्राय उसके पारूष चुंड्यां अमेरिका चली जाती है क्योंकि वहां के उपलब्ध नही है। बड़ी भारत में किसी पुरुम को मूलाधार ठीक न होने के कारण यह सब मूर्खताएं होती है। का निर्णय किया है। को चुनाती देना होता है। में ,उदाहरण के रूप में हम सब स्त्रियां साडीयां पहनती है क्योंकि इस प्रकार हम ग्रामीण साड़ीर उद्योग की सहायता करती है शरीर प्रदर्शन न करके हम स्वयं को अच्छी तरह से ढक सकरती है और तीसरा लाभ यह है कि साई़ी पहनकर हम अपने बच्चों का पोणण सुगमता से कर भारत लोग तर्क संगत विधि से नही सेोचते सकती है। । अतः साड़ी पहनने के कई कारण है परन्तु वे सौचते है कि साड़ी पहनना बहुत व्यवहारिक है तथा भारत में परम्परागत इसका प्रयोग मान लीजये र्याद आप स्त्रियों को साड़ी के स्थान पर कुछ और पहनने को कहे तो यह उन्हें स्वीकार्य नही होगा क्योंकि उनके विचार में साड़़ी संन्दर्य तथा स्त्रीतत्व वृद्धि करती होता है। तलि भारतीय ग्रामीण स्त्रीयां इसमें कोई परिवतन नही करेगी। है। वे परम्परावश विवेक की उस अवस्था तक पहुंच चुकी है कि विदेशों से आये फैशन उन्हें प्रभावित नही कर सकते। पौश्चमी देशों में धोड़ा बहुत बाकी का विवेक भी बाहर जा रहा है। सारे लीग पॉप तथा 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-4.txt ऐसा शोर जो आपके शोर-शराबे के संगीत में एकत्र हो जाते है। तथा हिला देने वाले भयंकर इस प्रकार के कार्य विवेकहीनता है। कानों में घुसकर आपके कानों को बहरा कर दें। हर मुझे बताया गया है कि लौग यहां समय वे किसी न किसी प्रकार की उत्तेजना चाहतै है। वर्फ फिसलन के लिये आते है और मैने लोगों को पैराशूट से कूदते हुये भी देखा है । एक है। भारतीय जानता है कि किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा उसका शरीर आंधिक महत्तवपूर्ण यह बहुत से लोग इसके लिये अपने अंग तथा जीवन तक से हाथ धो बैठे। विवेकशील सब उत्तेजना क्यों? विवेकहीनता लोगों के लिये इस प्रकार की उत्तेजना का बहुत आकर्मण होता है। व्यव्ित इस प्रकार की मूख्खतापूर्ण कार्य नही करते। ा श्री गणेश शिशु होते हुये भी विवेक के दाता है । अंत : हम कह सकते है कितने विवेक से वे बातचीत कि विवेक मार्ग पर चलाये जाने पर बच्चे ही विवेक के दाता है। क उनमे से कुछ तो मुझे पूर्ण विश्वास में लेकर आप लोगों की गांतांवाधयीं के विषय श्री गणेश नै आपकी करते है। क शिशु विहीन जगत पुष्प विहीन मस्स्थल सम होता और मां के गर्भ में है। में बताते है। ही आपकी रक्षा रचना की, उन्ही के कृपा से आप उत्पन्न हुये की। आपका पौषण तथा उपयुव्त समय पर आपके अवतरण का दायित्व भी उन्हीं का धा। एक सरल ग्रामीण व्यक्ति अत्यन्त व्यवहारिक तथा मास्तिष्क विकास भी उन्होने ही किया। एक बार एक साध ग्रामीण व्यकत कुछ तेज तर्रार लड़कों के साथ रेलगाड़ी ग्रामीण को तंग करने के लिये एक लड़के नै प्रश्न किया विवेक्शील होता है। कि र्याद में यात्रा कर रहा था। मक्वन की दर पर बिक रहा हो तो अगले स्टेशन पर अन्डे का क्या मूल्य और ्याद आप अन्डे का मूल्य नही बता सकते तौ कम से कम मैरी उम्र ही बता चौथाई पाउन्ड होगा? "तुम बाईस वर्ष के होगे" ग्रामीण ने कहा। ग्रामीण ने उत्तर दिया कि मैरा एक ग्यारह वर्ष का भाई है जो कि आधा पागल है वींजिये। लड़के ने पूछा "आप कैसे जानते है"? अबोधिता के सन्मुख सारी चुस्ती और चालाकी मात खा जाती अबोधिता तुम तो पूरे पागल हो। बहुत से लोगों में ये भावना है कि हम अपनी अबधिता को खो चुके है। और है। एक आन्तरक गुण है, जिसे हम कभी नही खोते। कर लेते है उसी प्रकार आपके अहम बन्धनों और त्रुटियों के बाबजूद भी अबोधिता सदैव विद्यमान जिस प्रकार बादल पूरे आकाश को आच्छादत रहती है। आपको केवल इसका सम्मान करना होता है तथा इसके प्रति सम्मान प्रदिशत करते अबोधिता हुये आचरण करना होता है। स्वयं ही विवेक प्रदान करने वाली एक शक्त है जिसके दारा सुगमता से आप अपनी समस्याएं अबोधिता के इस गुण को लज्जाजनक न माने । सुलभ्झा सकते है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-5.txt गहन रूप में यांद आप देखें तो श्री गणेश आदि शांवत मां के बच्चे है । औकार से इनकी रचना करती है। आदि शवित मां औकार " ही "शब्द" है। यह प्रधम शब्द है जब सदाशव उस ध्वांन को औंकारं रुप में प्रयोग किया उनके दायें भाग में सभी तत्वों के अणु अलग हुये। शांकत सूृष्टि रचना हेतु और आदि गया, ओंकार अ्थात प्रकाशपूर्ण चेतन्य लहरयां। इसके मध्य में आपके उत्थान की शक्ति निहित है। है और बायें भाग में मनोभाव । वह शिशु कभी अत्याचारी नही होते। याद मां के विरूद्ध कोई कार्य किया जाये तो वे भड़क श्री गणेश भी अत्याचारी नही है। विनोदशील हैं । परन्तु कर अपराधी को दण्ड देते हैं और इस तरह से दैवी न्याय मानव तक पहंचता है। याद हम श्री गणेश के प्रांति समर्पण कर दे तो वे हमारी रक्षा करते है तथा आदि शक्ति मां के अंतारवत तथा मां की मर्यादा प्रदान करते है । विवेक, उचित सूझबुझ ा वे जानते है कि उनसे अधिक शवितशाली कोई भी वे किसी अन्य देवता को नही जानते। देवता नही। यही उनका विवेक है और प्रा्थना के समय आप भी इसे आत्मसात कर ले। पश्चिम में अभी भी बहुत से लोग दूसरों की नकल करने के इच्छुक है । ईश्वर की कृपा से आप सब वे गलत विचारों में फंस कर सत्य से वाचत रह जाते है। अब आप दैखिये कि पश्चिमी समाज किस तरह नर्क में इन बन्धनों से मुक्त हो गये हो। ा इसको समझने का प्रयत्न करते हुये आप स्वयं को एक पूर्णतया भिन्न अवस्था फंस गया है। परन्तु अभी भी आपके बीच कुछ ऐसे लोग होगें इस तरह के आंस्थर लौगो को बाहर फैकने का प्रयत्न में पाकर उस अवस्था का आन्नद लीजीये। जो बन्धनों के झूले पर सवार है। कीजीये, सहानुभूतिक्श उन्हें अन्दर धसीटने का प्रयत्न न कीजीये । करते है तो उनके साथ आपका भी पतन हो जायेगा। पीड़त तो करेंगा परन्तु इस प्रकार उन्हें उनसे सहानुभूति उनकी त्रुटियां उन्हें बता देना उन्हें याद आप विश्व में आप उद्धारक के रूप बचाया जा सकेगा। श्री गणेश की शक्ति आप में विद्मान है, आपको इसका प्रयोग करना है । में है। हुये हुये विशेषतया उनकी पूजा कीजीये। अपने हृदय में श्री गणेश से दया, करूणा तथा क्षमा की याचना करते होने की प्रार्थना करते उनसे अपने अन्तस में प्रकट आइये हम सब अपने बंधनों, दुर्शवचारों तथा दोषपूर्ण जीवन को वायु विलीन हो जाने दे तथा अपनी अबोधिता की कोमल तथा सुन्दर चांदनी को प्रकट अपने अन्तस से पूर्व पाखन्डो, प्रवाहत होने दे। आईये हम इन गुणों को उद्धाटित करे। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-6.txt देवी शक्ति से परिपूर्ण देश आर्सट्या में आज हम लोग है। कटटरपन के अभाव के कारण यह देश अत्यंत अदृभूत है। अपनी सामान्य आंखों से ही दैवी कृपा की वर्षा हम देख सकते है। वर्षा की स्थिती न होते हुये भी आज दैवी कृपा को हम देख सकें। निष्कपट बनने का प्रयत्न कीजीये। चातुर्य हमारे लिये आवश्यक नही। चातुर्य आपका मानसिक दृष्टिकोण है तथा अबोधिता आपका अन्त ःजात गुण है जो कि सर्वत्र ईश्वर आपको धन्य करें। व्याप्त शंवत से सम्बद्ध है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-7.txt श्री कृष्ण पूजा वार्ता सायंकालीन इपेविक हइंगलैंड ।9-8-90 श्री विष्णु की विकास प्रक्रिया से किस प्रकार सब कुछ विकसति हुआ? हमें इसका हान होना चाहिए। श्री विष्णु के दस अवतार हैं। श्री विण्णु बद् कर विराट, ब्रहइमांड रूप धारण करते हैं। हमारे अंदर विष्णु तत्व की स्थापना अंति सुन्दर रूप से है। इसी के परिणाम स्वरूप हम धन, सत्ता, प्रेम, बच्चे तथा अन्य सभी प्रकार की बस्तुएं पाना चाहते हैं। विकास प्रक्रिया, जिसके कारण हमे विकसित हुए, विष्णु तत्व की सबसे बड़ी देन है। सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्प में भी हमारा विकास हुआ। एक समय भारत स्वतंत्र देश धा फिर यह परतन्त्र हो गया तथा फिर प्रजातन्त्र। अंग्रेज लोगों ने भारतियों के बहुमत को देखते हुए विवेक से कार्य लिया तथा भारत छोड़ दिया। समस्या का सामना जब हम करने लगते हैं तो हमें पता चलता है हम स्वयं ही इसके जन्म-दाता हैं। समस्या के समझने से हमारे अन्दर विवेक जागृत होता है। हमारे मध्य र्नायु-तंत्र पर जागृती की यह घटना विपरीत पशुओं में हर चीज़ अन्तःरचित होती है। वे पशु अर्थात पाश व३ होते हैं। विवेक या मुर्खता को समझने के लिए उनकी कोई पृधक पहचान या व्यावतत्व नईीं होता। विवेक, विकास की महान महानतम उपलब्धि हैं। विकास प्रक्रिया विवेक की रचना करती है। इसके देन, मानव को ही प्राप्त है। प्रयास ओर त्रुटि यों या आत्मान्वेषण के कारण प्राचीन देशों में इस विवेक का विकास हुआ। अब हम देखते हैं कि मुस्लिम देशों समेत बहुत से अन्य देश इस मूर्ख सद्दाम हुसैन का मुकाबला करने के लिए संगठित हुए हैं हिटलर दिया धा और बाकी उसके विरोध में धे। अतः दो प्रकार के लोगों के होने के कारण एक किभाजन के काल में कुछ देशों ने उसका साथ सा हो गया था। परिस्थितियों की रचना हमारी अपनी सृष्टि तथा त्रुंटियों से तो होती ही है परमचैतन्य भी इनकी रचना करता है। अपनी मूर्खता को पहचान कर अपना दृष्टि-कोण बदलने के लिए ही जाता है। विवेक एक प्रकार का प्रकाश है जो कि आपकी समझ को प्रकाशित मछली, मछुआ, वामन अवतार जीयस के रूप में विकसित हुए। फिर वे श्री राम के रूप में आये। वे अतयन्त विवेक्शील, सतर्क, सावधान, औपचारिक तथा सुन्दर व्यक्ति धे। अपनी आपको दौडत किया करता है। देवताओं का विकास भी मानव-वत ही हुआ। जैसे विष्णु के बाद यूनानी पोराणिक कथाओं के पुरूमोत्तम कदव ॥=ि सारी शक्तियों को जानते हुए भी उन्हें अपना विष्णु-अवतार भूलना पड़ा। उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम बनना पड़ा। अर्थात धर्म -सीमाओं में रहते हुए मानव आदर्श उन्हें स्थापित करना पड़ा। यह गुण आज पूर्णतया मर्यादा विहीन व्यक्ति ही विश्व में सफ्ल हैं । ते आज के मानव के विपरीत है क्योंकि 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-8.txt 8. संचालन कार्यो में पेसे लोगों का महत्तव- ऐसे व्याक्त का आचरण अत्याचारपूर्ण तथा हास्यास्प्रद होता है । पूर्ण स्थान प्राप्त कर लेना आश्चर्यजनक है। बार लौग ऐसे मनुष्यों को पसन्द करने लगते हैं। मानवीय-त्रुटियाों के कारण ऐसा होता है क्योंकि कई परिपीडन-शील तथा यान-विकृत लोग भी होते यौन विकृत लोग अभत्रस्त होकर तधाकोधत मर्यादाविहीन लोगो के प्रांति श्रद्धावान हो जाते है । एक निरंकुश शासक की ऐसी शक्त के कारण फिर कुछ ऐसी घटना होती है कि लोगों को अपनी गलती का बोध होता है । उनकी शारीरिक शाक्त से तोग बहुत प्रभावित होते है । देश दास बन सकता है। 12 जैसे जर्मन लोगों को हिटलर की गर्लातयों का बौध अब हुआ समस्याओं की अपेक्षा स्ढ़ीबादी समस्याएं आंधक है। राजनैतक यह सढ़ीवाद राजनीत में अल्जीरिया भी धुस गया है। तधा इस्ताम्बूल के लोगों मुझसे रूढ़ीवाद की समाप्त करने की प्रार्थना की है । मुसलमानों में न होकर हर स्थान पर है। सत्य पर आधारित न होने के कारण इसका झुकाव या तो दाएं को हो जाता है या बाएं को। रूट्रीवाद के डर के कारण लोग अवश्य ही इसे समाप्त कर देंगे। |३ यह समस्या केवल हर धर्म में कट्टर लोग है इसका कारण क्या है? दाई ओर झुकने पर यह कटूटर पंध बन जाता है और बाई और के झुकाव से लोग आत्महत्या आदि अपराध सत्य वही जैसे उस दिन टोरेन्टो में एक स्त्री भेंटकर्ता ने मुझसे पूछा "भारत भंयकर ओभशाप है" मैने उत्तर दया। उसने करने लगते है। कट्टरवाद का मूल कारण धर्म का सत्य पर आधारित न होना है है जिसे प्रस्तुत किया गया धा। में जाति प्रथा के विषय में आप क्या सोचती है"? कहा "फर वहां जांतयां क्यों है?" श्री राम की जीवनी बाल्मीकी नै लिखी धी जो कि सन्त बनने से पूर्व डाकू धे। वे मछुआरे थे ब्राहम्ण मैने कहा प्रारम्भ में जाति जन्म से न होकर कार्य से होती थी। गीता के लेखक व्यास एक मछुआरिन ऐसे व्यांक्त में गीता लिखने की योग्यता कैसे आ सकी? गीता में गलत बातें नहीं। पर आत्म-साक्षात्कार पाकर एक मछुआरा ब्राहम्ण बन गया। की अवैध संतान धे। भर दी गयी है कि जाति का संबंध आपके जन्म से है । इसाई धर्म में ईसा ने कहा है "आपकी दृष्टि अस्वचछ नही होनी चाहिये "| मैने उस भेंटवार्ता से पूछा कि व्या तुम पांश्चम में एक भी ऐसा व्याव्त दिखा सकती हो जिसकी ईसा क्योंक आज्ञा पर आरूढध है उन्होनें दृष्टि की ही बात करनी क। है। दृष्टि पूर्णतया स्वच्छ हो। काी सहजयोग में सर्वप्रथम हमने देवी शक्त का अनुभव किया, अनुभव ही शिक्षा का स्त्रोत है। फिर एक सुन्दर सामुहिक जीवन का अनुभव और अब वास्तव में हमें लगता है कि एक ही मां की सन्ताने हम सब एक ही परिवार के सदस्य है। हम इस सत्य को जानते हैं और हमें इस पर हमें वह प्राप्ति हुई जो कोई अन्य अवतार न दे सका। पूर्ण विश्वास है। उन सबसे अधिक समय काफी कार्य हो गया है, यह सोच कर सभी अवतार तक टिक पाना उन उपलब्धियों में से एक है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-9.txt यहां तक कि सन्त ग्यानेश्वर जैसे व्यावत नै भी तैईस वर्ष की आयु में शी् ही लुप्त हो गये। याद अवतारों की यही अवस्था हैं कि विश्व को देखते ईसा सूली पर चढ़ गये। समाध ले ली। ही वै बोरियां बिस्तर बांध कर कूच की तैयारी कर लेते हैं तो मैं समझती हूँ कि में उन सबसे कहीं बाकी अवतारों मेरा उत्तरदायत्व भी भिन्न प्रकार का है। हूँ और अभी तक कार्यरत हूँ। बहादुर उन्होनें केवल भाषण देना होता धा। ने किसी को आत्म सक्षात्कार नही देना होता था। भाषण में समझती हूं "हमारी परीक्षा अत्यन्त काठन हे"। देकर संसार से चला जाना आंत सुगम है। बहुत से देश सहजयोग से जुड़कर स्वयं इसका परीक्षण कर रहे हैं , स्वभाव तथा स्तर के, भिन्न प्रकार के बन्धनों तथा अहॅ ग्रस्त लोगों पर मिन्न प्रकार हर बार मुझे कुछ नवीनता मिलती है। दूसरे गुरूऔं तथा अवतारों के लिये कार्य करना अत्यन्त साधारण धा क्योंकि उन्होंने कार्य करना हमारी प्रधम परीक्षा है। फिर भी मैनें अच्छा कार्य किया है। सत्य कार्य के लिये केवल सचे लोगों को ही चुना। सभी सहजयोगियों का उत्तरदायित्व उन पर सभी शिष्यों को अपने परिवार, बच्चे तथा भौतिक उपलब्धयों का त्याग करना पड़ता धा। न धा। यहां तक कि शंकराचार्य ने भी अपने शिष्यों को सन्यास लेने के लिये कहा। ईसा बुद्ध महावीर अपने बच्चों, पात्नयों तथा दासों का बोझ अपने सिर पर त सभी के शिष्यों को सन्यास लिना पड़ा। लादे रखना वे न चाहते थे। इसके विपारत सहजयोग में हम यह दर्शाना चाहते हैं कि इस संसार में रह कर भी मनुष्य आत्म-साक्षात्कार पा सकता है। इसके लिए सब कुछ त्याग कर मरने लिए हमें हिमाललय पर जाने की आवश्यकता नहीं है। का के इसी संसार में रह कर कार्य कर ते हुए यही सहज योग को प्रातिष्ठत करना है। यह कांठन कार्य है फिर करूणा के गुण से हम इस कार्य में सफल हुए। करूणा के बिना हम सफल न हो पाते। भी चाहे आपके हों, जैसा भी प्रबन्ध आप कर लें जो भी प्रयत्न आप करें, अच्छे से अच्छे शिष्य विवेक का प्रकाश सभी कुछ असफल हो जायेगा। कैवल करूणा को ही प्रकाशत करता है। विकास प्राकया के मार्ग पर अग्रस र हम सबको अपने अंदर करूणा की मात्रा का केवल अपने परिवार, सम्बन्धिरयों तथा देश के लिए ही नही पूरे विश्व के लिए अन्तस तोलना है। निहित करूणा को। दूसरी बात जो हमें जाननी है वह यह है कि जितने भी अन्य लोग पृथ्वी पर आये किसी ने भी अपने देवत्व का कोई पक्का प्रमाण नही दिया। परन्तु मेरे, आपके अपने तथा आपने फेटोग्राफ तो देखे ही जो वस्तुएं दृष्ट से दिखाई नही पड़ती उन्हें इसके बावजूद भी इस विकास प्राक्या का परीक्षण हमारे अन्तस में होना सवत् व्यापक शक्ति के देवत्व का प्रमाण आपको प्राप्त हो गया है। है। कि प्रकार अदृष्य जगत में कार्य हो रहे हैं। कैमरा पकड़ रहा है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-10.txt 10 चाहिये और यह प्रकृिया हमारी श्रद्धा का अंग प्रत्यंग बन जानी चाहिये। यह अन्धावश्वास न होकर ऐसा विश्वास है जैसे आप फूलों को देखते हैं। चाहें तो हम यह कहेंगे कि पागल न होते हुये भी आप पागल होने का दोंग कर रहे हैं । पूल देखकर भी यांद आप उनके अास्तत्व को नकारना इस प्रकार का अवतरण हमारे सामने हैं, अपने व्यक्तित्व में कुंडलनी जागृति से गांत प्राप्त विकास प्राक्रया के कारण हम बहुत ऊंचे उठ गये है तथा समय और अपराध से परें हमें अवश्य इस सत्य को, कि हम एक महत्वपूर्ण युग में उत्पन्न हुये हैं। उतार लेना मुख्य समस्या है। फिर भी हम अपनी पदवी नही ग्रहण कर रहे हैं । अन््तारछ में निवास कर रहे हैं। यद्याप में बहुत सारदी प्रतीत होती हैूँ और बातचीत भी सादे ढंग से अपना स्थान लेना चाहिये। करती हैं फिर भी मेरे विषय में आपके हृदय में कोई भय नहीं होना चांहये। परमात्मा दारा आपको दी गयी शक्तयों का आपको ज्ञन होना चाहिये। आप ही वह विशेष व्यक्ति है जिसे परमात्मा के सभी वरदान प्राप्त है। निसन्देह धन के बदले दैवी-वरदान नही मिलते ने यह सोचकर आपको यह उपहार दिदया हे कि आपमें कोई महान कार्य करने की योग्यता हे तथा आप परमात्मा की । परमात्मा की करूणा योजनाओं को कार्यान्वत करेंगे इसी कारण आपको यह शोवत प्रदान की गयी है। विकास प्राकया में श्री राम ने अपने जीवनकाल में ही उन सारी बातों को व्यवहारक परन्तु अभी विकास की एक और सीढ़ी की आवश्यकता थी और यह विकास श्री रूप प्रदान किया। कृष्ण के रूप में, श्री विध्णु यह कधन कि पूरा विश्व एक लीला है और आपको चीजों के विषय में गम्भीर नहीं होना है । सहजयोगियों को पहले श्री राम की तरह बनना है । के सम्पूर्ण अवतार दारा हुआ। कृष्ण का पूर्ण रूप क्या है? उनका परन्तु श्री विष्णु को भी पहले श्री राम बनना पड़ा हमारे लिए अभी तक श्री राम की ही अवस्था है। श्री राम को बहुत से त्याग करने पड़े, दुख उठाने पड़े तथा इस सीमा तक अपमान झेलना पड़ा कि उन्हें अपनी पत्नी का भी त्याग करना पड़ा और सीता के लुप्त हो जाने के कारण वे पुन एक दूसरे से न मिल सके । सहनी पड़ी। इतनी यातनाएं उन्हें कि सहजयोंगियों को भी यह सब यातनापं झेलनी है| मैं यह नही कह रही हूं सहस्रार से ऊपर जाकर क्योंकि आपका पुनर्जन्म हुआ है अतः आपको ईसा दारा झेली गयी यातनाओं की चिन्ता नही करनी है। र्पारवार सुख-सुविधाएं, इन वस्तुओं धन आदि सभी वरदान आपको प्राप्त है। के लालच में याद आप आ गये तो आप जाल में फंस सकते हैं। तो जीवन केवल लीला या आनन्द मात्र ही नहीं है । याद श्री कृष्ण सम बनना चाहते कंस को मार कर पारिवारिक तथा प्रजा 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-11.txt इसी प्रकार हमें की काठनाइयों का अन्त करने के बाद ही उन्होने कहा कि जीवन एक लाला है। तभी हम जीवन को लीला कह के कंस तथा अन्य राक्षसों का बध करना है। भी अपने अन्तस एक ओर तो वे गोप गोपियों के साथ लीला करते थे उनके जीवन के दो पहलू थे । सकेगें। और दूसरी और बड़े बड़े कार्य। करने के लिये उन पर प्रलयंकारी वर्षा शुरू कर दी तो सहज ही में श्री कृष्ण ने अपने हाथ पर एक दिन ईष्ष्या के कारण जब इन्द्र ने सभी गोप-गोपयों को समाप्त इस प्रकार उन्होंने दर्शाया की सब एक पर्वत उठा लिया तथा सभी लोग उसके नीचे आ गये। श्री कृष्ण अच्छी तरह जानते थे कि वे विष्णु-अवतार है और अपनी पूर्णवस्था कुछ लीला मात्र है। तक पहुंच चुके है और अब उन्हें लीला की अवधारणा को स्थांपत करना है। भी इसी प्रकार से, जीवन एक लीला मात्र बन रहा है। सहजयोगियों के लिये हमें सर्व- प्रथम सहजयोग सहजयोग की स्थापना करने का उत्तरदायित्व हम सबका हे। याद आप प्रसन्नाचत्त नही है और ्याद हंसी आपके अन्तस अपने अन्तस में स्थापित करना हे। से पूट नही पड़ती तो आपमें कोई अभाव अवश्य है जिसका तुरन्त सुधार होना आवश्यक है । देदीप्यमान आनन्द तथा प्रसन्नावस्था में मुखाकृति तथा आनन्दमय मुद्रा एक सहजयोगी की प्रथम पहचान है। मुझे पता चला है कि केवल पांच प्रतिशत सहजयोरगी होते हुये भी हमें उत्तरदायी होना चाहिये। ही उत्तरदायत्व लेते है। मार्ग है। आप सबको उत्तरदायित्व लेना चाहिये क्योंकि उत्थान का केवल यही एक अपनी कामयां को जीवन लीला या आनन्द कहने मात्र से आपका उत्थान नही होगा। आत्मावलोकन होना ही चाहिये। बहुत से लोग अपने अन्तस में झांकना ही नहीं "मैं पेसा क्या कर रहा हूँ"? "मुझे ऐसा करने की क्या आवश्यकता थी"? ्खोज निकालये। चाहिये। स्वयं देखिये जैसे मुझे पता चला कि किसी एक व्यक्ति छोटी छोटी चीजों के लिए हम आंत क्षुद्र हो जाते है। इतने सारे लोगो में सभी को उपहार मिल जाना ऐसा हो भी सकता है। को उपहार नही मिला। इसके लिऐ शिकायत तो में चमत्कार ही मानूंगी। परमात्मा भी इसका वचन नही दे सकता। लहारयो का वास्तांवक उपहार तो आप पा ही करना या अपमानित महसूस करना उचित नही। इस स्तर के लोग बड़ी क्षुद्र बातें रहे है। अंत ः इस निम्न-स्तर से आपको ऊंचा उठना है। अच्छे बानये और अच्छाई के लिये कार्य कींजिये क्योकि बुरा बनना तो आंत सुगम है। कहते हैं। हमें अपने से उच्चावस्था जिस भी क्षुद्र व्याक्त को हम देखते हैं उसीका अनुसरण आरम्भ कर देते है । के लोगो का अनुसरण करना चाहिये। होगा । याद आप मेरे अनुयायी है तो आपको ऊपर उठना सहजयोग के विस्तार , पुर्णावलोकन तथा दिव्य दर्शन को आपने समझना है। क्षुद्रता के पीछे आप कैसे जा सकते है? है कि आप सहजयोग के लिये कार्य कर रहे सहजयोग क्षांतज से भी परे है। आपका सैभाग्य क 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-12.txt 12 - इसकी स्थापना करने की शोक्त आप में है। अवलोकन काजये कि आप क्या है। इस विशेष कार्य के लिये आपको चुना गया है हैं। आत्म-दर्शन करने के उपराम्त अपनी भूमिका इस दिव्य कार्य में जब आप देखेंगे तो मुझे कुछ कहने की आवश्यकता न रहेगी। आप स्वंय कहेंगे "माँ आप ही सभी कुछ कर रही है, हमारे बिना कुछ किये सब हो रहा है " अपने हृदय में आप इस तरह सीचने लगते है और जब जब भी कौई कार्य करते है इसका आनन्द आप प्राप्त करते है। स्वयं को यंत्र मात्र मानते हुये जब आप कहने लगते है "मैं इसका आनन्द ले रहा हूँ, मैं कुछ नही कर रहा, श्री माता जी ही कर रही है", तब आप समझे पाते है कि आपके अन्दर विवेक जाग विवेक आपको प्रकाश प्रदान करता है। उस प्रकाश में आप समझ पायेर्गे कि लाला क्या उठा है। है , हमने आत्मानन्द कैसे लेना है तथा हमें दैवी कार्य को करने के लिये चुना गया है। कीचड़ में से हमे कमल सम लोगो की रचना करनी है । उदार, सुन्दर तथा सुगान्धत श्री कृष्ण की शोक्त परमाप्मा से मिल उपहार का ज्ञान हमें होना चाहिये। कमल हमें बनना है। तो जीवन लीला प्रतीत होने लगता है। जब आप प्राप्त कर लैते है आप में जब यह शोक्त्यां आ जाती है तो आप अपने सद्गुणों का आनन्द लेते है तथा दूसरे आपको देख लोगो को लगता है कि आपसे सीखने तथा जानने के लिये कुछ विशेष है। लोगो तक भी इसका प्रसार करत भा है। अपने चहूँ और फैली उत्तैजना अशोत को देखते हुये हमें आत्म-विवेक दारा इससे उपर उठना है । "ईश्वर आपको आशिष प्रदान करें 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-13.txt सा 13 परम पूज्य श्री माता जी निर्मता देवी दारा श्री कृष्ण वार्ता इपैविक - इंग्लैड, 19. अगस्त ।990 हमने विशेष रूप से इंग्लैंड में ही इस पूजा का आयोजन किया है ताक आधक से आधक सहजयोगी आकर अपने में श्री कृष्ण तत्व की जागृत इसका विभन्न भाषाओं गीता बहुत समय पूर्व लिखी गयी| का कार्य कर सके। पर बहुत सी आलोचनाएं, व्याव्याएं और टीकाएं लिखी लोगों को भ्रामत कर दिया। में अनुवाद हुआ तथा इस गयी । आज गीता के इस दुष्प्रयोग ने बहुत से भी लोग इसे केवल पुस्तकीय ज्ञान के रूप में मानकर इसके व्यवसाय में लगे हुये है। मानव के ऊर्ध्वमखी होने में सहायक है लाकन घर्म वास्तव में श्री कृष्ण के कहे गये शब्दो को बड़े ही भ्रमपूर्ण तरीके से टीकाओं में प्रस्तुत किया आधानिक सन्दर्भ में पूर्ण रूप से सत्य उतरता श्री कृष्ण का यह क्थान गया है। है कि जब जब धर्म का हरास होता है और जब जब सन्तों को सताया जाता मैं सन्तों को बचाने, राक्षसों तथा नकारात्मक शांबतयो को समाप्त करने के लिये इस पृथ्वी पर आता हूं। श्री कृष्ण तत्तव की यह जागृत हमारे अन्तस: में होती अत्यन्त आवश्यक है अर्थात हमें उनके गुणों की मैं करना है तभी हमारी शांवतयां उांचत प्रयोजन के प्रांति कार्यरत होगी। जागृति एवं अनुगमन अपने अन्तस अपने बाल्यकाल में श्री कृष्ण ने बहुत से राक्षसों का वध किया। तत्पश्चात वे गोप और गोपयों की कुंडालनी जागरण के लिये उनके साथ सेले उन्होंनें अपने और उनमें श्री राधा की शाक्त को रास के दरा प्रवाहित कया। तात्पर्य यह है कि याद सबसे दुष्ट राक्षस धा। मामा कंस का व्ध किया जो अधवा रक्षसी प्रवृत के है तो उन्हें भी बुरे भी मारा जाना अत्यन्त आवश्यक सम्बन्धी दूष्ट सम्बन्धी को बचाना या उनकी बुराई पर है क्योंकि सहजयोग में किसी पर्दा डालना अनुचित है। में सहजयोग के समान कोई अन्य मार्ग नही संसार समस्त यह न केवल दुष्टों को सहजयोग छोड़ देने का अनुमात देता है ओपतु आवश्यकता पडने पर उन्हें सहजयोग से बाहर दैवक नियमों से आवद है तथा इसे इन नियमों से बंधे रहना है। है। फेंक देता है। कारण यह है कि सहजयोग श्री कृष्ण की कार्यशला यह धी कि बाहर फैंकने के बजाय दुष्टों को समाप्त ही कर दिया 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-14.txt 14 अत : उन्होंने अपने मामा का वध किया। लेकिन सहजयोग में हम दुष्ट तथा हमारे उत्थान- जाप । अवरोधक, ईश्वर तथा आध्यात्मिकता विरोधी लोगीं को भी अवसर देते हैं। स्वयं के विनाश के लिए उन्हें पर्याप्त छुट दी जाती है। यह श्री माता जी के अवतार का मातृ-सुलभ पक्ष है। परन्तु श्री कृष्ण के पक्ष में अत्याधक आवेग है। श्री कृष्ण बहुत लम्बे समय तक नहीं रहे और उन्होंने धोडे समय में ही वहुत से रक्षसों का वध किया। वे पंडव पक्ष से लडे उन्हेोंने कोरवों को मारा यद्याप उनका कधन यह धा कि उन्होंने कारवों को नहीं मारा। श्री कृष्ण की कार्य शैली एक और तो मधु के समान अत्यन्त मधुर थी और इसी कारण उनके कृषाकांक्षी उन्हें माधव के नाम से पुकारते हैं । परन्तु दुष्ट व्यव्तियों के लिए उनका ऐसा ठी किया। शिव और शक्ति ने बहुत व्याव्तत्व अत्याधक भयंकर धा। वास्तव में शिव ने शी से रक्षों का वध किया। शक्त ने बहुत से युद्ध किए उन्होंने बहुत से तर्क वितर्क और वाद-विवाद किए लाकन श्री कृष्ण ने कभी वाद-विवाद नहीं किया। मे रक्षासों से एक के बाद एक छुटकारा प्राप्त । उन्होंने उनसे बहुत सी चाल भी खेंली। एक दुष्ट राक्षस जो वहुत से लोगों को सताता था श्री कृष्ण नै उससे युद्ध किया एक चाल चली। श्री कृष्ण एक गुफा में प्रावष्ट हुए। यहां एक संत सो रहा था। संत को शिव से यह वरदान प्राप्त धा जो भी उसकी निद्रा को भंग करे करना जानते थे। बह राय में परिवर्तित हो जाए। श्री कृष्ण ने अपनी शाल ली और धीरे से उस संत पर डाल दी और स्वयं को छुपा लिया। राक्षस गुफ्फ में प्रावष्ट हुआ और सोप हुए संत को कृष्ण समझ कर उन पर लात से प्रहार किया। संत उठ खड़े हुए और जैसे ही उन्होंने अपने तृतीय नेत्र से रक्षस को देखा वह राय हो गया। यह कृष्ण की चाल धी। एक बार कंस के दवारा एक राक्षसी स्त्री बालक कृष्ण का वध करने भेजा गया। उसने अपनी छाती पर विष लगा लिया और बालक कृष्ण को दूध पिलाना प्रारम्भ किया। श्री कृष्ण ने जैसे-जैसे दुग्ध पान करना प्रारम्भ किया उसकी छातीं विकासत होती चली गई और वह समाप्त हो गई। एक अन्य अवसर पर वे जानते थे कि दो रक्षसों ने दो बड़े वृक्षों का रूप धारण कर रखा था। श्री कृष्ण की मां ने उनके मक्बन चुराने पर एक बहुत बड़े मूसल से उन्हें बांध दिया। जब वह चली गई तब श्री कृष्ण अपने छोटे-छोटे पैरों से गए और दोनों पेड़ों को इस मूसल से का. ठोकर मारी। पेड़ गिर गए और रक्षस समाप्त हो गए। श्री कृष्ण इतने चतुर और ज्ञानगम्य हैं क्योंकि वह बुदिरूप हैं। वह विराट हैं। उनका समस्त प्रेम, करूणा और सुन्दरता , गोप और गौपी मात्र के लिए थी। राजा के रूप में उनका जीवन समझ से परे और रहस्यपुर्ण रहा लेकिन सहज योगी समझ सकते हैं जब वे रजा बने उन्हें विवाह करना पड़ा। उन्होंने पांच विवाह किये। वे पांच विवाह वास्तव में पांच तत्वों के पारणामस्वRप 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-15.txt 15 थे। श्री कृष्ण जी के पास सोलह हजार शक्तियां धी। याद एक व्यवित लगभग 9 0 वर्ष का होकर किसी र्त्री को अपने पास रखना चाहता है लोग उसे बुरा कहते हैं। भारत में कब्र में तटके हु' व्यक्ति की भी याद कोई स्त्री मदद करती है तो लोग कहते हैं इनके प स्पर बुरे सम्बन्ध थे। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण स्वयं को बदनाम नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने सोचा इन शांवतयों का क्या किया जाए क्योंकि उन्हें तो स्त्री रूप में अवतरत होना पड़ेगा। वे सोलह हजार राजकुमारियां बन गई और एक राजा ने उनका हरण कर लिया और जब राजा इन नारियों को दूषित करना चाहता धा श्री कृष्ण ने आकरमण करके सोलह हजार राजकुमारियों को मुकत करा दिया। उन्हें अपने साथ ले आए और वास्तव में यह ववाह तो उनका अपनी शांक्त से उनसे नियमानूसार विवाह किया। वरण धा। श्री कृष्ण ने उन शकतयों का प्रयोग विभिन्न वस्तुओं के सृजन में किया। याद न हुए होते तो हमें आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान न हु आ होता यद्याप संतों और कृष्ण अवतारत दृष्टाओं के माध्यम से लोगों को आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान हुआ लेकिन किसी अवतार ने इसके बारे में बात नहीं की। वामन परशुराम अवतार आदि हुए में नहीं बोला। पहली बार श्री कृष्ण ने केवल अर्जुन उन दिनों लोग आध्यात्मिकता को जानने की अवस्था में न थे। जो सहजयोगी बाधाओं, समस्याओं तथा पर्याप्त जिज्ञासुओं के अभाव श्री कृष्ण में केवल एक व्याक्त को आध्यात्मिक ज्ञान देने का साहस था। लेकिन कोई भी आध्यात्मिक जीवन के बारे को आध्यात्मिक जीवन के विषय में बताया। के कारण निराश हो जाते हैं उन्हें अवश्य जान लेना चांहए कि श्री कृष्ण के बाद ईसा नै आध्यात्मिकता के विषय में बताने का नेतृत्व लिया। अब्राहम और मोजिज भी इसके विषय में कुछ न बता पाये। उन्होंने ईश्वर के विषय में बताया, आध्यांत्मकता के विभय में नहीं। ईसा के अवतरण से पूर्व किसी ने यह नहीं कहा कि आपको पुर्नजन्म लेना है। केवल श्री कृष्ण ने यह बात कही। श्री राम ने अपने गुरू से कुण्डलनी ज्ञान सीखा परन्तु तब यह गुप्त विज्ञान धा। जिसका ज्ञान कुछ गिने चुने लोगों को दिया जाता था। उसकी तुलना में हम सोचे कि हममें से कितने लोगों को पर्याप्त आध्यात्मिक ज्ञान है। अपनी आध्यात्मिकता का हम न केवल अनुभव करते हैं, हम स्वयं आध्यात्मिक हैं। अवसर का नियम यांद हम इस पर लागू करें तो ईसा के "मैं नहीं सोचती" ईसा के बाद इतने लोग भी हो सकते हैं। श्री कृष्ण और ईसा के समय के बीच में ह60008 हजारों वरषों में कृष्ण का केवल एक शिष्य था। ईसा के 12 शिष्य बने। हमें पता होना चाहिए कि अब नया धमाका हुआ है। इसी कारण मैं इसे बसन्त का समय कहती हूं। हम निसंदेह आध्यांत्मिक भोग हैं। इसमें आध्यात्मिकता है और दैवी शांकति कार्यरत है। इसी कारण कलयुग का अंत होकर अब कृतयुग है । "hok 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-16.txt 16 कृतयुग की कार्यशेली ने हमें इतने अधक सहजयोगी दिये हैं। वह समय जब सर्वत्र व्याप्त शक्ति ने कार्य शुरू कर दिया हो। आज से पूर्व किसी को मी शीतल लहारयों का अनुभव नहीं हुआ था। उन्हें शीतलता का अनुभव तो हुआ परन्तु लहारयों विशेषतया इसकी सम्बद्धता शरीर विज्ञान से कभी नहीं की गई। सहजयोग की उपलाब्ध आश्चर्यजनक अ्थात कृतयुग का नहीं। है। युगों की कार्यशैली में विकास प्राक्या का भी योगदान है। इसके कारण सर्वत्र व्याप्त शांक्त ने पृथ्वी पर लोहे के रूप में कार्य करना शुरू किया। कोई भी व्योवत यह प्रश्न कर सकता है कि मां क्यों नहीं अवत्तारत हुई। क्योंकि समय इससे पहले आप परिपवत न था। ने विवेक्शील लोगों की संख्या वहुत कम है। विनाश तथा अन्य छोटी-छोटी घटनाओं की चिन्ता मत कांजये। अब सहजयोगी की उन्नांत होगी, यह फ्ले फूलेगा। लोग जो भी कहते रहें आप उसकी चिन्ता मल कीजिये क्योकि एक बार जब उन्हें आनन्द, प्रसन्नता तथा सत्य की प्राप्ति हो जायेगी आज भी पश्चिमी देशों कत वे सहजयोग नहीं छोड़ेंगे मान लीजिये पांत-पल्न में से कोई एक याद तो, याद वे ईमानदार हैं दृष्ट्रवृत्त है और दूसरे के सहजयोग में जाने में बाधा उत्पन्न करता है तो उसे साफ शब्दों में सहजयोग छोड़ने से इंकार कर देना चाहिए, क्योंकि उसने सहजयोग के अभ्रत सुन्दरता तथा आनन्द की अनुभूति , की है। श्री कुष्ण युद्ध के मैदान में अपने विराट रूप में प्रकट हुए परन्तु अपना बह स्प अर्जुन के आंतारवत किसी को नहीं दिखाया। परन्तु आज, याद आप अपनी आंखों से नहीं देख सकते तो भी आपके पास ऐसे फोटो हैं, जिनमें आप विराट रूप देख सकते हैं। कुछ लोग अपनी अंसखों से भी यह रूप देख सकते हैं और वे इसका अनुभव कर रहे हैं। आप विकासत हो रहे हैं और इसमें बद रहे हैं । यह एक नया साम्राज्य है और श्री कृष्ण ने ही इसके विषय में बताना आरम्भ किया। नाथ-पौधयों का विश्वास भी आध्यात्मकता में धा परन्तु संत ज्ञानेश्वर से पहले उन्होंने भी कभी इसके विषय में बात नहीं की। इसके रहस्य बन जाने से पूर्व मोहम्मद साहिब, साईनाथ तथा कुछ अन्य सुफी संतों ने आध्यात्मिकता के विषय में बताना शुरू किया। गुरू नानकदेव जी, शिरडी ऐांतहासक दृष्ट से हमें श्री कृष्ण जी के प्रत कृतज्ञ होना चाहिये कि उन्होंने पहली गांठ खोली। यही कारण है कि श्री कृष्ण चाहते थे कि इसका इसे विष्णु ग्रन्थी कहते हैं । ज्ञान धीरे-धीरे उद्घाटित किया जाये। अतः उनकी गीता सुस्पष्ट न होकर कूटनीतिक प्रकटन धा। अध्याय में कुडलनी के विभय में लिखा। परन्तु कुडलनी जागरण की योग्यता के अभाव में धर्म के ठेकेदारों ने ग्यानेश्वरी के छठे अध्याय के पढ़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। लोगों को झूठ-मूठ से कुडालनी के विषय में डरा गीता को स्पष्ट करने का प्रधम प्रयत्न ज्ञानदेव जी ने किया और गीता के छठे कर उन्हें इस विषय में न पदने के लिए कहा गया। अंत : पश्चिम में आध्यात्मिकता का परचय है न हो सका। य्याप ईसा का अवतरण हुआ परन्तु उन्हें बालदान होना पड़ा। ईसाई मत में किसी भी अपराध के बावजूद भी व्यक्ति ईसाई ही रहता है मैं एक खूनी को जानती हूं जिससे न्यायालय में जब परिचय पूछा गया तो उसने उत्तर दिया "मैं एक ईसाई हूं। " तब बाइबल पर हाथ रख 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-17.txt कर उसे यही बाक्य दोहराने के लिए कहा गया और उसने फिर कहा "में एक ईसाई हूं"। उससे आप हत्या नहीं करेंगे" ईसा ने कहा। घर्म ा यह दयों नहीं पूछा गया कि "तुमने खून क्यों किया?" बनाने वालों ने अध्मियों को धार्म तथा समाज से बाहर कर देने के लिए नियम नहीं बनाए। इसके विपरीत मेरे पिताजी जब अंग्रेजों से लड़ने के लिए कांग्रेस के सदस्य बने तो ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें धर्म से बाहर कर दिया। उनके विचार में ईसा इंग्लैंड में पैदा हुए अतः वे भी एक अंग्रेज थे। परमात्मा धर्म तथा आध्यात्मिकता विरोधी सभी असंगत विचार बहुत प्रचालत हुए तथा इन आयोजित धर्मों के लए बहुत ही सुगम तथा लाभकारी सिद्ध हुए। हिन्दू धर्म की सबसे अचछी बात यह है कि इसमें संगठन नाम की कोई चीज नहीं। वे बौद जैन-धर्मी, नास्तिक, इसाई या कुछ भी हो सकते हैं परन्तु वे हिन्दू भी हो सकते हैं। क्योंकि वे संगठत नहीं होते अतः वै बन्धनमुक्त होते हैं। स्वयं के प्रात उत्तरदायी होने के कारण हिन्दू अत्यन्त नम्र लोग होते हैं। इत्या करके किसी भी हिन्दू को पीडत या पादरी के सामने जाकर स्वीकार नहीं करना होता, उन्हें स्वयं हैी अपने अपराध के लिए उत्तरदायी होना पड़ता है। धर्म में जात प्रधा जैसी बहुत सी कामरयां आ गई जो कि श्री कृष्ण के विचारों से विपरीत है। श्री कृष्ण के नाम पर किसी को अपराध करने का कोई आधकार नहीं क्योंकि उनके अनुसार हर शरीर में आत्मा का निवास है। परन्तु लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि जाति जन्म से होती है श्री कृष्ण का संदेश लोगों तक नहीं पहुंच पाया । उन्होंने कहा था कि आप विराट के अंग-प्रत्यंग है। क्या हाथ की एक कोशिका इसलिए अछूत बन जाती है क्योक वह मास्तष्क में नहीं है? श्री कृष्ण के प्रांत लोगों ने बहुत अन्याय किया, यही कारण है कि जब वे जांतयता के शिकार होते हैं तो मैं उनसे कहती हूं कि तुमने यही विष जाति प्रधा के रूप में फैलाया है। जातिवाद से आपने हारजनों तथा छोटी जाति के लोगों को सताया। अब जातियता आप पर दहाड़ रही है। श्री कृष्ण के जीवन का सौन्दर्य इस बात में है कि जीवन उनके लिए लीला मात्र है उनकी इस "लीला" भाग का दुसूपयोग अमेरिका में बहुत हुआ। श्री कृष्ण की भूमि "अमेरिका" में लोगों ने लीला का अर्थ स्वेच्छाचार समझा। जितने मर्जी विवाह कीजये, बचचों को सड़ने के लिए छोड़ दीजये, पशुओं की तरह व्यवहार कीजिये और काहये "बुराई क्या है?" तो आप क्या सांप या कीडे बनने वाले हैं? पूरा सिद्धांत ही श्री कृष्ण विरोधी हैं। का है जो कि गीता के रूप में पुस्तकीय ज्ञान जनतांग को बेच रहे हैं। परन्तु अब इस अपराध की प्रांतिकिया उन पर भी होने लगी है । कृष्ण ने जीवन को लीला कहा तो आप ये कपड़े क्यों पहन रहे हैं? सन्यासी क्यों बन रहे हैं? ्वांशष्ट प्रकार का खाना खाने को क्यों कहते हैं? ये लोग नशीले कृष्ण-चैतना नामक आंदोलन मुर्ख लोगों पदार्थ सेवन करते हैं तथा उन्हें बेचते हैं । असत्य सदा विनाशात्मक है। केवल सत्य ही रचनात्मक है। ये सब विचार कई बार हमें उलझा देते हैं परमात्मा, श्री कृष्ण, ईसा तथा मोहम्मद साहिब के नाम पर यह सब अपराध किये जाते हैं। "मां नै ऐसा कहा है" यह कहकर भी कुछ लोग अपराध 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-18.txt 18 करते हैं। सहजयोगयों के लिए ऐसा कहना वरजित है। इस प्रकार की बातें में बहुत सुन चुकी हूँ| अब कोई भी यह न कहे कि "मां ने ऐसा कहा है । " अपने अंदर इतना विश्वास तथा दायत्व आईये कि सकते आप कह सके कि "में कहता हूं" मैं एक सहजयोगी हूं। आप इस बात को क्यों नहीं कह कि आप एक सहजयोगी हैं। के बाद इमने अपने अंतस के श्री कृष्ण को जागृत कर लिया है। आज की पूजा आपको चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। श्री कृष्ण के माधुर्य तथा विनाश की शोकतयां कार्य करेंगी आप पूर्णतया संरक्षत हैं। श्री कृष्ण ने कहा है "योगक्षेम वहाम्यम्"। मैं आपको योग देता हूं और फिर तुम्हारा उपकार करता हूं। श्री कृष्ण हमारी देखभाल करते है। [आपको कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। हानि पहुंचाने वालों पर श्री कृष्ण की शंक्ति दैवी दण्ड के रूप में टूट पड़ेगी। निसंदेह मां होने के कारण मैं किसी को भी दोडत नहीं करना चाहती फिर भी उन्हें दण्ड मिल जाता मैं क्या क? यह अत्यन्त भयानक भी हो सकती है। हमें अपने अंतस में स्वीकार करना है कि हम अत्यन्त मधुर, सुहृदय तथा सामूहिक रूप से रहेंगे। यद आप सामूहिक गंदी है तो श्री कृष्ण आपका जीवन लेने पर उतारू हो जायेंगे। सामूहिकता को याद आप नाश करने का प्रयत्न करेंगे तो भी यह आपके पीछे पड़ जायेंगे । वे एक भयंकर व्यक्ति हैं । वे अत चालाक, चतुर और सुगम का कार्यकर्ता है। अतः सावधान रहये। याद आप सामूहिक हैं तो वे आपकी शॉकत , आपका पोषण करेंगे और खाने के लिए मक्बन देंगे। अतः आपको सामूहिक होना है। यही मुख्य कार्य है। केवल कार्यक्रम में आकर लुप्त हो जाने वाले व्याक्तयों को जान लेना चाहिए कि इससे कोई लाभ न होगा। आपको सामूहिक बनना है। वे लोग याद सामूहिक नहीं होना चाहते तो हम उन्हें विवश नहीं करना चाहते। परन्तु सामूहिक हुये बिना वे सहजयोगी नहीं है और उनकी सिफारश किसी भी सहजयोगी को नहीं करनी चाहये। सहजयोंगियों का असामूहिक और असहजयोंगियों से कोई मतलब नहीं होना चाहिये। हमारे पास आंत सुन्दर ं हैं। इतने सुन्दर लोग जो एक दूसरे से प्रेम करते हैं और एक दूसरे को ब़येंगे बच्चे पारवार तथा वस्तुप का आनन्द लेते हैं । अत: हमें बाहर के लोगों के पात चक्कर में नही पडूना चाहिये। ऐसा करना किसी सुन्दर व्यवास्थित तथा प्रकाशित स्थान से उठकर अचानक इंक मारते हुए सांपों के बीच चले जाने जैसा है। इस तरह के कार्य करने पर आप ये सांपों के नर्क में जाना चाहते थे तो जाइये। मैं कभी नहीं कहेंगे कि मां ने दोडत किया है। आप सजा नहीं देती। परन्तु हो सकता है कि श्री कृष्ण तुम्हें वहां जाने का प्रलोभन दें। सर्पदंश का अनुभव देना, यहीं उनकी कार्यप्रणाली है। ा श्री कृष्ण के अनुसार हमें विनोदाप्रय होना चाहए अब आप सब लोग आनर्नदत और योग्य व्यक्त हैं। आपमें आध्यात्मिकता है और आप दूसरों की सक्षात्कार दे सकते हैं। गोलयों में भी लोग साक्षात्कार मांगते हैं। कुछ लोगों ने आत्म साक्षात्कारी, आंत प्रसन्न, विनोदशील, "hoe 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-19.txt 19 पूर्वी खण्ड में जाकर 5000 लोगों की साक्षात्कार दिया। अर्जनटानिया में जाकर किसी सहजयोगी को बहुत से भौग मिल गये। यह सब मेरे हाथ में है जो बढ़ रहे हैं और कार्य हो रहा है। हर व्यावत को कार्य करना चाहिए। आप एक स्थान चुनिए। मैं वहां जाऊंगी और कार्य हो जाएगा। आप सब ये कार्य कर सकते हैं द्योंकि आपको शाक्तयां प्राप्त हो चुकी हैं यांद आप शक्तयों का प्रयोग नहीं करेंगे तो कुन्द हो जायेंगे। अतः अपनी शांक्तयों का प्रयोग करो और विश्वास करो कि आप में शाकतयां को सहजयोंग का मर्यादाओं में रहकर अत्यन्त सदाचारी पूर्ण हैं, तथा सुन्दर जीवन व्यतीत करना है। अपनी लहरयों का ठीक प्रकार से अनुभव कीजये और अच्छा स्वास्थ्य रखिये। यह बहुत सुगम कार्य हे। याद इस आयु में भी में दिन रात कार्य कर सकती हूं तो आप भी कर सकते हैं। आप सब तो मुझ से कहीं छोटे हैं। सांयकाल को ध्यान के समय आप स्वयं से पूछिये "मैंने सहजयोग के लिए क्या किया?" केवल एक यही प्रश्न। मुझ जैसा या श्री कृष्ण जैसा व्याक्त यह महसूस भी नहीं करता कि र हम कुछ कर रहे हैं। अतः हम क्या पूछ सकते हैं। यदि मैं स्वयं के बारे में सोचना चाहूं तो में खो जाती हूं। यह मेरे लिए संभव नहीं। परन्तु आप स्वयं को अवश्य पहचानये। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, मैं सोचती हूं कि जब तक मै जींवित हूं, मैं नहीं जानती, संभवत: मैं सदा जीवत रहूं। में सर्वदा जीवित हूं परन्तु जब तक में इस पृथ्वी पर हुं मैं सहजयोग को पूर्णतया सुसंस्थापित करके रहूंगी। यह मेरा आप लोगों से बायदा है। "संस्थापनार्थाय : " परमात्मा न केवल धर्म को संस्थापना के लिए परन्तु विश्व निर्मल धर्म, जो कि मानव मात्र के सभी धर्मों से कहीं उच्च है, की संस्थापना के लिए बार-बार पृथ्वी पर अवर्तारत होते हैं। बहुत शीघ्र ही विश्व निर्मल धर्म इस पृथ्वी पर संस्थापित होगा। परमात्मा आपको धन्य करे। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-20.txt 20 श्री इनुमान पूजा वार्ता वे फेक फरट 3। अगस्त 1990 ओस्तित्व में श्री हनुमान निरन्तर हमारे स्वाधिष्ठान से मोस्तष्क तक चलते हुये वे हमारी भावप्य की योजनाओं गातारवाधयों के लिये आवश्यक मार्गदर्शन तथा सुरक्षा मानव की महत्तवपूर्ण भूमिका है। प्रदान करते हैं । या मानांसक प्रदान करते है। जर्मनी एक ऐसा देश है जहां के निवासी अत्यन्त चुस्त तथा उद्यमशील है। शरीर का वे बहुत प्रयोग करते है और अत्यन्त यांन्त्रक है। अपने श्री हनुमान जी से देवता का, जो कि बन्दरसम उन्नत शिशु है, निरन्तर मानव के दायें भाग में दोड़ते रहना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। मानव के अन्तस स्थित सूर्य तत्व को शान्त तथा मृदु रखने के लिए उनसे कहा गया। को नियंत्रत करने के लिये कहा गया, जन्म के समय ही उनसे सूर्य अंत: शिशु सुलभ स्वभाव से उन्होने सोचा यह सोचते हुये कि पेट के अन्दर सूर्य कि सूर्य को ्खा ही क्यों न लिया जाये। उन्होंने विराट है, को आधक अच्छी तरह से नियंत्रत किया जा सकता रूप धारण करके सूर्य को निगल लिया। मानव की दांयी तरफ को नियोंत्रत रखने के लिये उनके बाल प्रयोग उनके चारत्र की सुन्दरता है। दाहनी तरफ के लोगों सुलभ आचरण का बच्चे उत्तपन्न नही होते है। अत्यन्त उद्यमी होने के कारण, योद उनके की प्राय: बटचे हो भी जायें तो भी बचौं के लिये समय अभाव के कारण ऐसे माता-पिता ऐसे लोग अत्यन्त कठोर होने के कारण सदा बच्चों को बच्चे पसन्द नही करते । पर चिलाते रहते है , और उनकी समझ में नही आता कि किस प्रकार बच्चों से कभी कभी तो ये लोग यह सोचते हुये "मुझे तो यह प्रेम प्राप्त तो दे दूं अपने बच्चों के प्रात व्यक्हार करें। कम मैं इसे अपने बच्चों को नही हुआ कम से अत्यन्त आसवत हो जाते है। के व्यवतयों में शिशु इन नितांत उग्र स्वभाव रूप में श्री हनुमान जी विद्यमान रहते है । करने को इनुमान जी अत्यन्त उत्सक रहते हैं। राजा थे, उन्हें अपनी सहायता के लिये किसी सोचव की आवश्यकता थी और इस कार्य के लिये श्री हनुमान जी की रचना हुई| और दास थे और उनके प्रांत इतने समार्पत धे कि कोई अन्य दास अपने स्वामी के प्रांत नहीं हो सकता। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी के कार्य श्री राम सुकरात वोर्णत परोपकारी श्री हनुमान श्री राम के ऐसे सहायक उनके समर्पण के फलस्वरूप ही शारीरक रूप से विकासत होने से पूर्व ही उन्हें नव-सिदियां प्राप्त हो गयी | उनमें सूक्ष्म या पर्वतसम विशालकाय शरीर धारण करने की हो गयी। इन सिद्रियों के फलस्वरूप प्राप्त क्षामता अत्यन्त उग्र स्वभाव के व्यवतर्या को श्री हनुमान इन सिंद्रियों से नियोत्रत 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-21.txt 21 जीवन में त्वीव गत से दोड़ते हुये व्यक्ति को आप किस प्रकार नियोत्रत श्री हनुमान जी ऐसे व्याव्त की रचना इस प्रकार करते हैं कि उसे अपनी वे के पैर या हाध अत्यन्त भारी करते है । करेंगे? ऐसे व्यक्त गत धीमी करनी ही पड़ती है। दाहनी और झुके बना देते है जिससे कि वह व्यवत अधाक कार्य न कर सकें। उग्र व्यांक्त को वे अत्यन्त अधिक अकर्मण्य करने वाली तन्द्रा भी दे सकते है। अपनी पूंछ को किसी भी हृद तक बढ़ाकर लोगो को नियोत्रत आप सब कहते है कि सभी बन्दर चार्ले उनमें करना उनकी एक ओर सिद्धि है । वे हवा में उड़ सकते है और इतना विशाल रूप धारण कर सकते है कि है। उनके शरीर दवारा स्थानांतरित हवा का भार उनके शरीर के भार से कहीं अधक यह आरकीमडीज के सिद्धान्त की तरह से है। होता है। वे इतने विशालकाय बन जाते है कि उनका शरीर नाव की तरह से हवा में तैरने लगता हे। हवा में उड़ने की सामध्थ्य के कारण वे संदेश को एक व्यवत से दूसरे व्यावत तक पहुंचा सकते है । आकाश की सूक्ष्मता श्री हनुमान के नियंत्रण में है। वे इस सूक्ष्मता के स्वामी है और इसी के माध्यम से वे संदेश भेजते है। दूरदर्शन आकाशवाणी बिना किसी संयोजक के आकाश मार्ग से वायवीय ईधारय सम्बन्ध स्थापत करना इस महान अभियन्ता श्री हनुमान ध्वनवर्धन उनकी इसी शंवित की देन है। तथा का ही कार्य है। सकते। यह कार्य इंतना पुर्ण है कि आप इसमें कोई आपके यंत्रों में त्रुटि हो सकती है श्री हनुमान की कार्यपूर्णता में नही। वैज्ञानिक जब इन चीजों की खोज करते है तो ये सोचते है कि ये प्रवृत में विद्यमान है परन्तु वे यह कभी नही सोचते कि ऐसा किस प्रकार हो सकता है । मानकर चलते है कि श्री हनुमान जी ने सारे तन्त्र की रचना करके उसके माध्यम त्रुटि नही निकाल का- वे यह यहां तक कि हमारे अन्दर की सुक्ष्म चैतन्य लहारयों से यह कार्य किया है। का हमारे रूनायु के अणुओं पर अनुभव होना भी श्री हनुमान जी कृपा से है । श्री हनुमान को अणिमा नामक अन्य सिद भी प्राप्त है। एक जो उन्हें अणुओं तथा परमाणुओं में प्रवेश करने की शोक्त प्रदान करती है । से वैज्ञानिक सोचते है कि आधुनिक युग में ही उन्होनें अणु परमाणुओं की खोज की है परन्तमु अणु परमाणुओं का वर्णन हमारे धर्मग्रन्धों में भी पाया जाता है। शांक्तयों का कार्यरत होना श्री हनुमान जी की कृपा से ही होता बहुत विद्युत-चुम्बकीय রি 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-22.txt 22 वे स्वयं चुम्बक श्री गणेश नै उनके अन्दर चुम्बकीय शांवत भर दी है। भौतिक सतह पर विपुत है। चुम्बकीय शक्षित हनुमान जी की शकत है । है। परन्तु |मि स्वाधष्ठान से उठकर मास्तष्क तक जाते द्रव्य से वे मस्तिष्क तक जाते है। मोस्तष्क के अन्दर वे इसके भिन्न पक्षों के सह सम्बन्धों को सृजन करते याद श्री गणेश हमें विवेक प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सोचने की है। है। शोकित देते है। श्री बुरे विचारों से बचाने के लिये वे हमारी रक्षा करते हैं । विवेकशीलता के गणेश जी हमें विवेक देते है तो श्री हनुमान जी अन्तःकरण । लिये अन्त :करण आवश्यक नही क्योंकि आप बांदमान है, आप जानते हैं क्या अच्छा है क्या बुरा। परन्तु एक व्यक्त्तव को जब नियंत्रत करना हो तो अन्त :करण आवश्यक है क्योंकि यह नियंत्रण हनुमान जी से आता है। मानव के अन्दर अन्त :करण हनुमान जी ही है। असद, विवेक बुद अर्धात असत्य करती है। सहजयोग प्रणाली में हम कहते हैं कि श्री गणेश अध्याक्ष है या इस विश्वावद्यालय दी हुई सूक्ष्म शोवत है और यह हमें सद 3न्त :करण उनकी मैं भेद जानने का विवेक प्रदान वे हमें उपाधियां देते हैं और हमें अपनी अवस्था की गहराई के कुलपीत है । वह हमें निर्विचार तथा निर्विक्ल्प समाधि और आनन्द जानने में सहायता करते हैं । जैसे "यह अच्छा है", "यह हमारे हित परन्तु बौदिक सूझबूझ प्रदान करते हैं। में है", "श्री हनुमान जी की" देन है और बौदिक होने के कारण, पाश्चात्य लोगो के लिये बहुत महत्तवपूर्ण है क्योंक बौदिकता के बिना तो उनकी समझ में ही श्री हनुमान के बिना याद आप सन्त बन भी जायें तो आप इस कुछ ने आता। म अवस्था का आनन्द तो प्राप्त कर लेंगे परन्तु यह नहीं समझे सकेंगे कि यह सन्तावस्था लोगो को साक्षात्कार ठीक है या गलत, आपका हिमालय पर रहना ठीक है या यह सब विवेक, मार्गदर्शन तथा सुरक्षा हमें श्री हनुमान देने के लिये जाना। जी की देन है। जर्मनी, क्योंकि दायें भाग का सार है। अंत श्री हनुमान जी आवश्यक है। की पूजा द्वारा दायें भाग की सुरक्षा प्रदाना करना यहां अत्यन्त परन्तु इसे सारी विवेक बुद्धि के बाबजूद भी श्री हनुमान जी जानते है कि वे पूर्णत: श्री राम कौन है? वे परोपकारी राजा है जो श्री राम के आज्ञाकारी सेवक है । परोपकार के लिये कार्य करते है और स्वयं एक औपचारिक व्यावत है। अत्यन्त श्री हनुमान सदैव उनका संतुलित कार्य करने के लिये उत्सुक रहते है । पुरुष श्री राम स्वयं बहुत आगे नही बढ़ते। विवेक यह है कि जो कुछ भी श्री राम 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-23.txt 23 गुरु शिष्य के संबंधों से भी बढ़कर यह कहते है श्री हनुमान उसे कर देते हैं। शिष्य पूर्णतया ईश्यर के दायें और झुके व्यक्ति प्राय: तथा आज्ञापालन में दास सम समर्पत प्रात अपने स्वामी, नौकर या अपने पत्नि के प्रात है। अत्यन्त समार्पत होते है। परन्तु विवेकहीनता की कमी के कारण वे गलत लोगों के दास होते है। राम की सहायता जब आप लेते है तो वे आपको बताते है कि सर्वशाक्षतमान परमात्मा या श्री राम जैसे गुरु के आंतरिकत आपको किसी तब आप एक स्वंतत्र पक्षी होते है और पूरी नौ के प्रात समर्पित नही होना। शांवतयां आपके अन्दर जागृत हो जाती है। आपके अहं के साथ साथ बहुत सी अन्य बुराईयों का श्री यह तथ्य लंका दहन कर रावण की खिल्ली उड़ाने में अत्यन्त हैनुमान करते है । प्रातकार मधुरता से प्रकट हो जाता है कि किस प्रकार वे लोगों का अहं समाप्त कर देते किसी भी अंहंकारी का यांद मजाक उड़ाया जाये तो वह ठीक हो जातार है। जब रावण ने श्री हनुमान से पूछा "तुम केवल एक बन्दर क्यों हो" तो र्याद कोई अंहकारी है। हनुमान जी ने अपनी पूंछ से उसकी नाक को गुदगुदा दिया। व्यवत आपको सताने का प्रयत्न करता है तो श्री हनुमान उसका ऐसा मजाक उड़ायेगे कि आप हम्पर्टी इम्पटी की तरह उसकी अव्स्था को देखकर दंग रह जायेगें। सदाम हुसैन जैसे अहंकारी व्यक्ितयों को नीचा दिखाकर आपकी रक्षा करना श्री हनुमान का कार्य हैं। इन मामले में हनुमान से कार्य करने के लिये कहा गया और अब किस तरह सददाम को काठनाइयों में डाल दिया है, उसकी समझ में नही आता अहंकारी लोगों से आपकी रक्षा करना तथा से उन्होनें याद वह युद्ध को चुनता है तो पूरा ईराक समाप्त हो जायेगा। वह स्वयं समाप्त हो जायेगा, कुवैत समाप्त हो जायेगा और पूरा पैट्रोल समाप्त व्या करें। कि वह होने के कारण सभी लोग ककाठनाई में फंस जायेगें। सददाम का क्या होगा? वह बचेगा ही नही व्योंक यांद अमेरिकन लोगों को लड़ना पड़ा तो वे ईराक के तो अब श्री हनुमान सददाम के मरूतष्क में घुस कर बता सभी राजनींतज्ञो अन्दर जाकर लड़ेंगे। रहे हैं "देखों तुमने ऐसा किया तो इसका परणाम यह होगा"। तथा अहंकारी हनुमान कार्य करते है और यही कारण कि कभी कभी राजानांतज्ञ अपनी नितियां बदल देते व्यव्त्ियों के मास्तष्क में श्री है और अपना कार्य चलाते है है। श्री हनुमान का एक अन्य गुण यह है कि वै लोगों को स्वेचछाधारी बना देते 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-24.txt 24 दो अहंकारी व्यकषितयों को मिलवाकर वे उनसे ऐसे हालात पैदा करवा देते है। है कि दोनों नम्र होकर मित्र बन जाते हैं। हमारे अन्तस का हनुमान तत्व हमारे अहं का ध्यान रखने तथा हमें बाल सुलभ, मधुर, विनोदशील और प्रसन्न बनाने में कार्यरत है। श्री राम के सम्मुख नतमस्त यदि श्री गणेश मेरे वे सदा नृत्य भाव में होते है । हो श्री हनुमान सदा उनकी इच्छा को पूर्ण करना चाहते हैं । पीछे बैठते है तो श्री हनुमान मेरे चरणों में । लोग भी आज्ञाकारी हो जायें तो हमें कितनी याद श्री हनुमान की तरह जर्मन गतशील कार्यवाहनी प्राप्त हो सकती है? सीता दारा दिये गये हार में क्योंकि श्री राम न दे अतः श्री हैनुमान नै वह हार न है। इसी घटना से उनके समर्पण का पता चलता पहना। श्री हनुमान जी का हर कात उनके इर्द गिर्द मंडराना सीता जी के अटपटा सीता जी ने उनसे कहा कि केवल एक कार्य के लिये वे वहां रुक सकते तगा। है तो श्री हनुमान जी ने कहा कि जब जब श्री राम जी जुम्हाई लेगें तों चुटकी बजाने के लिये में उनके साथ रहूंगा। सीता जी ने उनसे छूटकारा पाने के लिये फिर भी उन्हें वहां खड़ा हुआ देखकर जब सीता जी ने इसका यह बात मान ली। कारण पुछा तो उन्होंने उत्तर दिया "मैं श्री राम के जुमहाई लेने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ" मैं यहां से कैसे जा सकता हॅूँ? सहजयोग में मैरा संबंध एक गुरू तथा एक मां का है । एक गुरु के सहजयोग विशेषज्ञ बनकर आप स्वयं के गुरू बने। मेरी चिन्ता यह है कि नाते आप सहजयोग का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परन्तु इसके लिये पूर्ण समर्पण पूर्ण समर्पत होकर ही आप सहजयोग को चलाना सीख सकते की आवश्यकता है। श्री हनुमान भी यह सम्पण करते है। करते अतः श्री हनुमान जी उन्हें समर्पण सिखाते है अधवा समर्पण के लिये विवश करते है। किसी प्रकार की बाधाओं, चमत्कारों या विधियों दारा वें शिष्य का गुरु है। अहंकारी लोग क्योंकि समर्पण नही के प्रात समर्पण करवाते हैं । गुरू के प्रति व्याव्त का समर्पण करवाने की शंक्त श्री हनुमान न केवल वे स्वयं समार्पत है वे दूसरों को भी समर्पण करवाते जी की ही है। में उन्होनें है। अहं के कारण आप समर्पण नही कर सकते। अपनी अभव्यावत दशाया है कि दायें पक्ष का भी एक आंत सुन्दर पहलू है। इसका पूर्ण आनन्द 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-25.txt 25 प्राप्त करने के लिये अपने गुरू के प्राति आपको दास की भांति समार्पत होना पड़ता बिना किसी संकोच के आपको गुरू के लिये सब कुछ करना होता है। है। निसंदेह गुरु का भी कर्तत्य है कि आपको आत्म साक्षात्कार दे अन्यधा वह गुरु नहीं है किस तरह से आप गुरू को प्रसन्न कर सकते है और उसका सामीप्य प्राप्त कर सामीप्य का अर्थ शारीरिक सारमीप्य नही, इसका अर्थ है एक प्रकार सकते है। मुझसे दूर रहकर भी सहजयोगी अपने हृदय यह शांकत हमें श्री हनुमान से प्राप्त करनी है सभे देवताओं बी रक्षा श्री हनुमान वैसे ही करते हैं जैसे वे आपकी रक्षा करते श्री गणेश शतित प्रदान करते है परन्तु रक्षा श्री हनुमान करते है। अर्जुन के सारथी बने ता श्री हनुमान ही रथ की पताका पर आरूढ का तारतम्य, एक प्रकार की समझ। में मेरा अनुभव कर सकते है। है। जब श्री कृष्ण धे श्री गणेश नही । एक प्रकार से श्री राम स्वयं श्री कृष्ण बन जाते है अत : श्री हनुमान को उनकी सेवा करनी ही होती है। जैसा कि आप जानते है श्री संदेश वाहक गैब्रीयल मेरिया के संदेश लेकर आये देवदूत गैब्रीयल थे । हनुमान और उन्होने "इमैक्यूलेट साल्वे" अ्धात "निर्मल साल्ये" शब्द का प्रयोग किया जो कि मेरा नाम है। जीवनपर्यन्त मेरिया को श्री हनुमान की सेवा स्वीकार करनी मैरिया महालक्ष्मी है और सीता और राधा कान है? पड़ी। सेवा के लिये वहां विद्यमान रहना पड़ा। हैनुमान को उनकी कभी कभी लोग मुझ से प्रश्न करते है कि मां आपको कैसे पता चला? मां आपने कैसे संदेश भेजा? मां आपने किस प्रकार यह कार्य कर दिया, यह श्री हनुमान का उत्तरदायित्व है। मेरे मसतष्क में बनती है श्री हनुगान उन्हें कर डालते है क्योंकि पूरी संस्था भालभाति संयोजित है। जो भी योजना ये सभी संदेश आप लोग कहते है "मां मैने बस आपकी प्रा्थना की" लोगों को कहां से प्राप्त होते है? बहुत से एक व्यक्ति की मां कैन्सर से । जब वह उससे मिलने गया तो किकंतव्यावमूढ हो मर रही है। उसने प्रा्वना की "श्री गाता जी कृपया गेरी] मां को बचा लिजीये"। श्री इनुमान उस सहजयोगी उन्हें इस व्यक्ति के वजन का ज्ञान है। की सच्चाई तथा गहनता को जानते है। इसी कारणवश तीन दिन के अन्दर बह स्त्री ठीक होकर वम्बई लायी जाती है और डाक्टर घोभणा करता है कि उसका कैन्सर ठीक हो चुका है। कई घटनायें जिन्हें कहते है, श्रीं हनुमान आप चमत्कार हुई होती है। दारा की चमत्कार करने वाले वे ही है। आप कितने बादहीन तथा मूर्ख है, यह दिखाने के लिये श्री हनुमान चमत्कार करते हैं: दायें भाग में होने के कारण वे अहं की ओर चले जाते है। अहं के कारण एक मानव आनवायंतः बुदिहीन हो जाता है। हनुमान जी को उन लौगो पर पड़ता इस बुद्रिहीनता का विपरीत असर जब यह पसन्द नही। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-26.txt 26 परन्तु कभी कभी यूपीज रोग कार्य हो सकता है क्योंकि श्री हनुमान है तो उन्हें अनी है| मूर्खता का आभास होता की तरह पुनः अवलोकन करना अत्यन्त कांठन ऐसे व्यांव्तयों से विदयुत चुम्बकीय शांक्त वापिस ले चुके होते है तथा उनके चेतन मास्तष्क से उनका संबंध समाप्त हो चुका होता है | फलस्वरूप उनका चेतन मह्तप्क पूर्ण श्रद्धा से याद ऐसे लोग श्री हनुमान जी की कर देता है। कार्य करना बन्द पूजा क तभी संभवत: उन्हें बचाया जा सके। आपके शरीर पर चर्म रोग हो जाये तो उस पर गेरु मलने से आप ठीक हो उदाहरणतया जाड़े के कारण याद किसी बाधा के कारण हुये चर्म रोग को भी आप ठीक कर सकते सकते है। ओर श्री गणेश का शरीर सिंदूर से ढका हुआ होता है जिसका प्रभाव उनके शरीर के अन्दर की है। गर्मी तथ प्रभाव को संतुलित करने अत्यन्त शीतल है। के लिये वे ऐसा करते है । लोग कहते इसी कारण हम इसे सिन्दूर कहते हैं । कि सिन्दूर केनसर का कारण बन शीतलीकरण कर सकता है कि आप बांयी ओर को झुक सकते है । मनोवैज्ञानिक रोग है और बहुत कम सम्भावना है कि सिन्दूर के अत्यांधक शीतलीकरण से आपका झुकाव बायी और को हो जाये । हे सकता है परन्तु यह आपके अन्दर इतना केन्सर एक आप ऐसे रोगाणुओ वायरस से ग्रस्त परन्तु अत्यन्त दायी ओर झुके उन्हें शान्त करने के लिये उनकी आज्ञा हो जाये कि आप इस रोग से ग्रस्त हो सकें। ब्यवतयों के लिये सिन्दूर लाभदायक है। पर सिन्दूर लगाने से उनका कोध कम हो जाता है मौर वे शानत हो जाते है। हमारी उतावली, जल्दबाजी आक्रमणरशीलता श्री हनुमान उन्होने हिटलर के साथ भी एक चालाकी की। तथा को ठीक करते हैं । हिटलर श्री गणेश को प्रतीक रूप में प्रयोग कर रहा धा अतः स्वास्तिक दक्षणावर्त लाकवाइज होना चांहये धा। प्रयोग में आने वाले स्टेनल को उलट कर श्री हैनुमान ने आदि शवत ने उन्हे ऐसा करने की सल ह दी स्वास्तिक को उलटा करता दिया। परन्तु चाल उन्होने चली। दोनों ने हिटलर को विजय प्राप्त करने से रोक लिया। स्वास्तिक के उलटा होते ही श्री गणेश तधा श हनुमान तो इस तरह की छोटी ा]द होती रहती है। छोटी युक्तयां एक बार मुझे याद है कि जर्मनी में मेरी पूज जर्मनी के लोगो को क्योंकि हनुमान की बहुत आवश्यकता है अंतः पूजा के दिन गलतीवश स्वास्तिक उलटा प्राय मैं इन चीजों को देख लेती हूँ परन्तु उन दिन ऐसा मेरी दाष्ट बाद में जब उस उलटे स्वास्तिक पर पड़ी तो मेरे मुंह रखी गयी। वहां श्री हनुमान बहुत चालाकी करते है । लगा दिया गया। नही हुआ। स हे निकला "हे परमात्मा इस गलती का दुष्प्रभाव किस देश पर होने वाला है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-27.txt 27 श्री हनुमान मूसलाधार बारश और वेगवान आन्धी अपनी विषुत चुम्बकीय भौतिक तत्व उनके नियंत्रण में है, वे वर्मा धूप और हवा की रचना की तरह जाकर विनाश कर देत है। करते है । शब्ित दारा वे ये सारे कार्य आपके लिये करते है। पूजा या मिलन के लिये वह उचित प्रबन्ध करते हैं । बिना किसी के जाने सुन्दरता से सारे कार्य वे कर डालते है। श्री हनुमान पक तेजस्वी देवदूत है | हमें हर समय कृतज्ञ होना चाहिये। उनके प्रति वें सन्यासी उनके बहुत से या त्यागी नहीं है। सुन्दरता तथा सज्जा उन्हें बहुत प्रिय है। भवतों का विचार है कि वे ब्रहमचारी है और कम बस्त्र धारण करते है। अत: वे नही चाहते कि र्त्रियां उन के दर्शन करें। परन्तु लोग ये नही जानते कि बन्दरों के लिये वस्त्र वै एक सनातन शिशु है और वो भी एक बन्दर बालक। य्याप उनका शरीर विशालकाय है फिर भी आप उनका पहनना अनवार्य नहीं। के होते हुये भी वे मेरी चरणस बड़े बड़े नाखूनों सुन्दर आकार ही द्ेख पाते है। सैवा बड़ी कौमलता से करते है और अब मुझे लगता है कि श्री हनुमान की कृपा से जर्मन लोगों की कार्य प्रणाली भी अत्यन्त कोमल होती चली जा रही है। परमात्मा आप पर कृपा करें। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-28.txt 28 चेतन्य लहरी 1990 श्री महावीर पूजा । सारंश । जून ।6 बार्सिलोना स्पेन 1990 आज पहली बार महावीर पूजा हो रही है। महावीर का त्याग अत्यन्त विकट उनका जन्म एक ऐसे समय पर हुआ जब ब्राहमणवाद नै अत्यन्त भष्ट, स्केच्छाचारी प्रकार का धा। तथा उच्छबल रूप धारण कर लिया धा। मर्यादापुरूमोत्तम श्री राम के पश्चात लोग अत्यन्त गम्भीर, तंग दिल तथा आत्म साक्षात्कार के अभाव में वे सदा एक अवतरण की नकल का औपचारिक हो गये थे। इन बंधनों को समाप्त करने के लिये श्री राम पुनः प्रयत्न आंत की सीमा तक करने लगे। श्री कृष्ण रूप में अवतर्रारत हुये । करने का प्रयत्न किया कि जीवन एक लीला हुखेल & मात्र है। जीवन लीला करता है तो कुछ भी बुरा नही हो सकता। अपने कार्यकलापों के उदाहरण से श्री कृष्ण नै यह प्रदर्शत शुद्ध हृदय से यांद व्यावत श्री कृष्ण के पश्चात लोग आंत लम्पट, स्केच्छाचारी और व्यभचारग्रस्त हो गये लोगों को इस तरह के उग्र आचरण के बन्धनों से मुक्त करने लिये के इस समय भागवान बुद्ध तथा महावीर ने जन्म लिया। अपने परवार श्री महावीर एक राजा धे जन्होने , राज्य तथा सम्पदा का त्याग उनके अनुयाइयों को भी इसी प्रकार का त्याग करने को कहा गया। कर सन्यास ले लिया। उन्हें अपना सिर मुंडवाना पड़ता धा, नंगे पैर चलना पड़ता धा। ्वाना खा लेना पड़ता धा। वे केवल तीन जोड़े कपड़े सूर्यास्त से पूर्व उन्हें केवल पांच धन्टे सोने रस्व सकते थे। की उन्हें आज्ञा धी और हर समय ध्यान में रह कर आत्म उत्थान में प्रयत्नशील होना होता पशु वध और मान्स भक्षण उनके लिये वर्जत धा क्योंकि उस समय के लोग मान्स धा। भक्षण के कारण अंति आकामक हो गये थे। सैन्ट माईकल ईंडा नाई़ी पर श्री महावीर सैन्ट माइकेल का अवतार धे। थे। निवास करते है तथा मूलाधार से सहस्रार तक इस नाड़ी की होने के कारण श्री महावीर नै लोगो को दुश्कार्य न वर्णन बहुत ही स्पष्ट रूप में किया है। उन्होनें लोगो को कर्मकाण्ड से बचाने के लिये परमात्मा देखभाल करते है। बामपक्षी करने की चैतावनी देने के लिये नक का 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-29.txt 29 इतने कठिन नियमों के कारण व्यक्ति के लिये आत्मसाक्षात्कार के निराकार तत्व के विषय में बताया। का उम्मीदवार होना भी दुष्कर कार्य हो गया। श्री महावीर के अनुयाइयों नै जैन मत चलाया। जैन का उदगम "जना" मोजज की तरह श्री महावीर के भी कठोर नियम धे । जैसा अधात "ज्ञान प्राप्ति" से है। प्राय ः होता है उनके सिद्धार्तों को भी अति की अवस्था तक ले जाया गया। भारत में आजकल एक प्रधा है झोपडी में किसी ब्राहमण के पास बहुत से खटमल छोड दिये जाते है । खटमल अपना पेट भर लेते है तो जनी लौग उसे बहुत साधन देते है। जब ब्राहमण के रवत से शाकाहार तथा संयम के विषय में कटटर होते हुये भी वे धन लोलुप है। क का रवतपान करने से नही वे एक मच्छर को तो नहीं मारेगे परन्तु धोड़े से रूपयों के लिये किसी व्यक्ति चूकेंगें। लाने के लिये सदा अवतरण हुये है। एक अति से दूसरी अंत की गर्त में गिरने वाले मनुष्यों को संतुतन की धर्मानुयाइयों के मध्य में स्थित न होने के कारण सभी स्थात में धर्म हास्यास्पद प्रतीत होते है। श्री महावीर के सन्यासयों की भांत यादि सहजयोग को आरम्भ किया गया एक सन्यासी का अपनी पत्नी, बच्चों तथा होता तो कितने लोग सहजयोग में आये होते? धन-सम्पत्ती से कोई सरोकार नही होता था। उसे धोड़ा सा याना देकर अनुसरण करने की कठोर आज्ञा दी जाती थी। सहजयोगी के सर्व प्रधम सक्षात्कार दिया जाता है। तथा उसकी कुंडलनी एक बिना किसी शुद्धिकरण उठायी जाती है। या कर्मकाण्ड के उसका स्वागत किया जाता है। उसे नर्क के विषय में कुछ नहीं बताया जाता। केवल आत्मसाक्षात्कार दवारा ही वह पूर्णतया परन्तु आज भी सहजयोगियों में नलिप्पता का अभाव निलिप्तं तथा बुद्धिमान बन सकता है। सहजयोग में वियाह करवाकर लोग सो से जाते हैं । है। वै या ता एक दूसरे के प्रांत चमी लोगों की तरह परस्पर झगड़कर तलाक की बात करने लिप्त हो जाते है या साधारण लगते है । सहजयोगी ये नही समझते कि सहजयौग के लिये उनका ववाह हुआ है। पर सवार हुये थे उसी सागर में वे अब भी गिर रहे तो व्यवित फि्ल्म देखने का, फुटबाल खेलने जिस सागर से निकल कर वह नाव है। उदाइरण के रूप में साक्षात्कार से पूर्व 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-30.txt 30 आदि का शीकीन हो सकता है परन्तु के उपराज्त भी इन्ही वे तो सक्षात्कार का या पिकांनक इन चीजों से लिप्सा का अर्ध तो यह है कि ऐसे मनुष्य ने अभी के दीवाने बने रहते है । तक आनन्द की गहनता का स्पर्श भी नही किया। "एक बार जब आप उस गहन आनन्द का स्पर्श कर लेते हे तो किसी अन्य वस्तु की चिन्ता आप नही करते । पूर्णतया आत्म-केनद्रत हाकर स्वानन्द में आप डूब जाते है। "नर्क के विषय में बता कर में तुम्हें भयभीत कर या नही परन्तु श्री महावीर की यह ऐसी पूजा है जिसे मैं अब तक टालती रही हूँ।" उनके शिष्यों को भी कैवल एक सफेद धोती पहननी पड़ती धी, नंगे पावं चलना पड़ता था मेरी समझ में नही आता। यहां तक कि अब सहजयोग में इसके बिलकुल वपरीत है । उठना होता धा। तथा [प्रातः चार बचे सहजयोग आप के लिये केवल आनन्द आप परस्पर संगति का तथा संगीत का आनन्द लेते है। उत्पान नही हो सकता। परन्तु अन्तर-निहित आनन्द के स्पर्श के बिना आपका मात्र ही है आपने अन्तस के आनन्द स्पर्श के पश्चात आप शेष सभभ वस्तुओं का आनन्द लीजीये। श्री महावीर के विषय में एक किरसा है। ध्यान अवस्था में एक दिन उनकी परिणामतः उन्हें आधी धोती फाड़ कर वही छोड़नी पड़ी। छौड़ने के लिये आ पहुंचे। श्री T महावीर ने दया वश अपनी आधी घोती भी उस भिखारी को दे दी तथा स्वयं पत्तो से शरीर धोती पक झाड़ी में उलझ गयी। शेष आधी धोती में जब वे चले तो भिखारी के वेष में श्री कृष्ण उन्हें के लिये अपने घर वापस चले गये को ढांप परन्तु आज उनके कुछ के गांवों में निवेत्र होकर धूमते फिरते है। कर वस्त्र पहनने गिध्या अनुयायी इस वृतान्त "मुझे विश्वास हे कि आप सब उस निम्नावस्था तक न जाकर भी स्वानुशासन अव्श्य सीखोगें | इसके बिना पूर्ण ज्ञान, प्रेम तथा आनन्द की गहनता तक नही पहुंच सकते। की आड़ में भारत "नसंदेह आपको श्री महावीर की सीमा तक जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंक फिर भी भौतिक वस्तुओं की आपके सभाग्यवश मैने आपको आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया है। ओर न लाटिये"। "अपने प्रयोग के प्ंत मैं आश्वसत हूँ कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के बाद शनै शनैे लोग निलिप्त हो जायेंगे " निर्लिप्तता को प्राप्त करने में सभी तोग सहयोग इस दे । माया के सागर से निकलने की आवश्यकता है ताकि सहजयोग भी कहीं दूसरे धर्मों की किसी को मी यह बताने की आवश्यकता नही कि वह क्या तरह बनकर न रह जाये। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-31.txt 31 करे। केवल गहनता का स्पर्श आवश्यक है जिससे कि व्यक्ति अन्तस से त्यागी बन जाये| "सहजयोग इन सभी पैगम्बरों तथा अवतरणो का एकीकरण है। " की विश्वभर में प्गति के लिये सहजयोगियों को सच्चा तथा निष्कपट बनना है और अपने सहजयोग कोई भी महाबीर पूजा क्यों नह हुई? कार्य कलापों का ज्ञान प्राप्त करना है। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये हर सहजयोगी को यह टेप सुनना चाहिये। "परमात्मा आपकी धन्य करें " 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-32.txt 32 चैत-य लडरी अगस्त । 990 श्री आदि कुंडालनी पूजा हुआर्सट्या सारांश वह आंदि मां की एक शांकत है जो कि आदि कुंडलनी मूल कुंडलनी है। क मानव मैं कुंडलनी के रूप में प्रातिबिम्बित है। परिवर्तन के इस महान कार्य के लिए उत्तरदायी आदि कुंडलनी को सम्हालने के लिए एक इस अवतरण के लिए बहुत कार्य हुआ। मुक्ति प्रदान करने की शंकत सुदृद मैरू-दंड की रचना हेतु विशेष रूप से कार्य करना पड़ा । , तो आदि] कुंडालनी मैं धी परन्तु उसे जानना था कि मानव की सहायता किस प्रकार की जाय उनकी समस्याएं क्या है, उन्हें सहज योग की तथा अपने उत्थान की समझ तक कैसे लाय इस जांटल विश्व में मूल कुंडलनी समारपत, जिज्ञासुओं की अपेक्षा हममें आदि कुंडलनी से सम्पर्क रखने के लिये मूल- उन्हें स्वयं भी श्री महा माया उर्जा तथा ज्ञान के बहुत से स्त्रोत प्रयोग करने पड़े जाये। हिमालय पर जाने वाले अत्यन्त ने कार्य करना धा। भिन्न प्रकार के बन्धन तथा अन्नर्तबाधाएं है। के सभी पक्षों को समझना पड़ा । कुंडालनी को मानव मात्र के सूप में अवर्तारत होना पड़ा जिससे कि भयभीत हो हम उनसे दूर न हों। पक कुंडालनी और दूसरा सहस्रार। सहस्रार वे दो भागों में विभाजित है। कुंडोलनी को सारी सामग्री, सारी सूचना देता है और कुंडालनी इसे व्यवहारकता देती है। शरीर तथा सहस्रार में बने देवता हर आवश्यक सूचना देते है। सामुहिकता मूल कुंडलनी ध्यान जो कि मस्तष्क तथा सहस्रार तथा व्यवित, दोनों के लिए एक साध कार्य करती है। की शवित है भी अत्यन्त गहन तथा चुर्त होना चाहिये। आदि कुंडलनी तधा सहस्रार की रचना करने के लिए यह सारा कार्य करना इस कांठन कार्य को करने हैतु मूल हर राष्ट्र तथा व्यक्ति के भिन्न बन्धन थे। पड़ा। सहजयोग के लिए मंच स्थापन कुंडलनी को धैर्य के अनन्त सागर की आवश्यकता धी । कार्य आंत जाटल धा व्योंकि पोरिवर्तनशील और सूक्ष्म होते हुये भी यह बड़े स्नेह तथा प्रेम का कार्य धा। की गयी। करने को परम चैतन्य की पूरी बुंदि प्रयोग इस अवतरण का सृजन मानव शरीर धारण कर सामुहक आत्म-साक्षात्कार देने की कला का ज्ञान प्राप्त करना काठन इसमें सफलता प्राप्त हो चुकी है। परमात्मा कार्य धा। यह कार्य सहस्रार द्वारा किया गया। श्री माताजी स्वयं आश्चर्यचकत है कि इतने आंधक की सभी महान यौजनाएं आश्चर्यजनक है। हमारे अन्दर प्रतिबमेबत कुंडालनी को याद हम वास्तव लोग कैसे सहजयोग मैं आ गये है। 1990_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-33.txt 33 में समझना चाहते हैं तो हमें मूल कुंडलिनी की कार्य विधि की कुंडलनी के विषय में सोचते ही हम निर्विचार हो जाते है । विषय में सोचने से हमारे चक ठीक हो जाते है। को देखना पड़ेगा। श्री माताजी श्री माताजी के चकों के काी परन्तु हमारे अन्दर आवश्यक गहनता, अब भी बहुत से सहयोगियों में स्वयं को परवर्तित करने पूरे साहस के बिना हम सहजयोग अत्यन्त काठनाइयां सहने के कारण इमारी कुंडॉलनी समर्पण से ही हमारी कुंडलिनी मर्यादा तथा अधिकार होना चाहये। का साहस नही है, वे बहुत से बंधनों में फंसे हुये हैं। को निर्विलम्ब स्थापित नही कर सकते। केवल मूल कुंडलनी के प्रति वास्तावकता में विलीन होना हमारी प्रधम इच्छा होनी चाहिये। उपहत तथा दुर्बल हो गयी है। बलशाली हो सकेगी। त. वास्तविकता ली के पश्चात निर्लिप्तता या सदगुणो की चिन्ता अनावश्यक है। हमारे दिव्य विलीन होने में एक बार दिव्य हो जाने के पश्चात हो जाने के कारण ये स्वतः ही हममें आ जाते है। हमारी कुंडलनी अत्यन्त सुन्दर तथा गूल कुंडलिनी को प्रांतिबम्बित करने वाली हो जाती है। आर्शीवाद प्राप्त हो जाता बिना कोई तय किये हम सब के पहले दिन से ही भौतिक उपलब्धियों के रूप में आर्शीवाद केवल प्रलोभन मात्र है और श्री माताजी ने इनमें हमें और आगे बढ़ना है। है। बिना हमारे शुद्धिकरण बिना न फंसने की चेतावनी दी है। हमें कुछ बताये और बिना हमसे कुछ मांगे, साक्षात्कार हमें प्रदान किया गया। सक्षात्कार के पश्चात हम अपनी कुंडलनी से बंध गये है । इसकी विधि का उसका प्रयोग जानकर हमें अपनी अत : । विश्व का समस्याओं का समाधान करना चाहिये। १ ज्ञान भी होना चांहिये यदि हम परिवर्तित करना चाहते है तो हमें आदर्श, दृढप्रातिज्ञ होना पड़ेगा तथा जिस महान स्वयं को तैयारी की अवस्था कार्य के राध हम सम्बन्ध हुये है उसे पूरी तरह समझना होगा। में रख निष्कपटता से यद हम इच्छा करेंगे तो एक दिन महायोगी बन जायेंगे।