चैतन्य लहरी तृतीय खंड, अंक - 8 1991 हिन्दी आवत्ति उत्थान पथ पर इक्कीस गहत्वपूर्ण कदम अब जागिए । अपनी क्षुद्र बुद्धि से ऊपर उठिए । एक ऐसे उच्च - स्तर तक उत्थित हो जाइए जहां आप जान सकें कि आप पूरी मानवता की रक्षा करने वाले हैं । यदि आप यह महसूस नही कर सकते तो सहजयोग छोड़ दीजिए । क्षु्र लोगों के लिए सहजयोग नही है । ३ श्री माताजी निर्मला देवी ा उत्थान पथ पर इक्कीस महत्वपूर्ण कदम चले हुए पहले कदम से सफर की शुरूआत हो जाती है । सहजयोगी के लिए यह पहला कदम आत्मसाक्षात्कार को पा लेना है । परन्तु केवल एक कदम चलने से अपनी मंजिल तक पहुंचने की आशा हम कभी नहीं कर सकते । बेशक हम विराट के अंग - प्रत्यंग है और आदि शक्ति के शरीर के कोशाणु भी, फिर भी हम स्वतन्त्र है । हम में से हर एक को उत्थान का यह सफर अकेले और व्यक्तिगत रूप से तय करना है । सफर तय करने के लिए चले जाने वाले कुछ कदम तो अभी तक रहस्य बने हुए है और कुछ विशेष के लिए ही है । परन्तु कुछ सुप्रसिद्ध तथा सर्व - स्वीकृत कदम हैं जो मंजिल तक केवल व्यक्ति पहुंचने के लिए हर सहजयोगी के लिए आवश्यक हैं । सहजयोगी बनने के लिए इक्कीस आवश्यक कदम नीचे दिए गए हैं हर कदम बहुत छोटा तथा सुगम है, परन्तु एक साथ लिए जाने पर हमारे पूर्णत्व प्राप्ति' की ओर यह छोटे कदम एक 'लम्बी छलांग बन जाते हैं। :- २१XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX® हमें सदा याद रखना है कि श्री माताजी वास्तव में कौन हैं ২xxxxxXXxxxxxXxxXxx»XXXXXXXX४४ XXXXXX *और मैं परमात्मा से प्रार्थना करूंगा तथा वे आपको एक और आनन्द-दाता प्रदान करेंगे आनन्द -दाता, जो कि ब्रहृम-चैतन्य है, जिन्हें परम-पिता, मुझ पर कृपा करके, भेजेंगे । वे आपको सब प्रकार का ज्ञान सिखाये गे (गीं) श्री ईसामसीह 'आज के महत्वपूर्ण दिन में घोषणा करती हूं कि मैं ही मानवता की रक्षा करने के लिए अवतरित हुई हूं । घोषणा करती हूं कि मैं ही आदि-शक्ति हूं, जो कि सब माताओं में परम है, जो कि आदि मां मैं हैं, शक्ति हैं, जो परमात्मा की शुद्धतम इच्छा हैं, जो कि स्वयं ही अपने अस्तित्व को अर्थ-वत्ता प्रदान करने के लिए, और इस सूष्टी तथा मानव मात्र को अर्थ प्रदान करने के लिए अवतरित हुई हैं । और मुझे पूर्ण विश्वास है कि अपने प्रेम, धैर्य तथा अपनी शक्तियों के द्वारा मैं इस लक्ष को प्राप्त कर लूंगी । मैं ही बार बार अवतरित होती रही, परन्तु अब मैं अपने पूर्णत्व और सर्व-शक्तियों सहित अवतरित केवल मानव-मात्र की मुक्ति के लिए, हुई हूं । न केवल मानव जाति को मोक्ष प्रदान करने के लिए, न अपितु परमात्मा का सामाज्य, आनन्द तथा आशिष, जिन से परमपिता आपको धन्य करना चाहते हैं, वो सब आपको प्रदान करने के लिए मैं इस पृथ्वी पर आयी हूँ 2.12.79. समय अत्यन्त महत्वपूर्ण है, यह चेतना सदा आपके हृदय में होनी चाहिए । आपका जन्म एक अत्यन्त महत्वपूर्ण समय में हुआ है । जब भी आप मेरे साथ होते हैं वही समय श्रेष्ठतम होता है । अतः वास्तविक रूप से उस समय का लाभ उठाइये । श्री माताजी (21.5.84) XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX हमें प्रतिदिन घ्यान-धारणा अवश्य करनी है (XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX विकसित होने के लिए ध्यान-धारणा आवश्यक है । प्रतिदिन, प्रतिदिन और प्रतिदिन ध्यान करना महत्वपूर्ण है । चाहे आपको एक दिन भोजन छोड़ना पड़े, नीद त्यागनी पड़े, चाहे आप एक दिन दफ्तर न जाये या दिन-चर्या का कोई और कार्य आपको छोड़ना पड़े - परन्तु प्रतिदिन आप ध्यान अवश्य करें । उत्थान के लिए यह प्रथम आवश्यकता है । मुम्बई पूजा 1988 ध्यान धारणा पर बहुत अधिक समय लगाना आवश्यक नही । परन्तु जो भी समय आप लगायें और जो लाभ आप प्राप्त करें वह सुस्पष्ट होना चाहिए । ध्यान की कान्ति आपमे कितनी है और किस तरह आप इसे दूसरों में बांटते हैं यह दोनोनों गुण उन सन्तों के हैं जो आपने बनना है । स्वयं गहनता को प्राप्त किए बिना हम न तो दूसरे सहजयोगियों की रक्षा कर सकते हैं और नही उनकी जो सहजयोगी नहीं हैं । 27.7.82 ध्यान-धारणा हमारे जीवन का अंग-प्रत्यंग है । जिस प्रकार मानव श्वास लेता है उसी प्रकार आपको ध्यान करना है । बिना ध्यान किए आपका उत्थान नहीं हो सकता । आपको ध्यान करना है । । ध्यान किए बिना आप विकसित । आप अपनी पूर्व अवस्था में ही रहे गे । ध्यान-धारणा द्वारा गहनता प्राप्त करने पर ही नहीं हो सकते व्यक्तित्व का विकास सम्भव है । उथलेपन से कोई लाभ नही इसी कारण ध्यान-धारणी आवश्यक है परन्तु लम्बे समय तक ध्यान आवश्यक नहीं । स 2.5.87 वें या सहजयोग में आकर भी जो लोग ध्यान-धारणा नहीं करते और न ही उत्थित ( गहन) होते है, वे या तो नष्ट हो जाते हैं या सहजयोग से बाहर फैक दिए जाते हैं । 28.7.85 XXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX हमें दूसरों की आलोचना कतई नहीं करनी XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX । दूसरों की अच्छाई देखने का प्रयत्न करें । सहजयोग से अपने दृष्टि - कोण (नजुरिया) को बदलें बाहर के लोगों में न सही कम से कम सहजयोगियों की अच्छाइयों को देखने का प्रयत्न तो आप कर ही सकते हैं । उनके गुणों को देखने का प्रयत्न कीजिए । उन्होंने सहजयोग का क्या हित किया है ? आप उनके कितने आभारी हैं ? उन्हें सहजयोग कैसे देना है ? उनकी खुबियों को क्यों न देखा जाए ? उन्हें उत्साहित करने से तथा उनसे प्रेम-व्यवहार द्वारा भी आप सहजयोग की सहायता कर रहे हैं । 28.7.85 के कण अपनी आंख में पड़े इतने बड़े कचरे का ध्यान न करके अपने भाई की आंख में पड़े धूल को क्यों देखता है ? ओ पाखण्डी पहले अपनी आँख के कचरे को निकाल फेंक और तब तु स्पष्ट रूप से देख पाये गा कि भाई की आँख में पड़े धूल-कण को भी निकाल फेंकना है श्री ईसामसीह दूसरों के दोषों की गणना से हमारे अपने दोषों में वृद्धि होती है । श्री बुद्ध यदि आप एक माँ के बच्चे हैं तो किसी दूसरे से ऊँचे कैसे जा सकते हैं ? आप सदा माँ के बालक ही रहें गे । माँ की दृष्टि में आप किसी अन्य बच्चे से ऊँचे कैसे हो सकते हैं ? नही हो सकते इसके विपरीत यदि आप इस तरह की चालाकी करने का प्रयत्न करेंगे तो माँ आपको दंड दें गी । 28.7.85 (X) XXXX XXXX XoxXXXXxxxxxXXxxxXxXXX नियमित जूता क्रिया, पानी-पैर, नाक में घी तथा लहरियों का आदान प्रदान कीजिए xxx xXxxxxxXXoXXXXXXXx जूता क्रिया, पानी पैर, ध्यान - हम स्वयं से लड़ नही सकते । सहजयोग के नियमित अभ्यास द्वारा हम यह कार्य कुण्डलिनी तथा आत्मा पर छोड़ सकते हैं । क्योंकिं यह सब स्वतः ही धारणा आदि घटित होता है अतः अह - हस्तक्षेप या मानसिक गतिविधि को कोई स्थान नही देना चाहिए । 21.5.84 नाक में कुछ कतरे घी डालना । साधारण होते हुए भी यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आप सब विकृत हँसा चक् से पीड़ित हैं इतनी छोटी सी बात का भी एक साधारण सा कार्य करने के लिए मने आप सब से कहा है और ं के एक मामले का रोग विकृत हँसा चक्र एड्ज़ लक्षण है । ध्यान नहीं रखा जाता । जो कुछ भी मैं कहती हूं उसे सुनना आपका धार्मिक कत्त्तव्य होना चाहिए । वास्तव में आप सबको मेरी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए । 5.5.87 -4 - XXXXXXX आत्मा के विरोध में न हमें कुछ करना चाहिए और न कुछ कहना xxx xxxxxxxxxx "सुनहरे नियम" का पालन जी जान से करें SoooxxxxxxXX xxxxxxxxxxxx " अपने पड़ोसी को भी वैसे ही प्रेम करें जैसे स्वयं को करते हैं " सा। आपका पड़ोसी कौन है ? एक सहजयोगी ही आपका पड़ोसी है । उसी का साथ दें । अपनी मां पर विश्वास करें । जिस प्रकार मैने आपका विश्वास किया है आप भी मेरा विश्वास करें तभी कार्य होगा । अपना हृदय इस विश्वास के प्रति खोलें । यह पूर्णतः सम्मानजनक है या नहीं, इसकी चिन्ता आप छोड़ दें क्योंकि हृदय सब जानता है । आपके प्रेममय हृदय का यह विश्वास ही सब कुछ करेगा । प्रेम अपेक्षित सौम्य, सुगन्ध तथा पोषण प्रदान करता है । प्रेम के विषय में बातें नहीं केवल हार्दिक प्रेम ही अपेक्षित मार्ग है । 21.5.85 मातृवत बनिए अंतः यह करूणा होनी ही चाहिए और जब तक आप दूसरों के लिए पितृ-वत या मातृ-वत करूणा भाव विकसित नही कर लेते ---- मेरे कहने का मतलब यह है कि मैं 108 वर्ष की आयु के व्यक्ति की भी माँ हूं वास्तव में आपको अन्य लोगों को मातृ-प्रेम देना होगा तथा उनके प्रति करूणा और प्रेम-भाव आपके अन्तस में होने चा हिए । आपको अपने सुख - चैन तथा लाभ के विषय में नही सोचना । परन्तु आपने सोचना है दूसरों को, स्वयं को नहीं, सुख चैन पहुंचाने के लिए आप क्या कर सकते हैं । मैने जो करूणा एवं प्रेम आपको प्रदान किया है उसे संचित कर दूसरों तक पहुंचायें अन्यथा आप सड़ कर नष्ट हो जायें गे । प्रेम और करूणा आपसे बहनी ही चाहिए । 28.7.85 ৪ XXXXXXXXXXXXXXXXXXX xxxxxxxxxxxx मनसा-वाचा-कर्मणा हमें कट्टर नहीं होना है xxxxX XXXXXXXXXXXX मैंने कुछ लोग अचानक ही कर्म-काण्डों में फंस जाते हैं । उदाहरणतया मैने कुछ सहजयोगियों को पूजा में आकर भी स्वयं को पागलों की तरह से बन्धन देते देखा है । राह चलते-चलते भी वे बन्धन देंगे । जहां भी वे जायें गे पागलों की तरह से बन्धन लेंगे । यह बन्धन में फंसना है, सहजयोग नहीं है । देखना है कि 'बन्धन आवश्यक है या नहीं' । माँ की उपस्थिति में तो आप बन्धन में हैं ही स्वयं बन्धन देने की क्या आवश्यकता है ? मैं जब भाषण दे. रही होती हूं तब भी लोग अपने को बन्धन दे कर कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं । मेरे विचार में ऐसे लोग मुर्ख हैं । विवेक बुद्धि नहीं है । यह 10.7.88 परन्तु यदि अब भी आप देखें तो हर धर्म में बहुत से कर्म-काण्ड किये जा रहे हैं । अवतरणों के दे ह-त्याग के तत्पश्चात ही लोगों ने कर्म काण्ड शुरू कर दिए । हास्यास्प्रद ! श्री कृष्ण के देह त्याग के पश्चात भी लोग समझ न पाये कि वै क्या करें ? क्योंकि श्री कृष्ण ने भी कर्म -काण्ड वर्जित ठहराए थे । परिणाम स्वरूप श्री कृष्ण के उपरान्त लोग बहुत चिन्तातूर हो गये कि क्या करें ? और यह चिन्ता धर्म के क्षेत्र में प्रकट हुई तथा एक बार फिर कर्म काण्ड शुरू हो गए । लोग अत्यन्त कट्टर हो गए और इस कट्टरता ने जीवन के सारे आनन्द की हुनन कर दिया । इस कट्टरता के साथ अन्य सभी प्रकार की कुरीतियाँ भी प्रचलित हो गई । धर्म में सभी प्रकार के कर्म -काण्ड की मुर्खताओं के खण्डन के लिए ही श्री अवरतरित कृष्ण हुए । यह अति महत्वपूर्ण अवतरण था, पर कितने लोग इसे समझ सके ? यह मैं नहीं जानती । यह सब लीला है, ईशवर का खेल है, यह दर्शाने के लिए वे अबतरित हुए बन्धन में आप परमात्मा को नही बांध सकते । मूखर्ता-पूर्ण कर्म संदेश देने के लिए वे पृथ्वी पर अवतरित हुए । । गंभीर होना क्यों आवश्यक है ? कर्म-काण्ड के -काण्डों में आप स्वयं को न बांधे । यह 6-8.88 xxxxxxxxxx> XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX पारस्परिक संबंध विकसित करने के लिए हमें कार्य-रत रहना चाहिए मर्यादाओं के प्रति हमें जागरूक रहना चाहिए xxxxxxxxxXXxxxxxxxXXXxX सहजयोगियों से आपके संबंध आदर्श होने चाहिए । अन्यथा कही कोई भयानक त्रुटि है । संबंधों को आदर्श बनाने के लिए प्रयत्नशील रहें । किसी व्यक्ति को यदि आप अहै या किसी अन्य दोष से ग्रसित पाते हैं तो सबसे पहले यह देखिए कि क्या आप बिल्कुल ठीक है ? 'क्या मैं पूर्ण हूँ ?" 'क्या मैं स्वस्थ हूं' ? यदि मुझ में कमी है तो पहले मैं स्वयं को सुधारूं । पर यदि मैं आदर्श व्यक्ति हूं तो मैं दूसरे पर प्रभुत्व नहीं जमा रहा हूं । तब उसके प्रति मधुर व्यवहार द्वारा उसके अर को कम करने का प्रयास मुझे करना चाहिए । किसी भी तरह से आदर्श संबंध स्थापित कीजिए । यह अति सुगम है । त पारस्परिक संबंध श्रेष्ठतम होने चाहिए । अपने प्रति आपका रूख कठोर होना चाहिए। अपने अहै की आपने ताड़ना करनी है । अपने 'अस्तित्व' को यदि मुझे परमात्मा को अर्पण करना है तो मुझे स्वयं को परिपूर्ण करना होगा', यह बात आपको अन्तस में सुस्पष्ट करनी है । अस्तित्व की परिपूर्णता आवश्यक है । क] यदि आपको दूसरों से संबंध रखने हैं तो वे आदर्श होने चाहिए । एक सहजयोगी का दूसरे सहजयोगी से संबंध एक असाधारण चीज़ है । यही महानतम् संबंध है । अपने भाई- बहन के साथ आपका संबंध आदर्श होना चाहिए । 28.7.85 10 XXXXXXXXXXXXXXX X४.४.x.XX.XXXX४४९५XXXXXX आश्रम में हमें समस्याएं नहीं खड़ी करनी चाहिए आश्रम आनन्द तथा शान्ति का स्थान होना चाहिए xxxxxxxxxxxxx> सामूहिकता में रह पाने में असमर्थ लोग किसी भी तरह से सहजयोगी नही है । सामूहिकता से भागने को प्रयत्नशील लोगों को जान लेना चाहिए कि उन्हीं में कुछ कमी है । दूसरों की (सहजयोगियां) संगती का आनन्द उन्हें लेना चाहिए । दूसरों के सोन्दर्य से उन्हें आनन्दित होना चाहिए । उन्हें अन्य सहजयोगियों की चैतन्य लहरियों का आनन्द प्राप्त करना चाहिए । अपने लिए निजी वस्तुएं तथा सुविधाओं के विचार में प्रयत्नशील व्यक्ति अभी तक पूर्णतया परिपक्व नहीं हुए सामूहिकता ही आपकी स्थिती का भलिभांति निर्णय करने का माप- दंड है । बड़े होकर हम अपने व्यक्तिगत जीवन तथा निजी सुविधाओं की इच्छा करते हैं । इस प्रकार के अते जीवन में कोई आनन्द नहीं, यह आनन्द विहीन है । मै सामूहिकता का कितना आनन्द लेता हूँ ?" यही हर सहजयोगी के लिए अपने स्तर को देखने का माप-दंड है । मैं दूसरों की संगति में (सामूहिकता में) रह मेरा बच्चा, मेरा पति, मेरा घरिवार मेरा कमरा कर कितना आनन्दित होता हूं ? और अपना व्यक्तिगत - - मै कितना चाहता हूं ? व्यक्तिगत उपलब्धियां चाहने वाले लोग अभी तक पूर्णतः सहजयोगी नहीं हैं । अभी तक वे अपरिपक्व है और जिस स्तर पर वे है उसके योग्य नही है । 10.5.87 हृदय स्रोत से बह निकले माँ, पावन स्नेह की धारा । घैर्य किरण दिखलाए आशा, पायें ज्ञान तुम्हारा । चित्त प्रकाशित कर दो श्री माँ, सहज प्रेम से भर दो श्री माँ । करूण हस्त शिर रख दो श्री माँ, करें गुणगान तुम्हारा । हृदय स्रोत से राग द्वेष मुक्ति का वर दो, जीवन मुक्त माँ हम को कर दो । सामूहिक हम रहें निरन्तर, हो ब्रहुम चैतन्य सहारा । हृदय ग्रोत से । सहज प्रसारित हो जन जन में, वैचित रहे न कोई जग में । निर्विचारिता को सब पायें, बहे अविरल रस-धारा । हृदय स्रोत से श्री माताजी के चरण कमलों में अर्पित ा - 12 - XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX *XXXXXX अपने अन्तस की परिचित समस्याओं को सुलझाने के लिए गंभीर, से प्रयत्नशील होना ही चाहिए । xxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx O४ अपने अन्तस की त्रुटियां को जाने बिना आप स्वयं को सुधार नहीं सकते । सहजयोग आपको अपनी त्रुटियां तथा अपने चक्रों की खराबियों को समझने और उनको दूर करने का ज्ञान प्रदान करता है । अपने । यह आपका अपना शरीर है और आपके अपने चक्रां को शुद्ध करके आप सन्तुष्टता का अनुभव करते हैं। चक्र आपने अपने ही जीवन को आनन्दमय बनाना है । अतः अपने अन्दर की खराबियों का आभास पाते ही उन्हें दूर करने का प्रयत्न कीजिए । 12.5.87 जीवन को परिवर्तित कर डालो । एक नवीन, निर्मल व्यक्ति बन जाओ । फूल सम आप पुष्यित हो सहजयोगी के अपने पद को आप ग्रह ण रहे हैं और पेड़ की तरह विस्तृत । अपनी पदवी को ग्रहण करों। करो । यह अति सरल है । क्योंकि मैं ही चित्त हूं । केवल मुझे प्रसन्न रखना है यह अति सरल कार्य है । मुझे यदि आपने प्रसन्न कर लिया तो आपने सारा कार्य कर लिया । न. परन्तु सांसारिक वस्तुओं तथा तर्क वितर्क से मुझे प्रसन्न नही किया जा सकता । केवल अपने उत्थान से आप मुझे प्रसन्न कर सकते हैं । अतः अपने उत्थान से आप अपनी स्थिति का अन्दाजा लगाइये । 21.5.84 स्वयं को तटस्थ करने का प्रयत्न कीजिए । क्रोध, वासना, लोभ आदि पर काबू पाने का प्रयत्न थोड़ा खाइये, पेटरओं की तरह न खाइये कही किसी बड़े भोज आदि के अवसर पर आप कीजिए । । कभी - अधिक खाना सहृजयोगी का लक्षण नही है । अधिक खा लें, पर हर समय आप इस तरह नही खा सकते । काबू पाने का प्रयत्न कीजिए । 21.5.84 मेरे बच्चे बनना भी सरल कार्य नही है क्योंकि, जानती हूं कि आप क्या करते हैं - आपके बारे में मैं सब कुछ जानती हूं । आप जानते हैं कि मैं आपको सुधारती भी हूं । परन्तु आपका मुझ से जुड़े रहना प्रकट करता है कि आप अन्तरपरिवर्तन द्वारा निर्मल व्यक्ति बन कर, विकसित होने के लिए दूढ़-संकल्प (कटिबद्ध) लोगों की श्रेणी से सम्बन्धित है । सहजयोगी बनना सरल नहीं - ऐसा नहीं है कि कुछ धन देकर आप सदस्य बन गए और फिर माता जी के शिष्य बन गए । मेरे शिष्य बनने के बाद भी आपको कुछ परीक्षायें उत्तीर्ण करनी होंगी जिसके लिए आपको कठिन परिश्रम करना पड़े गा । अपने परिवार में रहते हुए आपको काफी तपस्या करनी पड़े गी । जनवरी 1981 13 ४४XX: सुधारे जाने पर प्रति-क्रिया नही करनी xxxxxxxxxxxx ४x ४४» ४x यदि आपके विषय में कोई गलत बात भी कहे तो परन्तु यदि उनकी कही बात सत्य है तो आपको सुधरने का प्रयत्न करना चाहिए । । चिन्ता की कोई बात नहीं चाहे मैं आपसे नाराज़ होऊँ, आपको डांट दें, आपको दूलारू, चाहे में कह दूं 'ऐसा मत करो', 'मेरे समीप मत आओ, दूर रहों इस प्रकार की मेरी हर बात आपके हित के लिए होती है । मेरी दृष्टि में आपकी हितैषिता केवल इसी बात में है कि आप मुक्त हों, मुझ से लाभान्वित हो कर आप वैभवशाली बने । 21.5.84 14 xxx XXXXXXXXXX00 oxxxxxxxxx हमें सुप्ताह में कम से कम एक बार जन-सामुहिक कार्यक्रम में भाग लेना आवश्यक है । oXXxxXxxxxc XXxxxx XXxxxx एक ओर तो मुझे ऐसे मूर्ख लोग मिलते है और दूसरी ओर वास्तविक जिज्ञासुओं के समूह । उन तक कैसे पहुंचा जाय ? कीचड़ में लथ पथ हीरे की तरह वे लोग है । बहुत अधिक कीचड़ में लयपथ । कीचड़ में उस हीरे को ढूंढने के लिए, खोए हुए उस हीरे को पाने के लिए व्यक्ति को अज्ञान की एक खान ना मैं गोता लगाना पड़ता है । मुझे बहुत चिन्ता होती है, यह लगता है कि कीचड़ उनके मस्तिष्क, आँखे और सभी कुछ को इस शायद वै इससे बंचित रह जांय । तरह ढाप लेगा कि शायद वै अपना आत्मसाक्षात्कार भी त प्राप्त कर सके 19.1.84 और सहजयोग विषय के लिए अधिकतम विवेक (अन्तर दृष्टि) की आवश्यकता है । क्योंकि सहजयोग को यदि आप इसे समझ पाये है, (मैं नहीं जानती कि आप इसे समझ भी पाये हैं और इसका ज्ञान आपको है भी सही या नही) अनुभव के सिवाय किसी भी तरह नही सीखा जा सकता । अनुभव के बाद ही आप इसका विश्वास कर सकते हैं । मेरा यह सब बताने का अभिप्राय आपके मस्तिष्क को (अनु) बन्धित करना नहीं । अनुभव प्राप्त कर आप स्वयं सीखिए । 21.5.84 विज्ञापनों या मेरे चित्रों के द्वारा सहजयोग नहीं बढ़े गा । आपके परिश्रम, उत्तरदायित्व तथा इसकी जिम्मेवारी लेने से ही यह कार्य होगा। । सहजयोग को फैलाने तथा स्थापित करने की जिम्मेवारी आपकी है श्री विराट पूजा । पा मेरे लिए तो आना भी आवश्यक नही । परन्तु समझाये बिना कौन सहजयोग में आयेगा ? कोई भी नही । अत: मुझे समझाना पड़ता है । और मैंने बहुत कुछ बताया । इतना बताया कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते । लन्दन में मैंने कम से कम एक हज़ार भाषण दिए । वहां सभी लोग इसे बहुत बड़ी बात मानते । में नहीं जानती, परन्तु काश मैं अब भोषण देना बन्द कर सकती । उस दिन कोई भाषण दे रहा था । मुझे बहुत प्रसन्नता हुई कि वह व्यक्ति इतना अच्छा बोल सकता है । मैंने कहा 'अब मैं भाषणों से छुटकारा पा लूंगी । मैं केवल कुण्डलिनी - जागृती का ही कार्य करूंगी । बताने का कार्य आप देखें' । आपमें से कुछ लोग यदि सहजयोग के महान वक्ता बन कर उभर सकें तो मुझे इतने अधिक भाषणों से छुटकारा मिल सके । 27.5.85 XXXX X১ xxxxxxxxxXxXx XXXX अपनी त्रुटियों पर पर्दा डालने के लिए हमें बहाने नही खोजने चाहिए । XX xxxxxxx XxxxxxxxxxXxxxxxxxxxxxxxxxxx कोई भी गलती हो जाने पर कुछ लोग कहैं गे कि 'यह मेरा बायाँ स्वाधिष्ठान है' । कुछ कहगे कि 'मुझे पर भूत-बाधा थी । कुछ किसी अन्य कारण को दोष देंगे । आप जिसे मर्जी दोष दे रहे हों, वास्तव में कौन आपसे सफाई मांग रहा है ? आप स्वयं अपने से पूछ रहे हैं । अतः मेरे प्रति श्रद्धा का अर्थ है कि सर्व प्रथम आप अपना सामना करें और स्वयं देखें कि आप क्या कर रहे हैं । 28.7.85 आप किसी भी सहजयोगी से पूछिए कि 'आपने ऐसा क्यों किया ? 'अवश्य कोई भूत रहा होगा । यदि आप कहै कि ' "मैं नहीं जानता । किसी भूत ने यह कार्य किया है । वे कभी वहां उपस्थित नहीं है - सारे भूत वहां उपस्थित है । आपने ऐसा कार्य क्यों किया तो उनका उत्तर होगा 27.5.85 वर्तमान में रहने का प्रयत्न कीजिए । वर्तमान से मुंह न छिपाइये । इसका सामना कीजिए । न भाव आने दीजिए । दोनों ही दशाएं आपको वर्तमान से दूर भूतों को दोष दीजिए और न स्वयं में दोष ढकेल दें गी । केवल सारी प्रकृति को देखिए, पूरी परम-शक्ति को देखिए , युग-युगान्तरों से अपनी तीव्र (शुद्ध) इच्छा को देखिए । सभी कुछ आपके साथ है । समय आ गया है । आप अभी वही हैं । हमे क्या करना है ? जब भी आप स्वयं को किसी भी तरह से दुर्व्यव हार करते पायें तो स्वयं दण्डित करें । परमात्मा से दण्डित होने से अच्छा होगा कि आप स्वयं को दण्डित करें, क्योंकि परमात्मा द्वारा दिया गया दण्ड कठोर होता है । दोष भावना ग्रस्त न हों क्योंकि आपने कोई दोष किया ही नहीं । 27.5.85 16 - XXXXX xxxxxx xxxxx pooxxxxxxxxxx हमें निर्णायक बनने से बचना चाहिए xxxXXxxXXXxxXX XXXXXXX> मानव के गुणों को क्यों न देखा जाय । मानवीय दुर्गुणों को सुधारने में असमर्थ होते हुए भी यदि आप उन्हें देखते हैं, वो दुर्गुण आप में भी आ जायें गे । यदि आप इन्हें ठीक कर सके तो बहुत अच्छी बात मे पर आप ऐसा नहीं कर सकते । लोग सदा यह भी कहते हैं 'मै यह कार्य नही करूंगा । परन्तु आप कोई अन्य कार्य करेंगे जिसे है कोई दूसरा व्यक्ति नही करना चाहे गा । दुसरों के विषय में निर्णय लेने से पूर्व व्यक्ति को समझना चाहिए कि सर्व प्रथम स्वयं को तोल ले | क्योंकि आप किस के द्वारा दूसरों का मूल्यांकन कर रहे हैं ? अपने अह एवं प्रति अहं द्वारा । यह गलती भविष्य में यह नही होनी चाहिए आप लोग एक दूसरों के दोषों को नहीं देखेखेंगे, सब के गुणों को देखेंगे । मैने आम तौर पर देखी है । । 28.7.85 सहजयोगियों को दूसरे सहजयोगियों की आलोचना करते देख मैं आश्चर्य - चकित रह जाती हूं प्रत्यं ग हैं । मैं आलोचना कर सकती हूं परन्तु आपको क्यों ऐसा करना । आप एक ही विराट के अंग चाहिए ? आपने केवल परस्पर प्रेम करना है । ईसा ने यह बात केवल तीन बार कही । पर मैं अब तक ।08 बार कह चुकी हूं कि आपको परस्पर प्रेम करना है । करूणा को अभिव्यक्त करने का केवल यही तरीका है । यदि मैने कभी भी तुम्हं प्रेम किया है तो आपने दूसरों के प्रति धर्य तथा प्रेम होना ही चाहिए । .7.85 दूसरों को न तोलें ताकि आपको भी न तोला जाय । जिस माप दण्ड से आप दूसरों को आंके गे उसी से आपको भी आंका जायगा । श्री ईसा मसीह 17 - xxxxxxxxxxXXX Xxxxxxxxxx हमें व्यर्थ गप्पे नहीं हांकनी xxxxxxxxxxXXXXXxXxxxXXxXX । वो ऐसा है, वो वैसा है । दूसरों पर छीटा-कशी एक दूसरे के प्रति आप व्यंगपूर्ण बातें न कहैं ल मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं । आप सब एक दूसरे का सम्मान करें । यदि कोई व्यक्ति दम्भी या स्वार्थी है तो अतः छींटा-कशी मत कीजिए । उसका दोष स्पष्ट प्रकट हो जाए गा और उसका सुधार भी हो जाए गा कभी मुझे ऐसी चातें सुनाई पड़ती हैं । यह अति अनुचित है । आम -जनता के मध्य भी कभी 24.3.81 टांय । यह बहुत बुरी कुछ सहजयोगिनियों को बोलने की चुरी आदत है । सदा टांय टांय है। आदत है । इससे प्रतीत होता है कि अभी उनमे बहुत कमी है । केवल साड़ी पहन लेने या बिन्दी लगा लेने से आप सहजयोगी (नी) नहीं बन जाती । सर्व प्रथम जानिए कि 'गंभीरता क्या है ? केवल आवश्यक होने पर ही बोलिए । कुछ औरतें सदा कहानियां करती रहती है पर सहजयोग पर भाषण नहीं देंगी । फुस फुसाने के लिए आप सदा तैयार है । तो इस विषय में आपको बहुत सावधान रहना है यदि कोई आलोचना कर रहा हो तो खामोश रहिए । यह मौन स्थापित होना ही चाहिए । अपनी उपस्थिती में भी मैने लोगों को बातें करते देखा दूसरों के विषय में, दूसरों के चरित्र के विषय में बातचीत करना हमारा कार्य नही है । क्या हम है । यह सर्वथा अनुचित है । एक हाथ के चरित्र के विषय में दूसरे हाथ से बातचीत करते हैं? विवाह आदि की घटनाओं के बारे में बातचीत । आप तो सहजयोग से विवाहित है । एक तरह से आप लोग विवाहित व्यक्ति नही है। ৪.7.90 18 + ह सन के xx XXXXXXX xx xxxxxxxxxx Кхх अपने समय और साधनों सहित हमें उदार होना चाहिए । xxxxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXX ४XX: अपना लक्ष स्पष्ट रखें । आपको समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि सहजयोगियों के रूप में आपके जीवन का लक्ष क्या है अपनी आप उनमें से नही जिन्हें अपनी सम्पत्ती, सांसारिक वस्तुओं, अब आप परिवर्तित लोग हैं । आजीविकाओं (रोजी रोटी) की देखभाल अथवा चिन्ता करनी पड़ती है । अपने स्वस्थ, सम्पत्ती तथा निजीजीवन की चिन्ता करने वाले लोग अब आप नही । *मेरी नौकरी कैसे चलेगी यदि आप में उच्च जीविका की अभिलाषा है या आप महत्वाकांक्षी है '- तो अच्छा हो कि आप सहजयोग से बाहर हो जाये । तीसरे कुछ लोग सभी मुर्खतापूर्ण - आदि' आप यहां किस लिए हैं ? किस लिए ? आदि - आदि बातें सोचते हैं, यह मेरी पत्नी हे, ये मेरी प्रेयरसी है, आदि या 'मेरे बच्चे, मेरी गृहस्थी, मेरी माँ, मेरे पिता । सभी तरह के तुच्छ लोगों ने घेरा हुआ है । इन तुच्छताओं से ऊपर उठे बिना आप मेरी सहायता नही कर सकते । आपको अति दृढ़ व्यक्ति बनना है । आपको महान शुरता, आदर्शवाद और उच्च विचार शीलता सम्पन्न होना पड़े गा । 28.7.85 आप किस प्रकार कह सकते हैं "मैने कानून तथा पैगम्बरों की बात मानी ?' क्योंकि ऐसा लिखा हुआ है, 'अपने पड़ोसी को अपनी ही तरह से प्रेम करो । परन्तु खेद है कि आपके बहुत से भाई, अब्राहम सी अच्छी बस्तुओं ता के बेटे बेटियां, गंदगी से ढके हुए हैं और भूखों मर रहे हैं, और तुम्हारा अपना घर बहुत से भरा पड़ा है और यहां से निकल कर कोई भी वस्तु उन तक नहीं पहुंचती । श्री ईसा मसीह 19 - xxxxxxxxxx xxxx xxxxxxxxxxxxx XxX चैतन्य लहरियों के सम्मुख बौद्धिक घारणाओं को महत्व न दें XXXXXXXXXXXXxxxxx oxxxxx आप सबको हर समय अवश्य याद रखना है कि हम साक्षात्कारी आत्माएं हैं, कि हम में चैतन्य लहरियाँ हैं । हमें इस प्रकार देखना तथा समझना है । केवल चैतन्य लहरियों के माध्यम से ही हम दूसरों को जान सकते हैं । किसी दूसरे रास्ते से नहीं । कभी-कभी किसी सुन्दर तथा मधुर प्रतीत होने वाले व्यक्ति माम को आप सर्प-सम पायें गे । लहरियों द्वारा मूल्यांकन ही सर्वोत्तम है । अपनी सूझ-बूझ या अन्य उथली विधियों अतः चैतन्य - से किसी को आंकना उचित नही । हमारे कुछ और भी बन्धन हैं जिनसे हम दूसरों को तोलते हैं । यह बन्धन हमारी निर्णायक बुदधि अतः चैतन्य लहरियां देखना सर्वात्तम विधि है । लहरियों के माध्यम से ही को प्रभावित कर सकते हैं आपको घटनाक्रम (हालात) का सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा । 16.5.87 और वह आपसे बात चीत करती है । पर यह आपकी माँ बहुत अच्छी वक्ता है आपका मानसिक लगाव (दुर्बलता) नहीं बन जाना चाहिए । जैसे 'श्री माता जी ऐसा कहती हैं' और सभी लोग पूरे उत्साह के साथ इसकी चर्चा करना शुरू कर देते हैं । परन्तु यह आपके अस्तित्व का अंग-प्रत्यंग तो नहीं बना । फिर भी खोखले, व्यक्तियों के साथ लगाव आजकल एक अति सामान्य बात है सभी कुछ जानते हुए इस मानसिक लगाव पर तो आक्रमण होना ही चाहिए । देखना और अनुभव करना ही 'बनना है | जैसे यदि मुझे इस स्थान पर आना है तो मुझे यहां आकर इसे देखना होगा । यदि मैं इसके बारे में सोचती रहूं, मानसिक विचार तथा चित्र बनाती रहूँ तो कोई लाभ नहीं होने वाला । यह मेरी नहीं है और यह सत्य भी नही । तो जब आप चेतना-वस्था में आते हैं तो स्वयं देखने लगते हैं । तो हमें स्वयं देखना चाहिए । से बाहर निकलो । आप कुछ नहीं मानसिक धारणाओं - कि आप पहले ही इसके विषय में जानते हैं जानते क्योंकि जो आप जानते हैं वह केवल बौद्धिक है । वह आपके अस्तित्व का अंग-प्रत्यं ग होना चाहिए । 27.5.85 20 xxxxxxxxxxXXXxxxx xxxXxxxxxxxo हमें सदा याद रखना चाहिए कि हम श्री माताजी के घर में रहते है xxxxxxxxxx आश्रम के विषय में कभी शिकायत नही होनी चाहिए । सम होना चाहिए । आश्रम आपकी माँ का मन्दिर है - एक ऐसा स्थान जो मन्दिर आश्रम में रहने वाले तथा वहां आने बाले अन्य लोगों को इसकी देखभाल करनी चाहिए । उदाहरणतया आप अपने बच्चों को यहां लाये पर उन्हें हर कमरे में जाने की आज्ञा नहीं होनी चाहिए । इस स्थान को मन्दिर की तरह ही रखें। और जो लोग यहां रहते हैं उन्हे भी समझना चाहिए वे यहां प्रशिक्षण के लिए रहते हैं - सुख सुविधा के लिए नहीं । 25.3.81 21 - xXXX xxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxXxxxxxxxxxX निजी कार्यों को सहज गतिविधियों के सम्मुख प्राथमिकता नही दी जानी चाहिए ooxxxxx xxxxx xxx oxxxxxxxxXXXx अब मुझे लगता है कि हममें एक अन्य प्रकार की दासता भी है । स्व-रचित स्वार्थ का दासत्व । 'यह मेरा सुख चैन है । मुझे यह मिलना ही चाहिए । यह आनन्द दायक होना चाहिए । मै नि आनन्द ले रहा हूं । मैं ये हूं, मैं वो हूं । । मेरा अभिप्राय है कि हर जब तक आप इसका आनन्द नही उठाते यह महान हो ही नही सकती चीज़ आपको आनन्दानुभव देने वाली होनी चाहिए, न कि आप उसे अनुभव प्रदान करें । मेरे विचार में लोग नही जानते कि वे क्या कर रहे हैं । किस प्रकार का कार्य वे कर रहे हैं । THER आपका लक्ष क्या है ? इस बात को जानने की ऊँचाई के स्तर तक लोग आना नही चाहते । पूरे विश्व की रक्षा करने का प्रयत्न आप कर रहे हैं । अतः अब जागिए । अपनी तुच्छ और क्षुद्र बुद्धि से ऊपर उठिए । एक ऐसे उच्च स्तर तक उत्थित हो जाइए जहां आप जान सर्कें कि आप पूरी मानवता की रक्षा करने वाले हैं । यदि आप यह महसूस नही कर सकते तो सहजयोग छोड़ दीजिए । क्षुद्र लोगों के लिए सहजयोग । मराठी में गवाले शब्द है। तुकाराम ने कहहै 'यैर्या गबालेच्या कामा नोहे । 'यह कार्य क्षुद्र लोगों नही हैं। का नहीं । 27.7.85 अपने लक्ष्मी तत्व को कायम रखने की जिम्मेवारी यदि हम नही ले सकते तो भौतिक ब्रहमाण्ड में घुस पाना सहजयोग के लिए कठिन होगा । क्योंकि कौन आश्रम बनाएगा और कौन कार्यक्रम आयोजित करेगा प्रायः जब सहजयोग में किसी कार्य के लिए पैसा देने को कहा जाता है तो लोग शिकायत करते हैं परन्तु वे केवल स्थूल नाटक ही देखते हैं चित्त देने के लिए कहा जा रहा है, जिससे कि श्रीं माताजी की कृपा से प्राप्त हमारी प्रकाशित आत्माएं विराट को प्रकाशित कर सके । सूक्ष्म, गहन अर्थ को नहीं : कि हमें लक्ष्मी - विष्णु तत्व की ओर ज्ञानोदय को अर्थ देने के लिए हमें ब्रहूमाण्ड को प्रकाशित कर, परिणाम की चिन्ता किए बिना कोम क्योंकि हम शुद्ध आत्मा है - स्थूल भौतिकता में प्रवेश करना होगा । 21.5.84 हम बहुत कुछ चाहते हैं, फिर भी हमारी आवश्यकताएं बहुत कम हैं ज्योतित व्यक्ति की कोई आवश्यकता नही होती । त श्री बुद्ध -22 ---------------------- 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी तृतीय खंड, अंक - 8 1991 हिन्दी आवत्ति उत्थान पथ पर इक्कीस गहत्वपूर्ण कदम अब जागिए । अपनी क्षुद्र बुद्धि से ऊपर उठिए । एक ऐसे उच्च - स्तर तक उत्थित हो जाइए जहां आप जान सकें कि आप पूरी मानवता की रक्षा करने वाले हैं । यदि आप यह महसूस नही कर सकते तो सहजयोग छोड़ दीजिए । क्षु्र लोगों के लिए सहजयोग नही है । ३ श्री माताजी निर्मला देवी ा 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-1.txt उत्थान पथ पर इक्कीस महत्वपूर्ण कदम चले हुए पहले कदम से सफर की शुरूआत हो जाती है । सहजयोगी के लिए यह पहला कदम आत्मसाक्षात्कार को पा लेना है । परन्तु केवल एक कदम चलने से अपनी मंजिल तक पहुंचने की आशा हम कभी नहीं कर सकते । बेशक हम विराट के अंग - प्रत्यंग है और आदि शक्ति के शरीर के कोशाणु भी, फिर भी हम स्वतन्त्र है । हम में से हर एक को उत्थान का यह सफर अकेले और व्यक्तिगत रूप से तय करना है । सफर तय करने के लिए चले जाने वाले कुछ कदम तो अभी तक रहस्य बने हुए है और कुछ विशेष के लिए ही है । परन्तु कुछ सुप्रसिद्ध तथा सर्व - स्वीकृत कदम हैं जो मंजिल तक केवल व्यक्ति पहुंचने के लिए हर सहजयोगी के लिए आवश्यक हैं । सहजयोगी बनने के लिए इक्कीस आवश्यक कदम नीचे दिए गए हैं हर कदम बहुत छोटा तथा सुगम है, परन्तु एक साथ लिए जाने पर हमारे पूर्णत्व प्राप्ति' की ओर यह छोटे कदम एक 'लम्बी छलांग बन जाते हैं। :- 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-2.txt २१XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX® हमें सदा याद रखना है कि श्री माताजी वास्तव में कौन हैं ২xxxxxXXxxxxxXxxXxx»XXXXXXXX४४ XXXXXX *और मैं परमात्मा से प्रार्थना करूंगा तथा वे आपको एक और आनन्द-दाता प्रदान करेंगे आनन्द -दाता, जो कि ब्रहृम-चैतन्य है, जिन्हें परम-पिता, मुझ पर कृपा करके, भेजेंगे । वे आपको सब प्रकार का ज्ञान सिखाये गे (गीं) श्री ईसामसीह 'आज के महत्वपूर्ण दिन में घोषणा करती हूं कि मैं ही मानवता की रक्षा करने के लिए अवतरित हुई हूं । घोषणा करती हूं कि मैं ही आदि-शक्ति हूं, जो कि सब माताओं में परम है, जो कि आदि मां मैं हैं, शक्ति हैं, जो परमात्मा की शुद्धतम इच्छा हैं, जो कि स्वयं ही अपने अस्तित्व को अर्थ-वत्ता प्रदान करने के लिए, और इस सूष्टी तथा मानव मात्र को अर्थ प्रदान करने के लिए अवतरित हुई हैं । और मुझे पूर्ण विश्वास है कि अपने प्रेम, धैर्य तथा अपनी शक्तियों के द्वारा मैं इस लक्ष को प्राप्त कर लूंगी । मैं ही बार बार अवतरित होती रही, परन्तु अब मैं अपने पूर्णत्व और सर्व-शक्तियों सहित अवतरित केवल मानव-मात्र की मुक्ति के लिए, हुई हूं । न केवल मानव जाति को मोक्ष प्रदान करने के लिए, न अपितु परमात्मा का सामाज्य, आनन्द तथा आशिष, जिन से परमपिता आपको धन्य करना चाहते हैं, वो सब आपको प्रदान करने के लिए मैं इस पृथ्वी पर आयी हूँ 2.12.79. समय अत्यन्त महत्वपूर्ण है, यह चेतना सदा आपके हृदय में होनी चाहिए । आपका जन्म एक अत्यन्त महत्वपूर्ण समय में हुआ है । जब भी आप मेरे साथ होते हैं वही समय श्रेष्ठतम होता है । अतः वास्तविक रूप से उस समय का लाभ उठाइये । श्री माताजी (21.5.84) 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-3.txt XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX हमें प्रतिदिन घ्यान-धारणा अवश्य करनी है (XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX विकसित होने के लिए ध्यान-धारणा आवश्यक है । प्रतिदिन, प्रतिदिन और प्रतिदिन ध्यान करना महत्वपूर्ण है । चाहे आपको एक दिन भोजन छोड़ना पड़े, नीद त्यागनी पड़े, चाहे आप एक दिन दफ्तर न जाये या दिन-चर्या का कोई और कार्य आपको छोड़ना पड़े - परन्तु प्रतिदिन आप ध्यान अवश्य करें । उत्थान के लिए यह प्रथम आवश्यकता है । मुम्बई पूजा 1988 ध्यान धारणा पर बहुत अधिक समय लगाना आवश्यक नही । परन्तु जो भी समय आप लगायें और जो लाभ आप प्राप्त करें वह सुस्पष्ट होना चाहिए । ध्यान की कान्ति आपमे कितनी है और किस तरह आप इसे दूसरों में बांटते हैं यह दोनोनों गुण उन सन्तों के हैं जो आपने बनना है । स्वयं गहनता को प्राप्त किए बिना हम न तो दूसरे सहजयोगियों की रक्षा कर सकते हैं और नही उनकी जो सहजयोगी नहीं हैं । 27.7.82 ध्यान-धारणा हमारे जीवन का अंग-प्रत्यंग है । जिस प्रकार मानव श्वास लेता है उसी प्रकार आपको ध्यान करना है । बिना ध्यान किए आपका उत्थान नहीं हो सकता । आपको ध्यान करना है । । ध्यान किए बिना आप विकसित । आप अपनी पूर्व अवस्था में ही रहे गे । ध्यान-धारणा द्वारा गहनता प्राप्त करने पर ही नहीं हो सकते व्यक्तित्व का विकास सम्भव है । उथलेपन से कोई लाभ नही इसी कारण ध्यान-धारणी आवश्यक है परन्तु लम्बे समय तक ध्यान आवश्यक नहीं । स 2.5.87 वें या सहजयोग में आकर भी जो लोग ध्यान-धारणा नहीं करते और न ही उत्थित ( गहन) होते है, वे या तो नष्ट हो जाते हैं या सहजयोग से बाहर फैक दिए जाते हैं । 28.7.85 XXXX 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-4.txt XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX हमें दूसरों की आलोचना कतई नहीं करनी XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX । दूसरों की अच्छाई देखने का प्रयत्न करें । सहजयोग से अपने दृष्टि - कोण (नजुरिया) को बदलें बाहर के लोगों में न सही कम से कम सहजयोगियों की अच्छाइयों को देखने का प्रयत्न तो आप कर ही सकते हैं । उनके गुणों को देखने का प्रयत्न कीजिए । उन्होंने सहजयोग का क्या हित किया है ? आप उनके कितने आभारी हैं ? उन्हें सहजयोग कैसे देना है ? उनकी खुबियों को क्यों न देखा जाए ? उन्हें उत्साहित करने से तथा उनसे प्रेम-व्यवहार द्वारा भी आप सहजयोग की सहायता कर रहे हैं । 28.7.85 के कण अपनी आंख में पड़े इतने बड़े कचरे का ध्यान न करके अपने भाई की आंख में पड़े धूल को क्यों देखता है ? ओ पाखण्डी पहले अपनी आँख के कचरे को निकाल फेंक और तब तु स्पष्ट रूप से देख पाये गा कि भाई की आँख में पड़े धूल-कण को भी निकाल फेंकना है श्री ईसामसीह दूसरों के दोषों की गणना से हमारे अपने दोषों में वृद्धि होती है । श्री बुद्ध यदि आप एक माँ के बच्चे हैं तो किसी दूसरे से ऊँचे कैसे जा सकते हैं ? आप सदा माँ के बालक ही रहें गे । माँ की दृष्टि में आप किसी अन्य बच्चे से ऊँचे कैसे हो सकते हैं ? नही हो सकते इसके विपरीत यदि आप इस तरह की चालाकी करने का प्रयत्न करेंगे तो माँ आपको दंड दें गी । 28.7.85 (X) XXXX 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-5.txt XXXX XoxXXXXxxxxxXXxxxXxXXX नियमित जूता क्रिया, पानी-पैर, नाक में घी तथा लहरियों का आदान प्रदान कीजिए xxx xXxxxxxXXoXXXXXXXx जूता क्रिया, पानी पैर, ध्यान - हम स्वयं से लड़ नही सकते । सहजयोग के नियमित अभ्यास द्वारा हम यह कार्य कुण्डलिनी तथा आत्मा पर छोड़ सकते हैं । क्योंकिं यह सब स्वतः ही धारणा आदि घटित होता है अतः अह - हस्तक्षेप या मानसिक गतिविधि को कोई स्थान नही देना चाहिए । 21.5.84 नाक में कुछ कतरे घी डालना । साधारण होते हुए भी यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आप सब विकृत हँसा चक् से पीड़ित हैं इतनी छोटी सी बात का भी एक साधारण सा कार्य करने के लिए मने आप सब से कहा है और ं के एक मामले का रोग विकृत हँसा चक्र एड्ज़ लक्षण है । ध्यान नहीं रखा जाता । जो कुछ भी मैं कहती हूं उसे सुनना आपका धार्मिक कत्त्तव्य होना चाहिए । वास्तव में आप सबको मेरी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए । 5.5.87 -4 - 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-6.txt XXXXXXX आत्मा के विरोध में न हमें कुछ करना चाहिए और न कुछ कहना xxx xxxxxxxxxx "सुनहरे नियम" का पालन जी जान से करें SoooxxxxxxXX xxxxxxxxxxxx " अपने पड़ोसी को भी वैसे ही प्रेम करें जैसे स्वयं को करते हैं " सा। आपका पड़ोसी कौन है ? एक सहजयोगी ही आपका पड़ोसी है । उसी का साथ दें । अपनी मां पर विश्वास करें । जिस प्रकार मैने आपका विश्वास किया है आप भी मेरा विश्वास करें तभी कार्य होगा । अपना हृदय इस विश्वास के प्रति खोलें । यह पूर्णतः सम्मानजनक है या नहीं, इसकी चिन्ता आप छोड़ दें क्योंकि हृदय सब जानता है । आपके प्रेममय हृदय का यह विश्वास ही सब कुछ करेगा । प्रेम अपेक्षित सौम्य, सुगन्ध तथा पोषण प्रदान करता है । प्रेम के विषय में बातें नहीं केवल हार्दिक प्रेम ही अपेक्षित मार्ग है । 21.5.85 मातृवत बनिए अंतः यह करूणा होनी ही चाहिए और जब तक आप दूसरों के लिए पितृ-वत या मातृ-वत करूणा भाव विकसित नही कर लेते ---- मेरे कहने का मतलब यह है कि मैं 108 वर्ष की आयु के व्यक्ति की भी माँ हूं वास्तव में आपको अन्य लोगों को मातृ-प्रेम देना होगा तथा उनके प्रति करूणा और प्रेम-भाव आपके अन्तस में होने चा हिए । आपको अपने सुख - चैन तथा लाभ के विषय में नही सोचना । परन्तु आपने सोचना है दूसरों को, स्वयं को नहीं, सुख चैन पहुंचाने के लिए आप क्या कर सकते हैं । मैने जो करूणा एवं प्रेम आपको प्रदान किया है उसे संचित कर दूसरों तक पहुंचायें अन्यथा आप सड़ कर नष्ट हो जायें गे । प्रेम और करूणा आपसे बहनी ही चाहिए । 28.7.85 ৪ 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-10.txt XXXXXXXXXXXXXXXXXXX xxxxxxxxxxxx मनसा-वाचा-कर्मणा हमें कट्टर नहीं होना है xxxxX XXXXXXXXXXXX मैंने कुछ लोग अचानक ही कर्म-काण्डों में फंस जाते हैं । उदाहरणतया मैने कुछ सहजयोगियों को पूजा में आकर भी स्वयं को पागलों की तरह से बन्धन देते देखा है । राह चलते-चलते भी वे बन्धन देंगे । जहां भी वे जायें गे पागलों की तरह से बन्धन लेंगे । यह बन्धन में फंसना है, सहजयोग नहीं है । देखना है कि 'बन्धन आवश्यक है या नहीं' । माँ की उपस्थिति में तो आप बन्धन में हैं ही स्वयं बन्धन देने की क्या आवश्यकता है ? मैं जब भाषण दे. रही होती हूं तब भी लोग अपने को बन्धन दे कर कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं । मेरे विचार में ऐसे लोग मुर्ख हैं । विवेक बुद्धि नहीं है । यह 10.7.88 परन्तु यदि अब भी आप देखें तो हर धर्म में बहुत से कर्म-काण्ड किये जा रहे हैं । अवतरणों के दे ह-त्याग के तत्पश्चात ही लोगों ने कर्म काण्ड शुरू कर दिए । हास्यास्प्रद ! श्री कृष्ण के देह त्याग के पश्चात भी लोग समझ न पाये कि वै क्या करें ? क्योंकि श्री कृष्ण ने भी कर्म -काण्ड वर्जित ठहराए थे । परिणाम स्वरूप श्री कृष्ण के उपरान्त लोग बहुत चिन्तातूर हो गये कि क्या करें ? और यह चिन्ता धर्म के क्षेत्र में प्रकट हुई तथा एक बार फिर कर्म काण्ड शुरू हो गए । लोग अत्यन्त कट्टर हो गए और इस कट्टरता ने जीवन के सारे आनन्द की हुनन कर दिया । इस कट्टरता के साथ अन्य सभी प्रकार की कुरीतियाँ भी प्रचलित हो गई । धर्म में सभी प्रकार के कर्म -काण्ड की मुर्खताओं के खण्डन के लिए ही श्री अवरतरित कृष्ण हुए । यह अति महत्वपूर्ण अवतरण था, पर कितने लोग इसे समझ सके ? यह मैं नहीं जानती । यह सब लीला है, ईशवर का खेल है, यह दर्शाने के लिए वे अबतरित हुए बन्धन में आप परमात्मा को नही बांध सकते । मूखर्ता-पूर्ण कर्म संदेश देने के लिए वे पृथ्वी पर अवतरित हुए । । गंभीर होना क्यों आवश्यक है ? कर्म-काण्ड के -काण्डों में आप स्वयं को न बांधे । यह 6-8.88 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-11.txt xxxxxxxxxx> XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX पारस्परिक संबंध विकसित करने के लिए हमें कार्य-रत रहना चाहिए मर्यादाओं के प्रति हमें जागरूक रहना चाहिए xxxxxxxxxXXxxxxxxxXXXxX सहजयोगियों से आपके संबंध आदर्श होने चाहिए । अन्यथा कही कोई भयानक त्रुटि है । संबंधों को आदर्श बनाने के लिए प्रयत्नशील रहें । किसी व्यक्ति को यदि आप अहै या किसी अन्य दोष से ग्रसित पाते हैं तो सबसे पहले यह देखिए कि क्या आप बिल्कुल ठीक है ? 'क्या मैं पूर्ण हूँ ?" 'क्या मैं स्वस्थ हूं' ? यदि मुझ में कमी है तो पहले मैं स्वयं को सुधारूं । पर यदि मैं आदर्श व्यक्ति हूं तो मैं दूसरे पर प्रभुत्व नहीं जमा रहा हूं । तब उसके प्रति मधुर व्यवहार द्वारा उसके अर को कम करने का प्रयास मुझे करना चाहिए । किसी भी तरह से आदर्श संबंध स्थापित कीजिए । यह अति सुगम है । त पारस्परिक संबंध श्रेष्ठतम होने चाहिए । अपने प्रति आपका रूख कठोर होना चाहिए। अपने अहै की आपने ताड़ना करनी है । अपने 'अस्तित्व' को यदि मुझे परमात्मा को अर्पण करना है तो मुझे स्वयं को परिपूर्ण करना होगा', यह बात आपको अन्तस में सुस्पष्ट करनी है । अस्तित्व की परिपूर्णता आवश्यक है । क] यदि आपको दूसरों से संबंध रखने हैं तो वे आदर्श होने चाहिए । एक सहजयोगी का दूसरे सहजयोगी से संबंध एक असाधारण चीज़ है । यही महानतम् संबंध है । अपने भाई- बहन के साथ आपका संबंध आदर्श होना चाहिए । 28.7.85 10 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-12.txt XXXXXXXXXXXXXXX X४.४.x.XX.XXXX४४९५XXXXXX आश्रम में हमें समस्याएं नहीं खड़ी करनी चाहिए आश्रम आनन्द तथा शान्ति का स्थान होना चाहिए xxxxxxxxxxxxx> सामूहिकता में रह पाने में असमर्थ लोग किसी भी तरह से सहजयोगी नही है । सामूहिकता से भागने को प्रयत्नशील लोगों को जान लेना चाहिए कि उन्हीं में कुछ कमी है । दूसरों की (सहजयोगियां) संगती का आनन्द उन्हें लेना चाहिए । दूसरों के सोन्दर्य से उन्हें आनन्दित होना चाहिए । उन्हें अन्य सहजयोगियों की चैतन्य लहरियों का आनन्द प्राप्त करना चाहिए । अपने लिए निजी वस्तुएं तथा सुविधाओं के विचार में प्रयत्नशील व्यक्ति अभी तक पूर्णतया परिपक्व नहीं हुए सामूहिकता ही आपकी स्थिती का भलिभांति निर्णय करने का माप- दंड है । बड़े होकर हम अपने व्यक्तिगत जीवन तथा निजी सुविधाओं की इच्छा करते हैं । इस प्रकार के अते जीवन में कोई आनन्द नहीं, यह आनन्द विहीन है । मै सामूहिकता का कितना आनन्द लेता हूँ ?" यही हर सहजयोगी के लिए अपने स्तर को देखने का माप-दंड है । मैं दूसरों की संगति में (सामूहिकता में) रह मेरा बच्चा, मेरा पति, मेरा घरिवार मेरा कमरा कर कितना आनन्दित होता हूं ? और अपना व्यक्तिगत - - मै कितना चाहता हूं ? व्यक्तिगत उपलब्धियां चाहने वाले लोग अभी तक पूर्णतः सहजयोगी नहीं हैं । अभी तक वे अपरिपक्व है और जिस स्तर पर वे है उसके योग्य नही है । 10.5.87 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-13.txt हृदय स्रोत से बह निकले माँ, पावन स्नेह की धारा । घैर्य किरण दिखलाए आशा, पायें ज्ञान तुम्हारा । चित्त प्रकाशित कर दो श्री माँ, सहज प्रेम से भर दो श्री माँ । करूण हस्त शिर रख दो श्री माँ, करें गुणगान तुम्हारा । हृदय स्रोत से राग द्वेष मुक्ति का वर दो, जीवन मुक्त माँ हम को कर दो । सामूहिक हम रहें निरन्तर, हो ब्रहुम चैतन्य सहारा । हृदय ग्रोत से । सहज प्रसारित हो जन जन में, वैचित रहे न कोई जग में । निर्विचारिता को सब पायें, बहे अविरल रस-धारा । हृदय स्रोत से श्री माताजी के चरण कमलों में अर्पित ा - 12 - 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-14.txt XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX *XXXXXX अपने अन्तस की परिचित समस्याओं को सुलझाने के लिए गंभीर, से प्रयत्नशील होना ही चाहिए । xxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx O४ अपने अन्तस की त्रुटियां को जाने बिना आप स्वयं को सुधार नहीं सकते । सहजयोग आपको अपनी त्रुटियां तथा अपने चक्रों की खराबियों को समझने और उनको दूर करने का ज्ञान प्रदान करता है । अपने । यह आपका अपना शरीर है और आपके अपने चक्रां को शुद्ध करके आप सन्तुष्टता का अनुभव करते हैं। चक्र आपने अपने ही जीवन को आनन्दमय बनाना है । अतः अपने अन्दर की खराबियों का आभास पाते ही उन्हें दूर करने का प्रयत्न कीजिए । 12.5.87 जीवन को परिवर्तित कर डालो । एक नवीन, निर्मल व्यक्ति बन जाओ । फूल सम आप पुष्यित हो सहजयोगी के अपने पद को आप ग्रह ण रहे हैं और पेड़ की तरह विस्तृत । अपनी पदवी को ग्रहण करों। करो । यह अति सरल है । क्योंकि मैं ही चित्त हूं । केवल मुझे प्रसन्न रखना है यह अति सरल कार्य है । मुझे यदि आपने प्रसन्न कर लिया तो आपने सारा कार्य कर लिया । न. परन्तु सांसारिक वस्तुओं तथा तर्क वितर्क से मुझे प्रसन्न नही किया जा सकता । केवल अपने उत्थान से आप मुझे प्रसन्न कर सकते हैं । अतः अपने उत्थान से आप अपनी स्थिति का अन्दाजा लगाइये । 21.5.84 स्वयं को तटस्थ करने का प्रयत्न कीजिए । क्रोध, वासना, लोभ आदि पर काबू पाने का प्रयत्न थोड़ा खाइये, पेटरओं की तरह न खाइये कही किसी बड़े भोज आदि के अवसर पर आप कीजिए । । कभी - अधिक खाना सहृजयोगी का लक्षण नही है । अधिक खा लें, पर हर समय आप इस तरह नही खा सकते । काबू पाने का प्रयत्न कीजिए । 21.5.84 मेरे बच्चे बनना भी सरल कार्य नही है क्योंकि, जानती हूं कि आप क्या करते हैं - आपके बारे में मैं सब कुछ जानती हूं । आप जानते हैं कि मैं आपको सुधारती भी हूं । परन्तु आपका मुझ से जुड़े रहना प्रकट करता है कि आप अन्तरपरिवर्तन द्वारा निर्मल व्यक्ति बन कर, विकसित होने के लिए दूढ़-संकल्प (कटिबद्ध) लोगों की श्रेणी से सम्बन्धित है । सहजयोगी बनना सरल नहीं - ऐसा नहीं है कि कुछ धन देकर आप सदस्य बन गए और फिर माता जी के शिष्य बन गए । मेरे शिष्य बनने के बाद भी आपको कुछ परीक्षायें उत्तीर्ण करनी होंगी जिसके लिए आपको कठिन परिश्रम करना पड़े गा । अपने परिवार में रहते हुए आपको काफी तपस्या करनी पड़े गी । जनवरी 1981 13 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-15.txt ४४XX: सुधारे जाने पर प्रति-क्रिया नही करनी xxxxxxxxxxxx ४x ४४» ४x यदि आपके विषय में कोई गलत बात भी कहे तो परन्तु यदि उनकी कही बात सत्य है तो आपको सुधरने का प्रयत्न करना चाहिए । । चिन्ता की कोई बात नहीं चाहे मैं आपसे नाराज़ होऊँ, आपको डांट दें, आपको दूलारू, चाहे में कह दूं 'ऐसा मत करो', 'मेरे समीप मत आओ, दूर रहों इस प्रकार की मेरी हर बात आपके हित के लिए होती है । मेरी दृष्टि में आपकी हितैषिता केवल इसी बात में है कि आप मुक्त हों, मुझ से लाभान्वित हो कर आप वैभवशाली बने । 21.5.84 14 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-16.txt xxx XXXXXXXXXX00 oxxxxxxxxx हमें सुप्ताह में कम से कम एक बार जन-सामुहिक कार्यक्रम में भाग लेना आवश्यक है । oXXxxXxxxxc XXxxxx XXxxxx एक ओर तो मुझे ऐसे मूर्ख लोग मिलते है और दूसरी ओर वास्तविक जिज्ञासुओं के समूह । उन तक कैसे पहुंचा जाय ? कीचड़ में लथ पथ हीरे की तरह वे लोग है । बहुत अधिक कीचड़ में लयपथ । कीचड़ में उस हीरे को ढूंढने के लिए, खोए हुए उस हीरे को पाने के लिए व्यक्ति को अज्ञान की एक खान ना मैं गोता लगाना पड़ता है । मुझे बहुत चिन्ता होती है, यह लगता है कि कीचड़ उनके मस्तिष्क, आँखे और सभी कुछ को इस शायद वै इससे बंचित रह जांय । तरह ढाप लेगा कि शायद वै अपना आत्मसाक्षात्कार भी त प्राप्त कर सके 19.1.84 और सहजयोग विषय के लिए अधिकतम विवेक (अन्तर दृष्टि) की आवश्यकता है । क्योंकि सहजयोग को यदि आप इसे समझ पाये है, (मैं नहीं जानती कि आप इसे समझ भी पाये हैं और इसका ज्ञान आपको है भी सही या नही) अनुभव के सिवाय किसी भी तरह नही सीखा जा सकता । अनुभव के बाद ही आप इसका विश्वास कर सकते हैं । मेरा यह सब बताने का अभिप्राय आपके मस्तिष्क को (अनु) बन्धित करना नहीं । अनुभव प्राप्त कर आप स्वयं सीखिए । 21.5.84 विज्ञापनों या मेरे चित्रों के द्वारा सहजयोग नहीं बढ़े गा । आपके परिश्रम, उत्तरदायित्व तथा इसकी जिम्मेवारी लेने से ही यह कार्य होगा। । सहजयोग को फैलाने तथा स्थापित करने की जिम्मेवारी आपकी है श्री विराट पूजा । पा मेरे लिए तो आना भी आवश्यक नही । परन्तु समझाये बिना कौन सहजयोग में आयेगा ? कोई भी नही । अत: मुझे समझाना पड़ता है । और मैंने बहुत कुछ बताया । इतना बताया कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते । लन्दन में मैंने कम से कम एक हज़ार भाषण दिए । वहां सभी लोग इसे बहुत बड़ी बात मानते । में नहीं जानती, परन्तु काश मैं अब भोषण देना बन्द कर सकती । उस दिन कोई भाषण दे रहा था । मुझे बहुत प्रसन्नता हुई कि वह व्यक्ति इतना अच्छा बोल सकता है । मैंने कहा 'अब मैं भाषणों से छुटकारा पा लूंगी । मैं केवल कुण्डलिनी - जागृती का ही कार्य करूंगी । बताने का कार्य आप देखें' । आपमें से कुछ लोग यदि सहजयोग के महान वक्ता बन कर उभर सकें तो मुझे इतने अधिक भाषणों से छुटकारा मिल सके । 27.5.85 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-17.txt XXXX X১ xxxxxxxxxXxXx XXXX अपनी त्रुटियों पर पर्दा डालने के लिए हमें बहाने नही खोजने चाहिए । XX xxxxxxx XxxxxxxxxxXxxxxxxxxxxxxxxxxx कोई भी गलती हो जाने पर कुछ लोग कहैं गे कि 'यह मेरा बायाँ स्वाधिष्ठान है' । कुछ कहगे कि 'मुझे पर भूत-बाधा थी । कुछ किसी अन्य कारण को दोष देंगे । आप जिसे मर्जी दोष दे रहे हों, वास्तव में कौन आपसे सफाई मांग रहा है ? आप स्वयं अपने से पूछ रहे हैं । अतः मेरे प्रति श्रद्धा का अर्थ है कि सर्व प्रथम आप अपना सामना करें और स्वयं देखें कि आप क्या कर रहे हैं । 28.7.85 आप किसी भी सहजयोगी से पूछिए कि 'आपने ऐसा क्यों किया ? 'अवश्य कोई भूत रहा होगा । यदि आप कहै कि ' "मैं नहीं जानता । किसी भूत ने यह कार्य किया है । वे कभी वहां उपस्थित नहीं है - सारे भूत वहां उपस्थित है । आपने ऐसा कार्य क्यों किया तो उनका उत्तर होगा 27.5.85 वर्तमान में रहने का प्रयत्न कीजिए । वर्तमान से मुंह न छिपाइये । इसका सामना कीजिए । न भाव आने दीजिए । दोनों ही दशाएं आपको वर्तमान से दूर भूतों को दोष दीजिए और न स्वयं में दोष ढकेल दें गी । केवल सारी प्रकृति को देखिए, पूरी परम-शक्ति को देखिए , युग-युगान्तरों से अपनी तीव्र (शुद्ध) इच्छा को देखिए । सभी कुछ आपके साथ है । समय आ गया है । आप अभी वही हैं । हमे क्या करना है ? जब भी आप स्वयं को किसी भी तरह से दुर्व्यव हार करते पायें तो स्वयं दण्डित करें । परमात्मा से दण्डित होने से अच्छा होगा कि आप स्वयं को दण्डित करें, क्योंकि परमात्मा द्वारा दिया गया दण्ड कठोर होता है । दोष भावना ग्रस्त न हों क्योंकि आपने कोई दोष किया ही नहीं । 27.5.85 16 - XXXXX 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-18.txt xxxxxx xxxxx pooxxxxxxxxxx हमें निर्णायक बनने से बचना चाहिए xxxXXxxXXXxxXX XXXXXXX> मानव के गुणों को क्यों न देखा जाय । मानवीय दुर्गुणों को सुधारने में असमर्थ होते हुए भी यदि आप उन्हें देखते हैं, वो दुर्गुण आप में भी आ जायें गे । यदि आप इन्हें ठीक कर सके तो बहुत अच्छी बात मे पर आप ऐसा नहीं कर सकते । लोग सदा यह भी कहते हैं 'मै यह कार्य नही करूंगा । परन्तु आप कोई अन्य कार्य करेंगे जिसे है कोई दूसरा व्यक्ति नही करना चाहे गा । दुसरों के विषय में निर्णय लेने से पूर्व व्यक्ति को समझना चाहिए कि सर्व प्रथम स्वयं को तोल ले | क्योंकि आप किस के द्वारा दूसरों का मूल्यांकन कर रहे हैं ? अपने अह एवं प्रति अहं द्वारा । यह गलती भविष्य में यह नही होनी चाहिए आप लोग एक दूसरों के दोषों को नहीं देखेखेंगे, सब के गुणों को देखेंगे । मैने आम तौर पर देखी है । । 28.7.85 सहजयोगियों को दूसरे सहजयोगियों की आलोचना करते देख मैं आश्चर्य - चकित रह जाती हूं प्रत्यं ग हैं । मैं आलोचना कर सकती हूं परन्तु आपको क्यों ऐसा करना । आप एक ही विराट के अंग चाहिए ? आपने केवल परस्पर प्रेम करना है । ईसा ने यह बात केवल तीन बार कही । पर मैं अब तक ।08 बार कह चुकी हूं कि आपको परस्पर प्रेम करना है । करूणा को अभिव्यक्त करने का केवल यही तरीका है । यदि मैने कभी भी तुम्हं प्रेम किया है तो आपने दूसरों के प्रति धर्य तथा प्रेम होना ही चाहिए । .7.85 दूसरों को न तोलें ताकि आपको भी न तोला जाय । जिस माप दण्ड से आप दूसरों को आंके गे उसी से आपको भी आंका जायगा । श्री ईसा मसीह 17 - 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-19.txt xxxxxxxxxxXXX Xxxxxxxxxx हमें व्यर्थ गप्पे नहीं हांकनी xxxxxxxxxxXXXXXxXxxxXXxXX । वो ऐसा है, वो वैसा है । दूसरों पर छीटा-कशी एक दूसरे के प्रति आप व्यंगपूर्ण बातें न कहैं ल मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं । आप सब एक दूसरे का सम्मान करें । यदि कोई व्यक्ति दम्भी या स्वार्थी है तो अतः छींटा-कशी मत कीजिए । उसका दोष स्पष्ट प्रकट हो जाए गा और उसका सुधार भी हो जाए गा कभी मुझे ऐसी चातें सुनाई पड़ती हैं । यह अति अनुचित है । आम -जनता के मध्य भी कभी 24.3.81 टांय । यह बहुत बुरी कुछ सहजयोगिनियों को बोलने की चुरी आदत है । सदा टांय टांय है। आदत है । इससे प्रतीत होता है कि अभी उनमे बहुत कमी है । केवल साड़ी पहन लेने या बिन्दी लगा लेने से आप सहजयोगी (नी) नहीं बन जाती । सर्व प्रथम जानिए कि 'गंभीरता क्या है ? केवल आवश्यक होने पर ही बोलिए । कुछ औरतें सदा कहानियां करती रहती है पर सहजयोग पर भाषण नहीं देंगी । फुस फुसाने के लिए आप सदा तैयार है । तो इस विषय में आपको बहुत सावधान रहना है यदि कोई आलोचना कर रहा हो तो खामोश रहिए । यह मौन स्थापित होना ही चाहिए । अपनी उपस्थिती में भी मैने लोगों को बातें करते देखा दूसरों के विषय में, दूसरों के चरित्र के विषय में बातचीत करना हमारा कार्य नही है । क्या हम है । यह सर्वथा अनुचित है । एक हाथ के चरित्र के विषय में दूसरे हाथ से बातचीत करते हैं? विवाह आदि की घटनाओं के बारे में बातचीत । आप तो सहजयोग से विवाहित है । एक तरह से आप लोग विवाहित व्यक्ति नही है। ৪.7.90 18 + ह सन के 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-20.txt xx XXXXXXX xx xxxxxxxxxx Кхх अपने समय और साधनों सहित हमें उदार होना चाहिए । xxxxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXX ४XX: अपना लक्ष स्पष्ट रखें । आपको समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि सहजयोगियों के रूप में आपके जीवन का लक्ष क्या है अपनी आप उनमें से नही जिन्हें अपनी सम्पत्ती, सांसारिक वस्तुओं, अब आप परिवर्तित लोग हैं । आजीविकाओं (रोजी रोटी) की देखभाल अथवा चिन्ता करनी पड़ती है । अपने स्वस्थ, सम्पत्ती तथा निजीजीवन की चिन्ता करने वाले लोग अब आप नही । *मेरी नौकरी कैसे चलेगी यदि आप में उच्च जीविका की अभिलाषा है या आप महत्वाकांक्षी है '- तो अच्छा हो कि आप सहजयोग से बाहर हो जाये । तीसरे कुछ लोग सभी मुर्खतापूर्ण - आदि' आप यहां किस लिए हैं ? किस लिए ? आदि - आदि बातें सोचते हैं, यह मेरी पत्नी हे, ये मेरी प्रेयरसी है, आदि या 'मेरे बच्चे, मेरी गृहस्थी, मेरी माँ, मेरे पिता । सभी तरह के तुच्छ लोगों ने घेरा हुआ है । इन तुच्छताओं से ऊपर उठे बिना आप मेरी सहायता नही कर सकते । आपको अति दृढ़ व्यक्ति बनना है । आपको महान शुरता, आदर्शवाद और उच्च विचार शीलता सम्पन्न होना पड़े गा । 28.7.85 आप किस प्रकार कह सकते हैं "मैने कानून तथा पैगम्बरों की बात मानी ?' क्योंकि ऐसा लिखा हुआ है, 'अपने पड़ोसी को अपनी ही तरह से प्रेम करो । परन्तु खेद है कि आपके बहुत से भाई, अब्राहम सी अच्छी बस्तुओं ता के बेटे बेटियां, गंदगी से ढके हुए हैं और भूखों मर रहे हैं, और तुम्हारा अपना घर बहुत से भरा पड़ा है और यहां से निकल कर कोई भी वस्तु उन तक नहीं पहुंचती । श्री ईसा मसीह 19 - 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-21.txt xxxxxxxxxx xxxx xxxxxxxxxxxxx XxX चैतन्य लहरियों के सम्मुख बौद्धिक घारणाओं को महत्व न दें XXXXXXXXXXXXxxxxx oxxxxx आप सबको हर समय अवश्य याद रखना है कि हम साक्षात्कारी आत्माएं हैं, कि हम में चैतन्य लहरियाँ हैं । हमें इस प्रकार देखना तथा समझना है । केवल चैतन्य लहरियों के माध्यम से ही हम दूसरों को जान सकते हैं । किसी दूसरे रास्ते से नहीं । कभी-कभी किसी सुन्दर तथा मधुर प्रतीत होने वाले व्यक्ति माम को आप सर्प-सम पायें गे । लहरियों द्वारा मूल्यांकन ही सर्वोत्तम है । अपनी सूझ-बूझ या अन्य उथली विधियों अतः चैतन्य - से किसी को आंकना उचित नही । हमारे कुछ और भी बन्धन हैं जिनसे हम दूसरों को तोलते हैं । यह बन्धन हमारी निर्णायक बुदधि अतः चैतन्य लहरियां देखना सर्वात्तम विधि है । लहरियों के माध्यम से ही को प्रभावित कर सकते हैं आपको घटनाक्रम (हालात) का सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा । 16.5.87 और वह आपसे बात चीत करती है । पर यह आपकी माँ बहुत अच्छी वक्ता है आपका मानसिक लगाव (दुर्बलता) नहीं बन जाना चाहिए । जैसे 'श्री माता जी ऐसा कहती हैं' और सभी लोग पूरे उत्साह के साथ इसकी चर्चा करना शुरू कर देते हैं । परन्तु यह आपके अस्तित्व का अंग-प्रत्यंग तो नहीं बना । फिर भी खोखले, व्यक्तियों के साथ लगाव आजकल एक अति सामान्य बात है सभी कुछ जानते हुए इस मानसिक लगाव पर तो आक्रमण होना ही चाहिए । देखना और अनुभव करना ही 'बनना है | जैसे यदि मुझे इस स्थान पर आना है तो मुझे यहां आकर इसे देखना होगा । यदि मैं इसके बारे में सोचती रहूं, मानसिक विचार तथा चित्र बनाती रहूँ तो कोई लाभ नहीं होने वाला । यह मेरी नहीं है और यह सत्य भी नही । तो जब आप चेतना-वस्था में आते हैं तो स्वयं देखने लगते हैं । तो हमें स्वयं देखना चाहिए । से बाहर निकलो । आप कुछ नहीं मानसिक धारणाओं - कि आप पहले ही इसके विषय में जानते हैं जानते क्योंकि जो आप जानते हैं वह केवल बौद्धिक है । वह आपके अस्तित्व का अंग-प्रत्यं ग होना चाहिए । 27.5.85 20 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-22.txt xxxxxxxxxxXXXxxxx xxxXxxxxxxxo हमें सदा याद रखना चाहिए कि हम श्री माताजी के घर में रहते है xxxxxxxxxx आश्रम के विषय में कभी शिकायत नही होनी चाहिए । सम होना चाहिए । आश्रम आपकी माँ का मन्दिर है - एक ऐसा स्थान जो मन्दिर आश्रम में रहने वाले तथा वहां आने बाले अन्य लोगों को इसकी देखभाल करनी चाहिए । उदाहरणतया आप अपने बच्चों को यहां लाये पर उन्हें हर कमरे में जाने की आज्ञा नहीं होनी चाहिए । इस स्थान को मन्दिर की तरह ही रखें। और जो लोग यहां रहते हैं उन्हे भी समझना चाहिए वे यहां प्रशिक्षण के लिए रहते हैं - सुख सुविधा के लिए नहीं । 25.3.81 21 - 1991_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_8.pdf-page-23.txt xXXX xxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxXxxxxxxxxxX निजी कार्यों को सहज गतिविधियों के सम्मुख प्राथमिकता नही दी जानी चाहिए ooxxxxx xxxxx xxx oxxxxxxxxXXXx अब मुझे लगता है कि हममें एक अन्य प्रकार की दासता भी है । स्व-रचित स्वार्थ का दासत्व । 'यह मेरा सुख चैन है । मुझे यह मिलना ही चाहिए । यह आनन्द दायक होना चाहिए । मै नि आनन्द ले रहा हूं । मैं ये हूं, मैं वो हूं । । मेरा अभिप्राय है कि हर जब तक आप इसका आनन्द नही उठाते यह महान हो ही नही सकती चीज़ आपको आनन्दानुभव देने वाली होनी चाहिए, न कि आप उसे अनुभव प्रदान करें । मेरे विचार में लोग नही जानते कि वे क्या कर रहे हैं । किस प्रकार का कार्य वे कर रहे हैं । THER आपका लक्ष क्या है ? इस बात को जानने की ऊँचाई के स्तर तक लोग आना नही चाहते । पूरे विश्व की रक्षा करने का प्रयत्न आप कर रहे हैं । अतः अब जागिए । अपनी तुच्छ और क्षुद्र बुद्धि से ऊपर उठिए । एक ऐसे उच्च स्तर तक उत्थित हो जाइए जहां आप जान सर्कें कि आप पूरी मानवता की रक्षा करने वाले हैं । यदि आप यह महसूस नही कर सकते तो सहजयोग छोड़ दीजिए । क्षुद्र लोगों के लिए सहजयोग । मराठी में गवाले शब्द है। तुकाराम ने कहहै 'यैर्या गबालेच्या कामा नोहे । 'यह कार्य क्षुद्र लोगों नही हैं। का नहीं । 27.7.85 अपने लक्ष्मी तत्व को कायम रखने की जिम्मेवारी यदि हम नही ले सकते तो भौतिक ब्रहमाण्ड में घुस पाना सहजयोग के लिए कठिन होगा । क्योंकि कौन आश्रम बनाएगा और कौन कार्यक्रम आयोजित करेगा प्रायः जब सहजयोग में किसी कार्य के लिए पैसा देने को कहा जाता है तो लोग शिकायत करते हैं परन्तु वे केवल स्थूल नाटक ही देखते हैं चित्त देने के लिए कहा जा रहा है, जिससे कि श्रीं माताजी की कृपा से प्राप्त हमारी प्रकाशित आत्माएं विराट को प्रकाशित कर सके । सूक्ष्म, गहन अर्थ को नहीं : कि हमें लक्ष्मी - विष्णु तत्व की ओर ज्ञानोदय को अर्थ देने के लिए हमें ब्रहूमाण्ड को प्रकाशित कर, परिणाम की चिन्ता किए बिना कोम क्योंकि हम शुद्ध आत्मा है - स्थूल भौतिकता में प्रवेश करना होगा । 21.5.84 हम बहुत कुछ चाहते हैं, फिर भी हमारी आवश्यकताएं बहुत कम हैं ज्योतित व्यक्ति की कोई आवश्यकता नही होती । त श्री बुद्ध -22