चौतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड IV (1992) : श्री योगी महाजन सम्पादक : श्री विजय नालगिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली-110 067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 4ए/1, ओल्ड राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली 110060 मुद्रित फोन : 5710529, 5784866 चैतन्य लहरी अंक 1 व 2 l ( 1992 ) खण्ड IV विषय सूची पृष्ठ 1. दिवाली पूजा 2. मद्रास जन कार्यक्रम ******* 3. मद्रास जन कार्यक्रम ******** 4. महाकाली पूजा ए) 5. हैदराबाद पूजा 13D श्री गणेश पूजा . 13 6. 7. महालक्ष्मी पूजा www.w14 ४. क्रिसमस पूजा 15 9. श्री लक्ष्मी पूजा .... 17 10). कालवे पूजा 19 ..... ******** पा पद क् तान ाि परमात्मा को प्रतिबिम्बित करती हुई इतनी सारी आत्माएं मेरे सम्मुख बैठी हैं, मैं कितनी गौरवशाली माँ हँ। आप सब विश्व के असंख्य लोगों को ज्योतिर्मय कर सकते हैं।" त प. पू. माताजी श्री निर्मला देवी 1{) नबम्बर, 1991, कबैला, इंटली दिवाली पूजा कबेला, 10 नवम्बर, 1991 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन तो मरते नहीं। तो जो भी जन्मा है उसकी मृत्यु होनी ही है. न जाने क्यों लोगों ने मृत्यु को इतना महत्त्व दे दिया है। यह भी केवल एक क्षण है है और कपड़े बदल कर बापिस आ जाता है। जोवन में यदि कोई करने योग्य कार्य है तो वह है आनन्द प्राप्ति। फ्रांस में दिवाली पूजा के अवसर पर श्री माताजी ने हमें कहा कि सहजयोग में आकर हम आनन्दमग्न हो जायें। एक ऐसा क्षण है जिसमें व्यक्ति गुजर जाता साक्षात्कार का आनन्द और परमात्मा के साम्राज्य में हमारी उपस्थिति हमारे व्यक्तित्व से झलके। खासतौर पर उदासी भरे गीत हम न गायें और न ही दर्दनाक पुस्तकें पढ़ें। श्री माताजी के पूजा भाषण में सहजयोगिनियों के लिए कुछ विशेष शिक्षा भी थी। मृत्यु के विषय में इसाई धर्म ने कुछ विशेष नहीं बताया। "ईसा को यदि जीवित रहने दिया गया होता तो वे इसके विषय में कुछ बताते, परन्तु उन्होंने बताया कि आत्मा अमर है। नि:संदेह उन्होंने त्याग के विषय में बताया। आँसू बहाने की जल-शक्ति स्त्रियों में हैं। स्वयं को दुःखी मानकर अन्य लोगों को कष्ट पहुँचाने की शक्ति भी उनमें है। हर स्त्री के अन्दर मातृत्व, महान सामर्थ्य एवं बलिदान निहित हैं। पर यह सब कुछ होते हुए भी े जान लें कि वे बायीं ओर झुकी है। हृदय के जिस आनन्द की बात हम करते हैं उसे बाहर प्रकट होना है। लोग ये देख सकों कि हम प्रसन्न हैं और आनन्द विभार हैं । अन्य लोगों की तरह से छोटी-छोटी वस्तुआं के लिए हम राना नहीं आपका उत्थान तथा परमात्मा के साम्राज्य में आपका पद हो इस जीवनकाल में सर्वोच्च है। स्त्रियों को मैंने विशेषतया बताना है कि (त्रासदियों) पीड़ा से भरी पुस्तकों को पढ़ने का प्रभाव उनकी नाड़ियों पर पड़ने लगता है। कोई भी यदि छोटी ं सी बात कह दे तो धमाका हो जाता है। सर्वप्रथम हमें देखना चाहिए कि हम स्वयं को क्या हानि पहुँचा रह हैं कितनी ही शुरु कर देते। कठिनाई की अवस्था में भी सहजयोगिनियों को रोना नहीं पश्चिमी स्त्रियों ने अपना विनाश कर लिया. पर इस पर उनका चाहिए। आपना अनुभव बताते हुए श्री माताजी ने कहा कि "मेरे पिता जी की मृत्यु के अवसर पर आश्चर्यजनक रूप से मैं निर्विचार हो गई, पृर्णतया निर्विचार। लगभग तीन दिन तक में स्त्रियाँ भी देखी हैं जिनमें महान सबूरी है और जिनका जीवन निर्विचार थी-दु:ख-दर्द का कोई विचार नहीं आया, केवल निर्विचारिता रही। सभी लोग हैरान थे क्योंकि मैं उनकी देखभाल कर रही थी। मेरे पिता मुझ से बहुत प्रेम करते थे, मुझे आती है जब आप के अंदर वह आनन्द हो। मुझे कोई भी चाहते थे, सभी कुछ था।" अत: यदि आप सहजयोगी या सहजयागिनी हैं तो कठिनाई की अवस्था में निर्विचार हो जाइये। इससे प्रकट होता है कि परमात्मा आपको तथा आपकी समस्याओं को अपने हाथ में ले लते हैं। अपना रक्षा कवच आप पर डाल कर ईश्वर आपको निविचार करके कठिनाई से जाते हैं। तो आज मैं आप सबसे वचन चाहती हूँ कि आप कभी निकाल लेते हैं। निर्विचार- समाधि की इस अवस्था में आप जाने पाते हैं कि ठीक क्या है और गलत क्या है । तो कठिन परिस्थितियों में भी यह निर्विचार समाधि अत्यन्त चुस्त होती है और साधारण परिस्थितियों की अपेक्षा कहीं अधिक चुस्त हो जाती है। एक भी अश्रु नहीं गिरा। "परन्तु मैंने पूर्व और पश्चिम में कुछ अति सूझ-बूझ वालों के प्रति राजसी दृष्टिकोण है चलते हुए हाथी पर यदि कुत्ते भौंकते रहें तो भी क्या अंतर पड़ता है। यह तेजस्विता तभी नाराज नहीं कर सकता। यही नियम होना चाहिए। अन्यथा आप बायीं ओर को झकने लगेंगे।" रोना-धोना एक अन्य प्रकार से अहं की अभिव्यक्ति करना है। स्त्रियाँ जब रोना धोना शुरु करती हैं तो पुरुष बायीं ओर झुकने लगते हैं तथा पकड़ में आ रोएंगी नहीं। पुष्पार्पण के स्थान पर अपने बचन का यह पुष्प आप आज मुझे भेट करें। में कभी नहीं रोतो। नि:संदेह 'सान्द्रकरुणा के एक दो आंसू कभी निकल पड़ते हैं। आखिरकार में एक माँ हूँ। यरन्त इसका अभिप्राय बैठकर आंसू बहाना और उन्मत्त होना तो नहीं। रोने-धोने की बात करने वाली पुस्तकें न पढ़ं गहन विषय वाली पुस्तकें भी हृदय-स्पर्शी होती हैं, परन्तु यदि आपकी इच्छा रोने की ही है तो ठीक है।' "हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं और किसी भी प्रकार से दुःखी नहीं हैं। जीवन में कुछ घटनाएं होनी होती हैं, जीवन ऐसा ही है: किसी की मृत्यु होनी होती है, सभी लोग एक साथ तो आज अपने आनन्द का रसास्वादन करने के लिए हम चेतन्य लहरी को महसूस कीजिए। जिन्होंने अपने घर बालू पर बनाये हैं उन्हें चिन्ता करनी है। हमें नहीं। हमारी नींव चट्टान पर है। अत: हमें आंति उत्साहपूर्ण, साहसिक और साथ ही साथ अत्यन्त नम्र भी यहाँ हैं-अपने आत्मानन्द, निरानन्द और परमानन्द का, जिनके शाश्वत मूल्य हैं। आपको अब समझना है और विश्वस्त होना है कि अब आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं और आपके अस्तित्व की सुक्ष्म सुन्दरताएं अब आपके सम्मुख प्रकट होने होना है। वाली है। परन्तु यदि पहले से ही आपके चक्षु एवं हृदय द्वार बन्द हैं और इतनी सुन्दर वस्तु को आप नहीं देखना चाहते तो आप कैसे कह सकते हैं कि "कितनी सुन्दर चीज बनाई है?" महसूस कीजिए। यह कितना सुन्दर तथा कोमल है? यह जीवन में रचनात्मक दृष्टिकोण द्वारा आत्मविकास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आप क्या हैं? आप एक सहजयोगी हैं और सहज में जहाँ भी आप होंगे इस सौन्दर्य की सृष्टि कर सकेंगे, लोग देख आपके पास सभी कुछ, सभी प्रमाण, यह जानने के लिए सकंगे कि कितना अध्यात्मिक व्यक्ति है। आप ही सहजयोग विद्यमान हैं कि आप सहजयोगी हैं। अब, मान लो. यदि मैं को प्रतिबिम्बित करने वाले हैं, मैं नहीं। आप ही को सहजयोग जानती हूँ कि मैं आदिशक्ति हूँ तो मैं जानती हूँ कि मैं दर्शाना है। इस प्रकार के लांग सदा आनन्दमय और विवेकशील आदिशक्ति हूँ। इसके लिए मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं। मुझे सभी कुछ करना है। यह मेरा कार्य है क्योंकि मुझ में बह शक्ति है। मेरे अन्दर वह शक्ति है अत: मुझे यह करना है। मैं भी कह सकती हूँ कि मैं एक स्त्री हूँ, मुझे भी बैठकर आँसू बहाने चाहिएं। नहीं, ऐसा करने का अधिकार मुझे नहीं है। यदि मैं चाहूं भी तो भी मैं ऐसा नहीं कर सकती। मेरा कार्य आपको उत्साहित करना तथा आपकी आन्तरिक सूक्ष्मताओं आपकी सुन्दरता के विषय में आपको होना चाहिए? विवेक-कमल को विकसित करके यह सब आप सभी सन्त बन चुके हैं। आप सन्त हैं क्योंकि आपके अन्दर आपके कमल की सुन्दर सुगन्ध है, उस कमल की गुलाबो रंग का है क्योंकि गुलाबी कमल सभी को नियंत्रित करता है, उदारता एवं निरमंत्रण का प्रतीक है। आप भी यही हैं। होते हैं। श्री गणेश ही उस विवेक के दाता हैं जो यह ज्ञान देता है कि किस समय कसे कोई बात कही जाए, किस समय कैसे व्यवहार किया जाए, किस चीज के साथ किस सीमा तक जाया जाए। यह सब अन्तरजात, सहज हो जाना चाहिए। हर सुबह स्वयं से कहिए "मैं एक सहजयोगिनी हूँ। मैं किस सोमा तक जाऊँ? किस प्रकार व्यवहार करू? मरा दृष्टिकोण क्या मे। सुगमता से जाना जा सकता है। कमल बाहर केसे आता है? आपके अन्दर पहले से विद्यमान बीज अंकुरित होता है। आप बताना है। आइए अपनी आन्तरिक सुन्दरता की बात करें। हम क्या है? क्या हम सदा रोने-बिलखने वाले, दयनीय लोग हैं या सदा लड़ने झगड़ने वाले, भौतिक पदार्थों के पीछे भटकने वाले वे लोग, भौतिकता जिन पर शासन करती है? नहीं, हम आत्मा हैं पवित्रता, सत्य एवं ज्ञान रूपी सर्वशक्तिमान परमात्मा के हम प्रतिबिम्ब हैं। हम साधारण लोगों से भिन्न हैं उनके स्तर पर हम कैसे रह सकते हैं? यदि आपमें भूत बाधा है, या यदि आपका कोई कुगुरु था तो संभवत: आप यो यो की तरह ऊपर-नीचे जा सकते हैं। परन्तु जो लोग इस सीमा को पार कर चुके हैं तो उन्हें आत्मा होने का सम्मान करना चाहिए। करेंगा। आपके अन्दर निहित विवेक कार्यशील है क्योंकि देवता सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रतिविम्बित करती हुई आत्माएं यहाँ बैठी हैं। मैं इतनी गौरवशाली माँ हूँ। आप सब विश्व के असंख्य लोगों को ज्योतिर्मय करने में समर्थ हैं। परन्तु आपका आन्तरिक सौंदर्य यह है कि आप यूर्णतया स्वतन्त्र हैं। आप स्वयं पर, अपनी आत्मा के साधनीां पर, अपने आत्मानन्द पर निर्भर हैं। आनन्द प्रदान करने की आशा आप दूसरों से नहीं संरक्षण भी तो है-आप तुरन्त निर्विचार समाधि में चले जाते हैं। करते। मान लो कल कोई आकर यदि मुझे गाली दे तो इसका मृझ पर कोई प्रभाव न होगा क्योंकि मैं आत्मानन्द में हूँ-चट्टानों पर खड़े किसी घर की कल्पना कीजिए। आप भी वैसे ही हैं। इसे महसूस करने का प्रयत्न कीजिए। अपनी आन्तरिक दूढ़ता सब के पास यह है। अब यह खिलने लगा है क्योंकि आप साक्षात्कारी लोग हैं। विवेक को नेतृत्व संभालने दीजािए। तो आप यह कार्य कैसे करें? मेरे विचार में एक रास्ता है। मान लो कि श्री माताजी को यह समस्या होती है वे क्या करती? वे इसका सामना कैसे करतीं? आप कह सकते हैं कि हम माँ का तरीका नहीं समझ पाते। वे युक्तियां जानती हैं परन्तु इसका बड़ा साधारण तरीका है। आप कंवल मेरे विवेक के प्रति समर्पित हो जाइए, यह विवेक कार्यशील है, यह कार्य आपके साथ हैं और आपके साथ जो भी घटित होता है, देवता आपके सम्मुख होते हैं। आपको न तो कोई हानि पहुँचाने का प्रय्न करता है और न ही कोई छू सकता है। आप इतने संरक्षित हैं कि ज्यांही कोई आपको हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता है, तुरन्त आपको सरंक्षण मिलता है। आपका अपना सबसे अधिक तो हम अपने को हानि पहुँचाते हैं। आपमें एक प्रकार का व्यक्तित्व विकसित हो जाता है कि मैं ऐसा हूँ, रोता हूँ।" ऐसा व्यक्तित्व क्यों न विकसित करें कि "मैं खूब चैतन्य लहरो सदा आनन्दित रहता हूँ।" तव आपका सुगन्ध-कमल विकसित होगा और आपकी विवेकपूर्ण क्रियाएं आपको अत्यन्त अच्छी तथा सुन्दर अवस्था तक ले जायेगी। आप के अपने विवेक में आपकी अपनी आत्मा इस कार्य को कर रही है। आषको कुछ नहीं करना है। आपको केवल स्मरण मात्र रखना है कि आप एक सहजयोगी या योगिनी हैं और आपका चरित्र तथा विचार सहज होने चाहिएं। आनन्द की अवस्था में आप न तो किसी से लड़ना चाहते हैं और न ही किसी से कठोर शब्द कहना चाहते हैं। केवल इतना ही नहीं, आप ऐसा कुछ नहीं लेना चाहते: जो माँ धरा को बिगाड़े या प्राकृतिक सन्तुलन संबंधी समस्याएं खड़ी करं। आनन्द की अवस्था में आपको आनन्द प्रदायक होना है और यदि आप आनन्द प्रदायक नहीं हैं तो आपके सहजयोग में कोई कमी है। इसे अब दूर करना है अपना नाम परिवर्तन कर सकते हैं । यदि सहजयोग नाम अच्छा नहीं है तो "आनन्ददायी संस्था"। | यदि आप चाहं तो हम पुरुष होने के नाते सहजयोगी अधिक नहीं दर्शाते, परन्तु यह मनःस्थिति दर्शाने के कुछ और मार्ग भी हैं । वे क्रुद्ध हो जाते हैं और कभी-कभी यह क्रोध इतना अधिक होता है कि लोग देखने लगते हैं कि "इस व्यक्ति को क्या हो गया है! एक ओर क्रोध तथा दूसरी ओर अश्रु। मध्य में क्या बचा? में नहीं जानती। दोनों ही बातें पृूर्णतया अवाछित हैं। बातों से आपको लोगों में सुधार लाना होता है। अभी मैंने कुछ कहा, मैंने कह दिया बस समाप्त हुआ। परन्तु यह क्रोध नहीं है, इस प्रकार मैंन कार्य करना है। अन्तर यह है कि मैं लिप्त नहीं हूँ। मैं यदि आँसू भी बहाऊँ तो भी मैं लिप्त नहीं हूँ-मैं मात्र अश्रु बहा रही हूँ। क्रोध में भी मैं क्रॉधित नहीं होती। भूमिक्रा में क्रोधित होने का प्रयत्न मैं कर रही होती हूँ। यही होता है-आप भी इससे लिप्त न हों। परन्तु क्रोध से यदि आप लिप्त हो जायेंगे अब हमें समझना है कि कोन सी चीज आनन्द की समाप्त करती है---1 मैंने कहा कि सर्वप्रथम आप में विवेक होना चाहिए। विवेक ही आपका स्वार्थ, स्व केन्द्रीयता, स्वर-ग्रस्तता तथा अहं से मुक्त (नि्लिप्त) करता है। स्वार्थ आपके स्व. ( आत्मा) को कलुषित करता है क्योंकि आप केवल अपने अपने बच्चों और अपने परिवार के विषय में ही सांचते हैं कुछ लोग तो केवल अपने ही बारे में साचते हैं। इस प्रकार सोचने से आप क्षुद्र होते चले जाते हैं, कमल मुझां जाता है। दूसरों के विषय में साचना अति महान है। अपनी आत्मा को यदि आप इसके स्वभाव एवं चरित्र की परिपूर्ति नहीं करने देते तो आत्मा का प्रकटीकरण न हो पाएगा। तो आनन्द का अन्त हो जायेगा। अंत: आप ही बाहन (साधन) हैं। कह सकते हैं कि शरीर और मन के लिए आप ही मार्गदर्शक है, प्रकाश हैं। परन्तु आत्मा के इस प्रकाश की अभिव्यक्ति तभी होगी जब यह बाह्य जगत को, अन्य लोगों को प्रकाशित करने वाली ज्योति विखेरेगा। प्रकाश-प्रदायनी इस विशेपता को आपने निरन्तर सुधारना है। इसका प्रयोग यदि आप अपने जीवन में, अपने संबंधियों पर, अपने प्रयत्नों, दूसरों को ज्योतिर्मय कर उनके जीवन स्तर सुधारने में (दिखाने या अहं के लिए नहीं) करें तो आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे। प्रेम के लिए आप इसका उपयोग करें। आप जानते हैं कि आप आत्मा हैं और आत्मा प्रम करती है और प्रेम में आप क्षमा करते हैं । क्षमा न करना कठिन है और क्षमा सर्वोत्तम। क्षमा करने के इपरान्त आपको कोर्ई सिरदर्द ता नहीं रहता। कुछ अन्य लोग सांचते हैं कि यदि आप आनन्दित हैं तो आपको गंभीर होना पड़ेगा। यह आवश्यक नहीं। इस विश्व में गंभीर होने को क्या है? सभी कुछ तो मूर्खता है गंभीर समस्याओं का शिकार होने के कारण ही तो आप गंभीर हो जाते हैं । यदि आप सोचते हैं कि गंभीर होने से आपकी समस्याएं सुलझ जाएंगी तो ऐसा नहीं होगा। परन्तु हमें अभद्र और छिछारा भी नहीं होना है। मूर्खतापूर्ण प्रकाश का क्या उपयोग है? आओ देखें। प्रकाश बन कर हमें प्रकाश दना है। अत: सभी को आनन्द एवं प्रसन्नता दने के लिए हम यहाँ हैं। दूसरों को प्रसन्न करने की बहुत सी विधियाँ हैं जिन्हें हमने सीखना है। उन्हें प्रसन्न करने के पश्चात ही अपने अन्त्स में आप उस आनन्द का अनुभव करते हैं। जब-जब भी आपने दूसरों का हित किया उसके विषय में सोचिए। वह समय हर क्षणा आपके साथ है और इसी कारण दिवाली का इतना महत्व है। जैसा मैंने कहा, आप लोग ही मेरा प्रकाश है और यह प्रकाश शाश्वत है। यह साधारण दीप समाप्त हो जायेंगे, हर वर्ष इन्हें प्रदीप्त करना पड़ेगा। परन्तु आप अतः आपको समझना है कि जीवन दूसरों को आनन्द प्रदान करने के लिए हैं-क्योंकि अब आप सन्त हैं और आपका प्रकाश आनन्द देने के लिए है। आपको थोड़ा-थोड़ा सहन भी करना होगा। आपमें सहन शक्तियाँ हैं। आपमें सभी शक्तियाँ हैं। नए वर्ष में मैं आपके लिए सौभाग्य और समृद्धि की कामना करती हैँ। लोगों के अन्दर का प्रकाश शाश्वत है और यही प्रकाश आनन्द को चहुँदिश फैलाएगा । परमात्मा आपको धन्य करें। चैतन्य लहरी मद्रास जन कार्यक्रम परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश 6.12.91 यदि हम सच्चे सत्यान्वेषक (जिज्ञासु) हैं तो हमें सत्य के विषय में ईमानदार होना पड़ेगा ताकि हम स्वयं के प्रति बारी आई। एक जर्मन पुस्तक में मैंने पढ़ा कि कुण्डलिनी निष्कपट होकर संसार में अपने अस्तित्व को न्याय संगत सिद्ध कर सकें। असंख्य साधक भिन्न प्रकार के क्म-काण्ड, ध्यान-धारणा, भक्ति एवं अध्ययन आदि कर रहे हैं। व्यक्ति हुई। वेद उनमें से एक थी। विद अर्थात जानना। जानकार लोगों को समझना चाहिए कि उसकी उपलब्धि क्या है। हम कहाँ हैं? को थामस ने ग्नोस्टिक कहकर बुलाया। ग्ना अर्थात ज्ञन। माँ होने के नाते मैं कहंगी, मेरे बच्चे, अपने साधना मार्ग पर आपने बहुत कुछ किया, पर आपने क्या प्राप्त किया? क्या आपने 'केवल सत्य' को पा लिया? शास्त्रों में जिसका वर्णन है क्या आपको उसकी प्राप्ति हो गई है? परन्तु सब खो गया। तब तान्त्रिकों द्वारा भ्रमित जर्मन लोगों की आपके पेट में स्थित है। परमात्मा की ओर जाने के लिए तीन प्रकार की चेष्टाएं बौंद्धिक और भावनात्मक ज्ञान से बहुत परे का ज्ञान। इसी मार्ग को उन्होंने अपनाया। वेदों के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि यदि आपको ज्ञान नहीं है तो इस पुस्तक को पढ़िये। जानने का क्या अर्थ है? इसे अपने मध्य नाडो तन्त्र पर जानना, बोद्धिक या शारीरिक स्तर पर नहीं। मानव अवस्था तक विकसित हम सबको नम्रतापूर्वक कहना चाहिए कि हम पूर्णता को प्राप्त नहीं के मुँह से निकला कि "मैं तो यहाँ पर निगुण (निराकार) को हुए कुछ कमी है। यदि ऐसा न होता तो आप परस्पर देखने आया था परन्तु यहाँ तो मुझे सगुण (साकार) प्राप्त हो लड़ते-झगड़ते क्यों? प्राकृतिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं क्यों हैं? यह सब कुछ करने वाले मानव के स्त्रोत पर आइए। मानव को क्या समस्या है? पशु ता परमात्मा के पाश में हैं। परन्तु स्वतंत्र होते हुए भी मानव हड़चड़ाहट में है। सत्य ज्ञान का अभाव ही सभी समस्याओं का कारण है। सत्य ज्ञान को प्राप्त करने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। वेदों के अनुसार लोगों ने प्रकृति और पंच तत्वों को समझने का प्रयास किया। हमारी बाद अब उस पर एक पुस्तक लिखी गई है। जिस प्रकार उन्होंने दृष्टि में यह दायीं ओर को झुकना है। यूनानियों में भी झुकाव स्पष्ट दिखाई देता हैं। भव्ति बायों ओर झुकना था। अन्ध विश्वास से लोग परमात्मा को पूजने लगे। भारत भाग्यशाली देश है क्योंकि यहाँ सन्तों न ज्ञान को फैलाया। भारत की दूसरी नामदेव एक साधारण दर्जी थे। वे गोरा कुम्हार नामक एक दूसरे सुन्त से मिलन गए। उनके सम्मुख पहुंचत हो नामदेव गया है।" कंवल एक आत्मसाक्षात्कारी, एक संत ही दूसरे संत के विषय में ऐसा कह सकता है क्योंकि वह "केवल सत्य" की पहचानता है। साक्षात्कारविहीन लोग नहीं जानते कि जीवन से परे क्या है। इसाई धर्म में भी सन्ति थामस भारत आए ऑर कई शोध-ग्रन्थ लिखे जिन्हं मिश्र की एक गुफा में रखा गया और बाद में खोज निकाला गया। अढ़तालीस वर्षो के शाध के सहजयोग का वर्णन किया है वह आश्चर्यंजनक है। उन्होंने लिखा है कि व्यक्ति को वास्तविकता (सत्य) का अनुभव करना ही होगा। विशेषता यह है कि यहाँ धर्म संयोजित नहीं है। सभी धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि स्वयं को पहचानिए। मैं कौन हूँ? जब ऐसा कहा गया है तो अपने अन्त:स्थित आत्मा को खोजने के लिए हमें प्रयत्नशील होना ही चाहिए। हम कहते हैं मेरा शरीर, मेरी नाक, मेरा देश। 'मेरा' 'मेरा'। सदा सोंचने बाला 'मैं' कौन हैं? यह प्रेरणा कहाँ से आती हैं? यह 'मैं' हमारे अन्दर है और हमारे हृदय में प्रतिबिम्बित है इसे कल्पना मानकर चलिए और यदि मेरा कथन प्रमाणित हो जाए, यदि आप इसे पा लें, महसूस कर लें या अनुभव कर लें तो ईमानदार व्यक्तियों की तरह इसे स्वीकार कर लें । पश्चिमी देशों के लोगों की दूसरी समस्याएं हैं। परन्तु एक बार अनुभव प्राप्त होने पर विश्वविद्यालयों में, भिन्न पुस्तकालयों में जाकर उन्होंने कुण्डलिनी के विषय में सभी कुछ खोज निकाला। नाथ पन्थियों ने कुण्डलिनी जागृति के विषय में बहुत कार्य किया इसके बावजूद भी इतने सारे मत हैं, और वेद भी एक प्रकार की बौद्धिक माया में फंस गए और आर्य समाज का ये जन्म हुआ। आर्य समाजी लोग बड़े कठिन होते हैं । परन्तु सत्य तक नहीं पहुँच पाए, फिर भी अपने बीद्धिक ज्ञान से हो ये संतुष्ट हैं। कवीर ने कहा है "पढ़ि पढ़ि पंडित मूर्ख भये। " ज्यादा पढ़ने से सत्य को नहीं जाना जा सकता। मान लीजिए कोई डाक्टर सिरदर्द के लिए आपको काई दवाई बताता है, तो वो दवाई आपको लेनी होगी। वेदों एवं उपनियदों में भी लिखा है कि स्वयं ( आत्मा) को पा लो। पातान्जल शास्त्र ने थोड़े से व्यायाम आदि लिखे हैं। सहजयोग में समस्या को समझ कर हम भी इनका उपयोग करते हैं। हमारा अस्तित्व केवल शारीरिक, मानसिक या भावात्मक ही नहीं, हमारा अध्यात्मिक अस्तित्व चैतन्य लहरो शुद्ध इच्छा है। अर्थशास्त्र के नियम बतात हैं कि साधारणतया इच्छाओं की पूर्ति नहीं हांती । इच्छाएं बढती ही जाती हैं और इन्हें पूरा करने हम संघर्षरत रहते हैं। परमात्मा की प्रेम शक्ति से एकाकारिता ही केवल शुद्ध इच्छा है। पूरी रचना को, सुन्दर फूलों को, छोटे से बीज से उत्पन्न एक विशाल वृक्ष को हम भी है। इस देश में भक्तिमार्ग दूसरे प्रकार का आन्दोलन था मंदिर में आदि जाना। पर इसका भी पतन होने लगा। भक्ति क्या है? श्री कृष्ण एक कूटनीतिज्ञ थे सीधी-सच्ची बात लांगों का नहीं जंचती इसलिए उन्होंने चाहा वे एक माँ नहीं थे। क्योंकि कि घृम घ्रुमा कर लोग सत्य की खोज कर लें। केवल अर्जन दखते हैं। हमारी अपनी आंखें कितने सुन्दर कैमरे हैं। किसने को उस समय उन्होंने तीन बातें बतायीं पहली बात उन्होंने इनकी रचना की? हमें हमारी वर्तमान अवस्था तक कौन लाया? कौन सी शक्ति ने हमें मानव बनाया? यह सब हमें जानना है क्योंकि विज्ञान के पास इसका काई उत्तर नहीं। बीज का अंकुरण कैसे होता है? सर्वशक्तिमान परमात्मा ने चारों ओर है। जब एसा है तो आप अनुभव करके इसका सत्यापन करें। इसक प्रति मुँह मोडना तो उस सर्वशक्तिमान से सम्पर्क स्थापित करने का अवसर खोना है। इसी महान शक्ति ने हमें विकसित किया है। यही हर चीज को व्यवस्था करती है, रचना करती हैं और उसमें शक्ति संचार करती है। इतने सुन्दर रूप से यह कार्य करती है कि हम इसकी कोमलता का भी अनुभव नहीं कर पाते। किसी फूल को खिलते हुए भी हम नहीं देख पाते । सभी कुछ ऐसे सुन्दर ढंग से हो जाता है कि हमें पता भी नहीं कही कि "ज्ञान को प्राप्त कर लो।" ज्ञान अर्थात सत्य को मध्य नाडी तन्त्र पर अनुभव कर लेना। दूसरी बात उन्होंने कही कि भक्ति करा और जो भी कुछ आप मुझे समर्पण करोगे मैं उसे स्वीकार करूंगा। परन्तु आपको अनन्य भक्ति करनी होगी अर्थात जब आप कोई अन्य न हो कर एक साक्षात्कारी आत्मा मात्र होंगे बिना सम्पर्क स्थापित हुए भक्ति का काई अर्थ नहीं। इस ब्रह्म- चेतन्य को फैलाया बहुत से लोगों की शिकायत होती है "मैंने इतने व्रत किए हैं, जप किए पर मेरी हालत देखिए।" यह परमात्मा की गलती नहीं है। आपका सम्पर्क ही अभी तक नहीं हुआ। तार जुड़े बिना टेलीफोन करने का क्या लाभ? विना सम्पर्क स्थापित किए भक्ति अनुचित है। इसी कारण श्री कृष्ण ने कहा "योग क्षेम चहाम्यम् ।" योग का पा लो, क्षेम अपने आप मिल जाएगा। कर्म के विषय में उन्होंने कहा कि 'कर्म करो और परमात्मा के चरण कमलों में अर्पण कर दो।' अधिकतर लोग यहाँ तक कि हत्यारे भी कहते हैं 'मैं अपने सारे कर्म परमात्मा को अर्पित कर और मधुर चलता। बिना उस शक्ति से जुड़े हम अंतिम सत्य को नहीं जान सकते क्योंकि हमारी अन्तर आत्मा पर हमारा चित्त नहीं होता। एक बार जागृत हो कर जब यह कुण्डलिनी उठती है ता यह छः चक्रों को पार करके सिर के तालू भाग को भेदती हैं तो यह दीक्षा-स्नान का वास्तवीकरण होता है। तब यह आत्मा हमारे चित्त में प्रकाश को तरह आ जाती है। हमारा नाड़ी तन्त्र एक नया आयाम प्राप्त कर लेता है जिसके द्वारा हम सामूहिक चेतना में आ जाते हैं। अपनी अंगुलियों के छोरों पर आप दूसरों के विषय में जान सकते हैं। बायीं तथा दायीं ओर सात सात चक्र हैं। बायीं ओर के चक्र आपकी भावनात्मकता तथा दायीं ओर कं आपकी क्रियात्मकता हैं। आप अन्य लोगों के चक्रों के विषय में जान सकते हैं। चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इलाज करते हुए हम पड़ का बाहर से इलाज करते हैं। हम उसको पत्तियां आदि तक हो सीमित रहते हैं। परन्तु वास्तविक रूप में इलाज करने के लिए देती हूँ।' यह कवल एक विचार मात्र है। अपनी अवस्था को प्राप्त हुए विना सहजयोगी मुझे नहीं बताएगा मैं कुण्डलिनी उठा रहा हूँ।' वह कहेगा 'यह ऊपर नहीं आती। वह तृतीय पुरुष में बोलेगा क्योंकि वह तो अब वहाँ है ही नहीं। इस प्रकार का कर्म स्वत: ही परमात्मा के चरणों में समर्पित हैं। वही सभी कुछ कर रहा है। हम तो कंवल यंत्र मात्र हैं। यह स्वत: और स्वाभाविक है और यही आपके साथ उत्पन्न हुआ सहज है। आप ऐसा कर ही नहीं सकते। पर एक ( शरीर बृद्धि) को प्रकट करते आप सब के अन्दर यह शक्ति निहित हैं। कुछ पुस्तकों में लिखा है कि कुण्डलिनी बड़ी भयंकर चीज है। यह व्यर्थ की वात है। बहुत से देशों में जाकर बहुत लागों को मैंने साक्षात्कार दिया, किसी को जरा सा भी कष्ट नहीं हुआ। इसके विपरीत दिशा में उन्हें लाभ हुआ। रातों रात लागा ने नश तथा बुरा आदतें त्याग दीं। रातों-रात लोग रोग मुक्त हो गए। मैं तो कुछ भी नहीं करती। आपकी अपनी कुण्डलिनी ही सभी कुछ करती है। वह आपकी माँ हैं, आपकी अपनी वास्तविक माँ, बह आपके विषय में सब कुछ जानती हैं। उसके अन्दर सभी कुछ चिन्हित है। वह साढ़े तीन लपेटों में आपके अन्दर विद्यमान है। उठते हुए, संघर्ष के कारण संभवत: वह थोड़ी सी गर्मी दे। यह गर्मी प्राय: जिगर के रोगियां के हाथों आदि पर अनुभव होती है। आप सब में कुण्डलिनी है और यही आपकी हमें पेड़ की जड़ों में जाना होगा। इस जीवन वृक्ष की जड़ हमारे अन्दर हैं। मोहम्मद साहब ने भी कयामा या पुनरुत्थान के समय की बात की। "कयामा के समय आपके हाथ बोलेंगे और आपके हाथ आपके खिलाफ शहादत दंगे।" सभी ने इस समय की बात की। अन्तिम निर्णय और यह कलियुग भी कुछ लाने बाला है। परन्तु कितने लोग इसे स्वीकार करने को तैयार हैं? हजारों लोग पागलों की तरह दौड़े फिरते हैं पर वास्तविकता के पीछे चैतन्य लहरी में जानेश्वर के समय तक ऐसा ही रहा। ज्ञानेश्वर जी अपने भाई के ही शिष्य थे उन्होंने बहुत कष्ट झेल। ज्ञानेश्वर जी ने इस रहस्य को जनता के सम्मुख खोलने की आज्ञा अपने गुरु से मांगी। संस्कृत भाषा के स्थान पर उन्होंने मराठी भाषा में ज्ञानेश्वरी-गीता की रचना की और इसके छटे अध्याय में कुण्डलिनी का वर्णन किया। लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने इस अध्याय को निषिद्ध घोषित किया। इस तरह जनसाधारण तक कोई नहीं जाता। इसे समझने के लिए दिव्य-बुद्धि की आवश्यकता है। इसे समझने के लिए मैंने रूस को सर्वाधिक ग्रहणशोल देश पाया। वे अति आत्मद्शी लोग हैं। एक स्थान पर कम से कम बाईस हजार सहजयागी हैं। मैं जब वहाँ थी तो सैनिक-विद्रोह हुआ। मैंने "क्या आप विचलित नहीं हैं?" कहने लगे "माँ विचलित होने की क्या आवश्यकता है। हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं। इस देश से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं।" पूछा यह ज्ञान न पहुँचने दिया गया। नाथ पंथी इसके विषय में जानते हम भारतीय लोगों के साथ एक समस्या है कि हम बंधनों में जकड़े हुए हैं। हमारे सम्मुख इतने आदर्शों के होते हुए भी थे। उन्हीं में से कबीर तथा गुरु नानक हैं। नानक ने खालिस हम ऊपर नहीं उंठते। श्री राम और गुरु पूजा करने वाला आपके अन्दर क्या है? किसी न किसी चीज से आप चिपके है। वे किसी प्रकार भी हिंसात्मक नहीं हो सकते। उनका प्रेम हुए हैं। कुछ प्राप्त करने के विषय में आप क्या सोचते हैं? बिना प्राप्त किए आप श्री राम को नहीं जान सकते। अभी मैं योग की एक पुस्तक पढ़ रही थी जिसमें लेखक कहता कृष्ण, राम तथा ईसा कभी हुए ही नहीं। यह अति अवैज्ञानिक नहीं। एक ही जगह यदि यह रुक जाये तो पेड़ ही समाप्त हो हैं। उन्हें प्राप्त किए बिना आप यह कैसे कह सकते हैं? इसी जाये। अंतः हमें समझना चाहिए कि यह सभी महान अंवतरण. तरह बहुत से लोगों ने परमात्मा के विषय में लिखा। बिना सत्य को प्राप्त किए हम नहीं जान सकते कि सच्चा गुरु कौन है। आप स्वयं ही जान जाते हैं। साक्षात्कार पाकर आप आत्मा बन जागृति विकास की जीवन्त प्रक्रिया है। अन्तम उपलब्धि। जिस जाते हैं तथा पूर्ण सत्य को जान लेते हैं। की बात की जिसका अर्थ है पवित्र-निर्मल। सहजयोगी निर्मल अथाह तथा निर्वाज्य है। प्रेम भेदभाच नहीं जानता। जड़ां से उठकर रस पूरे वृक्ष में जाता है। पूरे वृक्ष का पापण कर बाकी वापिस आ जाता है। पेड़ के किसी भाग-विशेष पर रुकता है कि पीर और पैगम्बर पुथ्वी पर इस जीवन-वृक्ष को पोषित करने के लिए आए। आपको इन सबमें विश्वास करना होगा। कुण्डलिनी प्रकार मानव शरीर में आने के लिए आपने कुछ नहीं किया उसी प्रकार बिना किसी प्रयत्न के शुद्ध इच्छा मात्र से, कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। यह सहज है। नाथ पंथ, हमारे देश में तीसरा आन्दोलन था। जैनियों के आदि नाथ थे। इनमें एक गुरु एक ही शिष्य को ज्ञान देता था। जैसे जनक ने केवल नचिकंता को ज्ञान दिया बारहवीं शताब्दी परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। के मद्रास जन कार्यक्रम 7.12.91 - परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण (सारांश पौराणिक कथन निरर्थक नहीं हैं। निन्यानवे प्रतिशत तो पूर्णतया सत्य हैं। मन्दिरों में जाना हम अच्छा समझते हैं पर हम यह नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों प्रार्थना कर रहे हैं। किसको प्रार्थना कर रहे हैं? ये देवता कौन हैं? हंमारे अन्दर वे किस प्रकार कार्य करते हैं? उनका कार्य क्या है? उन्हें प्रसन्न किस प्रकार करें? सदाशिव का प्रतिबिम्ब है। अतः स्वाभाविकत: सभी प्रतिबिम्ब समान होने चाहिए। उनके प्रभाव भी समान होने चाहिए। नि:सन्देह साक्षात्कार से पूर्व, हम कह सकते हैं, यह पत्थर या दीवार पर साक्षात्कार है। पर साक्षात्कार के पशचात आप प्रतिबिम्बित करने वाले बन जाते हैं। हर व्यक्ति एक ही चीज प्रतिबिम्बित करता है, अत: आत्मसाक्षात्कार का प्रभाव समान है। पहले व्यक्ति अपने हाथों पर शीतल लहरियां को अनुभव करने लगता है और फिर अपने तालू भाग पर। सभी लोग एक ही तरह अनुभव करते हैं। तत्पश्चात वे अपने कन्द्रों तथा उनकी कमियों को महसूस करने लगते हैं। सभी निर्विचार आत्मा सर्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। इसका एक देवता सदाशिव को प्रतिबिम्बित करता है। सदाशिव आदि शक्ति के कार्य के साक्षी हैं। वे इस लीला को देख रहे हैं। आत्मा के रूप में आपके अन्दर भी वे साक्षी हैं परन्तु वे आपके चित्त में नहीं आते। उनका चित्त सीमित है क्योंकि किसी भी प्रकार वे आपकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करते। अपने में मग्न रह कर वे केवल देखते हैं। यही स्व: (आत्मा) है, यही समाधि में चले जाते हैं। यही प्रथम अवस्था है। यह तुरन्त कार्य करती है। आप कह सकते हैं माँ यह अति कठिन है। लोगों को तो इसके लिए हिमालय पर जाना पड़ता था। अब उसकी कोई ार चैतन्य लहरी 7. आवश्यकता नहीं। यह जड़ों का ज्ञान है और इसे प्राप्त करने के लिए आपको सुक्ष्म होना होगा। यह तभी सम्भव है जब आपकी कुण्डलिनी उठे और सहस्रार को भेद कर परमात्मा के प्रेम की दिव्य शक्ति से सम्पर्क स्थापित कर ले । क्योंकि सभी व्यक्ति आत्मा है अत: पहला अनुभव जो आप करते हैं वह है सामूहिक चतना। आप अन्य आत्मा को महसूस कर सकते हैं। अपने शरीर तथा मन को जान सकते हैं। अपने मध्य नाडी तन्त्र पर यह पहली विशेषता आप प्राप्त कर लेत हैं। पर बिठा दिया गया हैं पर आप विश्वास ही नहीं करना चाहते कि आप सम्राट बन गए हैं। आत्मविश्वास आना बड़ा कठिन है। लोग विश्वास नहीं कर सकते कि उन्हें साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। वे डरते हैं। परन्तु बहुत से भयानक लोग, जिनके पास न आत्मसाक्षात्कार हैं न ज्ञान, गुरु बन बैठे हैं। उनके हजारा अनुयायी हैं जिन्हें उल्लू बनाकर वे उनसे धन ठगते हैं और उनके जीवन को बिगाड़ते हैं। परन्तु सहजयोगी जिनक पास पूरा 1 ज्ञान है वे अत्यन्त साधारण हैं। पर सबको यहचानते हैं। सामूहिक अस्तित्व के अतिरिक्त आत्मा की दूसरी प्रकृति यह है कि यह प्रासगक विश्व में रहता है। "यह अच्छा है, यह बुरा है" आदि। किसी आत्मसाक्षात्कारी द्वारा बनाई गई तस्वीर की ओर यदि आप हाथ करें तो आपको शीतल लहरियां महसूस होने लगंगी। सभी कुछ सिद्ध किया जा सकता है। हर चीज के लिए प्रमाण हैं। यह चित्त भी पवित्र करता है। जानता है कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है देहली में तीन लड़के लाए गए। कहने लगे "इनकी आज्ञा पकड़ रही है पर हम इन्हें ठोक अपनी विकास प्रकिया में प्राप्त आपकी हर उपलब्धि की अभिव्यक्ति आपके मध्य नाड़ी-तन्त्र पर होती है। उदाहरण के रूप में यदि अपने घोड़े या कुत्ते को आप गन्दे मार्ग से ले जाना चाहें तो वह उधर से चला जाएगा। परन्तु मानव के लिए ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि विकास प्रक्रिया में हमारे मध्य नाड़ी तन्त्र में गन्ध और सौन्दर्य-विवेक विकसित हो गया है । मानव अपने विकास और सूक्ष्म संवेदना में पशुओं से कहीं ऊँचा है। कुत्ते के लिए साज-सज्जा तथा रंग का कोई मूल्य नहीं। हमारी विकसित संवेदना के कारण इन सब चौजों का हमारे लिए बहुत महत्व है। इससे हमारी विकास प्रक्रिया में सुधार हुआ और हम मानव बन गए। नहीं कर पर रहे हैं।" इसका अर्थ है कि वे अहकारी हैं। आप चक्रों के माध्यम से स्वय की कमियां जानते हैं और उन्हें ठीक करने की विधि भी पर सामूहिकता में यह शुद्धिकरण बहुत अच्छा होता है। बहुत से लोग मेरे फोटो के सम्मुख पूजा और ध्यान करते हैं फिर भी उनमें कठिनाई रहती है। आपको सामूहिकता में रहना है। यह सहजयोग का अति महत्वपूर्ण हिस्सा है। मानव स्तर पर हम में एक समस्या है कि हमने अपने सिर में अहं तथा प्रति अहं ( बन्धन) रूपी दो संस्थाएं विकसित कर लीं। ये दोनो हमारे सिर के अन्दर एक दूसरे को लांघती हैं और गुप्त रूप से कार्य करती हैं और हम सीमित व्यक्तित्व हो जाते हैं। जब कुण्डलिनी उठती हैं तो यह दक तन्त्रिका पर स्थितः आज्ञा चक्र से गुजरती है और अहं तथा प्रति अहं को नीचे की ओर खींचती है और सहस्रार को खोलती है। तब कृण्डलिनी ऊपर जाती है। यह जीवन्त परमात्मा और जीवन्त शक्ति की अब न तो आपको हिमालय पर जाना हैं और न ही गंगा में डुबकियाँ लगानी हैं। कोई जप तप नहीं करना। कंवल सामूहिक हो जाइए। सामूहिकता परमात्मा का चित्त सागर है । सामूहिक होते ही आप पावन हो जाते हैं। यहाँ अहं भी आरडं नहीं आता। बहुत धनी ऊँचे तथा विद्वान लोग हैं। केन्द्र जैसे छोटे स्थान पर आना उनके लिए कठिन है । कन्द्र माँ का घर है। पर वे नहीं आते और उनकी लहरियाँ समाप्त हो जाती हैं। भारत में यह साधारण बात है पर पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता क्यांकि वे जानते हैं उन्हें कितनी बहुमूल्य उपलब्धि प्राप्त हुई है। लोग कहते हैं कि वे घर पर ही ध्यांन करते रहे । सामूहिकेता आए बिना आप स्वयं को शुद्ध नहीं कर सकते। कुण्डलिनी जब आज्ञा चक्र से गुजरती है ता आप निर्विचार समाधि में आ जाते हैं। विचार उठते हैं और समाप्त हो जाते हैं। कुछ विचार भूतकाल से आते हैं और कुछ भविष्य से। पर हम वर्तमान में नहीं हात। यही कारण है कि कुण्डलिनी जागृति हमारे चित्त को अन्दर की ओर आकार्षित करतो है । जब कुण्डलिनी टिकती है तो विलम्ब (बीच) की अवस्था होती है। यह बढती है अर्थात वर्तमान में जाकर हम निर्विचार हो जाते हैं। निर्विचार समाधि में ही विकास होता है और सामूहिकता में जीवन्त प्रक्रिया है। कुण्डलिनी ऊपर को जाती है कुण्डलिनी आपकी माँ है। बड़ी सुन्दरता से, बिना आपको कोई कष्ट पहुँचाए यह ऊपर को उठती है। अपने बच्चे को वह अच्छी तरह जानती है। आपके सभी जन्मों में उसने आपसे प्रेम किया। सिर के तालू भाग में स्थित सदाशिव की पीठ को (ब्रह्मरन्ध्र) जब यह भेदती है तो हम सदाशिव के चरण स्पर्श करते हैं और तब सदाशिव हमारे चित्त में प्रवेश करते हैं। जब आत्मा हमारे चित्त में प्रवेश करती है तो चित्त प्रकाशित होता है। यह चित्त अति चुस्त को जान सकते हैं । सहजयोगी ये नहीं देखते कि किसने कौन से वस्त्र पहने हैं, या बैंक में किसका कितना धन है वे देखते हैं कि चक्रों पर लोगों की स्थिति क्या है। आप उन्हें ठीक कर सकते हैं पर इसके लिए उन्हें इस सर्वत्र विद्यमान शक्ति के साथ होना पड़गा। है, यह सब कुछ जानता हैं। आप चक्रों पर लॉगों सर्वप्रथम आप निर्विचार बनें, दूसरों को आत्मसाक्षात्कार देते हुए अपनी सामूहिक चेतना को बढ़ायें| आपको राजसिंहासन तथा ध्यान मग्न रहकर हो हमें निविचारिता प्राप्त हो सकती है। ठीक हो जाता है, आपकी लहरियाँ ठीक होती हैं और आपको मिलने वाली सूचना शत-प्रतिशत ठीक होतो है। बहुत से लोग विशेषकर बुद्धिवादी लोग, श्री गणेश का मजाक बनाते हैं, यह पाप है। पर उनके विषय में जानने के लिए आप पूछ सकते हैं। कि "क्या गौरी पुत्र गणेश हमारे मूलाधार पर विराजित हैं?" सभी साक्षात्कारी लोग जान जायेंगे शिव-शिव या राम राम, क्या वे आपकी जेव में हैं? क्या वे हमार नौकर हैं? पर यदि इसके लिए कोई धन नहीं देना पड़ता। वास्तविकता की खरीदा नहीं जा सकता। परमात्मा धन को नहीं पहचानते। यदि आप एक हाल किराए पर लेते हैं तो आपको उसके लिए खर्च करना होगा। पर परमात्मा के लिए आप कुछ नहीं खर्चते । जागृति के लिए हम कोई पैसा नहीं ले सकते। लोग तो दर्शन के लिए भी पैसा लेते हैं। यदि पैसा ही सभी राम-राम है तो आत्मा के स्तर पर उनका उत्थान कैसे हो कुछ सकता है। भक्त इतने साधारण और भोल-भाले हैं। अमेरिका में एक गुरु के पास 48 राॉल्स-रायस गाड़ियाँ हैं। वह एक और गाड़ी चाहता था जिसके लिए धन जमा करने के लिए उसके शिष्यों ने भूखा रहना शुरू किया। जब सहजयोगियों ने उनसे पूछा तो उत्तर मिला कि "हम तो कंवल उन्हें सोना दे रहे हैं पर वे हमें आत्मा दे रहे हैं।" क्या धन के बदले आत्मा दी जा सकती है? आप आत्मसाक्षात्कारी है तो मात्र एक वार उनका नाम लना काफी है क्योंकि हम उनके साम्राज्य में हैं। यदि आपका सम्बन्ध स्थापित हो गया है तो देवता न केवल आपकी सहायता करंगे बल्कि परंशान करने वाले देवता भी शांत हो जायेगे। आप जो भी चाहेंगे होगा। सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। आप चाहे इसे आत्म प्रकाश कहें या सिद्धि बह आपके अस्तित्व का पूर्णत्व है। आत्मा का तीसरा स्वभाव यह है कि यह " प्रेम' है। प्यार होने के कारण यह अपकी आनन्द प्रदान करता है। इतना सुखप्रद यह है कि आपकी सारी परेशानियाँ भाग जाती हैं । यह आधुनिक विज्ञान से पर है परन्तु भारतीय लोगों की यह धरोहर है। अंग्रेजी तथा फ्रेंच भाषा का माह छाड़कर अब हमें अपनी संस्कृति तथा ज्ञान में विश्वास करना चाहिए। सहजयोग अति प्राचीन है। नया नहीं। नानक ने कहा है "सहज समाधि लागो। " हर सन्त ने इसका वर्णन किया है हमें आत्मा बनना है। यही हमारे जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। अत: हमें एक आत्मसाक्षात्कारी आत्मा, एक गुरु बनना है। परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हमें पहले आत्मा बनना पड़ता है। तब यह सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। व्यक्ति स्वयं को जो चाहे समझता रहे पर इसका कोई लाभ नहीं। हमें अपने मानव जीवन के मूल्य को जानना होगा। इसका लक्ष्य क्या है? क्या हमें विश्व-ज्योति बनना है? आत्मा का प्रकाश चित्त में फैलता है और चित्त प्रगल्भ, चुस्त बनकर सब कार्य करता है। चित्त अति चुस्त एवं नियमित है। यह कभी ऊबता नहीं। चित्त के थकने पर ही व्यक्ति ऊबता है। पर यहाँ चित्त प्रकाशित है। आत्मा स्वभाववश आपको सत्य के विषय में बताती है। जब आपका विकास पूर्ण हो जाता है तो निर्विकल्प की अवस्था होती है। तब आपका चित्त पूर्णतया परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। महाकाली पूजा बैंगलूर, 9.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण (सारांश ) में बसे हैं। उन्हें खदेडना अति कठिन है । एक बार जब वे साधकों के मस्तिष्क में घुस आते हैं तो भक्तगण बाधाग्रस्त होकर सभी प्रकार की समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। इसके वावजूद भी सम्मोहित होने के कारण भक्त उनसे बंधे रहते हैं। यह सम्मोहन उन्हें इतना जिद्दी बना देता है कि जीवन के मूल्य पर भी वे उस गुरु को नहीं त्यागते। मैसूर महिषासुर द्वारा शासित राज्य था। बैंगलूर अत्यन्त रमणीक स्थान है। यहाँ की जलवायु भी सुहावनी है। राक्षस सदा ऐसे स्थान पर रहना पसन्द करते हैं। उनके शरीर में क्योंकि गर्मी होती हैं, हैं। जैसा कि आप जानते हैं यहाँ एक अन्य राक्षस हैं जिसका भण्डाफोड़ होना आवश्यक है। आज की इस पूजा में हम यह वे सदा ठंडे स्थान खोजने में लगे रहते ार लक्ष्य प्राप्त कर सकगे। कलियुग में बहुत अधिक साधक हैं। सत्य की खोज में वे भागे फिरते हैं। अधिकतर गुरु पश्चिमी देशों में गए क्योंकि वहाँ के लोग सहजयोग में आए। यह आपका सौभाग्य है। ये आपके पूर्व जन्मों के सुकृत्य हैं जिनके फलस्वरूप आप स्पष्ट प्राचीन काल में जब देवी को राक्षसों से युद्ध करना होता था तो राक्षस मानव हृदय में निहित नहीं होते थे। वे गुरु रूप में नहीं आते थे। पर अब कलियुग में वे साधकों के मस्तिष्क दि चैतन्य लहरी देख सके और सहजयाग में आये। आअब परिपक्व हाकर आप लाभ के लिए नहीं, अन्यथा पतन शुरू हो जाएगा हमं पूरी समझ होनी चाहिए कि जिस देवत्व के प्रवाह का आनन्द हम ले रहे हैं उसी के यंत्र (साधन) मात्र हम है। आप कभी जान चुक हैं कि अन्य लोग अनुचित कार्य कर रहे हैं विष्णु सम देवता के विषय में उल्टी सीधी बातें करना अनुचित है। केरल में कहते हैं कि विष्णु जी ने जब मोहिनी रूप धारण किया तो शिव से उन्हें एक सन्तान उत्पन्न हुई। यह घोर पाप है। वे बड़े भयंकर देवता हैं लांग मूर्ख हैं। उन्हें देखना चाहिए कि यदि वे.उनचित कार्य कर रहे होते तो वे बीमार क्यों हाते? यही लोग एक माह तक काले वस्त्र पहन कर अयप्पा जाते हैं और व्रत आदि से स्वयं को कप्ट दंते हैं और शेष यारह महीन सभी प्रकार के दुष्कार्य करते हैं। बह भी जागिंग आदि की तरह से फेशन बन गया है । यह मूर्खता करने वाले इस वर्ष एक करोड़ लाग थे। थकान या परेशानी का अनुभव नहीं करेंगे। आप को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा। हम सबको निर्णय करना है कि भारत भ्रमण का आनन्द हमें लेना है। किसलिए? इसे अपने तक सीमित न रखकर दूसरां से बांटन के लिए। जब तक आप यह सीख नहीं लेते आपका अहं आपको कष्ट देता ही रहेगा। सहजयोग प्रचार करने वाले लोगों को अहं-जाल में फंसते भी आपने देखा होगा। व्यक्ति को अति सावधान रहना है। ज्यां-ज्यों आप परिपक्व हात हैं आपको अधिक सावधान होना है। पेड़ को देखिए। यदि कंवल पत्ता होगा तोा काई कीड़ा नहीं आएगा। पर यदि फूल हागा तो कोड़ा इसे खा जाएगा। जब आप फल बन रहे हैं तो कीड़ों से सावधान रहे। और अब आप में ता कीड़ों को नष्ट करने की शक्त है। यह अवस्था हम सबने प्राप्त करनी हैं। एक आर तो कोड़ो का नष्ट करता है तथा दूसरी आर लोगों को संतुष्ट करना है। सामृहिकता शुद्धिकरण का केवल साधन है, पर इससे भी महान कार्य यह पता लगाना है कि कहाँ पर मैं सहजयाग फंला सकता हूँ? कहाँ महजयोग कार्य करेंगा? इसके विषय में जितना विचार आप करंग उतना अच्छा है। एक बार जब इस दिशा में आप बढ़ंगे ता आश्चर्यचकित हांगे कि आपस पहले सहजयोग बढ़गा। आपका मेल हो जाएगा। आवश्यक सहायता मिल जाएगी। सहायक लोग मिल जायेंगे। स्वयं विस्तृत करने पर सभी प्रकार की सहायता आपको प्राप्त हान लगेगी। मैं जानती हैं कि आप मुझे बहुत प्रम करते हैं पर क्या आप नहीं सांचत कि दूसरे लोगों का भी इस प्रम में हिस्सा है? हम दक्षिण भारतीय लॉग विशेष रूप से बन्धनग्रस्त हैं। स्त्िटजरलैंड की बनी घडियाँ निकालने वाले लागों से हम बहुत प्रभावित हैं लोग बहुत ही भाले हैं। व नहीं जानते कि किसी भी अवतरण ने इस प्रकार की चालाकियाँ नहीं की। और सत्य ता परम्परागत तथा शास्त्रीं पर आधारित होना चाहिए। परम्परा तथा शास्त्रों से विमुख होना घार पाप है। कोई भी व्यक्ति जो आत्मसाक्षात्कार, कुण्डलिनी, उत्थान या पुनर्जन्म की वात नहीं करता, वह गुरु नहीं हो सकता। क्या आप राम पर अहसान कर रहे हैं? आप ईसा पर विश्वास करते हैं तो क्या? यह सब व्यर्थ की बात है। में परमात्मा में विश्वास करता हूँ-इसका क्या अभिप्राय है। पर आप सभी कुछ परमात्मा विराधी कर रहे हैं। अब आप कहते हैं मैं श्री माताजी में विश्वास करता हूँ। तो क्या ठीक है? कुछ अनुभवों के कारण आप मुझ में विश्वास करते हैं फिर भी क्या? माताजी आपकंे जीवन में होनी चाहिए, आपक व्यवहार, अभिव्यक्ति तथा आचरण में, एक दूसरे को समझाने में, परस्पर प्रेम में होनी चाहिए। इससे लोग प्रभावित होते हैं। लोग कहते हैं हम माताजी के पास आते हैं। उनसे प्रार्थना करके चले जाते हैं । क्यों? क्योंकि हम माताजी में विश्वास करते हैं। परन्तु विश्वास तां आपके अस्तित्व से छलकना चाहिए। इस विश्वास को कार्य करना चाहिए तथा परिणाम दिखाने चाहिएं। सभी प्रकार से इसे कार्य करना चाहिए। कूछ लोग कहते हैं हम माताजी में विश्वास करते हैं, वही सभी कुछ करेंगी। क्या वे हमारे स्थान पर भक्ति करेंगी? आपकी ओर से क्या होगा? वांछित लागों से संघर्ष करते हुए ं से भी पाला पड़ता है। 'मेरा' के समीप मत जाइए। इससे पर देखिए । इसी में हित है। आप देखते हैं कि महाराष्ट्र में हमने कितना परिश्रम किया। है। हमें अति कठिन लोगं पर मेंन पाया कि यह बकार जगह महाराष्ट्र में बहुत कम सहजयोगी हैं और जो हैं व भी बहुत अच्छं नहीं। जैसे पहाड़ के समीप जाकर आप इसकी ऊँचाई को नहीं दंख सकतं डसी प्रकार समीप के लोग आपकी महानता को नहीं दख पाते। किसी सहज कार्य को यदि आप करना चाहत हैं तो प्रयत्न कीजिए कि आपके सहजयोगीं आपके रिश्तेदार या सम्बन्धी न ही। कुछ अन्जान व्यक्ति हो, जान-पहचान के लोग आपका एक बार जब यह होने लगेगा तो सभी राक्षस एवं दुष्ट समाप्त हो जाएंगे। मैं सहजयोग के लिए क्या कर रहा हूँ? यदि यह शरीर कुछ नहीं कर रहा तो इसे यंत्र बनाने का क्या लाभ? आप प्रकाश हैं, आप ज्योतिर्मय हैं। जो प्रकाश किसी को प्रकाशित नहीं करता उसका क्या लाभ? आपको अत्यन्त पैरशान करंगे। सहजयोग सभी के लिए खुला है और कोई भी यहाँ आ सकता है। सभी कठिनाइयां दूर हो सकती हैं पर आपका नेतृत्व आवश्यक है। अपने आलस्य पर काबू पा लीजिए, सहजयांग बढ़ने लगेगा। भविष्यवाणी है कि इस वर्ष सहजयोंग बहुत सहजता से दूसरों को प्रकाश देना है। दिखाने या व्यक्तिगत चैतन्य लहरी 10 बात करें यह है देवताओं की शक्ति आपक साथ है । स्वयं में, तथा सहजयोगियां में विश्वास रखें उत्तजित हुए विना आगे बढ़े। आप सशक्त हैं। में आपको विश्वास दिलाती हूँ कि आप में शक्ति है। याचना मात्र से आपको यह शक्ति प्राप्त हांगी, संकांच न कोजिए। मैंन आपका सिंहासनारूढ किया है। ताज आपके सिर पर रखकर मैं कहती हूँ कि आप सम्राट हैं पर आप विश्वास हो नहां करते, भागे फिरते हैं। और कार्यान्वित है इसके अतिरिक्त सभो बढ़ेगा। आपमें शक्ति है। लोगों ने बताया कि मेरे आने से एक दिन पूर्व यहाँ बहुत ठंड थी। मैंने कहा चिन्ता मत करो। मैंने बन्धन आदि भी नहीं दिया। यहाँ आयी और ठीक हो गया। इसी तरह सब होता है। परन्तु आपको सम्पित होना पड़ता है। अब रवि, शशि, तारागण आर पुर ब्रह्माण्ड को कवल एक कार्य करना है, उन्हें देखन है कि सहजयोग भलीभांति फैल रहा है, स्थिर हो रहा है और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर रहा है। सभी तत्व विविध प्रकार से कार्य कर रहे हैं। आपको मुझ पर ही विश्वास नहीं करना, स्वयं पर भी विश्वास करना है। आपको यह कहना है। आप ही मरे मार्ग हैं। आप ही शक्ति के स्रोत हैं। गरिमामय, सुन्दर तथा सन्तोषप्रद ढंग से कार्य कीजिए । आपमें कार्य करने की इच्छा होनी चाहिए। मुझे कहने को आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। किसी भी क्षेत्र में आप कार्य करें या किसी भी व्यक्ति से जब आप मिलें आप सहज को परमात्मा की कृपा से आप लाग ही सहजयोग की नींव वनेंगे और अपने विवक, विश्वास, प्रम तथा सामर्थ्य से सहजयाग रूपी महान भवन का निर्माण करेंगे। सभी दैत्य और राक्षसों का संहार करने वाली महाकाली शक्ति की पूजा आज हम करंगे। आपकी इच्छा ही कार्य करेगी। परमात्मा आपको धन्य करें। हैदराबाद पूजा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश 11,12.91 हम हैदराबाद आये हैं। यह प्रदेश मुसलमान बादशाहां द्वारा शासित था परन्तु ये वादशाह अति भारतीय थे तथा बर्तानिया के विरुद्ध स्वतन्त्रता के लिए इन्हांने युद्ध किए। टीपू सुल्तान एक साक्षात्कारी व्यक्ति थे पर उन्हें मार दिया गया। हमारे देश में एक बहुत बड़ी समस्या है कि व्यक्तिगत रूप से हम सब बहुत महान हैं पर सामूहिकता में रहना हम नहीं जानते और इसी कारणवश हमें अपनी स्वतन्त्रता खोनी पड़ी। कोई यदि खुली आँखों से स्पष्ट दंखें तो वह समझ सकता है यदि हमारे सम्मुख कोई व्यक्ति किसी की निन्दा करता है तो अवश्य कोई लक्ष्य है। लम्बे समय से यह हमारी असफलता है कि इस प्रकार के कार्यों से लोग हमारे सम्बन्ध खराब करते हैं और यह बुराई अब सहजयोग में भी घुस गई है । दूसरी दुर्बलता जो हम में है वह है हमारा अपने परिवार, बच्चों, माता, पिता, भाई आदि में मोह। किसी समीप के संबंधी से जब तक आप धोखा नहीं खा लेते आप सीखते नहीं। हमारी सभी समस्याएं इन्हीं के कारण है। मैने बहुत उच्च स्तर के सहजयोगियों को देखा है, पर अचानक मैंने पाया कि वह किसी भाई या संबंधी से लिप्त है जो किसी गुरु व्यापार में व्यस्त है। के स्थान पर वे हमें प्रभावित करने लगते हैं। दूसरों की बुराई करना या संबंध विगाड़ने की बातें करना सहजयोग में अपराध है। सदा दूसरों को अच्छाई को देखो। उदाहरण के रूप में यदि कोई आकर मुझ से कहे कि फलां व्यक्ति अच्छा नहीं तो में झूठ-मूठ उनसे कहती हैं कि वह ताो तुम्हारी इतनी प्रशंसा कर रहा था। आप उसके विरुद्ध यह बातें क्यां कह रहे हैं? सहजयागियों के लिए आवश्यक है कि अधिक से अधिक तार तम्य, सहयोग को बनाये जिससे बहुत से लोग सहजयोग में आ सकें। पर अच्छे लोगों की बजाय बुरे लोगों से सहजयोगी लिप्त हो जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अभी तक आप पूर्ण सहजयोगी नहीं। भारत में एक मंत्री का अपनी पत्नी, पुत्र, भाई और अपने नौकर तक को किसी महत्वपूर्ण स्थान पर नियुक्त कर देना एक आम बात है चाहे वं इसके योग्य हों या न हों। पर सहजयोग में आप ऐसा नहीं कर सकते। आपको सहजयोगी होना पड़ेगा। किसी भी व्यक्ति को लाकर आप यह नहीं कह सकते कि श्री माता जी ये मेरा संबंधी है, कृपया इसकी सहायता कीजिए। पारिवारिक जीवन का हमारा विचार बदलना चाहिए। नि:संदेह सबसे हितकर कार्य जो आप अपने परिवार के लिए कर सकते हैं वह है उन्हें सहजयोग में लाना। कभी आप अपने नगर के विषय में सोचन लगते हैं। माँ आपको मेरे शहर में आना आवश्यक हैं। यह भी मेरा घर, मेरे सगे-संबंधी, मेरा नगर, मेरा देश जैसी ही बात है। आपके देश के लोगों के प्रति आपकी चिन्ता को मैं समझती हैूँ पर लिप्सा नहीं होनी चाहिए। व्यक्ति को इस प्रकार निर्लिप्त होना चाहिए कि साक्षी रूप से स्वयं तथा दूसरे लोगों को देखें। आप स्वयं हमारे से प्रभावित होने चंतन्य लहरी 11 देखेंगे कि आपकी चिन्ता का कारण आपकी लिप्सा (मोह) है । अपने परिवार से लिप्त हो जाना सहजयांग के न बढ़ने का मुल कारण है। अन्य लोगों तक न जाकर हमारा चित्त केवल असहज लोगों में ही फस कर रहे जाता है। थाडे से नकारात्मक लोगों के छोंटे से समूह में फँस कर रह जाने के स्थान पर आप उनसे परे जाइए। आपमें शक्तियां हैं। आप सारी बाधाएं पार कर सकते हैं और स्वयं देख सकते हैं कि आप कितने प्रसन्न हैं है कि आपके अहं को न दखा जा सके पर यह भी ता उसी की ही किस्म है। हर समय दूसरों की आलोचना भी अनुचित है। इसका निर्णय करने को आपसे किसने कहा। आप न अपना मूल्यांकन करें और न ही दूसरे लोगों का मूल्यांकन कर उन्हें दण्डित करें। हमें अति मधुर आयाम विकसित करने चाहिएं। आपको यह करना है। सहजयांग में आने के बाद भी कुछ आदतें चिपकी तथा शारीरिक तथा आध्यात्मिक रूप से कितने सामर्थ्य हो गए हैं रहती हैं बड़ी ही सुगमता से यह आदतें सुधारी जा सकती हैं। जिद्दीपन भी अति भयानक बुराई है। इस प्रकार को सुक्ष्म जिंद सभी के लिए कप्टकर है। मैंने एक चार ठान ली ता ठान लो। इसे बदल लेने में कहाँ हानि है।? मुझे प्रसन्नता है कि सहजयोग में कुछ भी निर्धारित नहीं होता। कार्यक्रम कब है और कब नहीं इसका महत्त्व नहीं है। पर आपने परिवर्तन का किस प्रकार स्वीकार किया. यह बात अत्यन्तं महत्वपूर्ण है। बदलाव का स्वीकार करना यदि आपने नहीं सीखा तो आपका भारतीय समाज में लोग सन्यास ले लेत हैं। काशाय बस्त्र पहन कर वे चले जाते हैं। आन्तरिक सन्यास क्यों न ले लें। वृद्ध तथा क्षीण होने की प्रतीक्षा करनं की क्या आवश्यकता है। अपनी जवानी में ही यदि आप सहजयोग के अतिरिक्त हर चीज में नि्लिप्त हो गए तो भी आप सन्यासी हैं। आपके लिए सहजयोग के अतिरिक्त कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। एक बार जब आप यह निश्चय कर लंते हैं तो उस दिशा में आप बढ़ने लगते हैं। भटक जाने की अवस्था में उत्थान किस प्रकार हो सकता है। पश्चिम के लोग स्वयं के विषय में ही चिन्तित हैं वे स्वयं सर्वोच्च शिखर पा लंना चाहते हैं। एक बार यदि परिवार से हम अपना चित्त हटा लें तो हम हैरान रह जायेंगे कि किस प्रकार यह चित्त हमारे परिवार पर, हमारे बनाए उस छोटे से कूप पर, कार्य करता है, किस प्रकार देवी प्रेम की कृपा तथा आशीर्वाद यह देता है यह देखकर आप दंग रह जायेंगे। मैं कुछ सहजयोगियों को जानती हूँ जो अपनी सिरजोर पत्नियों को वश में नहीं कर सकते। भारत में एक नियम है कि पत्नी का पति का धर्म अपनाना होता है। पलियां यदि इतनी सिर-जोर हों तो वे परेशानी का कारण बन सकती हैं। पति यदि सादा है तो उसे कष्ट उठाना पड़ सकता है। रौब जमाने वाले किसी भी व्यक्ति के सम्मुख झुकना नहीं चाहिए, इसके स्थान पर कहना चाहिए कि हम धर्म का अनुसरण कर रहे हैं और हमारे मार्ग में बाधा डालने की किसी को कोई आवश्यकता नहीं। यह हमारा मौलिक अधिकार है। सहजयोग में परस्पर व्यवहार भी महत्वपूर्ण है। हम परस्पर कैसे रहते हैं, किस प्रकार बातचीत करते हैं। इसके परिणाम क्या हैं। क्या दूसरे लोगों से हमारा तालमेल है? पड़ोसियों की तरह क्या आप अन्य सहजयोगियों को अपने घर पर निर्मा्त्रित करते हैं ? विकास अधूरा है। स्मरण रखें कि कितने प्रम से किसी ने आपके लिए कुछ किया। इस प्रेम को याद रखते हुए आप बेसा हो कोजिए। जब-जब भी आपको काई ऐसा अनुभव हो आप इसे अपने अन्तस में समाह लें। जब-जब भी आप उसे याद करंगे उस सुन्दरता की भावना की वर्षा आप पर होने लगगी। प्रसन्तता प्राप्ति की नई विधियाँ हमें सीखनी हैं। इससे पूर्व ता अन्य लागों का सताकर हमे प्रसन्नता प्राप्त हाती थी। में क्या कर रहा हूँ? में क्यों कर रहा हूँ? दूसरां को कठार वार्त कहकर मैं कैसे प्रसन्न हो सकता हूँ। अहं मुझे बहुत दुःख दंता है। इस शांत रहने को कहिए। छोटी छोटी गतिविधियां सार वातावरण की बदल देती हैं। अत: अपने आचरण, व्यवहार में बहुत सावधान रहे। लोग हैं। हर समय और आनन्दित रहते हैं । सहजयांग समाज में बहुत सुन्दर आनन्ददायी साथियों में हम हँसते हैं सहजयोग घृणा मिथ्याभिमान और बन्धनों में विश्वास नहीं करता। सहजयोग के महान कार्य तथा पवित्र मानव संवदना में इसका विश्वास है। करुणा और सौहार्द आपको प्रसन्नता प्रदान करते हैं। बुरी आदतें छोड़ने के लिए आपको आत्मदर्शन करना होगा। अन्यथा आपकां नए लागों से व्यवहार करने में कठिनाई लांग सहिष्णु, क्षमाशील होंगे तभी आपको सन्त मानंगे। यदि लोंग कठिन हैं तो उन्हें छोड़ दीजिए। होगी यदि आप शांत, वाद विवाद द्वारा आप आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। जिनमें बायीं ओर तथा दायों ओर को लिप्साएं भिन्न हैं। दायीं ओर के लोग स्वकेन्द्री होते हैं, उन्हें सामूहिकता पसन्द नहीं होती। अहं उनकी बहुत बड़ी समस्या होती है। इसी नशे में के डूबे रहते हैं विकसित नहीं होते। 'मेरा' का यह दृष्टिकोण बदलना होगा। सहजयोगी होकर आप परेशान कैसे हो सकते हैं? हमें देखना चाहिए हमारी कौन सी बातें दूसरां को परेशान करती हैं। हमें क्रोधी-स्वभाव का नहीं होना चाहिए। हो सकता विवेक का अभाव है वे आत्मसाक्षात्कार के यांग्य नहीं। आपका आचरण ऐसा हो कि वे समझ लें कि आप सन्त हैं। पूरे प्रेम तथा आत्मसम्मान के साथ आपने उनसे बात करनी है। सहजयोग प्रचार का मार्ग तथा बिधियाँ आपने खोजनी हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। चैनया श्री गणेश पूजा शेरे, पुणे परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश 15.12,91 बाद में कभी भी आप सुगमता से यह विवेक उनमें नहीं भर सकते। तब इसके लिए आपको बहुत परिश्रम करना पड़ेंगा । सहजयोग में यह विवेक तेजी से कार्य कर रहा है और लोग वहुत बृद्धिमान होतं जा रहे हैं। महाराष्ट्र में श्री गणेश की पुजा के महत्व को हमें समझना हैं। अष्टविनायक (आठ गणपति) इस क्षेत्र के इदं-गिर्द हैं और महाराष्ट्र के त्रिकाण बनाते हुए तीन पर्वत कुण्डलिनी के समान हैं। पूरे विश्व की कुण्डलिनी इस क्षेत्र में निवास करती है। श्री गणेश द्वारा चेतन्यित इस पृथ्वी का अपना हो स्पन्दन तथा चैतन्य है। महाराष्ट्र की सर्वोत्तम विशेषता यह है कि यह बहुत ही सुन्दर चित्त प्रदान करता है। श्री गणेश के चेतन्य प्रवाह के कारण चित्त एकाग्ित हो जाती है। पवित्रता तथा मंगल प्रदान करने के लिए श्री गणेश की सृष्टि हुई। गणेश ही सभी को शुद्ध करते हैं । ये इनकी अबोधिता है जो आपको शुद्ध करती है तथा आपक चित्त को विचलित करते वाले अहं तथा बन्धनों करती है। किसी भी मार्ग से हम चलं, हम पाते हैं कि हमारी सारी समस्याएं मानव की ही देन है। जोवन में विवेक को इतनी महत्वपूर्ण भूमिका है कि बाह्य जगत में जो भी प्रवृत्तियां या फेशन आये आप उनसे प्रभावित नहीं हाते। आप अन्दर से परिवर्तित होते हैं। तब आप पूर्णतया जान जाते हैं कि दूसरे लोगों से क्या आशा की जाती है तथा उन्हें क्या करना चाहिए। उनसे किस प्रकार व्यवहार किया जाए, किस प्रकार बातचीत की जाए और उनके साथ किस सीमा तक चला जाए। यह सब विवेक से प्राप्त होता है सहजयोग में आप सब अतियोग्य लाग हैं। आपने बहुत कुछ पा लिया हैं और आप सभी कुछ जानते हैं। इस सबके बावजूद भी हमें दूसरां से व्यवहार तो करना हो का दूर अच्छे चित्त वाले लोग बहुत से अच्छे कार्य कर सकते हैं जैसे अच्छी कलाकृतियाँ, अच्छा गणित और अच्छा संगोत। इन सव के लिए पूरे चित्त की आवश्यकता होती है। अच्छा चित्त श्री गणेश की देन है। वे विवेक के दाता हैं। विवेक ही धर्म है। किसी को रोकना नहीं हैं और न ही कांई कठोर या वन जाता है तथा अपकं अस्तित्व का अंग-प्रत्यंग बन जाता है। दुःखदायी बात कहनी है। यदि आप सहजयोग को फैलाने का आप बुद्धिमान हो जाते हैं । यद्यपि वे शिशु हैं फिर भी अति परिपक्व हैं। सहजयोगी के अन्दर क्योंकि श्री गणेश जागृत होते करुणापूर्वक देखभाल करें। हैं इसलिए विवेक उनका अन्तर्जात गुण होता है। एक सन्तुलन, एक उत्थान, बह व्यक्ति प्राप्त करता है तथा वह समझता है गणेश के माध्यम से संभव है। वे निर्विकल्प में हैं। उन्हें काई कि यह उत्थान उसके लिए, उसके देश तथा पूरे विश्व के लिए हितकर है। वह सहजयोग के महत्व को जानता है। यह विबक हमारे अन्दर रचित है और अपने अन्दर विवेक के इस स्रोत का उपयोग सीखना हमारे लिए आवश्यक है। सहजयोग होते हैं। यह एक अवस्था है जो आपके अन्तस में बनी होनी में व्यक्ति विवेक प्रवाहित करने लगता है तथा इसे समझने भी चाहिए। आप स्वयं पर चित्त को केन्द्रित कर यदि पता लगाने लगता है। व्यक्ति अपनी मुर्खतापूर्ण बातें छोड़ देता है। श्री गणेश ही आध्यात्मिक जीवन की नींव के पत्थर हैं। इसी कारण मरी बहुत इच्छा है कि अपने बच्चों के लिए हम उचित विद्यालय खोज सकें। उन्हें अच्छी शिक्षा मिले तथा उनकी उचित देखभाल हो क्योंकि उनका गणेश तत्वे उनमें पहले से हो है। हमें केवल इसका पोषण करना है देखभाल करनी है तथा इसे बढ़ाना है। एक बार यदि ऐसा हो जाए तो बच्चे सुरक्षित हैं और उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। गलतं चीजों को वे कभी आत्मसात नहीं करेंगे। यदि बाल्यकाल में ही आप प्रयत्न कर रहे हैं तो एक ही मार्ग है कि हम सबकी स्वयं में विश्वास भी आना आवश्यक है। यह भी श्री प्रश्न नहीं करना। न उन्हें कोई चिन्ता है और न कोई मोह। कोई कार्य करते हुए आप दो-विचारों में हा सकते हैं। हो सकता कि आप दृढ़ न हों। परन्तु वे (श्री गणेश) सदा बहुत ही दृढ़ का प्रयत्न करं कि मेर साथ क्या समस्या हेख में ऐसा क्यों हूँ? तो आप इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। अन्तरद्शन आपका बहुत सहायक होगा। अपने अन्दर के अवाधिता तत्व की पूजा करना सुगम मार्ग है। मान लीजिए हम किसी चोर से । हमं क्या करना चाहिए? उसके दोष का- व्यवहार कर रहे हैं। तो भूल जाना सर्वोत्तम है । इसकी चिन्ता नहीं करनी है। भूल जाइए कि इस व्यक्ति को ठीक करना है। भूल जाना ही विवेक है। एक बार जब आप दीषों को भूलने लगेगे तो अच्छी बात आपको याद रहेंगी। भूल जाइए किसने आपका अपमान किया, आपको कष्ट दिया या आपसे अनुचित वर्ताव किया। उन्हें कुण्डलिनी का ज्ञान तथा विवेक बुद्धि नहीं दे सकते ता चंतन्य लहरी 13 लेते हैं। वर्तमान में रहते हुए आप थकते नहीं क्योंकि न तो आप भूत की सोचते हैं न भविष्य की। प्रसन्नतापूर्वक रहते हुए आप चीजों को सुधारते हैं। इस प्रकार आप अपने तथा दूसरों को कठिनाइयों से बचाते हैं। विवक का अभ्यास व्यक्ति की करना चाहिए और पूर्णतया वर्तमान में रहने का भी उदाहरणतया सहजयोग में एक बात निश्चित है कि आपको दुःख देने वाले स्वयं कष्ट पायंगे। अत: उन्हें क्षमा कर दीजिए। उन्हें शांत कीजिए। इस प्रकार की विवेक बुद्धि हममें होनी चाहिए। लोगों के पीछे नहीं पडना है किसी को भयभोत नहीं करना न ही किसी से कठोरता से व्यवहार करना है। है और घर से बाहर जाते हुए आध रास्ते जाकर बहुत से लोगों को याद आएगा कि वे कुछ भूल गए हैं। इसके लिए वे वापिस आयेंग आदि.....। उस समय यदि आप बर्तमान में हों तो कुछ भूलं। विवेक स्वत: कार्य करता है। यह एक महान शक्ति हैं। यह किसी भी प्रकार की भूल, हमले या मुर्खता का सामना कर सकता है। अत: हमें चाहिए कि विवेक को विकसित कर इसे परिपक्व करें। ध्यान ही एक एसा मार्ग है जिसके द्वारा आप अपना दायां और बायां (झुकाव) त्याग कर अपने मध्य में स्थिर हो जाते हैं तथा अपने अस्तित्व तथा विवेक का आनन्द लेते हैं। अपने जीवन का एक अहं भाग हम कष्ट, परेशानियाँ झेलने तथा दूसरों को परेशान करने में व्यतीत करते हैं। हमारे पास समय है कहाँ? भी न हजारों लोगों की कुण्डलिनियां हमें जागृत करनी हैं पर हम तो व्यर्थ की चीजों में फंसे हुए हैं। हमारा विवेक समाप्त हो जाता है। सर्वोच्च स्तर के लोगों में भी विवेक नहीं है क्योंकि वे भी पलायन करना चाहते हैं। तंग आकर सन्यास ले आज की पूजा में हमें विवेक की याचना करनी चाहिए लिए हमें वर्तमान में रहना होग । तथा इसके परमात्मा आपको धन्य करें। महालक्ष्मी पूजा कोल्हापुर 21.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण ( सारांश) समाप्त हो जाती है। सहजयोग में आप पर ऐसी कृपा होती है कि आपको इच्छित वस्तु प्राप्त होने लगती है। यदि आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लें तो सभी पीछे छोड़ कर भारत में दरिद्रता देखकर हम खिन्न हो जाते हैं। गरीबी दूर हो सकती है यदि ये सब लोग परमात्मा के आशीर्वाद को पा लें। परमात्मा का विधान महालक्ष्मी के माध्यम से कार्य करता हैं। आपको एक ऐसे बिन्दु तक पहुँचना पड़ता है जहाँ आपका लक्ष्मी तत्व्र सन्तुष्ट हो जाए तथा आप सत्य साधना करने लगे। यह जिज्ञासा महालक्ष्मी तत्व की देन है। मध्यमार्ग में ही सहजयोग विकसित होता है। अधिक धनी लोग भी सहजयोग में प्राय: नहीं आते। यदि आते हैं तो बिना गहनता को जाने लाभ उठाने लगते हैं। इसी प्रकार बहुत गरीब भी नहीं आते। एक ही देखभाल करें, उन्हें भोजन आदि देकर आनन्दित हों। इस प्रकार नदी के ये दो किनारे हैं । यदि हम विस्तृत होने लगे तो निःसन्देह इन दोनों किनारों पर परमात्मा के आशीर्वाद की बर्षा करने लगेंगे सहजयोगी बने बिना आपकी आर्थिक दशा पूरी तरह से ठीक नहीं हो सकती और बिना लक्ष्मी तत्व की सन्तुष्टि के आप सहजयोगी नहीं बन सकते । तो अपने लक्ष्मी तत्व को सन्तुष्ट किस प्रकार करें। आवश्यकता से अधिक धन जब हमारे पास होता है तो हम सोचने लगते हैं कि इस धन का क्या करें? कुछ सोचते हैं कि मैं एक और कार, एक और कोठी आदि ले लूं। एक प्रकार की असन्तुप्टता के भाव प्रवेश कर जाते हैं। अब और क्या? तब आयकर आदि की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं तथा पेरशान हो जाते हैं। धनार्जन की दौड़ कुछ आप महालक्ष्मी तत्व में प्रवेश कर लेते हैं। अत्यधिक धन आपके अहं को बढ़ावा देता है। उदारतापूर्वक देना ही लक्ष्मी तत्व है। अत: उदार बनिए। लक्ष्मी तत्व का दूसरा नियम तब कार्यान्वित होता है जब आपके सुन्दर घरों में आकर अन्य सहजयांगी ठहरें, आप उनकी उदारता का प्रारम्भ होता है परन्तु यह उदारता भी अधिक सन्तोष प्रदायी नहीं तब व जीवन के सत्य की प्राप्ति के विषय में सोचने लगते हैं। एक दुर्ग बनवाते हुए एक बार- शिवाजी ने सोचा "मैंने इतने गरीब लोगों को कार्य दिया है"। अचानक उनके गुरु स्वामी रामदास वहाँ आए और कहने लगे कि इस गोलशिला को सावधानी पूर्वक तुडवाईये। नारियाल के आकार के इस पत्थर को अपने हाथ में लेकर रामदास जी ने तोड़ा तो इसके अन्दर एक मंढक था तथा जले भी। तब शिवाजी को समझ आयी कि परमात्मी जब आपका सृजन करता है तभी आपके भोजन चैतन्य लहरी 14 उपलब्धि योग्य प्रतीत होने वाली इन भ्रमक चीजों से व्यक्ति को बचना चाहिए क्यांकि ये मानव को बहुत ही विकराल बना देते हैं। अधिक धनी लोगों के पास शिष्टता नहीं होती। किसी भी प्रकार की मर्यादा उनमें नहीं होती और न ही व अन्य लागों की परवाह करते हैं। या-या (झूले) की तरह इस तरह के समृद्ध देश दायें से बायें आर बायं से दायं झूलत रहते हैं। की भी व्यवस्था करता है। आपको अहं नहीं करना चाहिए कि आप दूसरों के लिए इतना कुछ कर रहे हैं। सामाजिक कार्य करने से आपमें एक प्रकार का अहं विकसित हो उठता है। इसे बढ़ावा देन के लिए लोग आपको शान्ति पुरस्कार दे देते हैं। नोबल पुरस्कार दे देते हैं आपके प्रति इस प्रकार की उदारता भी अत्यन्त भयंकर है जो आपमें एक भावना (अहं) उत्पन्न कर दे कि आप कोई अति महान चीज़ हैं, इतना महान कार्य कर रहे हैं और इतने लांगें की देखभाल कर रहे हैं। धनी व्यक्ति में एक मूर्खतापूर्ण अहं आ जाता है। जैसे एक राजा ने हीरों से चप्पलें बनावायीं। निलंज्जतापूर्वक वैभव प्रदर्शन करने वाले लोग सम्यता के हत्यारे होते हैं। पूर्ण-चरित्रहीनता के भी वे शिकार हो जातं हैं। उनके लिए आठ वर्ष और बीस वर्ष की लड़की में कोई अन्तर नहीं। समानुपात के विवेक का उनमें अभाव है। इतनी निम्न जीवन यापन वे करते हैं कि वे न केवल अमानवीय बन जाते हैं वे पशुआं से बदतर हो जाते हैं। उन्हें ये समझ तो हो सकती है कि कौन सी शराब के लिए कौन सा गिलास होना चाहिए और यदि इस प्रकार के पांच छः लोग हों ता उनमें स्पर्धा शुरु हा जाती है तथा वह कभी न सुधरन वाला अहं और अधिक बढ़ जाता है। अब हम कंजूस लोगों को देखें। कंजूसी एक बीमारी है। कभी-कभी तो पूरा राष्ट्र ही कंजूस लोगों से बना होता है। निर्लंज्जता से वे धन के विषय में बातें करते हैं वहुत से समृद्ध देश ने हैं. व निर्लज्ज भी हैं। एक बार रात्रि को केवल कजूस हमने किसी के साथ एक होटल में खाना खाया| खाना खाने के बाद भी बहुत सा खाना बच गया तो उन्होंने बैरे से कहा कि बचा हुआ खाना पैक कर दे क्योंकि उसके लिए उन्होंने पैसा खर्चा है। लज्जा, शिष्टता या मर्यादा तो हैं ही नहीं। धनी होने का यह बहुत बड़ा अभिशाप है। अशिष्ट, अहंकारी तथा उससे भी ऊपर अधार्मिक हो जाते हैं । लोग पूर्णतया निर्लज्ज, परमात्मा आप पर कृपा करे। क्रिसमस पूजा गणपति पुले 24.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) आज का यांग अति विशेष है। इस विशेष दिन को अंगार की चतुर्थी अथवा कृष्णपक्ष की चतुर्थी कहते हैं। प्रत्येक चतुर्थी को, जो कि महीन के चौथे दिन पडती है, को श्री गणेश का जन्मदिन मनाया जाता है। मंगलवार के दिन आयी इस चतुर्थी का विशेष महत्व होता है। आज यही दिन है । हम सब मंगलवार, अंगार की चतुर्थी के दिन गणपति पुल में आये हैं। आज के दिन श्री गणेश की पूजा के लिए हजारों लाग यहाँ आते हैं। सहजयोगियों को समझना चाहिए कि जा भी कुछ घटित होता है, कि क्या करें। नम्रता तथा विवेक श्री गणेश जी की विशेषताएं हैं। य दोनों गुण गणेश तत्व की देन हैं सुन्दर चाल से चलते वाली स्त्री को भी गज गामिनी कहते हैं। हाथी केवल घास खात फिर भी अत्यंत शक्तिशाली होते हैं, बड़-बड़े वजन ढाते हैं फिर भी बड़े शान्त स्वभाव के होते हैं। किसी भी चीज के लिए वे जल्दी नहीं करते। उनकी स्मरणशक्ति भी बहुत तीव्र होती है। जब भी आप की बायीं ओर दुर्बल हा जाती है तो आपकी स्मरण शक्ति धुधला जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके अन्दर गणेश तत्व कम हो गया है। जब आप बहुत अधिक दायीं और को झुक जाती है तो बायीं और का गणेश तत्व कम हो जाता है। अति कर्मी लोगों की स्मरण शक्ति भी वृद्धावस्था में समाप्त ही जाती हैं । श्री गणेश की एक विशेषता है कि विवक के साथ-साथ उनकी स्मरणशक्ति भी बहुत तीव्र है, वे सब कुछ याद रखते हैं उसे धेर्यपूर्वक स्वीकार करना है। सबूरी के साथ यदि आप जल्दी मचायेंगे या निराश होंगे या घबरायंगे तो कुछ भी न हो सकेगा। सबूरी की अवस्था में आप तुरन्त समझ जाते हैं कि क्या करना है और कैसे। जल्दबाजी असहज हेै। श्री नाथ जी ने कहा है कि धैर्य रखिए। "सबूरी में ही परमात्मा प्राप्त हाते हैं"। जब कोई बातचीत हो रही हो तो देखिए और प्रतीक्षा कीजिए। जब आप ऐसी अवस्था को पा लेंते हैं तो परम चैतन्य सारा कार्य करने लगता है और आप अच्छी तरह जान जाते हैं हैं। उन्हें सब कुछ याद रखना पड़ता है, क्योंकि सभी क्मों के चिन्ह कण्डलिनी पर श्री गणेश जी ही ऑंकित करते हैं। उनकं चंतन्ध लहरी 15 दायं हाथ में एक कलम है जो कि उनका अपना दाँत है और बे आपके विषय में सभी कुछ आपके कर्म, आपकी समस्याएं, परमात्मा की खोज में आप कहाँ गए आपने क्या बुराईयां की लिखते हैं। कुण्डलिनी जब चढ़ती है तो आपक चक्रों की सभी अशुद्धियां दिखाई पड़ती हैं और महसूस होती. है तथा आप जान जाते हैं कि उस चक्र में क्या समस्या है। इस प्रकार यह पूर्णतया बैज्ञानिक है। गणेश तत्व का केवल यही गुण नहीं है कि व्यक्ति अबध तथा पवित्र हो, उनके बहुत से गुण हैं जैसे आपमें विवेक और बुद्धिमता होनी चाहिए, आपको समझ होनी चाहिए कि क्या ठीक है और क्या गलत। भी ईसा ने क्षमा कर दिया। उन्होंने कहा, "हं परमात्मा इन्हं क्षमा कर दो क्योंकि वे अपने कर्म को नहीं जानते"। जब लांग मंदिर के चढ़ावे को बेचकर व्यापार कर रह थे ता उन्हांने कोडा उठाकर उन सब को पीटा। यह उनका दूसरा पक्ष है। जब कोई राक्षस या दुष्ट्रकृति मनुष्य आपको परेशान करता है तो गणों के पति श्री गणेश उनका विनाश करते हैं। आपका कुछ कहना या करना नहीं पड़ता। ये गण आपके साथ हैं। जब वे आपको बचाते हैं तो आप समझते हैं कि चमत्कार हुआ। यदि ये गण आपकी रक्षा कर रहे हैं तो आप समझ लौजिए कि आप सहजयोगी हैं। अंगारिका क्या है? श्री गणेश जलते हुए अंगारों को ठंडा कर देते हैं कुण्डलिनी भी एक ज्वाला है। इसका उत्थान धंधकती ज्वाला-सम है। पृथ्वी में गुरुत्चाकर्षण हैं और ऊपर का जाने वाली कोई भी चौज पृथ्वी की आर खिंचती है। केवल अग्नि ही गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर को जाती है | श्री गणेश दो प्रकार से आप के अन्दर की अग्नि को शांत करते हैं। व कुण्डलिनी का शांत करते हैं सभी अवगुणों के बावजूद भी व्यक्ति के लिए आत्मसाक्षात्कार की प्रार्थना बे कुण्डलिनी से करते हैं। वे कुण्डलिनी के बालक हैं और आपके अन्दर वे ही शिशु हैं। इस संबंध के कारण वे कुण्डलिनी को समझा पाते हैं कि आप मेरी माँ हैं और कृपया इच्छापूर्ति में मेरी सहायता कीजिए। तब कुण्डलिनी शांत होकर सोचती है कि मेरे बच्चे की इच्छानुसार हमारे शरीर के अन्दर ये गण सदा सक्रिय हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने पर जब आपका सम्पर्क परमात्मा से हो जाता है, तब ये आपकी, आपके कार्यो की, आपके वच्चों आदि की देखभाल करते हैं। आत्मसाक्षात्कार से पूर्व हमारे शरीर के अन्दर में गण प्रतिकारकों के रूप में विद्यमान होते हैं। ये हमारे मध्य हृदय में होते हैं और 2 वर्ष की आयु तक उरोस्थि में इनकी रचना होती है। जब कोई प्रकोप आप पर होता हैं तो उरोस्थि में कंपन होता है. और तुरन्त ये रोग प्रतिकारक मंडराते हुए खतरे, रोग या वायरस से युद्ध शुरु कर दते हैं। माँ के विरुद्ध जाने से आप चरित्रहौन हो जाते हैं और पिता के विरुद्ध जाने से आप आलसी और अकुशल बन जाते हैं । चरित्रहीन लोगें के चक्र बहुत दुर्घल हों जाते हैं और उन्हें ठीक करना अति कठिन होता है। उन्हें एड्स बा कोई अन्य विनाशक रोग हो सकता है। अत: हर्मं सदैव अपना जीवन पवित्र रखना चाहिए। ईसा ने भी इस पवित्रता की वात की। उन्होंने कहा "आपके पास अपवित्र आंखें नहीं होनी चाहिए"। क्योंकि उनका स्थान आज्ञा चक्र में है अत: यदि व्यक्ति की आंखें पवित्र नहीं हैं तो इस चक्र में ईसा जागरुक नहीं है। पश्चिमी देशों के लोग ईसा में विश्वास करते हैं पर उनकी आंखें अपवित्र हैं। उनकी आंखें सदा स्त्रियों या पुरुषों को देखने में लगी रहती हैं। वे स्थिर नहीं हैं। यह नकारात्मकता है। वैठे मैं ऊपर उठ्। एक बार देवी बहुत नाराजू हो गई और उन्होंने सोचा कि पूरे विश्व को समाप्त कर दें, उन्हें लगा कि उनके बनाए हुए लोग बेकार हैं और बहुत अपराध करते हैं। तब वे तांडव नृत्य करने लगी। यह देखकर शिवजी को बडी चिन्ता हुई। उन्होंने देवी कार्तिकेय को उनके चरणों में डाल दिया, ज्योंही पुत्र उनका पैर अपने बालक पर पड़ा वे तुरन्त शांत हो गई। इसी प्रकार श्री गणेश कुण्डलिनी को बताते हैं कि आप अपने बालक को जन्म दे रही हैं और इस समय आपको क्रद्ध नहीं होना। यह कहकर वे कुण्डलिनी को शान्त करते हैं। कुगुरुओं के पास जाने वाले लोग भी कुण्डलिनी को बहुत कष्ट देते हैं। कुण्डलिनी श्री गणेश की शक्ति के द्वारा ही उठती है| कुण्डलिनी में जो शाले उठते हैं वे शीतल शोले हैं। यह शीतलता भी श्री गणेश जी ही प्रदान करते हैं। अत: एक प्रकार से वे आपके क्रोध को भी शांत करते हैं। क्रोध की अवस्था में हम भटक जाते हैं और हमें हमारा धर्म, हमारा करत्तव्य भी याद नहीं रहता। इस क्रोध में हम किसी को चोट पहुंचा सकते हैं या उसकी हत्या कर सकते हैं। इस समय श्री गणेश ही हमारे क्रोध को शान्त करते हैं और हमें संभालते हैं । श्री गणेश हर चक्र पर विराजित हैं। हर चक्र पर हुए वे कुलपति हैं। जब तक वे नहीं कहते कुण्डलिनी नहीं चढ़ती। उनकी दूसरी प्रवृत्ति अंगारसम है। एक शोला ही दूसरे शोले को शान्त कर सकता है। जब रावण श्री राम के विरुद्ध बोला तो पूरी लंका जल गयी क्योंकि श्री हनुमान भी मंगलवार को ही जन्में थे और श्री गणेश एवं श्री हनुमान मिलकर मानव के अन्दर के क्रोध को शान्त करने का कार्य करते हैं । वे इस प्रकार कार्य करते हैं कि व्यक्ति समझ जाता है कि उसने गलती की है। क्रोधी स्वभाव के व्यक्तियों को भी वे ठीक कर देते हैं। यदि कोई व्यक्ति मांगलिक हो अथ्थात् उसका मंगल ग्रह दुर्बल हो तो उसे मूंगा पहनने के लिए कहा जाता है जो कि गर्म होता है। अग्नि से अग्नि बुझती है। गर्म देशों में रहने वाले लोग ईसा भी श्री गणेश के समान हैं उन्होंने कहा कि सबको क्षमा कर दो, जिन्होंने उन्हें कष्ट दिए, क्रूसारोपित किया उन्हें मिर्चो का बहुत उपयोग करते हैं । पसीनों से वे ठण्डे हो जाते हैं। अपनी गर्मी से श्री गणेश आपकी गर्मी को शान्त करते हैं हमें श्री गणेश के प्रति समर्पित होना चाहिए कि वे इस गर्मी को वश में रखें। आप अति बुद्धिमान तथा भाग्यशाली हैं कि आपने सत्य को खोजा तथा प्राप्त किया। इसे पूर्णत्व तक लाने के लिए आपको श्री गणेश के गुण आत्मसात करने चाहिएं। श्री गणेश की पूजा के लिए हजारों लोग गणपति पुल आए हैं। वास्तव में कितने लोग उन पर विश्वास करते हैं ? कितने लोगों में श्री गणेश के गुण हैं? वे शराब पीते हैं, स्त्रीलम्पट हैं, परस्पर व्यक्ति को धैर्य रखना चाहिए कि पूजा के उचित समय पर ही पूजा होगी। विधि के विधान को क्यों बदलना है? हम समय के दास नहीं हैं। यदि आप लोग समय के दास न बने झंगड़ते हैं और अत्यांचारी हैं फिर भी वे अंगारिका एवं श्री तो सहजयोग फैल सकता है। इसका अनुभव तथा इस पर विश्वास होना चाहिए। सहजयोग में अन्ध विश्वास नाम का कुछ नहीं है। यह विश्वास हमने अपने चक्षु तथा बुद्धि से देखा है। यदि देख कर भी आप विश्वास नहीं करते तो अवश्य आपमें कोई दोष हैं। आप देख सकते हैं कि श्री गणेश कितने उनके गुणों को अपनाया? बिना उनके गुणों को ग्रहण किए महान हैं और अप्ट-विनायक (आठ गणेश) के कारण महाराष्ट्र कितना पुण्यवान गणेश की पूजा करने को आ पहुंचे हैं। आपमें बदि इतनी बड़ी अग्नि है तो आप आए ही क्यों? कोई नहीं सोचता कि जिस पर वे विश्वास करते हैं उसके गुणों को भी अपनाना है। आप भिन्न गुरुओं तथा देवताओं की पूजा करते हैं, पर क्या आपने आपका उनपर विश्वास करना व्यथ्थ है । है। परमात्मा आप पर कृपा करें। श्री लक्ष्मी पूजा अलिबाग 29.12.91 परम पूज्य श्री माताजी का प्रवचन (सारांश ) प्रकृति की सुन्दरता का आनन्द लेने का अर्थ है प्रकृति के साथ रहना। नारियल के फल को श्री फल कहते हैं क्योंकि यह सहसार होता है। यह अचम्भे की बात हैं कि यह फल जानता और समझता है। यह किसी व्यक्ति या जानवर पर नहीं गिरता। इस फल से कोई आहत नहीं होता। यह मनुष्यों से अधिक समझदार हैं। सहजयोग में बहुत मिठास, अच्छाई, धार्मिकता है और यह इतनी प्रोत्साहक हैं नव विवाहितों को एक दूसरें के प्रति स्नेही होना चाहिए। आप यदि आरम्भ में अलगाव रखते हैं तो आपकी इससे हानि होगी। कृपया स्नेही सुखद और वातृूनी बनें। यह नहीं है कि चुप रह कर आप दूसरों पर अपना प्रभाव डाल रहे हैं। आतें करना बहुत आवश्यक है। अपनी भावनाओं को छुपाना नहीं चाहिए। यदि आपके वैवाहिक संबंध बहुत अच्छे होंगे तो आपकी सन्तान भी वहुत अच्छी होगी। तब इस संसार में एक नए प्रकार की जाति पेदा हागी। यह बच्चे हमारे लिए सबसे प्रबल चीजें होंगी और वह ऐसे बहुत से कार्य कर लेंगे जो हम नहीं कर सके। हम यहाँ अलीबाग में समुद्र के बहुत पास है और हमें समुद्र की भावनाओं को समझना चाहिए। एक प्रकार से समुद्र आपके नाना हैं क्योंकि ने लक्ष्मी को जन्म दिया जो बाद प्रयोग करते हैं और इस प्रकार की हास्यास्पद पोशाकें पहनते हैं और अत्यन्त दुष्वरित्र जीवन जीते हैं। यह समुद्र का अपमान है। जैसे हमारे यहाँ बरुण है, पौराणिक कथाओं में भी एक समुद्र देवता हैं नेपचून। इस समुद्र देवता की आराधना करनी पड़ती है तथा इसे समझना पड़ता है और आदर करना होता है। हम निरादर नहीं कर सकते। समुद्र में प्रवेश करने से पहले और समुद्र से निकलने के बाद हमें नमस्कार करना चाहिए। के कारण ही हमें वर्षा मिलती है। समुद्र हमारे जीवन के लिए इतना आवश्यक है। समुद्र गुरु है, महागुरु हैं जो हमें बहुत सी बातें सिखाता है। सबसे पहले तो वह बह महागुरु समुद्र है जो हमारे लिए नमक बनाता है। ईसा ने कहा है कि आप ही ब्रह्माण्ड के नमक हैं आप ही ने मनुष्यों को नमक का स्वाद और दूसरी विशेषताएं प्रदान की। समुद्र की अपनी मर्यादा होती है। जब समुद्र में ज्वार उठता है तो वह एक स्थान तक आता है और वापस लौट जाता है और दूसरे दिन फिर वह उसी स्थान तक आता है। समुद्र की दूसरी विशेषता यह है कि यह अपने भीतर रहने वाले सभी प्राणियों की देखभाल करता है। मछलियां तथा दूसरे समुद्री जीव इसमें जीवित रहते हैं। जीवन का प्रारम्भ ही समुद्र से हुआ हमारे सारे पूर्वज जरूर पहले समुद्र में ही पैदा हुए होंगे और तब हम मनुष्य बने। हमारे पूर्वजों के रहने के स्थान समुद्र का अनादर करने का हमारे पास कोई अधिकार नहीं है। जब मछली एक यह लवणमय है परन्तु समुद्र में महालक्ष्मी बनीं। हमें समुद्र को पूरा सम्मान देना चाहिए। साधारणतया पश्चिमी देशों तथा भारत के लोग इसे संडास की तरह इस्तेमाल करते हैं। पश्चिमी देशों मे वे इसे तैराकी के लिए चैतन्य लहरी 17 रंगने वाला प्राणी बनकर बाहर आयी तो हमारे पूर्वज भी एक एक करके समुद्र से बाहर आने लगे। यह सहजयोग के लिए अत्यन्त आवश्यक है कि आप सब कुछ स्वयं में सोख लें। उससे जुड़ें नहीं और उसे बाष्प बनने दें। यह विधि हमें सुधार के द्वारा सीखनी चाहिए। सहजयोगी अब भी मेरे पास किसी के उपचार के लिए आते हैं। मैं क्या उपचार करू? आप क्यों नहीं उपचार कर सकते? क्या आप समुद्र की तीसरी विशेषता यह है कि वह गहरा है । यदि इसकी गहराई केवल कुछ फुट हो कम कर दी जाए तो चारों ओर एक समस्या खड़ी हो जाएगी। इसी प्रकार जो कुछ भी गहराई हमने सहजायोग में पाई है हमें उसमें रहना चाहिए। साधारणतया हमें तुच्छ लोगों की तरह नहीं होना चाहिए। हम यह नहीं कर सकते। हमें गहरे बनना है जिससे हमें सहजयोग की और स्वयं की गहरी समझ हो। यह आत्मसम्मान की निशानी है। आपमें स्वयं तथा सहजयोग के लिए यह आत्मसम्मान होना चाहिए। यह आत्मसम्मान की निशानी है। आपमें के किसी का उपचार करने से डरते हैं? आप सभी उनका उपचार कर सकते हैं, सहायता कर सकते हैं और जितना अधिक आप उपचार करेंगे उतने ही बढ़़िया आप हो जायेंगे। आपको साहस करना चाहिए। आपमें इतना साहस होना चाहिए कि दूसरों का उपचार कर सकें। यदि आप दूसरों का उपचार नहीं करते तो आपकी स्वयं की वृद्धि नहीं होंगी। जब आप दूसरों का उपचार करते हैं तो अधिक चैतन्य लहरियां बहती हैं। यदि आप अपनी चैतन्य लहरियों का प्रयोग ही नहीं करने वाले तो परमात्मा आपको चैतन्य लहरियां क्यों देंगे? जब हम अपने हाथ-पैर और समुद्र समान आत्मसम्मान तथा राजसी प्रकृति होनी चाहिए। यह पेड़ सारी हवा समुद्र से लेते हैं, परन्तु यह सदा समुद्र की ओर ही झुके रहते हैं, कभी उसके विपरीत नहीं जाते। वह समुद्र की आर झुककर अपनी कृतज्ञता दर्शाते हैं। ये वृक्ष भी समझते हैं। बिना समुद्र के हमें यातायात संभव न होता और इसके है मस्तिष्क सहजयोग के लिए प्रयोग नहीं करते, तो हम अपने भीतर चैतन्य को पैदा नहीं करते हैं। यदि आप यह नहीं करते तो आप सबकी सारे समय कोई न कोई समस्या रहेगी आप अतिरिक्त समुद्र की नीचे की सतह के अन्दर महान सम्परदा जिसकी अभी छानबीन तहीं हुई है परन्तु जब भी खोज की गई तो सारा विश्व बहुत समृद्ध हो जाएगा। परन्तु वह इस बात पर लड़ रहे हैं कि समुद्र के कौन से हिस्से पर किस का आधिपत्य कहंगे कि मैं ध्यान कर रहा हूँ, पूजा कर रहा हूँ, पर में पूर्णतय ठीक नहीं हूँ। आपको हर संभव तरीके से अपनी चैतनऱ्य लहरियों का दूसरों को ठीक करने के लिए उपयोग करना है। यदि आप समझते हैं कि इससे तकलीफ हो सकती है तो आप बंधन ले सकते हैं। परन्तु कम से कम मेरे फोटो का प्रयोग के सी सम्पदा समुद्र है। सीना, चांदी और जवाहरात जैसी बहुत तल में छुपी है और एक दिन शायद इस लक्ष्मी की खोज हो सके और हम सब लोग वैभवशाली बन सकें। इसके अलावा जब हम यातायात द्वारा कुछ चीजें ले जाते हैं, तो हम लक्ष्मी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। समुद्र ने हमें यह अवश्य करें। इस फोटो के पश्चात आप उस व्यक्ति को केबल स्पर्श कर सकते हैं। कोई क्षति नहीं होगी। अन्तत: यदि आप किसी भी विपदा से इरते हैं तो सहजयोगी होने का क्या लाभ? यदि जहाज समुद्र में तैरने योग्य नहीं है तो जहाज बनाने का क्या लाभ? आपको समुद्र में तैरने योग्य होना चाहिए। आपको निश्चय करना है कि हम चैतन्य लहरियों को अपने अन्दर सोखेंगे और सब कुछ अपने ऊपर लेंगे। विश्वास रखें कि आप सब एक समुद्र की तरह महागुरु हो और जो कुछ भी आप कर रहे हो वह आपके भीतर चैतन्य फैला रहा है जिसके द्वारा आप इतने लोगों को बचा सकते हैं। गतिशीलता दी है। मैंन देखा है कि समुद्र मेरे से बहुत यदि समुद्र में चाँद की रोशनी प्रतिबिम्बित हो रही हो तो वह मेरे साथ-साथ चलती है। समुद्र मुझे समझता है क्योंकि मेरा इसके साथ एक विशेष संबंध तथा आदर समुद्र के कारण ही आप यहाँ मजे ले रहे हैं। यह आपको इतना सुन्दर अनुभव और आध्यात्मिकता प्रदान कर रहा है। हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं क्यांकि जिसने हिमालय को ढका हुआ वह इस ममुद्र का पानी ही हैं जो कि वर्षा और हिम के रूप में हिमालय पर जाता है और नदियों के रूप में वापस समुद्र में आ जाता है। यह एक परिक्रमा है। सभी कुछ समुद्र में आकर समाप्त हो जाता है और सूर्य की गम्मी को सहकर समुद्र बादलों की सृष्टि करता है तथा इस प्रकार तपस्या करता है। इसी प्रकार हमें भी दूसरीं के ताप और गुस्से का सहन करना है और वाप्प बनाना है अर्थात् दूसरों को चैतन्य लहरियों का बरदान दंना है। जब मैं किसी ऐसे व्यक्ति का देखती हूँ जो रोगी है और में इसका इलाज करती हूँ तो निश्चय ही मुझे कष्ट सहना पड़ता है। उसके कष्टों को स्वयं लेकर मैं चैतऱ्य लहरी को बहान लगती हूँ। प्रतिक्रिया करता है। है। जितना अधिक आप देंगे उतना ही अधिक आप पायेंगे| अपनी चैतन्य लहरियों का आप जितना अधिक उपयोग करंगे, उतनी ही अधिक चैतन्य लहरियां पायंगे। हमेशा दूसरों की मदद के लिए चैतन्य लहरियों का उपयोग करो। पेड़ों, जन्तुओं तथा है प्रकृति को लहरियां दो। वह अवस्था आनी है कि आप स्वयं जल चैतन्यित कर सकें। आप सब इसका समाधान कर सकते हे और बहुत कार्य कर सकते हैं परन्तु अपने ऊपर विश्वास रखें जिससे सहायता मिले। स्वयं में विश्वास, कि आप अपनी माँ के प्रति पूर्णतया समर्पित महान सहजयोगी हैं, विश्वास ही आपका सहायक होगा। आप सबको अनन्त आशीर्वाद। चतन्य लहरो 18 कालवे पूजा 31.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश आकर हमारे चक्रों पर कृपा करने लगती है तो स्वत: ही हम श्री गणेश की पूजा अतिमहत्वपूर्ण है। फोटो आदि से आप जान पाते हैं कि वे जीवन्त देवता हैं वे मू्लाधार पर विराजित सोचने लगते हैं कि हमारी अबोधिता लौट आयी हैं। हमारा हृदये मन तथा प्रेम अबोध है। यह अवोध व्यक्तित्व ही एक अच्छे सहजयोगी का चिन्ह है । वह जानता है कि श्री गणेश के हैं, यद्यपि वे हर चक्र पर हैं। वे साक्षात पवित्रता हैं और उनके विना कुछ भी पूर्ण नहीं होता जहाँ भी कुण्डलिनी जाती है वहाँ श्री गणेश पहुंचते हैं। उन्हीं की शक्ति से ही आपके चक्र शुद्ध होते हैं । श्री गणेश के गुणों , चक्र शुद्ध करने की उनकी कार्य शैली जो आपकी सहायक है, उसका ज्ञान प्राप्त करना हैं यदि आपने सहजयोग का अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न अति महत्वपूर्ण है। ब्रह्मचर्य, पवित्रता तथा विवेक के लिए हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। हमें समझना चाहिए कि विवेक को जायेंगे। मैंने बहुत बार आपको चेतावनी दी है कि सहज़योग का मन में बिठाया नहीं जा सकता। इसके साथ खीचातानी नहीं की दुरुपयोग मत करो। यह सभी के हित के लिए है। सहज-आनन्द जा सकती। यह अन्तर्जात हैं यह हमारी परिपक्वता की देन है। अपनी कुण्डलिनी पर पूरा चित्त देने से और सर्वत्र विद्यमान ान गण उसकी रक्षा कर रहे हैं। हर समय ये गण आपकी रक्षा करते हैं। पर वे आपको तथा आपके आचरण को भी दख रहे किया तो वे आपको दण्डित भी करेंगे। वे आपके विरुद्ध हो सहजयोग को समझने का सर्वात्तम मार्ग है। बहुत से लोग इस सत्य को खोज रहे हैं। आप उन्हें खोजिए। खोज कर बिना किसी वाद-विवाद के उन्हें आत्म- शक्ति पर स्थिर करने से ही यह वाछित परिपक्वता आती है। इसे नियमित ध्यान धारणा से पाया जा सकता है। यह कोई साक्षात्कार दे दीजिए, उन्हें लहरियों का आनन्द लेने दीजिए, कार्य काण्ड नहीं। कुछ समय उपरान्त आप हर समय स्वयं को बाकी सब कुछ ठीक़ हो जाएगा। विश्व में बहुत कुछ मिथ्या ध्यान में पायेंगे। | कोई बात नहीं। सत्य द्वारा असत्य को दूर किया जा सकता है। वे एक छोटे बालक हैं, शाश्वत शिशु और इसी से बाल सुलभ अबोधिता प्राप्त होती है। कुण्डलिनी जब ऊपर की ओर करें। परमात्मा आपे पर कृपा चैतन्य लहरी 19 5088 ---------------------- 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-0.txt चौतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड IV (1992) : श्री योगी महाजन सम्पादक : श्री विजय नालगिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली-110 067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 4ए/1, ओल्ड राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली 110060 मुद्रित फोन : 5710529, 5784866 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-1.txt चैतन्य लहरी अंक 1 व 2 l ( 1992 ) खण्ड IV विषय सूची पृष्ठ 1. दिवाली पूजा 2. मद्रास जन कार्यक्रम ******* 3. मद्रास जन कार्यक्रम ******** 4. महाकाली पूजा ए) 5. हैदराबाद पूजा 13D श्री गणेश पूजा . 13 6. 7. महालक्ष्मी पूजा www.w14 ४. क्रिसमस पूजा 15 9. श्री लक्ष्मी पूजा .... 17 10). कालवे पूजा 19 ..... ******** पा पद क् तान ाि परमात्मा को प्रतिबिम्बित करती हुई इतनी सारी आत्माएं मेरे सम्मुख बैठी हैं, मैं कितनी गौरवशाली माँ हँ। आप सब विश्व के असंख्य लोगों को ज्योतिर्मय कर सकते हैं।" त प. पू. माताजी श्री निर्मला देवी 1{) नबम्बर, 1991, कबैला, इंटली 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-2.txt दिवाली पूजा कबेला, 10 नवम्बर, 1991 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन तो मरते नहीं। तो जो भी जन्मा है उसकी मृत्यु होनी ही है. न जाने क्यों लोगों ने मृत्यु को इतना महत्त्व दे दिया है। यह भी केवल एक क्षण है है और कपड़े बदल कर बापिस आ जाता है। जोवन में यदि कोई करने योग्य कार्य है तो वह है आनन्द प्राप्ति। फ्रांस में दिवाली पूजा के अवसर पर श्री माताजी ने हमें कहा कि सहजयोग में आकर हम आनन्दमग्न हो जायें। एक ऐसा क्षण है जिसमें व्यक्ति गुजर जाता साक्षात्कार का आनन्द और परमात्मा के साम्राज्य में हमारी उपस्थिति हमारे व्यक्तित्व से झलके। खासतौर पर उदासी भरे गीत हम न गायें और न ही दर्दनाक पुस्तकें पढ़ें। श्री माताजी के पूजा भाषण में सहजयोगिनियों के लिए कुछ विशेष शिक्षा भी थी। मृत्यु के विषय में इसाई धर्म ने कुछ विशेष नहीं बताया। "ईसा को यदि जीवित रहने दिया गया होता तो वे इसके विषय में कुछ बताते, परन्तु उन्होंने बताया कि आत्मा अमर है। नि:संदेह उन्होंने त्याग के विषय में बताया। आँसू बहाने की जल-शक्ति स्त्रियों में हैं। स्वयं को दुःखी मानकर अन्य लोगों को कष्ट पहुँचाने की शक्ति भी उनमें है। हर स्त्री के अन्दर मातृत्व, महान सामर्थ्य एवं बलिदान निहित हैं। पर यह सब कुछ होते हुए भी े जान लें कि वे बायीं ओर झुकी है। हृदय के जिस आनन्द की बात हम करते हैं उसे बाहर प्रकट होना है। लोग ये देख सकों कि हम प्रसन्न हैं और आनन्द विभार हैं । अन्य लोगों की तरह से छोटी-छोटी वस्तुआं के लिए हम राना नहीं आपका उत्थान तथा परमात्मा के साम्राज्य में आपका पद हो इस जीवनकाल में सर्वोच्च है। स्त्रियों को मैंने विशेषतया बताना है कि (त्रासदियों) पीड़ा से भरी पुस्तकों को पढ़ने का प्रभाव उनकी नाड़ियों पर पड़ने लगता है। कोई भी यदि छोटी ं सी बात कह दे तो धमाका हो जाता है। सर्वप्रथम हमें देखना चाहिए कि हम स्वयं को क्या हानि पहुँचा रह हैं कितनी ही शुरु कर देते। कठिनाई की अवस्था में भी सहजयोगिनियों को रोना नहीं पश्चिमी स्त्रियों ने अपना विनाश कर लिया. पर इस पर उनका चाहिए। आपना अनुभव बताते हुए श्री माताजी ने कहा कि "मेरे पिता जी की मृत्यु के अवसर पर आश्चर्यजनक रूप से मैं निर्विचार हो गई, पृर्णतया निर्विचार। लगभग तीन दिन तक में स्त्रियाँ भी देखी हैं जिनमें महान सबूरी है और जिनका जीवन निर्विचार थी-दु:ख-दर्द का कोई विचार नहीं आया, केवल निर्विचारिता रही। सभी लोग हैरान थे क्योंकि मैं उनकी देखभाल कर रही थी। मेरे पिता मुझ से बहुत प्रेम करते थे, मुझे आती है जब आप के अंदर वह आनन्द हो। मुझे कोई भी चाहते थे, सभी कुछ था।" अत: यदि आप सहजयोगी या सहजयागिनी हैं तो कठिनाई की अवस्था में निर्विचार हो जाइये। इससे प्रकट होता है कि परमात्मा आपको तथा आपकी समस्याओं को अपने हाथ में ले लते हैं। अपना रक्षा कवच आप पर डाल कर ईश्वर आपको निविचार करके कठिनाई से जाते हैं। तो आज मैं आप सबसे वचन चाहती हूँ कि आप कभी निकाल लेते हैं। निर्विचार- समाधि की इस अवस्था में आप जाने पाते हैं कि ठीक क्या है और गलत क्या है । तो कठिन परिस्थितियों में भी यह निर्विचार समाधि अत्यन्त चुस्त होती है और साधारण परिस्थितियों की अपेक्षा कहीं अधिक चुस्त हो जाती है। एक भी अश्रु नहीं गिरा। "परन्तु मैंने पूर्व और पश्चिम में कुछ अति सूझ-बूझ वालों के प्रति राजसी दृष्टिकोण है चलते हुए हाथी पर यदि कुत्ते भौंकते रहें तो भी क्या अंतर पड़ता है। यह तेजस्विता तभी नाराज नहीं कर सकता। यही नियम होना चाहिए। अन्यथा आप बायीं ओर को झकने लगेंगे।" रोना-धोना एक अन्य प्रकार से अहं की अभिव्यक्ति करना है। स्त्रियाँ जब रोना धोना शुरु करती हैं तो पुरुष बायीं ओर झुकने लगते हैं तथा पकड़ में आ रोएंगी नहीं। पुष्पार्पण के स्थान पर अपने बचन का यह पुष्प आप आज मुझे भेट करें। में कभी नहीं रोतो। नि:संदेह 'सान्द्रकरुणा के एक दो आंसू कभी निकल पड़ते हैं। आखिरकार में एक माँ हूँ। यरन्त इसका अभिप्राय बैठकर आंसू बहाना और उन्मत्त होना तो नहीं। रोने-धोने की बात करने वाली पुस्तकें न पढ़ं गहन विषय वाली पुस्तकें भी हृदय-स्पर्शी होती हैं, परन्तु यदि आपकी इच्छा रोने की ही है तो ठीक है।' "हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं और किसी भी प्रकार से दुःखी नहीं हैं। जीवन में कुछ घटनाएं होनी होती हैं, जीवन ऐसा ही है: किसी की मृत्यु होनी होती है, सभी लोग एक साथ तो आज अपने आनन्द का रसास्वादन करने के लिए हम चेतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-3.txt को महसूस कीजिए। जिन्होंने अपने घर बालू पर बनाये हैं उन्हें चिन्ता करनी है। हमें नहीं। हमारी नींव चट्टान पर है। अत: हमें आंति उत्साहपूर्ण, साहसिक और साथ ही साथ अत्यन्त नम्र भी यहाँ हैं-अपने आत्मानन्द, निरानन्द और परमानन्द का, जिनके शाश्वत मूल्य हैं। आपको अब समझना है और विश्वस्त होना है कि अब आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं और आपके अस्तित्व की सुक्ष्म सुन्दरताएं अब आपके सम्मुख प्रकट होने होना है। वाली है। परन्तु यदि पहले से ही आपके चक्षु एवं हृदय द्वार बन्द हैं और इतनी सुन्दर वस्तु को आप नहीं देखना चाहते तो आप कैसे कह सकते हैं कि "कितनी सुन्दर चीज बनाई है?" महसूस कीजिए। यह कितना सुन्दर तथा कोमल है? यह जीवन में रचनात्मक दृष्टिकोण द्वारा आत्मविकास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आप क्या हैं? आप एक सहजयोगी हैं और सहज में जहाँ भी आप होंगे इस सौन्दर्य की सृष्टि कर सकेंगे, लोग देख आपके पास सभी कुछ, सभी प्रमाण, यह जानने के लिए सकंगे कि कितना अध्यात्मिक व्यक्ति है। आप ही सहजयोग विद्यमान हैं कि आप सहजयोगी हैं। अब, मान लो. यदि मैं को प्रतिबिम्बित करने वाले हैं, मैं नहीं। आप ही को सहजयोग जानती हूँ कि मैं आदिशक्ति हूँ तो मैं जानती हूँ कि मैं दर्शाना है। इस प्रकार के लांग सदा आनन्दमय और विवेकशील आदिशक्ति हूँ। इसके लिए मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं। मुझे सभी कुछ करना है। यह मेरा कार्य है क्योंकि मुझ में बह शक्ति है। मेरे अन्दर वह शक्ति है अत: मुझे यह करना है। मैं भी कह सकती हूँ कि मैं एक स्त्री हूँ, मुझे भी बैठकर आँसू बहाने चाहिएं। नहीं, ऐसा करने का अधिकार मुझे नहीं है। यदि मैं चाहूं भी तो भी मैं ऐसा नहीं कर सकती। मेरा कार्य आपको उत्साहित करना तथा आपकी आन्तरिक सूक्ष्मताओं आपकी सुन्दरता के विषय में आपको होना चाहिए? विवेक-कमल को विकसित करके यह सब आप सभी सन्त बन चुके हैं। आप सन्त हैं क्योंकि आपके अन्दर आपके कमल की सुन्दर सुगन्ध है, उस कमल की गुलाबो रंग का है क्योंकि गुलाबी कमल सभी को नियंत्रित करता है, उदारता एवं निरमंत्रण का प्रतीक है। आप भी यही हैं। होते हैं। श्री गणेश ही उस विवेक के दाता हैं जो यह ज्ञान देता है कि किस समय कसे कोई बात कही जाए, किस समय कैसे व्यवहार किया जाए, किस चीज के साथ किस सीमा तक जाया जाए। यह सब अन्तरजात, सहज हो जाना चाहिए। हर सुबह स्वयं से कहिए "मैं एक सहजयोगिनी हूँ। मैं किस सोमा तक जाऊँ? किस प्रकार व्यवहार करू? मरा दृष्टिकोण क्या मे। सुगमता से जाना जा सकता है। कमल बाहर केसे आता है? आपके अन्दर पहले से विद्यमान बीज अंकुरित होता है। आप बताना है। आइए अपनी आन्तरिक सुन्दरता की बात करें। हम क्या है? क्या हम सदा रोने-बिलखने वाले, दयनीय लोग हैं या सदा लड़ने झगड़ने वाले, भौतिक पदार्थों के पीछे भटकने वाले वे लोग, भौतिकता जिन पर शासन करती है? नहीं, हम आत्मा हैं पवित्रता, सत्य एवं ज्ञान रूपी सर्वशक्तिमान परमात्मा के हम प्रतिबिम्ब हैं। हम साधारण लोगों से भिन्न हैं उनके स्तर पर हम कैसे रह सकते हैं? यदि आपमें भूत बाधा है, या यदि आपका कोई कुगुरु था तो संभवत: आप यो यो की तरह ऊपर-नीचे जा सकते हैं। परन्तु जो लोग इस सीमा को पार कर चुके हैं तो उन्हें आत्मा होने का सम्मान करना चाहिए। करेंगा। आपके अन्दर निहित विवेक कार्यशील है क्योंकि देवता सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रतिविम्बित करती हुई आत्माएं यहाँ बैठी हैं। मैं इतनी गौरवशाली माँ हूँ। आप सब विश्व के असंख्य लोगों को ज्योतिर्मय करने में समर्थ हैं। परन्तु आपका आन्तरिक सौंदर्य यह है कि आप यूर्णतया स्वतन्त्र हैं। आप स्वयं पर, अपनी आत्मा के साधनीां पर, अपने आत्मानन्द पर निर्भर हैं। आनन्द प्रदान करने की आशा आप दूसरों से नहीं संरक्षण भी तो है-आप तुरन्त निर्विचार समाधि में चले जाते हैं। करते। मान लो कल कोई आकर यदि मुझे गाली दे तो इसका मृझ पर कोई प्रभाव न होगा क्योंकि मैं आत्मानन्द में हूँ-चट्टानों पर खड़े किसी घर की कल्पना कीजिए। आप भी वैसे ही हैं। इसे महसूस करने का प्रयत्न कीजिए। अपनी आन्तरिक दूढ़ता सब के पास यह है। अब यह खिलने लगा है क्योंकि आप साक्षात्कारी लोग हैं। विवेक को नेतृत्व संभालने दीजािए। तो आप यह कार्य कैसे करें? मेरे विचार में एक रास्ता है। मान लो कि श्री माताजी को यह समस्या होती है वे क्या करती? वे इसका सामना कैसे करतीं? आप कह सकते हैं कि हम माँ का तरीका नहीं समझ पाते। वे युक्तियां जानती हैं परन्तु इसका बड़ा साधारण तरीका है। आप कंवल मेरे विवेक के प्रति समर्पित हो जाइए, यह विवेक कार्यशील है, यह कार्य आपके साथ हैं और आपके साथ जो भी घटित होता है, देवता आपके सम्मुख होते हैं। आपको न तो कोई हानि पहुँचाने का प्रय्न करता है और न ही कोई छू सकता है। आप इतने संरक्षित हैं कि ज्यांही कोई आपको हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता है, तुरन्त आपको सरंक्षण मिलता है। आपका अपना सबसे अधिक तो हम अपने को हानि पहुँचाते हैं। आपमें एक प्रकार का व्यक्तित्व विकसित हो जाता है कि मैं ऐसा हूँ, रोता हूँ।" ऐसा व्यक्तित्व क्यों न विकसित करें कि "मैं खूब चैतन्य लहरो 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-4.txt सदा आनन्दित रहता हूँ।" तव आपका सुगन्ध-कमल विकसित होगा और आपकी विवेकपूर्ण क्रियाएं आपको अत्यन्त अच्छी तथा सुन्दर अवस्था तक ले जायेगी। आप के अपने विवेक में आपकी अपनी आत्मा इस कार्य को कर रही है। आषको कुछ नहीं करना है। आपको केवल स्मरण मात्र रखना है कि आप एक सहजयोगी या योगिनी हैं और आपका चरित्र तथा विचार सहज होने चाहिएं। आनन्द की अवस्था में आप न तो किसी से लड़ना चाहते हैं और न ही किसी से कठोर शब्द कहना चाहते हैं। केवल इतना ही नहीं, आप ऐसा कुछ नहीं लेना चाहते: जो माँ धरा को बिगाड़े या प्राकृतिक सन्तुलन संबंधी समस्याएं खड़ी करं। आनन्द की अवस्था में आपको आनन्द प्रदायक होना है और यदि आप आनन्द प्रदायक नहीं हैं तो आपके सहजयोग में कोई कमी है। इसे अब दूर करना है अपना नाम परिवर्तन कर सकते हैं । यदि सहजयोग नाम अच्छा नहीं है तो "आनन्ददायी संस्था"। | यदि आप चाहं तो हम पुरुष होने के नाते सहजयोगी अधिक नहीं दर्शाते, परन्तु यह मनःस्थिति दर्शाने के कुछ और मार्ग भी हैं । वे क्रुद्ध हो जाते हैं और कभी-कभी यह क्रोध इतना अधिक होता है कि लोग देखने लगते हैं कि "इस व्यक्ति को क्या हो गया है! एक ओर क्रोध तथा दूसरी ओर अश्रु। मध्य में क्या बचा? में नहीं जानती। दोनों ही बातें पृूर्णतया अवाछित हैं। बातों से आपको लोगों में सुधार लाना होता है। अभी मैंने कुछ कहा, मैंने कह दिया बस समाप्त हुआ। परन्तु यह क्रोध नहीं है, इस प्रकार मैंन कार्य करना है। अन्तर यह है कि मैं लिप्त नहीं हूँ। मैं यदि आँसू भी बहाऊँ तो भी मैं लिप्त नहीं हूँ-मैं मात्र अश्रु बहा रही हूँ। क्रोध में भी मैं क्रॉधित नहीं होती। भूमिक्रा में क्रोधित होने का प्रयत्न मैं कर रही होती हूँ। यही होता है-आप भी इससे लिप्त न हों। परन्तु क्रोध से यदि आप लिप्त हो जायेंगे अब हमें समझना है कि कोन सी चीज आनन्द की समाप्त करती है---1 मैंने कहा कि सर्वप्रथम आप में विवेक होना चाहिए। विवेक ही आपका स्वार्थ, स्व केन्द्रीयता, स्वर-ग्रस्तता तथा अहं से मुक्त (नि्लिप्त) करता है। स्वार्थ आपके स्व. ( आत्मा) को कलुषित करता है क्योंकि आप केवल अपने अपने बच्चों और अपने परिवार के विषय में ही सांचते हैं कुछ लोग तो केवल अपने ही बारे में साचते हैं। इस प्रकार सोचने से आप क्षुद्र होते चले जाते हैं, कमल मुझां जाता है। दूसरों के विषय में साचना अति महान है। अपनी आत्मा को यदि आप इसके स्वभाव एवं चरित्र की परिपूर्ति नहीं करने देते तो आत्मा का प्रकटीकरण न हो पाएगा। तो आनन्द का अन्त हो जायेगा। अंत: आप ही बाहन (साधन) हैं। कह सकते हैं कि शरीर और मन के लिए आप ही मार्गदर्शक है, प्रकाश हैं। परन्तु आत्मा के इस प्रकाश की अभिव्यक्ति तभी होगी जब यह बाह्य जगत को, अन्य लोगों को प्रकाशित करने वाली ज्योति विखेरेगा। प्रकाश-प्रदायनी इस विशेपता को आपने निरन्तर सुधारना है। इसका प्रयोग यदि आप अपने जीवन में, अपने संबंधियों पर, अपने प्रयत्नों, दूसरों को ज्योतिर्मय कर उनके जीवन स्तर सुधारने में (दिखाने या अहं के लिए नहीं) करें तो आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे। प्रेम के लिए आप इसका उपयोग करें। आप जानते हैं कि आप आत्मा हैं और आत्मा प्रम करती है और प्रेम में आप क्षमा करते हैं । क्षमा न करना कठिन है और क्षमा सर्वोत्तम। क्षमा करने के इपरान्त आपको कोर्ई सिरदर्द ता नहीं रहता। कुछ अन्य लोग सांचते हैं कि यदि आप आनन्दित हैं तो आपको गंभीर होना पड़ेगा। यह आवश्यक नहीं। इस विश्व में गंभीर होने को क्या है? सभी कुछ तो मूर्खता है गंभीर समस्याओं का शिकार होने के कारण ही तो आप गंभीर हो जाते हैं । यदि आप सोचते हैं कि गंभीर होने से आपकी समस्याएं सुलझ जाएंगी तो ऐसा नहीं होगा। परन्तु हमें अभद्र और छिछारा भी नहीं होना है। मूर्खतापूर्ण प्रकाश का क्या उपयोग है? आओ देखें। प्रकाश बन कर हमें प्रकाश दना है। अत: सभी को आनन्द एवं प्रसन्नता दने के लिए हम यहाँ हैं। दूसरों को प्रसन्न करने की बहुत सी विधियाँ हैं जिन्हें हमने सीखना है। उन्हें प्रसन्न करने के पश्चात ही अपने अन्त्स में आप उस आनन्द का अनुभव करते हैं। जब-जब भी आपने दूसरों का हित किया उसके विषय में सोचिए। वह समय हर क्षणा आपके साथ है और इसी कारण दिवाली का इतना महत्व है। जैसा मैंने कहा, आप लोग ही मेरा प्रकाश है और यह प्रकाश शाश्वत है। यह साधारण दीप समाप्त हो जायेंगे, हर वर्ष इन्हें प्रदीप्त करना पड़ेगा। परन्तु आप अतः आपको समझना है कि जीवन दूसरों को आनन्द प्रदान करने के लिए हैं-क्योंकि अब आप सन्त हैं और आपका प्रकाश आनन्द देने के लिए है। आपको थोड़ा-थोड़ा सहन भी करना होगा। आपमें सहन शक्तियाँ हैं। आपमें सभी शक्तियाँ हैं। नए वर्ष में मैं आपके लिए सौभाग्य और समृद्धि की कामना करती हैँ। लोगों के अन्दर का प्रकाश शाश्वत है और यही प्रकाश आनन्द को चहुँदिश फैलाएगा । परमात्मा आपको धन्य करें। चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-5.txt मद्रास जन कार्यक्रम परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश 6.12.91 यदि हम सच्चे सत्यान्वेषक (जिज्ञासु) हैं तो हमें सत्य के विषय में ईमानदार होना पड़ेगा ताकि हम स्वयं के प्रति बारी आई। एक जर्मन पुस्तक में मैंने पढ़ा कि कुण्डलिनी निष्कपट होकर संसार में अपने अस्तित्व को न्याय संगत सिद्ध कर सकें। असंख्य साधक भिन्न प्रकार के क्म-काण्ड, ध्यान-धारणा, भक्ति एवं अध्ययन आदि कर रहे हैं। व्यक्ति हुई। वेद उनमें से एक थी। विद अर्थात जानना। जानकार लोगों को समझना चाहिए कि उसकी उपलब्धि क्या है। हम कहाँ हैं? को थामस ने ग्नोस्टिक कहकर बुलाया। ग्ना अर्थात ज्ञन। माँ होने के नाते मैं कहंगी, मेरे बच्चे, अपने साधना मार्ग पर आपने बहुत कुछ किया, पर आपने क्या प्राप्त किया? क्या आपने 'केवल सत्य' को पा लिया? शास्त्रों में जिसका वर्णन है क्या आपको उसकी प्राप्ति हो गई है? परन्तु सब खो गया। तब तान्त्रिकों द्वारा भ्रमित जर्मन लोगों की आपके पेट में स्थित है। परमात्मा की ओर जाने के लिए तीन प्रकार की चेष्टाएं बौंद्धिक और भावनात्मक ज्ञान से बहुत परे का ज्ञान। इसी मार्ग को उन्होंने अपनाया। वेदों के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि यदि आपको ज्ञान नहीं है तो इस पुस्तक को पढ़िये। जानने का क्या अर्थ है? इसे अपने मध्य नाडो तन्त्र पर जानना, बोद्धिक या शारीरिक स्तर पर नहीं। मानव अवस्था तक विकसित हम सबको नम्रतापूर्वक कहना चाहिए कि हम पूर्णता को प्राप्त नहीं के मुँह से निकला कि "मैं तो यहाँ पर निगुण (निराकार) को हुए कुछ कमी है। यदि ऐसा न होता तो आप परस्पर देखने आया था परन्तु यहाँ तो मुझे सगुण (साकार) प्राप्त हो लड़ते-झगड़ते क्यों? प्राकृतिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं क्यों हैं? यह सब कुछ करने वाले मानव के स्त्रोत पर आइए। मानव को क्या समस्या है? पशु ता परमात्मा के पाश में हैं। परन्तु स्वतंत्र होते हुए भी मानव हड़चड़ाहट में है। सत्य ज्ञान का अभाव ही सभी समस्याओं का कारण है। सत्य ज्ञान को प्राप्त करने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। वेदों के अनुसार लोगों ने प्रकृति और पंच तत्वों को समझने का प्रयास किया। हमारी बाद अब उस पर एक पुस्तक लिखी गई है। जिस प्रकार उन्होंने दृष्टि में यह दायीं ओर को झुकना है। यूनानियों में भी झुकाव स्पष्ट दिखाई देता हैं। भव्ति बायों ओर झुकना था। अन्ध विश्वास से लोग परमात्मा को पूजने लगे। भारत भाग्यशाली देश है क्योंकि यहाँ सन्तों न ज्ञान को फैलाया। भारत की दूसरी नामदेव एक साधारण दर्जी थे। वे गोरा कुम्हार नामक एक दूसरे सुन्त से मिलन गए। उनके सम्मुख पहुंचत हो नामदेव गया है।" कंवल एक आत्मसाक्षात्कारी, एक संत ही दूसरे संत के विषय में ऐसा कह सकता है क्योंकि वह "केवल सत्य" की पहचानता है। साक्षात्कारविहीन लोग नहीं जानते कि जीवन से परे क्या है। इसाई धर्म में भी सन्ति थामस भारत आए ऑर कई शोध-ग्रन्थ लिखे जिन्हं मिश्र की एक गुफा में रखा गया और बाद में खोज निकाला गया। अढ़तालीस वर्षो के शाध के सहजयोग का वर्णन किया है वह आश्चर्यंजनक है। उन्होंने लिखा है कि व्यक्ति को वास्तविकता (सत्य) का अनुभव करना ही होगा। विशेषता यह है कि यहाँ धर्म संयोजित नहीं है। सभी धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि स्वयं को पहचानिए। मैं कौन हूँ? जब ऐसा कहा गया है तो अपने अन्त:स्थित आत्मा को खोजने के लिए हमें प्रयत्नशील होना ही चाहिए। हम कहते हैं मेरा शरीर, मेरी नाक, मेरा देश। 'मेरा' 'मेरा'। सदा सोंचने बाला 'मैं' कौन हैं? यह प्रेरणा कहाँ से आती हैं? यह 'मैं' हमारे अन्दर है और हमारे हृदय में प्रतिबिम्बित है इसे कल्पना मानकर चलिए और यदि मेरा कथन प्रमाणित हो जाए, यदि आप इसे पा लें, महसूस कर लें या अनुभव कर लें तो ईमानदार व्यक्तियों की तरह इसे स्वीकार कर लें । पश्चिमी देशों के लोगों की दूसरी समस्याएं हैं। परन्तु एक बार अनुभव प्राप्त होने पर विश्वविद्यालयों में, भिन्न पुस्तकालयों में जाकर उन्होंने कुण्डलिनी के विषय में सभी कुछ खोज निकाला। नाथ पन्थियों ने कुण्डलिनी जागृति के विषय में बहुत कार्य किया इसके बावजूद भी इतने सारे मत हैं, और वेद भी एक प्रकार की बौद्धिक माया में फंस गए और आर्य समाज का ये जन्म हुआ। आर्य समाजी लोग बड़े कठिन होते हैं । परन्तु सत्य तक नहीं पहुँच पाए, फिर भी अपने बीद्धिक ज्ञान से हो ये संतुष्ट हैं। कवीर ने कहा है "पढ़ि पढ़ि पंडित मूर्ख भये। " ज्यादा पढ़ने से सत्य को नहीं जाना जा सकता। मान लीजिए कोई डाक्टर सिरदर्द के लिए आपको काई दवाई बताता है, तो वो दवाई आपको लेनी होगी। वेदों एवं उपनियदों में भी लिखा है कि स्वयं ( आत्मा) को पा लो। पातान्जल शास्त्र ने थोड़े से व्यायाम आदि लिखे हैं। सहजयोग में समस्या को समझ कर हम भी इनका उपयोग करते हैं। हमारा अस्तित्व केवल शारीरिक, मानसिक या भावात्मक ही नहीं, हमारा अध्यात्मिक अस्तित्व चैतन्य लहरो 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-6.txt शुद्ध इच्छा है। अर्थशास्त्र के नियम बतात हैं कि साधारणतया इच्छाओं की पूर्ति नहीं हांती । इच्छाएं बढती ही जाती हैं और इन्हें पूरा करने हम संघर्षरत रहते हैं। परमात्मा की प्रेम शक्ति से एकाकारिता ही केवल शुद्ध इच्छा है। पूरी रचना को, सुन्दर फूलों को, छोटे से बीज से उत्पन्न एक विशाल वृक्ष को हम भी है। इस देश में भक्तिमार्ग दूसरे प्रकार का आन्दोलन था मंदिर में आदि जाना। पर इसका भी पतन होने लगा। भक्ति क्या है? श्री कृष्ण एक कूटनीतिज्ञ थे सीधी-सच्ची बात लांगों का नहीं जंचती इसलिए उन्होंने चाहा वे एक माँ नहीं थे। क्योंकि कि घृम घ्रुमा कर लोग सत्य की खोज कर लें। केवल अर्जन दखते हैं। हमारी अपनी आंखें कितने सुन्दर कैमरे हैं। किसने को उस समय उन्होंने तीन बातें बतायीं पहली बात उन्होंने इनकी रचना की? हमें हमारी वर्तमान अवस्था तक कौन लाया? कौन सी शक्ति ने हमें मानव बनाया? यह सब हमें जानना है क्योंकि विज्ञान के पास इसका काई उत्तर नहीं। बीज का अंकुरण कैसे होता है? सर्वशक्तिमान परमात्मा ने चारों ओर है। जब एसा है तो आप अनुभव करके इसका सत्यापन करें। इसक प्रति मुँह मोडना तो उस सर्वशक्तिमान से सम्पर्क स्थापित करने का अवसर खोना है। इसी महान शक्ति ने हमें विकसित किया है। यही हर चीज को व्यवस्था करती है, रचना करती हैं और उसमें शक्ति संचार करती है। इतने सुन्दर रूप से यह कार्य करती है कि हम इसकी कोमलता का भी अनुभव नहीं कर पाते। किसी फूल को खिलते हुए भी हम नहीं देख पाते । सभी कुछ ऐसे सुन्दर ढंग से हो जाता है कि हमें पता भी नहीं कही कि "ज्ञान को प्राप्त कर लो।" ज्ञान अर्थात सत्य को मध्य नाडी तन्त्र पर अनुभव कर लेना। दूसरी बात उन्होंने कही कि भक्ति करा और जो भी कुछ आप मुझे समर्पण करोगे मैं उसे स्वीकार करूंगा। परन्तु आपको अनन्य भक्ति करनी होगी अर्थात जब आप कोई अन्य न हो कर एक साक्षात्कारी आत्मा मात्र होंगे बिना सम्पर्क स्थापित हुए भक्ति का काई अर्थ नहीं। इस ब्रह्म- चेतन्य को फैलाया बहुत से लोगों की शिकायत होती है "मैंने इतने व्रत किए हैं, जप किए पर मेरी हालत देखिए।" यह परमात्मा की गलती नहीं है। आपका सम्पर्क ही अभी तक नहीं हुआ। तार जुड़े बिना टेलीफोन करने का क्या लाभ? विना सम्पर्क स्थापित किए भक्ति अनुचित है। इसी कारण श्री कृष्ण ने कहा "योग क्षेम चहाम्यम् ।" योग का पा लो, क्षेम अपने आप मिल जाएगा। कर्म के विषय में उन्होंने कहा कि 'कर्म करो और परमात्मा के चरण कमलों में अर्पण कर दो।' अधिकतर लोग यहाँ तक कि हत्यारे भी कहते हैं 'मैं अपने सारे कर्म परमात्मा को अर्पित कर और मधुर चलता। बिना उस शक्ति से जुड़े हम अंतिम सत्य को नहीं जान सकते क्योंकि हमारी अन्तर आत्मा पर हमारा चित्त नहीं होता। एक बार जागृत हो कर जब यह कुण्डलिनी उठती है ता यह छः चक्रों को पार करके सिर के तालू भाग को भेदती हैं तो यह दीक्षा-स्नान का वास्तवीकरण होता है। तब यह आत्मा हमारे चित्त में प्रकाश को तरह आ जाती है। हमारा नाड़ी तन्त्र एक नया आयाम प्राप्त कर लेता है जिसके द्वारा हम सामूहिक चेतना में आ जाते हैं। अपनी अंगुलियों के छोरों पर आप दूसरों के विषय में जान सकते हैं। बायीं तथा दायीं ओर सात सात चक्र हैं। बायीं ओर के चक्र आपकी भावनात्मकता तथा दायीं ओर कं आपकी क्रियात्मकता हैं। आप अन्य लोगों के चक्रों के विषय में जान सकते हैं। चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इलाज करते हुए हम पड़ का बाहर से इलाज करते हैं। हम उसको पत्तियां आदि तक हो सीमित रहते हैं। परन्तु वास्तविक रूप में इलाज करने के लिए देती हूँ।' यह कवल एक विचार मात्र है। अपनी अवस्था को प्राप्त हुए विना सहजयोगी मुझे नहीं बताएगा मैं कुण्डलिनी उठा रहा हूँ।' वह कहेगा 'यह ऊपर नहीं आती। वह तृतीय पुरुष में बोलेगा क्योंकि वह तो अब वहाँ है ही नहीं। इस प्रकार का कर्म स्वत: ही परमात्मा के चरणों में समर्पित हैं। वही सभी कुछ कर रहा है। हम तो कंवल यंत्र मात्र हैं। यह स्वत: और स्वाभाविक है और यही आपके साथ उत्पन्न हुआ सहज है। आप ऐसा कर ही नहीं सकते। पर एक ( शरीर बृद्धि) को प्रकट करते आप सब के अन्दर यह शक्ति निहित हैं। कुछ पुस्तकों में लिखा है कि कुण्डलिनी बड़ी भयंकर चीज है। यह व्यर्थ की वात है। बहुत से देशों में जाकर बहुत लागों को मैंने साक्षात्कार दिया, किसी को जरा सा भी कष्ट नहीं हुआ। इसके विपरीत दिशा में उन्हें लाभ हुआ। रातों रात लागा ने नश तथा बुरा आदतें त्याग दीं। रातों-रात लोग रोग मुक्त हो गए। मैं तो कुछ भी नहीं करती। आपकी अपनी कुण्डलिनी ही सभी कुछ करती है। वह आपकी माँ हैं, आपकी अपनी वास्तविक माँ, बह आपके विषय में सब कुछ जानती हैं। उसके अन्दर सभी कुछ चिन्हित है। वह साढ़े तीन लपेटों में आपके अन्दर विद्यमान है। उठते हुए, संघर्ष के कारण संभवत: वह थोड़ी सी गर्मी दे। यह गर्मी प्राय: जिगर के रोगियां के हाथों आदि पर अनुभव होती है। आप सब में कुण्डलिनी है और यही आपकी हमें पेड़ की जड़ों में जाना होगा। इस जीवन वृक्ष की जड़ हमारे अन्दर हैं। मोहम्मद साहब ने भी कयामा या पुनरुत्थान के समय की बात की। "कयामा के समय आपके हाथ बोलेंगे और आपके हाथ आपके खिलाफ शहादत दंगे।" सभी ने इस समय की बात की। अन्तिम निर्णय और यह कलियुग भी कुछ लाने बाला है। परन्तु कितने लोग इसे स्वीकार करने को तैयार हैं? हजारों लोग पागलों की तरह दौड़े फिरते हैं पर वास्तविकता के पीछे चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-7.txt में जानेश्वर के समय तक ऐसा ही रहा। ज्ञानेश्वर जी अपने भाई के ही शिष्य थे उन्होंने बहुत कष्ट झेल। ज्ञानेश्वर जी ने इस रहस्य को जनता के सम्मुख खोलने की आज्ञा अपने गुरु से मांगी। संस्कृत भाषा के स्थान पर उन्होंने मराठी भाषा में ज्ञानेश्वरी-गीता की रचना की और इसके छटे अध्याय में कुण्डलिनी का वर्णन किया। लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने इस अध्याय को निषिद्ध घोषित किया। इस तरह जनसाधारण तक कोई नहीं जाता। इसे समझने के लिए दिव्य-बुद्धि की आवश्यकता है। इसे समझने के लिए मैंने रूस को सर्वाधिक ग्रहणशोल देश पाया। वे अति आत्मद्शी लोग हैं। एक स्थान पर कम से कम बाईस हजार सहजयागी हैं। मैं जब वहाँ थी तो सैनिक-विद्रोह हुआ। मैंने "क्या आप विचलित नहीं हैं?" कहने लगे "माँ विचलित होने की क्या आवश्यकता है। हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं। इस देश से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं।" पूछा यह ज्ञान न पहुँचने दिया गया। नाथ पंथी इसके विषय में जानते हम भारतीय लोगों के साथ एक समस्या है कि हम बंधनों में जकड़े हुए हैं। हमारे सम्मुख इतने आदर्शों के होते हुए भी थे। उन्हीं में से कबीर तथा गुरु नानक हैं। नानक ने खालिस हम ऊपर नहीं उंठते। श्री राम और गुरु पूजा करने वाला आपके अन्दर क्या है? किसी न किसी चीज से आप चिपके है। वे किसी प्रकार भी हिंसात्मक नहीं हो सकते। उनका प्रेम हुए हैं। कुछ प्राप्त करने के विषय में आप क्या सोचते हैं? बिना प्राप्त किए आप श्री राम को नहीं जान सकते। अभी मैं योग की एक पुस्तक पढ़ रही थी जिसमें लेखक कहता कृष्ण, राम तथा ईसा कभी हुए ही नहीं। यह अति अवैज्ञानिक नहीं। एक ही जगह यदि यह रुक जाये तो पेड़ ही समाप्त हो हैं। उन्हें प्राप्त किए बिना आप यह कैसे कह सकते हैं? इसी जाये। अंतः हमें समझना चाहिए कि यह सभी महान अंवतरण. तरह बहुत से लोगों ने परमात्मा के विषय में लिखा। बिना सत्य को प्राप्त किए हम नहीं जान सकते कि सच्चा गुरु कौन है। आप स्वयं ही जान जाते हैं। साक्षात्कार पाकर आप आत्मा बन जागृति विकास की जीवन्त प्रक्रिया है। अन्तम उपलब्धि। जिस जाते हैं तथा पूर्ण सत्य को जान लेते हैं। की बात की जिसका अर्थ है पवित्र-निर्मल। सहजयोगी निर्मल अथाह तथा निर्वाज्य है। प्रेम भेदभाच नहीं जानता। जड़ां से उठकर रस पूरे वृक्ष में जाता है। पूरे वृक्ष का पापण कर बाकी वापिस आ जाता है। पेड़ के किसी भाग-विशेष पर रुकता है कि पीर और पैगम्बर पुथ्वी पर इस जीवन-वृक्ष को पोषित करने के लिए आए। आपको इन सबमें विश्वास करना होगा। कुण्डलिनी प्रकार मानव शरीर में आने के लिए आपने कुछ नहीं किया उसी प्रकार बिना किसी प्रयत्न के शुद्ध इच्छा मात्र से, कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। यह सहज है। नाथ पंथ, हमारे देश में तीसरा आन्दोलन था। जैनियों के आदि नाथ थे। इनमें एक गुरु एक ही शिष्य को ज्ञान देता था। जैसे जनक ने केवल नचिकंता को ज्ञान दिया बारहवीं शताब्दी परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। के मद्रास जन कार्यक्रम 7.12.91 - परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण (सारांश पौराणिक कथन निरर्थक नहीं हैं। निन्यानवे प्रतिशत तो पूर्णतया सत्य हैं। मन्दिरों में जाना हम अच्छा समझते हैं पर हम यह नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों प्रार्थना कर रहे हैं। किसको प्रार्थना कर रहे हैं? ये देवता कौन हैं? हंमारे अन्दर वे किस प्रकार कार्य करते हैं? उनका कार्य क्या है? उन्हें प्रसन्न किस प्रकार करें? सदाशिव का प्रतिबिम्ब है। अतः स्वाभाविकत: सभी प्रतिबिम्ब समान होने चाहिए। उनके प्रभाव भी समान होने चाहिए। नि:सन्देह साक्षात्कार से पूर्व, हम कह सकते हैं, यह पत्थर या दीवार पर साक्षात्कार है। पर साक्षात्कार के पशचात आप प्रतिबिम्बित करने वाले बन जाते हैं। हर व्यक्ति एक ही चीज प्रतिबिम्बित करता है, अत: आत्मसाक्षात्कार का प्रभाव समान है। पहले व्यक्ति अपने हाथों पर शीतल लहरियां को अनुभव करने लगता है और फिर अपने तालू भाग पर। सभी लोग एक ही तरह अनुभव करते हैं। तत्पश्चात वे अपने कन्द्रों तथा उनकी कमियों को महसूस करने लगते हैं। सभी निर्विचार आत्मा सर्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। इसका एक देवता सदाशिव को प्रतिबिम्बित करता है। सदाशिव आदि शक्ति के कार्य के साक्षी हैं। वे इस लीला को देख रहे हैं। आत्मा के रूप में आपके अन्दर भी वे साक्षी हैं परन्तु वे आपके चित्त में नहीं आते। उनका चित्त सीमित है क्योंकि किसी भी प्रकार वे आपकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करते। अपने में मग्न रह कर वे केवल देखते हैं। यही स्व: (आत्मा) है, यही समाधि में चले जाते हैं। यही प्रथम अवस्था है। यह तुरन्त कार्य करती है। आप कह सकते हैं माँ यह अति कठिन है। लोगों को तो इसके लिए हिमालय पर जाना पड़ता था। अब उसकी कोई ार चैतन्य लहरी 7. 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-8.txt आवश्यकता नहीं। यह जड़ों का ज्ञान है और इसे प्राप्त करने के लिए आपको सुक्ष्म होना होगा। यह तभी सम्भव है जब आपकी कुण्डलिनी उठे और सहस्रार को भेद कर परमात्मा के प्रेम की दिव्य शक्ति से सम्पर्क स्थापित कर ले । क्योंकि सभी व्यक्ति आत्मा है अत: पहला अनुभव जो आप करते हैं वह है सामूहिक चतना। आप अन्य आत्मा को महसूस कर सकते हैं। अपने शरीर तथा मन को जान सकते हैं। अपने मध्य नाडी तन्त्र पर यह पहली विशेषता आप प्राप्त कर लेत हैं। पर बिठा दिया गया हैं पर आप विश्वास ही नहीं करना चाहते कि आप सम्राट बन गए हैं। आत्मविश्वास आना बड़ा कठिन है। लोग विश्वास नहीं कर सकते कि उन्हें साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। वे डरते हैं। परन्तु बहुत से भयानक लोग, जिनके पास न आत्मसाक्षात्कार हैं न ज्ञान, गुरु बन बैठे हैं। उनके हजारा अनुयायी हैं जिन्हें उल्लू बनाकर वे उनसे धन ठगते हैं और उनके जीवन को बिगाड़ते हैं। परन्तु सहजयोगी जिनक पास पूरा 1 ज्ञान है वे अत्यन्त साधारण हैं। पर सबको यहचानते हैं। सामूहिक अस्तित्व के अतिरिक्त आत्मा की दूसरी प्रकृति यह है कि यह प्रासगक विश्व में रहता है। "यह अच्छा है, यह बुरा है" आदि। किसी आत्मसाक्षात्कारी द्वारा बनाई गई तस्वीर की ओर यदि आप हाथ करें तो आपको शीतल लहरियां महसूस होने लगंगी। सभी कुछ सिद्ध किया जा सकता है। हर चीज के लिए प्रमाण हैं। यह चित्त भी पवित्र करता है। जानता है कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है देहली में तीन लड़के लाए गए। कहने लगे "इनकी आज्ञा पकड़ रही है पर हम इन्हें ठोक अपनी विकास प्रकिया में प्राप्त आपकी हर उपलब्धि की अभिव्यक्ति आपके मध्य नाड़ी-तन्त्र पर होती है। उदाहरण के रूप में यदि अपने घोड़े या कुत्ते को आप गन्दे मार्ग से ले जाना चाहें तो वह उधर से चला जाएगा। परन्तु मानव के लिए ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि विकास प्रक्रिया में हमारे मध्य नाड़ी तन्त्र में गन्ध और सौन्दर्य-विवेक विकसित हो गया है । मानव अपने विकास और सूक्ष्म संवेदना में पशुओं से कहीं ऊँचा है। कुत्ते के लिए साज-सज्जा तथा रंग का कोई मूल्य नहीं। हमारी विकसित संवेदना के कारण इन सब चौजों का हमारे लिए बहुत महत्व है। इससे हमारी विकास प्रक्रिया में सुधार हुआ और हम मानव बन गए। नहीं कर पर रहे हैं।" इसका अर्थ है कि वे अहकारी हैं। आप चक्रों के माध्यम से स्वय की कमियां जानते हैं और उन्हें ठीक करने की विधि भी पर सामूहिकता में यह शुद्धिकरण बहुत अच्छा होता है। बहुत से लोग मेरे फोटो के सम्मुख पूजा और ध्यान करते हैं फिर भी उनमें कठिनाई रहती है। आपको सामूहिकता में रहना है। यह सहजयोग का अति महत्वपूर्ण हिस्सा है। मानव स्तर पर हम में एक समस्या है कि हमने अपने सिर में अहं तथा प्रति अहं ( बन्धन) रूपी दो संस्थाएं विकसित कर लीं। ये दोनो हमारे सिर के अन्दर एक दूसरे को लांघती हैं और गुप्त रूप से कार्य करती हैं और हम सीमित व्यक्तित्व हो जाते हैं। जब कुण्डलिनी उठती हैं तो यह दक तन्त्रिका पर स्थितः आज्ञा चक्र से गुजरती है और अहं तथा प्रति अहं को नीचे की ओर खींचती है और सहस्रार को खोलती है। तब कृण्डलिनी ऊपर जाती है। यह जीवन्त परमात्मा और जीवन्त शक्ति की अब न तो आपको हिमालय पर जाना हैं और न ही गंगा में डुबकियाँ लगानी हैं। कोई जप तप नहीं करना। कंवल सामूहिक हो जाइए। सामूहिकता परमात्मा का चित्त सागर है । सामूहिक होते ही आप पावन हो जाते हैं। यहाँ अहं भी आरडं नहीं आता। बहुत धनी ऊँचे तथा विद्वान लोग हैं। केन्द्र जैसे छोटे स्थान पर आना उनके लिए कठिन है । कन्द्र माँ का घर है। पर वे नहीं आते और उनकी लहरियाँ समाप्त हो जाती हैं। भारत में यह साधारण बात है पर पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता क्यांकि वे जानते हैं उन्हें कितनी बहुमूल्य उपलब्धि प्राप्त हुई है। लोग कहते हैं कि वे घर पर ही ध्यांन करते रहे । सामूहिकेता आए बिना आप स्वयं को शुद्ध नहीं कर सकते। कुण्डलिनी जब आज्ञा चक्र से गुजरती है ता आप निर्विचार समाधि में आ जाते हैं। विचार उठते हैं और समाप्त हो जाते हैं। कुछ विचार भूतकाल से आते हैं और कुछ भविष्य से। पर हम वर्तमान में नहीं हात। यही कारण है कि कुण्डलिनी जागृति हमारे चित्त को अन्दर की ओर आकार्षित करतो है । जब कुण्डलिनी टिकती है तो विलम्ब (बीच) की अवस्था होती है। यह बढती है अर्थात वर्तमान में जाकर हम निर्विचार हो जाते हैं। निर्विचार समाधि में ही विकास होता है और सामूहिकता में जीवन्त प्रक्रिया है। कुण्डलिनी ऊपर को जाती है कुण्डलिनी आपकी माँ है। बड़ी सुन्दरता से, बिना आपको कोई कष्ट पहुँचाए यह ऊपर को उठती है। अपने बच्चे को वह अच्छी तरह जानती है। आपके सभी जन्मों में उसने आपसे प्रेम किया। सिर के तालू भाग में स्थित सदाशिव की पीठ को (ब्रह्मरन्ध्र) जब यह भेदती है तो हम सदाशिव के चरण स्पर्श करते हैं और तब सदाशिव हमारे चित्त में प्रवेश करते हैं। जब आत्मा हमारे चित्त में प्रवेश करती है तो चित्त प्रकाशित होता है। यह चित्त अति चुस्त को जान सकते हैं । सहजयोगी ये नहीं देखते कि किसने कौन से वस्त्र पहने हैं, या बैंक में किसका कितना धन है वे देखते हैं कि चक्रों पर लोगों की स्थिति क्या है। आप उन्हें ठीक कर सकते हैं पर इसके लिए उन्हें इस सर्वत्र विद्यमान शक्ति के साथ होना पड़गा। है, यह सब कुछ जानता हैं। आप चक्रों पर लॉगों सर्वप्रथम आप निर्विचार बनें, दूसरों को आत्मसाक्षात्कार देते हुए अपनी सामूहिक चेतना को बढ़ायें| आपको राजसिंहासन तथा ध्यान मग्न रहकर हो हमें निविचारिता प्राप्त हो सकती है। 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-9.txt ठीक हो जाता है, आपकी लहरियाँ ठीक होती हैं और आपको मिलने वाली सूचना शत-प्रतिशत ठीक होतो है। बहुत से लोग विशेषकर बुद्धिवादी लोग, श्री गणेश का मजाक बनाते हैं, यह पाप है। पर उनके विषय में जानने के लिए आप पूछ सकते हैं। कि "क्या गौरी पुत्र गणेश हमारे मूलाधार पर विराजित हैं?" सभी साक्षात्कारी लोग जान जायेंगे शिव-शिव या राम राम, क्या वे आपकी जेव में हैं? क्या वे हमार नौकर हैं? पर यदि इसके लिए कोई धन नहीं देना पड़ता। वास्तविकता की खरीदा नहीं जा सकता। परमात्मा धन को नहीं पहचानते। यदि आप एक हाल किराए पर लेते हैं तो आपको उसके लिए खर्च करना होगा। पर परमात्मा के लिए आप कुछ नहीं खर्चते । जागृति के लिए हम कोई पैसा नहीं ले सकते। लोग तो दर्शन के लिए भी पैसा लेते हैं। यदि पैसा ही सभी राम-राम है तो आत्मा के स्तर पर उनका उत्थान कैसे हो कुछ सकता है। भक्त इतने साधारण और भोल-भाले हैं। अमेरिका में एक गुरु के पास 48 राॉल्स-रायस गाड़ियाँ हैं। वह एक और गाड़ी चाहता था जिसके लिए धन जमा करने के लिए उसके शिष्यों ने भूखा रहना शुरू किया। जब सहजयोगियों ने उनसे पूछा तो उत्तर मिला कि "हम तो कंवल उन्हें सोना दे रहे हैं पर वे हमें आत्मा दे रहे हैं।" क्या धन के बदले आत्मा दी जा सकती है? आप आत्मसाक्षात्कारी है तो मात्र एक वार उनका नाम लना काफी है क्योंकि हम उनके साम्राज्य में हैं। यदि आपका सम्बन्ध स्थापित हो गया है तो देवता न केवल आपकी सहायता करंगे बल्कि परंशान करने वाले देवता भी शांत हो जायेगे। आप जो भी चाहेंगे होगा। सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। आप चाहे इसे आत्म प्रकाश कहें या सिद्धि बह आपके अस्तित्व का पूर्णत्व है। आत्मा का तीसरा स्वभाव यह है कि यह " प्रेम' है। प्यार होने के कारण यह अपकी आनन्द प्रदान करता है। इतना सुखप्रद यह है कि आपकी सारी परेशानियाँ भाग जाती हैं । यह आधुनिक विज्ञान से पर है परन्तु भारतीय लोगों की यह धरोहर है। अंग्रेजी तथा फ्रेंच भाषा का माह छाड़कर अब हमें अपनी संस्कृति तथा ज्ञान में विश्वास करना चाहिए। सहजयोग अति प्राचीन है। नया नहीं। नानक ने कहा है "सहज समाधि लागो। " हर सन्त ने इसका वर्णन किया है हमें आत्मा बनना है। यही हमारे जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। अत: हमें एक आत्मसाक्षात्कारी आत्मा, एक गुरु बनना है। परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हमें पहले आत्मा बनना पड़ता है। तब यह सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। व्यक्ति स्वयं को जो चाहे समझता रहे पर इसका कोई लाभ नहीं। हमें अपने मानव जीवन के मूल्य को जानना होगा। इसका लक्ष्य क्या है? क्या हमें विश्व-ज्योति बनना है? आत्मा का प्रकाश चित्त में फैलता है और चित्त प्रगल्भ, चुस्त बनकर सब कार्य करता है। चित्त अति चुस्त एवं नियमित है। यह कभी ऊबता नहीं। चित्त के थकने पर ही व्यक्ति ऊबता है। पर यहाँ चित्त प्रकाशित है। आत्मा स्वभाववश आपको सत्य के विषय में बताती है। जब आपका विकास पूर्ण हो जाता है तो निर्विकल्प की अवस्था होती है। तब आपका चित्त पूर्णतया परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। महाकाली पूजा बैंगलूर, 9.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण (सारांश ) में बसे हैं। उन्हें खदेडना अति कठिन है । एक बार जब वे साधकों के मस्तिष्क में घुस आते हैं तो भक्तगण बाधाग्रस्त होकर सभी प्रकार की समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। इसके वावजूद भी सम्मोहित होने के कारण भक्त उनसे बंधे रहते हैं। यह सम्मोहन उन्हें इतना जिद्दी बना देता है कि जीवन के मूल्य पर भी वे उस गुरु को नहीं त्यागते। मैसूर महिषासुर द्वारा शासित राज्य था। बैंगलूर अत्यन्त रमणीक स्थान है। यहाँ की जलवायु भी सुहावनी है। राक्षस सदा ऐसे स्थान पर रहना पसन्द करते हैं। उनके शरीर में क्योंकि गर्मी होती हैं, हैं। जैसा कि आप जानते हैं यहाँ एक अन्य राक्षस हैं जिसका भण्डाफोड़ होना आवश्यक है। आज की इस पूजा में हम यह वे सदा ठंडे स्थान खोजने में लगे रहते ार लक्ष्य प्राप्त कर सकगे। कलियुग में बहुत अधिक साधक हैं। सत्य की खोज में वे भागे फिरते हैं। अधिकतर गुरु पश्चिमी देशों में गए क्योंकि वहाँ के लोग सहजयोग में आए। यह आपका सौभाग्य है। ये आपके पूर्व जन्मों के सुकृत्य हैं जिनके फलस्वरूप आप स्पष्ट प्राचीन काल में जब देवी को राक्षसों से युद्ध करना होता था तो राक्षस मानव हृदय में निहित नहीं होते थे। वे गुरु रूप में नहीं आते थे। पर अब कलियुग में वे साधकों के मस्तिष्क दि चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-10.txt देख सके और सहजयाग में आये। आअब परिपक्व हाकर आप लाभ के लिए नहीं, अन्यथा पतन शुरू हो जाएगा हमं पूरी समझ होनी चाहिए कि जिस देवत्व के प्रवाह का आनन्द हम ले रहे हैं उसी के यंत्र (साधन) मात्र हम है। आप कभी जान चुक हैं कि अन्य लोग अनुचित कार्य कर रहे हैं विष्णु सम देवता के विषय में उल्टी सीधी बातें करना अनुचित है। केरल में कहते हैं कि विष्णु जी ने जब मोहिनी रूप धारण किया तो शिव से उन्हें एक सन्तान उत्पन्न हुई। यह घोर पाप है। वे बड़े भयंकर देवता हैं लांग मूर्ख हैं। उन्हें देखना चाहिए कि यदि वे.उनचित कार्य कर रहे होते तो वे बीमार क्यों हाते? यही लोग एक माह तक काले वस्त्र पहन कर अयप्पा जाते हैं और व्रत आदि से स्वयं को कप्ट दंते हैं और शेष यारह महीन सभी प्रकार के दुष्कार्य करते हैं। बह भी जागिंग आदि की तरह से फेशन बन गया है । यह मूर्खता करने वाले इस वर्ष एक करोड़ लाग थे। थकान या परेशानी का अनुभव नहीं करेंगे। आप को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा। हम सबको निर्णय करना है कि भारत भ्रमण का आनन्द हमें लेना है। किसलिए? इसे अपने तक सीमित न रखकर दूसरां से बांटन के लिए। जब तक आप यह सीख नहीं लेते आपका अहं आपको कष्ट देता ही रहेगा। सहजयोग प्रचार करने वाले लोगों को अहं-जाल में फंसते भी आपने देखा होगा। व्यक्ति को अति सावधान रहना है। ज्यां-ज्यों आप परिपक्व हात हैं आपको अधिक सावधान होना है। पेड़ को देखिए। यदि कंवल पत्ता होगा तोा काई कीड़ा नहीं आएगा। पर यदि फूल हागा तो कोड़ा इसे खा जाएगा। जब आप फल बन रहे हैं तो कीड़ों से सावधान रहे। और अब आप में ता कीड़ों को नष्ट करने की शक्त है। यह अवस्था हम सबने प्राप्त करनी हैं। एक आर तो कोड़ो का नष्ट करता है तथा दूसरी आर लोगों को संतुष्ट करना है। सामृहिकता शुद्धिकरण का केवल साधन है, पर इससे भी महान कार्य यह पता लगाना है कि कहाँ पर मैं सहजयाग फंला सकता हूँ? कहाँ महजयोग कार्य करेंगा? इसके विषय में जितना विचार आप करंग उतना अच्छा है। एक बार जब इस दिशा में आप बढ़ंगे ता आश्चर्यचकित हांगे कि आपस पहले सहजयोग बढ़गा। आपका मेल हो जाएगा। आवश्यक सहायता मिल जाएगी। सहायक लोग मिल जायेंगे। स्वयं विस्तृत करने पर सभी प्रकार की सहायता आपको प्राप्त हान लगेगी। मैं जानती हैं कि आप मुझे बहुत प्रम करते हैं पर क्या आप नहीं सांचत कि दूसरे लोगों का भी इस प्रम में हिस्सा है? हम दक्षिण भारतीय लॉग विशेष रूप से बन्धनग्रस्त हैं। स्त्िटजरलैंड की बनी घडियाँ निकालने वाले लागों से हम बहुत प्रभावित हैं लोग बहुत ही भाले हैं। व नहीं जानते कि किसी भी अवतरण ने इस प्रकार की चालाकियाँ नहीं की। और सत्य ता परम्परागत तथा शास्त्रीं पर आधारित होना चाहिए। परम्परा तथा शास्त्रों से विमुख होना घार पाप है। कोई भी व्यक्ति जो आत्मसाक्षात्कार, कुण्डलिनी, उत्थान या पुनर्जन्म की वात नहीं करता, वह गुरु नहीं हो सकता। क्या आप राम पर अहसान कर रहे हैं? आप ईसा पर विश्वास करते हैं तो क्या? यह सब व्यर्थ की बात है। में परमात्मा में विश्वास करता हूँ-इसका क्या अभिप्राय है। पर आप सभी कुछ परमात्मा विराधी कर रहे हैं। अब आप कहते हैं मैं श्री माताजी में विश्वास करता हूँ। तो क्या ठीक है? कुछ अनुभवों के कारण आप मुझ में विश्वास करते हैं फिर भी क्या? माताजी आपकंे जीवन में होनी चाहिए, आपक व्यवहार, अभिव्यक्ति तथा आचरण में, एक दूसरे को समझाने में, परस्पर प्रेम में होनी चाहिए। इससे लोग प्रभावित होते हैं। लोग कहते हैं हम माताजी के पास आते हैं। उनसे प्रार्थना करके चले जाते हैं । क्यों? क्योंकि हम माताजी में विश्वास करते हैं। परन्तु विश्वास तां आपके अस्तित्व से छलकना चाहिए। इस विश्वास को कार्य करना चाहिए तथा परिणाम दिखाने चाहिएं। सभी प्रकार से इसे कार्य करना चाहिए। कूछ लोग कहते हैं हम माताजी में विश्वास करते हैं, वही सभी कुछ करेंगी। क्या वे हमारे स्थान पर भक्ति करेंगी? आपकी ओर से क्या होगा? वांछित लागों से संघर्ष करते हुए ं से भी पाला पड़ता है। 'मेरा' के समीप मत जाइए। इससे पर देखिए । इसी में हित है। आप देखते हैं कि महाराष्ट्र में हमने कितना परिश्रम किया। है। हमें अति कठिन लोगं पर मेंन पाया कि यह बकार जगह महाराष्ट्र में बहुत कम सहजयोगी हैं और जो हैं व भी बहुत अच्छं नहीं। जैसे पहाड़ के समीप जाकर आप इसकी ऊँचाई को नहीं दंख सकतं डसी प्रकार समीप के लोग आपकी महानता को नहीं दख पाते। किसी सहज कार्य को यदि आप करना चाहत हैं तो प्रयत्न कीजिए कि आपके सहजयोगीं आपके रिश्तेदार या सम्बन्धी न ही। कुछ अन्जान व्यक्ति हो, जान-पहचान के लोग आपका एक बार जब यह होने लगेगा तो सभी राक्षस एवं दुष्ट समाप्त हो जाएंगे। मैं सहजयोग के लिए क्या कर रहा हूँ? यदि यह शरीर कुछ नहीं कर रहा तो इसे यंत्र बनाने का क्या लाभ? आप प्रकाश हैं, आप ज्योतिर्मय हैं। जो प्रकाश किसी को प्रकाशित नहीं करता उसका क्या लाभ? आपको अत्यन्त पैरशान करंगे। सहजयोग सभी के लिए खुला है और कोई भी यहाँ आ सकता है। सभी कठिनाइयां दूर हो सकती हैं पर आपका नेतृत्व आवश्यक है। अपने आलस्य पर काबू पा लीजिए, सहजयांग बढ़ने लगेगा। भविष्यवाणी है कि इस वर्ष सहजयोंग बहुत सहजता से दूसरों को प्रकाश देना है। दिखाने या व्यक्तिगत चैतन्य लहरी 10 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-11.txt बात करें यह है देवताओं की शक्ति आपक साथ है । स्वयं में, तथा सहजयोगियां में विश्वास रखें उत्तजित हुए विना आगे बढ़े। आप सशक्त हैं। में आपको विश्वास दिलाती हूँ कि आप में शक्ति है। याचना मात्र से आपको यह शक्ति प्राप्त हांगी, संकांच न कोजिए। मैंन आपका सिंहासनारूढ किया है। ताज आपके सिर पर रखकर मैं कहती हूँ कि आप सम्राट हैं पर आप विश्वास हो नहां करते, भागे फिरते हैं। और कार्यान्वित है इसके अतिरिक्त सभो बढ़ेगा। आपमें शक्ति है। लोगों ने बताया कि मेरे आने से एक दिन पूर्व यहाँ बहुत ठंड थी। मैंने कहा चिन्ता मत करो। मैंने बन्धन आदि भी नहीं दिया। यहाँ आयी और ठीक हो गया। इसी तरह सब होता है। परन्तु आपको सम्पित होना पड़ता है। अब रवि, शशि, तारागण आर पुर ब्रह्माण्ड को कवल एक कार्य करना है, उन्हें देखन है कि सहजयोग भलीभांति फैल रहा है, स्थिर हो रहा है और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर रहा है। सभी तत्व विविध प्रकार से कार्य कर रहे हैं। आपको मुझ पर ही विश्वास नहीं करना, स्वयं पर भी विश्वास करना है। आपको यह कहना है। आप ही मरे मार्ग हैं। आप ही शक्ति के स्रोत हैं। गरिमामय, सुन्दर तथा सन्तोषप्रद ढंग से कार्य कीजिए । आपमें कार्य करने की इच्छा होनी चाहिए। मुझे कहने को आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। किसी भी क्षेत्र में आप कार्य करें या किसी भी व्यक्ति से जब आप मिलें आप सहज को परमात्मा की कृपा से आप लाग ही सहजयोग की नींव वनेंगे और अपने विवक, विश्वास, प्रम तथा सामर्थ्य से सहजयाग रूपी महान भवन का निर्माण करेंगे। सभी दैत्य और राक्षसों का संहार करने वाली महाकाली शक्ति की पूजा आज हम करंगे। आपकी इच्छा ही कार्य करेगी। परमात्मा आपको धन्य करें। हैदराबाद पूजा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश 11,12.91 हम हैदराबाद आये हैं। यह प्रदेश मुसलमान बादशाहां द्वारा शासित था परन्तु ये वादशाह अति भारतीय थे तथा बर्तानिया के विरुद्ध स्वतन्त्रता के लिए इन्हांने युद्ध किए। टीपू सुल्तान एक साक्षात्कारी व्यक्ति थे पर उन्हें मार दिया गया। हमारे देश में एक बहुत बड़ी समस्या है कि व्यक्तिगत रूप से हम सब बहुत महान हैं पर सामूहिकता में रहना हम नहीं जानते और इसी कारणवश हमें अपनी स्वतन्त्रता खोनी पड़ी। कोई यदि खुली आँखों से स्पष्ट दंखें तो वह समझ सकता है यदि हमारे सम्मुख कोई व्यक्ति किसी की निन्दा करता है तो अवश्य कोई लक्ष्य है। लम्बे समय से यह हमारी असफलता है कि इस प्रकार के कार्यों से लोग हमारे सम्बन्ध खराब करते हैं और यह बुराई अब सहजयोग में भी घुस गई है । दूसरी दुर्बलता जो हम में है वह है हमारा अपने परिवार, बच्चों, माता, पिता, भाई आदि में मोह। किसी समीप के संबंधी से जब तक आप धोखा नहीं खा लेते आप सीखते नहीं। हमारी सभी समस्याएं इन्हीं के कारण है। मैने बहुत उच्च स्तर के सहजयोगियों को देखा है, पर अचानक मैंने पाया कि वह किसी भाई या संबंधी से लिप्त है जो किसी गुरु व्यापार में व्यस्त है। के स्थान पर वे हमें प्रभावित करने लगते हैं। दूसरों की बुराई करना या संबंध विगाड़ने की बातें करना सहजयोग में अपराध है। सदा दूसरों को अच्छाई को देखो। उदाहरण के रूप में यदि कोई आकर मुझ से कहे कि फलां व्यक्ति अच्छा नहीं तो में झूठ-मूठ उनसे कहती हैं कि वह ताो तुम्हारी इतनी प्रशंसा कर रहा था। आप उसके विरुद्ध यह बातें क्यां कह रहे हैं? सहजयागियों के लिए आवश्यक है कि अधिक से अधिक तार तम्य, सहयोग को बनाये जिससे बहुत से लोग सहजयोग में आ सकें। पर अच्छे लोगों की बजाय बुरे लोगों से सहजयोगी लिप्त हो जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अभी तक आप पूर्ण सहजयोगी नहीं। भारत में एक मंत्री का अपनी पत्नी, पुत्र, भाई और अपने नौकर तक को किसी महत्वपूर्ण स्थान पर नियुक्त कर देना एक आम बात है चाहे वं इसके योग्य हों या न हों। पर सहजयोग में आप ऐसा नहीं कर सकते। आपको सहजयोगी होना पड़ेगा। किसी भी व्यक्ति को लाकर आप यह नहीं कह सकते कि श्री माता जी ये मेरा संबंधी है, कृपया इसकी सहायता कीजिए। पारिवारिक जीवन का हमारा विचार बदलना चाहिए। नि:संदेह सबसे हितकर कार्य जो आप अपने परिवार के लिए कर सकते हैं वह है उन्हें सहजयोग में लाना। कभी आप अपने नगर के विषय में सोचन लगते हैं। माँ आपको मेरे शहर में आना आवश्यक हैं। यह भी मेरा घर, मेरे सगे-संबंधी, मेरा नगर, मेरा देश जैसी ही बात है। आपके देश के लोगों के प्रति आपकी चिन्ता को मैं समझती हैूँ पर लिप्सा नहीं होनी चाहिए। व्यक्ति को इस प्रकार निर्लिप्त होना चाहिए कि साक्षी रूप से स्वयं तथा दूसरे लोगों को देखें। आप स्वयं हमारे से प्रभावित होने चंतन्य लहरी 11 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-12.txt देखेंगे कि आपकी चिन्ता का कारण आपकी लिप्सा (मोह) है । अपने परिवार से लिप्त हो जाना सहजयांग के न बढ़ने का मुल कारण है। अन्य लोगों तक न जाकर हमारा चित्त केवल असहज लोगों में ही फस कर रहे जाता है। थाडे से नकारात्मक लोगों के छोंटे से समूह में फँस कर रह जाने के स्थान पर आप उनसे परे जाइए। आपमें शक्तियां हैं। आप सारी बाधाएं पार कर सकते हैं और स्वयं देख सकते हैं कि आप कितने प्रसन्न हैं है कि आपके अहं को न दखा जा सके पर यह भी ता उसी की ही किस्म है। हर समय दूसरों की आलोचना भी अनुचित है। इसका निर्णय करने को आपसे किसने कहा। आप न अपना मूल्यांकन करें और न ही दूसरे लोगों का मूल्यांकन कर उन्हें दण्डित करें। हमें अति मधुर आयाम विकसित करने चाहिएं। आपको यह करना है। सहजयांग में आने के बाद भी कुछ आदतें चिपकी तथा शारीरिक तथा आध्यात्मिक रूप से कितने सामर्थ्य हो गए हैं रहती हैं बड़ी ही सुगमता से यह आदतें सुधारी जा सकती हैं। जिद्दीपन भी अति भयानक बुराई है। इस प्रकार को सुक्ष्म जिंद सभी के लिए कप्टकर है। मैंने एक चार ठान ली ता ठान लो। इसे बदल लेने में कहाँ हानि है।? मुझे प्रसन्नता है कि सहजयोग में कुछ भी निर्धारित नहीं होता। कार्यक्रम कब है और कब नहीं इसका महत्त्व नहीं है। पर आपने परिवर्तन का किस प्रकार स्वीकार किया. यह बात अत्यन्तं महत्वपूर्ण है। बदलाव का स्वीकार करना यदि आपने नहीं सीखा तो आपका भारतीय समाज में लोग सन्यास ले लेत हैं। काशाय बस्त्र पहन कर वे चले जाते हैं। आन्तरिक सन्यास क्यों न ले लें। वृद्ध तथा क्षीण होने की प्रतीक्षा करनं की क्या आवश्यकता है। अपनी जवानी में ही यदि आप सहजयोग के अतिरिक्त हर चीज में नि्लिप्त हो गए तो भी आप सन्यासी हैं। आपके लिए सहजयोग के अतिरिक्त कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। एक बार जब आप यह निश्चय कर लंते हैं तो उस दिशा में आप बढ़ने लगते हैं। भटक जाने की अवस्था में उत्थान किस प्रकार हो सकता है। पश्चिम के लोग स्वयं के विषय में ही चिन्तित हैं वे स्वयं सर्वोच्च शिखर पा लंना चाहते हैं। एक बार यदि परिवार से हम अपना चित्त हटा लें तो हम हैरान रह जायेंगे कि किस प्रकार यह चित्त हमारे परिवार पर, हमारे बनाए उस छोटे से कूप पर, कार्य करता है, किस प्रकार देवी प्रेम की कृपा तथा आशीर्वाद यह देता है यह देखकर आप दंग रह जायेंगे। मैं कुछ सहजयोगियों को जानती हूँ जो अपनी सिरजोर पत्नियों को वश में नहीं कर सकते। भारत में एक नियम है कि पत्नी का पति का धर्म अपनाना होता है। पलियां यदि इतनी सिर-जोर हों तो वे परेशानी का कारण बन सकती हैं। पति यदि सादा है तो उसे कष्ट उठाना पड़ सकता है। रौब जमाने वाले किसी भी व्यक्ति के सम्मुख झुकना नहीं चाहिए, इसके स्थान पर कहना चाहिए कि हम धर्म का अनुसरण कर रहे हैं और हमारे मार्ग में बाधा डालने की किसी को कोई आवश्यकता नहीं। यह हमारा मौलिक अधिकार है। सहजयोग में परस्पर व्यवहार भी महत्वपूर्ण है। हम परस्पर कैसे रहते हैं, किस प्रकार बातचीत करते हैं। इसके परिणाम क्या हैं। क्या दूसरे लोगों से हमारा तालमेल है? पड़ोसियों की तरह क्या आप अन्य सहजयोगियों को अपने घर पर निर्मा्त्रित करते हैं ? विकास अधूरा है। स्मरण रखें कि कितने प्रम से किसी ने आपके लिए कुछ किया। इस प्रेम को याद रखते हुए आप बेसा हो कोजिए। जब-जब भी आपको काई ऐसा अनुभव हो आप इसे अपने अन्तस में समाह लें। जब-जब भी आप उसे याद करंगे उस सुन्दरता की भावना की वर्षा आप पर होने लगगी। प्रसन्तता प्राप्ति की नई विधियाँ हमें सीखनी हैं। इससे पूर्व ता अन्य लागों का सताकर हमे प्रसन्नता प्राप्त हाती थी। में क्या कर रहा हूँ? में क्यों कर रहा हूँ? दूसरां को कठार वार्त कहकर मैं कैसे प्रसन्न हो सकता हूँ। अहं मुझे बहुत दुःख दंता है। इस शांत रहने को कहिए। छोटी छोटी गतिविधियां सार वातावरण की बदल देती हैं। अत: अपने आचरण, व्यवहार में बहुत सावधान रहे। लोग हैं। हर समय और आनन्दित रहते हैं । सहजयांग समाज में बहुत सुन्दर आनन्ददायी साथियों में हम हँसते हैं सहजयोग घृणा मिथ्याभिमान और बन्धनों में विश्वास नहीं करता। सहजयोग के महान कार्य तथा पवित्र मानव संवदना में इसका विश्वास है। करुणा और सौहार्द आपको प्रसन्नता प्रदान करते हैं। बुरी आदतें छोड़ने के लिए आपको आत्मदर्शन करना होगा। अन्यथा आपकां नए लागों से व्यवहार करने में कठिनाई लांग सहिष्णु, क्षमाशील होंगे तभी आपको सन्त मानंगे। यदि लोंग कठिन हैं तो उन्हें छोड़ दीजिए। होगी यदि आप शांत, वाद विवाद द्वारा आप आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। जिनमें बायीं ओर तथा दायों ओर को लिप्साएं भिन्न हैं। दायीं ओर के लोग स्वकेन्द्री होते हैं, उन्हें सामूहिकता पसन्द नहीं होती। अहं उनकी बहुत बड़ी समस्या होती है। इसी नशे में के डूबे रहते हैं विकसित नहीं होते। 'मेरा' का यह दृष्टिकोण बदलना होगा। सहजयोगी होकर आप परेशान कैसे हो सकते हैं? हमें देखना चाहिए हमारी कौन सी बातें दूसरां को परेशान करती हैं। हमें क्रोधी-स्वभाव का नहीं होना चाहिए। हो सकता विवेक का अभाव है वे आत्मसाक्षात्कार के यांग्य नहीं। आपका आचरण ऐसा हो कि वे समझ लें कि आप सन्त हैं। पूरे प्रेम तथा आत्मसम्मान के साथ आपने उनसे बात करनी है। सहजयोग प्रचार का मार्ग तथा बिधियाँ आपने खोजनी हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। चैनया 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-13.txt श्री गणेश पूजा शेरे, पुणे परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश 15.12,91 बाद में कभी भी आप सुगमता से यह विवेक उनमें नहीं भर सकते। तब इसके लिए आपको बहुत परिश्रम करना पड़ेंगा । सहजयोग में यह विवेक तेजी से कार्य कर रहा है और लोग वहुत बृद्धिमान होतं जा रहे हैं। महाराष्ट्र में श्री गणेश की पुजा के महत्व को हमें समझना हैं। अष्टविनायक (आठ गणपति) इस क्षेत्र के इदं-गिर्द हैं और महाराष्ट्र के त्रिकाण बनाते हुए तीन पर्वत कुण्डलिनी के समान हैं। पूरे विश्व की कुण्डलिनी इस क्षेत्र में निवास करती है। श्री गणेश द्वारा चेतन्यित इस पृथ्वी का अपना हो स्पन्दन तथा चैतन्य है। महाराष्ट्र की सर्वोत्तम विशेषता यह है कि यह बहुत ही सुन्दर चित्त प्रदान करता है। श्री गणेश के चेतन्य प्रवाह के कारण चित्त एकाग्ित हो जाती है। पवित्रता तथा मंगल प्रदान करने के लिए श्री गणेश की सृष्टि हुई। गणेश ही सभी को शुद्ध करते हैं । ये इनकी अबोधिता है जो आपको शुद्ध करती है तथा आपक चित्त को विचलित करते वाले अहं तथा बन्धनों करती है। किसी भी मार्ग से हम चलं, हम पाते हैं कि हमारी सारी समस्याएं मानव की ही देन है। जोवन में विवेक को इतनी महत्वपूर्ण भूमिका है कि बाह्य जगत में जो भी प्रवृत्तियां या फेशन आये आप उनसे प्रभावित नहीं हाते। आप अन्दर से परिवर्तित होते हैं। तब आप पूर्णतया जान जाते हैं कि दूसरे लोगों से क्या आशा की जाती है तथा उन्हें क्या करना चाहिए। उनसे किस प्रकार व्यवहार किया जाए, किस प्रकार बातचीत की जाए और उनके साथ किस सीमा तक चला जाए। यह सब विवेक से प्राप्त होता है सहजयोग में आप सब अतियोग्य लाग हैं। आपने बहुत कुछ पा लिया हैं और आप सभी कुछ जानते हैं। इस सबके बावजूद भी हमें दूसरां से व्यवहार तो करना हो का दूर अच्छे चित्त वाले लोग बहुत से अच्छे कार्य कर सकते हैं जैसे अच्छी कलाकृतियाँ, अच्छा गणित और अच्छा संगोत। इन सव के लिए पूरे चित्त की आवश्यकता होती है। अच्छा चित्त श्री गणेश की देन है। वे विवेक के दाता हैं। विवेक ही धर्म है। किसी को रोकना नहीं हैं और न ही कांई कठोर या वन जाता है तथा अपकं अस्तित्व का अंग-प्रत्यंग बन जाता है। दुःखदायी बात कहनी है। यदि आप सहजयोग को फैलाने का आप बुद्धिमान हो जाते हैं । यद्यपि वे शिशु हैं फिर भी अति परिपक्व हैं। सहजयोगी के अन्दर क्योंकि श्री गणेश जागृत होते करुणापूर्वक देखभाल करें। हैं इसलिए विवेक उनका अन्तर्जात गुण होता है। एक सन्तुलन, एक उत्थान, बह व्यक्ति प्राप्त करता है तथा वह समझता है गणेश के माध्यम से संभव है। वे निर्विकल्प में हैं। उन्हें काई कि यह उत्थान उसके लिए, उसके देश तथा पूरे विश्व के लिए हितकर है। वह सहजयोग के महत्व को जानता है। यह विबक हमारे अन्दर रचित है और अपने अन्दर विवेक के इस स्रोत का उपयोग सीखना हमारे लिए आवश्यक है। सहजयोग होते हैं। यह एक अवस्था है जो आपके अन्तस में बनी होनी में व्यक्ति विवेक प्रवाहित करने लगता है तथा इसे समझने भी चाहिए। आप स्वयं पर चित्त को केन्द्रित कर यदि पता लगाने लगता है। व्यक्ति अपनी मुर्खतापूर्ण बातें छोड़ देता है। श्री गणेश ही आध्यात्मिक जीवन की नींव के पत्थर हैं। इसी कारण मरी बहुत इच्छा है कि अपने बच्चों के लिए हम उचित विद्यालय खोज सकें। उन्हें अच्छी शिक्षा मिले तथा उनकी उचित देखभाल हो क्योंकि उनका गणेश तत्वे उनमें पहले से हो है। हमें केवल इसका पोषण करना है देखभाल करनी है तथा इसे बढ़ाना है। एक बार यदि ऐसा हो जाए तो बच्चे सुरक्षित हैं और उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। गलतं चीजों को वे कभी आत्मसात नहीं करेंगे। यदि बाल्यकाल में ही आप प्रयत्न कर रहे हैं तो एक ही मार्ग है कि हम सबकी स्वयं में विश्वास भी आना आवश्यक है। यह भी श्री प्रश्न नहीं करना। न उन्हें कोई चिन्ता है और न कोई मोह। कोई कार्य करते हुए आप दो-विचारों में हा सकते हैं। हो सकता कि आप दृढ़ न हों। परन्तु वे (श्री गणेश) सदा बहुत ही दृढ़ का प्रयत्न करं कि मेर साथ क्या समस्या हेख में ऐसा क्यों हूँ? तो आप इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। अन्तरद्शन आपका बहुत सहायक होगा। अपने अन्दर के अवाधिता तत्व की पूजा करना सुगम मार्ग है। मान लीजिए हम किसी चोर से । हमं क्या करना चाहिए? उसके दोष का- व्यवहार कर रहे हैं। तो भूल जाना सर्वोत्तम है । इसकी चिन्ता नहीं करनी है। भूल जाइए कि इस व्यक्ति को ठीक करना है। भूल जाना ही विवेक है। एक बार जब आप दीषों को भूलने लगेगे तो अच्छी बात आपको याद रहेंगी। भूल जाइए किसने आपका अपमान किया, आपको कष्ट दिया या आपसे अनुचित वर्ताव किया। उन्हें कुण्डलिनी का ज्ञान तथा विवेक बुद्धि नहीं दे सकते ता चंतन्य लहरी 13 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-14.txt लेते हैं। वर्तमान में रहते हुए आप थकते नहीं क्योंकि न तो आप भूत की सोचते हैं न भविष्य की। प्रसन्नतापूर्वक रहते हुए आप चीजों को सुधारते हैं। इस प्रकार आप अपने तथा दूसरों को कठिनाइयों से बचाते हैं। विवक का अभ्यास व्यक्ति की करना चाहिए और पूर्णतया वर्तमान में रहने का भी उदाहरणतया सहजयोग में एक बात निश्चित है कि आपको दुःख देने वाले स्वयं कष्ट पायंगे। अत: उन्हें क्षमा कर दीजिए। उन्हें शांत कीजिए। इस प्रकार की विवेक बुद्धि हममें होनी चाहिए। लोगों के पीछे नहीं पडना है किसी को भयभोत नहीं करना न ही किसी से कठोरता से व्यवहार करना है। है और घर से बाहर जाते हुए आध रास्ते जाकर बहुत से लोगों को याद आएगा कि वे कुछ भूल गए हैं। इसके लिए वे वापिस आयेंग आदि.....। उस समय यदि आप बर्तमान में हों तो कुछ भूलं। विवेक स्वत: कार्य करता है। यह एक महान शक्ति हैं। यह किसी भी प्रकार की भूल, हमले या मुर्खता का सामना कर सकता है। अत: हमें चाहिए कि विवेक को विकसित कर इसे परिपक्व करें। ध्यान ही एक एसा मार्ग है जिसके द्वारा आप अपना दायां और बायां (झुकाव) त्याग कर अपने मध्य में स्थिर हो जाते हैं तथा अपने अस्तित्व तथा विवेक का आनन्द लेते हैं। अपने जीवन का एक अहं भाग हम कष्ट, परेशानियाँ झेलने तथा दूसरों को परेशान करने में व्यतीत करते हैं। हमारे पास समय है कहाँ? भी न हजारों लोगों की कुण्डलिनियां हमें जागृत करनी हैं पर हम तो व्यर्थ की चीजों में फंसे हुए हैं। हमारा विवेक समाप्त हो जाता है। सर्वोच्च स्तर के लोगों में भी विवेक नहीं है क्योंकि वे भी पलायन करना चाहते हैं। तंग आकर सन्यास ले आज की पूजा में हमें विवेक की याचना करनी चाहिए लिए हमें वर्तमान में रहना होग । तथा इसके परमात्मा आपको धन्य करें। महालक्ष्मी पूजा कोल्हापुर 21.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण ( सारांश) समाप्त हो जाती है। सहजयोग में आप पर ऐसी कृपा होती है कि आपको इच्छित वस्तु प्राप्त होने लगती है। यदि आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लें तो सभी पीछे छोड़ कर भारत में दरिद्रता देखकर हम खिन्न हो जाते हैं। गरीबी दूर हो सकती है यदि ये सब लोग परमात्मा के आशीर्वाद को पा लें। परमात्मा का विधान महालक्ष्मी के माध्यम से कार्य करता हैं। आपको एक ऐसे बिन्दु तक पहुँचना पड़ता है जहाँ आपका लक्ष्मी तत्व्र सन्तुष्ट हो जाए तथा आप सत्य साधना करने लगे। यह जिज्ञासा महालक्ष्मी तत्व की देन है। मध्यमार्ग में ही सहजयोग विकसित होता है। अधिक धनी लोग भी सहजयोग में प्राय: नहीं आते। यदि आते हैं तो बिना गहनता को जाने लाभ उठाने लगते हैं। इसी प्रकार बहुत गरीब भी नहीं आते। एक ही देखभाल करें, उन्हें भोजन आदि देकर आनन्दित हों। इस प्रकार नदी के ये दो किनारे हैं । यदि हम विस्तृत होने लगे तो निःसन्देह इन दोनों किनारों पर परमात्मा के आशीर्वाद की बर्षा करने लगेंगे सहजयोगी बने बिना आपकी आर्थिक दशा पूरी तरह से ठीक नहीं हो सकती और बिना लक्ष्मी तत्व की सन्तुष्टि के आप सहजयोगी नहीं बन सकते । तो अपने लक्ष्मी तत्व को सन्तुष्ट किस प्रकार करें। आवश्यकता से अधिक धन जब हमारे पास होता है तो हम सोचने लगते हैं कि इस धन का क्या करें? कुछ सोचते हैं कि मैं एक और कार, एक और कोठी आदि ले लूं। एक प्रकार की असन्तुप्टता के भाव प्रवेश कर जाते हैं। अब और क्या? तब आयकर आदि की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं तथा पेरशान हो जाते हैं। धनार्जन की दौड़ कुछ आप महालक्ष्मी तत्व में प्रवेश कर लेते हैं। अत्यधिक धन आपके अहं को बढ़ावा देता है। उदारतापूर्वक देना ही लक्ष्मी तत्व है। अत: उदार बनिए। लक्ष्मी तत्व का दूसरा नियम तब कार्यान्वित होता है जब आपके सुन्दर घरों में आकर अन्य सहजयांगी ठहरें, आप उनकी उदारता का प्रारम्भ होता है परन्तु यह उदारता भी अधिक सन्तोष प्रदायी नहीं तब व जीवन के सत्य की प्राप्ति के विषय में सोचने लगते हैं। एक दुर्ग बनवाते हुए एक बार- शिवाजी ने सोचा "मैंने इतने गरीब लोगों को कार्य दिया है"। अचानक उनके गुरु स्वामी रामदास वहाँ आए और कहने लगे कि इस गोलशिला को सावधानी पूर्वक तुडवाईये। नारियाल के आकार के इस पत्थर को अपने हाथ में लेकर रामदास जी ने तोड़ा तो इसके अन्दर एक मंढक था तथा जले भी। तब शिवाजी को समझ आयी कि परमात्मी जब आपका सृजन करता है तभी आपके भोजन चैतन्य लहरी 14 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-15.txt उपलब्धि योग्य प्रतीत होने वाली इन भ्रमक चीजों से व्यक्ति को बचना चाहिए क्यांकि ये मानव को बहुत ही विकराल बना देते हैं। अधिक धनी लोगों के पास शिष्टता नहीं होती। किसी भी प्रकार की मर्यादा उनमें नहीं होती और न ही व अन्य लागों की परवाह करते हैं। या-या (झूले) की तरह इस तरह के समृद्ध देश दायें से बायें आर बायं से दायं झूलत रहते हैं। की भी व्यवस्था करता है। आपको अहं नहीं करना चाहिए कि आप दूसरों के लिए इतना कुछ कर रहे हैं। सामाजिक कार्य करने से आपमें एक प्रकार का अहं विकसित हो उठता है। इसे बढ़ावा देन के लिए लोग आपको शान्ति पुरस्कार दे देते हैं। नोबल पुरस्कार दे देते हैं आपके प्रति इस प्रकार की उदारता भी अत्यन्त भयंकर है जो आपमें एक भावना (अहं) उत्पन्न कर दे कि आप कोई अति महान चीज़ हैं, इतना महान कार्य कर रहे हैं और इतने लांगें की देखभाल कर रहे हैं। धनी व्यक्ति में एक मूर्खतापूर्ण अहं आ जाता है। जैसे एक राजा ने हीरों से चप्पलें बनावायीं। निलंज्जतापूर्वक वैभव प्रदर्शन करने वाले लोग सम्यता के हत्यारे होते हैं। पूर्ण-चरित्रहीनता के भी वे शिकार हो जातं हैं। उनके लिए आठ वर्ष और बीस वर्ष की लड़की में कोई अन्तर नहीं। समानुपात के विवेक का उनमें अभाव है। इतनी निम्न जीवन यापन वे करते हैं कि वे न केवल अमानवीय बन जाते हैं वे पशुआं से बदतर हो जाते हैं। उन्हें ये समझ तो हो सकती है कि कौन सी शराब के लिए कौन सा गिलास होना चाहिए और यदि इस प्रकार के पांच छः लोग हों ता उनमें स्पर्धा शुरु हा जाती है तथा वह कभी न सुधरन वाला अहं और अधिक बढ़ जाता है। अब हम कंजूस लोगों को देखें। कंजूसी एक बीमारी है। कभी-कभी तो पूरा राष्ट्र ही कंजूस लोगों से बना होता है। निर्लंज्जता से वे धन के विषय में बातें करते हैं वहुत से समृद्ध देश ने हैं. व निर्लज्ज भी हैं। एक बार रात्रि को केवल कजूस हमने किसी के साथ एक होटल में खाना खाया| खाना खाने के बाद भी बहुत सा खाना बच गया तो उन्होंने बैरे से कहा कि बचा हुआ खाना पैक कर दे क्योंकि उसके लिए उन्होंने पैसा खर्चा है। लज्जा, शिष्टता या मर्यादा तो हैं ही नहीं। धनी होने का यह बहुत बड़ा अभिशाप है। अशिष्ट, अहंकारी तथा उससे भी ऊपर अधार्मिक हो जाते हैं । लोग पूर्णतया निर्लज्ज, परमात्मा आप पर कृपा करे। क्रिसमस पूजा गणपति पुले 24.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) आज का यांग अति विशेष है। इस विशेष दिन को अंगार की चतुर्थी अथवा कृष्णपक्ष की चतुर्थी कहते हैं। प्रत्येक चतुर्थी को, जो कि महीन के चौथे दिन पडती है, को श्री गणेश का जन्मदिन मनाया जाता है। मंगलवार के दिन आयी इस चतुर्थी का विशेष महत्व होता है। आज यही दिन है । हम सब मंगलवार, अंगार की चतुर्थी के दिन गणपति पुल में आये हैं। आज के दिन श्री गणेश की पूजा के लिए हजारों लाग यहाँ आते हैं। सहजयोगियों को समझना चाहिए कि जा भी कुछ घटित होता है, कि क्या करें। नम्रता तथा विवेक श्री गणेश जी की विशेषताएं हैं। य दोनों गुण गणेश तत्व की देन हैं सुन्दर चाल से चलते वाली स्त्री को भी गज गामिनी कहते हैं। हाथी केवल घास खात फिर भी अत्यंत शक्तिशाली होते हैं, बड़-बड़े वजन ढाते हैं फिर भी बड़े शान्त स्वभाव के होते हैं। किसी भी चीज के लिए वे जल्दी नहीं करते। उनकी स्मरणशक्ति भी बहुत तीव्र होती है। जब भी आप की बायीं ओर दुर्बल हा जाती है तो आपकी स्मरण शक्ति धुधला जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके अन्दर गणेश तत्व कम हो गया है। जब आप बहुत अधिक दायीं और को झुक जाती है तो बायीं और का गणेश तत्व कम हो जाता है। अति कर्मी लोगों की स्मरण शक्ति भी वृद्धावस्था में समाप्त ही जाती हैं । श्री गणेश की एक विशेषता है कि विवक के साथ-साथ उनकी स्मरणशक्ति भी बहुत तीव्र है, वे सब कुछ याद रखते हैं उसे धेर्यपूर्वक स्वीकार करना है। सबूरी के साथ यदि आप जल्दी मचायेंगे या निराश होंगे या घबरायंगे तो कुछ भी न हो सकेगा। सबूरी की अवस्था में आप तुरन्त समझ जाते हैं कि क्या करना है और कैसे। जल्दबाजी असहज हेै। श्री नाथ जी ने कहा है कि धैर्य रखिए। "सबूरी में ही परमात्मा प्राप्त हाते हैं"। जब कोई बातचीत हो रही हो तो देखिए और प्रतीक्षा कीजिए। जब आप ऐसी अवस्था को पा लेंते हैं तो परम चैतन्य सारा कार्य करने लगता है और आप अच्छी तरह जान जाते हैं हैं। उन्हें सब कुछ याद रखना पड़ता है, क्योंकि सभी क्मों के चिन्ह कण्डलिनी पर श्री गणेश जी ही ऑंकित करते हैं। उनकं चंतन्ध लहरी 15 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-16.txt दायं हाथ में एक कलम है जो कि उनका अपना दाँत है और बे आपके विषय में सभी कुछ आपके कर्म, आपकी समस्याएं, परमात्मा की खोज में आप कहाँ गए आपने क्या बुराईयां की लिखते हैं। कुण्डलिनी जब चढ़ती है तो आपक चक्रों की सभी अशुद्धियां दिखाई पड़ती हैं और महसूस होती. है तथा आप जान जाते हैं कि उस चक्र में क्या समस्या है। इस प्रकार यह पूर्णतया बैज्ञानिक है। गणेश तत्व का केवल यही गुण नहीं है कि व्यक्ति अबध तथा पवित्र हो, उनके बहुत से गुण हैं जैसे आपमें विवेक और बुद्धिमता होनी चाहिए, आपको समझ होनी चाहिए कि क्या ठीक है और क्या गलत। भी ईसा ने क्षमा कर दिया। उन्होंने कहा, "हं परमात्मा इन्हं क्षमा कर दो क्योंकि वे अपने कर्म को नहीं जानते"। जब लांग मंदिर के चढ़ावे को बेचकर व्यापार कर रह थे ता उन्हांने कोडा उठाकर उन सब को पीटा। यह उनका दूसरा पक्ष है। जब कोई राक्षस या दुष्ट्रकृति मनुष्य आपको परेशान करता है तो गणों के पति श्री गणेश उनका विनाश करते हैं। आपका कुछ कहना या करना नहीं पड़ता। ये गण आपके साथ हैं। जब वे आपको बचाते हैं तो आप समझते हैं कि चमत्कार हुआ। यदि ये गण आपकी रक्षा कर रहे हैं तो आप समझ लौजिए कि आप सहजयोगी हैं। अंगारिका क्या है? श्री गणेश जलते हुए अंगारों को ठंडा कर देते हैं कुण्डलिनी भी एक ज्वाला है। इसका उत्थान धंधकती ज्वाला-सम है। पृथ्वी में गुरुत्चाकर्षण हैं और ऊपर का जाने वाली कोई भी चौज पृथ्वी की आर खिंचती है। केवल अग्नि ही गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर को जाती है | श्री गणेश दो प्रकार से आप के अन्दर की अग्नि को शांत करते हैं। व कुण्डलिनी का शांत करते हैं सभी अवगुणों के बावजूद भी व्यक्ति के लिए आत्मसाक्षात्कार की प्रार्थना बे कुण्डलिनी से करते हैं। वे कुण्डलिनी के बालक हैं और आपके अन्दर वे ही शिशु हैं। इस संबंध के कारण वे कुण्डलिनी को समझा पाते हैं कि आप मेरी माँ हैं और कृपया इच्छापूर्ति में मेरी सहायता कीजिए। तब कुण्डलिनी शांत होकर सोचती है कि मेरे बच्चे की इच्छानुसार हमारे शरीर के अन्दर ये गण सदा सक्रिय हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने पर जब आपका सम्पर्क परमात्मा से हो जाता है, तब ये आपकी, आपके कार्यो की, आपके वच्चों आदि की देखभाल करते हैं। आत्मसाक्षात्कार से पूर्व हमारे शरीर के अन्दर में गण प्रतिकारकों के रूप में विद्यमान होते हैं। ये हमारे मध्य हृदय में होते हैं और 2 वर्ष की आयु तक उरोस्थि में इनकी रचना होती है। जब कोई प्रकोप आप पर होता हैं तो उरोस्थि में कंपन होता है. और तुरन्त ये रोग प्रतिकारक मंडराते हुए खतरे, रोग या वायरस से युद्ध शुरु कर दते हैं। माँ के विरुद्ध जाने से आप चरित्रहौन हो जाते हैं और पिता के विरुद्ध जाने से आप आलसी और अकुशल बन जाते हैं । चरित्रहीन लोगें के चक्र बहुत दुर्घल हों जाते हैं और उन्हें ठीक करना अति कठिन होता है। उन्हें एड्स बा कोई अन्य विनाशक रोग हो सकता है। अत: हर्मं सदैव अपना जीवन पवित्र रखना चाहिए। ईसा ने भी इस पवित्रता की वात की। उन्होंने कहा "आपके पास अपवित्र आंखें नहीं होनी चाहिए"। क्योंकि उनका स्थान आज्ञा चक्र में है अत: यदि व्यक्ति की आंखें पवित्र नहीं हैं तो इस चक्र में ईसा जागरुक नहीं है। पश्चिमी देशों के लोग ईसा में विश्वास करते हैं पर उनकी आंखें अपवित्र हैं। उनकी आंखें सदा स्त्रियों या पुरुषों को देखने में लगी रहती हैं। वे स्थिर नहीं हैं। यह नकारात्मकता है। वैठे मैं ऊपर उठ्। एक बार देवी बहुत नाराजू हो गई और उन्होंने सोचा कि पूरे विश्व को समाप्त कर दें, उन्हें लगा कि उनके बनाए हुए लोग बेकार हैं और बहुत अपराध करते हैं। तब वे तांडव नृत्य करने लगी। यह देखकर शिवजी को बडी चिन्ता हुई। उन्होंने देवी कार्तिकेय को उनके चरणों में डाल दिया, ज्योंही पुत्र उनका पैर अपने बालक पर पड़ा वे तुरन्त शांत हो गई। इसी प्रकार श्री गणेश कुण्डलिनी को बताते हैं कि आप अपने बालक को जन्म दे रही हैं और इस समय आपको क्रद्ध नहीं होना। यह कहकर वे कुण्डलिनी को शान्त करते हैं। कुगुरुओं के पास जाने वाले लोग भी कुण्डलिनी को बहुत कष्ट देते हैं। कुण्डलिनी श्री गणेश की शक्ति के द्वारा ही उठती है| कुण्डलिनी में जो शाले उठते हैं वे शीतल शोले हैं। यह शीतलता भी श्री गणेश जी ही प्रदान करते हैं। अत: एक प्रकार से वे आपके क्रोध को भी शांत करते हैं। क्रोध की अवस्था में हम भटक जाते हैं और हमें हमारा धर्म, हमारा करत्तव्य भी याद नहीं रहता। इस क्रोध में हम किसी को चोट पहुंचा सकते हैं या उसकी हत्या कर सकते हैं। इस समय श्री गणेश ही हमारे क्रोध को शान्त करते हैं और हमें संभालते हैं । श्री गणेश हर चक्र पर विराजित हैं। हर चक्र पर हुए वे कुलपति हैं। जब तक वे नहीं कहते कुण्डलिनी नहीं चढ़ती। उनकी दूसरी प्रवृत्ति अंगारसम है। एक शोला ही दूसरे शोले को शान्त कर सकता है। जब रावण श्री राम के विरुद्ध बोला तो पूरी लंका जल गयी क्योंकि श्री हनुमान भी मंगलवार को ही जन्में थे और श्री गणेश एवं श्री हनुमान मिलकर मानव के अन्दर के क्रोध को शान्त करने का कार्य करते हैं । वे इस प्रकार कार्य करते हैं कि व्यक्ति समझ जाता है कि उसने गलती की है। क्रोधी स्वभाव के व्यक्तियों को भी वे ठीक कर देते हैं। यदि कोई व्यक्ति मांगलिक हो अथ्थात् उसका मंगल ग्रह दुर्बल हो तो उसे मूंगा पहनने के लिए कहा जाता है जो कि गर्म होता है। अग्नि से अग्नि बुझती है। गर्म देशों में रहने वाले लोग ईसा भी श्री गणेश के समान हैं उन्होंने कहा कि सबको क्षमा कर दो, जिन्होंने उन्हें कष्ट दिए, क्रूसारोपित किया उन्हें 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-17.txt मिर्चो का बहुत उपयोग करते हैं । पसीनों से वे ठण्डे हो जाते हैं। अपनी गर्मी से श्री गणेश आपकी गर्मी को शान्त करते हैं हमें श्री गणेश के प्रति समर्पित होना चाहिए कि वे इस गर्मी को वश में रखें। आप अति बुद्धिमान तथा भाग्यशाली हैं कि आपने सत्य को खोजा तथा प्राप्त किया। इसे पूर्णत्व तक लाने के लिए आपको श्री गणेश के गुण आत्मसात करने चाहिएं। श्री गणेश की पूजा के लिए हजारों लोग गणपति पुल आए हैं। वास्तव में कितने लोग उन पर विश्वास करते हैं ? कितने लोगों में श्री गणेश के गुण हैं? वे शराब पीते हैं, स्त्रीलम्पट हैं, परस्पर व्यक्ति को धैर्य रखना चाहिए कि पूजा के उचित समय पर ही पूजा होगी। विधि के विधान को क्यों बदलना है? हम समय के दास नहीं हैं। यदि आप लोग समय के दास न बने झंगड़ते हैं और अत्यांचारी हैं फिर भी वे अंगारिका एवं श्री तो सहजयोग फैल सकता है। इसका अनुभव तथा इस पर विश्वास होना चाहिए। सहजयोग में अन्ध विश्वास नाम का कुछ नहीं है। यह विश्वास हमने अपने चक्षु तथा बुद्धि से देखा है। यदि देख कर भी आप विश्वास नहीं करते तो अवश्य आपमें कोई दोष हैं। आप देख सकते हैं कि श्री गणेश कितने उनके गुणों को अपनाया? बिना उनके गुणों को ग्रहण किए महान हैं और अप्ट-विनायक (आठ गणेश) के कारण महाराष्ट्र कितना पुण्यवान गणेश की पूजा करने को आ पहुंचे हैं। आपमें बदि इतनी बड़ी अग्नि है तो आप आए ही क्यों? कोई नहीं सोचता कि जिस पर वे विश्वास करते हैं उसके गुणों को भी अपनाना है। आप भिन्न गुरुओं तथा देवताओं की पूजा करते हैं, पर क्या आपने आपका उनपर विश्वास करना व्यथ्थ है । है। परमात्मा आप पर कृपा करें। श्री लक्ष्मी पूजा अलिबाग 29.12.91 परम पूज्य श्री माताजी का प्रवचन (सारांश ) प्रकृति की सुन्दरता का आनन्द लेने का अर्थ है प्रकृति के साथ रहना। नारियल के फल को श्री फल कहते हैं क्योंकि यह सहसार होता है। यह अचम्भे की बात हैं कि यह फल जानता और समझता है। यह किसी व्यक्ति या जानवर पर नहीं गिरता। इस फल से कोई आहत नहीं होता। यह मनुष्यों से अधिक समझदार हैं। सहजयोग में बहुत मिठास, अच्छाई, धार्मिकता है और यह इतनी प्रोत्साहक हैं नव विवाहितों को एक दूसरें के प्रति स्नेही होना चाहिए। आप यदि आरम्भ में अलगाव रखते हैं तो आपकी इससे हानि होगी। कृपया स्नेही सुखद और वातृूनी बनें। यह नहीं है कि चुप रह कर आप दूसरों पर अपना प्रभाव डाल रहे हैं। आतें करना बहुत आवश्यक है। अपनी भावनाओं को छुपाना नहीं चाहिए। यदि आपके वैवाहिक संबंध बहुत अच्छे होंगे तो आपकी सन्तान भी वहुत अच्छी होगी। तब इस संसार में एक नए प्रकार की जाति पेदा हागी। यह बच्चे हमारे लिए सबसे प्रबल चीजें होंगी और वह ऐसे बहुत से कार्य कर लेंगे जो हम नहीं कर सके। हम यहाँ अलीबाग में समुद्र के बहुत पास है और हमें समुद्र की भावनाओं को समझना चाहिए। एक प्रकार से समुद्र आपके नाना हैं क्योंकि ने लक्ष्मी को जन्म दिया जो बाद प्रयोग करते हैं और इस प्रकार की हास्यास्पद पोशाकें पहनते हैं और अत्यन्त दुष्वरित्र जीवन जीते हैं। यह समुद्र का अपमान है। जैसे हमारे यहाँ बरुण है, पौराणिक कथाओं में भी एक समुद्र देवता हैं नेपचून। इस समुद्र देवता की आराधना करनी पड़ती है तथा इसे समझना पड़ता है और आदर करना होता है। हम निरादर नहीं कर सकते। समुद्र में प्रवेश करने से पहले और समुद्र से निकलने के बाद हमें नमस्कार करना चाहिए। के कारण ही हमें वर्षा मिलती है। समुद्र हमारे जीवन के लिए इतना आवश्यक है। समुद्र गुरु है, महागुरु हैं जो हमें बहुत सी बातें सिखाता है। सबसे पहले तो वह बह महागुरु समुद्र है जो हमारे लिए नमक बनाता है। ईसा ने कहा है कि आप ही ब्रह्माण्ड के नमक हैं आप ही ने मनुष्यों को नमक का स्वाद और दूसरी विशेषताएं प्रदान की। समुद्र की अपनी मर्यादा होती है। जब समुद्र में ज्वार उठता है तो वह एक स्थान तक आता है और वापस लौट जाता है और दूसरे दिन फिर वह उसी स्थान तक आता है। समुद्र की दूसरी विशेषता यह है कि यह अपने भीतर रहने वाले सभी प्राणियों की देखभाल करता है। मछलियां तथा दूसरे समुद्री जीव इसमें जीवित रहते हैं। जीवन का प्रारम्भ ही समुद्र से हुआ हमारे सारे पूर्वज जरूर पहले समुद्र में ही पैदा हुए होंगे और तब हम मनुष्य बने। हमारे पूर्वजों के रहने के स्थान समुद्र का अनादर करने का हमारे पास कोई अधिकार नहीं है। जब मछली एक यह लवणमय है परन्तु समुद्र में महालक्ष्मी बनीं। हमें समुद्र को पूरा सम्मान देना चाहिए। साधारणतया पश्चिमी देशों तथा भारत के लोग इसे संडास की तरह इस्तेमाल करते हैं। पश्चिमी देशों मे वे इसे तैराकी के लिए चैतन्य लहरी 17 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-18.txt रंगने वाला प्राणी बनकर बाहर आयी तो हमारे पूर्वज भी एक एक करके समुद्र से बाहर आने लगे। यह सहजयोग के लिए अत्यन्त आवश्यक है कि आप सब कुछ स्वयं में सोख लें। उससे जुड़ें नहीं और उसे बाष्प बनने दें। यह विधि हमें सुधार के द्वारा सीखनी चाहिए। सहजयोगी अब भी मेरे पास किसी के उपचार के लिए आते हैं। मैं क्या उपचार करू? आप क्यों नहीं उपचार कर सकते? क्या आप समुद्र की तीसरी विशेषता यह है कि वह गहरा है । यदि इसकी गहराई केवल कुछ फुट हो कम कर दी जाए तो चारों ओर एक समस्या खड़ी हो जाएगी। इसी प्रकार जो कुछ भी गहराई हमने सहजायोग में पाई है हमें उसमें रहना चाहिए। साधारणतया हमें तुच्छ लोगों की तरह नहीं होना चाहिए। हम यह नहीं कर सकते। हमें गहरे बनना है जिससे हमें सहजयोग की और स्वयं की गहरी समझ हो। यह आत्मसम्मान की निशानी है। आपमें स्वयं तथा सहजयोग के लिए यह आत्मसम्मान होना चाहिए। यह आत्मसम्मान की निशानी है। आपमें के किसी का उपचार करने से डरते हैं? आप सभी उनका उपचार कर सकते हैं, सहायता कर सकते हैं और जितना अधिक आप उपचार करेंगे उतने ही बढ़़िया आप हो जायेंगे। आपको साहस करना चाहिए। आपमें इतना साहस होना चाहिए कि दूसरों का उपचार कर सकें। यदि आप दूसरों का उपचार नहीं करते तो आपकी स्वयं की वृद्धि नहीं होंगी। जब आप दूसरों का उपचार करते हैं तो अधिक चैतन्य लहरियां बहती हैं। यदि आप अपनी चैतन्य लहरियों का प्रयोग ही नहीं करने वाले तो परमात्मा आपको चैतन्य लहरियां क्यों देंगे? जब हम अपने हाथ-पैर और समुद्र समान आत्मसम्मान तथा राजसी प्रकृति होनी चाहिए। यह पेड़ सारी हवा समुद्र से लेते हैं, परन्तु यह सदा समुद्र की ओर ही झुके रहते हैं, कभी उसके विपरीत नहीं जाते। वह समुद्र की आर झुककर अपनी कृतज्ञता दर्शाते हैं। ये वृक्ष भी समझते हैं। बिना समुद्र के हमें यातायात संभव न होता और इसके है मस्तिष्क सहजयोग के लिए प्रयोग नहीं करते, तो हम अपने भीतर चैतन्य को पैदा नहीं करते हैं। यदि आप यह नहीं करते तो आप सबकी सारे समय कोई न कोई समस्या रहेगी आप अतिरिक्त समुद्र की नीचे की सतह के अन्दर महान सम्परदा जिसकी अभी छानबीन तहीं हुई है परन्तु जब भी खोज की गई तो सारा विश्व बहुत समृद्ध हो जाएगा। परन्तु वह इस बात पर लड़ रहे हैं कि समुद्र के कौन से हिस्से पर किस का आधिपत्य कहंगे कि मैं ध्यान कर रहा हूँ, पूजा कर रहा हूँ, पर में पूर्णतय ठीक नहीं हूँ। आपको हर संभव तरीके से अपनी चैतनऱ्य लहरियों का दूसरों को ठीक करने के लिए उपयोग करना है। यदि आप समझते हैं कि इससे तकलीफ हो सकती है तो आप बंधन ले सकते हैं। परन्तु कम से कम मेरे फोटो का प्रयोग के सी सम्पदा समुद्र है। सीना, चांदी और जवाहरात जैसी बहुत तल में छुपी है और एक दिन शायद इस लक्ष्मी की खोज हो सके और हम सब लोग वैभवशाली बन सकें। इसके अलावा जब हम यातायात द्वारा कुछ चीजें ले जाते हैं, तो हम लक्ष्मी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। समुद्र ने हमें यह अवश्य करें। इस फोटो के पश्चात आप उस व्यक्ति को केबल स्पर्श कर सकते हैं। कोई क्षति नहीं होगी। अन्तत: यदि आप किसी भी विपदा से इरते हैं तो सहजयोगी होने का क्या लाभ? यदि जहाज समुद्र में तैरने योग्य नहीं है तो जहाज बनाने का क्या लाभ? आपको समुद्र में तैरने योग्य होना चाहिए। आपको निश्चय करना है कि हम चैतन्य लहरियों को अपने अन्दर सोखेंगे और सब कुछ अपने ऊपर लेंगे। विश्वास रखें कि आप सब एक समुद्र की तरह महागुरु हो और जो कुछ भी आप कर रहे हो वह आपके भीतर चैतन्य फैला रहा है जिसके द्वारा आप इतने लोगों को बचा सकते हैं। गतिशीलता दी है। मैंन देखा है कि समुद्र मेरे से बहुत यदि समुद्र में चाँद की रोशनी प्रतिबिम्बित हो रही हो तो वह मेरे साथ-साथ चलती है। समुद्र मुझे समझता है क्योंकि मेरा इसके साथ एक विशेष संबंध तथा आदर समुद्र के कारण ही आप यहाँ मजे ले रहे हैं। यह आपको इतना सुन्दर अनुभव और आध्यात्मिकता प्रदान कर रहा है। हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं क्यांकि जिसने हिमालय को ढका हुआ वह इस ममुद्र का पानी ही हैं जो कि वर्षा और हिम के रूप में हिमालय पर जाता है और नदियों के रूप में वापस समुद्र में आ जाता है। यह एक परिक्रमा है। सभी कुछ समुद्र में आकर समाप्त हो जाता है और सूर्य की गम्मी को सहकर समुद्र बादलों की सृष्टि करता है तथा इस प्रकार तपस्या करता है। इसी प्रकार हमें भी दूसरीं के ताप और गुस्से का सहन करना है और वाप्प बनाना है अर्थात् दूसरों को चैतन्य लहरियों का बरदान दंना है। जब मैं किसी ऐसे व्यक्ति का देखती हूँ जो रोगी है और में इसका इलाज करती हूँ तो निश्चय ही मुझे कष्ट सहना पड़ता है। उसके कष्टों को स्वयं लेकर मैं चैतऱ्य लहरी को बहान लगती हूँ। प्रतिक्रिया करता है। है। जितना अधिक आप देंगे उतना ही अधिक आप पायेंगे| अपनी चैतन्य लहरियों का आप जितना अधिक उपयोग करंगे, उतनी ही अधिक चैतन्य लहरियां पायंगे। हमेशा दूसरों की मदद के लिए चैतन्य लहरियों का उपयोग करो। पेड़ों, जन्तुओं तथा है प्रकृति को लहरियां दो। वह अवस्था आनी है कि आप स्वयं जल चैतन्यित कर सकें। आप सब इसका समाधान कर सकते हे और बहुत कार्य कर सकते हैं परन्तु अपने ऊपर विश्वास रखें जिससे सहायता मिले। स्वयं में विश्वास, कि आप अपनी माँ के प्रति पूर्णतया समर्पित महान सहजयोगी हैं, विश्वास ही आपका सहायक होगा। आप सबको अनन्त आशीर्वाद। चतन्य लहरो 18 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-19.txt कालवे पूजा 31.12.91 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के भाषण का सारांश आकर हमारे चक्रों पर कृपा करने लगती है तो स्वत: ही हम श्री गणेश की पूजा अतिमहत्वपूर्ण है। फोटो आदि से आप जान पाते हैं कि वे जीवन्त देवता हैं वे मू्लाधार पर विराजित सोचने लगते हैं कि हमारी अबोधिता लौट आयी हैं। हमारा हृदये मन तथा प्रेम अबोध है। यह अवोध व्यक्तित्व ही एक अच्छे सहजयोगी का चिन्ह है । वह जानता है कि श्री गणेश के हैं, यद्यपि वे हर चक्र पर हैं। वे साक्षात पवित्रता हैं और उनके विना कुछ भी पूर्ण नहीं होता जहाँ भी कुण्डलिनी जाती है वहाँ श्री गणेश पहुंचते हैं। उन्हीं की शक्ति से ही आपके चक्र शुद्ध होते हैं । श्री गणेश के गुणों , चक्र शुद्ध करने की उनकी कार्य शैली जो आपकी सहायक है, उसका ज्ञान प्राप्त करना हैं यदि आपने सहजयोग का अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न अति महत्वपूर्ण है। ब्रह्मचर्य, पवित्रता तथा विवेक के लिए हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। हमें समझना चाहिए कि विवेक को जायेंगे। मैंने बहुत बार आपको चेतावनी दी है कि सहज़योग का मन में बिठाया नहीं जा सकता। इसके साथ खीचातानी नहीं की दुरुपयोग मत करो। यह सभी के हित के लिए है। सहज-आनन्द जा सकती। यह अन्तर्जात हैं यह हमारी परिपक्वता की देन है। अपनी कुण्डलिनी पर पूरा चित्त देने से और सर्वत्र विद्यमान ान गण उसकी रक्षा कर रहे हैं। हर समय ये गण आपकी रक्षा करते हैं। पर वे आपको तथा आपके आचरण को भी दख रहे किया तो वे आपको दण्डित भी करेंगे। वे आपके विरुद्ध हो सहजयोग को समझने का सर्वात्तम मार्ग है। बहुत से लोग इस सत्य को खोज रहे हैं। आप उन्हें खोजिए। खोज कर बिना किसी वाद-विवाद के उन्हें आत्म- शक्ति पर स्थिर करने से ही यह वाछित परिपक्वता आती है। इसे नियमित ध्यान धारणा से पाया जा सकता है। यह कोई साक्षात्कार दे दीजिए, उन्हें लहरियों का आनन्द लेने दीजिए, कार्य काण्ड नहीं। कुछ समय उपरान्त आप हर समय स्वयं को बाकी सब कुछ ठीक़ हो जाएगा। विश्व में बहुत कुछ मिथ्या ध्यान में पायेंगे। | कोई बात नहीं। सत्य द्वारा असत्य को दूर किया जा सकता है। वे एक छोटे बालक हैं, शाश्वत शिशु और इसी से बाल सुलभ अबोधिता प्राप्त होती है। कुण्डलिनी जब ऊपर की ओर करें। परमात्मा आपे पर कृपा चैतन्य लहरी 19 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-20.txt 5088