चैतन्य लहरी अंक 7 व 8 1992) खण्ड IV ा विषय सूची **े के प पृष्ठ ...2 1. चित्त 2. श्री गणेश पूजा 3. श्री महालक्ष्मी पूजा 8. ******** 4. महा सरस्वती पूजा, 10 5. गुरु पूजा 13 त आपके अन्दर सारी शक्तियां हैं जिन्हें अब आपको धारण करना है। एक बार जब आप इन्हें धारण करने लगेंगे तो आप हैरान रह जायेंगे कि एक संत, एक गुरु, एक व्यक्ति जिसे अपने गुरुत्व का आभास है, उसके सम्मुख कोई नहीं खड़ा हो सकता। प. पू. माताजी श्री निर्मला देवी चित्त डॉलिस हिलस परम पूज्य माताज़ी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) 26.5.1980 आज मैं आप लोगों को चित्त के बारे में बताने जा रही हूं आपका चित्त काले रंग की स्मृति से रंग जाता है और आपके चित्त क्या हैं? चित्त की गति क्या है और चित्त को ऊपर उठाने और वहाँ स्थापित करने के क्या उपाय हैं? आपका चित्त ही आपके चित्त का चित्रपट स्वयं अपने पुराने अनुभव के द्वारा इन सत्य को जानने का एकमात्र साधन हैं। आपका अपना चित्त ही महत्वपूर्ण है, न कि दूसरों का चित्त या आपके चित्त का दूसरों पर होना। यदि आपं समझ लें कि उच्चतर स्थिति को प्राप्त करने के लिए आपको सब कुछ अपने चित्त द्वारा ही ग्रहण करना है, तो आपका कार्य हो जाएगा। इसलिए, आज जब आपसे चित्त के विषय में बात करने जा रही हूँ, आपको जान लेना चाहिए कि जो भी मैं कह रही हूँ, आपको पूर्ण चित्त से उसे आत्मसात करना चाहिए। मैं आपको कह रही हूं। अच्छा होगा कि आप निर्विचार समाधि में बैठे ताकि आप इसे ग्रहण कर सकें। मेरा प्रत्येक भाषण आपको परिवर्तित कर सकता है क्योंकि में स्वयं बता रही हूँ। परन्तु आप या तो सदा दूसरों के बारे में सोचते हैं या अपनी ही समस्याओं के बारे में इतने चिन्तित रहते हैं कि आपका चित्त उनके बोझ तले दबा रहता है। इसलिए जो कुछ भी आपको बताया जाता है वह आप ग्रहण ही नहीं कर पाते। अत: सब सतर्क हो जाइए और जानिए कि इन निरर्थक चीजों का कोई मूल्य नहीं है। आपके चित्त को ही उन्नत होकर कार्य करना है। अत: चित्त ही आपक पूर्ण पंगनी पकड़ से होता है, स्मृति कार्य प्रारम्भ करती है और सारी अस्तित्व का चित्रपट है। आप कितने इसके अंदर उतरे हैं कितना इसको खोजा है और कितना इसे उठाया है, यह एक आ चित्त पर इसके प्रभाव के अनुसार आपकी क्रिया होती है। चित्रों को निकाल बाहर करता है। यह एक जीवन्त चित्रपट है जो आपकी वृत्ति के अनुसार कार्य करता है । वृत्ति एक तटस्थ शब्द है। इसका कोई बुरा अर्थ नहीं है। वृत्ति का अर्थ है कि आप किधर आकर्षित होते हैं। वृत्ति का मैं आशय उस स्वभाव से है जिससे आप प्रवृत्त होते हैं। अत: जैसा आपका स्वभाव होता है वैसा ही आप कार्य करते हैं । यह आपकी वृत्ति आपके तीनों गुणों से आती है यही कारण है कि इस चित्त का तादात्म्य आपके साथ होता है। जब आप अपने स्वभाव या वृत्ति की पहचान कर लेते हैं तो आप मिथ्या पहचान के क्षेत्र में ही रहते हैं। आइए हम एक ऐसे व्यक्ति को देखें जो पहले किसी पकड़ से ग्रस्त था। सहज में आने के बाद यह पकड़ समाप्त हो जाती है। पहले पकड़ थी। और स्मृति (बायां पक्ष) अधिक बलवान है और वह चिरकाल तक रहती है। जैसे ही वह व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आता है जिसका कोई संबंध उस परन्तु मस्तिष्क में यह स्मृति रह जाती है कि मुझे चीजं बुलबुले की तरह बाहर आने लगती हैं और आप सोचते हैं कि आप फिर से पकड़ में आ गए। क्योंकि आपका बायां पक्ष कमजोर है इसलिए आप सदा स्मृति में ही रहते हैं। यदि आप स्वयं को अपनी स्मृति से अधिक बलवान बना सकें तो आपको कोई भी पकड़ नहीं हो सकती। परन्तु साक्षात्कार के बाद भी आप उस स्थिति में नहीं आए जहाँ अहंकार तथा प्रति अहंकार को एक कल्पना मात्र देखते हैं। यही कारण है कि आपका चित्त गड़बड़ी में है। चित्त का एक शुद्ध रूप बह होता है जो एक अबोध बालक में होता है। वह हर वस्तु को प्रत्यक्ष रूप (अर्थात् वस्तु का बास्तविक अनुभव) में देखता है। अत: यह जानने के लिए कि जलना क्या होता है उसे अपना हाथ जलाना होता है, ठंडा क्या है यह जानने के लिए किसी ठंडी वस्तु को छूना पड़ता है। उसकी स्मृति अभी नहीं बनी होती इसलिए वह अपने वास्तविक अनुभव के अनुसार रहता है। परन्तु यह वास्तविक अनुभव स्मृति बन जाता है। एक बार स्मृति बनने पर और इसके अधिक बलवान होने पर अआपका अलग बात है। चित्त ही परमात्मा है। यह अलग बात है कि आपका चित्त कितना प्रकाशित हुआ है। यदि आप ज्योतिर्मय हो जाते हैं तो उस सीमा तक यह एक चित्रपट है जो कि एक चित्र के लिए फैला हुआ है। जो भी आपके चित के रुझान, तथा कार्य कलाप उस चित्रपट पर दिखती हैं उन्हें वृत्ति कहते हैं। अतः हमारा चित्त एक पूर्णतया स्वच्छ चित्रपट है जिसके ऊपर तीन गुण कार्य करते हैं । यह तीन गुणा आपके भूत, भविष्य और वर्तमान काल से आते हैं। किसी वस्तु अथवा अवसर के आपके अनुभव आपकी स्मृति में पूर्णतया अंकित हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, यदि आप काला रंग देखें तो काले रंग से संबंधित हर बात आपकी स्मृति में चली जाती है और ज्यों ही आप काला रंग देखते हैं अर्थात् आपकी स्मृति उभर आएगी जैसे ही आप इसे अपने चित्त से देखते हैं तो चैंतन्य लहरी ्ी आपने कभी नहीं सोचा? युद्ध समाप्त करने की बातों से युद्ध सारा व्यक्तित्व इस स्मृति द्वारा प्रभावित होता है। सब प्रकार के बंधन इसी से आते हैं। अनुभवों द्वारा दी गई स्मृति में कभी समाप्त नहीं होंगे। परिणामस्वरूप आप प्रसन्न या खिन्न होते हैं। इस स्मृति ने आपको अहंकार अथवा प्रति अहंकार दिया है। जब आपके अहंकार की संतुष्टि होती है तो आप प्रसन्न होते हैं । यदि ऐसा न हो, यदि प्रति अहंकार हो, यदि इसके द्वारा आपका दमन हुआ हो तो आप बहुत अप्रसन्न महसूस करते हैं। अत: प्रसन्नता तथा अप्रसन्ता दोनों ऐसी स्थितियां हैं जहाँ आप केवल कल्पना में रहते हैं। आत्म- साक्षात्कार से पूर्व कोई स्थिति यदि आपके अहं को तुष्ट करे तो आप प्रसन्न होगे और है। वह एक पागल के समान परेशान रहता है। उसका व्यक्तित्व चोट पहुंचाये तो दुःखी होंगे तथा एक प्रकार के प्रत अहकार एक पकड से ग्रस्त व्यक्ति के समान होता है। बह हर चौज का विकास होंगा। अत: दोनों स्थितियां आपके उत्थान में बाधक है क्योंकि इनके कारण आप वास्तविक से दूर हो जाते हैं। आपका चित्त भटक जाता है। बायीं ओर को झुकने पर भय पीड़ा, अप्रसन्नता, निराशा और उदासी से चित्त भटकता है तथा दायीं तरफ जाने से उल्लास उत्तेजना तथा प्रभुत्व में बह जाते है। बाएं तरफ का नीला रंग काले रंग में बंदलना शुरु हो जाता है। जबकि दाएं भाग का हल्का पीला रंग (या आप सोने सा पीला रंग कह सकते हैं) नारंगी तथा फिर लाल हो जाता है। अत: आप दाएं तरफ आक्रामक हो जाते हो और बाएं तरफ आप स्वयं से कटकर बर्फ की तरह ठंडी स्थिति में पहुंच जाते हैं। दोनों ही स्थितियां गलत दिशा में बढ़ना है। आपका चित्त मध्य में नहीं टिकता क्योंकि वह एक बहुत ही संवेदनशील बिन्दु है। उदाहरण के लिए हम अग्नि द्वारा किसी वस्तु को भस्म कर सकते हैं, परन्तु यदि हम उसका प्रयोग संतुलित रूप से करें तो खाना बनाने के लिए, रोशनी के लिए और पूजा के लिए भी इसे प्रयोग कर सकते हैं। अपने गुणों का संतुलन कर लेने पर हम पूरी स्थिति के स्वामी हो जाते हैं। स्मृतियों या अनुभवां में हमारा चित्त नहीं उलझता और न ही हम दाएं या बाएं को खिंचते हैं। लोगों के लिए यह समझना कठिन है कि धार्मिक होने पर (जैसे ईरान) ने दाएं तरफ को तपस्या की, और फिर रक्तपात की ओर क्यों जाते हैं? इसाइयों ने यही किया, भारत में ब्राह्मणों ने यही किया, बद्ध के अनुयायियों ने क्योंकि आपको अपना चित्त उस बिन्दु तक ऊपर उठाना है यही किया। अहिंसा का प्रचार किया पर रक्तपात की ओर चले गए। बाएं तरफ की चाल आपको वहुत धूर्त और काले (अशुभ) तरीकों को तरफ ले जाती है। दाएं तरफ वाले लोग, जैसे कि बड़े देश या विकसित देश पहले से भी अधिक शस्त्र प्राप्त करना न्यायसंगत बताते हैं। उनके पास एक-दूसरे का सामना करने के लिए हथियार होने चाहिए। आप सभी परमात्मा की निगाह में एक ही हैं। आप क्यों लड़ रहे हैं? आप ठीक काल्पनिक चीज ही ले रहे हैं। यदि आप धीरे-धीरे इन प्रकार बैठकर एक-दूसरे की बातें क्यों नहीं सुनते? आप जमीन के लिए लड़ रहे हैं । पर यह जमीन तो परमात्मा की है। आपकी अपनी जमीन' जो आप के भीतर है उसके बारे में होने लगेगा और यह पहले से कहीं ऊंची स्थिति पर पहुंच आत्मसाक्षात्कार ही केवल एक रास्ता है। आत्मसाक्षात्कार द्वारा आपकी चित्त ऊपर उठता है तथा उस धरातल से अलग हो जाता है जहाँ चीजें बुलबुले बनकर उठती हैं। धरातल ऊपर उठ जाता है चित्त उच्चतर स्थिति में पहुंच जाता है। दायां और झुकने का परिणाम विक्षेप है, आप भटक जाते हैं हर बुद्धिजीवी दुविधा में है, चाहे वो कितना भी प्रतिभावान क्यों न हो। और वह जितना अधिक असमंजस में होता है उतना ही परेशान होता अपने मस्तिष्क की सहायता से स्पष्ट करता है। उसके समान कुछ दूसरे व्यक्ति भी हैं। वह उनका नेता बन सकता है क्योंकि वे उससे भी अधिक दुविधा में है। उन्हें वह व्यक्ति इतना अधिक भटका हुआ नहीं लगता। फिर वे युद्ध तथा रक्तपात करते हैं। वे लोग हृदय, भावना, करुणा और प्रेमविहीन व्यक्ति बन जाते हैं। संयोगवश भावना प्रधान व्यक्ति यदि किसी आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति से विवाह कर ले तो बह संतुलन में आ सकता है। हमें अपने दाएं तरफ को भी संतुलन में लाना चाहिए। जो व्यक्ति बहुत अधिक योजनाएं बनाता है वह भी खतरा मोल ले रहा है। अतः आपको दोनों पक्षों को संतुरलित करके मध्य में रहना चाहिए। परन्तु यह संतुलन शब्द केवल कहानियों या वैज्ञानिक शोध में तो रहता है परन्तु हमारे प्रतिदिन के जीवन में देखने को नहीं मिलता। इसी कारण से, हालांकि साक्षात्कार के बाद चित्त ऊपर उठता है परन्तु दोबारा हमारी वृत्तियों के अनुसार दाएं या बाएं तरफ चला जाता है। और जब यह स्मृतियां हमारे अन्दर काम करना शुरु करती हैं तो हमारा चित्त अधोमुखी हो जाता है और फिर से बुलबुलों के उठने की बही क्रिया शुरु हो जाती है। इस सारे वजन के बावजूद भी आपको हल्का रहना है जहाँ आपकी एकाकारिता परमात्मा के चित्त से हो जाएं। आप के चित्त का संबंध तो पहले से ही स्थापित कर दिया गया है। चित्त द्वारा आप देख सकते हैं कि मुझमं क्या खराबी है और दूसरों में क्या खराबी है और आप दूसरों के साथ कहाँ तक जा रहे हैं। परन्तु फिर भी उत्थान बंद हो जाता है। क्योंकि आप नहीं जानते कि चित्त ही शुद्ध शक्ति है पर आप इससे केवल काल्पनिक चीजों को चित्त से हटा दें न प्रसन्न हों, न अप्रसन्न, केवल देखें मात्र, तो आपके चित्त का उत्थान जाएगा। चैतन्य लहरो अब आप सहजयोगी हैं, क्योंकि प्रकाशमय हैं, आपको जानना है कि तीव्र गति से हमारे चित्त को उच्चतर स्थिति में जाना है। आत्मसाक्षात्कार में क्या हुआ है? आपकी कुण्डलिनी जागृत होकर ऊपर उठी है। बाल की तरह पतले उसके एक ने आपके सहस्रार को खोल दिया है। परन्तु वह एक बहुत हमारी ऊर्धव गति अति धीमी होती है। सत्वगुण में रहते हुए भी आपकी स्थिति खराब हो सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि आप कहें कि में सत्वगुणी बनने का प्रयत्न कर रहा हूँ, अर्थात् आप सब कुछ देखने लगते हैं। अपनी बुद्धि द्वारा (चैतन्य लहरियों द्वारा नहीं) अच्छे बुरे में भेद करने लगते हैं। क्या हमें यह छोड़ नहीं देना चाहिए? क्या हमें दानशील होना छोटी सी घटना घटित हुई है, चाहे है यह अति कठिन कार्य। चाहिए? क्या हमें लोगों की सेवा करनी चाहिए? कुछ लोग कहते हैं कि हम मोक्ष सा बड़ा काम कर रहे हैं । पहले वह स्वयं तो मोक्ष प्राप्त कर लें। सत्वगुण के यह विचार भी आपको गतिहीन कर सकते हैं और आपको सदा के लिए जड़ कर सकते हैं और यह आपके अन्दर अति गुप्त रूप से कार्य कर सकते हैं। किसी दान संस्था में एक बार कार्य करते ही आपके चित्त पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। परन्तु यदि आपका चित्त उन्नत हो जाता है तो आप कहते हैं कि दान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। एक साधारण व्यक्ति और एक आत्मसाक्षात्कारी विशेषकर पार्चात्य लोगों को चाहिए कि अपनी भ्रान्ति से व्यक्ति में यह अन्तर होता है। कल्पना का वास्तविकता बनाकर दिखाने वाले चित्त का पतन हो जाता है। अब चित्त साफ-साफ देख सकता है कि यह केवल कल्पना मात्र है। चित्त को सब काल्पनिक वस्तुओं को छोड़ देना चाहिए। और यह करने का सबसे अच्छा तरीका है आप इन तीन गुणों को पार करते हैं आप निर्विचार समाधि में पहुंच जाते हैं। आपको आज्ञा चक्र पार करना होता है। एक बार जब आप आज्ञा पार करते हैं, यह तीनों गुण उस अंतत: स्थिति में पहुंच जाते हैं जहाँ गुण होते हैं और आप जानबूझ कर कुछ नहीं करते, यह सब तो, बस हो जाता है। विश्लेषण पश्चिम की एक बीमारी है। आप क्या विश्लेषण कर रहे हैं? बो ये कभी नहीं जानते कि (क्रोमोसोम्स) गुण सूत्र क चित्त हैं, शाश्वत प्रकाश। केवल यही बात आपको अज्ञानता सूत्र आपके चक्रों का मध्य से भेदन हुआ है, परन्तु बाकी चित्त तो पहले की तरह बना हुआ है। अब आपको इसे फैलाना है। इसे खोलिए ताकि कुण्डलिनी के बहुत से सूत्र ऊपर उठ सके और आपका चित्त, जो इन चक्रों में है, फैल सके। विस्तृत होकर यह सारे अन्धकार को दूर कर देता है। प्रत्येक चक्र पर हमारा चित्त है, जो कि कुण्डलिनी के प्रकाश द्वारा प्रकाशित हो रहा है। परन्तु जितना अंधेरा आपने इकट्ठा कर लिया है उसके लिए यह प्रकाश बहुत कम है। बाहर आएं। एक समय में यह भी भआन्ति थी कि यह साक्षात्कार है भी कि नहीं। मुझे आशा हैं कि यह प्रश्न तो अब समाप्त हो गया है। अपने चित्त को कल्पना से अलग करके ही हमें आगे बढ़ना है मैं आपके साथ खेल भी करती हूंँ। जब तक आपको स्वयं पर विश्वास नहीं हो जाता, मैं आपको आपके बारे में कोई गलत विचार भी देती हूं। में देखना चाहती हूँ कि आपका चित्त कहाँ तक जा रहा है। आप अभी तक अपने बारे में विश्वस्त नहीं हैं, इसी कारण से विश्वास की कमी है। चित्त पर स्वामित्व आपको तभी प्राप्त होगा जब आप देखेंने लगेंगे कि आपको परेशान करने वाली चीजें मिथ्या हैं । मिथ्या का त्याग कीजिए और समझिए कि आप शाश्वत निर्विचार समाधि, क्योंकि जब भी (स्पिन्डल) तकली सी क्रिया क्यों होती है वो बता नहीं सकते कि एक अणु का विभाजन कैसे होता है। अब वे क्या विश्लेषण कर रहे हैं? शायद परमात्मा के लिए उन्होंने विश्लेषण किया है। उनके विश्लेषण के द्वारा ही मेरी बातें रिकार्ड होती हैं, उनका ध्वनि लेखन होता है। उनके विश्लेषण के कारण ही मैं टी.वी. पर आ सकती हूँ, यदि वो मुझे कुछ समय दे। परन्तु विज्ञान के कारण आपका चित्त बहुत भटकाव में भी रहता है। मैं नहीं जानती कि विज्ञान को प्राथमिकता दी जाए या फिर पुरातनता को। यदि आपने विज्ञान में अपना सन्तुलन बनाए रखा होता, तो वो आपकी सहायता करती। परन्तु सन्तुलन बिगड़ गया। मनुष्य को कोई वस्तु दीजिए, वो जानता है कि इसे किस प्रकार और बिगाड़ना है। अत: सर्वप्रथम आपको स्वयं को समझना है और निश्चय करना है कि इन काल्पनिक वस्तुओं को मैं अपने चित्त में नहीं आने दूंगा। साक्षात्कार प्राप्त होने पर से रखती हैं। अज्ञानता को समझना बहुत आसान है कि दूर आपने मिथ्या को वास्तविकता मान लिया है। इसे फेंक दौजिए, यह केवल काल्पनिक है। आप हैरान होंगे कि आपका चित्त किस प्रकार से उर्ध्वगति को प्राप्त होता है। आप देखेंगे कि यह बेकार की चीजें, जिनसे आपको भय लगता था, हट जायेंगी और आप मुस्कराएंगे। और केवल तभी आप पूर्ण रूप से आनन्द में रह सकंगे। तब आपका चित्त आनन्द सागर में सराबोर होगा। मैं कहती हूँ कि आप आनन्द सागर में होंगे और आप (सहजयोगी) तो पहले से ही सराबोर है। इस अवस्था को बनाए रखें। अब रोजमर्रा के जीवन में किस प्रकार इस अवस्था को बनाए रखें। भूतकाल की स्मृतियों को किस प्रकार समाप्त करें। इन्हे समाप्त करने का अर्थ है नई स्मृतियां पाना। पहली बार आपको कल्पना तथा भावना प्रधान लोगों पर हँसी आती है चाहे वो आपको हृदय विहीन ही समझें| जब आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ था उसे याद रखें। सदा इसके विषय में सोचें। जब भी कोई कष्टदायी या उल्लसित ण चैतन्य लहरी समय आप दूसरों की कुण्डलिनी जागृत करने के आनन्द को करने वाली स्मृति आए तो स्मरण करने का प्रयत्न कीजिए कि किस प्रकार आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ, जब भी किसी बात पर आपको क्रोध आए या आपमें ईष्ष्या भाव आए तो स्वयं को समर्पित तथा विलीन करने का आनन्द का स्मरण कीजिए। इस प्रकार नई स्मृतियों का सृजन होगा। इस प्रकार से जब आप स्मृतियों का सृजन करने लगेंगे तो मिथ्या स्मृतियों को समाप्त करने के लिए बहुत से अच्छे क्षणों की याद आपको आने लगेगी जैसे किसी की कुण्डलिनी जागृत करने की स्मृति। अपने स्मृति-पटले पर अंकित कर सकते हैं। इन सुन्दर क्षणों के वैभव को आप अनुभव करेंगे तथा यह क्षण बढ़ते ही चले जायेंगे। आपको परेशान और भयभीत करने वाले, प्रसन्नता या खिन्नता देने वाले क्षण अब पवित्र आनन्द बन जायेंगे क्योंकि अब प्राप्त आपके अधिकतर अनुभव आनन्द से परिपूर्ण होंगे। आनन्द में कोई विचार नहीं होता, यह तो केवल एक अनुभव है प्रत्यक्ष अनुभव। इसी कारण मैंने कहा कि अपनी आंखें खुली रखें। आशा है आप मेरे कथन का अर्थ समझेंगे। किसी को जागृति देते समय आपको निर्विचार समाधि में होना चाहिए। पर विचार तो बहुत प्रभावित करते हैं । ऐसे परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। श्री गणेश पूजा पर्थ, आस्ट्रेलिया - फरवरी 1992 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) आस्ट्रेलिया लौटकर आना अति आनन्ददायी है"। यहाँ भयंकर गर्मी थी, पर अब आपने देखा कि कितनी वर्षा हुई। क्योंकि आप सब चाहते थे कि बारिश हो और वातावस्ण शीतल हो जाए। दोनों ही कार्य हो गए हैं। तब चिन्ता यह हो गई कि वर्षा के कारण साधक नहीं आएंगे। यह समस्या भी हल हो गई क्योंकि वर्षा तो साधकों की परीक्षा के लिए थी। मैंने उन्हें कहा कि यदि वे वास्तविक साधक हैं तो वे आएंगे, नहीं तो जिज्ञासा विहीन भीड़ का क्या लाभ? देखिए कल कितने सुन्दर लोग पहुंचे। पूरा रास्ता भीगते हुए वे आए क्योंकि वे गहन साधक थे। उन्होंने एक भी प्रश्न नहीं पूछा। क्या आप ऐसी कल्पना कर सकते हैं? आस्ट्रेलिया में सदा मुझ पर प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। अब के मैंने इतनी जिज्ञासा देखी कि मैंने उनसे कहा कि "मुझसे प्रश्न पूछिए", पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा गया। तो एक ही बार में मैंने कितने सारे कार्य कर दिए? की ज्योति को छीनती भी है। अतः बिजली के बहुत अधिक उपयोग ने हमें दास सम बना दिया है अधिक प्राकृतिक वातावरण तथा रहने के लिए अधिक प्राकृतिक स्थानों का होना अच्छी प्रवृत्ति है। यदि परम-चैतन्य परमात्मा के प्रेम की शक्ति है तो यह सन्तुलन प्रदान करता है। अत: परम-चैतन्य को लाने वाले सहजयोगियों के जीवन में सन्तुलन होना चाहिए। मैं कहती हूँ कि इस स्थान (आस्ट्रेलिया) पर महागाणेश का निवास है। स्थिर होने पर श्री गणेश सन्तुलन लाते हैं जब ये दायें ओर को जाने लगते हैं तब कोई निर्माणकारी कार्य शुरु कर होता है और जीवन के लिए आवश्यक सभी कुछ ये करते हैं। दिशा में यदि ये चल पड़े तो ये विध्वंसक हो उठते हैं। इनके सन्तुलन के बिना जीवन नहीं चल सकता। इनके दोनों ही गुणों- रचनात्मक तथा विध्वंसक - का सन्तुलित होना आवश्यक परन्तु विपरीत है। कार्यक्रम के समय बिजली चली गई। उसका भी अच्छा प्रभाव हुआ क्योंकि हमें मोमबत्तियां जलानी पड़ीं जिनकी लो में सारे भूत विलय हो गए। जब श्री माताजी कमरे में आई तो यह घटना हुई। यह समझना भी आवश्यक था कि विजली पर अत्यधिक निर्भरता भी अच्छी बात नहीं। अत: सदा किसी प्राकृतिक साधन का प्रबन्ध हमारे पास होना चाहिए। हमें कुछ लालटेन आदि रखने चाहिएं और बिजली के स्थान पर अधिक समय प्रकृति के संग रहने का प्रयत्न करना चाहिए। में आपको बताती हूँ कि बरिजली हमारी आंखों को खराब करने के लिए जिम्मेवार है। यह केवल हमें रोशनी ही नहीं देती, हमारी आंखों ा प्रकृति का जैसा नियम हैं, जिस चीज को भी रचना हुई है उसका विनाश होता है और रचनात्मक रूप से कोई नई चीज विकसित हो जाती है। फिर इसके कुछ भाग नष्ट हो जाते है। अत: मृत्यु में ही जीवन निहित कल्पना कीजिए कि यदि एक बार उत्पन्न हुए सभी लोग यहाँ जीवित होते तो हम यहाँ न होते। बहुत से पशुओं की मृत्यु हुई और वे मानव रूप में उत्पन्न हुए। अन्य लोगों को पृथ्वी पर अवतरिंत होने का अवसर देने के लिए मनुष्यों को मरना ही होगा। मत्यु के बाद कुछ समय आराम करके आपको फिर बापिस आना है। अतः मृत्यु जीवन का परिवर्तन मात्र हैं, बिना है। मृत्यु कुछ भी नहीं। चैतन्य लहरी उदाहरण के रूप में कैथोलिक मत से ईसा की पूजा आदि जो भी अच्छी बातें हैं वो हम ले लेते हैं और विवेकहीन सभी कुछ छोड़ देना होता है। ईसा ने चरित्र पर बहुत वल दिया, चरित्र के विषय में वहुत कुछ कहा। पर ईसाईयों ने चरित्रहीनता की सारी सीमाएं लांघ दी। आपके बच्चों का क्या होगा? आपके समाज का क्या होगा? व्याभिचार जिस भी समाज की मृत्यु के जीवन अस्तित्व विहीन है। यह जीवन व मृत्यु के बीच सन्तुलन है । अतं: एक सहजयोगी को कभी भी मृत्यु से भयभीत नहीं होना। उसकी मृत्यु केवल कुछ समय विश्राम कर अधिक उत्साह तथा शक्तिपूर्वक दूसरा जन्म लेने के लिए है। प्रकृति की बहुत सी चीजें पूर्णतया सन्तुलित हैं। यह सन्तुलन यदि समाप्त हो जाए तो हम कहीं के न रहेंगे। अत: हमें समझना चाहिए है कि ये सब कार्य श्री गणेश ही करते हैं। वे ही सभी भौतिक पदार्थों की तथा मानव रचित वस्तुओं की देखभाल करते हैं। उदाहरणतया पहले चक्र (मूलाधार) की सृष्टि पृथ्वी माँ ने की और दूसरे चक्र (स्वाधिष्ठान ) ने पूरे ब्रह्माण्ड को रचा। परन्तु पहला चक्र ही पवित्रता तथा मंगलमयता को फैलाता है तथा सन्तुलन प्रदान करता है। शेलो बन गया है बह समाज पूर्णतया असन्तुलित है तथा ईसा की शिक्षा के विपरीत चल रहा है। श्री कृष्ण ने कहा है कि हर मानव में आत्मा का निवास है। अत: सब मानव समान हैं। आप जाति-प्रथा कैसे अपना सकते हैं। कार्य के अनुसार आप जातियां बना सकते हैं जन्म के आधार पर नहीं। हर मानव में आत्मा है अत: सबका उत्थान हो सकता है। इसा ने भी यही कहा है। उन्होंने कभी नहीं कहा कि स्त्रियों में आत्मा नहीं है, पुरुषों में है धर्म-अर्थात् सन्तुलन, मध्य में रहना में हैं सन्तुलन खो देने पर लोग या तो बायें या दायें को चले जाते हैं। कुछ सहजयोगी अति धर्म-परायण है परन्तु उनमें प्रेम का अभाव है। प्रेम के बिना धर्मपरायणता अर्थहीन है। प्रेम का अभिप्राय यह नहीं कि आप किसी चीज से लिप्त हो जाएं परन्तु नि्लिप्त प्रेम तथा उत्तरदायित्व तो आप में होना ही चाहिए। श्री गणेश मूलाधार पर हैं और मूलाधार स्थित हमारी सभी इन्द्रियों का नियंत्रण उनके हाथ में है - विशेषकर सभी प्रकार के मलोत्सर्जन का। अत: हम वे लोग नहीं हैं जो इन इन्द्रियों की लिप्सा में या इनसे पूर्ण विरक्ति में विश्वास करते हैं। हमें इनके सन्तुलन में विश्वास है। अतः आपने विवाहित होकर सन्तुलित जीवन बिताना है आपके यथोचित बच्चे हों ही इन गुणों को विकसित कर लेंगे यह गुरुत्व आपको एक और आप विवेक एवं गरिमामय जीवन व्यतीत करें। पर प्रेम का होना आवश्यक है - पति-पत्नी में, बच्चों तथा माता-पिता में नहीं कि आप मुंह लटकाए बैठे रहें। गंभीरता का अर्थ है तथा सभी से प्रेम आवश्यक है। एक व्यक्ति के असन्तुलित कि किसी भी प्रकार की उथल-पुथल में आप विचलित न होने से पूरा परिवार असन्तुलित हो जाता है। प्रेम पूर्वक परिवार हों गंभीरता का अर्थ बहुत गहन है। जैसा कि आप श्री गणेश को अच्छी तरह स्थापित करना भी एक कला है। यदि के चरित्र से देख सकते हैं - गंभीरता का अर्थ है कि आप पति-पत्नी दोनों ही ऐसा करने को रजामन्द हो जायें तो, मुझे अपने मध्य में खड़े हैं, एक ऐसे व्यक्ति हैं जो सब कुछ विश्वास है, ऐसा करना कठिन न होगा. क्योंकि आप लोग देखते हुए भी न विचलित होता है न किसी प्रलोभन में सहजयोगी हैं । समलिंगकामुकता तथा टी. एम. ( ट्रान्सैडैन्टल मैडीटेशन) में की जाने वाली तपश्चर्या के कारण पश्चिमी देशों में बहुत असन्तुलन है। एक चीज के बाहुल्य तथा दूसरी के अभाव की अपेक्षा सन्तुलन में रहना स्वाभाविक है। असन्तुलन ही लोगों के है। ऐसा व्यक्ति किसी असन्तुलित या गलत कार्य करने वाले कष्टों का कारण है। से इसका कोई संबंध नहीं। यदि आप मध्य - तो आप किसी भी गलत - गुरुत्व के बिन्दु पर हैं दिशा की ओर नहीं झुक सकते। गुरुत्त्र धरा माँ से आता है और धरा माँ ने ही श्री गणेश की रचना की है। अत: अति स्वाभाविक रूप से यह गुरुत्व मानव में आ जाता है। गुरुत्व अन्तर्जात है, इसे अपनाना नहीं पड़ता। बचपन में यदि बच्चों को उनके गुरुत्व, गरिमा और महानता के विषय में बताया जाए तो वे स्वाभिमानपूर्वक तुरन्त प्रकार का आकर्षण प्रदान करता है। गंभीरता का अर्थ यह आता है, आत्म-सन्तुष्ट न वह कुछ मांगता है, न उसकी कोई आवश्यकता है, न वह किसी से बदला लेताः है। वह सदा क्षमा करता है क्योंकि अपने गुरुत्व से बाहर निकलने का उसके लिए कोई मार्ग नहीं - गुरुत्व से बह बस बंधा हुआ सन्तुलन के गुण को आप पहले से ही जानते हैं। व्यक्ति के पीछे नहीं दौडता। ऐसे व्यक्ति पर उसे दया आती है। दृढ़तापूर्वक खड़े हो जाना ही दूसरों को डराने तथा उनका विनाश करने के लिए काफी है। वह व्यक्ति एक ऐसे विन्दु पर खड़ा है जहाँ उसे विचलित नहीं किया जा सकता, पर अन्य लोग तो विनाश की ओर दौड़ रहे हैं। तो उनके पीछे दौड़कर अपना विनाश कर लेने का क्या लाभ? गुरुत्व में खड़े व्यक्ति यदि चाहें तो अन्य लोगों की सहायता कर सकते हैं क्योंकि वे देख सकते हैं कि कोई व्यक्ति गिरने वाला है । फिर भी यदि अपने सभी कार्य हमें गणेश चक्र से सीखने चाहिए। कभी हमें वस्तुएं संग्रह करनी पड़ती हैं, कभी उपभोग करनी पड़ती हैं और कभी फेंक देनी पड़ती हैं। कहीं से भी जब हमें कोई विचार आते हैं तो उनमें से जो हमारे हित में हों वही हमें अपनाने चाहिए बाकी सब फेंक देने चाहिए। परम-चैतन्य की कृपा से ही हम ऐसा कर सकते हैं। चैतन्य लहरी के अनुसार यह अपराध है। यह गलत है क्योंकि आपमें सन्तुलन तथा स्वाभाविक कोमलता होनी चाहिए। अन्य लोगों से आपको अति प्रेम से बात करनी चाहिए तथा आपको दयाल व्यक्ति सन्तुलन में न आना चाहे तो आप उसे मजबूर नहीं कर सकते। है। तथा अच्छा होना चाहिए। पता लगाइए कि आप सब कर रहे हैं या नहीं। श्री गणेश का महानतमे गुण यह है कि उनमें सन्तुलन उस गुरुत्व के साथ वे इस धरा माँ पर बैठते है। आस्ट्रेलिया श्री गणेश का देश है सन्तुलन होना आवश्यक परन्तु उनमें सन्तुलन का अभाव है। आस्ट्रेलिया में सहजयोग शुरू करने से पूर्व श्री माताजी का वहाँ अतः स्वाभाविक रूप से यहाँ के लोगों में है समूहों के बीच हमें प्रेम की शक्ति का उपयोग करना है केवल प्रेम ही तो हमारी शक्ति है। श्री गणेश को देखिए का अनुभव यह था कि वहाँ के लोग बहुत शराब पीते हैं, व्यर्थ कितने भले, मधुर तथा अबोध हैं। उनकी कार्य विधि कितनी भली है। कैसे वह तुम पर कार्य करते हैं, कैसे वे तुम्हारे लिए चीजों की रचना करते हैं और कितनी शान्ति से वे सारा कार्य फूल को खिलते हुए या वाले पशु भी परमात्मा के सम्पर्क में तथा उसके अनुशासन में प्रकृति के किसी अन्य कार्य को जब श्री गणेश करते हैं तो आप उसे देख नहीं सकते। इतनी कोमलता से वे सारे कार्य को करते हैं और हर पत्ते को दूसरे से भिन्न बनाते हैं गणेश की खाने को दिया जाए उसे स्वीकार करते हैं और प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वी पर रहने वाले हम सबको कितना भद्र होना चाहिए? रहते हैं। यदि उन्हें नष्ट भी होना हो तो इस विनाश को स्वीकार लोगों से व्यवहार में हमें कितना मधुर होना चाहिए? यह दर्शाने के लिए कि हम गणेश हैं आप को अति भद्र होना चाहिए। आपको विशेष प्रकार के गण बनना है आस्ट्रेलिया के लोगों की बातें करते हैं, बड़ी कठोरता से हाथ मिलाते हैं तथा हर कार्य को बहुत हंगामें से करते हैं । श्री गणेश के देश का तार-तम्य परम-चैतन्य से होना चाहिए। प्रकृति की गोद में रहने. करते हैं। उदाहरण के रूप में किसी होते हैं। वे एक-दूसरे पर अत्याचार नहीं करते, वे अति भले होते हैं और झुड नहीं बनाते। वे बढ़ते हैं, जो भी कुछ उन्हें करते हैं। श्री गणेश के इस देश में आप प्रकृति को स्वयं में आत्मसात कर लें और आप में सन्तुलन इस प्रकार से आ जाए कि आपका पूरा स्वभाव उस सन्तुलन को दर्शाए। पर आस्ट्रेलिया में बहुत बड़ी कठिनाई यह है कि यहाँ लोगों के बहुत से झुंड हैं, लोग आपस में लड़ते रहते हैं तथा उनकी बहुत सी समस्याएं हैं। गणेश के देश में, जहाँ उनके गणों का निवास है, यदि गण परस्पर लड़ने लगे तो क्या परिणाम होगा? यदि हमारे शरीर के अन्दर रोग प्रतिकारक ही परस्पर लड़ने लगे तो शरीर का क्या होगा? अत: आप भी गणों के समान ही इस देश में जन्में विशिष्ट लोग हैं। इतनी उपलब्धियां पाने के बावजूद भी अन्य देशों की सभी बुराइयां लेने लगे हैं तो श्री गणेश के इस देश में जन्म लेने का क्या लाभ? गणेश की इस भूमि पर आपके अन्दर पूर्ण सन्तुलन होना चाहिए। यही सब मैं आस्ट्रेलिया के सहजयोगियों से आशा करती हूँ। और श्री गणेश के सन्तुलन का विवेक उन्होंने पूरे विश्व को देना है। के बारे में मैं यह महसूस करती हूँ। आप सबको वास्तविक रूप से प्रेममय, भद्र, करुणामय और हितैषी बनना सीखना है। छोटी-छोटी चौजें लोगों को बहुत प्रसन्नता प्रदान कर सकती हैं। मैं स्वयं छोटी-छोटी युक्तियां उपयोग करती हैूँ। आपको भी इनका उपयोग करना चाहिए। एक दिन एक महिला को मैंने एक साड़ी दी। उसने कहा "माँ आप कैसे जानती हैं कि मुझे ये रंग पसन्द है"? क्योंकि मैंने तुम्हें ज्यादातर यही रंग पहने देखा है अत: मैं जानती हूँ कि तुम्हें ये रंग पसन्द है।"क्या आपने मुझे देखा था "? " नि:सन्देह मैंने तुम्हें देखा था"। उसे बहुत प्रसन्नता हुई। उसे लगा कि माँ मेरा ध्यान रखती हैं। मैं सब कुछ जानती हूँ क्योंकि मुझे आपकी चिन्ता है। आप सबकी। मैं जानती हूँ कि आप कहां खड़े हैं, आपको क्या परेशानी है, क्या किया जाना चाहिए, आपको क्या पसन्द है और क्या नापसन्द| ऐसा करने में कोई किसी के प्रति हमें कोई दुर्भाव नहीं रखना चाहिए और हानि नहीं। अच्छा सौहार्द बना लेना ही ठीक है तभी आप सदा हमें क्षमाशील होना चाहिए। अंग्रेजी भाषा इतनी मुद नहीं समझ सकंगे कि समस्या क्या कि इसमें यदि आप किसी को कुछ कहें तो वह बुरा ने माने। यह अति विनोदपूर्ण भाषा है पर विनोदिता भी कभी-कभी सुधारने का प्रयत्न करती हैं, पर यह सब हमें उन लोगों को व्यक्ति को कठिनाई में फंसा देती है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप किसी को कठोर शब्द बोलें या किसी व्यक्ति, अपने सकते हैं। हमें कोई कठोर कदम लेने की या किसी के मुंह पर कर्त्तव्य, अपने बच्चों, पति या पत्नी के प्रति उदासीन हो जाए । किसी के प्रति उदासीनता भयंकर कठोरता है। किसी छोटी सी बात के लिए यदि कोई स्त्री नाराज होकर अपने पति से हम ध्यान से निकल जाते हैं। कठिनाई पड़ने पर तुरन्त बात नहीं करती या पति पत्नी का तिरस्कार करता है, गुरुत्व बिन्दु पर चले जाइए...... ऐसा यदि हो जाए तो उसकी फिक्र नहीं करता, देखभाल नहीं करता तो सहजयोग समस्या समाप्त हो जाएगी। मेरे साथ ऐसा ही होता है। कहीं श्री माता जी ने बताया कि कितने प्रेम से वे लोगों को बताना नहीं चाहिए। उन्हें बताने के स्थान पर हम बंधन दे उसकी कमी कहने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ध्यान-धारणा मध्य (केन्द्र) में रहने में सहायक होती है फिर भी कभी-कभी अपने चैतन्य लहरी 7. आपको परेशान करने वाले को सर्वव्यापक शक्ति सम्भाल लेगी। इस विषय में आपको कुछ करने की आवश्यकता नहीं । देखने का प्रयत्न कीजिए कि क्या आप सन्तुलन में हैं - अपने परिवार से न बहुत लिप्त और न बहुत विरक्त। लिप्सा प्रेम की मृत्यु है। अतः हमें निर्लिप्त प्रेम की यथोचित समझ प्राप्त करनी है, जहाँ गुरुत्व पर खड़े होकर सब का हित सोच सकें। यदि आपको लगे कि कोई व्यक्ति ठीक नहीं है तो भी आपको सन्तुलन खोने की कोई आवश्यकता नहीं। अपना सन्तुलन ही यदि आपने खो दिया तो उस व्यक्ति को आप कैसे ठीक कर सकेंगे? इस प्रकार आप अपनी सारी घृणा, क्रोध, कामुकता तथा स्पर्धा भाव से छुटकारा पा लेंगे क्योंकि आप अपनी गरिमा में स्थित हैं। आपको किसी की प्रशंसा की इच्छा नहीं, आप जानते हैं कि आप अपने स्थान पर खड़े हैं और भी जब मैं कोई कठिनाई देखती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं तुरन्त अपने गुरुत्व की गहनता पर चली गई हूँ और वहाँ से मैं सभी कुछ स्प्ष्ट देख सकती हूँ, और तब में समस्याओं का हल करती हूँ। आपने न तो अपना मुकाबला दूसरों से करना है। और न ही ये सोचना है कि आपका कोई लाभ या हानि होगी। आप अपने मालिक हैं। अत: चिन्ता मत कीजिए। न कोई ईष्ष्या है और न कोई प्रलोभन। आप स्थिर हैं। निश्चिन्त। कभी-कभी अगुआ गण अपने पद के लिए चिन्तित होते हैं। पर सहजयोग में नेता तो बाजीगरी मात्र है। नेतृत्व मात्र एक मजाक है और यदि आप इस बात को समझ जाएं तो कार्य और अच्छी तरह से होगा। सहजयोग में कोई पुरोहित-तंत्र नहीं है। हम सब एक हैं। कोई भी किसी दूसरे से बेहतर नहीं है। 1. हैं। आत्म सन्तुष्ट श्री माता जी से विशेष - साक्षात्कार भी आवश्यक् नहीं। यह सब तो अहं है। श्री माता जी कभी निजी नहीं हैं। हर समय वे हमें उपलब्ध हैं। ये सब बातें अज्ञान से तथा इस सत्य से उपजो है कि आप अपने गुरुत्व बिन्दु पर नहीं हैं। अत: आज हमें अपने हृदय में सोचना चाहिए कि हमारा गुरुत्व बिन्दु क्या है? और ये कि हमें दृढ़ता-पूर्वक खड़े होना है। अत: आपको नेता से कोई भय नहीं होना चाहिए। यदि आप अपने गुरुत्व पर स्थिर है तो वह आपको समझ जाएगा। अपने गुरुत्व बिन्दु पर आते ही नेता जान जाएगा। अत: आप अपने गुरुत्व विन्दु पर स्थिर रहें। कोई भी आपको परेशान नहीं कर सकता। सहजयोग में आपको कोई भय या चिन्ता नहीं होनी चाहिए। आप सभी सन्त हैं। सारे गण, देवदुत और परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति आपकी देखभाल कर रही है। यह श्री गणेश का स्थान है, सभी कुछ ठीक हो जाएगा। परमात्मा आप पर कृपा करें। श्री महालक्ष्मी पूजा जता लि ब्रिसबेन, आस्ट्रेलिया, फरवरी 20, 1992 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ( सारांश) सहन करते हैं । परिणाम भयानक हो सकते हैं और इस प्रकार के लोग फैशन के भंवर में खो भी सकते हैं। नशा करने वाले लोग भी साधक हो सकते हैं बश्ते कि वे ऐसा अपने महालक्ष्मी तत्व को पाने के लिए करते हों, फैशन के कारण नहीं। तो इस महालक्ष्मी तत्व ने उनके अन्दर जन्म लिया और स्पष्ट करने लगा कि इस सबसे परे भी तो कुछ अवश्य होगा। भिन्न देशों के बंधनों ने भी आपके अन्दर तथा बाहर सहजयोग की उन्नति में बाधा डाली है। सत्य की खोज फैशन भी हो सकती है परन्तु इसके यह महालक्ष्मी पूजा इसलिए की जा रही है कि हम समझ सकें कि विश्व निर्मला धर्म क्या है। महालक्ष्मी तत्व आप सबके मध्य में स्थित है। एक बार जब आप लोगों के दम्भ और पाखंड से तंग आ जाते हैं तो अपने अन्दर के सत्य को खोजने लगते हैं। इस प्रकार जिज्ञासु या साधक कहलाने वाले लोगों के एक नए वर्ग का जन्म हाता है। वे अन्य लोगों से बहुत भिन्न हैं। वे किसी भौतिक लाभ, सत्ता या पद की चिन्ता नहीं करते। वे सत्य को खोजना चाहते हैं। यह वर्ग आप लोग हैं और इसी कारण आप सहजयोग में आए हैं। हमारी जिज्ञासा पूर्व जन्मों से और हमारे वर्तमान जीवन के हालात से आती है जैसे एक वैभवशाली परिवार में जन्म लेना और वैभव से तंग आ जाना। जिज्ञासा का दूसरा स्रोत सत्य को खोजने की परम्परा है। भारत में धन एवं सत्ता की खोज को मिथ्या माना जाता है और लोग संस्कृति से सुसंस्कार प्राप्त महालक्ष्मी तत्व को समझने के लिए हमारा यह जानना आवश्यक है कि दो अन्य मार्ग भी हैं जिन पर हम भटक सकते हैं। यह हमारे वर्तमान जीवन की पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। पूर्व जन्म की पृष्ठभूमि के परिणामस्वरूप ही आप उचित मार्ग पर आए हैं, पर पूर्व जन्म वर्तमान जीवन से चैतन्य लहरी व मानव को हानि पहुंचाते। महालक्ष्मी तत्व पर आधारित विश्व निर्मल धर्म सभी धर्मों का सार तत्व तथा सभी धर्मों का सत्य है। है) समाज ने कई आच्छादित हो रहा है ( ढका जा रहा प्रकार से आप पर प्रभुत्व जमाया है। कार्यक्रम में आने वाले बहुत से लोग जन्म जन्मान्तरों से जिज्ञासु हैं परन्तु बायें तथा दायें ओर के झुकाव के कारण बनी आदतां से वे सहजयोग में टिक नहीं पायेंगे। महालक्ष्मी तत्व को ठीक रखने के लिए सहजयोगी को सदा अन्तर्दर्शन करना आवश्यक है। अपना मुल्यांकन करने का सर्वोत्तम उपाब अपनी चैतन्य लहरियों को महसूस करना है। हमारे बहुत अधिक बायें या दायें को झुकने के कारण जब हम अपनी लहरियों को महसूस नहीं कर पाते तो हमारा महालक्ष्मी तत्व कार्य नहीं कर रहा होता हम पटरी से उतर जाते हैं। अपने तथा अन्य लोगों के ऐसे बन्धनों से हमें सावधान रहना चाहिए जो हमें मध्य मार्ग से हटाते हैं। अति विरक्त रूप से साक्षी बनकर हमें स्वयं को देखना है दूसरों वाइबल में पॉल ने ईसाईमत के विषय में बहुत प्रकार के भ्रम पैदा कर दिए हैं। दाप स्वीकार करने की मूरखता शुरू करके उसने लोगों को दोषभाव ग्रस्त कर दिया तथा स्त्रियों को महत्वहीन बना दिया। ईसा को समझे बिना ऐसा करने का कोई अधिकार उसे न था। वह एक अपस्मारो (मिर्गी रोग पीड़ित) था जिसे सत्ता प्राप्त करते के लिए मंच की आवश्यकता थी जिसके लिए उसने ईसाई मत की व्यवस्था की। इसा ने ऐसा करने को कभी नहीं कहा और न ही कहा कि अपराध स्वीकार कर स्वयं को दाष-ग्रस्त कीजिए। उन्होंने सदा क्षमाशीलता की बात की। को नहीं। थोड़े से समय में ईसा ने हमें सत्य का ज्ञान दिया पर व्याख्याकार इसे गलत दिशा में ले जाते हैं। पर सहजयोगियों को मेरी कही हुई किसी बात की व्याख्या नहीं करनी पडती, मैं जो भी कहती हूँ वे इसे जानते हैं यदि वे हमें पता होना चाहिए कि यदि हममें कोई शारीरिक समस्या है ( रोग) तो हम मध्य ( केन्द्र ) में नहीं है। अपने को पूर्णतया रोगमुक्त करने की योग्यता हममें होनी चाहिए। हमें सदैव शान्त होना चाहिए, क्रुद्ध नहीं। जो व्यक्ति अपने मध्य में है वह क्रोध का दिखावा तो कर सकता है पर वास्तव में क्रोधित नहीं होता, वह क्रोध या भावनाओं में लिप्त नहीं होता। आपको विश्वास होना चाहिए कि आप पुर्णतया निर्लिप्त है। अपनी वास्तविक अवस्था में आकर आप अपने स्वामी होते हैं और देख सकते हैं कि आप कहाँ जा रहे हैं। यदि हममें बायें या दायें ओर झुकने की कमी अब भी है तो हम पक्के सहजयोगी नहीं हैं। हमने उन्नति नहीं की। व्याख्या करने लगते हैं तो अवश्य उनमें कोई कमी है। आप मुझ पर टीका नहीं कर सकते। जो भी कुछ मैं कहती हूैँ, बड़ी साधारण अंग्रेजी भाषा में कहती हूं। टीका करने के लिए उसमें कुछ होता ही नहीं। मैं स्पष्ट बात कहती हूँ जिसमें ठीक करने के लिए कुछ नहीं होता। जो लोग स्वयं को, मुझे ठीक करने के लिए, बुद्धिमान समझते हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनको वद्धि में मरी व्याख्या करने की क्षमता नहीं है। हम मध्ये में हैं या नहीं, यह जानने का यह एक तरीका है। महालक्ष्मी तत्व को स्थिर करने के लिए कें्द्र में जाने का पहला मापदंड यह है कि हमारा शरीर सामान्य होना चाहिए। हमें स्वस्थ तथा प्रसन्न रहना चाहिए, सदा शरीर के दर्दा की शिकायत नहीं करते रहना चाहिए। दूसरे यदि हम मध्य में हैं तो हमारा चित्त अधिकतर प्रकृति तथा इसकी कार्य प्रणाली की आर होता है। अपने चहूं और की सृष्टि का हमें आनन्द लेना चाहिए। यह आनन्द विस्मयकारी रूप से गहन तथा आनन्ददायी होता है तथा हमें निर्विचार समाधि की ओर ले जाता है। सहजयोग पर भाषण देते हुए सावधान रहना चाहिए कि कहीं अहं में फंसकर कोई ऐसी बात न कहें जो श्री माताजी ने कभी कही ही नहीं। जो लोग पक्के सहजयोगी नहीं हैं उन्हें आत्मसाक्षात्कार तो देना चाहिए पर सहजयोग पर भाषण नहीं देना चाहिए। जो व्यक्ति आपको साक्षात्कार देता है वह आपको गुरु नहीं है, उसका कोई डर उसका अहसान आपको नहीं मानना चाहिए। ऐसा न करने पर, उस व्यक्ति या समूह का अनुसरण करते हुए आप बायें या दायें को चले जायेंगे। महालक्ष्मी तत्व से बाहर चले जाने पर हमारे इर्द-गिर्द की नकारात्मक शक्तियां हम पर कब्जा कर लेती हैं और हमारी अवस्था साधारण लोगों से भी बदतर हो जाती हैं । हम किसी एक देश के न होकर पूरे ब्रह्माण्ड के हैं विश्व निर्मल धर्म के हैं। हम ब्रह्माण्ड के अंग-प्रत्यंग हैं। अब हम शाश्वत जीवन में - असीम में प्रवेश कर गए हैं। एक ननहें कमल की तरह जो कीचड़ में से निकलता है और कीचड़ जिस पर चिपका हुआ होता है पर अन्त मं अति स्वच्छ रूप हमें किसी भी धर्म की निन्दा नहीं करनी चाहिए। धर्म के नियमों पर न चलने वाले लोग जो साक्षात्कारी भी नहीं हैं वही स्वयं को धार्मिक कहते हैं। चर्च की निन्दा की जा सकती है पर ईसा की और बाइबल की कभी भी नहीं की जा सकती। स्वत: ही हम सभी अवतरणों का सम्मान करेंगे, किसी भी अवतरण, धर्म या पैगम्बर की कभी भी निन्दा नहीं करेंगे। किसी धर्म के प्रति हम में दुर्भाव नहीं होगा किसी भी धर्म ने आज तक कोई हानि नहीं पहुंचारयीं। गलत प्रकार के लोग जो धर्म को धन तथा सत्ता प्राप्त करने के लिए उपयोग करते हैं चैतन्य लहरी है। यह सहजयोग से भी लिप्त नहीं है। इसका कार्य कवल पोषण करना है। यदि यह पोषण करती है तो भी ठीक और नहीं करती तो भी ठीक। में वह कीचड़ से बाहर आ जाता है। तब वह चारों ओर अपनी सुगन्ध बिखेरता है - यहाँ तक कि कोचड़ को भी वह सुगन्ध देता है। हमारा भी यही कार्य है। महालक्ष्मी तत्व केवल हमारे लिए न होकर पूरे विश्व के लिए है। एक नयी जाति, एक नए समाज का, जो कि ज्योतिर्मय है तथा सत्य और प्रम पर खड़ा है सभी कुछ आपकी इच्छा पर निर्भर है। किसी भी प्रकार से कोई आपको मजबूर नहीं करेगा। कुण्डलिनी तो गंगा नदी की तरह बह रही है और यदि आप चाहें तो यह आपके अन्दर बहगी। भक्ति ही इन्छा है, भक्ति का आनन्द प्राप्त करने की श्रद्धा। यह इतनी सुन्दर चीज है कि हम निर्विचारिता में इसका आनन्द लेते हुए इसमें विलय हो जाते हैं। यही वह वांछित तथा सर्वोच्च अवस्था है जहाँ आप परमात्मा से एकाकार होकर आनन्द सागर में तैर रहे होते हैं । सुधार कर रहे हैं। हममें करुणा होनी चाहिए। हमें आध्यात्मिकता से सुसज्जित होना चाहिए और स्वयं को देखना चाहिए। सुदृढ़ होने पर कोई भी चीज हमारे मार्ग में बाधा न बन सकेगी। हमें इच्छा करनी चाहिए कि हमारी लहरियां ठीक हों, हमारे चक्र शुद्ध हों, हम मध्य में तथा सन्तुलन में रहें। अपनी समस्याओं का हल खोजने में हमें आनाकानी नहीं करनी चाहिए। हमें अति शुद्ध तथा दृढ़ सहजयोगी होना चाहिए। बहुत से लोग सहजयोग में बहुत ऊंचे उठ सकते हैं पर अभी तक उनकी इच्छाओं की अभिव्यक्ति नहीं हुई है। आपको बतायी मेरी वहुत सी बातों का प्रभाव आप पर उदासीनता पूर्ण है। महालक्ष्मी तत्व को सदा रक्षा होनी चाहिए और सदा इसकी देखभाल करते हुए इसमें झांका जाना चाहिए। महालक्ष्मी के आशीर्वाद इतने अधिक हैं कि इनका वर्णन एक भाषण में नहीं किया जा सकता, पर इनमें सबसे महान आशीर्वाद पूर्ण आत्म सन्तुप्टि है। अपने आत्मा में ही आप आनन्दित रहते हैं । महालक्ष्मी तत्व जव हमारे मस्तिप्क में प्रवंश करता है तो विराट महालक्ष्मी तत्व हमारे अन्दर का तत्व है जो पोषण करने के साथ-साथ हमें सन्तुलन प्रदान करता है। यह एक पथ प्रदर्शक तत्व है जो सभी कार्य करती है, जो विवेक प्रदान करके परमात्मा तथा सत्य के प्रति प्रेम देती है और इस प्रेम से आप उन्नत होते हैं। एक साधारण कार्य जो आपको करना है कि आपको मेरी कुण्डलिनी पर होना है . अपना चित्त मेरी कुण्डलिनी पर डालना है निर्विचार होने से समस्या हल हो जाएगी क्योंकि विचार ही नहीं होगा उससे आपका अहं निश्चित रूप से समाप्त हो जाएगा क्योंकि तब आप समझ जायेंगे कि श्री माताजी ही सभी कुछ कर रही हैं, मैं जब कुछ कर ही नहीं रहा तो मुझे गर्व यों होना चाहिए? आपके सारे बन्धन टूट जायेंगे क्योंकि मेरी कुण्डलिनी पूर्णतया पवित्र है। यह किसी से लिप्त नहीं की अभिव्यक्ति होती है तथा हम अति सुन्दर रूप से सामूहिक हो जाते हैं। तब हम यह नहीं सोचते कि हम किस देश के हैं, हमारी चमड़ी का रंग क्या है या हमारा धर्म क्या हैं। यह आनन्द भी तभी आता है जब महालक्ष्मी तत्व आपके सहस्रार को प्रकाशित करता है। पूर्णता का भाव आ जाता है व्यक्ति विशेष का नहीं। विराट उसी से जड़ जाते हैं। विराट का यह भाव कि हम पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं है। महालक्ष्मी तत्व के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने अहं तथा बन्धनों का त्याग। इसी कारण महालक्ष्मी इतनी महत्वपूर्ण है। केवल से हम एकाकार हो जाते हैं, आपको पूर्ण शान्ति तथा सुरक्षा प्रदान करता परमात्मा आपको आशोर्वादित करें। महा सरस्वती पूजा ऑकलैंड, न्यूजीलैंड - 23.2.92 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ( सारांश) महा सरस्वती तत्व दायीं ओर को है। पहला ब्रह्मदेव का जो कि सरस्वती तत्व हैं। फिर यह महा सरस्वती आपको महा ब्रह्मदेव तत्व पर ले जाता है। इसे हम हिरण्यगर्भ भी कहते हैं। यह सहजयोगियों के लिए अति महत्वपूर्ण है। अधिक सोंचते को चले जाते हैं। उदाहरण के रूप में यदि कोई कलाकार दायें को चला जाएगा तो शनै: शनै: उसके चित्र अति उग्र अभिव्यक्ति हो सकते हैं। वह गंभीर तथा कठोर होगा तथा उसकी अपनी ही शैली होगी, किसी दूसरे की शैलो वह नहीं अपनाएगा। और तत्व जब इससे तग आ जाएगा तो गूढ़ कला आदि शुरु कर देगा। परन्तु आत्मसाक्षात्कार के बिना गूढ़ कला अति निरर्थक तथा आत्मसाक्षात्कार पाए बिना जो लोग हैं या बहुत अधिक सृजन करते हैं वे बहत अधिक दायें या बायें बहुत चैतन्य लहरी 10 बनाते हैं। भारतीय विद्वान तो कामसूत्र को साहित्य का दर्जा ही नहीं देते। घिनौनेपन और असभ्यता की ये रचनाएं तो इन आक्रामक (दायीं ओर को झुके) लोगों के लिए इनाम है। दायीं ओर का व्यक्ति शराब पीने लगता है क्योंकि वह कमी पूर्ति चाहता है, अपनी सत्ता प्राप्ति की प्यास बुझाना चाहता है या हास्यकर भी हो सकती है आज का पॉप संगीत भी, जो कि अति आक्रामक है, इसी का परिणाम है। ऊ्ध्व गति को न जा सकने के कारण आप दायें को चले जाते हैं। इस प्रकार लोग अन्य आक्रामक लागों को प्रभावित करते हैं। लोकप्रियता वास्तविक सफलता का चिन्ह नहीं है। लोकप्रियता तो आनी-जानी है। यह इतिहास को प्रभावित नहीं करती। है। आज के समाज अपनी आक्रामकर्ता को कम करना चाहती में लोग पांच दिन कठोर परिश्रम करते हैं फिर मद्यपान करते हैं. करक सामवार को सिर दर्द लेकर लौटते हैं। अंग्रेजी भाषा में शेक्सपीयर से लेकर वहत से लेखकों ने है, फिर धूप स्नान करते और सप्ताहांत तक सारा पैसा खर्च मानव के प्रयत्नों की निरर्थकता की अभिव्यक्ति की है। वे अवधूत-सम हैं जो अपने आध्यात्मिक जीवन में बहुत विकसित हुए हैं। मानवीय प्रयत्नों की निरर्थकता को वे देख सकते हैं परंशान हो जाता है। तब उसके अन्दर रचनात्मकता के प्रति और फिर मनुष्य को एक ऐसे बिन्दु पर ला सकते हैं जहाँ वह समझ सके कि उसे इन मुर्खतापूर्ण अमानवीय प्रयत्नों से ऊपर उठकर उच्च प्रयास करना है तथाी शाश्वत मूल्य की कला कृतियों की रचना करनी है। सोमर सैंट मॉम तथा क्रोंनिन से की प्रेरणा देतो है और तब उसमें महा सरस्वती तत्व कार्य करने लेखक मध्य में स्थित थे, पर बाद में जब हैम्मिंगवे आए तो वे दायें को झुकने लगे। आधुनिक उपन्यास गंदगी तथा हिंसा से परिपूर्ण हैं, ये मानवीय बायीं ओर को झुकने वाले कलाकार यूनानी त्रासदी के शिकार हैं। वे रोते-बिलखते रहते हैं और आपको भी रुलाते हैं । इन कार्यों के परिणाम जब आने लगते हैं तो कलाकार एक सूक्ष्म दृष्टिकाण उत्पन्न होता है। कला में वह सच्चे ज्ञान की खोज करने लगता है। परमात्मा के गुणगान करने वाले शुद्ध केलात्मक ज्ञान की धारा उसे चीजों को बेहतर रूप से करने लगता है। परन्तु जब वे परमात्मा को बारे में सोचने लगते हैं तो भी वे जाल में फंस जाते हैं। धन एवं सत्ता लोलुप धर्मों को मानते रहने पर भी वे आध्यात्मिक नहीं बन पाते। मानसिक व्यक्तित्व विकसित हो जाने पर भी उनकी कही हुई बात का प्रभाव दूसरों पर नहीं पड़ता क्योंकि वे जागृत ( साक्षात्कारी) लोग नहीं होते, परमात्मा से जुड़ हुए नहीं होते और उनके सभी कार्य केवल मानसिक ही होते हैं। उपभोग लिए कतई नहीं है। कुछ तामसिक कलाकार बहुत अधिक मद्यपान करते हैं तथा अत्यधिक भावुक होकर कष्ट तथा पीड़ा के काल्पनिक संसार में रहते हैं। भावुकता के वेग में अपने मस्तिष्क में रचित रोमांचपूर्ण अपनी कृतियों के विषय में उनके अपने ही विचार हैं। भारत में भी बहुत अधिक मद्यपान करने वाले मुसलमानों ने गजल गाना शुरू कर दिया। वे किसी सभा या मिलन में न गाकर केवल तनहाई में गाते हैं। हे परमात्मा में आप से कब मिलूंगा? समाज भी दायें और बायें को झुकता है। जब यह दायीं ओर को बढ़ता है तो यह आक्रामक चीजें पसन्द करता है तथा बायीं और झुकने पर तामसिक चीजें लोगों के भी दो प्रकार के स्वभाव हैं और इन्हीं से वे चीजों का मूल्यांकन करते हैं । कुछ कलाकार मध्य में (सन्तुलित) भी हैं जैसे टालस्टाय और फ़्रांस के लेखक डी. मोपासा। हर भाषा में हर तरह के लोग हैं पर संस्कृत लेखक विशेषकर मध्य में हैं। वे न दायें को हैं और न बायें को। कारण बह है कि साहित्य में भी कुछ नियम बंधन हैं। भारत में पश्चिमी विचार नहीं है कि हम सब को स्वछंद होना चाहिए। यह बिचार स्वीकार्य नहीं हैं। अत: साहित्य में भी एक प्रकार की सीमा है। साहित्य क्या है? इसे स-हित कहते हैं अर्थात् हितःकारी। यदि यह हितकारी नहीं है तो साहित्य नहीं है, व्यर्थ है। परन्तु जब जर्मन और जापानी लोग संस्कृत साहित्य को खोजते हैं तो वे कामसूत्र का वरतगड़ अंत: महा सरस्वती तत्व के जागृत होने पर आप मानसिक और सत्य के भेद को स्पष्ट देखने लगते हैं और महसूस करने लगते है इनसे ऊंचा भी कुछ होगा। जिस धर्म में वे पैदा हुए हैं उसकी सारी आध्यात्मिक कृतियों को बे पढ़ते हैं। तब वे दूसरे धर्मों का भी अध्ययन करते हैं और समझ पाते हैं कि सारे धर्म एक ही बात कहते हैं। आज्ञा चक्र पर आकर अचानक उन्हें पता चलता है कि कहीं कुछ कमी अवश्य है, कि लोग धर्म को केवल मस्तिष्क के स्तर पर हो स्वीकार करते हैं पर इससे परे भी कुछ अवश्य होगा। इस अवस्था में यदि किसी की साक्षात्कार ग्राप्त ही जाए तो वह इस पर टिक जाता है। परन्तु इस अवस्था तक पहुंचे सभी संगीतकारों, कलाक्रारों में महा सरस्वती तत्व जागृत किया जाना चाहिए तब अचानक ही वे बड़ी सुगमता से आत्म साक्षात्कार को पा सकेंगे। बहुत से भारतीय संगीतज्ञों ने श्री माताजी से अपनी सृजनात्मक शक्ति बढ़ाने को प्रार्थना की। जागृति होने पर वे विश्व- विख्यात हो गए। अध्ययन, आध्यात्मिकता या लेखन आदि कार्यो से महा सरस्वती तत्व को पहुंचे लोग जब आज्ञा पर पहुंचते हैं तो या तो निराश होकर वे बायें को चले जाते हैं और सभी कुछ उन्हें व्यर्थ लगने लगता है या साक्षात्कार को पाकर वे अति प्रगल्भ कलाकार, लेखक आदि बन शाश्वत मूल्य वाली कृतियों की चैतन्य लहरी 11 सृष्टि करते हैं। महा सरस्वती तत्व आपको अति सूक्ष्म बना देता है और आप समझने लगते हैं कि कला और रचनात्मकता का जो स्थूल ज्ञान हमें हैं वह सूक्ष्म होना चाहिए तभी यह सूक्ष्म लोगों को अच्छा लगेगा। विलियम ब्लेक को साधारण लोगों ने पागल कि आप यहाँ आए, अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया और आनन्द को प्राप्त कर रहे हैं। आक्रामक प्रवृत्ति का एक राजनैतिक पहलू भी है। राजनीति में भी विकास सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जाता उदाहरणार्थ रूस में साम्यवाद धन लोलुप न होकर अति सत्ता लोलुप था। वहाँ गोर्वाचोव जैसे व्यक्ति ने मध्यमार्ग पर उत्पन्न होकर साम्यवाद को सन्तुलन की और अग्रसर किया। अभी तक वह पूर्णतया सफल नहीं हुए हैं फिर भी अपने महान विचारों तथा दो विचारधाराओं में स्पर्धा को कम करने के कारण वे पूरे विश्व है। जिन्होंने - कवि कहा, पर वे साक्षात्कारी व्यक्त थे। मास्करों गीता का अनुवाद अंग्रेजी में किया पहुंचे तो श्री माताजी को स्वप्न में देखा और तुरन्त उन्हें पहचान लिया। आज्ञा के स्तर पर जब में जाने जायेंगे। अपने अन्तस में हमें महा सरस्वती तत्व को भी बढ़ने देना चाहिए। सहजयोग में हमें पुस्तकें पढ़ने की मनाही नहीं है, पर जिन भी पुस्तकों को हम पढ़े उनमें अपने लिए सूक्ष्म बातों को देखें। विद्वान लोग अपने लिखे हुए सत्य का भी प्रचार नहीं कर पाते। यह केवल एक खेल की तरह बाह्य घटना है जो घटित होगी और भुला दी जाएगी। इसे अन्तर्जात बनना होगा । एंसा तभी सम्भव होगा जब आपकी आत्मा आपके चित्त में आ जाएगी। कट्टरता आज की दूसरी समस्या है। यह भी आक्रामक प्रवृत्ति की दंन है तथा लोगों को हिंसा, सनकीपन तथा पागलपन की सीमा तक ले जाती हैं। अब एक और रोग शुरु हो गया है। बहुत अधिक दायें को झुकने वाले लोगों का चेतन मस्तिष्क बिगड़ जाता है और व्यक्ति रँगने वाले जीवीं की तरह ही जाता है। इस रोग के मरीज सब कुछ समझते हैं, अच्छी तरह बातचीत करते हैं घर चाहते हुए भी वे अपने हाथ-पांव नहीं हिला सकते। यह रोग सभी के लिए चेतावनी है अत: हमें सावधान रहना चाहिए। आत्म साक्षात्कारी व्यक्ति होने के नाते जिनका महा सरस्वती तत्व जागृत हो चुका है, हम लोगों को, सारगर्भित पुस्तकें पढ़नी चाहिए और समझना चाहिए कि उनमें सहजयोग किस प्रकार भरा हुआ है। भिन्न-भिन्न समय पर लिखी होने के कारण इन पुस्तकों में सहजयोग के किसी न किसी भाग के बारे में कहा गया है, पूर्ण सहजयोग के बारे में किसी में नहीं लिखा। अब हमें धार्मिक विचार के सम्पूर्ण ज्ञान को जानना होगा ताकि हम समझ सकें किस प्रकार सभी धर्म सम्पूर्ण हैं। सहजयोगियां को अध्ययन द्वारा समझना चाहिए कि अन्य लोगों ने क्या कहा है और वे कहाँ पर भटक गए हैं हमें मूर्ख लोगों को नहीं पढ़ना चाहिए। अध्ययन करके हमें विचार के विकास की सूक्ष्मता को देखना चाहिए कि किस तरह इनका विकास हुआ, कैसे यह अधिकाधिक सूक्ष्म हुई और किस प्रकार बहुत से लोगों ने सुषुम्ना के मध्य मार्ग में योगदान दिया तथा योग के विषय में सभी कुछ लिखा। उदाहरण के रूप में रविन्द्रनाथ टैगोर ने आरम्भ में तो वियोजन (अलग होना) के बारे में लिखा पर बहुत अधिक आक्रामक होना सहजयोगियों के लिए बहुत भयानक है। कुछ लोग अति धर्मान्धता-पूर्वक सहजयोग प्रचार करने लगते हैं । हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। किसी प्रकार का प्रभुत्व, आज्ञा, रोका-टोकी या सगठन नहीं होना चाहिए। यह तो अति नैसर्गिक (सहज) तथा सुन्दर घटना है जो स्वत: ही कार्य करती है। हम सहजयोगियों के लिए प्रेम करुणा तथा ईश्वर कृपा ही महत्वपूर्ण है ईश्वर कृपा अति सुन्दर जीवन्त शक्ति हैं जो हर प्रकार की रचनात्मक वस्तुआं की रचना करती है। इस सूझबूझ के अभाव में आपको नतृत्व में कठिनाई होगी। आक्रामक लोगों में सहजयोग कार्यान्वित नहीं होता स्वयं अपना मूल्यांकन करना सर्वोत्तम है। किसी के लिए कुछ करते हुए या किसी को कुछ कहते हुए हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि 'क्या यह हितकारी हैं या आक्रामक क्या यह हमारी ख्याति के लिए है या अन्य लोगों के हित के लिए '? एक बार जब आप इस प्रकार मूल्यांकन करने लगेंगे तो आपकी बातचीत और कार्य प्रणाली में सुधार होगा। हर चीज को आप लीला के रूप में देखें । साक्षी भाव से जब आप हर चीज को देखेंगे तो हर समस्या को बड़े सुन्दर ढंग से सुलझा पायेंगे। बिना बोले, बिना कुछ कहे, साक्षी अवस्था में आप अति शक्तिशाली हो जाते हैं। मेरा कहने का अभिप्राय है कि साक्षी अवस्था मे आप सहज ही विभिन्न समस्याओं को हल कर सकते हैं । में बाद में सूक्ष्म होकर उन्हंने आत्मा से मिलन के विषय लिखा। बुद्ध - जिन्होंने अपने परिवार सहित सब कुछ त्याग दिया था - के साथ भी यही हुआ। अन्त में बे गया पहुंचे और जब वे थक कर परेशान हो गए तो उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया। परन्तु उनके अनुयायी समझते हैं कि साक्षात्कार से पूर्व जो त्याग उन्होंने किए वे महत्वपूर्ण हैं। वे इतने गहन साधक थे कि उन्हें आत्मसाक्षात्कार मिलना ही था सहजयोगियों को इस प्रकार की तपस्या नहीं करनी। अपने पूर्व जन्मों में वे सब कर चुके हैं और जानते हैं कि ऐसा करने का कोई लाभ नहीं। तभी तो वे सहजयोग में आए। अतः आप सब अति भाग्यशाली हैं परमात्मा आप पर कृपा करें। पजा गुरु कबैला, इटली, 19.7.1992 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ( सारांश ) नहीं क्योंकि पद तो वाह्य है आपके गुरु पद की द्वितीय अवस्था में गुरुत्व की अभिव्यक्ति गुरुत्व एक अवस्था है पद और किसी को भी दिया जा सकता है। बाह्य गुण के लिएहोना आवश्यक है। ज्यों ही आप साक्षी बनते हैं आपका गुरुत्व किसी भी व्यक्ति को पद दिया जा सकता है। यह एक अवस्था है अर्थात् अन्तर्जात अस्तित्व का गुरुत्व स्तर तक विकसित होना। इसके बिना कैसे यह अवस्था प्राप्त को जा सकती है। सहज रूप से किस प्रकार हम इसे प्राप्त करें? कुछ गुण हमें प्रारम्भ से ही विकसित करने चाहिए। ध्यानावस्था में निर्विचार है। इससे पूर्व एसा न था। पहले हर समय चालाकी करनी होना पहला गुण है। ध्यानावस्था में आप थोड़े समय के लिए पड़ती थी और उल्टा-सीधा बोलना पड़ता था। पर अपनी निर्विचार हो सकते हैं शनै: शनै: यह समय बढ़ता जाना चाहिए। यह एक अवस्था हैं। तो हम किस प्रकार यह अवस्था प्राप्त करें? मनुष्य की समझ में यह नहीं आ सकता कि कोई चुम्बकीय शक्ति है जो गुरुत्व कहलाती है जिसकी ओर लोग कार्य सहज ही हो सकता है। क्यांकि यह घटना अति सहज तथा साधारण है। आपको निर्विचारिता का मंत्र मिला है। अब निर्विचार रहते हुए आप साक्षी बनना शुरू कर दें। केवल देखें दर्शक बनकर। साक्षी भाव हममें पहली अवस्था की रचना करता है। आप केवल दर्शक बन जाइए - साक्षी। साक्षी बनते ही जिस भी वस्तु को आप देखते हैं वह आपको पूर्ण विचार देगी, अपनी स्थूलता का भी तथा सूक्ष्मता का भी देखते ही आप इसे समझ जायंगे। सहजयोगी के नाते यह आपका ज्ञान बन जाता है। आधुनिक शब्दावली में हम कह सकते हैं कि ज्यों ही आप कुछ देखते हैं यह आपके मस्तिष्क में अंकित हो जाती है और आनन्द, ज्ञान करुणा की अभिव्यक्ति स्थिति कं अनुसार करती है। अब आपके बहुत से आयाम हैं जिन्हें आपने विकसित करना है। उदाहरणार्थ आप किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जिसके साथ आपने व्यवहार करना है। ही होता है। तब यह प्रकट होता है। इस प्रकार देवी शक्ति वह बोलता ही चला जा रहा है। आप बस निर्विचार हो जाइए। निर्विचार होते ही उसकी बड़बड़ का प्रभाव आप पर समाप्त हो जाएगा क्योंकि आप तो एक पूर्णतया अलग दुनिया में हैं। पर इस अवस्था में आपकी शक्ति प्रकट होगी और उस व्यक्ति को शांत कर देगी। या तो यह उसे मौन कर देगी या उसके हृदय में आपके लिए अथाह प्रेम जाग उठेगा। स्वतः ही प्रकट होने लगता हैं। यह क्रोध या गंभीरता के रूप में नहीं प्रकट होता, इसकी अभिव्यक्ति तो इस प्रकार होगी कि सभी कुछ अत्यन्त गरिमामय और तेजपूर्ण बन जाएगा। जिस अवस्था में अब आप उन्नत होते हैं वह प्रभावशाली बन जाती निर्विचारिता में आप अपने गुरुत्व की अभिव्यक्ति कर सकते है। यह गुरुत्व चुम्बक की तरह कार्य करता है। धरा माँ में आकर्षित हाते हैं और पृथ्वी माँ के गुरुत्व के कारण ही हम इस पर विश्राम करते हैं। आपको चुम्बकीय स्वभाव, चरित्र और व्यक्तित्व प्राप्त हो जाता है। चुम्बकोय व्यक्तित्व तुरन्त दर्शाता है कि यह अपनी शक्ति को प्रकट कर रहा है। जैसे सूर्य की किरणे पत्तों पर पड़ती हैं तो साधारण प्रतीत होने वाली किरणें पत्तों में क्लोरोफिल बनाने में अपनी शक्ति की अभिव्यक्ति करती हैं। इसी प्रकार जब आप उस उच्चावस्था में होते हैं तो बिना कुछ कहे, मात्र एक दृष्टिपात से आप अपनी अभिव्यक्ति करते हैं। केवल इतना ही नहीं, परन्तु सभी कुछ आपके स्मृति पटल पर अंकित हो जाता है। मुझे कभी कुछ नहीं भूलता। साक्षी बन निरविचारिता में जब आप कुछ देखने लगते हैं तो उस वस्तु के ज्ञान को आत्मसात करने में आपके सम्मुख कोई बाधा नहीं होती। काई विचार नहीं होता। केवल आत्मसात्करण हममें कार्य करती है। अपने गुरुत्व से हम अन्दर की गहनता को छू लेते हैं और यह (गहनता) हमारे अन्दर इस दैवी शक्ति को चलाती है तथा इसकी अभिव्यक्ति करती है। जब तक हम अपने अन्दर उस गहनता को छू नहीं लेते सहजयोग भी हरे रामा हरे कृष्णा की तरह ही है। इसी कारण मुझे लगता है कि लोगों के लिए सहजयोग हरे रामा हरे कृष्णा की तरह ही बहुत है। यही कारण है कि में बहुत से सहजयोगियों को पटरी से उतरते देखती हूँ क्योंकि अपने अस्तित्व की गहनता में उतरने के लिए तथा दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति के लिए गुरुत्व नहीं है। उदाहरण के रूप में जो वाहन ठोक प्रकार से जुड़ा न हो उसका प्रयोग किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए नहीं किया जा सकता। अति हल्की प्रतीत होने वाली दैवी शक्ति ही आपके गुरु शब्द का अर्थ है गुरुत्व। पृथ्वी में गुरुत्व है। कोई भी व्यक्ति जो आप किस प्रकार विकसित करें? कुछ लोग बनावटी रूप से अति गंभीर हो जाते हैं और कभी-कभी दर्शाते हैं कि वे संजीदा हैं। गुरुत्व तो आपके अन्दर है। है उसमें गुरुत्व होना ही चाहिए। इस गुरुत्व को उनमें गुरु चैतन्य लहरी 13 श्री चारों ओर बहती हुईं कोई ऊर्जा है? या यह किसी प्रकार की नदी या आकाश? यह वास्तविकता की सम्पूर्णता है। बाकी चीजें असत्य हैं। वास्तविकता इतनी कार्यकुशल . है कि यह कभी असफल नहीं होती। इस मानवीय बुद्धि से तो हम कल्पना भी. नहीं कर सकते कि किस प्रकार यह कार्य करती है तथा नियंत्रण करती है। उदाहरणार्थ आप पेड़ देखते हैं । गुलाब का पौधा केबल गुलाब ही दगा इस पर सेब नहीं लगेंग। नारियल के पेड़ की तरह न बढ़कर एक सीमित ऊतच्राई तक यह पौधा बढ़ेगा। इस प्रकार के सभी गुणां को बनाए रखा जाता है, उनका पोषण होता है, देखभाल होती है, ठीक समय तथा मौसम में उन्हें पूर्णतया नियन्त्रित किया जाता है। इसी कारण ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है। मानवीय मस्तिष्क के लिए यह समझ पाना जटिल कार्य है कि यह किस प्रकार कार्य करती हैं। सोचने समझने, समन्वय, सहयोग, प्रेम तथा आपकी देखभाल करने वाली इस शक्ति के लिए सारे चमत्कार खेल मात्र हैं। जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है। आप कभी भी इस दैवो शक्ति का वजन या दबाव नहीं महसूस करते, परन्तु यदि आपका मार्ग शुद्ध नहीं है तो यह देवी शक्ति ठीक प्रकार बहकर अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती। अत: जब हम कहते हैं कि हम सर्वशक्तिमान परमात्मा के यंत्र हैं तो हम अपने सरोत से जुड़े होते हैं। यदि यह यंत्र ठीक नहीं है तो यह बह अभिव्यक्ति नहीं कर सकता जो इसे करनी चाहिए। हम इन साधारण यंत्रों से बहुत ऊंचे हैं, विज्ञान द्वारा बनाए गए जटिल तथा उन्नत यंत्रों से भी कहीं ऊंचे क्योंकि हम एक ऐसी अवस्था में पहुंच जाते हैं जहाँ हम स्वयं ही विज्ञान बन जाते हैं, सत्य-विज्ञान। पूर्ण सत्य। अत: आत्मसम्मान गुरु के लिए आवश्यक है। यह अति महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मसम्मान प्राप्त करने के लिए हमें अन्तर्दर्शन करना होगा और जानना होगा आज मैं पहले जैसा नहीं हूँ। मैं एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति हं। मुझे शक्तियां प्राप्त हो गई है। मुझ में प्रेम, करूणा, सुझबूझ, रचनात्मकता तथा दूसरे लोगों को साक्षात्कार देने की शक्तियां हैं। किसी के भी पास ये शक्तियां नहीं थी। सहजयोग में हम अपने बारे में ही नहीं सोचते रहते क्योकि स्व-चेतना हमें अहं दे सकती है। पर हममें आत्मसम्मान होना चाहिए। मैं एक गुरु हूं। मैं कोई सड़क-छाप साधारण व्यक्ति नहीं हूं। मैं विशेष हूं। मैं सत्य के तट पर हूँ, मैंने अन्धे तथा मूढ़ लोगों का बचाना है। यह आपकी सेवा में है। जहाँ भी आप जायेंगे संबंध बना रहेगा। यह यात्रा पर निकले एक राज्यपाल की तरह है जिसके साथ-साथ सुरक्षा भी चलती है। गण चारों ओर हैं। आप लोग सहजयोगी हैं, आप ऐसे विशेष लोग हैं कि जहाँ कहीं भी आप हों - है। आपको नहीं कहना पड़ता, न आज्ञा देनो होती है, न प्रार्थना करनी होती है। यह शक्ति आपकी सेवा में हाती है सोते, चलते, बैठे हुए, वह संबंध बना रहता कुछ प म स क्योंकि परमात्मा के साम्नाज्य के राज्यपालों में से आप भी एक है। जो भी आपको दुःख देगा या आपका अपमान करेगा उसे इसकी सजा भुगतनी होगी। सांसारिक स्तर पर आप न तो उन चीजों की चिन्ता करें और न ही उनके विषय में सोचें। इसके विपरीत मैं तो यह कहूंगी कि क्षमा करना ही अच्छा होगा क्योंकि केवल परमात्मा ही जानते हैं कि दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्ति के साथ क्या होगा। आप विशेष लोग हैं। आपको केवल अपना आत्मसम्मान तेथा सन्तुलने बनाए रखना उस समय एक प्रकार की शान्ति आपमें छा जाएगी। किसी भी विपत्ति के समय आप अत्यन्त शान्त हो जायेंगे। यह भी एक अवस्था है। यदि कोई चीज अप्रसन्न या परेशान करती है तो मौन के उस धुरे पर पहुंचने का प्रयत्न कीजिए। यह शान्ति ( मौन) आपको वास्तव में शक्तिशाली बना देगी। यह मौन केवल आपका ही नहीं है क्योंकि इस अवस्था में आप ब्रह्माण्डीय मौन में होते हैं। आपका संबंध ब्रह्माण्ड को चलाने वाली देंवी शक्त से होता है। यदि आप केवल मोन (शान्त) हो जाएं तो समझ लें कि आप परमात्मा के साम्राज्य में बेठे हैं। राजपद प्राप्त करने का महान सम्मान एक बार सन्तुलन में आने के बाद एक गुरु का कार्य दूसरों को सन्तुलन देना है यह जलवायु, प्रकृति, तथा मनुष्यों को सन्तुलित करता है। वह सन्तुलन देने के लिए ही है। यह सन्तुलन गुरुतत्व से आता है। यदि आपमें गुरुतत्व हैं तो स्वतः ही आप सन्तुलित हो जाते हैं। यह सन्तुलन हम किस प्रकार विकसित करें? प्राचीन काल में व्रत, तपस्या, आसन आदि बहुत कठोर विधियां थीं। पर इनसे तो असन्तुलन आता है। यदि आप तपस्वी बन जाएं तो आप अति शुष्क जाएंगे। सम्भवत: कष्ट सहने के ये विचार इसलिए आए ताकि लोग अपनी आत्मा की ओर अधिक चित्त दें। स्वभाव से गुरु तपस्वी नहीं होता परन्तु निर्लिप्तता के कारण वह तपस्वी होता है। राजा है या भिखारी पर यदि वह गुरु तो हर हाल में वह पूर्ण सन्तुलन में होगा। कोई चीज उसे ललचा नहीं वातावरण, समाज जब आपको मिल जाए तब आप चलकर अपने सिंहासन पर बैठें और चहुं ओर देखकर इस शान्ति की अवस्था को महसूस करें कि अब आप बादशाह हैं। यह मौन इस बात की निशानी है कि नि:सन्देह अब आप परमात्मा से जुड़ गए हैं। आप अब शान्त हैं क्योंकि अब परमात्मा आप के हर कार्य को सम्भालेंगे। आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। कंवल निर्विचार (शान्त) रहना होगा। मजबूरन नहीं। यह भी एक अवस्था है। किसी समस्या या उथल-पुथल के आते ही एकदम आपका चित्त कूदकर उस मौन (शान्त) पर चला जाएगा और ऐसा होते ही आप सर्वव्यापक शक्ति से जुड़ जाएंगे। हो है प्रेम की यह सर्वव्यापक शक्ति क्या है? क्या यह हमारे चैतन्य लहरी 14 ho सकती। कोई प्रलोभन नहीं है। प्रलोभन, लालच और वासना से परे की अवस्था में जब आप पहुंचते हैं तो समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। कोई चौज आपका पतन नहीं कर सकती। चाहे आप तुलसी की माला पहने या हीरे-मोतियों की, इसका आप पर कोई असर नहीं हो सकता। पर आप किसी चीज से भाग भी नहीं खड़े होते। यदि आप भाग खड़े होते हैं तो आप बनावटी रूप से तपस्वी हैं तपस्विता तो आपके अन्दर है। यह अन्तर्जात है। अधिकतर लोग समझते हैं कि वे गुरु नहीं हैं। वे आकर मुझ कहते हैं कि जो भी चिन्ह आपने बताए थे वे अब भी हैं। क्रोधी तथा कड़े गुरु होना आपका काम नहीं हैं। परन्तु यह अब भी मुझ में इच्छाएं हैं। आप दूसरी ओर जा रहे हैं मेरे कहें अनुसार आप अपने को तोले नहीं। शनै: शनै: उन्नत होकर स्वयं को समझें और अपनी प्राप्त की हुई अवस्था पर स्थिर हो जाएं। परन्तु यदि अपने को तोलने लगंगे तो आप आत्म-संशयी भी गुरु है। गुरु को कौन अनुशासित कर सकता है? फिर वे तथा उदासीन हो जाएंगे। " श्री माताजी ने कहा है कि ये गुण हममें होना चाहिए।" हर समय स्वयं को तोलते रहने का कोई लाभ न होगा। आप आत्म-विश्वस्त हैं। आप अपने वारे में है कि बहुत कम विश्वस्त हैं। कुछ लोग कहते माँ ने ऐसा कहा। हो सकता है मैंने कहा हो - हो सकता है मैंने न कहा हो कह रहे हैं? दूसरों को परेशान करने का यह अच्छा तरीका दूसर लोगो के चक्रों की रुकावटों का आपको ज्ञान है। पर है। क्या अच्छा उन्नत होकर करना है। मेरे से भी अधिक आनन्द आपमें है क्योंकि आप मानव हैं और मनुष्यों के विषय में जानते हैं । आप अपने उत्थान को देखते हैं और मूल्यांकन करना भी आपके लिए बहुत आसान है। मेरे लिए यह भिन्न है क्योंकि प्रलोभन आदि आपके गुणों का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। आप मानव स्तर से उन्नत हुए हैं जो अति प्रशंसनीय है। मेरे, ईसा या श्री एक गुरु तथा सहज गुरु में अन्तर होता है। साधारण गुरु अति क्रोधी होते हैं। पर क्रोधी होना सहज गुरु कार्य नहीं। यहाँ तो एक दूसरे के लिए प्रेम तथा करुणा है। न कोई राजनीति है न कोई स्पर्धा। यदि आप यह बात समझते हैं कि आपको सभी कुछ अति सहज ढंग से प्राप्त हुआ है तो आप उतनी ही सहजता से दूसरों को देते हैं तथा दूसरों का सम्मान करते हैं । आप जान लें कि आप सब गुरु हैं। आपको सहज होना होगा। आपको यह सहज ही प्राप्त हुआ है अत: कठोर, भयानक, अवगुण रेंगते हुए ऊपर आ जाते हैं और सहजयोग में कठोर अनुशासन शुरू हा जाता है। अनुशासन बद्धता की काई आवश्यकता नहीं है। लोग स्वयं ही अनुशासित हो जाएंगे। वे सहज हैं। इस असहज गुरुओं में से कोई भी आत्मसाक्षात्कार देना ने जानता था। वे नहीं जानते थे कि हाथों से भी कुण्डलिनी उठ सकती है। इतिहास बताता लोग आत्मसाक्षात्कार दे पाए। पर आप लोग संहज ही आत्मसाक्षात्कार दे रहे हैं। अब आप विज्ञान की सीमायें पार कर गए हैं। आप स्वयं दैवी विज्ञान बन गए हैं और अपने तथा पर आप क्या जिस करुणा, माधुर्य और हितेच्छा से हम दूसरे लोगों से से व्यवहार करते हैं यही गुरुपद है। आपकी माँ ने यही दिया है। हर मनष्य के हित की चिन्ता आपको होनी चाहिए। आपको मातृ-सुलभ, अति मधुर, करुणामय, समझदार तथा क्षमाशील होना है। है इसका निर्णय आपने अपने अनुभव सहजयोग को फैलाना और पूरे विश्व का उद्धार करना हमारी जिम्मेवारी है। अतः अब पुरोहिताई की कोई आवश्यकता नहीं और न ही यह कहने की "यह व्यक्ति ऐसा कहता है"। आपने जो भी कहना है उसी व्यक्ति से कहें। आप स्वयं देखेंगे कि किस प्रकार आप अपने व्यक्तित्व की प्रतिबिम्बित कर रहे कृष्ण से कहीं अधिक आनन्द आप ले सकते हैं, क्योंकि जिसका उत्थान हुआ है की सुगन्ध महसूस कर सकता है। तब वह आनन्द लेता इस परिवर्तन की पूर्ण समझ उसमें आ जाती है और जिन लोगों में है और दूसर व्यक्ति पर इसका क्या प्रभाव है और किस प्रकार आपसी सामर्थ्य, ज्ञान, गहनता और गुरुत्व नहीं है उन्हें आप समझते हैं। पहले आप मानव थे अब आप दिव्य हो गए हैं। सामूहिकता यह सब सीख रही है तथा सभी भयंकर तथा मानव हाने के नाते आप अन्य लोगों को समझते हैं। वास्तविक गुरु अति कठोर लोग थे। परन्तु में तो एक माँ हूँ। मानव स्तर से वे गुरु आए थे। आप उनसे भिन्न हैं। आपको यह सहज ही मिल गया है और दूसरे लोग भी आप से पा सकते हैं। आपको उन पर चिल्लाना नहीं पड़ता। किसी को कठोर कहने का अधिकार सहजयोगियों को नहीं है। आपको कुछ कहे बिना ही आपने आत्मसाक्षात्कार पा लिया। आपके पास भी आत्मसाक्षात्कार के लिए कोई आए तो आपको भी वही करना है। यदि आपके दृष्टिकोण में कठोरता है तो आप गुरु तो बन सकते हैं सहज गुरु नहीं। वह इन सद्गुणों, खूबियों तथा महानता है। का व्यवहार वह करता है। मैं देखती हूँ कि शनै: शनै: हमारी प्रभुत्व जमाने वाले लोग सहजयोग से दौड़ गए हैं। मैं पाती हूँ कि लोग परस्पर तथा अन्य लोगों के प्रति अत्यन्त प्रेममय तथा करुणामय हैं क्योंकि आप अच्छाई, धर्मपरायणता धैर्य करुणा प्रेम तथा हितकारिता के अवतार हैं। हम यह सब कैसे करें? आप हिम्मत न हारें । कार्य को करें और परिणाम देखें। आपकं अतिरिक्त कोई इस कार्य को नहीं कर सकता। आत्मसम्मान तथा पूर्वानुमान होना चाहिए। यदि आप गुरु हैं तो अपनी शक्तियों को धारण कीजिए। आप अब भी सोचते हैं 'परमात्मा जानता है कि मुझ में शक्तियां हैं या नहीं... .. आदि आदि।" तो आप अभी तक नौसिखिया हैं। मुंह से कुछ चैतन्य लहरो 15 हम कहते हैं "श्री माताजी में स्वयं का गुरु हूं।" आप केवल अपने ही गुरु नहीं हैं पूरे विश्व के गुरुत्व सामूहिक है। हम से कुछ भी बच नहीं सकता। हम पूर्णतया दुर्जेय हैं हमे समझना है कि हमें धारण करना है। परमात्मा हैं, अपनी शक्ति से इनमें थोडा परिवर्तन क्यों नहीं किसी को चुनकर हम उस पर कुछ कपड़े डालते हैं और यह लाती?" मैंने कहा "मैंने उन्हें स्वतन्त्रता दी है। अत: यह उनकी कहते हैं ये पोप हैं पर अन्दरूनी रूप से वह पाप नहीं है, वह केवल अभिनय कर रहा है। वह भ्रमशील है हम में तो सारी शक्तियां हैं जिन्हें अब हमें धारण करना है। एक बार जब आप इन्हें धारण करने लगेंगे तो आप हैरान रह जायेंगे कि एक संत, एक गुरु, एक व्यक्ति जिसे अपने गुरुत्व का आभास है, उसके सम्मुख कोई नहीं खड़ा हो सकता। यह देखने के लिए कि आपका आत्मसम्मान पूर्णतया ठीक है, आपको अन्तर्दृर्शन करना होगा सहज की तरह की करुणा का दूसरे गुरुओं में अभाव है क्योंकि वे सोचते हैं कि हमने तो गुणगान पसन्द है। उन्होंने कहा "यदि आप परमात्मा के गुणगान कठिन परिश्रम किया है, बाकी लोग क्यों न करें। आप विद्वान हो या अनपढ़, अमीर हो या गरीब, आप कुछ भी कार्य करते हों इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। आप गुरु हैं, अपनी शक्तियों नहीं पहुंच सकते। को धारण कीजिए। किसी अन्य प्रतिभा की तरह - उदाहरणार्थ संगीत। आपको पता है कि आप संगीत जानते हैं। आप जानते हैं कि आपको खाना बनाना आता हैं। पर वह भी पूर्णतया सम्पूर्ण नहीं हो सकता। आप तो पहले से ही वास्तविकता के पूर्णत्व हैं। वास्तविकता आपकी सेवा में है। कंवल इसे धारण कर लें। आप बिल्कुल साधारण नहीं हैं। इस प्रकार आप सारी मुर्खताएं त्याग देंगे। अन्य लोग आपको देखकर हैरान होंगे। ज्ञान अत्यन्त उच्च स्तर का सूक्ष्म एवं महान है। इसके फलस्वरूप आप अहंग्रस्त नहीं होते। यह नम्रता एवं सहजता आपको एक विशेष धार प्रदान करती है जो हर हृदय में उतर सकती है इस प्रकार आप सत्यप्रेरक बन सकते हैं। बिलियम ब्लेक की तरह आप भविष्य वक्ता बन सकते हैं विश्वास रखें कि आपकी एकाकारिता उस महान शक्ति के साथ है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा है। मुझसे ऐसे बात की जैसे किसी देवी से बात कर रहा हो । कहनें लगा "ये सांसारिक लोग आपको कंसे लगते हैं?" मैंने कहा "ठीक हैं। मैंने ही उनकी सृष्टि की है।" उन्होंने कहा "आप है। हमारा गुरु इच्छा है कि वे परिवर्तित होना चाहते हैं या नहीं। मैं उन्हें विवश नहीं कर सकती। मैं जो चाहू कर सकती हूँ परन्तु कुछ चीजें मैं करना नहीं चाहती। चुनने की उन्हें स्वतन्त्रता है। यह स्वतन्त्रता उन्हें इसलिए दी गई है कि यदि वे पूर्ण स्वतन्त्रता चाहते हैं तो उन्हें अपनी इस स्वतन्त्रता को बनाए रखना होगा। आप एक गुरु हैं। मान लो में सर्वशक्तिमान परमात्मा हूँ तो आपकी तरह बन सकती हूं। तब उन्होंने अपने सभी शिष्यों से श्री माताजी के गुणगान करने को कहा क्योंकि परमात्मा को करते हैं तो सदा आपको सबकुछ प्रदान करते हैं ।" मैंन कहा यह सत्य है।" बिना हार्दिक भक्ति के आप श्री माताजी तक बिना भक्ति के आप परमात्मा को नहीं पा सकते। यदि कोई अपनी कुण्डलिनी जागृत करवाना चाहे तो में ऐसा नहीं कर सकती। परन्तु यदि कोई नम्रता एवं श्रद्धापूर्वक आत्मसाक्षात्कार मांगे तो वह घटित होता है। केवल भक्ति ही नहीं विश्वास भी होना चाहिए। विज्ञान, कैथोलिक चर्च तथा कुछ भयानक लोग अब इस विश्वास को चुनौती दे रहे हैं। परमात्मा में आपका विश्वास अडिग होना चाहिए। कोई भो चीज उसे हिला नहीं सकती। आपने परमात्मा के चमत्कार देखे हैं। आपने देखा है कि आप किस प्रकार परमात्मा की शक्ति को कार्यान्वित कर रहे हैं। आप यह सब जानते हैं पर अब भी परमात्मा में विश्वास का अभाव है। जिस व्यक्ति को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास है वह स्वंय परमात्मा है। गुरु को ब्रह्म चैतन्य कहते हैं। जब आपका विश्वास पूर्णतया स्थिर हो जाता हैं कि सर्व शक्तिमान परमात्मा है और मैं उनका दूत हूँ, और जब आपमें यह विश्वास पूर्णतया दृढ़ हो जाता है तब आप दि लोग ईसा के निर्मल विचारों पर वाद-विवाद करते हैं । वे तो सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं। आप उनका और उनकी शक्तियों का मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं? परमात्मा के बारे में वाद-विवाद करने के लिए क्या आपमें बुद्धि है? नम्र होने पर आपको महसूस होता है कि वे सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं। तब विश्वास है, अन्ध-विश्वास न होकर वास्तविक श्रद्धा कि परमात्मा सर्वशक्तिमान हैं और आप उनके दूत बन गए हैं। इससे आपको सारी शक्ति एवं उत्साह प्राप्त होता है, परमात्मा की करुणा, प्रेम, चित्त और सूझबूझ आपको मिलती है। इस श्रद्धा की पूर्ण एकाकारित परमात्मा से होनी चाहिए। एक बार में एक बहुत ही कठोर पर सच्चे गुरु से मिलने गई। उसने गुरुपद पर आरूढ़ हो जाते हैं। आज मैं आप सबको आशीर्वाद देती हूँ कि आप उस स्थिति को प्राप्त करें कि सदा गुरुपद अवस्था में रहें। जहाँ भी आप हैं, किसी भी पद पर आप हों, आप कुछ भी करें सर्वशक्तिमान परमात्मा का दृढ़ विश्वास अपनी अभिव्यक्ति करेगा और प्रकट भी होगा। यह परमात्मा की तरह कार्य करेगा। आज हमें एक बात अवश्य याद रखनी है कि परमात्मा के साम्राज्य में, सर्वशक्तिमान परमात्मा को शक्तियों में और फिर स्वयं में हमारा पूर्ण विश्वास होना ही चाहिए। परमात्मा आप पर कृपा करें। चैतन्य लहरी : 16 he ---------------------- 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी अंक 7 व 8 1992) खण्ड IV ा विषय सूची **े के प पृष्ठ ...2 1. चित्त 2. श्री गणेश पूजा 3. श्री महालक्ष्मी पूजा 8. ******** 4. महा सरस्वती पूजा, 10 5. गुरु पूजा 13 त आपके अन्दर सारी शक्तियां हैं जिन्हें अब आपको धारण करना है। एक बार जब आप इन्हें धारण करने लगेंगे तो आप हैरान रह जायेंगे कि एक संत, एक गुरु, एक व्यक्ति जिसे अपने गुरुत्व का आभास है, उसके सम्मुख कोई नहीं खड़ा हो सकता। प. पू. माताजी श्री निर्मला देवी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-1.txt चित्त डॉलिस हिलस परम पूज्य माताज़ी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) 26.5.1980 आज मैं आप लोगों को चित्त के बारे में बताने जा रही हूं आपका चित्त काले रंग की स्मृति से रंग जाता है और आपके चित्त क्या हैं? चित्त की गति क्या है और चित्त को ऊपर उठाने और वहाँ स्थापित करने के क्या उपाय हैं? आपका चित्त ही आपके चित्त का चित्रपट स्वयं अपने पुराने अनुभव के द्वारा इन सत्य को जानने का एकमात्र साधन हैं। आपका अपना चित्त ही महत्वपूर्ण है, न कि दूसरों का चित्त या आपके चित्त का दूसरों पर होना। यदि आपं समझ लें कि उच्चतर स्थिति को प्राप्त करने के लिए आपको सब कुछ अपने चित्त द्वारा ही ग्रहण करना है, तो आपका कार्य हो जाएगा। इसलिए, आज जब आपसे चित्त के विषय में बात करने जा रही हूँ, आपको जान लेना चाहिए कि जो भी मैं कह रही हूँ, आपको पूर्ण चित्त से उसे आत्मसात करना चाहिए। मैं आपको कह रही हूं। अच्छा होगा कि आप निर्विचार समाधि में बैठे ताकि आप इसे ग्रहण कर सकें। मेरा प्रत्येक भाषण आपको परिवर्तित कर सकता है क्योंकि में स्वयं बता रही हूँ। परन्तु आप या तो सदा दूसरों के बारे में सोचते हैं या अपनी ही समस्याओं के बारे में इतने चिन्तित रहते हैं कि आपका चित्त उनके बोझ तले दबा रहता है। इसलिए जो कुछ भी आपको बताया जाता है वह आप ग्रहण ही नहीं कर पाते। अत: सब सतर्क हो जाइए और जानिए कि इन निरर्थक चीजों का कोई मूल्य नहीं है। आपके चित्त को ही उन्नत होकर कार्य करना है। अत: चित्त ही आपक पूर्ण पंगनी पकड़ से होता है, स्मृति कार्य प्रारम्भ करती है और सारी अस्तित्व का चित्रपट है। आप कितने इसके अंदर उतरे हैं कितना इसको खोजा है और कितना इसे उठाया है, यह एक आ चित्त पर इसके प्रभाव के अनुसार आपकी क्रिया होती है। चित्रों को निकाल बाहर करता है। यह एक जीवन्त चित्रपट है जो आपकी वृत्ति के अनुसार कार्य करता है । वृत्ति एक तटस्थ शब्द है। इसका कोई बुरा अर्थ नहीं है। वृत्ति का अर्थ है कि आप किधर आकर्षित होते हैं। वृत्ति का मैं आशय उस स्वभाव से है जिससे आप प्रवृत्त होते हैं। अत: जैसा आपका स्वभाव होता है वैसा ही आप कार्य करते हैं । यह आपकी वृत्ति आपके तीनों गुणों से आती है यही कारण है कि इस चित्त का तादात्म्य आपके साथ होता है। जब आप अपने स्वभाव या वृत्ति की पहचान कर लेते हैं तो आप मिथ्या पहचान के क्षेत्र में ही रहते हैं। आइए हम एक ऐसे व्यक्ति को देखें जो पहले किसी पकड़ से ग्रस्त था। सहज में आने के बाद यह पकड़ समाप्त हो जाती है। पहले पकड़ थी। और स्मृति (बायां पक्ष) अधिक बलवान है और वह चिरकाल तक रहती है। जैसे ही वह व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आता है जिसका कोई संबंध उस परन्तु मस्तिष्क में यह स्मृति रह जाती है कि मुझे चीजं बुलबुले की तरह बाहर आने लगती हैं और आप सोचते हैं कि आप फिर से पकड़ में आ गए। क्योंकि आपका बायां पक्ष कमजोर है इसलिए आप सदा स्मृति में ही रहते हैं। यदि आप स्वयं को अपनी स्मृति से अधिक बलवान बना सकें तो आपको कोई भी पकड़ नहीं हो सकती। परन्तु साक्षात्कार के बाद भी आप उस स्थिति में नहीं आए जहाँ अहंकार तथा प्रति अहंकार को एक कल्पना मात्र देखते हैं। यही कारण है कि आपका चित्त गड़बड़ी में है। चित्त का एक शुद्ध रूप बह होता है जो एक अबोध बालक में होता है। वह हर वस्तु को प्रत्यक्ष रूप (अर्थात् वस्तु का बास्तविक अनुभव) में देखता है। अत: यह जानने के लिए कि जलना क्या होता है उसे अपना हाथ जलाना होता है, ठंडा क्या है यह जानने के लिए किसी ठंडी वस्तु को छूना पड़ता है। उसकी स्मृति अभी नहीं बनी होती इसलिए वह अपने वास्तविक अनुभव के अनुसार रहता है। परन्तु यह वास्तविक अनुभव स्मृति बन जाता है। एक बार स्मृति बनने पर और इसके अधिक बलवान होने पर अआपका अलग बात है। चित्त ही परमात्मा है। यह अलग बात है कि आपका चित्त कितना प्रकाशित हुआ है। यदि आप ज्योतिर्मय हो जाते हैं तो उस सीमा तक यह एक चित्रपट है जो कि एक चित्र के लिए फैला हुआ है। जो भी आपके चित के रुझान, तथा कार्य कलाप उस चित्रपट पर दिखती हैं उन्हें वृत्ति कहते हैं। अतः हमारा चित्त एक पूर्णतया स्वच्छ चित्रपट है जिसके ऊपर तीन गुण कार्य करते हैं । यह तीन गुणा आपके भूत, भविष्य और वर्तमान काल से आते हैं। किसी वस्तु अथवा अवसर के आपके अनुभव आपकी स्मृति में पूर्णतया अंकित हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, यदि आप काला रंग देखें तो काले रंग से संबंधित हर बात आपकी स्मृति में चली जाती है और ज्यों ही आप काला रंग देखते हैं अर्थात् आपकी स्मृति उभर आएगी जैसे ही आप इसे अपने चित्त से देखते हैं तो चैंतन्य लहरी ्ी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-2.txt आपने कभी नहीं सोचा? युद्ध समाप्त करने की बातों से युद्ध सारा व्यक्तित्व इस स्मृति द्वारा प्रभावित होता है। सब प्रकार के बंधन इसी से आते हैं। अनुभवों द्वारा दी गई स्मृति में कभी समाप्त नहीं होंगे। परिणामस्वरूप आप प्रसन्न या खिन्न होते हैं। इस स्मृति ने आपको अहंकार अथवा प्रति अहंकार दिया है। जब आपके अहंकार की संतुष्टि होती है तो आप प्रसन्न होते हैं । यदि ऐसा न हो, यदि प्रति अहंकार हो, यदि इसके द्वारा आपका दमन हुआ हो तो आप बहुत अप्रसन्न महसूस करते हैं। अत: प्रसन्नता तथा अप्रसन्ता दोनों ऐसी स्थितियां हैं जहाँ आप केवल कल्पना में रहते हैं। आत्म- साक्षात्कार से पूर्व कोई स्थिति यदि आपके अहं को तुष्ट करे तो आप प्रसन्न होगे और है। वह एक पागल के समान परेशान रहता है। उसका व्यक्तित्व चोट पहुंचाये तो दुःखी होंगे तथा एक प्रकार के प्रत अहकार एक पकड से ग्रस्त व्यक्ति के समान होता है। बह हर चौज का विकास होंगा। अत: दोनों स्थितियां आपके उत्थान में बाधक है क्योंकि इनके कारण आप वास्तविक से दूर हो जाते हैं। आपका चित्त भटक जाता है। बायीं ओर को झुकने पर भय पीड़ा, अप्रसन्नता, निराशा और उदासी से चित्त भटकता है तथा दायीं तरफ जाने से उल्लास उत्तेजना तथा प्रभुत्व में बह जाते है। बाएं तरफ का नीला रंग काले रंग में बंदलना शुरु हो जाता है। जबकि दाएं भाग का हल्का पीला रंग (या आप सोने सा पीला रंग कह सकते हैं) नारंगी तथा फिर लाल हो जाता है। अत: आप दाएं तरफ आक्रामक हो जाते हो और बाएं तरफ आप स्वयं से कटकर बर्फ की तरह ठंडी स्थिति में पहुंच जाते हैं। दोनों ही स्थितियां गलत दिशा में बढ़ना है। आपका चित्त मध्य में नहीं टिकता क्योंकि वह एक बहुत ही संवेदनशील बिन्दु है। उदाहरण के लिए हम अग्नि द्वारा किसी वस्तु को भस्म कर सकते हैं, परन्तु यदि हम उसका प्रयोग संतुलित रूप से करें तो खाना बनाने के लिए, रोशनी के लिए और पूजा के लिए भी इसे प्रयोग कर सकते हैं। अपने गुणों का संतुलन कर लेने पर हम पूरी स्थिति के स्वामी हो जाते हैं। स्मृतियों या अनुभवां में हमारा चित्त नहीं उलझता और न ही हम दाएं या बाएं को खिंचते हैं। लोगों के लिए यह समझना कठिन है कि धार्मिक होने पर (जैसे ईरान) ने दाएं तरफ को तपस्या की, और फिर रक्तपात की ओर क्यों जाते हैं? इसाइयों ने यही किया, भारत में ब्राह्मणों ने यही किया, बद्ध के अनुयायियों ने क्योंकि आपको अपना चित्त उस बिन्दु तक ऊपर उठाना है यही किया। अहिंसा का प्रचार किया पर रक्तपात की ओर चले गए। बाएं तरफ की चाल आपको वहुत धूर्त और काले (अशुभ) तरीकों को तरफ ले जाती है। दाएं तरफ वाले लोग, जैसे कि बड़े देश या विकसित देश पहले से भी अधिक शस्त्र प्राप्त करना न्यायसंगत बताते हैं। उनके पास एक-दूसरे का सामना करने के लिए हथियार होने चाहिए। आप सभी परमात्मा की निगाह में एक ही हैं। आप क्यों लड़ रहे हैं? आप ठीक काल्पनिक चीज ही ले रहे हैं। यदि आप धीरे-धीरे इन प्रकार बैठकर एक-दूसरे की बातें क्यों नहीं सुनते? आप जमीन के लिए लड़ रहे हैं । पर यह जमीन तो परमात्मा की है। आपकी अपनी जमीन' जो आप के भीतर है उसके बारे में होने लगेगा और यह पहले से कहीं ऊंची स्थिति पर पहुंच आत्मसाक्षात्कार ही केवल एक रास्ता है। आत्मसाक्षात्कार द्वारा आपकी चित्त ऊपर उठता है तथा उस धरातल से अलग हो जाता है जहाँ चीजें बुलबुले बनकर उठती हैं। धरातल ऊपर उठ जाता है चित्त उच्चतर स्थिति में पहुंच जाता है। दायां और झुकने का परिणाम विक्षेप है, आप भटक जाते हैं हर बुद्धिजीवी दुविधा में है, चाहे वो कितना भी प्रतिभावान क्यों न हो। और वह जितना अधिक असमंजस में होता है उतना ही परेशान होता अपने मस्तिष्क की सहायता से स्पष्ट करता है। उसके समान कुछ दूसरे व्यक्ति भी हैं। वह उनका नेता बन सकता है क्योंकि वे उससे भी अधिक दुविधा में है। उन्हें वह व्यक्ति इतना अधिक भटका हुआ नहीं लगता। फिर वे युद्ध तथा रक्तपात करते हैं। वे लोग हृदय, भावना, करुणा और प्रेमविहीन व्यक्ति बन जाते हैं। संयोगवश भावना प्रधान व्यक्ति यदि किसी आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति से विवाह कर ले तो बह संतुलन में आ सकता है। हमें अपने दाएं तरफ को भी संतुलन में लाना चाहिए। जो व्यक्ति बहुत अधिक योजनाएं बनाता है वह भी खतरा मोल ले रहा है। अतः आपको दोनों पक्षों को संतुरलित करके मध्य में रहना चाहिए। परन्तु यह संतुलन शब्द केवल कहानियों या वैज्ञानिक शोध में तो रहता है परन्तु हमारे प्रतिदिन के जीवन में देखने को नहीं मिलता। इसी कारण से, हालांकि साक्षात्कार के बाद चित्त ऊपर उठता है परन्तु दोबारा हमारी वृत्तियों के अनुसार दाएं या बाएं तरफ चला जाता है। और जब यह स्मृतियां हमारे अन्दर काम करना शुरु करती हैं तो हमारा चित्त अधोमुखी हो जाता है और फिर से बुलबुलों के उठने की बही क्रिया शुरु हो जाती है। इस सारे वजन के बावजूद भी आपको हल्का रहना है जहाँ आपकी एकाकारिता परमात्मा के चित्त से हो जाएं। आप के चित्त का संबंध तो पहले से ही स्थापित कर दिया गया है। चित्त द्वारा आप देख सकते हैं कि मुझमं क्या खराबी है और दूसरों में क्या खराबी है और आप दूसरों के साथ कहाँ तक जा रहे हैं। परन्तु फिर भी उत्थान बंद हो जाता है। क्योंकि आप नहीं जानते कि चित्त ही शुद्ध शक्ति है पर आप इससे केवल काल्पनिक चीजों को चित्त से हटा दें न प्रसन्न हों, न अप्रसन्न, केवल देखें मात्र, तो आपके चित्त का उत्थान जाएगा। चैतन्य लहरो 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-3.txt अब आप सहजयोगी हैं, क्योंकि प्रकाशमय हैं, आपको जानना है कि तीव्र गति से हमारे चित्त को उच्चतर स्थिति में जाना है। आत्मसाक्षात्कार में क्या हुआ है? आपकी कुण्डलिनी जागृत होकर ऊपर उठी है। बाल की तरह पतले उसके एक ने आपके सहस्रार को खोल दिया है। परन्तु वह एक बहुत हमारी ऊर्धव गति अति धीमी होती है। सत्वगुण में रहते हुए भी आपकी स्थिति खराब हो सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि आप कहें कि में सत्वगुणी बनने का प्रयत्न कर रहा हूँ, अर्थात् आप सब कुछ देखने लगते हैं। अपनी बुद्धि द्वारा (चैतन्य लहरियों द्वारा नहीं) अच्छे बुरे में भेद करने लगते हैं। क्या हमें यह छोड़ नहीं देना चाहिए? क्या हमें दानशील होना छोटी सी घटना घटित हुई है, चाहे है यह अति कठिन कार्य। चाहिए? क्या हमें लोगों की सेवा करनी चाहिए? कुछ लोग कहते हैं कि हम मोक्ष सा बड़ा काम कर रहे हैं । पहले वह स्वयं तो मोक्ष प्राप्त कर लें। सत्वगुण के यह विचार भी आपको गतिहीन कर सकते हैं और आपको सदा के लिए जड़ कर सकते हैं और यह आपके अन्दर अति गुप्त रूप से कार्य कर सकते हैं। किसी दान संस्था में एक बार कार्य करते ही आपके चित्त पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। परन्तु यदि आपका चित्त उन्नत हो जाता है तो आप कहते हैं कि दान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। एक साधारण व्यक्ति और एक आत्मसाक्षात्कारी विशेषकर पार्चात्य लोगों को चाहिए कि अपनी भ्रान्ति से व्यक्ति में यह अन्तर होता है। कल्पना का वास्तविकता बनाकर दिखाने वाले चित्त का पतन हो जाता है। अब चित्त साफ-साफ देख सकता है कि यह केवल कल्पना मात्र है। चित्त को सब काल्पनिक वस्तुओं को छोड़ देना चाहिए। और यह करने का सबसे अच्छा तरीका है आप इन तीन गुणों को पार करते हैं आप निर्विचार समाधि में पहुंच जाते हैं। आपको आज्ञा चक्र पार करना होता है। एक बार जब आप आज्ञा पार करते हैं, यह तीनों गुण उस अंतत: स्थिति में पहुंच जाते हैं जहाँ गुण होते हैं और आप जानबूझ कर कुछ नहीं करते, यह सब तो, बस हो जाता है। विश्लेषण पश्चिम की एक बीमारी है। आप क्या विश्लेषण कर रहे हैं? बो ये कभी नहीं जानते कि (क्रोमोसोम्स) गुण सूत्र क चित्त हैं, शाश्वत प्रकाश। केवल यही बात आपको अज्ञानता सूत्र आपके चक्रों का मध्य से भेदन हुआ है, परन्तु बाकी चित्त तो पहले की तरह बना हुआ है। अब आपको इसे फैलाना है। इसे खोलिए ताकि कुण्डलिनी के बहुत से सूत्र ऊपर उठ सके और आपका चित्त, जो इन चक्रों में है, फैल सके। विस्तृत होकर यह सारे अन्धकार को दूर कर देता है। प्रत्येक चक्र पर हमारा चित्त है, जो कि कुण्डलिनी के प्रकाश द्वारा प्रकाशित हो रहा है। परन्तु जितना अंधेरा आपने इकट्ठा कर लिया है उसके लिए यह प्रकाश बहुत कम है। बाहर आएं। एक समय में यह भी भआन्ति थी कि यह साक्षात्कार है भी कि नहीं। मुझे आशा हैं कि यह प्रश्न तो अब समाप्त हो गया है। अपने चित्त को कल्पना से अलग करके ही हमें आगे बढ़ना है मैं आपके साथ खेल भी करती हूंँ। जब तक आपको स्वयं पर विश्वास नहीं हो जाता, मैं आपको आपके बारे में कोई गलत विचार भी देती हूं। में देखना चाहती हूँ कि आपका चित्त कहाँ तक जा रहा है। आप अभी तक अपने बारे में विश्वस्त नहीं हैं, इसी कारण से विश्वास की कमी है। चित्त पर स्वामित्व आपको तभी प्राप्त होगा जब आप देखेंने लगेंगे कि आपको परेशान करने वाली चीजें मिथ्या हैं । मिथ्या का त्याग कीजिए और समझिए कि आप शाश्वत निर्विचार समाधि, क्योंकि जब भी (स्पिन्डल) तकली सी क्रिया क्यों होती है वो बता नहीं सकते कि एक अणु का विभाजन कैसे होता है। अब वे क्या विश्लेषण कर रहे हैं? शायद परमात्मा के लिए उन्होंने विश्लेषण किया है। उनके विश्लेषण के द्वारा ही मेरी बातें रिकार्ड होती हैं, उनका ध्वनि लेखन होता है। उनके विश्लेषण के कारण ही मैं टी.वी. पर आ सकती हूँ, यदि वो मुझे कुछ समय दे। परन्तु विज्ञान के कारण आपका चित्त बहुत भटकाव में भी रहता है। मैं नहीं जानती कि विज्ञान को प्राथमिकता दी जाए या फिर पुरातनता को। यदि आपने विज्ञान में अपना सन्तुलन बनाए रखा होता, तो वो आपकी सहायता करती। परन्तु सन्तुलन बिगड़ गया। मनुष्य को कोई वस्तु दीजिए, वो जानता है कि इसे किस प्रकार और बिगाड़ना है। अत: सर्वप्रथम आपको स्वयं को समझना है और निश्चय करना है कि इन काल्पनिक वस्तुओं को मैं अपने चित्त में नहीं आने दूंगा। साक्षात्कार प्राप्त होने पर से रखती हैं। अज्ञानता को समझना बहुत आसान है कि दूर आपने मिथ्या को वास्तविकता मान लिया है। इसे फेंक दौजिए, यह केवल काल्पनिक है। आप हैरान होंगे कि आपका चित्त किस प्रकार से उर्ध्वगति को प्राप्त होता है। आप देखेंगे कि यह बेकार की चीजें, जिनसे आपको भय लगता था, हट जायेंगी और आप मुस्कराएंगे। और केवल तभी आप पूर्ण रूप से आनन्द में रह सकंगे। तब आपका चित्त आनन्द सागर में सराबोर होगा। मैं कहती हूँ कि आप आनन्द सागर में होंगे और आप (सहजयोगी) तो पहले से ही सराबोर है। इस अवस्था को बनाए रखें। अब रोजमर्रा के जीवन में किस प्रकार इस अवस्था को बनाए रखें। भूतकाल की स्मृतियों को किस प्रकार समाप्त करें। इन्हे समाप्त करने का अर्थ है नई स्मृतियां पाना। पहली बार आपको कल्पना तथा भावना प्रधान लोगों पर हँसी आती है चाहे वो आपको हृदय विहीन ही समझें| जब आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ था उसे याद रखें। सदा इसके विषय में सोचें। जब भी कोई कष्टदायी या उल्लसित ण चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-4.txt समय आप दूसरों की कुण्डलिनी जागृत करने के आनन्द को करने वाली स्मृति आए तो स्मरण करने का प्रयत्न कीजिए कि किस प्रकार आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ, जब भी किसी बात पर आपको क्रोध आए या आपमें ईष्ष्या भाव आए तो स्वयं को समर्पित तथा विलीन करने का आनन्द का स्मरण कीजिए। इस प्रकार नई स्मृतियों का सृजन होगा। इस प्रकार से जब आप स्मृतियों का सृजन करने लगेंगे तो मिथ्या स्मृतियों को समाप्त करने के लिए बहुत से अच्छे क्षणों की याद आपको आने लगेगी जैसे किसी की कुण्डलिनी जागृत करने की स्मृति। अपने स्मृति-पटले पर अंकित कर सकते हैं। इन सुन्दर क्षणों के वैभव को आप अनुभव करेंगे तथा यह क्षण बढ़ते ही चले जायेंगे। आपको परेशान और भयभीत करने वाले, प्रसन्नता या खिन्नता देने वाले क्षण अब पवित्र आनन्द बन जायेंगे क्योंकि अब प्राप्त आपके अधिकतर अनुभव आनन्द से परिपूर्ण होंगे। आनन्द में कोई विचार नहीं होता, यह तो केवल एक अनुभव है प्रत्यक्ष अनुभव। इसी कारण मैंने कहा कि अपनी आंखें खुली रखें। आशा है आप मेरे कथन का अर्थ समझेंगे। किसी को जागृति देते समय आपको निर्विचार समाधि में होना चाहिए। पर विचार तो बहुत प्रभावित करते हैं । ऐसे परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। श्री गणेश पूजा पर्थ, आस्ट्रेलिया - फरवरी 1992 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) आस्ट्रेलिया लौटकर आना अति आनन्ददायी है"। यहाँ भयंकर गर्मी थी, पर अब आपने देखा कि कितनी वर्षा हुई। क्योंकि आप सब चाहते थे कि बारिश हो और वातावस्ण शीतल हो जाए। दोनों ही कार्य हो गए हैं। तब चिन्ता यह हो गई कि वर्षा के कारण साधक नहीं आएंगे। यह समस्या भी हल हो गई क्योंकि वर्षा तो साधकों की परीक्षा के लिए थी। मैंने उन्हें कहा कि यदि वे वास्तविक साधक हैं तो वे आएंगे, नहीं तो जिज्ञासा विहीन भीड़ का क्या लाभ? देखिए कल कितने सुन्दर लोग पहुंचे। पूरा रास्ता भीगते हुए वे आए क्योंकि वे गहन साधक थे। उन्होंने एक भी प्रश्न नहीं पूछा। क्या आप ऐसी कल्पना कर सकते हैं? आस्ट्रेलिया में सदा मुझ पर प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। अब के मैंने इतनी जिज्ञासा देखी कि मैंने उनसे कहा कि "मुझसे प्रश्न पूछिए", पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा गया। तो एक ही बार में मैंने कितने सारे कार्य कर दिए? की ज्योति को छीनती भी है। अतः बिजली के बहुत अधिक उपयोग ने हमें दास सम बना दिया है अधिक प्राकृतिक वातावरण तथा रहने के लिए अधिक प्राकृतिक स्थानों का होना अच्छी प्रवृत्ति है। यदि परम-चैतन्य परमात्मा के प्रेम की शक्ति है तो यह सन्तुलन प्रदान करता है। अत: परम-चैतन्य को लाने वाले सहजयोगियों के जीवन में सन्तुलन होना चाहिए। मैं कहती हूँ कि इस स्थान (आस्ट्रेलिया) पर महागाणेश का निवास है। स्थिर होने पर श्री गणेश सन्तुलन लाते हैं जब ये दायें ओर को जाने लगते हैं तब कोई निर्माणकारी कार्य शुरु कर होता है और जीवन के लिए आवश्यक सभी कुछ ये करते हैं। दिशा में यदि ये चल पड़े तो ये विध्वंसक हो उठते हैं। इनके सन्तुलन के बिना जीवन नहीं चल सकता। इनके दोनों ही गुणों- रचनात्मक तथा विध्वंसक - का सन्तुलित होना आवश्यक परन्तु विपरीत है। कार्यक्रम के समय बिजली चली गई। उसका भी अच्छा प्रभाव हुआ क्योंकि हमें मोमबत्तियां जलानी पड़ीं जिनकी लो में सारे भूत विलय हो गए। जब श्री माताजी कमरे में आई तो यह घटना हुई। यह समझना भी आवश्यक था कि विजली पर अत्यधिक निर्भरता भी अच्छी बात नहीं। अत: सदा किसी प्राकृतिक साधन का प्रबन्ध हमारे पास होना चाहिए। हमें कुछ लालटेन आदि रखने चाहिएं और बिजली के स्थान पर अधिक समय प्रकृति के संग रहने का प्रयत्न करना चाहिए। में आपको बताती हूँ कि बरिजली हमारी आंखों को खराब करने के लिए जिम्मेवार है। यह केवल हमें रोशनी ही नहीं देती, हमारी आंखों ा प्रकृति का जैसा नियम हैं, जिस चीज को भी रचना हुई है उसका विनाश होता है और रचनात्मक रूप से कोई नई चीज विकसित हो जाती है। फिर इसके कुछ भाग नष्ट हो जाते है। अत: मृत्यु में ही जीवन निहित कल्पना कीजिए कि यदि एक बार उत्पन्न हुए सभी लोग यहाँ जीवित होते तो हम यहाँ न होते। बहुत से पशुओं की मृत्यु हुई और वे मानव रूप में उत्पन्न हुए। अन्य लोगों को पृथ्वी पर अवतरिंत होने का अवसर देने के लिए मनुष्यों को मरना ही होगा। मत्यु के बाद कुछ समय आराम करके आपको फिर बापिस आना है। अतः मृत्यु जीवन का परिवर्तन मात्र हैं, बिना है। मृत्यु कुछ भी नहीं। चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-5.txt उदाहरण के रूप में कैथोलिक मत से ईसा की पूजा आदि जो भी अच्छी बातें हैं वो हम ले लेते हैं और विवेकहीन सभी कुछ छोड़ देना होता है। ईसा ने चरित्र पर बहुत वल दिया, चरित्र के विषय में वहुत कुछ कहा। पर ईसाईयों ने चरित्रहीनता की सारी सीमाएं लांघ दी। आपके बच्चों का क्या होगा? आपके समाज का क्या होगा? व्याभिचार जिस भी समाज की मृत्यु के जीवन अस्तित्व विहीन है। यह जीवन व मृत्यु के बीच सन्तुलन है । अतं: एक सहजयोगी को कभी भी मृत्यु से भयभीत नहीं होना। उसकी मृत्यु केवल कुछ समय विश्राम कर अधिक उत्साह तथा शक्तिपूर्वक दूसरा जन्म लेने के लिए है। प्रकृति की बहुत सी चीजें पूर्णतया सन्तुलित हैं। यह सन्तुलन यदि समाप्त हो जाए तो हम कहीं के न रहेंगे। अत: हमें समझना चाहिए है कि ये सब कार्य श्री गणेश ही करते हैं। वे ही सभी भौतिक पदार्थों की तथा मानव रचित वस्तुओं की देखभाल करते हैं। उदाहरणतया पहले चक्र (मूलाधार) की सृष्टि पृथ्वी माँ ने की और दूसरे चक्र (स्वाधिष्ठान ) ने पूरे ब्रह्माण्ड को रचा। परन्तु पहला चक्र ही पवित्रता तथा मंगलमयता को फैलाता है तथा सन्तुलन प्रदान करता है। शेलो बन गया है बह समाज पूर्णतया असन्तुलित है तथा ईसा की शिक्षा के विपरीत चल रहा है। श्री कृष्ण ने कहा है कि हर मानव में आत्मा का निवास है। अत: सब मानव समान हैं। आप जाति-प्रथा कैसे अपना सकते हैं। कार्य के अनुसार आप जातियां बना सकते हैं जन्म के आधार पर नहीं। हर मानव में आत्मा है अत: सबका उत्थान हो सकता है। इसा ने भी यही कहा है। उन्होंने कभी नहीं कहा कि स्त्रियों में आत्मा नहीं है, पुरुषों में है धर्म-अर्थात् सन्तुलन, मध्य में रहना में हैं सन्तुलन खो देने पर लोग या तो बायें या दायें को चले जाते हैं। कुछ सहजयोगी अति धर्म-परायण है परन्तु उनमें प्रेम का अभाव है। प्रेम के बिना धर्मपरायणता अर्थहीन है। प्रेम का अभिप्राय यह नहीं कि आप किसी चीज से लिप्त हो जाएं परन्तु नि्लिप्त प्रेम तथा उत्तरदायित्व तो आप में होना ही चाहिए। श्री गणेश मूलाधार पर हैं और मूलाधार स्थित हमारी सभी इन्द्रियों का नियंत्रण उनके हाथ में है - विशेषकर सभी प्रकार के मलोत्सर्जन का। अत: हम वे लोग नहीं हैं जो इन इन्द्रियों की लिप्सा में या इनसे पूर्ण विरक्ति में विश्वास करते हैं। हमें इनके सन्तुलन में विश्वास है। अतः आपने विवाहित होकर सन्तुलित जीवन बिताना है आपके यथोचित बच्चे हों ही इन गुणों को विकसित कर लेंगे यह गुरुत्व आपको एक और आप विवेक एवं गरिमामय जीवन व्यतीत करें। पर प्रेम का होना आवश्यक है - पति-पत्नी में, बच्चों तथा माता-पिता में नहीं कि आप मुंह लटकाए बैठे रहें। गंभीरता का अर्थ है तथा सभी से प्रेम आवश्यक है। एक व्यक्ति के असन्तुलित कि किसी भी प्रकार की उथल-पुथल में आप विचलित न होने से पूरा परिवार असन्तुलित हो जाता है। प्रेम पूर्वक परिवार हों गंभीरता का अर्थ बहुत गहन है। जैसा कि आप श्री गणेश को अच्छी तरह स्थापित करना भी एक कला है। यदि के चरित्र से देख सकते हैं - गंभीरता का अर्थ है कि आप पति-पत्नी दोनों ही ऐसा करने को रजामन्द हो जायें तो, मुझे अपने मध्य में खड़े हैं, एक ऐसे व्यक्ति हैं जो सब कुछ विश्वास है, ऐसा करना कठिन न होगा. क्योंकि आप लोग देखते हुए भी न विचलित होता है न किसी प्रलोभन में सहजयोगी हैं । समलिंगकामुकता तथा टी. एम. ( ट्रान्सैडैन्टल मैडीटेशन) में की जाने वाली तपश्चर्या के कारण पश्चिमी देशों में बहुत असन्तुलन है। एक चीज के बाहुल्य तथा दूसरी के अभाव की अपेक्षा सन्तुलन में रहना स्वाभाविक है। असन्तुलन ही लोगों के है। ऐसा व्यक्ति किसी असन्तुलित या गलत कार्य करने वाले कष्टों का कारण है। से इसका कोई संबंध नहीं। यदि आप मध्य - तो आप किसी भी गलत - गुरुत्व के बिन्दु पर हैं दिशा की ओर नहीं झुक सकते। गुरुत्त्र धरा माँ से आता है और धरा माँ ने ही श्री गणेश की रचना की है। अत: अति स्वाभाविक रूप से यह गुरुत्व मानव में आ जाता है। गुरुत्व अन्तर्जात है, इसे अपनाना नहीं पड़ता। बचपन में यदि बच्चों को उनके गुरुत्व, गरिमा और महानता के विषय में बताया जाए तो वे स्वाभिमानपूर्वक तुरन्त प्रकार का आकर्षण प्रदान करता है। गंभीरता का अर्थ यह आता है, आत्म-सन्तुष्ट न वह कुछ मांगता है, न उसकी कोई आवश्यकता है, न वह किसी से बदला लेताः है। वह सदा क्षमा करता है क्योंकि अपने गुरुत्व से बाहर निकलने का उसके लिए कोई मार्ग नहीं - गुरुत्व से बह बस बंधा हुआ सन्तुलन के गुण को आप पहले से ही जानते हैं। व्यक्ति के पीछे नहीं दौडता। ऐसे व्यक्ति पर उसे दया आती है। दृढ़तापूर्वक खड़े हो जाना ही दूसरों को डराने तथा उनका विनाश करने के लिए काफी है। वह व्यक्ति एक ऐसे विन्दु पर खड़ा है जहाँ उसे विचलित नहीं किया जा सकता, पर अन्य लोग तो विनाश की ओर दौड़ रहे हैं। तो उनके पीछे दौड़कर अपना विनाश कर लेने का क्या लाभ? गुरुत्व में खड़े व्यक्ति यदि चाहें तो अन्य लोगों की सहायता कर सकते हैं क्योंकि वे देख सकते हैं कि कोई व्यक्ति गिरने वाला है । फिर भी यदि अपने सभी कार्य हमें गणेश चक्र से सीखने चाहिए। कभी हमें वस्तुएं संग्रह करनी पड़ती हैं, कभी उपभोग करनी पड़ती हैं और कभी फेंक देनी पड़ती हैं। कहीं से भी जब हमें कोई विचार आते हैं तो उनमें से जो हमारे हित में हों वही हमें अपनाने चाहिए बाकी सब फेंक देने चाहिए। परम-चैतन्य की कृपा से ही हम ऐसा कर सकते हैं। चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-6.txt के अनुसार यह अपराध है। यह गलत है क्योंकि आपमें सन्तुलन तथा स्वाभाविक कोमलता होनी चाहिए। अन्य लोगों से आपको अति प्रेम से बात करनी चाहिए तथा आपको दयाल व्यक्ति सन्तुलन में न आना चाहे तो आप उसे मजबूर नहीं कर सकते। है। तथा अच्छा होना चाहिए। पता लगाइए कि आप सब कर रहे हैं या नहीं। श्री गणेश का महानतमे गुण यह है कि उनमें सन्तुलन उस गुरुत्व के साथ वे इस धरा माँ पर बैठते है। आस्ट्रेलिया श्री गणेश का देश है सन्तुलन होना आवश्यक परन्तु उनमें सन्तुलन का अभाव है। आस्ट्रेलिया में सहजयोग शुरू करने से पूर्व श्री माताजी का वहाँ अतः स्वाभाविक रूप से यहाँ के लोगों में है समूहों के बीच हमें प्रेम की शक्ति का उपयोग करना है केवल प्रेम ही तो हमारी शक्ति है। श्री गणेश को देखिए का अनुभव यह था कि वहाँ के लोग बहुत शराब पीते हैं, व्यर्थ कितने भले, मधुर तथा अबोध हैं। उनकी कार्य विधि कितनी भली है। कैसे वह तुम पर कार्य करते हैं, कैसे वे तुम्हारे लिए चीजों की रचना करते हैं और कितनी शान्ति से वे सारा कार्य फूल को खिलते हुए या वाले पशु भी परमात्मा के सम्पर्क में तथा उसके अनुशासन में प्रकृति के किसी अन्य कार्य को जब श्री गणेश करते हैं तो आप उसे देख नहीं सकते। इतनी कोमलता से वे सारे कार्य को करते हैं और हर पत्ते को दूसरे से भिन्न बनाते हैं गणेश की खाने को दिया जाए उसे स्वीकार करते हैं और प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वी पर रहने वाले हम सबको कितना भद्र होना चाहिए? रहते हैं। यदि उन्हें नष्ट भी होना हो तो इस विनाश को स्वीकार लोगों से व्यवहार में हमें कितना मधुर होना चाहिए? यह दर्शाने के लिए कि हम गणेश हैं आप को अति भद्र होना चाहिए। आपको विशेष प्रकार के गण बनना है आस्ट्रेलिया के लोगों की बातें करते हैं, बड़ी कठोरता से हाथ मिलाते हैं तथा हर कार्य को बहुत हंगामें से करते हैं । श्री गणेश के देश का तार-तम्य परम-चैतन्य से होना चाहिए। प्रकृति की गोद में रहने. करते हैं। उदाहरण के रूप में किसी होते हैं। वे एक-दूसरे पर अत्याचार नहीं करते, वे अति भले होते हैं और झुड नहीं बनाते। वे बढ़ते हैं, जो भी कुछ उन्हें करते हैं। श्री गणेश के इस देश में आप प्रकृति को स्वयं में आत्मसात कर लें और आप में सन्तुलन इस प्रकार से आ जाए कि आपका पूरा स्वभाव उस सन्तुलन को दर्शाए। पर आस्ट्रेलिया में बहुत बड़ी कठिनाई यह है कि यहाँ लोगों के बहुत से झुंड हैं, लोग आपस में लड़ते रहते हैं तथा उनकी बहुत सी समस्याएं हैं। गणेश के देश में, जहाँ उनके गणों का निवास है, यदि गण परस्पर लड़ने लगे तो क्या परिणाम होगा? यदि हमारे शरीर के अन्दर रोग प्रतिकारक ही परस्पर लड़ने लगे तो शरीर का क्या होगा? अत: आप भी गणों के समान ही इस देश में जन्में विशिष्ट लोग हैं। इतनी उपलब्धियां पाने के बावजूद भी अन्य देशों की सभी बुराइयां लेने लगे हैं तो श्री गणेश के इस देश में जन्म लेने का क्या लाभ? गणेश की इस भूमि पर आपके अन्दर पूर्ण सन्तुलन होना चाहिए। यही सब मैं आस्ट्रेलिया के सहजयोगियों से आशा करती हूँ। और श्री गणेश के सन्तुलन का विवेक उन्होंने पूरे विश्व को देना है। के बारे में मैं यह महसूस करती हूँ। आप सबको वास्तविक रूप से प्रेममय, भद्र, करुणामय और हितैषी बनना सीखना है। छोटी-छोटी चौजें लोगों को बहुत प्रसन्नता प्रदान कर सकती हैं। मैं स्वयं छोटी-छोटी युक्तियां उपयोग करती हैूँ। आपको भी इनका उपयोग करना चाहिए। एक दिन एक महिला को मैंने एक साड़ी दी। उसने कहा "माँ आप कैसे जानती हैं कि मुझे ये रंग पसन्द है"? क्योंकि मैंने तुम्हें ज्यादातर यही रंग पहने देखा है अत: मैं जानती हूँ कि तुम्हें ये रंग पसन्द है।"क्या आपने मुझे देखा था "? " नि:सन्देह मैंने तुम्हें देखा था"। उसे बहुत प्रसन्नता हुई। उसे लगा कि माँ मेरा ध्यान रखती हैं। मैं सब कुछ जानती हूँ क्योंकि मुझे आपकी चिन्ता है। आप सबकी। मैं जानती हूँ कि आप कहां खड़े हैं, आपको क्या परेशानी है, क्या किया जाना चाहिए, आपको क्या पसन्द है और क्या नापसन्द| ऐसा करने में कोई किसी के प्रति हमें कोई दुर्भाव नहीं रखना चाहिए और हानि नहीं। अच्छा सौहार्द बना लेना ही ठीक है तभी आप सदा हमें क्षमाशील होना चाहिए। अंग्रेजी भाषा इतनी मुद नहीं समझ सकंगे कि समस्या क्या कि इसमें यदि आप किसी को कुछ कहें तो वह बुरा ने माने। यह अति विनोदपूर्ण भाषा है पर विनोदिता भी कभी-कभी सुधारने का प्रयत्न करती हैं, पर यह सब हमें उन लोगों को व्यक्ति को कठिनाई में फंसा देती है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप किसी को कठोर शब्द बोलें या किसी व्यक्ति, अपने सकते हैं। हमें कोई कठोर कदम लेने की या किसी के मुंह पर कर्त्तव्य, अपने बच्चों, पति या पत्नी के प्रति उदासीन हो जाए । किसी के प्रति उदासीनता भयंकर कठोरता है। किसी छोटी सी बात के लिए यदि कोई स्त्री नाराज होकर अपने पति से हम ध्यान से निकल जाते हैं। कठिनाई पड़ने पर तुरन्त बात नहीं करती या पति पत्नी का तिरस्कार करता है, गुरुत्व बिन्दु पर चले जाइए...... ऐसा यदि हो जाए तो उसकी फिक्र नहीं करता, देखभाल नहीं करता तो सहजयोग समस्या समाप्त हो जाएगी। मेरे साथ ऐसा ही होता है। कहीं श्री माता जी ने बताया कि कितने प्रेम से वे लोगों को बताना नहीं चाहिए। उन्हें बताने के स्थान पर हम बंधन दे उसकी कमी कहने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ध्यान-धारणा मध्य (केन्द्र) में रहने में सहायक होती है फिर भी कभी-कभी अपने चैतन्य लहरी 7. 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-7.txt आपको परेशान करने वाले को सर्वव्यापक शक्ति सम्भाल लेगी। इस विषय में आपको कुछ करने की आवश्यकता नहीं । देखने का प्रयत्न कीजिए कि क्या आप सन्तुलन में हैं - अपने परिवार से न बहुत लिप्त और न बहुत विरक्त। लिप्सा प्रेम की मृत्यु है। अतः हमें निर्लिप्त प्रेम की यथोचित समझ प्राप्त करनी है, जहाँ गुरुत्व पर खड़े होकर सब का हित सोच सकें। यदि आपको लगे कि कोई व्यक्ति ठीक नहीं है तो भी आपको सन्तुलन खोने की कोई आवश्यकता नहीं। अपना सन्तुलन ही यदि आपने खो दिया तो उस व्यक्ति को आप कैसे ठीक कर सकेंगे? इस प्रकार आप अपनी सारी घृणा, क्रोध, कामुकता तथा स्पर्धा भाव से छुटकारा पा लेंगे क्योंकि आप अपनी गरिमा में स्थित हैं। आपको किसी की प्रशंसा की इच्छा नहीं, आप जानते हैं कि आप अपने स्थान पर खड़े हैं और भी जब मैं कोई कठिनाई देखती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं तुरन्त अपने गुरुत्व की गहनता पर चली गई हूँ और वहाँ से मैं सभी कुछ स्प्ष्ट देख सकती हूँ, और तब में समस्याओं का हल करती हूँ। आपने न तो अपना मुकाबला दूसरों से करना है। और न ही ये सोचना है कि आपका कोई लाभ या हानि होगी। आप अपने मालिक हैं। अत: चिन्ता मत कीजिए। न कोई ईष्ष्या है और न कोई प्रलोभन। आप स्थिर हैं। निश्चिन्त। कभी-कभी अगुआ गण अपने पद के लिए चिन्तित होते हैं। पर सहजयोग में नेता तो बाजीगरी मात्र है। नेतृत्व मात्र एक मजाक है और यदि आप इस बात को समझ जाएं तो कार्य और अच्छी तरह से होगा। सहजयोग में कोई पुरोहित-तंत्र नहीं है। हम सब एक हैं। कोई भी किसी दूसरे से बेहतर नहीं है। 1. हैं। आत्म सन्तुष्ट श्री माता जी से विशेष - साक्षात्कार भी आवश्यक् नहीं। यह सब तो अहं है। श्री माता जी कभी निजी नहीं हैं। हर समय वे हमें उपलब्ध हैं। ये सब बातें अज्ञान से तथा इस सत्य से उपजो है कि आप अपने गुरुत्व बिन्दु पर नहीं हैं। अत: आज हमें अपने हृदय में सोचना चाहिए कि हमारा गुरुत्व बिन्दु क्या है? और ये कि हमें दृढ़ता-पूर्वक खड़े होना है। अत: आपको नेता से कोई भय नहीं होना चाहिए। यदि आप अपने गुरुत्व पर स्थिर है तो वह आपको समझ जाएगा। अपने गुरुत्व बिन्दु पर आते ही नेता जान जाएगा। अत: आप अपने गुरुत्व विन्दु पर स्थिर रहें। कोई भी आपको परेशान नहीं कर सकता। सहजयोग में आपको कोई भय या चिन्ता नहीं होनी चाहिए। आप सभी सन्त हैं। सारे गण, देवदुत और परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति आपकी देखभाल कर रही है। यह श्री गणेश का स्थान है, सभी कुछ ठीक हो जाएगा। परमात्मा आप पर कृपा करें। श्री महालक्ष्मी पूजा जता लि ब्रिसबेन, आस्ट्रेलिया, फरवरी 20, 1992 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ( सारांश) सहन करते हैं । परिणाम भयानक हो सकते हैं और इस प्रकार के लोग फैशन के भंवर में खो भी सकते हैं। नशा करने वाले लोग भी साधक हो सकते हैं बश्ते कि वे ऐसा अपने महालक्ष्मी तत्व को पाने के लिए करते हों, फैशन के कारण नहीं। तो इस महालक्ष्मी तत्व ने उनके अन्दर जन्म लिया और स्पष्ट करने लगा कि इस सबसे परे भी तो कुछ अवश्य होगा। भिन्न देशों के बंधनों ने भी आपके अन्दर तथा बाहर सहजयोग की उन्नति में बाधा डाली है। सत्य की खोज फैशन भी हो सकती है परन्तु इसके यह महालक्ष्मी पूजा इसलिए की जा रही है कि हम समझ सकें कि विश्व निर्मला धर्म क्या है। महालक्ष्मी तत्व आप सबके मध्य में स्थित है। एक बार जब आप लोगों के दम्भ और पाखंड से तंग आ जाते हैं तो अपने अन्दर के सत्य को खोजने लगते हैं। इस प्रकार जिज्ञासु या साधक कहलाने वाले लोगों के एक नए वर्ग का जन्म हाता है। वे अन्य लोगों से बहुत भिन्न हैं। वे किसी भौतिक लाभ, सत्ता या पद की चिन्ता नहीं करते। वे सत्य को खोजना चाहते हैं। यह वर्ग आप लोग हैं और इसी कारण आप सहजयोग में आए हैं। हमारी जिज्ञासा पूर्व जन्मों से और हमारे वर्तमान जीवन के हालात से आती है जैसे एक वैभवशाली परिवार में जन्म लेना और वैभव से तंग आ जाना। जिज्ञासा का दूसरा स्रोत सत्य को खोजने की परम्परा है। भारत में धन एवं सत्ता की खोज को मिथ्या माना जाता है और लोग संस्कृति से सुसंस्कार प्राप्त महालक्ष्मी तत्व को समझने के लिए हमारा यह जानना आवश्यक है कि दो अन्य मार्ग भी हैं जिन पर हम भटक सकते हैं। यह हमारे वर्तमान जीवन की पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। पूर्व जन्म की पृष्ठभूमि के परिणामस्वरूप ही आप उचित मार्ग पर आए हैं, पर पूर्व जन्म वर्तमान जीवन से चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-8.txt व मानव को हानि पहुंचाते। महालक्ष्मी तत्व पर आधारित विश्व निर्मल धर्म सभी धर्मों का सार तत्व तथा सभी धर्मों का सत्य है। है) समाज ने कई आच्छादित हो रहा है ( ढका जा रहा प्रकार से आप पर प्रभुत्व जमाया है। कार्यक्रम में आने वाले बहुत से लोग जन्म जन्मान्तरों से जिज्ञासु हैं परन्तु बायें तथा दायें ओर के झुकाव के कारण बनी आदतां से वे सहजयोग में टिक नहीं पायेंगे। महालक्ष्मी तत्व को ठीक रखने के लिए सहजयोगी को सदा अन्तर्दर्शन करना आवश्यक है। अपना मुल्यांकन करने का सर्वोत्तम उपाब अपनी चैतन्य लहरियों को महसूस करना है। हमारे बहुत अधिक बायें या दायें को झुकने के कारण जब हम अपनी लहरियों को महसूस नहीं कर पाते तो हमारा महालक्ष्मी तत्व कार्य नहीं कर रहा होता हम पटरी से उतर जाते हैं। अपने तथा अन्य लोगों के ऐसे बन्धनों से हमें सावधान रहना चाहिए जो हमें मध्य मार्ग से हटाते हैं। अति विरक्त रूप से साक्षी बनकर हमें स्वयं को देखना है दूसरों वाइबल में पॉल ने ईसाईमत के विषय में बहुत प्रकार के भ्रम पैदा कर दिए हैं। दाप स्वीकार करने की मूरखता शुरू करके उसने लोगों को दोषभाव ग्रस्त कर दिया तथा स्त्रियों को महत्वहीन बना दिया। ईसा को समझे बिना ऐसा करने का कोई अधिकार उसे न था। वह एक अपस्मारो (मिर्गी रोग पीड़ित) था जिसे सत्ता प्राप्त करते के लिए मंच की आवश्यकता थी जिसके लिए उसने ईसाई मत की व्यवस्था की। इसा ने ऐसा करने को कभी नहीं कहा और न ही कहा कि अपराध स्वीकार कर स्वयं को दाष-ग्रस्त कीजिए। उन्होंने सदा क्षमाशीलता की बात की। को नहीं। थोड़े से समय में ईसा ने हमें सत्य का ज्ञान दिया पर व्याख्याकार इसे गलत दिशा में ले जाते हैं। पर सहजयोगियों को मेरी कही हुई किसी बात की व्याख्या नहीं करनी पडती, मैं जो भी कहती हूँ वे इसे जानते हैं यदि वे हमें पता होना चाहिए कि यदि हममें कोई शारीरिक समस्या है ( रोग) तो हम मध्य ( केन्द्र ) में नहीं है। अपने को पूर्णतया रोगमुक्त करने की योग्यता हममें होनी चाहिए। हमें सदैव शान्त होना चाहिए, क्रुद्ध नहीं। जो व्यक्ति अपने मध्य में है वह क्रोध का दिखावा तो कर सकता है पर वास्तव में क्रोधित नहीं होता, वह क्रोध या भावनाओं में लिप्त नहीं होता। आपको विश्वास होना चाहिए कि आप पुर्णतया निर्लिप्त है। अपनी वास्तविक अवस्था में आकर आप अपने स्वामी होते हैं और देख सकते हैं कि आप कहाँ जा रहे हैं। यदि हममें बायें या दायें ओर झुकने की कमी अब भी है तो हम पक्के सहजयोगी नहीं हैं। हमने उन्नति नहीं की। व्याख्या करने लगते हैं तो अवश्य उनमें कोई कमी है। आप मुझ पर टीका नहीं कर सकते। जो भी कुछ मैं कहती हूैँ, बड़ी साधारण अंग्रेजी भाषा में कहती हूं। टीका करने के लिए उसमें कुछ होता ही नहीं। मैं स्पष्ट बात कहती हूँ जिसमें ठीक करने के लिए कुछ नहीं होता। जो लोग स्वयं को, मुझे ठीक करने के लिए, बुद्धिमान समझते हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनको वद्धि में मरी व्याख्या करने की क्षमता नहीं है। हम मध्ये में हैं या नहीं, यह जानने का यह एक तरीका है। महालक्ष्मी तत्व को स्थिर करने के लिए कें्द्र में जाने का पहला मापदंड यह है कि हमारा शरीर सामान्य होना चाहिए। हमें स्वस्थ तथा प्रसन्न रहना चाहिए, सदा शरीर के दर्दा की शिकायत नहीं करते रहना चाहिए। दूसरे यदि हम मध्य में हैं तो हमारा चित्त अधिकतर प्रकृति तथा इसकी कार्य प्रणाली की आर होता है। अपने चहूं और की सृष्टि का हमें आनन्द लेना चाहिए। यह आनन्द विस्मयकारी रूप से गहन तथा आनन्ददायी होता है तथा हमें निर्विचार समाधि की ओर ले जाता है। सहजयोग पर भाषण देते हुए सावधान रहना चाहिए कि कहीं अहं में फंसकर कोई ऐसी बात न कहें जो श्री माताजी ने कभी कही ही नहीं। जो लोग पक्के सहजयोगी नहीं हैं उन्हें आत्मसाक्षात्कार तो देना चाहिए पर सहजयोग पर भाषण नहीं देना चाहिए। जो व्यक्ति आपको साक्षात्कार देता है वह आपको गुरु नहीं है, उसका कोई डर उसका अहसान आपको नहीं मानना चाहिए। ऐसा न करने पर, उस व्यक्ति या समूह का अनुसरण करते हुए आप बायें या दायें को चले जायेंगे। महालक्ष्मी तत्व से बाहर चले जाने पर हमारे इर्द-गिर्द की नकारात्मक शक्तियां हम पर कब्जा कर लेती हैं और हमारी अवस्था साधारण लोगों से भी बदतर हो जाती हैं । हम किसी एक देश के न होकर पूरे ब्रह्माण्ड के हैं विश्व निर्मल धर्म के हैं। हम ब्रह्माण्ड के अंग-प्रत्यंग हैं। अब हम शाश्वत जीवन में - असीम में प्रवेश कर गए हैं। एक ननहें कमल की तरह जो कीचड़ में से निकलता है और कीचड़ जिस पर चिपका हुआ होता है पर अन्त मं अति स्वच्छ रूप हमें किसी भी धर्म की निन्दा नहीं करनी चाहिए। धर्म के नियमों पर न चलने वाले लोग जो साक्षात्कारी भी नहीं हैं वही स्वयं को धार्मिक कहते हैं। चर्च की निन्दा की जा सकती है पर ईसा की और बाइबल की कभी भी नहीं की जा सकती। स्वत: ही हम सभी अवतरणों का सम्मान करेंगे, किसी भी अवतरण, धर्म या पैगम्बर की कभी भी निन्दा नहीं करेंगे। किसी धर्म के प्रति हम में दुर्भाव नहीं होगा किसी भी धर्म ने आज तक कोई हानि नहीं पहुंचारयीं। गलत प्रकार के लोग जो धर्म को धन तथा सत्ता प्राप्त करने के लिए उपयोग करते हैं चैतन्य लहरी 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-9.txt है। यह सहजयोग से भी लिप्त नहीं है। इसका कार्य कवल पोषण करना है। यदि यह पोषण करती है तो भी ठीक और नहीं करती तो भी ठीक। में वह कीचड़ से बाहर आ जाता है। तब वह चारों ओर अपनी सुगन्ध बिखेरता है - यहाँ तक कि कोचड़ को भी वह सुगन्ध देता है। हमारा भी यही कार्य है। महालक्ष्मी तत्व केवल हमारे लिए न होकर पूरे विश्व के लिए है। एक नयी जाति, एक नए समाज का, जो कि ज्योतिर्मय है तथा सत्य और प्रम पर खड़ा है सभी कुछ आपकी इच्छा पर निर्भर है। किसी भी प्रकार से कोई आपको मजबूर नहीं करेगा। कुण्डलिनी तो गंगा नदी की तरह बह रही है और यदि आप चाहें तो यह आपके अन्दर बहगी। भक्ति ही इन्छा है, भक्ति का आनन्द प्राप्त करने की श्रद्धा। यह इतनी सुन्दर चीज है कि हम निर्विचारिता में इसका आनन्द लेते हुए इसमें विलय हो जाते हैं। यही वह वांछित तथा सर्वोच्च अवस्था है जहाँ आप परमात्मा से एकाकार होकर आनन्द सागर में तैर रहे होते हैं । सुधार कर रहे हैं। हममें करुणा होनी चाहिए। हमें आध्यात्मिकता से सुसज्जित होना चाहिए और स्वयं को देखना चाहिए। सुदृढ़ होने पर कोई भी चीज हमारे मार्ग में बाधा न बन सकेगी। हमें इच्छा करनी चाहिए कि हमारी लहरियां ठीक हों, हमारे चक्र शुद्ध हों, हम मध्य में तथा सन्तुलन में रहें। अपनी समस्याओं का हल खोजने में हमें आनाकानी नहीं करनी चाहिए। हमें अति शुद्ध तथा दृढ़ सहजयोगी होना चाहिए। बहुत से लोग सहजयोग में बहुत ऊंचे उठ सकते हैं पर अभी तक उनकी इच्छाओं की अभिव्यक्ति नहीं हुई है। आपको बतायी मेरी वहुत सी बातों का प्रभाव आप पर उदासीनता पूर्ण है। महालक्ष्मी तत्व को सदा रक्षा होनी चाहिए और सदा इसकी देखभाल करते हुए इसमें झांका जाना चाहिए। महालक्ष्मी के आशीर्वाद इतने अधिक हैं कि इनका वर्णन एक भाषण में नहीं किया जा सकता, पर इनमें सबसे महान आशीर्वाद पूर्ण आत्म सन्तुप्टि है। अपने आत्मा में ही आप आनन्दित रहते हैं । महालक्ष्मी तत्व जव हमारे मस्तिप्क में प्रवंश करता है तो विराट महालक्ष्मी तत्व हमारे अन्दर का तत्व है जो पोषण करने के साथ-साथ हमें सन्तुलन प्रदान करता है। यह एक पथ प्रदर्शक तत्व है जो सभी कार्य करती है, जो विवेक प्रदान करके परमात्मा तथा सत्य के प्रति प्रेम देती है और इस प्रेम से आप उन्नत होते हैं। एक साधारण कार्य जो आपको करना है कि आपको मेरी कुण्डलिनी पर होना है . अपना चित्त मेरी कुण्डलिनी पर डालना है निर्विचार होने से समस्या हल हो जाएगी क्योंकि विचार ही नहीं होगा उससे आपका अहं निश्चित रूप से समाप्त हो जाएगा क्योंकि तब आप समझ जायेंगे कि श्री माताजी ही सभी कुछ कर रही हैं, मैं जब कुछ कर ही नहीं रहा तो मुझे गर्व यों होना चाहिए? आपके सारे बन्धन टूट जायेंगे क्योंकि मेरी कुण्डलिनी पूर्णतया पवित्र है। यह किसी से लिप्त नहीं की अभिव्यक्ति होती है तथा हम अति सुन्दर रूप से सामूहिक हो जाते हैं। तब हम यह नहीं सोचते कि हम किस देश के हैं, हमारी चमड़ी का रंग क्या है या हमारा धर्म क्या हैं। यह आनन्द भी तभी आता है जब महालक्ष्मी तत्व आपके सहस्रार को प्रकाशित करता है। पूर्णता का भाव आ जाता है व्यक्ति विशेष का नहीं। विराट उसी से जड़ जाते हैं। विराट का यह भाव कि हम पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं है। महालक्ष्मी तत्व के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने अहं तथा बन्धनों का त्याग। इसी कारण महालक्ष्मी इतनी महत्वपूर्ण है। केवल से हम एकाकार हो जाते हैं, आपको पूर्ण शान्ति तथा सुरक्षा प्रदान करता परमात्मा आपको आशोर्वादित करें। महा सरस्वती पूजा ऑकलैंड, न्यूजीलैंड - 23.2.92 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ( सारांश) महा सरस्वती तत्व दायीं ओर को है। पहला ब्रह्मदेव का जो कि सरस्वती तत्व हैं। फिर यह महा सरस्वती आपको महा ब्रह्मदेव तत्व पर ले जाता है। इसे हम हिरण्यगर्भ भी कहते हैं। यह सहजयोगियों के लिए अति महत्वपूर्ण है। अधिक सोंचते को चले जाते हैं। उदाहरण के रूप में यदि कोई कलाकार दायें को चला जाएगा तो शनै: शनै: उसके चित्र अति उग्र अभिव्यक्ति हो सकते हैं। वह गंभीर तथा कठोर होगा तथा उसकी अपनी ही शैली होगी, किसी दूसरे की शैलो वह नहीं अपनाएगा। और तत्व जब इससे तग आ जाएगा तो गूढ़ कला आदि शुरु कर देगा। परन्तु आत्मसाक्षात्कार के बिना गूढ़ कला अति निरर्थक तथा आत्मसाक्षात्कार पाए बिना जो लोग हैं या बहुत अधिक सृजन करते हैं वे बहत अधिक दायें या बायें बहुत चैतन्य लहरी 10 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-10.txt बनाते हैं। भारतीय विद्वान तो कामसूत्र को साहित्य का दर्जा ही नहीं देते। घिनौनेपन और असभ्यता की ये रचनाएं तो इन आक्रामक (दायीं ओर को झुके) लोगों के लिए इनाम है। दायीं ओर का व्यक्ति शराब पीने लगता है क्योंकि वह कमी पूर्ति चाहता है, अपनी सत्ता प्राप्ति की प्यास बुझाना चाहता है या हास्यकर भी हो सकती है आज का पॉप संगीत भी, जो कि अति आक्रामक है, इसी का परिणाम है। ऊ्ध्व गति को न जा सकने के कारण आप दायें को चले जाते हैं। इस प्रकार लोग अन्य आक्रामक लागों को प्रभावित करते हैं। लोकप्रियता वास्तविक सफलता का चिन्ह नहीं है। लोकप्रियता तो आनी-जानी है। यह इतिहास को प्रभावित नहीं करती। है। आज के समाज अपनी आक्रामकर्ता को कम करना चाहती में लोग पांच दिन कठोर परिश्रम करते हैं फिर मद्यपान करते हैं. करक सामवार को सिर दर्द लेकर लौटते हैं। अंग्रेजी भाषा में शेक्सपीयर से लेकर वहत से लेखकों ने है, फिर धूप स्नान करते और सप्ताहांत तक सारा पैसा खर्च मानव के प्रयत्नों की निरर्थकता की अभिव्यक्ति की है। वे अवधूत-सम हैं जो अपने आध्यात्मिक जीवन में बहुत विकसित हुए हैं। मानवीय प्रयत्नों की निरर्थकता को वे देख सकते हैं परंशान हो जाता है। तब उसके अन्दर रचनात्मकता के प्रति और फिर मनुष्य को एक ऐसे बिन्दु पर ला सकते हैं जहाँ वह समझ सके कि उसे इन मुर्खतापूर्ण अमानवीय प्रयत्नों से ऊपर उठकर उच्च प्रयास करना है तथाी शाश्वत मूल्य की कला कृतियों की रचना करनी है। सोमर सैंट मॉम तथा क्रोंनिन से की प्रेरणा देतो है और तब उसमें महा सरस्वती तत्व कार्य करने लेखक मध्य में स्थित थे, पर बाद में जब हैम्मिंगवे आए तो वे दायें को झुकने लगे। आधुनिक उपन्यास गंदगी तथा हिंसा से परिपूर्ण हैं, ये मानवीय बायीं ओर को झुकने वाले कलाकार यूनानी त्रासदी के शिकार हैं। वे रोते-बिलखते रहते हैं और आपको भी रुलाते हैं । इन कार्यों के परिणाम जब आने लगते हैं तो कलाकार एक सूक्ष्म दृष्टिकाण उत्पन्न होता है। कला में वह सच्चे ज्ञान की खोज करने लगता है। परमात्मा के गुणगान करने वाले शुद्ध केलात्मक ज्ञान की धारा उसे चीजों को बेहतर रूप से करने लगता है। परन्तु जब वे परमात्मा को बारे में सोचने लगते हैं तो भी वे जाल में फंस जाते हैं। धन एवं सत्ता लोलुप धर्मों को मानते रहने पर भी वे आध्यात्मिक नहीं बन पाते। मानसिक व्यक्तित्व विकसित हो जाने पर भी उनकी कही हुई बात का प्रभाव दूसरों पर नहीं पड़ता क्योंकि वे जागृत ( साक्षात्कारी) लोग नहीं होते, परमात्मा से जुड़ हुए नहीं होते और उनके सभी कार्य केवल मानसिक ही होते हैं। उपभोग लिए कतई नहीं है। कुछ तामसिक कलाकार बहुत अधिक मद्यपान करते हैं तथा अत्यधिक भावुक होकर कष्ट तथा पीड़ा के काल्पनिक संसार में रहते हैं। भावुकता के वेग में अपने मस्तिष्क में रचित रोमांचपूर्ण अपनी कृतियों के विषय में उनके अपने ही विचार हैं। भारत में भी बहुत अधिक मद्यपान करने वाले मुसलमानों ने गजल गाना शुरू कर दिया। वे किसी सभा या मिलन में न गाकर केवल तनहाई में गाते हैं। हे परमात्मा में आप से कब मिलूंगा? समाज भी दायें और बायें को झुकता है। जब यह दायीं ओर को बढ़ता है तो यह आक्रामक चीजें पसन्द करता है तथा बायीं और झुकने पर तामसिक चीजें लोगों के भी दो प्रकार के स्वभाव हैं और इन्हीं से वे चीजों का मूल्यांकन करते हैं । कुछ कलाकार मध्य में (सन्तुलित) भी हैं जैसे टालस्टाय और फ़्रांस के लेखक डी. मोपासा। हर भाषा में हर तरह के लोग हैं पर संस्कृत लेखक विशेषकर मध्य में हैं। वे न दायें को हैं और न बायें को। कारण बह है कि साहित्य में भी कुछ नियम बंधन हैं। भारत में पश्चिमी विचार नहीं है कि हम सब को स्वछंद होना चाहिए। यह बिचार स्वीकार्य नहीं हैं। अत: साहित्य में भी एक प्रकार की सीमा है। साहित्य क्या है? इसे स-हित कहते हैं अर्थात् हितःकारी। यदि यह हितकारी नहीं है तो साहित्य नहीं है, व्यर्थ है। परन्तु जब जर्मन और जापानी लोग संस्कृत साहित्य को खोजते हैं तो वे कामसूत्र का वरतगड़ अंत: महा सरस्वती तत्व के जागृत होने पर आप मानसिक और सत्य के भेद को स्पष्ट देखने लगते हैं और महसूस करने लगते है इनसे ऊंचा भी कुछ होगा। जिस धर्म में वे पैदा हुए हैं उसकी सारी आध्यात्मिक कृतियों को बे पढ़ते हैं। तब वे दूसरे धर्मों का भी अध्ययन करते हैं और समझ पाते हैं कि सारे धर्म एक ही बात कहते हैं। आज्ञा चक्र पर आकर अचानक उन्हें पता चलता है कि कहीं कुछ कमी अवश्य है, कि लोग धर्म को केवल मस्तिष्क के स्तर पर हो स्वीकार करते हैं पर इससे परे भी कुछ अवश्य होगा। इस अवस्था में यदि किसी की साक्षात्कार ग्राप्त ही जाए तो वह इस पर टिक जाता है। परन्तु इस अवस्था तक पहुंचे सभी संगीतकारों, कलाक्रारों में महा सरस्वती तत्व जागृत किया जाना चाहिए तब अचानक ही वे बड़ी सुगमता से आत्म साक्षात्कार को पा सकेंगे। बहुत से भारतीय संगीतज्ञों ने श्री माताजी से अपनी सृजनात्मक शक्ति बढ़ाने को प्रार्थना की। जागृति होने पर वे विश्व- विख्यात हो गए। अध्ययन, आध्यात्मिकता या लेखन आदि कार्यो से महा सरस्वती तत्व को पहुंचे लोग जब आज्ञा पर पहुंचते हैं तो या तो निराश होकर वे बायें को चले जाते हैं और सभी कुछ उन्हें व्यर्थ लगने लगता है या साक्षात्कार को पाकर वे अति प्रगल्भ कलाकार, लेखक आदि बन शाश्वत मूल्य वाली कृतियों की चैतन्य लहरी 11 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-11.txt सृष्टि करते हैं। महा सरस्वती तत्व आपको अति सूक्ष्म बना देता है और आप समझने लगते हैं कि कला और रचनात्मकता का जो स्थूल ज्ञान हमें हैं वह सूक्ष्म होना चाहिए तभी यह सूक्ष्म लोगों को अच्छा लगेगा। विलियम ब्लेक को साधारण लोगों ने पागल कि आप यहाँ आए, अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया और आनन्द को प्राप्त कर रहे हैं। आक्रामक प्रवृत्ति का एक राजनैतिक पहलू भी है। राजनीति में भी विकास सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जाता उदाहरणार्थ रूस में साम्यवाद धन लोलुप न होकर अति सत्ता लोलुप था। वहाँ गोर्वाचोव जैसे व्यक्ति ने मध्यमार्ग पर उत्पन्न होकर साम्यवाद को सन्तुलन की और अग्रसर किया। अभी तक वह पूर्णतया सफल नहीं हुए हैं फिर भी अपने महान विचारों तथा दो विचारधाराओं में स्पर्धा को कम करने के कारण वे पूरे विश्व है। जिन्होंने - कवि कहा, पर वे साक्षात्कारी व्यक्त थे। मास्करों गीता का अनुवाद अंग्रेजी में किया पहुंचे तो श्री माताजी को स्वप्न में देखा और तुरन्त उन्हें पहचान लिया। आज्ञा के स्तर पर जब में जाने जायेंगे। अपने अन्तस में हमें महा सरस्वती तत्व को भी बढ़ने देना चाहिए। सहजयोग में हमें पुस्तकें पढ़ने की मनाही नहीं है, पर जिन भी पुस्तकों को हम पढ़े उनमें अपने लिए सूक्ष्म बातों को देखें। विद्वान लोग अपने लिखे हुए सत्य का भी प्रचार नहीं कर पाते। यह केवल एक खेल की तरह बाह्य घटना है जो घटित होगी और भुला दी जाएगी। इसे अन्तर्जात बनना होगा । एंसा तभी सम्भव होगा जब आपकी आत्मा आपके चित्त में आ जाएगी। कट्टरता आज की दूसरी समस्या है। यह भी आक्रामक प्रवृत्ति की दंन है तथा लोगों को हिंसा, सनकीपन तथा पागलपन की सीमा तक ले जाती हैं। अब एक और रोग शुरु हो गया है। बहुत अधिक दायें को झुकने वाले लोगों का चेतन मस्तिष्क बिगड़ जाता है और व्यक्ति रँगने वाले जीवीं की तरह ही जाता है। इस रोग के मरीज सब कुछ समझते हैं, अच्छी तरह बातचीत करते हैं घर चाहते हुए भी वे अपने हाथ-पांव नहीं हिला सकते। यह रोग सभी के लिए चेतावनी है अत: हमें सावधान रहना चाहिए। आत्म साक्षात्कारी व्यक्ति होने के नाते जिनका महा सरस्वती तत्व जागृत हो चुका है, हम लोगों को, सारगर्भित पुस्तकें पढ़नी चाहिए और समझना चाहिए कि उनमें सहजयोग किस प्रकार भरा हुआ है। भिन्न-भिन्न समय पर लिखी होने के कारण इन पुस्तकों में सहजयोग के किसी न किसी भाग के बारे में कहा गया है, पूर्ण सहजयोग के बारे में किसी में नहीं लिखा। अब हमें धार्मिक विचार के सम्पूर्ण ज्ञान को जानना होगा ताकि हम समझ सकें किस प्रकार सभी धर्म सम्पूर्ण हैं। सहजयोगियां को अध्ययन द्वारा समझना चाहिए कि अन्य लोगों ने क्या कहा है और वे कहाँ पर भटक गए हैं हमें मूर्ख लोगों को नहीं पढ़ना चाहिए। अध्ययन करके हमें विचार के विकास की सूक्ष्मता को देखना चाहिए कि किस तरह इनका विकास हुआ, कैसे यह अधिकाधिक सूक्ष्म हुई और किस प्रकार बहुत से लोगों ने सुषुम्ना के मध्य मार्ग में योगदान दिया तथा योग के विषय में सभी कुछ लिखा। उदाहरण के रूप में रविन्द्रनाथ टैगोर ने आरम्भ में तो वियोजन (अलग होना) के बारे में लिखा पर बहुत अधिक आक्रामक होना सहजयोगियों के लिए बहुत भयानक है। कुछ लोग अति धर्मान्धता-पूर्वक सहजयोग प्रचार करने लगते हैं । हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। किसी प्रकार का प्रभुत्व, आज्ञा, रोका-टोकी या सगठन नहीं होना चाहिए। यह तो अति नैसर्गिक (सहज) तथा सुन्दर घटना है जो स्वत: ही कार्य करती है। हम सहजयोगियों के लिए प्रेम करुणा तथा ईश्वर कृपा ही महत्वपूर्ण है ईश्वर कृपा अति सुन्दर जीवन्त शक्ति हैं जो हर प्रकार की रचनात्मक वस्तुआं की रचना करती है। इस सूझबूझ के अभाव में आपको नतृत्व में कठिनाई होगी। आक्रामक लोगों में सहजयोग कार्यान्वित नहीं होता स्वयं अपना मूल्यांकन करना सर्वोत्तम है। किसी के लिए कुछ करते हुए या किसी को कुछ कहते हुए हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि 'क्या यह हितकारी हैं या आक्रामक क्या यह हमारी ख्याति के लिए है या अन्य लोगों के हित के लिए '? एक बार जब आप इस प्रकार मूल्यांकन करने लगेंगे तो आपकी बातचीत और कार्य प्रणाली में सुधार होगा। हर चीज को आप लीला के रूप में देखें । साक्षी भाव से जब आप हर चीज को देखेंगे तो हर समस्या को बड़े सुन्दर ढंग से सुलझा पायेंगे। बिना बोले, बिना कुछ कहे, साक्षी अवस्था में आप अति शक्तिशाली हो जाते हैं। मेरा कहने का अभिप्राय है कि साक्षी अवस्था मे आप सहज ही विभिन्न समस्याओं को हल कर सकते हैं । में बाद में सूक्ष्म होकर उन्हंने आत्मा से मिलन के विषय लिखा। बुद्ध - जिन्होंने अपने परिवार सहित सब कुछ त्याग दिया था - के साथ भी यही हुआ। अन्त में बे गया पहुंचे और जब वे थक कर परेशान हो गए तो उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया। परन्तु उनके अनुयायी समझते हैं कि साक्षात्कार से पूर्व जो त्याग उन्होंने किए वे महत्वपूर्ण हैं। वे इतने गहन साधक थे कि उन्हें आत्मसाक्षात्कार मिलना ही था सहजयोगियों को इस प्रकार की तपस्या नहीं करनी। अपने पूर्व जन्मों में वे सब कर चुके हैं और जानते हैं कि ऐसा करने का कोई लाभ नहीं। तभी तो वे सहजयोग में आए। अतः आप सब अति भाग्यशाली हैं परमात्मा आप पर कृपा करें। 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-12.txt पजा गुरु कबैला, इटली, 19.7.1992 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ( सारांश ) नहीं क्योंकि पद तो वाह्य है आपके गुरु पद की द्वितीय अवस्था में गुरुत्व की अभिव्यक्ति गुरुत्व एक अवस्था है पद और किसी को भी दिया जा सकता है। बाह्य गुण के लिएहोना आवश्यक है। ज्यों ही आप साक्षी बनते हैं आपका गुरुत्व किसी भी व्यक्ति को पद दिया जा सकता है। यह एक अवस्था है अर्थात् अन्तर्जात अस्तित्व का गुरुत्व स्तर तक विकसित होना। इसके बिना कैसे यह अवस्था प्राप्त को जा सकती है। सहज रूप से किस प्रकार हम इसे प्राप्त करें? कुछ गुण हमें प्रारम्भ से ही विकसित करने चाहिए। ध्यानावस्था में निर्विचार है। इससे पूर्व एसा न था। पहले हर समय चालाकी करनी होना पहला गुण है। ध्यानावस्था में आप थोड़े समय के लिए पड़ती थी और उल्टा-सीधा बोलना पड़ता था। पर अपनी निर्विचार हो सकते हैं शनै: शनै: यह समय बढ़ता जाना चाहिए। यह एक अवस्था हैं। तो हम किस प्रकार यह अवस्था प्राप्त करें? मनुष्य की समझ में यह नहीं आ सकता कि कोई चुम्बकीय शक्ति है जो गुरुत्व कहलाती है जिसकी ओर लोग कार्य सहज ही हो सकता है। क्यांकि यह घटना अति सहज तथा साधारण है। आपको निर्विचारिता का मंत्र मिला है। अब निर्विचार रहते हुए आप साक्षी बनना शुरू कर दें। केवल देखें दर्शक बनकर। साक्षी भाव हममें पहली अवस्था की रचना करता है। आप केवल दर्शक बन जाइए - साक्षी। साक्षी बनते ही जिस भी वस्तु को आप देखते हैं वह आपको पूर्ण विचार देगी, अपनी स्थूलता का भी तथा सूक्ष्मता का भी देखते ही आप इसे समझ जायंगे। सहजयोगी के नाते यह आपका ज्ञान बन जाता है। आधुनिक शब्दावली में हम कह सकते हैं कि ज्यों ही आप कुछ देखते हैं यह आपके मस्तिष्क में अंकित हो जाती है और आनन्द, ज्ञान करुणा की अभिव्यक्ति स्थिति कं अनुसार करती है। अब आपके बहुत से आयाम हैं जिन्हें आपने विकसित करना है। उदाहरणार्थ आप किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जिसके साथ आपने व्यवहार करना है। ही होता है। तब यह प्रकट होता है। इस प्रकार देवी शक्ति वह बोलता ही चला जा रहा है। आप बस निर्विचार हो जाइए। निर्विचार होते ही उसकी बड़बड़ का प्रभाव आप पर समाप्त हो जाएगा क्योंकि आप तो एक पूर्णतया अलग दुनिया में हैं। पर इस अवस्था में आपकी शक्ति प्रकट होगी और उस व्यक्ति को शांत कर देगी। या तो यह उसे मौन कर देगी या उसके हृदय में आपके लिए अथाह प्रेम जाग उठेगा। स्वतः ही प्रकट होने लगता हैं। यह क्रोध या गंभीरता के रूप में नहीं प्रकट होता, इसकी अभिव्यक्ति तो इस प्रकार होगी कि सभी कुछ अत्यन्त गरिमामय और तेजपूर्ण बन जाएगा। जिस अवस्था में अब आप उन्नत होते हैं वह प्रभावशाली बन जाती निर्विचारिता में आप अपने गुरुत्व की अभिव्यक्ति कर सकते है। यह गुरुत्व चुम्बक की तरह कार्य करता है। धरा माँ में आकर्षित हाते हैं और पृथ्वी माँ के गुरुत्व के कारण ही हम इस पर विश्राम करते हैं। आपको चुम्बकीय स्वभाव, चरित्र और व्यक्तित्व प्राप्त हो जाता है। चुम्बकोय व्यक्तित्व तुरन्त दर्शाता है कि यह अपनी शक्ति को प्रकट कर रहा है। जैसे सूर्य की किरणे पत्तों पर पड़ती हैं तो साधारण प्रतीत होने वाली किरणें पत्तों में क्लोरोफिल बनाने में अपनी शक्ति की अभिव्यक्ति करती हैं। इसी प्रकार जब आप उस उच्चावस्था में होते हैं तो बिना कुछ कहे, मात्र एक दृष्टिपात से आप अपनी अभिव्यक्ति करते हैं। केवल इतना ही नहीं, परन्तु सभी कुछ आपके स्मृति पटल पर अंकित हो जाता है। मुझे कभी कुछ नहीं भूलता। साक्षी बन निरविचारिता में जब आप कुछ देखने लगते हैं तो उस वस्तु के ज्ञान को आत्मसात करने में आपके सम्मुख कोई बाधा नहीं होती। काई विचार नहीं होता। केवल आत्मसात्करण हममें कार्य करती है। अपने गुरुत्व से हम अन्दर की गहनता को छू लेते हैं और यह (गहनता) हमारे अन्दर इस दैवी शक्ति को चलाती है तथा इसकी अभिव्यक्ति करती है। जब तक हम अपने अन्दर उस गहनता को छू नहीं लेते सहजयोग भी हरे रामा हरे कृष्णा की तरह ही है। इसी कारण मुझे लगता है कि लोगों के लिए सहजयोग हरे रामा हरे कृष्णा की तरह ही बहुत है। यही कारण है कि में बहुत से सहजयोगियों को पटरी से उतरते देखती हूँ क्योंकि अपने अस्तित्व की गहनता में उतरने के लिए तथा दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति के लिए गुरुत्व नहीं है। उदाहरण के रूप में जो वाहन ठोक प्रकार से जुड़ा न हो उसका प्रयोग किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए नहीं किया जा सकता। अति हल्की प्रतीत होने वाली दैवी शक्ति ही आपके गुरु शब्द का अर्थ है गुरुत्व। पृथ्वी में गुरुत्व है। कोई भी व्यक्ति जो आप किस प्रकार विकसित करें? कुछ लोग बनावटी रूप से अति गंभीर हो जाते हैं और कभी-कभी दर्शाते हैं कि वे संजीदा हैं। गुरुत्व तो आपके अन्दर है। है उसमें गुरुत्व होना ही चाहिए। इस गुरुत्व को उनमें गुरु चैतन्य लहरी 13 श्री 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-13.txt चारों ओर बहती हुईं कोई ऊर्जा है? या यह किसी प्रकार की नदी या आकाश? यह वास्तविकता की सम्पूर्णता है। बाकी चीजें असत्य हैं। वास्तविकता इतनी कार्यकुशल . है कि यह कभी असफल नहीं होती। इस मानवीय बुद्धि से तो हम कल्पना भी. नहीं कर सकते कि किस प्रकार यह कार्य करती है तथा नियंत्रण करती है। उदाहरणार्थ आप पेड़ देखते हैं । गुलाब का पौधा केबल गुलाब ही दगा इस पर सेब नहीं लगेंग। नारियल के पेड़ की तरह न बढ़कर एक सीमित ऊतच्राई तक यह पौधा बढ़ेगा। इस प्रकार के सभी गुणां को बनाए रखा जाता है, उनका पोषण होता है, देखभाल होती है, ठीक समय तथा मौसम में उन्हें पूर्णतया नियन्त्रित किया जाता है। इसी कारण ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है। मानवीय मस्तिष्क के लिए यह समझ पाना जटिल कार्य है कि यह किस प्रकार कार्य करती हैं। सोचने समझने, समन्वय, सहयोग, प्रेम तथा आपकी देखभाल करने वाली इस शक्ति के लिए सारे चमत्कार खेल मात्र हैं। जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है। आप कभी भी इस दैवो शक्ति का वजन या दबाव नहीं महसूस करते, परन्तु यदि आपका मार्ग शुद्ध नहीं है तो यह देवी शक्ति ठीक प्रकार बहकर अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती। अत: जब हम कहते हैं कि हम सर्वशक्तिमान परमात्मा के यंत्र हैं तो हम अपने सरोत से जुड़े होते हैं। यदि यह यंत्र ठीक नहीं है तो यह बह अभिव्यक्ति नहीं कर सकता जो इसे करनी चाहिए। हम इन साधारण यंत्रों से बहुत ऊंचे हैं, विज्ञान द्वारा बनाए गए जटिल तथा उन्नत यंत्रों से भी कहीं ऊंचे क्योंकि हम एक ऐसी अवस्था में पहुंच जाते हैं जहाँ हम स्वयं ही विज्ञान बन जाते हैं, सत्य-विज्ञान। पूर्ण सत्य। अत: आत्मसम्मान गुरु के लिए आवश्यक है। यह अति महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मसम्मान प्राप्त करने के लिए हमें अन्तर्दर्शन करना होगा और जानना होगा आज मैं पहले जैसा नहीं हूँ। मैं एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति हं। मुझे शक्तियां प्राप्त हो गई है। मुझ में प्रेम, करूणा, सुझबूझ, रचनात्मकता तथा दूसरे लोगों को साक्षात्कार देने की शक्तियां हैं। किसी के भी पास ये शक्तियां नहीं थी। सहजयोग में हम अपने बारे में ही नहीं सोचते रहते क्योकि स्व-चेतना हमें अहं दे सकती है। पर हममें आत्मसम्मान होना चाहिए। मैं एक गुरु हूं। मैं कोई सड़क-छाप साधारण व्यक्ति नहीं हूं। मैं विशेष हूं। मैं सत्य के तट पर हूँ, मैंने अन्धे तथा मूढ़ लोगों का बचाना है। यह आपकी सेवा में है। जहाँ भी आप जायेंगे संबंध बना रहेगा। यह यात्रा पर निकले एक राज्यपाल की तरह है जिसके साथ-साथ सुरक्षा भी चलती है। गण चारों ओर हैं। आप लोग सहजयोगी हैं, आप ऐसे विशेष लोग हैं कि जहाँ कहीं भी आप हों - है। आपको नहीं कहना पड़ता, न आज्ञा देनो होती है, न प्रार्थना करनी होती है। यह शक्ति आपकी सेवा में हाती है सोते, चलते, बैठे हुए, वह संबंध बना रहता कुछ प म स क्योंकि परमात्मा के साम्नाज्य के राज्यपालों में से आप भी एक है। जो भी आपको दुःख देगा या आपका अपमान करेगा उसे इसकी सजा भुगतनी होगी। सांसारिक स्तर पर आप न तो उन चीजों की चिन्ता करें और न ही उनके विषय में सोचें। इसके विपरीत मैं तो यह कहूंगी कि क्षमा करना ही अच्छा होगा क्योंकि केवल परमात्मा ही जानते हैं कि दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्ति के साथ क्या होगा। आप विशेष लोग हैं। आपको केवल अपना आत्मसम्मान तेथा सन्तुलने बनाए रखना उस समय एक प्रकार की शान्ति आपमें छा जाएगी। किसी भी विपत्ति के समय आप अत्यन्त शान्त हो जायेंगे। यह भी एक अवस्था है। यदि कोई चीज अप्रसन्न या परेशान करती है तो मौन के उस धुरे पर पहुंचने का प्रयत्न कीजिए। यह शान्ति ( मौन) आपको वास्तव में शक्तिशाली बना देगी। यह मौन केवल आपका ही नहीं है क्योंकि इस अवस्था में आप ब्रह्माण्डीय मौन में होते हैं। आपका संबंध ब्रह्माण्ड को चलाने वाली देंवी शक्त से होता है। यदि आप केवल मोन (शान्त) हो जाएं तो समझ लें कि आप परमात्मा के साम्राज्य में बेठे हैं। राजपद प्राप्त करने का महान सम्मान एक बार सन्तुलन में आने के बाद एक गुरु का कार्य दूसरों को सन्तुलन देना है यह जलवायु, प्रकृति, तथा मनुष्यों को सन्तुलित करता है। वह सन्तुलन देने के लिए ही है। यह सन्तुलन गुरुतत्व से आता है। यदि आपमें गुरुतत्व हैं तो स्वतः ही आप सन्तुलित हो जाते हैं। यह सन्तुलन हम किस प्रकार विकसित करें? प्राचीन काल में व्रत, तपस्या, आसन आदि बहुत कठोर विधियां थीं। पर इनसे तो असन्तुलन आता है। यदि आप तपस्वी बन जाएं तो आप अति शुष्क जाएंगे। सम्भवत: कष्ट सहने के ये विचार इसलिए आए ताकि लोग अपनी आत्मा की ओर अधिक चित्त दें। स्वभाव से गुरु तपस्वी नहीं होता परन्तु निर्लिप्तता के कारण वह तपस्वी होता है। राजा है या भिखारी पर यदि वह गुरु तो हर हाल में वह पूर्ण सन्तुलन में होगा। कोई चीज उसे ललचा नहीं वातावरण, समाज जब आपको मिल जाए तब आप चलकर अपने सिंहासन पर बैठें और चहुं ओर देखकर इस शान्ति की अवस्था को महसूस करें कि अब आप बादशाह हैं। यह मौन इस बात की निशानी है कि नि:सन्देह अब आप परमात्मा से जुड़ गए हैं। आप अब शान्त हैं क्योंकि अब परमात्मा आप के हर कार्य को सम्भालेंगे। आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। कंवल निर्विचार (शान्त) रहना होगा। मजबूरन नहीं। यह भी एक अवस्था है। किसी समस्या या उथल-पुथल के आते ही एकदम आपका चित्त कूदकर उस मौन (शान्त) पर चला जाएगा और ऐसा होते ही आप सर्वव्यापक शक्ति से जुड़ जाएंगे। हो है प्रेम की यह सर्वव्यापक शक्ति क्या है? क्या यह हमारे चैतन्य लहरी 14 ho 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-14.txt सकती। कोई प्रलोभन नहीं है। प्रलोभन, लालच और वासना से परे की अवस्था में जब आप पहुंचते हैं तो समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। कोई चौज आपका पतन नहीं कर सकती। चाहे आप तुलसी की माला पहने या हीरे-मोतियों की, इसका आप पर कोई असर नहीं हो सकता। पर आप किसी चीज से भाग भी नहीं खड़े होते। यदि आप भाग खड़े होते हैं तो आप बनावटी रूप से तपस्वी हैं तपस्विता तो आपके अन्दर है। यह अन्तर्जात है। अधिकतर लोग समझते हैं कि वे गुरु नहीं हैं। वे आकर मुझ कहते हैं कि जो भी चिन्ह आपने बताए थे वे अब भी हैं। क्रोधी तथा कड़े गुरु होना आपका काम नहीं हैं। परन्तु यह अब भी मुझ में इच्छाएं हैं। आप दूसरी ओर जा रहे हैं मेरे कहें अनुसार आप अपने को तोले नहीं। शनै: शनै: उन्नत होकर स्वयं को समझें और अपनी प्राप्त की हुई अवस्था पर स्थिर हो जाएं। परन्तु यदि अपने को तोलने लगंगे तो आप आत्म-संशयी भी गुरु है। गुरु को कौन अनुशासित कर सकता है? फिर वे तथा उदासीन हो जाएंगे। " श्री माताजी ने कहा है कि ये गुण हममें होना चाहिए।" हर समय स्वयं को तोलते रहने का कोई लाभ न होगा। आप आत्म-विश्वस्त हैं। आप अपने वारे में है कि बहुत कम विश्वस्त हैं। कुछ लोग कहते माँ ने ऐसा कहा। हो सकता है मैंने कहा हो - हो सकता है मैंने न कहा हो कह रहे हैं? दूसरों को परेशान करने का यह अच्छा तरीका दूसर लोगो के चक्रों की रुकावटों का आपको ज्ञान है। पर है। क्या अच्छा उन्नत होकर करना है। मेरे से भी अधिक आनन्द आपमें है क्योंकि आप मानव हैं और मनुष्यों के विषय में जानते हैं । आप अपने उत्थान को देखते हैं और मूल्यांकन करना भी आपके लिए बहुत आसान है। मेरे लिए यह भिन्न है क्योंकि प्रलोभन आदि आपके गुणों का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। आप मानव स्तर से उन्नत हुए हैं जो अति प्रशंसनीय है। मेरे, ईसा या श्री एक गुरु तथा सहज गुरु में अन्तर होता है। साधारण गुरु अति क्रोधी होते हैं। पर क्रोधी होना सहज गुरु कार्य नहीं। यहाँ तो एक दूसरे के लिए प्रेम तथा करुणा है। न कोई राजनीति है न कोई स्पर्धा। यदि आप यह बात समझते हैं कि आपको सभी कुछ अति सहज ढंग से प्राप्त हुआ है तो आप उतनी ही सहजता से दूसरों को देते हैं तथा दूसरों का सम्मान करते हैं । आप जान लें कि आप सब गुरु हैं। आपको सहज होना होगा। आपको यह सहज ही प्राप्त हुआ है अत: कठोर, भयानक, अवगुण रेंगते हुए ऊपर आ जाते हैं और सहजयोग में कठोर अनुशासन शुरू हा जाता है। अनुशासन बद्धता की काई आवश्यकता नहीं है। लोग स्वयं ही अनुशासित हो जाएंगे। वे सहज हैं। इस असहज गुरुओं में से कोई भी आत्मसाक्षात्कार देना ने जानता था। वे नहीं जानते थे कि हाथों से भी कुण्डलिनी उठ सकती है। इतिहास बताता लोग आत्मसाक्षात्कार दे पाए। पर आप लोग संहज ही आत्मसाक्षात्कार दे रहे हैं। अब आप विज्ञान की सीमायें पार कर गए हैं। आप स्वयं दैवी विज्ञान बन गए हैं और अपने तथा पर आप क्या जिस करुणा, माधुर्य और हितेच्छा से हम दूसरे लोगों से से व्यवहार करते हैं यही गुरुपद है। आपकी माँ ने यही दिया है। हर मनष्य के हित की चिन्ता आपको होनी चाहिए। आपको मातृ-सुलभ, अति मधुर, करुणामय, समझदार तथा क्षमाशील होना है। है इसका निर्णय आपने अपने अनुभव सहजयोग को फैलाना और पूरे विश्व का उद्धार करना हमारी जिम्मेवारी है। अतः अब पुरोहिताई की कोई आवश्यकता नहीं और न ही यह कहने की "यह व्यक्ति ऐसा कहता है"। आपने जो भी कहना है उसी व्यक्ति से कहें। आप स्वयं देखेंगे कि किस प्रकार आप अपने व्यक्तित्व की प्रतिबिम्बित कर रहे कृष्ण से कहीं अधिक आनन्द आप ले सकते हैं, क्योंकि जिसका उत्थान हुआ है की सुगन्ध महसूस कर सकता है। तब वह आनन्द लेता इस परिवर्तन की पूर्ण समझ उसमें आ जाती है और जिन लोगों में है और दूसर व्यक्ति पर इसका क्या प्रभाव है और किस प्रकार आपसी सामर्थ्य, ज्ञान, गहनता और गुरुत्व नहीं है उन्हें आप समझते हैं। पहले आप मानव थे अब आप दिव्य हो गए हैं। सामूहिकता यह सब सीख रही है तथा सभी भयंकर तथा मानव हाने के नाते आप अन्य लोगों को समझते हैं। वास्तविक गुरु अति कठोर लोग थे। परन्तु में तो एक माँ हूँ। मानव स्तर से वे गुरु आए थे। आप उनसे भिन्न हैं। आपको यह सहज ही मिल गया है और दूसरे लोग भी आप से पा सकते हैं। आपको उन पर चिल्लाना नहीं पड़ता। किसी को कठोर कहने का अधिकार सहजयोगियों को नहीं है। आपको कुछ कहे बिना ही आपने आत्मसाक्षात्कार पा लिया। आपके पास भी आत्मसाक्षात्कार के लिए कोई आए तो आपको भी वही करना है। यदि आपके दृष्टिकोण में कठोरता है तो आप गुरु तो बन सकते हैं सहज गुरु नहीं। वह इन सद्गुणों, खूबियों तथा महानता है। का व्यवहार वह करता है। मैं देखती हूँ कि शनै: शनै: हमारी प्रभुत्व जमाने वाले लोग सहजयोग से दौड़ गए हैं। मैं पाती हूँ कि लोग परस्पर तथा अन्य लोगों के प्रति अत्यन्त प्रेममय तथा करुणामय हैं क्योंकि आप अच्छाई, धर्मपरायणता धैर्य करुणा प्रेम तथा हितकारिता के अवतार हैं। हम यह सब कैसे करें? आप हिम्मत न हारें । कार्य को करें और परिणाम देखें। आपकं अतिरिक्त कोई इस कार्य को नहीं कर सकता। आत्मसम्मान तथा पूर्वानुमान होना चाहिए। यदि आप गुरु हैं तो अपनी शक्तियों को धारण कीजिए। आप अब भी सोचते हैं 'परमात्मा जानता है कि मुझ में शक्तियां हैं या नहीं... .. आदि आदि।" तो आप अभी तक नौसिखिया हैं। मुंह से कुछ चैतन्य लहरो 15 1992_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-15.txt हम कहते हैं "श्री माताजी में स्वयं का गुरु हूं।" आप केवल अपने ही गुरु नहीं हैं पूरे विश्व के गुरुत्व सामूहिक है। हम से कुछ भी बच नहीं सकता। हम पूर्णतया दुर्जेय हैं हमे समझना है कि हमें धारण करना है। परमात्मा हैं, अपनी शक्ति से इनमें थोडा परिवर्तन क्यों नहीं किसी को चुनकर हम उस पर कुछ कपड़े डालते हैं और यह लाती?" मैंने कहा "मैंने उन्हें स्वतन्त्रता दी है। अत: यह उनकी कहते हैं ये पोप हैं पर अन्दरूनी रूप से वह पाप नहीं है, वह केवल अभिनय कर रहा है। वह भ्रमशील है हम में तो सारी शक्तियां हैं जिन्हें अब हमें धारण करना है। एक बार जब आप इन्हें धारण करने लगेंगे तो आप हैरान रह जायेंगे कि एक संत, एक गुरु, एक व्यक्ति जिसे अपने गुरुत्व का आभास है, उसके सम्मुख कोई नहीं खड़ा हो सकता। यह देखने के लिए कि आपका आत्मसम्मान पूर्णतया ठीक है, आपको अन्तर्दृर्शन करना होगा सहज की तरह की करुणा का दूसरे गुरुओं में अभाव है क्योंकि वे सोचते हैं कि हमने तो गुणगान पसन्द है। उन्होंने कहा "यदि आप परमात्मा के गुणगान कठिन परिश्रम किया है, बाकी लोग क्यों न करें। आप विद्वान हो या अनपढ़, अमीर हो या गरीब, आप कुछ भी कार्य करते हों इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। आप गुरु हैं, अपनी शक्तियों नहीं पहुंच सकते। को धारण कीजिए। किसी अन्य प्रतिभा की तरह - उदाहरणार्थ संगीत। आपको पता है कि आप संगीत जानते हैं। आप जानते हैं कि आपको खाना बनाना आता हैं। पर वह भी पूर्णतया सम्पूर्ण नहीं हो सकता। आप तो पहले से ही वास्तविकता के पूर्णत्व हैं। वास्तविकता आपकी सेवा में है। कंवल इसे धारण कर लें। आप बिल्कुल साधारण नहीं हैं। इस प्रकार आप सारी मुर्खताएं त्याग देंगे। अन्य लोग आपको देखकर हैरान होंगे। ज्ञान अत्यन्त उच्च स्तर का सूक्ष्म एवं महान है। इसके फलस्वरूप आप अहंग्रस्त नहीं होते। यह नम्रता एवं सहजता आपको एक विशेष धार प्रदान करती है जो हर हृदय में उतर सकती है इस प्रकार आप सत्यप्रेरक बन सकते हैं। बिलियम ब्लेक की तरह आप भविष्य वक्ता बन सकते हैं विश्वास रखें कि आपकी एकाकारिता उस महान शक्ति के साथ है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा है। मुझसे ऐसे बात की जैसे किसी देवी से बात कर रहा हो । कहनें लगा "ये सांसारिक लोग आपको कंसे लगते हैं?" मैंने कहा "ठीक हैं। मैंने ही उनकी सृष्टि की है।" उन्होंने कहा "आप है। हमारा गुरु इच्छा है कि वे परिवर्तित होना चाहते हैं या नहीं। मैं उन्हें विवश नहीं कर सकती। मैं जो चाहू कर सकती हूँ परन्तु कुछ चीजें मैं करना नहीं चाहती। चुनने की उन्हें स्वतन्त्रता है। यह स्वतन्त्रता उन्हें इसलिए दी गई है कि यदि वे पूर्ण स्वतन्त्रता चाहते हैं तो उन्हें अपनी इस स्वतन्त्रता को बनाए रखना होगा। आप एक गुरु हैं। मान लो में सर्वशक्तिमान परमात्मा हूँ तो आपकी तरह बन सकती हूं। तब उन्होंने अपने सभी शिष्यों से श्री माताजी के गुणगान करने को कहा क्योंकि परमात्मा को करते हैं तो सदा आपको सबकुछ प्रदान करते हैं ।" मैंन कहा यह सत्य है।" बिना हार्दिक भक्ति के आप श्री माताजी तक बिना भक्ति के आप परमात्मा को नहीं पा सकते। यदि कोई अपनी कुण्डलिनी जागृत करवाना चाहे तो में ऐसा नहीं कर सकती। परन्तु यदि कोई नम्रता एवं श्रद्धापूर्वक आत्मसाक्षात्कार मांगे तो वह घटित होता है। केवल भक्ति ही नहीं विश्वास भी होना चाहिए। विज्ञान, कैथोलिक चर्च तथा कुछ भयानक लोग अब इस विश्वास को चुनौती दे रहे हैं। परमात्मा में आपका विश्वास अडिग होना चाहिए। कोई भो चीज उसे हिला नहीं सकती। आपने परमात्मा के चमत्कार देखे हैं। आपने देखा है कि आप किस प्रकार परमात्मा की शक्ति को कार्यान्वित कर रहे हैं। आप यह सब जानते हैं पर अब भी परमात्मा में विश्वास का अभाव है। जिस व्यक्ति को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास है वह स्वंय परमात्मा है। गुरु को ब्रह्म चैतन्य कहते हैं। जब आपका विश्वास पूर्णतया स्थिर हो जाता हैं कि सर्व शक्तिमान परमात्मा है और मैं उनका दूत हूँ, और जब आपमें यह विश्वास पूर्णतया दृढ़ हो जाता है तब आप दि लोग ईसा के निर्मल विचारों पर वाद-विवाद करते हैं । वे तो सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं। आप उनका और उनकी शक्तियों का मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं? परमात्मा के बारे में वाद-विवाद करने के लिए क्या आपमें बुद्धि है? नम्र होने पर आपको महसूस होता है कि वे सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं। तब विश्वास है, अन्ध-विश्वास न होकर वास्तविक श्रद्धा कि परमात्मा सर्वशक्तिमान हैं और आप उनके दूत बन गए हैं। इससे आपको सारी शक्ति एवं उत्साह प्राप्त होता है, परमात्मा की करुणा, प्रेम, चित्त और सूझबूझ आपको मिलती है। इस श्रद्धा की पूर्ण एकाकारित परमात्मा से होनी चाहिए। एक बार में एक बहुत ही कठोर पर सच्चे गुरु से मिलने गई। उसने गुरुपद पर आरूढ़ हो जाते हैं। आज मैं आप सबको आशीर्वाद देती हूँ कि आप उस स्थिति को प्राप्त करें कि सदा गुरुपद अवस्था में रहें। जहाँ भी आप हैं, किसी भी पद पर आप हों, आप कुछ भी करें सर्वशक्तिमान परमात्मा का दृढ़ विश्वास अपनी अभिव्यक्ति करेगा और प्रकट भी होगा। यह परमात्मा की तरह कार्य करेगा। आज हमें एक बात अवश्य याद रखनी है कि परमात्मा के साम्राज्य में, सर्वशक्तिमान परमात्मा को शक्तियों में और फिर स्वयं में हमारा पूर्ण विश्वास होना ही चाहिए। परमात्मा आप पर कृपा करें। चैतन्य लहरी : 16 he