चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड : V. अंक : 9 एवं 10 न हर "मेरे और आपके सम्बन्ध निःसन्देह घनिष्ठ हैं। परन्तु यदि आप ध्यान- धारणा नहीं करते तो मेरा आपसे कोई रिश्ता नहीं ।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी 2354 ० चैतन्य लहरी खण्ड : V, अंक : 9 एवं 10 विषय सूची पृष्ठ (1) श्री गणेश-गौरी पूजा (2) श्री आदिशक्ति पूजा 11 (3) गुरु पूजा 16 (4) सहस्रार पूजा 20 चैतन्य लहरी 3. ि् निः नं कि श्री योगी महाजन श्री विजय ताल गिरकर सम्यादक मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार नई दिल्ली-110067 भारती प्रिन्टर्स, WZ-113, शकूरपुर गाँव, दिल्ली-110034 फोन : 5413126, 5437741 मुद्रित चैतन्प लहरी श्री गणेश-गौरी पूजा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन नला बम्बई-18-9-88 ८म जाये, हमारा बिजनेस ठीक हो जाये और हमें बड़ी मान्यता मिले। चुनाव में जीत जायें। यह तो सभी मांगते हैं। इसमें कौन सी विशेषता है? लेकिन सहजयागियों को सोचना चाहिए कि सृष्टि को रचना की शुरुआत जिस टंकार से हुई उसी को हम ब्रहानाद अर्थात ऑकार कहते हैं। इस टंकार से जो नाद विश्व में फैला वो नाद पवित्रता का था। सबसे प्रथम परमात्मा ने इस सृष्टि में पवित्रता का संचार किया। सर्व वातावरण को आज जो हम एक नये स्तर पर खड़े हैं एक नई मंजिल पवित्र कर दिया। चैतन्य रुप आज भी आप जान सकते हैं। पर खड़े हुए हैं तो इससे हमें क्या पाने का है और हमारी उसे महसूस कर सकते हैं। वही ऑकार चेतन स्वरुप आपको क्या इच्छा है? फिर यह बात आती है कि जिस गणेश को भी पवित्र कर रहा है। श्री गणेश की पूजा हर पूजा में हम लोग करते हैं। और आज तो उन्हीं की पूजा का बड़ा भारी आयोजन आप लोगों ने किया है। लेकिन जब हम किसी की आप आज पूजते हैं साकार में, उसे निराकार में प्राप्त करना है। उसको अपने अन्दर प्राप्त करना है अपने अन्दर बिठाना है। यह नहीं कि गये और उनको फूल चढ़ा आये। ये तो सभी करते हैं। उनकी पूजा कर ली। माँ की भी पूजा हो गयो। गौरी की भी पूजा हो गयी। लेकिन उनकी शाक्ति आप अपने अन्दर समाहित कर सकते हैं। आप उससे अपने चित्त को, अपने मन को, बुद्धि को, वाणी को भी शुद्ध कर सकते हैं । लोगों को भी आप ये शाक्ति दे सकते हैं। ये गणेश ही ने पुजा करते हैं तो हमारी विविध प्रकार की मांगें होती है। कुछ लोग कामार्थी होते हैं कुछ लोग पैसा मांगते हैं। कुछ लोग कहते हैं हमारा कार्य ठीक से हो जाये। कुछ कहते हैं कि हमारी दुनियां में बड़ी शोहरत हो जाये हमें बड़ा मान मिले। कोई कहता है कि हमारी नौकरी अच्छे से चले। कोई कहता है कि हमारा बिजनेस चलना चाहिए। कोई कहता है कि हमारे मकान बनने चाहिए। ये सब कामार्थ की बातें हैं। और इसो आपको बनाया। जिस तरह से हमने गणेश को बनाया उसी तरह से आत्मसाक्षात्कार देकर आपको बनाया उसमें कोई क फर्क नहीं। एक ही तरह से, एक ही ढंग से बनाया। लेकिन यहां गणपति के नाम पर जो दंगें हो रहे हैं इसलिए पूना तरह की मांगों के लिए मनुष्य गणेश की पूजा करता है। यहां पर जो सिद्धि विनायक है उनकी भी जागृति मैनें बहुत साल पहले की थी। सब लोग सिद्धि विनायक के पास जाकर कहते में आजकल बरसात हो रही है। और तब तक बरसात होनी चाहिए जब तक गणपति विसर्जित नहीं हो जाते। विसर्जन हैं हमें यह चौज दे दो, हमें वो चीज दे दो, लेकिन यह सिद्धि विनायक है। ये चीजे देने वाला नहीं हैं। उसके लिए बहुत करने की जरुरत नही रह जानी चाहिए। वहीं भीग-भाग कर से, दुनिया में चमत्कार करने वाले बैंठे हैं जो आपको हीरे विसर्जित हो जाएंगें। गणपति उत्सव के मैने जो किस्से सुने दे देगें, पन्ने दे देंगे और आपका सर्वस्व छीन लेगें। ओंकार तो मैं आवाक रह गयी कि गणपति के सामने शराब पीते हैं। वहां बैठ कर शराब पीते हैं। गन्दे-2 गाने गाते हैं। उसके 2 नृत्य करते है। और सब गन्दी तरह की औरतें वहां जमों रहतो हैं। और सब तरह के धन्धे करते हैं। ये तो स्वयं निराकार है उसका कोई आकार नहीं है। सो सर्वप्रथम जो श्रीगणेश का आकार था वो निराकार था आज हम उनकी साकार में करते हैं। लेकिन सहजयोगियों को जानना चाहिए कि हमारे जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है? हम क्या चाहते है उसकी पूर्ति हमने की है? हम किसलिए सहजयोग में आये हैं? इसलिए आये है कि हमारी तन्दरुस्ती ठीक हो आगे गन्द- पूजा गणपति की विडम्बना हो गयो| लोकमान्य तिलक ने बताया था कि गणेश उत्सव को सामाजिक बना दीजिए। संगीत तथा व्याख्यान मालाओं से लोगों श्री गणेश - गौरो पूजा लक्षण नही हैं। सहजयोग जो करते हैं उनको याद रखना चाहिए कि हमें निराकार में उतरना है। यानि आप निराकार में एक तरह का जागरण हो जाए। पर ये तो अच्छे भले लोगों को खराबी के रास्ते पर ले जाने की पूरी व्यवस्था हो गयी है। जितना बड़ा गणपति उतना ही वहां पाप ज्यादा। और ऐसे गणपति के सामने पाप करने से वो कोई छोड़ेंगे? वो इन लोगों को छोड़ने वाले नहीं। और जब तक हम बैठे हैं ठीक है, लेकिन बाद में वो ठिकाने लगा देंगें । क्योंकि वो जानते हैं कि कहां-2 काम करना है। और कहां मेहनत करनी है। अब मुझे यही डर रहता है कि होने क्या वाला है। पुण्य-पटनम जिसे कहते है। एक पूरणे शहर में वैसे ही एक राक्षस बैठा हुआ है और भी बहुत सारे वहां इकट्ठे हो गए हैं उसके अलावा ये जो गणपति के नाम पर अनाचार नहीं होने वाले। साकार में रहते आप निराकार के ही हुए पूरी तरह से माध्यम बनने वाले हैं तो सर्वप्रथम हमने अपने अन्दर गणेश जी को जगाना है। सिर्फ पूजा मात्र ही नहीं हमें उसे अगर जगाना है तो सर्वप्रथम हमें देखना चाहिए कि हमें शुद्ध होना है। हमारे अन्दर शुद्धता आनी चाहिए। सबसे पहली शुद्धता है कि हमारी जो मौलिक बातें हैं उसकी ओर ध्यान देना हैं। आजकल सिनेमा और आजकल की सब चीजें आने से हमारी आंखे तक खराब हो गयी । और वो अबोधिता, वो निश्छल और निर्वाज्य त्याग संसार से मिट गया है। कोई सोच भी नहीं सकता कि ऐसा कोई क्या कर सकता है। और इस उधेड़ बुन में मनुष्य रहता है कि किस तरह, से हम इस कार्य को ऐसा करें कि जो सहजयोग भी चलता रहे और हमारे ये धन्धे भी चलते रहें। जैसे कल एक औरत कहने लगी कि मेरे पति एक दूसरी औरत के पीछे पड़ गए। मैने कहा उसको छोड़ो। नही वो कहते है मैं तो परम सहजयोगी हूं। मुझे कैवल्य मिल गया है माता जी से मेरा ओर सम्बन्ध है और ये सम्बन्ध मेरा ओर है। मगर मच्छ के ऊपर चढ़कर आप पार नहीं उतर सकते। और जो लोग इस तरह के कामों में और इस चीज में अभी उलझ रहे हैं उनको उचित है कि वो सहजयोग छोड़ कर के हमें रिहाई दें। और अपने से छुट्टी पाएं। उनको जो होना है वो होगा ही लेकिन सहजयोग बेकार में बदनाम होगा। अभी अगर चित्त इस तरह से उलझता है तो समझ लेना चाहिए कि बिल्कुल ही बुनियादी चीज को आपने नहीं अपनाया है। हमारे सहजयोगियों को भी समझना चाहिए कि हमें किस तरह से अपनी शक्ति को अपने अन्दर पूर्णतया जीवित रखना चाहिए। और किस तरह से हमें अपनी पवित्रता पर अपनी कुंवारी अवस्था पर, अपनी गौरी स्थिति पर गर्व होना चाहिए। क्योंकि ये स्त्री की शक्ति है। अगर स्त्री की शक्ति छिन जाती है तो फिर ऐसी स्त्री किसी काम की नही रह जाती। इसीलिए ऐसी स्त्री को कोई पूछता भी नहीं और उसे मानता भी नहीं। हालांकि आजकल आप लोग दुनिया में देखते हैं कि बहुसंख्य लोग शुरु कर दिया है। मनुष्य के अहंकार ने उसका इतना पतन कर दिया कि वो भगवान के नाम पर हर तरह की बुराइयां करता है। बिल्कुल बेशर्म जैसे। उन्हें कुछ मालूम नहीं कि क्या आफत आ सकती है। आज हम बहुत धर्म-धर्म करते रहे हैं लेकिन धर्म का जो हाल है उसका तो किसी को घूम ध्यान ही नहीं। अब धर्म को राजकरण में लाने क्या फायदा? धर्म ही धर्म नहीं रहा । गणपति को जब ओप लोग पूजते हैं तो आपको पता होना चाहिए कि आप सहजयोगी हैं। आप योगीजन हैं। ऋषि और बड़े महान लोगों को भी जो नहीं मिला वो आपको आज सर्वसाधारण तौर पे मिला है। सब को मिला है। रास्ते पर आ गए। सब कुछ पा लिया। लेकिन जब हम कोई बात कहते हैं तो आप लोग अपनी तरफ कभी भी नहीं देखते। आप सोचते हैं कि माँ ये बात किसी और को कह रही हैं। ये नहीं सोचते की हम भी उसी में से हैं कि हमारी दृष्टि कहां है. हम क्या सोचते हैं? माता जी देखिये- ये मै एक घर ले रहा हूं इसको आप आशीर्वाद दीजिए। अरे भई तुम हो तो वहां आशीर्वाद तो होना ही हुआ। अच्छा नहीं माता जी देखिये मैरी चाबी जो है मोटर की आप इसे आशीर्वाद दीजिए। तो चाबी लिए खड़े हैं। मै तो ऐसा आशीर्वाद दूंगी कि गाड़ी चलेगी ही नहीं। और फिर जबरदस्ती कर रहे है कि आप मेरे घर आओ। मेरे घर नही आओगे तो ये होगा और फिर वहां जाकर हम सुनेगे कि मेरा बिजनेस ऐसा है, वैसा है। ये सहजयोगियों के चैतन्य लहरी ऐसी औरतों को मानते हैं जो बिल्कुल गंदगी से लबालब हैं। जिनमें पवित्रता छुई भी नहीं। अत: ये बहसंख्य नर्क की ओर रहा है। जिसका शुद्ध चित्त होता है सिर्फ विचार मात्र से कार्य हो सकता है। ध्यान देने से ही कार्य हो सकता है और कभी-2 तो उसकी भी जरुरत नहीं होती। जिस स्थिति को आप प्राप्त जा रहे हैं। इनका जो हाल होने वाला है वो मुझे आज ही करना चाहते है, अपना लक्ष्य जिसे आप प्राप्त करना चाहते है, वो चैतन्य जिसे आप अन्दर बसाना चाहते हैं, जिसके अन्दर ये शक्ति है, जिस शक्ति के कारण आप अनेक कार्य कर सकते है, उसको छोड़ करके आप क्यों बेकार चोजों के पीछे पड़े है। सहजयोग में आकर भी चित्त, पैसे कमाने में, अपनी बीमारी ठीक करने में लगा रहता है। उसके बाद दिखाई दे रहा है। बहरहाल आप बहुसंख्य नहीं है। आप अल्पसंख्य हैं। और आपकी स्थिति और है। इसलिए जान लीजिए कि इस तरह के कामों में उलझना आपको बिल्कुल शोभा नहीं देता। पर अभी भी मैं देखती हूं कि कुछ लोगों का चित्त इधर- उधर बहुत घूमता है। हमारी नैतिकता ठीक होनी आवश्यक है। पर हिन्दुस्तानियों में नैतिकता का बल कम र म चित्त उठा तो ज्यादा से ज्यादा ये कि माँ के दर्शन होने चाहिए। जगह जगह से लोग आ जाते हैं कि माँ के दर्शन करने हैं । दर्शन नहीं होते तो लड़ पड़ते हैं सबसे । दर्शन तो तुम्हारे हृदय में ही हो सकते हैं। अरे, तुम को इतनी शक्ति दे दो उसके ही दर्शन करो, बहुत है। हम तो शक्ति ही हैं ना। हम को निराकार में तुमने प्राप्त नहीं किया है । इसलिए दर्शन चाहिए। है लेकिन भौतिकता का बल वहां जबरदस्त है। भारत के लोग भौतिक चौजों के पीछे पड़े हैं। गणपतिपुले में भी लोग कहते है कि साहब हमें ये चीज मिली है पर अभी तक ये चीज नही मिली। ये भी दे दोजिए। कितना ओछापन है? सब पैर को ठोकर पर होना चाहिए। जब तक ये शान आपके अन्दर नहीं आएगी तो आप कहां के सहज योगी हो सकते है। तुकाराम को देखिए। राजा जनक को देखिए। राजा थे- तो राजा बैठ करके घंटो इधर की बात उधर की बात, समय बरबाद करना। क्या जरुरत है। शक्ति स्वरुप होने में आप स्वयं शक्ति हो सकते हैं। लेकिन ये रुकावटें कब जाएंगी और कब हम समझेगें कि हम स्वयं वो शक्ति स्वरूप हो सकते है और हमारे अन्दर इतनी शक्तियां हैं। उनके अन्दर हमें रमना चाहिए। जिसके कारण कुछ भी ना करते हुए सारा काम हो जाए। लेकिन ये विचार दिमाग में नहीं आता। अज्ञान, ममता, मोह माया ने जकड़ा हुआ है। सहजयोग में आने के बाद आपका जीवन बदल गया। आप दूसरे खानदान में चले गए। आपका घर बदल गया। आपका गोत्र बदल गया। आपकी जाति बदल बनकर रहते थे। जब तक आपके अन्दर ये भौतिकता भरी हुई है आपका पहला चरण मंदिर मे नहीं आ सकता। ठीक है मां देना चाहती हैं क्योंकि इसी तरह से तो मैं जता सकती हूं कि मैं आपको प्यार करती हूं । लेकिन इसका मतलब ये नही कि मेरे लिए वो बहुत बड़ी चौज है। बहत बार शब्दों से नहीं कहा जा सकता। मेरे कटाक्ष को आप समझ नहीं सकते। तब हो सकता है चीजों से ही मैं जाहिर करना चाहती हं कि मैं आपके साथ हूं और आप मेरे साथ हैं। आप मेरे बच्चे हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप पागलों जैसे भौतिकता पर जुड़े रहें। अगर माँ ने छोटी सी भी चीज दी गयी। आपका धर्म बदल गया। आप पूरी तरह से बदल करके एक नये व्यक्ति हो गए। नये मानव हो गए हैं क्योंकि आपकी माँ ने आपको जागृति दी है। तो आप सब पूरी तरह से बदल गए। जैसे एक गणेश जी को बनाने से हमारे हजारों काम, करोड़ों काम हो जाते हैं क्योंकि उनके अन्दर पूर्णतया माँ में ही श्रद्धा, माँ के प्रति पूर्णतया शरणागत होना ही उनका ध्येय है । सो जब तक वो शुद्धता हमारे हृदय में नही आएगी, है तो उसको बहुत ऊंचा समझ कर सर पर रखना चाहिए। श्री गणेशे की तरह मनुष्य को अपना चित्त स्वच्छ कर लेना चाहिए। चित्त स्वच्छ करने का तरीका ये है कि चित्त कहां है आपका-चित्त अगर परमात्मा में है तो शुद्ध है। क्योंकि चैतन्य आप में बह रहा है। अगर चित्त आपका इधर-उधर है तो उस चित्त का फायदा क्या ? जब तक जब तक हमारे मन में हम उस शुद्धता को प्राप्त नही करेंगे तब तक वो श्रद्धा आएगी ही नही। ये तो ऐसा ही है कि जब आपका चित्त नहीं होगा तब तक आप ज्ञान को प्राप्त शुद्ध ही नहीं कर सकते । चित्त में ही आपका सारा चैतन्य बह श्री गणेश-गौरी पूजा 5n सृष्टि सारे संसार में है अत: जो आनन्द है इस आनन्द के प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम आपको गणेश जी जैसे होना के बाद तक आप गंगा पर नही जाएंगें और उसमें गगरी नही डुबाऐंगें और गगरी के अन्दर जगह नही होगी तो उसमें पानी कैसे चाहिए। उसकी ओर कौन ध्यान देता। आज पूजा भी आप सोचिएगा कि हमें गणेश जी जैसे अबोध होना चाहिए। चलो कोई आपको ठग भी ले। हमें भी बहत लोग कहते हैं कि मां आप बहुत सीधी हैं। आप बहुत ठग लेते हैं। मुझे ठगने वाला अभी तक पैदा नहीं हुआ। लेकिन मैं अपनी माया में उनको थोड़ी देर जरुर दिखाती हूं कि तुम लोग मुझे ठगो। जिससे मैं जानूं तो सही कि कैसे ठग हो। नही तो मैं जानूंगी कैसे की ठगी क्या होती है। लेकिन मुझे तो मालूम ही नहीं की ठगी क्या चीज होती है। जब ये मुझे ठगते हैं तब मुझे पता चलता है कि ये ठग हैं और ये आएगा। सो जरुरी है कि हम अपने चित्त को शुद्ध करें। और चित्त को शुद्ध करके, उस शुद्ध चित्त को हम अपनी माँ को दे सकते हैं । है। और जब शुद्ध चित्त होता है तो आपको आश्चर्य होता है कि आप स्वयं ही एक पुष्प की तरह महकते रहते हैं और आपको देख करके मैं भी बहुत प्रसन्न हो जाती हूं। वाह क्या मेरा बेटा खड़ा हुआ है। क्या मेरी बेटी खड़ी हुई है। ओर कोई भी चौज मुझे प्रसन्न नहीं कर सकती। व्यर्थ की आधुनिकता को प्राप्त कर लेना गणेश की ओर से मुंह मोड़ लेना है। उनकी क्या बात है, वो तो पुरातन हैं और हम भी अशुद्ध चीज से तो हमें तकलोफ ही होती रहती भोली हैं अपको लोग तुम त बहुत पुरातन हैं। इसलिए अगर आप हमारे बेटे है और हमारी ठगी होती है। फिर उधर चित्त देने से वो ठग भी खत्म हो बेटियां हैं तो जिस संस्कृति को हम पुरातन मानते हैं उसी जाता है और ठगी भी। सो जरुरी है कि मनुष्य को वह भोलापन से आपको चलना होगा और रहना होगा। आधुनिक पहनावे सीखना चाहिए। शंकर के लिए भी यही कहा जाता है कि बहुत खराब दिखाई देते है। विदेशी सहजोगी भी कहते है आप हमे आज्ञा दे दो हम साड़ियाँ और कुर्ते पायज़ामें पहन कर है? देवी के लिए कहते हैं कि जिस वक्त उनको बहुत क्रोध घूमेगें। लेकिन हमारे यहां उल्टा है। तो जो गणेश की संस्कृति आया और उन्होंने सारी सृष्टि का संहार करने का विचार उनमें भोलापन है। कौन से ऐसे देवता हैं जिनमें भोलापन नही कर लिया तो सब लोगों में हा हाकार मच गया कि जब है इसका अन्तरभाव है सौन्दर्य। अब आप देखिए ऐसे तो वो मां ही बिगड गयी तो अब क्या होगा हमारा। सबको लगा कि अब तो सर्वनाश हमेशा के लिए हो जाएगा। और फिर से सृष्टि की रचना नही होगी। उस वक्त शंकर जी को एक बात सूझी कि उन्हों के बच्चे को उनके पैर के नीचे डाल दिया कि मारना है तो इसी बच्चे को मारो । इतनी बड़ी जीभ उनकी निकल आयी। बाप रे मैं अपने बच्चे को ही मिटा रही हूं। ये बच्चों के लिए सभी के हृदय में लाड़-प्यार उमड़ता है। ईसा मसीह ने कहा है कि तुम को अगर परमात्मा के साम्राज्य में जाना है तो छोटे बच्चों जैसे तुम्हें होना चाहिए। यही गणेश की पूजा है कि आप मे अबोधिता हो, बच्चों की बहुत मोटे है। उनका तोंद इतना बड़ा है। महाकार्य हैं गणेश। इतने मोटे दिखाई देते हैं। लेकिन उनका सौन्दर्य क्या है। किस चीज का आकर्षण है ? लोकमान्य तिलक ने क्यों गणेश जी की मूर्ति को माना? ऐसे तो महाराष्ट्र में लोग विट्ठल - 2 करते रहते हैं सुबह से शाम तक। वहां के विट्ठल भी उठ गए। यहां तो विट्ठल की बीमारी है सबको। तम्बाकू खाकर। लेकिन क्यों लोकमान्य तिलक ने श्री गणेश को ही पूजा और क्यों वो ही सारे सृष्टि की जितनी भी सुन्दरता है उसे बनाते हैं ? उनका कौन सा स्थायी भाव है जिसके बगैर श्रीराम, श्रीकृष्ण, ईसा मसीह या बुद्ध या कोई भी सौन्दर्य मे नहीं उतर सकते थे। तरह आप निर्माह हां। सभी कुछ आपके लिए खेल सम हो। बालसम भोलापन आपमें हो। आत्मसाक्षात्कार को पाकर भी यदि गणेश की श्रद्धा और समर्पण शक्ति की अगर हम प्राप्त वो कौन सा उनके अन्दर भाव था। उनका स्वभाव एक बालक का स्वभाव है। जिसमें अबोधिता है। पूरी अबोधिता उसके अन्दर भरी हुई है। ये ही चीजें हैं जो सबसे मोहक और सुन्दर होती है। ना कि आपकी चालाकी और आपका बनना-ठनना। लेकिन जो अबोधिता श्री गणेश की है, वही सारे सौन्दर्य की नही कर सकते तो बाकी सब करना तो व्यर्थ ही है एक तरह से मेरे ख्याल से बिल्कुल ये उस मशीन की तरह है जो मंत्र ं चैतन्य लहरी 6. कह डाले । उनका मंत्र जरुर कहा कीजिए। लेकिन मेरे ख्याल सहजयोग में आने से असल में पूरा ही लाभ है क्यंकि जिस से गौरी की पूजा उठाती है। गणेश को आप साकार ही में देख सकते हैं निराकार ही है। लेकिन आप सिंहासन पे न बैठकर हर दरवाजे जाकर में देख नहीं पाते। क्योंकि अभी तक आपने गोरी का संचालन भीख मांगेगें तो आप तो भिखारी ही रहे। आपको सिंहासन नही किया और गोरी का आसरा नही लिया आप सिर्फ गणेश पर बैठाने का फायदा क्या। और सिंहासन पर बैठकर भी को ही देखना चाहते हैं। आज गोरी का ही दिन है। ऐसा कुछ आप कहेंगे कि मां अब थोड़ा रुपया-पैसा दे दो तो इस चीज इत्तिफाक है कि सहजयोग में हमेशा सहलियत से पूजा होतीका क्या प्रभाव है? गणेश की शक्ति अगर अपने अन्दर जागृत है। मुहूर्त पे नही होती । कुछ भी हो सहुलियत होनी चाहिए । रविवार का दिन होना चाहिए और वो टाइम होना चाहिए की ओर चित्त देना चाहिए। चैतन्य की ओर चित्त देना चाहिए जब फिल्म न आ रही हो। अगर ये हमारी स्थिति है तो क्या और चैतन्य जो हमारे अन्दर बह रहा है उसको देखना चाहिए। फायदा गणेश जी की पूजा करने का? अगर हमारा चित्त जिनका चैतन्य दूषित है वो ये ही कहेगा मुझे भूत लग गया। ऐसी हो चीजों में उलझा हुआ है तो आप लोग ये समझ लीजिए गणेश को कभी भूत नही लगता। तुम को तो मैने अपने शरीर कि इसका कोई इलाज हम नही कर सकते। इसका कोई इलाज में स्थान दे दिया। ऐसा तो किसी ने नहीं किया होगा। वड़ी नहीं। सो चित्त हर समय देखते रहना चाहिए कि इसमें कौन तकलीफें उठाती हूं आपकी सफाई के लिए। लेकिन आप लोग से विचार खड़े हो रहे हैं । उस पर नामदेव ने कहा है कि वक्त आप अपने सिंहासन पर बैठ गए तो पूरा राज आपका ठीक रहेगी। वे कुण्डिलनी हैं वो आपको करनी है तो सबसे प्रथम जानना चाहिए कि हमें निराकार अपनी सफाई नहीं कर सकते। आकर लोग कहँगे माँ मेरा आज्ञा पकड़ गया। मुझे अहंकार हो गया, क्यों हुआ? उसकी वजह ये है कि अपने दोषो को हम नही देखते है। दूसरे लोगों को कहते है कि ये तुम्हारा काम है। और ये तुम्हारी वजह से है। यदि श्री गणेश को पता चल जाए और मेरी नजर अगर उन पर नही हो तो सबको ठिकाने लगा दें। मैं आपको बता रही हूं इतने वो माहिर है, होशियार हैं, सतर्क हैं, दक्ष हैं कि जानते है, कहां पर कौन बैठा है। मुझे भी सब मालूम है ये नहीं की मुझे नहीं मालूम। लेकिन, मैं सुरक्षित रखना चाहती हूं आपको लेकिन वो नही। वो कहते हैं कि बेकार के लोगों को क्यों माँ के पीछे लगाना। वो तो ऐसे ही ठिकाने कर दें । लेकिन सबसे बड़ी चीज जो मेरी समझ में नही आती कि ये सब होने के बाद भी आपकी वाणी शुद्ध वाणी में बहुत से लोग गालियां देते हैं। अभी भी सहजयोग में चीखते है, चिल्लाते हैं, जोर से बोलते हैं। उसमें प्रेम माधुर्य जैसे एक छोटा बच्चा हाथ में पतंग की डोरी लिए हुए सब से बात कर रहा है और हंस रहा है, मजाक कर रहा है, लेकिन उसका चित पूरा उस पतंग की ओर है। उसी प्रकार एक योगीजन को अपना चित्त पूरा उस पतंग पर रखना चाहिए। अपने आत्मा पे। नहीं तो ये सारी शक्तियां जो दी हुई हैं उनकी कोई पूर्ति नही हो सकती । उसका कोई प्रादुर्भाव नही हो सकता। लोग पूछते हैं कि माँ ऐसा क्यों होता है जैसे कि आप जानते हैं कि आकाश में और अन्तराल में फैंकी जानी वाली चीजें एक के अन्दर एक बिठाई जाती हैं। पहले विस्फोट की शाक्ति से जब यान एक हद तक पहुंचता है तो. उसमे दूसरा विस्फोट होकर उसे ऊपर ढकेलता है। इस प्रकार ये विस्फोट उसकी शक्तियों को बढ़ाते रहते हैं ऐसे ही विस्फोट हमारे अन्दर क्यों नहीं होते ? क्योंकि अभी भी हम दस पैसे में खरीदे जाने वाले गणपति जैसे ही हैं। अगर असली गणपति हों तो उसका विस्फोट होना चाहिए। और नहीं होती। कुछ है हो नहीं। इसका मतलब आपकी वाणी भी शुद्ध नहीं। और ऊपर से दिखावा जिसे कहना चाहिए कि हम बड़े मुस्करा रहे हैं। बड़े हंस रहे है बहुत ही खुश हो रहे हैं। और अन्दर से तो मैं देख रही हूं उनका हृदय ही स्वच्छ नही । वो जो असली आनन्द का मजा है उसकी चमक ही और होगी और लोगों को पता चलना चाहिए कि एक -एक आदमी क्या कमाल का है। पर ऐसा नहीं होता है। हम अपनी ही चीजों में उलझे रहते है अपनी हो बातो में, अपने ही बारे में सोचते हैं। हर समय सोचते हैं कि इसमें हमारा क्या लाभ है? श्री गणेश-गौरौ पूजा 7 सा लगता है। कभी उन्होने मुझे साकार में देखा नहीं। लेकिन उन्होने शक्ति पर बल दिया है। अगर आप अभी भी इसी साकार स्वरुप से ही तृप्त है तो आप आगे नही बढ़ सकते । आपको निराकार में हमें प्राप्त करना होगा जिससे कि आपके अन्दर की सृजन शक्तियां बढें। श्री गणेश की शक्ति के संचार से हम स्वयं ही मुक्त हो जाते हैं। हम कितनी बार कहते हैं कि हम स्वयं के ही गुरु हैं लेकिन ऐसे कितने लोग है जो अपनी टांगों पर खड़े होकर कह सकते हैं कि हां माँ ये चौज है इसका हमारे पास उत्तर है? हमर्मी से उसका उत्तर मांगते हैं और जब वो देने लग जाते हैं उत्तर तो ऐसे उत्तर होते हैं कि सारी दुनिया निरुत्तर हो जाती है। क्योंकि जो उत्तर देते है इतने अहंकार भरे। इतने बेवकूफी के कि समझ में नही आता कि ये सहजयोगी हैं अश्रद्धावान लोगों को नुकसान होता है। हम से तो छुप नही सकती वो। आप कुछ भी पोत कर आइये, हम पहचान जाएंगें कि आप कितने गहरे पानी में हैं। लेकिन हम भी आपको क्यों परखते है? किस वजह से परखते हैं? इतनी मेहनत क्यों करते हैं? क्योंकि हम चाहते हैं कि आप लोग सब चमक जाएं। लेकिन जब तक आपके मन में अपना हित न आए, जब तक आप अपने अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति की तरफ ध्यान न दें और फालतू चीजों में उलझे रहें, ऐसा नहीं हो सकेगा। अन्तर्दर्शन करने से हमारा चित्त ऊपर की ओर जाता है और हमारे अन्दर चैतन्य बहने लगता है। एक दो आदमियों को अलौकिक करना तो बहुत आसमन चीज है। लेकिन मै तो चाहती हूं कि सामूहिकता में हम लोगों का उत्थान हो। आज उसकी जरूरत है। नही तो सोचें की ये समाज कहां जा रहा है। एक से एक चोर उच्चके बैठे हुए हैं। सारी दुनिया भर की परेशानियां लोगों को लगी हुई हैं। और इसके अलावा इतनी अनेतिकता माने घोर कलियुग है। क्या आप अपने बच्चों को खत्म कर देना चाहते हैं ? या जिस विशेष महान कार्य लीजिए । पर इन दोषों के रहते हुए वो कैसे हमें अपना माध्यम के लिए आप इस संसार मे आये हैं उसे करना चाहते हैं ? बना सकते हैं ? उनके माध्यम बनने के लिए हमारे अन्दर आपकी सारी समस्याएं हल हो गई पर अभी लालच खत्म सारी शक्तियां हैं। हमारे अन्दर जागृति है। हम उनके बारे में ही महीं हो रहे। और उसके लिए भी मुझे परेशान करना जितना जानते हैं कोई भी नही जानता था। सहस्रार के बारे इर समय। मुझसे सिर्फ सहजयोग पर ही प्रश्न करने चाहिए। और कोई सा भी दूसरा प्रश्न करना गलत है। आपके अन्दर सृजन शक्ति है, विचार शक्ति है। आपके अन्दर वो शक्ति मतलब यह नहीं की पुस्तक को पढ़ने से ही हो जायेगा मंत्र है जिससे आप दुनिया को चमका सकते हैं। तब आप क्यो के कहने से ही आप शक्तिशाली नहीं हो सकते। मंत्र का बार-बार ये चाहते हैं कि माँ ही इस बात पर बताएं। आप जो स्थायी भाव पवित्रता है उसकी ओर चित्त का होना स्वयं प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। आपको अपने बच्चो से प्यार है तो उनमें शक्ति का संचार करो। वो बच्चे कमाल के हो की हाथ में पतंग हो और उड़ान उसकी ऊपर हो| इसी प्रकार जाएंगें। हो ही जाएंगे अगर आपको अपने घर से प्यार है जब तक आपके जीवन में न हो कि हमारी उड़ान कहां है। तो उसमें शक्ति का संचार करो मंदिर हो जाएगा। आपकी बहुत से लोग ये कहते हैं कि माँ हमें परमात्मा से साक्षात्कार बुद्धि में अगर कोई दोष है या आपको हर समय सवालात बहुत दिमाग में आते हैं आप उसमें शक्ति का संचार करो सब चीजों का उत्तर आपके सामने आ जाएगा। आपको मुझसे पूछने की जरुरत क्या है। आदिशंकराचार्य को क्या मैंने जाकर बताया था? तुकाराम को क्या मैने जाकर बताया था? सबसे तो बड़ा ज्ञानेश्वर जी को, उनकी किताबें पढ़ो तो आश्चर्य हम कहते हैं कि-है परमात्मा हमें अपना माध्यम बना में किसी ने लिखा तक नहीं। वो भी हम जानते हैं। सारी चीज आज हमारे सामने पुस्तक के जैसे खुली हुई है। लेकिन इसका आवश्यक है। दोनों में समांजस्य का होना आवश्यक है। जैसे कब होगा? यह मैं कैसे कह सकती हूं ? अपना क्रोध जिस आदमी के काबू नहीं हो सकता वो क्या सहजयोग करेगा ? कृष्ण ने क्रोध की सबसे पहले बुराई की। क्रोध सबसे खराब चीज है। सम्मोहन लाने वाली चीज है। सो हमारे अन्दर जो गणेश की शक्ति है उसे जागृत करने में ये सोचना चाहिए कि हम पवित्र हों और पवित्रता में उनका सौन्दर्य स्वरुप जो चैतन्य लहरी भोला स्वरुप है उसे लेना चाहिए। पर लोग कहते हैं कि हम रिद्धि सिद्धी सब उसके पैर के पास। वो खुद जानता भी गणेश है। उनका फर्सा लेकर हम किसी को मार सकते हैं। नहीं, सोचता भी नहीं। सारे काम अपने आप होते रहते हैं। वो शक्ति आपके पास नही है। वो फर्सा आपके हाथ में नही ये अनुभव सिद्ध है। ये मैं बात ऐसी-वेसी नही कह रही हूं । है। वो शक्ति जिस दिन आप में आएगी तो आपके हाथ में ये अनुभव सिद्ध है । आप लोग जानते कै, मेरे बारे में जानते फर्सा दिया जाएगा। अभी तो आप ही का भूत आपको मार है वो आपके बारे में क्यों नही होना चाहिए? अभी तो हमीं रहा है। आप भूत हैं जो आप चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं आपके लिए रिद्धि-सिद्धी बने आपके पीछे-2 घूम रहे हैं। और गुस्सा कर रहे हैं। दूसरों को मार रहे हैं। ये गणेश शक्ति पर सबका समय होता है। आपको भी अपनी मंजिल को छोड़ हो ही नहीं सकती क्योंकि आपको पता ही नहीं कि आप करके दूसरी और मुडना नहीं चाहिए। अपनी नजर उन्नत किस पर चिल्ला रहे हैं ? क्यों चिल्ला रहे हैं ? क्या कर रहे करके उस और जाना चाहिए जहां आपको जाना है और है? जिस आदमी का इस तरह से दिमाग खराब है उसे सहजयोग छोड़ कर पागलखानें में चले जाना चाहिए। उसका जिसे आपको प्राप्त करना है। ये ऐसा आज तक कभी हुआ नही था और जो हो रहा है उसको अगर आप भूल जाएंगें तो इसमें दोष हमारा नहीं। और इसकी सजा हमे देने की जरुरत नहीं। श्री गणेश बैठे हैं वहां फर्सा ले करके । इसलिए अपनी ओर दृष्टि करें। अपने अन्दर वो गाम्भीर्य श्री गणेश की जो शाक्ति है वो गाम्भीर्य, जैसे अपने अन्दर वो आनन्द का गाम्भीयर्य लाएं। आनन्द एक सागर जैसे गम्भीर है। ऐसे गम्भीर आत्मा को देखते ही मनुष्य पुलकित हो जाए स्थान यहां पर नहीं। जो आज का भाषण है उसमें धार है। उसी फर्से की। समझ लीजिए आप। ये हमें अधिकार है, आपको अधिकार नहीं कि आप इस फर्से को दुनिया भर में घुमाते फिरें। सहजयोग में जो भी आदमी ऐसा होता है उस पर दुनिया थूकती है, हंसती है, मजाक करती है, पीठ पीछे उसकी निंदा करती है और ऐसे लोग सहजयोग से बहत जल्दी घाट उतर जाते हैं। अपनी वाणी अत्यन्त सुन्दर, स्वच्छ होनी आनन्द से भर जाए। फिर तो आप ही के दर्शन से काम हो चाहिए, अच्छी होनी चाहिए, मधुर होनी चाहिए। पर उसके जाएगा मेरी तकलीफे बहुत कम हो जाएंगी। पीछे छल-कपट नही होना चाहिए। बात हदय से कहनी आधी पड़ेगी और यही एक निश्चय करके आप पूजा करें चाहिये और जब हृदय से बात कही जाती है तो बड़ी गुणकारी कि वही हम स्थिति लाने वाले हैं। और आज विशेषकर गोरी होती है क्योंकि हृदय जो है ये ही सब चीज को समाता है। की पूजा है। कुण्डिलनी की पूजा है। जो हमें शक्ति चालना और मुश्किलें वही चीज हमेशा के लिए सनातन हो जाती है। बाकी चौजें देती है। जो गणेश को ही वो शक्ति देती है जिसके कारण ऊपरी-2, बुद्धि की चीज ऊपरी-2 रह जाती हैं। लेकिन वो चलायमान है। और अब निराकार वही वो गौरी है। तो जो चीज हृदय को छू जाती है जो हृदय स्पर्शी है वो ही हम शक्ति के पुजारी है और जो शक्तिशाली नही है निशक्त चीज है। जो अपनी शक्ति की पूजा नही करता और अपने अन्दर में बैठ जाती है। इस चीज को आप गांठ बांध वो शक्ति को जगाता नहीं और उसमें रम मान नहीं होता और कर रखिये कि श्री गणेश का स्थान है तो मूलाधार पे पर उसका प्रकाश नहीं देता है उसके लिए अपने को सहजयोगी कहना ब्यर्थ है। ऐसे तो कोई भी अपने को सहजयोगी कह सकता है। तो ये लेबल लगाने की बात नहीं है अन्दर की बात है। अन्त्तम् की, हदय की बात है। इसको हृदय से प्राप्त करना चाहिए। हृदय में उतारना चाहिए। और जितनी भी समाज में, राजकरण में, बाहरी बातें हैं उनको अपने अन्दर नहीं घुसने देना चाहिए। क्योंकि सब लोग ऐसा करते है सो जब वो आपके हृदय में आ जाता है तभी वो आत्मास्वरुप हो करके चैतन्यमय हो जाता है। आत्मा जो है वही श्री गणेश है और वही श्री गणेश जब हमारे हृदय से प्रकाश देता है तो वही चैतन्य है। जिसने श्री गणेश को अपने हृदय में बिठा लिया उसके लिए फिर कुछ कहने की जरुरत नही। उसका कहते हैं कि हर समय निरानन्द में ड्ूबा रहता है। उसे और चीजों की खबर ही नही होती न परवाह रहती है। और श्री गणेश- गौरी पूजा बड़ा हूं। ये जब तक आपके अन्दर नही होता तो फायदा क्या सहजयोग में आने का। आज की बातों पे आप कृप्या ध्यान दे और उधर चित्त करें। और पूरे मन से आज. यही पूजा करें श्री गणेश की कि हम गौरी मां के सहायता से, उसकी शक्ति के साथ उस निराकार में उतरें। जहां हम पूर्णतया आनन्द में रहें । और हमारे रोम-रोम में वो शाक्ति ऐसी बहे की लोग दुनिया में जानें की सहजयोग ने क्या कमालात किये। और कमाल को पूरी तरह से हासिल कर लेना, उसे गोरव कहते हैं। वो चीज आप में आनी चाहिए। सहजयोग में हममें गौरव हम भी ऐसा करते हैं। ये सहजयोग है इसमें आपका अपना व्यक्तिव है। ये नहीं की अपना व्यक्तिगत है। व्यक्तिगत नहीं है व्यक्तित्व है। हम सहजयोगी हैं। हम लोग क्यों करे जो दुनिया करती है। हम इसे नही करने वाले। जब तक आप लोग इस हिम्मत के साथ आगे नही बढ़ेगें सहजयोग यहां पर कोई पहाड़ नहीं खड़े कर सकता । जाए तो हो जाए। माँ के मनसूबे बहुत हैं। और मेहनत भी किया है हमने। कुछ मेहनत में कमी नहीं की। लेकिन दलदल शायद खड़ी हो बहुत अब चाहते हैं कि आप लोग इधर ध्यान दें। और अपने को आया है या नही ये खुद निर्णय करना चाहिए। और हर-एक समाधान में रखें। लेकिन उसका मतलब यह नहीं कि मुंह पर आदमी कर सकता है। उसको पढ़ने-लिखने की किसी चीज की, किताब की जरुरत नही। सिर्फ शुद्ध इच्छा की जरुरत मुस्कराहट लाकर की हम बड़े समाधानी हैं। नहीं, समाधान को अन्दर तोलें, क्या हम वास्तव में समाधानी है? आशा है है जो हमें अपने अन्दर रखनी चाहिए। आशा है आज आप आप लोग सब पूरी तरह से ध्यान करेगे और ध्यान की ओर पूजा में इसे प्राप्त करेंगें। महान शक्ति के साथ ही आप बाहर जाइये। छोटी-छोटी बातों को छोड़-छाड़ के आप महान अपना पूरा सर्वस्व लगाएंगें। तभी काम बनने वाला है। जब आपके अन्दर ये शक्तियां आ जाएगीं तो आप कहेंगे माँ हम शक्ति को प्राप्त करें। सब अंपने आप ही ठीक होंने वाला है। तो सारे पहाड़ो से ऊंचे हो गए। सारे पेड़ों से भी ज्यादा हरित हो गए। इस पृथ्वी से भी हम विशाल हो गए। जैसे तुकाराम ने कहा था कि मैं तो दिखने में छोटा हूं लेकिन आकाश जितना परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें। का ४ चैतन्य लहरी ৪ श्री आदिशक्ति पूजा जा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) कबैला, 6 जून, 1993 ६ पर वे अत्यन्त सावधान हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनका सृजित यह व्यक्तित्व पावन प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। उनकी करुणा इतनी श्रेष्ठ कोटि की है कि आप यह सहन नहीं कर सकते कि कोई इस करुणा को चुनौती दे या इसका आज हम पहली बार (मेरी) आदिशक्ति की पूजा करने वाले हैं। अब तक सदा आपने मेरे किसी एक तत्व या भाग की पूजा की। व्यक्ति को स्पष्ट जानना चाहिए कि आदिशक्ति क्या है? जैसे हम कहते हैं यह सर्व शक्तिमान परमात्मा, सदा अपमान करें। वे अत्यन्त चुस्त एवं सावधान हैं। अतः उनमें शिव की शुद्ध इच्छा है। परन्तु परमात्मा की शुद्ध इच्छा क्या होती है? अपनी इच्छाओं का उदय कहां से होता है। यह दैवी और उनकी प्रेम-शक्ति में एक दरार आ गई है। इस प्रेम प्रेम से उदय न होकर भौतिकता या सत्ता प्रेम से उदय होता शक्ति में अहं डाल दिया गया। उस अहं को स्वच्छन्द रुप से है। प्रेम सदा इन इच्छाओं के पीछे होता है। बिना प्रेम के आप कार्य करना था। अपने सांसारिक जीवन में हम सोच भी नहीं किसी चीज की इच्छा नहीं करेंगे। ये सांसारिक प्रेम, जिनके सकते कि पति-पत्नी सामंजस्य और सूझ-बूझ की कमी लिये आप व्यर्थ में इतना समय लगाते हैं, आपको जरा भी के कारण स्वच्छन्द आचरण करें। वे तो चांद और चांदनी, संतोष नहीं प्रदान करते क्योंकि यह सचा प्रेम नहीं है। यह सूर्य और धूप सम हैं। यह तो ऐसा सामंजस्य है कि एक कार्य मात्र लिए्सा है जिससे तंग आकर आप अन्य चीजों की ओर करता है और दूसरा उसका आनन्द लेता है। झुक जाते हैं। आदिशक्ति परमात्मा के दैवी प्रेम का अवतरण हैं। ये में परिवर्तन करने का निर्णय किया। संकल्प-विकल्प परमात्मा का पावन प्रेम है। इस पावन प्रेम में उसने ऐसे मानवों (करोति) करने के लिए वे प्रसिद्ध हैं। आदम और ईव का की सृष्टि करनी चाही जो आज्ञाकारी, महान तथा देवदूतों सम हों। आदम और ईव की सृष्टि में भी उनका यही विचार था। पशुओं तथा देवदूतों की तरह आचरण करेंगे। ज्ञान को देवदूत स्वतन्त्र नहीं होते, उनका सृजन ही इस प्रकार किया समझने की स्वतंत्रता उन्हें होनी चाहिए। पशुओं की तरह जाता है। वे आबद्ध होते हैं। कार्य के कारण का उन्हें पता इस सुन्दर दरार के कारण आदिशक्ति ने अपनी योजना जब सृजन किया गया तो आदिशक्ति ने सोचा कि वे भी अन्य पाश-बद्ध जीवन उनका क्यों हाँ? सर्पणी के रुप में आकर नहीं होता। पशु भी नहीं जानते कि वे कुछ कार्य विशेष क्यों आदिशक्ति ने ही उन्हें ज्ञान का फल चखने के लिये कहा। कर रहे हैं । प्रकृति के बंधन में बंध वे कार्य करते हैं । वे यह सर्पणी उनकी परीक्षा लेने के लिये आई और आकर स्त्री परमात्मा के बंधन में हैं। शिव पशुपति हैं। पशुओं में सब - को बताया क्योंकि स्त्री आसानी से बात को स्वीकार कर लेती इच्छाएं होती हैं पर वे न तो पछताते हैं और न ही उनमें अहं है। आदिशक्ति भी परमात्मा का स्त्री रुप है। पति को समझाना है। पशु अच्छा-बुरा नहीं सोचते। उन्हें कर्म की समस्या नहीं ईव का कार्य था क्योंकि स्त्रियां यह कार्य बखूबी कर सकती होती क्योंकि न तो उनमें अहं होता है और न ही वे स्वतंत्र हैं। आदम को अपनी पत्नी पर पूर्ण विश्वास था। अतः सर्पणी हैं। इस स्थिति में आदिशक्ति ने, जो कि परमात्मा का पावन साहब तथा नानक साहब के दर्शनमात्र करने वाले लोग इस प्रेम है, मानव का सृजन किया। ऐसे पिता के विषय में कल्पना बात को नहीं समझ सकते। कीजिए जिसने अपना सारा प्रेम एक ही व्यक्तित्व में उडेल दिया हो। वे अपनी इच्छा तथा प्रेम का तमाशा देख रहे हैं। थे तथा जानते थे कि यह हमारे अंदर आदिरशक्ति का की सलाह से उन्होंने ज्ञान का फल चखा। ईसा, मोहम्मद भारत में लोग युगों से कुण्डलिनी के बारे में बाते करते श्री आदिशक्ति पूजा 11 এ परिपक्व समय आने पर लोग दैवी प्रेम के इस सूक्ष्म ज्ञान प्रतिबिम्ब है। उसने कहा है कि "इन सबके अंदर मैं हंगी। अब जान लीजिए कि आदिशक्ति पवित्र प्रेम तथा करुणा को पायेंगे। ज्ञान भी नीरस होता है। भारत में बहुत से भयानक की शक्ति है। उसके हृदय में केवल पवित्र प्रेम है। पर यह लोग हो चुके हैं जो अध्ययन तथा मंत्रोच्चारण करने से इतने प्रेम अत्यन्त शक्तिशाली है। यही प्रेम उसने पृथ्वी मांको प्रदान किया है। इसी के कारण, जितने भी पाप हम करते रहें, पृथ्वी वे इतने क्रोधी बन गए कि किसी की ओर यदि वे देख लेते मां सुन्दर वस्तुओं रुप में अपना प्रेम उडेलती रहती हैं। तो वह भस्म हो जाता। क्या किसी को भस्म करने को तपस्या सितारों तथा आकाशगंगा के माध्यम से उसकी सुन्दरता की करने के लिए ही आप पृथ्वी पर आए हैं? उनके हृदय में अभिव्यक्ति होती है। वैज्ञानिक की दृष्टि से यदि आप देखें तो हित का कोई विचार न था। उसमें कोई प्रेम नहीं। लोग योग की बात तो करते हैं पर वे प्रेम और करुणा की बात नहीं करते। सभी कुछ दैवी प्रेम से हितैषिता शब्द भी एक प्रकार से भ्रमपूर्ण है। हितैषिता का सरोबार है। परम-मां के प्रेम के कारण ही ब्रह्माण्ड की हर रचना का अस्तित्व है। आदिशक्ति का प्रेम इतना सूक्ष्म है कि परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। आपकी अन्तर आत्मा जब अपने कई बार आप इसे समझ नहीं पाते। मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्रेम करते हैं। मेरा आपसे जाते हैं। आप लेने वाले नहीं रह जाते। आप बस दाता बन चैतन्य लहरियां प्राप्त करना ऐसा है जैसे समुद्र से जाते हैं। इतने संतुष्ट। यह अवतरण ऐसे समय हुआ जब इसे छोटी-छोटी लहरें तट तक जाकर वापिस आ जाती हैं फिर होना चाहिए था। स्वतन्त्रता के कारण लोग भटक गए थे तथा भी तट पर छोटी-छोटी चमकती हुई बूंदें रह जाती हैं इसी हर प्रकार के उल्टे-सीधे कार्य कर रहे थे। इससे पूर्व लोग प्रकार आपका प्रेम मैरे हृदय में इस दैवी प्रेम की चमक तथा सुन्दरता को गुंजित करता है। में वर्णन नहीं कर सकती कि के अवतरण के लिए यह समय न था। उस समय के लोगे यह अनुभव क्या सृजन करता है। सर्वप्रथम यह मेरी आंखों का एकमात्र लक्ष्य सत्ता हथियाना था। पर धीरे-धीरे चीजें में आंसुओं का सृजन करता है क्योंकि यह करुणा ही सांद्र बड़े सहज ढंग से परिवर्तित हुई। मैने परिवर्तन आते देखा करुणा है। पिता की करुणा की तरह यह शुष्क नहीं। "यह तथा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग भी लिया। कार्य करो नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।" मां यदि कहेगी तो मां इतनी कठोर बात नहीं कहेगी। उसके कहने में अंतर शनैः अन्य देशों को फैल गई। लोग समझ गए कि साम्राज्यवाद होगा क्योंकि उसमें सान्द्र करुणा है। सान्द्र अर्थात सजल। इस का कोई लाभ नहीं। स्वतन्त्रता मांगने वालों को पहले तो दैवी प्रेम के कारण उसमें ऐसा हृदय विकसित हुआ। दैवी प्रेम सताया गया परन्तु बाद में आक्रान्ता लोग घबरा गए तथा बाई से ही शरीर के हर अंग की रचना की गई। इसका जर-जर्रा विशुद्धि की समस्या (दोष-भावना) आरंभ हो गई। अपने दैवी प्रेम को प्रसारित करता है। चैतन्य लहरियां दैवी प्रेम किए पर वे बहुत पछताए। के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। इस अवतरण को आना पड़ा। समय आ गया था। आबद्ध भेदभाव की समस्याएं भी थीं। कुछ लोगों को नीच ठहराया समय तथा सहज समय में अंतर है। आबद्ध समय ऐसे है जैसे गया। उस स्वतन्त्रता के कारण इन सब मूर्खतापूर्ण चीजों की यह रेलगाड़ी इस सभय चलती है और इस समय पहुंचती रचना हुई। परन्तु यह सब असत्य है। जैसे मैं यदि आप से है। परन्तु जीवन्त वस्तुएं जो कि स्वतः तथा सहज हैं इनमें कहं कि यह कालीन कालीन नहीं है तो यह सम्मोहन होगा। आप समय नहीं देख सकते। अतः हम नहीं कह सकते कि लोगों का जाति प्रथा, भेद-भाव, दास प्रथा, स्त्रियों के " शुष्क (नीरस) हो गए कि वे हड्डियों के ढांचे मात्र रह गए। के द दैवी प्रेम से प्राप्त पहली उपलब्धि आपकी हितैषिता है । अर्थ है आपकी आत्मा के हित में। आत्मा सर्वशक्तिमान पूर्ण सौन्दर्य में प्रतिबिम्बित होने लगती है, तब आप दाता बन हूं। दूसरे देशों की भूमि हथियाने के लिए जाते थे आदि शक्ति साम्राज्यवाद से स्वतन्त्रता भारत से आरंभ हुई और शनै: इस स्थिति में जाति-पाति, दासत्व तथा सभी प्रकार के चैतन्य लहरी 12 कारणों से संयुक्त परिवार टूट गए। इसका कुप्रभाव बच्चों पर पड़ा। उचित परवरिश न होने के कारण एक उच्छुखंल पीढ़ी की सृष्टि हुई। यह पीढ़ी सदा लड़ने को उद्यत रहती है क्यॉंकि उन्हें प्रेम की समझ ही न थी। घृणा तथा कुंठा के कारण आप विनाश की बात ही सोचते हैं। प्राचीन मूल्यों के पतन ने व्यक्ति को सत्ता लोलुप बना दिया। यद्यपि महायुद्ध समाप्त हो गया था और साम्राज्यवाद की भी समाप्ति हो गई दुराचरण आदि को स्वीकारना इसी स्वतंत्रता के कारण था। ऐसी स्थिति में, ऐसे लोगों पर करुणा और दैवी प्रेम व्यर्थ चला जाता क्योंकि समझने के लिए लोग मानसिक रुप से तैयार नहीं थे। उन्हें यह भी न बताया जा सकता था कि उनका यह दृष्टिकोण अज्ञानता के कारण था। बहुत से संत आये और उन्होंने श्रेष्ठता, क्षमा, एकता तथा सामूहिकता की बात की परन्तु लोगों का स्तर ऊंचा न हुआ। शनैः शनैः संतों के उपदेशों ने लोगों को प्रभावित करना शुरू किया परन्तु उन थी पर व्यक्तिगत प्रभुत्व की भूख बढ़ गई। इस प्रभुत्व की प्रक्रिया के कारण अहं विकसित होने लगा। यहां तक कि द्वारा चलाये गये धर्म बहुत बड़ी समस्या बन गए। सभी धर्म भटकगए तथा विविध प्रकार का कीचड़ बना दिया-मुस्लिम, ईसाई, हिन्दु आदि-आदि। इस बुराई को दूर करने के लिए यह जीवन आवश्यक था। एक मानव को दूसरे से उच्च जानना महज मूर्खता है। बच्चे भी घमंडी तथा बनावटी बन गए। समझ नहीं आता था कि बच्चे काबू क्यों नहीं होते। माता-पिता भी बच्चों को न सुधारते। इस प्रकार समाज बड़ा ही अजीबोगरीब बन गया। इस भयंकर स्थिति में आदिशक्ति को कार्य करना था। तथाकथित धरमों और बंधनों के कारण खलबली मची हुई थी। इस अवस्था में आदिशक्ति को धर्म की संस्थापना करनी आप मात्र इतना कह सकते हैं कि आप भिन्न अवस्था में हैं। प्रायः आप किसी को बुरा नहीं कह सकते। यह अज्ञानता थी। सर्वसाधारण बन गई। सभी धर्म, सभी व्यक्ति स्वयं को अच्छा जब मैने जन्म लिया तो लोगों को देखकर मुझे सदमा मान बैठे और शेष सबको बुरा। परमात्मा तथा धर्म के नाम पर यह मूर्खता आरंभ हो गई। अब आदिशक्ति के लिए शक्ति पहुंचा। निसन्देह मैं एक-दो सांक्षात्कारी लोगों से भी मिली दिखाना आवश्यक हो गया। उन्हें लगा कि परिवार का ज्ञान पर वेभी अपनी भौतिक चीजों के बारे ही चिंतित थे। जिज्ञासा व्यक्ति के लिए आवश्यक है। माता-पिता यदि बच्चे की ओर विहीन लोगों को दैवी प्रेम के बारे कैसे बताया जाए। पहले तो मुझे लगा कि मैं समय से पूर्व ही अवरतरित हो गई हूं। पर मेरे अन्दर आत्मविश्वास जागा। झूठे गुरूओं को जब मैने लोगों को सम्मोहित करते देखा तो मुझे लगा कि मुझे अपना कार्य शुरू कर देना चाहिए। इस प्रकार प्रथम ब्रह्मरन्ध्र छेदन हुआ। उचित ध्यान न दंया आवश्यकता से अधिक प्रेम करें तो बच्चा प्रेम को समझ ही नहीं पाता। प्रेम का अर्थ बच्चे को बिगाड़ना नहीं। इसका अर्थ है कि आपका चित्त बचे के हित पर हो। अतः मैने सोचा कि सर्वप्रथम पारिवारिक जीवन के महत्व को साकार करना होगा। परमात्मा के नाम परमठवासिनियां, लोगों की समस्याओं का मुझे पूर्ण ज्ञान था। फिर भी मैने सोचा पादरी, सन्यासी, बाबा बनने लगे थे। ये इतनी नीरस तथा कि कहीं लोग इस बात को स्वीकार न करें कि वे आत्मसाक्षात्कार पा सकते हैं। पथभ्रष्ट करने वाले थे कि लोग इस प्रकार का सन्यास अपनाने लगे। घर त्याग कर पत्नियों तथा बच्चों से दूर भागने लगे। अतः मुझे लगा कि प्रेम के ज्ञान के बिना व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम यदि सामूहिक हो तो इसका प्रभाव अधिक होता है। भारतीय परिवारों में लोग वास्तव में एक - दूसरे को प्रेम करते हैं। संयुक्त परिवार भी सामूहिकता की तरह हैं । परिवार के सभी लोग मिल कर रहते थे। पर आर्थिक यह अवतरण अत्यन्त अद्वितीय है। बहुत से अवतरण हुए। उन्होंने अपने उपदेश-गीता दिए और बस। दैवी प्रेम की चिंगारी उनमें न थी। इस थोड़े से समय में बहुत से अच्छे लोग हुए। महात्मा गांधी, मार्टिन वाशिंगटन, विलियम ब्लैक, शैक्सपियर, लाओत्से, सुक्रांत आदि। सुक्रांत से लेकर आज तक बहुत से दार्शनिकों ने उच्च-जीवन की बात की। इसके बावजूद भी लोगों ने समझा अब्राहम लिंकन, लूधर, श्री आदिशक्ति पूजा 13 सहजयोग के लिए जो भी कार्य करने की साचेंगे मैं तुरन्त कि यह व्यर्थ के लोग हैं। इनमें कुछ नहीं। कोई भी गुरु गीता जान जाऊंगी कयांकि आप मेरे अन्दर हैं। को न पढ़ता। लोगों को लगता कि इसका क्या लाभ है। इस प्रायः सभी बातें मैं अच्छी तरह जानती हूं। पर कुछ चीजें मैं स्पष्ट नहीं जान पाती। वातावरण में मैंने परमात्मा की बात करनी चाही। कैसे इन्हें बताऊ कि इन्होंने क्या खोजना है? मेरी इच्छा थी कि लोगों में कम से कम कुछ जिज्ञासा तो होती। यदि ये थोड़ा सा अवसर भी मुझे दे दें तो दैवी प्रेम इनके हृदय में प्रवेश कर इसका एक कारण है। मेरे और आपके जाएगा। पर उन्होंने मुझे कोई अवसर न दिया| इन हालात में सहजयोग शुरु हुआ। मैने पाया कि लोग ध्यानधारणा नहीं करते तो मेरा आपसे आदिशक्ति की शक्तियां समस्याओं से कहीं शीक्तिशाला है। कोई रिश्ता नहीं। आपको मुझसे प्रश्न करने संबंध, निःसन्देह घनिष्ट हैं। परन्तु यदि आप यही शक्तियां कुण्डलिनी को जागृत कर रही हैं। मैं जानती थी कि मैं कुण्डलिनी की जागृति सामूहिक रूप से कर सकती का कोई अधिकार नहीं। यदि आप ध्यान हूं। परन्तु मैं सोच भी न सकती थी कि जिन लोगों की मैं नहीं करते तो सहजयोगी होते हुए भी आप जागृति करुंगी वे लौट कर वापस आ जाएंगे। क्योंकि वे तो आम लोगों जैसे हैं। यदि आप प्रातः और सायं अज्ञानी लोग थे। मैने कभी नहीं सोचा था कि जागृति पाकर वे सहजयोग करेंगे। एक हाल किराये पर लिया गया कुछ लोग आये पर फालोअप कार्यक्रम में बहुत कम लोग थे। मेरे जी की छत्र-छाया में नहीं रहेंगे। क्योंकि सामने पारिवारिक समस्याएं भी थीं। पर मुख्य समस्या यह संबंध तो केवल ध्यान के माध्यम से ही हैं। थी किस प्रकार से मानव हृदय में प्रवेश किया जाए। एक जो ध्यान नहीं करता उसे मेरे से कुछ कहने ही समाधान था कि उनकी अपनी कुण्डलिनी को उठाया जाये। मैं जगह-जगह गई और इस प्रकार सामूहिक कुण्डलिनी जागरण अनुभव हुआ। सभी लोग अपनी समय लेता है। पर एक बार जब आप ध्यान अंगुलियोँ तथा सिर पर चैतन्य को अनुभव करने लगे। को जान जाएंगे, मेरी संगति के आनन्द को सहजयोग के वास्तवीकरण ने चमत्कार कर दिखाएं हैं। समझ जाएंगे, मुझसे एकाकारिता को जान नियम से ध्यान नहीं करते हैं तो आप श्री माता का अधिकार नहीं। आरंभ में ध्यान कुछ इसके बिना यह असंभव था। जाएगे तो ध्यान के अतिरिक्त किसी अन्य माध्यम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। ध्यान से ही आपका उत्थान होता है। सहजयोग में जब आप परिपक्व अवस्था को पहुंच जाते हैं तो ध्यान को छोड़ना नहीं चाहते। क्योंकि इसी समय आप को पकड़ लेती हूं। यह बड़ा कष्टदायक कार्य है। इसीलिए मुझसे जड़े होते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप घंटां पूजा के उपरान्त मैं सुस्त हो जाती हूं। मैं आप सबको अपने ध्यान में बैठे रहें। यह देखना महत्वपूर्ण है कि कितनी गहनता शरीर में डाल लेती हूं। आप मेरे शरीर के अंग-प्रत्यंग बन से आप मेरे साथ हैं। यह नहीं कि कितना समय आप मेरे जाते हैं। मेरा हर कोष्णणु आपके उत्थान के लिए है। आपको साथ हैं। तब मैं आपके उत्थान एवं रक्षा के लिए जिम्मेदार भी यह समझने के लिए अति सूक्ष्म होना होगा। आप हूं तथा बराइयों से आपको बचाने की भी। पिता की तरह वास्तव में आपकी अपनी जिज्ञासा तथा विवेक आपको सहजयोग में ले आए हैं। अन्य गुरुओं की तरह न तो मैं किसी को पत्र लिखती हूं और न बुलाती हूं। सामूहिक जागृति के लिए हर जनकार्यक्रम में मुझे अपनी कुण्डलिनी उठानी पडली है। अपनी कुण्डलिनी में मैं आपकी सभी समस्याओं चैतन्य लहरी 14 मैं सीधा दंड नहीं दे सकती। मैं विवश नहीं कर सकती। पर हो जाएगा कि आपको और कुछ अच्छा ही नहीं लगेगा । तब मेरा आपसे कोई संबंध नहीं रह जाता। चाहे आपके अन्य बाह्य सम्बन्ध हो पर ध्यान के बिना आप वह आंतरिक संबंध के लिये आवश्यक है कि पूर्ण सत्यता से आप ध्यान करें। नहीं बना सकते जिनसे आपका हित होता है। मैं सदा आपको ऐसा न हो कि आज रात मैं देर से आया इसलिए घ्यान नहीं ध्यान करने के लिये कहती हूं पर लोग मेरी बात के महत्व को नहीं समझते। वे मझे बताते हैं कि हम ध्यान नहीं करते। सकता। बहाने कोई भी नहीं सुनना चाहता। यह आपके और यह यंत्र (शरीर) पूर्ण बनाया गया है पर यदि यह स्रोत से आपकी आत्मा के मध्य है। यह आपका ही हित है किसी अन्य अपने सौन्दर्य, गरिमा तथा महान व्यक्तित्व को प्राप्त करने किया। कल मुझे काम पर जाना है अतः मैं ध्यान नहीं कर क का नहीं। जुड़ा हुआ न हो तो इसका क्या लाभ? ध्यान में ही आप दैवी प्रेम की सुन्दरता को महसूस कर सकेंगे। पूरा चित्र ही बदल जाता है। ध्यानगम्य व्यक्ति का दृष्टिकोण, स्वभाव और जीवन बिल्कुल भिन्न होता है। वह सदा संतुष्ट जीवन व्यतीत करता है। अतः, जैसे आप कहते हैं, आज अवतरण का प्रथम दिन है क्योंकि पहली बार हम आदि शक्ति की पूजा करेंगे। यह आपके लिए महान वरदान है। आपको भी यह जानना चाहिए कि कैसे इसके अधिकारी बनें, किस प्रकार इसे बढ़ाएं तथा कैसे इसका आनन्द लें। परमात्मा से आपकी पूर्ण एकाकारिता होनी चाहिए और यह केवल ध्यानसे ही संभव है। ऐसा करना व्यक्ति को अब समझ लेना चाहिए कि हम कुछ विकसित हुए हैं। आप जो भी हों, ध्यान के मामले में आपको नम्र होना होगा। यह इतना आनन्दमयी है। कुछसमय पश्चात आप जान जाएंगे कि श्रीमाताजी के साथ जो सम्बन्ध आपका है, इसी सम्बन्ध को आप खोज रहे थे। जो लोग सामूहिकता में ध्यान न करके अकेलेपन में ध्यान करते हैं वे खो जाते हैं। आपको सामूहिक रूप से ध्यानगम्य होना चाहिए क्योंकि मैं आप सबका सामूहिक अस्तित्व हूं। जब आप सामूहिकता में ध्यान करते हैं तो मेरे बहुत निकट होते हैं। चाहे आपका कार्यक्रम आदि हो तो भी आप घ्यान अवश्य करें। किसी भी कार्यक्रम के लिए ध्यान को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पहले भजन गाएं और फिर ध्यान करें। मैं जब किसी बात पर बल देती हूं तो समझें कि यही सत्य है। काम कोई अत्यन्त सुगम है। कुछ लोग कहते हैं, श्रीमाताजी हमें समय नहीं मिलता। हम सदा कुछ न कुछ सोचते रहते हैं। आरंभ में आपको थोडी कठिनाई हो सकती है। शनै: शनैः आप ठीक हो जाएंगे और निपुण भी। आपको इसका इतना अच्छा ज्ञान परमात्मा आपको धन्य करे। न] स श्री आदिशक्ति पूजा 15 পতি पजा गुरु परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) (कबैला, इटली-4.7.93) कार्य है। हर मां चाहती है कि उसका बच्चा अच्छा बने। पावन आज हम गुरू पूजा करेंगे। मुझे आपका गुरू होना चाहिए पर गुरू की विशेषताएं मुझसे भिन्न हैं। प्राय- गुरू बहुत कठोर तथा धैर्य विहीन व्यक्ति होता है। संगीत में भी सभी नियमों का मां चाहती है कि उसका बच्चा पवित्र बने। पवित्रता पहला गुण है, और इसके लिए किसी को कैसे पूर्णतया पालन करना पड़ता है। महान संगीतज्ञ.रवि शंकर ने विवश किया जा सकता है। पवित्र हुए बिना कैसे आपका उत्थान बताया कि एक बार तनिक सा बेसुरा होने पर उनके गुरू ने होगा? व्यक्ति को पवित्र बनाने के लिए कौन से अनुशानस लगाए तानपुरा उनके सिर पर तोड़ दिया था। जब परम्परा की बात जाएं? क्या दबाव डाल सकते हैं? क्रिस-किस बात के लिए आप क्रोधित हो सकते हैं? मैं प्रायः क्षमा की विधि अपनाती हूं। दिए। फिर भी शिष्य गुरू से जुड़े रहते हैं। उनकी देखभाल करते हो सकता है कि क्षमा शिक्षा देने का सर्वोत्तम मार्ग हो। अपनी हैं। गुरू कई तरह से शिष्यों की परीक्षा लेता है। शिवाजी के गुरू गलती को जान कर जब वे इसे स्वीकार कर लेते हैं तो आपको ने उनसे शेरनी का दूध लाने को कहा। शिवाजी जंगल में गए क्षमा करना ही पड़ता है। एक व्यक्ति बुद्ध को पहचाने बिना उन्हें और एक शेरनी को देखा जो अपने बच्चों को दूध पिला चुकी गाली दे रहा था जब वह गाली दे चुका तो उसे पता चला कि थी। शेरनी के सम्मुख नतमस्तक होकर उन्होंने कहा कि मेरे गुरू बुद्ध ही उसके सम्मुख थे। तब घबरा कर उसने बुद्ध से क्षमा मांगी। को तुम्हारा दूध चाहिए, क्या तुम मेरे गुरू के लिए थोड़ा दूध भगवान बुद्ध ने पूछा कि तुमने कब मुझे गाली दी? उसने कहा 'कल। भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया कि मैं 'कल' को नहीं जानता। की आज्ञा पालन द्वारा व्यक्ति असंभव उपलब्धियां प्राप्त कर मैं केवल आज को जानता हूँ। ध्यान रखें कि आपकी महानता सकता है एक बार शिवाजी के गुरू ने कहा कि उनकी टांग पर और श्रेष्ठता अवश्य लोगों को प्रभावित करेगी। लड़ाई-झगड़ा, एक फोड़ा है और यदि कोई शिष्य उसके मवाद को चूस ले तो अपशब्द आदि से कार्य नहीं होगा। गुरू अपने शिष्यों को बहुत वह ठीक हो सकता है। सभी शिष्यों को मिचली हो गई पर अनुशासित किया करते थे। चार बजे प्रातः उठकर आपको ध्यान करना है और जो नहीं उठा उसकी पिटाई होती थी। सहजयोग बहुत ही भिन्न है। हम प्रेम की शक्ति में विश्वास करते हैं । प्रेम शक्ति शिष्यों की हर समय परीक्षा होती है वे कितने आज्ञाकारी आपको क्षमा करना सिखाती है। भवसागर में धर्म स्थापित करने वाले गुरू स्वयं संतुलित थे। अपनी प्रेम शक्ति से वे लोगों को संतुलित कर सके। ये गुरू तथा इनके अवतरणों में संतुलन था तथा सदा ये परमात्मा के प्रेम की शक्ति की सराहना करते थे। आत्मसाक्षात्कार की बात करते हुए हमें समझना चाहिए कि हमारे अंदर धैर्य का होना आवश्यक है। मैं जानती हूं कि कुछ लोगों को बहुत अच्छा नहीं लगता। कुछ अब भी रोगी हैं कुछ तो चैतन्य लहरियां भी महसूस नहीं कर पाते। स्वयं में धैर्य रखें। जिस प्रकार एक गुरू को शिष्यों के प्रति धैर्यवान होना पड़ता है उसी प्रकार स्वयं के गुरू बनकर आपको भी स्वयं के प्रति धैर्यवान होना है। इस धैर्य में आप सीखेंगे कि बिना किसी कठिनाई के आप बहुत कुछ सहन कर सकते हैं। आप में यदि धैर्य है तो आई तो उन्होंने विद्यार्थियों पर सभी प्रकार के अनुशानस लगा देंगी ? शेरनी सब समझ गई और उन्हें दूध निकालने दिया। गुरू शिवाजी महाराज झुके और फोड़े को चूसने लगे। पर यह फोड़ा-फोड़ा न था। यह एक छुपा हुआ आम था। हैं? परन्तु आप सब लोग साक्षात्कार को पाकर अपने गुरू बन गए हैं। इसलिए मैं आप पर वह बंधन नहीं लगाती। आपको पूर्ण स्वतन्त्रता देती हूं। हर प्रकार से मैं आपको बताती हूं कि मैं आपका हित सोचती हूं, परन्तु अन्य गुरूओं की तरह मैं आपको विवश नहीं करती। वे तो शिष्यों को पीटा करते थे। शिष्यों के प्रति वे इतने कठोर थे। शिष्यों के लिए दया रूपी दुर्बलता उन्हें सह्य न थी। कुछ गुरू तो शिष्यों को एक टांग पर खड़ा कर देते थे और कुछ को सिर के बल। इस तरह का व्यवहार करना मेरे लिए कठिन कार्य है। हर समय करुणा मेरी आंखों से आंसू बन कर उमड़ पड़ती है। कभी मुझे डांट के रुप में भी कहना पड़ता है परन्तु एक ही व्यक्ति के लिए मां और गुरू दोनों बनना दुष्कर चैतन्य लहरी 16 साम पा आप सब कुछ स्वीकार कर सकते हैं। जहां भी आप हैं वहीं आप स्वयं में मस्त हैं क्योंकि आप आत्मसाक्षात्कारी जीव हैं। न तो क्रोधित हों और न शिकायत करें। आनन्द में रहें। आप घास पर, आत्म-साक्षात्कार दे सकते हैं। साधारण प्रेम में लोगों को डर होता है। उन्हें भय होता है कि कहीं उनकी प्रेयसी चली न जाये। परन्तु आपतो आत्मलीन हैं और सदा सुरक्षित। एक क्षण के लिये भी आपका चित्त यदि भटकता है तो आप जान जाते हैं। आप स्वयं से अपनी रक्षा करते हैं। कोई भी शारीरिक समस्या होते ही आप जान जाते हैं। अपना इलाज करना आपको आता है। पर व्यक्ति में संतुलन का होना आवश्यक है। इसके अभाव में आप न तो चैतन्य लहरियों का अनुभव कर सकते हैं और न ही अपनी त्रुटियों को जान सकते हैं। आपको पता नहीं होता कि किस दिशा में आप जा रहे हैं और यह भी नहीं कि आप अपना नाश कर रहे हैं । सभी सहजयोगियों में यह संतुलन स्थापित होना आवश्यक है। भूतकाल या भविष्य के बारे सोचते रहने के कारण हम असंतुलित हो जाते हैं। जब सारे देवदूत तथा गण आपके चटाई पर, पत्थर पर कहीं भी सो सकते हैं। और नींद आपके लिए आवश्यक भी नहीं। कोई अंतर नहीं पड़ता। संभवतः बाई विशुद्धि के कारण लोगों में धैर्य नहीं है। वे कैथोलिक आदि हैं। फिर हर समय आप स्वयं पर, अपने दुःखों पर और परेशानियों पर तरस खाते हैं तथा हर समय अपनी निन्दा करते हैं। आप आत्म-साक्षात्कारी हैं। स्वयं को कोसना आपका कार्य नहीं। आपको स्वयं को जागृत करके कहना है कि अब मैं वह व्यक्ति नहीं हूं। आपको स्वयं से कहना होगा कि अब मैंस्वयंकोनहीं कोसुंगा। आपने अपना अधिकार आत्म - साक्षात्कार पा लिया है। इन बंधनों के कारण हम आनन्द नहीं ले सकते। विशेषकर लिए कार्य कर रहे हैं तो चिंता की क्या बात है। आपको बस पश्चिमी देशों में दुःखी होना फैशनेबल कहलाना है। जो लोग बौते हुएदुःखों को याद करके दुःखी रहते हैं वे वास्तविकता का आनन्द नहीं ले सकते । सहजयोगी का हृदय से आनन्दित होना आवश्यक है। सहजयोग आनन्द का सागर है जो सदा आपको आनन्द प्रदान करने के लिए है। इसकी छोटी-छोटी बूंदे भी आपको आनन्द सांसारिक कानूनों से डरते हैं वे नहीं जानते कि इतनी जबरदस्त से भर सकती हैं। यह अत्यन्त आनन्ददायी अनुभव है। आपके शक्ति उनके चहं ओर है। आपको न तो कोई रोक सकता है और अंदर ही यह आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसा व्यक्ति किसी दूसरे न गिरफ्तार कर सकता है। जब आप संदेह करने लगते हैं, जब को दुःखी नहीं देख सकता। वह स्वयं आनन्द से परिपूर्ण होता आप कहते हैं, "किन्तु", जब मानव रचित कानूनों को सोचते है तथा चहूं ओर आनन्द फैलाता है। छोटी-छोटी चीजों से वह हैं तो परमात्मा के कानून फेल हो जाते हैं। अन्यथा कोई भी क आज्ञा देनी है। ये तो ऐसा है जैसे किसी भिखारी को राजगद्धी पर बिठा दिया हो। जो भी उसे प्रणाम करने आता है उसी से वह एक अशर्फी मांग लेता है। सहजयोग में भी लोग असंतुलित हो जाते हैं कैसे ? जो लोग आलन्द प्राप्त कर सकता है। आप ही सागर हैं। समुद्र में यदि कोई छोटी सी भी चीज गिरती है तो सुन्दर लहरों की रचना करती हैं। है। ये लहरियां केवल आप ही के आन्तरिक किनारों को नहीं छूती, अन्य लोग भी इनसे अछूे नहीं रहते । छोटी-छोटी बातें पुराने गुरू आपको यातनाएं झेलने तथा अपनी सब बातें स्वीकार आपको प्रसन्नता प्रदान करती हैं तथा सदा प्रेम के सुन्दर सागर करने को कहते थे। पर यहां तो गुरू रुप में आपकी माँ बैठी है। सम होते हैं। प्रेम प्रसन्नता प्रदायक है। यह दैहिक प्रेम नहीं, दैवी कोई भी आपको छूने का साहस कैसे कर सकता है। मेरे कथन प्रेम है। सहजयोगी और गुरू होने के नाते हमें परस्पर प्रेम करना होना चाहिए। आदिशक्ति किसी को भी गुरू रूप में नहीं प्राप्त हुई। चाहिए और अपने प्रेम को समझना चाहिए। मेरे ख्याल में अभी आदिशक्ति में परमात्मा की सभी शक्तियां है। तो कौन आपको सहजयोगियों ने स्वयं को समझा नहीं है। विश्व के कितने लोग दुःख दे सकता है ? आपके अपने सिवाए कोई आपको परेशान साक्षात्कार दे सकते हैं ? कितने लोग कुण्डलिनी के विषय में नहीं कर सकता। अन्य गुरूओं के शिष्यों तथा आपमें सबसे बड़ा जानते हैं? कितने लोगों ने पुनर्जन्म होते देखा है ? आपको इतना अंतर यही है कि आपको कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं। किसो आपका कुछ नहों बिगाड़ सकता। आप पूर्णतया सुरक्षित होते पुराने और नये गुरूओं की प्रणाली में मुख्य अंतर यह है कि पर आपको विश्वास करना होगा। स्वयं पर आपका इतना विश्वास सहजयोगी को यदि कोई कष्ट है तो अवश्य ही यह उसके अंदर दृढ़ बनाया गया है कि मात्र दृष्टिपात से आप लोगों को 17 गुरु पूजा की किसी बाधा के कारण है। कुछ सहजयोगी गलत गुरूओं के लोग सोचते हैं कि क्योंकि वे मेरी सेवा करते हैं देखभाल करते पास गये होंगे। उनकी कोई दुर्घटना आदि हो सकती है परन्तु हैं और मेरी पूजा करते हैं इसलिए दूसरे सहजयोगियों को डांटना, उन पर चिल्लाना, उन्हें कार्य करने की आज्ञा देना आदि उनका अधिकार है । परन्तु यह बात ठीक नहीं। आप सहजयोगी हैं और पूर्णतया सामूहिक हैं। यदि आप सामूहिक नहीं हैं तो आप सहजयोगी नहीं हैं। यदि आपका अहं एवं पुराने बंधन आपको अन्य सहजयोगियों से दूर करते हैं तो परमात्मा से आपका कोई संबंध बाकी नहीं। सामूहिक हुए बिना आपका कोई सम्बन्ध नहीं। अत्यन्त हैरानी की बात है कि आपको साक्षात्कार देते हुए सूक्ष्म चीजों के बारे बताना मेरे लिए अति सरल होता है। अभिव्यक्ति, विचार, आचरण और सूझबूझ में सूक्ष्मताओं का अपना हो सौन्दर्य होता है। सामूहिकता की भावना अन्न के एक छोटे दाने की तरह होती है। बूंद के सागर बनने जैसी। कोई बूंद यदि सागर न बन कर तट पर ही रहना चाहे या कोई व्यक्ति अचानक ही इसके दुष्प्रभाव से बच निकलेंगे। किसी अन्य संबंधो आदि की बाधा भी, हो सकता है सहजयोगी में प्रवेश कर गई हो। सहजयोग की विशेषता है कि जिन लोगों में पकड़ होती है वे भी साक्षात्कार पाकर ठीक हो जाते हैं। कोई भी समस्या हो, आप हाथ फैलाइये कुण्डलिनी उठेगी और कार्य हो जाएगा पर यदि साक्षात्कार पाकर भी लोग ध्यान नहीं करते, साक्षात्कार नहीं देते तो यह बेकार हो सकता है। जैसे अपनी कार का यदि आप उपयोग नहीं करेंगे तो यह सड़ जायेगी तो आप सभी स्त्री - पुरूषों को आत्म साक्षात्कार देना चाहिए। जिस किसी भी देश के आप हों, आपको यह शक्ति बढ़ानी है नहीं तो आप घुट कर रह जायेंगे। मैं बहुत से सहजयोगियों को जानती हूं जो बहुत अच्छे हैं, मेरी पूजा करते हैं फिर भी गंठिया तथा अन्य प्रकार के रोगों से पीड़ित हैं। आत्म-साक्षात्कार देने के लिए आपको अपनी शक्ति का उपयोग करना होगा। ठीक है नियमों की समझ न होने पर आपको क्षमा कर दिया जाता है। अबोधिता से जो भी कुछ आप करते हैं, ठोक है। पर जानबूझकर यदि आप गलतो करते हैं तो मैं नहीं जानती कि आपका क्या हाल होगा। अपने क्षेत्र (स्थिति) में यदि आप हैं तो ठीक है पर इससे बाहर यदि आप निकलना चाहेंगे तो चारों तरफ फैली विकराल बाधाएं आपको दबोच लेंगी। और यह सहजयोग की गलती नहीं है। सहजयोग या सहजयोगियों के दोष खोजना एक अन्य अपराध है। गुरू के दस शिष्य यदि किसी एक की शिकायत करें तो गुरू उन्हें बाहर निकाल देगा। शिकायत करना उनका कार्य नहीं। यदि एक हाथ में दर्द हो तो दूसरा हाथ मस्तिष्क से उसकी शिकायत किए बिना इसके दर्द निवारण के लिए बढ़ेगा। सहजयोगी ऐसे गुरू हैं जिनका सम्बन्ध सामूहिकता से है। वे ऐसे समूह में चलते हैं जिसका वर्णन करते हुए ज्ञानेश्वर जी ने कहा है कि आप ज्योतिर्मय जंगल की नाई बढ़ते हैं, जो आपको अच्छा लगता है और जो आप चाहते हैं पा लेते हैं। वे कहते हैं कि "आप सागर की तरह चलते हैं तथा परमात्मा का गुणगान करते हैं।" आप सामूहिक हैं, सूझबूझ से सामूहिकता में बढ़ें। यह सामूहिकता इतनी शक्तिशाली है। लोगों को यह अमृत प्रदान करती है। सामूहिकता की इस शक्ति का अनुभव ही व्यक्ति का प्रथम आंकन हैं। जो सामूहिक नहीं हो पाते वे सहजयोगी नहीं हैं। कुछ यदि सामूहिक नहीं होना चाहे तो अच्छा है कि वह मेरी पूजा न करे| गुरू सामूहिकता के साथ किस प्रकार आचरण करे? कोई भी यह न समझे कि आप कोई धर्माधिकारी हैं या कोई महान व्यक्तित्व। विश्व में सर्वोच्च क्या है ? कुछ भी नहीं। हर चीज एक सी है। कभी-कभी तो लोगों के अत्याचार अकल्पनीय होते हैं। यदि आप सहजयोगी हैं तो इस प्रकार असंतुष्ट क्यों हैं। क्रोधी गुरू तो आप बन नहीं सकते। क्रोध अर्थात असंतुलन। हो सकता है यह आपके परिवार की पकड़ हो। लिप्सा का अर्थ भी असंतुलन है। संतुलित लोगों को निलिप्त होना पड़ता है नहीं तो वे सत्य को नहीं देख पाते। लोग एक प्रकार के घमंड में फंस जाते हैं कि हम सहजयोगी हैं। पूरे विश्व को बचाने के लिए हम सहजयोगी बने हैं। मैने बहुत से सरकारी नौकरों को देखा है जो स्वयं को बहुत ऊंचा समझते हैं। वे नौकर हैं। उन्हें अधिकारी कहा जा सकता है पर "सेवा के लिए अधिकारी।" इसी प्रकार हम भी परमात्मा की सेवा के लिए विश्व में हैं और आपकी सेवा का लक्ष्य विश्व को बचाना है। मिथ्याभिमान के होते हुए आप कैसे यह कार्य कर सकते हैं। आपका आचरण यदि दर्प-पूर्ण है तो आपके समीप कोई नहीं आयेगा। आप किसी से ईष्ष्या नहीं कर सकते क्योंकि ईष्ष्या से अपनी हानि होती है। ईष्ष्षा तो पशुत्व है। ईष्ष्या किस बात की ? आप चैतन्य लहरी 18 पसीना आ रहा था। मेरे साथ जो सहजयोगी थे कहने लगे श्रीमाता जी इस स्थान की सारी गर्मी आप अपने पर झेल रही हैं। एक सहजयोगी यह समझ सकता था। हर व्यक्ति आनन्द से था तथा मुझसे शीतलता ले रहा था पर मैं स्वयं को पंखा कर रही थी। मैं ही सारी गर्मी सोखकर आपको शीतलता प्रदान करती हूं सबकी गर्मो लेकर उसे शौतलता में परिवर्तित करके उस आनन्द को प्रदान करना ही मेरा कार्य है। लोग चिल्लाते हैं, कराहते हैं। पर आप उन पर शीतलता साक्षात्कारी हैं। किस प्रकार आप ईष्यालू हो सकते हैं। मान लजिए आप्न हीरा हैं और दूसरा व्यक्ति भी हीरा हैं तो दो हीरे मिलकर तो अधिक छटा विखेरंगे। और यदि आप अच्छे हैं पर दूसरा व्यक्ति नहीं है तो इसमें भी ईष्र्यां की कोई बात नहीं। किसी में यदि कोई अच्छाई देखें तो उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करें। जब सहजयोगी दूसरों की अच्छाई मुझे बताते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। अच्छाई देखने, लगने का अर्थ है अच्छा बनने का आरंभाईष्या भाव से तो आप अपना पतन करते हैं। ईष्ष्या आनन्द का हनन करती है। अपने भय, ईष्ष्या, धैर्य और दर्प से छुटकारा उडेल सकते हैं। सारी गर्मी दूर हो सकती है इसे सोखना महत्वपूर्ण पा लीजिए। अगाध धैर्य और क्रोध विहीन गुरू के समीप लोग स्वतः ही अनुशासित हो जाते हैं। सहजयोग में बहुत शिष्य नहीं होते। श्री ज्ञानेश्वर तक एक गुरू-एक शिष्य परम्परा थी। शायद उन्होंने सोचा हो कि लोग जिज्ञासु नहीं हैं। हम लोगों का सौभाग्य है कि हम इतने अधिक हैं। परस्पर हम एक-दूसरे को जानते हैं और समझते हैं। कुण्डलिनो का हमें ज्ञान है। हम इतने चेतन हैं। हमें विश्व को घटनाओं का ज्ञान है। हिमालय की कन्द्राओं में बैठकर हम परमात्मा का नाम नहीं ले रहे। हम इसी संसार में हैं। बिना पलायन किए सारी समस्याओं का हम सामना कर रहे हैं। परन्तु हम वास्तविकता में हैं पर बाकी लोग अज्ञानता में हैं। यही कारण है कि हमें समस्या का ज्ञान है और इसका समाधान भो हम जानते हैं। अब आपको नम्रतापूर्वक अपनी शक्तियों का प्रयोग मात्र है। गर्मी सोखने से घबराने की कोई बात नहीं पर व्यक्ति को सदा बंधन में रहने की सावधानी बरतनी होगी। स्मरण रहे कि हम सहजयोगी हैं, एक बार ऐसा होते ही प्रक्षेपण शुरू हो जाएगा। विलियम ब्लैक ने कल्पना में प्रक्षेपण आरंभ कर दिया और ज्ञान प्राप्त कर लिया। कोई भी कार्य जो लोग कर रहे हैं इसका संबंध सहजयोग से जोड़ने का प्रयत्न कीजिए, इसका प्रक्षेपण कीजिए। तब आपको प्रेम की उपलब्धि होगी। आप भूल जाते हैं कि आप आत्म-साक्षात्कारी हैं। अपने चैतन्य ज्ञान को अपनी रक्षा के लिए उपयोग करें क्योंकि नकारात्मकता आप के समीप ही है। अतः सावधानीपूर्वक याद रखें कि मैं सहजयोगी हूं। नियमों तथा अनुशासन की रचना करें। आपको दूसरों को प्रेम करने का ज्ञान हो जाएगा यही तत्व है। इन गुरूओं ने बहत कष्ट झेले। स्वयं पर पूर्ण विश्वास रखें, आप पूर्ण सुरक्षित रहेंगे। आप सहजयोगी हैं, इस अवस्था को स्थिर करने का प्रयत्न करें। इस प्रकार आप स्वयं के तथा अन्य लोगों के गुरू बनते हैं। करना होगा। आप समझ लें कि आप ज्ञान के भंडार हैं। उदाहरणतया हर चीज की व्याख्या सहजभाषा में की जा सकती है। इस तरह परमात्मा आपको धन्य करें। आपका आनन्द दुगना हो जाएगा। उस दिन लौटते हुए मुझे बहुत गुरु पूजा 19 %3B सहस्रार पूजा परमपूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) कबेला, इटली-9 मई, 1993 आज हम यहां सहस्रार दिवस मनाने के लिए हैं। सहस्रार भेदन मस्तिष्क तक पहुंच गयी थी। इस प्रकार उनकी ज्ञान प्राप्त करने, मेरे लिए कठिन कार्य न था क्योंकि विश्व में बहुत से जिज्ञासु थे। उसे आत्मसात करने तथा सुरक्षित रखने की शक्ति बढ़ गई। आज आपको देने वाले सारे क्रम परिवर्तनों तथा सम्मिश्रणों का के एक छोटे बच्चे को लीजिए। आपको 25 वर्ष की आयु में दुख अध्ययन भी मैने किया था। समय भी परिपक्व था। मुझे लगा कि गुरु रुप में भयंकर राक्षस जिज्ञासुओं को अपने चंगुल में ले रहे मैने सोचा कि सहस्रार खोलने का यही उपयुक्त समय है। यह ईसा के एकीकरण की तरह न था। उन दिनों में व्यक्ति को घोर तपस्या करनी पड़ती थी और उन्होंने भी यही किया। परन्तु आधुनिक समय में आपके कार्य से कहीं महत्वपूर्ण आपका ज्ञान है। माध्यमों, संचार व्यवस्था या यात्राओं के कारण एक सर्वव्यापक चेतना जाग उठी है। मानवीय मस्तिष्क इतना कुछ जानता है कि कभी कभी तो यह इसे सहन भी नहींकर सकता। विचारों का इतना बोझ मस्तिष्क पर है। मानव मस्तिष्क सदा होता है कि ज्ञान कहलाने वाली हर बात को समझे, जो ज्ञान था उससे कहीं अधिक ज्ञान उस बच्चे को है क्योंकि बच्चे के लिए यह ज्ञान अपेक्षित है। इस प्रकार सत्य को जानने का बहुत कोई प्रयास न किया गया। परन्तु ज्यों ज्यों यह चेतना बढ़ी से जिज्ञासु पृथ्वी पर अवतरित हुए। बहुत से लोग, जिन्हें अपने जिज्ञासु होने का ज्ञान हो न था, अचानक जिज्ञासु बन गए। यह स वातावरण का प्रभाव है। इस प्रकार लोगों की एक नयी श्रेणी जन्मी जिन्हें ज्ञान था कि उन्हें सत्य की खोज करनी है। अतः समय के साथ साथ यह, सब हुआ तथा सहस्रार को खोला गया। सहजयोगियों के लिए यह घटना (सहस्रार का खुलना) सबसे महान है। हमें कहना चाहिए कि सन्तों, पीर-पैगम्बरों तथा अवतरणों ने जो कार्य किया, सहस्रार का खुलना इसकी पराकाष्ठा है। उन्होंने गिने चुने व्यक्तियों के लिए कार्य किया। पर विश्व के कोने कोने में जन जन तक इसे पहुंचाना हमारे अध्यात्मिक उत्थान का अन्तिम लक्ष्य है। सभी धर्मों के महान अवतरणों ने, पैगम्बरों ने कहा कि आप स्वयं को पहचानिए, उत्सुक आत्मसात करे तथा अपने अन्दर सुरक्षित रखे। परन्तु विवेक की कमी के कारण हर तरह की चीजें मानव मस्तिष्क में इक्ट्टी हो जाती हैं, विशेषकर के माध्यमों, दूरदर्शन तथा कम्प्यूटर के आविष्कार के कारण । व्यक्ति को इन सब चीजों की तकनीक देखनी पड़ी क्योंकि इसे देख कर ही वह अपने पुरखों से कहीं आत्म साक्षात्कारी बनिए और आत्म साक्षात्कार पा लौजिए, और वलो बन जाइए। ये सभी संकेत, एक बौद्ध भी जानता है अधिक चीजे बना सकता था। कि मैत्रेया को अवतरित होना है और वही त्रिगुणात्मिका हैं। ग्रीक इस प्रकार के लोगों में भौतिकता पनपने लगी। अतः भौतिकवाद इस समय मानव के लिए अभिशाप बन गया। तब मुझे लगा कि सहस्रार खुलना ही चाहिए। इससे पूर्व लोग सादे तथा अबोध थे और परमात्मा पर विश्वास करते थे। सत्य की खोज भी उन्होंने नहीं की। भौतिकवाद ने मानव में प्रतिद्वन्दिता लोगो की अरथेना भी तीन शक्यों से सम्पन्न थीं। सभी अवतरण इस समय की भविष्यवाणी कर रहे थे वह समय आ गया है। इसीलिए मैं इस काल को बसन्त ऋतु कहती हूं । और आप लोग इसके फल हैं। भिन्न ऋतुओं के ब्रह्माण्डीय चक्र की तरह यह सुन्दर पैदा कर दी। ऐसा पाखण्ड पैदा कर दिया कि लोगों को लगने लगा कि यह तो बेईमानी है, और भौतिकता आनन्द दायक नहीं है। भौतिकवाद से आपको शान्ति नहीं मिल सकती। लोगों की चेतना में आने लगा कि यही हमारे जीवन की अन्तिम उपलब्धि नहीं। हमने मात्र यहीं ज्ञान नहीं प्राप्त करना। भौतिकता हमें आनन्द एवं शक्ति नहीं प्रदान कर सकती। महायुद्ध के पश्चात युवा पीढ़ी में यही चेतना बढ़ने लगी। कारण यह था कि मानव चेतना अब समय आया और काल चक्र की तरह घूम कर इसे आगे जाना है। सहजयोग पहले तो अत्यन्त छोटे स्तर पर शुरु हुआ परन्तु अब पूरे विश्व में फैल कर यह बहुत बड़ा हो गया। एक अन्य अति श्रेष्ठ घटना हुई है। अब तक लोग अकेले बेठकर ध्यान करते थे और किसी इक्के-दुक्के को साक्षात्कार मिल जाता था। पर इन दिनों सामूहिक आत्मसाक्षात्कार तथा सामूहिक ध्यान जैसी अनोखी घटना न थी। साक्षात्कारी किसी अज्ञात कोने में अदृश्य चैतन्य लहरी 20 आपको बहाने देती है। जैसे कोई व्यक्ति अपने पिता की हत्या हो जाते और एकान्तमें ध्यानकरते।इस सामूहिक आत्मसाक्षात्कार और सामूहिक ध्यान की, सामूहिक सूझ बूझ तथा अपने करता है। मस्तिष्क उसके लिए भी कोई तर्क देता है। तर्क-संगति अस्तित्व के ज्ञान की कल्पना तो मैने भी न की थी। इस वर्ष तो आपके अहं या बन्धनों के अतिरिक्त कुछ नहीं। आपका अहं विशेषतया इसने नये आयाम बनाये हैं और सब देशों में आपको कहता है कि "यह अच्छा नहीं"। आप उस बात पर अड़ है। "मै जाते हैं। फिर कोई और आपसे इसका कारण पूछता नकोरात्मकता का पर्दा-फाश हो रहा है। सोचता हूं कि यह ठीक नहीं।" सहजयोग में सीधा सा उत्तर है। आप ऐसा क्यों करते है ? मुझे इसका आनन्द आता है। कुछ लोग चर्च जाने का, शराब पीनें का आनन्द लेते हैं। पर सहजयोग में हम इनका आनन्द नहीं ले सकते। यह आनन्द सामूहिक नहीं है।कोई भी इसे अच्छा नहीं कहता । जैसे कोई कहे कि "मुझे शराब पीने मे मजा आता है"। किसी शराबी के नाम पर कोई मन्दिर नहीं बना। शराबी का किसी ने बत नहीं बनाया। शराब को समाज इस प्रकार सहस्रार खुलने पर कुण्डलिनी ने दैवी शक्ति से जुड़ने के लिए ऊपर को बढ़ना शुरु कर दिया और निर्विकल्प अवस्था आने तक यह आप में प्रवाहित थी। जब यह सहस्रार से गुजरती है तो व्यक्ति का सहसार साफ होना चाहिए ताकि दैवी शक्ति का प्रवाह होता रहे, बाधा रहित, बिना किसी अपवित्रता से निकले तथा बिना किसी समस्या में फंसे यह भेदन करती रहे। मुझे प्रसन्नता है कि उस स्तर तक पहुंचने के लिए सभी सहजयोगी की मान्यता नहीं। लोग कह सकते हैं कि मुझे चोरी करना या व्यक्तिगत ध्यान द्वारा भी प्रयत्न कर रहे हैं ताकि यह उत्थान हो हत्या करने का आनन्द आता है। परन्तु यह तो व्यक्ति की निरंकुशता है। समाज इसे मान्यता नहीं देता। इसके विरुद्ध सदा सके। इस प्रकार आप पूर्णतया ज्योतिर्मय हो जाते हैं। पर प्रश्न किया जा सकता है कि क्यों, किसलिए? यह सब प्रतिक्रिया होती है। पर सहजयोग ऐसा नहीं। आप जब कहते हैं कि" मुझे आनन्द आता है" तो आपमें अहं तथा बन्धन नहीं होते। करने का लक्ष्य क्या है? लक्ष्य यह है कि आपका लक्ष्य खो गया है। आप अब किसी लक्ष्य के लिए घ्यान नहीं करते। इतनी योग्यता से यह पाण्डाल बनाया गया पर इसके लिए एक पैसा भी नहीं दिया गया। वर्षां के मौसम में सभी लोगों ने यहां दिन रात मेहनत की । मुझे उनकी बहत चिंता थी पर वे कहने लगे हमें बहुत मजा आ रहा है, वर्षा और ठंड का हम आनन्द ले रहे हैं। किसी को भी शिकायत न थी। अब सहस्रार खुल गया है। एक ओर तो आपका अहं कम हो गया है तथा दूसरी ओर आपके बन्धन टूट गए है। ईसा की पूजा करने वाले लोगों को मैने गणेश की पूजा करते देखा है क्योंकि ईसा की पूजा उन्हें पादरी, दोष स्वीकृति, माला तथा कब्रिस्तान के बन्धनों में घसीटती है। ये बन्धन राक्षसों की तरह प्रकट होने लगते है पर सहजयोगी इनमें फंसना नहीं चाहते। सहजयोगियों ने स्पष्ट देख लिया है कि इन बन्धनों ने मनुष्य को अन्धा करके अज्ञानता में ढकेल दिया। पश्चिम के लोग अहं के बारे अति चेतन हैं। एक लीडर की पत्नी थी। मैने उससे पूछा कि वह अपने पति की सहायता क्यों नहीं करती? कहने लगी "माँ मुझे अहं की चिन्ता है।" एक व्यक्ति मेरे साथ था। अचानक वह दौड़ गया। मैने पूछा कि "क्या हुआ"? कहने लगा कि माँ के समीप रहने वाले लोगों में अहं बहुत बढ़ जाती है। मै अधिक समोप नहीं रहना चाहता। यह मस्तिष्क पागलपन, मूर्खता, आपरिपक्वता, अभद्रता, धोखा, पाखण्ड आदि को स्पष्ट देखता एक बार जब आपका सहस्रार शुद्ध हो जाता है तो आनन्द का यह प्रवाह आपको सोचने ही नहीं देता कि आप परिश्रम कर रहे हैं या कार्य कर रहे हैं। आपको लगता ही नहीं कि आप कुछ कर रहे हैं तब आप प्रश्न ही नहीं करते। यही अवस्था है जब आप दैवी योजना में कार्य करते हैं। आप सब बहुत कार्य कर रहे हैं पर किसी को नहीं लगता कि वह कुछ कर रहाहै। सभी सोचते हैं कि बिना कुछ किए वे आनन्द ले रहे हैं। यह अवस्था सहस्रार का आशीर्वाद है। क्योंकि अपने मस्तिष्क में ही आप यह सारी बातें तथा परिश्रम घटाने की विधियां सोचते हैं । आप यदि किसी को कहे कि फलां व्यक्ति को टेलोफोन कर लो तो वह बहाने बनाने लगते हैं। "हो सकता है वो वहां न हो आदि" आप देख क्यों नहीं लेते । काम घटाने के लिए बिना फोन किए वह सौ बातें कर देगा। यह मस्तिष्क की एक चालाको है। आपकी बुद्धि भी आपको धोखा देती है। सभी गलत कार्यों के लिए यह है। उस समय चकरा कर व्यक्ति पलायन करना चाहता है। सहजयोग में कुछ लोग समस्याएं लेकर आते हैं लोगों को पता चलता है कि अब भी उनमें यह समस्याएं हैं, सहस्रार इन्हें स्वीकार नहीं करना चाहता । वे कहते है "यह भयानक है"। मै भी उस सहसार पूजा 21 शीशा बन जाएं तो पूरी क्रिया ही उलट जाएगी। आपका स्वयं को देखना स्वभाविक है। इसी प्रकार आपका सहस्रार भी आपको बताता है कि आपकी स्थिति क्या है। सातों केन्द्रों की पीठ सहस्रार में है, और उनसे पता चलता है कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है। मानो सहस्रार आपको देख रहा हो और बता रहा हो कि आपमें क्या कमी है। सहस्रार आपको ठीक सूचना देता है अतः स्वयं को ठीक कर लेना ही उचित होगा। उस पूर्णता की स्थिति को प्राप्त कर लें। आपका यही कार्य है। एक बार यदि आप अपना लक्ष्य पा लेंगे तो उसके बाद कोई और लक्ष्य बाकी न बचेगा। दीपक की तरह। दीपक जलाने तक आपको परिश्रम करना पड़ता है। पर एक बार यदि ज्योति हो जाय तो इसका कार्य प्रकाश देना है। पाहला कार्य समाप्त हो रहा है। दूसरा कार्य प्रकाश देना है। आप अपने लक्ष्य, अपनी मंजिल पर पहुंचते हैं। बस। बुद्धि की पागल दौड़ रुक जाती है। क्यों? क्याइसका उपयोग अब शन्ति, आनन्द और सामूहिकता का मजा लेने में होना चाहिए? तो कठिन परिश्रम और भविष्य की योजना करने का अन्त हो जाता है। आपने इसे प्राप्त कर लिया है तो इसका आनन्द लीजिए। ये ऐसे ही है जैसे भूखे प्यासे बाहर से आप आ रहे है और घर पहुंचना चाहते हैं घर पहुंचते ही आपके सामने खाना परोस दिया जाता है। अब आपका क्या कार्य है? जिस खाने के लिए आप दौड़ रहे थे उसका मजा उठाना। परन्तु इसके बाद भी आप दौड़ना शुरु कर दें तो मूर्खता कहलाएगी। जैसा था पर अब मैं वैसा नहीं होना चाहता।" वे उस व्यक्ति को भरत्स्सना करते हैं। उसे वे सहन नहीं कर पाते। मैं कहूंगी कि आपको अभी उन्नत होना है। आपके सहस्रार को इतना बहुत पवित्र होना है कि साबुन की तरह यह भो नकारात्मकता को साफ करदे और ऐसा करते हुए इसे कोई भय न हो। दूसरों के अहं तथा बन्धनों की भी इसे चिन्ता नहीं होनो चाहिए। इस स्थिति को अब हमें प्राप्त करना है। आज 23 वां सहस्रार दिवसहै। मेरी इच्छा है कि आपके सहस्रार के सहस्त्र दल ऐसे शुद्ध हो जाएं कि आपको किसी से भी पकड़ न आए और किसी से भी आपको भय न हो। सभी प्रकार के रोग निवारण करने में आप दक्ष हो जाएंगे और आप ही लोग दूसरों को सुख-शान्ति दे सकेंगे आप ही लोग बाहर जाकर कार्यक्रमों का आयोजन करेंगे। आप ही सहजयोग के लिए जिम्मेदार हॉंगे। जब ऐसा हो जाएगा तो हम देख सकेंगे कि ये सहस्रार के सहस्त्र-देल खुल गए हैं। नहीं खुले। वे देवी की भिन्न सहस्त्र शाक्तियों के प्रतीक हैं। अन्र्तदर्शन द्वारा, स्वयं को देखते सहस्त्र दल अभी तक हुए अपनी त्रटियों को देखें मै इस प्रकार का आचरण क्यों करता हूं मैं इतना आग्रह क्यों करता हूं? क्या समस्या है? मैं स्वयं स्पष्ट क्यों नहीं देख पाता? सहस्रार को इतनी स्पष्टता से आप अपने हृदय और मस्तिष्क को देख सकते हैं और साफ साफ देख सकते हैं कि समस्या क्या है। इस स्तर को पाने की शुद्ध इच्छा से ही सहस्रार की यह पारदर्शिता आ सकती है। आपकी परस्पर कोई स्पर्धा नहीं। हम नहीं कहते कि सहस्रार से बाहर आने के लिए आपने पहला इनाम जोता। सहजयोग में पहला या दूसरा जैसा कुछ भी नही क्योंकि हम कोई दौड़ नहीं दौड़ रहे हैं। इसमें कोई मुकाबला नहीं। हम जो भी कर रहे हैं अपनी सन्तुष्टि के लिए कर रहे हैं। सहजयोग में कोई अन्य परन्तु आनन्द लेने की क्षमता तभी आएगी जब आपका सहस्रार पूर्णतया खुला होगा। अन्यथा आपकी क्षमता बहुत थोडो होगी और आप उस व्यक्ति सम होंगे जो सदा किसी चोज के पीछे दौड़ता रहता है पर जो उसे नहीं मिलती। ऐसे लोग बहुत हैं। वे सुबह से शाम तक कार्य करते हैं। अगली सुबह उठकर वे फिर दौड़ना शुरु कर देते हैं। कब्र में जब तक उनका पैर नहीं होता वे दौड़ते ही रहते है। पर सहजयोग में आनेके बाद आप ये सारी गतिविधियां छोड़ देते हैं और सभी कुछ अपने सहस्रार पर छोड़ देते हैं और सब कार्य होता है। आपको दौड़ना नहीं पड़ता, इतना योग्य नहीं होना पड़ता और न ही सब चीजों की योजना बनानी पड़ती है। सभी कार्य हो जाते हैं। बड़ी सुन्दरता से यह कार्य करता आपको प्रमाण पत्र नहीं देगा। आपने स्वयंईमानदारी से स्वयं को देखना है और प्रमाणपत्र देना है। आपने, आपके सहस्रार और आपके चित्त ने। आपने अपने अन्तस में देखना है कि कहां तक मैने अपनी शक्तियों अपनी करुणा और अपने व्यक्तित्व को साकार किया है। आपको स्वयं इसकी परीक्षा लेनी है शीशे को है। जो भी हो रहा है उसे हमें अपने हित में समझना है। इतना हमें अवश्य करना होता है। एक बहुत बड़ी घटना घटित हो गई है क्योंकि आप जानते है कि सहस्रार का आनन्द निरानन्द है। यदि आप देख रहे हैं तो आप स्वयं अवलोकन कर रहे हैं, आपकी परछाई का अवलोकन हो रहा है जिसे देखने का कर्म हो रहा है। तो आप ही तीन आयामों में हैं। परन्तु यदि आप स्वयं चैतन्य लहरी . 22 इसका अर्थ है पवित्र और पूर्ण आनन्द। इस आनन्द का कोई अन्य उपयोग नहीं। यह तो पवित्रतम है। आखिरकार सारी गतिविधियां किसलिए हैं? एक प्रकार की प्रसन्नता, उत्तेजना या आनन्द प्राप्ति के लिए। सहस्रार के खुलने तथा इसके पवित्र होने पर ही आप जान सकते हैं कि आनन्द क्या है। आप इसकी व्याख्या नहीं कर सकते। किस प्रकार आप घंटो बैठे रहते हैं। सभी लोग देख सकते है कि निश्चिन्त होकर आप जीवन का आनन्द ले रहे हैं। चाहे आप दफ्तर में कार्य कर रहे हों या कुछ और कर रहे हों आप आनन्द मग्न होते हैं। यह महत्वपूर्ण वरदान आप सहजयोग में ही पा सकते हैं क्यॉंकि आपका सहस्रार खुल जाता है। है अतः आगे बढ़े और स्वयं देखें कि आपकी कितनी क्षमता है। सर्वप्रथम आपको स्वयं पर विश्वास करना होगा बिना आत्मविश्वास के आप कुछ नहीं कर सकते। आपको किसी तरह का भय नहीं होना चाहिए। आपको अन्तर्दर्शन भी करना है। अपने अन्दर देखें कि क्या चल रहा है। कितनी अदभुत बात है कि दोपक से शौतल लहरियां आती हैं। मोमबत्ती की लौ से कैसे शीतल लहरियां आ सकती है? स्वयं को सहजयोगी मानना तथा सहजयोग के लिए किए अपने योगदान को मान्यता देना आवश्यक है। सहजयोग का कार्य किए बिना आप जीवन का आनन्द नहीं ले सकते। आपका यही लक्ष्य था जिसे आपने पा लिया है। मैं यहां आपको सहस्रार के विषय में बताने आई थी यदि मैं ऐसा नहीं करती तो मेरे यहां आने का क्या लाभ है? इसी आप सबके याद गखूने के लिए एक अन्य आवश्यक बात यह है कि अभी तूक बहुत से लोग इसमें नहीं उतरे हैं । हमें उनको र सहजयोग में लाना है और आत्म साक्षात्कार देना अत्यन्त आनन्द-दायक है। ऐसे लोग आगे बढ़े औरकार्य हो जाएंगे। बहत लोग जगह -जगह जाकर सहजयोग प्रचार कर रहे हैं। यह जानना आप सबके लिए अत्यन्त आवश्यक है कि आपको प्रकाश मिल गया है और इसे आपने अन्य लोगों तक पहुंचाना है। आगे बढ़ें। अपने अहं तथा बन्धनों के भय को छोड़ कर आगे बढे। आप सशक्त हैं, आप में सारी योग्यता है और आप प्रकार जब आप उस अवस्था पर पहंच गए हैं तो इसका उपयोग केवल अपने हित के लिए न करके जन जन के हित के लिए करना है। आपने सहजयोग के लिए क्या किया ? कुछ समय पश्चात आप बहुत कुछ करेंगे पर आपकों पता भी नहीं चलेगा कि आपने कुछ किया। मुछे आशा है कि आप सब लोग महसूस करेंगे कि आपके सहस्रार पूर्णतया शुद्ध हो गए है, आप पूर्णतया ठीक हैं और आपको इसकी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता ा नहीं। अब आप सहजयोग फैलाने के लिए आगे बढ सकते हैं। परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें। सभी कुछ प्रसन्नता तथा आनन्द पूर्वक करेंगे। हर स्थान पर, हर देश में लोग यह कार्य कर रहे हैं। पर कुछ लोग कर रहे हैं और कुछ नहीं कर रहे। आप सभी लोगों में इसको करने की योग्यता ५] सहसार पूजा 23 Printed at Bharati Printers, WZ-113, Shakurpur Village, Delhi-110034 Phone : 5413126, 5437741 ---------------------- 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड : V. अंक : 9 एवं 10 न हर "मेरे और आपके सम्बन्ध निःसन्देह घनिष्ठ हैं। परन्तु यदि आप ध्यान- धारणा नहीं करते तो मेरा आपसे कोई रिश्ता नहीं ।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी 2354 ० 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-1.txt चैतन्य लहरी खण्ड : V, अंक : 9 एवं 10 विषय सूची पृष्ठ (1) श्री गणेश-गौरी पूजा (2) श्री आदिशक्ति पूजा 11 (3) गुरु पूजा 16 (4) सहस्रार पूजा 20 चैतन्य लहरी 3. 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-2.txt ि् निः नं कि श्री योगी महाजन श्री विजय ताल गिरकर सम्यादक मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार नई दिल्ली-110067 भारती प्रिन्टर्स, WZ-113, शकूरपुर गाँव, दिल्ली-110034 फोन : 5413126, 5437741 मुद्रित चैतन्प लहरी 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-3.txt श्री गणेश-गौरी पूजा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन नला बम्बई-18-9-88 ८म जाये, हमारा बिजनेस ठीक हो जाये और हमें बड़ी मान्यता मिले। चुनाव में जीत जायें। यह तो सभी मांगते हैं। इसमें कौन सी विशेषता है? लेकिन सहजयागियों को सोचना चाहिए कि सृष्टि को रचना की शुरुआत जिस टंकार से हुई उसी को हम ब्रहानाद अर्थात ऑकार कहते हैं। इस टंकार से जो नाद विश्व में फैला वो नाद पवित्रता का था। सबसे प्रथम परमात्मा ने इस सृष्टि में पवित्रता का संचार किया। सर्व वातावरण को आज जो हम एक नये स्तर पर खड़े हैं एक नई मंजिल पवित्र कर दिया। चैतन्य रुप आज भी आप जान सकते हैं। पर खड़े हुए हैं तो इससे हमें क्या पाने का है और हमारी उसे महसूस कर सकते हैं। वही ऑकार चेतन स्वरुप आपको क्या इच्छा है? फिर यह बात आती है कि जिस गणेश को भी पवित्र कर रहा है। श्री गणेश की पूजा हर पूजा में हम लोग करते हैं। और आज तो उन्हीं की पूजा का बड़ा भारी आयोजन आप लोगों ने किया है। लेकिन जब हम किसी की आप आज पूजते हैं साकार में, उसे निराकार में प्राप्त करना है। उसको अपने अन्दर प्राप्त करना है अपने अन्दर बिठाना है। यह नहीं कि गये और उनको फूल चढ़ा आये। ये तो सभी करते हैं। उनकी पूजा कर ली। माँ की भी पूजा हो गयो। गौरी की भी पूजा हो गयी। लेकिन उनकी शाक्ति आप अपने अन्दर समाहित कर सकते हैं। आप उससे अपने चित्त को, अपने मन को, बुद्धि को, वाणी को भी शुद्ध कर सकते हैं । लोगों को भी आप ये शाक्ति दे सकते हैं। ये गणेश ही ने पुजा करते हैं तो हमारी विविध प्रकार की मांगें होती है। कुछ लोग कामार्थी होते हैं कुछ लोग पैसा मांगते हैं। कुछ लोग कहते हैं हमारा कार्य ठीक से हो जाये। कुछ कहते हैं कि हमारी दुनियां में बड़ी शोहरत हो जाये हमें बड़ा मान मिले। कोई कहता है कि हमारी नौकरी अच्छे से चले। कोई कहता है कि हमारा बिजनेस चलना चाहिए। कोई कहता है कि हमारे मकान बनने चाहिए। ये सब कामार्थ की बातें हैं। और इसो आपको बनाया। जिस तरह से हमने गणेश को बनाया उसी तरह से आत्मसाक्षात्कार देकर आपको बनाया उसमें कोई क फर्क नहीं। एक ही तरह से, एक ही ढंग से बनाया। लेकिन यहां गणपति के नाम पर जो दंगें हो रहे हैं इसलिए पूना तरह की मांगों के लिए मनुष्य गणेश की पूजा करता है। यहां पर जो सिद्धि विनायक है उनकी भी जागृति मैनें बहुत साल पहले की थी। सब लोग सिद्धि विनायक के पास जाकर कहते में आजकल बरसात हो रही है। और तब तक बरसात होनी चाहिए जब तक गणपति विसर्जित नहीं हो जाते। विसर्जन हैं हमें यह चौज दे दो, हमें वो चीज दे दो, लेकिन यह सिद्धि विनायक है। ये चीजे देने वाला नहीं हैं। उसके लिए बहुत करने की जरुरत नही रह जानी चाहिए। वहीं भीग-भाग कर से, दुनिया में चमत्कार करने वाले बैंठे हैं जो आपको हीरे विसर्जित हो जाएंगें। गणपति उत्सव के मैने जो किस्से सुने दे देगें, पन्ने दे देंगे और आपका सर्वस्व छीन लेगें। ओंकार तो मैं आवाक रह गयी कि गणपति के सामने शराब पीते हैं। वहां बैठ कर शराब पीते हैं। गन्दे-2 गाने गाते हैं। उसके 2 नृत्य करते है। और सब गन्दी तरह की औरतें वहां जमों रहतो हैं। और सब तरह के धन्धे करते हैं। ये तो स्वयं निराकार है उसका कोई आकार नहीं है। सो सर्वप्रथम जो श्रीगणेश का आकार था वो निराकार था आज हम उनकी साकार में करते हैं। लेकिन सहजयोगियों को जानना चाहिए कि हमारे जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है? हम क्या चाहते है उसकी पूर्ति हमने की है? हम किसलिए सहजयोग में आये हैं? इसलिए आये है कि हमारी तन्दरुस्ती ठीक हो आगे गन्द- पूजा गणपति की विडम्बना हो गयो| लोकमान्य तिलक ने बताया था कि गणेश उत्सव को सामाजिक बना दीजिए। संगीत तथा व्याख्यान मालाओं से लोगों श्री गणेश - गौरो पूजा 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-4.txt लक्षण नही हैं। सहजयोग जो करते हैं उनको याद रखना चाहिए कि हमें निराकार में उतरना है। यानि आप निराकार में एक तरह का जागरण हो जाए। पर ये तो अच्छे भले लोगों को खराबी के रास्ते पर ले जाने की पूरी व्यवस्था हो गयी है। जितना बड़ा गणपति उतना ही वहां पाप ज्यादा। और ऐसे गणपति के सामने पाप करने से वो कोई छोड़ेंगे? वो इन लोगों को छोड़ने वाले नहीं। और जब तक हम बैठे हैं ठीक है, लेकिन बाद में वो ठिकाने लगा देंगें । क्योंकि वो जानते हैं कि कहां-2 काम करना है। और कहां मेहनत करनी है। अब मुझे यही डर रहता है कि होने क्या वाला है। पुण्य-पटनम जिसे कहते है। एक पूरणे शहर में वैसे ही एक राक्षस बैठा हुआ है और भी बहुत सारे वहां इकट्ठे हो गए हैं उसके अलावा ये जो गणपति के नाम पर अनाचार नहीं होने वाले। साकार में रहते आप निराकार के ही हुए पूरी तरह से माध्यम बनने वाले हैं तो सर्वप्रथम हमने अपने अन्दर गणेश जी को जगाना है। सिर्फ पूजा मात्र ही नहीं हमें उसे अगर जगाना है तो सर्वप्रथम हमें देखना चाहिए कि हमें शुद्ध होना है। हमारे अन्दर शुद्धता आनी चाहिए। सबसे पहली शुद्धता है कि हमारी जो मौलिक बातें हैं उसकी ओर ध्यान देना हैं। आजकल सिनेमा और आजकल की सब चीजें आने से हमारी आंखे तक खराब हो गयी । और वो अबोधिता, वो निश्छल और निर्वाज्य त्याग संसार से मिट गया है। कोई सोच भी नहीं सकता कि ऐसा कोई क्या कर सकता है। और इस उधेड़ बुन में मनुष्य रहता है कि किस तरह, से हम इस कार्य को ऐसा करें कि जो सहजयोग भी चलता रहे और हमारे ये धन्धे भी चलते रहें। जैसे कल एक औरत कहने लगी कि मेरे पति एक दूसरी औरत के पीछे पड़ गए। मैने कहा उसको छोड़ो। नही वो कहते है मैं तो परम सहजयोगी हूं। मुझे कैवल्य मिल गया है माता जी से मेरा ओर सम्बन्ध है और ये सम्बन्ध मेरा ओर है। मगर मच्छ के ऊपर चढ़कर आप पार नहीं उतर सकते। और जो लोग इस तरह के कामों में और इस चीज में अभी उलझ रहे हैं उनको उचित है कि वो सहजयोग छोड़ कर के हमें रिहाई दें। और अपने से छुट्टी पाएं। उनको जो होना है वो होगा ही लेकिन सहजयोग बेकार में बदनाम होगा। अभी अगर चित्त इस तरह से उलझता है तो समझ लेना चाहिए कि बिल्कुल ही बुनियादी चीज को आपने नहीं अपनाया है। हमारे सहजयोगियों को भी समझना चाहिए कि हमें किस तरह से अपनी शक्ति को अपने अन्दर पूर्णतया जीवित रखना चाहिए। और किस तरह से हमें अपनी पवित्रता पर अपनी कुंवारी अवस्था पर, अपनी गौरी स्थिति पर गर्व होना चाहिए। क्योंकि ये स्त्री की शक्ति है। अगर स्त्री की शक्ति छिन जाती है तो फिर ऐसी स्त्री किसी काम की नही रह जाती। इसीलिए ऐसी स्त्री को कोई पूछता भी नहीं और उसे मानता भी नहीं। हालांकि आजकल आप लोग दुनिया में देखते हैं कि बहुसंख्य लोग शुरु कर दिया है। मनुष्य के अहंकार ने उसका इतना पतन कर दिया कि वो भगवान के नाम पर हर तरह की बुराइयां करता है। बिल्कुल बेशर्म जैसे। उन्हें कुछ मालूम नहीं कि क्या आफत आ सकती है। आज हम बहुत धर्म-धर्म करते रहे हैं लेकिन धर्म का जो हाल है उसका तो किसी को घूम ध्यान ही नहीं। अब धर्म को राजकरण में लाने क्या फायदा? धर्म ही धर्म नहीं रहा । गणपति को जब ओप लोग पूजते हैं तो आपको पता होना चाहिए कि आप सहजयोगी हैं। आप योगीजन हैं। ऋषि और बड़े महान लोगों को भी जो नहीं मिला वो आपको आज सर्वसाधारण तौर पे मिला है। सब को मिला है। रास्ते पर आ गए। सब कुछ पा लिया। लेकिन जब हम कोई बात कहते हैं तो आप लोग अपनी तरफ कभी भी नहीं देखते। आप सोचते हैं कि माँ ये बात किसी और को कह रही हैं। ये नहीं सोचते की हम भी उसी में से हैं कि हमारी दृष्टि कहां है. हम क्या सोचते हैं? माता जी देखिये- ये मै एक घर ले रहा हूं इसको आप आशीर्वाद दीजिए। अरे भई तुम हो तो वहां आशीर्वाद तो होना ही हुआ। अच्छा नहीं माता जी देखिये मैरी चाबी जो है मोटर की आप इसे आशीर्वाद दीजिए। तो चाबी लिए खड़े हैं। मै तो ऐसा आशीर्वाद दूंगी कि गाड़ी चलेगी ही नहीं। और फिर जबरदस्ती कर रहे है कि आप मेरे घर आओ। मेरे घर नही आओगे तो ये होगा और फिर वहां जाकर हम सुनेगे कि मेरा बिजनेस ऐसा है, वैसा है। ये सहजयोगियों के चैतन्य लहरी 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-5.txt ऐसी औरतों को मानते हैं जो बिल्कुल गंदगी से लबालब हैं। जिनमें पवित्रता छुई भी नहीं। अत: ये बहसंख्य नर्क की ओर रहा है। जिसका शुद्ध चित्त होता है सिर्फ विचार मात्र से कार्य हो सकता है। ध्यान देने से ही कार्य हो सकता है और कभी-2 तो उसकी भी जरुरत नहीं होती। जिस स्थिति को आप प्राप्त जा रहे हैं। इनका जो हाल होने वाला है वो मुझे आज ही करना चाहते है, अपना लक्ष्य जिसे आप प्राप्त करना चाहते है, वो चैतन्य जिसे आप अन्दर बसाना चाहते हैं, जिसके अन्दर ये शक्ति है, जिस शक्ति के कारण आप अनेक कार्य कर सकते है, उसको छोड़ करके आप क्यों बेकार चोजों के पीछे पड़े है। सहजयोग में आकर भी चित्त, पैसे कमाने में, अपनी बीमारी ठीक करने में लगा रहता है। उसके बाद दिखाई दे रहा है। बहरहाल आप बहुसंख्य नहीं है। आप अल्पसंख्य हैं। और आपकी स्थिति और है। इसलिए जान लीजिए कि इस तरह के कामों में उलझना आपको बिल्कुल शोभा नहीं देता। पर अभी भी मैं देखती हूं कि कुछ लोगों का चित्त इधर- उधर बहुत घूमता है। हमारी नैतिकता ठीक होनी आवश्यक है। पर हिन्दुस्तानियों में नैतिकता का बल कम र म चित्त उठा तो ज्यादा से ज्यादा ये कि माँ के दर्शन होने चाहिए। जगह जगह से लोग आ जाते हैं कि माँ के दर्शन करने हैं । दर्शन नहीं होते तो लड़ पड़ते हैं सबसे । दर्शन तो तुम्हारे हृदय में ही हो सकते हैं। अरे, तुम को इतनी शक्ति दे दो उसके ही दर्शन करो, बहुत है। हम तो शक्ति ही हैं ना। हम को निराकार में तुमने प्राप्त नहीं किया है । इसलिए दर्शन चाहिए। है लेकिन भौतिकता का बल वहां जबरदस्त है। भारत के लोग भौतिक चौजों के पीछे पड़े हैं। गणपतिपुले में भी लोग कहते है कि साहब हमें ये चीज मिली है पर अभी तक ये चीज नही मिली। ये भी दे दोजिए। कितना ओछापन है? सब पैर को ठोकर पर होना चाहिए। जब तक ये शान आपके अन्दर नहीं आएगी तो आप कहां के सहज योगी हो सकते है। तुकाराम को देखिए। राजा जनक को देखिए। राजा थे- तो राजा बैठ करके घंटो इधर की बात उधर की बात, समय बरबाद करना। क्या जरुरत है। शक्ति स्वरुप होने में आप स्वयं शक्ति हो सकते हैं। लेकिन ये रुकावटें कब जाएंगी और कब हम समझेगें कि हम स्वयं वो शक्ति स्वरूप हो सकते है और हमारे अन्दर इतनी शक्तियां हैं। उनके अन्दर हमें रमना चाहिए। जिसके कारण कुछ भी ना करते हुए सारा काम हो जाए। लेकिन ये विचार दिमाग में नहीं आता। अज्ञान, ममता, मोह माया ने जकड़ा हुआ है। सहजयोग में आने के बाद आपका जीवन बदल गया। आप दूसरे खानदान में चले गए। आपका घर बदल गया। आपका गोत्र बदल गया। आपकी जाति बदल बनकर रहते थे। जब तक आपके अन्दर ये भौतिकता भरी हुई है आपका पहला चरण मंदिर मे नहीं आ सकता। ठीक है मां देना चाहती हैं क्योंकि इसी तरह से तो मैं जता सकती हूं कि मैं आपको प्यार करती हूं । लेकिन इसका मतलब ये नही कि मेरे लिए वो बहुत बड़ी चौज है। बहत बार शब्दों से नहीं कहा जा सकता। मेरे कटाक्ष को आप समझ नहीं सकते। तब हो सकता है चीजों से ही मैं जाहिर करना चाहती हं कि मैं आपके साथ हूं और आप मेरे साथ हैं। आप मेरे बच्चे हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप पागलों जैसे भौतिकता पर जुड़े रहें। अगर माँ ने छोटी सी भी चीज दी गयी। आपका धर्म बदल गया। आप पूरी तरह से बदल करके एक नये व्यक्ति हो गए। नये मानव हो गए हैं क्योंकि आपकी माँ ने आपको जागृति दी है। तो आप सब पूरी तरह से बदल गए। जैसे एक गणेश जी को बनाने से हमारे हजारों काम, करोड़ों काम हो जाते हैं क्योंकि उनके अन्दर पूर्णतया माँ में ही श्रद्धा, माँ के प्रति पूर्णतया शरणागत होना ही उनका ध्येय है । सो जब तक वो शुद्धता हमारे हृदय में नही आएगी, है तो उसको बहुत ऊंचा समझ कर सर पर रखना चाहिए। श्री गणेशे की तरह मनुष्य को अपना चित्त स्वच्छ कर लेना चाहिए। चित्त स्वच्छ करने का तरीका ये है कि चित्त कहां है आपका-चित्त अगर परमात्मा में है तो शुद्ध है। क्योंकि चैतन्य आप में बह रहा है। अगर चित्त आपका इधर-उधर है तो उस चित्त का फायदा क्या ? जब तक जब तक हमारे मन में हम उस शुद्धता को प्राप्त नही करेंगे तब तक वो श्रद्धा आएगी ही नही। ये तो ऐसा ही है कि जब आपका चित्त नहीं होगा तब तक आप ज्ञान को प्राप्त शुद्ध ही नहीं कर सकते । चित्त में ही आपका सारा चैतन्य बह श्री गणेश-गौरी पूजा 5n 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-6.txt सृष्टि सारे संसार में है अत: जो आनन्द है इस आनन्द के प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम आपको गणेश जी जैसे होना के बाद तक आप गंगा पर नही जाएंगें और उसमें गगरी नही डुबाऐंगें और गगरी के अन्दर जगह नही होगी तो उसमें पानी कैसे चाहिए। उसकी ओर कौन ध्यान देता। आज पूजा भी आप सोचिएगा कि हमें गणेश जी जैसे अबोध होना चाहिए। चलो कोई आपको ठग भी ले। हमें भी बहत लोग कहते हैं कि मां आप बहुत सीधी हैं। आप बहुत ठग लेते हैं। मुझे ठगने वाला अभी तक पैदा नहीं हुआ। लेकिन मैं अपनी माया में उनको थोड़ी देर जरुर दिखाती हूं कि तुम लोग मुझे ठगो। जिससे मैं जानूं तो सही कि कैसे ठग हो। नही तो मैं जानूंगी कैसे की ठगी क्या होती है। लेकिन मुझे तो मालूम ही नहीं की ठगी क्या चीज होती है। जब ये मुझे ठगते हैं तब मुझे पता चलता है कि ये ठग हैं और ये आएगा। सो जरुरी है कि हम अपने चित्त को शुद्ध करें। और चित्त को शुद्ध करके, उस शुद्ध चित्त को हम अपनी माँ को दे सकते हैं । है। और जब शुद्ध चित्त होता है तो आपको आश्चर्य होता है कि आप स्वयं ही एक पुष्प की तरह महकते रहते हैं और आपको देख करके मैं भी बहुत प्रसन्न हो जाती हूं। वाह क्या मेरा बेटा खड़ा हुआ है। क्या मेरी बेटी खड़ी हुई है। ओर कोई भी चौज मुझे प्रसन्न नहीं कर सकती। व्यर्थ की आधुनिकता को प्राप्त कर लेना गणेश की ओर से मुंह मोड़ लेना है। उनकी क्या बात है, वो तो पुरातन हैं और हम भी अशुद्ध चीज से तो हमें तकलोफ ही होती रहती भोली हैं अपको लोग तुम त बहुत पुरातन हैं। इसलिए अगर आप हमारे बेटे है और हमारी ठगी होती है। फिर उधर चित्त देने से वो ठग भी खत्म हो बेटियां हैं तो जिस संस्कृति को हम पुरातन मानते हैं उसी जाता है और ठगी भी। सो जरुरी है कि मनुष्य को वह भोलापन से आपको चलना होगा और रहना होगा। आधुनिक पहनावे सीखना चाहिए। शंकर के लिए भी यही कहा जाता है कि बहुत खराब दिखाई देते है। विदेशी सहजोगी भी कहते है आप हमे आज्ञा दे दो हम साड़ियाँ और कुर्ते पायज़ामें पहन कर है? देवी के लिए कहते हैं कि जिस वक्त उनको बहुत क्रोध घूमेगें। लेकिन हमारे यहां उल्टा है। तो जो गणेश की संस्कृति आया और उन्होंने सारी सृष्टि का संहार करने का विचार उनमें भोलापन है। कौन से ऐसे देवता हैं जिनमें भोलापन नही कर लिया तो सब लोगों में हा हाकार मच गया कि जब है इसका अन्तरभाव है सौन्दर्य। अब आप देखिए ऐसे तो वो मां ही बिगड गयी तो अब क्या होगा हमारा। सबको लगा कि अब तो सर्वनाश हमेशा के लिए हो जाएगा। और फिर से सृष्टि की रचना नही होगी। उस वक्त शंकर जी को एक बात सूझी कि उन्हों के बच्चे को उनके पैर के नीचे डाल दिया कि मारना है तो इसी बच्चे को मारो । इतनी बड़ी जीभ उनकी निकल आयी। बाप रे मैं अपने बच्चे को ही मिटा रही हूं। ये बच्चों के लिए सभी के हृदय में लाड़-प्यार उमड़ता है। ईसा मसीह ने कहा है कि तुम को अगर परमात्मा के साम्राज्य में जाना है तो छोटे बच्चों जैसे तुम्हें होना चाहिए। यही गणेश की पूजा है कि आप मे अबोधिता हो, बच्चों की बहुत मोटे है। उनका तोंद इतना बड़ा है। महाकार्य हैं गणेश। इतने मोटे दिखाई देते हैं। लेकिन उनका सौन्दर्य क्या है। किस चीज का आकर्षण है ? लोकमान्य तिलक ने क्यों गणेश जी की मूर्ति को माना? ऐसे तो महाराष्ट्र में लोग विट्ठल - 2 करते रहते हैं सुबह से शाम तक। वहां के विट्ठल भी उठ गए। यहां तो विट्ठल की बीमारी है सबको। तम्बाकू खाकर। लेकिन क्यों लोकमान्य तिलक ने श्री गणेश को ही पूजा और क्यों वो ही सारे सृष्टि की जितनी भी सुन्दरता है उसे बनाते हैं ? उनका कौन सा स्थायी भाव है जिसके बगैर श्रीराम, श्रीकृष्ण, ईसा मसीह या बुद्ध या कोई भी सौन्दर्य मे नहीं उतर सकते थे। तरह आप निर्माह हां। सभी कुछ आपके लिए खेल सम हो। बालसम भोलापन आपमें हो। आत्मसाक्षात्कार को पाकर भी यदि गणेश की श्रद्धा और समर्पण शक्ति की अगर हम प्राप्त वो कौन सा उनके अन्दर भाव था। उनका स्वभाव एक बालक का स्वभाव है। जिसमें अबोधिता है। पूरी अबोधिता उसके अन्दर भरी हुई है। ये ही चीजें हैं जो सबसे मोहक और सुन्दर होती है। ना कि आपकी चालाकी और आपका बनना-ठनना। लेकिन जो अबोधिता श्री गणेश की है, वही सारे सौन्दर्य की नही कर सकते तो बाकी सब करना तो व्यर्थ ही है एक तरह से मेरे ख्याल से बिल्कुल ये उस मशीन की तरह है जो मंत्र ं चैतन्य लहरी 6. 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-7.txt कह डाले । उनका मंत्र जरुर कहा कीजिए। लेकिन मेरे ख्याल सहजयोग में आने से असल में पूरा ही लाभ है क्यंकि जिस से गौरी की पूजा उठाती है। गणेश को आप साकार ही में देख सकते हैं निराकार ही है। लेकिन आप सिंहासन पे न बैठकर हर दरवाजे जाकर में देख नहीं पाते। क्योंकि अभी तक आपने गोरी का संचालन भीख मांगेगें तो आप तो भिखारी ही रहे। आपको सिंहासन नही किया और गोरी का आसरा नही लिया आप सिर्फ गणेश पर बैठाने का फायदा क्या। और सिंहासन पर बैठकर भी को ही देखना चाहते हैं। आज गोरी का ही दिन है। ऐसा कुछ आप कहेंगे कि मां अब थोड़ा रुपया-पैसा दे दो तो इस चीज इत्तिफाक है कि सहजयोग में हमेशा सहलियत से पूजा होतीका क्या प्रभाव है? गणेश की शक्ति अगर अपने अन्दर जागृत है। मुहूर्त पे नही होती । कुछ भी हो सहुलियत होनी चाहिए । रविवार का दिन होना चाहिए और वो टाइम होना चाहिए की ओर चित्त देना चाहिए। चैतन्य की ओर चित्त देना चाहिए जब फिल्म न आ रही हो। अगर ये हमारी स्थिति है तो क्या और चैतन्य जो हमारे अन्दर बह रहा है उसको देखना चाहिए। फायदा गणेश जी की पूजा करने का? अगर हमारा चित्त जिनका चैतन्य दूषित है वो ये ही कहेगा मुझे भूत लग गया। ऐसी हो चीजों में उलझा हुआ है तो आप लोग ये समझ लीजिए गणेश को कभी भूत नही लगता। तुम को तो मैने अपने शरीर कि इसका कोई इलाज हम नही कर सकते। इसका कोई इलाज में स्थान दे दिया। ऐसा तो किसी ने नहीं किया होगा। वड़ी नहीं। सो चित्त हर समय देखते रहना चाहिए कि इसमें कौन तकलीफें उठाती हूं आपकी सफाई के लिए। लेकिन आप लोग से विचार खड़े हो रहे हैं । उस पर नामदेव ने कहा है कि वक्त आप अपने सिंहासन पर बैठ गए तो पूरा राज आपका ठीक रहेगी। वे कुण्डिलनी हैं वो आपको करनी है तो सबसे प्रथम जानना चाहिए कि हमें निराकार अपनी सफाई नहीं कर सकते। आकर लोग कहँगे माँ मेरा आज्ञा पकड़ गया। मुझे अहंकार हो गया, क्यों हुआ? उसकी वजह ये है कि अपने दोषो को हम नही देखते है। दूसरे लोगों को कहते है कि ये तुम्हारा काम है। और ये तुम्हारी वजह से है। यदि श्री गणेश को पता चल जाए और मेरी नजर अगर उन पर नही हो तो सबको ठिकाने लगा दें। मैं आपको बता रही हूं इतने वो माहिर है, होशियार हैं, सतर्क हैं, दक्ष हैं कि जानते है, कहां पर कौन बैठा है। मुझे भी सब मालूम है ये नहीं की मुझे नहीं मालूम। लेकिन, मैं सुरक्षित रखना चाहती हूं आपको लेकिन वो नही। वो कहते हैं कि बेकार के लोगों को क्यों माँ के पीछे लगाना। वो तो ऐसे ही ठिकाने कर दें । लेकिन सबसे बड़ी चीज जो मेरी समझ में नही आती कि ये सब होने के बाद भी आपकी वाणी शुद्ध वाणी में बहुत से लोग गालियां देते हैं। अभी भी सहजयोग में चीखते है, चिल्लाते हैं, जोर से बोलते हैं। उसमें प्रेम माधुर्य जैसे एक छोटा बच्चा हाथ में पतंग की डोरी लिए हुए सब से बात कर रहा है और हंस रहा है, मजाक कर रहा है, लेकिन उसका चित पूरा उस पतंग की ओर है। उसी प्रकार एक योगीजन को अपना चित्त पूरा उस पतंग पर रखना चाहिए। अपने आत्मा पे। नहीं तो ये सारी शक्तियां जो दी हुई हैं उनकी कोई पूर्ति नही हो सकती । उसका कोई प्रादुर्भाव नही हो सकता। लोग पूछते हैं कि माँ ऐसा क्यों होता है जैसे कि आप जानते हैं कि आकाश में और अन्तराल में फैंकी जानी वाली चीजें एक के अन्दर एक बिठाई जाती हैं। पहले विस्फोट की शाक्ति से जब यान एक हद तक पहुंचता है तो. उसमे दूसरा विस्फोट होकर उसे ऊपर ढकेलता है। इस प्रकार ये विस्फोट उसकी शक्तियों को बढ़ाते रहते हैं ऐसे ही विस्फोट हमारे अन्दर क्यों नहीं होते ? क्योंकि अभी भी हम दस पैसे में खरीदे जाने वाले गणपति जैसे ही हैं। अगर असली गणपति हों तो उसका विस्फोट होना चाहिए। और नहीं होती। कुछ है हो नहीं। इसका मतलब आपकी वाणी भी शुद्ध नहीं। और ऊपर से दिखावा जिसे कहना चाहिए कि हम बड़े मुस्करा रहे हैं। बड़े हंस रहे है बहुत ही खुश हो रहे हैं। और अन्दर से तो मैं देख रही हूं उनका हृदय ही स्वच्छ नही । वो जो असली आनन्द का मजा है उसकी चमक ही और होगी और लोगों को पता चलना चाहिए कि एक -एक आदमी क्या कमाल का है। पर ऐसा नहीं होता है। हम अपनी ही चीजों में उलझे रहते है अपनी हो बातो में, अपने ही बारे में सोचते हैं। हर समय सोचते हैं कि इसमें हमारा क्या लाभ है? श्री गणेश-गौरौ पूजा 7 सा 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-8.txt लगता है। कभी उन्होने मुझे साकार में देखा नहीं। लेकिन उन्होने शक्ति पर बल दिया है। अगर आप अभी भी इसी साकार स्वरुप से ही तृप्त है तो आप आगे नही बढ़ सकते । आपको निराकार में हमें प्राप्त करना होगा जिससे कि आपके अन्दर की सृजन शक्तियां बढें। श्री गणेश की शक्ति के संचार से हम स्वयं ही मुक्त हो जाते हैं। हम कितनी बार कहते हैं कि हम स्वयं के ही गुरु हैं लेकिन ऐसे कितने लोग है जो अपनी टांगों पर खड़े होकर कह सकते हैं कि हां माँ ये चौज है इसका हमारे पास उत्तर है? हमर्मी से उसका उत्तर मांगते हैं और जब वो देने लग जाते हैं उत्तर तो ऐसे उत्तर होते हैं कि सारी दुनिया निरुत्तर हो जाती है। क्योंकि जो उत्तर देते है इतने अहंकार भरे। इतने बेवकूफी के कि समझ में नही आता कि ये सहजयोगी हैं अश्रद्धावान लोगों को नुकसान होता है। हम से तो छुप नही सकती वो। आप कुछ भी पोत कर आइये, हम पहचान जाएंगें कि आप कितने गहरे पानी में हैं। लेकिन हम भी आपको क्यों परखते है? किस वजह से परखते हैं? इतनी मेहनत क्यों करते हैं? क्योंकि हम चाहते हैं कि आप लोग सब चमक जाएं। लेकिन जब तक आपके मन में अपना हित न आए, जब तक आप अपने अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति की तरफ ध्यान न दें और फालतू चीजों में उलझे रहें, ऐसा नहीं हो सकेगा। अन्तर्दर्शन करने से हमारा चित्त ऊपर की ओर जाता है और हमारे अन्दर चैतन्य बहने लगता है। एक दो आदमियों को अलौकिक करना तो बहुत आसमन चीज है। लेकिन मै तो चाहती हूं कि सामूहिकता में हम लोगों का उत्थान हो। आज उसकी जरूरत है। नही तो सोचें की ये समाज कहां जा रहा है। एक से एक चोर उच्चके बैठे हुए हैं। सारी दुनिया भर की परेशानियां लोगों को लगी हुई हैं। और इसके अलावा इतनी अनेतिकता माने घोर कलियुग है। क्या आप अपने बच्चों को खत्म कर देना चाहते हैं ? या जिस विशेष महान कार्य लीजिए । पर इन दोषों के रहते हुए वो कैसे हमें अपना माध्यम के लिए आप इस संसार मे आये हैं उसे करना चाहते हैं ? बना सकते हैं ? उनके माध्यम बनने के लिए हमारे अन्दर आपकी सारी समस्याएं हल हो गई पर अभी लालच खत्म सारी शक्तियां हैं। हमारे अन्दर जागृति है। हम उनके बारे में ही महीं हो रहे। और उसके लिए भी मुझे परेशान करना जितना जानते हैं कोई भी नही जानता था। सहस्रार के बारे इर समय। मुझसे सिर्फ सहजयोग पर ही प्रश्न करने चाहिए। और कोई सा भी दूसरा प्रश्न करना गलत है। आपके अन्दर सृजन शक्ति है, विचार शक्ति है। आपके अन्दर वो शक्ति मतलब यह नहीं की पुस्तक को पढ़ने से ही हो जायेगा मंत्र है जिससे आप दुनिया को चमका सकते हैं। तब आप क्यो के कहने से ही आप शक्तिशाली नहीं हो सकते। मंत्र का बार-बार ये चाहते हैं कि माँ ही इस बात पर बताएं। आप जो स्थायी भाव पवित्रता है उसकी ओर चित्त का होना स्वयं प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। आपको अपने बच्चो से प्यार है तो उनमें शक्ति का संचार करो। वो बच्चे कमाल के हो की हाथ में पतंग हो और उड़ान उसकी ऊपर हो| इसी प्रकार जाएंगें। हो ही जाएंगे अगर आपको अपने घर से प्यार है जब तक आपके जीवन में न हो कि हमारी उड़ान कहां है। तो उसमें शक्ति का संचार करो मंदिर हो जाएगा। आपकी बहुत से लोग ये कहते हैं कि माँ हमें परमात्मा से साक्षात्कार बुद्धि में अगर कोई दोष है या आपको हर समय सवालात बहुत दिमाग में आते हैं आप उसमें शक्ति का संचार करो सब चीजों का उत्तर आपके सामने आ जाएगा। आपको मुझसे पूछने की जरुरत क्या है। आदिशंकराचार्य को क्या मैंने जाकर बताया था? तुकाराम को क्या मैने जाकर बताया था? सबसे तो बड़ा ज्ञानेश्वर जी को, उनकी किताबें पढ़ो तो आश्चर्य हम कहते हैं कि-है परमात्मा हमें अपना माध्यम बना में किसी ने लिखा तक नहीं। वो भी हम जानते हैं। सारी चीज आज हमारे सामने पुस्तक के जैसे खुली हुई है। लेकिन इसका आवश्यक है। दोनों में समांजस्य का होना आवश्यक है। जैसे कब होगा? यह मैं कैसे कह सकती हूं ? अपना क्रोध जिस आदमी के काबू नहीं हो सकता वो क्या सहजयोग करेगा ? कृष्ण ने क्रोध की सबसे पहले बुराई की। क्रोध सबसे खराब चीज है। सम्मोहन लाने वाली चीज है। सो हमारे अन्दर जो गणेश की शक्ति है उसे जागृत करने में ये सोचना चाहिए कि हम पवित्र हों और पवित्रता में उनका सौन्दर्य स्वरुप जो चैतन्य लहरी 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-9.txt भोला स्वरुप है उसे लेना चाहिए। पर लोग कहते हैं कि हम रिद्धि सिद्धी सब उसके पैर के पास। वो खुद जानता भी गणेश है। उनका फर्सा लेकर हम किसी को मार सकते हैं। नहीं, सोचता भी नहीं। सारे काम अपने आप होते रहते हैं। वो शक्ति आपके पास नही है। वो फर्सा आपके हाथ में नही ये अनुभव सिद्ध है। ये मैं बात ऐसी-वेसी नही कह रही हूं । है। वो शक्ति जिस दिन आप में आएगी तो आपके हाथ में ये अनुभव सिद्ध है । आप लोग जानते कै, मेरे बारे में जानते फर्सा दिया जाएगा। अभी तो आप ही का भूत आपको मार है वो आपके बारे में क्यों नही होना चाहिए? अभी तो हमीं रहा है। आप भूत हैं जो आप चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं आपके लिए रिद्धि-सिद्धी बने आपके पीछे-2 घूम रहे हैं। और गुस्सा कर रहे हैं। दूसरों को मार रहे हैं। ये गणेश शक्ति पर सबका समय होता है। आपको भी अपनी मंजिल को छोड़ हो ही नहीं सकती क्योंकि आपको पता ही नहीं कि आप करके दूसरी और मुडना नहीं चाहिए। अपनी नजर उन्नत किस पर चिल्ला रहे हैं ? क्यों चिल्ला रहे हैं ? क्या कर रहे करके उस और जाना चाहिए जहां आपको जाना है और है? जिस आदमी का इस तरह से दिमाग खराब है उसे सहजयोग छोड़ कर पागलखानें में चले जाना चाहिए। उसका जिसे आपको प्राप्त करना है। ये ऐसा आज तक कभी हुआ नही था और जो हो रहा है उसको अगर आप भूल जाएंगें तो इसमें दोष हमारा नहीं। और इसकी सजा हमे देने की जरुरत नहीं। श्री गणेश बैठे हैं वहां फर्सा ले करके । इसलिए अपनी ओर दृष्टि करें। अपने अन्दर वो गाम्भीर्य श्री गणेश की जो शाक्ति है वो गाम्भीर्य, जैसे अपने अन्दर वो आनन्द का गाम्भीयर्य लाएं। आनन्द एक सागर जैसे गम्भीर है। ऐसे गम्भीर आत्मा को देखते ही मनुष्य पुलकित हो जाए स्थान यहां पर नहीं। जो आज का भाषण है उसमें धार है। उसी फर्से की। समझ लीजिए आप। ये हमें अधिकार है, आपको अधिकार नहीं कि आप इस फर्से को दुनिया भर में घुमाते फिरें। सहजयोग में जो भी आदमी ऐसा होता है उस पर दुनिया थूकती है, हंसती है, मजाक करती है, पीठ पीछे उसकी निंदा करती है और ऐसे लोग सहजयोग से बहत जल्दी घाट उतर जाते हैं। अपनी वाणी अत्यन्त सुन्दर, स्वच्छ होनी आनन्द से भर जाए। फिर तो आप ही के दर्शन से काम हो चाहिए, अच्छी होनी चाहिए, मधुर होनी चाहिए। पर उसके जाएगा मेरी तकलीफे बहुत कम हो जाएंगी। पीछे छल-कपट नही होना चाहिए। बात हदय से कहनी आधी पड़ेगी और यही एक निश्चय करके आप पूजा करें चाहिये और जब हृदय से बात कही जाती है तो बड़ी गुणकारी कि वही हम स्थिति लाने वाले हैं। और आज विशेषकर गोरी होती है क्योंकि हृदय जो है ये ही सब चीज को समाता है। की पूजा है। कुण्डिलनी की पूजा है। जो हमें शक्ति चालना और मुश्किलें वही चीज हमेशा के लिए सनातन हो जाती है। बाकी चौजें देती है। जो गणेश को ही वो शक्ति देती है जिसके कारण ऊपरी-2, बुद्धि की चीज ऊपरी-2 रह जाती हैं। लेकिन वो चलायमान है। और अब निराकार वही वो गौरी है। तो जो चीज हृदय को छू जाती है जो हृदय स्पर्शी है वो ही हम शक्ति के पुजारी है और जो शक्तिशाली नही है निशक्त चीज है। जो अपनी शक्ति की पूजा नही करता और अपने अन्दर में बैठ जाती है। इस चीज को आप गांठ बांध वो शक्ति को जगाता नहीं और उसमें रम मान नहीं होता और कर रखिये कि श्री गणेश का स्थान है तो मूलाधार पे पर उसका प्रकाश नहीं देता है उसके लिए अपने को सहजयोगी कहना ब्यर्थ है। ऐसे तो कोई भी अपने को सहजयोगी कह सकता है। तो ये लेबल लगाने की बात नहीं है अन्दर की बात है। अन्त्तम् की, हदय की बात है। इसको हृदय से प्राप्त करना चाहिए। हृदय में उतारना चाहिए। और जितनी भी समाज में, राजकरण में, बाहरी बातें हैं उनको अपने अन्दर नहीं घुसने देना चाहिए। क्योंकि सब लोग ऐसा करते है सो जब वो आपके हृदय में आ जाता है तभी वो आत्मास्वरुप हो करके चैतन्यमय हो जाता है। आत्मा जो है वही श्री गणेश है और वही श्री गणेश जब हमारे हृदय से प्रकाश देता है तो वही चैतन्य है। जिसने श्री गणेश को अपने हृदय में बिठा लिया उसके लिए फिर कुछ कहने की जरुरत नही। उसका कहते हैं कि हर समय निरानन्द में ड्ूबा रहता है। उसे और चीजों की खबर ही नही होती न परवाह रहती है। और श्री गणेश- गौरी पूजा 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-10.txt बड़ा हूं। ये जब तक आपके अन्दर नही होता तो फायदा क्या सहजयोग में आने का। आज की बातों पे आप कृप्या ध्यान दे और उधर चित्त करें। और पूरे मन से आज. यही पूजा करें श्री गणेश की कि हम गौरी मां के सहायता से, उसकी शक्ति के साथ उस निराकार में उतरें। जहां हम पूर्णतया आनन्द में रहें । और हमारे रोम-रोम में वो शाक्ति ऐसी बहे की लोग दुनिया में जानें की सहजयोग ने क्या कमालात किये। और कमाल को पूरी तरह से हासिल कर लेना, उसे गोरव कहते हैं। वो चीज आप में आनी चाहिए। सहजयोग में हममें गौरव हम भी ऐसा करते हैं। ये सहजयोग है इसमें आपका अपना व्यक्तिव है। ये नहीं की अपना व्यक्तिगत है। व्यक्तिगत नहीं है व्यक्तित्व है। हम सहजयोगी हैं। हम लोग क्यों करे जो दुनिया करती है। हम इसे नही करने वाले। जब तक आप लोग इस हिम्मत के साथ आगे नही बढ़ेगें सहजयोग यहां पर कोई पहाड़ नहीं खड़े कर सकता । जाए तो हो जाए। माँ के मनसूबे बहुत हैं। और मेहनत भी किया है हमने। कुछ मेहनत में कमी नहीं की। लेकिन दलदल शायद खड़ी हो बहुत अब चाहते हैं कि आप लोग इधर ध्यान दें। और अपने को आया है या नही ये खुद निर्णय करना चाहिए। और हर-एक समाधान में रखें। लेकिन उसका मतलब यह नहीं कि मुंह पर आदमी कर सकता है। उसको पढ़ने-लिखने की किसी चीज की, किताब की जरुरत नही। सिर्फ शुद्ध इच्छा की जरुरत मुस्कराहट लाकर की हम बड़े समाधानी हैं। नहीं, समाधान को अन्दर तोलें, क्या हम वास्तव में समाधानी है? आशा है है जो हमें अपने अन्दर रखनी चाहिए। आशा है आज आप आप लोग सब पूरी तरह से ध्यान करेगे और ध्यान की ओर पूजा में इसे प्राप्त करेंगें। महान शक्ति के साथ ही आप बाहर जाइये। छोटी-छोटी बातों को छोड़-छाड़ के आप महान अपना पूरा सर्वस्व लगाएंगें। तभी काम बनने वाला है। जब आपके अन्दर ये शक्तियां आ जाएगीं तो आप कहेंगे माँ हम शक्ति को प्राप्त करें। सब अंपने आप ही ठीक होंने वाला है। तो सारे पहाड़ो से ऊंचे हो गए। सारे पेड़ों से भी ज्यादा हरित हो गए। इस पृथ्वी से भी हम विशाल हो गए। जैसे तुकाराम ने कहा था कि मैं तो दिखने में छोटा हूं लेकिन आकाश जितना परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें। का ४ चैतन्य लहरी ৪ 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-11.txt श्री आदिशक्ति पूजा जा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) कबैला, 6 जून, 1993 ६ पर वे अत्यन्त सावधान हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनका सृजित यह व्यक्तित्व पावन प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। उनकी करुणा इतनी श्रेष्ठ कोटि की है कि आप यह सहन नहीं कर सकते कि कोई इस करुणा को चुनौती दे या इसका आज हम पहली बार (मेरी) आदिशक्ति की पूजा करने वाले हैं। अब तक सदा आपने मेरे किसी एक तत्व या भाग की पूजा की। व्यक्ति को स्पष्ट जानना चाहिए कि आदिशक्ति क्या है? जैसे हम कहते हैं यह सर्व शक्तिमान परमात्मा, सदा अपमान करें। वे अत्यन्त चुस्त एवं सावधान हैं। अतः उनमें शिव की शुद्ध इच्छा है। परन्तु परमात्मा की शुद्ध इच्छा क्या होती है? अपनी इच्छाओं का उदय कहां से होता है। यह दैवी और उनकी प्रेम-शक्ति में एक दरार आ गई है। इस प्रेम प्रेम से उदय न होकर भौतिकता या सत्ता प्रेम से उदय होता शक्ति में अहं डाल दिया गया। उस अहं को स्वच्छन्द रुप से है। प्रेम सदा इन इच्छाओं के पीछे होता है। बिना प्रेम के आप कार्य करना था। अपने सांसारिक जीवन में हम सोच भी नहीं किसी चीज की इच्छा नहीं करेंगे। ये सांसारिक प्रेम, जिनके सकते कि पति-पत्नी सामंजस्य और सूझ-बूझ की कमी लिये आप व्यर्थ में इतना समय लगाते हैं, आपको जरा भी के कारण स्वच्छन्द आचरण करें। वे तो चांद और चांदनी, संतोष नहीं प्रदान करते क्योंकि यह सचा प्रेम नहीं है। यह सूर्य और धूप सम हैं। यह तो ऐसा सामंजस्य है कि एक कार्य मात्र लिए्सा है जिससे तंग आकर आप अन्य चीजों की ओर करता है और दूसरा उसका आनन्द लेता है। झुक जाते हैं। आदिशक्ति परमात्मा के दैवी प्रेम का अवतरण हैं। ये में परिवर्तन करने का निर्णय किया। संकल्प-विकल्प परमात्मा का पावन प्रेम है। इस पावन प्रेम में उसने ऐसे मानवों (करोति) करने के लिए वे प्रसिद्ध हैं। आदम और ईव का की सृष्टि करनी चाही जो आज्ञाकारी, महान तथा देवदूतों सम हों। आदम और ईव की सृष्टि में भी उनका यही विचार था। पशुओं तथा देवदूतों की तरह आचरण करेंगे। ज्ञान को देवदूत स्वतन्त्र नहीं होते, उनका सृजन ही इस प्रकार किया समझने की स्वतंत्रता उन्हें होनी चाहिए। पशुओं की तरह जाता है। वे आबद्ध होते हैं। कार्य के कारण का उन्हें पता इस सुन्दर दरार के कारण आदिशक्ति ने अपनी योजना जब सृजन किया गया तो आदिशक्ति ने सोचा कि वे भी अन्य पाश-बद्ध जीवन उनका क्यों हाँ? सर्पणी के रुप में आकर नहीं होता। पशु भी नहीं जानते कि वे कुछ कार्य विशेष क्यों आदिशक्ति ने ही उन्हें ज्ञान का फल चखने के लिये कहा। कर रहे हैं । प्रकृति के बंधन में बंध वे कार्य करते हैं । वे यह सर्पणी उनकी परीक्षा लेने के लिये आई और आकर स्त्री परमात्मा के बंधन में हैं। शिव पशुपति हैं। पशुओं में सब - को बताया क्योंकि स्त्री आसानी से बात को स्वीकार कर लेती इच्छाएं होती हैं पर वे न तो पछताते हैं और न ही उनमें अहं है। आदिशक्ति भी परमात्मा का स्त्री रुप है। पति को समझाना है। पशु अच्छा-बुरा नहीं सोचते। उन्हें कर्म की समस्या नहीं ईव का कार्य था क्योंकि स्त्रियां यह कार्य बखूबी कर सकती होती क्योंकि न तो उनमें अहं होता है और न ही वे स्वतंत्र हैं। आदम को अपनी पत्नी पर पूर्ण विश्वास था। अतः सर्पणी हैं। इस स्थिति में आदिशक्ति ने, जो कि परमात्मा का पावन साहब तथा नानक साहब के दर्शनमात्र करने वाले लोग इस प्रेम है, मानव का सृजन किया। ऐसे पिता के विषय में कल्पना बात को नहीं समझ सकते। कीजिए जिसने अपना सारा प्रेम एक ही व्यक्तित्व में उडेल दिया हो। वे अपनी इच्छा तथा प्रेम का तमाशा देख रहे हैं। थे तथा जानते थे कि यह हमारे अंदर आदिरशक्ति का की सलाह से उन्होंने ज्ञान का फल चखा। ईसा, मोहम्मद भारत में लोग युगों से कुण्डलिनी के बारे में बाते करते श्री आदिशक्ति पूजा 11 এ 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-12.txt परिपक्व समय आने पर लोग दैवी प्रेम के इस सूक्ष्म ज्ञान प्रतिबिम्ब है। उसने कहा है कि "इन सबके अंदर मैं हंगी। अब जान लीजिए कि आदिशक्ति पवित्र प्रेम तथा करुणा को पायेंगे। ज्ञान भी नीरस होता है। भारत में बहुत से भयानक की शक्ति है। उसके हृदय में केवल पवित्र प्रेम है। पर यह लोग हो चुके हैं जो अध्ययन तथा मंत्रोच्चारण करने से इतने प्रेम अत्यन्त शक्तिशाली है। यही प्रेम उसने पृथ्वी मांको प्रदान किया है। इसी के कारण, जितने भी पाप हम करते रहें, पृथ्वी वे इतने क्रोधी बन गए कि किसी की ओर यदि वे देख लेते मां सुन्दर वस्तुओं रुप में अपना प्रेम उडेलती रहती हैं। तो वह भस्म हो जाता। क्या किसी को भस्म करने को तपस्या सितारों तथा आकाशगंगा के माध्यम से उसकी सुन्दरता की करने के लिए ही आप पृथ्वी पर आए हैं? उनके हृदय में अभिव्यक्ति होती है। वैज्ञानिक की दृष्टि से यदि आप देखें तो हित का कोई विचार न था। उसमें कोई प्रेम नहीं। लोग योग की बात तो करते हैं पर वे प्रेम और करुणा की बात नहीं करते। सभी कुछ दैवी प्रेम से हितैषिता शब्द भी एक प्रकार से भ्रमपूर्ण है। हितैषिता का सरोबार है। परम-मां के प्रेम के कारण ही ब्रह्माण्ड की हर रचना का अस्तित्व है। आदिशक्ति का प्रेम इतना सूक्ष्म है कि परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। आपकी अन्तर आत्मा जब अपने कई बार आप इसे समझ नहीं पाते। मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्रेम करते हैं। मेरा आपसे जाते हैं। आप लेने वाले नहीं रह जाते। आप बस दाता बन चैतन्य लहरियां प्राप्त करना ऐसा है जैसे समुद्र से जाते हैं। इतने संतुष्ट। यह अवतरण ऐसे समय हुआ जब इसे छोटी-छोटी लहरें तट तक जाकर वापिस आ जाती हैं फिर होना चाहिए था। स्वतन्त्रता के कारण लोग भटक गए थे तथा भी तट पर छोटी-छोटी चमकती हुई बूंदें रह जाती हैं इसी हर प्रकार के उल्टे-सीधे कार्य कर रहे थे। इससे पूर्व लोग प्रकार आपका प्रेम मैरे हृदय में इस दैवी प्रेम की चमक तथा सुन्दरता को गुंजित करता है। में वर्णन नहीं कर सकती कि के अवतरण के लिए यह समय न था। उस समय के लोगे यह अनुभव क्या सृजन करता है। सर्वप्रथम यह मेरी आंखों का एकमात्र लक्ष्य सत्ता हथियाना था। पर धीरे-धीरे चीजें में आंसुओं का सृजन करता है क्योंकि यह करुणा ही सांद्र बड़े सहज ढंग से परिवर्तित हुई। मैने परिवर्तन आते देखा करुणा है। पिता की करुणा की तरह यह शुष्क नहीं। "यह तथा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग भी लिया। कार्य करो नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।" मां यदि कहेगी तो मां इतनी कठोर बात नहीं कहेगी। उसके कहने में अंतर शनैः अन्य देशों को फैल गई। लोग समझ गए कि साम्राज्यवाद होगा क्योंकि उसमें सान्द्र करुणा है। सान्द्र अर्थात सजल। इस का कोई लाभ नहीं। स्वतन्त्रता मांगने वालों को पहले तो दैवी प्रेम के कारण उसमें ऐसा हृदय विकसित हुआ। दैवी प्रेम सताया गया परन्तु बाद में आक्रान्ता लोग घबरा गए तथा बाई से ही शरीर के हर अंग की रचना की गई। इसका जर-जर्रा विशुद्धि की समस्या (दोष-भावना) आरंभ हो गई। अपने दैवी प्रेम को प्रसारित करता है। चैतन्य लहरियां दैवी प्रेम किए पर वे बहुत पछताए। के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। इस अवतरण को आना पड़ा। समय आ गया था। आबद्ध भेदभाव की समस्याएं भी थीं। कुछ लोगों को नीच ठहराया समय तथा सहज समय में अंतर है। आबद्ध समय ऐसे है जैसे गया। उस स्वतन्त्रता के कारण इन सब मूर्खतापूर्ण चीजों की यह रेलगाड़ी इस सभय चलती है और इस समय पहुंचती रचना हुई। परन्तु यह सब असत्य है। जैसे मैं यदि आप से है। परन्तु जीवन्त वस्तुएं जो कि स्वतः तथा सहज हैं इनमें कहं कि यह कालीन कालीन नहीं है तो यह सम्मोहन होगा। आप समय नहीं देख सकते। अतः हम नहीं कह सकते कि लोगों का जाति प्रथा, भेद-भाव, दास प्रथा, स्त्रियों के " शुष्क (नीरस) हो गए कि वे हड्डियों के ढांचे मात्र रह गए। के द दैवी प्रेम से प्राप्त पहली उपलब्धि आपकी हितैषिता है । अर्थ है आपकी आत्मा के हित में। आत्मा सर्वशक्तिमान पूर्ण सौन्दर्य में प्रतिबिम्बित होने लगती है, तब आप दाता बन हूं। दूसरे देशों की भूमि हथियाने के लिए जाते थे आदि शक्ति साम्राज्यवाद से स्वतन्त्रता भारत से आरंभ हुई और शनै: इस स्थिति में जाति-पाति, दासत्व तथा सभी प्रकार के चैतन्य लहरी 12 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-13.txt कारणों से संयुक्त परिवार टूट गए। इसका कुप्रभाव बच्चों पर पड़ा। उचित परवरिश न होने के कारण एक उच्छुखंल पीढ़ी की सृष्टि हुई। यह पीढ़ी सदा लड़ने को उद्यत रहती है क्यॉंकि उन्हें प्रेम की समझ ही न थी। घृणा तथा कुंठा के कारण आप विनाश की बात ही सोचते हैं। प्राचीन मूल्यों के पतन ने व्यक्ति को सत्ता लोलुप बना दिया। यद्यपि महायुद्ध समाप्त हो गया था और साम्राज्यवाद की भी समाप्ति हो गई दुराचरण आदि को स्वीकारना इसी स्वतंत्रता के कारण था। ऐसी स्थिति में, ऐसे लोगों पर करुणा और दैवी प्रेम व्यर्थ चला जाता क्योंकि समझने के लिए लोग मानसिक रुप से तैयार नहीं थे। उन्हें यह भी न बताया जा सकता था कि उनका यह दृष्टिकोण अज्ञानता के कारण था। बहुत से संत आये और उन्होंने श्रेष्ठता, क्षमा, एकता तथा सामूहिकता की बात की परन्तु लोगों का स्तर ऊंचा न हुआ। शनैः शनैः संतों के उपदेशों ने लोगों को प्रभावित करना शुरू किया परन्तु उन थी पर व्यक्तिगत प्रभुत्व की भूख बढ़ गई। इस प्रभुत्व की प्रक्रिया के कारण अहं विकसित होने लगा। यहां तक कि द्वारा चलाये गये धर्म बहुत बड़ी समस्या बन गए। सभी धर्म भटकगए तथा विविध प्रकार का कीचड़ बना दिया-मुस्लिम, ईसाई, हिन्दु आदि-आदि। इस बुराई को दूर करने के लिए यह जीवन आवश्यक था। एक मानव को दूसरे से उच्च जानना महज मूर्खता है। बच्चे भी घमंडी तथा बनावटी बन गए। समझ नहीं आता था कि बच्चे काबू क्यों नहीं होते। माता-पिता भी बच्चों को न सुधारते। इस प्रकार समाज बड़ा ही अजीबोगरीब बन गया। इस भयंकर स्थिति में आदिशक्ति को कार्य करना था। तथाकथित धरमों और बंधनों के कारण खलबली मची हुई थी। इस अवस्था में आदिशक्ति को धर्म की संस्थापना करनी आप मात्र इतना कह सकते हैं कि आप भिन्न अवस्था में हैं। प्रायः आप किसी को बुरा नहीं कह सकते। यह अज्ञानता थी। सर्वसाधारण बन गई। सभी धर्म, सभी व्यक्ति स्वयं को अच्छा जब मैने जन्म लिया तो लोगों को देखकर मुझे सदमा मान बैठे और शेष सबको बुरा। परमात्मा तथा धर्म के नाम पर यह मूर्खता आरंभ हो गई। अब आदिशक्ति के लिए शक्ति पहुंचा। निसन्देह मैं एक-दो सांक्षात्कारी लोगों से भी मिली दिखाना आवश्यक हो गया। उन्हें लगा कि परिवार का ज्ञान पर वेभी अपनी भौतिक चीजों के बारे ही चिंतित थे। जिज्ञासा व्यक्ति के लिए आवश्यक है। माता-पिता यदि बच्चे की ओर विहीन लोगों को दैवी प्रेम के बारे कैसे बताया जाए। पहले तो मुझे लगा कि मैं समय से पूर्व ही अवरतरित हो गई हूं। पर मेरे अन्दर आत्मविश्वास जागा। झूठे गुरूओं को जब मैने लोगों को सम्मोहित करते देखा तो मुझे लगा कि मुझे अपना कार्य शुरू कर देना चाहिए। इस प्रकार प्रथम ब्रह्मरन्ध्र छेदन हुआ। उचित ध्यान न दंया आवश्यकता से अधिक प्रेम करें तो बच्चा प्रेम को समझ ही नहीं पाता। प्रेम का अर्थ बच्चे को बिगाड़ना नहीं। इसका अर्थ है कि आपका चित्त बचे के हित पर हो। अतः मैने सोचा कि सर्वप्रथम पारिवारिक जीवन के महत्व को साकार करना होगा। परमात्मा के नाम परमठवासिनियां, लोगों की समस्याओं का मुझे पूर्ण ज्ञान था। फिर भी मैने सोचा पादरी, सन्यासी, बाबा बनने लगे थे। ये इतनी नीरस तथा कि कहीं लोग इस बात को स्वीकार न करें कि वे आत्मसाक्षात्कार पा सकते हैं। पथभ्रष्ट करने वाले थे कि लोग इस प्रकार का सन्यास अपनाने लगे। घर त्याग कर पत्नियों तथा बच्चों से दूर भागने लगे। अतः मुझे लगा कि प्रेम के ज्ञान के बिना व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम यदि सामूहिक हो तो इसका प्रभाव अधिक होता है। भारतीय परिवारों में लोग वास्तव में एक - दूसरे को प्रेम करते हैं। संयुक्त परिवार भी सामूहिकता की तरह हैं । परिवार के सभी लोग मिल कर रहते थे। पर आर्थिक यह अवतरण अत्यन्त अद्वितीय है। बहुत से अवतरण हुए। उन्होंने अपने उपदेश-गीता दिए और बस। दैवी प्रेम की चिंगारी उनमें न थी। इस थोड़े से समय में बहुत से अच्छे लोग हुए। महात्मा गांधी, मार्टिन वाशिंगटन, विलियम ब्लैक, शैक्सपियर, लाओत्से, सुक्रांत आदि। सुक्रांत से लेकर आज तक बहुत से दार्शनिकों ने उच्च-जीवन की बात की। इसके बावजूद भी लोगों ने समझा अब्राहम लिंकन, लूधर, श्री आदिशक्ति पूजा 13 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-14.txt सहजयोग के लिए जो भी कार्य करने की साचेंगे मैं तुरन्त कि यह व्यर्थ के लोग हैं। इनमें कुछ नहीं। कोई भी गुरु गीता जान जाऊंगी कयांकि आप मेरे अन्दर हैं। को न पढ़ता। लोगों को लगता कि इसका क्या लाभ है। इस प्रायः सभी बातें मैं अच्छी तरह जानती हूं। पर कुछ चीजें मैं स्पष्ट नहीं जान पाती। वातावरण में मैंने परमात्मा की बात करनी चाही। कैसे इन्हें बताऊ कि इन्होंने क्या खोजना है? मेरी इच्छा थी कि लोगों में कम से कम कुछ जिज्ञासा तो होती। यदि ये थोड़ा सा अवसर भी मुझे दे दें तो दैवी प्रेम इनके हृदय में प्रवेश कर इसका एक कारण है। मेरे और आपके जाएगा। पर उन्होंने मुझे कोई अवसर न दिया| इन हालात में सहजयोग शुरु हुआ। मैने पाया कि लोग ध्यानधारणा नहीं करते तो मेरा आपसे आदिशक्ति की शक्तियां समस्याओं से कहीं शीक्तिशाला है। कोई रिश्ता नहीं। आपको मुझसे प्रश्न करने संबंध, निःसन्देह घनिष्ट हैं। परन्तु यदि आप यही शक्तियां कुण्डलिनी को जागृत कर रही हैं। मैं जानती थी कि मैं कुण्डलिनी की जागृति सामूहिक रूप से कर सकती का कोई अधिकार नहीं। यदि आप ध्यान हूं। परन्तु मैं सोच भी न सकती थी कि जिन लोगों की मैं नहीं करते तो सहजयोगी होते हुए भी आप जागृति करुंगी वे लौट कर वापस आ जाएंगे। क्योंकि वे तो आम लोगों जैसे हैं। यदि आप प्रातः और सायं अज्ञानी लोग थे। मैने कभी नहीं सोचा था कि जागृति पाकर वे सहजयोग करेंगे। एक हाल किराये पर लिया गया कुछ लोग आये पर फालोअप कार्यक्रम में बहुत कम लोग थे। मेरे जी की छत्र-छाया में नहीं रहेंगे। क्योंकि सामने पारिवारिक समस्याएं भी थीं। पर मुख्य समस्या यह संबंध तो केवल ध्यान के माध्यम से ही हैं। थी किस प्रकार से मानव हृदय में प्रवेश किया जाए। एक जो ध्यान नहीं करता उसे मेरे से कुछ कहने ही समाधान था कि उनकी अपनी कुण्डलिनी को उठाया जाये। मैं जगह-जगह गई और इस प्रकार सामूहिक कुण्डलिनी जागरण अनुभव हुआ। सभी लोग अपनी समय लेता है। पर एक बार जब आप ध्यान अंगुलियोँ तथा सिर पर चैतन्य को अनुभव करने लगे। को जान जाएंगे, मेरी संगति के आनन्द को सहजयोग के वास्तवीकरण ने चमत्कार कर दिखाएं हैं। समझ जाएंगे, मुझसे एकाकारिता को जान नियम से ध्यान नहीं करते हैं तो आप श्री माता का अधिकार नहीं। आरंभ में ध्यान कुछ इसके बिना यह असंभव था। जाएगे तो ध्यान के अतिरिक्त किसी अन्य माध्यम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। ध्यान से ही आपका उत्थान होता है। सहजयोग में जब आप परिपक्व अवस्था को पहुंच जाते हैं तो ध्यान को छोड़ना नहीं चाहते। क्योंकि इसी समय आप को पकड़ लेती हूं। यह बड़ा कष्टदायक कार्य है। इसीलिए मुझसे जड़े होते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप घंटां पूजा के उपरान्त मैं सुस्त हो जाती हूं। मैं आप सबको अपने ध्यान में बैठे रहें। यह देखना महत्वपूर्ण है कि कितनी गहनता शरीर में डाल लेती हूं। आप मेरे शरीर के अंग-प्रत्यंग बन से आप मेरे साथ हैं। यह नहीं कि कितना समय आप मेरे जाते हैं। मेरा हर कोष्णणु आपके उत्थान के लिए है। आपको साथ हैं। तब मैं आपके उत्थान एवं रक्षा के लिए जिम्मेदार भी यह समझने के लिए अति सूक्ष्म होना होगा। आप हूं तथा बराइयों से आपको बचाने की भी। पिता की तरह वास्तव में आपकी अपनी जिज्ञासा तथा विवेक आपको सहजयोग में ले आए हैं। अन्य गुरुओं की तरह न तो मैं किसी को पत्र लिखती हूं और न बुलाती हूं। सामूहिक जागृति के लिए हर जनकार्यक्रम में मुझे अपनी कुण्डलिनी उठानी पडली है। अपनी कुण्डलिनी में मैं आपकी सभी समस्याओं चैतन्य लहरी 14 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-15.txt मैं सीधा दंड नहीं दे सकती। मैं विवश नहीं कर सकती। पर हो जाएगा कि आपको और कुछ अच्छा ही नहीं लगेगा । तब मेरा आपसे कोई संबंध नहीं रह जाता। चाहे आपके अन्य बाह्य सम्बन्ध हो पर ध्यान के बिना आप वह आंतरिक संबंध के लिये आवश्यक है कि पूर्ण सत्यता से आप ध्यान करें। नहीं बना सकते जिनसे आपका हित होता है। मैं सदा आपको ऐसा न हो कि आज रात मैं देर से आया इसलिए घ्यान नहीं ध्यान करने के लिये कहती हूं पर लोग मेरी बात के महत्व को नहीं समझते। वे मझे बताते हैं कि हम ध्यान नहीं करते। सकता। बहाने कोई भी नहीं सुनना चाहता। यह आपके और यह यंत्र (शरीर) पूर्ण बनाया गया है पर यदि यह स्रोत से आपकी आत्मा के मध्य है। यह आपका ही हित है किसी अन्य अपने सौन्दर्य, गरिमा तथा महान व्यक्तित्व को प्राप्त करने किया। कल मुझे काम पर जाना है अतः मैं ध्यान नहीं कर क का नहीं। जुड़ा हुआ न हो तो इसका क्या लाभ? ध्यान में ही आप दैवी प्रेम की सुन्दरता को महसूस कर सकेंगे। पूरा चित्र ही बदल जाता है। ध्यानगम्य व्यक्ति का दृष्टिकोण, स्वभाव और जीवन बिल्कुल भिन्न होता है। वह सदा संतुष्ट जीवन व्यतीत करता है। अतः, जैसे आप कहते हैं, आज अवतरण का प्रथम दिन है क्योंकि पहली बार हम आदि शक्ति की पूजा करेंगे। यह आपके लिए महान वरदान है। आपको भी यह जानना चाहिए कि कैसे इसके अधिकारी बनें, किस प्रकार इसे बढ़ाएं तथा कैसे इसका आनन्द लें। परमात्मा से आपकी पूर्ण एकाकारिता होनी चाहिए और यह केवल ध्यानसे ही संभव है। ऐसा करना व्यक्ति को अब समझ लेना चाहिए कि हम कुछ विकसित हुए हैं। आप जो भी हों, ध्यान के मामले में आपको नम्र होना होगा। यह इतना आनन्दमयी है। कुछसमय पश्चात आप जान जाएंगे कि श्रीमाताजी के साथ जो सम्बन्ध आपका है, इसी सम्बन्ध को आप खोज रहे थे। जो लोग सामूहिकता में ध्यान न करके अकेलेपन में ध्यान करते हैं वे खो जाते हैं। आपको सामूहिक रूप से ध्यानगम्य होना चाहिए क्योंकि मैं आप सबका सामूहिक अस्तित्व हूं। जब आप सामूहिकता में ध्यान करते हैं तो मेरे बहुत निकट होते हैं। चाहे आपका कार्यक्रम आदि हो तो भी आप घ्यान अवश्य करें। किसी भी कार्यक्रम के लिए ध्यान को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पहले भजन गाएं और फिर ध्यान करें। मैं जब किसी बात पर बल देती हूं तो समझें कि यही सत्य है। काम कोई अत्यन्त सुगम है। कुछ लोग कहते हैं, श्रीमाताजी हमें समय नहीं मिलता। हम सदा कुछ न कुछ सोचते रहते हैं। आरंभ में आपको थोडी कठिनाई हो सकती है। शनै: शनैः आप ठीक हो जाएंगे और निपुण भी। आपको इसका इतना अच्छा ज्ञान परमात्मा आपको धन्य करे। न] स श्री आदिशक्ति पूजा 15 পতি 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-16.txt पजा गुरु परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) (कबैला, इटली-4.7.93) कार्य है। हर मां चाहती है कि उसका बच्चा अच्छा बने। पावन आज हम गुरू पूजा करेंगे। मुझे आपका गुरू होना चाहिए पर गुरू की विशेषताएं मुझसे भिन्न हैं। प्राय- गुरू बहुत कठोर तथा धैर्य विहीन व्यक्ति होता है। संगीत में भी सभी नियमों का मां चाहती है कि उसका बच्चा पवित्र बने। पवित्रता पहला गुण है, और इसके लिए किसी को कैसे पूर्णतया पालन करना पड़ता है। महान संगीतज्ञ.रवि शंकर ने विवश किया जा सकता है। पवित्र हुए बिना कैसे आपका उत्थान बताया कि एक बार तनिक सा बेसुरा होने पर उनके गुरू ने होगा? व्यक्ति को पवित्र बनाने के लिए कौन से अनुशानस लगाए तानपुरा उनके सिर पर तोड़ दिया था। जब परम्परा की बात जाएं? क्या दबाव डाल सकते हैं? क्रिस-किस बात के लिए आप क्रोधित हो सकते हैं? मैं प्रायः क्षमा की विधि अपनाती हूं। दिए। फिर भी शिष्य गुरू से जुड़े रहते हैं। उनकी देखभाल करते हो सकता है कि क्षमा शिक्षा देने का सर्वोत्तम मार्ग हो। अपनी हैं। गुरू कई तरह से शिष्यों की परीक्षा लेता है। शिवाजी के गुरू गलती को जान कर जब वे इसे स्वीकार कर लेते हैं तो आपको ने उनसे शेरनी का दूध लाने को कहा। शिवाजी जंगल में गए क्षमा करना ही पड़ता है। एक व्यक्ति बुद्ध को पहचाने बिना उन्हें और एक शेरनी को देखा जो अपने बच्चों को दूध पिला चुकी गाली दे रहा था जब वह गाली दे चुका तो उसे पता चला कि थी। शेरनी के सम्मुख नतमस्तक होकर उन्होंने कहा कि मेरे गुरू बुद्ध ही उसके सम्मुख थे। तब घबरा कर उसने बुद्ध से क्षमा मांगी। को तुम्हारा दूध चाहिए, क्या तुम मेरे गुरू के लिए थोड़ा दूध भगवान बुद्ध ने पूछा कि तुमने कब मुझे गाली दी? उसने कहा 'कल। भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया कि मैं 'कल' को नहीं जानता। की आज्ञा पालन द्वारा व्यक्ति असंभव उपलब्धियां प्राप्त कर मैं केवल आज को जानता हूँ। ध्यान रखें कि आपकी महानता सकता है एक बार शिवाजी के गुरू ने कहा कि उनकी टांग पर और श्रेष्ठता अवश्य लोगों को प्रभावित करेगी। लड़ाई-झगड़ा, एक फोड़ा है और यदि कोई शिष्य उसके मवाद को चूस ले तो अपशब्द आदि से कार्य नहीं होगा। गुरू अपने शिष्यों को बहुत वह ठीक हो सकता है। सभी शिष्यों को मिचली हो गई पर अनुशासित किया करते थे। चार बजे प्रातः उठकर आपको ध्यान करना है और जो नहीं उठा उसकी पिटाई होती थी। सहजयोग बहुत ही भिन्न है। हम प्रेम की शक्ति में विश्वास करते हैं । प्रेम शक्ति शिष्यों की हर समय परीक्षा होती है वे कितने आज्ञाकारी आपको क्षमा करना सिखाती है। भवसागर में धर्म स्थापित करने वाले गुरू स्वयं संतुलित थे। अपनी प्रेम शक्ति से वे लोगों को संतुलित कर सके। ये गुरू तथा इनके अवतरणों में संतुलन था तथा सदा ये परमात्मा के प्रेम की शक्ति की सराहना करते थे। आत्मसाक्षात्कार की बात करते हुए हमें समझना चाहिए कि हमारे अंदर धैर्य का होना आवश्यक है। मैं जानती हूं कि कुछ लोगों को बहुत अच्छा नहीं लगता। कुछ अब भी रोगी हैं कुछ तो चैतन्य लहरियां भी महसूस नहीं कर पाते। स्वयं में धैर्य रखें। जिस प्रकार एक गुरू को शिष्यों के प्रति धैर्यवान होना पड़ता है उसी प्रकार स्वयं के गुरू बनकर आपको भी स्वयं के प्रति धैर्यवान होना है। इस धैर्य में आप सीखेंगे कि बिना किसी कठिनाई के आप बहुत कुछ सहन कर सकते हैं। आप में यदि धैर्य है तो आई तो उन्होंने विद्यार्थियों पर सभी प्रकार के अनुशानस लगा देंगी ? शेरनी सब समझ गई और उन्हें दूध निकालने दिया। गुरू शिवाजी महाराज झुके और फोड़े को चूसने लगे। पर यह फोड़ा-फोड़ा न था। यह एक छुपा हुआ आम था। हैं? परन्तु आप सब लोग साक्षात्कार को पाकर अपने गुरू बन गए हैं। इसलिए मैं आप पर वह बंधन नहीं लगाती। आपको पूर्ण स्वतन्त्रता देती हूं। हर प्रकार से मैं आपको बताती हूं कि मैं आपका हित सोचती हूं, परन्तु अन्य गुरूओं की तरह मैं आपको विवश नहीं करती। वे तो शिष्यों को पीटा करते थे। शिष्यों के प्रति वे इतने कठोर थे। शिष्यों के लिए दया रूपी दुर्बलता उन्हें सह्य न थी। कुछ गुरू तो शिष्यों को एक टांग पर खड़ा कर देते थे और कुछ को सिर के बल। इस तरह का व्यवहार करना मेरे लिए कठिन कार्य है। हर समय करुणा मेरी आंखों से आंसू बन कर उमड़ पड़ती है। कभी मुझे डांट के रुप में भी कहना पड़ता है परन्तु एक ही व्यक्ति के लिए मां और गुरू दोनों बनना दुष्कर चैतन्य लहरी 16 साम 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-17.txt पा आप सब कुछ स्वीकार कर सकते हैं। जहां भी आप हैं वहीं आप स्वयं में मस्त हैं क्योंकि आप आत्मसाक्षात्कारी जीव हैं। न तो क्रोधित हों और न शिकायत करें। आनन्द में रहें। आप घास पर, आत्म-साक्षात्कार दे सकते हैं। साधारण प्रेम में लोगों को डर होता है। उन्हें भय होता है कि कहीं उनकी प्रेयसी चली न जाये। परन्तु आपतो आत्मलीन हैं और सदा सुरक्षित। एक क्षण के लिये भी आपका चित्त यदि भटकता है तो आप जान जाते हैं। आप स्वयं से अपनी रक्षा करते हैं। कोई भी शारीरिक समस्या होते ही आप जान जाते हैं। अपना इलाज करना आपको आता है। पर व्यक्ति में संतुलन का होना आवश्यक है। इसके अभाव में आप न तो चैतन्य लहरियों का अनुभव कर सकते हैं और न ही अपनी त्रुटियों को जान सकते हैं। आपको पता नहीं होता कि किस दिशा में आप जा रहे हैं और यह भी नहीं कि आप अपना नाश कर रहे हैं । सभी सहजयोगियों में यह संतुलन स्थापित होना आवश्यक है। भूतकाल या भविष्य के बारे सोचते रहने के कारण हम असंतुलित हो जाते हैं। जब सारे देवदूत तथा गण आपके चटाई पर, पत्थर पर कहीं भी सो सकते हैं। और नींद आपके लिए आवश्यक भी नहीं। कोई अंतर नहीं पड़ता। संभवतः बाई विशुद्धि के कारण लोगों में धैर्य नहीं है। वे कैथोलिक आदि हैं। फिर हर समय आप स्वयं पर, अपने दुःखों पर और परेशानियों पर तरस खाते हैं तथा हर समय अपनी निन्दा करते हैं। आप आत्म-साक्षात्कारी हैं। स्वयं को कोसना आपका कार्य नहीं। आपको स्वयं को जागृत करके कहना है कि अब मैं वह व्यक्ति नहीं हूं। आपको स्वयं से कहना होगा कि अब मैंस्वयंकोनहीं कोसुंगा। आपने अपना अधिकार आत्म - साक्षात्कार पा लिया है। इन बंधनों के कारण हम आनन्द नहीं ले सकते। विशेषकर लिए कार्य कर रहे हैं तो चिंता की क्या बात है। आपको बस पश्चिमी देशों में दुःखी होना फैशनेबल कहलाना है। जो लोग बौते हुएदुःखों को याद करके दुःखी रहते हैं वे वास्तविकता का आनन्द नहीं ले सकते । सहजयोगी का हृदय से आनन्दित होना आवश्यक है। सहजयोग आनन्द का सागर है जो सदा आपको आनन्द प्रदान करने के लिए है। इसकी छोटी-छोटी बूंदे भी आपको आनन्द सांसारिक कानूनों से डरते हैं वे नहीं जानते कि इतनी जबरदस्त से भर सकती हैं। यह अत्यन्त आनन्ददायी अनुभव है। आपके शक्ति उनके चहं ओर है। आपको न तो कोई रोक सकता है और अंदर ही यह आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसा व्यक्ति किसी दूसरे न गिरफ्तार कर सकता है। जब आप संदेह करने लगते हैं, जब को दुःखी नहीं देख सकता। वह स्वयं आनन्द से परिपूर्ण होता आप कहते हैं, "किन्तु", जब मानव रचित कानूनों को सोचते है तथा चहूं ओर आनन्द फैलाता है। छोटी-छोटी चीजों से वह हैं तो परमात्मा के कानून फेल हो जाते हैं। अन्यथा कोई भी क आज्ञा देनी है। ये तो ऐसा है जैसे किसी भिखारी को राजगद्धी पर बिठा दिया हो। जो भी उसे प्रणाम करने आता है उसी से वह एक अशर्फी मांग लेता है। सहजयोग में भी लोग असंतुलित हो जाते हैं कैसे ? जो लोग आलन्द प्राप्त कर सकता है। आप ही सागर हैं। समुद्र में यदि कोई छोटी सी भी चीज गिरती है तो सुन्दर लहरों की रचना करती हैं। है। ये लहरियां केवल आप ही के आन्तरिक किनारों को नहीं छूती, अन्य लोग भी इनसे अछूे नहीं रहते । छोटी-छोटी बातें पुराने गुरू आपको यातनाएं झेलने तथा अपनी सब बातें स्वीकार आपको प्रसन्नता प्रदान करती हैं तथा सदा प्रेम के सुन्दर सागर करने को कहते थे। पर यहां तो गुरू रुप में आपकी माँ बैठी है। सम होते हैं। प्रेम प्रसन्नता प्रदायक है। यह दैहिक प्रेम नहीं, दैवी कोई भी आपको छूने का साहस कैसे कर सकता है। मेरे कथन प्रेम है। सहजयोगी और गुरू होने के नाते हमें परस्पर प्रेम करना होना चाहिए। आदिशक्ति किसी को भी गुरू रूप में नहीं प्राप्त हुई। चाहिए और अपने प्रेम को समझना चाहिए। मेरे ख्याल में अभी आदिशक्ति में परमात्मा की सभी शक्तियां है। तो कौन आपको सहजयोगियों ने स्वयं को समझा नहीं है। विश्व के कितने लोग दुःख दे सकता है ? आपके अपने सिवाए कोई आपको परेशान साक्षात्कार दे सकते हैं ? कितने लोग कुण्डलिनी के विषय में नहीं कर सकता। अन्य गुरूओं के शिष्यों तथा आपमें सबसे बड़ा जानते हैं? कितने लोगों ने पुनर्जन्म होते देखा है ? आपको इतना अंतर यही है कि आपको कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं। किसो आपका कुछ नहों बिगाड़ सकता। आप पूर्णतया सुरक्षित होते पुराने और नये गुरूओं की प्रणाली में मुख्य अंतर यह है कि पर आपको विश्वास करना होगा। स्वयं पर आपका इतना विश्वास सहजयोगी को यदि कोई कष्ट है तो अवश्य ही यह उसके अंदर दृढ़ बनाया गया है कि मात्र दृष्टिपात से आप लोगों को 17 गुरु पूजा 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-18.txt की किसी बाधा के कारण है। कुछ सहजयोगी गलत गुरूओं के लोग सोचते हैं कि क्योंकि वे मेरी सेवा करते हैं देखभाल करते पास गये होंगे। उनकी कोई दुर्घटना आदि हो सकती है परन्तु हैं और मेरी पूजा करते हैं इसलिए दूसरे सहजयोगियों को डांटना, उन पर चिल्लाना, उन्हें कार्य करने की आज्ञा देना आदि उनका अधिकार है । परन्तु यह बात ठीक नहीं। आप सहजयोगी हैं और पूर्णतया सामूहिक हैं। यदि आप सामूहिक नहीं हैं तो आप सहजयोगी नहीं हैं। यदि आपका अहं एवं पुराने बंधन आपको अन्य सहजयोगियों से दूर करते हैं तो परमात्मा से आपका कोई संबंध बाकी नहीं। सामूहिक हुए बिना आपका कोई सम्बन्ध नहीं। अत्यन्त हैरानी की बात है कि आपको साक्षात्कार देते हुए सूक्ष्म चीजों के बारे बताना मेरे लिए अति सरल होता है। अभिव्यक्ति, विचार, आचरण और सूझबूझ में सूक्ष्मताओं का अपना हो सौन्दर्य होता है। सामूहिकता की भावना अन्न के एक छोटे दाने की तरह होती है। बूंद के सागर बनने जैसी। कोई बूंद यदि सागर न बन कर तट पर ही रहना चाहे या कोई व्यक्ति अचानक ही इसके दुष्प्रभाव से बच निकलेंगे। किसी अन्य संबंधो आदि की बाधा भी, हो सकता है सहजयोगी में प्रवेश कर गई हो। सहजयोग की विशेषता है कि जिन लोगों में पकड़ होती है वे भी साक्षात्कार पाकर ठीक हो जाते हैं। कोई भी समस्या हो, आप हाथ फैलाइये कुण्डलिनी उठेगी और कार्य हो जाएगा पर यदि साक्षात्कार पाकर भी लोग ध्यान नहीं करते, साक्षात्कार नहीं देते तो यह बेकार हो सकता है। जैसे अपनी कार का यदि आप उपयोग नहीं करेंगे तो यह सड़ जायेगी तो आप सभी स्त्री - पुरूषों को आत्म साक्षात्कार देना चाहिए। जिस किसी भी देश के आप हों, आपको यह शक्ति बढ़ानी है नहीं तो आप घुट कर रह जायेंगे। मैं बहुत से सहजयोगियों को जानती हूं जो बहुत अच्छे हैं, मेरी पूजा करते हैं फिर भी गंठिया तथा अन्य प्रकार के रोगों से पीड़ित हैं। आत्म-साक्षात्कार देने के लिए आपको अपनी शक्ति का उपयोग करना होगा। ठीक है नियमों की समझ न होने पर आपको क्षमा कर दिया जाता है। अबोधिता से जो भी कुछ आप करते हैं, ठोक है। पर जानबूझकर यदि आप गलतो करते हैं तो मैं नहीं जानती कि आपका क्या हाल होगा। अपने क्षेत्र (स्थिति) में यदि आप हैं तो ठीक है पर इससे बाहर यदि आप निकलना चाहेंगे तो चारों तरफ फैली विकराल बाधाएं आपको दबोच लेंगी। और यह सहजयोग की गलती नहीं है। सहजयोग या सहजयोगियों के दोष खोजना एक अन्य अपराध है। गुरू के दस शिष्य यदि किसी एक की शिकायत करें तो गुरू उन्हें बाहर निकाल देगा। शिकायत करना उनका कार्य नहीं। यदि एक हाथ में दर्द हो तो दूसरा हाथ मस्तिष्क से उसकी शिकायत किए बिना इसके दर्द निवारण के लिए बढ़ेगा। सहजयोगी ऐसे गुरू हैं जिनका सम्बन्ध सामूहिकता से है। वे ऐसे समूह में चलते हैं जिसका वर्णन करते हुए ज्ञानेश्वर जी ने कहा है कि आप ज्योतिर्मय जंगल की नाई बढ़ते हैं, जो आपको अच्छा लगता है और जो आप चाहते हैं पा लेते हैं। वे कहते हैं कि "आप सागर की तरह चलते हैं तथा परमात्मा का गुणगान करते हैं।" आप सामूहिक हैं, सूझबूझ से सामूहिकता में बढ़ें। यह सामूहिकता इतनी शक्तिशाली है। लोगों को यह अमृत प्रदान करती है। सामूहिकता की इस शक्ति का अनुभव ही व्यक्ति का प्रथम आंकन हैं। जो सामूहिक नहीं हो पाते वे सहजयोगी नहीं हैं। कुछ यदि सामूहिक नहीं होना चाहे तो अच्छा है कि वह मेरी पूजा न करे| गुरू सामूहिकता के साथ किस प्रकार आचरण करे? कोई भी यह न समझे कि आप कोई धर्माधिकारी हैं या कोई महान व्यक्तित्व। विश्व में सर्वोच्च क्या है ? कुछ भी नहीं। हर चीज एक सी है। कभी-कभी तो लोगों के अत्याचार अकल्पनीय होते हैं। यदि आप सहजयोगी हैं तो इस प्रकार असंतुष्ट क्यों हैं। क्रोधी गुरू तो आप बन नहीं सकते। क्रोध अर्थात असंतुलन। हो सकता है यह आपके परिवार की पकड़ हो। लिप्सा का अर्थ भी असंतुलन है। संतुलित लोगों को निलिप्त होना पड़ता है नहीं तो वे सत्य को नहीं देख पाते। लोग एक प्रकार के घमंड में फंस जाते हैं कि हम सहजयोगी हैं। पूरे विश्व को बचाने के लिए हम सहजयोगी बने हैं। मैने बहुत से सरकारी नौकरों को देखा है जो स्वयं को बहुत ऊंचा समझते हैं। वे नौकर हैं। उन्हें अधिकारी कहा जा सकता है पर "सेवा के लिए अधिकारी।" इसी प्रकार हम भी परमात्मा की सेवा के लिए विश्व में हैं और आपकी सेवा का लक्ष्य विश्व को बचाना है। मिथ्याभिमान के होते हुए आप कैसे यह कार्य कर सकते हैं। आपका आचरण यदि दर्प-पूर्ण है तो आपके समीप कोई नहीं आयेगा। आप किसी से ईष्ष्या नहीं कर सकते क्योंकि ईष्ष्या से अपनी हानि होती है। ईष्ष्षा तो पशुत्व है। ईष्ष्या किस बात की ? आप चैतन्य लहरी 18 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-19.txt पसीना आ रहा था। मेरे साथ जो सहजयोगी थे कहने लगे श्रीमाता जी इस स्थान की सारी गर्मी आप अपने पर झेल रही हैं। एक सहजयोगी यह समझ सकता था। हर व्यक्ति आनन्द से था तथा मुझसे शीतलता ले रहा था पर मैं स्वयं को पंखा कर रही थी। मैं ही सारी गर्मी सोखकर आपको शीतलता प्रदान करती हूं सबकी गर्मो लेकर उसे शौतलता में परिवर्तित करके उस आनन्द को प्रदान करना ही मेरा कार्य है। लोग चिल्लाते हैं, कराहते हैं। पर आप उन पर शीतलता साक्षात्कारी हैं। किस प्रकार आप ईष्यालू हो सकते हैं। मान लजिए आप्न हीरा हैं और दूसरा व्यक्ति भी हीरा हैं तो दो हीरे मिलकर तो अधिक छटा विखेरंगे। और यदि आप अच्छे हैं पर दूसरा व्यक्ति नहीं है तो इसमें भी ईष्र्यां की कोई बात नहीं। किसी में यदि कोई अच्छाई देखें तो उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करें। जब सहजयोगी दूसरों की अच्छाई मुझे बताते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। अच्छाई देखने, लगने का अर्थ है अच्छा बनने का आरंभाईष्या भाव से तो आप अपना पतन करते हैं। ईष्ष्या आनन्द का हनन करती है। अपने भय, ईष्ष्या, धैर्य और दर्प से छुटकारा उडेल सकते हैं। सारी गर्मी दूर हो सकती है इसे सोखना महत्वपूर्ण पा लीजिए। अगाध धैर्य और क्रोध विहीन गुरू के समीप लोग स्वतः ही अनुशासित हो जाते हैं। सहजयोग में बहुत शिष्य नहीं होते। श्री ज्ञानेश्वर तक एक गुरू-एक शिष्य परम्परा थी। शायद उन्होंने सोचा हो कि लोग जिज्ञासु नहीं हैं। हम लोगों का सौभाग्य है कि हम इतने अधिक हैं। परस्पर हम एक-दूसरे को जानते हैं और समझते हैं। कुण्डलिनो का हमें ज्ञान है। हम इतने चेतन हैं। हमें विश्व को घटनाओं का ज्ञान है। हिमालय की कन्द्राओं में बैठकर हम परमात्मा का नाम नहीं ले रहे। हम इसी संसार में हैं। बिना पलायन किए सारी समस्याओं का हम सामना कर रहे हैं। परन्तु हम वास्तविकता में हैं पर बाकी लोग अज्ञानता में हैं। यही कारण है कि हमें समस्या का ज्ञान है और इसका समाधान भो हम जानते हैं। अब आपको नम्रतापूर्वक अपनी शक्तियों का प्रयोग मात्र है। गर्मी सोखने से घबराने की कोई बात नहीं पर व्यक्ति को सदा बंधन में रहने की सावधानी बरतनी होगी। स्मरण रहे कि हम सहजयोगी हैं, एक बार ऐसा होते ही प्रक्षेपण शुरू हो जाएगा। विलियम ब्लैक ने कल्पना में प्रक्षेपण आरंभ कर दिया और ज्ञान प्राप्त कर लिया। कोई भी कार्य जो लोग कर रहे हैं इसका संबंध सहजयोग से जोड़ने का प्रयत्न कीजिए, इसका प्रक्षेपण कीजिए। तब आपको प्रेम की उपलब्धि होगी। आप भूल जाते हैं कि आप आत्म-साक्षात्कारी हैं। अपने चैतन्य ज्ञान को अपनी रक्षा के लिए उपयोग करें क्योंकि नकारात्मकता आप के समीप ही है। अतः सावधानीपूर्वक याद रखें कि मैं सहजयोगी हूं। नियमों तथा अनुशासन की रचना करें। आपको दूसरों को प्रेम करने का ज्ञान हो जाएगा यही तत्व है। इन गुरूओं ने बहत कष्ट झेले। स्वयं पर पूर्ण विश्वास रखें, आप पूर्ण सुरक्षित रहेंगे। आप सहजयोगी हैं, इस अवस्था को स्थिर करने का प्रयत्न करें। इस प्रकार आप स्वयं के तथा अन्य लोगों के गुरू बनते हैं। करना होगा। आप समझ लें कि आप ज्ञान के भंडार हैं। उदाहरणतया हर चीज की व्याख्या सहजभाषा में की जा सकती है। इस तरह परमात्मा आपको धन्य करें। आपका आनन्द दुगना हो जाएगा। उस दिन लौटते हुए मुझे बहुत गुरु पूजा 19 %3B 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-20.txt सहस्रार पूजा परमपूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) कबेला, इटली-9 मई, 1993 आज हम यहां सहस्रार दिवस मनाने के लिए हैं। सहस्रार भेदन मस्तिष्क तक पहुंच गयी थी। इस प्रकार उनकी ज्ञान प्राप्त करने, मेरे लिए कठिन कार्य न था क्योंकि विश्व में बहुत से जिज्ञासु थे। उसे आत्मसात करने तथा सुरक्षित रखने की शक्ति बढ़ गई। आज आपको देने वाले सारे क्रम परिवर्तनों तथा सम्मिश्रणों का के एक छोटे बच्चे को लीजिए। आपको 25 वर्ष की आयु में दुख अध्ययन भी मैने किया था। समय भी परिपक्व था। मुझे लगा कि गुरु रुप में भयंकर राक्षस जिज्ञासुओं को अपने चंगुल में ले रहे मैने सोचा कि सहस्रार खोलने का यही उपयुक्त समय है। यह ईसा के एकीकरण की तरह न था। उन दिनों में व्यक्ति को घोर तपस्या करनी पड़ती थी और उन्होंने भी यही किया। परन्तु आधुनिक समय में आपके कार्य से कहीं महत्वपूर्ण आपका ज्ञान है। माध्यमों, संचार व्यवस्था या यात्राओं के कारण एक सर्वव्यापक चेतना जाग उठी है। मानवीय मस्तिष्क इतना कुछ जानता है कि कभी कभी तो यह इसे सहन भी नहींकर सकता। विचारों का इतना बोझ मस्तिष्क पर है। मानव मस्तिष्क सदा होता है कि ज्ञान कहलाने वाली हर बात को समझे, जो ज्ञान था उससे कहीं अधिक ज्ञान उस बच्चे को है क्योंकि बच्चे के लिए यह ज्ञान अपेक्षित है। इस प्रकार सत्य को जानने का बहुत कोई प्रयास न किया गया। परन्तु ज्यों ज्यों यह चेतना बढ़ी से जिज्ञासु पृथ्वी पर अवतरित हुए। बहुत से लोग, जिन्हें अपने जिज्ञासु होने का ज्ञान हो न था, अचानक जिज्ञासु बन गए। यह स वातावरण का प्रभाव है। इस प्रकार लोगों की एक नयी श्रेणी जन्मी जिन्हें ज्ञान था कि उन्हें सत्य की खोज करनी है। अतः समय के साथ साथ यह, सब हुआ तथा सहस्रार को खोला गया। सहजयोगियों के लिए यह घटना (सहस्रार का खुलना) सबसे महान है। हमें कहना चाहिए कि सन्तों, पीर-पैगम्बरों तथा अवतरणों ने जो कार्य किया, सहस्रार का खुलना इसकी पराकाष्ठा है। उन्होंने गिने चुने व्यक्तियों के लिए कार्य किया। पर विश्व के कोने कोने में जन जन तक इसे पहुंचाना हमारे अध्यात्मिक उत्थान का अन्तिम लक्ष्य है। सभी धर्मों के महान अवतरणों ने, पैगम्बरों ने कहा कि आप स्वयं को पहचानिए, उत्सुक आत्मसात करे तथा अपने अन्दर सुरक्षित रखे। परन्तु विवेक की कमी के कारण हर तरह की चीजें मानव मस्तिष्क में इक्ट्टी हो जाती हैं, विशेषकर के माध्यमों, दूरदर्शन तथा कम्प्यूटर के आविष्कार के कारण । व्यक्ति को इन सब चीजों की तकनीक देखनी पड़ी क्योंकि इसे देख कर ही वह अपने पुरखों से कहीं आत्म साक्षात्कारी बनिए और आत्म साक्षात्कार पा लौजिए, और वलो बन जाइए। ये सभी संकेत, एक बौद्ध भी जानता है अधिक चीजे बना सकता था। कि मैत्रेया को अवतरित होना है और वही त्रिगुणात्मिका हैं। ग्रीक इस प्रकार के लोगों में भौतिकता पनपने लगी। अतः भौतिकवाद इस समय मानव के लिए अभिशाप बन गया। तब मुझे लगा कि सहस्रार खुलना ही चाहिए। इससे पूर्व लोग सादे तथा अबोध थे और परमात्मा पर विश्वास करते थे। सत्य की खोज भी उन्होंने नहीं की। भौतिकवाद ने मानव में प्रतिद्वन्दिता लोगो की अरथेना भी तीन शक्यों से सम्पन्न थीं। सभी अवतरण इस समय की भविष्यवाणी कर रहे थे वह समय आ गया है। इसीलिए मैं इस काल को बसन्त ऋतु कहती हूं । और आप लोग इसके फल हैं। भिन्न ऋतुओं के ब्रह्माण्डीय चक्र की तरह यह सुन्दर पैदा कर दी। ऐसा पाखण्ड पैदा कर दिया कि लोगों को लगने लगा कि यह तो बेईमानी है, और भौतिकता आनन्द दायक नहीं है। भौतिकवाद से आपको शान्ति नहीं मिल सकती। लोगों की चेतना में आने लगा कि यही हमारे जीवन की अन्तिम उपलब्धि नहीं। हमने मात्र यहीं ज्ञान नहीं प्राप्त करना। भौतिकता हमें आनन्द एवं शक्ति नहीं प्रदान कर सकती। महायुद्ध के पश्चात युवा पीढ़ी में यही चेतना बढ़ने लगी। कारण यह था कि मानव चेतना अब समय आया और काल चक्र की तरह घूम कर इसे आगे जाना है। सहजयोग पहले तो अत्यन्त छोटे स्तर पर शुरु हुआ परन्तु अब पूरे विश्व में फैल कर यह बहुत बड़ा हो गया। एक अन्य अति श्रेष्ठ घटना हुई है। अब तक लोग अकेले बेठकर ध्यान करते थे और किसी इक्के-दुक्के को साक्षात्कार मिल जाता था। पर इन दिनों सामूहिक आत्मसाक्षात्कार तथा सामूहिक ध्यान जैसी अनोखी घटना न थी। साक्षात्कारी किसी अज्ञात कोने में अदृश्य चैतन्य लहरी 20 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-21.txt आपको बहाने देती है। जैसे कोई व्यक्ति अपने पिता की हत्या हो जाते और एकान्तमें ध्यानकरते।इस सामूहिक आत्मसाक्षात्कार और सामूहिक ध्यान की, सामूहिक सूझ बूझ तथा अपने करता है। मस्तिष्क उसके लिए भी कोई तर्क देता है। तर्क-संगति अस्तित्व के ज्ञान की कल्पना तो मैने भी न की थी। इस वर्ष तो आपके अहं या बन्धनों के अतिरिक्त कुछ नहीं। आपका अहं विशेषतया इसने नये आयाम बनाये हैं और सब देशों में आपको कहता है कि "यह अच्छा नहीं"। आप उस बात पर अड़ है। "मै जाते हैं। फिर कोई और आपसे इसका कारण पूछता नकोरात्मकता का पर्दा-फाश हो रहा है। सोचता हूं कि यह ठीक नहीं।" सहजयोग में सीधा सा उत्तर है। आप ऐसा क्यों करते है ? मुझे इसका आनन्द आता है। कुछ लोग चर्च जाने का, शराब पीनें का आनन्द लेते हैं। पर सहजयोग में हम इनका आनन्द नहीं ले सकते। यह आनन्द सामूहिक नहीं है।कोई भी इसे अच्छा नहीं कहता । जैसे कोई कहे कि "मुझे शराब पीने मे मजा आता है"। किसी शराबी के नाम पर कोई मन्दिर नहीं बना। शराबी का किसी ने बत नहीं बनाया। शराब को समाज इस प्रकार सहस्रार खुलने पर कुण्डलिनी ने दैवी शक्ति से जुड़ने के लिए ऊपर को बढ़ना शुरु कर दिया और निर्विकल्प अवस्था आने तक यह आप में प्रवाहित थी। जब यह सहस्रार से गुजरती है तो व्यक्ति का सहसार साफ होना चाहिए ताकि दैवी शक्ति का प्रवाह होता रहे, बाधा रहित, बिना किसी अपवित्रता से निकले तथा बिना किसी समस्या में फंसे यह भेदन करती रहे। मुझे प्रसन्नता है कि उस स्तर तक पहुंचने के लिए सभी सहजयोगी की मान्यता नहीं। लोग कह सकते हैं कि मुझे चोरी करना या व्यक्तिगत ध्यान द्वारा भी प्रयत्न कर रहे हैं ताकि यह उत्थान हो हत्या करने का आनन्द आता है। परन्तु यह तो व्यक्ति की निरंकुशता है। समाज इसे मान्यता नहीं देता। इसके विरुद्ध सदा सके। इस प्रकार आप पूर्णतया ज्योतिर्मय हो जाते हैं। पर प्रश्न किया जा सकता है कि क्यों, किसलिए? यह सब प्रतिक्रिया होती है। पर सहजयोग ऐसा नहीं। आप जब कहते हैं कि" मुझे आनन्द आता है" तो आपमें अहं तथा बन्धन नहीं होते। करने का लक्ष्य क्या है? लक्ष्य यह है कि आपका लक्ष्य खो गया है। आप अब किसी लक्ष्य के लिए घ्यान नहीं करते। इतनी योग्यता से यह पाण्डाल बनाया गया पर इसके लिए एक पैसा भी नहीं दिया गया। वर्षां के मौसम में सभी लोगों ने यहां दिन रात मेहनत की । मुझे उनकी बहत चिंता थी पर वे कहने लगे हमें बहुत मजा आ रहा है, वर्षा और ठंड का हम आनन्द ले रहे हैं। किसी को भी शिकायत न थी। अब सहस्रार खुल गया है। एक ओर तो आपका अहं कम हो गया है तथा दूसरी ओर आपके बन्धन टूट गए है। ईसा की पूजा करने वाले लोगों को मैने गणेश की पूजा करते देखा है क्योंकि ईसा की पूजा उन्हें पादरी, दोष स्वीकृति, माला तथा कब्रिस्तान के बन्धनों में घसीटती है। ये बन्धन राक्षसों की तरह प्रकट होने लगते है पर सहजयोगी इनमें फंसना नहीं चाहते। सहजयोगियों ने स्पष्ट देख लिया है कि इन बन्धनों ने मनुष्य को अन्धा करके अज्ञानता में ढकेल दिया। पश्चिम के लोग अहं के बारे अति चेतन हैं। एक लीडर की पत्नी थी। मैने उससे पूछा कि वह अपने पति की सहायता क्यों नहीं करती? कहने लगी "माँ मुझे अहं की चिन्ता है।" एक व्यक्ति मेरे साथ था। अचानक वह दौड़ गया। मैने पूछा कि "क्या हुआ"? कहने लगा कि माँ के समीप रहने वाले लोगों में अहं बहुत बढ़ जाती है। मै अधिक समोप नहीं रहना चाहता। यह मस्तिष्क पागलपन, मूर्खता, आपरिपक्वता, अभद्रता, धोखा, पाखण्ड आदि को स्पष्ट देखता एक बार जब आपका सहस्रार शुद्ध हो जाता है तो आनन्द का यह प्रवाह आपको सोचने ही नहीं देता कि आप परिश्रम कर रहे हैं या कार्य कर रहे हैं। आपको लगता ही नहीं कि आप कुछ कर रहे हैं तब आप प्रश्न ही नहीं करते। यही अवस्था है जब आप दैवी योजना में कार्य करते हैं। आप सब बहुत कार्य कर रहे हैं पर किसी को नहीं लगता कि वह कुछ कर रहाहै। सभी सोचते हैं कि बिना कुछ किए वे आनन्द ले रहे हैं। यह अवस्था सहस्रार का आशीर्वाद है। क्योंकि अपने मस्तिष्क में ही आप यह सारी बातें तथा परिश्रम घटाने की विधियां सोचते हैं । आप यदि किसी को कहे कि फलां व्यक्ति को टेलोफोन कर लो तो वह बहाने बनाने लगते हैं। "हो सकता है वो वहां न हो आदि" आप देख क्यों नहीं लेते । काम घटाने के लिए बिना फोन किए वह सौ बातें कर देगा। यह मस्तिष्क की एक चालाको है। आपकी बुद्धि भी आपको धोखा देती है। सभी गलत कार्यों के लिए यह है। उस समय चकरा कर व्यक्ति पलायन करना चाहता है। सहजयोग में कुछ लोग समस्याएं लेकर आते हैं लोगों को पता चलता है कि अब भी उनमें यह समस्याएं हैं, सहस्रार इन्हें स्वीकार नहीं करना चाहता । वे कहते है "यह भयानक है"। मै भी उस सहसार पूजा 21 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-22.txt शीशा बन जाएं तो पूरी क्रिया ही उलट जाएगी। आपका स्वयं को देखना स्वभाविक है। इसी प्रकार आपका सहस्रार भी आपको बताता है कि आपकी स्थिति क्या है। सातों केन्द्रों की पीठ सहस्रार में है, और उनसे पता चलता है कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है। मानो सहस्रार आपको देख रहा हो और बता रहा हो कि आपमें क्या कमी है। सहस्रार आपको ठीक सूचना देता है अतः स्वयं को ठीक कर लेना ही उचित होगा। उस पूर्णता की स्थिति को प्राप्त कर लें। आपका यही कार्य है। एक बार यदि आप अपना लक्ष्य पा लेंगे तो उसके बाद कोई और लक्ष्य बाकी न बचेगा। दीपक की तरह। दीपक जलाने तक आपको परिश्रम करना पड़ता है। पर एक बार यदि ज्योति हो जाय तो इसका कार्य प्रकाश देना है। पाहला कार्य समाप्त हो रहा है। दूसरा कार्य प्रकाश देना है। आप अपने लक्ष्य, अपनी मंजिल पर पहुंचते हैं। बस। बुद्धि की पागल दौड़ रुक जाती है। क्यों? क्याइसका उपयोग अब शन्ति, आनन्द और सामूहिकता का मजा लेने में होना चाहिए? तो कठिन परिश्रम और भविष्य की योजना करने का अन्त हो जाता है। आपने इसे प्राप्त कर लिया है तो इसका आनन्द लीजिए। ये ऐसे ही है जैसे भूखे प्यासे बाहर से आप आ रहे है और घर पहुंचना चाहते हैं घर पहुंचते ही आपके सामने खाना परोस दिया जाता है। अब आपका क्या कार्य है? जिस खाने के लिए आप दौड़ रहे थे उसका मजा उठाना। परन्तु इसके बाद भी आप दौड़ना शुरु कर दें तो मूर्खता कहलाएगी। जैसा था पर अब मैं वैसा नहीं होना चाहता।" वे उस व्यक्ति को भरत्स्सना करते हैं। उसे वे सहन नहीं कर पाते। मैं कहूंगी कि आपको अभी उन्नत होना है। आपके सहस्रार को इतना बहुत पवित्र होना है कि साबुन की तरह यह भो नकारात्मकता को साफ करदे और ऐसा करते हुए इसे कोई भय न हो। दूसरों के अहं तथा बन्धनों की भी इसे चिन्ता नहीं होनो चाहिए। इस स्थिति को अब हमें प्राप्त करना है। आज 23 वां सहस्रार दिवसहै। मेरी इच्छा है कि आपके सहस्रार के सहस्त्र दल ऐसे शुद्ध हो जाएं कि आपको किसी से भी पकड़ न आए और किसी से भी आपको भय न हो। सभी प्रकार के रोग निवारण करने में आप दक्ष हो जाएंगे और आप ही लोग दूसरों को सुख-शान्ति दे सकेंगे आप ही लोग बाहर जाकर कार्यक्रमों का आयोजन करेंगे। आप ही सहजयोग के लिए जिम्मेदार हॉंगे। जब ऐसा हो जाएगा तो हम देख सकेंगे कि ये सहस्रार के सहस्त्र-देल खुल गए हैं। नहीं खुले। वे देवी की भिन्न सहस्त्र शाक्तियों के प्रतीक हैं। अन्र्तदर्शन द्वारा, स्वयं को देखते सहस्त्र दल अभी तक हुए अपनी त्रटियों को देखें मै इस प्रकार का आचरण क्यों करता हूं मैं इतना आग्रह क्यों करता हूं? क्या समस्या है? मैं स्वयं स्पष्ट क्यों नहीं देख पाता? सहस्रार को इतनी स्पष्टता से आप अपने हृदय और मस्तिष्क को देख सकते हैं और साफ साफ देख सकते हैं कि समस्या क्या है। इस स्तर को पाने की शुद्ध इच्छा से ही सहस्रार की यह पारदर्शिता आ सकती है। आपकी परस्पर कोई स्पर्धा नहीं। हम नहीं कहते कि सहस्रार से बाहर आने के लिए आपने पहला इनाम जोता। सहजयोग में पहला या दूसरा जैसा कुछ भी नही क्योंकि हम कोई दौड़ नहीं दौड़ रहे हैं। इसमें कोई मुकाबला नहीं। हम जो भी कर रहे हैं अपनी सन्तुष्टि के लिए कर रहे हैं। सहजयोग में कोई अन्य परन्तु आनन्द लेने की क्षमता तभी आएगी जब आपका सहस्रार पूर्णतया खुला होगा। अन्यथा आपकी क्षमता बहुत थोडो होगी और आप उस व्यक्ति सम होंगे जो सदा किसी चोज के पीछे दौड़ता रहता है पर जो उसे नहीं मिलती। ऐसे लोग बहुत हैं। वे सुबह से शाम तक कार्य करते हैं। अगली सुबह उठकर वे फिर दौड़ना शुरु कर देते हैं। कब्र में जब तक उनका पैर नहीं होता वे दौड़ते ही रहते है। पर सहजयोग में आनेके बाद आप ये सारी गतिविधियां छोड़ देते हैं और सभी कुछ अपने सहस्रार पर छोड़ देते हैं और सब कार्य होता है। आपको दौड़ना नहीं पड़ता, इतना योग्य नहीं होना पड़ता और न ही सब चीजों की योजना बनानी पड़ती है। सभी कार्य हो जाते हैं। बड़ी सुन्दरता से यह कार्य करता आपको प्रमाण पत्र नहीं देगा। आपने स्वयंईमानदारी से स्वयं को देखना है और प्रमाणपत्र देना है। आपने, आपके सहस्रार और आपके चित्त ने। आपने अपने अन्तस में देखना है कि कहां तक मैने अपनी शक्तियों अपनी करुणा और अपने व्यक्तित्व को साकार किया है। आपको स्वयं इसकी परीक्षा लेनी है शीशे को है। जो भी हो रहा है उसे हमें अपने हित में समझना है। इतना हमें अवश्य करना होता है। एक बहुत बड़ी घटना घटित हो गई है क्योंकि आप जानते है कि सहस्रार का आनन्द निरानन्द है। यदि आप देख रहे हैं तो आप स्वयं अवलोकन कर रहे हैं, आपकी परछाई का अवलोकन हो रहा है जिसे देखने का कर्म हो रहा है। तो आप ही तीन आयामों में हैं। परन्तु यदि आप स्वयं चैतन्य लहरी . 22 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-23.txt इसका अर्थ है पवित्र और पूर्ण आनन्द। इस आनन्द का कोई अन्य उपयोग नहीं। यह तो पवित्रतम है। आखिरकार सारी गतिविधियां किसलिए हैं? एक प्रकार की प्रसन्नता, उत्तेजना या आनन्द प्राप्ति के लिए। सहस्रार के खुलने तथा इसके पवित्र होने पर ही आप जान सकते हैं कि आनन्द क्या है। आप इसकी व्याख्या नहीं कर सकते। किस प्रकार आप घंटो बैठे रहते हैं। सभी लोग देख सकते है कि निश्चिन्त होकर आप जीवन का आनन्द ले रहे हैं। चाहे आप दफ्तर में कार्य कर रहे हों या कुछ और कर रहे हों आप आनन्द मग्न होते हैं। यह महत्वपूर्ण वरदान आप सहजयोग में ही पा सकते हैं क्यॉंकि आपका सहस्रार खुल जाता है। है अतः आगे बढ़े और स्वयं देखें कि आपकी कितनी क्षमता है। सर्वप्रथम आपको स्वयं पर विश्वास करना होगा बिना आत्मविश्वास के आप कुछ नहीं कर सकते। आपको किसी तरह का भय नहीं होना चाहिए। आपको अन्तर्दर्शन भी करना है। अपने अन्दर देखें कि क्या चल रहा है। कितनी अदभुत बात है कि दोपक से शौतल लहरियां आती हैं। मोमबत्ती की लौ से कैसे शीतल लहरियां आ सकती है? स्वयं को सहजयोगी मानना तथा सहजयोग के लिए किए अपने योगदान को मान्यता देना आवश्यक है। सहजयोग का कार्य किए बिना आप जीवन का आनन्द नहीं ले सकते। आपका यही लक्ष्य था जिसे आपने पा लिया है। मैं यहां आपको सहस्रार के विषय में बताने आई थी यदि मैं ऐसा नहीं करती तो मेरे यहां आने का क्या लाभ है? इसी आप सबके याद गखूने के लिए एक अन्य आवश्यक बात यह है कि अभी तूक बहुत से लोग इसमें नहीं उतरे हैं । हमें उनको र सहजयोग में लाना है और आत्म साक्षात्कार देना अत्यन्त आनन्द-दायक है। ऐसे लोग आगे बढ़े औरकार्य हो जाएंगे। बहत लोग जगह -जगह जाकर सहजयोग प्रचार कर रहे हैं। यह जानना आप सबके लिए अत्यन्त आवश्यक है कि आपको प्रकाश मिल गया है और इसे आपने अन्य लोगों तक पहुंचाना है। आगे बढ़ें। अपने अहं तथा बन्धनों के भय को छोड़ कर आगे बढे। आप सशक्त हैं, आप में सारी योग्यता है और आप प्रकार जब आप उस अवस्था पर पहंच गए हैं तो इसका उपयोग केवल अपने हित के लिए न करके जन जन के हित के लिए करना है। आपने सहजयोग के लिए क्या किया ? कुछ समय पश्चात आप बहुत कुछ करेंगे पर आपकों पता भी नहीं चलेगा कि आपने कुछ किया। मुछे आशा है कि आप सब लोग महसूस करेंगे कि आपके सहस्रार पूर्णतया शुद्ध हो गए है, आप पूर्णतया ठीक हैं और आपको इसकी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता ा नहीं। अब आप सहजयोग फैलाने के लिए आगे बढ सकते हैं। परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें। सभी कुछ प्रसन्नता तथा आनन्द पूर्वक करेंगे। हर स्थान पर, हर देश में लोग यह कार्य कर रहे हैं। पर कुछ लोग कर रहे हैं और कुछ नहीं कर रहे। आप सभी लोगों में इसको करने की योग्यता ५] सहसार पूजा 23 1993_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_9,10.pdf-page-24.txt Printed at Bharati Printers, WZ-113, Shakurpur Village, Delhi-110034 Phone : 5413126, 5437741