XXXXXXXXXXXXXXXX XXXXX) *Xxxxx XXXXXXXXXXXXX तन्थ लहर 1994 खण्ड VI अंक 1 व 2 जिस प्रसन्नता का अनुभव आप सभी तक करते हैं उसका स्त्रोत अहँ या बन्धन हैं। यह प्रसन्नता अस्थायी है। स्थायी आनन्द आत्मा से मिलता है। परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी XXXXXXXXXXXX XXXXXXXX) XXXXXXXXXXXXX XXXX) XXXXXXX XXXXXXAXXXXXX0XXXXXX XXXXX श्री योगी महाजन पादक सम श्री विजय नाल गिरकर 162, मुनिरका विहार, नई दिल्ली-110067 मुद्क एवं प्रकाशक प्रिन्टेक फोटोटाईपसैंटर्स, 35, राजेन्द्र नगर मार्केट, नई दिल्ली-110060, फोन : 5710529, 5784866 मुद्रित चैतन्य लहरी प्रिय सहजयोगी, चैतन्य लहरी नव वर्ष में आपके लिए मंगल कामना करती है। वर्ष 1994 का आरम्भ एक नये आयाम के साथ हुआ है जिसमें सहजयोग महायोग बन गया है। सहजयोगी अब बसन्त का आनन्द ले रहे हैं। यह आनन्द-प्राप्ति सामूहिक बन गयी है। सारे अवरोध समाप्त हो गए हैं। उत्तरी भारत में हुए जन-कार्यक्रमों में लोगों को स्वतः ही आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ। श्री माता जी ने उन्हें हाथ अपनी ओर फैलाने भर को कहा और लो! शीतल लहरियां बहने लगीं। हमारी पूज्य श्री माता जी के इस चमत्कार ने सभी सहजयोगियों को अभिभुत कर दिया। नव वर्ष में घटित होने वाली महान घटनाओं के लिए यह हमारी तैयारी है। चैतन्य लहरी विश्व भर में हुए श्री माता जी के चमत्कारों, रहस्योद्घाटनों तथा घटनाओं की पूरी सूचना देती है। अंतः अपना वार्षिक शुल्क, 250/- रुपये, निम्न पते पर भेजना न भूलें :- श्री एम. डी. वासुदेवा सहजयोग मन्दिर 17 सी इन्स्टीच्यूशनल एरिया, ( होटल के पीछे) कुतुंब नई दिल्ली जय श्री माता जी। चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी खण्ड VI, अंक 1 व 2 विषय सूची पृष्ठ 1. देवी स्तुति 2. नवरात्रि पूजा 3. दिवाली पूजा 1 रूस 4. श्रीकृष्ण पूजा, इटली 15 अगंस्त 1993 5. श्रीगणेश पूजा, इटली 19 सितम्बर 1993 11 16 6. रूस में सम्वाददाताओं से साक्षात्कार (सारांश) 20 2. देवी स्तुति मेघा, सरस्वती, वरा ( श्रेष्ठा), भूति (एश्वर्यरूपा), बाभ्रवि (भूरे रंग की (महाकाली) नियता (संयम परायणा) तथा ईशा (सबकी अधीश्वरी), रूपिणी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है। देवि! प्रपन्नात्तिहरे प्रसीद, प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य। प्रसीद विश्वेश्वरि! पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवि! चराSचरस्य।। अथवा पार्वती), तामसी शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम पर सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते। प्रसन्न होइए| सम्पूर्ण जगत की माता! प्रसन्न होइए। विश्वेश्वरी विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत की अधीश्वरी हो। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि! दर्गे देवि! नमोऽस्तु ते।। सर्वस्वरूप, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यूपा दर्गे देवी! संब भयों से हमारी रक्षा करो! तुम्हें नमस्कार है। रोगानशेषानपहंसि तुटा, आधारभूता जगतस्त्वमेका महीस्वरूपेण यतः स्थितासि। अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत- रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता हश्रयतां प्रयान्ति। दाप्यायते कृत्स्नमलड्घयवीर्ये! तुम इस जगत का एकमात्र आधार हो, क्योंकि पृथ्वी रूप में तुम्ही स्थित हो। देवि! तुम्हारा पराक्रम अतलनीय जगत को तृप्त करती हो। सर्वस्य बद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते । स्वागांपवर्गदे देवि नारायणि! नमोऽस्तु ते।। देवी! तम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर है। तुम्हीं जल रूप में स्थित होकर सम्पूर्ण देती हो और कृपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं। बुद्धि रूप से सब लोगों के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली देवि नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि! विश्वार्तिहारिणि! । बैलोक्यवासिनीमीड्ये लोकानां वरदा भव।। विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवी हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हुए हैं, हम पर प्रसन्न होइए। त्रिलोक निवासियों की पूजनीया परमेश्वरी सब लोगों को सृष्टि-स्थिति-विनाशानां शक्तिभूते सनातनि!। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते।। तुम सृष्टि पालन और संहार की शक्ति भता संनातनी देवी, गणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। बरदान दो। (देवी महात्मय में शुंभ निशुंभ के वध के उपरान्त देवी देवताओं द्वारा की गई नारायणि स्तुति से उद्धृत ) मेघे सरस्वति वरे भति बाभ्रवि तामसि । नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि! नमोऽस्तु ते।। देवी म्ति नवरात्रि पूजा 24, अक्तूबर 1993 हैं। सत्य साधकों की प्रतिशतता यदि आप देखें तो यह बहुत कम है, परन्तु है अत्यन्त महत्वपूर्ण। क्योंकि थोड़ा सा सोना टनों लोहे से कहीं अधिक बहुमूल्य होता है। इसी प्रकार अध्यात्मिकता के विकास में एक साधक अमूल्य है। देवी के बहुत से रूप हैं परन्तु वह शक्ति की अवतार हैं। आदि शक्ति इन सभी अवतरणों को शक्ति प्रदान करती है अतः बहुत सी देवियां है। समय-समय पर पृथ्वी पर अवतरित होकर इन्होंने साधकों के उत्थान के लिए सभी आवश्यक कार्य किए। विशेषतौर पर हमारी परिचित जगदम्बा, दुर्गा मां ने। वे सभी सत्य साधकों की रक्षा तथा राक्षसी शक्तियों का नाश करने का प्रयत्न कर रही थीं। उत्थान के बिना मानव सत्य को नहीं जानता, इसी कारण जो भी कुछ वह करने का प्रयत्न करता है वह मात्र मानसिक प्रक्षेपण (दिमागी जमा-खर्च) ही होता है। सत्य एवं धर्म से प्रमाणित हुए बिना इस मानसिक प्रक्षेपण का पतन हो जाता है। संस्कृत में इसे "ग्लानि" कहते हैं। जब- जब धर्म की रलानि होती है तो समस्या का समाधान करने के लिए को, आत्मज्ञान को वे पा लेना चाहते हैं। अन्तज्ञांन के दो अवतरण जन्म लेते हैं। देवी के सभी अवतरणों के समय बहुत सी आसुरी शक्तियां भी पृथ्वी पर अवतरित हुई और देवी को युद्ध करके उनका विनाश करना पड़ा। यह बिनाश केवल इसलिए नहीं था कि आसुरी शक्तियों को समाप्त करना है। यह इसलिए था क्योंकि यह शक्तियां साधकों एवं सन्तों का दमन करने तथा उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयत्न करती हैं। यह सभी विध्वंसकारी शक्तियां एक ही समय पर नहीं आतीं। जिज्ञास आध्यात्मिकता के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और उन्हीं की रक्षा के लिए अवतरण साकार रूप में जन्म लेते हैं। यदि वे सत्य की खोज नहीं करते तो वे भी व्यर्थ नेपाल, जह्पान आदि जाते हैं। परन्तु आत्म चेतना के जीव हैं जो समाप्त हो जाएंगे। उनकी न कोई गरिमा है न मूल्य। उन्हें किसी बात की समझ नहीं। देवी प्रेम की दृष्टि में केवल दो प्रकार के लोग होते हैं। एक तो जो सत्य साधक होते हैं तथा दूसरे जो नहीं होते। हो सकता है कि वे अच्छे लोग हों, अच्छा सामाजिक या प्रचार कार्य कर रहे हों। परन्त यदि वह सत्य की खोज नहीं कर रहे तो ये वे लोग नहीं हैं जिनके लिए परमात्मा को अवरतरित पुरे ब्रहामण्ड की रचना की गई, सारा वातावरण बनाया गया, सारा विकास हुआ, किस लिए? कि मानव सत्य को जान लें। परन्तु आधुनिक वातावरण बहुत बड़ा अभिशाप हैं, है, शुम्भ-निशुम्भ आदि से भी बड़ा। भौतिकता सबसे ब्री है क्योंकि यह आपको स्थूल कर देती है। साधना में जब आपका उत्थान हो रहा होता है तब सूक्ष्म रूप से भौतिकता आपको पकड़ लेती है। सहजयोग में आकर लोग अपने अन्तस की गहराइयों में चले जाते हैं तथा सारे अन्तर्जान अर्थ हैं: आत्मा का ज्ञान तथा अपने विषय में ज्ञान। इसी अवस्था को पाने के लिए लोग सब कुछ करते रहे हैं हिमालय जाना, वस्त्रहीन शरीर से ठंड में ध्यान करना, थोड़े से फंल आदि खा कर कन्द्राओं में रहना आदि। उनकी साधना इतनी गहन तथा आवश्यक थी कि वे सभी प्रकार की तपस्या करते थे पर साधना की शक्ति से बाहर न निकलते थे। पर आजकल भौतिकता उस तीव्र इच्छा तथा समर्पण को पीछे धकेल देती है। सहज में आने से पूर्व साधक पर साधना का पागलपन सवार होता है। वे बहुत धन व्यय करते हैं, बहुत स्थानों पर जाते हैं, हिमालय 1. विकास के लिए आत्मा बन जाने के उपरान्त उनकी उन्नति रूक जाती है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि इतनी दौड़-धूप के बाद उसे इतनी अमूल्य उपलब्धि प्राप्त हुई है अतः आपको इसमें स्थिर होना है। पर आप तो इससे अत्यन्त सन्तुष्ट हो जाते हैं। यहां तक भी ठीक है यदि आपकी उन्नति न रुके। आपका विकास रुक जाता है और इसका एक कारण है भौतिकता की ओर झुकाव । इसी भौतिकता के कारण ही आप में आत्मविकास की कमी है। जैसे आप जानते हैं कि देवताओं की प्रार्थना पर देवी होना पड़ता है। अतः साधकों का महत्व तथा उनका मूल्य समझने का प्रयत्न कीजिए। आप भी यही सत्य खोज रहे चैतनय लहरी ध्यान रखना है कि आत्म साक्षात्कारियों के रूप में यदि आप अपना मूल्य नहीं समझते तो आप मेरे समय का तथा मेरा भी मूल्य नहीं समझ सकते। आपके इस भौतिक दृष्टिकोण के कारण यह अवतरण भी व्यर्थ हो सकता है। मेरी समझ में नहीं आता कि आजकल लोगों को क्या हो गया है। आपके जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य तो उत्थान द्वारा विकसित होना है। सारी चीज़ को गहनता से देखें। इस ब्रह्ाण्ड की रचना क्यों कि गई? आप को मानव क्यों बनाया गया ? यह सब करने की क्या आवश्यकता थी? विशाल दुष्टि डाल कर अपनी स्थिति का अन्दाजा लगाएं कि मैं कहां हूँ? किस प्रकार परमात्मा ने मुझे चुना है और अब मैं सहजयोगी हूँ। अब मेरा क्या उत्तरदायित्व है? व्यक्ति को यह देखना है। परन्तु इसके विपरीत मैंने देखा है कि लोग मूर्खतापुर्ण तुच्छ बातों के लिए फोन करते हैं। यह समझ पाना असम्भव है कि कैसे सहजयोगी ये बातें पृछ सकते हैं? इस परिप्रेक्ष्य में हम देवी को देख सकते हैं। सत्य साधकों की रक्षा करने के लिए तथा उनका उत्थान मार्ग प्रशस्त करने के लिए देवी समय समय पर भिन्न रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होती हैं। क्या आप कल्पना कर सकते कलयग से पर्व की देवी के अवतरणों में यह बहुत बड़ा अन्तर है। तो अब ये कोई भिन्न बात क्यों हैं कि आप पृथ्वी पर सहजयोगी बनने के लिए आए। आपका एक शरीर है, मस्तिष्क है, भावनाएं हैं जो आध्यात्मिक से प्रचलित है। बीते जीवन में वर्षों तक आप परमात्मा को खोजते रहे। तब आप यहां आर्य,क्या यह मात्र संयोग था? तो यह क्या था? अपनी साधना के फलस्वरूप, सौभाग्य से जब आप सहजयोग में आये हैं और इसमें आनन्द पाया है तो अब आपका क्या उत्तरदायित्व है? यह अवतरण पृथ्वी पर स्वयमेव मात्र आपकी रक्षा और पोषण करने के लिए तथा राक्षसों का नाश करने के लिए नहीं आया। आपके अन्दर निहित सुक्ष्मताओं के तथा आपके आन्तरिक एवं बाह्म सम्बन्धों के बारे में आपके बताने के लिए वे पृथ्वी पर अवतरित हुई हैं। आप कभी भी सत्य, सर्वव्यापक शक्ति तथा सर्वशक्तिमान परमात्मा से जुड़े न थे। व्यक्ति को समझना चाहिए कि कितनी महान घटना घटित हुई है कि मेरे अन्दर से निकल कर वण्डलिनी ने सारे ऊपरी चक्रों को छ लिया है! कैसे? इससे पूर्व यह कभी नहीं घटित हुआ। साधकों की मात्र रक्षा तथा देखभाल हुई। कहीं भी ऐसा वर्णन नहीं है कि देवी ने लोगों को आसुरी वृत्तियों का नाश किया। अवतरित हुई और देवताओं की गहन इच्छा के फलस्वरूप ही देवी अवतरित हुईं। उत्थान की इच्छा उनमें इतनी तीव्र थी कि भूखे प्यासे रह कर भी वे उत्थान के लिए कार्य करते। पर इन आसुरी शक्तियों ने इनके मार्ग में बाधा डाली। इतने हृदय से उन्होंने देवी को पुकारा कि उनकी रक्षा तथा देखभाल के लिए उन्हें पृथ्वी पर अवतरित होना ही पड़ा। पर हमें लगता है कि जरा सी उपलब्धि पाते ही आप आत्मसन्तुष्ट हो जाते हैं। आत्म-सन्तोष का अर्थ आपकी दुष्टि में क्या है? आत्म साक्षात्कार के पश्चात यदि आप पूर्ण हैं, पूर्णत्वं में हैं, सत्य से आपकी पूर्ण एकाकरिता है तो करने को कुछ शेष नहीं, आप सन्त बन गए हैं। सन्त को ख्याति की आवश्यकता नहीं होती, किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती। उसका सन्देश फैल जाता है। लोग उसे देखते ही जान जाते हैं कि वह महान सन्त है। बहुत से सन्त अपने घर तक को भी नहीं छोड़ते। भारत में एक कहावत है कि अपने तकिए को नहीं छोड़ना चाहिए। गुरु का यही माप-दण्ड था। साधक छः सात मील पहाड़ चढ़ कर गुरू पास आए। पर गुरु किसी से नहीं मिलते, आपको चांटा भी मार सकते हैं, किसी भी प्रकार से आपकी परीक्षा ले सकते हैं। अन्त में वे किसी एक को आत्म साक्षात्कार के लिए चुनते। यह उत्कण्ठा तथा घोर-प्रयत्न साधकों में सदा होता था। अब हम आज के सहजयोग पर आते हैं। आप जानते हैं। कि आपको आत्म साक्षात्कार मिल गया है, आप अन्य लोगों से कहीं अच्छे हैं, बहुत सी समस्याओं से आपको छटकारा मिल गया है तथा आप अपने गुरू बन गए हैं। फिर भी अपने तथा अन्य लोगों के प्रति आपका उत्तरदायित्व कम हो गया है क्योंकि आप आत्म-सन्तुष्ट हैं। के उस दिन एक सहजयोगिनी ने मुझे फोन करके कहा कि मैं डाक्टर के पास गई और उसने बताया कि मैं गर्भवती हूँ। मैं इस बच्चे का क्या करू? इतनी छोटी-छोटी बातें मुझसे पृछते हैं। इनके बच्चों के नाम भी मुझे बताने पड़ते हैं। किसी पादरी से भी कहीं अधिक कार्य मुझे करना पड़ता है। लोग छोटी छोटी चीज़ों से चिन्तित हैं। उनकी गाड़ी छूट जाए तो भी मुझे फोन करते हैं। क्या किया जाय? उन्हें बताना पड़ता है कि बन्धन दे दो। उनके माता पिता पर भी मुझे चित्त देना पड़ता है। बड़ी ही तूच्छ चीज़ों के लिए मुझे पत्र लिखते हैं। लोगों की समझ में नहीं आता कि मैं यहां किसलिए हैं। फिर भी मैंने कभी नहीं कहा कि इतनी व्यर्थ की बातों के लिए मेरा समय बर्बाद करते रहते हो। पर अब 1 जव नहीं। जो भी कुछ तुमने किया है मुझे तो बच्चे की देख भाल करनी है, उसे सुधारना है पर तब मुझे लगा कि यह महिला अपने बच्चे के मोह में फंसी है। मैंने अगुआ को फोन किया तो उसने बताया कि वह भयंकर मोह लिप्त है। यह तो एक मुर्खता से दूसरी की ओर जाना हुआ। इस अवतरण के पास करने के लिए बहुत से विचित्र कार्य हैं यहां तक कि श्री गणेश की 64 कलाएं, 64 सविज्ञताएं भी इन कार्यों को कर पाने में असमर्थ हैं। यह इतना जटिल क्यों हैं? आत्म साक्षात्कार देने के बाद तो यह आपके लक्ष्य तथा उन्नति की ओर सीधा रास्ता होना चाहिए था। फिर क्यों इतनी जटिल समस्याएं हर समय आपको घेरे रखती हैं? आप क्या चाहते हैं? हमें पूछना चाहिए कि आप क्या चाहते हैं? मुझे एक बच्चा चाहिए। सहज़ योग पाने के बाद आपकी कोई इच्छा नहीं होनी चाहिए। आपको बच्चा क्यों चाहिए? बहुत से बच्चे हैं, उनकी देखभाल कीजिए। "मेरी इच्छा है" आपके मस्तिष्क से चली जानी चाहिए। इच्छाएं अब समाप्त हो चुकी हैं, आप केवल अपना आत्म साक्षात्कार चाहते हैं। इसके पश्चात "मेरी इच्छा" ही अधिक महत्वपूर्ण है। मैं चाहती हूँ कि आप वास्तव में भौतिकता से निर्लिप्त हो जाएं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि आपे हरे रामा हरे कृष्णा जैसे बन जाएं। नहीं वे निर्लिप्त नहीं है। वे अत्यन्त लिप्त लोग हैं। निर्लिप्तता ऐसी स्थिति है जहां आपको कुछ बांध नहीं सकता, कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रहता, आपका आध्यात्मिक उत्थान ही महत्वपूर्ण होता है, इतसे अधिक कुछ भी आप को आकर्षित नहीं कर सकता। यह बात सहजयोगियों को समझनी है। सहजयोगियों के मुकाबले में अन्य साधकों ने कितने कष्ट झेले हैं। इनके बारे पढ़ कर मुझे दुःख होता है। पर यहां (सहज योग में) तो सब कुछ सुगम है, आएं, अच्छे खाने और संगति का आनन्द लें। एक उत्सव हो रहा है, सब कुछ अच्छा है और यदि किसी चीज की कमी हो तो मैं स्वयं आयोजकों से कहती हूँ कि आपको यह सब करना चाहिए था। अब हम उस स्थान पर आते हैं जहां हमें समझना है कि "हम क्या चाहते हैं?" शुम्भ-निशुम्भ को मारने का क्या लाभ है? आप गतिहीन हैं, एक ही स्थान से चिपके कोई प्रगति नहीं है। तो इन सब कार्यों को करने का तथा आत्मसाक्षात्कार दिया। वे जिम्मेदार हैं, दे सकती हैं। उनके एक नहीं दस नाम ऐसे हैं कि वे निर्वाण प्रदायनी हैं, मुक्ति दायिनी हैं तथा पुनर्जन्म से आपको परिचित कराती हैं। यह सब लिखा हुआ है। पर आधुनिक यूग में तो लोग अपने जीवन के को समझ ही नहीं पा रहे हैं। देखिए किस प्रकार लोग प्रश्न करते हैं, पूछताछ करते हैं, चिन्तित हैं, मेरा बच्चा बड़ा हो गया है, मैं क्या करू? बच्चा बड़ा हो गया है तो इसे स्कूल भेज दो या जो अच्छा लगे करो। माँ क्या आप बताएंगी कि इसे कहां भेजूं? क्या आपने ्कूल देखा है श्रीमाताजी? नहीं मैंने नहीं देखा। तो अब मैं जाकर स्कूल का निरीक्षण करूं। काली माता की यह सब कार्य करते हुए कल्पना कीजिए। पर मुझे इतने तुच्छ कार्य भी करने पड़ते हैं जो आप अपने बच्चे के लिए भी नहीं करेंगी। और बच्चे क्या कर रहे हैं? अभी तक भौतिकता में फंसे हैं। आज दशहरे का विशेष दिन है। इस दिन रावण को ज मूल्य क जलाया गया था। जगह जगह रावण के पतले जलाये गए। यह श्री रामु की विजय है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सहजयोगी बनाए या आत्म साक्षात्कार दिया। नहीं। उनकी विजय यही थी कि उन्होंने रावण का वध किया। आज की तैयारी के लिए उस समय वह कार्य हुआ, आज की घटनाओं के लिए। बहुत समय पूर्व ऐसा हुआ ताकि आजकल के लोग श्रीराम की विजय के मूल्य को समझें। परन्तु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि माताजी श्री निर्मल देवी का यह अवतरण अत्यन्त भ्रमित करने वाला है, महामाया है। अपनी इच्छा पूर्वक कार्य करने के लिए आप स्वतन्त्र हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए तो वे श्री माता जी से पूछेंगे पर महत्वपूर्ण चीजों के लिए नहीं। एक प्रकार का दुरूपयोग शुरू हो गया है, इतने महान एवं महत्वपूर्ण अवतरण को व्यर्थ की चीज़ों के लिए उपयोग किया जाना। में अवतरणों के बीच अन्तर देखिए। एक अवतरण लोगों की रक्षा करने के लिए, लोगों को माया की माया से निकालने के लिए विश्व में आता है। परन्तु दूसरा अवतरण केवल इसकी बात करने के लिए नहीं, आपके आत्म - साक्षात्कार देने तथा आपकी छोटी-छोटी चीजों की देखभाल करने के लिए आता है। जब इस महिला ने हैलीफोन करके मुझे कहा कि कृपा करके मुझे ठीक कर दीजिए तो यह उन दिनों के भक्तों तथा आज के भक्तों का भिन्न दृष्टिकोण हैं। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। मैंने कहा कि "तुमने मुझसे पूछ कर यह सब नहीं किया, कोई बात हैं. हुए नकारात्मकता को मिटाने का क्या लाभ है? क्या ध्येय है? सब कहते हैं कि श्रीमाताजी आपने इन्हें आज्ञा दी है। आप ही की छूट के कारण इनका ये हाल है। उस दिन एक लड़की 1. चैतन्य लहरी आपने क्या किया? इस स्थिति में आपको अन्तर्दर्शन करना होगा। आप क्या कर रहे हैं? हमें क्या करना है? किस सीमा तक हमें जाना है? यह समय अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और आप लोग भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। परन्तु यदि आप अपनी तथा अपनी शक्तियों का मूल्य नहीं समझते तो परमात्मा क्यों आपकी चिन्ता करें? क्यों परमात्मा आपको नये विचार प्रदान करें? इस तरह के लोगों में क्यों वह दिलचस्पी लें। हमें अपने अन्दर देखना चाहिए, अन्त्तदर्शन करना चाहिए कि हमने सहजयोग के लिए क्या किया ? बस मैं अपने बच्चों की देखभाल करती रही तथा पति के लिए खाना बनाती रही। पुरूष भी इसी तरह सोच सकते हैं। हमने क्या किया? हमने सहजयोग के लिए क्या किया? मैं बस राजनीतिज्ञों या कि व्यक्ति विशेष तक ही पहुंचना चाहता हूँ। किस लिए? वे आकर आप से मिलेंगे। परन्तु आपका स्वयं में विश्वास अति दर्बल है। आत्म विश्वास की कमी ही सारे पतन का मेरे पास आई, उसका बच्चा अत्यन्त बीमार था। मैंने उससे पूछा : क्या तुम ध्यान करती हो? वह चूप रही। मैंने कहा कि मैं समझ सकती हैँ कि तुम ध्यान नहीं करती। मैं सब जानती हूँ। आज दशहरे का दिन है जब लोग अपने गांवों की सीमा पार करके माता-पिता के लिए सोना लाते हैं। अब आपको भौतिकता की सीमा लांघनी होगी क्योंकि यह तुच्छ शक्ति आपका मार्ग अवरोधित कर रही है। इससे ऊपर उठ कर आपको सहजयोग की सीमाओं से सोना लाना है जो कि कभी अशुद्ध नहीं होता। आप में से कितने लोग वास्तविकता में कार्य क्षेत्र में उतरे हैं? आपमें से कितने इसके विषय में लोगों को बता रहे हैं। इस कार्य के लिए आप क्या कर रहे हैं? समर्पण की अवस्था आ गई है। उदाहरणार्थ आपको कोई समस्या है, जैसे आपके पास छट्टी नहीं है और आप पूजा पर आना चाहते हैं। पूजा पर यदि आप आना चाहते हैं तो बस आ जाइए। आपको न केवल नौकरी मिलेगी, उन्नति भी मिल जाएगी। परन्तु आपको तो अपने उत्थान पर विश्वास ही नहीं है। आप विश्वास नहीं करते कि परमात्मा ने आपको चुना है। अब हम हैं कहाँ? हमी लोगों (सहजयोगियों) को सभी शक्तियां प्रदान की गई हैं। हम आशीर्वादित हुए हैं पर हम इनका उपयोग नहीं करना चाहते। यह भी नहीं जानना चाहते कि हमें कौन सी शक्तियां मिली हैं। हम अपने बच्चों के लिए चिन्तित हैं, हमें चिन्ता है कि कौन सी साड़ी पहनेंगे या हमें चिन्ता है कि कौन अगआ है और अगआओं के विषय में हमें क्या करना चाहिए। इन बातों से हमें कोई लाभ न होगा। इसके लिए आप यहां नहीं है। समझने का प्रयत्न करें कि यहां आप आत्मा बनने तथा फिर आत्मा का प्रकाश फैलाने के लिए हैं। कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। एक बार जब आप ऐसा करने लगेंगे तो आप आश्चर्य चकित रह जायेंगे कि विश्वास कार्य करता है। यह अन्ध विश्वास नहीं है। मझे बताने की आपको कोई आवश्यकता नहीं, बस यह ( विश्वास) कार्य करता है । योड़े दिनों में ही आपको यह सफलता मिल जाएगी जिसके पीछे आप भटक रहे थे। आप अनावश्यक भौतिक वस्तएं पा भी लें। पर एक प्रश्न बना रहता है। मान लो कोई व्यक्ति सहजयोग को अपना जीवन समर्पण करना चाहता है। तो आप क्या करते हैं? समर्पण करके आप क्या करते हैं? आपका विश्वास सर्वोपरि है। आपको ज्ञान होना चाहिए कि किसी चीज़ में आपका विश्वास कैसा है। आप इसमें वास्तव में विश्वास करते हैं या नहीं। यदि आप इसमें विश्वास करते हैं तो इसके लिए ज कारण है। आत्म विश्वास ऐसी शक्ति है। इस बात को आप जानते हैं। आपने मेरे फोटो देखे हैं और उनके विषय में आप विश्वस्त हैं। विश्वस्त होने की कोई बात नहीं, पर आपके हृदय में भह विश्वास अस्तित्व नहीं बना। ठीक है, श्री माता जी इस कार्य को करेंगी, उस समस्या को सुलझाएंगी। परन्तु अब मुझे लगता है कि मुझे साफ-साफ बताना होगा कि आपको तपस्या करनी होगी। किसी से पुषछिए क्या आप ध्यान करते हैं? नहीं श्री माता जी। तो यहां आप क्या कर रहे हैं। मेरे घुटनों में दर्द है इसलिए मैं आपके पास आया हूँ। परन्तु मैं ध्यान नहीं करता। मैं अत्यन्त ईमानदार हूँ। पर हानि किसकी है? मेरी हानि नहीं है, मुझे सहजयोग की आवश्यकता नहीं है। आपके सहजयोग के लिए मैं इतनी तपस्या कर रही हूँ। क्या आप भी इसके लिए कुछ तपस्या कर रहे हैं? आपको आत्म साक्षात्कार मिल गया है। अब आपको आन्तरिक ज्ञान है तथा परमात्मा से अपने सम्बन्ध की भी समझ आ गई है। आप यह सब जानते हैं। फिर भी आपके हृदय तथा शुद्ध इच्छा में गहनता नहीं है। स्वयं को धोखा देने का कोई लाभ नहीं । मैं किसी अन्य के लिए ये बातें नहीं कह रही हैं। आप सब को कह रही हैं। स्वयं को धोखा न दें। महान लक्ष्य के लिए आप यहां हैं। और यह लथ है स्वयं को सुधार कर, मूर्खतापूर्ण एवं विध्वंसक शक्तियों से अपने मस्तिष्क को स्वतन्त्र करके, इस स्वतन्त्रता के बारे में सबसे दृढ़ नहीं है। यह बाहुय है, आपका 1 नवरात्रि पूजा बनानी पड़ती। उन्होंने यह सब क्यों किया ? क्योंकि उन्हें स्वयं पर विश्वास था। उन्हें सर्वशक्तिमान परमात्मा पर विश्वास था। जो कुछ भी उन्होंने किया परमात्मा की इच्छा मान कर किया। यहीं सब मुझे करना है, बस। चिन्ता नहीं मुझे रावण का सामना करना पड़े या किसी अन्य का। बात करना तथा इसे चारों ओर फैलाना। मेरा दढ विश्वास है कि सहजयोगियों में कुछ ऐसा घटित होना है जिससे वे अनन्त निहित शक्ति, जो कि बाहर आने को आतुर हैं, के महत्व को समझ सकें तथा कार्यान्वित कर सकें। यह एक उत्तरदायित्व है, कोई अन्तर नहीं पड़ता चाहे आप यहूदी हों या ईसाई। यह सब बाह्य है। इनका ध्यान आपने किस लिए करना है। चेतना और उच्च जीवन के एक नये क्षेत्र में आप आ गए हैं जहां आपको अन्तरआत्मा का एवं अच्छे ब्रे का ज्ञान है। यह ज्ञान पा कर भी यदि आप विकसित नहीं होते तो किसे दोष देंगे? मैं सहजयोगी हैं, मुझे कोई चिन्ता नहीं। सहजयोग का प्रचार, आत्म-शुद्धि करना तथा आत्मज्ञान पाना मेरा कार्य है। यहीं मेरा कार्य है, यहीं मेरा कर्तव्य है और यह मुझे करना है। चिन्ता नहीं स्कूल में मझे प्रवेश मिले या न मिले। चिन्ता नहीं किसी को वाययान का टिकट मिले या न मिले। आप को यकीन नहीं होगा कि स्वयं पर विश्वास यदि आपको है तो जहां भी आप चाहेंगे आपको प्रवेश भी मिलेगा और टिकट भी। इन सब बातों के लिए आपको न तो संघर्ष करना पड़ेगा और न चिन्ता। मेरे जीवन पर यह घटित होता रहा। निःसन्देह मेरा विश्वास जिब्राल्टर की चट्टान की तरह दुढ़ है। मैं जानती हैँ कि मैं क्या हूँ और मुझे क्या करा है। मुझे कोई समस्या नहीं विश्वास के कारण से। मैं सब को जानती हूँ तथा सब को तुरन्त पहचान सकती हूँ। चाहे मैं कभी कभी इस बात को प्रकट न होने दें और कहूँ ठीक है. यह अच्छा है। परन्तु मैं बास्तव में जानती हूँ कि मैं क्या हूँ और मझे क्या करना है। अब हमें कलयुग का महत्व समझना है जिसमें आपकी सहायता करने के लिए, कोमलता से आपकी देखभाल करने के लिए तथा प्रेम पूर्वक आपको हर बात बताने के लिए आपकी मां अवतरित हुई हैं। वास्तव में प्रेम वश आपका कर्तव्य समझाने के लिए भी मैं एक मिनट से अधिक किसी से नाराज़ नहीं रह सकती। यह सभी बातें मैं आपको बताती रही कि आपके अन्दर आपकी अपनी शक्ति है जिसकी देखभाल तथा प्रशंसा आपने करनी है। इस कार्य के लिए आपके पास बहुत सी पुस्तकें हैं तथा इसे समझने की बहुत सी विधियां हैं। पर इस आन्तरिक ज्ञान के प्रति आपका रवैया इस प्रकार है: कि मुझमें सृजन करने का आन्तरिक ज्ञान है पर मैं ऐसा नहीं करता! ठीक है, मुझ में अन्तज्ञ्ञान है, मैं पी.एच.डी हूँ, परन्तु मैं पागल हँ। मैं जानती हैं कि सहजयोग में बहुत से लोग मानसिक रूप में समर्थ हैं। परन्तु सहजयोग का अनुसरण वे नहीं करते। अतः अब मैं आपको चेतावनी दे रही हैं। यह भी ऐसा ही है जैसे ईसा ने कहा है: कुछ अंकुरित बीज़ गली में गिर का सुख गए और नष्ट हो गए। अब हर समय निर्णय चल रहा है। इसी प्रकार आपको अपने विषय में जानना है क्योंकि आप भिन्न श्रेणियों के लोग हैं। आपको परमात्मा से या श्री माता जी से सुरक्षा नहीं चाहिए, आपको तो अन्य लोगों को सरक्षा प्रदान करनी हैं, उन्हें प्रकाश देना है तथा उनका मार्ग दर्शन करना है। इस लक्ष्य के लिए आप यहां है, घर प्राप्त करने या आयकर में छूट पाने के लिए आप यहां नहीं आये। इस सब मु्खता को आप भूला दें। फिर भी उन्हें यह छट आपको देनी ही होगी। मैं पर्णतया इसी प्रकार रहती हूँ। यात्रा करते हुए मैं कभी नहीं सोचती की मैं यात्रा कर रही हैं। में तो बस सोचती हूँ कि मैं यहां हूँ। हमें अपनी भाषा तथा शैली परिवर्तित करनी होगी। हमारी समझ यह होनी चाहिए कि हम कठोर व्यक्ति हैं. अपने प्रति हम कठोर है परन्तु दूसरों के प्रति हम करूण, कोमल तथा मधर हैं। एक बार तबादला होने पर हम एक घर में गए जहां सोने के लिए केवल पलंग था जिस पर मेरे पति सोए हुए थे। मैंने कहा ठीक है और चनौती स्वीकार करके मैं पृथ्वी पर सो गई। अगले दिन मेरे शरीर में दर्द था। मैंने शरीर से कहा कि सधर जाओ। पत्थरों पर सोना भी सीखो। और एक महीने तक फर्श पर सोई। आपको हर रात आपको ध्यान करना है और फिर सोचना है कि आज मैंने क्या किया, क्या प्राप्त किया? यहां सब कुछ व्यर्थ की बातों को महत्व देते हुए, समय के बन्धन में रह कर किया जाता है। वास्तव में तो आगने अपने विश्वास को बढ़ाना है। मैं सच्चे कार्य करूंगा जो दिवेकशील होंगे, दायीं ओर की यही पूजा है क्योंकि आप श्री राम और उनके धनुष की पूजा करते हैं। परन्तु इस अवतरण के बारे में सोचिए। एक विशेष ध्येय के लिए ये चौदह वर्ष के लिए जेल में गए। किसी अन्य के लिए एक वर्ष के लिए जाना भी कठिन कार्य होता। यह जेल नहीं थी, वे जंगल में गए थे, पर उनके लिए जेल सम थी। वे राजकमार थे पर रहने और सोने के लिए उनके पास घर न था। जहां भी वे जाते उन्हें अपनी कटिया 1. नैनन्य लहगी लिए बड़ा तमाशा करते हैं। ऐसे लोगों को गोल- मटोल (हम्पटी-डम्पटी) कहते हैं। पर एक वास्तविक सहजयोगी कैसा होता है? उसकी शैलीः वह मात्र देखता है, साक्षी भाव से सब कुछ देखता है, आनन्द लेता है तथा सारी घटनाओं पर हँसता है यह - व्यक्ति इस प्रकार की बातें क्यों कर रहा हैं, इस तरह बोलने का क्या लाभ है? सहजयोगी एक रत्न होता है, उसे जहां भी आप ले जाएंगे लोग कहेंगे कि यह रत्न है। मैं स्वयं जब किसी सहजयोगी को देखती हैं तो तरन्त अन्तरध्यान हो जाती हूँ। और फिर उस व्यक्ति को भिन्न परिपेक्ष तथा सझ-बझ से देखती हैं। क्योंकि ये सारी शक्तियां आप में भी हैं, यह केवल मेरी शक्ति ही नहीं। आपमें और मुझमें मात्र इतना अन्तर है कि मुझे स्वयं में पूर्ण विश्वास है और आप को अपने शरीर के प्रति कठोर होना चाहिए और अपने मस्तिष्क के प्रति भी क्योंकि यही आपको भौतिकता के विचार देता है तथा आपका आध्यात्मिक विकास बाधित करता है। लोग नये पलायन खोजते हैं। शरीर तथा मस्तिष्क के प्रति इस प्रकार के दृष्टिकोण रखने से आप उस अन्तिम बिन्द तक पहुंच जाएंगे जहां भौतिक तथा बौद्धिक जीवन के या एक प्रकार के आध्यात्मिक जीवन आदि के बारे में नहीं सोचेंगे। पर आप सोचेंगे कि ठीक है अब मैं इससे मुक्त हैँ। और आपको मुक्त व्यक्ति बन कर स्वतन्त्रता पर्वक कार्य करना है। ऐसी अवस्था को यदि पा लें तो आप बैठ कर उस स्थिति में रह सकते हैं। किस प्रकार हम विश्वास करें, क्या प्रमाण है कि हम उस अवस्था में पहुंच गए हैं? आपको यह दश्शाना है। सहजयोग में एक धारणा है कि फलां व्यक्ति बहुत वरिष्ठ सहजयोगी है। मेरी समझ में नहीं आता कि क्या है? सहजयोग में वरिष्ठता कैसे हो सकती है? यह वरिष्ठता नहीं हो सकती। मान लो एक व्यक्ति समद्र में घुसता है, वहां किनारे पर डर के कारण पृथ्वी से चिपके बहुत से लोग युगों से खड़े हैं। परन्तु कल आए कुछ अन्य लोग समुद्र में कद रहे हैं और तैर कर आनन्द उठा रहे हैं। तो किनारे पर यगों से खड़े लोग वरिष्ठ किस प्रकार हो सकते हैं? सहजयोग में यह वरिष्ठता आदि कुछ नहीं है। स्वयं पर विश्वास नहीं है हम एक चौराहे पर खड़े हैं जहां हमने समझना है कि कौन उत्थान को प्राप्त करेगा तथा कौन पतन को। आपको खोजना होगा कि कौन कुछ प्राप्त कर पाएगा। उस व्यक्ति के मकाबले में मैं कहां हूँ? कहा गया है कि आप को कष्ट उठाने पड़ेंगे, ऐसा करना पड़ेगा। पर परमात्मा की कृपा से अब ऐसा कुछ नहीं है। यह क्या है, सहजयोगी को क्या होगा? पर आप कैसे जान पाएंगे कि कौन सहजयोगी है। आप कैसे जान पाएंगे कि कौन केवल जबानी जमा खर्च कर रहा है? एक ही तरीका है कि आप विकसित हों, शीशे की तरह बने और स्वयं देखें कि दूसरा व्यक्ति कैसा है और यह भी देखें कि आप स्वयं क्या हैं। आज का भाषण आपको यह बताने के लिए है कि आज जो भी कुछ हमने किया है वह हमारे अपने जीवन के मूल्य को समझने के लिए है। हमें समझना चाहिए कि हम इस पृथ्वी पर क्यों आये, हमारा लक्ष्य क्या है तथा हमें प्राप्त क्या करना है। । एक अन्य चीज, जिसके हम शिकार हैं, वह है "श्री माता जी ने ऐसा कहा।" कोई भी कहेगा कि श्री माताजी ने मुझे बुला कर ऐसा कहा। उन्होंने क्या कहा? ओह आप अत्यन्त महान सहजयोगी हैं, आप ये हैं, आप वो हैं। दो सम्भावनाएं हैं: एक तो यह कि मैं महामाया हूँ और आप को बेवकफ बनाने के लिए मैंने ऐसा कहा हो या हो सकता है कि मैंने उसे हवा दी हो ताकि वह सहजयोग में जम जाए। माँ ने कहा कि तुम इतने महान सहजयोगी हो, इतने सहज हो आदि। बड़े-बड़े शब्दों का वे प्रयोग करेंगे। सहजयोगी की स्थिति का निर्णय उसके दावों से नहीं होता उसकी उपलब्धियों से होता है। मैंने देखा है कि कुछ सहजयोगी बहुत ही हेकड़ हैं, वे अपने जैसा किसी को नहीं समझते। मैंने देखा है कि ऐसे घमण्डी लोग अपने को महान दिखाने के इसके साथ ही मैं हृदय से आपको आशीर्वाद देती हूँ। मैं चाहती हूँ कि परमात्मा की इच्छा के महान दीप बनने के लिए आप मेरे आशीर्र्वाद को स्वीकार करें। समझने का प्रयास करें कि कितने महत्वपूर्ण समय में हमारा जन्म हुआ और आप परमात्मा के इतने सुन्दर व्यक्ति बनें परमात्मा आपको धन्य करें। तबरगत्रि पुजा दिवाली पूजा रूस 12, नवम्बर 1993 देवी लक्ष्मी की पूजा करनें विश्वभर से रूस में आये इतने दूसरों के हित के लिए उपयोग करने में ही उसे प्रसन्नता सारे लोगों को देख कर प्रसन्नता हुई। बौद्धिक रूप से जब आप सारी चीजों को नहीं समझा सकते, जिस बात को आप शब्दों से या तर्क से नहीं कह सकते तो उसे कहने के लिए तथा अन्त्भिव्यक्ति करने के लिए आपको कला तथा प्रतीकों की शरण लेनी पड़ती है। कलाकार तथा कवि.यही करते हैं; अपनी कल्पना को वे उस कदर फैलाते हैं कि प्रतीकों का सृजन कर डालते हैं। परन्तु सीमितत मस्तिष्क के कारण वे एक सीमा तक ही जा सकते हैं और यदि यह सृष्टि सत्य और वास्तविकता सिद्ध न हो तो कुछ समय पश्चात इसका पतन हो जाता है। पर्ण रेखांकीय गति-विधि नीचे आ जाती है तथा इसका पतन हो जाता है। हर क्षेत्र में हमें ऐसा देखने को मिलता है, विशेष कर आजकल जब कि सभी महान चीज़ों का हस हो गया है। परन्तु आत्म साक्षात्कार पाने के बाद जब आप आत्मा बन जाते हैं तो आपकी कल्पना बास्तविकता को छ लेती है। तब विकृत तथा मिथ्या-निरूपित प्रतीक छट जाते हैं और आप प्रतीकों की वास्तविकता को छ लेते हैं। हर जगह यही घटित हुआ। उदाहरणार्थ भारत में पैभव की देवी लक्ष्मी सन्तों और पैगम्बरों ने वास्तविकता में लक्ष्मी के प्रतीक का वर्णन किया परन्तु बाद में लोग इस प्रतीक तथा इसमें छिपी वास्तविकता को न समझ सके तथा सोचा कि लक्ष्मी धन, वैभव, सोना, चांदी और हीरे ही है और वे धन की पूजा करने लगे। इस प्रकार वैभव का प्रतीक देवी लक्ष्मी विकृत हो गया। लोग समझ नहीं पाते की जब उन्हें धन प्राप्त हो जाता है तो वे गलत कार्य क्यों करने लग ज़ाते हैं। लक्ष्मी का प्रतीक अत्यन्त भिन्न है। सर्वप्रथम, जिसके पास लक्ष्मी है उसे माँ सम होना चाहिए, माँ की तरह से ही उसमें बच्चों के प्रति को भी शरण देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि लक्ष्मीपति प्रेम होना आवश्यक है। उसे स्त्री सम होना है. और स्त्री अत्यन्त उच्चता का प्रतीक है। माँ सारी शक्तियों का स्त्रोत है। उसमें धैर्य है, प्रेम और करूणा है। करुणाविहीन धनवान व्यक्ति कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकता। अपना धन प्राप्त हो सकती है। आज के विकसित देशों के साथ क्या हुआ? अपने धन से वे स्वयं को ही नष्ट करने में जुट गये हैं । अपने क्रोध, कामुक्ता तथा लोलुपता को अभिव्यक्त करने में उन्होंने अपना सारा धन लगा दिया। यह दर्शने में कि वे बहुत व्यक्तिवादी हैं, उन्होंने अपना सारा धन बर्बाद कर डाला। जैसे अमेरिका में मैं एक वैभवशाली व्यक्ति से मिली, जब मैं उसकी कार तक पहुँची तो उसने बताया कि कार के दरवाजों के हैंडल दूसरी ओर को खुलते हैं। तो मैने कहा इसका क्या लाभ है। कोई भी व्यक्ति कार में फंस जाएगा। उसने कहा ये मेरा व्यक्तित्व है, मेरी योग्यता है जिसने यह असमान्य चीज बनाई। जब मैं उसके घर गई तो उसने बताया कि सावधान रहें, यह गुसलखाना बहुत विशेष है। यह बटन यदि आप दबाएंगी तो उछलकर तरणताल में जा मिलेंगी। मैंने कहा कि मैं इस गुसलखाने में नहीं जा सकती। तब उसने अपना शयन कक्ष दिखाया, यदि आप यह बटन दबायेंगी तो आपका सिर ऊँचा हो जाएगा। मैंने कहा कि मैं सारी रात इस तरह की बर्जिश नहीं करना चाहती, मैं तो पृथ्वी पर ही सो जाऊँगी लोग सोचते हैं कि अमेरिका या योरोप के वैभवशाली कहलाने वाले लोग बहुत प्रसन्न हैं। परन्त् वे प्रसन्न नहीं हैं क्योंकि उनमें विवेक नहीं है। वे पैसे को इस तरह से बर्बाद करते रहते हैं। इन लोगों के पास इतना धन था कि वे समझ न पाए कि इसका क्या करें। अब उन्होंने सोचा की यह प्रयाप्त नहीं है, हमें और आगे खोज करनी है। तब वे नशे तथा सब प्रकार की ब्री चीजें लेने लगे। लक्ष्मीतत्व ऐसा ही है। वे एक माँ हैं ओर उनके दो हाथों में गलाबी रंग के कमल हैं। कमल का फूल अपने अन्दर काले-कंटीले भवरे का परिवार कमलसम सुन्दर तथा सबका स्वागत करने वाला होना चाहिए। भंवरा कमल की सुन्दर कलियों पर रात को शयन करता है और कमल उसे ठंड से बचाने के लिए अपनी कलियाँ बंद कर लेता है। आवश्यक नहीं कि चैतन्य लहरी ৪ एक वैभवशाली व्यक्ति लक्ष्मीपति हो या उसे लक्ष्मी जी का आर्शीवाद प्राप्त हो। परन्तु एक विवेकशील वैभवशाली व्यक्ति को लक्ष्मीजी की आशीष प्राप्त होती है। जैसे कमल अपने अन्दर अतिथियों के आने के लिए तथा उनकी देखभाल करने को उत्सुक रहता है इसी प्रकार एक वैभवशाली व्यक्ति को भी अतिथिसत्कार करने को उत्सुक रहना चाहिए। हैरानी की बात है कि वैभवशाली कहलाने वाले सारे राष्ट्र पराश्रयी हैं। उन्होंने अन्य देशों को लटा और अपने साम्राज्य बनाये। जैसे भारत में तीन सौ सालों तक अंग्रेज हमारे अतिथि थे। बिना किसी आज्ञा के यहां आ गये। परन्तु अब यदि किसी भारतीय को इग्लैंड जाना हो तो यह बहुत कठिन कार्य है। जो लोग वहाँ जाते हैं उनसे भी समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। अमेरिका में भी ऐसा ही है। परमात्मा का धन्यवाद, कि कोलम्बस, जो की भारत आ रहा था, उसे श्री हनुमान जी अमेरिका ले गये., नहीं तो सारे भारतीय समाप्त हो जाते। बहुत से लोग आत्मा बन चुके हैं परन्त आप अपनी स्थिति के प्रति चेतन नहीं है, इसके प्रति आपको चेतन होना है। दसरे हाथ से श्री लक्ष्मीजी उन लोगों को सुरक्षा प्रदान करती है जो उनके लिए कार्य करते हैं तथा उनकी पूजा करते हैं । हर वैभवशाली व्यक्ति को चाहिए की अपने आश्रितों को सुरक्षा प्रदान करें। हम अब एक ऐसे क्षेत्र में उत्थित हो गये हैं जहां हमारे मष्तिष्क में कोई धर्मान्धता नहीं है, परन्तु हम सभी महान अवतरणों, सन्तों और पैगम्बरों की पूजा करते हैं। उनमें से अधिकतर के पास धन न था परन्तु वे आत्म संतुष्ट थे। लक्ष्मीजी की यह विशेषता है कि वे सन्तोष प्रदान करती हैं। आप जानते हैं कि अर्थशास्त्र के अनुसार प्रायः इच्छा ओं की पूर्ती नहीं होती। कौन सी ऐसी इच्छा है जिसकी पूर्ती हो सकती है? यह शुद्ध इच्छा है. जो की कण्डलिरनी है। जब आप पुर्णंतया संतष्ट हो जाते हैं और जान जाते हैं कि धन सत्ता और अन्य मुर्खता-पुर्ण चीजों के पीछे भागने का कोई लाभ नहीं तब आप के अन्दर महालक्ष्मी तत्व जागृत हो जाता है। यह महालक्ष्मी तत्व आपको जिज्ञासा प्रदान करता है। तब आप एक विशेष श्रेणीं के लोग बन जाते हैं जिन्हें चिलियम ब्लेक ने परमात्मा के पुरुष कहा है। तब आप में बचपन के, राष्ट्रीयता के या बाहा-धर्मों के बन्धन नहीं रह जाते। आप का उत्थान होता है और आप आत्मा बन जाते हैं। इस समय आप अपने अन्दर के लक्ष्मी तत्व को समझते हैं। लक्ष्मी तल्व यह है कि दसरों के लिए कार्य करने में आप आनन्द प्राप्त करें। सामूहिक चेतना में आप अन्य लोगों के लिए कार्य करना चाहते हैं। अभी तक भी यदि आप अपनी -सुविधा, धन्नाजन और यश के लिए चिंतित हैं तो आप उन्होने बहां पर सारे लाल भारतीयों को मार डाला, उनकी सारी जमीन हथिया ली और अब वे स्वयं को वैभवशाली कहते हैं। जो अपराध उन्होंने किये हैं उसका दण्ड उन्हें भगतना होगा। अधिक धन कमानें की योग्यता के आधार पर स्वयं को उच्च-जाति कहने वाले अन्य लोग भी हमें देख सकते हैं। उन्होंने लोगों को गैस-कक्षों में मरवा दिया और इस तरह के अन्य अपराध किये। क्या यही उच्चता की निशानी है? ईसा यदि उच्च व्यक्तित्व के प्रतीक हैं तो उनकी क्या विशेषताएं हैं। वे श्रेष्ठ पुरुष थे, चरित्र, क्षमा, उदारता और गरिमा का जहाँ तक सम्बन्ध है उनका महानतम व्यक्तित्व था। उन्हें लक्ष्मीजी का आर्शीवाद प्राप्त था। वे आत्म-सन्तुष्ट थे कोई गलत कार्य वे न करते थे । कोई उन्हें खरीद नहीं सकता था । सुख असन्तुलित हैं। लक्ष्मीजी कमल पर बड़े सन्तलित ढंग से खड़ी हैं। वह यह नहीं दश्शाती की बह बैभव की देवी हैं। स्वयं से वे संतुष्ट हैं। यदि आप असंतुष्ट हैं तो इसका अर्थ है कि आपने स्वयं को नहीं जाना। आप आधे-अधरे सहजयोगी हैं। सहजयोगी आत्मसंतुष्ट व्यक्ति होते हैं। क्योंकि महजयोगी की आत्मा ही पूर्ण ज्ञान, आनन्द और उसके चत्त प्रकाश का स्रोत होती है। आनंद, प्रसन्नता या अप्रसन्नता नहीं है। प्रसन्तता हैं सहजयोग में आने के उपरान्त यह जानना आवश्यक है कि आप पर लक्ष्मी जी की कुपा हैं। वे एक हाथ से देती हैं। देना उनका स्वभाव है जैसे यदि केवल एक द्वार खुला हो तो हवा नहीं आती, परन्तु दूसरा द्वार भी आप खोल दें तो हवा बहने लगती है। सन्तुष्ट रहना सहजयोगी की एक विशेषता है। कृुछ सहजयोगी बहुत से चमत्कार चाहते हैं. यह ठीक नहीं । आपका दृष्टिकोण यह होना चाहिए की अब आप आत्मा हैं और आत्मा शरीर और मन के सुख की चिंता नहीं करती, यह तो आत्मा का सख चाहती है। आप में से या अप्रसन्नता तो अहम् पर निर्भर है परन्त आनंद अपने आप में पुर्ण है। आत्म-साक्षात्कार के बाद आप धन आदि की चिंता नहीं करते। आपके पास यदि धन है तो भी ठीक और यदि नहीं हैं तो भी ठीक। आप पुर्णतया निर्लिप्त हैं । दिवाली पूजा अन्त में मैं आपको श्री राम की पत्नी श्री सीता जी के पिता की कहानी सनाऊँगी। छः हजार वर्ष पूर्व वे एक राजा थे। राजाओं के सारे बस्त्र, आभूषण उन्हें धारण करने पड़ते थे। परन्त उस समय के सारे संत उनके चरण र्पर्श किया करते थे। एक बार एक अन्य गुरू के शिष्य नचिकेता ने पुछा कि आप लोग इनके पैर क्यों छते हैं? ये तो राजा के समान रहते हैं। गुरू ने कहा कि तम इनके बारे में नहीं जानते। यदि उन्हें तुम पर दया आ जाए तो वे तुम्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं। नचिकेता राजा जनक के पास गये और उनसे आत्मसाक्षात्कार की याचना की। राजा जनक ने कहा की मुझे दुःख है कि मैं तम्हें आत्मा साक्षात्कार नहीं दे सकता। तम मेरा सारा राज्य ले लो पर में तम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता क्योंकि अभी तक तुम्हारा व्यक्तित्व इतना विकसित नहीं हुआ है। नचिकेता बहुत निराश हए और कहने लगे मैं तब तक प्रतीक्षा करूँगा जब तक आप मेरी परीक्षा लेकर यह नहीं जान लेते कि मैं आत्मसाक्षात्कार के योग्य हैँ। राजा जनक ने कहा, ठीक है, आओ चलें नदी में स्नान करें। जब वे नदी में स्नान कर रहे थे तो नौकरों ने आकर सचित किया कि महल में आग लग गयी हैं पर राजा जनक ध्यान करते रहे। योड़ी देर बाद नौकर फिर आये और कहा कि अग्नि यहाँ तक फैल रही है और आपके बस्त्र भी जल जाएगे। पर राजा जनक ध्यान-मग्न रहे, परन्त नचिकेता ने उनके वरुच उठाए और दौड़ पड़े। तब उन्हें समझ आया की राजा जनक अपने धन, वैभव और परिवार से कितने निर्लिप्त थे । और वे स्वयं छोटी-छोटी चीजों के लिए कितने चिंतित। राजा जनक को इस तरह के कपड़े पहनने पड़ते थे क्योंकि वे एक राजा थे। तब नचिकेता ने स्वयं को राजा जनक के सम्मुख समर्पित कर दिया और आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। आपको अपने पूर्व-पुण्यों के कारण आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ है। परन्तु आपको इसका सम्मान करना है तथा जानना है कि आपको इतनी महान चीज़ मिली। आप समझ लें कि अब आप आत्मा हैं। आप विशेष लोग हैं। आप अपने देश, जाति, समाज तथा परिवार की समस्याओं का समाधान करेंगे। परे विश्व की समस्याओं का आप समाधान करेंगे। आप लोग ही पृथ्वी पर शान्ति लाएंगे। आप ही सुन्दर, दिव्य मानवों से परिपूर्ण एक नये विश्व का सृजन करेंगे । स्वयं पर विश्वास करें। यह विश्वास अत्यन्त द्रुतगति से कार्य करता है। यह मिथ्या विश्वास नहीं, यह सत्य है। सहजयोग में विकसित हों, बौने न बनें रहें। अब आप लक्ष्मी जी का आशीष मांग रहे हैं। सर्व प्रथम अपको सन्तोष मांगना चाहिए और फिर उदारता। लक्ष्मी से आशीर्वादित व्यक्ति कभी कंजस नहीं हो सकता। आप जानते हैं कि आपके कोई कम शेष नहीं रहे। सब कर्म 1. समाप्त हो गए तथा अब आप अति सुन्दर नये मानव हैं। बसन्त काल आ गया है, अपनी परेशानियों तथा कष्टों की ओर चित्त न दें । नि:सन्देह चीजें सधरेंगी। कोई मझे कह रहा था कि उसके घुटनों में दर्द है। मुझे लगा कि आपके दर्द को सोखने के कारण बहुत बार मेरे घुटनों में दर्द हो जाता है पर मैं इसके बारे सोचती ही नहीं। मैं कभी चिन्ता नहीं करती क्योंकि मुझे लगता है कि मेरा शरीर ठीक है। इस मशीन की तरह, यदि यह बिगड़ जाए तो इने ठीक कर लीजिए, बस। परन्तु हर समय यदि आप यही सोचते रहें कि यहां दर्द हो रहा है, वहां दर्द हो रहा है, मेरे पास इतना धन है, मुझे यह करना है, व्यापार करना है तो कुछ न होगा। अब हमें उच्च चेतना के क्षेत्र में रहना होगा। किसी श्रेष्ठ तथा सुन्दर चीज़ के बारे में बोलती ही चली जा सकती हैं। पर भाषण तो मात्र शब्द जाल (शब्द जालम) हैं। आपको मस्तिष्क से परे जाना होगा। मेरा यही स्वप्न है और बहुत से लोगों ने इसे साकार किया है। मैं सदैव आपकी हूँ, जहाँ भी आप चाहेंगे मैं आऊंगी। मेरा प्रेम, मेरी इच्छा से अधिक उन दिनों आत्म साक्षात्कार पाना तथा देना अत्यन्त दकर कार्य था। परन्त आजकल का समय विशेष है. बसन्त ऋत। इसे 'अन्तिम निर्णय', 'पनर्जन्म का समय" तथा करान में इसे कयामा कहा गया है। कहा गया है कि कवरों में से निकल कर लोग पनर्जन्म को प्राप्त करेंगे, पर कब्र में तो थोड़ी मी हड्ियों के सिवाय कछ भी नहीं बचता। डी, यह सारी मृत-आत्माएं मानव जन्म ले कर इस विशेष वंग में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करेंगी। है। परन्तु आप अपनी आत्मा से तथा अपने आत्म साक्षाल्कार से प्रेम करें। परमात्मा आप पर कपा करें। बैतन्य तहरी श्री कृष्ण पूजा रुबेला, इटली 15, अगस्त 1993 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी जी का प्रवचन (सारांश) जीवन का आनन्द अनुभव करेंगे कई लौग इसी अनुभूति से गोकल और के वासी हो गए। तत्पश्चात उन्होंने सती दर्शन, पूतना वध तथा अन्य राक्षसों को मार कर यह प्रकट किया कि यदि कोई इस तरह के प्रफल्लित बालक को कष्ट पहुंचाएगा तो भगवान स्वयं उसकी रक्षा करेंगे और उन सभी कष्टकारी दृष्ट आत्माओं का विनाश करेंगे बाद में वह राजा बने। राजा बनने के बाद उन्होंने अपनी शक्ति को दूसरे ढंग से प्रयोग किया। सबसे पहिले उन्होंने अपने दुष्ट मामा कंस का संहार किया। उन्होंने राजा बनने से पूर्व भी बहुत से लोगों की हत्या की। इईसा मसीह तथा कई धरमांत्माओं का कहना था कि "क्षमा करो।" श्री कृष्ण क्षमाशीलता पर विश्वास नहीं रखते थे। केवल वे ही एक थे जो कहते थे कि "उन्हें सजा देनी है।" सजा देने वाला भी कोई प्राणी होना चाहिए। शिव इनसे बिल्कुल विपरीत थे। वह राक्षसों से प्यार करते थे तथा उन्हें आशीर्वाद देते थे। इसलिए कोई ऐसा कठोर और दृढ़ विचार और बुद्धि वाला व्यक्ति चाहिए था जो राक्षस को राक्षस समझ कर सहार करे। लेकिन हम श्री कृष्ण नहीं हैं हमें क्षमाशील होना है। जब एक बार हम क्षमा कर देते हैं तो हम अपना गुस्सा, बदले की भावना, श्री कृष्ण को समर्पण कर देते हैं। वह सब ग्रहण कर लेते हैं और यदि उचित समझते हैं तो धर्मात्मा को कष्ट देने वाले तथा धर्म को हानि पहुंचाने वाले प्राणी को सजा देते हैं। यह हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारे भीतर श्री कृष्ण एक अतिआवश्यक देवता हैं क्योंकि यह विष्णु हैं जो भवसागर अर्थात नाभि में विद्यमान हैं। यह हमारे भीतर धर्म को अंकरित करते हैं। जब आपको साक्षात्कार हुआ मैंने आपको नहीं बताया कि आप "यह करो" और यह मत करो"। यह और बह अच्छा नहीं है। आपने केवल इसलिए यह जाना क्योंकि आपके भीतर विष्णु जागृत हो गए थे यदि उन्हें जागृत किया जाए तो वह आपके भीतर प्रकाश उत्पन्न कर देते हैं जिससे आपकी अज्ञानता और अंधकार दूर हो जाता है और आप महसूस करने लगते हैं कि आप जो कर रहे थे वह विनाशकारी था और इस तरह से धर्म स्थापित हो जाता है। बेशक जो दस गुरू धरती पर आए उन्होंने धर्म की स्थापना की तथा धर्म के विषय में जानकारी दी। इस तरह से इन दस गुरूओं तथा श्री विष्णु ने मिल कर हमारे भीतर धर्म की स्थापना की। ध्यान देने योग्य है कि ईसा मसीह को भी इस विषण पर कहना पड़ा जब उन्होंने कहा : "आपकी आंखें अ..वत्र नहीं होनी चाहिएं।" श्री कृष्ण वह हैं जिन्होंने कहा है "जब-जब धर्म की हानि होती है मैं धरती पर आता हूँ।" उस समय बह उन सभी पापियों का नाश करते हैं जो धर्म को पतन की ओर ले जाने के लिए उत्तरदायी होते हैं। दूसरी बात उन्होंने कही थी कि "मैं संतों की सदा रक्षा करता हूँ तथा दानवों का, पिशाचों का तथा विनाशकों का संहार करता हूँ। विष्णु को हम धर्म का दाता मानते हैं। उनमें विद्यमान सभी गुण हमें महापुरूषों ने जो शिक्षा दी उसी क्षेत्र के लोग उससे विपरीत श्री कृष्ण में मिलते हैं जब वह श्री कृष्ण रूप में इस धरती कार्य करने लगे हैं। ईसा मसीह ने कहा "आपकी आंखें पर आए श्री राम के समय में यह सभी गुण प्रकट नहीं किए अपवित्र नहीं होनी चाहिए।" जहां तक आंखों का प्रश्न है जा सके। वृदावन तिं यह बहुत ही अचम्भे की बात है कि जिस क्षेत्र में इस विषय में ईसाई ही सबसे अधिक अपवित्र हैं। इस हिन्दू धर्म में कहा गया है कि सभी मनष्यों में एक ही आत्मा निवास करती है पर हिन्दू धरमांवलम्बी ही सबसे अधिक जात-पात को मानने लगे हैं तथा धर्म के नाम पर आपसी झगड़े करने लगे हैं। इस तरह महम्मद साहब हमेशा ही रहमत" सिखाते रहे। उन्होंने कभी भी शरीयत या वह रह श्री कृष्ण के जीवन का प्रथम आधा समय गोकल और वृंदावन में व्यतीत हुआ। जहां उन्होंने अपने चरित्र को सन्दर लीलाओं के रूप में प्रकट किया आप एक साक्षी बनें।" अब आप एक बालक की तरह, एक बालक के हर्ष और प्रमोद की तरह इस संसार को देखेंगे तो । उन्होंने कहा कि श्रीकृष्ण पुजा 11 प्रकट में वह कभी नहीं मान सकते कि अनैतिकता के यह सब परिणाम होते हैं। श्री कृष्ण की धरती पर नैतिकता की इतनी अवहेलना की जा रही है। बातें तो वहां नैतिकता स्वीकारने की होती हैं परन्तु वह नैतिकता कृत्रिम नैतिकता हैं जो कि ईसाईत्व, इस्लाम तथा हिन्दुत्व्र से बिलकुल भिन्न है। वह लोग मिथ्याचारों के आलोचक हैं वह बात किसी और व्यवहार प्रणाली की करते हैं और अपनाते किसी और को हैं। अमरीका में सभी कुछ खुले आम होता है, वहां कुछ भी नहीं छुपाते। उनका कहना है कि वह पाखंडों और मिथ्याचारों के विरुद्ध हैं। यह देश जो इतना वृहद, धनी सुन्दर और समूद्ध है वह इस भांति गर्त में जा रहा है कि मैं नहीं समझती कि इसका बिना सहजयोग अपनाए कैसे कल्याण होगा! सभी बराइयां नहीं कहीं जो आज मुस्लिम धर्म में पाई जा रही हैं। उन्होंने कभी भी मुस्लिम महिलाओं के लिए सिर या मुंह ढकने की बात नहीं कही परन्तु ऐसा हो रहा है। जब यह सब घटित होता है तो धर्म का झस होता है। जैसा की आप जानते हैं कि श्री कृष्ण का देश अमेरीका है और उन्होंने यहां पर राज्य किया। यह एक धनी देश है क्योंकि श्रीकृष्ण धन के देवता - कबेर हैं। उनका एक और है. गुण है। साथ नूत्य किया और अपनी शक्ति उन्हें स्थानान्तरित की। उनके द्वारा संचारित शक्ति अमेरिका में सबसे अधिक कार्य करती है परन्तु वह लोग इसे इससे बिलकल विपरीत समझने लगे है। यदि सहाम हसैन के साथ लड़ाई हुई तो अमेरीका वहां जा रहा है। कोरिया के साथ लड़ाई है तो अमेरीका वहां जा रहा है। जहां कहीं भी कोई समस्या होती है, अमेरीका वहां पहुंच जाता है। कोई उससे पूछे कि तम कोन हो? तम्हें क्या कष्ट है? अपने देश का ध्यान रखो ओर प्रसन्न रही। यहां तक कि संयक्त राष्ट्र संघ का गठन तथा चालन कार्य भी अमेराका के ही निर्देशों पर होता है। वास्तव में श्री कृष्ण की शिक्षा आज लुप्त हो रही है। जहां तक देशों में परस्पर विचार विनिमय तथा परस्पर 'संरचना" करना। उन्होंने गाय और गोपियों के धर्म एक और कार्य जो करता है वह है किसी साधारण प्राणी को अन्तर्दर्शी बनाना क्योंकि एक धर्मात्मा व्यक्ति सदा स्वभाव से ही अन्तर्दर्शी होता है। वह सही वस्तु को देखना पसंद करता है। वह गलत वस्तओं की ओर अपने मस्तिष्क को नहीं जाने देता। बह भले ही सहजयोगी न हो परन्तु कार्य करते समय बह अपने आप से ही पृछेगा कि वह सही है कि गलत। अमरीका के लोगों में इस शक्ति का सबध स्थापित करने की बात हो वह सही है परन्त जो सबसे बड़ी बराई वहां घटित हो रही है वह है धर्म तथा चरित्र की अवहेलना। बिना नैतिकता के जनतंत्र। अमरीका में नैतिकता की बात करना प्रचलन के बाहर की बात है। यदि कोई नैतिकता की बात करता भी है तो उसे समझना उनकी बद्धि से परे की बात है। यद्यपि आज उन्हें अपनी ही करनी की टीस कचीट रही है और बह अनुभव कर रहे हैं कि उनकेअनैतिक व्यवहार के कारण ही आज 65 अभिभावक परिवार ऐसी बिमारी के शिकार हो चुके हैं कि युवावस्था में ही उनकी किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इसके बावजूद भी वह सब कर रहे हैं और सोचते हैं कि यही ठीक है तथा उन्हें चिंता की जरूरत नहीं। सर्वथा लोप हो चुका है। यह अपने भीतर झांकने की चेष्टा भी नहीं करते बल्कि सदा यही कहते हैं कि इसमें बुराई क्या है? जो लोग इस तरह से अपनी मर्जी करते हैं वह अपने लिए कष्ट और परेशानियां ही पैदा करते हैं । यह आत्मद्शन ही है जो आपको जागृति प्रदान करता है, जो आपको बताता है कि यह गलत है, बाझ उपरी सतह पर है जबकि आपका अन्तःकरण आपके विवेक और नैतिक निरीक्षण से संचालित होता है लोग पूछते हैं कि मनुष्य अन्तःकरण क्या है? अन्तःकरण हमेशा के भीतर रहता है। परन्तु व्यक्ति को उसके लिए जागरूक रहना है। यह अन्तःकरण श्री पहले भी हमारे भीतर है। महालक्ष्मी की प्रेरणा से ही कंडलिनी सुषम्ना नाड़ी से हमारे भीतर जागृत होती है। यह श्री कृष्ण की शक्ति है। अपने अन्तःकरण की आवाज सुनकर ही आप अपने भीतर महालक्ष्मी के लिए सही रास्ता तैयार करते हैं । जब बात तर्क से परे की हो तो अन्तःकरण से पूछी जानी चाहिए। कृष्ण का प्रकाश है जो साक्षात्कार से अब उसकी सजा शुरू हो जाती है। कल्पना करें कि कोई मनष्य अनैतिक जीवन जीना आरंभ करता है और परिणामतः घातक बीमारी का शिकार हो जाता है। वह अनैतिक जीवन से उपजी बीमारियों के उपचार के हर तरीके ढुंढने का प्रयास करते हैं। अमेरीका की मेडीकल साइंस के लिए अनैतिक जीवन से उपजी बीमारियों के उपचार ढ़ंढ पाना बहत ही कठिन कार्य है। उनके लिए अनैतिक जीवन को बरा कहना ही बहुत कठिन कार्य है। जिस समय लोग दसरे देशों पर आक्रमण कर रहे थे और उन पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहे थे तब बैलन्य लहरी 12 अमरीका ही एक सा देश था जो अपनी सीमाओं से कभी बाहर साम्राज्य स्थापित करने नहीं गया | ऐसा न करने का क्या कारण था? कारण यह था कि उस समय कई महान व्यक्ति महान अन्तःकरण के साथ उस देश में पैदा हुए थे। उन्होंने उस देश को मार्ग दिखाया । कुकुत्यों के कारण तथा धर्म को जीवन का आधार न मानने उदाहरणतः जार्ज वाशिंगटन, अब्नाहम लिंकन आदि। और के कारण अब वे दण्ड भोग रहे हैं। वह सोचते थे कि धर्म उन्होंने इस बात की आज्ञा नहीं दी कि उनका देश दूसरे का मतलब अपनी स्वतंत्रता को मारना है। धर्म का प्रयोजन देशों को जीतने की महत्वाकांक्षा रखे। पहले वहां स्पेनिश है अपनी निजी जिंदगी को किन्हीं और हाथों में दे देना। गए और फिर दूसरों ने अनुकरण किया। उन्होंने उस देश इसलिए अमरीका में धर्म को स्थापित करने के लिए हम को जीता और वहीं बस गए और फिर वह युग उनके लिए क्या कर सकते हैं? मैं अमरीका में रूस से दस बार अधिक समाप्त हो गया। फिर उन्होंने स्वतन्त्रता, प्रजातन्त्र, महान मूल्यों की बातें शुरू कर दीं। लेकिन उनके पिछले कार्य, जिस तरह से उन्होंने लाल भारतीयों की हत्या की, वह श्री कृष्ण द्वारा तब तक माफ नहीं किए जाएंगे जब तक कि रजनीश जैसे लोग उनके अहम को प्रोत्साहित करे तो वह वह सहजयोग को नहीं अपनाते। यद्यपि उन्होंने किसी देश पर प्रभुत्व जमाने और अपना साम्राज्य फैलाने की कोशिश नहीं की। वह हमेशा न्याय के लिए खड़ से यह दिखाने की.कोशिश की कि वह विश्व को एक सूत्र में बांध रहे हैं। वह रंगभेद और रूढ़िवाद केविरुद्ध हैं। एक तरह का आदर्शवाद उन्होंने फैलाया। मगर इसके बावजूद आत्म-विनाश के विचार उनमें कार्य करने लगे मैं यह कहुंगी कि यह कुछ नहीं है केवल उनके कर्म ही उनके विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। अहिंसा बहां कितनी प्रबल है! कोई मार्गदर्शन नहीं है। वह लोग भी उत्तरी अमरीका के ही कितनी बीमारियां आदि हैं! यह बात ध्यान योग्य है कि अमरीका में यह कठिनाइयां इस समय पैदा हुईं क्योंकि बोलबाला है। वह रंगरलियां मनाते हैं। उनके लिये रिओ में उनका भंडा फोड़ होने वाला है। बहुत से झूठे गुरू वहां गए और उन्होंने उन भोले-भाले सीधे लोगों को, जो सच्चाई को बरी है कि उन्हें यह स्पष्ट करना आसान नहीं है कि वह इस खोज रहे थे, अपनाया। वहां के वातावरण में उन लोगों का अभिशाप भी कार्य कर रहा है जिनकी हत्या उन्होंने की । यह इन्हें गलत की ओर प्रेरित करता है। जहां तक उनका व्यक्तिगत जीवन है उसमें वह गलत चीज क्यों अपनाने राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं। वहां काला जाद बहुत है। कैथोलिक लगे उन्हें स्वतंत्रता दी गई परन्तु उन्होंने सोचा कि स्वतंत्रता अपना विनाश करने में है तथा अपनी जिंदगी में जो बहुत निर्धन हैं। इससे प्रकट होता है कि कुबेर भी उस झंझट पैदा करने में है। गलत विचार ने उनमें काम किया। यह गलत धारणाएं उनमें इकट्ठी हो गईं और लोग विनाशकारी चीजों को पसंद करने लगे। हालीवूड में बड़ी विनाशकारी शक्तियों ने अपने समूह बनाए हैं तथा लड़ाकू भीतर हैं, हमारे विशुद्धि चक्र में। हमें अपने बिशुद्धि चक्र संस्थाएं बनाई हैं जो प्रकट रूप से कहते हैं कि वह बूरे हैं, को सही रखना है। इसके दो पक्ष हैं दायी विश्द्धि हमें धर्म जैसे शैतान संगठन, वानव संगठन, चुड़ैल संगठन आदि। यह सब खुलेआम पंजीकृत संगठन हैं। वह सब इस सीमा लोग जो आक्रामक तरीके से बात करते हैं, जिससे दूसरों पर तक चले गए हैं कि उन्होंने यह सब सम्मिलित रूप से अपनाया है इसका कारण सजा है। इसीलिए अमरीका सहजयोग के लिए बहुत कठिन है। उनके लिए वास्तविक सहानुभूति किसी को रखनी चाहिए। अपने पूर्वजों के गई तथा वहां जाकर उन्हें ध्यान दिलाना चाहा कि वह अपना धर्म खो चुके हैं। परन्तु उन्हें यह बात कभी भी समझ नहीं आई क्योंकि वह लोग बहुत अहम्वादी हैं। यदि बहुत खुश हैं। यह काम उनके लिए कठिन है क्योंकि वह सजा के आधीन हैं। वह इस सजा से छुूटकारा पा सकते हैं। यदि वह सहजयोगी बन जाएं। सहजयोग से उनके भीतर धर्म जागृत होगा तथा उनकी सभी सजाएं और कारण समाप्त हो जायेंगे अमरीका को अन्य देशों से कहीं अधिक सहजयोग की आवश्यकता है। अमरीका से मेरा संबंध इसी कारण से है। दक्षिणी अमरीका भी एक ऐसा देश है जहां धर्म के लिये हुए उन्होंने ऊपर पदचिन्हों पर चल रहे हैं। उत्तरी अमरीका में मुर्खता का जाकर रंगरलियां मनाना बहुत बड़ी बात है। स्थिति इतनी सीमा तक क्यों जाते हैं। ब्राजील में खुले आम एक 13 वर्ष की लड़की को वैश्यावृति में ढकेल दिया जाता है। तस्करी खुले आम होती है। उनके चर्च वहां हैं। उनको धर्म क्या सिखलाएगा? वहां कई देश हैं । देश पर रुष्ट है। प्रायः निर्धन लोग धार्मिक होते हैं, लेकिन वहां ऐसा नहीं है। उन्हें यह समझना होगा कि उनकी समस्याएं उनके बताती है, इसे हम आक्रामक पक्ष भी कह सकते हैं। यह 13 श्रीकृष्ण पूजा और प्रसन्नता पैदा कर सके। आप हरियाली पर अपनी दृष्टि रखने की चेष्टा करें, वह आपको शांति देगी तथा उनका रोब रहे, यह लोग दाई पक्षीय हैं जैसे नौकर यदि चोरी करता है और आप उसे बताते हैं। उस समय बह इतना असभ्य हो जाएगा कि आप हैरान होंगे कि उसने चोरी आपमें शांति प्रदान करने का गण विकसित हो जाएगा। की है फिर भी निडरता पूर्वक उलट कर जवाब देता है। दाई पक्षीय लोग पदां डाल सकते हैं और किसी भी बात को अपनी बातों से सही सिद्ध कर सकते हैं। यह वार्तालाप काफी आक्रामक और भड़कीला हो सकता है कि आप हैरान रह जाते हैं और आपको उस पर विश्वास करना पड़ जाता विशु्द्धि से प्रकट कर सकते हैं वह है व्यवहार कुशलता। है। इस तरह से हम साधारण मनुष्य इस तरह की बेमतलब बातों में लिप्त रहते हैं और बातों से ही उन्हें सिद्ध करने की दूसरी बनावटी। वास्तविक व्यवहार कुशलता के लिए न तो चेष्टा और उन्हें तोइते-मरोड़ते रहते हैं। लेकिन वह लोग यह कभी नहीं सोचते कि जो नुकसान आप पहुंचा चुके हैं पुस्तकें पढ़ने की। सभी कुछ स्वाभाविक ढंग से बड़ी उसे भुलाया नहीं जा सकता और आपकी इस तरह की बातों से तो श्री कृष्ण कुछ भी नहीं भूलेगा। जब आप अपनी चीजों को सिद्ध करते रहेंगे, तर्क करते रहेंगे तो आपको इतनी बड़ी क्रोध से दसरों को कायल करना व्यवहार कशलता नहीं है। सजा मिलेगी कि आपके लिए उससे उभरना कठिन हो अपनी अच्छाई, मीठी वाणी तथा क्षमा शील स्वभाव से जायेगा शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक हर तरीके से आप दंडित होंगे। दाई विशूद्धि पर हमें ऐसा स्वभाव, शैली संस्कृति एवं आचरण अपनाना होगा जिसमें श्री कृष्ण जी के माधर्य गण हो। हमें इतने मधर ढंग से बात करनी चाहिए कि सुनने वाले को लगे कि वह श्री कृष्ण की बाँस्री अमरीकी इस गण को अपनाने की चेष्टा करेंगे तथा एक को सुन रहा है। सहजयोगी की वाणी मधुर होनी चाहिए। - यह आक्रामक, व्यंग्यात्मक या किसी के दिल को दखाने बाली नहीं होनी चाहिए। दूसरे के दिल को दखाने वाला कोई उनके लिए कुछ करते रहते हैं परन्तु जब आप उनसे भी शब्द सही प्रकार की दाई विश्द्धि से कभी भी नहीं प्रतिकार में कुछ चाहे तो उनके लिए कठिन हो जाता है। निकल सकता। किसी भी प्रकार से किसी को दुखाना नहीं माध्र्य से आप किसी का शोषण नहीं कर रहे बल्कि माधर्य चाहिए। मैं सभी सहजयोगियों से आशा करूंगी कि वह श्री से आप किसी को उस स्तर तक ला रहे हैं जहां वह समझ कृष्ण जैसा वाणी माध्र्य प्राप्त करें क्योंकि उनकी विशुद्धि सके कि अच्छाई क्या है? जागृत हो चुकी है। आपके व्यवहार में से भाव हैं जिनके द्वारा आप अपना माधुर्य प्रकट कर सकते हैं। इटली के लोग अपने हाथों का बहुत प्रयोग करते हैं। हाथों का प्रयोग भी इस तरह से करें कि उससे माधुय झलके। रूस और पूर्वी भाग में मेरे प्रति उनका प्यार उनकी आंखों से देखा जा सकता था। हर चीज, चेहरा, आंखें, हाथ, अश्रु यह सब कुछ श्री कृष्ण से संबंधित है। आप अपने स्वभाव को तथा गुस्से को अपनी आंखों से दिखा सकते हैं। कई लोग अपनी आंखों का प्रयोग दूसरों को वश में करने तथा दूसरों हैं। आत्मा कभी अपराध नहीं करती। अपराध से हम साक्षी की भत्त्सना करने के लिए करते हैं। अपने स्वभाव में भी हमें मधुरता लानी है। यह शक्ति मधुरता तथा सुस्वरता में है। सम्पर्क इतना मधुर होना चाहिए कि वह एक अदभुत खुशी चाहते। उदाहरणार्थ कोई आदमी या औरत स्वभाव से जब आप दूसरों से बात करें तो उन्हें भी शांति देने की चेष्टा। करें। व्यक्ति अवश्य पिघलेगा। यदि आप उससे तर्क करेंगे, झगड़ा करेंगे तो द्रवित होने के स्थान पर वह भड़क उठेगा। दूसरी बात जो श्री कृष्ण में थी और जिसे हम अपनी दाई व्यवहार कुशलता दो प्रकार की है। एक वास्तविक तथा आपको कोई विशेष मानदंडों की जरूरत है और न ही मधुरता से कार्य करता है। यह केवल तभी संभव है जब आप क्रोध न करें हमें लोगों को पिघलाना है बुद्धि या दसरों को द्रवित करना व्यवहार कुशलता है। यह गुण श्री में थे। कुछ लोग इससे प्रभावित हुए और कुछ नहीं कृष्ण हुए। पर श्री कृष्ण ने इसे अपनी असफलता नहीं माना। यह तो दूसरे व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। मैं आशा करती हूं कि दूसरे से संबंध सुधारने का प्रयास करेंगे। वहां के लोग तब तक आपके साथ मित्र जैसा व्यवहार करते हैं जब तक आप । दक्षिणी अमरीका के लोग बिलकल सीधे-सीधे, भोलें तथा निर्धन हैं। परन्तु काला जादू वहां पैठ चुका वह इस चीज को अनुभव करने लगे हैं कि यह काला जादू है तथा उसके लिए अपने को अपराधी मानते हैं। उनके व्यवहार से झलकता है कि जैसे उन्होंने कुछ गलत किया है । वह नहीं जानते कि अपने को कैसे सही करें। हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम उनकी अपराध भावना को दूर करें। हम सभी सहजयोगी हैं। आखिरकार हम सभी एक आत्मा बहुत है। भाव खो देते हैं। हम नहीं सोच सकते कि गलत क्या है और हम अपनी भूलों और गलतियों का सामना नहीं करना चैतन्य लहरी 14 चाहिए कि आप भगवान के साम्राज्य में रह रहे हैं । श्री कृष्ण का मुख्य कार्य हमारे मस्तिष्क द्वारा होता है जो विराट है। शिव हमारे हृदय द्वारा कार्य करते हैं। आत्म साक्षात्कार होने पर मस्तिष्क सूक्ष्मता तथा ज्ञान प्रकट होने लगता है, उसकी अभिव्यक्ति होने लगती है। सबसे बड़ी चीज जो घटित होती है वह है कि आपका मस्तिष्क सुस्वस्थ हो जाता है। यह नहीं है कि आपका मस्तिष्क कुछ और चाहता है और आपका हृदय कुछ और। जब यह एकरुपता पैदा हो जाती है तो धार्मिक जीवन व्यतीत करना बहुत आसान हो जाता है। बिना कुछ पढे और सोचे आप सहज में ही धार्मिक बन जाते हैं क्योंकि आपका मस्तिष्क जो प्रायः तर्क के लिए, गलत को सही साबित करने में प्रयोग होता था अब धार्मिक तथा दैविक बन गया है। श्री ने सबसे बड़ी बात जो आप में पैदा की है वह है कि आपका मस्तिष्क अपने आप धारम्मिक बन गया है। यह धर्म को जानने का, धार्मिक जीवन व्यतीत करने का और धर्म पर दृढ़ता पूर्वक डटे रहने का एक साधन बन गया है। यह मस्तिष्क है जो काले जादू के प्रभाव से आपको वास्तव में दूर ले गया है। जब एक बार आपका सहस्रार खुल जाता है तो विराट प्रकट हो जाता है और आप अपने ऊपर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। जो हर चीज की सोच में उलझ रहा था, "यह खुशी है, यह मेरा अधिकार है" "मैंने यह किया बता सकता है।" और अचानक आप साधु बन जाते हैं। श्री कृष्ण का बहुत बड़ा आशीर्वाद यह है कि वे विराट हैं। विराट आपका मस्तिष्क है और भगवान सर्वशक्तिमान का मस्तिष्क भी विराट है। साक्षात्कार के बाद मनुष्य की कि बहुत निर्दयी है। वह समझ जाता है कि बह निर्दयी था और अपनी निर्दयता को बुरा मान कर वह त्याग देता है। परन्तु बह इस भावना का सामना नहीं करता। सामना करने का मतलब है कि वह जाने कि बह निर्दयी क्यों था और उसे निर्दयी नहीं होना चाहिए था और अब वह और निर्दयी नहीं बनेगा। रूस में इससे अलग है। वह कभी भी अपने को गलत नहीं कहते। वह कहते हैं कि समय व्यतीत हो गया है, अब हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं, जीवन का आनन्द उठाएं। वह अपने भूत काल की बात नहीं करते, वह कोई संबंध नहीं रखते। इससे ऊपर हैं। हमें चिंता किस बात की। वह अपनी समस्याओं आदि के बारे में कछ नहीं जानना चाहते बह जानते हैं कि उनकी समस्याएं सुलझ जायेंगी। वह अब आत्मा को समझ गए हैं। वह सहजयोग को समझने का बिलकुल सीधा रास्ता है। लेकिन मैंने ऐसे लोग देखे हैं जिन्होंने मेरे सामने दस पृष्ठ लिखकर अपने पाप स्वीकार किए हैं। पाप स्वीकार करने की कोई जरूरत नहीं और न ही अपनी गलतियों का अवलोकन करने की आज जो आपके पास है उसका आनन्द उठाएं। यह भिखारी की तरह है जिसे राजा बना दिया गया हो। उसे चाहिए कि राज्य भोगे और राजा की तरह आचरण करे। यदि वह आज भी अपने भूतकाल को याद रखे तो वह हर राह गुजर से भीख मागेगा ही कृष्ण " "मुझे कौन । आप जब एक बार भगवान के स. गज्य में आ जाए तो जान लें कि आप भगवान के साम्राज्य में हैं। लेकिन यह काले जादू का धंधा बहुत ही खतरनाक है तथा यह किसी के भी द्वारा आपके भीतर प्रवेश कर सकते है, आपके संबंधी या मित्र द्वारा। आपको बिल्कल सावधान रहना है आपको काले जादू के सम्मख दर्बल नहीं होना अपनी दोष भावना के कारण। यह आपको ब्बाद कर सकता। आपके परिवार को बर्बाद कर सकता है। आप सहजयोगी है तब भी यह आपको बर्बाद कर सकता है। आप कभी अपराध भाव के शिकार न हों। कोई आप में अपराध भावना भरे, कोई व्यक्ति आपको बुरा कहे तो भी। वह अपने विचार आप पर थोपता है जिससे आप सोचना शुरू कर देते हैं कि आपको यह करना चाहिए था, यह मैने गलत किया। यहीं से अपराध भाबना आरंभ हो जाती है। बावजूद उस व्यक्ति के लिए कुछ करने के या यह सोचने के कि यह सब बकवास है, बह बुरा अनुभव करने लगता है तथा अचानक ही अपने को किसी परेशानी से घिरा पाता है जो काले जाद से प्रभावित होती है। हर किसी को यह भूल जाना चाहिए। यह जानना प्रवृत्ति सृजनात्मक बन जाती है और यदि ऐसा नहीं होता तो आप सहजयोगी नहीं है। सृजनात्मकता तथा धार्मिकता को समझना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। मेरा मस्तिष्क कहां जा रहा है। या वह विपरीत जा रहा है और जो कुछ है उससे अलग बता रहा है। हमें इस पर केवल अपनी दष्टि रखनी है और हम यह देख कर अचम्भित रह जायेंगे कि आपके मस्तिष्क ने कैसे अपना रास्ता बदल लिया। यदि आप हर रोज ध्यान करें और अपनी ओर देखें कि आपके सहस्रार की अभिव्यक्ति आपके जीवन में कैसे व्याप्त हो कर कार्य कर रही है। यह आप बहुत आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। तब सहजयोगी की सारी शक्तियों की अभिव्यक्त हो जाएगी और आपको अपने ऊपर कोई संशय नहीं रह जाएगा और अन्य लोग भी आप पर सन्देह न कर सकेंगे। परमात्मा आपको आशीष दें। श्रीकष्णा पना 15 श्री गणेश पूजा कबेला, इटली 19, सितम्बर 1993 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी जी का प्रवचन (सारांश) मानव में वे (श्री गणेश) मंगलमयता, पवित्रता तथा अबोधिता के रूप में विद्यमान हैं। अबोधिता की शक्ति ऐसी पथ प्रदर्शक है। अज्ञानता तथा अबोधिता में अन्तर है। यदि आप अबोध हैं तो आपके लिए प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। बन्धन एवं अहँ रहित तथा-कथित अपरिपक्व व्यक्ति के लिए प्रेम ही महत्वपूर्ण है। यह हम सब यहां श्री गणेश की पूजा के लिए एकत्रित हुए हैं। श्री गणेश प्रथम देवता है जिनका आदि शक्ति ने सृजन किया। यह आवश्यक था कि सर्वप्रथम सिद्धवान्तों के देवता का सूजन हो। मानव स्तर तक आज तक जो भी सृजित हुआ है वह शक्ति की रोपण प्रक्रिया द्वारा हुआ। इसके बिना कुछ भी सुजन न हो पाता। द्रव्य को जब आप ध्यान से देखते हैं। तो कहते हैं: सल्फा-डाय-ओक्साइड और फिर सल्फा और ओक्साइड अण की सूक्ष्मता तक आप इसका अध्ययन करते हैं। सल्फर और ऑक्सीजन के इन अणूओं को देखने पर आप पाते हैं कि यह कण एक आवृत्ति के साथ दोलित होते हैं। तीन प्रकार की आवृत्ति प्रयोग की जाती है। वैभव, सत्ता या किसी अन्य चीज की चिन्ता नहीं करता। वह प्रेम को ही महसूस कर सकता है, किसी के शद्ध प्रेम को। अबोध व्यक्ति को प्रेम से लाभ उठाने की समझ नहीं होती। वह या तो प्राप्त करता है या देता है। बाकी बातों की उसे कोई समझ नहीं है। अबोधिता ही सारे धर्मों का आधार है। बिना अबोधिता के आप धमांनसरण नहीं कर सकते क्योंकि अबोधिता-विहीन अवस्था में यदि आप धार्मिक हैं तो यह बौद्धिक या अहँकार मय दृष्टिकोण हो सकता है, सोचें, कि पदार्थ के अण में एक शक्ति है जो कार्य करती है। कोई यह भी कह सकता है कि पदार्थ में शक्ति क्यों है? यदि पदार्थ में शक्ति नहीं थी तो सभी रासायनिक मिश्रण आप कैसे बना पाए? कौन इन्हें धकेलता है? कहिए सोडियम क्लोराइड। सोडियम और क्लोराइड परस्पर जुड़े है परन्तु जब क्लोराइड को किसी अन्य परमाणु में जाना पड़ता है तो कौन यह कार्य करता है? यहां अवश्य ही कोई शक्ति है जो पदार्थ में पहले से ही पुर्णतः विद्यमान रहती है। हम जानते हैं कि पानी में एक शाकिति है परन्त पत्थर में सोने में तथा जिन 2 पदार्थों में शक्ति है उन सब में तरलता क्यों नहीं? यह सब श्री गणेश के सिद्धान्तों से नियन्त्रित किए जाते हैं। इतना नन्हा सा बालक और काम कितने बड़े-बड़े हैं, उसके तथा कितने काम उसे करने पड़ते हैं। पदार्थों से ले कर सजीव पौधों में, पशुओं और फिर मनुष्यों में, सभी जगह उसकी शक्ति कार्य करती है। पदार्थों के स्तर तक हम इसे विद्युत चुम्बकीय कह सकते हैं। सम्भवतः यह गणेश जी की शक्ति हैं जो उस स्तर पर विद्युत चम्बकीय है जब यह बढ़ने तथा विकसित होने लगती है। इस प्रकार विकास के भिन्न स्तरों पर हमें ऊर्जा के भिन्न संस्तर मिलते हैं। किसी धर्म में पैदा होने या किसी के बताने पर भी ऐसा दृष्टिकोण हो सकता है। यह मात्र छिछला हो सकता है। अबोधिता के गुण से परिपूर्ण हुए बिना धर्ं अर्थहीन है। अबोध अवस्था में ही आप धार्मिक है। विचारों तथा परिणाम निकालने से आप ऊपर हैं। आप अधार्मिक नहीं हो सकते। जैसे कि सच्चारित्र ही अबोधिता की अभिव्य्याक्त हो। एक बार जब श्री गणेश जागृत हो जाते हैं तथा आप उनका सम्मान करने लगते हैं तो स्वतः ही नैतिकता विकसित हो जाती है। आज्ञा चक्र की पिछली ऑर को श्री गणेश प्रकाशित करते हैं तथा आगे ईसा मसीह जो कि श्री गणेश का ही अवतरण थे। पश्चिमी मस्तिष्क के लिए यह समझ पाना बहुत कंठिन है कि इंसा मसीह एक आत्मा थे। उन्होंने उनके विरुद्ध भयंकर वातें कहीं और उनकी आलोचना की। किसी भी तरह इंसा ने उन्हें क्षमा कर दिया। श्री गणेश के विषय में एक और बात है कि वह अपनी माता की पुजा करते हैं। मातृत्व बहुत ही महत्वपूर्ण है। चंतस्प लहगी 16 शुद्ध चित्त प्रदान करती है। आपका चित्त भी हर चीज संगीत कला आदि के लिए शुद्ध होना चाहिए। यह सब आपको निष्कपटता से प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ :- यदि कोई कलाकार बहुत धनलोलप हो तो उसकी कला शाश्वत नहीं हो सकती। तभी तो हम देखते हैं कि जो भी कला जन्म लेती है. वह आते ही लोप हो जाती है। उसका जीवन निरन्तर नहीं है। यही बात आधानिक संगीत के साथ है। क्योंकि उसके पीछे भी धन लोलपता है। परिणामतः यह पूर्ण कृति नहीं हो सकती। प्राचीन काल में जो कृतियाँ भगवान को समर्पित की गयीं, उन सबका आज भी सम्मान होता है। उस समय भले ही कलाकार संकट में रहा हो परन्तु वह भली भाति समझता था कि यदि उसे कोई अभिव्याक्ति करनी है तो इंमानदारी से करनी है। लोगों को प्रसन्न करने के लिए नहीं अपित परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए। सभी बास्तविक कलाकार सच्चाई के निए लड़ते आ रहे हैं। निष्कपटता आपको आत्म निरीक्षण की शवित भी प्रदान करती है। आप जानते हैं कि आप कहाँ खड़े हैं। एक निष्कपट प्राणी भली भांति जानता है कि वह नैतिकता के आधार पर खड़ा है। उसे बेंकार की उन सभी चीजों को नहीं अपनाना चाहिए जिनका फैशन और प्रचलन हो। हम किस. लिए अपनी निष्कपटता का बलदान कर रहे हैं? हमारा उद्देश्य क्या है? हो सकता है कुछ लाग बहुत होशिवार हो और वह उसका प्रदर्शन कर रहे हों। ऐसे लोगों का कोई सम्मान नहीं करता। लोगो की निष्कपटता पर बहुत बड़ा आक्रमण है। सब से पहले यह बच्चों पर आता है जैसे उन्हें गाली देना। यह केवल इसलिए कि वह निष्कपटता को समापत कर देना चाहते हैं। शायद जो लोग यह करते हैं उनमें निष्कपटता नहीं होती ै बह वच्चों में भी इसे रहने देना नहीं चाहते। यह बहुत प्रचलत और फैशन में आ रहा है तथा यह अवश्य ही निष्कणटता पर सीधा प्रहार है। यह केवल बच्चों पर ही नहीं बल्कि उन लोगों पर भी है जो निष्कपट हैं। जो जानबूझ कर हर प्रकार की अपराधवृति तथा पापवृति से ग्रस्त हैं वह कभी भी निष्कटता की रक्षा नहीं करेंगे क्योंकि वह सोचते हैं कि वह जो कर रहे हैं वही सब से बढ़िया है। अबोधिता पर कई तरीको से प्रहार हो रहे हैं। यदि आपके बच्चे सही ढंग से चल रहे हैं, ठीक तरह मे पढ़ रहे हैं तो कोई न कोई उन्हें काब में लाना चाहेगा यद कोई निष्कपट प्राणी हुआ तो उसे वह परेशानी में डालना चाहेंगे। निष्कपटता अपने आप में एक ऐसी शक्ति है जो पारिवारिक जीवन तथा समाज के मुख्य आधार के रूप में, महिलाओं, पुरुषों तथा बच्चों में भी, मातृत्व को स्वीकार करना होगा। मनुष्य के सामान्य जीवन में सीधे-सादे अबोध व्यक्ति मातृत्व की धुरी पर ही घूमते रहते हैं। परन्तु माताओं को माताएँ ही रहना है। श्री गणेश अपनी माता के प्रति पूर्ण समर्पित हैं और वह जानते हैं कि उनकी माता आदि शक्ति है। वह किसी और को नहीं जानते। सहजयोग में यह अति आवश्यक है। यहां जो अनैतिक लोग हैं और अनैतिक कार्य करते हैं, वह आदि शक्ति के विरुद्ध पाप कर रहे हैं। श्री गणेश के विरुद्ध पाप क्षम्य है परन्तु आदि शक्ति के विरुद्ध पाप करने पर अन्नतः श्री गणेश दण्डित करते हैं। आदि शक्ति किसी को दण्ड नहीं देती. देवता उन्हें दण्डित करते हैं । प्रथम और मुख्य बात यह समझे लेनी चाहिए कि निष्कपटता का सम्मान और उसकी भली प्रकार से देखभाल तथा पोषण और सुरक्षा होनी चाहिए। इसीलिए मैं बच्चों के विषय में सख्त हूँ। बच्चों का समाचार पत्रों में अनावरण नहीं होना चाहिए। विज्ञापनों आदि के लिए हमें बच्चों के फोटो न. े लेने चाहिए। छोटे-छोटे मा्गों से अपने बच्चों का प्रदर्शन करके पैसा कमाना एक बहुत ही गलत विचार है। इस प्रकार तो हम निष्कपटता बेच रहे हैं जो कि अमल्य है और जो बच्चों में दैवी रूप से विद्यमान है। मैं बहुत से ऐसे बच्चों को जानती हैं, जिन्हें विज्ञापित किगा गया और जो मर गए। हमें अपने बच्चों की देखभाल. बहुत सर्तकता से लोग करनी चाहिए लेकिन हम सीमाएं लांघ जाते हैं। कुछ अपने ही बच्चों की चिन्ता करते हैं और उन्हें यदि जरा सा भी कुछ हो जाए तो परे शान हो जाते हैं इसका तात्पर्य यह कि आप बच्चे का सम्मान इसलिए कर रहे हैं कि वह आपको अपना बच्चा है परन्तु यदि आप बच्चे का सम्मान इसलिए करते हैं कि वह निष्कपटता की प्रतिमूरति है तो आपको प्रत्येक बच्चे का सम्मान करना होगा तथा समझना होगा कि वह क्या बोलत हैं, वया बातें करते हैं और वह किस प्रकार के व्यवहार करते हैं। आप सौभाग्यशाली हैं कि आपके जन्मजात आत्म साक्षात्कारी बच्चे प्राप्त हुए हैं। यह एक बहुत बड़ी बात है, एक आश्शीवाद है। आपको उनकी निष्कपटता देखनी है। एक बच्चे के पिता को हस्पताल ले जाया गया। उसने बहुत निष्कपटता से कहा कि वहां ये कैसे स्वस्थ्य होंगे क्योंकि वहां तो कोई सहजयोगी नहीं है। वे उनके चक्रों को कैसे ठीक करेंगे? इन्हें मां के पास ले जाओ। बच्चे उचित कारण को देखते हैं क्योंकि अबोधिता उन्हें श्री गणेश पजा 17 गणेश-तत्व से संचारित होती है। पक्षी बहुत ही योजनाबद्ध, स्वच्छ और समझदार हैं परन्त वह कर्मकाण्डी नहीं है। भगवान ने जो कुछ भी उन्हें दिया है वह उसी में सीमित हैं और अपनी मर्यादा के भीतर ही रहते हैं यदि आप पशुओं की स्थिति को देखें, जो मनुष्यों के सम्पर्क में रहते हैं. बह भी बहुत स्नेही हैं। वह केवल स्नेह चाहते हैं। एक दिन यदि आप अपने कत्ते की ओर ध्यान न दें तो वह अपना खाना नहीं खाएगा। यह बात असाधारण है। मैंने बच्चों में देखा है कि कैसे वह मात्र प्यार चाहते हैं। वह प्यार के अतिरिक्त कोई वस्तु स्वीकार नहीं करते। लेकिन जैमे- 2 वह बड़े होने लगते हैं, विशेष कर भौतिक जगत में, तो सभी भौतिकवाद उनमें आ जाता है। बच्चों की निष्कपटता को समाप्त करने की दूसरी विधि है उनके मस्तिष्क में भौतिकवादी विचारधारा डालें। बेशक जन्म दिन पर टैडी बियर वेचना एक माध्यम है परन्तु अब हर कोई टैडी बियर खरीद रहा है क्योंकि अभिभावक वच्चों की संगति में रहना नहीं चाहते। वह उन्हें खिलौनों और टी.वी. का साथ दे देते हैं जिससे वह भौतिकवादी बनना आरम्भ हो जाते हैं। वह ऐसी चीज़ों के बारे में पूछना और इच्छा रखना आरम्भ कर देते हैं कि कोई भी चकित रह जाए। एक पश्चिमी बालक को आप बाजार ले जाएं औ एक भारतीय बालक को ले जाएं तो वह कोई भी चीज नहीं लेगा। उसे आप धन दें तो वह कोई छोटी सी चीज खरीद लेगा। यही भौतिकवाद की सारी परम्परा है जो निष्कपटता को समाप्ति पर ले आई है। तब बच्चा इसी भौतिकवादी परम्परा से लोगों के घृणा भाव और निन्दात्मक स्वभाव को ललकारती है। सर्वप्रथम हमें देखना है कि हमारे बन्धन किस प्रकार हमारी अबोधिता को काबू करते हैं। बन्धन आपको अत्यन्त कर्मकाण्डी बना देते हैं। सहजयोग में भी बहुत से लोग कर्मकाण्डी हैं। कर्मकाण्ड इस तरह का कि यदि आपको कोई बात तीन बार कहनी है तो आप तीन बार ही कहेंगे। लोग बहुत बन्धन युक्त हैं। कुछ सहजयोगी जो भूतबाधा ग्रस्त हैं, मुझ से कांपते हैं। मैं आप सब से प्रेम करती हैं। मुझ से अधिक नम्र गुरू कोई और आपको नहीं मिलेगा। यदि आप उन्हें देखें तो वह कभी मुस्कराएंगे नहीं, वह डर जाएंगे। आपने क्या गलती की है? आप सहजयोगी बन चुके हैं। बहुत ही कर्मकाण्डी हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कर्मकाण्ड और आचार संहिता में अन्तर जान लेना चाहिए। एक निष्कपट वालक आचार संहिता जानता है। . 1. निष्कपट बच्चों की पजा कर्मकाण्डी नहीं होती। यह हृदयगत होती हैं। कैसे पुजा करनी है, कैसे प्यार जताना है। जो प्राणी अति कर्मकाण्डी है वह दूसरे प्राणी को पीट भी सकता है। आपको इसमें काफर नहीं डालना था। खुल हृदय तथा अबोधिता से किये गये कार्य में कोई गलती नहीं होती। अब आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं जहां कोई और कानून कायदा नहीं है जिसमें कर्मकाण्ड की जरूरत पड़े। लेकिन हर काम के दो ढंग हैं। जब मैं कहती हैं कि कर्मकाण्डी न बने मैं एक आश्रम में गई और देखा कि वहाँ की हर वस्तु सुअरों के बाड़े की तरह पड़ी थी। आश्रम के नेताओं ने बताया कि सहजयोगियों में आश्रम की सफाई का विवेक नहीं है। यदि यह उनका घर हो तो यह देखभाल करें। और वहाँ रख कर देखें। लेकिन बढ़ना आरम्भ हो जाता है। अब वह लोगों को इस तरह आंकना शुरू करता है कि उसके पास कितनी कारें हैं। मैं बोस्टन गई और वहाँ दरदर्शन साक्षात्कारी ने मझ से पछा कि मेरे पास कितनी रोल्स-रोयल्स हैं? जब मैंने कहा कि एक भी नहीं तो उन्होंने कहा कि हमें आप में कोई दिलचस्पी नहीं क्योंकि आप व्यवसाय में नहीं है। पश्चिम में प्रौढ़ लोगों के यह दिमाग हैं। लेकिन बच्चों में भी भौतिक वस्तुओं के लिए होड़ लगी है। कुछ समय बाद वहाँ कैसी नस्ल होगी। जब केवल वस्तुओं के बेचने और खरीदने वाले ही होंगे? आपको अपने बच्चों के प्रति सजग रहना है। उन्हें उकसाएं नहीं और न ही उनके लिए अधिक चिन्तित रहें । उन्हें भौतिकवाद के स्तर पर मत रखें। इसके लिए कुछ हट कर कार्य करना पड़ सकता है। परन्त हमें अपने बच्चों की तथा उनकी निष्कपटता की रक्षा करनी है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि पक्षी साइबेरिया से आस्ट्रेलिया तक सभी मार्गों से जाते हैं। उनका मार्ग दर्शन कौन करता है? यह निष्कपटता है और निष्कपटता एक चुम्बक है। मनुष्यों में इसका इतना अधिक विकास हम नहीं पाते। वह जानते हैं कि पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण कौन से हैं। एक छोटी सी मक्खी भी उसी स्थान पर लौटती है जहाँ से बह आती है। मछलियों में भी दिशा ज्ञान है। लेकिन मनुष्य ही इसे भूल सकता है। आप यदि अपने कत्ते को पाँच मील दर छोड़ दें, तो भी वह बापिस आ जाएगा। वह कैसे रास्ता जानता है? उनमें जो यह गण निष्कपटता से बना है वही वास्तव में विद्युत-चुम्बकीय शक्ति है। और प्रेरणा, जिसका मतलब है कि यह विद्युत चुम्बकीय शक्ति आसपास के समाज की तुलना में सहजयोगी कहीं अधिक अ्बोध हैं। इस तरह बास्तव में उस ढंग की प्रशंसा करनी पड़ती है जिससे वह इतने अबोध बनें। वह दैविक संगति का मार्ग जानते हैं। यदि यह निष्कपटता फैलती नहीं है तो इसमें जंग लग जाएगा, इसका विकास रूक जाएगा। दूसरों की अपेक्षा इनका IQ. (बुद्धि कोष्ठ) घट जाएगा क्योंकि दूसरों का I.Q. (बुदधि कोष्ठ) भौतिकवाद में विकसित हो रहा है। आपका 1.Q. (बुद्धि कोष्ठ) तब तक विकसित नहीं होगा जब तक आप उसे आस पास फैलाएंगे नहीं। आप जानते हैं कि कैसे यह सब करना है। यह कण्डलिनी और श्री गणेश की शक्ति है। वह प्रत्येक चक्र पर आपकी सहायता करती है। वह प्रत्येक विश्व विद्यालय की कुलपति हैं जहाँ उसे मोहर लगानी पड़ती है। वह हर चक़् पर विद्यमान हैं परन्तु आपको यह समझना है कि आपने इसे फैलाना है. इसे सामूहिक बनाना है इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? हमें ऐसे कार्यक्रम आयोजित करने का प्रयास करना चाहिए कि लोग आपकी निष्कपटता पर आसक्त हो जाए। एसा सहनिपणता है। एक प्राणी जो निष्कपट है उसे सहनिपुणता करने में आप अपने को निष्कपट रखने की चेष्टा करें। आपको चालाक और तेज नहीं होना चाहिए और न ही अधिक बृद्धिमान क्योंकि आपके मस्तिष्क में भी अहम् के विचार आने का प्रयास कर सकते हैं। यही अंच्छा है कि आप अपने को निष्कपट रखें। भीतर का सब कुछ वास्तव में श्री गणेश की शक्ति से संचरित किया जा सकता है। बाह्म जीवन भी निष्कपट हो जाता है । किसी के चतुर और तेज न होने के बावजूद भी सब कुछ घटित होता रहता है उस आन्तरिक शक्ति से जो प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। अतः अपनी आन्तरिक शक्ति पर निर्भर करें तथा बाहर उसकी अभिव्यक्ति करें। आन्तरिक शक्ति श्री गणेश हैं जो सभी में समान रूप से विद्यमान हैं। सारी प्रणाली तथा चक्र आदि सब के भीतर समान रूप से विद्यमान हैं। केवल एक चीज जो हमें ध्यान रखनी है वह है अपनी निष्कपटता को फैशन क्रोध के अतिरिक्त। आदि जैसी व्यर्थ की सांसारिक वस्तुओं से परे रखना। तत्काल आप पाएंगे कि आप का अस्तित्व व्यक्त हो गया। जरा एक साधारण सी बात सोचें। मैं एक भारतीय हैँ, मझे कोई नहीं जानता लेकिन जहाँ कहीं भी मैं हूं, अपनी सभाओं में कम से कम पाँच से छः हजार श्रोताओं को पाती हैँ। मुझ में इतनी क्या विशेषता है? हम सहजयोगी हैं। हम सन्त हैं। हमें प्रत्येक के साथ सन्तों जैसी बात ही करनी है। हमें सन्तों की भाँति ही विश्वास रखना है। किसी को यह कभी भी नहीं समझने देना कि हम चतुर हैं और किसी से किसी और चीज की चाहत रखते हैं। एक बार यदि आपकी निष्कपटता प्रकट हो गई तो सभी देवी देवता आपकी सहायता करेंगे प्रत्येक मनुष्य को यह सोचना है कि किस प्रकार हम सहजयोग फैला रहे हैं। हमें वह सभी ढंग तथा मार्ग अपनाने हैं जो एक सन्त के लिए अपेक्षित हैं न कि एकं राजनीतिज्ञ और नायक की भाँति। सन्तता का सम्मान प्रत्येक दशा में होता है। आपकी सादगी और निष्कपटता इसमें सहायता करती है, ऐसा इसका प्रभाव है। विग्रह एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें इतनी अधिक मिलेगी कि वह किसी को भी लुभा सकता है। किसी को धन के लिए अधिक चिन्तित नहीं होना चाहिए और न ही प्रत्येक वस्तु की गणना करनी चाहिए और न ही भोजन के लिए चिन्ता। यह सब करना है परन्तु निष्कपटता से। आप कहाँ सोते हैं। क्या करें। यह सन्तों के लिए जरूरी नहीं है। यह एक ढंग है जिसमें प्राणी को रहना है क्योंकि उसका पोषक बिन्द निष्कपटता हैं। वह लोगों पर चिल्लाता नहीं, क्रोधित नहीं होता। बेशक उसे ईसा की तरह भूता पर चिल्लाना पड़ सकता है। वैसे वह एक शान्ति-प्रिय, प्रसन्न, हंसमुखे और विनोदप्रिय व्यक्ति है। आज में इस पूजा पर आप सभी को श्री गणेश में विद्यमान सभी गुणों का आशीर्वाद देती हूँ केवल उनके भगवान आपको आशीर्वादित करें। 19 श्री गणेश पूजा परमपूज्य श्री माता जी निर्मला देवी जी का रूस में सम्वाद्दाताओं से साक्षात्कार (सारांश) परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी के सेंट पीटर्जबर्ग, रूस, की पैट्रोवस्क्या विज्ञान एवं कला अकादमी में विशेष सम्मान समारोह के अवसर पर श्रीमाता जी का विज्ञान के डाक्टर प्रोफेसर य.ए. वोरोनोव के साथ साक्षात्कार 13 उसी प्रकार गतिशील हैं। जब उन्होंने नीचे से ऊपर के फोटों लिए तो अल्फा और ओमेगा के अक्षर नज़र आए। श्री माता जी ने बताया कि जब श्री ईसा ने कहा था कि मैं अल्फा एवं ओमेगा" हूैँ- तो उनका यही अभिप्राय था। नवम्बर, 1993। इसके बाद श्री माता जी ने आत्मा के बारे में बताया जिसे विश्वशान्ति को प्रोत्साहन देने के विशिष्ट कार्य के लिए पैट्रोवस्क्या विज्ञान एवं कला अकादमी ने श्री माता जी को अकादमी के 'अवैतनिक सदस्य' पद से सम्मानित किया। अभी तक अकादमी ने केवल दस व्यक्तयों को यह सम्मान दिया है। इनमें से एक अलबर्ट आइनस्टाइन को दिया गया था। पर श्री माता जी के कार्य को सभी वैज्ञानिक आविष्कारों से कहीं अधिक महत्व पूर्ण एवं व्यापक माना गया। प्रोफेसर वोरोनोव ने कहा कि सहज योग द्वारा प्राप्त की गई अवस्था तक विज्ञान को अभी पहुँचना है। अत्यन्त कृपा करके श्री माता जी ने सम्मान को स्वीकार किया आत्म साक्षात्कार के बाद आप आकाश में देख सकते हैं। ये आत्माएं लम्बे रिब्बन के आकार में लटकी हुई दिखाई पड़ती हैं, ये मरे हुए लोगों की आत्माएं हैं। वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है कि कोषाणुओं में अभिग्राहक (रिसैप्टर) होते हैं। श्री माता जी ने कहा कि हर कोषाण में अभिग्राहक है और बताया कि आत्मा पीछे की ओर बैठती है और हर सैल के ऊपर यह रिमोट कंट्रोल की तरह बैठती है। अब वैज्ञानिकों ने इस आत्मा को खोज निकाला है जिसके बारे में श्री माता जी ने बहुत समय पूर्व बताया था कि किस प्रकार वे मृत आत्माओं से प्रभावित हैं तथा किस प्रकार आत्मा भूत बाधा में फंस जाती है और गुणसूत्र (क्रोमोसोम) में जीन्स पर प्रतिबिमबित होती है और इस प्रकार रिमोट कंट्रोल द्वारा कोषाणुओं को प्रभावित करती है। विश्व नैरोलोजी अधिकारी, जो कि सूत्र युग्मन (सिनैप्स एवमं स्नायुविशेषज्ञ था, से बात करते हुए श्री माता जी ने मनुष्यों में मिले चेतना के चार अन्य क्षेत्रों के बारे में बताया: चेतना - जो हमारे अन्दर वर्तमान है। अबोधिता के स्वामी श्री गणेश के विषय में बात करते श्री माता जी ने वा्ता आरम्भ की और कहा कि श्री हुए गणेश निरन्तर शिशु हैं तथा पवित्रता, अबोधिता एवं मंगलमयता के प्रतीक हैं। वे ही बाद में ईसा के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने बताया कि श्री गणेश को हाथी का सिर प्राप्त होने की मनोरंजन कहानी है। ध्यान अवस्था में मूलाधार पर लोगों ने उनके प्रतीक चिन्ह (स्वास्तिक) को देखा है। पर स्वयं श्री माता जी ने वैज्ञानिकों को बताया कि किस प्रकार कार्बन के अणओं से बने मुलाधार पर श्री गणेश विराजमान हैं। कार्बन के सूजन के बाद ही आगेनिक कैमिस्टरी आई (और बाद में अमीनो - एसिड आए) । (1) (2) अवचेतन - अपने अन्दर वह सब समेटे हुए है जो कि हमारे अन्दर भूतकाल है तथा इस जीवन के भूतकाल, पिछले जीवनों के भूतकाल तथा सामूहिक अवचेतना, जिसके अन्दर हमारे सृजन से लेकर अभी तक का सब कुछ मृत निहित है । सभी बैक्टीरिया, वायरस, मृत आत्माएं, भूत बाधाएं आदि इस क्षेत्र में रहती हैं। अवचेतन क्षेत्र हमारे बाएं अनुकम्पी नाड़ीतंत्र (ईंडा नाड़ी) के बाई ओर स्थित है। इसलिए हमारा चित बाई ओर को चला जाता है तो हम भिन्न प्रकार के मनोदैहिक रोगों की पकड़ में आ जाते हैं जैसे कैंसर, एड्स तथा माँसपेशियों, मेरुरज्जू (रीढ़) शोथ (सूजन) आदि। बाई ओर की प्रवृत्ति वाले लोग सदा रोते तब श्री माता जी ने बताया कि किस प्रकार उनके मार्ग दर्शन में बैज्ञानिकों ने चार (वैकेन्सीज) संयोजकताओं वाले कार्बन के अणुओं के फोटो लिए। उन्होंने बताया कि बाई ओर से जब उसकी दाई ओर का फोटो लिया गया तो ओंकार" नजर आया, यही 'आदि शब्द' हैं। दाई ओर से जब उन्होंने इसकी बाई ओर का फोटो लिया तो उन्हें स्वास्तिक नजर आया क्योंकि संयोजकरताएं (वैलेन्सीजो चैतन्य लहरी 20 दिवालिया होकर व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। जिगर की गर्मी जब ऊपर को चढ़ती है तो इसका कुप्रभाव फेफड़ों पर पड़ता है (जिसे सहजयोग में दायां हृदय कहते हैं) और व्यक्ति के अस्थमा (दमा-रोग) हो जाता है। रहते हैं, बिलखते रहते हैं तथा बीत नमय के बारे में सोचते रहते हैं। ऐसे लोगों पर इस प्रकार के मनोदैहिक रोगों का प्रकोप हो सकता है। एक छोटे स्तर पर ऐसे लोगों को गठिया गेग एवं ग्लानि के दौरे पड़ सकते हैं। मिर्गी रोग भूत बाधा के कारण होता है और इसका इलाज सुगमता से हो सकता है। भारत एक इसका इलाज सुगमता से हो सकता है। भारत में एक डाक्टर ने सहजयोग से मिर्गी के ईलाज पर TTम डी. प्राप्त की है। स्वाधिष्ठान चक्र की खराबी के कारण होने वाली बीमारियों के बारे आगे बताते हुए श्री माता जी ने मधुमेह का बर्णन किया श्री माता जी ने कहा कि यह गलत धारणा है कि मधुमेह अधिक मीठा खाने से होती है। मधुमेह रोग का चीनी खाने से कोई सम्बन्ध नहीं। उन्होंने बताया कि किस प्रकार एक सामान्य भारतीय ग्रामीण एक कप चाय में तीन चार चम्मच चीनी पीता है पर उसे मधुमेह रोग नहीं होता और वह सर्व सामान्य जीवन व्यतीत करता है। उन्होंने कहा कि मधुमेह प्रायः अफसरों, राजनीतिज्ञों और विचारकों को होती है क्योंकि शक्कर के खपाने के लिए उत्तरदायी, उनके अग्नाशय की स्वाधिष्ठान चक्र अपेक्षा कर देता है क्योंकि वह उनके थके हुए मस्तिष्क को ऊर्जा पहुचाने के कार्य में व्यस्त होता है। रक्त कैंसर, जिसे कि सहजयोग के अभ्यास द्वारा ठीक किया जा सकता है, कि बात करते हुए श्री माता जी ने बताया कि शरीर में आपात-स्थितियों को सम्हालने का कार्य प्लीहा का है। परन्तु हमारी उत्तेजना पूर्ण एवं तीव्र जीवन शैली इसे अनियमित कर देती है। इस अवस्था में किसी भी दाएं पक्षीय व्यक्ति पर किसी दूर्घटना या निराशा के रूप में यदि बाई ओर से वायरस का हमला हो जाए तो यह उसे रक्त कैंसर तक पहुँचा सकता है। अचानक दाएं से बाएं के चले जाना, इस रोग का कारण बन सकता है। श्रीमाता जी ने बताया कि ऐसे बहुत से रोगी, जिन्हें चिकित्सा विज्ञान ने अवश्यम्भावी मृत्यु की श्रेणी में डाल दिया था, सहजयोग के अभ्यास से ठीक हो गए हैं। में (3) वह हमारे अन्दर भविष्यकाल है। यह क्षेत्र हमारे दायें अनुकम्पी नाड़ी तंत्र (पिंगला नाड़ी) के दायीं आर स्थित है। दायीं ओर के झुकाव वाले लोग अत्यंत महत्वाकांक्षी, भविष्यवादी और सदा योजना बनाते रहने वाले होते हैं। मूत्यु के उपरान्त ऐसे लोग इन क्षेत्रा में जात हैं और अपनी महत्वाकांक्षाओं को पुरा करने के लिए जीवित आत्माओं पर अधिकार कर लेते हैं। दायी और को झुके लोग, इसलिए, भिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानांगक रोगों के शिकार हो जाते हैं । पराचेतन (सप्राकानशयस दसरे चक्र, ्वाधिष्ठान, द्वारा पोषित जिगर तथा अन्य अंगों के बारे में श्री माता जी ने वस्तार पूर्वक बताया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार इस चक्र के करने पड़़ते हैं। सोचने के लिए हमें बहुत सी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। मस्तिष्क के कोषाणुओं को यह ऊर्जा पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य भी यह चक्र करता है । भविष्यवादि व्यक्ति जो सदा योजनाएं बनाते रहते हैं, बहुत मी ऊर्जा उपयोग करते हैं । यह ऊर्जा पहुँचाने के लिए स्वाधिठान चक्र द्वारा घोषित होने वाले अन्य अवयव उपेक्षित हो जाते हैं। जिगर, अग्नाशय, आंत्र में जाने वाली ऊर्जा अब केवल एक ही कार्य के लिए खर्च होने लगती है। बहुत से कार्य प्लीहा, गर्दै एवं श्री माता जी ने जिगर के कार्य के महत्व को बताया क्योंकि जिगर को गर्मी के रूप में शरीर के सारे विष को सोखना होता है तथा फिर इस गर्मी के रक्त संचार में डालना होता है। जिगर की उपेक्षा होने पर यह गर्मी इकट्ठी होकर दोनों ओर बहने लगती है। एक छोटी उम्र का खिलाड़ी, जो अति आक्रामक होने के साथ-साथ मंदिरा पीने का आदी भी है तो अचानक उसे इस युवावस्था में ही हृदयात (हार्ट अटैक) हो सकता है तथा उसकी मृत्यु हो सकती है। स्वाधिष्ठान चक्र की खराबी के कारण एक अन्य भयंकर रोग जो हो सकता है वह है दाई ओर का पक्षघात (मस्तिष्क में बाई ओर)। श्री माता जी ने बताया कि एक बार यदि मूल-भूत बातों को जान लें और व्यक्त जान पाए कि किस प्रकार चक्र को ठीक किया जाए तो किसी भी रोग को आसानी से ठीक किया जा सकता है। यह गर्मी जब नीचे की ओर बहने लगती है तो आन्त्र पर इसका कप्रभाव पड़ता है और व्यक्ति के 'कब्ज' की समस्या हो जाती है। जब इसका प्रभाव गुर्दे पर पड़ता है तो यह इसे जमाने लगती है और कई समस्याएं खड़ी हो जातीं हैं। डाक्टर तब व्यक्ति को डायलिसिज पर डाल देते हैं और सस में सम्बाददाताओं से मातात्कार 21 ন आपको निडर बनाती है। ईसा मसीह के उदाहरण से उन्होंने प्रेम शक्ति का वर्णन किया किस प्रकार मैरी मैगडेलीन नामक वैश्या, जिसे मुत्य दण्ड के लिए ले जाया जा रहा था, को देखकर वे द्रवित हो उठे। उन्होंने वैश्या को पत्थर मारने वाले लोगों से कहा कि जिसने कभी पाप नहीं किया हो बो मुझे पत्थर मारें। शक्ति कई प्रकार की हो सकती है, परन्त् केवल प्रेम (4) उच्च चेतना - उच्च चेतना मानवीय चेतना से ऊपर है। यह ब्रहुमरन्ध्र के ऊपर के क्षेत्र में स्थित है। आध्यात्मिक जीवन के लिए बने साक्षरता संस्थान के एक प्रोफैसर से बात करते हुए श्री माता जी ने पराने रूसी लेखकों की महानता की बात की और बताया कि किस प्रकार उन्होंने अन्तःदर्शन की आदत विकसित करने में योगदान किया और रूसी लोगों में यह आदत पैदा की। अन्तः्दशन की आदत नें उन्हें सहजयोग के लिएशक्ति ही रोग मुक्त कर सकती है। श्री माता जी ने बताया कि विवेकशील, तैयार एवं परिपक्व बताया है। श्री माता जी ने किस प्रकार रूस के रासपतिन के पास भी शक्तियां थी, कहा कि युवावस्था में ही उन्होंने लेओ टॉलस्टाय का हिन्दी परन्तु वे सब आसुरी शक्तियां थीं। उन्होंने बताया कि इसी अनुवाद पढ़ा और इसका बहुत आनन्द लिया। श्री माता जी व्यक्ति ने भारत में रजनीश के रूप में पुर्नजन्म लिया। की सहायता से एक भारतीय महिला ने हाल ही में अन्नाकैरीना' का हिन्दी अनुवाद किया है। "संस्कृति के माध्यम से शान्ति" संस्थान के अध्यक्ष से उन्होंने कहा कि पोप पाल ने होली घोस्ट, जो कि बाइबिल बात करते हुए उन्होंने बताया कि हर चक्र भिन्न देवता से संचालित है तथा अत्यन्त महत्वपूर्ण चक्र 'स्वाधिष्ठान' की अध्यक्ष विद्या की देवी सरस्वती हैं। फिर श्री माता जी ने मात्रेया के बारे में बताया जिसका अर्थ है तीन माताएं महालक्ष्मी मंहासरस्वती और महाकाली और बताया कि किस प्रकार श्री गौतम बुद्ध ने भोविष्य में आने वाले बुद्ध की बात की थी और कहा था कि वे 'मात्रेया के रूप में आयेंगे तब श्री माता जी ने बताया कि हम सब के अन्दर स्थित कण्डलिनी, आदिशक्रि (होली घोस्ट) का ही प्रतिबिम्ब है। की आदि मां हैं, को हटा कर बहुत बुरा किया है। अमेरिका की बात करते हुए श्री माता जी ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि जहां तक अध्यात्मिकता का प्रश्न है तो बहां के लोग अत्यन्त असभ्य हैं और उनमें से अधिकतर मुर्ख हैं। मात्र इतना ही नहीं, बहुत से अमेरिकन झूठे गुरुओं के पीछे दौड़ रहे हैं तथा भौतिक वैभव के आधार पर अपना मल्यांकन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि वर्षों पूर्व जब मैंने उन्हे च्ररित्रहीन जीवन की बुराइयों के बारे में बताया और समझाया कि किस प्रकार वे समलैंगिकता की समस्या से छुटकारा पा सकते है तो उन्होंने मेरी बात पर कोई ध्यान न दिया। यहां तक कि हार्वर्ड- विश्वविद्यालय जैसी चोटी के शैक्षणिक संस्थान ने भी इस प्रकार की असभ्य जीवन शैली की अनुमति दे दी। सब से बुरा तो यह हुआ कि देश के कानून एवं कैथोफ़िक चर्च ने भी इसकी अनुमति दी। श्री माता जी ने तब रूस के लोगों को स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी कि वे यह न समझें कि अमेरिका की सड़कों पर सोना बिछा हुआ है। वे उन पर इतनी श्रद्धा न करें क्योंकि अमेरिका के लोग अब नक्कोन्मुख हैं। श्री माता जी ने बताया कि अमेरिकन लोग तो ईसा की बातों पर भी ध्यान नहीं करते, ईसा ने इतनी सुक्ष्म बात कही, जब उन्होंने कहा कि "आप की दृष्टि भी अपवित्र नहीं होनी चाहिए। आज बहां एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं है जो इस कसौटी पर खरा उतरे। कन्परयशियस और लाओत्से के बारे बात करते हुए श्री माता जी ने कहा कि इन सब गुरूओं ने समय के अनुकूल एक उपस्थित व्यक्ति ने तब श्री माता जी को बतायाकि रूसी परम्परा के अनुसार मात्रेया को कआदि शकि (होली घोस्ट) माना जाता है। जब उसने होली घोस्ट का वर्णन पुल्लिंग में किया तो श्री माता जी ने उसकी त्रुटि को सधारते हुए कहा कि होली घोस्ट पुरुष नहीं है, स्त्री है। वह यूनान की अथेना' हैं। आयोजित धर्म को भयंकर बताते हुए श्री माता जी ने कहा कि आयोजक गण अपने विचार इसमें भरने का प्रयत्न करते हैं। उन्होंने बताया कि परमात्मा और देव आयोजित नहीं किए जा सकते क्योंकि वे मानव मस्तिष्क की पहुँच से बहुत परे हैं। श्री जीसज क्राइस्ट के बारे बताते हुए श्री माता जी ने दूक तन्त्रिका पर, मस्तिष्क के मध्य में, बह स्थान दिखाया जिसे अगन्य चंक्र कहते हैं। उन्होंने बताया कि इस चक्र पर वे इंसा रूप में अवर्तरित हुए। वे ही साम्राट हैं तथा हर जगह उन्हीं का साम्राज्य है। श्री माता जी ने कहा कि आत्म साक्षात्कार पाकर आपको सारी शक्तियां मिल जाती हैं। यह प्रेम की शक्ति है जो चैतन्य लहरी 22 भाषा में लोगों से बात की। कन्फ्यूशियस मानवता की शिक्षा देने को आए,लाओत्से ने 'ताओ की बात की, जो कि कण्डलिनी के अतिरिक्त कछ भी नहीं । येन्गत्से नदी से नाव द्वारा जाते हुए श्री माता जी ने लाओत्से को स्मरण किया कि किस प्रकार उन्होंने इस नदी का वर्णन 'ताओ' के रूप में किया था । यह नदी दोनों छोरों से इतनी सुन्दर है कि चीनी चित्र कला की सारी प्रेरणा वहीं से आती है। लाओत्से ने अपनी कविता में 'ताओ (कृण्डलिनी' का वर्णन करते हुए कहा कि बहुत सी सुन्दर घटनाएं घटित होने वाली हैं परन्तु व्यक्ति को निर्लिप्त भाव से, साक्षी बनकर, चलते रहना होगा। समुद्र के निकट जब यह नदी (ताओ) पहुँचती है तो यह शान्त हो जाती है और इस शान्त अवस्था में सागर में प्रवेश करती है। श्री माता जी ने कहा कि जापान की जैन प्रणाली भी महान है; पर आज जापान के लोग विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। सहज योग के चार्ट पर उन्होंने जापान को दायां हृदय सारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। यह ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ है जैसे "हम पृथ्वी पर क्यों जन्में। पर्णत्व की तस्वीर विज्ञान नहीं दे सकता। श्री माता जी ने महसूस किया कि विज्ञान की सबसे बड़ी बुराई यह है कि यह चरित्रहीन है। वैज्ञानिक जब तक चरित्रवान नहीं हो जाते तब तक एटम बम आविष्कृत होते ही रहेंगे। शरीर तन्त्र चार्ट पर श्री माता जी ने बताया कि किस प्रकार दोनों नाड़ियों के छोरो पर अंह एव प्रति अहं के गब्बारे सम आकार की रचना होती है। उन्होंने बताया कि इस अंह के कारण केवल मनुष्यों में कताभाव आ जाता है। अंतः केवल मनुष्यों के साथ ही "कर्म" की समस्या है। पशु पाश में बंधे होते हैं और उन्हें कर्म की समस्या नहीं होती। उन्होंने विस्तार पूर्वक बताया कि किस प्रकार श्री बुद्ध मात्रेय) जो कि सेंट गैबरीफ हैं, वे अहं के स्थान पर ( विराजमान हैं तथा श्री महावीर, जो कि सेंट माइकल है, वेप्रति अहं के स्थान पर विराजित हैं। कण्डलिनी जब उठती है तो अगन्य चक्र पर इसा को जागृत करती है और परिणाम स्वरूप यह दोनों गुव्बारे (अहं एवं प्रति अहँ) नीचे की ओर खिंच जाते हैं। अह जब समाप्त हो जाता है तो कर्म (कर्म -फल) भी नहीं रहते। "इंसा की हमारे पापों के लिए मूत्य जोर देकर कहा कि ईसा का सन्देश पुनर्जन्म है क्रॉस नहीं। पुर्नजीवित होकर ईसा ने दर्शाया कि सभी लोग पुनंजन्म ले सकते हैं। बताया। हृदय चक्र के बारे बताते हुए श्री माता जी ने कहा कि मध्य हृदय चक्र सुरक्षा की दाता, जगत जननी जगदम्बा से आश्शीवादित है। उन्होंने वर्णन किया कि किस प्रकार बारह वर्ष की आय तक बच्चे में रोग प्रति कारक उत्पन्न होते हैं। बाद में ये रोग प्रतिकारक पूरे शरीर में फैल जाते हैं परन्तु दूरस्थ नियन्त्रण (रिमोट कन्ट्रोल) यहीं (हृदय में) स्थित होता है। इस स्तर पर मनुष्य दो प्रकार के अपराध करता है पिता के विरोध में तथा माता के विरोध में। पिता पर अविश्वास, उसे चुनौती देना, उग्र तथा अत्याचारी होना, पिता के खिलाफ अपराध हैं। चरित्र हीनता माता के विरुद्ध अपराध है। सारे मनोदैहिक रोगों का मुकाबला गण करते हैं जो कि रोग प्रतिकारकों के रूप में होते हैं। स्त्रियों के मातृत्व को यदि चरित्रहीन पति या बांझपने के कारण चुनौती मिले तो स्त्रियों को स्तन कैंसर हो सकता है। अमेरिका में स्त्रियों में सरक्षा भावना की कमी के कारण स्तन कैंसर की घटनाए बहुत अधिक हैं। विज्ञान के सम्मुख जो समस्याएं हैं उनके विषय में श्री माता जी ने कहा कि यह बहुत ही एक तरफा है। विज्ञान ने भौतिकता के क्षेत्र में बहुत से अविष्कार किए हैं, परन्तु यह " का यही अर्थ है। श्री माता जी ने श्री राम की बात करते हुए श्री माता जी ने कहा कि वे सुक्रान्त वर्णित हितैषी राजा थे। अपने प्रजाजनों की भावनाओं का वे इतना सम्मान करते थे कि उन्होंने अपनी पत्नी सीता को त्याग दिया क्योंकि जब राबण उन्हें चुराकर ले गया था तो उन्हें लंका में रहना पड़ा। आश्रम में जन्में श्री राम जी के जुड़वां पुत्र लव और कश के बारे में श्री माता जी ने बताया। छः हजार वर्ष पूर्व लव रूस के कासाकस पूर्वतों पर आये और आज उनके वंशज स्लाव कहलाते हैं। कश चीन चले गये और आज उनके वंशज कशाण कहलाते हैं। भारतीय भाषा में चीन के लोगों को कशाण कहते हैं। श्री माता जी ने तब विनोद पर्वक कहा कि रूस और चीन के लोग जुड़वें भाइयों की तरह हैं। 23 ফस में सम्बादकोओं से साक्षात्यर ---------------------- 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-0.txt XXXXXXXXXXXXXXXX XXXXX) *Xxxxx XXXXXXXXXXXXX तन्थ लहर 1994 खण्ड VI अंक 1 व 2 जिस प्रसन्नता का अनुभव आप सभी तक करते हैं उसका स्त्रोत अहँ या बन्धन हैं। यह प्रसन्नता अस्थायी है। स्थायी आनन्द आत्मा से मिलता है। परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी XXXXXXXXXXXX XXXXXXXX) XXXXXXXXXXXXX XXXX) XXXXXXX XXXXXXAXXXXXX0XXXXXX XXXXX 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-1.txt श्री योगी महाजन पादक सम श्री विजय नाल गिरकर 162, मुनिरका विहार, नई दिल्ली-110067 मुद्क एवं प्रकाशक प्रिन्टेक फोटोटाईपसैंटर्स, 35, राजेन्द्र नगर मार्केट, नई दिल्ली-110060, फोन : 5710529, 5784866 मुद्रित 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-2.txt चैतन्य लहरी प्रिय सहजयोगी, चैतन्य लहरी नव वर्ष में आपके लिए मंगल कामना करती है। वर्ष 1994 का आरम्भ एक नये आयाम के साथ हुआ है जिसमें सहजयोग महायोग बन गया है। सहजयोगी अब बसन्त का आनन्द ले रहे हैं। यह आनन्द-प्राप्ति सामूहिक बन गयी है। सारे अवरोध समाप्त हो गए हैं। उत्तरी भारत में हुए जन-कार्यक्रमों में लोगों को स्वतः ही आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ। श्री माता जी ने उन्हें हाथ अपनी ओर फैलाने भर को कहा और लो! शीतल लहरियां बहने लगीं। हमारी पूज्य श्री माता जी के इस चमत्कार ने सभी सहजयोगियों को अभिभुत कर दिया। नव वर्ष में घटित होने वाली महान घटनाओं के लिए यह हमारी तैयारी है। चैतन्य लहरी विश्व भर में हुए श्री माता जी के चमत्कारों, रहस्योद्घाटनों तथा घटनाओं की पूरी सूचना देती है। अंतः अपना वार्षिक शुल्क, 250/- रुपये, निम्न पते पर भेजना न भूलें :- श्री एम. डी. वासुदेवा सहजयोग मन्दिर 17 सी इन्स्टीच्यूशनल एरिया, ( होटल के पीछे) कुतुंब नई दिल्ली जय श्री माता जी। 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-3.txt चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी खण्ड VI, अंक 1 व 2 विषय सूची पृष्ठ 1. देवी स्तुति 2. नवरात्रि पूजा 3. दिवाली पूजा 1 रूस 4. श्रीकृष्ण पूजा, इटली 15 अगंस्त 1993 5. श्रीगणेश पूजा, इटली 19 सितम्बर 1993 11 16 6. रूस में सम्वाददाताओं से साक्षात्कार (सारांश) 20 2. 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-4.txt देवी स्तुति मेघा, सरस्वती, वरा ( श्रेष्ठा), भूति (एश्वर्यरूपा), बाभ्रवि (भूरे रंग की (महाकाली) नियता (संयम परायणा) तथा ईशा (सबकी अधीश्वरी), रूपिणी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है। देवि! प्रपन्नात्तिहरे प्रसीद, प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य। प्रसीद विश्वेश्वरि! पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवि! चराSचरस्य।। अथवा पार्वती), तामसी शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम पर सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते। प्रसन्न होइए| सम्पूर्ण जगत की माता! प्रसन्न होइए। विश्वेश्वरी विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत की अधीश्वरी हो। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि! दर्गे देवि! नमोऽस्तु ते।। सर्वस्वरूप, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यूपा दर्गे देवी! संब भयों से हमारी रक्षा करो! तुम्हें नमस्कार है। रोगानशेषानपहंसि तुटा, आधारभूता जगतस्त्वमेका महीस्वरूपेण यतः स्थितासि। अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत- रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता हश्रयतां प्रयान्ति। दाप्यायते कृत्स्नमलड्घयवीर्ये! तुम इस जगत का एकमात्र आधार हो, क्योंकि पृथ्वी रूप में तुम्ही स्थित हो। देवि! तुम्हारा पराक्रम अतलनीय जगत को तृप्त करती हो। सर्वस्य बद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते । स्वागांपवर्गदे देवि नारायणि! नमोऽस्तु ते।। देवी! तम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर है। तुम्हीं जल रूप में स्थित होकर सम्पूर्ण देती हो और कृपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं। बुद्धि रूप से सब लोगों के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली देवि नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि! विश्वार्तिहारिणि! । बैलोक्यवासिनीमीड्ये लोकानां वरदा भव।। विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवी हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हुए हैं, हम पर प्रसन्न होइए। त्रिलोक निवासियों की पूजनीया परमेश्वरी सब लोगों को सृष्टि-स्थिति-विनाशानां शक्तिभूते सनातनि!। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते।। तुम सृष्टि पालन और संहार की शक्ति भता संनातनी देवी, गणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। बरदान दो। (देवी महात्मय में शुंभ निशुंभ के वध के उपरान्त देवी देवताओं द्वारा की गई नारायणि स्तुति से उद्धृत ) मेघे सरस्वति वरे भति बाभ्रवि तामसि । नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि! नमोऽस्तु ते।। देवी म्ति 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-5.txt नवरात्रि पूजा 24, अक्तूबर 1993 हैं। सत्य साधकों की प्रतिशतता यदि आप देखें तो यह बहुत कम है, परन्तु है अत्यन्त महत्वपूर्ण। क्योंकि थोड़ा सा सोना टनों लोहे से कहीं अधिक बहुमूल्य होता है। इसी प्रकार अध्यात्मिकता के विकास में एक साधक अमूल्य है। देवी के बहुत से रूप हैं परन्तु वह शक्ति की अवतार हैं। आदि शक्ति इन सभी अवतरणों को शक्ति प्रदान करती है अतः बहुत सी देवियां है। समय-समय पर पृथ्वी पर अवतरित होकर इन्होंने साधकों के उत्थान के लिए सभी आवश्यक कार्य किए। विशेषतौर पर हमारी परिचित जगदम्बा, दुर्गा मां ने। वे सभी सत्य साधकों की रक्षा तथा राक्षसी शक्तियों का नाश करने का प्रयत्न कर रही थीं। उत्थान के बिना मानव सत्य को नहीं जानता, इसी कारण जो भी कुछ वह करने का प्रयत्न करता है वह मात्र मानसिक प्रक्षेपण (दिमागी जमा-खर्च) ही होता है। सत्य एवं धर्म से प्रमाणित हुए बिना इस मानसिक प्रक्षेपण का पतन हो जाता है। संस्कृत में इसे "ग्लानि" कहते हैं। जब- जब धर्म की रलानि होती है तो समस्या का समाधान करने के लिए को, आत्मज्ञान को वे पा लेना चाहते हैं। अन्तज्ञांन के दो अवतरण जन्म लेते हैं। देवी के सभी अवतरणों के समय बहुत सी आसुरी शक्तियां भी पृथ्वी पर अवतरित हुई और देवी को युद्ध करके उनका विनाश करना पड़ा। यह बिनाश केवल इसलिए नहीं था कि आसुरी शक्तियों को समाप्त करना है। यह इसलिए था क्योंकि यह शक्तियां साधकों एवं सन्तों का दमन करने तथा उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयत्न करती हैं। यह सभी विध्वंसकारी शक्तियां एक ही समय पर नहीं आतीं। जिज्ञास आध्यात्मिकता के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और उन्हीं की रक्षा के लिए अवतरण साकार रूप में जन्म लेते हैं। यदि वे सत्य की खोज नहीं करते तो वे भी व्यर्थ नेपाल, जह्पान आदि जाते हैं। परन्तु आत्म चेतना के जीव हैं जो समाप्त हो जाएंगे। उनकी न कोई गरिमा है न मूल्य। उन्हें किसी बात की समझ नहीं। देवी प्रेम की दृष्टि में केवल दो प्रकार के लोग होते हैं। एक तो जो सत्य साधक होते हैं तथा दूसरे जो नहीं होते। हो सकता है कि वे अच्छे लोग हों, अच्छा सामाजिक या प्रचार कार्य कर रहे हों। परन्त यदि वह सत्य की खोज नहीं कर रहे तो ये वे लोग नहीं हैं जिनके लिए परमात्मा को अवरतरित पुरे ब्रहामण्ड की रचना की गई, सारा वातावरण बनाया गया, सारा विकास हुआ, किस लिए? कि मानव सत्य को जान लें। परन्तु आधुनिक वातावरण बहुत बड़ा अभिशाप हैं, है, शुम्भ-निशुम्भ आदि से भी बड़ा। भौतिकता सबसे ब्री है क्योंकि यह आपको स्थूल कर देती है। साधना में जब आपका उत्थान हो रहा होता है तब सूक्ष्म रूप से भौतिकता आपको पकड़ लेती है। सहजयोग में आकर लोग अपने अन्तस की गहराइयों में चले जाते हैं तथा सारे अन्तर्जान अर्थ हैं: आत्मा का ज्ञान तथा अपने विषय में ज्ञान। इसी अवस्था को पाने के लिए लोग सब कुछ करते रहे हैं हिमालय जाना, वस्त्रहीन शरीर से ठंड में ध्यान करना, थोड़े से फंल आदि खा कर कन्द्राओं में रहना आदि। उनकी साधना इतनी गहन तथा आवश्यक थी कि वे सभी प्रकार की तपस्या करते थे पर साधना की शक्ति से बाहर न निकलते थे। पर आजकल भौतिकता उस तीव्र इच्छा तथा समर्पण को पीछे धकेल देती है। सहज में आने से पूर्व साधक पर साधना का पागलपन सवार होता है। वे बहुत धन व्यय करते हैं, बहुत स्थानों पर जाते हैं, हिमालय 1. विकास के लिए आत्मा बन जाने के उपरान्त उनकी उन्नति रूक जाती है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि इतनी दौड़-धूप के बाद उसे इतनी अमूल्य उपलब्धि प्राप्त हुई है अतः आपको इसमें स्थिर होना है। पर आप तो इससे अत्यन्त सन्तुष्ट हो जाते हैं। यहां तक भी ठीक है यदि आपकी उन्नति न रुके। आपका विकास रुक जाता है और इसका एक कारण है भौतिकता की ओर झुकाव । इसी भौतिकता के कारण ही आप में आत्मविकास की कमी है। जैसे आप जानते हैं कि देवताओं की प्रार्थना पर देवी होना पड़ता है। अतः साधकों का महत्व तथा उनका मूल्य समझने का प्रयत्न कीजिए। आप भी यही सत्य खोज रहे चैतनय लहरी 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-6.txt ध्यान रखना है कि आत्म साक्षात्कारियों के रूप में यदि आप अपना मूल्य नहीं समझते तो आप मेरे समय का तथा मेरा भी मूल्य नहीं समझ सकते। आपके इस भौतिक दृष्टिकोण के कारण यह अवतरण भी व्यर्थ हो सकता है। मेरी समझ में नहीं आता कि आजकल लोगों को क्या हो गया है। आपके जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य तो उत्थान द्वारा विकसित होना है। सारी चीज़ को गहनता से देखें। इस ब्रह्ाण्ड की रचना क्यों कि गई? आप को मानव क्यों बनाया गया ? यह सब करने की क्या आवश्यकता थी? विशाल दुष्टि डाल कर अपनी स्थिति का अन्दाजा लगाएं कि मैं कहां हूँ? किस प्रकार परमात्मा ने मुझे चुना है और अब मैं सहजयोगी हूँ। अब मेरा क्या उत्तरदायित्व है? व्यक्ति को यह देखना है। परन्तु इसके विपरीत मैंने देखा है कि लोग मूर्खतापुर्ण तुच्छ बातों के लिए फोन करते हैं। यह समझ पाना असम्भव है कि कैसे सहजयोगी ये बातें पृछ सकते हैं? इस परिप्रेक्ष्य में हम देवी को देख सकते हैं। सत्य साधकों की रक्षा करने के लिए तथा उनका उत्थान मार्ग प्रशस्त करने के लिए देवी समय समय पर भिन्न रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होती हैं। क्या आप कल्पना कर सकते कलयग से पर्व की देवी के अवतरणों में यह बहुत बड़ा अन्तर है। तो अब ये कोई भिन्न बात क्यों हैं कि आप पृथ्वी पर सहजयोगी बनने के लिए आए। आपका एक शरीर है, मस्तिष्क है, भावनाएं हैं जो आध्यात्मिक से प्रचलित है। बीते जीवन में वर्षों तक आप परमात्मा को खोजते रहे। तब आप यहां आर्य,क्या यह मात्र संयोग था? तो यह क्या था? अपनी साधना के फलस्वरूप, सौभाग्य से जब आप सहजयोग में आये हैं और इसमें आनन्द पाया है तो अब आपका क्या उत्तरदायित्व है? यह अवतरण पृथ्वी पर स्वयमेव मात्र आपकी रक्षा और पोषण करने के लिए तथा राक्षसों का नाश करने के लिए नहीं आया। आपके अन्दर निहित सुक्ष्मताओं के तथा आपके आन्तरिक एवं बाह्म सम्बन्धों के बारे में आपके बताने के लिए वे पृथ्वी पर अवतरित हुई हैं। आप कभी भी सत्य, सर्वव्यापक शक्ति तथा सर्वशक्तिमान परमात्मा से जुड़े न थे। व्यक्ति को समझना चाहिए कि कितनी महान घटना घटित हुई है कि मेरे अन्दर से निकल कर वण्डलिनी ने सारे ऊपरी चक्रों को छ लिया है! कैसे? इससे पूर्व यह कभी नहीं घटित हुआ। साधकों की मात्र रक्षा तथा देखभाल हुई। कहीं भी ऐसा वर्णन नहीं है कि देवी ने लोगों को आसुरी वृत्तियों का नाश किया। अवतरित हुई और देवताओं की गहन इच्छा के फलस्वरूप ही देवी अवतरित हुईं। उत्थान की इच्छा उनमें इतनी तीव्र थी कि भूखे प्यासे रह कर भी वे उत्थान के लिए कार्य करते। पर इन आसुरी शक्तियों ने इनके मार्ग में बाधा डाली। इतने हृदय से उन्होंने देवी को पुकारा कि उनकी रक्षा तथा देखभाल के लिए उन्हें पृथ्वी पर अवतरित होना ही पड़ा। पर हमें लगता है कि जरा सी उपलब्धि पाते ही आप आत्मसन्तुष्ट हो जाते हैं। आत्म-सन्तोष का अर्थ आपकी दुष्टि में क्या है? आत्म साक्षात्कार के पश्चात यदि आप पूर्ण हैं, पूर्णत्वं में हैं, सत्य से आपकी पूर्ण एकाकरिता है तो करने को कुछ शेष नहीं, आप सन्त बन गए हैं। सन्त को ख्याति की आवश्यकता नहीं होती, किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती। उसका सन्देश फैल जाता है। लोग उसे देखते ही जान जाते हैं कि वह महान सन्त है। बहुत से सन्त अपने घर तक को भी नहीं छोड़ते। भारत में एक कहावत है कि अपने तकिए को नहीं छोड़ना चाहिए। गुरु का यही माप-दण्ड था। साधक छः सात मील पहाड़ चढ़ कर गुरू पास आए। पर गुरु किसी से नहीं मिलते, आपको चांटा भी मार सकते हैं, किसी भी प्रकार से आपकी परीक्षा ले सकते हैं। अन्त में वे किसी एक को आत्म साक्षात्कार के लिए चुनते। यह उत्कण्ठा तथा घोर-प्रयत्न साधकों में सदा होता था। अब हम आज के सहजयोग पर आते हैं। आप जानते हैं। कि आपको आत्म साक्षात्कार मिल गया है, आप अन्य लोगों से कहीं अच्छे हैं, बहुत सी समस्याओं से आपको छटकारा मिल गया है तथा आप अपने गुरू बन गए हैं। फिर भी अपने तथा अन्य लोगों के प्रति आपका उत्तरदायित्व कम हो गया है क्योंकि आप आत्म-सन्तुष्ट हैं। के उस दिन एक सहजयोगिनी ने मुझे फोन करके कहा कि मैं डाक्टर के पास गई और उसने बताया कि मैं गर्भवती हूँ। मैं इस बच्चे का क्या करू? इतनी छोटी-छोटी बातें मुझसे पृछते हैं। इनके बच्चों के नाम भी मुझे बताने पड़ते हैं। किसी पादरी से भी कहीं अधिक कार्य मुझे करना पड़ता है। लोग छोटी छोटी चीज़ों से चिन्तित हैं। उनकी गाड़ी छूट जाए तो भी मुझे फोन करते हैं। क्या किया जाय? उन्हें बताना पड़ता है कि बन्धन दे दो। उनके माता पिता पर भी मुझे चित्त देना पड़ता है। बड़ी ही तूच्छ चीज़ों के लिए मुझे पत्र लिखते हैं। लोगों की समझ में नहीं आता कि मैं यहां किसलिए हैं। फिर भी मैंने कभी नहीं कहा कि इतनी व्यर्थ की बातों के लिए मेरा समय बर्बाद करते रहते हो। पर अब 1 जव 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-7.txt नहीं। जो भी कुछ तुमने किया है मुझे तो बच्चे की देख भाल करनी है, उसे सुधारना है पर तब मुझे लगा कि यह महिला अपने बच्चे के मोह में फंसी है। मैंने अगुआ को फोन किया तो उसने बताया कि वह भयंकर मोह लिप्त है। यह तो एक मुर्खता से दूसरी की ओर जाना हुआ। इस अवतरण के पास करने के लिए बहुत से विचित्र कार्य हैं यहां तक कि श्री गणेश की 64 कलाएं, 64 सविज्ञताएं भी इन कार्यों को कर पाने में असमर्थ हैं। यह इतना जटिल क्यों हैं? आत्म साक्षात्कार देने के बाद तो यह आपके लक्ष्य तथा उन्नति की ओर सीधा रास्ता होना चाहिए था। फिर क्यों इतनी जटिल समस्याएं हर समय आपको घेरे रखती हैं? आप क्या चाहते हैं? हमें पूछना चाहिए कि आप क्या चाहते हैं? मुझे एक बच्चा चाहिए। सहज़ योग पाने के बाद आपकी कोई इच्छा नहीं होनी चाहिए। आपको बच्चा क्यों चाहिए? बहुत से बच्चे हैं, उनकी देखभाल कीजिए। "मेरी इच्छा है" आपके मस्तिष्क से चली जानी चाहिए। इच्छाएं अब समाप्त हो चुकी हैं, आप केवल अपना आत्म साक्षात्कार चाहते हैं। इसके पश्चात "मेरी इच्छा" ही अधिक महत्वपूर्ण है। मैं चाहती हूँ कि आप वास्तव में भौतिकता से निर्लिप्त हो जाएं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि आपे हरे रामा हरे कृष्णा जैसे बन जाएं। नहीं वे निर्लिप्त नहीं है। वे अत्यन्त लिप्त लोग हैं। निर्लिप्तता ऐसी स्थिति है जहां आपको कुछ बांध नहीं सकता, कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रहता, आपका आध्यात्मिक उत्थान ही महत्वपूर्ण होता है, इतसे अधिक कुछ भी आप को आकर्षित नहीं कर सकता। यह बात सहजयोगियों को समझनी है। सहजयोगियों के मुकाबले में अन्य साधकों ने कितने कष्ट झेले हैं। इनके बारे पढ़ कर मुझे दुःख होता है। पर यहां (सहज योग में) तो सब कुछ सुगम है, आएं, अच्छे खाने और संगति का आनन्द लें। एक उत्सव हो रहा है, सब कुछ अच्छा है और यदि किसी चीज की कमी हो तो मैं स्वयं आयोजकों से कहती हूँ कि आपको यह सब करना चाहिए था। अब हम उस स्थान पर आते हैं जहां हमें समझना है कि "हम क्या चाहते हैं?" शुम्भ-निशुम्भ को मारने का क्या लाभ है? आप गतिहीन हैं, एक ही स्थान से चिपके कोई प्रगति नहीं है। तो इन सब कार्यों को करने का तथा आत्मसाक्षात्कार दिया। वे जिम्मेदार हैं, दे सकती हैं। उनके एक नहीं दस नाम ऐसे हैं कि वे निर्वाण प्रदायनी हैं, मुक्ति दायिनी हैं तथा पुनर्जन्म से आपको परिचित कराती हैं। यह सब लिखा हुआ है। पर आधुनिक यूग में तो लोग अपने जीवन के को समझ ही नहीं पा रहे हैं। देखिए किस प्रकार लोग प्रश्न करते हैं, पूछताछ करते हैं, चिन्तित हैं, मेरा बच्चा बड़ा हो गया है, मैं क्या करू? बच्चा बड़ा हो गया है तो इसे स्कूल भेज दो या जो अच्छा लगे करो। माँ क्या आप बताएंगी कि इसे कहां भेजूं? क्या आपने ्कूल देखा है श्रीमाताजी? नहीं मैंने नहीं देखा। तो अब मैं जाकर स्कूल का निरीक्षण करूं। काली माता की यह सब कार्य करते हुए कल्पना कीजिए। पर मुझे इतने तुच्छ कार्य भी करने पड़ते हैं जो आप अपने बच्चे के लिए भी नहीं करेंगी। और बच्चे क्या कर रहे हैं? अभी तक भौतिकता में फंसे हैं। आज दशहरे का विशेष दिन है। इस दिन रावण को ज मूल्य क जलाया गया था। जगह जगह रावण के पतले जलाये गए। यह श्री रामु की विजय है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सहजयोगी बनाए या आत्म साक्षात्कार दिया। नहीं। उनकी विजय यही थी कि उन्होंने रावण का वध किया। आज की तैयारी के लिए उस समय वह कार्य हुआ, आज की घटनाओं के लिए। बहुत समय पूर्व ऐसा हुआ ताकि आजकल के लोग श्रीराम की विजय के मूल्य को समझें। परन्तु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि माताजी श्री निर्मल देवी का यह अवतरण अत्यन्त भ्रमित करने वाला है, महामाया है। अपनी इच्छा पूर्वक कार्य करने के लिए आप स्वतन्त्र हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए तो वे श्री माता जी से पूछेंगे पर महत्वपूर्ण चीजों के लिए नहीं। एक प्रकार का दुरूपयोग शुरू हो गया है, इतने महान एवं महत्वपूर्ण अवतरण को व्यर्थ की चीज़ों के लिए उपयोग किया जाना। में अवतरणों के बीच अन्तर देखिए। एक अवतरण लोगों की रक्षा करने के लिए, लोगों को माया की माया से निकालने के लिए विश्व में आता है। परन्तु दूसरा अवतरण केवल इसकी बात करने के लिए नहीं, आपके आत्म - साक्षात्कार देने तथा आपकी छोटी-छोटी चीजों की देखभाल करने के लिए आता है। जब इस महिला ने हैलीफोन करके मुझे कहा कि कृपा करके मुझे ठीक कर दीजिए तो यह उन दिनों के भक्तों तथा आज के भक्तों का भिन्न दृष्टिकोण हैं। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। मैंने कहा कि "तुमने मुझसे पूछ कर यह सब नहीं किया, कोई बात हैं. हुए नकारात्मकता को मिटाने का क्या लाभ है? क्या ध्येय है? सब कहते हैं कि श्रीमाताजी आपने इन्हें आज्ञा दी है। आप ही की छूट के कारण इनका ये हाल है। उस दिन एक लड़की 1. चैतन्य लहरी 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-8.txt आपने क्या किया? इस स्थिति में आपको अन्तर्दर्शन करना होगा। आप क्या कर रहे हैं? हमें क्या करना है? किस सीमा तक हमें जाना है? यह समय अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और आप लोग भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। परन्तु यदि आप अपनी तथा अपनी शक्तियों का मूल्य नहीं समझते तो परमात्मा क्यों आपकी चिन्ता करें? क्यों परमात्मा आपको नये विचार प्रदान करें? इस तरह के लोगों में क्यों वह दिलचस्पी लें। हमें अपने अन्दर देखना चाहिए, अन्त्तदर्शन करना चाहिए कि हमने सहजयोग के लिए क्या किया ? बस मैं अपने बच्चों की देखभाल करती रही तथा पति के लिए खाना बनाती रही। पुरूष भी इसी तरह सोच सकते हैं। हमने क्या किया? हमने सहजयोग के लिए क्या किया? मैं बस राजनीतिज्ञों या कि व्यक्ति विशेष तक ही पहुंचना चाहता हूँ। किस लिए? वे आकर आप से मिलेंगे। परन्तु आपका स्वयं में विश्वास अति दर्बल है। आत्म विश्वास की कमी ही सारे पतन का मेरे पास आई, उसका बच्चा अत्यन्त बीमार था। मैंने उससे पूछा : क्या तुम ध्यान करती हो? वह चूप रही। मैंने कहा कि मैं समझ सकती हैँ कि तुम ध्यान नहीं करती। मैं सब जानती हूँ। आज दशहरे का दिन है जब लोग अपने गांवों की सीमा पार करके माता-पिता के लिए सोना लाते हैं। अब आपको भौतिकता की सीमा लांघनी होगी क्योंकि यह तुच्छ शक्ति आपका मार्ग अवरोधित कर रही है। इससे ऊपर उठ कर आपको सहजयोग की सीमाओं से सोना लाना है जो कि कभी अशुद्ध नहीं होता। आप में से कितने लोग वास्तविकता में कार्य क्षेत्र में उतरे हैं? आपमें से कितने इसके विषय में लोगों को बता रहे हैं। इस कार्य के लिए आप क्या कर रहे हैं? समर्पण की अवस्था आ गई है। उदाहरणार्थ आपको कोई समस्या है, जैसे आपके पास छट्टी नहीं है और आप पूजा पर आना चाहते हैं। पूजा पर यदि आप आना चाहते हैं तो बस आ जाइए। आपको न केवल नौकरी मिलेगी, उन्नति भी मिल जाएगी। परन्तु आपको तो अपने उत्थान पर विश्वास ही नहीं है। आप विश्वास नहीं करते कि परमात्मा ने आपको चुना है। अब हम हैं कहाँ? हमी लोगों (सहजयोगियों) को सभी शक्तियां प्रदान की गई हैं। हम आशीर्वादित हुए हैं पर हम इनका उपयोग नहीं करना चाहते। यह भी नहीं जानना चाहते कि हमें कौन सी शक्तियां मिली हैं। हम अपने बच्चों के लिए चिन्तित हैं, हमें चिन्ता है कि कौन सी साड़ी पहनेंगे या हमें चिन्ता है कि कौन अगआ है और अगआओं के विषय में हमें क्या करना चाहिए। इन बातों से हमें कोई लाभ न होगा। इसके लिए आप यहां नहीं है। समझने का प्रयत्न करें कि यहां आप आत्मा बनने तथा फिर आत्मा का प्रकाश फैलाने के लिए हैं। कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। एक बार जब आप ऐसा करने लगेंगे तो आप आश्चर्य चकित रह जायेंगे कि विश्वास कार्य करता है। यह अन्ध विश्वास नहीं है। मझे बताने की आपको कोई आवश्यकता नहीं, बस यह ( विश्वास) कार्य करता है । योड़े दिनों में ही आपको यह सफलता मिल जाएगी जिसके पीछे आप भटक रहे थे। आप अनावश्यक भौतिक वस्तएं पा भी लें। पर एक प्रश्न बना रहता है। मान लो कोई व्यक्ति सहजयोग को अपना जीवन समर्पण करना चाहता है। तो आप क्या करते हैं? समर्पण करके आप क्या करते हैं? आपका विश्वास सर्वोपरि है। आपको ज्ञान होना चाहिए कि किसी चीज़ में आपका विश्वास कैसा है। आप इसमें वास्तव में विश्वास करते हैं या नहीं। यदि आप इसमें विश्वास करते हैं तो इसके लिए ज कारण है। आत्म विश्वास ऐसी शक्ति है। इस बात को आप जानते हैं। आपने मेरे फोटो देखे हैं और उनके विषय में आप विश्वस्त हैं। विश्वस्त होने की कोई बात नहीं, पर आपके हृदय में भह विश्वास अस्तित्व नहीं बना। ठीक है, श्री माता जी इस कार्य को करेंगी, उस समस्या को सुलझाएंगी। परन्तु अब मुझे लगता है कि मुझे साफ-साफ बताना होगा कि आपको तपस्या करनी होगी। किसी से पुषछिए क्या आप ध्यान करते हैं? नहीं श्री माता जी। तो यहां आप क्या कर रहे हैं। मेरे घुटनों में दर्द है इसलिए मैं आपके पास आया हूँ। परन्तु मैं ध्यान नहीं करता। मैं अत्यन्त ईमानदार हूँ। पर हानि किसकी है? मेरी हानि नहीं है, मुझे सहजयोग की आवश्यकता नहीं है। आपके सहजयोग के लिए मैं इतनी तपस्या कर रही हूँ। क्या आप भी इसके लिए कुछ तपस्या कर रहे हैं? आपको आत्म साक्षात्कार मिल गया है। अब आपको आन्तरिक ज्ञान है तथा परमात्मा से अपने सम्बन्ध की भी समझ आ गई है। आप यह सब जानते हैं। फिर भी आपके हृदय तथा शुद्ध इच्छा में गहनता नहीं है। स्वयं को धोखा देने का कोई लाभ नहीं । मैं किसी अन्य के लिए ये बातें नहीं कह रही हैं। आप सब को कह रही हैं। स्वयं को धोखा न दें। महान लक्ष्य के लिए आप यहां हैं। और यह लथ है स्वयं को सुधार कर, मूर्खतापूर्ण एवं विध्वंसक शक्तियों से अपने मस्तिष्क को स्वतन्त्र करके, इस स्वतन्त्रता के बारे में सबसे दृढ़ नहीं है। यह बाहुय है, आपका 1 नवरात्रि पूजा 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-9.txt बनानी पड़ती। उन्होंने यह सब क्यों किया ? क्योंकि उन्हें स्वयं पर विश्वास था। उन्हें सर्वशक्तिमान परमात्मा पर विश्वास था। जो कुछ भी उन्होंने किया परमात्मा की इच्छा मान कर किया। यहीं सब मुझे करना है, बस। चिन्ता नहीं मुझे रावण का सामना करना पड़े या किसी अन्य का। बात करना तथा इसे चारों ओर फैलाना। मेरा दढ विश्वास है कि सहजयोगियों में कुछ ऐसा घटित होना है जिससे वे अनन्त निहित शक्ति, जो कि बाहर आने को आतुर हैं, के महत्व को समझ सकें तथा कार्यान्वित कर सकें। यह एक उत्तरदायित्व है, कोई अन्तर नहीं पड़ता चाहे आप यहूदी हों या ईसाई। यह सब बाह्य है। इनका ध्यान आपने किस लिए करना है। चेतना और उच्च जीवन के एक नये क्षेत्र में आप आ गए हैं जहां आपको अन्तरआत्मा का एवं अच्छे ब्रे का ज्ञान है। यह ज्ञान पा कर भी यदि आप विकसित नहीं होते तो किसे दोष देंगे? मैं सहजयोगी हैं, मुझे कोई चिन्ता नहीं। सहजयोग का प्रचार, आत्म-शुद्धि करना तथा आत्मज्ञान पाना मेरा कार्य है। यहीं मेरा कार्य है, यहीं मेरा कर्तव्य है और यह मुझे करना है। चिन्ता नहीं स्कूल में मझे प्रवेश मिले या न मिले। चिन्ता नहीं किसी को वाययान का टिकट मिले या न मिले। आप को यकीन नहीं होगा कि स्वयं पर विश्वास यदि आपको है तो जहां भी आप चाहेंगे आपको प्रवेश भी मिलेगा और टिकट भी। इन सब बातों के लिए आपको न तो संघर्ष करना पड़ेगा और न चिन्ता। मेरे जीवन पर यह घटित होता रहा। निःसन्देह मेरा विश्वास जिब्राल्टर की चट्टान की तरह दुढ़ है। मैं जानती हैँ कि मैं क्या हूँ और मुझे क्या करा है। मुझे कोई समस्या नहीं विश्वास के कारण से। मैं सब को जानती हूँ तथा सब को तुरन्त पहचान सकती हूँ। चाहे मैं कभी कभी इस बात को प्रकट न होने दें और कहूँ ठीक है. यह अच्छा है। परन्तु मैं बास्तव में जानती हूँ कि मैं क्या हूँ और मझे क्या करना है। अब हमें कलयुग का महत्व समझना है जिसमें आपकी सहायता करने के लिए, कोमलता से आपकी देखभाल करने के लिए तथा प्रेम पूर्वक आपको हर बात बताने के लिए आपकी मां अवतरित हुई हैं। वास्तव में प्रेम वश आपका कर्तव्य समझाने के लिए भी मैं एक मिनट से अधिक किसी से नाराज़ नहीं रह सकती। यह सभी बातें मैं आपको बताती रही कि आपके अन्दर आपकी अपनी शक्ति है जिसकी देखभाल तथा प्रशंसा आपने करनी है। इस कार्य के लिए आपके पास बहुत सी पुस्तकें हैं तथा इसे समझने की बहुत सी विधियां हैं। पर इस आन्तरिक ज्ञान के प्रति आपका रवैया इस प्रकार है: कि मुझमें सृजन करने का आन्तरिक ज्ञान है पर मैं ऐसा नहीं करता! ठीक है, मुझ में अन्तज्ञ्ञान है, मैं पी.एच.डी हूँ, परन्तु मैं पागल हँ। मैं जानती हैं कि सहजयोग में बहुत से लोग मानसिक रूप में समर्थ हैं। परन्तु सहजयोग का अनुसरण वे नहीं करते। अतः अब मैं आपको चेतावनी दे रही हैं। यह भी ऐसा ही है जैसे ईसा ने कहा है: कुछ अंकुरित बीज़ गली में गिर का सुख गए और नष्ट हो गए। अब हर समय निर्णय चल रहा है। इसी प्रकार आपको अपने विषय में जानना है क्योंकि आप भिन्न श्रेणियों के लोग हैं। आपको परमात्मा से या श्री माता जी से सुरक्षा नहीं चाहिए, आपको तो अन्य लोगों को सरक्षा प्रदान करनी हैं, उन्हें प्रकाश देना है तथा उनका मार्ग दर्शन करना है। इस लक्ष्य के लिए आप यहां है, घर प्राप्त करने या आयकर में छूट पाने के लिए आप यहां नहीं आये। इस सब मु्खता को आप भूला दें। फिर भी उन्हें यह छट आपको देनी ही होगी। मैं पर्णतया इसी प्रकार रहती हूँ। यात्रा करते हुए मैं कभी नहीं सोचती की मैं यात्रा कर रही हैं। में तो बस सोचती हूँ कि मैं यहां हूँ। हमें अपनी भाषा तथा शैली परिवर्तित करनी होगी। हमारी समझ यह होनी चाहिए कि हम कठोर व्यक्ति हैं. अपने प्रति हम कठोर है परन्तु दूसरों के प्रति हम करूण, कोमल तथा मधर हैं। एक बार तबादला होने पर हम एक घर में गए जहां सोने के लिए केवल पलंग था जिस पर मेरे पति सोए हुए थे। मैंने कहा ठीक है और चनौती स्वीकार करके मैं पृथ्वी पर सो गई। अगले दिन मेरे शरीर में दर्द था। मैंने शरीर से कहा कि सधर जाओ। पत्थरों पर सोना भी सीखो। और एक महीने तक फर्श पर सोई। आपको हर रात आपको ध्यान करना है और फिर सोचना है कि आज मैंने क्या किया, क्या प्राप्त किया? यहां सब कुछ व्यर्थ की बातों को महत्व देते हुए, समय के बन्धन में रह कर किया जाता है। वास्तव में तो आगने अपने विश्वास को बढ़ाना है। मैं सच्चे कार्य करूंगा जो दिवेकशील होंगे, दायीं ओर की यही पूजा है क्योंकि आप श्री राम और उनके धनुष की पूजा करते हैं। परन्तु इस अवतरण के बारे में सोचिए। एक विशेष ध्येय के लिए ये चौदह वर्ष के लिए जेल में गए। किसी अन्य के लिए एक वर्ष के लिए जाना भी कठिन कार्य होता। यह जेल नहीं थी, वे जंगल में गए थे, पर उनके लिए जेल सम थी। वे राजकमार थे पर रहने और सोने के लिए उनके पास घर न था। जहां भी वे जाते उन्हें अपनी कटिया 1. नैनन्य लहगी 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-10.txt लिए बड़ा तमाशा करते हैं। ऐसे लोगों को गोल- मटोल (हम्पटी-डम्पटी) कहते हैं। पर एक वास्तविक सहजयोगी कैसा होता है? उसकी शैलीः वह मात्र देखता है, साक्षी भाव से सब कुछ देखता है, आनन्द लेता है तथा सारी घटनाओं पर हँसता है यह - व्यक्ति इस प्रकार की बातें क्यों कर रहा हैं, इस तरह बोलने का क्या लाभ है? सहजयोगी एक रत्न होता है, उसे जहां भी आप ले जाएंगे लोग कहेंगे कि यह रत्न है। मैं स्वयं जब किसी सहजयोगी को देखती हैं तो तरन्त अन्तरध्यान हो जाती हूँ। और फिर उस व्यक्ति को भिन्न परिपेक्ष तथा सझ-बझ से देखती हैं। क्योंकि ये सारी शक्तियां आप में भी हैं, यह केवल मेरी शक्ति ही नहीं। आपमें और मुझमें मात्र इतना अन्तर है कि मुझे स्वयं में पूर्ण विश्वास है और आप को अपने शरीर के प्रति कठोर होना चाहिए और अपने मस्तिष्क के प्रति भी क्योंकि यही आपको भौतिकता के विचार देता है तथा आपका आध्यात्मिक विकास बाधित करता है। लोग नये पलायन खोजते हैं। शरीर तथा मस्तिष्क के प्रति इस प्रकार के दृष्टिकोण रखने से आप उस अन्तिम बिन्द तक पहुंच जाएंगे जहां भौतिक तथा बौद्धिक जीवन के या एक प्रकार के आध्यात्मिक जीवन आदि के बारे में नहीं सोचेंगे। पर आप सोचेंगे कि ठीक है अब मैं इससे मुक्त हैँ। और आपको मुक्त व्यक्ति बन कर स्वतन्त्रता पर्वक कार्य करना है। ऐसी अवस्था को यदि पा लें तो आप बैठ कर उस स्थिति में रह सकते हैं। किस प्रकार हम विश्वास करें, क्या प्रमाण है कि हम उस अवस्था में पहुंच गए हैं? आपको यह दश्शाना है। सहजयोग में एक धारणा है कि फलां व्यक्ति बहुत वरिष्ठ सहजयोगी है। मेरी समझ में नहीं आता कि क्या है? सहजयोग में वरिष्ठता कैसे हो सकती है? यह वरिष्ठता नहीं हो सकती। मान लो एक व्यक्ति समद्र में घुसता है, वहां किनारे पर डर के कारण पृथ्वी से चिपके बहुत से लोग युगों से खड़े हैं। परन्तु कल आए कुछ अन्य लोग समुद्र में कद रहे हैं और तैर कर आनन्द उठा रहे हैं। तो किनारे पर यगों से खड़े लोग वरिष्ठ किस प्रकार हो सकते हैं? सहजयोग में यह वरिष्ठता आदि कुछ नहीं है। स्वयं पर विश्वास नहीं है हम एक चौराहे पर खड़े हैं जहां हमने समझना है कि कौन उत्थान को प्राप्त करेगा तथा कौन पतन को। आपको खोजना होगा कि कौन कुछ प्राप्त कर पाएगा। उस व्यक्ति के मकाबले में मैं कहां हूँ? कहा गया है कि आप को कष्ट उठाने पड़ेंगे, ऐसा करना पड़ेगा। पर परमात्मा की कृपा से अब ऐसा कुछ नहीं है। यह क्या है, सहजयोगी को क्या होगा? पर आप कैसे जान पाएंगे कि कौन सहजयोगी है। आप कैसे जान पाएंगे कि कौन केवल जबानी जमा खर्च कर रहा है? एक ही तरीका है कि आप विकसित हों, शीशे की तरह बने और स्वयं देखें कि दूसरा व्यक्ति कैसा है और यह भी देखें कि आप स्वयं क्या हैं। आज का भाषण आपको यह बताने के लिए है कि आज जो भी कुछ हमने किया है वह हमारे अपने जीवन के मूल्य को समझने के लिए है। हमें समझना चाहिए कि हम इस पृथ्वी पर क्यों आये, हमारा लक्ष्य क्या है तथा हमें प्राप्त क्या करना है। । एक अन्य चीज, जिसके हम शिकार हैं, वह है "श्री माता जी ने ऐसा कहा।" कोई भी कहेगा कि श्री माताजी ने मुझे बुला कर ऐसा कहा। उन्होंने क्या कहा? ओह आप अत्यन्त महान सहजयोगी हैं, आप ये हैं, आप वो हैं। दो सम्भावनाएं हैं: एक तो यह कि मैं महामाया हूँ और आप को बेवकफ बनाने के लिए मैंने ऐसा कहा हो या हो सकता है कि मैंने उसे हवा दी हो ताकि वह सहजयोग में जम जाए। माँ ने कहा कि तुम इतने महान सहजयोगी हो, इतने सहज हो आदि। बड़े-बड़े शब्दों का वे प्रयोग करेंगे। सहजयोगी की स्थिति का निर्णय उसके दावों से नहीं होता उसकी उपलब्धियों से होता है। मैंने देखा है कि कुछ सहजयोगी बहुत ही हेकड़ हैं, वे अपने जैसा किसी को नहीं समझते। मैंने देखा है कि ऐसे घमण्डी लोग अपने को महान दिखाने के इसके साथ ही मैं हृदय से आपको आशीर्वाद देती हूँ। मैं चाहती हूँ कि परमात्मा की इच्छा के महान दीप बनने के लिए आप मेरे आशीर्र्वाद को स्वीकार करें। समझने का प्रयास करें कि कितने महत्वपूर्ण समय में हमारा जन्म हुआ और आप परमात्मा के इतने सुन्दर व्यक्ति बनें परमात्मा आपको धन्य करें। तबरगत्रि पुजा 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-11.txt दिवाली पूजा रूस 12, नवम्बर 1993 देवी लक्ष्मी की पूजा करनें विश्वभर से रूस में आये इतने दूसरों के हित के लिए उपयोग करने में ही उसे प्रसन्नता सारे लोगों को देख कर प्रसन्नता हुई। बौद्धिक रूप से जब आप सारी चीजों को नहीं समझा सकते, जिस बात को आप शब्दों से या तर्क से नहीं कह सकते तो उसे कहने के लिए तथा अन्त्भिव्यक्ति करने के लिए आपको कला तथा प्रतीकों की शरण लेनी पड़ती है। कलाकार तथा कवि.यही करते हैं; अपनी कल्पना को वे उस कदर फैलाते हैं कि प्रतीकों का सृजन कर डालते हैं। परन्तु सीमितत मस्तिष्क के कारण वे एक सीमा तक ही जा सकते हैं और यदि यह सृष्टि सत्य और वास्तविकता सिद्ध न हो तो कुछ समय पश्चात इसका पतन हो जाता है। पर्ण रेखांकीय गति-विधि नीचे आ जाती है तथा इसका पतन हो जाता है। हर क्षेत्र में हमें ऐसा देखने को मिलता है, विशेष कर आजकल जब कि सभी महान चीज़ों का हस हो गया है। परन्तु आत्म साक्षात्कार पाने के बाद जब आप आत्मा बन जाते हैं तो आपकी कल्पना बास्तविकता को छ लेती है। तब विकृत तथा मिथ्या-निरूपित प्रतीक छट जाते हैं और आप प्रतीकों की वास्तविकता को छ लेते हैं। हर जगह यही घटित हुआ। उदाहरणार्थ भारत में पैभव की देवी लक्ष्मी सन्तों और पैगम्बरों ने वास्तविकता में लक्ष्मी के प्रतीक का वर्णन किया परन्तु बाद में लोग इस प्रतीक तथा इसमें छिपी वास्तविकता को न समझ सके तथा सोचा कि लक्ष्मी धन, वैभव, सोना, चांदी और हीरे ही है और वे धन की पूजा करने लगे। इस प्रकार वैभव का प्रतीक देवी लक्ष्मी विकृत हो गया। लोग समझ नहीं पाते की जब उन्हें धन प्राप्त हो जाता है तो वे गलत कार्य क्यों करने लग ज़ाते हैं। लक्ष्मी का प्रतीक अत्यन्त भिन्न है। सर्वप्रथम, जिसके पास लक्ष्मी है उसे माँ सम होना चाहिए, माँ की तरह से ही उसमें बच्चों के प्रति को भी शरण देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि लक्ष्मीपति प्रेम होना आवश्यक है। उसे स्त्री सम होना है. और स्त्री अत्यन्त उच्चता का प्रतीक है। माँ सारी शक्तियों का स्त्रोत है। उसमें धैर्य है, प्रेम और करूणा है। करुणाविहीन धनवान व्यक्ति कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकता। अपना धन प्राप्त हो सकती है। आज के विकसित देशों के साथ क्या हुआ? अपने धन से वे स्वयं को ही नष्ट करने में जुट गये हैं । अपने क्रोध, कामुक्ता तथा लोलुपता को अभिव्यक्त करने में उन्होंने अपना सारा धन लगा दिया। यह दर्शने में कि वे बहुत व्यक्तिवादी हैं, उन्होंने अपना सारा धन बर्बाद कर डाला। जैसे अमेरिका में मैं एक वैभवशाली व्यक्ति से मिली, जब मैं उसकी कार तक पहुँची तो उसने बताया कि कार के दरवाजों के हैंडल दूसरी ओर को खुलते हैं। तो मैने कहा इसका क्या लाभ है। कोई भी व्यक्ति कार में फंस जाएगा। उसने कहा ये मेरा व्यक्तित्व है, मेरी योग्यता है जिसने यह असमान्य चीज बनाई। जब मैं उसके घर गई तो उसने बताया कि सावधान रहें, यह गुसलखाना बहुत विशेष है। यह बटन यदि आप दबाएंगी तो उछलकर तरणताल में जा मिलेंगी। मैंने कहा कि मैं इस गुसलखाने में नहीं जा सकती। तब उसने अपना शयन कक्ष दिखाया, यदि आप यह बटन दबायेंगी तो आपका सिर ऊँचा हो जाएगा। मैंने कहा कि मैं सारी रात इस तरह की बर्जिश नहीं करना चाहती, मैं तो पृथ्वी पर ही सो जाऊँगी लोग सोचते हैं कि अमेरिका या योरोप के वैभवशाली कहलाने वाले लोग बहुत प्रसन्न हैं। परन्त् वे प्रसन्न नहीं हैं क्योंकि उनमें विवेक नहीं है। वे पैसे को इस तरह से बर्बाद करते रहते हैं। इन लोगों के पास इतना धन था कि वे समझ न पाए कि इसका क्या करें। अब उन्होंने सोचा की यह प्रयाप्त नहीं है, हमें और आगे खोज करनी है। तब वे नशे तथा सब प्रकार की ब्री चीजें लेने लगे। लक्ष्मीतत्व ऐसा ही है। वे एक माँ हैं ओर उनके दो हाथों में गलाबी रंग के कमल हैं। कमल का फूल अपने अन्दर काले-कंटीले भवरे का परिवार कमलसम सुन्दर तथा सबका स्वागत करने वाला होना चाहिए। भंवरा कमल की सुन्दर कलियों पर रात को शयन करता है और कमल उसे ठंड से बचाने के लिए अपनी कलियाँ बंद कर लेता है। आवश्यक नहीं कि चैतन्य लहरी ৪ 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-12.txt एक वैभवशाली व्यक्ति लक्ष्मीपति हो या उसे लक्ष्मी जी का आर्शीवाद प्राप्त हो। परन्तु एक विवेकशील वैभवशाली व्यक्ति को लक्ष्मीजी की आशीष प्राप्त होती है। जैसे कमल अपने अन्दर अतिथियों के आने के लिए तथा उनकी देखभाल करने को उत्सुक रहता है इसी प्रकार एक वैभवशाली व्यक्ति को भी अतिथिसत्कार करने को उत्सुक रहना चाहिए। हैरानी की बात है कि वैभवशाली कहलाने वाले सारे राष्ट्र पराश्रयी हैं। उन्होंने अन्य देशों को लटा और अपने साम्राज्य बनाये। जैसे भारत में तीन सौ सालों तक अंग्रेज हमारे अतिथि थे। बिना किसी आज्ञा के यहां आ गये। परन्तु अब यदि किसी भारतीय को इग्लैंड जाना हो तो यह बहुत कठिन कार्य है। जो लोग वहाँ जाते हैं उनसे भी समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। अमेरिका में भी ऐसा ही है। परमात्मा का धन्यवाद, कि कोलम्बस, जो की भारत आ रहा था, उसे श्री हनुमान जी अमेरिका ले गये., नहीं तो सारे भारतीय समाप्त हो जाते। बहुत से लोग आत्मा बन चुके हैं परन्त आप अपनी स्थिति के प्रति चेतन नहीं है, इसके प्रति आपको चेतन होना है। दसरे हाथ से श्री लक्ष्मीजी उन लोगों को सुरक्षा प्रदान करती है जो उनके लिए कार्य करते हैं तथा उनकी पूजा करते हैं । हर वैभवशाली व्यक्ति को चाहिए की अपने आश्रितों को सुरक्षा प्रदान करें। हम अब एक ऐसे क्षेत्र में उत्थित हो गये हैं जहां हमारे मष्तिष्क में कोई धर्मान्धता नहीं है, परन्तु हम सभी महान अवतरणों, सन्तों और पैगम्बरों की पूजा करते हैं। उनमें से अधिकतर के पास धन न था परन्तु वे आत्म संतुष्ट थे। लक्ष्मीजी की यह विशेषता है कि वे सन्तोष प्रदान करती हैं। आप जानते हैं कि अर्थशास्त्र के अनुसार प्रायः इच्छा ओं की पूर्ती नहीं होती। कौन सी ऐसी इच्छा है जिसकी पूर्ती हो सकती है? यह शुद्ध इच्छा है. जो की कण्डलिरनी है। जब आप पुर्णंतया संतष्ट हो जाते हैं और जान जाते हैं कि धन सत्ता और अन्य मुर्खता-पुर्ण चीजों के पीछे भागने का कोई लाभ नहीं तब आप के अन्दर महालक्ष्मी तत्व जागृत हो जाता है। यह महालक्ष्मी तत्व आपको जिज्ञासा प्रदान करता है। तब आप एक विशेष श्रेणीं के लोग बन जाते हैं जिन्हें चिलियम ब्लेक ने परमात्मा के पुरुष कहा है। तब आप में बचपन के, राष्ट्रीयता के या बाहा-धर्मों के बन्धन नहीं रह जाते। आप का उत्थान होता है और आप आत्मा बन जाते हैं। इस समय आप अपने अन्दर के लक्ष्मी तत्व को समझते हैं। लक्ष्मी तल्व यह है कि दसरों के लिए कार्य करने में आप आनन्द प्राप्त करें। सामूहिक चेतना में आप अन्य लोगों के लिए कार्य करना चाहते हैं। अभी तक भी यदि आप अपनी -सुविधा, धन्नाजन और यश के लिए चिंतित हैं तो आप उन्होने बहां पर सारे लाल भारतीयों को मार डाला, उनकी सारी जमीन हथिया ली और अब वे स्वयं को वैभवशाली कहते हैं। जो अपराध उन्होंने किये हैं उसका दण्ड उन्हें भगतना होगा। अधिक धन कमानें की योग्यता के आधार पर स्वयं को उच्च-जाति कहने वाले अन्य लोग भी हमें देख सकते हैं। उन्होंने लोगों को गैस-कक्षों में मरवा दिया और इस तरह के अन्य अपराध किये। क्या यही उच्चता की निशानी है? ईसा यदि उच्च व्यक्तित्व के प्रतीक हैं तो उनकी क्या विशेषताएं हैं। वे श्रेष्ठ पुरुष थे, चरित्र, क्षमा, उदारता और गरिमा का जहाँ तक सम्बन्ध है उनका महानतम व्यक्तित्व था। उन्हें लक्ष्मीजी का आर्शीवाद प्राप्त था। वे आत्म-सन्तुष्ट थे कोई गलत कार्य वे न करते थे । कोई उन्हें खरीद नहीं सकता था । सुख असन्तुलित हैं। लक्ष्मीजी कमल पर बड़े सन्तलित ढंग से खड़ी हैं। वह यह नहीं दश्शाती की बह बैभव की देवी हैं। स्वयं से वे संतुष्ट हैं। यदि आप असंतुष्ट हैं तो इसका अर्थ है कि आपने स्वयं को नहीं जाना। आप आधे-अधरे सहजयोगी हैं। सहजयोगी आत्मसंतुष्ट व्यक्ति होते हैं। क्योंकि महजयोगी की आत्मा ही पूर्ण ज्ञान, आनन्द और उसके चत्त प्रकाश का स्रोत होती है। आनंद, प्रसन्नता या अप्रसन्नता नहीं है। प्रसन्तता हैं सहजयोग में आने के उपरान्त यह जानना आवश्यक है कि आप पर लक्ष्मी जी की कुपा हैं। वे एक हाथ से देती हैं। देना उनका स्वभाव है जैसे यदि केवल एक द्वार खुला हो तो हवा नहीं आती, परन्तु दूसरा द्वार भी आप खोल दें तो हवा बहने लगती है। सन्तुष्ट रहना सहजयोगी की एक विशेषता है। कृुछ सहजयोगी बहुत से चमत्कार चाहते हैं. यह ठीक नहीं । आपका दृष्टिकोण यह होना चाहिए की अब आप आत्मा हैं और आत्मा शरीर और मन के सुख की चिंता नहीं करती, यह तो आत्मा का सख चाहती है। आप में से या अप्रसन्नता तो अहम् पर निर्भर है परन्त आनंद अपने आप में पुर्ण है। आत्म-साक्षात्कार के बाद आप धन आदि की चिंता नहीं करते। आपके पास यदि धन है तो भी ठीक और यदि नहीं हैं तो भी ठीक। आप पुर्णतया निर्लिप्त हैं । दिवाली पूजा 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-13.txt अन्त में मैं आपको श्री राम की पत्नी श्री सीता जी के पिता की कहानी सनाऊँगी। छः हजार वर्ष पूर्व वे एक राजा थे। राजाओं के सारे बस्त्र, आभूषण उन्हें धारण करने पड़ते थे। परन्त उस समय के सारे संत उनके चरण र्पर्श किया करते थे। एक बार एक अन्य गुरू के शिष्य नचिकेता ने पुछा कि आप लोग इनके पैर क्यों छते हैं? ये तो राजा के समान रहते हैं। गुरू ने कहा कि तम इनके बारे में नहीं जानते। यदि उन्हें तुम पर दया आ जाए तो वे तुम्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं। नचिकेता राजा जनक के पास गये और उनसे आत्मसाक्षात्कार की याचना की। राजा जनक ने कहा की मुझे दुःख है कि मैं तम्हें आत्मा साक्षात्कार नहीं दे सकता। तम मेरा सारा राज्य ले लो पर में तम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता क्योंकि अभी तक तुम्हारा व्यक्तित्व इतना विकसित नहीं हुआ है। नचिकेता बहुत निराश हए और कहने लगे मैं तब तक प्रतीक्षा करूँगा जब तक आप मेरी परीक्षा लेकर यह नहीं जान लेते कि मैं आत्मसाक्षात्कार के योग्य हैँ। राजा जनक ने कहा, ठीक है, आओ चलें नदी में स्नान करें। जब वे नदी में स्नान कर रहे थे तो नौकरों ने आकर सचित किया कि महल में आग लग गयी हैं पर राजा जनक ध्यान करते रहे। योड़ी देर बाद नौकर फिर आये और कहा कि अग्नि यहाँ तक फैल रही है और आपके बस्त्र भी जल जाएगे। पर राजा जनक ध्यान-मग्न रहे, परन्त नचिकेता ने उनके वरुच उठाए और दौड़ पड़े। तब उन्हें समझ आया की राजा जनक अपने धन, वैभव और परिवार से कितने निर्लिप्त थे । और वे स्वयं छोटी-छोटी चीजों के लिए कितने चिंतित। राजा जनक को इस तरह के कपड़े पहनने पड़ते थे क्योंकि वे एक राजा थे। तब नचिकेता ने स्वयं को राजा जनक के सम्मुख समर्पित कर दिया और आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। आपको अपने पूर्व-पुण्यों के कारण आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ है। परन्तु आपको इसका सम्मान करना है तथा जानना है कि आपको इतनी महान चीज़ मिली। आप समझ लें कि अब आप आत्मा हैं। आप विशेष लोग हैं। आप अपने देश, जाति, समाज तथा परिवार की समस्याओं का समाधान करेंगे। परे विश्व की समस्याओं का आप समाधान करेंगे। आप लोग ही पृथ्वी पर शान्ति लाएंगे। आप ही सुन्दर, दिव्य मानवों से परिपूर्ण एक नये विश्व का सृजन करेंगे । स्वयं पर विश्वास करें। यह विश्वास अत्यन्त द्रुतगति से कार्य करता है। यह मिथ्या विश्वास नहीं, यह सत्य है। सहजयोग में विकसित हों, बौने न बनें रहें। अब आप लक्ष्मी जी का आशीष मांग रहे हैं। सर्व प्रथम अपको सन्तोष मांगना चाहिए और फिर उदारता। लक्ष्मी से आशीर्वादित व्यक्ति कभी कंजस नहीं हो सकता। आप जानते हैं कि आपके कोई कम शेष नहीं रहे। सब कर्म 1. समाप्त हो गए तथा अब आप अति सुन्दर नये मानव हैं। बसन्त काल आ गया है, अपनी परेशानियों तथा कष्टों की ओर चित्त न दें । नि:सन्देह चीजें सधरेंगी। कोई मझे कह रहा था कि उसके घुटनों में दर्द है। मुझे लगा कि आपके दर्द को सोखने के कारण बहुत बार मेरे घुटनों में दर्द हो जाता है पर मैं इसके बारे सोचती ही नहीं। मैं कभी चिन्ता नहीं करती क्योंकि मुझे लगता है कि मेरा शरीर ठीक है। इस मशीन की तरह, यदि यह बिगड़ जाए तो इने ठीक कर लीजिए, बस। परन्तु हर समय यदि आप यही सोचते रहें कि यहां दर्द हो रहा है, वहां दर्द हो रहा है, मेरे पास इतना धन है, मुझे यह करना है, व्यापार करना है तो कुछ न होगा। अब हमें उच्च चेतना के क्षेत्र में रहना होगा। किसी श्रेष्ठ तथा सुन्दर चीज़ के बारे में बोलती ही चली जा सकती हैं। पर भाषण तो मात्र शब्द जाल (शब्द जालम) हैं। आपको मस्तिष्क से परे जाना होगा। मेरा यही स्वप्न है और बहुत से लोगों ने इसे साकार किया है। मैं सदैव आपकी हूँ, जहाँ भी आप चाहेंगे मैं आऊंगी। मेरा प्रेम, मेरी इच्छा से अधिक उन दिनों आत्म साक्षात्कार पाना तथा देना अत्यन्त दकर कार्य था। परन्त आजकल का समय विशेष है. बसन्त ऋत। इसे 'अन्तिम निर्णय', 'पनर्जन्म का समय" तथा करान में इसे कयामा कहा गया है। कहा गया है कि कवरों में से निकल कर लोग पनर्जन्म को प्राप्त करेंगे, पर कब्र में तो थोड़ी मी हड्ियों के सिवाय कछ भी नहीं बचता। डी, यह सारी मृत-आत्माएं मानव जन्म ले कर इस विशेष वंग में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करेंगी। है। परन्तु आप अपनी आत्मा से तथा अपने आत्म साक्षाल्कार से प्रेम करें। परमात्मा आप पर कपा करें। बैतन्य तहरी 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-14.txt श्री कृष्ण पूजा रुबेला, इटली 15, अगस्त 1993 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी जी का प्रवचन (सारांश) जीवन का आनन्द अनुभव करेंगे कई लौग इसी अनुभूति से गोकल और के वासी हो गए। तत्पश्चात उन्होंने सती दर्शन, पूतना वध तथा अन्य राक्षसों को मार कर यह प्रकट किया कि यदि कोई इस तरह के प्रफल्लित बालक को कष्ट पहुंचाएगा तो भगवान स्वयं उसकी रक्षा करेंगे और उन सभी कष्टकारी दृष्ट आत्माओं का विनाश करेंगे बाद में वह राजा बने। राजा बनने के बाद उन्होंने अपनी शक्ति को दूसरे ढंग से प्रयोग किया। सबसे पहिले उन्होंने अपने दुष्ट मामा कंस का संहार किया। उन्होंने राजा बनने से पूर्व भी बहुत से लोगों की हत्या की। इईसा मसीह तथा कई धरमांत्माओं का कहना था कि "क्षमा करो।" श्री कृष्ण क्षमाशीलता पर विश्वास नहीं रखते थे। केवल वे ही एक थे जो कहते थे कि "उन्हें सजा देनी है।" सजा देने वाला भी कोई प्राणी होना चाहिए। शिव इनसे बिल्कुल विपरीत थे। वह राक्षसों से प्यार करते थे तथा उन्हें आशीर्वाद देते थे। इसलिए कोई ऐसा कठोर और दृढ़ विचार और बुद्धि वाला व्यक्ति चाहिए था जो राक्षस को राक्षस समझ कर सहार करे। लेकिन हम श्री कृष्ण नहीं हैं हमें क्षमाशील होना है। जब एक बार हम क्षमा कर देते हैं तो हम अपना गुस्सा, बदले की भावना, श्री कृष्ण को समर्पण कर देते हैं। वह सब ग्रहण कर लेते हैं और यदि उचित समझते हैं तो धर्मात्मा को कष्ट देने वाले तथा धर्म को हानि पहुंचाने वाले प्राणी को सजा देते हैं। यह हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारे भीतर श्री कृष्ण एक अतिआवश्यक देवता हैं क्योंकि यह विष्णु हैं जो भवसागर अर्थात नाभि में विद्यमान हैं। यह हमारे भीतर धर्म को अंकरित करते हैं। जब आपको साक्षात्कार हुआ मैंने आपको नहीं बताया कि आप "यह करो" और यह मत करो"। यह और बह अच्छा नहीं है। आपने केवल इसलिए यह जाना क्योंकि आपके भीतर विष्णु जागृत हो गए थे यदि उन्हें जागृत किया जाए तो वह आपके भीतर प्रकाश उत्पन्न कर देते हैं जिससे आपकी अज्ञानता और अंधकार दूर हो जाता है और आप महसूस करने लगते हैं कि आप जो कर रहे थे वह विनाशकारी था और इस तरह से धर्म स्थापित हो जाता है। बेशक जो दस गुरू धरती पर आए उन्होंने धर्म की स्थापना की तथा धर्म के विषय में जानकारी दी। इस तरह से इन दस गुरूओं तथा श्री विष्णु ने मिल कर हमारे भीतर धर्म की स्थापना की। ध्यान देने योग्य है कि ईसा मसीह को भी इस विषण पर कहना पड़ा जब उन्होंने कहा : "आपकी आंखें अ..वत्र नहीं होनी चाहिएं।" श्री कृष्ण वह हैं जिन्होंने कहा है "जब-जब धर्म की हानि होती है मैं धरती पर आता हूँ।" उस समय बह उन सभी पापियों का नाश करते हैं जो धर्म को पतन की ओर ले जाने के लिए उत्तरदायी होते हैं। दूसरी बात उन्होंने कही थी कि "मैं संतों की सदा रक्षा करता हूँ तथा दानवों का, पिशाचों का तथा विनाशकों का संहार करता हूँ। विष्णु को हम धर्म का दाता मानते हैं। उनमें विद्यमान सभी गुण हमें महापुरूषों ने जो शिक्षा दी उसी क्षेत्र के लोग उससे विपरीत श्री कृष्ण में मिलते हैं जब वह श्री कृष्ण रूप में इस धरती कार्य करने लगे हैं। ईसा मसीह ने कहा "आपकी आंखें पर आए श्री राम के समय में यह सभी गुण प्रकट नहीं किए अपवित्र नहीं होनी चाहिए।" जहां तक आंखों का प्रश्न है जा सके। वृदावन तिं यह बहुत ही अचम्भे की बात है कि जिस क्षेत्र में इस विषय में ईसाई ही सबसे अधिक अपवित्र हैं। इस हिन्दू धर्म में कहा गया है कि सभी मनष्यों में एक ही आत्मा निवास करती है पर हिन्दू धरमांवलम्बी ही सबसे अधिक जात-पात को मानने लगे हैं तथा धर्म के नाम पर आपसी झगड़े करने लगे हैं। इस तरह महम्मद साहब हमेशा ही रहमत" सिखाते रहे। उन्होंने कभी भी शरीयत या वह रह श्री कृष्ण के जीवन का प्रथम आधा समय गोकल और वृंदावन में व्यतीत हुआ। जहां उन्होंने अपने चरित्र को सन्दर लीलाओं के रूप में प्रकट किया आप एक साक्षी बनें।" अब आप एक बालक की तरह, एक बालक के हर्ष और प्रमोद की तरह इस संसार को देखेंगे तो । उन्होंने कहा कि श्रीकृष्ण पुजा 11 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-15.txt प्रकट में वह कभी नहीं मान सकते कि अनैतिकता के यह सब परिणाम होते हैं। श्री कृष्ण की धरती पर नैतिकता की इतनी अवहेलना की जा रही है। बातें तो वहां नैतिकता स्वीकारने की होती हैं परन्तु वह नैतिकता कृत्रिम नैतिकता हैं जो कि ईसाईत्व, इस्लाम तथा हिन्दुत्व्र से बिलकुल भिन्न है। वह लोग मिथ्याचारों के आलोचक हैं वह बात किसी और व्यवहार प्रणाली की करते हैं और अपनाते किसी और को हैं। अमरीका में सभी कुछ खुले आम होता है, वहां कुछ भी नहीं छुपाते। उनका कहना है कि वह पाखंडों और मिथ्याचारों के विरुद्ध हैं। यह देश जो इतना वृहद, धनी सुन्दर और समूद्ध है वह इस भांति गर्त में जा रहा है कि मैं नहीं समझती कि इसका बिना सहजयोग अपनाए कैसे कल्याण होगा! सभी बराइयां नहीं कहीं जो आज मुस्लिम धर्म में पाई जा रही हैं। उन्होंने कभी भी मुस्लिम महिलाओं के लिए सिर या मुंह ढकने की बात नहीं कही परन्तु ऐसा हो रहा है। जब यह सब घटित होता है तो धर्म का झस होता है। जैसा की आप जानते हैं कि श्री कृष्ण का देश अमेरीका है और उन्होंने यहां पर राज्य किया। यह एक धनी देश है क्योंकि श्रीकृष्ण धन के देवता - कबेर हैं। उनका एक और है. गुण है। साथ नूत्य किया और अपनी शक्ति उन्हें स्थानान्तरित की। उनके द्वारा संचारित शक्ति अमेरिका में सबसे अधिक कार्य करती है परन्तु वह लोग इसे इससे बिलकल विपरीत समझने लगे है। यदि सहाम हसैन के साथ लड़ाई हुई तो अमेरीका वहां जा रहा है। कोरिया के साथ लड़ाई है तो अमेरीका वहां जा रहा है। जहां कहीं भी कोई समस्या होती है, अमेरीका वहां पहुंच जाता है। कोई उससे पूछे कि तम कोन हो? तम्हें क्या कष्ट है? अपने देश का ध्यान रखो ओर प्रसन्न रही। यहां तक कि संयक्त राष्ट्र संघ का गठन तथा चालन कार्य भी अमेराका के ही निर्देशों पर होता है। वास्तव में श्री कृष्ण की शिक्षा आज लुप्त हो रही है। जहां तक देशों में परस्पर विचार विनिमय तथा परस्पर 'संरचना" करना। उन्होंने गाय और गोपियों के धर्म एक और कार्य जो करता है वह है किसी साधारण प्राणी को अन्तर्दर्शी बनाना क्योंकि एक धर्मात्मा व्यक्ति सदा स्वभाव से ही अन्तर्दर्शी होता है। वह सही वस्तु को देखना पसंद करता है। वह गलत वस्तओं की ओर अपने मस्तिष्क को नहीं जाने देता। बह भले ही सहजयोगी न हो परन्तु कार्य करते समय बह अपने आप से ही पृछेगा कि वह सही है कि गलत। अमरीका के लोगों में इस शक्ति का सबध स्थापित करने की बात हो वह सही है परन्त जो सबसे बड़ी बराई वहां घटित हो रही है वह है धर्म तथा चरित्र की अवहेलना। बिना नैतिकता के जनतंत्र। अमरीका में नैतिकता की बात करना प्रचलन के बाहर की बात है। यदि कोई नैतिकता की बात करता भी है तो उसे समझना उनकी बद्धि से परे की बात है। यद्यपि आज उन्हें अपनी ही करनी की टीस कचीट रही है और बह अनुभव कर रहे हैं कि उनकेअनैतिक व्यवहार के कारण ही आज 65 अभिभावक परिवार ऐसी बिमारी के शिकार हो चुके हैं कि युवावस्था में ही उनकी किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इसके बावजूद भी वह सब कर रहे हैं और सोचते हैं कि यही ठीक है तथा उन्हें चिंता की जरूरत नहीं। सर्वथा लोप हो चुका है। यह अपने भीतर झांकने की चेष्टा भी नहीं करते बल्कि सदा यही कहते हैं कि इसमें बुराई क्या है? जो लोग इस तरह से अपनी मर्जी करते हैं वह अपने लिए कष्ट और परेशानियां ही पैदा करते हैं । यह आत्मद्शन ही है जो आपको जागृति प्रदान करता है, जो आपको बताता है कि यह गलत है, बाझ उपरी सतह पर है जबकि आपका अन्तःकरण आपके विवेक और नैतिक निरीक्षण से संचालित होता है लोग पूछते हैं कि मनुष्य अन्तःकरण क्या है? अन्तःकरण हमेशा के भीतर रहता है। परन्तु व्यक्ति को उसके लिए जागरूक रहना है। यह अन्तःकरण श्री पहले भी हमारे भीतर है। महालक्ष्मी की प्रेरणा से ही कंडलिनी सुषम्ना नाड़ी से हमारे भीतर जागृत होती है। यह श्री कृष्ण की शक्ति है। अपने अन्तःकरण की आवाज सुनकर ही आप अपने भीतर महालक्ष्मी के लिए सही रास्ता तैयार करते हैं । जब बात तर्क से परे की हो तो अन्तःकरण से पूछी जानी चाहिए। कृष्ण का प्रकाश है जो साक्षात्कार से अब उसकी सजा शुरू हो जाती है। कल्पना करें कि कोई मनष्य अनैतिक जीवन जीना आरंभ करता है और परिणामतः घातक बीमारी का शिकार हो जाता है। वह अनैतिक जीवन से उपजी बीमारियों के उपचार के हर तरीके ढुंढने का प्रयास करते हैं। अमेरीका की मेडीकल साइंस के लिए अनैतिक जीवन से उपजी बीमारियों के उपचार ढ़ंढ पाना बहत ही कठिन कार्य है। उनके लिए अनैतिक जीवन को बरा कहना ही बहुत कठिन कार्य है। जिस समय लोग दसरे देशों पर आक्रमण कर रहे थे और उन पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहे थे तब बैलन्य लहरी 12 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-16.txt अमरीका ही एक सा देश था जो अपनी सीमाओं से कभी बाहर साम्राज्य स्थापित करने नहीं गया | ऐसा न करने का क्या कारण था? कारण यह था कि उस समय कई महान व्यक्ति महान अन्तःकरण के साथ उस देश में पैदा हुए थे। उन्होंने उस देश को मार्ग दिखाया । कुकुत्यों के कारण तथा धर्म को जीवन का आधार न मानने उदाहरणतः जार्ज वाशिंगटन, अब्नाहम लिंकन आदि। और के कारण अब वे दण्ड भोग रहे हैं। वह सोचते थे कि धर्म उन्होंने इस बात की आज्ञा नहीं दी कि उनका देश दूसरे का मतलब अपनी स्वतंत्रता को मारना है। धर्म का प्रयोजन देशों को जीतने की महत्वाकांक्षा रखे। पहले वहां स्पेनिश है अपनी निजी जिंदगी को किन्हीं और हाथों में दे देना। गए और फिर दूसरों ने अनुकरण किया। उन्होंने उस देश इसलिए अमरीका में धर्म को स्थापित करने के लिए हम को जीता और वहीं बस गए और फिर वह युग उनके लिए क्या कर सकते हैं? मैं अमरीका में रूस से दस बार अधिक समाप्त हो गया। फिर उन्होंने स्वतन्त्रता, प्रजातन्त्र, महान मूल्यों की बातें शुरू कर दीं। लेकिन उनके पिछले कार्य, जिस तरह से उन्होंने लाल भारतीयों की हत्या की, वह श्री कृष्ण द्वारा तब तक माफ नहीं किए जाएंगे जब तक कि रजनीश जैसे लोग उनके अहम को प्रोत्साहित करे तो वह वह सहजयोग को नहीं अपनाते। यद्यपि उन्होंने किसी देश पर प्रभुत्व जमाने और अपना साम्राज्य फैलाने की कोशिश नहीं की। वह हमेशा न्याय के लिए खड़ से यह दिखाने की.कोशिश की कि वह विश्व को एक सूत्र में बांध रहे हैं। वह रंगभेद और रूढ़िवाद केविरुद्ध हैं। एक तरह का आदर्शवाद उन्होंने फैलाया। मगर इसके बावजूद आत्म-विनाश के विचार उनमें कार्य करने लगे मैं यह कहुंगी कि यह कुछ नहीं है केवल उनके कर्म ही उनके विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। अहिंसा बहां कितनी प्रबल है! कोई मार्गदर्शन नहीं है। वह लोग भी उत्तरी अमरीका के ही कितनी बीमारियां आदि हैं! यह बात ध्यान योग्य है कि अमरीका में यह कठिनाइयां इस समय पैदा हुईं क्योंकि बोलबाला है। वह रंगरलियां मनाते हैं। उनके लिये रिओ में उनका भंडा फोड़ होने वाला है। बहुत से झूठे गुरू वहां गए और उन्होंने उन भोले-भाले सीधे लोगों को, जो सच्चाई को बरी है कि उन्हें यह स्पष्ट करना आसान नहीं है कि वह इस खोज रहे थे, अपनाया। वहां के वातावरण में उन लोगों का अभिशाप भी कार्य कर रहा है जिनकी हत्या उन्होंने की । यह इन्हें गलत की ओर प्रेरित करता है। जहां तक उनका व्यक्तिगत जीवन है उसमें वह गलत चीज क्यों अपनाने राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं। वहां काला जाद बहुत है। कैथोलिक लगे उन्हें स्वतंत्रता दी गई परन्तु उन्होंने सोचा कि स्वतंत्रता अपना विनाश करने में है तथा अपनी जिंदगी में जो बहुत निर्धन हैं। इससे प्रकट होता है कि कुबेर भी उस झंझट पैदा करने में है। गलत विचार ने उनमें काम किया। यह गलत धारणाएं उनमें इकट्ठी हो गईं और लोग विनाशकारी चीजों को पसंद करने लगे। हालीवूड में बड़ी विनाशकारी शक्तियों ने अपने समूह बनाए हैं तथा लड़ाकू भीतर हैं, हमारे विशुद्धि चक्र में। हमें अपने बिशुद्धि चक्र संस्थाएं बनाई हैं जो प्रकट रूप से कहते हैं कि वह बूरे हैं, को सही रखना है। इसके दो पक्ष हैं दायी विश्द्धि हमें धर्म जैसे शैतान संगठन, वानव संगठन, चुड़ैल संगठन आदि। यह सब खुलेआम पंजीकृत संगठन हैं। वह सब इस सीमा लोग जो आक्रामक तरीके से बात करते हैं, जिससे दूसरों पर तक चले गए हैं कि उन्होंने यह सब सम्मिलित रूप से अपनाया है इसका कारण सजा है। इसीलिए अमरीका सहजयोग के लिए बहुत कठिन है। उनके लिए वास्तविक सहानुभूति किसी को रखनी चाहिए। अपने पूर्वजों के गई तथा वहां जाकर उन्हें ध्यान दिलाना चाहा कि वह अपना धर्म खो चुके हैं। परन्तु उन्हें यह बात कभी भी समझ नहीं आई क्योंकि वह लोग बहुत अहम्वादी हैं। यदि बहुत खुश हैं। यह काम उनके लिए कठिन है क्योंकि वह सजा के आधीन हैं। वह इस सजा से छुूटकारा पा सकते हैं। यदि वह सहजयोगी बन जाएं। सहजयोग से उनके भीतर धर्म जागृत होगा तथा उनकी सभी सजाएं और कारण समाप्त हो जायेंगे अमरीका को अन्य देशों से कहीं अधिक सहजयोग की आवश्यकता है। अमरीका से मेरा संबंध इसी कारण से है। दक्षिणी अमरीका भी एक ऐसा देश है जहां धर्म के लिये हुए उन्होंने ऊपर पदचिन्हों पर चल रहे हैं। उत्तरी अमरीका में मुर्खता का जाकर रंगरलियां मनाना बहुत बड़ी बात है। स्थिति इतनी सीमा तक क्यों जाते हैं। ब्राजील में खुले आम एक 13 वर्ष की लड़की को वैश्यावृति में ढकेल दिया जाता है। तस्करी खुले आम होती है। उनके चर्च वहां हैं। उनको धर्म क्या सिखलाएगा? वहां कई देश हैं । देश पर रुष्ट है। प्रायः निर्धन लोग धार्मिक होते हैं, लेकिन वहां ऐसा नहीं है। उन्हें यह समझना होगा कि उनकी समस्याएं उनके बताती है, इसे हम आक्रामक पक्ष भी कह सकते हैं। यह 13 श्रीकृष्ण पूजा 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-17.txt और प्रसन्नता पैदा कर सके। आप हरियाली पर अपनी दृष्टि रखने की चेष्टा करें, वह आपको शांति देगी तथा उनका रोब रहे, यह लोग दाई पक्षीय हैं जैसे नौकर यदि चोरी करता है और आप उसे बताते हैं। उस समय बह इतना असभ्य हो जाएगा कि आप हैरान होंगे कि उसने चोरी आपमें शांति प्रदान करने का गण विकसित हो जाएगा। की है फिर भी निडरता पूर्वक उलट कर जवाब देता है। दाई पक्षीय लोग पदां डाल सकते हैं और किसी भी बात को अपनी बातों से सही सिद्ध कर सकते हैं। यह वार्तालाप काफी आक्रामक और भड़कीला हो सकता है कि आप हैरान रह जाते हैं और आपको उस पर विश्वास करना पड़ जाता विशु्द्धि से प्रकट कर सकते हैं वह है व्यवहार कुशलता। है। इस तरह से हम साधारण मनुष्य इस तरह की बेमतलब बातों में लिप्त रहते हैं और बातों से ही उन्हें सिद्ध करने की दूसरी बनावटी। वास्तविक व्यवहार कुशलता के लिए न तो चेष्टा और उन्हें तोइते-मरोड़ते रहते हैं। लेकिन वह लोग यह कभी नहीं सोचते कि जो नुकसान आप पहुंचा चुके हैं पुस्तकें पढ़ने की। सभी कुछ स्वाभाविक ढंग से बड़ी उसे भुलाया नहीं जा सकता और आपकी इस तरह की बातों से तो श्री कृष्ण कुछ भी नहीं भूलेगा। जब आप अपनी चीजों को सिद्ध करते रहेंगे, तर्क करते रहेंगे तो आपको इतनी बड़ी क्रोध से दसरों को कायल करना व्यवहार कशलता नहीं है। सजा मिलेगी कि आपके लिए उससे उभरना कठिन हो अपनी अच्छाई, मीठी वाणी तथा क्षमा शील स्वभाव से जायेगा शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक हर तरीके से आप दंडित होंगे। दाई विशूद्धि पर हमें ऐसा स्वभाव, शैली संस्कृति एवं आचरण अपनाना होगा जिसमें श्री कृष्ण जी के माधर्य गण हो। हमें इतने मधर ढंग से बात करनी चाहिए कि सुनने वाले को लगे कि वह श्री कृष्ण की बाँस्री अमरीकी इस गण को अपनाने की चेष्टा करेंगे तथा एक को सुन रहा है। सहजयोगी की वाणी मधुर होनी चाहिए। - यह आक्रामक, व्यंग्यात्मक या किसी के दिल को दखाने बाली नहीं होनी चाहिए। दूसरे के दिल को दखाने वाला कोई उनके लिए कुछ करते रहते हैं परन्तु जब आप उनसे भी शब्द सही प्रकार की दाई विश्द्धि से कभी भी नहीं प्रतिकार में कुछ चाहे तो उनके लिए कठिन हो जाता है। निकल सकता। किसी भी प्रकार से किसी को दुखाना नहीं माध्र्य से आप किसी का शोषण नहीं कर रहे बल्कि माधर्य चाहिए। मैं सभी सहजयोगियों से आशा करूंगी कि वह श्री से आप किसी को उस स्तर तक ला रहे हैं जहां वह समझ कृष्ण जैसा वाणी माध्र्य प्राप्त करें क्योंकि उनकी विशुद्धि सके कि अच्छाई क्या है? जागृत हो चुकी है। आपके व्यवहार में से भाव हैं जिनके द्वारा आप अपना माधुर्य प्रकट कर सकते हैं। इटली के लोग अपने हाथों का बहुत प्रयोग करते हैं। हाथों का प्रयोग भी इस तरह से करें कि उससे माधुय झलके। रूस और पूर्वी भाग में मेरे प्रति उनका प्यार उनकी आंखों से देखा जा सकता था। हर चीज, चेहरा, आंखें, हाथ, अश्रु यह सब कुछ श्री कृष्ण से संबंधित है। आप अपने स्वभाव को तथा गुस्से को अपनी आंखों से दिखा सकते हैं। कई लोग अपनी आंखों का प्रयोग दूसरों को वश में करने तथा दूसरों हैं। आत्मा कभी अपराध नहीं करती। अपराध से हम साक्षी की भत्त्सना करने के लिए करते हैं। अपने स्वभाव में भी हमें मधुरता लानी है। यह शक्ति मधुरता तथा सुस्वरता में है। सम्पर्क इतना मधुर होना चाहिए कि वह एक अदभुत खुशी चाहते। उदाहरणार्थ कोई आदमी या औरत स्वभाव से जब आप दूसरों से बात करें तो उन्हें भी शांति देने की चेष्टा। करें। व्यक्ति अवश्य पिघलेगा। यदि आप उससे तर्क करेंगे, झगड़ा करेंगे तो द्रवित होने के स्थान पर वह भड़क उठेगा। दूसरी बात जो श्री कृष्ण में थी और जिसे हम अपनी दाई व्यवहार कुशलता दो प्रकार की है। एक वास्तविक तथा आपको कोई विशेष मानदंडों की जरूरत है और न ही मधुरता से कार्य करता है। यह केवल तभी संभव है जब आप क्रोध न करें हमें लोगों को पिघलाना है बुद्धि या दसरों को द्रवित करना व्यवहार कुशलता है। यह गुण श्री में थे। कुछ लोग इससे प्रभावित हुए और कुछ नहीं कृष्ण हुए। पर श्री कृष्ण ने इसे अपनी असफलता नहीं माना। यह तो दूसरे व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। मैं आशा करती हूं कि दूसरे से संबंध सुधारने का प्रयास करेंगे। वहां के लोग तब तक आपके साथ मित्र जैसा व्यवहार करते हैं जब तक आप । दक्षिणी अमरीका के लोग बिलकल सीधे-सीधे, भोलें तथा निर्धन हैं। परन्तु काला जादू वहां पैठ चुका वह इस चीज को अनुभव करने लगे हैं कि यह काला जादू है तथा उसके लिए अपने को अपराधी मानते हैं। उनके व्यवहार से झलकता है कि जैसे उन्होंने कुछ गलत किया है । वह नहीं जानते कि अपने को कैसे सही करें। हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम उनकी अपराध भावना को दूर करें। हम सभी सहजयोगी हैं। आखिरकार हम सभी एक आत्मा बहुत है। भाव खो देते हैं। हम नहीं सोच सकते कि गलत क्या है और हम अपनी भूलों और गलतियों का सामना नहीं करना चैतन्य लहरी 14 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-18.txt चाहिए कि आप भगवान के साम्राज्य में रह रहे हैं । श्री कृष्ण का मुख्य कार्य हमारे मस्तिष्क द्वारा होता है जो विराट है। शिव हमारे हृदय द्वारा कार्य करते हैं। आत्म साक्षात्कार होने पर मस्तिष्क सूक्ष्मता तथा ज्ञान प्रकट होने लगता है, उसकी अभिव्यक्ति होने लगती है। सबसे बड़ी चीज जो घटित होती है वह है कि आपका मस्तिष्क सुस्वस्थ हो जाता है। यह नहीं है कि आपका मस्तिष्क कुछ और चाहता है और आपका हृदय कुछ और। जब यह एकरुपता पैदा हो जाती है तो धार्मिक जीवन व्यतीत करना बहुत आसान हो जाता है। बिना कुछ पढे और सोचे आप सहज में ही धार्मिक बन जाते हैं क्योंकि आपका मस्तिष्क जो प्रायः तर्क के लिए, गलत को सही साबित करने में प्रयोग होता था अब धार्मिक तथा दैविक बन गया है। श्री ने सबसे बड़ी बात जो आप में पैदा की है वह है कि आपका मस्तिष्क अपने आप धारम्मिक बन गया है। यह धर्म को जानने का, धार्मिक जीवन व्यतीत करने का और धर्म पर दृढ़ता पूर्वक डटे रहने का एक साधन बन गया है। यह मस्तिष्क है जो काले जादू के प्रभाव से आपको वास्तव में दूर ले गया है। जब एक बार आपका सहस्रार खुल जाता है तो विराट प्रकट हो जाता है और आप अपने ऊपर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। जो हर चीज की सोच में उलझ रहा था, "यह खुशी है, यह मेरा अधिकार है" "मैंने यह किया बता सकता है।" और अचानक आप साधु बन जाते हैं। श्री कृष्ण का बहुत बड़ा आशीर्वाद यह है कि वे विराट हैं। विराट आपका मस्तिष्क है और भगवान सर्वशक्तिमान का मस्तिष्क भी विराट है। साक्षात्कार के बाद मनुष्य की कि बहुत निर्दयी है। वह समझ जाता है कि बह निर्दयी था और अपनी निर्दयता को बुरा मान कर वह त्याग देता है। परन्तु बह इस भावना का सामना नहीं करता। सामना करने का मतलब है कि वह जाने कि बह निर्दयी क्यों था और उसे निर्दयी नहीं होना चाहिए था और अब वह और निर्दयी नहीं बनेगा। रूस में इससे अलग है। वह कभी भी अपने को गलत नहीं कहते। वह कहते हैं कि समय व्यतीत हो गया है, अब हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं, जीवन का आनन्द उठाएं। वह अपने भूत काल की बात नहीं करते, वह कोई संबंध नहीं रखते। इससे ऊपर हैं। हमें चिंता किस बात की। वह अपनी समस्याओं आदि के बारे में कछ नहीं जानना चाहते बह जानते हैं कि उनकी समस्याएं सुलझ जायेंगी। वह अब आत्मा को समझ गए हैं। वह सहजयोग को समझने का बिलकुल सीधा रास्ता है। लेकिन मैंने ऐसे लोग देखे हैं जिन्होंने मेरे सामने दस पृष्ठ लिखकर अपने पाप स्वीकार किए हैं। पाप स्वीकार करने की कोई जरूरत नहीं और न ही अपनी गलतियों का अवलोकन करने की आज जो आपके पास है उसका आनन्द उठाएं। यह भिखारी की तरह है जिसे राजा बना दिया गया हो। उसे चाहिए कि राज्य भोगे और राजा की तरह आचरण करे। यदि वह आज भी अपने भूतकाल को याद रखे तो वह हर राह गुजर से भीख मागेगा ही कृष्ण " "मुझे कौन । आप जब एक बार भगवान के स. गज्य में आ जाए तो जान लें कि आप भगवान के साम्राज्य में हैं। लेकिन यह काले जादू का धंधा बहुत ही खतरनाक है तथा यह किसी के भी द्वारा आपके भीतर प्रवेश कर सकते है, आपके संबंधी या मित्र द्वारा। आपको बिल्कल सावधान रहना है आपको काले जादू के सम्मख दर्बल नहीं होना अपनी दोष भावना के कारण। यह आपको ब्बाद कर सकता। आपके परिवार को बर्बाद कर सकता है। आप सहजयोगी है तब भी यह आपको बर्बाद कर सकता है। आप कभी अपराध भाव के शिकार न हों। कोई आप में अपराध भावना भरे, कोई व्यक्ति आपको बुरा कहे तो भी। वह अपने विचार आप पर थोपता है जिससे आप सोचना शुरू कर देते हैं कि आपको यह करना चाहिए था, यह मैने गलत किया। यहीं से अपराध भाबना आरंभ हो जाती है। बावजूद उस व्यक्ति के लिए कुछ करने के या यह सोचने के कि यह सब बकवास है, बह बुरा अनुभव करने लगता है तथा अचानक ही अपने को किसी परेशानी से घिरा पाता है जो काले जाद से प्रभावित होती है। हर किसी को यह भूल जाना चाहिए। यह जानना प्रवृत्ति सृजनात्मक बन जाती है और यदि ऐसा नहीं होता तो आप सहजयोगी नहीं है। सृजनात्मकता तथा धार्मिकता को समझना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। मेरा मस्तिष्क कहां जा रहा है। या वह विपरीत जा रहा है और जो कुछ है उससे अलग बता रहा है। हमें इस पर केवल अपनी दष्टि रखनी है और हम यह देख कर अचम्भित रह जायेंगे कि आपके मस्तिष्क ने कैसे अपना रास्ता बदल लिया। यदि आप हर रोज ध्यान करें और अपनी ओर देखें कि आपके सहस्रार की अभिव्यक्ति आपके जीवन में कैसे व्याप्त हो कर कार्य कर रही है। यह आप बहुत आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। तब सहजयोगी की सारी शक्तियों की अभिव्यक्त हो जाएगी और आपको अपने ऊपर कोई संशय नहीं रह जाएगा और अन्य लोग भी आप पर सन्देह न कर सकेंगे। परमात्मा आपको आशीष दें। श्रीकष्णा पना 15 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-19.txt श्री गणेश पूजा कबेला, इटली 19, सितम्बर 1993 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी जी का प्रवचन (सारांश) मानव में वे (श्री गणेश) मंगलमयता, पवित्रता तथा अबोधिता के रूप में विद्यमान हैं। अबोधिता की शक्ति ऐसी पथ प्रदर्शक है। अज्ञानता तथा अबोधिता में अन्तर है। यदि आप अबोध हैं तो आपके लिए प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। बन्धन एवं अहँ रहित तथा-कथित अपरिपक्व व्यक्ति के लिए प्रेम ही महत्वपूर्ण है। यह हम सब यहां श्री गणेश की पूजा के लिए एकत्रित हुए हैं। श्री गणेश प्रथम देवता है जिनका आदि शक्ति ने सृजन किया। यह आवश्यक था कि सर्वप्रथम सिद्धवान्तों के देवता का सूजन हो। मानव स्तर तक आज तक जो भी सृजित हुआ है वह शक्ति की रोपण प्रक्रिया द्वारा हुआ। इसके बिना कुछ भी सुजन न हो पाता। द्रव्य को जब आप ध्यान से देखते हैं। तो कहते हैं: सल्फा-डाय-ओक्साइड और फिर सल्फा और ओक्साइड अण की सूक्ष्मता तक आप इसका अध्ययन करते हैं। सल्फर और ऑक्सीजन के इन अणूओं को देखने पर आप पाते हैं कि यह कण एक आवृत्ति के साथ दोलित होते हैं। तीन प्रकार की आवृत्ति प्रयोग की जाती है। वैभव, सत्ता या किसी अन्य चीज की चिन्ता नहीं करता। वह प्रेम को ही महसूस कर सकता है, किसी के शद्ध प्रेम को। अबोध व्यक्ति को प्रेम से लाभ उठाने की समझ नहीं होती। वह या तो प्राप्त करता है या देता है। बाकी बातों की उसे कोई समझ नहीं है। अबोधिता ही सारे धर्मों का आधार है। बिना अबोधिता के आप धमांनसरण नहीं कर सकते क्योंकि अबोधिता-विहीन अवस्था में यदि आप धार्मिक हैं तो यह बौद्धिक या अहँकार मय दृष्टिकोण हो सकता है, सोचें, कि पदार्थ के अण में एक शक्ति है जो कार्य करती है। कोई यह भी कह सकता है कि पदार्थ में शक्ति क्यों है? यदि पदार्थ में शक्ति नहीं थी तो सभी रासायनिक मिश्रण आप कैसे बना पाए? कौन इन्हें धकेलता है? कहिए सोडियम क्लोराइड। सोडियम और क्लोराइड परस्पर जुड़े है परन्तु जब क्लोराइड को किसी अन्य परमाणु में जाना पड़ता है तो कौन यह कार्य करता है? यहां अवश्य ही कोई शक्ति है जो पदार्थ में पहले से ही पुर्णतः विद्यमान रहती है। हम जानते हैं कि पानी में एक शाकिति है परन्त पत्थर में सोने में तथा जिन 2 पदार्थों में शक्ति है उन सब में तरलता क्यों नहीं? यह सब श्री गणेश के सिद्धान्तों से नियन्त्रित किए जाते हैं। इतना नन्हा सा बालक और काम कितने बड़े-बड़े हैं, उसके तथा कितने काम उसे करने पड़ते हैं। पदार्थों से ले कर सजीव पौधों में, पशुओं और फिर मनुष्यों में, सभी जगह उसकी शक्ति कार्य करती है। पदार्थों के स्तर तक हम इसे विद्युत चुम्बकीय कह सकते हैं। सम्भवतः यह गणेश जी की शक्ति हैं जो उस स्तर पर विद्युत चम्बकीय है जब यह बढ़ने तथा विकसित होने लगती है। इस प्रकार विकास के भिन्न स्तरों पर हमें ऊर्जा के भिन्न संस्तर मिलते हैं। किसी धर्म में पैदा होने या किसी के बताने पर भी ऐसा दृष्टिकोण हो सकता है। यह मात्र छिछला हो सकता है। अबोधिता के गुण से परिपूर्ण हुए बिना धर्ं अर्थहीन है। अबोध अवस्था में ही आप धार्मिक है। विचारों तथा परिणाम निकालने से आप ऊपर हैं। आप अधार्मिक नहीं हो सकते। जैसे कि सच्चारित्र ही अबोधिता की अभिव्य्याक्त हो। एक बार जब श्री गणेश जागृत हो जाते हैं तथा आप उनका सम्मान करने लगते हैं तो स्वतः ही नैतिकता विकसित हो जाती है। आज्ञा चक्र की पिछली ऑर को श्री गणेश प्रकाशित करते हैं तथा आगे ईसा मसीह जो कि श्री गणेश का ही अवतरण थे। पश्चिमी मस्तिष्क के लिए यह समझ पाना बहुत कंठिन है कि इंसा मसीह एक आत्मा थे। उन्होंने उनके विरुद्ध भयंकर वातें कहीं और उनकी आलोचना की। किसी भी तरह इंसा ने उन्हें क्षमा कर दिया। श्री गणेश के विषय में एक और बात है कि वह अपनी माता की पुजा करते हैं। मातृत्व बहुत ही महत्वपूर्ण है। चंतस्प लहगी 16 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-20.txt शुद्ध चित्त प्रदान करती है। आपका चित्त भी हर चीज संगीत कला आदि के लिए शुद्ध होना चाहिए। यह सब आपको निष्कपटता से प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ :- यदि कोई कलाकार बहुत धनलोलप हो तो उसकी कला शाश्वत नहीं हो सकती। तभी तो हम देखते हैं कि जो भी कला जन्म लेती है. वह आते ही लोप हो जाती है। उसका जीवन निरन्तर नहीं है। यही बात आधानिक संगीत के साथ है। क्योंकि उसके पीछे भी धन लोलपता है। परिणामतः यह पूर्ण कृति नहीं हो सकती। प्राचीन काल में जो कृतियाँ भगवान को समर्पित की गयीं, उन सबका आज भी सम्मान होता है। उस समय भले ही कलाकार संकट में रहा हो परन्तु वह भली भाति समझता था कि यदि उसे कोई अभिव्याक्ति करनी है तो इंमानदारी से करनी है। लोगों को प्रसन्न करने के लिए नहीं अपित परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए। सभी बास्तविक कलाकार सच्चाई के निए लड़ते आ रहे हैं। निष्कपटता आपको आत्म निरीक्षण की शवित भी प्रदान करती है। आप जानते हैं कि आप कहाँ खड़े हैं। एक निष्कपट प्राणी भली भांति जानता है कि वह नैतिकता के आधार पर खड़ा है। उसे बेंकार की उन सभी चीजों को नहीं अपनाना चाहिए जिनका फैशन और प्रचलन हो। हम किस. लिए अपनी निष्कपटता का बलदान कर रहे हैं? हमारा उद्देश्य क्या है? हो सकता है कुछ लाग बहुत होशिवार हो और वह उसका प्रदर्शन कर रहे हों। ऐसे लोगों का कोई सम्मान नहीं करता। लोगो की निष्कपटता पर बहुत बड़ा आक्रमण है। सब से पहले यह बच्चों पर आता है जैसे उन्हें गाली देना। यह केवल इसलिए कि वह निष्कपटता को समापत कर देना चाहते हैं। शायद जो लोग यह करते हैं उनमें निष्कपटता नहीं होती ै बह वच्चों में भी इसे रहने देना नहीं चाहते। यह बहुत प्रचलत और फैशन में आ रहा है तथा यह अवश्य ही निष्कणटता पर सीधा प्रहार है। यह केवल बच्चों पर ही नहीं बल्कि उन लोगों पर भी है जो निष्कपट हैं। जो जानबूझ कर हर प्रकार की अपराधवृति तथा पापवृति से ग्रस्त हैं वह कभी भी निष्कटता की रक्षा नहीं करेंगे क्योंकि वह सोचते हैं कि वह जो कर रहे हैं वही सब से बढ़िया है। अबोधिता पर कई तरीको से प्रहार हो रहे हैं। यदि आपके बच्चे सही ढंग से चल रहे हैं, ठीक तरह मे पढ़ रहे हैं तो कोई न कोई उन्हें काब में लाना चाहेगा यद कोई निष्कपट प्राणी हुआ तो उसे वह परेशानी में डालना चाहेंगे। निष्कपटता अपने आप में एक ऐसी शक्ति है जो पारिवारिक जीवन तथा समाज के मुख्य आधार के रूप में, महिलाओं, पुरुषों तथा बच्चों में भी, मातृत्व को स्वीकार करना होगा। मनुष्य के सामान्य जीवन में सीधे-सादे अबोध व्यक्ति मातृत्व की धुरी पर ही घूमते रहते हैं। परन्तु माताओं को माताएँ ही रहना है। श्री गणेश अपनी माता के प्रति पूर्ण समर्पित हैं और वह जानते हैं कि उनकी माता आदि शक्ति है। वह किसी और को नहीं जानते। सहजयोग में यह अति आवश्यक है। यहां जो अनैतिक लोग हैं और अनैतिक कार्य करते हैं, वह आदि शक्ति के विरुद्ध पाप कर रहे हैं। श्री गणेश के विरुद्ध पाप क्षम्य है परन्तु आदि शक्ति के विरुद्ध पाप करने पर अन्नतः श्री गणेश दण्डित करते हैं। आदि शक्ति किसी को दण्ड नहीं देती. देवता उन्हें दण्डित करते हैं । प्रथम और मुख्य बात यह समझे लेनी चाहिए कि निष्कपटता का सम्मान और उसकी भली प्रकार से देखभाल तथा पोषण और सुरक्षा होनी चाहिए। इसीलिए मैं बच्चों के विषय में सख्त हूँ। बच्चों का समाचार पत्रों में अनावरण नहीं होना चाहिए। विज्ञापनों आदि के लिए हमें बच्चों के फोटो न. े लेने चाहिए। छोटे-छोटे मा्गों से अपने बच्चों का प्रदर्शन करके पैसा कमाना एक बहुत ही गलत विचार है। इस प्रकार तो हम निष्कपटता बेच रहे हैं जो कि अमल्य है और जो बच्चों में दैवी रूप से विद्यमान है। मैं बहुत से ऐसे बच्चों को जानती हैं, जिन्हें विज्ञापित किगा गया और जो मर गए। हमें अपने बच्चों की देखभाल. बहुत सर्तकता से लोग करनी चाहिए लेकिन हम सीमाएं लांघ जाते हैं। कुछ अपने ही बच्चों की चिन्ता करते हैं और उन्हें यदि जरा सा भी कुछ हो जाए तो परे शान हो जाते हैं इसका तात्पर्य यह कि आप बच्चे का सम्मान इसलिए कर रहे हैं कि वह आपको अपना बच्चा है परन्तु यदि आप बच्चे का सम्मान इसलिए करते हैं कि वह निष्कपटता की प्रतिमूरति है तो आपको प्रत्येक बच्चे का सम्मान करना होगा तथा समझना होगा कि वह क्या बोलत हैं, वया बातें करते हैं और वह किस प्रकार के व्यवहार करते हैं। आप सौभाग्यशाली हैं कि आपके जन्मजात आत्म साक्षात्कारी बच्चे प्राप्त हुए हैं। यह एक बहुत बड़ी बात है, एक आश्शीवाद है। आपको उनकी निष्कपटता देखनी है। एक बच्चे के पिता को हस्पताल ले जाया गया। उसने बहुत निष्कपटता से कहा कि वहां ये कैसे स्वस्थ्य होंगे क्योंकि वहां तो कोई सहजयोगी नहीं है। वे उनके चक्रों को कैसे ठीक करेंगे? इन्हें मां के पास ले जाओ। बच्चे उचित कारण को देखते हैं क्योंकि अबोधिता उन्हें श्री गणेश पजा 17 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-21.txt गणेश-तत्व से संचारित होती है। पक्षी बहुत ही योजनाबद्ध, स्वच्छ और समझदार हैं परन्त वह कर्मकाण्डी नहीं है। भगवान ने जो कुछ भी उन्हें दिया है वह उसी में सीमित हैं और अपनी मर्यादा के भीतर ही रहते हैं यदि आप पशुओं की स्थिति को देखें, जो मनुष्यों के सम्पर्क में रहते हैं. बह भी बहुत स्नेही हैं। वह केवल स्नेह चाहते हैं। एक दिन यदि आप अपने कत्ते की ओर ध्यान न दें तो वह अपना खाना नहीं खाएगा। यह बात असाधारण है। मैंने बच्चों में देखा है कि कैसे वह मात्र प्यार चाहते हैं। वह प्यार के अतिरिक्त कोई वस्तु स्वीकार नहीं करते। लेकिन जैमे- 2 वह बड़े होने लगते हैं, विशेष कर भौतिक जगत में, तो सभी भौतिकवाद उनमें आ जाता है। बच्चों की निष्कपटता को समाप्त करने की दूसरी विधि है उनके मस्तिष्क में भौतिकवादी विचारधारा डालें। बेशक जन्म दिन पर टैडी बियर वेचना एक माध्यम है परन्तु अब हर कोई टैडी बियर खरीद रहा है क्योंकि अभिभावक वच्चों की संगति में रहना नहीं चाहते। वह उन्हें खिलौनों और टी.वी. का साथ दे देते हैं जिससे वह भौतिकवादी बनना आरम्भ हो जाते हैं। वह ऐसी चीज़ों के बारे में पूछना और इच्छा रखना आरम्भ कर देते हैं कि कोई भी चकित रह जाए। एक पश्चिमी बालक को आप बाजार ले जाएं औ एक भारतीय बालक को ले जाएं तो वह कोई भी चीज नहीं लेगा। उसे आप धन दें तो वह कोई छोटी सी चीज खरीद लेगा। यही भौतिकवाद की सारी परम्परा है जो निष्कपटता को समाप्ति पर ले आई है। तब बच्चा इसी भौतिकवादी परम्परा से लोगों के घृणा भाव और निन्दात्मक स्वभाव को ललकारती है। सर्वप्रथम हमें देखना है कि हमारे बन्धन किस प्रकार हमारी अबोधिता को काबू करते हैं। बन्धन आपको अत्यन्त कर्मकाण्डी बना देते हैं। सहजयोग में भी बहुत से लोग कर्मकाण्डी हैं। कर्मकाण्ड इस तरह का कि यदि आपको कोई बात तीन बार कहनी है तो आप तीन बार ही कहेंगे। लोग बहुत बन्धन युक्त हैं। कुछ सहजयोगी जो भूतबाधा ग्रस्त हैं, मुझ से कांपते हैं। मैं आप सब से प्रेम करती हैं। मुझ से अधिक नम्र गुरू कोई और आपको नहीं मिलेगा। यदि आप उन्हें देखें तो वह कभी मुस्कराएंगे नहीं, वह डर जाएंगे। आपने क्या गलती की है? आप सहजयोगी बन चुके हैं। बहुत ही कर्मकाण्डी हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कर्मकाण्ड और आचार संहिता में अन्तर जान लेना चाहिए। एक निष्कपट वालक आचार संहिता जानता है। . 1. निष्कपट बच्चों की पजा कर्मकाण्डी नहीं होती। यह हृदयगत होती हैं। कैसे पुजा करनी है, कैसे प्यार जताना है। जो प्राणी अति कर्मकाण्डी है वह दूसरे प्राणी को पीट भी सकता है। आपको इसमें काफर नहीं डालना था। खुल हृदय तथा अबोधिता से किये गये कार्य में कोई गलती नहीं होती। अब आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं जहां कोई और कानून कायदा नहीं है जिसमें कर्मकाण्ड की जरूरत पड़े। लेकिन हर काम के दो ढंग हैं। जब मैं कहती हैं कि कर्मकाण्डी न बने मैं एक आश्रम में गई और देखा कि वहाँ की हर वस्तु सुअरों के बाड़े की तरह पड़ी थी। आश्रम के नेताओं ने बताया कि सहजयोगियों में आश्रम की सफाई का विवेक नहीं है। यदि यह उनका घर हो तो यह देखभाल करें। और वहाँ रख कर देखें। लेकिन बढ़ना आरम्भ हो जाता है। अब वह लोगों को इस तरह आंकना शुरू करता है कि उसके पास कितनी कारें हैं। मैं बोस्टन गई और वहाँ दरदर्शन साक्षात्कारी ने मझ से पछा कि मेरे पास कितनी रोल्स-रोयल्स हैं? जब मैंने कहा कि एक भी नहीं तो उन्होंने कहा कि हमें आप में कोई दिलचस्पी नहीं क्योंकि आप व्यवसाय में नहीं है। पश्चिम में प्रौढ़ लोगों के यह दिमाग हैं। लेकिन बच्चों में भी भौतिक वस्तुओं के लिए होड़ लगी है। कुछ समय बाद वहाँ कैसी नस्ल होगी। जब केवल वस्तुओं के बेचने और खरीदने वाले ही होंगे? आपको अपने बच्चों के प्रति सजग रहना है। उन्हें उकसाएं नहीं और न ही उनके लिए अधिक चिन्तित रहें । उन्हें भौतिकवाद के स्तर पर मत रखें। इसके लिए कुछ हट कर कार्य करना पड़ सकता है। परन्त हमें अपने बच्चों की तथा उनकी निष्कपटता की रक्षा करनी है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि पक्षी साइबेरिया से आस्ट्रेलिया तक सभी मार्गों से जाते हैं। उनका मार्ग दर्शन कौन करता है? यह निष्कपटता है और निष्कपटता एक चुम्बक है। मनुष्यों में इसका इतना अधिक विकास हम नहीं पाते। वह जानते हैं कि पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण कौन से हैं। एक छोटी सी मक्खी भी उसी स्थान पर लौटती है जहाँ से बह आती है। मछलियों में भी दिशा ज्ञान है। लेकिन मनुष्य ही इसे भूल सकता है। आप यदि अपने कत्ते को पाँच मील दर छोड़ दें, तो भी वह बापिस आ जाएगा। वह कैसे रास्ता जानता है? उनमें जो यह गण निष्कपटता से बना है वही वास्तव में विद्युत-चुम्बकीय शक्ति है। और प्रेरणा, जिसका मतलब है कि यह विद्युत चुम्बकीय शक्ति 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-22.txt आसपास के समाज की तुलना में सहजयोगी कहीं अधिक अ्बोध हैं। इस तरह बास्तव में उस ढंग की प्रशंसा करनी पड़ती है जिससे वह इतने अबोध बनें। वह दैविक संगति का मार्ग जानते हैं। यदि यह निष्कपटता फैलती नहीं है तो इसमें जंग लग जाएगा, इसका विकास रूक जाएगा। दूसरों की अपेक्षा इनका IQ. (बुद्धि कोष्ठ) घट जाएगा क्योंकि दूसरों का I.Q. (बुदधि कोष्ठ) भौतिकवाद में विकसित हो रहा है। आपका 1.Q. (बुद्धि कोष्ठ) तब तक विकसित नहीं होगा जब तक आप उसे आस पास फैलाएंगे नहीं। आप जानते हैं कि कैसे यह सब करना है। यह कण्डलिनी और श्री गणेश की शक्ति है। वह प्रत्येक चक्र पर आपकी सहायता करती है। वह प्रत्येक विश्व विद्यालय की कुलपति हैं जहाँ उसे मोहर लगानी पड़ती है। वह हर चक़् पर विद्यमान हैं परन्तु आपको यह समझना है कि आपने इसे फैलाना है. इसे सामूहिक बनाना है इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? हमें ऐसे कार्यक्रम आयोजित करने का प्रयास करना चाहिए कि लोग आपकी निष्कपटता पर आसक्त हो जाए। एसा सहनिपणता है। एक प्राणी जो निष्कपट है उसे सहनिपुणता करने में आप अपने को निष्कपट रखने की चेष्टा करें। आपको चालाक और तेज नहीं होना चाहिए और न ही अधिक बृद्धिमान क्योंकि आपके मस्तिष्क में भी अहम् के विचार आने का प्रयास कर सकते हैं। यही अंच्छा है कि आप अपने को निष्कपट रखें। भीतर का सब कुछ वास्तव में श्री गणेश की शक्ति से संचरित किया जा सकता है। बाह्म जीवन भी निष्कपट हो जाता है । किसी के चतुर और तेज न होने के बावजूद भी सब कुछ घटित होता रहता है उस आन्तरिक शक्ति से जो प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। अतः अपनी आन्तरिक शक्ति पर निर्भर करें तथा बाहर उसकी अभिव्यक्ति करें। आन्तरिक शक्ति श्री गणेश हैं जो सभी में समान रूप से विद्यमान हैं। सारी प्रणाली तथा चक्र आदि सब के भीतर समान रूप से विद्यमान हैं। केवल एक चीज जो हमें ध्यान रखनी है वह है अपनी निष्कपटता को फैशन क्रोध के अतिरिक्त। आदि जैसी व्यर्थ की सांसारिक वस्तुओं से परे रखना। तत्काल आप पाएंगे कि आप का अस्तित्व व्यक्त हो गया। जरा एक साधारण सी बात सोचें। मैं एक भारतीय हैँ, मझे कोई नहीं जानता लेकिन जहाँ कहीं भी मैं हूं, अपनी सभाओं में कम से कम पाँच से छः हजार श्रोताओं को पाती हैँ। मुझ में इतनी क्या विशेषता है? हम सहजयोगी हैं। हम सन्त हैं। हमें प्रत्येक के साथ सन्तों जैसी बात ही करनी है। हमें सन्तों की भाँति ही विश्वास रखना है। किसी को यह कभी भी नहीं समझने देना कि हम चतुर हैं और किसी से किसी और चीज की चाहत रखते हैं। एक बार यदि आपकी निष्कपटता प्रकट हो गई तो सभी देवी देवता आपकी सहायता करेंगे प्रत्येक मनुष्य को यह सोचना है कि किस प्रकार हम सहजयोग फैला रहे हैं। हमें वह सभी ढंग तथा मार्ग अपनाने हैं जो एक सन्त के लिए अपेक्षित हैं न कि एकं राजनीतिज्ञ और नायक की भाँति। सन्तता का सम्मान प्रत्येक दशा में होता है। आपकी सादगी और निष्कपटता इसमें सहायता करती है, ऐसा इसका प्रभाव है। विग्रह एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें इतनी अधिक मिलेगी कि वह किसी को भी लुभा सकता है। किसी को धन के लिए अधिक चिन्तित नहीं होना चाहिए और न ही प्रत्येक वस्तु की गणना करनी चाहिए और न ही भोजन के लिए चिन्ता। यह सब करना है परन्तु निष्कपटता से। आप कहाँ सोते हैं। क्या करें। यह सन्तों के लिए जरूरी नहीं है। यह एक ढंग है जिसमें प्राणी को रहना है क्योंकि उसका पोषक बिन्द निष्कपटता हैं। वह लोगों पर चिल्लाता नहीं, क्रोधित नहीं होता। बेशक उसे ईसा की तरह भूता पर चिल्लाना पड़ सकता है। वैसे वह एक शान्ति-प्रिय, प्रसन्न, हंसमुखे और विनोदप्रिय व्यक्ति है। आज में इस पूजा पर आप सभी को श्री गणेश में विद्यमान सभी गुणों का आशीर्वाद देती हूँ केवल उनके भगवान आपको आशीर्वादित करें। 19 श्री गणेश पूजा 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-23.txt परमपूज्य श्री माता जी निर्मला देवी जी का रूस में सम्वाद्दाताओं से साक्षात्कार (सारांश) परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी के सेंट पीटर्जबर्ग, रूस, की पैट्रोवस्क्या विज्ञान एवं कला अकादमी में विशेष सम्मान समारोह के अवसर पर श्रीमाता जी का विज्ञान के डाक्टर प्रोफेसर य.ए. वोरोनोव के साथ साक्षात्कार 13 उसी प्रकार गतिशील हैं। जब उन्होंने नीचे से ऊपर के फोटों लिए तो अल्फा और ओमेगा के अक्षर नज़र आए। श्री माता जी ने बताया कि जब श्री ईसा ने कहा था कि मैं अल्फा एवं ओमेगा" हूैँ- तो उनका यही अभिप्राय था। नवम्बर, 1993। इसके बाद श्री माता जी ने आत्मा के बारे में बताया जिसे विश्वशान्ति को प्रोत्साहन देने के विशिष्ट कार्य के लिए पैट्रोवस्क्या विज्ञान एवं कला अकादमी ने श्री माता जी को अकादमी के 'अवैतनिक सदस्य' पद से सम्मानित किया। अभी तक अकादमी ने केवल दस व्यक्तयों को यह सम्मान दिया है। इनमें से एक अलबर्ट आइनस्टाइन को दिया गया था। पर श्री माता जी के कार्य को सभी वैज्ञानिक आविष्कारों से कहीं अधिक महत्व पूर्ण एवं व्यापक माना गया। प्रोफेसर वोरोनोव ने कहा कि सहज योग द्वारा प्राप्त की गई अवस्था तक विज्ञान को अभी पहुँचना है। अत्यन्त कृपा करके श्री माता जी ने सम्मान को स्वीकार किया आत्म साक्षात्कार के बाद आप आकाश में देख सकते हैं। ये आत्माएं लम्बे रिब्बन के आकार में लटकी हुई दिखाई पड़ती हैं, ये मरे हुए लोगों की आत्माएं हैं। वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है कि कोषाणुओं में अभिग्राहक (रिसैप्टर) होते हैं। श्री माता जी ने कहा कि हर कोषाण में अभिग्राहक है और बताया कि आत्मा पीछे की ओर बैठती है और हर सैल के ऊपर यह रिमोट कंट्रोल की तरह बैठती है। अब वैज्ञानिकों ने इस आत्मा को खोज निकाला है जिसके बारे में श्री माता जी ने बहुत समय पूर्व बताया था कि किस प्रकार वे मृत आत्माओं से प्रभावित हैं तथा किस प्रकार आत्मा भूत बाधा में फंस जाती है और गुणसूत्र (क्रोमोसोम) में जीन्स पर प्रतिबिमबित होती है और इस प्रकार रिमोट कंट्रोल द्वारा कोषाणुओं को प्रभावित करती है। विश्व नैरोलोजी अधिकारी, जो कि सूत्र युग्मन (सिनैप्स एवमं स्नायुविशेषज्ञ था, से बात करते हुए श्री माता जी ने मनुष्यों में मिले चेतना के चार अन्य क्षेत्रों के बारे में बताया: चेतना - जो हमारे अन्दर वर्तमान है। अबोधिता के स्वामी श्री गणेश के विषय में बात करते श्री माता जी ने वा्ता आरम्भ की और कहा कि श्री हुए गणेश निरन्तर शिशु हैं तथा पवित्रता, अबोधिता एवं मंगलमयता के प्रतीक हैं। वे ही बाद में ईसा के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने बताया कि श्री गणेश को हाथी का सिर प्राप्त होने की मनोरंजन कहानी है। ध्यान अवस्था में मूलाधार पर लोगों ने उनके प्रतीक चिन्ह (स्वास्तिक) को देखा है। पर स्वयं श्री माता जी ने वैज्ञानिकों को बताया कि किस प्रकार कार्बन के अणओं से बने मुलाधार पर श्री गणेश विराजमान हैं। कार्बन के सूजन के बाद ही आगेनिक कैमिस्टरी आई (और बाद में अमीनो - एसिड आए) । (1) (2) अवचेतन - अपने अन्दर वह सब समेटे हुए है जो कि हमारे अन्दर भूतकाल है तथा इस जीवन के भूतकाल, पिछले जीवनों के भूतकाल तथा सामूहिक अवचेतना, जिसके अन्दर हमारे सृजन से लेकर अभी तक का सब कुछ मृत निहित है । सभी बैक्टीरिया, वायरस, मृत आत्माएं, भूत बाधाएं आदि इस क्षेत्र में रहती हैं। अवचेतन क्षेत्र हमारे बाएं अनुकम्पी नाड़ीतंत्र (ईंडा नाड़ी) के बाई ओर स्थित है। इसलिए हमारा चित बाई ओर को चला जाता है तो हम भिन्न प्रकार के मनोदैहिक रोगों की पकड़ में आ जाते हैं जैसे कैंसर, एड्स तथा माँसपेशियों, मेरुरज्जू (रीढ़) शोथ (सूजन) आदि। बाई ओर की प्रवृत्ति वाले लोग सदा रोते तब श्री माता जी ने बताया कि किस प्रकार उनके मार्ग दर्शन में बैज्ञानिकों ने चार (वैकेन्सीज) संयोजकताओं वाले कार्बन के अणुओं के फोटो लिए। उन्होंने बताया कि बाई ओर से जब उसकी दाई ओर का फोटो लिया गया तो ओंकार" नजर आया, यही 'आदि शब्द' हैं। दाई ओर से जब उन्होंने इसकी बाई ओर का फोटो लिया तो उन्हें स्वास्तिक नजर आया क्योंकि संयोजकरताएं (वैलेन्सीजो चैतन्य लहरी 20 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-24.txt दिवालिया होकर व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। जिगर की गर्मी जब ऊपर को चढ़ती है तो इसका कुप्रभाव फेफड़ों पर पड़ता है (जिसे सहजयोग में दायां हृदय कहते हैं) और व्यक्ति के अस्थमा (दमा-रोग) हो जाता है। रहते हैं, बिलखते रहते हैं तथा बीत नमय के बारे में सोचते रहते हैं। ऐसे लोगों पर इस प्रकार के मनोदैहिक रोगों का प्रकोप हो सकता है। एक छोटे स्तर पर ऐसे लोगों को गठिया गेग एवं ग्लानि के दौरे पड़ सकते हैं। मिर्गी रोग भूत बाधा के कारण होता है और इसका इलाज सुगमता से हो सकता है। भारत एक इसका इलाज सुगमता से हो सकता है। भारत में एक डाक्टर ने सहजयोग से मिर्गी के ईलाज पर TTम डी. प्राप्त की है। स्वाधिष्ठान चक्र की खराबी के कारण होने वाली बीमारियों के बारे आगे बताते हुए श्री माता जी ने मधुमेह का बर्णन किया श्री माता जी ने कहा कि यह गलत धारणा है कि मधुमेह अधिक मीठा खाने से होती है। मधुमेह रोग का चीनी खाने से कोई सम्बन्ध नहीं। उन्होंने बताया कि किस प्रकार एक सामान्य भारतीय ग्रामीण एक कप चाय में तीन चार चम्मच चीनी पीता है पर उसे मधुमेह रोग नहीं होता और वह सर्व सामान्य जीवन व्यतीत करता है। उन्होंने कहा कि मधुमेह प्रायः अफसरों, राजनीतिज्ञों और विचारकों को होती है क्योंकि शक्कर के खपाने के लिए उत्तरदायी, उनके अग्नाशय की स्वाधिष्ठान चक्र अपेक्षा कर देता है क्योंकि वह उनके थके हुए मस्तिष्क को ऊर्जा पहुचाने के कार्य में व्यस्त होता है। रक्त कैंसर, जिसे कि सहजयोग के अभ्यास द्वारा ठीक किया जा सकता है, कि बात करते हुए श्री माता जी ने बताया कि शरीर में आपात-स्थितियों को सम्हालने का कार्य प्लीहा का है। परन्तु हमारी उत्तेजना पूर्ण एवं तीव्र जीवन शैली इसे अनियमित कर देती है। इस अवस्था में किसी भी दाएं पक्षीय व्यक्ति पर किसी दूर्घटना या निराशा के रूप में यदि बाई ओर से वायरस का हमला हो जाए तो यह उसे रक्त कैंसर तक पहुँचा सकता है। अचानक दाएं से बाएं के चले जाना, इस रोग का कारण बन सकता है। श्रीमाता जी ने बताया कि ऐसे बहुत से रोगी, जिन्हें चिकित्सा विज्ञान ने अवश्यम्भावी मृत्यु की श्रेणी में डाल दिया था, सहजयोग के अभ्यास से ठीक हो गए हैं। में (3) वह हमारे अन्दर भविष्यकाल है। यह क्षेत्र हमारे दायें अनुकम्पी नाड़ी तंत्र (पिंगला नाड़ी) के दायीं आर स्थित है। दायीं ओर के झुकाव वाले लोग अत्यंत महत्वाकांक्षी, भविष्यवादी और सदा योजना बनाते रहने वाले होते हैं। मूत्यु के उपरान्त ऐसे लोग इन क्षेत्रा में जात हैं और अपनी महत्वाकांक्षाओं को पुरा करने के लिए जीवित आत्माओं पर अधिकार कर लेते हैं। दायी और को झुके लोग, इसलिए, भिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानांगक रोगों के शिकार हो जाते हैं । पराचेतन (सप्राकानशयस दसरे चक्र, ्वाधिष्ठान, द्वारा पोषित जिगर तथा अन्य अंगों के बारे में श्री माता जी ने वस्तार पूर्वक बताया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार इस चक्र के करने पड़़ते हैं। सोचने के लिए हमें बहुत सी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। मस्तिष्क के कोषाणुओं को यह ऊर्जा पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य भी यह चक्र करता है । भविष्यवादि व्यक्ति जो सदा योजनाएं बनाते रहते हैं, बहुत मी ऊर्जा उपयोग करते हैं । यह ऊर्जा पहुँचाने के लिए स्वाधिठान चक्र द्वारा घोषित होने वाले अन्य अवयव उपेक्षित हो जाते हैं। जिगर, अग्नाशय, आंत्र में जाने वाली ऊर्जा अब केवल एक ही कार्य के लिए खर्च होने लगती है। बहुत से कार्य प्लीहा, गर्दै एवं श्री माता जी ने जिगर के कार्य के महत्व को बताया क्योंकि जिगर को गर्मी के रूप में शरीर के सारे विष को सोखना होता है तथा फिर इस गर्मी के रक्त संचार में डालना होता है। जिगर की उपेक्षा होने पर यह गर्मी इकट्ठी होकर दोनों ओर बहने लगती है। एक छोटी उम्र का खिलाड़ी, जो अति आक्रामक होने के साथ-साथ मंदिरा पीने का आदी भी है तो अचानक उसे इस युवावस्था में ही हृदयात (हार्ट अटैक) हो सकता है तथा उसकी मृत्यु हो सकती है। स्वाधिष्ठान चक्र की खराबी के कारण एक अन्य भयंकर रोग जो हो सकता है वह है दाई ओर का पक्षघात (मस्तिष्क में बाई ओर)। श्री माता जी ने बताया कि एक बार यदि मूल-भूत बातों को जान लें और व्यक्त जान पाए कि किस प्रकार चक्र को ठीक किया जाए तो किसी भी रोग को आसानी से ठीक किया जा सकता है। यह गर्मी जब नीचे की ओर बहने लगती है तो आन्त्र पर इसका कप्रभाव पड़ता है और व्यक्ति के 'कब्ज' की समस्या हो जाती है। जब इसका प्रभाव गुर्दे पर पड़ता है तो यह इसे जमाने लगती है और कई समस्याएं खड़ी हो जातीं हैं। डाक्टर तब व्यक्ति को डायलिसिज पर डाल देते हैं और सस में सम्बाददाताओं से मातात्कार 21 ন 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-25.txt आपको निडर बनाती है। ईसा मसीह के उदाहरण से उन्होंने प्रेम शक्ति का वर्णन किया किस प्रकार मैरी मैगडेलीन नामक वैश्या, जिसे मुत्य दण्ड के लिए ले जाया जा रहा था, को देखकर वे द्रवित हो उठे। उन्होंने वैश्या को पत्थर मारने वाले लोगों से कहा कि जिसने कभी पाप नहीं किया हो बो मुझे पत्थर मारें। शक्ति कई प्रकार की हो सकती है, परन्त् केवल प्रेम (4) उच्च चेतना - उच्च चेतना मानवीय चेतना से ऊपर है। यह ब्रहुमरन्ध्र के ऊपर के क्षेत्र में स्थित है। आध्यात्मिक जीवन के लिए बने साक्षरता संस्थान के एक प्रोफैसर से बात करते हुए श्री माता जी ने पराने रूसी लेखकों की महानता की बात की और बताया कि किस प्रकार उन्होंने अन्तःदर्शन की आदत विकसित करने में योगदान किया और रूसी लोगों में यह आदत पैदा की। अन्तः्दशन की आदत नें उन्हें सहजयोग के लिएशक्ति ही रोग मुक्त कर सकती है। श्री माता जी ने बताया कि विवेकशील, तैयार एवं परिपक्व बताया है। श्री माता जी ने किस प्रकार रूस के रासपतिन के पास भी शक्तियां थी, कहा कि युवावस्था में ही उन्होंने लेओ टॉलस्टाय का हिन्दी परन्तु वे सब आसुरी शक्तियां थीं। उन्होंने बताया कि इसी अनुवाद पढ़ा और इसका बहुत आनन्द लिया। श्री माता जी व्यक्ति ने भारत में रजनीश के रूप में पुर्नजन्म लिया। की सहायता से एक भारतीय महिला ने हाल ही में अन्नाकैरीना' का हिन्दी अनुवाद किया है। "संस्कृति के माध्यम से शान्ति" संस्थान के अध्यक्ष से उन्होंने कहा कि पोप पाल ने होली घोस्ट, जो कि बाइबिल बात करते हुए उन्होंने बताया कि हर चक्र भिन्न देवता से संचालित है तथा अत्यन्त महत्वपूर्ण चक्र 'स्वाधिष्ठान' की अध्यक्ष विद्या की देवी सरस्वती हैं। फिर श्री माता जी ने मात्रेया के बारे में बताया जिसका अर्थ है तीन माताएं महालक्ष्मी मंहासरस्वती और महाकाली और बताया कि किस प्रकार श्री गौतम बुद्ध ने भोविष्य में आने वाले बुद्ध की बात की थी और कहा था कि वे 'मात्रेया के रूप में आयेंगे तब श्री माता जी ने बताया कि हम सब के अन्दर स्थित कण्डलिनी, आदिशक्रि (होली घोस्ट) का ही प्रतिबिम्ब है। की आदि मां हैं, को हटा कर बहुत बुरा किया है। अमेरिका की बात करते हुए श्री माता जी ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि जहां तक अध्यात्मिकता का प्रश्न है तो बहां के लोग अत्यन्त असभ्य हैं और उनमें से अधिकतर मुर्ख हैं। मात्र इतना ही नहीं, बहुत से अमेरिकन झूठे गुरुओं के पीछे दौड़ रहे हैं तथा भौतिक वैभव के आधार पर अपना मल्यांकन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि वर्षों पूर्व जब मैंने उन्हे च्ररित्रहीन जीवन की बुराइयों के बारे में बताया और समझाया कि किस प्रकार वे समलैंगिकता की समस्या से छुटकारा पा सकते है तो उन्होंने मेरी बात पर कोई ध्यान न दिया। यहां तक कि हार्वर्ड- विश्वविद्यालय जैसी चोटी के शैक्षणिक संस्थान ने भी इस प्रकार की असभ्य जीवन शैली की अनुमति दे दी। सब से बुरा तो यह हुआ कि देश के कानून एवं कैथोफ़िक चर्च ने भी इसकी अनुमति दी। श्री माता जी ने तब रूस के लोगों को स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी कि वे यह न समझें कि अमेरिका की सड़कों पर सोना बिछा हुआ है। वे उन पर इतनी श्रद्धा न करें क्योंकि अमेरिका के लोग अब नक्कोन्मुख हैं। श्री माता जी ने बताया कि अमेरिकन लोग तो ईसा की बातों पर भी ध्यान नहीं करते, ईसा ने इतनी सुक्ष्म बात कही, जब उन्होंने कहा कि "आप की दृष्टि भी अपवित्र नहीं होनी चाहिए। आज बहां एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं है जो इस कसौटी पर खरा उतरे। कन्परयशियस और लाओत्से के बारे बात करते हुए श्री माता जी ने कहा कि इन सब गुरूओं ने समय के अनुकूल एक उपस्थित व्यक्ति ने तब श्री माता जी को बतायाकि रूसी परम्परा के अनुसार मात्रेया को कआदि शकि (होली घोस्ट) माना जाता है। जब उसने होली घोस्ट का वर्णन पुल्लिंग में किया तो श्री माता जी ने उसकी त्रुटि को सधारते हुए कहा कि होली घोस्ट पुरुष नहीं है, स्त्री है। वह यूनान की अथेना' हैं। आयोजित धर्म को भयंकर बताते हुए श्री माता जी ने कहा कि आयोजक गण अपने विचार इसमें भरने का प्रयत्न करते हैं। उन्होंने बताया कि परमात्मा और देव आयोजित नहीं किए जा सकते क्योंकि वे मानव मस्तिष्क की पहुँच से बहुत परे हैं। श्री जीसज क्राइस्ट के बारे बताते हुए श्री माता जी ने दूक तन्त्रिका पर, मस्तिष्क के मध्य में, बह स्थान दिखाया जिसे अगन्य चंक्र कहते हैं। उन्होंने बताया कि इस चक्र पर वे इंसा रूप में अवर्तरित हुए। वे ही साम्राट हैं तथा हर जगह उन्हीं का साम्राज्य है। श्री माता जी ने कहा कि आत्म साक्षात्कार पाकर आपको सारी शक्तियां मिल जाती हैं। यह प्रेम की शक्ति है जो चैतन्य लहरी 22 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_I.pdf-page-26.txt भाषा में लोगों से बात की। कन्फ्यूशियस मानवता की शिक्षा देने को आए,लाओत्से ने 'ताओ की बात की, जो कि कण्डलिनी के अतिरिक्त कछ भी नहीं । येन्गत्से नदी से नाव द्वारा जाते हुए श्री माता जी ने लाओत्से को स्मरण किया कि किस प्रकार उन्होंने इस नदी का वर्णन 'ताओ' के रूप में किया था । यह नदी दोनों छोरों से इतनी सुन्दर है कि चीनी चित्र कला की सारी प्रेरणा वहीं से आती है। लाओत्से ने अपनी कविता में 'ताओ (कृण्डलिनी' का वर्णन करते हुए कहा कि बहुत सी सुन्दर घटनाएं घटित होने वाली हैं परन्तु व्यक्ति को निर्लिप्त भाव से, साक्षी बनकर, चलते रहना होगा। समुद्र के निकट जब यह नदी (ताओ) पहुँचती है तो यह शान्त हो जाती है और इस शान्त अवस्था में सागर में प्रवेश करती है। श्री माता जी ने कहा कि जापान की जैन प्रणाली भी महान है; पर आज जापान के लोग विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। सहज योग के चार्ट पर उन्होंने जापान को दायां हृदय सारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। यह ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ है जैसे "हम पृथ्वी पर क्यों जन्में। पर्णत्व की तस्वीर विज्ञान नहीं दे सकता। श्री माता जी ने महसूस किया कि विज्ञान की सबसे बड़ी बुराई यह है कि यह चरित्रहीन है। वैज्ञानिक जब तक चरित्रवान नहीं हो जाते तब तक एटम बम आविष्कृत होते ही रहेंगे। शरीर तन्त्र चार्ट पर श्री माता जी ने बताया कि किस प्रकार दोनों नाड़ियों के छोरो पर अंह एव प्रति अहं के गब्बारे सम आकार की रचना होती है। उन्होंने बताया कि इस अंह के कारण केवल मनुष्यों में कताभाव आ जाता है। अंतः केवल मनुष्यों के साथ ही "कर्म" की समस्या है। पशु पाश में बंधे होते हैं और उन्हें कर्म की समस्या नहीं होती। उन्होंने विस्तार पूर्वक बताया कि किस प्रकार श्री बुद्ध मात्रेय) जो कि सेंट गैबरीफ हैं, वे अहं के स्थान पर ( विराजमान हैं तथा श्री महावीर, जो कि सेंट माइकल है, वेप्रति अहं के स्थान पर विराजित हैं। कण्डलिनी जब उठती है तो अगन्य चक्र पर इसा को जागृत करती है और परिणाम स्वरूप यह दोनों गुव्बारे (अहं एवं प्रति अहँ) नीचे की ओर खिंच जाते हैं। अह जब समाप्त हो जाता है तो कर्म (कर्म -फल) भी नहीं रहते। "इंसा की हमारे पापों के लिए मूत्य जोर देकर कहा कि ईसा का सन्देश पुनर्जन्म है क्रॉस नहीं। पुर्नजीवित होकर ईसा ने दर्शाया कि सभी लोग पुनंजन्म ले सकते हैं। बताया। हृदय चक्र के बारे बताते हुए श्री माता जी ने कहा कि मध्य हृदय चक्र सुरक्षा की दाता, जगत जननी जगदम्बा से आश्शीवादित है। उन्होंने वर्णन किया कि किस प्रकार बारह वर्ष की आय तक बच्चे में रोग प्रति कारक उत्पन्न होते हैं। बाद में ये रोग प्रतिकारक पूरे शरीर में फैल जाते हैं परन्तु दूरस्थ नियन्त्रण (रिमोट कन्ट्रोल) यहीं (हृदय में) स्थित होता है। इस स्तर पर मनुष्य दो प्रकार के अपराध करता है पिता के विरोध में तथा माता के विरोध में। पिता पर अविश्वास, उसे चुनौती देना, उग्र तथा अत्याचारी होना, पिता के खिलाफ अपराध हैं। चरित्र हीनता माता के विरुद्ध अपराध है। सारे मनोदैहिक रोगों का मुकाबला गण करते हैं जो कि रोग प्रतिकारकों के रूप में होते हैं। स्त्रियों के मातृत्व को यदि चरित्रहीन पति या बांझपने के कारण चुनौती मिले तो स्त्रियों को स्तन कैंसर हो सकता है। अमेरिका में स्त्रियों में सरक्षा भावना की कमी के कारण स्तन कैंसर की घटनाए बहुत अधिक हैं। विज्ञान के सम्मुख जो समस्याएं हैं उनके विषय में श्री माता जी ने कहा कि यह बहुत ही एक तरफा है। विज्ञान ने भौतिकता के क्षेत्र में बहुत से अविष्कार किए हैं, परन्तु यह " का यही अर्थ है। श्री माता जी ने श्री राम की बात करते हुए श्री माता जी ने कहा कि वे सुक्रान्त वर्णित हितैषी राजा थे। अपने प्रजाजनों की भावनाओं का वे इतना सम्मान करते थे कि उन्होंने अपनी पत्नी सीता को त्याग दिया क्योंकि जब राबण उन्हें चुराकर ले गया था तो उन्हें लंका में रहना पड़ा। आश्रम में जन्में श्री राम जी के जुड़वां पुत्र लव और कश के बारे में श्री माता जी ने बताया। छः हजार वर्ष पूर्व लव रूस के कासाकस पूर्वतों पर आये और आज उनके वंशज स्लाव कहलाते हैं। कश चीन चले गये और आज उनके वंशज कशाण कहलाते हैं। भारतीय भाषा में चीन के लोगों को कशाण कहते हैं। श्री माता जी ने तब विनोद पर्वक कहा कि रूस और चीन के लोग जुड़वें भाइयों की तरह हैं। 23 ফस में सम्बादकोओं से साक्षात्यर