১ব১১ ১১২ ১১ दरय खण्ड VI अंक 5 व 6 चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति "भौतिकतावादी विचारों से हमें छटकारा पाना होगा मैं नहीं कहती कि आप हिमालय में चनें जारएं सन्यास ले तें, या बुद्ध की तरह से अपने बच्चों को त्याग दें। परन्तु आप में नि्लिप्मा तो होनी ही चाहिए। परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी గ్పగ ১১ द ८) ১১২ ১২১ काम लि प पा श्री योगी महाजन सम्पादक श्री विजय नाल गिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनिरका विहार, नई दिल्ली- 110067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 35, राजेन्द्र नगर मार्केट, नई दिल्ली-110060, फोन: 5710529, 5784866 मद्रित चैतन्य लहरी खण्ड VI अंक 5 व 6 विषय सूची पृष्ठ (1) पूजा के विषय में श्री माता जी का परार्मश 13 (2) श्री महालक्ष्मी पूजा पूजा, पैरिस 11-7-1993 (3) श्री महाकाली 18 21 (4) श्री कृष्ण पूजा, हथिनी कण्ड, हरियाणा 11-12-1993 |र पूजा के विषय में श्रीमाताजी का परामर्श पुजा या प्रार्थना आप के हृदय में विकसित होती है। मंत्र आपकी कण्डलिनी के शब्द हैं। परन्तु यदि मंत्रों का उच्चारण हृदय से न किया जाए या मंत्रोच्चारण में कण्डलिनी का सम्बन्ध न हो तो पुजा मात्र कर्मकाण्ड बन जाती है। हृदय में पूजा करना सर्वोत्तम है। पूजा में आपको पूर्ण श्रद्धा पूर्बक मंत्र कहने चाहिए। श्रद्धा जब गहन हो जाए तभी पूजा करनी चाहिए क्योंकि तब हृदय स्वयं पूजा करता है। उस समय कृपा की लहरियाँ बहने लगती हैं क्योंकि उस समय आत्मा से आवाज निकल रही होती है। लोग सुरा से अपने गिलास भर लेते हैं। आपकी पूजा भी ऐसी ही है। इसमें श्रद्धा आपकी शराब है और मंत्रोच्चारण और पूजा आपका गिलास। सब कुछ भूलाकर जब आप उस सुरा को पीते हैं तभी आप आनन्द के सागर में गोते लगा सकते परन्त जो आनन्द आप इस सूरा को पीकर प्राप्त करते हैं वह शाश्वत और सदा मिलने वाला है। व्यक्ति के पास यदि आप भिक्षा लेने के लिए जाएं तो वह आपको दो पैसे भी नहीं देगा। परन्तु आपकी गुरू क्योंकि अत्यंन्त शक्तिशालिनी है इसलिए आप इतनी सगमता से सारी शक्तियाँ प्राप्त कर रहे हैं। अतः आपको इस उपलब्धि पर अत्यन्त प्रसन्न होना चाहिए, अत्यन्त प्रसन्न और प्रफल्लित कि आपके पास यह शक्तियाँ हैं। कम से कम वे लोग जो सहजयोग में हैं वे इस बात को विश्वस्त रूप से जान जाएंगे। जो लोग पहली बार मेरे भाषण में आए हैं वे थोड़े से उलझन में पड़ेंगे। आप सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि यह क्या है। अतः अपनी गुरू शक्ति को समझने के लिए आप सबसे पहले यह जान लें कि आपकी गुरू कौन हैं? "साक्षात आदि शक्ति।" हे परमात्मा। यह तो बहुत बड़ी बात है। तब अपने भवसागर को स्थापित कर लें। हैं। एक गुरू, विशेषतया मेरे शिष्य, अपनी माताओं और बहनों के अतिरिक्त किसी अन्य के सामने सिर नहीं झुकाते। आपने देखा होगा कि आप भी ऐसा ही करते हैं। आज गौरी का दिन है। गौरी ने कंवारी अवस्था में, श्री गणेश का सृजन किया। उसी प्रकार आपको भी आत्मसाक्षात्कार प्रकार हुआ। ठीक उसी प्रकार। अतः आपको भी गौरी की उसी शक्ति का उपयोग अपने अन्दर करना होगा। आपको अपना हृदय स्वच्छ रखना होगा। आपका हृदय और विचार स्वच्छ होने आवश्यक हैं। आपका मस्तिष्क पवित्र होना चाहिए। निसन्देह भक्ति यह पवित्रता प्रदान करती है, परन्तु यदि आप के मस्तिष्क में कुछ भी बचा हुआ है तो मैं आपको बताती हैँ कि आज से तीन बातें घटित हुआ करेंगी। पहली, हमने विश्व निर्मला धर्म चलाया है। आप श्री गणेश की दृष्टि में हैं, अपनी आत्मा के पथ प्रदर्शन में हैं, और सर्वशक्तिमान परमात्मा के आश्शीवार्द में हैं। सावधान रहें क्योंकि एक बार जब आप इस स्थिति को पा लेते हैं तो आपको धर्म पर दूढ़ रहना होगा और धर्म के प्रति अत्यन्त ईमानदार होना होगा। दूसरी बात जो आपको जाननी है वह यह है कि आपकी गुरू बहुत महान लोगों की माँ भी हैं। इस बात का विचार मात्र ही आपके गुरू तत्वल वे कितने महान व्यक्तित्व थे। शब्द उनका वर्णन नहीं कर को स्थापित कर देगा मेरे कितने महान पत्र हुए। सकते, एक के बाद एक वे इतनी अधििक हुए। आप भी उसी परम्परा से हैं। मेरे शिष्य उन्हें अपना आदर्श रखें। उनका अनुसरण करें, उनके विषय में पढ़ें, उन्हें समझें कि उन्होंने क्या कहा और किस प्रकार यह शिखर उन्होंने प्राप्त किये। उन्हें मान्यता दे, उनका सम्मान करें। आप अपना गुरू तत्व स्थापित कर सकेंगे उनकी बताई गई सारी बातों को आत्मसात करें। उन पर गर्वित हों। लोगों की कही बातों से पथभृष्ट न हों। सारी जनता को हम अपनी ओर खींचने वाले हैं। सर्वप्रथम हमें अपना बजन और गुरूत्व स्थापित करना है। जैसे पृथ्वी माँ सबको अपनी ओर खींचती रहती है। इसी प्रकार हम भी सबको अपनी ओर खीचेंगे। आज आपने अन्दर अपनी आत्मा से बायदा करना है कि आप अपनी माँ की आशाओं के अनुसार एक योग्य गुरू बनेंगे। अब भवसागर को स्थापित होना है सर्वप्रथम आप अपने गुरू को जाने कि बे हर चक्र पर विराजित हैं। अपने इतने महान गुरू की कल्पना कीजिए। इससे आपको आत्मविश्वास प्राप्त होगा इतने आश्चर्यजनक गुरू के कारण ही सब लोग इतनी सुगमता से आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर रहे हैं । किसी धनी बनाए धर्म पर चलने का निर्णय यदि आपने कर लिया है तो आज से सावधान रहें, मर्यादाओं से यदि आप निकले तो आपको कुछ भी हो सकता है। जब तक आप सहजयोग की मर्यादाओं में, सीमाओं में रहेंगे तब तक आपको कोई हानि या आघात नहीं पहुंच सकता। इसके विपरीत यदि आप मर्यादाओं में रहेंगे तो जीवन का आनन्द उठाएंगे। परन्तु सहजयोग की मर्यादाओं को यदि आप छोड़ देंगे तो भयंकर समस्याओं में फंस जाएंगे। पुजा के विषय में श्री माता जी का परामंश अतः दूसरी बात जो मैं आपको बताना चाहती हूँ वह यह है कि बहुत समय पूर्व आत्मसाक्षात्कारी लोगों को जिसका वचन दिया गया था वह दिव्य-दर्शन हमने आज शुरू किया है। उन्होंने अंग्रेजों के अहंकार को मेरे सामने विस्तारपूर्वक वर्णन किया। तब मुझे लगा कि मैं भी इसी प्रकार की कुछ बातों से परिचित हूँ। कां अपनी आत्मा बनिए, सभी कुछ बहुत अच्छा होगा। किसी बात से विचलित न हों, किसी चीज के लिए चिन्तित न हों। पूर्ण अब हृदय की वह उच्चावस्था प्राप्त करना संभव है क्योंकि आप लोग इंग्लैंड की विशिष्ट भूमि पर उत्पन्न हुए हैं। वह सम्भावना अवश्य ही आपके अन्दर बनी हुई होनी चाहिए। तो फिर कमी क्या है? ऐसा कयों है कि सारी सम्भावनाओं, महान पृष्ठ भूमि और सारी विशेषताओं के कारण यहाँ होकर भी हम पाते हैं कि सहजयोगी वर्षों तक भी अन्य सहजयोगियों की उच्चावस्था को नहीं पा सकते? क्या कारण है? हृदय को यदि आप देखें तो इसमें धड़कन की एक गति है और यह एक विशेष प्रकार की आवाज़ से चलता है। आप इसे लेखाचित्र (ग्राफ) पर ला सकते हैं, यह अत्यन्त सुव्यवस्थित नियमित और अनुशासित तया शान्त रहने का प्रयास करें। यह देखने के लिए कि आप कितना अपनी आन्तरिक शान्ति की अवस्था में रहते हैं, मैं आपकी परीक्षा लेती रहती हूं। आपने यदि कोई अपराध नहीं किया तो ठीक है। जब आपने कोई ब्राई नहीं की तो चिन्ता की कोई बात नहीं। और यदि आपने कोई अपराध कर भी दिया है तो परमात्मा क्षमा के सागर हैं। अतः किसी प्रकार की चिन्ता न करें। पूर्ण दृढ़ता एवं साहस के साथ दिव्य-दर्शन के इस वचन को आगे बढ़ायें। तीसरी बात है कि यह सब कुछ जो हम कर रहे हैं इसके है कि कोई धीमी सी आवाज या हल्का सा परिवर्तन भी लेखाचित्र साथ-साथ परमात्मा से वायदा करें कि पूरी सुझबूझ से हम सहजयोग को समझेंगे, इसके एक-एक शब्द पढ़ कर हम पर इसी की कमी है, हृदय के अनुशासन की। सहजयोग के ज्ञान में प्रवीणता प्राप्त करेंगे। हम स्वयं को स्वच्छ रखेंगे तथा अपना जीवन पूर्णतया सहजयोग को समर्पण करेंगे इसमें कुछ विशेषता तो होनी चाहिए। आज हमें यह हृदय अपने हृदय में आपको इसके लिए वचनबद्ध होना है। सहजयोग पुर्णतया स्वच्छ करके इसे इतना पवित्र कर देना है कि यह इसके को समर्पित होना, वास्तव में आनन्द, आशीष और शान्ति को अन्दर से बहुकर परे शरीर में जाने वाले सारे रक्त को पवित्र कर समर्पित होना है। इसमें आपका लाभ है और किसी की भी हानि नहीं। अतः आज हमने सदा के लिए इस बात का निर्णय लेना है। अब मैं देखती हैं कि सहजयोग एक नया है। निसंदेह यह होने वाला है। हम एक ऐसी अवस्था तक पहुँचने वाले हैं जहां हजारों लोग हमारे साथ सम्मिलित हो जाएंगे अभिव्यक्ति। हम पाते हैं कि कुछ लोग तो योग्य हैं परन्तु कुछ परन्तु सर्वप्रथम, जो लोग आधार शिलाओं में हैं, जो पहले लोग अन्य बातें और दिखावा तो अधिक करते हैं परन्तु योग्य नहीं हैं, उन्हें अपने मूर्खतापूर्ण लालच, सभी प्रकार के मूर्खतापूर्ण होते। अतः इस हृदय को स्वच्छ करें, सर्वोत्तम कोषाणु बनें। कार्य जो आज तक आप करते रहें और जो असहज हैं, उनसे ऊपर उठने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा। आपकी भाषा मधुर होनी चाहिए तथा व्यवहार बहुत ही अच्छा नम्र और आपको गम्भीरता पर्वक सन लेंगे परन्तु अगले क्षण आपकी बात कोमल। आपको एक योगी की तरह चलना चाहिए, एक संत की तरह जीवन व्यतीत करना चाहिए ताकि आपके माध्यम से लोग देखनी है और हमारे अन्दर भी यदि कोई कमी है तो बह है सहजयोग की महानता को देख सकें। पर दिखाई पड़ता है। यह इतनी संवेदनशील वस्तु है। और यहां आज जब हम महानतम, नवरात्रि, का उत्सव मना रहे हैं तो दे। जिन कोषाणुओं से हृदय बना है उनका सर्वोत्तम होना आवश्यक है क्यांकि मानव शरीर में हदय के कोषाणु उच्च कोटी के तथा संवेदनशील होते हैं। हृदय ही 'अनहद' की अभिव्यक्ति करता है अर्थात बिना आघात के उत्पन्न हुई आवाज की मोड लेने वाला अनियमित, अनुशासनविहीन हृदय अहम को बढ़ावा देता है। आप जो भी लोगों को बताते रहे, समझाते रहें; उस समय वे का उन पर कोई असर नहीं रहता। तो एक अन्य चीज़ हमने अनुशासन की। उस अनुशासन को हमें लाना होगा नहीं तो हमारी योग्यता न बढ़ पायेगी । परन्तु मैं सोचती हैँ कि इसके लिए हमारे अन्दर अन्तर्जात बद्धि होनी चाहिए। शिक्षा नहीं, अन्तर्जात बुद्धि, यह समझने के लिए कि हमें हमारी योग्यता को सुधारना है। अब यहाँ हमारी आत्मा धड़कती है शक्ति नहीं। साक्षी, जो देख रही है बह परमात्मा का प्रतिबिम्ब है, जो कि देवी के कार्य का दर्शक है। वास्तव में उस अवस्था तक उन्नत हुए बिना यदि हम कहें कि हम भी आत्मा को देख रहे हैं तो हम वह योग्यता नहीं प्राप्त कर सकते। सारे आशीर्वादों जैसे हृदय के सात परिमलें (औराज़) की तरह हमें सात आश्रम जब मैं इटली में थी तो मैंने कहा कि इंग्लैंड परे ब्रह्माण्ड का हृदय है तो वे लोग इस बात को स्वीकार न कर पाए। इस कथन से उन्हें बहुत धक्का लगा। वे विश्वास न कर पाए कि इंग्लैंड भी ब्रहुमाण्ड का हृदय हो सकता है। इसका एक कारण यह था कि एक बार रोमन लोगों ने अंग्रेज लोगों पर आक्रमण किया था और उस समय रोमन लोगों को ये लगा था कि अंग्रेज अत्यंत अहंकारी हैं। अपनी पराजय को भी वे सम्मान पूर्वक स्वीकार न करेंगे। पराजित होने पर भी वे अत्यन्त अहंकारी हुआ करते थे। यदि की यह अवस्था है तो ब्रहुमाण्ड की क्या अवस्था होगी? तब हृदय चैतन्य लहरी दोष देंगे। इसे गम्भीर चेतावनी समझें। आत्मसाक्षात्कार देने के बाद अब तुम्हें अनुशासित करने की मुझे बिल्कुल आवश्यकता नहीं क्योंकि आप को प्रकाश मिल गया है, आप जानते हैं कि आत्मसाक्षात्कार क्या है, आप आत्मसाक्षात्कारी होने का अर्थ जानते हैं, और आप यह भी जानते हैं कि आपको इससे कितना लाभ हुआ है तथा आपका व्यक्तित्व कितना निखरा है। परन्त प्राप्त हुए हैं। हम नहीं समझते कि हम सब को स्वयं को अनुशासित करना है। केवल लाभ उठाने के लिए, या यह दाबा करने के लिए कि आप एक सहजयोगी हैं, यदि आप सहजयोग में हैं,तो यह हृदय का कोषाणु होने का चिन्ह नहीं । अब चेतावनी देना आवश्यक है। इस अवस्था में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अब सहजयोग उडान भर रहा है, याद रखें कि गति प्राप्त कर ली गई है और अब यह उड़ान भर रहा है। जो लोग पीछे छट जाएंगे वे छुट जाएंगे। अतः अहंकार में न फंसे। आपका चरित्र पहले स्थान पर है- क्योंकि सभी लोग कहते हैं वे अत्यन्त अहंकारी हैं।" नम्र बन कर समझें कि आपको यान के अन्दर होना है पीछे पृथ्वी पर नहीं रह जाना। यान द्रतगति से चल रहा है। 1. अभी भी करने को कुछ शेष है। आपको स्वयं देखना है कि क्या वास्तव में आपने स्वयं को अनुशासित कर लिया है या नहीं। किसी अगुआ, आश्रम के साथी या किसी अन्य को आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं। आप आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति हैं, आप अपने स्वामी हैं, अपने गुरू हैं। कल्पना कीजिए कि आप सब गुरु है, महान गुरू सद्गुरू हैं, सम्मान जनक सन्त हैं जिन पर सभी देवताओं ने पुष्प छिड़कने हैं। इसकी कल्पना करें। लेकिन आप तो अक्खड़ता पूर्वक भाषण दे रहे हैं तथा बातें कर अभी मैं ऊँचे दो चक्रों के विषय में बात नहीं कर सकती परन्त हमें कम से कम सात चक्रों की बात तो करनी चाहिए। क्या इन चक्रों की शक्ति हम अपने अन्दर विकसित कर चके हैं। हम ऐसा किस प्रकार कर सकते हैं? आपके पास समय नहीं है। आप सब व्यस्त लोग हैं। और अहंकारी। इन शक्तियों को विकसित करने के लिए अब हमें अपना चित्त इन चुक्रों पर केन्द्रित करना होगा जहां कहीं भी मैं गयी, जो प्रश्न पूछे गए और जिस प्रकार के लोग मुझे मिले, मैं आश्चर्यचकित रह गयी। किसी ने मुझसे अपने परिवार, घर, नौकरी या बेकारी आदि किसी व्यर्थ की चीज़ के बारे में नहीं पूछा। उन्होंने केवल यही पूछा कि श्रीमाताजी किस प्रकार हम फलां चक्र की शक्ति को विकसित करें? और मैंने उनसे पूछा कि आप किसी चक्र-विशेष की बात क्यों कर रहे हैं? कहने लगे कि "हमें लगता है कि हम में यह कमी है, विशेषकर के मुझमें यह चक्र ठीक नहीं है। अब सबसे अधिक सौभाग्यशाली बात यह है कि आज नवरात्रि है और मैं लन्दन में हैँ तथा नवरात्रि भी यहाँ होनी चाहिए। कोई अन्य देश इतना भाग्यशाली नहीं क्योंकि यह महानतम पूजा है, महानतम कार्य, जिसमें आप उपस्थित हो सकते हैं। हम नवरात्रि क्यों मनाते हैं? हृदय में नवरात्रि पूजा का अर्थ है सात चक्रों के अन्दर निहित शक्ति की अनभति करने के लिए आदिशक्ति की शक्ति को स्वीकार कर लेना। जब यह चक्र जागृत हो उठते हैं तो आप किस प्रकार अपने अन्दर इन नौ चक्रों की शक्ति की अभिव्यक्ति करते हैं। सात चक्र तो यह हैं और इनसे ऊपर दो चक्र और हैं, जैसा कि, हैरानी की बात है, ब्लेक ने स्पष्ट कहा कि "नौ चक्र हैं।" रहे हैं। देवताओं को भी लज्जित करने वाली बात है। उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करें, आपको पुष्प माला अर्पण करें या आपका मुंह बंद कर दें। आप यहां इतनी महान स्थिति में हैं कि आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया है। आपने केवल इस महायोग के सौन्दर्य को स्वीकार करना है, सातों चक्रों पर विद्यमान अपनी शक्तियों को ज्योतिर्मय करना है। अज्ञानी लोगों की बात तो मुझे समझ आती है। परन्तु उस अज्ञानता में वे किस प्रकार अबोधिता की बात करेंगे? पर आप लोग तो मुर्ख नहीं हैं। आप तो ज्ञानमय हैं, आपको आत्मसाक्षात्कार मिल चुका है। अबोधिता की शक्ति अति महान है। यह आपको अत्यन्त निडर बनाती है, अहंकारी नहीं निडर। अबोधिता की सबसे बड़ी महानता यह है कि यह सम्मानमय होती है। सम्मान विवेक यदि आपमें विकसित नहीं हुआ है, सहजयोगियों, अन्य लोगों, आश्रम, अनुशासन तथा के स्वयं लिए यदि आप सम्मान भाव विकसित नहीं कर सके तो पूजा सहजयोग की बात तक करना व्यर्थ है। सम्मान-भाव तो इसकी शुरूआत है। ठीक है कि पहले आप सम्मान नहीं करते थे, अहँकारी थे, मूर्खों के स्वर्ग में रहते थे, सब क्षमा कर दिया गया। पर प्रकाश मिलने के बाद आप उन सारे सांपों को छोड़ दें जिन्हें थे । यह इतनी साधारण बात है। अब तक पकड़े हुए आइए प्रथम चक्र को देखें। यह श्री गणेश की माँ- गौरी की शक्ति से सम्बन्धित है। गौरी की शक्तियाँ कितनी आश्चर्यचकित करने वाली हैं? उनकी शक्तियों के कारण ही आपको आत्म साक्षात्कार मिला। हमने उस शक्ति को अपने अन्दर सथापित करने के लिए क्या किया? आज नवरात्रि के प्रथम दिन हमें देखना चाहिए कि हमने क्या किया? क्या हम अपने अन्दर अबोधिता विकसित कर सके? बातचीत करते हुए लोग अत्यन्त कट होते हैं। आप यदि अबोध हैं तो आपमें एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति को अनुशासित करने या यह सब बताने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि आज आपसे इस लहजे में बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता। परन्तु मुझे लगा कि यदि आज मैंने आप को चेतावनी नहीं दी तो कल आप मुझे पूजा के विषय में श्री माता जी का परार्मश कड़वाहट कैसे आ सकती है? वे अत्यंत अक्खड़ हैं। अबोध तुष्टि हुई है। परन्तु विवेकशील व्यक्ति को कुछ कहना नहीं व्यक्ति कैसे अक्खड़ हो सकता है? लोग खेल खेलते हैं। अबोध पड़ता। मौन से ही वह अपने विवेक की छाप दूसरे लोगों पर यदि आप हैं तो आप यह कैसे कर सकते हैं? अतः आपको स्वयं छोडता है। देखना होगा कि यदि अबोधिता की शक्ति की जीवित रखना है तो बाकी सारी मर्खताओं को त्यागना होगा। आप यदि अबाधिता प्रतिद्िन ध्यान करना है। यही अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है जिसे चाहते हैं तो अबोधिता-विरोधी हर बात को छोड़ना होगा। बाल सुलभ स्वभाव में ही आप गौरी के आशीर्वाद को प्राप्त मैं इंग्लैंड में हैँ तो वहाँ के लोग कहेंगे "माँ सब कुछ कर राही कर सकते हैं अन्यथा आपको यह सब बताना व्यर्थ है क्योंकि है।" अतः मैं प्रातः चार बजे उठती हैं, स्नान करती हैं और आप आप तो स्वयं को चतुर समझते हैं। चतुर व्यक्ति से बात करने सब के लिए ध्यान करती हैं। अच्छा हो कि मैं एक बार फिर से का क्या लाभ है क्योंकि वो तो पहले से ही सब जानता है। अतः यह शुरू कर दँ। क्योंकि आपके पास तो ध्यान करने के लिए विकसित होते हुए सर्वप्रथम आप पृथ्वी माँ पर बैठना सीखें। धरा माँ का सम्मान करें क्योंकि पहला चक्र पृथ्वी तत्व से बना है। पृथ्वी पर आराम से बैठना सीखें और पृथ्वी का सम्मान भी। पेड़ों प्रातः उठे। "हम सुबह उठ नहीं सकते।" पूरा विश्व उठ सकता पर जब फल आते हैं तो पेड़ इतने सम्मानमय नहीं होते पर जब है तो अंग्रेज क्यों नहीं उठ सकते? वाटरल के युद्ध में तो वे सब से पेड़ फलों से लद जाते हैं तो वे पृथ्वी माँ के सम्मुख झुक जाते हैं। पहले पहुँच गए थे। समय की पाबन्दी के कारण ही उन्होंने इसी प्रकार सहजयोग के फल पाकर आपको भी नम्र हो जाना लड़ाई जीती। उनकी वक्त की उस पाबन्दी को आज क्या हो गया चाहिए। आपको स्वयं को समझना हैं, केवल स्वयं को। अतः सब को उन सभी देशों के लोग कर रहे हैं जहां मैं नहीं होती। क्योंकि यदि समय ही नहीं है। कम से कम मैं तो आपके लिए ध्यान करू। अंतः आप सब आज मुझे वचन दें कि आप प्रतिदिन ध्यान करेंगे। है? हम शराब नहीं पीते, उसका असर हम पर नहीं होता, रात अबोधिता में व्यक्ति को शान्त करने की शाक्ति है। 'अत्यन्त को हम देर से नहीं सोते। तो क्यों न आज हम निर्णय करें कि शान्त'। क्रोध और हिसा विहीन। अबोधिता विहीन व्यक्ति में शान्ति नहीं आ सकती। ऐसा व्यक्ति या तो धूर्त होता है या मैं अपने पर चित्त दूंगा दूसरों पर नहीं। और स्वयं देखूगा कि मैं आक्रामक। उसका हदय अशान्त होता है। पर अबोध व्यक्ति कहाँ पकड़ रहा हैँ। कौन से चक्र पर मैं पकड़ रहा है और मझे निश्चिन्त होता है और निश्छल जीवन यापन करता है। पर्ण क्या करना है? शान्ति पूर्वक रह हर चीज का आनन्द लेता है। चतुराई व्यक्ति के हिसक बना देती है। स्वयं को अति चतुर मान कर वह अन्य शक्तियों को प्रज्जवलित होना चाहिए और उनकी अभिव्यक्ति लोगों को मूर्ख समझता है तथा उन पर चिल्लाना अपना भी होनी चाहिए। ये शक्तियां असीम हैं। मैं इनका वर्णन एक अधिकार। कपटी व्यक्ति कभी बद्धिमान नहीं होता चाहे देखने में भाषाण में नहीं कर सकती। आदि-कृण्डलिनी के बारे में सोचे । वह ऐसा प्रतीत होता हो। अबोधिता ही विवेक की दाता है। आप वह पृथ्वी माँ, पुरे ब्राह्माण्ड, पशुओं, भौतिक पदार्थों तथा लोगों ने कितना विवेक प्राप्त किया? व्यक्ति को इसका ध्यान मानवों में कार्यान्वित है। और अब वह आप में कार्य करती है। रखना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि क्या हम स्वयं को अनुशासित कर पाये वही निर्णय करती हैं कि आपको कौन सा बच्चा मिले। वही हैं? अनुशासन से ही हमारा उत्थान होता है। हमें बहत विकसित आपको इच्छित बालक प्रदान करती हैं। उन्होंने ही आपको ये होना है। अहंकार ग्रस्त व्यक्ति इस बात को नहीं समझते कि उन्हें सारे सुन्दर बालक प्रदान किये हैं। उन्होंने ही यह दैदीप्यमान उत्थित होना है, अभी तक उनका उत्थान नहीं हुआ। अभी चेहरे और आँखें आपको दी हैं। उन्होंने यह सब आपके लिए आपको बहुत ऊपर उठना है। उत्थान होने पर आपका विवेक किया। परन्तु आपने अपने अन्दर की इस शक्ति की कितनी करूणा की सुगन्ध महक उठता है। हर रोज प्रातः जल्दी उठकर में ध्यान करूंगा। ध्यान करते हुए अतः आज नवरात्रि के प्रथम दिन हमारे अन्दर गौरी की केवल इसी के निर्णय से ही आपको शक्लों-शरीर प्राप्त होंगे। अभिव्यक्ति की? से अबोधिता की शक्ति बढ़ने पर विवेक दिखाई पड़ता है। लोग कहते हैं, "वह व्यक्ति अत्यन्त विवेकशील है। उदाहरणार्थ यदि कोई अपनी पत्नी के लिए रो रहा हो तो बुद्धिमान व्यक्ति कहेगा," ओ बाबा! इसकी ओर देखो, अभी तक अपनी पत्नी की चिन्ता में लगा है।" इन चीज़ों का कोई अन्त नहीं। मैं ऐसे लोगों को जानती हैं जो सहजयोग पर एक-एक घन्टे का लम्बा भाषण दे सकते हैं। उसके विना उन्हें लगता ही नहीं कि उनके अहं की आज सहजयोगी पूरे ब्रह्माण्ड तथा पूरी मानव-जाति के उत्थान के प्रतिनिधि हैं। क्या आप इस बात को समझ गए हैं कि इस संकटमय समय में, जबकि संसार विनाश के कगार पर खड़ा है, आप इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? विलियम ब्लेक जैसे महान दष्टाओं ने इस समय की बात की। उन्होंने इसे बनाया। परम्परागत रूप में हमने यह सब बनाया। सन्तों के कार्य ने ही इंग्लैंड को इस स्थिति तक पहुँचाया। अब क्या आप चैतन्य लहरी 6. जानते हैं कि इंग्लैंड के सहजयोगियों की स्थिति अत्यन्त कोई तरीका नहीं है। आपको परमात्मा के प्रति संवेदनशील महत्वपूर्ण है? परन्तु विवेक के अभाव में, अक्खड़पने से, तथा होना है,बरी चीजों के लिए नहीं। परन्तु परमात्मा से एकाकारिता आत्मा को समझे बिना आप कैसे इतनी ऊँची बात कर सकते हैं? के स्थान पर हम बुरी चीजों के सम्मुख बहुत दुर्बल हैं। अतः आप स्वयं जब तक इतने दर्बल तथा अहंकारी हैं तो सारी चीजों अच्छाई को समझने की शक्तियां आपकी पहुंच में है, यह की व्यवस्था किस प्रकार कर सकते हैं? निसन्देह आदिशक्ति कठोर परिश्रम कर रही है। परन्तु आप लोग, जिनकी कृण्डलिनी जागृत हो गई है, कया कर रहे हैं? आपने बाह्य जगत में आदिशक्ति की कितनी बात की? हुए हैं उन्हें चेतावनी देनी होगी और बाद में उन्हें वर्जित कर कृण्डलिी क्या है? जैसे आप सर्व-साधारण रूप में जानते हैं यह शुद्ध इच्छा है। अतः स्वयं को पूर्णत्व तक विकसित करने की शुद्ध इच्छा करें। वास्तव में यदि यह सच्ची इच्छा है तो कुछ भी कि इंग्लैंडे के लोगों का सहज के प्रति पिकनिक जैसा रवैया महत्वपूर्ण नहीं। बाकी सभी इच्छाएं दूसरे तथा तीसरे दर्जे की देखकर मुझे बहुत दुख होता है। आपके प्रयत्नों की सराहना (गौण) हैं। उत्थान की इच्छा ही सर्वोपरी है। किसके हित के करने के लिए मैंने बहुत कोशिश की और सदा इसमें लगी रही। लिए? यह आपके हित के लिए है और आप के हित में पूरे विश्व का हित निहित है। अतः आज मैं गिनती नहीं करूंगी कि कितने लोग प्रवेश करता है तो प्रणाम करने के लिए सब की कुणडलनी उठ प्रतिदिन ध्यान करते हैं और कितने नहीं करते। मैं आपको केवल जाती है। जब आपमें गौरी की शक्ति आ जाती है तो आप विशेष इतना बता सकती हूँ कि जो लोग प्रतिदिन ध्यान नहीं करते, बन जाते हैं क्योंकि आपमें पवित्र, अबोध सुन्दर लालच विहीन अगले वर्ष वो यहाँ नहीं होंगे। मेरी बात समझ लें, यह सत्य है। दृष्टि आ जाती है, आपकी आंखों में एक ऐसी चमक आ जाती है प्रतिदिन ध्यान अवश्य करें। स्वयं को अनशासित करें। एक नये कि आपके कटाक्ष मात्र से तरन्त कण्डलिनी उठ जाती है। गौरी परिदृश्य में आप आ गए हैं। अब इस नये स्वपन को जब आप की शक्ति विकसित होने से ही कैन्सर आदि सभी बिमारियां देखते हैं, इसे समझते हैं तो आप दर नहीं खड़े रह सकते इसमें उतरें। शक्तियां मात्र प्रशंसा बन कर नहीं राह जानी चाहिए, यह एक प्रकार की चुनौती, एक प्रकार की सुन्दर जिज्ञासा और विकास बन जानी चाहिए। जिन लोगों ने स्वयं को केवल लेबल लगाए दिया जाएगा। यहां पर चैतन्य लहरियों की दशा देखकर और अन्य चीजों को देखकर मुझे खेद होता है। आप लोग नहीं जानते आप अब अपने अन्दर झांकिए। जिस व्यक्ति में गौरी की शक्ति है वो जब किसी स्थान पर ३ तुरन्त ठीक हो सकती है। आपकी सारी समस्याएं हल हो सकती हैं। सारी ब्राइयां भाग जाती है और सब प्रकार की सभी लोग कहते हैं कि श्रीमाताजी आप ने इन अंग्रेजों के लिए नकारात्मकता को वश में करते हुए आप एक सुन्दर, सुगन्धित बहुत समय खर्च किया है। उनके लिए इतना समय क्यों खर्च कमल बने जाते हैं। किया? हो सकताहै कि आप लोग स्वय को बहुत महान समझ रहे हों। जैसे मर्जी सोचिए। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपके अन्दर छिपे हुए तत्व को सब लोग देखें। किसी मित्र, आपका देश हृदय भूमि है इसलिए मुझे दूसरों की अपेक्षा आपको मंगेतर, पत्नी या पति की चिन्ता करना कोई उच्च स्थिति की अधिक शुद्ध करना पड़ता है। परन्तु परिणाम उल्टा है। दूसरे बात नहीं। आपकी स्थिति बहुत नीची है और गिरती जा रही है। लोग बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। उनकी लहरियां उनकी संवेदना, यह अच्छी बात नहीं है। मेरी करूणा और प्रेम यदि आपको उनकी सुझ-बुझ, जोकि उन्होंने अभी-अभी प्राप्त की है, उसको बिगाड़ रहे है तो अच्छा होगा कि मैं यह सब आपको न दं। देखकर मुझे आश्चर्य होता है। परन्तु यहां पर यह बड़ी केन्द्रित अपनी योग्यताओं के कारण ही आप इस देश में जन्में हैं। महान सी चीज बनती जा रही है, सभी लोग सहजयोग को समझना नहीं ऊंचाइयां प्राप्त करने की योग्यता आपमें है। आप इन्हें प्राप्त कर चाहते वे केवल भाषण देना चाहते हैं। बड़ों के लिए कोई सम्मान सकते हैं। परन्तु इनके बारे में केवल बातचीत करने से यह प्राप्त नहीं है जिन्होंने पहले आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया वे स्वयं को न होगी, उसके लिए आपको वह महान शक्ति बनना होगा। बहुत ऊंचा समझते हैं। उन्हें इसा का कथन याद रखना चाहिए अतः वह शक्ति बने। कि "पहला ही अन्तिम होगा।" अतः समझने का प्रयत्न करें कि आपको ही विकसित होना है और आपने ही इन शक्तियों की उन्होंने इनके बारे में मझे बताया तो मुझे बहुत हैरानी हुई। उन्हें अभिव्यक्तियां करनी है। शक्तियों की अभिव्यक्ति को, मैं नहीं असीम आशीर्वाद मिले। तो यहां पर वह आशीर्वाद नहीं प्राप्त म "वही शक्ति बनें।" तत्व को देखें, अपने अन्दर झांके। काम लोगों ने जो सामूहिक आर्शीबाद प्राप्त किये हैं उन्हें देखें। जब जान पाई, आप कहां तक समझ सके हैं। यहां इंग्लैंड में लोग कहते हैं, "मैंने उस व्यक्ति को छ लिया हैं, अगर हममें परस्पर कोई समस्या है, तो इसका मतलब यह है और अब मेरा अहंकार बढ़ गया है।" संवेदनशील होने का ये कि हमारे बीच में अभी भी एक प्रकार का अहम् है जो हमें कर सकते? हमारे साथ क्या समस्या है? यदि हम सामूहिक नहीं पुजा के विषय में श्री माता जी का परामश सामूहिक नहीं होने दे रहा । अतः अब हम इस बात को अपने हृदय की गहनता में उतारें कि, "परमात्मा की कृपा से हम एक ऐसे समय पर जन्में हैं जब यह घटना घटित हुई, कि हम लोगों को परमात्मा के आशीर्वाद का लाभ मिला, कि हमें आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ और हम इतना ऊंचा उठ पाये। अब हमें अपने पंख फैलाने चाहिए। सहजयोग में गहन है तो आप हर चीज में गहन होंगे। परन्तु आपमें गहनता नहीं है। शर्मनाक बात है कि परमात्मा के मन्दिर में अभी तक भी लोग बुरी चीजों से ग्रस्त हैं। यह कैसे हो सकता है? वे बिल्कुल मौन रहते हैं या व्रत करते हैं। यह सब अनुशासनविहीनता है। अध्यात्मिक जीवन में ऊंचा जाने के लिए आपको चाहिए कि अपनी आत्मा से अनशासन लें। तब आप म्युनिक में (अक्खड़पने के बाद) वे लोग गहन हो गये. अनेक स्वतः ही अनुशासित हो जाएंगे। आत्मा को स्वयं पर राज्य करने बच्चे तक भी इतने गहन हो गये कि मेरे कहे एक-एक शब्द को दे यह सभव है। बहुत थोड़े से समय में मैंने यह देखा है कि यह सुनने लगे, मानो मोती चुन रहे हों। मेरे एक-एक शब्द को संभव है। मैं तो नाम भी नहीं जानती। पर यहां पर तो आप लिखने लगे। वे अच्छे कार्य करने का निर्णय किया तो वे बहत भले कार्य करेंगे। हूँ। और वे लोग इतने ऊंचे चले गये आज का दिन एक महान लेकिन यहां लंदन में मेरे जाते ही लोग कार्य की बातें करने लगते दिन है एक महान अवसर है। हाऊस ऑफ लार्डस (राज्य सभा) हैं। मैं इसके बारे में सुनती हैं और लहरियों आदि से जानती हैं। की तरह आप भी विशिष्ट व्यक्ति हैं। यह सत्य है, परन्तु एक हम गहन नहीं है, गहनता को बढ़ाना हमारे लिए अत्यन्त दिन ऐसा आ सकता है जब हाऊस आफ लार्डस को पूर्णतः आवश्यक है। इसी को श्रद्धा कहते हैं। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण निषिद्ध कर दिया जाएगा। आपको देवताओं कि तरह व्यवहार है। मुझे विश्वास है कि इस वर्ष आप सहजयोग को गहनता करना होगा। अंतः मेरी प्रार्थना है कि आप अनुशासन की पूजा पूर्वक समझेंगे। हो सकता है कि भूतकाल में आपके साथ कोई करनी सीखं। मैं यह नहीं कहती कि 'ऐसा करें वैसा करें, आप समस्या रही हो आप बंधनों में फंसे हों या इसके बारे में जानते हैं कि क्या करना है। और सबसे बड़ी बात यह है कि आप अधिक सोचते हों। मैं यह कैसे कर सकती हैं? आप कर सकते मुझे यह न कहा करें, "मैं जानता हूँ, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए हैं। आप ही अपने भूतकाल को भूला सकते हैं। सहजयोग में था..." जब आप एक चीज को जानते हैं तो उसको करते क्यों भूतकाल का कोई अर्थ नहीं होता। आपका पर्ण नवीनीकरण हो नहीं? आप शक्तिशाली हैं आज पूर्ण आत्मविश्वास के साथ और रहा है, आप बस अपना तन्त्र उपयोग करें। आपके तन्त्र को ठीक अपने. उत्थान पर विश्वास के साथ पूर्ण गहनतापर्वक हम इस रखने के लिए मैं आपके साथ बहुत परिश्रम करती हूँ। परन्तु आपमें आत्म- विश्वास नहीं है और आत्म-विश्वास की कमी जिनमें होती है वे बहुत ही अक्खड़ होते हैं। अतः सर्वप्रथम स्वयं शुरू हो रही है। वेगशील चैतन्य लहरियों का लाभ उठाएं। को आत्मा में स्थापित करो। अपने के अन्दर और अपनी शक्तियों को बिकसित करने का प्रयत्न करो। अपनी आन्तरिक शक्तियों का, बोलने और दिखावा करने की शक्तियों का नहीं, इंग्लैंड हृदय है, जहां आत्मा (शिव) का निवास है और इंग्लैंड में आन्तरिक शक्तियों का। सबको आपक नामों से और आपकी चैतन्य लहरियों से जानती दृढ़ निश्चय वाले लोग हैं यदि एक बार उन्होंने र बहुत पूजा में भाग लें और अपने हृदय में निश्चय करें कि, "मैं स्वयं को अनुशासित करूंगा।" एक महान शक्ति के साथ नवरात्रि यह एक महान बात है कि इंग्लैंड में हम गौरी (वर्जिन) कि पूजा कर रहे हैं, जैसा कि आप जानते हैं, सहजयोग के अनुसार हृदय गौरी का सम्मान तथा पूजा होना सभी सहजयोगियों के लिए बहुत सम्मान की बात है। अब आप पूछ सकते हैं कि गौरी को इतना सम्मान क्यों दिया जाता है? एक कुमारी को इस सीमा तक सम्मान क्यों दिया जाता है? एक कमारी कि क्या शक्तियां हैं? वह ईसा मसीह जैसे महान शिशु को जन्म दे सकती है, अपने शरीर के मल से बह श्री गणेश की रचना कर सकती है और अपने अहम् विहीन बच्चों की अबोधिता तथा प्रगलव्धता (गतिशीलता) की रक्षा कर सकती है। अतः यह शक्ति उसी व्यक्ति में निवास करती है जिसके बहुत से पूर्व पुण्य हों, जिसने पूर्व जन्मों में बहुत से अच्छे कार्य किए हों, जिसने यह समझ लिया हो कि कौमार्य अवस्था (पवित्रता) सभी शक्तियों से शक्तिशाली है और जिसने अपनी कौमार्य अवस्था और पवित्रता कि रक्षा जी जान से की हो। आप जानते हैं कि हमारे शरीर में गौरी कुण्डलिनी के रूप में स्थापित की गयी है अर्थात् वे गौरी हम अपने पंख काट रहे हैं। संकीर्ण बुद्धि व्यक्ति मत बनिए, छोटी-मोटी चीजों की चिन्ता छोड़ दिजिए, ये सब महत्वहीन है। यदि आप अपने पूर्व जन्मों की ओर देखें तो आपको पता लगेगा कि आप हर तरह के भोजन खा चूके हैं, हर तरह की यात्राएं कर चुके हैं, सभी प्रकार के विवाह करा चके हैं और वो सभी मुर्खतापूर्ण कार्य कर चुके हैं जिनमें लोग अपना समय बर्बाद करते हैं। अब यह सब समाप्त हो चुका है। अब आप कोई नया कार्य करें। पूर्व जन्मों में आपके कितने विवाह हए और आपने कितने आनन्द उठाए। अब इन्हें त्याग दीजिए। यह एक विशेष समय है। ऋतम्भरा का समय है जिसमें आपको विकसित होना है। इसका पूरा लाभ उठाना है। पूर्ण गहनता के साथ आपको सहजयोग करना है। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप सभी अपनी नौकरियां छोड़ दो या सभी कुछ छोड़ दो। यदि आप ती ा चैतन्य लहरी ৪ एक अन्य बात है? क्षमा इसलिए दी जाती है कि शिव की क्षमा से वे अधिक समय तक जी सकें, पर उसका क्या लाभ है? ये जीवन कितना दयनीय हैं। अबोधिता बिहीन लोग आनन्द प्रदायक नहीं हो सकते। वे स्वयं दयनीय होते हैं और दूसरों को भी दुखी करते (वर्जिन) हैं। वह अछूती है। आत्मा बनने की इच्छा भी निर्मल है। उसमें कोई मल नहीं। यह शुद्ध इच्छा है। परमात्मा से एकाकारिता के सिवाय कोई और इच्छा नहीं शेष सभी इच्छाएं समाप्त हो गयी हैं। आप आशिवार्दित हैं। अतः शिकायत करने तथा आक्रमक हैं। अक्खड़पना बालसुलभ गुण नहीं है हमें बच्चों की तरह से होने के स्थान पर आप जान लें कि यह आप पर महान कपा हुई होना है। परन्तु आप शिशुवत नहीं थे फिर भी आपको है। महानतम कृपा की आपको पूर्ण क्षमा दे दी गयी है और इस आत्मसाक्षात्कार दिया गया। परन्तु अब आप देवों के साथ बैठे कृपा का आशीर्वाद आपको दे दिया गया है। इसके स्तर पर आने हैं, उनसे भी ऊंचे। तो हमारी शोभा क्या है? नम्रता, सादगी। के लिए आपको कठिन परिश्रम करना होगा। दोष भाव ग्रस्त हो चतुराई, अहंकार दूसरों का अपमान, दिखावा, हमें शोभा नहीं कर नहीं, नम्र और कृतज्ञ होकर। अपने सारे ककत्यों के बावजूद दत, पूर्ण समपण और अपने अहंकार का त्याग ही हमारी सज्जा भी आज हम देवताओं के समान बैठे हुए हैं। सोमरस, चरणाम्त, श्रीमाताजी के चरण कमलों का धोवन, पीने की केवल आप लोगों, देवताओं को ही आज्ञा है। उस श्रेणी में आप बैठे हुए हैं, नहीं है। गौरी की यह विशेषता है क्योंकि वो स्वबाव से शाश्वत फिर भी आप इतनी मांगें कैसे कर सकते हैं? आप में से किसी में भी, स्त्री या पुरूष, मैं नहीं चाहती दोष सभी अवगुण जैसे धर्मान्धता, जातीयता और कौम का अहम भाव विकसित हों। यहं मैं नहीं चाहती क्योंकि दोष भाव सबसे आदि सभी समाप्त हो जाते हैं। परन्तु व्यर्थ की बातों को अपने बड़ी बुराई है जो कि आगे चलकर आपको विपरीत दिशा में ले मस्तिष्क में स्थान देने से आप अबोध नहीं बन सकते। जाती है। इससे कोई सहायता नहीं मिलती। जब हमें यह पता कण्डलिनी कि जागृति से निसन्देह, आप अबोधिता को प्राप्त कर चले कि हममें यह समस्याएं हैं तो इन के प्रति हमें नम्र हो जाना सकते हैं। परन्तु इस अवस्था को बनाए रखने के लिए आपकी चाहिए। दोषभाव पूर्ण नहीं, नम्र। आप यदि सहजयोग के प्रति उन्नति आन्तरिक होनी चाहिए, बाह्य नहीं। अपनी जड़ों को नम नहीं हैं और अक्रामकतापूर्वक कहते हैं कि आपको सहजयोग खोजें, कृण्डलिनी आपका मूल है, आपके अस्तित्व की जड़ें हैं। से क्या मिला और बिना अपने पुण्यों को देखे इसकी शिकायत वही आपकी नींव की अभिव्यक्ति करती है अतः आपका चित करते हैं तो लाभान्वित होने का क्या अधिकार है? आपकी सभी अपनी जड़ों की ओर होना चाहिए अपनी कोपलों की ओर नहीं। खामियों के बावजूद आपकी कृण्डिलिनी उठा दी गयी। यह बात आप जानते हैं। है। गौरी उन विचारों को स्वीकार नहीं कर सकती जो शाश्वत है। आपके अबोध बनते ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करने वाले अपना सामना करें और अब अपनी जड़ों को बिकसित करें। आप देख सकते हैं कि सारा पश्चिमी समाज आधारविहीन है। आज देवों की तरह आप और हम बैठे हुए हैं। आपको अपने आप क्योंकि मैं भी तुम्हारे साथ हूँ तो गश्चिमी होने के कारण हमने को विनम्र करना होगा, अपने भूतकाल को अपनी गलतियों को अपनी जड़ों को खो दिया है। आइये हम इसका सामना करें। हमें देखते हुए। इस कार्या में मैं आपके साथ हैं। दोषभाव ग्रस्त न हो। अपनी जड़ों को खोजना है। इसका सामना करने को प्रयत्न करे। जैसे भी हम हैं हमें अपना सामना करना है। जब हम अपनी अबोधिता और कौमार्य दिन हमारे लिए नववर्ष का दिन है, तो आज आप सबको शपथ अवस्था खो दते हैं तो सर्वप्रथम हम अहम् ग्रस्त हो जाते हैं, और लेनी होगी कि, "अपने भयंकर क्रोध, रौबिले स्वभाव, जोरदार सोचने लगते हैं कि बुराई क्या है? आपकी कण्डलिनी ही आपकी आचरण, अहं चालित कठोरता एवं दूसरों पर प्रभुता जमाने की शक्ति है और वह पवित्रता है। वही आपकी शक्ति है। प्रवृति का हम त्याग करेंगे। मेरी समझ में नहीं आता कि इन अबोधिता ही आपकी शक्ति है। और जिस दिन आपने इसे खो दुर्गणों का क्या लाभ है। जब तक आप इनका समर्पण नहीं करते दिया उसी दिन हमने प्रथम पाप किया। इसके प्रति नम्र होकर तो गौरी एवं श्रीगणेश आपके अगन्य चक्र को नहीं खोलेंगे। कुछ प्राप्त करना महत्वपूर्ण है। क्या? साम्राज्य और ऐश्वर्यपूर्व हमारे पूर्वक्मों से हमें समझ आ जानी चाहिए कि हमें परस्पर एवं जीवन नहीं प्राप्त करना, शिव की इस पवित्र भूमि में एक स्थान दूसरे सहजयोगियों से नम्र करूणामय, प्रेममय होना है तथा अपने अन्दर कौमार्य अवस्था को पुनंजन्म लेने दें आज का कितना शाश्वत हमें बनना है। प्राप्त करना है। किसी जड़ विहीन पेड़ को देखिये। यह सूख जाता है, छाया नहीं देता और मृत सम होकर गिर जाता है। इस पर कांटे निकल आते हैं। यह उस मरूस्थल की तरह हो जाता है जिसमें केवल कांटे ही उग सकते हैं। जब पुरा समाज इतना मुर्ख हो जाता है कि शिव क्षमा रूप हैं। वे सब को क्षमा कर देते हैं। राक्षसों को भी क्षमा किया जा सकता है, पर क्या उन्हें साक्षात्कार दिया जा सकता है? पिशाचों (स्त्री राक्षसों) को भी क्षमा किया जा सकता है। लेकिन क्या उन्हें आत्मसाक्षात्कार दिया जा सकता है? क्षमा पजा के विषय में श्री माता जी का परामर्मश आनन्द की हत्या करते हैं। आपके सम्मुख हाथ जोड़ते हुए मुझे एक दसरे से बहां कमल और गुलाब के फूुल नहीं खिल सकते। परन्तु आप लगा कि कहीं इससे आप को दुःख न पहचे, इसलिए मैंने हाथ सब तो इस देश के कमल हैं। यह ठीक है कि आपने कीचड़ में नीचे कर लिए। अपनी दोनों हथेलियों के बीच मैंने, बड़ी जन्म लिया परन्तु अब स्वयं में लौट आइये। आप सन्दर थे, सावधानी पूर्वक आपका हृदय पकड़ा हुआ था ताकि इसे चोट न कमलसम थे, कीचड़ में गिरकर कीचड़ जैसे हो गये परन्त अपने पहुँचे। सच्चे स्वभाव के कारण आप उस कीचड़ से बाहर निकल आए हैं। आप कमल तो बन गये हैं परन्तु सुगन्ध अभी भी नहीं है। कि वह अपने अन्दर घूणा की कितनी लहरियां बना रहा है। सुगन्ध विहीन कमल की बात समझ में नहीं आती। कमल में तो लोगों को प्रेम करने के लिए मझे प्रतिदिन चौबीस घंटे भी कम सुगन्ध होनी ही चाहिए। वह सुगन्ध जो इस कीचड़ कि गन्दगी पड़ते हैं। साठ वर्ष की आयु में भी मुझे लगता है कि मैं उतना प्रेम पर छा जाए। आपको भारतीय सहजयोगियों से भी अधिक नहीं दे पाई जितना मुझे देना चाहिए था। प्रेम का बहाव इतना विकसित होना होगा। परन्तु यहां के लोगों की अक्खड़ता को तेज है कि इससे मेरे शरीर में कष्ट हो जाता है और कभी-कभी देखकर तो मैं आश्चर्यचकित रह जाती हूँ। वो सदा शिकायतें ही तो मैं स्वयं को कोसती हैं कि प्रेम का इतना अधिक वजन मैं क्यों करते रहते हैं। वे स्वयं को कया समझते हैं। आप कौन है? जड़ी हो रही हूँ? पजा के बारे सोच कर भी कई बार मुझे घबराहट के विकसित न हो पाने की वजह से यह सब है। घृणा करने लगे और भौतिकतावादी बन जाए तो जबान से किसी को चोट पहुचाते हुए व्यक्ति ये नहीं जानता होती है कि अब क्या होगा। कभी कोई प्रश्न करता है कि "श्री माता जी क्या हम चैतन्य लहरियों को नहीं सोख पाये?" यह स्पष्ट है पर मैं इसे कहना नहीं चाहती। क्योंकि यदि मैं ऐसा कहुँगी तो आपकी विशुद्धि पकड़ जाएगी। तब आप लहरियों को उतना भी नहीं सोख पाएंगे। एक बार जब आप अपनी जड़ों को विकसित कर लेंगे तो आपके स्वभाव में तुरन्त ही नम्रता आने लगेगीं। अभी तक बनावटी नम्रता है जो कि हृदय से नहीं है। जब आप अबोध बन जाएंगे, पवित्र बन जाएंगे तब ये अस्वाभाविक नहीं रहेगी। अबोधिता का अर्थ केवल चरित्र से ही नहीं होता, इसका अर्थ अभौतिक दृष्टिकोण भी है। लोगों के लिए बच्चों से अधिक कालीन महत्वपूर्ण है। भौतिकता आप पर और आपकी परमात्मा का मस्तिष्क परिवर्तन करेंगे। क्रोधमय परमात्मा का। अबोधिता पर आघात हैं। अब समय आ गया है। अपने सदाचरण से आप लोग ही आप लोग ही उसे प्रसन्न करेंगे इस पार्चात्य विश्व में और कौन उसका अधिकारी होगा? बाकी लोगों के हितार्थ करूणा के देवता को जागृत करने के लिए आप लोगों को विशेष रूप से चुना तथा तैयार किया गया है। सहजयोग प्रचार कार्य में अक्खड़पने का क्या परिणाम हुआ। एक कार्य क्रम में एक हजार लोग आये और अनवर्ती (फोलोअप) कार्यक्रम में केवल तीन लोग मैंने अपना बहुमूल्य समय अधिकतर इसी देश (इंग्लैंड) तथा पश्चिम में ही बिताया है। इसके बावजूद भी यहां का अहंकार मुझे आश्चर्य चकित कर देता है। इतना अहं-भाव है कि कभी कभी तो वो मेरे प्रति भी अक्खड़ होते हैं। मेरे साथ उनकी बातचीत तथा व्यवहार मुझे समझ नहीं आता । अपने जीवन में मेंने देखा है कि वस्तु यदि आप किसी को भेंट कर सके तो वह आपको अधिक आनन्द प्रदान करती है। देने में मुझे लेने से अधिक आनन्द आता है। आप भी ऐसा करके देखें। किसी चीज से पीछा छुड़ाने के मक्सद से आप उसे उपहार में न दें। स्वामित्व भाव दासता मात्र है। यह आपके उत्थान में बाधा है। भौतिकता यदि अमृत से परिपूर्ण उस प्याले की तरह है जो प्रेमामृत प्रदान करता है तो ठीक है। परन्तु आप प्याले को तो नहीं खा लेते? भौतिकता से मुझे ऐसा लगता है जैसे लोग अमृत को छोड़ प्याले को खा लेते हैं। कप अधिक महत्वपूर्ण है या अमृत? सोने के प्याले में यदि विष भरा हुआ है तो क्या आप उसे खा लेंगे। क्या कोई जान बूझ कर सोने के प्याले में जहर पी लेगा ? विवेक का अभाव है। अर्थ शास्त्र का मूल-सिद्धान्त है कि भौतिक वस्तुएं आपको प्रसन्नता नहीं प्रदान कर सकती। मुझे अत्यन्त नाजुक कार्य करना है। आप पहले से ही जख्मी लोग हैं क्योंकि आपने स्वयं को आहत किया है। किसी और ने आपको आहत नहीं किया। हर सम्भव तरीके से आपने स्वयं को चोट पहुँचायी। चोट के कारण आप में दोष भाव आ गया और अब आप दूसरों को आहत कर रहे हैं। स्वयं को चोट न पहुँचायें। दूसरों के प्रति कठोर होना आपका कार्य नहीं है। आपको मधुर एवं करूणामय होना होगा। मनोवैज्ञानिकों के बहकावे में न आयें कि यदि आप कठोर नहीं होंगे तो दूसरे लोग आपका अनुचित लाभ उठाएंगे पश्चिम के लोगों का कौन लाभ उठा सकता है? जिन्होंने पूरे विश्व के साथ अन्याय किया है वे यदि ऐसा कहें तो बड़ा विचित्र लगता है। उनकी बात मेरी समझ से बाहर है। मेरी अबोधिता मुझे उन स्थानों पर ले जाती हैं जहां भैंट योग्य वस्तुएं मिलें। क्योंकि मैं इन्हें भेंट कर पाती हूँ इसलिए मुझे बहुत आनन्द मिलता है। आत्मा की बास्तविक शक्ति, कौमाय्यावस्था (पावित्र्य) के अभाव के कारण ही आपने आनन्द विवेक को खो दिया है। आप लोग आनन्द के हत्यारे हैं। सुबह से शाम तक अपनी जबान से कठोर शब्द कह-कह कर आप एक दूसरे के चैतन्य लहरी 10 अक्खड़पना कहीं भी और कभी भी हो सकता है। बैल्जियम में मैंने पाया कि वहां की गृहणियाँ बर्तानियां की गृहणियों से भी अधिक अक्खड़ हैं। बड़ी भयंकर स्त्रियां है। प्रेम-स्नेह का नितान्त अभाव है उनमें। हर समय भौतिकता का प्रदर्शन। चाहिए। आपके लिए सभी कुछ उपलब्ध है। परन्तु आपको नम्रता पूर्वक जड़ों में जाना होगा, अहं पूर्वक नहीं। यह समझना हमारे लिए आवश्यक है कि हम उन्नति क्यों नहीं कर पा रहे। वास्तव में आत्म-विश्वास की कमी के कारण ही व्यक्ति अक्खड़ हो जाता है। जिनके "आत्म की अभिव्यक्ति नहीं हो रही उनका आत्म बिश्वास लड़खड़ा जाता है। अपने आत्म की अभिव्यक्ति होने दें। आत्म अभिव्यक्ति के अभाव में ही सभी प्रकार की समस्याएं होती हैं और तब आप शिकायत अत्यन्त शुब्क स्वभाव है। पर वे आत्मसाक्षात्कार पा कर महान होना चाहती हैं। मैं उन्हें समझ नहीं पाती। आज पावित्र्य का दिन है। मुझे इंग्लैंड की स्त्रियों से बहुत आशा है। पुरूष यहाँ बिल्कुल नहीं बोलते। बैल्जियम के पुरूषों का तो जैसे स्त्रियों ने गला ही घोंट दिया हो। उस देश का अन्त 1. करते हैं। जरा सोचिए कि जिस परमात्मा ने इस बरह्माण्ड की रचना की, जिसने इतने प्रेम से आप सब को बनाया, आपको सब क्या होगा? पर वहाँ की स्त्रियों ने क्या पा लिया है? यहाँ भारत में कम से कम एक स्व्री तो प्रधान मन्त्री हैं। वो क्या हैं। व्यर्थ, घर में बर्तन मांजती हैं और हेकड़ी जताती हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि वे क्या त्याग कर सकती हैं। कुछ दिया, जिजिसने आपको आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया. आत्मा रूप में आपको प्रकाश दिया, हर सम्भव चीज़ दी, आप उसी को शिकायत कर रहे हैं। आप अपने बारे में शिकायत न करें कि "मैं सहजयोग में एक नया पृष्ठ खुल चुका है। इसके विषय में ठीक नहीं हैं, मुझे ठीक होना चाहिए।' अपना सामना करें। आपको चेतावनी देना आवश्यक है। सहजयोग से स्वतन्त्रता न लें। आप किसी और पर अहसान नहीं कर रहे। सावधान रहें। मेरी चेतावनियों को गम्भीरता पूर्वक लें। आप सब को ठीक से नहीं है।" उन्हें लज्जा आनी चाहिए कि उनमें कुछ कमी है। वह विकसित होना होगा। केवल मेरी पूजा से लाभ न होगा। अच्छा हो कि अब आप अपनी पूजा करें। अपने अन्दर स्थित सभी गामीण सहज लोगों में पूर्ण विवेक मिलता है। आप यदि उन्हें देवताओं की आपको पूजा करनी होगी। उन्हें शुद्ध सर्वप्रथम नम्रता, अवोधिता तथा सहजता के देवी देवता हैं। उनकी करें। उनकी पूजा किए बिना आप आगे नहीं बढ़ ग्रामीण को बेवकफ बनाने का प्रयत्न करे तो वह पाएगा "कि बहुत से लोग जिन्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं मिल पाता बे अत्यन्त गर्व से कहते हैं "मुझे कुछ नहीं अनुभव हुआ, माँ कुछ कमी ठीक होनी चाहिए। विवेक अबोधिता का एक हिस्सा है। करें। मुर्ख बनाने की कोशिश करें तो अन्त में आपको लगेगा कि "मैं स्वयं ही बहुत बड़ा मुर्ख हूँ।" कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति यदि किसी पूजा सकते। आपकी रक्षा भी नहीं की जाएगी। त्याग से ही स्त्री पहचानी जाती है। यह चुनौती है। आप सब आत्मसाक्षात्कारी स्त्रियों को मेरी सलाह है कि स्वयं को नम्र बनाएं। किस लिए आप हर बात पर जोर डालती हैं? किसलिए? अहंग्रस्त तथा गलघोटी व्यक्तियों का गौरी पूजा कर पाना पृथ्वी पर वह स्वयं सबसे बड़ा मुर्ख पैदा हुआ है।" विद्वान यदि नम्र नहीं तो उसे विद्वान नहीं कहा जा सकता। आप अपनी आत्मा हैं अतः स्वयं को आत्मा रूप में देखें। आत्मा शाश्वत है, अबोधिता है, आपके अन्तः स्थिति गौरी है। इसका सम्मान करें, अपने अन्दर विद्यमान गौरी का सम्मान कर। योदि यह आपके अन्दर न होती तो मैं आपको आत्म साक्षात्कार कभी न देती। सारे आघातों के बावजूद भी यह अन्दर विद्यमान है। विश्वास करें कि इसके अस्तित्व के अभाव में असम्भव है। गरी अत्यन्त सहज हैं। अत्यन्त सहज। वह आपकी योजनाओं को नहीं समझती। उसका पावित्र्य ही उसका महत्व है। उसे वह जानती हैं तथा उस पावित्र्य को छने की आज्ञा वे किसी को न देंगी। यही उनकी सम्पत्ति, वैभव तथा महानता है। वे नम्र हैं क्योंकि उन्हें किसी का भय नहीं है। वे आक्रमक नहीं है। वे किसी को आक्रामक नहीं होने देती। वास्तव में पवित्र स्त्री के प्रति आक्रामक होने का कोई दुःसाहस नहीं कर सकता। आपको आत्मसाक्षात्कार न मिल पाता । सहजयोग प्रणाली (विद्या) में हम जितने पारंगत हों उतना ही नम्र हमें होना होगा। यही (नम्रता) हमारी सज्जा है, प्रमाण पत्र है तथा मानव औअस्तित्व में प्रवेश पथ है। अन्य साधकों के समीप मैं फिर कह रही हैँ कि सहजयोग से आजादी न लें। इसने सारे आशीर्वाद आप को दिये हैं। सूर्य ी रोशनी आपने देख ली है। जाने का यही मार्ग है। नम्र होना, नम्र होने की विधियां खोज निकालना ही निर्मल विद्या की कुजी है : "नम्र किस प्रकार रात का सामना करने के लिए भी तैयार रहें। कोई भी आजादी हों। लेने का प्रयत्न न करें। स्वयं को सधारने का प्रयत्न करें। आश्रम अबोधिता आपको आनन्द लेने की शक्ति प्रदान करती है। जैसे मुझे कभी भूतों के साथ खाना पड़ता है और कभी भूतों को खाना पड़ता हैं जो कि बहुत कठिन है। अतः भूतबाधित लोगों का आप भी बुरा न मानें। यदि वे अक्खड़ हैं तो उन्हें बन्धन दें और में रहते हुए कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। आश्रम आपकी सुविधा के लिए नहीं है। समझ लें कि किसी को आपकी आवश्यकता नहीं है। यदि आप साधक हैं, अपनी जड़ों को खोजना चाहते हैं तो आपको स्वयं की आवश्यकता होनी पूजा के विषय में श्री माता जी का परार्मश 11 इन सारी विधियों से उन्हें वश में करने का प्रयत्न करें। परन्तु है। मुझे ऊपर उठाइये, मुझे उन्नत कीजिए। अपने पुराने यदि आप सोचें कि बहस करके आप उन्हें सम्हाल लेंगे तो अस्तित्व को मैं भूलाती हैं। मैंने सभी कुछ छोड़ दिया। मेरी एक है. मात्र इच्छा है कि अधिकाधिक ऊँचा उठाइए। मुझे अपने में असम्भव है। अतः निर्मल विद्या का उपयोग करें जो कि नम्रता है। जो चैतन्य लहरियों की मज्जक हाल है (Myelin Sheath )। विलय दे दीजिए बाकी सब महत्वहीन है। इस इच्छा की शेष हर नाड़ी पर जैसे मज्जक ढाल होती है, इसी प्रकार नम्रता भी सभी अभिव्यक्तयां समाप्त हो गई हैं। मेरी आत्मा, अब मैं गज्जक ढाल है। यदि आप नम्र हैं तो युद्ध जीत लेंगे, नहीं तो आप पुर्णतया आपके प्रति समर्पित हँ। मझे और ऊँचा उठाइए। और खो जाएंगे। यदि आप नम्र हैं तो सभी कुछ आपके लिए एक ऊँचा, उन सब चीजों से दूर जो आत्मा न थी। मुझे पूर्ण आत्मा मज़ाक बन जाएगा। यदि आप नम्र हैं तो आप मुखों, भूतों तथा अक्खड़ लोगों को इस नाटक के विदषक के रूप में देख सकते हैं। तो अपने अन्दर गौरी की पजा करें। अपने पावित्र्य की किरण की गति बहत बढ़ जाती है। इसी क्षण और सदा, जो आत्मा नहीं रचित हीरे पर बैठने के लिए हम स्वयं को उन्नत करें। दसरे लोगों से आप नाराज हो सकते हैं पर सहजयोगियों और मझ से ह उस याद आप छाड़ दे तो आप ऐसा कर सकते हैं। आत्म नहीं हो सकते। आवश्यक होने पर ही दसरों से नाराज हो सकते. विराधा चीजा को छाड़ना आवश्यक है। यही शाद्ध इच्छा है, यही हैं। परन्तु यदि आप परस्पर लड़ते हैं और दसरों को सहजयोग के कुण्डोलनी है, यही गौरी है। यही आत्मा से पूर्ण एकाकारिता है। बारे में बताते हैं तो कोई आपका विश्वास नहीं करेगा। बना दीजिए, केवल आत्मा। सभी कुछ भुला दीजिए। उस बलन्दी, उस उत्थान को पाने बाकी सब सारहीन तथा व्यर्थ है। उत्थान ही महत्वपूर्ण है। आपकी जो सम्पत्ति हो, किसी से भी आप विवाहित हों, कहीं भी आप कार्य करते हों, आप किसी भी देश के हों- आप आत्मा हैं। अपनी आत्मा तथा मेरे साथ नम्र होने का प्रयास करें। मेरे प्रति नम्र होना अत्यन्त आवश्यक है। आपकी समझना चाहिए यदि आप उन्नत हो जाते हैं तो आप परमात्मा के सुन्दर साम्राज्य कि इंसा ने आप पर सावधान रहने की शर्त रखी है। मेरे से में रहेंगे जहां सारी करूपता समाप्त हो जाती हैं। जैसे कमल व्यवहार करते हुए किसी भी प्रकार से अभद्र न हो। इस मामले में खिलने पर सारा कीचड़ झड़ जाता है। इसी प्रकार मेरे बच्चे भी मैं विवश हैं। जब तक आप मेरे प्रति नम्र है सभी कुछ मेरे वश में सदाशिव के सन्दर चढ़ावे बनें। होता है पर आपके अभद्र होते ही कोई और, हजारों, बागडोर सम्हाल लेते हैं। तब आप मुझे दोष न दें। मेरे आश्रित होने के कारण आप मेरी सुरक्षा में हैं। अपनी छत सुराख कर के यदि अहं चालित समाज की नकल न करें। वहां लोग कट शब्द आप कहें कि अन्दर बारिश आ रही है तो मैं इसका क्या कर उपयोग करते हैं। ऐसा करने से हमें लगता है कि हमने अपना सकती हैं? मेरा अभिप्राय यह है कि आप अपनी छत में छिद्र कर आधनीकरण कर लिया है। वे कट शब्द उपयोग करते हैं, "मैं चके हैं। अब तो अन्दर वर्षा आएगी हीं। अब भी यदि आप कहें क्या चिन्ता करता हूँ?" इस प्रकार के वाक्य हमने कभी उपयोग कि छत वर्षा से आपको बचाए तो मैं कहूंगी कि आपमें विवेक की नहीं किए। ये हमारे लिए अपरिचित हैं। किसी को ऐसा कहना कमी है। तो यह एक अन्य चेतावनी है। मैंने भारतीय सहजयोगियों को बताया है कि वे पश्चिम की में अभद्रता है। आप किस प्रकार कह सकते हैं कि "मैं आपसे घुणा करता हूँ।" लेकिन यहां मैंने लोगों को कट् शब्द बोलते देखा है। आज के दिन कमारी गौरी ने शिव की पूजा शुरू की थी। एक शिवलिंग बना कर बह उस पर अपना कमकम डाल रहीं थी कि हम इस प्रकार बात नहीं करते। यह बात करने का तरीका नहीं "मेरे आपसे मिलन के इस प्रतीक की आप देख भाल करें। इसका है। अच्छे परिवार का कोई भी व्यक्ति इस प्रकार नहीं बोल भार मैं आप पर छोड़ती हूै। "मैं आपके प्रति समर्पण करती हैं, सकता क्योंकि इससे परिवार का पता चलता है। जिस प्रकार यहां आप मेरी रक्षा करें। " इसी प्रकार गौरी, आपकी कण्डलिनी, बसों, टैक्सयों आदि में लोग बात करते हैं उस पर मझे हैरानी आत्मा के प्रति समपर्ण करती है।"अब आप इस योग की रक्षा होती है। अतः मैंने उनसे (भारतीयों से) कहा है कि भाषा प्रेममय करें। मैं शेष सब भूल जाती हैँ। इसे मैं आपके हाथों में सौंपती तथा परम्परागत होनी चाहिए। चैतन्य लहरी 12 श्री महालक्ष्मी पूजा दिल्ली - 3.11.1986 क ही सबको बड़ा लाभ होगा। तो देखा जिसको राजा बनाया वही दुष्ट निकला, उसी ने सताना शुरू कर दिया। फिर कहा राजा तो ठीक नहीं इसकी जगह ऐसा करो कि प्रजातन्त्र की व्यवस्था करो। फिर उन्होंने प्रजातंत्र की स्थापना की। प्रजातंत्र में देखा गया कि हर एक आदमी अपने को बिल्कुल ऐसा समझता है कि वो स्वयं ही उस प्रजातंत्र का संस्थापक है, संचालक है, और करत्ता है अब आप देख रहे हैं कि अमेरिका में कितना आतंक फैल रहा है किस कदर हिसा का आलम है। अगर पढ़ते हैं तो आश्चर्य होता कि प्रजातंत्र का हाल ऐसा क्यों हो गया? ये तन्त्र सारा गड़बड़ क्यों? वही हाल बाद में आप साम्यवाद का देखेंगे। कहते हैं कि अब हम एक नया ऐसा संसार बसाऐंगे कि जिसमें सब मनुष्यों में समानता आ जाए, उनमें कोई भी फक्क न रहे। खाने पीने में हर चीज में एक जैसा हो जाए और उसके अलावा उसको कोई स्वतंत्रता न रहे। गर वो स्वतंत्र हो गया तो स्व के तन्त्र में वो गड़बड़ हो जाता है। इसलिए इसकी स्वतंत्रता हटा दी। मनुष्य को जब एकदम मुर्ख समझा जाए तभी ऐसा हो सकता है। पर मनुष्य मुर्ख नहीं है वो तो हर जगह उसको आप जितना दबाईयेगा उतना ही वो खोपड़ी पर चढ़ेगा। तो ये भी चीज कुछ बन नहीं पाई। वो भी नहीं बनी ये भी नहीं बनी। इस तरह जहाँ देखते है वही आतंक है। धर्म के मामले में तो आप देख रहे हैं। किसी धर्म की हालत देखकर तो लगता ही नहीं कि परमात्मा भी कोई चीज हो सकती है। जो एकमेव हो, जो केवल हो, उसके लिए सब लोग आपस में सर काट रहे हैं। सबको मार डाल रहे हैं। तो ये कारण क्या है? अब्राहिम लिकन, मार्क्स साक्षात्कारी व्यक्ति थे। मानव हित के लिए उन्होंने कार्य किए। परहित की जगह सब का अहित हुआ। हीरे को तोड़ फोड़ के कीचड़ में डाल दिया गया। विज्ञान आया तो लोगों ने सोचा कि अब उनकी सारी समस्याएं हल हो गईं। पर विज्ञान को भी राक्षस बना दिया गया । एटम बम, हाइड्रोजन बम खोपड़ी पर खड़े कर दिए गए। नाइलोन बना दिया। दुनिया भर की बीमारियां आ गई, आफतें आ गई। मानव हित के लिए बनी चीजें विध्वंसक बन गईं। इस नव वर्ष के शुभ अवसर पर दिल्ली में हमारा आना हुआ और आप लोगों ने जो आयोजन किया हुआ है ये एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना होनी चाहिए। नव वर्ष जब शुरू होता है तो कोई न कोई नवीन बात, नवीन धारणा, नवीन सूझबूझ मनुष्य के अन्दर जागृत होती है। वो स्वयं होती है। जिसने भी नवीन वर्ष की कल्पना बनाई है वो कोई बड़े भारी दृष्टा रहें होंगे कि ऐसे अवसर पर प्रतीक रूप में मनुष्य के अन्दर एक नई उमंग, एक नया विचार, एक नया आन्दोलन, जागृत हो जाए। ऐसे अनेक नवीन वर्ष आए और गए, नई उमंगे आई, नई धारणाएं आई, और खत्म हो गई। मनुष्य की आज तक की जो धारणाएं रही है, एक परमात्मा को छोड़कर बाकी सब मानसिक क्रियाएं या बौद्धिक परिक्रियाएं थी। मनुष्य अपनी बुद्धि से जो भी ठीक समझता था उसका आन्दोलन एक नवीन कल्पना समझकर के बना। वो आन्दोलन कुछ दूर तक जा के फिर न जाने क्यों हटा और उसी विशेष व्यक्ति को और उसी समाज को या उस समय में रहने वाले लोगों पर आघात पहुंचा। इसका कारण क्या था ये लोग नहीं समझ सके। लेकिन आज हमें इसका साक्षात बहुत ज्यादा अधिक स्पष्ट रूप से हो रहा है। जैसे कि धर्म की व्यवस्था हुई। धर्म की व्यवस्था में मनुष्य ने जब भी बुद्धि और मानसिक शक्तियों का उपयोग किया, तो बुद्धि के दम से वो एक वाद विवाद के क्षेत्र में बंध गया और अनेक वाद विवाद शुरू हो गए। गर सत्य एक है... तो पन्थ इतने क्यों हुए इतने धर्म क्यों हुए, उन धर्मों में भी इतने जाति भेद क्यों हो गए हैं ऐसे भेद करते-करते न जाने दुनिया में कितने ही गुट जम गए हैं जिसका समझ में नहीं आता है। किसी से पूछते हैं कि आप साहब कौन धर्म के हैं तो आपको ऐसे धर्म का नाम बताएंगे जो आपने कभी सुना ही नहीं । ऐसे नए धर्म मेरे ख्याल से हरेक नवीन वर्ष में ही उत्पन्न होते ही रहते हैं क्योंकि मनुष्य की बुद्धि, हर एक नवीन वर्ष में कोई न कोई नई उमंग लेकर पैदा हुई। इसी प्रकार हमारी बद्धि से राजनैतिक क्षेत्र में भी उमंगे आई और नित नई-२ बातें बताई जैसे शुरूआत में माना गया कि चलो एक राजा ही रहे तो अच्छा है। राजा सबको समझ लेगा और राजा से क 13 श्री महा लक्ष्मी पूजा इसका कारण क्या है? कारण यह है कि जैसे एक सन्त ने यह कहना आसान है कि आप मनुष्य के हित के लिए यह कहा हुआ है कि मनुष्य की जो धारणा है या मनुष्य का जो करो वह करो पर होता नहीं है। अन्त में मनुष्य अपना हित विचार है, और धीरे-धीरे बो गिर ही रही है। ये उन्होंने कहा नहीं। ये समाज का भी अहित कर सकता है। मैं कह रही हूँ क्योंकि आज बो बात साक्षात हो रही है। श्री कृष्ण ने जो धारणाएं रखी वो भी पूरी नहीं हुई, राम ने जो वह है कि हमारे अन्दर, हमारे हृदय में बसे हुऐ श्री रखी वो भी पूरी नहीं हुई। उसके बाद सत्य स्वरूप थी, सत्य का ही अंग प्रत्यंग थी, वो सब पूरी नहीं हुई। इसका कारण बद्धि को जागत करना। हमारे मस्तिष्क को जागृत करना। यह है कि यह जब मनुष्य के दिमाग के घड़े में पड़ती है तो सो कैसे होता है कि हमारे के अन्दर जो आत्मा है वो उसमें कोई ऐसी विषालु वस्तु है जो इसे विषाक्त कर देती साक्षी स्वरूप बैठा हुआ है। कण्डलिनी, जिसे आप गौरी है। यह विषालु वस्तु क्या है जिससे इस तरह का कारण होता है? वो है इसकी सीमाएं। हर चीज की सीमा होती है। यहाँ पर ब्रह्मरन्धर को छेदने के बाद परमात्मा का प्रकाश इसी तरह बुद्धि की भी सीमा होती है और उसी में इस सीमा उसे आलौकिक करता है। परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब में, बंध कर घुट कर के और नष्ट हो जाती है। जैसे कि अंगुर के सुन्दर स्वाद वाले रस को भी गर घड़े में बंद कर दिया आत्मा जागृत हो जाती है तो इस आत्मा के चारों तरफ जाए तो उसमें शराब बन कर उसका नशा चढ़ जाता है। उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में, जो कि सीमित है, उसमें जागृत हो जाते हैं। इन सात चक्रों के जो पीठ हैं वह हमारे असीम चीज डाल देने से एकदम नष्ट हो जाती हैं। इसका मस्तिष्क में है। ये भी जागृत हो जाते हैं। इसलिए यह सात मतलब यह नहीं कि मनुष्य का मस्तिष्क ही कुछ खराब है। इसका मतलब यह है कि यह जो मस्तिष्क है इसकी सीमाएं जागत हो जाने से ही हमारी जो नसें है हमारा जो मस्तिष्क है बढ़ानी होंगी। मनुष्य की चेतना जो है वह व्यापक करनी होंगी। इतनी व्यापक होनी चाहिए कि इसके अन्दर सब उसके अन्दर शोषण करने की जो शक्ति है वह बढ़ जाती कुछ समा जाए। और वह खुली रहे इसका लक्ष्य क्या है है। सत्य को शोषण करने की शक्ति बढ़ने से ही मनुष्य उधर तो हमारा ध्यान हटता जाता है जब चाज सामित सत्य पर खड़ा हो सकता है। आज तक मनुष्य सत्य पर खड़ा होती जाती है तो उसका लक्ष्य क्या है उधर हमारा ध्यान नहीं हुआ है सत्य को सनता है, जानता है, देखता है, पर उस होता है। हर चीज का लक्ष्य था और मनुष्य का भी है। हिते पर खड़ा नहीं हो सकता है सत्य को आत्मसात करने के क्या चीज है श्री कृष्ण ने बताया कि हित वो है जिससे लिए, आत्मा की जागृति के लिए। वो आज सहजयोग में हो आत्मा का कल्याण हो। अब आत्मा स्वयं ही कल्याणमय गई। सहज में ही हो गई कहना चाहिए। जो इतने लोग नहीं करता उल्टे अपना भी अहित कर सकता है और सारे मानव की जो चेतना है वह नीचे की ओर है इस मस्तिष्क को बढ़ाने के लिए, सिर्फ एक ही तरीका है आत्मा-राम को जागृत करना और उनके प्रकाश से हमारी हृदय माता कहते हैं, जब जागत हो जाती है तो वो मस्तिष्क में हमारे हृदय में आत्मा के रूप में है। जैसे ही हमारी यह सात चक्रों का आलोक, सात चक्र के मंडल भी मंडल भी हमारे हृदय में जागृत हो जाते हैं। यह मंडल वो एक तरह से अति सूक्ष्म तरीके से खुल जाता है और से है। कल्याणमय अर्थात आत्मा लेकिन जब आत्मा ही सोया हुआ है तो हमारा कल्याण कैसे हो? हम लोगों का कल्याण। आत्मा को प्राप्त हुए हैं। आत्मा को प्राप्त होने से वो शक्ति जागत होती है आपके अन्दर जिससे आप सत्य को आत्मसात कर सकते हैं। सत्य आपके अन्दर जागृत हो आज का जो नवीन वर्ष है यह एक विशेष बात है सकता है माने की दूसरा कौन है, दूसरा कौन है? सब तो हम क्योंकि आज की जो बात हम कर रहे हैं, आज का जो हम ही हैं। हमारे ही अन्दर सब कुछ है। अब आपको सामूहिक सहज योग का कार्य कर रहे हैं यह हम अपने मस्तिष्क को चेतना आ गई है। तो उसमें साम्यवाद का भी सत्य आ गया। जब आप दूसरों को जान गए और अपने को भी तो है कि विराट का स्थान जो है वो इस मस्तिष्क में है। इसके आप अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त हो गए। तो आपमें गणतन्त्र अन्दर उसकी जड़े हैं। उन जड़ों को हम जागृत करेंगे। वो का भी जो सत्य है वो जागृत हो जाएगा। स्वतंत्रता भी आ जड़े जागृत होने से ही हम उस सत्य को पूरी तरह से शोषित गई और एक तरह से पर का तन्त्र भी हाथ आ गया। दूसरों कर सकेंगे आत्मसात कर सकेंगे। मनुष्य की जो सीमित का जो तन्त्र है वो भी आपमें आ गया। और आपकी प्रकृति है वह खुल जाती है। लैक्चर देना तो बहुत आसान है स्वतंत्रता भी आपमें आ गयी जिसे आप स्वतंत्र का तन्त्र विस्तीर्ण कर रहे हैं, महान कर रहे हैं जैसे श्री कृष्ण ने कहा चैतन्य लहरी 14 बनाओ किसी ने कहा पगड़ी बांधो किसी ने कहा काशाय वस्त्र पहनो, किसी ने कहा कि बोदी रखो। किसी ने इसाइयों से कहा वो इस तरह से हैट पहन कर घमो। पता नहीं क्या-क्या! अब वो सब कर रहे हैं। सारे कर्म कांड कर डाले और देखा कि नर्क की ओर फिर चले जा रहे हैं। धर्म को समझे बिना लोग कुरीतियों तथा दुर्व्यसनों में फंसते चले जा रहे हैं। कुण्डलिनी जागृत होने पर आपका चरित्र स्वतः बन जाएगा। कण्डलिनी आपको सुधार लेगी। जब आप स्वयं सत्य पर खड़े हो जाएंगे तो आरम्भ में कभी कभी कुछ कठिनाई आ जाती है पर वह धीरे धीरे ठीक हो जाती है। कैसे हो जाता है वो मैं आपको नहीं बताऊंगी। लेकिन वो हो जाता है। क्योंकि बताने पर आप लोग घबरा जाएंगे। उसके तौर तरीके जो हैं बहुत नाजुक हैं। लेकिन हैं बड़े कठिन। जैसे कि हम लोग कभी नहीं सोचते हैं कि किस तरह फल के साथ कांटे आ जाते हैं। किस तरह से पेड़ बनते हैं कैसे सुन्दर पत्तियों के आकार विकार बनते जाते हैं। ये हम कभी नहीं सोचते। जब होता है तब कहते हैं हाँ है। साक्षात्कार के बाद एक साहब मोटर में बैठे और लोगों के साथ सिगरेट पी रहे थे। सिगरेट पीते पीते उनकी मोटर में दुर्घटना हो गयी। किसी को कुछ नहीं हुआ। उनका कुछ नहीं हुआ। उनकी सिर्फ ये अंगुली जो विशुद्धि की थी थोड़ी सी कट गयी। और फिर तो समझ गए बात क्या है। इस प्रकार धीरे-२ सब कुछ ठीक हो जाता है कि ये हमारा चरित्र जो है जरा इधर उधर जा रहा है, मोटर जो है वो जरा से सीधे रास्ते पर ही हैं, वो थोड़ी बहुत इधर उधर फिसल रही है। फिर आप ठीक कर लेते हैं। करते-करते ऐसी दिशा में आ जाते हैं कि आप दोनों ही चीजों, गति और रोक दोनों के माहिर हो जाते है। वो मास्टरी जब आ गई तब समझ लेना चाहिए कि आप चालक हो गए। मास्टर होने के लिए आपको निर्विकल्प में उतरना होगा। और जब आप निर्र्विकल्प में उतर जाते हैं। तब आप गुरू महाराज हैं। मैं आप सबको खुद नमस्कार करती हैँ। तब आप लोग गुरू हो जाएंगे, और फिर जब हम गुरूत्व को पा जाते हैं तब फिर हम जानते हैं सबका कि हाँ-हाँ हम भी ऐसे ही थे जिनको हम जानते हैं। हाँ हाँ ऐसे ही हमारा था ऐसा ही था। यही मामला था। हम सब जानते है। सब चीज बहुत आसान हो जाती है। तब आप गुरू हो जाते हैं और इसको कहना चाहिए कि सहज का और सहज में ज्ञान को प्राप्त होना। ये चीज जब तक नहीं आती है तब तक मनुष्य में सब चीज बेकार है। कहते हैं। शिवाजी कहते थे कि स्वं का धर्म जानो । स्व का माने अपनी आत्मा का धर्म आप जाने। और आत्मा का जो धर्म है कहने को तो स्व है लेकिन ये जगत, विश्व माने विश्व जो आत्मा है वो हमारे हृदय में बसा हुआ है। इसके जागते ही विश्व की भावना, जिसे हम एक तत्व ज्ञान के रूप में जानते थे, वो साक्षात हमारे अन्दर समा जाती है। हमें उसके लिए कोई किताब पढ़ने की जरूरत नहीं किसी को कोई जानने की जरूरत नहीं। यहाँ बैठे-२ आप सारी दुनिया को जान सकते हैं। इसमें कोई बड़े भारी आश्चर्य की बात नहीं है। कोई विशेष कार्य नहीं अगर आप मेरे लिए कहें तो मैं कहुंगी कि मैंने तो कुछ किया नहीं क्योंकि मैं तो जैसी हूँ वो तो मैं हूँ ही, वो तो अनादि काल से ही है। मेरी तो विशेष बात उसमें नहीं है। विशेषता आप लोगों की है जो कि आपने जाना माना और पाया। लेकिन सहजयोग का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसका अन्त नहीं होता। ज्ञान तो हो गया ज्ञान होने का माने आपके नाड़ी तन्त्र पर आपने जाना। जो लोग उल्टे तरीके से चलते हैं वो सोचते हैं कि ज्ञान करना माने ये कि हमें बुद्धि से जानना। बुद्धि से हमें जानना है बुद्धि से जानना माने क्या वो तो हम किताब पढ़ कर जान लेंगे या हम किसी गुरू के पास बैठकर जान लेंगे या किसी के उपदेश सुनने से हम जान लेंगे। ज्ञान का मतलब है कि आपके स्नाय तन्त्र में उसका ज्ञान हो। यही बोध है। यही बुद्ध है। आज आप बुद्ध हैं क्योंकि आपको बोध है। 1 ज्ञान तो अन्दर की जागृति से आता है। समग्र माने संघटित। जब तक आपके सारे चक्र संघटित नहीं होंगे तब तक समग्र ज्ञान कैसे होगा? पुस्तकें पढ़ने से थोड़े ही ज्ञान हो जाएगा। ज्ञान प्राप्त करने का मतलब होता है बोध! सो कैसे हुआ! किसी ने ये नहीं पूछा कि ज्ञान कैसे प्राप्त होगा! श्री कृष्ण ने भी साफ तरीके से नहीं कहा कि कुण्डलिनी का जागरण होना चाहिए। वो तो माँ ने ही बताना था। सबको बैठ कर गीता सुनाते हैं। अर्जुन एक साक्षात्कारी व्यक्ति थे। एक अर्जुन से बात करी उन्होंने बाकी सारी अन्धी दनिया से नहीं। जब तक अन्धापन है, अन्धेपन का मतलब है कि बोध नहीं है आपकी नसों में, अभी तक वो सामहिक चेतना का बोध नहीं है, जब तक ये नया आयाम आपके अन्दर जागृत नहीं हुआ तब तक सत्य सुनने की ही बात है। मनोरंजन मात्र है। तो बोध के बाद ही आपका चरित्र अपने आप बनता है। उसमें भी इन्होंने गड़बड़ करी चरित्र बनाओ, चरित्र बनाओ चरित्र बनाने में भी उनका भी चरित्र लेकिन जब आप गुरू हो जाते हैं तब आपको पता होता है श्री महालक्ष्मी पूजा 15 कि अभी हममें कमियाँ है और तब आपको कोई न कोई सी योग्यता होनी चाहिए और उस योग्यता में शुद्धि भी। तपरूचर्या करनी पड़ती है और वो तपस्चर्या का मतलब ये नहीं कि आप उसमें भूखे मरे, ये तो माँ कभी नहीं चाहेगी, है, उसको आपको जागृत करना है। अनुशासन जिसके बारे क्योंकि माँ को दुख देना है तो आप भूखे रहिए, भूखे रहने कि में हमें सतर्क होना है। कोई जरूरत नहीं। भूखे रहना कोई जरूरी नहीं है। अगर आपको नहीं खाना तो नहीं खाइए। पर परमात्मा के नाम पर केवल एक ही तप करना चाहिए माने ये कि आपको व्यर्थ के अहंकार की भावनाओं से मनुष्य का जो अनुशासन अपनी स्थिति निर्विचारमय बनानीं चाहिए। ध्यान धारणा करके आपको अपनी सफाई करके अपनी स्थिति दसरी चीज यहाँ राजकीय आन्दोलन की वजह से भी हममें आपको निर्विचारमय बनानी चाहिए। निर्विचार में जब आप आ जाते हैं तभी आपका ये जो पौधा है, वह बढ़ता है। इसलिए बहुत से लोग कहते हैं माँ हमसे ध्यान नहीं होता तो भैया आधे ही रह जाओगे ध्यान रोज करना होगा जब तक ये तपस्या नहीं की जाएगी, तब तक आप पूरी तरह से प्रकाशमय नहीं होएंगे। जब तक आप ध्यान नहीं करेंगे तब तक आप हमें भी नहीं समझेंगे। तब तक आप बिल्कुल हमें नहीं समझेंगे क्योंकि जब तक आप में त्रुटियाँ रहेंगी तब तक आप उन त्रुटियों के झरोखे से देखेंगे। जैसे कि अगर कोई नीले रंग का आप अपने आंख पर परदा डाल लें तो आपको नीले ही दिखाई देंगे, पीला डालेंगे तो पीले ही हुआ है। आदमी आदमी का विरोध करता है और औरत दिखाई देंगे। और इसी तरह अगर एक भी त्रुटि आपके अन्दर रहेगी तो इसी तरह हम आपको नजर आएंगे। हम आपको असलियत में नजर आएंगे ही नहीं। ये एक हमारा तरीका है तो इन सब चीजों को आपको इस नवीन वर्ष में बना कर आकाश में चमकाएं और आप लोग मिट्टी के सोचना है कि अब हमारे पास ज्ञान प्राप्त हो गया है। हमें बराबर भी बात नहीं समझते। मैं तो अवाक रह जाती हैं अब इसे अपना चरित्र बनाना है। और चरित्र बनाने के लिए जब में ये बातें सुनती हूँ मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। सबसे हमें जो तप और ध्यान करना है वो हमें करना है किसी भी पहली बात है माँ को खुश करने के लिए कि आपस में हालत में। लोग कहेंगे कि माँ हमारे पास समय नहीं है, आप भाई चारे से और बहन चारे से रहें। अगर आपको लेकिन ये बात नहीं। लन्दन जैसे शहर में जहाँ इतनी ठंड वाकई आनंद लेना है तो वो है भाई चारे से। और अब सहज रहती है लोग चार बजे उठ कर नहा कर ध्यान करते हैं। योग का भाई चारा कैसे चलता है वो इस प्रकार कोई आया लेकिन हिन्दुस्तान में लोग कहते हैं अच्छा अगले साल करेंगे, अगले साल करेंगे। और जैसे-जैसे हम उत्तर की ओर बढ़ते हैं लोग सोचते हैं क्या जरूरत है हम तो कैलाश की वो गया था न उन्होंने बताया कि तेरे भूत लग गया है। माँ तरफ बैठे हुए हैं, हमको क्या जरूरत है दक्षिण वाले करते रहें मेहनत, हम तो उत्तर में बैठे हैं। उत्तर प्रादेशिक क्षेत्र जो है तो जितने भी लोग उत्तर में बैठे हुए हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि हाँलाकि कैलाश उत्तर में है लेकिन दृष्टि शिव की दक्षिण में है। इसलिए उनको दक्षिण-मूर्ति कहते हैं। इसलिए चाहिए कि आप लोग भी अपनी ओर उनकी मैंने कहा भई कि तुम जागृति पाओ, ध्यान करो सब ठीक हो दृष्टि लाएं। उनकी दृष्टि आप के ओर लाने के लिए, थोड़ी जाएगा। तो कहने का मतलब यह है कि आप लोग अपने अही गौरी स्वरूपा कृण्डलिनी, आपके अन्दर जो शुद्ध इच्छा दुनिया भर के कायदे कानून हमें आते हैं। पर अन्दर का अनुशासन हममें अभी नहीं आया। देश और संस्कृति के है वो चला जाता है। वो बहुत जरूरी है हमारे अन्दर। और अनुशासनहीनता आ गई है। ये सारी चीजें व्यर्थ हैं। मैंने बताया था कि हमें भाई-बहन का रिश्ता तो समझ में आता है लेकिन भाई चारा का नहीं। भाई चारा का रिश्ता समझना है। बहन चारा और भाई चारा। लोग कहते हैं कि दो औरतें कहीं रहे, चाहे वो बहनें हों, रह नहीं सकती लेकिन मैं तो मर्दों को देखती हूँ वो भी कुछ कम नहीं हैं। अब इनकी लड़ाइयाँ और तरह की होती हैं औरतों की दूसरी तरह की। आदमियों की लड़ाइयाँ जब शुरू होती हैं तो कुछ समझ में ही नहीं आता है कि इसका स्वरूप कहाँ से पैदा औरत का। दोनों पशोपेश में हैं मेरे लिए। तो मैं ये सोचती हूँ अरे भई हम बात कर रहे हैं आसमान की और आप पाताल की हम कह रहे हैं कि कया-क्या आपको सितारे आप के पास,तेरे तो भूत लग गया तू जा। वो मेरे पास आया माँ मेरे भूत चिपट गया। मैं कहती हूँ तुमको किसने बताया? मेरा भूत छुड़ाओ। मैंने कहा तुम उन्हीं को कह दो तेरे भूत लग गया। तेरे कहीं भूत वृत नहीं लगा। काहे को मेरे पीछे पड़ा है? नहीं उसने बताया तेरे पीछे भूत लगा है। दूसरा आएगा तो कहेगा कि माँ जो कोई देखता है वो यही कहता है तेरा ये चक्र पकड़ रहा है। माँ मेरा ये चक्र पकड़ रहा है? अरे चैतन्य लहरी 16 को इतने शक्तिशाली बनाइए कि भूत बाहर भागते फिरे। आपने देखा की एक सहज योगी आया तो सारे भूत दिल्ली से एकाउंटेंट हैं। ये तो मैं उनसे कहती थी कि तुम देख लो। बो भाग खड़े हुए। हजारों की तादाद में भाग जाएंगे लेकिन आ कर मुझे कहते हैं अरे क्या कर रहे हो। इतने कंजूस आप भी शक्तिशाली होइये।आप तो भूतों से डरते हैं तो और लोग हैं कि एक भी पैसा नहीं खर्च करते और तुम्हारे सहज आप की खोपड़ी में बैठेंगे नहीं तो क्या होगा। एक भूत वाला योगी इतने कंजूस क्यों हैं? इनके ऊपर आय कर आ आदमी आ गया तो सारे के सारे भाग खड़े हुए। सो ये भाई जाएगा। चारे की बात है हमारे अन्दर संघ है। इसलिए बद्ध ने कहा है संघम्, शरणम् गच्छामि । संघ की शक्ति हमारे अन्दर है। नहीं रहा खर्चे का तो। मैंने कहा कोई इन्तजाम करो कोई हम सब जैसे भी हैं वो सब मिलकर हैं। अगर हम अपनी खर्चा करो कि सब ठीक हो जाए। लोग मुझे कहते थे कि संघ शक्ति को बढ़ा लें तो कोई भूत यहां आएगा ही नहीं । देखिए माँ आपको देखना चाहिए था। मैंने कहा मुझे हिसाब वह तो पहले ही भाग जाएगा। कारवां यहां से भाग खड़े होंगे। लेकिन हमारी संघ शक्ति पैसा इधर से उधर नहीं हुआ। कोई गड़बड़ नहीं हुई। ये माँ नहीं है। इसलिए हम कमजोर हैं। हम यह नहीं सोचते कि का भरोसा है। माँ का विश्वास है उसी तरह आप एक दूसरे सहज योग बढ़ रहा है, इसमें योगदान दें। एक दूसरे की पर विश्वास करो। एक दूसरे की गलतियों को बढ़ा चढ़ा कर शिकायतें ही करते रहते हैं। अपनी जो संघ शक्ति है वो मत बताइऐ। दूसरे आप अच्छाइयां बताइये। ये सोचिए., कि बनाएं। अन्दर जो भी डर है उसको निकालिए डर को आप उस औरत में कौन से ऐसे गुण हैं। इसका मतलब यह नहीं को एक तरफ में कर देना है और आपको भूत से या किसी से कि आप अपने को दोष दीजिए । बहुत से लोगों कि यह भी डरने की कौन सी बात है। बहुत सा हमारा झगड़ा खत्म हो आदत है कि मैं ही खराब हूँ। बिल्कुल नहीं। आप तो बहुत जाए अगर हम किसी से न डरे तो। आपस का झगड़ा अगर ही बढ़िया हैं। पहली चीज यह है कि आप अपना दोष मत खत्म हो जाए, अगर हम इस आदमी से नहीं डरेंगे। हमें ये देखिए लेकिन यह देखिये कि मैं जिसकी ब्राई कर रहा हूँ डर लगा रहता है कि हमारी पदवी खराब हो जाएगी। यहाँ उसके अच्छे गुण क्या है। इससे आप अच्छे हो जाएंगे। कोई राजनीति तो है नहीं कि आज कोई प्रधान मन्त्री बनने लेकिन अगर आप दूसरों के दोष देखते रहेंगे तो सारे दोष वाला है कोई उप-प्रधान मन्त्री बनने वाला है। जो सब कोई आपके अन्दर आ जाएंगे। इसलिए दूसरों के दोष ठीक करने अपनी अपनी कुर्सी संभाले बैठे हुए हैं? यहाँ तो सबकी कुर्सी हैं । दूसरों से प्यार करने में, दूसरों से वार्तालाप करने में, एक जमाने का काम है। किसी को आसन दिया है। आपका मधुरता लेकर के एक प्रेम की भावना लेकर अगर आप करे आसन जमाने का कार्य होना चाहिए। तो भाई चारे से क्यों तो सहज योग बहुत आसानी से फैलेगा। बहुत आसानी से न सब करें। पिछली मर्तबा मैं सबसे मजाक कर रही थी। आगे आएगा। और सारे संसार में फैलेगा। सारी दारोमदार मैंने कहा था कि आप किसको भाई बना रहे हैं बताओ। अब मेरी आप पर है। छोड़ो। बहनें तो बहुत बन गई अब भाई बना लो। और बहनों को चाहिए। कि अपनी सहेलियां बनाओ पहले बड़ी हमने लेना है। सबके लिए जीने का तरीका यदि आ गया सहेली का बड़ा महत्व होता था। आजकल सहेली शब्द तो तभी मनुष्य विशाल हो जाता है और ये विशालता आप रह ही नहीं गया। औरतों में बन पाना असंभव बात है। दो प्राप्त कर सकते हैं सहज योग से। और आज इस नवीन औरतें अगर मिलें तो मेरा तो कल्याण हो जाए। मुश्किल ये दिवस पर ये विशेषता का एक संदेश अपने हृदय में रखना होती है कि न जाने कहाँ से इनको सब खराब बातें मिल चाहिए कि आज से बस हम विशाल हैं और ये विशालता जाती हैं। अच्छी बात कुछ नहीं मिलती। एक दूसरे से डरती हमारे हृदय में बसे और इसमें हम सारे विश्व को देखें। हम हैं। हर समय परेशान रहती हैं। यह सब आप छोड़ दीजिए। सब भाई बहन एक माँ के बेटे हैं। एक सूत्र में बँधे हुए हैं एक दूसरे पर भरोसा करना सहज योग का नियम है। अब अत्यन्त सुन्दरता से जुड़े हुए, प्यारे-प्यारे सब फूल हैं। जब देखिये कि इतना रूपया इकट्ठा होता है सहज योग में। हम हम अपने प्रति ऐसी सुन्दर भावना कर लेंगे। और दूसरों के लोग भी बहुत सा रूपया देते हैं। और उसका एकाउंट होता प्रति भी, तभी जाकर के एक सुन्दर सा हार तैयार होगा। है। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने कभी भी ट्रस्ट का हिसाब नहीं देखा। आज तक मुझे ये भी नहीं मालूम कि कितना रूप को प्राप्त करेंगे। पैसा है। बहरहाल हमारे भाई साहब आजकल चार्टड सो सहज योगी कहते हैं कि खर्चा कहां करें कोई बन ही यसी एक नहीं हजारों कारवां के किताब आता ही नहीं जो हो रहा है होने दो। फिर भी एक तो आज नवीन बर्ष के शुभ अवसर पर भाई चारे का व्रत हमारा अनन्त आशीर्वाद है कि आप सब लोग इस विशेष श्री महालक्ष्मी पूजा 17 जी परमपज्य माता महाकाला पजा श्री निर्मला देवी का प्रवचन पेर ) 11.7.1993 (साराश आज हमने देवी की पजा करने का निर्णय किया है। इस बार गयी आपकी छुट्टी। अहम् में फंसे उस बच्चे को आप किस प्रकार हम आदिशक्ति, कृण्डलिनी, सरस्वती या महालक्ष्मी के बारे में खुश करेंगे। इस तरह शनैः शनैः हम अपने बच्चों के अहम् को बात नहीं कर रहे हैं। हम महाकाली की बात कर रहे हैं। यह बढ़ाते हैं। हमें यह कहना चाहिए, "यह खाना बना है, बहुत देवी सर्वप्रथम आकर गौरी रूप में श्री गणेश की स्थापना करती अच्छा है, आप इसे खाएँ। माता-पिता को पसंद पूछकर बच्चों के हैं। वे महासरस्वती और महालक्ष्मी पृर्ण रूप हैं। उन्हीं में से ही अहम् को बढ़ने नहीं देना चाहिए। आपको समझ होनी चाहिए यह शक्तियां प्रवाहित होती हैं। अतः वे ही परमात्मा की इच्छा कि बच्चों की क्या आवश्यकता है। की शक्ति हैं और हमारे अन्दर भी इच्छाओं का सृजन करती हैं। हमारे अन्दर की यह इच्छाएं बाहर प्रसारित होने लगती हैं और को खिलाने की इच्छा प्रदान करती है तब आप भूख से पीड़ित सभी इच्छाओं के प्रति एक प्रतिक्रिया हममें विकसित होती हैं। इस मामले में देवी का आशीर्वाद यह है कि वह आपको दूसरों लोगों की चिन्ता करने लगते हैं और उनकी पीड़ा का कारण जानना चाहते हैं। यह इच्छा इतनी अति तक पहुंच जाती है कि स्वयं को भोजन देना सर्वप्रथम सर्वोपरि और सर्व पुरातन कुषछ लोग सोचने लगते हैं कि उन्हें खुद कुछ नहीं खाना चाहिए। इच्छा है जो हमें इस देवी से प्राप्त होती है। जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन करना अत्यन्त आवश्यक है। हमने यह भी देखा है है खाए। इस प्रकार के त्याग में कोई बड़ी समझदारी नहीं है। इस कि जब इस प्रकार की इच्छा असमान्य रूप से बेढ़ जाती है तो प्रकार का त्याग जब लोग करने लग जाते हैं उन पर कई प्रकार के व्यक्ति इसका दास हो जाता है तथा जितना भी बो खा ले, उसकी कृष्ट आ जाते हैं। और वे अत्यन्त त्यागी और क्रेधी बन जाते हैं। अतः तृप्ति नहीं होती। परन्तु अहं के माध्यम से कार्य शुरू करके यह भखा व्यक्ति भी उतना ह बरा होता है जितना आवश्यकता से अधिक व्यक्ति की खाना बनाने वालों की तथा उपलब्ध कराने वालों की मैं सोचती हं भखा रहने वाला व्यक्ति अधिक खराब सन्तष्टि करती है। अब इच्छाओं की पर्ति किस प्रकार करें। ह्ोता है। किसी तरह से बह भोजन लाते हैं, उसका प्रदर्शन करते हैं, आपके सामने रखते हैं ताकि आप इसे स्वीकृति दें, और तब वे आप जानते हैं कि अच्छाई को सब पसंद करते हैं इसलिए लोग इस भोजन को परोसते हैं। वे आपको बेवकफ बनाना जानते हैं दूसरों के प्रति अच्छा बनने का प्रयत्न करते हैं । दूसरों को पसंद करने से और आपको भी इसमें प्रसन्नता मिलती है। अतः आपकी इस वे सोचते हैं, कि लोग उन्हें बहुत पसंद करेंगे। परन्तु यह इच्छा इच्छा को आपका अहम् प्रचालित करता है। जब यह इच्छा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि आप हर समय ही दसरों को प्रसन्न सामहिक बन जाती है और सामहिक अहम की अभिव्यक्ति बन करने के प्रयास में लगे रहते हैं और एक प्रकार से इसके दास बन जाती है तब आप सभ्य प्रकार के पेटू बन जाते हैं। परन्तु यदि जाते हैं। आप में इतनी बनावट आ जाती है कि लोग समझ जाते आपमें अहम् न हो। तो लोग दूसरे लोगों को खिलाना पसंद करना हैं कि इस व्यक्ति में कुछ भी स्वाभाविक नहीं है। वह मात्र हमें चाहेंगे। यह इच्छा प्रतिक्रिया करती है तब महाकाली की कृपा से खुश करने का प्रयत्न कर रहा है। किसी दूसरे व्यक्ति को यदि एक नई इच्छा जागृत होती है, तब दूसरों को भोजन खाते हुए आप साक्षी भाव से और पूर्ण निस्वार्थ होकर प्रसन्न करें तो ये देखकर आपको अच्छा लगता है। आप द्वारा बनाया गया, परोसा स्वाभाविक और अच्छी बात है परन्तु किसी से लाभ उठाने के गया व दिया गया भोजन जब लोग करते हैं तो उसमें आपको लिए यदि आप उस व्यक्ति को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं आनन्द आता है। आप केवल देखना चाहते हैं। और इससे तो यह निम्न कोटी का पाखंड है जिसमें आप स्वयं फंस जाते हैं। आपको संतोष प्राप्त होता है। परन्तु जितना मर्जी खाना खिला लें लोग आपका मजाक करते हैं, आप पर हंसते हैं, आपसे प्रसन्न आपको पूर्ण संतोष न मिल पाएगा। आज के पाश्चात्य जीवन में नहीं होते। वे जानते हैं कि आप पाखंडी हैं और किसी अनचित बच्चे से यह पछना आवश्यक हो गया है कि आप क्या खाएंगे? लाभ के लिए यह सब कर रहे हैं। अच्छा या भला बनने के लिए पराने समय में पुरे परिवार के लिए खाना बनता था पर आज नहीं कर रहे हैं। अच्छा व्यक्ति स्वतः ही दूसरों को प्रसन्न करता बच्चे से पृछा जाता है कि आप क्या खाएंगे और बच्चा अपनी है, प्रसन्न करने का प्रयत्न नहीं करता। वह प्रकृति से, स्वभाव से पसंद बताता है। मान लो बह चीज आपके फ्रिज में नहीं है तो हो ही ऐसा होता है कि वह लोगों को प्रसन्न करता है। अब देवी क्या एक मूर्खतापूर्ण त्याग भाव आ जाता है। व्यक्ति ने जो भी खाना खाने वाला। यह इच्छा आपको अच्छा व्यक्ति बनाने के लिए आती है। बा चैतन्य लहरी टा 18 कार्य करती है? वे लोगों के सम्मुख सत्य को प्रकट करती हैं। वे दश्शाती हैं कि किसी स्वार्थ प्राप्ति के लिए किया गया, आपका प्रयत्न सफल नहीं होता। एक हद तक इसमें सफलता मिलती है और तब देवी उनका भण्डा फोड़ कर देती है। भंडा फोड़ जब होने लगता है तो वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं, "मेरा भंडा फोड़ कैसे हो गया? मैं कैसे पकड़ा गया? लोग कैसे जान गये? यह महाकाली कि शक्ति का कार्य है। वे सारी बुराई, असत्य और झूठ का पर्दाफाश करते हैं। तीसरी इच्छा जो लोगों में है वह भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की है। और इसी से भौतिकवाद का जन्म होता है। परन्तु यह अन्तहीन है क्योंकि एक वस्तु को प्राप्त करके व्यक्ति को सन्तोष नहीं होता और जो भी चीज उसे मिलती है उसका वह आनन्द नहीं ले पाता। यह भी मानवीय असफलता है जो कि अर्थशास्त्र को जन्म देती है। अर्थशास्त्र कि सृष्टि इसलिए होती है क्योंकि आवश्यकताएं प्रायः कभी पूर्ण नहीं होती। अतः हम चीज से दसरी की ओर बढ़ते चले जाते हैं और अन्ततः साधारण जीवन अपना लेने से बहुत सारी चीजों को त्यागा जा सकता है। और हमारा महाकाली तत्व हमें अधिकाधिक ऊँचा उठाता है। इसके बावजूद भी हम नीचे आ जाते हैं। तब यह महाकाली आगे आकर हमें दशाती है कि हमने कौन सी गलती की, किस प्रकार हम भटक गये और किस प्रकार तत्व की बात को छोड़ दिया। एक अन्य बहुत सुन्दर कार्य जो वह करती है वह है एक भ्रम की सृष्टि करके आपके विवेक और संवेदनशीलता की परीक्षा लेना। भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। आपके मस्तिष्क में वे भ्रान्ति पैदा कर देती हैं और आप, दूसरे लोग या स्थिति भ्रान्तिपूर्ण हो जाती है और आप इसमें फंस जाते हैं। तब आपको समझ आता है कि मैंने यह गलती की है। भ्न्ति पैदा करके यह महाकाली शक्त हमारे अहम् को ठीक करती है। यह मरीचिका (मृगतृष्णा) या माया ही हमारे भ्रमों के पीछे भागने के लिए जिम्मेदार है। यदि हम अन्दर से सन्तुष्ट हैं तो हम माया के पीछे नहीं दौड़ते। इस भ्रम की सृष्टि यदि न की जाए तो पूरा विश्व इतना अहम् वादी हो जाएगा कि यह समाप्त हो जाएगा। तो भ्रम 1. एक उद्यमियों के दास बन जाते हैं। इतना अधिक दासत्व आ जाता है की रचना करना हमारे अन्तःस्थित महाकाली शक्ति का महान कि व्यक्ति अपना व्यक्तित्व खो बैठता है। विवेकहीनता के कार्य है। बहुत से लोग माया की बात करते हैं। यह श्रीमाता जी कारण लोग ऐसा करते हैं। परन्तु सहजयोगियों के लिए की माया है। यह माया है वह माया है। यह महाकाली का कार्य महाकाली शक्ति कार्य करती है और उन्हें शिक्षा देती है, 'ठीक है। वे आपकी परीक्षा लेना चाहती है। परन्तु सहज योग में यह है, यह वस्त्र आपको अच्छे लगते हैं, यह ले लें, और यही आपके परीक्षा अधिक कठिन नहीं होती। तो सहजयोगियों की परीक्षा लिए सर्वोत्तम है। एक ही बार में आपके पूरे जीवन की समस्या लेने के लिए यह महाकाली सहायता करती है। इस प्रकार भ्रम हल हो जाती है । यह इच्छा सर्वसाधारण में बाह्य वस्तुएं जैसे आपको सुधारते हैं। भ्रम यदि न हो तो सीधे से आप सुधरेंगे बस्त्र, बालों का स्टाइल तथा अन्य मूर्खतापूर्ण प्रदर्शनों से दूसरों नहीं। यदि मैं कहूँ, "ऐसा न करें तो शायद आपको यह बात को प्रभावित करने के लिए आती हैं। जब हम अहं का उपयोग अच्छी न लगे। निसन्देह आपको मेरी बातें अच्छी लगती हैं पर करने लगते हैं तब इस प्रकार कि मुर्खता हमारे मस्तिष्क में आ कभी-कभी ऐसा नहीं होता। और तब भ्रम कार्य करता है और जाती है। अहम् व्यक्ति को पूर्णतया मुर्ख बना देता है। ठीक काम आप समझ जाते हैं कि "मैं कहाँ था, और अब कहाँ हूँ? मुझे ऐसा करने के लिए लोगों को समझाना बहुत कठिन कार्य है परन्तु नहीं करना चाहिए था..... मैं इस समस्या में कैसे फंस गया? कैसे गलत चीजें वे तरन्त पकड़ लेते हैं। उदाहरणतया मैंने लोगों से मैं इतना मूर्ख बन गया? यह कार्य वे करती हैं। कहा कि सिर में तेल डाला करें। यदि प्रतिदिन भी नहीं लगाते तो कम से कम नहाने से पहले खुब तेल मालिश करके सिर को धो लें। अब मैं देखती हूँ बहुत से लोग गंजे हो रहे हैं फिर भी तेल परेशान होते है, आपकी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ और नहीं लगाते। इसके बारे मैं क्या करू? इतनी साधारण चीज पर न्या न करूँ तब वो आपको नींद में सुला देती हैं। आप पूरा दिन भी उन्हें विश्वास नहीं होता चाहिए। वे मुर्खतापूर्ण कार्य करेंगे, यह भी नहीं सोचेंगे कि किस है और एक बालक की तरह से आपको निद्रा-मग्न कर देती हैं। चीज़ से उन्हें हानि पहुंचती है। यहां महाकाली क्या करती है? वे उस समय अपने तथा दूसरों के साथ जो भी बुराइयां हमने की आपको दण्डित करती है। आपके शरीर को दण्डित करती है। आप यदि बहुत तंग कपड़े पहनते हैं तो आपकी टांगों पर कोई तरह सोते है, और हमारी सारी समस्याएं हल हो जाती है। जब समस्या आ सकती है। यदि आप छिद्रिल (छेदों वाली) पेन्टें आप स्वपन ले रहे होते हैं तो वे आपको समस्याओं के समाधान पहनते हैं तो आपको जकड़न हो जाती है। कोई भी आसाधारण सुझाती हैं। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि, श्री माता जी आप कार्य यदि आप करेंगे तो आपको उसका दण्ड भुगतना होगा। मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे फलां दवाई लेने के लिए कहा। आप पहले तो इसे करने के लिए आपको धन खर्च करना पड़ेगा और मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे बताया कि तुम्हारे लिए एक विशेष फिर शारीरिक रूप से आप दण्डित होंगे। वे ही हमें पर्ण आराम प्रदान करती है। जब आप थके हुए और कार्य करते हैं, अन्त में महाकाली की शक्ति आप पर कार्य करती कि आपको पौष्टिक तत्व सब क्षमा कर दी जाती हैं। उनकी गोंद में हम शान्ति से अच्छी प्रकार का जीवन हितकर होगा।' वे मझे आते हुए स्पष्ट देखते श्री महाकाली पूजा 19 एक सहजयोगी होने के नाते अपने जीवन में आप देखेंगे कि महाकाली शक्ति कैसे हर तरह से आपकी सहायता करती है। उन्हें कार्य करते देखना बहुत ही अच्छा लगता है - किस प्रकार वे आपके लिए सब प्रकार का सन्तोष लाती हैं। लोभ, है। परन्तु वह मेरा पूर्ण रूप नहीं होता... केवल महाकाली की शक्ति कार्य कर रही होती है। आप बहुत गहन निद्रा की स्थिति में होते है जिसे सुषप्ति अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में वे दिखाई देती हैं और स्वपननों में वे आपका मार्ग दर्शन करती हैं। हुए परन्तु सबसे महान कार्य जो वे करती है वह है आपको पावित्र्य लालचे और गुस्सा चला जाता है। सबसे अधिक सहायता पर्ण एवं सुरक्षा का विवेक प्रदान करना। बच्चों में जन्म से ही पावित्र्य कार्य जो वे करती है वह यह है कि महाकाली शक्ति के प्रकाश में लज्जा, शालीनता और भद्राचरण स्वतः ही आपकी सारी बुरी आदतें भाग जाती है। आप नहीं शनैः शनैः जब वे दूसरे लोगों को अभद्रतापर्ण व्यवहार करते चाहते कि कोई विध्वंसक कार्य हो। काई विध्वंसक कार्य यदि देखते है तो वे भी उसी रास्ते पर चलने लगते हैं। शालीनता आप पहले कर भी रहे होते हैं तो आप उससे छुटकारा पाने का उनके लिए एक बन्धन बन जाती है। परन्त स्वाभाविक रूप से प्रयास करते है। आपके अन्दर जागृत हुई महाकाली शक्ति ही यह बताने के लिए कि यह कार्य अभद्र है और आपको नहीं करना यह कार्य करती है। उसी ने आपको इतना सुन्दर और देव तुल्य चाहिए महाकाली शक्ति विद्यमान हैं। ज्यों-ज्यों आपकी आय बना दिया है। अपने सुधारों तथा भ्रान्ति द्वारा उसने आपको ऐसा बढ़ती है और आप परिपक्व होते हैं, आप अपनी पवित्रता का बना दिया है। अंतः पतन के लिए जिम्मेदार चीजो जैसे घन, अपमान करने लगते है और अपरिपक्व मुर्ख लोगों की तरह बनने लगते है। यह सारी बातें यदि ध्यान धारणा के माध्यम से पदार्थों के स्वामित्व भाव से भी लिप्त न हों। समझ लें कि बांटने समझी जाएं तो हम जानते है कि महाकाली शक्ति हमारी में ही आनन्द है। आप सभी कुछ दूसरों के साथ बांटना चाहते है अधिक मदद करती है क्योंकि वे ही कण्डलिनी के उत्थान के और ये बांटने की भावना तभी शुरू होती है जब ये महाकाली की लिए उचित मार्ग बनाती हैं। महाकाली कृण्डलिनी के समान ही शक्तियाँ आपको आनन्द, सामूहिक अस्तित्व, पावित्र्य और बांटने हैं क्योंकि कृण्डलिनी महाकाली शक्ति की अवशिष्ट शक्ति है। के आनन्द का आशीरवाद प्रदान करने लगती है। ये सारे वे विद्या से परिपूर्ण हैं। परन्त उनका कार्य भिन्न है । महाकाली आर्शीवाद आपको महाकाली शक्ति से ही प्राप्त होते है। आज का कार्य आपकी रक्षा करना, मार्ग दर्शन करना तथा विवेक हम उसी महाकाली शक्ति की पूजा करने वाले हैं। प्रदान करना है। और कण्डलिनी का कार्य आपको शुद्ध करना, बाधाओं को दूर करना, आपके साथ खिलवाड़ न करना, आपको क्षमा करना और ठीक प्रकार से उत्थान के लिए आपकी सहायता करना है। का विवेक होता है। परन्तु लालच और कामुकता आदि से लिप्त न हो। बच्चे, पति और बहुत परमात्मा आपको धन्य करें। चैतन्य लहरी 20 श्री कृष्ण पूजा वार्ता परम पूज्यभाता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) हथनीकुण्ड (हरियाणा) 11-12-1993 आज हम श्री कृष्ण की पूजा करेगें श्री कृष्ण के जीवन में ने खेलना है लोग श्री कृष्ण को बिल्कुल भी नहीं समझते। श्री यमना नदी की महान भूमिका रहीं है। यमुना नहीं है और इसके जल का रंग भी श्री कृष्ण के रंग की तरह से नहीं समझ पाते। मेरे विचार में श्री कृष्ण के विचार बहुत ही नीला है। यमुना की अपेक्षा गंगा नदी बहुत तेज गति से चलती है उच्च थे क्योंकि उन्हें यह दशर्शाना था कि यह संसार एक खेल है, तथा उसकी गहराई भी बहुत अधिक है। हो सकता है अगामी माया है, और इन सब से भी परे यह आनन्द है। उनकी प्रणाली वर्ष हम लोग अलाहाबाद जाएँ और इन दोनों नदियों का संगम अत्यन्त मनोरंजक थी। उन दिनों उन्हें यह सन्दर पांडाल और देख सकें। पूरा हरियाणा राज्य ऐतिहासिक स्थान है और इसका इतने सारे शिष्य उपलब्ध न थे तो उन्होंने अपने तरीके का पौराणिक महत्व भी है। आप सब जानते है कि यहां पर कुरूक्षेत्र इस्तेमाल किया। जब वे बच्चे थे तो यमुना से जल भर कर लाती में पांडवो और कौरवो ने युद्ध इस क्षेत्र का उपयोग हुआ। मार्कण्डेय, जिसका नाम आपने प्रायः जल उनके पीठ से बह कर नीचे को आता था यमुना नदी को सुना है, ने यहां तपस्या की। वे पहले महाराष्ट्र में थे, जहां आपने राधा जी चैतन्यित करती थी। 'रा' अर्थात् 'शक्ति' और 'धा' सप्तश्रंगी देखी है परन्तु बाद में तपस्या करने के लिए वे यहां आ अर्थात् 'धारण करने वाला। वे नहीं जानते थे कि किस प्रकार गये और यहीं अपने ग्रंन्थ की रचना की। स्थान-स्थान पर उन लोगों को कण्डलिनी के बारे में बताया जाए। अंतः कंकड़ आपको पीर तथा आत्मसाक्षात्कारी लोगों की जगह मिलेगी। मार कर वे उनके घड़े तोड़ देते थे जिससे कि चैतन्यित जल रीढ़ इनको आज तक सम्मान होता है। श्रीकृष्ण के यहां रहने के की हड्डी पर से नीचे को आता था और उन्हें कण्डलिनी का कारण यह क्षेत्र अत्याधिक अध्यात्मिकता का है। उन दिनों में न आशीरवाद प्रदान करता था। उनकी विधि अत्यन्त साधारण, तो कारे होती थी न ही यातायात के अन्य साधन। अतः पैदल खिल्वाड़ सम और हल्की फुल्की थी। कोई नहीं जानता था कि चलकर श्री कृष्ण ने इस क्षेत्र को बहुत अच्छी तरह से चैतन्यित वे यह सब क्या कर रहे हैं। जब वे बहुत छोटे से बच्चे थे तो किया। यमुना नदी के तट पर खेलना उन्हें बहुत अच्छा लगता यमुना में स्नान करती हुई स्त्रियों की कण्डलिनी उठाने का था । निःसन्देह उनका बचपन यहां नहीं बीता परन्तु राजा बनने प्रयत्न करते थे। उनके वस्त्र चुराकर बे छुपा देते थे और उन के पश्चात् वे प्रायः इस स्थान पर आया करते थे। एक विशेष प्रकार से हमें उनका चरित्र समझना होगा। सर्वप्रथम हमारे सम्मुख श्री राम का अवतरण है। श्री विष्णु ने श्री राम करके वे यह दशाना चाहते थे कि जीवन महान आनन्द के के रूप में अवतरण लिया परन्तु अपना देवत्व वे भुल गये। एक साधारण सिवाय कुछ भी नहीं। फिर वे गोपियों के वस्त्र उन्हें लौटा देते थे। मानव की तरह से उन्होंने जीवन यापन किया और सुकरान्त वर्णित बड़े होकर वे द्वारिका के राजा बने। अब हमारे देश के बहुत से हितकारी राजा बने। उन्हें अपनी पत्नी को त्यागना पड़ा जो कि अत्यन्त पाश्चात्य बद्धिजीवी लोग हैं जो यह कहने का प्रयत्न करते है कि प्रतिकात्मक है। उत्तरी भारत के अन्य क्षेत्र में भी उनके द्वारा श्री कृष्ण नाम के दो व्यक्ति थे। बिना अध्यात्मिकता को समझे चैतन्यित किये हुए क्षेत्र हमें मिलते हैं परन्तु महाराष्ट्र में, जहां और इसके पीछे छिपी सूक्ष्मता को जाने वे इसका विश्लेषण वे मीलों-मील नंगे पांव चले, उन्होंने पूरी पृथ्वी को ही, चैतन्यित करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनकी सोलह हजार पत्नियां कर दिया। यह पृथ्वी बहुत से सन्तों और अवतरणों द्वारा थी। ये सब उनकी शक्तियां थी। अब माँ के रूप में मेरे हजारों चैतन्यित की गयी। श्री राम के पश्चात् क्योंकि धर्म ने एक बच्चे हो सकते हैं, लड़के, लड़कियाँ, पुरूष और स्त्रियाँ मेरे गम्भीर मोड़ ले लिया था और एक अल्यन्त त्याग पूर्ण धार्मिक नरित्र के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। परन्तु पुरूषों के वातावरण की रचना हो गयी थी अतः श्री कृष्ण ने एक लिए यह बहुत कठिन कार्य है। अब उन्होंने अपनी सारी हल्के-फल्के वातावरण की सृष्टि करनी चाही। वे एक शिशुसम थे श्री कष्ण रूप में अवतरित होकर उन्होंने दर्शाना चाहा कि राजा के साथ हो गया। वास्तव में उनका विवाह नहीं हुआ। उस अध्यात्मिकता गम्भीरता नहीं है। यह तो एक खेल है जो व्यक्ति राजा ने उनका अपहरण करके उनको जेल में डाल दिया। श्री नदी बहुत गहरी राम के त्यागमय जीवन के बाद श्री कृष्ण के विचारों को लोग हुई गोपियों के घड़े तोड़ दिया करते थे। जिससे कि यमुना का किया। ध्यान धारणा के लिए भी वस्त्रों को चैतन्यित करते थे। बहत से लोग यह नहीं समझ पाते कि बाल्यकाल में वे इतने अबोध थे और उनके साथ छेड़छाड़ शक्तियों को स्त्री रूप में जन्म लेने दिया, उनका विवाह एक । क 21 श्री कृष्ण पूजा ने उनकी रक्षा की, उसके चंगल से उनको छड़ाया और मेरा घर है"। यदि आप, "मैं" शब्द का बहुत अधिक उपयोग हये। अतः अन्तरदर्शन करने का कृष्ण उनसे विवाह कर लिया। यदि आप ध्यान से देंखें, तो विवाह पर करते हैं तो आप निर्लिप्त नहीं बल दिया गया है। ये सोलह हजार शक्तियां है। उनकी सोलह प्रयत्न करें यह सब भ्रमित करने वाले शब्द हैं। निर्लिप्तता एक कलाएं थी और सहस्रार की एक हजार पर्ुडियां तो इस प्रकार अवस्था है जिसमें आपको बढ़ना है। सिर के भार खड़े रहकर सोलह हजार शक्तियां बनती है। इसके अतिरिक्त उनकी पांच आप इसे नहीं प्राप्त कर सकते। पत्नियां थीं। उन पर भी लोगों को ऐतराज है। ये पांच पत्नियां पंच तत्व थे। उन्हीं के सार तत्व स्त्री रूप में अवतरित हुए और पर्यन्त उनका एक ही सन्देश था और वह था 'पू्ण निर्लिप्तता। श्री कष्ण ने उनसे विवाह कर लिया। परन्तु वे पूर्णतः नि्लिप्त, उन्होंने कहा कि वे यद्ध में केवल सारथी के रूप में जाएंगे, शस्त्र निर्मोह थे। उनकी मोह हीनता की बहुत सी कहानियां हैं। यमुना के किनारे पर एक महान ऋषि पहुंचे। द्वारिका में तुम्हें ये शर्ते स्वीकार हों तभी मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। जब अर्जुन यमुना नदी न थी। वहां नर्मदा और ताप्ति नदी थी। श्री कृष्ण की ने उनसे प्रश्न किया कि किस प्रकार यह अपने सम्बन्धयों, पत्नियों ने उस सन्त की सेवा करने के लिए जाना चाहा। जब वे गुरूओं, मित्रों आदि का वध करें और जब इसके कारण अर्जुन नदी पर गयीं तो देखा कि नदी में बाढ़ आयी हुई है। वे वापिस श्री बहुत हताश हुए तो श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि सत्य तो ये है। कुष्ण के पास आयीं और उनसे इस समस्या का हल पूछा। तो श्री कि वे सारे लोग पहले ही मर चुके हैं। जो भी जन्मा है उसकी कृष्ण ने उनसे कहा कि जाकर नदी को बताएं कि ब्रहम्चारी मृत्यु अवश्यंभावी है। अतः तुम्हें इन सबका वध करना होगा। कुष्ण ने उन्हें भेजा है। सत्य जान कर नदी उन्हें जाने का मार्ग दे लोग कह सकते हैं कि श्री कृष्ण हिंसा सिखा रहे थे। परन्तु यह देगी। उनकी पत्नियां इस बात को सुनकर बहुत हैरान हुईं, पर सत्य नहीं है। उन्होंने यह कहा कि जो अर्धमी है, क्रूर है और धर्म श्री कृष्ण के समझाने पर वे वापस गयीं और नदी से कहा कि, परम्परा के विरुद्ध है उनका वध होना ही चाहिए। आप उन्हें "हमें ब्रह्मचारी श्री कृष्ण ने भेजा है कृपा करके ऋषि पूजा करने मारे या न मारें वे मर चुके हैं क्योंकि उन्होंने इतने अधिक के लिए हमें मार्ग दे दीजिए"। सत्य को सुनकर नदी का जल स्तर अपराध किए हैं। वे पहले ही मर चुके हैं। अतः आपको यह नहीं एकदम घट गया और वे उस सन्त के पास पहुंच गयीं। सन्त को सोंचना चाहिए कि आप उन्हें मार रहे हैं। परमात्मा ही उन्हें मार भोजन आदि, खिलाकर जब वे पुनः नदी पर आयीं। तो नदी को रहा हैं। इस प्रकार युद्ध शुरू हुआ। गीता में भी उन्होंने जो कुछ बाढ़ ग्रस्त पाया। बहुत चिन्तित होकर वे उस सन्त के पास कहा उसे लोग समझ नहीं पाये। उनकी नि्लिप्सा को आप इसी पहुंचीं और उनसे सारी बात बताई। सन्त ने उनसे कहा कि नदी बात से समझ सकते हैं युद्ध भूमि में भी वे दर्शन शास्त्र पढ़ा रहे को जाकर बताएं कि सन्त ने व्रत रखा हुआ था और उन्होंने कुछ थे पहली बात जो उन्होंने अर्जुन से कही वो यह थी कि ज्ञान को नहीं खाया। वे बहुत हैरान हुई क्यों कि सन्त ने पेट्ओं कि तरह से प्राप्त कर लो। ज्ञान अर्थात् बोध जो कि आत्म साक्षात्कार से ही खाया था। फिर भी वह उनसे ऐसा कहने को कह रहा था। पर वे प्राप्त हो सकता है। परन्तु लोग इस बात को नहीं समझते, वे नदी पर गयीं और सन्त के अदेशानुसार नदी से कहा। नदी का समझते हैं कि पूस्तकें पढ़ने से, गीता उच्चारण से या भाषण जल स्तर एक दम नीचे आ गया। वे बहुत हैरान हुई पर नदी पार सुनने से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। हमारे देश में बहुत से कर ली। चाहे श्री कृष्ण अर्जुन के साथ युद्ध में गये फिर भी जीवन नहीं उठाएंगे, युद्ध नहीं करेगें। अर्जुन से उन्होंने कहा कि यदि 1. लोग श्री कृष्ण पर भाषण देते हैं परन्तु अपने जीवन में वे बड़े अब ये लोग जो इस ऊँचाई तक पहुंच चके हैं वे खा कर भी भयानक व्यक्ति हैं। नहीं खाते। विवाहित होते हुए भी ब्रहमचारी है। जिस भी कार्य को वे करते रहें वे पर्णतः नि्लिप्त रहते हैं। मैं नहीं कहे सकता कि बताते. वे स्पष्ट वादी थे और स्पष्ट रूप में अर्जुन को बताया किस प्रकार के निर्लिप्त रहते हैं । परन्तु ध्यान धारणा से कुण्डलिनी कि तम्हें "स्थित प्रज्ञ" बनना होगा अर्थात् सहजयोगी बनना के कार्यान्वित तथा स्थापित होने से ऐसा हो सकेगा आप आश्चर्य चकित रह जाएंगे, कि आप किस प्रकार निर्लिप्त हो जाते हैं और बिना किए किस प्रकार सब कार्यों को कर लेते हैं। बिना किसी थकान के आप बहुत से कार्य कर सकते हैं। हमें यह यह "कर्म" क्यों करवाना चाहते हैं। इस बात को भी लोगों ने अवस्था प्राप्त करनी है। यह जानने के लिए कि आप उस स्तर बहुत गलत समझा है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के बाद ही तक पहुंचे या नहीं आपको ध्यान रखना होगा कि कितनी बार आप इसे समझ सकते हैं और "कर्म" कर सकते हैं। उन्होंने आपने, "मैं" या "मेरा" शब्द प्रयोग किए हैं, "मेने यह कार्य स्पष्ट कहा कि जो भी कार्य आपको करना है उसे करें और मेरे किया", "मेने वह कार्य किया या "यह मेरा बच्चा है", "यह चरण कमलों में समर्पित कर दें। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है। श्री कुष्ण कोई व्यापारी न थे जो धीरे-धीरे सारी बाते होगा। तब अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा कि वह उसे युद्ध में भेज कर, चैतन्य लहरी 22 जब तक आप यह समझते हैं कि आप कोई कार्य कर रहे हैं तब जैसे यदि यह माइक्रोफोन अपने ऊर्जा स्रोत से न जुड़ा हो तो यह तक आपके अन्दर अहम या "मैं" बने हुए है। आप कह सकते हैं कार्य न करेगा। भक्ति के विषय में भी ऐसा ही है। श्री कि आप इसे परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित कर रहे हैं, क्योंकि एक अवतरण थे तो कुछ नियमों का भी पालन करना परन्तु आप वास्तव में ऐसा नहीं करते। जब अर्जुन ने यह प्रश्न होगा एक मुख्य मंत्री को भी यदि आपने मिलना हो और आप पूछा तो श्री कृष्ण को महसूस हुआ कि मानव स्वभाव इतना उसका नाम पुकारते चले जाएं तो आपको बंदी बना लिया सरल नहीं है, इसलिए अत्यन्त युक्तिपूर्वक उन्होंने अर्जन को जाएगा। श्री कृष्ण तो सर्वशक्तिमान परमात्मा है। उनका नाम बताया कि अपने सभी करमों को परमात्मा के चरण कमलों में हम घटिया ढंग से लगातार नहीं जप सकते। इसी के कारण लोगों समर्पित कर दें। यद्यपि वे जानते थे कि मानव ऐसा न करेगें। ने अपनी कृण्डलियां खराब कर ली है और विशु्द्धि की समस्याएं मानव ने युग-युगान्तरों में ऐसा करने का प्रयत्न किया परन्तु उन्हें हो गयी है। अनाधिकार भक्ति के कारण उन्हें अपने हाथों पर सफल न हो पाए, क्योंकि जो भी कार्य हम करते हैं उसके लिए कुछ महसूस नहीं होता। स्वयं को उत्तरदायी मानते हैं। इसलिए हम अपने कमर्मों को परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित नहीं कर पाते। ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कत्ल करके यह कह दिया कि हमने इसे परमात्मा सन्दर हैं कि वे अबोधिता एवं सम्मान भावों की सृष्ष्टि करते हैं। के चरण कमलों में अर्पित कर दिया है। इस प्रकार कि भरन्ति ने इस देश के लोगों को देवी के नाम पर यात्रियों की हत्या जैसे कार्य करने कि प्रेरणा दी। परन्तु श्री कृष्ण ने जो कहा वह कर सकना प्रेम स्नेह एवं सरक्षा कि भावना। परन्तु पश्चिम में मेने देखा है आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति के बाद ही सभव है। जब आप वास्तव कि बच्चों के प्रति आक्रमक भाव होते हैं। मैं इसे समझ नहीं में महसूस करते है कि आप कत्ता नहीं है तभी यह कार्यान्वित पाती। वासल्य के स्थान पर उनके क्रूर भाव हैं। मैं नहीं जानती होता है। किसी सहजयोगी से जब हम आत्मसाक्षात्कार दने के कि वे भत बाधित है या उनके पूर्व जन्मों के संस्कार ऐसे हैं। लिए कहते है तो वह कहता है, "यह कार्य नहीं कर रही" "यह नहीं जा रही" आदि-आदि। "तृतीय पुरूष" में वह बात करता है, वह तृतीय पुरूष बन जाता है, स्वयं को कता नहीं समझता होता है। अतः श्री कृष्ण का शिशुसम आचरण, आपको बच्चों अपने हाथों से वह कृण्डलिनी, उठा रहा होता है परन्तु उसे यह के प्रति प्रेम स्नेह तथा सरक्षा भावना से ओत प्रोत कर देता है। कृष्ण श्री कृष्ण को समझने के लिए आपको सूक्ष्म होना होगा उनकी शरारतें, चुहलें, शिशुसम आचरण इतने मधुर एवं कोई भारतीय जब किसी बच्चे को देखता है तो उसमें भाव जागृत हो जाता है। बच्चे के प्रति अत्यन्त वातसल्य परन्तु जिस प्रकार छोटे-छोटे बच्चों की अबोधिता पर वे आक्रमण करते हैं वह मानव के लिए कर पाना असंभव सा प्रतीत नहीं लगता कि वह इस कार्य को कर रहा है। वह कहता है कि यह चक्र ठीक नहीं है, यहां रूकावट है आदि। इस प्रकार यह "कर्म","अकर्म" बन जाता है। सभी कुछ करते हुए भी आपको थी। श्री विष्णु माया का जन्म द्रौपदी रूप में हुआ था। उनकी मां लगता है कि आप कुछ नहीं कर रहे। श्री कृष्ण को लगा कि लोग यशोदा "मेरी माँ" थी, जिन्होंने श्री गणेश को शिश के रूप में आत्मसाक्षात्कार को तो प्राप्त नहीं करेंगे। इसलिए यह बन्धन जन्म दिया और राधा जी महालक्ष्मी थीं। इस विचित्र गर्भघारण लगा देना ही ठीक है कि सारे कमर्मों को परमात्मा के चरणकमलों पर भारतीय सन्देह नहीं करते परन्तु अन्य लोगों के लिए इस पर में समर्पित कर दो। तब अर्जुन ने भक्ति के विषय में पूछा और विश्वास कर पाना कठिन कार्य है। लोग इस पर बहस करते हैं। बड़ी चतुरता ने उत्तर दिया आप लोग यह भारतीयों के लिए इस पर विश्वास कर लेना अत्यन्त सुगम है समझ लें कि मैं श्री कृष्ण कि तरह चतुर नहीं हूँ। सभी बातें मैं क्योंकि श्री गणेश को भी इसी प्रकार बनाया गया था। "राधा स्पष्ट रूप से करती हैं। श्री कृष्ण जानते थे कि मानव बहुत ही मेरी माँ" थीं और यदि आप देवी महात्मय को पढ़े तो आप हैरान चतुर है और सरल ढंग से बताई गयी बात पर उसे विश्वास नहीं होंगे कि उसमें स्पष्ट बताया गया है कि ईसा कौन थे और हो सकता। अतः उन्होंने कहा कि जो भी जल, फूल, फल आप वे ही आश्रय है अर्थात् मूलाधार हैं। उन्हें महाविष्णु कहा मुझे अर्पण करेंगें मैं उसे स्वीकार करूंगा। परन्तु आपको अनन्य गया है वे ही पूरे ब्रहमाण्ड को आश्रय देते हैं। ये सभी लोग भक्ति करनी होगी। अनन्य जिसमें आपके और मेरे सिवाय परस्पर सम्बन्धित थे, परन्त वास्वविकता के ज्ञान की कमी में दूसरा कोई न हो। अर्थात् मेरे से सम्बन्ध स्थापित करने के हम मुर्खता पूर्वक इन्हें लेकर झगड़ते रहते हैं। राधा जी उन्हें उपरान्त ही आप भक्ति कर सकते हैं। परन्तु लोग या तो इस यशोदा का नाम देना चाहती थी। अत: उन्हें "येश" कहा जाता अनज्य को समझते नहीं या समझना नहीं चाहते। इसका अर्थ है है उत्तरी भारत में 'यशोदा" को "जसोदा" कहते है। इस कि आप एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति हैं। श्री कृष्ण ने कहा कि प्रकार वे जीसस कहलाएं। मैं जो कह रही हूं उसे आप अपनी इसी भक्ति को मैं स्वीकार करूगा। अंतः व्यक्ति को परमात्मा से चैतन्य लहरियों पर परख सकते हैं। ये सब एक दसरे से जुड़ना होगा। अन्यथा यह बहुत सी समस्याओं में फंस जाएगा। सम्बन्धित थे तथा दैवी लोग थे। हम न तो उन्हें समझ सकते हैं, द्रौपदी भी उनकी बहन श्री कृष्ण पाडवों से सम्बन्धित थे पर्वक श्री कृष्ण श्री कृष्ण पूजा 23 न उनका विश्लेषण कर सकते हैं और न ही टीका-टिपण्णी। ऐसा करना मानव अहंकार का द्ययोतक है क्योंकि अपने सीमित ज्ञान से मानव परमात्मा की बात करना चाहता है। मानव बुद्धि से तथा मस्तिष्क से यह परे की बात है। तो केवल जो कार्य हम कर सकते हैं वह हैं विनम्र तथा समर्पित होना। इसी प्रकार "इस्लाम" आया इसका अर्थ है "समर्पण"। परन्तु अपने समर्पण को वे स्वयं ही जानते हैं। ईसाई कहां ईसा की बात को मान रहे हैं और हिन्दू कहां मानते है कि सब के हृदय में आत्मा का निवास है? सभी में आत्मा है तो कैसे आप जाति व्यवस्था बना सकते हैं। परमात्मा का अत्यन्त धन्यवाद है कि विश्व में बहुत से लोग सहजयोगी बन गये हैं। अपने दैवी जीवन में हमने ये बनावटी सीमाएं पार कर ली हैं। परमात्मा किस प्रकार लोगों को ऊँच-नीच में बाँट सकते हैं? एक मात्र कार्य जो आपने करना हैं वह है इस अवस्था को प्राप्त करना जिसमें आप पुरे विश्व को एक दैवी नाटक के रूप में देख सकें, जैसे श्री कृष्ण ने कहा है कि "आप साक्षी हैं"। दृष्टिकोण है जिसकी सीमाएं है। कुछ समय पश्चात् इसका पतन हो जाता है क्योंकि इसमें सत्य की शक्ति का अभाव है। इसी कारण हम कला में, संगीत में तथा अन्य सभी क्षेत्रों में पतन होता हुआ देखते हैं। अब आप सब लोगों ने सत्य को प्राप्त कर लिया है अतः कृपया समझने का प्रयत्न करे कि सत्य शाश्वत है और सत्य ही प्रेम है। सत्य दैवी प्रेम हैं, जिसके कोई परिणाम नहीं होते। यह किसी चीज का न तो दावा करता है न ही इच्छा। यह मात्र प्रेम करना चाहता है और जब आप प्रेम की इस सर्वव्यापक शक्ति को दयामय होते देखते है तो सब के साथ कोई न कोई चमत्कार घटित होता है। मेरे भिन्न प्रकार के चित्र दिखाने जैसी बहुत सी दिलचस्प घटनाएं घटित करके देवी प्रेम की यह सर्वव्यापक शक्ति आपको विश्वस्त चाहती है। इस बार के नवरात्रि में जो चित्र मैंने देखा वह सर्वोत्तम था और उसकी पूष्ठभूमि (बैक ग्राउंड) बिल्कुल भिन्न प्रकार कि दिखाई दी। कोई गोल सी वस्तु और एक पर्दा था जिसके पीछे से सुर्य के समान झांकती हुई कोई चीज थी। यहां से जब मैं रूस गयी तो वहा मच पर मैने अपने पीछे यही दृश्य देखा। तो वहां पर प्रकट हीने से पूर्व दैवी शक्ति के आश्रय से इसे नवरात्रि में देख लिया गया। मास्को में मेरे पीछे के इस दृष्य को सब लोगों ने देखा। मुझे आपको श्री कृष्ण की एक कहानी सुनानी है क्योंकि यमना नदी, श्री कृष्ण के कार्यों की याद मुझे दिला रही है। कल आप लोगों को नाचते हुए और आनन्द लेते अच्छा लगा क्योंकि इससे पूर्व जिन लोगों ने इस प्रकार के नत्य किये वे सन्त नहीं थे। वे साधारण लोग थे जिनके साथ श्री कृष्ण ने 'रास करनी चाही। 'रा' अर्थात् शक्ति और 'स' अर्थात् संचार देखकर मुझे बहुत हुए अतः यह सर्वव्यापक शक्ति इस प्रकार सभी प्रकार के खेल करती है। मेरी अनुपस्थिति में भी ऐसा प्रतीत होता है कि मैं उपस्थित हूँ। यह बहुत से तरीको से कार्य करती है। और व्यक्ति को । समझना पड़ता है कि जिस घटना को हम चमत्कार मान रहे हैं। वास्तव में वह परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति का खेल होता है। इस प्रकार राधा जी की शक्ति से उन सब को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ। आजकल सभी धर्मों ने अपना आकार और अर्थ खो दिया है और वे भ्रष्ट हो गये हैं। इसका कारण ये है कि यह मानसिक परमात्मा आपको धन्य करे चैतन्य लहरी 24 ---------------------- 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-0.txt ১ব১১ ১১২ ১১ दरय खण्ड VI अंक 5 व 6 चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति "भौतिकतावादी विचारों से हमें छटकारा पाना होगा मैं नहीं कहती कि आप हिमालय में चनें जारएं सन्यास ले तें, या बुद्ध की तरह से अपने बच्चों को त्याग दें। परन्तु आप में नि्लिप्मा तो होनी ही चाहिए। परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी గ్పగ ১১ द ८) ১১২ ১২১ 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-1.txt काम लि प पा श्री योगी महाजन सम्पादक श्री विजय नाल गिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनिरका विहार, नई दिल्ली- 110067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 35, राजेन्द्र नगर मार्केट, नई दिल्ली-110060, फोन: 5710529, 5784866 मद्रित 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-2.txt चैतन्य लहरी खण्ड VI अंक 5 व 6 विषय सूची पृष्ठ (1) पूजा के विषय में श्री माता जी का परार्मश 13 (2) श्री महालक्ष्मी पूजा पूजा, पैरिस 11-7-1993 (3) श्री महाकाली 18 21 (4) श्री कृष्ण पूजा, हथिनी कण्ड, हरियाणा 11-12-1993 |र 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-3.txt पूजा के विषय में श्रीमाताजी का परामर्श पुजा या प्रार्थना आप के हृदय में विकसित होती है। मंत्र आपकी कण्डलिनी के शब्द हैं। परन्तु यदि मंत्रों का उच्चारण हृदय से न किया जाए या मंत्रोच्चारण में कण्डलिनी का सम्बन्ध न हो तो पुजा मात्र कर्मकाण्ड बन जाती है। हृदय में पूजा करना सर्वोत्तम है। पूजा में आपको पूर्ण श्रद्धा पूर्बक मंत्र कहने चाहिए। श्रद्धा जब गहन हो जाए तभी पूजा करनी चाहिए क्योंकि तब हृदय स्वयं पूजा करता है। उस समय कृपा की लहरियाँ बहने लगती हैं क्योंकि उस समय आत्मा से आवाज निकल रही होती है। लोग सुरा से अपने गिलास भर लेते हैं। आपकी पूजा भी ऐसी ही है। इसमें श्रद्धा आपकी शराब है और मंत्रोच्चारण और पूजा आपका गिलास। सब कुछ भूलाकर जब आप उस सुरा को पीते हैं तभी आप आनन्द के सागर में गोते लगा सकते परन्त जो आनन्द आप इस सूरा को पीकर प्राप्त करते हैं वह शाश्वत और सदा मिलने वाला है। व्यक्ति के पास यदि आप भिक्षा लेने के लिए जाएं तो वह आपको दो पैसे भी नहीं देगा। परन्तु आपकी गुरू क्योंकि अत्यंन्त शक्तिशालिनी है इसलिए आप इतनी सगमता से सारी शक्तियाँ प्राप्त कर रहे हैं। अतः आपको इस उपलब्धि पर अत्यन्त प्रसन्न होना चाहिए, अत्यन्त प्रसन्न और प्रफल्लित कि आपके पास यह शक्तियाँ हैं। कम से कम वे लोग जो सहजयोग में हैं वे इस बात को विश्वस्त रूप से जान जाएंगे। जो लोग पहली बार मेरे भाषण में आए हैं वे थोड़े से उलझन में पड़ेंगे। आप सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि यह क्या है। अतः अपनी गुरू शक्ति को समझने के लिए आप सबसे पहले यह जान लें कि आपकी गुरू कौन हैं? "साक्षात आदि शक्ति।" हे परमात्मा। यह तो बहुत बड़ी बात है। तब अपने भवसागर को स्थापित कर लें। हैं। एक गुरू, विशेषतया मेरे शिष्य, अपनी माताओं और बहनों के अतिरिक्त किसी अन्य के सामने सिर नहीं झुकाते। आपने देखा होगा कि आप भी ऐसा ही करते हैं। आज गौरी का दिन है। गौरी ने कंवारी अवस्था में, श्री गणेश का सृजन किया। उसी प्रकार आपको भी आत्मसाक्षात्कार प्रकार हुआ। ठीक उसी प्रकार। अतः आपको भी गौरी की उसी शक्ति का उपयोग अपने अन्दर करना होगा। आपको अपना हृदय स्वच्छ रखना होगा। आपका हृदय और विचार स्वच्छ होने आवश्यक हैं। आपका मस्तिष्क पवित्र होना चाहिए। निसन्देह भक्ति यह पवित्रता प्रदान करती है, परन्तु यदि आप के मस्तिष्क में कुछ भी बचा हुआ है तो मैं आपको बताती हैँ कि आज से तीन बातें घटित हुआ करेंगी। पहली, हमने विश्व निर्मला धर्म चलाया है। आप श्री गणेश की दृष्टि में हैं, अपनी आत्मा के पथ प्रदर्शन में हैं, और सर्वशक्तिमान परमात्मा के आश्शीवार्द में हैं। सावधान रहें क्योंकि एक बार जब आप इस स्थिति को पा लेते हैं तो आपको धर्म पर दूढ़ रहना होगा और धर्म के प्रति अत्यन्त ईमानदार होना होगा। दूसरी बात जो आपको जाननी है वह यह है कि आपकी गुरू बहुत महान लोगों की माँ भी हैं। इस बात का विचार मात्र ही आपके गुरू तत्वल वे कितने महान व्यक्तित्व थे। शब्द उनका वर्णन नहीं कर को स्थापित कर देगा मेरे कितने महान पत्र हुए। सकते, एक के बाद एक वे इतनी अधििक हुए। आप भी उसी परम्परा से हैं। मेरे शिष्य उन्हें अपना आदर्श रखें। उनका अनुसरण करें, उनके विषय में पढ़ें, उन्हें समझें कि उन्होंने क्या कहा और किस प्रकार यह शिखर उन्होंने प्राप्त किये। उन्हें मान्यता दे, उनका सम्मान करें। आप अपना गुरू तत्व स्थापित कर सकेंगे उनकी बताई गई सारी बातों को आत्मसात करें। उन पर गर्वित हों। लोगों की कही बातों से पथभृष्ट न हों। सारी जनता को हम अपनी ओर खींचने वाले हैं। सर्वप्रथम हमें अपना बजन और गुरूत्व स्थापित करना है। जैसे पृथ्वी माँ सबको अपनी ओर खींचती रहती है। इसी प्रकार हम भी सबको अपनी ओर खीचेंगे। आज आपने अन्दर अपनी आत्मा से बायदा करना है कि आप अपनी माँ की आशाओं के अनुसार एक योग्य गुरू बनेंगे। अब भवसागर को स्थापित होना है सर्वप्रथम आप अपने गुरू को जाने कि बे हर चक्र पर विराजित हैं। अपने इतने महान गुरू की कल्पना कीजिए। इससे आपको आत्मविश्वास प्राप्त होगा इतने आश्चर्यजनक गुरू के कारण ही सब लोग इतनी सुगमता से आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर रहे हैं । किसी धनी बनाए धर्म पर चलने का निर्णय यदि आपने कर लिया है तो आज से सावधान रहें, मर्यादाओं से यदि आप निकले तो आपको कुछ भी हो सकता है। जब तक आप सहजयोग की मर्यादाओं में, सीमाओं में रहेंगे तब तक आपको कोई हानि या आघात नहीं पहुंच सकता। इसके विपरीत यदि आप मर्यादाओं में रहेंगे तो जीवन का आनन्द उठाएंगे। परन्तु सहजयोग की मर्यादाओं को यदि आप छोड़ देंगे तो भयंकर समस्याओं में फंस जाएंगे। पुजा के विषय में श्री माता जी का परामंश 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-4.txt अतः दूसरी बात जो मैं आपको बताना चाहती हूँ वह यह है कि बहुत समय पूर्व आत्मसाक्षात्कारी लोगों को जिसका वचन दिया गया था वह दिव्य-दर्शन हमने आज शुरू किया है। उन्होंने अंग्रेजों के अहंकार को मेरे सामने विस्तारपूर्वक वर्णन किया। तब मुझे लगा कि मैं भी इसी प्रकार की कुछ बातों से परिचित हूँ। कां अपनी आत्मा बनिए, सभी कुछ बहुत अच्छा होगा। किसी बात से विचलित न हों, किसी चीज के लिए चिन्तित न हों। पूर्ण अब हृदय की वह उच्चावस्था प्राप्त करना संभव है क्योंकि आप लोग इंग्लैंड की विशिष्ट भूमि पर उत्पन्न हुए हैं। वह सम्भावना अवश्य ही आपके अन्दर बनी हुई होनी चाहिए। तो फिर कमी क्या है? ऐसा कयों है कि सारी सम्भावनाओं, महान पृष्ठ भूमि और सारी विशेषताओं के कारण यहाँ होकर भी हम पाते हैं कि सहजयोगी वर्षों तक भी अन्य सहजयोगियों की उच्चावस्था को नहीं पा सकते? क्या कारण है? हृदय को यदि आप देखें तो इसमें धड़कन की एक गति है और यह एक विशेष प्रकार की आवाज़ से चलता है। आप इसे लेखाचित्र (ग्राफ) पर ला सकते हैं, यह अत्यन्त सुव्यवस्थित नियमित और अनुशासित तया शान्त रहने का प्रयास करें। यह देखने के लिए कि आप कितना अपनी आन्तरिक शान्ति की अवस्था में रहते हैं, मैं आपकी परीक्षा लेती रहती हूं। आपने यदि कोई अपराध नहीं किया तो ठीक है। जब आपने कोई ब्राई नहीं की तो चिन्ता की कोई बात नहीं। और यदि आपने कोई अपराध कर भी दिया है तो परमात्मा क्षमा के सागर हैं। अतः किसी प्रकार की चिन्ता न करें। पूर्ण दृढ़ता एवं साहस के साथ दिव्य-दर्शन के इस वचन को आगे बढ़ायें। तीसरी बात है कि यह सब कुछ जो हम कर रहे हैं इसके है कि कोई धीमी सी आवाज या हल्का सा परिवर्तन भी लेखाचित्र साथ-साथ परमात्मा से वायदा करें कि पूरी सुझबूझ से हम सहजयोग को समझेंगे, इसके एक-एक शब्द पढ़ कर हम पर इसी की कमी है, हृदय के अनुशासन की। सहजयोग के ज्ञान में प्रवीणता प्राप्त करेंगे। हम स्वयं को स्वच्छ रखेंगे तथा अपना जीवन पूर्णतया सहजयोग को समर्पण करेंगे इसमें कुछ विशेषता तो होनी चाहिए। आज हमें यह हृदय अपने हृदय में आपको इसके लिए वचनबद्ध होना है। सहजयोग पुर्णतया स्वच्छ करके इसे इतना पवित्र कर देना है कि यह इसके को समर्पित होना, वास्तव में आनन्द, आशीष और शान्ति को अन्दर से बहुकर परे शरीर में जाने वाले सारे रक्त को पवित्र कर समर्पित होना है। इसमें आपका लाभ है और किसी की भी हानि नहीं। अतः आज हमने सदा के लिए इस बात का निर्णय लेना है। अब मैं देखती हैं कि सहजयोग एक नया है। निसंदेह यह होने वाला है। हम एक ऐसी अवस्था तक पहुँचने वाले हैं जहां हजारों लोग हमारे साथ सम्मिलित हो जाएंगे अभिव्यक्ति। हम पाते हैं कि कुछ लोग तो योग्य हैं परन्तु कुछ परन्तु सर्वप्रथम, जो लोग आधार शिलाओं में हैं, जो पहले लोग अन्य बातें और दिखावा तो अधिक करते हैं परन्तु योग्य नहीं हैं, उन्हें अपने मूर्खतापूर्ण लालच, सभी प्रकार के मूर्खतापूर्ण होते। अतः इस हृदय को स्वच्छ करें, सर्वोत्तम कोषाणु बनें। कार्य जो आज तक आप करते रहें और जो असहज हैं, उनसे ऊपर उठने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा। आपकी भाषा मधुर होनी चाहिए तथा व्यवहार बहुत ही अच्छा नम्र और आपको गम्भीरता पर्वक सन लेंगे परन्तु अगले क्षण आपकी बात कोमल। आपको एक योगी की तरह चलना चाहिए, एक संत की तरह जीवन व्यतीत करना चाहिए ताकि आपके माध्यम से लोग देखनी है और हमारे अन्दर भी यदि कोई कमी है तो बह है सहजयोग की महानता को देख सकें। पर दिखाई पड़ता है। यह इतनी संवेदनशील वस्तु है। और यहां आज जब हम महानतम, नवरात्रि, का उत्सव मना रहे हैं तो दे। जिन कोषाणुओं से हृदय बना है उनका सर्वोत्तम होना आवश्यक है क्यांकि मानव शरीर में हदय के कोषाणु उच्च कोटी के तथा संवेदनशील होते हैं। हृदय ही 'अनहद' की अभिव्यक्ति करता है अर्थात बिना आघात के उत्पन्न हुई आवाज की मोड लेने वाला अनियमित, अनुशासनविहीन हृदय अहम को बढ़ावा देता है। आप जो भी लोगों को बताते रहे, समझाते रहें; उस समय वे का उन पर कोई असर नहीं रहता। तो एक अन्य चीज़ हमने अनुशासन की। उस अनुशासन को हमें लाना होगा नहीं तो हमारी योग्यता न बढ़ पायेगी । परन्तु मैं सोचती हैँ कि इसके लिए हमारे अन्दर अन्तर्जात बद्धि होनी चाहिए। शिक्षा नहीं, अन्तर्जात बुद्धि, यह समझने के लिए कि हमें हमारी योग्यता को सुधारना है। अब यहाँ हमारी आत्मा धड़कती है शक्ति नहीं। साक्षी, जो देख रही है बह परमात्मा का प्रतिबिम्ब है, जो कि देवी के कार्य का दर्शक है। वास्तव में उस अवस्था तक उन्नत हुए बिना यदि हम कहें कि हम भी आत्मा को देख रहे हैं तो हम वह योग्यता नहीं प्राप्त कर सकते। सारे आशीर्वादों जैसे हृदय के सात परिमलें (औराज़) की तरह हमें सात आश्रम जब मैं इटली में थी तो मैंने कहा कि इंग्लैंड परे ब्रह्माण्ड का हृदय है तो वे लोग इस बात को स्वीकार न कर पाए। इस कथन से उन्हें बहुत धक्का लगा। वे विश्वास न कर पाए कि इंग्लैंड भी ब्रहुमाण्ड का हृदय हो सकता है। इसका एक कारण यह था कि एक बार रोमन लोगों ने अंग्रेज लोगों पर आक्रमण किया था और उस समय रोमन लोगों को ये लगा था कि अंग्रेज अत्यंत अहंकारी हैं। अपनी पराजय को भी वे सम्मान पूर्वक स्वीकार न करेंगे। पराजित होने पर भी वे अत्यन्त अहंकारी हुआ करते थे। यदि की यह अवस्था है तो ब्रहुमाण्ड की क्या अवस्था होगी? तब हृदय चैतन्य लहरी 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-5.txt दोष देंगे। इसे गम्भीर चेतावनी समझें। आत्मसाक्षात्कार देने के बाद अब तुम्हें अनुशासित करने की मुझे बिल्कुल आवश्यकता नहीं क्योंकि आप को प्रकाश मिल गया है, आप जानते हैं कि आत्मसाक्षात्कार क्या है, आप आत्मसाक्षात्कारी होने का अर्थ जानते हैं, और आप यह भी जानते हैं कि आपको इससे कितना लाभ हुआ है तथा आपका व्यक्तित्व कितना निखरा है। परन्त प्राप्त हुए हैं। हम नहीं समझते कि हम सब को स्वयं को अनुशासित करना है। केवल लाभ उठाने के लिए, या यह दाबा करने के लिए कि आप एक सहजयोगी हैं, यदि आप सहजयोग में हैं,तो यह हृदय का कोषाणु होने का चिन्ह नहीं । अब चेतावनी देना आवश्यक है। इस अवस्था में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अब सहजयोग उडान भर रहा है, याद रखें कि गति प्राप्त कर ली गई है और अब यह उड़ान भर रहा है। जो लोग पीछे छट जाएंगे वे छुट जाएंगे। अतः अहंकार में न फंसे। आपका चरित्र पहले स्थान पर है- क्योंकि सभी लोग कहते हैं वे अत्यन्त अहंकारी हैं।" नम्र बन कर समझें कि आपको यान के अन्दर होना है पीछे पृथ्वी पर नहीं रह जाना। यान द्रतगति से चल रहा है। 1. अभी भी करने को कुछ शेष है। आपको स्वयं देखना है कि क्या वास्तव में आपने स्वयं को अनुशासित कर लिया है या नहीं। किसी अगुआ, आश्रम के साथी या किसी अन्य को आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं। आप आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति हैं, आप अपने स्वामी हैं, अपने गुरू हैं। कल्पना कीजिए कि आप सब गुरु है, महान गुरू सद्गुरू हैं, सम्मान जनक सन्त हैं जिन पर सभी देवताओं ने पुष्प छिड़कने हैं। इसकी कल्पना करें। लेकिन आप तो अक्खड़ता पूर्वक भाषण दे रहे हैं तथा बातें कर अभी मैं ऊँचे दो चक्रों के विषय में बात नहीं कर सकती परन्त हमें कम से कम सात चक्रों की बात तो करनी चाहिए। क्या इन चक्रों की शक्ति हम अपने अन्दर विकसित कर चके हैं। हम ऐसा किस प्रकार कर सकते हैं? आपके पास समय नहीं है। आप सब व्यस्त लोग हैं। और अहंकारी। इन शक्तियों को विकसित करने के लिए अब हमें अपना चित्त इन चुक्रों पर केन्द्रित करना होगा जहां कहीं भी मैं गयी, जो प्रश्न पूछे गए और जिस प्रकार के लोग मुझे मिले, मैं आश्चर्यचकित रह गयी। किसी ने मुझसे अपने परिवार, घर, नौकरी या बेकारी आदि किसी व्यर्थ की चीज़ के बारे में नहीं पूछा। उन्होंने केवल यही पूछा कि श्रीमाताजी किस प्रकार हम फलां चक्र की शक्ति को विकसित करें? और मैंने उनसे पूछा कि आप किसी चक्र-विशेष की बात क्यों कर रहे हैं? कहने लगे कि "हमें लगता है कि हम में यह कमी है, विशेषकर के मुझमें यह चक्र ठीक नहीं है। अब सबसे अधिक सौभाग्यशाली बात यह है कि आज नवरात्रि है और मैं लन्दन में हैँ तथा नवरात्रि भी यहाँ होनी चाहिए। कोई अन्य देश इतना भाग्यशाली नहीं क्योंकि यह महानतम पूजा है, महानतम कार्य, जिसमें आप उपस्थित हो सकते हैं। हम नवरात्रि क्यों मनाते हैं? हृदय में नवरात्रि पूजा का अर्थ है सात चक्रों के अन्दर निहित शक्ति की अनभति करने के लिए आदिशक्ति की शक्ति को स्वीकार कर लेना। जब यह चक्र जागृत हो उठते हैं तो आप किस प्रकार अपने अन्दर इन नौ चक्रों की शक्ति की अभिव्यक्ति करते हैं। सात चक्र तो यह हैं और इनसे ऊपर दो चक्र और हैं, जैसा कि, हैरानी की बात है, ब्लेक ने स्पष्ट कहा कि "नौ चक्र हैं।" रहे हैं। देवताओं को भी लज्जित करने वाली बात है। उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करें, आपको पुष्प माला अर्पण करें या आपका मुंह बंद कर दें। आप यहां इतनी महान स्थिति में हैं कि आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया है। आपने केवल इस महायोग के सौन्दर्य को स्वीकार करना है, सातों चक्रों पर विद्यमान अपनी शक्तियों को ज्योतिर्मय करना है। अज्ञानी लोगों की बात तो मुझे समझ आती है। परन्तु उस अज्ञानता में वे किस प्रकार अबोधिता की बात करेंगे? पर आप लोग तो मुर्ख नहीं हैं। आप तो ज्ञानमय हैं, आपको आत्मसाक्षात्कार मिल चुका है। अबोधिता की शक्ति अति महान है। यह आपको अत्यन्त निडर बनाती है, अहंकारी नहीं निडर। अबोधिता की सबसे बड़ी महानता यह है कि यह सम्मानमय होती है। सम्मान विवेक यदि आपमें विकसित नहीं हुआ है, सहजयोगियों, अन्य लोगों, आश्रम, अनुशासन तथा के स्वयं लिए यदि आप सम्मान भाव विकसित नहीं कर सके तो पूजा सहजयोग की बात तक करना व्यर्थ है। सम्मान-भाव तो इसकी शुरूआत है। ठीक है कि पहले आप सम्मान नहीं करते थे, अहँकारी थे, मूर्खों के स्वर्ग में रहते थे, सब क्षमा कर दिया गया। पर प्रकाश मिलने के बाद आप उन सारे सांपों को छोड़ दें जिन्हें थे । यह इतनी साधारण बात है। अब तक पकड़े हुए आइए प्रथम चक्र को देखें। यह श्री गणेश की माँ- गौरी की शक्ति से सम्बन्धित है। गौरी की शक्तियाँ कितनी आश्चर्यचकित करने वाली हैं? उनकी शक्तियों के कारण ही आपको आत्म साक्षात्कार मिला। हमने उस शक्ति को अपने अन्दर सथापित करने के लिए क्या किया? आज नवरात्रि के प्रथम दिन हमें देखना चाहिए कि हमने क्या किया? क्या हम अपने अन्दर अबोधिता विकसित कर सके? बातचीत करते हुए लोग अत्यन्त कट होते हैं। आप यदि अबोध हैं तो आपमें एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति को अनुशासित करने या यह सब बताने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि आज आपसे इस लहजे में बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता। परन्तु मुझे लगा कि यदि आज मैंने आप को चेतावनी नहीं दी तो कल आप मुझे पूजा के विषय में श्री माता जी का परार्मश 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-6.txt कड़वाहट कैसे आ सकती है? वे अत्यंत अक्खड़ हैं। अबोध तुष्टि हुई है। परन्तु विवेकशील व्यक्ति को कुछ कहना नहीं व्यक्ति कैसे अक्खड़ हो सकता है? लोग खेल खेलते हैं। अबोध पड़ता। मौन से ही वह अपने विवेक की छाप दूसरे लोगों पर यदि आप हैं तो आप यह कैसे कर सकते हैं? अतः आपको स्वयं छोडता है। देखना होगा कि यदि अबोधिता की शक्ति की जीवित रखना है तो बाकी सारी मर्खताओं को त्यागना होगा। आप यदि अबाधिता प्रतिद्िन ध्यान करना है। यही अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है जिसे चाहते हैं तो अबोधिता-विरोधी हर बात को छोड़ना होगा। बाल सुलभ स्वभाव में ही आप गौरी के आशीर्वाद को प्राप्त मैं इंग्लैंड में हैँ तो वहाँ के लोग कहेंगे "माँ सब कुछ कर राही कर सकते हैं अन्यथा आपको यह सब बताना व्यर्थ है क्योंकि है।" अतः मैं प्रातः चार बजे उठती हैं, स्नान करती हैं और आप आप तो स्वयं को चतुर समझते हैं। चतुर व्यक्ति से बात करने सब के लिए ध्यान करती हैं। अच्छा हो कि मैं एक बार फिर से का क्या लाभ है क्योंकि वो तो पहले से ही सब जानता है। अतः यह शुरू कर दँ। क्योंकि आपके पास तो ध्यान करने के लिए विकसित होते हुए सर्वप्रथम आप पृथ्वी माँ पर बैठना सीखें। धरा माँ का सम्मान करें क्योंकि पहला चक्र पृथ्वी तत्व से बना है। पृथ्वी पर आराम से बैठना सीखें और पृथ्वी का सम्मान भी। पेड़ों प्रातः उठे। "हम सुबह उठ नहीं सकते।" पूरा विश्व उठ सकता पर जब फल आते हैं तो पेड़ इतने सम्मानमय नहीं होते पर जब है तो अंग्रेज क्यों नहीं उठ सकते? वाटरल के युद्ध में तो वे सब से पेड़ फलों से लद जाते हैं तो वे पृथ्वी माँ के सम्मुख झुक जाते हैं। पहले पहुँच गए थे। समय की पाबन्दी के कारण ही उन्होंने इसी प्रकार सहजयोग के फल पाकर आपको भी नम्र हो जाना लड़ाई जीती। उनकी वक्त की उस पाबन्दी को आज क्या हो गया चाहिए। आपको स्वयं को समझना हैं, केवल स्वयं को। अतः सब को उन सभी देशों के लोग कर रहे हैं जहां मैं नहीं होती। क्योंकि यदि समय ही नहीं है। कम से कम मैं तो आपके लिए ध्यान करू। अंतः आप सब आज मुझे वचन दें कि आप प्रतिदिन ध्यान करेंगे। है? हम शराब नहीं पीते, उसका असर हम पर नहीं होता, रात अबोधिता में व्यक्ति को शान्त करने की शाक्ति है। 'अत्यन्त को हम देर से नहीं सोते। तो क्यों न आज हम निर्णय करें कि शान्त'। क्रोध और हिसा विहीन। अबोधिता विहीन व्यक्ति में शान्ति नहीं आ सकती। ऐसा व्यक्ति या तो धूर्त होता है या मैं अपने पर चित्त दूंगा दूसरों पर नहीं। और स्वयं देखूगा कि मैं आक्रामक। उसका हदय अशान्त होता है। पर अबोध व्यक्ति कहाँ पकड़ रहा हैँ। कौन से चक्र पर मैं पकड़ रहा है और मझे निश्चिन्त होता है और निश्छल जीवन यापन करता है। पर्ण क्या करना है? शान्ति पूर्वक रह हर चीज का आनन्द लेता है। चतुराई व्यक्ति के हिसक बना देती है। स्वयं को अति चतुर मान कर वह अन्य शक्तियों को प्रज्जवलित होना चाहिए और उनकी अभिव्यक्ति लोगों को मूर्ख समझता है तथा उन पर चिल्लाना अपना भी होनी चाहिए। ये शक्तियां असीम हैं। मैं इनका वर्णन एक अधिकार। कपटी व्यक्ति कभी बद्धिमान नहीं होता चाहे देखने में भाषाण में नहीं कर सकती। आदि-कृण्डलिनी के बारे में सोचे । वह ऐसा प्रतीत होता हो। अबोधिता ही विवेक की दाता है। आप वह पृथ्वी माँ, पुरे ब्राह्माण्ड, पशुओं, भौतिक पदार्थों तथा लोगों ने कितना विवेक प्राप्त किया? व्यक्ति को इसका ध्यान मानवों में कार्यान्वित है। और अब वह आप में कार्य करती है। रखना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि क्या हम स्वयं को अनुशासित कर पाये वही निर्णय करती हैं कि आपको कौन सा बच्चा मिले। वही हैं? अनुशासन से ही हमारा उत्थान होता है। हमें बहत विकसित आपको इच्छित बालक प्रदान करती हैं। उन्होंने ही आपको ये होना है। अहंकार ग्रस्त व्यक्ति इस बात को नहीं समझते कि उन्हें सारे सुन्दर बालक प्रदान किये हैं। उन्होंने ही यह दैदीप्यमान उत्थित होना है, अभी तक उनका उत्थान नहीं हुआ। अभी चेहरे और आँखें आपको दी हैं। उन्होंने यह सब आपके लिए आपको बहुत ऊपर उठना है। उत्थान होने पर आपका विवेक किया। परन्तु आपने अपने अन्दर की इस शक्ति की कितनी करूणा की सुगन्ध महक उठता है। हर रोज प्रातः जल्दी उठकर में ध्यान करूंगा। ध्यान करते हुए अतः आज नवरात्रि के प्रथम दिन हमारे अन्दर गौरी की केवल इसी के निर्णय से ही आपको शक्लों-शरीर प्राप्त होंगे। अभिव्यक्ति की? से अबोधिता की शक्ति बढ़ने पर विवेक दिखाई पड़ता है। लोग कहते हैं, "वह व्यक्ति अत्यन्त विवेकशील है। उदाहरणार्थ यदि कोई अपनी पत्नी के लिए रो रहा हो तो बुद्धिमान व्यक्ति कहेगा," ओ बाबा! इसकी ओर देखो, अभी तक अपनी पत्नी की चिन्ता में लगा है।" इन चीज़ों का कोई अन्त नहीं। मैं ऐसे लोगों को जानती हैं जो सहजयोग पर एक-एक घन्टे का लम्बा भाषण दे सकते हैं। उसके विना उन्हें लगता ही नहीं कि उनके अहं की आज सहजयोगी पूरे ब्रह्माण्ड तथा पूरी मानव-जाति के उत्थान के प्रतिनिधि हैं। क्या आप इस बात को समझ गए हैं कि इस संकटमय समय में, जबकि संसार विनाश के कगार पर खड़ा है, आप इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? विलियम ब्लेक जैसे महान दष्टाओं ने इस समय की बात की। उन्होंने इसे बनाया। परम्परागत रूप में हमने यह सब बनाया। सन्तों के कार्य ने ही इंग्लैंड को इस स्थिति तक पहुँचाया। अब क्या आप चैतन्य लहरी 6. 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-7.txt जानते हैं कि इंग्लैंड के सहजयोगियों की स्थिति अत्यन्त कोई तरीका नहीं है। आपको परमात्मा के प्रति संवेदनशील महत्वपूर्ण है? परन्तु विवेक के अभाव में, अक्खड़पने से, तथा होना है,बरी चीजों के लिए नहीं। परन्तु परमात्मा से एकाकारिता आत्मा को समझे बिना आप कैसे इतनी ऊँची बात कर सकते हैं? के स्थान पर हम बुरी चीजों के सम्मुख बहुत दुर्बल हैं। अतः आप स्वयं जब तक इतने दर्बल तथा अहंकारी हैं तो सारी चीजों अच्छाई को समझने की शक्तियां आपकी पहुंच में है, यह की व्यवस्था किस प्रकार कर सकते हैं? निसन्देह आदिशक्ति कठोर परिश्रम कर रही है। परन्तु आप लोग, जिनकी कृण्डलिनी जागृत हो गई है, कया कर रहे हैं? आपने बाह्य जगत में आदिशक्ति की कितनी बात की? हुए हैं उन्हें चेतावनी देनी होगी और बाद में उन्हें वर्जित कर कृण्डलिी क्या है? जैसे आप सर्व-साधारण रूप में जानते हैं यह शुद्ध इच्छा है। अतः स्वयं को पूर्णत्व तक विकसित करने की शुद्ध इच्छा करें। वास्तव में यदि यह सच्ची इच्छा है तो कुछ भी कि इंग्लैंडे के लोगों का सहज के प्रति पिकनिक जैसा रवैया महत्वपूर्ण नहीं। बाकी सभी इच्छाएं दूसरे तथा तीसरे दर्जे की देखकर मुझे बहुत दुख होता है। आपके प्रयत्नों की सराहना (गौण) हैं। उत्थान की इच्छा ही सर्वोपरी है। किसके हित के करने के लिए मैंने बहुत कोशिश की और सदा इसमें लगी रही। लिए? यह आपके हित के लिए है और आप के हित में पूरे विश्व का हित निहित है। अतः आज मैं गिनती नहीं करूंगी कि कितने लोग प्रवेश करता है तो प्रणाम करने के लिए सब की कुणडलनी उठ प्रतिदिन ध्यान करते हैं और कितने नहीं करते। मैं आपको केवल जाती है। जब आपमें गौरी की शक्ति आ जाती है तो आप विशेष इतना बता सकती हूँ कि जो लोग प्रतिदिन ध्यान नहीं करते, बन जाते हैं क्योंकि आपमें पवित्र, अबोध सुन्दर लालच विहीन अगले वर्ष वो यहाँ नहीं होंगे। मेरी बात समझ लें, यह सत्य है। दृष्टि आ जाती है, आपकी आंखों में एक ऐसी चमक आ जाती है प्रतिदिन ध्यान अवश्य करें। स्वयं को अनशासित करें। एक नये कि आपके कटाक्ष मात्र से तरन्त कण्डलिनी उठ जाती है। गौरी परिदृश्य में आप आ गए हैं। अब इस नये स्वपन को जब आप की शक्ति विकसित होने से ही कैन्सर आदि सभी बिमारियां देखते हैं, इसे समझते हैं तो आप दर नहीं खड़े रह सकते इसमें उतरें। शक्तियां मात्र प्रशंसा बन कर नहीं राह जानी चाहिए, यह एक प्रकार की चुनौती, एक प्रकार की सुन्दर जिज्ञासा और विकास बन जानी चाहिए। जिन लोगों ने स्वयं को केवल लेबल लगाए दिया जाएगा। यहां पर चैतन्य लहरियों की दशा देखकर और अन्य चीजों को देखकर मुझे खेद होता है। आप लोग नहीं जानते आप अब अपने अन्दर झांकिए। जिस व्यक्ति में गौरी की शक्ति है वो जब किसी स्थान पर ३ तुरन्त ठीक हो सकती है। आपकी सारी समस्याएं हल हो सकती हैं। सारी ब्राइयां भाग जाती है और सब प्रकार की सभी लोग कहते हैं कि श्रीमाताजी आप ने इन अंग्रेजों के लिए नकारात्मकता को वश में करते हुए आप एक सुन्दर, सुगन्धित बहुत समय खर्च किया है। उनके लिए इतना समय क्यों खर्च कमल बने जाते हैं। किया? हो सकताहै कि आप लोग स्वय को बहुत महान समझ रहे हों। जैसे मर्जी सोचिए। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपके अन्दर छिपे हुए तत्व को सब लोग देखें। किसी मित्र, आपका देश हृदय भूमि है इसलिए मुझे दूसरों की अपेक्षा आपको मंगेतर, पत्नी या पति की चिन्ता करना कोई उच्च स्थिति की अधिक शुद्ध करना पड़ता है। परन्तु परिणाम उल्टा है। दूसरे बात नहीं। आपकी स्थिति बहुत नीची है और गिरती जा रही है। लोग बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। उनकी लहरियां उनकी संवेदना, यह अच्छी बात नहीं है। मेरी करूणा और प्रेम यदि आपको उनकी सुझ-बुझ, जोकि उन्होंने अभी-अभी प्राप्त की है, उसको बिगाड़ रहे है तो अच्छा होगा कि मैं यह सब आपको न दं। देखकर मुझे आश्चर्य होता है। परन्तु यहां पर यह बड़ी केन्द्रित अपनी योग्यताओं के कारण ही आप इस देश में जन्में हैं। महान सी चीज बनती जा रही है, सभी लोग सहजयोग को समझना नहीं ऊंचाइयां प्राप्त करने की योग्यता आपमें है। आप इन्हें प्राप्त कर चाहते वे केवल भाषण देना चाहते हैं। बड़ों के लिए कोई सम्मान सकते हैं। परन्तु इनके बारे में केवल बातचीत करने से यह प्राप्त नहीं है जिन्होंने पहले आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया वे स्वयं को न होगी, उसके लिए आपको वह महान शक्ति बनना होगा। बहुत ऊंचा समझते हैं। उन्हें इसा का कथन याद रखना चाहिए अतः वह शक्ति बने। कि "पहला ही अन्तिम होगा।" अतः समझने का प्रयत्न करें कि आपको ही विकसित होना है और आपने ही इन शक्तियों की उन्होंने इनके बारे में मझे बताया तो मुझे बहुत हैरानी हुई। उन्हें अभिव्यक्तियां करनी है। शक्तियों की अभिव्यक्ति को, मैं नहीं असीम आशीर्वाद मिले। तो यहां पर वह आशीर्वाद नहीं प्राप्त म "वही शक्ति बनें।" तत्व को देखें, अपने अन्दर झांके। काम लोगों ने जो सामूहिक आर्शीबाद प्राप्त किये हैं उन्हें देखें। जब जान पाई, आप कहां तक समझ सके हैं। यहां इंग्लैंड में लोग कहते हैं, "मैंने उस व्यक्ति को छ लिया हैं, अगर हममें परस्पर कोई समस्या है, तो इसका मतलब यह है और अब मेरा अहंकार बढ़ गया है।" संवेदनशील होने का ये कि हमारे बीच में अभी भी एक प्रकार का अहम् है जो हमें कर सकते? हमारे साथ क्या समस्या है? यदि हम सामूहिक नहीं पुजा के विषय में श्री माता जी का परामश 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-8.txt सामूहिक नहीं होने दे रहा । अतः अब हम इस बात को अपने हृदय की गहनता में उतारें कि, "परमात्मा की कृपा से हम एक ऐसे समय पर जन्में हैं जब यह घटना घटित हुई, कि हम लोगों को परमात्मा के आशीर्वाद का लाभ मिला, कि हमें आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ और हम इतना ऊंचा उठ पाये। अब हमें अपने पंख फैलाने चाहिए। सहजयोग में गहन है तो आप हर चीज में गहन होंगे। परन्तु आपमें गहनता नहीं है। शर्मनाक बात है कि परमात्मा के मन्दिर में अभी तक भी लोग बुरी चीजों से ग्रस्त हैं। यह कैसे हो सकता है? वे बिल्कुल मौन रहते हैं या व्रत करते हैं। यह सब अनुशासनविहीनता है। अध्यात्मिक जीवन में ऊंचा जाने के लिए आपको चाहिए कि अपनी आत्मा से अनशासन लें। तब आप म्युनिक में (अक्खड़पने के बाद) वे लोग गहन हो गये. अनेक स्वतः ही अनुशासित हो जाएंगे। आत्मा को स्वयं पर राज्य करने बच्चे तक भी इतने गहन हो गये कि मेरे कहे एक-एक शब्द को दे यह सभव है। बहुत थोड़े से समय में मैंने यह देखा है कि यह सुनने लगे, मानो मोती चुन रहे हों। मेरे एक-एक शब्द को संभव है। मैं तो नाम भी नहीं जानती। पर यहां पर तो आप लिखने लगे। वे अच्छे कार्य करने का निर्णय किया तो वे बहत भले कार्य करेंगे। हूँ। और वे लोग इतने ऊंचे चले गये आज का दिन एक महान लेकिन यहां लंदन में मेरे जाते ही लोग कार्य की बातें करने लगते दिन है एक महान अवसर है। हाऊस ऑफ लार्डस (राज्य सभा) हैं। मैं इसके बारे में सुनती हैं और लहरियों आदि से जानती हैं। की तरह आप भी विशिष्ट व्यक्ति हैं। यह सत्य है, परन्तु एक हम गहन नहीं है, गहनता को बढ़ाना हमारे लिए अत्यन्त दिन ऐसा आ सकता है जब हाऊस आफ लार्डस को पूर्णतः आवश्यक है। इसी को श्रद्धा कहते हैं। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण निषिद्ध कर दिया जाएगा। आपको देवताओं कि तरह व्यवहार है। मुझे विश्वास है कि इस वर्ष आप सहजयोग को गहनता करना होगा। अंतः मेरी प्रार्थना है कि आप अनुशासन की पूजा पूर्वक समझेंगे। हो सकता है कि भूतकाल में आपके साथ कोई करनी सीखं। मैं यह नहीं कहती कि 'ऐसा करें वैसा करें, आप समस्या रही हो आप बंधनों में फंसे हों या इसके बारे में जानते हैं कि क्या करना है। और सबसे बड़ी बात यह है कि आप अधिक सोचते हों। मैं यह कैसे कर सकती हैं? आप कर सकते मुझे यह न कहा करें, "मैं जानता हूँ, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए हैं। आप ही अपने भूतकाल को भूला सकते हैं। सहजयोग में था..." जब आप एक चीज को जानते हैं तो उसको करते क्यों भूतकाल का कोई अर्थ नहीं होता। आपका पर्ण नवीनीकरण हो नहीं? आप शक्तिशाली हैं आज पूर्ण आत्मविश्वास के साथ और रहा है, आप बस अपना तन्त्र उपयोग करें। आपके तन्त्र को ठीक अपने. उत्थान पर विश्वास के साथ पूर्ण गहनतापर्वक हम इस रखने के लिए मैं आपके साथ बहुत परिश्रम करती हूँ। परन्तु आपमें आत्म- विश्वास नहीं है और आत्म-विश्वास की कमी जिनमें होती है वे बहुत ही अक्खड़ होते हैं। अतः सर्वप्रथम स्वयं शुरू हो रही है। वेगशील चैतन्य लहरियों का लाभ उठाएं। को आत्मा में स्थापित करो। अपने के अन्दर और अपनी शक्तियों को बिकसित करने का प्रयत्न करो। अपनी आन्तरिक शक्तियों का, बोलने और दिखावा करने की शक्तियों का नहीं, इंग्लैंड हृदय है, जहां आत्मा (शिव) का निवास है और इंग्लैंड में आन्तरिक शक्तियों का। सबको आपक नामों से और आपकी चैतन्य लहरियों से जानती दृढ़ निश्चय वाले लोग हैं यदि एक बार उन्होंने र बहुत पूजा में भाग लें और अपने हृदय में निश्चय करें कि, "मैं स्वयं को अनुशासित करूंगा।" एक महान शक्ति के साथ नवरात्रि यह एक महान बात है कि इंग्लैंड में हम गौरी (वर्जिन) कि पूजा कर रहे हैं, जैसा कि आप जानते हैं, सहजयोग के अनुसार हृदय गौरी का सम्मान तथा पूजा होना सभी सहजयोगियों के लिए बहुत सम्मान की बात है। अब आप पूछ सकते हैं कि गौरी को इतना सम्मान क्यों दिया जाता है? एक कुमारी को इस सीमा तक सम्मान क्यों दिया जाता है? एक कमारी कि क्या शक्तियां हैं? वह ईसा मसीह जैसे महान शिशु को जन्म दे सकती है, अपने शरीर के मल से बह श्री गणेश की रचना कर सकती है और अपने अहम् विहीन बच्चों की अबोधिता तथा प्रगलव्धता (गतिशीलता) की रक्षा कर सकती है। अतः यह शक्ति उसी व्यक्ति में निवास करती है जिसके बहुत से पूर्व पुण्य हों, जिसने पूर्व जन्मों में बहुत से अच्छे कार्य किए हों, जिसने यह समझ लिया हो कि कौमार्य अवस्था (पवित्रता) सभी शक्तियों से शक्तिशाली है और जिसने अपनी कौमार्य अवस्था और पवित्रता कि रक्षा जी जान से की हो। आप जानते हैं कि हमारे शरीर में गौरी कुण्डलिनी के रूप में स्थापित की गयी है अर्थात् वे गौरी हम अपने पंख काट रहे हैं। संकीर्ण बुद्धि व्यक्ति मत बनिए, छोटी-मोटी चीजों की चिन्ता छोड़ दिजिए, ये सब महत्वहीन है। यदि आप अपने पूर्व जन्मों की ओर देखें तो आपको पता लगेगा कि आप हर तरह के भोजन खा चूके हैं, हर तरह की यात्राएं कर चुके हैं, सभी प्रकार के विवाह करा चके हैं और वो सभी मुर्खतापूर्ण कार्य कर चुके हैं जिनमें लोग अपना समय बर्बाद करते हैं। अब यह सब समाप्त हो चुका है। अब आप कोई नया कार्य करें। पूर्व जन्मों में आपके कितने विवाह हए और आपने कितने आनन्द उठाए। अब इन्हें त्याग दीजिए। यह एक विशेष समय है। ऋतम्भरा का समय है जिसमें आपको विकसित होना है। इसका पूरा लाभ उठाना है। पूर्ण गहनता के साथ आपको सहजयोग करना है। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप सभी अपनी नौकरियां छोड़ दो या सभी कुछ छोड़ दो। यदि आप ती ा चैतन्य लहरी ৪ 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-9.txt एक अन्य बात है? क्षमा इसलिए दी जाती है कि शिव की क्षमा से वे अधिक समय तक जी सकें, पर उसका क्या लाभ है? ये जीवन कितना दयनीय हैं। अबोधिता बिहीन लोग आनन्द प्रदायक नहीं हो सकते। वे स्वयं दयनीय होते हैं और दूसरों को भी दुखी करते (वर्जिन) हैं। वह अछूती है। आत्मा बनने की इच्छा भी निर्मल है। उसमें कोई मल नहीं। यह शुद्ध इच्छा है। परमात्मा से एकाकारिता के सिवाय कोई और इच्छा नहीं शेष सभी इच्छाएं समाप्त हो गयी हैं। आप आशिवार्दित हैं। अतः शिकायत करने तथा आक्रमक हैं। अक्खड़पना बालसुलभ गुण नहीं है हमें बच्चों की तरह से होने के स्थान पर आप जान लें कि यह आप पर महान कपा हुई होना है। परन्तु आप शिशुवत नहीं थे फिर भी आपको है। महानतम कृपा की आपको पूर्ण क्षमा दे दी गयी है और इस आत्मसाक्षात्कार दिया गया। परन्तु अब आप देवों के साथ बैठे कृपा का आशीर्वाद आपको दे दिया गया है। इसके स्तर पर आने हैं, उनसे भी ऊंचे। तो हमारी शोभा क्या है? नम्रता, सादगी। के लिए आपको कठिन परिश्रम करना होगा। दोष भाव ग्रस्त हो चतुराई, अहंकार दूसरों का अपमान, दिखावा, हमें शोभा नहीं कर नहीं, नम्र और कृतज्ञ होकर। अपने सारे ककत्यों के बावजूद दत, पूर्ण समपण और अपने अहंकार का त्याग ही हमारी सज्जा भी आज हम देवताओं के समान बैठे हुए हैं। सोमरस, चरणाम्त, श्रीमाताजी के चरण कमलों का धोवन, पीने की केवल आप लोगों, देवताओं को ही आज्ञा है। उस श्रेणी में आप बैठे हुए हैं, नहीं है। गौरी की यह विशेषता है क्योंकि वो स्वबाव से शाश्वत फिर भी आप इतनी मांगें कैसे कर सकते हैं? आप में से किसी में भी, स्त्री या पुरूष, मैं नहीं चाहती दोष सभी अवगुण जैसे धर्मान्धता, जातीयता और कौम का अहम भाव विकसित हों। यहं मैं नहीं चाहती क्योंकि दोष भाव सबसे आदि सभी समाप्त हो जाते हैं। परन्तु व्यर्थ की बातों को अपने बड़ी बुराई है जो कि आगे चलकर आपको विपरीत दिशा में ले मस्तिष्क में स्थान देने से आप अबोध नहीं बन सकते। जाती है। इससे कोई सहायता नहीं मिलती। जब हमें यह पता कण्डलिनी कि जागृति से निसन्देह, आप अबोधिता को प्राप्त कर चले कि हममें यह समस्याएं हैं तो इन के प्रति हमें नम्र हो जाना सकते हैं। परन्तु इस अवस्था को बनाए रखने के लिए आपकी चाहिए। दोषभाव पूर्ण नहीं, नम्र। आप यदि सहजयोग के प्रति उन्नति आन्तरिक होनी चाहिए, बाह्य नहीं। अपनी जड़ों को नम नहीं हैं और अक्रामकतापूर्वक कहते हैं कि आपको सहजयोग खोजें, कृण्डलिनी आपका मूल है, आपके अस्तित्व की जड़ें हैं। से क्या मिला और बिना अपने पुण्यों को देखे इसकी शिकायत वही आपकी नींव की अभिव्यक्ति करती है अतः आपका चित करते हैं तो लाभान्वित होने का क्या अधिकार है? आपकी सभी अपनी जड़ों की ओर होना चाहिए अपनी कोपलों की ओर नहीं। खामियों के बावजूद आपकी कृण्डिलिनी उठा दी गयी। यह बात आप जानते हैं। है। गौरी उन विचारों को स्वीकार नहीं कर सकती जो शाश्वत है। आपके अबोध बनते ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करने वाले अपना सामना करें और अब अपनी जड़ों को बिकसित करें। आप देख सकते हैं कि सारा पश्चिमी समाज आधारविहीन है। आज देवों की तरह आप और हम बैठे हुए हैं। आपको अपने आप क्योंकि मैं भी तुम्हारे साथ हूँ तो गश्चिमी होने के कारण हमने को विनम्र करना होगा, अपने भूतकाल को अपनी गलतियों को अपनी जड़ों को खो दिया है। आइये हम इसका सामना करें। हमें देखते हुए। इस कार्या में मैं आपके साथ हैं। दोषभाव ग्रस्त न हो। अपनी जड़ों को खोजना है। इसका सामना करने को प्रयत्न करे। जैसे भी हम हैं हमें अपना सामना करना है। जब हम अपनी अबोधिता और कौमार्य दिन हमारे लिए नववर्ष का दिन है, तो आज आप सबको शपथ अवस्था खो दते हैं तो सर्वप्रथम हम अहम् ग्रस्त हो जाते हैं, और लेनी होगी कि, "अपने भयंकर क्रोध, रौबिले स्वभाव, जोरदार सोचने लगते हैं कि बुराई क्या है? आपकी कण्डलिनी ही आपकी आचरण, अहं चालित कठोरता एवं दूसरों पर प्रभुता जमाने की शक्ति है और वह पवित्रता है। वही आपकी शक्ति है। प्रवृति का हम त्याग करेंगे। मेरी समझ में नहीं आता कि इन अबोधिता ही आपकी शक्ति है। और जिस दिन आपने इसे खो दुर्गणों का क्या लाभ है। जब तक आप इनका समर्पण नहीं करते दिया उसी दिन हमने प्रथम पाप किया। इसके प्रति नम्र होकर तो गौरी एवं श्रीगणेश आपके अगन्य चक्र को नहीं खोलेंगे। कुछ प्राप्त करना महत्वपूर्ण है। क्या? साम्राज्य और ऐश्वर्यपूर्व हमारे पूर्वक्मों से हमें समझ आ जानी चाहिए कि हमें परस्पर एवं जीवन नहीं प्राप्त करना, शिव की इस पवित्र भूमि में एक स्थान दूसरे सहजयोगियों से नम्र करूणामय, प्रेममय होना है तथा अपने अन्दर कौमार्य अवस्था को पुनंजन्म लेने दें आज का कितना शाश्वत हमें बनना है। प्राप्त करना है। किसी जड़ विहीन पेड़ को देखिये। यह सूख जाता है, छाया नहीं देता और मृत सम होकर गिर जाता है। इस पर कांटे निकल आते हैं। यह उस मरूस्थल की तरह हो जाता है जिसमें केवल कांटे ही उग सकते हैं। जब पुरा समाज इतना मुर्ख हो जाता है कि शिव क्षमा रूप हैं। वे सब को क्षमा कर देते हैं। राक्षसों को भी क्षमा किया जा सकता है, पर क्या उन्हें साक्षात्कार दिया जा सकता है? पिशाचों (स्त्री राक्षसों) को भी क्षमा किया जा सकता है। लेकिन क्या उन्हें आत्मसाक्षात्कार दिया जा सकता है? क्षमा पजा के विषय में श्री माता जी का परामर्मश 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-10.txt आनन्द की हत्या करते हैं। आपके सम्मुख हाथ जोड़ते हुए मुझे एक दसरे से बहां कमल और गुलाब के फूुल नहीं खिल सकते। परन्तु आप लगा कि कहीं इससे आप को दुःख न पहचे, इसलिए मैंने हाथ सब तो इस देश के कमल हैं। यह ठीक है कि आपने कीचड़ में नीचे कर लिए। अपनी दोनों हथेलियों के बीच मैंने, बड़ी जन्म लिया परन्तु अब स्वयं में लौट आइये। आप सन्दर थे, सावधानी पूर्वक आपका हृदय पकड़ा हुआ था ताकि इसे चोट न कमलसम थे, कीचड़ में गिरकर कीचड़ जैसे हो गये परन्त अपने पहुँचे। सच्चे स्वभाव के कारण आप उस कीचड़ से बाहर निकल आए हैं। आप कमल तो बन गये हैं परन्तु सुगन्ध अभी भी नहीं है। कि वह अपने अन्दर घूणा की कितनी लहरियां बना रहा है। सुगन्ध विहीन कमल की बात समझ में नहीं आती। कमल में तो लोगों को प्रेम करने के लिए मझे प्रतिदिन चौबीस घंटे भी कम सुगन्ध होनी ही चाहिए। वह सुगन्ध जो इस कीचड़ कि गन्दगी पड़ते हैं। साठ वर्ष की आयु में भी मुझे लगता है कि मैं उतना प्रेम पर छा जाए। आपको भारतीय सहजयोगियों से भी अधिक नहीं दे पाई जितना मुझे देना चाहिए था। प्रेम का बहाव इतना विकसित होना होगा। परन्तु यहां के लोगों की अक्खड़ता को तेज है कि इससे मेरे शरीर में कष्ट हो जाता है और कभी-कभी देखकर तो मैं आश्चर्यचकित रह जाती हूँ। वो सदा शिकायतें ही तो मैं स्वयं को कोसती हैं कि प्रेम का इतना अधिक वजन मैं क्यों करते रहते हैं। वे स्वयं को कया समझते हैं। आप कौन है? जड़ी हो रही हूँ? पजा के बारे सोच कर भी कई बार मुझे घबराहट के विकसित न हो पाने की वजह से यह सब है। घृणा करने लगे और भौतिकतावादी बन जाए तो जबान से किसी को चोट पहुचाते हुए व्यक्ति ये नहीं जानता होती है कि अब क्या होगा। कभी कोई प्रश्न करता है कि "श्री माता जी क्या हम चैतन्य लहरियों को नहीं सोख पाये?" यह स्पष्ट है पर मैं इसे कहना नहीं चाहती। क्योंकि यदि मैं ऐसा कहुँगी तो आपकी विशुद्धि पकड़ जाएगी। तब आप लहरियों को उतना भी नहीं सोख पाएंगे। एक बार जब आप अपनी जड़ों को विकसित कर लेंगे तो आपके स्वभाव में तुरन्त ही नम्रता आने लगेगीं। अभी तक बनावटी नम्रता है जो कि हृदय से नहीं है। जब आप अबोध बन जाएंगे, पवित्र बन जाएंगे तब ये अस्वाभाविक नहीं रहेगी। अबोधिता का अर्थ केवल चरित्र से ही नहीं होता, इसका अर्थ अभौतिक दृष्टिकोण भी है। लोगों के लिए बच्चों से अधिक कालीन महत्वपूर्ण है। भौतिकता आप पर और आपकी परमात्मा का मस्तिष्क परिवर्तन करेंगे। क्रोधमय परमात्मा का। अबोधिता पर आघात हैं। अब समय आ गया है। अपने सदाचरण से आप लोग ही आप लोग ही उसे प्रसन्न करेंगे इस पार्चात्य विश्व में और कौन उसका अधिकारी होगा? बाकी लोगों के हितार्थ करूणा के देवता को जागृत करने के लिए आप लोगों को विशेष रूप से चुना तथा तैयार किया गया है। सहजयोग प्रचार कार्य में अक्खड़पने का क्या परिणाम हुआ। एक कार्य क्रम में एक हजार लोग आये और अनवर्ती (फोलोअप) कार्यक्रम में केवल तीन लोग मैंने अपना बहुमूल्य समय अधिकतर इसी देश (इंग्लैंड) तथा पश्चिम में ही बिताया है। इसके बावजूद भी यहां का अहंकार मुझे आश्चर्य चकित कर देता है। इतना अहं-भाव है कि कभी कभी तो वो मेरे प्रति भी अक्खड़ होते हैं। मेरे साथ उनकी बातचीत तथा व्यवहार मुझे समझ नहीं आता । अपने जीवन में मेंने देखा है कि वस्तु यदि आप किसी को भेंट कर सके तो वह आपको अधिक आनन्द प्रदान करती है। देने में मुझे लेने से अधिक आनन्द आता है। आप भी ऐसा करके देखें। किसी चीज से पीछा छुड़ाने के मक्सद से आप उसे उपहार में न दें। स्वामित्व भाव दासता मात्र है। यह आपके उत्थान में बाधा है। भौतिकता यदि अमृत से परिपूर्ण उस प्याले की तरह है जो प्रेमामृत प्रदान करता है तो ठीक है। परन्तु आप प्याले को तो नहीं खा लेते? भौतिकता से मुझे ऐसा लगता है जैसे लोग अमृत को छोड़ प्याले को खा लेते हैं। कप अधिक महत्वपूर्ण है या अमृत? सोने के प्याले में यदि विष भरा हुआ है तो क्या आप उसे खा लेंगे। क्या कोई जान बूझ कर सोने के प्याले में जहर पी लेगा ? विवेक का अभाव है। अर्थ शास्त्र का मूल-सिद्धान्त है कि भौतिक वस्तुएं आपको प्रसन्नता नहीं प्रदान कर सकती। मुझे अत्यन्त नाजुक कार्य करना है। आप पहले से ही जख्मी लोग हैं क्योंकि आपने स्वयं को आहत किया है। किसी और ने आपको आहत नहीं किया। हर सम्भव तरीके से आपने स्वयं को चोट पहुँचायी। चोट के कारण आप में दोष भाव आ गया और अब आप दूसरों को आहत कर रहे हैं। स्वयं को चोट न पहुँचायें। दूसरों के प्रति कठोर होना आपका कार्य नहीं है। आपको मधुर एवं करूणामय होना होगा। मनोवैज्ञानिकों के बहकावे में न आयें कि यदि आप कठोर नहीं होंगे तो दूसरे लोग आपका अनुचित लाभ उठाएंगे पश्चिम के लोगों का कौन लाभ उठा सकता है? जिन्होंने पूरे विश्व के साथ अन्याय किया है वे यदि ऐसा कहें तो बड़ा विचित्र लगता है। उनकी बात मेरी समझ से बाहर है। मेरी अबोधिता मुझे उन स्थानों पर ले जाती हैं जहां भैंट योग्य वस्तुएं मिलें। क्योंकि मैं इन्हें भेंट कर पाती हूँ इसलिए मुझे बहुत आनन्द मिलता है। आत्मा की बास्तविक शक्ति, कौमाय्यावस्था (पावित्र्य) के अभाव के कारण ही आपने आनन्द विवेक को खो दिया है। आप लोग आनन्द के हत्यारे हैं। सुबह से शाम तक अपनी जबान से कठोर शब्द कह-कह कर आप एक दूसरे के चैतन्य लहरी 10 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-11.txt अक्खड़पना कहीं भी और कभी भी हो सकता है। बैल्जियम में मैंने पाया कि वहां की गृहणियाँ बर्तानियां की गृहणियों से भी अधिक अक्खड़ हैं। बड़ी भयंकर स्त्रियां है। प्रेम-स्नेह का नितान्त अभाव है उनमें। हर समय भौतिकता का प्रदर्शन। चाहिए। आपके लिए सभी कुछ उपलब्ध है। परन्तु आपको नम्रता पूर्वक जड़ों में जाना होगा, अहं पूर्वक नहीं। यह समझना हमारे लिए आवश्यक है कि हम उन्नति क्यों नहीं कर पा रहे। वास्तव में आत्म-विश्वास की कमी के कारण ही व्यक्ति अक्खड़ हो जाता है। जिनके "आत्म की अभिव्यक्ति नहीं हो रही उनका आत्म बिश्वास लड़खड़ा जाता है। अपने आत्म की अभिव्यक्ति होने दें। आत्म अभिव्यक्ति के अभाव में ही सभी प्रकार की समस्याएं होती हैं और तब आप शिकायत अत्यन्त शुब्क स्वभाव है। पर वे आत्मसाक्षात्कार पा कर महान होना चाहती हैं। मैं उन्हें समझ नहीं पाती। आज पावित्र्य का दिन है। मुझे इंग्लैंड की स्त्रियों से बहुत आशा है। पुरूष यहाँ बिल्कुल नहीं बोलते। बैल्जियम के पुरूषों का तो जैसे स्त्रियों ने गला ही घोंट दिया हो। उस देश का अन्त 1. करते हैं। जरा सोचिए कि जिस परमात्मा ने इस बरह्माण्ड की रचना की, जिसने इतने प्रेम से आप सब को बनाया, आपको सब क्या होगा? पर वहाँ की स्त्रियों ने क्या पा लिया है? यहाँ भारत में कम से कम एक स्व्री तो प्रधान मन्त्री हैं। वो क्या हैं। व्यर्थ, घर में बर्तन मांजती हैं और हेकड़ी जताती हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि वे क्या त्याग कर सकती हैं। कुछ दिया, जिजिसने आपको आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया. आत्मा रूप में आपको प्रकाश दिया, हर सम्भव चीज़ दी, आप उसी को शिकायत कर रहे हैं। आप अपने बारे में शिकायत न करें कि "मैं सहजयोग में एक नया पृष्ठ खुल चुका है। इसके विषय में ठीक नहीं हैं, मुझे ठीक होना चाहिए।' अपना सामना करें। आपको चेतावनी देना आवश्यक है। सहजयोग से स्वतन्त्रता न लें। आप किसी और पर अहसान नहीं कर रहे। सावधान रहें। मेरी चेतावनियों को गम्भीरता पूर्वक लें। आप सब को ठीक से नहीं है।" उन्हें लज्जा आनी चाहिए कि उनमें कुछ कमी है। वह विकसित होना होगा। केवल मेरी पूजा से लाभ न होगा। अच्छा हो कि अब आप अपनी पूजा करें। अपने अन्दर स्थित सभी गामीण सहज लोगों में पूर्ण विवेक मिलता है। आप यदि उन्हें देवताओं की आपको पूजा करनी होगी। उन्हें शुद्ध सर्वप्रथम नम्रता, अवोधिता तथा सहजता के देवी देवता हैं। उनकी करें। उनकी पूजा किए बिना आप आगे नहीं बढ़ ग्रामीण को बेवकफ बनाने का प्रयत्न करे तो वह पाएगा "कि बहुत से लोग जिन्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं मिल पाता बे अत्यन्त गर्व से कहते हैं "मुझे कुछ नहीं अनुभव हुआ, माँ कुछ कमी ठीक होनी चाहिए। विवेक अबोधिता का एक हिस्सा है। करें। मुर्ख बनाने की कोशिश करें तो अन्त में आपको लगेगा कि "मैं स्वयं ही बहुत बड़ा मुर्ख हूँ।" कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति यदि किसी पूजा सकते। आपकी रक्षा भी नहीं की जाएगी। त्याग से ही स्त्री पहचानी जाती है। यह चुनौती है। आप सब आत्मसाक्षात्कारी स्त्रियों को मेरी सलाह है कि स्वयं को नम्र बनाएं। किस लिए आप हर बात पर जोर डालती हैं? किसलिए? अहंग्रस्त तथा गलघोटी व्यक्तियों का गौरी पूजा कर पाना पृथ्वी पर वह स्वयं सबसे बड़ा मुर्ख पैदा हुआ है।" विद्वान यदि नम्र नहीं तो उसे विद्वान नहीं कहा जा सकता। आप अपनी आत्मा हैं अतः स्वयं को आत्मा रूप में देखें। आत्मा शाश्वत है, अबोधिता है, आपके अन्तः स्थिति गौरी है। इसका सम्मान करें, अपने अन्दर विद्यमान गौरी का सम्मान कर। योदि यह आपके अन्दर न होती तो मैं आपको आत्म साक्षात्कार कभी न देती। सारे आघातों के बावजूद भी यह अन्दर विद्यमान है। विश्वास करें कि इसके अस्तित्व के अभाव में असम्भव है। गरी अत्यन्त सहज हैं। अत्यन्त सहज। वह आपकी योजनाओं को नहीं समझती। उसका पावित्र्य ही उसका महत्व है। उसे वह जानती हैं तथा उस पावित्र्य को छने की आज्ञा वे किसी को न देंगी। यही उनकी सम्पत्ति, वैभव तथा महानता है। वे नम्र हैं क्योंकि उन्हें किसी का भय नहीं है। वे आक्रमक नहीं है। वे किसी को आक्रामक नहीं होने देती। वास्तव में पवित्र स्त्री के प्रति आक्रामक होने का कोई दुःसाहस नहीं कर सकता। आपको आत्मसाक्षात्कार न मिल पाता । सहजयोग प्रणाली (विद्या) में हम जितने पारंगत हों उतना ही नम्र हमें होना होगा। यही (नम्रता) हमारी सज्जा है, प्रमाण पत्र है तथा मानव औअस्तित्व में प्रवेश पथ है। अन्य साधकों के समीप मैं फिर कह रही हैँ कि सहजयोग से आजादी न लें। इसने सारे आशीर्वाद आप को दिये हैं। सूर्य ी रोशनी आपने देख ली है। जाने का यही मार्ग है। नम्र होना, नम्र होने की विधियां खोज निकालना ही निर्मल विद्या की कुजी है : "नम्र किस प्रकार रात का सामना करने के लिए भी तैयार रहें। कोई भी आजादी हों। लेने का प्रयत्न न करें। स्वयं को सधारने का प्रयत्न करें। आश्रम अबोधिता आपको आनन्द लेने की शक्ति प्रदान करती है। जैसे मुझे कभी भूतों के साथ खाना पड़ता है और कभी भूतों को खाना पड़ता हैं जो कि बहुत कठिन है। अतः भूतबाधित लोगों का आप भी बुरा न मानें। यदि वे अक्खड़ हैं तो उन्हें बन्धन दें और में रहते हुए कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। आश्रम आपकी सुविधा के लिए नहीं है। समझ लें कि किसी को आपकी आवश्यकता नहीं है। यदि आप साधक हैं, अपनी जड़ों को खोजना चाहते हैं तो आपको स्वयं की आवश्यकता होनी पूजा के विषय में श्री माता जी का परार्मश 11 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-12.txt इन सारी विधियों से उन्हें वश में करने का प्रयत्न करें। परन्तु है। मुझे ऊपर उठाइये, मुझे उन्नत कीजिए। अपने पुराने यदि आप सोचें कि बहस करके आप उन्हें सम्हाल लेंगे तो अस्तित्व को मैं भूलाती हैं। मैंने सभी कुछ छोड़ दिया। मेरी एक है. मात्र इच्छा है कि अधिकाधिक ऊँचा उठाइए। मुझे अपने में असम्भव है। अतः निर्मल विद्या का उपयोग करें जो कि नम्रता है। जो चैतन्य लहरियों की मज्जक हाल है (Myelin Sheath )। विलय दे दीजिए बाकी सब महत्वहीन है। इस इच्छा की शेष हर नाड़ी पर जैसे मज्जक ढाल होती है, इसी प्रकार नम्रता भी सभी अभिव्यक्तयां समाप्त हो गई हैं। मेरी आत्मा, अब मैं गज्जक ढाल है। यदि आप नम्र हैं तो युद्ध जीत लेंगे, नहीं तो आप पुर्णतया आपके प्रति समर्पित हँ। मझे और ऊँचा उठाइए। और खो जाएंगे। यदि आप नम्र हैं तो सभी कुछ आपके लिए एक ऊँचा, उन सब चीजों से दूर जो आत्मा न थी। मुझे पूर्ण आत्मा मज़ाक बन जाएगा। यदि आप नम्र हैं तो आप मुखों, भूतों तथा अक्खड़ लोगों को इस नाटक के विदषक के रूप में देख सकते हैं। तो अपने अन्दर गौरी की पजा करें। अपने पावित्र्य की किरण की गति बहत बढ़ जाती है। इसी क्षण और सदा, जो आत्मा नहीं रचित हीरे पर बैठने के लिए हम स्वयं को उन्नत करें। दसरे लोगों से आप नाराज हो सकते हैं पर सहजयोगियों और मझ से ह उस याद आप छाड़ दे तो आप ऐसा कर सकते हैं। आत्म नहीं हो सकते। आवश्यक होने पर ही दसरों से नाराज हो सकते. विराधा चीजा को छाड़ना आवश्यक है। यही शाद्ध इच्छा है, यही हैं। परन्तु यदि आप परस्पर लड़ते हैं और दसरों को सहजयोग के कुण्डोलनी है, यही गौरी है। यही आत्मा से पूर्ण एकाकारिता है। बारे में बताते हैं तो कोई आपका विश्वास नहीं करेगा। बना दीजिए, केवल आत्मा। सभी कुछ भुला दीजिए। उस बलन्दी, उस उत्थान को पाने बाकी सब सारहीन तथा व्यर्थ है। उत्थान ही महत्वपूर्ण है। आपकी जो सम्पत्ति हो, किसी से भी आप विवाहित हों, कहीं भी आप कार्य करते हों, आप किसी भी देश के हों- आप आत्मा हैं। अपनी आत्मा तथा मेरे साथ नम्र होने का प्रयास करें। मेरे प्रति नम्र होना अत्यन्त आवश्यक है। आपकी समझना चाहिए यदि आप उन्नत हो जाते हैं तो आप परमात्मा के सुन्दर साम्राज्य कि इंसा ने आप पर सावधान रहने की शर्त रखी है। मेरे से में रहेंगे जहां सारी करूपता समाप्त हो जाती हैं। जैसे कमल व्यवहार करते हुए किसी भी प्रकार से अभद्र न हो। इस मामले में खिलने पर सारा कीचड़ झड़ जाता है। इसी प्रकार मेरे बच्चे भी मैं विवश हैं। जब तक आप मेरे प्रति नम्र है सभी कुछ मेरे वश में सदाशिव के सन्दर चढ़ावे बनें। होता है पर आपके अभद्र होते ही कोई और, हजारों, बागडोर सम्हाल लेते हैं। तब आप मुझे दोष न दें। मेरे आश्रित होने के कारण आप मेरी सुरक्षा में हैं। अपनी छत सुराख कर के यदि अहं चालित समाज की नकल न करें। वहां लोग कट शब्द आप कहें कि अन्दर बारिश आ रही है तो मैं इसका क्या कर उपयोग करते हैं। ऐसा करने से हमें लगता है कि हमने अपना सकती हैं? मेरा अभिप्राय यह है कि आप अपनी छत में छिद्र कर आधनीकरण कर लिया है। वे कट शब्द उपयोग करते हैं, "मैं चके हैं। अब तो अन्दर वर्षा आएगी हीं। अब भी यदि आप कहें क्या चिन्ता करता हूँ?" इस प्रकार के वाक्य हमने कभी उपयोग कि छत वर्षा से आपको बचाए तो मैं कहूंगी कि आपमें विवेक की नहीं किए। ये हमारे लिए अपरिचित हैं। किसी को ऐसा कहना कमी है। तो यह एक अन्य चेतावनी है। मैंने भारतीय सहजयोगियों को बताया है कि वे पश्चिम की में अभद्रता है। आप किस प्रकार कह सकते हैं कि "मैं आपसे घुणा करता हूँ।" लेकिन यहां मैंने लोगों को कट् शब्द बोलते देखा है। आज के दिन कमारी गौरी ने शिव की पूजा शुरू की थी। एक शिवलिंग बना कर बह उस पर अपना कमकम डाल रहीं थी कि हम इस प्रकार बात नहीं करते। यह बात करने का तरीका नहीं "मेरे आपसे मिलन के इस प्रतीक की आप देख भाल करें। इसका है। अच्छे परिवार का कोई भी व्यक्ति इस प्रकार नहीं बोल भार मैं आप पर छोड़ती हूै। "मैं आपके प्रति समर्पण करती हैं, सकता क्योंकि इससे परिवार का पता चलता है। जिस प्रकार यहां आप मेरी रक्षा करें। " इसी प्रकार गौरी, आपकी कण्डलिनी, बसों, टैक्सयों आदि में लोग बात करते हैं उस पर मझे हैरानी आत्मा के प्रति समपर्ण करती है।"अब आप इस योग की रक्षा होती है। अतः मैंने उनसे (भारतीयों से) कहा है कि भाषा प्रेममय करें। मैं शेष सब भूल जाती हैँ। इसे मैं आपके हाथों में सौंपती तथा परम्परागत होनी चाहिए। चैतन्य लहरी 12 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-13.txt श्री महालक्ष्मी पूजा दिल्ली - 3.11.1986 क ही सबको बड़ा लाभ होगा। तो देखा जिसको राजा बनाया वही दुष्ट निकला, उसी ने सताना शुरू कर दिया। फिर कहा राजा तो ठीक नहीं इसकी जगह ऐसा करो कि प्रजातन्त्र की व्यवस्था करो। फिर उन्होंने प्रजातंत्र की स्थापना की। प्रजातंत्र में देखा गया कि हर एक आदमी अपने को बिल्कुल ऐसा समझता है कि वो स्वयं ही उस प्रजातंत्र का संस्थापक है, संचालक है, और करत्ता है अब आप देख रहे हैं कि अमेरिका में कितना आतंक फैल रहा है किस कदर हिसा का आलम है। अगर पढ़ते हैं तो आश्चर्य होता कि प्रजातंत्र का हाल ऐसा क्यों हो गया? ये तन्त्र सारा गड़बड़ क्यों? वही हाल बाद में आप साम्यवाद का देखेंगे। कहते हैं कि अब हम एक नया ऐसा संसार बसाऐंगे कि जिसमें सब मनुष्यों में समानता आ जाए, उनमें कोई भी फक्क न रहे। खाने पीने में हर चीज में एक जैसा हो जाए और उसके अलावा उसको कोई स्वतंत्रता न रहे। गर वो स्वतंत्र हो गया तो स्व के तन्त्र में वो गड़बड़ हो जाता है। इसलिए इसकी स्वतंत्रता हटा दी। मनुष्य को जब एकदम मुर्ख समझा जाए तभी ऐसा हो सकता है। पर मनुष्य मुर्ख नहीं है वो तो हर जगह उसको आप जितना दबाईयेगा उतना ही वो खोपड़ी पर चढ़ेगा। तो ये भी चीज कुछ बन नहीं पाई। वो भी नहीं बनी ये भी नहीं बनी। इस तरह जहाँ देखते है वही आतंक है। धर्म के मामले में तो आप देख रहे हैं। किसी धर्म की हालत देखकर तो लगता ही नहीं कि परमात्मा भी कोई चीज हो सकती है। जो एकमेव हो, जो केवल हो, उसके लिए सब लोग आपस में सर काट रहे हैं। सबको मार डाल रहे हैं। तो ये कारण क्या है? अब्राहिम लिकन, मार्क्स साक्षात्कारी व्यक्ति थे। मानव हित के लिए उन्होंने कार्य किए। परहित की जगह सब का अहित हुआ। हीरे को तोड़ फोड़ के कीचड़ में डाल दिया गया। विज्ञान आया तो लोगों ने सोचा कि अब उनकी सारी समस्याएं हल हो गईं। पर विज्ञान को भी राक्षस बना दिया गया । एटम बम, हाइड्रोजन बम खोपड़ी पर खड़े कर दिए गए। नाइलोन बना दिया। दुनिया भर की बीमारियां आ गई, आफतें आ गई। मानव हित के लिए बनी चीजें विध्वंसक बन गईं। इस नव वर्ष के शुभ अवसर पर दिल्ली में हमारा आना हुआ और आप लोगों ने जो आयोजन किया हुआ है ये एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना होनी चाहिए। नव वर्ष जब शुरू होता है तो कोई न कोई नवीन बात, नवीन धारणा, नवीन सूझबूझ मनुष्य के अन्दर जागृत होती है। वो स्वयं होती है। जिसने भी नवीन वर्ष की कल्पना बनाई है वो कोई बड़े भारी दृष्टा रहें होंगे कि ऐसे अवसर पर प्रतीक रूप में मनुष्य के अन्दर एक नई उमंग, एक नया विचार, एक नया आन्दोलन, जागृत हो जाए। ऐसे अनेक नवीन वर्ष आए और गए, नई उमंगे आई, नई धारणाएं आई, और खत्म हो गई। मनुष्य की आज तक की जो धारणाएं रही है, एक परमात्मा को छोड़कर बाकी सब मानसिक क्रियाएं या बौद्धिक परिक्रियाएं थी। मनुष्य अपनी बुद्धि से जो भी ठीक समझता था उसका आन्दोलन एक नवीन कल्पना समझकर के बना। वो आन्दोलन कुछ दूर तक जा के फिर न जाने क्यों हटा और उसी विशेष व्यक्ति को और उसी समाज को या उस समय में रहने वाले लोगों पर आघात पहुंचा। इसका कारण क्या था ये लोग नहीं समझ सके। लेकिन आज हमें इसका साक्षात बहुत ज्यादा अधिक स्पष्ट रूप से हो रहा है। जैसे कि धर्म की व्यवस्था हुई। धर्म की व्यवस्था में मनुष्य ने जब भी बुद्धि और मानसिक शक्तियों का उपयोग किया, तो बुद्धि के दम से वो एक वाद विवाद के क्षेत्र में बंध गया और अनेक वाद विवाद शुरू हो गए। गर सत्य एक है... तो पन्थ इतने क्यों हुए इतने धर्म क्यों हुए, उन धर्मों में भी इतने जाति भेद क्यों हो गए हैं ऐसे भेद करते-करते न जाने दुनिया में कितने ही गुट जम गए हैं जिसका समझ में नहीं आता है। किसी से पूछते हैं कि आप साहब कौन धर्म के हैं तो आपको ऐसे धर्म का नाम बताएंगे जो आपने कभी सुना ही नहीं । ऐसे नए धर्म मेरे ख्याल से हरेक नवीन वर्ष में ही उत्पन्न होते ही रहते हैं क्योंकि मनुष्य की बुद्धि, हर एक नवीन वर्ष में कोई न कोई नई उमंग लेकर पैदा हुई। इसी प्रकार हमारी बद्धि से राजनैतिक क्षेत्र में भी उमंगे आई और नित नई-२ बातें बताई जैसे शुरूआत में माना गया कि चलो एक राजा ही रहे तो अच्छा है। राजा सबको समझ लेगा और राजा से क 13 श्री महा लक्ष्मी पूजा 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-14.txt इसका कारण क्या है? कारण यह है कि जैसे एक सन्त ने यह कहना आसान है कि आप मनुष्य के हित के लिए यह कहा हुआ है कि मनुष्य की जो धारणा है या मनुष्य का जो करो वह करो पर होता नहीं है। अन्त में मनुष्य अपना हित विचार है, और धीरे-धीरे बो गिर ही रही है। ये उन्होंने कहा नहीं। ये समाज का भी अहित कर सकता है। मैं कह रही हूँ क्योंकि आज बो बात साक्षात हो रही है। श्री कृष्ण ने जो धारणाएं रखी वो भी पूरी नहीं हुई, राम ने जो वह है कि हमारे अन्दर, हमारे हृदय में बसे हुऐ श्री रखी वो भी पूरी नहीं हुई। उसके बाद सत्य स्वरूप थी, सत्य का ही अंग प्रत्यंग थी, वो सब पूरी नहीं हुई। इसका कारण बद्धि को जागत करना। हमारे मस्तिष्क को जागृत करना। यह है कि यह जब मनुष्य के दिमाग के घड़े में पड़ती है तो सो कैसे होता है कि हमारे के अन्दर जो आत्मा है वो उसमें कोई ऐसी विषालु वस्तु है जो इसे विषाक्त कर देती साक्षी स्वरूप बैठा हुआ है। कण्डलिनी, जिसे आप गौरी है। यह विषालु वस्तु क्या है जिससे इस तरह का कारण होता है? वो है इसकी सीमाएं। हर चीज की सीमा होती है। यहाँ पर ब्रह्मरन्धर को छेदने के बाद परमात्मा का प्रकाश इसी तरह बुद्धि की भी सीमा होती है और उसी में इस सीमा उसे आलौकिक करता है। परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब में, बंध कर घुट कर के और नष्ट हो जाती है। जैसे कि अंगुर के सुन्दर स्वाद वाले रस को भी गर घड़े में बंद कर दिया आत्मा जागृत हो जाती है तो इस आत्मा के चारों तरफ जाए तो उसमें शराब बन कर उसका नशा चढ़ जाता है। उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में, जो कि सीमित है, उसमें जागृत हो जाते हैं। इन सात चक्रों के जो पीठ हैं वह हमारे असीम चीज डाल देने से एकदम नष्ट हो जाती हैं। इसका मस्तिष्क में है। ये भी जागृत हो जाते हैं। इसलिए यह सात मतलब यह नहीं कि मनुष्य का मस्तिष्क ही कुछ खराब है। इसका मतलब यह है कि यह जो मस्तिष्क है इसकी सीमाएं जागत हो जाने से ही हमारी जो नसें है हमारा जो मस्तिष्क है बढ़ानी होंगी। मनुष्य की चेतना जो है वह व्यापक करनी होंगी। इतनी व्यापक होनी चाहिए कि इसके अन्दर सब उसके अन्दर शोषण करने की जो शक्ति है वह बढ़ जाती कुछ समा जाए। और वह खुली रहे इसका लक्ष्य क्या है है। सत्य को शोषण करने की शक्ति बढ़ने से ही मनुष्य उधर तो हमारा ध्यान हटता जाता है जब चाज सामित सत्य पर खड़ा हो सकता है। आज तक मनुष्य सत्य पर खड़ा होती जाती है तो उसका लक्ष्य क्या है उधर हमारा ध्यान नहीं हुआ है सत्य को सनता है, जानता है, देखता है, पर उस होता है। हर चीज का लक्ष्य था और मनुष्य का भी है। हिते पर खड़ा नहीं हो सकता है सत्य को आत्मसात करने के क्या चीज है श्री कृष्ण ने बताया कि हित वो है जिससे लिए, आत्मा की जागृति के लिए। वो आज सहजयोग में हो आत्मा का कल्याण हो। अब आत्मा स्वयं ही कल्याणमय गई। सहज में ही हो गई कहना चाहिए। जो इतने लोग नहीं करता उल्टे अपना भी अहित कर सकता है और सारे मानव की जो चेतना है वह नीचे की ओर है इस मस्तिष्क को बढ़ाने के लिए, सिर्फ एक ही तरीका है आत्मा-राम को जागृत करना और उनके प्रकाश से हमारी हृदय माता कहते हैं, जब जागत हो जाती है तो वो मस्तिष्क में हमारे हृदय में आत्मा के रूप में है। जैसे ही हमारी यह सात चक्रों का आलोक, सात चक्र के मंडल भी मंडल भी हमारे हृदय में जागृत हो जाते हैं। यह मंडल वो एक तरह से अति सूक्ष्म तरीके से खुल जाता है और से है। कल्याणमय अर्थात आत्मा लेकिन जब आत्मा ही सोया हुआ है तो हमारा कल्याण कैसे हो? हम लोगों का कल्याण। आत्मा को प्राप्त हुए हैं। आत्मा को प्राप्त होने से वो शक्ति जागत होती है आपके अन्दर जिससे आप सत्य को आत्मसात कर सकते हैं। सत्य आपके अन्दर जागृत हो आज का जो नवीन वर्ष है यह एक विशेष बात है सकता है माने की दूसरा कौन है, दूसरा कौन है? सब तो हम क्योंकि आज की जो बात हम कर रहे हैं, आज का जो हम ही हैं। हमारे ही अन्दर सब कुछ है। अब आपको सामूहिक सहज योग का कार्य कर रहे हैं यह हम अपने मस्तिष्क को चेतना आ गई है। तो उसमें साम्यवाद का भी सत्य आ गया। जब आप दूसरों को जान गए और अपने को भी तो है कि विराट का स्थान जो है वो इस मस्तिष्क में है। इसके आप अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त हो गए। तो आपमें गणतन्त्र अन्दर उसकी जड़े हैं। उन जड़ों को हम जागृत करेंगे। वो का भी जो सत्य है वो जागृत हो जाएगा। स्वतंत्रता भी आ जड़े जागृत होने से ही हम उस सत्य को पूरी तरह से शोषित गई और एक तरह से पर का तन्त्र भी हाथ आ गया। दूसरों कर सकेंगे आत्मसात कर सकेंगे। मनुष्य की जो सीमित का जो तन्त्र है वो भी आपमें आ गया। और आपकी प्रकृति है वह खुल जाती है। लैक्चर देना तो बहुत आसान है स्वतंत्रता भी आपमें आ गयी जिसे आप स्वतंत्र का तन्त्र विस्तीर्ण कर रहे हैं, महान कर रहे हैं जैसे श्री कृष्ण ने कहा चैतन्य लहरी 14 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-15.txt बनाओ किसी ने कहा पगड़ी बांधो किसी ने कहा काशाय वस्त्र पहनो, किसी ने कहा कि बोदी रखो। किसी ने इसाइयों से कहा वो इस तरह से हैट पहन कर घमो। पता नहीं क्या-क्या! अब वो सब कर रहे हैं। सारे कर्म कांड कर डाले और देखा कि नर्क की ओर फिर चले जा रहे हैं। धर्म को समझे बिना लोग कुरीतियों तथा दुर्व्यसनों में फंसते चले जा रहे हैं। कुण्डलिनी जागृत होने पर आपका चरित्र स्वतः बन जाएगा। कण्डलिनी आपको सुधार लेगी। जब आप स्वयं सत्य पर खड़े हो जाएंगे तो आरम्भ में कभी कभी कुछ कठिनाई आ जाती है पर वह धीरे धीरे ठीक हो जाती है। कैसे हो जाता है वो मैं आपको नहीं बताऊंगी। लेकिन वो हो जाता है। क्योंकि बताने पर आप लोग घबरा जाएंगे। उसके तौर तरीके जो हैं बहुत नाजुक हैं। लेकिन हैं बड़े कठिन। जैसे कि हम लोग कभी नहीं सोचते हैं कि किस तरह फल के साथ कांटे आ जाते हैं। किस तरह से पेड़ बनते हैं कैसे सुन्दर पत्तियों के आकार विकार बनते जाते हैं। ये हम कभी नहीं सोचते। जब होता है तब कहते हैं हाँ है। साक्षात्कार के बाद एक साहब मोटर में बैठे और लोगों के साथ सिगरेट पी रहे थे। सिगरेट पीते पीते उनकी मोटर में दुर्घटना हो गयी। किसी को कुछ नहीं हुआ। उनका कुछ नहीं हुआ। उनकी सिर्फ ये अंगुली जो विशुद्धि की थी थोड़ी सी कट गयी। और फिर तो समझ गए बात क्या है। इस प्रकार धीरे-२ सब कुछ ठीक हो जाता है कि ये हमारा चरित्र जो है जरा इधर उधर जा रहा है, मोटर जो है वो जरा से सीधे रास्ते पर ही हैं, वो थोड़ी बहुत इधर उधर फिसल रही है। फिर आप ठीक कर लेते हैं। करते-करते ऐसी दिशा में आ जाते हैं कि आप दोनों ही चीजों, गति और रोक दोनों के माहिर हो जाते है। वो मास्टरी जब आ गई तब समझ लेना चाहिए कि आप चालक हो गए। मास्टर होने के लिए आपको निर्विकल्प में उतरना होगा। और जब आप निर्र्विकल्प में उतर जाते हैं। तब आप गुरू महाराज हैं। मैं आप सबको खुद नमस्कार करती हैँ। तब आप लोग गुरू हो जाएंगे, और फिर जब हम गुरूत्व को पा जाते हैं तब फिर हम जानते हैं सबका कि हाँ-हाँ हम भी ऐसे ही थे जिनको हम जानते हैं। हाँ हाँ ऐसे ही हमारा था ऐसा ही था। यही मामला था। हम सब जानते है। सब चीज बहुत आसान हो जाती है। तब आप गुरू हो जाते हैं और इसको कहना चाहिए कि सहज का और सहज में ज्ञान को प्राप्त होना। ये चीज जब तक नहीं आती है तब तक मनुष्य में सब चीज बेकार है। कहते हैं। शिवाजी कहते थे कि स्वं का धर्म जानो । स्व का माने अपनी आत्मा का धर्म आप जाने। और आत्मा का जो धर्म है कहने को तो स्व है लेकिन ये जगत, विश्व माने विश्व जो आत्मा है वो हमारे हृदय में बसा हुआ है। इसके जागते ही विश्व की भावना, जिसे हम एक तत्व ज्ञान के रूप में जानते थे, वो साक्षात हमारे अन्दर समा जाती है। हमें उसके लिए कोई किताब पढ़ने की जरूरत नहीं किसी को कोई जानने की जरूरत नहीं। यहाँ बैठे-२ आप सारी दुनिया को जान सकते हैं। इसमें कोई बड़े भारी आश्चर्य की बात नहीं है। कोई विशेष कार्य नहीं अगर आप मेरे लिए कहें तो मैं कहुंगी कि मैंने तो कुछ किया नहीं क्योंकि मैं तो जैसी हूँ वो तो मैं हूँ ही, वो तो अनादि काल से ही है। मेरी तो विशेष बात उसमें नहीं है। विशेषता आप लोगों की है जो कि आपने जाना माना और पाया। लेकिन सहजयोग का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसका अन्त नहीं होता। ज्ञान तो हो गया ज्ञान होने का माने आपके नाड़ी तन्त्र पर आपने जाना। जो लोग उल्टे तरीके से चलते हैं वो सोचते हैं कि ज्ञान करना माने ये कि हमें बुद्धि से जानना। बुद्धि से हमें जानना है बुद्धि से जानना माने क्या वो तो हम किताब पढ़ कर जान लेंगे या हम किसी गुरू के पास बैठकर जान लेंगे या किसी के उपदेश सुनने से हम जान लेंगे। ज्ञान का मतलब है कि आपके स्नाय तन्त्र में उसका ज्ञान हो। यही बोध है। यही बुद्ध है। आज आप बुद्ध हैं क्योंकि आपको बोध है। 1 ज्ञान तो अन्दर की जागृति से आता है। समग्र माने संघटित। जब तक आपके सारे चक्र संघटित नहीं होंगे तब तक समग्र ज्ञान कैसे होगा? पुस्तकें पढ़ने से थोड़े ही ज्ञान हो जाएगा। ज्ञान प्राप्त करने का मतलब होता है बोध! सो कैसे हुआ! किसी ने ये नहीं पूछा कि ज्ञान कैसे प्राप्त होगा! श्री कृष्ण ने भी साफ तरीके से नहीं कहा कि कुण्डलिनी का जागरण होना चाहिए। वो तो माँ ने ही बताना था। सबको बैठ कर गीता सुनाते हैं। अर्जुन एक साक्षात्कारी व्यक्ति थे। एक अर्जुन से बात करी उन्होंने बाकी सारी अन्धी दनिया से नहीं। जब तक अन्धापन है, अन्धेपन का मतलब है कि बोध नहीं है आपकी नसों में, अभी तक वो सामहिक चेतना का बोध नहीं है, जब तक ये नया आयाम आपके अन्दर जागृत नहीं हुआ तब तक सत्य सुनने की ही बात है। मनोरंजन मात्र है। तो बोध के बाद ही आपका चरित्र अपने आप बनता है। उसमें भी इन्होंने गड़बड़ करी चरित्र बनाओ, चरित्र बनाओ चरित्र बनाने में भी उनका भी चरित्र लेकिन जब आप गुरू हो जाते हैं तब आपको पता होता है श्री महालक्ष्मी पूजा 15 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-16.txt कि अभी हममें कमियाँ है और तब आपको कोई न कोई सी योग्यता होनी चाहिए और उस योग्यता में शुद्धि भी। तपरूचर्या करनी पड़ती है और वो तपस्चर्या का मतलब ये नहीं कि आप उसमें भूखे मरे, ये तो माँ कभी नहीं चाहेगी, है, उसको आपको जागृत करना है। अनुशासन जिसके बारे क्योंकि माँ को दुख देना है तो आप भूखे रहिए, भूखे रहने कि में हमें सतर्क होना है। कोई जरूरत नहीं। भूखे रहना कोई जरूरी नहीं है। अगर आपको नहीं खाना तो नहीं खाइए। पर परमात्मा के नाम पर केवल एक ही तप करना चाहिए माने ये कि आपको व्यर्थ के अहंकार की भावनाओं से मनुष्य का जो अनुशासन अपनी स्थिति निर्विचारमय बनानीं चाहिए। ध्यान धारणा करके आपको अपनी सफाई करके अपनी स्थिति दसरी चीज यहाँ राजकीय आन्दोलन की वजह से भी हममें आपको निर्विचारमय बनानी चाहिए। निर्विचार में जब आप आ जाते हैं तभी आपका ये जो पौधा है, वह बढ़ता है। इसलिए बहुत से लोग कहते हैं माँ हमसे ध्यान नहीं होता तो भैया आधे ही रह जाओगे ध्यान रोज करना होगा जब तक ये तपस्या नहीं की जाएगी, तब तक आप पूरी तरह से प्रकाशमय नहीं होएंगे। जब तक आप ध्यान नहीं करेंगे तब तक आप हमें भी नहीं समझेंगे। तब तक आप बिल्कुल हमें नहीं समझेंगे क्योंकि जब तक आप में त्रुटियाँ रहेंगी तब तक आप उन त्रुटियों के झरोखे से देखेंगे। जैसे कि अगर कोई नीले रंग का आप अपने आंख पर परदा डाल लें तो आपको नीले ही दिखाई देंगे, पीला डालेंगे तो पीले ही हुआ है। आदमी आदमी का विरोध करता है और औरत दिखाई देंगे। और इसी तरह अगर एक भी त्रुटि आपके अन्दर रहेगी तो इसी तरह हम आपको नजर आएंगे। हम आपको असलियत में नजर आएंगे ही नहीं। ये एक हमारा तरीका है तो इन सब चीजों को आपको इस नवीन वर्ष में बना कर आकाश में चमकाएं और आप लोग मिट्टी के सोचना है कि अब हमारे पास ज्ञान प्राप्त हो गया है। हमें बराबर भी बात नहीं समझते। मैं तो अवाक रह जाती हैं अब इसे अपना चरित्र बनाना है। और चरित्र बनाने के लिए जब में ये बातें सुनती हूँ मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। सबसे हमें जो तप और ध्यान करना है वो हमें करना है किसी भी पहली बात है माँ को खुश करने के लिए कि आपस में हालत में। लोग कहेंगे कि माँ हमारे पास समय नहीं है, आप भाई चारे से और बहन चारे से रहें। अगर आपको लेकिन ये बात नहीं। लन्दन जैसे शहर में जहाँ इतनी ठंड वाकई आनंद लेना है तो वो है भाई चारे से। और अब सहज रहती है लोग चार बजे उठ कर नहा कर ध्यान करते हैं। योग का भाई चारा कैसे चलता है वो इस प्रकार कोई आया लेकिन हिन्दुस्तान में लोग कहते हैं अच्छा अगले साल करेंगे, अगले साल करेंगे। और जैसे-जैसे हम उत्तर की ओर बढ़ते हैं लोग सोचते हैं क्या जरूरत है हम तो कैलाश की वो गया था न उन्होंने बताया कि तेरे भूत लग गया है। माँ तरफ बैठे हुए हैं, हमको क्या जरूरत है दक्षिण वाले करते रहें मेहनत, हम तो उत्तर में बैठे हैं। उत्तर प्रादेशिक क्षेत्र जो है तो जितने भी लोग उत्तर में बैठे हुए हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि हाँलाकि कैलाश उत्तर में है लेकिन दृष्टि शिव की दक्षिण में है। इसलिए उनको दक्षिण-मूर्ति कहते हैं। इसलिए चाहिए कि आप लोग भी अपनी ओर उनकी मैंने कहा भई कि तुम जागृति पाओ, ध्यान करो सब ठीक हो दृष्टि लाएं। उनकी दृष्टि आप के ओर लाने के लिए, थोड़ी जाएगा। तो कहने का मतलब यह है कि आप लोग अपने अही गौरी स्वरूपा कृण्डलिनी, आपके अन्दर जो शुद्ध इच्छा दुनिया भर के कायदे कानून हमें आते हैं। पर अन्दर का अनुशासन हममें अभी नहीं आया। देश और संस्कृति के है वो चला जाता है। वो बहुत जरूरी है हमारे अन्दर। और अनुशासनहीनता आ गई है। ये सारी चीजें व्यर्थ हैं। मैंने बताया था कि हमें भाई-बहन का रिश्ता तो समझ में आता है लेकिन भाई चारा का नहीं। भाई चारा का रिश्ता समझना है। बहन चारा और भाई चारा। लोग कहते हैं कि दो औरतें कहीं रहे, चाहे वो बहनें हों, रह नहीं सकती लेकिन मैं तो मर्दों को देखती हूँ वो भी कुछ कम नहीं हैं। अब इनकी लड़ाइयाँ और तरह की होती हैं औरतों की दूसरी तरह की। आदमियों की लड़ाइयाँ जब शुरू होती हैं तो कुछ समझ में ही नहीं आता है कि इसका स्वरूप कहाँ से पैदा औरत का। दोनों पशोपेश में हैं मेरे लिए। तो मैं ये सोचती हूँ अरे भई हम बात कर रहे हैं आसमान की और आप पाताल की हम कह रहे हैं कि कया-क्या आपको सितारे आप के पास,तेरे तो भूत लग गया तू जा। वो मेरे पास आया माँ मेरे भूत चिपट गया। मैं कहती हूँ तुमको किसने बताया? मेरा भूत छुड़ाओ। मैंने कहा तुम उन्हीं को कह दो तेरे भूत लग गया। तेरे कहीं भूत वृत नहीं लगा। काहे को मेरे पीछे पड़ा है? नहीं उसने बताया तेरे पीछे भूत लगा है। दूसरा आएगा तो कहेगा कि माँ जो कोई देखता है वो यही कहता है तेरा ये चक्र पकड़ रहा है। माँ मेरा ये चक्र पकड़ रहा है? अरे चैतन्य लहरी 16 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-17.txt को इतने शक्तिशाली बनाइए कि भूत बाहर भागते फिरे। आपने देखा की एक सहज योगी आया तो सारे भूत दिल्ली से एकाउंटेंट हैं। ये तो मैं उनसे कहती थी कि तुम देख लो। बो भाग खड़े हुए। हजारों की तादाद में भाग जाएंगे लेकिन आ कर मुझे कहते हैं अरे क्या कर रहे हो। इतने कंजूस आप भी शक्तिशाली होइये।आप तो भूतों से डरते हैं तो और लोग हैं कि एक भी पैसा नहीं खर्च करते और तुम्हारे सहज आप की खोपड़ी में बैठेंगे नहीं तो क्या होगा। एक भूत वाला योगी इतने कंजूस क्यों हैं? इनके ऊपर आय कर आ आदमी आ गया तो सारे के सारे भाग खड़े हुए। सो ये भाई जाएगा। चारे की बात है हमारे अन्दर संघ है। इसलिए बद्ध ने कहा है संघम्, शरणम् गच्छामि । संघ की शक्ति हमारे अन्दर है। नहीं रहा खर्चे का तो। मैंने कहा कोई इन्तजाम करो कोई हम सब जैसे भी हैं वो सब मिलकर हैं। अगर हम अपनी खर्चा करो कि सब ठीक हो जाए। लोग मुझे कहते थे कि संघ शक्ति को बढ़ा लें तो कोई भूत यहां आएगा ही नहीं । देखिए माँ आपको देखना चाहिए था। मैंने कहा मुझे हिसाब वह तो पहले ही भाग जाएगा। कारवां यहां से भाग खड़े होंगे। लेकिन हमारी संघ शक्ति पैसा इधर से उधर नहीं हुआ। कोई गड़बड़ नहीं हुई। ये माँ नहीं है। इसलिए हम कमजोर हैं। हम यह नहीं सोचते कि का भरोसा है। माँ का विश्वास है उसी तरह आप एक दूसरे सहज योग बढ़ रहा है, इसमें योगदान दें। एक दूसरे की पर विश्वास करो। एक दूसरे की गलतियों को बढ़ा चढ़ा कर शिकायतें ही करते रहते हैं। अपनी जो संघ शक्ति है वो मत बताइऐ। दूसरे आप अच्छाइयां बताइये। ये सोचिए., कि बनाएं। अन्दर जो भी डर है उसको निकालिए डर को आप उस औरत में कौन से ऐसे गुण हैं। इसका मतलब यह नहीं को एक तरफ में कर देना है और आपको भूत से या किसी से कि आप अपने को दोष दीजिए । बहुत से लोगों कि यह भी डरने की कौन सी बात है। बहुत सा हमारा झगड़ा खत्म हो आदत है कि मैं ही खराब हूँ। बिल्कुल नहीं। आप तो बहुत जाए अगर हम किसी से न डरे तो। आपस का झगड़ा अगर ही बढ़िया हैं। पहली चीज यह है कि आप अपना दोष मत खत्म हो जाए, अगर हम इस आदमी से नहीं डरेंगे। हमें ये देखिए लेकिन यह देखिये कि मैं जिसकी ब्राई कर रहा हूँ डर लगा रहता है कि हमारी पदवी खराब हो जाएगी। यहाँ उसके अच्छे गुण क्या है। इससे आप अच्छे हो जाएंगे। कोई राजनीति तो है नहीं कि आज कोई प्रधान मन्त्री बनने लेकिन अगर आप दूसरों के दोष देखते रहेंगे तो सारे दोष वाला है कोई उप-प्रधान मन्त्री बनने वाला है। जो सब कोई आपके अन्दर आ जाएंगे। इसलिए दूसरों के दोष ठीक करने अपनी अपनी कुर्सी संभाले बैठे हुए हैं? यहाँ तो सबकी कुर्सी हैं । दूसरों से प्यार करने में, दूसरों से वार्तालाप करने में, एक जमाने का काम है। किसी को आसन दिया है। आपका मधुरता लेकर के एक प्रेम की भावना लेकर अगर आप करे आसन जमाने का कार्य होना चाहिए। तो भाई चारे से क्यों तो सहज योग बहुत आसानी से फैलेगा। बहुत आसानी से न सब करें। पिछली मर्तबा मैं सबसे मजाक कर रही थी। आगे आएगा। और सारे संसार में फैलेगा। सारी दारोमदार मैंने कहा था कि आप किसको भाई बना रहे हैं बताओ। अब मेरी आप पर है। छोड़ो। बहनें तो बहुत बन गई अब भाई बना लो। और बहनों को चाहिए। कि अपनी सहेलियां बनाओ पहले बड़ी हमने लेना है। सबके लिए जीने का तरीका यदि आ गया सहेली का बड़ा महत्व होता था। आजकल सहेली शब्द तो तभी मनुष्य विशाल हो जाता है और ये विशालता आप रह ही नहीं गया। औरतों में बन पाना असंभव बात है। दो प्राप्त कर सकते हैं सहज योग से। और आज इस नवीन औरतें अगर मिलें तो मेरा तो कल्याण हो जाए। मुश्किल ये दिवस पर ये विशेषता का एक संदेश अपने हृदय में रखना होती है कि न जाने कहाँ से इनको सब खराब बातें मिल चाहिए कि आज से बस हम विशाल हैं और ये विशालता जाती हैं। अच्छी बात कुछ नहीं मिलती। एक दूसरे से डरती हमारे हृदय में बसे और इसमें हम सारे विश्व को देखें। हम हैं। हर समय परेशान रहती हैं। यह सब आप छोड़ दीजिए। सब भाई बहन एक माँ के बेटे हैं। एक सूत्र में बँधे हुए हैं एक दूसरे पर भरोसा करना सहज योग का नियम है। अब अत्यन्त सुन्दरता से जुड़े हुए, प्यारे-प्यारे सब फूल हैं। जब देखिये कि इतना रूपया इकट्ठा होता है सहज योग में। हम हम अपने प्रति ऐसी सुन्दर भावना कर लेंगे। और दूसरों के लोग भी बहुत सा रूपया देते हैं। और उसका एकाउंट होता प्रति भी, तभी जाकर के एक सुन्दर सा हार तैयार होगा। है। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने कभी भी ट्रस्ट का हिसाब नहीं देखा। आज तक मुझे ये भी नहीं मालूम कि कितना रूप को प्राप्त करेंगे। पैसा है। बहरहाल हमारे भाई साहब आजकल चार्टड सो सहज योगी कहते हैं कि खर्चा कहां करें कोई बन ही यसी एक नहीं हजारों कारवां के किताब आता ही नहीं जो हो रहा है होने दो। फिर भी एक तो आज नवीन बर्ष के शुभ अवसर पर भाई चारे का व्रत हमारा अनन्त आशीर्वाद है कि आप सब लोग इस विशेष श्री महालक्ष्मी पूजा 17 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-18.txt जी परमपज्य माता महाकाला पजा श्री निर्मला देवी का प्रवचन पेर ) 11.7.1993 (साराश आज हमने देवी की पजा करने का निर्णय किया है। इस बार गयी आपकी छुट्टी। अहम् में फंसे उस बच्चे को आप किस प्रकार हम आदिशक्ति, कृण्डलिनी, सरस्वती या महालक्ष्मी के बारे में खुश करेंगे। इस तरह शनैः शनैः हम अपने बच्चों के अहम् को बात नहीं कर रहे हैं। हम महाकाली की बात कर रहे हैं। यह बढ़ाते हैं। हमें यह कहना चाहिए, "यह खाना बना है, बहुत देवी सर्वप्रथम आकर गौरी रूप में श्री गणेश की स्थापना करती अच्छा है, आप इसे खाएँ। माता-पिता को पसंद पूछकर बच्चों के हैं। वे महासरस्वती और महालक्ष्मी पृर्ण रूप हैं। उन्हीं में से ही अहम् को बढ़ने नहीं देना चाहिए। आपको समझ होनी चाहिए यह शक्तियां प्रवाहित होती हैं। अतः वे ही परमात्मा की इच्छा कि बच्चों की क्या आवश्यकता है। की शक्ति हैं और हमारे अन्दर भी इच्छाओं का सृजन करती हैं। हमारे अन्दर की यह इच्छाएं बाहर प्रसारित होने लगती हैं और को खिलाने की इच्छा प्रदान करती है तब आप भूख से पीड़ित सभी इच्छाओं के प्रति एक प्रतिक्रिया हममें विकसित होती हैं। इस मामले में देवी का आशीर्वाद यह है कि वह आपको दूसरों लोगों की चिन्ता करने लगते हैं और उनकी पीड़ा का कारण जानना चाहते हैं। यह इच्छा इतनी अति तक पहुंच जाती है कि स्वयं को भोजन देना सर्वप्रथम सर्वोपरि और सर्व पुरातन कुषछ लोग सोचने लगते हैं कि उन्हें खुद कुछ नहीं खाना चाहिए। इच्छा है जो हमें इस देवी से प्राप्त होती है। जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन करना अत्यन्त आवश्यक है। हमने यह भी देखा है है खाए। इस प्रकार के त्याग में कोई बड़ी समझदारी नहीं है। इस कि जब इस प्रकार की इच्छा असमान्य रूप से बेढ़ जाती है तो प्रकार का त्याग जब लोग करने लग जाते हैं उन पर कई प्रकार के व्यक्ति इसका दास हो जाता है तथा जितना भी बो खा ले, उसकी कृष्ट आ जाते हैं। और वे अत्यन्त त्यागी और क्रेधी बन जाते हैं। अतः तृप्ति नहीं होती। परन्तु अहं के माध्यम से कार्य शुरू करके यह भखा व्यक्ति भी उतना ह बरा होता है जितना आवश्यकता से अधिक व्यक्ति की खाना बनाने वालों की तथा उपलब्ध कराने वालों की मैं सोचती हं भखा रहने वाला व्यक्ति अधिक खराब सन्तष्टि करती है। अब इच्छाओं की पर्ति किस प्रकार करें। ह्ोता है। किसी तरह से बह भोजन लाते हैं, उसका प्रदर्शन करते हैं, आपके सामने रखते हैं ताकि आप इसे स्वीकृति दें, और तब वे आप जानते हैं कि अच्छाई को सब पसंद करते हैं इसलिए लोग इस भोजन को परोसते हैं। वे आपको बेवकफ बनाना जानते हैं दूसरों के प्रति अच्छा बनने का प्रयत्न करते हैं । दूसरों को पसंद करने से और आपको भी इसमें प्रसन्नता मिलती है। अतः आपकी इस वे सोचते हैं, कि लोग उन्हें बहुत पसंद करेंगे। परन्तु यह इच्छा इच्छा को आपका अहम् प्रचालित करता है। जब यह इच्छा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि आप हर समय ही दसरों को प्रसन्न सामहिक बन जाती है और सामहिक अहम की अभिव्यक्ति बन करने के प्रयास में लगे रहते हैं और एक प्रकार से इसके दास बन जाती है तब आप सभ्य प्रकार के पेटू बन जाते हैं। परन्तु यदि जाते हैं। आप में इतनी बनावट आ जाती है कि लोग समझ जाते आपमें अहम् न हो। तो लोग दूसरे लोगों को खिलाना पसंद करना हैं कि इस व्यक्ति में कुछ भी स्वाभाविक नहीं है। वह मात्र हमें चाहेंगे। यह इच्छा प्रतिक्रिया करती है तब महाकाली की कृपा से खुश करने का प्रयत्न कर रहा है। किसी दूसरे व्यक्ति को यदि एक नई इच्छा जागृत होती है, तब दूसरों को भोजन खाते हुए आप साक्षी भाव से और पूर्ण निस्वार्थ होकर प्रसन्न करें तो ये देखकर आपको अच्छा लगता है। आप द्वारा बनाया गया, परोसा स्वाभाविक और अच्छी बात है परन्तु किसी से लाभ उठाने के गया व दिया गया भोजन जब लोग करते हैं तो उसमें आपको लिए यदि आप उस व्यक्ति को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं आनन्द आता है। आप केवल देखना चाहते हैं। और इससे तो यह निम्न कोटी का पाखंड है जिसमें आप स्वयं फंस जाते हैं। आपको संतोष प्राप्त होता है। परन्तु जितना मर्जी खाना खिला लें लोग आपका मजाक करते हैं, आप पर हंसते हैं, आपसे प्रसन्न आपको पूर्ण संतोष न मिल पाएगा। आज के पाश्चात्य जीवन में नहीं होते। वे जानते हैं कि आप पाखंडी हैं और किसी अनचित बच्चे से यह पछना आवश्यक हो गया है कि आप क्या खाएंगे? लाभ के लिए यह सब कर रहे हैं। अच्छा या भला बनने के लिए पराने समय में पुरे परिवार के लिए खाना बनता था पर आज नहीं कर रहे हैं। अच्छा व्यक्ति स्वतः ही दूसरों को प्रसन्न करता बच्चे से पृछा जाता है कि आप क्या खाएंगे और बच्चा अपनी है, प्रसन्न करने का प्रयत्न नहीं करता। वह प्रकृति से, स्वभाव से पसंद बताता है। मान लो बह चीज आपके फ्रिज में नहीं है तो हो ही ऐसा होता है कि वह लोगों को प्रसन्न करता है। अब देवी क्या एक मूर्खतापूर्ण त्याग भाव आ जाता है। व्यक्ति ने जो भी खाना खाने वाला। यह इच्छा आपको अच्छा व्यक्ति बनाने के लिए आती है। बा चैतन्य लहरी टा 18 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-19.txt कार्य करती है? वे लोगों के सम्मुख सत्य को प्रकट करती हैं। वे दश्शाती हैं कि किसी स्वार्थ प्राप्ति के लिए किया गया, आपका प्रयत्न सफल नहीं होता। एक हद तक इसमें सफलता मिलती है और तब देवी उनका भण्डा फोड़ कर देती है। भंडा फोड़ जब होने लगता है तो वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं, "मेरा भंडा फोड़ कैसे हो गया? मैं कैसे पकड़ा गया? लोग कैसे जान गये? यह महाकाली कि शक्ति का कार्य है। वे सारी बुराई, असत्य और झूठ का पर्दाफाश करते हैं। तीसरी इच्छा जो लोगों में है वह भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की है। और इसी से भौतिकवाद का जन्म होता है। परन्तु यह अन्तहीन है क्योंकि एक वस्तु को प्राप्त करके व्यक्ति को सन्तोष नहीं होता और जो भी चीज उसे मिलती है उसका वह आनन्द नहीं ले पाता। यह भी मानवीय असफलता है जो कि अर्थशास्त्र को जन्म देती है। अर्थशास्त्र कि सृष्टि इसलिए होती है क्योंकि आवश्यकताएं प्रायः कभी पूर्ण नहीं होती। अतः हम चीज से दसरी की ओर बढ़ते चले जाते हैं और अन्ततः साधारण जीवन अपना लेने से बहुत सारी चीजों को त्यागा जा सकता है। और हमारा महाकाली तत्व हमें अधिकाधिक ऊँचा उठाता है। इसके बावजूद भी हम नीचे आ जाते हैं। तब यह महाकाली आगे आकर हमें दशाती है कि हमने कौन सी गलती की, किस प्रकार हम भटक गये और किस प्रकार तत्व की बात को छोड़ दिया। एक अन्य बहुत सुन्दर कार्य जो वह करती है वह है एक भ्रम की सृष्टि करके आपके विवेक और संवेदनशीलता की परीक्षा लेना। भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। आपके मस्तिष्क में वे भ्रान्ति पैदा कर देती हैं और आप, दूसरे लोग या स्थिति भ्रान्तिपूर्ण हो जाती है और आप इसमें फंस जाते हैं। तब आपको समझ आता है कि मैंने यह गलती की है। भ्न्ति पैदा करके यह महाकाली शक्त हमारे अहम् को ठीक करती है। यह मरीचिका (मृगतृष्णा) या माया ही हमारे भ्रमों के पीछे भागने के लिए जिम्मेदार है। यदि हम अन्दर से सन्तुष्ट हैं तो हम माया के पीछे नहीं दौड़ते। इस भ्रम की सृष्टि यदि न की जाए तो पूरा विश्व इतना अहम् वादी हो जाएगा कि यह समाप्त हो जाएगा। तो भ्रम 1. एक उद्यमियों के दास बन जाते हैं। इतना अधिक दासत्व आ जाता है की रचना करना हमारे अन्तःस्थित महाकाली शक्ति का महान कि व्यक्ति अपना व्यक्तित्व खो बैठता है। विवेकहीनता के कार्य है। बहुत से लोग माया की बात करते हैं। यह श्रीमाता जी कारण लोग ऐसा करते हैं। परन्तु सहजयोगियों के लिए की माया है। यह माया है वह माया है। यह महाकाली का कार्य महाकाली शक्ति कार्य करती है और उन्हें शिक्षा देती है, 'ठीक है। वे आपकी परीक्षा लेना चाहती है। परन्तु सहज योग में यह है, यह वस्त्र आपको अच्छे लगते हैं, यह ले लें, और यही आपके परीक्षा अधिक कठिन नहीं होती। तो सहजयोगियों की परीक्षा लिए सर्वोत्तम है। एक ही बार में आपके पूरे जीवन की समस्या लेने के लिए यह महाकाली सहायता करती है। इस प्रकार भ्रम हल हो जाती है । यह इच्छा सर्वसाधारण में बाह्य वस्तुएं जैसे आपको सुधारते हैं। भ्रम यदि न हो तो सीधे से आप सुधरेंगे बस्त्र, बालों का स्टाइल तथा अन्य मूर्खतापूर्ण प्रदर्शनों से दूसरों नहीं। यदि मैं कहूँ, "ऐसा न करें तो शायद आपको यह बात को प्रभावित करने के लिए आती हैं। जब हम अहं का उपयोग अच्छी न लगे। निसन्देह आपको मेरी बातें अच्छी लगती हैं पर करने लगते हैं तब इस प्रकार कि मुर्खता हमारे मस्तिष्क में आ कभी-कभी ऐसा नहीं होता। और तब भ्रम कार्य करता है और जाती है। अहम् व्यक्ति को पूर्णतया मुर्ख बना देता है। ठीक काम आप समझ जाते हैं कि "मैं कहाँ था, और अब कहाँ हूँ? मुझे ऐसा करने के लिए लोगों को समझाना बहुत कठिन कार्य है परन्तु नहीं करना चाहिए था..... मैं इस समस्या में कैसे फंस गया? कैसे गलत चीजें वे तरन्त पकड़ लेते हैं। उदाहरणतया मैंने लोगों से मैं इतना मूर्ख बन गया? यह कार्य वे करती हैं। कहा कि सिर में तेल डाला करें। यदि प्रतिदिन भी नहीं लगाते तो कम से कम नहाने से पहले खुब तेल मालिश करके सिर को धो लें। अब मैं देखती हूँ बहुत से लोग गंजे हो रहे हैं फिर भी तेल परेशान होते है, आपकी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ और नहीं लगाते। इसके बारे मैं क्या करू? इतनी साधारण चीज पर न्या न करूँ तब वो आपको नींद में सुला देती हैं। आप पूरा दिन भी उन्हें विश्वास नहीं होता चाहिए। वे मुर्खतापूर्ण कार्य करेंगे, यह भी नहीं सोचेंगे कि किस है और एक बालक की तरह से आपको निद्रा-मग्न कर देती हैं। चीज़ से उन्हें हानि पहुंचती है। यहां महाकाली क्या करती है? वे उस समय अपने तथा दूसरों के साथ जो भी बुराइयां हमने की आपको दण्डित करती है। आपके शरीर को दण्डित करती है। आप यदि बहुत तंग कपड़े पहनते हैं तो आपकी टांगों पर कोई तरह सोते है, और हमारी सारी समस्याएं हल हो जाती है। जब समस्या आ सकती है। यदि आप छिद्रिल (छेदों वाली) पेन्टें आप स्वपन ले रहे होते हैं तो वे आपको समस्याओं के समाधान पहनते हैं तो आपको जकड़न हो जाती है। कोई भी आसाधारण सुझाती हैं। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि, श्री माता जी आप कार्य यदि आप करेंगे तो आपको उसका दण्ड भुगतना होगा। मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे फलां दवाई लेने के लिए कहा। आप पहले तो इसे करने के लिए आपको धन खर्च करना पड़ेगा और मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे बताया कि तुम्हारे लिए एक विशेष फिर शारीरिक रूप से आप दण्डित होंगे। वे ही हमें पर्ण आराम प्रदान करती है। जब आप थके हुए और कार्य करते हैं, अन्त में महाकाली की शक्ति आप पर कार्य करती कि आपको पौष्टिक तत्व सब क्षमा कर दी जाती हैं। उनकी गोंद में हम शान्ति से अच्छी प्रकार का जीवन हितकर होगा।' वे मझे आते हुए स्पष्ट देखते श्री महाकाली पूजा 19 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-20.txt एक सहजयोगी होने के नाते अपने जीवन में आप देखेंगे कि महाकाली शक्ति कैसे हर तरह से आपकी सहायता करती है। उन्हें कार्य करते देखना बहुत ही अच्छा लगता है - किस प्रकार वे आपके लिए सब प्रकार का सन्तोष लाती हैं। लोभ, है। परन्तु वह मेरा पूर्ण रूप नहीं होता... केवल महाकाली की शक्ति कार्य कर रही होती है। आप बहुत गहन निद्रा की स्थिति में होते है जिसे सुषप्ति अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में वे दिखाई देती हैं और स्वपननों में वे आपका मार्ग दर्शन करती हैं। हुए परन्तु सबसे महान कार्य जो वे करती है वह है आपको पावित्र्य लालचे और गुस्सा चला जाता है। सबसे अधिक सहायता पर्ण एवं सुरक्षा का विवेक प्रदान करना। बच्चों में जन्म से ही पावित्र्य कार्य जो वे करती है वह यह है कि महाकाली शक्ति के प्रकाश में लज्जा, शालीनता और भद्राचरण स्वतः ही आपकी सारी बुरी आदतें भाग जाती है। आप नहीं शनैः शनैः जब वे दूसरे लोगों को अभद्रतापर्ण व्यवहार करते चाहते कि कोई विध्वंसक कार्य हो। काई विध्वंसक कार्य यदि देखते है तो वे भी उसी रास्ते पर चलने लगते हैं। शालीनता आप पहले कर भी रहे होते हैं तो आप उससे छुटकारा पाने का उनके लिए एक बन्धन बन जाती है। परन्त स्वाभाविक रूप से प्रयास करते है। आपके अन्दर जागृत हुई महाकाली शक्ति ही यह बताने के लिए कि यह कार्य अभद्र है और आपको नहीं करना यह कार्य करती है। उसी ने आपको इतना सुन्दर और देव तुल्य चाहिए महाकाली शक्ति विद्यमान हैं। ज्यों-ज्यों आपकी आय बना दिया है। अपने सुधारों तथा भ्रान्ति द्वारा उसने आपको ऐसा बढ़ती है और आप परिपक्व होते हैं, आप अपनी पवित्रता का बना दिया है। अंतः पतन के लिए जिम्मेदार चीजो जैसे घन, अपमान करने लगते है और अपरिपक्व मुर्ख लोगों की तरह बनने लगते है। यह सारी बातें यदि ध्यान धारणा के माध्यम से पदार्थों के स्वामित्व भाव से भी लिप्त न हों। समझ लें कि बांटने समझी जाएं तो हम जानते है कि महाकाली शक्ति हमारी में ही आनन्द है। आप सभी कुछ दूसरों के साथ बांटना चाहते है अधिक मदद करती है क्योंकि वे ही कण्डलिनी के उत्थान के और ये बांटने की भावना तभी शुरू होती है जब ये महाकाली की लिए उचित मार्ग बनाती हैं। महाकाली कृण्डलिनी के समान ही शक्तियाँ आपको आनन्द, सामूहिक अस्तित्व, पावित्र्य और बांटने हैं क्योंकि कृण्डलिनी महाकाली शक्ति की अवशिष्ट शक्ति है। के आनन्द का आशीरवाद प्रदान करने लगती है। ये सारे वे विद्या से परिपूर्ण हैं। परन्त उनका कार्य भिन्न है । महाकाली आर्शीवाद आपको महाकाली शक्ति से ही प्राप्त होते है। आज का कार्य आपकी रक्षा करना, मार्ग दर्शन करना तथा विवेक हम उसी महाकाली शक्ति की पूजा करने वाले हैं। प्रदान करना है। और कण्डलिनी का कार्य आपको शुद्ध करना, बाधाओं को दूर करना, आपके साथ खिलवाड़ न करना, आपको क्षमा करना और ठीक प्रकार से उत्थान के लिए आपकी सहायता करना है। का विवेक होता है। परन्तु लालच और कामुकता आदि से लिप्त न हो। बच्चे, पति और बहुत परमात्मा आपको धन्य करें। चैतन्य लहरी 20 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-21.txt श्री कृष्ण पूजा वार्ता परम पूज्यभाता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) हथनीकुण्ड (हरियाणा) 11-12-1993 आज हम श्री कृष्ण की पूजा करेगें श्री कृष्ण के जीवन में ने खेलना है लोग श्री कृष्ण को बिल्कुल भी नहीं समझते। श्री यमना नदी की महान भूमिका रहीं है। यमुना नहीं है और इसके जल का रंग भी श्री कृष्ण के रंग की तरह से नहीं समझ पाते। मेरे विचार में श्री कृष्ण के विचार बहुत ही नीला है। यमुना की अपेक्षा गंगा नदी बहुत तेज गति से चलती है उच्च थे क्योंकि उन्हें यह दशर्शाना था कि यह संसार एक खेल है, तथा उसकी गहराई भी बहुत अधिक है। हो सकता है अगामी माया है, और इन सब से भी परे यह आनन्द है। उनकी प्रणाली वर्ष हम लोग अलाहाबाद जाएँ और इन दोनों नदियों का संगम अत्यन्त मनोरंजक थी। उन दिनों उन्हें यह सन्दर पांडाल और देख सकें। पूरा हरियाणा राज्य ऐतिहासिक स्थान है और इसका इतने सारे शिष्य उपलब्ध न थे तो उन्होंने अपने तरीके का पौराणिक महत्व भी है। आप सब जानते है कि यहां पर कुरूक्षेत्र इस्तेमाल किया। जब वे बच्चे थे तो यमुना से जल भर कर लाती में पांडवो और कौरवो ने युद्ध इस क्षेत्र का उपयोग हुआ। मार्कण्डेय, जिसका नाम आपने प्रायः जल उनके पीठ से बह कर नीचे को आता था यमुना नदी को सुना है, ने यहां तपस्या की। वे पहले महाराष्ट्र में थे, जहां आपने राधा जी चैतन्यित करती थी। 'रा' अर्थात् 'शक्ति' और 'धा' सप्तश्रंगी देखी है परन्तु बाद में तपस्या करने के लिए वे यहां आ अर्थात् 'धारण करने वाला। वे नहीं जानते थे कि किस प्रकार गये और यहीं अपने ग्रंन्थ की रचना की। स्थान-स्थान पर उन लोगों को कण्डलिनी के बारे में बताया जाए। अंतः कंकड़ आपको पीर तथा आत्मसाक्षात्कारी लोगों की जगह मिलेगी। मार कर वे उनके घड़े तोड़ देते थे जिससे कि चैतन्यित जल रीढ़ इनको आज तक सम्मान होता है। श्रीकृष्ण के यहां रहने के की हड्डी पर से नीचे को आता था और उन्हें कण्डलिनी का कारण यह क्षेत्र अत्याधिक अध्यात्मिकता का है। उन दिनों में न आशीरवाद प्रदान करता था। उनकी विधि अत्यन्त साधारण, तो कारे होती थी न ही यातायात के अन्य साधन। अतः पैदल खिल्वाड़ सम और हल्की फुल्की थी। कोई नहीं जानता था कि चलकर श्री कृष्ण ने इस क्षेत्र को बहुत अच्छी तरह से चैतन्यित वे यह सब क्या कर रहे हैं। जब वे बहुत छोटे से बच्चे थे तो किया। यमुना नदी के तट पर खेलना उन्हें बहुत अच्छा लगता यमुना में स्नान करती हुई स्त्रियों की कण्डलिनी उठाने का था । निःसन्देह उनका बचपन यहां नहीं बीता परन्तु राजा बनने प्रयत्न करते थे। उनके वस्त्र चुराकर बे छुपा देते थे और उन के पश्चात् वे प्रायः इस स्थान पर आया करते थे। एक विशेष प्रकार से हमें उनका चरित्र समझना होगा। सर्वप्रथम हमारे सम्मुख श्री राम का अवतरण है। श्री विष्णु ने श्री राम करके वे यह दशाना चाहते थे कि जीवन महान आनन्द के के रूप में अवतरण लिया परन्तु अपना देवत्व वे भुल गये। एक साधारण सिवाय कुछ भी नहीं। फिर वे गोपियों के वस्त्र उन्हें लौटा देते थे। मानव की तरह से उन्होंने जीवन यापन किया और सुकरान्त वर्णित बड़े होकर वे द्वारिका के राजा बने। अब हमारे देश के बहुत से हितकारी राजा बने। उन्हें अपनी पत्नी को त्यागना पड़ा जो कि अत्यन्त पाश्चात्य बद्धिजीवी लोग हैं जो यह कहने का प्रयत्न करते है कि प्रतिकात्मक है। उत्तरी भारत के अन्य क्षेत्र में भी उनके द्वारा श्री कृष्ण नाम के दो व्यक्ति थे। बिना अध्यात्मिकता को समझे चैतन्यित किये हुए क्षेत्र हमें मिलते हैं परन्तु महाराष्ट्र में, जहां और इसके पीछे छिपी सूक्ष्मता को जाने वे इसका विश्लेषण वे मीलों-मील नंगे पांव चले, उन्होंने पूरी पृथ्वी को ही, चैतन्यित करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनकी सोलह हजार पत्नियां कर दिया। यह पृथ्वी बहुत से सन्तों और अवतरणों द्वारा थी। ये सब उनकी शक्तियां थी। अब माँ के रूप में मेरे हजारों चैतन्यित की गयी। श्री राम के पश्चात् क्योंकि धर्म ने एक बच्चे हो सकते हैं, लड़के, लड़कियाँ, पुरूष और स्त्रियाँ मेरे गम्भीर मोड़ ले लिया था और एक अल्यन्त त्याग पूर्ण धार्मिक नरित्र के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। परन्तु पुरूषों के वातावरण की रचना हो गयी थी अतः श्री कृष्ण ने एक लिए यह बहुत कठिन कार्य है। अब उन्होंने अपनी सारी हल्के-फल्के वातावरण की सृष्टि करनी चाही। वे एक शिशुसम थे श्री कष्ण रूप में अवतरित होकर उन्होंने दर्शाना चाहा कि राजा के साथ हो गया। वास्तव में उनका विवाह नहीं हुआ। उस अध्यात्मिकता गम्भीरता नहीं है। यह तो एक खेल है जो व्यक्ति राजा ने उनका अपहरण करके उनको जेल में डाल दिया। श्री नदी बहुत गहरी राम के त्यागमय जीवन के बाद श्री कृष्ण के विचारों को लोग हुई गोपियों के घड़े तोड़ दिया करते थे। जिससे कि यमुना का किया। ध्यान धारणा के लिए भी वस्त्रों को चैतन्यित करते थे। बहत से लोग यह नहीं समझ पाते कि बाल्यकाल में वे इतने अबोध थे और उनके साथ छेड़छाड़ शक्तियों को स्त्री रूप में जन्म लेने दिया, उनका विवाह एक । क 21 श्री कृष्ण पूजा 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-22.txt ने उनकी रक्षा की, उसके चंगल से उनको छड़ाया और मेरा घर है"। यदि आप, "मैं" शब्द का बहुत अधिक उपयोग हये। अतः अन्तरदर्शन करने का कृष्ण उनसे विवाह कर लिया। यदि आप ध्यान से देंखें, तो विवाह पर करते हैं तो आप निर्लिप्त नहीं बल दिया गया है। ये सोलह हजार शक्तियां है। उनकी सोलह प्रयत्न करें यह सब भ्रमित करने वाले शब्द हैं। निर्लिप्तता एक कलाएं थी और सहस्रार की एक हजार पर्ुडियां तो इस प्रकार अवस्था है जिसमें आपको बढ़ना है। सिर के भार खड़े रहकर सोलह हजार शक्तियां बनती है। इसके अतिरिक्त उनकी पांच आप इसे नहीं प्राप्त कर सकते। पत्नियां थीं। उन पर भी लोगों को ऐतराज है। ये पांच पत्नियां पंच तत्व थे। उन्हीं के सार तत्व स्त्री रूप में अवतरित हुए और पर्यन्त उनका एक ही सन्देश था और वह था 'पू्ण निर्लिप्तता। श्री कष्ण ने उनसे विवाह कर लिया। परन्तु वे पूर्णतः नि्लिप्त, उन्होंने कहा कि वे यद्ध में केवल सारथी के रूप में जाएंगे, शस्त्र निर्मोह थे। उनकी मोह हीनता की बहुत सी कहानियां हैं। यमुना के किनारे पर एक महान ऋषि पहुंचे। द्वारिका में तुम्हें ये शर्ते स्वीकार हों तभी मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। जब अर्जुन यमुना नदी न थी। वहां नर्मदा और ताप्ति नदी थी। श्री कृष्ण की ने उनसे प्रश्न किया कि किस प्रकार यह अपने सम्बन्धयों, पत्नियों ने उस सन्त की सेवा करने के लिए जाना चाहा। जब वे गुरूओं, मित्रों आदि का वध करें और जब इसके कारण अर्जुन नदी पर गयीं तो देखा कि नदी में बाढ़ आयी हुई है। वे वापिस श्री बहुत हताश हुए तो श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि सत्य तो ये है। कुष्ण के पास आयीं और उनसे इस समस्या का हल पूछा। तो श्री कि वे सारे लोग पहले ही मर चुके हैं। जो भी जन्मा है उसकी कृष्ण ने उनसे कहा कि जाकर नदी को बताएं कि ब्रहम्चारी मृत्यु अवश्यंभावी है। अतः तुम्हें इन सबका वध करना होगा। कुष्ण ने उन्हें भेजा है। सत्य जान कर नदी उन्हें जाने का मार्ग दे लोग कह सकते हैं कि श्री कृष्ण हिंसा सिखा रहे थे। परन्तु यह देगी। उनकी पत्नियां इस बात को सुनकर बहुत हैरान हुईं, पर सत्य नहीं है। उन्होंने यह कहा कि जो अर्धमी है, क्रूर है और धर्म श्री कृष्ण के समझाने पर वे वापस गयीं और नदी से कहा कि, परम्परा के विरुद्ध है उनका वध होना ही चाहिए। आप उन्हें "हमें ब्रह्मचारी श्री कृष्ण ने भेजा है कृपा करके ऋषि पूजा करने मारे या न मारें वे मर चुके हैं क्योंकि उन्होंने इतने अधिक के लिए हमें मार्ग दे दीजिए"। सत्य को सुनकर नदी का जल स्तर अपराध किए हैं। वे पहले ही मर चुके हैं। अतः आपको यह नहीं एकदम घट गया और वे उस सन्त के पास पहुंच गयीं। सन्त को सोंचना चाहिए कि आप उन्हें मार रहे हैं। परमात्मा ही उन्हें मार भोजन आदि, खिलाकर जब वे पुनः नदी पर आयीं। तो नदी को रहा हैं। इस प्रकार युद्ध शुरू हुआ। गीता में भी उन्होंने जो कुछ बाढ़ ग्रस्त पाया। बहुत चिन्तित होकर वे उस सन्त के पास कहा उसे लोग समझ नहीं पाये। उनकी नि्लिप्सा को आप इसी पहुंचीं और उनसे सारी बात बताई। सन्त ने उनसे कहा कि नदी बात से समझ सकते हैं युद्ध भूमि में भी वे दर्शन शास्त्र पढ़ा रहे को जाकर बताएं कि सन्त ने व्रत रखा हुआ था और उन्होंने कुछ थे पहली बात जो उन्होंने अर्जुन से कही वो यह थी कि ज्ञान को नहीं खाया। वे बहुत हैरान हुई क्यों कि सन्त ने पेट्ओं कि तरह से प्राप्त कर लो। ज्ञान अर्थात् बोध जो कि आत्म साक्षात्कार से ही खाया था। फिर भी वह उनसे ऐसा कहने को कह रहा था। पर वे प्राप्त हो सकता है। परन्तु लोग इस बात को नहीं समझते, वे नदी पर गयीं और सन्त के अदेशानुसार नदी से कहा। नदी का समझते हैं कि पूस्तकें पढ़ने से, गीता उच्चारण से या भाषण जल स्तर एक दम नीचे आ गया। वे बहुत हैरान हुई पर नदी पार सुनने से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। हमारे देश में बहुत से कर ली। चाहे श्री कृष्ण अर्जुन के साथ युद्ध में गये फिर भी जीवन नहीं उठाएंगे, युद्ध नहीं करेगें। अर्जुन से उन्होंने कहा कि यदि 1. लोग श्री कृष्ण पर भाषण देते हैं परन्तु अपने जीवन में वे बड़े अब ये लोग जो इस ऊँचाई तक पहुंच चके हैं वे खा कर भी भयानक व्यक्ति हैं। नहीं खाते। विवाहित होते हुए भी ब्रहमचारी है। जिस भी कार्य को वे करते रहें वे पर्णतः नि्लिप्त रहते हैं। मैं नहीं कहे सकता कि बताते. वे स्पष्ट वादी थे और स्पष्ट रूप में अर्जुन को बताया किस प्रकार के निर्लिप्त रहते हैं । परन्तु ध्यान धारणा से कुण्डलिनी कि तम्हें "स्थित प्रज्ञ" बनना होगा अर्थात् सहजयोगी बनना के कार्यान्वित तथा स्थापित होने से ऐसा हो सकेगा आप आश्चर्य चकित रह जाएंगे, कि आप किस प्रकार निर्लिप्त हो जाते हैं और बिना किए किस प्रकार सब कार्यों को कर लेते हैं। बिना किसी थकान के आप बहुत से कार्य कर सकते हैं। हमें यह यह "कर्म" क्यों करवाना चाहते हैं। इस बात को भी लोगों ने अवस्था प्राप्त करनी है। यह जानने के लिए कि आप उस स्तर बहुत गलत समझा है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के बाद ही तक पहुंचे या नहीं आपको ध्यान रखना होगा कि कितनी बार आप इसे समझ सकते हैं और "कर्म" कर सकते हैं। उन्होंने आपने, "मैं" या "मेरा" शब्द प्रयोग किए हैं, "मेने यह कार्य स्पष्ट कहा कि जो भी कार्य आपको करना है उसे करें और मेरे किया", "मेने वह कार्य किया या "यह मेरा बच्चा है", "यह चरण कमलों में समर्पित कर दें। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है। श्री कुष्ण कोई व्यापारी न थे जो धीरे-धीरे सारी बाते होगा। तब अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा कि वह उसे युद्ध में भेज कर, चैतन्य लहरी 22 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-23.txt जब तक आप यह समझते हैं कि आप कोई कार्य कर रहे हैं तब जैसे यदि यह माइक्रोफोन अपने ऊर्जा स्रोत से न जुड़ा हो तो यह तक आपके अन्दर अहम या "मैं" बने हुए है। आप कह सकते हैं कार्य न करेगा। भक्ति के विषय में भी ऐसा ही है। श्री कि आप इसे परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित कर रहे हैं, क्योंकि एक अवतरण थे तो कुछ नियमों का भी पालन करना परन्तु आप वास्तव में ऐसा नहीं करते। जब अर्जुन ने यह प्रश्न होगा एक मुख्य मंत्री को भी यदि आपने मिलना हो और आप पूछा तो श्री कृष्ण को महसूस हुआ कि मानव स्वभाव इतना उसका नाम पुकारते चले जाएं तो आपको बंदी बना लिया सरल नहीं है, इसलिए अत्यन्त युक्तिपूर्वक उन्होंने अर्जन को जाएगा। श्री कृष्ण तो सर्वशक्तिमान परमात्मा है। उनका नाम बताया कि अपने सभी करमों को परमात्मा के चरण कमलों में हम घटिया ढंग से लगातार नहीं जप सकते। इसी के कारण लोगों समर्पित कर दें। यद्यपि वे जानते थे कि मानव ऐसा न करेगें। ने अपनी कृण्डलियां खराब कर ली है और विशु्द्धि की समस्याएं मानव ने युग-युगान्तरों में ऐसा करने का प्रयत्न किया परन्तु उन्हें हो गयी है। अनाधिकार भक्ति के कारण उन्हें अपने हाथों पर सफल न हो पाए, क्योंकि जो भी कार्य हम करते हैं उसके लिए कुछ महसूस नहीं होता। स्वयं को उत्तरदायी मानते हैं। इसलिए हम अपने कमर्मों को परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित नहीं कर पाते। ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कत्ल करके यह कह दिया कि हमने इसे परमात्मा सन्दर हैं कि वे अबोधिता एवं सम्मान भावों की सृष्ष्टि करते हैं। के चरण कमलों में अर्पित कर दिया है। इस प्रकार कि भरन्ति ने इस देश के लोगों को देवी के नाम पर यात्रियों की हत्या जैसे कार्य करने कि प्रेरणा दी। परन्तु श्री कृष्ण ने जो कहा वह कर सकना प्रेम स्नेह एवं सरक्षा कि भावना। परन्तु पश्चिम में मेने देखा है आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति के बाद ही सभव है। जब आप वास्तव कि बच्चों के प्रति आक्रमक भाव होते हैं। मैं इसे समझ नहीं में महसूस करते है कि आप कत्ता नहीं है तभी यह कार्यान्वित पाती। वासल्य के स्थान पर उनके क्रूर भाव हैं। मैं नहीं जानती होता है। किसी सहजयोगी से जब हम आत्मसाक्षात्कार दने के कि वे भत बाधित है या उनके पूर्व जन्मों के संस्कार ऐसे हैं। लिए कहते है तो वह कहता है, "यह कार्य नहीं कर रही" "यह नहीं जा रही" आदि-आदि। "तृतीय पुरूष" में वह बात करता है, वह तृतीय पुरूष बन जाता है, स्वयं को कता नहीं समझता होता है। अतः श्री कृष्ण का शिशुसम आचरण, आपको बच्चों अपने हाथों से वह कृण्डलिनी, उठा रहा होता है परन्तु उसे यह के प्रति प्रेम स्नेह तथा सरक्षा भावना से ओत प्रोत कर देता है। कृष्ण श्री कृष्ण को समझने के लिए आपको सूक्ष्म होना होगा उनकी शरारतें, चुहलें, शिशुसम आचरण इतने मधुर एवं कोई भारतीय जब किसी बच्चे को देखता है तो उसमें भाव जागृत हो जाता है। बच्चे के प्रति अत्यन्त वातसल्य परन्तु जिस प्रकार छोटे-छोटे बच्चों की अबोधिता पर वे आक्रमण करते हैं वह मानव के लिए कर पाना असंभव सा प्रतीत नहीं लगता कि वह इस कार्य को कर रहा है। वह कहता है कि यह चक्र ठीक नहीं है, यहां रूकावट है आदि। इस प्रकार यह "कर्म","अकर्म" बन जाता है। सभी कुछ करते हुए भी आपको थी। श्री विष्णु माया का जन्म द्रौपदी रूप में हुआ था। उनकी मां लगता है कि आप कुछ नहीं कर रहे। श्री कृष्ण को लगा कि लोग यशोदा "मेरी माँ" थी, जिन्होंने श्री गणेश को शिश के रूप में आत्मसाक्षात्कार को तो प्राप्त नहीं करेंगे। इसलिए यह बन्धन जन्म दिया और राधा जी महालक्ष्मी थीं। इस विचित्र गर्भघारण लगा देना ही ठीक है कि सारे कमर्मों को परमात्मा के चरणकमलों पर भारतीय सन्देह नहीं करते परन्तु अन्य लोगों के लिए इस पर में समर्पित कर दो। तब अर्जुन ने भक्ति के विषय में पूछा और विश्वास कर पाना कठिन कार्य है। लोग इस पर बहस करते हैं। बड़ी चतुरता ने उत्तर दिया आप लोग यह भारतीयों के लिए इस पर विश्वास कर लेना अत्यन्त सुगम है समझ लें कि मैं श्री कृष्ण कि तरह चतुर नहीं हूँ। सभी बातें मैं क्योंकि श्री गणेश को भी इसी प्रकार बनाया गया था। "राधा स्पष्ट रूप से करती हैं। श्री कृष्ण जानते थे कि मानव बहुत ही मेरी माँ" थीं और यदि आप देवी महात्मय को पढ़े तो आप हैरान चतुर है और सरल ढंग से बताई गयी बात पर उसे विश्वास नहीं होंगे कि उसमें स्पष्ट बताया गया है कि ईसा कौन थे और हो सकता। अतः उन्होंने कहा कि जो भी जल, फूल, फल आप वे ही आश्रय है अर्थात् मूलाधार हैं। उन्हें महाविष्णु कहा मुझे अर्पण करेंगें मैं उसे स्वीकार करूंगा। परन्तु आपको अनन्य गया है वे ही पूरे ब्रहमाण्ड को आश्रय देते हैं। ये सभी लोग भक्ति करनी होगी। अनन्य जिसमें आपके और मेरे सिवाय परस्पर सम्बन्धित थे, परन्त वास्वविकता के ज्ञान की कमी में दूसरा कोई न हो। अर्थात् मेरे से सम्बन्ध स्थापित करने के हम मुर्खता पूर्वक इन्हें लेकर झगड़ते रहते हैं। राधा जी उन्हें उपरान्त ही आप भक्ति कर सकते हैं। परन्तु लोग या तो इस यशोदा का नाम देना चाहती थी। अत: उन्हें "येश" कहा जाता अनज्य को समझते नहीं या समझना नहीं चाहते। इसका अर्थ है है उत्तरी भारत में 'यशोदा" को "जसोदा" कहते है। इस कि आप एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति हैं। श्री कृष्ण ने कहा कि प्रकार वे जीसस कहलाएं। मैं जो कह रही हूं उसे आप अपनी इसी भक्ति को मैं स्वीकार करूगा। अंतः व्यक्ति को परमात्मा से चैतन्य लहरियों पर परख सकते हैं। ये सब एक दसरे से जुड़ना होगा। अन्यथा यह बहुत सी समस्याओं में फंस जाएगा। सम्बन्धित थे तथा दैवी लोग थे। हम न तो उन्हें समझ सकते हैं, द्रौपदी भी उनकी बहन श्री कृष्ण पाडवों से सम्बन्धित थे पर्वक श्री कृष्ण श्री कृष्ण पूजा 23 1994_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-24.txt न उनका विश्लेषण कर सकते हैं और न ही टीका-टिपण्णी। ऐसा करना मानव अहंकार का द्ययोतक है क्योंकि अपने सीमित ज्ञान से मानव परमात्मा की बात करना चाहता है। मानव बुद्धि से तथा मस्तिष्क से यह परे की बात है। तो केवल जो कार्य हम कर सकते हैं वह हैं विनम्र तथा समर्पित होना। इसी प्रकार "इस्लाम" आया इसका अर्थ है "समर्पण"। परन्तु अपने समर्पण को वे स्वयं ही जानते हैं। ईसाई कहां ईसा की बात को मान रहे हैं और हिन्दू कहां मानते है कि सब के हृदय में आत्मा का निवास है? सभी में आत्मा है तो कैसे आप जाति व्यवस्था बना सकते हैं। परमात्मा का अत्यन्त धन्यवाद है कि विश्व में बहुत से लोग सहजयोगी बन गये हैं। अपने दैवी जीवन में हमने ये बनावटी सीमाएं पार कर ली हैं। परमात्मा किस प्रकार लोगों को ऊँच-नीच में बाँट सकते हैं? एक मात्र कार्य जो आपने करना हैं वह है इस अवस्था को प्राप्त करना जिसमें आप पुरे विश्व को एक दैवी नाटक के रूप में देख सकें, जैसे श्री कृष्ण ने कहा है कि "आप साक्षी हैं"। दृष्टिकोण है जिसकी सीमाएं है। कुछ समय पश्चात् इसका पतन हो जाता है क्योंकि इसमें सत्य की शक्ति का अभाव है। इसी कारण हम कला में, संगीत में तथा अन्य सभी क्षेत्रों में पतन होता हुआ देखते हैं। अब आप सब लोगों ने सत्य को प्राप्त कर लिया है अतः कृपया समझने का प्रयत्न करे कि सत्य शाश्वत है और सत्य ही प्रेम है। सत्य दैवी प्रेम हैं, जिसके कोई परिणाम नहीं होते। यह किसी चीज का न तो दावा करता है न ही इच्छा। यह मात्र प्रेम करना चाहता है और जब आप प्रेम की इस सर्वव्यापक शक्ति को दयामय होते देखते है तो सब के साथ कोई न कोई चमत्कार घटित होता है। मेरे भिन्न प्रकार के चित्र दिखाने जैसी बहुत सी दिलचस्प घटनाएं घटित करके देवी प्रेम की यह सर्वव्यापक शक्ति आपको विश्वस्त चाहती है। इस बार के नवरात्रि में जो चित्र मैंने देखा वह सर्वोत्तम था और उसकी पूष्ठभूमि (बैक ग्राउंड) बिल्कुल भिन्न प्रकार कि दिखाई दी। कोई गोल सी वस्तु और एक पर्दा था जिसके पीछे से सुर्य के समान झांकती हुई कोई चीज थी। यहां से जब मैं रूस गयी तो वहा मच पर मैने अपने पीछे यही दृश्य देखा। तो वहां पर प्रकट हीने से पूर्व दैवी शक्ति के आश्रय से इसे नवरात्रि में देख लिया गया। मास्को में मेरे पीछे के इस दृष्य को सब लोगों ने देखा। मुझे आपको श्री कृष्ण की एक कहानी सुनानी है क्योंकि यमना नदी, श्री कृष्ण के कार्यों की याद मुझे दिला रही है। कल आप लोगों को नाचते हुए और आनन्द लेते अच्छा लगा क्योंकि इससे पूर्व जिन लोगों ने इस प्रकार के नत्य किये वे सन्त नहीं थे। वे साधारण लोग थे जिनके साथ श्री कृष्ण ने 'रास करनी चाही। 'रा' अर्थात् शक्ति और 'स' अर्थात् संचार देखकर मुझे बहुत हुए अतः यह सर्वव्यापक शक्ति इस प्रकार सभी प्रकार के खेल करती है। मेरी अनुपस्थिति में भी ऐसा प्रतीत होता है कि मैं उपस्थित हूँ। यह बहुत से तरीको से कार्य करती है। और व्यक्ति को । समझना पड़ता है कि जिस घटना को हम चमत्कार मान रहे हैं। वास्तव में वह परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति का खेल होता है। इस प्रकार राधा जी की शक्ति से उन सब को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ। आजकल सभी धर्मों ने अपना आकार और अर्थ खो दिया है और वे भ्रष्ट हो गये हैं। इसका कारण ये है कि यह मानसिक परमात्मा आपको धन्य करे चैतन्य लहरी 24