य১১১ ২১২১১২১১১১১২১২২১২ चैतन्य लहरी ीं हिन्दी आवृत्ति ख ।।। आक 5 य 6 सभी सहजयोगियों को कला का ज्ञान होना चाहिये तथा उन्हें चाहिये कि विशेषकर हस्तकला रचित को प्रोत्साहन दे इस प्रकार पर्यावरण सम्बन्धी समस्या का स्वतः ही समाधान हो जायेगा। परम पूज्य माताजी श्री निर्मता देवी ৭ ६ ৭ p৭১६? ॐ प चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी खण्ड VII, अंक 5 व 6 -: विषय-सूची :- तकी जन्म दिवस पूजा, दिल्ली 20-03-95 1 1. श्री योगेश्वर पूजा - न्यू जर्सी 2-10-1994 6. 2. श्री मन्त सी०पी० श्रीवास्तव की 3. पुस्तक विमोचन के अवसर पर 3-12-1994 15 श्री योगी महाजन सम्पादक श्री विजयनालगिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली 110067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 35, ओल्ड राजेन्द्र नगर मार्कट, नई दिल्ली- 110 060 फोन : 5710529, 5784866 मुद्रित चतन्य लहरी जन्म दिवस पूजा, नई दिल्ली 20-03-95 का प्रवचन परमपूज्य श्री माता जी निर्मला देवी पर उसमें भी खुले आम कोई गलत काम करने की हिम्मत नहीं क्योंकि समाज इतना जबरदस्त हैं कि उसे खींच लेंगा। इसलिए जो बात में आज आपको बताने वाली हूं वो ये है कि एक अपने देश की संस्कृति इतनी ऊंची जो अब भी मानी जाती है और अब भी अपने यहां लोग नैतिकता का स्तर मानते हैं। ऐसे देश में विचार करना चाहिए कि यहां किसने इतना अधिक कार्य किया। ये कार्य स्त्रियों ने किया। भारतीय स्त्री की शक्ति ने और इस शक्ति के सहारे उसने अपने बाल-बच्चे, अड़ोस-पड़ांस और सारे समाज की भी धर्म पर स्थापना की । हालांकि अब विदेशीं संस्कृति का असर आ रहा है और उसे हो सकता है कि हम लोग भी थोड़े बहुत प्लावित हो सकते हैं। पर अतिशयता में जाना बड़ी कठिन बात है क्योंकि हम लोग जकड़े हुए हैं अपने देश की परम्पराओं में। अपना देश इतना सौभाग्यशाली है कि यहां पर एक से एक महात्मा हो गए इतने सन्त हो गए, इतने यहाँ पर अवतरण हुए, हिन्दू धर्म में ही नहीं मुसलमानों में भी और आप जानते हैं सिखों में बड़े-बड़े धर्मात्मा इस देश में आए। इस देश की जो विशेषता है कि इस भूमि में ही जैसे आध्यात्म फंसा हुआ है। न जाने कैसे लोग अध्यात्म की ओर चलते हैं और मानते हैं! अपने ही जन्मदिन में क्या कहा जाए? जो उम्मीद नहीं थी वो घटित हो गया है आप इतने लोग आज सहजयोग में दिल्ली में बैठे हुए है, इससे बढ़कर एक माँ के लिए और कौन सा जन्म दिन हो सकता है? आप लोगों ने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है, ये भी आप का जन्मदिन है। एक महान कार्य के लिए आप लोग तैयार हुए हैं। ये महान कार्य आज तक हुआ नहीं। उसके आप संचालक हैं। इससे बढ़कर और मरे लिए क्या सुख का साधन हो सकता है? कभी सोचा भी नहीं था कि अपने जीवन में ही इतने आत्मसाक्षात्कारी जीवों के दर्शन हांगे और इतना अगम्य आनन्द उठाने को मिलेंगा। एक वातावरण की विशेषता कहिए जिसमें कि आज मनुष्य एक भ्राति में घूम रहा है। एक तरफ विदेश की तरफ नजर करने पर ये समझ में आता है कि ये लोग एकदम ही भटक गए हैं। वहाँ पर नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रहा । अनीति के ही रास्ते पर चलना, अग्रसर होना वो बड़ी बहादुरी की हा। चीज समझते हैं और सीधे नरक की ओर उनकी गति है। ािन इस गतिमान प्रवृत्ति को रोकना बड़ा ही कठिन काम है, लेकिन वहाँ भी ऐसे अनेक हीरे थे जिन्होंने सोचा कि बाहर आएँ। सहजयोग की प्रणाली में हम लोग संतुलन में खड़े हैं। मतलब भारतीय संस्कृति में जो गंदगियां हैं उसे तो बिल्कुल निकाल ही देना पड़ेगा और निकल जाती हैं। सहजयोग में आने के बाद बहुत से लोग इस चीज़ को छोड़ देते हैं। लेकिन अब भी मैं देखती हूं कि कुछ न कुछ चीज़ों से बंधे हुए सहजयोगी हैं और इसका कारण है कि इतने दिनों से जो चीजें चली आई हैं और मान्यता रही उसके प्रति एकदम उदासीन हो जाना उन्हें कठिन लगता है। दूसरी तरफ देखने पर हमें पता चलता है कि मनुष्य के लिए बुरी तरह से कठिन परिस्थितियाँ बनाई गई हैं कि आप अपने जीवन को एक कठिन बंधन में बाँध ले कि हम धार्मिक हैं और अगर आप धर्म नहीं करेंगे तो आपके हाथ काट देंगे, आपकी आँख निकाल देंगे, आपको जमीन में गाड़ देंगे। ये अतिशयता हो गई और इसके साथ-साथ दूसरी तरफ जैसे मैंने बताया बहकाव की भी अतिशयता है। दोनों तरफ अतिशयता है। आपको समाधान करना चाहिए कि आप इस भारतवर्ष में उत्पन्न हुए, इसकी संस्कृति जो है वो संतुलित है। हमें इतना बताया नहीं गया है धर्म के बारे में। किसी ने खास चर्चा भी नहीं करी। लेकिन अधिकत्तर हिन्दुस्तानी अधर्म में नहीं उतरते। ये दूसरी बात है उसके पास अगर पैसा आ विशेषकर अब हम लोग उत्तर हिन्दुस्तान में बैठे हुए हैं। मैं देखती हूं उत्तर हिन्दुस्तान में या तो मुसलमानों के परिणामस्वरूप हो, चाहे जैसा भी हो औरतों की दशा बहुत खराब है। औरतों को बहुत छला जाता है, सताया जाता है। शक्तिस्वरूप औरत का कोई मान नहीं है। कहा जाता हैं यत्र नार्या: पूज्यंते, तत्र रमन्ते देवता। कहा जाता है जहां स्त्री पूज्यनीय हो और उसकी पुजा की जाती हो वहीं देवता रमण करते जाए बहुत, उसका दिमाग खराब हो जाए या वो राजकारण में चला जाए या और कोई इसी तरह की चीज को प्राप्त कर ले तो हो सकता है कि उसको ये बहकावा मिल जाए। गाट पहले तो स्त्री भी पुरुष का मान रखें और पुरुष भी स्त्री का मान रखे। मैं देखती हूं कि सहजयोग में अब बहुत कुछ ठीक हो गया लेंकिन हम लोग जब शादियां करते हैं. सहजयांग में, तो जिन लड़कियों की शादियां इंग्लैंड-अमेरिका में हुई उनका दिमाग खराब हो जाती है, सबका नहीं, और उल्टी बात ये है कि जिन लड़कियों की शादियां हिन्दुस्तान में होती है वा तो कहती हैं कि भगवान बचाए रखें बाबा! है। इसका मतलब यह नहीं कि औरतों का ही राज हो या वो किसी तरह से आततायी हों। इसका मतलब यह है कि स्त्री पहले पूजनीय होनी चाहिए, उसके अन्दर पूजनीय गुण होने चाहिए। वो अगर पति का अपमान करती है और अपने बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देती और भी गलत-सलत काम करती हो तो वा स्त्री तो पूजनीय हो नहीं सकती और वही स्त्री पूजनीय होती है जो अत्यन्त प्रेममयी हो। जिस औरत में प्रेम का सागर बसा हो, लोग उसी को पूजते हैं, और जो नहीं है उसके सामने तो चाहे न कहें कोई कुछ, पर पीठ पीछे उसकी बुराई करते हैं । सांस, संसुर, ये वो, मार झंझट। सब लोग तो मारने को दौड़ते हैं। कहने का मतलब ये कि संतुलन न तो वहाँ है न यहाँ। ये संतुलन स्थापित करने के लिए सहजयोगियों को समझ लेना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं कि कांई पति को अपने सिर पर बैठा ले, या काई पत्नी को सिर पर बैठा ले। हमारे यहां स्त्री को शक्ति माना जाता है, पर शक्ति हे जैसे ये आप इतने यहां पर विजली का प्रदर्शन देख रहे हैं ये स्वयं शक्ति नहीं, शक्ति तो कहीं और से आ रही है और इसका यहां प्रदर्शन मात्र है। तो इसी तरह स्त्री एक शक्ति स्वरूप होती है, पर इसका प्रादुर्भाव जो है वो बाह्य में पुरुष के रूप में होता है। उसके बच्चे, उसकी रिश्तेदारी के लोग, उसके पति, उसके ससुर, ये सब पुरुष उस स्त्री की शक्ति से प्लावित होते हैं और उस प्रेम की शक्ति से प्लावित होने के बाद उनमें भी एक तरह का बड़ा अनूठा इसका मतलब है कि प्रत्यक का एक मूल्यांकन होना चाहिए। सबको Valuation करने के बाद आप समझ सकते हैं कि कहाँ तक आप संतुलन में है। आप दूसरों की बात मत सोंचिए, अपनी बात सोचिए। जहाँ आपको जो कहना है वो कहना ही होगा और जो कुंछ आपको सुनना है वो सुनना ही होगा। मैं देखती हूँ कि सहज योग में हमने पहले शुरुआत सा संतुलन बन जाता है। पर जहां पर ये स्थिति नहीं होती जहां पर घर की माँ और घर की र्त्री और रिश्तेदार इन औरतों में उस प्रेम का प्रदर्शन नहीं होता है, उल्टे क्रोध आदि षडरिपुओं से अगर वो भरी रहती हैं तो ऐसे घरों में कभी भी प्रेम या आनन्द आ ही नहीं सकता। ये स्त्री का ही एक बड़ा भारी कार्य है। उसमें हम दबे जा रहे हैं। ये क्या शक्ति है जो सोचती है कि मैं दबे जा रहीं हूँ। वो तो ये सोचती है, कि ये प्रकाश देना मेरा कर्त्तव्य है और उसे मैं कर रही खुशी-खुशी सारा काम करती है। इस समझ का आना जरूरी है हांलाकि औरतों को इतना दबाया गया है, इस समझे के कारण इतनी उनकी अवहेलना करी है । एक दूसरी चीज खड़ी हो रही है जो कहती है समाज में कि ये औरतो पर दबाव हम चलने नहीं देंगे। हम पुरुषों को ठिकाने लगा देंगे। उनसे हम हर चीज़ में लड़ेंगे। उनको हम बिल्कुल बेकार कर देंगे। ये सब करके देख लिया और देशों में। जहाँ-जहाँ ये हो रहा है वहां के बच्चों का हाल देख लीजिए और वहां की सब चीजों का हाल देख लीजिए। अब समझें इसमें क्या है कि मनुष्यों में ये समझ आनी चाहिए। मनुष्य में ये समझ सिर्फ स्त्रियों में ही नहीं पुरुषों में भी आनी चाहिए। ये पुरुषों को सोच लेना चाहिए कि हमारी स्त्री जो है ये स्वयं साक्षात् कुटुम्ब से की। कुटुम्ब व्यवस्था से सहजयांग का धीरें धीरे बाँधा हैं और जब कुटुम्ब ठीक हो गए फिर उसके बाद हमने एक-एक चीज पर कदम रखा है। आज आपको पता है कि ये पच्चीसवां सहस्त्रार इस बार मनाया जाएगा। 25 साल हा गए जब सहस्त्रार खुला था, तब से लोगो ने इस चीज को प्राप्त किया और प्राप्त करके इससे बड़े प्लावित हुए, पुष्ट (nourish) हुए। आज इस स्थिति में आ गए। अब हमारे लिए आगे क्या कर्तव्य है? कुटुम्ब से शुरुआत करें ता कुटुम्ब में हमे शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। पहली चीज है शांति। जहाँ शांति नहीं होगी कोई चोज वहाँ पनप नहीं सकती। समझ लीजिए यहाँ गमले रखे हैं और ये सब हिलने लग जाएं, ता ये बढ़ेंगे? खत्म हो जाएगे। तो सबसे पहली चीज हमे शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। इसमें आदमी को भी मान देना चाहिए और औरतों को भी समझ रखनी चाहिए। दोनो जगह ये चीज रखने से पहले घर में शांति होने से अपने बच्चे जो है वो सुरक्षित रहें और उनके अंदर अपने प्रति, स्वंय के प्रति एक जागरुकता आएगी और वे समझ लेंगे कि वो भी सहजयोगी हैं और माँ-बाप भी सहजयोगी हैं। उनका परमकर्त्तव्य होता है कि वे अपने माँ-बाप का नाम और भी उज्जवलित करें। लक्ष्मी स्वरूप है और इसका मान हमें रखना चाहिए। धैतन्य लहरी 2. हिन्दी भाषा आनी चाहिए सहजयोग में। मैं चौदह आपकी Official मान्याता प्राप्त भाषाओं में कैसे बोल सकती हूँ और आप से वार्तालाप कर सकती हूँ। तो जो भाषा माँ को आती है, हिन्दी मेरे समझ में आती है। हिन्दी मैने कभी पढ़ी नहीं, कभी हिन्दी मैने सीखी नहीं, पर हिन्छी भाषा का हमेशा मुझे बड़ा मान रहा और इसलिए हिन्दी भाषा मुझे आती है। इसलिए आप लोग सब अगर हिन्दी भाषा सोख लें तो सहजयोग पर बड़ी मेहरबानी हो जाएगी और इससे आप लोगों का भी बड़ा लाभ हो जाएगा। बहुत से लोग हिन्दी सीख गए। मेरे टेप सुनकर बाहर परदेस के लोग जो हैं वो बड़े जोर से चिपक जाते हैं किसी चीज़ पर। वो लोग हिन्दी बोलने लग गए और हमारे यहाँ अब भी बहुत से लोग हैं जो ये कहते हैं कि माँ हिन्दी में भाषण मत दो। आपको चाहिए तो तमिल में दो या तेलुगु में दो। मुझे नहीं आतीं, न तमिल न तेलुगु। मैं क्या करू, इसलिए ये जो भी हमारे अन्दर भेद हैं इनको बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए। जातीयता के भेद तो हैं ही हमारे अन्दर बसे हुए। एक साहब मुझे कहने लगे हाँगकाँग में कि हिन्दुस्तान में जातीयता बहुत है अब भी अब भी सहजयोगियों में जातीयता है। वो ब्राह्मण हैं साहब। मैंने कहा अच्छा बताइये कि क्या आप किसी हरिजन से शादी करेंगे। घबरा गये हरिजन से ! अरे भई हरि क जन हैं उनसे शादी करने में क्या? हरिजन से नहीं कर सकते। तो पहले बाकी सब लोगों में हो लें। लेकिन परदेश में ये झगड़ा ही नहीं। कितनी हरिजन लड़कियों की शादियाँ मैने बाहर करवा दीं और लड़कों की भी उनको पता ही नहीं जाति-पाति करके कोई चीज़ भी होती है, कोई हरिजन होता है। इस प्रकार हमारे अंदर इतनी भिन्नता का स्वभाव है हम भिन्न हैं, वो भिन्न हैं। अब भिन्नता भी आवश्यक चीज़ है। परमात्मा ने हरेक को भिन्न-भिन्न बनाया हरेक की शक्ल अगर एक बनाते तो कोई भी किसी को पहचान नहीं पाता| जैसे कोई आपने फौज खड़ी कर दी, ऐसे सबकी शक्ल हो जाती। तो भगवान ने ऐसी सृष्टि की कि एक पत्ता दूसरे से नहीं मिलता। ऐसे पत्ता बनाया है कि ये पत्ता कहीं आप दुनिया में जाकर ढूंढे तो बिल्कुल ऐसा नहीं हो सकता बताइये! ये उसकी कमाल हैं! पर गर ये सोचने लग जाए कि भिन्नता ही हमारी विशेषता है तो फिर आप पत्ते के ही स्तर पर हैं उससे आप उठे ही नहीं। उससे उठकर देखिये तो आप समझ जायेंगे कि आप जो हैं वो एक विशेष व्यक्ति, योगीजन, जिनकी कि जात-पात कुछ भी नहीं। शास्त्रों में लिखा है कि संन्यासी की जात-पात कुछ भी नहीं। सन्यासी हो गये! अब अब मैं देखती हूं कि सहजयोग बढ़ते-बढ़ते एक समाज में तो आ ही गया है किंतु और भी क्षेत्रों में बढ़ रहा है। मानों अब हम लोग जैसे कोई मद्रास से आया है, कोई महाराष्ट्र से आया है, कोई कहीं से आए हैं, तो इस तरह से विचार करते हुए सहजयोग बढ़ रहा है। अब इसमें भी इसी तरह का होता है जैसे दिल्ली वाले आए तो उन्होंने कहा माँ आपका जन्मदिन दिल्ली में होना चाहिए। अच्छा भाई कर देंगे। वो तो मानना ही पड़ेगा, दिल्ली वालो को कौन मना कर सकता है? यहाँ पर जन्मदिन न हो। बाप रे बाप! हो गया फिर मेरा! तो मैने कहा भाई शांतिपूर्वक यह चीज़ ठीक है, दिल्ली में ही करो वो अच्छा रहेगा, और व्यवस्था भी यहाँ अच्छी होती है। सब लोगो का इन्तज़ाम भी अच्छा होता है। सब दृष्टि से मैने कहा ठीक है। लेकिन उसमें हम दिल्ली वाले हैं बम्बई वाले हैं ऐसा लेकर लोग झगड़ा शुरू कर देते हैं। अब यह तो बड़ी ही संकुचित प्रवृत्ति है। मतलब जो सहजयोग का सामूहिक स्वरूप है उसे समझने में हमनें गलती की| सामूहिकता में अगर आप नहीं उतरेगें तो आपका जो संतुलन है वो डॉँवाडोल हो जाएगा। अगर हम कहें कि इस बार बम्बई में ही हो जाए जन्मदिन। क्या है कहीं भी हो जाए, जन्मदिन तो होगा हो । हमारी तो उम्र बढ़ने ही. वाली है। आप चाहे कहीं भी करिए। लेकिन इसमें भी उलझन हो जाएगी। भई इस बार माँ ने ऐसा क्यों किया। या तो लोग कहेंगे कि हमसे कोई गलती हो गई और ये कहेगें कि माँ आपने ऐसा क्यों किया है, दिल्ली वालों के यहाँ इतनी बार किया था इस बार क्यों नहीं कर रहे दिल्ली वालो के यहाँ। तो ये जो हमारा तदात्मय गलत चीज़ों से है कि हम यहाँ के रहने वाले है, हम वहाँ के रहने वाले है। पहले तो यहाँ तक होता था कि एक गली में रहने वालों में भी झगड़ा होता था, अब वो खत्म हो गया है। फिर अलग-अलग मोहल्लों में रहने वालों में भी झगड़ा होता था और हरेक मोहल्ले में रहने वालो में बड़ा झगड़ा होता था और हरेक मोहल्लों के लोग अलग-अलग बैठकर, मैं देखा करती थी। अरे बाप रे, अभी भी चल ही रहा है मामला। फिर वे मोहल्ले छूटे, हर जगह। अब भाषा पर भी थोड़ा बहुत आ गए। भाषा पर भी ये वो भाषा बोलता है, वो दूसरी भाषा बोलता है। जाये, फिर धीरे धीरे हरिजन को भी मान सबसे अच्छी बात यह है कि हमारे देश की जो भाषा है वह सीख लेनी चाहिए। चाहे आप हिन्दू हों, मुसलमान हों, मराठी हों चाहे अंग्रेज़ हों, चाहे कुछ हों, पहले आपको खिंचाव। और चौथी उसकी चिट्ठी आई कि माँ बड़े आश्चर्य की बात है मेरे लड़के को मैं अस्पताल ले गई थी। तो उन्होंने कहा कि इसके सब ठीक है, बिल्कुल स्वस्थ है पर हिन्दुस्तानियों का ऐसा नहीं। एक बार माँ से हमें मिला दो, अगर माँ मेरे बच्चे को ठीक करेंगी तो वो ठीक होगा। माँ की खोपड़ी पर लादे बगैर वो सोचते ही नहीं कि उनका बच्चा ठीक हो सकता है। कितना बड़ा फर्क है वो मैक्सिको में बैठी हुई, मैं उसका क्या इलाज कर सकती हूँ। मै बस आपको प्रार्थना कर रही हूँ आपके पास चिट्ठी भेज रही हैं। ये उसको विमारी है बस। अब ये श्रद्धा की जो बात है। प्रेम जब श्रद्धामय हो जाता क्या रह गया? अंदर से छूट गये सा सन्यासी। तो आपकी जात-पात कैसे रह गई? इसका बड़ा विरोध करना चाहिए। जात-पात का बड़ा विरोध करना चाहिए और सिर्फ गुण ग्राह्यता होनी चाहिए। किसमें क्या गुण हैं, उसको पाना चाहिए। और उसको समंझना चाहिए। इस एक मर्यादा से जब हम गुजर जाते हैं तब फिर देश-विदेश से हमारा संबंध आता है। अब मैं आपसे क्या बताऊँ कि परदेश में मैंने जो लोग देखे हैं उनमें बहुत ज्यादा यांत्रिक लोग हैं। यंत्र में विश्वास रखते है और सांइस में विश्वास रखते हैं, पढ़े-लिखे हैं। लेकिन सहज में जब वे उंतरे, तो जैसे कोई प्रेम सागर में ही उतर गया हो। उसमें डुबकियोँ लगा रहे हैं। अब यहाँ पर आप देखिये कि पाँच सौ आदमी बाहर से आये हैं कितना नितांत प्यार है उनका मेरे साथ। क्योंकि वो कहते हैं कि माँ जब हम सोचते हैं कि माँ हमें आपसे प्यार है तो ऐसा लगता है कि चारों तरफ से हमें प्रेम व आनंद के सागर ने घेर है, श्रद्धामय से अंधश्रद्धा से नहीं। आपको अनुभव है मेरा, आप जानते है मुझे, कोई नई बात नहीं। वो अगर श्रद्धामय हो जाये तो कैसे काम बनते हैं। ये समझने वाली बात है। और अगर श्रद्धा सिर्फ यह है कि हम तो माँ को बहुत मानते हैं। ऐसे मानने वालें ईसा को मानने वाले बैठे है, मोहम्मद को मानने वाले बैठे हैं, उनको मानों। अरे भई तुम क्या हो? तुम्हारे अन्दर कौन सी विशेषता है। तुमने क्या प्राप्त किया है? इसे सोचना होगा। सो हमने ये देखा कि जो कुछ भी इन लोगों ने इतनी आसानी से प्राप्त किया उसकी वजह ये है कि एक दम प्रेम से शुष्क हो गए। इनके अंदर प्रेम इनको मिला ही नहीं और जैसे ही उनको प्यार मिला एकदम उसकी ओर पूरी तरह से आकर्षित हो गए। और उस प्रेम को पाने के लिए उनको दुनिया की कोई चीज नहीं चाहिए। कोई भी चीज़ नहीं । अब आते हैं गणपति पुले में हिन्दुस्तानियों की शिकायत बहुत मिलती है। खाना अच्छा नहीं। मद्रासी कहेगा कि मुझे खाना पसंद नहीं, तो लखनऊ वाले कहेंगे साहब क्या खाना बनाते हैं। सबके खाने का शौक, उनकी बीबियों ने ऐसे बिगाड़ रखें हैं कि उनको कोई खाना ही पसंद नहीं आता। अब इस हिन्दुस्तान में कौन सा एक खाना बताइये जिसको बनाने से लोग खुश हों। इनको ये पसंद नहीं तो उनको वो पसंद नहीं। पर ये, (बाहर के लोग) कभी नहीं कहेगें कि खाना अच्छा नहीं, हॉलाकि पहले खाना बहुत खराब होता था। अब जरा बहुत अच्छा हो गया। पर कभी इन लोगों ने ये नहीं कहा कि माँ खाना अच्छा नहीं। अब बाथरूम के लिए भी बड़ी अजीब सी बात है कि हिन्दुस्तानियों ने कहा कि माँ हमको ये भारतीय गुसल नहीं चाहिए। हमको पश्चिमी गुसल चाहिए और पश्चिम वालों ने कहा माँ हमको भारतीय गुसल चाहिए। बड़ी साफ चीज है। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। मैने कहा अच्छा ठीक है भारत के लोगों को विदेशियों की ओर रख दो और विदेशियों को भारतीयों के स्थान पर रख दो। काम लिया हो। कल देखिये उनको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था, कव्वाली पर आनंद की लहरियों से वो भरे हुए थे। उनसे सीखने की बात यह है कि बिल्कुल निर्वाज्य किसी भी तरह की आशा न रखते हुए वो प्रेम में उतरना चाहते हैं। और क्योंकि हम लोगों को भी प्रेम की इतनी महत्ता मालूम नहीं है अब भी हिन्दुस्तानियों की चिट्ठियों आयेंगी मेरा बाप बीमार है, मेरे बाप का ससुर बीमार हैं वगैरह वरगैरह। ला उसको आप दे दीजिये। उसको नौकरी दे दीजिये। मेरा दिवालिया हो गया। मेरा भाई जेल जा रहा है। सब यही बातें। यहाँ तक कि वो सोचते हैं कि एक तरह से मेरे ऊपर उनका अधिकार है क्योंकि मैं भी हिन्दुस्तान में पैदा हुई हूँ और आप लोग भी हिन्दुस्तान में पर ये एक बड़ी निम्न चीज है, इसको मांगने की जरूरत नहीं, अगर आप सहजयोगी हैं ये अपने आप घटित हो सकता है। ये विश्वास परदेसी लोगों का है। अब आपको मैं एक आश्चर्य की बात बताती हूँ। एक औरत संयुक्त राष्ट्र में काम करती थी। एक सहजयोगिनी है वो। अब Maxico में चली गई संयुक्त राष्ट्र में ही। उसका एक लड़का है, उसको ऐसी बीमारी हो गई कि वो बीमारी पुश्त दर पुश्त आती रहती है और इस लड़के पर बड़ी जल्दी आघात हुआ और एक महीने के अंदर वो बच्चा मरने वाला था। इस सहजयोगिनी ने मेरे पास तीन चिट्ठियाँ भेजीं। उसने उस पर नाम लिखकर भेजा कि ये बीमारी है, पता नहीं कौन सी अजीव-गरीब लम्बी-चौड़ी बीमारी उसको है और ऐसी तीन चिट्ठियां मेरे पास आईं । मुझे समझ नहीं आया कि उसके लिए क्या कहूँ। इन्सानियत की भाषा में तो कहा नहीं जाता। पर एक तरह से जैसे खिंचाव. न चैतन्य लहरी खत्म। पर हम लोग बड़ी मांगे करते हैं, ये चीज नहीं ठीक वो चीज नहीं ठीक। ये चीज ठीक कर, दो वो चीज ठीक कर दो। कितनों के घर में जुड़े हुए गुसल होंगे। लेकिन इससे हम लोग सोचते हैं कि हम बड़े ऊँचे हो गये इस तरह की मांग करने से और इन लोगों से पूछो तो कहते कि माँ शरीर का तो बहुत आराम उठा लिया। उन्होंने तो बहुत उठा लिया और भिन्नता तो चाहिए हरेक चीज में। इसमें कोई शक नहीं। हरएक आदमी में भिन्नता होनी चाहिए। पर किस चीज में अपना-अपना आनंद व्यक्त करने में। कल देखिये डांस कर रहे थे लोग, जैसा भी आ रहा था, जिस तरह से भी आ रहा था। सब की भिन्नता थी। एक जैसे कोई भी नहीं नाच रहा था ये भिन्नता हमारे अंदर है। अगर रहे तो उससे हम अलग-अलग तरह के आनंद का अनुभव दूसरों को दें सकते हैं आनंद अपने लिए नहीं। हम दूसरों को कितना आराम दें सकते हैं। दूसरों को हम कितना आनंद दे सकते हैं । हम दूसरों शरीर का आराम। अब आत्मा का आराम दो। शरीर का आराम नहीं चाहिए। जो कि हमने उठाया नहीं वो ही सहजयोग में खोजते हैं कि हमें शरीर का भी आराम मिल जाये आपसे में कितना प्रकाश ला सकते हैं इसका विचार हमेशा रहना चाहिए। कभी-कभी मैं नहीं कहती, पर कभी-कभी हिन्दुस्तानी भी लिखते हैं कि माँ मेरी प्रगति कराईये। मैं चाहता हूँ कि मैं इन चीजों से हटकरके, ऊँचा उठ जाऊँ। क्योंकि जो भी चिट्ठी लिखते हैं वह अधिकतर बेकार की चीजें, ये बीमार है वो बीमार है। ऐसा है वैसा है। और कोई-कोई बहुत प्यारी चिट्ठियाँ लिखते हैं और उससे मैं बिल्कुल गद्गद हो जाती हूँ कि इन्होने अपना मार्ग ढूंढ लिया है इन्होंने देख लिया है इुन्हें कहाँ जाना है । अपनी मॉजिल को इन्होंने पहचान लिया है। बस इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए कि मैं देखती करती रहूँ। पर चाहत ऐसी नहीं है किसी चीज की जो कि आप कह सकते हैं, क्योंकि जो चीज हमेशा बढ़ रही है, क्षितिज के जैसे, Horizon के जैसे उसके लिए आप कैसे कह सकते हैं कि आपकी क्या चाहत है? आपका जीवन इसी तरह से कहने से तो फिर आप कहेंगे शरीर का आराम तो चलो हम जमीन पर सोंयेंगे। ये नहीं मेरा मतलव, मेरा मतलब ये नहीं था। मतलब यह है किहमें यह सोचना चाहिए कि हमें अब आत्मा का कार्य करना है। आत्मा को संताप में रखना है। जितना हम शारीरिक चीजों के बारे में सोचेगें उतनी ही हमारी आत्मा दु:खी हो जाती है, उतना ही उसका प्रकाश कम हो जाता है। और जितना ही हम बाहर के लोगों के लिये दूसरे लोगो के लिए वातावरण के लिए सोंचेगे उतने ही हम बढ़ते जायेंगे| आत्मा का प्रकाश बढ़ता जायेगा। उसमें आपको हैरानी होगी कि आप अपने को पाइयेगा कि आप बिल्कुल विश्व के एक नागरिक हो गये आपके अंदर विश्व जैसे समा गया। अब बहुत से लोग मुझको कहते हैं कि माँ आप को हरेक चीज कैसे याद रहती है। जैसे अब इसको देख लिया, बस देख लिया बस रहूँ और उसको आत्मसात हो गया चित्र सा बन गया। सब चीज, आप लोग चित्र से मेरे हृदय में है। ये कैसे होता है, क्योंकि मैं अपने अंदर हूँ ही नहीं। सब बाहर ही हूँ। मैं सोचती भी नहीं अपने बारे में, कुछ विचार ही नहीं करती। वो करने की मेरे अंदर शक्ति ही नहीं, तरीका ही नहीं कि अपने बारे में सोचती बैठी रहूँ। कभी नहीं, मेरे साथ किसने क्या किया मेरे साथ किसने ज्यादती की, कभी नहीं, हो गया सो हो गया। लेकिन जो कुछ भी अत्यंत सुन्दर हो जाए, अत्यंत सुगन्धित और सबको आह्वाद देने वाला, सबको आनंद देने वाला हो जाये, यही मैं चाहती हैं। आप लोग कभी-कभी राजकारण भी करते हैं कुछ करते हैं, इसकी जरूरत नहीं। सहजयोग में आपको पैसा कमाना नहीं। कोई पदवी लेनी नहीं, कुछ नहीं। इसमें आपको अपनी प्रतिष्ठा ही पानी है। जिस प्रतिष्ठा में आप एक विश्व के जानने वाले विश्व में उतरने वाले, विश्व की परवाह करने वाले, उनकी तकलीफ़ और परेशानियों को दूर करने वाले और सबको ज्ञान देने वाले, ऐसे महान-महान पुरुष हो सकते हैं और मेरा यही आशीर्वाद है कि सब लोग इसी तरह से अपने को बढ़ायें, अपनी ब्राह्य में है। इसमें जब आप अपनी आत्मा का प्रकाश देखेंगे तब आप में विश्व की पूर्ण कल्पना हो जायेगी। कोई पहाड़ी है वहाँ चले गये, पहाड़ी में भी अपनी आत्मा का प्रकाश देख सकेंगे। हर एक चीज में जब आप आत्मा का प्रकाश देखते हैं, हर एक चीज में आपको कोई चीज भूलती नहीं, उसका आनंद भूलता नहीं। पर उसके बारे में फिक्र नहीं लगती कि ये किसका कालीन है, मार लो, इसको खरीद लें। सिर्फ देखना मात्र बनता है और जब देखना मात्र प्रग्लभ होता जाता है, बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है तो आपका व्यक्तित्व एक विश्व को भर लेता है और यही स्थिति अब आप सब में आनी चाहिए। ओर नजर करके देखिये कि क्या में इस तरह से हूँ? परमात्मा .आपको आशीर्वादित करे। श्री योगेश्वर पूजा माता श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) पूज्य परम १ क। न्यू जर्सी-अमेरिका-2.10.1994 आज हम श्री कृष्ण की योगेश्वर रूप में पूजा करेंगे। विष्णु जी का पहला अवतरण वामन रूप में हुआ और इसके पश्चात् श्री राम अवतार तक वे भिन्न रूपों में अवतरित होते रहे। अत: श्री कृष्ण से पूर्व श्री राम आये थे। अवतरित हो कर श्री राम ने जंगलों में जाने के लिए अत्यन्त तपस्वी जीवन अपनाया। उन्हें अपनी खोई हुई पत्नी को खोजना था तथा प्रजा हितैषी राजा के महत्व को पृथ्वी पर स्थापित करना था। अयोध्या का राजा बन कर भी उन्होंने जीवन संघर्ष और त्याग को अपनाए रखा। अत: उनके अनुयायी भी अत्यन्त त्यागी बन गए। श्री राम क्योंकि वर्षों तक घास पर सोये, वे भी घास पर सोने लगे। लोग खड़ाऊ पहनने लगे। जैसे पत्नी-विछोह में श्री राम ने एक घोती पहनी थी, लोग भी एक धोती पहनने लगे। पुरुष रूप में, पत्नी के अभाव में, वे तपस्वी की तरह रहे। यह सारी चीजें उनका अपनी पत्नी से आदर्श प्रेम दर्शाने के लिए थी। उन्होंने एक पत्नीव्रत लिया था। यद्यपि वे जानते थे कि सीता जी देवी है, महालक्ष्मी हैं, फिर भी प्रजा हितैषी राजा का उदाहरण स्थापित करने के लिए उन्हांने उन्हें घर त्यागने के लिए विवश किया। सकते हैं। अत: श्री कृष्ण का प्रधम सूक्ष्म स्वभाव लीला की सृष्टि करना और श्री राम अवतार में बनाई गई तपस्विताओं को निष्क्रिय करना था लोगों को माया में फंसाना उनका दूसरा महान गुण हैं। श्री कृष्ण यदि मस्तिष्क हैं तो हमारे मस्तिष्क को चाहिए कि साक्षी बनकर लीला को दंेखें। किसी भी चीज़ को अत्यन्त गम्भीरता पूर्वक न लें। साक्षी स्वरूप होकर जब आप चीजों का देखे हैं ता आपको लगता है कि आप नाटक देख रहें हैं, उस समय आपको लगेगा कि आप नेपोलियन हैं या अभिनय कर रहे हैं । कुछ समय पूरा पश्चात जब खेल समाप्त होगा तो आपको पता चलेगा कि यह खेल हैं। क्योंकि हम अपने मस्तिष्क से सोचते हैं। इसलिए वह स्थिति प्राप्त करने के लिए तुम्हें निर्विचार समाधि में होना होगा। यह मस्तिष्क तो सोचता चला जाता है, माया की सृष्टि करता है और इसी माया में फंसा रह जाता है। अब आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, अतः आपको इस माया का पहचान लेना चाहिए। यदि आप वास्तव में श्री कृष्ण के मस्तिष्क के प्रतिबिम्ब हैं तो जो भी कुछ मैं कर रही हूं या आप कर रहे हैं उसे भली-भांति समझ लेना चाहिए। कोई दबाव या समस्या नहीं होनी चाहिए क्योंकि आप तो निर्विचार समाधि में सभी अपने अगले अवतरण, श्री कृष्ण रूप में, उन्हें यह सारी तपस्विता निष्क्रिय करनी पड़ी। बाल्य काल में ही उन्हें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इन सभी समस्याओं पर उन्होंने काबू पाया और अपने राक्षंस मामा का वध किया। इसके पश्चात् वे अपनी बनाई द्वारिका नगरी में जाकर वहां के राजा बने। सहजयोग में श्री कृष्ण को समझना कहानियों की अपेक्षा कहीं सूक्षम कार्य है। सर्वप्रथम वे लीलाधर थे। उन्होंने कहा ये सब खेल है। अर्थात आपको केवल साक्षी बनना है आपका मस्तिष्क साक्षी मात्र बन जाना चाहिए। विराट अवस्था में वे अकबर बन जाते हैं। इस स्थिति में वे महान आदि-शक्ति के मन और मस्तिष्क हैं। तो सबसे पहले वे यह सोचते हैं कि हमें इस नाटक कुछ देख मात्र रहे हैं। जब आप निर्विचार समाधि में होते हैं अर्थात जब आप साक्षी अवस्था में होत हैं तो हर ईश्वरीय बात को आप समझ जाते हैं। उदाहरणार्थ जब मैं कार में बैठी तो मुझे पता न था कि कहाँ जाना है। हम गलत सड़क पर चले गए। तब मैंने उसे इस मार्ग पर चलने के लिए कहा। वह आश्चर्यचकित था कि माँ किस प्रकार जानती हैं। चैतन्य लहरियों के माध्यम से। चैतन्य लहरियों के माध्यम से मैं महसूस कर सकी कि वे सब वहाँ बैठे हैं बिना निर्विचार समाधि में हुए आप पूर्व सत्य को नहीं जान पाते। केवल अपने मस्तिष्क से जान पाते हैं। आपको न तो अपने हाथों का उपयोग करना है ान ४ और न ही प्रश्न पूछने पड़ते हैं, यह कार्यरत कम्प्यूटर पड़ता की तरह कार्य करता है, आपको उत्तर दंता है। उस अवस्था का दर्शक बनना है। माया में हमें खो नहीं जाना। आप यदि दर्शक हैं तो माया और इसकी कार्य शैली को देख में आपका परमात्मा से पूर्ण तदात्म्य होता है। श्री कृष्ण हर चैतन्य सहरी 6. 57 शर्त जा लगाई गयी थी वह थी वह ठीक है। पहली, कि आपको धर्म के लिए लड़ना है। तो हमें देखना है कि क्या हम धर्म के लिए लड़ रहे हैं? परन्तु श्री कृष्ण तो इससे भी सुक्ष्म थे। उन्होंने शस्त्र धारण नहीं किए। क्षण, हर चीज को कम्प्यूटरीकृत करते हैं। परन्तु साथ ही साथ वे आपकी परीक्षा भी लेते हैं। कूटनीतिज्ञ होने के कारण वे अपनी लीला में आपको डालते रहते हैं। यह देखना अत्यन्त रुचिकर है कि किस प्रकार अपनी लीला में आपको डालते है। उनकी लीला की शैली! जैसे उन्होंने अर्जुन को कहा कि मैं युद्ध नहीं करूंगा केवल तुम्हारा सारथी बनूंगा। कोई भी महान व्यक्ति जो मुझे अपना गुरु कहता हो यदि यह कहे कि में उसकी सर्वंश्रेष्ठ शिष्या हूँ तो यह अत्यन्त हास्यजनक लगेगा। और यहाँ श्री कृष्ण सारथी के रूप में अपनी संवाएं भेंट करते हैं । इस प्रकार वे अर्जुन से शरारत करने का प्रयत्न कर रहे हैं मानो वे जानते हों कि भविष्य में क्या घटित होने वाला है। उनके सारथी होने' के कारण गीता की सृष्टि हुई क्योंकि अर्जुन कहने लगे कि मैं अपने बन्धुओं, रिश्तेदारों और दादे नानों से युद्ध नहीं कर सकता। अब यदि आप कहें कि गीता शान्ति सन्देश है तो ऐसा नहीं है। श्री कृष्ण कहते हैं कि यह लोग तो पहले से ही मृत हैं, तुम किस का वध कर रहे हो? परन्तु यदि तुरणक्षेत्र से दौड जाओगे तो लोग तुम्हें कायर कहेंगे, तब तुम्हें क्या लाभ होगा? पर यदि तुम धर्मयुद्ध करोगे तो तुम्हें पुनः जन्म प्राप्त होगा। यह बहुत बड़ी चालाकी है, मोहम्मद साहब ने भी यही बात कही और इसाइयों तथा हिन्दुओं ने भी यही कहा कि उन्हें लगेगा कि वे धर्म के लिए युद्ध कर रहें हैं। अर्जुन की स्थिति में यह स्पष्ट था कि वे एक राक्षस, अधार्मिक व्यक्ति के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। परन्तु अन्य लोग जो यह कहते हैं कि हम घर्म के लिए लड़ रहे हैं उसका क्या औचित्य है? मैने एक कोसानियां के मुसलमान पूछा कि जब आप निराकार परमात्मा में विश्वास करते हैं तो भूमि के लिए युद्ध क्यों कर रहे है? उसने उत्तर दिया, "कुरान में यह लिखा है कि धर्म के लिए युद्ध करने वालो को मोक्ष प्राप्त होगा। यही बात कही है तो गलती कहाँ है? गलती यह समझने में है कि, "धर्म है क्या?" क्या आप धार्मिक हैं? उन दिनों का यह युद्ध शस्त्रों से था। तो श्री कृष्ण ने शस्त्र धारण क्यों नहीं किए? वे अपने हाथों में वे रथ की लगांमें पकडे हुए थे। क्योंकि श्री कृष्ण मस्तिष्क हैं, विराट, महान मस्तिष्क। अत: किसी शस्त्र की आवश्यकता नहीं। रणक्षेत्र में जब युद्ध आरम्भ होने वाला था और सभी लोग युद्ध के लिए तैयार खड़े थे तब अर्जुन को गहन ज्ञान समझाने के लिए श्री कृष्ण ने अपने मस्तिष्क का उपयोग किया। अत्यन्त धैर्यपूर्वक उस समय उन्होंने अर्जन को बताया कि रणक्षेत्र में वह उन्हें क्या कर रहा है। उनके सूक्ष्म मस्तिष्क को देखें कि वे अर्जुन को सलाह दे रहें है। प्रथम अध्याय में परिचय देकर श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति, "स्थित प्रज्ञ" की परिभाषा बताई। सामान्यतः एक व्यापारी एक डालर से शुरू होकर सौ डालर तक जाएगा पर श्री कृष्ण की तो बात ही बिल्कुल भिन्न है। उन्होंने अर्जुन को बताया कि सर्वप्रथम आपको स्थित- प्रज्ञ बनना है इसके विना सब व्यर्थ है। स्थित प्रज्ञ बने बिना आप धार्मिक नहीं हो सकते। श्री कृष्ण को समझने के लिए सूक्ष्म बुद्धि होनी आवश्यक है। अपने अन्दर विकसित हुए मोह को तुम्हें त्यागना होगा। अपने हाथों में शस्त्र उठाओ और युद्ध, करो। तब अर्जुन ने पूछा कि "आपने मुझे निष्क्रिय बनने को कहा है और यह भी कि तुम्हारे कर्म अकर्म बन जायेंगे तो फिर आप मुझे इन लोगों का वध करने को क्यों कह रहे हैं? यह तो कर्म है।" पहले तो वो कहते हैं कि धर्म के लिए युद्ध करो। यह अत्यन्त सूक्ष्म बात है। आप धर्म में स्थित हैं या नहीं? आप धर्म में स्थित नहीं है तो आप किस धर्म के लिए युद्ध कर रहे हैं? कर्म दूसरी चीज़ है । श्री कृष्ण का मस्तिष्क अत्यन्त युक्तमय है। दूसरी चालाकी जो वे अर्जुन से करते हैं वह यह है कि तुम कार्यरत हो, परन्तु यदि तुम स्थित प्रज्ञ हो तो अपने सारे क्मों को परमात्मा के चरणकमलों में समर्पित कर देते हो। सारे धर्मों को छोड़कर मेरा कहा मानों।" श्री कृष्ण का धर्म क्या है? समस्या यह है कि लोग उन्हें समझते नहीं। यह सब श्री कृष्ण एवं उनके अवतरण पर केन्द्रित है। वे कहते हैं "कर्म करो, पर उन्हें परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित से " श्री कृष्ण ने भी पहली ब्रात तो यह है कि हिन्दु, मुस्लिम ईसाई कहलाने वाले लोग धार्मिक नहीं है। वे धर्म को नहीं मानते। दूसरे वे एक दूसरे का वध कर रहे हैं। हर व्यक्ति यह साचता है कि मैं ठीक हूँ और जो भी कुछ मैं कर रहा हूँ कर दो।" परन्तु आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करके स्थित प्रज्ञ बने विना यह कह पाना सम्भव नहीं। आत्म साक्षात्कार पानं अब इस कलियुग में जब मैं इस कार्य का आरम्भ कर रहीं हूँ मुझे लगता है कि हमारे मस्तिष्क आवश्यकता सं अधिक विकसित हैं और इतने विकसित मस्तिष्क वाले के बाद जब आप अपनी तथा किसी अन्य की कुण्डलिनी उठाते है तो आप यह नहीं कहते कि "मैं आत्मसाक्षात्कार दे रहा हूँ।" आप कहते हैं, " यह घटित हो रहा है। आप तृतीय पुरुष में बात करने लगते हैं। जब "मैं" समाप्त ही जाती है तभी आप सब कुछ परमात्मा के चरणों में अर्पण करते हैं। धर्म के अन्दर रहते हुए कर्म करने चाहिए। मान लो कोई व्यक्ति किसी की हत्या कर दे और कहें कि यह मेरा कर्म है और मैं इसे श्री कृष्ण के चरण मैं मानव मु्ख बन जाते हैं। इतना सुक्ष्म ज्ञान उन्हें किस प्रकार बताया जा सकता है। रास्ता क्या है, यदि में श्री कृष्ण की तरह से बात करू तो यह मेरी और आपकी शक्ति का नष्ट करना होगा। आपमें से आधे तो सो गए होते। तो, मैने सांचा कि पहले इन्हें परमात्मा से जोड़ दूं। यदि थाड़ा सा भी उन्हें परमात्मा से जांड सकी ता मस्तिष्क ज्योर्तिमय हो जाने के कारण ये समझ जाएगे। तब ये जान कमलों में अपर्ण करता हूँ। श्री कृष्ण ने तो कहा है कि धर्म के लिए आपको कर्म करना चाहिए। सर्वप्रथम आपको स्थित प्रज्ञ बनना है, एक साक्षात्कारी व्यक्ति। तब जो भी जाएंगे कि जितना कुछ हम जानते हैं उससे अधिक भी जानने को है और इस प्रकार यह कार्यान्वित होगा। श्री कृष्ण की सूक्ष्म चालाकियों ने, निसन्देहः बहुत सहायता की है क्योंकि लोग है। इस्लाम में भी ऐसा ही है। इस्लाम का अर्थ है समपर्ण परन्तु समर्पण किसी और के सामने। धर्म तन्त्रवाद के उदय से समस्याएं कुछ आप करते हैं, वह स्वत: सहज में परमात्मा के चरण कमलों में आर्पित हो जाता है। हन महसूस कर रहे है कि इसमें कुछ कमी "भक्ति" क्या है? परमात्मा की तीसरी आवश्यक चौज भक्ति करने का क्या फल है? यहां भी उन्होंने चालाकी कर दी। एक शब्द में उन्होंने सब को नचा दिया। वे. कहते हैं "भक्ति करो पर यह अनन्य होनी चाहिए।" अर्थात जब आपकी मुझसे एकाकारिता हो जाती है तब आप स्थित प्रज्ञ, आत्मसाक्षात्कारी हो जाते हैं। इस एक शब्द को सोचिए, इस पर जब लोग सोचेंगे तो भक्ति के विपय में बनी सभी गलत धारणाओं को त्याग कर परमात्मा से योग प्राप्त कर, अनन्य होकर भक्ति करेंगे। मानव स्वभाव को श्री कृष्ण भलि-भाँति समझते थे। वे अत्यन्त चतुर थे। उन्होंने सोचा कि सहज ढंग से मनुष्य इस बात को न समझ सकेंगे अत: इन्हें समझाया जाए ताकि ये करते ही जाएं। उन्होंने कहा कि आत्मसाक्षातत्कार प्राप्त करने के लिए आपको आत्मा बनना होगा। पर इस समय उन्होंने यह नहीं बताया कि किस प्रकार बनना होगा। महाविद्यालय जाकर भी पहले वर्ष सारा ज्ञान नहीं दे दिया जाता, कुछ दूसरे वर्ष दिया जाता है और कुछ उसके पश्चात्। गीता का पूरा ज्ञान श्री कृष्ण की मूर्ख मानव से की गई चालाकियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यदि श्री कृष्ण ने उन्हें सहजयोग के विषय में बताया होता तो वे कभी उसे न समझ पाते। आज भी मुझे इस प्रकार के बहुत से लोग मिलते हैं। परन्तु उस समय उन्हें अधि के लोग न मिल पाते, इसी कारण उन्होंने कुण्डलिनी के विषय में बात नहीं की। अन्य अवतरणों के साथ भी ऐसा किस के सम्मुख? मुल्लाओं के सामने या उत्पन्न हुईं। रियाद वार नमाज पढ़े और यदि आज ऐसा नहीं करते ता वे स्त्रियों को पीटते हैं। यहाँ तक कि दुकान भी पाँच बार बन्द होनी आवश्यक है। मैं आपको बताती हैँ कि वे अत्यन्त पाखंडी लोग हैं । लिए कहते हैं। परन्तु डर के कारण आप ऐसा करते हैं । भयवश किए गए किसी कार्य का क्या लाभ है? में आपसे आशा की जाती हैं कि पाँच जो आपको पाँच बार ध्यान करने के ईसा या मोहम्मद साहब ने जो भी कुछ कहा वह देवदूतों के लिए या सर्वसाधारण लोगों के लिए नहीं। देवदूत है कहाँ? बहुत ही कम। जो जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं उन्हें यदि किसी कार्य के लिए मना किया जाएगा तो वे उसे नहीं करंगे। उनमें से अधिकतर जानते हैं कि उचित क्या है और अनुचित क्या है। वे देवदूत कहाँ है? ऐसे लोग बहुत कम हैं, और जो हैं उनके साथ लोग ऐसा व्यवहार करते हैं मानों वे विक्षिप्त हों। केवल देवदूत ही समझ सकतें है कोई अन्य विश्वास नहीं करता । श्री कृष्ण ने सोचा कि जो लोग देवदूत नहीं हैं उनके साथ चालाकी क्यों न की जाए। बहुत से लोग मरे पास आकर बताते हैं कि, "हम कृष्ण का नाम जपते हैं।" उन्हें कुछ भी प्राप्ती नहीं हुई। श्री कृष्ण ने कहा था कि पहले आपको स्थित प्रज्ञ बनना होगा स्थित अर्थात स्थापित, प्रज्ञ का अर्थ है ज्योंतिमय। आपको पूर्णतः स्थापित, ज्योर्तिमय व्यक्तितव बनना होगा। इसके बाद बाकी सारी ही हुआ। जिस प्रकार के शिष्य एवं लोग उन्हें मिले वे उन्हें उत्थान के विषय में न बता सके- क्योंकि इसके लिए लोग तब तैयार न थे। उनका स्तर इतना ऊँचा न था, उनके मस्तिष्क वाछित रूप से विकसित न थे। चैतन्य लहरी ৪ पर अब कलियुग में लाग अत्यन्त परेशान हैं, कठनाइयों में फैसे हुए और अव्यवस्थित हैं। कलियुग अपनी पराकाप्ठा पर है, जीवन में इतनी चरित्रहीनता और अंसतोष है कि लोगो को सोचना पड़ता है कि कहाँ जाएं। आघातसम भविष्य उनकी आर मुँह बाए खड़ा है। ऐसी स्थिति में वे क्या प्राप्त करें। उनकी ओर देखने से जीवन की सारी भ्रामकता आरम्भ होती है, तब वे सोचने लगते हैं कि यह क्या बातें कहते हैं और यही कारण है कि लोगों ने उनकी कही बातों को गलत ढंग से समझ। परन्तु श्री कृष्ण ने सोचा कि एक या दो जन्मों में लोग इसे गलत समझेंगे परन्तु तीसरे जन्म में जाकर वे सोचने लगेंगे कि यह है क्या चीज? पहले आप स्थित प्रज्ञ बनें। तो हममें क्या कमी है? इससे अन्तर्दर्शन आरम्भ हो जाएगा और यही उनका लक्ष्य था। है, मैं क्या कर रहा हूँ? मेैंने क्या किया? यह सब ऐसा क्यों है? सभी कुछ इतना अव्यवस्थित क्यों है? एसा क्यों हो रहा है? तब जिज्ञासा आरम्भ हाती है। इसी जिज्ञासा के कारण अब आप लोगों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ है। इसके बिना आपसे सहजयोग के विषय में बात करना मेरे लिए असम्भव होता। मुझे प्रसन्नता है कि अमेरिका में भी यह कार्यान्वित हुआ। मैने देखा है कि लोग घंटों तक गीता पर भाषण देते हैं परन्तु उनके मस्तिष्क पुूर्णतः बन्द है। श्री कृष्ण ने कुण्डलिनी के विषय में कुछ भी नहीं बताया। ज्ञानेवश्वर जी ने अपने भाई गुरु से कुण्डलिनी के विषय में कुछ कहने की आज्ञा ली और इस प्रकार इस पर कुछ प्रकाश पड़ा। निसन्देह इससे पूर्व भी कुछ लोग हुए जैसे छठी शताब्दी में आदि शंकराचार्य और उनसे पूर्व मार्कन्डेय ऋषि| पर उन्होंने कुण्डलिनी की प्रशंसा की। केवल यह बताया कि कुण्डलिनी छह चक्रां में से गुज़रती प्रकार उठती है। इसके भविष्य के विपय में कुछ नहीं बताया कि एक दिन यह सामूहिक स्तर पर घटित होगा। बहुत से लोगों ने इसके विषय में लिखा। केवल ज्ञानेवश्वर जी ने 'पसायदान' नामक अपनी कविताओं में सहजयोगियों का पूर्ण विवरण दिया। इसमें उन्होंने बताया कि क्या घटना घटेगी। उन्होंने बताया कि किस प्रकार बहुत से लोग श्री कृष्ण का एक अन्य गुण यह है कि वे 'गोचर' है अर्थात् आकाश तत्व से बने हैं तथा सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। अणु, रेणु और परमाणु में भी वे पेंठ सकते हैं। तीनों प्रकार के अणुओं को वे भी वैज्ञानिक आपको बता सकेगा कि अणुओं में सममितीय और सन्तुलित लहरियों होती हैं । क्योंकि श्री कृष्ण हर चीज में प्रवेश कर सकते हैं, इसी कारण वे पदार्थ, पशु, मानव, आत्मसाक्षात्कारी व्यक्तियों में व्याप्त हो जाते हैं। पदार्थों में वे मात्र चैतन्य लहरियां के रूप में, पशुओं में मार्गदर्शक शक्ति के रूप में होते हैं साइबेरिया से उड़कर आस्ट्रेलिया आने वाले पक्षियां को दिशा ज्ञान कौन देता है? इसके विपय में हम कभी नहीं सांचते। पशु बहुत से कार्य करते हैं, उनमें विवेक-बुद्धि होती है। जैसे शर जब जंगल में होता है तो सभी पशु जानते हैं कि शेर वहाँ है। अपने राजा के सम्मान में बो शान्त रहते हैं। शेर केवल एक पशु का शिकार करता है। उसका मारा हुआ शिकार यदि बच है, और किस अदालित करते हैं। कोई आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करेंगे और साक्षात्कारी कल्पतरु किस प्रकार लोगों को आत्मसाक्षात्कार देगे। तब वे कहते हैं कि आप ही अमृत का सागर हैं। इतनी सुन्दरतापूर्वक उन्होंने आप लोगों (सहजयोगियों) का वर्णन किया है यदि आप 'पसायदान' का अनुवाद पढ़े तो आप जान पाएगे कि आपके बाकी के सारे सम्बन्ध समाप्त हो जाएगे, केवल यही (सहज) ा सम्बन्ध शेष रह जाएंगे। वही आपके वास्तविक सम्बन्धी होगें। इतना दिव्य स्वप्न देखने वाला व्यक्ति तो कोई महान अवतरण ही हो सकता है। ज्ञानेवश्वरी के छठे अध्याय में उन्होंने जाए तो एक दिन तक काई अन्य पशु उसे नहीं छूता। नियमाचरण देखें। अगले दिन जब शंर वापिस आता है तो वह भरपेट खाता है, फिर शेरनी खाती है, ओर इसके कहा कि अब आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं, और यह भी बताया होगी। शनै: शनै: यह ज्ञान प्रकाश में आया, लोगों को समझने के लिए लोगों की आध्यात्मिक शक्ति भी शनै: शनै: विकसित हुई। मैनें यदि सौ वर्ष पहले सहजयोग आरम्भ किया होता तो मुझे एक भी शिष्य न मिलता क्योंकि उस समय लोग ठीक ठाक थे। उनका जीवन सन्तोपजनक था, वे अत्यन्त शान्त थे, उनकी रुचि केवल कुछ घोड़ों तक सीमित थी। है कि किस प्रकार कुण्डलिनी कार्यान्विवत बाद बच्चे। जब वे खा लेते हैं तब नियम आचरण के अनुसार सभी पशु एक एक कर इस शिकार को खाते हैं। नियमाचरणों के बनाए रखने के कारण पशुओं का मार्गदर्शन होता है और उनका चरित्र बना रहता है। वे मानव की तरह से नहीं होते हैं। साँप साँप है और सिँह सिंह। मानव तो साँप, सिंह, तेदआ आदि सभी कुछ एक साथ हो सकता है। बहुत सी योनियों में से गुजरने के कारण मनुष्य कुछ ा हुए ज्योतित मस्तिष्क से आप जो भी कार्य करते हैं, जो भी कुछ सोचते हैं वह ज्योतिमय होता है। ऐसा मस्तिष्क जो भी कुछ साचता है उसे साथ ही साथ प्राप्त कर लेता है। दोनों ही कार्य साथ-साथ हो जाते हैं। यह बात समझ ली जानी चाहिए कि आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति में कोई भी चीज़ प्राप्त कर लेने की शक्ति है, परन्तु उसकी इच्छाएं भी शुद्ध इच्छाएँ होनी चाहिए। भी हो सकता है। सारे पाशविक गुणों का सम्मिश्रण। भूतकाल के सभी प्रकार के सम्मिश्रणों और क्रम परिवतनों का अस्तित्व है। कोई यदि व्यक्ति को अवचेतन में ले जा सके तो लोग कुत्तों की तरह भौंकने लगते हैं और कभी चीते की ा तरह से उनका व्यवहार हो जाता है। ऐसा हो सकता है। यह सब, भूतकाल हमारे अन्दर है। ऐसे जटिल व्यक्तित्व के कारण कुछ लोग उल्लुओं, बाजों की तरह से गम्भीर हैं। कुछ चहचहाते हुए पक्षियों सम हैं। परन्तु उनमें बहुत सारे गुणें का सम्मिश्रण है और उन्हें निष्कपट बनाना कठिन कार्य है। वे कितने अधिक फँसे हुए हैं। पहले मुझे यह सब बन्धन दूर करने होते हैं तब कुण्डलिनी उठानी होती है। व्यवस्था की सबसे अच्छी बात यह है कि चेतना ऊर्ध्वस्थ है। अवचेतन बांई ओर और पराचेतन दाँई और हैं। सषुम्ना जैसे उस दिन कार्यक्रम में बहुत कम लोग आए। सभी सहज योगी इतने खिन्न थे मानों उनके परिवार में किसी की मृत्यु हो गई हो, इससे भी अधिक ! क्यों ? क्योंकि यह उनका अपना कार्य था और वे यह न समझ पाए कि उनका साक्षात्कारी मस्तष्क वाछित परिणाम क्यों न प्राप्त कर सकता। उन्हें अत्यन्त खेद हुआ। इससे प्रकट होता है कि आध्यात्मिक या दैवी कार्य और उनके जीवन में इतना तदात्म्य है। उनके लिए यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सभी लोग ऐसे नहीं होते। कुछ लोगें के लिए कुछ चीज़ें अधिक महत्वपूर्ण होतीं है। वो सहजयोग को अपनी खुशहाली के लिए उपयोग कर सकते हैं। परन्तु ज्योतित मस्तिष्क वाले लोग जो केवल सहजयोग के विषय में सोचते हैं वे इसे प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु इसके पीछे स्वार्थभाव, घृणा और ख्याति की इच्छा नहीं होनी चाहिए। केवल सहजयोग के कार्य के लिए यदि सोचेंगे तो सफलता प्राप्त कर लेगें । व्यक्ति को कभी हतोत्साहित नहीं होना चाहिए क्योंकि परमात्मा आपके साथ है। वे आपके रक्षक (चरवाहे) हैं इस चरवाहे के मार्गदर्शन में जब आप समर्पित मैमने बन जाते हैं तो यह सब घटित होता है। तब मस्तिष्क के ज्योतिमय हो जाने के कारण आपको स्वयं पर विश्वास हो जाता है। मस्तिष्क के संदेहविहीन होते ही आप निर्विकल्प हो जाते हैं, शंकाविहीन चेतन। मस्तिष्क सोचता है, शंका करता है, अहम् एवं बन्धनों की सृष्टि करता है। एक ही यन्त्र यह सारी मूर्खताएं करता है। घृणा की सृष्टि करके यह मूर्खताओं को न्याय संगत ठहराता है। यह दूसरों की आलोचना करता है, उनसे घृणा करता है, और उनका मज़ाक करता है। श्री कृष्ण के यह गुण नहीं है क्योंकि वे तो सामूहिक हैं। यही कारण है कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम पापी हो। उन्होंने किसी की आलोचना नहीं की। परन्तु मुझे तो आलोचना करनी पड़ती है। कंस, जरासंध, नक्कासुर, कोई पथ मध्य मार्ग है। यह महालक्ष्मी मार्ग है। यह आपको विराट अवस्था, मस्तिष्क तक ले जाता है। इस प्रकार तीन चीजों का सम्मिश्रण कार्यान्वित होता है। मस्तिष्क विराट है, हृदय शिव है और जिगर ब्रह्मदेव हैं। यह तीनों शक्तियाँ वहाँ हैं। परन्तु आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने पर आपका मस्तिष्क आत्मारूपी शिव तत्व के सम्मुख समर्पित हो जाता है। यह किसी विवशता के कारण समर्पित नहीं होता आत्मा की शक्ति को शोपित करने के लिए यह समर्पित होता है। मस्तिष्क आत्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाता है ताकि आत्मा मस्तिष्क को ज्योर्तिमय कर दे। मस्तिष्क का ज्योतिमय होना ही आपको यह सारी सूक्ष्म सूझबूझ प्रदान करता है। यह आपके मस्तिष्क को यह समझाने के लिए होता है कि बहुत सी आ्शिवाददायक घटनाएं हैं। एक बार, दो बार, तीन बार आ्शिवार्दित होने पर लोग आश्चर्यचकित, रह जाते हैं। मस्तिष्क सोचने लगता है कि किस प्रकार मुझे यह आशीर्वाद मिल रहे हैं? मेरे साथ यह किस प्रकार घटित 1E017 हुआ? मेरा परिवर्तन किस प्रकार हो सके? अत: शनै: शनै: वे अपने हृदय पर विश्वास करने लगते हैं। इस प्रकार बिना किसी इच्छा या बन्धन के पूर्ण तदात्म्य में भक्ति की जाती है। क्योंकि मस्तिष्क हृदय का साथ देने लगता हैं। तब ब्रह्मदेव भी समर्पित हो जाते हैं और परिणामतः आपका जिगर भी आपके ज्योतित मस्तिष्क के प्रति समर्पित हो जाता है। ऐसी स्थिति में जो भी कुछ आप करते हैं वह ज्योत्तिमय कार्य होता है, आप चाहे गायक हों, सरकारी कर्मचारी हाँ या कुछ और। अपने मस्तिष्क से स्वाधिष्ठान चक्र या ब्रह्मदेव के माध्यम से जो भी कुछ आप करते हैं वह ज्योर्तिमय कार्य होता है। सर्वव्यापक शक्ति से जुडे भी हो, श्री कृष्ण उनका व्ध, कर देंगे बिना कोई बहस किए सीधे ही समाप्त कर देंगें। किसी की आलोचना करने का क्या लाभ है? बस उनका वध कर दो। परन्तु वध ा चैतन्य लहरी 10 শ और कर देने के बाद इस कलियुग में वे पुनः जन्म लेकर आ जाते हैं। दैवी सुझबूझ में स्थित है। यह वास्तव में एक अत्यन्त कार्यकुशल कम्प्यूटर की तरह कार्य करता है। आज मैंन कबीर पर बातचीत करनी शुरू की और तुरन्त ही सभी लोगों को चैतन्य लहरियाँ महसूस हो गई। केवल आत्मसाक्षात्कारी लोग ही जान सकते हैं कि गलत क्या है और ठीक क्या लोगों को राक्षसों के चगुंल से मुक्त करना ही सर्वोत्तम होगा। एक विधि यह हो सकती है कि मैं आपके मस्तिष्क में यह डाल दें कि यह राक्षस हैं। पर इस बात का लोगों को विश्वास न होगा। परन्तु साक्षात्तकार पाने के पश्चात् जब आप उनके पास जाते हैं तो आपकी अंगुलियों के सिरों पर सुईयां सी चुभने लगती हैं। मेरे सम्मुख मस्तिष्क गतिशील हो उठता है क्योंकि तब यह शक्ति में प्रवेश है। वे दैवत्व का अनुभव कर सकते हैं। वे समझ सकते हैं, कि कौन व्यक्ति अवतरण है और नहीं जानते कि आपकी स्नायु प्रणाली में क्या परिवर्तन हो गया है, एक नया आयाम आ गया है और इसका प्रकटीकरण हो रहा है यह भी श्री कृष्ण का आर्शीवाद है क्योंकि वे ही हमारे अन्दर की सामूहिकता हैं और सामूहिकता के रूप में वे ही कार्य करते हैं। कौन नहीं। आप करता है। बहुत शरारती लड़का था जो दूसरे लोगों को मारता था और काट लेता था, परन्तु मुझे देखते ही वह भाग खड़ा हुआ। भूतवाधित लोग मेरे सम्मुख आकर कांपने लगते हैं। इस प्रकार की हरकतें करने वाले भूतबाधित लोगों अमेरिका क्योंकि श्री कृष्ण की मंगलमयता का स्थान है अत: व्यक्ति को समझना चाहिए कि श्री कृष्ण की मंगलमयता क्या है। उनकी सोलह हज़ार पत्नियां थीं। ये सब उनकी शक्तियां थी। अपने अवतरण को फलीभूत करने के लिए श्री कृष्ण को उनकी आवश्यकता थी। अंत: राजकुमारियों के रूप में वे पृथिवी पर आईं। परन्तु एक का चालन कौन करता है? यह उनका मस्तिष्क है। उनके मस्तिष्क में गड़बड़ होने के कारण श्री कृष्ण उन्हें कम्पायमान कर देते हैं। वे कंपन, चुभन और गर्मी महसूस करते हैं। आत्मसाक्षात्कार पाने के बाद मध्य नाड़ी तन्त्र ठीक होने पर मस्तिष्क शान्त हो जाता है। तब यह पहले की भांति प्रतिक्रिया नहीं करता। मैंने यहां बहुत से जल्दबाज, अशान्त परेशान, आंशकित और चिड़चिड़े लोगों को देखा है। माओ के निजी चिकित्सक ने कहा है कि वह पूर्णतः तानाशाह थे। माओ से अधिक क्रूर व्यक्ति उन्होंने कभी नहीं देखा। राक्षस ने अपहरण करके उन्हें जेल में डाल दिया। उस राजा से युद्ध करके श्री कृष्ण ने उन सब को मुक्त कराया और उनसे विवाह कर लिया। किसी व्यक्ति का सोलह हजार स्त्रियों से विवाह करना लोगों की समझ में नहीं आ सकता। पर वे तो योगश्वर हैं। पुरुषों के साथ लांछन लगने की कठिनाई हैं। स्त्रियों के साथ नहीं क्योंकि स्त्रियां उसका चेहरा बनावटी था। माओं एक महा सुधारक लगता था और उसने बहुत सा कार्य भी किया। परन्तु वास्तव में वह पाखण्डी था व्यक्ति पाखण्डी है या नहीं इस बात को आप कैसे समझेगें? यदि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं मातृत्व को प्राप्त कर लेती हैं। पितृत्व को चुनौती दी जा सकती है। पंच तत्वों के सार से श्री कृष्ण ने विवाह कर लिया। पांच तत्व पांच पत्नियों के रूप में उनके साथ तब आप यह बात अपने मस्तिष्क से जान पाएंगे। थे। परन्तु द्रौपदी के मामले में उनके उच्च चरित्र को देखा जा सकता है। द्रौपदी को जब दरबार में लाया गया तो श्री कृष्ण जब आपके मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते है। तब आप ज्योतित व्यक्ति बन जाते हैं (स्थित प्रज्ञ )। दुर्योधन ने दुःशासन से कहा कि उसकी साड़ी उतार दो । उस समय द्ौपदी ने अपने दाँतों से साड़ी को पकड़ा हुआ था। उसने श्री कृष्ण का आह्वान किया। दाँतों में साड़ी होने के कारण वह केवल एक 'कृ' कह सकी। ज्यों ही उसने 'कृष्ण' कहा साड़ी नीचे गिर गई। द्रौपदी के मुँह से कृष्ण का नाम निकलते ही द्वारिका में एक बहुत जोर की आवाज हुई। अविलम्ब अपने चारों शस्त्र शंख, चक्र, गदा, पद्म लेकर गरुड़ पर बहन के सतीत्व की रक्षा के लिए वे इतनी दूर आए। उनके लिए बहन का सतीत्व महत्वपूर्ण था । वे द्रौपदी का चीर बढ़ाते गए। द्रौपदी का सतीत्व इतना उच्च था कि आप ज्ञानमय हो जाते हैं। हर आवश्यक चीज को आप जान जाते हैं। चाहे आपको यह ज्ञान न हो कि विम्बलडलन में सर्वोच्च कौन है, एक अभिनेत्री का जीवन कैसा है, या फंला स्थान का राष्ट्रपति कौन है, परन्तु अपने लिए सभी आवश्यक बातों का ज्ञान आपको हो जाएगा। ऐसा न होने पर लोग अपनी शक्त्यों को व्यर्थ खो देगें मैं एक व्यक्ति को जानती हूँ जिन्हें दो हजार लोगों के टेलीफोन एवं कार नम्बर याद थे। इसकी क्या आवश्यकता है? ये सारी मुर्खतापूर्ण बातें मानसिक शक्ति को बर्बाद करती हैं। पर स्थित-प्रज्ञ व्यक्ति ऐसा बैठकर वे आ गए अपनी नहीं करता। वह अपने ज्ञान 11 की भूमि पर, जो कि योगेश्वर हैं.. और अपनी विधियों से पूर्ण पवित्र कर सकते हैं क्योंकि वे निर्लिप्त हैं । किसी चीज से वे लिप्त नहीं है। मस्तिष्क ही व्यक्ति को लिप्त करता है। यह कालीन और साड़ी यहाँ पर हैं। मैं इस साड़ी को देखती हूँ। "मेरे पास एक सुन्दर साड़ी है।" यदि यह 'मेरी' है तो मैं इसके विषय में चिन्तत रहंगी स्वंय श्री कृष्ण ने उसकी रक्षा की। यह असाधारण बात है। योगेश्वर, श्री कृष्ण धन्वन्तरी भी हैं, अर्थात वे चिकित्सक भी हैं। वे ही रोगों से मुक्ति दिलाते हैं क्योंकि मस्तिष्क और स्नायु तन्त्र पर बहने वाली चैतन्य लहगियाँ ही यह कार्य करती हैं। अपने मस्तिष्क के माध्यम से वे लोगों को रोग मुक्त करते हैं। कैसे? मान लो किसी को हृदय की समस्या है, ज्यों ही वह अपने हाथ मेरे फोटो की तरफ करता है तो समस्या उसकी छोटी अंगुली में आ जाती है। मस्तिष्क के कार्यरत होने के कारण श्री कृष्ण की चैतन्य लहरियाँ आपके मस्तिष्क में जाने लगती हैं और क्योंकि मैं भी श्री कृष्ण हूँ, ये लहरियाँ आपको संदेश भेजने लगती हैं। इस प्रकार यह कम्प्यूटर कार्य करता और आप तुरन्त जान जाते हैं कि व्यक्ति को क्या समस्या है? वैह हृदय रोगी है। इसके लिए आपको निदान आदि नहीं करना पड़ता। कौन इस कार्यको करता है? विराट के मस्तिष्क में स्थित श्री कृष्ण तत्व। अब आपकी इसका विश्वास हो गया है। आप जानते हैं यह इसी प्रकार कार्य करता है और आपके माध्यम से संदेश भेजता है। अत: मेरा यह कम्प्यूटर सचारण भी करता है। मानव रचित कम्प्यूटर में बटन दबाकर आप परिणाम पा सकते हैं। परन्तु दिव्य कम्प्यूटर में ऐसा नहीं होता। मस्तिष्क स्वत: ही परिणाम देता है। यही मस्तिष्क आपको बताता है कि क्या करना है और कैसे। यही मस्तिष्क चैतन्य लहरियाँ छोड़ता है और मस्तिष्क में से बसी हुई ये आपको बताती हैं कि व्यक्ति में क्या कमी है? व्यापन का यह सारी कार्य श्री कृष्ण करते हैं। भ कि कहीं यह खराब न हो जाए। इस प्रकार मस्तिष्क छोटी-छोटी चीजों की चिन्ता किए जाता है। जिघर से भी आप निकलते हैं दुकानों की भरमार है। आपका चित्त उन चीजों में पूर्णत: उलझ जाता है। लिप्त होकर इन चीजों को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो जाती है। यदि आप उदारता को समझ जाएं तो भौतिक पदार्थों के प्रति निर्लिप्तता संभव है। सहजयोग में होते हुए भी बहुत से लोग उदार नहीं है। उदारता है क्या? मेरी साड़ी यदि आपको अच्छी लगे और मैं ये आपको दे ढूं तो यह उदारता है। यह वास्तविक उदारता है। आपमें यदि उदार, निर्लिप्त स्वभाव है तो आप कभी भौतिक पदार्थों से लिप्त नहीं हो सकते। आपका किसी चीज से लिप्त होना प्रेम के कारण होगा मैं रूस गयी तो वहाँ पर कैवियर नामक बहुत अच्छे मछली के अण्डे थे। लंदन के एक डाक्टर को यह बहुत पसंद है। मैने उसके लिए यह अण्डे खरीदे। वह बहुत प्रसन्न हुआ कि श्री माता जी इतनी छोटी-छोटी चीज़ों को भी याद रखती हैं भौतिक वस्तुओ में दूसरे व्यक्ति को आनन्द प्रदान करने की शक्ति हैं, यदि आप इसे प्रेम एवं निर्लिप्तता पूर्वक भेंट दें। यह निर्लिप्त प्रेम क्या है? यह पेड़ के रस की तरह है जो जड़ों से ऊपर को जाकर पेड़ के हर भाग में पहुंच जाता है, किसी विशेष भाग पर रुक नहीं जाता। यदि यह किसी विशेष भाग से लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ एवं फल मर जाएंगे। है ाे वे इन चैतन्य लहरियों को लेते हैं, दूसरे मस्तिष्क में इन्हें डालते हैं, तब वह. मस्तिष्क मध्य नाड़ी तन्त्र पर कार्य करने लगता है और आपको परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। मेरे सामने हाथ फैलाते ही यह कार्य होने लगता है। मस्तिष्क की देखभाल करना हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है। मैं नहीं समझ पाती कि अमेरिका में किस प्रकार यह मस्तिष्क सुरक्षित है? क्योंकि आप अपना टेलिविजन चालू करते हैं या गलियों और विज्ञापनों पर देखते है या जिस सगींत को सुनते है, यह सारी चीजें आपके मस्तिष्क को पूर्णतः तोड़ देती हैं। पूरा वातावरण ही श्रीकृष्ण विरोधी है। निर्लिप्त प्रेम अत्यन्त सुन्दर है। इसके द्वारा आप जान सकते हैं कि किसे ब्या देना है। क्या चीज लोगों को आनन्द प्रदान करेगी। उन्हें क्या पसन्द है। केवल प्रेम में ही आप यह चीजें जान पाते हैं। यह निर्लिप्तापूर्ण होनी चाहिए, तभी लोग आपके प्रति प्रेम करेंगे। बिना निर्लिप्त हुए आप अन्य लोगों से पूर्ण प्रेम नहीं पा सकते। धन, पद लालच या स्वार्थवश किया गया कार्य अर्थविहीन है। सहजयोग में बहुत से लोग धन कमाने या रोगमुक्त होने के लिए आते हैं। परन्तु सहजयोग तो तभी फैलेगा जब आप निर्लिप्त हो जाएंगे। लिप्साओं के रहते हुए, आप जान सूझबूझ की पवित्रता और चरित्र-विरवक नहीं है। भयानक हिंसा एवं चरित्रहीनता से परिपूर्ण चलचित्र आदि की सृष्टि श्री कृष्ण की इस भूमि परे की जा रही है। श्री कृष्ण चैतन्य तसरी 12 लें कि, अभी तक आप सहजयोगी नहीं बने। आत्मनिरीक्षण द्वारा देखें कि मैं कहाँ तक लिप्त हूँ और क्यों? मैं यह नहीं कहती कि आप अपनी आँखें फोड़ लें या हाथ काट लें। मोह का परिणाम सदा निराशा होती है। मैनें देखा है कि मोहग्रस्त माता-पिता के बच्चे सबसे खराब होते हैं। भावना न हो तो वर्ण भेद आदि के बन्धन होते हैं, विशेषकर भारत में जब हर मनुष्य में आत्मा है तो भिन्न जातियाँ किस प्रकार हो सकती हैं? भारतीय यदि उच्च जाति के हैं तो नीची जाति वालों के साथ नहीं खाते। मस्तिष्क ही इस प्रकार के बन्धनों को जन्म देता है। सभी सन्तों ने इस मूर्खतापूर्ण भेद-भाव का विरोध किया। यह मस्तिष्क की देन है । उनसे पूछें कि आप किस प्रकार अन्य लोगों से ऊँचे है। जर्मनी के लोग स्वयं को सर्वोच्च जाति मानते है। इस कहानी पर कौन विश्वास करेंगा। जर्मन के लोगों ने गैस कक्ष में डालकर बच्चों की हत्याएं की और उसका परन्तु आपका नि्लिप्त प्रेम बच्चे के लिए हितकारी है। जहाँ आवश्यक हो बच्चे की मांगों को नकार दें। आप को कहना चाहिए कि तुम्हारी बात पसन्द नहीं, ऐसा मत करो। निर्लिप्सा इससे भी विशाल है। जैसे कुछ लोगों को खाने का बहुत शौक होता है और खाने के मोह को छोड़ना उनके लिए कठिन होता है। एक आयु विशेष में उन्हें स्वादिष्ट खाने बहुत अच्छे लगते हैं। इसके विषय में गाँधी जी ने कहा है कि व्यक्ति को स्वाद नहीं लेना चाहिए। परन्तु सहजयोग में ज्यों-ज्यों आप बढ़ते हैं स्वतः ही ऐसा हो जाता है। स्वादों के प्रति आपकी चिपकन समाप्त हो जाती है। मैं यदि खाना न खाऊँ तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। इससे न तो मुझे दुर्बलता होती है खाने के विषय में सोचते रहना भी अपने मस्तिष्क को खराब करना है। "हम उनके घर गये तो उन्होंने बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजन बनाए थे।" क्या लाभ है? आप बहुत खा चुके हैं अब इसे त्याग दें। इसके विषय में अब आप क्यों सोचते हैं? या "मैं किसी के घर गया था उन्होंने मुझे बहुत बेकार खाना दिया" खाने के विषय में क्यों सोचते हैं? सोचने से आपको कोई लाभ नहीं होने वाला। जब आप जानते हैं कि किसी चीज में आपको स्वाद नहीं आनन्द लिया। इस प्रकार तो वे निम्नतम जाति के होने चाहिए। परन्तु वे स्वंय को सर्वोच्च जाति मानते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है। स्वय को दूसरों से ऊँचा या अधिक सुन्दर मानना, दूसरों को कुरूप मानना मस्तिष्क विक्षेप के कारण है। मस्तिष्क व्यक्ति को अंह की ओर ले जाता है। और अंह उसे है। सदा मूर्ख बनाता रहता दिव्य संत नारद ने सोचा कि वे बहुत महान है क्योंकि वे स्त्रियों से आकर्षित नहीं होते और उन्होंनं शिव को भी चुनौती दे दी। तब श्री कृष्ण ने एक चाल चली। उन्होंने नारद को सताने के लिए दो गन्धर्व भेज दिए वे नारद के पास गए और उनसे कहने लगे कि आप अत्यन्त सुन्दर और न प्रसन्नता। लेकिन पुरुष हैं, एक रूपवती राजकुमारी की शादी हो रही है। आप वहां क्यों नहीं जाते वो राजकुमारी नि:सन्देह आप का वरण करेगी। उन्होंने नारद के अहम् को इतना बढ़ावा दिया कि वह हवा में उड़ने लगा और स्वंय को सुन्दर मानकर स्वंयवर में चला गया। राजकुमारी माला लेकर उसके सामने से निकली, नारद को देखकर व्यंग्यात्मक रूप से हँसी और आगे बढ़ गई। नारद ने अगल-बगल देखा पर आएगा तो मत खाइये। उदाहरणत: बड़े जानवरों का मांस दांतों के लिए अच्छा नहीं है। बहुत से लोग मुझसे पूछते है श्री माता जी क्या आपके दाँत असली हैं उन्हें विश्वास नहीं होता कि ये मेरे अपने दाँत हैं । मैं जानती हूँ कि दाँतों के लिए हानिकर क्या है, परन्तु व्यक्ति को किसी भी विचार से लिप्त नहीं होना है। यह अधिक सूक्ष्म लिप्सा है जिसने जातिवाद और कट्टरवाद आदि की समस्याओं से विश्व का विनाश किया है। कुछ समझ ने सका। उसे बहुत क्रोध आया और उसी अवस्था में वह झील पर चला गया। झील के पानी में जब उसने झांका तो पाया कि उसकी मुखाकृति बन्दर सम है। अहम् व्यक्ति को बन्दर बना देता है। पर व्यक्ति स्वयं को अत्यन्त सुन्दर समझता है। व्यक्ति यदि सुन्दर होंगा तो उसे सोचने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। आप जो हैं उसके विषय में सोचते नहीं। आप कभी नहीं सोचते कि आप मानव हैं। अपने गुणों की डींग जब व्यक्ति हांकने लगता है तो माया के माध्यम से श्री कृष्ण कार्य करते हैं और उस व्यक्ति को अच्छा पाठ पढ़ाते हैं। अत: कभी स्वयं को बहुत बड़ी चीज़ न मान बैठें। अहम् ही यह विचार आपको देता है। इन विचारों में यदि आप फँस लोगों के अन्तर विरोध (Contradiction) को देखें। वे काले हाने के लिए समुद्र पर जाते हैं और दूसरी ओर उनमें जातिवाद की भावना है। तो समुद्र पर क्यों जाते हैं? आपमें काले लोगों के प्रति घृणा भाव क्यों है? मानसिक असन्तुलन इस प्रकार की असंगतियों का कारण है और इसी कारण आप जातियता की भावना से ग्रस्त हैं। यह 13 बहुत पुरुष और महिलाएं दिखाई पड़ते हैं। आप ऐसे किस प्रकार हो सकते हैं? आप लीलाधर के देशवासी हैं। उन्होंने सबको बचाया और राधा के साथ धोती क्यों पहनते हो। आपका गुरु आपको ठंड में क्यों रासलीला की। उन्होंने मानसिक शक्ति को ज्योतिर्मय करक उसे सम्भाला आप लोग किस प्रकार अधर्म, चरित्रहीनता तथा विनाश को अपना सकते हैं? वास्वत में श्री कृष्ण को ही अमेरिका के लोगों को इन मूर्खताओं से बचाना होगा। राजनीति में कोई भी विवेकशील व्यक्ति नहीं है। दूसरों की आलोचना करने में वे दक्ष है। जैसे भारत में जरा सा प्लेग फैला तो उनके पूरे समाचार पत्रों ने इसे छाप डाला। हमारे सारे जलपोतों, वायुयानों को वहाँ आने से रोक दिया, इतना हंगामा मचाया कि हमें विपत्ति में डाल दिया। एडज रोग जो आप पूरे विश्व को दे रहे हैं उसके बारे में आप क्या कहते हैं? श्री कृष्ण द्वारा प्रकाशित मस्तिष्क के लोगों का फ्रायड जैसे व्यक्ति को स्वीकार कर लेना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। नष्ट होकर अब आप चिन्तित है। उनके परिवार टूट रहे हैं। जिन भी तर्क संगत परिणामों पर वे पहुँच रहे हैं सभी कृष्ण विरोधी अन्य जीवित रहे । वे सोचते हैं कि लोग परस्पर लड़ते रहें और जो चाहें करें, हमारे पद बने रहने चाहिए। चरित्रहीनता की उन्हें कोई चिन्ता नहीं, यह अमेरिका के बच्चों, युवा तथा अन्य लोगों मुझे मुँह लटकाये गए तो आपके अहम् में हिटलर प्रवेश कर जाएगा और आप उसी की तरह आचरण करने लगेंगे। एक बार मैने एक हरे-रामा वाले व्यक्ति से पूछा कि इतनी ठंड मे तुम मारता है? मै माँ हूँ, मुझे यह मूर्खता पसन्द नहीं। पूर्णतः हास्यास्प्रद और मूर्खतापूर्ण बन्धन। अमेरिका के लोग इस प्रकार के बन्धनों के प्रति बहुत दुर्बल हैं। कोई भी मूर्खता आप आरम्भ करें अमेरिका के लोग सबसे पहले इसमें कुदेंगे। नशे, बेढबे कपड़े आदि-आदि। इनका आरम्भ तो पैरिस में होगा पर बिकेंगे अमेरिका में। वे सदा किसी नई चीज़ की तलाश में होते हैं चाहें वे बन्दर ही हो। श्री कृष्ण की भूमि में रहने वाले अमेरिका के लोगों में अच्छे-बुरे का भेद समझने का विवेक क्यों नहीं है, यह मैं नहीं समझ पाती। उनमें इस प्रकार की परिपक्वता नहीं है। उ विशुद्धि शासित हँसा चक्र पूर्णतया अवरुद्ध होने के कारण उनमें विवेक का अभाव है। एक अत्यन्त उच्च वर्ग की महिला अमेरिका आई और मुझसे शेखी बंघारते हुए हैं? मैं बताया, "क्या आप इंग्लैण्ड की मधुशाला में गई अच्छी से अच्छी मधुशाला में गई हूँ। यह आश्रम कहलाती हैं और यहाँ मृत मनुष्य के शरीर की दुर्गन्ध को तथा मकड़ी के जालों को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखा जाता है। " उसने बताया कि वहाँ उसे अत्यन्त अध्यात्मिकता का अभास हैं। शासक लोग नहीं चाहते कि कोई के लिए घातक है। हुआ। तब वही डींग हाकने लगी कि "हम स्वतन्त्र लोग हैं। मैं अपने बच्चों को मद्यपान करने देती हूँ।" इन बच्चों आज रात हम योगेश्वर श्री कृष्ण का गुणगान कर रहे हैं। वे खाकर भी नहीं खाते, सो कर भी नहीं सोते। पल्नियां होते हुए भी वे पत्नीविहीन थे। इसी कारण वे योगंश्वर हैं । आप लोग योगी हैं और वे आपके ईश्वर, अत: आप को भी उन जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए। उनके आशीर्वाद से अपने मस्तिष्क ज्योतिर्मय होने दें और सर्वगुण सम्पन्न महान व्यक्तित्व के लोग आप बन जाएं, ऐसे व्यक्तित्व जो सभी देख सकें, जो भले बुरे के भेद जानने के लिए आपको विवेक प्रदान करें और पूरे जी जान से इस अमेरिका को परिवर्तित करने का उत्साह आप में हो। आपको करने के लिए यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। श्री कृष्ण कुबेर हैं। धन के देवता हैं। उन्होंने आपको प्रचुर मात्रा में वैभव प्रदान किया है। हर तरह से आप आशीर्वादित हैं, आपके पास धन है, बुद्धि है, सभी कुछ है। सभी कुछ है पर विवेक का अभाव है। यह ऐसा ही है जैसे आपके पास कार हो, चाबी हो, पर आपको कार चलानी न आती हो, इसका परिणाम क्या होगा? की आयु मश्किल से बारह ओर चौदह वर्ष रही होगी। तीन-चार माह पश्चात हमें पता लगा कि उसके छोटे बच्चे का जन्म दिवस था पर उसके मित्रों के लिए सारी शराब उस महिला ने दी। वहाँ पूरा घर जल गया। कोई पुरुष कहेगा मेरे सम्बन्ध बहुत सी महिलाओं से रहे । में जाने का अच्छा रास्ता आपने अपनाया है, आप नर्क में ही जाएंगे। उन्हें यही बताया जाना चाहिए। इसी तरह मोमबत्तियां जल रहीं थीं जिनसे कुछ कितने मूर्ख हैं ये लोग। नर्क यदि आप चलते रहे तो आपका अन्त क्या होगा? विनाश के सभी साधनों को इकट्ठा कर रहे हैं।" श्री कृष्ण सम स्वामी के होते हुए भी, मैं नहीं समझ पाती कि सभी विनाशकारी चीजों को अमेरिका के लोग क्यों स्वीकार कर लेते हैं? सहजयोगियों को भी समझना है कि उन्हें स्वयं को इतना परिवर्तित करना होगा वकि सभी विनाशकारी चीजों को वे त्याग दें। परमात्मा आपको आशीर्वाद दें। चैतन्य लहरीं 14 परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का भाषण श्री मन्त सी० पी० श्रीवास्तव की पुस्तक विमोचन के अवसर पर 3-12-1994 (सारांश) मैं असमर्थ हूँ। पूर्ववर्णित लोग प्राय: निर्लिप्त थे उन्हें चुॅनाव आदि कराने की कोई इच्छा न थी। मुझे याद है कि जब मेरे पिता जेल से बाहर आये तो बल्लभभाई पटेंल ने उनसे कहा कि, "आपको चुनाव लड़ना है।" उन्होंने कहा, "मुझे इन्कार है, मैं राजनीति में नहीं जाना चाहता।" उन्होंने कहा, 'आपको जाना होगा।" वल्लभभाई पटेल मेरे पिता को राजनीति में जाने को विवश करते रहे और अन्त में विज्ञापन आदि छपवाने के लिए किसी को तीन हज़ार रुपये दे कर मेरे पिता के पास भेजा। मेरे पिता ने उत्तर दिया, "विज्ञापन के लिए पैसा भेजने की कोई आवश्यकता नहीं। बिज्ञापनों से यदि मैंने चुनाव जीतने हैं तो में जीतना नहीं चाहता। परन्तु इस घटना ने उन्हें चुनावों के लिए तैयार कर दिया में श्री लाल बहादुर शास्त्री के विषय में इतनी सुन्दर-सुन्दर बातें सुनकर, मेरा हृदय अपने पति के प्रति कृतज्ञता से भर गया है कि उन्होंने मेरी इच्छा को स्वीकार करके श्री लाल बहादुर शास्त्री पर यह पुस्तक लिखी। पहली बार जब मैंने लाल बहादुर शास्त्री को देखा था तो में जान गई थी कि वे अत्यन्त महान आत्मा हैं। ऐसे व्यक्ति को राजनीति में पाना मंरा बहुत बड़ा स्वप्न था। महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरे माता-पिता ने अपना स्वस्व न्यौछावर कर दिया। जब मैं महात्मा गांधी के साथ थी तो आत्मासाक्षात्कारी होने के कारण वे सहजयोग के विषय में जानते थे। परन्तु उन्होंने मुझे बताया कि अभी तक हम स्वतन्त्र नहीं हैं और बिना स्वतन्त्रता प्राप्त किये हम सहजयोग की बात था, चुनौती को उन्होंने स्वीकार किया और वास्तव नहीं कर सकते। भिन्न चक्रों के आधार पर उन्होंने अपनी चुनाव के लिए चल पड़े। आश्चर्य की बात है कि उस विधानसभा में चुने गए वे एकमात्र ईसाई सदस्य थे। उनके प्रतिद्वन्दी ने सब कुछ खो दिया, उसकी जमानत जब्त हो गई, यहां तक कि उसकी पुत्री ने मेरे पिपता की सहायता की। भजनावली लिखी। मैं अत्यन्त देशभक्त थी। अपने राष्ट्रीय ध्वज को जब जब भी देखती हूँ, मेरा गला अवरुद्ध हो जाता है। आज गाये देश भक्ति संगीत को सह पाना मेरे लिए कठिन हो गया। सम्भवत: ये मुझे हमारे देशवासियों के संघर्ष की याद कराते हों या हमारे देश की वर्तमान अव्यवस्था का या देश के प्रति मेरे हार्दिक प्रेम का स्मरण कराते हों । कोमल हृदय होने के कारण जब में पशुओं से भी बद्तर स्थितियों में रहते हुए मनुष्यों को देखती थी तो मेरी आँखों से आंसुओं की झड़ी लग जाती थी। श्री लाल बाहदुर शास्त्री को देखने के बाद मुझे लगा कि गांधी जी के बाद यह व्यक्ति हैं। प्राय: मेरे मात-पिंता, गांधी जी जैसे शहीदों को देखकर आपको आश्चर्य होगा, उन्होंने न तो कभी राजनीति की चिन्ता की और न ही राजनीतिक लाभ उठाने चाहे । उन दिनों वातावरण विल्कुल भिन था। देश के लिए बलिदान देने वाले लोग देश भक्त एवं सच्चे थे। उनका सम्मान होता था। मेरे पिता जब जेल में थे तो जहां कहीं भी हम जाते तो हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता जैसे सहजयोगी आप सब के साथ कर रहे हैं। हर व्यक्ति इन बहन भाईयों को सभी प्रकार की सहायता देता । वे बहुत साहसी लाग थे। वे राजनीतिज्ञ थे एक उद्देश्य के लिए व लड़ रहे थे, राजनेता वे न धन या पदवी के पीछे दौड़ने वाले थे। ऐसी चीज़ों को तो उन्हें समझ ही न थी, ये बातें उनकी समझ से परे थीं। विधान सभाओं का सदस्य बनने में उनकी कोई दिलचस्पी न थी। शास्त्री जी को मैंने देखा परन्तु अब एक साक्षात्कारी व्यक्ति ने राजनीति में उतरने का साहस किया था। इसके लिए वे अत्यन्त उपयुक्त थे। उनमें अन्तनिर्हित यह गुण मैं देख सकी। और कहा, "अब एक उपयुक्त व्यक्ति आया है।" मैं चाहती थी कि इस प्रकार का कोई व्यक्ति आगे आये क्योंकि मैं बहुत से त्यागमय, निर्लिप्त, निष्कपट और धार्मिक लोगों को जानती थी, परन्तु उन्हें चुनावों और विधान सभाओं में कोई दिलचस्पी न थी। पहली बार जब मैं लाल बहादुर आप यदि मुझसे राजनीति में आने को कहें तो मैं ऐसा नहीं कर सकती। शास्त्री जी ने मुझसे बहुत बार राजनीति में आने को कहा मैंने उन्हें बताया कि परन्तु 15 है, मैं उसे सुनना चाहूंगी, वे पूछते ठीक है "कार्यक्रम किस समय है?" "नौ बजे" मैं कहती। नौ बजे उन्होंने घड़ी देखना शुरु कर दिया, शास्त्री जी ने उनसे पूछा बात है?" उन्होंने कहा, "मेरी पत्नी ने मुझे 9 बजे संगीत के कार्यक्रम पर जाने के लिए कहा है"। शास्त्री जी ने कहा, "जल्दी से खड़े हो जाओ, तुम क्या कर रहे हो?" अपनी कार में बिठा कर मेरे पति को वहां छाड़ गए। "तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें एक बार जब कहीं जाने के लिए कह दिया तो कहीं और बैठे रहने का तुम्हें क्या अधिकार है?" उनमें इतनी मानवीयता थी। वे मातृ-भाव से परिपूर्ण शास्त्री से मिली तब वह पदारूढ़ थे। परन्तु, मेरे विचार से, उन्होंने मुझे अच्छी तरह से पहचाना था। क्या दो तीन प्रटनाएं मुझे याद है। पहली तो यह कि वे मेरा अत्यन्त सम्मान करते थे। सदा में उन्हें लेने के लिए हवाई अड्डे जाया करती थी एक बार स्वस्थ ठीक न होने के कारण मैं उन्हें लेने न गई। अपनी कारों इत्यादि के साथ वे आ रहे थे। अचानक वे हमारे भवन के सामने रुके और बिल्कुल अर्कले हमारे फ्लैट में आ गए। हवाई अड्डे क्यों नहीं आई? आपकी तबियत तो खराब नहीं? मैंने उत्तर दिया, श्री मन्त मैं ठीक हूँ, बस मामूली सी तबियत खराब है।" वे कहने लगे, "नहीं, नहीं हर बार तुम्हें हवाई अड्डे अवश्य आना है।" वे इतने अच्छे थे, इतनी छोटी-छोटी बातों का भी घ्यान रखते थे। आप थे। मेरे पति अत्यन्त परिश्रमी पुरुष हैं और जब वे घर पहुंचते हैं तो बातचीत से मैं उनके तनाव दूर कर सकती हूँ। परन्तु इतना परिश्रमी होने के कारण शास्त्री जी उनके लिए बहुत चिन्तित रहते थे। एक बार उनके बच्चे ने बताया कि "मैंने भाभी जी को देखा है, वे इसी शहर में हैं।" उन्होंने कहा, "वे कहां हैं? पता लगाओ।" उन्होंने पता लगा कर कहा "आपको दापहर के भोजन के लिए वहां होना है।" एक दिन मैंने कोई विशेष एक दिन उन्हें ज्वर हो गया, तुरन्त शास्त्री जी ने आप छुट्टी पर हैं। मैने सारा प्रबन्ध कर दिया है। आप शिमला चले जाएं शिमला जाने के लिए शास्त्री जी ने मेरे पति को विवश कर दिया। मेरी समझ में कहा, क पकवान खाया था, वह भी उन्हें याद था। सारी छोटी-छोटी बातें उन्हें याद थीं। मैं उन पर हैरान थी। मैं एक साधारण घरेलू महिला थी फिर भी वे मुझसे अर्थशास्त्र जैसे विषय पर बात करते, मुझसे पूछते "आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? आप अपनी गृहस्थि को बहुत अच्छी तरह चलाती हैं। आपके पति बहुत व्यस्त हैं।" मैंने कहा, "पहली प्राथमिकता यह हैं कि मेरे बच्चों को खाना मिले, दूसरे घर, तीसरे शिक्षा और सर्वोपरि उच्च चरित्र उन्हें प्राप्त हो। उनका चरित्र अच्छा होना चाहिए।" मेरी बेटियों का विवाह होने से पूर्व मैंने सहजयोग आरम्भ नहीं किया क्योंकि यह भी मेरा उत्तरदायित्व था। इसके लिए समय की आवश्यकता थी। नहीं आता था कि अपने पति के साथ किस प्रकार रहूँ क्योंकि उनके साथ मैंने कभी छुट्टी नहीं बिताई थी। श्री श्रीवास्तव अत्यन्त ईमानदार हैं, परन्तु छुट्टियों में हम शतरंज खेलते जिसमें वे सदा मुझे घोखा देते रहते। मैं कहती क्या हो रहा है, यही आपकी ईमानदारी है। वे कहते "अपनी पत्नी को धोखा देने की सार्मथ्य यदि आपमें हो तो इसकी आज्ञा है? तब हम चैरी खरीदने के लिए जाते हम दोनों वे कहते "ठीक है हम आधी को चैरी बहुत पसन्द 92 ७ आधी लेगें, पर मेरे लिए वे बहुत अधिक रख देते और अपने लिए बहुत कम। मैं कहती "ये क्या आप इतने कम क्यों ले रहे हैं।" तुम्हें भी चैरी पसन्द है और मुझे भी तो आपस में बदल लेते हैं। इसी बात धोखाधड़ी है । शास्त्री जी मेरे बच्चों की बहुत देखभाल करते थे, उन्हें लगता था कि उनके पिता घर न होने और अंति पर बहुत सा झगड़ी हाता। व्यस्त होने के कारण बच्चे बहुत कुछ न्योछावर कर रहें हैं। वे मुझे समझ गए थे कि मैं अपने देश के प्रति समर्पित एक विवेकशील महिला हूँ और अपने पति को देश के लिए कार्य करते हुए देख कर मुझे प्रसन्नता होती है। फिर भी वे मेरे लिए चिन्तित रहा करते थे। मुझे संगीत बहुत पसन्द है परन्तु मैंने संगीत के लिए जाना छोड़ दिया था जब मैं अपने पति से कहती कि फलां संगीतज्ञ आया घर में स्त्री को बहुत विवेकशील होना पड़ता है। उसे अत्यन्त प्रेममय और विवेकशील होना पड़ता है। मैं यह अवश्य बताना चाहूंगी कि अपने पिता के घर न होने के कारण मेरी दोनों बेटियों ने कभी मुझे तंग नहीं किया। उन्होंने सदा मेरी सहायता की और मैंने आपेक्षित साथ उन्हें दिया। उन्होंने कभी मुझसे शिकायत नहीं थी कि "हमारे पिता यहां क्यों नहीं हैं? हमारे पिता यहां क्यों नहीं आते? क्योंकि बिना पति के मैं न जाती थी। चहत्य स 16 झंडे को उतरते हुए और तिरंगे को ऊपर जाते हुए देखा। सभी बच्चों के पिता वहां होते परन्तु उनके पिता वहां न थे उन्होंने कभी इसके विषय में नहीं सोचा। सभी से मुझे सहायता मिली। अपने माता-पिता के साथ भी मैंने बहुत अच्छा बचपन गुजारा। उन्होंने हमें त्याग सिखाया। कई वर्षों तक पिता जी जेल में थे, माँ भी पांच बार जेल गई, महल छोड़कर हम लोग झोपड़ियों में रहने लगे। परन्तु हर चीज का हम आनन्द लिया करते थे। यह भावना, कि हमारे मात-पिता जो भी कर रहे हैं देश के हित के लिए ही कर रहे है। इतनी प्रेरणादायक थी कि छोटी-छोटी सुख सुविधाओं के लिए हमने कभी नहीं सोचा। कहीं भी हम सो सकते थे, कहीं भी रह सकते थे और कुछ भी खा सकते थे। उस समय अपनेपिता के मित्रों में मुझे बहुत से महान व्यक्तियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे अत्यन्त प्रगल्भ देशभक्त थे, अत्यन्त देशभक्त। वह क्षण मेरी कल्पना से परे है। आज भी मैं उन दिनों का स्मरण करती हूँ। आपमें से बहुत से भारतीयों ने वे दिन नहीं देखें होगें, यही कारण है कि आप इतने असावधान हैं। यही कारण है कि आपमें से कुछ लोग ये नहीं समझते कि कितने बलिदान करके यह स्वतन्त्रता प्राप्त की गई है। यह सहज स्वतन्त्रता नहीं है। यह बहुत कठिनाईयों से मिलो है। शास्त्री जी सभी कुछ त्यागकर स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े थे, देख भाल करने के लिए उनकी माँ थी। अपनी महत्वकांक्षाओं आदि को त्यागकर वे कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। उन दिनों लोग कांग्रेस से बहुत आर्कषित होते थे शास्त्री जी से युवाओं को आकर्षित किया। बहुत से युवाओं ने अपनी पढ़ाई आदि सभी कुछ त्याग कर देश के स्वतन्त्रता संग्रम में भाग लिया और अपने जीवन न्योछावर कर दिये। उनमें से अधिकतकर अत्यन्त निष्ठल और पवित्र थे। देश प्रेम ने उनके सौन्दर्य को और निखार दिया युवा लड़कियां, बहुत छोटे कद बुत के थे, उन्होंने बहुत एक बार लोगों ने हमें बताया कि वे राजनीतिक कैदियों का स्थानान्तरण किसी अन्य स्थान पर कर रहे हैं, और इसलिए वे प्लेटफार्म पर हैं हम सब उन्हें देखने के लिए प्लेटफार्म की ओर दौडे। एक महात्मा थे जिन्हें बहुत सम्मानमय उसने मुझे बुलाया और मुझसे पूछा, " तुम क्या कर रही हो? तुम 1942 के आन्दोलन में भाग क्यों ले रही हो? अपनी मां की देखभाल क्यों नहीं करतीं? तुम्हारी मां बहुत चिन्तित हैं ।" उन्होंने मुझे एक बड़ा सा भाषण दे डाला। नि:सन्देह |942 का आन्दोलन एक छोटी सी लड़की के लिए अग्नि परिक्षा सम था। मुझे बर्फ पर लिटाया गया और बिजली के झटके तथा अन्य सभी प्रकार के कष्ट दिये गये। परन्तु ये कष्ट मुझे विचलित न कर सके। मेरे पिता जी ने मुझे एक और बुलाया और कहा, इस बूढ़े व्यक्ति की तुम्हें ये सब मूर्खतापूर्ण बातें कहने की हिम्मत कैसे हुई। मैं तुम पर गर्वित हूँ। मुझे आशा है कि मेरे सारे बच्चे तुम्हारे जैसे बन कर स्वंय को देश के लिए बलिदान कर देगें। तब वे मेरी माँ पर चिल्लाये, तुम फला-फलां परिवार की बेटी हो। इस प्रकर के पत्र लिखने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, इस से तुम्हारा क्या अभिप्राय है। मैं तब बहुत छोटी थी, कोई 17-18 वर्ष की। वे कहने लगे, 'आगे बढ़ती जाओ, मैं पूरी तरह से तुम्हारे साथ हूँ।" इससे मुझे शिक्षा मिली कि यदि आपमें अपने समपर्ण और लक्ष्य के प्रति पूर्ण पवित्रता है तो आप लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। पर जैसा कि गांधी जी ने कहा है सर्वप्रथम हमें स्वतंत्र होना होगा। मैने बर्तानवी लड़के, वृद्ध, पुरुष एवं महिलाें। भ्रष्टचार जैसी कोई चीज न थी। दिन रात हम मिलकर कार्य करते थे। जंगलों में रहकर सारे कार्य करने के कुछ कटु अनुभव भी मुझे हैं। मेरी जीवनी यदि लिखी गई तो उसमें आप यह सब पढ़ सकेंगे। माना जाता था, लोगों के जीवन में देश के प्रति पवित्र प्रेम है जो कि देश प्रेम से भिन्न है। पवित्र प्रेम का अर्थ है, देश के प्रति निस्वार्थ प्रेम, धन या सत्ता हेतु, प्रेम नहीं। व्यक्ति अन्न्तजात धर्म के कारण देश से प्रेम इन महान करता है। इस प्रकार के प्रेम का यदि किसी देश में अभाव हैं और वह विश्व के देशों का सदस्य बने तो वह केंसर सम होगा। अपने देश के प्रति पवित्र प्रेम इतना अच्छा ८ हैं। मैं देखती हूँ कि एक बार परिवर्तत होते ही सहजयोगी अपने देश की कमियों को देखने लगते हैं। यह पवित्र प्रेम, भेद, प्रेमोन्नमाद या अन्धविश्वास नहीं है। वे देखते हैं। मेरे विचार में अपने देश की कमियों को देखना अत्यन्त आवश्यक है, जैसे यदि आप अपने बच्चे को प्रेम करते तो उसकी कमियों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। आप बच्चे से प्रेम भी करें और उसकी कमियों को भी देखें। अन्यथा हम सीखते नहीं। यह हमारा स्वामित्व भाव, प्रेमोन्नमाद या बन्धन है। कितनी आश्चर्यजनक बात है कि 17 साधारण बिस्तर पर सोते। "आप ऐसे सन्त क्यों है? अच्छे बिस्तर पर क्यों नहीं सोते? हमें हमारी खातिर आपको यह करना होगा।" वे कहते "यहां पर मुझे अधिक आराम मिलता है" वे अत्यन्त निर्लिप्त व्यक्ति थे जब वे रूस जा रहे थे तो सब को लगा कि उनका कोट रूस की ठंड रोकने के लिए पर्याप्त नहीं। उन्होंने मुझे यह बात उनसे कहने के लिए कहा। वे सी्पी० आपकी चेतना की सूक्ष्म जागृति होते ही आप देखने लगते है कि देश में क्या त्रुटि है और उसके लिए हानिकारक या विनाशकारी क्या है। तब आप इसे सुधारना चाहते हैं। आपकी आवश्यकता है, लाल बहादुर शास्त्री के. साथ भी ऐसा हुआ। उन्होंने बहुत बार मुझसे पूछा भारत की भोजन समस्या को किस प्रकार सुधारा जाए? अब आप जानते हैं कि सहजयोग द्वारा यह सम्भव है। मैं उन्हें सहजयोग के विषय में तो न साहब के पास गए और सी्पी० साहब ने उनसे कहा "श्री मन्त, क्या यह उचित नहीं होगा कि आप अपने लिए एक और कोट बनवा लें?" वो कहने लगे, "तो ये लोग आप के पास भी पहुँच गये?" उनके लिए एक कोट बनवा लेना भी कठिन कार्य था। कभी वे अपने जेब में रुपये-पैसे न रखते थे। नये सिक्कों का उन्हें कोई ज्ञान न था अत: हवाई पतन पर मैं उनके साथ होता और वे मुझसे कहते "यह महिला मुझे शान्ति झण्डा लगाने आ रही है और मेरे पास पैसा नहीं है, क्या करूं?" मैने कहा, "ठीक है उसे कुछ दे दो।" मैने उस महिला को एक रुपया दिया। वे कहने लगे, "तुम्हारे पास कोई सिक्का नहीं है?" मैंने उत्तर दिया, "सिक्का दस पैसे का है।" "वह क्या है?" मैंने कहा, बता सकी परन्तु यह अवश्य बताया कि एक दैवी विधि है जिसके द्वारा यह कार्य किया जा सकता है। कृषि आयकर मुक्त होनी चाहिए और इसे अत्यन्त महत्व दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त भी वे मुझसे बहुत सी बातें पूछते। कश्मीर के बारे भी उन्होंने मुझसे पूछा। मैंने उन्हें बताया कि अलग सविधान बनाना ही सबसे बड़ी गलती थी। इससे अलगाव का अवसर मिल गया। उनका पूर्ण चित्त अत्यन्त पवित्र था। वे सदा सोचते रहते कि किस प्रकार भिन्न लोगों, भिन्न धर्मों तथा विचारधाराओं में मधुर सम्बन्ध स्थापित किए जा सकते हैं। उनके पास इसकी कला थी। मेरे विचार से वे लोगों की कुण्डलिनी उठाते रहते होंगे, वे व्यक्ति का पूर्ण परिवर्तन कर देते थे। उनकी शैली इतनी सामूहिक थी कि वे बगीचे में खड़े हो जाते और जो भी वहां आता उससे मिलते। उनकी स्मरण शक्ति अथाह थी। मुझ में भी है, अत: मैं हैरान होती कि मुझ सी अथाह स्मरणशक्ति आजकल यह एक रुपये का दसवां हिस्सा है" "ओह में समझा, अच्छा होगा तुम उसे एक नोट दे दो।" वे उस महिला को सिक्का देना चाहते थे क्योंकि यह, मंगलमयता का प्रतीक है। चीजों से वे इतने निर्लिप्त थें एक अन्य व्यक्ति में भी है। यह स्मरणशक्ति कभी कभी तो मेरे लिए उलझन बन जाती है, पर शास्त्री जी के लिए यह वरदान थी क्योंकि वे लोगों से छोटी-छोटी बातें पूछते, जैसे "अब आपकी माँ कैसी है?" या "क्या आपको घर मिल गया है?" ये बहुत सूक्ष्म बातें हें। वे मातृत्व से परिपूर्ण थे। श्री मन्त सी०पी० से उन्हें अत्यन्त प्रेम था। मैंने उन्हें बताया कि आप थोड़ा विश्राम किया करें और थोड़ी ध्यान-धारणा। समय का उनके पास अभाव था। कहने लगे "उल्का (Shooting Star) की तरह चमकना अच्छा है," मैंने कहा "उल्काएं तो अच्छे सितारे नहीं होते।" पर वे अत्यन्त कुशलतापूर्वक कार्य कर रहे थे, जिस प्रकार वे मुझसे प्रश्न करते में दंग रह जाती कि कितनी कुशलता और सूक्ष्मतापूर्वक वे देश को सुधारना चाहते हैं। उन्होंने कहा, "हम क्या करें?" मैने कहा, "सर्वप्रथम हमें पानी मिलना चाहिए।" वे कहने लगे, " मैं जानता हूँ कि हर गांव में पानी होना आवश्यक है।" गांधी जी अपनी पत्नी से कहा करते थे कि कुएँ पर जाओ और मेरे लिए पानी ले आओ। एक दिन मैंने उनसे कहा, "बा लाओ मैं पानी ला देता हूँ, आप क्यों ये कार्य कर रही हैं?" बा कहने लगी, "नहीं नहीं मेरे पति नाराज होंगे, उन्होंने मुझसे कहा जब तक हर गांव में पानी नहीं आ जाता तुम मेरे लिए पानी लाती रहो।" भी कहा, "तीसरे दर्जे में यात्रा करने वाले लोगों के लिए पंखे नहीं हैं।" उन्होंने रेल के डिब्बों में और प्रतीक्षालयों में पंखे लगवाए। पूंजीवादी होते हुए भी वे एक प्रकार आप तो अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। आप नहीं जानते कि आप है, कितने महत्वपूर्ण हैं। जिस दिन आप इस बात को जान शास्त्री जी भी ऐसे ही थे। उन्होंने जायेंगे, अपना ध्यान रखने लगेंगे।" वे घर के अन्तिम भाग में रहा करते थे। इतने नम्र थे कि जो भी कुछ उन्हें खाने को दिया जाता, खा लेते। चैतन्य लही 18 गृह की और नंगे पांव आते हुए देखा। मैंन कहा मन्त, आपने जूते, जुराबें नहीं पहनी।" वे कहने लगे, "मैं एक सन्त से मिलने आया हूँ।" वे आये और मेरे चरणों में बैठ गए। श्री से साम्यवादी थे। प्रेम और देश भक्ति से वे इतने परिपूर्ण थे। प्रेम के कारण वे किसी को कष्ट उठाते हुए न देख सकते थे। जो कुछ भी उनके वश में होता वे करने का प्रयन करते। 18 महीने वे पद पर रहे। एक उल्का की तरह। भारत महान देश है। इस देश में सन्तों की पूजा की जाती है। यहां चर्च सन्त नहीं बनाते परन्तु वास्तविक सन्त हैं जिनकी सम्राट भी पूजा करते हैं और सम्मान करते हैं। मेरे विचार में भारत ही केवल एक ऐसा देश है जिसमें ऐसा होता है। रूस दूसरा देश हैं, वहां भी लोगों ने मेरा बहुत सम्मान किया। शास्त्री जी जब वहा गए तो मैं बहुत प्रसन्न हुई थी क्योंकि मैं जानती थी कि रूस के लाग अध्यात्मिक अत्यन्त अन्तर्दर्शी और धर्म आदि के बन्धनों से मैं सदा अपने पति को शास्त्री जी की सहायता करने के लिए कहती रही क्योंकि मैं उन्हें पहचानती थी। मेरे मन में एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना थी जो देश में क्रांति लाकर लोगों को उच्च मूल्यों तक ले आये। धन आदि से उनका कोई सरोकार नहीं था। |ार शास्त्री जी शास्त्री थे और हमारे शास्त्रों का उन्हें गहन ज्ञान था। उन्होंने कुरान और बाइबल का अध्ययन किया और सभी चीजों को पढ़ा। मैं कई बार उनसे अपने पिता की बताई बातों के विषय में बात करती तो वे कहते, "हां यह ठीक है।" कुरान के विषय में वे कहते "हां, यह ठीक है।" दूसरे लोगों को कायल करने की उनकी योग्यता अत्यन्त विशिष्ट एवं सूक्ष्म थी। वे पहले मुस्कराते, फिर प्रतीक्षा करते, अधिक सुनते और कम बोलते। परन्तु मुक्त हैं। शास्त्री जी के जीवन में बहुत से कार्य सम्पन्न हुए। वे अब जीवित नहीं है, परन्तु मुझे आशा है कि यह पुस्तक विश्वभर में पहुँचेगी और राजनितिज्ञों की आंखे खोलेगी और वे अपना पुन: मूल्यांकन करेंगे। सुक्रांत ने हितैषी सम्राट की बात कही। एक जमाने में श्री राम हितैशी राजा थे। लाल बहादुर शास्त्री को जब मैंने देखा तो कहा, "य राजा हैं।" हमारे दुर्भाग्यवश वे बहुत कम समय जीवित रहे। हम भारतीय अधिक भाग्यशाली नहीं हैं, परन्तु अब उनके जीवन को जन जन तक पहुँचाना हम पर निर्भर करता है। यहां पर पूरे विश्वभर से सहजयोगी आये हुए हैं वे इस पुस्तक को ले जा कर राजनीतिज्ञों को भेंट कर सकते हैं; यदि उनके पास इसे पढ़ने के लिए समय हो ! उनके लिए यह समझना आवश्यक है कि कहीं कुछ और अधिक मूल्यवान व्यक्ति भी हैं धन ही सभी कुछ नहीं। मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया जिसने किसी बहुत अधिक धनवान, बहुत सी पत्नियों या रखैलों वाले या किसी शराबी का बुत बनाया हो। वर्तमान मूल्य न केवल आपको नष्ट करेंगे बल्कि राष्ट्रों के राष्ट्र नष्ट कर ये हितैपी एक वाक्य जो वो बोलते वह अत्यन्त प्रभावशाली होता। उनमें कुछ अत्यन्त दिव्य था। मेरे प्रति वे इतना सम्मान दशति कि मैं सकुचा जाया करती थी। हमारे देश में सन्तों की पूजा और सम्मान होता है। निमन्त्रित किया मुझे याद है राष्ट्रपति संजीवा रैड्डी ने मुझे था क्योंकि मैंने उन्हें कैंसर रोग से मुक्त कर दिया था। जब मैं उनके यहां पहुंची तो देखा उन्होंने सभी कुछ चन्दन की लकड़ी का बनाया हुआ था। चन्दन की लकड़ी से बनी कुर्सी पर मैं बहुत सावधानी पूर्वक बैठी। भिन्न प्रकार के फल और एक सुन्दर खुदाई की हुई चांदी की तश्तरी ले कर अपनी पत्नी के साथ वे आये और दोनों मेरे चरणों में बैठ गए। मैने कहा, "श्री मन्त आप भारत के राष्ट्रपति रहे हैं?' हैं।" आप ये क्या कह रहे हैं, यहां क्यों बैठ देंगें। इस पुस्तक का विशेष महत्व है, जिसके द्वारा मेरे विचार से, बहुत से लोग शीशे में अपनी वास्तविकता को देख सकेंगे और अपना सुधार कर पायेंगे। यह भी हो सकता हैं कि राजनीति क्षेत्र में हमें कुछ अच्छे और विवेकशील व्यक्ति प्राप्त हो सकें। यह मेरा विचार था और मैंने ही अपने पति को यह पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया। वे कहने लगे, "मैं राष्ट्रपति हूँ परन्तु आप सन्त ह लेना होगा।" मैंने एक सेब लिया और उन्हें बताया कि मैं और कुछ स्वीकार नहीं कर सकती। उन्होंने ही हमें हमारे आश्रम की जमीन दी है। कश्मीर के गर्वनर भी बहुत अच्छे व्यक्ति थे और मेरे प्रति अत्यन्त कहने लगे, "आपको कुछ सुहृदय। परन्तु वे मुझे श्री मन्त श्रीवास्तव की पत्नी के रूप में जानते थे। एक दिन मैंने उन्हें कश्मीर में अतिथि परमात्मा आपको धन्य करें। 19 প ---------------------- 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-0.txt य১১১ ২১২১১২১১১১১২১২২১২ चैतन्य लहरी ीं हिन्दी आवृत्ति ख ।।। आक 5 य 6 सभी सहजयोगियों को कला का ज्ञान होना चाहिये तथा उन्हें चाहिये कि विशेषकर हस्तकला रचित को प्रोत्साहन दे इस प्रकार पर्यावरण सम्बन्धी समस्या का स्वतः ही समाधान हो जायेगा। परम पूज्य माताजी श्री निर्मता देवी ৭ ६ ৭ p৭১६? ॐ प 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-1.txt चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी खण्ड VII, अंक 5 व 6 -: विषय-सूची :- तकी जन्म दिवस पूजा, दिल्ली 20-03-95 1 1. श्री योगेश्वर पूजा - न्यू जर्सी 2-10-1994 6. 2. श्री मन्त सी०पी० श्रीवास्तव की 3. पुस्तक विमोचन के अवसर पर 3-12-1994 15 श्री योगी महाजन सम्पादक श्री विजयनालगिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली 110067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 35, ओल्ड राजेन्द्र नगर मार्कट, नई दिल्ली- 110 060 फोन : 5710529, 5784866 मुद्रित चतन्य लहरी 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-2.txt जन्म दिवस पूजा, नई दिल्ली 20-03-95 का प्रवचन परमपूज्य श्री माता जी निर्मला देवी पर उसमें भी खुले आम कोई गलत काम करने की हिम्मत नहीं क्योंकि समाज इतना जबरदस्त हैं कि उसे खींच लेंगा। इसलिए जो बात में आज आपको बताने वाली हूं वो ये है कि एक अपने देश की संस्कृति इतनी ऊंची जो अब भी मानी जाती है और अब भी अपने यहां लोग नैतिकता का स्तर मानते हैं। ऐसे देश में विचार करना चाहिए कि यहां किसने इतना अधिक कार्य किया। ये कार्य स्त्रियों ने किया। भारतीय स्त्री की शक्ति ने और इस शक्ति के सहारे उसने अपने बाल-बच्चे, अड़ोस-पड़ांस और सारे समाज की भी धर्म पर स्थापना की । हालांकि अब विदेशीं संस्कृति का असर आ रहा है और उसे हो सकता है कि हम लोग भी थोड़े बहुत प्लावित हो सकते हैं। पर अतिशयता में जाना बड़ी कठिन बात है क्योंकि हम लोग जकड़े हुए हैं अपने देश की परम्पराओं में। अपना देश इतना सौभाग्यशाली है कि यहां पर एक से एक महात्मा हो गए इतने सन्त हो गए, इतने यहाँ पर अवतरण हुए, हिन्दू धर्म में ही नहीं मुसलमानों में भी और आप जानते हैं सिखों में बड़े-बड़े धर्मात्मा इस देश में आए। इस देश की जो विशेषता है कि इस भूमि में ही जैसे आध्यात्म फंसा हुआ है। न जाने कैसे लोग अध्यात्म की ओर चलते हैं और मानते हैं! अपने ही जन्मदिन में क्या कहा जाए? जो उम्मीद नहीं थी वो घटित हो गया है आप इतने लोग आज सहजयोग में दिल्ली में बैठे हुए है, इससे बढ़कर एक माँ के लिए और कौन सा जन्म दिन हो सकता है? आप लोगों ने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है, ये भी आप का जन्मदिन है। एक महान कार्य के लिए आप लोग तैयार हुए हैं। ये महान कार्य आज तक हुआ नहीं। उसके आप संचालक हैं। इससे बढ़कर और मरे लिए क्या सुख का साधन हो सकता है? कभी सोचा भी नहीं था कि अपने जीवन में ही इतने आत्मसाक्षात्कारी जीवों के दर्शन हांगे और इतना अगम्य आनन्द उठाने को मिलेंगा। एक वातावरण की विशेषता कहिए जिसमें कि आज मनुष्य एक भ्राति में घूम रहा है। एक तरफ विदेश की तरफ नजर करने पर ये समझ में आता है कि ये लोग एकदम ही भटक गए हैं। वहाँ पर नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रहा । अनीति के ही रास्ते पर चलना, अग्रसर होना वो बड़ी बहादुरी की हा। चीज समझते हैं और सीधे नरक की ओर उनकी गति है। ािन इस गतिमान प्रवृत्ति को रोकना बड़ा ही कठिन काम है, लेकिन वहाँ भी ऐसे अनेक हीरे थे जिन्होंने सोचा कि बाहर आएँ। सहजयोग की प्रणाली में हम लोग संतुलन में खड़े हैं। मतलब भारतीय संस्कृति में जो गंदगियां हैं उसे तो बिल्कुल निकाल ही देना पड़ेगा और निकल जाती हैं। सहजयोग में आने के बाद बहुत से लोग इस चीज़ को छोड़ देते हैं। लेकिन अब भी मैं देखती हूं कि कुछ न कुछ चीज़ों से बंधे हुए सहजयोगी हैं और इसका कारण है कि इतने दिनों से जो चीजें चली आई हैं और मान्यता रही उसके प्रति एकदम उदासीन हो जाना उन्हें कठिन लगता है। दूसरी तरफ देखने पर हमें पता चलता है कि मनुष्य के लिए बुरी तरह से कठिन परिस्थितियाँ बनाई गई हैं कि आप अपने जीवन को एक कठिन बंधन में बाँध ले कि हम धार्मिक हैं और अगर आप धर्म नहीं करेंगे तो आपके हाथ काट देंगे, आपकी आँख निकाल देंगे, आपको जमीन में गाड़ देंगे। ये अतिशयता हो गई और इसके साथ-साथ दूसरी तरफ जैसे मैंने बताया बहकाव की भी अतिशयता है। दोनों तरफ अतिशयता है। आपको समाधान करना चाहिए कि आप इस भारतवर्ष में उत्पन्न हुए, इसकी संस्कृति जो है वो संतुलित है। हमें इतना बताया नहीं गया है धर्म के बारे में। किसी ने खास चर्चा भी नहीं करी। लेकिन अधिकत्तर हिन्दुस्तानी अधर्म में नहीं उतरते। ये दूसरी बात है उसके पास अगर पैसा आ विशेषकर अब हम लोग उत्तर हिन्दुस्तान में बैठे हुए हैं। मैं देखती हूं उत्तर हिन्दुस्तान में या तो मुसलमानों के परिणामस्वरूप हो, चाहे जैसा भी हो औरतों की दशा बहुत खराब है। औरतों को बहुत छला जाता है, सताया जाता है। शक्तिस्वरूप औरत का कोई मान नहीं है। कहा जाता हैं यत्र नार्या: पूज्यंते, तत्र रमन्ते देवता। कहा जाता है जहां स्त्री पूज्यनीय हो और उसकी पुजा की जाती हो वहीं देवता रमण करते जाए बहुत, उसका दिमाग खराब हो जाए या वो राजकारण में चला जाए या और कोई इसी तरह की चीज को प्राप्त कर ले तो हो सकता है कि उसको ये बहकावा मिल जाए। गाट 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-3.txt पहले तो स्त्री भी पुरुष का मान रखें और पुरुष भी स्त्री का मान रखे। मैं देखती हूं कि सहजयोग में अब बहुत कुछ ठीक हो गया लेंकिन हम लोग जब शादियां करते हैं. सहजयांग में, तो जिन लड़कियों की शादियां इंग्लैंड-अमेरिका में हुई उनका दिमाग खराब हो जाती है, सबका नहीं, और उल्टी बात ये है कि जिन लड़कियों की शादियां हिन्दुस्तान में होती है वा तो कहती हैं कि भगवान बचाए रखें बाबा! है। इसका मतलब यह नहीं कि औरतों का ही राज हो या वो किसी तरह से आततायी हों। इसका मतलब यह है कि स्त्री पहले पूजनीय होनी चाहिए, उसके अन्दर पूजनीय गुण होने चाहिए। वो अगर पति का अपमान करती है और अपने बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देती और भी गलत-सलत काम करती हो तो वा स्त्री तो पूजनीय हो नहीं सकती और वही स्त्री पूजनीय होती है जो अत्यन्त प्रेममयी हो। जिस औरत में प्रेम का सागर बसा हो, लोग उसी को पूजते हैं, और जो नहीं है उसके सामने तो चाहे न कहें कोई कुछ, पर पीठ पीछे उसकी बुराई करते हैं । सांस, संसुर, ये वो, मार झंझट। सब लोग तो मारने को दौड़ते हैं। कहने का मतलब ये कि संतुलन न तो वहाँ है न यहाँ। ये संतुलन स्थापित करने के लिए सहजयोगियों को समझ लेना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं कि कांई पति को अपने सिर पर बैठा ले, या काई पत्नी को सिर पर बैठा ले। हमारे यहां स्त्री को शक्ति माना जाता है, पर शक्ति हे जैसे ये आप इतने यहां पर विजली का प्रदर्शन देख रहे हैं ये स्वयं शक्ति नहीं, शक्ति तो कहीं और से आ रही है और इसका यहां प्रदर्शन मात्र है। तो इसी तरह स्त्री एक शक्ति स्वरूप होती है, पर इसका प्रादुर्भाव जो है वो बाह्य में पुरुष के रूप में होता है। उसके बच्चे, उसकी रिश्तेदारी के लोग, उसके पति, उसके ससुर, ये सब पुरुष उस स्त्री की शक्ति से प्लावित होते हैं और उस प्रेम की शक्ति से प्लावित होने के बाद उनमें भी एक तरह का बड़ा अनूठा इसका मतलब है कि प्रत्यक का एक मूल्यांकन होना चाहिए। सबको Valuation करने के बाद आप समझ सकते हैं कि कहाँ तक आप संतुलन में है। आप दूसरों की बात मत सोंचिए, अपनी बात सोचिए। जहाँ आपको जो कहना है वो कहना ही होगा और जो कुंछ आपको सुनना है वो सुनना ही होगा। मैं देखती हूँ कि सहज योग में हमने पहले शुरुआत सा संतुलन बन जाता है। पर जहां पर ये स्थिति नहीं होती जहां पर घर की माँ और घर की र्त्री और रिश्तेदार इन औरतों में उस प्रेम का प्रदर्शन नहीं होता है, उल्टे क्रोध आदि षडरिपुओं से अगर वो भरी रहती हैं तो ऐसे घरों में कभी भी प्रेम या आनन्द आ ही नहीं सकता। ये स्त्री का ही एक बड़ा भारी कार्य है। उसमें हम दबे जा रहे हैं। ये क्या शक्ति है जो सोचती है कि मैं दबे जा रहीं हूँ। वो तो ये सोचती है, कि ये प्रकाश देना मेरा कर्त्तव्य है और उसे मैं कर रही खुशी-खुशी सारा काम करती है। इस समझ का आना जरूरी है हांलाकि औरतों को इतना दबाया गया है, इस समझे के कारण इतनी उनकी अवहेलना करी है । एक दूसरी चीज खड़ी हो रही है जो कहती है समाज में कि ये औरतो पर दबाव हम चलने नहीं देंगे। हम पुरुषों को ठिकाने लगा देंगे। उनसे हम हर चीज़ में लड़ेंगे। उनको हम बिल्कुल बेकार कर देंगे। ये सब करके देख लिया और देशों में। जहाँ-जहाँ ये हो रहा है वहां के बच्चों का हाल देख लीजिए और वहां की सब चीजों का हाल देख लीजिए। अब समझें इसमें क्या है कि मनुष्यों में ये समझ आनी चाहिए। मनुष्य में ये समझ सिर्फ स्त्रियों में ही नहीं पुरुषों में भी आनी चाहिए। ये पुरुषों को सोच लेना चाहिए कि हमारी स्त्री जो है ये स्वयं साक्षात् कुटुम्ब से की। कुटुम्ब व्यवस्था से सहजयांग का धीरें धीरे बाँधा हैं और जब कुटुम्ब ठीक हो गए फिर उसके बाद हमने एक-एक चीज पर कदम रखा है। आज आपको पता है कि ये पच्चीसवां सहस्त्रार इस बार मनाया जाएगा। 25 साल हा गए जब सहस्त्रार खुला था, तब से लोगो ने इस चीज को प्राप्त किया और प्राप्त करके इससे बड़े प्लावित हुए, पुष्ट (nourish) हुए। आज इस स्थिति में आ गए। अब हमारे लिए आगे क्या कर्तव्य है? कुटुम्ब से शुरुआत करें ता कुटुम्ब में हमे शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। पहली चीज है शांति। जहाँ शांति नहीं होगी कोई चोज वहाँ पनप नहीं सकती। समझ लीजिए यहाँ गमले रखे हैं और ये सब हिलने लग जाएं, ता ये बढ़ेंगे? खत्म हो जाएगे। तो सबसे पहली चीज हमे शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। इसमें आदमी को भी मान देना चाहिए और औरतों को भी समझ रखनी चाहिए। दोनो जगह ये चीज रखने से पहले घर में शांति होने से अपने बच्चे जो है वो सुरक्षित रहें और उनके अंदर अपने प्रति, स्वंय के प्रति एक जागरुकता आएगी और वे समझ लेंगे कि वो भी सहजयोगी हैं और माँ-बाप भी सहजयोगी हैं। उनका परमकर्त्तव्य होता है कि वे अपने माँ-बाप का नाम और भी उज्जवलित करें। लक्ष्मी स्वरूप है और इसका मान हमें रखना चाहिए। धैतन्य लहरी 2. 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-4.txt हिन्दी भाषा आनी चाहिए सहजयोग में। मैं चौदह आपकी Official मान्याता प्राप्त भाषाओं में कैसे बोल सकती हूँ और आप से वार्तालाप कर सकती हूँ। तो जो भाषा माँ को आती है, हिन्दी मेरे समझ में आती है। हिन्दी मैने कभी पढ़ी नहीं, कभी हिन्दी मैने सीखी नहीं, पर हिन्छी भाषा का हमेशा मुझे बड़ा मान रहा और इसलिए हिन्दी भाषा मुझे आती है। इसलिए आप लोग सब अगर हिन्दी भाषा सोख लें तो सहजयोग पर बड़ी मेहरबानी हो जाएगी और इससे आप लोगों का भी बड़ा लाभ हो जाएगा। बहुत से लोग हिन्दी सीख गए। मेरे टेप सुनकर बाहर परदेस के लोग जो हैं वो बड़े जोर से चिपक जाते हैं किसी चीज़ पर। वो लोग हिन्दी बोलने लग गए और हमारे यहाँ अब भी बहुत से लोग हैं जो ये कहते हैं कि माँ हिन्दी में भाषण मत दो। आपको चाहिए तो तमिल में दो या तेलुगु में दो। मुझे नहीं आतीं, न तमिल न तेलुगु। मैं क्या करू, इसलिए ये जो भी हमारे अन्दर भेद हैं इनको बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए। जातीयता के भेद तो हैं ही हमारे अन्दर बसे हुए। एक साहब मुझे कहने लगे हाँगकाँग में कि हिन्दुस्तान में जातीयता बहुत है अब भी अब भी सहजयोगियों में जातीयता है। वो ब्राह्मण हैं साहब। मैंने कहा अच्छा बताइये कि क्या आप किसी हरिजन से शादी करेंगे। घबरा गये हरिजन से ! अरे भई हरि क जन हैं उनसे शादी करने में क्या? हरिजन से नहीं कर सकते। तो पहले बाकी सब लोगों में हो लें। लेकिन परदेश में ये झगड़ा ही नहीं। कितनी हरिजन लड़कियों की शादियाँ मैने बाहर करवा दीं और लड़कों की भी उनको पता ही नहीं जाति-पाति करके कोई चीज़ भी होती है, कोई हरिजन होता है। इस प्रकार हमारे अंदर इतनी भिन्नता का स्वभाव है हम भिन्न हैं, वो भिन्न हैं। अब भिन्नता भी आवश्यक चीज़ है। परमात्मा ने हरेक को भिन्न-भिन्न बनाया हरेक की शक्ल अगर एक बनाते तो कोई भी किसी को पहचान नहीं पाता| जैसे कोई आपने फौज खड़ी कर दी, ऐसे सबकी शक्ल हो जाती। तो भगवान ने ऐसी सृष्टि की कि एक पत्ता दूसरे से नहीं मिलता। ऐसे पत्ता बनाया है कि ये पत्ता कहीं आप दुनिया में जाकर ढूंढे तो बिल्कुल ऐसा नहीं हो सकता बताइये! ये उसकी कमाल हैं! पर गर ये सोचने लग जाए कि भिन्नता ही हमारी विशेषता है तो फिर आप पत्ते के ही स्तर पर हैं उससे आप उठे ही नहीं। उससे उठकर देखिये तो आप समझ जायेंगे कि आप जो हैं वो एक विशेष व्यक्ति, योगीजन, जिनकी कि जात-पात कुछ भी नहीं। शास्त्रों में लिखा है कि संन्यासी की जात-पात कुछ भी नहीं। सन्यासी हो गये! अब अब मैं देखती हूं कि सहजयोग बढ़ते-बढ़ते एक समाज में तो आ ही गया है किंतु और भी क्षेत्रों में बढ़ रहा है। मानों अब हम लोग जैसे कोई मद्रास से आया है, कोई महाराष्ट्र से आया है, कोई कहीं से आए हैं, तो इस तरह से विचार करते हुए सहजयोग बढ़ रहा है। अब इसमें भी इसी तरह का होता है जैसे दिल्ली वाले आए तो उन्होंने कहा माँ आपका जन्मदिन दिल्ली में होना चाहिए। अच्छा भाई कर देंगे। वो तो मानना ही पड़ेगा, दिल्ली वालो को कौन मना कर सकता है? यहाँ पर जन्मदिन न हो। बाप रे बाप! हो गया फिर मेरा! तो मैने कहा भाई शांतिपूर्वक यह चीज़ ठीक है, दिल्ली में ही करो वो अच्छा रहेगा, और व्यवस्था भी यहाँ अच्छी होती है। सब लोगो का इन्तज़ाम भी अच्छा होता है। सब दृष्टि से मैने कहा ठीक है। लेकिन उसमें हम दिल्ली वाले हैं बम्बई वाले हैं ऐसा लेकर लोग झगड़ा शुरू कर देते हैं। अब यह तो बड़ी ही संकुचित प्रवृत्ति है। मतलब जो सहजयोग का सामूहिक स्वरूप है उसे समझने में हमनें गलती की| सामूहिकता में अगर आप नहीं उतरेगें तो आपका जो संतुलन है वो डॉँवाडोल हो जाएगा। अगर हम कहें कि इस बार बम्बई में ही हो जाए जन्मदिन। क्या है कहीं भी हो जाए, जन्मदिन तो होगा हो । हमारी तो उम्र बढ़ने ही. वाली है। आप चाहे कहीं भी करिए। लेकिन इसमें भी उलझन हो जाएगी। भई इस बार माँ ने ऐसा क्यों किया। या तो लोग कहेंगे कि हमसे कोई गलती हो गई और ये कहेगें कि माँ आपने ऐसा क्यों किया है, दिल्ली वालों के यहाँ इतनी बार किया था इस बार क्यों नहीं कर रहे दिल्ली वालो के यहाँ। तो ये जो हमारा तदात्मय गलत चीज़ों से है कि हम यहाँ के रहने वाले है, हम वहाँ के रहने वाले है। पहले तो यहाँ तक होता था कि एक गली में रहने वालों में भी झगड़ा होता था, अब वो खत्म हो गया है। फिर अलग-अलग मोहल्लों में रहने वालों में भी झगड़ा होता था और हरेक मोहल्ले में रहने वालो में बड़ा झगड़ा होता था और हरेक मोहल्लों के लोग अलग-अलग बैठकर, मैं देखा करती थी। अरे बाप रे, अभी भी चल ही रहा है मामला। फिर वे मोहल्ले छूटे, हर जगह। अब भाषा पर भी थोड़ा बहुत आ गए। भाषा पर भी ये वो भाषा बोलता है, वो दूसरी भाषा बोलता है। जाये, फिर धीरे धीरे हरिजन को भी मान सबसे अच्छी बात यह है कि हमारे देश की जो भाषा है वह सीख लेनी चाहिए। चाहे आप हिन्दू हों, मुसलमान हों, मराठी हों चाहे अंग्रेज़ हों, चाहे कुछ हों, पहले आपको 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-5.txt खिंचाव। और चौथी उसकी चिट्ठी आई कि माँ बड़े आश्चर्य की बात है मेरे लड़के को मैं अस्पताल ले गई थी। तो उन्होंने कहा कि इसके सब ठीक है, बिल्कुल स्वस्थ है पर हिन्दुस्तानियों का ऐसा नहीं। एक बार माँ से हमें मिला दो, अगर माँ मेरे बच्चे को ठीक करेंगी तो वो ठीक होगा। माँ की खोपड़ी पर लादे बगैर वो सोचते ही नहीं कि उनका बच्चा ठीक हो सकता है। कितना बड़ा फर्क है वो मैक्सिको में बैठी हुई, मैं उसका क्या इलाज कर सकती हूँ। मै बस आपको प्रार्थना कर रही हूँ आपके पास चिट्ठी भेज रही हैं। ये उसको विमारी है बस। अब ये श्रद्धा की जो बात है। प्रेम जब श्रद्धामय हो जाता क्या रह गया? अंदर से छूट गये सा सन्यासी। तो आपकी जात-पात कैसे रह गई? इसका बड़ा विरोध करना चाहिए। जात-पात का बड़ा विरोध करना चाहिए और सिर्फ गुण ग्राह्यता होनी चाहिए। किसमें क्या गुण हैं, उसको पाना चाहिए। और उसको समंझना चाहिए। इस एक मर्यादा से जब हम गुजर जाते हैं तब फिर देश-विदेश से हमारा संबंध आता है। अब मैं आपसे क्या बताऊँ कि परदेश में मैंने जो लोग देखे हैं उनमें बहुत ज्यादा यांत्रिक लोग हैं। यंत्र में विश्वास रखते है और सांइस में विश्वास रखते हैं, पढ़े-लिखे हैं। लेकिन सहज में जब वे उंतरे, तो जैसे कोई प्रेम सागर में ही उतर गया हो। उसमें डुबकियोँ लगा रहे हैं। अब यहाँ पर आप देखिये कि पाँच सौ आदमी बाहर से आये हैं कितना नितांत प्यार है उनका मेरे साथ। क्योंकि वो कहते हैं कि माँ जब हम सोचते हैं कि माँ हमें आपसे प्यार है तो ऐसा लगता है कि चारों तरफ से हमें प्रेम व आनंद के सागर ने घेर है, श्रद्धामय से अंधश्रद्धा से नहीं। आपको अनुभव है मेरा, आप जानते है मुझे, कोई नई बात नहीं। वो अगर श्रद्धामय हो जाये तो कैसे काम बनते हैं। ये समझने वाली बात है। और अगर श्रद्धा सिर्फ यह है कि हम तो माँ को बहुत मानते हैं। ऐसे मानने वालें ईसा को मानने वाले बैठे है, मोहम्मद को मानने वाले बैठे हैं, उनको मानों। अरे भई तुम क्या हो? तुम्हारे अन्दर कौन सी विशेषता है। तुमने क्या प्राप्त किया है? इसे सोचना होगा। सो हमने ये देखा कि जो कुछ भी इन लोगों ने इतनी आसानी से प्राप्त किया उसकी वजह ये है कि एक दम प्रेम से शुष्क हो गए। इनके अंदर प्रेम इनको मिला ही नहीं और जैसे ही उनको प्यार मिला एकदम उसकी ओर पूरी तरह से आकर्षित हो गए। और उस प्रेम को पाने के लिए उनको दुनिया की कोई चीज नहीं चाहिए। कोई भी चीज़ नहीं । अब आते हैं गणपति पुले में हिन्दुस्तानियों की शिकायत बहुत मिलती है। खाना अच्छा नहीं। मद्रासी कहेगा कि मुझे खाना पसंद नहीं, तो लखनऊ वाले कहेंगे साहब क्या खाना बनाते हैं। सबके खाने का शौक, उनकी बीबियों ने ऐसे बिगाड़ रखें हैं कि उनको कोई खाना ही पसंद नहीं आता। अब इस हिन्दुस्तान में कौन सा एक खाना बताइये जिसको बनाने से लोग खुश हों। इनको ये पसंद नहीं तो उनको वो पसंद नहीं। पर ये, (बाहर के लोग) कभी नहीं कहेगें कि खाना अच्छा नहीं, हॉलाकि पहले खाना बहुत खराब होता था। अब जरा बहुत अच्छा हो गया। पर कभी इन लोगों ने ये नहीं कहा कि माँ खाना अच्छा नहीं। अब बाथरूम के लिए भी बड़ी अजीब सी बात है कि हिन्दुस्तानियों ने कहा कि माँ हमको ये भारतीय गुसल नहीं चाहिए। हमको पश्चिमी गुसल चाहिए और पश्चिम वालों ने कहा माँ हमको भारतीय गुसल चाहिए। बड़ी साफ चीज है। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। मैने कहा अच्छा ठीक है भारत के लोगों को विदेशियों की ओर रख दो और विदेशियों को भारतीयों के स्थान पर रख दो। काम लिया हो। कल देखिये उनको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था, कव्वाली पर आनंद की लहरियों से वो भरे हुए थे। उनसे सीखने की बात यह है कि बिल्कुल निर्वाज्य किसी भी तरह की आशा न रखते हुए वो प्रेम में उतरना चाहते हैं। और क्योंकि हम लोगों को भी प्रेम की इतनी महत्ता मालूम नहीं है अब भी हिन्दुस्तानियों की चिट्ठियों आयेंगी मेरा बाप बीमार है, मेरे बाप का ससुर बीमार हैं वगैरह वरगैरह। ला उसको आप दे दीजिये। उसको नौकरी दे दीजिये। मेरा दिवालिया हो गया। मेरा भाई जेल जा रहा है। सब यही बातें। यहाँ तक कि वो सोचते हैं कि एक तरह से मेरे ऊपर उनका अधिकार है क्योंकि मैं भी हिन्दुस्तान में पैदा हुई हूँ और आप लोग भी हिन्दुस्तान में पर ये एक बड़ी निम्न चीज है, इसको मांगने की जरूरत नहीं, अगर आप सहजयोगी हैं ये अपने आप घटित हो सकता है। ये विश्वास परदेसी लोगों का है। अब आपको मैं एक आश्चर्य की बात बताती हूँ। एक औरत संयुक्त राष्ट्र में काम करती थी। एक सहजयोगिनी है वो। अब Maxico में चली गई संयुक्त राष्ट्र में ही। उसका एक लड़का है, उसको ऐसी बीमारी हो गई कि वो बीमारी पुश्त दर पुश्त आती रहती है और इस लड़के पर बड़ी जल्दी आघात हुआ और एक महीने के अंदर वो बच्चा मरने वाला था। इस सहजयोगिनी ने मेरे पास तीन चिट्ठियाँ भेजीं। उसने उस पर नाम लिखकर भेजा कि ये बीमारी है, पता नहीं कौन सी अजीव-गरीब लम्बी-चौड़ी बीमारी उसको है और ऐसी तीन चिट्ठियां मेरे पास आईं । मुझे समझ नहीं आया कि उसके लिए क्या कहूँ। इन्सानियत की भाषा में तो कहा नहीं जाता। पर एक तरह से जैसे खिंचाव. न चैतन्य लहरी 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-6.txt खत्म। पर हम लोग बड़ी मांगे करते हैं, ये चीज नहीं ठीक वो चीज नहीं ठीक। ये चीज ठीक कर, दो वो चीज ठीक कर दो। कितनों के घर में जुड़े हुए गुसल होंगे। लेकिन इससे हम लोग सोचते हैं कि हम बड़े ऊँचे हो गये इस तरह की मांग करने से और इन लोगों से पूछो तो कहते कि माँ शरीर का तो बहुत आराम उठा लिया। उन्होंने तो बहुत उठा लिया और भिन्नता तो चाहिए हरेक चीज में। इसमें कोई शक नहीं। हरएक आदमी में भिन्नता होनी चाहिए। पर किस चीज में अपना-अपना आनंद व्यक्त करने में। कल देखिये डांस कर रहे थे लोग, जैसा भी आ रहा था, जिस तरह से भी आ रहा था। सब की भिन्नता थी। एक जैसे कोई भी नहीं नाच रहा था ये भिन्नता हमारे अंदर है। अगर रहे तो उससे हम अलग-अलग तरह के आनंद का अनुभव दूसरों को दें सकते हैं आनंद अपने लिए नहीं। हम दूसरों को कितना आराम दें सकते हैं। दूसरों को हम कितना आनंद दे सकते हैं । हम दूसरों शरीर का आराम। अब आत्मा का आराम दो। शरीर का आराम नहीं चाहिए। जो कि हमने उठाया नहीं वो ही सहजयोग में खोजते हैं कि हमें शरीर का भी आराम मिल जाये आपसे में कितना प्रकाश ला सकते हैं इसका विचार हमेशा रहना चाहिए। कभी-कभी मैं नहीं कहती, पर कभी-कभी हिन्दुस्तानी भी लिखते हैं कि माँ मेरी प्रगति कराईये। मैं चाहता हूँ कि मैं इन चीजों से हटकरके, ऊँचा उठ जाऊँ। क्योंकि जो भी चिट्ठी लिखते हैं वह अधिकतर बेकार की चीजें, ये बीमार है वो बीमार है। ऐसा है वैसा है। और कोई-कोई बहुत प्यारी चिट्ठियाँ लिखते हैं और उससे मैं बिल्कुल गद्गद हो जाती हूँ कि इन्होने अपना मार्ग ढूंढ लिया है इन्होंने देख लिया है इुन्हें कहाँ जाना है । अपनी मॉजिल को इन्होंने पहचान लिया है। बस इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए कि मैं देखती करती रहूँ। पर चाहत ऐसी नहीं है किसी चीज की जो कि आप कह सकते हैं, क्योंकि जो चीज हमेशा बढ़ रही है, क्षितिज के जैसे, Horizon के जैसे उसके लिए आप कैसे कह सकते हैं कि आपकी क्या चाहत है? आपका जीवन इसी तरह से कहने से तो फिर आप कहेंगे शरीर का आराम तो चलो हम जमीन पर सोंयेंगे। ये नहीं मेरा मतलव, मेरा मतलब ये नहीं था। मतलब यह है किहमें यह सोचना चाहिए कि हमें अब आत्मा का कार्य करना है। आत्मा को संताप में रखना है। जितना हम शारीरिक चीजों के बारे में सोचेगें उतनी ही हमारी आत्मा दु:खी हो जाती है, उतना ही उसका प्रकाश कम हो जाता है। और जितना ही हम बाहर के लोगों के लिये दूसरे लोगो के लिए वातावरण के लिए सोंचेगे उतने ही हम बढ़ते जायेंगे| आत्मा का प्रकाश बढ़ता जायेगा। उसमें आपको हैरानी होगी कि आप अपने को पाइयेगा कि आप बिल्कुल विश्व के एक नागरिक हो गये आपके अंदर विश्व जैसे समा गया। अब बहुत से लोग मुझको कहते हैं कि माँ आप को हरेक चीज कैसे याद रहती है। जैसे अब इसको देख लिया, बस देख लिया बस रहूँ और उसको आत्मसात हो गया चित्र सा बन गया। सब चीज, आप लोग चित्र से मेरे हृदय में है। ये कैसे होता है, क्योंकि मैं अपने अंदर हूँ ही नहीं। सब बाहर ही हूँ। मैं सोचती भी नहीं अपने बारे में, कुछ विचार ही नहीं करती। वो करने की मेरे अंदर शक्ति ही नहीं, तरीका ही नहीं कि अपने बारे में सोचती बैठी रहूँ। कभी नहीं, मेरे साथ किसने क्या किया मेरे साथ किसने ज्यादती की, कभी नहीं, हो गया सो हो गया। लेकिन जो कुछ भी अत्यंत सुन्दर हो जाए, अत्यंत सुगन्धित और सबको आह्वाद देने वाला, सबको आनंद देने वाला हो जाये, यही मैं चाहती हैं। आप लोग कभी-कभी राजकारण भी करते हैं कुछ करते हैं, इसकी जरूरत नहीं। सहजयोग में आपको पैसा कमाना नहीं। कोई पदवी लेनी नहीं, कुछ नहीं। इसमें आपको अपनी प्रतिष्ठा ही पानी है। जिस प्रतिष्ठा में आप एक विश्व के जानने वाले विश्व में उतरने वाले, विश्व की परवाह करने वाले, उनकी तकलीफ़ और परेशानियों को दूर करने वाले और सबको ज्ञान देने वाले, ऐसे महान-महान पुरुष हो सकते हैं और मेरा यही आशीर्वाद है कि सब लोग इसी तरह से अपने को बढ़ायें, अपनी ब्राह्य में है। इसमें जब आप अपनी आत्मा का प्रकाश देखेंगे तब आप में विश्व की पूर्ण कल्पना हो जायेगी। कोई पहाड़ी है वहाँ चले गये, पहाड़ी में भी अपनी आत्मा का प्रकाश देख सकेंगे। हर एक चीज में जब आप आत्मा का प्रकाश देखते हैं, हर एक चीज में आपको कोई चीज भूलती नहीं, उसका आनंद भूलता नहीं। पर उसके बारे में फिक्र नहीं लगती कि ये किसका कालीन है, मार लो, इसको खरीद लें। सिर्फ देखना मात्र बनता है और जब देखना मात्र प्रग्लभ होता जाता है, बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है तो आपका व्यक्तित्व एक विश्व को भर लेता है और यही स्थिति अब आप सब में आनी चाहिए। ओर नजर करके देखिये कि क्या में इस तरह से हूँ? परमात्मा .आपको आशीर्वादित करे। 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-7.txt श्री योगेश्वर पूजा माता श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) पूज्य परम १ क। न्यू जर्सी-अमेरिका-2.10.1994 आज हम श्री कृष्ण की योगेश्वर रूप में पूजा करेंगे। विष्णु जी का पहला अवतरण वामन रूप में हुआ और इसके पश्चात् श्री राम अवतार तक वे भिन्न रूपों में अवतरित होते रहे। अत: श्री कृष्ण से पूर्व श्री राम आये थे। अवतरित हो कर श्री राम ने जंगलों में जाने के लिए अत्यन्त तपस्वी जीवन अपनाया। उन्हें अपनी खोई हुई पत्नी को खोजना था तथा प्रजा हितैषी राजा के महत्व को पृथ्वी पर स्थापित करना था। अयोध्या का राजा बन कर भी उन्होंने जीवन संघर्ष और त्याग को अपनाए रखा। अत: उनके अनुयायी भी अत्यन्त त्यागी बन गए। श्री राम क्योंकि वर्षों तक घास पर सोये, वे भी घास पर सोने लगे। लोग खड़ाऊ पहनने लगे। जैसे पत्नी-विछोह में श्री राम ने एक घोती पहनी थी, लोग भी एक धोती पहनने लगे। पुरुष रूप में, पत्नी के अभाव में, वे तपस्वी की तरह रहे। यह सारी चीजें उनका अपनी पत्नी से आदर्श प्रेम दर्शाने के लिए थी। उन्होंने एक पत्नीव्रत लिया था। यद्यपि वे जानते थे कि सीता जी देवी है, महालक्ष्मी हैं, फिर भी प्रजा हितैषी राजा का उदाहरण स्थापित करने के लिए उन्हांने उन्हें घर त्यागने के लिए विवश किया। सकते हैं। अत: श्री कृष्ण का प्रधम सूक्ष्म स्वभाव लीला की सृष्टि करना और श्री राम अवतार में बनाई गई तपस्विताओं को निष्क्रिय करना था लोगों को माया में फंसाना उनका दूसरा महान गुण हैं। श्री कृष्ण यदि मस्तिष्क हैं तो हमारे मस्तिष्क को चाहिए कि साक्षी बनकर लीला को दंेखें। किसी भी चीज़ को अत्यन्त गम्भीरता पूर्वक न लें। साक्षी स्वरूप होकर जब आप चीजों का देखे हैं ता आपको लगता है कि आप नाटक देख रहें हैं, उस समय आपको लगेगा कि आप नेपोलियन हैं या अभिनय कर रहे हैं । कुछ समय पूरा पश्चात जब खेल समाप्त होगा तो आपको पता चलेगा कि यह खेल हैं। क्योंकि हम अपने मस्तिष्क से सोचते हैं। इसलिए वह स्थिति प्राप्त करने के लिए तुम्हें निर्विचार समाधि में होना होगा। यह मस्तिष्क तो सोचता चला जाता है, माया की सृष्टि करता है और इसी माया में फंसा रह जाता है। अब आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, अतः आपको इस माया का पहचान लेना चाहिए। यदि आप वास्तव में श्री कृष्ण के मस्तिष्क के प्रतिबिम्ब हैं तो जो भी कुछ मैं कर रही हूं या आप कर रहे हैं उसे भली-भांति समझ लेना चाहिए। कोई दबाव या समस्या नहीं होनी चाहिए क्योंकि आप तो निर्विचार समाधि में सभी अपने अगले अवतरण, श्री कृष्ण रूप में, उन्हें यह सारी तपस्विता निष्क्रिय करनी पड़ी। बाल्य काल में ही उन्हें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इन सभी समस्याओं पर उन्होंने काबू पाया और अपने राक्षंस मामा का वध किया। इसके पश्चात् वे अपनी बनाई द्वारिका नगरी में जाकर वहां के राजा बने। सहजयोग में श्री कृष्ण को समझना कहानियों की अपेक्षा कहीं सूक्षम कार्य है। सर्वप्रथम वे लीलाधर थे। उन्होंने कहा ये सब खेल है। अर्थात आपको केवल साक्षी बनना है आपका मस्तिष्क साक्षी मात्र बन जाना चाहिए। विराट अवस्था में वे अकबर बन जाते हैं। इस स्थिति में वे महान आदि-शक्ति के मन और मस्तिष्क हैं। तो सबसे पहले वे यह सोचते हैं कि हमें इस नाटक कुछ देख मात्र रहे हैं। जब आप निर्विचार समाधि में होते हैं अर्थात जब आप साक्षी अवस्था में होत हैं तो हर ईश्वरीय बात को आप समझ जाते हैं। उदाहरणार्थ जब मैं कार में बैठी तो मुझे पता न था कि कहाँ जाना है। हम गलत सड़क पर चले गए। तब मैंने उसे इस मार्ग पर चलने के लिए कहा। वह आश्चर्यचकित था कि माँ किस प्रकार जानती हैं। चैतन्य लहरियों के माध्यम से। चैतन्य लहरियों के माध्यम से मैं महसूस कर सकी कि वे सब वहाँ बैठे हैं बिना निर्विचार समाधि में हुए आप पूर्व सत्य को नहीं जान पाते। केवल अपने मस्तिष्क से जान पाते हैं। आपको न तो अपने हाथों का उपयोग करना है ान ४ और न ही प्रश्न पूछने पड़ते हैं, यह कार्यरत कम्प्यूटर पड़ता की तरह कार्य करता है, आपको उत्तर दंता है। उस अवस्था का दर्शक बनना है। माया में हमें खो नहीं जाना। आप यदि दर्शक हैं तो माया और इसकी कार्य शैली को देख में आपका परमात्मा से पूर्ण तदात्म्य होता है। श्री कृष्ण हर चैतन्य सहरी 6. 57 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-8.txt शर्त जा लगाई गयी थी वह थी वह ठीक है। पहली, कि आपको धर्म के लिए लड़ना है। तो हमें देखना है कि क्या हम धर्म के लिए लड़ रहे हैं? परन्तु श्री कृष्ण तो इससे भी सुक्ष्म थे। उन्होंने शस्त्र धारण नहीं किए। क्षण, हर चीज को कम्प्यूटरीकृत करते हैं। परन्तु साथ ही साथ वे आपकी परीक्षा भी लेते हैं। कूटनीतिज्ञ होने के कारण वे अपनी लीला में आपको डालते रहते हैं। यह देखना अत्यन्त रुचिकर है कि किस प्रकार अपनी लीला में आपको डालते है। उनकी लीला की शैली! जैसे उन्होंने अर्जुन को कहा कि मैं युद्ध नहीं करूंगा केवल तुम्हारा सारथी बनूंगा। कोई भी महान व्यक्ति जो मुझे अपना गुरु कहता हो यदि यह कहे कि में उसकी सर्वंश्रेष्ठ शिष्या हूँ तो यह अत्यन्त हास्यजनक लगेगा। और यहाँ श्री कृष्ण सारथी के रूप में अपनी संवाएं भेंट करते हैं । इस प्रकार वे अर्जुन से शरारत करने का प्रयत्न कर रहे हैं मानो वे जानते हों कि भविष्य में क्या घटित होने वाला है। उनके सारथी होने' के कारण गीता की सृष्टि हुई क्योंकि अर्जुन कहने लगे कि मैं अपने बन्धुओं, रिश्तेदारों और दादे नानों से युद्ध नहीं कर सकता। अब यदि आप कहें कि गीता शान्ति सन्देश है तो ऐसा नहीं है। श्री कृष्ण कहते हैं कि यह लोग तो पहले से ही मृत हैं, तुम किस का वध कर रहे हो? परन्तु यदि तुरणक्षेत्र से दौड जाओगे तो लोग तुम्हें कायर कहेंगे, तब तुम्हें क्या लाभ होगा? पर यदि तुम धर्मयुद्ध करोगे तो तुम्हें पुनः जन्म प्राप्त होगा। यह बहुत बड़ी चालाकी है, मोहम्मद साहब ने भी यही बात कही और इसाइयों तथा हिन्दुओं ने भी यही कहा कि उन्हें लगेगा कि वे धर्म के लिए युद्ध कर रहें हैं। अर्जुन की स्थिति में यह स्पष्ट था कि वे एक राक्षस, अधार्मिक व्यक्ति के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। परन्तु अन्य लोग जो यह कहते हैं कि हम घर्म के लिए लड़ रहे हैं उसका क्या औचित्य है? मैने एक कोसानियां के मुसलमान पूछा कि जब आप निराकार परमात्मा में विश्वास करते हैं तो भूमि के लिए युद्ध क्यों कर रहे है? उसने उत्तर दिया, "कुरान में यह लिखा है कि धर्म के लिए युद्ध करने वालो को मोक्ष प्राप्त होगा। यही बात कही है तो गलती कहाँ है? गलती यह समझने में है कि, "धर्म है क्या?" क्या आप धार्मिक हैं? उन दिनों का यह युद्ध शस्त्रों से था। तो श्री कृष्ण ने शस्त्र धारण क्यों नहीं किए? वे अपने हाथों में वे रथ की लगांमें पकडे हुए थे। क्योंकि श्री कृष्ण मस्तिष्क हैं, विराट, महान मस्तिष्क। अत: किसी शस्त्र की आवश्यकता नहीं। रणक्षेत्र में जब युद्ध आरम्भ होने वाला था और सभी लोग युद्ध के लिए तैयार खड़े थे तब अर्जुन को गहन ज्ञान समझाने के लिए श्री कृष्ण ने अपने मस्तिष्क का उपयोग किया। अत्यन्त धैर्यपूर्वक उस समय उन्होंने अर्जन को बताया कि रणक्षेत्र में वह उन्हें क्या कर रहा है। उनके सूक्ष्म मस्तिष्क को देखें कि वे अर्जुन को सलाह दे रहें है। प्रथम अध्याय में परिचय देकर श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति, "स्थित प्रज्ञ" की परिभाषा बताई। सामान्यतः एक व्यापारी एक डालर से शुरू होकर सौ डालर तक जाएगा पर श्री कृष्ण की तो बात ही बिल्कुल भिन्न है। उन्होंने अर्जुन को बताया कि सर्वप्रथम आपको स्थित- प्रज्ञ बनना है इसके विना सब व्यर्थ है। स्थित प्रज्ञ बने बिना आप धार्मिक नहीं हो सकते। श्री कृष्ण को समझने के लिए सूक्ष्म बुद्धि होनी आवश्यक है। अपने अन्दर विकसित हुए मोह को तुम्हें त्यागना होगा। अपने हाथों में शस्त्र उठाओ और युद्ध, करो। तब अर्जुन ने पूछा कि "आपने मुझे निष्क्रिय बनने को कहा है और यह भी कि तुम्हारे कर्म अकर्म बन जायेंगे तो फिर आप मुझे इन लोगों का वध करने को क्यों कह रहे हैं? यह तो कर्म है।" पहले तो वो कहते हैं कि धर्म के लिए युद्ध करो। यह अत्यन्त सूक्ष्म बात है। आप धर्म में स्थित हैं या नहीं? आप धर्म में स्थित नहीं है तो आप किस धर्म के लिए युद्ध कर रहे हैं? कर्म दूसरी चीज़ है । श्री कृष्ण का मस्तिष्क अत्यन्त युक्तमय है। दूसरी चालाकी जो वे अर्जुन से करते हैं वह यह है कि तुम कार्यरत हो, परन्तु यदि तुम स्थित प्रज्ञ हो तो अपने सारे क्मों को परमात्मा के चरणकमलों में समर्पित कर देते हो। सारे धर्मों को छोड़कर मेरा कहा मानों।" श्री कृष्ण का धर्म क्या है? समस्या यह है कि लोग उन्हें समझते नहीं। यह सब श्री कृष्ण एवं उनके अवतरण पर केन्द्रित है। वे कहते हैं "कर्म करो, पर उन्हें परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित से " श्री कृष्ण ने भी पहली ब्रात तो यह है कि हिन्दु, मुस्लिम ईसाई कहलाने वाले लोग धार्मिक नहीं है। वे धर्म को नहीं मानते। दूसरे वे एक दूसरे का वध कर रहे हैं। हर व्यक्ति यह साचता है कि मैं ठीक हूँ और जो भी कुछ मैं कर रहा हूँ कर दो।" परन्तु आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करके स्थित प्रज्ञ बने विना यह कह पाना सम्भव नहीं। आत्म साक्षात्कार पानं 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-9.txt अब इस कलियुग में जब मैं इस कार्य का आरम्भ कर रहीं हूँ मुझे लगता है कि हमारे मस्तिष्क आवश्यकता सं अधिक विकसित हैं और इतने विकसित मस्तिष्क वाले के बाद जब आप अपनी तथा किसी अन्य की कुण्डलिनी उठाते है तो आप यह नहीं कहते कि "मैं आत्मसाक्षात्कार दे रहा हूँ।" आप कहते हैं, " यह घटित हो रहा है। आप तृतीय पुरुष में बात करने लगते हैं। जब "मैं" समाप्त ही जाती है तभी आप सब कुछ परमात्मा के चरणों में अर्पण करते हैं। धर्म के अन्दर रहते हुए कर्म करने चाहिए। मान लो कोई व्यक्ति किसी की हत्या कर दे और कहें कि यह मेरा कर्म है और मैं इसे श्री कृष्ण के चरण मैं मानव मु्ख बन जाते हैं। इतना सुक्ष्म ज्ञान उन्हें किस प्रकार बताया जा सकता है। रास्ता क्या है, यदि में श्री कृष्ण की तरह से बात करू तो यह मेरी और आपकी शक्ति का नष्ट करना होगा। आपमें से आधे तो सो गए होते। तो, मैने सांचा कि पहले इन्हें परमात्मा से जोड़ दूं। यदि थाड़ा सा भी उन्हें परमात्मा से जांड सकी ता मस्तिष्क ज्योर्तिमय हो जाने के कारण ये समझ जाएगे। तब ये जान कमलों में अपर्ण करता हूँ। श्री कृष्ण ने तो कहा है कि धर्म के लिए आपको कर्म करना चाहिए। सर्वप्रथम आपको स्थित प्रज्ञ बनना है, एक साक्षात्कारी व्यक्ति। तब जो भी जाएंगे कि जितना कुछ हम जानते हैं उससे अधिक भी जानने को है और इस प्रकार यह कार्यान्वित होगा। श्री कृष्ण की सूक्ष्म चालाकियों ने, निसन्देहः बहुत सहायता की है क्योंकि लोग है। इस्लाम में भी ऐसा ही है। इस्लाम का अर्थ है समपर्ण परन्तु समर्पण किसी और के सामने। धर्म तन्त्रवाद के उदय से समस्याएं कुछ आप करते हैं, वह स्वत: सहज में परमात्मा के चरण कमलों में आर्पित हो जाता है। हन महसूस कर रहे है कि इसमें कुछ कमी "भक्ति" क्या है? परमात्मा की तीसरी आवश्यक चौज भक्ति करने का क्या फल है? यहां भी उन्होंने चालाकी कर दी। एक शब्द में उन्होंने सब को नचा दिया। वे. कहते हैं "भक्ति करो पर यह अनन्य होनी चाहिए।" अर्थात जब आपकी मुझसे एकाकारिता हो जाती है तब आप स्थित प्रज्ञ, आत्मसाक्षात्कारी हो जाते हैं। इस एक शब्द को सोचिए, इस पर जब लोग सोचेंगे तो भक्ति के विपय में बनी सभी गलत धारणाओं को त्याग कर परमात्मा से योग प्राप्त कर, अनन्य होकर भक्ति करेंगे। मानव स्वभाव को श्री कृष्ण भलि-भाँति समझते थे। वे अत्यन्त चतुर थे। उन्होंने सोचा कि सहज ढंग से मनुष्य इस बात को न समझ सकेंगे अत: इन्हें समझाया जाए ताकि ये करते ही जाएं। उन्होंने कहा कि आत्मसाक्षातत्कार प्राप्त करने के लिए आपको आत्मा बनना होगा। पर इस समय उन्होंने यह नहीं बताया कि किस प्रकार बनना होगा। महाविद्यालय जाकर भी पहले वर्ष सारा ज्ञान नहीं दे दिया जाता, कुछ दूसरे वर्ष दिया जाता है और कुछ उसके पश्चात्। गीता का पूरा ज्ञान श्री कृष्ण की मूर्ख मानव से की गई चालाकियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यदि श्री कृष्ण ने उन्हें सहजयोग के विषय में बताया होता तो वे कभी उसे न समझ पाते। आज भी मुझे इस प्रकार के बहुत से लोग मिलते हैं। परन्तु उस समय उन्हें अधि के लोग न मिल पाते, इसी कारण उन्होंने कुण्डलिनी के विषय में बात नहीं की। अन्य अवतरणों के साथ भी ऐसा किस के सम्मुख? मुल्लाओं के सामने या उत्पन्न हुईं। रियाद वार नमाज पढ़े और यदि आज ऐसा नहीं करते ता वे स्त्रियों को पीटते हैं। यहाँ तक कि दुकान भी पाँच बार बन्द होनी आवश्यक है। मैं आपको बताती हैँ कि वे अत्यन्त पाखंडी लोग हैं । लिए कहते हैं। परन्तु डर के कारण आप ऐसा करते हैं । भयवश किए गए किसी कार्य का क्या लाभ है? में आपसे आशा की जाती हैं कि पाँच जो आपको पाँच बार ध्यान करने के ईसा या मोहम्मद साहब ने जो भी कुछ कहा वह देवदूतों के लिए या सर्वसाधारण लोगों के लिए नहीं। देवदूत है कहाँ? बहुत ही कम। जो जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं उन्हें यदि किसी कार्य के लिए मना किया जाएगा तो वे उसे नहीं करंगे। उनमें से अधिकतर जानते हैं कि उचित क्या है और अनुचित क्या है। वे देवदूत कहाँ है? ऐसे लोग बहुत कम हैं, और जो हैं उनके साथ लोग ऐसा व्यवहार करते हैं मानों वे विक्षिप्त हों। केवल देवदूत ही समझ सकतें है कोई अन्य विश्वास नहीं करता । श्री कृष्ण ने सोचा कि जो लोग देवदूत नहीं हैं उनके साथ चालाकी क्यों न की जाए। बहुत से लोग मरे पास आकर बताते हैं कि, "हम कृष्ण का नाम जपते हैं।" उन्हें कुछ भी प्राप्ती नहीं हुई। श्री कृष्ण ने कहा था कि पहले आपको स्थित प्रज्ञ बनना होगा स्थित अर्थात स्थापित, प्रज्ञ का अर्थ है ज्योंतिमय। आपको पूर्णतः स्थापित, ज्योर्तिमय व्यक्तितव बनना होगा। इसके बाद बाकी सारी ही हुआ। जिस प्रकार के शिष्य एवं लोग उन्हें मिले वे उन्हें उत्थान के विषय में न बता सके- क्योंकि इसके लिए लोग तब तैयार न थे। उनका स्तर इतना ऊँचा न था, उनके मस्तिष्क वाछित रूप से विकसित न थे। चैतन्य लहरी ৪ 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-10.txt पर अब कलियुग में लाग अत्यन्त परेशान हैं, कठनाइयों में फैसे हुए और अव्यवस्थित हैं। कलियुग अपनी पराकाप्ठा पर है, जीवन में इतनी चरित्रहीनता और अंसतोष है कि लोगो को सोचना पड़ता है कि कहाँ जाएं। आघातसम भविष्य उनकी आर मुँह बाए खड़ा है। ऐसी स्थिति में वे क्या प्राप्त करें। उनकी ओर देखने से जीवन की सारी भ्रामकता आरम्भ होती है, तब वे सोचने लगते हैं कि यह क्या बातें कहते हैं और यही कारण है कि लोगों ने उनकी कही बातों को गलत ढंग से समझ। परन्तु श्री कृष्ण ने सोचा कि एक या दो जन्मों में लोग इसे गलत समझेंगे परन्तु तीसरे जन्म में जाकर वे सोचने लगेंगे कि यह है क्या चीज? पहले आप स्थित प्रज्ञ बनें। तो हममें क्या कमी है? इससे अन्तर्दर्शन आरम्भ हो जाएगा और यही उनका लक्ष्य था। है, मैं क्या कर रहा हूँ? मेैंने क्या किया? यह सब ऐसा क्यों है? सभी कुछ इतना अव्यवस्थित क्यों है? एसा क्यों हो रहा है? तब जिज्ञासा आरम्भ हाती है। इसी जिज्ञासा के कारण अब आप लोगों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ है। इसके बिना आपसे सहजयोग के विषय में बात करना मेरे लिए असम्भव होता। मुझे प्रसन्नता है कि अमेरिका में भी यह कार्यान्वित हुआ। मैने देखा है कि लोग घंटों तक गीता पर भाषण देते हैं परन्तु उनके मस्तिष्क पुूर्णतः बन्द है। श्री कृष्ण ने कुण्डलिनी के विषय में कुछ भी नहीं बताया। ज्ञानेवश्वर जी ने अपने भाई गुरु से कुण्डलिनी के विषय में कुछ कहने की आज्ञा ली और इस प्रकार इस पर कुछ प्रकाश पड़ा। निसन्देह इससे पूर्व भी कुछ लोग हुए जैसे छठी शताब्दी में आदि शंकराचार्य और उनसे पूर्व मार्कन्डेय ऋषि| पर उन्होंने कुण्डलिनी की प्रशंसा की। केवल यह बताया कि कुण्डलिनी छह चक्रां में से गुज़रती प्रकार उठती है। इसके भविष्य के विपय में कुछ नहीं बताया कि एक दिन यह सामूहिक स्तर पर घटित होगा। बहुत से लोगों ने इसके विषय में लिखा। केवल ज्ञानेवश्वर जी ने 'पसायदान' नामक अपनी कविताओं में सहजयोगियों का पूर्ण विवरण दिया। इसमें उन्होंने बताया कि क्या घटना घटेगी। उन्होंने बताया कि किस प्रकार बहुत से लोग श्री कृष्ण का एक अन्य गुण यह है कि वे 'गोचर' है अर्थात् आकाश तत्व से बने हैं तथा सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। अणु, रेणु और परमाणु में भी वे पेंठ सकते हैं। तीनों प्रकार के अणुओं को वे भी वैज्ञानिक आपको बता सकेगा कि अणुओं में सममितीय और सन्तुलित लहरियों होती हैं । क्योंकि श्री कृष्ण हर चीज में प्रवेश कर सकते हैं, इसी कारण वे पदार्थ, पशु, मानव, आत्मसाक्षात्कारी व्यक्तियों में व्याप्त हो जाते हैं। पदार्थों में वे मात्र चैतन्य लहरियां के रूप में, पशुओं में मार्गदर्शक शक्ति के रूप में होते हैं साइबेरिया से उड़कर आस्ट्रेलिया आने वाले पक्षियां को दिशा ज्ञान कौन देता है? इसके विपय में हम कभी नहीं सांचते। पशु बहुत से कार्य करते हैं, उनमें विवेक-बुद्धि होती है। जैसे शर जब जंगल में होता है तो सभी पशु जानते हैं कि शेर वहाँ है। अपने राजा के सम्मान में बो शान्त रहते हैं। शेर केवल एक पशु का शिकार करता है। उसका मारा हुआ शिकार यदि बच है, और किस अदालित करते हैं। कोई आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करेंगे और साक्षात्कारी कल्पतरु किस प्रकार लोगों को आत्मसाक्षात्कार देगे। तब वे कहते हैं कि आप ही अमृत का सागर हैं। इतनी सुन्दरतापूर्वक उन्होंने आप लोगों (सहजयोगियों) का वर्णन किया है यदि आप 'पसायदान' का अनुवाद पढ़े तो आप जान पाएगे कि आपके बाकी के सारे सम्बन्ध समाप्त हो जाएगे, केवल यही (सहज) ा सम्बन्ध शेष रह जाएंगे। वही आपके वास्तविक सम्बन्धी होगें। इतना दिव्य स्वप्न देखने वाला व्यक्ति तो कोई महान अवतरण ही हो सकता है। ज्ञानेवश्वरी के छठे अध्याय में उन्होंने जाए तो एक दिन तक काई अन्य पशु उसे नहीं छूता। नियमाचरण देखें। अगले दिन जब शंर वापिस आता है तो वह भरपेट खाता है, फिर शेरनी खाती है, ओर इसके कहा कि अब आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं, और यह भी बताया होगी। शनै: शनै: यह ज्ञान प्रकाश में आया, लोगों को समझने के लिए लोगों की आध्यात्मिक शक्ति भी शनै: शनै: विकसित हुई। मैनें यदि सौ वर्ष पहले सहजयोग आरम्भ किया होता तो मुझे एक भी शिष्य न मिलता क्योंकि उस समय लोग ठीक ठाक थे। उनका जीवन सन्तोपजनक था, वे अत्यन्त शान्त थे, उनकी रुचि केवल कुछ घोड़ों तक सीमित थी। है कि किस प्रकार कुण्डलिनी कार्यान्विवत बाद बच्चे। जब वे खा लेते हैं तब नियम आचरण के अनुसार सभी पशु एक एक कर इस शिकार को खाते हैं। नियमाचरणों के बनाए रखने के कारण पशुओं का मार्गदर्शन होता है और उनका चरित्र बना रहता है। वे मानव की तरह से नहीं होते हैं। साँप साँप है और सिँह सिंह। मानव तो साँप, सिंह, तेदआ आदि सभी कुछ एक साथ हो सकता है। बहुत सी योनियों में से गुजरने के कारण मनुष्य कुछ ा 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-11.txt हुए ज्योतित मस्तिष्क से आप जो भी कार्य करते हैं, जो भी कुछ सोचते हैं वह ज्योतिमय होता है। ऐसा मस्तिष्क जो भी कुछ साचता है उसे साथ ही साथ प्राप्त कर लेता है। दोनों ही कार्य साथ-साथ हो जाते हैं। यह बात समझ ली जानी चाहिए कि आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति में कोई भी चीज़ प्राप्त कर लेने की शक्ति है, परन्तु उसकी इच्छाएं भी शुद्ध इच्छाएँ होनी चाहिए। भी हो सकता है। सारे पाशविक गुणों का सम्मिश्रण। भूतकाल के सभी प्रकार के सम्मिश्रणों और क्रम परिवतनों का अस्तित्व है। कोई यदि व्यक्ति को अवचेतन में ले जा सके तो लोग कुत्तों की तरह भौंकने लगते हैं और कभी चीते की ा तरह से उनका व्यवहार हो जाता है। ऐसा हो सकता है। यह सब, भूतकाल हमारे अन्दर है। ऐसे जटिल व्यक्तित्व के कारण कुछ लोग उल्लुओं, बाजों की तरह से गम्भीर हैं। कुछ चहचहाते हुए पक्षियों सम हैं। परन्तु उनमें बहुत सारे गुणें का सम्मिश्रण है और उन्हें निष्कपट बनाना कठिन कार्य है। वे कितने अधिक फँसे हुए हैं। पहले मुझे यह सब बन्धन दूर करने होते हैं तब कुण्डलिनी उठानी होती है। व्यवस्था की सबसे अच्छी बात यह है कि चेतना ऊर्ध्वस्थ है। अवचेतन बांई ओर और पराचेतन दाँई और हैं। सषुम्ना जैसे उस दिन कार्यक्रम में बहुत कम लोग आए। सभी सहज योगी इतने खिन्न थे मानों उनके परिवार में किसी की मृत्यु हो गई हो, इससे भी अधिक ! क्यों ? क्योंकि यह उनका अपना कार्य था और वे यह न समझ पाए कि उनका साक्षात्कारी मस्तष्क वाछित परिणाम क्यों न प्राप्त कर सकता। उन्हें अत्यन्त खेद हुआ। इससे प्रकट होता है कि आध्यात्मिक या दैवी कार्य और उनके जीवन में इतना तदात्म्य है। उनके लिए यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सभी लोग ऐसे नहीं होते। कुछ लोगें के लिए कुछ चीज़ें अधिक महत्वपूर्ण होतीं है। वो सहजयोग को अपनी खुशहाली के लिए उपयोग कर सकते हैं। परन्तु ज्योतित मस्तिष्क वाले लोग जो केवल सहजयोग के विषय में सोचते हैं वे इसे प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु इसके पीछे स्वार्थभाव, घृणा और ख्याति की इच्छा नहीं होनी चाहिए। केवल सहजयोग के कार्य के लिए यदि सोचेंगे तो सफलता प्राप्त कर लेगें । व्यक्ति को कभी हतोत्साहित नहीं होना चाहिए क्योंकि परमात्मा आपके साथ है। वे आपके रक्षक (चरवाहे) हैं इस चरवाहे के मार्गदर्शन में जब आप समर्पित मैमने बन जाते हैं तो यह सब घटित होता है। तब मस्तिष्क के ज्योतिमय हो जाने के कारण आपको स्वयं पर विश्वास हो जाता है। मस्तिष्क के संदेहविहीन होते ही आप निर्विकल्प हो जाते हैं, शंकाविहीन चेतन। मस्तिष्क सोचता है, शंका करता है, अहम् एवं बन्धनों की सृष्टि करता है। एक ही यन्त्र यह सारी मूर्खताएं करता है। घृणा की सृष्टि करके यह मूर्खताओं को न्याय संगत ठहराता है। यह दूसरों की आलोचना करता है, उनसे घृणा करता है, और उनका मज़ाक करता है। श्री कृष्ण के यह गुण नहीं है क्योंकि वे तो सामूहिक हैं। यही कारण है कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम पापी हो। उन्होंने किसी की आलोचना नहीं की। परन्तु मुझे तो आलोचना करनी पड़ती है। कंस, जरासंध, नक्कासुर, कोई पथ मध्य मार्ग है। यह महालक्ष्मी मार्ग है। यह आपको विराट अवस्था, मस्तिष्क तक ले जाता है। इस प्रकार तीन चीजों का सम्मिश्रण कार्यान्वित होता है। मस्तिष्क विराट है, हृदय शिव है और जिगर ब्रह्मदेव हैं। यह तीनों शक्तियाँ वहाँ हैं। परन्तु आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने पर आपका मस्तिष्क आत्मारूपी शिव तत्व के सम्मुख समर्पित हो जाता है। यह किसी विवशता के कारण समर्पित नहीं होता आत्मा की शक्ति को शोपित करने के लिए यह समर्पित होता है। मस्तिष्क आत्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाता है ताकि आत्मा मस्तिष्क को ज्योर्तिमय कर दे। मस्तिष्क का ज्योतिमय होना ही आपको यह सारी सूक्ष्म सूझबूझ प्रदान करता है। यह आपके मस्तिष्क को यह समझाने के लिए होता है कि बहुत सी आ्शिवाददायक घटनाएं हैं। एक बार, दो बार, तीन बार आ्शिवार्दित होने पर लोग आश्चर्यचकित, रह जाते हैं। मस्तिष्क सोचने लगता है कि किस प्रकार मुझे यह आशीर्वाद मिल रहे हैं? मेरे साथ यह किस प्रकार घटित 1E017 हुआ? मेरा परिवर्तन किस प्रकार हो सके? अत: शनै: शनै: वे अपने हृदय पर विश्वास करने लगते हैं। इस प्रकार बिना किसी इच्छा या बन्धन के पूर्ण तदात्म्य में भक्ति की जाती है। क्योंकि मस्तिष्क हृदय का साथ देने लगता हैं। तब ब्रह्मदेव भी समर्पित हो जाते हैं और परिणामतः आपका जिगर भी आपके ज्योतित मस्तिष्क के प्रति समर्पित हो जाता है। ऐसी स्थिति में जो भी कुछ आप करते हैं वह ज्योत्तिमय कार्य होता है, आप चाहे गायक हों, सरकारी कर्मचारी हाँ या कुछ और। अपने मस्तिष्क से स्वाधिष्ठान चक्र या ब्रह्मदेव के माध्यम से जो भी कुछ आप करते हैं वह ज्योर्तिमय कार्य होता है। सर्वव्यापक शक्ति से जुडे भी हो, श्री कृष्ण उनका व्ध, कर देंगे बिना कोई बहस किए सीधे ही समाप्त कर देंगें। किसी की आलोचना करने का क्या लाभ है? बस उनका वध कर दो। परन्तु वध ा चैतन्य लहरी 10 শ 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-12.txt और कर देने के बाद इस कलियुग में वे पुनः जन्म लेकर आ जाते हैं। दैवी सुझबूझ में स्थित है। यह वास्तव में एक अत्यन्त कार्यकुशल कम्प्यूटर की तरह कार्य करता है। आज मैंन कबीर पर बातचीत करनी शुरू की और तुरन्त ही सभी लोगों को चैतन्य लहरियाँ महसूस हो गई। केवल आत्मसाक्षात्कारी लोग ही जान सकते हैं कि गलत क्या है और ठीक क्या लोगों को राक्षसों के चगुंल से मुक्त करना ही सर्वोत्तम होगा। एक विधि यह हो सकती है कि मैं आपके मस्तिष्क में यह डाल दें कि यह राक्षस हैं। पर इस बात का लोगों को विश्वास न होगा। परन्तु साक्षात्तकार पाने के पश्चात् जब आप उनके पास जाते हैं तो आपकी अंगुलियों के सिरों पर सुईयां सी चुभने लगती हैं। मेरे सम्मुख मस्तिष्क गतिशील हो उठता है क्योंकि तब यह शक्ति में प्रवेश है। वे दैवत्व का अनुभव कर सकते हैं। वे समझ सकते हैं, कि कौन व्यक्ति अवतरण है और नहीं जानते कि आपकी स्नायु प्रणाली में क्या परिवर्तन हो गया है, एक नया आयाम आ गया है और इसका प्रकटीकरण हो रहा है यह भी श्री कृष्ण का आर्शीवाद है क्योंकि वे ही हमारे अन्दर की सामूहिकता हैं और सामूहिकता के रूप में वे ही कार्य करते हैं। कौन नहीं। आप करता है। बहुत शरारती लड़का था जो दूसरे लोगों को मारता था और काट लेता था, परन्तु मुझे देखते ही वह भाग खड़ा हुआ। भूतवाधित लोग मेरे सम्मुख आकर कांपने लगते हैं। इस प्रकार की हरकतें करने वाले भूतबाधित लोगों अमेरिका क्योंकि श्री कृष्ण की मंगलमयता का स्थान है अत: व्यक्ति को समझना चाहिए कि श्री कृष्ण की मंगलमयता क्या है। उनकी सोलह हज़ार पत्नियां थीं। ये सब उनकी शक्तियां थी। अपने अवतरण को फलीभूत करने के लिए श्री कृष्ण को उनकी आवश्यकता थी। अंत: राजकुमारियों के रूप में वे पृथिवी पर आईं। परन्तु एक का चालन कौन करता है? यह उनका मस्तिष्क है। उनके मस्तिष्क में गड़बड़ होने के कारण श्री कृष्ण उन्हें कम्पायमान कर देते हैं। वे कंपन, चुभन और गर्मी महसूस करते हैं। आत्मसाक्षात्कार पाने के बाद मध्य नाड़ी तन्त्र ठीक होने पर मस्तिष्क शान्त हो जाता है। तब यह पहले की भांति प्रतिक्रिया नहीं करता। मैंने यहां बहुत से जल्दबाज, अशान्त परेशान, आंशकित और चिड़चिड़े लोगों को देखा है। माओ के निजी चिकित्सक ने कहा है कि वह पूर्णतः तानाशाह थे। माओ से अधिक क्रूर व्यक्ति उन्होंने कभी नहीं देखा। राक्षस ने अपहरण करके उन्हें जेल में डाल दिया। उस राजा से युद्ध करके श्री कृष्ण ने उन सब को मुक्त कराया और उनसे विवाह कर लिया। किसी व्यक्ति का सोलह हजार स्त्रियों से विवाह करना लोगों की समझ में नहीं आ सकता। पर वे तो योगश्वर हैं। पुरुषों के साथ लांछन लगने की कठिनाई हैं। स्त्रियों के साथ नहीं क्योंकि स्त्रियां उसका चेहरा बनावटी था। माओं एक महा सुधारक लगता था और उसने बहुत सा कार्य भी किया। परन्तु वास्तव में वह पाखण्डी था व्यक्ति पाखण्डी है या नहीं इस बात को आप कैसे समझेगें? यदि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं मातृत्व को प्राप्त कर लेती हैं। पितृत्व को चुनौती दी जा सकती है। पंच तत्वों के सार से श्री कृष्ण ने विवाह कर लिया। पांच तत्व पांच पत्नियों के रूप में उनके साथ तब आप यह बात अपने मस्तिष्क से जान पाएंगे। थे। परन्तु द्रौपदी के मामले में उनके उच्च चरित्र को देखा जा सकता है। द्रौपदी को जब दरबार में लाया गया तो श्री कृष्ण जब आपके मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते है। तब आप ज्योतित व्यक्ति बन जाते हैं (स्थित प्रज्ञ )। दुर्योधन ने दुःशासन से कहा कि उसकी साड़ी उतार दो । उस समय द्ौपदी ने अपने दाँतों से साड़ी को पकड़ा हुआ था। उसने श्री कृष्ण का आह्वान किया। दाँतों में साड़ी होने के कारण वह केवल एक 'कृ' कह सकी। ज्यों ही उसने 'कृष्ण' कहा साड़ी नीचे गिर गई। द्रौपदी के मुँह से कृष्ण का नाम निकलते ही द्वारिका में एक बहुत जोर की आवाज हुई। अविलम्ब अपने चारों शस्त्र शंख, चक्र, गदा, पद्म लेकर गरुड़ पर बहन के सतीत्व की रक्षा के लिए वे इतनी दूर आए। उनके लिए बहन का सतीत्व महत्वपूर्ण था । वे द्रौपदी का चीर बढ़ाते गए। द्रौपदी का सतीत्व इतना उच्च था कि आप ज्ञानमय हो जाते हैं। हर आवश्यक चीज को आप जान जाते हैं। चाहे आपको यह ज्ञान न हो कि विम्बलडलन में सर्वोच्च कौन है, एक अभिनेत्री का जीवन कैसा है, या फंला स्थान का राष्ट्रपति कौन है, परन्तु अपने लिए सभी आवश्यक बातों का ज्ञान आपको हो जाएगा। ऐसा न होने पर लोग अपनी शक्त्यों को व्यर्थ खो देगें मैं एक व्यक्ति को जानती हूँ जिन्हें दो हजार लोगों के टेलीफोन एवं कार नम्बर याद थे। इसकी क्या आवश्यकता है? ये सारी मुर्खतापूर्ण बातें मानसिक शक्ति को बर्बाद करती हैं। पर स्थित-प्रज्ञ व्यक्ति ऐसा बैठकर वे आ गए अपनी नहीं करता। वह अपने ज्ञान 11 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-13.txt की भूमि पर, जो कि योगेश्वर हैं.. और अपनी विधियों से पूर्ण पवित्र कर सकते हैं क्योंकि वे निर्लिप्त हैं । किसी चीज से वे लिप्त नहीं है। मस्तिष्क ही व्यक्ति को लिप्त करता है। यह कालीन और साड़ी यहाँ पर हैं। मैं इस साड़ी को देखती हूँ। "मेरे पास एक सुन्दर साड़ी है।" यदि यह 'मेरी' है तो मैं इसके विषय में चिन्तत रहंगी स्वंय श्री कृष्ण ने उसकी रक्षा की। यह असाधारण बात है। योगेश्वर, श्री कृष्ण धन्वन्तरी भी हैं, अर्थात वे चिकित्सक भी हैं। वे ही रोगों से मुक्ति दिलाते हैं क्योंकि मस्तिष्क और स्नायु तन्त्र पर बहने वाली चैतन्य लहगियाँ ही यह कार्य करती हैं। अपने मस्तिष्क के माध्यम से वे लोगों को रोग मुक्त करते हैं। कैसे? मान लो किसी को हृदय की समस्या है, ज्यों ही वह अपने हाथ मेरे फोटो की तरफ करता है तो समस्या उसकी छोटी अंगुली में आ जाती है। मस्तिष्क के कार्यरत होने के कारण श्री कृष्ण की चैतन्य लहरियाँ आपके मस्तिष्क में जाने लगती हैं और क्योंकि मैं भी श्री कृष्ण हूँ, ये लहरियाँ आपको संदेश भेजने लगती हैं। इस प्रकार यह कम्प्यूटर कार्य करता और आप तुरन्त जान जाते हैं कि व्यक्ति को क्या समस्या है? वैह हृदय रोगी है। इसके लिए आपको निदान आदि नहीं करना पड़ता। कौन इस कार्यको करता है? विराट के मस्तिष्क में स्थित श्री कृष्ण तत्व। अब आपकी इसका विश्वास हो गया है। आप जानते हैं यह इसी प्रकार कार्य करता है और आपके माध्यम से संदेश भेजता है। अत: मेरा यह कम्प्यूटर सचारण भी करता है। मानव रचित कम्प्यूटर में बटन दबाकर आप परिणाम पा सकते हैं। परन्तु दिव्य कम्प्यूटर में ऐसा नहीं होता। मस्तिष्क स्वत: ही परिणाम देता है। यही मस्तिष्क आपको बताता है कि क्या करना है और कैसे। यही मस्तिष्क चैतन्य लहरियाँ छोड़ता है और मस्तिष्क में से बसी हुई ये आपको बताती हैं कि व्यक्ति में क्या कमी है? व्यापन का यह सारी कार्य श्री कृष्ण करते हैं। भ कि कहीं यह खराब न हो जाए। इस प्रकार मस्तिष्क छोटी-छोटी चीजों की चिन्ता किए जाता है। जिघर से भी आप निकलते हैं दुकानों की भरमार है। आपका चित्त उन चीजों में पूर्णत: उलझ जाता है। लिप्त होकर इन चीजों को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो जाती है। यदि आप उदारता को समझ जाएं तो भौतिक पदार्थों के प्रति निर्लिप्तता संभव है। सहजयोग में होते हुए भी बहुत से लोग उदार नहीं है। उदारता है क्या? मेरी साड़ी यदि आपको अच्छी लगे और मैं ये आपको दे ढूं तो यह उदारता है। यह वास्तविक उदारता है। आपमें यदि उदार, निर्लिप्त स्वभाव है तो आप कभी भौतिक पदार्थों से लिप्त नहीं हो सकते। आपका किसी चीज से लिप्त होना प्रेम के कारण होगा मैं रूस गयी तो वहाँ पर कैवियर नामक बहुत अच्छे मछली के अण्डे थे। लंदन के एक डाक्टर को यह बहुत पसंद है। मैने उसके लिए यह अण्डे खरीदे। वह बहुत प्रसन्न हुआ कि श्री माता जी इतनी छोटी-छोटी चीज़ों को भी याद रखती हैं भौतिक वस्तुओ में दूसरे व्यक्ति को आनन्द प्रदान करने की शक्ति हैं, यदि आप इसे प्रेम एवं निर्लिप्तता पूर्वक भेंट दें। यह निर्लिप्त प्रेम क्या है? यह पेड़ के रस की तरह है जो जड़ों से ऊपर को जाकर पेड़ के हर भाग में पहुंच जाता है, किसी विशेष भाग पर रुक नहीं जाता। यदि यह किसी विशेष भाग से लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ एवं फल मर जाएंगे। है ाे वे इन चैतन्य लहरियों को लेते हैं, दूसरे मस्तिष्क में इन्हें डालते हैं, तब वह. मस्तिष्क मध्य नाड़ी तन्त्र पर कार्य करने लगता है और आपको परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। मेरे सामने हाथ फैलाते ही यह कार्य होने लगता है। मस्तिष्क की देखभाल करना हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है। मैं नहीं समझ पाती कि अमेरिका में किस प्रकार यह मस्तिष्क सुरक्षित है? क्योंकि आप अपना टेलिविजन चालू करते हैं या गलियों और विज्ञापनों पर देखते है या जिस सगींत को सुनते है, यह सारी चीजें आपके मस्तिष्क को पूर्णतः तोड़ देती हैं। पूरा वातावरण ही श्रीकृष्ण विरोधी है। निर्लिप्त प्रेम अत्यन्त सुन्दर है। इसके द्वारा आप जान सकते हैं कि किसे ब्या देना है। क्या चीज लोगों को आनन्द प्रदान करेगी। उन्हें क्या पसन्द है। केवल प्रेम में ही आप यह चीजें जान पाते हैं। यह निर्लिप्तापूर्ण होनी चाहिए, तभी लोग आपके प्रति प्रेम करेंगे। बिना निर्लिप्त हुए आप अन्य लोगों से पूर्ण प्रेम नहीं पा सकते। धन, पद लालच या स्वार्थवश किया गया कार्य अर्थविहीन है। सहजयोग में बहुत से लोग धन कमाने या रोगमुक्त होने के लिए आते हैं। परन्तु सहजयोग तो तभी फैलेगा जब आप निर्लिप्त हो जाएंगे। लिप्साओं के रहते हुए, आप जान सूझबूझ की पवित्रता और चरित्र-विरवक नहीं है। भयानक हिंसा एवं चरित्रहीनता से परिपूर्ण चलचित्र आदि की सृष्टि श्री कृष्ण की इस भूमि परे की जा रही है। श्री कृष्ण चैतन्य तसरी 12 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-14.txt लें कि, अभी तक आप सहजयोगी नहीं बने। आत्मनिरीक्षण द्वारा देखें कि मैं कहाँ तक लिप्त हूँ और क्यों? मैं यह नहीं कहती कि आप अपनी आँखें फोड़ लें या हाथ काट लें। मोह का परिणाम सदा निराशा होती है। मैनें देखा है कि मोहग्रस्त माता-पिता के बच्चे सबसे खराब होते हैं। भावना न हो तो वर्ण भेद आदि के बन्धन होते हैं, विशेषकर भारत में जब हर मनुष्य में आत्मा है तो भिन्न जातियाँ किस प्रकार हो सकती हैं? भारतीय यदि उच्च जाति के हैं तो नीची जाति वालों के साथ नहीं खाते। मस्तिष्क ही इस प्रकार के बन्धनों को जन्म देता है। सभी सन्तों ने इस मूर्खतापूर्ण भेद-भाव का विरोध किया। यह मस्तिष्क की देन है । उनसे पूछें कि आप किस प्रकार अन्य लोगों से ऊँचे है। जर्मनी के लोग स्वयं को सर्वोच्च जाति मानते है। इस कहानी पर कौन विश्वास करेंगा। जर्मन के लोगों ने गैस कक्ष में डालकर बच्चों की हत्याएं की और उसका परन्तु आपका नि्लिप्त प्रेम बच्चे के लिए हितकारी है। जहाँ आवश्यक हो बच्चे की मांगों को नकार दें। आप को कहना चाहिए कि तुम्हारी बात पसन्द नहीं, ऐसा मत करो। निर्लिप्सा इससे भी विशाल है। जैसे कुछ लोगों को खाने का बहुत शौक होता है और खाने के मोह को छोड़ना उनके लिए कठिन होता है। एक आयु विशेष में उन्हें स्वादिष्ट खाने बहुत अच्छे लगते हैं। इसके विषय में गाँधी जी ने कहा है कि व्यक्ति को स्वाद नहीं लेना चाहिए। परन्तु सहजयोग में ज्यों-ज्यों आप बढ़ते हैं स्वतः ही ऐसा हो जाता है। स्वादों के प्रति आपकी चिपकन समाप्त हो जाती है। मैं यदि खाना न खाऊँ तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। इससे न तो मुझे दुर्बलता होती है खाने के विषय में सोचते रहना भी अपने मस्तिष्क को खराब करना है। "हम उनके घर गये तो उन्होंने बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजन बनाए थे।" क्या लाभ है? आप बहुत खा चुके हैं अब इसे त्याग दें। इसके विषय में अब आप क्यों सोचते हैं? या "मैं किसी के घर गया था उन्होंने मुझे बहुत बेकार खाना दिया" खाने के विषय में क्यों सोचते हैं? सोचने से आपको कोई लाभ नहीं होने वाला। जब आप जानते हैं कि किसी चीज में आपको स्वाद नहीं आनन्द लिया। इस प्रकार तो वे निम्नतम जाति के होने चाहिए। परन्तु वे स्वंय को सर्वोच्च जाति मानते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है। स्वय को दूसरों से ऊँचा या अधिक सुन्दर मानना, दूसरों को कुरूप मानना मस्तिष्क विक्षेप के कारण है। मस्तिष्क व्यक्ति को अंह की ओर ले जाता है। और अंह उसे है। सदा मूर्ख बनाता रहता दिव्य संत नारद ने सोचा कि वे बहुत महान है क्योंकि वे स्त्रियों से आकर्षित नहीं होते और उन्होंनं शिव को भी चुनौती दे दी। तब श्री कृष्ण ने एक चाल चली। उन्होंने नारद को सताने के लिए दो गन्धर्व भेज दिए वे नारद के पास गए और उनसे कहने लगे कि आप अत्यन्त सुन्दर और न प्रसन्नता। लेकिन पुरुष हैं, एक रूपवती राजकुमारी की शादी हो रही है। आप वहां क्यों नहीं जाते वो राजकुमारी नि:सन्देह आप का वरण करेगी। उन्होंने नारद के अहम् को इतना बढ़ावा दिया कि वह हवा में उड़ने लगा और स्वंय को सुन्दर मानकर स्वंयवर में चला गया। राजकुमारी माला लेकर उसके सामने से निकली, नारद को देखकर व्यंग्यात्मक रूप से हँसी और आगे बढ़ गई। नारद ने अगल-बगल देखा पर आएगा तो मत खाइये। उदाहरणत: बड़े जानवरों का मांस दांतों के लिए अच्छा नहीं है। बहुत से लोग मुझसे पूछते है श्री माता जी क्या आपके दाँत असली हैं उन्हें विश्वास नहीं होता कि ये मेरे अपने दाँत हैं । मैं जानती हूँ कि दाँतों के लिए हानिकर क्या है, परन्तु व्यक्ति को किसी भी विचार से लिप्त नहीं होना है। यह अधिक सूक्ष्म लिप्सा है जिसने जातिवाद और कट्टरवाद आदि की समस्याओं से विश्व का विनाश किया है। कुछ समझ ने सका। उसे बहुत क्रोध आया और उसी अवस्था में वह झील पर चला गया। झील के पानी में जब उसने झांका तो पाया कि उसकी मुखाकृति बन्दर सम है। अहम् व्यक्ति को बन्दर बना देता है। पर व्यक्ति स्वयं को अत्यन्त सुन्दर समझता है। व्यक्ति यदि सुन्दर होंगा तो उसे सोचने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। आप जो हैं उसके विषय में सोचते नहीं। आप कभी नहीं सोचते कि आप मानव हैं। अपने गुणों की डींग जब व्यक्ति हांकने लगता है तो माया के माध्यम से श्री कृष्ण कार्य करते हैं और उस व्यक्ति को अच्छा पाठ पढ़ाते हैं। अत: कभी स्वयं को बहुत बड़ी चीज़ न मान बैठें। अहम् ही यह विचार आपको देता है। इन विचारों में यदि आप फँस लोगों के अन्तर विरोध (Contradiction) को देखें। वे काले हाने के लिए समुद्र पर जाते हैं और दूसरी ओर उनमें जातिवाद की भावना है। तो समुद्र पर क्यों जाते हैं? आपमें काले लोगों के प्रति घृणा भाव क्यों है? मानसिक असन्तुलन इस प्रकार की असंगतियों का कारण है और इसी कारण आप जातियता की भावना से ग्रस्त हैं। यह 13 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-15.txt बहुत पुरुष और महिलाएं दिखाई पड़ते हैं। आप ऐसे किस प्रकार हो सकते हैं? आप लीलाधर के देशवासी हैं। उन्होंने सबको बचाया और राधा के साथ धोती क्यों पहनते हो। आपका गुरु आपको ठंड में क्यों रासलीला की। उन्होंने मानसिक शक्ति को ज्योतिर्मय करक उसे सम्भाला आप लोग किस प्रकार अधर्म, चरित्रहीनता तथा विनाश को अपना सकते हैं? वास्वत में श्री कृष्ण को ही अमेरिका के लोगों को इन मूर्खताओं से बचाना होगा। राजनीति में कोई भी विवेकशील व्यक्ति नहीं है। दूसरों की आलोचना करने में वे दक्ष है। जैसे भारत में जरा सा प्लेग फैला तो उनके पूरे समाचार पत्रों ने इसे छाप डाला। हमारे सारे जलपोतों, वायुयानों को वहाँ आने से रोक दिया, इतना हंगामा मचाया कि हमें विपत्ति में डाल दिया। एडज रोग जो आप पूरे विश्व को दे रहे हैं उसके बारे में आप क्या कहते हैं? श्री कृष्ण द्वारा प्रकाशित मस्तिष्क के लोगों का फ्रायड जैसे व्यक्ति को स्वीकार कर लेना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। नष्ट होकर अब आप चिन्तित है। उनके परिवार टूट रहे हैं। जिन भी तर्क संगत परिणामों पर वे पहुँच रहे हैं सभी कृष्ण विरोधी अन्य जीवित रहे । वे सोचते हैं कि लोग परस्पर लड़ते रहें और जो चाहें करें, हमारे पद बने रहने चाहिए। चरित्रहीनता की उन्हें कोई चिन्ता नहीं, यह अमेरिका के बच्चों, युवा तथा अन्य लोगों मुझे मुँह लटकाये गए तो आपके अहम् में हिटलर प्रवेश कर जाएगा और आप उसी की तरह आचरण करने लगेंगे। एक बार मैने एक हरे-रामा वाले व्यक्ति से पूछा कि इतनी ठंड मे तुम मारता है? मै माँ हूँ, मुझे यह मूर्खता पसन्द नहीं। पूर्णतः हास्यास्प्रद और मूर्खतापूर्ण बन्धन। अमेरिका के लोग इस प्रकार के बन्धनों के प्रति बहुत दुर्बल हैं। कोई भी मूर्खता आप आरम्भ करें अमेरिका के लोग सबसे पहले इसमें कुदेंगे। नशे, बेढबे कपड़े आदि-आदि। इनका आरम्भ तो पैरिस में होगा पर बिकेंगे अमेरिका में। वे सदा किसी नई चीज़ की तलाश में होते हैं चाहें वे बन्दर ही हो। श्री कृष्ण की भूमि में रहने वाले अमेरिका के लोगों में अच्छे-बुरे का भेद समझने का विवेक क्यों नहीं है, यह मैं नहीं समझ पाती। उनमें इस प्रकार की परिपक्वता नहीं है। उ विशुद्धि शासित हँसा चक्र पूर्णतया अवरुद्ध होने के कारण उनमें विवेक का अभाव है। एक अत्यन्त उच्च वर्ग की महिला अमेरिका आई और मुझसे शेखी बंघारते हुए हैं? मैं बताया, "क्या आप इंग्लैण्ड की मधुशाला में गई अच्छी से अच्छी मधुशाला में गई हूँ। यह आश्रम कहलाती हैं और यहाँ मृत मनुष्य के शरीर की दुर्गन्ध को तथा मकड़ी के जालों को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखा जाता है। " उसने बताया कि वहाँ उसे अत्यन्त अध्यात्मिकता का अभास हैं। शासक लोग नहीं चाहते कि कोई के लिए घातक है। हुआ। तब वही डींग हाकने लगी कि "हम स्वतन्त्र लोग हैं। मैं अपने बच्चों को मद्यपान करने देती हूँ।" इन बच्चों आज रात हम योगेश्वर श्री कृष्ण का गुणगान कर रहे हैं। वे खाकर भी नहीं खाते, सो कर भी नहीं सोते। पल्नियां होते हुए भी वे पत्नीविहीन थे। इसी कारण वे योगंश्वर हैं । आप लोग योगी हैं और वे आपके ईश्वर, अत: आप को भी उन जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए। उनके आशीर्वाद से अपने मस्तिष्क ज्योतिर्मय होने दें और सर्वगुण सम्पन्न महान व्यक्तित्व के लोग आप बन जाएं, ऐसे व्यक्तित्व जो सभी देख सकें, जो भले बुरे के भेद जानने के लिए आपको विवेक प्रदान करें और पूरे जी जान से इस अमेरिका को परिवर्तित करने का उत्साह आप में हो। आपको करने के लिए यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। श्री कृष्ण कुबेर हैं। धन के देवता हैं। उन्होंने आपको प्रचुर मात्रा में वैभव प्रदान किया है। हर तरह से आप आशीर्वादित हैं, आपके पास धन है, बुद्धि है, सभी कुछ है। सभी कुछ है पर विवेक का अभाव है। यह ऐसा ही है जैसे आपके पास कार हो, चाबी हो, पर आपको कार चलानी न आती हो, इसका परिणाम क्या होगा? की आयु मश्किल से बारह ओर चौदह वर्ष रही होगी। तीन-चार माह पश्चात हमें पता लगा कि उसके छोटे बच्चे का जन्म दिवस था पर उसके मित्रों के लिए सारी शराब उस महिला ने दी। वहाँ पूरा घर जल गया। कोई पुरुष कहेगा मेरे सम्बन्ध बहुत सी महिलाओं से रहे । में जाने का अच्छा रास्ता आपने अपनाया है, आप नर्क में ही जाएंगे। उन्हें यही बताया जाना चाहिए। इसी तरह मोमबत्तियां जल रहीं थीं जिनसे कुछ कितने मूर्ख हैं ये लोग। नर्क यदि आप चलते रहे तो आपका अन्त क्या होगा? विनाश के सभी साधनों को इकट्ठा कर रहे हैं।" श्री कृष्ण सम स्वामी के होते हुए भी, मैं नहीं समझ पाती कि सभी विनाशकारी चीजों को अमेरिका के लोग क्यों स्वीकार कर लेते हैं? सहजयोगियों को भी समझना है कि उन्हें स्वयं को इतना परिवर्तित करना होगा वकि सभी विनाशकारी चीजों को वे त्याग दें। परमात्मा आपको आशीर्वाद दें। चैतन्य लहरीं 14 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-16.txt परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का भाषण श्री मन्त सी० पी० श्रीवास्तव की पुस्तक विमोचन के अवसर पर 3-12-1994 (सारांश) मैं असमर्थ हूँ। पूर्ववर्णित लोग प्राय: निर्लिप्त थे उन्हें चुॅनाव आदि कराने की कोई इच्छा न थी। मुझे याद है कि जब मेरे पिता जेल से बाहर आये तो बल्लभभाई पटेंल ने उनसे कहा कि, "आपको चुनाव लड़ना है।" उन्होंने कहा, "मुझे इन्कार है, मैं राजनीति में नहीं जाना चाहता।" उन्होंने कहा, 'आपको जाना होगा।" वल्लभभाई पटेल मेरे पिता को राजनीति में जाने को विवश करते रहे और अन्त में विज्ञापन आदि छपवाने के लिए किसी को तीन हज़ार रुपये दे कर मेरे पिता के पास भेजा। मेरे पिता ने उत्तर दिया, "विज्ञापन के लिए पैसा भेजने की कोई आवश्यकता नहीं। बिज्ञापनों से यदि मैंने चुनाव जीतने हैं तो में जीतना नहीं चाहता। परन्तु इस घटना ने उन्हें चुनावों के लिए तैयार कर दिया में श्री लाल बहादुर शास्त्री के विषय में इतनी सुन्दर-सुन्दर बातें सुनकर, मेरा हृदय अपने पति के प्रति कृतज्ञता से भर गया है कि उन्होंने मेरी इच्छा को स्वीकार करके श्री लाल बहादुर शास्त्री पर यह पुस्तक लिखी। पहली बार जब मैंने लाल बहादुर शास्त्री को देखा था तो में जान गई थी कि वे अत्यन्त महान आत्मा हैं। ऐसे व्यक्ति को राजनीति में पाना मंरा बहुत बड़ा स्वप्न था। महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरे माता-पिता ने अपना स्वस्व न्यौछावर कर दिया। जब मैं महात्मा गांधी के साथ थी तो आत्मासाक्षात्कारी होने के कारण वे सहजयोग के विषय में जानते थे। परन्तु उन्होंने मुझे बताया कि अभी तक हम स्वतन्त्र नहीं हैं और बिना स्वतन्त्रता प्राप्त किये हम सहजयोग की बात था, चुनौती को उन्होंने स्वीकार किया और वास्तव नहीं कर सकते। भिन्न चक्रों के आधार पर उन्होंने अपनी चुनाव के लिए चल पड़े। आश्चर्य की बात है कि उस विधानसभा में चुने गए वे एकमात्र ईसाई सदस्य थे। उनके प्रतिद्वन्दी ने सब कुछ खो दिया, उसकी जमानत जब्त हो गई, यहां तक कि उसकी पुत्री ने मेरे पिपता की सहायता की। भजनावली लिखी। मैं अत्यन्त देशभक्त थी। अपने राष्ट्रीय ध्वज को जब जब भी देखती हूँ, मेरा गला अवरुद्ध हो जाता है। आज गाये देश भक्ति संगीत को सह पाना मेरे लिए कठिन हो गया। सम्भवत: ये मुझे हमारे देशवासियों के संघर्ष की याद कराते हों या हमारे देश की वर्तमान अव्यवस्था का या देश के प्रति मेरे हार्दिक प्रेम का स्मरण कराते हों । कोमल हृदय होने के कारण जब में पशुओं से भी बद्तर स्थितियों में रहते हुए मनुष्यों को देखती थी तो मेरी आँखों से आंसुओं की झड़ी लग जाती थी। श्री लाल बाहदुर शास्त्री को देखने के बाद मुझे लगा कि गांधी जी के बाद यह व्यक्ति हैं। प्राय: मेरे मात-पिंता, गांधी जी जैसे शहीदों को देखकर आपको आश्चर्य होगा, उन्होंने न तो कभी राजनीति की चिन्ता की और न ही राजनीतिक लाभ उठाने चाहे । उन दिनों वातावरण विल्कुल भिन था। देश के लिए बलिदान देने वाले लोग देश भक्त एवं सच्चे थे। उनका सम्मान होता था। मेरे पिता जब जेल में थे तो जहां कहीं भी हम जाते तो हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता जैसे सहजयोगी आप सब के साथ कर रहे हैं। हर व्यक्ति इन बहन भाईयों को सभी प्रकार की सहायता देता । वे बहुत साहसी लाग थे। वे राजनीतिज्ञ थे एक उद्देश्य के लिए व लड़ रहे थे, राजनेता वे न धन या पदवी के पीछे दौड़ने वाले थे। ऐसी चीज़ों को तो उन्हें समझ ही न थी, ये बातें उनकी समझ से परे थीं। विधान सभाओं का सदस्य बनने में उनकी कोई दिलचस्पी न थी। शास्त्री जी को मैंने देखा परन्तु अब एक साक्षात्कारी व्यक्ति ने राजनीति में उतरने का साहस किया था। इसके लिए वे अत्यन्त उपयुक्त थे। उनमें अन्तनिर्हित यह गुण मैं देख सकी। और कहा, "अब एक उपयुक्त व्यक्ति आया है।" मैं चाहती थी कि इस प्रकार का कोई व्यक्ति आगे आये क्योंकि मैं बहुत से त्यागमय, निर्लिप्त, निष्कपट और धार्मिक लोगों को जानती थी, परन्तु उन्हें चुनावों और विधान सभाओं में कोई दिलचस्पी न थी। पहली बार जब मैं लाल बहादुर आप यदि मुझसे राजनीति में आने को कहें तो मैं ऐसा नहीं कर सकती। शास्त्री जी ने मुझसे बहुत बार राजनीति में आने को कहा मैंने उन्हें बताया कि परन्तु 15 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-17.txt है, मैं उसे सुनना चाहूंगी, वे पूछते ठीक है "कार्यक्रम किस समय है?" "नौ बजे" मैं कहती। नौ बजे उन्होंने घड़ी देखना शुरु कर दिया, शास्त्री जी ने उनसे पूछा बात है?" उन्होंने कहा, "मेरी पत्नी ने मुझे 9 बजे संगीत के कार्यक्रम पर जाने के लिए कहा है"। शास्त्री जी ने कहा, "जल्दी से खड़े हो जाओ, तुम क्या कर रहे हो?" अपनी कार में बिठा कर मेरे पति को वहां छाड़ गए। "तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें एक बार जब कहीं जाने के लिए कह दिया तो कहीं और बैठे रहने का तुम्हें क्या अधिकार है?" उनमें इतनी मानवीयता थी। वे मातृ-भाव से परिपूर्ण शास्त्री से मिली तब वह पदारूढ़ थे। परन्तु, मेरे विचार से, उन्होंने मुझे अच्छी तरह से पहचाना था। क्या दो तीन प्रटनाएं मुझे याद है। पहली तो यह कि वे मेरा अत्यन्त सम्मान करते थे। सदा में उन्हें लेने के लिए हवाई अड्डे जाया करती थी एक बार स्वस्थ ठीक न होने के कारण मैं उन्हें लेने न गई। अपनी कारों इत्यादि के साथ वे आ रहे थे। अचानक वे हमारे भवन के सामने रुके और बिल्कुल अर्कले हमारे फ्लैट में आ गए। हवाई अड्डे क्यों नहीं आई? आपकी तबियत तो खराब नहीं? मैंने उत्तर दिया, श्री मन्त मैं ठीक हूँ, बस मामूली सी तबियत खराब है।" वे कहने लगे, "नहीं, नहीं हर बार तुम्हें हवाई अड्डे अवश्य आना है।" वे इतने अच्छे थे, इतनी छोटी-छोटी बातों का भी घ्यान रखते थे। आप थे। मेरे पति अत्यन्त परिश्रमी पुरुष हैं और जब वे घर पहुंचते हैं तो बातचीत से मैं उनके तनाव दूर कर सकती हूँ। परन्तु इतना परिश्रमी होने के कारण शास्त्री जी उनके लिए बहुत चिन्तित रहते थे। एक बार उनके बच्चे ने बताया कि "मैंने भाभी जी को देखा है, वे इसी शहर में हैं।" उन्होंने कहा, "वे कहां हैं? पता लगाओ।" उन्होंने पता लगा कर कहा "आपको दापहर के भोजन के लिए वहां होना है।" एक दिन मैंने कोई विशेष एक दिन उन्हें ज्वर हो गया, तुरन्त शास्त्री जी ने आप छुट्टी पर हैं। मैने सारा प्रबन्ध कर दिया है। आप शिमला चले जाएं शिमला जाने के लिए शास्त्री जी ने मेरे पति को विवश कर दिया। मेरी समझ में कहा, क पकवान खाया था, वह भी उन्हें याद था। सारी छोटी-छोटी बातें उन्हें याद थीं। मैं उन पर हैरान थी। मैं एक साधारण घरेलू महिला थी फिर भी वे मुझसे अर्थशास्त्र जैसे विषय पर बात करते, मुझसे पूछते "आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? आप अपनी गृहस्थि को बहुत अच्छी तरह चलाती हैं। आपके पति बहुत व्यस्त हैं।" मैंने कहा, "पहली प्राथमिकता यह हैं कि मेरे बच्चों को खाना मिले, दूसरे घर, तीसरे शिक्षा और सर्वोपरि उच्च चरित्र उन्हें प्राप्त हो। उनका चरित्र अच्छा होना चाहिए।" मेरी बेटियों का विवाह होने से पूर्व मैंने सहजयोग आरम्भ नहीं किया क्योंकि यह भी मेरा उत्तरदायित्व था। इसके लिए समय की आवश्यकता थी। नहीं आता था कि अपने पति के साथ किस प्रकार रहूँ क्योंकि उनके साथ मैंने कभी छुट्टी नहीं बिताई थी। श्री श्रीवास्तव अत्यन्त ईमानदार हैं, परन्तु छुट्टियों में हम शतरंज खेलते जिसमें वे सदा मुझे घोखा देते रहते। मैं कहती क्या हो रहा है, यही आपकी ईमानदारी है। वे कहते "अपनी पत्नी को धोखा देने की सार्मथ्य यदि आपमें हो तो इसकी आज्ञा है? तब हम चैरी खरीदने के लिए जाते हम दोनों वे कहते "ठीक है हम आधी को चैरी बहुत पसन्द 92 ७ आधी लेगें, पर मेरे लिए वे बहुत अधिक रख देते और अपने लिए बहुत कम। मैं कहती "ये क्या आप इतने कम क्यों ले रहे हैं।" तुम्हें भी चैरी पसन्द है और मुझे भी तो आपस में बदल लेते हैं। इसी बात धोखाधड़ी है । शास्त्री जी मेरे बच्चों की बहुत देखभाल करते थे, उन्हें लगता था कि उनके पिता घर न होने और अंति पर बहुत सा झगड़ी हाता। व्यस्त होने के कारण बच्चे बहुत कुछ न्योछावर कर रहें हैं। वे मुझे समझ गए थे कि मैं अपने देश के प्रति समर्पित एक विवेकशील महिला हूँ और अपने पति को देश के लिए कार्य करते हुए देख कर मुझे प्रसन्नता होती है। फिर भी वे मेरे लिए चिन्तित रहा करते थे। मुझे संगीत बहुत पसन्द है परन्तु मैंने संगीत के लिए जाना छोड़ दिया था जब मैं अपने पति से कहती कि फलां संगीतज्ञ आया घर में स्त्री को बहुत विवेकशील होना पड़ता है। उसे अत्यन्त प्रेममय और विवेकशील होना पड़ता है। मैं यह अवश्य बताना चाहूंगी कि अपने पिता के घर न होने के कारण मेरी दोनों बेटियों ने कभी मुझे तंग नहीं किया। उन्होंने सदा मेरी सहायता की और मैंने आपेक्षित साथ उन्हें दिया। उन्होंने कभी मुझसे शिकायत नहीं थी कि "हमारे पिता यहां क्यों नहीं हैं? हमारे पिता यहां क्यों नहीं आते? क्योंकि बिना पति के मैं न जाती थी। चहत्य स 16 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-18.txt झंडे को उतरते हुए और तिरंगे को ऊपर जाते हुए देखा। सभी बच्चों के पिता वहां होते परन्तु उनके पिता वहां न थे उन्होंने कभी इसके विषय में नहीं सोचा। सभी से मुझे सहायता मिली। अपने माता-पिता के साथ भी मैंने बहुत अच्छा बचपन गुजारा। उन्होंने हमें त्याग सिखाया। कई वर्षों तक पिता जी जेल में थे, माँ भी पांच बार जेल गई, महल छोड़कर हम लोग झोपड़ियों में रहने लगे। परन्तु हर चीज का हम आनन्द लिया करते थे। यह भावना, कि हमारे मात-पिता जो भी कर रहे हैं देश के हित के लिए ही कर रहे है। इतनी प्रेरणादायक थी कि छोटी-छोटी सुख सुविधाओं के लिए हमने कभी नहीं सोचा। कहीं भी हम सो सकते थे, कहीं भी रह सकते थे और कुछ भी खा सकते थे। उस समय अपनेपिता के मित्रों में मुझे बहुत से महान व्यक्तियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे अत्यन्त प्रगल्भ देशभक्त थे, अत्यन्त देशभक्त। वह क्षण मेरी कल्पना से परे है। आज भी मैं उन दिनों का स्मरण करती हूँ। आपमें से बहुत से भारतीयों ने वे दिन नहीं देखें होगें, यही कारण है कि आप इतने असावधान हैं। यही कारण है कि आपमें से कुछ लोग ये नहीं समझते कि कितने बलिदान करके यह स्वतन्त्रता प्राप्त की गई है। यह सहज स्वतन्त्रता नहीं है। यह बहुत कठिनाईयों से मिलो है। शास्त्री जी सभी कुछ त्यागकर स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े थे, देख भाल करने के लिए उनकी माँ थी। अपनी महत्वकांक्षाओं आदि को त्यागकर वे कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। उन दिनों लोग कांग्रेस से बहुत आर्कषित होते थे शास्त्री जी से युवाओं को आकर्षित किया। बहुत से युवाओं ने अपनी पढ़ाई आदि सभी कुछ त्याग कर देश के स्वतन्त्रता संग्रम में भाग लिया और अपने जीवन न्योछावर कर दिये। उनमें से अधिकतकर अत्यन्त निष्ठल और पवित्र थे। देश प्रेम ने उनके सौन्दर्य को और निखार दिया युवा लड़कियां, बहुत छोटे कद बुत के थे, उन्होंने बहुत एक बार लोगों ने हमें बताया कि वे राजनीतिक कैदियों का स्थानान्तरण किसी अन्य स्थान पर कर रहे हैं, और इसलिए वे प्लेटफार्म पर हैं हम सब उन्हें देखने के लिए प्लेटफार्म की ओर दौडे। एक महात्मा थे जिन्हें बहुत सम्मानमय उसने मुझे बुलाया और मुझसे पूछा, " तुम क्या कर रही हो? तुम 1942 के आन्दोलन में भाग क्यों ले रही हो? अपनी मां की देखभाल क्यों नहीं करतीं? तुम्हारी मां बहुत चिन्तित हैं ।" उन्होंने मुझे एक बड़ा सा भाषण दे डाला। नि:सन्देह |942 का आन्दोलन एक छोटी सी लड़की के लिए अग्नि परिक्षा सम था। मुझे बर्फ पर लिटाया गया और बिजली के झटके तथा अन्य सभी प्रकार के कष्ट दिये गये। परन्तु ये कष्ट मुझे विचलित न कर सके। मेरे पिता जी ने मुझे एक और बुलाया और कहा, इस बूढ़े व्यक्ति की तुम्हें ये सब मूर्खतापूर्ण बातें कहने की हिम्मत कैसे हुई। मैं तुम पर गर्वित हूँ। मुझे आशा है कि मेरे सारे बच्चे तुम्हारे जैसे बन कर स्वंय को देश के लिए बलिदान कर देगें। तब वे मेरी माँ पर चिल्लाये, तुम फला-फलां परिवार की बेटी हो। इस प्रकर के पत्र लिखने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, इस से तुम्हारा क्या अभिप्राय है। मैं तब बहुत छोटी थी, कोई 17-18 वर्ष की। वे कहने लगे, 'आगे बढ़ती जाओ, मैं पूरी तरह से तुम्हारे साथ हूँ।" इससे मुझे शिक्षा मिली कि यदि आपमें अपने समपर्ण और लक्ष्य के प्रति पूर्ण पवित्रता है तो आप लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। पर जैसा कि गांधी जी ने कहा है सर्वप्रथम हमें स्वतंत्र होना होगा। मैने बर्तानवी लड़के, वृद्ध, पुरुष एवं महिलाें। भ्रष्टचार जैसी कोई चीज न थी। दिन रात हम मिलकर कार्य करते थे। जंगलों में रहकर सारे कार्य करने के कुछ कटु अनुभव भी मुझे हैं। मेरी जीवनी यदि लिखी गई तो उसमें आप यह सब पढ़ सकेंगे। माना जाता था, लोगों के जीवन में देश के प्रति पवित्र प्रेम है जो कि देश प्रेम से भिन्न है। पवित्र प्रेम का अर्थ है, देश के प्रति निस्वार्थ प्रेम, धन या सत्ता हेतु, प्रेम नहीं। व्यक्ति अन्न्तजात धर्म के कारण देश से प्रेम इन महान करता है। इस प्रकार के प्रेम का यदि किसी देश में अभाव हैं और वह विश्व के देशों का सदस्य बने तो वह केंसर सम होगा। अपने देश के प्रति पवित्र प्रेम इतना अच्छा ८ हैं। मैं देखती हूँ कि एक बार परिवर्तत होते ही सहजयोगी अपने देश की कमियों को देखने लगते हैं। यह पवित्र प्रेम, भेद, प्रेमोन्नमाद या अन्धविश्वास नहीं है। वे देखते हैं। मेरे विचार में अपने देश की कमियों को देखना अत्यन्त आवश्यक है, जैसे यदि आप अपने बच्चे को प्रेम करते तो उसकी कमियों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। आप बच्चे से प्रेम भी करें और उसकी कमियों को भी देखें। अन्यथा हम सीखते नहीं। यह हमारा स्वामित्व भाव, प्रेमोन्नमाद या बन्धन है। कितनी आश्चर्यजनक बात है कि 17 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-19.txt साधारण बिस्तर पर सोते। "आप ऐसे सन्त क्यों है? अच्छे बिस्तर पर क्यों नहीं सोते? हमें हमारी खातिर आपको यह करना होगा।" वे कहते "यहां पर मुझे अधिक आराम मिलता है" वे अत्यन्त निर्लिप्त व्यक्ति थे जब वे रूस जा रहे थे तो सब को लगा कि उनका कोट रूस की ठंड रोकने के लिए पर्याप्त नहीं। उन्होंने मुझे यह बात उनसे कहने के लिए कहा। वे सी्पी० आपकी चेतना की सूक्ष्म जागृति होते ही आप देखने लगते है कि देश में क्या त्रुटि है और उसके लिए हानिकारक या विनाशकारी क्या है। तब आप इसे सुधारना चाहते हैं। आपकी आवश्यकता है, लाल बहादुर शास्त्री के. साथ भी ऐसा हुआ। उन्होंने बहुत बार मुझसे पूछा भारत की भोजन समस्या को किस प्रकार सुधारा जाए? अब आप जानते हैं कि सहजयोग द्वारा यह सम्भव है। मैं उन्हें सहजयोग के विषय में तो न साहब के पास गए और सी्पी० साहब ने उनसे कहा "श्री मन्त, क्या यह उचित नहीं होगा कि आप अपने लिए एक और कोट बनवा लें?" वो कहने लगे, "तो ये लोग आप के पास भी पहुँच गये?" उनके लिए एक कोट बनवा लेना भी कठिन कार्य था। कभी वे अपने जेब में रुपये-पैसे न रखते थे। नये सिक्कों का उन्हें कोई ज्ञान न था अत: हवाई पतन पर मैं उनके साथ होता और वे मुझसे कहते "यह महिला मुझे शान्ति झण्डा लगाने आ रही है और मेरे पास पैसा नहीं है, क्या करूं?" मैने कहा, "ठीक है उसे कुछ दे दो।" मैने उस महिला को एक रुपया दिया। वे कहने लगे, "तुम्हारे पास कोई सिक्का नहीं है?" मैंने उत्तर दिया, "सिक्का दस पैसे का है।" "वह क्या है?" मैंने कहा, बता सकी परन्तु यह अवश्य बताया कि एक दैवी विधि है जिसके द्वारा यह कार्य किया जा सकता है। कृषि आयकर मुक्त होनी चाहिए और इसे अत्यन्त महत्व दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त भी वे मुझसे बहुत सी बातें पूछते। कश्मीर के बारे भी उन्होंने मुझसे पूछा। मैंने उन्हें बताया कि अलग सविधान बनाना ही सबसे बड़ी गलती थी। इससे अलगाव का अवसर मिल गया। उनका पूर्ण चित्त अत्यन्त पवित्र था। वे सदा सोचते रहते कि किस प्रकार भिन्न लोगों, भिन्न धर्मों तथा विचारधाराओं में मधुर सम्बन्ध स्थापित किए जा सकते हैं। उनके पास इसकी कला थी। मेरे विचार से वे लोगों की कुण्डलिनी उठाते रहते होंगे, वे व्यक्ति का पूर्ण परिवर्तन कर देते थे। उनकी शैली इतनी सामूहिक थी कि वे बगीचे में खड़े हो जाते और जो भी वहां आता उससे मिलते। उनकी स्मरण शक्ति अथाह थी। मुझ में भी है, अत: मैं हैरान होती कि मुझ सी अथाह स्मरणशक्ति आजकल यह एक रुपये का दसवां हिस्सा है" "ओह में समझा, अच्छा होगा तुम उसे एक नोट दे दो।" वे उस महिला को सिक्का देना चाहते थे क्योंकि यह, मंगलमयता का प्रतीक है। चीजों से वे इतने निर्लिप्त थें एक अन्य व्यक्ति में भी है। यह स्मरणशक्ति कभी कभी तो मेरे लिए उलझन बन जाती है, पर शास्त्री जी के लिए यह वरदान थी क्योंकि वे लोगों से छोटी-छोटी बातें पूछते, जैसे "अब आपकी माँ कैसी है?" या "क्या आपको घर मिल गया है?" ये बहुत सूक्ष्म बातें हें। वे मातृत्व से परिपूर्ण थे। श्री मन्त सी०पी० से उन्हें अत्यन्त प्रेम था। मैंने उन्हें बताया कि आप थोड़ा विश्राम किया करें और थोड़ी ध्यान-धारणा। समय का उनके पास अभाव था। कहने लगे "उल्का (Shooting Star) की तरह चमकना अच्छा है," मैंने कहा "उल्काएं तो अच्छे सितारे नहीं होते।" पर वे अत्यन्त कुशलतापूर्वक कार्य कर रहे थे, जिस प्रकार वे मुझसे प्रश्न करते में दंग रह जाती कि कितनी कुशलता और सूक्ष्मतापूर्वक वे देश को सुधारना चाहते हैं। उन्होंने कहा, "हम क्या करें?" मैने कहा, "सर्वप्रथम हमें पानी मिलना चाहिए।" वे कहने लगे, " मैं जानता हूँ कि हर गांव में पानी होना आवश्यक है।" गांधी जी अपनी पत्नी से कहा करते थे कि कुएँ पर जाओ और मेरे लिए पानी ले आओ। एक दिन मैंने उनसे कहा, "बा लाओ मैं पानी ला देता हूँ, आप क्यों ये कार्य कर रही हैं?" बा कहने लगी, "नहीं नहीं मेरे पति नाराज होंगे, उन्होंने मुझसे कहा जब तक हर गांव में पानी नहीं आ जाता तुम मेरे लिए पानी लाती रहो।" भी कहा, "तीसरे दर्जे में यात्रा करने वाले लोगों के लिए पंखे नहीं हैं।" उन्होंने रेल के डिब्बों में और प्रतीक्षालयों में पंखे लगवाए। पूंजीवादी होते हुए भी वे एक प्रकार आप तो अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। आप नहीं जानते कि आप है, कितने महत्वपूर्ण हैं। जिस दिन आप इस बात को जान शास्त्री जी भी ऐसे ही थे। उन्होंने जायेंगे, अपना ध्यान रखने लगेंगे।" वे घर के अन्तिम भाग में रहा करते थे। इतने नम्र थे कि जो भी कुछ उन्हें खाने को दिया जाता, खा लेते। चैतन्य लही 18 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-20.txt गृह की और नंगे पांव आते हुए देखा। मैंन कहा मन्त, आपने जूते, जुराबें नहीं पहनी।" वे कहने लगे, "मैं एक सन्त से मिलने आया हूँ।" वे आये और मेरे चरणों में बैठ गए। श्री से साम्यवादी थे। प्रेम और देश भक्ति से वे इतने परिपूर्ण थे। प्रेम के कारण वे किसी को कष्ट उठाते हुए न देख सकते थे। जो कुछ भी उनके वश में होता वे करने का प्रयन करते। 18 महीने वे पद पर रहे। एक उल्का की तरह। भारत महान देश है। इस देश में सन्तों की पूजा की जाती है। यहां चर्च सन्त नहीं बनाते परन्तु वास्तविक सन्त हैं जिनकी सम्राट भी पूजा करते हैं और सम्मान करते हैं। मेरे विचार में भारत ही केवल एक ऐसा देश है जिसमें ऐसा होता है। रूस दूसरा देश हैं, वहां भी लोगों ने मेरा बहुत सम्मान किया। शास्त्री जी जब वहा गए तो मैं बहुत प्रसन्न हुई थी क्योंकि मैं जानती थी कि रूस के लाग अध्यात्मिक अत्यन्त अन्तर्दर्शी और धर्म आदि के बन्धनों से मैं सदा अपने पति को शास्त्री जी की सहायता करने के लिए कहती रही क्योंकि मैं उन्हें पहचानती थी। मेरे मन में एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना थी जो देश में क्रांति लाकर लोगों को उच्च मूल्यों तक ले आये। धन आदि से उनका कोई सरोकार नहीं था। |ार शास्त्री जी शास्त्री थे और हमारे शास्त्रों का उन्हें गहन ज्ञान था। उन्होंने कुरान और बाइबल का अध्ययन किया और सभी चीजों को पढ़ा। मैं कई बार उनसे अपने पिता की बताई बातों के विषय में बात करती तो वे कहते, "हां यह ठीक है।" कुरान के विषय में वे कहते "हां, यह ठीक है।" दूसरे लोगों को कायल करने की उनकी योग्यता अत्यन्त विशिष्ट एवं सूक्ष्म थी। वे पहले मुस्कराते, फिर प्रतीक्षा करते, अधिक सुनते और कम बोलते। परन्तु मुक्त हैं। शास्त्री जी के जीवन में बहुत से कार्य सम्पन्न हुए। वे अब जीवित नहीं है, परन्तु मुझे आशा है कि यह पुस्तक विश्वभर में पहुँचेगी और राजनितिज्ञों की आंखे खोलेगी और वे अपना पुन: मूल्यांकन करेंगे। सुक्रांत ने हितैषी सम्राट की बात कही। एक जमाने में श्री राम हितैशी राजा थे। लाल बहादुर शास्त्री को जब मैंने देखा तो कहा, "य राजा हैं।" हमारे दुर्भाग्यवश वे बहुत कम समय जीवित रहे। हम भारतीय अधिक भाग्यशाली नहीं हैं, परन्तु अब उनके जीवन को जन जन तक पहुँचाना हम पर निर्भर करता है। यहां पर पूरे विश्वभर से सहजयोगी आये हुए हैं वे इस पुस्तक को ले जा कर राजनीतिज्ञों को भेंट कर सकते हैं; यदि उनके पास इसे पढ़ने के लिए समय हो ! उनके लिए यह समझना आवश्यक है कि कहीं कुछ और अधिक मूल्यवान व्यक्ति भी हैं धन ही सभी कुछ नहीं। मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया जिसने किसी बहुत अधिक धनवान, बहुत सी पत्नियों या रखैलों वाले या किसी शराबी का बुत बनाया हो। वर्तमान मूल्य न केवल आपको नष्ट करेंगे बल्कि राष्ट्रों के राष्ट्र नष्ट कर ये हितैपी एक वाक्य जो वो बोलते वह अत्यन्त प्रभावशाली होता। उनमें कुछ अत्यन्त दिव्य था। मेरे प्रति वे इतना सम्मान दशति कि मैं सकुचा जाया करती थी। हमारे देश में सन्तों की पूजा और सम्मान होता है। निमन्त्रित किया मुझे याद है राष्ट्रपति संजीवा रैड्डी ने मुझे था क्योंकि मैंने उन्हें कैंसर रोग से मुक्त कर दिया था। जब मैं उनके यहां पहुंची तो देखा उन्होंने सभी कुछ चन्दन की लकड़ी का बनाया हुआ था। चन्दन की लकड़ी से बनी कुर्सी पर मैं बहुत सावधानी पूर्वक बैठी। भिन्न प्रकार के फल और एक सुन्दर खुदाई की हुई चांदी की तश्तरी ले कर अपनी पत्नी के साथ वे आये और दोनों मेरे चरणों में बैठ गए। मैने कहा, "श्री मन्त आप भारत के राष्ट्रपति रहे हैं?' हैं।" आप ये क्या कह रहे हैं, यहां क्यों बैठ देंगें। इस पुस्तक का विशेष महत्व है, जिसके द्वारा मेरे विचार से, बहुत से लोग शीशे में अपनी वास्तविकता को देख सकेंगे और अपना सुधार कर पायेंगे। यह भी हो सकता हैं कि राजनीति क्षेत्र में हमें कुछ अच्छे और विवेकशील व्यक्ति प्राप्त हो सकें। यह मेरा विचार था और मैंने ही अपने पति को यह पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया। वे कहने लगे, "मैं राष्ट्रपति हूँ परन्तु आप सन्त ह लेना होगा।" मैंने एक सेब लिया और उन्हें बताया कि मैं और कुछ स्वीकार नहीं कर सकती। उन्होंने ही हमें हमारे आश्रम की जमीन दी है। कश्मीर के गर्वनर भी बहुत अच्छे व्यक्ति थे और मेरे प्रति अत्यन्त कहने लगे, "आपको कुछ सुहृदय। परन्तु वे मुझे श्री मन्त श्रीवास्तव की पत्नी के रूप में जानते थे। एक दिन मैंने उन्हें कश्मीर में अतिथि परमात्मा आपको धन्य करें। 19 প