४ - चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड VII अंक 8 व 9 (1995) ३० "सभी सहजयोगी, पुरुष, स्त्रियां और बच्चे, न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में सहजयोग का प्रचार कर सकते हैं क्योंकि उनमें यह कार्य 'करने की शक्ति है।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी (जन्म दिवस स्वागत-समारोह) 21-03-1995 ४-८८666 600 --- ८. -১-১- चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी (1995) खण्ड VII, अंक 8-9 वी विषय-सृ श्री जीसस पूजा 27-12-94 1 1. परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का 2. संक्राति संदेश 6. श्री राज लक्ष्मी पूजा - दिल्ली 4 दिसम्बर 1994 3. शिव रात्रि पूजा-आस्ट्रेलिया 26.02.1995 4. 13 जन्म दिवस-स्वागत समारोह वार्ता 21.03.1995 19 5. : श्री योगी महाजन सम्पादक श्री विजयनालगिरकर 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली-110 067 मुद्रक एवं प्रकाशक प्रिन्टेक फोटोटाइपसैटर्स, 35, ओल्ड राजेन्द्र नगर मार्कट, नई दिल्ली-110 060 फोन : मुद्रित 5710529, 5784866 चैतन 7. श्री जीसस पूजा माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन परम पूज्य गणपतिपुले, 27-12-1994 यह दर्शाने के लिए कि आध्यात्मिकता किसी भी स्थिति में और किन्हीं भी समस्याओं के साये में जीवित रह सकती है, ईसा मसीह अत्यन्त विपरीत स्थितियों में जन्में। अपने ही कबीले के लोगों के घोर विरोध का उन्हें सामना करना पड़ा। उनका जन्म यहूदी परिवार में हुआ और उस समय उन लोगों ने ईसा को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। फिर भी उन्होंने उसका वध नहीं किया, रोम साम्राज्य के एक न्यायाध शि ने उन्हें मृत्यु-दण्ड सुनाया। पूर्णतया दिव्य व्यक्तित्व होने के कारण उनके जीवन का अनुसरण करना अत्यन्त कठिन कार्य है। जो भी नियमाचरण उन्होंने ईसाइयों के लिए बनाए उनका अनुसरण करना बहुत कठिन है। उन्होंने कहा कि यदि अपनी आंखों से आप व्याभिचार करते हैं, तो अच्छा होगा कि अपनी आंखें निकाल दें। हाथों से यदि अपराध करते हैं तो हाथों को काट दें। उनकी दृष्टि में अपराध अत्यन्त सूक्ष्म चीज थी। कोई यदि तुम्हारे दायें गाल पर चांटा मारे तो बायां गाल भी उसकी ओर बढ़ा दें इसका अनुसरण करना असंभव था। उन्होंने यह भी कहा कि आपको स्वयं यह सब करना होगा, अन्य लोग आपके लिए यह कार्य नहीं करेंगे। बहुत ही कम समय वे जीवित रहे। वे भारत आए और यहां रुक गए। इसके विषय में मैंने एक पुस्तक पढ़ी है और मैं आश्चर्यचकित थी कि पुराणों में संस्कृत भाषा में स्पष्ट रूप से यह सब लिखा हुआ है। शालीवाहनवंशी मेरा एक पूर्वज उनसे मिला और पूछा, "आपका नाम क्या है?" उन्होंने उत्तर दिया, "मेरा नाम ईसा मसीह है और मैं इस देश में इसलिए आया हूं क्योंकि मेरा देश मलेच्छों से भरा हुआ है।" मलेच्छ अर्थात् मल की इच्छा अर्थात् वे लोग जिनकी प्रवृत्ति गंदगी इकट्ठा करने की है। उसने ईसा से पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? अपने देश वापस जाकर आप उन्हें सुखदायी पावित्र्य सिखाओ (निर्मलं आराम दात्र)। आश्चर्यमय रूप से उन्होंने यह शब्द इतने स्पष्ट कहे कि इसे संस्कृत में छाप दिया गया। तब उन्होंने ईसा को कहा कि जाकर अपने लोगों को सुधारें और उनकी बुराइयों को दूर करें। ईसा ने यह अच्छा कार्य करने का प्रयत्न किया तो लोगों ने उसे क्रुसारोपित कर दिया। यदि आप ईसाई धर्म पर दृष्टिपात करें तो समझ में नहीं आता कि इसके विपय में क्या कहा जाए। इन लोगों ने सदा सहजयोग का विरोध किया और कभी ईसा की कही हुई बात को समझने का प्रयत्न नहीं किया कि "मैं तुम्हें आदि-शक्ति (Holy Ghost) भेजूंगा।" ईसाई वातावरण से आने वाले सहजयोगी अपने पूर्व बंधनों से चिपके रहते हैं। अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। उनका पृथ्वी पर अवतरित होकर मानव की सहायता करना आवश्यक था। परन्तु उच्चावस्था को प्राप्त करने के लिए आपको अपने पुराने बंधन त्यागने होंगे। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप ईसा की पूजा न करें। उनकी पूजा आपको करनी चाहिए। परन्तु कुछ लोग अभी भी स्वयंको उन्हीं तक सीमित कर लेते हैं, जबकि उन्होंने आपको सहजयोग के लिए तैयार किया है । मैं नहीं जानती कि उनके जीवन का कोन सा गुण आप अपना सकते हैं! वे महानतम सहजयोगी थे। परन्तु उनमें इतनी शक्तियां थीं कि उन्हें प्राप्त कर पाना मानव के लिए दुष्कर कार्य है। परन्तु उनका बलिदान, समझौता तथा स्वीकार करने के गुण अतिविशिष्ट हैं। वे स्वीकार कर लेते थे। अपनी माँ के प्रति उनका प्रेम इतना गहन था कि क्रूस पर भी उन्होंने कहा,"सावधान, माँ आई हैं।" जैसा अन्य धर्मग्रन्थों के साथ घटित हुआ है वैसे ही बाईबल उनका पूर्ण चित्रण नहीं करती। अन्य धर्मों की तरह से ईसाई भी अपने ठीक रास्ते से भटक कर ईंसाई धर्म चलाने वाली दिव्य आत्माओं का नाम कलकित कर रहे हैं। ईसा मसीह के बताए गए मार्ग के विरुद्ध वे कार्य कर रहे हैं। हम लोगों को यह समझना है कि वे हमारे अगन्य चक्र को खोलने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए। यह बहुत कठिन कार्य है। सहस्रार को खोलना इतना कठिन नहीं है जितना आज्ञा को। अगन्य चक्र, जिस पर ईसा का निवास है, अत्यन्त संकीर्ण है। ईसा ने कहा है कि स्वयं को तथा अन्य लोगों को क्षमा करो। अगन्य चक्र का यही मन्त्र है। यही बीज-अक्षर है। हम इसे 'हैँ'क्षम' कहते हैं।'क्षम' अर्थात् अन्य लोगों को क्षमा करना और 'हँ' अर्थात् स्वयं को क्षमा करना। अगन्य चक्र को खोलने के लिए यही दो बीज-अक्षर उपयोग होते हैं। निर्विचार-समाधि में चले जाना ही अगन्य चक्र को अच्छी तरह से खोलने का एकमात्र मार्ग है। निर्विचार-समाधि में रहने से अगन्य चक्र खुल सकता है। परन्तु यदि अगन्य चक्र बन्द हो जाए तो यह बहुत भयानक हो सकता है तथा आपको और अन्य लोगों को हानि पहुंचा सकता है। भूत ग्रस्त लोग कभी-कभी अगन्य चक्र में उन भूत बाधीओं को ग्रहण कर लेते हैं और इन भयानक आसुरी शक्तियों की आज्ञा अनुरूप कार्य करने लगते हैं। और हम लोग यह भी नहीं समझ पाते कि यह व्यक्ति इस प्रकार क्यों व्यवहार कर रहा है। हम जानते है कि अमेरिका में जीन्स पर बहुत से शोध हो रहे हैं और वो लोग बहुत सी बातें कर रहें है। परन्तु इसके बावजूद भी भयकर रोग प्रतिशोध के रूप में आ रहे हैं। इतने सारे शोध कार्यों के बावजूद भी लोग परेशान हैं और समझ नहीं पा रहे कि क्या हो रहा है। मुख्य बात यह है कि आपको आध्यात्मिकता, सच्चरित्र और दैवी नियमों की सुरक्षा में रहना है। इस सुरक्षा में यदि आप नहीं है तो आप किसी भी चीज में फंस सकते हैं। जहां तक घर्म का सम्बन्ध है मुझे लगता है कि अमेरिका पगला गया है। वहां पर सभी प्रकार के घर्म हैं, शैतान के धर्म, अभिचार (जादू-टोने) के धर्म आदि-आदि। यद्यपि विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने बहुत उन्नति कर ली है फिर भी सदा वे भय के साये में रह रहें हैं। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना है कि ईसा ने हमें अत्यन्त गहन प्रकार का सच्चरित्र सिखाया है। उन्होंने कहा, "आपकी दृष्टि अपवित्र नहीं होनी चाहिए।" आंखो में भी व्यभिचार नहीं होना चाहिए। किसी स्त्री पर एक बार आपकी दृष्टि पड़ जाती है परन्तु यदि दूसरी बार आप उसे देखते हैं तो आप व्यभिचारी हैं। चरित्रवान व्यक्तित्व के विषय में उन्होंने इतने कठोर नियम बनाए। सहजयोगी होने के नाते आप सब लोग समर्थवान हैं और अन्य लोगों की अपेक्षा ईसा के नियमों पर सुगमता से चल सकते हैं। परन्तु अभी भी मुझे आपको कुछ बातें बतानी है। ईसा ने कहा था कि, "मैं अपने विरूद्ध कुछ भी सहन कर लँगा परन्तु आदि-शक्ति (holy ghost) के विरूद्ध कुछ सहन नहीं करूंगा।" यह बात कहना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। क्षमा के सागर होते हुए भी वे कहते हैं कि, "मैं सब कुछ सहन कर लूंगा परन्तु आदि-शक्ति के विरूद्ध कुछ भी सहन नहीं करूंगा।" बहुत सारी चीजें घटित हो रही हैं जो लोगों को आश्चर्यचकित करती हैं। उदाहरणार्थं यहां गणपतिपुले में सहजयोग का विरोध करने के लिए एक मुर्ख व्यक्ति आया गांव से उसने (मामलातदार) को अपने साथ मिला लिया। दोनों मिलकर हमें परेशान करने लगे। हमारे आने से दस दिन पहले इस मामलतदार को निलम्बित कर दिया गया। कोई नहीं जानता कि अचानक वह क्यों निलम्बित हो गया परन्तु ऐसा हो गया। ईसा के कार्य ऐसे ही होते है। यह उनका कार्य है, गणेश का कार्य है, बाएँ और दाएँ। में किसी का नाश नहीं करना चाहती परन्तु सहजयोग के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करने वाले लोगों को ये (ईसा और गणेश) क्षमा नहीं करते। जिस प्रकार घटनायें और कार्य हो रहे हैं इससे अत्यन्त आश्चर्य होता है। लोग यदि हमारा विरोध करें तो हमें डरना नहीं चाहिए। वे यदि कोई बाधा उत्पन्न करना चाहें तो अचानक आपकों इसका कोई समाधान मिल जाएगा और आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। इस प्रकार की बहुत सी घटनाएं होती रहती हैं और विश्व- भर में हो रही हैं मेरे पास बहुत से पत्र हैं जिनमें लोगों ने बताया है कि किस प्रकार श्री ईसा मसीह ने उनकी सहायता की। मुझे यह सब करने के लिए उन्हें (ईसा मसीह को) कहना नहीं पड़ता। वे अपना कार्य भली-भाति जानते हैं। सहजयोगी होने के नाते अपनी आचार-संहिता का ज्ञान होना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आज के आधुनिक सहजयोग में पहली चीज जो आपने समझनी है, वह यह है कि आपको मुझे पहचानना होगा। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अत्यन्त नम्रतापूर्वक मैं आपको बताती हूं कि आपको मुझे पहचानना होगा, मेरा सम्मान करना होगा और मुझे प्रेम करना होगा। इन शब्दों में मैं आपको समझा सकती हूं कि मेरे साथ आप दोहरी चाल नहीं चल सकते। एक ओर तो आप मेरे प्रति प्रेम दर्शाएं और दूसरी ओर मुझे परेशान करें। अभी तक सामूहिक आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ करता था। बिना सामूहिक आत्मसाक्षात्कार के लोग अवतरणों को नहीं पहचान सकते। परन्तु आत्मसाक्षात्कार पाने के पश्चात् भी यदि आप नहीं पहचानते तो यह गम्भीर बात है। अपने पूर्व मूर्खतापूर्ण संस्कारों के नशे में न रहे। हिन्दुओं को जब मैं कहती हूं कि आप मन्दिरों, व्रतों और ब्राह्मणीक मूर्खताओं को छोड़ दें तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। आपको समझना चाहिए कि अब आप सन्त बन गए हैं। सन्तों की कोई जाति-पाति या वंश नहीं होता। जैनियों या बौद्धों को आप यह बात बताएं तो उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगेगी। वे अपने पुरखों के बनाए हुए नियमों से चिपके रहना चाहते हैं। पहचान का अर्थ मुझे केवल आदि-शव्ति के रूप में ही पहचानना नहीं, पहचान का अर्थ है अपने जीवन के हर क्षण में यह ज्ञान होना कि मैं आपके साथ हूँ। सहजयोग में व्यक्ति स्वतः ही अनुशासित हो जाता है। इसके लिए मुझे कहना नहीं पड़ता। परन्तु यदि ऐसा नहीं होता तो मुझे बताना पड़ता है। पहला अनुशासन मुझे पहचानना और मेरा सम्मान करना है। दूसरा अनुशासन यह सीखना है कि-किस प्रकार सहजयोगी बनें। ईसा मसीह के विषय में सोचिए-यदि वे यहां बैठे होते तो मेरे प्रति उनका क्या व्यवहार होता या यहां उपस्थित लोगों से वह कैसा व्यवहार करते? किसी से किसी प्रकार की अभद्रता स्वीकार करना उनके लिए अत्यन्त कठिन है। वे अभद्रता सहन न करते। में तो बहुत सी चीजों का बुरा नहीं मानती,"ठीक है धीरें-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा।" परन्तु अब भी मैं देखती हूं कि बहुत से सहजयोगी अपनी जिम्मेदारी को महसूस नहीं करते। ईसा ने क्रूस को उठाया। सहजयोग में आपको क्रूस नहीं उठाना। आपने केवल फूल मालाएं पहननी हैं। परन्तु यह मालाएं पहनने की योग्यता तो आपमे होनी चाहिए। किसी को कष्ट नहीं उठाना। सबके लिए सभी कुछ भली-भाति बनाया गया है, स्वर्णजटित, आपको केवल यह जानना है कि इस पर किस प्रकार चलें। एक दूसरी बात जो मैने कही थी कि आपके दोहरे-व्यक्तित्व नहीं होने चाहिए। पूर्ण समर्पण, 24 घंटे इसमें रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपके अपने परिवार है, बच्चे हैं और आपका पूरा जीवन है। हर समय आपको उससे जुड़ा रहना है। परन्तु इतना भी लिप्त नहीं होना कि सहजयोग की सामूहिकता को हानि पहुंचे आपके सम्बन्धी, भाई-बहनें, माँ- पिता सब ठीक है, परन्तु सहजयोग आपकी मुख्य जिम्मेदारी है। उसके स्थान पर आप इन चीजों से लिप्त हो जा हैं, इस प्रकार आप निश्चित रूप से सहजयोग की सामूहिकता को हानि पहुंचाएंगे और इसमें राजनीति की सृष्टि करेंगे। द्वितीय अनुशासन यह है कि आपका सम्बन्ध केवल सहजयोगियों से है किसी अन्य से नहीं। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मुझे स्पष्ट रूप में बताना है कि सहजयोगियों के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण नहीं। चैतन्य लहरी 2. निसन्देह आपको अन्य लोगों से मिलना है, उनसे बातचीत करनी है, उनसे रखरखाव करना है, उन्हें सहजयोग में लाना है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु आप किसी सहजयोगी को निराश नहीं कर सकते । आपमें यदि परस्पर मतभेद हैं तो उन्हें दूर कीजिए, परन्तु बाहर जाकर आपको एक होना चाहिए। यदि आप सत्य को जानते हैं तो आपमें मतभेद नहीं होने चाहिएं-क्यों मतभेद होने चाहिए? यदि आपमें मतभेद हैं तो आपको समझ लेना चाहिए कि अवश्य ही आपमें कोई त्रुटि है और त्रुटि यह है कि आप आत्मकेन्द्रित हैं या किसी ऐसी बात के लिए चिन्तित हैं जो सहजयोग नहीं है। मेरे उदाहरण का अनुसरण करना भी दुष्कर कार्य हो सकता है। मेरे बच्चे हैं-नाती-नातिने हैं, मैं कभी उन्हें टेलिफोन नहीं करती। मैं देखती हूँ कि मेरे पति सदा उनके लिए चिन्तित होते हैं और उन्हे फोन करते रहते हैं। मैं जानती हूँ कि वे ठीक है और यह भी जानती हूं कि मैंने अपना कर्तव्य निभा दिया है। में अपना जीवन केवल अपने बच्चों अपने पति या अपने परिवार पर व्यर्थ नहीं करूंगी क्योंकि ब्रह्माण्ड मेरा परिवार है। अतः आपको विस्तृत होना है। सहजयोगियों को स्वयं को विस्तृत करना है। यदि वे अपने परिवार अपने बच्चे, अपनी सम्पत्ति तक ही सीमित रहे तो बहुत स्वार्थपरता को त्यागना होगा। इस दुर्गुण को पूरी तरह त्यागना ही होगा। आपके जीवन का अत्यन्त विशाल स्वप्न होना चाहिए। हम सहजयोगियों के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम ब्राह्मणीय परिवार से सम्बन्धित हों। विवाहों में आप कहने लगे कि मुझे पसन्द नहीं है। मैं भारतीय से विवाह नहीं करना चाहता, कुछ भारतीय कहते हैं कि मैं विदेशी से विवाह नहीं करना चाहता। यदि आप इतने संकीर्ण बुद्धि मानव हैं। तो मुझे विवाह के लिए आपको कहना ही नहीं चाहिए, क्योंकि हमें अपने धर्म, जाति और देश के तुच्छ विचारों से पूर्णतया ऊपर उठना है। आप यदि ऐसा नहीं कर सकते तो आप सहजयोंगी नहीं हैं। हृदय से आप अपना विस्तार करें। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत में जाति-प्रथा एक बहुत बड़ी समस्या है जो मेरी समझ में नहीं आती। मैं सैंकड़ों बार बता चुकी हूं और गीता में भी वर्णन किया गया है-कि हर व्यक्ति के अन्दर आत्मा का निवास है। तो आप किस प्रकार जाति-प्रथा बना सकते हैं। अपनी प्रवृति से आप ऐसा कर सकते हैं, परन्तु जन्म से जाति आप नहीं बना सकते। इसे प्रमाणित करने के लिए वहुत से उदाहरण हैं। पश्चिमी देशों में तो और भी बुरा हाल है। वहां प्रजाति वाद है। उदाहरणार्थ में रोमानिया गई और वहां के जिप्सियों को देखा। उनसे कुत्तों जैसा व्यवहार किया जाता था। इतना अधम उन्हें समझा जाता था। वास्तव में यह जिप्सी बहुत अच्छे लोग हैं और उनमें कोई कमी नहीं। उनका चरित्र अच्छा है। अपनी महिलाओं के लिए उनके कुछ नियम है और वे चरित्रवान जीवन-यापन करते हैं । वे सामूहिक लोग हैं। परन्तु उनके साथ इतना अभद्र व्यवहार किया जाता है, इतना ्दुव्यवहार कि भारत में भी ऐसा होता हुआ न देख पाएंगे। रोमानियां के लोगो की कोई विशेष प्रजाति नहीं है, आप नहीं कह सकते कि वे जर्मन, अग्रेंज या एंग्लो-सेक्सन हैं। इग्लैण्ड में भी ऐसा ही होता है। उनके साथ अभद्र व्यवहार किया जाता है। यद्यपि यह लोग महान कलात्मक और अत्यन्त प्रेममय हैं, मै हैरान थी कि उनमें से बहुत से हमारे कार्यक्रमों में भी आए। चित्त का जीवन के विशाल स्वपन पर तथा दुखी लोगों पर होना आवश्यक है। पीड़ित और दुखी लोग ज़िन्हें, आपकी सहायता की आवश्यकता है, की देखभाल करें। जो लोग आपकी धन से सहायता करते हैं उनसे मित्रता करने के स्थान पर दीन-दुखियों से मित्रता करें। उन्हें उबारने के लिए ही आप सहजयोगी बने हैं। उनके लिए आपको कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिए। मैं वाशी में एक केन्द्र खोलने जा रही हूं जहां निर्धन लोगों का निशुल्क इलाज होगा। हम मध्य में हैं और जिन लोगों को जीवन की कोई सुविधा प्राप्त नहीं हो रही, हमें चाहिए कि उन्हें सहजयोग में लाएं और हर संभव तरीके से उनकी सहायता करें। आपने देखा होगा कि विवाह सुचियों में विकसित और विकासशील देशों में सन्तुलन बनाया है। फिर भी मैं देखती हूं कि लोग इसके विषय में बहुत ही अक्खड़ हैं। यदि आप में मूर्खतापूर्ण श्रेष्ठता-मनोग्रन्थी बन जाये तो यह तो ईसाइयों का गुण नहीं है। अत: सहजयोगी होने के नाते हमें समझना है कि सहजयोगी का एक नियम यह भी है कि जिन छोटी-छोटी चीजों और सीमाओं से हम तथा अन्य लोग पीड़ित हैं उनसे हमें ऊपर उठना है। जब हमारे साथ यह सामूहिक घटना घटित हो जाती है तब हमें समझना होता है कि लोगों को सामूहिक होना चाहिए। आवश्यक नहीं है कि हम लोगों के पास बड़े-बड़े महल हों जहां जाकर हम ध्यान कर सकें। प्रार्थना और ध्यान करने के लिए सभी स्थान ठीक हैं। आप जहां चाहें अपनी मांगें कर सकते हैं आप गणपति पुले आते हैं, मैं जानती हूं कि यहां अधि क सुख-सुविधा नहीं होती, यहां तो तीन सितारा प्रबन्ध भी नहीं होता, परन्तु आप एक दूसरे के साथ का अनुभव करते हैं। परस्पर प्रेम, स्नेह, तादातम्य और पारस्परिक एकता ही आनन्द के स्त्रोत हैं। तब आपको ये चिन्ता नहीं होती कि आपको क्या सुख मिल रहा है और क्या खुशी मिल रही है। अचानक पता लगा कि 250 लोग अधिक आ गए हैं और उनके लिए काम चलाऊ प्रबन्ध किये गये पर किसी ने बुरा नहीं माना। इस सहनशीलता के लिए मैं आपके प्रति कृतज्ञ हूं। शरीर का सुख महत्वपूर्ण नहीं है, आत्मा का सुख महत्वपूर्ण है। है पूरा कठिनाई होगी इस यदि आपका शरीर सुख चाहता तो आप उन सुखों का त्याग करना सीखें। शरीर को अपना दास बनाने का प्रयत्न करें, आप स्वयं इसके दास न बनें। यदि आप ऐसा करने का प्रयत् नहीं करते तो सहजयोग में आप कहीं भी नहीं हैं क्योंकि तब आप कहंगे कि मैेरे पास एक सुन्दर कार, एक बंगला आदि सभी कुछ होना चाहिए। शरीर के सुखों का त्याग करने पर ही आत्मा के प्रकाश का उदय होगा। हर समय शारीरिक सुख-सुविधाओं के बारे में चिन्तित रहने के कारण आपकी मुखाकृति पर तेज नहीं है और आपके मस्तिष्क में शान्ति नहीं है। ये सारी बातें आपको परमात्मा पर छोड़ देनी चाहिए। आपको अपने व्यवहार में निष्कपट, अध्यात्मिक एवं समर्पित होना है, आपका यही कार्य है। आपने देखना है कि 'मैं समर्पित हूं या नहीं? मैं पूर्णत: सहजयोग के साथ हूं या नहीं? मैंने सहजयोग के लिए क्या किया ? सहजयोग के सा ाम लिए मुझे क्या करना चाहिए? यदि आप ऐसा नहीं करते तो मस्तिष्क विपरीत दिशा में जाएगा। सोचने लगेगा-ये मेरे बच्चे के लिए ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है, आदि-आदि। एक बार जब आप सोचने लगते हैं कि मुझे सहजयोग के लिए क्या करना है? किस प्रकार सहजयोग का प्रचार करना है, तब आप आश्चर्यचकित होंगे, कि आपका मन अध्यात्मिकता के प्रकाश में चला जाएगा और तब किसी को आपसे हुए देखा है और मैं हैरान हूं कि किस प्रकार ये लोग परस्पर लड़ते हैं! शनै: शनै: जब आप अध्यात्मिकता में बढ़ेंगे, तो मुझे पूर्ण विश्वास है, ये सारे लड़ाई-झगड़े, भिन्न समूह बनाना समाप्त हो जाएगा। परन्तु सहजयोग आपको बड़ा बने रहने की आज्ञा न देगा। तुरन्त आपकी पोल खुल जाएगी, लोग आपके विषय में जान जाएंगे। समझने का प्रय्न करें कि आपकों क्रोध क्यों आता है, इसका कारण क्या है? जो दुर्गुण आप अन्य लोगों में पसन्द नहीं करते वो आपके अन्दर विद्यमान हैं। कुछ न कुछ कमी आपमें है। अत: सहजयोग में शुद्धिकरण महत्वपूर्ण है। इसके लिए हमें ईसा की सहायता लेनी होगी क्योंकि आपका अगन्य चक्र तर्क-बुद्धि से घिरा हुआ है। आप हर बात में तर्क कर सकते हैं, किसी की हत्या यदि आप कर दें तो उसे भी तर्क संगत ठहरा सकते हैं। अत: इस अगन्य चक्र को यदि हम पूर्णत: नहीं रखते तो यह भी हमारा दुश्मन है क्योंकि इसके माध्यम कुछ कहने की आवश्यकटा नहीं पड़िेगी। आपका मस्तिष्क स्वत: ही कार्य करने लगेगा। आपके पास शक्ति है, आपके पास सभी कुछ है, आपके पास स्त्रोत है जिसे आपने खोलना मात्र है। एक अन्य तत्व की बात यह है कि हमें यह महसूस करना है कि हम क्या हैं। सहजयोग के लिए ऐसा करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ईसा ने कहा, "मैं परमात्मा का पुत्र हूं," उन्होंने यह बात खुले आम कही। लोगों ने यह बात कहने पर उन्हें क्रूसारोपित कर दिया परन्तु उन्होंने यह बात खुले आम कही, " मैं परमात्मा का पुत्र हूँ, जो आप करना चाहें कर लें।" जो उन्होंने कहा वह सत्य था और उन्हें कहना ही चाहिए था। अत: अब सहजयोगियों को कहना है कि "में आदि शक्ति का पुत्र या पुत्री हूँ।" एक बार जब आप स्वयं से कहने लगेंगे तो अचानक आपमें परिवर्तन होने लगेगा क्योंकि यह बहुत बड़ी पदवी है, बहुत बड़ा आशीर्वादित पद। एक बार जब आप ऐसा कहने लगेंगे तो आप अपने उत्तरदायित्व को समझ जाएंगे। आप आश्चर्यचकित होंगे कि कुगुरुओं के पास जाने वाले लोग सहजयोग में आये तो अत्यन्त उदार, समर्पित और नम्र बन गए क्योंकि वे बहुत कंप्ट उठा चुके थे बिना भटके जो लोग सहजयोग में आ जाते हैं कई बार उनमें वो भावना नहीं होती। कष्ट उठाने के बाद कोई चीज यदि प्राप्त हो तो उसका महत्व समझ आ जाता है और यदि सहज में ही कोई चीज प्राप्त हो जाए तो उसके महत्व को हम समझ नहीं पाते। हर समय हमें अन्तर्दर्शन करना होंगा पहला अन्तर्दर्शन यह है कि क्या मैं नम्र हूँ? क्या में दूसरों के सम्मुख स्वयं को नम्र बना सकता हूँ? यह बहुत महत्वपूर्ण है। क्रोध बहुत बड़ा अवगुण है। श्री कृष्ण ने कहा है कि क्रोध ही सभी बुराइयों को जन्म देता है। क्रोध जिगर से आरम्भ होता है अत: आप अपने जिगर का इलाज खुला से हम स्वयं को न्याय संगत सिद्ध कर सकते हैं । हम कह सकते हैं कि "मैं क्या कर सकता हूँ? यह घटना इसी प्रकार घटी।" एक बार जब आप अपने पीछे पड़ जाते हैं तो यह सारे दुर्गुण भाग जाते हैं। यदि आपको बहुत क्रोध आता है तो शीशे के सम्मुख खड़े हो कर स्वयं पर क्रोध करने का प्रयत्न करें। फिर मोह। मोह अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। पहले मुझे पता चला था कि पश्चिमी देशों के सहजयोगी अपने बच्चों से बहुत अधिक प्रेम नहीं करते थे। अब वे अपने बच्चों से चिपके हुए हैं, अपने बच्चों की सनक के अनुसार वे पूरे सहजयोग की गतिविधियों को चलाना चाहते हैं। भारतीय सहजयोगी भी ऐसे ही हैं, वे अपने बच्चों से बहुत लिप्त हैं। मैं आपको बता चुकी हूं कि मोह प्रेम का घातक है। यदि आपे किसी से प्रेम करते हैं तो व्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार उससे प्रेम करें। किसी व्यक्ति विशेष से आपको लिप्त नहीं होना किसी व्यक्ति विशेष की चिन्ता करना आपका कार्य नहीं, यह परमात्मा का कार्य है। इसे परमात्मा पर छोड़ दें और देखें कि आपके बच्चे, आपके सम्बन्ध तथा अन्य सभी चीजें सुधर जायेगी। यदि आप इनसे चिपके रहेंगें तो आपकी सीमाएं इन सम्बन्धों पर कुप्रभाव डालेंगी तथा आपके सम्बन्धों का दम घुट जायेगा। आप कहां तक हैं, इसका एक विशाल स्वपन और विवेक होना चाहिए। प्रकृति की गोद में आकर आप-इस बात को भली भाँति सीख सकेंगें। पानी को देखिये। यह सभी पेड़ों को पहुँचता है, सभी को लाभान्वत करता है, किसी पेड़ विशेष से इसे चिपकन नहीं होती। यदि यह एसा करने लगे तो सभी कुछ समाप्त हो जायेगा सामूहिकता के विपय में यदि आपने सोचना है तो तुच्छ और सकींर्ण सम्बन्धों में न फंसकर आपको नि्लिप्त होना होगा आप लोगों के लिए सहजयोग का अनुसरण करना विश्व के अन्य लोगों की अपेक्षा कहीं सुगम है क्योंकि वे लोग आत्म-साक्षात्कारी नहीं हैं। आप सब आत्म साक्षात्कारी हैं। लिप्साएं और भी हैं, धन-लिप्सा, बड़ी हैरानी की बात है कि कुछ लोग सहजयोग को दुकान या बाजार की तरह से समझते हैं। वे कहेंगे," श्री माता जी क्या आप इसके दाम आधे कर सकती हैं? करा सकते हैं; परन्तु क्रोध को तो आपने स्वयं देखना है कि यह कितना खराब है, कितना बुरा है और किस प्रकार आप इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। क्रोध सारी सामूहिकता का विनाश कर देगा और अध्यात्मिकता के सारे सौन्दर्य को समाप्त कर देगा। क्रोधी व्यक्ति यदि परमात्मा की बात करता है तो लोग सोचते हैं कि हमें इससे दूर ही रहना चाहिए। अत: आपको क्रोध से मुक्ति पानी होगी। यह सोचना आवश्यक है कि किन-किन बातों पर आपको क्रोध आता है। कुछ लोग सोचते हैं कि क्रोध करना उनका अधिकार है, परन्तु सहजयोग में ऐसा नहीं है। आपको क्रोधित नहीं होना, किसी पर नहीं चिल्लाना और न ही किसी को पीटना है। कोई समस्या यदि हो तो आप मुझे बता सकते हैं। परन्तु मैंने लोगों को झगड़ते और लड़ते ब 44 चैतन्य लहरी 4. और यहां से खाली हाथ लौट गए। यहां तक कि भारतीय ईसाई यह सोचते हैं कि ईसा मसीह भी इंगलैण्ड में जन्में। जिस देश में आपने जन्म लिया है उस पर गर्व करना ही जीवन का सार है। हमारा अपना देश होना चाहिए परन्तु हमें उससे लिप्त नहीं होना चाहिए। उस देश कि सारी बुराइयों की हमें आलोचना करनी चाहिए, उन्हें स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए और नाहीं बन्धन ग्रस्त मुर्ख लोगों का अंग-प्रत्यंग बन जाना चाहिए। अपने देश की लिप्सा से यदि आप ऊपर उठ जाते हैं। तो आप सभी सीमाएं लांघ लंते है। अब आप महान बन गए हैं। किस प्रकार आप छोटे से तालाब में रह सकते हैं? आपको सागर की आवश्यकता है अन्यथा आप घुट आपको चाहिए कि मशीनों से बनी वस्तुओं का कम से कम उपयोग करें। इन मशीनों ने हमारे लिए बहुत सी समस्याएं खड़ी कर दी हैं। प्रदृषण रहित छोटी-छोटी मशीनों द्वारा बनाए गए वस्त्र हमें धारण करने चाहिए । सहजयोगी होने के नाते हमें पर्यावरण की समस्या के प्रति अति चेतन रहना चाहिए। पस्न्तु में एक बात जानती हूं कि जहां भी सहजयोगी होगे वहां चैतनऱ्य लहरियों के कारण पर्यावरण सम्बन्धी समस्या का समाधान हो जाएगा। परन्तु चैतन्य लहरियां तभी कार्य करेंगी जब आप इस समस्या से लड़ने के लिए तैयार होगें। जहां भी आप जाते हैं भयंकर प्रदूषण हैं। इस प्रदूषण से मुकाबला का एकमात्र तरीका पर्यावरण के प्रति चित्त देना है। क्या हम ऐसी वस्तुएं बना रहे हैं जो वातावरण को दूषित करती हैं? हम ही जिम्मेवार है हमे जिम्मेवार होना पड़ेंगा। हमारे अतिरिक्त कौन उत्तरदायी होगा? हमें अपने से गरीब और भाग्यहीन लोगों का भी ध्यान रखना होगा। सभी प्रकार के प्रदूषण से परिपूर्ण वातावरण की भी देखभाल हमें करनी होगी। एक ऐसी साधारण जीवन शैली अपनानी होगी जिसमें हमें समस्याएं उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का उपयोग कम से कम करना पड़े। पर्यावरण समस्या क्योंकि हमारा उत्तरदायित्व है इसे हम बहुत सी विधियों से संभाल सकते हैं। 47 वर्ष की आयु तक मैं केवल खादी पहना करती रेशम भी नहीं। सहस्ार खोलने के पश्चात् मैंने दूसरे वस्त्र पहनने शुरू किए। हमारी जीवनशैली ऐसी होनी चाहिए कि हम अपने इर्द-गिर्द की प्रगति के प्रति संवेदनशील हों। किस प्रकार आप अपना चित्त वस्तुओं पर डालते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है। भारत में अब सभी स्थानों पर अच्छे कार्य हो रहे हैं। एक दिन मैने किसी से कहा कि आप जर्मनी से कुछ बटेर क्यों नहीं मंगा लेते। वह कहने लगा, " श्री माता जी मैं नहीं जानता कि जर्मनी में बटेर भी हैं।" मैने कहा, "आप क्या कह रहे हैं, जर्मनी में बटेरों का बहुत बड़ा उद्यम है?" वह कहने लगा, "श्री माता जी आप कैसे जानती हैं?" मैने कहा,"मैं जानती हूँ।" जिस भी देश में मै जाती हैँं वहां की हर बात का ज्ञान मुझे होता है। मैं आश्चर्यचकित थी कि अपने देश के इतने बड़े उद्योग का भी उन्हें ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार भारत में भी हम यह नहीं जानते कि हमारे यहां कौन-कौन सी कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती हैं और किस प्रकार हम निर्धन लोगों की सहायता कर सकते हैं। ईसा निर्धन क्या आप इसे चौथाई दामां पर दे सकती हैं? क्या आप हमें कुछ छूट दे सकती हैं?" कम से कम पैंतीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनमें खर्च करने का क्षेम है फिर भी वे छूट मांगते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि उनसे क्या कहूँ। यही एक अवसर है जहां पर आपके द्वारा दिये गये पैसे में सभी की भागीदारी हो जाती है। सब लोगों के पास यहां आने के लिए पैसा नहीं है। क्योंकि हम ब्रह्माण्डीय जीवन की बातें करते हैं तो हमें अन्य सहजयोगियों से मिल बांट कर लेना है। इतनी सी बात यदि आप समझ जायेगें तो धन के लिए आपका मोह समाप्त हो जायेगा आपको परस्पर मिल बांट कर लेना है। परन्तु आप तो ऐसा करना ही नहीं चाहते। आपके पास करोड़ों रुपये हों फिर भी आप किसी के साथ कुछ बांटना नहीं चाहते। सहजयोग में बहुत से लोग समृद्ध हो गए हैं पर वे भी किसी को कुछ देना नहीं चाहते। मैं यह नहीं कह रही कि हम यहां घन के लिए हैं। परन्तु मूल-भूत बात है जायेंगें। यह कि आपका दृष्टिकोण परस्पर बांट कर लेना होना चाहिए। सहजयोग ने हमें इतना कुछ दिया है, इसने इसके लिए क्या किया? हम किसके साथ बांट रहे हैं? परन्तु यहां तो कुछ लोग ऐसे हैं जो लालची हैं और अपना उल्लू सीधा करने के लिए लोग अन्य लोगों का उपयोग करते हैं। ये सारी तुच्छ और मूर्खता पूर्ण चीजें सहजयोगियों के लिए नहीं है, आपको इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। जिस चीज़ की आपको अवश्यकता हो आप मांगे, वह आपको मिल जायेगी। तो कुछ लोग अन्य लोगों का लाभ उठाने का प्रयत्न कर रहे हैं और कुछ स्वयं को बचाने का मस्तिष्क खुला होना चाहिए आपका तो सहस्रार खुला है। आप जानते हैं कि सहस्रार के साथ हृदय चक्र है जो कि सहस्रार के खुलने के साथ ही खुलता है। अपने हृदयों को खोलें तभी आप अपना आनन्द ले सकते हैं। मान लों में कोई चीज अपनी आंखो से देखना चाहती हूं परन्तु मेरी आंखें बन्द है, क्या में वह चीज देख कर उसका आनन्द ले सकती हूं? किसी चीज़ को यदि आप अपने हृदय से अनुभव करना चाहते हैं पर आपका हृदय बन्द है तो आप किस प्रकार इसका अनुभव कर सकते हैं? अत: अपने हृदय को खोलें तब आप समझ पायेंगे कि चीजें इतनी कठिन नहीं हैं। हम सब के लिए यह कार्य अत्यन्त सुगम है परन्तु इसके लिए हमें अपना हृदय खोलकर परस्पर सम्मान करना होगा। सहजयोगियों को परस्पर सम्मान करना चाहिए। कोई काला है, कोई गोरा है, कोई लम्बा है, कोई ठिगना है आदि-आदि। परमात्मा नें वैचित्र्य की सृष्टि की है अन्यथा हम सब एक से लगते । हमे वैचित्र्य का आनन्द लेना चाहिए क्योंकि वैचित्र्य ही सृष्टि के सौन्दर्य को दर्शाता है। ये सारी बाह्य वस्तुएं किसी भी प्रकार आपको प्रभावित न करें। लोग स्वच्छ हों, चुस्त हों परन्तु यह इच्छा करना अनुचित है कि सभी लोग आप जैसे हों। भारत में यदि आप अशुद्ध अग्रेजी बोलेगें तो उसकी अछूत की तरह निन्दा की जाएगी। इतनी दासत्व की भावना है कि चाहे आप मातृभाषा को जानते हो या नहीं हिन्दी जानते हो या नहीं पर आपको अंग्रेजी आनी चाहिए। यह तीन सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन के प्रति दासत्व की भावना है। उन्होंने अपना भी कोई भला नहीं किया करने 5. के हर क्षेत्र में अन्तर्जात अभिव्यक्ति हो सकती है। "मुझे यह नहीं पसन्द है, में यह नहीं खाता, इस प्रकार का व्यक्ति कभी सहजयोगी नहीं हो सकता।"मुझे पसन्द हैं" कहने वाला व्यक्ति। मेरा गला खराब था कोई व्यक्ति कुछ फल लाया, उसे प्रसन्न करने के लिए मैंने फल खाया। कोई बात नहीं। आप लोगों को प्रसन्न करने के लिए मैं इतनी भारी साड़िया पहनती हैँ। अन्य लोगों को प्रसन्न करने के लिए हम क्या कर रहे हैं? अपनी प्रसन्नता के विषय में सोचने की अपेक्षा हमें अन्य सहजयोगियों को प्रसन्न करना चाहिए। "मुझे यह पसन्द नहीं है, मुझे वह पसन्द नहीं है की अपेक्षा यह देखना चाहिए कि अन्य लोगों को प्रसन्न करने के लिए मैंने क्या किया? परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए हमारा चरित्र, हमारा आचरण पूर्णतया पवित्र होना चाहिए। मैं ऐसे सहजयोगियों को जानती हूं जिन्होंने चमत्कार कर दिए हैं, वे बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं परन्तु वे इससे भी कहीं अधिक कार्य कर सकते हैं। ईसा के जन्मदिवस पर मुझे यह बताना है कि उनके जीवन का अनुसरण करना अत्यन्त कठिन है। परन्तु उनसे हमें यह सीखना है कि वे हमारे सम्मुख हैं और उनकी सहजता, उनकी ईमानदारी और उनके बलिदानों को जहां तक हम अपना सकें अपनाते हुए हमें उनकी ओर आगे बढ़ना है। परमात्मा आपको आश्शिवादित करें। लोगों के घर क्यों जन्मे? क्योंकि वे उन्हें आर्शीवादित करना चाहते थे और आध्यात्मिकता द्वारा उनकी सहायता करना चाहते थे। परन्तु हम इस बात की चिन्ता नहीं करते कि कहां पर लोग निर्धन हैं और किस प्रकार उनकी सहायता की जा सकती है। आप सभी स्थानों पर उनकी सहायता कर सकते हैं। यह जान लेना अत्यन्त साधारण बात है कि आपके देश में कहां समस्या है, क्यों लोग निर्धन हैं और किस प्रकार उनकी सहायता की जा सकती है। यह कार्य हमें करना होगा। आपका प्रकाश यदि समाज को ज्योति प्रदान नहीं करता तो हम कुछ नहीं कर रहे। हम केवल अपने सहजयोग का, गणपति पुले का आनन्द ले रहे हैं, मात्र इतना ही। परन्तु अन्य लोगों का क्या होगा? कला, सगीत सभी सृजानात्मक वस्तुओं के प्रति संवदेनशीलता और इसके माध्यम से अन्य लोगों के लिए हम क्या कर सकते हैं? व्यर्थ की बातो की अपेक्षा इन चीजों पर हमारा चित्त अधिक होना चाहिए। आपको राजनीति की अधिक चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अनावृत होकर यह समाप्त हो जाएगी। राजनीतिज्ञों को परस्पर लड़ने दें, जो उनका जी चाहे करने दें, यह सब मूर्ख लोग हैं। आपका चित्त इस बात पर होना चाहिए कि सृजनात्मक बनकर किस प्रकार आप लोगों की सहायता कर सकते हैं। प्रेम, सहृदयता, अनुकम्पा भी एक चीज है। केवल प्रेम और स्नेह के कारण, जो कि सच्चा होना चाहिए, सहजयोगी की जीवन परमपूज्य श्री माता जी श्री निर्मला देवी जी का संक्राति संदेश (सारांश) प्रतिष्ठान, पुणे (14 जनवरी 1995) परस्पर प्रेम करेंगे। सहजयोग का सन्देश फैलाने के लिए अपना समय लगाएं। हमने एक नये धर्म पर चलना है जो कि सब धर्मों से ऊपर है। आपकी योग्यता के कारण आपको आत्म- साक्षात्कार मिला, आप अपनी आध्यात्मिकता का सम्मान करें। "एक व्यक्ति का परिवर्तन काफी नहीं है, हमें पूरा विश्व परिवर्तित करना है। हर एक सहजयोगी को चाहिए कि सहजयोग को फैलाने के लिए समय निकाले। इस वर्ष हमने पांच पूजाएँ की। परन्तु सहजयोगी चैतन्य लहरियों को सोखते नहीं और इससे मुझे कष्ट होता है। पूजा के लिए आपने स्वंय को तैयार करना है। जब आप पूजा पर आते हैं तो आपका मस्तिष्क सुस्थिर होना चाहिए जिससे कि आप गहनता में उतर सकें। निविचारिता में यदि आप ध्यान करेंगे तभी आप पूर्णतया निर्विचार हो पायेंगें। जब आप मध्य में होगे तभी आपकी गहनता मेरी सहायता कर सकेगी। संक्राति पर सूर्य बायें से दायें को चलता है। हमारी सूर्य रेखा भी विकसित होती है और हम अंहकार ग्रस्त हो जाते हैं। उत्थान के लिए आपको दायें या बायें न हो कर मध्य में होना होगा। हमें मधुर-मधुर बातें करनी चाहिएं और यह कार्य हृदय से होना चाहिए। केवल जुबानी जमा खर्च नहीं। आप यदि कोई गलती कर रहे हैं तो उसे सुधार लीजिए। आत्म निरीक्षण करके अपनी गलती को देखें और उसे सुधार लें। मकर संक्राति के दिन सन्तुलन के प्रतीक को महत्व देने के लिए तिल और चीनी की मिठाइयाँ बांटी जाती है- चीनी की मिठास में मिश्रित जिगर की गर्मी। परन्तु लोग इस प्रकार से तैयार हो कर पूजा में नहीं आते। संक्रान्ति पूरे वातावरण को परिवर्तित करने वाली गति की ओर संकेत करता है। यह गति वर्ष 1995 में आपको आनन्द एवं सन्तुलन प्रदान करे, यही मेरी मंगल कामना है। हमारा घर्म प्रेम है, परस्पर प्रेम करें। प्रभुत्व जमाने की कोई आवश्यकता नहीं। रथ के दोनों पहिए यदि बराबर हों तभी रथ आगे बढ पाता है। पति-पत्नी को चाहिए कि एक-दूसरे की उपेक्षा न करें । यदि परिवार प्रसन्न और प्रेममय है तो उसमें उत्पन्न हुए बच्चे भी परमात्मा आपको घन्य करें। चैतना लहरी 6. श्री राज लक्ष्मी पूजा ा परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) दिल्ली, 4 दिसम्बर 1994 आज हम श्री राज लक्ष्मी. की पूजा करेगें। ये देवी राजाओं पर शासन करती हैं। अत: यह समझना महत्पूर्ण हो गया है कि हमारी राजनीतिक शैली में क्या कमी आ गई है और लोगों में न्याय-विवेक, निष्कपटता और जनहित की भावना क्यों समाप्त हममें राजे और रानियों को ये लगा कि वे अत्यन्त परिष्कृत हैं, अत: उनकी संस्कृति को अपनाने के लिए धूम्र व मद्यपान करना शुरू कर दिया। कहते हैं कि इंग्लैंड से आये हुए उनकी शिक्षिकाओं ने उन्हें यह बुरी आदते सिखाई। पुरुष भी सोचने लगे कि हम अत्यन्त पिछड़े हुए हैं। अंग्रेजों ने उनके मस्तिष्क में भर दिया कि वे अत्यन्त पिछड़े हुए लोग हैं जो धूम्रपान, मद्यपान और बॉलरूम नृत्य करना नहीं जानते। यहां तक कि हमारी सेना भी इससे भ्रष्ट हो गई। सेना में तो आज भी अंग्रेजी शैली चल रही है। हमारे अपने देश के विपय में कोई ज्ञान नहीं, पर वे इंग्लैण्ड के बारे में जानते हैं। पूरी शिक्षा प्रणाली अंग्रेजों के माध्यम से आई और इसने भारतीय जीवन की अपेक्षा इंग्लैंड और पश्चिमी सभ्यता पर बल दिया। भारतीय वस्तुओं की किसी को चिन्ता न थीं। औषधियों में भी ऐसा ही हुआ देशी वैद्यों की बात कोई सुनना न चाहता था। लोगो ने सोचा कि वैद्य बेकार, असभ्य एवं पिछड़े हुए हैं। एक देश जिसकी राजनीति पर आध्यात्मिकता का शासन था उसका भी पतन हो हो गई है, हमारी किस कमी के कारण यह गुण लुप्त हो रहे हैं? भारत, जापान या अन्य प्रजातंत्रो ही नहीं सभी स्वतन्त्र हुए देशों ने अमेरिका, रूस, चीन, इग्लैण्ड आदि शक्तिशाली कहलाने वाले देशो की नकल करनी शुरू कर दी, बिना ये जाने कि वे लोग अपने लक्ष्य में कहां तक सफल हुए है। इग्लैण्ड जैसे देश के राज तन्त्र की कार्य-शैली को देखें तो यह दिल दहलाने वाली है। क्रॉमवैल जैसे अपने मन्त्रियों के प्रति उनका व्यवहार ऐसा है मानो आदिवासी लोग किसी चीज को चलाने का प्रयत्न कर रहे हों। सम्राट और साम्राज्ञी अत्यन्त अत्याचारी, चरित्र हीन और गैर जिम्मेदार थे। राज लक्ष्मी हितैशी तत्व के प्रति जरा भी समर्पण न था। हर देश में अत्यन्त भिन्न स्तर के लोग जनता के कल्याण को देखने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। समुराई का इतिहास भी जब आप पड़ते हैं तो आपको आघात लगता है। उन्होंने साचा कि हमारा कभी अन्त ही न होगा। उनका व्यवहार ऐसा था मानो जनता से उनका सम्वन्ध ही न रहा हो । साम्यवादी देशों में यदि आप जाएं तो वहां भी सत्ताधारी निरंकुश शासक बन बैठते हैं दूसरी ओर हमारे सामने श्रीमान हिटलर थे जिन्होंने सोचा कि मेरा कभी अन्त ही नहीं हो सकता। फ्रैंको ने स्पेन पर शासन किया। समझ में नहीं आता कि चरित्र और उच्च गुण विहीन ये लोग अन्य लोगों का हित किस प्रकार देख सकते हैं, असम्भव। हमारे देश में महान राजा हुए क्योंकि हमारी संस्कृति महान है और संत लोग राजाओं को चलाया करते थे शिवाजी गया। स्वतन्त्रता प्राप्त करने से पूर्व भारत में हमें अंग्रेजो से लड़ना पड़ा, लोगो में कितनी देश भक्ति थी। मुझे याद है कि एक बार हम एक हॉकी मैच देखने गए और मेरे पिता की कार पर राष्ट्रीय ध्वज, उस समय केवल कांग्रेस ध्वज, लगा हुआ था सिपाही आये और कहने लगे, दो। हमारा ड्राइवर उतरा और कहा, "मेरा गला काटने के बाद ही तुम इस झंडे को उतार सकते हो।" हम सब बच्चों ने भी उसका साथ दिया, तब घबराकर सिपाही वापिस चले गए। जब हम अंग्रेज़ो से लड़ रहे थे तब लोगों में इतना उत्साह और देशभक्ति थी परन्तु उन्होंने हमे विभाजित कर दिया और हमारे लिए समस्याएं उत्पन्न कर दी और इससे पूर्व कि हमें स्वतंन्त्रता का फल प्राप्त होता हम परस्पर लड़ रहे थे। मैं नहीं जानती इसका दोष किसे दिया जाए। यदि आप लोगो ने इस बंटवारे को, इस विभाजन को स्वीकार न किया होता तो कोई समस्या न होती पर यह स्वीकार कर लिया गया। बंगला देश के लोग अत्यन्त गरीब हैं। यदि वे भारत में आ जाते तो उनकी दशा कहीं अच्छी होती। पाकिस्तान क्या है? एक खाली स्थान जहां कोई औद्योगिक विकास नहीं हुआ, और यही कारण "इस ध्वज को उत्तार के गुरु महान सन्त थे। जनक भी एक गुरु थे, हर सम्राट का एक गुरु था। यहां तक कि श्री राम के भी गुरु थे। पर वे सच्चे गुरु थे जो सन्तों का जीवन यापन करते थे, अन्दर बाहर से सच्चे थे लोग भी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि वाले तथा आध्यात्मिक लोगो का सम्मान करने वाले राजाओं को स्वीकार करते थे। मैं नहीं जानती जब अंग्रेज भारत आये तो भारतीय राजाओं को क्या हो गया। अधिकतर लोगों को अंग्रेजो के रहन सहन की शैली पसन्द न थी। फिर भी बहुत से राज्यों के अभिप्राय है? कौन है वे?" आदि-आदि। मैंने कहा, "वे क्या करेगे? मेरे यहां से कुछ चुरा लेगे? इस घर में चुराने के लिए है ही क्या? वे शरणार्थी है और मुझे अच्छे लोग प्रतीत होते हैं, उनकी चैतन्य लहरिया भी ठीक है।" "नहीं! नहीं! उन्हें बाहर निकाल दो तो अच्छा है।" मैंने कहा, "इन लोगों की ओर देखो, उन्हें बिना देखे, बिना उनसे बात किये आप कह रहें हैं कि मैं एक दम उन्हें बाहर निकाल दें। मात्र इस कारण से कि वे शरणार्थी हैं!" है कि वे सदा काश्मीर का राग अलापते रहते हैं, इसके सिवाय उनके पास कुछ भी नहीं। उनके अपने देश के लोग परस्पर लड़ रहे हैं। विकास का पूर्ण अभाव है। यहां जब-जब भी कोई संकट आता है तो वह तुरन्त मूल्यों को परिवर्तित कर देता है ऐसा नहीं है कि पश्चिम में कोई मूल्य-प्रणाली न थी, परन्तु युद्ध नें उन्हें पूर्णतया परिवर्तित कर दिया इसी प्रकार भारत में भी जिन लोगो ने स्वतंन्त्रता संग्राम में अपने जीवन बलिदान किये या अच्छाई पर डटे रहे उन्हें आदर्श माना गया। तब लोग विपरीत दिशा (U-Turn) में मुड़ गए, पूर्णतया विपरीत दिशा में और अत्यन्त स्वार्थी बन गए। उन्हें केवल निजी वस्तुओं, अपने परिवारों, धन संग्रह करके उसे भारत से स्विटजरलैंड भेजने की चिन्ता की। अपने जीवन में मुझे उन लोगों के साथ रहने का अवसर मिला है जो स्वतंत्रता के लिए लड़े। इन चीजों के लिए वे कभी सोच भी न सकते थे। मैं अपने पिता, माँ, उनके मित्र और घर में आने जाने वाले बहुत से लोगों को जानती हूँ। बहुत से सिख और मुसलमान। पैसा लेने के विपय में वे सोच भी न सकते थे इसे वास्तव मुझे लगा कि इस देश में एक नई लहर चल पड़ी है जिसमें धन विहान व्यक्ति का सम्मान नहीं होता, न ही उस पर विश्वास किया जाता है। वास्तव में सत्य इसके बिल्कुल विपरीत है। जिन लोगों के पास पैसा है उन पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। घनी लोगों की अपेक्षा धनहीन लोग कहीं अधिक ईमानदार हैं। धनी लोग तो व्यवहारिक रूप से कपटी हैं। दोनों, मेरे पति और भाई, कहने लगे कि यहां बाहर का कोई व्यक्ति नहीं रहेगा। मैने अपना पैर नीचे रखा और कहा, "ये घर मेरे पिता ने मुझे दिया है और वो लोग यहीं ठहरेंगे।" वे बेचारे एक महीने तक वहां ठहरे बहुत ही उलझन में रहे होंगे। उन दिनों एक बहुत बड़ी संस्था शथी। सिख और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के लोग मिले हुए थे। वे मेरे घर पर आये और कहने लगे, "हमने सुना है कि आपके यहां एक मुसलमान ठहरा हुआ है।" हमारे यहां ठहरे हुए व्यक्तियों में से एक मुसलमान था भी। बे उस मुसलमान को मारना चाहते थे। मैने कहा, "आप कैसे सोचते हैं कि यहां कोई मुसलमान ठहरा हुआ है?" "हमारे पास इसकी सूचना है" मैने है हमारे यहां कोई मुसलमान नहीं है।" मैने उनसे झूठ बोला। वे कहने लगे, "हम आप पर कैसे विश्वास कर लें ?" मैने कहा, "देखो मैने विन्दी लगाई हुई है। मैं हिन्दू महिला हूँ। किस प्रकार में एक मुसलमान को अपने घर में रख सकती हूँ? उनसे मुझे डर लगता है; ऐसा कोई व्यक्ति हमारे यहां नहीं है"। यद्यपि मैने उनसे सफेद झूठ बोला था फिर भी उन्होंने मुझ पर विश्वास कर लिया। वे रक्त में सनी बहुत सारी तलवारें लिए हुए थे पर मैं उनसे डरी नहीं और निर्भयता पूर्वक उनसे बातचीत की। मेरे स्थान पर यदि कोई अन्य व्यक्ति होता तो उसने कहा होता, "ठीक है एक मुसलमान है, उसे ले जाएं। बाद में वे तीन लोग हमारे घर से चले गए। उनमें से एक प्रसिद्ध अभिनेत्री है, एक प्रसिद्ध कवि तथा दूसरे अत्यन्त विख्यात लेखक। में अत्यन्त नीचता माना जाता था। पैसा लेने की क्या जरूरत है यदि आप अपनी वाछित स्वतंत्रता, जिसे आपने प्राप्त कर लिया है, उससे सन्तुष्ट हैं। परन्तु जो लोग बिल्कुल सतह पर थे, जिन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया, देश के लिए कुछ बलिदान नहीं किया वे किस प्रकार चोटी तक पहुंच गए और अच्छे लोग नीचे चले गए। यदि आप शिवाजी, राणा प्राताप या किसी अन्य शालीवाहन वंशियों को इतिहास पढ़े तो आप आश्चर्य चकित रह जाएँगे। तो वो किस प्रकार शक्ति की पूजा किया करते थे? सभी क्षत्रीय शक्ति की पूजा किया करते थे। परन्तु वे ऐसा धर्म की सीमाओं के अन्दर रह कर करते थे। सूक्ष्म रूप से, इस विभाजन ने लोगों का दृष्टिकोण बदल दिया है और निम्न स्तर के लोग उभर कर आ गए हैं। कहा, "गलत विभाजन के समय मैं यहां थी, विवाहित थी, तीन व्यतिक्त मेरे पास आए। मैं गर्भावस्था में थी और बाहर उद्यान में बैठ कर अपने बच्चे के लिए कुछ बुन रही थी। वे आए और मुझे देख कर कहा,"क्या हमें आपके घर में एक कमरा मिल सकता है।" मैंने कहा, "क्यों नहीं?" यह मेरे पिता का बहुत बड़ा घर था। वे कहने लगे, "यह कमरा हमें एक या दों महीनो के लिए चाहिए, हम शरणार्थी हैं " मैंने कहा, "ठीक है बाहर एक दरवाजा है, एक रसोई और गुसलखाना भी साथ जुड़ा हुआ है। बिना हमें कष्ट दिये आप उनका उपयोग कीजिये।" मैंने अपनी स्वीकृति दे दी शाम को मेरे बड़े भाई और मेरे पति, जो दोनों मित्र हैं, लगे मुझ पर चिल्लाने। आगन्तुक दूसरे कमरे में थे। "ऐसे लोगों को घर में रखने का तुम्हारा क्या ऐसा हुआ हमें युवाओं के लिए एक फिल्म बनानी थी और इस समिति की मैं उपाध्यक्ष थी। वे लोग उस अभिनेत्री को बुलाना चाहते थे। मैंने उनसे कहा, "उसे मेरा नाम नहीं बताना क्योंकि मैं उसे पूरी तरह खो चुकी थी। वैसे भी यदि चैतन्य लहरी CO उन्हें छेड़ने लगे, "आप इश्तहार छपवा दें कि जो भी व्यक्ति ग्रामोफोन ले गया है वह आ कर रिकार्ड भी ले जाए। उसके लिए रिकार्ड भी उपलब्ध हैं।" उनके लिए यह बात इतनी स्वभाविक थी। उन्हें लगता था कि हमारे पास तो पैसा परन्तु उस बिचारे के पास पैसा नहीं है और वह संगीत सुनना चाहता है। मेरे पिता जी ने कहा, "ठीक है।" वैसे मेरे पिता जी दण्ड न्याय वकील थे। वे राजनीतिज्ञ भी थे। उस समय के राजनितिज्ञों के मन में भावना थी कि किस प्रकार उन लोगों के जीवन स्तर को उठाया जाए जिनका स्तर हमारे से नीचा है। सभी लोगों ने दिल खोलकर दान दिये। लक्ष्मी नारायण नामक एक व्यक्ति ने तो अपना सर्वस्व एक बड़े विश्वविद्यालय को दान कर दिया। उन दिनों हुए अधिकतर कार्य दान के धन से हुए । उन्होंने कभी नहीं सोचा कि हमारे बच्चों के पास करोड़ों रुपये होने चाहिए। जितना भी सीमित धन उनके पास था इसे धर्मार्थ दे कर वे दूसरे लोगों का भला करना चाहते थे। यह राज लक्ष्मी तत्व हैं। जो परहित के लिए जिम्मेदार है। ऐसे व्यक्ति को स्वंय को बताना ही पड़ सकता है, उन्हें लगता है यह उनका कार्य है। लोगों की देखभाल करके उन्हें जीवन के अच्छे स्तर पर लाना होता है। यही बात ऐसे लोग सोचते हैं। पार्टी राजनीति की तरह से वह नहीं सोचते कि कौन उन्नति कर रहा है और किसकी हत्या करनी है। देवी लक्ष्मी, जो कि राजनीति और राज्यों को चलाती हैं, के प्रभाव से विकसित होने वाला पहला गुण उदारता है। उदाहरणार्थ महावीर जी ध्यान मग्न थे। उनके शरीर पर केवल एक वस्त्र था [श्री कृष्ण ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने कहा, " देखिये मेरे पास कपड़े नहीं है- मैं नंगा हूँ। वे भिखिरी के रूप में उनके सामने आये, "ये कपड़ा आप मुझे क्यों नहीं दे देते? अपने महल जा कर आप वस्त्र धारण कर लीजिए महाबीर जी ने कहा, "ठीक है" उन्होंने अपना वस्त्र उतार कर भिक्षुक रूप में आये श्री कृष्ण को दे दिया। और झाड़ियों से कुछ पत्ते तोड़े, स्वंय को ढांपा और महल चले गए। परन्तु ये जैनी लोग उनके बड़े-बड़े नंगे पुतले बनाकर गुप्तांगो की बारीकियों का प्रर्दशन करते हैं और उन्हें अपमानित करते हैं। जहां देवी की पूजा नहीं होती वहीं ऐसा होता है। देवी श्री शोभा हैं। वही व्यक्ति को सुसज्जित करती है। वे मां हैं और आपको गहनों और सुन्दर-सुन्दर कपड़ों से सजाती हैं। राजा जनक राजा थे, अत: उन्हें गहने और सुन्दर वस्त्र आदि धारण करने पड़ते थे जब नचिकेता उनके पास गए तो बहुत हैरान हुए कि सभी प्रकार के वस्त्राभूषण धारण करने वाले इस राजा के पास मेरे ने मुझे क्यों भेज दिया है। राजा ने नृत्य का एक बहुत वह मेरा नाम जान जाएगी तो विवश होकर उसे हां कहनी पड़ेगी। जब वे उसके पास गए तो वह कहने लगी "मुझे एक साड़ी, चप्पल उनसे मेल खाता हुआ पर्स तथा इतना पैसा मिलना चाहिए। आपको ये सब मुझे देना होगा।" उन्होंने कहा, "हमारी फिल्म धार्मिक है।" लेकिन उसने एक नहीं सुनी। मैने कहा, "ठीक है जो भी वह मांगती है उसे दे दो।" जब मैं महूर्त के लिए गई उसने मुझे देखा और स्वयं को वश में न रख सकी। उसकी आँखो से अश्रु धारा फूट पड़ी। दौड़ कर वह मेरे चरणों में गिर गई। कहने लगी, "इतने समय के बाद आप यहां कैसे?" उसे बताया गया, "ये ही इस फिल्म को बना रहीं हैं।" वह कहने लगी, "क्या? ये इस फिल्म को बना रही हैं? तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? हे परमात्मा! अपने आंसुओ को वह रोक न सकी, वह रोये जा रही थी। मैंने कहा, "अ ले लीजिए, सारी फिल्म बनाने का खर्चा मैं उठाऊंगी। आप नहीं जानते इस महिला ने मेरे लिए क्या किया है ! जो इन्होंने किया है वो कोई और नहीं कर सकता।" इतना परिवर्तन आया कि तुरन्त उसने अपने पति को फोन किया और वे सब दौड़े हुए आ गए। उस समय, नि:सन्देह, मेरे पति और भाई किसी पर विश्वास करना न जानते थे। परन्तु मैने पूर्ण विश्वास किया। वे कहते रहते, "ये लोग तुम्हारा गला काट देगें आदि-आदि।' क्यों? क्यों ये मेरा गला काटेंगे? किसलिए? हर तरह की ऊल-जलूल बातें वे सोच रहे थे और सबसे बुरी बात जो मुझे लगी कि उनके पास पैसा न होने के कारण वे डर रहे थें। है अब ठीक है।" उसने कहा, "आप मेरे से पैसा परन्तु मेरे विचार में यह अन्त की शुरुआत है। हमारे देश में पैसे के लिए ये संघर्ष उसके बाद शुरू हुआ। बहुत से लोग दुख उठाने लगे। उन्होंने बुरा भी नहीं माना क्योंकि उन्हें इसकी आदत हो गई थी। जो भी कुछ पैसा उनके पास होता वे इसे खर्च कर लेते और सो रहते। उस समय मुझे महसूस हुआ कि पद, शक्ति सम्पन्न लोग अन्य सभी लोगों से डरते हैं। हमारे पतन का यह आरम्भ है। हम घवरा गए। सत्तारूढ़ लोग डर गए कि कहीं मेरा पद, धन या सत्ता छिन न जाए और इस डर ने उन्हें पूर्णतया पागल होने दिया। मान लो मेरे पास पैसा न रहे, तो क्या हुआ? विभाजन के बाद ये सब विचार लोगों में आने लगे। मेरे बचपन में मेरे पिता जी घर को ताला नहीं लगाया करते थे। हमारा घर बहुत बड़ा था पर उन्होंने इसमें कभी ताला नहीं लगाया। हमारा एक बहुत सुन्दुर ग्रामोफोन था। एक दिन कोई चोर उसे चुरा कर ले गया। अगले दिन जब हमें पता लगा तो मेरे पिता जी कहने लगे, बेचारा उसे संगीत का शौक था। वह ग्रामोफोन ले गया है, कोई बात नहीं! लेकिन वह रिकार्ड नहीं ले गया उसे क्या लाभ होगा? उसे रिकार्ड भी ले जाने चाहिए। मेरे माता जी गुरु बड़ा उत्सव करवाया। नचिकेता ने सोचा, "ये सन्त नहीं हैं. क्यों मेरे गुरु ने इनके पैर छुए हैं? ये तो राजा हैं! नि:सन्देह कोई आशा नहीं होती। वे साम्राज्ञी हैं और साम्रज्ञी को आप दे क्या सकते हैं? क्योंकि वे तो सर्वोच्च हैं उन्हें आप क्या दे सकते हैं। ये सभी राजनीतिज्ञ और इन देशों के कथित राष्ट्रपति तो भिखारी हैं। सदा मांगते रहते हैं, मानो चारों तरफ लालची लोग घूम रहे हों। ये लोग किसी का हित नहीं कर सकते अत: ऐसे व्यक्ति की पहली निशानी यह होती है कि उसका व्यक्तित्व दूसरों पर कृपा और उनका हित करने वाला होता है। जो भी कोई उसके समीप आता है वह उसकी देखभाल करता है। यह देवी का आशीवाद है। देवी का दूसरा वरदान ये है कि आप में गरिमामय स्वभाव विकसित होता है जो कि विनोदमय भी होता है और अन्य लोगों को समझने वाला भी एक कहानी है कि एक राजा घोड़े पर जा रहा था। उसे एक शराबी मिला। हम कह सकते हैं कि इस शराबी की तुलना हमारे राजनीतिज्ञो से की जा सकती है। शराबी ने राजा को रोका और कहा, "मैं आपका घोड़ा खरीदना चाहता हूँ। लोगों ने उसे कहा, "तुम जानते हो ये कौन है?"' "ये राजा हैं, मै जानता हूँ। मैं इनका घोड़ा खरीदना चाहता हूँ।" राजा ने कहा, तुम्हे बेच देगें।" राजा चले गए, अगले दिन उस शराबी को बुलाया गया। हाथ जोड़ कर सिर झुकाये हुए वह आया। राजा ने कहा, राजा जनक ने उसके विचारों को पढ़ लिया था उन्होंने पूछा, "नचिकेता आप यहां क्यों आये हैं?" नचिकेता ने उत्तर दिया, "मैं यहां आत्म-साक्षात्कार" प्राप्त करने के लिए आया हूँ।" राजा जनक कहने लगे, "आप मेरा पूरा साक्षात्कार देना सुगम कार्य नहीं है।" नचिकेता कहने लगे, "ठीक है आप जो भी कहेगें मैं करूंगा।" तो राजा जनक ने उनके रांज्य ले लो, परन्तु आत्म सिर पर एक बहुत बड़ा सर्प रख दिया और उनसे सोने के लिए कहा। वे बिल्कुल न सो सके। तब उन्होंने उसे अपने साथ नदी में स्नान करने के लिए कहा। जब वे स्तान कर रहे थे तो लोगों ने आ कर उनसे कहा कि आग लग गई है और सभी लोग दौड़ रहे हैं। परन्तु राजा जनक अपने ध्यान संसार में थे। वे शान्ति पूर्वक बैठे हुए थे। नचिकेता घबराये। तब लोगों ने कहा कि आग यहां तब पहुँच गई है और आपके ये सारे कपड़े जल जाएंगे। नचिकेता अपनी चीजज़ों को बचाने को दौड़े, परन्तु राजा जनक ध्यान मग्न रहे। जब वे बाहर आये तो नचिकेता को पता चला कि कुछ भी न जला था। यह लोगों द्वारा रचित एक भ्रम था। वह आश्चर्य चकित रह गए तब उसने जाना कि उसमें क्या कमी है कि वह परमात्मा की शक्ति पर ही सन्देह कर रहा है । जनक, जो कि राजा थे, को अपनी शक्तियों की चिन्ता न थी। वे राजा थे और राजाओं की तरह से वस्त्राभूषण धारण करते थे। मैं विवाहित हूँ मुझे मंगलसूत्र पहनना है। यह परम्परागत हैं। परन्तु अन्दर से जनक बहुत उच्च सन्त थे। व्यक्ति प्राय: सत्ता बाधा ग्रसित हो जाता है। सहजयोग में भी, मैं हैरान होती हूँ, कि ज्यों ही कोई व्यक्ति आज नहीं, कल हम यह घोड़ा आप ही वह व्यक्ति हैं जो मेरा घोड़ा खरीदना चाहते थे। तुम्हे क्या हो गया है? मैं तुम्हें यह घोड़ा बैंचना चाहता हूँ।" उसने कहा, "श्री मन्त जो ये घोड़ा खरीदना चाहता था उसकी मृत्यु हो गई। मैं एक सर्वसाधारण व्यक्ति हूँ। ऐसा दृढ़ व्यक्तित्व! उसके स्थान पर कोई अन्य होता तो वह नाराज हो जाता और कहता, "इस आदमी की पिटाई करो, इसे बाहर फैंक दो। इसका आचरण इतना बुरा है।" राजा ने जो कहा वह प्रशंसनीय था क्योंकि वह जानता था कि वह व्यक्ति नशे ार लीडर बनता है तो उसे न जाने क्या हो जाता है। यह सब छलावा है। सहजयोग में लीडर जैसी कोई चीज नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं। यह मात्र एक मिथक है। परन्तु अचानक लोग उछलने लगते हैं। उनके अहम् को बढ़ावा मिल जाता है। परन्तु यदि आप राजलक्ष्मी की पूजा करें तो इस अहम् सुगमता पूर्वक वश में किया जा सकता है। राज लक्ष्मी सन्तुलन दायी है। वे हाथी की सवारी करती हैं। हाथी की सवारी करना किसी महिला के लिए सुगम कार्य नहीं है मैने भी हाथी की सवारी की है। निर्भयता पूर्वक हाथी की सवारी करना कठिन है। राज लक्ष्मी पूर्ण सन्तुलित दृष्टिकोण से सीधी बैठती हैं। उनके आर्शीवाद जबरदस्त हैं। उनका पहला आर्शीवाद गरिमा को आत्मसात करना है एक सम्राट और साम्राज्ञी की गरिमा आप साम्रज्ञी हैं, आप सर्वसाधारण महिलाओं की तरह से व्यवहार नहीं कर सकतीं। उनके आर्शीवाद से स्वप्रथम आप वह गरिमा प्राप्त करते हैं जो प्रेम से परिपूर्ण होती है, दूसरों के लिए प्रेम। ऐसा व्यक्ति अन्य लोगों का हित और उनके प्रति प्रेम की बात करता है। जिधर भी राजलक्ष्मी रहती हैं वे लोगों का हित करती हैं । उन्हें को में है। राजा को ज्ञात था कि वह होश में न होने के कारण इस प्रकार बात कर रहा है वह उस पर नाराज नहीं हुआ। उसने कहा, "कल आ जाओ मैं घोड़ा तुम्हें बेच दूंगा।" यह तभी सम्भव है जब राज लक्ष्मी आपमें हो, इसके विना आप इस तरह बर्ताव नहीं कर सकते। पर आज के राजनीतिज्ञों की क्या दशा है? बह लोगों की हत्या कर देते हैं, उन्हें जेल भिजवा देते हैं। सभी प्रकार के दुष्कर्म वे करते हैं। ऐसे लोगों को कोई अधिकार नहीं कि वे किसी अन्य को अपराधी कहें, पर हम सभी कुछ स्वीकार कर लेते हैं। हम कहते हैं "आज कल समय ही ऐसा है।" इस प्रकार के सभी लोगों को हम अपना शासक स्वीकार कर लेते हैं। राज लक्ष्मी धर्म पर खड़ी हैं। किसी अधर्मी को वे आशीप नहीं देतीं। अर्धम को दूर करना ही होगा। धार्मिक व्यक्ति की रक्षा करने के लिए सभी कुछ करती हैं। व्यक्ति में दिव्य-विवेक चैतन्य सहरी 10 होना चाहिए कि किस के प्रति सुहृद हो और किसके प्रति कठोर? इस दैवी विवेक के बिना आप लोगों के हाथों की कठपुतली बन के रह जाते हैं। मेरी मां के स्थान, नन्द गांव में एक व्यक्ति ने हमारे योगियों को बहुत प्रभावित किया। मैं चुप रही। वह बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ था। उसने मुझे कहा, कि हम इस प्रकार करेंगें। मैंने कहा, "ठीक है।" तब विश्वविद्यालय से तीन चार प्रोफैसर मुझे यह बताने के लिए आये कि "श्री माता जी यह तो राजनीतिज्ञ है, बहुत सावधान रहें। यह बहुत बुरा व्यक्ति है इससे सावधान रहें। मैने कहा, "तुम इसके विषय में क्या जानते हो?" वे कहने लगे, "कि ये एक राजनीतिज्ञ है" मैने कहा, "राजनीतिज्ञ तो बहुत हैं। "परन्तु यह अच्छा आदमी नहीं है।" मैने कहा, "अब बैठ जाओ मैं तुम्हें बताती हूँ, यह व्यक्ति एक ब्राह्मण की पत्नी को भगा कर ले आया है। यह स्वंय ब्राह्मण नहीं है और यह बच्चा उस पत्नी से है। इसने लोगों को कितना घोखा दिया है वह सब मैं जानती हूँ।" वे आश्चर्य चकित रह गये। मां आप सब जानती हैं? नि:सन्देह मैं उसे जानती हूँ" मैंने कहा। "फिर आप इसे इतना समीप क्यों आने देती है?"' कौन कहता है कि "यह मेरे समीप है" मैने कहा, "आप लोगों को बड़ी भारी गलतफहमी हुई अन्तर नहीं पड़ता। अब यह भी देखना है कि किस प्रकार लोग धर्म ग्रन्थां का दुरुपयोग करते हैं । राज लक्ष्मी हाथी की सवारी करती हैं अत: वे कभी बड़ी-बड़ी कार खरीदते हैं। वे हाथी पर इस लिए बैठते है कि हाथी सबसे बड़ा पशु है। यह अत्यन्त करुणामय और क्षमाशील है तथा इसकी स्मरण शक्ति भी अथाह है, इसलिए राज लक्ष्मी हाथी पर बैठती है, दिखावे के लिए नहीं। एक उच्च स्थान पर बैठ कर वे देखती हैं कि चहूँ ओर क्या घटित हो रहा है। यही कारण है कि राजा को उच्च सिंहासन पर बैठाया जाता है। यह दिखावे के लिए नहीं किया जाता। इसलिए किया जाता है कि ऊंचाई से व्यक्ति चारो तरफ देख सकता है। दूसरों से हम सावधान हो सकते हैं। यदि कोई उच्च पद प्राप्त कर ले तो वे सोचते हैं कि वे उस पद के स्वामी हैं। मस्तिष्क के उलट जाने के कारण ऐसा हुआ है। ऐसा होना किस प्रकार संभव है? आप यदि यह सिंहासन दे रहें है, मैं इस पर बैठती हूँ, परन्तु यह सिहांसन मुझे कुछ नहीं दे सकता। में इस सिहांसन को कुछ दे सकती हूँ। राजा को सोचना है कि सिंहासन पर बैठकर वह लोगों पर उपकार कर रहा है। वह राजा है इसलिए अन्य लोगो से ऊँचा बैठा है। इसके विपरीत वह सोचता है कि ये सारी चीजे महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसमें है। परन्तु अच्छा हुआ ये मेरे पास आ गया है क्योंकि अब तक ये लोगो को बहुत परेशान करता रहा है, मैं इसे सुधार दूगीं। कुछ लोग मेरे पास ये बताने आते कि उस व्यक्ति के पास बहुत सी उपलब्धियां है और कुछ सावधान रहने की सलाह देते। तो इस प्रकार के दैवी विवेक का होना आवश्यक है। यदि किसी राजा में यह दैवी विवेक न हो तो वह अच्छे लोगों को सजा देता है और बुरे लोगों का हित कर सकता है। स्वार्थी होते ही यह दैवी विवेक लुप्त हो जाता है। सत्ता से पूर्ण निलिप्सा का होना मुख्य बात है। राजलक्ष्मी किसी चीज की चिन्ता नहीं करती। अब कुछ लोग दूसरे को व्यर्थ में खूब देते रहते है और वे अपने आप को बहुत ऊँचा समझने लगते हैं। लोग राजनीतिज्ञों के अहम् को हवा देते हैं और राजनीतिज्ञ स्वयं को बहुत बड़ा मान बैठते हैं। पर चुनावों के बाद उसकी समझ में नहीं आता कि किस प्रकार वह धराशायी हो गया। अपने आत्म गौरव और आत्मज्ञान से आप स्वंय को समझ सकते हैं। आप जो भी मुझे बताये या कहें मैं वह सब नहीं करूंगी। यह दीपक है । मै यदि आदि शक्ति हूं तो हूँ। आप यदि सम्राट हैं तो हैं। आप यदि धोखेबाज हैं तो आप अहम्ग्रस्त हो सकते हैं परन्तु यदि आप वास्तव में राजा हैं तो इसका कोई कमी है। इसी कारण जब उन्हें राज मिलता है तो वे बेकार की वस्तुएं धारण करने लगते हैं। अपने घरों को व्यर्थ की चीज़ों से भर लेते हैं। उनकी गरिमा भी उन पर सजा मात्र बन जाती हैं। ये दिखाने के लिए वे राजा है उन्हें नाम दिया जाता है, बहुत बड़ा हार दिया जाता है और भी कई चीज़े व पहनते हैं। मात्र इसलिए कि वे राजा है। वास्तविक राजा को यह चीज़े सुस्ज्जित नहीं करती, ये उससे सुस्ज्जित होती हैं। उदाहरणार्थ अब गली के किसी ऐरा-गेरा, आधे भूखे भिखारी को लें और उसे ये भूषण और वस्त्र पहना दें और उसे सिंहासन पर बिठा दे तो लोग उस पर हँसेगें कोई उसे किसी भी प्रकार राजा न मानेगा क्योंकि उसमें वांछित गरिमा, मुखाकृति, शरीर, मस्तिष्क और बुद्धि नहीं है। किस प्रकार वह राजा हो सकता है? एक राजा था जिसने अपने जुते मोतियों के बनाने का प्रयत्न किया। वह अत्यन्त मूर्ख था। मैंने जब उन जूतों को देखा तो सोचा कि कोई मूर्ख ही इस प्रकार की बात सोच सकता है; आजकल मूर्ख लोग इस प्रकार के प। बहुत से कार्य करते हैं। मुझ पर इसका कोई अन्तर नहीं पड़ता। उनके लिए यह वस्तुएं इतनी महत्वपूर्ण हैं कि वह इन्हें खरीद कर भी वे धारण करना चाहते हैं। में एक व्यक्ति को जानती हूँ जो हमारे एक कार्यक्रम में फूलों की माला लेकर आया। मैंने उससे पूछा कि तुम यह माला क्यों उठाए हुए हो? "देखिये मुझे माला पहनाई गई थी इसलिए मैने इसे संभाल कर रखा प्रभाव आप पर न होगा। देवी से यदि आप प्रभावित हैं तो आपको केवल उसी में आनन्द प्राप्त होता है, शेष सब व्यर्थ है। आपके पास हीरे और सोना चांदी है, या नहीं इससे कोई 11 165 पलियाँ थी क्योंकि वे समझते थे कि 165 पत्नियों के बिना लोग उन्हें नवाब नहीं समझेंगे। यह एक और हीन भावना है कि आपके इर्द-गिर्द बहुत सारी सत्रियाँ होनी चाहिए ताकि लोग कहे, "यह व्यक्ति कितना शक्तिशाली है।" वे दिन अब समाप्त हो चुके हैं। सत्ययुग आरंभ हो गया है । मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि इस युग में जिस व्यक्ति को राजलक्ष्मी का आशीरवाद प्राप्त नहीं है वह जेल में जाएगा, अपना पद् खो देगा और धूल में मिल जाएगा। जितनी मर्जी ये लोग चालाकियां करते रहें उनका पर्दाफाश हो जाएगा और बनावटी शासक होने के परिणाम उन्हें भुगतने होंगें। निष्कपटता ही इस बात का प्रमाण है कि देवी राजलक्ष्मी का निवास इस व्यक्ति में है। मुझे पृर्ण विश्वास है कि सत्य युग में यह घटित होगा। सहजयोग में भी कई बार मैं लोगों को राजनीति करते हुए पाती हूँ। मैं हैरान थी। राजनीति का अर्थ लोग समझते हैं समूह बनना और इधर की बाते उधर और उधर की बातें इधर करना। इससे पता चलता है कि आपमें सामूहिकता की कमी है। सहजयोगी व्यक्ति लोगों को परस्पर जोड़ने का प्रयत्न करेगा क्योंकि सामूहिकता में ही शक्ति निहित है। किसी भी चीज के लिए सामूहिकता को तोड़ना उस व्यक्ति के लिए और अन्य लोगों के लिए भयानक है। हुआ है।" हम भारतीय लोग इस प्रकार पहनाई हुई माला को लादे नहीं रखते, तुरन्त उतार देते हैं। माला केवल देवताओं पर चढ़ी रहती है। एक अन्य स्त्री मुझे मिलने आई और कहने लगी "मैं इन भारतीय लोगो को नहीं समझ पाती, मैने एक माला खरीद कर अपने गले में डाल ली और गली के सभी लोग मुझ पर हँस रहे थे।" पर आप भारतीय लोग इस बात की सूक्ष्मता को समझते हैं। आप देवता नहीं है जो गले में माला डालकर घूमें। आपको ऐसा व्यक्ति बनना है, जो अन्तःजात सम्राट है और जिसे राजलक्ष्मी का आर्शीवाद प्राप्त है। राजलक्ष्मी ऐसे व्यक्ति के साथ क्या करती है? वह देखती है कि ऐसे व्यक्ति का नाम प्रजा के हृदय पर खुदा हुआ है, वह अपने हाथ से इसे लिखती है। लोग उस पर श्रद्धा करते हैं, उसे प्रेम करते हैं और उसके गुणों को अपने अन्दर आत्मसात करने का प्रयत्न करते है। राजलक्ष्मी का एक अन्य वरदान यह है कि वो एक विशेष प्रकार का शरीर प्रदान करती है जो वाछित रूप से कार्य करता है और चैतन्य लहरियां छोड़ता है। ये लोग चाहे स्वार्थी न हो अपना बहुत अधिक विज्ञापन न करें अपने बारे में बहुत अधिक, बाते न करें, फिर भी जहाँ भी वे हैं, महत्वपूर्ण हैं। हमारे समय में ऐसे बहुत लोग हुए, चाहे लोग उन्हें स्वीकार न करे, चाहे अब उन्हें कोई महत्व नहीं देता, क्योंकि आजकल कुछ नए मूर्ख बहुत अधिक उछल कूद करते दिखाई पड़ते हैं, परन्तु जिन के नाम लोगों के हृदय पर खुदे हुए हैं वही लोग वास्तव में राजलक्ष्मी द्वारा आर्शीरवादित है। राजनितिज्ञ को समझना है कि धन इकट्ठा करना उसका लक्ष्य नहीं है। उसे स्वंय का प्रदर्शन भी नहीं करना और न ही उसे देश का धन लूटना है और न ही उन लोगों पर चिल्लाना है जो किसी भी प्रकार से कष्ट दे रहे हैं। तो उसे करना क्या है? उसे समझना है कि अच्छा नाम कमाने के लिए और अपनी मृत्यु के बाद अपना यश छोड़ने के लिए वो यहां है। उसे घ्यान रखना चाहिए कि उसके यश पर कोई आँच न आए। उदाहरणार्थ श्री राम हितैपी राजा थे परन्तु किसी ने उन्हें चुनौती दी कि उनकी पत्नी रावण के साथ रही है, वह किस प्रकार पवित्र हो सकती है। राम जानते थे कि सीता पवित्र अब आप परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर गये हैं। सर्वशक्तिमान परमात्मा के दरबार में आप बैठे हुए है। दरबारियों की तरह अच्छी तरह से वस्त्र धारण करके यथोचित रूप में अपने-अपने स्थान ग्रहण करने है हमें सुव्यवस्थित एवं निष्कपट होना हैं क्योंकि हम सहजयोगी हैं। आप साधारण लोग नहीं है, विशेष हैं। विश्व के कितने लोग सहजयोगी हो सकते हैं? आप विशेष लोग हैं। स्वंय को राजलक्ष्मी के इतने सुन्दर यंत्र बनायें कि जब लोग आपको देखें तो आपको ही वोट दें और कल आप ही लोग विश्व के शासक हों। मैं नहीं कहती कि आप राजनीति छोड़े या राजनीति में प्रवेश करे, परन्तु पहले आपको राजलक्ष्मी का वरदान प्राप्त करना होगा और तब आप जाने कि हमारे देश में क्या कमी हैं? हमें क्या करना है हमारा लक्ष्य क्या है, किस लिए हमने राजनितिज्ञ बनना है? हमारे पास योजना होनी चाहिए। आपका चित्त आपसे बाहर कहां है। उस दिन मुझे एक पत्र मिला उसमें लिखा था मेरे पिताजी बीमार है मेरी माताजी बीमार है! ऐसे लोग अधिक कार्य नहीं कर सकते हैं। जब भारत को स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ हुआ तो हम सब युवाओं नें अपनी पढ़ाई लिखाई एवं मित्र सब त्याग दिए। अब आपको समझना है कि वास्तव में यदि आप राजनीति अपनाना चाहते हैं तो आपको राजलक्ष्मी का आर्शीवाद प्राप्त करना होगा और इसके लिए आपको उसी विवेक के साथ अपनी गरिमां बनानी होगी । है परन्तु राजा के यश को बनाए रखने के लिए उन्होंने सीता को चले जाने को कह दिया। आजकल लोग उल्टे-सीधे धन्धे करके घन इकट्ठा कर लेते हैं। लोग पीठ पीछे उन पर बाते बनाते हैं पर उनके सामने कोई कुछ नहीं कहता। आपको चाहिए कि अपने सच्चरित्र के विषय में चिन्ता करें। आजकल के राजनीतिज्ञ जब तक तीन-चार रखैलें न रखें तो राजनीतिज्ञ नहीं कहलाते। लखनऊ के एक नवाव थे जिनकी बैतन्य तहरी 12 राजलक्ष्मी जब हममें जागृत होती है तो हमारे अन्दर सभी कुछ परिवर्तित हो जाता है । हमारे विचार व्यक्तिगत से सामूहिक हो जाते है। हम स्वंय से उठ कर विश्व के साथ एकाकार हो जाते हैं। स्वयं के विषय में सोचने के स्थान पर हम विश्व के विषय में सोचते हैं आप हैरान होंगे कि मैं अपनी आवश्यकता के बारे में कभी नहीं सोचती और न ही मैं अपने लिए कुछ खरीदती हूँ। आप ही मेरे लिए सभी कुछ खरीदते हैं। एक बार हमारे घर में चोरी हो गई और सभी कुछ चोर ले गए। सभी साड़ियां चली गई और हमारी दशा बिगड़ गई। मैरे पति एक ईमानदार सरकारी नौकर थे और उनके कपड़े, बनाने में मुझे बहुत कष्ट ठठाना पड़ा। सात वर्षों तक में केवल एक रेश्मी साड़ी पहनती थी। मेरे पास सूती वस्त्र थे परन्तु जहां कहीं भी मुझे जाना होता मैं केवल वही एक मात्र साड़ी पहनती, उपहार न दें। परन्तु में कहती हूँ, "मुझे उपहार देने दें क्योंकि में मां हूं, परन्तु वे सुनते ही नहीं, कहते है हमें आपको उपहार दे कर आनन्द प्राप्त होता है। अब मैं सोच रही हूं कि जो भी उपहार आप लोग मुझे देंगे वे सारे मैं सहजयोग को दे दुंगी। इतने अधिक की क्या आवश्यकता है? कृपा करके उपहार देने कम कर दीजिए। जहां भी मैं जाती हूँ उपहार मिलते हैं। किसी का बच्चा होता है वो उपहार देता है, किसी का विवाह होता है वह उपहार देता है। मैंने तीन घर बनाये ये, और तीनो गोदाम बन गए है, अब चौथा भी बन जाएगा, रहने के लिए कोई स्थान न बचेगा। आप लोगों को बहुत प्रसन्नता मिलती है तो एक वर्ष में एक साड़ी काफी हैं। आप मुझे बहुत प्रेम करते हैं और मैं भी आपको बहुत प्रेम करती हूँ। प्रेम में व्यक्ति को लगता है कि वो देता ही रहे। संसार की भौतिक चीजें प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए हैं, पर मैं सोचती हैँं कि अब परन्तु इस बोत का किसी को पता नहीं चला। केवल मेरे पति यह जानते है। अब आप लोगों ने मुझे इतनी साड़ियां दे दी है कि एक बार फिर द्रोपदी चीर हरण होगा तभी ये साड़ियां म आएंगी अन्यथा ये सब ढेरो के ढेर इकट्ठे हो रहे हैं मैं कहां इन्हे पहनुंगी? लेकिन कोई मेरी बात सुनता ही नहीं। मैं बार-बार अनुरोध करती हैँ कि मुझे उपहार न दें, मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं। वे कहते हैं कि आप हमें कोई ऐसा करना बन्द कर देना चाहिए। अब आप लोगों को इसके विषय में सोचना चाहिए। सब से बात कर-कर के मैं थक गई हूँ। तो अब मध्य मार्ग अपना लें तो बहुत अछा होगा। मैं हृदय से आशीवाद देती हूँ कि सभी देशों में ऐसे लोग हों । का परमात्मा आपको धन्य करें। शिव रात्रि पूजा परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन आस्ट्रेलिया - 26-2-95 आज हम यहां सदा शिव की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। हमारे अन्दर जो प्रतिबिम्बित है वही पवित्र आत्मा हैं। हमारे अन्दर स्थित पवित्र आत्मा सर्वशक्तमान परमात्मा सदा शिव की प्रतिबिम्ब है। यह जल पर चमकते हुए सूर्य के समान हैं जो स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। सूर्य यदि पत्थर पर चमकता है तो बिल्कुल प्रतिबिम्बित नहीं होता। शीशे पर यदि सूर्य चमकेगा तो न केवल इसमें प्रतिबिम्बित होगा बल्कि अपना प्रकाश कहीं और पुन: प्रतिबिम्बित करेगा। इसी प्रकार मनुष्यों में भी सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब की अभिव्यक्ति उनके व्यक्तित्वों के अनुसार होती है। व्यक्त का ब्यक्तित्व यदि स्वच्छ एवंम पवित्र है तो प्रतिबिम्ब शीशे पर पड़ते हुए सूर्य के प्रकाश माध्यम से परमात्मा का प्रतिबिम्ब अन्य लोगों में भी प्रतिबिम्वित होता है। सौभाग्य से आप सब लोगों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हो चुका है। इसका अर्थ यह है कि स्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिबिम्ब आपके चित्त के अन्दर पहले से ही कार्यरत है। आत्मा की शक्ति से आपका चित्त ज्योतिमय हो चुका है। आत्मा की शक्ति यही प्रतिबिम्ब है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि प्रतिबिम्ब का तदात्मय शीशे या जल से कभी नहीं होता। जब तक सूर्य चमकता है प्रतिबिम्ब होता है और सूर्य के जाते ही प्रतिबिम्ब समाप्त हो जाता है। जब आप सहजयोग में हैं तो आपने स्वंय को स्वच्छ कर लिया है । आपकी कुण्डलिनी ने भी आपको स्वच्छ किया के प्रतिबिम्ब के समान होगा। अत: सन्त लोग सर्वशक्तिमान परमात्मा को भली-भांति प्रतिबिम्बित करतें हैं। वर्षों के कुसंस्कारों से उनका कोई तदात्मय नहीं होता। जब ऐसा कोई तदात्मय ही नहीं होता और व्यक्ति पूर्णतः पवित्र आत्मा होता है तब उसके है और अब आप पावन व्यक्तित्व हैं। यही कारण है कि परमात्मा का प्रतिबिम्ब आपमें अतिस्पष्ट है और लोग इसे देखते हैं। वे इसे आपके चेहरे पर, आपके शरीर में, आपके कार्य में, आपके आचरण में और सभी जगह देखते हैं। 13 है लोगों के लिए यह विश्वास कर पाना, कि वे सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब हैं, अति कठिन है। उनमें अपने विषय में कुछ विशेष प्रकार की मनोग्रन्थियां हैं जिनके कारण वे समझ नहीं पाते कि किस प्रकार अचानक वे सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब बन गए हैं। परन्तु उनमें यह सामर्थ्य है और वे इसके हम कह सकते हैं कि हमें एक अन्य महान सुविधा भी प्राप्त कि हम सामूहिकता में हैं। सामूहिकता में हम पता लगा सकते है कि हम किस प्रकार व्यवहार कर रहे हैं। सामूहिकता की हमारे व्यवहार के प्रति क्या प्रतिक्रिया है? सामूहिकता में व्यक्ति अतिसूक्ष्म होता है, उसे बहुत अधिक बोलने की आवश्यकता नहीं होती और न ही बहुत अधिक कहने की मुग्गों की तरह से वह भी दृढतापूर्वक खड़ा रह सकता है। परन्तु उसकी गहनता को महसूस किया जा सकता है। ऐसी क्षमता के व्यक्ति को आप महसूस कर सकते हैं कि यह इतना गहन व्यक्ति है जो कि आक्रामक नहीं होना चाहता। अपने अन्दर से ही वह सुरक्षित महसूस करता है यह सुरक्षा आपकों केवल मानसिक रूप से ही महसूस नहीं करनी, इसे अपने अन्तस में महसूस करना है और एक बार जब आपमें वह गहनता, वह भावना आ जायेगी तो कोई भी आप पर आक्रमण नहीं कर सकता। आक्रमण करने वाला व्यक्ति तो स्वयं असुरक्षित है। हो सकता है वह अशिष्ट हो। अत: ऐसे व्यक्ति के विपय में आपका दृष्टिकोण एक प्रकार से गरिमामय होना चाहिए। शिव के स्वभाव के विषय में सभी कुछ ज्ञात है कि वे क्षमा के सागर है। तपस्या करने वालों, सिर के भार खड़ा होना, पैर पर खड़ा होना, भोजन न करना या अन्य प्रकार की तपस्या करने वालो से परेशान होकर के कहते हैं कि ठीक है तुम्हें जो भी चाहिए वर माँग लो। तपस्या से तंग आकर उन्होंने बहुत से राक्षसों को वरदान दिए। सदा शिव के ऐसे लोगों को वर देने की बहुत सी कहानियां है। उन्होंने रावण को भी वर दिया। रावण की कहानी अत्यन्त रोचक है। रावण ने बहुत तपस्या की। उसने स्वयं को इतने कष्ट दिए कि शिव परेशान हो उठे| उनकी करुणा अत्यन्त महान है। उन्होंने सोचा कि इस व्यक्ति को जो भी चाहिए इसे दे दूं। उन्होंने रावण से पूछा क्या चाहिए? किस लिए यह सब कर रहे हों? उसने कहा मुझे एक वरदान चाहिए। कैसा वरदान? पहले आपं वचन दीजिए कि जो भी मै मागूंगा आप मुझे प्रदान करेंगें। शिव ने कहा नि:सन्देह, यदि ऐसा करना मेरे सामर्थ्य में होंगा तो। यह अत्यन्त रोचक कहानी है। तब रावण ने कहा: मुझे आपकी पत्नी चाहिए, क्योंकि वह जानता था कि शिव की पत्नी आदिशक्ति हैं और पत्नी-रूप में यदि आदिशक्ति प्राप्त हो जाए तो वह चमत्कार कर सकता सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब बन सकते हैं, परन्तु लिए उन्हें स्वयं पर और अपने उत्थान पर विश्वास करना होगा और यह भी विश्वास करना होगा कि हम वह बन गए हैं। सहजयोग में दृढ़-विश्वास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आपने देख लिया है कि बिना पूर्ण विश्वास के आप अपना उत्थान प्राप्त नहीं कर सकते। अपने प्रवचनों में भी मुझे बताना पड़ता है कि हमें पूर्ण आत्मविश्वास करना होगा। परन्तु आत्मविश्वास का अभिप्राय किसी तरह से आपका अहम् या आक्रामकता नहीं है। यदि आपमे आत्मविश्वास है तो आप आक्रामक हो ही नहीं सकते। चीन की एक बहुत रोचक कहानी हैं- चीन में मुर्ग-युद्ध प्रतियोगिता होती है। एक राजा चाहता था कि उसके मुर्गे प्रतियोगिता में जीतें। किसी ने उसे वताया कि एक सन्त हैं, उनके पास यदि आप अपने मुर्गे ले जा सकें तो वे इन्हें इतने शक्तिशाली बना देगें कि वे अवश्य जीत जायेगें। राजा अपने दो मुर्गे उस सन्त के पास ले गया और सन्त से कहा कि मैं चाहता हूँ कि आप इन्हें इतना शक्तिशाली बना दें कि ये इस प्रतियोगिता में जीत जाएं। एक माह के पश्चात आ कर राजा उन मुरगों को ले गया और बहुत से मुर्गों के बीच उन्हें अखाड़े में उतार दिया। शेष मुर्गे उन पर झपट पड़े परन्तु वे अत्यन्त धैर्य-पूर्वक, पूर्णत: शान्त खड़े हुए थे। सभी प्रकार के आक्रमण को वे मजाक की तरह से देख रहे थे सारे मुर्गे थक कर अखाड़े से दौड़ गए और इस प्रकार इन दोनों मुर्गों ने प्रतियोगिता जीत ली। हमें भी यह बात समझनी है कि निर्लिप्त व्यक्ति पर कोई आक्रमण नहीं हो सकता। अपनी बहुत सी लिप्साओं के कारण हम पर आक्रमण होते हैं। सर्वप्रथम हमारा परिवार फिर हमारा देश, हमारा धर्म और फिर जातिवाद जैसी बहुत सी अन्य लिप्साएं। ये सारी लिप्साएं हर समय हम पर आक्रमण करती रहती हैं। और इस प्रकार हमें दुर्बल बना देती है और सहजयोगियों के मस्तिष्क भ्रम से भर देती हैं। आपको सहजयोग पर और स्वयं पर विश्वास होना चाहिए कि आप ठीक मार्ग पर हैं और पूर्णतया सुरक्षित हैं, तथा दैवी सुरक्षा आपको प्राप्त है और कोई आपको हानि नहीं पहुंचा सकता। लोग जिस भी घर्म गुरु या विचारों का अनुसरण करें, हर समय उनमें भय बना रहता है कि उन पर आक्रमण हो जाएगा और वे सदा अपनी हृदयाभिव्यक्ति करने से डरते रहते हैं। यह जानने का भी उनमें विवेक नहीं है कि उन्हें क्या कहना है? जब आप एक कि तुम्हं था। अत: उसने कहा कि, "आपकी पत्नी मुझे पत्नी रूप में कि प्राप्त हो जानी चाहिए।" शिव के लिए यह निर्णय लेना अत्यन्त कठिन कार्य था कि इस राक्षस क सम्मुख वह हार मान ले। करुणावश उन्होंने उसे ऐसा वरदान दिया। यह सारी घटनाएं दर्शाती हैं कि किस प्रकार उनकी करुणा कार्य करती है। परिणामतः यह निर्णय लिया गया कि शिव पत्नी पार्वती भली-भाँति समझ जाएगें आप पवित्र आत्मा हैं और इसमें आपको विश्वास हो जाएगा कुछ तो आप आचश्श्यचकित होगे कि जो इस दुष्ट के साथ जाएगी परन्तु श्री विष्णु श्री कृष्ण रूप में पार्वती के भाई हैं। श्री कृष्ण ने सोचा कि मैं अपनी बहन की पूरा भी आप करेंगे उसके विपय में पूर्णतया विश्वस्त होंगें। इस प्रकार चत्य लस्सी 14 वरदान दे दिया कि उसे कोई मार न सकेगा। एक अन्य समय पर श्री शिव ने एक सन्त जो कि बहुत सी नींद चाहता था, वरदान दिया था कि जो भी व्यक्ति तुम्हें नींद से जगाएगा उसपर तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही वह राख के ढेर में परिवर्तित हो जाएगा। इस राक्षस के साथ नहीं जाने दे सकता। इसके लिए मुझे अवश्य कुछ करना चाहिए। श्री कृष्ण अत्यन्त नटखट हैं। उन्होंने रावण में लघुशंका जाने की इच्छा उत्पन्न कर दी। रावण को बहुत शर्म आई। अपनी पीठ से उतार कर उसने पार्वती को एक तरफ बिठाया और लघुशंका के लिए चला गया। शिव ने पहले ही रावण को बता दिया था कि पार्वती पृथ्वी माँ की पुत्री है अत: ले जाते हुए पार्वती को पृथ्वी पर मत बिठाना। उसे अपनी पीठ पर ही बिठाए रखना। ज्यों ही रावण ने पावती को पृथ्वी पर बिठाया पृथ्वी माँ उन्हें निगल गई और रावण की समझ में नहीं आया कि क्या करे। पार्वती को पाने की उसने दूसरी-चेष्टा की । वह शिव के पास गया और उनसे कहने लगा कि देखिये आपने क्या वरदान दिया था और आप क्या कर रहें हैं। शिव ने कहा कि मैने तुम्हे पहले ही श्री कृष्ण से सावधान रहने की चेतावनी दे दी थी। इस बार तुम उसकी बात को मत सुनना और किसी भी हालात में पार्वती को पृथ्वी पर मत उतारना। पार्वती को अपनी पीठ पर बैठाकर जब वह चला तो उसने देखा कि एक छोटा सा लड़का खड़ा हुआ है। यह श्रीकृष्ण थे जो उस पर हँस रहे थे। रावण ने उस लड़के से पूछा कि तुम मुझ पर क्यों हँस रहे हो? हंसते हुए श्री कृष्ण ने कहा कि इस बुढ़िया को अपनी पीठ पर क्यों लादे हुए हो? इसने कोई गहना भी वर प्राप्त राक्षस से जब कृष्ण का युद्ध हो रहा था तो उन्होंने सोचा कि उस सन्त को प्राप्त वरदान की शक्ति से इसका वध किया जाए। अत: उन्होंने लीला की और रण क्षेत्र से भागने लगे। इसी कारण उनका नाम रण-छोड़दास पड़ा। भागते हुए उन्होंने एक दुशाला ओढ़ा था। चुपके से वह उस गुफा में घुस गए जहाँ वह सन्त सो रहा था और उस पर धीरे से अपना दुशाला डाल दिया। राक्षस उनको पकड़ने के लिए उनके पीछे दौड़ रहा था। गुफा में सन्त पर उस दुशाले को देख वह कहने लगा, अब थक कर यहां सो रहे हों। मैं तुम्हें ठीक कर दूंगा!" बिना सोचे समझे उसने सोए हुए सन्त के ऊपर से दुशाला खींच लिया। जागकर सन्त ने जब उसकी ओर देखा तो उसकी तीसरी आँख से वह राक्षस भस्मीसात हो गया और इस प्रकार उस राक्षस की समस्या का समाधान हो गया। तीन शक्तियों की कार्यशैली की सारी लीला यह दर्शाने के लिए है कि अन्तत: सत्य की विजय होती है। सर्वप्रथम श्री शिव की करुणा और उनका भोलापन है, दूसरे स्थान पर श्री कृष्ण या श्री विण्णु की लीला है और तीसरे स्थान पर बह्मा की लीला है जो सारा सृजन करती है। ये तीनो शक्तियां हम सबकी यह अनुभव करवाने के लिए कि अपनी मानवीय चेतना से हमने कुछ अन्य कार्य करना है, एक विशेष प्रकार का वातावरण बनाने के लिए कार्यरत हैं। सत्य को जानने की ये इच्छा इन शक्तियों ने हममें विकसित कर दी है। एक ओर तो श्री शिव अत्यन्त करुणामय, असुरो और राक्षसों के प्रति भी अत्यन्त दयालु हैं। परन्तु दूसरी ओर वे अत्यन्त कठोर हैं। लोग यदि पतनोन्मुख हो जायें, आध्यात्मिकता को स्वीकार न करें, उनकी पवित्रता यदि पूर्णत: समाप्त हो जाए और विश्व में समस्याएं उत्पन्न करने वाली अनुचित गतिविधियों को यदि वे त्यागना न चाहें तो श्री शिव पूरे ब्रह्माण्ड का विध्वंस कर सकते हैं वे आदि शक्ति के कार्य के दृष्टा हैं। आदि शक्ति को वे ये सारा कार्य करने देते हैं:- मानवों का सृजन करना और उन्हें आत्म-साक्षात्कार देना। परन्तु यदि उन्हें लगा कि आदि शक्ति के बच्चे, जिनकी आदि शक्ति ने रक्षा की है, दुर्व्यवहार कर रहें है या उनके प्रति अपमानजनक हैं या किसी भी प्रकार आदि शक्ति के कार्य का नाश कर रहे हैं तो वे कुपित हो कर पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश कर सकते हैं। परन्तु मेरे विचार में अब श्री शिव के ऐसा करने का कोई अवसर नहीं है क्योंकि अब चहूँ ओर सहजयोगी हैं। परन्तु सहजयोगी में भी मैं पाती हूँ कि उनमें से कुछ तो बहुत तेजी से उत्थान प्राप्त करते हैं, पूर्ण शक्ति से निरन्तर वे अपने शिव तत्व को प्राप्त करते हैं। ऐसा नहीं है कि इसके तुम नहीं पहना हुआ है। रावण ने कहा कि यह देवी हैं। श्री कृष्ण कहने लगे कि इसने तो कोई गहना भी नहीं पहना हुआ। यह कैसे देवी हो सकती है? मुड़कर रावण ने जब पार्वती की ओर देखा तो पाया कि दन्तहीन एक वृद्धा उसकी पीठ पर बैठी हुई उस पर हँस रही थी। घबराकर उसने उसे दूर फैंक दिया। यह महामाया है। तीसरी बार शिव के पास जानकर उसने उनसे प्रार्थना की कि वे अपनी पत्नी से कहे कि वह किसी की बात को न सुने और अपनी पत्नी मुझे दे दें। शिव ने कहा ठीक है वह लंका में जन्म लेगीं तब रावण उससे विवाह कर सकता है। इस अवतरण में उसका नाम मंदोदरी था। अब यह महान कथा इस प्रकार चलती है। मंदादरी विष्णु की महान भक्त थी का वध करने के लिए आए तो स्वंय मंदोदरी ने सारा आयोजन किया क्योंकि वह जानती थी कि श्रीराम के हाथों, वध होने पर रावण स्त्री लिप्सा तथा अन्य बुराइयों से मुक्त हो जाएगा। वे वास्तव में चाहती थी कि पुर्नजन्म लेकर रावण स्त्री सौन्दर्यपाश से मुक्त हो सके। जिस प्रकार सीता जी को उठाकर वह लंका में लाए वह उनकी शान के विरुद्ध था। परन्तु उसने एक न सुनी। अन्तत: युद्ध हुआ और श्री राम ने उसका वध किया यह सारी घटना श्री शिव की असीम करुणा के कारण घटित हुई। कभी-कभी उनकी करुणा अत्यन्त तर्क विहीन प्रतीत होती है परन्तु उसके पीछे बहुत बड़ा तर्क निहित होता है और यह तर्क यह है कि उनके हर कार्य से किसी बहुत बड़ी समस्या का समाधान होता है। एक बार शिव ने एक महान राक्षस को है- जो शिव के कार्य को निष्परभावित करती और जब श्री राम रावण माम 15 लिए हमें किसी प्रकार का सन्यास लेना पड़े, हिमालय पर जाना पड़े, अपने परिवार त्यागने पड़े आदि-आदि। निर्लिप्सा तो आन्तरिक चीज है। निर्लिप्सा जब कार्य करने लगती है तो उसका पहला क्योंकि आप तो मात्र प्रतिबिम्ब हैं, सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब! ये सारे तदातम्य (लिप्साएं) छोड़ जाते हैं। अब आप पूछ सकते हैं कि कैसे? इन्हें किस प्रकार त्यागा जाए? सर्वप्रथम घ्यान द्वारा। आपको अपने विषय में पता लगाना चाहिए कि आपमें क्या कमी है, किघर से पकड़ रहे हैं, दाएं से या बाएं से? ध्यान-धारण द्वारा आप पता लगा सकते हैं। क्या आप धन, व्यापार, परिवार या देश से लिप्त हैं, या अपनी संस्कृति से लिप्त हैं? तो यह सहज नहीं है। तो ध्यान-धारणा द्वारा इनसे निर्लिप्त होने का प्रयत्न करें। आप जानते हैं कि दाएं और बाएं की पकड़ से किस प्रकार छुटकारा पाना है। यह लिप्साएं आपकी अंगुलियों के सिरों पर पता लग जाएंगी और आपने स्वयं देखना है कि आपके कौन से चक्र पकड़ रहे हैं तथा किस प्रकार आप कठिनाई में हैं। तब साधारण से सहज उपचार द्वारा आप इसे ठीक कर सकते हैं। परन्तु यहां पर हम असफल हो जाते हैं क्योंकि किसी एक चीज़ से लिप्त हो जाने पर हम यह भी नहीं सोचते कि हम लिप्त हो रहे हैं । हम सोचते हैं कि हम अति महान कार्य कर रहे हैं क्योंकि अब हम फलां-फलां व्यक्ति को प्रेम करते हैं। श्री शिव के गुण, किसी से लिप्त होने के लिए उसके प्रति सहदता शिव की करुणा नहीं है; शिव की करुणा आप में आ भी नहीं सकती, यद्यपि लोग सोचते हैं कि उनमें शिव की करुणा कार्यरत है। ऐसा नहीं है। क्योंकि वह चिन्ह हमारा आनन्दमय हो जाना है। हम प्रसन्न चित्त हो जाते हैं। किसी से यदि आप पूछे कि वह दु:खी क्यों है तो वह अपनी पत्नी, घर, बच्चों, अपने देश, समाज आदि की बात करेगा। अपने चारों ओर व्यक्ति की घटनाओं को देख कर व्यक्ति पूर्णत् परेशान हो जाता है। अब वह आत्म-साक्षात्कारी व्यक्ति बन गया है। इस दुःखमयी अवस्था से उसे कोई लाभ न होगा अब आवश्यकता यह जानने की है कि लोगों में आन्तरिक परिवर्तन ला कर आप अपने समाज, परिवार, पूरे देश के दोषों को ठीक कर सकते हैं। इन देशों के बारे में बुरा मानकर नहीं। यह आन्तरिक परिवर्तन लाते समय आपको पूर्णतः निर्लिप्त होना चाहिए। जब मैनें सहजयोग शुरु किया तो जिस प्रकार लोग मुझे अपने देशवासियों, धर्मों और दुराचरणों के विषय में बताते थे मैं हैरान हो जाती थी मुझे इन चीज़ों का इतना ज्ञान न था जितना वे बताते थे और मैं सोचती थी कि इनमें आई निर्लिप्सा के कारण ही यह स्पष्ट देख पाते हैं कि क्या गलत है। समाज, लोगों, सम्बन्धों, परिवार, देश तथा पूरे विश्व में क्या समस्या है। यह सब देख पाना तभी सम्भव है जब आप किसी से लिप्त न हों। इसके बिना आप कभी दोषों को देख ही न पायेगें आप कभी न देख पायेगें कि फलां व्यक्ति में क्या दोष है। लिप्तावस्था में आप कभी- ये भी न समझ पायेंगे कि कौन से चक्र पकड़ रहे हैं। अत: सर्वप्रथम निर्लिप्सा घटित होनी चाहिए। अब निर्लिप्सा को कैसे प्राप्त किया जाये? बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि श्री माता जी आप निर्लिप्त कैसे हो जाती हैं? क्योंकि मैं लिप्त नहीं हूँ इसीलिए मैं पहले से ही निल्लिप्त हूँ। मैं नहीं जानती कि ऐसा किस प्रकार किया जाये परन्तु आप लोगों को ये सब समझने के लिए अन्तर्दशन करना होगा। पता लगाने का प्रयत्न करें कि मैं किन चीजों से लिप्त हूँ। मैं दुःखी क्यों हूँ? मैं किसके लिए चिन्तित हूँ? मैं चिन्ता क्यों करुं? अत्यंन्त अनावश्यक चीजें भी अब कुछ सहजयोगियों के लिए आवश्यक बन गई हैं। उदाहरणार्थ मुझे बताया गया था कि पश्चिम में लोग अपने बच्चों की अधिक चिन्ता नहीं करते। परन्तु करुणा अत्यन्त पावन है। यह पेड़ के उस रस के समान है जो जड़ से उठ कर वृक्ष के भिन्न अवयवों को शक्ति प्रदान करते हुए या तो वाष्प बन जाता है या पृथ्वी मां में लौट जाता है। यह लिप्त नहीं होता। यदि यह रस किसी एक फूल, पत्ते या फल से लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ कष्ट उठाएगा तथा वह फूल भी समाप्त हो जाएगा। अत: किसी वस्तु या विचार विशेष से इस प्रकार की लिप्सा अनुचित है। सहजयोग में लोग अति विचारशील हैं और समझते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए। परन्तु ध्यान धारणा मुख्य कार्य है। अपने हृदय चक्र पर शिव-तत्व पर ध्यान करते हुए आप निसन्देह निर्लिप्त हो सकते हैं और तब आनन्द का भी बाहुल्य होगा। लोगों की रुचि भोजन, कपड़े और घर आदि में होती है, इनमें भी आपकी रुचि होनी चाहिए पर साथ ही साथ आपको जागरुक होना चाहिए कि,आप इनसे लिप्त नहीं हो सकते। पश्चिम के लोग अनावश्यक चीज़ों के पीछे दौड़ते हैं। वे अवाछित कार्य करते है क्योंकि उनका व्यक्तित्व अविकसित है। आपका व्यक्तित्व यदि विकसित हो तो आप चीजों को एक ऐसे दृष्टिकोण से देखते हैं जो अन्य लोगों से कहीं ऊंचा होता है तथा अन्य लोगों में आप विघटित नहीं हो जाते। आपका ज्ञान कहीं अधिक ऊंचा, महान तथा आनन्ददायी है। लोग सोचते हैं कि ये लिप्साएं अत्यन्त आनन्ददायी हैं। आपका बच्चा, आपकी पत्नी आदि आप सोचते हैं कि आनन्ददायक हैं। आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् वे अपने बच्चों से ऐसे लिप्त होते हैं मानों गोंद से चिपक गए हों। वे ये नहीं सोच पाते कि उन के बच्चों के लिए क्या अच्छा है। हर समय बच्चों के विषय में सोचना ही वे अपना मुख्य कर्तव्य समझते हैं। चित्त ही बच्चों पर रहता है निर्लिप्सा व्यक्ति के अन्दर पूरा विकसित होनी चाहिए। यह किसी पर लादी नहीं जा सकती, परन्तु ध्यान-धारणा द्वारा आप अपने अन्दर निर्लिप्सा विकसित कर सकते हैं और यह वास्तव में आनन्ददायी होगी। यदि आप पवित्र-आत्मा बन रहे हैं तो आप निर्लिप्त हैं, चैतन्य लहरी 16 यह विचार गलत है। आनन्द आपके अपने स्र्रोत, आपकी अपनी आत्मा से आता है। आपके पति या बच्चे भले हों या बुरे वे आपको आनन्द नहीं दे सकते, आप स्वयं ही स्वंय को आनन्द प्रदान कर सकते हैं और इसी कारण व्यक्ति क्षमाशील बन जाता है। जब कोई भी आपको हानि नहीं पहुंचा सकता तो आप किस पर नाराज होगे? सदा शिव का एक अन्य महान गुण यह है कि वे अत्यन्त क्षमाशील हैं। वे तब तक क्षमा करते चले जाते हैं जब तक वे आदिशक्ति के पूरे विश्व का विध्वंस नहीं कर देते। अन्यथा वे अत्यधिक क्षमाशील हैं और संसार के प्रति अत्यन्त सन्तुलित हैं। एक बार आदि-शक्ति पत्नोन्मुख विश्व पर अत्यन्त क्रोधित हुई और सभी कुछ नाश करने लगीं। श्री शिव ने एक बच्चा उनके चरणों में डाल दिया, बच्चे को देख कर आदि-शक्ति को ऐसा आघात लगा कि उनकी बहुत लम्बी जीभ बाहर निकल आई और उन्होंने विध्वंस रोक दिया। उनकी विधियां ऐसी हैं कि जिस व्यक्ति को अपने अन्दर शिव तत्व जागृत करना हो उसे अत्यन्त क्षमा शील होना चाहिए। कुछ लोग अत्यन्त क्रूर एवं कष्टदायी होते हैं। यदि आप उन्हें सहन नहीं कर सकते तो ठीक है, उनसे सम्बन्ध समाप्त कर दें। मैं वहां आपके साथ हूँगी। परन्तु यदि आप सहन कर सकते हैं तो अच्छा होगा कि सहन करें और सहन करने का यह अनुभव लें क्योंकि सम्बन्ध समाप्त करने की अपेक्षा सहन करना कहीं कम कठिन होता हैं। उदाहरणार्थ एक स्त्री मेरे पास आई और कहने लगी कि मैने अपने पति को तलाक देना है। मैने कहा क्यों? क्योंकि वह बहुत देर से आता है और मुझे उसका घटित हो सकता है तो हम लोगों के साथ क्यों नहीं? आप आश्चर्य चकित होगे कि सामूहिकता में हम एक दूसरे के प्रति कितने सहायक एवंम आनन्ददायी हो सकते हैं। अब मान लो आपके माता पिता बहनों आदि के साथ कोई समस्या है, कोई बात नहीं। सामूहिकता में तो आपके पास आनन्द का सागर है और यदि आप अपनी समस्याओं को सुलझाना चाहें तो सामूहिकता में आप इनका समाधान कर सकते हैं हमें सामूहिकता पर निर्भर होना पड़ेगा सामूहिकता से पूर्णत: एकाकार होना होगा। मैं सोचती हूं कि एक बार जब आप सहज सागर में कूद पड़ेंगे तो इसका आनन्द आप सब लोगों को सामूहिक बना देगा। परस्पर मिलन इतना आनन्ददायी है। हमें ऐसे बहुत से अनुभव हैं। सहजयोगियों का पारस्परिक यह गठबन्धन ही वास्तव में आनन्द का सबसे बड़ा मार्ग है और यही हमें एक दूसरे के समीप लाने वाला स्रोत है। मैने आपको भारत के एक मुहान कवि, नामदेव की कहानी सुनाई थी। नामदेव एक दर्जी थे और एक अन्य कवि कुंभकार थे, जिनका नाम गोराकुम्हार था। एक संत दूसरे संत से मिलना चाहता है। जब नाम देव, गोरा कुम्हार से मिलने गए और उनकी तरफ देखा तो ठगे से रह गए और एक सुन्दर दोहा कहा। कहने लगे कि मैं तो यहां निराकार को देखने आया था लेकिन यहां तो निराकार साकार रूप में खड़ा है। "निगुणाच्या बेति आको सगुणाच्या" मैं तो यहां निराकार को, चैतन्य लहरियों को, -देखने आया था परन्तु मैं इन्हें साकार रूप में देख रहा हूँ। केवल एक सन्त ही दूसरे सन्त को यह बात कह सकता है। इस प्रकार की सूक्ष्म सराहना केवल दो या अधिक संतो के मध्य ही सम्भव है। उन्होंने यह नहीं देखा कि गन्दी धोती पहन कर मिट्टी गूंदते हुए वे अपना कार्य कर रहे हैं। उन्होंने यह सारी चीजे नहीं देखी और न ही उनके शरीर, मुखाकृति को देखा। उन्होंने तो उनमें केवल परमात्मा को साकार रूप में देखा। अन्य सहजयोगियों के प्रति सहदयता की संवदेनशीलता आपमें विकसित होनी चाहिए, तब आप मूर्खतापूर्ण, बनावटी चीजों की चिन्ता नहीं करेंगें और यह शिव का एक महान तत्व वे चिन्ता नहीं करते। अब देखो उनके बालों की लटे बन गई हैं। तीव्र धावक बैल पर अपनी टांगों को वे इस प्रकार रख कर बैठते है मानो विवाह करवाने जा रहे हों? क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हैं ? उनके मित्र और अनुयायियों में किसी की केवल एक आंख है, किसी का केवल एक हाथ और कोई कुबड़ा है, क्योंकि उसके लिए बाह्य दिखावा महत्वपूर्ण नहीं है, केवल अध्यात्मिकता ही महत्वपूर्ण है। व्यक्ति की चाहे एक आँख हो या उसका शरीर मुड़ा तुड़ा हो, इसका शिव को कोई अन्तर नहीं पड़ता। उनके लिए सभी व्यक्ति अपने हैं कोई भी बनावटी चीज उनके चित्त को आक्कषित नहीं करती, केवल व्यक्ति का देवत्व ही उन्हें आकषित करता हैं। उनके तत्व को समझने के बहुत से मार्ग है क्योंकि वे बहुत कम साथ प्राप्त होता है। मैंने कहा कि तलाक देने पर तो वह तुम्हें बिल्कुल भी नहीं मिलेगा। तलाक लेने में तर्क क्या है? अब कम से कम थोड़ा बहुत तो आप उसे मिलती हो। परन्तु वह कोई समाधान नहीं है। तलाक दे कर तो तुम उसे कभी भी नहीं मिलोगी। अत: ऐसे तलाक का क्या लाभ। एक बार यदि आप निर्लिप्त हो जाएं तो ऐसी बहुत सी चीजों को समझ सकते हैं कि आपको किसी चीज से लिप्त नहीं होना। यदि आप किसी चीज से लिप्त ही नहीं हैं तो कौन आपके प्रति आक्रामक हो सकता है, कोई नहीं हो सकता। जब आपको विरोध करना उचित लगे तो विरोध करना चाहिए, परन्तु बिना लिप्त हुए। विरोध में भी पूर्ण निर्लिप्सा आवश्यक है। आज हमारे सामने कुछ अन्य ही समस्या है। समस्या यह है कि हम सबको उत्थान करना है और समान शक्ति से उत्थान करना है। एक कहानी है कि कुछ पक्षी एक जाल में फंस गए। उन्होंने जाल से निकलने का निर्णय किया और उसके लिए प्रयत्न किया। सभी ने अलग-अलग प्रयत्न किया परन्तु कोई अकेला इस कार्य को न कर सका। तो सभी ने सामूहिक रूप से उड़ने का निर्णय लिया, एक, दो, तीन और चलो और वे जाल के साथ उड़ चले। तब उन्होंने चूहों से जाल काटने की प्रार्थना की और इस प्रकार वे स्वतन्त्र हो गए। यह यदि चूहों और पक्षियों के साथ 17 सर्वव्यापक हैं। आपमें यदि किसी के लिए करुणा भाव है तो नि:सन्देह यह कार्य करता है। हाल ही में मैक्सिको में असाध्य रोग का एक मामला था। संयुक्त राष्ट्र में कार्यरत मैक्सिको की एक स्त्री ने मुझे दो पत्र लिखें कि श्री माता जी मेरे पुत्र को यह भयंकर रोग है और मैं पुत्रहीन होने वाली हूँ। उसका पत्र इस प्रकार लिखा हुआ था कि मेरा हृदय उसके लिए करुणा से भर गया और मेरी आंखो में अश्रु आ गए और आप कल्पना करें, उन अश्रुओं ने उस लड़के को ठीक कर दिया! तब उसने कृतज्ञता भरा एक पत्र मुझे लिखा। मैं हैरान थी क्योंकि मेरी करुणा मात्र मानसिक ही नहीं है। यह तो बहती है और कार्य करती है। आप भी ऐसे ही बन सकते हैं। मैं चाहती हूं कि आप मेरी सारी शक्तियों को पा लें। परन्तु करुणा सर्वप्रथम है। एक सहयोगी किसी अन्य व्यक्ति से दुर्व्यवहार नहीं कर सकता। उसका सहजयोगी होना या न होना महत्पूर्ण नहीं है। सहजयोगियों को कभी आक्रामक नहीं होना चाहिए। यह सहजयोगियों का गुण नहीं है। सहजयोगी बिल्कुल भिन्न होते हैं उस दिन मैने किसी से कहा कि तुम बहुत क्रोधी स्वभाव के हो। उसने उत्तर दिया, जी हां मैं क्रोधी स्वभाव का हूँ। जब कोई मुझे उकसाये तो।" मैंने कहा कि सभी लोग उकसाये जाने पर क्रोधित होते हैं, आप भी यदि उकसाये जाने पर क्रोधित होते हो तो इसमें कोई महान बात नहीं है। परन्तु यदि आप उकसाये जाने पर भी क्रोधित न हों तब स्थिति कुछ भिन्न होती है । आजकल पूरे वातावरण में एक बहुत बड़ा संघर्ष चल रहा है। यह शिव की संस्कृति नहीं है। सहज संस्कृति ही शिव की संस्कृति है। यदि आप लोग सहजयोगी हैं तो आपमें करुणा तथा दूसरों की भावनाओं की समझ होनी चाहिए तथा न केवल सहजयोगियों की बल्कि उनकी भी जो सहजयोगी नहीं है देखभाल करने के लिए आपको उद्यत होना चाहिए। तभी आपकी करुणा प्रभावशाली बन पायेगी। आज की संस्कृति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पाश्चात्य संस्कृति टूट गई है। यदि आप समाचार पत्र पढ़े तो घटनाओं को देख कर आपको आघात लगता है। मैं नहीं जानती कि अपने विनाश से पहले कितने लोग इस बात को महसूस करेंगे? यह वास्तव में आत्मघातक है। एक ओर तो यह आत्म-आसक्त एवंम अनुमतिबोधक समाज कार्यरत है और अब दूसरी ओर इस्लामिक संस्कृति इसका विरोध कर रहे हैं उससे समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं। यदि आप किसी व्यक्ति को यह कह कर कि, "ऐसा करो, ऐसा मत करो", उसका विरोध करेंगें तो वह उस कार्य को पहले से भी अधिक करेगा यदि आप उत्तरी भारत मैं जायें जहां इस्लामिक संस्कृति अधिक हैं वहां लोग अति लम्पट हैं और सदा स्त्रियों की तरफ देखते रहते हैं। सभी नहीं परन्तु बहुत से। चाहे वे हिन्दू हैं फिर भी उनमें इस्लामिक दमन के कारण आयी हुई बुरी आदतें है। कोई स्त्री यदि पूर्णतया पर्दे में हो और उसे कोई देख न सकता हो तो लोग और अधिक उत्सुक हो जाते हैं। एक बार एक व्यक्ति मेरे साथ यात्रा कर रहा था। वह गली में चलती हुए हर स्त्री की ओर देख रहा था। मैने उससे कहा जिस तरह से तुम कर रहे हो इससे तुम्हारी गर्दन टूट जायेगी। परन्तु यहां ऐसा करना आम बात है। इतना ही नहीं यह उत्सुकता बहुत दूर तक जाती है और लोग पश्चिम की तरह अत्यन्त चरित्रहीन हो जाते हैं। इच्छाओं का दमन करना भी अनुचित है। यह संस्कृति बाह्य रूप से तो दमन करती है परन्तु आन्तरिक रूप से लोग अत्यन्त चरित्रहीन हैं। दमन द्वारा सृजत उत्सुकता स्वस्थवर्धक नहीं हैं। सहजयोग में दमन का कोई प्रश्न नहीं है। आप पवित्र हो जाते हैं, यही शिव तत्व है। सहज संस्कृति मध्य में है। इसमें न तो बहुत अधिक लम्पटता है और न ही बहुत अधिक दमन। अबोधिता ही शिव का महानतम तत्व है यह अबोधिता ही आपमें चमकती है। जो भी कर्म आपने पहले किये हों परन्तु मैं देखती हूँ कि अब आप पवित्र हैं। पश्चिमी लोगों की तरह से आप मूर्खतापूर्ण व्यवहार नहीं करते। मैंने यह भी देखा कि बहुत से मुस्लिम लोग सहज में आकर अत्यन्त सहज हो गए हैं और बहुत सुन्दर जीवन यापन कर रहे हैं। ईरान के कुछ लोगों ने मुझे पत्र लिख कर अपने अपराध स्वीकार किए इनसे मुझे आधात लगा। मैं इन्हें पूरा पढ़ भी न सकी, यह मेरे लिए बहुत अधिक कष्टदायी थे। उन्हीं लोगों को अब में अत्यन्त चरित्रवान पाती हूैँ। एक ओर की अति को जाना यदि गलत है तो दूसरी ओर की अति भी अनुचित है। मध्य में रहना ही ठीक है। सहज मार्ग ये समझ लेने के लिए सर्वश्रेष्ठ है कि सच्चरित्र ही जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह आपकी अबोधिता से आता है। यह श्री गणेश का गुण है जो शिव के पुत्र हैं। परन्तु श्री शिव की अबोधिता से यह गुण प्रसारित होता है। बच्चों के प्रति लिप्सा आपको गलत कार्य करने पर विवश कर देगी। यह आपके लिए ठीक नहीं। यह नये प्रकार की लिप्सा सहजयोग में आने के पश्चात आरम्भ होती है। मैने देखा है, यह आम बात हैं। मुझे केवल इतना कहना है कि आश्रमों में आपको सामूहिक ध्यान करना चाहिए, ऐसा करने का प्रयत्न यदि आप करेंगे तो अच्छा होगा। परन्तु आपको किसी को चैतन्य लहरियां नहीं देनी। किसी के चक्रों को आपने नहीं देखना। आप केवल अपनी चिन्ता करें कि आपमं क्या कमी है। आपके अपने उत्थान के लिए जो कुछ भी आवश्यक हो आप वही करें क्योंकि पूरे विश्व का उत्तरदायित्व सहजयोगियो पर है। आप यह जानते हैं कि सहजयोग के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं। मानवता को सभी प्रकार की समस्याओं से मुक्त करने के लिए सहजयोग पृथ्वी 1. पर आया है। अत: आपका उत्तरदायित्व है कि आप स्वयं को एक सहजयोगी की तरह से ठीक प्रकार रखें, आक्रामकता या बड़े-बड़े शब्द बोल कर नहीं, परन्तु प्रेम एवं करुणा द्वारा। परमात्मा आपको धन्य करें। चैतन्य लहरी 18 परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी की जन्म दिवस स्वागत समारोह वार्ता दिल्ली 21-3-95 (सारांश) भारतमाता के महान पुत्र श्री शेषन जी, सम्मानीय मित्र एवं अतिथिगण और मेरे सहजयोगी बच्चो। यह सत्य है कि चैतन्य बहुत सी असम्भावित चीज़ों की व्यवस्था करता है। मैं श्री शेषन की प्रशंसक रही हूं। भारत में मैंने एक नया सितारा उदय होते हुए देखा है। आप मेरे भूतकाल को जानते हैं कि मेरे माता-पिता ने देश की स्वतन्त्रता के लिए सभी कुछ बलिदान कर दिया, आप यह भी जानते हैं कि अपनी युवावस्था में मैने कितना संघर्ष किया। परन्तु जब हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हुई तो, मैं नहीं समझ पाती हमें क्या हो गया? हम बहुत सी चीजें भूल गए। विस्मृत लोगों में से गाँधी जी एक हैं, अपने शैशवकाल में मैं उनके साथ रही। वे मुझे बहुत प्रेम करते थे। वे कहते थे, "पहले देश को स्वतन्त्र हो जाने दो, दास लोग मुक्ति की बात नहीं कर सकते।" हम लोग स्वतन्त्र हो गए परन्तु न जाने कैसे लोगों को अपना उत्तरदायित्व दिखाई नहीं देता। जो लोग बहुत सच्चे थे उन्हें तो लगा कि इस देश में कुछ कर पाना असम्भव है। तब मुझे लालबहादुर शास्त्री दिखाई पड़े। वे आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति थे। वे मुझे भली-भांति जानते थे और मुझे आशा थी कि वे इस देश के आध्यात्मिक पक्ष को कार्यान्वित करेंगे और हम इस महान योग-भूमि की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील होगें। आप जानते हैं कि भारत वास्तव में एक ऐसा देश है जहाँ गहन सूझ-बूझ एवं संवदनशील सन्त, अवतरण और कवि जन्में। परन्तु लालवहादुर द्वारा प्राप्त हमारी सारी महानता, परम्पराओं और संस्कृति का पतन आरम्भ हो गया। लोगों को विनाशकारी चीजें अपनाते देखकर मुझे में आते देखा और रोका। "वे कहने लगे, मैं किसी आवश्यक कार्य से जा रहा हूँ, रुक नहीं सकता और न ही, तुम्हें इस जीप मैंने कहा, "ठीक है आप जाइये। पर ले जा सकता हूँ।" " देश के प्रति यदि आपमें सद्भावना नहीं है तो आप कोई भला कार्य नहीं कर सकते। देश के लिए कुछ करने की इच्छा को पूर्ण करने के लिए कोई भी बलिदान कम है। हमारे राजनीतिज्ञों का यह जान लेना आवश्यक है कि वे यहाँ व्यापार नहीं कर रहे है और न ही धनार्जन के लिए यहाँ है। उनका लक्ष्य ख्याति प्राप्त करना है। आज भी लालबहादुर शास्त्री का नाम लेने से लोग खो से जाते हैं। मेरे पिताजी के साथ भी ऐसा ही था। शास्त्री पर पुस्तक लिखने के लिए मैनें अपने पति को विवश किया और आप हैरान होंे कि छपते ही सारी पुस्तकें सारे विश्व में विक गई। अत: एक बात व्यक्ति को जान लेनी चाहिए कि विश्व में बहुत से ऐसे लोग हैं जो सत्य को खोज रहें है, मानसिक और विश्व शान्ति चाहते हैं। यह सत्य है। यह बात ठीक है कि लोगों ने हमें सताया और परेशान किया परन्तु उन्हें क्षमा कर देना अच्छा हैं क्योंकि वे तो मुर्ख हैं और अन्धकार में फंसे हैं हमें चाहिए कि उन्हें ज्योति प्रदान करें। प्रकाश प्राप्त करके वे सभी विध्वंसक कार्य त्याग देगें। आप सब जानते हैं कि किस प्रकार आपने स्वयं को परिवर्तित किया। मैं आश्चर्यचकित थी कि इंग्लैण्ड में लोगों ने रातों-रात नशीली दवाओं का त्याग कर दिया। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के अगले दिन से कोई नशा नहीं किया। आत्मसाक्षात्कार घटित होने पर आपका चित्त अत्यन्त सुन्दर हो जाता है। ईसा अत्यन्त महान थे और मेरे विचार में न कभी मानव को समझ पाए और न ही मानव उन्हें समझ पाया। ईसा ने कहा कि यदि आपकी एक आँख कोई गलत चीज देखे तो उस आँख को निकाल दें और यदि आपका हाथ कोई अपराध करे तो हाथ को काट दें। परन्तु मैंने आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जिसने अपनी आंखे निकाल दी हों या अपना हाथ काट दिया हो। मोहम्मद साहब ने भी ऐसा ही कहा। उन्होंने कहा कि केवल पुरुषों को ही धर्म के लिए उत्तरदायी क्यों बनाया जाए, स्त्रियों को भी यह उत्तरदायित्व क्यों न दिया जाए। अत: उन्होंने महिलाओं के विपय में नियम बनाए और कहा उसको आधा पृथ्वी में गाड़कर पीटा जाना चाहिए तथा पत्थरों से उसे मार दिया जाना चाहिए।" परन्तु यह नियम मानव के लिए शास्त्री के आकस्मिक निधन के पश्चात शनै: शनै: सन्तों आघात लगा। जब मैंने श्री शेषन के विषय में पढ़ा तो मेरे हृदय में एक तीव्र आशा का उदय हुआ। आज मेरे पति का भी जन्म दिन वे आज यहाँ नहीं हैं। उनके लिए ईमानदारी इतनी महत्पूर्ण थी कि उसके लिए उन्होंने सभी कुछ बलिदान कर दिया। वे ईमानदारी से विवाहित थे इस कदर वे निष्कपट हैं कि आप विश्वास नहीं कर सकते। लखनऊ में वे दण्डाधिकारी थे। एक बार मैं वहां पुस्तकालय गई हुई थी। लौटने के लिए जब मैं बाहर आई तो वर्षा हो रही थी, कोई रिक्शा भी वहां न था। सरकारी नौकर होने के कारण व्यक्ति गरीब होता है और बहुत सी चीज़ों की सामर्थ्य उसमें नहीं होती। अचानक मैंने अपने पति को एक पुलिस जीप , "स्त्री यदि चरित्रहीन है तो 19 कहती, "यही समाधान है, प्रतिक्रिया द्वारा हम शान्ति नहीं ला सकते।" मैं कहती कि बुद्ध ने कहा है सबको क्षमा कर दो। क्षमा नहीं थे, देवदूतों के लिए यह नियम बनाए गए थे। वे इतने महान हैं कि कभी वे यह नहीं समझ सकते कि आप लोग ईसाई, मुसलमान या यहूदी नहीं बन सकते। मोज़ज़ ने यहूदियों को शरीयत दी, जिसे अब मुसलमानों ने अपना लिया है। मानव के विषय में यह गलतफहमी है। मेरे विचार में वे मानव और उसकी समस्याओं को नहीं समझ पाए। मैने कुछ नहीं किया। कुण्डलिनी की जागृति तो इस देश में हजारों सालों से होती रही है। आदि शंकराचार्य जैसे लोगों ने इसके विषय में बताया। 12वीं शताब्दी में ज्ञानेश्वर जी ने इसकी बात की। परन्तु धर्माधिकारी, धर्ममार्तण्डेय लोगों ने सदा सारी समस्या का समाधान कर देती है। कम से कम 90% का। सहजयोग में हमारी बहुत सी गतिविधियां है, उनमें से एक यह है कि परिवार को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। सन्यास लेकर, त्याग करके हिमालय चले जाने में हम विश्वास नहीं करते क्योंकि हम जानते हैं कि यह सारी बातें अस्वभाविक हैं और जहाँ भी लोग इन्हें अपनाते हैं वे सभी प्रकार के चरित्रहीनतापूर्ण कार्य करते हैं। विवश करके नैतिकता नहीं लाई जा सकती, शंकराचार्य और विवेकानन्द ने सच कहा है कि नैतिकता किसी पर लादी नहीं जा सकती। तो हमें क्या करना चाहिए? पश्चिम में लिप्साएं हैं और मुस्लिम और यहूदी लोग नैतिक होने पर विवश करते हैं। ऐसे में हम क्या करें? दोनों ही प्रकार के लोग नैतिक बनने में सहायक नहीं है। एक छोर से दूसरे तक आप थपेड़े खाते रहते है। कुण्डलिनी की जागृति ही एकमात्र मार्ग है जो आपके चित्त को मध्य में लाती है कुण्डलिनी सहस्त्रार का भेदन करती है और सर्वव्यापक दैवी शक्ति से आपका सम्बन्ध स्थापित करती है। यदि आप किसी को दिव्यशक्ति के बारे में बताएं तो कोई विश्वास नहीं करता। किसी से यदि आप पूछें कि हृदय को कौन चलाता है तो डाक्टर कहेंगे स्वचालित नाड़ी तन्त्र (Autonomous Nevणल Sेसेय करेूर [पर [यह 'स्व' है क्या? वे नहीं जानते। "यह बेकार है, यह बेकार है" और इस प्रकार यह कहा, हम इसे भूल गए। उत्तरी भारत में तो बहुत से लोग यह भी नहीं जानते कि कुण्डलिनी क्या है, वे इसे 'कुण्डली' जन्मपत्री- समझते हैं। इसे अत्यन्त रहस्यमय बना दिया गया। केवल नाथपंथी जागृति करते रहे, परन्तु उनमें परम्परा यह थी कि व्यक्ति केवल एक ही अन्य व्यक्ति को आत्म साक्षात्कार देगा। एक गुरु एक शिष्य की परम्परा थी। 12वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में ज्ञानेवश्वर जी ने अपने गुरु तथा बड़े भाई से कुण्डलिनी- के विषय में बात करने की आज्ञा मांगी और ज्ञानेश्वरी के छठे अध्याय में इसके विषय में लिखा। परन्तु धर्ममार्तन्डियों ने इसे भी स्वीकार न किया। किस प्रकार उन्होनें आदिशंकराचार्य, ज्ञानेश्वर जी और गुरु नानक को सताया। इन्होंने इन सब संतो को कभी मान्यता नहीं दी, यद्यपि आम जनता उन्हें पहचान गई थी। इस प्रकार हमारी यह महान परम्परा धर्ममार्तण्डयों के बीहड़ में खो गई। गाँधी जी ने मुझसे कहा था कि स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात, मैं कौन हूँ? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान नहीं दे सकता। सहजयोग हैं इसका उत्तर दे सकता है। आप पवित्र आत्मा हैं और आपको पवित्र आत्मा बनना है और आप सबमें यह कार्यान्वित हो चुका है। नि:सन्देह आपके चित्त के कारण यह आपको स्वस्थ्य और वैभव प्रदान करता है। परन्तु यह वैभव वह नहीं है जो हम देखते हैं। यह तो सन्तुलित रहने के लिए लक्ष्मी जी का वरदान है। यह आपको रचनात्मकता प्रदान करता है। मैं ऐसे बहुत से कलाकारों और संगीतज्ञें को जानती हूँ जो सहजयोग में आकर विश्वभर में प्रसिद्ध हो गए। अचानक वे इतने बढ़ गए। सहजयोग आपको विवेक एवं बुद्धि प्रदान करता है। अपनी कक्षा में असफल होने वाले विद्यार्थी सहजयोग में आने के पश्चात पहले दर्जे के विद्यार्थी बन गए हैं। जितने चमत्कार आपने अपने जीवन में देखें है उन पर आप सभी बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिख सकते हैं। यह सत्य है, क्योंकि यह सर्वव्यापकशक्ति न ।" शास्त्री जी ने मुझे कहा, तुम अपना सहजयोग आरम्भ करना। मुझे पाकिस्तान और कश्मीर की समस्या सुलझा लेने दो तब अपना सहजयोग आरम्भ करना।" वे सदा मुझसे सहजयोग की बात करते थे, कोई अन्य बात नहीं। परन्तु समस्या यह है कि यदि आप इसे टालते चले जाएगें तो इसी तरह से चलता रहेगा। घर्मनिरपेक्षता का सार पूर्णतया समाप्त हो गया था, गाँधी जी की धर्मनिरपेक्षता। मै उनके साथ आश्रम में रही थी, जिस प्रकार सबके लिए चार बजे प्रात: उठना, स्नान प्रार्थना में सम्मिलित होना आवश्यक था उससे पता लगता था कि वे कितने अनुशासन प्रिय है। परन्तु उनका एक विशेष गुण यह था कि वे जो कहते थे, जो करते थे उस पर उन्हें विश्वास था करके पूजा तथा केवल ज्ञान, कृपा, करुणा और प्रेम का सागर हैं, यह चरमत्कारों का भी सागर है। इतने चमत्कार घटित हुए है कि इन्हें लिख पाना असम्भव सा है। पर आप सब लोग तो जानते हैं कि सहजयोग में कितने चमत्कार हैं। इस ज्यो्तिमय सर्वव्यापी शक्ति के फोटो भी आपने देखे हैं। और उसका अनुसरण वे करते थे। इस विषय पर कोई पाखण्ड न था। अभद्र व्यवहार करने वाले लोगों पर वे कृपित हो जाते और उन्हें शान्त करने के लिए मैं उन पर थोड़ा सा पानी डाल देती। मैं नन्हीं बालिका थी, मेरी बात को वे समझ जाते और कहते, "किस प्रकार तुम इन सारी बातों के बीच शान्त रहती हो?" मैं कहते हैं कि मूर्ख, धूर्त, अंहकारी एवं अडियल लोगों को आप आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। जिस तरह से लोग चैतन्य लहरी 20 आत्मसाक्षात्कार लेने के लिए तैयार हैं उससे लगता है कि इसका सम्बन्ध आपके पूर्वजन्मों से है। अब मैं रूसी लोगों का उदाहरण दूंगी। अविश्वसनीय रूप से हजारों रूसी लोग कार्यक्रमों में होते हैं। मैं विदेशी हूँ और वे मुझे नहीं जानते। परन्तु बड़े-बड़े सभाओं में मेरे कार्यक्रम होते हैं और स्टेडियम खचाखच भर जाते हैं । इन विशाल सभागारों में वे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं। इसमें स्थापित होते हैं, इसका अभ्यास करते हैं और सहजयोगी हो जाते हैं। उनके रोग भी दूर हो जाते हैं। इनमें वैज्ञानिक भी हैं, मैं हैरान थी कि एक सभा में दो हज़ार पांच सौ वैज्ञानिक थे जिन्होंने मुझे महानतम वैज्ञानिक और दार्शनिक की उपाधि से सम्मानित किया। के लिए अपने प्रेम को प्रकट करते हैं। वे तुरन्त जान जाते हैं। कि उनके देश में क्या कमी है। वे ही आकर मुझे बताते हैं कि, श्रीमाता जी हमारे देश में यह कमी है," कोई अन्य आकर कहेगा, 'श्री माता जी देखिए हमारे समाज में हमारी राजनीति में यह त्रुटि है।" मैं हैरान थी कि अभी तक वे अपने देश की कोई भी कभी न देख सकते है और उन्हें अपने देश पर गर्व था। परन्तु अब वही लोग हस महान देश का नाश करने वाली त्रुटियों को देखने लगे हैं। परन्तु इस देश का कभी नाश नहीं हो सकता, यह शाश्वत प्रकृति का देश है। इन विशेषताओं से परिपूर्ण लोग बारम्बार आते रहेगें और देश को विध्वंस से बचाएगें। नि:सन्देह भ्रष्टाचार निकृष्टतम दोष है, लोग सोचते हैं कि यह व्यापार है। परन्तु उन्हें समझना चाहिए कि राजनीति के माध्यम से ही अब्राहम लिंकन, सादत और बहुत से अन्य लोगों ने ऐसे प्रेम को प्राप्त किया है । मैं तुर्की गई, अतातुर्क कमालपाशा (जिसकी जीवनी मैने शैशव अवस्था में पढ़ी थी) ने देश वासियो में देश क प्रति चेतना जागृत की थी। न हमें दूसरों की नकल करनी चाहिए और न ही उनकी बनाई गई प्लास्टिक की वस्तुओं को अपने सिर पर लादना चाहिए।: अपने देश की सहायता हमें करनी चाहिए। हर देश की उन्नति से ही पूरा विश्व शक्तिशाली बनेगा। परन्तु नकल और दासत्व से कोई सुधार न होगा। सहसार खोलने से पूर्व में खादी पहना करती थी। मेरे पति कलैक्टर थे और वे अच्छे वस्त्रों के शौकीन हैं। वे कहते, "कोई तो अच्छी चीज़ ले लो!" मैं कहती "यही सर्वोत्तम है।" मैं खादी पहनती और इससे मुझे अत्यन्त संतोष प्राप्त होता क्योंकि मेरे देश के गांवो के लोग खादी बनाते हैं। से, क्या आप इस बात पर विश्वास कर सकते हैं? सैन्ट पीटर्सबर्ग के प्राचीन विश्वविद्यालय में उन्होंने अभी तक केवल दस उपाधियां दी हैं। मैंने कहा, "आप मुझे यह उपाधि किस प्रकार दे सकते हैं क्योंकि " आइन्सटाइन को भी यह दी गई थी।" उन्होंने कहा आइंस्टाइन ने क्या कार्य किया है? उसने पदार्थ पर कार्य किया है और आपने मानव पर।" मुझे अत्यन्त संकोच हो रहा था, इस पर मैं विश्वास न कर पा रही थी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि रूस की सरकार ने मुझे उपाधि दी है। मेरे पति को 135 पुरस्कार दिए गए हैं। वे कहते हैं कि, "वास्तव में तुम्हें पुरस्कार मिलना चाहिए।" मैने कहा,"किस बात के लिए?, मेरा प्रेम कार्य कर रहा है, मैने इसके लिए कुछ खर्च नहीं किया। मेरा प्रेम ही मुझे फल देता है। यह प्रेम मुझे आप सबसे, मेरे देश से, आपके देशों से, आपसे, आपके परिवारों से और सभी अन्य चीज़ों से एकाकारिता प्रदान करता है। मैं सदा महसूस करती हूं कि सभी लोग मेरे ही अंग-प्रत्यंग हैं। इस प्रकार मैं आपको याद रखती हूँ। हर व्यक्ति को मैं उसकी कुण्डलिनी के चित्र के माध्यम से, जैसी बह थी और जैसी वह आज है याद रखती हूँ। इसके लिए मुझे न तो कोई परिश्रम करना पड़ता है और न कोई दबाव डालना पड़ता है। लोग कहते हैं कि आप बहुत अधिक यात्रा करती हैं, मेरा पासपोर्ट बहुत बड़ा है, परन्तु मैं तो वहाँ बैठी ही रहती हूँ। मुझे नहीं लगता कि मैं यात्रा कर रही हूँ। जैसे मैं यहां बैठी होती हूँ वैसी ही वहाँ बैठी होती हैं। मैं कहीं भी बैठ सकती हूैँ। बिना सोचे, निर्विचार समाधि की अवस्था में रहना उत्थान प्राप्ति का प्रथम चिन्ह है । आपमें से बहुत से लोगों ने निर्विचार समाधि प्राप्त करली है। आते-जाते रहने वाले मेरे जम्मदिन के अवसर पर मेरी समझ में नहीं आता कि क्या कहूँ? 72 वर्ष बीत चुके हैं पर मैं इसके विपय में नहीं सोचती और संभवत यही कारण है कि मुझ पर बढ़ती हुई आयु का कोई प्रभाव नहीं है। मुझे जब तक जीवित रहना है, रहना है। जब मुझे जाना होगा चली जाऊँगी। यह देखना मेरा कार्य नहीं है। मेरा प्रेम तो विश्व्रभर के लोगों को आत्म-साक्षात्कार देना चाहता है, वे चाहे जैसे भी हों। मैने देखा है कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात लोग देश गाँधी जी सदा कहा करते थे बहुत अधिक मशीनें मत लगाओ। अब मैं समझ पाती हूं कि वे हस्तकला की कलात्मक वस्तुओं पर इतना बल क्यों देते थे। क्योंकि इस प्रकार आप देश की सहायता करते हैं। मैं आश्चर्यचकित थी कि पश्चिमी देशों के लोग हाथ से बनी वस्तुओं के लिए इतना धन क्यों देते हैं। इसका कारण यह हैं कि वे अब हाथ से चीजें बना पाने में असमर्थ हैं। कम्प्यूटर आ गए हैं और मस्तिष्क का उपयोग कम हो गया है। हम लोग भली-भांति हिसाब-किताब कर सकते हैं क्योंकि हमने पुरानी प्रणाली से शिक्षा प्राप्त की है परन्तु आज तो लोग दो जमा दो नहीं कर सकते। न जाने उनके मस्तिष्क को क्या हो गया है। व्यक्ति को बहुत अधिक बनावटी चीज़ों को नहीं अपनाना चाहिए। यदि आप सहजयोगी हैं तो प्राकृतिक वस्तुएं अपनाएं। मैं आपको हिप्पी बनने के लिए नहीं कहती। सहजयोग में आपको अपने देश के अनुसार गरिमामय वस्त्र धारण करने हैं। कुछ भी त्यागना नहीं। परन्तु बनावट को नहीं अपनाना क्योंकि पदार्थों का बनावटी प्रभुत्व आत्मा का हनन करता है। आत्मा और क 21 मैंने कोई विशेष कार्य नहीं किया है । जन्म से मुझे इसका ज्ञान था और मैं स्वंय को जानती हूँ। मैंने केवल मानव और उसकी समस्याओं को समझा है। मानव ईसा, मोहम्मद साहब, श्री राम, श्री कृष्ण सभी को मानता है परन्तु उसमें कोई आन्तरिक परिवर्तन नहीं होता। क्या कारण हैं? कोई बात उसके मस्तिष्क में नहीं घुसती। इसका कारण मैंने खोज निकाला कि अभी तक उनका योग नहीं हुआ है। वे परम चैतन्य से जुड़े नहीं है। मैने मानव स्वभाव के क्रम परिवर्तन और संम्मिश्रण का अध्ययन किया यह कठिन कार्य नहीं है क्योंकि केवल सात चक्र हैं जिन्हें आपने कार्यान्वित करना होता है और यह जानना होता है कि सहस्त्रार भेदन क लिए किस प्रकार कुण्डलिनी को उठाया जाए। इस विधि ने कार्य किया और हजारों लोगों में कार्यान्वित हो रही हैं| मेरे हर्ष की सीमा नहीं है कलियुग में लोग माँ की चिन्ता नहीं करते। परन्तु जिस प्रकार से मेरे बच्चे मेरे प्रति अपना प्रेम उड़ेल रहे हैं, मेरी समझ में नहीं आता कि मैं किस प्रकार अपनी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति करुं। सबको प्रेम करने का प्रयत्न करें, यह स्वयं को प्रेम करने से कहीं अधिक उत्तम है। प्रेम और क्षमा प्रदान करने का प्रयत्न करें। विस्मयकारी ढंग से आप अपनी गरिमा और महानता का अनुभव करेंगे और अचानक आप पाएगें कि आपका व्यक्तित्व सार्वभौमिक हो गया है। सहजयोग का प्रसार हो रहा है और मुझे आशा है कि मेरे जीवनकाल में हो यह विश्व शान्ति पदार्थों में संघर्ष जारी है। उस दिन किसी ने मुझसे कहा कि "श्री माता जी आप सदा हमें अपने हाथों से सुन्दर वस्तुएं बनाने के लिए कहती हैं अत: इस प्रकार आप भी नैतिकता की बात करती है।" मैंने कहा, "कि अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए आप पदार्थ का उपयोग कर सकते हैं। किसी अन्य चीज के लिए नहीं। "उदाहरणार्थ यदि मैने आपको प्रसन्न करना हो तो मैं क्या करुं? मैं आपको छोटा सा उपहार देती हूँ जिसे आप महान वरदान समझते हैं। उदाहरणतया यह कालीन बहुत सुन्दर है, यदि यह मेरा होता तो मुझे इसका बीमा कराना पड़ता। परन्तु यदि मैं इसके विपय में नहीं सोचती तो इसका पूर्ण आनन्द मुझ पर बरसने लगता है और मुझे पूर्णतया आनन्दमय कर देता है। अत: यदि आप निर्विचार समाधि स्थापित कर लें तो आप जान जाएगें कि आप नैतिकता पर पूर्ण विजय प्राप्त कर सकते हैं । अर्थशास्त्र का नियम तो आप जानते हैं कि प्रायः आवश्यकताओं की पुर्ति नहीं हो सकती। आज आपको एक घर की आवश्यकता है, फिर एक कार, फिर एक हैलिकोप्टर आदि-आदि। यदि आप निर्विचार समाधि में हैं तो जहाँ भी आप हैं आनन्द से हैं। वर्तमान में रहते हुए आप हर चीज़ का आनन्द लेते हैं, आपमें कोई तनाव नहीं होता, न आप भूत में होते हैं और न भविष्य में यह स्थिति आप सबने प्राप्त कर ली है। अब आपने निर्विकल्प समाधि की अवस्था प्राप्त करनी हैं। आनन्द, शान्ति और स्वतन्त्रता से तेजोमय आपकी मुखाकृतियों को देखकर मैं प्रसन्न हूँ। जो जी में आए वो आप कर सकते हैं, परन्तु आप कोई अनुचित कार्य करेंगे ही नहीं। मैं सदा एक उदाहरण दिया करती हूँ कि मैं यदि जिद्दी और बाघाग्रस्त हूँ और मेरे हाथ में एक साँप हो और आप मुझे बताएं कि, "श्री माता जी आपके हाथ में सांप हैं" तो जिद्दी और अन्धकार में होने के कारण में कहूँगी, "नहीं मुझे तुम पर विश्वास नहीं है, यह तो एक रस्सी है।" जब तक वह साँप काट नहीं लेता उसे पकड़े रखूंगी। परन्तु यदि थोड़ा सा भी प्रकाश हो जाए तो मैं अब आप अपने स्वामी तथ पथप्रदर्शक बन गए हैं। आपको किसी अन्य गुरु की आवश्यकता नहीं रही। इस देश में माँ का सम्मान किया जाता है। यह माँ का देश है अत: माँ के महत्व को समझें। जिस कार्य में इतने धैर्य और प्रेम की आवश्यकता हो, मेरे विचार में, केवल माँ ही उसे कर सकती है। इसे करने के लिए यदि कृप्ण सम पिता होते तो अपना सुदर्शन चक्र उठाकर सबका वध करके समस्या का निदान कर लेते। ईसा क्रूसारोपित कर देते। नि:सन्देह यह समय घोर कलियुग का है फिर भी आपने सहजयोग को कार्यान्वित करना हैं क्योंकि कलियुग की यातनाओं से पीड़ित लोग इसी समय सत्य खोजने क लिए आएंगे और आरशीरवादित होंगे। पैगम्बरों ने इसकी भविष्यवाणी की है और इसके विषय में लिखा है । की अवस्था को प्राप्त कर लेगा। मैने आपको बताया है कि शान्ति आन्तरिक चीज है। व्यवस्था या शान्ति पुरस्कार प्राप्त करने से यह स्थापित नहीं होती, अपने अन्दर ही इसे स्थापित करना होगा। मैं बड़े-बड़े लोगों को जानती हूँ जिन्हें शान्ति पुरस्कार दिए गए हैं परन्तु वे इतने अशान्त कि आप उनके समीप नहीं जा सकते। इससे प्रकट होता है कि मुझे ज्ञान नहीं है कि किस प्रकार उन्हें शान्ति पुरस्कार दिये गए। परन्तु जिनके अन्दर शान्ति नहीं है वे शान्ति की सृष्टि नहीं कर सकते। आपको शान्त होना है और ये शान्ति आपको साक्षी अवस्था तुरन्त उस साँप को फैंक दूँगी । प्रदान करती है। इस अवस्था में आप पूरे विश्व को एक नाटक की तरह देखते हैं और इसकी विनोदरशीलता का आनन्द लेते हैं, तब आपको गुस्सा नहीं आता और न ही आपको चिन्ता होती है। मेरे लिए यह महान अवसर है क्योंकि अचानक मुझे लगता है कि बहुत से द्वार खुल रहे हैं। भिन्न देशों के महापौरों ने मुझे पत्र लिखे हैं, विशेषत: ब्राजिला के महापौर ने हवाई पतन पर आकर मुझे ब्राजिला की चाबी अर्पित की और कहा, "श्री माता जी ब्राजिला पर अपना चित्त रखें ताकि ब्राजील में शान्ति रहे ।" मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ, क्या उत्तर दें। मेरी आँखों में अश्रु उमड़ पड़े और में उन्हें रोकने का प्रयत्न कर रही थी। इतने सारे महापौरों (न्यूयार्क, कनाडा, आस्ट्रेलिया) ने सुन्दर पत्र लिखे हैं क्योंकि उन्हें सहजयोगियों के कुछ सुखद अनुभव प्राप्त चतन्य लहरो 22 का समय है। मैनें उससे पूछा, "क्या आप हो चुके हैं। आप लोग कार्य को कर सकते हैं मैं नहीं। यदि मैं ही इस कार्य को कर सकती तो आपको परेशान न करती। परन्तु हमारे लिये अच्छे पाध्यम होने आवश्यक हैं। जहां भी सहजयोगी जाते हैं वे अति सुन्दर छवि की सृष्टि करते हैं जो सभी को प्रभावित करती है। और इसी कारण हमें इतने अच्छे परिणाम प्राप्त हो रहे हैं । अब पुर्नजीवन-उत्थान पागल हैं? पांच सौ वर्ष पश्चात् उस कब्र में क्या शेष रहेगा? क्या हड्डियों का उत्थान होगा?" भारतीय दर्शनशास्त्र में स्पष्ट कहा है कि आत्मा का उत्थान होगा, यह बात विवेकशील प्रतीत होती है क्योंकि आत्मा शाश्वत है। मैंने उससे एक और प्रश्न पूछा कि, "आप तो परमात्मा के निराकार रूप में विश्वास करते हैं. फिर आप पृथ्वी के लिए क्यों लड़ रहे हैं?" जिस प्रकार लोग । "सहजयोग प्रचार की गति को हम किस प्रकार तीव्र करें?" परमात्मा के नाम पर एक-दूसरे का वध कर रहे हैं उसे देखकर मुझे बहुत दुख होता है, क्या आप समझते हैं, कि परमात्मा इस प्रकार के कार्यों से प्रसन्न होगें? यह बहुत अच्छा प्रश्न है। मैंने कहा, "यह स्वत: हैं, हम इसे किसी पर लाद नहीं सकते, हम सभी का सम्मान करते हैं। परन्तु जिस प्रकार यह हर स्थान पर बढ़ रहा मुझे बहुत आशा है कि एक दिन पूरे विश्व में यह तेजी से फैल जाएगा। वास्तव में हम कोई योजना नहीं बनाते, कोई योजना बना ही नहीं सकते, यह इसी प्रकार कार्यान्वित होता है। सभी कुछ स्वत: ही घटित होता हैं। मैं हैरान थी कि किस प्रकार पंजाब के ये लोग आये और मुझसे कहने लगे, " श्री माता जी आप पंजाब में क्यों नहीं आती" मैंने कहा, "वहां शान्ति हो जाने दें।" क्योंकि मेरे पति मुझे ऐसे स्थानों पर जाने की आज्ञा नहीं देते। अगले वर्ष वहां पूर्ण शान्ति थी मैं वहां गई और अब मुझे बताया गया कि वहां बहुत बड़ी संख्या में लोग सहजयोग को अपना रहे हैं। काश्मीर आदि शक्ति का स्थान है और मुझे विश्वास है कि एक दिन हम काश्मीर पर भी भली-भांति कार्य कर सकेगें। की है अत: व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार देना होगा, उसके बिना कोई निदान नहीं। अन्त:परिवर्तन के बिना कोई समाधान नहीं है। व्यक्ति घंटो भापण देता रहे परन्तु बिना आन्तरिक परिवर्तन के उसका कोई लाभ नहीं। अत: जहाँ तक भी संभव होगा मैं लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने के लिए परिश्रम करती रहूँगी। इसके बारे में कोई संशय नहीं है, व्यक्ति में जब परिवर्तन आता है तो वह स्वयं इस बात को समझ जाता है। उसे सारी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। एक प्रज्जवलित दीपक की तरह वह अन्य लोगों को भी आत्मसाक्षात्कार दे सकता है। अब क्या आप सोचते हैं कि मैने सब लोगों को आत्मसाक्षात्कार दिया है? हो सकता है को दिया हो। दिल्ली शहर में रहने कुछ वाले लोग विदेशों में जाकर आत्मसाक्षात्कार देते हैं। चारों ओर सहजयोग इसी प्रकार फैल रहा है। सभी सहजयोगियों को स्वय सभी धर्मों में कुछ मूर्ख लोग नेतृत्व ले लेते हैं। इसे रोका नहीं जा सकता क्योंकि धर्माधिकारी आत्म-साक्षात्कारी लोग नहीं हैं। इस प्रकार मैंने देखा है कि जापान के लोग एक धर्म का अनुसरण करते हैं और चीन के लोग दूसरे धर्म का जबकि वास्तव में दोनों एक से हैं, एक जैन हैं और दूसरे ताओ। परन्तु गलतफहमी यह है कि दोनों स्वंय को विशेष समझते हैं। उनमें से कोई विशेष नहीं है। मोहम्मद साहब ने इन सब का वर्णन किया है अब्राहम से मोजेज ईसा, मैरी तक और कहा है कि पृथ्वी पर एक लाख से भी अधिक नबी हैं, परन्तु स्वंय को विशेष मानने की क्या आवश्यकता है। यह विशिष्टता की भावना अहम् से आती है। ईसा ने इन सब का वर्णन किया है। चीन में माना जाने वाला घर्म 'ताओ' सहजयोग के सिवाय कुछ भी नहीं। ताओ कुण्डलिनी है। जैन और जोरास्ट्र भी सहजयोग हैं। परन्तु ये तो परस्पर लड़े जा रहे हैं। बोस्निया में मै एक मुसलमान से मिली जो कह रहा था, "परमात्मा के नाम पर हमे बलिदान हो जाना चाहिए।" मैने "क्या आपको विश्वास है कि आप परमात्मा के नाम पर को पहचानना होगा। वे अब प्रकाश-पुंज हैं और उन्हें प्रकाश फैलाना है। वे व्यापार में, राजनीति में और इघर-उघर की बातों में व्यस्त हैं। मैं भी बहुत व्यस्त हूँ, मेरा एक परिवार है, नाती-नातिन है, मेरे बच्चे हैं और मुझे अपने परिवार की भी देखभाल करनी है। यह सब करते हुए हमारा चित्त अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने पर होना चाहिए। इस प्रकार हम सहज प्रचार की गति को सकते हैं। एक व्यक्ति जो आत्मसाक्षात्कारी नहीं है वह धर्म बढ़ा की बात करने लगेगा धर्म के नाम पर धन इकट्ठा करने लगेगा और न जाने क्या क्या करेगा। परन्तु आप लोग, जिनमें तत्व है, उन्हें सब को देना होगा और दूसरों को आत्म साक्षात्कार देने से अधिक आनन्द कुछ और नहीं हो सकता। पूरे ब्रह्माण्ड के वैभव की तुलना भी इससे नहीं हो सकती। मैं सभी सहजयोगियों से, पुरुष, स्त्रियों और बच्चों से प्रार्थना करुंगी कि वे सहजयोग का प्रचार करें क्योंकि उनमें सहजयोग का प्रचार करने की शक्तियां हैं। वे इस कार्य को कर सकते हैं। केवल भारत में ही ऐसा नहीं होना, पूरे विश्व में यह कार्य किया जा सकता है और मेरे जन्मदिन के उपलक्ष में, यदि आप ठीक समझे, उपहार के रूप में यह वचन आप सबको मुझे देना होगा। पूछा, मर रहे है?" उसने कहा मुझे पूरा विश्वास है। कुरान में लिखा है कि यदि परमात्मा के नाम पर आप अपना जीवन देगें और ठीक प्रकार इस्लामिक विधि से यदि आपको कब्र में दफनाया जाएगा तो कयामा के समय आपके शरीर को पुर्नजीवित किया जाएगा। आप सबका हार्दिक घन्यवाद 23 ---------------------- 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-0.txt ४ - चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड VII अंक 8 व 9 (1995) ३० "सभी सहजयोगी, पुरुष, स्त्रियां और बच्चे, न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में सहजयोग का प्रचार कर सकते हैं क्योंकि उनमें यह कार्य 'करने की शक्ति है।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी (जन्म दिवस स्वागत-समारोह) 21-03-1995 ४-८८666 600 --- ८. -১-১- 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-1.txt चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी (1995) खण्ड VII, अंक 8-9 वी विषय-सृ श्री जीसस पूजा 27-12-94 1 1. परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का 2. संक्राति संदेश 6. श्री राज लक्ष्मी पूजा - दिल्ली 4 दिसम्बर 1994 3. शिव रात्रि पूजा-आस्ट्रेलिया 26.02.1995 4. 13 जन्म दिवस-स्वागत समारोह वार्ता 21.03.1995 19 5. : श्री योगी महाजन सम्पादक श्री विजयनालगिरकर 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली-110 067 मुद्रक एवं प्रकाशक प्रिन्टेक फोटोटाइपसैटर्स, 35, ओल्ड राजेन्द्र नगर मार्कट, नई दिल्ली-110 060 फोन : मुद्रित 5710529, 5784866 चैतन 7. 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-2.txt श्री जीसस पूजा माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन परम पूज्य गणपतिपुले, 27-12-1994 यह दर्शाने के लिए कि आध्यात्मिकता किसी भी स्थिति में और किन्हीं भी समस्याओं के साये में जीवित रह सकती है, ईसा मसीह अत्यन्त विपरीत स्थितियों में जन्में। अपने ही कबीले के लोगों के घोर विरोध का उन्हें सामना करना पड़ा। उनका जन्म यहूदी परिवार में हुआ और उस समय उन लोगों ने ईसा को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। फिर भी उन्होंने उसका वध नहीं किया, रोम साम्राज्य के एक न्यायाध शि ने उन्हें मृत्यु-दण्ड सुनाया। पूर्णतया दिव्य व्यक्तित्व होने के कारण उनके जीवन का अनुसरण करना अत्यन्त कठिन कार्य है। जो भी नियमाचरण उन्होंने ईसाइयों के लिए बनाए उनका अनुसरण करना बहुत कठिन है। उन्होंने कहा कि यदि अपनी आंखों से आप व्याभिचार करते हैं, तो अच्छा होगा कि अपनी आंखें निकाल दें। हाथों से यदि अपराध करते हैं तो हाथों को काट दें। उनकी दृष्टि में अपराध अत्यन्त सूक्ष्म चीज थी। कोई यदि तुम्हारे दायें गाल पर चांटा मारे तो बायां गाल भी उसकी ओर बढ़ा दें इसका अनुसरण करना असंभव था। उन्होंने यह भी कहा कि आपको स्वयं यह सब करना होगा, अन्य लोग आपके लिए यह कार्य नहीं करेंगे। बहुत ही कम समय वे जीवित रहे। वे भारत आए और यहां रुक गए। इसके विषय में मैंने एक पुस्तक पढ़ी है और मैं आश्चर्यचकित थी कि पुराणों में संस्कृत भाषा में स्पष्ट रूप से यह सब लिखा हुआ है। शालीवाहनवंशी मेरा एक पूर्वज उनसे मिला और पूछा, "आपका नाम क्या है?" उन्होंने उत्तर दिया, "मेरा नाम ईसा मसीह है और मैं इस देश में इसलिए आया हूं क्योंकि मेरा देश मलेच्छों से भरा हुआ है।" मलेच्छ अर्थात् मल की इच्छा अर्थात् वे लोग जिनकी प्रवृत्ति गंदगी इकट्ठा करने की है। उसने ईसा से पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? अपने देश वापस जाकर आप उन्हें सुखदायी पावित्र्य सिखाओ (निर्मलं आराम दात्र)। आश्चर्यमय रूप से उन्होंने यह शब्द इतने स्पष्ट कहे कि इसे संस्कृत में छाप दिया गया। तब उन्होंने ईसा को कहा कि जाकर अपने लोगों को सुधारें और उनकी बुराइयों को दूर करें। ईसा ने यह अच्छा कार्य करने का प्रयत्न किया तो लोगों ने उसे क्रुसारोपित कर दिया। यदि आप ईसाई धर्म पर दृष्टिपात करें तो समझ में नहीं आता कि इसके विपय में क्या कहा जाए। इन लोगों ने सदा सहजयोग का विरोध किया और कभी ईसा की कही हुई बात को समझने का प्रयत्न नहीं किया कि "मैं तुम्हें आदि-शक्ति (Holy Ghost) भेजूंगा।" ईसाई वातावरण से आने वाले सहजयोगी अपने पूर्व बंधनों से चिपके रहते हैं। अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। उनका पृथ्वी पर अवतरित होकर मानव की सहायता करना आवश्यक था। परन्तु उच्चावस्था को प्राप्त करने के लिए आपको अपने पुराने बंधन त्यागने होंगे। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप ईसा की पूजा न करें। उनकी पूजा आपको करनी चाहिए। परन्तु कुछ लोग अभी भी स्वयंको उन्हीं तक सीमित कर लेते हैं, जबकि उन्होंने आपको सहजयोग के लिए तैयार किया है । मैं नहीं जानती कि उनके जीवन का कोन सा गुण आप अपना सकते हैं! वे महानतम सहजयोगी थे। परन्तु उनमें इतनी शक्तियां थीं कि उन्हें प्राप्त कर पाना मानव के लिए दुष्कर कार्य है। परन्तु उनका बलिदान, समझौता तथा स्वीकार करने के गुण अतिविशिष्ट हैं। वे स्वीकार कर लेते थे। अपनी माँ के प्रति उनका प्रेम इतना गहन था कि क्रूस पर भी उन्होंने कहा,"सावधान, माँ आई हैं।" जैसा अन्य धर्मग्रन्थों के साथ घटित हुआ है वैसे ही बाईबल उनका पूर्ण चित्रण नहीं करती। अन्य धर्मों की तरह से ईसाई भी अपने ठीक रास्ते से भटक कर ईंसाई धर्म चलाने वाली दिव्य आत्माओं का नाम कलकित कर रहे हैं। ईसा मसीह के बताए गए मार्ग के विरुद्ध वे कार्य कर रहे हैं। हम लोगों को यह समझना है कि वे हमारे अगन्य चक्र को खोलने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए। यह बहुत कठिन कार्य है। सहस्रार को खोलना इतना कठिन नहीं है जितना आज्ञा को। अगन्य चक्र, जिस पर ईसा का निवास है, अत्यन्त संकीर्ण है। ईसा ने कहा है कि स्वयं को तथा अन्य लोगों को क्षमा करो। अगन्य चक्र का यही मन्त्र है। यही बीज-अक्षर है। हम इसे 'हैँ'क्षम' कहते हैं।'क्षम' अर्थात् अन्य लोगों को क्षमा करना और 'हँ' अर्थात् स्वयं को क्षमा करना। अगन्य चक्र को खोलने के लिए यही दो बीज-अक्षर उपयोग होते हैं। निर्विचार-समाधि में चले जाना ही अगन्य चक्र को अच्छी तरह से खोलने का एकमात्र मार्ग है। निर्विचार-समाधि में रहने से अगन्य चक्र खुल सकता है। परन्तु यदि अगन्य चक्र बन्द हो जाए तो यह बहुत भयानक हो सकता है तथा आपको और अन्य लोगों को हानि पहुंचा सकता है। भूत ग्रस्त लोग कभी-कभी अगन्य चक्र में उन भूत बाधीओं को ग्रहण कर लेते हैं और इन भयानक आसुरी शक्तियों की आज्ञा अनुरूप कार्य करने लगते हैं। और हम लोग यह भी नहीं समझ पाते कि यह व्यक्ति इस प्रकार क्यों व्यवहार कर रहा है। हम जानते है कि अमेरिका में जीन्स पर बहुत से शोध हो रहे हैं और वो लोग बहुत सी बातें कर रहें है। परन्तु इसके बावजूद भी भयकर रोग प्रतिशोध के रूप में आ रहे हैं। इतने सारे शोध कार्यों के बावजूद भी लोग परेशान हैं और समझ नहीं पा रहे कि क्या हो रहा है। 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-3.txt मुख्य बात यह है कि आपको आध्यात्मिकता, सच्चरित्र और दैवी नियमों की सुरक्षा में रहना है। इस सुरक्षा में यदि आप नहीं है तो आप किसी भी चीज में फंस सकते हैं। जहां तक घर्म का सम्बन्ध है मुझे लगता है कि अमेरिका पगला गया है। वहां पर सभी प्रकार के घर्म हैं, शैतान के धर्म, अभिचार (जादू-टोने) के धर्म आदि-आदि। यद्यपि विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने बहुत उन्नति कर ली है फिर भी सदा वे भय के साये में रह रहें हैं। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना है कि ईसा ने हमें अत्यन्त गहन प्रकार का सच्चरित्र सिखाया है। उन्होंने कहा, "आपकी दृष्टि अपवित्र नहीं होनी चाहिए।" आंखो में भी व्यभिचार नहीं होना चाहिए। किसी स्त्री पर एक बार आपकी दृष्टि पड़ जाती है परन्तु यदि दूसरी बार आप उसे देखते हैं तो आप व्यभिचारी हैं। चरित्रवान व्यक्तित्व के विषय में उन्होंने इतने कठोर नियम बनाए। सहजयोगी होने के नाते आप सब लोग समर्थवान हैं और अन्य लोगों की अपेक्षा ईसा के नियमों पर सुगमता से चल सकते हैं। परन्तु अभी भी मुझे आपको कुछ बातें बतानी है। ईसा ने कहा था कि, "मैं अपने विरूद्ध कुछ भी सहन कर लँगा परन्तु आदि-शक्ति (holy ghost) के विरूद्ध कुछ सहन नहीं करूंगा।" यह बात कहना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। क्षमा के सागर होते हुए भी वे कहते हैं कि, "मैं सब कुछ सहन कर लूंगा परन्तु आदि-शक्ति के विरूद्ध कुछ भी सहन नहीं करूंगा।" बहुत सारी चीजें घटित हो रही हैं जो लोगों को आश्चर्यचकित करती हैं। उदाहरणार्थं यहां गणपतिपुले में सहजयोग का विरोध करने के लिए एक मुर्ख व्यक्ति आया गांव से उसने (मामलातदार) को अपने साथ मिला लिया। दोनों मिलकर हमें परेशान करने लगे। हमारे आने से दस दिन पहले इस मामलतदार को निलम्बित कर दिया गया। कोई नहीं जानता कि अचानक वह क्यों निलम्बित हो गया परन्तु ऐसा हो गया। ईसा के कार्य ऐसे ही होते है। यह उनका कार्य है, गणेश का कार्य है, बाएँ और दाएँ। में किसी का नाश नहीं करना चाहती परन्तु सहजयोग के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करने वाले लोगों को ये (ईसा और गणेश) क्षमा नहीं करते। जिस प्रकार घटनायें और कार्य हो रहे हैं इससे अत्यन्त आश्चर्य होता है। लोग यदि हमारा विरोध करें तो हमें डरना नहीं चाहिए। वे यदि कोई बाधा उत्पन्न करना चाहें तो अचानक आपकों इसका कोई समाधान मिल जाएगा और आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। इस प्रकार की बहुत सी घटनाएं होती रहती हैं और विश्व- भर में हो रही हैं मेरे पास बहुत से पत्र हैं जिनमें लोगों ने बताया है कि किस प्रकार श्री ईसा मसीह ने उनकी सहायता की। मुझे यह सब करने के लिए उन्हें (ईसा मसीह को) कहना नहीं पड़ता। वे अपना कार्य भली-भाति जानते हैं। सहजयोगी होने के नाते अपनी आचार-संहिता का ज्ञान होना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आज के आधुनिक सहजयोग में पहली चीज जो आपने समझनी है, वह यह है कि आपको मुझे पहचानना होगा। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अत्यन्त नम्रतापूर्वक मैं आपको बताती हूं कि आपको मुझे पहचानना होगा, मेरा सम्मान करना होगा और मुझे प्रेम करना होगा। इन शब्दों में मैं आपको समझा सकती हूं कि मेरे साथ आप दोहरी चाल नहीं चल सकते। एक ओर तो आप मेरे प्रति प्रेम दर्शाएं और दूसरी ओर मुझे परेशान करें। अभी तक सामूहिक आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ करता था। बिना सामूहिक आत्मसाक्षात्कार के लोग अवतरणों को नहीं पहचान सकते। परन्तु आत्मसाक्षात्कार पाने के पश्चात् भी यदि आप नहीं पहचानते तो यह गम्भीर बात है। अपने पूर्व मूर्खतापूर्ण संस्कारों के नशे में न रहे। हिन्दुओं को जब मैं कहती हूं कि आप मन्दिरों, व्रतों और ब्राह्मणीक मूर्खताओं को छोड़ दें तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। आपको समझना चाहिए कि अब आप सन्त बन गए हैं। सन्तों की कोई जाति-पाति या वंश नहीं होता। जैनियों या बौद्धों को आप यह बात बताएं तो उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगेगी। वे अपने पुरखों के बनाए हुए नियमों से चिपके रहना चाहते हैं। पहचान का अर्थ मुझे केवल आदि-शव्ति के रूप में ही पहचानना नहीं, पहचान का अर्थ है अपने जीवन के हर क्षण में यह ज्ञान होना कि मैं आपके साथ हूँ। सहजयोग में व्यक्ति स्वतः ही अनुशासित हो जाता है। इसके लिए मुझे कहना नहीं पड़ता। परन्तु यदि ऐसा नहीं होता तो मुझे बताना पड़ता है। पहला अनुशासन मुझे पहचानना और मेरा सम्मान करना है। दूसरा अनुशासन यह सीखना है कि-किस प्रकार सहजयोगी बनें। ईसा मसीह के विषय में सोचिए-यदि वे यहां बैठे होते तो मेरे प्रति उनका क्या व्यवहार होता या यहां उपस्थित लोगों से वह कैसा व्यवहार करते? किसी से किसी प्रकार की अभद्रता स्वीकार करना उनके लिए अत्यन्त कठिन है। वे अभद्रता सहन न करते। में तो बहुत सी चीजों का बुरा नहीं मानती,"ठीक है धीरें-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा।" परन्तु अब भी मैं देखती हूं कि बहुत से सहजयोगी अपनी जिम्मेदारी को महसूस नहीं करते। ईसा ने क्रूस को उठाया। सहजयोग में आपको क्रूस नहीं उठाना। आपने केवल फूल मालाएं पहननी हैं। परन्तु यह मालाएं पहनने की योग्यता तो आपमे होनी चाहिए। किसी को कष्ट नहीं उठाना। सबके लिए सभी कुछ भली-भाति बनाया गया है, स्वर्णजटित, आपको केवल यह जानना है कि इस पर किस प्रकार चलें। एक दूसरी बात जो मैने कही थी कि आपके दोहरे-व्यक्तित्व नहीं होने चाहिए। पूर्ण समर्पण, 24 घंटे इसमें रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपके अपने परिवार है, बच्चे हैं और आपका पूरा जीवन है। हर समय आपको उससे जुड़ा रहना है। परन्तु इतना भी लिप्त नहीं होना कि सहजयोग की सामूहिकता को हानि पहुंचे आपके सम्बन्धी, भाई-बहनें, माँ- पिता सब ठीक है, परन्तु सहजयोग आपकी मुख्य जिम्मेदारी है। उसके स्थान पर आप इन चीजों से लिप्त हो जा हैं, इस प्रकार आप निश्चित रूप से सहजयोग की सामूहिकता को हानि पहुंचाएंगे और इसमें राजनीति की सृष्टि करेंगे। द्वितीय अनुशासन यह है कि आपका सम्बन्ध केवल सहजयोगियों से है किसी अन्य से नहीं। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मुझे स्पष्ट रूप में बताना है कि सहजयोगियों के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण नहीं। चैतन्य लहरी 2. 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-4.txt निसन्देह आपको अन्य लोगों से मिलना है, उनसे बातचीत करनी है, उनसे रखरखाव करना है, उन्हें सहजयोग में लाना है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु आप किसी सहजयोगी को निराश नहीं कर सकते । आपमें यदि परस्पर मतभेद हैं तो उन्हें दूर कीजिए, परन्तु बाहर जाकर आपको एक होना चाहिए। यदि आप सत्य को जानते हैं तो आपमें मतभेद नहीं होने चाहिएं-क्यों मतभेद होने चाहिए? यदि आपमें मतभेद हैं तो आपको समझ लेना चाहिए कि अवश्य ही आपमें कोई त्रुटि है और त्रुटि यह है कि आप आत्मकेन्द्रित हैं या किसी ऐसी बात के लिए चिन्तित हैं जो सहजयोग नहीं है। मेरे उदाहरण का अनुसरण करना भी दुष्कर कार्य हो सकता है। मेरे बच्चे हैं-नाती-नातिने हैं, मैं कभी उन्हें टेलिफोन नहीं करती। मैं देखती हूँ कि मेरे पति सदा उनके लिए चिन्तित होते हैं और उन्हे फोन करते रहते हैं। मैं जानती हूँ कि वे ठीक है और यह भी जानती हूं कि मैंने अपना कर्तव्य निभा दिया है। में अपना जीवन केवल अपने बच्चों अपने पति या अपने परिवार पर व्यर्थ नहीं करूंगी क्योंकि ब्रह्माण्ड मेरा परिवार है। अतः आपको विस्तृत होना है। सहजयोगियों को स्वयं को विस्तृत करना है। यदि वे अपने परिवार अपने बच्चे, अपनी सम्पत्ति तक ही सीमित रहे तो बहुत स्वार्थपरता को त्यागना होगा। इस दुर्गुण को पूरी तरह त्यागना ही होगा। आपके जीवन का अत्यन्त विशाल स्वप्न होना चाहिए। हम सहजयोगियों के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम ब्राह्मणीय परिवार से सम्बन्धित हों। विवाहों में आप कहने लगे कि मुझे पसन्द नहीं है। मैं भारतीय से विवाह नहीं करना चाहता, कुछ भारतीय कहते हैं कि मैं विदेशी से विवाह नहीं करना चाहता। यदि आप इतने संकीर्ण बुद्धि मानव हैं। तो मुझे विवाह के लिए आपको कहना ही नहीं चाहिए, क्योंकि हमें अपने धर्म, जाति और देश के तुच्छ विचारों से पूर्णतया ऊपर उठना है। आप यदि ऐसा नहीं कर सकते तो आप सहजयोंगी नहीं हैं। हृदय से आप अपना विस्तार करें। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत में जाति-प्रथा एक बहुत बड़ी समस्या है जो मेरी समझ में नहीं आती। मैं सैंकड़ों बार बता चुकी हूं और गीता में भी वर्णन किया गया है-कि हर व्यक्ति के अन्दर आत्मा का निवास है। तो आप किस प्रकार जाति-प्रथा बना सकते हैं। अपनी प्रवृति से आप ऐसा कर सकते हैं, परन्तु जन्म से जाति आप नहीं बना सकते। इसे प्रमाणित करने के लिए वहुत से उदाहरण हैं। पश्चिमी देशों में तो और भी बुरा हाल है। वहां प्रजाति वाद है। उदाहरणार्थ में रोमानिया गई और वहां के जिप्सियों को देखा। उनसे कुत्तों जैसा व्यवहार किया जाता था। इतना अधम उन्हें समझा जाता था। वास्तव में यह जिप्सी बहुत अच्छे लोग हैं और उनमें कोई कमी नहीं। उनका चरित्र अच्छा है। अपनी महिलाओं के लिए उनके कुछ नियम है और वे चरित्रवान जीवन-यापन करते हैं । वे सामूहिक लोग हैं। परन्तु उनके साथ इतना अभद्र व्यवहार किया जाता है, इतना ्दुव्यवहार कि भारत में भी ऐसा होता हुआ न देख पाएंगे। रोमानियां के लोगो की कोई विशेष प्रजाति नहीं है, आप नहीं कह सकते कि वे जर्मन, अग्रेंज या एंग्लो-सेक्सन हैं। इग्लैण्ड में भी ऐसा ही होता है। उनके साथ अभद्र व्यवहार किया जाता है। यद्यपि यह लोग महान कलात्मक और अत्यन्त प्रेममय हैं, मै हैरान थी कि उनमें से बहुत से हमारे कार्यक्रमों में भी आए। चित्त का जीवन के विशाल स्वपन पर तथा दुखी लोगों पर होना आवश्यक है। पीड़ित और दुखी लोग ज़िन्हें, आपकी सहायता की आवश्यकता है, की देखभाल करें। जो लोग आपकी धन से सहायता करते हैं उनसे मित्रता करने के स्थान पर दीन-दुखियों से मित्रता करें। उन्हें उबारने के लिए ही आप सहजयोगी बने हैं। उनके लिए आपको कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिए। मैं वाशी में एक केन्द्र खोलने जा रही हूं जहां निर्धन लोगों का निशुल्क इलाज होगा। हम मध्य में हैं और जिन लोगों को जीवन की कोई सुविधा प्राप्त नहीं हो रही, हमें चाहिए कि उन्हें सहजयोग में लाएं और हर संभव तरीके से उनकी सहायता करें। आपने देखा होगा कि विवाह सुचियों में विकसित और विकासशील देशों में सन्तुलन बनाया है। फिर भी मैं देखती हूं कि लोग इसके विषय में बहुत ही अक्खड़ हैं। यदि आप में मूर्खतापूर्ण श्रेष्ठता-मनोग्रन्थी बन जाये तो यह तो ईसाइयों का गुण नहीं है। अत: सहजयोगी होने के नाते हमें समझना है कि सहजयोगी का एक नियम यह भी है कि जिन छोटी-छोटी चीजों और सीमाओं से हम तथा अन्य लोग पीड़ित हैं उनसे हमें ऊपर उठना है। जब हमारे साथ यह सामूहिक घटना घटित हो जाती है तब हमें समझना होता है कि लोगों को सामूहिक होना चाहिए। आवश्यक नहीं है कि हम लोगों के पास बड़े-बड़े महल हों जहां जाकर हम ध्यान कर सकें। प्रार्थना और ध्यान करने के लिए सभी स्थान ठीक हैं। आप जहां चाहें अपनी मांगें कर सकते हैं आप गणपति पुले आते हैं, मैं जानती हूं कि यहां अधि क सुख-सुविधा नहीं होती, यहां तो तीन सितारा प्रबन्ध भी नहीं होता, परन्तु आप एक दूसरे के साथ का अनुभव करते हैं। परस्पर प्रेम, स्नेह, तादातम्य और पारस्परिक एकता ही आनन्द के स्त्रोत हैं। तब आपको ये चिन्ता नहीं होती कि आपको क्या सुख मिल रहा है और क्या खुशी मिल रही है। अचानक पता लगा कि 250 लोग अधिक आ गए हैं और उनके लिए काम चलाऊ प्रबन्ध किये गये पर किसी ने बुरा नहीं माना। इस सहनशीलता के लिए मैं आपके प्रति कृतज्ञ हूं। शरीर का सुख महत्वपूर्ण नहीं है, आत्मा का सुख महत्वपूर्ण है। है पूरा कठिनाई होगी इस यदि आपका शरीर सुख चाहता तो आप उन सुखों का त्याग करना सीखें। शरीर को अपना दास बनाने का प्रयत्न करें, आप स्वयं इसके दास न बनें। यदि आप ऐसा करने का प्रयत् नहीं करते तो सहजयोग में आप कहीं भी नहीं हैं क्योंकि तब आप कहंगे कि मैेरे पास एक सुन्दर कार, एक बंगला आदि सभी कुछ होना चाहिए। शरीर के सुखों का त्याग करने पर ही आत्मा के प्रकाश का उदय होगा। हर समय शारीरिक सुख-सुविधाओं के बारे में चिन्तित रहने के कारण आपकी मुखाकृति पर तेज नहीं है और आपके मस्तिष्क में शान्ति नहीं है। ये सारी बातें आपको परमात्मा पर छोड़ देनी चाहिए। आपको अपने व्यवहार में निष्कपट, अध्यात्मिक एवं समर्पित होना है, आपका यही कार्य है। आपने देखना है कि 'मैं समर्पित हूं या नहीं? मैं पूर्णत: सहजयोग के साथ हूं या नहीं? मैंने सहजयोग के लिए क्या किया ? सहजयोग के सा ाम 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-5.txt लिए मुझे क्या करना चाहिए? यदि आप ऐसा नहीं करते तो मस्तिष्क विपरीत दिशा में जाएगा। सोचने लगेगा-ये मेरे बच्चे के लिए ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है, आदि-आदि। एक बार जब आप सोचने लगते हैं कि मुझे सहजयोग के लिए क्या करना है? किस प्रकार सहजयोग का प्रचार करना है, तब आप आश्चर्यचकित होंगे, कि आपका मन अध्यात्मिकता के प्रकाश में चला जाएगा और तब किसी को आपसे हुए देखा है और मैं हैरान हूं कि किस प्रकार ये लोग परस्पर लड़ते हैं! शनै: शनै: जब आप अध्यात्मिकता में बढ़ेंगे, तो मुझे पूर्ण विश्वास है, ये सारे लड़ाई-झगड़े, भिन्न समूह बनाना समाप्त हो जाएगा। परन्तु सहजयोग आपको बड़ा बने रहने की आज्ञा न देगा। तुरन्त आपकी पोल खुल जाएगी, लोग आपके विषय में जान जाएंगे। समझने का प्रय्न करें कि आपकों क्रोध क्यों आता है, इसका कारण क्या है? जो दुर्गुण आप अन्य लोगों में पसन्द नहीं करते वो आपके अन्दर विद्यमान हैं। कुछ न कुछ कमी आपमें है। अत: सहजयोग में शुद्धिकरण महत्वपूर्ण है। इसके लिए हमें ईसा की सहायता लेनी होगी क्योंकि आपका अगन्य चक्र तर्क-बुद्धि से घिरा हुआ है। आप हर बात में तर्क कर सकते हैं, किसी की हत्या यदि आप कर दें तो उसे भी तर्क संगत ठहरा सकते हैं। अत: इस अगन्य चक्र को यदि हम पूर्णत: नहीं रखते तो यह भी हमारा दुश्मन है क्योंकि इसके माध्यम कुछ कहने की आवश्यकटा नहीं पड़िेगी। आपका मस्तिष्क स्वत: ही कार्य करने लगेगा। आपके पास शक्ति है, आपके पास सभी कुछ है, आपके पास स्त्रोत है जिसे आपने खोलना मात्र है। एक अन्य तत्व की बात यह है कि हमें यह महसूस करना है कि हम क्या हैं। सहजयोग के लिए ऐसा करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ईसा ने कहा, "मैं परमात्मा का पुत्र हूं," उन्होंने यह बात खुले आम कही। लोगों ने यह बात कहने पर उन्हें क्रूसारोपित कर दिया परन्तु उन्होंने यह बात खुले आम कही, " मैं परमात्मा का पुत्र हूँ, जो आप करना चाहें कर लें।" जो उन्होंने कहा वह सत्य था और उन्हें कहना ही चाहिए था। अत: अब सहजयोगियों को कहना है कि "में आदि शक्ति का पुत्र या पुत्री हूँ।" एक बार जब आप स्वयं से कहने लगेंगे तो अचानक आपमें परिवर्तन होने लगेगा क्योंकि यह बहुत बड़ी पदवी है, बहुत बड़ा आशीर्वादित पद। एक बार जब आप ऐसा कहने लगेंगे तो आप अपने उत्तरदायित्व को समझ जाएंगे। आप आश्चर्यचकित होंगे कि कुगुरुओं के पास जाने वाले लोग सहजयोग में आये तो अत्यन्त उदार, समर्पित और नम्र बन गए क्योंकि वे बहुत कंप्ट उठा चुके थे बिना भटके जो लोग सहजयोग में आ जाते हैं कई बार उनमें वो भावना नहीं होती। कष्ट उठाने के बाद कोई चीज यदि प्राप्त हो तो उसका महत्व समझ आ जाता है और यदि सहज में ही कोई चीज प्राप्त हो जाए तो उसके महत्व को हम समझ नहीं पाते। हर समय हमें अन्तर्दर्शन करना होंगा पहला अन्तर्दर्शन यह है कि क्या मैं नम्र हूँ? क्या में दूसरों के सम्मुख स्वयं को नम्र बना सकता हूँ? यह बहुत महत्वपूर्ण है। क्रोध बहुत बड़ा अवगुण है। श्री कृष्ण ने कहा है कि क्रोध ही सभी बुराइयों को जन्म देता है। क्रोध जिगर से आरम्भ होता है अत: आप अपने जिगर का इलाज खुला से हम स्वयं को न्याय संगत सिद्ध कर सकते हैं । हम कह सकते हैं कि "मैं क्या कर सकता हूँ? यह घटना इसी प्रकार घटी।" एक बार जब आप अपने पीछे पड़ जाते हैं तो यह सारे दुर्गुण भाग जाते हैं। यदि आपको बहुत क्रोध आता है तो शीशे के सम्मुख खड़े हो कर स्वयं पर क्रोध करने का प्रयत्न करें। फिर मोह। मोह अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। पहले मुझे पता चला था कि पश्चिमी देशों के सहजयोगी अपने बच्चों से बहुत अधिक प्रेम नहीं करते थे। अब वे अपने बच्चों से चिपके हुए हैं, अपने बच्चों की सनक के अनुसार वे पूरे सहजयोग की गतिविधियों को चलाना चाहते हैं। भारतीय सहजयोगी भी ऐसे ही हैं, वे अपने बच्चों से बहुत लिप्त हैं। मैं आपको बता चुकी हूं कि मोह प्रेम का घातक है। यदि आपे किसी से प्रेम करते हैं तो व्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार उससे प्रेम करें। किसी व्यक्ति विशेष से आपको लिप्त नहीं होना किसी व्यक्ति विशेष की चिन्ता करना आपका कार्य नहीं, यह परमात्मा का कार्य है। इसे परमात्मा पर छोड़ दें और देखें कि आपके बच्चे, आपके सम्बन्ध तथा अन्य सभी चीजें सुधर जायेगी। यदि आप इनसे चिपके रहेंगें तो आपकी सीमाएं इन सम्बन्धों पर कुप्रभाव डालेंगी तथा आपके सम्बन्धों का दम घुट जायेगा। आप कहां तक हैं, इसका एक विशाल स्वपन और विवेक होना चाहिए। प्रकृति की गोद में आकर आप-इस बात को भली भाँति सीख सकेंगें। पानी को देखिये। यह सभी पेड़ों को पहुँचता है, सभी को लाभान्वत करता है, किसी पेड़ विशेष से इसे चिपकन नहीं होती। यदि यह एसा करने लगे तो सभी कुछ समाप्त हो जायेगा सामूहिकता के विपय में यदि आपने सोचना है तो तुच्छ और सकींर्ण सम्बन्धों में न फंसकर आपको नि्लिप्त होना होगा आप लोगों के लिए सहजयोग का अनुसरण करना विश्व के अन्य लोगों की अपेक्षा कहीं सुगम है क्योंकि वे लोग आत्म-साक्षात्कारी नहीं हैं। आप सब आत्म साक्षात्कारी हैं। लिप्साएं और भी हैं, धन-लिप्सा, बड़ी हैरानी की बात है कि कुछ लोग सहजयोग को दुकान या बाजार की तरह से समझते हैं। वे कहेंगे," श्री माता जी क्या आप इसके दाम आधे कर सकती हैं? करा सकते हैं; परन्तु क्रोध को तो आपने स्वयं देखना है कि यह कितना खराब है, कितना बुरा है और किस प्रकार आप इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। क्रोध सारी सामूहिकता का विनाश कर देगा और अध्यात्मिकता के सारे सौन्दर्य को समाप्त कर देगा। क्रोधी व्यक्ति यदि परमात्मा की बात करता है तो लोग सोचते हैं कि हमें इससे दूर ही रहना चाहिए। अत: आपको क्रोध से मुक्ति पानी होगी। यह सोचना आवश्यक है कि किन-किन बातों पर आपको क्रोध आता है। कुछ लोग सोचते हैं कि क्रोध करना उनका अधिकार है, परन्तु सहजयोग में ऐसा नहीं है। आपको क्रोधित नहीं होना, किसी पर नहीं चिल्लाना और न ही किसी को पीटना है। कोई समस्या यदि हो तो आप मुझे बता सकते हैं। परन्तु मैंने लोगों को झगड़ते और लड़ते ब 44 चैतन्य लहरी 4. 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-6.txt और यहां से खाली हाथ लौट गए। यहां तक कि भारतीय ईसाई यह सोचते हैं कि ईसा मसीह भी इंगलैण्ड में जन्में। जिस देश में आपने जन्म लिया है उस पर गर्व करना ही जीवन का सार है। हमारा अपना देश होना चाहिए परन्तु हमें उससे लिप्त नहीं होना चाहिए। उस देश कि सारी बुराइयों की हमें आलोचना करनी चाहिए, उन्हें स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए और नाहीं बन्धन ग्रस्त मुर्ख लोगों का अंग-प्रत्यंग बन जाना चाहिए। अपने देश की लिप्सा से यदि आप ऊपर उठ जाते हैं। तो आप सभी सीमाएं लांघ लंते है। अब आप महान बन गए हैं। किस प्रकार आप छोटे से तालाब में रह सकते हैं? आपको सागर की आवश्यकता है अन्यथा आप घुट आपको चाहिए कि मशीनों से बनी वस्तुओं का कम से कम उपयोग करें। इन मशीनों ने हमारे लिए बहुत सी समस्याएं खड़ी कर दी हैं। प्रदृषण रहित छोटी-छोटी मशीनों द्वारा बनाए गए वस्त्र हमें धारण करने चाहिए । सहजयोगी होने के नाते हमें पर्यावरण की समस्या के प्रति अति चेतन रहना चाहिए। पस्न्तु में एक बात जानती हूं कि जहां भी सहजयोगी होगे वहां चैतनऱ्य लहरियों के कारण पर्यावरण सम्बन्धी समस्या का समाधान हो जाएगा। परन्तु चैतन्य लहरियां तभी कार्य करेंगी जब आप इस समस्या से लड़ने के लिए तैयार होगें। जहां भी आप जाते हैं भयंकर प्रदूषण हैं। इस प्रदूषण से मुकाबला का एकमात्र तरीका पर्यावरण के प्रति चित्त देना है। क्या हम ऐसी वस्तुएं बना रहे हैं जो वातावरण को दूषित करती हैं? हम ही जिम्मेवार है हमे जिम्मेवार होना पड़ेंगा। हमारे अतिरिक्त कौन उत्तरदायी होगा? हमें अपने से गरीब और भाग्यहीन लोगों का भी ध्यान रखना होगा। सभी प्रकार के प्रदूषण से परिपूर्ण वातावरण की भी देखभाल हमें करनी होगी। एक ऐसी साधारण जीवन शैली अपनानी होगी जिसमें हमें समस्याएं उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का उपयोग कम से कम करना पड़े। पर्यावरण समस्या क्योंकि हमारा उत्तरदायित्व है इसे हम बहुत सी विधियों से संभाल सकते हैं। 47 वर्ष की आयु तक मैं केवल खादी पहना करती रेशम भी नहीं। सहस्ार खोलने के पश्चात् मैंने दूसरे वस्त्र पहनने शुरू किए। हमारी जीवनशैली ऐसी होनी चाहिए कि हम अपने इर्द-गिर्द की प्रगति के प्रति संवेदनशील हों। किस प्रकार आप अपना चित्त वस्तुओं पर डालते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है। भारत में अब सभी स्थानों पर अच्छे कार्य हो रहे हैं। एक दिन मैने किसी से कहा कि आप जर्मनी से कुछ बटेर क्यों नहीं मंगा लेते। वह कहने लगा, " श्री माता जी मैं नहीं जानता कि जर्मनी में बटेर भी हैं।" मैने कहा, "आप क्या कह रहे हैं, जर्मनी में बटेरों का बहुत बड़ा उद्यम है?" वह कहने लगा, "श्री माता जी आप कैसे जानती हैं?" मैने कहा,"मैं जानती हूँ।" जिस भी देश में मै जाती हैँं वहां की हर बात का ज्ञान मुझे होता है। मैं आश्चर्यचकित थी कि अपने देश के इतने बड़े उद्योग का भी उन्हें ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार भारत में भी हम यह नहीं जानते कि हमारे यहां कौन-कौन सी कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती हैं और किस प्रकार हम निर्धन लोगों की सहायता कर सकते हैं। ईसा निर्धन क्या आप इसे चौथाई दामां पर दे सकती हैं? क्या आप हमें कुछ छूट दे सकती हैं?" कम से कम पैंतीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनमें खर्च करने का क्षेम है फिर भी वे छूट मांगते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि उनसे क्या कहूँ। यही एक अवसर है जहां पर आपके द्वारा दिये गये पैसे में सभी की भागीदारी हो जाती है। सब लोगों के पास यहां आने के लिए पैसा नहीं है। क्योंकि हम ब्रह्माण्डीय जीवन की बातें करते हैं तो हमें अन्य सहजयोगियों से मिल बांट कर लेना है। इतनी सी बात यदि आप समझ जायेगें तो धन के लिए आपका मोह समाप्त हो जायेगा आपको परस्पर मिल बांट कर लेना है। परन्तु आप तो ऐसा करना ही नहीं चाहते। आपके पास करोड़ों रुपये हों फिर भी आप किसी के साथ कुछ बांटना नहीं चाहते। सहजयोग में बहुत से लोग समृद्ध हो गए हैं पर वे भी किसी को कुछ देना नहीं चाहते। मैं यह नहीं कह रही कि हम यहां घन के लिए हैं। परन्तु मूल-भूत बात है जायेंगें। यह कि आपका दृष्टिकोण परस्पर बांट कर लेना होना चाहिए। सहजयोग ने हमें इतना कुछ दिया है, इसने इसके लिए क्या किया? हम किसके साथ बांट रहे हैं? परन्तु यहां तो कुछ लोग ऐसे हैं जो लालची हैं और अपना उल्लू सीधा करने के लिए लोग अन्य लोगों का उपयोग करते हैं। ये सारी तुच्छ और मूर्खता पूर्ण चीजें सहजयोगियों के लिए नहीं है, आपको इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। जिस चीज़ की आपको अवश्यकता हो आप मांगे, वह आपको मिल जायेगी। तो कुछ लोग अन्य लोगों का लाभ उठाने का प्रयत्न कर रहे हैं और कुछ स्वयं को बचाने का मस्तिष्क खुला होना चाहिए आपका तो सहस्रार खुला है। आप जानते हैं कि सहस्रार के साथ हृदय चक्र है जो कि सहस्रार के खुलने के साथ ही खुलता है। अपने हृदयों को खोलें तभी आप अपना आनन्द ले सकते हैं। मान लों में कोई चीज अपनी आंखो से देखना चाहती हूं परन्तु मेरी आंखें बन्द है, क्या में वह चीज देख कर उसका आनन्द ले सकती हूं? किसी चीज़ को यदि आप अपने हृदय से अनुभव करना चाहते हैं पर आपका हृदय बन्द है तो आप किस प्रकार इसका अनुभव कर सकते हैं? अत: अपने हृदय को खोलें तब आप समझ पायेंगे कि चीजें इतनी कठिन नहीं हैं। हम सब के लिए यह कार्य अत्यन्त सुगम है परन्तु इसके लिए हमें अपना हृदय खोलकर परस्पर सम्मान करना होगा। सहजयोगियों को परस्पर सम्मान करना चाहिए। कोई काला है, कोई गोरा है, कोई लम्बा है, कोई ठिगना है आदि-आदि। परमात्मा नें वैचित्र्य की सृष्टि की है अन्यथा हम सब एक से लगते । हमे वैचित्र्य का आनन्द लेना चाहिए क्योंकि वैचित्र्य ही सृष्टि के सौन्दर्य को दर्शाता है। ये सारी बाह्य वस्तुएं किसी भी प्रकार आपको प्रभावित न करें। लोग स्वच्छ हों, चुस्त हों परन्तु यह इच्छा करना अनुचित है कि सभी लोग आप जैसे हों। भारत में यदि आप अशुद्ध अग्रेजी बोलेगें तो उसकी अछूत की तरह निन्दा की जाएगी। इतनी दासत्व की भावना है कि चाहे आप मातृभाषा को जानते हो या नहीं हिन्दी जानते हो या नहीं पर आपको अंग्रेजी आनी चाहिए। यह तीन सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन के प्रति दासत्व की भावना है। उन्होंने अपना भी कोई भला नहीं किया करने 5. 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-7.txt के हर क्षेत्र में अन्तर्जात अभिव्यक्ति हो सकती है। "मुझे यह नहीं पसन्द है, में यह नहीं खाता, इस प्रकार का व्यक्ति कभी सहजयोगी नहीं हो सकता।"मुझे पसन्द हैं" कहने वाला व्यक्ति। मेरा गला खराब था कोई व्यक्ति कुछ फल लाया, उसे प्रसन्न करने के लिए मैंने फल खाया। कोई बात नहीं। आप लोगों को प्रसन्न करने के लिए मैं इतनी भारी साड़िया पहनती हैँ। अन्य लोगों को प्रसन्न करने के लिए हम क्या कर रहे हैं? अपनी प्रसन्नता के विषय में सोचने की अपेक्षा हमें अन्य सहजयोगियों को प्रसन्न करना चाहिए। "मुझे यह पसन्द नहीं है, मुझे वह पसन्द नहीं है की अपेक्षा यह देखना चाहिए कि अन्य लोगों को प्रसन्न करने के लिए मैंने क्या किया? परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए हमारा चरित्र, हमारा आचरण पूर्णतया पवित्र होना चाहिए। मैं ऐसे सहजयोगियों को जानती हूं जिन्होंने चमत्कार कर दिए हैं, वे बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं परन्तु वे इससे भी कहीं अधिक कार्य कर सकते हैं। ईसा के जन्मदिवस पर मुझे यह बताना है कि उनके जीवन का अनुसरण करना अत्यन्त कठिन है। परन्तु उनसे हमें यह सीखना है कि वे हमारे सम्मुख हैं और उनकी सहजता, उनकी ईमानदारी और उनके बलिदानों को जहां तक हम अपना सकें अपनाते हुए हमें उनकी ओर आगे बढ़ना है। परमात्मा आपको आश्शिवादित करें। लोगों के घर क्यों जन्मे? क्योंकि वे उन्हें आर्शीवादित करना चाहते थे और आध्यात्मिकता द्वारा उनकी सहायता करना चाहते थे। परन्तु हम इस बात की चिन्ता नहीं करते कि कहां पर लोग निर्धन हैं और किस प्रकार उनकी सहायता की जा सकती है। आप सभी स्थानों पर उनकी सहायता कर सकते हैं। यह जान लेना अत्यन्त साधारण बात है कि आपके देश में कहां समस्या है, क्यों लोग निर्धन हैं और किस प्रकार उनकी सहायता की जा सकती है। यह कार्य हमें करना होगा। आपका प्रकाश यदि समाज को ज्योति प्रदान नहीं करता तो हम कुछ नहीं कर रहे। हम केवल अपने सहजयोग का, गणपति पुले का आनन्द ले रहे हैं, मात्र इतना ही। परन्तु अन्य लोगों का क्या होगा? कला, सगीत सभी सृजानात्मक वस्तुओं के प्रति संवदेनशीलता और इसके माध्यम से अन्य लोगों के लिए हम क्या कर सकते हैं? व्यर्थ की बातो की अपेक्षा इन चीजों पर हमारा चित्त अधिक होना चाहिए। आपको राजनीति की अधिक चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अनावृत होकर यह समाप्त हो जाएगी। राजनीतिज्ञों को परस्पर लड़ने दें, जो उनका जी चाहे करने दें, यह सब मूर्ख लोग हैं। आपका चित्त इस बात पर होना चाहिए कि सृजनात्मक बनकर किस प्रकार आप लोगों की सहायता कर सकते हैं। प्रेम, सहृदयता, अनुकम्पा भी एक चीज है। केवल प्रेम और स्नेह के कारण, जो कि सच्चा होना चाहिए, सहजयोगी की जीवन परमपूज्य श्री माता जी श्री निर्मला देवी जी का संक्राति संदेश (सारांश) प्रतिष्ठान, पुणे (14 जनवरी 1995) परस्पर प्रेम करेंगे। सहजयोग का सन्देश फैलाने के लिए अपना समय लगाएं। हमने एक नये धर्म पर चलना है जो कि सब धर्मों से ऊपर है। आपकी योग्यता के कारण आपको आत्म- साक्षात्कार मिला, आप अपनी आध्यात्मिकता का सम्मान करें। "एक व्यक्ति का परिवर्तन काफी नहीं है, हमें पूरा विश्व परिवर्तित करना है। हर एक सहजयोगी को चाहिए कि सहजयोग को फैलाने के लिए समय निकाले। इस वर्ष हमने पांच पूजाएँ की। परन्तु सहजयोगी चैतन्य लहरियों को सोखते नहीं और इससे मुझे कष्ट होता है। पूजा के लिए आपने स्वंय को तैयार करना है। जब आप पूजा पर आते हैं तो आपका मस्तिष्क सुस्थिर होना चाहिए जिससे कि आप गहनता में उतर सकें। निविचारिता में यदि आप ध्यान करेंगे तभी आप पूर्णतया निर्विचार हो पायेंगें। जब आप मध्य में होगे तभी आपकी गहनता मेरी सहायता कर सकेगी। संक्राति पर सूर्य बायें से दायें को चलता है। हमारी सूर्य रेखा भी विकसित होती है और हम अंहकार ग्रस्त हो जाते हैं। उत्थान के लिए आपको दायें या बायें न हो कर मध्य में होना होगा। हमें मधुर-मधुर बातें करनी चाहिएं और यह कार्य हृदय से होना चाहिए। केवल जुबानी जमा खर्च नहीं। आप यदि कोई गलती कर रहे हैं तो उसे सुधार लीजिए। आत्म निरीक्षण करके अपनी गलती को देखें और उसे सुधार लें। मकर संक्राति के दिन सन्तुलन के प्रतीक को महत्व देने के लिए तिल और चीनी की मिठाइयाँ बांटी जाती है- चीनी की मिठास में मिश्रित जिगर की गर्मी। परन्तु लोग इस प्रकार से तैयार हो कर पूजा में नहीं आते। संक्रान्ति पूरे वातावरण को परिवर्तित करने वाली गति की ओर संकेत करता है। यह गति वर्ष 1995 में आपको आनन्द एवं सन्तुलन प्रदान करे, यही मेरी मंगल कामना है। हमारा घर्म प्रेम है, परस्पर प्रेम करें। प्रभुत्व जमाने की कोई आवश्यकता नहीं। रथ के दोनों पहिए यदि बराबर हों तभी रथ आगे बढ पाता है। पति-पत्नी को चाहिए कि एक-दूसरे की उपेक्षा न करें । यदि परिवार प्रसन्न और प्रेममय है तो उसमें उत्पन्न हुए बच्चे भी परमात्मा आपको घन्य करें। चैतना लहरी 6. 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-8.txt श्री राज लक्ष्मी पूजा ा परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) दिल्ली, 4 दिसम्बर 1994 आज हम श्री राज लक्ष्मी. की पूजा करेगें। ये देवी राजाओं पर शासन करती हैं। अत: यह समझना महत्पूर्ण हो गया है कि हमारी राजनीतिक शैली में क्या कमी आ गई है और लोगों में न्याय-विवेक, निष्कपटता और जनहित की भावना क्यों समाप्त हममें राजे और रानियों को ये लगा कि वे अत्यन्त परिष्कृत हैं, अत: उनकी संस्कृति को अपनाने के लिए धूम्र व मद्यपान करना शुरू कर दिया। कहते हैं कि इंग्लैंड से आये हुए उनकी शिक्षिकाओं ने उन्हें यह बुरी आदते सिखाई। पुरुष भी सोचने लगे कि हम अत्यन्त पिछड़े हुए हैं। अंग्रेजों ने उनके मस्तिष्क में भर दिया कि वे अत्यन्त पिछड़े हुए लोग हैं जो धूम्रपान, मद्यपान और बॉलरूम नृत्य करना नहीं जानते। यहां तक कि हमारी सेना भी इससे भ्रष्ट हो गई। सेना में तो आज भी अंग्रेजी शैली चल रही है। हमारे अपने देश के विपय में कोई ज्ञान नहीं, पर वे इंग्लैण्ड के बारे में जानते हैं। पूरी शिक्षा प्रणाली अंग्रेजों के माध्यम से आई और इसने भारतीय जीवन की अपेक्षा इंग्लैंड और पश्चिमी सभ्यता पर बल दिया। भारतीय वस्तुओं की किसी को चिन्ता न थीं। औषधियों में भी ऐसा ही हुआ देशी वैद्यों की बात कोई सुनना न चाहता था। लोगो ने सोचा कि वैद्य बेकार, असभ्य एवं पिछड़े हुए हैं। एक देश जिसकी राजनीति पर आध्यात्मिकता का शासन था उसका भी पतन हो हो गई है, हमारी किस कमी के कारण यह गुण लुप्त हो रहे हैं? भारत, जापान या अन्य प्रजातंत्रो ही नहीं सभी स्वतन्त्र हुए देशों ने अमेरिका, रूस, चीन, इग्लैण्ड आदि शक्तिशाली कहलाने वाले देशो की नकल करनी शुरू कर दी, बिना ये जाने कि वे लोग अपने लक्ष्य में कहां तक सफल हुए है। इग्लैण्ड जैसे देश के राज तन्त्र की कार्य-शैली को देखें तो यह दिल दहलाने वाली है। क्रॉमवैल जैसे अपने मन्त्रियों के प्रति उनका व्यवहार ऐसा है मानो आदिवासी लोग किसी चीज को चलाने का प्रयत्न कर रहे हों। सम्राट और साम्राज्ञी अत्यन्त अत्याचारी, चरित्र हीन और गैर जिम्मेदार थे। राज लक्ष्मी हितैशी तत्व के प्रति जरा भी समर्पण न था। हर देश में अत्यन्त भिन्न स्तर के लोग जनता के कल्याण को देखने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। समुराई का इतिहास भी जब आप पड़ते हैं तो आपको आघात लगता है। उन्होंने साचा कि हमारा कभी अन्त ही न होगा। उनका व्यवहार ऐसा था मानो जनता से उनका सम्वन्ध ही न रहा हो । साम्यवादी देशों में यदि आप जाएं तो वहां भी सत्ताधारी निरंकुश शासक बन बैठते हैं दूसरी ओर हमारे सामने श्रीमान हिटलर थे जिन्होंने सोचा कि मेरा कभी अन्त ही नहीं हो सकता। फ्रैंको ने स्पेन पर शासन किया। समझ में नहीं आता कि चरित्र और उच्च गुण विहीन ये लोग अन्य लोगों का हित किस प्रकार देख सकते हैं, असम्भव। हमारे देश में महान राजा हुए क्योंकि हमारी संस्कृति महान है और संत लोग राजाओं को चलाया करते थे शिवाजी गया। स्वतन्त्रता प्राप्त करने से पूर्व भारत में हमें अंग्रेजो से लड़ना पड़ा, लोगो में कितनी देश भक्ति थी। मुझे याद है कि एक बार हम एक हॉकी मैच देखने गए और मेरे पिता की कार पर राष्ट्रीय ध्वज, उस समय केवल कांग्रेस ध्वज, लगा हुआ था सिपाही आये और कहने लगे, दो। हमारा ड्राइवर उतरा और कहा, "मेरा गला काटने के बाद ही तुम इस झंडे को उतार सकते हो।" हम सब बच्चों ने भी उसका साथ दिया, तब घबराकर सिपाही वापिस चले गए। जब हम अंग्रेज़ो से लड़ रहे थे तब लोगों में इतना उत्साह और देशभक्ति थी परन्तु उन्होंने हमे विभाजित कर दिया और हमारे लिए समस्याएं उत्पन्न कर दी और इससे पूर्व कि हमें स्वतंन्त्रता का फल प्राप्त होता हम परस्पर लड़ रहे थे। मैं नहीं जानती इसका दोष किसे दिया जाए। यदि आप लोगो ने इस बंटवारे को, इस विभाजन को स्वीकार न किया होता तो कोई समस्या न होती पर यह स्वीकार कर लिया गया। बंगला देश के लोग अत्यन्त गरीब हैं। यदि वे भारत में आ जाते तो उनकी दशा कहीं अच्छी होती। पाकिस्तान क्या है? एक खाली स्थान जहां कोई औद्योगिक विकास नहीं हुआ, और यही कारण "इस ध्वज को उत्तार के गुरु महान सन्त थे। जनक भी एक गुरु थे, हर सम्राट का एक गुरु था। यहां तक कि श्री राम के भी गुरु थे। पर वे सच्चे गुरु थे जो सन्तों का जीवन यापन करते थे, अन्दर बाहर से सच्चे थे लोग भी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि वाले तथा आध्यात्मिक लोगो का सम्मान करने वाले राजाओं को स्वीकार करते थे। मैं नहीं जानती जब अंग्रेज भारत आये तो भारतीय राजाओं को क्या हो गया। अधिकतर लोगों को अंग्रेजो के रहन सहन की शैली पसन्द न थी। फिर भी बहुत से राज्यों के 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-9.txt अभिप्राय है? कौन है वे?" आदि-आदि। मैंने कहा, "वे क्या करेगे? मेरे यहां से कुछ चुरा लेगे? इस घर में चुराने के लिए है ही क्या? वे शरणार्थी है और मुझे अच्छे लोग प्रतीत होते हैं, उनकी चैतन्य लहरिया भी ठीक है।" "नहीं! नहीं! उन्हें बाहर निकाल दो तो अच्छा है।" मैंने कहा, "इन लोगों की ओर देखो, उन्हें बिना देखे, बिना उनसे बात किये आप कह रहें हैं कि मैं एक दम उन्हें बाहर निकाल दें। मात्र इस कारण से कि वे शरणार्थी हैं!" है कि वे सदा काश्मीर का राग अलापते रहते हैं, इसके सिवाय उनके पास कुछ भी नहीं। उनके अपने देश के लोग परस्पर लड़ रहे हैं। विकास का पूर्ण अभाव है। यहां जब-जब भी कोई संकट आता है तो वह तुरन्त मूल्यों को परिवर्तित कर देता है ऐसा नहीं है कि पश्चिम में कोई मूल्य-प्रणाली न थी, परन्तु युद्ध नें उन्हें पूर्णतया परिवर्तित कर दिया इसी प्रकार भारत में भी जिन लोगो ने स्वतंन्त्रता संग्राम में अपने जीवन बलिदान किये या अच्छाई पर डटे रहे उन्हें आदर्श माना गया। तब लोग विपरीत दिशा (U-Turn) में मुड़ गए, पूर्णतया विपरीत दिशा में और अत्यन्त स्वार्थी बन गए। उन्हें केवल निजी वस्तुओं, अपने परिवारों, धन संग्रह करके उसे भारत से स्विटजरलैंड भेजने की चिन्ता की। अपने जीवन में मुझे उन लोगों के साथ रहने का अवसर मिला है जो स्वतंत्रता के लिए लड़े। इन चीजों के लिए वे कभी सोच भी न सकते थे। मैं अपने पिता, माँ, उनके मित्र और घर में आने जाने वाले बहुत से लोगों को जानती हूँ। बहुत से सिख और मुसलमान। पैसा लेने के विपय में वे सोच भी न सकते थे इसे वास्तव मुझे लगा कि इस देश में एक नई लहर चल पड़ी है जिसमें धन विहान व्यक्ति का सम्मान नहीं होता, न ही उस पर विश्वास किया जाता है। वास्तव में सत्य इसके बिल्कुल विपरीत है। जिन लोगों के पास पैसा है उन पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। घनी लोगों की अपेक्षा धनहीन लोग कहीं अधिक ईमानदार हैं। धनी लोग तो व्यवहारिक रूप से कपटी हैं। दोनों, मेरे पति और भाई, कहने लगे कि यहां बाहर का कोई व्यक्ति नहीं रहेगा। मैने अपना पैर नीचे रखा और कहा, "ये घर मेरे पिता ने मुझे दिया है और वो लोग यहीं ठहरेंगे।" वे बेचारे एक महीने तक वहां ठहरे बहुत ही उलझन में रहे होंगे। उन दिनों एक बहुत बड़ी संस्था शथी। सिख और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के लोग मिले हुए थे। वे मेरे घर पर आये और कहने लगे, "हमने सुना है कि आपके यहां एक मुसलमान ठहरा हुआ है।" हमारे यहां ठहरे हुए व्यक्तियों में से एक मुसलमान था भी। बे उस मुसलमान को मारना चाहते थे। मैने कहा, "आप कैसे सोचते हैं कि यहां कोई मुसलमान ठहरा हुआ है?" "हमारे पास इसकी सूचना है" मैने है हमारे यहां कोई मुसलमान नहीं है।" मैने उनसे झूठ बोला। वे कहने लगे, "हम आप पर कैसे विश्वास कर लें ?" मैने कहा, "देखो मैने विन्दी लगाई हुई है। मैं हिन्दू महिला हूँ। किस प्रकार में एक मुसलमान को अपने घर में रख सकती हूँ? उनसे मुझे डर लगता है; ऐसा कोई व्यक्ति हमारे यहां नहीं है"। यद्यपि मैने उनसे सफेद झूठ बोला था फिर भी उन्होंने मुझ पर विश्वास कर लिया। वे रक्त में सनी बहुत सारी तलवारें लिए हुए थे पर मैं उनसे डरी नहीं और निर्भयता पूर्वक उनसे बातचीत की। मेरे स्थान पर यदि कोई अन्य व्यक्ति होता तो उसने कहा होता, "ठीक है एक मुसलमान है, उसे ले जाएं। बाद में वे तीन लोग हमारे घर से चले गए। उनमें से एक प्रसिद्ध अभिनेत्री है, एक प्रसिद्ध कवि तथा दूसरे अत्यन्त विख्यात लेखक। में अत्यन्त नीचता माना जाता था। पैसा लेने की क्या जरूरत है यदि आप अपनी वाछित स्वतंत्रता, जिसे आपने प्राप्त कर लिया है, उससे सन्तुष्ट हैं। परन्तु जो लोग बिल्कुल सतह पर थे, जिन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया, देश के लिए कुछ बलिदान नहीं किया वे किस प्रकार चोटी तक पहुंच गए और अच्छे लोग नीचे चले गए। यदि आप शिवाजी, राणा प्राताप या किसी अन्य शालीवाहन वंशियों को इतिहास पढ़े तो आप आश्चर्य चकित रह जाएँगे। तो वो किस प्रकार शक्ति की पूजा किया करते थे? सभी क्षत्रीय शक्ति की पूजा किया करते थे। परन्तु वे ऐसा धर्म की सीमाओं के अन्दर रह कर करते थे। सूक्ष्म रूप से, इस विभाजन ने लोगों का दृष्टिकोण बदल दिया है और निम्न स्तर के लोग उभर कर आ गए हैं। कहा, "गलत विभाजन के समय मैं यहां थी, विवाहित थी, तीन व्यतिक्त मेरे पास आए। मैं गर्भावस्था में थी और बाहर उद्यान में बैठ कर अपने बच्चे के लिए कुछ बुन रही थी। वे आए और मुझे देख कर कहा,"क्या हमें आपके घर में एक कमरा मिल सकता है।" मैंने कहा, "क्यों नहीं?" यह मेरे पिता का बहुत बड़ा घर था। वे कहने लगे, "यह कमरा हमें एक या दों महीनो के लिए चाहिए, हम शरणार्थी हैं " मैंने कहा, "ठीक है बाहर एक दरवाजा है, एक रसोई और गुसलखाना भी साथ जुड़ा हुआ है। बिना हमें कष्ट दिये आप उनका उपयोग कीजिये।" मैंने अपनी स्वीकृति दे दी शाम को मेरे बड़े भाई और मेरे पति, जो दोनों मित्र हैं, लगे मुझ पर चिल्लाने। आगन्तुक दूसरे कमरे में थे। "ऐसे लोगों को घर में रखने का तुम्हारा क्या ऐसा हुआ हमें युवाओं के लिए एक फिल्म बनानी थी और इस समिति की मैं उपाध्यक्ष थी। वे लोग उस अभिनेत्री को बुलाना चाहते थे। मैंने उनसे कहा, "उसे मेरा नाम नहीं बताना क्योंकि मैं उसे पूरी तरह खो चुकी थी। वैसे भी यदि चैतन्य लहरी CO 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-10.txt उन्हें छेड़ने लगे, "आप इश्तहार छपवा दें कि जो भी व्यक्ति ग्रामोफोन ले गया है वह आ कर रिकार्ड भी ले जाए। उसके लिए रिकार्ड भी उपलब्ध हैं।" उनके लिए यह बात इतनी स्वभाविक थी। उन्हें लगता था कि हमारे पास तो पैसा परन्तु उस बिचारे के पास पैसा नहीं है और वह संगीत सुनना चाहता है। मेरे पिता जी ने कहा, "ठीक है।" वैसे मेरे पिता जी दण्ड न्याय वकील थे। वे राजनीतिज्ञ भी थे। उस समय के राजनितिज्ञों के मन में भावना थी कि किस प्रकार उन लोगों के जीवन स्तर को उठाया जाए जिनका स्तर हमारे से नीचा है। सभी लोगों ने दिल खोलकर दान दिये। लक्ष्मी नारायण नामक एक व्यक्ति ने तो अपना सर्वस्व एक बड़े विश्वविद्यालय को दान कर दिया। उन दिनों हुए अधिकतर कार्य दान के धन से हुए । उन्होंने कभी नहीं सोचा कि हमारे बच्चों के पास करोड़ों रुपये होने चाहिए। जितना भी सीमित धन उनके पास था इसे धर्मार्थ दे कर वे दूसरे लोगों का भला करना चाहते थे। यह राज लक्ष्मी तत्व हैं। जो परहित के लिए जिम्मेदार है। ऐसे व्यक्ति को स्वंय को बताना ही पड़ सकता है, उन्हें लगता है यह उनका कार्य है। लोगों की देखभाल करके उन्हें जीवन के अच्छे स्तर पर लाना होता है। यही बात ऐसे लोग सोचते हैं। पार्टी राजनीति की तरह से वह नहीं सोचते कि कौन उन्नति कर रहा है और किसकी हत्या करनी है। देवी लक्ष्मी, जो कि राजनीति और राज्यों को चलाती हैं, के प्रभाव से विकसित होने वाला पहला गुण उदारता है। उदाहरणार्थ महावीर जी ध्यान मग्न थे। उनके शरीर पर केवल एक वस्त्र था [श्री कृष्ण ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने कहा, " देखिये मेरे पास कपड़े नहीं है- मैं नंगा हूँ। वे भिखिरी के रूप में उनके सामने आये, "ये कपड़ा आप मुझे क्यों नहीं दे देते? अपने महल जा कर आप वस्त्र धारण कर लीजिए महाबीर जी ने कहा, "ठीक है" उन्होंने अपना वस्त्र उतार कर भिक्षुक रूप में आये श्री कृष्ण को दे दिया। और झाड़ियों से कुछ पत्ते तोड़े, स्वंय को ढांपा और महल चले गए। परन्तु ये जैनी लोग उनके बड़े-बड़े नंगे पुतले बनाकर गुप्तांगो की बारीकियों का प्रर्दशन करते हैं और उन्हें अपमानित करते हैं। जहां देवी की पूजा नहीं होती वहीं ऐसा होता है। देवी श्री शोभा हैं। वही व्यक्ति को सुसज्जित करती है। वे मां हैं और आपको गहनों और सुन्दर-सुन्दर कपड़ों से सजाती हैं। राजा जनक राजा थे, अत: उन्हें गहने और सुन्दर वस्त्र आदि धारण करने पड़ते थे जब नचिकेता उनके पास गए तो बहुत हैरान हुए कि सभी प्रकार के वस्त्राभूषण धारण करने वाले इस राजा के पास मेरे ने मुझे क्यों भेज दिया है। राजा ने नृत्य का एक बहुत वह मेरा नाम जान जाएगी तो विवश होकर उसे हां कहनी पड़ेगी। जब वे उसके पास गए तो वह कहने लगी "मुझे एक साड़ी, चप्पल उनसे मेल खाता हुआ पर्स तथा इतना पैसा मिलना चाहिए। आपको ये सब मुझे देना होगा।" उन्होंने कहा, "हमारी फिल्म धार्मिक है।" लेकिन उसने एक नहीं सुनी। मैने कहा, "ठीक है जो भी वह मांगती है उसे दे दो।" जब मैं महूर्त के लिए गई उसने मुझे देखा और स्वयं को वश में न रख सकी। उसकी आँखो से अश्रु धारा फूट पड़ी। दौड़ कर वह मेरे चरणों में गिर गई। कहने लगी, "इतने समय के बाद आप यहां कैसे?" उसे बताया गया, "ये ही इस फिल्म को बना रहीं हैं।" वह कहने लगी, "क्या? ये इस फिल्म को बना रही हैं? तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? हे परमात्मा! अपने आंसुओ को वह रोक न सकी, वह रोये जा रही थी। मैंने कहा, "अ ले लीजिए, सारी फिल्म बनाने का खर्चा मैं उठाऊंगी। आप नहीं जानते इस महिला ने मेरे लिए क्या किया है ! जो इन्होंने किया है वो कोई और नहीं कर सकता।" इतना परिवर्तन आया कि तुरन्त उसने अपने पति को फोन किया और वे सब दौड़े हुए आ गए। उस समय, नि:सन्देह, मेरे पति और भाई किसी पर विश्वास करना न जानते थे। परन्तु मैने पूर्ण विश्वास किया। वे कहते रहते, "ये लोग तुम्हारा गला काट देगें आदि-आदि।' क्यों? क्यों ये मेरा गला काटेंगे? किसलिए? हर तरह की ऊल-जलूल बातें वे सोच रहे थे और सबसे बुरी बात जो मुझे लगी कि उनके पास पैसा न होने के कारण वे डर रहे थें। है अब ठीक है।" उसने कहा, "आप मेरे से पैसा परन्तु मेरे विचार में यह अन्त की शुरुआत है। हमारे देश में पैसे के लिए ये संघर्ष उसके बाद शुरू हुआ। बहुत से लोग दुख उठाने लगे। उन्होंने बुरा भी नहीं माना क्योंकि उन्हें इसकी आदत हो गई थी। जो भी कुछ पैसा उनके पास होता वे इसे खर्च कर लेते और सो रहते। उस समय मुझे महसूस हुआ कि पद, शक्ति सम्पन्न लोग अन्य सभी लोगों से डरते हैं। हमारे पतन का यह आरम्भ है। हम घवरा गए। सत्तारूढ़ लोग डर गए कि कहीं मेरा पद, धन या सत्ता छिन न जाए और इस डर ने उन्हें पूर्णतया पागल होने दिया। मान लो मेरे पास पैसा न रहे, तो क्या हुआ? विभाजन के बाद ये सब विचार लोगों में आने लगे। मेरे बचपन में मेरे पिता जी घर को ताला नहीं लगाया करते थे। हमारा घर बहुत बड़ा था पर उन्होंने इसमें कभी ताला नहीं लगाया। हमारा एक बहुत सुन्दुर ग्रामोफोन था। एक दिन कोई चोर उसे चुरा कर ले गया। अगले दिन जब हमें पता लगा तो मेरे पिता जी कहने लगे, बेचारा उसे संगीत का शौक था। वह ग्रामोफोन ले गया है, कोई बात नहीं! लेकिन वह रिकार्ड नहीं ले गया उसे क्या लाभ होगा? उसे रिकार्ड भी ले जाने चाहिए। मेरे माता जी गुरु बड़ा उत्सव करवाया। नचिकेता ने सोचा, "ये सन्त नहीं हैं. क्यों मेरे गुरु ने इनके पैर छुए हैं? ये तो राजा हैं! नि:सन्देह 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-11.txt कोई आशा नहीं होती। वे साम्राज्ञी हैं और साम्रज्ञी को आप दे क्या सकते हैं? क्योंकि वे तो सर्वोच्च हैं उन्हें आप क्या दे सकते हैं। ये सभी राजनीतिज्ञ और इन देशों के कथित राष्ट्रपति तो भिखारी हैं। सदा मांगते रहते हैं, मानो चारों तरफ लालची लोग घूम रहे हों। ये लोग किसी का हित नहीं कर सकते अत: ऐसे व्यक्ति की पहली निशानी यह होती है कि उसका व्यक्तित्व दूसरों पर कृपा और उनका हित करने वाला होता है। जो भी कोई उसके समीप आता है वह उसकी देखभाल करता है। यह देवी का आशीवाद है। देवी का दूसरा वरदान ये है कि आप में गरिमामय स्वभाव विकसित होता है जो कि विनोदमय भी होता है और अन्य लोगों को समझने वाला भी एक कहानी है कि एक राजा घोड़े पर जा रहा था। उसे एक शराबी मिला। हम कह सकते हैं कि इस शराबी की तुलना हमारे राजनीतिज्ञो से की जा सकती है। शराबी ने राजा को रोका और कहा, "मैं आपका घोड़ा खरीदना चाहता हूँ। लोगों ने उसे कहा, "तुम जानते हो ये कौन है?"' "ये राजा हैं, मै जानता हूँ। मैं इनका घोड़ा खरीदना चाहता हूँ।" राजा ने कहा, तुम्हे बेच देगें।" राजा चले गए, अगले दिन उस शराबी को बुलाया गया। हाथ जोड़ कर सिर झुकाये हुए वह आया। राजा ने कहा, राजा जनक ने उसके विचारों को पढ़ लिया था उन्होंने पूछा, "नचिकेता आप यहां क्यों आये हैं?" नचिकेता ने उत्तर दिया, "मैं यहां आत्म-साक्षात्कार" प्राप्त करने के लिए आया हूँ।" राजा जनक कहने लगे, "आप मेरा पूरा साक्षात्कार देना सुगम कार्य नहीं है।" नचिकेता कहने लगे, "ठीक है आप जो भी कहेगें मैं करूंगा।" तो राजा जनक ने उनके रांज्य ले लो, परन्तु आत्म सिर पर एक बहुत बड़ा सर्प रख दिया और उनसे सोने के लिए कहा। वे बिल्कुल न सो सके। तब उन्होंने उसे अपने साथ नदी में स्नान करने के लिए कहा। जब वे स्तान कर रहे थे तो लोगों ने आ कर उनसे कहा कि आग लग गई है और सभी लोग दौड़ रहे हैं। परन्तु राजा जनक अपने ध्यान संसार में थे। वे शान्ति पूर्वक बैठे हुए थे। नचिकेता घबराये। तब लोगों ने कहा कि आग यहां तब पहुँच गई है और आपके ये सारे कपड़े जल जाएंगे। नचिकेता अपनी चीजज़ों को बचाने को दौड़े, परन्तु राजा जनक ध्यान मग्न रहे। जब वे बाहर आये तो नचिकेता को पता चला कि कुछ भी न जला था। यह लोगों द्वारा रचित एक भ्रम था। वह आश्चर्य चकित रह गए तब उसने जाना कि उसमें क्या कमी है कि वह परमात्मा की शक्ति पर ही सन्देह कर रहा है । जनक, जो कि राजा थे, को अपनी शक्तियों की चिन्ता न थी। वे राजा थे और राजाओं की तरह से वस्त्राभूषण धारण करते थे। मैं विवाहित हूँ मुझे मंगलसूत्र पहनना है। यह परम्परागत हैं। परन्तु अन्दर से जनक बहुत उच्च सन्त थे। व्यक्ति प्राय: सत्ता बाधा ग्रसित हो जाता है। सहजयोग में भी, मैं हैरान होती हूँ, कि ज्यों ही कोई व्यक्ति आज नहीं, कल हम यह घोड़ा आप ही वह व्यक्ति हैं जो मेरा घोड़ा खरीदना चाहते थे। तुम्हे क्या हो गया है? मैं तुम्हें यह घोड़ा बैंचना चाहता हूँ।" उसने कहा, "श्री मन्त जो ये घोड़ा खरीदना चाहता था उसकी मृत्यु हो गई। मैं एक सर्वसाधारण व्यक्ति हूँ। ऐसा दृढ़ व्यक्तित्व! उसके स्थान पर कोई अन्य होता तो वह नाराज हो जाता और कहता, "इस आदमी की पिटाई करो, इसे बाहर फैंक दो। इसका आचरण इतना बुरा है।" राजा ने जो कहा वह प्रशंसनीय था क्योंकि वह जानता था कि वह व्यक्ति नशे ार लीडर बनता है तो उसे न जाने क्या हो जाता है। यह सब छलावा है। सहजयोग में लीडर जैसी कोई चीज नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं। यह मात्र एक मिथक है। परन्तु अचानक लोग उछलने लगते हैं। उनके अहम् को बढ़ावा मिल जाता है। परन्तु यदि आप राजलक्ष्मी की पूजा करें तो इस अहम् सुगमता पूर्वक वश में किया जा सकता है। राज लक्ष्मी सन्तुलन दायी है। वे हाथी की सवारी करती हैं। हाथी की सवारी करना किसी महिला के लिए सुगम कार्य नहीं है मैने भी हाथी की सवारी की है। निर्भयता पूर्वक हाथी की सवारी करना कठिन है। राज लक्ष्मी पूर्ण सन्तुलित दृष्टिकोण से सीधी बैठती हैं। उनके आर्शीवाद जबरदस्त हैं। उनका पहला आर्शीवाद गरिमा को आत्मसात करना है एक सम्राट और साम्राज्ञी की गरिमा आप साम्रज्ञी हैं, आप सर्वसाधारण महिलाओं की तरह से व्यवहार नहीं कर सकतीं। उनके आर्शीवाद से स्वप्रथम आप वह गरिमा प्राप्त करते हैं जो प्रेम से परिपूर्ण होती है, दूसरों के लिए प्रेम। ऐसा व्यक्ति अन्य लोगों का हित और उनके प्रति प्रेम की बात करता है। जिधर भी राजलक्ष्मी रहती हैं वे लोगों का हित करती हैं । उन्हें को में है। राजा को ज्ञात था कि वह होश में न होने के कारण इस प्रकार बात कर रहा है वह उस पर नाराज नहीं हुआ। उसने कहा, "कल आ जाओ मैं घोड़ा तुम्हें बेच दूंगा।" यह तभी सम्भव है जब राज लक्ष्मी आपमें हो, इसके विना आप इस तरह बर्ताव नहीं कर सकते। पर आज के राजनीतिज्ञों की क्या दशा है? बह लोगों की हत्या कर देते हैं, उन्हें जेल भिजवा देते हैं। सभी प्रकार के दुष्कर्म वे करते हैं। ऐसे लोगों को कोई अधिकार नहीं कि वे किसी अन्य को अपराधी कहें, पर हम सभी कुछ स्वीकार कर लेते हैं। हम कहते हैं "आज कल समय ही ऐसा है।" इस प्रकार के सभी लोगों को हम अपना शासक स्वीकार कर लेते हैं। राज लक्ष्मी धर्म पर खड़ी हैं। किसी अधर्मी को वे आशीप नहीं देतीं। अर्धम को दूर करना ही होगा। धार्मिक व्यक्ति की रक्षा करने के लिए सभी कुछ करती हैं। व्यक्ति में दिव्य-विवेक चैतन्य सहरी 10 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-12.txt होना चाहिए कि किस के प्रति सुहृद हो और किसके प्रति कठोर? इस दैवी विवेक के बिना आप लोगों के हाथों की कठपुतली बन के रह जाते हैं। मेरी मां के स्थान, नन्द गांव में एक व्यक्ति ने हमारे योगियों को बहुत प्रभावित किया। मैं चुप रही। वह बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ था। उसने मुझे कहा, कि हम इस प्रकार करेंगें। मैंने कहा, "ठीक है।" तब विश्वविद्यालय से तीन चार प्रोफैसर मुझे यह बताने के लिए आये कि "श्री माता जी यह तो राजनीतिज्ञ है, बहुत सावधान रहें। यह बहुत बुरा व्यक्ति है इससे सावधान रहें। मैने कहा, "तुम इसके विषय में क्या जानते हो?" वे कहने लगे, "कि ये एक राजनीतिज्ञ है" मैने कहा, "राजनीतिज्ञ तो बहुत हैं। "परन्तु यह अच्छा आदमी नहीं है।" मैने कहा, "अब बैठ जाओ मैं तुम्हें बताती हूँ, यह व्यक्ति एक ब्राह्मण की पत्नी को भगा कर ले आया है। यह स्वंय ब्राह्मण नहीं है और यह बच्चा उस पत्नी से है। इसने लोगों को कितना घोखा दिया है वह सब मैं जानती हूँ।" वे आश्चर्य चकित रह गये। मां आप सब जानती हैं? नि:सन्देह मैं उसे जानती हूँ" मैंने कहा। "फिर आप इसे इतना समीप क्यों आने देती है?"' कौन कहता है कि "यह मेरे समीप है" मैने कहा, "आप लोगों को बड़ी भारी गलतफहमी हुई अन्तर नहीं पड़ता। अब यह भी देखना है कि किस प्रकार लोग धर्म ग्रन्थां का दुरुपयोग करते हैं । राज लक्ष्मी हाथी की सवारी करती हैं अत: वे कभी बड़ी-बड़ी कार खरीदते हैं। वे हाथी पर इस लिए बैठते है कि हाथी सबसे बड़ा पशु है। यह अत्यन्त करुणामय और क्षमाशील है तथा इसकी स्मरण शक्ति भी अथाह है, इसलिए राज लक्ष्मी हाथी पर बैठती है, दिखावे के लिए नहीं। एक उच्च स्थान पर बैठ कर वे देखती हैं कि चहूँ ओर क्या घटित हो रहा है। यही कारण है कि राजा को उच्च सिंहासन पर बैठाया जाता है। यह दिखावे के लिए नहीं किया जाता। इसलिए किया जाता है कि ऊंचाई से व्यक्ति चारो तरफ देख सकता है। दूसरों से हम सावधान हो सकते हैं। यदि कोई उच्च पद प्राप्त कर ले तो वे सोचते हैं कि वे उस पद के स्वामी हैं। मस्तिष्क के उलट जाने के कारण ऐसा हुआ है। ऐसा होना किस प्रकार संभव है? आप यदि यह सिंहासन दे रहें है, मैं इस पर बैठती हूँ, परन्तु यह सिहांसन मुझे कुछ नहीं दे सकता। में इस सिहांसन को कुछ दे सकती हूँ। राजा को सोचना है कि सिंहासन पर बैठकर वह लोगों पर उपकार कर रहा है। वह राजा है इसलिए अन्य लोगो से ऊँचा बैठा है। इसके विपरीत वह सोचता है कि ये सारी चीजे महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसमें है। परन्तु अच्छा हुआ ये मेरे पास आ गया है क्योंकि अब तक ये लोगो को बहुत परेशान करता रहा है, मैं इसे सुधार दूगीं। कुछ लोग मेरे पास ये बताने आते कि उस व्यक्ति के पास बहुत सी उपलब्धियां है और कुछ सावधान रहने की सलाह देते। तो इस प्रकार के दैवी विवेक का होना आवश्यक है। यदि किसी राजा में यह दैवी विवेक न हो तो वह अच्छे लोगों को सजा देता है और बुरे लोगों का हित कर सकता है। स्वार्थी होते ही यह दैवी विवेक लुप्त हो जाता है। सत्ता से पूर्ण निलिप्सा का होना मुख्य बात है। राजलक्ष्मी किसी चीज की चिन्ता नहीं करती। अब कुछ लोग दूसरे को व्यर्थ में खूब देते रहते है और वे अपने आप को बहुत ऊँचा समझने लगते हैं। लोग राजनीतिज्ञों के अहम् को हवा देते हैं और राजनीतिज्ञ स्वयं को बहुत बड़ा मान बैठते हैं। पर चुनावों के बाद उसकी समझ में नहीं आता कि किस प्रकार वह धराशायी हो गया। अपने आत्म गौरव और आत्मज्ञान से आप स्वंय को समझ सकते हैं। आप जो भी मुझे बताये या कहें मैं वह सब नहीं करूंगी। यह दीपक है । मै यदि आदि शक्ति हूं तो हूँ। आप यदि सम्राट हैं तो हैं। आप यदि धोखेबाज हैं तो आप अहम्ग्रस्त हो सकते हैं परन्तु यदि आप वास्तव में राजा हैं तो इसका कोई कमी है। इसी कारण जब उन्हें राज मिलता है तो वे बेकार की वस्तुएं धारण करने लगते हैं। अपने घरों को व्यर्थ की चीज़ों से भर लेते हैं। उनकी गरिमा भी उन पर सजा मात्र बन जाती हैं। ये दिखाने के लिए वे राजा है उन्हें नाम दिया जाता है, बहुत बड़ा हार दिया जाता है और भी कई चीज़े व पहनते हैं। मात्र इसलिए कि वे राजा है। वास्तविक राजा को यह चीज़े सुस्ज्जित नहीं करती, ये उससे सुस्ज्जित होती हैं। उदाहरणार्थ अब गली के किसी ऐरा-गेरा, आधे भूखे भिखारी को लें और उसे ये भूषण और वस्त्र पहना दें और उसे सिंहासन पर बिठा दे तो लोग उस पर हँसेगें कोई उसे किसी भी प्रकार राजा न मानेगा क्योंकि उसमें वांछित गरिमा, मुखाकृति, शरीर, मस्तिष्क और बुद्धि नहीं है। किस प्रकार वह राजा हो सकता है? एक राजा था जिसने अपने जुते मोतियों के बनाने का प्रयत्न किया। वह अत्यन्त मूर्ख था। मैंने जब उन जूतों को देखा तो सोचा कि कोई मूर्ख ही इस प्रकार की बात सोच सकता है; आजकल मूर्ख लोग इस प्रकार के प। बहुत से कार्य करते हैं। मुझ पर इसका कोई अन्तर नहीं पड़ता। उनके लिए यह वस्तुएं इतनी महत्वपूर्ण हैं कि वह इन्हें खरीद कर भी वे धारण करना चाहते हैं। में एक व्यक्ति को जानती हूँ जो हमारे एक कार्यक्रम में फूलों की माला लेकर आया। मैंने उससे पूछा कि तुम यह माला क्यों उठाए हुए हो? "देखिये मुझे माला पहनाई गई थी इसलिए मैने इसे संभाल कर रखा प्रभाव आप पर न होगा। देवी से यदि आप प्रभावित हैं तो आपको केवल उसी में आनन्द प्राप्त होता है, शेष सब व्यर्थ है। आपके पास हीरे और सोना चांदी है, या नहीं इससे कोई 11 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-13.txt 165 पलियाँ थी क्योंकि वे समझते थे कि 165 पत्नियों के बिना लोग उन्हें नवाब नहीं समझेंगे। यह एक और हीन भावना है कि आपके इर्द-गिर्द बहुत सारी सत्रियाँ होनी चाहिए ताकि लोग कहे, "यह व्यक्ति कितना शक्तिशाली है।" वे दिन अब समाप्त हो चुके हैं। सत्ययुग आरंभ हो गया है । मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि इस युग में जिस व्यक्ति को राजलक्ष्मी का आशीरवाद प्राप्त नहीं है वह जेल में जाएगा, अपना पद् खो देगा और धूल में मिल जाएगा। जितनी मर्जी ये लोग चालाकियां करते रहें उनका पर्दाफाश हो जाएगा और बनावटी शासक होने के परिणाम उन्हें भुगतने होंगें। निष्कपटता ही इस बात का प्रमाण है कि देवी राजलक्ष्मी का निवास इस व्यक्ति में है। मुझे पृर्ण विश्वास है कि सत्य युग में यह घटित होगा। सहजयोग में भी कई बार मैं लोगों को राजनीति करते हुए पाती हूँ। मैं हैरान थी। राजनीति का अर्थ लोग समझते हैं समूह बनना और इधर की बाते उधर और उधर की बातें इधर करना। इससे पता चलता है कि आपमें सामूहिकता की कमी है। सहजयोगी व्यक्ति लोगों को परस्पर जोड़ने का प्रयत्न करेगा क्योंकि सामूहिकता में ही शक्ति निहित है। किसी भी चीज के लिए सामूहिकता को तोड़ना उस व्यक्ति के लिए और अन्य लोगों के लिए भयानक है। हुआ है।" हम भारतीय लोग इस प्रकार पहनाई हुई माला को लादे नहीं रखते, तुरन्त उतार देते हैं। माला केवल देवताओं पर चढ़ी रहती है। एक अन्य स्त्री मुझे मिलने आई और कहने लगी "मैं इन भारतीय लोगो को नहीं समझ पाती, मैने एक माला खरीद कर अपने गले में डाल ली और गली के सभी लोग मुझ पर हँस रहे थे।" पर आप भारतीय लोग इस बात की सूक्ष्मता को समझते हैं। आप देवता नहीं है जो गले में माला डालकर घूमें। आपको ऐसा व्यक्ति बनना है, जो अन्तःजात सम्राट है और जिसे राजलक्ष्मी का आर्शीवाद प्राप्त है। राजलक्ष्मी ऐसे व्यक्ति के साथ क्या करती है? वह देखती है कि ऐसे व्यक्ति का नाम प्रजा के हृदय पर खुदा हुआ है, वह अपने हाथ से इसे लिखती है। लोग उस पर श्रद्धा करते हैं, उसे प्रेम करते हैं और उसके गुणों को अपने अन्दर आत्मसात करने का प्रयत्न करते है। राजलक्ष्मी का एक अन्य वरदान यह है कि वो एक विशेष प्रकार का शरीर प्रदान करती है जो वाछित रूप से कार्य करता है और चैतन्य लहरियां छोड़ता है। ये लोग चाहे स्वार्थी न हो अपना बहुत अधिक विज्ञापन न करें अपने बारे में बहुत अधिक, बाते न करें, फिर भी जहाँ भी वे हैं, महत्वपूर्ण हैं। हमारे समय में ऐसे बहुत लोग हुए, चाहे लोग उन्हें स्वीकार न करे, चाहे अब उन्हें कोई महत्व नहीं देता, क्योंकि आजकल कुछ नए मूर्ख बहुत अधिक उछल कूद करते दिखाई पड़ते हैं, परन्तु जिन के नाम लोगों के हृदय पर खुदे हुए हैं वही लोग वास्तव में राजलक्ष्मी द्वारा आर्शीरवादित है। राजनितिज्ञ को समझना है कि धन इकट्ठा करना उसका लक्ष्य नहीं है। उसे स्वंय का प्रदर्शन भी नहीं करना और न ही उसे देश का धन लूटना है और न ही उन लोगों पर चिल्लाना है जो किसी भी प्रकार से कष्ट दे रहे हैं। तो उसे करना क्या है? उसे समझना है कि अच्छा नाम कमाने के लिए और अपनी मृत्यु के बाद अपना यश छोड़ने के लिए वो यहां है। उसे घ्यान रखना चाहिए कि उसके यश पर कोई आँच न आए। उदाहरणार्थ श्री राम हितैपी राजा थे परन्तु किसी ने उन्हें चुनौती दी कि उनकी पत्नी रावण के साथ रही है, वह किस प्रकार पवित्र हो सकती है। राम जानते थे कि सीता पवित्र अब आप परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर गये हैं। सर्वशक्तिमान परमात्मा के दरबार में आप बैठे हुए है। दरबारियों की तरह अच्छी तरह से वस्त्र धारण करके यथोचित रूप में अपने-अपने स्थान ग्रहण करने है हमें सुव्यवस्थित एवं निष्कपट होना हैं क्योंकि हम सहजयोगी हैं। आप साधारण लोग नहीं है, विशेष हैं। विश्व के कितने लोग सहजयोगी हो सकते हैं? आप विशेष लोग हैं। स्वंय को राजलक्ष्मी के इतने सुन्दर यंत्र बनायें कि जब लोग आपको देखें तो आपको ही वोट दें और कल आप ही लोग विश्व के शासक हों। मैं नहीं कहती कि आप राजनीति छोड़े या राजनीति में प्रवेश करे, परन्तु पहले आपको राजलक्ष्मी का वरदान प्राप्त करना होगा और तब आप जाने कि हमारे देश में क्या कमी हैं? हमें क्या करना है हमारा लक्ष्य क्या है, किस लिए हमने राजनितिज्ञ बनना है? हमारे पास योजना होनी चाहिए। आपका चित्त आपसे बाहर कहां है। उस दिन मुझे एक पत्र मिला उसमें लिखा था मेरे पिताजी बीमार है मेरी माताजी बीमार है! ऐसे लोग अधिक कार्य नहीं कर सकते हैं। जब भारत को स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ हुआ तो हम सब युवाओं नें अपनी पढ़ाई लिखाई एवं मित्र सब त्याग दिए। अब आपको समझना है कि वास्तव में यदि आप राजनीति अपनाना चाहते हैं तो आपको राजलक्ष्मी का आर्शीवाद प्राप्त करना होगा और इसके लिए आपको उसी विवेक के साथ अपनी गरिमां बनानी होगी । है परन्तु राजा के यश को बनाए रखने के लिए उन्होंने सीता को चले जाने को कह दिया। आजकल लोग उल्टे-सीधे धन्धे करके घन इकट्ठा कर लेते हैं। लोग पीठ पीछे उन पर बाते बनाते हैं पर उनके सामने कोई कुछ नहीं कहता। आपको चाहिए कि अपने सच्चरित्र के विषय में चिन्ता करें। आजकल के राजनीतिज्ञ जब तक तीन-चार रखैलें न रखें तो राजनीतिज्ञ नहीं कहलाते। लखनऊ के एक नवाव थे जिनकी बैतन्य तहरी 12 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-14.txt राजलक्ष्मी जब हममें जागृत होती है तो हमारे अन्दर सभी कुछ परिवर्तित हो जाता है । हमारे विचार व्यक्तिगत से सामूहिक हो जाते है। हम स्वंय से उठ कर विश्व के साथ एकाकार हो जाते हैं। स्वयं के विषय में सोचने के स्थान पर हम विश्व के विषय में सोचते हैं आप हैरान होंगे कि मैं अपनी आवश्यकता के बारे में कभी नहीं सोचती और न ही मैं अपने लिए कुछ खरीदती हूँ। आप ही मेरे लिए सभी कुछ खरीदते हैं। एक बार हमारे घर में चोरी हो गई और सभी कुछ चोर ले गए। सभी साड़ियां चली गई और हमारी दशा बिगड़ गई। मैरे पति एक ईमानदार सरकारी नौकर थे और उनके कपड़े, बनाने में मुझे बहुत कष्ट ठठाना पड़ा। सात वर्षों तक में केवल एक रेश्मी साड़ी पहनती थी। मेरे पास सूती वस्त्र थे परन्तु जहां कहीं भी मुझे जाना होता मैं केवल वही एक मात्र साड़ी पहनती, उपहार न दें। परन्तु में कहती हूँ, "मुझे उपहार देने दें क्योंकि में मां हूं, परन्तु वे सुनते ही नहीं, कहते है हमें आपको उपहार दे कर आनन्द प्राप्त होता है। अब मैं सोच रही हूं कि जो भी उपहार आप लोग मुझे देंगे वे सारे मैं सहजयोग को दे दुंगी। इतने अधिक की क्या आवश्यकता है? कृपा करके उपहार देने कम कर दीजिए। जहां भी मैं जाती हूँ उपहार मिलते हैं। किसी का बच्चा होता है वो उपहार देता है, किसी का विवाह होता है वह उपहार देता है। मैंने तीन घर बनाये ये, और तीनो गोदाम बन गए है, अब चौथा भी बन जाएगा, रहने के लिए कोई स्थान न बचेगा। आप लोगों को बहुत प्रसन्नता मिलती है तो एक वर्ष में एक साड़ी काफी हैं। आप मुझे बहुत प्रेम करते हैं और मैं भी आपको बहुत प्रेम करती हूँ। प्रेम में व्यक्ति को लगता है कि वो देता ही रहे। संसार की भौतिक चीजें प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए हैं, पर मैं सोचती हैँं कि अब परन्तु इस बोत का किसी को पता नहीं चला। केवल मेरे पति यह जानते है। अब आप लोगों ने मुझे इतनी साड़ियां दे दी है कि एक बार फिर द्रोपदी चीर हरण होगा तभी ये साड़ियां म आएंगी अन्यथा ये सब ढेरो के ढेर इकट्ठे हो रहे हैं मैं कहां इन्हे पहनुंगी? लेकिन कोई मेरी बात सुनता ही नहीं। मैं बार-बार अनुरोध करती हैँ कि मुझे उपहार न दें, मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं। वे कहते हैं कि आप हमें कोई ऐसा करना बन्द कर देना चाहिए। अब आप लोगों को इसके विषय में सोचना चाहिए। सब से बात कर-कर के मैं थक गई हूँ। तो अब मध्य मार्ग अपना लें तो बहुत अछा होगा। मैं हृदय से आशीवाद देती हूँ कि सभी देशों में ऐसे लोग हों । का परमात्मा आपको धन्य करें। शिव रात्रि पूजा परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन आस्ट्रेलिया - 26-2-95 आज हम यहां सदा शिव की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। हमारे अन्दर जो प्रतिबिम्बित है वही पवित्र आत्मा हैं। हमारे अन्दर स्थित पवित्र आत्मा सर्वशक्तमान परमात्मा सदा शिव की प्रतिबिम्ब है। यह जल पर चमकते हुए सूर्य के समान हैं जो स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। सूर्य यदि पत्थर पर चमकता है तो बिल्कुल प्रतिबिम्बित नहीं होता। शीशे पर यदि सूर्य चमकेगा तो न केवल इसमें प्रतिबिम्बित होगा बल्कि अपना प्रकाश कहीं और पुन: प्रतिबिम्बित करेगा। इसी प्रकार मनुष्यों में भी सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब की अभिव्यक्ति उनके व्यक्तित्वों के अनुसार होती है। व्यक्त का ब्यक्तित्व यदि स्वच्छ एवंम पवित्र है तो प्रतिबिम्ब शीशे पर पड़ते हुए सूर्य के प्रकाश माध्यम से परमात्मा का प्रतिबिम्ब अन्य लोगों में भी प्रतिबिम्वित होता है। सौभाग्य से आप सब लोगों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हो चुका है। इसका अर्थ यह है कि स्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिबिम्ब आपके चित्त के अन्दर पहले से ही कार्यरत है। आत्मा की शक्ति से आपका चित्त ज्योतिमय हो चुका है। आत्मा की शक्ति यही प्रतिबिम्ब है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि प्रतिबिम्ब का तदात्मय शीशे या जल से कभी नहीं होता। जब तक सूर्य चमकता है प्रतिबिम्ब होता है और सूर्य के जाते ही प्रतिबिम्ब समाप्त हो जाता है। जब आप सहजयोग में हैं तो आपने स्वंय को स्वच्छ कर लिया है । आपकी कुण्डलिनी ने भी आपको स्वच्छ किया के प्रतिबिम्ब के समान होगा। अत: सन्त लोग सर्वशक्तिमान परमात्मा को भली-भांति प्रतिबिम्बित करतें हैं। वर्षों के कुसंस्कारों से उनका कोई तदात्मय नहीं होता। जब ऐसा कोई तदात्मय ही नहीं होता और व्यक्ति पूर्णतः पवित्र आत्मा होता है तब उसके है और अब आप पावन व्यक्तित्व हैं। यही कारण है कि परमात्मा का प्रतिबिम्ब आपमें अतिस्पष्ट है और लोग इसे देखते हैं। वे इसे आपके चेहरे पर, आपके शरीर में, आपके कार्य में, आपके आचरण में और सभी जगह देखते हैं। 13 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-15.txt है लोगों के लिए यह विश्वास कर पाना, कि वे सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब हैं, अति कठिन है। उनमें अपने विषय में कुछ विशेष प्रकार की मनोग्रन्थियां हैं जिनके कारण वे समझ नहीं पाते कि किस प्रकार अचानक वे सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब बन गए हैं। परन्तु उनमें यह सामर्थ्य है और वे इसके हम कह सकते हैं कि हमें एक अन्य महान सुविधा भी प्राप्त कि हम सामूहिकता में हैं। सामूहिकता में हम पता लगा सकते है कि हम किस प्रकार व्यवहार कर रहे हैं। सामूहिकता की हमारे व्यवहार के प्रति क्या प्रतिक्रिया है? सामूहिकता में व्यक्ति अतिसूक्ष्म होता है, उसे बहुत अधिक बोलने की आवश्यकता नहीं होती और न ही बहुत अधिक कहने की मुग्गों की तरह से वह भी दृढतापूर्वक खड़ा रह सकता है। परन्तु उसकी गहनता को महसूस किया जा सकता है। ऐसी क्षमता के व्यक्ति को आप महसूस कर सकते हैं कि यह इतना गहन व्यक्ति है जो कि आक्रामक नहीं होना चाहता। अपने अन्दर से ही वह सुरक्षित महसूस करता है यह सुरक्षा आपकों केवल मानसिक रूप से ही महसूस नहीं करनी, इसे अपने अन्तस में महसूस करना है और एक बार जब आपमें वह गहनता, वह भावना आ जायेगी तो कोई भी आप पर आक्रमण नहीं कर सकता। आक्रमण करने वाला व्यक्ति तो स्वयं असुरक्षित है। हो सकता है वह अशिष्ट हो। अत: ऐसे व्यक्ति के विपय में आपका दृष्टिकोण एक प्रकार से गरिमामय होना चाहिए। शिव के स्वभाव के विषय में सभी कुछ ज्ञात है कि वे क्षमा के सागर है। तपस्या करने वालों, सिर के भार खड़ा होना, पैर पर खड़ा होना, भोजन न करना या अन्य प्रकार की तपस्या करने वालो से परेशान होकर के कहते हैं कि ठीक है तुम्हें जो भी चाहिए वर माँग लो। तपस्या से तंग आकर उन्होंने बहुत से राक्षसों को वरदान दिए। सदा शिव के ऐसे लोगों को वर देने की बहुत सी कहानियां है। उन्होंने रावण को भी वर दिया। रावण की कहानी अत्यन्त रोचक है। रावण ने बहुत तपस्या की। उसने स्वयं को इतने कष्ट दिए कि शिव परेशान हो उठे| उनकी करुणा अत्यन्त महान है। उन्होंने सोचा कि इस व्यक्ति को जो भी चाहिए इसे दे दूं। उन्होंने रावण से पूछा क्या चाहिए? किस लिए यह सब कर रहे हों? उसने कहा मुझे एक वरदान चाहिए। कैसा वरदान? पहले आपं वचन दीजिए कि जो भी मै मागूंगा आप मुझे प्रदान करेंगें। शिव ने कहा नि:सन्देह, यदि ऐसा करना मेरे सामर्थ्य में होंगा तो। यह अत्यन्त रोचक कहानी है। तब रावण ने कहा: मुझे आपकी पत्नी चाहिए, क्योंकि वह जानता था कि शिव की पत्नी आदिशक्ति हैं और पत्नी-रूप में यदि आदिशक्ति प्राप्त हो जाए तो वह चमत्कार कर सकता सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब बन सकते हैं, परन्तु लिए उन्हें स्वयं पर और अपने उत्थान पर विश्वास करना होगा और यह भी विश्वास करना होगा कि हम वह बन गए हैं। सहजयोग में दृढ़-विश्वास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आपने देख लिया है कि बिना पूर्ण विश्वास के आप अपना उत्थान प्राप्त नहीं कर सकते। अपने प्रवचनों में भी मुझे बताना पड़ता है कि हमें पूर्ण आत्मविश्वास करना होगा। परन्तु आत्मविश्वास का अभिप्राय किसी तरह से आपका अहम् या आक्रामकता नहीं है। यदि आपमे आत्मविश्वास है तो आप आक्रामक हो ही नहीं सकते। चीन की एक बहुत रोचक कहानी हैं- चीन में मुर्ग-युद्ध प्रतियोगिता होती है। एक राजा चाहता था कि उसके मुर्गे प्रतियोगिता में जीतें। किसी ने उसे वताया कि एक सन्त हैं, उनके पास यदि आप अपने मुर्गे ले जा सकें तो वे इन्हें इतने शक्तिशाली बना देगें कि वे अवश्य जीत जायेगें। राजा अपने दो मुर्गे उस सन्त के पास ले गया और सन्त से कहा कि मैं चाहता हूँ कि आप इन्हें इतना शक्तिशाली बना दें कि ये इस प्रतियोगिता में जीत जाएं। एक माह के पश्चात आ कर राजा उन मुरगों को ले गया और बहुत से मुर्गों के बीच उन्हें अखाड़े में उतार दिया। शेष मुर्गे उन पर झपट पड़े परन्तु वे अत्यन्त धैर्य-पूर्वक, पूर्णत: शान्त खड़े हुए थे। सभी प्रकार के आक्रमण को वे मजाक की तरह से देख रहे थे सारे मुर्गे थक कर अखाड़े से दौड़ गए और इस प्रकार इन दोनों मुर्गों ने प्रतियोगिता जीत ली। हमें भी यह बात समझनी है कि निर्लिप्त व्यक्ति पर कोई आक्रमण नहीं हो सकता। अपनी बहुत सी लिप्साओं के कारण हम पर आक्रमण होते हैं। सर्वप्रथम हमारा परिवार फिर हमारा देश, हमारा धर्म और फिर जातिवाद जैसी बहुत सी अन्य लिप्साएं। ये सारी लिप्साएं हर समय हम पर आक्रमण करती रहती हैं। और इस प्रकार हमें दुर्बल बना देती है और सहजयोगियों के मस्तिष्क भ्रम से भर देती हैं। आपको सहजयोग पर और स्वयं पर विश्वास होना चाहिए कि आप ठीक मार्ग पर हैं और पूर्णतया सुरक्षित हैं, तथा दैवी सुरक्षा आपको प्राप्त है और कोई आपको हानि नहीं पहुंचा सकता। लोग जिस भी घर्म गुरु या विचारों का अनुसरण करें, हर समय उनमें भय बना रहता है कि उन पर आक्रमण हो जाएगा और वे सदा अपनी हृदयाभिव्यक्ति करने से डरते रहते हैं। यह जानने का भी उनमें विवेक नहीं है कि उन्हें क्या कहना है? जब आप एक कि तुम्हं था। अत: उसने कहा कि, "आपकी पत्नी मुझे पत्नी रूप में कि प्राप्त हो जानी चाहिए।" शिव के लिए यह निर्णय लेना अत्यन्त कठिन कार्य था कि इस राक्षस क सम्मुख वह हार मान ले। करुणावश उन्होंने उसे ऐसा वरदान दिया। यह सारी घटनाएं दर्शाती हैं कि किस प्रकार उनकी करुणा कार्य करती है। परिणामतः यह निर्णय लिया गया कि शिव पत्नी पार्वती भली-भाँति समझ जाएगें आप पवित्र आत्मा हैं और इसमें आपको विश्वास हो जाएगा कुछ तो आप आचश्श्यचकित होगे कि जो इस दुष्ट के साथ जाएगी परन्तु श्री विष्णु श्री कृष्ण रूप में पार्वती के भाई हैं। श्री कृष्ण ने सोचा कि मैं अपनी बहन की पूरा भी आप करेंगे उसके विपय में पूर्णतया विश्वस्त होंगें। इस प्रकार चत्य लस्सी 14 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-16.txt वरदान दे दिया कि उसे कोई मार न सकेगा। एक अन्य समय पर श्री शिव ने एक सन्त जो कि बहुत सी नींद चाहता था, वरदान दिया था कि जो भी व्यक्ति तुम्हें नींद से जगाएगा उसपर तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही वह राख के ढेर में परिवर्तित हो जाएगा। इस राक्षस के साथ नहीं जाने दे सकता। इसके लिए मुझे अवश्य कुछ करना चाहिए। श्री कृष्ण अत्यन्त नटखट हैं। उन्होंने रावण में लघुशंका जाने की इच्छा उत्पन्न कर दी। रावण को बहुत शर्म आई। अपनी पीठ से उतार कर उसने पार्वती को एक तरफ बिठाया और लघुशंका के लिए चला गया। शिव ने पहले ही रावण को बता दिया था कि पार्वती पृथ्वी माँ की पुत्री है अत: ले जाते हुए पार्वती को पृथ्वी पर मत बिठाना। उसे अपनी पीठ पर ही बिठाए रखना। ज्यों ही रावण ने पावती को पृथ्वी पर बिठाया पृथ्वी माँ उन्हें निगल गई और रावण की समझ में नहीं आया कि क्या करे। पार्वती को पाने की उसने दूसरी-चेष्टा की । वह शिव के पास गया और उनसे कहने लगा कि देखिये आपने क्या वरदान दिया था और आप क्या कर रहें हैं। शिव ने कहा कि मैने तुम्हे पहले ही श्री कृष्ण से सावधान रहने की चेतावनी दे दी थी। इस बार तुम उसकी बात को मत सुनना और किसी भी हालात में पार्वती को पृथ्वी पर मत उतारना। पार्वती को अपनी पीठ पर बैठाकर जब वह चला तो उसने देखा कि एक छोटा सा लड़का खड़ा हुआ है। यह श्रीकृष्ण थे जो उस पर हँस रहे थे। रावण ने उस लड़के से पूछा कि तुम मुझ पर क्यों हँस रहे हो? हंसते हुए श्री कृष्ण ने कहा कि इस बुढ़िया को अपनी पीठ पर क्यों लादे हुए हो? इसने कोई गहना भी वर प्राप्त राक्षस से जब कृष्ण का युद्ध हो रहा था तो उन्होंने सोचा कि उस सन्त को प्राप्त वरदान की शक्ति से इसका वध किया जाए। अत: उन्होंने लीला की और रण क्षेत्र से भागने लगे। इसी कारण उनका नाम रण-छोड़दास पड़ा। भागते हुए उन्होंने एक दुशाला ओढ़ा था। चुपके से वह उस गुफा में घुस गए जहाँ वह सन्त सो रहा था और उस पर धीरे से अपना दुशाला डाल दिया। राक्षस उनको पकड़ने के लिए उनके पीछे दौड़ रहा था। गुफा में सन्त पर उस दुशाले को देख वह कहने लगा, अब थक कर यहां सो रहे हों। मैं तुम्हें ठीक कर दूंगा!" बिना सोचे समझे उसने सोए हुए सन्त के ऊपर से दुशाला खींच लिया। जागकर सन्त ने जब उसकी ओर देखा तो उसकी तीसरी आँख से वह राक्षस भस्मीसात हो गया और इस प्रकार उस राक्षस की समस्या का समाधान हो गया। तीन शक्तियों की कार्यशैली की सारी लीला यह दर्शाने के लिए है कि अन्तत: सत्य की विजय होती है। सर्वप्रथम श्री शिव की करुणा और उनका भोलापन है, दूसरे स्थान पर श्री कृष्ण या श्री विण्णु की लीला है और तीसरे स्थान पर बह्मा की लीला है जो सारा सृजन करती है। ये तीनो शक्तियां हम सबकी यह अनुभव करवाने के लिए कि अपनी मानवीय चेतना से हमने कुछ अन्य कार्य करना है, एक विशेष प्रकार का वातावरण बनाने के लिए कार्यरत हैं। सत्य को जानने की ये इच्छा इन शक्तियों ने हममें विकसित कर दी है। एक ओर तो श्री शिव अत्यन्त करुणामय, असुरो और राक्षसों के प्रति भी अत्यन्त दयालु हैं। परन्तु दूसरी ओर वे अत्यन्त कठोर हैं। लोग यदि पतनोन्मुख हो जायें, आध्यात्मिकता को स्वीकार न करें, उनकी पवित्रता यदि पूर्णत: समाप्त हो जाए और विश्व में समस्याएं उत्पन्न करने वाली अनुचित गतिविधियों को यदि वे त्यागना न चाहें तो श्री शिव पूरे ब्रह्माण्ड का विध्वंस कर सकते हैं वे आदि शक्ति के कार्य के दृष्टा हैं। आदि शक्ति को वे ये सारा कार्य करने देते हैं:- मानवों का सृजन करना और उन्हें आत्म-साक्षात्कार देना। परन्तु यदि उन्हें लगा कि आदि शक्ति के बच्चे, जिनकी आदि शक्ति ने रक्षा की है, दुर्व्यवहार कर रहें है या उनके प्रति अपमानजनक हैं या किसी भी प्रकार आदि शक्ति के कार्य का नाश कर रहे हैं तो वे कुपित हो कर पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश कर सकते हैं। परन्तु मेरे विचार में अब श्री शिव के ऐसा करने का कोई अवसर नहीं है क्योंकि अब चहूँ ओर सहजयोगी हैं। परन्तु सहजयोगी में भी मैं पाती हूँ कि उनमें से कुछ तो बहुत तेजी से उत्थान प्राप्त करते हैं, पूर्ण शक्ति से निरन्तर वे अपने शिव तत्व को प्राप्त करते हैं। ऐसा नहीं है कि इसके तुम नहीं पहना हुआ है। रावण ने कहा कि यह देवी हैं। श्री कृष्ण कहने लगे कि इसने तो कोई गहना भी नहीं पहना हुआ। यह कैसे देवी हो सकती है? मुड़कर रावण ने जब पार्वती की ओर देखा तो पाया कि दन्तहीन एक वृद्धा उसकी पीठ पर बैठी हुई उस पर हँस रही थी। घबराकर उसने उसे दूर फैंक दिया। यह महामाया है। तीसरी बार शिव के पास जानकर उसने उनसे प्रार्थना की कि वे अपनी पत्नी से कहे कि वह किसी की बात को न सुने और अपनी पत्नी मुझे दे दें। शिव ने कहा ठीक है वह लंका में जन्म लेगीं तब रावण उससे विवाह कर सकता है। इस अवतरण में उसका नाम मंदोदरी था। अब यह महान कथा इस प्रकार चलती है। मंदादरी विष्णु की महान भक्त थी का वध करने के लिए आए तो स्वंय मंदोदरी ने सारा आयोजन किया क्योंकि वह जानती थी कि श्रीराम के हाथों, वध होने पर रावण स्त्री लिप्सा तथा अन्य बुराइयों से मुक्त हो जाएगा। वे वास्तव में चाहती थी कि पुर्नजन्म लेकर रावण स्त्री सौन्दर्यपाश से मुक्त हो सके। जिस प्रकार सीता जी को उठाकर वह लंका में लाए वह उनकी शान के विरुद्ध था। परन्तु उसने एक न सुनी। अन्तत: युद्ध हुआ और श्री राम ने उसका वध किया यह सारी घटना श्री शिव की असीम करुणा के कारण घटित हुई। कभी-कभी उनकी करुणा अत्यन्त तर्क विहीन प्रतीत होती है परन्तु उसके पीछे बहुत बड़ा तर्क निहित होता है और यह तर्क यह है कि उनके हर कार्य से किसी बहुत बड़ी समस्या का समाधान होता है। एक बार शिव ने एक महान राक्षस को है- जो शिव के कार्य को निष्परभावित करती और जब श्री राम रावण माम 15 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-17.txt लिए हमें किसी प्रकार का सन्यास लेना पड़े, हिमालय पर जाना पड़े, अपने परिवार त्यागने पड़े आदि-आदि। निर्लिप्सा तो आन्तरिक चीज है। निर्लिप्सा जब कार्य करने लगती है तो उसका पहला क्योंकि आप तो मात्र प्रतिबिम्ब हैं, सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रतिबिम्ब! ये सारे तदातम्य (लिप्साएं) छोड़ जाते हैं। अब आप पूछ सकते हैं कि कैसे? इन्हें किस प्रकार त्यागा जाए? सर्वप्रथम घ्यान द्वारा। आपको अपने विषय में पता लगाना चाहिए कि आपमें क्या कमी है, किघर से पकड़ रहे हैं, दाएं से या बाएं से? ध्यान-धारण द्वारा आप पता लगा सकते हैं। क्या आप धन, व्यापार, परिवार या देश से लिप्त हैं, या अपनी संस्कृति से लिप्त हैं? तो यह सहज नहीं है। तो ध्यान-धारणा द्वारा इनसे निर्लिप्त होने का प्रयत्न करें। आप जानते हैं कि दाएं और बाएं की पकड़ से किस प्रकार छुटकारा पाना है। यह लिप्साएं आपकी अंगुलियों के सिरों पर पता लग जाएंगी और आपने स्वयं देखना है कि आपके कौन से चक्र पकड़ रहे हैं तथा किस प्रकार आप कठिनाई में हैं। तब साधारण से सहज उपचार द्वारा आप इसे ठीक कर सकते हैं। परन्तु यहां पर हम असफल हो जाते हैं क्योंकि किसी एक चीज़ से लिप्त हो जाने पर हम यह भी नहीं सोचते कि हम लिप्त हो रहे हैं । हम सोचते हैं कि हम अति महान कार्य कर रहे हैं क्योंकि अब हम फलां-फलां व्यक्ति को प्रेम करते हैं। श्री शिव के गुण, किसी से लिप्त होने के लिए उसके प्रति सहदता शिव की करुणा नहीं है; शिव की करुणा आप में आ भी नहीं सकती, यद्यपि लोग सोचते हैं कि उनमें शिव की करुणा कार्यरत है। ऐसा नहीं है। क्योंकि वह चिन्ह हमारा आनन्दमय हो जाना है। हम प्रसन्न चित्त हो जाते हैं। किसी से यदि आप पूछे कि वह दु:खी क्यों है तो वह अपनी पत्नी, घर, बच्चों, अपने देश, समाज आदि की बात करेगा। अपने चारों ओर व्यक्ति की घटनाओं को देख कर व्यक्ति पूर्णत् परेशान हो जाता है। अब वह आत्म-साक्षात्कारी व्यक्ति बन गया है। इस दुःखमयी अवस्था से उसे कोई लाभ न होगा अब आवश्यकता यह जानने की है कि लोगों में आन्तरिक परिवर्तन ला कर आप अपने समाज, परिवार, पूरे देश के दोषों को ठीक कर सकते हैं। इन देशों के बारे में बुरा मानकर नहीं। यह आन्तरिक परिवर्तन लाते समय आपको पूर्णतः निर्लिप्त होना चाहिए। जब मैनें सहजयोग शुरु किया तो जिस प्रकार लोग मुझे अपने देशवासियों, धर्मों और दुराचरणों के विषय में बताते थे मैं हैरान हो जाती थी मुझे इन चीज़ों का इतना ज्ञान न था जितना वे बताते थे और मैं सोचती थी कि इनमें आई निर्लिप्सा के कारण ही यह स्पष्ट देख पाते हैं कि क्या गलत है। समाज, लोगों, सम्बन्धों, परिवार, देश तथा पूरे विश्व में क्या समस्या है। यह सब देख पाना तभी सम्भव है जब आप किसी से लिप्त न हों। इसके बिना आप कभी दोषों को देख ही न पायेगें आप कभी न देख पायेगें कि फलां व्यक्ति में क्या दोष है। लिप्तावस्था में आप कभी- ये भी न समझ पायेंगे कि कौन से चक्र पकड़ रहे हैं। अत: सर्वप्रथम निर्लिप्सा घटित होनी चाहिए। अब निर्लिप्सा को कैसे प्राप्त किया जाये? बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि श्री माता जी आप निर्लिप्त कैसे हो जाती हैं? क्योंकि मैं लिप्त नहीं हूँ इसीलिए मैं पहले से ही निल्लिप्त हूँ। मैं नहीं जानती कि ऐसा किस प्रकार किया जाये परन्तु आप लोगों को ये सब समझने के लिए अन्तर्दशन करना होगा। पता लगाने का प्रयत्न करें कि मैं किन चीजों से लिप्त हूँ। मैं दुःखी क्यों हूँ? मैं किसके लिए चिन्तित हूँ? मैं चिन्ता क्यों करुं? अत्यंन्त अनावश्यक चीजें भी अब कुछ सहजयोगियों के लिए आवश्यक बन गई हैं। उदाहरणार्थ मुझे बताया गया था कि पश्चिम में लोग अपने बच्चों की अधिक चिन्ता नहीं करते। परन्तु करुणा अत्यन्त पावन है। यह पेड़ के उस रस के समान है जो जड़ से उठ कर वृक्ष के भिन्न अवयवों को शक्ति प्रदान करते हुए या तो वाष्प बन जाता है या पृथ्वी मां में लौट जाता है। यह लिप्त नहीं होता। यदि यह रस किसी एक फूल, पत्ते या फल से लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ कष्ट उठाएगा तथा वह फूल भी समाप्त हो जाएगा। अत: किसी वस्तु या विचार विशेष से इस प्रकार की लिप्सा अनुचित है। सहजयोग में लोग अति विचारशील हैं और समझते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए। परन्तु ध्यान धारणा मुख्य कार्य है। अपने हृदय चक्र पर शिव-तत्व पर ध्यान करते हुए आप निसन्देह निर्लिप्त हो सकते हैं और तब आनन्द का भी बाहुल्य होगा। लोगों की रुचि भोजन, कपड़े और घर आदि में होती है, इनमें भी आपकी रुचि होनी चाहिए पर साथ ही साथ आपको जागरुक होना चाहिए कि,आप इनसे लिप्त नहीं हो सकते। पश्चिम के लोग अनावश्यक चीज़ों के पीछे दौड़ते हैं। वे अवाछित कार्य करते है क्योंकि उनका व्यक्तित्व अविकसित है। आपका व्यक्तित्व यदि विकसित हो तो आप चीजों को एक ऐसे दृष्टिकोण से देखते हैं जो अन्य लोगों से कहीं ऊंचा होता है तथा अन्य लोगों में आप विघटित नहीं हो जाते। आपका ज्ञान कहीं अधिक ऊंचा, महान तथा आनन्ददायी है। लोग सोचते हैं कि ये लिप्साएं अत्यन्त आनन्ददायी हैं। आपका बच्चा, आपकी पत्नी आदि आप सोचते हैं कि आनन्ददायक हैं। आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् वे अपने बच्चों से ऐसे लिप्त होते हैं मानों गोंद से चिपक गए हों। वे ये नहीं सोच पाते कि उन के बच्चों के लिए क्या अच्छा है। हर समय बच्चों के विषय में सोचना ही वे अपना मुख्य कर्तव्य समझते हैं। चित्त ही बच्चों पर रहता है निर्लिप्सा व्यक्ति के अन्दर पूरा विकसित होनी चाहिए। यह किसी पर लादी नहीं जा सकती, परन्तु ध्यान-धारणा द्वारा आप अपने अन्दर निर्लिप्सा विकसित कर सकते हैं और यह वास्तव में आनन्ददायी होगी। यदि आप पवित्र-आत्मा बन रहे हैं तो आप निर्लिप्त हैं, चैतन्य लहरी 16 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-18.txt यह विचार गलत है। आनन्द आपके अपने स्र्रोत, आपकी अपनी आत्मा से आता है। आपके पति या बच्चे भले हों या बुरे वे आपको आनन्द नहीं दे सकते, आप स्वयं ही स्वंय को आनन्द प्रदान कर सकते हैं और इसी कारण व्यक्ति क्षमाशील बन जाता है। जब कोई भी आपको हानि नहीं पहुंचा सकता तो आप किस पर नाराज होगे? सदा शिव का एक अन्य महान गुण यह है कि वे अत्यन्त क्षमाशील हैं। वे तब तक क्षमा करते चले जाते हैं जब तक वे आदिशक्ति के पूरे विश्व का विध्वंस नहीं कर देते। अन्यथा वे अत्यधिक क्षमाशील हैं और संसार के प्रति अत्यन्त सन्तुलित हैं। एक बार आदि-शक्ति पत्नोन्मुख विश्व पर अत्यन्त क्रोधित हुई और सभी कुछ नाश करने लगीं। श्री शिव ने एक बच्चा उनके चरणों में डाल दिया, बच्चे को देख कर आदि-शक्ति को ऐसा आघात लगा कि उनकी बहुत लम्बी जीभ बाहर निकल आई और उन्होंने विध्वंस रोक दिया। उनकी विधियां ऐसी हैं कि जिस व्यक्ति को अपने अन्दर शिव तत्व जागृत करना हो उसे अत्यन्त क्षमा शील होना चाहिए। कुछ लोग अत्यन्त क्रूर एवं कष्टदायी होते हैं। यदि आप उन्हें सहन नहीं कर सकते तो ठीक है, उनसे सम्बन्ध समाप्त कर दें। मैं वहां आपके साथ हूँगी। परन्तु यदि आप सहन कर सकते हैं तो अच्छा होगा कि सहन करें और सहन करने का यह अनुभव लें क्योंकि सम्बन्ध समाप्त करने की अपेक्षा सहन करना कहीं कम कठिन होता हैं। उदाहरणार्थ एक स्त्री मेरे पास आई और कहने लगी कि मैने अपने पति को तलाक देना है। मैने कहा क्यों? क्योंकि वह बहुत देर से आता है और मुझे उसका घटित हो सकता है तो हम लोगों के साथ क्यों नहीं? आप आश्चर्य चकित होगे कि सामूहिकता में हम एक दूसरे के प्रति कितने सहायक एवंम आनन्ददायी हो सकते हैं। अब मान लो आपके माता पिता बहनों आदि के साथ कोई समस्या है, कोई बात नहीं। सामूहिकता में तो आपके पास आनन्द का सागर है और यदि आप अपनी समस्याओं को सुलझाना चाहें तो सामूहिकता में आप इनका समाधान कर सकते हैं हमें सामूहिकता पर निर्भर होना पड़ेगा सामूहिकता से पूर्णत: एकाकार होना होगा। मैं सोचती हूं कि एक बार जब आप सहज सागर में कूद पड़ेंगे तो इसका आनन्द आप सब लोगों को सामूहिक बना देगा। परस्पर मिलन इतना आनन्ददायी है। हमें ऐसे बहुत से अनुभव हैं। सहजयोगियों का पारस्परिक यह गठबन्धन ही वास्तव में आनन्द का सबसे बड़ा मार्ग है और यही हमें एक दूसरे के समीप लाने वाला स्रोत है। मैने आपको भारत के एक मुहान कवि, नामदेव की कहानी सुनाई थी। नामदेव एक दर्जी थे और एक अन्य कवि कुंभकार थे, जिनका नाम गोराकुम्हार था। एक संत दूसरे संत से मिलना चाहता है। जब नाम देव, गोरा कुम्हार से मिलने गए और उनकी तरफ देखा तो ठगे से रह गए और एक सुन्दर दोहा कहा। कहने लगे कि मैं तो यहां निराकार को देखने आया था लेकिन यहां तो निराकार साकार रूप में खड़ा है। "निगुणाच्या बेति आको सगुणाच्या" मैं तो यहां निराकार को, चैतन्य लहरियों को, -देखने आया था परन्तु मैं इन्हें साकार रूप में देख रहा हूँ। केवल एक सन्त ही दूसरे सन्त को यह बात कह सकता है। इस प्रकार की सूक्ष्म सराहना केवल दो या अधिक संतो के मध्य ही सम्भव है। उन्होंने यह नहीं देखा कि गन्दी धोती पहन कर मिट्टी गूंदते हुए वे अपना कार्य कर रहे हैं। उन्होंने यह सारी चीजे नहीं देखी और न ही उनके शरीर, मुखाकृति को देखा। उन्होंने तो उनमें केवल परमात्मा को साकार रूप में देखा। अन्य सहजयोगियों के प्रति सहदयता की संवदेनशीलता आपमें विकसित होनी चाहिए, तब आप मूर्खतापूर्ण, बनावटी चीजों की चिन्ता नहीं करेंगें और यह शिव का एक महान तत्व वे चिन्ता नहीं करते। अब देखो उनके बालों की लटे बन गई हैं। तीव्र धावक बैल पर अपनी टांगों को वे इस प्रकार रख कर बैठते है मानो विवाह करवाने जा रहे हों? क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हैं ? उनके मित्र और अनुयायियों में किसी की केवल एक आंख है, किसी का केवल एक हाथ और कोई कुबड़ा है, क्योंकि उसके लिए बाह्य दिखावा महत्वपूर्ण नहीं है, केवल अध्यात्मिकता ही महत्वपूर्ण है। व्यक्ति की चाहे एक आँख हो या उसका शरीर मुड़ा तुड़ा हो, इसका शिव को कोई अन्तर नहीं पड़ता। उनके लिए सभी व्यक्ति अपने हैं कोई भी बनावटी चीज उनके चित्त को आक्कषित नहीं करती, केवल व्यक्ति का देवत्व ही उन्हें आकषित करता हैं। उनके तत्व को समझने के बहुत से मार्ग है क्योंकि वे बहुत कम साथ प्राप्त होता है। मैंने कहा कि तलाक देने पर तो वह तुम्हें बिल्कुल भी नहीं मिलेगा। तलाक लेने में तर्क क्या है? अब कम से कम थोड़ा बहुत तो आप उसे मिलती हो। परन्तु वह कोई समाधान नहीं है। तलाक दे कर तो तुम उसे कभी भी नहीं मिलोगी। अत: ऐसे तलाक का क्या लाभ। एक बार यदि आप निर्लिप्त हो जाएं तो ऐसी बहुत सी चीजों को समझ सकते हैं कि आपको किसी चीज से लिप्त नहीं होना। यदि आप किसी चीज से लिप्त ही नहीं हैं तो कौन आपके प्रति आक्रामक हो सकता है, कोई नहीं हो सकता। जब आपको विरोध करना उचित लगे तो विरोध करना चाहिए, परन्तु बिना लिप्त हुए। विरोध में भी पूर्ण निर्लिप्सा आवश्यक है। आज हमारे सामने कुछ अन्य ही समस्या है। समस्या यह है कि हम सबको उत्थान करना है और समान शक्ति से उत्थान करना है। एक कहानी है कि कुछ पक्षी एक जाल में फंस गए। उन्होंने जाल से निकलने का निर्णय किया और उसके लिए प्रयत्न किया। सभी ने अलग-अलग प्रयत्न किया परन्तु कोई अकेला इस कार्य को न कर सका। तो सभी ने सामूहिक रूप से उड़ने का निर्णय लिया, एक, दो, तीन और चलो और वे जाल के साथ उड़ चले। तब उन्होंने चूहों से जाल काटने की प्रार्थना की और इस प्रकार वे स्वतन्त्र हो गए। यह यदि चूहों और पक्षियों के साथ 17 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-19.txt सर्वव्यापक हैं। आपमें यदि किसी के लिए करुणा भाव है तो नि:सन्देह यह कार्य करता है। हाल ही में मैक्सिको में असाध्य रोग का एक मामला था। संयुक्त राष्ट्र में कार्यरत मैक्सिको की एक स्त्री ने मुझे दो पत्र लिखें कि श्री माता जी मेरे पुत्र को यह भयंकर रोग है और मैं पुत्रहीन होने वाली हूँ। उसका पत्र इस प्रकार लिखा हुआ था कि मेरा हृदय उसके लिए करुणा से भर गया और मेरी आंखो में अश्रु आ गए और आप कल्पना करें, उन अश्रुओं ने उस लड़के को ठीक कर दिया! तब उसने कृतज्ञता भरा एक पत्र मुझे लिखा। मैं हैरान थी क्योंकि मेरी करुणा मात्र मानसिक ही नहीं है। यह तो बहती है और कार्य करती है। आप भी ऐसे ही बन सकते हैं। मैं चाहती हूं कि आप मेरी सारी शक्तियों को पा लें। परन्तु करुणा सर्वप्रथम है। एक सहयोगी किसी अन्य व्यक्ति से दुर्व्यवहार नहीं कर सकता। उसका सहजयोगी होना या न होना महत्पूर्ण नहीं है। सहजयोगियों को कभी आक्रामक नहीं होना चाहिए। यह सहजयोगियों का गुण नहीं है। सहजयोगी बिल्कुल भिन्न होते हैं उस दिन मैने किसी से कहा कि तुम बहुत क्रोधी स्वभाव के हो। उसने उत्तर दिया, जी हां मैं क्रोधी स्वभाव का हूँ। जब कोई मुझे उकसाये तो।" मैंने कहा कि सभी लोग उकसाये जाने पर क्रोधित होते हैं, आप भी यदि उकसाये जाने पर क्रोधित होते हो तो इसमें कोई महान बात नहीं है। परन्तु यदि आप उकसाये जाने पर भी क्रोधित न हों तब स्थिति कुछ भिन्न होती है । आजकल पूरे वातावरण में एक बहुत बड़ा संघर्ष चल रहा है। यह शिव की संस्कृति नहीं है। सहज संस्कृति ही शिव की संस्कृति है। यदि आप लोग सहजयोगी हैं तो आपमें करुणा तथा दूसरों की भावनाओं की समझ होनी चाहिए तथा न केवल सहजयोगियों की बल्कि उनकी भी जो सहजयोगी नहीं है देखभाल करने के लिए आपको उद्यत होना चाहिए। तभी आपकी करुणा प्रभावशाली बन पायेगी। आज की संस्कृति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पाश्चात्य संस्कृति टूट गई है। यदि आप समाचार पत्र पढ़े तो घटनाओं को देख कर आपको आघात लगता है। मैं नहीं जानती कि अपने विनाश से पहले कितने लोग इस बात को महसूस करेंगे? यह वास्तव में आत्मघातक है। एक ओर तो यह आत्म-आसक्त एवंम अनुमतिबोधक समाज कार्यरत है और अब दूसरी ओर इस्लामिक संस्कृति इसका विरोध कर रहे हैं उससे समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं। यदि आप किसी व्यक्ति को यह कह कर कि, "ऐसा करो, ऐसा मत करो", उसका विरोध करेंगें तो वह उस कार्य को पहले से भी अधिक करेगा यदि आप उत्तरी भारत मैं जायें जहां इस्लामिक संस्कृति अधिक हैं वहां लोग अति लम्पट हैं और सदा स्त्रियों की तरफ देखते रहते हैं। सभी नहीं परन्तु बहुत से। चाहे वे हिन्दू हैं फिर भी उनमें इस्लामिक दमन के कारण आयी हुई बुरी आदतें है। कोई स्त्री यदि पूर्णतया पर्दे में हो और उसे कोई देख न सकता हो तो लोग और अधिक उत्सुक हो जाते हैं। एक बार एक व्यक्ति मेरे साथ यात्रा कर रहा था। वह गली में चलती हुए हर स्त्री की ओर देख रहा था। मैने उससे कहा जिस तरह से तुम कर रहे हो इससे तुम्हारी गर्दन टूट जायेगी। परन्तु यहां ऐसा करना आम बात है। इतना ही नहीं यह उत्सुकता बहुत दूर तक जाती है और लोग पश्चिम की तरह अत्यन्त चरित्रहीन हो जाते हैं। इच्छाओं का दमन करना भी अनुचित है। यह संस्कृति बाह्य रूप से तो दमन करती है परन्तु आन्तरिक रूप से लोग अत्यन्त चरित्रहीन हैं। दमन द्वारा सृजत उत्सुकता स्वस्थवर्धक नहीं हैं। सहजयोग में दमन का कोई प्रश्न नहीं है। आप पवित्र हो जाते हैं, यही शिव तत्व है। सहज संस्कृति मध्य में है। इसमें न तो बहुत अधिक लम्पटता है और न ही बहुत अधिक दमन। अबोधिता ही शिव का महानतम तत्व है यह अबोधिता ही आपमें चमकती है। जो भी कर्म आपने पहले किये हों परन्तु मैं देखती हूँ कि अब आप पवित्र हैं। पश्चिमी लोगों की तरह से आप मूर्खतापूर्ण व्यवहार नहीं करते। मैंने यह भी देखा कि बहुत से मुस्लिम लोग सहज में आकर अत्यन्त सहज हो गए हैं और बहुत सुन्दर जीवन यापन कर रहे हैं। ईरान के कुछ लोगों ने मुझे पत्र लिख कर अपने अपराध स्वीकार किए इनसे मुझे आधात लगा। मैं इन्हें पूरा पढ़ भी न सकी, यह मेरे लिए बहुत अधिक कष्टदायी थे। उन्हीं लोगों को अब में अत्यन्त चरित्रवान पाती हूैँ। एक ओर की अति को जाना यदि गलत है तो दूसरी ओर की अति भी अनुचित है। मध्य में रहना ही ठीक है। सहज मार्ग ये समझ लेने के लिए सर्वश्रेष्ठ है कि सच्चरित्र ही जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह आपकी अबोधिता से आता है। यह श्री गणेश का गुण है जो शिव के पुत्र हैं। परन्तु श्री शिव की अबोधिता से यह गुण प्रसारित होता है। बच्चों के प्रति लिप्सा आपको गलत कार्य करने पर विवश कर देगी। यह आपके लिए ठीक नहीं। यह नये प्रकार की लिप्सा सहजयोग में आने के पश्चात आरम्भ होती है। मैने देखा है, यह आम बात हैं। मुझे केवल इतना कहना है कि आश्रमों में आपको सामूहिक ध्यान करना चाहिए, ऐसा करने का प्रयत्न यदि आप करेंगे तो अच्छा होगा। परन्तु आपको किसी को चैतन्य लहरियां नहीं देनी। किसी के चक्रों को आपने नहीं देखना। आप केवल अपनी चिन्ता करें कि आपमं क्या कमी है। आपके अपने उत्थान के लिए जो कुछ भी आवश्यक हो आप वही करें क्योंकि पूरे विश्व का उत्तरदायित्व सहजयोगियो पर है। आप यह जानते हैं कि सहजयोग के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं। मानवता को सभी प्रकार की समस्याओं से मुक्त करने के लिए सहजयोग पृथ्वी 1. पर आया है। अत: आपका उत्तरदायित्व है कि आप स्वयं को एक सहजयोगी की तरह से ठीक प्रकार रखें, आक्रामकता या बड़े-बड़े शब्द बोल कर नहीं, परन्तु प्रेम एवं करुणा द्वारा। परमात्मा आपको धन्य करें। चैतन्य लहरी 18 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-20.txt परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी की जन्म दिवस स्वागत समारोह वार्ता दिल्ली 21-3-95 (सारांश) भारतमाता के महान पुत्र श्री शेषन जी, सम्मानीय मित्र एवं अतिथिगण और मेरे सहजयोगी बच्चो। यह सत्य है कि चैतन्य बहुत सी असम्भावित चीज़ों की व्यवस्था करता है। मैं श्री शेषन की प्रशंसक रही हूं। भारत में मैंने एक नया सितारा उदय होते हुए देखा है। आप मेरे भूतकाल को जानते हैं कि मेरे माता-पिता ने देश की स्वतन्त्रता के लिए सभी कुछ बलिदान कर दिया, आप यह भी जानते हैं कि अपनी युवावस्था में मैने कितना संघर्ष किया। परन्तु जब हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हुई तो, मैं नहीं समझ पाती हमें क्या हो गया? हम बहुत सी चीजें भूल गए। विस्मृत लोगों में से गाँधी जी एक हैं, अपने शैशवकाल में मैं उनके साथ रही। वे मुझे बहुत प्रेम करते थे। वे कहते थे, "पहले देश को स्वतन्त्र हो जाने दो, दास लोग मुक्ति की बात नहीं कर सकते।" हम लोग स्वतन्त्र हो गए परन्तु न जाने कैसे लोगों को अपना उत्तरदायित्व दिखाई नहीं देता। जो लोग बहुत सच्चे थे उन्हें तो लगा कि इस देश में कुछ कर पाना असम्भव है। तब मुझे लालबहादुर शास्त्री दिखाई पड़े। वे आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति थे। वे मुझे भली-भांति जानते थे और मुझे आशा थी कि वे इस देश के आध्यात्मिक पक्ष को कार्यान्वित करेंगे और हम इस महान योग-भूमि की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील होगें। आप जानते हैं कि भारत वास्तव में एक ऐसा देश है जहाँ गहन सूझ-बूझ एवं संवदनशील सन्त, अवतरण और कवि जन्में। परन्तु लालवहादुर द्वारा प्राप्त हमारी सारी महानता, परम्पराओं और संस्कृति का पतन आरम्भ हो गया। लोगों को विनाशकारी चीजें अपनाते देखकर मुझे में आते देखा और रोका। "वे कहने लगे, मैं किसी आवश्यक कार्य से जा रहा हूँ, रुक नहीं सकता और न ही, तुम्हें इस जीप मैंने कहा, "ठीक है आप जाइये। पर ले जा सकता हूँ।" " देश के प्रति यदि आपमें सद्भावना नहीं है तो आप कोई भला कार्य नहीं कर सकते। देश के लिए कुछ करने की इच्छा को पूर्ण करने के लिए कोई भी बलिदान कम है। हमारे राजनीतिज्ञों का यह जान लेना आवश्यक है कि वे यहाँ व्यापार नहीं कर रहे है और न ही धनार्जन के लिए यहाँ है। उनका लक्ष्य ख्याति प्राप्त करना है। आज भी लालबहादुर शास्त्री का नाम लेने से लोग खो से जाते हैं। मेरे पिताजी के साथ भी ऐसा ही था। शास्त्री पर पुस्तक लिखने के लिए मैनें अपने पति को विवश किया और आप हैरान होंे कि छपते ही सारी पुस्तकें सारे विश्व में विक गई। अत: एक बात व्यक्ति को जान लेनी चाहिए कि विश्व में बहुत से ऐसे लोग हैं जो सत्य को खोज रहें है, मानसिक और विश्व शान्ति चाहते हैं। यह सत्य है। यह बात ठीक है कि लोगों ने हमें सताया और परेशान किया परन्तु उन्हें क्षमा कर देना अच्छा हैं क्योंकि वे तो मुर्ख हैं और अन्धकार में फंसे हैं हमें चाहिए कि उन्हें ज्योति प्रदान करें। प्रकाश प्राप्त करके वे सभी विध्वंसक कार्य त्याग देगें। आप सब जानते हैं कि किस प्रकार आपने स्वयं को परिवर्तित किया। मैं आश्चर्यचकित थी कि इंग्लैण्ड में लोगों ने रातों-रात नशीली दवाओं का त्याग कर दिया। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के अगले दिन से कोई नशा नहीं किया। आत्मसाक्षात्कार घटित होने पर आपका चित्त अत्यन्त सुन्दर हो जाता है। ईसा अत्यन्त महान थे और मेरे विचार में न कभी मानव को समझ पाए और न ही मानव उन्हें समझ पाया। ईसा ने कहा कि यदि आपकी एक आँख कोई गलत चीज देखे तो उस आँख को निकाल दें और यदि आपका हाथ कोई अपराध करे तो हाथ को काट दें। परन्तु मैंने आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जिसने अपनी आंखे निकाल दी हों या अपना हाथ काट दिया हो। मोहम्मद साहब ने भी ऐसा ही कहा। उन्होंने कहा कि केवल पुरुषों को ही धर्म के लिए उत्तरदायी क्यों बनाया जाए, स्त्रियों को भी यह उत्तरदायित्व क्यों न दिया जाए। अत: उन्होंने महिलाओं के विपय में नियम बनाए और कहा उसको आधा पृथ्वी में गाड़कर पीटा जाना चाहिए तथा पत्थरों से उसे मार दिया जाना चाहिए।" परन्तु यह नियम मानव के लिए शास्त्री के आकस्मिक निधन के पश्चात शनै: शनै: सन्तों आघात लगा। जब मैंने श्री शेषन के विषय में पढ़ा तो मेरे हृदय में एक तीव्र आशा का उदय हुआ। आज मेरे पति का भी जन्म दिन वे आज यहाँ नहीं हैं। उनके लिए ईमानदारी इतनी महत्पूर्ण थी कि उसके लिए उन्होंने सभी कुछ बलिदान कर दिया। वे ईमानदारी से विवाहित थे इस कदर वे निष्कपट हैं कि आप विश्वास नहीं कर सकते। लखनऊ में वे दण्डाधिकारी थे। एक बार मैं वहां पुस्तकालय गई हुई थी। लौटने के लिए जब मैं बाहर आई तो वर्षा हो रही थी, कोई रिक्शा भी वहां न था। सरकारी नौकर होने के कारण व्यक्ति गरीब होता है और बहुत सी चीज़ों की सामर्थ्य उसमें नहीं होती। अचानक मैंने अपने पति को एक पुलिस जीप , "स्त्री यदि चरित्रहीन है तो 19 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-21.txt कहती, "यही समाधान है, प्रतिक्रिया द्वारा हम शान्ति नहीं ला सकते।" मैं कहती कि बुद्ध ने कहा है सबको क्षमा कर दो। क्षमा नहीं थे, देवदूतों के लिए यह नियम बनाए गए थे। वे इतने महान हैं कि कभी वे यह नहीं समझ सकते कि आप लोग ईसाई, मुसलमान या यहूदी नहीं बन सकते। मोज़ज़ ने यहूदियों को शरीयत दी, जिसे अब मुसलमानों ने अपना लिया है। मानव के विषय में यह गलतफहमी है। मेरे विचार में वे मानव और उसकी समस्याओं को नहीं समझ पाए। मैने कुछ नहीं किया। कुण्डलिनी की जागृति तो इस देश में हजारों सालों से होती रही है। आदि शंकराचार्य जैसे लोगों ने इसके विषय में बताया। 12वीं शताब्दी में ज्ञानेश्वर जी ने इसकी बात की। परन्तु धर्माधिकारी, धर्ममार्तण्डेय लोगों ने सदा सारी समस्या का समाधान कर देती है। कम से कम 90% का। सहजयोग में हमारी बहुत सी गतिविधियां है, उनमें से एक यह है कि परिवार को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। सन्यास लेकर, त्याग करके हिमालय चले जाने में हम विश्वास नहीं करते क्योंकि हम जानते हैं कि यह सारी बातें अस्वभाविक हैं और जहाँ भी लोग इन्हें अपनाते हैं वे सभी प्रकार के चरित्रहीनतापूर्ण कार्य करते हैं। विवश करके नैतिकता नहीं लाई जा सकती, शंकराचार्य और विवेकानन्द ने सच कहा है कि नैतिकता किसी पर लादी नहीं जा सकती। तो हमें क्या करना चाहिए? पश्चिम में लिप्साएं हैं और मुस्लिम और यहूदी लोग नैतिक होने पर विवश करते हैं। ऐसे में हम क्या करें? दोनों ही प्रकार के लोग नैतिक बनने में सहायक नहीं है। एक छोर से दूसरे तक आप थपेड़े खाते रहते है। कुण्डलिनी की जागृति ही एकमात्र मार्ग है जो आपके चित्त को मध्य में लाती है कुण्डलिनी सहस्त्रार का भेदन करती है और सर्वव्यापक दैवी शक्ति से आपका सम्बन्ध स्थापित करती है। यदि आप किसी को दिव्यशक्ति के बारे में बताएं तो कोई विश्वास नहीं करता। किसी से यदि आप पूछें कि हृदय को कौन चलाता है तो डाक्टर कहेंगे स्वचालित नाड़ी तन्त्र (Autonomous Nevणल Sेसेय करेूर [पर [यह 'स्व' है क्या? वे नहीं जानते। "यह बेकार है, यह बेकार है" और इस प्रकार यह कहा, हम इसे भूल गए। उत्तरी भारत में तो बहुत से लोग यह भी नहीं जानते कि कुण्डलिनी क्या है, वे इसे 'कुण्डली' जन्मपत्री- समझते हैं। इसे अत्यन्त रहस्यमय बना दिया गया। केवल नाथपंथी जागृति करते रहे, परन्तु उनमें परम्परा यह थी कि व्यक्ति केवल एक ही अन्य व्यक्ति को आत्म साक्षात्कार देगा। एक गुरु एक शिष्य की परम्परा थी। 12वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में ज्ञानेवश्वर जी ने अपने गुरु तथा बड़े भाई से कुण्डलिनी- के विषय में बात करने की आज्ञा मांगी और ज्ञानेश्वरी के छठे अध्याय में इसके विषय में लिखा। परन्तु धर्ममार्तन्डियों ने इसे भी स्वीकार न किया। किस प्रकार उन्होनें आदिशंकराचार्य, ज्ञानेश्वर जी और गुरु नानक को सताया। इन्होंने इन सब संतो को कभी मान्यता नहीं दी, यद्यपि आम जनता उन्हें पहचान गई थी। इस प्रकार हमारी यह महान परम्परा धर्ममार्तण्डयों के बीहड़ में खो गई। गाँधी जी ने मुझसे कहा था कि स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात, मैं कौन हूँ? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान नहीं दे सकता। सहजयोग हैं इसका उत्तर दे सकता है। आप पवित्र आत्मा हैं और आपको पवित्र आत्मा बनना है और आप सबमें यह कार्यान्वित हो चुका है। नि:सन्देह आपके चित्त के कारण यह आपको स्वस्थ्य और वैभव प्रदान करता है। परन्तु यह वैभव वह नहीं है जो हम देखते हैं। यह तो सन्तुलित रहने के लिए लक्ष्मी जी का वरदान है। यह आपको रचनात्मकता प्रदान करता है। मैं ऐसे बहुत से कलाकारों और संगीतज्ञें को जानती हूँ जो सहजयोग में आकर विश्वभर में प्रसिद्ध हो गए। अचानक वे इतने बढ़ गए। सहजयोग आपको विवेक एवं बुद्धि प्रदान करता है। अपनी कक्षा में असफल होने वाले विद्यार्थी सहजयोग में आने के पश्चात पहले दर्जे के विद्यार्थी बन गए हैं। जितने चमत्कार आपने अपने जीवन में देखें है उन पर आप सभी बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिख सकते हैं। यह सत्य है, क्योंकि यह सर्वव्यापकशक्ति न ।" शास्त्री जी ने मुझे कहा, तुम अपना सहजयोग आरम्भ करना। मुझे पाकिस्तान और कश्मीर की समस्या सुलझा लेने दो तब अपना सहजयोग आरम्भ करना।" वे सदा मुझसे सहजयोग की बात करते थे, कोई अन्य बात नहीं। परन्तु समस्या यह है कि यदि आप इसे टालते चले जाएगें तो इसी तरह से चलता रहेगा। घर्मनिरपेक्षता का सार पूर्णतया समाप्त हो गया था, गाँधी जी की धर्मनिरपेक्षता। मै उनके साथ आश्रम में रही थी, जिस प्रकार सबके लिए चार बजे प्रात: उठना, स्नान प्रार्थना में सम्मिलित होना आवश्यक था उससे पता लगता था कि वे कितने अनुशासन प्रिय है। परन्तु उनका एक विशेष गुण यह था कि वे जो कहते थे, जो करते थे उस पर उन्हें विश्वास था करके पूजा तथा केवल ज्ञान, कृपा, करुणा और प्रेम का सागर हैं, यह चरमत्कारों का भी सागर है। इतने चमत्कार घटित हुए है कि इन्हें लिख पाना असम्भव सा है। पर आप सब लोग तो जानते हैं कि सहजयोग में कितने चमत्कार हैं। इस ज्यो्तिमय सर्वव्यापी शक्ति के फोटो भी आपने देखे हैं। और उसका अनुसरण वे करते थे। इस विषय पर कोई पाखण्ड न था। अभद्र व्यवहार करने वाले लोगों पर वे कृपित हो जाते और उन्हें शान्त करने के लिए मैं उन पर थोड़ा सा पानी डाल देती। मैं नन्हीं बालिका थी, मेरी बात को वे समझ जाते और कहते, "किस प्रकार तुम इन सारी बातों के बीच शान्त रहती हो?" मैं कहते हैं कि मूर्ख, धूर्त, अंहकारी एवं अडियल लोगों को आप आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। जिस तरह से लोग चैतन्य लहरी 20 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-22.txt आत्मसाक्षात्कार लेने के लिए तैयार हैं उससे लगता है कि इसका सम्बन्ध आपके पूर्वजन्मों से है। अब मैं रूसी लोगों का उदाहरण दूंगी। अविश्वसनीय रूप से हजारों रूसी लोग कार्यक्रमों में होते हैं। मैं विदेशी हूँ और वे मुझे नहीं जानते। परन्तु बड़े-बड़े सभाओं में मेरे कार्यक्रम होते हैं और स्टेडियम खचाखच भर जाते हैं । इन विशाल सभागारों में वे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं। इसमें स्थापित होते हैं, इसका अभ्यास करते हैं और सहजयोगी हो जाते हैं। उनके रोग भी दूर हो जाते हैं। इनमें वैज्ञानिक भी हैं, मैं हैरान थी कि एक सभा में दो हज़ार पांच सौ वैज्ञानिक थे जिन्होंने मुझे महानतम वैज्ञानिक और दार्शनिक की उपाधि से सम्मानित किया। के लिए अपने प्रेम को प्रकट करते हैं। वे तुरन्त जान जाते हैं। कि उनके देश में क्या कमी है। वे ही आकर मुझे बताते हैं कि, श्रीमाता जी हमारे देश में यह कमी है," कोई अन्य आकर कहेगा, 'श्री माता जी देखिए हमारे समाज में हमारी राजनीति में यह त्रुटि है।" मैं हैरान थी कि अभी तक वे अपने देश की कोई भी कभी न देख सकते है और उन्हें अपने देश पर गर्व था। परन्तु अब वही लोग हस महान देश का नाश करने वाली त्रुटियों को देखने लगे हैं। परन्तु इस देश का कभी नाश नहीं हो सकता, यह शाश्वत प्रकृति का देश है। इन विशेषताओं से परिपूर्ण लोग बारम्बार आते रहेगें और देश को विध्वंस से बचाएगें। नि:सन्देह भ्रष्टाचार निकृष्टतम दोष है, लोग सोचते हैं कि यह व्यापार है। परन्तु उन्हें समझना चाहिए कि राजनीति के माध्यम से ही अब्राहम लिंकन, सादत और बहुत से अन्य लोगों ने ऐसे प्रेम को प्राप्त किया है । मैं तुर्की गई, अतातुर्क कमालपाशा (जिसकी जीवनी मैने शैशव अवस्था में पढ़ी थी) ने देश वासियो में देश क प्रति चेतना जागृत की थी। न हमें दूसरों की नकल करनी चाहिए और न ही उनकी बनाई गई प्लास्टिक की वस्तुओं को अपने सिर पर लादना चाहिए।: अपने देश की सहायता हमें करनी चाहिए। हर देश की उन्नति से ही पूरा विश्व शक्तिशाली बनेगा। परन्तु नकल और दासत्व से कोई सुधार न होगा। सहसार खोलने से पूर्व में खादी पहना करती थी। मेरे पति कलैक्टर थे और वे अच्छे वस्त्रों के शौकीन हैं। वे कहते, "कोई तो अच्छी चीज़ ले लो!" मैं कहती "यही सर्वोत्तम है।" मैं खादी पहनती और इससे मुझे अत्यन्त संतोष प्राप्त होता क्योंकि मेरे देश के गांवो के लोग खादी बनाते हैं। से, क्या आप इस बात पर विश्वास कर सकते हैं? सैन्ट पीटर्सबर्ग के प्राचीन विश्वविद्यालय में उन्होंने अभी तक केवल दस उपाधियां दी हैं। मैंने कहा, "आप मुझे यह उपाधि किस प्रकार दे सकते हैं क्योंकि " आइन्सटाइन को भी यह दी गई थी।" उन्होंने कहा आइंस्टाइन ने क्या कार्य किया है? उसने पदार्थ पर कार्य किया है और आपने मानव पर।" मुझे अत्यन्त संकोच हो रहा था, इस पर मैं विश्वास न कर पा रही थी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि रूस की सरकार ने मुझे उपाधि दी है। मेरे पति को 135 पुरस्कार दिए गए हैं। वे कहते हैं कि, "वास्तव में तुम्हें पुरस्कार मिलना चाहिए।" मैने कहा,"किस बात के लिए?, मेरा प्रेम कार्य कर रहा है, मैने इसके लिए कुछ खर्च नहीं किया। मेरा प्रेम ही मुझे फल देता है। यह प्रेम मुझे आप सबसे, मेरे देश से, आपके देशों से, आपसे, आपके परिवारों से और सभी अन्य चीज़ों से एकाकारिता प्रदान करता है। मैं सदा महसूस करती हूं कि सभी लोग मेरे ही अंग-प्रत्यंग हैं। इस प्रकार मैं आपको याद रखती हूँ। हर व्यक्ति को मैं उसकी कुण्डलिनी के चित्र के माध्यम से, जैसी बह थी और जैसी वह आज है याद रखती हूँ। इसके लिए मुझे न तो कोई परिश्रम करना पड़ता है और न कोई दबाव डालना पड़ता है। लोग कहते हैं कि आप बहुत अधिक यात्रा करती हैं, मेरा पासपोर्ट बहुत बड़ा है, परन्तु मैं तो वहाँ बैठी ही रहती हूँ। मुझे नहीं लगता कि मैं यात्रा कर रही हूँ। जैसे मैं यहां बैठी होती हूँ वैसी ही वहाँ बैठी होती हैं। मैं कहीं भी बैठ सकती हूैँ। बिना सोचे, निर्विचार समाधि की अवस्था में रहना उत्थान प्राप्ति का प्रथम चिन्ह है । आपमें से बहुत से लोगों ने निर्विचार समाधि प्राप्त करली है। आते-जाते रहने वाले मेरे जम्मदिन के अवसर पर मेरी समझ में नहीं आता कि क्या कहूँ? 72 वर्ष बीत चुके हैं पर मैं इसके विपय में नहीं सोचती और संभवत यही कारण है कि मुझ पर बढ़ती हुई आयु का कोई प्रभाव नहीं है। मुझे जब तक जीवित रहना है, रहना है। जब मुझे जाना होगा चली जाऊँगी। यह देखना मेरा कार्य नहीं है। मेरा प्रेम तो विश्व्रभर के लोगों को आत्म-साक्षात्कार देना चाहता है, वे चाहे जैसे भी हों। मैने देखा है कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात लोग देश गाँधी जी सदा कहा करते थे बहुत अधिक मशीनें मत लगाओ। अब मैं समझ पाती हूं कि वे हस्तकला की कलात्मक वस्तुओं पर इतना बल क्यों देते थे। क्योंकि इस प्रकार आप देश की सहायता करते हैं। मैं आश्चर्यचकित थी कि पश्चिमी देशों के लोग हाथ से बनी वस्तुओं के लिए इतना धन क्यों देते हैं। इसका कारण यह हैं कि वे अब हाथ से चीजें बना पाने में असमर्थ हैं। कम्प्यूटर आ गए हैं और मस्तिष्क का उपयोग कम हो गया है। हम लोग भली-भांति हिसाब-किताब कर सकते हैं क्योंकि हमने पुरानी प्रणाली से शिक्षा प्राप्त की है परन्तु आज तो लोग दो जमा दो नहीं कर सकते। न जाने उनके मस्तिष्क को क्या हो गया है। व्यक्ति को बहुत अधिक बनावटी चीज़ों को नहीं अपनाना चाहिए। यदि आप सहजयोगी हैं तो प्राकृतिक वस्तुएं अपनाएं। मैं आपको हिप्पी बनने के लिए नहीं कहती। सहजयोग में आपको अपने देश के अनुसार गरिमामय वस्त्र धारण करने हैं। कुछ भी त्यागना नहीं। परन्तु बनावट को नहीं अपनाना क्योंकि पदार्थों का बनावटी प्रभुत्व आत्मा का हनन करता है। आत्मा और क 21 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-23.txt मैंने कोई विशेष कार्य नहीं किया है । जन्म से मुझे इसका ज्ञान था और मैं स्वंय को जानती हूँ। मैंने केवल मानव और उसकी समस्याओं को समझा है। मानव ईसा, मोहम्मद साहब, श्री राम, श्री कृष्ण सभी को मानता है परन्तु उसमें कोई आन्तरिक परिवर्तन नहीं होता। क्या कारण हैं? कोई बात उसके मस्तिष्क में नहीं घुसती। इसका कारण मैंने खोज निकाला कि अभी तक उनका योग नहीं हुआ है। वे परम चैतन्य से जुड़े नहीं है। मैने मानव स्वभाव के क्रम परिवर्तन और संम्मिश्रण का अध्ययन किया यह कठिन कार्य नहीं है क्योंकि केवल सात चक्र हैं जिन्हें आपने कार्यान्वित करना होता है और यह जानना होता है कि सहस्त्रार भेदन क लिए किस प्रकार कुण्डलिनी को उठाया जाए। इस विधि ने कार्य किया और हजारों लोगों में कार्यान्वित हो रही हैं| मेरे हर्ष की सीमा नहीं है कलियुग में लोग माँ की चिन्ता नहीं करते। परन्तु जिस प्रकार से मेरे बच्चे मेरे प्रति अपना प्रेम उड़ेल रहे हैं, मेरी समझ में नहीं आता कि मैं किस प्रकार अपनी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति करुं। सबको प्रेम करने का प्रयत्न करें, यह स्वयं को प्रेम करने से कहीं अधिक उत्तम है। प्रेम और क्षमा प्रदान करने का प्रयत्न करें। विस्मयकारी ढंग से आप अपनी गरिमा और महानता का अनुभव करेंगे और अचानक आप पाएगें कि आपका व्यक्तित्व सार्वभौमिक हो गया है। सहजयोग का प्रसार हो रहा है और मुझे आशा है कि मेरे जीवनकाल में हो यह विश्व शान्ति पदार्थों में संघर्ष जारी है। उस दिन किसी ने मुझसे कहा कि "श्री माता जी आप सदा हमें अपने हाथों से सुन्दर वस्तुएं बनाने के लिए कहती हैं अत: इस प्रकार आप भी नैतिकता की बात करती है।" मैंने कहा, "कि अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए आप पदार्थ का उपयोग कर सकते हैं। किसी अन्य चीज के लिए नहीं। "उदाहरणार्थ यदि मैने आपको प्रसन्न करना हो तो मैं क्या करुं? मैं आपको छोटा सा उपहार देती हूँ जिसे आप महान वरदान समझते हैं। उदाहरणतया यह कालीन बहुत सुन्दर है, यदि यह मेरा होता तो मुझे इसका बीमा कराना पड़ता। परन्तु यदि मैं इसके विपय में नहीं सोचती तो इसका पूर्ण आनन्द मुझ पर बरसने लगता है और मुझे पूर्णतया आनन्दमय कर देता है। अत: यदि आप निर्विचार समाधि स्थापित कर लें तो आप जान जाएगें कि आप नैतिकता पर पूर्ण विजय प्राप्त कर सकते हैं । अर्थशास्त्र का नियम तो आप जानते हैं कि प्रायः आवश्यकताओं की पुर्ति नहीं हो सकती। आज आपको एक घर की आवश्यकता है, फिर एक कार, फिर एक हैलिकोप्टर आदि-आदि। यदि आप निर्विचार समाधि में हैं तो जहाँ भी आप हैं आनन्द से हैं। वर्तमान में रहते हुए आप हर चीज़ का आनन्द लेते हैं, आपमें कोई तनाव नहीं होता, न आप भूत में होते हैं और न भविष्य में यह स्थिति आप सबने प्राप्त कर ली है। अब आपने निर्विकल्प समाधि की अवस्था प्राप्त करनी हैं। आनन्द, शान्ति और स्वतन्त्रता से तेजोमय आपकी मुखाकृतियों को देखकर मैं प्रसन्न हूँ। जो जी में आए वो आप कर सकते हैं, परन्तु आप कोई अनुचित कार्य करेंगे ही नहीं। मैं सदा एक उदाहरण दिया करती हूँ कि मैं यदि जिद्दी और बाघाग्रस्त हूँ और मेरे हाथ में एक साँप हो और आप मुझे बताएं कि, "श्री माता जी आपके हाथ में सांप हैं" तो जिद्दी और अन्धकार में होने के कारण में कहूँगी, "नहीं मुझे तुम पर विश्वास नहीं है, यह तो एक रस्सी है।" जब तक वह साँप काट नहीं लेता उसे पकड़े रखूंगी। परन्तु यदि थोड़ा सा भी प्रकाश हो जाए तो मैं अब आप अपने स्वामी तथ पथप्रदर्शक बन गए हैं। आपको किसी अन्य गुरु की आवश्यकता नहीं रही। इस देश में माँ का सम्मान किया जाता है। यह माँ का देश है अत: माँ के महत्व को समझें। जिस कार्य में इतने धैर्य और प्रेम की आवश्यकता हो, मेरे विचार में, केवल माँ ही उसे कर सकती है। इसे करने के लिए यदि कृप्ण सम पिता होते तो अपना सुदर्शन चक्र उठाकर सबका वध करके समस्या का निदान कर लेते। ईसा क्रूसारोपित कर देते। नि:सन्देह यह समय घोर कलियुग का है फिर भी आपने सहजयोग को कार्यान्वित करना हैं क्योंकि कलियुग की यातनाओं से पीड़ित लोग इसी समय सत्य खोजने क लिए आएंगे और आरशीरवादित होंगे। पैगम्बरों ने इसकी भविष्यवाणी की है और इसके विषय में लिखा है । की अवस्था को प्राप्त कर लेगा। मैने आपको बताया है कि शान्ति आन्तरिक चीज है। व्यवस्था या शान्ति पुरस्कार प्राप्त करने से यह स्थापित नहीं होती, अपने अन्दर ही इसे स्थापित करना होगा। मैं बड़े-बड़े लोगों को जानती हूँ जिन्हें शान्ति पुरस्कार दिए गए हैं परन्तु वे इतने अशान्त कि आप उनके समीप नहीं जा सकते। इससे प्रकट होता है कि मुझे ज्ञान नहीं है कि किस प्रकार उन्हें शान्ति पुरस्कार दिये गए। परन्तु जिनके अन्दर शान्ति नहीं है वे शान्ति की सृष्टि नहीं कर सकते। आपको शान्त होना है और ये शान्ति आपको साक्षी अवस्था तुरन्त उस साँप को फैंक दूँगी । प्रदान करती है। इस अवस्था में आप पूरे विश्व को एक नाटक की तरह देखते हैं और इसकी विनोदरशीलता का आनन्द लेते हैं, तब आपको गुस्सा नहीं आता और न ही आपको चिन्ता होती है। मेरे लिए यह महान अवसर है क्योंकि अचानक मुझे लगता है कि बहुत से द्वार खुल रहे हैं। भिन्न देशों के महापौरों ने मुझे पत्र लिखे हैं, विशेषत: ब्राजिला के महापौर ने हवाई पतन पर आकर मुझे ब्राजिला की चाबी अर्पित की और कहा, "श्री माता जी ब्राजिला पर अपना चित्त रखें ताकि ब्राजील में शान्ति रहे ।" मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ, क्या उत्तर दें। मेरी आँखों में अश्रु उमड़ पड़े और में उन्हें रोकने का प्रयत्न कर रही थी। इतने सारे महापौरों (न्यूयार्क, कनाडा, आस्ट्रेलिया) ने सुन्दर पत्र लिखे हैं क्योंकि उन्हें सहजयोगियों के कुछ सुखद अनुभव प्राप्त चतन्य लहरो 22 1995_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-24.txt का समय है। मैनें उससे पूछा, "क्या आप हो चुके हैं। आप लोग कार्य को कर सकते हैं मैं नहीं। यदि मैं ही इस कार्य को कर सकती तो आपको परेशान न करती। परन्तु हमारे लिये अच्छे पाध्यम होने आवश्यक हैं। जहां भी सहजयोगी जाते हैं वे अति सुन्दर छवि की सृष्टि करते हैं जो सभी को प्रभावित करती है। और इसी कारण हमें इतने अच्छे परिणाम प्राप्त हो रहे हैं । अब पुर्नजीवन-उत्थान पागल हैं? पांच सौ वर्ष पश्चात् उस कब्र में क्या शेष रहेगा? क्या हड्डियों का उत्थान होगा?" भारतीय दर्शनशास्त्र में स्पष्ट कहा है कि आत्मा का उत्थान होगा, यह बात विवेकशील प्रतीत होती है क्योंकि आत्मा शाश्वत है। मैंने उससे एक और प्रश्न पूछा कि, "आप तो परमात्मा के निराकार रूप में विश्वास करते हैं. फिर आप पृथ्वी के लिए क्यों लड़ रहे हैं?" जिस प्रकार लोग । "सहजयोग प्रचार की गति को हम किस प्रकार तीव्र करें?" परमात्मा के नाम पर एक-दूसरे का वध कर रहे हैं उसे देखकर मुझे बहुत दुख होता है, क्या आप समझते हैं, कि परमात्मा इस प्रकार के कार्यों से प्रसन्न होगें? यह बहुत अच्छा प्रश्न है। मैंने कहा, "यह स्वत: हैं, हम इसे किसी पर लाद नहीं सकते, हम सभी का सम्मान करते हैं। परन्तु जिस प्रकार यह हर स्थान पर बढ़ रहा मुझे बहुत आशा है कि एक दिन पूरे विश्व में यह तेजी से फैल जाएगा। वास्तव में हम कोई योजना नहीं बनाते, कोई योजना बना ही नहीं सकते, यह इसी प्रकार कार्यान्वित होता है। सभी कुछ स्वत: ही घटित होता हैं। मैं हैरान थी कि किस प्रकार पंजाब के ये लोग आये और मुझसे कहने लगे, " श्री माता जी आप पंजाब में क्यों नहीं आती" मैंने कहा, "वहां शान्ति हो जाने दें।" क्योंकि मेरे पति मुझे ऐसे स्थानों पर जाने की आज्ञा नहीं देते। अगले वर्ष वहां पूर्ण शान्ति थी मैं वहां गई और अब मुझे बताया गया कि वहां बहुत बड़ी संख्या में लोग सहजयोग को अपना रहे हैं। काश्मीर आदि शक्ति का स्थान है और मुझे विश्वास है कि एक दिन हम काश्मीर पर भी भली-भांति कार्य कर सकेगें। की है अत: व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार देना होगा, उसके बिना कोई निदान नहीं। अन्त:परिवर्तन के बिना कोई समाधान नहीं है। व्यक्ति घंटो भापण देता रहे परन्तु बिना आन्तरिक परिवर्तन के उसका कोई लाभ नहीं। अत: जहाँ तक भी संभव होगा मैं लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने के लिए परिश्रम करती रहूँगी। इसके बारे में कोई संशय नहीं है, व्यक्ति में जब परिवर्तन आता है तो वह स्वयं इस बात को समझ जाता है। उसे सारी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। एक प्रज्जवलित दीपक की तरह वह अन्य लोगों को भी आत्मसाक्षात्कार दे सकता है। अब क्या आप सोचते हैं कि मैने सब लोगों को आत्मसाक्षात्कार दिया है? हो सकता है को दिया हो। दिल्ली शहर में रहने कुछ वाले लोग विदेशों में जाकर आत्मसाक्षात्कार देते हैं। चारों ओर सहजयोग इसी प्रकार फैल रहा है। सभी सहजयोगियों को स्वय सभी धर्मों में कुछ मूर्ख लोग नेतृत्व ले लेते हैं। इसे रोका नहीं जा सकता क्योंकि धर्माधिकारी आत्म-साक्षात्कारी लोग नहीं हैं। इस प्रकार मैंने देखा है कि जापान के लोग एक धर्म का अनुसरण करते हैं और चीन के लोग दूसरे धर्म का जबकि वास्तव में दोनों एक से हैं, एक जैन हैं और दूसरे ताओ। परन्तु गलतफहमी यह है कि दोनों स्वंय को विशेष समझते हैं। उनमें से कोई विशेष नहीं है। मोहम्मद साहब ने इन सब का वर्णन किया है अब्राहम से मोजेज ईसा, मैरी तक और कहा है कि पृथ्वी पर एक लाख से भी अधिक नबी हैं, परन्तु स्वंय को विशेष मानने की क्या आवश्यकता है। यह विशिष्टता की भावना अहम् से आती है। ईसा ने इन सब का वर्णन किया है। चीन में माना जाने वाला घर्म 'ताओ' सहजयोग के सिवाय कुछ भी नहीं। ताओ कुण्डलिनी है। जैन और जोरास्ट्र भी सहजयोग हैं। परन्तु ये तो परस्पर लड़े जा रहे हैं। बोस्निया में मै एक मुसलमान से मिली जो कह रहा था, "परमात्मा के नाम पर हमे बलिदान हो जाना चाहिए।" मैने "क्या आपको विश्वास है कि आप परमात्मा के नाम पर को पहचानना होगा। वे अब प्रकाश-पुंज हैं और उन्हें प्रकाश फैलाना है। वे व्यापार में, राजनीति में और इघर-उघर की बातों में व्यस्त हैं। मैं भी बहुत व्यस्त हूँ, मेरा एक परिवार है, नाती-नातिन है, मेरे बच्चे हैं और मुझे अपने परिवार की भी देखभाल करनी है। यह सब करते हुए हमारा चित्त अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने पर होना चाहिए। इस प्रकार हम सहज प्रचार की गति को सकते हैं। एक व्यक्ति जो आत्मसाक्षात्कारी नहीं है वह धर्म बढ़ा की बात करने लगेगा धर्म के नाम पर धन इकट्ठा करने लगेगा और न जाने क्या क्या करेगा। परन्तु आप लोग, जिनमें तत्व है, उन्हें सब को देना होगा और दूसरों को आत्म साक्षात्कार देने से अधिक आनन्द कुछ और नहीं हो सकता। पूरे ब्रह्माण्ड के वैभव की तुलना भी इससे नहीं हो सकती। मैं सभी सहजयोगियों से, पुरुष, स्त्रियों और बच्चों से प्रार्थना करुंगी कि वे सहजयोग का प्रचार करें क्योंकि उनमें सहजयोग का प्रचार करने की शक्तियां हैं। वे इस कार्य को कर सकते हैं। केवल भारत में ही ऐसा नहीं होना, पूरे विश्व में यह कार्य किया जा सकता है और मेरे जन्मदिन के उपलक्ष में, यदि आप ठीक समझे, उपहार के रूप में यह वचन आप सबको मुझे देना होगा। पूछा, मर रहे है?" उसने कहा मुझे पूरा विश्वास है। कुरान में लिखा है कि यदि परमात्मा के नाम पर आप अपना जीवन देगें और ठीक प्रकार इस्लामिक विधि से यदि आपको कब्र में दफनाया जाएगा तो कयामा के समय आपके शरीर को पुर्नजीवित किया जाएगा। आप सबका हार्दिक घन्यवाद 23