चैत्न्य लहरी हिन्दी आवृत्ति अंक 3, व 4 (1996) खण्ड VIII ১ री बा औी जत क क। odededededed 6- ८७ चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी (1996) खण्ड VII, अंक 3, व 4 -: विषय-सूची :- 1. वन्दना 2. श्री गुरु पूजा जुलाई 1995 का 3. श्री कृष्ण पूजा अगस्त 1995 10 4. श्री गणेश पूजा सितम्बर 1995 14 श्री योगी महाजन सम्पादक : श्री विजयनालगिरकर 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली 110 067 मुद्रक एवं प्रकाशक प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 35, ओल्ड राजेन्द्र नगर मार्केट, नई दिल्ली-110 06) फॉन : 5710529, S784866 मुद्रित चैतन्य लहरी ल) वन्दना ा म वन्दना के स्वर सजाकर, भावना की लौ लगा कर, कर रहे अराधना हैं, तू हृदय अंधियार हर माँ, अर्चना स्वीकार कर माँ। ा ा शक्ति दे, अनुशक्ति दे, | मः तू राष्ट्र को नव भक्ति दे. नवयुग की चेतना में, चेतना संचार कर माँ, अर्चना स्वीकार कर माँ। मुक्ति मान प्रदायनी तू, सर्वमंगल कारिणी तू, वीणा की झंकार कर माँ, अर्चना स्वीकार कर माँ। ০ वि ७ श्री गुरु पूजा कबेला, इटली, जुलाई 1995 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) आज को यह गुरु पूजा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि हम 25 बार गुरु पूजा कर चुक हैं। अब हमें समझना कि वास्तव में सहजयांग है क्या? में, अब यह महसूस करती हूँ कि सहजयोग वास्तव में एक अनाखी खाज है। और सत्य-साधकों ने इसे पूर्ण रूप से अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर अनुभव कर लिया है । कभी-कभी तो सीधे परमात्मा की ओर जाने के स्थान पर इधर-उधर भटक कर है हमारा चित्त भी समाप्त हो जाता है। ऐसा चित्त हमें कभी भी परम तत्व की ओर नहीं ले जा सकता ओर अंत में आप देखते हैं कि आपका चित्त पूर्णतया शोषित होकर भटक जाता है। आधुनिक समय में अत्यन्त अव्यवस्थित स्थिति है। ऐसी अव्यवस्था में, आप नहीं जानते, सभी प्रकार के प्रलोभन आपके चित्त को आकर्षित करके आपकी चित्त शक्ति को कम कर सकते हैं। दायीं ओर के लोगों के लिए इससे प्रभावित होने की अधिक संभावना है परन्तु बायीं ओर के लोगों पर भी इस का बहुत कुप्रभाव होता है। दायीं ओर वाले लोग एक सीमा तक जाते हैं तथा उसके बाद अत्यन्त शुष्क स्वभाव, दुराग्रही व आक्रामक हो जाते है। उनका पूर्ण चित्त आक्रामकता में ही रहता है। जबकि बायीं ओर के लोग अपनी ही सनक, इच्छाओं व प्रलोभनों में उलझे रहते हैं। इस प्रकार दोनों प्रकार के लोग अपने चित्त को भटका लेते हैं। दुर्बल मन व दुर्बल हृदय व्यक्ति चित्त निरोध नहीं कर सकता। एक विवेकशील व्यक्ति दूसरे के चित्त को लगता है कि यह अत्यन्त कठिन कार्य कैसे यह कार्यान्वित हुआ तथा किस प्रकार इन 25 वर्षो में हम सहजयोग का इतना विस्तार कर पाय। एक मुख्य बात आप सब जान लें कि वृक्ष के विकास के साथ- साथ उसकी जड़ों का गहन होना तथा फैलना भी आवश्यक है। वृक्ष केवल धरती माँ के सहारे से ही नहीं विकसित होगा। उत्थान की जड़ें आपके जीवन में, आपके हृदय में हैं। जब हम कहते हैं कि हम स्वयं के गुरु हो गए हैं, तब हमें अपनी अन्त्तदृष्टि सम्भव हुआ, किस प्रकार से यह अवश्य दखना चाहिए कि क्या हम वास्तव में अपने गुरु हो गए हैं? क्योंकि इससे पहले आपकी बुद्धि एक तरफ थी, आपका हृदय दूसरीं आर था तथा आपका चित्त किसी और ही दिशा में था। यह तीनां ही आपके अन्दर उलझन पैदा कर रहे थे। यदि आप मनुष्य को ध्यान से देखें ता आपको आश्चर्य होगा कि यह तीनों मनुष्य में अलग-अलग रूप से कंसे कार्य करते हैं तथा कभी-कभी तो परस्पर टकरा भी जाते हैं। इनमें से प्रथम है आपकी बुद्धि व मन, दूसरा आपका हृदय, आपकी भावनाएँ हैं तथा तीसरा है आपका चित्त। आज के युग मं यह भ्रम सब से अधिक है क्योंकि आपका चित्त बाहर की आर रहता है। कभी यह सुन्दर वस्तुओं में उलझा होगा और कभी सुन्दर स्त्री पुरुषों में अर्थात् यह सभी बेकार की चीज़ें शक्ति को नष्ट करने का मार्ग हैं। एसा चित्त एक बेलगाम घोड़े की तरह है। आप ऐसे चित्त का नियंत्रित नहीं कर सकते। ऐसा चित्त व्यर्थ में इधर-उधर दौड़ता रहता है। लगता है कि चित्त को इधर-उधर भटकाना भी लोक प्रिय फैशन सा हो गया है। जो चित्त सर्वशक्तिमान परमात्मा की तरफ होना चाहिए, व्यर्थं में नष्ट हो रहा है| सर्वप्रथम आप स्वयं को समझिये। आपका चित्त कहाँ जाता है? किस कारण आप इसकी देखभाल एवं चिन्ता करते हैं? चित्त की अस्थिरता के बहुत से कारण हो सकते हैं। नियन्त्रण विहीन पालन-पापण, आपकी शिक्षा, आपका वातावरण तथा आपका अह एवं बन्धन भी इसका कारण हो सकते हैं। इन सब बाह्य व आसुरी शक्तियां से जुड़कर चित्त उस नदी की भांति भटक जाता है जो सीधे समुद्र को आर बहने के स्थान पर बंजर भूमि में लुप्त हों जाती है। आकृष्ट करके अपने चित्त को सही कर लेता है। मैं नहीं जानती शायद यह भी एक तरह का सुखद भुलावा है। आक्रामक प्रवृत्ति व्यक्ति मात्र अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने के लिए ही दूसरों के प्रति है मधुर होता है ताकि वे उससे आकृष्ट हों। यह अत्यन्त सूक्ष्म बात है जिसका ज्ञान ऐसे लोगों को नहीं होता। आज के युग में लोग दूसरों को आकृष्ट करने मात्र के लिए ही बहुत से मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं। आज के अधिकतर अजीबों-गरीब फैशन अन्य लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हैं। आपको इस प्रकार से दूसरों का ध्यान आकर्षित नहीं करना है बल्कि अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से दूसरों की ओर ध्यान देना है। बिना किसी अपेक्षा के आपने यह कार्य करना है, इसलिए नहीं कि वे भी आप का ध्यान रखें। यह एक बहुत बड़ा संघर्ष है। सहजयोग में मैंने द्वेखा है कि स्वयं को बेहतर साबित करने के लिए लोग लोकप्रिय या विशिष्ट दर्शाने की चेष्टा करते हैं। वास्तव में परमात्मा से जुड़े व्यक्ति को इस बात की बिल्कुल भी चिंता नहीं होती कि लोग उसकी ओर कितना ध्यान देते हैं, अपितु ऐसे व्यक्ति का चित्त अत्यन्त सूक्ष्म होता है और स्वत: ही दूसरों पर रहता है। आप यह जान भी नहीं पाते कि उस का चित्त आप पर है परन्तु यह र आप पर बहुत सुन्दर ढंग से कार्य करता रहता है। हमें यह समझना है कि हम अब परमात्मा के चित्त में हैं। परमात्मा के साम्राज्य में हैं और दिव्य तत्व में समा गए हैं। हम बहुत शक्तिशाली हैं परन्तु यदि चंतन्य हरी हम अपना नचित्त भ्रमित करते हैं तो हमारी शक्ति क्षीण हो जाएगी। हमने बहुत से लागों को आत्म-साक्षात्कार दिया है, उनकी सहायता की है, इस आधार पर स्वयं को सहजयोगी मान लेना अति है। इस प्रकार की चंतना यदि आपके अन्दर आती है तो आप जान लें कि सहजयांगी के रूप में अभी तक आप पूर्णतः विकसित नहीं हुए। हमें इस बात का बोध भी नहीं होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं व क्या करने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। इन सब को विषय में शेखी मारन को काई आवश्यकता नहीं, इसका विज्ञापन करने की ज़रूरत नहीं। आप जैसे भी हैं सब आपके बारे में भली-भांति जानते हैं। दूसरां का स्व्यं के बारे में बताने की इच्छा भी अनावश्यक है क्योंकि जो भी कार्य आप करते हैं, वह आत्म-संतुष्टि के लिए करते हैं । आप यह भली-भांति जानते हैं कि आत्मा का निवास हुदय में है। जब आपको मालूम है कि आप के हृदय ने आपके मस्तिष्क का संचालन करना है और कर सकता है, तो आप क्या बन जाते हैं? आप करुणा व प्रम का स्रोत बन जाते हैं। दूसरों पर हावी नहीं होते और न ही यह कहते कि मैंने आयके लिए इतना कुछ किया है, आप मेरे लिए क्या कर रहे हैं? प्रतिफल की आशा यदि है तो आप को यह जान लेना चाहिए कि यह सब कार्य बुद्धि द्वारा हो रहा है। आप की बुद्धि हो आपके विचारों को चला रही है। इस प्रकार आपका चित्त केवल इसी बात पर होता है कि मैने उसे कितना प्रेम दिया और उसने कितना लीटाया। यह अत्यन्त सूक्ष्म है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। उससे ईष््या करते हैं। वह ऐसा क्यो बन गया है? वह है कौन? और वह स्वयं को समझता क्या है? इस प्रकार आगे बढ़ते-बढ़ते लोग दूसरों को हानि पहुँचाते हैं। कभी-कभी सहजयोग में भी हम लोग चिंतित व भयभीत हो जाते हैं। हमें चिंतित या भयभीत होने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि अब आप सहजोगी हो चुके हैं, गुरु बन चुके हैं। कोई अन्य व्यक्ति हमें छू भी नहीं सकता है। और जो भी हमें छूने का प्रयत्न करेगा किसी न किसी प्रकार से उसका पतन हो जाएगा। हमें इस बात की चिंता नहीं करनी कि कौन हमारी आलोचना करता है या लोग हमारे विषय में क्या कहते हैं। वे सब व्यक्ति पूर्णतया अंधे हैं, उनका विवेक अभी विकसित नहीं हुआ को समझ पाना असंभव है। ऐसे लोग एक सीमा तक जाकर समाप्त हो जाते हैं। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के दृढ़ निश्चय के कारण वे अधिक आगे नहीं बढ़ सकते। जैसा मैने कहा, विलीन होने पर ही बूंद सागर बन सकती है। पश्चिम में, जहां अधिकतर लोगों के अपने विचार, अपनी मान्यताएं, अपने व्यक्तित्व हैं ऐसा हो पाना कठिन है। शालीनता सहजयोग का मुख्य अंग है। यह प्रश्न भी उठ सकता है कि जब हम पूर्णतया विलीन हो गये हैं तो हमारे अन्दर गरिमा क्यों होनी चाहिए? गरिमा के विषय में हमें क्यों चिंतित होना चाहिए। यह प्रश्न बिल्कुल सही है और इसका उत्तर यह है। कि यदि आप समुद्र में गंदे पानी की बूंद डालते हैं तो सारा समुद्र गंदा हो जाता है। अगर आप विष डालते तो सारा समुद्र विषैला हो जाता है। इसी प्रकार जो सुगम है। उनके लिए सहजयोग मुझ सहजयांग में आपने स्वयं को प्रेम के अविरल स्रोत के रूप में देखना है। इसमें आप को यह नहीं कहना कि आप को क्या प्राप्त भी सागर के या दिव्य-शक्ति के प्रतिकूल है वह नहीं होना करना है, अथवा क्या बनना है। वह सब अब समाप्त हो चुका। जब कुछ चाहिए। अन्यथा आप सम्पूर्ण को दूषित कर देंगे। हमने ऐसा कई बार अनुभव किया है। अगुआ होते हुए भी कई सहजयोगियों के अवांछित व्यवहार ने पूरी सामूहिकता को दूषित कर दिया। एक बुरा व्यक्ति पूरी सामूहिकता को खराब कर सकता है। पदस्थ अगुआ का अवांछित व्यवहार तो कहीं अधिक हानिकार हो सकता है । इसलिए हमें यह समझना है कि हम जिस सागर की बूंद बन रहे हैं वह एक का शुद्ध सागर है। अंत: हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना है जो इसे विषाक्त करे या निराशामय बनाए। कभी-कभी तो यह पूरे समुद्र की छवि को विकृत कर सकता है। इसलिए हमें शालीन एवं मर्यादित होना है। परन्तु इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि हम अस्वभाविक हो जाऐँं। आपको अपना और अपने शरीर का सम्मान करना होगा। आपका आप सरात बन गए तो कुछ अन्य कैसे बन सकते हैं? जो व्यक्ति कवल ग्रहण करता रहता है उसे ही हर समय प्रतिफल एवं यश की आशा रहती है। हमें इस गूढ़ विषय को जान लेना है क्योंकि हमारा मन बहुत चतुर है। सहजयोग में हम बहुत प्रखर बुद्धि वाले व्यक्ति हो सकत हैं परन्तु हमें अपने मन से बहुत सावधान रहना है क्योंकि यह कभी भी धाखा दे सकता है। हमें अपने मन से यह पूछना चाहिए कि तुम सहजयांग में क्यों हो? संहजयोग का क्या उद्देश्य है? इस प्रकार हमारा मन स्वत: ही शांत हो जाएगा, और तब आप अपने मन से पूछंग मरी शुद्ध-इच्छा क्या है? मेरा लक्ष्य क्या है? में सहजयांग में क्यां हूँ? इस प्रकार के प्रश्न स्वयं से पूछने पर आप देखेंगे कि आप विलीन हो गए, आप निर्विचार हो जाएंगे क्योंकि अब आपमं कोई इच्छा ही शेष नहीं रह गई। कोई महत्वकांक्षा कोई प्रतिस्पार्धा नहीं बची। मस्तिष्क या कहिए बुद्धि के गुण आपको तुलनात्मक रूप से ईष्ष्यालु बनाते हैं। ईर्या भी प्रतिस्पर्धात्मकता की देन है। क्यांकि जब दो या अधिक व्यक्ति मुकाबला करते हैं, तो जो चुना जाता है उसके प्रति दूसरे लोग प्रसन्न होने की अपेक्षा ईष्या करते हैं। हम में से कोई एक यदि कुछ बन जाता तब हमें खुश होना चाहिए कि वह कुछ बन गया है। परन्तु इसके विपरीत लोग प्रेम व्यक्तित्व सम्मानीय होना चाहिए। परन्तु इसमें अधिक मोह भी अवांछित है। आपको स्वयं का मान करना चाहिए । ऐसा करना अति महत्वपूर्ण है। यदि आप अपना सम्मान नहीं करते तो आप अपनी आन्तरिक दिव्यता का भी सम्मान नहीं करते। सम्मान करना अपनी दिव्यता को अलंकृत करने सम है। आपका व्यवहार आप की वेशभूषा इस प्रकार की होनी चाहिए कि दूसरों को लगे कि एक भद्र व्यक्ति ४ है है। उद्यमियों के कारण, एक के बाद एक, बहुत सी गरिमाहीन वस्तुएं चैतन्य लहरी रोजमर्रा के फैशन का अंग बन रही है। लोग इन उद्यमियों के हाथों खेल रहे हैं। हमें यह हमेशा के लिए निश्चित कर लेना है कि हमारे लिए क्या चीज़ अच्छी है और हमे कैसी वेशभूषा पहनी है। हमें अपना चित्त बिल्कुल भी इस बात पर नष्ट नहीं करना कि आज में यह वस्त्र पहनँगा और कल वह वस्त्र पहनूँगा। इस प्रकार हमारा चित्त दूषित हो जाता है। यदि हम गरिमामय चीज उपयोग करते हैं तो यह ठीक है और यह आपका वास्तविक आन्तरिक सौभ्यता प्रदान करेंगी। आज कल के लाग, स्वयं का मान नहीं करते। हम देखते हैं कि बहुत उच्च पदां पर नियुक्त लोग भी धोखा-धड़ी आदि मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं ही कवि थे। नामदेव जब गोरा कुम्हार के पास गए तब उन्होंने देखा कि वह मिट्टी गूँधने के सम्माननीय कार्य में व्यस्त हैं उन्होंने उसकी तरफ ध्यान से देखा व कहा कि मैं तो यहाँ चैतन्य देखने आया था, निराकार को देखने आया था परन्तु मुझे तो ऐसे प्रतीत हो रहा है जैसे निराकार ने साकार रूप धारण कर लया हो। मेरे विचार में ऐसा दो समान स्तर के संतों के मिलने पर ही सम्भव होता है। किस प्रकार वे परस्पर सम्मान व प्रशंसा करते हैं, और एक -दूसरे का आनन्द उठाते हैं। जिस प्रकार की एकात्मता दोनों आपस में सूक्ष्म रूप से महसूस करते हैं, उसे प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। यदि आप भी एक-दूसरे के लिए ऐसा ही महसूस करते हैं, तब आप को समझना चाहिए कि आप विलीन हो चुके हैं या आनंद के सागर में समा गए हैं। इसके विपरीत किनारे पर बैठे हुए लोग ऐसा महसूस नहीं कर सकते। वे विचार करते हैं और दूसरे की त्रुटियां देखने में लगे रहते हैं। ऐसा करने का कोई लाभ नहीं। वे कभी दूसरे की प्रशंसा नहीं कर सकते । वो सोचते हैं कि दूसरों की आलोचना करने और उन के दोष निकालने का उन्हें पूरा अधिकार है। स्वयं को कुछ विशेष मानते हैं और परिणामस्वरूप दूसरे व्यक्ति भी उनके दोष निकालते रहते हैं। यह एक 'दोषखोजी' समाज है जिससे आप ऊब जाते हैं। अपने सम्मुख खड़े सन्त को जब आप देखते हैं तो आपमें प्रेम उमड़ पड़ता है; ऐसे पूर्णत: शुद्ध व्यक्ति के लिए आपमें एकात्मकता की स्वभाविक भावना फूट पड़ती है। न कोई प्रत्याशा होती है और न ही उस व्यक्ति में दोष खोजने के लिए कोई मानसिक गतिविधि। यह व्यक्ति कैसा है? यह जानने के लिए कोई विचार नहीं होते। उस व्यक्ति के प्रति केवल एकात्म भाव होते हैं। आपको लगने लगता है कि आपके प्यार के गुण में एक नई चमक आ गई है इसे एक नया आयाम मिल गया है। अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि दूसरों के गुणों की जो भी प्रशंसा हम अपने अन्दर करते हैं वह हमारे अपने प्रेम का शुद्ध स्वरूप होता है। यदि आप शुद्ध हैं तो आप किसी चीज़ से असक्त नहीं होते। बल्कि अनासक्त रहते हुए आप इसका आनन्द उठाते हैं। आसाक्त होकर आप आनन्द नहीं ले सकते क्योंकि उस स्थिति में दूसरे व्यक्ति के साथ अपने खोखले सम्बन्धों की अधिक चिन्ता करते हैं। विस्तृत रूप से सभी सहजयोगी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आध्यात्मिकता के इतिहास में एक साथ कभी इतने संत एकत्र नहीं हुए और न ही इतने अधिक देशों के बहुत से लोगों ने कभी दिव्यता व नैतिकता पर विचार किया। इतने अधिक लोगों का एक स्थान पर एकत्र होकर एकात्मकता की सुखदतम अनुभूति का आनन्द लेना असम्भव कार्य है। भले ही आराम के पैमाने पर वह पूरे न उतर रहे हों, परन्तु जो लोग सन्त होते हैं वे दूसरे सन्तों को देखकर पूर्णतया आनंदित होते हैं और सच्चे सन्तों की ओर भागते हैं। मेरे साथ भी एक बार कुछ ऐसा ही कोल्हापुर में घटित हुआ। वहाँ लोगों ने मुझे बताया एक सन्त मेरे बारे में बात करता है। उन्होंने बताया कि वह और बहुत ही निकृष्ट और असभ्य लोगों से अपने सम्बन्ध रखते हैं। आज समाचार पत्रों में यह सब देखने को मिलता है। आपको यह जान बहुत खद हाता है कि उच्च पदारूढ़ लोग भी इस प्रकार हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि ये लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए कि अपनी स्थिति को जान सकें कि वे किस पद पर है और उन्हें किस प्रकार हाना चाहिए। परिपक्व होने पर आप समझ जाएंगे कि मैं एक ग्रहणी हूँ, एक मंत्री हूँ, या प्रधानमंत्री हूँ और मुझे किस प्रकार होना चाहिए। सारी उपलब्धियाँ बाह्य रह जाती हैं, अन्दर कुछ भी नहीं उतरता। परन्तु सहजयोगी को अपनी उपलब्धियाँ अपने अन्तस में देखनी चाहिए। उसे पूर्णत: अन्तःस्थित होना चाहिए ताकि हमारा चित्त अधिक नष्ट न हो पाए। दूसरी चीज़ जा हमें देखनी है वह है हृदय। कुछ लोग कहते हैं श्री माताजी अगर हमारा हृदय हमारे मस्तिष्क को नियंत्रित करता है तो हम अल्यधिक भावुक हो जाते हैं, हम लोगों से बहुत अधिक लिप्त हो जाते हैं और व्यक्तिगत मित्रता जैसी चीजें पनपने लगती हैं। ऐसी स्थिति में आपको जानना है कि आप दूसरे व्यक्ति से क्यों लिप्त हैं? यह आपके हृदय का कार्य नहीं। किसी न किसी प्रकार के सम्बन्ध के कारण ही आप दूसरे व्यक्ति से लिप्त होते हैं। हो सकता है आप को उसकी केशसज्जा पसंद आ गई हो या उसकी कोई बाह्य विशेषता आप को उस की ओर आकृष्ट कर रही हो! उसके किसी आंतरिक गुण से तो आप लिप्त नहीं है। उदाहरणार्थ यदि आप अपने बच्चों से लिप्त हैं तो आप उन्हें बिगाड़ देंगे। आपकी आशानुसार उनका विकास न होंगा। आप जिस भी व्यक्ति से लगाव रखते हैं, आप को यह अवश्य जाँच लेना चाहिए कि आप उसके प्रति क्यों आकृष्ट हैं, क्या कारण है? सहजयोग में भी लोग एक-दूसरे से अत्यधिक लिप्त हो जाते। पर मैं जानती हूँ कि ऐसा किसी को धनवान या लोकप्रिय होने के कारण नहीं होता और न ही इसलिए कि वह कोई विशिष्ट कार्य कर रहा है। ऐसे व्यक्ति के प्रति लोग इसलिए आकर्षित होते हैं क्योंकि वह व्यक्ति चैतन्य लहरियों से ओत-प्रोत है, आप को शांति, आनंद एवं मानवीय समस्याओं का गहन समाधान प्रदान करता है। और ऐसा तभी होता है जब आप कुम्हार की भांति पूर्णतया वहीं स्थित हाते हैं, जैसा मैंन आपको बताया। गोराकुम्हार एक बर्तन बनाने वाले थे और नामदंव एक दर्जी एवं एक लोकप्रिय कवि थे। दोनों चैतन्य लहगोे एक पहाड़ी पर रहता है और वहाँ तक चढ़ाई चढ़ने में तीन घंटे लगते हैं, उन्हांन यह भी बताया कि वह वहाँ से बाहर नहीं आता। मैंने कहा ठीक है, मैं उस मिलने के लिए जाऊँगी और जैसे ही मैंने चढ़ना शुरू किया, मुसलाधार बारिश होने लगी। सबने मेरे से पूछा-" श्री माताजी आप तो किसी के पास इस प्रकार नहीं जाती, इस व्यक्ति के पास क्यों जा रही हैं?"" मैंने कहा नहीं मुझे उससे मिलने अवश्य की शक्ति प्राप्त करने के पश्चात् आप किसी से लड़ते नहीं, लड़ने के विषय में सोचते भी नहीं। करुणामय अवस्था में आप पूर्ण शान्त होते हैं और करुणा पूर्वक ही आप दूसरों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। करुणा का अध्ययन, क्रियान्वन और मुक्ति चालन नहीं किया जा सकता। यह तो स्वत: ही होती है। करुणा में हम क्षमा करते हैं और सब मुर्खतापूर्ण बातों को भूल जाते हैं। यदि हमारे अन्दर करुणा है, तभी हम क्षमा कर सकते हैं। बहुत से सहजयोगी मुझ से पूछते हैं" श्री माता जी, हमारे अन्दर करुणा व प्रेम किस प्रकार जागृत हो?" जाना है। तब मुझ बताया गया कि इस व्यक्ति को वर्षा नियंत्रित करने की सिद्धि प्राप्त थी। वर्षा तेज़ होती रही और मैं पूरी तरह भीग परन्तु यह बहुत साधारण बात है। यदि ध्यानावस्था में आप अपनी निर्विचार चेतना को विकसित करते हैं तथा आप सभी कुछ, सारे सम्बन्धों को निर्विचार चेतना से देखते हैं तो आप आश्चर्यचकित रह जाऐंगे कि किस प्रकार करुणा के द्वार खुल जाते हैं। निर्विचार चेतना आपके हृदय को खोलती हैं परन्तु यह एक व्यक्ति से दृूसरे व्यक्ति तक स्थानान्तरित नहीं होती। यह आपके अस्तित्व के सभी पहलुओं को प्रकाशित करती हैं। हर व्यक्ति इस से लाभान्वित होता है और हर व्यक्ति के हृदय में आपके लिए दिव्य भाव रहते हैं। करुणा न तो रेखीय (Linear) और न ही आक्रामक। यह तो केवल बहती है तथा प्रत्येक अव्यवस्थित, कष्टदायी एवं दुखद अवस्था को शान्त कर सुखद बनाती है। आपको भी यही करना है। बहुत समय पूर्व सन्तो ने भी यही सब किया। परन्तु किसी ने भी उन सन्तों को पसंद नहीं किया तथा ईर्ष्यावश उन्हें सुली पर चढ़ा दिया। पहले यदि कोई संत महापुरुष हो जाता था तो ईष्ष्यावश लोग उसे कष्ट देते थे, दुखी करते थे अथवा मार डालते थे। परन्तु अब स्थिति इतनी बुरी नहीं है। नि:सन्देह कुछ बेकार लोग हैं जो कि वास्तव में राक्षस हैं। उन्हें भूल जाएं। उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि वे लोग अंधे हैं। गलत व्यक्ति के प्रति भी हमें अपने हृदय में वैमनस्य नहीं रखना चाहिए। दूसरों के प्रति आपको कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए । आप ऐसे व्यक्ति से स्वयं बात करके देख सकते हैं। आप उसे इस बारे में ऐसे समझाएँ कि उसकी समझ में आ जाए। परन्तु आपने इस विषय में कोई मुद्दा नहीं खड़ा करना है और न ही कष्ट देने की चेष्टा करती है। आपने देखा है कि जिन लोगों ने सहजयोग में आकर कष्ट देने का प्रयत्न किया वे स्वयं ही सहजयोग छोड़कर चले गए। हमें इस के लिए कुछ विशेष नहीं करना पड़ा। वे स्वयं ही जीवन की समस्याओं में उलझकर रह गए। महाचयन की प्रक्रिया जारी है और पर चैतन्य यह निर्णय लेने में लगे हैं कि कौन परमात्मा का आशीर्वाद पाने के अधिकारी हैं। आपको यही मूल-स्थल (स्थिति) प्राप्त करना है। इसीलिए आप सहजयोग में आए हैं। शेष सभी कुछ महत्त्वहीन है। आज उच्च पदारूढ़ बहुत से लोग कल धूल में मिल जाएंगे। इन लोगों को अत्यन्त प्रसिद्ध माना जाता है। वे और यह क्रिया आपके सामने प्रतिपल घटित हो रही है। प्रतिदिन आप समाचार पत्रों में पढ़ते है व देखते हैं कि वे किस प्रकार व्यवहार कर रहे हैं। ऐसे लोगों को अपना मूल्य नहीं मालूम। वे केवल अपने गई। जब में ऊपर पहुँची तब मैंने देखा वह व्यक्ति बैठा हुआ क्रोध से कॉप रहा है। मैने कहा चलो, गुफा में बैठते है, पर वह व्यक्ति अपनी साधारण दशा में नहीं था इसलिए मैं जाकर गुफा में बैठ गई वह अंदर आया। वह बिल्कुल चल-फिर नहीं सकता था। क्योंकि उसकी टाँगे अत्याभधिक चैतन्य लहरियों के कारण लँगड़ा चुकी थीं। इसलिए वे लांग उसे उठा कर अंदर ले आए। उसने सर्वप्रथम मुझसे यही प्रश्न पूछा-"कि जब मैंने वर्षा को रोकने का प्रयास किया तो आप ने मुझे एसा क्यों नहीं करने दिया? में नहीं चाहता था कि आप भीगकर ऊपर आएं। में आप को इस प्रकार कष्ट नहीं देना चाहता था। यह आप का अच्छा स्वागत नहीं है। क्या आपने ऐसा मेरे अहंकार को निरयंत्रित करने के लिए किया? हो सकता है मुझे गर्व हो गया हो कि मैं वर्षां को नियंत्रित कर सकता हूँ।" मैं केवल मुस्कराई और बाली दंखा तुम मंर बेटे हो, तुम मेरे लिए साड़ी लाए हो और मैं तुम से साड़ी नहीं ले सकती क्यांकि मैं गृहस्थ हूँ और सन्यांसी से साड़ी लेना धर्म के विरुद्ध है। मैं जानबूझकर इसलिए भीग गई हूँ ताकि आप मुझे साड़ी दे सका। उसका सारा क्रोध व अस्वाभाविक व्यवहार द्रवित ही गया। वी बहुत ही प्रम के साथ बोला, "माँ आप को कैसे मालूम है कि मैं आप क लिए साड़ी लाया हूँ," मैंने कहा-"प्रेम में सब कुछ स्वत: हा मालूम हो जाता है। तब वो जाकर मेरे लिए साड़ी ले आया, मरी आरती आदि सब किया। इससे प्रकट होता है कि प्रेम किस प्रकार हर चीज पर सहज ही में काबू पा लेता है। अगर आप अपना प्रम अभिव्यक्त करने में निपुण हैं तो आप देखेंगे कि यह किस प्रकार छोटी-छांटी चीजों में कार्यान्वित होता है। अपने अन्दर देखने की मुख्य बात यह है कि क्या हम वास्तव में एक-दूसरे को प्यार करत हैं ? क्या हमारे हृदय में उन लोगों के लिए भी प्रेम और करुणा हैं जा सहजयागी नहीं है? जो लोग सहजयोग नहीं अपनाते बे अन्धे हैं। आप का यह महसूस करना चाहिए कि वे लोग कितने दुखी हैं जो सहजयाग में नहीं आतं, सहजयोगी न बनकर अपने अहंकार में संतुष्ट हैं। आपक मन में उन लोगों के लिए सच्ची करुणा होनी चाहिए। ही सकता है लोग आपसे कहें कि आप व्यर्थ में अपनी शक्ति क्यां नष्ट कर रह हैं और इस प्रकार के कार्य क्यों कर रहे हैं? करुणा में मिल जाते हैं । धूल वास्तव में हमार अंदर इन सब चीजों को जोड़ती है। यह एक संयोजक तत्व्र है। पहला आपका चित्त है, दूसरा आपकी बुद्धि या मन और तीसरा आपका हृदय है। यह सब कभी न कभी एक हो जाते हैं। करुणा चैतन्य लहरी 6. सकता। सहजयोग में यदि आप घनोपार्जन के लिए आए हैं तो घनोपार्जन कीजिए और बाहर हो जाइए, ज्ञान प्रदर्शन के लिए यदि आप आए हैं तो ज्ञान दिखाइए और बाहर हो जाइए। और यदि आप अपनी शक्ति एवं प्रभुत्व दिखाने आए हैं तो शक्ति और प्रभुत्व दिखाइए और बाहर हो जाइए। इस प्रकार बहुत से लोग सहजयोग से बाहर जा चुके हैं। सहजयोग को इन सब व्यर्थ की बातों के लिए उपयोग मत कीजिए, जो न तो सनातन हैं और न चिरस्थायी। सहजयोग का उपयोग मात्र अपना शुद्धिकरण करके स्वयं को प्रेम का सागर बनाने के लिए होना चाहिए।" बहुत से लोग सोचते हैं कि प्रेम करना बहुत कठिन है क्योंकि प्रेम करने वाले व्यक्ति को लोग हानि पहुँचा सकते हैं या उसका अनुचित लाभ उठा सकते हैं । प्रेम में मुख्य बात यह है कि यदि यह शुद्ध नहीं है तो कई समस्याएँ उभर आती हैं। मान लीजिए आपने किसी पर पैसा, सम्बन्धों या इसी प्रकार की अन्य किसी बात के लिए विश्वास किया तो अन्त में आपको अत्याधिक निराशा होगी। दूसरी ओर आप अपना प्रेम उस व्यक्ति के प्रति निर्वाज्य रूप से दर्शाते हैं? यह अत्यन्त सूक्ष्म है और आपमें अन्तर्जात हें। यह तो स्वत: विद्यमान है। हमें तो मात्र इसे व्यक्त करना है। मानव प्रेम का एक पुलिंदा है। निर्वाज्य प्रेम एक प्रकार का सुन्दर प्रकाश है जो आपका प्रक्षेपण, रक्षा तथा मार्गदर्शन करता है तथा आपके जीवन को पूर्णतया ज्योर्तिमय करता है। जिस प्रकार लैम्प में तेल होना आवश्यक है उसी प्रकार यह प्रकाश पोषित है। यह हमारी अध्यात्मिकता के लिए है। मानव होने के कारण आप प्रेम के मूर्त रूप हैं। पशु भी प्रेम को समझते हैं। मैं जानती हूँ कि यदि आप शेर से प्यार करें तो वह भी कभी आप का अहित नहीं करेगा। आप एक सांप को भी प्यार करें, तो वह भी कभी आपको हानि नहीं पहुंचाएगा। यदि आप ऐसे किसी भी व्यक्ति से प्रेम करें जो बहुत निर्दयी व दुष्ट हैं, तो वह भी धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। वह आपका थोड़ा बहुत अहित कर सकता है। परन्तु आप धीरें-धीरे देखेंगे कि प्रेम की ही अन्त में विजय होती है। अन्त अहेकार में जीते हैं व सोचते हैं कि वे बहुत बड़े आदमी हो गए हैं वे अपनी विशिष्ट शैली से चलते हैं; ऊंची-ऊंची बातें करते है। और अचानक उनका पतन हो जाता है। एसे व्यक्ति का बिल्कुल आभस नहीं होता कि लोग उसकी इज्ज़त क्यों करते थे। परन्तु आप को स्वयं यह चेतना लानी है कि आप सहजयागी हैं। यदि आप सागर बन गए हैं तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आपकी चैतना विलुप्त हो गई है बल्कि यह तो और अधिक विस्तृत हो गई है। आपको सागर सम-चेतना प्राप्त हो गई है। आप किसी सम्माहित व्यक्ति की भांति नहीं हैं जिसका स्वयं से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा। इसके विपरीत आप स्वयं से पूर्व की अपेक्षा कहीं अधिक जुड़ गए हैं। इसलिए जब आप सागर बनते हैं, आप अपना व्यक्तित्व नहीं खा देते। आप के व्यक्तित्व का विस्तार होता है। आप अधिक महान हो जाते हैं। सहजयोग में यह घटित हो रहा है। आप जा भी कार्य करते हैं, आपका जो भी व्यवसाय है अथवा जो भी जीवन शैली है, बह सब बाह्य है। व्यक्ति को सर्वशक्तिमान परमात्मा की आर से अपना चित्त बिल्कुल नहीं हटाना चाहिए। यदि आपका चित्त भटक गया, तो आप भी भटक जायेंगे। नामदेव जी ने इस के बार मं एक बहुत सुन्दर कविता लिखी है। एक बार एक लड़का एक पतंग उड़ा रहा था। पतंग लहरा रही थी तथा लड़का उसको देख रहा था। अपने साथियां से बात करते हुए भी उसका पूर्ण चित्त पतंग में था। इसी बात का विस्तृत रूप से समझाने के लिए वे लिखते हैं कि एक स्त्री अपने बच्चे को कमर पर उठाए घर में झाडू लगा रही है और उसे एसा करते हुए इधर-उधर चलना है तथा सफाई के बाद अन्य कार्य भी करने हैं। परन्तु बच्चा वही उस की कमर गर है तथा उस स्त्री का चित्त इस बात में है कि कहीं बच्चा गिर न जाए अथवा है बच्चे का कुछ हा न जाए यद्यपि वह सारे कार्य कर रही परन्तु उसका पूर्ण चित्त बच्चे में है। इसी प्रकार आपका चित्त भी कुंडलिनी की दिव्य शक्तियों पर केनद्रित होना चाहिए। नामदेव ने आगे कहा है कि वहुत सी स्त्रियाँ नदी से जब पानी ले कर जाती हैं तो कभी-कभी उनके सिर पर 3-3 घड़े होते हैं । वे चलती जाती हैं, एक-दूसरे से बातचीत करती रहती हैं, परन्तु उनका पूर्ण चित्त उनके सिर पर रखे घड़ों पर होता है। इसी प्रकार सभी कुछ करते हुए हमार चित्त हमारी कुंडलिनी पर हाना चाहिए। हमें यह मालूम होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं। आपकं सोचने का प्रत्येक पक्ष, आपके सभी प्रयास, आपके जीवन का प्रत्येक कांना प्रकाशमय हो चुका है। आप यदि अपने चित्त को देखें ता, आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे और वास्तव में जान जाएंगे में आपका प्रेम ही उस मनुष्य के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। भोले व सीधे-सादे व्यक्ति आपके प्रेम को अधिक अच्छी तरह समझते हैं। बच्चे जानते हैं कि प्यार क्या है। यदि आपको देखकर बच्चे भाग जाते हैं तो आप जानिएगा कि आपके अन्दर कुछ गड़बड़ है। भोले व्यक्तियों का निर्णय ही सर्वश्रेष्ठ होता है। अपने भोलेपन में वे अच्छी तरह से जान जाते हैं कि वकिस व्यक्ति से प्रेम है तथा किस में नहीं है। यही व्यक्ति ही सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि ये आपका सही रूप से मूल्यांकन करते हैं। ये उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति है। पर अगर ये निश्छल नहीं है, क्योंकि बुद्धि के कारण कुछ लोग बहुत चालाक होते हैं, तो वे कभी भी आपका सही महत्व नहीं जान सकते। वे तो केवल ऐसी असामान्य चीज़ को महत्त्व देंगे जो दिव्य दृष्टिकोण से कुंठित व मूर्खतापूर्ण हैं। एक सीमा तक वे ऐसा कर सकते हैं परन्तु कि आप क्या कर रह हैं। आपने चित्त पर इतना ध्यान देना है। अन्तत: आप आश्चर्यचकित होंगे कि आपका चित्त बिल्कुल भी भटक नहीं रहा। अपने चित्त के बिना आप सहजयोग को क्रियान्वित नहीं कर सकते यह सहजयोग की मुख्य समस्या है। आपका चित्त सर्वशक्तिमन परमात्मा की ओर होना आवश्यक है अन्यथा कुछ भी क्रियान्वन नहीं हो सकता। आपका उत्थान नहीं हो चतन्य लहरी लोग सोचते हैं कि मैं धुन बजा रही हूँ जबकि कृष्ण स्वयं धुन बजाते हैं। इसमें मैं कहाँ हूँ? मैं तो कहीं नहीं हूँ। मैं तो केवल उस धुन का आनंद लेती हूँ जो वह मेरे द्वारा बजाते हैं। कहने का यह भाव है कि आप को भी मुरली हो जाना है। स्वयं को अंदर से पूर्णतया रिक्त कर देना है। जीवन की छोटी-छोटी बातें इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती। आप का पूर्णतया खाली होना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यहां आपकी अन्तरदृष्टि सहायक होगी बांसुरी का सृष्टिकार आपके अन्दर भी तो है। अत: स्वयं को बांसुरी बना लो। इस प्रकार आप स्वयं को वही बनाते हैं जो आप को बनना है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि आत्मा स्वत: ही संतुष्ट हो जाती है। इस बात को समझना बहुत कठिन है कि आत्मा कैसे संतुष्ट हो जाती है। किन्तु अब आप यह समझ सकते हैं कि श्री कृष्ण ने ऐसा क्यों कहा कि आपकी आत्मा स्वयं आत्मतुष्ट बन जाती है। तब आपको अन्य किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं रहती। आप अपनी आत्मा का ही चैन सौंदर्य देखते हैं। आप इसे देख भी नहीं पाते, परन्तु यह अपने आपमें, आत्मानन्द से परिपूर्ण है और केवल आत्मा ही इसे सन्तुष्ट कर सकती है। यह बात शीशे में हमारी प्रतिछाया की तरह है। यदि आप शीशे में देखते हैं तो आप को स्वयं की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है और यदि शीशा ठीक नहीं है तो आप यही कहेंगे कि मैं संतुष्ट नहीं हूँ और अपनी बेहतर परछाई देखने का प्रयास करेंगे। इसी प्रकार आपके अन्दर प्रतिबिम्बित आत्मा भी अपनी तस्वीर देखना चाहती हैं। तब आप ध्यान-धारणा द्वारा इसका शुद्धिकरण एवं परिवर्तन करते हैं और इसमें सुधार लाते हैं ताकि आत्मा, आपकी आत्मा संतुष्ट हो सके। श्री कृष्ण इससे आग नहीं। आपने स्वयं का मूल्यांकन करना है। आपने देखना है कि आप किसी के भी प्रति निर्दयी नहीं है, दूसरों का गुणांकत नहीं कर रहे, और सभी की अच्छाईयां का महत्त्व समझ रहे हैं। यह कार्य करता है मेरे प्रम व करुणा के माध्यम से आपने इसे क्रियान्वित होते देखा परन्तु मुझ इस बात का तनिक भी अहसास नहीं है कि मैं आपको प्रेम व करुणा दे रही हूँ। मुझे तो यह भी अहसास नहीं कि मैं आपको कुछ दे रहीं हूँ। मैं नहीं जानती कि किस प्रकार मैने इतने सुन्दर लोगों की सृष्टि की. मुझे इसका अहसास तक नहीं है। यह तो बस घटित होता है। जसे वृक्ष का यह अहसास नहीं होता कि वह क्या है और क्यों और कंसा यह दिखाई देता है। यह तो बस है। इसी प्रकार यदि आपकं साथ भी एसा घटित हो जाए तो आप भी वास्तव में सभी के लिए प्रम का स्त्रांत बन जाते हैं। अब हमें इस विश्व के लिए क्या करना है? विश्व की आवश्यकता क्यो है? लोग शांति और इधर-उधर को यात करते हैं, ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपका अपना व्यक्तित्व ही ऐसा बन जाना चाहिए जो अन्य लोगों का शांति प्रम एवं आनंद प्रदान करें। यह शक्ति आपमें समावेषित है क्यांकि आपकं अन्दर इसकी सृष्टि की गई है। यह प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित है, कंवल आप ने इसको बाहर लाना है। हो सकता है कि स्नेह द्वारा आप इस शक्ति को बाहर न ला सकें पर अपने अन्तर्जात प्रम एवं संवंदना से आप इसे प्रकट कर सकते हैं। आप में अन्तर्निहित इन सूक्ष्म चीजों का वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। क्यांकि अभी तक लांग नहीं जानते कि वो क्या चीज़ हैं जिसक द्वारा हम दूसरों के साथ एकात्मभाव महसूस परन्तु करते हैं। ने यह बात गीता में बहुत स्पष्ट रूप से कही है क्योंकि वे बहुत चतुर थे। वे जानते थे कि मानव हर बात को सीधे रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए उन्हें इधर-उधर के मार्गों से बताना है ताकि भाग-दौड़ के पश्चात वे सत्य की ओर आ सकें। सत्य अत्यन्त सहज है। इसके लिए आपको इधर-उधर जाना नहीं पड़ता। आप को हर समय अपने पैरों व टाँगों पर खड़ा नहीं होना पड़ता। इसे प्राप्त करने के लिए आप को किसी प्रकार की तपस्या करने की आवश्यकता नहीं है। आप को सिर्फ मुरली की तरह खोखला बनने की ज़रूरत है। सहजयोगियों के लिए यह कठिन कार्य नहीं है। क्योंकि कुण्डलिनी ने आपको पहले से ही निर्मल कर दिया है। परन्तु अभी भी मैं देखती हूँ कि लोग अपने चित्त को इधर-उधर विचलित कर लेते हैं। बहुत से लोगों ने मुझे बताया है कि किस प्रकार उनकी समस्याएं बिना कुछ विशेष श्रम के दूर हो गयीं। और जब मैने पूछा कि तुमने क्या किया? तब उन्होंने जवाब दिया, "कुछ नहीं, श्री माताजी, हमने अपनी समस्या को आपके श्रीचरणों में रखा। मैंने कहा "वास्तव में?" "जी, बस इतना ही।" बाहर खड़े हुए हम समस्या को साक्षी भाव से देख रहे थे और समस्या स्वत: ही हल जो गयी। इस प्रकार आप कठिन से कठिन समस्या को बहुत आसानी से सुलझा सकते हैं क्योंकि आप हैं। आप के साथ एसा बहुत सुगमता से घटित हो सकता है जब आप यह समझ जात हैं कि आप शरीर, मन या चित्त नहीं है। केवल आत्मा हैं। तब आप अन्तदर्शन करते हैं और कहते हैं कि क्या मैं आत्मा हूँ? और यदि में आत्मा हूँ तो मैं क्या कर रहा हूँ? जब आप आत्मा बन जात हैं तब आप दूसरों के लिए भी सोचते हैं, केवल करुणावश होकर ऐसा करते हैं, किसी प्रकार का नेतृत्व आदि पाने के लिए नहीं। केवल प्रेमवश होकर। और सोचते हैं कि यदि मैं ऐसा बन गया हूँ तो दूसरों का भी क्यों न एंसा बनाया जाए। इस प्रकार सहजयोग तेज़ी से फैलता है और इसका बिस्तार होता है और हमें लोगों के रूप में सन्त प्राप्त हात हैं। इतने सुन्दर व्यक्ति सहजयोग में आ गए हैं कि मेंने कभी आशा ही नहीं की थी कि मेरे जीवनकाल में यह सब हो जाएगा। एसा कभी किसी संत, अवतरण और पैगम्बर के साथ नहीं हुआ। राधा-कृष्ण की कहानी बहुत सुन्दर है। एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा हैं?' कृष्ण ने कहा जाकर स्वयं मुरली से ही यह बात पूछो। वह गयी और मुरली से पूछा कि श्री कृष्ण तुम्हें हर समय होठों पर क्यों लगाते हैं? तब मुरली ने उत्तर दिया देखो मैं बिल्कुल खोखली हो चुकी हूँ, मेर अंदर कुछ भी नहीं है। वह मुझे होठों पर लगाते है और आप हर समय इस मुरली को होठों से क्यों लगाए रखते के पास शक्तियाँ हैं। आपकी शक्तियाँ महान हैं, आप सब सन्त चैतन्य लहरी आप सन्तों से भी आगे हैं क्योंकि आपने ऐसे परिवर्तनशील समय में जन्म लिया है। मान लीजिए कि अन्धकार कुछ ढूंढते हुए आप चाहिए कि आप दूसरे गुरुओं से भिन्न हैं दूसरे गुरु प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न करते हैं, दूसरों को हानि पहुंचाने के लिए शक्ति प्रयोग करते हैं। परन्तु प्रेम में प्रवीणता का अर्थ यह है कि दिव्य प्रेम के साथ घनिष्टता बढ़ाने का ज्ञान आपको हो। यह दिव्य प्रेम न केवल शक्तिशाली है, बल्कि ऐसा निपुण है, ऐसा सतर्क यंत्र है जो हर कार्य को इस प्रकार कार्यान्वित करता है कि आप आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि यह कार्य कैसे सम्पूर्ण हो गया। हर व्यक्ति ने इस बात को जाना है, परखा है और मैं जानती हूं कि आप भी इसे जान जाएंगे। परन्तु आप इसका उपयोग नहीं करते हैं । चैतन्य चेतना में रहते हुए आपने इसका उपयोग करना है। स्वयं को बन्धन देने मात्र से आपका शुद्धिकरण हो जाता है। ऐसा अनुभव कीजिए कि आपके हाथ में वह महान शक्ति है जो आपको संतुलन प्रेम एवं संरक्षण प्रदान कर रही है। अब आप यह शक्ति दूसरों को भी दे सकते हैं व इस परमशक्ति के अभिन्न अंग बन चुके हैं और परमात्मा के साम्राज्य में हैं। जो कुछ में लड़खड़ा जात हैं। यह जगह यदि गेस से भरी हो तो प्रकाश में लाते ही सम्पूर्ण स्थान प्रकाशित हो जाएगा। इसी तरह आप के पास शक्तियाँ हैं, परन्तु आपको "मैं, मेरा, मुझे" जैसी मूर्खताओं से छुटकारा पाना हागा। यह कोई तरणताल नहीं है कि आपने इसमें छलाँग लगाई और बाहर आ गए। यह एक अन्य प्रकार के ज्ञान की बात है कि हमारी जड़ों को विकसित होना है और इन्हें अपने अन्दर विकसित करते हुए हमें अपने अन्दर देखना है कि हम कौन से क्षेत्र में रह रहे हैं। अपनी जीवन शैली के कौन-कौन से क्षेत्रों में इन जड़ों को अन्त्तमुखी बना रहे हैं? श्री कृष्ण ने बताया है कि इस जीवन रूपी वृक्ष की जड़ें हमारे मस्तिष्क इस बात को जानना और अधिक रुचिकर है कि यह जड़ें हमारे मस्तिष्क में बढ़ रही है। इसका अर्थ यह है कि हमारा अपना विवेक में हैं और यह नीचे की ओर बढ़ता है। ट करुणा आच्छादित है। यानि करुणा से इसकी पूरी एकाकारिता है। मेंने आप को उस सन्त की कहानी अवश्य बतायी होगी जो गुजरात में अपने देवता के लिए पानी ले जाया करता था और उसे एक महीने भी आप करना चहते हैं, उसे यह परम शक्ति कर देगी। यह सब बताते हुए भी मुझे ऐसा लग रहा है कि आप विश्वस्त नहीं है। आप परेशान हो जाते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है। वास्तव में आपको स्वयं पर विश्वास नहीं। कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि उनकी देखभाल नहीं की जा रही है। उनके साथ कुछ घटित हो गया होता। एक बार एक स्त्री रो रही थी तो मैंने पूछा क्यों रो रही हो? तो वह कहने लगी इस बार श्री माताजी मुझे देखकर मुस्कुराए नहीं तक पानी का बड़ा उठाकर चलना पड़ा क्योंकि उसका देवता पहाड़ी पर रहता था जय वह तलहट्टी में पहुंचा तो उसने देखा एक गधा प्यास से मर रहा है। उसने सारा पानी उस गधे को पिला दिया। उसके साथियों ने उससे पूछा-'" यह क्या कर रहे हो? सारा रास्ता यह घड़ा उठा कर लाए और अब यह पानी इस गधे को पिला दिया।" तब उसने कहा-" आप नहीं जानते कि देव स्वयं मुझसे मिलने के लिए नीचे आ गए हैं। व नहीं चाहते कि मैं इतनी चढ़ाई चढ़कर ऊपरं जाऊं।" इस प्रकार दूसरों की भावनाओं को सामान्य रूप से समझना, दूसरों की समस्याओं को हल करना, यह सब आप कर सकते हैं और लोग आपको बताएंग कि आपने उनकी समस्या कैसे दूर की जबकि आपको पता ही नहीं होगा कि आपने दूर की। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रेम की ही शक्ति हैं। प्रेम सब चीजों को देख सकता है। यह ऐक टेलीविज़न की तरह है । जो कुछ भी आप देखते हैं और अपनी शक्ति से करते हैं, वह सब हमेशा आपके प्रेम में सन्निहित होता है। आपके पास टेलीफॉन नहीं था। पूरे आकाश तत्व का सार आपके चरणों में है। इसलिए आप जो कुछ भी करना लहरियों द्वारा ही कर सकते हैं। बहुत से लोग कहते हैं श्री माताजी इस व्यक्ति को ठीक कीजिए, परन्तु अब आपको ऐसा कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप जिसे चाहें ठीक कर सकते हैं। परन्तु आप उस व्यक्ति को मंरे ही पास लेकर आते हैं । ऐसा मत कीजिए। आप स्वयं जिसे चाहें ठीक करें। आप उनकी सब समस्याएं सुलझा सकते हैं। एक छोटे से बन्धन से ही सब कार्य हो जाएगा। परन्तु इसके लिए आपकी प्रेम का स्त्रोत बनना पड़गा। जब आप बन्धन देते हैं तो शक्तिशाली प्रम इस कार्य को संभाल लेता है। परन्तु इसके लिए आपको इस सुन्दर चीज़ का स्वामी होना होगा। आपको यह ज्ञात होना हैं। इस प्रकार की भावना भी कभी-कभी सहजयोग में आ जाती है कि श्री माताजी हर समय आप ही से जुड़ी रहें। श्री माताजी किसी से आसक्त नहीं हैं। मुझे लोग कहते हैं कि उस व्यक्ति का बहुत ध्यान रखना है क्योंकि वह बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसा नहीं हो सकता। आप मेरे अभिन्न अंग बन चुके हैं, इसके आगे कुछ नहीं। आपको यह जान लेना चाहिए कि आप मेरे हृदय के बहुत नजदीक हैं, मुझे आप पर बहुत गर्व है। यह एक चमत्कार है कि आपको सहजयोग प्राप्त हुआ। मान लीजिए में किसी से कहूं, "यहां मत बैठो, वहां जाकर बैठो।," तो उन्हें बुरा लगता है। आप कुछ भी उन्हें कहो, उन्हें बुरा लगता है। ऐसे व्यक्ति के अंदर प्रेम-विवेक का अभाव है। वह माँ के प्रेम को नहीं समझता। चाहते हैं, उसे कंेवल चैतन्य जब आप गुरु हैं तो आप माँ भी हैं। एक माँ की तरह आपने अपनी अभिव्यक्ति करनी है। माँ तो करुणामय कोमल हृदय और क्षमादायनी होती है। आवश्यकता पड़ने पर वे प्रेमपूर्वक त्रुटि सुधार भी करती हैं और इस प्रकार वास्तविक सुधार होता है। कोई विद्रोह आरम्भ नहीं होता। माँ का पूर्ण विवेक आप में हैं, आप में पहले से ही विद्यमान है। इसका उपयोग करने का प्रयास कीजिए। मुझे विश्वास है कि यह सब कार्यान्वित होगा। सर्व-साधारण से उन्नत हुए, परस्पर शान्ति तथा आनन्द मग्न, हम लोगों की अति विशाल एवं सुन्दर सामूहिकता है। परमात्मा आपको धन्य करें। भीतन्व तहरी 6. श्री कृष्ण पूजा परम पूज्य श्रीमाताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) कबेला (इटली) अगस्त 1995 के द्वारा किया गया है। आपको इसी प्रकार का सहजयोगी बनना है। श्री कृष्ण ने सहजयोगी का वर्णन तो किया परन्तु उस समय सहजयोगी नहीं थे। अधिकतर लोग अत्यन्त तपस्वी थे जो सत्य की खोज में हिमालय पर चले जाते थे तो भक्ति मार्ग का आरम्भ हुआ। इस भक्ति में भी वे बहुत गोपनीय बने रहे। दूसरों को वे बिल्कुल नहीं बताएंगे कि वे क्या कर रहे हैं। श्री कृष्ण ने भक्ति के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि भक्ति परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित होनी चाहिए, 'अनन्य'। जिसमें किसी अन्य का कोई स्थान न हो। आप एकाकार हो जाते हैं, परन्तु लोगों ने इस बात का गलत अर्थ लगाया। उन्होंने सोचा कि अनन्य का अर्थ है सम्पूर्ण। इस प्रकार श्री कृष्ण की बात को गलत समझकर लोग एक अन्य अति में चले गए। एक अन्य लहर आयी तथा बिना कृष्ण के भक्ति संदेश को समझे, हरे रामा, हरे कृष्णा की धुन लगाए लोग सभी उल्टे सीधे कार्य करने लगे। श्री कृष्ण के अनुसार बिना अन्दर से जुड़े हुए भक्ति नहीं हो सकती। उत्थान और विकास की दृष्टि से अर्थहीन, इस प्रकार की भक्ति में बहुत से लोग फंस गए। आज हम श्री राधाकृष्ण की पूजा करेंगे। यह अत्यन्त अह्लाददायी अनुभूति है क्योंकि श्रीकृष्ण ऐसे समय पृथ्वी पर अवतरित हुए जब धर्म और आध्यात्मिकता के नाम पर लोग अति गंभीर हो गए थे। धर्म का पूर्ण रूप ही नीरस बन गया। लोगों का चित्त एक ऐसे नाटक की ओर चला गया जिससे समाज से अलगाव उत्पन्न हो गया। लोग वैयक्तिक तथा रहस्यमय हो गए। एक प्रकार का भय विकसित हो जाने के कारण इन लोगों के बच्चे भी वैसे ही बन गए। हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार का अपना महत्व और प्रभाव है। बच्चों के अन्दर भी वैसी ही भावनाएं विकसित हो गईं। श्री रामचन्द्र जी के 2000 वर्ष बाद अध्यात्मिकता एक गोपनीय लक्ष्य बन गई। लोग एक दूसरे को बिल्कुल नहीं बताते थे कि उन्हें क्या प्राप्त हुआ। इस गोपनशीलता में वे खो गए। इसी कारण बहुत से कुगुरु तथा पंथ फैल गए। इस एकान्तवाद ने समाज को असंघटित कर दिया। यहां तक कि पिता अपने बेटे से बात नहीं करता था और न ही वह अपनी पत्नी से बात करता था और पत्नी भी बच्चों से बात नहीं करती थी। भारत में लोग धर्म का पालन बहुत श्रद्धापूर्वक करते थे। परन्तु इस प्रकार की तपस्विता से दायीं ओर को चले गए और उन्होंने गीता का पालन बिना यह सोंचे समझे करना शुरू कर दिया कि गीता में लिखा क्या है? जब श्री कृष्ण ने कर्मयोग क बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि कर्म अकर्म हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि सब कुछ उनके चरण कमलों में अर्पित कर दिया जाए। परन्तु ऐसा कभी भी घटित नहीं हुआ क्योंकि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किए बिना आप सोचते हैं कि आप कुछ कर रहे हैं, कुछ प्राप्त कर रहे हैं। जब आप एंसा करने लगते हैं तो कभी-कभी दूसरों को वश में करने लगते हैं, उन पर प्रभुत्व जमाने लगते हैं। बहुत से सन्त आए। परन्तु वे नहीं जानते थे कि लोगों को क्या बताएं क्योंकि वे उन्हें आत्म साक्षात्कार नहीं दे सकते थे। अत: उन्होंने कहा कि परमात्मा का स्मरण करो। आप श्री श्री राम, कृष्ण के नाम का स्मरण करो। महाराष्ट्र में विशेषत: ऐसे बहुतं से सन्त हुए जिन्होंने लोगों से परमात्मा का नाम जपने के लिए कहा। परन्तु इसका अर्थ केवल स्मरण करना ही नहीं था कुछ भी कार्य करते हुए आप कहते रहें कि "मैं परमात्मा का स्मरण करता हूँ।" मानव स्वभाव को न समझ पाने के कारण ये सन्त भी असफल हो गए। वे दूसरे पुजारियों और अन्य लोगों से घनिष्टतापूर्वक जुड़ गए। दो प्रकार के सन्त होते हैं : एक बो जो परमात्मा से विरह की बात करते हैं और दूसरे वो जो परमात्मा से मिलन की बात करते हैं । पर बहुत कम लोग स्वयं वैसा बनने में रुचि दिखाते हैं। वे लोग कहेंगे हम इसका सम्मान करते हैं हम इसमें विश्वास करते हैं, हम श्री कृष्ण जाते थे। जहाँ कहीं भी आप चले जाइए आपको एक श्री कृष्ण मिल जाएंगे। विशेषत: गुजरात में जहाँ श्री कृष्ण स्वयं शासन करते थे। वहां के लोग श्री कृष्ण में विश्वास तो करते हैं दूसरा समूह यह सोचना शुरू कर देता है कि हमारा दमन हो रहा है, मुझे इतना कष्ट है, परेशानी है| इस प्रकार दो प्रकार के लोग बन जाते हैं-एक निरंकुश और दूसरे हर समय रोने-घोने वाले। अत: श्री कृष्ण ने सहजयोगी के गुणों की चर्चा करनी शुरू की उन्होंने कहा कि सहजयोगी सन्तुलित व्यक्ति होता है। उसके लिए सुख-दुःख अर्थहीन हैं। जो भी कुछ वह करता है, उसे लगता है कि यह सब सर्वशक्तिमान परमात्मा में विश्वास करते हैं। ऐसे लोग पंधरपुर चैतन्य लहरी 10 पता चलता है कि कार्यरत आसुरी शक्तयों के प्रति उन्होंने आक्रामकता अपनाई। श्री रामचन्द्र जी ने सभी कुछ सहन किया। उन्होंने रावण को भी बहुत देर बाद मारा। परन्तु आसुरी शक्तियों के विरुद्ध श्री कृष्ण का दृष्टिकोण बचपन से ही गतिशीलता का था। कंस को मारने से पहले उन्होंने कई राक्षसों का वध किया। सबसे पहले उन्होंने आक्रमक, शक्तिशोषक महत्वोन्मादी तथा स्वयं को शाश्वत समझ बैठे राक्षसों का वध किया। श्री कृष्ण ने उनके अहं का नाश किया और उसके बाद सत्य स्थापन करने लिए पांडवों को आत्मसाक्षात्कार नहीं दिया। कुछ सीमा तक उन्हें समझाया कि सत्य की सदैव जीत होती है, "सत्यमेव जयते" ऐसा कहा गया है। यह सब उस समय घटित हुआ परन्तु वे यह भूल गए हैं कि कृष्ण क्यों अवतरित हुए। श्री कृष्ण ने आत्मसाक्षात्कार के बारे में बात की, आंतरिक योग के बारे में बात की। उनके उपदेशों के वास्तिक अर्थ को लोग समझ नहीं पाए और अपनी मनमानी करने लगे। हमारे इतिहास में श्री कृष्ण के नाम पर बहुत भयानक कार्य हुए हैं जैसे हरे राम, हरे कृष्णा। हमारे यहाँ एक श्री माताजी का मन्दिर हैं। जब वे युद्ध से भाग खड़े हुए "रण छोड़दास" तो उन चैतन्य स्वरुप श्री कृष्ण के लिए यह मन्दिर बनाया गया था। एक राक्षस को धोखे में डाल उसका वध करने के लिए वे रण क्षेत्र से भाग खड़े हुए थे। अत: यह रणछोड़ दास अवस्था बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके द्वारा श्री कृष्ण ने राक्षस का चतुरता से धोखा दिया और उसे एक गुफा तक ले गए। जहाँ एक सन्त सोये हुए थे। सन्त को यह वरदान प्राप्त था कि अगर कोई भी उन्हें नींद से जगाने का प्रयत्न करेंगा ता वह अपनी तीसरी आँख खोल कर उसे भस्म जब लोगों को यह बताना नितांत आवश्यक था कि आसुरी शक्तियां कभी जीत नहीं सकतीं। उन्होंने दर्शाया कि असक्षम होते हुए भी किस प्रकार ये शक्तियां गतिशील और हावी हैं तथा सभी लोग इनसे भयभीत हैं। परन्तु श्री कृष्ण ने इन सब शक्तियों को निष्प्रभावित कर दिया। उन्होंने दिखाया इन सब शक्तियों को समाप्त करने में सक्षम हैं। श्री कृष्ण की जीवन शैली का यह पक्ष आधुनिक समय में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अब हम देखते हैं कि अमेरिका में इस प्रकार की बहुत सी विनाशकारी शक्तियां उभर आई हैं। परन्तु उनका स्वरूप राक्षसां से भिन्न हैं। परन्तु स्वभाव से वे राक्षस हैं। रासलीला के माध्यम से श्री कृष्ण ने सामूहिकता का उपदेश दिया। यह एक प्रशंसनीय बात है कि श्री कृष्ण ने लोगों को सामूहिकता में नृत्य करने, खेलने और आनन्द मनाने और स्वयं को साक्षी मानने को प्रेरित किया। आप अपने धर्म या ध्यान धारणा के दास नहीं हैं, आपको आनन्दमय होना है। उन्होंने रक्षाबन्धन जैसे पावन त्यौहारों को आरंभ किया। यह सोचकर कि इस प्रकार आनन्द प्राप्त करने के साथ-साथ समाज का शुद्धिकरण भी होगा, उन्होंने यह सब आरम्भ किया। वे लोगों के जीवन में हर्ष और उल्लास लेकर कर देंगे। इस प्रकार श्री कृष्ण ने चाल चली। और वह गुफा के अन्दर भागे। तब वह राक्षस भी उनके पीछे-पीछे भागा। श्री कृष्ण न अपना दुशाला उस निद्रा मग्न सन्त पर डाल दिया और स्वयं छिप गए। पीछे से वह राक्षस भागता हुआ आया और कहने लगा अच्छा तुम भाग आए हो और थककर यहाँ सो रहे हो। उसने दुशाला खींचा और संत की निद्रा भंग कर दी। संत के कटाक्ष मात्र ने राक्षस को भस्म कर डाला। श्री कृष्ण की जीवन शैली मेरी जीवन शैली से अत्यन्त भिन्न थी। श्री राम चन्द्र जी ने बनवास स्वीकार किया और चौदह वर्ष जंगल में बिताए। वे अपनी पत्नी को ढूंढने के लिए गए और उनके बच्चों ने भी उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया। श्री के जीवन का पहलू बिल्कुल पहली चीज़ यह समझी कि मनुष्य बहुत चालाक है और परमात्मा के विषय में सीधे से बताई गई कोई भी बात वे स्वीकार नहीं करेंगे। अपने विचारों के अनुसार ही वे सब कार्य करेंगे इसलिए श्री कृष्ण नं उन्हें दूसरे ढंग से समझाने की कोशिश की। बहुत चतुराई से उन्होंने अपने उपदेश दिए कि "आप को कर्म करना है। आपका कर्म ही अकर्म बन जाता है।" यह एक असंभव स्थिति है। और दूसरी बात यह कि "आपकी श्रद्धा अनन्य होनी चाहिए।" कोई भी इन दोनों शर्तों को पूरा नहीं कर सका। अब सहजयोग के समय में लोगों ने जान लिया कि श्री कृष्ण द्वारा कही गई बातों का आचरण करने से वे कहीं नहीं पहुंचे हैं । परन्तु श्री कृष्ण के जीवन का ढंग अलग ही था। बाल्य काल में उन्होंने अपने निवास नगर गोकुल को आक्रान्त करने वाले राक्षसों का वध किया। पर उनका ढंग बिल्कुल अलग था। भयंकर राक्षसी पूतना, जो उन्हें अपने दूध के साथ विष देना चाहती थी, का वध उन्होंने उसका दूध पीते हुए ही कर दिया। इससे भिन्न था। उन्होंने कृप्ण आए। यह आनन्द आत्मानन्द था-निरानन्द। अति विकृत रूप में ये सब चीजें आजकल अमरीका के जीवन में प्रतिबिम्बित हो रही हैं। अमेरिका के जीवन में आनन्द का अर्थ सर्वथा दूषित है क्योंकि अब भी यह विनाशकारी है। जो कुछ भी वे लोग अपनाते हैं, वह सब आत्म विनाशी है और यदि आप उन्हें समझाएं तो वे कहेंगे 'गलती क्या है।' अमरीका में इतने गुरु क्यों समृद्ध हुए? क्योंकि उन्होंने इन लोगों के अहंकार को प्रोत्साहित किया और कहा कि "यह सब ठीक है। जब तक धन देते रहो अपनी मनमानी करते रहो। इस प्रकार सब कुछ होने लगा। रजनीश की तरह लोग पथभ्रष्ट होते गए। अमरीका आकर रजनीश ने रजनीशग्राम शुरू कर दिया और हजारां अनुयायियों के साथ बहां जम गया। परन्तु श्री कृष्ण की शक्तियों ने उस पर कार्य किया और वहां उसे मुंह की खानी पड़ी। है। चंतन्य लहो 11 को इससे राहत दिलाता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। जब उन्हें राहत कहीं नहीं मिली तो वे भिन्न लोगों के कुचक्रो में फंसते गए और इस प्रकार दिन-प्रतिदिन पतन की ओर अग्रसर होते गए। साथ ही साथ अनैतिकता का प्रकोप हुआ। अमरीका का संविधान यदि आप पढें तो आप आश्चर्यचकित होंगे कि बहुत सूक्ष्म रूप से केवल पूर्ण नैतिकता को ही समर्थन मिला है। एक कानून है कि घर से बाहर जाते हुए आप कोई बेतुकी वेशभूषा नहीं पहन सकते। तैरते हुए कोई भी पूर्णतया नग्न नहीं हो सकता। लक्ष्य यह था कि लोग नैतिक बने। परन्तु जब भी कोई कानून बनता है लोग इसे तोड़ देते हैं, सम्भवत: पूछने के लिए कि यह क्यों बनाया गया। इस प्रकार जब नियंत्रण करने का विचार आता है तो पूछा जाता है आप किस प्रकार नियत्रण कर सकते हैं और किस आधार पर ऐसा कहते हैं कि हमें ऐसा नहीं करना है। परिवार रूपी संस्था में भी अब पूर्ण विस्फोट हो चुका है, बच्चों ने बड़ों की अवज्ञा करनी शुरु कर दी है। जैसे उनके माता-पिता थे वैसे ही बच्चे बन गये हैं । लोगों ने सोचा कि स्वतन्त्रता है। स्वतंत्रता का उपयोग जो लोग नहीं जानते, उन्हें स्वतंत्रता नहीं मिलनी चाहिए। लोगों को समझ होनी चाहिए कि स्वतन्त्रता है क्या। स्वतन्त्रता को समझने तथा इसका सम्मान करने वाले ही वास्तव में स्वतंत्र हैं। स्वतन्त्रता में हुए इस विस्फोट ने लोगों के भ्रष्ट कर दिया और अत्यन्त बेतुके जीवन को उचित तथा तर्क संगत कहते हुए वे इसे अपनाने लगे। लोग समलिंग कामी हो गए हैं। यह अत्यन्त अनुचित है, पूर्णतया अस्वभाविक। परन्तु जब स्वतंत्रता के विचार का विस्फोट इन लोगों में तब सब भूत भी इनकी आजादी को लेने आ गए और इन भूतों से ही इन्हें ये सब दुर्विचार मिले। इतने विशाल स्तर पर लोगों पर इन भूतों का कुप्रभाव है कि लोग भयंकर रोगों के शिकार हे रहे हैं। उस समय सबसे विनशकारी व्यक्ति तो आस्ट्रिया का फ्रायड था। उसने इन सब के जीवन को नष्ट कर दिया क्योंकि स्वतन्त्र होते ही वे सभी पुस्तकों को 'बाइबल मान बैठे। लोगों ने फ्रायड तथा फ्रांस के कुछ अन्य लोगों का अन्धाधुंध अनुसरण करना शुरु कर दिया। यह पूर्ण अपरिपक्वता का चिह्न है। परिपक्व व्यक्ति कभी ऐसा नहीं कर सकता। लोग कहने लगे कि हमें कोई समस्या नहीं है, हम हर चीज़ का सुख लेते हैं, मज़ा ही महत्वपूर्ण है। अब वो इस मज़े से उत्पन्न हुई समस्याओं के बारे में बात करने लगे हैं। वे बताते हैं कि 65% लोग खंडित मानिकसता के शिकार हैं और 30% पागल हो जायेंगे। तो सामान्य लोग कितने बचे? आप को बहुत दुःख होगा कि किस प्रकार इतनी अधिक संख्या में लोग इस प्रकार की कठिनाइओं में फंस जाते हैं और उन्हें अजीबो-गरीब रोग हैं। उनकी अधिकतर बीमारियाँ मूलाधार सम्बन्धी हैं। सभी जगह आपका बहुत से कुगुरु मिल जाएंगे, परन्तु श्री कृष्ण की शक्तियां नं उन सब को पराजित कर दिया है क्योंकि श्री कृष्ण इस कार्य में बहुत निपुण हैं। वे जानते हैं कि इन सब का किस प्रकार मूर्ख बनाना है। इन सब दुष्टताओं का यह परिणाम हुआ है कि लोगों का किसी भी चीज़ में विश्वास नहीं रहा। लोगों को यह समझ आ गई है कि किस प्रकार ये गुरु हमें धोखा देते हैं और हमारा पैसा छीनत हैं। इसलिए लोगों ने गुरुओं से सम्बन्ध तोड़ लिए। हम काई असामान्य लोग नहीं हैं, हम बिल्कुल सामान्य लोग हैं। हमने न तो मूर्खतापूर्ण अनुयायी बनाए हैं और न ही इस प्रकार की हास्यास्पद ध्यान धारणा आरम्भ की है कि आप हवा में उड़ंगे-आदि आदि। परन्तु अमरीका के लोग यह सब समझने के लिए अभी परिपक्व नहीं हुए, अन्यथा वे इस प्रकार के भयानक गुरुओं के शिकार न होते। हमारे पास एक आर तो इन गुरुआं द्वारा दुष्प्रभावित लोग हैं, दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो यह समझते हैं कि हम भी उन गुरुओं में से एक बन सकते हैं और तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जो अत्यधिक सीधे और अल्हड़ हैं वे बिल्कुल बच्चों जैसे हैं। अमरीका के लागों न मुझे बताया कि वे बिल्कुल बच्चों जैसे हैं और उन तक पहुंचनं के लिए उन्हें समझाना पड़ेगा कि केवल माँ का प्यार ही उन्हें ठीक कर सकता है। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, यह पहला दश था जहां मैं पहली बार 1974 में गई और बहुत से लोगों को आत्म-साक्षात्कार दिया। परन्तु बाद में मुझे लगा कि ये लांग गहन चीजों की चिन्ता नहीं करते। इस प्रकार हमने बहुत से सहजयांगी खा दिये। कुछ ऐसे भी थे जो बीमार थे और ये अपना इलाज चाहते थे, बस। कुगुरुओं से पीड़ित कुछ लोग भी आए। जिज्ञासु हांते हुए भी लोग सहजयोग के लिए तैयार न शे। उनके अंदर बेचैनी तो थी पर वे सहजयोग के लिए तैयार नहीं थे। वे नहीं जानते थे कि क्या देखना है और क्या प्राप्त करना है। यही मेरे लिए बहुत दुःख की बात थे। इसलिए मैं आगे के पूरे नौ वर्ष अमरीका नहीं गई क्योंकि मैंने सांचा कि अपना समय तब तक दूसरी चीज़ों में लगाऊँ जब तक यें लांग अपनी गलतियों को समझने के काबिल और परिपक्व नहीं हो जाते। गुरुओं के पास जा-जा कर अब ये थेक चुके है। बहुत से लोगों में इतनी बेचैनी हैं कि वे इस प्रकार की बहुत सी किताबें व लेख लिखते हैं। सहजयोग के विकास के लिए एसी बैचेनी का होना महत्वपूर्ण है। आप में से बहुत से लांग अपने पूर्व जन्मों से साधक हैं और आपके अन्दर यह बेचनी है। परन्तु आप नहीं जानते कि इसका क्या करें और कहा जाए। तर्कसंगत है कि इस बैचेनी के कारण आप किसी एस व्यक्ति के पास जाते जो कम से कम आप ी हुआ चैतन्य लहरी 12 होगा कि बुद्धि से परे भी शक्ति है। लोग कुण्डलिनी में विश्वास न करें कोई बात नहीं परन्तु एक बार जब वे जान जाएंगे कि बद्धि से परे भी कोई शक्ति है तो वे इसे कार्यान्वित करने का प्रयत्न करेंगे। लोगों को इस पराशक्ति के बारे में विश्वास दिलाना अत्यन्त कठिन है क्योंकि वे विज्ञान, परिवारिक परम्पराओं और अपन अहंकार की मूर्खताओं में इस प्रकार जकड़े हुए हैं कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता। प्रकृति भी इस विषय में बहुत सहायता कर रही है। अमेरिका इतना-समृद्ध देश क्यों है? ऐसा लोग कभी नहीं पूछते। उन्होंने ऐसा क्या किया है? उनके कौन से पुण्य हैं? अब आनन्द किस स्थिति में प्राप्त होता है? कहां आप आनन्द उठाते हैं? आप अपने हृदय में, अपने सहस्त्रार में आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं। मूलाधार में तो आनन्द प्राप्ती का प्रश्न हो नहीं उठता। यदि आप इस प्रकार गिरते हैं तो इसका कोई अन्त नहीं। इस विचारधारा ने अमरीका में बहुत सी भयंकर समस्याएं खड़ी कर दी हैं। वे लोग धनलोलुप हो गए हैं। उनके लिए पैसा ही सफलता है, पैसा ही आनन्द है, पैसा ही सब कुछ है। अब यह तीसरा गुण कहाँ से आया? श्री कृष्ण के समय में भी लोग बहुत धन-लोलुप थे। वे अपना दूध और मक्खन, कस जैसे राक्षस को बेच देते थे। अत: श्री कृष्ण उनकी मटकियां फोड़ देते ताकि दूध व मक्खन वहां तक न पहुँच सकें। स्त्रियाँ भी दूध और मक्खन अपने बच्चों को न देकर इन दुष्टों को बेचने जातीं थीं। यह प्रकाश व प्रतिछाया की तरह है। श्री कृष्ण प्रकाश हैं। वे इतने निरासक्त थे कि कभी भी कोई गलत या अनैतिक कार्य वे कर ही नहीं सकते थे। जो कुछ उन्होंने किया वह पूर्णतया नैतिक था क्योंकि निरासक्तं हो कर जब आप कुछ करते हैं तो आप को कोई भी चीज़ छू नहीं सकती। इस प्रकार परमात्मा की लीला के विषय में उन्होंने बताया। अब हम अपने जीवन में भी देखते हैं कि किस प्रकार परमात्मा की लीला कार्य करती रहती है। इसका एक कारण तो यह कि श्री कृष्ण स्वयं कुबेर हैं और वे अपना कार्य कर रहे हैं। वे ये सारा कार्य कर रहे हैं परन्तु लोग यह समझने को तैयार नहीं हैं कि यह दिव्य अनुकम्पा है। वे सोचते हैं कि यह तो उनका अधिकार हे और इस बारे में बहुत शेखी मारते हैं। अत्यन्त आत्मश्लाघी लोग हैं। वे अपनी समृद्धि की बात करते हैं । यह अत्यन्त कठिन परिस्थिति और संस्कृति है। भारत में यदि कोई अपने धन के बारे में बोलना शुरू करे तो लोग सोचते हैं कि वह पागल हो गया है क्योंकि ऐसा करना वहां अशिष्टता मानी जाती है। पश्चिम में अशिष्टता नाम की कोई चीज़ नहीं होती। वे अपने पिता को भी बहुत बुरे शब्दों में गाली दे देते हैं। हमें अमरीका को वास्तव में बचाना होगा। चहुं ओर से यह घिरा हुआ है। उनके नैतिक और कलात्मक पक्षों पर आघात हो रहा है। वहां कोई श्रेष्ठ कलाकार पैदा नहीं हो रहा। उनके आधुनिक चित्रकला में कोई गहनता नहीं, ये गन्दगी से परिपूर्ण हैं। ये गन्दे चित्र वे अपरिपक्व लोगों को बेचते हैं जो मूलाधार जब लाग सहजयोग में आते हैं तो अत्यन्त अशान्त होते हैं तथा मुझसे सैकड़ों प्रश्न पूछते हैं। दूसरों पर हावी होकर बहुत से उल्टे सीधे कार्य करने लगते हैं। परन्तु दिव्य शक्ति का अनुभव पाकर वे शान्त हो जाते हैं तब उन्हें बहुत से संयोग और चमत्कार दिखाई देते हैं और वे समझने लगते हैं कि कोई शक्ति है जो हमें उचित मार्ग पर ले जा रही है। इसलिए जब हम इस बात का अनुभव कर लेते हैं कि कोई दिव्य शक्ति हमारी सहायता कर रही है, और जो हमारे बौद्धिक ज्ञान से परे है तब परिवर्तन होने लगता है। अब हमें अमरीका में यह कार्य करना है। हमने उन्हें बताना है कि उनके ज्ञान से परे कांई शक्ति उन्हें सुधारने और परिवर्तित करने की प्रतीक्षा कर रही है। विश्व भर में परिवर्तन होने वाला है। मैं इसे बहुत स्पष्ट देख पा रही हूँ। सभी देशों में मैं इसे देखती हूँ और सब जगह ये कार्यान्वित होता है। मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा था कि मैं अपने जीवन काल में इस व्यापक परिवर्तन को देख पाऊँगी। परन्तु अब तो यह अपने विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच चुका है। आप सब लोग परिवर्तित हो चुके हैं। भारत में इस की भविष्यवाणी बहुत पहले कर दी गई थी। जब आप चैतन्य लहरियों को महसूस करना तथा इसका उपयोग जब आप करने लगते हैं तब आप समझ जाते हैं कि यह शक्ति कार्य करती हैं। तब आप स्वयंभुओं के शक्ति केन्द्ों को भी देखने लगते हैं । तब आप समझने लगते हैं। आप की यह समझ बढ़ती चली जाती है। परन्तु पहले आप को विश्वास करना चक्र की समस्याआं से ग्रस्त हैं। आप उनकी सहायता किस प्रकार कर सकते हैं? किस प्रकार आप उन्हें सुधार सकते हैं? यह परिपक्वता प्राप्त करने वालों का प्रश्न है, इसके लिए नि:संदेह चैतंन्य परम सहायतां करेगा उनकी दुर्बलता यह है कि विकास के मामले में वे परिपक्व नहीं है। सहजयोग के प्रचारार्थ हम समाचार पत्र आरम्भ कर सकते हैं या इस प्रकार का कोई अन्य प्रसार माध्यम जैसे केबल टी.वी. आदि शुरू कर सकते हैं। उन्हें बतायें कि सहंजयोग से क्या लाभ हुआ है और उन्हें यह क्या लाभ पहुंचा सकता है। सभी कुछ बाहुल्य में होने के कारण, यह अत्यन्त पागलों का स्थान है। जहां पर भी आप नज़र डालें वहीं हिंसा, भ्रष्टाचार और लड़ाई-झगड़े हैं। यह धर्म नहीं है। इस प्रकार से कोई कैसे खुश रह सकता है? परन्तु यहां तो ऐसा ही है। इसलिए आप सब इससे बाहर निकल आइए जहां एक दूसरे से प्रेम कर सके, एक दूसरे का ध्यान रखं सके, परस्पर आनन्द दे सके। आपका आनन्द सर्वथा शुद्ध है और यही दूसरे लोगों को दिखाई देना चाहिए और यह सब हो सकता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक दिन हम अमेरिका में अवश्य सफल होंगे। "परमात्मा आप सब को आशीर्वादित करे। " चैतन्य लहरो 13 श्री गणेश पूजा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के प्रवचन का साराश कबेला इटली-10, सितम्बर, 1995 है कि ईसाई, इस्लाम व यहूदी धर्म भी पिता के बारे में तो बात करते हैं परन्तु न तो वे माँ की वात करते हैं और न श्री गणेश की। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में चीन, यूनान व अन्य अपरिष्कृत कहे जाने वाले देशों में लोग बाल भगवान में विश्वास करते थे। पुर्ण विनाश के गर्त में ले जाने वाले क्षणिक सुखों में आप खो सकते थे, परन्तु में समझे नहीं पा रही कि आपने यह अवस्था किस प्रकार प्राप्त की है जहां जीवन में पवित्रता इतनी महत्वपूर्ण है और जहां श्री गणेश के सभी गुण, उनकी मूल्य प्रणाली और पावित्र्य को आत्मसात करना आवश्यक है। मैं अति सन्तुष्ट हूँ कि हमारे जीवन में ऐसी घटना घटी और आप सब श्री गणेश जी से इतने अधिक प्रभावित हैं। श्री गणेश जी हमारे शैशव काल से ही हमारे साथ रहते हैं। श्री गणेश जी आपके अन्दर अपने बच्चों से व्यवहार करते हुए हमें ध्यान रखना चाहिए कि वे श्री गणेश सम हैं। वे बहुत सीधे और भोले हैं। अपनी सीमाएं वे केवल किसी कुप्रभाव की परिस्थिति में ही लांघते हैं। श्री गणेश की सहजयोग को सबसे बड़ी देन यह है कि वे आपको मेरी चैतन्य लहरियों की अनुभूति करवाते हैं । पावित्र्य एवं भोलेपन के सौन्दर्य का अनुभव वे आपको प्रदान करते हैं । आपके अन्दर श्री गणेश की जागृति होने पर ही ऐसा होना सम्भव है। बिना अपने अधिपति की अनुमति के कुंडलिनी नहीं उठती। इतने सुन्दर ढंग से स्थापित हो गए हैं और इस प्रकार जागृत हो चुके हैं कि अपनी स्वतन्त्रता में भी आप श्री गणेश विरोधी कोई कार्य नहीं कर सकते। आपके अन्दर उनकी अभिव्यक्ति इतनी स्पष्ट हो चुकी है। आपके चेहरों पर सुन्दर चमक है, अन्य लोगों से आप बहुत भिन्न लगते हैं। लंदन से वापिस आते हुए एक बार एक भारतीय महिला मेरे समीप आईं और कहने लगी "मैं आपके शिष्यां को देखकर बहुत हैरान हूँ। उनके चेहरे अत्यन्त तेजमय थे। मैंने एसे शिष्य कभी नहीं देखे," मैंने उससे पूछा, आप कौन हैं?"' उसने कहा, "मेरा विवाह श्री गुरुनानक जी के परिवार में हुआ है, परन्तु उनके परिवार के सभी लोग गुरुनानक जी से पूर्णतः विपरीत हैं।" मैंने उसे बताया, "क्योंकि सहजयोगी श्री गणेश जी की पूजा करते हैं, इसलिए उनके चेहरों पर इतना तेज होता है।" उसने बताया कि उनके परिवार में कोई भी श्री गणेश की पूजा नहीं करता। मैंने पूछा, "यह कैसे सम्भव है ! "नहीं, वे निराकार में विश्वास करते हैं । चैतन्य के निराकार के रूप में।" " तो फिर वे उसके स्त्रोत को क्यों नहीं ढूंढते।' मूलाधार पर विराजमान होने के साथ-साथ श्री गणेश सभी चक्रों पर विद्यमान हैं। अबोधिता हमारी सभी प्रकार की व्याधि यां-शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और विशेषकर आध्यात्मिक-को दूर करती हैं। परन्तु श्री गणेश जी वका सबसे महत्वपूर्ण गुण यह है कि वे चैतन्य लहरियां छोड़ने में आस्था रखते हैं। वे सभी के लिए चैतन्य प्रक्षेपण करते हैं। उनके इस गुण को आप सब भी उपयोग कर सकते हैं। सहज ही में बिना किसी प्रयास से के आपको आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ। आत्म-साक्षात्कार पूर्व आपका जीवन पूर्णतया भिन्न था। आपका पूरा कायाकल्प हो गया है और पराविज्ञान के नए युग में आप प्रवेश कर गए हैं। परन्तु अब हमें देखना होगा कि अपनी इस उपलब्धि को हम किस प्रकार उपयोग में लायें? यह तो आप जानते ही हैं कि आपने तब उसने कहा, "श्री नानक जी ने इतना ही बताया है। उन्होंने इस स्त्रोत की बात नहीं की।" मैंने कहा, "आप उनकी लिखित वाणी ( पुस्तकों में) में ढूंढिए। अवश्य कहीं कुछ छूट गया है । तभी किसी ने मुझे गुरु ग्रन्थ साहब का ऐसा पद्यांश दिया जिसमें नानक जी न भोलेपन का और श्री गणेश जी का उल्लेख किया दूसरे लोगों को साक्षात्कार देना है, उन्हें रोगमुक्त करना है और करुणामय होकर उनसे प्रेम करना है। अपनी शक्तियां, अपनी ऊर्जा आप अन्य लोगों को दे सकते हैं। किसी व्यक्ति को यदि आपकी सहायता की आवश्यकता है और आप भी अपनी शक्ति है। नानक जी ने बताया है कि इस सारी सृष्टि का सृजन माँ ने ही किया है, पिता ने नहीं। निराकार में लोग परमात्मा के किसी भी स्वरूप में विश्वास नहीं करते। वे पिता के बारे में तो बात करते हैं परन्तु माँ के बारे में कुछ नहीं कहते। ये सत्य प्रसार करना चाहते हैं तो आप उसकी सहायता कर सकते हैं। यह एक नये प्रकार की ध्यान-धारणा है जिसका आप सब को अभ्यास करना है। अपनी शक्ति को प्रसारित करके दूसरों पर प्रक्षेपित करना। न आपको कुछ कहना है और न ही कुछ बोलना चैतन्य लहरी 14 वे आशा करते हैं कि हर व्यक्ति को अभिनेता सम होना चाहिए। परन्तु अपने बारे में नहीं सोचते। आध्यात्मक रूप से दूसरों से ऊपर उठकर आप विशिष्ट बन चुके हैं। यह सुविचारित शक्ति प्रक्षेपण आरम्भ होने पर आपको डरना नहीं है कि आप को अंहकार है। आपको नचित्त से केवल महसूस करना है। और में चित्त से विशेष रूप से इसलिए कह रही हूं क्योंकि ऐसा करना न तो सहज है और न स्वत:। आपको अपनी गणेश तत्त्व की अबोधिता शक्ति को दूंसरों पर छोड़ने का अभ्यास करना है। इस प्रकार उनकी अबोधित भी जागृत हो जाएगी। उदाहरण के तीर पर लंदन में कुछ समस्या थी। सहजयोगियों ने मुझे बताया कि कुछ आदमियों की हम पर कुदृष्टि है और कुछ ने कहा कि कुछ औरतें हम पर कुदृष्टि रखती हैं। तो मैंने उन्हें उत्तर दिया कि आप अपनी शक्ति का प्रक्षेपण इस प्रकार कीजिए कि दूसरों का मूर्खतापूर्ण व्यवहार रुक जाए और वे आपका आदर करें और आपके व्यक्तित्व की गरिमा का अहसास करें। यह आ जाएगा या आप किसी प्रकार से बन्धनग्रस्त हो जाएंगे। आपको केवल यही जानना है कि आपमें शक्तियाँ हैं और उन्हें बच्चे की भांति सुन्दरतापूर्वक अभिव्यक्त कर रहे हैं। एक बच्चा कम से कम 100 लोगों का मनोरंजन कर,सकता है। उस बच्चे के माधुर्य का रहस्य है उसकी अबोधिता जिस प्रकार वह बोलता है, आचरण करता है अथवा जिस ढंग से अपने प्यार की अभिव्यक्ति करता है, वह बहुत ही सरल होती है। परन्तु इसमें कुछ सारतत्व तो होता है। श्री गणेश का पावित्र्य ही यह सारतत्व है। कार्य कठिन नहीं है। परिन्तु इसके विपरीत यदि हम नारी और पुरुष के आकर्षण-प्रत्याकर्षण की सभ्यता का अनुकरण करेंगे तो हमारी शक्ति क्षीण हो जाएगी। विश्व में कहीं भी जब बच्चों सम्बन्धी समस्या होती है जब आप अपने आत्म-साक्षात्कारी होने की गरिमा और शक्ति का अहसास करते हैं तो आपके अन्दर एक तेजस्वी व्यक्तित्व का विकास हा चुका होता है। यह तेजस्वी व्यक्तित्व अपने आसपास के के लागां पर आश्चर्यजनक प्रभाव डाल सकता है। आपको तो सारा संसार चिन्तित हो उठता है और उसका समाधान करना चाहता है। एक बच्चा भी यदि कहीं पर कठिनाई में है तब चहूँ ओर यह बात फैल जायेगी। बच्चे को देखते ही सब लोगों के हावभाव बदल जाते हैं क्योंकि सहज स्वभव से बच्चा अपने सहज ही में इस सुविचारित शक्ति का प्रक्षेपण आरम्भ करना है। यह सहज ही में घटित हो जाती है। थोड़े से अभ्यास से ही आप इसे प्राप्त कर लंगे। अन्य लोगों को तिरस्कार अथवा पावित्र्य का प्रसार करता है। बिना कोई विशेष विधि अपनाए स्वत: ही वह ऐसा कस्ता है। परन्तु आपने तो कपटी लोगों के है। मध्य रहते हुए उत्थान प्राप्त करना है। उनसे मिलना-जुलना संमाज से आप भाग नहीं सकते। परन्तु जब आप ऐसे लोगों के साथ इतनी घनिष्टता बना लेते हैं जो श्री गणेश की आलोचना करते हैं और सब तरह की उल्टी-सीधी बातें करते हैं तो परिणामवश आपका अपना पावित्र्य भी धीरे-धीरे नष्ट होने लग घृणा सं नहीं दंखता, अपने गौरवशाली व्यक्तित्व को समायोजित करना है। यही गौरवशाली व्यक्तित्व इस समय यहां विराजित होकर दूसरों का चैतन्य द रहा है। इसका पूर्ण अस्तित्व लोगों पर विस्मयकारी कार्य कर रहा है। सम्पूर्ण विश्व सहजता से जाता है। तथा कभी-कभी तो आप स्वयं को पावित्र्य के इन शत्रुओं से भी हीन समझने लगते हैं। जब मैं लन्दन में थी तो मेरी कुमकुम की बिन्दी के कारण लोग मुझ पर हंसा करते थे मैं सोचती कि ये बिन्दी के महत्व को नहीं जानते हैं कितने अज्ञानी हैं कि इतना भी नहीं जानते कि भारत में सभी विवाहित स्त्रियाँ कुमकुम लगाती हैं? इसलिए मैंने उन्हें समझाया बिन्दी के माध्यम से मेरे माथे पर लिखा हुआ है कि मैं विवाहित हूं, ताकि कोई मुझे परेशान न करे। मेरे पीछे मेरे पति देव हैं जो ऐसा करने वालों की खबर ले सकते हैं। पश्चिम में इस स्वमव ही बदल जाएगा, ऐसी धारणा करना गलत है, क्योंकि पूरा विश्व ही अव्यवस्थित हो चुका है। इतना अधिक अहंकार एवं कुसंस्कार भरं पड़ें हैं। परन्तु आपके अन्तर से कोई चीज़ दूसरों की अपक्षा ऊंची उठ सकती है। यह है आपका गरिमा, विवेक, आपका आत्म तत्त्व जहां आप स्वयं खड़े हैं। आप को न असभ्य हाना है न अहंकारी। यदि आप कुछ कहना नहीं चैतन्य चाहते, ता न कहं। कवल ये शान्त व्यक्तत्व ही उन सुन्दर लहरियों का प्रसारित कर सकता हैं जो आपने अपने अन्दर एकत्रित की हैं। चैतन्य लहरियों का यह एकत्रीकरण ही आपके दैदीप्यमान प्रकार की अज्ञानता की भरमार है फिर भी वे स्वयं को उच्च कुलीन तथा महान समझते हैं। जीवन की छोटी-छोटी बातों को भी वे नहीं जानते। पावित्र्य-बोध तो उनमें बहुत समय पहले चेहरां पर प्रकट हो रहा है ल आपको अपनी अबाधिता पर गर्व होना चाहिए। अब भी कभी-कभी आप सांचते हैं कि लोग कहेंगे, "आप की वेशभूषा अच्छी नहीं है, आप अच्छे नहीं लग रहे हैं आदि-आदि)" संसार ही समाप्त हो गया था और इसी कारण उनका समाज अपने ही तट-बन्धों (Moorings) में पूरी तरह खो चुका है हर व्यक्ति में सभी मानव दूसरां से बहुत अच्छा होने की आशा कैरते हैं। 15 चतन्य तगी पति कहते हैं "कि यदि आपको सौम्यता का मूर्त रूप देखना है तो. आप श्रीमती श्रीवास्तव को अवश्य देखिए।" मैं हैरान रह गयी कि यूनान में लोग सौम्यता की बात कर रहे हैं। आज के युग में कोई पवित्रता के बारे में बात करे। यह मेरी समझ के परे है मैंने महसूस किया कि अपने पूर्व संस्कारों और परम्पराओं के कारण कि ये लोग मेरे अंदर उस सरलता को देख पाए और अपनी पत्नियों को जाकर बताया कि किस प्रकार उन्हें मेरे सानिध्य से आनंद मिला। मैं तो उन्हें हंसा रही थी कि अचानक एक ने कहा "श्रीमती श्रीवास्तव आप तो एकदम बच्चों की तरह लगती है।" मैंने कहा "सचमुच?" " हमें आप की संगति में बहुत आनंद मिला।" और जब मैं आ रही थी तो उनकी आँखों में आंसू थे। अत: अपने अबोध व्यक्तित्व का उपयोग आपने दूसरों पर करना है। अगर कोई आप के साथ कुछ बेहूदी हरकत करता है तो आपकी एक दृष्टि उसे ठीक कर सकती है। यदि आप को कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती तो इस बात को स्पष्ट भिन्न है, कोई एक-दूसरे को नहीं जानता निष्कपट हुए बिना आप किसी से सौहार्द नहीं बनाये रख सकते क्योंकि इस प्रकार के सम्बन्धों के पीछे कोई लालसा या स्वार्थ छुपा होता है। किसी ने मुझसे फ्रायड के बारे में पूछा और कहा कि लोग उसका इतना विरोध क्यों करते हैं? आप उसके इतने विरुद्ध क्यों है? फ्रायड ने कहा है कि माँ और बेटे के बीच गलत सम्बन्ध होता है। वह उछल पड़ा। परमात्मा की कृपा से वह भारत नहीं आया, अन्यथा भरतवासी उसके टुकड़े-टुकड़े करके हिन्द सागर में फैंक देते.. परन्तु हम हिन्द महासागर को भी क्यों अपवित्र करें? जहाँ भी आप जाएँ यौन उच्छंखलताओं के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। मुझे समझ नहीं आता कि लोग इसे सहन क्यों करते हैं। किसी व्यस्क फिल्म में थोड़ा बहुत दिखाना बुरी बात नहीं, परन्तु सभी फिल्में शयनकक्ष के बेहूदे दृश्यों से परिपूर्ण हैं और लोग यह सब पसंद करते हैं। इनके लिए पैसा खर्च करते हैं । जीवन के हर पक्ष को वे प्दे पर देखना चाहते हैं। ये अत्यन्त स्वाभाविक चीज़ है। मुझे समझ नहीं आता कि इसके विषय में बात करने को क्या है? यह मानसिक विकृती है कि वे अभद्रता को स्वीकार करके कहते हैं कि इसमें गलत क्या ा। रूप से कहना ही एक प्रकार का प्रक्षेपण है। अपने समाज में आप के आस-पास, जहाँ आप कार्य करते हैं, ऐसे लोग भी मिलेंगें जिनको अबोधिता की समझ नहीं है और उनके साथ रहना हैं अच्छा नहीं लगता। परन्तु जो शक्तयाँ आप के पास हैं उनका प्रक्षेपण करें। मैंने देखा है कि सहजयोगी लोगों का इलाज करने से घबराते हैं। वे मुझे कहते हैं कि "मां इसका इलाज करना है? तुम पागल हो इसी कारण लोग पागल खाने में जाते हैं। पागल भी ऐसे ही बातें करते हैं कि "गलती क्या है।" इस तरह की अभद्रता को स्वीकार करके लोग यह नहीं जानते कि उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन व बच्चों को नष्ट कर लिया है।" आप सब इतने सारे लोग हैं तो मुझे यह सब करने की क्या आवश्यकता है? आप सब रोगियों को ठीक कर सकते हैं। है। हमारा समाज हर प्रकार की मूर्खता से भरा हुआ है। विशेषत: दूरदर्शन में यह सब बहुत दिखाया जाता है। जो भी हो, श्री ये गुण आप में पहले से निहित थे और अब श्री गणेश जी की अनुकम्पा से ये गुण जागृत हो चुके हैं अब आपने दृढ़तापूर्वक उनका उपयोग करना है। पर याद रखें कि अपनी बुद्धि व अहंकार का उपयोग बिल्कुल नही करना। कुछ लोग कहते हैं "माँ, बुद्धि के बिना कैसे हम दूसरों को प्रभावित करें, कैसे हम दूसरों के साथ तालमेल बिठाएँ? ऐसा करना बहुत सरल है । आप केवल निर्विचार हो जाइए। जैसे ही आप निर्विचार होते हैं आप परमात्मा गणेश जी की कृपा से आप सब परिवर्तित हो गए हैं। आप भिन्न मार्ग पर चल पड़े हैं। आप देखते हैं कि श्री गणेश जी ार ने आप के लिए क्या कुछ कर दिया है। और किस प्रकार उन्होंने आपके चित्त को इतना सुन्दर बना दिया है कि आप विश्व की सभी सुन्दर तथा पवित्र वस्तुओं का पूरा आनन्द उठा सकते हैं। इस प्रकार के बहुत से लोग हैं जो संघर्ष कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सारे समाज ने ही इस प्रकार की मूर्खताओं को स्वीकार कर लिया है। इंग्लैण्ड में एक ऐसी पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें के साम्राज्य में प्रवेश कर जाते हैं और परमात्मा आपका कार्य सम्भाल लेता है। इतनी सुन्दर चैतन्य लहरियाँ निकलने लगती कि आप स्तब्ध रह जाते हैं कि किस प्रकार सब कार्य हो राजनीतिज्ञों के बारे में बच्चों के विचार छापे गए। अत्यन्त रहे हैं। यह मात्र संयोग नहीं है। एक बार में कहीं जा रही थी और लोगों ने मुझे सावधान रहने के लिए कहा। मैंने पूछा, "क्यों?' उन्होंने बताया कि "रात के समय नक्सलवादी लोग यहां होते हैं और वे कहीं आपकी हत्या न कर दें। मैंने कहा "ठीक है।" कहने लगे "बहुत देर हो गई है, सावधान रहिए।" मधुर-मधुर बातं। उस पुस्तक की 5000 प्रतियां छपीं और केवल एक ही दिन में सब बिक गयीं| इससे प्रमाणित होता है कि बहुत लोग अबोधिता का मान करते हैं और अबोध रहते हुए इसका आनन्द उठाना चाहते हैं। परन्तु हमने पूरे समाज को ऐसा बनाना है। पर इसके लिए एक विशेष प्रकार के व्यक्तित्व का होना आवश्यक है। कुछ स्त्रियां कर रहीं थीं कि यदि हमारे जो व्यक्ति मेरे साथ था वह बहुत घबराया हुआ था। कहने लगा, चैतन्य लहरी 16 से नहीं मिली और न ही कभी उनके बहुत नजदीक गई। पर उनका प्यार देखिए । वे मुझे शुरू-शुरू में स्कूल में कहते थे, जब भी इनमें से कोई हमें तंग करता था तो हम कहते थे, "हम श्री माता जी को कहने जा रहे हैं।" "नहीं, नहीं, कृपया उन्हें न कहिए।" "क्यों?"' "क्योंकि फिर श्री माता जी हमें "माँ, अपने सब आभूषण उतार दीजिए" और उसने उन सब को सीट के नीचे सावधानीपूर्वक छिपा दिया। ज्यों ही हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ बहुत से नक्सलवादी अपनी लालटेंने लिए खड़े थे, ता मन ड्राइवर को एक मिनट के लिए कार रोकने के लिए कहा। पर उसने मना कर दिया। परन्तु मैंने उसे गाड़ी रोकने का आदंश दिया। मैंने उन नक्सलवादियों की ओर देखा प्यार नहीं करेंगी।" आप कल्पना कर सकते हैं कि ये छोटे-छोटे बच्चे मेरे प्यार की कितनी कीमत समझते हैं और इसे पाने के लिए तीव्र इच्छा रखते हैं। इसका कोई भौतिक लाभ तो है नहीं परन्तु यह सब ईसा के कथन को प्रमाणित करता है कि यदि आपको परमात्मा के साम्राज्य में आना है तो आपको नन्हें बच्चों की भांति बनना होगा। इसके बिना आप किसी वस्तु का आनन्द नहीं ले सकते । और मुझे नहीं मालूम कि क्या हुआ। उसके बाद मैंने उसे कार की गति बढ़ान का आदेश दिया। यह दिव्य शक्ति है, जब तक आप इस प्रम व करुणा की शक्ति का उपयोग नहीं करते तब तक आप जान ही न पाएंगे कि यह शक्ति आप के अंदर है और श्री गणेश जो ही इसके दाता हैं बच्च प्यार को समझते हैं। यदि आप का व्यवहार उनके प्रति अच्छा है तो वे बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया करते हैं। हो सकता है कभी न भी करते हों। परन्तु 99% बच्चे प्रेम के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं। हमारे श्रमंशाला के विद्यालय में दो ऐसे बच्चे थे जो इन स्विटजरलैंड के लोगों को देखिए । यह तो श्री गणेश के प्रेम की शक्ति है। उन्होंने श्री गणेश जन्मोत्सव मनाना था। अत: वे आन्तरिक रूप से तैयार हुए परन्तु यदि उन्होंने इसका प्रक्षेपण न किया होता तो कुछ भी घटित न होता। जो कुछ भी श्री गणेश जी आपको दे रहे हैं और आपके अन्दर जो ये सुन्दर अबोधिता का निर्माण हो रहा है तथा प्रत्येक पल को पूर्ण रूप से जीने की ये जो मोहक सुगन्ध आ रही है, उसका आप शुरु-शुरु में यहुत शरारती थे। उनके माता-पिता को भी उनकी बहुत चिन्ता थी। उन्हेंने उन्हें धर्मशाला भेज दिया वे आधुनिक बच्चों की भांति हर चीज़ की अपेक्षा करते थे। आज हमें यह चाहिए, आज हमें वह चाहिए, हम यहाँ जाएंगे, हमें मैक डोनाल्ड चाहिए आदि-आदि। एक वर्ष विद्यालय में रहने के बाद जब वे वापिस अपन बर गए तो उनके माता -पिता ने "आपको क्या चाहिए?" "हमं कुछ नहीं चाहिए।" माता-पिता ने कहा "कुछ नहीं चाहिए। आपको मैक डोनाल्ड नहीं जाना। " "हम यहीं बैठ कर श्री माता जी का वीडियो कार्यक्रम देखेंगे। " उन्होंने सभी लोग आनन्द उठा रहे हैं। आप सब यह समझ लें कि आपने भी इसे दूसरों तक पहुंचाना है। यह कार्य कठिन है। पर मैं जानती हूं कि यह कार्यान्वित होगा। इसकी अनन्त शक्तियां हैं। यदि आप पवित्र (अबोध) हैं तो न आपको कोई तंग कर सकता है न धोखा दे सकता है। क्योंकि अबोधिता में व्यक्ति को चिन्ता नहीं होती कि उसके साथ क्या घटित हो रहा है। वह सब कुछ पूछा कहा। अर, इन बच्च्चों को क्या हो गया। इनमें इतना परिवर्तन कैसे आ गया। तब उनके माता-पिता ने पूछा, "भोजन में क्या खाना है?" उन्होंने कहा, "आप जो भी बनाएंगे, हम खा लेंगे।" माता-पिता बहुत हैरान हुए कि किस प्रकार बच्चे बदल गए हैं। तब उन्होंने कहा, "आप बाहर जाकर कहीं घूम आईए। नदी की सहन कर जाता है। चीन के राजा के बारे में एक कथा है। उसने एक बार मुर्गों की लड़ाई जीतने का निश्चय किया इसके लिए वह एक महान सन्त के पास गया और उसे कहा कि उसके मुर्गे को दूसरे मुर्गों से लड़ने का प्रशिक्षण दें और वह मुर्ग को सन्त के पास छोड़ गया। सन्त ने उस मुर्गे को प्रशिक्षित कर दिया। लड़ाई से एक माह पूर्व जब राजा वहां सन्त के पास गया तो साधु ने उसे मुर्गा ले जाने के लिए कहा। राजा ने कहा यह तो शान्त ओर जाकर घूम आइए।" ठीक है यह हम कर लेंगे। अगली बार फिर जब वे अपने घर गए तो उनकी कोई भी मांग नहीं थी। वे किसी भी प्रकार की खरीदारी नहीं करना चाहते थे। वे सभी सन्तुष्ट थे, ओजस्वी थे। माता-पिता ने पूछा, "क्या कारण है, आप कुछ भी नहीं चाहते?" उन्होंने उत्तर दिया, "नहीं, हम कुछ चाहतें तो हैं, पर समझ नहीं पा रहे कि आपको कैसे वह क्या है?" "आपके पास वह वस्तु नहीं है और न ही वह बाजार में मिलती है।" "क्या?" "क्या आप हमें श्री माता जी का एक लॉकेट दे सकते हैं?" मैं उन बच्चों को जानती हूं। मैं उन्हें मिली थी। पर मैं उन्हें काफी समय खड़ा है, में इस मुर्गे को ले जाकर क्या करूंगा? परन्तु फिर भी उसने मुर्गे को प्रतियोगिता में खड़ा कर दिया। सभी मुर्गं ने इस मुर्गे पर हमला कर दिया पर यह मुर्गा शांत खड़ा रहा। किसी भी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं की। सब मुर्गे आश्चर्यचकित थे कि यह मुर्गा कुछ भी नहीं कह रहा। सभी एक-एक करके मैदान छोड़ गए। राजा का मुर्गा अकेला खड़ा 17 चंतन्य लहरी कार्य करते हैं क्योंकि आप उनके गण बन चुके हैं। पर गणों को भी कार्य करना पड़ता है। जैसे मैं कहती हूँ कि हमारे शरीर में ऐसे गण हैं जो हमारी सभी बिमारियों तथा समस्याओं से मुकाबला करते हैं । हमारे शरीर के अन्दर रोग प्रतिरोधक भी श्री गणेश जी के ही गण हैं। उसी प्रकार आप भी उनके गण हैं। रहा। राजा आश्चर्यचकित था कि इसे क्या हो गया है। राजा अब यह सन्त हो गया है। बेहतर होगा कि ने सन्त से कहा, "अ पा आप इसे अपने पास रखें।" आपका व्यक्तित्व भी इसी प्रकार बनाया गया है और अब आप गणेश जी की पूजा करते हैं। श्री गणेंश जी आपक अन्दर हैं तथा वे आपकी सभी समस्याओं का सुगमता से समाधान करते हैं । यदि आप अपनी अबोधिता पर अटल रहं ता व यह आपके लिए ऐसे संयोग निर्मित कर दंगे जा कि वास्तव में संयोग न होकर साक्षात् चैतन्य होगा और आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि किस प्रकार सभी समस्याओं वे आपको प्यार करते हैं, आपकी रक्षा करते हैं। और आनन्द के देते हैं। आप इस सब के लिए क्या कर रहे हैं? यह एक तरफ नहीं होना चाहिए। जब श्री गणेश जी हमारे लिए इतना सब कुछ करते हैं तो हमें उनके लिए क्या करना चाहिए? रोग-प्रतिरोधको के रूप में हम क्या कर सकते हैं? आप को कोई तलवार या शस्त्र लेकर तो शत्रु से नहीं लड़ना है। आप मात्र दो विधियों से शत्रु पर विजय पा सकते हैं। प्रथम उन पर अपने प्रेम का उपयोग कर के देखिए| इस प्रकार आप बहुत से लोगों के हृदय जीत सकते हैं । यदि यह विधि कार्य नहीं करती तो आप ध्यान में जाकर बंधन दें। बंधन देने की भी कई विधियाँ हैं । बंधन इतनी तीव्रता व सुन्दरतापूर्वक कार्य करता कि आप विस्मित रह जाते हैं कि यह कैसे हो गया? ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति का बंधन कार्य करे? आप शक्तिशाली हैं सहजयोगी हैं, आप बंधन दे सकते हैं। केवल आप सहजयोगी ही बंधन दे सकते हैं। आप को कई प्रकार के बंधन देने होते हैं और सब सुन्दर ढंग से कार्यान्वित होते हैं। अत: हमें अपनी शक्तियों में पूर्ण विश्वास होना चाहिए। हमें ज्ञान होना चाहिए लि का समाधान हो जाता है। तब आप कहेंगे " श्री माता जी उस दिन वर्षा हुई और सब दलदल हो गया। हम क्या करें?"' मैंने कहा, "सब ठीक हो जाएगा मुझ पर छोड़ दो।" दूसरे दिन बहुत गर्मी हो गई। यह सर्वथा असम्भव है कि मौसम में इतना बड़ा परिवर्तन एक ही दिन में हो जाए कि एक दिन तो मूसलाधार वर्षा हो और दूसरे दिन इतनी गर्मी हो कि सूख जाए। यह सब श्री गणश का कार्य है क्यांकि श्री गणेश जी बहुत शक्तिशाली है तथा आप सत्य लाग उनकी पूजा करने आए हैं। इसलिए सब कुछ साफ हाना बहुत आवश्यक था। और गणेश जी ने वर्षा करके सफाई का सब कार्य पूरा कर दिया। इतनी भारी वर्षा हुई कि व्षा कंे कुछ अंश जब पुलाजों डोरियों (Palazzo Dorio) के पास पहुंचे तो बर्फ में परिवर्तित हो गए । अब यह बात अविश्वसनीय है कि सब जगह तो वर्षा हुई और कंबल हमारे घर के पास बर्फ के गोले गिरे। हम लोग है सम कि श्री गणेश ने हमें सहजयोग का कार्य करने का अधिकार दिया है। सहजयोग का कार्य करते हुए स्वयं को कर्त्ता नहीं समझ इसे चमत्कार कहते हैं। हम इसे कुछ भी कहें परन्तु यह श्री गणेश जी की संवेदनशीलता का प्रभाव। हमें ऐसा कहना चाहिए कि श्री गणंश जी ने सोचा कि ये वर्षा के कण मेरी माँ कं घर जा रहे हैं, क्यों न मैं इन्हें सुन्दर बर्फ के गोलों में परिवर्तित कर दूं। मैं बाहर गई और मैं विस्मृत रह गई कि मेरे घर के चारों आर बर्फ कंे गोले पडे थे। श्री गणेश जी क्या लेना, यह सब कार्य तो वास्तव में श्री गणेश जी कर रहे हैं। लोगों को आत्म-साक्षात्कार देते हुए सहजयोगी को महानतम आनन्द प्राप्त होता है । फिर आपको यह भी नहीं सोचना कि आपने यह कार्य किया। यह सर्वोत्तम है। बहुत से लोग आकर मुझे बताते हैं कि माँ हमने यह कार्य किया, वह कार्य किया आदि। तो इसका अभिप्राय है कि आप कार्य करने का तनाव महसूस कर रहे हैं। आपको तनाव नहीं होना चाहिए। श्री गणेश जी की शक्तियाँ आप के अन्दर विद्यमान हैं। आप मुझ पर विश्वास कीजिए, अपने पर विश्वास कीजिए अपनी शक्तियों पर पूर्ण विश्वास कीजिए कि आप उस पवित्र्य के भंडार हैं जो करुणा एवं प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि आप को अपने पर विश्वास है तो आपका दूसरों से व्यवहार व सम्बंध तथा कुछ कर सकत हैं तथा क्या उन की शक्तियाँ हैं, हमारी सोच समझ से परं हैं। किस प्रकार वह हमारा मार्ग दर्शन करते हैं सहायता करते हैं तथा सही मार्ग पर ले जाते हैं। वे केवल हमारी रक्षा हो नहीं करते, हर क्षण आप के साथ रहते हैं, क्योंकि आप सब उनके बन गए हैं। इसीलिए वे आपकी देखभाल करते हैं तथा पूर्ण संरक्षण दंते हैं, धर्म की सीमा में आनन्द लेने योग्य सभी कुछ वे आपको प्रदान करते हैं। आप को हर स्थान पर मित्र मिल जात हैं। आप सोचते हैं यह मात्र संयोग है। परन्तु यह एंसा नहीं है। यही श्री गणेश जी की कार्यशैली है। अपने बात करने का ढंग बहुत ही सुन्दर रूप ले लेगा। यही वास्तव में श्री गणेश जी का वरदान है। मुझे याद नहीं कि मैं कभी किसी पर चिल्लाई होऊ अपने बच्चों पर भी नहीं। मैंने कभी पूर्णतः मुन्दर मधुर एवं प्रममय चित्त को आप पर रखकर वे चैतन्य लहरी 18 आ जाए और मैं अपने छोटे भाई को जमीन देने से इंकार न कर दें क्योंकि मैं बहुत चालाक हूं और उसे धोखा द सकता हूं। इसलिए मैंने सोचा कि अपने भाई को अभी से यह जमीन देना बेहतर होगा।" बहुत भोलेपन से वह व्यक्ति यह सब बता भी किसी पर क्रांध इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं जानती हूँ कि इस के बिना मरा कार्य चल सकता है। यद्यपि मुझे लोगों का सुधारना तथा समझाना पड़ा। एक चीज़ मैंने देखी है कि प्रत्येक व्यक्ति इस बात से डरता है कि मैं उसे सहजयोग से बाहर न निकाल दूँ। सहजयोग इतना आनन्द तथा शक्तिदायी है। यह एक एसा प्रकाश है जिसके मिलने पर आप को अपने ऊपर पूर्ण विश्वास की प्रचीति होती है। किसी को भी सहजयोग छोड़ने के लिए कहना सब से बड़ा दंड है, क्योंकि आप मुझे नहीं छोड़ सकतं। यह सर्वथा असंभव है। आप भी अपने अन्दर यह गुण विकसित करें कि आप भी मुझे छोड़ न सकें। यदि कोई रहा था कि कहीं उसे लालच न आ जाए या बच्चों के बड़े होने पर कहीं वह अपने भाई को धोखा न दे दे। मैंने जब उससे उसके भाई के बारे में पूछा तो वह कहने लगा कि मेरा भाई इसका पात्र है, उसे इसकी आवश्यकता है। मुझे इतनी जमीन की आवश्यकता नहीं है, में जीवन में हर प्रकार से संतुष्ट हूं। इसलिए किस प्रकार से कार्य करती है। इसी प्रकार एक 16 वर्षीय सहजयोगी बच्चा मेरे पास आया अऔर कहने लगा कि "मेरे माता व पिता दोनों ही बाधाओं से ग्रस्त हैं, मैं नहीं समझ पा रहा कि मैं क्या करू! यदि मैं अपने माता-पिता को छोड़ दूं तो क्या बाधाएं मुझे भी छोड़ देंगी," मैंने कहा, "हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता। यह सब अन्य कारणों पर भी निर्भर करता है।" वह बोला, का होते ही अपने माता-पिता को छोड़ने की क्या आवश्यकता होती है? उससे तो हानि होती है।" मैंने पूछा, "क्यों?" "यदि में धूम्रपान करना शुरू करू तो मुझे कौन रोकेगा? केवल मेरे पिता ही मुझे थप्पड़ मार कर धूम्रपान करने से रोक सकते हैं।" मैं उस बालक के भोलेपन पर हैरान थी। वह कहने लगा, "मेरी माँ. तो मुझे हर कदम पर हर समय सुधारती ही रहती है। उसके बिना कौन मुझे सुधारेगा और मेरा मार्ग-दर्शन करेगा ?' मैंने यह जमीन दे दी । देखिए, अबोधिता बच्चा खा जाता है तो उसके माता-पिता पागल हो उठते हैं कि बच्चा कैसे खां गया। परन्तु यदि उनका बेटा दुराचारी है या सब प्रकार के गलत कार्य करता है तो उसके खो जाने का वे बुरा नहीं मानत। जब बच्चे छोटे होते हैं तो वे अबोध होते हैं। उनके साथ बहुत ही गहन सम्बन्ध बन जाता है और हमें उनकी देखभाल करनी पड़ती है। बच्चों की अबोधिता आपको बच्चों के प्रति आकर्षित व माहित करती रहती है। "तब लोगों को 18 वर्ष आपका मुस्कुराने की कला आनी चाहिए। आपको दूसरों को जीतने का ढंग भी आना चाहिए। अभी तक कुछ सहजयोगी व सहजयोगिनियां बहुत कठोर हैं, वे अपनी कठोरता को त्याग नहीं सकते। वे अपने आपको बहुत कुछ समझते हैं। ऐसे लोग सहजयोग का आनन्द नहीं ले पाएंगे। मुझे विश्वास है कि एक दिन यह सब बुराइयां छोड़ कर वे लोग सहजयोग के आनन्ददायी क्षणों का पूर्ण लाभ उठाएंगे। आज श्री गणेश जी का जन्मदिवस मनाने का दिन है। सभी देवताओं से पहले पृथ्वी पर श्री गणेश की सृष्टि की गई। वह मंगलकारी हैं और पावित्र्य भी हैं। अत: पावित्र्य, मंगलमयता एवं शुद्धता की सृष्टि करने से पूर्व आदिशक्ति माँ इस सृष्टि की रचना नहीं करना चाहती थी। अत: प्रेम एवं चैतन्य भंडार रूपी चैतन्य लहरियों से पृथ्वी पर सर्वप्रथम श्री गणेश की सृष्टि हुई ताकि युग युगान्तरों में अवतरित होने वाले लोगों की देखभाल कर सके और उचित पथ पर उनका मार्ग-दर्शन कर सकें। वे हमारे अन्तःकरण अथवा विवेक के स्वामी (अधि यन्ता) हैं। हमारा अन्त:करण कभी-कभी हमें अन्दर से कचोटता है और बताता है कि क्या ठीक है अथवा क्या गलत है, और हमें गलत कार्य न करने का बोध करवाता है। हमें अपनी इस शक्ति पर गर्व होना चाहिए। एक भारतीय व्यक्ति से मैंने पूछा, 'तुमने अपनी जमीन क्यों छोड़ दी।" उसने कहा, "माँ, मैंने ! से मेरे विषय में जितना आप सोचते हैं आपके हृदय में उससे सोचा कि जब मंरे बच्चे बडे हो जाएंगे तो मुझे लालच न अबोधिता सदैव सदाचारी शुद्ध जीवन को ही ढूंढती है तथा किसी पर भी हावी नहीं होती। आप आत्म- साक्षात्कारी लोगों में पावित्र्य है, अपने आत्मा के प्रकाश में आप कोई भी अपवित्र या असहज कार्य नहीं करना चाहते। सहजयोगियों से ईमानदार लोग मैंने कहीं नहीं देखे। आप एक पाई की भी बेइमानी नहीं करना चाहते। नि:संदेह कुछ ऐसे भी दुष्ट लोग हुए हैं जिन्होंने सहजयोग से बहुत धन कमाया है। कोई बात नहीं। आपमें से अधिकतर लोग ईमानदार बन गए हैं। के युग में ईमानदार व्यक्तियों को देखना सुखद लगता है। सर्वव्यापी भ्रष्टाचार श्री गणेश का सबसे बड़ा गुण है कि उनके लिए माँ ही महत्वपूर्णतम है। माँ क्या कहती है, क्या करती है, यही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। में वास्तव में समझ नहीं पाती कि किस प्रकार आप लोग मुझे इतना चाहते हैं और सोचती हूं कि बुद्धि बा कहीं अधिक प्रेम मेरे लिए है। यही श्री गणेश का गुण है वह चतन्य लजरी 19 मुझसे इतना प्रेम करते हैं कि अपने पिता से भी युद्ध कर सकते हैं। किसी से भी युद्ध कर सकते हैं। आप भी वैसे ही हैं, मेरे विरुद्ध कुछ भी सहन नहीं कर सकते। यदि कोई मेरे विरोध में एक भी शब्द कह दें तो मैंने आप लोगों को क्रूद्ध होते देखा है। मेरे प्रति आपका यह प्रेम आपके अन्दर श्री गणेश की देन हमे अपने गुणों तथा शक्तियों को अवश्य जानता है। में देखती हूं कि कुछ व्यक्ति तो बिल्कुल ही स्टेज पर नहीं आते और न ही बोलते हैं। मैंने उनसे कहा, "आप भी आईए, आगे बढ़िए, अपने आप को प्रक्षेपित कीजिए।" वे लोग क्षमा-याचना करते हैं और कहते हैं कि वे ऐसा नहीं कर सकते । यह क्षमा मांगना भी अब बहुत साधारण हो गया है। इस प्रकार के सभी लोगों को अभी अपनी शक्तियों की प्रचीति नहीं हुई। आप सब कुछ कर सकते हैं क्योंकि आप के अन्दर शक्ति है। उसी शक्रिति में ही जान लीजिए कि आप कोई भी विवेकहीन कार्य नहीं कर रहे। आप किसी को बिगाड़ नहीं रहे। आपकी शक्ति स्वयं ही दर्शा देगी कि विश्व को परिवर्तित करने के लिए यह प्रेम, स्नेह एवं सौहार्द की शक्ति है। मैं पूर्ण विश्व के परिवर्तन का सोचती हूं। मैं यह जानती हूँ कि यह एक स्वप्न है । फिर भी आप सब लोगों को देखते हुए में ऐसा सोचती हूँ। जब मैं आप के अन्दर श्री गणेश को देखती हूँ तो मुझे पूर्ण विश्वास हो ज़ाता है कि यह कार्य हो जाएगा। अपने जीवन में मैंने बहुत से सहजयोगियों को देखा है। किस प्रकार कार्य हुए। ब्राजील और अर्जेनटीना में अधिकांश लोग प्रात: 12 बजे ही कार्यक्रम मे आ गए जबकि कार्यक्रम का समय सायं: 7 बजे था। मैं सामान्य रूप से सायं: 8 बजे पहुंची तो उन्होंने कहा "श्री माता जी आप विश्वास नहीं करेंगी, यहां एक बहुत असामान्य घटना घट गई।" "कैसी घटना", "वे सब लोग 12 बजे से बैठे हुए थे। जो लोग जल्दी आ गए वे तो अन्दर आ गए और जो देर से आए उन्हें अन्दर नहीं जाने दिया गया। वे लोग बाहर झगड़ा कर रहे थे कि उन्हें भी अन्दर जाने का अवसर दिया जाए। तब | दूसरा गुण यह है कि वे गणों से कार्य करवाते हैं अत: आपको भी कार्य करना है। आप सब में प्रतिभा है, 'विवेक है, आप सब बुद्धिमान हैं। आप विशंष लांग हैं। आपको सामूहिक से भी गणेश जी के गुण अभिव्यक्ति करने हैं। श्री गणेश में और व्यक्तिगत रूप लयबद्धता है। उनकी लय कार्यान्विवत हो रही है। पिता नटराज (शिव) द्वारा सिखाए गए संगीत के ज्ञान के कारण वे नृत्य करते हैं। इनका उदर बहुत बड़ा है, फिर भी वे अत्यन्त चुस्ती से बहुत सुन्दर नृत्य करते हैं। अपने शरीर को बहुत ही विस्मयकारी ढंग से उठाते हैं। वे यह सब कैसे करते हैं? वे बहुत फुर्तीले हैं, मूलाधार ठीक है तो हल्कापन आता 'है। महाराष्ट्र किस प्रकार ये लोग कितनी फुर्ती से 'लेजियम' खेल रहे थे वे लोग अपने हाथों व पैरों को द्रतगति से उठा रहे थे यह वास्तव में ही *बहुत आश्चर्यजनक था। यह तो इन लोगों का भोलापन है कि ये लोग विश्व की अन्य बेहूदी बातों को नहीं समझते। वे दिन में खेती-बाड़ी कर अपनी जीविकोपार्जन करते हैं तथा शाम को लौटकर पूर्ण सहजभाव में सो जाते हैं। वे कोई परियोजना नहीं बनाते और न ही वे बैठकर कभी किसी की हत्या करने की योजना बनाते हैं। उनके हृदय में कोई बुराई नहीं आती। इनके पास इस सब के लिए समय ही नहीं है। यह लोग पूरा दिन मेहनत करते हैं और सायंकाल शांत होकर भजन - मंडली में सामूहिक रूप से भजन गाते हैं यही जीवन की वास्तविक और यह फुर्ती अबोधिता से आती है। यदि में एक सहजयोगी समझदारी से बाहर गए और उन्होंने प्रबन्धक से बातचीत की और उसे कहा "बाबा, इन्हें अन्दर आने दीजिए, अन्दर पर्याप्त स्थान है। चार तलों पर स्थान है।" जब में आई तो मैंने देखा सभी जगह लोग बैठे थे मैंने उन्हें पहले कभी सहज शैली है। नहीं देखा था। वे सब सत्य साधक थे तथा चैतन्य को पूर्ण रूपेण आत्मसात करने वाले थे। श्री गणेश के प्रति कृतज्ञता के कारण मेरे लिए अपने आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया। यह सब कार्य श्री गणेश का ही किया हुआ था इसीलिए कहते हैं कि कार्य आरम्भ करने से पूर्व श्री गणेश का पूजन करना चाहिए। वही हमें शान्ति तथा अथाह शक्ति प्रदान करते हैं। वे वह सभी कार्य कर देते हैं जिनके विषय में आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि आप अबोध हैं तो यह अबोधिता ही आपकी शक्ति है। आपको किसी शस्त्र या बन्दूक की आवश्यकता नहीं। ये सब तथाकथित धर्मों के लोग शस्त्रों का उपयोग कर रहे हैं। एक दूसरे को मार रहे हैं और स्वयं भी मर रहे हैं। यह सब भगवान न के नाम पर अथवा श्री गणेश के नाम पर हो रहा है । हमें लड़ाई-झगड़ा करने या किसी की हत्या के विषय में सोचने की आवश्यकता नहीं है। आप केवल इच्छा कीजिए। आप अपनी शक्ति का प्रक्षेपण कीजिए और आप. देखेंगे कि वह व्यक्ति स्वयंमेव ही लुप्त हो गया है। या तो वह. परिवर्तित हो जाएगा या आपको तंग करने के लिए वहां वहां होगा ही नहीं। आप सब को अनन्द आशीर्वाद " चैतन्य लहरी 20 :৩ ১৩১ ॐ৩ " अपने चित्त के बिना आप सहजयोग को क्रियान्वित नहीं कर सकते। यह सहजयोग की मुख्य समस्या है। आपका चित्त काल सर्वशक्तिमान परमात्मा की ओर होना आवश्यक है, उसके बिना कुछ भी क्रियान्वन नहीं हो सकता। आपका उत्थान नहीं हो सकता। सहजयोग में यदि आप धनोपार्जन के लिए आए हैं तो धनोपार्जन कीजिए और बाहर हो जाइए, ज्ञान प्रदर्शन के लिए यदि आप आए हैं तो ज्ञान प्रदर्शन कीजिए और बाहर हो जाइए, और यदि आप अपनी शक्ति एवं प्रभुत्व दिखाने आए हैं तो शक्ति और प्रभुत्व दिखाइये और बाहर हो जाइए। 1.ी हैं। सहजयोग को इन सब व्यर्थ की बातों के लिए उपयोग मत जा चुके इस प्रकार बहुत से लोग सहजयोग से बाहर कीजिए जो न सनातन हैं और न चिरस्थायी। सहजयोग का उपयोग मात्र अपना शुद्धिकरण करके स्वयं को प्रेम का सागर |न बनाने के लिए होना चाहिए।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी 2IXXXX*XXXXX*X*XXX*X*X*X***X*XX> ৩ Printed at PRINTEK, New Delhi Ph.: 5710529, 5784866 *৩:: ---------------------- 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-0.txt चैत्न्य लहरी हिन्दी आवृत्ति अंक 3, व 4 (1996) खण्ड VIII ১ री बा औी जत क क। odededededed 6- ८७ 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-1.txt चैतन्य लहरी चैतन्य लहरी (1996) खण्ड VII, अंक 3, व 4 -: विषय-सूची :- 1. वन्दना 2. श्री गुरु पूजा जुलाई 1995 का 3. श्री कृष्ण पूजा अगस्त 1995 10 4. श्री गणेश पूजा सितम्बर 1995 14 श्री योगी महाजन सम्पादक : श्री विजयनालगिरकर 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली 110 067 मुद्रक एवं प्रकाशक प्रिन्टेक फोटोटाईपसैटर्स, 35, ओल्ड राजेन्द्र नगर मार्केट, नई दिल्ली-110 06) फॉन : 5710529, S784866 मुद्रित चैतन्य लहरी ल) 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-2.txt वन्दना ा म वन्दना के स्वर सजाकर, भावना की लौ लगा कर, कर रहे अराधना हैं, तू हृदय अंधियार हर माँ, अर्चना स्वीकार कर माँ। ा ा शक्ति दे, अनुशक्ति दे, | मः तू राष्ट्र को नव भक्ति दे. नवयुग की चेतना में, चेतना संचार कर माँ, अर्चना स्वीकार कर माँ। मुक्ति मान प्रदायनी तू, सर्वमंगल कारिणी तू, वीणा की झंकार कर माँ, अर्चना स्वीकार कर माँ। ০ वि ७ 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-3.txt श्री गुरु पूजा कबेला, इटली, जुलाई 1995 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) आज को यह गुरु पूजा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि हम 25 बार गुरु पूजा कर चुक हैं। अब हमें समझना कि वास्तव में सहजयांग है क्या? में, अब यह महसूस करती हूँ कि सहजयोग वास्तव में एक अनाखी खाज है। और सत्य-साधकों ने इसे पूर्ण रूप से अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर अनुभव कर लिया है । कभी-कभी तो सीधे परमात्मा की ओर जाने के स्थान पर इधर-उधर भटक कर है हमारा चित्त भी समाप्त हो जाता है। ऐसा चित्त हमें कभी भी परम तत्व की ओर नहीं ले जा सकता ओर अंत में आप देखते हैं कि आपका चित्त पूर्णतया शोषित होकर भटक जाता है। आधुनिक समय में अत्यन्त अव्यवस्थित स्थिति है। ऐसी अव्यवस्था में, आप नहीं जानते, सभी प्रकार के प्रलोभन आपके चित्त को आकर्षित करके आपकी चित्त शक्ति को कम कर सकते हैं। दायीं ओर के लोगों के लिए इससे प्रभावित होने की अधिक संभावना है परन्तु बायीं ओर के लोगों पर भी इस का बहुत कुप्रभाव होता है। दायीं ओर वाले लोग एक सीमा तक जाते हैं तथा उसके बाद अत्यन्त शुष्क स्वभाव, दुराग्रही व आक्रामक हो जाते है। उनका पूर्ण चित्त आक्रामकता में ही रहता है। जबकि बायीं ओर के लोग अपनी ही सनक, इच्छाओं व प्रलोभनों में उलझे रहते हैं। इस प्रकार दोनों प्रकार के लोग अपने चित्त को भटका लेते हैं। दुर्बल मन व दुर्बल हृदय व्यक्ति चित्त निरोध नहीं कर सकता। एक विवेकशील व्यक्ति दूसरे के चित्त को लगता है कि यह अत्यन्त कठिन कार्य कैसे यह कार्यान्वित हुआ तथा किस प्रकार इन 25 वर्षो में हम सहजयोग का इतना विस्तार कर पाय। एक मुख्य बात आप सब जान लें कि वृक्ष के विकास के साथ- साथ उसकी जड़ों का गहन होना तथा फैलना भी आवश्यक है। वृक्ष केवल धरती माँ के सहारे से ही नहीं विकसित होगा। उत्थान की जड़ें आपके जीवन में, आपके हृदय में हैं। जब हम कहते हैं कि हम स्वयं के गुरु हो गए हैं, तब हमें अपनी अन्त्तदृष्टि सम्भव हुआ, किस प्रकार से यह अवश्य दखना चाहिए कि क्या हम वास्तव में अपने गुरु हो गए हैं? क्योंकि इससे पहले आपकी बुद्धि एक तरफ थी, आपका हृदय दूसरीं आर था तथा आपका चित्त किसी और ही दिशा में था। यह तीनां ही आपके अन्दर उलझन पैदा कर रहे थे। यदि आप मनुष्य को ध्यान से देखें ता आपको आश्चर्य होगा कि यह तीनों मनुष्य में अलग-अलग रूप से कंसे कार्य करते हैं तथा कभी-कभी तो परस्पर टकरा भी जाते हैं। इनमें से प्रथम है आपकी बुद्धि व मन, दूसरा आपका हृदय, आपकी भावनाएँ हैं तथा तीसरा है आपका चित्त। आज के युग मं यह भ्रम सब से अधिक है क्योंकि आपका चित्त बाहर की आर रहता है। कभी यह सुन्दर वस्तुओं में उलझा होगा और कभी सुन्दर स्त्री पुरुषों में अर्थात् यह सभी बेकार की चीज़ें शक्ति को नष्ट करने का मार्ग हैं। एसा चित्त एक बेलगाम घोड़े की तरह है। आप ऐसे चित्त का नियंत्रित नहीं कर सकते। ऐसा चित्त व्यर्थ में इधर-उधर दौड़ता रहता है। लगता है कि चित्त को इधर-उधर भटकाना भी लोक प्रिय फैशन सा हो गया है। जो चित्त सर्वशक्तिमान परमात्मा की तरफ होना चाहिए, व्यर्थं में नष्ट हो रहा है| सर्वप्रथम आप स्वयं को समझिये। आपका चित्त कहाँ जाता है? किस कारण आप इसकी देखभाल एवं चिन्ता करते हैं? चित्त की अस्थिरता के बहुत से कारण हो सकते हैं। नियन्त्रण विहीन पालन-पापण, आपकी शिक्षा, आपका वातावरण तथा आपका अह एवं बन्धन भी इसका कारण हो सकते हैं। इन सब बाह्य व आसुरी शक्तियां से जुड़कर चित्त उस नदी की भांति भटक जाता है जो सीधे समुद्र को आर बहने के स्थान पर बंजर भूमि में लुप्त हों जाती है। आकृष्ट करके अपने चित्त को सही कर लेता है। मैं नहीं जानती शायद यह भी एक तरह का सुखद भुलावा है। आक्रामक प्रवृत्ति व्यक्ति मात्र अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने के लिए ही दूसरों के प्रति है मधुर होता है ताकि वे उससे आकृष्ट हों। यह अत्यन्त सूक्ष्म बात है जिसका ज्ञान ऐसे लोगों को नहीं होता। आज के युग में लोग दूसरों को आकृष्ट करने मात्र के लिए ही बहुत से मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं। आज के अधिकतर अजीबों-गरीब फैशन अन्य लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हैं। आपको इस प्रकार से दूसरों का ध्यान आकर्षित नहीं करना है बल्कि अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से दूसरों की ओर ध्यान देना है। बिना किसी अपेक्षा के आपने यह कार्य करना है, इसलिए नहीं कि वे भी आप का ध्यान रखें। यह एक बहुत बड़ा संघर्ष है। सहजयोग में मैंने द्वेखा है कि स्वयं को बेहतर साबित करने के लिए लोग लोकप्रिय या विशिष्ट दर्शाने की चेष्टा करते हैं। वास्तव में परमात्मा से जुड़े व्यक्ति को इस बात की बिल्कुल भी चिंता नहीं होती कि लोग उसकी ओर कितना ध्यान देते हैं, अपितु ऐसे व्यक्ति का चित्त अत्यन्त सूक्ष्म होता है और स्वत: ही दूसरों पर रहता है। आप यह जान भी नहीं पाते कि उस का चित्त आप पर है परन्तु यह र आप पर बहुत सुन्दर ढंग से कार्य करता रहता है। हमें यह समझना है कि हम अब परमात्मा के चित्त में हैं। परमात्मा के साम्राज्य में हैं और दिव्य तत्व में समा गए हैं। हम बहुत शक्तिशाली हैं परन्तु यदि चंतन्य हरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-4.txt हम अपना नचित्त भ्रमित करते हैं तो हमारी शक्ति क्षीण हो जाएगी। हमने बहुत से लागों को आत्म-साक्षात्कार दिया है, उनकी सहायता की है, इस आधार पर स्वयं को सहजयोगी मान लेना अति है। इस प्रकार की चंतना यदि आपके अन्दर आती है तो आप जान लें कि सहजयांगी के रूप में अभी तक आप पूर्णतः विकसित नहीं हुए। हमें इस बात का बोध भी नहीं होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं व क्या करने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। इन सब को विषय में शेखी मारन को काई आवश्यकता नहीं, इसका विज्ञापन करने की ज़रूरत नहीं। आप जैसे भी हैं सब आपके बारे में भली-भांति जानते हैं। दूसरां का स्व्यं के बारे में बताने की इच्छा भी अनावश्यक है क्योंकि जो भी कार्य आप करते हैं, वह आत्म-संतुष्टि के लिए करते हैं । आप यह भली-भांति जानते हैं कि आत्मा का निवास हुदय में है। जब आपको मालूम है कि आप के हृदय ने आपके मस्तिष्क का संचालन करना है और कर सकता है, तो आप क्या बन जाते हैं? आप करुणा व प्रम का स्रोत बन जाते हैं। दूसरों पर हावी नहीं होते और न ही यह कहते कि मैंने आयके लिए इतना कुछ किया है, आप मेरे लिए क्या कर रहे हैं? प्रतिफल की आशा यदि है तो आप को यह जान लेना चाहिए कि यह सब कार्य बुद्धि द्वारा हो रहा है। आप की बुद्धि हो आपके विचारों को चला रही है। इस प्रकार आपका चित्त केवल इसी बात पर होता है कि मैने उसे कितना प्रेम दिया और उसने कितना लीटाया। यह अत्यन्त सूक्ष्म है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। उससे ईष््या करते हैं। वह ऐसा क्यो बन गया है? वह है कौन? और वह स्वयं को समझता क्या है? इस प्रकार आगे बढ़ते-बढ़ते लोग दूसरों को हानि पहुँचाते हैं। कभी-कभी सहजयोग में भी हम लोग चिंतित व भयभीत हो जाते हैं। हमें चिंतित या भयभीत होने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि अब आप सहजोगी हो चुके हैं, गुरु बन चुके हैं। कोई अन्य व्यक्ति हमें छू भी नहीं सकता है। और जो भी हमें छूने का प्रयत्न करेगा किसी न किसी प्रकार से उसका पतन हो जाएगा। हमें इस बात की चिंता नहीं करनी कि कौन हमारी आलोचना करता है या लोग हमारे विषय में क्या कहते हैं। वे सब व्यक्ति पूर्णतया अंधे हैं, उनका विवेक अभी विकसित नहीं हुआ को समझ पाना असंभव है। ऐसे लोग एक सीमा तक जाकर समाप्त हो जाते हैं। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के दृढ़ निश्चय के कारण वे अधिक आगे नहीं बढ़ सकते। जैसा मैने कहा, विलीन होने पर ही बूंद सागर बन सकती है। पश्चिम में, जहां अधिकतर लोगों के अपने विचार, अपनी मान्यताएं, अपने व्यक्तित्व हैं ऐसा हो पाना कठिन है। शालीनता सहजयोग का मुख्य अंग है। यह प्रश्न भी उठ सकता है कि जब हम पूर्णतया विलीन हो गये हैं तो हमारे अन्दर गरिमा क्यों होनी चाहिए? गरिमा के विषय में हमें क्यों चिंतित होना चाहिए। यह प्रश्न बिल्कुल सही है और इसका उत्तर यह है। कि यदि आप समुद्र में गंदे पानी की बूंद डालते हैं तो सारा समुद्र गंदा हो जाता है। अगर आप विष डालते तो सारा समुद्र विषैला हो जाता है। इसी प्रकार जो सुगम है। उनके लिए सहजयोग मुझ सहजयांग में आपने स्वयं को प्रेम के अविरल स्रोत के रूप में देखना है। इसमें आप को यह नहीं कहना कि आप को क्या प्राप्त भी सागर के या दिव्य-शक्ति के प्रतिकूल है वह नहीं होना करना है, अथवा क्या बनना है। वह सब अब समाप्त हो चुका। जब कुछ चाहिए। अन्यथा आप सम्पूर्ण को दूषित कर देंगे। हमने ऐसा कई बार अनुभव किया है। अगुआ होते हुए भी कई सहजयोगियों के अवांछित व्यवहार ने पूरी सामूहिकता को दूषित कर दिया। एक बुरा व्यक्ति पूरी सामूहिकता को खराब कर सकता है। पदस्थ अगुआ का अवांछित व्यवहार तो कहीं अधिक हानिकार हो सकता है । इसलिए हमें यह समझना है कि हम जिस सागर की बूंद बन रहे हैं वह एक का शुद्ध सागर है। अंत: हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना है जो इसे विषाक्त करे या निराशामय बनाए। कभी-कभी तो यह पूरे समुद्र की छवि को विकृत कर सकता है। इसलिए हमें शालीन एवं मर्यादित होना है। परन्तु इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि हम अस्वभाविक हो जाऐँं। आपको अपना और अपने शरीर का सम्मान करना होगा। आपका आप सरात बन गए तो कुछ अन्य कैसे बन सकते हैं? जो व्यक्ति कवल ग्रहण करता रहता है उसे ही हर समय प्रतिफल एवं यश की आशा रहती है। हमें इस गूढ़ विषय को जान लेना है क्योंकि हमारा मन बहुत चतुर है। सहजयोग में हम बहुत प्रखर बुद्धि वाले व्यक्ति हो सकत हैं परन्तु हमें अपने मन से बहुत सावधान रहना है क्योंकि यह कभी भी धाखा दे सकता है। हमें अपने मन से यह पूछना चाहिए कि तुम सहजयांग में क्यों हो? संहजयोग का क्या उद्देश्य है? इस प्रकार हमारा मन स्वत: ही शांत हो जाएगा, और तब आप अपने मन से पूछंग मरी शुद्ध-इच्छा क्या है? मेरा लक्ष्य क्या है? में सहजयांग में क्यां हूँ? इस प्रकार के प्रश्न स्वयं से पूछने पर आप देखेंगे कि आप विलीन हो गए, आप निर्विचार हो जाएंगे क्योंकि अब आपमं कोई इच्छा ही शेष नहीं रह गई। कोई महत्वकांक्षा कोई प्रतिस्पार्धा नहीं बची। मस्तिष्क या कहिए बुद्धि के गुण आपको तुलनात्मक रूप से ईष्ष्यालु बनाते हैं। ईर्या भी प्रतिस्पर्धात्मकता की देन है। क्यांकि जब दो या अधिक व्यक्ति मुकाबला करते हैं, तो जो चुना जाता है उसके प्रति दूसरे लोग प्रसन्न होने की अपेक्षा ईष्या करते हैं। हम में से कोई एक यदि कुछ बन जाता तब हमें खुश होना चाहिए कि वह कुछ बन गया है। परन्तु इसके विपरीत लोग प्रेम व्यक्तित्व सम्मानीय होना चाहिए। परन्तु इसमें अधिक मोह भी अवांछित है। आपको स्वयं का मान करना चाहिए । ऐसा करना अति महत्वपूर्ण है। यदि आप अपना सम्मान नहीं करते तो आप अपनी आन्तरिक दिव्यता का भी सम्मान नहीं करते। सम्मान करना अपनी दिव्यता को अलंकृत करने सम है। आपका व्यवहार आप की वेशभूषा इस प्रकार की होनी चाहिए कि दूसरों को लगे कि एक भद्र व्यक्ति ४ है है। उद्यमियों के कारण, एक के बाद एक, बहुत सी गरिमाहीन वस्तुएं चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-5.txt रोजमर्रा के फैशन का अंग बन रही है। लोग इन उद्यमियों के हाथों खेल रहे हैं। हमें यह हमेशा के लिए निश्चित कर लेना है कि हमारे लिए क्या चीज़ अच्छी है और हमे कैसी वेशभूषा पहनी है। हमें अपना चित्त बिल्कुल भी इस बात पर नष्ट नहीं करना कि आज में यह वस्त्र पहनँगा और कल वह वस्त्र पहनूँगा। इस प्रकार हमारा चित्त दूषित हो जाता है। यदि हम गरिमामय चीज उपयोग करते हैं तो यह ठीक है और यह आपका वास्तविक आन्तरिक सौभ्यता प्रदान करेंगी। आज कल के लाग, स्वयं का मान नहीं करते। हम देखते हैं कि बहुत उच्च पदां पर नियुक्त लोग भी धोखा-धड़ी आदि मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं ही कवि थे। नामदेव जब गोरा कुम्हार के पास गए तब उन्होंने देखा कि वह मिट्टी गूँधने के सम्माननीय कार्य में व्यस्त हैं उन्होंने उसकी तरफ ध्यान से देखा व कहा कि मैं तो यहाँ चैतन्य देखने आया था, निराकार को देखने आया था परन्तु मुझे तो ऐसे प्रतीत हो रहा है जैसे निराकार ने साकार रूप धारण कर लया हो। मेरे विचार में ऐसा दो समान स्तर के संतों के मिलने पर ही सम्भव होता है। किस प्रकार वे परस्पर सम्मान व प्रशंसा करते हैं, और एक -दूसरे का आनन्द उठाते हैं। जिस प्रकार की एकात्मता दोनों आपस में सूक्ष्म रूप से महसूस करते हैं, उसे प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। यदि आप भी एक-दूसरे के लिए ऐसा ही महसूस करते हैं, तब आप को समझना चाहिए कि आप विलीन हो चुके हैं या आनंद के सागर में समा गए हैं। इसके विपरीत किनारे पर बैठे हुए लोग ऐसा महसूस नहीं कर सकते। वे विचार करते हैं और दूसरे की त्रुटियां देखने में लगे रहते हैं। ऐसा करने का कोई लाभ नहीं। वे कभी दूसरे की प्रशंसा नहीं कर सकते । वो सोचते हैं कि दूसरों की आलोचना करने और उन के दोष निकालने का उन्हें पूरा अधिकार है। स्वयं को कुछ विशेष मानते हैं और परिणामस्वरूप दूसरे व्यक्ति भी उनके दोष निकालते रहते हैं। यह एक 'दोषखोजी' समाज है जिससे आप ऊब जाते हैं। अपने सम्मुख खड़े सन्त को जब आप देखते हैं तो आपमें प्रेम उमड़ पड़ता है; ऐसे पूर्णत: शुद्ध व्यक्ति के लिए आपमें एकात्मकता की स्वभाविक भावना फूट पड़ती है। न कोई प्रत्याशा होती है और न ही उस व्यक्ति में दोष खोजने के लिए कोई मानसिक गतिविधि। यह व्यक्ति कैसा है? यह जानने के लिए कोई विचार नहीं होते। उस व्यक्ति के प्रति केवल एकात्म भाव होते हैं। आपको लगने लगता है कि आपके प्यार के गुण में एक नई चमक आ गई है इसे एक नया आयाम मिल गया है। अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि दूसरों के गुणों की जो भी प्रशंसा हम अपने अन्दर करते हैं वह हमारे अपने प्रेम का शुद्ध स्वरूप होता है। यदि आप शुद्ध हैं तो आप किसी चीज़ से असक्त नहीं होते। बल्कि अनासक्त रहते हुए आप इसका आनन्द उठाते हैं। आसाक्त होकर आप आनन्द नहीं ले सकते क्योंकि उस स्थिति में दूसरे व्यक्ति के साथ अपने खोखले सम्बन्धों की अधिक चिन्ता करते हैं। विस्तृत रूप से सभी सहजयोगी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आध्यात्मिकता के इतिहास में एक साथ कभी इतने संत एकत्र नहीं हुए और न ही इतने अधिक देशों के बहुत से लोगों ने कभी दिव्यता व नैतिकता पर विचार किया। इतने अधिक लोगों का एक स्थान पर एकत्र होकर एकात्मकता की सुखदतम अनुभूति का आनन्द लेना असम्भव कार्य है। भले ही आराम के पैमाने पर वह पूरे न उतर रहे हों, परन्तु जो लोग सन्त होते हैं वे दूसरे सन्तों को देखकर पूर्णतया आनंदित होते हैं और सच्चे सन्तों की ओर भागते हैं। मेरे साथ भी एक बार कुछ ऐसा ही कोल्हापुर में घटित हुआ। वहाँ लोगों ने मुझे बताया एक सन्त मेरे बारे में बात करता है। उन्होंने बताया कि वह और बहुत ही निकृष्ट और असभ्य लोगों से अपने सम्बन्ध रखते हैं। आज समाचार पत्रों में यह सब देखने को मिलता है। आपको यह जान बहुत खद हाता है कि उच्च पदारूढ़ लोग भी इस प्रकार हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि ये लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए कि अपनी स्थिति को जान सकें कि वे किस पद पर है और उन्हें किस प्रकार हाना चाहिए। परिपक्व होने पर आप समझ जाएंगे कि मैं एक ग्रहणी हूँ, एक मंत्री हूँ, या प्रधानमंत्री हूँ और मुझे किस प्रकार होना चाहिए। सारी उपलब्धियाँ बाह्य रह जाती हैं, अन्दर कुछ भी नहीं उतरता। परन्तु सहजयोगी को अपनी उपलब्धियाँ अपने अन्तस में देखनी चाहिए। उसे पूर्णत: अन्तःस्थित होना चाहिए ताकि हमारा चित्त अधिक नष्ट न हो पाए। दूसरी चीज़ जा हमें देखनी है वह है हृदय। कुछ लोग कहते हैं श्री माताजी अगर हमारा हृदय हमारे मस्तिष्क को नियंत्रित करता है तो हम अल्यधिक भावुक हो जाते हैं, हम लोगों से बहुत अधिक लिप्त हो जाते हैं और व्यक्तिगत मित्रता जैसी चीजें पनपने लगती हैं। ऐसी स्थिति में आपको जानना है कि आप दूसरे व्यक्ति से क्यों लिप्त हैं? यह आपके हृदय का कार्य नहीं। किसी न किसी प्रकार के सम्बन्ध के कारण ही आप दूसरे व्यक्ति से लिप्त होते हैं। हो सकता है आप को उसकी केशसज्जा पसंद आ गई हो या उसकी कोई बाह्य विशेषता आप को उस की ओर आकृष्ट कर रही हो! उसके किसी आंतरिक गुण से तो आप लिप्त नहीं है। उदाहरणार्थ यदि आप अपने बच्चों से लिप्त हैं तो आप उन्हें बिगाड़ देंगे। आपकी आशानुसार उनका विकास न होंगा। आप जिस भी व्यक्ति से लगाव रखते हैं, आप को यह अवश्य जाँच लेना चाहिए कि आप उसके प्रति क्यों आकृष्ट हैं, क्या कारण है? सहजयोग में भी लोग एक-दूसरे से अत्यधिक लिप्त हो जाते। पर मैं जानती हूँ कि ऐसा किसी को धनवान या लोकप्रिय होने के कारण नहीं होता और न ही इसलिए कि वह कोई विशिष्ट कार्य कर रहा है। ऐसे व्यक्ति के प्रति लोग इसलिए आकर्षित होते हैं क्योंकि वह व्यक्ति चैतन्य लहरियों से ओत-प्रोत है, आप को शांति, आनंद एवं मानवीय समस्याओं का गहन समाधान प्रदान करता है। और ऐसा तभी होता है जब आप कुम्हार की भांति पूर्णतया वहीं स्थित हाते हैं, जैसा मैंन आपको बताया। गोराकुम्हार एक बर्तन बनाने वाले थे और नामदंव एक दर्जी एवं एक लोकप्रिय कवि थे। दोनों चैतन्य लहगोे 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-6.txt एक पहाड़ी पर रहता है और वहाँ तक चढ़ाई चढ़ने में तीन घंटे लगते हैं, उन्हांन यह भी बताया कि वह वहाँ से बाहर नहीं आता। मैंने कहा ठीक है, मैं उस मिलने के लिए जाऊँगी और जैसे ही मैंने चढ़ना शुरू किया, मुसलाधार बारिश होने लगी। सबने मेरे से पूछा-" श्री माताजी आप तो किसी के पास इस प्रकार नहीं जाती, इस व्यक्ति के पास क्यों जा रही हैं?"" मैंने कहा नहीं मुझे उससे मिलने अवश्य की शक्ति प्राप्त करने के पश्चात् आप किसी से लड़ते नहीं, लड़ने के विषय में सोचते भी नहीं। करुणामय अवस्था में आप पूर्ण शान्त होते हैं और करुणा पूर्वक ही आप दूसरों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। करुणा का अध्ययन, क्रियान्वन और मुक्ति चालन नहीं किया जा सकता। यह तो स्वत: ही होती है। करुणा में हम क्षमा करते हैं और सब मुर्खतापूर्ण बातों को भूल जाते हैं। यदि हमारे अन्दर करुणा है, तभी हम क्षमा कर सकते हैं। बहुत से सहजयोगी मुझ से पूछते हैं" श्री माता जी, हमारे अन्दर करुणा व प्रेम किस प्रकार जागृत हो?" जाना है। तब मुझ बताया गया कि इस व्यक्ति को वर्षा नियंत्रित करने की सिद्धि प्राप्त थी। वर्षा तेज़ होती रही और मैं पूरी तरह भीग परन्तु यह बहुत साधारण बात है। यदि ध्यानावस्था में आप अपनी निर्विचार चेतना को विकसित करते हैं तथा आप सभी कुछ, सारे सम्बन्धों को निर्विचार चेतना से देखते हैं तो आप आश्चर्यचकित रह जाऐंगे कि किस प्रकार करुणा के द्वार खुल जाते हैं। निर्विचार चेतना आपके हृदय को खोलती हैं परन्तु यह एक व्यक्ति से दृूसरे व्यक्ति तक स्थानान्तरित नहीं होती। यह आपके अस्तित्व के सभी पहलुओं को प्रकाशित करती हैं। हर व्यक्ति इस से लाभान्वित होता है और हर व्यक्ति के हृदय में आपके लिए दिव्य भाव रहते हैं। करुणा न तो रेखीय (Linear) और न ही आक्रामक। यह तो केवल बहती है तथा प्रत्येक अव्यवस्थित, कष्टदायी एवं दुखद अवस्था को शान्त कर सुखद बनाती है। आपको भी यही करना है। बहुत समय पूर्व सन्तो ने भी यही सब किया। परन्तु किसी ने भी उन सन्तों को पसंद नहीं किया तथा ईर्ष्यावश उन्हें सुली पर चढ़ा दिया। पहले यदि कोई संत महापुरुष हो जाता था तो ईष्ष्यावश लोग उसे कष्ट देते थे, दुखी करते थे अथवा मार डालते थे। परन्तु अब स्थिति इतनी बुरी नहीं है। नि:सन्देह कुछ बेकार लोग हैं जो कि वास्तव में राक्षस हैं। उन्हें भूल जाएं। उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि वे लोग अंधे हैं। गलत व्यक्ति के प्रति भी हमें अपने हृदय में वैमनस्य नहीं रखना चाहिए। दूसरों के प्रति आपको कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए । आप ऐसे व्यक्ति से स्वयं बात करके देख सकते हैं। आप उसे इस बारे में ऐसे समझाएँ कि उसकी समझ में आ जाए। परन्तु आपने इस विषय में कोई मुद्दा नहीं खड़ा करना है और न ही कष्ट देने की चेष्टा करती है। आपने देखा है कि जिन लोगों ने सहजयोग में आकर कष्ट देने का प्रयत्न किया वे स्वयं ही सहजयोग छोड़कर चले गए। हमें इस के लिए कुछ विशेष नहीं करना पड़ा। वे स्वयं ही जीवन की समस्याओं में उलझकर रह गए। महाचयन की प्रक्रिया जारी है और पर चैतन्य यह निर्णय लेने में लगे हैं कि कौन परमात्मा का आशीर्वाद पाने के अधिकारी हैं। आपको यही मूल-स्थल (स्थिति) प्राप्त करना है। इसीलिए आप सहजयोग में आए हैं। शेष सभी कुछ महत्त्वहीन है। आज उच्च पदारूढ़ बहुत से लोग कल धूल में मिल जाएंगे। इन लोगों को अत्यन्त प्रसिद्ध माना जाता है। वे और यह क्रिया आपके सामने प्रतिपल घटित हो रही है। प्रतिदिन आप समाचार पत्रों में पढ़ते है व देखते हैं कि वे किस प्रकार व्यवहार कर रहे हैं। ऐसे लोगों को अपना मूल्य नहीं मालूम। वे केवल अपने गई। जब में ऊपर पहुँची तब मैंने देखा वह व्यक्ति बैठा हुआ क्रोध से कॉप रहा है। मैने कहा चलो, गुफा में बैठते है, पर वह व्यक्ति अपनी साधारण दशा में नहीं था इसलिए मैं जाकर गुफा में बैठ गई वह अंदर आया। वह बिल्कुल चल-फिर नहीं सकता था। क्योंकि उसकी टाँगे अत्याभधिक चैतन्य लहरियों के कारण लँगड़ा चुकी थीं। इसलिए वे लांग उसे उठा कर अंदर ले आए। उसने सर्वप्रथम मुझसे यही प्रश्न पूछा-"कि जब मैंने वर्षा को रोकने का प्रयास किया तो आप ने मुझे एसा क्यों नहीं करने दिया? में नहीं चाहता था कि आप भीगकर ऊपर आएं। में आप को इस प्रकार कष्ट नहीं देना चाहता था। यह आप का अच्छा स्वागत नहीं है। क्या आपने ऐसा मेरे अहंकार को निरयंत्रित करने के लिए किया? हो सकता है मुझे गर्व हो गया हो कि मैं वर्षां को नियंत्रित कर सकता हूँ।" मैं केवल मुस्कराई और बाली दंखा तुम मंर बेटे हो, तुम मेरे लिए साड़ी लाए हो और मैं तुम से साड़ी नहीं ले सकती क्यांकि मैं गृहस्थ हूँ और सन्यांसी से साड़ी लेना धर्म के विरुद्ध है। मैं जानबूझकर इसलिए भीग गई हूँ ताकि आप मुझे साड़ी दे सका। उसका सारा क्रोध व अस्वाभाविक व्यवहार द्रवित ही गया। वी बहुत ही प्रम के साथ बोला, "माँ आप को कैसे मालूम है कि मैं आप क लिए साड़ी लाया हूँ," मैंने कहा-"प्रेम में सब कुछ स्वत: हा मालूम हो जाता है। तब वो जाकर मेरे लिए साड़ी ले आया, मरी आरती आदि सब किया। इससे प्रकट होता है कि प्रेम किस प्रकार हर चीज पर सहज ही में काबू पा लेता है। अगर आप अपना प्रम अभिव्यक्त करने में निपुण हैं तो आप देखेंगे कि यह किस प्रकार छोटी-छांटी चीजों में कार्यान्वित होता है। अपने अन्दर देखने की मुख्य बात यह है कि क्या हम वास्तव में एक-दूसरे को प्यार करत हैं ? क्या हमारे हृदय में उन लोगों के लिए भी प्रेम और करुणा हैं जा सहजयागी नहीं है? जो लोग सहजयोग नहीं अपनाते बे अन्धे हैं। आप का यह महसूस करना चाहिए कि वे लोग कितने दुखी हैं जो सहजयाग में नहीं आतं, सहजयोगी न बनकर अपने अहंकार में संतुष्ट हैं। आपक मन में उन लोगों के लिए सच्ची करुणा होनी चाहिए। ही सकता है लोग आपसे कहें कि आप व्यर्थ में अपनी शक्ति क्यां नष्ट कर रह हैं और इस प्रकार के कार्य क्यों कर रहे हैं? करुणा में मिल जाते हैं । धूल वास्तव में हमार अंदर इन सब चीजों को जोड़ती है। यह एक संयोजक तत्व्र है। पहला आपका चित्त है, दूसरा आपकी बुद्धि या मन और तीसरा आपका हृदय है। यह सब कभी न कभी एक हो जाते हैं। करुणा चैतन्य लहरी 6. 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-7.txt सकता। सहजयोग में यदि आप घनोपार्जन के लिए आए हैं तो घनोपार्जन कीजिए और बाहर हो जाइए, ज्ञान प्रदर्शन के लिए यदि आप आए हैं तो ज्ञान दिखाइए और बाहर हो जाइए। और यदि आप अपनी शक्ति एवं प्रभुत्व दिखाने आए हैं तो शक्ति और प्रभुत्व दिखाइए और बाहर हो जाइए। इस प्रकार बहुत से लोग सहजयोग से बाहर जा चुके हैं। सहजयोग को इन सब व्यर्थ की बातों के लिए उपयोग मत कीजिए, जो न तो सनातन हैं और न चिरस्थायी। सहजयोग का उपयोग मात्र अपना शुद्धिकरण करके स्वयं को प्रेम का सागर बनाने के लिए होना चाहिए।" बहुत से लोग सोचते हैं कि प्रेम करना बहुत कठिन है क्योंकि प्रेम करने वाले व्यक्ति को लोग हानि पहुँचा सकते हैं या उसका अनुचित लाभ उठा सकते हैं । प्रेम में मुख्य बात यह है कि यदि यह शुद्ध नहीं है तो कई समस्याएँ उभर आती हैं। मान लीजिए आपने किसी पर पैसा, सम्बन्धों या इसी प्रकार की अन्य किसी बात के लिए विश्वास किया तो अन्त में आपको अत्याधिक निराशा होगी। दूसरी ओर आप अपना प्रेम उस व्यक्ति के प्रति निर्वाज्य रूप से दर्शाते हैं? यह अत्यन्त सूक्ष्म है और आपमें अन्तर्जात हें। यह तो स्वत: विद्यमान है। हमें तो मात्र इसे व्यक्त करना है। मानव प्रेम का एक पुलिंदा है। निर्वाज्य प्रेम एक प्रकार का सुन्दर प्रकाश है जो आपका प्रक्षेपण, रक्षा तथा मार्गदर्शन करता है तथा आपके जीवन को पूर्णतया ज्योर्तिमय करता है। जिस प्रकार लैम्प में तेल होना आवश्यक है उसी प्रकार यह प्रकाश पोषित है। यह हमारी अध्यात्मिकता के लिए है। मानव होने के कारण आप प्रेम के मूर्त रूप हैं। पशु भी प्रेम को समझते हैं। मैं जानती हूँ कि यदि आप शेर से प्यार करें तो वह भी कभी आप का अहित नहीं करेगा। आप एक सांप को भी प्यार करें, तो वह भी कभी आपको हानि नहीं पहुंचाएगा। यदि आप ऐसे किसी भी व्यक्ति से प्रेम करें जो बहुत निर्दयी व दुष्ट हैं, तो वह भी धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। वह आपका थोड़ा बहुत अहित कर सकता है। परन्तु आप धीरें-धीरे देखेंगे कि प्रेम की ही अन्त में विजय होती है। अन्त अहेकार में जीते हैं व सोचते हैं कि वे बहुत बड़े आदमी हो गए हैं वे अपनी विशिष्ट शैली से चलते हैं; ऊंची-ऊंची बातें करते है। और अचानक उनका पतन हो जाता है। एसे व्यक्ति का बिल्कुल आभस नहीं होता कि लोग उसकी इज्ज़त क्यों करते थे। परन्तु आप को स्वयं यह चेतना लानी है कि आप सहजयागी हैं। यदि आप सागर बन गए हैं तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आपकी चैतना विलुप्त हो गई है बल्कि यह तो और अधिक विस्तृत हो गई है। आपको सागर सम-चेतना प्राप्त हो गई है। आप किसी सम्माहित व्यक्ति की भांति नहीं हैं जिसका स्वयं से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा। इसके विपरीत आप स्वयं से पूर्व की अपेक्षा कहीं अधिक जुड़ गए हैं। इसलिए जब आप सागर बनते हैं, आप अपना व्यक्तित्व नहीं खा देते। आप के व्यक्तित्व का विस्तार होता है। आप अधिक महान हो जाते हैं। सहजयोग में यह घटित हो रहा है। आप जा भी कार्य करते हैं, आपका जो भी व्यवसाय है अथवा जो भी जीवन शैली है, बह सब बाह्य है। व्यक्ति को सर्वशक्तिमान परमात्मा की आर से अपना चित्त बिल्कुल नहीं हटाना चाहिए। यदि आपका चित्त भटक गया, तो आप भी भटक जायेंगे। नामदेव जी ने इस के बार मं एक बहुत सुन्दर कविता लिखी है। एक बार एक लड़का एक पतंग उड़ा रहा था। पतंग लहरा रही थी तथा लड़का उसको देख रहा था। अपने साथियां से बात करते हुए भी उसका पूर्ण चित्त पतंग में था। इसी बात का विस्तृत रूप से समझाने के लिए वे लिखते हैं कि एक स्त्री अपने बच्चे को कमर पर उठाए घर में झाडू लगा रही है और उसे एसा करते हुए इधर-उधर चलना है तथा सफाई के बाद अन्य कार्य भी करने हैं। परन्तु बच्चा वही उस की कमर गर है तथा उस स्त्री का चित्त इस बात में है कि कहीं बच्चा गिर न जाए अथवा है बच्चे का कुछ हा न जाए यद्यपि वह सारे कार्य कर रही परन्तु उसका पूर्ण चित्त बच्चे में है। इसी प्रकार आपका चित्त भी कुंडलिनी की दिव्य शक्तियों पर केनद्रित होना चाहिए। नामदेव ने आगे कहा है कि वहुत सी स्त्रियाँ नदी से जब पानी ले कर जाती हैं तो कभी-कभी उनके सिर पर 3-3 घड़े होते हैं । वे चलती जाती हैं, एक-दूसरे से बातचीत करती रहती हैं, परन्तु उनका पूर्ण चित्त उनके सिर पर रखे घड़ों पर होता है। इसी प्रकार सभी कुछ करते हुए हमार चित्त हमारी कुंडलिनी पर हाना चाहिए। हमें यह मालूम होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं। आपकं सोचने का प्रत्येक पक्ष, आपके सभी प्रयास, आपके जीवन का प्रत्येक कांना प्रकाशमय हो चुका है। आप यदि अपने चित्त को देखें ता, आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे और वास्तव में जान जाएंगे में आपका प्रेम ही उस मनुष्य के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। भोले व सीधे-सादे व्यक्ति आपके प्रेम को अधिक अच्छी तरह समझते हैं। बच्चे जानते हैं कि प्यार क्या है। यदि आपको देखकर बच्चे भाग जाते हैं तो आप जानिएगा कि आपके अन्दर कुछ गड़बड़ है। भोले व्यक्तियों का निर्णय ही सर्वश्रेष्ठ होता है। अपने भोलेपन में वे अच्छी तरह से जान जाते हैं कि वकिस व्यक्ति से प्रेम है तथा किस में नहीं है। यही व्यक्ति ही सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि ये आपका सही रूप से मूल्यांकन करते हैं। ये उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति है। पर अगर ये निश्छल नहीं है, क्योंकि बुद्धि के कारण कुछ लोग बहुत चालाक होते हैं, तो वे कभी भी आपका सही महत्व नहीं जान सकते। वे तो केवल ऐसी असामान्य चीज़ को महत्त्व देंगे जो दिव्य दृष्टिकोण से कुंठित व मूर्खतापूर्ण हैं। एक सीमा तक वे ऐसा कर सकते हैं परन्तु कि आप क्या कर रह हैं। आपने चित्त पर इतना ध्यान देना है। अन्तत: आप आश्चर्यचकित होंगे कि आपका चित्त बिल्कुल भी भटक नहीं रहा। अपने चित्त के बिना आप सहजयोग को क्रियान्वित नहीं कर सकते यह सहजयोग की मुख्य समस्या है। आपका चित्त सर्वशक्तिमन परमात्मा की ओर होना आवश्यक है अन्यथा कुछ भी क्रियान्वन नहीं हो सकता। आपका उत्थान नहीं हो चतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-8.txt लोग सोचते हैं कि मैं धुन बजा रही हूँ जबकि कृष्ण स्वयं धुन बजाते हैं। इसमें मैं कहाँ हूँ? मैं तो कहीं नहीं हूँ। मैं तो केवल उस धुन का आनंद लेती हूँ जो वह मेरे द्वारा बजाते हैं। कहने का यह भाव है कि आप को भी मुरली हो जाना है। स्वयं को अंदर से पूर्णतया रिक्त कर देना है। जीवन की छोटी-छोटी बातें इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती। आप का पूर्णतया खाली होना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यहां आपकी अन्तरदृष्टि सहायक होगी बांसुरी का सृष्टिकार आपके अन्दर भी तो है। अत: स्वयं को बांसुरी बना लो। इस प्रकार आप स्वयं को वही बनाते हैं जो आप को बनना है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि आत्मा स्वत: ही संतुष्ट हो जाती है। इस बात को समझना बहुत कठिन है कि आत्मा कैसे संतुष्ट हो जाती है। किन्तु अब आप यह समझ सकते हैं कि श्री कृष्ण ने ऐसा क्यों कहा कि आपकी आत्मा स्वयं आत्मतुष्ट बन जाती है। तब आपको अन्य किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं रहती। आप अपनी आत्मा का ही चैन सौंदर्य देखते हैं। आप इसे देख भी नहीं पाते, परन्तु यह अपने आपमें, आत्मानन्द से परिपूर्ण है और केवल आत्मा ही इसे सन्तुष्ट कर सकती है। यह बात शीशे में हमारी प्रतिछाया की तरह है। यदि आप शीशे में देखते हैं तो आप को स्वयं की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है और यदि शीशा ठीक नहीं है तो आप यही कहेंगे कि मैं संतुष्ट नहीं हूँ और अपनी बेहतर परछाई देखने का प्रयास करेंगे। इसी प्रकार आपके अन्दर प्रतिबिम्बित आत्मा भी अपनी तस्वीर देखना चाहती हैं। तब आप ध्यान-धारणा द्वारा इसका शुद्धिकरण एवं परिवर्तन करते हैं और इसमें सुधार लाते हैं ताकि आत्मा, आपकी आत्मा संतुष्ट हो सके। श्री कृष्ण इससे आग नहीं। आपने स्वयं का मूल्यांकन करना है। आपने देखना है कि आप किसी के भी प्रति निर्दयी नहीं है, दूसरों का गुणांकत नहीं कर रहे, और सभी की अच्छाईयां का महत्त्व समझ रहे हैं। यह कार्य करता है मेरे प्रम व करुणा के माध्यम से आपने इसे क्रियान्वित होते देखा परन्तु मुझ इस बात का तनिक भी अहसास नहीं है कि मैं आपको प्रेम व करुणा दे रही हूँ। मुझे तो यह भी अहसास नहीं कि मैं आपको कुछ दे रहीं हूँ। मैं नहीं जानती कि किस प्रकार मैने इतने सुन्दर लोगों की सृष्टि की. मुझे इसका अहसास तक नहीं है। यह तो बस घटित होता है। जसे वृक्ष का यह अहसास नहीं होता कि वह क्या है और क्यों और कंसा यह दिखाई देता है। यह तो बस है। इसी प्रकार यदि आपकं साथ भी एसा घटित हो जाए तो आप भी वास्तव में सभी के लिए प्रम का स्त्रांत बन जाते हैं। अब हमें इस विश्व के लिए क्या करना है? विश्व की आवश्यकता क्यो है? लोग शांति और इधर-उधर को यात करते हैं, ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपका अपना व्यक्तित्व ही ऐसा बन जाना चाहिए जो अन्य लोगों का शांति प्रम एवं आनंद प्रदान करें। यह शक्ति आपमें समावेषित है क्यांकि आपकं अन्दर इसकी सृष्टि की गई है। यह प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित है, कंवल आप ने इसको बाहर लाना है। हो सकता है कि स्नेह द्वारा आप इस शक्ति को बाहर न ला सकें पर अपने अन्तर्जात प्रम एवं संवंदना से आप इसे प्रकट कर सकते हैं। आप में अन्तर्निहित इन सूक्ष्म चीजों का वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। क्यांकि अभी तक लांग नहीं जानते कि वो क्या चीज़ हैं जिसक द्वारा हम दूसरों के साथ एकात्मभाव महसूस परन्तु करते हैं। ने यह बात गीता में बहुत स्पष्ट रूप से कही है क्योंकि वे बहुत चतुर थे। वे जानते थे कि मानव हर बात को सीधे रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए उन्हें इधर-उधर के मार्गों से बताना है ताकि भाग-दौड़ के पश्चात वे सत्य की ओर आ सकें। सत्य अत्यन्त सहज है। इसके लिए आपको इधर-उधर जाना नहीं पड़ता। आप को हर समय अपने पैरों व टाँगों पर खड़ा नहीं होना पड़ता। इसे प्राप्त करने के लिए आप को किसी प्रकार की तपस्या करने की आवश्यकता नहीं है। आप को सिर्फ मुरली की तरह खोखला बनने की ज़रूरत है। सहजयोगियों के लिए यह कठिन कार्य नहीं है। क्योंकि कुण्डलिनी ने आपको पहले से ही निर्मल कर दिया है। परन्तु अभी भी मैं देखती हूँ कि लोग अपने चित्त को इधर-उधर विचलित कर लेते हैं। बहुत से लोगों ने मुझे बताया है कि किस प्रकार उनकी समस्याएं बिना कुछ विशेष श्रम के दूर हो गयीं। और जब मैने पूछा कि तुमने क्या किया? तब उन्होंने जवाब दिया, "कुछ नहीं, श्री माताजी, हमने अपनी समस्या को आपके श्रीचरणों में रखा। मैंने कहा "वास्तव में?" "जी, बस इतना ही।" बाहर खड़े हुए हम समस्या को साक्षी भाव से देख रहे थे और समस्या स्वत: ही हल जो गयी। इस प्रकार आप कठिन से कठिन समस्या को बहुत आसानी से सुलझा सकते हैं क्योंकि आप हैं। आप के साथ एसा बहुत सुगमता से घटित हो सकता है जब आप यह समझ जात हैं कि आप शरीर, मन या चित्त नहीं है। केवल आत्मा हैं। तब आप अन्तदर्शन करते हैं और कहते हैं कि क्या मैं आत्मा हूँ? और यदि में आत्मा हूँ तो मैं क्या कर रहा हूँ? जब आप आत्मा बन जात हैं तब आप दूसरों के लिए भी सोचते हैं, केवल करुणावश होकर ऐसा करते हैं, किसी प्रकार का नेतृत्व आदि पाने के लिए नहीं। केवल प्रेमवश होकर। और सोचते हैं कि यदि मैं ऐसा बन गया हूँ तो दूसरों का भी क्यों न एंसा बनाया जाए। इस प्रकार सहजयोग तेज़ी से फैलता है और इसका बिस्तार होता है और हमें लोगों के रूप में सन्त प्राप्त हात हैं। इतने सुन्दर व्यक्ति सहजयोग में आ गए हैं कि मेंने कभी आशा ही नहीं की थी कि मेरे जीवनकाल में यह सब हो जाएगा। एसा कभी किसी संत, अवतरण और पैगम्बर के साथ नहीं हुआ। राधा-कृष्ण की कहानी बहुत सुन्दर है। एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा हैं?' कृष्ण ने कहा जाकर स्वयं मुरली से ही यह बात पूछो। वह गयी और मुरली से पूछा कि श्री कृष्ण तुम्हें हर समय होठों पर क्यों लगाते हैं? तब मुरली ने उत्तर दिया देखो मैं बिल्कुल खोखली हो चुकी हूँ, मेर अंदर कुछ भी नहीं है। वह मुझे होठों पर लगाते है और आप हर समय इस मुरली को होठों से क्यों लगाए रखते के पास शक्तियाँ हैं। आपकी शक्तियाँ महान हैं, आप सब सन्त चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-9.txt आप सन्तों से भी आगे हैं क्योंकि आपने ऐसे परिवर्तनशील समय में जन्म लिया है। मान लीजिए कि अन्धकार कुछ ढूंढते हुए आप चाहिए कि आप दूसरे गुरुओं से भिन्न हैं दूसरे गुरु प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न करते हैं, दूसरों को हानि पहुंचाने के लिए शक्ति प्रयोग करते हैं। परन्तु प्रेम में प्रवीणता का अर्थ यह है कि दिव्य प्रेम के साथ घनिष्टता बढ़ाने का ज्ञान आपको हो। यह दिव्य प्रेम न केवल शक्तिशाली है, बल्कि ऐसा निपुण है, ऐसा सतर्क यंत्र है जो हर कार्य को इस प्रकार कार्यान्वित करता है कि आप आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि यह कार्य कैसे सम्पूर्ण हो गया। हर व्यक्ति ने इस बात को जाना है, परखा है और मैं जानती हूं कि आप भी इसे जान जाएंगे। परन्तु आप इसका उपयोग नहीं करते हैं । चैतन्य चेतना में रहते हुए आपने इसका उपयोग करना है। स्वयं को बन्धन देने मात्र से आपका शुद्धिकरण हो जाता है। ऐसा अनुभव कीजिए कि आपके हाथ में वह महान शक्ति है जो आपको संतुलन प्रेम एवं संरक्षण प्रदान कर रही है। अब आप यह शक्ति दूसरों को भी दे सकते हैं व इस परमशक्ति के अभिन्न अंग बन चुके हैं और परमात्मा के साम्राज्य में हैं। जो कुछ में लड़खड़ा जात हैं। यह जगह यदि गेस से भरी हो तो प्रकाश में लाते ही सम्पूर्ण स्थान प्रकाशित हो जाएगा। इसी तरह आप के पास शक्तियाँ हैं, परन्तु आपको "मैं, मेरा, मुझे" जैसी मूर्खताओं से छुटकारा पाना हागा। यह कोई तरणताल नहीं है कि आपने इसमें छलाँग लगाई और बाहर आ गए। यह एक अन्य प्रकार के ज्ञान की बात है कि हमारी जड़ों को विकसित होना है और इन्हें अपने अन्दर विकसित करते हुए हमें अपने अन्दर देखना है कि हम कौन से क्षेत्र में रह रहे हैं। अपनी जीवन शैली के कौन-कौन से क्षेत्रों में इन जड़ों को अन्त्तमुखी बना रहे हैं? श्री कृष्ण ने बताया है कि इस जीवन रूपी वृक्ष की जड़ें हमारे मस्तिष्क इस बात को जानना और अधिक रुचिकर है कि यह जड़ें हमारे मस्तिष्क में बढ़ रही है। इसका अर्थ यह है कि हमारा अपना विवेक में हैं और यह नीचे की ओर बढ़ता है। ट करुणा आच्छादित है। यानि करुणा से इसकी पूरी एकाकारिता है। मेंने आप को उस सन्त की कहानी अवश्य बतायी होगी जो गुजरात में अपने देवता के लिए पानी ले जाया करता था और उसे एक महीने भी आप करना चहते हैं, उसे यह परम शक्ति कर देगी। यह सब बताते हुए भी मुझे ऐसा लग रहा है कि आप विश्वस्त नहीं है। आप परेशान हो जाते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है। वास्तव में आपको स्वयं पर विश्वास नहीं। कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि उनकी देखभाल नहीं की जा रही है। उनके साथ कुछ घटित हो गया होता। एक बार एक स्त्री रो रही थी तो मैंने पूछा क्यों रो रही हो? तो वह कहने लगी इस बार श्री माताजी मुझे देखकर मुस्कुराए नहीं तक पानी का बड़ा उठाकर चलना पड़ा क्योंकि उसका देवता पहाड़ी पर रहता था जय वह तलहट्टी में पहुंचा तो उसने देखा एक गधा प्यास से मर रहा है। उसने सारा पानी उस गधे को पिला दिया। उसके साथियों ने उससे पूछा-'" यह क्या कर रहे हो? सारा रास्ता यह घड़ा उठा कर लाए और अब यह पानी इस गधे को पिला दिया।" तब उसने कहा-" आप नहीं जानते कि देव स्वयं मुझसे मिलने के लिए नीचे आ गए हैं। व नहीं चाहते कि मैं इतनी चढ़ाई चढ़कर ऊपरं जाऊं।" इस प्रकार दूसरों की भावनाओं को सामान्य रूप से समझना, दूसरों की समस्याओं को हल करना, यह सब आप कर सकते हैं और लोग आपको बताएंग कि आपने उनकी समस्या कैसे दूर की जबकि आपको पता ही नहीं होगा कि आपने दूर की। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रेम की ही शक्ति हैं। प्रेम सब चीजों को देख सकता है। यह ऐक टेलीविज़न की तरह है । जो कुछ भी आप देखते हैं और अपनी शक्ति से करते हैं, वह सब हमेशा आपके प्रेम में सन्निहित होता है। आपके पास टेलीफॉन नहीं था। पूरे आकाश तत्व का सार आपके चरणों में है। इसलिए आप जो कुछ भी करना लहरियों द्वारा ही कर सकते हैं। बहुत से लोग कहते हैं श्री माताजी इस व्यक्ति को ठीक कीजिए, परन्तु अब आपको ऐसा कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप जिसे चाहें ठीक कर सकते हैं। परन्तु आप उस व्यक्ति को मंरे ही पास लेकर आते हैं । ऐसा मत कीजिए। आप स्वयं जिसे चाहें ठीक करें। आप उनकी सब समस्याएं सुलझा सकते हैं। एक छोटे से बन्धन से ही सब कार्य हो जाएगा। परन्तु इसके लिए आपकी प्रेम का स्त्रोत बनना पड़गा। जब आप बन्धन देते हैं तो शक्तिशाली प्रम इस कार्य को संभाल लेता है। परन्तु इसके लिए आपको इस सुन्दर चीज़ का स्वामी होना होगा। आपको यह ज्ञात होना हैं। इस प्रकार की भावना भी कभी-कभी सहजयोग में आ जाती है कि श्री माताजी हर समय आप ही से जुड़ी रहें। श्री माताजी किसी से आसक्त नहीं हैं। मुझे लोग कहते हैं कि उस व्यक्ति का बहुत ध्यान रखना है क्योंकि वह बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसा नहीं हो सकता। आप मेरे अभिन्न अंग बन चुके हैं, इसके आगे कुछ नहीं। आपको यह जान लेना चाहिए कि आप मेरे हृदय के बहुत नजदीक हैं, मुझे आप पर बहुत गर्व है। यह एक चमत्कार है कि आपको सहजयोग प्राप्त हुआ। मान लीजिए में किसी से कहूं, "यहां मत बैठो, वहां जाकर बैठो।," तो उन्हें बुरा लगता है। आप कुछ भी उन्हें कहो, उन्हें बुरा लगता है। ऐसे व्यक्ति के अंदर प्रेम-विवेक का अभाव है। वह माँ के प्रेम को नहीं समझता। चाहते हैं, उसे कंेवल चैतन्य जब आप गुरु हैं तो आप माँ भी हैं। एक माँ की तरह आपने अपनी अभिव्यक्ति करनी है। माँ तो करुणामय कोमल हृदय और क्षमादायनी होती है। आवश्यकता पड़ने पर वे प्रेमपूर्वक त्रुटि सुधार भी करती हैं और इस प्रकार वास्तविक सुधार होता है। कोई विद्रोह आरम्भ नहीं होता। माँ का पूर्ण विवेक आप में हैं, आप में पहले से ही विद्यमान है। इसका उपयोग करने का प्रयास कीजिए। मुझे विश्वास है कि यह सब कार्यान्वित होगा। सर्व-साधारण से उन्नत हुए, परस्पर शान्ति तथा आनन्द मग्न, हम लोगों की अति विशाल एवं सुन्दर सामूहिकता है। परमात्मा आपको धन्य करें। भीतन्व तहरी 6. 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-10.txt श्री कृष्ण पूजा परम पूज्य श्रीमाताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) कबेला (इटली) अगस्त 1995 के द्वारा किया गया है। आपको इसी प्रकार का सहजयोगी बनना है। श्री कृष्ण ने सहजयोगी का वर्णन तो किया परन्तु उस समय सहजयोगी नहीं थे। अधिकतर लोग अत्यन्त तपस्वी थे जो सत्य की खोज में हिमालय पर चले जाते थे तो भक्ति मार्ग का आरम्भ हुआ। इस भक्ति में भी वे बहुत गोपनीय बने रहे। दूसरों को वे बिल्कुल नहीं बताएंगे कि वे क्या कर रहे हैं। श्री कृष्ण ने भक्ति के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि भक्ति परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित होनी चाहिए, 'अनन्य'। जिसमें किसी अन्य का कोई स्थान न हो। आप एकाकार हो जाते हैं, परन्तु लोगों ने इस बात का गलत अर्थ लगाया। उन्होंने सोचा कि अनन्य का अर्थ है सम्पूर्ण। इस प्रकार श्री कृष्ण की बात को गलत समझकर लोग एक अन्य अति में चले गए। एक अन्य लहर आयी तथा बिना कृष्ण के भक्ति संदेश को समझे, हरे रामा, हरे कृष्णा की धुन लगाए लोग सभी उल्टे सीधे कार्य करने लगे। श्री कृष्ण के अनुसार बिना अन्दर से जुड़े हुए भक्ति नहीं हो सकती। उत्थान और विकास की दृष्टि से अर्थहीन, इस प्रकार की भक्ति में बहुत से लोग फंस गए। आज हम श्री राधाकृष्ण की पूजा करेंगे। यह अत्यन्त अह्लाददायी अनुभूति है क्योंकि श्रीकृष्ण ऐसे समय पृथ्वी पर अवतरित हुए जब धर्म और आध्यात्मिकता के नाम पर लोग अति गंभीर हो गए थे। धर्म का पूर्ण रूप ही नीरस बन गया। लोगों का चित्त एक ऐसे नाटक की ओर चला गया जिससे समाज से अलगाव उत्पन्न हो गया। लोग वैयक्तिक तथा रहस्यमय हो गए। एक प्रकार का भय विकसित हो जाने के कारण इन लोगों के बच्चे भी वैसे ही बन गए। हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार का अपना महत्व और प्रभाव है। बच्चों के अन्दर भी वैसी ही भावनाएं विकसित हो गईं। श्री रामचन्द्र जी के 2000 वर्ष बाद अध्यात्मिकता एक गोपनीय लक्ष्य बन गई। लोग एक दूसरे को बिल्कुल नहीं बताते थे कि उन्हें क्या प्राप्त हुआ। इस गोपनशीलता में वे खो गए। इसी कारण बहुत से कुगुरु तथा पंथ फैल गए। इस एकान्तवाद ने समाज को असंघटित कर दिया। यहां तक कि पिता अपने बेटे से बात नहीं करता था और न ही वह अपनी पत्नी से बात करता था और पत्नी भी बच्चों से बात नहीं करती थी। भारत में लोग धर्म का पालन बहुत श्रद्धापूर्वक करते थे। परन्तु इस प्रकार की तपस्विता से दायीं ओर को चले गए और उन्होंने गीता का पालन बिना यह सोंचे समझे करना शुरू कर दिया कि गीता में लिखा क्या है? जब श्री कृष्ण ने कर्मयोग क बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि कर्म अकर्म हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि सब कुछ उनके चरण कमलों में अर्पित कर दिया जाए। परन्तु ऐसा कभी भी घटित नहीं हुआ क्योंकि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किए बिना आप सोचते हैं कि आप कुछ कर रहे हैं, कुछ प्राप्त कर रहे हैं। जब आप एंसा करने लगते हैं तो कभी-कभी दूसरों को वश में करने लगते हैं, उन पर प्रभुत्व जमाने लगते हैं। बहुत से सन्त आए। परन्तु वे नहीं जानते थे कि लोगों को क्या बताएं क्योंकि वे उन्हें आत्म साक्षात्कार नहीं दे सकते थे। अत: उन्होंने कहा कि परमात्मा का स्मरण करो। आप श्री श्री राम, कृष्ण के नाम का स्मरण करो। महाराष्ट्र में विशेषत: ऐसे बहुतं से सन्त हुए जिन्होंने लोगों से परमात्मा का नाम जपने के लिए कहा। परन्तु इसका अर्थ केवल स्मरण करना ही नहीं था कुछ भी कार्य करते हुए आप कहते रहें कि "मैं परमात्मा का स्मरण करता हूँ।" मानव स्वभाव को न समझ पाने के कारण ये सन्त भी असफल हो गए। वे दूसरे पुजारियों और अन्य लोगों से घनिष्टतापूर्वक जुड़ गए। दो प्रकार के सन्त होते हैं : एक बो जो परमात्मा से विरह की बात करते हैं और दूसरे वो जो परमात्मा से मिलन की बात करते हैं । पर बहुत कम लोग स्वयं वैसा बनने में रुचि दिखाते हैं। वे लोग कहेंगे हम इसका सम्मान करते हैं हम इसमें विश्वास करते हैं, हम श्री कृष्ण जाते थे। जहाँ कहीं भी आप चले जाइए आपको एक श्री कृष्ण मिल जाएंगे। विशेषत: गुजरात में जहाँ श्री कृष्ण स्वयं शासन करते थे। वहां के लोग श्री कृष्ण में विश्वास तो करते हैं दूसरा समूह यह सोचना शुरू कर देता है कि हमारा दमन हो रहा है, मुझे इतना कष्ट है, परेशानी है| इस प्रकार दो प्रकार के लोग बन जाते हैं-एक निरंकुश और दूसरे हर समय रोने-घोने वाले। अत: श्री कृष्ण ने सहजयोगी के गुणों की चर्चा करनी शुरू की उन्होंने कहा कि सहजयोगी सन्तुलित व्यक्ति होता है। उसके लिए सुख-दुःख अर्थहीन हैं। जो भी कुछ वह करता है, उसे लगता है कि यह सब सर्वशक्तिमान परमात्मा में विश्वास करते हैं। ऐसे लोग पंधरपुर चैतन्य लहरी 10 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-11.txt पता चलता है कि कार्यरत आसुरी शक्तयों के प्रति उन्होंने आक्रामकता अपनाई। श्री रामचन्द्र जी ने सभी कुछ सहन किया। उन्होंने रावण को भी बहुत देर बाद मारा। परन्तु आसुरी शक्तियों के विरुद्ध श्री कृष्ण का दृष्टिकोण बचपन से ही गतिशीलता का था। कंस को मारने से पहले उन्होंने कई राक्षसों का वध किया। सबसे पहले उन्होंने आक्रमक, शक्तिशोषक महत्वोन्मादी तथा स्वयं को शाश्वत समझ बैठे राक्षसों का वध किया। श्री कृष्ण ने उनके अहं का नाश किया और उसके बाद सत्य स्थापन करने लिए पांडवों को आत्मसाक्षात्कार नहीं दिया। कुछ सीमा तक उन्हें समझाया कि सत्य की सदैव जीत होती है, "सत्यमेव जयते" ऐसा कहा गया है। यह सब उस समय घटित हुआ परन्तु वे यह भूल गए हैं कि कृष्ण क्यों अवतरित हुए। श्री कृष्ण ने आत्मसाक्षात्कार के बारे में बात की, आंतरिक योग के बारे में बात की। उनके उपदेशों के वास्तिक अर्थ को लोग समझ नहीं पाए और अपनी मनमानी करने लगे। हमारे इतिहास में श्री कृष्ण के नाम पर बहुत भयानक कार्य हुए हैं जैसे हरे राम, हरे कृष्णा। हमारे यहाँ एक श्री माताजी का मन्दिर हैं। जब वे युद्ध से भाग खड़े हुए "रण छोड़दास" तो उन चैतन्य स्वरुप श्री कृष्ण के लिए यह मन्दिर बनाया गया था। एक राक्षस को धोखे में डाल उसका वध करने के लिए वे रण क्षेत्र से भाग खड़े हुए थे। अत: यह रणछोड़ दास अवस्था बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके द्वारा श्री कृष्ण ने राक्षस का चतुरता से धोखा दिया और उसे एक गुफा तक ले गए। जहाँ एक सन्त सोये हुए थे। सन्त को यह वरदान प्राप्त था कि अगर कोई भी उन्हें नींद से जगाने का प्रयत्न करेंगा ता वह अपनी तीसरी आँख खोल कर उसे भस्म जब लोगों को यह बताना नितांत आवश्यक था कि आसुरी शक्तियां कभी जीत नहीं सकतीं। उन्होंने दर्शाया कि असक्षम होते हुए भी किस प्रकार ये शक्तियां गतिशील और हावी हैं तथा सभी लोग इनसे भयभीत हैं। परन्तु श्री कृष्ण ने इन सब शक्तियों को निष्प्रभावित कर दिया। उन्होंने दिखाया इन सब शक्तियों को समाप्त करने में सक्षम हैं। श्री कृष्ण की जीवन शैली का यह पक्ष आधुनिक समय में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अब हम देखते हैं कि अमेरिका में इस प्रकार की बहुत सी विनाशकारी शक्तियां उभर आई हैं। परन्तु उनका स्वरूप राक्षसां से भिन्न हैं। परन्तु स्वभाव से वे राक्षस हैं। रासलीला के माध्यम से श्री कृष्ण ने सामूहिकता का उपदेश दिया। यह एक प्रशंसनीय बात है कि श्री कृष्ण ने लोगों को सामूहिकता में नृत्य करने, खेलने और आनन्द मनाने और स्वयं को साक्षी मानने को प्रेरित किया। आप अपने धर्म या ध्यान धारणा के दास नहीं हैं, आपको आनन्दमय होना है। उन्होंने रक्षाबन्धन जैसे पावन त्यौहारों को आरंभ किया। यह सोचकर कि इस प्रकार आनन्द प्राप्त करने के साथ-साथ समाज का शुद्धिकरण भी होगा, उन्होंने यह सब आरम्भ किया। वे लोगों के जीवन में हर्ष और उल्लास लेकर कर देंगे। इस प्रकार श्री कृष्ण ने चाल चली। और वह गुफा के अन्दर भागे। तब वह राक्षस भी उनके पीछे-पीछे भागा। श्री कृष्ण न अपना दुशाला उस निद्रा मग्न सन्त पर डाल दिया और स्वयं छिप गए। पीछे से वह राक्षस भागता हुआ आया और कहने लगा अच्छा तुम भाग आए हो और थककर यहाँ सो रहे हो। उसने दुशाला खींचा और संत की निद्रा भंग कर दी। संत के कटाक्ष मात्र ने राक्षस को भस्म कर डाला। श्री कृष्ण की जीवन शैली मेरी जीवन शैली से अत्यन्त भिन्न थी। श्री राम चन्द्र जी ने बनवास स्वीकार किया और चौदह वर्ष जंगल में बिताए। वे अपनी पत्नी को ढूंढने के लिए गए और उनके बच्चों ने भी उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया। श्री के जीवन का पहलू बिल्कुल पहली चीज़ यह समझी कि मनुष्य बहुत चालाक है और परमात्मा के विषय में सीधे से बताई गई कोई भी बात वे स्वीकार नहीं करेंगे। अपने विचारों के अनुसार ही वे सब कार्य करेंगे इसलिए श्री कृष्ण नं उन्हें दूसरे ढंग से समझाने की कोशिश की। बहुत चतुराई से उन्होंने अपने उपदेश दिए कि "आप को कर्म करना है। आपका कर्म ही अकर्म बन जाता है।" यह एक असंभव स्थिति है। और दूसरी बात यह कि "आपकी श्रद्धा अनन्य होनी चाहिए।" कोई भी इन दोनों शर्तों को पूरा नहीं कर सका। अब सहजयोग के समय में लोगों ने जान लिया कि श्री कृष्ण द्वारा कही गई बातों का आचरण करने से वे कहीं नहीं पहुंचे हैं । परन्तु श्री कृष्ण के जीवन का ढंग अलग ही था। बाल्य काल में उन्होंने अपने निवास नगर गोकुल को आक्रान्त करने वाले राक्षसों का वध किया। पर उनका ढंग बिल्कुल अलग था। भयंकर राक्षसी पूतना, जो उन्हें अपने दूध के साथ विष देना चाहती थी, का वध उन्होंने उसका दूध पीते हुए ही कर दिया। इससे भिन्न था। उन्होंने कृप्ण आए। यह आनन्द आत्मानन्द था-निरानन्द। अति विकृत रूप में ये सब चीजें आजकल अमरीका के जीवन में प्रतिबिम्बित हो रही हैं। अमेरिका के जीवन में आनन्द का अर्थ सर्वथा दूषित है क्योंकि अब भी यह विनाशकारी है। जो कुछ भी वे लोग अपनाते हैं, वह सब आत्म विनाशी है और यदि आप उन्हें समझाएं तो वे कहेंगे 'गलती क्या है।' अमरीका में इतने गुरु क्यों समृद्ध हुए? क्योंकि उन्होंने इन लोगों के अहंकार को प्रोत्साहित किया और कहा कि "यह सब ठीक है। जब तक धन देते रहो अपनी मनमानी करते रहो। इस प्रकार सब कुछ होने लगा। रजनीश की तरह लोग पथभ्रष्ट होते गए। अमरीका आकर रजनीश ने रजनीशग्राम शुरू कर दिया और हजारां अनुयायियों के साथ बहां जम गया। परन्तु श्री कृष्ण की शक्तियों ने उस पर कार्य किया और वहां उसे मुंह की खानी पड़ी। है। चंतन्य लहो 11 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-12.txt को इससे राहत दिलाता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। जब उन्हें राहत कहीं नहीं मिली तो वे भिन्न लोगों के कुचक्रो में फंसते गए और इस प्रकार दिन-प्रतिदिन पतन की ओर अग्रसर होते गए। साथ ही साथ अनैतिकता का प्रकोप हुआ। अमरीका का संविधान यदि आप पढें तो आप आश्चर्यचकित होंगे कि बहुत सूक्ष्म रूप से केवल पूर्ण नैतिकता को ही समर्थन मिला है। एक कानून है कि घर से बाहर जाते हुए आप कोई बेतुकी वेशभूषा नहीं पहन सकते। तैरते हुए कोई भी पूर्णतया नग्न नहीं हो सकता। लक्ष्य यह था कि लोग नैतिक बने। परन्तु जब भी कोई कानून बनता है लोग इसे तोड़ देते हैं, सम्भवत: पूछने के लिए कि यह क्यों बनाया गया। इस प्रकार जब नियंत्रण करने का विचार आता है तो पूछा जाता है आप किस प्रकार नियत्रण कर सकते हैं और किस आधार पर ऐसा कहते हैं कि हमें ऐसा नहीं करना है। परिवार रूपी संस्था में भी अब पूर्ण विस्फोट हो चुका है, बच्चों ने बड़ों की अवज्ञा करनी शुरु कर दी है। जैसे उनके माता-पिता थे वैसे ही बच्चे बन गये हैं । लोगों ने सोचा कि स्वतन्त्रता है। स्वतंत्रता का उपयोग जो लोग नहीं जानते, उन्हें स्वतंत्रता नहीं मिलनी चाहिए। लोगों को समझ होनी चाहिए कि स्वतन्त्रता है क्या। स्वतन्त्रता को समझने तथा इसका सम्मान करने वाले ही वास्तव में स्वतंत्र हैं। स्वतन्त्रता में हुए इस विस्फोट ने लोगों के भ्रष्ट कर दिया और अत्यन्त बेतुके जीवन को उचित तथा तर्क संगत कहते हुए वे इसे अपनाने लगे। लोग समलिंग कामी हो गए हैं। यह अत्यन्त अनुचित है, पूर्णतया अस्वभाविक। परन्तु जब स्वतंत्रता के विचार का विस्फोट इन लोगों में तब सब भूत भी इनकी आजादी को लेने आ गए और इन भूतों से ही इन्हें ये सब दुर्विचार मिले। इतने विशाल स्तर पर लोगों पर इन भूतों का कुप्रभाव है कि लोग भयंकर रोगों के शिकार हे रहे हैं। उस समय सबसे विनशकारी व्यक्ति तो आस्ट्रिया का फ्रायड था। उसने इन सब के जीवन को नष्ट कर दिया क्योंकि स्वतन्त्र होते ही वे सभी पुस्तकों को 'बाइबल मान बैठे। लोगों ने फ्रायड तथा फ्रांस के कुछ अन्य लोगों का अन्धाधुंध अनुसरण करना शुरु कर दिया। यह पूर्ण अपरिपक्वता का चिह्न है। परिपक्व व्यक्ति कभी ऐसा नहीं कर सकता। लोग कहने लगे कि हमें कोई समस्या नहीं है, हम हर चीज़ का सुख लेते हैं, मज़ा ही महत्वपूर्ण है। अब वो इस मज़े से उत्पन्न हुई समस्याओं के बारे में बात करने लगे हैं। वे बताते हैं कि 65% लोग खंडित मानिकसता के शिकार हैं और 30% पागल हो जायेंगे। तो सामान्य लोग कितने बचे? आप को बहुत दुःख होगा कि किस प्रकार इतनी अधिक संख्या में लोग इस प्रकार की कठिनाइओं में फंस जाते हैं और उन्हें अजीबो-गरीब रोग हैं। उनकी अधिकतर बीमारियाँ मूलाधार सम्बन्धी हैं। सभी जगह आपका बहुत से कुगुरु मिल जाएंगे, परन्तु श्री कृष्ण की शक्तियां नं उन सब को पराजित कर दिया है क्योंकि श्री कृष्ण इस कार्य में बहुत निपुण हैं। वे जानते हैं कि इन सब का किस प्रकार मूर्ख बनाना है। इन सब दुष्टताओं का यह परिणाम हुआ है कि लोगों का किसी भी चीज़ में विश्वास नहीं रहा। लोगों को यह समझ आ गई है कि किस प्रकार ये गुरु हमें धोखा देते हैं और हमारा पैसा छीनत हैं। इसलिए लोगों ने गुरुओं से सम्बन्ध तोड़ लिए। हम काई असामान्य लोग नहीं हैं, हम बिल्कुल सामान्य लोग हैं। हमने न तो मूर्खतापूर्ण अनुयायी बनाए हैं और न ही इस प्रकार की हास्यास्पद ध्यान धारणा आरम्भ की है कि आप हवा में उड़ंगे-आदि आदि। परन्तु अमरीका के लोग यह सब समझने के लिए अभी परिपक्व नहीं हुए, अन्यथा वे इस प्रकार के भयानक गुरुओं के शिकार न होते। हमारे पास एक आर तो इन गुरुआं द्वारा दुष्प्रभावित लोग हैं, दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो यह समझते हैं कि हम भी उन गुरुओं में से एक बन सकते हैं और तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जो अत्यधिक सीधे और अल्हड़ हैं वे बिल्कुल बच्चों जैसे हैं। अमरीका के लागों न मुझे बताया कि वे बिल्कुल बच्चों जैसे हैं और उन तक पहुंचनं के लिए उन्हें समझाना पड़ेगा कि केवल माँ का प्यार ही उन्हें ठीक कर सकता है। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, यह पहला दश था जहां मैं पहली बार 1974 में गई और बहुत से लोगों को आत्म-साक्षात्कार दिया। परन्तु बाद में मुझे लगा कि ये लांग गहन चीजों की चिन्ता नहीं करते। इस प्रकार हमने बहुत से सहजयांगी खा दिये। कुछ ऐसे भी थे जो बीमार थे और ये अपना इलाज चाहते थे, बस। कुगुरुओं से पीड़ित कुछ लोग भी आए। जिज्ञासु हांते हुए भी लोग सहजयोग के लिए तैयार न शे। उनके अंदर बेचैनी तो थी पर वे सहजयोग के लिए तैयार नहीं थे। वे नहीं जानते थे कि क्या देखना है और क्या प्राप्त करना है। यही मेरे लिए बहुत दुःख की बात थे। इसलिए मैं आगे के पूरे नौ वर्ष अमरीका नहीं गई क्योंकि मैंने सांचा कि अपना समय तब तक दूसरी चीज़ों में लगाऊँ जब तक यें लांग अपनी गलतियों को समझने के काबिल और परिपक्व नहीं हो जाते। गुरुओं के पास जा-जा कर अब ये थेक चुके है। बहुत से लोगों में इतनी बेचैनी हैं कि वे इस प्रकार की बहुत सी किताबें व लेख लिखते हैं। सहजयोग के विकास के लिए एसी बैचेनी का होना महत्वपूर्ण है। आप में से बहुत से लांग अपने पूर्व जन्मों से साधक हैं और आपके अन्दर यह बेचनी है। परन्तु आप नहीं जानते कि इसका क्या करें और कहा जाए। तर्कसंगत है कि इस बैचेनी के कारण आप किसी एस व्यक्ति के पास जाते जो कम से कम आप ी हुआ चैतन्य लहरी 12 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-13.txt होगा कि बुद्धि से परे भी शक्ति है। लोग कुण्डलिनी में विश्वास न करें कोई बात नहीं परन्तु एक बार जब वे जान जाएंगे कि बद्धि से परे भी कोई शक्ति है तो वे इसे कार्यान्वित करने का प्रयत्न करेंगे। लोगों को इस पराशक्ति के बारे में विश्वास दिलाना अत्यन्त कठिन है क्योंकि वे विज्ञान, परिवारिक परम्पराओं और अपन अहंकार की मूर्खताओं में इस प्रकार जकड़े हुए हैं कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता। प्रकृति भी इस विषय में बहुत सहायता कर रही है। अमेरिका इतना-समृद्ध देश क्यों है? ऐसा लोग कभी नहीं पूछते। उन्होंने ऐसा क्या किया है? उनके कौन से पुण्य हैं? अब आनन्द किस स्थिति में प्राप्त होता है? कहां आप आनन्द उठाते हैं? आप अपने हृदय में, अपने सहस्त्रार में आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं। मूलाधार में तो आनन्द प्राप्ती का प्रश्न हो नहीं उठता। यदि आप इस प्रकार गिरते हैं तो इसका कोई अन्त नहीं। इस विचारधारा ने अमरीका में बहुत सी भयंकर समस्याएं खड़ी कर दी हैं। वे लोग धनलोलुप हो गए हैं। उनके लिए पैसा ही सफलता है, पैसा ही आनन्द है, पैसा ही सब कुछ है। अब यह तीसरा गुण कहाँ से आया? श्री कृष्ण के समय में भी लोग बहुत धन-लोलुप थे। वे अपना दूध और मक्खन, कस जैसे राक्षस को बेच देते थे। अत: श्री कृष्ण उनकी मटकियां फोड़ देते ताकि दूध व मक्खन वहां तक न पहुँच सकें। स्त्रियाँ भी दूध और मक्खन अपने बच्चों को न देकर इन दुष्टों को बेचने जातीं थीं। यह प्रकाश व प्रतिछाया की तरह है। श्री कृष्ण प्रकाश हैं। वे इतने निरासक्त थे कि कभी भी कोई गलत या अनैतिक कार्य वे कर ही नहीं सकते थे। जो कुछ उन्होंने किया वह पूर्णतया नैतिक था क्योंकि निरासक्तं हो कर जब आप कुछ करते हैं तो आप को कोई भी चीज़ छू नहीं सकती। इस प्रकार परमात्मा की लीला के विषय में उन्होंने बताया। अब हम अपने जीवन में भी देखते हैं कि किस प्रकार परमात्मा की लीला कार्य करती रहती है। इसका एक कारण तो यह कि श्री कृष्ण स्वयं कुबेर हैं और वे अपना कार्य कर रहे हैं। वे ये सारा कार्य कर रहे हैं परन्तु लोग यह समझने को तैयार नहीं हैं कि यह दिव्य अनुकम्पा है। वे सोचते हैं कि यह तो उनका अधिकार हे और इस बारे में बहुत शेखी मारते हैं। अत्यन्त आत्मश्लाघी लोग हैं। वे अपनी समृद्धि की बात करते हैं । यह अत्यन्त कठिन परिस्थिति और संस्कृति है। भारत में यदि कोई अपने धन के बारे में बोलना शुरू करे तो लोग सोचते हैं कि वह पागल हो गया है क्योंकि ऐसा करना वहां अशिष्टता मानी जाती है। पश्चिम में अशिष्टता नाम की कोई चीज़ नहीं होती। वे अपने पिता को भी बहुत बुरे शब्दों में गाली दे देते हैं। हमें अमरीका को वास्तव में बचाना होगा। चहुं ओर से यह घिरा हुआ है। उनके नैतिक और कलात्मक पक्षों पर आघात हो रहा है। वहां कोई श्रेष्ठ कलाकार पैदा नहीं हो रहा। उनके आधुनिक चित्रकला में कोई गहनता नहीं, ये गन्दगी से परिपूर्ण हैं। ये गन्दे चित्र वे अपरिपक्व लोगों को बेचते हैं जो मूलाधार जब लाग सहजयोग में आते हैं तो अत्यन्त अशान्त होते हैं तथा मुझसे सैकड़ों प्रश्न पूछते हैं। दूसरों पर हावी होकर बहुत से उल्टे सीधे कार्य करने लगते हैं। परन्तु दिव्य शक्ति का अनुभव पाकर वे शान्त हो जाते हैं तब उन्हें बहुत से संयोग और चमत्कार दिखाई देते हैं और वे समझने लगते हैं कि कोई शक्ति है जो हमें उचित मार्ग पर ले जा रही है। इसलिए जब हम इस बात का अनुभव कर लेते हैं कि कोई दिव्य शक्ति हमारी सहायता कर रही है, और जो हमारे बौद्धिक ज्ञान से परे है तब परिवर्तन होने लगता है। अब हमें अमरीका में यह कार्य करना है। हमने उन्हें बताना है कि उनके ज्ञान से परे कांई शक्ति उन्हें सुधारने और परिवर्तित करने की प्रतीक्षा कर रही है। विश्व भर में परिवर्तन होने वाला है। मैं इसे बहुत स्पष्ट देख पा रही हूँ। सभी देशों में मैं इसे देखती हूँ और सब जगह ये कार्यान्वित होता है। मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा था कि मैं अपने जीवन काल में इस व्यापक परिवर्तन को देख पाऊँगी। परन्तु अब तो यह अपने विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच चुका है। आप सब लोग परिवर्तित हो चुके हैं। भारत में इस की भविष्यवाणी बहुत पहले कर दी गई थी। जब आप चैतन्य लहरियों को महसूस करना तथा इसका उपयोग जब आप करने लगते हैं तब आप समझ जाते हैं कि यह शक्ति कार्य करती हैं। तब आप स्वयंभुओं के शक्ति केन्द्ों को भी देखने लगते हैं । तब आप समझने लगते हैं। आप की यह समझ बढ़ती चली जाती है। परन्तु पहले आप को विश्वास करना चक्र की समस्याआं से ग्रस्त हैं। आप उनकी सहायता किस प्रकार कर सकते हैं? किस प्रकार आप उन्हें सुधार सकते हैं? यह परिपक्वता प्राप्त करने वालों का प्रश्न है, इसके लिए नि:संदेह चैतंन्य परम सहायतां करेगा उनकी दुर्बलता यह है कि विकास के मामले में वे परिपक्व नहीं है। सहजयोग के प्रचारार्थ हम समाचार पत्र आरम्भ कर सकते हैं या इस प्रकार का कोई अन्य प्रसार माध्यम जैसे केबल टी.वी. आदि शुरू कर सकते हैं। उन्हें बतायें कि सहंजयोग से क्या लाभ हुआ है और उन्हें यह क्या लाभ पहुंचा सकता है। सभी कुछ बाहुल्य में होने के कारण, यह अत्यन्त पागलों का स्थान है। जहां पर भी आप नज़र डालें वहीं हिंसा, भ्रष्टाचार और लड़ाई-झगड़े हैं। यह धर्म नहीं है। इस प्रकार से कोई कैसे खुश रह सकता है? परन्तु यहां तो ऐसा ही है। इसलिए आप सब इससे बाहर निकल आइए जहां एक दूसरे से प्रेम कर सके, एक दूसरे का ध्यान रखं सके, परस्पर आनन्द दे सके। आपका आनन्द सर्वथा शुद्ध है और यही दूसरे लोगों को दिखाई देना चाहिए और यह सब हो सकता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक दिन हम अमेरिका में अवश्य सफल होंगे। "परमात्मा आप सब को आशीर्वादित करे। " चैतन्य लहरो 13 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-14.txt श्री गणेश पूजा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के प्रवचन का साराश कबेला इटली-10, सितम्बर, 1995 है कि ईसाई, इस्लाम व यहूदी धर्म भी पिता के बारे में तो बात करते हैं परन्तु न तो वे माँ की वात करते हैं और न श्री गणेश की। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में चीन, यूनान व अन्य अपरिष्कृत कहे जाने वाले देशों में लोग बाल भगवान में विश्वास करते थे। पुर्ण विनाश के गर्त में ले जाने वाले क्षणिक सुखों में आप खो सकते थे, परन्तु में समझे नहीं पा रही कि आपने यह अवस्था किस प्रकार प्राप्त की है जहां जीवन में पवित्रता इतनी महत्वपूर्ण है और जहां श्री गणेश के सभी गुण, उनकी मूल्य प्रणाली और पावित्र्य को आत्मसात करना आवश्यक है। मैं अति सन्तुष्ट हूँ कि हमारे जीवन में ऐसी घटना घटी और आप सब श्री गणेश जी से इतने अधिक प्रभावित हैं। श्री गणेश जी हमारे शैशव काल से ही हमारे साथ रहते हैं। श्री गणेश जी आपके अन्दर अपने बच्चों से व्यवहार करते हुए हमें ध्यान रखना चाहिए कि वे श्री गणेश सम हैं। वे बहुत सीधे और भोले हैं। अपनी सीमाएं वे केवल किसी कुप्रभाव की परिस्थिति में ही लांघते हैं। श्री गणेश की सहजयोग को सबसे बड़ी देन यह है कि वे आपको मेरी चैतन्य लहरियों की अनुभूति करवाते हैं । पावित्र्य एवं भोलेपन के सौन्दर्य का अनुभव वे आपको प्रदान करते हैं । आपके अन्दर श्री गणेश की जागृति होने पर ही ऐसा होना सम्भव है। बिना अपने अधिपति की अनुमति के कुंडलिनी नहीं उठती। इतने सुन्दर ढंग से स्थापित हो गए हैं और इस प्रकार जागृत हो चुके हैं कि अपनी स्वतन्त्रता में भी आप श्री गणेश विरोधी कोई कार्य नहीं कर सकते। आपके अन्दर उनकी अभिव्यक्ति इतनी स्पष्ट हो चुकी है। आपके चेहरों पर सुन्दर चमक है, अन्य लोगों से आप बहुत भिन्न लगते हैं। लंदन से वापिस आते हुए एक बार एक भारतीय महिला मेरे समीप आईं और कहने लगी "मैं आपके शिष्यां को देखकर बहुत हैरान हूँ। उनके चेहरे अत्यन्त तेजमय थे। मैंने एसे शिष्य कभी नहीं देखे," मैंने उससे पूछा, आप कौन हैं?"' उसने कहा, "मेरा विवाह श्री गुरुनानक जी के परिवार में हुआ है, परन्तु उनके परिवार के सभी लोग गुरुनानक जी से पूर्णतः विपरीत हैं।" मैंने उसे बताया, "क्योंकि सहजयोगी श्री गणेश जी की पूजा करते हैं, इसलिए उनके चेहरों पर इतना तेज होता है।" उसने बताया कि उनके परिवार में कोई भी श्री गणेश की पूजा नहीं करता। मैंने पूछा, "यह कैसे सम्भव है ! "नहीं, वे निराकार में विश्वास करते हैं । चैतन्य के निराकार के रूप में।" " तो फिर वे उसके स्त्रोत को क्यों नहीं ढूंढते।' मूलाधार पर विराजमान होने के साथ-साथ श्री गणेश सभी चक्रों पर विद्यमान हैं। अबोधिता हमारी सभी प्रकार की व्याधि यां-शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और विशेषकर आध्यात्मिक-को दूर करती हैं। परन्तु श्री गणेश जी वका सबसे महत्वपूर्ण गुण यह है कि वे चैतन्य लहरियां छोड़ने में आस्था रखते हैं। वे सभी के लिए चैतन्य प्रक्षेपण करते हैं। उनके इस गुण को आप सब भी उपयोग कर सकते हैं। सहज ही में बिना किसी प्रयास से के आपको आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ। आत्म-साक्षात्कार पूर्व आपका जीवन पूर्णतया भिन्न था। आपका पूरा कायाकल्प हो गया है और पराविज्ञान के नए युग में आप प्रवेश कर गए हैं। परन्तु अब हमें देखना होगा कि अपनी इस उपलब्धि को हम किस प्रकार उपयोग में लायें? यह तो आप जानते ही हैं कि आपने तब उसने कहा, "श्री नानक जी ने इतना ही बताया है। उन्होंने इस स्त्रोत की बात नहीं की।" मैंने कहा, "आप उनकी लिखित वाणी ( पुस्तकों में) में ढूंढिए। अवश्य कहीं कुछ छूट गया है । तभी किसी ने मुझे गुरु ग्रन्थ साहब का ऐसा पद्यांश दिया जिसमें नानक जी न भोलेपन का और श्री गणेश जी का उल्लेख किया दूसरे लोगों को साक्षात्कार देना है, उन्हें रोगमुक्त करना है और करुणामय होकर उनसे प्रेम करना है। अपनी शक्तियां, अपनी ऊर्जा आप अन्य लोगों को दे सकते हैं। किसी व्यक्ति को यदि आपकी सहायता की आवश्यकता है और आप भी अपनी शक्ति है। नानक जी ने बताया है कि इस सारी सृष्टि का सृजन माँ ने ही किया है, पिता ने नहीं। निराकार में लोग परमात्मा के किसी भी स्वरूप में विश्वास नहीं करते। वे पिता के बारे में तो बात करते हैं परन्तु माँ के बारे में कुछ नहीं कहते। ये सत्य प्रसार करना चाहते हैं तो आप उसकी सहायता कर सकते हैं। यह एक नये प्रकार की ध्यान-धारणा है जिसका आप सब को अभ्यास करना है। अपनी शक्ति को प्रसारित करके दूसरों पर प्रक्षेपित करना। न आपको कुछ कहना है और न ही कुछ बोलना चैतन्य लहरी 14 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-15.txt वे आशा करते हैं कि हर व्यक्ति को अभिनेता सम होना चाहिए। परन्तु अपने बारे में नहीं सोचते। आध्यात्मक रूप से दूसरों से ऊपर उठकर आप विशिष्ट बन चुके हैं। यह सुविचारित शक्ति प्रक्षेपण आरम्भ होने पर आपको डरना नहीं है कि आप को अंहकार है। आपको नचित्त से केवल महसूस करना है। और में चित्त से विशेष रूप से इसलिए कह रही हूं क्योंकि ऐसा करना न तो सहज है और न स्वत:। आपको अपनी गणेश तत्त्व की अबोधिता शक्ति को दूंसरों पर छोड़ने का अभ्यास करना है। इस प्रकार उनकी अबोधित भी जागृत हो जाएगी। उदाहरण के तीर पर लंदन में कुछ समस्या थी। सहजयोगियों ने मुझे बताया कि कुछ आदमियों की हम पर कुदृष्टि है और कुछ ने कहा कि कुछ औरतें हम पर कुदृष्टि रखती हैं। तो मैंने उन्हें उत्तर दिया कि आप अपनी शक्ति का प्रक्षेपण इस प्रकार कीजिए कि दूसरों का मूर्खतापूर्ण व्यवहार रुक जाए और वे आपका आदर करें और आपके व्यक्तित्व की गरिमा का अहसास करें। यह आ जाएगा या आप किसी प्रकार से बन्धनग्रस्त हो जाएंगे। आपको केवल यही जानना है कि आपमें शक्तियाँ हैं और उन्हें बच्चे की भांति सुन्दरतापूर्वक अभिव्यक्त कर रहे हैं। एक बच्चा कम से कम 100 लोगों का मनोरंजन कर,सकता है। उस बच्चे के माधुर्य का रहस्य है उसकी अबोधिता जिस प्रकार वह बोलता है, आचरण करता है अथवा जिस ढंग से अपने प्यार की अभिव्यक्ति करता है, वह बहुत ही सरल होती है। परन्तु इसमें कुछ सारतत्व तो होता है। श्री गणेश का पावित्र्य ही यह सारतत्व है। कार्य कठिन नहीं है। परिन्तु इसके विपरीत यदि हम नारी और पुरुष के आकर्षण-प्रत्याकर्षण की सभ्यता का अनुकरण करेंगे तो हमारी शक्ति क्षीण हो जाएगी। विश्व में कहीं भी जब बच्चों सम्बन्धी समस्या होती है जब आप अपने आत्म-साक्षात्कारी होने की गरिमा और शक्ति का अहसास करते हैं तो आपके अन्दर एक तेजस्वी व्यक्तित्व का विकास हा चुका होता है। यह तेजस्वी व्यक्तित्व अपने आसपास के के लागां पर आश्चर्यजनक प्रभाव डाल सकता है। आपको तो सारा संसार चिन्तित हो उठता है और उसका समाधान करना चाहता है। एक बच्चा भी यदि कहीं पर कठिनाई में है तब चहूँ ओर यह बात फैल जायेगी। बच्चे को देखते ही सब लोगों के हावभाव बदल जाते हैं क्योंकि सहज स्वभव से बच्चा अपने सहज ही में इस सुविचारित शक्ति का प्रक्षेपण आरम्भ करना है। यह सहज ही में घटित हो जाती है। थोड़े से अभ्यास से ही आप इसे प्राप्त कर लंगे। अन्य लोगों को तिरस्कार अथवा पावित्र्य का प्रसार करता है। बिना कोई विशेष विधि अपनाए स्वत: ही वह ऐसा कस्ता है। परन्तु आपने तो कपटी लोगों के है। मध्य रहते हुए उत्थान प्राप्त करना है। उनसे मिलना-जुलना संमाज से आप भाग नहीं सकते। परन्तु जब आप ऐसे लोगों के साथ इतनी घनिष्टता बना लेते हैं जो श्री गणेश की आलोचना करते हैं और सब तरह की उल्टी-सीधी बातें करते हैं तो परिणामवश आपका अपना पावित्र्य भी धीरे-धीरे नष्ट होने लग घृणा सं नहीं दंखता, अपने गौरवशाली व्यक्तित्व को समायोजित करना है। यही गौरवशाली व्यक्तित्व इस समय यहां विराजित होकर दूसरों का चैतन्य द रहा है। इसका पूर्ण अस्तित्व लोगों पर विस्मयकारी कार्य कर रहा है। सम्पूर्ण विश्व सहजता से जाता है। तथा कभी-कभी तो आप स्वयं को पावित्र्य के इन शत्रुओं से भी हीन समझने लगते हैं। जब मैं लन्दन में थी तो मेरी कुमकुम की बिन्दी के कारण लोग मुझ पर हंसा करते थे मैं सोचती कि ये बिन्दी के महत्व को नहीं जानते हैं कितने अज्ञानी हैं कि इतना भी नहीं जानते कि भारत में सभी विवाहित स्त्रियाँ कुमकुम लगाती हैं? इसलिए मैंने उन्हें समझाया बिन्दी के माध्यम से मेरे माथे पर लिखा हुआ है कि मैं विवाहित हूं, ताकि कोई मुझे परेशान न करे। मेरे पीछे मेरे पति देव हैं जो ऐसा करने वालों की खबर ले सकते हैं। पश्चिम में इस स्वमव ही बदल जाएगा, ऐसी धारणा करना गलत है, क्योंकि पूरा विश्व ही अव्यवस्थित हो चुका है। इतना अधिक अहंकार एवं कुसंस्कार भरं पड़ें हैं। परन्तु आपके अन्तर से कोई चीज़ दूसरों की अपक्षा ऊंची उठ सकती है। यह है आपका गरिमा, विवेक, आपका आत्म तत्त्व जहां आप स्वयं खड़े हैं। आप को न असभ्य हाना है न अहंकारी। यदि आप कुछ कहना नहीं चैतन्य चाहते, ता न कहं। कवल ये शान्त व्यक्तत्व ही उन सुन्दर लहरियों का प्रसारित कर सकता हैं जो आपने अपने अन्दर एकत्रित की हैं। चैतन्य लहरियों का यह एकत्रीकरण ही आपके दैदीप्यमान प्रकार की अज्ञानता की भरमार है फिर भी वे स्वयं को उच्च कुलीन तथा महान समझते हैं। जीवन की छोटी-छोटी बातों को भी वे नहीं जानते। पावित्र्य-बोध तो उनमें बहुत समय पहले चेहरां पर प्रकट हो रहा है ल आपको अपनी अबाधिता पर गर्व होना चाहिए। अब भी कभी-कभी आप सांचते हैं कि लोग कहेंगे, "आप की वेशभूषा अच्छी नहीं है, आप अच्छे नहीं लग रहे हैं आदि-आदि)" संसार ही समाप्त हो गया था और इसी कारण उनका समाज अपने ही तट-बन्धों (Moorings) में पूरी तरह खो चुका है हर व्यक्ति में सभी मानव दूसरां से बहुत अच्छा होने की आशा कैरते हैं। 15 चतन्य तगी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-16.txt पति कहते हैं "कि यदि आपको सौम्यता का मूर्त रूप देखना है तो. आप श्रीमती श्रीवास्तव को अवश्य देखिए।" मैं हैरान रह गयी कि यूनान में लोग सौम्यता की बात कर रहे हैं। आज के युग में कोई पवित्रता के बारे में बात करे। यह मेरी समझ के परे है मैंने महसूस किया कि अपने पूर्व संस्कारों और परम्पराओं के कारण कि ये लोग मेरे अंदर उस सरलता को देख पाए और अपनी पत्नियों को जाकर बताया कि किस प्रकार उन्हें मेरे सानिध्य से आनंद मिला। मैं तो उन्हें हंसा रही थी कि अचानक एक ने कहा "श्रीमती श्रीवास्तव आप तो एकदम बच्चों की तरह लगती है।" मैंने कहा "सचमुच?" " हमें आप की संगति में बहुत आनंद मिला।" और जब मैं आ रही थी तो उनकी आँखों में आंसू थे। अत: अपने अबोध व्यक्तित्व का उपयोग आपने दूसरों पर करना है। अगर कोई आप के साथ कुछ बेहूदी हरकत करता है तो आपकी एक दृष्टि उसे ठीक कर सकती है। यदि आप को कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती तो इस बात को स्पष्ट भिन्न है, कोई एक-दूसरे को नहीं जानता निष्कपट हुए बिना आप किसी से सौहार्द नहीं बनाये रख सकते क्योंकि इस प्रकार के सम्बन्धों के पीछे कोई लालसा या स्वार्थ छुपा होता है। किसी ने मुझसे फ्रायड के बारे में पूछा और कहा कि लोग उसका इतना विरोध क्यों करते हैं? आप उसके इतने विरुद्ध क्यों है? फ्रायड ने कहा है कि माँ और बेटे के बीच गलत सम्बन्ध होता है। वह उछल पड़ा। परमात्मा की कृपा से वह भारत नहीं आया, अन्यथा भरतवासी उसके टुकड़े-टुकड़े करके हिन्द सागर में फैंक देते.. परन्तु हम हिन्द महासागर को भी क्यों अपवित्र करें? जहाँ भी आप जाएँ यौन उच्छंखलताओं के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। मुझे समझ नहीं आता कि लोग इसे सहन क्यों करते हैं। किसी व्यस्क फिल्म में थोड़ा बहुत दिखाना बुरी बात नहीं, परन्तु सभी फिल्में शयनकक्ष के बेहूदे दृश्यों से परिपूर्ण हैं और लोग यह सब पसंद करते हैं। इनके लिए पैसा खर्च करते हैं । जीवन के हर पक्ष को वे प्दे पर देखना चाहते हैं। ये अत्यन्त स्वाभाविक चीज़ है। मुझे समझ नहीं आता कि इसके विषय में बात करने को क्या है? यह मानसिक विकृती है कि वे अभद्रता को स्वीकार करके कहते हैं कि इसमें गलत क्या ा। रूप से कहना ही एक प्रकार का प्रक्षेपण है। अपने समाज में आप के आस-पास, जहाँ आप कार्य करते हैं, ऐसे लोग भी मिलेंगें जिनको अबोधिता की समझ नहीं है और उनके साथ रहना हैं अच्छा नहीं लगता। परन्तु जो शक्तयाँ आप के पास हैं उनका प्रक्षेपण करें। मैंने देखा है कि सहजयोगी लोगों का इलाज करने से घबराते हैं। वे मुझे कहते हैं कि "मां इसका इलाज करना है? तुम पागल हो इसी कारण लोग पागल खाने में जाते हैं। पागल भी ऐसे ही बातें करते हैं कि "गलती क्या है।" इस तरह की अभद्रता को स्वीकार करके लोग यह नहीं जानते कि उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन व बच्चों को नष्ट कर लिया है।" आप सब इतने सारे लोग हैं तो मुझे यह सब करने की क्या आवश्यकता है? आप सब रोगियों को ठीक कर सकते हैं। है। हमारा समाज हर प्रकार की मूर्खता से भरा हुआ है। विशेषत: दूरदर्शन में यह सब बहुत दिखाया जाता है। जो भी हो, श्री ये गुण आप में पहले से निहित थे और अब श्री गणेश जी की अनुकम्पा से ये गुण जागृत हो चुके हैं अब आपने दृढ़तापूर्वक उनका उपयोग करना है। पर याद रखें कि अपनी बुद्धि व अहंकार का उपयोग बिल्कुल नही करना। कुछ लोग कहते हैं "माँ, बुद्धि के बिना कैसे हम दूसरों को प्रभावित करें, कैसे हम दूसरों के साथ तालमेल बिठाएँ? ऐसा करना बहुत सरल है । आप केवल निर्विचार हो जाइए। जैसे ही आप निर्विचार होते हैं आप परमात्मा गणेश जी की कृपा से आप सब परिवर्तित हो गए हैं। आप भिन्न मार्ग पर चल पड़े हैं। आप देखते हैं कि श्री गणेश जी ार ने आप के लिए क्या कुछ कर दिया है। और किस प्रकार उन्होंने आपके चित्त को इतना सुन्दर बना दिया है कि आप विश्व की सभी सुन्दर तथा पवित्र वस्तुओं का पूरा आनन्द उठा सकते हैं। इस प्रकार के बहुत से लोग हैं जो संघर्ष कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सारे समाज ने ही इस प्रकार की मूर्खताओं को स्वीकार कर लिया है। इंग्लैण्ड में एक ऐसी पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें के साम्राज्य में प्रवेश कर जाते हैं और परमात्मा आपका कार्य सम्भाल लेता है। इतनी सुन्दर चैतन्य लहरियाँ निकलने लगती कि आप स्तब्ध रह जाते हैं कि किस प्रकार सब कार्य हो राजनीतिज्ञों के बारे में बच्चों के विचार छापे गए। अत्यन्त रहे हैं। यह मात्र संयोग नहीं है। एक बार में कहीं जा रही थी और लोगों ने मुझे सावधान रहने के लिए कहा। मैंने पूछा, "क्यों?' उन्होंने बताया कि "रात के समय नक्सलवादी लोग यहां होते हैं और वे कहीं आपकी हत्या न कर दें। मैंने कहा "ठीक है।" कहने लगे "बहुत देर हो गई है, सावधान रहिए।" मधुर-मधुर बातं। उस पुस्तक की 5000 प्रतियां छपीं और केवल एक ही दिन में सब बिक गयीं| इससे प्रमाणित होता है कि बहुत लोग अबोधिता का मान करते हैं और अबोध रहते हुए इसका आनन्द उठाना चाहते हैं। परन्तु हमने पूरे समाज को ऐसा बनाना है। पर इसके लिए एक विशेष प्रकार के व्यक्तित्व का होना आवश्यक है। कुछ स्त्रियां कर रहीं थीं कि यदि हमारे जो व्यक्ति मेरे साथ था वह बहुत घबराया हुआ था। कहने लगा, चैतन्य लहरी 16 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-17.txt से नहीं मिली और न ही कभी उनके बहुत नजदीक गई। पर उनका प्यार देखिए । वे मुझे शुरू-शुरू में स्कूल में कहते थे, जब भी इनमें से कोई हमें तंग करता था तो हम कहते थे, "हम श्री माता जी को कहने जा रहे हैं।" "नहीं, नहीं, कृपया उन्हें न कहिए।" "क्यों?"' "क्योंकि फिर श्री माता जी हमें "माँ, अपने सब आभूषण उतार दीजिए" और उसने उन सब को सीट के नीचे सावधानीपूर्वक छिपा दिया। ज्यों ही हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ बहुत से नक्सलवादी अपनी लालटेंने लिए खड़े थे, ता मन ड्राइवर को एक मिनट के लिए कार रोकने के लिए कहा। पर उसने मना कर दिया। परन्तु मैंने उसे गाड़ी रोकने का आदंश दिया। मैंने उन नक्सलवादियों की ओर देखा प्यार नहीं करेंगी।" आप कल्पना कर सकते हैं कि ये छोटे-छोटे बच्चे मेरे प्यार की कितनी कीमत समझते हैं और इसे पाने के लिए तीव्र इच्छा रखते हैं। इसका कोई भौतिक लाभ तो है नहीं परन्तु यह सब ईसा के कथन को प्रमाणित करता है कि यदि आपको परमात्मा के साम्राज्य में आना है तो आपको नन्हें बच्चों की भांति बनना होगा। इसके बिना आप किसी वस्तु का आनन्द नहीं ले सकते । और मुझे नहीं मालूम कि क्या हुआ। उसके बाद मैंने उसे कार की गति बढ़ान का आदेश दिया। यह दिव्य शक्ति है, जब तक आप इस प्रम व करुणा की शक्ति का उपयोग नहीं करते तब तक आप जान ही न पाएंगे कि यह शक्ति आप के अंदर है और श्री गणेश जो ही इसके दाता हैं बच्च प्यार को समझते हैं। यदि आप का व्यवहार उनके प्रति अच्छा है तो वे बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया करते हैं। हो सकता है कभी न भी करते हों। परन्तु 99% बच्चे प्रेम के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं। हमारे श्रमंशाला के विद्यालय में दो ऐसे बच्चे थे जो इन स्विटजरलैंड के लोगों को देखिए । यह तो श्री गणेश के प्रेम की शक्ति है। उन्होंने श्री गणेश जन्मोत्सव मनाना था। अत: वे आन्तरिक रूप से तैयार हुए परन्तु यदि उन्होंने इसका प्रक्षेपण न किया होता तो कुछ भी घटित न होता। जो कुछ भी श्री गणेश जी आपको दे रहे हैं और आपके अन्दर जो ये सुन्दर अबोधिता का निर्माण हो रहा है तथा प्रत्येक पल को पूर्ण रूप से जीने की ये जो मोहक सुगन्ध आ रही है, उसका आप शुरु-शुरु में यहुत शरारती थे। उनके माता-पिता को भी उनकी बहुत चिन्ता थी। उन्हेंने उन्हें धर्मशाला भेज दिया वे आधुनिक बच्चों की भांति हर चीज़ की अपेक्षा करते थे। आज हमें यह चाहिए, आज हमें वह चाहिए, हम यहाँ जाएंगे, हमें मैक डोनाल्ड चाहिए आदि-आदि। एक वर्ष विद्यालय में रहने के बाद जब वे वापिस अपन बर गए तो उनके माता -पिता ने "आपको क्या चाहिए?" "हमं कुछ नहीं चाहिए।" माता-पिता ने कहा "कुछ नहीं चाहिए। आपको मैक डोनाल्ड नहीं जाना। " "हम यहीं बैठ कर श्री माता जी का वीडियो कार्यक्रम देखेंगे। " उन्होंने सभी लोग आनन्द उठा रहे हैं। आप सब यह समझ लें कि आपने भी इसे दूसरों तक पहुंचाना है। यह कार्य कठिन है। पर मैं जानती हूं कि यह कार्यान्वित होगा। इसकी अनन्त शक्तियां हैं। यदि आप पवित्र (अबोध) हैं तो न आपको कोई तंग कर सकता है न धोखा दे सकता है। क्योंकि अबोधिता में व्यक्ति को चिन्ता नहीं होती कि उसके साथ क्या घटित हो रहा है। वह सब कुछ पूछा कहा। अर, इन बच्च्चों को क्या हो गया। इनमें इतना परिवर्तन कैसे आ गया। तब उनके माता-पिता ने पूछा, "भोजन में क्या खाना है?" उन्होंने कहा, "आप जो भी बनाएंगे, हम खा लेंगे।" माता-पिता बहुत हैरान हुए कि किस प्रकार बच्चे बदल गए हैं। तब उन्होंने कहा, "आप बाहर जाकर कहीं घूम आईए। नदी की सहन कर जाता है। चीन के राजा के बारे में एक कथा है। उसने एक बार मुर्गों की लड़ाई जीतने का निश्चय किया इसके लिए वह एक महान सन्त के पास गया और उसे कहा कि उसके मुर्गे को दूसरे मुर्गों से लड़ने का प्रशिक्षण दें और वह मुर्ग को सन्त के पास छोड़ गया। सन्त ने उस मुर्गे को प्रशिक्षित कर दिया। लड़ाई से एक माह पूर्व जब राजा वहां सन्त के पास गया तो साधु ने उसे मुर्गा ले जाने के लिए कहा। राजा ने कहा यह तो शान्त ओर जाकर घूम आइए।" ठीक है यह हम कर लेंगे। अगली बार फिर जब वे अपने घर गए तो उनकी कोई भी मांग नहीं थी। वे किसी भी प्रकार की खरीदारी नहीं करना चाहते थे। वे सभी सन्तुष्ट थे, ओजस्वी थे। माता-पिता ने पूछा, "क्या कारण है, आप कुछ भी नहीं चाहते?" उन्होंने उत्तर दिया, "नहीं, हम कुछ चाहतें तो हैं, पर समझ नहीं पा रहे कि आपको कैसे वह क्या है?" "आपके पास वह वस्तु नहीं है और न ही वह बाजार में मिलती है।" "क्या?" "क्या आप हमें श्री माता जी का एक लॉकेट दे सकते हैं?" मैं उन बच्चों को जानती हूं। मैं उन्हें मिली थी। पर मैं उन्हें काफी समय खड़ा है, में इस मुर्गे को ले जाकर क्या करूंगा? परन्तु फिर भी उसने मुर्गे को प्रतियोगिता में खड़ा कर दिया। सभी मुर्गं ने इस मुर्गे पर हमला कर दिया पर यह मुर्गा शांत खड़ा रहा। किसी भी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं की। सब मुर्गे आश्चर्यचकित थे कि यह मुर्गा कुछ भी नहीं कह रहा। सभी एक-एक करके मैदान छोड़ गए। राजा का मुर्गा अकेला खड़ा 17 चंतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-18.txt कार्य करते हैं क्योंकि आप उनके गण बन चुके हैं। पर गणों को भी कार्य करना पड़ता है। जैसे मैं कहती हूँ कि हमारे शरीर में ऐसे गण हैं जो हमारी सभी बिमारियों तथा समस्याओं से मुकाबला करते हैं । हमारे शरीर के अन्दर रोग प्रतिरोधक भी श्री गणेश जी के ही गण हैं। उसी प्रकार आप भी उनके गण हैं। रहा। राजा आश्चर्यचकित था कि इसे क्या हो गया है। राजा अब यह सन्त हो गया है। बेहतर होगा कि ने सन्त से कहा, "अ पा आप इसे अपने पास रखें।" आपका व्यक्तित्व भी इसी प्रकार बनाया गया है और अब आप गणेश जी की पूजा करते हैं। श्री गणेंश जी आपक अन्दर हैं तथा वे आपकी सभी समस्याओं का सुगमता से समाधान करते हैं । यदि आप अपनी अबोधिता पर अटल रहं ता व यह आपके लिए ऐसे संयोग निर्मित कर दंगे जा कि वास्तव में संयोग न होकर साक्षात् चैतन्य होगा और आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि किस प्रकार सभी समस्याओं वे आपको प्यार करते हैं, आपकी रक्षा करते हैं। और आनन्द के देते हैं। आप इस सब के लिए क्या कर रहे हैं? यह एक तरफ नहीं होना चाहिए। जब श्री गणेश जी हमारे लिए इतना सब कुछ करते हैं तो हमें उनके लिए क्या करना चाहिए? रोग-प्रतिरोधको के रूप में हम क्या कर सकते हैं? आप को कोई तलवार या शस्त्र लेकर तो शत्रु से नहीं लड़ना है। आप मात्र दो विधियों से शत्रु पर विजय पा सकते हैं। प्रथम उन पर अपने प्रेम का उपयोग कर के देखिए| इस प्रकार आप बहुत से लोगों के हृदय जीत सकते हैं । यदि यह विधि कार्य नहीं करती तो आप ध्यान में जाकर बंधन दें। बंधन देने की भी कई विधियाँ हैं । बंधन इतनी तीव्रता व सुन्दरतापूर्वक कार्य करता कि आप विस्मित रह जाते हैं कि यह कैसे हो गया? ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति का बंधन कार्य करे? आप शक्तिशाली हैं सहजयोगी हैं, आप बंधन दे सकते हैं। केवल आप सहजयोगी ही बंधन दे सकते हैं। आप को कई प्रकार के बंधन देने होते हैं और सब सुन्दर ढंग से कार्यान्वित होते हैं। अत: हमें अपनी शक्तियों में पूर्ण विश्वास होना चाहिए। हमें ज्ञान होना चाहिए लि का समाधान हो जाता है। तब आप कहेंगे " श्री माता जी उस दिन वर्षा हुई और सब दलदल हो गया। हम क्या करें?"' मैंने कहा, "सब ठीक हो जाएगा मुझ पर छोड़ दो।" दूसरे दिन बहुत गर्मी हो गई। यह सर्वथा असम्भव है कि मौसम में इतना बड़ा परिवर्तन एक ही दिन में हो जाए कि एक दिन तो मूसलाधार वर्षा हो और दूसरे दिन इतनी गर्मी हो कि सूख जाए। यह सब श्री गणश का कार्य है क्यांकि श्री गणेश जी बहुत शक्तिशाली है तथा आप सत्य लाग उनकी पूजा करने आए हैं। इसलिए सब कुछ साफ हाना बहुत आवश्यक था। और गणेश जी ने वर्षा करके सफाई का सब कार्य पूरा कर दिया। इतनी भारी वर्षा हुई कि व्षा कंे कुछ अंश जब पुलाजों डोरियों (Palazzo Dorio) के पास पहुंचे तो बर्फ में परिवर्तित हो गए । अब यह बात अविश्वसनीय है कि सब जगह तो वर्षा हुई और कंबल हमारे घर के पास बर्फ के गोले गिरे। हम लोग है सम कि श्री गणेश ने हमें सहजयोग का कार्य करने का अधिकार दिया है। सहजयोग का कार्य करते हुए स्वयं को कर्त्ता नहीं समझ इसे चमत्कार कहते हैं। हम इसे कुछ भी कहें परन्तु यह श्री गणेश जी की संवेदनशीलता का प्रभाव। हमें ऐसा कहना चाहिए कि श्री गणंश जी ने सोचा कि ये वर्षा के कण मेरी माँ कं घर जा रहे हैं, क्यों न मैं इन्हें सुन्दर बर्फ के गोलों में परिवर्तित कर दूं। मैं बाहर गई और मैं विस्मृत रह गई कि मेरे घर के चारों आर बर्फ कंे गोले पडे थे। श्री गणेश जी क्या लेना, यह सब कार्य तो वास्तव में श्री गणेश जी कर रहे हैं। लोगों को आत्म-साक्षात्कार देते हुए सहजयोगी को महानतम आनन्द प्राप्त होता है । फिर आपको यह भी नहीं सोचना कि आपने यह कार्य किया। यह सर्वोत्तम है। बहुत से लोग आकर मुझे बताते हैं कि माँ हमने यह कार्य किया, वह कार्य किया आदि। तो इसका अभिप्राय है कि आप कार्य करने का तनाव महसूस कर रहे हैं। आपको तनाव नहीं होना चाहिए। श्री गणेश जी की शक्तियाँ आप के अन्दर विद्यमान हैं। आप मुझ पर विश्वास कीजिए, अपने पर विश्वास कीजिए अपनी शक्तियों पर पूर्ण विश्वास कीजिए कि आप उस पवित्र्य के भंडार हैं जो करुणा एवं प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि आप को अपने पर विश्वास है तो आपका दूसरों से व्यवहार व सम्बंध तथा कुछ कर सकत हैं तथा क्या उन की शक्तियाँ हैं, हमारी सोच समझ से परं हैं। किस प्रकार वह हमारा मार्ग दर्शन करते हैं सहायता करते हैं तथा सही मार्ग पर ले जाते हैं। वे केवल हमारी रक्षा हो नहीं करते, हर क्षण आप के साथ रहते हैं, क्योंकि आप सब उनके बन गए हैं। इसीलिए वे आपकी देखभाल करते हैं तथा पूर्ण संरक्षण दंते हैं, धर्म की सीमा में आनन्द लेने योग्य सभी कुछ वे आपको प्रदान करते हैं। आप को हर स्थान पर मित्र मिल जात हैं। आप सोचते हैं यह मात्र संयोग है। परन्तु यह एंसा नहीं है। यही श्री गणेश जी की कार्यशैली है। अपने बात करने का ढंग बहुत ही सुन्दर रूप ले लेगा। यही वास्तव में श्री गणेश जी का वरदान है। मुझे याद नहीं कि मैं कभी किसी पर चिल्लाई होऊ अपने बच्चों पर भी नहीं। मैंने कभी पूर्णतः मुन्दर मधुर एवं प्रममय चित्त को आप पर रखकर वे चैतन्य लहरी 18 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-19.txt आ जाए और मैं अपने छोटे भाई को जमीन देने से इंकार न कर दें क्योंकि मैं बहुत चालाक हूं और उसे धोखा द सकता हूं। इसलिए मैंने सोचा कि अपने भाई को अभी से यह जमीन देना बेहतर होगा।" बहुत भोलेपन से वह व्यक्ति यह सब बता भी किसी पर क्रांध इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं जानती हूँ कि इस के बिना मरा कार्य चल सकता है। यद्यपि मुझे लोगों का सुधारना तथा समझाना पड़ा। एक चीज़ मैंने देखी है कि प्रत्येक व्यक्ति इस बात से डरता है कि मैं उसे सहजयोग से बाहर न निकाल दूँ। सहजयोग इतना आनन्द तथा शक्तिदायी है। यह एक एसा प्रकाश है जिसके मिलने पर आप को अपने ऊपर पूर्ण विश्वास की प्रचीति होती है। किसी को भी सहजयोग छोड़ने के लिए कहना सब से बड़ा दंड है, क्योंकि आप मुझे नहीं छोड़ सकतं। यह सर्वथा असंभव है। आप भी अपने अन्दर यह गुण विकसित करें कि आप भी मुझे छोड़ न सकें। यदि कोई रहा था कि कहीं उसे लालच न आ जाए या बच्चों के बड़े होने पर कहीं वह अपने भाई को धोखा न दे दे। मैंने जब उससे उसके भाई के बारे में पूछा तो वह कहने लगा कि मेरा भाई इसका पात्र है, उसे इसकी आवश्यकता है। मुझे इतनी जमीन की आवश्यकता नहीं है, में जीवन में हर प्रकार से संतुष्ट हूं। इसलिए किस प्रकार से कार्य करती है। इसी प्रकार एक 16 वर्षीय सहजयोगी बच्चा मेरे पास आया अऔर कहने लगा कि "मेरे माता व पिता दोनों ही बाधाओं से ग्रस्त हैं, मैं नहीं समझ पा रहा कि मैं क्या करू! यदि मैं अपने माता-पिता को छोड़ दूं तो क्या बाधाएं मुझे भी छोड़ देंगी," मैंने कहा, "हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता। यह सब अन्य कारणों पर भी निर्भर करता है।" वह बोला, का होते ही अपने माता-पिता को छोड़ने की क्या आवश्यकता होती है? उससे तो हानि होती है।" मैंने पूछा, "क्यों?" "यदि में धूम्रपान करना शुरू करू तो मुझे कौन रोकेगा? केवल मेरे पिता ही मुझे थप्पड़ मार कर धूम्रपान करने से रोक सकते हैं।" मैं उस बालक के भोलेपन पर हैरान थी। वह कहने लगा, "मेरी माँ. तो मुझे हर कदम पर हर समय सुधारती ही रहती है। उसके बिना कौन मुझे सुधारेगा और मेरा मार्ग-दर्शन करेगा ?' मैंने यह जमीन दे दी । देखिए, अबोधिता बच्चा खा जाता है तो उसके माता-पिता पागल हो उठते हैं कि बच्चा कैसे खां गया। परन्तु यदि उनका बेटा दुराचारी है या सब प्रकार के गलत कार्य करता है तो उसके खो जाने का वे बुरा नहीं मानत। जब बच्चे छोटे होते हैं तो वे अबोध होते हैं। उनके साथ बहुत ही गहन सम्बन्ध बन जाता है और हमें उनकी देखभाल करनी पड़ती है। बच्चों की अबोधिता आपको बच्चों के प्रति आकर्षित व माहित करती रहती है। "तब लोगों को 18 वर्ष आपका मुस्कुराने की कला आनी चाहिए। आपको दूसरों को जीतने का ढंग भी आना चाहिए। अभी तक कुछ सहजयोगी व सहजयोगिनियां बहुत कठोर हैं, वे अपनी कठोरता को त्याग नहीं सकते। वे अपने आपको बहुत कुछ समझते हैं। ऐसे लोग सहजयोग का आनन्द नहीं ले पाएंगे। मुझे विश्वास है कि एक दिन यह सब बुराइयां छोड़ कर वे लोग सहजयोग के आनन्ददायी क्षणों का पूर्ण लाभ उठाएंगे। आज श्री गणेश जी का जन्मदिवस मनाने का दिन है। सभी देवताओं से पहले पृथ्वी पर श्री गणेश की सृष्टि की गई। वह मंगलकारी हैं और पावित्र्य भी हैं। अत: पावित्र्य, मंगलमयता एवं शुद्धता की सृष्टि करने से पूर्व आदिशक्ति माँ इस सृष्टि की रचना नहीं करना चाहती थी। अत: प्रेम एवं चैतन्य भंडार रूपी चैतन्य लहरियों से पृथ्वी पर सर्वप्रथम श्री गणेश की सृष्टि हुई ताकि युग युगान्तरों में अवतरित होने वाले लोगों की देखभाल कर सके और उचित पथ पर उनका मार्ग-दर्शन कर सकें। वे हमारे अन्तःकरण अथवा विवेक के स्वामी (अधि यन्ता) हैं। हमारा अन्त:करण कभी-कभी हमें अन्दर से कचोटता है और बताता है कि क्या ठीक है अथवा क्या गलत है, और हमें गलत कार्य न करने का बोध करवाता है। हमें अपनी इस शक्ति पर गर्व होना चाहिए। एक भारतीय व्यक्ति से मैंने पूछा, 'तुमने अपनी जमीन क्यों छोड़ दी।" उसने कहा, "माँ, मैंने ! से मेरे विषय में जितना आप सोचते हैं आपके हृदय में उससे सोचा कि जब मंरे बच्चे बडे हो जाएंगे तो मुझे लालच न अबोधिता सदैव सदाचारी शुद्ध जीवन को ही ढूंढती है तथा किसी पर भी हावी नहीं होती। आप आत्म- साक्षात्कारी लोगों में पावित्र्य है, अपने आत्मा के प्रकाश में आप कोई भी अपवित्र या असहज कार्य नहीं करना चाहते। सहजयोगियों से ईमानदार लोग मैंने कहीं नहीं देखे। आप एक पाई की भी बेइमानी नहीं करना चाहते। नि:संदेह कुछ ऐसे भी दुष्ट लोग हुए हैं जिन्होंने सहजयोग से बहुत धन कमाया है। कोई बात नहीं। आपमें से अधिकतर लोग ईमानदार बन गए हैं। के युग में ईमानदार व्यक्तियों को देखना सुखद लगता है। सर्वव्यापी भ्रष्टाचार श्री गणेश का सबसे बड़ा गुण है कि उनके लिए माँ ही महत्वपूर्णतम है। माँ क्या कहती है, क्या करती है, यही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। में वास्तव में समझ नहीं पाती कि किस प्रकार आप लोग मुझे इतना चाहते हैं और सोचती हूं कि बुद्धि बा कहीं अधिक प्रेम मेरे लिए है। यही श्री गणेश का गुण है वह चतन्य लजरी 19 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-20.txt मुझसे इतना प्रेम करते हैं कि अपने पिता से भी युद्ध कर सकते हैं। किसी से भी युद्ध कर सकते हैं। आप भी वैसे ही हैं, मेरे विरुद्ध कुछ भी सहन नहीं कर सकते। यदि कोई मेरे विरोध में एक भी शब्द कह दें तो मैंने आप लोगों को क्रूद्ध होते देखा है। मेरे प्रति आपका यह प्रेम आपके अन्दर श्री गणेश की देन हमे अपने गुणों तथा शक्तियों को अवश्य जानता है। में देखती हूं कि कुछ व्यक्ति तो बिल्कुल ही स्टेज पर नहीं आते और न ही बोलते हैं। मैंने उनसे कहा, "आप भी आईए, आगे बढ़िए, अपने आप को प्रक्षेपित कीजिए।" वे लोग क्षमा-याचना करते हैं और कहते हैं कि वे ऐसा नहीं कर सकते । यह क्षमा मांगना भी अब बहुत साधारण हो गया है। इस प्रकार के सभी लोगों को अभी अपनी शक्तियों की प्रचीति नहीं हुई। आप सब कुछ कर सकते हैं क्योंकि आप के अन्दर शक्ति है। उसी शक्रिति में ही जान लीजिए कि आप कोई भी विवेकहीन कार्य नहीं कर रहे। आप किसी को बिगाड़ नहीं रहे। आपकी शक्ति स्वयं ही दर्शा देगी कि विश्व को परिवर्तित करने के लिए यह प्रेम, स्नेह एवं सौहार्द की शक्ति है। मैं पूर्ण विश्व के परिवर्तन का सोचती हूं। मैं यह जानती हूँ कि यह एक स्वप्न है । फिर भी आप सब लोगों को देखते हुए में ऐसा सोचती हूँ। जब मैं आप के अन्दर श्री गणेश को देखती हूँ तो मुझे पूर्ण विश्वास हो ज़ाता है कि यह कार्य हो जाएगा। अपने जीवन में मैंने बहुत से सहजयोगियों को देखा है। किस प्रकार कार्य हुए। ब्राजील और अर्जेनटीना में अधिकांश लोग प्रात: 12 बजे ही कार्यक्रम मे आ गए जबकि कार्यक्रम का समय सायं: 7 बजे था। मैं सामान्य रूप से सायं: 8 बजे पहुंची तो उन्होंने कहा "श्री माता जी आप विश्वास नहीं करेंगी, यहां एक बहुत असामान्य घटना घट गई।" "कैसी घटना", "वे सब लोग 12 बजे से बैठे हुए थे। जो लोग जल्दी आ गए वे तो अन्दर आ गए और जो देर से आए उन्हें अन्दर नहीं जाने दिया गया। वे लोग बाहर झगड़ा कर रहे थे कि उन्हें भी अन्दर जाने का अवसर दिया जाए। तब | दूसरा गुण यह है कि वे गणों से कार्य करवाते हैं अत: आपको भी कार्य करना है। आप सब में प्रतिभा है, 'विवेक है, आप सब बुद्धिमान हैं। आप विशंष लांग हैं। आपको सामूहिक से भी गणेश जी के गुण अभिव्यक्ति करने हैं। श्री गणेश में और व्यक्तिगत रूप लयबद्धता है। उनकी लय कार्यान्विवत हो रही है। पिता नटराज (शिव) द्वारा सिखाए गए संगीत के ज्ञान के कारण वे नृत्य करते हैं। इनका उदर बहुत बड़ा है, फिर भी वे अत्यन्त चुस्ती से बहुत सुन्दर नृत्य करते हैं। अपने शरीर को बहुत ही विस्मयकारी ढंग से उठाते हैं। वे यह सब कैसे करते हैं? वे बहुत फुर्तीले हैं, मूलाधार ठीक है तो हल्कापन आता 'है। महाराष्ट्र किस प्रकार ये लोग कितनी फुर्ती से 'लेजियम' खेल रहे थे वे लोग अपने हाथों व पैरों को द्रतगति से उठा रहे थे यह वास्तव में ही *बहुत आश्चर्यजनक था। यह तो इन लोगों का भोलापन है कि ये लोग विश्व की अन्य बेहूदी बातों को नहीं समझते। वे दिन में खेती-बाड़ी कर अपनी जीविकोपार्जन करते हैं तथा शाम को लौटकर पूर्ण सहजभाव में सो जाते हैं। वे कोई परियोजना नहीं बनाते और न ही वे बैठकर कभी किसी की हत्या करने की योजना बनाते हैं। उनके हृदय में कोई बुराई नहीं आती। इनके पास इस सब के लिए समय ही नहीं है। यह लोग पूरा दिन मेहनत करते हैं और सायंकाल शांत होकर भजन - मंडली में सामूहिक रूप से भजन गाते हैं यही जीवन की वास्तविक और यह फुर्ती अबोधिता से आती है। यदि में एक सहजयोगी समझदारी से बाहर गए और उन्होंने प्रबन्धक से बातचीत की और उसे कहा "बाबा, इन्हें अन्दर आने दीजिए, अन्दर पर्याप्त स्थान है। चार तलों पर स्थान है।" जब में आई तो मैंने देखा सभी जगह लोग बैठे थे मैंने उन्हें पहले कभी सहज शैली है। नहीं देखा था। वे सब सत्य साधक थे तथा चैतन्य को पूर्ण रूपेण आत्मसात करने वाले थे। श्री गणेश के प्रति कृतज्ञता के कारण मेरे लिए अपने आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया। यह सब कार्य श्री गणेश का ही किया हुआ था इसीलिए कहते हैं कि कार्य आरम्भ करने से पूर्व श्री गणेश का पूजन करना चाहिए। वही हमें शान्ति तथा अथाह शक्ति प्रदान करते हैं। वे वह सभी कार्य कर देते हैं जिनके विषय में आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि आप अबोध हैं तो यह अबोधिता ही आपकी शक्ति है। आपको किसी शस्त्र या बन्दूक की आवश्यकता नहीं। ये सब तथाकथित धर्मों के लोग शस्त्रों का उपयोग कर रहे हैं। एक दूसरे को मार रहे हैं और स्वयं भी मर रहे हैं। यह सब भगवान न के नाम पर अथवा श्री गणेश के नाम पर हो रहा है । हमें लड़ाई-झगड़ा करने या किसी की हत्या के विषय में सोचने की आवश्यकता नहीं है। आप केवल इच्छा कीजिए। आप अपनी शक्ति का प्रक्षेपण कीजिए और आप. देखेंगे कि वह व्यक्ति स्वयंमेव ही लुप्त हो गया है। या तो वह. परिवर्तित हो जाएगा या आपको तंग करने के लिए वहां वहां होगा ही नहीं। आप सब को अनन्द आशीर्वाद " चैतन्य लहरी 20 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-21.txt :৩ ১৩১ ॐ৩ " अपने चित्त के बिना आप सहजयोग को क्रियान्वित नहीं कर सकते। यह सहजयोग की मुख्य समस्या है। आपका चित्त काल सर्वशक्तिमान परमात्मा की ओर होना आवश्यक है, उसके बिना कुछ भी क्रियान्वन नहीं हो सकता। आपका उत्थान नहीं हो सकता। सहजयोग में यदि आप धनोपार्जन के लिए आए हैं तो धनोपार्जन कीजिए और बाहर हो जाइए, ज्ञान प्रदर्शन के लिए यदि आप आए हैं तो ज्ञान प्रदर्शन कीजिए और बाहर हो जाइए, और यदि आप अपनी शक्ति एवं प्रभुत्व दिखाने आए हैं तो शक्ति और प्रभुत्व दिखाइये और बाहर हो जाइए। 1.ी हैं। सहजयोग को इन सब व्यर्थ की बातों के लिए उपयोग मत जा चुके इस प्रकार बहुत से लोग सहजयोग से बाहर कीजिए जो न सनातन हैं और न चिरस्थायी। सहजयोग का उपयोग मात्र अपना शुद्धिकरण करके स्वयं को प्रेम का सागर |न बनाने के लिए होना चाहिए।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी 2IXXXX*XXXXX*X*XXX*X*X*X***X*XX> ৩ Printed at PRINTEK, New Delhi Ph.: 5710529, 5784866 *৩::