चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड VIII अंक 9 व 10 Lि पुर जब भी आप में ये भावना जागे कि मैं जिम्मेदार हूँ दूसरे यह भी याद रखें कि बहुत सी अन्य शक्तियां भी हैं; आपके साथ बहुत से देवदूत और गण भी हैं। आप अकेले नहीं हैं। तो यह सोचना, कि केवल आप ही किसी (सहज) कार्य को कर रहे हैं, आपको अहंकारी बना सकता है। ऐसे समय पर आपको कहना है कि में कुछ नहीं कर रहा, परमात्मा (श्री माताजी) ही सभी कुछ कार्यान्वित कर रहे हैं।" तो याद रखें कि आप कार्यभारी नहीं हैं। परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी सहस्रार पूजा-96, कबेला राह चौतन्य लाहरी ा विषय सूची पृष्ठ खण्ड VIII, अंक 9 व 10, 1996 भजन 1. भजन 2. वाशीवार्ता-19.2.96 3. 3. वाई. पी. ओ. सम्मेलन, मुम्बई-27.2.96 4. 8 शिव पूजा, सिडनी-3.3.96 5. 12 श्री गणेश पूजा, पुणे - 1987 6. 16 श्री पोगी नहाजन वम्ादक श्री विजय नालगिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली- 110 067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसेटर्स, मुद्रित 4ए/1, ओल्ड राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली 110 060 फोन : 5710529, 5784866 चैतन्य लहरी ५ মে भजन नं. भजन नं. मुरली सुखमन की बाज रही रे, राधिका दौड़ी आई रे विष्णुमाया चली नभ पार, कृष्णा गाने लगी। 2. कृष्णा मैया हो गया अवतार, धुन निरानन्द की, चेतन का गीत है, जग को बताने लगी। 2. आज हर आत्मा को, मिला मनमीत है, यही है परम प्रेम, बहना बन के वो कृष्ण की आई, भाई रक्षा की रीति चलाई, यशोदा की जाई, देवकी घर आई, यही परम प्रीत है, करवाया अपने पे वार, दुष्टों से टकराने लगी विष्णुमाया चली नभ अम्बर में धरती समाई रे, राधिका दौड़ी आई रे, मुरली सुखमन की बाज रही रे, पार सदेश वो लाती, गरज के शुभ कष्टों से योगी जन को बचाती, निर्दोषता के गीत गाती, स्वरों के बुन कर तार, तत्वों की तान पर, चैतन्य-नव प्राण पर, लीला के खेल में, गगन में समाने लगी पर-ब्रह्म से मेल में, सहज दिव्य व्यवहार में, विष्णुमाया चली नभ कृष्णा गाने लगी। पार विश्व के सहस्रार में, कृष्णा आदि शक्ति ने सृष्टि रचाई रे, राधिका दौडी आई रे, लेकर विष्णु की शक्तियां सारी, बन आई वो सुन्दर नारी, परमेश्वर की परम-वैवारी, खोले विराट के द्वार, मुरली सुखमन की बाज रही रे, कलियुग का मन्थन, उतर आए देवगण, अमृत बरसाने लगी, मुक्त हुए जीव जन, पी रहे अमृत चेतन, शिव बनी ममता, विष्णुमाया चली नभ पार कृष्णा कृष्णा गाने लगी। योगेश्वर की समता, सतयुग की कलियां खिल आई रे. राधिका दौड़ी आई रे, मुरली सुखमन की बाज रही रे, चैतन्य लहरी 2. ा वाशीवारता 19.02.1996 मुम्बई विषय में जानना चाहते है। परन्तु मुझे प्रसन्नता इई कि आयुर्वेद की बात करते हुए लोग कुण्डलिनी के विषय में बात करते हैं। यद्यपि इसका उन्हें अधिक ज्ञान नहीं है फिर भी इसके विषय में वे बात करते हैं। अब जिस शक्ति के विषय में मैं बात कर रही हूँ यह कृण्डलिनी हैं जो त्रिकोणाकार अस्थि में निवास करती है। मैं जो भी कूछ आपसे कह रही हूं, आवश्यक नहीं कि आप जटिल ज्ञान है और सत्य साधको आज मुझे पूर्णत: वैज्ञानिक माने जाने बाले चिकित्सा व्यव्साय के चिकित्सक लोगों से बातचीत करनी है, मेरे लिए यह भिन्न विषय है। विश्व भर में प्रचलित एवं प्रयोग किए गए सिद्धांतों का मैं किसी भी रूप से खंडन करने नहीं आई हूँ। उपलब्ध ज्ञान का हमें किसी भी प्रकार से अपमान नहीं करना है। विकसित नहीं हुआ या पूर्ण समर्थ नहीं है तो हमें उससे बेहतर ज्ञान पाने के लिए अपना मस्तिष्क खोल देना चाहिए। चिकित्सा विज्ञान के हमारे अध्ययन या ज्ञान का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम किसी नये एवं उपलब्ध अन्य जञान को स्वीकार न करें। मेरे ज्ञान के अनुसार चिकित्सा विज्ञान की आचार सहिता में हम जन-हित के लिए कार्य करते हैं, धनोपार्जन या स्व:विदित किसी सिद्धान्त के प्रचार के लिए नहीं। परन्तु जब हम ये जान जायें कि वह ज्ञान पूर्णतः उस पर विश्वास करें, क्योंकि यह अत्यन्त साढ़े तीन कुण्डलों में बैठी ये कुण्डलिनी तब तक सुप्त अवस्था में रहती है जब तक आप सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते। युग युगान्तरों से यह ज्ञान उपलब्ध था; मार्कण्डेय ऋृषि ने चौदह हजार वर्ष पूर्व इसके विषय में बात की, आदिशंकराचार्य ने भी इसके विषय में बताया मैं जानती हूँ कि विदेशों में भी बहुत से सन्तों ने कुण्डलिनी के विषय में बताया। बाईबल में भी लिखा है कि में आपके सम्मुख शोलों की जुबान में दिखाई दूंगी। उन्होंने श्री कृष्ण की तरह से उल्टें जीवन वृक्ष की बात की जिसकी जड़ें मस्तिष्क में हैं। परन्तु इन सब बातों की कोई वैधता न थी। किसी ने भी इस दृष्टिकोण से इन्हें देखने का है जैसा कि आप जानते हैं विज्ञान में परिकल्पनाएं परिवर्तित होती रहती हैं। आदिकाल से आप देख रहे हैं कि पहले परिकल्पनाएं बनती हैं, फिर परिकल्पनाएं कानून बन जाती हैं और कानूनों को भी चुनौती दी जाती है। विज्ञान नितैर्तिक है। यह मानव के उस पक्ष को नहीं देखता जहाँ नैतिकता आत्मसात करनी आवश्यक होती है। तीसरी बात यह है कि यह सीमित है क्योंकि यह मस्तिष्क के माध्यम से किये गये हमारे प्रयत्नों से सम्बन्धित है । प्रयत्न नहीं किया। परन्तु आज ये प्रमाणित किया जा सकता कि कुण्डलिनी नामक यह अद्वितीय शक्ति सभी मानवों में विद्यमान हैं। इसका स्थान पवित्र अस्थि में है। इसकी पवित्रता के विषय में मैने कुछ यूनानी लोगों से पूछा तो वो कहने लगे कि नि:सन्देह यह पवित्र अस्थि है। क्योंकि वे इसे पवित्र मानते हैं, मैने उनसे पूछा कि इसके विषय में उन्हें किसने बताया ? उन्होने उत्तर दिया कि बहुत समय पूर्व भारतीयों ने उन्हें इसके विषय में बताया था। यह कुण्डलिनी बीज के अंकुर सम है, बीज को जब आप पृथ्वी माँ में डालते हैं तो यह स्वतः सहज ही अंकुरित हो जाता है। इसके लिए आपको कुछ करना नहीं पड़ता। पृथ्वी माँ को आप कुछ दे नहीं सकते। न तो आपको सिर के भार खड़े होने से और न ही किसी शारीरिक गतिविधि से यह अंकुरण हो सकता है। बीज के अन्दर अंकुरित होने की तथा पृथ्वी माँ के अन्दर अंकुरित करने की शक्ति पहले से ही विद्यमान है। बीज के इस अंकुरण से इस जीवन्त क्रिया को घटित होते हुए आप देख सकते हैं। क्रमिक विकास द्वारा हम मानव बन पायें है, हम मानव बने हैं और जिन चीजों के विषय में हमें ज्ञान नहीं है वे भी हमारे अन्दर विद्यमान हैं। जो कुछ भी हम बाहर देखते हैं उसका हमें जान है। परन्तु अन्तर्निहित चीजों का हमें कोई जान नहीं है। क्योकि न तो हमने अभी तक आवश्यक नहीं कि जिस चीज को हम बुद्धि द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं वह पूर्ण सत्य हो, यही कारण है कि सदा मतभेद बने रहते हैं। अत: हमें उस स्थिति पर पहुँचना है जहाँ हम पूर्ण सत्य, पूर्ण अर्थ को जान सकें और जहाँ हर चिकित्सक एक ही बात महसूस करें और उनका निदान भी एक ही हो। इन सभी दृष्टिकोणों को सम्मुख रखते हुए हमारे लिए आवश्यक है कि थोड़े से विनम्र हो कर स्वयं देखें कि इस महान देश भारत में हमारे कौन सा ज्ञान विद्यमान है। हमें इस सम्मुख बात का ज्ञान नहीं है कि सहजयोग का ज्ञान यहाँ हजारों वर्ष पूर्व भी विद्यमान था मैं जब यूक्रेन स्थित कीव में गई तो लोगों को मछिन्द्र नाथ और गोरखनाथ के विषय में बातें करते देख आश्चर्य चकित रह गई, उन्होंनें सभी चक्रों के चित्र बनाये हुए थे तथा परस्पर बातचीत कर रहे थे कि अदिती ही आदिशक्ति माँ है। मैं स्तब्ध रह गई कि किस प्रकार इतने वर्ष पूर्व, ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व ये महान संत वहाँ गए और ऐसा चमत्कारिक कार्य किया। हमारे देश में भी कुण्डलिनी शक्ति का महाजञान उपलब्ध है परन्तु हम उसे नहीं पढ़ते और न उसके उसका अध्ययन किया है और न ही यह जानने का प्रयास किया है कि हमारे ग्रन्थों में हमारे अन्तःकरण के विषय में क्या पुरातन चैतन्य लहरी लिखा हुआ है। अब यह शक्ति रहस्यमय नहीं रही, हमारे विकास के अन्तिम भेदन के लिए इस शक्ति को अकुरित होना है। मानव चेतना के पश्चात हमें एक ऐसी चेतना में प्रवेश करना है एक ऐसी नयी चेतना में कूद पड़ना हे जो हमारे अन्तःकरण का पूर्ण ज्ञान है। इस नव चेतना के सम्बन्ध में पहले भी बताया जा चुका है। जापान में मानी जाने वाली जैन प्रणाली में इसके विषय में बताया गया है और चीन में लाओत्से ने भी इसके विषय में बताया। बहुत लोगों ने इसके विषय में चर्चा की और कहा कि व्यक्ति को मस्तिष्क से ऊपर जाना होगा। जीवन्त कार्य करता है। इन फूलों को देखें यह कितने रहस्यपूर्ण हैं। पृथ्वी माँ के गर्भ से भिन्न रंगों, सुगन्धों तथा आकारों में उनका उत्पन्न होना एक चमत्कार है। यह सब कार्य कौन करता है? यह सब यही महान शक्ति करती है जिसने हमें चहूँ ओर से घेरा हुआ है, पातान्जली ने उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है अर्थात वह शक्ति जो ऋतुएं बनाती हैं। परन्तु इस प्रज्ञा को, हमारे चारों ओर विद्यमान ज्योतिर्मय ज्ञान को, इससे पूर्व हमने कभी महसूस नहीं किया हम नहीं जानते कि ऐसी कोई शक्ति है भी या नहीं। लोगों ने, सन्तों ने इसकी चर्चा की, हम उनसे बातचीत करते हैं, उनसे प्रार्थना करते हैं परन्तु यह नहीं जान पाते कि वास्तविकता से या मन से हमारा क्या सम्बन्ध है ली ति मन के सम्बन्ध में मैं आपको बताना चाहती हूँ कि मन मिथ्या है तथा हमारा अहं तथा बन्धन इसकी सृष्टि करते हैं। यह मिथ्या है वास्तविकता नहीं। मन हमारे अन्दर इन दो संस्थाओं की सृष्टि करता है और बाद में अहं और बन्धन रूपी यह दोनों संस्थाएं मन को निरयंत्रित करती हैं। यह ऐसा ही है जैसे हम कम्प्यूटर बनाते हैं और कुछ समय पश्चात कम्प्यूटर हमारा नियन्त्रण करने लगतता है। मन भी ऐसा ही करता है, यह उन बुलबुलों जैसा है, जिनकी सृष्टि हमारे अन्तनिहित इन दो संस्थाओं की वायु करती है। इस मन पर नियन्त्रण करना सुगम कार्य नहीं है, सभी शास्त्रों में लिखा है कि यह अत्यन्त कठिन कार्य है, कि आप मन से ऊपर नहीं उठ सकते। अब इस मन को इसकी वस्तु स्थिति में देखें। हम भविष्य के विषय में सोचते हैं और भूत के विषय में भी, पर इस क्षण जहाँ हम हैं, वर्तमान के विषय में हम नहीं सोच पाते। अपना चित्त हम वर्तमान पर नहीं रख सकते। यह मन हमारे मस्तिष्क में बहुत से बुलबुले उत्पन्न करता है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है। क्योंकि मन हमें सत्य तक जाने ही नहीं देता। जैन प्रणाली में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आप को पार होना होगा, मस्तिष्क से ऊपर उठना होगा, जहाँ आप निर्विचार होते हैं, जिसे हम निर्विचार समाधि कहते हैं। इस स्थिति में आप निर्विचार चेतना में आ जाते हैं और परमात्मा की दिव्य शक्ति से एक रूप होते हैं। भारतीय होने के नाते इस सब के बारे मे जानना होगा और इस ज्ञान को मानव जाति के उद्वार के लिए उपयोग करना आपका अधिकार है। यह मात्र अध्यात्मिक मुक्ति ही नहीं, मैं कहूंगी कि इसका लक्ष्य स्वयं को जानना है-जिसे हम आत्मसाक्षात्कार कहते हैं, तथा जिसके परिणामस्वरूप आप शारीरिक, भावनात्मक तथा अध्यात्मिक समृद्धि प्राप्त कर पूर्णतया परिवर्तित व्यक्तित्व बन जाते हैं। अभी डा० राय ने बहुत से दोषों की चर्चा की है। परन्तु सबसे बड़ा दोष जिससे आज हम ग्रस्त हैं, वह है भ्रष्टाचार। एक भ्रष्ट व्यक्ति पूर्णतया ईमानदार हो जाता है और उसके अन्दर ऐसा साधुत्व आ जाता है कि वह इस के अतिरिक्त कुछ बन ही नहीं सकता। यह सब इतना अजीब लगता है कि लोग इस पर विश्वास ही नहीं कर सकते। परन्तु वास्तव में हम इतने अनोरवे हैं और महान हैं कि हमें अपनी अन्तर्निहित निधियों के बारे में पता ही नहीं है। कुण्डलिनी जागृति द्वारा हम इन्हें जागृत कर सकते हैं। नि:सन्देह कैंसर का भी उपचार सहजयोग से हो सकता है। सहजयोग में कोई विशेषज्ञ नहीं है। यह मात्र एक रोग का इलाज करने की बात नहीं है। जैसा कि कुछ लोग कहते हैं कि एक ऑरख के लिए एक विशेषज्ञ होना चाहिए दूसरी के लिए दूसरा, सहजयोग में ऐसा नहीं है। यह 'आम्बिक और इस प्रकार यह क़्म चलता रहता है। सत्य वर्तमान में वास है. तथा जीवन की वास्तविकता का निवास भी वर्तमान में है। परन्तु हम वर्तमान में नहीं रह पाते। हमें यहीं वर्तमान में स्थापित होना है और इसी कार्य के लिए कुण्डलिनी हमारे अन्दर विद्यमान है। जैसा मैने कहा, यह हमारी व्यक्तिगत माँ है। नि:सन्देह चिकित्सा विज्ञान में माता पिता जैसी कोई धारणा नहीं होती परन्तु हम जानते हैं कि माता पिता होते हैं, हम पेड़ों से नहीं टपकते हैं। कुण्डलिनी उठती है, यह छः केंद्रों में से उठती है। पहला चक्र पवित्र अस्थि के नीचे है सहजयोग के अनुसार यह छः: चक्र हमारे शारीरिक मानसिक, भावनात्मक तथा अध्यात्मिक अस्तित्व के लिए जिम्मेदार हैं। उत्थान पा कर कुण्डलिनी करती क्या है? यह इन केन्द्रों को प्लावित करती है, इनको एक सूत्र में बांधती है और ईश्वरीय प्रेम की सर्वव्यापक शक्ति से आपका सम्बन्ध जोड़ती है। अभी तक लोग गिजाघरों या धार्मिक प्रवचनों में इसके विषय में इतना भर कहते थे कि परमात्मा की एक शक्ति है जो हमारी देखभाल करती है। वे परम चैतन्य की बात भी करते हैं। यह सब शास्त्रों में वर्णित है । कोई नहीं सोचता कि चिकित्सा विज्ञान के अतिरिक्त भी इसमें बहुत सा ज्ञान निहित है। हमारे चहँ ओर विद्यमान परमचैतन्य ही सारे करता (Ambigk) है, अर्थात संयोजित है। इसके माध्यम से मनुष्य की पूर्ण रूपेण चिकित्सा होती है क्योकि जब कुण्डलिनी उठत्ती है तो चक्र रुपी सभी मोतियों में से सूत्र रूप में गुजरती है और व्यक्ति के चक्रों को पूर्णतया ठीक कर देने वाली परमात्मा की उस दिव्य शक्ति से उसे एक रूप कर देती है। मैं कैंसर की बात बहुत सामान्य ढंग से कर रही हूँ क्योंकि मैं इतनी महान वैज्ञानिक नही हूँ कि आपको इसके वैज्ञानिक पहलुओं के बारे में बताऊँ। कैंसर एक साधारण रोग है, जिससे हमें डरना नहीं चैतन्य लहरी चाहिए। हमारे अन्दर दो प्रकार की नाड़ी प्रणालियाँ हैं, एक अनुकम्पी, दूसरी परा-अनुकम्पी नाड़ी प्रणाली। अनुकम्पी आपात स्थितियों के लिए होता है और परा- अनुकम्पी इसको निष्प्रभावित करने के लिए होता है। बायीं ओर को हम बायां अनुकम्पी और दायीं ओर को दायां अनुकम्पी कहते हैं। मैं नहीं जानती कि चिकित्सा विज्ञान इस तथ्य तक पहुँचा हैं अथवा नहीं। जब मैं चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन कर रही थी तब इन दोनों को हैं तो भविष्य में आपके लिए क्या छिपा है? हमारे अन्दर एक चक्र 'स्वाधिष्ठान चक्र' होता है जो कि नाभि चक्र से निकलता है। यह चक्र आप सब के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब हम अत्यधिक सोचते हैं तो इस चक़र का कार्य हमारे मस्तिष्क को शक्ति पहुँचाना है, यद्यपि चिकित्सा विज्ञान इस तथ्य को नहीं मानता। परन्तु हम बहुत अधिक सोचते हैं तो यह चक्र हमारे मस्तिष्क की सफेद कोशिकाओं (Grey Cells) को शक्ति प्रदान करता है। इस मुव्य कार्य के अतिरिक्त इस चक्र के अन्य भी कई कार्य हैं। डाक्टर लोग नहीं जानते कि यह चक्र हमारे जिगर (Liver), अग्नाशय (Pancres), प्लीहा (Spleen), गुर्दो (Kidneys) तथा आतों (Intestines) की देखभाल करता है। जो लोग भविष्य की बहुत अधिक चिन्ता करते हैं या बहुत अधिक सोच विचार करते हैं, इस चक्र की पूरी शक्ति केवल इस प्रकार के भविष्यवादी कार्य करने में ही लगा देते हैं। प्रथम उपेक्षित अवयव जिगर है। मुझे खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि जिगर के सम्बन्ध में डाक्टरों का ज्ञान सीमित है। जिगर ही वह अवयव है जो मनुष्य को जीवित रखता है। जब हम जिगर की उपेक्षा करते हैं तो इसमें से एक प्रकार की गर्मी निकलने लगती है। मैं इसके लिए आपको चिकित्सा विज्ञान का तकनीकी शब्द तो नहीं बताऊँगी, परन्तु यह गर्मी हानिकारक होती है। जिगर सारे शरीर की गर्मी को अपने अन्दर सोख लेता है ताकि यह शरीर से बाहर निकल जाए। परन्तु जब इसकी उपेक्षा की जाती है तो यह कार्य करना बन्द कर देता है और समस्यायें खड़ी हो जाती हैं। मुख्य समस्या जो खड़ी होत्ती है वह है कि यह गर्मी शरीर में ऊपर-नीचे चलने लगती है। जिगर से निकली हुई गर्मी जब ऊपर को चलती है तो, हमारे अन्दर दायां हृदय कहलाने वाले एक अन्य चक्र जो कि फेंफड़ों तथा श्वास क्रिया आदि को नियन्त्रित करता है, को दुष्प्रभावित करती है। इससे ऊपर जाकर यह अस्थमा ( द्वारा अस्थमा से सहज ही मुक्ति पाई जा सकती है। यदि आपको जिगर की गर्मी को दूर करने का ज्ञान हो जाए तो अस्थमा का इलाज बहुत सरल है। दमा भारत में एक आम रोग है। वातावरण का प्रदूषण भी इस के लिए जिम्मेदार है। कुछ अन्य समस्यायें भी इस का कारण हैं क्योंकि यह चक्र पिता से एक सा समझा जाता था। परन्तु ऐसा नहीं है। ये एक दूसरे के पूरक होते हुए भी परस्पर विपरीत हैं। बायीं ओर आपके भावनात्मक अस्तित्व तथा भूतकाल का प्रतिनिधित्व करती है और दायां पहलू आपके भविष्य और शारीरिक एवं मानसिक अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। आप जानते हैं कि अंग्रेजी भाषा इस प्रकार की है कि मानसिक का अर्थ भावनात्मक भी लगाया जा सकता है। परन्तु यहां इसका अर्थ है 'मस्तिष्क जिसके माध्यम से आप कार्य करते हैं। तो ये दोनों पहलू (दायां और बायां) हमारे अन्दर एक लूप सा बना देते हैं और अनुकम्पी, पुरा- अनुकम्पी की रचना करता है। अब कैंसर में क्या होता है? व्यक्ति अपने एक पहलू का अधिक उपयोग करने लगता है, कुछ लोग अत्यन्त आक्रामक और भविष्यवादी होते हैं। उनकी दृष्टि सदा घडी पर रहती है और वे योजना बनाने में ही लगे रहते हैं। कहने से मेरा अभिप्राय यह है कि आधुनिक मानव ऐसा ही है। व्यक्ति इस चक्र (दायां स्वाधिष्ठान) को आवश्यकता से अधिक उपयोग करता है और यह दुरुपयोग इस चक्र को क्षीण कर देता है क्योकि यह चक्र संकुचित है। ऐसी स्थिति में यदि कोई आकस्मिक, भावनात्मक समस्या या आघात आ जाए तो यह चक्र टूट जाता है। इस चक्र के टूटने पर व्यक्ति का सम्बन्ध अपने मस्तिष्क से, अपने केन्द्र से टूट जाता है और सारी ऊर्जा अनियन्त्रित रूप से बहने लगती है और कोषाणु भी स्वच्छंद हो जाते हैं, पूर्ण से (विराट से) अ्वास रोग) को जन्म देती है। सहजयोग उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता। अब आप ये जान कर आश्चर्यचकित होंगे कि, जैसा कि डाक्टर साहब ने वर्णन किया के अंतिरिक्त है, बायां पहलू हमारे भूतकाल कुछ मैंने उन्हें यह भी बताया कि कैंसर उत्पन्न करने वाले बायीं ओर के इस विशेष आक्रमण को प्रोटीन 53 का नाम दिया जाएगा। अब, हम कह सकते हैं, कि बायें पहल से हमारे शरीर में प्रवेश करने वाले यह प्रोटीन शरीर के अन्य कोषाणुओं का संचालन करने लगते हैं और वे कोषाणु स्वच्छंद होकर घातक बन जाते हैं इन दोनों चीजों को समायोजित कर इस केन्द्र का पोषण करना अत्यन्त साधारण कार्य है। आप यदि यह कार्य कर सकते हैं तो आप समस्या का समाधान कर सकते हैं। भी नहीं है। सम्बन्धित होता है। पिता पुत्र सम्बन्ध यदि खराब हों तो यह चक्र उत्तेजित हो जाता है। छोटी आयु में ही यदि किसी के पिता की मृत्यु हो जाए तो भी इस चक्र में समस्या हो सकती है। कारण जो भी हो इसका इलाज सहजयोग में बहुत सरल है। यदि जिगर की गर्मी अग्नाशय (Pancregs) में चली जाए तो अग्नाशय खराब हो जाता है और फलस्वरूप मधुमेह (Diabites) जैसा रोग हो जाता है। जो लोग मेज पर बैठे -बैठे सोचते व अब में आप लोगों को, जो कि अत्यधिक सोचते हैं, बहुत कार्य करते हैं व भविष्य की योजनायें बनाते रहते हैं, एक बहुत साधारण परन्तु महत्वपूर्ण बात बताना चाहती हूँ कि मंत्री जी तथा आप सब लोग यदि इसी प्रकार भविष्य के विषय में चितित कार्य करते रहते हैं उन्हें यह रोग अक्सर हो जाता है। परन्तु ग्रामीणों को यह रोग नहीं होता। महाराष्ट्र में तो गांव के लोग इतनी चीनी खाते हैं कि उनकी चाय में पड़ी चीनी में चम्मच क चैतन्य लहरी सीधा खड़ा हो जाए। फिर भी उन्हें मधुमेह नहीं होता क्योंकि वे लोग बहुत परिश्रम करते हैं। जब परिश्रम करके वो थक जाते हैं तो सो जाते हैं। उन्हें कोई बीमा अथवा धन बचाने की चिन्ता नहीं होती। वे सदैव प्रसन्न चित्त रहते हैं तथा भविष्य के बारे में चिन्तित नहीं होते। इसलिए उन्हें मधुमेह नहीं होता। जो लोग मेज पर बैठे सोचते रहते हैं, उन्हें न केवल यह रोग हो जाता है अपितु कुछ तो मधुमेह से अन्धे भी हो जाते हैं सहजयोग में इसका विवेचन सम्भव है। मस्तिष्क, जिसे हम 'पीठ' कहते हैं, में स्वाधिष्ठान चक् किस प्रकार कार्य करता है, यह बात-पीठ से चक्रों का सम्बन्ध-रूस के लोगों ने प्रमाणित कर दी हैं। रूस में विज्ञान इतना उन्नत हो चुका है कि वे अब भौतिकता से ऊपर जा रहे हैं और हमारे लिए बहुत सहायक हैं। बैठती है, कुछ न कुछ सोचती रहती है-आज क्या खाना है, क्या बनाना है आदि। तो मैने कहा कि इस सब के लिए क्या सोचना है? जो भी बाजार में उपलब्ध है, उसे बना लो और खा लो। इस के लिए योजना बनाने की क्या आवश्यकता है? स्वास्थ्य बिगड़ते ही कई अन्य बीमारियाँ आने लगती हैं। एक और बीमारी है जो जिगर की गर्मी से आती है, वह है गुर्दों का ठस (Congulation of Kidneys) हो जाना। इस गर्मी से गुर्दे सख्त हो सकते हैं तथा मूत्र भी रुक सकता है और व्यक्ति को डायलिसिस (Dialysis) पर रखा जाता है। तब मनुष्य दीवालिया हो कर मर जाता है। यह मरने का एक सरल रास्ता है। एक डाक्टर महोदय जो स्वयं इस बीमारी के मरीज थे और रोगियों का रक्त परिवर्तन किया करते थे, दीवालिया होने पर मेरे पास लाए गए। मैंने उन्हें ऐसा वचन देने के लिए कहा कि यदि वे सहजयोग से ठीक हो जायें तो वे अपना यह डायलिसिस का व्यवसाय बन्द कर वे कहने लगे कि "मैंने इस व्यवसाय में जो पैसा लगाया है उसका क्या होगा।" अत: हमारे जीवन की हर चीज धन संचालित है और अपनी किसी भी चीज को हम त्याग नहीं पाते। एक अन्य खतरनाक बीमारी भी इस प्रकार की अति व्यस्त व भाग- दौड़ की जिन्दगी से उत्पन्न होती है। आप सुबह उठते ही सोचने लगते हैं कि देर हो गई और यही सोचते सोचते कार में जा बैठते हैं। अमरीका में तो लोग दांत भी कार में ही साफ करते हैं। उनकी जिन्दगी इतनी गतिशील है कि वे लोग नाश्ता भी कार में या कार्यालय में करेंगे। मेरे पतिदेव बताते हैं कि उनके कार्यालय में तो बहुत से लोग आते ही शौचालय में घुस जाते हैं क्योंकि उन्हें यही सुविधाजनक लगता है। सबसे बुरी देंगे । परन्तु अन्त में, यही जिगर की गर्मी हमारी आंतो पर भी कुप्रभाव डालती है और व्यक्ति को चिरस्थाई कब्ज (Chronic Constipstion) हो जाती है। यह बीमारी व्यक्ति को चिड़चिड़ा और परेशान कर देती है। उसे हर समय गुस्सा आता रहता है, और जीवन वास्तव में दुखःदायी हो जाता है। ऐसे लोगों को इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए बहुत कठिनाईयाँ सहनी पड़ती हैं, सब प्रकार की दवाओं का उपयोग करना पड़ता है कभी-कभी तो बवासीर भी हो जाती है। यदि आप प्रातःकाल बात है प्रात्त:काल समाचार पत्र पढ़ना। समाचार पत्र पढ़ते हैं तो आपके अनुकम्पी गतिशील हो उठते हैं और, जैसा कि आप जानते हैं, आपके प्लीहा को आपातकालीन स्थिति के लिए लाल रक्त कोषाणु उत्पन्न करने होते हैं। ऐसी स्थिति में प्लीहा धडकने लगता है और संकटावस्था में आपकी सहायता करने लगता है। हड़बड़ाहट तथा हर तरह के उल्टे सीधे काम करने वाले व्यक्ति के लिए कार्य करने में प्लीहा पगला जाता है। मुझे याद है कि पुराने समय में लोग बड़ी शान्ति से भोजन किया करते थे, मेरे पिता खवाना खाते और पास में बैठकर मेरी मां उन्हें पंखा झलती तथा वे अत्यन्त शान्तिपूर्वक भोजन करते। यही हमारी जीवन शैली थी। परन्तु आज ऐसा हैं मैंने आपको संक्षेप में बताया कि हमें क्या हो सकता है। परन्तु इससे भी अधिक गम्भीर बात यह है कि शराब पीने वाले इक्कीस वर्षीय युवक, चाहे वह टेनिस खेलता हो, को भयानक हृदयाघात हो सकता है क्योंकि जिगर से निकली हुई गर्मी टेनिस तथा अन्य व्यायाम करने वाले परिश्रमी खिलाड़ी की व्यायाम से उत्पन्न गर्मी को और अधिक बढ़ा देती है और उसे जीवन के किसी भी मोड़ पर हृदयाघात हो सकता है। यदि आप बुरा न माने तो में राहुल बजाज का नाम बताना चाहूँगी जिन्हें नहीं है। फलस्वरूप प्लीहा हर समय तनावग्रस्त होता है और नहीं जानता कि किस प्रकार समयानुसार कार्य किया जाए तथा रक्त कैंसर नामक भयानक रोग के प्रति दुर्बल हो जाता है। हमारे यहाँ कुछ लोग हैं जिन्हें बहुत पहले रक्त कसर था परन्तु नौ-दस साल पूर्व सहजयोग से वे रोग मुक्त हो गए और अब भी रक्ताधान (Blood Tronsfusion) आदि के बिना भी ठीक चल रहे हैं। यह एक बहुत घातक रोग है। यह कई बार उन बच्चों को भी हो जाता है जिनकी माताएँ उत्तेजनापूर्ण जीवन व्यतीत करती हैं। मैं जानती हूँ कि माताएँ भी बहुत व्यस्त जीवन व्यतीत करती हैं। मैं गुजरात में एक विश्वविद्यालय के उप-कुलपति की पत्नी को मिली और उसकी एक समस्या को देख कर आश्चर्यचकित रह गई जब मैंने पूछा कि वह सारा दिन क्या करती है? तो उसने उत्तर दिया कि जब भी वह गम्भीर हृदयाघात हुआ और वे मेरे पास आए और ठीक हो गए| वे पूर्ण रूप से ठीक हो गए और अब भी ठीक हैं। यह हृदय रोग है दो प्रकार के होते हैं-एक है सुस्त हृदय का रोग और दूसरा अतिकर्मी हृदय रोग। अतिकर्मी हृदय वाले लोग घातक हृदयघात से मरते हैं। सुस्त हृदय वाले लोगों कों हृदयशूल (Angind) होता है। यह हृदयशूल तब होता है जब सुस्त हृदय रक्त को मस्तिष्क तक नहीं पहुँचा सकता। हृदयशूल से पूर्ण मुक्ति भी सहजयोग में सम्भव है। हृदयशूल के रोगी श्री बारी मल्होत्रा हुआ तो मैंने पूर्णतः रोग मुक्त हो गए। उन्हें विश्वास ही नहीं ने चैतन्य लहरी कहा कि यदि आपको मुझ पर विश्वास नहीं है तो जाईए और किसी चिकित्सक को दिखाइए। सभी चिकित्सकों ने उनकी जांच करने के बाद कहा कि आप बिल्कुल स्वस्थ हैं। उन्होंने हैं। आत्म-साक्षात्कारी व्यक्ति बता देगा कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है और क्या समस्या है। सहजयोग में इस सब का अर्थ निकाल लिया गया है और आप इसे भली-भाति समझ सकते जब अपने हृदय की शल्य चिकित्सा (Bypass Surgery) के लिए एंजियोग्राफी (Angiography) करवाई तो वे ठीक व स्वस्थ पाए गए। यह तो एक उदाहरण मात्र है। ऐसे अन्य कई उदाहरण हैं। यदि हम अपने इन चक्रों को ठीक कर लेते हैं और जाते हैं तो हमारा व्यक्तित्व पूर्णत: बदल जाता है। व्यक्ति न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से अपितु, मस्तिष्क और अध्यात्मिकता की दृष्टि से भी बिल्कुल ठीक हो जाता है। अभी तो मैंने केवल एक चक्र के बारे में बताया है हमारे शरीर में ऐसे अन्य कई चक्र हैं जो हमारी देखभाल करते हैं। यह मैंने महाधमनी की केवल शारीरिक गतिविधि के विषय में ही बताया है। इस चक्र को और भी कार्य करने होते हैं। महाधमनी (Aortic Plexus) चक्र जब बायीं और दायीं ओर को कार्य करता है तो यह व्यक्ति को महान सृजनात्मकता प्रदान करता है। आप यदि वैज्ञानिक हैं तो आपको सतही चीजों के पीछे छिपे अब हमारा यह शोध केन्द्र रोग मुक्त हुए सभी लोगों के विषय में उपलब्ध जानकारी को भली-भाति एकत्रित करेगा। हम नहीं चाहते कि रोग निदान प्रक्रियाएँ चलती रहें, क्योंकि हम इसे अपनी अँगुलियों के सिरों पर महसूस कर सकते हैं परन्तु लोग अन्य अस्पतालों में किए गए निदान साथ ला सकते हैं और स्वयं देख सकते हैं कि यहाँ किए गए निदान ठीक हैं या नहीं। सहजयोग द्वारा किए गए निदान के अनुसार रोगियों का इलाज किया जाना चाहिए और इलाज के परिणामों को लिखा जाना परमात्मा से जुड़ चाहिए तथा इस प्रकार का शोध कार्य होता रहना चाहिए। डाक्टर साहब इस कार्य में बहुत निपुण हैं और उन्होंने इस क्षेत्र में बहुत कार्य किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय से अब तक चार डाक्टर M.D. की डिग्री ले चुके हैं। मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि उत्तरी भारत में चिकित्सक उदार बुद्धि के हैं, जबकि महान ज्ञान का अन्दाजा हो जाता है। यह ज्ञान हर प्रकार से कार्य करता है, उदाहरणार्थ मैंने जीन्स पर कार्य किया है और लोगों को जीन्स के विषय में बताया है जिससे वे आश्चर्यचकित हैं। उन्होंने बताया कि किसी ने भी अभी तक फासफोरस (Phosphorous) पर कार्य नहीं किया। मुझे आश्चर्य है कि यह एक सामान्य ज्ञान की बात है। डाक्टर साहब ने हमारी रोग प्रतिरक्षण प्रणाली के संबंध में चर्चा की। मैंने कहा कि यह भी एक सामान्य ज्ञान की बात है, कि यदि हमारी रोग प्रतिरक्षण इसे देखा जाए। केवल नोट छापने के लिए आप लोग चिकित्सक प्रणाली (Immune System) दुर्बल हो जाएगी तो हम बहुत से नहीं बने हैं राजनीति और चिकित्सा में आपका उद्देश्य धन रोगों के शिकार हो जायेंगे। यदि मैंने रोग प्रतिरक्षण प्रणाली को कमाने की अपेक्षा यश कमाने का होना चाहिए। यह बहुत अह जिम्मेदार बताया है तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। अब हमें देखना है कि यह प्रणाली देवी -देवताओं से कितनी संबंधित है? इस क्षेत्र में चिकित्सक सफल नहीं हो पाए, वे सफल हो भी नहीं सकते। घर में स्थापित गणपति को नमस्ते कह कर वे अपने कार्य पर चले जाते हैं, परन्तु उन्हें इस चीज का ज्ञान नहीं है कि हमारे अन्दर गणपति का कितना महत्व है। ये गणपति क्या करते हैं, किस प्रकार कार्य करते हैं और वे कहाँ स्थापित हैं। भारतीय देवी देवताओं के अतिरिक्त हममें ईसा, मोहम्मद, महावीर तथा बुद्ध भी विद्यमान हैं। ये सब हमारे अन्तःस्थित हैं। परन्तु चिकित्सकों के लिए इस बात को स्वीकार करना बहुत कठिन बात है और मैं ये भी कहूँगी कि उन्हें यह स्वीकार नहीं करना चाहिए। बाद में शनैः- शनैः जब उनका सहजयोग में उत्थान होगा तो वे इसे स्वीकार करने लगेंगे। एक बार जब चिकित्सकों को वास्तविक ज्ञान हो जाएगा तो, आप हैरान होंगे कि रोग निदान के लिए रोगी की हत्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपनी अँगुलियों के सिरों पर आप जञान जायेंगे कि मामला क्या है, केवल आप ही नहीं कोई भी कठिन है। यहाँ तो न केवल महाराष्ट्र में यह कार्य चिकित्सक अपितु सरकारी कर्मचारी भी संकुचित विचारों के हैं वे एक भी अवसर देने को तैयार नहीं हैं तथा इस सब को व्यर्थ समझते हैं। कुछ डाक्टर तो स्नातक (MBBS) होने के बावजूद बहुत । भी खाली घूम रहे हैं और हमारे विरोध में गुटबन्दी कर रहे हैं और हमें परेशान करने के प्रयास करते रहते हैं कोई यदि अच्छा कार्य आपके देश में हो रहा है तो क्यों न उदारतापूर्वक हो जाता है। जो बात है। सहजयोग में व्यक्ति प्राय: सुहृदय लोग ईसा मसीह को मानते हैं, वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि किस प्रकार ईसा ने 21 लोगों को थोड़े से समय में ठीक कर लिया। उन्होंने उनकी कुण्डलिनी जागृत की परन्तु इस बात का उल्लेख बाईबल में नहीं है क्योंकि बाईबल स्वयं ईसा मसीह ने नहीं लिखी। इसी प्रकार मोहम्मद साहब ने भी कुरान नहीं लिखी । आशय यही है कि जब तक आप स्वयं को नहीं जानते, परमात्मा को नहीं जान सकते। उन सब लोगों ने एक ही बात कही है परन्तु दुर्भाग्यवश कोई भी पुस्तक स्वयं नहीं लिखी। इसीलिए समस्यायें तथा उलझनें हैं। परन्तु अब वह समय आ गया है जब बहुत से लोग सामूहिक रूप से रोग मुक्त होकर पूर्णतः प्रसन्न व आनन्दमय स्थिति में सर्वशक्तिमान परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। परमात्मा के विषय में वैज्ञानिकों से बात करना तो सिर दर्द करना है। एक वैज्ञानिक होने के नाते आपको यह अवश्य जानना है कि परमात्मा है अथवा नहीं। यदि आप परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते, तो आप बहुत परन्तु जो कुछ भी उन्होंने कहा है, उसका चैतन्य लहरी जाएगा। इस बात का मुझे विशेष ध्यान है क्योंकि पेसा एक ऐसी वस्तु है जिसका लोभ बढ़ता ही जाता है। मैंने तो यहाँ तक देखा है कि अवैज्ञानिक हैं। इसीलिए आप सब को बहुत विनम्रता से परमात्मा के अस्तित्व को वैज्ञानिक ढंग से जानने का प्रयत्न करना चाहिए। डा० राय बहुत उदार मस्तिष्क व्यक्ति हैं। उन्होंने सारे विश्व में भ्रमण कर इस क्षेत्र में कार्य किया है तथा विश्व के बहुत से चिकित्सकों ने उनके दृष्टिकोण को स्वीकार किया हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि धीरे -धीरे यह कार्यान्वित्त हो जाएगा। बहुत कुछ सनकी लोग अपने घरों की दीवारों को कागज के रुपयों (Currency Note) से बनाना चाहते हैं। मेरा विश्वास है कि चिकित्सक आदर्शवादी होते हैं और इस दृष्टिकोण से देखते हुए हमें गरीब लोगों की देखभाल करनी है। यह सहज विज्ञान आपके लिए पूर्ण निःशुल्क है। आप इसे एक महीने में ही प्राप्त कर सकते हैं। चिकित्सा विज्ञान पढने के लिए आपको 7 वर्ष तक परिश्रम करना पड़ता है। चिकित्सक वर्ग को इस ज्ञान के जानने से विशेष लाभ होगा क्योकि वे लोग इसे भली प्रकार से ग्रहण कर सकते हैं वे देखेंगे कि यह योग पूर्णतः वैज्ञानिक है और बहुत सुन्दर ढंग से क्रियान्वित हो रहा है। चिकित्सक वर्ग स्वयं भी आश्चर्यवकित है। में तो इस ज्ञान को बहुत मानती हूँ। डाक्टर साहब ने इसे परा-विज्ान (Metascinence) की संज्ञा दी है। सहज विज्ञान तर्कसंगत रुप से इसका वर्णन कर सकता है। परन्तु विज्ञान तो इस पूर्णत्व को अपने में नहीं समेट सकता। विज्ञान एक ऐसा छोटा सा प्याला है जिसमें ज्ञान के समुद्र को नहीं भरा जा सकता। अत: जो वैज्ञानिक लोग विज्ञान को बहुत महान मानते हैं उन्हें देश के इस वैभव को समझने का प्रयास करना चाहिए। हमारा देश वास्तव में एक निर्धन देश है। सहजयोग में आपको पैसा लेने की आवश्यकता नहीं है। सब कार्य आपकी अपनी शक्तियों के द्वारा हो जाता है और इस प्रकार आप गरीब लोगों की सहायता कर सकते हैं यद्यपि कुछ धनी लोग भी आपके पास आ जाते हैं तो उनके बारे में अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे भी आप की परवाह नहीं करते, वे लोग केवल चिकित्सकों पर ही भरोसा करते हैं । इसीलिए आप उन्हें ठीक कर सकते हैं। हमारे लिए सब से अधिक महत्वपूर्ण है मध्यम तथा निम्न मध्यमवर्गीय लोग, जो अस्पतालों के स्वचे वहन नहीं कर सकते। इस अस्पताल में तीन हाल कमरों वाला एक प्रभाग ऐसे लोगों की सहायतार्थ रख दिया है, जो लोग खर्चे वहन नहीं कर सकते। यदि वे लोग यहाँ आकर ठहरते हैं, तो उन्हें इसके लिए ठहरने के स्थान का किराया देना होगा, जो कि अधिक नहीं है हमें उन चिकित्सकों तथा सम्बद्ध परिचारिकाओं आदि को भी वेतन आदि देना पड़ता है। यह शोध केन्द्र पूर्णतया बिना लाभ के उद्देश्य से चलाया परमात्मा आपको आशीर्वादित करे। वाई, पी. ओ सम्मेलन में व्यापारियों की अन्तर्राष्ट्रीय सभा के सम्मुख सम्मर परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण ओबराय होटल-मुम्बई 27.2.96 है और इस प्रकार धीरे -धीरे अह का विकास होता है। हटाये जाने पर बच्चा माँ से संघर्ष करने लगता है, तब माँ उसे ऐसा न करने को कहती है, तथा इस प्रकार बंधन आरम्भ होते हैं। आपको सत्य को वैसा ही जानना है, जैसे यह है। आप इसका परिवर्तन या रूपान्तरण नहीं कर सकते। मन मिथ्या है, परन्तु मस्तिष्क नहीं है। मानव मस्तिष्क कुछ विशिष्ट है, समपार्श्व (Prism) की भाति कुछ आधुनिक। पशुओं में ऐसा नहीं होता। मानव में दिव्य शक्ति मस्तिष्क से प्रवेश करती है और उसकी किरणें भिन्न दिशाओं में फैल जाती हैं। पहली सीधे अन्दर जाती है, दूसरी बायीं ओर पडते जाती है और दायीं ओर पड़ने वाली बायीं ओर चली जाती है। इस प्रकार दोनों किरणें मस्तिष्क से परिणामस्वरूप गुजरती हैं। परन्तु इनका कुछ अंश हमारा अनुकम्पी नाड़ी तंत्र खींच लेता है और उसका बाहर जाने वाला अंश हमारे चित्त का निर्माण करता है। जब हमारा चित्त किसी अन्य चीज से मानव-सम प्रतिक्रिया करता है-उदाहरणार्थ माँ जब बच्चे को स्तनपान कराती है तो बच्चा अत्यन्त शांत तथा प्रसन्न होता है परन्तु जब मा बच्च की एक ओर से दूसरी ओर ले जाती है तो बच्चे को चुनौती मिलती मस्तिष्क में दो प्रकार के गुब्बारे विकसित होते हैं-अह और बन्धन । एक भविष्य से आता है और दूसरा भूतकाल ये दोनों गुव्बारे हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रियाएँ हैं। ये दोनों ही विचारों के माध्यम से हमारे मन का निर्माण करते हैं। इस प्रकार हमारा मन इन विचारों के बुलबुले के परिणाम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। मन के साम्राज्य में रहते हुए हम बहुत विश्वस्त होते हैं जबकि वास्तव में विचार हमारे बाह्य चित्त की प्रतिक्रियाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और ये प्रतिक्रिया वास्तविकता नहीं है। से । हुए दायीं ओर चली व्यापार में हमें सबसे अधिक आवश्यकता शुद्ध चेतना की होती है। मान लीजिए आप अपना धन कहीं लगाते हैं और कल उसकी पूर्ण हानि हो जाती है यह तो एक अंश मात्र है। मान चेतन्य लहरी लो कार खरीदने के लिए आप पैसा बचाना चाहते हैं। जब आप कार खरीदते हैं तो आप सन्तुष्ट नहीं होते। फिर आप एक और कार खरीदना चाहते हैं और इस प्रकार आप एक चीज से दूसरी की ओर बढ़ते चले जाते हैं और जिस चीज को प्राप्त करने के लिए आपने इतना कठोर परिश्रम किया होता है उसका आनन्द नहीं ले पाते। अर्थशास्त्र का नियम है कि आमतौर पर इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। अत: स्वयं को सन्तुष्ट करने के लिए जो भी प्रयास हम कर रहे हैं इससे हमें संतोष प्राप्त नहीं होता और यही कारण है कि इर समय हमारा मस्तिष्क परेशान रहता है। पर हैं। रीढ़ की हड्डी निचले भाग में एक त्रिकोणाकार अस्थि है जिसे अंग्रेजी में सेक़म (Sacrum) कहा जाता है। यह एक में एक संग्रहालयाध्यक्ष (Curaior) से पूछा कि आप इसे 'सैक्रम' क्यों कहते हैं, तो उन्होंने पूछा कि क्या आप नहीं जानते कि यह एक पवित्र अस्थि है। उसने यह भी बताया कि उन्हें यह ज्ञान भारतीयों द्वारा प्राप्त हुआ कि यह पवित्र अस्थि है। इसी अस्थि के भीतर वह शक्ति होती है। जिसे हम कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डल का अर्थ है छल्ला और यह एक स्त्री सुलभ शक्ति है जो हमें दूसरा जन्म प्रदान करती है। यह वास्तव में आपकी माँ है, आपकी अपनी व्यक्तिगत माँ जो आपके विषय में सभी कुछ जानती है। यह आपके भूतकाल को जानती है, आपकी आकांक्षाओं को जानती है। परन्तु ये आपकी माँ है; और माँ होने के कारण बिना कोई कष्ट दिए यह आपको जन्म देती है। कुण्डलिनी जागरण के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है कि जब कुण्डलिनी जागृत मैने यूनानी शब्द है। जब मेंने यूनान आज में बहुत प्रसन्न हूँ क्योंकि मैं पाश्चात्य मानसिकता के लोगों से बात कर रही हूँ। मेरा पाश्चात्य मानसिकता से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और मैं हैरान हूँ कि किस प्रकार ये लोग मन से परे की चीज खोजने में लगे हैं। ये सत्य को जानना चाहते हैं, तथा जीवन में सन्तोष और शान्ति पाना चाहते हैं । सभी प्रकार की समस्या हमारे विचारों से उत्पन्न होती हैं। तनाव प्रथम एवं सर्वोपरि समस्या है। पूरे पाश्चात्य विश्व में लोग भयानक तनाव से पीड़ित हैं और समाधान मस्तिष्क से ऊपर उठने में है। यह समाधान तो यहाँ हजारों वर्षों पूर्व से विद्यमान है। मैं जब कीव गई तो ये जान कर आश्चर्यचकित थी कि ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व भी वे त्रिकोणाकार अस्थि में स्थित इस शक्ति के विषय में बात करते थे मैंने जब उनसे पूछा कि वे किस प्रकार इसके विषय में जानते हैं तो उन्होंने भारत के कुछ सन्तों के नाम मुझे बताए जो वहाँ गए थे। मैें आश्चर्यचकित थी कि इतने लम्बे समय के पश्चात भी उन्हें ये सब बाते याद थीं। उनके पास से चित्र तथा उदाहरण हैं जिनके कारण वे इतना कुछ हुए होती है तो यह होता है, वह होता है आदि। परन्तु कुण्डेलिनी जागृति के बाद किसी के भी साथ कुछ गलत घटित होते नहीं देखा। यदि कोई इस के साथ जबरदस्ती करता है तो हो भी संकता है क्योकि यह हमारे विकास की जीवन्त प्रक्रिया है। जब तक हम इसको प्राप्त नहीं कर लेते हम शान्त व सन्तुष्ट नहीं हो सकते। हमें यह विश्वास प्रक्रिया, जो कि हमारी चेतना में एक छोटा सा भेदन मात्र है, को प्राप्त करना है। इसका हमारे व्यवसाय से क्या सम्बन्ध है? जब हमारी चेतना मस्तिष्क तक ही सीमित होती है, जो कि वस्तुओं के प्रति प्रक्रिया मात्र है, हम सोचने और योजनायें बनाने लगते हैं। तब क्या होता है? इसका प्रभाव चहूँ ओर पड़ता है, विशेष रूप से हमारे व्यवसाय पर। उदाहरणार्थ, में देखती हूँ कि भारत आने वाले लोग हमारी यहाँ बनी बस्तुओं का आयात करना चाहते हैं। उन्हें भारत के विषय में ज्ञान नहीं होता कि भारत में वहाँ क्या बहुत जानते हैं। हमारा देश बहुत से पैगम्बरों से आशीर्वादित है तथा महान सन्तों ने इसका पथ प्रदर्शन किया है। परन्तु बहुत से आक्रमणकारियों ने हम पर आकरमण किए और तीन सौ साल के बर्तानवी शासनकाल में हमने अपना बहुत सा वैभव खो दिया। आत्मज्ञान भी हमारी खोई हुई सम्पदा में से एक है। चीन के लोग भी यह जानते हैं कि भारत में आत्मज्ञान रूपी खजाना है। जब हम कहते हैं कि यह मेरा हाथ है, यह मेरा नाक है, यह मेरा शरीर है आदि आदि तो हमें 'मेरा' कहने वाले को खोजना चाहिए। ईसा ने भी इसके विषय में बात की और कहा कि अपनी आत्मा को जाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। कितना स्पष्ट शब्दों में लिखा है। परन्तु ईसा ने बाईबल नहीं लिखी, मोहम्मद साहब ने कुरान नहीं लिखी, मोजिज ने पुराना टेस्टामैन्ट नहीं लिखा। अत: कुछ चीजों को चुनौती दी जा सकती है। परन्तु हमें मात्र इतना जानना है कि हम अभी तक स्वयं को नहीं जानते। एक बार जब नम्रतापूर्वक हम इस बात को स्वीकार कर लेते हैं तो चीजें बेहतर कार्यान्वित होने लगती हैं तथा हमारी जिज्ञासा का दृष्टिकोण विनम्र हो जाता है। बनता है तथा किस वस्तु की उनके देश में माँग रहेगी और किस वस्तु का वे निर्माण करवा सकते हैं। गुजरात का व्यापारी एक बहुत बड़ी कम्पनी शुरू करना चाहता था मैंने कहा कर लीजिए। परन्तु श्रमिकों की व्यवस्था कैसे होगी। क्या आपने यह व्यवस्था कर ली है। जैसे ही उसकी कम्पनी शुरू हुई उस में बड़ी हड़ताल हो गई। यह हड़ताल लगभग एक वर्ष चली। बहुत अब वह परेशान हो गया कि किस प्रकार उन श्रमिकों को जो कि शराबी व दीवालिया हो चुके थे, वापिस काम पर बुलाए। ऐसे समय में कुछ भी नहीं सूझता। मैंने उसे समझाया कि तुम महाराष्ट्र में कार्य शुरू करो तथा पहले उसमें श्री गणेश का एक मंदिर बनाओ। यहाँ सब लोग गणेश जी के भक्त हैं और उन्हें लगेगा कि तथा कार्य का शुभारम्भ हो गया। मैंने उन्हें यह भी बताया कि दिवाली के दिन श्रमिकों के घरों में जाकर उनके शुभ गृहस्थ की तुम भी उनमें से एक हो। वे सब उद्घाटन पर आए हमारे सात चक्र होते हैं जिसमें से छः हमारे मध्य नाडी तंत्र मंगल कामना करो तथा कुछ उपहार स्वरूप दे कर आओ। ऐसी चैतन्य लहरी यहाँ की रीति है। उसने ऐसा ही किया। उसका अधिक खर्च नहीं हुआ और आज वह अपने व्यवसाय में बहुत सफल व्यक्ति है। अब यह मेरी केवल एक सलाह है। इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। यह एक घटना है और आधुनिक काल, जिसे मैं बसन्त का समय, अन्तिम निर्णय कहती हैं, में इसे घटित होना है। कुरान में इसे कयामा कहा गया है- पुनरुत्थान का समय। ऐसा कहा गया है कि पुनरुत्थान के समय आप के हाथ बोलेंगे। और यह घटित हो रहा है। आप इन चक्रों को अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर अनुभव करते हैं। अपनी अंगुलियों के सिरों पर आप इन चक्रों को अनुभव करते हैं। आप अपने विषय में जान सकते हैं। जब आप उन चक्रों का उपयोग करते हैं तो ये आपको आपकी स्थिति के विषय में आप की अपनी चेतना को विस्तृत होकर दिव्य बनना है। इसके लिए आप को कुछ भी त्याग नहीं करना पड़ेगा और न ही आप को यह सोचना पड़ेगा कि यह अन्धविश्वास है क्योंकि सब कुछ आप के अन्दर घटित होता है और आप हो जागृत में जाते हैं। एक बार जागृत होने पर, आप की चेतना बहुत परिवर्तन आते हैं। पहले आप की चेतना स्पष्ट नहीं थी। हो बताते हैं के आप और आप के चक्र कैसे हैं। इन चक्रों में यदि सकता है अनुभव के आधार पर आप बहुत कुछ जान जाएँ। मैंने देखा है, जो व्यापार में बहुत निपुण होते हैं, वो कोई बाधा हो तो या तो आपको शारीरिक, मानसिक कष्ट हो जाता है या भावनात्मक। परन्तु अचानक बूढ़े हो जाते हैं अथवा अचानक किसी चीज से परेशान हो जाते हैं भलें ही इसका धन से कोई सम्बन्ध न हो। वे कालान्तर में मरियल से प्रतीत होने लगते हैं। इसका कारण यह है, कि वे हर समय पैसे के बारे में सोचते रहते हैं। कुण्डलिनी जागरण के बाद, यह शक्ति आप के छः चक्रों से उठती हुई निकलती है और हमारे ब्रह्मरंध को भेदती हुई बाहर आती है। यही हमारी दीक्षा का वास्तवीकरण है। किसी पादरी अथवा पंडित का हमारे सिर पर हाथ रख कर यह कहना नहीं कि आप दीक्षित हो गए। जब कुंडलिनी शक्ति का मिलन परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति से होता है तो आप इसे अपनी अँगुलियों के पोरों पर महसूस कर सकते हैं। यह परम चैतन्य की शीत लहरी है। आप इस परम चैतन्य को महसूस कर सकते हैं। भले ही आप इसे कोई भी नाम दें परन्तु यही परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापक है, जो कि सभी सुन्दर कार्य कर रही है। आपकी शक्ति सीमित है और उससे आप बेहद परिश्रम कर रहे हैं। आप को अपार शक्ति प्राप्त करनी होगी। यह अपार शक्ति यदि दिव्य-शक्ति है तो यह प्रेम, ज्ञान तथा आनन्द की शक्ति है। उस शक्ति से एकाकार हो कर आप अत्यन्त शक्तिशाली करुणामय बन जाते हैं और आप कभी थकते नहीं। उदाहरणार्थ में इस समय 73 वर्ष की हो चुकी हूँ आप मेरी शक्ति देखिए। मैं पूरे विश्व में भ्रमण करती हूँ। लोग मुझ से कहते हैं कि माँ आप थकती ही नहीं हैं! क्योंकि मै कभी नहीं सोचती कि मैं यात्रा कर रही हूँ। मुझे लगता है कि मैं सोफे पर बैठी हूँ। मस्तिष्क से ऊपर उठ कर ही आप वह शान्ति तथा परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति से एकाकारिता प्राप्त कर सकते है। यह दिव्य प्रेम सर्वप्रथम आपको सुन्दर स्वास्थ्य प्रदान करता है। भविष्य के विषय में बहुत अधिक सोचने से आपके दूसरे चक्र, स्वाधिष्ठान, पर दुष्प्रभाव पड़ता है और फलस्वरूप आपको से रोग हो सकते हैं। चिकित्सा विज्ञान में शारीरिक पहलू अह्र सुन्दर फूलों को जब आप देखते हैं तो बिना उनके विषय में सोचे आप उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। यह एक चमत्कार है। यदि आप अपने मनोवैज्ञानिक चिकित्सक से पछें कि हृदय को कौन चलाता है तो वह कहेगा यह कार्य स्वचालित नाड़ी प्रणाली करती है। परन्तु यह 'स्व' क्या है इसके बारे में हम कभी भी जानने की चेष्टा नहीं करते कि किस प्रकार धरती माँ के गर्भ से बीज अंकुरित होता है। क्योंकि बीज में अंकरित होने की शक्ति है और माँ में उस अंकुरण प्रकिया में सहायता करने की बहुत से इसकी अभिव्यक्ति महा धमनी चक्र (Aortic Plexus) के रूप में की गई है परन्तु यह चक्र अन्य स्तरों पर भी कार्य करता है। मै नहीं जानती कि चिकित्सा विज्ञान में लोग उसे स्वीकार करते है या नहीं, परन्तु मस्तिष्क जब सोचता है तो भूरे रंग के कोषाणुओं को शक्ति पहुँचाना इस चक्र का महान कार्य है। आपके जिगर, अग्नाशय, प्लीहा, गुर्दे तथा आतों की देखभाल भी इसी चक्र को करनी होती है। यदि आप हर समय सोचते रहते हैं और भविष्य की योजनाएं बनाते रहते हैं तो यह बेचारा चक्र आपके महत्वपूर्ण अवयवों की देखभाल नहीं कर पाता। तो कौन से अवयव की उपेक्षा होती है? सर्वप्रथम आपके जिगर की। शरीर में संचित गर्मी रूपी विष को नाड़ियों के माध्यम से बाहर फेंकना जिगर का कार्य है। परन्तु जब यह चक्र जिगर की देखभाल नहीं कर पाता तो जिगर अपना कार्य करने में असफल हो जाता है और गर्मी एकत्र हो जाती है। यह गर्मी जब ऊपर की ओर उठती है तो फेफड़ों की देखभाल करने वाले आपके हृदय चक्र को प्रभावित करती है और फलस्वरूप आपको अस्थमा (दमा) रोग भी हो सकता है। जिगर से यह गर्मी यदि क्षमता है। इसी प्रकार इस ज्ञान का सूक्ष्म वैभव आप में भी निहित है, परन्तु आप उसके विषय में नहीं जानते। जब कुण्डलिनी उठती है तो आपके शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक तथा अध्यात्मिक स्वास्थ्य के जिम्मेदार छः चक्रों को ज्योतिर्मय करती है। विकास प्रक्रिया में हम एक स्थान पर खड़े हैं जहां इस उच्चतर चेतना की ओर उड़ान भर सकते हैं। मेरी बतायी गई बात को आप बिना सोचे समझे स्वीकार न करें क्योंकि अन्धविश्वास ने हमारे लिए बहुत सी समस्याएं खड़ी की हैं। इसके विषय में कोई अन्धविश्वास नहीं होना चाहिए। उसका वास्तवीकरण होना चाहिए बिना इसे अनुभव किए आपको ४ चैतन्य लहरी 10 अग्नायशय की ओर चली जाए तो अग्नाशय खराब हो जाता है जो हृदय-घात होता है वह अधिक घातक हृदय-घात होता और व्यक्ति को एक आम रोग मधुमेह हो सकता है। भारत में है। गावों में कार्य करने वाले लोगों को मधुमेह नहीं होता क्योंकि न तो उनका कोई बीमा होता है और न वे अपने भविष्य के विषय में चिन्तित होते हैं। जो कुछ भी वे कमाते हैं रखर्च कर डालते हैं और सदा सन्तुष्ट व निश्चिंत रहते हैं ये लोग इतनी चीनी का सेवन करते हैं कि इनकी चाय में पड़ी चीनी में चुम्मच भी देखें, यदि यह मेन से जुड़ा हुआ नहीं है, तो यह अर्थहीन है। सीधा खडा हो सकता है। जो लोग मेज पर कार्य करते हैं उन्हें इसी प्रकार पाश्चात्य देशों के लोग भी खोए हुए हैं। शुरु- शुरु में ही मधुमेह होता है क्योंकि उनकी सारी शक्ति अग्नाशय के मेरी बहुत से हिप्पी लोगों से मुलाकात हुई। मैंने उनसे पूछा कि स्थान पर मस्तिष्क में चली जाती है। आधुनिक जीवन उत्तेजना से परिपूर्ण है। अमेरिका में मैं कि हम प्राचीन समय के लोगों की भांति बनना चाहते हैं मैंने हैरान थी, लोग कार में अपने दांत साफ करते हैं। प्रातः काल आप समाचार पढ़ते हैं। ऐसा आपको नहीं करना चाहिए क्योंकि भयानक समाचारों को पढ़कर आप हड़बड़ा जाते हैं आप संवेदनशील व्यक्ति है तो आपके अन्दर हड़बड़ाहट की आदत सी बनने लगती है। इस आपात स्थिति में हर समय प्लीहा को लाल रक्त कोषाणु बनाने पड़ते हैं। प्लीहा को इस तरह का विक्षिप्त आचरण समझ नहीं आता कि यह व्यक्ति इतना उत्तेजित क्यों हैं। प्रात काल समाचार पत्र पढ़ने के बाद आप (Uppies) रोग कहते हैं। इस बीमारी में व्यक्ति रेंगने वाले जीव अपने दफ्तर दौड़ते है, कार में आप नाश्ता करते हैं। दफ्तर जाकर आप अपने अफसर को चिल्लाते हुए पाते हैं या आपको हाथों और पैरों को होशोहवास में नहीं चला सकते। क्योंकि आप पता चलता है कि कम्पनी को घाटा हो गया है। इन सब बातों लोग अभी नौजवान हैं इसलिए मैं आपको सचेत कर रही हूँ कि जो लोग बहुत अधिक परिश्रम का कार्य करते हैं. उन्हें समझना चाहिए कि उन्हें अधिक ऊर्जता की आवश्यकता होती है ताकि वे स्वस्थ रह सकें। यह तभी संभव है जब आप अपने मुख्य स्त्रोतं (Moin) से जुड़े रहें। अब आप यह माइक्रोफोन ही वे अपने बालों को इस प्रकार से क्यों बढ़ा रहे हैं? उन्होंने कहा उन्हें कहा कि आपके साथ यह संभव नहीं है क्योंकि आपके अन्दर आधुनिक मस्तिष्क है। समस्या का बाह्यज्ञान समाधान नहीं है । और यदि । अंतिम समस्या जो आप को हो सकती है वह है दायीं ओर का पक्षाघात। प्रकृति ही इससे आपको छुटकारा दिला सकती है और सबसे बुरी बात जो मैंने देखी है, वह यह है कि आप का चेतन मस्तिष्क संकटावस्था में चला जाता है। इसे 'युष्पीज़' की भाति हो जाता है। मस्तिष्क ठीक रहता है परन्तु वह अपने का कुप्रभाव आप पर पड़ रहा है और आपमें भयानक हड़बड़ाहट है। आपात स्थिति में आपके लिए कार्य करने वाला आपका प्लीहा खराब हो जाता है तथा रक्त केंसर नामक भयानक रोग का आरम्भ होता है। अब आंतड़ियों को लें। आंतडियों के चिपक जाने से व्यक्ति को भयानक किस्म की कब्ज हो जाती है। स्विटजरलैण्ड में मै यह देख कर हैरान थी कि वे कब्ज दूर करने के लिए डबल रोटी में कार्क (बेलूत वृक्ष) के बीज खाते है । भारत में हम यह बीज भेसों की कब्ज दूर करने के लिए देते हैं पूछने पर उन्होंने बताया कि यह बीज कब्ज के लिए बहुत अच्छे हैं। भविष्य के विषय में बहुत अधिक सोचने के कारण उन्हें यह भयानक रोग हो जाता है। यदि आप को अपने जीवन का आनन्द लेना है तो आप मुख्य द्रोत से जुड़ जायें, शक्ति के मुख्य स्रोत, इस सर्वव्यापी शक्ति से जुड़ जायें जो विद्यमान है, और जिसे आप अनुभव कर सकते हैं। यह सर्वव्यापी शक्ति आप को प्रेम करती है तथा आप पूरा जीवन इसका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और चकित रह जाते हैं कि किस प्रकार सभी कार्य हो रहे हैं परन्तु इस के लिए सर्वप्रथम आपके अन्दर पूर्ण आत्मविश्वास का होना आवश्यक है और यह जानना भी आवश्यक है कि आपका मानव रूप में जन्म किसी उद्देश्य से हुआ है। आपका मानव जन्म बिना किसी मंजिल को प्राप्त किए इधर-उधर पैसा व्यर्थ करने के लिए नहीं हुआ। पूर्ण आनन्द की प्राप्ति के लिए आपको इस शक्ति से जुड़ना पड़ेगा। जब तक आपकी चेतना विस्तृत नहीं होती आप सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर सकते। अब आप मान लीजिए कि एक 25 वर्ष का नौजवान लड़का है जो कि टैनिस भी खेलता है और बहुत शराब पीता हो, तो उसका जिगर कार्य करना बन्द कर देगा और जब गर्मी और ऊपर की ओर (अर्थात हृदय की ओर) बढ़ेगी तो उसे घातक हृदय धात (Mossive Heart Aftock) हो जाएगा जो कि प्राणलेवा हो सकता है। यह हृदय घात बाद में भी हो सकता है और वह व्यक्ति संघातक हृदय-घात से मर सकता हृदय-घात प्रगतिशीलता की प्रक्रिया में हम मानव चेतना के स्तर तक पहुँच चुके हैं और अब आपको इस नई चेतना में छलांग लगानी है जिसके द्वारा हमें न केवल अंश का, अपितु पूर्णत्व का ज्ञान होता है। आप भविष्य के विषय में जान जाते हैं और आपका चित्त इसकी ओर चला जाता है। आप लहरों में फँसे व्यक्ति है। हुए नहीं है, अपित् आप बह व्यक्ति हैं जो स्वयं को जानता है और प्रेम से परिपूर्ण है इस दिव्य शक्ति के होते ही ऐसे लोग दो प्रकार का होता है। एक तो वह जो बहुत अधिक क्रियाशील व्यक्ति को होता है तथा दूसरा वह जो अकर्मण्य व्यक्ति को होता है जिसे एन्जाईना (Angina) कहते हैं। परन्तु व्यापार से जागृत भी महान वक्ता बन गए जो पहले बोल भी नहीं सकते थे। चैतन्य लहरी सकते हैं। मुझे आशा है कि आप लोग इसे आजमायेंगे। यद्यपि मुझे मालूम है कि आप लोग बहुत समृद्ध व्यक्ति हैं और ईसा मसीह ने कहा है कि आप लोग परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते, परन्तु है कि सहजयोग में बहुत से लोग आए और न केवल बाह्य रूप से अपितु आन्तरिक रूप से भी हो गए। आप अपने गुणों का तथा अपनी उदारता का आनन्द उठायें और अन्ततः इस आनन्द के सागर में कुद पड़ें। भारतवर्ष में बहुत से ऐसे कलाकार हैं जो आत्मज्ञान पाने के पश्चात अपने क्षेत्र में महान हो गए| व्यापार में भी आपकी सृजनात्मकता बढ़ जाती है। पूर्णतः को समझते हुए आप अपने व अपने परिवार की सहायता करते हैं। आप सत्य को अपने हाथों की उंगलियों के पोरों पर जाँच सकते हैं। मैं ऐसा नहीं मानती, क्योंकि मैंने देखा समृद्ध समृद्ध अपनी आत्मा के प्रकाश में आपको सत्य व असत्य का ज्ञान हो जाता है। आपकी चेतना ज्योतिर्मय हो जाती है और सभी व्यर्थ की चीजों को आप छोड़ देते हैं। हमें अपनी कमजोरियों, अपनी सफलताओं व अपनी सामर्थ्य के प्रति अपनी हो परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें । आँवें खोलनी हैं तभी आनन्द को प्राप्त करके आप सन्तुष्ट शिव पूजा 3 मार्च 1996 सिडनी परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) हमारे अन्दर श्री शिव, सदाशिव का प्रतिबिम्ब है सदाशिव आदिशक्ति की लीला को देखने वाले सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं। वे अपनी सृष्टि की हर रचना को देखने वाले पिता हैं । आदिशक्ति को उनका अवलम्ब पूर्णतः शक्तिप्रद है। उनके मस्तिष्क में आदिशक्ति के सामर्थ्य के विषय में कोई सन्देह नहीं परन्तु जब भी वे संसार के लोगों को आदिशक्ति के कार्य को बिगाड़ते हुए पाते हैं तो उन्हें भयानक क्रोध आ जाता है और वे ऐसे लोगों का और कभी-कभी तो पूरे विश्व का विध्वंस कर देते हैं। एक ओर तो वे क्रुद्ध मुद्रा में हैं और दूसरी ओर करुणा एवं आनन्द के सागर हैं। यही कारण है कि जब वे हमारे अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित होते हैं तो हमें आत्मसाक्षात्कार मिल जाता है, हमें आत्म-प्रकाश प्राप्त हो जाता है और हम आनन्द के सागर में प्रवेश कर जाते हैं। बीतने के साथ-साथ आज अध्यात्मिकता के इतिहास में एक महान खोज की गई है कि लोग सामूहिकता में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। हजारों लोग एक साथ साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। अब हमें यह समझना चाहिए कि आत्मसाक्षात्कार है क्या? इसका अर्थ क्या है? इसका सर्वोच्च शिखर बिन्दु क्या है? सर्वप्रथम तो जिस मन, के विषय में हम बातचीत करते हैं। ओर जिस पर हम निर्भर हैं, मिथ्या है। मन जैसी कोई चीज नहीं। मस्तिष्क वास्तविकता है मन नहीं। बाहर की चीजों के प्रति प्रतिक्रिया करते हुए हमने मन की सृष्टि की है। हम या तो अपने बन्धनों के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं या अपने अहम् के प्रति। इस प्रकार वास्तविकता के सागर पर बुलबुलों की तरह इस मन की सृष्टि होती है। परन्तु यह वास्तविकता नहीं है। मन वे ज्ञान के सागर हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के पश्चात् से जो भी निर्णय हम लेते हैं, हम जानते हैं कि वे अति सीमित होते हैं, भ्रातिजनक होते हैं और कभी-कभी तो दहला देने वाले अति सूक्ष्म है और हर अणु-रेणु में व्याप्त है। इस ज्ञान की भी होते हैं। मन सदा एक रेखीय दिशा में चलता है और क्योंकि शक्ति विद्यमान है। सदाशिव की कार्यशैली ऐसी है कि अपनी इसमें बास्तविकता का पूर्ण अभाव होता है यह पलट कर वापिस आता है और उसी व्यक्ति को हानि पहुँचाता है। अत: ऐसा लगता है कि अब तक जो भी उद्यम एवम् प्रक्षेपण हमने किए उनका आशीर्वाद पा कर लोग आदिशक्ति के भक्तों को कष्ट हैं वे पलट कर हमें ही प्रभावित करते हैं। जो भी कुछ हम खोजते हैं चह पलट कर एक बड़ी विध्वंसक शक्ति या बहुत बड़े आघात के रूप में हम पर आता है। व्यक्ति को निर्णय करना है कि वह क्या करे नन के इस शिकंजे से किस प्रकार परमात्मा का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है। परमात्मा का ज्ञान करुणावश वे अपने प्रति समर्पित अत्याचारी राक्षसों को भी क्षमा कर देते हैं। उनकी करुणा असीम है और कभी-कभी तो देने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु यह सब तो केवल एक नाटक की सृष्टि के लिए है। बिना नाटक की सृष्टि किए लोग इस बात को न समझ पायेंगे। इस शैली के फलस्वरूप रामायण, महाभारत बनी, ईसा का क्रूसारोपण हुआ तथा मोहम्मद को यातनायें दी गई। यह नाटक सदा विद्यमान था परन्तु लोग इसे याद नहीं रखते। अध्यात्मिक जीवन में मानव ने आदिशक्ति के आशीर्वादों और शक्तियों के बीच बहुत सा नाटक देखा है। समय छुटकारा पाए ? कुण्डलिनी इसका समाधान है। जागृत होकर यह आपको मन से परे ले जाती है। मन से आप बहुत से कार्य करते हैं। परन्तु यह सन्तोषप्रद नहीं होते। इनसे कोई समाधान न होगा चैतन्य लहरी 12 और न ही कोई सहायता मिलेगी। मन पर जब हम बहुत सहज है। परन्तु उस स्थिति को बनाये ररखना कठिन है। अभी अधिक निर्भर होने लगते हैं तो हममें सभी प्रकार की शारीरिक, तक भी हम प्रतिक्रिया करते हैं और सोचते हैं किसी भी चीज मानसिक और भावनात्मक समस्यायें खड़ी हो जाती हैं । इनमें को देख कर आप प्रतिक्रिया करते हैं। निर्विचार समाधि के उस आधुनिकतम है 'तनाव'। लोग कहते हैं कि तनाव का कोई बिन्दु तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम आपको अपना चित्त समाधान नहीं है। परन्तु सहजयोग में मन से ऊपर जा कर हम समाधान पा लेते हैं। हमारी उन्नति के मार्ग में यह अवरोध (रुकावट) सम है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने पर यह समझ लेना आवश्यक होता है कि आपकी कुण्डलिनी आपको मन से परे ले गई है। मानव मस्तिष्क या खोपड़ी समपार्श्व (Prism like) होने के कारण बाह्य चीजों के प्रति प्रतिक्रिया करता है। ऊर्जा जब इसमें से गुजरती है तो यह दो या कई दिशाओं में ओर देखते हुए मैंने देखा कि बहुत सुन्दर हाथी संगमरमर में खुदे (bifurcotions or refracions) जाती है जिसके कारण हमारा चित्त बाहर की ओर चला जाता है और हम प्रतिक्रिया करते हैं । हम यदि बहुत अधिक प्रतिक्रिया करते हैं तो ये निकल रही है, आप हाथियों की पूँछों के बारे में कैसे सोच बुलबुले एक अति भयानक मन की सृष्टि करते हैं जो व्यक्ति सकती हैं? उनके चित्त की दिशा थकान से परिवर्तित करने के को किसी भी दिशा में ले जा सकता है। यह स्वयं को न्यायोचित लिए मैंने उन्हें कहा कि क्यों न हाथियों की पूँछों को देखा ठहराता है और आपके अहं को बढ़ावा देता है। मन की सृष्टि जाए। करने वाले ये अहम् और बन्धन मन्द -मन्द बहने लगते हैं और एकत्रित हुए वास्तविकता रहित अनेक विचारों आदि की सन्तुष्टि तो सर्वप्रथम आपको अपने चित्त की दिशा को परिवर्तित करना के लिए मन कार्य करने लगता है। यह उसी प्रकार है जैसे हम कम्प्यूटर बनाते हैं और अन्ततः कम्प्यूटर के दास बन जाते हैं। हम स्वयं घड़ियाँ बनाते हैं और फिर घड़ी के दास बन जाते हैं। परिवर्तित करना होगा। उदाहरणार्थ नामक मंदिर देखने के लिए ऊँची पहाडी चढ़ाई चढ़ रहे थे। इतनी सीढ़ियाँ चढ़ के हम बास्तव के थक गए परन्तु जब ऊपर पहुँचे तो संगमरमर का एक अति सुन्दर मण्डप बना हुआ था जहाँ हम लेट गए। ये लोग थक गए थे और वह कह रहे. थे कि इस मंदिर में ऐसी क्या विशेषता है! जबकि ऊपर की एक बार हम पलिताना थे। हुए थे और मैंने अपने दामाद से कहा कि सभी हाथियों की भिन्न प्रकार की पूँछे हैं। वह कहने लगा मम्मी, हम सब की जान हर समय जब आप अपना चित्त बाहा वस्तुओं पर डालते हैं। होगा उदाहरणार्थ - आप यह सुन्दर वस्तुएँ देखते हैं केवल उनके सौन्दर्य का आनन्द लेने का प्रयत्न करें। यहाँ पर सुन्दर कालीन हैं बस बिना सोचे इन्हें देखें। ये आपके नहीं हैं इसलिए कोई सिरदर्दी नहीं है। यदि यह आपके होते तो आप सोचते, हे परमात्मा, मैं यह कालीन यहाँ बिछा रहा हूँ, क्या होगा ?' यह सामान्य मानवीय प्रतिक्रिया है। परन्तु यदि ये आपके न हों तो आप चैन से इन्हें देख सकते हैं। अब आप बिना सोचे इन्हें देखें तो इनमें अन्तःनिहित सौन्दर्य को देख कर अपने आनन्द को इसमें भर देने वाले कलाकार को आप देखेंगे कि वह कितना सम्पन्न है। आप आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि आत्मसाक्षात्कार इस प्रकार यह मानव पर हावी हो जाता है। हिटलर की तरह से मन वाला व्यक्ति किस फ्रकार दृढ़ मन से विनाश करने का निर्णय लेता है! किसी विचार विशेष के अन्न्तगत वह विध्वंस किए चला जाता है जिसके कारण हमारी संस्कृति, हमारी अध्यात्मिकता पर गहन प्रभाव पड़ते हैं। पहला वरदान निर्विचार-चैतन होना है, वह स्थिति जहाँ आप अपने मन को पार कर जाते हैं। आप अपने मन से ऊपर चले जाते हैं और मन आपको प्रभावित नहीं कर सकता यह प्रथम अवस्था है जिसे हम निर्विचार समाधि कहते हैं। दूसरी स्थिति वह है जिसमें आप परम चैतन्य, इस सारी सर्वव्यापक शक्ति, के कार्यों को देखने लगते हैं और आपको यह बात समझ आने लगती है कि श्री माताजी जो कहती है उसमें काफी सत्य है तथा यह शक्ति बहुत सी चीजें कार्यान्वित्त करती है। चमत्कारिक रूप से यह आपके लिए बहुत से कार्य कर देती है। आपको आशीर्वादित करती है, आपका पथ-प्रदर्शन करती है तथा आपकी सहायता करती है। बहुत सी विधियों से यह आपकी सहायता करती है... करती है, वैभवशाली बनाती है और बहुत सुन्दर सामूहिक लोगों का अति सुन्दर समाज आपको प्रदान करती है। जो कुछ भी आप स्पष्ट देख सकते हैं वह यहां घटित हो रहा है। के पश्चात् आपको अपने अन्दर यह सम्पन्नता महसूस होगी और कुण्डलिनी उठेगी तथा आप निर्विचार समाधि में सुस्थित हो जायेंगे। चुने गए व्यक्ति की तरफ देखें उसकी ओर देखना मात्र ही उसे आशीर्वाद देता है, और उसे बेहतर विचार प्रदान करता है। आप भी विचार प्राप्त करते हैं जो वास्तविकता से |, ६ आते हैं। किस प्रकार इस व्यक्ति को सफल व्यक्ति बनाया जाए या किस प्रकार देश को सफल प्रजातन्त्र बनाया जाए। आलोचना तथा प्रतिक्रिया से जब आपका चित्त दूसरी दिशा को चला जाता है तब यह घटित होता है साक्षी बनें। हर चीज को साक्षी रूप से देखने का प्रयास करें। इसका अभ्यास नहीं किया जाता। मैंने देखा है कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् भी हम यह महसूस नहीं करते कि हमें हर चीज को साक्षी भाव से देखना है जब आप आत्मा के माध्यम से साक्षी रूप होकर देखने लगते हैं तो आपको दूसरों की खामियां नहीं दिखाई देतीं, उनकी अच्छाईयाँ दिखाई देती हैं। अच्छाईयों से परिपूर्ण आपको अच्छा स्वास्थ्य प्रदान निर्विचार समाधि प्राप्ति की घटना अत्यन्त साधारण एवं चैतन्य लहरी 13 हत्या की थी और अब इजराईल में एक बहुत बड़ा ध्यान केन्द्र आरम्भ हो गया है कल्पना कीजिए एक बार उस स्थिति को प्राप्त कर लेने पर ये लोग अकेले ही भिन्न देशों में चले जाते हैं। उन्होंने कितना अधिक कार्य किया है। टर्की में तथा साऊथ अफ्रीका जैसे दूरस्थ स्थानों में भी ऐसा हुआ है। निर्विचार समाधि से निर्विकल्प समाधि में उन्नत होकर वे पूर्णतः विश्वस्त हो जाते हैं। ध्यान स्थिति से एक बार जब आपका उत्थान होने लगता है तो आपका चित्त भी ज्योतिर्मय हो जाता है। व्यक्ति को आप चुनते हैं। एक बार जब आप इस प्रकार देखने लगते हैं तो साक्षी अवस्था का विकास होता है और तब आप दूसरे व्यक्ति का आनन्द लेने लगतें हैं। आप हर चीज का आनन्द लेने लगते हैं। घास के एक छोटे से पत्ते का भी आनन्द ले सकते हैं। इसी आधार पर जैन प्रणाली शुरु हुई और विदित्मा ने काई से एक बाग की सृष्टि की जिसमें भिन्न किस्म की काई और छोटे-छोटे फूल होगा जो प्रश्न चिन्ह के आकार का प्रतीत होता है। पहाड़ की चोटी पर उस मंच तक पहुँचने के लिए आपको लिफ्ट से जाना पडता है। वह इतनी चमत्कारिक रचना है कि उसको देखते ही आपके विचार शान्त हो जाते हैं। परमात्मा की सृष्टि पर भी जब आप अपना चित्त डालते हैं तो आपके विचार रुक जाते हैं। किस चीज से आपके विचार रुकते हैं और क्या चीज आपको साक्षी बनाती है? इसे खोजने का आप अवश्य अभ्यास करें। एक बार जब यह आदत बना लेंगे तो आप भली-भाति निर्विचार समाधि में स्वयं को सुस्थित कर पायेंगे, तब आप केवल देखेंगे कि किस प्रकार सहजयोग ने आपकी सहायता की, यह आपके लिए कितना आशीर्वाददायी बना और सहजयोग के माध्यम से आपने क्या प्राप्त किया। परम चैतन्य को जब आप हर जगह देखने लगेंगे तो आप इसकी कार्यशैली को देवकर हैरान हो जायेंगे। भी थे मुश्किल से पाँच फुट का बाग अब हमारे सम्मुख जो कार्य है वह है चित्त को अग्रसर करना। इसका केवल आनन्दमात्र लेना नहीं, इसे अग्रसर करना और इसका उचित उपयोग करना। मान लो राष्ट्रीय स्तर पर आपको कोई समस्या है तो आप सामूहिक रूप से इस पर चित्त डालें और सब ठीक हो जाएगा, क्योंकि आप परमात्मा की उस सर्वव्यापक शक्ति के माध्यम हैं जो आपके लिए, नये मानव के लिए एक नये विश्व की सृष्टि करने का प्रयास कर रही है। यदि आप सब लोग निर्णय कर लें कि अपनी अन्तस्थित शक्ति को आपने प्रेरित करना है, इसको दिशा देनी है तथा इस चित्त का उपयोग करना है तो यह विकास बहुत जल्दी घटित हो जाएगा। हमारा यह वैभव व्यर्थ नहीं होना चाहिए। आज जो मुख्य प्रश्न हमारे सम्मुख है वह है कि परमात्म - साक्षात्कार क्या है? सर्वप्रथम आत्मसाक्षात्कार हैं परन्तु इसके पश्चात् बहुत से महत्वाकांक्षी लोग परमात्म-साक्षात्कार को पा लेना चाहते हैं। पहली और मुख्यतम बात जो हमें बैठे अब कृत युग के कारण यह परम चैतन्य गतिशील हो उठा है। मेरे चहूँ ओर विद्यमान चैतन्य लहरियों से, चैतन्य लहरियों से परिपूर्ण मेरे बहुत से चित्रों से, आप देख सकते हैं कि परम चैतन्य किस प्रकार लीला कर रहा है। आपने मेरे सम्मुख बहुत से सहजयोगियों के फोटो भी देखें हैं जिनके सिर पर अरबी भाषा में मेरा नाम लिखा हुआ है। भिन्न विधियों से आपने देखा है और आप यह जान सकते हैं कि परमात्मा की लीला चल रही है| े समझनी है वह यह है कि मानव परमात्मा नहीं बन सकता। एक प्रकार से आप आत्मा भी नहीं बने हैं क्योंकि आत्मा आपके माध्यम से प्रसारित हो रही है आपको उपयोग कर रही है, आपको दे रही है और आपकी देखभाल कर रही है। यदि आप परन्तु अब भी मस्तिष्क कुछ न कुछ कहने का प्रयास करेगा। उसकी बात न सुनें। केवल देखें। स्वयं अपने पर और अपने शरीर पर सहजयोग के प्रभाव देखें इसके विषय में सोचे नहीं, इसे केवल देखें और आप आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि आप किस प्रकार परिवर्तित हो गए हैं। आत्मा बन जायेंगे तो कोई भी शेष न रहेगा। तो इस शरीर के रहते इसी के माध्यम से आत्मा कार्य कर रही है और हुए आपको पूर्ण प्रकाश प्रदान कर रही है। परन्तु व्यक्ति सर्वशक्तिमान परमात्मा नहीं बन सकता। यह बात आपको स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। परमात्मा के विषय में जानना ही परमात्म-साक्षात्कार यही साक्षी अवस्था आपको एक अन्य साम्राज्य (उच्चावस्था) है। परमात्मा की कार्यशैली को समझना और सर्वशक्तिमान परमात्मा का अंग-प्रत्यंग बनकर यह समझ लेना कि वह किस प्रकार सब कुछ नियन्त्रित करता है, यही परमात्मा का ज्ञान है। जैसे मेरी अँगुली मेरे मस्तिष्क के विषय में नहीं जानती परन्तु यह मेरे मस्तिष्क के इच्छानुसार कार्य करती है। अँगुली मस्तिष्क नहीं बन सकती परन्तु इसे पूरी तरह से मेरे मस्तिष्क के अनुसार कार्य करना पड़ता है क्योंकि यह मस्तिष्क से इतनी जुड़ी हुई है। मस्तिष्क से इसकी इतनी मुक्त हो जाते हैं। तब आप महान सहजी की तरह खड़े हो एकाकारिता है। जब आपको परमात्म-साक्षात्कार हो जाता जाते हैं जो आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है। हाल ही में मैंने है, आप मस्तिष्क के विषय में जान जाते हैं तो आप परमात्मा को जान जाते हैं। आप उसकी शक्तियों के रहे हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि उनके पूर्वजों ने यहूदियों की विषय में सभी कुछ जान जाते हैं। जहां तक मेरा में ले जाएगी जिसे हम निर्विकल्प चेतना कहते हैं। इस अवस्था में आप इतने सशक्त हो सकते हैं कि आप अन्य लोगों को साक्षात्कार दे सकते हैं; आप सहजयोग का पूरा ज्ञान दे सकते हैं, लोगों से बात कर सकते हैं और चैंतन्य भी प्रसारित कर सकते हैं। आपकी सम्पूर्ण अध्यात्मिक स्थिति अति आनन्दमय हो जाती है, आप अत्यन्त शक्तिशली, करुणामय, प्रेममय, सन्तुलित तथा विनाशकारी एवम् कष्टदायी विचारों से पूर्णतः सुना है कि कुछ जर्मन और आस्ट्रीयन सहजयोगी इजराईल जा चैंतन्य लहरी 14 सम्बन्ध है मुझे समझ पाना आप लोगों के लिए कठिन कार्य है क्योंकि मैं महामाया हूँ। मेरे विषय में सब कुछ जान पाना आपके लिए बहुत कठिन है। मैं अत्यन्त भ्रांतिजनक, व्यक्ति हूँ और आपको समझ लेना चाहिए कि आखिरकार ये आदिशक्ति हैं। ये सभी कुछ कर सकती हैं। आप भी सभी कुछ कर सकते हैं, परन्तु आप जैसे नहीं बन सकते। आपको प्रेम के माध्यम से, उनके आशीर्वाद तथा आपके प्रति प्रेम के कारण आप ऐसा कर सकते हैं। आप परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर चुके हैं मैं कह सकती हूँ कि आपने परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करके वह स्थिति पा ली है। परन्तु अभी तक आप उस स्थिति में नहीं हैं। जैसे यदि मैं किसी को कहूँ कि आप आस्ट्रेलिया में हैं, आस्ट्रेलिया में नहीं है फिर भी में कह सकती हूँ कि आप आस्ट्रेलिया में हैं। वह विश्वास कर लेता है कि वह आस्ट्रेलिया वह मुझ भक्ति के माध्यम से और प्रार्थना के माध्यम से परमात्मा में है। यह तरीका नहीं है। आपको आस्ट्रेलिया में होना होगा, की शक्तियों को समझना है और इसी प्रकार आप आस्ट्रेलिया के विषय में जानना होगा कि वहाँ किस प्रकार की परमात्म-आत्मसाक्षात्मारी हो सकते हैं। तब आप प्रकृति को तथा अन्य सभी चीजों को नियन्त्रित कर सकते हैं। परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पूर्ण नम्रता का होना भी यह गुण स्वयं में विकसित करना होगा अर्थात आपको पूर्णतः आवश्यक है। आप देवी-देवता नहीं बन सकते। परन्तु निश्चय ही आप परमात्म-आत्मसाक्षात्कारी बन सकते हैं अर्थात परमात्मा आपके माध्यम से कार्य करता है, अपनी शक्ति के रूप में कि पेड का रस ऊपर को उठत्ता है, पेड के भिन्न अवयवों में आपका उपयोग करता है, आपको अपना माध्यम बनाता है, आप यह जान जाते हैं कि परमात्मा आपके साथ क्या कर रहे हैं आपको क्या बता रहे हैं तथा उनकी इच्छा तथा सूचना क्या है। इस प्रकार का सम्बन्ध बन जाता है। सहजयोग में बहुत विशेष से सम्बन्धित है, इन कारणों से यदि आप लिप्त हैं तो लोग लाभान्वित हुए हैं। परन्तु वे नहीं जानते कि यह कैसे हुआ। किसने और कैसे यह सब घटित किया। उनके कौन से सम्बन्ध ने उनकी सहायता की। एक बार जब आप स्पष्ट रूप से समझ जाते हैं कि, किस प्रकार चीजें कार्यान्वित में नहीं रह सकते। निर्विचार समाधि की अवस्था अति सुन्दर है। हो रही हैं तथा आपको कौन सी शक्तिया प्राप्त हो गई हैं तो यह परमात्म- आत्मसाक्षात्कार है। ऐसे लोग अत्यन्त शक्तिशाली हो जाते हैं क्योंकि वे बहुत सारी चीजों को होते हैं। आप अपनी टांगों पर खड़े होते हैं और अच्छी तरह से कार्यान्वित कर सकते हैं। इस प्रकार के हैं। परन्तु कभी-कभी अहंकार बढ़ जाने के कारण उनका पतन भी हो जाता है। ऐसा उनमें नम्रता, श्रद्धा, भक्ति और फिर अपनी उड़ान को प्राप्त करना आपका कार्य बन जाता है। समर्पण के अभाव के कारण होता है। उनका पतन हो जाता है क्योंकि अपनी उपलब्धियों पर उन्हें गर्व हो जाता है और किसी अन्य से वे इन्हें बाँटना नहीं चाहते। वे सोचते हैं कि बडी कठिनाई से उन्होंने यह उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं तो क्यों इन्हें अन्य लोगों को दिया जाए। ऐसे लोग बहुत अधिक बुलंदियों को न पा सकेंगे। परन्तु आप लोग, जिन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो है। चुका है, जो विनम्र हैं और जानते हैं कि केवल विनम्रता द्वारा ही आपको समर्पण प्राप्त हो सकता है, यह स्थिति प्राप्त कर जलवायु है तथा वह कैसा स्थान है । शिव के बहुत से गुणों में से 'पूर्ण निर्लिप्सा' एक है, आपको निर्लिप्त होना होगा निर्लिप्सा का यह अर्थ नहीं है कि आप किसी चीज की उपेक्षा करें। बहुत बार मैंने आपको बताया है से होता हुआ या तो वाष्पीकृत हो जाता है या पृथ्वी माँ में वापस चला जाता है। आपकी निर्लिप्सा भी ऐसी होनी चाहिए। यह आपका बेटा है, वह आस्ट्रेलियाई है या किसी परिवार या वर्ग अभी तक आप सीमित हैं। इनसे ऊपर उठने कै लिए आपको यह सीमाएं त्यागनी होंगी। यह सीमाएं इतना अधिक बोझ बना देती हैं कि फिर हम जो भी प्रयास करते रहें निर्विचार समाधि आपको इस अवस्था में होना चाहिए। इस स्थिति में न तो आप प्रभुत्व जमा रहे होते हैं और न ही किसी से समझौता कर रहे. हो चुके से जानते हैं कि किसी विचार, किसी प्रभुत्व या दबाव से आप संचालित नहीं हैं। तो आप पूर्णतः स्वतन्त्र पक्षी हो जाते हैं। बहुत सन्त 1. एक उड़ान निर्विचार समाधि तक है, दूसरी निर्विकल्प समाधि तक और तीसरी परमात्म-साक्षात्कार तक। मैने देखा है कि मेरे बहुत समीप रहने वाले लोग भी नहीं समझते। वो इस तरह से बर्ताव करते हैं मानो देवता बन गए हों वह इतने अहम्वादी हैं कि मैं उन पर आश्चर्यचकित हूँ। अन्ततः उन्हें सहजयोग छोड़ना पड़ता ह मैं चाहे आपकी बहुत अधिक प्रशंसा कर, आपके विषय में सकते हैं। इस्लाम का अर्थ है समर्पण। मोहम्मद साहब ने बहुत कुछ कहूँ आपको फूल कर कुप्पा नहीं हो जाना चाहिए। यह परीक्षा स्थल है यदि मैं आपसे कहूँ कि यह ठीक नहीं है, इसका सुधार करो तो भी आपको बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि मुझे यह कार्य करना है, यह मेरा कार्य है और आपका कार्य मेरी बात को सुनना है क्योंकि मुझे आपसे कोई लाभ नहीं उठाना। मैं आपसे कुछ नहीं मांगती। मैं केवल इतना चाहती हूँ कि आपको मेरी सारी शक्तियाँ प्राप्त हो जाऐं। जो मैं हूँ, वो जो आप नहीं बन सकते, परन्तु कृपया मेरी शक्तयों को तो लेने का इस्लाम के विषय में बात की अर्थात उन्होंने कहा कि समर्पित हो जाईये। बिना समर्पित हुए आप कभी भी परमात्मा को नहीं जान सकते। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि स्वयं को जाने बिना आप परमात्मा को नहीं जान पायेंगे। सहजयोगियों के रूप में आपकी सभी छोटी-बड़ी चीजों तथा सभी महान स्वप्नों को जानना होगा परमात्मा की कृपा चैतन्य लहरी 15 प्रयास करें। मेरी शक्तियाँ प्राप्त कर लेना कठिन कार्य नहीं है। यही परमात्म-साक्षात्कार है। यही शिव और सदाशिव का ज्ञान पाना है। शिव के माध्यम से आप सदाशिव को समझते हैं। आप प्रतिबिम्ब को देखते हैं और प्रतिबिम्ब से समझते हैं कि प्रतिबिम्बक कौन है ? प्रतिबिम्ब से आप सीखते हैं। इस प्रकार आप उस स्थिति में पहुँच जाते हैं जहाँ आप सोचते हैं कि निश्चित रूप से आप परमात्मा के साम्राज्य में स्थापित हो गए हैं तथा परमात्मा को देख सकते हैं, परमात्मा को महसूस कर सकते हैं, उन्हें समझ सकते हैं तथा उन्हें प्रेम कर सकते हैं । परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। श्री गणेश पूजन-1987 -पुण्यनगरी परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन निराकार में जो ब्रह्म हैं, वह ही साकार में साक्षात श्रीगणेश हैं। अभी तक उसकी गहनता पर बहुत कम विचार किया गया है और उनके विषय में जो कुछ भी बताया गया वह सबने मान्य कर लिया, किन्तु उसका विवरण, विश्लेषण नहीं हो पाया। उसकी वजह यह है कि उस वक्त आप जैसे सहजयोगी नहीं थे, जो चैतन्य से प्लावित हैं, जो चैतन्य को जानते हैं और दिखाते हैं कि हम हैं। अब हर जगह जहां-जहां गणेश हैं- सूझ-बूझ सर्व-सामान्य जनता से बहुत ऊँची हैं। जैसे आपने यहाँ होगा कि तरह- तरह के गणेश हैं। किसी सूझ-बूझ का मतलब कभी-कभी तर्क और बुद्धि से समझा जाता है। यह जो संस्कारों से अपने अन्दर अंकित होता है, वही सूझ-बूझ होती है, ऐसी बात नहीं है। जो आत्मा की प्रेरणा से, उसके गणपति हैं। उसी प्रकार हर एक चक्रों में जो श्री गणेश आत्मा के ज्ञान से मनुष्य में एक अद्वितीय नया आयाम बना देती बैठे हुए हैं वह गणेश उस स्थान के उस चक़् के अनुसार हैं, उसी को सूझ-बूझ कहते हैं। कहा जाता है कि सूझ बूझ कार्यान्वित होते हैं मान लीजिए नाभि चक्र में श्री गणेश का देने वाले लोग श्रीगणेश हैं, सो कैसे? यह सूझ-बूझ हमें श्रीगणेश किस तरह देते हैं यह सहजयोगी बहुत आसानी से समझ सकते हैं, क्योंकि जिस वक्त आप 'पार' हो जाते हैं, से वह उसके फुंकार के साथ बहते हैं और जिस वक्त उनकी आपके अन्दर से चैतन्य की लहरियाँ बहने लग जाती हैं, तब आप केवल एक मात्र सत्य को जानते हैं, पूर्ण सत्य को जानते के हिस्से में एक तरह का स्पंदन सा मालूम होने लग जाता है हैं। यह श्रीगणेश की माया है। श्रीगणेश ही चैतन्यमय हो करके और यह जो स्पंदन आपको मालूम हो जाता है, इसी को लोग अंदर से बहते हैं और वही साकार होकर इस चैतन्य को बहाते 'पुरावाणी' कहते हैं। इस पारावाणी को आगे चल के दूसरी हैं। जिस वक्त आप किसी भी वस्तु, प्राणीमात्र या मनुष्य के चैतन्य को जानना चाहते हैं तब उसकी ओर हाथ बढाते ही तत््षण आप जान सकते हैं कि इस वस्तु में क्या दोष है, क्या गुण है या यह वस्तु स्वयंभु है या नहीं। इसका पूर्ण ज्ञान आपको बगैर, उनकी इजाजत के बगैर कुण्डलिनी उठने वाली नहीं है। हो सकता है, अगर आपकी वह स्थिति हो जाये। इस ज्ञान को देने वाले, इस सूझ-बूझ को देने वाले श्रीगणेश हैं क्योंकि वह ही चैतन्य बनकर हमारे अंदर से बहते हैं और जब वह चैतन्य बनकर हमारे अन्दर से बहते हैं तो उनको जो कुछ भी जानना है वह हम भी जान सकते हैं। वह हमारे ही नाड़ी तन्त्र पर जाना जा सकता है। हम भी पहचान सकते हैं कि यह चैतन्य द्वारा ज्ञात होने वाली जो कुछ भी बाते हैं वह बिलकुल सही हैं, पूर्ण ही उनको बताते हैं कि वह मनुष्य जागरण के योग्य नहीं ैं, हैं। उनमें ह्वैत नहीं है, उनमें कोई संशोधन करने वाली बात नहीं, बड़ी समझदारी पूर्वक आपस में वार्तालाप करके किसी समझौते पर पहुंचने की बात नहीं है, जो है सो यही है और जागृत करना ठीक नहीं। तो कुण्डलिनी माँ वहीं बैठी रहती है, इसके अलावा कुछ नहीं है। जब यह गणेश हमारे अन्दर जागृत होते हैं, तभी हमारे अन्दर से यह शक्ति बहना शुरू हो जाती है। अब आप कहेंगे कि "माँ कुंडलिनी तो उनकी माँ है और गणेश नीचे बैठे हैं तो यह किस प्रकार घटित होता है?" सात चक्रों में से श्री गणेश चैतन्य बहाकर अपना अस्तित्व हुए ज़िनकी सुना का नाम है उंब या गणपति, किसी का नाम कुछ और गणपति है। काम के अनुसार, उसके कमों के अनुसार कार्य के अनुसार स्थान है, तो नाभी चक्र में श्री गणेश शेष के मुँह से बहते हैं। शेष - नाग' जो की हमारे श्री विष्णु की शय्या हैं। उसके अन्दर चैतन्य फुकार शुरू हो जाती है तो आप देखते हैं कि आपके पेट वाणियों के नाम दिये गए है । लेकिन पारावाणी जो है, स्पंदन, वही श्री गणेश जी की कृपा है। तो हम सहजयोगियों के लिए गणेश जी बहुत ही महत्वपूर्ण आराध्य हैं गणेश जी के कहे इस मामले में कुण्डलिनी अपने बेटे की बात सुनती है। ऐसे तो माँ की बात बेटा हर मामले में सुनता है और आप जानते हैं कि श्री गणेश तो पूरी तरह से अपनी माँ को समर्पित है। वह तो अपने पिता को भी नहीं जानते, लेकिन यह जो कुंडलिनी हैं -यह उत्थान के समय श्री गणेश जी की बात सुनती है-क्योंकि मनुष्य के बारे में जो ज्ञान है बह श्री गणेश को है। श्री गणेश ज़िनमें वह भोलापन, सादगी नहीं है, जिसमें वह प्रेम नहीं है तथा जिसने बहुत दुष्ट काम किये हैं उसके लिए कुण्डलिनी और अगर किसी तरह से बेचारी को बड़ा प्रेम चढ़ ही आया और चैतन्य लहरी 16 नीला रंग वह पहनते हैं, और उनके साथ में सफेद रंग। उसकी बाकी चीजे-हाथ, पैर सफेद रंग के हैं। उसमें बहुत ही खूबी की बात यह है कि वह हमेशा सत्कर्मों में लगे रहते हैं, और शांतचित्त है। अगर श्री गणेश के गण शांत चित्त नहीं हो तो संसार सारा ही विध्वंस हो जाए। जितनी भी अपने यहां आजकल विध्वंसक शक्तियाँ चल रही है उनको रोकने वाले जो हैं वह श्री गणेश के गण है ऊपर तक आ भी गई तो फिर खिंच कर नीचे वह चढ़ गयी, आ गिरती है। तो श्री गणेश का कार्य अत्यन्त अचूक और अत्यन्त महत्वपूर्ण है और क्योंकि बह एकमात्र सत्य को ही जानते है वह असत्य पर चलने नहीं देता। इसीलिए उसके हाथ में एक फर्सा भी है। वका अब जो लोग गणेश तत्व को पहचानना चाहते हैं, और मन में उतारना चाहते हैं, परन्तु अपने को बड़े सन्यासी, ब्रह्मचारी आदि- आदि बना करके रहते हैं उनके अन्दर भी एक ऐसी असंतुलन वाली दशा आ जाती है कि जहाँ गणेश एक तरह से सो जाते हैं। 'एकागी' होकर गणेश के, आप जानते हैं कि, सात स्वरूप हैं और वह सात स्वरूप में न उतरने के कारण एक ही स्वरूप में बैठ जाते हैं। एक ही गणपति अगर पूना में रहें तो यहाँ तो कुछ आल्हाद और उल्हास ही नहीं आयेगा लोगों को मजा ही नहीं आयेगा, तो उनके तो सात प्रकार हैं उन्हीं सात गणपतियों को आपको जानना चाहिए और जब तक वह आपके कहीं भी आप देख लीजिए जहा युद्ध होता है, उसको खत्म करने का काम जो है वह श्री गणेश के गण जाकर करते हैं। अब में आपसे बात कह रही हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि आप पूरी तरह से उसको मान ही लीजिए। लेकिन है बात यही। अब आप अगर गण स्वरूप है, तो आप में शान्त चित्त होना बहुत जरूरी है। आप में क्रोध है तो आप गणेश के विरोध में जा रहे हैं । सिर्फ गणेश को अधिकार है कि अपना फर्सा चलाएं, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान की मूर्ति हैं और सूझ-बूझ के सोत हैं, लेकिन मानव को अधिकार नहीं है कि वह अपने क्रोध के वश हो जाए। कोध के लिए यदि आदमी क्रोध करता है तो वह अपने लिए ही करता है, क्योंकि उसको नुकसान ही होता है। बाद में वह पश्चाताप भी कर सकता है, अगर उसमें सवेदनशीलता हो तो। पर न तो संवेदनशील व्यक्ति यह कहता है कि मैं इसलिए नाराज हुआ, जैसे श्री गणेश कहते गणेश जी एक तरह से छूट जाते हैं। कार्तिकय का रूप आ है कि मैंने इसलिए युद्ध किया कि लोग माँ के खिलाफ बोल रहे जाता है। पिंगला नाड़ी पर चलने से ऐसे लोग बड़े करोधी हो जाते थे, ये हुआ वो हुआ, और मैं माँ की सेवा में हूँ। माँ की मैं रक्षा करता हूँ, मैं माँ को प्रेम करता हूँ। सबसे बड़ा रक्षण माँ का उनका मूल धर्म है। कोई चीज ज्यादा भड़क जाती है तो उसको है, 'आपसी प्रेम। जो गणों ने किया वह करना चाहिए। गणों में इतना आपसी प्रेम है, इतनी उनमें आपस में पहचान है। बारह साल की आयु के बच्चे के अनहद, बारह साल तक वहां बनते गणेश रख लीजिए वह चीज ठंडी हो जायेगी। किसी आदमी की हैं (मध्य हृदय) अनहद चक्र में रोग प्रतिकारक ( आन्टीबाडीज जो हृदय-चक्र के चारों तरफ फिरते रहते हैं और अगर वाहरी दीजिए तो उसका बुखार उतर जाएगा, लेकिन दायीं तरफ से शक्तियां वार करती हैं और यह जितने भी आन्टीबाडीज हैं वह वह चढ़ने लग जाते हैं तो यही नाभि-चक्र में जो शेषनाग है चारों तरफ अपने शरीर में फैलती हैं, और शरीर में फैल कर उसका सामना करते हैं और शान्तचित्त हैं। उस परकीय सत्ता और गर्मी के कारण उनके अन्दर गर्मी की तकलीफें तो होती को जानने की शक्ति ही उन गणों में रहती है, नहीं तो ये आपस में लड़ बैठे। अगर गण आपस में लड़ बैठे तो ऐसा गणों का समुच्चय जिस शरीर में होगा उसका क्या हाल होगा? जो गण सब एक ही कार्य के लिये नियुक्त हुए हैं, वह अगर आपस अमेरिका मे पता नहीं कि उसे अपनी ऐसी किसी धारणा से, में लड़ाई करने लग जायें तो इससे ऐसी तो कोई लड़ाई हो नहीं सकती। अगर समझ लीजिए हम लड़ रहे हैं अंग्रेजों के साथ और से एक वहां चीज बनाई है, जिसे स्मा्क कहते हैं। छोटे छोटे अंग्रेजों को छोड़ के आपस में मारना-पीटना शुरु कर दें तो अंग्रेज कहेंगे अच्छा हुआ, मरो। उन्होने यही किया । उन्होंनें यही किया कि आपस में लड़ो मरो। वही हम आज भी कर रहे हैं। अपने देश में पूरे समय यही चलता है कि इसको पीटो, उसको पीटो, उनको मारो, इनको मारो-यह सब चीज आती कहाँ से है? आती है उसी क़ोध से, और यह क्रोध आता है आपसी अन्दर जागृत नहीं होगें तो आप एक अजीब तरह की अपने लिए और दूसरों के लिये समस्या बन जाएंगे। अब जो लोग बहुत ज्यादा गणपति की सेवा करते रहे हैं और गणपित को ही मानते रहे हैं और ब्रह्माचर्य में लीन हैं, और विवाह भी नहीं किया और किसी स्त्री की ओर देखा भी नहीं आदि- आदि प्रकार के हैं-वह सीधे अपनी पिंगला नाड़ी पर चड़ते हैं। पिंगला नाड़ी पर चढ़ने से हैं। श्री गणेश सौम्य स्वरूप हैं। अत्यन्त सौम्य हैं। सौम्यता ही ठंडा करने के लिए श्री गणेश का उपयोग करते हैं। उनका तापमान 272 है। कोई चीज ज्यादा गर्म हो जाए वहां श्री तबियत ज्यादा बिगड़ जाए तो उसे श्री गणेश के हवाले कर मा उनका फुकार गर्म हो जाता है और ऐसे लोग गर्म हो जाते हैं ही हैं, पर सबसे ज्यादा उनमें बड़ा क्रोध आता है। लेकिन श्री गणेश के जितने हैं वह अत्यन्त ठंडे लोग हैं और वह ठंडे दिमाग से ही काम करते हैं। गुण है की या किसी कारण हो सकता कि मनन से या परमात्मा कृपा गण जैसे बनाए हुए हैं, बिलकुल वह गण हैं और उनकी सब हरकतें, तरीके, उनका सब कुछ व्यवहार गणों जैसा है और अब यह जिससे भी सोचकर बनाया गया हो, या जिसके भी दिमाग में बात आ गयी होगी, हो सकता है वह तो रियलाईज्ड सोल हो और उनके सब कपड़े नीले रंग के होते हैं। एकदम शुद्ध ऐसा चैतन्य लहरी 17 आ गया है। बड़ा भाईचारा, सब समझ गए कहाँ क्या करना है क्योंकि इसमें यह था कि हमेशा मिल कर काम करना, इतनी घर्षण से, आपसी घर्षण जब होता है तब क्रोध आता है। यह नहीं सोचते हैं कि हम सब गण हैं और एक ही कार्य के लिये उद्धत हैं, और इसका कोई मतलब ही नहीं बनता है कि हम आपस में लड़ रहे हैं। ऐसे गण होने से अच्छा हो कोई गण ही न हो। लेकिन गण आने से अगर लड़ाई हो जाये तो ऐसे गण एकाग्रता, इतना प्यार उनके अन्दर आ गया। आपस में इतनी पहचान आ गयी और जिसको हम "एकसूत्रता" कहते हैं। हो गयी, और पहले वह सब लड़ते रहते थे आपस में। मैं तंग आ गयी थी, और यहाँ उल्टी बता दें तब उसमें सत्रह फोटे सामहिंकता उनके अन्दर जागृत का क्या फायदा? और उस पर क्यों उसका भी बौद्धिक उत्तर निल जाता है कि हमने इसलिये किया, उसलिए किया, इस सब चीज को। जो भी सहजयोगी है उसका कार्य बड़ा क्षत-विक्षत हो जाता है। अब इसके अनेक तरीके होते हैं कि बम्बई वाले ऐसे हैं तो दिल्ली वाले ऐसे हैं तो फ्लान ऐसे हैं तो ढिकाने ऐसे हैं। में सुन-सुन करके, मुझे बड़ा आ्चर्य होता है कि जब सबकी मांग एक ही है तो कौन दिल्ली वाले और कौन बम्बई वाले ? और इस तरह की जब एक 'एकतानता आपके अन्दर नहीं आएगी तब तक हम लोग सहजयोगी नहीं हैं। यह एकतानता आने के लिए पहले अन्दर देखना है कि क्या हमारे अन्दर किसी के प्रति ईष्या है? आप दूसरों का आनन्द लेना नहीं जानते हैं? जो अपने अन्दर यह बना लिया है, यह विचार या यह अहंकार या जो इस तरह की चीजें जो कि आपके लिए शोभनीय नहीं हैं, उनके सहारे आप दूसरों पर बिगड़ पड़ते हैं जो कि आपके अपने हैं, जो आप ही के साथ हैं। यही हाथ इससे लडे तो उसे क्या कहा जाता। हालत, अगर एक काम किती को फूटेंगी। गणेशजी को अगर आपने अपने अन्दर जागृत कर लिया होगा और आप गण स्थिति में हैं तो जान लेना चाहिए कि आप सब एक सूत्र में बंधे हुए हैं। जिस वक्त ये रोग प्रतिकारक लड़ते हैं, शरीर में आने वाली किसी भी बीमारी के साथ लड़ते हैं। किसी भी परकीय सता से लड़ते हैं। समझ लीजिए कि जो आज यह हाथ में रोग प्रतिकारक हैं वह अगर कम पड़ गया तो फोरन दूसरी जगह से दौड़ के आ जायेंगे। पर ऐसा नहीं होता सहजयोगियों में। इसीलिए सहजयोग अभी तक एक सूत्र नहीं है। इसलिए अभी तक सहजयोग (पूरी तरह) से स्थापित नहीं हुआ है। आज देखते हैं कि श्री गणेश की स्थापना से, इस घट की स्थापना होती है कि नहीं। उसको होना है। अनेक पूजाएँ की हैं। सब कुछ हुआ पर अब भी जो सहजयोग सही माने एकसूत्र होना है हो नही पाया। जब तक वह पूरी तरह से नहीं बनेगा तब तक आप लोग इस गलतफहमी में न रहे कि आप सहजयोगी हैं। सूझ - बूझ का मतलब है प्रेम और यह प्रेम हमारे अन्दर जागृत करने वाले हैं श्री गणेश। श्री गणेश प्रेमस्वरूप हैं उन्होंने हमें प्रेम करना सिखाया। अब छोटी- छोटी बातों के लिए हम अपने बारे में बहुत सोचते हैं कि हमें यह चीज अच्छी लगी उसे वह चीज अच्छी लगी। फिर आप सहजयोगी नहीं हैं। अगर आपको हर आदमी की अलग-अलग चीज अच्छी लगती है तो आप सहजयोगी कैसे? सारे सहजयोगियों को एक ही चीज अच्छी लगती है, और अगर सारे सहजयोगियों ने कहा कि नहीं साब मुझे तो यह रंग अच्छा लगा, किसी ने कहा वह रंग अच्छा लगा, किसी ने कहा वह रंग अच्छा लगा, तो फिर वह सहजयोगी नहीं हैं, पर रंगों पर वैचित्र्य होना जरूरी है क्योंकि उससे सौन्दर्य बनता है। यह तो ठीक है कि सौन्दर्य होना चाहिए, लेकिन वह सौन्दर्य जो भी है वह पूरी तरह से एकाग्र होना चाहिए। संघटित होना चाहिए। जिसमें सामन्जस्य नहीं है उसमें एकाग्रता नहीं है, तो समझना चाहिए कि आप सहजयोगी नहीं हैं। अब जैसे कि हमने कहा कि यह लीडर आपका है, तो सब अपने- अपने लगाते हैं कि हम लीडर हैं, हम लीडर हैं। हमें माता जी ने कहा कि लीडर हो जाओ। अरे भाई, मैंने तो एक को कहा, सबके सामने कह दिया कि यह आदमी लीडर है। उसके कहने के मुताबिक आपको चलना ही पड़ेगा नहीं तो एकसूत्रता नहीं आने वाली। अगर आप उसके कहने के मुताबिक नहीं चलेंगे तो एकसूत्रता नहीं आएगी। फिर क्रोध आएगा, झगड़ा होगा, आप सहजयोग से हट जायेंगे। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सहजयोग से निकाले गए क्योकि उनको करोध आने लगा, आपस में झगड़े होने लगे, मारामारी होने लगी। चलो छोड़ो हटा लो इसे। तब जब एक आदमी को लीडर बना दिया हैं तब आपके जितने भी सेन्टर बनाए वहीं लीडर है, उसी को मानना चाहिए, वह जो कहेगा वह मानना ही पड़ेगा। इस क्रोध की वजह से आदमी दिमागी जमा खर्च कर देता है। वह यह है कि उसको संब चक़ मालूम हैं, उसको कुण्डलिनी मालम है, वह किताबें लिख सकता है, बोल सकता है, भाषण दे सकता है लेकिन हृदय में सहजयोग नहीं आया। वही एक सुर्वसाधारण आदमी होता है, हृदय से उसने सहजयोग जान लिया बस, मेरे काम का तो यही आदमी है, बेकार बाकी के सब जाओ। यह तो शब्द जालम का कितने बार वर्णन आदि अब जो लंदन में इन लोगों ने हमारे लिए एक मकान बनाया है। "शुडी कैम्प"। जहाँ सफाई हुई। बहुत बड़ा मकान है, उसको ठीक-ठाक किया सब सहजयोगियों ने। कई बाहर से आदमी नहीं, क्योंकि वह हमारा कोई प्राईवेट घर नहीं था। मैंने कहा ठीक है, जिसे बनाना है बनाओं, हमारे नाम से बनायेंगे-क्या आश्चर्य की बात यह है कि उसमें करने से सब में बड़ा प्रेम सा चैतन्य लहरी 18 क्रोध से मनुष्य का सारा सौष्ठव, उसकी जितनी भी महानता, उसका बड़प्पन, सब डूब जाता है। अपनी अलंकार है शांति, आपना अलंकार है नम्रता। नम्रता हो, कोई भी काम में जो आदमी नम्र होता है वही कामयाब होता है, और यह जो अभी तक आपने इतनी आततायी प्रवृत्ति जो देखी है कि दूसरों पर आप हावी हो जाओ, सिरों पर चढ़ जाओ-ये करिये इससे मनुष्य कभी भी आप पर श्रद्धा नहीं कर सकता। आज अगर डरपोक लोग आपके नीचे आ जायेंगे, एक ग्रुप बन जाएगा यह सहजयोगियों का। बाकी यह भी थोडे दिन शंकराचार्य ने किया है कि अरे भाई शब्द जालम में मत फंसो। आप देख रहे हैं हिटलर, उसने बुद्धि लड़ाई। बुद्धि के बूते पर यह चीज ठीक समझता हूँ। मैं इसे करुँगा ही ऐसी जिसने जिद पकड़ ली वह पता नहीं किस स्तर पर हो। बहुत से लोग कोधी थे सहजयोग में। वह भी एकदम ठडे होकर बढ़िया हो गए। आज सबसे बड़ी जरत अपने देश को, सारे विश्व को है ऐसे लोगों की जो ठंडे दिमाग के हों। चिढ़ने वाले, बिगड़ने वाले, गुस्सा करने वाले ऐसे लोगों को चाहिए कि समुद्र में जा के बैठे रहें और खुद की सफाई करके फिर आयें। शांत चित्त की जरूरत आज अपने संसार में है। जिसको देखो वह बंदूक लेके मार रहा है। अमेरिका में अब मैं गयी थी, रास्ते में बता रहे थे कि पिछले हफ्ते में यहाँ पर ग्यारह आदमियों की हो गयी। मैंने कहा कि कैसे हो गया यह ? कहने लगे में "भागो रे भैय्या" करके भाग जायेंगे। कौन मुफ्त मार खाने आएगा।? तो किसी से भी दुष्ट व्यवहार करना बहुत गलत को है। दूसरी बात सहजयोग में हमें समझनी चाहिए कि "रिश्तेदारी"। जैसी अपनी बहुएँ हैं, अपनी लड़कियाँ हैं, अपनी माँ है, आपको सबके प्रति नम्रता रखनी चाहिए। नम्रता मनुष्य का सबसे बड़ा सुन्दर सोजन्यशाली अलंकार है। इसी से शोभित होना है। जो मनुष्य विनम्र होता है, उसे लोग कहते हैं कि वह राजा है, और नहीं तो भिखारियों जैसी गालियाँ देने वाला, हमेशा चिल्लाने वाला, पिटने वाला उस आदमी को कौन मानेगा? और बहुत से लोगों के मन में प्रेम भी होता है, लेकिन वह भी बात करने में उसे प्रेम को कभी भी व्यक्त नहीं कर पाते। मृत्यु कि जो देखो वह बंदूक उठाके मार देता है, उनके पास बंदूके हैं। मैंने कहा, क्यों मारा ? "बस रास्ता नही दिया गाड़ी ने मार डाला।" जैसे कोई यह इन्सान को खुद ही बनाते हैं किसी को अधिकार नहीं है किसी को दुखवाने का, उसको हृदय में कोई कठिनाई की बात कहने का-सिवाय परमात्मा के। इस क्रोध के बारे में श्री कृष्ण ने बहुत ही ज्यादा कहा है, कि क्रोध को छोड़ो, क्रोध को छोड़ो। आप उनके लिए जान दे दीजिए, प्यार नहीं आएगा। कितना भी प्यार कर लीजिए, प्यार नही आएगा। क्रोध चढ़ जाता है। हों सकता है उनमें क्रोध माँ-बाप से आया हो, हो सकता है वह समाज से आया हो, हो सकता है खाने- पीने से आया हो, चाहे जिससे भी आया हो, क्रोध आपका दुश्मन है और सहजयोग का महान दुश्मन। इस क्रोध को आपको छोड़ना पड़ेगा, अगर आज श्री गणेश जी की पूजा तरह छोड़ दूँगा। क्रोध करना, किसी से वैर करना, किसी के साथ इस तरह दुष्ट व्यवहार करना सहजयोगियों के लिए बिल्कुल श्री गणेश ने भी इसी तरह कार्य किया। उन्होंने जो अपने सेनापति बनाए हैं, उस सेनापति को कोई नहीं कहेगा कि "तुम क्यों सेनापति बने हो। नम्रता होनी चाहिए, प्रेम होना चाहिए और उसका व्यवहार होना चाहिए। श्री गणेश का ही उदाहरण लीजिए कि वह एक चूहे पर बैठे हुए हैं। अब चूहे महाराज तो हर दफा इधर से उधर भागते रहते हैं। एक पाँव पर इतना बड़ा शरीर उसने कैसे तोल लिया है, और खुद ही एक सर्वसाधारण सवारी कर ली। लोग तो पता नही क्या-क्या दिखाने के लिए हाथी, घोड़े करनी है पहले निश्चय करो कि मैं क्ोध को किसी क्या- क्या रखते हैं। श्री गणेश की नम्रता ही हद है । क्या चाहिए गणेश को? बस, एक चूहा दे दिया काफी है। चूहे के साथ ही मैं मेरी माँ के प्रति प्रदक्षिणा कर लूँगा और दुनिया को जीत लँगा। कितना शुद्ध हृदय, कितना प्रेम से प्लावित है यह। अपनी फ्रेम की शक्ति से उन्होंने यह जाना कि सबसे बड़ी बात है कि अपनी माँ में ही उचित नहीं है। की प्रदक्षिणा करना चाहिए। और दूसरी चीज उनको यह जो अपनी सेना है, यह प्यार की, प्रेम की और शांति की सेना है शांति से हमें रहना है। एक बंधन में आप लोग लोगों को जीत सकते हैं। एक प्रार्थना से आप लोगों को ठिकाने लगा सकते हैं। तो क्रोध की क्या जरूरत है? इसका मतलब आपका सहजयोग पर विश्वास ही नहीं, अभी भी अपने पुराने तरीके लेकर चलते हैं। और क्रोधी आदमी जो होता है उसे भड़कने की इतनी आदत रहती है कि उससे दुनिया डरती है, आपने कहीं देखा है कि किसी का पुतला बना दिया है, "यह बड़ा क्रोधी था, इसीलिए इसका पुतला बनाया गया है।" पूजा ऐसी चीज है कि बिल्कुल ही जिनके दाम कम। जिसे हम केवडा कहते हैं वह फल सबसे सस्ता होता है, और दूसरा तृण यहाँ पर उसे "दुर्वा" कहते हैं। दुर्वा कहीं भी उगता है, गरीब से गरीब आदमी को भी दुर्वा मिल जाएगा और रईस से रईस आदमी को भी दुर्वा मिल जाएगा रईस को जमीन पर आना पड़ेगा और दुर्वा को ढूंढना पड़ेगा और रियासत जो है तबियत की। श्री गणेश खाते भी क्या हैं? सिर्फ उन्हें मोदक दे दीजिए, बस और कुछ नहीं। यह रियासत है, बड़प्पन है, एक शाही मन का मामला है एक चूहे पर चल दिए तो भी सारी दुनिया उनकी वन्दना करती है। चैतन्य लहरी 19 श्री गणेश छोटे बच्चे जैसे सबको खूब प्यार करते हैं अब आपको भी रोज सोचना चाहिए कि अगर हम गण हैं तो हमने कितनों को किया? यह जो आपके अन्दर आल्हाद और यह जो आपके अन्दर आनन्द आता है वह सब गणों की ही वजह से आता है, क्योंकि गण ही तो आपके हाथ से बह रहे हैं। आकाश से आप आ रहे हैं लेकिन आपको हाथों से बह रहे हैं। जहाँ भी जाते हैं आपकी चैतन्य लहरियाँ बहती हैं जो सब चीजों को शुद्ध करती हैं। शुद्ध करने का मतलब ही है कि आपने बहाँ श्री गणेश को शुद्ध कर दिया शुद्धि से सहजयोग जानना कोई काम का नहीं, हृदय से जानना चाहिए। जब आप हृदय से जानते हैं तो सारा विश्व अपने हृदय में समाया हुआ नजर आता है। अभिमान है यह मेरा घर है, मेरी जमीन है, मेरे बच्चे हैं और देशाभिमान नहीं हो तो ऐसा मनुष्य किस काम का? उसी प्रकार जिसको अभिमान है, हरेक चीज का कि "मेरे से ऐसा किया, उसने ऐसा क्यों किया, उसको मैं ठिकाने लगा दूँगा। वह अपने को क्या समझता है?" और जिस वक्त सहजयोग की बात आती है तब तो शरमाने लगे, और जब कोई आ भी जाए; सहजयोग में तो उसे दूषण लगाना कि "तेरे यह भूत है।" मतलब वही जो अपने अन्दर बात है स्वभाव में कि हर आदमी को ठिकाने लगाना, उस पर कब्जा करना, उसे आते ही कह देना कि तेरे में भूत है, तेरे में राक्षस है, तू खराब है, तू ऐसा है, तू वैसा है। अगर मैं ऐसा कर देती तो यहाँ एक भी व्यक्ति बैठा होता क्या ? खुश तो जो श्री गणेश का कार्य है उसके बराबर हम लोग कार्य कर रहे हैं। इधर नजर करे कि पहले तो जो आता है उससे प्रेम से बात करें, उसे मिठाई दें, उसे प्यार की बात कहें, उससे आपके चरित्र का-आपके नम्रता का असर हो पाएगा। नहीं तो ऐसे भी लोग देखें हैं जिनको किसी सहजयोगी ने पार कर दिया, पार होने के बाद वह जो पार हुआ, वह मुझे बताता है कि माँ जिसने मुझे पार किया वह इतना क्रोधी आदमी है मेरे समझ में नहीं आता है, यह सहजयोग कैसा है, उसको उसके प्रति श्रद्धा समाप्त हो गई। तो आज श्री गणेश की पूजा इस विशेष धरती पर इस पुण्यनगरी में हो रही है, तो यह पुण्य लगाने के लिए, जो पुण्यवान लोग मिलते हैं अत्यन्त नम्र होते हैं, या कोई ओट लेने आए तो बहुत नम्रता से आए, बाह्यता बैसा नहीं होता है। अंदरूनी नम्रता, एक तरह से एक नम्र भाव है, वही चाहिए हमारे अन्दर। और लोगों को कहना चाहिए "कितने नम्र हैं ।" और किसी-किसी मामले में जैसे कि बहुत से गुरु- घंटाल लोग हैं उनको कुछ भी मालूम नहीं। सहजयोग नही मालूम, चैतन्य नही मालूम; कुछ भी नही मालूम। कुछ भूत भी हैं, कुछ राक्षस भी हैं। वह अपने को बड़े गुरु समझते हैं। सहजयोग के मामले में तो हमारे सहजयोगी बहुत ही नम्र हैं। जहाँ नहीं होना है । माने अपनी बहन से भी नहीं बतायेंगे कि सहजयोग क्या चीज़ है, कि उसमें शरम आती है सहजयोग बनाने पर उनको, अपने भाई से भी नहीं बतायेंगे। एक साब मुझे मिले, मैंने कहा-"वह तो सहजयोगी हैं, आपके भाई"। अच्छा? मुझे तो पता ही नहीं वह सहजयोगी हैं।उसका गर्व नहीं है, जो श्री गणेश में वह गर्व है। वह गर्व है उसके अन्दर। इसीलिए वह सोचते हैं कि माँ का पुत्र हूँ। वह गर्व हमारे अन्दर नहीं आया। हम अपने सगे भाई से भी नहीं बतायेंगे कि सहजयोग क्या है। मेरी बात तो बाद में बताना, पर "सहजयोग है भाई, आओ सहजयोग में कहाँ जा रहे हैं?" जो आया उसे पहले सहजयोगी बनाओ। अगर यह बात है तो क्यों इस दुष्ट कोध को रखना, जिसके कारण कोई भी हमें पसंद नहीं करता। सब हमारे दुश्मन हो जाते हैं, तो ऐसे महा दुश्मन (क्रोध) को घर में रखने से क्या फायदा? श्री गणेश की प्रवृत्ति ठंडक पहुँचाती है। ठंडक सबको। ठंडा होना है। सौम्य, बहुत सौम्य जैसे "बुध", बुध को जो ग्रह है उसको माना जाता है कि वह बहुत ही सौम्य है, और उसको भी बध माना जाता है, बुध माने जाना हुआ। जिसने एक बार जान लिया। चन्द्रमा को हम लोग कहते हैं कि चन्द्रमा आत्मा की राज है क्योंकि वह सौम्य है। नम्रता-यह लक्षण है एक सहजयोगी का। जो लोग नम्र नहीं होंगे, और क्रोधी से क्रोधी होते जायेंगे सहजयोग से बाहर फेंके जायेंगे यह तो आप देखते हैं कि कितनों को फेंक दिया और इधर उधर के बेंकार लोग जो हैं, वह अपने को "हम इसके हाथ का पानी नही पियेंगे, हम फ्लाने, हम ढिकाने, हम फ्लाना व्रत करते हैं।" हमने तो (सहजयोगी ने) सारा धर्म ही अपने अन्दर जागृत कर लिया। हमारे अन्दर से तो धर्म बह रहा है। हमारे अन्दर से तो चैतन्य बह रहा है। हम स्वयं चैतन्यमय हो गए हैं। उनके बारे में तो हम बहुत नम्र हैं कि शरमाते हैं, सिवाए मेरे। सब लोग शरमाते हैं, मैं लेकिन सबको सुनाती हूँ। किसी को छोड़ा नहीं, और इसीलिए आप सबसे कहना है कि जहाँ नम्रता नहीं चाहिए, जहाँ उस चीज का गर्व चाहिए-जैसे कि मनुष्य है, उसको बाहर मुख्य कारण उनका 'क्रोध' है इतनी बार बताने पर भी लोग इसको नहीं समझते कि हमारे अन्दर जो क्रोध, जो हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है, उसको निकाल करके फेंक देना चाहिए। श्री गणेश के आशीर्वाद से ही यह होगा। उनकी पूजा में आज सबको शांत स्वरूप हो करके श्री गणेश की पूजा करनी चाहिए कि वह हमारे अन्दर भी शांति दें। इस उथल- पुथल आज के इस कलयुग में हमें बहुत जो पाना था आपने पा लिया, अब देने का समय आया है, अब देना चाहिए। में शांत होना है । 20 भ री तनोयंस पांसू तब चरण-पड़े रूह-भव विरिंचि: सचिन्वन् विश्चरयति लोका-नविकलम्। वहत्येनं शैरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां हरः संकुद्येन भजति भसितोद् -धुलन -विधिम्।। हे आदि शक्ति! आपके चरण कमलों से एक धूल कण चुन कर ब्रह्मा (सृष्टा) सतत दोपरहित ( असीम एवं रहस्यों से परिपूर्ण) ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और प्रतिपालक विष्णु शेष रूप में उस धूल के कण से रचित व्रह्माण्ड को जैसे-तैसे (अर्थात बड़े परिश्रम से) अपने सहस्त्र शिरों पर धारण करते हैं तथा संहारक हर (शिव) इी रज कण की भस्म बना कर अपने शरीर पर लगाते हैं। माँ आदिशक्ति की शक्ति के सम्मुख ब्रह्मा शेष (विष्णु का ही एक रूप) और शिव की शक्तियाँ तुच्छ हैं क्योंकि वे अनन्त ब्रह्माण्डों की स्वामिनी है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देवी की चरण कमलों की धूल का कण मात्र है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की महान शक्तियाँ उनकी विचार शक्ति का एक प्रतिबिम्ब मात्र हैं। ॐ त्वमेव साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देवी नमो नमः।। (आदि शंकराचार्य) सौन्दर्य लहरी ---------------------- 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड VIII अंक 9 व 10 Lि पुर जब भी आप में ये भावना जागे कि मैं जिम्मेदार हूँ दूसरे यह भी याद रखें कि बहुत सी अन्य शक्तियां भी हैं; आपके साथ बहुत से देवदूत और गण भी हैं। आप अकेले नहीं हैं। तो यह सोचना, कि केवल आप ही किसी (सहज) कार्य को कर रहे हैं, आपको अहंकारी बना सकता है। ऐसे समय पर आपको कहना है कि में कुछ नहीं कर रहा, परमात्मा (श्री माताजी) ही सभी कुछ कार्यान्वित कर रहे हैं।" तो याद रखें कि आप कार्यभारी नहीं हैं। परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी सहस्रार पूजा-96, कबेला राह 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-1.txt चौतन्य लाहरी ा विषय सूची पृष्ठ खण्ड VIII, अंक 9 व 10, 1996 भजन 1. भजन 2. वाशीवार्ता-19.2.96 3. 3. वाई. पी. ओ. सम्मेलन, मुम्बई-27.2.96 4. 8 शिव पूजा, सिडनी-3.3.96 5. 12 श्री गणेश पूजा, पुणे - 1987 6. 16 श्री पोगी नहाजन वम्ादक श्री विजय नालगिरकर मुद्रक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विहार, नई दिल्ली- 110 067 प्रिन्टेक फोटोटाईपसेटर्स, मुद्रित 4ए/1, ओल्ड राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली 110 060 फोन : 5710529, 5784866 चैतन्य लहरी ५ মে 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-2.txt भजन नं. भजन नं. मुरली सुखमन की बाज रही रे, राधिका दौड़ी आई रे विष्णुमाया चली नभ पार, कृष्णा गाने लगी। 2. कृष्णा मैया हो गया अवतार, धुन निरानन्द की, चेतन का गीत है, जग को बताने लगी। 2. आज हर आत्मा को, मिला मनमीत है, यही है परम प्रेम, बहना बन के वो कृष्ण की आई, भाई रक्षा की रीति चलाई, यशोदा की जाई, देवकी घर आई, यही परम प्रीत है, करवाया अपने पे वार, दुष्टों से टकराने लगी विष्णुमाया चली नभ अम्बर में धरती समाई रे, राधिका दौड़ी आई रे, मुरली सुखमन की बाज रही रे, पार सदेश वो लाती, गरज के शुभ कष्टों से योगी जन को बचाती, निर्दोषता के गीत गाती, स्वरों के बुन कर तार, तत्वों की तान पर, चैतन्य-नव प्राण पर, लीला के खेल में, गगन में समाने लगी पर-ब्रह्म से मेल में, सहज दिव्य व्यवहार में, विष्णुमाया चली नभ कृष्णा गाने लगी। पार विश्व के सहस्रार में, कृष्णा आदि शक्ति ने सृष्टि रचाई रे, राधिका दौडी आई रे, लेकर विष्णु की शक्तियां सारी, बन आई वो सुन्दर नारी, परमेश्वर की परम-वैवारी, खोले विराट के द्वार, मुरली सुखमन की बाज रही रे, कलियुग का मन्थन, उतर आए देवगण, अमृत बरसाने लगी, मुक्त हुए जीव जन, पी रहे अमृत चेतन, शिव बनी ममता, विष्णुमाया चली नभ पार कृष्णा कृष्णा गाने लगी। योगेश्वर की समता, सतयुग की कलियां खिल आई रे. राधिका दौड़ी आई रे, मुरली सुखमन की बाज रही रे, चैतन्य लहरी 2. ा 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-3.txt वाशीवारता 19.02.1996 मुम्बई विषय में जानना चाहते है। परन्तु मुझे प्रसन्नता इई कि आयुर्वेद की बात करते हुए लोग कुण्डलिनी के विषय में बात करते हैं। यद्यपि इसका उन्हें अधिक ज्ञान नहीं है फिर भी इसके विषय में वे बात करते हैं। अब जिस शक्ति के विषय में मैं बात कर रही हूँ यह कृण्डलिनी हैं जो त्रिकोणाकार अस्थि में निवास करती है। मैं जो भी कूछ आपसे कह रही हूं, आवश्यक नहीं कि आप जटिल ज्ञान है और सत्य साधको आज मुझे पूर्णत: वैज्ञानिक माने जाने बाले चिकित्सा व्यव्साय के चिकित्सक लोगों से बातचीत करनी है, मेरे लिए यह भिन्न विषय है। विश्व भर में प्रचलित एवं प्रयोग किए गए सिद्धांतों का मैं किसी भी रूप से खंडन करने नहीं आई हूँ। उपलब्ध ज्ञान का हमें किसी भी प्रकार से अपमान नहीं करना है। विकसित नहीं हुआ या पूर्ण समर्थ नहीं है तो हमें उससे बेहतर ज्ञान पाने के लिए अपना मस्तिष्क खोल देना चाहिए। चिकित्सा विज्ञान के हमारे अध्ययन या ज्ञान का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम किसी नये एवं उपलब्ध अन्य जञान को स्वीकार न करें। मेरे ज्ञान के अनुसार चिकित्सा विज्ञान की आचार सहिता में हम जन-हित के लिए कार्य करते हैं, धनोपार्जन या स्व:विदित किसी सिद्धान्त के प्रचार के लिए नहीं। परन्तु जब हम ये जान जायें कि वह ज्ञान पूर्णतः उस पर विश्वास करें, क्योंकि यह अत्यन्त साढ़े तीन कुण्डलों में बैठी ये कुण्डलिनी तब तक सुप्त अवस्था में रहती है जब तक आप सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते। युग युगान्तरों से यह ज्ञान उपलब्ध था; मार्कण्डेय ऋृषि ने चौदह हजार वर्ष पूर्व इसके विषय में बात की, आदिशंकराचार्य ने भी इसके विषय में बताया मैं जानती हूँ कि विदेशों में भी बहुत से सन्तों ने कुण्डलिनी के विषय में बताया। बाईबल में भी लिखा है कि में आपके सम्मुख शोलों की जुबान में दिखाई दूंगी। उन्होंने श्री कृष्ण की तरह से उल्टें जीवन वृक्ष की बात की जिसकी जड़ें मस्तिष्क में हैं। परन्तु इन सब बातों की कोई वैधता न थी। किसी ने भी इस दृष्टिकोण से इन्हें देखने का है जैसा कि आप जानते हैं विज्ञान में परिकल्पनाएं परिवर्तित होती रहती हैं। आदिकाल से आप देख रहे हैं कि पहले परिकल्पनाएं बनती हैं, फिर परिकल्पनाएं कानून बन जाती हैं और कानूनों को भी चुनौती दी जाती है। विज्ञान नितैर्तिक है। यह मानव के उस पक्ष को नहीं देखता जहाँ नैतिकता आत्मसात करनी आवश्यक होती है। तीसरी बात यह है कि यह सीमित है क्योंकि यह मस्तिष्क के माध्यम से किये गये हमारे प्रयत्नों से सम्बन्धित है । प्रयत्न नहीं किया। परन्तु आज ये प्रमाणित किया जा सकता कि कुण्डलिनी नामक यह अद्वितीय शक्ति सभी मानवों में विद्यमान हैं। इसका स्थान पवित्र अस्थि में है। इसकी पवित्रता के विषय में मैने कुछ यूनानी लोगों से पूछा तो वो कहने लगे कि नि:सन्देह यह पवित्र अस्थि है। क्योंकि वे इसे पवित्र मानते हैं, मैने उनसे पूछा कि इसके विषय में उन्हें किसने बताया ? उन्होने उत्तर दिया कि बहुत समय पूर्व भारतीयों ने उन्हें इसके विषय में बताया था। यह कुण्डलिनी बीज के अंकुर सम है, बीज को जब आप पृथ्वी माँ में डालते हैं तो यह स्वतः सहज ही अंकुरित हो जाता है। इसके लिए आपको कुछ करना नहीं पड़ता। पृथ्वी माँ को आप कुछ दे नहीं सकते। न तो आपको सिर के भार खड़े होने से और न ही किसी शारीरिक गतिविधि से यह अंकुरण हो सकता है। बीज के अन्दर अंकुरित होने की तथा पृथ्वी माँ के अन्दर अंकुरित करने की शक्ति पहले से ही विद्यमान है। बीज के इस अंकुरण से इस जीवन्त क्रिया को घटित होते हुए आप देख सकते हैं। क्रमिक विकास द्वारा हम मानव बन पायें है, हम मानव बने हैं और जिन चीजों के विषय में हमें ज्ञान नहीं है वे भी हमारे अन्दर विद्यमान हैं। जो कुछ भी हम बाहर देखते हैं उसका हमें जान है। परन्तु अन्तर्निहित चीजों का हमें कोई जान नहीं है। क्योकि न तो हमने अभी तक आवश्यक नहीं कि जिस चीज को हम बुद्धि द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं वह पूर्ण सत्य हो, यही कारण है कि सदा मतभेद बने रहते हैं। अत: हमें उस स्थिति पर पहुँचना है जहाँ हम पूर्ण सत्य, पूर्ण अर्थ को जान सकें और जहाँ हर चिकित्सक एक ही बात महसूस करें और उनका निदान भी एक ही हो। इन सभी दृष्टिकोणों को सम्मुख रखते हुए हमारे लिए आवश्यक है कि थोड़े से विनम्र हो कर स्वयं देखें कि इस महान देश भारत में हमारे कौन सा ज्ञान विद्यमान है। हमें इस सम्मुख बात का ज्ञान नहीं है कि सहजयोग का ज्ञान यहाँ हजारों वर्ष पूर्व भी विद्यमान था मैं जब यूक्रेन स्थित कीव में गई तो लोगों को मछिन्द्र नाथ और गोरखनाथ के विषय में बातें करते देख आश्चर्य चकित रह गई, उन्होंनें सभी चक्रों के चित्र बनाये हुए थे तथा परस्पर बातचीत कर रहे थे कि अदिती ही आदिशक्ति माँ है। मैं स्तब्ध रह गई कि किस प्रकार इतने वर्ष पूर्व, ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व ये महान संत वहाँ गए और ऐसा चमत्कारिक कार्य किया। हमारे देश में भी कुण्डलिनी शक्ति का महाजञान उपलब्ध है परन्तु हम उसे नहीं पढ़ते और न उसके उसका अध्ययन किया है और न ही यह जानने का प्रयास किया है कि हमारे ग्रन्थों में हमारे अन्तःकरण के विषय में क्या पुरातन चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-4.txt लिखा हुआ है। अब यह शक्ति रहस्यमय नहीं रही, हमारे विकास के अन्तिम भेदन के लिए इस शक्ति को अकुरित होना है। मानव चेतना के पश्चात हमें एक ऐसी चेतना में प्रवेश करना है एक ऐसी नयी चेतना में कूद पड़ना हे जो हमारे अन्तःकरण का पूर्ण ज्ञान है। इस नव चेतना के सम्बन्ध में पहले भी बताया जा चुका है। जापान में मानी जाने वाली जैन प्रणाली में इसके विषय में बताया गया है और चीन में लाओत्से ने भी इसके विषय में बताया। बहुत लोगों ने इसके विषय में चर्चा की और कहा कि व्यक्ति को मस्तिष्क से ऊपर जाना होगा। जीवन्त कार्य करता है। इन फूलों को देखें यह कितने रहस्यपूर्ण हैं। पृथ्वी माँ के गर्भ से भिन्न रंगों, सुगन्धों तथा आकारों में उनका उत्पन्न होना एक चमत्कार है। यह सब कार्य कौन करता है? यह सब यही महान शक्ति करती है जिसने हमें चहूँ ओर से घेरा हुआ है, पातान्जली ने उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है अर्थात वह शक्ति जो ऋतुएं बनाती हैं। परन्तु इस प्रज्ञा को, हमारे चारों ओर विद्यमान ज्योतिर्मय ज्ञान को, इससे पूर्व हमने कभी महसूस नहीं किया हम नहीं जानते कि ऐसी कोई शक्ति है भी या नहीं। लोगों ने, सन्तों ने इसकी चर्चा की, हम उनसे बातचीत करते हैं, उनसे प्रार्थना करते हैं परन्तु यह नहीं जान पाते कि वास्तविकता से या मन से हमारा क्या सम्बन्ध है ली ति मन के सम्बन्ध में मैं आपको बताना चाहती हूँ कि मन मिथ्या है तथा हमारा अहं तथा बन्धन इसकी सृष्टि करते हैं। यह मिथ्या है वास्तविकता नहीं। मन हमारे अन्दर इन दो संस्थाओं की सृष्टि करता है और बाद में अहं और बन्धन रूपी यह दोनों संस्थाएं मन को निरयंत्रित करती हैं। यह ऐसा ही है जैसे हम कम्प्यूटर बनाते हैं और कुछ समय पश्चात कम्प्यूटर हमारा नियन्त्रण करने लगतता है। मन भी ऐसा ही करता है, यह उन बुलबुलों जैसा है, जिनकी सृष्टि हमारे अन्तनिहित इन दो संस्थाओं की वायु करती है। इस मन पर नियन्त्रण करना सुगम कार्य नहीं है, सभी शास्त्रों में लिखा है कि यह अत्यन्त कठिन कार्य है, कि आप मन से ऊपर नहीं उठ सकते। अब इस मन को इसकी वस्तु स्थिति में देखें। हम भविष्य के विषय में सोचते हैं और भूत के विषय में भी, पर इस क्षण जहाँ हम हैं, वर्तमान के विषय में हम नहीं सोच पाते। अपना चित्त हम वर्तमान पर नहीं रख सकते। यह मन हमारे मस्तिष्क में बहुत से बुलबुले उत्पन्न करता है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है। क्योंकि मन हमें सत्य तक जाने ही नहीं देता। जैन प्रणाली में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आप को पार होना होगा, मस्तिष्क से ऊपर उठना होगा, जहाँ आप निर्विचार होते हैं, जिसे हम निर्विचार समाधि कहते हैं। इस स्थिति में आप निर्विचार चेतना में आ जाते हैं और परमात्मा की दिव्य शक्ति से एक रूप होते हैं। भारतीय होने के नाते इस सब के बारे मे जानना होगा और इस ज्ञान को मानव जाति के उद्वार के लिए उपयोग करना आपका अधिकार है। यह मात्र अध्यात्मिक मुक्ति ही नहीं, मैं कहूंगी कि इसका लक्ष्य स्वयं को जानना है-जिसे हम आत्मसाक्षात्कार कहते हैं, तथा जिसके परिणामस्वरूप आप शारीरिक, भावनात्मक तथा अध्यात्मिक समृद्धि प्राप्त कर पूर्णतया परिवर्तित व्यक्तित्व बन जाते हैं। अभी डा० राय ने बहुत से दोषों की चर्चा की है। परन्तु सबसे बड़ा दोष जिससे आज हम ग्रस्त हैं, वह है भ्रष्टाचार। एक भ्रष्ट व्यक्ति पूर्णतया ईमानदार हो जाता है और उसके अन्दर ऐसा साधुत्व आ जाता है कि वह इस के अतिरिक्त कुछ बन ही नहीं सकता। यह सब इतना अजीब लगता है कि लोग इस पर विश्वास ही नहीं कर सकते। परन्तु वास्तव में हम इतने अनोरवे हैं और महान हैं कि हमें अपनी अन्तर्निहित निधियों के बारे में पता ही नहीं है। कुण्डलिनी जागृति द्वारा हम इन्हें जागृत कर सकते हैं। नि:सन्देह कैंसर का भी उपचार सहजयोग से हो सकता है। सहजयोग में कोई विशेषज्ञ नहीं है। यह मात्र एक रोग का इलाज करने की बात नहीं है। जैसा कि कुछ लोग कहते हैं कि एक ऑरख के लिए एक विशेषज्ञ होना चाहिए दूसरी के लिए दूसरा, सहजयोग में ऐसा नहीं है। यह 'आम्बिक और इस प्रकार यह क़्म चलता रहता है। सत्य वर्तमान में वास है. तथा जीवन की वास्तविकता का निवास भी वर्तमान में है। परन्तु हम वर्तमान में नहीं रह पाते। हमें यहीं वर्तमान में स्थापित होना है और इसी कार्य के लिए कुण्डलिनी हमारे अन्दर विद्यमान है। जैसा मैने कहा, यह हमारी व्यक्तिगत माँ है। नि:सन्देह चिकित्सा विज्ञान में माता पिता जैसी कोई धारणा नहीं होती परन्तु हम जानते हैं कि माता पिता होते हैं, हम पेड़ों से नहीं टपकते हैं। कुण्डलिनी उठती है, यह छः केंद्रों में से उठती है। पहला चक्र पवित्र अस्थि के नीचे है सहजयोग के अनुसार यह छः: चक्र हमारे शारीरिक मानसिक, भावनात्मक तथा अध्यात्मिक अस्तित्व के लिए जिम्मेदार हैं। उत्थान पा कर कुण्डलिनी करती क्या है? यह इन केन्द्रों को प्लावित करती है, इनको एक सूत्र में बांधती है और ईश्वरीय प्रेम की सर्वव्यापक शक्ति से आपका सम्बन्ध जोड़ती है। अभी तक लोग गिजाघरों या धार्मिक प्रवचनों में इसके विषय में इतना भर कहते थे कि परमात्मा की एक शक्ति है जो हमारी देखभाल करती है। वे परम चैतन्य की बात भी करते हैं। यह सब शास्त्रों में वर्णित है । कोई नहीं सोचता कि चिकित्सा विज्ञान के अतिरिक्त भी इसमें बहुत सा ज्ञान निहित है। हमारे चहँ ओर विद्यमान परमचैतन्य ही सारे करता (Ambigk) है, अर्थात संयोजित है। इसके माध्यम से मनुष्य की पूर्ण रूपेण चिकित्सा होती है क्योकि जब कुण्डलिनी उठत्ती है तो चक्र रुपी सभी मोतियों में से सूत्र रूप में गुजरती है और व्यक्ति के चक्रों को पूर्णतया ठीक कर देने वाली परमात्मा की उस दिव्य शक्ति से उसे एक रूप कर देती है। मैं कैंसर की बात बहुत सामान्य ढंग से कर रही हूँ क्योंकि मैं इतनी महान वैज्ञानिक नही हूँ कि आपको इसके वैज्ञानिक पहलुओं के बारे में बताऊँ। कैंसर एक साधारण रोग है, जिससे हमें डरना नहीं चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-5.txt चाहिए। हमारे अन्दर दो प्रकार की नाड़ी प्रणालियाँ हैं, एक अनुकम्पी, दूसरी परा-अनुकम्पी नाड़ी प्रणाली। अनुकम्पी आपात स्थितियों के लिए होता है और परा- अनुकम्पी इसको निष्प्रभावित करने के लिए होता है। बायीं ओर को हम बायां अनुकम्पी और दायीं ओर को दायां अनुकम्पी कहते हैं। मैं नहीं जानती कि चिकित्सा विज्ञान इस तथ्य तक पहुँचा हैं अथवा नहीं। जब मैं चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन कर रही थी तब इन दोनों को हैं तो भविष्य में आपके लिए क्या छिपा है? हमारे अन्दर एक चक्र 'स्वाधिष्ठान चक्र' होता है जो कि नाभि चक्र से निकलता है। यह चक्र आप सब के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब हम अत्यधिक सोचते हैं तो इस चक़र का कार्य हमारे मस्तिष्क को शक्ति पहुँचाना है, यद्यपि चिकित्सा विज्ञान इस तथ्य को नहीं मानता। परन्तु हम बहुत अधिक सोचते हैं तो यह चक्र हमारे मस्तिष्क की सफेद कोशिकाओं (Grey Cells) को शक्ति प्रदान करता है। इस मुव्य कार्य के अतिरिक्त इस चक्र के अन्य भी कई कार्य हैं। डाक्टर लोग नहीं जानते कि यह चक्र हमारे जिगर (Liver), अग्नाशय (Pancres), प्लीहा (Spleen), गुर्दो (Kidneys) तथा आतों (Intestines) की देखभाल करता है। जो लोग भविष्य की बहुत अधिक चिन्ता करते हैं या बहुत अधिक सोच विचार करते हैं, इस चक्र की पूरी शक्ति केवल इस प्रकार के भविष्यवादी कार्य करने में ही लगा देते हैं। प्रथम उपेक्षित अवयव जिगर है। मुझे खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि जिगर के सम्बन्ध में डाक्टरों का ज्ञान सीमित है। जिगर ही वह अवयव है जो मनुष्य को जीवित रखता है। जब हम जिगर की उपेक्षा करते हैं तो इसमें से एक प्रकार की गर्मी निकलने लगती है। मैं इसके लिए आपको चिकित्सा विज्ञान का तकनीकी शब्द तो नहीं बताऊँगी, परन्तु यह गर्मी हानिकारक होती है। जिगर सारे शरीर की गर्मी को अपने अन्दर सोख लेता है ताकि यह शरीर से बाहर निकल जाए। परन्तु जब इसकी उपेक्षा की जाती है तो यह कार्य करना बन्द कर देता है और समस्यायें खड़ी हो जाती हैं। मुख्य समस्या जो खड़ी होत्ती है वह है कि यह गर्मी शरीर में ऊपर-नीचे चलने लगती है। जिगर से निकली हुई गर्मी जब ऊपर को चलती है तो, हमारे अन्दर दायां हृदय कहलाने वाले एक अन्य चक्र जो कि फेंफड़ों तथा श्वास क्रिया आदि को नियन्त्रित करता है, को दुष्प्रभावित करती है। इससे ऊपर जाकर यह अस्थमा ( द्वारा अस्थमा से सहज ही मुक्ति पाई जा सकती है। यदि आपको जिगर की गर्मी को दूर करने का ज्ञान हो जाए तो अस्थमा का इलाज बहुत सरल है। दमा भारत में एक आम रोग है। वातावरण का प्रदूषण भी इस के लिए जिम्मेदार है। कुछ अन्य समस्यायें भी इस का कारण हैं क्योंकि यह चक्र पिता से एक सा समझा जाता था। परन्तु ऐसा नहीं है। ये एक दूसरे के पूरक होते हुए भी परस्पर विपरीत हैं। बायीं ओर आपके भावनात्मक अस्तित्व तथा भूतकाल का प्रतिनिधित्व करती है और दायां पहलू आपके भविष्य और शारीरिक एवं मानसिक अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। आप जानते हैं कि अंग्रेजी भाषा इस प्रकार की है कि मानसिक का अर्थ भावनात्मक भी लगाया जा सकता है। परन्तु यहां इसका अर्थ है 'मस्तिष्क जिसके माध्यम से आप कार्य करते हैं। तो ये दोनों पहलू (दायां और बायां) हमारे अन्दर एक लूप सा बना देते हैं और अनुकम्पी, पुरा- अनुकम्पी की रचना करता है। अब कैंसर में क्या होता है? व्यक्ति अपने एक पहलू का अधिक उपयोग करने लगता है, कुछ लोग अत्यन्त आक्रामक और भविष्यवादी होते हैं। उनकी दृष्टि सदा घडी पर रहती है और वे योजना बनाने में ही लगे रहते हैं। कहने से मेरा अभिप्राय यह है कि आधुनिक मानव ऐसा ही है। व्यक्ति इस चक्र (दायां स्वाधिष्ठान) को आवश्यकता से अधिक उपयोग करता है और यह दुरुपयोग इस चक्र को क्षीण कर देता है क्योकि यह चक्र संकुचित है। ऐसी स्थिति में यदि कोई आकस्मिक, भावनात्मक समस्या या आघात आ जाए तो यह चक्र टूट जाता है। इस चक्र के टूटने पर व्यक्ति का सम्बन्ध अपने मस्तिष्क से, अपने केन्द्र से टूट जाता है और सारी ऊर्जा अनियन्त्रित रूप से बहने लगती है और कोषाणु भी स्वच्छंद हो जाते हैं, पूर्ण से (विराट से) अ्वास रोग) को जन्म देती है। सहजयोग उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता। अब आप ये जान कर आश्चर्यचकित होंगे कि, जैसा कि डाक्टर साहब ने वर्णन किया के अंतिरिक्त है, बायां पहलू हमारे भूतकाल कुछ मैंने उन्हें यह भी बताया कि कैंसर उत्पन्न करने वाले बायीं ओर के इस विशेष आक्रमण को प्रोटीन 53 का नाम दिया जाएगा। अब, हम कह सकते हैं, कि बायें पहल से हमारे शरीर में प्रवेश करने वाले यह प्रोटीन शरीर के अन्य कोषाणुओं का संचालन करने लगते हैं और वे कोषाणु स्वच्छंद होकर घातक बन जाते हैं इन दोनों चीजों को समायोजित कर इस केन्द्र का पोषण करना अत्यन्त साधारण कार्य है। आप यदि यह कार्य कर सकते हैं तो आप समस्या का समाधान कर सकते हैं। भी नहीं है। सम्बन्धित होता है। पिता पुत्र सम्बन्ध यदि खराब हों तो यह चक्र उत्तेजित हो जाता है। छोटी आयु में ही यदि किसी के पिता की मृत्यु हो जाए तो भी इस चक्र में समस्या हो सकती है। कारण जो भी हो इसका इलाज सहजयोग में बहुत सरल है। यदि जिगर की गर्मी अग्नाशय (Pancregs) में चली जाए तो अग्नाशय खराब हो जाता है और फलस्वरूप मधुमेह (Diabites) जैसा रोग हो जाता है। जो लोग मेज पर बैठे -बैठे सोचते व अब में आप लोगों को, जो कि अत्यधिक सोचते हैं, बहुत कार्य करते हैं व भविष्य की योजनायें बनाते रहते हैं, एक बहुत साधारण परन्तु महत्वपूर्ण बात बताना चाहती हूँ कि मंत्री जी तथा आप सब लोग यदि इसी प्रकार भविष्य के विषय में चितित कार्य करते रहते हैं उन्हें यह रोग अक्सर हो जाता है। परन्तु ग्रामीणों को यह रोग नहीं होता। महाराष्ट्र में तो गांव के लोग इतनी चीनी खाते हैं कि उनकी चाय में पड़ी चीनी में चम्मच क चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-6.txt सीधा खड़ा हो जाए। फिर भी उन्हें मधुमेह नहीं होता क्योंकि वे लोग बहुत परिश्रम करते हैं। जब परिश्रम करके वो थक जाते हैं तो सो जाते हैं। उन्हें कोई बीमा अथवा धन बचाने की चिन्ता नहीं होती। वे सदैव प्रसन्न चित्त रहते हैं तथा भविष्य के बारे में चिन्तित नहीं होते। इसलिए उन्हें मधुमेह नहीं होता। जो लोग मेज पर बैठे सोचते रहते हैं, उन्हें न केवल यह रोग हो जाता है अपितु कुछ तो मधुमेह से अन्धे भी हो जाते हैं सहजयोग में इसका विवेचन सम्भव है। मस्तिष्क, जिसे हम 'पीठ' कहते हैं, में स्वाधिष्ठान चक् किस प्रकार कार्य करता है, यह बात-पीठ से चक्रों का सम्बन्ध-रूस के लोगों ने प्रमाणित कर दी हैं। रूस में विज्ञान इतना उन्नत हो चुका है कि वे अब भौतिकता से ऊपर जा रहे हैं और हमारे लिए बहुत सहायक हैं। बैठती है, कुछ न कुछ सोचती रहती है-आज क्या खाना है, क्या बनाना है आदि। तो मैने कहा कि इस सब के लिए क्या सोचना है? जो भी बाजार में उपलब्ध है, उसे बना लो और खा लो। इस के लिए योजना बनाने की क्या आवश्यकता है? स्वास्थ्य बिगड़ते ही कई अन्य बीमारियाँ आने लगती हैं। एक और बीमारी है जो जिगर की गर्मी से आती है, वह है गुर्दों का ठस (Congulation of Kidneys) हो जाना। इस गर्मी से गुर्दे सख्त हो सकते हैं तथा मूत्र भी रुक सकता है और व्यक्ति को डायलिसिस (Dialysis) पर रखा जाता है। तब मनुष्य दीवालिया हो कर मर जाता है। यह मरने का एक सरल रास्ता है। एक डाक्टर महोदय जो स्वयं इस बीमारी के मरीज थे और रोगियों का रक्त परिवर्तन किया करते थे, दीवालिया होने पर मेरे पास लाए गए। मैंने उन्हें ऐसा वचन देने के लिए कहा कि यदि वे सहजयोग से ठीक हो जायें तो वे अपना यह डायलिसिस का व्यवसाय बन्द कर वे कहने लगे कि "मैंने इस व्यवसाय में जो पैसा लगाया है उसका क्या होगा।" अत: हमारे जीवन की हर चीज धन संचालित है और अपनी किसी भी चीज को हम त्याग नहीं पाते। एक अन्य खतरनाक बीमारी भी इस प्रकार की अति व्यस्त व भाग- दौड़ की जिन्दगी से उत्पन्न होती है। आप सुबह उठते ही सोचने लगते हैं कि देर हो गई और यही सोचते सोचते कार में जा बैठते हैं। अमरीका में तो लोग दांत भी कार में ही साफ करते हैं। उनकी जिन्दगी इतनी गतिशील है कि वे लोग नाश्ता भी कार में या कार्यालय में करेंगे। मेरे पतिदेव बताते हैं कि उनके कार्यालय में तो बहुत से लोग आते ही शौचालय में घुस जाते हैं क्योंकि उन्हें यही सुविधाजनक लगता है। सबसे बुरी देंगे । परन्तु अन्त में, यही जिगर की गर्मी हमारी आंतो पर भी कुप्रभाव डालती है और व्यक्ति को चिरस्थाई कब्ज (Chronic Constipstion) हो जाती है। यह बीमारी व्यक्ति को चिड़चिड़ा और परेशान कर देती है। उसे हर समय गुस्सा आता रहता है, और जीवन वास्तव में दुखःदायी हो जाता है। ऐसे लोगों को इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए बहुत कठिनाईयाँ सहनी पड़ती हैं, सब प्रकार की दवाओं का उपयोग करना पड़ता है कभी-कभी तो बवासीर भी हो जाती है। यदि आप प्रातःकाल बात है प्रात्त:काल समाचार पत्र पढ़ना। समाचार पत्र पढ़ते हैं तो आपके अनुकम्पी गतिशील हो उठते हैं और, जैसा कि आप जानते हैं, आपके प्लीहा को आपातकालीन स्थिति के लिए लाल रक्त कोषाणु उत्पन्न करने होते हैं। ऐसी स्थिति में प्लीहा धडकने लगता है और संकटावस्था में आपकी सहायता करने लगता है। हड़बड़ाहट तथा हर तरह के उल्टे सीधे काम करने वाले व्यक्ति के लिए कार्य करने में प्लीहा पगला जाता है। मुझे याद है कि पुराने समय में लोग बड़ी शान्ति से भोजन किया करते थे, मेरे पिता खवाना खाते और पास में बैठकर मेरी मां उन्हें पंखा झलती तथा वे अत्यन्त शान्तिपूर्वक भोजन करते। यही हमारी जीवन शैली थी। परन्तु आज ऐसा हैं मैंने आपको संक्षेप में बताया कि हमें क्या हो सकता है। परन्तु इससे भी अधिक गम्भीर बात यह है कि शराब पीने वाले इक्कीस वर्षीय युवक, चाहे वह टेनिस खेलता हो, को भयानक हृदयाघात हो सकता है क्योंकि जिगर से निकली हुई गर्मी टेनिस तथा अन्य व्यायाम करने वाले परिश्रमी खिलाड़ी की व्यायाम से उत्पन्न गर्मी को और अधिक बढ़ा देती है और उसे जीवन के किसी भी मोड़ पर हृदयाघात हो सकता है। यदि आप बुरा न माने तो में राहुल बजाज का नाम बताना चाहूँगी जिन्हें नहीं है। फलस्वरूप प्लीहा हर समय तनावग्रस्त होता है और नहीं जानता कि किस प्रकार समयानुसार कार्य किया जाए तथा रक्त कैंसर नामक भयानक रोग के प्रति दुर्बल हो जाता है। हमारे यहाँ कुछ लोग हैं जिन्हें बहुत पहले रक्त कसर था परन्तु नौ-दस साल पूर्व सहजयोग से वे रोग मुक्त हो गए और अब भी रक्ताधान (Blood Tronsfusion) आदि के बिना भी ठीक चल रहे हैं। यह एक बहुत घातक रोग है। यह कई बार उन बच्चों को भी हो जाता है जिनकी माताएँ उत्तेजनापूर्ण जीवन व्यतीत करती हैं। मैं जानती हूँ कि माताएँ भी बहुत व्यस्त जीवन व्यतीत करती हैं। मैं गुजरात में एक विश्वविद्यालय के उप-कुलपति की पत्नी को मिली और उसकी एक समस्या को देख कर आश्चर्यचकित रह गई जब मैंने पूछा कि वह सारा दिन क्या करती है? तो उसने उत्तर दिया कि जब भी वह गम्भीर हृदयाघात हुआ और वे मेरे पास आए और ठीक हो गए| वे पूर्ण रूप से ठीक हो गए और अब भी ठीक हैं। यह हृदय रोग है दो प्रकार के होते हैं-एक है सुस्त हृदय का रोग और दूसरा अतिकर्मी हृदय रोग। अतिकर्मी हृदय वाले लोग घातक हृदयघात से मरते हैं। सुस्त हृदय वाले लोगों कों हृदयशूल (Angind) होता है। यह हृदयशूल तब होता है जब सुस्त हृदय रक्त को मस्तिष्क तक नहीं पहुँचा सकता। हृदयशूल से पूर्ण मुक्ति भी सहजयोग में सम्भव है। हृदयशूल के रोगी श्री बारी मल्होत्रा हुआ तो मैंने पूर्णतः रोग मुक्त हो गए। उन्हें विश्वास ही नहीं ने चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-7.txt कहा कि यदि आपको मुझ पर विश्वास नहीं है तो जाईए और किसी चिकित्सक को दिखाइए। सभी चिकित्सकों ने उनकी जांच करने के बाद कहा कि आप बिल्कुल स्वस्थ हैं। उन्होंने हैं। आत्म-साक्षात्कारी व्यक्ति बता देगा कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है और क्या समस्या है। सहजयोग में इस सब का अर्थ निकाल लिया गया है और आप इसे भली-भाति समझ सकते जब अपने हृदय की शल्य चिकित्सा (Bypass Surgery) के लिए एंजियोग्राफी (Angiography) करवाई तो वे ठीक व स्वस्थ पाए गए। यह तो एक उदाहरण मात्र है। ऐसे अन्य कई उदाहरण हैं। यदि हम अपने इन चक्रों को ठीक कर लेते हैं और जाते हैं तो हमारा व्यक्तित्व पूर्णत: बदल जाता है। व्यक्ति न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से अपितु, मस्तिष्क और अध्यात्मिकता की दृष्टि से भी बिल्कुल ठीक हो जाता है। अभी तो मैंने केवल एक चक्र के बारे में बताया है हमारे शरीर में ऐसे अन्य कई चक्र हैं जो हमारी देखभाल करते हैं। यह मैंने महाधमनी की केवल शारीरिक गतिविधि के विषय में ही बताया है। इस चक्र को और भी कार्य करने होते हैं। महाधमनी (Aortic Plexus) चक्र जब बायीं और दायीं ओर को कार्य करता है तो यह व्यक्ति को महान सृजनात्मकता प्रदान करता है। आप यदि वैज्ञानिक हैं तो आपको सतही चीजों के पीछे छिपे अब हमारा यह शोध केन्द्र रोग मुक्त हुए सभी लोगों के विषय में उपलब्ध जानकारी को भली-भाति एकत्रित करेगा। हम नहीं चाहते कि रोग निदान प्रक्रियाएँ चलती रहें, क्योंकि हम इसे अपनी अँगुलियों के सिरों पर महसूस कर सकते हैं परन्तु लोग अन्य अस्पतालों में किए गए निदान साथ ला सकते हैं और स्वयं देख सकते हैं कि यहाँ किए गए निदान ठीक हैं या नहीं। सहजयोग द्वारा किए गए निदान के अनुसार रोगियों का इलाज किया जाना चाहिए और इलाज के परिणामों को लिखा जाना परमात्मा से जुड़ चाहिए तथा इस प्रकार का शोध कार्य होता रहना चाहिए। डाक्टर साहब इस कार्य में बहुत निपुण हैं और उन्होंने इस क्षेत्र में बहुत कार्य किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय से अब तक चार डाक्टर M.D. की डिग्री ले चुके हैं। मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि उत्तरी भारत में चिकित्सक उदार बुद्धि के हैं, जबकि महान ज्ञान का अन्दाजा हो जाता है। यह ज्ञान हर प्रकार से कार्य करता है, उदाहरणार्थ मैंने जीन्स पर कार्य किया है और लोगों को जीन्स के विषय में बताया है जिससे वे आश्चर्यचकित हैं। उन्होंने बताया कि किसी ने भी अभी तक फासफोरस (Phosphorous) पर कार्य नहीं किया। मुझे आश्चर्य है कि यह एक सामान्य ज्ञान की बात है। डाक्टर साहब ने हमारी रोग प्रतिरक्षण प्रणाली के संबंध में चर्चा की। मैंने कहा कि यह भी एक सामान्य ज्ञान की बात है, कि यदि हमारी रोग प्रतिरक्षण इसे देखा जाए। केवल नोट छापने के लिए आप लोग चिकित्सक प्रणाली (Immune System) दुर्बल हो जाएगी तो हम बहुत से नहीं बने हैं राजनीति और चिकित्सा में आपका उद्देश्य धन रोगों के शिकार हो जायेंगे। यदि मैंने रोग प्रतिरक्षण प्रणाली को कमाने की अपेक्षा यश कमाने का होना चाहिए। यह बहुत अह जिम्मेदार बताया है तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। अब हमें देखना है कि यह प्रणाली देवी -देवताओं से कितनी संबंधित है? इस क्षेत्र में चिकित्सक सफल नहीं हो पाए, वे सफल हो भी नहीं सकते। घर में स्थापित गणपति को नमस्ते कह कर वे अपने कार्य पर चले जाते हैं, परन्तु उन्हें इस चीज का ज्ञान नहीं है कि हमारे अन्दर गणपति का कितना महत्व है। ये गणपति क्या करते हैं, किस प्रकार कार्य करते हैं और वे कहाँ स्थापित हैं। भारतीय देवी देवताओं के अतिरिक्त हममें ईसा, मोहम्मद, महावीर तथा बुद्ध भी विद्यमान हैं। ये सब हमारे अन्तःस्थित हैं। परन्तु चिकित्सकों के लिए इस बात को स्वीकार करना बहुत कठिन बात है और मैं ये भी कहूँगी कि उन्हें यह स्वीकार नहीं करना चाहिए। बाद में शनैः- शनैः जब उनका सहजयोग में उत्थान होगा तो वे इसे स्वीकार करने लगेंगे। एक बार जब चिकित्सकों को वास्तविक ज्ञान हो जाएगा तो, आप हैरान होंगे कि रोग निदान के लिए रोगी की हत्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपनी अँगुलियों के सिरों पर आप जञान जायेंगे कि मामला क्या है, केवल आप ही नहीं कोई भी कठिन है। यहाँ तो न केवल महाराष्ट्र में यह कार्य चिकित्सक अपितु सरकारी कर्मचारी भी संकुचित विचारों के हैं वे एक भी अवसर देने को तैयार नहीं हैं तथा इस सब को व्यर्थ समझते हैं। कुछ डाक्टर तो स्नातक (MBBS) होने के बावजूद बहुत । भी खाली घूम रहे हैं और हमारे विरोध में गुटबन्दी कर रहे हैं और हमें परेशान करने के प्रयास करते रहते हैं कोई यदि अच्छा कार्य आपके देश में हो रहा है तो क्यों न उदारतापूर्वक हो जाता है। जो बात है। सहजयोग में व्यक्ति प्राय: सुहृदय लोग ईसा मसीह को मानते हैं, वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि किस प्रकार ईसा ने 21 लोगों को थोड़े से समय में ठीक कर लिया। उन्होंने उनकी कुण्डलिनी जागृत की परन्तु इस बात का उल्लेख बाईबल में नहीं है क्योंकि बाईबल स्वयं ईसा मसीह ने नहीं लिखी। इसी प्रकार मोहम्मद साहब ने भी कुरान नहीं लिखी । आशय यही है कि जब तक आप स्वयं को नहीं जानते, परमात्मा को नहीं जान सकते। उन सब लोगों ने एक ही बात कही है परन्तु दुर्भाग्यवश कोई भी पुस्तक स्वयं नहीं लिखी। इसीलिए समस्यायें तथा उलझनें हैं। परन्तु अब वह समय आ गया है जब बहुत से लोग सामूहिक रूप से रोग मुक्त होकर पूर्णतः प्रसन्न व आनन्दमय स्थिति में सर्वशक्तिमान परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। परमात्मा के विषय में वैज्ञानिकों से बात करना तो सिर दर्द करना है। एक वैज्ञानिक होने के नाते आपको यह अवश्य जानना है कि परमात्मा है अथवा नहीं। यदि आप परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते, तो आप बहुत परन्तु जो कुछ भी उन्होंने कहा है, उसका चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-8.txt जाएगा। इस बात का मुझे विशेष ध्यान है क्योंकि पेसा एक ऐसी वस्तु है जिसका लोभ बढ़ता ही जाता है। मैंने तो यहाँ तक देखा है कि अवैज्ञानिक हैं। इसीलिए आप सब को बहुत विनम्रता से परमात्मा के अस्तित्व को वैज्ञानिक ढंग से जानने का प्रयत्न करना चाहिए। डा० राय बहुत उदार मस्तिष्क व्यक्ति हैं। उन्होंने सारे विश्व में भ्रमण कर इस क्षेत्र में कार्य किया है तथा विश्व के बहुत से चिकित्सकों ने उनके दृष्टिकोण को स्वीकार किया हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि धीरे -धीरे यह कार्यान्वित्त हो जाएगा। बहुत कुछ सनकी लोग अपने घरों की दीवारों को कागज के रुपयों (Currency Note) से बनाना चाहते हैं। मेरा विश्वास है कि चिकित्सक आदर्शवादी होते हैं और इस दृष्टिकोण से देखते हुए हमें गरीब लोगों की देखभाल करनी है। यह सहज विज्ञान आपके लिए पूर्ण निःशुल्क है। आप इसे एक महीने में ही प्राप्त कर सकते हैं। चिकित्सा विज्ञान पढने के लिए आपको 7 वर्ष तक परिश्रम करना पड़ता है। चिकित्सक वर्ग को इस ज्ञान के जानने से विशेष लाभ होगा क्योकि वे लोग इसे भली प्रकार से ग्रहण कर सकते हैं वे देखेंगे कि यह योग पूर्णतः वैज्ञानिक है और बहुत सुन्दर ढंग से क्रियान्वित हो रहा है। चिकित्सक वर्ग स्वयं भी आश्चर्यवकित है। में तो इस ज्ञान को बहुत मानती हूँ। डाक्टर साहब ने इसे परा-विज्ान (Metascinence) की संज्ञा दी है। सहज विज्ञान तर्कसंगत रुप से इसका वर्णन कर सकता है। परन्तु विज्ञान तो इस पूर्णत्व को अपने में नहीं समेट सकता। विज्ञान एक ऐसा छोटा सा प्याला है जिसमें ज्ञान के समुद्र को नहीं भरा जा सकता। अत: जो वैज्ञानिक लोग विज्ञान को बहुत महान मानते हैं उन्हें देश के इस वैभव को समझने का प्रयास करना चाहिए। हमारा देश वास्तव में एक निर्धन देश है। सहजयोग में आपको पैसा लेने की आवश्यकता नहीं है। सब कार्य आपकी अपनी शक्तियों के द्वारा हो जाता है और इस प्रकार आप गरीब लोगों की सहायता कर सकते हैं यद्यपि कुछ धनी लोग भी आपके पास आ जाते हैं तो उनके बारे में अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे भी आप की परवाह नहीं करते, वे लोग केवल चिकित्सकों पर ही भरोसा करते हैं । इसीलिए आप उन्हें ठीक कर सकते हैं। हमारे लिए सब से अधिक महत्वपूर्ण है मध्यम तथा निम्न मध्यमवर्गीय लोग, जो अस्पतालों के स्वचे वहन नहीं कर सकते। इस अस्पताल में तीन हाल कमरों वाला एक प्रभाग ऐसे लोगों की सहायतार्थ रख दिया है, जो लोग खर्चे वहन नहीं कर सकते। यदि वे लोग यहाँ आकर ठहरते हैं, तो उन्हें इसके लिए ठहरने के स्थान का किराया देना होगा, जो कि अधिक नहीं है हमें उन चिकित्सकों तथा सम्बद्ध परिचारिकाओं आदि को भी वेतन आदि देना पड़ता है। यह शोध केन्द्र पूर्णतया बिना लाभ के उद्देश्य से चलाया परमात्मा आपको आशीर्वादित करे। वाई, पी. ओ सम्मेलन में व्यापारियों की अन्तर्राष्ट्रीय सभा के सम्मुख सम्मर परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का भाषण ओबराय होटल-मुम्बई 27.2.96 है और इस प्रकार धीरे -धीरे अह का विकास होता है। हटाये जाने पर बच्चा माँ से संघर्ष करने लगता है, तब माँ उसे ऐसा न करने को कहती है, तथा इस प्रकार बंधन आरम्भ होते हैं। आपको सत्य को वैसा ही जानना है, जैसे यह है। आप इसका परिवर्तन या रूपान्तरण नहीं कर सकते। मन मिथ्या है, परन्तु मस्तिष्क नहीं है। मानव मस्तिष्क कुछ विशिष्ट है, समपार्श्व (Prism) की भाति कुछ आधुनिक। पशुओं में ऐसा नहीं होता। मानव में दिव्य शक्ति मस्तिष्क से प्रवेश करती है और उसकी किरणें भिन्न दिशाओं में फैल जाती हैं। पहली सीधे अन्दर जाती है, दूसरी बायीं ओर पडते जाती है और दायीं ओर पड़ने वाली बायीं ओर चली जाती है। इस प्रकार दोनों किरणें मस्तिष्क से परिणामस्वरूप गुजरती हैं। परन्तु इनका कुछ अंश हमारा अनुकम्पी नाड़ी तंत्र खींच लेता है और उसका बाहर जाने वाला अंश हमारे चित्त का निर्माण करता है। जब हमारा चित्त किसी अन्य चीज से मानव-सम प्रतिक्रिया करता है-उदाहरणार्थ माँ जब बच्चे को स्तनपान कराती है तो बच्चा अत्यन्त शांत तथा प्रसन्न होता है परन्तु जब मा बच्च की एक ओर से दूसरी ओर ले जाती है तो बच्चे को चुनौती मिलती मस्तिष्क में दो प्रकार के गुब्बारे विकसित होते हैं-अह और बन्धन । एक भविष्य से आता है और दूसरा भूतकाल ये दोनों गुव्बारे हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रियाएँ हैं। ये दोनों ही विचारों के माध्यम से हमारे मन का निर्माण करते हैं। इस प्रकार हमारा मन इन विचारों के बुलबुले के परिणाम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। मन के साम्राज्य में रहते हुए हम बहुत विश्वस्त होते हैं जबकि वास्तव में विचार हमारे बाह्य चित्त की प्रतिक्रियाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और ये प्रतिक्रिया वास्तविकता नहीं है। से । हुए दायीं ओर चली व्यापार में हमें सबसे अधिक आवश्यकता शुद्ध चेतना की होती है। मान लीजिए आप अपना धन कहीं लगाते हैं और कल उसकी पूर्ण हानि हो जाती है यह तो एक अंश मात्र है। मान चेतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-9.txt लो कार खरीदने के लिए आप पैसा बचाना चाहते हैं। जब आप कार खरीदते हैं तो आप सन्तुष्ट नहीं होते। फिर आप एक और कार खरीदना चाहते हैं और इस प्रकार आप एक चीज से दूसरी की ओर बढ़ते चले जाते हैं और जिस चीज को प्राप्त करने के लिए आपने इतना कठोर परिश्रम किया होता है उसका आनन्द नहीं ले पाते। अर्थशास्त्र का नियम है कि आमतौर पर इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। अत: स्वयं को सन्तुष्ट करने के लिए जो भी प्रयास हम कर रहे हैं इससे हमें संतोष प्राप्त नहीं होता और यही कारण है कि इर समय हमारा मस्तिष्क परेशान रहता है। पर हैं। रीढ़ की हड्डी निचले भाग में एक त्रिकोणाकार अस्थि है जिसे अंग्रेजी में सेक़म (Sacrum) कहा जाता है। यह एक में एक संग्रहालयाध्यक्ष (Curaior) से पूछा कि आप इसे 'सैक्रम' क्यों कहते हैं, तो उन्होंने पूछा कि क्या आप नहीं जानते कि यह एक पवित्र अस्थि है। उसने यह भी बताया कि उन्हें यह ज्ञान भारतीयों द्वारा प्राप्त हुआ कि यह पवित्र अस्थि है। इसी अस्थि के भीतर वह शक्ति होती है। जिसे हम कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डल का अर्थ है छल्ला और यह एक स्त्री सुलभ शक्ति है जो हमें दूसरा जन्म प्रदान करती है। यह वास्तव में आपकी माँ है, आपकी अपनी व्यक्तिगत माँ जो आपके विषय में सभी कुछ जानती है। यह आपके भूतकाल को जानती है, आपकी आकांक्षाओं को जानती है। परन्तु ये आपकी माँ है; और माँ होने के कारण बिना कोई कष्ट दिए यह आपको जन्म देती है। कुण्डलिनी जागरण के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है कि जब कुण्डलिनी जागृत मैने यूनानी शब्द है। जब मेंने यूनान आज में बहुत प्रसन्न हूँ क्योंकि मैं पाश्चात्य मानसिकता के लोगों से बात कर रही हूँ। मेरा पाश्चात्य मानसिकता से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और मैं हैरान हूँ कि किस प्रकार ये लोग मन से परे की चीज खोजने में लगे हैं। ये सत्य को जानना चाहते हैं, तथा जीवन में सन्तोष और शान्ति पाना चाहते हैं । सभी प्रकार की समस्या हमारे विचारों से उत्पन्न होती हैं। तनाव प्रथम एवं सर्वोपरि समस्या है। पूरे पाश्चात्य विश्व में लोग भयानक तनाव से पीड़ित हैं और समाधान मस्तिष्क से ऊपर उठने में है। यह समाधान तो यहाँ हजारों वर्षों पूर्व से विद्यमान है। मैं जब कीव गई तो ये जान कर आश्चर्यचकित थी कि ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व भी वे त्रिकोणाकार अस्थि में स्थित इस शक्ति के विषय में बात करते थे मैंने जब उनसे पूछा कि वे किस प्रकार इसके विषय में जानते हैं तो उन्होंने भारत के कुछ सन्तों के नाम मुझे बताए जो वहाँ गए थे। मैें आश्चर्यचकित थी कि इतने लम्बे समय के पश्चात भी उन्हें ये सब बाते याद थीं। उनके पास से चित्र तथा उदाहरण हैं जिनके कारण वे इतना कुछ हुए होती है तो यह होता है, वह होता है आदि। परन्तु कुण्डेलिनी जागृति के बाद किसी के भी साथ कुछ गलत घटित होते नहीं देखा। यदि कोई इस के साथ जबरदस्ती करता है तो हो भी संकता है क्योकि यह हमारे विकास की जीवन्त प्रक्रिया है। जब तक हम इसको प्राप्त नहीं कर लेते हम शान्त व सन्तुष्ट नहीं हो सकते। हमें यह विश्वास प्रक्रिया, जो कि हमारी चेतना में एक छोटा सा भेदन मात्र है, को प्राप्त करना है। इसका हमारे व्यवसाय से क्या सम्बन्ध है? जब हमारी चेतना मस्तिष्क तक ही सीमित होती है, जो कि वस्तुओं के प्रति प्रक्रिया मात्र है, हम सोचने और योजनायें बनाने लगते हैं। तब क्या होता है? इसका प्रभाव चहूँ ओर पड़ता है, विशेष रूप से हमारे व्यवसाय पर। उदाहरणार्थ, में देखती हूँ कि भारत आने वाले लोग हमारी यहाँ बनी बस्तुओं का आयात करना चाहते हैं। उन्हें भारत के विषय में ज्ञान नहीं होता कि भारत में वहाँ क्या बहुत जानते हैं। हमारा देश बहुत से पैगम्बरों से आशीर्वादित है तथा महान सन्तों ने इसका पथ प्रदर्शन किया है। परन्तु बहुत से आक्रमणकारियों ने हम पर आकरमण किए और तीन सौ साल के बर्तानवी शासनकाल में हमने अपना बहुत सा वैभव खो दिया। आत्मज्ञान भी हमारी खोई हुई सम्पदा में से एक है। चीन के लोग भी यह जानते हैं कि भारत में आत्मज्ञान रूपी खजाना है। जब हम कहते हैं कि यह मेरा हाथ है, यह मेरा नाक है, यह मेरा शरीर है आदि आदि तो हमें 'मेरा' कहने वाले को खोजना चाहिए। ईसा ने भी इसके विषय में बात की और कहा कि अपनी आत्मा को जाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। कितना स्पष्ट शब्दों में लिखा है। परन्तु ईसा ने बाईबल नहीं लिखी, मोहम्मद साहब ने कुरान नहीं लिखी, मोजिज ने पुराना टेस्टामैन्ट नहीं लिखा। अत: कुछ चीजों को चुनौती दी जा सकती है। परन्तु हमें मात्र इतना जानना है कि हम अभी तक स्वयं को नहीं जानते। एक बार जब नम्रतापूर्वक हम इस बात को स्वीकार कर लेते हैं तो चीजें बेहतर कार्यान्वित होने लगती हैं तथा हमारी जिज्ञासा का दृष्टिकोण विनम्र हो जाता है। बनता है तथा किस वस्तु की उनके देश में माँग रहेगी और किस वस्तु का वे निर्माण करवा सकते हैं। गुजरात का व्यापारी एक बहुत बड़ी कम्पनी शुरू करना चाहता था मैंने कहा कर लीजिए। परन्तु श्रमिकों की व्यवस्था कैसे होगी। क्या आपने यह व्यवस्था कर ली है। जैसे ही उसकी कम्पनी शुरू हुई उस में बड़ी हड़ताल हो गई। यह हड़ताल लगभग एक वर्ष चली। बहुत अब वह परेशान हो गया कि किस प्रकार उन श्रमिकों को जो कि शराबी व दीवालिया हो चुके थे, वापिस काम पर बुलाए। ऐसे समय में कुछ भी नहीं सूझता। मैंने उसे समझाया कि तुम महाराष्ट्र में कार्य शुरू करो तथा पहले उसमें श्री गणेश का एक मंदिर बनाओ। यहाँ सब लोग गणेश जी के भक्त हैं और उन्हें लगेगा कि तथा कार्य का शुभारम्भ हो गया। मैंने उन्हें यह भी बताया कि दिवाली के दिन श्रमिकों के घरों में जाकर उनके शुभ गृहस्थ की तुम भी उनमें से एक हो। वे सब उद्घाटन पर आए हमारे सात चक्र होते हैं जिसमें से छः हमारे मध्य नाडी तंत्र मंगल कामना करो तथा कुछ उपहार स्वरूप दे कर आओ। ऐसी चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-10.txt यहाँ की रीति है। उसने ऐसा ही किया। उसका अधिक खर्च नहीं हुआ और आज वह अपने व्यवसाय में बहुत सफल व्यक्ति है। अब यह मेरी केवल एक सलाह है। इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। यह एक घटना है और आधुनिक काल, जिसे मैं बसन्त का समय, अन्तिम निर्णय कहती हैं, में इसे घटित होना है। कुरान में इसे कयामा कहा गया है- पुनरुत्थान का समय। ऐसा कहा गया है कि पुनरुत्थान के समय आप के हाथ बोलेंगे। और यह घटित हो रहा है। आप इन चक्रों को अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर अनुभव करते हैं। अपनी अंगुलियों के सिरों पर आप इन चक्रों को अनुभव करते हैं। आप अपने विषय में जान सकते हैं। जब आप उन चक्रों का उपयोग करते हैं तो ये आपको आपकी स्थिति के विषय में आप की अपनी चेतना को विस्तृत होकर दिव्य बनना है। इसके लिए आप को कुछ भी त्याग नहीं करना पड़ेगा और न ही आप को यह सोचना पड़ेगा कि यह अन्धविश्वास है क्योंकि सब कुछ आप के अन्दर घटित होता है और आप हो जागृत में जाते हैं। एक बार जागृत होने पर, आप की चेतना बहुत परिवर्तन आते हैं। पहले आप की चेतना स्पष्ट नहीं थी। हो बताते हैं के आप और आप के चक्र कैसे हैं। इन चक्रों में यदि सकता है अनुभव के आधार पर आप बहुत कुछ जान जाएँ। मैंने देखा है, जो व्यापार में बहुत निपुण होते हैं, वो कोई बाधा हो तो या तो आपको शारीरिक, मानसिक कष्ट हो जाता है या भावनात्मक। परन्तु अचानक बूढ़े हो जाते हैं अथवा अचानक किसी चीज से परेशान हो जाते हैं भलें ही इसका धन से कोई सम्बन्ध न हो। वे कालान्तर में मरियल से प्रतीत होने लगते हैं। इसका कारण यह है, कि वे हर समय पैसे के बारे में सोचते रहते हैं। कुण्डलिनी जागरण के बाद, यह शक्ति आप के छः चक्रों से उठती हुई निकलती है और हमारे ब्रह्मरंध को भेदती हुई बाहर आती है। यही हमारी दीक्षा का वास्तवीकरण है। किसी पादरी अथवा पंडित का हमारे सिर पर हाथ रख कर यह कहना नहीं कि आप दीक्षित हो गए। जब कुंडलिनी शक्ति का मिलन परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति से होता है तो आप इसे अपनी अँगुलियों के पोरों पर महसूस कर सकते हैं। यह परम चैतन्य की शीत लहरी है। आप इस परम चैतन्य को महसूस कर सकते हैं। भले ही आप इसे कोई भी नाम दें परन्तु यही परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापक है, जो कि सभी सुन्दर कार्य कर रही है। आपकी शक्ति सीमित है और उससे आप बेहद परिश्रम कर रहे हैं। आप को अपार शक्ति प्राप्त करनी होगी। यह अपार शक्ति यदि दिव्य-शक्ति है तो यह प्रेम, ज्ञान तथा आनन्द की शक्ति है। उस शक्ति से एकाकार हो कर आप अत्यन्त शक्तिशाली करुणामय बन जाते हैं और आप कभी थकते नहीं। उदाहरणार्थ में इस समय 73 वर्ष की हो चुकी हूँ आप मेरी शक्ति देखिए। मैं पूरे विश्व में भ्रमण करती हूँ। लोग मुझ से कहते हैं कि माँ आप थकती ही नहीं हैं! क्योंकि मै कभी नहीं सोचती कि मैं यात्रा कर रही हूँ। मुझे लगता है कि मैं सोफे पर बैठी हूँ। मस्तिष्क से ऊपर उठ कर ही आप वह शान्ति तथा परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति से एकाकारिता प्राप्त कर सकते है। यह दिव्य प्रेम सर्वप्रथम आपको सुन्दर स्वास्थ्य प्रदान करता है। भविष्य के विषय में बहुत अधिक सोचने से आपके दूसरे चक्र, स्वाधिष्ठान, पर दुष्प्रभाव पड़ता है और फलस्वरूप आपको से रोग हो सकते हैं। चिकित्सा विज्ञान में शारीरिक पहलू अह्र सुन्दर फूलों को जब आप देखते हैं तो बिना उनके विषय में सोचे आप उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। यह एक चमत्कार है। यदि आप अपने मनोवैज्ञानिक चिकित्सक से पछें कि हृदय को कौन चलाता है तो वह कहेगा यह कार्य स्वचालित नाड़ी प्रणाली करती है। परन्तु यह 'स्व' क्या है इसके बारे में हम कभी भी जानने की चेष्टा नहीं करते कि किस प्रकार धरती माँ के गर्भ से बीज अंकुरित होता है। क्योंकि बीज में अंकरित होने की शक्ति है और माँ में उस अंकुरण प्रकिया में सहायता करने की बहुत से इसकी अभिव्यक्ति महा धमनी चक्र (Aortic Plexus) के रूप में की गई है परन्तु यह चक्र अन्य स्तरों पर भी कार्य करता है। मै नहीं जानती कि चिकित्सा विज्ञान में लोग उसे स्वीकार करते है या नहीं, परन्तु मस्तिष्क जब सोचता है तो भूरे रंग के कोषाणुओं को शक्ति पहुँचाना इस चक्र का महान कार्य है। आपके जिगर, अग्नाशय, प्लीहा, गुर्दे तथा आतों की देखभाल भी इसी चक्र को करनी होती है। यदि आप हर समय सोचते रहते हैं और भविष्य की योजनाएं बनाते रहते हैं तो यह बेचारा चक्र आपके महत्वपूर्ण अवयवों की देखभाल नहीं कर पाता। तो कौन से अवयव की उपेक्षा होती है? सर्वप्रथम आपके जिगर की। शरीर में संचित गर्मी रूपी विष को नाड़ियों के माध्यम से बाहर फेंकना जिगर का कार्य है। परन्तु जब यह चक्र जिगर की देखभाल नहीं कर पाता तो जिगर अपना कार्य करने में असफल हो जाता है और गर्मी एकत्र हो जाती है। यह गर्मी जब ऊपर की ओर उठती है तो फेफड़ों की देखभाल करने वाले आपके हृदय चक्र को प्रभावित करती है और फलस्वरूप आपको अस्थमा (दमा) रोग भी हो सकता है। जिगर से यह गर्मी यदि क्षमता है। इसी प्रकार इस ज्ञान का सूक्ष्म वैभव आप में भी निहित है, परन्तु आप उसके विषय में नहीं जानते। जब कुण्डलिनी उठती है तो आपके शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक तथा अध्यात्मिक स्वास्थ्य के जिम्मेदार छः चक्रों को ज्योतिर्मय करती है। विकास प्रक्रिया में हम एक स्थान पर खड़े हैं जहां इस उच्चतर चेतना की ओर उड़ान भर सकते हैं। मेरी बतायी गई बात को आप बिना सोचे समझे स्वीकार न करें क्योंकि अन्धविश्वास ने हमारे लिए बहुत सी समस्याएं खड़ी की हैं। इसके विषय में कोई अन्धविश्वास नहीं होना चाहिए। उसका वास्तवीकरण होना चाहिए बिना इसे अनुभव किए आपको ४ चैतन्य लहरी 10 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-11.txt अग्नायशय की ओर चली जाए तो अग्नाशय खराब हो जाता है जो हृदय-घात होता है वह अधिक घातक हृदय-घात होता और व्यक्ति को एक आम रोग मधुमेह हो सकता है। भारत में है। गावों में कार्य करने वाले लोगों को मधुमेह नहीं होता क्योंकि न तो उनका कोई बीमा होता है और न वे अपने भविष्य के विषय में चिन्तित होते हैं। जो कुछ भी वे कमाते हैं रखर्च कर डालते हैं और सदा सन्तुष्ट व निश्चिंत रहते हैं ये लोग इतनी चीनी का सेवन करते हैं कि इनकी चाय में पड़ी चीनी में चुम्मच भी देखें, यदि यह मेन से जुड़ा हुआ नहीं है, तो यह अर्थहीन है। सीधा खडा हो सकता है। जो लोग मेज पर कार्य करते हैं उन्हें इसी प्रकार पाश्चात्य देशों के लोग भी खोए हुए हैं। शुरु- शुरु में ही मधुमेह होता है क्योंकि उनकी सारी शक्ति अग्नाशय के मेरी बहुत से हिप्पी लोगों से मुलाकात हुई। मैंने उनसे पूछा कि स्थान पर मस्तिष्क में चली जाती है। आधुनिक जीवन उत्तेजना से परिपूर्ण है। अमेरिका में मैं कि हम प्राचीन समय के लोगों की भांति बनना चाहते हैं मैंने हैरान थी, लोग कार में अपने दांत साफ करते हैं। प्रातः काल आप समाचार पढ़ते हैं। ऐसा आपको नहीं करना चाहिए क्योंकि भयानक समाचारों को पढ़कर आप हड़बड़ा जाते हैं आप संवेदनशील व्यक्ति है तो आपके अन्दर हड़बड़ाहट की आदत सी बनने लगती है। इस आपात स्थिति में हर समय प्लीहा को लाल रक्त कोषाणु बनाने पड़ते हैं। प्लीहा को इस तरह का विक्षिप्त आचरण समझ नहीं आता कि यह व्यक्ति इतना उत्तेजित क्यों हैं। प्रात काल समाचार पत्र पढ़ने के बाद आप (Uppies) रोग कहते हैं। इस बीमारी में व्यक्ति रेंगने वाले जीव अपने दफ्तर दौड़ते है, कार में आप नाश्ता करते हैं। दफ्तर जाकर आप अपने अफसर को चिल्लाते हुए पाते हैं या आपको हाथों और पैरों को होशोहवास में नहीं चला सकते। क्योंकि आप पता चलता है कि कम्पनी को घाटा हो गया है। इन सब बातों लोग अभी नौजवान हैं इसलिए मैं आपको सचेत कर रही हूँ कि जो लोग बहुत अधिक परिश्रम का कार्य करते हैं. उन्हें समझना चाहिए कि उन्हें अधिक ऊर्जता की आवश्यकता होती है ताकि वे स्वस्थ रह सकें। यह तभी संभव है जब आप अपने मुख्य स्त्रोतं (Moin) से जुड़े रहें। अब आप यह माइक्रोफोन ही वे अपने बालों को इस प्रकार से क्यों बढ़ा रहे हैं? उन्होंने कहा उन्हें कहा कि आपके साथ यह संभव नहीं है क्योंकि आपके अन्दर आधुनिक मस्तिष्क है। समस्या का बाह्यज्ञान समाधान नहीं है । और यदि । अंतिम समस्या जो आप को हो सकती है वह है दायीं ओर का पक्षाघात। प्रकृति ही इससे आपको छुटकारा दिला सकती है और सबसे बुरी बात जो मैंने देखी है, वह यह है कि आप का चेतन मस्तिष्क संकटावस्था में चला जाता है। इसे 'युष्पीज़' की भाति हो जाता है। मस्तिष्क ठीक रहता है परन्तु वह अपने का कुप्रभाव आप पर पड़ रहा है और आपमें भयानक हड़बड़ाहट है। आपात स्थिति में आपके लिए कार्य करने वाला आपका प्लीहा खराब हो जाता है तथा रक्त केंसर नामक भयानक रोग का आरम्भ होता है। अब आंतड़ियों को लें। आंतडियों के चिपक जाने से व्यक्ति को भयानक किस्म की कब्ज हो जाती है। स्विटजरलैण्ड में मै यह देख कर हैरान थी कि वे कब्ज दूर करने के लिए डबल रोटी में कार्क (बेलूत वृक्ष) के बीज खाते है । भारत में हम यह बीज भेसों की कब्ज दूर करने के लिए देते हैं पूछने पर उन्होंने बताया कि यह बीज कब्ज के लिए बहुत अच्छे हैं। भविष्य के विषय में बहुत अधिक सोचने के कारण उन्हें यह भयानक रोग हो जाता है। यदि आप को अपने जीवन का आनन्द लेना है तो आप मुख्य द्रोत से जुड़ जायें, शक्ति के मुख्य स्रोत, इस सर्वव्यापी शक्ति से जुड़ जायें जो विद्यमान है, और जिसे आप अनुभव कर सकते हैं। यह सर्वव्यापी शक्ति आप को प्रेम करती है तथा आप पूरा जीवन इसका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और चकित रह जाते हैं कि किस प्रकार सभी कार्य हो रहे हैं परन्तु इस के लिए सर्वप्रथम आपके अन्दर पूर्ण आत्मविश्वास का होना आवश्यक है और यह जानना भी आवश्यक है कि आपका मानव रूप में जन्म किसी उद्देश्य से हुआ है। आपका मानव जन्म बिना किसी मंजिल को प्राप्त किए इधर-उधर पैसा व्यर्थ करने के लिए नहीं हुआ। पूर्ण आनन्द की प्राप्ति के लिए आपको इस शक्ति से जुड़ना पड़ेगा। जब तक आपकी चेतना विस्तृत नहीं होती आप सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर सकते। अब आप मान लीजिए कि एक 25 वर्ष का नौजवान लड़का है जो कि टैनिस भी खेलता है और बहुत शराब पीता हो, तो उसका जिगर कार्य करना बन्द कर देगा और जब गर्मी और ऊपर की ओर (अर्थात हृदय की ओर) बढ़ेगी तो उसे घातक हृदय धात (Mossive Heart Aftock) हो जाएगा जो कि प्राणलेवा हो सकता है। यह हृदय घात बाद में भी हो सकता है और वह व्यक्ति संघातक हृदय-घात से मर सकता हृदय-घात प्रगतिशीलता की प्रक्रिया में हम मानव चेतना के स्तर तक पहुँच चुके हैं और अब आपको इस नई चेतना में छलांग लगानी है जिसके द्वारा हमें न केवल अंश का, अपितु पूर्णत्व का ज्ञान होता है। आप भविष्य के विषय में जान जाते हैं और आपका चित्त इसकी ओर चला जाता है। आप लहरों में फँसे व्यक्ति है। हुए नहीं है, अपित् आप बह व्यक्ति हैं जो स्वयं को जानता है और प्रेम से परिपूर्ण है इस दिव्य शक्ति के होते ही ऐसे लोग दो प्रकार का होता है। एक तो वह जो बहुत अधिक क्रियाशील व्यक्ति को होता है तथा दूसरा वह जो अकर्मण्य व्यक्ति को होता है जिसे एन्जाईना (Angina) कहते हैं। परन्तु व्यापार से जागृत भी महान वक्ता बन गए जो पहले बोल भी नहीं सकते थे। चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-12.txt सकते हैं। मुझे आशा है कि आप लोग इसे आजमायेंगे। यद्यपि मुझे मालूम है कि आप लोग बहुत समृद्ध व्यक्ति हैं और ईसा मसीह ने कहा है कि आप लोग परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते, परन्तु है कि सहजयोग में बहुत से लोग आए और न केवल बाह्य रूप से अपितु आन्तरिक रूप से भी हो गए। आप अपने गुणों का तथा अपनी उदारता का आनन्द उठायें और अन्ततः इस आनन्द के सागर में कुद पड़ें। भारतवर्ष में बहुत से ऐसे कलाकार हैं जो आत्मज्ञान पाने के पश्चात अपने क्षेत्र में महान हो गए| व्यापार में भी आपकी सृजनात्मकता बढ़ जाती है। पूर्णतः को समझते हुए आप अपने व अपने परिवार की सहायता करते हैं। आप सत्य को अपने हाथों की उंगलियों के पोरों पर जाँच सकते हैं। मैं ऐसा नहीं मानती, क्योंकि मैंने देखा समृद्ध समृद्ध अपनी आत्मा के प्रकाश में आपको सत्य व असत्य का ज्ञान हो जाता है। आपकी चेतना ज्योतिर्मय हो जाती है और सभी व्यर्थ की चीजों को आप छोड़ देते हैं। हमें अपनी कमजोरियों, अपनी सफलताओं व अपनी सामर्थ्य के प्रति अपनी हो परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें । आँवें खोलनी हैं तभी आनन्द को प्राप्त करके आप सन्तुष्ट शिव पूजा 3 मार्च 1996 सिडनी परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) हमारे अन्दर श्री शिव, सदाशिव का प्रतिबिम्ब है सदाशिव आदिशक्ति की लीला को देखने वाले सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं। वे अपनी सृष्टि की हर रचना को देखने वाले पिता हैं । आदिशक्ति को उनका अवलम्ब पूर्णतः शक्तिप्रद है। उनके मस्तिष्क में आदिशक्ति के सामर्थ्य के विषय में कोई सन्देह नहीं परन्तु जब भी वे संसार के लोगों को आदिशक्ति के कार्य को बिगाड़ते हुए पाते हैं तो उन्हें भयानक क्रोध आ जाता है और वे ऐसे लोगों का और कभी-कभी तो पूरे विश्व का विध्वंस कर देते हैं। एक ओर तो वे क्रुद्ध मुद्रा में हैं और दूसरी ओर करुणा एवं आनन्द के सागर हैं। यही कारण है कि जब वे हमारे अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित होते हैं तो हमें आत्मसाक्षात्कार मिल जाता है, हमें आत्म-प्रकाश प्राप्त हो जाता है और हम आनन्द के सागर में प्रवेश कर जाते हैं। बीतने के साथ-साथ आज अध्यात्मिकता के इतिहास में एक महान खोज की गई है कि लोग सामूहिकता में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। हजारों लोग एक साथ साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। अब हमें यह समझना चाहिए कि आत्मसाक्षात्कार है क्या? इसका अर्थ क्या है? इसका सर्वोच्च शिखर बिन्दु क्या है? सर्वप्रथम तो जिस मन, के विषय में हम बातचीत करते हैं। ओर जिस पर हम निर्भर हैं, मिथ्या है। मन जैसी कोई चीज नहीं। मस्तिष्क वास्तविकता है मन नहीं। बाहर की चीजों के प्रति प्रतिक्रिया करते हुए हमने मन की सृष्टि की है। हम या तो अपने बन्धनों के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं या अपने अहम् के प्रति। इस प्रकार वास्तविकता के सागर पर बुलबुलों की तरह इस मन की सृष्टि होती है। परन्तु यह वास्तविकता नहीं है। मन वे ज्ञान के सागर हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के पश्चात् से जो भी निर्णय हम लेते हैं, हम जानते हैं कि वे अति सीमित होते हैं, भ्रातिजनक होते हैं और कभी-कभी तो दहला देने वाले अति सूक्ष्म है और हर अणु-रेणु में व्याप्त है। इस ज्ञान की भी होते हैं। मन सदा एक रेखीय दिशा में चलता है और क्योंकि शक्ति विद्यमान है। सदाशिव की कार्यशैली ऐसी है कि अपनी इसमें बास्तविकता का पूर्ण अभाव होता है यह पलट कर वापिस आता है और उसी व्यक्ति को हानि पहुँचाता है। अत: ऐसा लगता है कि अब तक जो भी उद्यम एवम् प्रक्षेपण हमने किए उनका आशीर्वाद पा कर लोग आदिशक्ति के भक्तों को कष्ट हैं वे पलट कर हमें ही प्रभावित करते हैं। जो भी कुछ हम खोजते हैं चह पलट कर एक बड़ी विध्वंसक शक्ति या बहुत बड़े आघात के रूप में हम पर आता है। व्यक्ति को निर्णय करना है कि वह क्या करे नन के इस शिकंजे से किस प्रकार परमात्मा का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है। परमात्मा का ज्ञान करुणावश वे अपने प्रति समर्पित अत्याचारी राक्षसों को भी क्षमा कर देते हैं। उनकी करुणा असीम है और कभी-कभी तो देने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु यह सब तो केवल एक नाटक की सृष्टि के लिए है। बिना नाटक की सृष्टि किए लोग इस बात को न समझ पायेंगे। इस शैली के फलस्वरूप रामायण, महाभारत बनी, ईसा का क्रूसारोपण हुआ तथा मोहम्मद को यातनायें दी गई। यह नाटक सदा विद्यमान था परन्तु लोग इसे याद नहीं रखते। अध्यात्मिक जीवन में मानव ने आदिशक्ति के आशीर्वादों और शक्तियों के बीच बहुत सा नाटक देखा है। समय छुटकारा पाए ? कुण्डलिनी इसका समाधान है। जागृत होकर यह आपको मन से परे ले जाती है। मन से आप बहुत से कार्य करते हैं। परन्तु यह सन्तोषप्रद नहीं होते। इनसे कोई समाधान न होगा चैतन्य लहरी 12 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-13.txt और न ही कोई सहायता मिलेगी। मन पर जब हम बहुत सहज है। परन्तु उस स्थिति को बनाये ररखना कठिन है। अभी अधिक निर्भर होने लगते हैं तो हममें सभी प्रकार की शारीरिक, तक भी हम प्रतिक्रिया करते हैं और सोचते हैं किसी भी चीज मानसिक और भावनात्मक समस्यायें खड़ी हो जाती हैं । इनमें को देख कर आप प्रतिक्रिया करते हैं। निर्विचार समाधि के उस आधुनिकतम है 'तनाव'। लोग कहते हैं कि तनाव का कोई बिन्दु तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम आपको अपना चित्त समाधान नहीं है। परन्तु सहजयोग में मन से ऊपर जा कर हम समाधान पा लेते हैं। हमारी उन्नति के मार्ग में यह अवरोध (रुकावट) सम है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने पर यह समझ लेना आवश्यक होता है कि आपकी कुण्डलिनी आपको मन से परे ले गई है। मानव मस्तिष्क या खोपड़ी समपार्श्व (Prism like) होने के कारण बाह्य चीजों के प्रति प्रतिक्रिया करता है। ऊर्जा जब इसमें से गुजरती है तो यह दो या कई दिशाओं में ओर देखते हुए मैंने देखा कि बहुत सुन्दर हाथी संगमरमर में खुदे (bifurcotions or refracions) जाती है जिसके कारण हमारा चित्त बाहर की ओर चला जाता है और हम प्रतिक्रिया करते हैं । हम यदि बहुत अधिक प्रतिक्रिया करते हैं तो ये निकल रही है, आप हाथियों की पूँछों के बारे में कैसे सोच बुलबुले एक अति भयानक मन की सृष्टि करते हैं जो व्यक्ति सकती हैं? उनके चित्त की दिशा थकान से परिवर्तित करने के को किसी भी दिशा में ले जा सकता है। यह स्वयं को न्यायोचित लिए मैंने उन्हें कहा कि क्यों न हाथियों की पूँछों को देखा ठहराता है और आपके अहं को बढ़ावा देता है। मन की सृष्टि जाए। करने वाले ये अहम् और बन्धन मन्द -मन्द बहने लगते हैं और एकत्रित हुए वास्तविकता रहित अनेक विचारों आदि की सन्तुष्टि तो सर्वप्रथम आपको अपने चित्त की दिशा को परिवर्तित करना के लिए मन कार्य करने लगता है। यह उसी प्रकार है जैसे हम कम्प्यूटर बनाते हैं और अन्ततः कम्प्यूटर के दास बन जाते हैं। हम स्वयं घड़ियाँ बनाते हैं और फिर घड़ी के दास बन जाते हैं। परिवर्तित करना होगा। उदाहरणार्थ नामक मंदिर देखने के लिए ऊँची पहाडी चढ़ाई चढ़ रहे थे। इतनी सीढ़ियाँ चढ़ के हम बास्तव के थक गए परन्तु जब ऊपर पहुँचे तो संगमरमर का एक अति सुन्दर मण्डप बना हुआ था जहाँ हम लेट गए। ये लोग थक गए थे और वह कह रहे. थे कि इस मंदिर में ऐसी क्या विशेषता है! जबकि ऊपर की एक बार हम पलिताना थे। हुए थे और मैंने अपने दामाद से कहा कि सभी हाथियों की भिन्न प्रकार की पूँछे हैं। वह कहने लगा मम्मी, हम सब की जान हर समय जब आप अपना चित्त बाहा वस्तुओं पर डालते हैं। होगा उदाहरणार्थ - आप यह सुन्दर वस्तुएँ देखते हैं केवल उनके सौन्दर्य का आनन्द लेने का प्रयत्न करें। यहाँ पर सुन्दर कालीन हैं बस बिना सोचे इन्हें देखें। ये आपके नहीं हैं इसलिए कोई सिरदर्दी नहीं है। यदि यह आपके होते तो आप सोचते, हे परमात्मा, मैं यह कालीन यहाँ बिछा रहा हूँ, क्या होगा ?' यह सामान्य मानवीय प्रतिक्रिया है। परन्तु यदि ये आपके न हों तो आप चैन से इन्हें देख सकते हैं। अब आप बिना सोचे इन्हें देखें तो इनमें अन्तःनिहित सौन्दर्य को देख कर अपने आनन्द को इसमें भर देने वाले कलाकार को आप देखेंगे कि वह कितना सम्पन्न है। आप आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि आत्मसाक्षात्कार इस प्रकार यह मानव पर हावी हो जाता है। हिटलर की तरह से मन वाला व्यक्ति किस फ्रकार दृढ़ मन से विनाश करने का निर्णय लेता है! किसी विचार विशेष के अन्न्तगत वह विध्वंस किए चला जाता है जिसके कारण हमारी संस्कृति, हमारी अध्यात्मिकता पर गहन प्रभाव पड़ते हैं। पहला वरदान निर्विचार-चैतन होना है, वह स्थिति जहाँ आप अपने मन को पार कर जाते हैं। आप अपने मन से ऊपर चले जाते हैं और मन आपको प्रभावित नहीं कर सकता यह प्रथम अवस्था है जिसे हम निर्विचार समाधि कहते हैं। दूसरी स्थिति वह है जिसमें आप परम चैतन्य, इस सारी सर्वव्यापक शक्ति, के कार्यों को देखने लगते हैं और आपको यह बात समझ आने लगती है कि श्री माताजी जो कहती है उसमें काफी सत्य है तथा यह शक्ति बहुत सी चीजें कार्यान्वित्त करती है। चमत्कारिक रूप से यह आपके लिए बहुत से कार्य कर देती है। आपको आशीर्वादित करती है, आपका पथ-प्रदर्शन करती है तथा आपकी सहायता करती है। बहुत सी विधियों से यह आपकी सहायता करती है... करती है, वैभवशाली बनाती है और बहुत सुन्दर सामूहिक लोगों का अति सुन्दर समाज आपको प्रदान करती है। जो कुछ भी आप स्पष्ट देख सकते हैं वह यहां घटित हो रहा है। के पश्चात् आपको अपने अन्दर यह सम्पन्नता महसूस होगी और कुण्डलिनी उठेगी तथा आप निर्विचार समाधि में सुस्थित हो जायेंगे। चुने गए व्यक्ति की तरफ देखें उसकी ओर देखना मात्र ही उसे आशीर्वाद देता है, और उसे बेहतर विचार प्रदान करता है। आप भी विचार प्राप्त करते हैं जो वास्तविकता से |, ६ आते हैं। किस प्रकार इस व्यक्ति को सफल व्यक्ति बनाया जाए या किस प्रकार देश को सफल प्रजातन्त्र बनाया जाए। आलोचना तथा प्रतिक्रिया से जब आपका चित्त दूसरी दिशा को चला जाता है तब यह घटित होता है साक्षी बनें। हर चीज को साक्षी रूप से देखने का प्रयास करें। इसका अभ्यास नहीं किया जाता। मैंने देखा है कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् भी हम यह महसूस नहीं करते कि हमें हर चीज को साक्षी भाव से देखना है जब आप आत्मा के माध्यम से साक्षी रूप होकर देखने लगते हैं तो आपको दूसरों की खामियां नहीं दिखाई देतीं, उनकी अच्छाईयाँ दिखाई देती हैं। अच्छाईयों से परिपूर्ण आपको अच्छा स्वास्थ्य प्रदान निर्विचार समाधि प्राप्ति की घटना अत्यन्त साधारण एवं चैतन्य लहरी 13 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-14.txt हत्या की थी और अब इजराईल में एक बहुत बड़ा ध्यान केन्द्र आरम्भ हो गया है कल्पना कीजिए एक बार उस स्थिति को प्राप्त कर लेने पर ये लोग अकेले ही भिन्न देशों में चले जाते हैं। उन्होंने कितना अधिक कार्य किया है। टर्की में तथा साऊथ अफ्रीका जैसे दूरस्थ स्थानों में भी ऐसा हुआ है। निर्विचार समाधि से निर्विकल्प समाधि में उन्नत होकर वे पूर्णतः विश्वस्त हो जाते हैं। ध्यान स्थिति से एक बार जब आपका उत्थान होने लगता है तो आपका चित्त भी ज्योतिर्मय हो जाता है। व्यक्ति को आप चुनते हैं। एक बार जब आप इस प्रकार देखने लगते हैं तो साक्षी अवस्था का विकास होता है और तब आप दूसरे व्यक्ति का आनन्द लेने लगतें हैं। आप हर चीज का आनन्द लेने लगते हैं। घास के एक छोटे से पत्ते का भी आनन्द ले सकते हैं। इसी आधार पर जैन प्रणाली शुरु हुई और विदित्मा ने काई से एक बाग की सृष्टि की जिसमें भिन्न किस्म की काई और छोटे-छोटे फूल होगा जो प्रश्न चिन्ह के आकार का प्रतीत होता है। पहाड़ की चोटी पर उस मंच तक पहुँचने के लिए आपको लिफ्ट से जाना पडता है। वह इतनी चमत्कारिक रचना है कि उसको देखते ही आपके विचार शान्त हो जाते हैं। परमात्मा की सृष्टि पर भी जब आप अपना चित्त डालते हैं तो आपके विचार रुक जाते हैं। किस चीज से आपके विचार रुकते हैं और क्या चीज आपको साक्षी बनाती है? इसे खोजने का आप अवश्य अभ्यास करें। एक बार जब यह आदत बना लेंगे तो आप भली-भाति निर्विचार समाधि में स्वयं को सुस्थित कर पायेंगे, तब आप केवल देखेंगे कि किस प्रकार सहजयोग ने आपकी सहायता की, यह आपके लिए कितना आशीर्वाददायी बना और सहजयोग के माध्यम से आपने क्या प्राप्त किया। परम चैतन्य को जब आप हर जगह देखने लगेंगे तो आप इसकी कार्यशैली को देवकर हैरान हो जायेंगे। भी थे मुश्किल से पाँच फुट का बाग अब हमारे सम्मुख जो कार्य है वह है चित्त को अग्रसर करना। इसका केवल आनन्दमात्र लेना नहीं, इसे अग्रसर करना और इसका उचित उपयोग करना। मान लो राष्ट्रीय स्तर पर आपको कोई समस्या है तो आप सामूहिक रूप से इस पर चित्त डालें और सब ठीक हो जाएगा, क्योंकि आप परमात्मा की उस सर्वव्यापक शक्ति के माध्यम हैं जो आपके लिए, नये मानव के लिए एक नये विश्व की सृष्टि करने का प्रयास कर रही है। यदि आप सब लोग निर्णय कर लें कि अपनी अन्तस्थित शक्ति को आपने प्रेरित करना है, इसको दिशा देनी है तथा इस चित्त का उपयोग करना है तो यह विकास बहुत जल्दी घटित हो जाएगा। हमारा यह वैभव व्यर्थ नहीं होना चाहिए। आज जो मुख्य प्रश्न हमारे सम्मुख है वह है कि परमात्म - साक्षात्कार क्या है? सर्वप्रथम आत्मसाक्षात्कार हैं परन्तु इसके पश्चात् बहुत से महत्वाकांक्षी लोग परमात्म-साक्षात्कार को पा लेना चाहते हैं। पहली और मुख्यतम बात जो हमें बैठे अब कृत युग के कारण यह परम चैतन्य गतिशील हो उठा है। मेरे चहूँ ओर विद्यमान चैतन्य लहरियों से, चैतन्य लहरियों से परिपूर्ण मेरे बहुत से चित्रों से, आप देख सकते हैं कि परम चैतन्य किस प्रकार लीला कर रहा है। आपने मेरे सम्मुख बहुत से सहजयोगियों के फोटो भी देखें हैं जिनके सिर पर अरबी भाषा में मेरा नाम लिखा हुआ है। भिन्न विधियों से आपने देखा है और आप यह जान सकते हैं कि परमात्मा की लीला चल रही है| े समझनी है वह यह है कि मानव परमात्मा नहीं बन सकता। एक प्रकार से आप आत्मा भी नहीं बने हैं क्योंकि आत्मा आपके माध्यम से प्रसारित हो रही है आपको उपयोग कर रही है, आपको दे रही है और आपकी देखभाल कर रही है। यदि आप परन्तु अब भी मस्तिष्क कुछ न कुछ कहने का प्रयास करेगा। उसकी बात न सुनें। केवल देखें। स्वयं अपने पर और अपने शरीर पर सहजयोग के प्रभाव देखें इसके विषय में सोचे नहीं, इसे केवल देखें और आप आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि आप किस प्रकार परिवर्तित हो गए हैं। आत्मा बन जायेंगे तो कोई भी शेष न रहेगा। तो इस शरीर के रहते इसी के माध्यम से आत्मा कार्य कर रही है और हुए आपको पूर्ण प्रकाश प्रदान कर रही है। परन्तु व्यक्ति सर्वशक्तिमान परमात्मा नहीं बन सकता। यह बात आपको स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। परमात्मा के विषय में जानना ही परमात्म-साक्षात्कार यही साक्षी अवस्था आपको एक अन्य साम्राज्य (उच्चावस्था) है। परमात्मा की कार्यशैली को समझना और सर्वशक्तिमान परमात्मा का अंग-प्रत्यंग बनकर यह समझ लेना कि वह किस प्रकार सब कुछ नियन्त्रित करता है, यही परमात्मा का ज्ञान है। जैसे मेरी अँगुली मेरे मस्तिष्क के विषय में नहीं जानती परन्तु यह मेरे मस्तिष्क के इच्छानुसार कार्य करती है। अँगुली मस्तिष्क नहीं बन सकती परन्तु इसे पूरी तरह से मेरे मस्तिष्क के अनुसार कार्य करना पड़ता है क्योंकि यह मस्तिष्क से इतनी जुड़ी हुई है। मस्तिष्क से इसकी इतनी मुक्त हो जाते हैं। तब आप महान सहजी की तरह खड़े हो एकाकारिता है। जब आपको परमात्म-साक्षात्कार हो जाता जाते हैं जो आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है। हाल ही में मैंने है, आप मस्तिष्क के विषय में जान जाते हैं तो आप परमात्मा को जान जाते हैं। आप उसकी शक्तियों के रहे हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि उनके पूर्वजों ने यहूदियों की विषय में सभी कुछ जान जाते हैं। जहां तक मेरा में ले जाएगी जिसे हम निर्विकल्प चेतना कहते हैं। इस अवस्था में आप इतने सशक्त हो सकते हैं कि आप अन्य लोगों को साक्षात्कार दे सकते हैं; आप सहजयोग का पूरा ज्ञान दे सकते हैं, लोगों से बात कर सकते हैं और चैंतन्य भी प्रसारित कर सकते हैं। आपकी सम्पूर्ण अध्यात्मिक स्थिति अति आनन्दमय हो जाती है, आप अत्यन्त शक्तिशली, करुणामय, प्रेममय, सन्तुलित तथा विनाशकारी एवम् कष्टदायी विचारों से पूर्णतः सुना है कि कुछ जर्मन और आस्ट्रीयन सहजयोगी इजराईल जा चैंतन्य लहरी 14 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-15.txt सम्बन्ध है मुझे समझ पाना आप लोगों के लिए कठिन कार्य है क्योंकि मैं महामाया हूँ। मेरे विषय में सब कुछ जान पाना आपके लिए बहुत कठिन है। मैं अत्यन्त भ्रांतिजनक, व्यक्ति हूँ और आपको समझ लेना चाहिए कि आखिरकार ये आदिशक्ति हैं। ये सभी कुछ कर सकती हैं। आप भी सभी कुछ कर सकते हैं, परन्तु आप जैसे नहीं बन सकते। आपको प्रेम के माध्यम से, उनके आशीर्वाद तथा आपके प्रति प्रेम के कारण आप ऐसा कर सकते हैं। आप परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर चुके हैं मैं कह सकती हूँ कि आपने परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करके वह स्थिति पा ली है। परन्तु अभी तक आप उस स्थिति में नहीं हैं। जैसे यदि मैं किसी को कहूँ कि आप आस्ट्रेलिया में हैं, आस्ट्रेलिया में नहीं है फिर भी में कह सकती हूँ कि आप आस्ट्रेलिया में हैं। वह विश्वास कर लेता है कि वह आस्ट्रेलिया वह मुझ भक्ति के माध्यम से और प्रार्थना के माध्यम से परमात्मा में है। यह तरीका नहीं है। आपको आस्ट्रेलिया में होना होगा, की शक्तियों को समझना है और इसी प्रकार आप आस्ट्रेलिया के विषय में जानना होगा कि वहाँ किस प्रकार की परमात्म-आत्मसाक्षात्मारी हो सकते हैं। तब आप प्रकृति को तथा अन्य सभी चीजों को नियन्त्रित कर सकते हैं। परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पूर्ण नम्रता का होना भी यह गुण स्वयं में विकसित करना होगा अर्थात आपको पूर्णतः आवश्यक है। आप देवी-देवता नहीं बन सकते। परन्तु निश्चय ही आप परमात्म-आत्मसाक्षात्कारी बन सकते हैं अर्थात परमात्मा आपके माध्यम से कार्य करता है, अपनी शक्ति के रूप में कि पेड का रस ऊपर को उठत्ता है, पेड के भिन्न अवयवों में आपका उपयोग करता है, आपको अपना माध्यम बनाता है, आप यह जान जाते हैं कि परमात्मा आपके साथ क्या कर रहे हैं आपको क्या बता रहे हैं तथा उनकी इच्छा तथा सूचना क्या है। इस प्रकार का सम्बन्ध बन जाता है। सहजयोग में बहुत विशेष से सम्बन्धित है, इन कारणों से यदि आप लिप्त हैं तो लोग लाभान्वित हुए हैं। परन्तु वे नहीं जानते कि यह कैसे हुआ। किसने और कैसे यह सब घटित किया। उनके कौन से सम्बन्ध ने उनकी सहायता की। एक बार जब आप स्पष्ट रूप से समझ जाते हैं कि, किस प्रकार चीजें कार्यान्वित में नहीं रह सकते। निर्विचार समाधि की अवस्था अति सुन्दर है। हो रही हैं तथा आपको कौन सी शक्तिया प्राप्त हो गई हैं तो यह परमात्म- आत्मसाक्षात्कार है। ऐसे लोग अत्यन्त शक्तिशाली हो जाते हैं क्योंकि वे बहुत सारी चीजों को होते हैं। आप अपनी टांगों पर खड़े होते हैं और अच्छी तरह से कार्यान्वित कर सकते हैं। इस प्रकार के हैं। परन्तु कभी-कभी अहंकार बढ़ जाने के कारण उनका पतन भी हो जाता है। ऐसा उनमें नम्रता, श्रद्धा, भक्ति और फिर अपनी उड़ान को प्राप्त करना आपका कार्य बन जाता है। समर्पण के अभाव के कारण होता है। उनका पतन हो जाता है क्योंकि अपनी उपलब्धियों पर उन्हें गर्व हो जाता है और किसी अन्य से वे इन्हें बाँटना नहीं चाहते। वे सोचते हैं कि बडी कठिनाई से उन्होंने यह उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं तो क्यों इन्हें अन्य लोगों को दिया जाए। ऐसे लोग बहुत अधिक बुलंदियों को न पा सकेंगे। परन्तु आप लोग, जिन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो है। चुका है, जो विनम्र हैं और जानते हैं कि केवल विनम्रता द्वारा ही आपको समर्पण प्राप्त हो सकता है, यह स्थिति प्राप्त कर जलवायु है तथा वह कैसा स्थान है । शिव के बहुत से गुणों में से 'पूर्ण निर्लिप्सा' एक है, आपको निर्लिप्त होना होगा निर्लिप्सा का यह अर्थ नहीं है कि आप किसी चीज की उपेक्षा करें। बहुत बार मैंने आपको बताया है से होता हुआ या तो वाष्पीकृत हो जाता है या पृथ्वी माँ में वापस चला जाता है। आपकी निर्लिप्सा भी ऐसी होनी चाहिए। यह आपका बेटा है, वह आस्ट्रेलियाई है या किसी परिवार या वर्ग अभी तक आप सीमित हैं। इनसे ऊपर उठने कै लिए आपको यह सीमाएं त्यागनी होंगी। यह सीमाएं इतना अधिक बोझ बना देती हैं कि फिर हम जो भी प्रयास करते रहें निर्विचार समाधि आपको इस अवस्था में होना चाहिए। इस स्थिति में न तो आप प्रभुत्व जमा रहे होते हैं और न ही किसी से समझौता कर रहे. हो चुके से जानते हैं कि किसी विचार, किसी प्रभुत्व या दबाव से आप संचालित नहीं हैं। तो आप पूर्णतः स्वतन्त्र पक्षी हो जाते हैं। बहुत सन्त 1. एक उड़ान निर्विचार समाधि तक है, दूसरी निर्विकल्प समाधि तक और तीसरी परमात्म-साक्षात्कार तक। मैने देखा है कि मेरे बहुत समीप रहने वाले लोग भी नहीं समझते। वो इस तरह से बर्ताव करते हैं मानो देवता बन गए हों वह इतने अहम्वादी हैं कि मैं उन पर आश्चर्यचकित हूँ। अन्ततः उन्हें सहजयोग छोड़ना पड़ता ह मैं चाहे आपकी बहुत अधिक प्रशंसा कर, आपके विषय में सकते हैं। इस्लाम का अर्थ है समर्पण। मोहम्मद साहब ने बहुत कुछ कहूँ आपको फूल कर कुप्पा नहीं हो जाना चाहिए। यह परीक्षा स्थल है यदि मैं आपसे कहूँ कि यह ठीक नहीं है, इसका सुधार करो तो भी आपको बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि मुझे यह कार्य करना है, यह मेरा कार्य है और आपका कार्य मेरी बात को सुनना है क्योंकि मुझे आपसे कोई लाभ नहीं उठाना। मैं आपसे कुछ नहीं मांगती। मैं केवल इतना चाहती हूँ कि आपको मेरी सारी शक्तियाँ प्राप्त हो जाऐं। जो मैं हूँ, वो जो आप नहीं बन सकते, परन्तु कृपया मेरी शक्तयों को तो लेने का इस्लाम के विषय में बात की अर्थात उन्होंने कहा कि समर्पित हो जाईये। बिना समर्पित हुए आप कभी भी परमात्मा को नहीं जान सकते। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि स्वयं को जाने बिना आप परमात्मा को नहीं जान पायेंगे। सहजयोगियों के रूप में आपकी सभी छोटी-बड़ी चीजों तथा सभी महान स्वप्नों को जानना होगा परमात्मा की कृपा चैतन्य लहरी 15 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-16.txt प्रयास करें। मेरी शक्तियाँ प्राप्त कर लेना कठिन कार्य नहीं है। यही परमात्म-साक्षात्कार है। यही शिव और सदाशिव का ज्ञान पाना है। शिव के माध्यम से आप सदाशिव को समझते हैं। आप प्रतिबिम्ब को देखते हैं और प्रतिबिम्ब से समझते हैं कि प्रतिबिम्बक कौन है ? प्रतिबिम्ब से आप सीखते हैं। इस प्रकार आप उस स्थिति में पहुँच जाते हैं जहाँ आप सोचते हैं कि निश्चित रूप से आप परमात्मा के साम्राज्य में स्थापित हो गए हैं तथा परमात्मा को देख सकते हैं, परमात्मा को महसूस कर सकते हैं, उन्हें समझ सकते हैं तथा उन्हें प्रेम कर सकते हैं । परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। श्री गणेश पूजन-1987 -पुण्यनगरी परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन निराकार में जो ब्रह्म हैं, वह ही साकार में साक्षात श्रीगणेश हैं। अभी तक उसकी गहनता पर बहुत कम विचार किया गया है और उनके विषय में जो कुछ भी बताया गया वह सबने मान्य कर लिया, किन्तु उसका विवरण, विश्लेषण नहीं हो पाया। उसकी वजह यह है कि उस वक्त आप जैसे सहजयोगी नहीं थे, जो चैतन्य से प्लावित हैं, जो चैतन्य को जानते हैं और दिखाते हैं कि हम हैं। अब हर जगह जहां-जहां गणेश हैं- सूझ-बूझ सर्व-सामान्य जनता से बहुत ऊँची हैं। जैसे आपने यहाँ होगा कि तरह- तरह के गणेश हैं। किसी सूझ-बूझ का मतलब कभी-कभी तर्क और बुद्धि से समझा जाता है। यह जो संस्कारों से अपने अन्दर अंकित होता है, वही सूझ-बूझ होती है, ऐसी बात नहीं है। जो आत्मा की प्रेरणा से, उसके गणपति हैं। उसी प्रकार हर एक चक्रों में जो श्री गणेश आत्मा के ज्ञान से मनुष्य में एक अद्वितीय नया आयाम बना देती बैठे हुए हैं वह गणेश उस स्थान के उस चक़् के अनुसार हैं, उसी को सूझ-बूझ कहते हैं। कहा जाता है कि सूझ बूझ कार्यान्वित होते हैं मान लीजिए नाभि चक्र में श्री गणेश का देने वाले लोग श्रीगणेश हैं, सो कैसे? यह सूझ-बूझ हमें श्रीगणेश किस तरह देते हैं यह सहजयोगी बहुत आसानी से समझ सकते हैं, क्योंकि जिस वक्त आप 'पार' हो जाते हैं, से वह उसके फुंकार के साथ बहते हैं और जिस वक्त उनकी आपके अन्दर से चैतन्य की लहरियाँ बहने लग जाती हैं, तब आप केवल एक मात्र सत्य को जानते हैं, पूर्ण सत्य को जानते के हिस्से में एक तरह का स्पंदन सा मालूम होने लग जाता है हैं। यह श्रीगणेश की माया है। श्रीगणेश ही चैतन्यमय हो करके और यह जो स्पंदन आपको मालूम हो जाता है, इसी को लोग अंदर से बहते हैं और वही साकार होकर इस चैतन्य को बहाते 'पुरावाणी' कहते हैं। इस पारावाणी को आगे चल के दूसरी हैं। जिस वक्त आप किसी भी वस्तु, प्राणीमात्र या मनुष्य के चैतन्य को जानना चाहते हैं तब उसकी ओर हाथ बढाते ही तत््षण आप जान सकते हैं कि इस वस्तु में क्या दोष है, क्या गुण है या यह वस्तु स्वयंभु है या नहीं। इसका पूर्ण ज्ञान आपको बगैर, उनकी इजाजत के बगैर कुण्डलिनी उठने वाली नहीं है। हो सकता है, अगर आपकी वह स्थिति हो जाये। इस ज्ञान को देने वाले, इस सूझ-बूझ को देने वाले श्रीगणेश हैं क्योंकि वह ही चैतन्य बनकर हमारे अंदर से बहते हैं और जब वह चैतन्य बनकर हमारे अन्दर से बहते हैं तो उनको जो कुछ भी जानना है वह हम भी जान सकते हैं। वह हमारे ही नाड़ी तन्त्र पर जाना जा सकता है। हम भी पहचान सकते हैं कि यह चैतन्य द्वारा ज्ञात होने वाली जो कुछ भी बाते हैं वह बिलकुल सही हैं, पूर्ण ही उनको बताते हैं कि वह मनुष्य जागरण के योग्य नहीं ैं, हैं। उनमें ह्वैत नहीं है, उनमें कोई संशोधन करने वाली बात नहीं, बड़ी समझदारी पूर्वक आपस में वार्तालाप करके किसी समझौते पर पहुंचने की बात नहीं है, जो है सो यही है और जागृत करना ठीक नहीं। तो कुण्डलिनी माँ वहीं बैठी रहती है, इसके अलावा कुछ नहीं है। जब यह गणेश हमारे अन्दर जागृत होते हैं, तभी हमारे अन्दर से यह शक्ति बहना शुरू हो जाती है। अब आप कहेंगे कि "माँ कुंडलिनी तो उनकी माँ है और गणेश नीचे बैठे हैं तो यह किस प्रकार घटित होता है?" सात चक्रों में से श्री गणेश चैतन्य बहाकर अपना अस्तित्व हुए ज़िनकी सुना का नाम है उंब या गणपति, किसी का नाम कुछ और गणपति है। काम के अनुसार, उसके कमों के अनुसार कार्य के अनुसार स्थान है, तो नाभी चक्र में श्री गणेश शेष के मुँह से बहते हैं। शेष - नाग' जो की हमारे श्री विष्णु की शय्या हैं। उसके अन्दर चैतन्य फुकार शुरू हो जाती है तो आप देखते हैं कि आपके पेट वाणियों के नाम दिये गए है । लेकिन पारावाणी जो है, स्पंदन, वही श्री गणेश जी की कृपा है। तो हम सहजयोगियों के लिए गणेश जी बहुत ही महत्वपूर्ण आराध्य हैं गणेश जी के कहे इस मामले में कुण्डलिनी अपने बेटे की बात सुनती है। ऐसे तो माँ की बात बेटा हर मामले में सुनता है और आप जानते हैं कि श्री गणेश तो पूरी तरह से अपनी माँ को समर्पित है। वह तो अपने पिता को भी नहीं जानते, लेकिन यह जो कुंडलिनी हैं -यह उत्थान के समय श्री गणेश जी की बात सुनती है-क्योंकि मनुष्य के बारे में जो ज्ञान है बह श्री गणेश को है। श्री गणेश ज़िनमें वह भोलापन, सादगी नहीं है, जिसमें वह प्रेम नहीं है तथा जिसने बहुत दुष्ट काम किये हैं उसके लिए कुण्डलिनी और अगर किसी तरह से बेचारी को बड़ा प्रेम चढ़ ही आया और चैतन्य लहरी 16 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-17.txt नीला रंग वह पहनते हैं, और उनके साथ में सफेद रंग। उसकी बाकी चीजे-हाथ, पैर सफेद रंग के हैं। उसमें बहुत ही खूबी की बात यह है कि वह हमेशा सत्कर्मों में लगे रहते हैं, और शांतचित्त है। अगर श्री गणेश के गण शांत चित्त नहीं हो तो संसार सारा ही विध्वंस हो जाए। जितनी भी अपने यहां आजकल विध्वंसक शक्तियाँ चल रही है उनको रोकने वाले जो हैं वह श्री गणेश के गण है ऊपर तक आ भी गई तो फिर खिंच कर नीचे वह चढ़ गयी, आ गिरती है। तो श्री गणेश का कार्य अत्यन्त अचूक और अत्यन्त महत्वपूर्ण है और क्योंकि बह एकमात्र सत्य को ही जानते है वह असत्य पर चलने नहीं देता। इसीलिए उसके हाथ में एक फर्सा भी है। वका अब जो लोग गणेश तत्व को पहचानना चाहते हैं, और मन में उतारना चाहते हैं, परन्तु अपने को बड़े सन्यासी, ब्रह्मचारी आदि- आदि बना करके रहते हैं उनके अन्दर भी एक ऐसी असंतुलन वाली दशा आ जाती है कि जहाँ गणेश एक तरह से सो जाते हैं। 'एकागी' होकर गणेश के, आप जानते हैं कि, सात स्वरूप हैं और वह सात स्वरूप में न उतरने के कारण एक ही स्वरूप में बैठ जाते हैं। एक ही गणपति अगर पूना में रहें तो यहाँ तो कुछ आल्हाद और उल्हास ही नहीं आयेगा लोगों को मजा ही नहीं आयेगा, तो उनके तो सात प्रकार हैं उन्हीं सात गणपतियों को आपको जानना चाहिए और जब तक वह आपके कहीं भी आप देख लीजिए जहा युद्ध होता है, उसको खत्म करने का काम जो है वह श्री गणेश के गण जाकर करते हैं। अब में आपसे बात कह रही हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि आप पूरी तरह से उसको मान ही लीजिए। लेकिन है बात यही। अब आप अगर गण स्वरूप है, तो आप में शान्त चित्त होना बहुत जरूरी है। आप में क्रोध है तो आप गणेश के विरोध में जा रहे हैं । सिर्फ गणेश को अधिकार है कि अपना फर्सा चलाएं, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान की मूर्ति हैं और सूझ-बूझ के सोत हैं, लेकिन मानव को अधिकार नहीं है कि वह अपने क्रोध के वश हो जाए। कोध के लिए यदि आदमी क्रोध करता है तो वह अपने लिए ही करता है, क्योंकि उसको नुकसान ही होता है। बाद में वह पश्चाताप भी कर सकता है, अगर उसमें सवेदनशीलता हो तो। पर न तो संवेदनशील व्यक्ति यह कहता है कि मैं इसलिए नाराज हुआ, जैसे श्री गणेश कहते गणेश जी एक तरह से छूट जाते हैं। कार्तिकय का रूप आ है कि मैंने इसलिए युद्ध किया कि लोग माँ के खिलाफ बोल रहे जाता है। पिंगला नाड़ी पर चलने से ऐसे लोग बड़े करोधी हो जाते थे, ये हुआ वो हुआ, और मैं माँ की सेवा में हूँ। माँ की मैं रक्षा करता हूँ, मैं माँ को प्रेम करता हूँ। सबसे बड़ा रक्षण माँ का उनका मूल धर्म है। कोई चीज ज्यादा भड़क जाती है तो उसको है, 'आपसी प्रेम। जो गणों ने किया वह करना चाहिए। गणों में इतना आपसी प्रेम है, इतनी उनमें आपस में पहचान है। बारह साल की आयु के बच्चे के अनहद, बारह साल तक वहां बनते गणेश रख लीजिए वह चीज ठंडी हो जायेगी। किसी आदमी की हैं (मध्य हृदय) अनहद चक्र में रोग प्रतिकारक ( आन्टीबाडीज जो हृदय-चक्र के चारों तरफ फिरते रहते हैं और अगर वाहरी दीजिए तो उसका बुखार उतर जाएगा, लेकिन दायीं तरफ से शक्तियां वार करती हैं और यह जितने भी आन्टीबाडीज हैं वह वह चढ़ने लग जाते हैं तो यही नाभि-चक्र में जो शेषनाग है चारों तरफ अपने शरीर में फैलती हैं, और शरीर में फैल कर उसका सामना करते हैं और शान्तचित्त हैं। उस परकीय सत्ता और गर्मी के कारण उनके अन्दर गर्मी की तकलीफें तो होती को जानने की शक्ति ही उन गणों में रहती है, नहीं तो ये आपस में लड़ बैठे। अगर गण आपस में लड़ बैठे तो ऐसा गणों का समुच्चय जिस शरीर में होगा उसका क्या हाल होगा? जो गण सब एक ही कार्य के लिये नियुक्त हुए हैं, वह अगर आपस अमेरिका मे पता नहीं कि उसे अपनी ऐसी किसी धारणा से, में लड़ाई करने लग जायें तो इससे ऐसी तो कोई लड़ाई हो नहीं सकती। अगर समझ लीजिए हम लड़ रहे हैं अंग्रेजों के साथ और से एक वहां चीज बनाई है, जिसे स्मा्क कहते हैं। छोटे छोटे अंग्रेजों को छोड़ के आपस में मारना-पीटना शुरु कर दें तो अंग्रेज कहेंगे अच्छा हुआ, मरो। उन्होने यही किया । उन्होंनें यही किया कि आपस में लड़ो मरो। वही हम आज भी कर रहे हैं। अपने देश में पूरे समय यही चलता है कि इसको पीटो, उसको पीटो, उनको मारो, इनको मारो-यह सब चीज आती कहाँ से है? आती है उसी क़ोध से, और यह क्रोध आता है आपसी अन्दर जागृत नहीं होगें तो आप एक अजीब तरह की अपने लिए और दूसरों के लिये समस्या बन जाएंगे। अब जो लोग बहुत ज्यादा गणपति की सेवा करते रहे हैं और गणपित को ही मानते रहे हैं और ब्रह्माचर्य में लीन हैं, और विवाह भी नहीं किया और किसी स्त्री की ओर देखा भी नहीं आदि- आदि प्रकार के हैं-वह सीधे अपनी पिंगला नाड़ी पर चड़ते हैं। पिंगला नाड़ी पर चढ़ने से हैं। श्री गणेश सौम्य स्वरूप हैं। अत्यन्त सौम्य हैं। सौम्यता ही ठंडा करने के लिए श्री गणेश का उपयोग करते हैं। उनका तापमान 272 है। कोई चीज ज्यादा गर्म हो जाए वहां श्री तबियत ज्यादा बिगड़ जाए तो उसे श्री गणेश के हवाले कर मा उनका फुकार गर्म हो जाता है और ऐसे लोग गर्म हो जाते हैं ही हैं, पर सबसे ज्यादा उनमें बड़ा क्रोध आता है। लेकिन श्री गणेश के जितने हैं वह अत्यन्त ठंडे लोग हैं और वह ठंडे दिमाग से ही काम करते हैं। गुण है की या किसी कारण हो सकता कि मनन से या परमात्मा कृपा गण जैसे बनाए हुए हैं, बिलकुल वह गण हैं और उनकी सब हरकतें, तरीके, उनका सब कुछ व्यवहार गणों जैसा है और अब यह जिससे भी सोचकर बनाया गया हो, या जिसके भी दिमाग में बात आ गयी होगी, हो सकता है वह तो रियलाईज्ड सोल हो और उनके सब कपड़े नीले रंग के होते हैं। एकदम शुद्ध ऐसा चैतन्य लहरी 17 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-18.txt आ गया है। बड़ा भाईचारा, सब समझ गए कहाँ क्या करना है क्योंकि इसमें यह था कि हमेशा मिल कर काम करना, इतनी घर्षण से, आपसी घर्षण जब होता है तब क्रोध आता है। यह नहीं सोचते हैं कि हम सब गण हैं और एक ही कार्य के लिये उद्धत हैं, और इसका कोई मतलब ही नहीं बनता है कि हम आपस में लड़ रहे हैं। ऐसे गण होने से अच्छा हो कोई गण ही न हो। लेकिन गण आने से अगर लड़ाई हो जाये तो ऐसे गण एकाग्रता, इतना प्यार उनके अन्दर आ गया। आपस में इतनी पहचान आ गयी और जिसको हम "एकसूत्रता" कहते हैं। हो गयी, और पहले वह सब लड़ते रहते थे आपस में। मैं तंग आ गयी थी, और यहाँ उल्टी बता दें तब उसमें सत्रह फोटे सामहिंकता उनके अन्दर जागृत का क्या फायदा? और उस पर क्यों उसका भी बौद्धिक उत्तर निल जाता है कि हमने इसलिये किया, उसलिए किया, इस सब चीज को। जो भी सहजयोगी है उसका कार्य बड़ा क्षत-विक्षत हो जाता है। अब इसके अनेक तरीके होते हैं कि बम्बई वाले ऐसे हैं तो दिल्ली वाले ऐसे हैं तो फ्लान ऐसे हैं तो ढिकाने ऐसे हैं। में सुन-सुन करके, मुझे बड़ा आ्चर्य होता है कि जब सबकी मांग एक ही है तो कौन दिल्ली वाले और कौन बम्बई वाले ? और इस तरह की जब एक 'एकतानता आपके अन्दर नहीं आएगी तब तक हम लोग सहजयोगी नहीं हैं। यह एकतानता आने के लिए पहले अन्दर देखना है कि क्या हमारे अन्दर किसी के प्रति ईष्या है? आप दूसरों का आनन्द लेना नहीं जानते हैं? जो अपने अन्दर यह बना लिया है, यह विचार या यह अहंकार या जो इस तरह की चीजें जो कि आपके लिए शोभनीय नहीं हैं, उनके सहारे आप दूसरों पर बिगड़ पड़ते हैं जो कि आपके अपने हैं, जो आप ही के साथ हैं। यही हाथ इससे लडे तो उसे क्या कहा जाता। हालत, अगर एक काम किती को फूटेंगी। गणेशजी को अगर आपने अपने अन्दर जागृत कर लिया होगा और आप गण स्थिति में हैं तो जान लेना चाहिए कि आप सब एक सूत्र में बंधे हुए हैं। जिस वक्त ये रोग प्रतिकारक लड़ते हैं, शरीर में आने वाली किसी भी बीमारी के साथ लड़ते हैं। किसी भी परकीय सता से लड़ते हैं। समझ लीजिए कि जो आज यह हाथ में रोग प्रतिकारक हैं वह अगर कम पड़ गया तो फोरन दूसरी जगह से दौड़ के आ जायेंगे। पर ऐसा नहीं होता सहजयोगियों में। इसीलिए सहजयोग अभी तक एक सूत्र नहीं है। इसलिए अभी तक सहजयोग (पूरी तरह) से स्थापित नहीं हुआ है। आज देखते हैं कि श्री गणेश की स्थापना से, इस घट की स्थापना होती है कि नहीं। उसको होना है। अनेक पूजाएँ की हैं। सब कुछ हुआ पर अब भी जो सहजयोग सही माने एकसूत्र होना है हो नही पाया। जब तक वह पूरी तरह से नहीं बनेगा तब तक आप लोग इस गलतफहमी में न रहे कि आप सहजयोगी हैं। सूझ - बूझ का मतलब है प्रेम और यह प्रेम हमारे अन्दर जागृत करने वाले हैं श्री गणेश। श्री गणेश प्रेमस्वरूप हैं उन्होंने हमें प्रेम करना सिखाया। अब छोटी- छोटी बातों के लिए हम अपने बारे में बहुत सोचते हैं कि हमें यह चीज अच्छी लगी उसे वह चीज अच्छी लगी। फिर आप सहजयोगी नहीं हैं। अगर आपको हर आदमी की अलग-अलग चीज अच्छी लगती है तो आप सहजयोगी कैसे? सारे सहजयोगियों को एक ही चीज अच्छी लगती है, और अगर सारे सहजयोगियों ने कहा कि नहीं साब मुझे तो यह रंग अच्छा लगा, किसी ने कहा वह रंग अच्छा लगा, किसी ने कहा वह रंग अच्छा लगा, तो फिर वह सहजयोगी नहीं हैं, पर रंगों पर वैचित्र्य होना जरूरी है क्योंकि उससे सौन्दर्य बनता है। यह तो ठीक है कि सौन्दर्य होना चाहिए, लेकिन वह सौन्दर्य जो भी है वह पूरी तरह से एकाग्र होना चाहिए। संघटित होना चाहिए। जिसमें सामन्जस्य नहीं है उसमें एकाग्रता नहीं है, तो समझना चाहिए कि आप सहजयोगी नहीं हैं। अब जैसे कि हमने कहा कि यह लीडर आपका है, तो सब अपने- अपने लगाते हैं कि हम लीडर हैं, हम लीडर हैं। हमें माता जी ने कहा कि लीडर हो जाओ। अरे भाई, मैंने तो एक को कहा, सबके सामने कह दिया कि यह आदमी लीडर है। उसके कहने के मुताबिक आपको चलना ही पड़ेगा नहीं तो एकसूत्रता नहीं आने वाली। अगर आप उसके कहने के मुताबिक नहीं चलेंगे तो एकसूत्रता नहीं आएगी। फिर क्रोध आएगा, झगड़ा होगा, आप सहजयोग से हट जायेंगे। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सहजयोग से निकाले गए क्योकि उनको करोध आने लगा, आपस में झगड़े होने लगे, मारामारी होने लगी। चलो छोड़ो हटा लो इसे। तब जब एक आदमी को लीडर बना दिया हैं तब आपके जितने भी सेन्टर बनाए वहीं लीडर है, उसी को मानना चाहिए, वह जो कहेगा वह मानना ही पड़ेगा। इस क्रोध की वजह से आदमी दिमागी जमा खर्च कर देता है। वह यह है कि उसको संब चक़ मालूम हैं, उसको कुण्डलिनी मालम है, वह किताबें लिख सकता है, बोल सकता है, भाषण दे सकता है लेकिन हृदय में सहजयोग नहीं आया। वही एक सुर्वसाधारण आदमी होता है, हृदय से उसने सहजयोग जान लिया बस, मेरे काम का तो यही आदमी है, बेकार बाकी के सब जाओ। यह तो शब्द जालम का कितने बार वर्णन आदि अब जो लंदन में इन लोगों ने हमारे लिए एक मकान बनाया है। "शुडी कैम्प"। जहाँ सफाई हुई। बहुत बड़ा मकान है, उसको ठीक-ठाक किया सब सहजयोगियों ने। कई बाहर से आदमी नहीं, क्योंकि वह हमारा कोई प्राईवेट घर नहीं था। मैंने कहा ठीक है, जिसे बनाना है बनाओं, हमारे नाम से बनायेंगे-क्या आश्चर्य की बात यह है कि उसमें करने से सब में बड़ा प्रेम सा चैतन्य लहरी 18 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-19.txt क्रोध से मनुष्य का सारा सौष्ठव, उसकी जितनी भी महानता, उसका बड़प्पन, सब डूब जाता है। अपनी अलंकार है शांति, आपना अलंकार है नम्रता। नम्रता हो, कोई भी काम में जो आदमी नम्र होता है वही कामयाब होता है, और यह जो अभी तक आपने इतनी आततायी प्रवृत्ति जो देखी है कि दूसरों पर आप हावी हो जाओ, सिरों पर चढ़ जाओ-ये करिये इससे मनुष्य कभी भी आप पर श्रद्धा नहीं कर सकता। आज अगर डरपोक लोग आपके नीचे आ जायेंगे, एक ग्रुप बन जाएगा यह सहजयोगियों का। बाकी यह भी थोडे दिन शंकराचार्य ने किया है कि अरे भाई शब्द जालम में मत फंसो। आप देख रहे हैं हिटलर, उसने बुद्धि लड़ाई। बुद्धि के बूते पर यह चीज ठीक समझता हूँ। मैं इसे करुँगा ही ऐसी जिसने जिद पकड़ ली वह पता नहीं किस स्तर पर हो। बहुत से लोग कोधी थे सहजयोग में। वह भी एकदम ठडे होकर बढ़िया हो गए। आज सबसे बड़ी जरत अपने देश को, सारे विश्व को है ऐसे लोगों की जो ठंडे दिमाग के हों। चिढ़ने वाले, बिगड़ने वाले, गुस्सा करने वाले ऐसे लोगों को चाहिए कि समुद्र में जा के बैठे रहें और खुद की सफाई करके फिर आयें। शांत चित्त की जरूरत आज अपने संसार में है। जिसको देखो वह बंदूक लेके मार रहा है। अमेरिका में अब मैं गयी थी, रास्ते में बता रहे थे कि पिछले हफ्ते में यहाँ पर ग्यारह आदमियों की हो गयी। मैंने कहा कि कैसे हो गया यह ? कहने लगे में "भागो रे भैय्या" करके भाग जायेंगे। कौन मुफ्त मार खाने आएगा।? तो किसी से भी दुष्ट व्यवहार करना बहुत गलत को है। दूसरी बात सहजयोग में हमें समझनी चाहिए कि "रिश्तेदारी"। जैसी अपनी बहुएँ हैं, अपनी लड़कियाँ हैं, अपनी माँ है, आपको सबके प्रति नम्रता रखनी चाहिए। नम्रता मनुष्य का सबसे बड़ा सुन्दर सोजन्यशाली अलंकार है। इसी से शोभित होना है। जो मनुष्य विनम्र होता है, उसे लोग कहते हैं कि वह राजा है, और नहीं तो भिखारियों जैसी गालियाँ देने वाला, हमेशा चिल्लाने वाला, पिटने वाला उस आदमी को कौन मानेगा? और बहुत से लोगों के मन में प्रेम भी होता है, लेकिन वह भी बात करने में उसे प्रेम को कभी भी व्यक्त नहीं कर पाते। मृत्यु कि जो देखो वह बंदूक उठाके मार देता है, उनके पास बंदूके हैं। मैंने कहा, क्यों मारा ? "बस रास्ता नही दिया गाड़ी ने मार डाला।" जैसे कोई यह इन्सान को खुद ही बनाते हैं किसी को अधिकार नहीं है किसी को दुखवाने का, उसको हृदय में कोई कठिनाई की बात कहने का-सिवाय परमात्मा के। इस क्रोध के बारे में श्री कृष्ण ने बहुत ही ज्यादा कहा है, कि क्रोध को छोड़ो, क्रोध को छोड़ो। आप उनके लिए जान दे दीजिए, प्यार नहीं आएगा। कितना भी प्यार कर लीजिए, प्यार नही आएगा। क्रोध चढ़ जाता है। हों सकता है उनमें क्रोध माँ-बाप से आया हो, हो सकता है वह समाज से आया हो, हो सकता है खाने- पीने से आया हो, चाहे जिससे भी आया हो, क्रोध आपका दुश्मन है और सहजयोग का महान दुश्मन। इस क्रोध को आपको छोड़ना पड़ेगा, अगर आज श्री गणेश जी की पूजा तरह छोड़ दूँगा। क्रोध करना, किसी से वैर करना, किसी के साथ इस तरह दुष्ट व्यवहार करना सहजयोगियों के लिए बिल्कुल श्री गणेश ने भी इसी तरह कार्य किया। उन्होंने जो अपने सेनापति बनाए हैं, उस सेनापति को कोई नहीं कहेगा कि "तुम क्यों सेनापति बने हो। नम्रता होनी चाहिए, प्रेम होना चाहिए और उसका व्यवहार होना चाहिए। श्री गणेश का ही उदाहरण लीजिए कि वह एक चूहे पर बैठे हुए हैं। अब चूहे महाराज तो हर दफा इधर से उधर भागते रहते हैं। एक पाँव पर इतना बड़ा शरीर उसने कैसे तोल लिया है, और खुद ही एक सर्वसाधारण सवारी कर ली। लोग तो पता नही क्या-क्या दिखाने के लिए हाथी, घोड़े करनी है पहले निश्चय करो कि मैं क्ोध को किसी क्या- क्या रखते हैं। श्री गणेश की नम्रता ही हद है । क्या चाहिए गणेश को? बस, एक चूहा दे दिया काफी है। चूहे के साथ ही मैं मेरी माँ के प्रति प्रदक्षिणा कर लूँगा और दुनिया को जीत लँगा। कितना शुद्ध हृदय, कितना प्रेम से प्लावित है यह। अपनी फ्रेम की शक्ति से उन्होंने यह जाना कि सबसे बड़ी बात है कि अपनी माँ में ही उचित नहीं है। की प्रदक्षिणा करना चाहिए। और दूसरी चीज उनको यह जो अपनी सेना है, यह प्यार की, प्रेम की और शांति की सेना है शांति से हमें रहना है। एक बंधन में आप लोग लोगों को जीत सकते हैं। एक प्रार्थना से आप लोगों को ठिकाने लगा सकते हैं। तो क्रोध की क्या जरूरत है? इसका मतलब आपका सहजयोग पर विश्वास ही नहीं, अभी भी अपने पुराने तरीके लेकर चलते हैं। और क्रोधी आदमी जो होता है उसे भड़कने की इतनी आदत रहती है कि उससे दुनिया डरती है, आपने कहीं देखा है कि किसी का पुतला बना दिया है, "यह बड़ा क्रोधी था, इसीलिए इसका पुतला बनाया गया है।" पूजा ऐसी चीज है कि बिल्कुल ही जिनके दाम कम। जिसे हम केवडा कहते हैं वह फल सबसे सस्ता होता है, और दूसरा तृण यहाँ पर उसे "दुर्वा" कहते हैं। दुर्वा कहीं भी उगता है, गरीब से गरीब आदमी को भी दुर्वा मिल जाएगा और रईस से रईस आदमी को भी दुर्वा मिल जाएगा रईस को जमीन पर आना पड़ेगा और दुर्वा को ढूंढना पड़ेगा और रियासत जो है तबियत की। श्री गणेश खाते भी क्या हैं? सिर्फ उन्हें मोदक दे दीजिए, बस और कुछ नहीं। यह रियासत है, बड़प्पन है, एक शाही मन का मामला है एक चूहे पर चल दिए तो भी सारी दुनिया उनकी वन्दना करती है। चैतन्य लहरी 19 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-20.txt श्री गणेश छोटे बच्चे जैसे सबको खूब प्यार करते हैं अब आपको भी रोज सोचना चाहिए कि अगर हम गण हैं तो हमने कितनों को किया? यह जो आपके अन्दर आल्हाद और यह जो आपके अन्दर आनन्द आता है वह सब गणों की ही वजह से आता है, क्योंकि गण ही तो आपके हाथ से बह रहे हैं। आकाश से आप आ रहे हैं लेकिन आपको हाथों से बह रहे हैं। जहाँ भी जाते हैं आपकी चैतन्य लहरियाँ बहती हैं जो सब चीजों को शुद्ध करती हैं। शुद्ध करने का मतलब ही है कि आपने बहाँ श्री गणेश को शुद्ध कर दिया शुद्धि से सहजयोग जानना कोई काम का नहीं, हृदय से जानना चाहिए। जब आप हृदय से जानते हैं तो सारा विश्व अपने हृदय में समाया हुआ नजर आता है। अभिमान है यह मेरा घर है, मेरी जमीन है, मेरे बच्चे हैं और देशाभिमान नहीं हो तो ऐसा मनुष्य किस काम का? उसी प्रकार जिसको अभिमान है, हरेक चीज का कि "मेरे से ऐसा किया, उसने ऐसा क्यों किया, उसको मैं ठिकाने लगा दूँगा। वह अपने को क्या समझता है?" और जिस वक्त सहजयोग की बात आती है तब तो शरमाने लगे, और जब कोई आ भी जाए; सहजयोग में तो उसे दूषण लगाना कि "तेरे यह भूत है।" मतलब वही जो अपने अन्दर बात है स्वभाव में कि हर आदमी को ठिकाने लगाना, उस पर कब्जा करना, उसे आते ही कह देना कि तेरे में भूत है, तेरे में राक्षस है, तू खराब है, तू ऐसा है, तू वैसा है। अगर मैं ऐसा कर देती तो यहाँ एक भी व्यक्ति बैठा होता क्या ? खुश तो जो श्री गणेश का कार्य है उसके बराबर हम लोग कार्य कर रहे हैं। इधर नजर करे कि पहले तो जो आता है उससे प्रेम से बात करें, उसे मिठाई दें, उसे प्यार की बात कहें, उससे आपके चरित्र का-आपके नम्रता का असर हो पाएगा। नहीं तो ऐसे भी लोग देखें हैं जिनको किसी सहजयोगी ने पार कर दिया, पार होने के बाद वह जो पार हुआ, वह मुझे बताता है कि माँ जिसने मुझे पार किया वह इतना क्रोधी आदमी है मेरे समझ में नहीं आता है, यह सहजयोग कैसा है, उसको उसके प्रति श्रद्धा समाप्त हो गई। तो आज श्री गणेश की पूजा इस विशेष धरती पर इस पुण्यनगरी में हो रही है, तो यह पुण्य लगाने के लिए, जो पुण्यवान लोग मिलते हैं अत्यन्त नम्र होते हैं, या कोई ओट लेने आए तो बहुत नम्रता से आए, बाह्यता बैसा नहीं होता है। अंदरूनी नम्रता, एक तरह से एक नम्र भाव है, वही चाहिए हमारे अन्दर। और लोगों को कहना चाहिए "कितने नम्र हैं ।" और किसी-किसी मामले में जैसे कि बहुत से गुरु- घंटाल लोग हैं उनको कुछ भी मालूम नहीं। सहजयोग नही मालूम, चैतन्य नही मालूम; कुछ भी नही मालूम। कुछ भूत भी हैं, कुछ राक्षस भी हैं। वह अपने को बड़े गुरु समझते हैं। सहजयोग के मामले में तो हमारे सहजयोगी बहुत ही नम्र हैं। जहाँ नहीं होना है । माने अपनी बहन से भी नहीं बतायेंगे कि सहजयोग क्या चीज़ है, कि उसमें शरम आती है सहजयोग बनाने पर उनको, अपने भाई से भी नहीं बतायेंगे। एक साब मुझे मिले, मैंने कहा-"वह तो सहजयोगी हैं, आपके भाई"। अच्छा? मुझे तो पता ही नहीं वह सहजयोगी हैं।उसका गर्व नहीं है, जो श्री गणेश में वह गर्व है। वह गर्व है उसके अन्दर। इसीलिए वह सोचते हैं कि माँ का पुत्र हूँ। वह गर्व हमारे अन्दर नहीं आया। हम अपने सगे भाई से भी नहीं बतायेंगे कि सहजयोग क्या है। मेरी बात तो बाद में बताना, पर "सहजयोग है भाई, आओ सहजयोग में कहाँ जा रहे हैं?" जो आया उसे पहले सहजयोगी बनाओ। अगर यह बात है तो क्यों इस दुष्ट कोध को रखना, जिसके कारण कोई भी हमें पसंद नहीं करता। सब हमारे दुश्मन हो जाते हैं, तो ऐसे महा दुश्मन (क्रोध) को घर में रखने से क्या फायदा? श्री गणेश की प्रवृत्ति ठंडक पहुँचाती है। ठंडक सबको। ठंडा होना है। सौम्य, बहुत सौम्य जैसे "बुध", बुध को जो ग्रह है उसको माना जाता है कि वह बहुत ही सौम्य है, और उसको भी बध माना जाता है, बुध माने जाना हुआ। जिसने एक बार जान लिया। चन्द्रमा को हम लोग कहते हैं कि चन्द्रमा आत्मा की राज है क्योंकि वह सौम्य है। नम्रता-यह लक्षण है एक सहजयोगी का। जो लोग नम्र नहीं होंगे, और क्रोधी से क्रोधी होते जायेंगे सहजयोग से बाहर फेंके जायेंगे यह तो आप देखते हैं कि कितनों को फेंक दिया और इधर उधर के बेंकार लोग जो हैं, वह अपने को "हम इसके हाथ का पानी नही पियेंगे, हम फ्लाने, हम ढिकाने, हम फ्लाना व्रत करते हैं।" हमने तो (सहजयोगी ने) सारा धर्म ही अपने अन्दर जागृत कर लिया। हमारे अन्दर से तो धर्म बह रहा है। हमारे अन्दर से तो चैतन्य बह रहा है। हम स्वयं चैतन्यमय हो गए हैं। उनके बारे में तो हम बहुत नम्र हैं कि शरमाते हैं, सिवाए मेरे। सब लोग शरमाते हैं, मैं लेकिन सबको सुनाती हूँ। किसी को छोड़ा नहीं, और इसीलिए आप सबसे कहना है कि जहाँ नम्रता नहीं चाहिए, जहाँ उस चीज का गर्व चाहिए-जैसे कि मनुष्य है, उसको बाहर मुख्य कारण उनका 'क्रोध' है इतनी बार बताने पर भी लोग इसको नहीं समझते कि हमारे अन्दर जो क्रोध, जो हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है, उसको निकाल करके फेंक देना चाहिए। श्री गणेश के आशीर्वाद से ही यह होगा। उनकी पूजा में आज सबको शांत स्वरूप हो करके श्री गणेश की पूजा करनी चाहिए कि वह हमारे अन्दर भी शांति दें। इस उथल- पुथल आज के इस कलयुग में हमें बहुत जो पाना था आपने पा लिया, अब देने का समय आया है, अब देना चाहिए। में शांत होना है । 20 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-21.txt भ री तनोयंस पांसू तब चरण-पड़े रूह-भव विरिंचि: सचिन्वन् विश्चरयति लोका-नविकलम्। वहत्येनं शैरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां हरः संकुद्येन भजति भसितोद् -धुलन -विधिम्।। हे आदि शक्ति! आपके चरण कमलों से एक धूल कण चुन कर ब्रह्मा (सृष्टा) सतत दोपरहित ( असीम एवं रहस्यों से परिपूर्ण) ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और प्रतिपालक विष्णु शेष रूप में उस धूल के कण से रचित व्रह्माण्ड को जैसे-तैसे (अर्थात बड़े परिश्रम से) अपने सहस्त्र शिरों पर धारण करते हैं तथा संहारक हर (शिव) इी रज कण की भस्म बना कर अपने शरीर पर लगाते हैं। माँ आदिशक्ति की शक्ति के सम्मुख ब्रह्मा शेष (विष्णु का ही एक रूप) और शिव की शक्तियाँ तुच्छ हैं क्योंकि वे अनन्त ब्रह्माण्डों की स्वामिनी है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देवी की चरण कमलों की धूल का कण मात्र है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की महान शक्तियाँ उनकी विचार शक्ति का एक प्रतिबिम्ब मात्र हैं। ॐ त्वमेव साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देवी नमो नमः।। (आदि शंकराचार्य) सौन्दर्य लहरी