चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड VIII अंक ॥ व 12 वर्ष 1996 ु परमात्मा के विषय में जानना ही परमात्म-साक्षात्कार है। परमाल्मा की कार्य- शेली को समझना और सर्वशक्तिमान परमात्मा का अंग-प्रत्यंग बनकर यह समझ लेना कि वह किस प्रकार सब कुछ नियन्त्रित करता है, यही परमात्मा का ज्ञान है।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी शिव पूजा-सिडनी, 3.3.1996 चैतन्य लहरी विषय सूची कब पृष्ठ खण्ड VIII, अक 11 व 12, 1996 जन्मदिवस पूजा, नई दिल्ली 21-03-1996 (1) 2. (2) चिकित्सक सम्मेलन, नई दिल्ली 09-04-1996 8 (3) सिडनी पूजा, सिडनी 14-03-1983 12 (4) दिवाली पूजा, पुणे 14 समः ल ह त्द शा श्री योगी महाजन सम्पादक पता श्री विजय नालगिरकर मुदक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विज्ञार, नई दिल्ली-110 067 जुदधित ामग रि प्रिन्टेक फोटोटाईपसेटर्स, 4ए/1, ओल्ड राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली-10 060 मुद्धित ि फोन 5710529, 5784866 चैतन्य लहरी जन्मदिवस पूजा परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) नई दिल्ली 21-03-1996 लोग नहीं जानते कि यह मन क्या है। परन्तु सहजयोगियों के लिए यह समझना अत्यन्त सरल है कि हम लोग सभी बाह्य चीजों के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं। इसका कारण यह है कि हममें दो भयानक प्रवृत्तियां हैं-पहली अहम् है और दूसरी जिसके द्वारा हम प्रशिक्षित हो रहे हैं, जिसे हम प्रतिअहम् या बन्धन कह सकते हैं। दोनों ही चीजें-हमारा अहम् तथा कल्पित है। पूर्णतया कल्पित। लोग समझते हैं कि चीज की सृष्टि उन्होनें की है, अपने मन से की है। यह गलत धारणा है। सभी महान वैज्ञानिक जैसे आइंस्टीन ने कहा है, 'में सापेक्षतावाद के सिद्धांत को खवोजने के प्रयास में थक गया था। उसकी कुछ धारणायें थी। जैसे सभी वैज्ञानिक कुछ परिकल्पनाओं को ले कर उन पर खोज करना चाहते हैं। एक दिन वे छोटे बालक की तरह से साबुन के बुलबुलों से खेल रहे थे अचानक, पता नहीं कहाँ से वे कहते हैं कि, सापेक्षतावाद का सिद्धांत उनके मस्तिष्क पर कौंध पड़ा। बहुत से वैज्ञानिकों ने कहा है कि वे नहीं जानते कि उनके विचार कहां से आते हैं। आजकल यह पता लगाना एक विशेष विषय है कि इन बैज्ञानिकों को ये सब चीजें इतनी सहज में कहाँ से प्राप्त हो गई, यहां तक की पैन्सलीन या बहुत सी अन्य वस्तुओं का अन्वेषण भी मस्तिष्क की खोज के कारण न हो कर किसी अज्ञात शक्त के माध्यम से उनके मस्तिष्क में आया। न्यूटन ने भी महसूस किया कि ये विचार उन्हें किसी अनभिज्ञ स्रोत से आ रहे हैं। सहजयोगी होने के नाते आप जानते हैं कि यह स्रोत परमात्मा की वह शक्ति है जो कि सर्वव्यापक है। परमचैतन्य। "आप जानते हैं क्योंकि आप इसे महसूस कर सकते है। आप जानते हैं कि यह विद्यमान है । यद्यपि आप जानते हैं फिर भी आप को समझ लेना है कि इसके लिए आपको अपने मस्तिष्क से परे निर्विचार बन्धन हर समय बाहर कार्य करते रहते हैं। हमारे अन्तर्रचित प्रतिक्रियाएं सागर में उठे बुलबुलों की तरह से हैं। ये बुलबुले हमें वास्तविकता से दूर बनाए रखते हैं ये विचारों के बुलबुले हैं जिनका विस्फोट हर समय आपके मस्तिष्क में होता रहता है और आप यह भी नहीं जानते कि यह विचार क्यों आ रहे हैं। इस बनावटी मन पर जब आप निर्भर करते हैं तो आपमें यह समझने की सूझबझ नहीं होती कि अच्छा क्या है, बुरा क्या है। मन में ही सभी बुराइयों का आरम्भ होता है। सभी प्रकार के झगड़े, लड़ाईयाँ, स्वामित्व भाव और अन्ततः युद्ध भी वहीं से जन्म लेते हैं। केवल इसी मिथ्या मन में किसी न किसी प्रकार से ये ठोस विनाशकारी विचार उपजते है और फिर पनपने लगते हैं। तब आप उन लोगों को खोजते हैं जिन्हें आप प्रभावित कर सकते हैं और जिनके मस्तिष्क में आप अपने विचार भर सकते हैं। अपने लेखों, भाषणों तथा सम्मोहन विद्या आदि द्वारा वे लोगों के मस्तिष्क को इतना संकुचित कर देते हैं कि वे इन विध्वंसक विचारों को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से स्वीकार कर लेते है । समाधि में जाना होगा-यह कम से कम आवश्यकता है। में सदा आपसे कहती हूँ 'ध्यान करो!, ध्यान करो!, क्योंकि आपको निर्विचार समाधि में होना चाहिए जहां आप प्रतिक्रिया न करें।" तब क्या होता है, आप साक्षी बन जाते है। आप पूरी लीला में, पूरे दृश्य के साक्षी बन जाते हैं और अपने आप में पूर्णतः शान्त हो जाते हैं। कोई समस्या नहीं रहती कि आप क्या कर रहे हैं तथा आप परमचैतन्य के -इस सर्वव्यापक शक्ति के माध्यम बन जाते हैं। आप केवल देख रहे होते हैं, मात्र साक्षी होते हैं और सभी कुछ देखते हुए आप महसूस करते हैं कि जो भी कुछ आप देख रहे हैं यह आप पर प्रतिक्रिया नहीं करता। परन्तु आप समझते हैं कि यह है क्या। यही वह स्थिति है जिसमें आप पूर्ण परिस्थिति की वास्तविकता को समझते हैं। मैने आपको बहुत बार बताया है कि पानी के किनारे पर खड़े हो कर आप घबरा रहे होते हैं कि कहीं लहरें आपको डूबो न दें। परन्तु मन मिथ्या है और हम इसी के माध्यम से कार्य कर रहे है। हर समय हम यह कहते हुए स्वय को तसल्ली देते रहते हैं कि ' ओह यह मेरा मन है, मेरा मन यह चाहता है। जैसे एक भारतीय सहजयोगी अमेरिका गया और उसने मुझे बताया कि अमेरिका के लोग मन के पीछे पागल हैं। मैनें अभिप्राय क्या है। कहने लगा, मैने अपनी पत्नी को मेरे लिए एक कमीज खरीदने के लिए पैसे दिए थे। उसने जाकर कुछ स्कर्ट खरीद लिए, उसके पास पहले भी बहुत से स्कर्ट हैं परन्तु वह और स्कर्ट खरीद लाई! उससे मैने पूछा कि उसने स्कर्ट क्यों खरीदे तो वह कहने लगी कि मेरे मन ने कहा कि तुम्हें स्कर्ट खरीदने चाहिए, अत: मैने स्कर्ट खरीद लिए। मन आपको सभी प्रकार के गलत कार्यों की ओर ले जा सकता है। क्योंकि सर्वप्रथम उसका सम्बन्ध वास्तविकत्ता से नहीं है। दूसरे यह कि उसका पूछा चैतन्य लहरी बनावटी है और प्लास्टिक की तरह से यह बनावट हर चीज में प्रवेश कर सकती है। मन किसी भी चीज में प्रवेश कर सकता है और यह लोगों के मस्तिष्क में प्रवेश कर जाता है। हिटलर ने इसी प्रकार जर्मनी के सभी युवाओं के मस्तिष्क को वश में कर लिया था। यही लोग हैं जिन्होनें मस्तिष्क से न्याय संगत न प्रतीत होने वाले तकों को नष्ट कर दिया। मन यदि उसका माध्यम हो तो यह तर्क नहीं है। केवल तार्किकता से ही हम मूर्खता को स्पष्ट देख सकते हैं। यदि आप नाव में बैठ जायें तो आपको वही लहरें बहुत सुन्दर प्रतीत होगीं और यदि आप तैरना सीरव लें तो आप पानी में कूद कर डूबते हुए लोगों को बचा सकते हैं। निर्विचार समाधि की अवस्था में भी यही होता है, तब आप अन्य लोगों को साक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं। तब आप उनका योग परमात्मा की दिव्य शक्ति से करवा सकते हैं। परन्तु पहले आप नि्विचार समाधि में जाना तो सीख लें। कुछ लोग कहते है मां हम एक या दो सैकंड के लिए निर्विचार हो पाते हैं। इसका कारण यह है कि सहजयोग में आने के बाद भी आप अपने मस्तिष्क में उलझे रहते हैं। मन, जो कि वास्तव में एक बुलबुला मात्र है इतना सीमित है कि यह सौन्दर्य, गरिमा और वास्तविकता के फैलाव को नहीं से समझ सकता। मन इस सारे कचरे का समूह है जिसे हमें किसी भी प्रकार से अपने से दूर रखना है और स्वय से कहना है कि मुझे मन से ऊपर उठना है। मेरे इस तथाकथित मन ने कोई लाभ नहीं पहुंचाया है। मेरा मन उसी प्रकार से हर समय मुझ पर हावीं रहा जैसे हमारी बनाई हुई घड़ी या कम्प्यूटर सदा हम पर हावी रहते हैं। हमें सावधान रहना चाहिए कि हम ही ने मन की सृष्टि की है और हम पर हावी होना मन का कार्य नहीं हैं। सहजयोग में आ कर भी, आरम्भ में आपमें बहुत बन्धन होते हैं। सर्वप्रथम यह कि आपने भारत में जन्म लिया, फिर यह कि आप भारत के अभिन्न अंग हैं। आप यदि इंग्लैंड में जन्में हैं तो इंग्लैंड के अभिन्न अंग हैं। मैंने सहजयोगियों में एक चीज देखी है कि एक बार जब वे मस्तिष्क की इस मूर्खता से ऊपर उठ जाते हैं तो पहला कार्य जो वह करते हैं वह है उस वातावरण की आलोचना करना जिसमें वे अब तक रह रहे थे। उदाहरणार्थ वे कहते हैं, 'यह भारतीय है, यही भारतीयता है। यदि वे बर्तानिया के हैं तो वह कहते हैं, आप देखें यह बर्तानवी लोग हैं। बहुत से लोग मन को वश में करने का प्रयत्न करते हैं। इसका एक तरीका है कि में मन को वश में करुँगा। अब समझने का प्रयत्न करें कि आप किस प्रकार मन को वश में करेंगें। केवल मन के माध्यम से या तो अहम् या बन्धनों द्वारा। आपके पास मन को वश में करने का कोई साधन नहीं हे क्योंकि आप ही ने मन की सृष्टि की हैं और यह विद्यमान है तथा आप इसे वश में नहीं कर सकते। चाहे आप यह सोचते रहें कि 'मैं इसे वश में कर सकता हूँ। "आपको मन से परे जाना होगा और मन से परे जाने के लिए कुण्डलिनी जागृति अत्यन्त सहायक है। कुण्डलिनी आपके शरीर के भिन्न क्षेत्रों में से गुजरती हुई आपके बह्मरन्ध का भेदन करके आपको बाहर, वास्तविकता के साम्राज्य में ले जाती है।" और तब आपके, मस्तिष्क, आपके हृदय का इस सर्वव्यापक शक्ति से योग घटित होता है। कुण्डलिनी यह सम्बन्ध जोड़ती है। वही यह कार्य करती है। मैं जानती हूँ कि बहुत से लोग सहजयोग कर रहे हैं। परन्तु कभी कभी उनके लिए ध्यान में जाना तथा निर्विचार समाधि की स्थिति, जो कि अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थिति हैं जिसे आपने प्राप्त करना है, को पा लेना कठिन हो जाता है । मन स्वंय देखने लगता है, यह स्वंय देखता है कि यह मिथ्या है और तब हर समय होने वाली धोखवाधड़ी, जो कि बुद्धि स्वंय से करती रहती है, रुक जाती है। अब क्योंकि आप प्रतिक्रिया नहीं करते इसलिए आप चीजों को पूर्णत: एवम् अच्छी तरह से देखने लगते हैं। प्रतिक्रिया अत्यन्त बन्धन ग्रस्त व्यक्ति का गुण है। आप बहुत सी अन्य चीजों से भी बन्धन ग्रस्त हो सकते हैं जैसे किसी धर्म विशेष में आपका जन्म होना। आज कल के मानव का धर्म से भी क्या सम्बन्ध है? कहीं भी वास्तविक धर्म नहीं है, यह भी आप कह सकते हैं, कि धर्म धन या सत्ता लोलुपता की तरह बन गया है। यही कारण है कि लोग आपस में लड़ रहे हैं और आप निश्चित रूप से जानते हैं कि कोई भी धर्म 'विशिष्ट' नहीं है। फिर भी लोग आपस में लड़ रहे हैं। कारण यह है कि मस्तिष्वक में एक बन्धन बन गया है कि आपको अपने धर्म के लिए लड़ना ही है। परन्तु इन लोगों के अन्तस में धर्म नाम की कोई चीज नहीं है। उनके जीवन में धर्म कार्यान्वित नहीं है। वे जितने चाहे भ्रष्ट और दुराचारी हों परन्तु क्लब की तरह से, वे किसी धर्म विशेष से सम्बन्धित हैं। तब वे किसी न किसी चीज पर परस्पर सामजंस्य बनाने लगते हैं और किसी धर्म विशेष से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें यह कार्य करने का अधिकार हो जाता है। अब कुछ हैं जो वास्तव में मन का उपयोग कर सकते हैं यद्यपि यह का. 1. जब तक आप मस्तिष्क की उथल-पृथल में फंसे रहेंगे आप उन्नति नहीं कर सकते। मस्तिष्क से बनाई गई किसी भी चीज में वास्तविकता नहीं है। यह अति सीमित होती है तथा कभी कभी तो घृणाजनक है। मस्तिष्क से लोग सोचने लगते हैं कि में इतना उच्च हूँ। अब मान लो कि आप राज्यपाल बन जायें तो आप सोचते हैं 1. लोग ऐसे भी कि आप जो चाहे कर सकते हैं। चैतन्य लहरी अनुबन्ध समझ बैठते हैं। मैं अब सहजयोग में आ गया हूं मुझे यह अवश्य मिल जाना चाहिए, ऐसा अवश्य घटित होना चाहिए। सहजयोग में आ जाने मात्र से ही लोग इसे अनुबन्ध समझ बैठते हैं कि उन्हें सभी प्रकार की सहायता अवश्य मिल जानी चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार सहज योगियों का नहीं होता। संस्कृत में एक बहुत सुन्दर शब्द है तटस्थ' अर्थात् किनारे पर खड़े होकर देखने वाला व्यक्ति। आपको इस स्थिति में होना है। परन्तु फलस्वरूप आप प्रभावहीन व्यक्ति नहीं बन जाते, आप अत्यन्त प्रभावशाली हो जाते हैं। ऐसे लोग यदि हों, तो आप विश्वास नहीं करेगें, बहुत कुछ घटित हो सकता है। युद्ध रूक सकते है शान्ति फैल सकती है, असुर प्रवृत्ति लोगों का पर्दाफाश हो सकता है। अब क्योंकि सहज़योग सामूहिक रूप से कार्यान्वित हो रहा है सहजयोगियों को एक दूसरे से अन्तर्विरोध नहीं होना चाहिए। फिर भी कभी कभी मैं देखती हूँ और हैरान होती हूँ कि किस प्रकार लोग अन्य सहजयोगियों या अन्य अगुवाओं की आलोचना करते हैं जबकि समस्या उन्हीं में होती है। एक बार जब आप मस्तिष्क से ऊपर उठने लगते हैं तो स्वतः ही आप अन्तर्दर्शी बन जाते हैं और देखने लगते हैं कि, अब मुझमें-मेरे मस्तिष्क में क्या कमी है। अत: अच्छा होगा कि शीशे के सम्मुख खड़े होकर या आरंें बन्द करके कहें, 'श्रीमान् मस्तिष्क जी, आप क्या कर रहे हैं? आप क्या पाना चाहते हैं? आप स्वयं का सामना करें। स्वयं से बाहर निकलकर स्वंय देखें और मस्तिष्क से पूछे तुम चाहते क्या हो?' यही विधि है। एक बार जब आप इससे बाहर निकल आएंगे तो इसे वश में कर सकेंगे मस्तिष्क नहीं जानता कि आप राज्यपाल बन गए हैं, राज्यपाल हैं नहीं। यह राज्यपालपना आप पर शासन कर रहा है। आप इस पर शासन नहीं कर रहे हैं। एक बार इस प्रकार के विचार जब आपके मस्तिष्क में आ जाते हैं तो आप अनापेक्षित ढंग से व्यवहार करने लगतते हैं। सहजयोगियों में भी कभी-कभी सोचने लगते हैं कि 'मैं लीडर हूँ। यह मिथ्या है । पूर्णतः मिथ्या। सहजयोग में अगुआपन पूर्णतया मिथ्या बात है। परन्तु एक बार जब वे जान जाते हैं कि वे अगुआ हैं तो वे इसके प्रति बहुत अधिक सचेत हो जाते हैं और विचारों से भर जाते हैं। इन विचारों को किस प्रकार वश में किया जाए? जब वे अन्य लोगों का संचालन करते हैं तो, आप समझ लें, कि मस्तिष्क ही उनसे अन्य लोगों का नियन्त्रण करने के लिए कहता है। किसी अन्य को क्यों नियन्त्रित किया जाए। यदि आप सच्चे हैं तो नियन्त्रण की कोई आवश्यकता नहीं है। चालाकी और कौशल की भी कोई आवश्कता नहीं हैं अब एक अवगुण हैं। वे भी बार आपका चित्त यदि मस्तिष्क से ऊपर उठ जाए-यह बात केवल सहजयोगी ही स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे। यह मस्तिष्क जब विचारों से ऊपर उठ जाता है तब चित्त का संचालन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तब जो भी संचालन आप करते हैं उसका अर्थ केवल यह होता है कि अब इस चित को किसी न किसी चीज पर ले जाते हैं। तब आप हैरान होगें कि आप कितने प्रगल्भ, प्रभावशाली और ज्ञान से परिपूर्ण हो गए हैं जो भी कुछ आप चाहते हैं उसकी ओर आप चित्त को ले जा सकते हैं, तुरन्त उस विषय पर, उस व्यक्ति पर उस समस्या पर प्रकाश पड़ता है और आप देखते हैं कि यह किस प्रकार कार्यान्वित होता है और किस प्रकार सहायता करता है। आप मेरा जन्मदिवस मना रहे हैं। मुझे काफी वृद्ध माना साचती जाएगा यद्यपि में ऐसा कुछ नहीं सोचती क्योंकि में कुछ ही नहीं। व्यक्ति को मस्तिष्क से ऊपर उठना आवश्यक है। हर समय अपने विषय में सोचते रहना या उन चीजों के विषय में सोचते रहना जो आपसे सम्बन्धित नहीं है और इस प्रकार अपने मस्तिष्क को परेशानी में फंसाए रखना आजकल बहुत ही खतरनाक हैं। सहजयोग में आने के पश्चात् अपने विचारों को रोकने के लिए सर्वप्रथम आपको इधर-उधर की चीजों को पढना छोड़ना होगा। क्योंकि जब आप पढ़ने लगते हैं तो आप पुस्तकों से विचार सग्रह करने लगते हैं मैंने देखा है कि बहुत से लोगों के मस्तिष्क अन्य लोगों की पुस्तकों, उनके शब्दों या उद्धरणों के अतिरिक्ति कुछ नहीं होते वे कहीं नहीं होते, उन्हें आप उनके विचारों में कहीं नहीं खोज सकते। वे सब खोए हुए लोग हैं। वह यह कहता हैं और वो यह कहता है। यह पुस्तक, जिसके विषय में आप जानते है जो मैने अब लिखी है-इसे लिखते समय लोग मुझसे कहते थे, 'श्रीमाता जी प्लेटो ने ऐसा कहा है और रूसों ने ऐसा कहा हैं। मेने कहा वो जो कहना सहजयोग में, आपने कहा है, "श्री माता जी, आपके चित्त से बहुत से चमत्कार हुए हैं" या इसी प्रकार की कुछ अन्य चीजें। मैं सहमत हूँ, परन्तु आपका चित्त भी ऐसे कार्य करने में सक्षम है जो कि आम लोग नहीं कर सकते। क्योंकि सर्वप्रथम तो आपका चित्त पावन हो चुका है, दूसरे यह दिव्य शक्ति से संचालित है और इससे पूर्व मैं ऐसे लोगों से मिली हूँ जो सहजयोग में आकर रोते हुए मुझे पत्र भेजते हैं मा यह हो रहा है, वो हो रहा है, मेरे पिताजी बीमार हैं, मेरी टांग में दर्द है, मेरे हाथों में दर्द है आदि- आदि।' न केवल शरीरिक परन्तु मानसिक स्तर आदि के विषय में भी वे कहते रहते हैं। कभी कभी तो वे मुझे इतने लम्बे पत्र लिखते हैं कि मेरी समझ में नहीं आता कि इन्हें कैसे पढेँ। इतना अधिक लिखने के लिए कुछ नहीं हैं। वे लिखते हैं क्योकि उस अवस्था में वे अभी तक 1 परन्तु प्रतिक्रिया कर रहे होते हैं और उन्हें समझ नहीं आता कि क्या करें। वे एक ऐसी सीमा तक चले जाते हैं कि सहजयोग को चैतन्य लहरी चाहत्ते थे उन्हें कहने दो। मैं वही कहती हूं जो में जानती हूँ। में उनका उल्लेख क्यों करुं। पुस्तकालयों में जाकर प्लेटों और रूसो को पढ़ने की मुझे आवश्यकता नहीं हैं। जो मैं जानती हूं और जो कुछ मैने देखा है मुझे, बिना यह सोचे कि अन्य लोगों ने क्या लिखा है और क्या वर्णन किया है, वही स्पष्ट रूप से लिखना चाहिए। इस मस्तिष्क के साथ एक और बहुत बड़ी समस्या भी है कि जो कुछ भी छप जाता है उसे बाईबल मान लिया जाता हैं। पहले के किए हुए सभी कार्य या कथन महान मान लिए जाते हैं। जैसे अब ईसा, मोहम्मद साहब, अब्राहम, कृष्ण या राम नहीं हैं। परन्तु लोग सोचेंगे कि राम ने ऐसा कहा, ने ऐसा कहा, गीता में ऐसे लिखा हैं। गीता में उन्होने सब विचार हैं और इनके कारण हम स्वतन्त्र नहीं हैं। इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि आप इन अवतरणों में विश्वास न करें। वे सब महान थे। हम उन्हें समझते हैं और उनका अत्यन्त सम्मान करते हैं परन्तु सर्वप्रथम आप स्वतन्त्र हो जाएं। इन अवतरणों को समझने के लिए आप स्वतन्तर हो जाएं। आपका पाटी मस्तिष्क स्वतन्त्र हो जाए। आपका मस्तिष्क बाहर से भरे हुए विचारों से ग्रस्त न हो जिससे कि आप वास्तविकता को भी न देख पाएं। इन्हीं बन्धनों के कारण, मैने देखा है, लोग आनन्द नहीं ले पाते। कुछ लोग आनन्द ले पाते हैं और कुछ नहीं ले पाते। सहजयोग पूर्ण आनन्द देने के लिए होता हैं और पूर्ण स्वतन्त्रता एवं विवेक प्रदान करने के लिए भी। अतः आप अन्य लोगों की स्वतन्त्रता का सम्मान करें। सर्वोपरि आप यह समझें कृष्ण कुण्डलिनी विषय में एक शब्द भी नहीं कहा तो श्रीमाता जी कुण्डलिनी के विषय में क्यों बात कर रही हैं। गीता को किसने लिखा? श्रीकृष्ण ने गीता नहीं लिखी ईसा ने बाईबल नहीं लिखी और मोहम्मद साहब ने कुरान नहीं लिखवी तो उन्होंने जो कुछ भी कहा उसके विषय में आप क्यों चिन्ता करते हैं कि स्वतन्त्रता है क्या? यदि यह कार्य नहीं होता तो मैं कहूंगी कि सहजयोग किसी काम का नहीं क्योंंकि इसे ऐसे ढंग से कार्यान्वित होना चाहिए कि आप अपने पूर्व बन्धनों से मुक्त जाएं। अब अपने दूसरे शत्रु को देखें ये हैं श्रीमान अहंकार। ये एक अन्य सिरदर्द है और बड़ी तेजी से कार्य करते हैं । इसने बहुत से लोगों को फुला कर कुप्पा बनाया हुआ है। और अन्दर अहम् भिन्न दिशाओं से आता हैं और आप हैरान होंगे, वास्तव में हमारे चक्रों की विकृति के कारण यह हमारे अन्दर पनपता है। कुछ लोगों के लिए धन बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। किसी भी प्रकार से हमें धन मिलना चाहिए। यदि मुझे धन नहीं प्राप्त होता तो सहजयोग का क्या लाभ है। निसन्दे:ह धन बहुत महत्वपूर्ण हैं हम धन संचालित विश्व में रह रहें हैं परन्तु है कि जो धन आपको मूर्ख बना दे उसका क्या लाभ? अब बहुत अधिक धनाभिमुख देश जिन्हें अति वैभवशाली माना जाता है जैसे स्कैन्डीनीवियन देश और स्विटरजरलैण्ड को देखे। जिस भी प्रकार से उन्होंनें धनार्जन किया हो वे वैभवशाली हैं। परन्तु उसकी अपेक्षा आप अनुभव लें जिसके विषय में सबने कहा हैं कि आपको पुर्नजन्म लेना होगा। सभी अवतरणों ने कहा है कि आपको मस्तिष्क से ऊपर उठना होगा। क्यों न ऐसा करके देखा जाए। परन्तु पहचान प्राप्त करके लोग बहुत प्रसन्न होते हैं। जैसे सहजयोग में जो ईसाई आए हैं ईसा बहुत प्रसन्न होते है। बहुत प्रसन्न। यदि वे हिन्दू हैं तो कृष्ण और राम होने चाहिए, यदि मुसलमान हैं तो मोहम्मद साहिब या फातिमा बी होने चाहिएं। इस संस्कार से वे बाहर नहीं निकल पाते यह बहुत कठिन कार्य हैं उनका मस्तिष्क ही ऐसा बन चुका है। बचपन से ही उन्हें कहा जाता है,"आप मुसलमान हैं, आप मुसलमान हैं। आप ईसाई हैं, आप ईसाई है," और वे विश्वास कर लेते । मान लो यदि आप किसी अन्य धर्म में जन्में होते तो क्या Pर से मेने आपको बताया हैं । होता आप कुछ अन्य ही चीजें होते परन्तु आपकी खोपड़ी में ऐसे विचार भर दिए गए हैं जो आपके मस्तिष्क में बैठ गए हैं और इस प्रकार आप इतने परतन्त्र हैं। इन बन्धनों से आप बंध गए हैं। यही चीज़ में सहजयोगियों में भी पाती हूं, एक बहुत बड़ी बन्धनावस्था कि वे निर्णय करते हैं कि फलां-फला चीज वहां युवा लोग आत्महत्या कर रहे हैं। आत्महत्या करने की होड लगी हुई है। वे अत्यन्त दुखी हैं-क्यों? इसका अर्थ यह हुआ कि धन से प्रसन्नता नहीं आ सकती। धन यदि आपके मस्तिष्क पर भी हावी है तो आप सहजयोगी नहीं हो सकते धन तो आपके उपयोग के लिए है आपके प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए है। दुकान पर जाकर आप किसी चीज को देखते हैं तो आप सोचते हैं कि फलां व्यक्ति को देने के लिए यह चीज बहुत अच्छी है। यह भावना बहुत मधुर है। आप वह चीज किसी जरूरतमद को दे सकते हैं। जब आपका मस्तिष्क परिवर्तित हो जाता है मेरा अभिप्राय है कि जब यह निर्विचार समाधिस्थ हो जाता है; तब आप उस के लिए केवल आनन्ददायी; कलात्मक, सुन्दर तथा उपयोगी वस्तु खरीदेंगे। तब आपका मस्तिष्क गहन अच्छी है या बुरी है। आप अपने लिए देखें| उदाहरणार्थ यदि मैं गुरू नानक के विषय में बात करु तो सिरव बहुत प्रसन्न होंगे। परन्तु यदि मैं ईसा की बात करू तो उन्हें प्रसन्नता न होगी। पुणे में मैने ईसा की बात करी तो लोगों ने कहा कि ये सभी को ईसाई बनाने का प्रयत्न कर रही हैं और जब मैं लदन में श्री कृष्ण की बात कर रही थी तो उन्होंने कहा कि ये सभी को हिन्दू बना रही हैं। हममें जो यह एक- रूपता है यह हमारे जन्म से ही इतनी गहनता पूर्वक हममें आ रही हैं हममें अब भी यह चैतन्य लहरी ি हमारे अन्दर अंहकार के बहुत से बन्धन हैं। हमारे देश में विशेष तौर पर पत्नी पर रौब जमाना सबसे बड़ा अंहकार है। मैने देखा है कि लोग किस प्रकार स्त्रियों को सताते हैं अपनी पत्नियों और बच्चों को सताते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं "मैं पुरुष हूँ आपको क्या मिलता हैं। आपको बिल्कुल आनन्द नहीं मिलता । इस प्रकार आप कभी भी आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते। दूसरों को सताने से आप कभी आनन्दित नहीं हो सकते, कभी नहीं। केवल प्रेम, स्नेह एवं सुहृदता से ही आप आनन्दित हो सकते हैे क्योकि आनन्द के यही लक्षण हैं, आनन्द प्रभुत्त्व जमाना, मांग करना आदि नहीं हैं। यह आनन्दमग्न व्यक्ति के लक्षण नहीं हैं। केवल अनुराग, स्नेह तथा सुकोमल सम्बन्धों का आनन्द लेने वाला व्यक्ति आनन्दमग्न होता हैं। इस मामले में भी मैंने देखा है कि भारतीय पुरुष विशेष रूप से उत्तर भारतीय पुरुष मुस्लिम प्रभाव में आकर अपनी पत्नियों पर बहुत रोब जमाते हैं। और उनका अपमान करतें हैं। फलस्वरूप यहा की स्त्रियां भी अत्यन्त रोबीली हो गई हैं। क्रिया की प्रति क्रिया होना स्वाभाविक हे। यह प्रतिक्रया ही अपने आप में अनुचित है। प्रतिक्रिया को पावन प्रेम की भावना, करुणा सागर में विलय हो जाना चाहिए। उदाहरणार्थ दिल्ली की गलियों में मैं बहुत से लोगों को, छोटे-छोटे बच्चों को भीख मांगते हुए देखती हूँ। उन्हें देखकर मेरे मन में जो भावना उठती है वह उन्हें ताड़ने की या उन पर नाराज होने की नहीं होती। हो सकता है कि वे धोखा दे रहें हों या ऐसा कुछ कर रहे हों क्योंकि आखिकार सभी लोग धोखा धड़ी कर रहे हैं. जिनके पास बहुत धन है वे भी धोखाघड़ी कर रहे हैं। तो यदि ये निर्धन लोग भी धोखा दे रहे हैं तो कौन सी बड़ी बात हैं परन्तु उन्हें देख कर मेरे हृदय में करुणा उसड़ पड़ती है कि किसी तरह से कहीं एक जमीन का टुकड़ा ले कर एक ऐसे स्थान का आयोजन क जहां दुखी. अनाथ लोगों को रख कर उनकी सहायता की जा सके। हो सकता है दुखों और दारिद्रों से पीड़ित इन लोगों में से आपको बहुत से कमल प्राप्त हो सके। परन्तु यह भावना सामूहिक रूप से होनी आवश्यक है। मुझे लगता है कि इससे दिल्ली की समस्या का समाधान हो जायेगा। परन्तु हमारा कार्य अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरह से नहीं होना चाहिए। मेरा सम्बन्ध कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से रहा हैं। मैं आश्च्चय चकित थी कि उनका सारा समाज कार्य केवल अहंकार को बढ़ावा देने के लिए था, इसका सम्बन्ध समाजहित से कुछ भी न था। सभी कुछ उल्टा-सीधा था, इन लोगों में पीड़ितों की देखभाल करने की कोई गहन चिन्ता न श्र। प्रेम एवं उदारता से परिपूर्ण हो जाएगा। यह अपनी उदारता का आनन्द लेगा और हर समय आपके चिन्त को अन्य लोगों को प्रसन्नता प्रदान करने की दिशा में, प्रक्षेपण करने के लिए आपका पृथ प्रदर्शन करेगा। छोटी छोटी चीजों से; जरूरी नहीं कि वे बहुत महंगी हों। यदि आपके पास धन है तो अच्छा होगा कि अन्य लोगों को देने लिए अपना प्रेम, अपनी कृतज्ञता और अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करने के लिए आप चीजें खरीदें। जिस प्रकार लोग इन साधुओं और बाबाओं को हजारों रुपये देते हैं यह बहुत प्रशसनीय बात हैं। क्योंकि उनके मन में अपनी श्रद्धा को सन्तुष्ट करने के लिए यह बात आई है कि वे यह धन दान कर दें और वे ऐसा ही करते हैं ओर उन्होंने अथाह धन राशि एकत्र की हुई है। उन्हें इसका कोई विवेक नहीं इसका मूल्य वे नहीं, जानते। उनके लिए यह धन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। आधुनिक युग ऐसे लोगों को देखा है जो बहुत धनी हैं और जिन्हें बहुत बड़ा व्यापारी माना जाता है। वे मुझे अलग से मिलना चाहते हैं। परन्तु वे बेकार के लोग हैं बिल्कुल व्यर्थ आकर वे मुझे बताले हैं मां आप जानती हैं कि मुझे इस व्यापार में हानि हो रही है उस व्यापार में हानि हो रही हैं। क्या आप हमारी किसी प्रकार में धन का सबसे बड़ा अभिशाप है अहंकार। मैने से सहायता कर सकती हैं? में उन्हें कुछ भी नहीं कहती। परन्तु वे आकर बताते हैं। मां आपके आर्शीवाद से हमारा घांटा पूरा हो गया, हो सकता है- परन्तु यह सब मूर्खता है। जैसा कि लाओत्से ने वर्णन किया है कि आप येंगत्ने नदी से जा रहे हैं। यह अत्यन्त सुन्दर है, नदी के दोनों और सुन्दर दृश्य है परन्तु अच्छा होगा कि आप नाव में बैठ कर सागर में पहुंच जायें। इसी प्रकार मान लो कि हनने वायुयान पकड़ना है और सड़क पर कोई अच्छी चीज देख कर हम कार से उतर जाए तो वायुयान कैसे पकड़ पायेंगें? मन के अतिरिक्त परिणाम यह है कि हम अपने चित्त को गलत चीजों की ओर ले जा कर उननें अपनी शक्ति बरवाद कर देते हैं। फलस्वरूप हम खी होते हैं क्योंकि प्रायः इच्छाओं की कभी पूर्ति नहीं होती। किसी लिप्सा वक्ष या किसी उड़ेश्य से दिया गया या प्रप्त किया गया प्रेम प्रेम नहीं होता। परन्तु पावन प्रेम को अपने अन्दर या अन्य लोगों के अन्दर अनुभव करना ही परमात्मा का महानतम उपहार है। बाकी सब चीजें व्यर्थ हैं। आप यह सब चीजें समझ जायेगें। प्रतिदिन आप यही अनुभव करते हैं। आज आप एक कार लेना चाहते हैं-ठीक है तो लीजिए फिर आप एक घर लेना चाहते हैं, वह भी ले लौजिए। घर ले कर भी आप सन्तुष्ट नहीं होते। फिर आपको किसी अन्य चीज की इच्छा होती है। तो कौन सी इच्छा सन्तोषदायक है? यह पावन फ्रेम है, सच्चा प्रेम जो आप अन्य लोगों के लिए और अन्य लोग आपके लिए महसूस करते हैं । Invi करुणा की महान भावनाओं के साथ हम यह सब कार्य कर सकते हैं। यह मेरी एक इच्छा है, यदि यह आप सब लोगों की भी इच्छा है तो यह कार्यान्वित हो जायेगी। वयोंकि वे भी मानव हैं अतः उनकी देखभाल करना अन्यन्त महत्वपूर्ण है। परन्तु चैतन्य लहरी के कारण वहां मस्तिष्क परिवर्तित हुआ है और अब वे भिन्न लोग हैं। हमें उनके मूर्ख विचार नहीं अपनाने चाहिए कि वस्तुएँ देकर या किसी प्रकार के वचन करके हम लोगों को वश में कर सकते हैं। बास्तव में हमें स्वंय को वश में करना है और यह नियन्त्रण तभी आ सकता है जब आप अपने मस्तिष्क को हावी होने की आज्ञा न दें। यह नियन्त्रण तो पूर्ण स्वतन्त्रता हैं। उदाहरणार्थ आप वायुयान को लें यदि यह बिल्कुल ठीक बना हे तभी उड़ सकता हैं। इसी प्रकार यदि आप भी निपुण सहजयोगी हैं, तभी आपको समस्याओं का समाधान करने में, किसी भी हालात में किसी भी व्यक्ति से व्यवहार करने में कोई समस्या न होगी। बहुत से सहजयोगी कहते हैं, "श्री माता जी हम कोई गतिशील कार्य नहीं करना चाहते क्योंकि हमारा अहम् बढ़ जायेगा।" वे सोचते हैं कि उनका गुब्बारा पहले से ही फूला है और यदि वे कोई और कार्य करेंगे तो अहम् बढ़ जाएगा। इसके लिए व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहिए कि "मैं कोषाध्यक्ष बनूगा, मैं अध्यक्ष बनूंगा और मैं फलां अधिकारी बनूगा। यह सब पुरोहितपना मस्तिष्क से ही चला जाना चाहिए अन्यथा, आप जानते हैं, कि आप स्वतंत्र नहीं है। इसके विषय में एक सुन्दर चुटकला है कि एक व्यक्ति मन्त्री से मिलने गया और उनका निजी सचिव लोगों से भेंट कर रहा था। सचिव को लोगों पर बिगड़ते देख कर एक ग्रामीण ने पूछा, "आप कौन हैं?" उसने उत्तर दिया, "क्या आप नहीं जानते कि मैं पी. ए. (पीये) हूँ"। "अच्छा तो आप पीये हैं|" तो ठीक है हमें कुछ नहीं कहना। तो अहंकारी व्यक्ति किसी शराबी या पागल की तरह से बर्ताव करता है, कभी कभी तो आपको उनसे बहुत दूरी से बात करनी होती हैं। मैंने आपको बताया है कि कुछ लोग जिन्हें बड़े-बड़े शान्ति पुरस्कार मिल चुके हैं उनसे बहुत दूर से बात करनी पड़ती है कि कहीं वे गुस्से से आप पर झपट न पड़े-किसी बिल्ली या चीते की तरह। समझ नहीं आता कि वे कैसे बने हैं। में नहीं समझ पाती कि किस प्रकार उन्हें यह हुआ अतः वे कहते हैं हम नहीं करना चाहते। बात ऐसी नहीं हैं। यह प्रेम है, आप प्रेम के लिए कार्य करते हैं। । স शान्ति पुरस्कार प्राप्त हुए? परन्तु वास्तव में ये पुरस्कार उन्हें मिले। शान्ति हमारे अन्दर है। इसे अन्दर बनाये रखना होगा और अन्तदर्शन द्वारा इसे देखना होगा। क्या हम शान्त हैं या हम प्रतिक्रिया कर रहे हैं । यदि हम प्रतिक़्िया करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि हम शान्त नहीं हैं। परन्तु लोग कहेंगे, "हां, हा मैं बहुत शान्त हूं, परन्तु मुझे प्रतिक्रिया करनी पड़ती है," तब आप शान्त नहीं हुए। सीधे अपना सामना करें और स्वंय देखें कि क्या आप शान्त हैं? तभी शान्ति चहूं ओर फैलेगी और अन्य लोगों की भी सहायता करेगी। यह उन्हें शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक शान्ति प्रदान करती हैं। प्रेम का यह समुद्र आपके अन्दर है। इसके बिना आप किस प्रकार चल सकते हैं? इसे हर स्तर पर कार्य करना होगा चाहे यह आपका परिवार हो, शहर हो, देश हो, या पूरा विश्व हो। हमें एक नई पीढ़ी के लोगों की सृष्टि करनी है जो प्रेम में विश्वास करते हों, प्रेम जो सत्य है। प्रेम के बिना आप सत्य नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि जब आप किसी से प्रेम करते हैं तो उस व्यक्ति की सभी बातों की जानकारी आपको होती है। इसी प्रकार जब आप अपने देश को प्रेम करते हैं तो अपने देश का आपको पूरा ज्ञान होता हैं। परन्तु पहले आपको प्रेम करना होगा। आज कल लोगों की समस्यायें क्या है? यदि आप अपने देश को प्रेम करते हैं तो आप जान जायेंगे कि उसका सार क्या है, उसकी समस्याएं क्या है और वहां क्या हो रहा है। एक रूपता की यह गहन भावना सारा कार्य करेगी क्योंकि, आखिरकार, आप परमात्मा से जुड़े हुए हैं। परन्तु गहनता पूर्वक आपको इन सब चीजों के विषय में महसूस करना चाहिए जो आज के युग में वास्तव में विनाशकारी एवंम कष्टदायीं हैं। सहजयोग में आकर आप लोगों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई हैं। यह मेरा कोई प्रमाण पत्र या बिल्ला नहीं हैं कि आप सहजयोगी हैं। मैं चाहूंगी की स्त्रियां भी इस बात को देखं क्योंकि मैंने देखा है कि अधिकतर महिलायें अपने बच्चों, पतियों, नौकरियों तथा इस प्रकार की चीजों के सम्बन्ध में ही चिन्तित रहती हैं। परन्तु वे अन्य लोगों के, अपने आसपास के लोगों क विय में चिन्तित नहीं होती उन्हें सहज जीवन शैली अपनानी होगी, जिसमें अपना प्रेम तथा अपना चित्त अन्य लोगों के प्रति विस्तृत करना होता है और देखना होता है कि किस प्रकार से अन्य लोगों को प्रसन्न रख सकती हैं। पश्चिमी देशों में यह अवस्था नहीं हुआ करती थी। वे नहीं जानते थे कि बिना किसी इनाम या लक्ष्य के भी व्यक्ति को किसी को प्रसन्न करना एक बार फिर यह जन्मोत्सव मनाने के लिए तथा माधुर्य की जो वर्षा आपने मुझ पर की है उसके लिए में आपका धन्यवाद करना चाहूंगी। मेरे लिए आप इन सुन्दर पुष्पों सम है जो सदा आपको प्रसन्न करने के लिए, सुख देने के लिए लालयित रहते हैं। इन्हीं फूलों की तरह से अपने सम्मुख आप सब लोगों को पाती हूं, सुन्दर पुष्प, देवत्व से महकते हुए । मुझे आशा है कि आप सब लोग अपने को समझेंगे और इसे कार्यान्वित करेगें। चाहिए। आप यदि किसी को कोई उपहार दें तो वे कहते हैं, *ओह, आपको क्या चाहिए?" वे नहीं समझ सकते कि कोई अन्य अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करना चाहता हैं। अब सहजयोगियों मूल्य परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। चैतन्य लहरी पराविज्ञान एंव औषध विज्ञान परम पूज्य माताजी श्रीनिर्मला देवी का भाषण कालेज 0904.1996 लेडी हार्डिंग चिकित्सक सम्मेलन दिल्ली हम सब सत्य साधक हैं परन्तु हम यह नहीं जानते कि क्या खोजा जाए। सत्य शाश्वत है। हम इसे परिवर्तित नहीं कर सकते। इसके स्वरूप को हम बदल नहीं सकते। हमें इसका जहा तक ओषध विज्ञान का सम्बन्ध है पाश्चात्य प्रभाव हानिकर नहीं हैं। परन्तु हमें इससे परे जाना है और देखना है कि जो ज्ञान हमारे पास है वह केवल एक आख, दूसरी आँख या किसी विशेष अंग की सूक्ष्मताओं में जाकर, अन्ततः भिन्न शाखाओं में बंट जाने के लिए नहीं हैं। सहजयोग सम्पूर्ण का समन्वय (Synhesis) हैं। अपने अन्तस में ही हम मूल तत्वों पर जाते हैं। किस प्रकार हम बीमार होते हैं? ज्ञान पाना है। मन के माध्यम से आप सत्य का ज्ञान नहीं पा सकते। वास्तव में मन मिथ्या है। इससे ऊपर उठकर ही आप सत्य को जान सकते हैं। यही परम सत्य है उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। सभी लोग इसी 'केवल सत्य' को जानते हैं। मूल तत्वों के विषय में मैं आपको बताने वाली हूं परन्तु आप इन पर विश्वास नहीं करेगें। वैज्ञानिकों की तरह यही वह ज्ञान हैं जो 'बोध' कहलाया, जहां से बुद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई। यही वह ज्ञान है जिसे विद कहते हैं और जहां से वेद आए। इस प्रकार इस ज्ञान को हमें अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर जानना है, मस्तिष्क से नहीं। एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात जो हमने सीखनी है, वह यह है कि हम मानवीय चेतना की अवस्था तक पहुँच चुके हैं। परन्तु अभी तक यह अधूरी है; यदि यह पूर्ण होती तो कोई समस्या न होती। हम झगड़ते क्यों हैं? वादविवाद क्यों करते हैं? अत: ऐसा सत्य होना ही चाहिए जो पूर्ण है और इस सत्य को खोजना हमारी विकास प्रक्रिया का कृपया इन्हें समझने का प्रयास करें। हमारे अन्दर सात चक्र हैं जोकि ऊर्जा केन्द्र हैं जो सभी कार्यों के लिए, हमारी मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए सूद्म ऊर्जा प्रदान करते हैं। जब जब भी इनमें से किसी भी चक की शक्ति का हास हो जाता है तभी हम बीमार पड़ जाते हैं। अब कैसर रोग का प्रश्न हैं। हमारा कोई भी चक़ प्रभावित हो सकता हैं। मध्य का हिस्सा परा अनुकम्पी है तथा बाएं और दाएं अनुकम्पी हैं। अब होता क्या है? मान लो हम किसी चक्र विशेष की या तीन चक्रों की ऊर्जा को उपयोग करने लगते हैं जैसे बहुत ज्यादा सोंचने में, बहुत अधिक कार्य करने के लिए आदि आदि। ऊर्जा के लिए स्थान छोटा हो जाता हैं। क्योकि यह पहलू अधिक भावनात्मक हैं। यह टूट जाता है और इसके टूटने पर स्रोत से सम्बन्ध समाप्त हो जाता हैं। दाएं ओर की ऊर्जा स्वच्छंद हो जाती है और स्वच्छंद होकर यह बढ़ने लगती हैं। जब कुण्डलिनी शक्ति इस चक्र में से गुजरती है तो दोनों अनुकम्पियों को न केवल अपने स्थान पर लाती है परन्तु यह इनका पोषण करती है और अन्य चक्रो के साथ इनका समन्वय भी करती हैं। लक्ष्य है। इसी प्रकार हरमें आत्म साक्षात्कार की उस उच्चावस्था तक विकसित होना हैं जिसके द्वारा हम आत्मज्ञान प्राप्त कर सके। इसे आपको 'पराविज्ञान' के रूप में देखना होगा क्योंकि वैज्ञानिकों की तरह से आपको अपने मस्तिष्क खोलने हैं। अन्ध विश्वास में आपने मेरे कथन पर विश्वास नहीं कर लेना। अन्ध विश्वास के कारण हमें बहुत सी समस्याएं हुई परन्तु आप लोगों को अपने लिए देखना होगा, निर्णय करना होगा, इस पर प्रयोग करने होंगें और यदि आपको लगे कि जो मै तुम्हें बता रही हूं वह सत्य है तो ईमानदार व्यक्तियों की तरह आपको उस पर विश्वास कर लेना चाहिए, उन लोगों की तरह जो अपने परिवार अपने देश और परे विश्व के हितैषी हैं। बिना विकसित हुए हम वह अवस्था नहीं प्राप्त कर सकते। इस विकास के लिए हमारे अन्दर पूर्ण प्रबन्ध कर दिया गया हैं। आपकी त्रिकोणाकार अस्थि में जिस शक्ति का निवास है वह कुण्डलिनी कहलाती है। इस देश में यह ज्ञान हजारों वर्षों से विद्यमान है। यह हमारी धरोहर हैं। भारतीय होने के नाते यह जान हमें उत्तराधिकार में प्राप्त कैंसर तथा अन्य प्रकार यह सत्य है, इससे बहुत से रक्त के कैंसर रोगी रोग-मुक्त हुए हैं। परन्तु हमें समझना होगा कि हम मूल में नहीं हैं। पेड़ यदि बीमार है तो हम उसके पत्तों या फूलों का इलाज कर रहे हैं। पूरे वृक्ष का इलाज यदि हमें करना है तो हमें इसकी जड़ों में जाना होगी। जड़ों का यह ज्ञान हमारे देश में हजारों सालों से हैं। चक्र जब पोषित होते हैं तो वे सन्तुलन की सृष्टि करते हैं। ऐसी बहुत सी चीजें है जिन्हें हम हुआ परन्तु पाश्चात्य प्रभाव के कारण इस पर परदा पड़ गया। चैतन्य लहरी गांवों में यदि आप जाये तो लोग एक कप चाय में तीन-चार चम्मचे चीनी डाल कर पीते हैं, इतनी अधिक चीनी होती है कि चम्मच उसमें सीधा खड़ा हो जाता हैं। इसके बिना वे चाय को चाय ही नहीं समझते परन्तु उन्हें मधुमेह नहीं होता। इसका क्या कारण है? जो भी कुछ वे कमाते हैं उसे खर्च करके आराम से सोते हैं, न उन्हें जीवन-बीमे की चिन्ता होती है और न किसी और चीज की। चिकित्सा विज्ञान में नहीं जानते। मैं स्वंय चिकित्सा विज्ञान की छात्रा थी और अत्यन्त चिन्तित थी कि किस प्रकार चिकित्सा विज्ञान के लोगों से उन तथ्यों की बात की जाए जो पुस्तकों में वर्णित नहीं हैं। उदाहरणर्थ हम नहीं जानते कि अनुकर्पी प्रणाली परस्पर अभिमुखी (OPPOSITE) है। एक प्रकार से यह अनुकम्पी सम्पूरक हैं। परन्तु वे एक ही सा कार्य नहीं करते। पीयुष (PITUITARY) पिगला नाड़ी के माध्यम से दाया अनुकम्पी है तथा शंकु रूप (PINEAL) ईडा नामक नाड़ी के माध्यम से बांया अनुकम्पी हैं। ये दोनों एक प्रकार से परस्पर सम्पूरक है और यही कारण है कि अपने कार्यों में ये परस्पर विरोधी हैं। बायां अनुकम्पी भावनात्मक पक्ष के लिए है और दांया अनुकम्पी कार्यशीलता के लिए। अस्थमा (दमा) और मधुमेह (DIABE- 1. जिगर की गर्मी से एक अन्य अवयव जो कुप्रभावित होता है वह है प्लीहा (Spleen)। इसे हानि पहुँचना बहुत ही कष्टदायी है। आज कल सुबह सुबह उठते ही लोग समाचार पत्र पढ़ते हैं और यदि कोई संवेदनशील व्यक्ति हो तो उसे आघात पहुँचता है। अतः आपका अनुकम्पी गतिशील हो उठता है और प्लीहा है? TES) रोग ग्रस्त होने का मूल कारण क्या मूल कारण हमारा जिगर (Liver) हैं। चिकित्सा विज्ञान में, में आपको विश्वास दिलाती हूं कि, हम कुछ अधिक नहीं जानते। नाभि से आरम्भ होने वाला, दूसरा चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र कहलाता है। यह चक्र चहूं ओर घूमकर महाधमनी चक्र (AORTIC PLEXUS) को शाक्ति प्रदान करता है। यह चक् बहुत सी चीजों की देखभाल करता है। यह जिगर (LIVER), अग्न्याश्य (PANCREAS), प्लीहा (SPLEAN) और गुर्दे (KIDNEYS) को देखता हैं। जब हम सोचने लगते हैं तो हमें पता नहीं होता कि शक्ति कहां से आती हैं। यह स्वाधिष्ठान चक्र से आती है। यही स्वाधिष्ठान चक्र इस शक्ति को भविष्यवादी गति प्रदान करता है। अत: यह उपयोग की जाने वाली शक्ति में बढ़ोतरी करता रहता है। उछल-कूद करने लगता है। बेचारे प्लीहा को समझ नहीं आता कि इस प्रकार के अशान्त व्यक्ति को किस प्रकार सम्भाले ! अमेरिका में तो लोग अपने दांत भी कार में साफ करते हैं। वे इतने जल्दी में होते हैं और इतने समयबद्ध। हम इतने अधिक गतिशील हो गये हैं कि हमाया जरीर इस गलति के साथ चल पाने में असमर्थ है। बेचारा व्लीहा नहीं समझ पाता कि इस प्रकार के उत्तेजित व्यक्ति के साथ कैसे कार्य करे। ये पगला जाता है और जो बीमारी शुरु होती है उसका नाम है 'रक्त कैंसर । निश्चित रूप से रक्त केसर का इलाज हुआ है, यह सुत्य है। चिकित्सकों ने अत्यन्त ईमानदारी से उन्हें बताया था कि रोगी एक महीने से अधिक जीवित नहीं रह सकता। नौ वर्ष बीत चुके है परन्तु वह रोगी अब भी विल्कुल ठीक हैं। यह बात हमारे लिए यह देखने का एक बहुत बड़ा उदाहरण है कि आप को रक्त आदि निकालने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। आप ठीक हो सकते हैं। कैसे? क्योंकि कुण्डलिनी जब स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुँचती है तो इसे पता चलता है कि बेचारा चक्र नि:शक्त हो चुका है, अत: यह इसे आवश्यक ऊर्जा पहुँचाती है और इस ऊर्जा से लोग ठीक हो जाते हैं। इसके पश्चात् जिगर की गर्मी गुर्दे की ओर जाती है। गुदे खराब हो जाने पर व्यक्ति को मूत्र त्याग में बाधा आ जाती हैं और उसे डायलिसिस पर डालना पड़ जाता है। डायलिसिस पर डाले जाने के बाद ठीक होने वाला एक भी व्यक्ति मुझे नहीं मिला। इसके बाद आपकी आंत हैं। जिगर की गर्मी से आंत भी सिकुड़ जाती है और आपकी पाचन शक्ति खराब हो जाती है। आपको डकारें आने लगती हैं और सबसे बुरी बात जो होती है वह है कब्ज हो जाना। आधुनिक युग का यह सबसे बड़ा अभिशाप है कि अधिकतर लोग कब्ज नामक भयानक रोग से पीड़ित हैं यह अत्यन्त अस्वाभावबिक है, फिर भी ऐसा होता है। ऐसा तभी होता है जब जिगर की गर्मी ऊपर को उठने लगती आम तकनीकी भाषा में जिगर शरीर का सारा जहर एकत्र करके और पूरी गर्मी को रक्त प्रवाह में डाल देता हैं। उपेक्षित हो जाने पर जिगर प्रभावित हो जाता है। जब यह चक्र इसकी देखभाल नहीं करता तो यह उपेक्षित हो जाता है ओर गर्मी चहूँ ओर फैलने लगती हैं। रक्त में न जा पाने के कारण यह ऊपर-नीचे और अन्य दिशाओं में जाने लगती है। सर्वप्रथम यह हृदय के दायीं ओर, जिसे हम दायां हृदय कहते हैं की ओर जाती है सहजयोग के अनुसार तीन हृदय है केवल एक नहीं। दाया हृदय चक्र, जो कि हमारे फेफडों की देखभाल करता है यदि गर्म हो जाये तो यह क्रेन्द्र प्रभावित होता है और परिणामतः फेफड़ों को हानि पहुँचती हैं। इस प्रकार व्यक्ति को दमा हो जाता हैं। जब आप अपने जिगर पर बर्फ रखते हैं तो यह आपके जिगर को ठण्डा करती हैं। यह बहुत साधारण बात है। जिगर की गर्मी अग्न्याशय (PANCREAS) की ओर भी बढ़ सकती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति को मधुमेह हो जाता है। महमेह रोग न केवल चिकित्सकों में परन्तु वकीलों और बहुत अधिक योजनाएं बनाने वाले अफसरों में एक आम रोग हैं। चैतन्य लहरी बास्तव में इसे किसी पर थोपा नहीं जा सकता। इसके लिए याचना करनी पड़ती है। किसी निष्ठ्र अहंकारी और मुर्ख व्यक्ति पर यह कार्यान्वित न होगी हमें उन्हें उचित मार्ग पर लाना होगा तभी यह कार्य करेगी। परन्तु आप सब में यह शक्ति है आयु के शराब पीने वाले युवक को चाहे ह वह टेनिस खेलता हो और खूब मेहनत करता हो, जानलेवा हृदयाघात हो सकता है। उस आयु में व्यक्ति को बचाया नहीं है। 21 से 25 साल की जा सकता। इस गर्मी का उभार बाद में हृदय पर चलता रहता तथा आत्म साक्षात्कार प्राप्त करना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। है और लोगों को भयानक हृदयघात हो जाते हैं। एक अन्य बहुत भयानक बात गरमी का मस्तिष्क तक पहुँचना है। मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर देता है, और व्यक्ति को दायीं ओर पक्षघात हो जाता है। यह केवल एक चक्र से होता है। जिगर पर बर्फ रखने से आप हैरान होंगे, पक्षघात भी ठीक किया जा सकता है। लोग कहते हैं यह मेरा सिर है, यह मेरा शरीर है, यह मेरा मस्तिष्क है। इस मस्तिष्क का स्वामी कौन है? किसी चिकित्सक से पूछिए कि आपका हृदय कौन चलाता है? वह उत्तर देगा- 'स्वचालित नाड़ी तन्त्र'। ठीक है, पर यह स्व" कौन हेै ? यही हमें जानना है। हमें आत्मा बनना है क्योंकि हम यह शरीर पीछे के अगन्य चक्र पर बर्फ रखने से चश्में से मुक्ति प्राप्त की जा सकती हैं। क्योकि स्वाधिष्ठान चक्र यहीं है और सहजयोग अनुशासन तथा बर्फ इस कार्य को कर सकते हैं । आप कल्पना कीजिए कि एक चक्र को ठीक करने से आप किंतने रोग ठीक कर सकते हैं, विशेषकर आप चिकित्सक लोग जो चिकित्सा कार्य में लगे हुए हैं, इस कार्य के लिए उद्यत हैं। मन नहीं है, हम ये भावनाएं अहें या संस्कार नहीं है, हम शुद्ध आत्मा है। दूसरी बात यह है कि परमात्मा सर्वव्यापक है जिसका इससे पूर्व हमने कभी अनुभव नहीं किया। सभी ने इसका वर्णन "सलीलं-सलील" कह के किया- ठंडी-ठंडी। बाइबल में इसे परम चैतन्य की शीतल पवन- (Cool Breeze of the Holy Ghost) कहा गया, कुरान ने इसे कहा कि स्वयं को जाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। हमारी पूरी भारतीय सस्कृति आत्म ज्ञान प्राप्ति के पक्ष में है-हम इसे मोक्ष कहते हैं, आत्म साक्षात्कार कहते हैं। जो भी नाम हम इसे दें, परन्तु मूल रूप से आप समझ लें कि किसी की आखों का या मुधमेह का इलाज शुरू कर लेने मात्र से कुछ न होगा वे मनोदैहिक रोगी बन जाते हैं जो ला इलाज हैं। यह समाधान नहीं हैं। समाधान तो चिकित्सा-परा- विज्ञान में है जहां आपको केवल स्वीकार करना होता हैं। परिकल्पना के रूप में स्वीकार कर करके इसे परखें, यदि यह कार्य करे तो क्यों न इसे स्वीकार करें नि:सन्देह एक बात तो है कि आप इसके लिए धन नहीं ले सकते क्योंकि आप एक व्यक्ति की शक्ति, जो कि दिव्यशक्ति है, के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खर्च कर रहे। इसका अभिप्राय यह भी कदापि नहीं कि धनाभाव के कारण चिकित्सक भूखों मरने लगेंगे। आप जानते हैं कि सहजयोग में बहुत कम लोग आते हैं, अधिकतर तो चिकित्सकों में ही विश्वास करते हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए वे डाक्टरों के पास दौड़ेंगे। धनी लोग भी सहजयोग में नहीं आयेंगे। अतः आप को अपने पेशे की ये सब प्रयास आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए थे। आधुनिक युग में एक अच्छी घटना घटी है। चहूँ ओर बहुत से सत्य-साधक हैं। दूसरी चीज यह है कि आत्म साक्षात्कार है सहज है, स्वतः है। आपकों न तो हिमालय पर जाना पड़ता न अपने सिर के भार खड़ा होना होता है, न बीवी-बच्चों आदि, का त्याग करना पड़ता है। आप स्वय को सम्मान रख सकते हैं, यह सब स्वतः होना होता है, इसके लिए न तो आपको कुछ पढना है और न मन्चोंच्चारण करना पड़ता है। यह इतना सहज है। चिकित्सक यदि यह शक्ति प्राप्त कर ले तो, जहां तक चिकित्सा विज्ञान का सम्बन्ध है, वे भारत के महानतम वैज्ञानिक बन जाएंगे। रूस में उच्चकोटि के 250 चिकित्सकों तथा 200 वैज्ञानिकों को अपने सम्मुख बैठा देखकर मैं आश्चर्य चकित थी। वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली का उपयोग करते हुए मैनें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। परमात्मा की शक्ति का प्रकाश पाकर आप स्वयं शक्ति बन जाते हैं। में एक शल्य - चिकित्सक को जानती हूँ, वह कहता है कि श्री माता जी बिना कुछ अधिक परिश्रम किए मैं शल्य चिकित्सा करता हूँ जिसके चमत्कारिक परिणाम होते हैं क्योंकि मेरे हाथों से चैतन्य प्रवाहित होता है। यही शक्ति रोग मुक्त करती है तथा यही घाव भरती है। लोग विश्वास करते हैं कि ईसा ने इक्कीस लोगों के घाव भरे, पर कोई नहीं जानता कि कैसे! शक्ति संचार से कलाकार, संगीतज्ञ आदि में इतनी प्रतिभा आ जाती है कि वे चमत्कारिक रूप से पहले से कहीं बेहतर कलाभिव्यक्ति करने लगते हैं। जब विज्ञान की बात आरम्भ की तो वे कहने लगे कि श्री माता जी हम विज्ञान नहीं दिव्य-विज्ञान के विषय में जानना चाहते हैं। आप हमें अध्यात्म विज्ञान के विषय में बताइए, और जो भी कुछ मैने कहा, बताया कि मस्तिष्क उन सभी सातों चक्रों की पीठ है। उनके पास यह जांचने के लिए यन्त्र हैं। नोवा सबिस्क नामक एक स्थान है जहां सभी बैज्ञानिक हैं। वहां सभी वैज्ञानिकों का सुन्दर उसे उन्होंने खोजने का प्रयत्न किया। मैने उन्हें चैतन्य लहरी 10 नहीं जानते। वे जबरदस्त हैं। मैं आपको बता दूँ कि जब आपकी आत्मा आपके चित्त में होती है तो आप अति शक्तिशाली, आवास है तथा सभी प्रकार की प्रयोग शालाएँ हैं । मैनें जब उनसे मस्तिष्क में ये सभी चक्र खोजने के लिए कहा तो उन्होनें ऐसा कर दिखाया। इस कार्य को किया। एक अमेरिकाई वैज्ञानिक ने भी खोज दिखाया, जैसा मैनें आपको बताया है, कि पहला चक्र मूलाधार) कार्बन का बना हुआ है। कार्बन की चार संयोजकताएँ होती है। मैने कहा कि आप कार्बन के अणु का एक चित्र लेकर उसका मॉडल बनाओ। उस मॉडल को यदि आप दाएँ से बाएँ देखेगें तो आपको स्वास्तिक दिखाई देगा। जब आप इसे बाए से दाए देखेंगे तो ओंकार (ॐ) दिखाई देगा और यदि नीचे से ऊपर देखेंगे तो आपको अल्फा और ओमेगा (आरम्भ और अन्त) दिखाई देंगे। पहले आप ओमेगा (अन्त) और फिर अल्फा ( अति मूल्यवान व्यक्ति बन जाते हैं। साथ ही साथ आप अत्यन्त सुहृदय हो जाते हैं। जो भी कुछ आप त्यागना चाहें त्याग सकते हैं क्योंकि आप देखने लगते हैं कि क्या विनाशकारी हैं। १। आपको अपने आत्मसाक्षात्कार का उपयोग करना होगा अन्यथा यह कार्यान्वित न हो सकेगा। इसके लिए आप धन नहीं दे सकते। यह द्िव्य प्रेम है जिसके लिए पैसा नहीं दिया जा सकता परन्तु इस बात को लोग नहीं समझते। गुरु यदि आपसे पैसा लेता है तो वह आपका गुरु नहीं हो सकता। वह तो आपका नौकर है। यह विकास प्रक्रिया है, विकास की जीवन्त प्रक्रिया, इसके लिए धन नहीं दिया जा सकता उदहारणार्थ यदि दें आरम्भ) देखेंगे। ईसा ने कहा है कि मै ही अल्फा हूँ और मैं ही ओमेगा हूँ। आपके हाथ में कोई बीज है और उसे आप पृथ्वी मां में डाल श्री गणेश ही ओंकार हैं । श्री गणेश ही ईसा रूप में अवतरित तो यह स्वतः ही अंकुरित हो जायेगा। आपको सिर के भार खड़े हुए हम नहीं जानते कि यही गणेश हमारे अन्दर गतिशील हैं। होने की कोई आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि पृथ्वी मां में ये सब चीजें, देवी देवला आदि हवा में बातें नहीं हैं, ये सब हमारे अंकुरित करने की और बीज में अंकुरित होने की शक्ति अन्दर विद्यमान हैं। ये हमारे अन्दर निवास करते हैं और हम भारतीयों को तो कम से कम, अपने मस्तिष्क खुले रखने की शक्ति अन्तर्निहित हैं। मैं कहती हैं कि यह शक्ति, जो चाहिए। मैने पाश्चात्य लोगों के मस्तिष्क खोलने का प्रयत्न किया। रूस, बुल्गारिया, रोमानिया के चिकित्सकों को जब मेनें मस्तिष्क खोल देने चाहिए। मैं जानती हूँ कि तीन सौ साल पहले इसके विषय में बताया तो वे हैरान थे कि मैं इतनी सारे रहस्यों का वर्णन कर सकती हैँ। वे बहुत अधिक धन-लोलुप नहीं है। दवाईयों का उपयोग करना पडता था। कुण्डलिनी के विषय में वास्तव में रूस के लोग अधिक धन-लोलुप नहीं हैं। अत: अब इस पर शोध कर रहें हैं और मैने जो कहा है उसे प्रमाणित करने के प्रयास में लगे हैं। मुझ पर सन्देह करने या ये कहने के स्थान पर कि "ऐसा कैसे हो सकता है", ये देवता कौन हैं, वे कार्यरत हैं। इसी प्रकार आप नहीं बता सकते कि कुछ दवाइयां किस प्रकार कार्य करती है? आप एस्प्रीन को लें। आप नहीं जानते विद्यमान हैं। इसी प्रकार आपमें भी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने पहले हमें उपलब्ध न थी, इसके प्रति आपको वास्तव में अपने जब अंग्रेज यहां थे तो आपको उनकी अंग्रेजी और उन्हीं की जान कर मुझे भी बहुत प्रसन्नता प्राप्त हुई थी। कम से कम कुण्डलिनी के विषय में लोग बात तो करते हैं, ये तो कहते हैं कि कोई शक्ति कार्यरत हैं। हमें कहीं तो कुछ मिला। परन्तु जब तक आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं करते न ही आप अपना हित कर सकते हैं और न दूसरों का। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् आप लोगों की बीमारियां ठीक कर सकते हैं, उन्हें आत्साक्षात्कार दे सकते हैं और वास्तविक शक्ति का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। निर्विचार चेतना में स्थापित हो कर आप अपने अन्तस की बास्तविक शन्ति का आनन्द ले सकते हैं। कि ये क्या करती है। परन्तु यह सहायक है। इसी प्रकार हम देखेंगे कि चैतन्य लहरियां अति लाभकारी हैं-आप दंग रह जाऐंगे। आप इन्हें उपनी अंगुलियों के पोरों पर अपनी हथेलियों । तब आप अपना पूर्ण आनन्द ले सकते हैं। और वह आनन्द इतना दिव्य है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। आप सब इस आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं यदि आप आत्मसाक्षात्कार की स्थिति को बनाये रखें। कुछ लोग बहुत तेजी से विकसित होते हैं परन्तु कुछ अन्य को ध्यान करने की आवश्यकता होती है और तभी उनमें संचालन होता है। ये वे लोग हैं जो बुद्धिवादी हैं और जो चिकित्सा या अन्य किसी विज्ञान के बन्धनों में फॅसे हुए हैं। पर महसूस कर सकते हैं। एक छोटा सा बच्चा भी बता सकता है कि कौन से चक्र पकड़ रहे हैं। क्योंकि आप सामूहिक -चेतन बन जाते हैं इसलिए आप अपने तथा अन्य लोगों के विषय में जान जाएंगे आप अत्यन्त गम्भीर व्यक्तित्व वाले हो जाते हैं। यहीं बैठे आप सभी को महसूस कर उनके विषय में जान सकते हैं। आपको रोग निदान के व्यर्थ के चक्कर में नहीं फंसना रोग निदान के आधुनिक तरीकों से भी आप को रोग की समझ नहीं आती, परन्तु यहां आप अपनी अंगुलियों के पोरों पर जान सकते हैं और समस्या को खोज सकते हैं । वे सभी शक्तियां आप में हैं। आप नहीं जानते कि आप क्या हैं। भारतीयों में कितना वैभव, कितनी आध्यात्मिकता है, यह आप 1. पड़ता। यहा एक बहुत बड़ा बादल हैं जिसे पार करना आवश्यक है। परन्तु एक बार आप जान जायें कि यह ज्क्ति कैसे कार्य करती चैंतन्य लहरी 11 है, किस प्राकर गतिशील होती हैं तो आप आश्चर्यचकित रह जायेगें। अतः यह कोई चमत्कार नहीं है परन्तु व्यक्ति को स्वंय देखना हैं और समझना है। यदि आप अपने मस्तिष्क नहीं खोलते तो इसे आप पर थोपा नहीं जा सकता। में बहुत प्रसन्न हैँ कि आज में चिकित्सा व्यवसायियों और चिकित्सा विद्यार्थियों से तथा इस सम्माननीय उपस्थित समूह से बातचीत कर सकी। में कल्पना भी न कर सकती थी कि किसी दिन में आप लोगों के चाहती थी कि क्या चीज़ क्या है, केवल नाम जानना चाहती कि क्या चीज क्या है, केवल नाम जानता चाहती थी और तब मैंने मनोविज्ञान पढ़ा, उसके कुछ शब्दकोष पढ़ डाले और इस प्रकार मुझे पता लगा कि किस चीज को क्या नाम दिया जाता है क्योकि ईश्वरीय चीजों का तो कोई नाम नहीं होता, नाम तो चिकित्सकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने दिये हैं। अतः उनसे बातचीत करने के लिए मैं यह आयोजन चाहती थी। मैं सम्मुख भाषण दूँगी। मुझे बालकराम चिकित्सा विद्यालय के लिए चुना गया था, योग्यतानुसार केवल छः लड़कियां चुनी गई थीं परन्तु उन्होने मुझे केवल इसलिए छोड़ दिया कि मैं उत्तर भारत से न थी। तो में यात्रा करके लाहौर तक गई वहां हैं, लोग कह रहे हैं कि जीन्ज मिथ्या है। वे यह भी कह रहे प्रधानाचार्य से मिली और उन्हें बताया कि यह मेरे प्रति सरासर हैं कि जीन्ज वंशानुगत है और इनका इलाज नहीं किया जा अन्याय है क्योंकि आपके अनुसार विद्यालय तो पूरे भारत के लिए है। तो अब आप यह कैसे कह सकते हैं कि मैं पंजाबी नहीं हूँ। मैं पंजाबी भाषा अच्छी तरह से बोल सकती हूँ आपको मेरा चयन करना ही होगा तो उन्होंने पूछा कि तुम कहा से आई हो? मैनें उत्तर दिया, नागपुर से। उन्होंने कहा हे परमात्मा तुम हमने इसे कार्यान्वित किया है और यह प्रमाणित हो चुका है। तो फला-फलां व्यक्ति की बेटी हो। मैनें कहा हां, मेरी मां एक मानसिक रोग चिकित्सालय में कार्यरत थी, वे दोनों साथ -साथ वहां थे। उन्होंने कहा कि एक लड़की यदि न आई तो में तुम्हे हजार विद्यार्थी हों। परन्तु कम से कम आप स्वय तो इसे प्राप्त दासखिल कर लँगा और इस प्रकार में वहां पहुंच गई। यह बहुत अच्छा महाविद्यालय था, बहुत सुन्दर भाषण हमें दिये जाते थे । परन्तु बाद में ये समस्यायें शुरु हो गई और मैं दिल्ली आ गई तथा मेरे माता-पिता ने मेरा विवाह कर दिया। मेरे पति ने मुझसे पूछा बातचीत नहीं कर रही, यह सम्पूर्णता है। कि क्या तुम आगे पढना चाहती हो? मेरे हां कहने पर उन्होंने कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। में मात्र इतना जानना ये सत्य है कि यदि आप वैज्ञानिक और चिकित्सक हैं तो आप अपने सिर पर सवार इन बहुत से विचारों और सिद्धांतों को बदल सकते हैं उदाहारणार्थ आज कल जीन्ज़ बहुत महत्वपूर्ण सकता। सहजयोग से इसका इलाज किया जा सकता है। सहजयोग से पूरा आधार ही बदल जाता है और इस प्रकार एक दुष्ट व्यक्ति को भी परिवर्तित किया जा सकता है। बात मूल आधार का परिवर्तित करने की है। तब वह कार्यान्वित होता हैं। परन्तु इसे प्रमाणित करने का वैज्ञानिक तरीका यह है कि कम से कम सौ चिकित्सक इसका अनुमोदन करें और उनके दो कर लें और फिर स्वंय देखें कि जीवन की हर दिशा में आपके पास कितनी शक्तियाँ आ गई हैं। क्योंकि यह पूर्णत्व है। मैं इसके विषय में यहां-वहां किसी इक्के-दुक्के व्यक्ति से परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। सिडनी पूजा 14-3-1983 परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ध्यान-धारणा, सामूहिकता एवं आनन्द प्राप्ति की ओर व्यक्तिगत यात्रा किस प्रकार आपको वह गहन आनन्द प्रदान कर सकती हैं जो आपके अन्तर्निहित हैं। आप इसे बाहर खोजने का प्रयत्न कर रहे हैं जहां यह है ही नहीं। यह हमारे अन्तर्निहित है, केवल अब तक आप सब लोग यह महसूस कर चुके हैं कि हमारे अस्तित्व की शान्ति, सौन्दर्य एवं गरिमा हममें अन्तर्निहित है। इसका एक महान सागर हमारे अन्दर है। इसे बाहर नहीं खोज सकते। हमें अपने अन्तस में इसे खोजना होगा। "ध्यान-धारणा की स्थिति में आप इसे खोजें और इसका आनन्द लें। जब आपको प्यास लगती है तब आप नदी पर जाते हैं, या समुद्र पर जा कर अपनी प्यास बुझाने का प्रयत्न करते हैं। समुद्र आपको मधुर जल प्रदान नहीं कर सकता। तो बाहर फैली हुई वस्तुएं हमारे अन्दर है यह आपका अपना है और अत्यन्त सहज है। आपकी पहुँच में है। जो भी कुछ आप करते रहे, वह केवल तथा-कथित आनन्द, प्रसन्नता, सासारिक शक्तियों की गरिमा और सांसारिक वस्तुओं के पीछे दौड़ना था। अब इन सब गतिविधियों के विपरीत कार्य करना होगा। आपको अपने अन्तस चैतन्य लहरी 12 में झांकना होगा। आपका भौतिक पदार्थों के पीछे भागना भी अनुचित न था, उसके लिए अपने अन्दर दोष भावना न लायें। परन्तु यह आपके जीवन के वास्तविक आनन्द, वास्तविक गरिमा को प्राप्त करने का सही मार्ग न था। बहुत लोगों ने इस सत्य को अनुभव प्रवेश कर सके। आन्नद लेता है। व्यक्ति का पूर्ण दृष्टिकोण ही परिवर्तित होकर अत्यन्त प्रगल्भ हों जाता है। बिना लिप्त हुए मनुष्य सभी चीजों का आनन्द लेने लगता है। वह जान जाता है कि लिप्सा मिथ्या है में किया। इसी कारण आप सूक्ष्म सूझ- बूझ सहजयोग में आकर कुछ लोग अन्य लोगों पर प्रभुत्व जमाने का या सहज़योग में धनार्जन करने का प्रयत्न करते हैं कुछ लोग केवल मानसिक स्तर पर हैं और कुछ केवल शारीरिक स्तर पर कि वे महसूस कर सकते हैं। परन्तु आप ठीक रास्ते पर हैं- आप सही दिशा में चल रहे हैं। उनका चित पैसे पर ही रहता है। सहजयोग में धनार्जन या व्यापार करना मूर्खतापूर्ण है। परन्तु जब आप ऐसा करना ही चाहते हैं तो मैं कहती हैँ, "ठीक है, कुछ समय ऐसा करने का प्रयत्न करके देख लो।" आपको पता चल जाएगा कि सहजयोग व्यापार नहीं है। नि सन्देह सहजयोगी मिलकर कोई व्यापार कर सकते हैं। परन्तु सहजयोग व्यापार नहीं है। यह परमात्मा का कार्य है जहाँ आपने अपना सर्वस्व समर्पण करना होता है। अत: ध्यान धारणा करने का प्रयत्न करें। अधिकाधिक ध्यान करें ताकि आप अपने आन्तरिक अस्तित्व तक पहुँच सकें। यह आन्तरिक अस्तित्व हम सबके अन्दर विद्यमान आनन्द का विशाल सागर है। यह विशाल प्रकाश-पुंज है जो सभी के आन्तिरिक सौन्दर्य को दैदीप्यमान कर देता है। अत: इस तक पहुँचने के लिए सभी विरोधी चीजों को अस्वीकार करते हुए आपको अपने अन्दर जाना होगा। लिप्त न हों और अपना हृदय सहजयोग को समर्पित करें बिना हृदय समर्पित किए आप कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। सत्ता के विषय में भी ऐसा ही है। कुछ लोग समझते हैं। कि वे सहजयोगियों को प्रभावित कर सकते हैं, वश में कर सकते हैं। तथा उन पर प्रभुत्व जमा सकते हैं। ऐसे लोगों को भी परमचैतन्य सहजयोग से बाहर फेंक देता है। आपको प्रेम की शक्ति का आनन्द लेना चाहिए। ताकि लोग आपको अपने रक्षक, सहायक और मित्र के रूप में देख सकें, रौब जमाने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं। आपको पिता सम होना है, लोगों को डराने धमकाने वाला व्यक्ति नहीं। आसुरी प्रवृत्ति के व्यक्तियों को सहजयोग स्वीकार नहीं करता। ऐसे लोगों के साथ कभी सहानुभूति न रखें। उनसे दूर रहें क्योकि सहजयोग उन्हें तो कभी-कभी मस्तिष्क इस सत्य को स्वीकार ही नहीं कर पाता कि परमात्मा की गरिमा हमारे अन्दर है। इवास-श्वास याद रखें कि आपकी गति अन्दर को होनी चाहिए। अन्दर की ओर चित्त करने पर बाह्य गरिमा के विचार आप भूल जाएगे। तुच्छ स्वभाव मानव यह सोचता है कि सा धन कमा लेने से उसे आनन्द की प्राप्ति हो जाएगी। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। वह अत्यन्त दुःखी होता है, जीवन की छोटी-छोटी चीजों के लिए परेशान। बहुत अधिक धनी लोग प्रायः कंजूस होते हैं। वे अपनी आदतों के गुलाम बन जाते हैं। इस प्रकार वैभव कभी-कभी मानव के लिए अभिशाप बन जाता है। अत: केवल धन के पीछे दौड़ने वाले लोग उसका आनन्द नहीं ले सकते। बहुत बाहर फेक ही देता है कहीं आप पर भी उनका दुष्प्रभाव न पड़ जाए। अतः सावधान रहें। कुछ ऐसे लोग सहजयोग में आ जाते हैं जिनका चित्त सदा अपने परिवार, पति, पत्नी और बच्चों पर ही रहता है। उनका पूरा चित्त ही गलत दिशा में चला जाता है। वे सदा यही सोचते रहते हैं कि विवाह विस प्रकार सफल होंगे, उनके बच्चों का हित किस प्रकार होगा आदि-आदि। ये सब बातें परमात्मा पर नहीं छोड़ते। आप सब सन्त हैं, ये सारी चीजें आपको परमात्मा पर नहीं छोड़नी होंगी। आरम्भ में जब लोग सहजयोग में आते हैं तो कहते हैं- "मेरे पति ऐसे हैं, मेरी पत्नी ऐसी है, मेरा भाई ऐसा है, मेरे बच्चे ऐसे हैं-श्री माता जी उन कि दूसरे एक अन्य प्रकार के लोग होते हैं जो सोचते हैं लोगों पर प्रभुत्व जमाने से उन्हें जीवन में बहुत उच्च स्थान हो जाएगा। आप जानते हैं कि उनके हाथ भी निराशा ही प्राप्त लगती है। वे अपने विषय में बात तक नहीं करना चाहते। अपने परिवार बच्चों या कुछ लोग किसी व्यक्ति विशेष, सम्बन्धियों से लिप्त हो जाते हैं। भारत में यह आम बात हैं। यह भी परमात्मा को प्राप्त करने की विधि नहीं है। लिप्सा से आपकी शक्तियों का हास हो जाता है। उन्हीं से लिप्त होकर आप अपनी सारी शक्ति का नाश कर लेते हैं। परन्तु एक बार यदि आप अपने अन्तस में प्रवेश कर जाएं तो अर्थहीन चीजें भी विवेकमय बन जाती हैं। लिप्सा में फॅसा व्यक्ति निर्लिप्त हो जाता है और सभी चीजों को नाटक की तरह से देखने लगता है। वह अत्यन्त उदार हो जाता है और अपनी उदारता का पर कृपा करो।" आरम्भ में तो यह सब ठीक है परन्तु विकसित होकर आपको इन सब बातों से मुवत हो जाना चाहिए। जब आप ध्यान-धारणा करते हैं तो परमात्मा की ओर यह आपकी व्यक्तिगत यात्रा होती है। लक्ष्य पर पहुंचने के बाद आप सामूहिक हो जाते हैं। इससे पूर्व यह 'पूर्णतया व्यक्तिगत' आन्तरिक यात्रा है। चैंतन्य लहरी 13 कोई भी सर्वसाधरण मनुष्य, जो ध्यान-धारणा की गहनता में उतर जाता है, इस प्रकार का प्रकाश पुंज बन सकता है। लोग उस पर निर्भर होते हैं। आवश्यक नहीं कि आप ध्यान-धारणा आपमें यह देखने की योग्यता होनी चाहिए कि इस यात्रा में कोई आपका सम्बन्धी, भाई या मित्र नहीं है। आप पूर्णतया अकेले हैं 'पूर्णतया अकेले'। आपको अपने अन्तस में अकेले यात्रा करनी होगी। किसी से घृणा न करें किसी के प्रति गैर जिम्मेदार न हों। फिर भी ध्यान- धारणी की स्थिति में आप अकेले हैं। वहां किसी अन्य का कोई अस्तित्व नहीं। एक बार विश्व आपका परिवार पर वहुत अधिक समय लगायें। ध्यान-धारणा से प्राप्त गहनता की अभिव्यक्ति बाहर भी होनी चाहिए। बिना गहनता प्राप्त किए हम अन्य लोगों की रक्षा नहीं कर सकते। जो स्वयं ऊपर उठ जाते हैं वही अन्य लोगों को उत्थान में सहायता करते हैं। जब आप उतर जाते हैं। उस सांगर में पूरा बन जाता है। पूरा विश्व आपकी अपनी अभिव्यक्ति है। सभी आपके वच्चे बन जाते हैं और आप सब लोगों के साथ समान अतः अपने लक्ष्य को समझने का प्रयत्न करें। अब आप परिवर्तित लोग हैं। आप को अपनी सम्पत्ति, सांसारिक वस्तुओं तथा अपनी जीविका की चिन्ता नहीं करनी। आपको अपने स्वास्थ्य एवं निजी जीवन की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। ये सब बातें महत्वहीन हैं। आपका परिवार, बच्चे, पति-पत्नी की चिंता अनावश्यक हेै। परमात्मा के प्रेम में ही आप की सुरक्षा है। सूझ-बूझ से व्यवहार करते हैं। यह सारा विस्तार तभी घटित होता है जब आप अपनी आत्मा में प्रवेश कर जाते हैं और आत्मचक्षुओं से देखने लगते हैं। तब आप अंत्यन्त शान्त हो जाते हैं। इस यात्रा के लिए आपको तैयार होना होगा। यह यात्रा कैवल आपकी ध्यान-धारणा में ही सम्भव है। जितनी अधिक सिडनी ने पहले भी बहुत अच्छा कार्य किया है और अब भी अच्छी उन्नति कर रहा है। परन्तु गति अपेक्षा से कम है। अतः सहजयोग को फैलाने की नई विधियाँ खोजनी होंगी पर पहले उपलब्धि ध्यान- धारणा में होती है उतना ही अधिक आप उसे अन्य लोगों में बांटना चाहते हैं। यह भावना आनी ही चाहिए यदि ऐसा नहीं होता तो अवश्य ही कोई कमी है । इस व्यक्तिगत खोज में जो भी कुछ आप प्राप्त करते हैं उसका आन्नद अन्य लोगों के साथ लेना चाहते हैं। ध्यान-धारणा करने वाले व्यक्ति की यही निशानी हैं। जो भी आनन्द आप ध्यान-धारणा में प्राप्त आप अपने पद को ग्रहण कर लें। आप सब समझ लें कि आप संत हैं और आपने महान कार्य करना है। आप सबने अपने लिए निर्णय लेना है। मुझे विश्वास है कि इस बार मेरे यहाँ आने से आपको यह समझने में सहायता मिलेगी कि सर्वत्र इस प्रकाश को फैलाने के लिए क्या करना सर्वोतम होगा। करते हैं वह बांटा जाना चाहिए। जो गहनता आपने प्राप्त की होती है उसका प्रकाश चहूं ओर फैलने लगता है। जितने अधिक गहन आप होते हैं उतना ही अधिक प्रकाश फैलाते हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। दिवाली पूजा पुणे शुरु हुआ तब से हम लोग हृदय की दिवाली मना रहे हैं। हृदय हमारा दीप है, हृदय में बाती है जो शांत है और उसमें प्रेम का तेल डालकर हम लोग दीप जलाते हैं। इस तेल को डालने से हो है दिवाली के इस शुभ अवसर पर हम लोग यहाँ इस पुण्य-पटनम में एकत्र हुए हैं। न जाने कितने वर्षो से अपने देश में दिवाली का त्योहार मनाया जाता है लेकिन जब से सहजयोग शुरु हुआ है दिवाली की जो दीपावली है वह शुरु गयी। दिवाली में जो दीप जलाये जाते हैं वो थोड़ी देर में बुझ जाते हैं। फिर अगले साल दूसरे दीप खरीदकर उस में तेल डालकर उसमें बत्ती लगाकर दीपावली मनायी जाती है। इस प्रकार हर साल नये नये दीप लाये जाते हैं। दीप की विशेषता ये होती थी कि, पहले उसे पानी में डालकर पूरी तरह से भिगो दिया जाता था, फिर सुखा लिया जाता था जिससे दीपक तेल न पी सके और काफी देर तक जले। लेकिन जब से सहजयोग पहले इस हृदय में जो कुछ भी खराबी है उसे हम पूरी तरह से धो करके सुसज्जित करें। ये प्रेम जब हृदय में स्थित हो जाता है तब उसे हृदय पूरी तरह से ज्ोषण नहीं करता है। जैसे पहले कोई आप को प्रेम देता है-मां देती है प्रेम, बाप देता है प्रेम और भी लोग प्रेम देते हैं। उस प्रेम को आप अपने अंदर शोषित करते हैं। जो प्यार आपको पति से मिला पत्नी से मिला वो प्यार आप के रोम रोम में छा जाता हैं। पर वो अपने तक ही सीमित रहता है उसका प्रकाश औरों को नहीं मिलता। एक माँ अपने बच्चे से चेतन्य लहरी 14 जाती हैं। आप की आँख से ये दीप चमकने हैं। सहजयोगी की आँखें, आप अगर कभी देखें, तो हीरे जैसी चमकती हैं। ऐसे हीरे कोई माँ अपने बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्यार करती है तो में अपनी ही ज्योति होती हैं। इसी प्रकार एक सहजयोगी के अंदर एक दीपशिखा होती हैं। जो झिलमिल-झिलमिल चमकती हैं। ये सब कायापलट हो गया। एक पत्थर के हृदय में एक ऐसा प्यार करती है तो वो प्यार उस माँ-बच्चे तक ही सीमित रहता है। कभी कभी उसके विपरीत भी परिणाम निकल आते हैं । बच्चा कभी-कभी बुरा बर्ताव करता है। उसके व्यवहार में शुष्कता आ सकती है। धृष्टता आ सकती है, वो माँ को तंग कर सकता है उसका अपमान कर सकता है, या कोई बच्चा अपनी माँ के प्रति बहुत ज्यादा जागरुक हो। हो सकता है बहुत ही अविनाशी, अक्षय दीप जल गया। हृदय जो कि, छोटी उसकी माँ उस पर हावी हो जाये उसके सर पे सवार हो जाय। इसी प्रकार एक पति-पत्नी में भी जो प्रेम होता है वो अगर सन्तुलन से हट जाये, लेन-देन में फर्क पड़ जाये तो उसके कि किसी भी सुव या दुख के थपेड़े से नहीं डरता और न ही अनेक विपरीत परिणाम होते हुए देखे गंये हैं। लेकिन सहजयोग किसी लाभ या हानि की ओर देखता है। उसका कार्य है का जो स्निग्धमय प्रेम है वो हृदय के जो इस दीप में भर दिया जाता है जो कि अपने तक सीमित नहीं रह जाता है और उस में जब आत्मा की ज्योति भर दी जाती हैं तो वो सारे संसार को उसी विशेष रूप का मेरे हृदय में दीप जला है। इससे मैं अनेक आलोकित करने का माध्यम बन जाता हैं। उसमें ये शक्ति आ जाती है कि, वो सारे संसार को आलोकित करता है। सारे संसार उजाले में वो अपने भी दोष देख ले तो वो उन्हें त्याग देता हैं। में प्रकाश फैलाता है। सारे संसार का अज्ञान हटाता है। सारे संसार में आनंद फैलाता है। यही जो एक मिट्टी का दीप हर साल तोड़ दिया जाता था एक समर्थ ऐसा विशेष दीप बन जाता है कि, कभी भी नहीं बुझता। इस दीप से अनेक दीप जलते हैं और वो जो जलाये जाते हैं वे भी कभी नहीं बुझते । ये कौन सी अनूठा सा दीप जल गया। एक मिट्टी के दीप की जगह एक छोटी बात में रो पड़ता था, जो छोटी छोटी सी हानि से ही ग्लानि से भर जाता था वो आज एक बलवान दीपक बन गया है जो अंधकार को दूर करना। और बड़ी हिम्मत के साथ वो इस बात को जानता है कि वो एक विशेष दीप है, एक विशेष रूप में। का व लोगों का दीप जलाऊँगा उसे पूर्ण विश्वास हैं। उस दीप के उसे एकदम छोड़ देता हैं। धीरे-धीरे उसका भी. जीवन अत्यंत प्रकाशमय हो जाता है। और हृदय में बसा हुआ प्रकाश सारे अंग-अंग से, उसकी आँखों से उसके से टपकता हैं। उसका सारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है और उस प्रकाश से | क मुख वह आडोलित हो जाता हैं। उसकी तरंगों में बैठकर के आनंदित होता हैं। अपने ही मन में बो सोचता है कि मैं कितना सुंदर हो हैं धातु का बनाया हुआ दीप है? ऐसी तो कोई धातु है नहीं संसार में जो जलती रहे, दूसरों को भी आलोकित करती रहे और उस पर कभी भी न नष्ट हो यही नहीं, संसार में अमर हो कर तारागण बनकर चमकती रहे। ऐसे अनेक दीप अकेले अकेले मनुष्य में आता है जब वो अपने से संतुष्ट नहीं होता। अगर हम संसार में आये, जैसे आपने देखा बड़े-बड़े सन्त-साधु हो गये। इस महाराष्ट्र की भूमि में भी अनेक संत-साधु हो गये अकेले अकेले कहीं बैठे हुए धीमे-धीमे जलते रहे, तथा आज भी गया हूँ। कितनी सुंदरता मेरे अंदर से बह निकली है। पहली मर्तबा एक मानव अपने से पूर्णतया संतुप्ट होता हैं। असंतोष तब कहें कि आज हमारे पास एक चीज नहीं है इसलिए हम असतुष्ट है, तो यह बात नहीं, कल दूसरी चीज आ जाएगी उससे आप असंतुष्ट हो जाएगे, आप असंतुष्ट ही रहेंगे। जब आप अपने में संतुष्ट होंगे तो संतोष आप को बाहर खोजना न थे दीपावली नहीं थी। अकेले दीप थे, कभी कभी एक-दूसरे से पड़ेगा। वो कभी आप को बाहर मिल भी नहीं सकता। संतोष आप को अपने अंदर, अपने ही आत्मा से प्राप्त हो सकता है। ये प्रकाश, आज हम लोग देख रहे हैं, कितना बढ़ गया है। रही हूँ, वही सुंदर दीप हैं जो कि आलोकित हो गये और विशेषकर महाराष्ट्र में इसका प्रचार कितना अधिक हो गया है । और पुणे इस महाराष्ट्र का हृदय है। ये महाराष्ट्र के हृदय में आप लाग जो आये हैं आज जाते वक्त अपने साथ बहुत सारा तारागण बनकर संसार में छाये हुए हैं। लेकिन वो अकेले दीप मिल लेते थे। लेकिन आज हमारी दीपावली है। आप सब वहीं लोग हैं जिनकी मैं व्याव्या कर रही हैूँ। जिनका मैं वर्णन कर आलोकित होने के बाद दूसरे अनेक दीप जला रहे हैं । एक दीप से हजारों दीप जला रहे हैं। यही एक तरीका है जिससे संसार का अंधकार, अज्ञान नष्ट होगा। लेकिन इसके अंदर एक बात याद रखनी है कि, हम जिस तेल से जल रहे है, जिस प्यार लेकर जाइएगा। ये प्यार आप को वो प्रकाश देगा चिरंतन तक, अनंत तक आपके अंदर सुंदरता की लहरें उत्पन्न करता स्निग्धता से जल रहे है वो प्रेम वो निर्वाज्य प्रेम, वो निरपेक्ष प्रेम रहेगा और आप का मार्गदर्शन करता हुआ आप को एक ऐसे किसी से चिपकता नहीं हैं। उसकी कोई अभिलाषा नहीं है, वो आदर्शों तक पहुँचाएगा जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इसको आप सोच भी नहीं सकते कि आप ये सब कर सकते हैं। आपने बहुत बड़े-बड़े महान् लोगों के बारे में सुना कोई बदला नहीं चाहता। वो अविरल उस दीप को जलाए रखता हैं। अत्यंत सुंदरता से ऐसे दीप की कांति आप के मुख पर छा चैतन्य लहरी 15 होगा, इन सबसे कहीं अधिक आप लोग कार्य कर सकते हैं । इनसे कहीं अधिक आप आसानी से ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर पहुँच समाज के प्रति आएंगी। इतनी उदात्त भावनाएँ, इतनी महान भावनाएँ कि जिनसे संसार का हम पूरी तरह से उद्धार कर सकते हैं। सकते हैं। फर्क इतना ही है कि उनकी महत्त्वाकांक्षा जो थी उससे लड़ते-लड़ते जुझते-जूझते वो लोग तंग आ गये थे लेकिन आप अपना रास्ता इतना सुगम, सुरक्षित और आलोकित पाइएगा कि, उसमें किसी भी प्रकार की आप को अड़चन नहीं होगी। सिर्फ याद रखने की बात ये है कि, ये प्रेम का दिया है। ये दीप प्रेम से जल सकता हैं और किसी चीज से नहीं। जो भी आप कार्य करते हैं वो आप प्रेम से करें। जब आप किसी को शिक्षा देते हैं, जब आप किसी को सहजयोग के बारे में समझाते हैं तब ये सोच लेना चाहिए कि क्या मैं इनसे इसलिए समझा रहा हूँ कि, मुझे इनसे प्रेम है, इनके प्रति प्रेम है और क्या मैं चाहता हूँ कि, जो कुछ मैंने पाया है वो ये भी पा लें। मैं इस विचार से इनको समझा रहा हूँ मैं देखती हूँ कि, सहजयोग में बहुत लोग आ गये हैं। बहुत ज्यादा लोग भी आएंगे और आना चाहिए। लेकिन हर आदमी को एक विशेष रूप धारण कर के एक विशेष समझ रख कर आना है। ये नहीं कि, सब लोग बैठे हैं तो हम भी चले गये सहजयोग में। आप एक विशेष हैं, और आप जो सहजयोग में आये हैं तो आप का अवश्य इस में कोई न कोई विशेष काम होगा। अभी देखिए एक छोटी सी चीज खराब होने से ये यंत्र नहीं चल रहा। इस का हर -एक छोटा-छोटा पुर्जा भी कितना महत्वपूर्ण हैं । इसी प्रकार हर इन्सान, जो भी सहजयोग में आता है स्त्री हो या पुरुष हो, अत्यत महत्वपूर्ण है और हर एक को चाहिए कि, हम अपनी तबीयत ऐसी रखें, जिससे हमारा जो यह यन्त्र हे जो या मैं इसलिए समझा रहा हूँ कि, मैं काफी अच्छे से बातचीत कर सकता हूँ और मैं इन सबके बुद्धि पर छा सकता हूँ। सो इस प्रकार की बात सोचकर कोई अगर सहजयोग फैलाएगा तो नहीं फैला सकता। धीरे-धीरे आराम से जैसे कि, चन्द्रमा की चाँदनी धीरे-धीरे फैलती है और उस में सभी चीज स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है, उसी फ्रकार आपका बर्ताव दूसरों के प्रति होना चाहिए। उस में किसी भी परमात्मा ने यत्र बनाया है वो ठीक से चले। हमें जीवन की ओर ध्यान देना चाहिए कि, अपने जीवन में जो गलतियाँ हमने की हैं और हमनें जो पडरिपु इकट्ठे किये हैं वो हमें एक- एक कर के छोड़ देना चाहिए। यह बहुत ही आसान हे क्योंकि, अब आप अपने अंदर बसे साँप को देख सकते हैं। जब तक प्रकाश हुए बवव नहीं था आपने हाथ में सांप पकड़ा हुआ था, जैसा ही प्रकाश आ साँप छुट जाएगा। आप जैसे ही अपने को देखना शुरू करेंगे, इसी सुंदर प्रकाश में आप वो भी देख सकते हैं जो आप की सुंदरता है और वो भी देख सकते है जो आप की जाएगा तरह का आक्रमण किसी भी तरह की दीनता दिखाने की जरूरत नहीं हैं। हां एक बात है, इस दीप को संजोना चाहिए, सम्भालना चाहिए। इस की ओर ऐसी नज़र होनी चाहिए कि, एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज को हम ने पाया है। ये अभी अगर बाल्य स्वरूप में है तो इसे हमें धीरे धीरे आगे बढ़ाना होगा उस के प्रति बड़ा कुरुपता है। उस कुरुपता को एकदम से ही छोड़ देना चाहिए। 'आज छोड़ेंगे, कल छोड़ेंगे फिर कोशिश करेंगे, ऐसे आधे- अधूरे लोगों से ये काम नहीं होने वाला मराठी में कहते है ना, उसे चाहिए जाति का और जात कौन सी? तो सहजयोगी की अपनी ही आदर और एक तरह का सम्मान होना चाहिए। आज हम सहजयोगी हैं। गर हम सहजयोगी हैं तो हमारे अंदर विशेष गुण होने चाहिए इसलिए नहीं कि, हम गलत काम करेंगे तो उससे हमें दुर्घटना उठानी पड़ेगी या हमें कोई नुकसान हो जाएगा, या परमात्मा हमें कोई दण्ड देगा। इस भय हैं। आनंद से व फ्रेम से सहजयोग करना हैं। एक मर्जे की चीज है, हमें माँ ने पानी में तैरना सिखाया है और हम बहुत से पानी मे तैर सकते हैं डूबेंगे नहीं। कोई भी भय आशंका मन में न हुए हम को इस प्रेम को जानना चाहिए। जानना चाहिए एक जाति है। अपनी जाति एक है। ऐसे कहते है "या देवी सर्व भतेन जाति रूपेण संस्थिता" सभी में अनेक जाति है। देवी ने अनेक जाति बनायी हैं। एक ऐसी जाति है जो लोग परमात्मा से सहजयोग नहीं करना को पूछते भी नहीं हैं। वह एक जाति है, जाने दो, दूसरी एक जाति है, जो हमेशा परमात्मा के विरोध में होती है वह एक जाति है जाने दो। तीसरी एक जाति है जिनको बाकी के धंधे हैं और परमात्मा नहीं चाहिए वो एक जाति है जाने बहुत दो। ऐसे भी लोग है जो परमात्मा के नाम पर केवल कर्मकांड १हा रखते कि ये जो हमारा एक मुट्ठी भर का हृदय है इस में ये सागर कहाँ से आ गया। अजीब सी चीज हैं। देखा जाता है कि, इस छोटे से हृदय में पूरा सागर कहाँ से समाता चला जा रहा हैं। करते बैठे है, अनेक जन्म में किये हैं और अब भी कर रहे हैं वह छूट नहीं रहा हैं। कितना बताया तब भी छुटकारा नहीं है, जाने दो वे भी एक हैं। उन सबसे परे ऐसे भी लोग हैं जो सचमुच परमात्मा को खोज रहे हैं। उनकी बुद्धि उस मामले में बिल्कुल शुद्ध और जितना जितना इस के सूक्ष्म में आप उतरेंगे तो देखेंगे कि इस छोटे से हृदय में इतनी सुंदर भावनाएँ, दूसरों के प्रति, हैं। उन्हें स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि परमात्मा चैतन्य लहरी 16 को प्राप्त करना माने क्या ये लोग अपनी जाति के हैं, अपनी करते हैं। तो जो सीधे-सादे दिखनेवाले लोग है उनकी ओर जाति में आ सकते हैं। हर एक व्यक्ति से सहजयोग वर्णित दृष्टि करनी होगी। जिस देश में ये ऐसे लोग कार्यान्वित होते हैं उन देशों में गरीबी आती है। क्योंकि ये सब भूतनियों और प्रेतविद्या के काम करते है। बैठते हैं परमेशवर के मंदिर में, उन्हें मिलने के बाद सभी तरह के लोगों से जा भिड़ते हैं। कुछ अमीर कुछ भगवान का डर नहीं होता। भगवान के मंदिर में बैठकर लोग होते हैं, "श्री माता जी वे बड़े अमीर हैं आपसे मिलने की प्रेतविद्या करते हैं। कलकत्ता में जब मैं गयी तो ऐसे लगा यहाँ अब सहजयोग होगा कि नहीं ? जो मनुष्य आया उसे कुछ न जी से मिलने दो। फिर उन्हें क्या चाहिए? नहीं, केवल आप से कुछ बाधा, गरीबी तो इतनी है वहां कि, मानो कोई एक उजड़ा हुआ गाँव है और ऐसे अनेक गाँव मिलकर एक बड़ा प्रदेश बनाया जाये। ऐसी कलकत्ता की स्थिति है। तो मैंने पूछा तुम लोगों का हैं पर उस लायक नहीं हैं। पैसा आने से (लियाकत) नहीं ऐसा क्या है! तुम लोग कहीं गये थे क्या? तो कहने लगे हाँ, हम लोग सब दीक्षित है वहां दीक्षित नहीं कहते हैं दिखित कहते है। सब लोग दि.खित यहाँ से वहाँ, सारे के सारे दि. स्वित सी औरत आ गयी तो श्री माताजी खुद उठकर आयीं मिलने ये इसलिए दि.खित के साथ ये दुःखी लोग दुःखी होंगे ही। पर उन्हें बताना मुश्किल काम है। ये लोग सारे ऐरे गैरे हैं। केवल पैसे लेते तो भी कुछ नहीं पर उसके के साथ ही वे जो तरह तरह दिमाग है वैसे ही हम चलेंगे ना वैसा ही सहजयोगी का भी के काम करते है, वो अत्यंत जालिम होते है। किसी भी परमेश्वरी स्थान पर जाओ इस तरह का झमेला है, हर एक आप जेरूसलेम जाओ या मक्का जाओ या महालक्ष्मी के मंदिर परमात्मा के चरणों में जाने के लिए तत्पर है, लीन हैं ऐसे ही जाओ हर एक जगह इस तरह के काम हम करते हैं। इसलिए अलक्ष्मी आती है। लक्ष्मी का ये है कि इधर से बाधा आयी और उधर से वह चली जाती है। दूसरी चीज ये है कि बुरी आदतें बुरी आदतों वाले घर में भी लक्ष्मी कभी टिकती नहीं है। कहते हैं यहां से बोतल आयी कि वहाँ से लक्ष्मी चली जाएगी। केवल बोतल का ही नहीं काफी तरह की आदतें हम में होती है। अब सहजयोग से काफी आदतें चली जाती है। यह बात यच है। थोड़ी सी मेहनत अगर की तो सारी आदतें छूटती हैं। नहीं कर सकते सहजयोग को समझने के लिए भी एक विशेष पद्धति के लोग चाहिएं। मैं ऐसा देखती हूँ सहजयोगी सहजयोग प इच्छा करते हैं तो आगे क्या? वे कहते हैं हमें एक बार माता मिलना है" मैं कहती हूँ, जाने दो उनको थोड़ा और कमाने दो। लोग समझते नहीं हैं। ऐसे कैसे माताजी कहती हैं इतने अभीर आती। दूसरे आ गये बहुत बड़े पॉलीटीशियन हैं, आप मिलिए। हमने कहा-दूर से ही नमस्कार। मुझे समय नहीं हैं। पर सादी ऐसा कैसा। जो आप को सीधा-सादा और साधारण दिखता है वह हमें असाधारण दिखता हैं। उसे हम क्या करे? जैसा हमारा दिमाग होना चाहिए। बेकार के लोगों के पास अपना समय खोना नहीं चाहिए। जो लोग परमात्मा को खोज रहे हैं और जो लोग लोगों के पास जाना चाहिए। अब ये दीप आप ने जलाया है और इतने दिये जलाए हैं, पर किसी शराबी आदमी को दिया दिखाया या किसी भूतग्रस्त मनुष्य को दिया दिखाया तो बह आपको ही खाने को दौडेगा। ऐसे इन्सान को दिया दिखाने की क्या जरूरत है? दुनियां में ऐसे बहुत से लोग है जो जानते हैं कि, वे अंधकार में हैं और उनको परमात्मा से मिलना है। ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो परमात्मा को भौतिक लाभ के लिए मिलना चाहते है। कहना यह है कि, भौतिक लाभ होता हैं, उस में कोई भी সाक नहीं है। आज ये हम ने यहाँ लक्ष्मी पूजन जो रखा है उसका यही कारण है। पूजा की जो अलक्ष्मी है उस का सामना करना होगा। उसके बगैर पूजा जैसी इस पुण्य भूमि की अलक्ष्मी केवल बुरी आदतों से लक्ष्मी का ही नहीं जीवन में यश भी नहीं रहता है। आपका जो यश हैं वो भी नहीं रहेगा। लक्ष्मी जाते ही राजलक्ष्मी गयी गृहलक्ष्मी गयी। किसी भी मोह में मनुष्य फँस गया तो लक्ष्मी घर से निकल जाएगी, वह घर में नहीं रहेगी। आप कितनी भी दिवाली मनाओ या दीये जलाओ वह नहीं हटेगी। उसका मुख्य कारण क्या हो सकता है? पूजा पे अलक्ष्मी होने का मुख्य कारण यह है मारुती और गणेश जी के मंदिरों से उल्टे-सीधे लोग जाकर बैठे है। उन सब को पहले वहां से उठाना होगा। ये लोग जो बीच में बैठकर पेसे खाते हैं और अंदर नहीं आएगी। आप को नहीं दिखता घर में क्या है पर उसे सब दिखता है, वह बाहर की बाहर ही रहेगी। आप कितनी भी लक्ष्मी की आरती करिए, शकून गाइए, कोई फायदा नहीं उल्टे कहने वालों की जेबे गरम होंगी। ये करो वो करो। तो सबसे पूहले अपने में ऐसे जो कुछ विचार हैं जिससे हम ऐसे लोगों के लोगों को तिलक लगाते है वो तिलक लगाने पहले बंद तुम करने चाहिए। बड़ा कठिन काम दिख रहा है पर सहजयोग में इन लोगों के लिए अनेक इलाज हैं, वे इलाज हमें करने चाहिए। ये लोग यहाँ बैठकर सब के आज्ञा चक्र खराब करते हैं। उस पास जाते हैं या जो गलत रास्ते पर जाने वाले जो विचार हैं, ऐसे विचारों को त्यागना चाहिए। अब आप कहोगे तुकारामजी के पास कुछ लक्ष्मी नहीं थी वे अमीर नहीं थे ऐसे कैसे आप आज्ञा चक्र पे प्रहार करके जो मनुष्य जागृत होगा उसे भी नष्ट चैतन्य लहरी 17 गृहलक्ष्मी का स्थान है। हम ये कह सकते है कि, तुकाराम की जो पत्नी थी बड़ी जटिल स्त्री थी। जरा नम्र होती और अगर नगवान को मानती तो उन के घर लक्ष्मी आ सकती थी। तो घर में गृहलक्ष्मी कैसी है उससे लक्ष्मी आती है। उसे गर बाधा है और पति उसकी बाधा का शिकार होता है तो घर में कभी भी कहोगे? अब ऊपर से देखा जाये तो तुकाराम अमीर नहीं थे यही दिखेगा। सब को लगेगा उनके पास जेवरात वगैरा नहीं थे, लक्ष्मी कहां थी। पर वे कितने अमीर थे? इसे देखना है तो उनके चरित्र की ओर देखिए। जब शिवाजी महाराज संत जेवरात लेकर उनके दरवाजे पर गये तो उन्होंने शिवराय को बताया "हम तो किसान हैं हमें ये क्या करना है ? ये आप ही के पास रहने दीजिए। आप राजा हैं आप ही इसे इस्तेमाल करिए। मतलब कितने अमीर होंगे वे अपने यहाँ कोई अमीर होगा तो देखिए उसको अगर कोई जेवर देने जाओ तो उसे मोह *होगा कि नहीं। ऐसा कौन अमीर होगा कि जिसे मोह नहीं आएगा? एक हमारी बात छोड़िए। मतलब जिसे (लालच) आएगा जो ऐसी बातों कि तरफ ध्यान देता है मुझे मिलना चाहिए, वह एकदम भिखारी हो गया। होगा अमीर पर ऐसे अमीर लोग अधिकतर भिस्वारी होते हैं एक आध आने की चीज रह गयी तो भाग कर आयेंगे, अरे वो चीज रह गयी। तो अमीर है कि, भिखारी है। ये कौन तय करेगा? तो जो लोग हृदय से अमीर हैं वही असली अमीर हैं। सहजयोग में जिन लोगों के घर जाओं तो वहाँ घर में जो भी थोड़ा बहुत है बस वही है, पर थोड़ी भाकरी है लीजिए। कितनी रईसी है उसमें, जो था सब कुछ लाकर दे दिया। वही सच्ची अमीरी दिखवाई देती है। वही किसी अमीर के यहा जाओ "आप चाय पिएगे क्या" नहीं पी रह तो लक्ष्मी नहीं रह सकती। वह बाधित है पर पति कहता है तुम्हारी ये बाधा खत्म होनी चाहिए। पति दारू पीता है तब भी ये औरत पतिव्रता बनकर दारू चाहिए ना मेरे जेवर ले लो, मेरा मंगल सूत्र भी ले लो मैं ब्रहुत बड़ी पतिव्रता हूँ ऐसे कहकर उसे और भी नर्क में धकेल रही है तो ऐसे लोगों के घर में कभी भी लक्ष्मी नहीं रहेगी। गृहलक्ष्मी एक तेजस्वी स्त्री होनी चाहिए। उसे देखकर पुरुष को पता चले कि, कुछ तो घर में है। ऐसा वैसा कुछ किया हुआ घर में नहीं चलने वाला। पहले पुरुष लोग औरतों को मालिक मानते थे एक दबदबा रहता था घर में वह किसलिए? चिडचिड़ाहट से नहीं पर उसकी तेजस्विता से, उसकी उदारता गाम्भीर्य, दानशूरता उसकी निष्ठा सेवा और उसको प्रेम से। इन सभी बातों से उस स्त्री को एक तरह की तेजास्विता और चारित्र्य आता है। वह सब छुटकर आजकल की गृहलक्ष्मी को क्या नाम? माने आजकल की गृहलक्ष्मी की तुलना किस से करे यही मेरे समझ में नहीं आता। क्योंकि, उनके दिमाग में क्या है यही मेरी समझ में नहीं आता। पती की, बच्चों की और सास-ससुर की सब की सेवा करनी चाहिए यह ठीक है पर इसका ये मतलब नहीं कि, उनकी गलत बातें व मुर्खो जैसी बातों को मान्यता देना या उन्हें खुश रखने के लिए किसी भी रास्ते से जाना या कैसी भी बातें करना फिर क्या हुआ? पती हैं माताजी, ऐसा तो फिर आप और आप का पती. मैं कहती नहीं हूँ अब पर आप समझ गये होंगे। कोई बात नहीं रख देते हैं। वे कहा के अमीर है? शबरी ने जो बेर श्री राम को खिलाये! श्रीराम को क्या खाने को नहीं था कि उस बेर की इतनी महत्ता श्री राम ने गायी। उसी से सिद्ध होता है कि शबरी कितनी अमीर थी। अतिथ्य के लिए आयी तो उस के आतिथ्य का मान रखकर उस के झूठे बेर उन्होंने खाये। ये ऐसी अमीरी अगर आयी तो सचमुच वह लक्ष्मी जी की अमीरी है। पैसा रहे या न रहें मनुष्य अमीर हो सकता है। वह अपनी बादशाही में रह सकता है पर चलो सहजयोग में हम आप को शबरी की स्थिति में नहीं रखेंगे। सहजयोग में लक्ष्मी तो जरूर मिलेगी ही। मतलब "लक्ष्मी" ही (पैसा) वह सब को मिलेगी ही उस में कोई शक नहीं है। उस के लिए नहीं कि, आप भिखारी हों, पर दुनिया को नज़र आना चाहिए ना। दुनिया को गर दिखेगा कि, आप सहजयोग में आकर गरीब हो गये तो कोई भी सहजयोग में नहीं आएगा उनको लालच (प्रलोभन) देने के लिए आप को लक्ष्मी देनी ही पड़ेगी। उसके बगैर इन अंधों को दिखेगा नहीं इसलिए लक्ष्मी देनी ही पड़ेगी। और नाभी चक्र खुलते ही आप को लक्ष्मी मिल सकती है। इस गृहलक्ष्मी की स्थिति किसी कमल की भाँति होनी चाहिए। कमल ही गृहलक्ष्मी का स्थान हैं। हमेशा पानी के ऊपर, सुंगधित, अत्यंत नाजुक और लक्ष्मी को पूरी तरह से आधार (Suppori)। ऐसी कमल की भाति होनी चाहिए। वह राज्यलक्ष्मी होनी चाहिए। मतलब हर दरवाजे जाकर भीरव माँगना, आज जरा मुझे आप की साड़ी दीजिए पहनने को, आप कहाँ जा रही हैं? नहीं जरा मुझे आज लोगों में दिखाना हैं या किसी भी तरह का झूठा घमंड या किसी भी तरह की लुकाछिपी। उस का एक रुतबा, उस की एक शान यह जब स्त्री में होती है तब उस में राज्यलक्ष्मी विराजमान होती है सचमुच लक्ष्मीपूजन माने स्त्रियों पर ही लेकचर देना पड रहा हैं। पर ऐसी बात नहीं। स्त्री माने गजलक्ष्मी, गजलक्ष्मी माने अपने यहा जो गणपति है वह अत्यंत निष्पाप, वैसे निष्पाप होना चाहिए। उसे अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि नाभी चक्र पर लक्ष्मी को जो स्थान हे उस में पहला चैतन्य लहरी 18 हो गयीं| कहीं भी खड़े रहिए आप का चित्त हमेशा ऊपर उठेगा जैसे ज्योति हमेशा ऊपर उठेगी वैसे ही आप का चित्त हमेशा परमात्मा की तरफ ही रहेगा। ऐसी स्थिति आने पर लक्ष्मी आप के घर आएगी। अनेक प्रकार से। नरसी भगत की हुंडी तारी ये आप को पता होगा। कृष्ण ने सोने की द्वारका बनायी, ये भी आप को पता होगा। द्रौपदी की लज्जा का रक्षण किया ये भी होकर भी हाथी नहीं समझता कि अच्छा क्या और बुरा क्या। चलते समय भी भाग भागकर नहीं चलेगा। काफी औरतों को मैं देखती हूँ वे औरतों जैसी चलती ही नहीं है घोड़ों की तरह चलती हैं। इतनी भागा दौड़ी की बस! मुझे किसी ने पूछा "छोटे बच्चों को ब्लड कैंसर कैसे होता है" मैंने कहा, उनकी माँ को जाकर देखो वह भाग दौड़ करने वाली होंगी भाग-दौड करनेवाली औरतों के पास गजलक्ष्मी हो नहीं सकती। पर इसका मतलब ये नहीं कि कुछ से व मालूम है आप को। इन सभी चमत्कारपूर्ण बातों से आप परिपूर्ण रहिए। हर-रोज आपके सामने अनेक चमत्कार होते हैं वे सब लक्ष्मी जी की ही है। आशीर्वाद माने लक्ष्मी की कृपा है हमने एक साड़ी खरीदी दूसरा एक दुकानदार कहने लगा इसकी कीमत कम से कम दस पन्द्रह हजार होनी चाहिए। हमने कहा नहीं भई हमें तो ये तीन हजार में ही मिली। दूसरा ये लक्ष्मी की भी नहीं करना। जो भी करना हैं वह सबूरी और सुन्दरता करना है। इतना बड़ा हाथी है, जब उसे लक्ष्मी को हार पहनाना है तब सूंड में इतनी अच्छी से लेकर गले में ठीक से पहनाता है और जरा भी कहीं पर भी स्पर्श नहीं होने देता। यह जो सबूरी है सुघड़ गृहिणी कहते हैं। यह सब होना चाहिए। कृपा कृपा है। एक व्यक्ति आकर बताता है मेरे पास पैसे नहीं थे और मैंने गणपति पुले जाने का विचार किया। अब कैसे जाएं पैसे तो हैं नहीं। तो अचानक चिट्ठी आ गयी कि, आप के कुछ पैसे बचे थे तो वे हम भेज रहे हैं । ये सब तो चलो पैसों के बारे में ये सब हो गया पर पुरुषों को औरतों की इज्जत नहीं होगी और इन सब बातां की इज्जत नहीं होगी और गन्दी औरतों के पीछे वे भागते हैं और गलत औरतों को वे महत्व देते हैं या जबरदस्त औरतों से डरते हैं, ऐसे पुरुषों के घर लक्ष्मी नहीं रह सकती। जो अपनी पत्नी को जो सुपत्नी है उसे परेशान करते हैं उनके घर लक्ष्मी नहीं रह सकती। पुरुषों को लगता है जो कुछ इज्जत वगैरा है वह केवल पत्नी को ही संभालनी है। वह कैसे भी रहें वह धार्मिक ही होता है। दसरों की तरफ बरी दष्टि डालना अधार्मिक है ऐसा उसे महसूस ही नहीं होता। मतलब जागृति से पहले तक, सहजयोग के बाद आप की आँख ऐसे है। हो गया पर वैसे अनेक हैं आप की तबीयत खराब हो गयी। आप ने कहा "श्री माताजी मेरी तबीयत ठीक नहीं है" बस ठीक हो गये ऐसे कैसे हुआ? ये सब लक्ष्मी की कृपा है। डाक्टर कहते हैं हम विश्वास ही नहीं करते। ये सब लक्ष्मी की कृपा है। योगक्षेमं व्हाम्यम" उस में जो क्षेम का भाग है वह सब लक्ष्मी की कृपा है। केवल आर्थिक ही नहीं यह तो सब तरह का क्षेम होती है कि, ये सब आप के दिमाग में ही नहीं आता। ऐसे मोह के विचार ही नहीं आते। फिर ये सभी लक्ष्मियाँ आप में जागृत चैतन्य लहरी 19 सहजयोग में आकर कुछ लोग अन्य लोगों पर प्रभुत्व जमाने का या सहजयोग में धनार्जन करने का प्रयत्न करते हैं। उनका चित्त पैसे पर ही रहता है। सहजयोग में व्यापार या धनार्जन करना मूर्खतापूर्ण है। परन्तु जब आप ऐसा करना ही चाहते हैं तो मैं कहती हैँ "ठीक है. कुछ समय ऐसा करने का प्रयत्न करके देख लो।" आपको पता चल जाएगा कि सहजयोग व्यापार नहीं है.. समर्पित करें, इसके बिना आप कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। अपने हृदय सहजयोग को सत्ता के विषय में भी ऐसा ही है। कुछ लोग समझते हैं कि वे सहजयोगियों को प्रभावित कर सकते हैं, वश में कर सकते हैं तथा उन पर रौब जमा सकते हैं । ऐसे लोगों को परमचैतन्य सहजयोग से बाहर फैंक देता है। आपको प्रेम की शक्ति का आनन्द लेना चाहिए ताकि लोग आपके अपने रक्षक, सहायक और मित्र के रूप में देख सकें, रौब जमाने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं। आपको पिता सम होना है, लोगों को डराने-धमकाने वाला नहीं। आसुरी प्रवृत्ति के व्यक्तियों को सहजयोग स्वीकार नहीं करता। ऐसे लोगों के साथ कभी सहानुभूति न रखें। उनसे रहें क्योंकि सहजयोग उन्हें तो बाहर फैंक ही देता है कहीं आप पर भी उनका दुष्प्रभाव न पड़ जाएँ। दूर परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी सिडनी पूजा-14.31983 ---------------------- 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी आवृत्ति खण्ड VIII अंक ॥ व 12 वर्ष 1996 ु परमात्मा के विषय में जानना ही परमात्म-साक्षात्कार है। परमाल्मा की कार्य- शेली को समझना और सर्वशक्तिमान परमात्मा का अंग-प्रत्यंग बनकर यह समझ लेना कि वह किस प्रकार सब कुछ नियन्त्रित करता है, यही परमात्मा का ज्ञान है।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी शिव पूजा-सिडनी, 3.3.1996 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-1.txt चैतन्य लहरी विषय सूची कब पृष्ठ खण्ड VIII, अक 11 व 12, 1996 जन्मदिवस पूजा, नई दिल्ली 21-03-1996 (1) 2. (2) चिकित्सक सम्मेलन, नई दिल्ली 09-04-1996 8 (3) सिडनी पूजा, सिडनी 14-03-1983 12 (4) दिवाली पूजा, पुणे 14 समः ल ह त्द शा श्री योगी महाजन सम्पादक पता श्री विजय नालगिरकर मुदक एवं प्रकाशक 162, मुनीरका विज्ञार, नई दिल्ली-110 067 जुदधित ामग रि प्रिन्टेक फोटोटाईपसेटर्स, 4ए/1, ओल्ड राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली-10 060 मुद्धित ि फोन 5710529, 5784866 चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-2.txt जन्मदिवस पूजा परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सारांश) नई दिल्ली 21-03-1996 लोग नहीं जानते कि यह मन क्या है। परन्तु सहजयोगियों के लिए यह समझना अत्यन्त सरल है कि हम लोग सभी बाह्य चीजों के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं। इसका कारण यह है कि हममें दो भयानक प्रवृत्तियां हैं-पहली अहम् है और दूसरी जिसके द्वारा हम प्रशिक्षित हो रहे हैं, जिसे हम प्रतिअहम् या बन्धन कह सकते हैं। दोनों ही चीजें-हमारा अहम् तथा कल्पित है। पूर्णतया कल्पित। लोग समझते हैं कि चीज की सृष्टि उन्होनें की है, अपने मन से की है। यह गलत धारणा है। सभी महान वैज्ञानिक जैसे आइंस्टीन ने कहा है, 'में सापेक्षतावाद के सिद्धांत को खवोजने के प्रयास में थक गया था। उसकी कुछ धारणायें थी। जैसे सभी वैज्ञानिक कुछ परिकल्पनाओं को ले कर उन पर खोज करना चाहते हैं। एक दिन वे छोटे बालक की तरह से साबुन के बुलबुलों से खेल रहे थे अचानक, पता नहीं कहाँ से वे कहते हैं कि, सापेक्षतावाद का सिद्धांत उनके मस्तिष्क पर कौंध पड़ा। बहुत से वैज्ञानिकों ने कहा है कि वे नहीं जानते कि उनके विचार कहां से आते हैं। आजकल यह पता लगाना एक विशेष विषय है कि इन बैज्ञानिकों को ये सब चीजें इतनी सहज में कहाँ से प्राप्त हो गई, यहां तक की पैन्सलीन या बहुत सी अन्य वस्तुओं का अन्वेषण भी मस्तिष्क की खोज के कारण न हो कर किसी अज्ञात शक्त के माध्यम से उनके मस्तिष्क में आया। न्यूटन ने भी महसूस किया कि ये विचार उन्हें किसी अनभिज्ञ स्रोत से आ रहे हैं। सहजयोगी होने के नाते आप जानते हैं कि यह स्रोत परमात्मा की वह शक्ति है जो कि सर्वव्यापक है। परमचैतन्य। "आप जानते हैं क्योंकि आप इसे महसूस कर सकते है। आप जानते हैं कि यह विद्यमान है । यद्यपि आप जानते हैं फिर भी आप को समझ लेना है कि इसके लिए आपको अपने मस्तिष्क से परे निर्विचार बन्धन हर समय बाहर कार्य करते रहते हैं। हमारे अन्तर्रचित प्रतिक्रियाएं सागर में उठे बुलबुलों की तरह से हैं। ये बुलबुले हमें वास्तविकता से दूर बनाए रखते हैं ये विचारों के बुलबुले हैं जिनका विस्फोट हर समय आपके मस्तिष्क में होता रहता है और आप यह भी नहीं जानते कि यह विचार क्यों आ रहे हैं। इस बनावटी मन पर जब आप निर्भर करते हैं तो आपमें यह समझने की सूझबझ नहीं होती कि अच्छा क्या है, बुरा क्या है। मन में ही सभी बुराइयों का आरम्भ होता है। सभी प्रकार के झगड़े, लड़ाईयाँ, स्वामित्व भाव और अन्ततः युद्ध भी वहीं से जन्म लेते हैं। केवल इसी मिथ्या मन में किसी न किसी प्रकार से ये ठोस विनाशकारी विचार उपजते है और फिर पनपने लगते हैं। तब आप उन लोगों को खोजते हैं जिन्हें आप प्रभावित कर सकते हैं और जिनके मस्तिष्क में आप अपने विचार भर सकते हैं। अपने लेखों, भाषणों तथा सम्मोहन विद्या आदि द्वारा वे लोगों के मस्तिष्क को इतना संकुचित कर देते हैं कि वे इन विध्वंसक विचारों को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से स्वीकार कर लेते है । समाधि में जाना होगा-यह कम से कम आवश्यकता है। में सदा आपसे कहती हूँ 'ध्यान करो!, ध्यान करो!, क्योंकि आपको निर्विचार समाधि में होना चाहिए जहां आप प्रतिक्रिया न करें।" तब क्या होता है, आप साक्षी बन जाते है। आप पूरी लीला में, पूरे दृश्य के साक्षी बन जाते हैं और अपने आप में पूर्णतः शान्त हो जाते हैं। कोई समस्या नहीं रहती कि आप क्या कर रहे हैं तथा आप परमचैतन्य के -इस सर्वव्यापक शक्ति के माध्यम बन जाते हैं। आप केवल देख रहे होते हैं, मात्र साक्षी होते हैं और सभी कुछ देखते हुए आप महसूस करते हैं कि जो भी कुछ आप देख रहे हैं यह आप पर प्रतिक्रिया नहीं करता। परन्तु आप समझते हैं कि यह है क्या। यही वह स्थिति है जिसमें आप पूर्ण परिस्थिति की वास्तविकता को समझते हैं। मैने आपको बहुत बार बताया है कि पानी के किनारे पर खड़े हो कर आप घबरा रहे होते हैं कि कहीं लहरें आपको डूबो न दें। परन्तु मन मिथ्या है और हम इसी के माध्यम से कार्य कर रहे है। हर समय हम यह कहते हुए स्वय को तसल्ली देते रहते हैं कि ' ओह यह मेरा मन है, मेरा मन यह चाहता है। जैसे एक भारतीय सहजयोगी अमेरिका गया और उसने मुझे बताया कि अमेरिका के लोग मन के पीछे पागल हैं। मैनें अभिप्राय क्या है। कहने लगा, मैने अपनी पत्नी को मेरे लिए एक कमीज खरीदने के लिए पैसे दिए थे। उसने जाकर कुछ स्कर्ट खरीद लिए, उसके पास पहले भी बहुत से स्कर्ट हैं परन्तु वह और स्कर्ट खरीद लाई! उससे मैने पूछा कि उसने स्कर्ट क्यों खरीदे तो वह कहने लगी कि मेरे मन ने कहा कि तुम्हें स्कर्ट खरीदने चाहिए, अत: मैने स्कर्ट खरीद लिए। मन आपको सभी प्रकार के गलत कार्यों की ओर ले जा सकता है। क्योंकि सर्वप्रथम उसका सम्बन्ध वास्तविकत्ता से नहीं है। दूसरे यह कि उसका पूछा चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-3.txt बनावटी है और प्लास्टिक की तरह से यह बनावट हर चीज में प्रवेश कर सकती है। मन किसी भी चीज में प्रवेश कर सकता है और यह लोगों के मस्तिष्क में प्रवेश कर जाता है। हिटलर ने इसी प्रकार जर्मनी के सभी युवाओं के मस्तिष्क को वश में कर लिया था। यही लोग हैं जिन्होनें मस्तिष्क से न्याय संगत न प्रतीत होने वाले तकों को नष्ट कर दिया। मन यदि उसका माध्यम हो तो यह तर्क नहीं है। केवल तार्किकता से ही हम मूर्खता को स्पष्ट देख सकते हैं। यदि आप नाव में बैठ जायें तो आपको वही लहरें बहुत सुन्दर प्रतीत होगीं और यदि आप तैरना सीरव लें तो आप पानी में कूद कर डूबते हुए लोगों को बचा सकते हैं। निर्विचार समाधि की अवस्था में भी यही होता है, तब आप अन्य लोगों को साक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं। तब आप उनका योग परमात्मा की दिव्य शक्ति से करवा सकते हैं। परन्तु पहले आप नि्विचार समाधि में जाना तो सीख लें। कुछ लोग कहते है मां हम एक या दो सैकंड के लिए निर्विचार हो पाते हैं। इसका कारण यह है कि सहजयोग में आने के बाद भी आप अपने मस्तिष्क में उलझे रहते हैं। मन, जो कि वास्तव में एक बुलबुला मात्र है इतना सीमित है कि यह सौन्दर्य, गरिमा और वास्तविकता के फैलाव को नहीं से समझ सकता। मन इस सारे कचरे का समूह है जिसे हमें किसी भी प्रकार से अपने से दूर रखना है और स्वय से कहना है कि मुझे मन से ऊपर उठना है। मेरे इस तथाकथित मन ने कोई लाभ नहीं पहुंचाया है। मेरा मन उसी प्रकार से हर समय मुझ पर हावीं रहा जैसे हमारी बनाई हुई घड़ी या कम्प्यूटर सदा हम पर हावी रहते हैं। हमें सावधान रहना चाहिए कि हम ही ने मन की सृष्टि की है और हम पर हावी होना मन का कार्य नहीं हैं। सहजयोग में आ कर भी, आरम्भ में आपमें बहुत बन्धन होते हैं। सर्वप्रथम यह कि आपने भारत में जन्म लिया, फिर यह कि आप भारत के अभिन्न अंग हैं। आप यदि इंग्लैंड में जन्में हैं तो इंग्लैंड के अभिन्न अंग हैं। मैंने सहजयोगियों में एक चीज देखी है कि एक बार जब वे मस्तिष्क की इस मूर्खता से ऊपर उठ जाते हैं तो पहला कार्य जो वह करते हैं वह है उस वातावरण की आलोचना करना जिसमें वे अब तक रह रहे थे। उदाहरणार्थ वे कहते हैं, 'यह भारतीय है, यही भारतीयता है। यदि वे बर्तानिया के हैं तो वह कहते हैं, आप देखें यह बर्तानवी लोग हैं। बहुत से लोग मन को वश में करने का प्रयत्न करते हैं। इसका एक तरीका है कि में मन को वश में करुँगा। अब समझने का प्रयत्न करें कि आप किस प्रकार मन को वश में करेंगें। केवल मन के माध्यम से या तो अहम् या बन्धनों द्वारा। आपके पास मन को वश में करने का कोई साधन नहीं हे क्योंकि आप ही ने मन की सृष्टि की हैं और यह विद्यमान है तथा आप इसे वश में नहीं कर सकते। चाहे आप यह सोचते रहें कि 'मैं इसे वश में कर सकता हूँ। "आपको मन से परे जाना होगा और मन से परे जाने के लिए कुण्डलिनी जागृति अत्यन्त सहायक है। कुण्डलिनी आपके शरीर के भिन्न क्षेत्रों में से गुजरती हुई आपके बह्मरन्ध का भेदन करके आपको बाहर, वास्तविकता के साम्राज्य में ले जाती है।" और तब आपके, मस्तिष्क, आपके हृदय का इस सर्वव्यापक शक्ति से योग घटित होता है। कुण्डलिनी यह सम्बन्ध जोड़ती है। वही यह कार्य करती है। मैं जानती हूँ कि बहुत से लोग सहजयोग कर रहे हैं। परन्तु कभी कभी उनके लिए ध्यान में जाना तथा निर्विचार समाधि की स्थिति, जो कि अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थिति हैं जिसे आपने प्राप्त करना है, को पा लेना कठिन हो जाता है । मन स्वंय देखने लगता है, यह स्वंय देखता है कि यह मिथ्या है और तब हर समय होने वाली धोखवाधड़ी, जो कि बुद्धि स्वंय से करती रहती है, रुक जाती है। अब क्योंकि आप प्रतिक्रिया नहीं करते इसलिए आप चीजों को पूर्णत: एवम् अच्छी तरह से देखने लगते हैं। प्रतिक्रिया अत्यन्त बन्धन ग्रस्त व्यक्ति का गुण है। आप बहुत सी अन्य चीजों से भी बन्धन ग्रस्त हो सकते हैं जैसे किसी धर्म विशेष में आपका जन्म होना। आज कल के मानव का धर्म से भी क्या सम्बन्ध है? कहीं भी वास्तविक धर्म नहीं है, यह भी आप कह सकते हैं, कि धर्म धन या सत्ता लोलुपता की तरह बन गया है। यही कारण है कि लोग आपस में लड़ रहे हैं और आप निश्चित रूप से जानते हैं कि कोई भी धर्म 'विशिष्ट' नहीं है। फिर भी लोग आपस में लड़ रहे हैं। कारण यह है कि मस्तिष्वक में एक बन्धन बन गया है कि आपको अपने धर्म के लिए लड़ना ही है। परन्तु इन लोगों के अन्तस में धर्म नाम की कोई चीज नहीं है। उनके जीवन में धर्म कार्यान्वित नहीं है। वे जितने चाहे भ्रष्ट और दुराचारी हों परन्तु क्लब की तरह से, वे किसी धर्म विशेष से सम्बन्धित हैं। तब वे किसी न किसी चीज पर परस्पर सामजंस्य बनाने लगते हैं और किसी धर्म विशेष से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें यह कार्य करने का अधिकार हो जाता है। अब कुछ हैं जो वास्तव में मन का उपयोग कर सकते हैं यद्यपि यह का. 1. जब तक आप मस्तिष्क की उथल-पृथल में फंसे रहेंगे आप उन्नति नहीं कर सकते। मस्तिष्क से बनाई गई किसी भी चीज में वास्तविकता नहीं है। यह अति सीमित होती है तथा कभी कभी तो घृणाजनक है। मस्तिष्क से लोग सोचने लगते हैं कि में इतना उच्च हूँ। अब मान लो कि आप राज्यपाल बन जायें तो आप सोचते हैं 1. लोग ऐसे भी कि आप जो चाहे कर सकते हैं। चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-4.txt अनुबन्ध समझ बैठते हैं। मैं अब सहजयोग में आ गया हूं मुझे यह अवश्य मिल जाना चाहिए, ऐसा अवश्य घटित होना चाहिए। सहजयोग में आ जाने मात्र से ही लोग इसे अनुबन्ध समझ बैठते हैं कि उन्हें सभी प्रकार की सहायता अवश्य मिल जानी चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार सहज योगियों का नहीं होता। संस्कृत में एक बहुत सुन्दर शब्द है तटस्थ' अर्थात् किनारे पर खड़े होकर देखने वाला व्यक्ति। आपको इस स्थिति में होना है। परन्तु फलस्वरूप आप प्रभावहीन व्यक्ति नहीं बन जाते, आप अत्यन्त प्रभावशाली हो जाते हैं। ऐसे लोग यदि हों, तो आप विश्वास नहीं करेगें, बहुत कुछ घटित हो सकता है। युद्ध रूक सकते है शान्ति फैल सकती है, असुर प्रवृत्ति लोगों का पर्दाफाश हो सकता है। अब क्योंकि सहज़योग सामूहिक रूप से कार्यान्वित हो रहा है सहजयोगियों को एक दूसरे से अन्तर्विरोध नहीं होना चाहिए। फिर भी कभी कभी मैं देखती हूँ और हैरान होती हूँ कि किस प्रकार लोग अन्य सहजयोगियों या अन्य अगुवाओं की आलोचना करते हैं जबकि समस्या उन्हीं में होती है। एक बार जब आप मस्तिष्क से ऊपर उठने लगते हैं तो स्वतः ही आप अन्तर्दर्शी बन जाते हैं और देखने लगते हैं कि, अब मुझमें-मेरे मस्तिष्क में क्या कमी है। अत: अच्छा होगा कि शीशे के सम्मुख खड़े होकर या आरंें बन्द करके कहें, 'श्रीमान् मस्तिष्क जी, आप क्या कर रहे हैं? आप क्या पाना चाहते हैं? आप स्वयं का सामना करें। स्वयं से बाहर निकलकर स्वंय देखें और मस्तिष्क से पूछे तुम चाहते क्या हो?' यही विधि है। एक बार जब आप इससे बाहर निकल आएंगे तो इसे वश में कर सकेंगे मस्तिष्क नहीं जानता कि आप राज्यपाल बन गए हैं, राज्यपाल हैं नहीं। यह राज्यपालपना आप पर शासन कर रहा है। आप इस पर शासन नहीं कर रहे हैं। एक बार इस प्रकार के विचार जब आपके मस्तिष्क में आ जाते हैं तो आप अनापेक्षित ढंग से व्यवहार करने लगतते हैं। सहजयोगियों में भी कभी-कभी सोचने लगते हैं कि 'मैं लीडर हूँ। यह मिथ्या है । पूर्णतः मिथ्या। सहजयोग में अगुआपन पूर्णतया मिथ्या बात है। परन्तु एक बार जब वे जान जाते हैं कि वे अगुआ हैं तो वे इसके प्रति बहुत अधिक सचेत हो जाते हैं और विचारों से भर जाते हैं। इन विचारों को किस प्रकार वश में किया जाए? जब वे अन्य लोगों का संचालन करते हैं तो, आप समझ लें, कि मस्तिष्क ही उनसे अन्य लोगों का नियन्त्रण करने के लिए कहता है। किसी अन्य को क्यों नियन्त्रित किया जाए। यदि आप सच्चे हैं तो नियन्त्रण की कोई आवश्यकता नहीं है। चालाकी और कौशल की भी कोई आवश्कता नहीं हैं अब एक अवगुण हैं। वे भी बार आपका चित्त यदि मस्तिष्क से ऊपर उठ जाए-यह बात केवल सहजयोगी ही स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे। यह मस्तिष्क जब विचारों से ऊपर उठ जाता है तब चित्त का संचालन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तब जो भी संचालन आप करते हैं उसका अर्थ केवल यह होता है कि अब इस चित को किसी न किसी चीज पर ले जाते हैं। तब आप हैरान होगें कि आप कितने प्रगल्भ, प्रभावशाली और ज्ञान से परिपूर्ण हो गए हैं जो भी कुछ आप चाहते हैं उसकी ओर आप चित्त को ले जा सकते हैं, तुरन्त उस विषय पर, उस व्यक्ति पर उस समस्या पर प्रकाश पड़ता है और आप देखते हैं कि यह किस प्रकार कार्यान्वित होता है और किस प्रकार सहायता करता है। आप मेरा जन्मदिवस मना रहे हैं। मुझे काफी वृद्ध माना साचती जाएगा यद्यपि में ऐसा कुछ नहीं सोचती क्योंकि में कुछ ही नहीं। व्यक्ति को मस्तिष्क से ऊपर उठना आवश्यक है। हर समय अपने विषय में सोचते रहना या उन चीजों के विषय में सोचते रहना जो आपसे सम्बन्धित नहीं है और इस प्रकार अपने मस्तिष्क को परेशानी में फंसाए रखना आजकल बहुत ही खतरनाक हैं। सहजयोग में आने के पश्चात् अपने विचारों को रोकने के लिए सर्वप्रथम आपको इधर-उधर की चीजों को पढना छोड़ना होगा। क्योंकि जब आप पढ़ने लगते हैं तो आप पुस्तकों से विचार सग्रह करने लगते हैं मैंने देखा है कि बहुत से लोगों के मस्तिष्क अन्य लोगों की पुस्तकों, उनके शब्दों या उद्धरणों के अतिरिक्ति कुछ नहीं होते वे कहीं नहीं होते, उन्हें आप उनके विचारों में कहीं नहीं खोज सकते। वे सब खोए हुए लोग हैं। वह यह कहता हैं और वो यह कहता है। यह पुस्तक, जिसके विषय में आप जानते है जो मैने अब लिखी है-इसे लिखते समय लोग मुझसे कहते थे, 'श्रीमाता जी प्लेटो ने ऐसा कहा है और रूसों ने ऐसा कहा हैं। मेने कहा वो जो कहना सहजयोग में, आपने कहा है, "श्री माता जी, आपके चित्त से बहुत से चमत्कार हुए हैं" या इसी प्रकार की कुछ अन्य चीजें। मैं सहमत हूँ, परन्तु आपका चित्त भी ऐसे कार्य करने में सक्षम है जो कि आम लोग नहीं कर सकते। क्योंकि सर्वप्रथम तो आपका चित्त पावन हो चुका है, दूसरे यह दिव्य शक्ति से संचालित है और इससे पूर्व मैं ऐसे लोगों से मिली हूँ जो सहजयोग में आकर रोते हुए मुझे पत्र भेजते हैं मा यह हो रहा है, वो हो रहा है, मेरे पिताजी बीमार हैं, मेरी टांग में दर्द है, मेरे हाथों में दर्द है आदि- आदि।' न केवल शरीरिक परन्तु मानसिक स्तर आदि के विषय में भी वे कहते रहते हैं। कभी कभी तो वे मुझे इतने लम्बे पत्र लिखते हैं कि मेरी समझ में नहीं आता कि इन्हें कैसे पढेँ। इतना अधिक लिखने के लिए कुछ नहीं हैं। वे लिखते हैं क्योकि उस अवस्था में वे अभी तक 1 परन्तु प्रतिक्रिया कर रहे होते हैं और उन्हें समझ नहीं आता कि क्या करें। वे एक ऐसी सीमा तक चले जाते हैं कि सहजयोग को चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-5.txt चाहत्ते थे उन्हें कहने दो। मैं वही कहती हूं जो में जानती हूँ। में उनका उल्लेख क्यों करुं। पुस्तकालयों में जाकर प्लेटों और रूसो को पढ़ने की मुझे आवश्यकता नहीं हैं। जो मैं जानती हूं और जो कुछ मैने देखा है मुझे, बिना यह सोचे कि अन्य लोगों ने क्या लिखा है और क्या वर्णन किया है, वही स्पष्ट रूप से लिखना चाहिए। इस मस्तिष्क के साथ एक और बहुत बड़ी समस्या भी है कि जो कुछ भी छप जाता है उसे बाईबल मान लिया जाता हैं। पहले के किए हुए सभी कार्य या कथन महान मान लिए जाते हैं। जैसे अब ईसा, मोहम्मद साहब, अब्राहम, कृष्ण या राम नहीं हैं। परन्तु लोग सोचेंगे कि राम ने ऐसा कहा, ने ऐसा कहा, गीता में ऐसे लिखा हैं। गीता में उन्होने सब विचार हैं और इनके कारण हम स्वतन्त्र नहीं हैं। इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि आप इन अवतरणों में विश्वास न करें। वे सब महान थे। हम उन्हें समझते हैं और उनका अत्यन्त सम्मान करते हैं परन्तु सर्वप्रथम आप स्वतन्त्र हो जाएं। इन अवतरणों को समझने के लिए आप स्वतन्तर हो जाएं। आपका पाटी मस्तिष्क स्वतन्त्र हो जाए। आपका मस्तिष्क बाहर से भरे हुए विचारों से ग्रस्त न हो जिससे कि आप वास्तविकता को भी न देख पाएं। इन्हीं बन्धनों के कारण, मैने देखा है, लोग आनन्द नहीं ले पाते। कुछ लोग आनन्द ले पाते हैं और कुछ नहीं ले पाते। सहजयोग पूर्ण आनन्द देने के लिए होता हैं और पूर्ण स्वतन्त्रता एवं विवेक प्रदान करने के लिए भी। अतः आप अन्य लोगों की स्वतन्त्रता का सम्मान करें। सर्वोपरि आप यह समझें कृष्ण कुण्डलिनी विषय में एक शब्द भी नहीं कहा तो श्रीमाता जी कुण्डलिनी के विषय में क्यों बात कर रही हैं। गीता को किसने लिखा? श्रीकृष्ण ने गीता नहीं लिखी ईसा ने बाईबल नहीं लिखी और मोहम्मद साहब ने कुरान नहीं लिखवी तो उन्होंने जो कुछ भी कहा उसके विषय में आप क्यों चिन्ता करते हैं कि स्वतन्त्रता है क्या? यदि यह कार्य नहीं होता तो मैं कहूंगी कि सहजयोग किसी काम का नहीं क्योंंकि इसे ऐसे ढंग से कार्यान्वित होना चाहिए कि आप अपने पूर्व बन्धनों से मुक्त जाएं। अब अपने दूसरे शत्रु को देखें ये हैं श्रीमान अहंकार। ये एक अन्य सिरदर्द है और बड़ी तेजी से कार्य करते हैं । इसने बहुत से लोगों को फुला कर कुप्पा बनाया हुआ है। और अन्दर अहम् भिन्न दिशाओं से आता हैं और आप हैरान होंगे, वास्तव में हमारे चक्रों की विकृति के कारण यह हमारे अन्दर पनपता है। कुछ लोगों के लिए धन बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। किसी भी प्रकार से हमें धन मिलना चाहिए। यदि मुझे धन नहीं प्राप्त होता तो सहजयोग का क्या लाभ है। निसन्दे:ह धन बहुत महत्वपूर्ण हैं हम धन संचालित विश्व में रह रहें हैं परन्तु है कि जो धन आपको मूर्ख बना दे उसका क्या लाभ? अब बहुत अधिक धनाभिमुख देश जिन्हें अति वैभवशाली माना जाता है जैसे स्कैन्डीनीवियन देश और स्विटरजरलैण्ड को देखे। जिस भी प्रकार से उन्होंनें धनार्जन किया हो वे वैभवशाली हैं। परन्तु उसकी अपेक्षा आप अनुभव लें जिसके विषय में सबने कहा हैं कि आपको पुर्नजन्म लेना होगा। सभी अवतरणों ने कहा है कि आपको मस्तिष्क से ऊपर उठना होगा। क्यों न ऐसा करके देखा जाए। परन्तु पहचान प्राप्त करके लोग बहुत प्रसन्न होते हैं। जैसे सहजयोग में जो ईसाई आए हैं ईसा बहुत प्रसन्न होते है। बहुत प्रसन्न। यदि वे हिन्दू हैं तो कृष्ण और राम होने चाहिए, यदि मुसलमान हैं तो मोहम्मद साहिब या फातिमा बी होने चाहिएं। इस संस्कार से वे बाहर नहीं निकल पाते यह बहुत कठिन कार्य हैं उनका मस्तिष्क ही ऐसा बन चुका है। बचपन से ही उन्हें कहा जाता है,"आप मुसलमान हैं, आप मुसलमान हैं। आप ईसाई हैं, आप ईसाई है," और वे विश्वास कर लेते । मान लो यदि आप किसी अन्य धर्म में जन्में होते तो क्या Pर से मेने आपको बताया हैं । होता आप कुछ अन्य ही चीजें होते परन्तु आपकी खोपड़ी में ऐसे विचार भर दिए गए हैं जो आपके मस्तिष्क में बैठ गए हैं और इस प्रकार आप इतने परतन्त्र हैं। इन बन्धनों से आप बंध गए हैं। यही चीज़ में सहजयोगियों में भी पाती हूं, एक बहुत बड़ी बन्धनावस्था कि वे निर्णय करते हैं कि फलां-फला चीज वहां युवा लोग आत्महत्या कर रहे हैं। आत्महत्या करने की होड लगी हुई है। वे अत्यन्त दुखी हैं-क्यों? इसका अर्थ यह हुआ कि धन से प्रसन्नता नहीं आ सकती। धन यदि आपके मस्तिष्क पर भी हावी है तो आप सहजयोगी नहीं हो सकते धन तो आपके उपयोग के लिए है आपके प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए है। दुकान पर जाकर आप किसी चीज को देखते हैं तो आप सोचते हैं कि फलां व्यक्ति को देने के लिए यह चीज बहुत अच्छी है। यह भावना बहुत मधुर है। आप वह चीज किसी जरूरतमद को दे सकते हैं। जब आपका मस्तिष्क परिवर्तित हो जाता है मेरा अभिप्राय है कि जब यह निर्विचार समाधिस्थ हो जाता है; तब आप उस के लिए केवल आनन्ददायी; कलात्मक, सुन्दर तथा उपयोगी वस्तु खरीदेंगे। तब आपका मस्तिष्क गहन अच्छी है या बुरी है। आप अपने लिए देखें| उदाहरणार्थ यदि मैं गुरू नानक के विषय में बात करु तो सिरव बहुत प्रसन्न होंगे। परन्तु यदि मैं ईसा की बात करू तो उन्हें प्रसन्नता न होगी। पुणे में मैने ईसा की बात करी तो लोगों ने कहा कि ये सभी को ईसाई बनाने का प्रयत्न कर रही हैं और जब मैं लदन में श्री कृष्ण की बात कर रही थी तो उन्होंने कहा कि ये सभी को हिन्दू बना रही हैं। हममें जो यह एक- रूपता है यह हमारे जन्म से ही इतनी गहनता पूर्वक हममें आ रही हैं हममें अब भी यह चैतन्य लहरी ি 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-6.txt हमारे अन्दर अंहकार के बहुत से बन्धन हैं। हमारे देश में विशेष तौर पर पत्नी पर रौब जमाना सबसे बड़ा अंहकार है। मैने देखा है कि लोग किस प्रकार स्त्रियों को सताते हैं अपनी पत्नियों और बच्चों को सताते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं "मैं पुरुष हूँ आपको क्या मिलता हैं। आपको बिल्कुल आनन्द नहीं मिलता । इस प्रकार आप कभी भी आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते। दूसरों को सताने से आप कभी आनन्दित नहीं हो सकते, कभी नहीं। केवल प्रेम, स्नेह एवं सुहृदता से ही आप आनन्दित हो सकते हैे क्योकि आनन्द के यही लक्षण हैं, आनन्द प्रभुत्त्व जमाना, मांग करना आदि नहीं हैं। यह आनन्दमग्न व्यक्ति के लक्षण नहीं हैं। केवल अनुराग, स्नेह तथा सुकोमल सम्बन्धों का आनन्द लेने वाला व्यक्ति आनन्दमग्न होता हैं। इस मामले में भी मैंने देखा है कि भारतीय पुरुष विशेष रूप से उत्तर भारतीय पुरुष मुस्लिम प्रभाव में आकर अपनी पत्नियों पर बहुत रोब जमाते हैं। और उनका अपमान करतें हैं। फलस्वरूप यहा की स्त्रियां भी अत्यन्त रोबीली हो गई हैं। क्रिया की प्रति क्रिया होना स्वाभाविक हे। यह प्रतिक्रया ही अपने आप में अनुचित है। प्रतिक्रिया को पावन प्रेम की भावना, करुणा सागर में विलय हो जाना चाहिए। उदाहरणार्थ दिल्ली की गलियों में मैं बहुत से लोगों को, छोटे-छोटे बच्चों को भीख मांगते हुए देखती हूँ। उन्हें देखकर मेरे मन में जो भावना उठती है वह उन्हें ताड़ने की या उन पर नाराज होने की नहीं होती। हो सकता है कि वे धोखा दे रहें हों या ऐसा कुछ कर रहे हों क्योंकि आखिकार सभी लोग धोखा धड़ी कर रहे हैं. जिनके पास बहुत धन है वे भी धोखाघड़ी कर रहे हैं। तो यदि ये निर्धन लोग भी धोखा दे रहे हैं तो कौन सी बड़ी बात हैं परन्तु उन्हें देख कर मेरे हृदय में करुणा उसड़ पड़ती है कि किसी तरह से कहीं एक जमीन का टुकड़ा ले कर एक ऐसे स्थान का आयोजन क जहां दुखी. अनाथ लोगों को रख कर उनकी सहायता की जा सके। हो सकता है दुखों और दारिद्रों से पीड़ित इन लोगों में से आपको बहुत से कमल प्राप्त हो सके। परन्तु यह भावना सामूहिक रूप से होनी आवश्यक है। मुझे लगता है कि इससे दिल्ली की समस्या का समाधान हो जायेगा। परन्तु हमारा कार्य अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरह से नहीं होना चाहिए। मेरा सम्बन्ध कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से रहा हैं। मैं आश्च्चय चकित थी कि उनका सारा समाज कार्य केवल अहंकार को बढ़ावा देने के लिए था, इसका सम्बन्ध समाजहित से कुछ भी न था। सभी कुछ उल्टा-सीधा था, इन लोगों में पीड़ितों की देखभाल करने की कोई गहन चिन्ता न श्र। प्रेम एवं उदारता से परिपूर्ण हो जाएगा। यह अपनी उदारता का आनन्द लेगा और हर समय आपके चिन्त को अन्य लोगों को प्रसन्नता प्रदान करने की दिशा में, प्रक्षेपण करने के लिए आपका पृथ प्रदर्शन करेगा। छोटी छोटी चीजों से; जरूरी नहीं कि वे बहुत महंगी हों। यदि आपके पास धन है तो अच्छा होगा कि अन्य लोगों को देने लिए अपना प्रेम, अपनी कृतज्ञता और अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करने के लिए आप चीजें खरीदें। जिस प्रकार लोग इन साधुओं और बाबाओं को हजारों रुपये देते हैं यह बहुत प्रशसनीय बात हैं। क्योंकि उनके मन में अपनी श्रद्धा को सन्तुष्ट करने के लिए यह बात आई है कि वे यह धन दान कर दें और वे ऐसा ही करते हैं ओर उन्होंने अथाह धन राशि एकत्र की हुई है। उन्हें इसका कोई विवेक नहीं इसका मूल्य वे नहीं, जानते। उनके लिए यह धन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। आधुनिक युग ऐसे लोगों को देखा है जो बहुत धनी हैं और जिन्हें बहुत बड़ा व्यापारी माना जाता है। वे मुझे अलग से मिलना चाहते हैं। परन्तु वे बेकार के लोग हैं बिल्कुल व्यर्थ आकर वे मुझे बताले हैं मां आप जानती हैं कि मुझे इस व्यापार में हानि हो रही है उस व्यापार में हानि हो रही हैं। क्या आप हमारी किसी प्रकार में धन का सबसे बड़ा अभिशाप है अहंकार। मैने से सहायता कर सकती हैं? में उन्हें कुछ भी नहीं कहती। परन्तु वे आकर बताते हैं। मां आपके आर्शीवाद से हमारा घांटा पूरा हो गया, हो सकता है- परन्तु यह सब मूर्खता है। जैसा कि लाओत्से ने वर्णन किया है कि आप येंगत्ने नदी से जा रहे हैं। यह अत्यन्त सुन्दर है, नदी के दोनों और सुन्दर दृश्य है परन्तु अच्छा होगा कि आप नाव में बैठ कर सागर में पहुंच जायें। इसी प्रकार मान लो कि हनने वायुयान पकड़ना है और सड़क पर कोई अच्छी चीज देख कर हम कार से उतर जाए तो वायुयान कैसे पकड़ पायेंगें? मन के अतिरिक्त परिणाम यह है कि हम अपने चित्त को गलत चीजों की ओर ले जा कर उननें अपनी शक्ति बरवाद कर देते हैं। फलस्वरूप हम खी होते हैं क्योंकि प्रायः इच्छाओं की कभी पूर्ति नहीं होती। किसी लिप्सा वक्ष या किसी उड़ेश्य से दिया गया या प्रप्त किया गया प्रेम प्रेम नहीं होता। परन्तु पावन प्रेम को अपने अन्दर या अन्य लोगों के अन्दर अनुभव करना ही परमात्मा का महानतम उपहार है। बाकी सब चीजें व्यर्थ हैं। आप यह सब चीजें समझ जायेगें। प्रतिदिन आप यही अनुभव करते हैं। आज आप एक कार लेना चाहते हैं-ठीक है तो लीजिए फिर आप एक घर लेना चाहते हैं, वह भी ले लौजिए। घर ले कर भी आप सन्तुष्ट नहीं होते। फिर आपको किसी अन्य चीज की इच्छा होती है। तो कौन सी इच्छा सन्तोषदायक है? यह पावन फ्रेम है, सच्चा प्रेम जो आप अन्य लोगों के लिए और अन्य लोग आपके लिए महसूस करते हैं । Invi करुणा की महान भावनाओं के साथ हम यह सब कार्य कर सकते हैं। यह मेरी एक इच्छा है, यदि यह आप सब लोगों की भी इच्छा है तो यह कार्यान्वित हो जायेगी। वयोंकि वे भी मानव हैं अतः उनकी देखभाल करना अन्यन्त महत्वपूर्ण है। परन्तु चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-7.txt के कारण वहां मस्तिष्क परिवर्तित हुआ है और अब वे भिन्न लोग हैं। हमें उनके मूर्ख विचार नहीं अपनाने चाहिए कि वस्तुएँ देकर या किसी प्रकार के वचन करके हम लोगों को वश में कर सकते हैं। बास्तव में हमें स्वंय को वश में करना है और यह नियन्त्रण तभी आ सकता है जब आप अपने मस्तिष्क को हावी होने की आज्ञा न दें। यह नियन्त्रण तो पूर्ण स्वतन्त्रता हैं। उदाहरणार्थ आप वायुयान को लें यदि यह बिल्कुल ठीक बना हे तभी उड़ सकता हैं। इसी प्रकार यदि आप भी निपुण सहजयोगी हैं, तभी आपको समस्याओं का समाधान करने में, किसी भी हालात में किसी भी व्यक्ति से व्यवहार करने में कोई समस्या न होगी। बहुत से सहजयोगी कहते हैं, "श्री माता जी हम कोई गतिशील कार्य नहीं करना चाहते क्योंकि हमारा अहम् बढ़ जायेगा।" वे सोचते हैं कि उनका गुब्बारा पहले से ही फूला है और यदि वे कोई और कार्य करेंगे तो अहम् बढ़ जाएगा। इसके लिए व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहिए कि "मैं कोषाध्यक्ष बनूगा, मैं अध्यक्ष बनूंगा और मैं फलां अधिकारी बनूगा। यह सब पुरोहितपना मस्तिष्क से ही चला जाना चाहिए अन्यथा, आप जानते हैं, कि आप स्वतंत्र नहीं है। इसके विषय में एक सुन्दर चुटकला है कि एक व्यक्ति मन्त्री से मिलने गया और उनका निजी सचिव लोगों से भेंट कर रहा था। सचिव को लोगों पर बिगड़ते देख कर एक ग्रामीण ने पूछा, "आप कौन हैं?" उसने उत्तर दिया, "क्या आप नहीं जानते कि मैं पी. ए. (पीये) हूँ"। "अच्छा तो आप पीये हैं|" तो ठीक है हमें कुछ नहीं कहना। तो अहंकारी व्यक्ति किसी शराबी या पागल की तरह से बर्ताव करता है, कभी कभी तो आपको उनसे बहुत दूरी से बात करनी होती हैं। मैंने आपको बताया है कि कुछ लोग जिन्हें बड़े-बड़े शान्ति पुरस्कार मिल चुके हैं उनसे बहुत दूर से बात करनी पड़ती है कि कहीं वे गुस्से से आप पर झपट न पड़े-किसी बिल्ली या चीते की तरह। समझ नहीं आता कि वे कैसे बने हैं। में नहीं समझ पाती कि किस प्रकार उन्हें यह हुआ अतः वे कहते हैं हम नहीं करना चाहते। बात ऐसी नहीं हैं। यह प्रेम है, आप प्रेम के लिए कार्य करते हैं। । স शान्ति पुरस्कार प्राप्त हुए? परन्तु वास्तव में ये पुरस्कार उन्हें मिले। शान्ति हमारे अन्दर है। इसे अन्दर बनाये रखना होगा और अन्तदर्शन द्वारा इसे देखना होगा। क्या हम शान्त हैं या हम प्रतिक्रिया कर रहे हैं । यदि हम प्रतिक़्िया करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि हम शान्त नहीं हैं। परन्तु लोग कहेंगे, "हां, हा मैं बहुत शान्त हूं, परन्तु मुझे प्रतिक्रिया करनी पड़ती है," तब आप शान्त नहीं हुए। सीधे अपना सामना करें और स्वंय देखें कि क्या आप शान्त हैं? तभी शान्ति चहूं ओर फैलेगी और अन्य लोगों की भी सहायता करेगी। यह उन्हें शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक शान्ति प्रदान करती हैं। प्रेम का यह समुद्र आपके अन्दर है। इसके बिना आप किस प्रकार चल सकते हैं? इसे हर स्तर पर कार्य करना होगा चाहे यह आपका परिवार हो, शहर हो, देश हो, या पूरा विश्व हो। हमें एक नई पीढ़ी के लोगों की सृष्टि करनी है जो प्रेम में विश्वास करते हों, प्रेम जो सत्य है। प्रेम के बिना आप सत्य नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि जब आप किसी से प्रेम करते हैं तो उस व्यक्ति की सभी बातों की जानकारी आपको होती है। इसी प्रकार जब आप अपने देश को प्रेम करते हैं तो अपने देश का आपको पूरा ज्ञान होता हैं। परन्तु पहले आपको प्रेम करना होगा। आज कल लोगों की समस्यायें क्या है? यदि आप अपने देश को प्रेम करते हैं तो आप जान जायेंगे कि उसका सार क्या है, उसकी समस्याएं क्या है और वहां क्या हो रहा है। एक रूपता की यह गहन भावना सारा कार्य करेगी क्योंकि, आखिरकार, आप परमात्मा से जुड़े हुए हैं। परन्तु गहनता पूर्वक आपको इन सब चीजों के विषय में महसूस करना चाहिए जो आज के युग में वास्तव में विनाशकारी एवंम कष्टदायीं हैं। सहजयोग में आकर आप लोगों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई हैं। यह मेरा कोई प्रमाण पत्र या बिल्ला नहीं हैं कि आप सहजयोगी हैं। मैं चाहूंगी की स्त्रियां भी इस बात को देखं क्योंकि मैंने देखा है कि अधिकतर महिलायें अपने बच्चों, पतियों, नौकरियों तथा इस प्रकार की चीजों के सम्बन्ध में ही चिन्तित रहती हैं। परन्तु वे अन्य लोगों के, अपने आसपास के लोगों क विय में चिन्तित नहीं होती उन्हें सहज जीवन शैली अपनानी होगी, जिसमें अपना प्रेम तथा अपना चित्त अन्य लोगों के प्रति विस्तृत करना होता है और देखना होता है कि किस प्रकार से अन्य लोगों को प्रसन्न रख सकती हैं। पश्चिमी देशों में यह अवस्था नहीं हुआ करती थी। वे नहीं जानते थे कि बिना किसी इनाम या लक्ष्य के भी व्यक्ति को किसी को प्रसन्न करना एक बार फिर यह जन्मोत्सव मनाने के लिए तथा माधुर्य की जो वर्षा आपने मुझ पर की है उसके लिए में आपका धन्यवाद करना चाहूंगी। मेरे लिए आप इन सुन्दर पुष्पों सम है जो सदा आपको प्रसन्न करने के लिए, सुख देने के लिए लालयित रहते हैं। इन्हीं फूलों की तरह से अपने सम्मुख आप सब लोगों को पाती हूं, सुन्दर पुष्प, देवत्व से महकते हुए । मुझे आशा है कि आप सब लोग अपने को समझेंगे और इसे कार्यान्वित करेगें। चाहिए। आप यदि किसी को कोई उपहार दें तो वे कहते हैं, *ओह, आपको क्या चाहिए?" वे नहीं समझ सकते कि कोई अन्य अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करना चाहता हैं। अब सहजयोगियों मूल्य परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-8.txt पराविज्ञान एंव औषध विज्ञान परम पूज्य माताजी श्रीनिर्मला देवी का भाषण कालेज 0904.1996 लेडी हार्डिंग चिकित्सक सम्मेलन दिल्ली हम सब सत्य साधक हैं परन्तु हम यह नहीं जानते कि क्या खोजा जाए। सत्य शाश्वत है। हम इसे परिवर्तित नहीं कर सकते। इसके स्वरूप को हम बदल नहीं सकते। हमें इसका जहा तक ओषध विज्ञान का सम्बन्ध है पाश्चात्य प्रभाव हानिकर नहीं हैं। परन्तु हमें इससे परे जाना है और देखना है कि जो ज्ञान हमारे पास है वह केवल एक आख, दूसरी आँख या किसी विशेष अंग की सूक्ष्मताओं में जाकर, अन्ततः भिन्न शाखाओं में बंट जाने के लिए नहीं हैं। सहजयोग सम्पूर्ण का समन्वय (Synhesis) हैं। अपने अन्तस में ही हम मूल तत्वों पर जाते हैं। किस प्रकार हम बीमार होते हैं? ज्ञान पाना है। मन के माध्यम से आप सत्य का ज्ञान नहीं पा सकते। वास्तव में मन मिथ्या है। इससे ऊपर उठकर ही आप सत्य को जान सकते हैं। यही परम सत्य है उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। सभी लोग इसी 'केवल सत्य' को जानते हैं। मूल तत्वों के विषय में मैं आपको बताने वाली हूं परन्तु आप इन पर विश्वास नहीं करेगें। वैज्ञानिकों की तरह यही वह ज्ञान हैं जो 'बोध' कहलाया, जहां से बुद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई। यही वह ज्ञान है जिसे विद कहते हैं और जहां से वेद आए। इस प्रकार इस ज्ञान को हमें अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर जानना है, मस्तिष्क से नहीं। एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात जो हमने सीखनी है, वह यह है कि हम मानवीय चेतना की अवस्था तक पहुँच चुके हैं। परन्तु अभी तक यह अधूरी है; यदि यह पूर्ण होती तो कोई समस्या न होती। हम झगड़ते क्यों हैं? वादविवाद क्यों करते हैं? अत: ऐसा सत्य होना ही चाहिए जो पूर्ण है और इस सत्य को खोजना हमारी विकास प्रक्रिया का कृपया इन्हें समझने का प्रयास करें। हमारे अन्दर सात चक्र हैं जोकि ऊर्जा केन्द्र हैं जो सभी कार्यों के लिए, हमारी मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए सूद्म ऊर्जा प्रदान करते हैं। जब जब भी इनमें से किसी भी चक की शक्ति का हास हो जाता है तभी हम बीमार पड़ जाते हैं। अब कैसर रोग का प्रश्न हैं। हमारा कोई भी चक़ प्रभावित हो सकता हैं। मध्य का हिस्सा परा अनुकम्पी है तथा बाएं और दाएं अनुकम्पी हैं। अब होता क्या है? मान लो हम किसी चक्र विशेष की या तीन चक्रों की ऊर्जा को उपयोग करने लगते हैं जैसे बहुत ज्यादा सोंचने में, बहुत अधिक कार्य करने के लिए आदि आदि। ऊर्जा के लिए स्थान छोटा हो जाता हैं। क्योकि यह पहलू अधिक भावनात्मक हैं। यह टूट जाता है और इसके टूटने पर स्रोत से सम्बन्ध समाप्त हो जाता हैं। दाएं ओर की ऊर्जा स्वच्छंद हो जाती है और स्वच्छंद होकर यह बढ़ने लगती हैं। जब कुण्डलिनी शक्ति इस चक्र में से गुजरती है तो दोनों अनुकम्पियों को न केवल अपने स्थान पर लाती है परन्तु यह इनका पोषण करती है और अन्य चक्रो के साथ इनका समन्वय भी करती हैं। लक्ष्य है। इसी प्रकार हरमें आत्म साक्षात्कार की उस उच्चावस्था तक विकसित होना हैं जिसके द्वारा हम आत्मज्ञान प्राप्त कर सके। इसे आपको 'पराविज्ञान' के रूप में देखना होगा क्योंकि वैज्ञानिकों की तरह से आपको अपने मस्तिष्क खोलने हैं। अन्ध विश्वास में आपने मेरे कथन पर विश्वास नहीं कर लेना। अन्ध विश्वास के कारण हमें बहुत सी समस्याएं हुई परन्तु आप लोगों को अपने लिए देखना होगा, निर्णय करना होगा, इस पर प्रयोग करने होंगें और यदि आपको लगे कि जो मै तुम्हें बता रही हूं वह सत्य है तो ईमानदार व्यक्तियों की तरह आपको उस पर विश्वास कर लेना चाहिए, उन लोगों की तरह जो अपने परिवार अपने देश और परे विश्व के हितैषी हैं। बिना विकसित हुए हम वह अवस्था नहीं प्राप्त कर सकते। इस विकास के लिए हमारे अन्दर पूर्ण प्रबन्ध कर दिया गया हैं। आपकी त्रिकोणाकार अस्थि में जिस शक्ति का निवास है वह कुण्डलिनी कहलाती है। इस देश में यह ज्ञान हजारों वर्षों से विद्यमान है। यह हमारी धरोहर हैं। भारतीय होने के नाते यह जान हमें उत्तराधिकार में प्राप्त कैंसर तथा अन्य प्रकार यह सत्य है, इससे बहुत से रक्त के कैंसर रोगी रोग-मुक्त हुए हैं। परन्तु हमें समझना होगा कि हम मूल में नहीं हैं। पेड़ यदि बीमार है तो हम उसके पत्तों या फूलों का इलाज कर रहे हैं। पूरे वृक्ष का इलाज यदि हमें करना है तो हमें इसकी जड़ों में जाना होगी। जड़ों का यह ज्ञान हमारे देश में हजारों सालों से हैं। चक्र जब पोषित होते हैं तो वे सन्तुलन की सृष्टि करते हैं। ऐसी बहुत सी चीजें है जिन्हें हम हुआ परन्तु पाश्चात्य प्रभाव के कारण इस पर परदा पड़ गया। चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-9.txt गांवों में यदि आप जाये तो लोग एक कप चाय में तीन-चार चम्मचे चीनी डाल कर पीते हैं, इतनी अधिक चीनी होती है कि चम्मच उसमें सीधा खड़ा हो जाता हैं। इसके बिना वे चाय को चाय ही नहीं समझते परन्तु उन्हें मधुमेह नहीं होता। इसका क्या कारण है? जो भी कुछ वे कमाते हैं उसे खर्च करके आराम से सोते हैं, न उन्हें जीवन-बीमे की चिन्ता होती है और न किसी और चीज की। चिकित्सा विज्ञान में नहीं जानते। मैं स्वंय चिकित्सा विज्ञान की छात्रा थी और अत्यन्त चिन्तित थी कि किस प्रकार चिकित्सा विज्ञान के लोगों से उन तथ्यों की बात की जाए जो पुस्तकों में वर्णित नहीं हैं। उदाहरणर्थ हम नहीं जानते कि अनुकर्पी प्रणाली परस्पर अभिमुखी (OPPOSITE) है। एक प्रकार से यह अनुकम्पी सम्पूरक हैं। परन्तु वे एक ही सा कार्य नहीं करते। पीयुष (PITUITARY) पिगला नाड़ी के माध्यम से दाया अनुकम्पी है तथा शंकु रूप (PINEAL) ईडा नामक नाड़ी के माध्यम से बांया अनुकम्पी हैं। ये दोनों एक प्रकार से परस्पर सम्पूरक है और यही कारण है कि अपने कार्यों में ये परस्पर विरोधी हैं। बायां अनुकम्पी भावनात्मक पक्ष के लिए है और दांया अनुकम्पी कार्यशीलता के लिए। अस्थमा (दमा) और मधुमेह (DIABE- 1. जिगर की गर्मी से एक अन्य अवयव जो कुप्रभावित होता है वह है प्लीहा (Spleen)। इसे हानि पहुँचना बहुत ही कष्टदायी है। आज कल सुबह सुबह उठते ही लोग समाचार पत्र पढ़ते हैं और यदि कोई संवेदनशील व्यक्ति हो तो उसे आघात पहुँचता है। अतः आपका अनुकम्पी गतिशील हो उठता है और प्लीहा है? TES) रोग ग्रस्त होने का मूल कारण क्या मूल कारण हमारा जिगर (Liver) हैं। चिकित्सा विज्ञान में, में आपको विश्वास दिलाती हूं कि, हम कुछ अधिक नहीं जानते। नाभि से आरम्भ होने वाला, दूसरा चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र कहलाता है। यह चक्र चहूं ओर घूमकर महाधमनी चक्र (AORTIC PLEXUS) को शाक्ति प्रदान करता है। यह चक् बहुत सी चीजों की देखभाल करता है। यह जिगर (LIVER), अग्न्याश्य (PANCREAS), प्लीहा (SPLEAN) और गुर्दे (KIDNEYS) को देखता हैं। जब हम सोचने लगते हैं तो हमें पता नहीं होता कि शक्ति कहां से आती हैं। यह स्वाधिष्ठान चक्र से आती है। यही स्वाधिष्ठान चक्र इस शक्ति को भविष्यवादी गति प्रदान करता है। अत: यह उपयोग की जाने वाली शक्ति में बढ़ोतरी करता रहता है। उछल-कूद करने लगता है। बेचारे प्लीहा को समझ नहीं आता कि इस प्रकार के अशान्त व्यक्ति को किस प्रकार सम्भाले ! अमेरिका में तो लोग अपने दांत भी कार में साफ करते हैं। वे इतने जल्दी में होते हैं और इतने समयबद्ध। हम इतने अधिक गतिशील हो गये हैं कि हमाया जरीर इस गलति के साथ चल पाने में असमर्थ है। बेचारा व्लीहा नहीं समझ पाता कि इस प्रकार के उत्तेजित व्यक्ति के साथ कैसे कार्य करे। ये पगला जाता है और जो बीमारी शुरु होती है उसका नाम है 'रक्त कैंसर । निश्चित रूप से रक्त केसर का इलाज हुआ है, यह सुत्य है। चिकित्सकों ने अत्यन्त ईमानदारी से उन्हें बताया था कि रोगी एक महीने से अधिक जीवित नहीं रह सकता। नौ वर्ष बीत चुके है परन्तु वह रोगी अब भी विल्कुल ठीक हैं। यह बात हमारे लिए यह देखने का एक बहुत बड़ा उदाहरण है कि आप को रक्त आदि निकालने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। आप ठीक हो सकते हैं। कैसे? क्योंकि कुण्डलिनी जब स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुँचती है तो इसे पता चलता है कि बेचारा चक्र नि:शक्त हो चुका है, अत: यह इसे आवश्यक ऊर्जा पहुँचाती है और इस ऊर्जा से लोग ठीक हो जाते हैं। इसके पश्चात् जिगर की गर्मी गुर्दे की ओर जाती है। गुदे खराब हो जाने पर व्यक्ति को मूत्र त्याग में बाधा आ जाती हैं और उसे डायलिसिस पर डालना पड़ जाता है। डायलिसिस पर डाले जाने के बाद ठीक होने वाला एक भी व्यक्ति मुझे नहीं मिला। इसके बाद आपकी आंत हैं। जिगर की गर्मी से आंत भी सिकुड़ जाती है और आपकी पाचन शक्ति खराब हो जाती है। आपको डकारें आने लगती हैं और सबसे बुरी बात जो होती है वह है कब्ज हो जाना। आधुनिक युग का यह सबसे बड़ा अभिशाप है कि अधिकतर लोग कब्ज नामक भयानक रोग से पीड़ित हैं यह अत्यन्त अस्वाभावबिक है, फिर भी ऐसा होता है। ऐसा तभी होता है जब जिगर की गर्मी ऊपर को उठने लगती आम तकनीकी भाषा में जिगर शरीर का सारा जहर एकत्र करके और पूरी गर्मी को रक्त प्रवाह में डाल देता हैं। उपेक्षित हो जाने पर जिगर प्रभावित हो जाता है। जब यह चक्र इसकी देखभाल नहीं करता तो यह उपेक्षित हो जाता है ओर गर्मी चहूँ ओर फैलने लगती हैं। रक्त में न जा पाने के कारण यह ऊपर-नीचे और अन्य दिशाओं में जाने लगती है। सर्वप्रथम यह हृदय के दायीं ओर, जिसे हम दायां हृदय कहते हैं की ओर जाती है सहजयोग के अनुसार तीन हृदय है केवल एक नहीं। दाया हृदय चक्र, जो कि हमारे फेफडों की देखभाल करता है यदि गर्म हो जाये तो यह क्रेन्द्र प्रभावित होता है और परिणामतः फेफड़ों को हानि पहुँचती हैं। इस प्रकार व्यक्ति को दमा हो जाता हैं। जब आप अपने जिगर पर बर्फ रखते हैं तो यह आपके जिगर को ठण्डा करती हैं। यह बहुत साधारण बात है। जिगर की गर्मी अग्न्याशय (PANCREAS) की ओर भी बढ़ सकती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति को मधुमेह हो जाता है। महमेह रोग न केवल चिकित्सकों में परन्तु वकीलों और बहुत अधिक योजनाएं बनाने वाले अफसरों में एक आम रोग हैं। चैतन्य लहरी 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-10.txt बास्तव में इसे किसी पर थोपा नहीं जा सकता। इसके लिए याचना करनी पड़ती है। किसी निष्ठ्र अहंकारी और मुर्ख व्यक्ति पर यह कार्यान्वित न होगी हमें उन्हें उचित मार्ग पर लाना होगा तभी यह कार्य करेगी। परन्तु आप सब में यह शक्ति है आयु के शराब पीने वाले युवक को चाहे ह वह टेनिस खेलता हो और खूब मेहनत करता हो, जानलेवा हृदयाघात हो सकता है। उस आयु में व्यक्ति को बचाया नहीं है। 21 से 25 साल की जा सकता। इस गर्मी का उभार बाद में हृदय पर चलता रहता तथा आत्म साक्षात्कार प्राप्त करना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। है और लोगों को भयानक हृदयघात हो जाते हैं। एक अन्य बहुत भयानक बात गरमी का मस्तिष्क तक पहुँचना है। मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर देता है, और व्यक्ति को दायीं ओर पक्षघात हो जाता है। यह केवल एक चक्र से होता है। जिगर पर बर्फ रखने से आप हैरान होंगे, पक्षघात भी ठीक किया जा सकता है। लोग कहते हैं यह मेरा सिर है, यह मेरा शरीर है, यह मेरा मस्तिष्क है। इस मस्तिष्क का स्वामी कौन है? किसी चिकित्सक से पूछिए कि आपका हृदय कौन चलाता है? वह उत्तर देगा- 'स्वचालित नाड़ी तन्त्र'। ठीक है, पर यह स्व" कौन हेै ? यही हमें जानना है। हमें आत्मा बनना है क्योंकि हम यह शरीर पीछे के अगन्य चक्र पर बर्फ रखने से चश्में से मुक्ति प्राप्त की जा सकती हैं। क्योकि स्वाधिष्ठान चक्र यहीं है और सहजयोग अनुशासन तथा बर्फ इस कार्य को कर सकते हैं । आप कल्पना कीजिए कि एक चक्र को ठीक करने से आप किंतने रोग ठीक कर सकते हैं, विशेषकर आप चिकित्सक लोग जो चिकित्सा कार्य में लगे हुए हैं, इस कार्य के लिए उद्यत हैं। मन नहीं है, हम ये भावनाएं अहें या संस्कार नहीं है, हम शुद्ध आत्मा है। दूसरी बात यह है कि परमात्मा सर्वव्यापक है जिसका इससे पूर्व हमने कभी अनुभव नहीं किया। सभी ने इसका वर्णन "सलीलं-सलील" कह के किया- ठंडी-ठंडी। बाइबल में इसे परम चैतन्य की शीतल पवन- (Cool Breeze of the Holy Ghost) कहा गया, कुरान ने इसे कहा कि स्वयं को जाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। हमारी पूरी भारतीय सस्कृति आत्म ज्ञान प्राप्ति के पक्ष में है-हम इसे मोक्ष कहते हैं, आत्म साक्षात्कार कहते हैं। जो भी नाम हम इसे दें, परन्तु मूल रूप से आप समझ लें कि किसी की आखों का या मुधमेह का इलाज शुरू कर लेने मात्र से कुछ न होगा वे मनोदैहिक रोगी बन जाते हैं जो ला इलाज हैं। यह समाधान नहीं हैं। समाधान तो चिकित्सा-परा- विज्ञान में है जहां आपको केवल स्वीकार करना होता हैं। परिकल्पना के रूप में स्वीकार कर करके इसे परखें, यदि यह कार्य करे तो क्यों न इसे स्वीकार करें नि:सन्देह एक बात तो है कि आप इसके लिए धन नहीं ले सकते क्योंकि आप एक व्यक्ति की शक्ति, जो कि दिव्यशक्ति है, के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खर्च कर रहे। इसका अभिप्राय यह भी कदापि नहीं कि धनाभाव के कारण चिकित्सक भूखों मरने लगेंगे। आप जानते हैं कि सहजयोग में बहुत कम लोग आते हैं, अधिकतर तो चिकित्सकों में ही विश्वास करते हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए वे डाक्टरों के पास दौड़ेंगे। धनी लोग भी सहजयोग में नहीं आयेंगे। अतः आप को अपने पेशे की ये सब प्रयास आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए थे। आधुनिक युग में एक अच्छी घटना घटी है। चहूँ ओर बहुत से सत्य-साधक हैं। दूसरी चीज यह है कि आत्म साक्षात्कार है सहज है, स्वतः है। आपकों न तो हिमालय पर जाना पड़ता न अपने सिर के भार खड़ा होना होता है, न बीवी-बच्चों आदि, का त्याग करना पड़ता है। आप स्वय को सम्मान रख सकते हैं, यह सब स्वतः होना होता है, इसके लिए न तो आपको कुछ पढना है और न मन्चोंच्चारण करना पड़ता है। यह इतना सहज है। चिकित्सक यदि यह शक्ति प्राप्त कर ले तो, जहां तक चिकित्सा विज्ञान का सम्बन्ध है, वे भारत के महानतम वैज्ञानिक बन जाएंगे। रूस में उच्चकोटि के 250 चिकित्सकों तथा 200 वैज्ञानिकों को अपने सम्मुख बैठा देखकर मैं आश्चर्य चकित थी। वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली का उपयोग करते हुए मैनें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। परमात्मा की शक्ति का प्रकाश पाकर आप स्वयं शक्ति बन जाते हैं। में एक शल्य - चिकित्सक को जानती हूँ, वह कहता है कि श्री माता जी बिना कुछ अधिक परिश्रम किए मैं शल्य चिकित्सा करता हूँ जिसके चमत्कारिक परिणाम होते हैं क्योंकि मेरे हाथों से चैतन्य प्रवाहित होता है। यही शक्ति रोग मुक्त करती है तथा यही घाव भरती है। लोग विश्वास करते हैं कि ईसा ने इक्कीस लोगों के घाव भरे, पर कोई नहीं जानता कि कैसे! शक्ति संचार से कलाकार, संगीतज्ञ आदि में इतनी प्रतिभा आ जाती है कि वे चमत्कारिक रूप से पहले से कहीं बेहतर कलाभिव्यक्ति करने लगते हैं। जब विज्ञान की बात आरम्भ की तो वे कहने लगे कि श्री माता जी हम विज्ञान नहीं दिव्य-विज्ञान के विषय में जानना चाहते हैं। आप हमें अध्यात्म विज्ञान के विषय में बताइए, और जो भी कुछ मैने कहा, बताया कि मस्तिष्क उन सभी सातों चक्रों की पीठ है। उनके पास यह जांचने के लिए यन्त्र हैं। नोवा सबिस्क नामक एक स्थान है जहां सभी बैज्ञानिक हैं। वहां सभी वैज्ञानिकों का सुन्दर उसे उन्होंने खोजने का प्रयत्न किया। मैने उन्हें चैतन्य लहरी 10 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-11.txt नहीं जानते। वे जबरदस्त हैं। मैं आपको बता दूँ कि जब आपकी आत्मा आपके चित्त में होती है तो आप अति शक्तिशाली, आवास है तथा सभी प्रकार की प्रयोग शालाएँ हैं । मैनें जब उनसे मस्तिष्क में ये सभी चक्र खोजने के लिए कहा तो उन्होनें ऐसा कर दिखाया। इस कार्य को किया। एक अमेरिकाई वैज्ञानिक ने भी खोज दिखाया, जैसा मैनें आपको बताया है, कि पहला चक्र मूलाधार) कार्बन का बना हुआ है। कार्बन की चार संयोजकताएँ होती है। मैने कहा कि आप कार्बन के अणु का एक चित्र लेकर उसका मॉडल बनाओ। उस मॉडल को यदि आप दाएँ से बाएँ देखेगें तो आपको स्वास्तिक दिखाई देगा। जब आप इसे बाए से दाए देखेंगे तो ओंकार (ॐ) दिखाई देगा और यदि नीचे से ऊपर देखेंगे तो आपको अल्फा और ओमेगा (आरम्भ और अन्त) दिखाई देंगे। पहले आप ओमेगा (अन्त) और फिर अल्फा ( अति मूल्यवान व्यक्ति बन जाते हैं। साथ ही साथ आप अत्यन्त सुहृदय हो जाते हैं। जो भी कुछ आप त्यागना चाहें त्याग सकते हैं क्योंकि आप देखने लगते हैं कि क्या विनाशकारी हैं। १। आपको अपने आत्मसाक्षात्कार का उपयोग करना होगा अन्यथा यह कार्यान्वित न हो सकेगा। इसके लिए आप धन नहीं दे सकते। यह द्िव्य प्रेम है जिसके लिए पैसा नहीं दिया जा सकता परन्तु इस बात को लोग नहीं समझते। गुरु यदि आपसे पैसा लेता है तो वह आपका गुरु नहीं हो सकता। वह तो आपका नौकर है। यह विकास प्रक्रिया है, विकास की जीवन्त प्रक्रिया, इसके लिए धन नहीं दिया जा सकता उदहारणार्थ यदि दें आरम्भ) देखेंगे। ईसा ने कहा है कि मै ही अल्फा हूँ और मैं ही ओमेगा हूँ। आपके हाथ में कोई बीज है और उसे आप पृथ्वी मां में डाल श्री गणेश ही ओंकार हैं । श्री गणेश ही ईसा रूप में अवतरित तो यह स्वतः ही अंकुरित हो जायेगा। आपको सिर के भार खड़े हुए हम नहीं जानते कि यही गणेश हमारे अन्दर गतिशील हैं। होने की कोई आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि पृथ्वी मां में ये सब चीजें, देवी देवला आदि हवा में बातें नहीं हैं, ये सब हमारे अंकुरित करने की और बीज में अंकुरित होने की शक्ति अन्दर विद्यमान हैं। ये हमारे अन्दर निवास करते हैं और हम भारतीयों को तो कम से कम, अपने मस्तिष्क खुले रखने की शक्ति अन्तर्निहित हैं। मैं कहती हैं कि यह शक्ति, जो चाहिए। मैने पाश्चात्य लोगों के मस्तिष्क खोलने का प्रयत्न किया। रूस, बुल्गारिया, रोमानिया के चिकित्सकों को जब मेनें मस्तिष्क खोल देने चाहिए। मैं जानती हूँ कि तीन सौ साल पहले इसके विषय में बताया तो वे हैरान थे कि मैं इतनी सारे रहस्यों का वर्णन कर सकती हैँ। वे बहुत अधिक धन-लोलुप नहीं है। दवाईयों का उपयोग करना पडता था। कुण्डलिनी के विषय में वास्तव में रूस के लोग अधिक धन-लोलुप नहीं हैं। अत: अब इस पर शोध कर रहें हैं और मैने जो कहा है उसे प्रमाणित करने के प्रयास में लगे हैं। मुझ पर सन्देह करने या ये कहने के स्थान पर कि "ऐसा कैसे हो सकता है", ये देवता कौन हैं, वे कार्यरत हैं। इसी प्रकार आप नहीं बता सकते कि कुछ दवाइयां किस प्रकार कार्य करती है? आप एस्प्रीन को लें। आप नहीं जानते विद्यमान हैं। इसी प्रकार आपमें भी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने पहले हमें उपलब्ध न थी, इसके प्रति आपको वास्तव में अपने जब अंग्रेज यहां थे तो आपको उनकी अंग्रेजी और उन्हीं की जान कर मुझे भी बहुत प्रसन्नता प्राप्त हुई थी। कम से कम कुण्डलिनी के विषय में लोग बात तो करते हैं, ये तो कहते हैं कि कोई शक्ति कार्यरत हैं। हमें कहीं तो कुछ मिला। परन्तु जब तक आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं करते न ही आप अपना हित कर सकते हैं और न दूसरों का। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् आप लोगों की बीमारियां ठीक कर सकते हैं, उन्हें आत्साक्षात्कार दे सकते हैं और वास्तविक शक्ति का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। निर्विचार चेतना में स्थापित हो कर आप अपने अन्तस की बास्तविक शन्ति का आनन्द ले सकते हैं। कि ये क्या करती है। परन्तु यह सहायक है। इसी प्रकार हम देखेंगे कि चैतन्य लहरियां अति लाभकारी हैं-आप दंग रह जाऐंगे। आप इन्हें उपनी अंगुलियों के पोरों पर अपनी हथेलियों । तब आप अपना पूर्ण आनन्द ले सकते हैं। और वह आनन्द इतना दिव्य है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। आप सब इस आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं यदि आप आत्मसाक्षात्कार की स्थिति को बनाये रखें। कुछ लोग बहुत तेजी से विकसित होते हैं परन्तु कुछ अन्य को ध्यान करने की आवश्यकता होती है और तभी उनमें संचालन होता है। ये वे लोग हैं जो बुद्धिवादी हैं और जो चिकित्सा या अन्य किसी विज्ञान के बन्धनों में फॅसे हुए हैं। पर महसूस कर सकते हैं। एक छोटा सा बच्चा भी बता सकता है कि कौन से चक्र पकड़ रहे हैं। क्योंकि आप सामूहिक -चेतन बन जाते हैं इसलिए आप अपने तथा अन्य लोगों के विषय में जान जाएंगे आप अत्यन्त गम्भीर व्यक्तित्व वाले हो जाते हैं। यहीं बैठे आप सभी को महसूस कर उनके विषय में जान सकते हैं। आपको रोग निदान के व्यर्थ के चक्कर में नहीं फंसना रोग निदान के आधुनिक तरीकों से भी आप को रोग की समझ नहीं आती, परन्तु यहां आप अपनी अंगुलियों के पोरों पर जान सकते हैं और समस्या को खोज सकते हैं । वे सभी शक्तियां आप में हैं। आप नहीं जानते कि आप क्या हैं। भारतीयों में कितना वैभव, कितनी आध्यात्मिकता है, यह आप 1. पड़ता। यहा एक बहुत बड़ा बादल हैं जिसे पार करना आवश्यक है। परन्तु एक बार आप जान जायें कि यह ज्क्ति कैसे कार्य करती चैंतन्य लहरी 11 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-12.txt है, किस प्राकर गतिशील होती हैं तो आप आश्चर्यचकित रह जायेगें। अतः यह कोई चमत्कार नहीं है परन्तु व्यक्ति को स्वंय देखना हैं और समझना है। यदि आप अपने मस्तिष्क नहीं खोलते तो इसे आप पर थोपा नहीं जा सकता। में बहुत प्रसन्न हैँ कि आज में चिकित्सा व्यवसायियों और चिकित्सा विद्यार्थियों से तथा इस सम्माननीय उपस्थित समूह से बातचीत कर सकी। में कल्पना भी न कर सकती थी कि किसी दिन में आप लोगों के चाहती थी कि क्या चीज़ क्या है, केवल नाम जानना चाहती कि क्या चीज क्या है, केवल नाम जानता चाहती थी और तब मैंने मनोविज्ञान पढ़ा, उसके कुछ शब्दकोष पढ़ डाले और इस प्रकार मुझे पता लगा कि किस चीज को क्या नाम दिया जाता है क्योकि ईश्वरीय चीजों का तो कोई नाम नहीं होता, नाम तो चिकित्सकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने दिये हैं। अतः उनसे बातचीत करने के लिए मैं यह आयोजन चाहती थी। मैं सम्मुख भाषण दूँगी। मुझे बालकराम चिकित्सा विद्यालय के लिए चुना गया था, योग्यतानुसार केवल छः लड़कियां चुनी गई थीं परन्तु उन्होने मुझे केवल इसलिए छोड़ दिया कि मैं उत्तर भारत से न थी। तो में यात्रा करके लाहौर तक गई वहां हैं, लोग कह रहे हैं कि जीन्ज मिथ्या है। वे यह भी कह रहे प्रधानाचार्य से मिली और उन्हें बताया कि यह मेरे प्रति सरासर हैं कि जीन्ज वंशानुगत है और इनका इलाज नहीं किया जा अन्याय है क्योंकि आपके अनुसार विद्यालय तो पूरे भारत के लिए है। तो अब आप यह कैसे कह सकते हैं कि मैं पंजाबी नहीं हूँ। मैं पंजाबी भाषा अच्छी तरह से बोल सकती हूँ आपको मेरा चयन करना ही होगा तो उन्होंने पूछा कि तुम कहा से आई हो? मैनें उत्तर दिया, नागपुर से। उन्होंने कहा हे परमात्मा तुम हमने इसे कार्यान्वित किया है और यह प्रमाणित हो चुका है। तो फला-फलां व्यक्ति की बेटी हो। मैनें कहा हां, मेरी मां एक मानसिक रोग चिकित्सालय में कार्यरत थी, वे दोनों साथ -साथ वहां थे। उन्होंने कहा कि एक लड़की यदि न आई तो में तुम्हे हजार विद्यार्थी हों। परन्तु कम से कम आप स्वय तो इसे प्राप्त दासखिल कर लँगा और इस प्रकार में वहां पहुंच गई। यह बहुत अच्छा महाविद्यालय था, बहुत सुन्दर भाषण हमें दिये जाते थे । परन्तु बाद में ये समस्यायें शुरु हो गई और मैं दिल्ली आ गई तथा मेरे माता-पिता ने मेरा विवाह कर दिया। मेरे पति ने मुझसे पूछा बातचीत नहीं कर रही, यह सम्पूर्णता है। कि क्या तुम आगे पढना चाहती हो? मेरे हां कहने पर उन्होंने कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। में मात्र इतना जानना ये सत्य है कि यदि आप वैज्ञानिक और चिकित्सक हैं तो आप अपने सिर पर सवार इन बहुत से विचारों और सिद्धांतों को बदल सकते हैं उदाहारणार्थ आज कल जीन्ज़ बहुत महत्वपूर्ण सकता। सहजयोग से इसका इलाज किया जा सकता है। सहजयोग से पूरा आधार ही बदल जाता है और इस प्रकार एक दुष्ट व्यक्ति को भी परिवर्तित किया जा सकता है। बात मूल आधार का परिवर्तित करने की है। तब वह कार्यान्वित होता हैं। परन्तु इसे प्रमाणित करने का वैज्ञानिक तरीका यह है कि कम से कम सौ चिकित्सक इसका अनुमोदन करें और उनके दो कर लें और फिर स्वंय देखें कि जीवन की हर दिशा में आपके पास कितनी शक्तियाँ आ गई हैं। क्योंकि यह पूर्णत्व है। मैं इसके विषय में यहां-वहां किसी इक्के-दुक्के व्यक्ति से परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। सिडनी पूजा 14-3-1983 परम पूज्य माता जी श्री निर्मला देवी का प्रवचन ध्यान-धारणा, सामूहिकता एवं आनन्द प्राप्ति की ओर व्यक्तिगत यात्रा किस प्रकार आपको वह गहन आनन्द प्रदान कर सकती हैं जो आपके अन्तर्निहित हैं। आप इसे बाहर खोजने का प्रयत्न कर रहे हैं जहां यह है ही नहीं। यह हमारे अन्तर्निहित है, केवल अब तक आप सब लोग यह महसूस कर चुके हैं कि हमारे अस्तित्व की शान्ति, सौन्दर्य एवं गरिमा हममें अन्तर्निहित है। इसका एक महान सागर हमारे अन्दर है। इसे बाहर नहीं खोज सकते। हमें अपने अन्तस में इसे खोजना होगा। "ध्यान-धारणा की स्थिति में आप इसे खोजें और इसका आनन्द लें। जब आपको प्यास लगती है तब आप नदी पर जाते हैं, या समुद्र पर जा कर अपनी प्यास बुझाने का प्रयत्न करते हैं। समुद्र आपको मधुर जल प्रदान नहीं कर सकता। तो बाहर फैली हुई वस्तुएं हमारे अन्दर है यह आपका अपना है और अत्यन्त सहज है। आपकी पहुँच में है। जो भी कुछ आप करते रहे, वह केवल तथा-कथित आनन्द, प्रसन्नता, सासारिक शक्तियों की गरिमा और सांसारिक वस्तुओं के पीछे दौड़ना था। अब इन सब गतिविधियों के विपरीत कार्य करना होगा। आपको अपने अन्तस चैतन्य लहरी 12 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-13.txt में झांकना होगा। आपका भौतिक पदार्थों के पीछे भागना भी अनुचित न था, उसके लिए अपने अन्दर दोष भावना न लायें। परन्तु यह आपके जीवन के वास्तविक आनन्द, वास्तविक गरिमा को प्राप्त करने का सही मार्ग न था। बहुत लोगों ने इस सत्य को अनुभव प्रवेश कर सके। आन्नद लेता है। व्यक्ति का पूर्ण दृष्टिकोण ही परिवर्तित होकर अत्यन्त प्रगल्भ हों जाता है। बिना लिप्त हुए मनुष्य सभी चीजों का आनन्द लेने लगता है। वह जान जाता है कि लिप्सा मिथ्या है में किया। इसी कारण आप सूक्ष्म सूझ- बूझ सहजयोग में आकर कुछ लोग अन्य लोगों पर प्रभुत्व जमाने का या सहज़योग में धनार्जन करने का प्रयत्न करते हैं कुछ लोग केवल मानसिक स्तर पर हैं और कुछ केवल शारीरिक स्तर पर कि वे महसूस कर सकते हैं। परन्तु आप ठीक रास्ते पर हैं- आप सही दिशा में चल रहे हैं। उनका चित पैसे पर ही रहता है। सहजयोग में धनार्जन या व्यापार करना मूर्खतापूर्ण है। परन्तु जब आप ऐसा करना ही चाहते हैं तो मैं कहती हैँ, "ठीक है, कुछ समय ऐसा करने का प्रयत्न करके देख लो।" आपको पता चल जाएगा कि सहजयोग व्यापार नहीं है। नि सन्देह सहजयोगी मिलकर कोई व्यापार कर सकते हैं। परन्तु सहजयोग व्यापार नहीं है। यह परमात्मा का कार्य है जहाँ आपने अपना सर्वस्व समर्पण करना होता है। अत: ध्यान धारणा करने का प्रयत्न करें। अधिकाधिक ध्यान करें ताकि आप अपने आन्तरिक अस्तित्व तक पहुँच सकें। यह आन्तरिक अस्तित्व हम सबके अन्दर विद्यमान आनन्द का विशाल सागर है। यह विशाल प्रकाश-पुंज है जो सभी के आन्तिरिक सौन्दर्य को दैदीप्यमान कर देता है। अत: इस तक पहुँचने के लिए सभी विरोधी चीजों को अस्वीकार करते हुए आपको अपने अन्दर जाना होगा। लिप्त न हों और अपना हृदय सहजयोग को समर्पित करें बिना हृदय समर्पित किए आप कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। सत्ता के विषय में भी ऐसा ही है। कुछ लोग समझते हैं। कि वे सहजयोगियों को प्रभावित कर सकते हैं, वश में कर सकते हैं। तथा उन पर प्रभुत्व जमा सकते हैं। ऐसे लोगों को भी परमचैतन्य सहजयोग से बाहर फेंक देता है। आपको प्रेम की शक्ति का आनन्द लेना चाहिए। ताकि लोग आपको अपने रक्षक, सहायक और मित्र के रूप में देख सकें, रौब जमाने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं। आपको पिता सम होना है, लोगों को डराने धमकाने वाला व्यक्ति नहीं। आसुरी प्रवृत्ति के व्यक्तियों को सहजयोग स्वीकार नहीं करता। ऐसे लोगों के साथ कभी सहानुभूति न रखें। उनसे दूर रहें क्योकि सहजयोग उन्हें तो कभी-कभी मस्तिष्क इस सत्य को स्वीकार ही नहीं कर पाता कि परमात्मा की गरिमा हमारे अन्दर है। इवास-श्वास याद रखें कि आपकी गति अन्दर को होनी चाहिए। अन्दर की ओर चित्त करने पर बाह्य गरिमा के विचार आप भूल जाएगे। तुच्छ स्वभाव मानव यह सोचता है कि सा धन कमा लेने से उसे आनन्द की प्राप्ति हो जाएगी। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। वह अत्यन्त दुःखी होता है, जीवन की छोटी-छोटी चीजों के लिए परेशान। बहुत अधिक धनी लोग प्रायः कंजूस होते हैं। वे अपनी आदतों के गुलाम बन जाते हैं। इस प्रकार वैभव कभी-कभी मानव के लिए अभिशाप बन जाता है। अत: केवल धन के पीछे दौड़ने वाले लोग उसका आनन्द नहीं ले सकते। बहुत बाहर फेक ही देता है कहीं आप पर भी उनका दुष्प्रभाव न पड़ जाए। अतः सावधान रहें। कुछ ऐसे लोग सहजयोग में आ जाते हैं जिनका चित्त सदा अपने परिवार, पति, पत्नी और बच्चों पर ही रहता है। उनका पूरा चित्त ही गलत दिशा में चला जाता है। वे सदा यही सोचते रहते हैं कि विवाह विस प्रकार सफल होंगे, उनके बच्चों का हित किस प्रकार होगा आदि-आदि। ये सब बातें परमात्मा पर नहीं छोड़ते। आप सब सन्त हैं, ये सारी चीजें आपको परमात्मा पर नहीं छोड़नी होंगी। आरम्भ में जब लोग सहजयोग में आते हैं तो कहते हैं- "मेरे पति ऐसे हैं, मेरी पत्नी ऐसी है, मेरा भाई ऐसा है, मेरे बच्चे ऐसे हैं-श्री माता जी उन कि दूसरे एक अन्य प्रकार के लोग होते हैं जो सोचते हैं लोगों पर प्रभुत्व जमाने से उन्हें जीवन में बहुत उच्च स्थान हो जाएगा। आप जानते हैं कि उनके हाथ भी निराशा ही प्राप्त लगती है। वे अपने विषय में बात तक नहीं करना चाहते। अपने परिवार बच्चों या कुछ लोग किसी व्यक्ति विशेष, सम्बन्धियों से लिप्त हो जाते हैं। भारत में यह आम बात हैं। यह भी परमात्मा को प्राप्त करने की विधि नहीं है। लिप्सा से आपकी शक्तियों का हास हो जाता है। उन्हीं से लिप्त होकर आप अपनी सारी शक्ति का नाश कर लेते हैं। परन्तु एक बार यदि आप अपने अन्तस में प्रवेश कर जाएं तो अर्थहीन चीजें भी विवेकमय बन जाती हैं। लिप्सा में फॅसा व्यक्ति निर्लिप्त हो जाता है और सभी चीजों को नाटक की तरह से देखने लगता है। वह अत्यन्त उदार हो जाता है और अपनी उदारता का पर कृपा करो।" आरम्भ में तो यह सब ठीक है परन्तु विकसित होकर आपको इन सब बातों से मुवत हो जाना चाहिए। जब आप ध्यान-धारणा करते हैं तो परमात्मा की ओर यह आपकी व्यक्तिगत यात्रा होती है। लक्ष्य पर पहुंचने के बाद आप सामूहिक हो जाते हैं। इससे पूर्व यह 'पूर्णतया व्यक्तिगत' आन्तरिक यात्रा है। चैंतन्य लहरी 13 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-14.txt कोई भी सर्वसाधरण मनुष्य, जो ध्यान-धारणा की गहनता में उतर जाता है, इस प्रकार का प्रकाश पुंज बन सकता है। लोग उस पर निर्भर होते हैं। आवश्यक नहीं कि आप ध्यान-धारणा आपमें यह देखने की योग्यता होनी चाहिए कि इस यात्रा में कोई आपका सम्बन्धी, भाई या मित्र नहीं है। आप पूर्णतया अकेले हैं 'पूर्णतया अकेले'। आपको अपने अन्तस में अकेले यात्रा करनी होगी। किसी से घृणा न करें किसी के प्रति गैर जिम्मेदार न हों। फिर भी ध्यान- धारणी की स्थिति में आप अकेले हैं। वहां किसी अन्य का कोई अस्तित्व नहीं। एक बार विश्व आपका परिवार पर वहुत अधिक समय लगायें। ध्यान-धारणा से प्राप्त गहनता की अभिव्यक्ति बाहर भी होनी चाहिए। बिना गहनता प्राप्त किए हम अन्य लोगों की रक्षा नहीं कर सकते। जो स्वयं ऊपर उठ जाते हैं वही अन्य लोगों को उत्थान में सहायता करते हैं। जब आप उतर जाते हैं। उस सांगर में पूरा बन जाता है। पूरा विश्व आपकी अपनी अभिव्यक्ति है। सभी आपके वच्चे बन जाते हैं और आप सब लोगों के साथ समान अतः अपने लक्ष्य को समझने का प्रयत्न करें। अब आप परिवर्तित लोग हैं। आप को अपनी सम्पत्ति, सांसारिक वस्तुओं तथा अपनी जीविका की चिन्ता नहीं करनी। आपको अपने स्वास्थ्य एवं निजी जीवन की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। ये सब बातें महत्वहीन हैं। आपका परिवार, बच्चे, पति-पत्नी की चिंता अनावश्यक हेै। परमात्मा के प्रेम में ही आप की सुरक्षा है। सूझ-बूझ से व्यवहार करते हैं। यह सारा विस्तार तभी घटित होता है जब आप अपनी आत्मा में प्रवेश कर जाते हैं और आत्मचक्षुओं से देखने लगते हैं। तब आप अंत्यन्त शान्त हो जाते हैं। इस यात्रा के लिए आपको तैयार होना होगा। यह यात्रा कैवल आपकी ध्यान-धारणा में ही सम्भव है। जितनी अधिक सिडनी ने पहले भी बहुत अच्छा कार्य किया है और अब भी अच्छी उन्नति कर रहा है। परन्तु गति अपेक्षा से कम है। अतः सहजयोग को फैलाने की नई विधियाँ खोजनी होंगी पर पहले उपलब्धि ध्यान- धारणा में होती है उतना ही अधिक आप उसे अन्य लोगों में बांटना चाहते हैं। यह भावना आनी ही चाहिए यदि ऐसा नहीं होता तो अवश्य ही कोई कमी है । इस व्यक्तिगत खोज में जो भी कुछ आप प्राप्त करते हैं उसका आन्नद अन्य लोगों के साथ लेना चाहते हैं। ध्यान-धारणा करने वाले व्यक्ति की यही निशानी हैं। जो भी आनन्द आप ध्यान-धारणा में प्राप्त आप अपने पद को ग्रहण कर लें। आप सब समझ लें कि आप संत हैं और आपने महान कार्य करना है। आप सबने अपने लिए निर्णय लेना है। मुझे विश्वास है कि इस बार मेरे यहाँ आने से आपको यह समझने में सहायता मिलेगी कि सर्वत्र इस प्रकाश को फैलाने के लिए क्या करना सर्वोतम होगा। करते हैं वह बांटा जाना चाहिए। जो गहनता आपने प्राप्त की होती है उसका प्रकाश चहूं ओर फैलने लगता है। जितने अधिक गहन आप होते हैं उतना ही अधिक प्रकाश फैलाते हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। दिवाली पूजा पुणे शुरु हुआ तब से हम लोग हृदय की दिवाली मना रहे हैं। हृदय हमारा दीप है, हृदय में बाती है जो शांत है और उसमें प्रेम का तेल डालकर हम लोग दीप जलाते हैं। इस तेल को डालने से हो है दिवाली के इस शुभ अवसर पर हम लोग यहाँ इस पुण्य-पटनम में एकत्र हुए हैं। न जाने कितने वर्षो से अपने देश में दिवाली का त्योहार मनाया जाता है लेकिन जब से सहजयोग शुरु हुआ है दिवाली की जो दीपावली है वह शुरु गयी। दिवाली में जो दीप जलाये जाते हैं वो थोड़ी देर में बुझ जाते हैं। फिर अगले साल दूसरे दीप खरीदकर उस में तेल डालकर उसमें बत्ती लगाकर दीपावली मनायी जाती है। इस प्रकार हर साल नये नये दीप लाये जाते हैं। दीप की विशेषता ये होती थी कि, पहले उसे पानी में डालकर पूरी तरह से भिगो दिया जाता था, फिर सुखा लिया जाता था जिससे दीपक तेल न पी सके और काफी देर तक जले। लेकिन जब से सहजयोग पहले इस हृदय में जो कुछ भी खराबी है उसे हम पूरी तरह से धो करके सुसज्जित करें। ये प्रेम जब हृदय में स्थित हो जाता है तब उसे हृदय पूरी तरह से ज्ोषण नहीं करता है। जैसे पहले कोई आप को प्रेम देता है-मां देती है प्रेम, बाप देता है प्रेम और भी लोग प्रेम देते हैं। उस प्रेम को आप अपने अंदर शोषित करते हैं। जो प्यार आपको पति से मिला पत्नी से मिला वो प्यार आप के रोम रोम में छा जाता हैं। पर वो अपने तक ही सीमित रहता है उसका प्रकाश औरों को नहीं मिलता। एक माँ अपने बच्चे से चेतन्य लहरी 14 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-15.txt जाती हैं। आप की आँख से ये दीप चमकने हैं। सहजयोगी की आँखें, आप अगर कभी देखें, तो हीरे जैसी चमकती हैं। ऐसे हीरे कोई माँ अपने बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्यार करती है तो में अपनी ही ज्योति होती हैं। इसी प्रकार एक सहजयोगी के अंदर एक दीपशिखा होती हैं। जो झिलमिल-झिलमिल चमकती हैं। ये सब कायापलट हो गया। एक पत्थर के हृदय में एक ऐसा प्यार करती है तो वो प्यार उस माँ-बच्चे तक ही सीमित रहता है। कभी कभी उसके विपरीत भी परिणाम निकल आते हैं । बच्चा कभी-कभी बुरा बर्ताव करता है। उसके व्यवहार में शुष्कता आ सकती है। धृष्टता आ सकती है, वो माँ को तंग कर सकता है उसका अपमान कर सकता है, या कोई बच्चा अपनी माँ के प्रति बहुत ज्यादा जागरुक हो। हो सकता है बहुत ही अविनाशी, अक्षय दीप जल गया। हृदय जो कि, छोटी उसकी माँ उस पर हावी हो जाये उसके सर पे सवार हो जाय। इसी प्रकार एक पति-पत्नी में भी जो प्रेम होता है वो अगर सन्तुलन से हट जाये, लेन-देन में फर्क पड़ जाये तो उसके कि किसी भी सुव या दुख के थपेड़े से नहीं डरता और न ही अनेक विपरीत परिणाम होते हुए देखे गंये हैं। लेकिन सहजयोग किसी लाभ या हानि की ओर देखता है। उसका कार्य है का जो स्निग्धमय प्रेम है वो हृदय के जो इस दीप में भर दिया जाता है जो कि अपने तक सीमित नहीं रह जाता है और उस में जब आत्मा की ज्योति भर दी जाती हैं तो वो सारे संसार को उसी विशेष रूप का मेरे हृदय में दीप जला है। इससे मैं अनेक आलोकित करने का माध्यम बन जाता हैं। उसमें ये शक्ति आ जाती है कि, वो सारे संसार को आलोकित करता है। सारे संसार उजाले में वो अपने भी दोष देख ले तो वो उन्हें त्याग देता हैं। में प्रकाश फैलाता है। सारे संसार का अज्ञान हटाता है। सारे संसार में आनंद फैलाता है। यही जो एक मिट्टी का दीप हर साल तोड़ दिया जाता था एक समर्थ ऐसा विशेष दीप बन जाता है कि, कभी भी नहीं बुझता। इस दीप से अनेक दीप जलते हैं और वो जो जलाये जाते हैं वे भी कभी नहीं बुझते । ये कौन सी अनूठा सा दीप जल गया। एक मिट्टी के दीप की जगह एक छोटी बात में रो पड़ता था, जो छोटी छोटी सी हानि से ही ग्लानि से भर जाता था वो आज एक बलवान दीपक बन गया है जो अंधकार को दूर करना। और बड़ी हिम्मत के साथ वो इस बात को जानता है कि वो एक विशेष दीप है, एक विशेष रूप में। का व लोगों का दीप जलाऊँगा उसे पूर्ण विश्वास हैं। उस दीप के उसे एकदम छोड़ देता हैं। धीरे-धीरे उसका भी. जीवन अत्यंत प्रकाशमय हो जाता है। और हृदय में बसा हुआ प्रकाश सारे अंग-अंग से, उसकी आँखों से उसके से टपकता हैं। उसका सारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है और उस प्रकाश से | क मुख वह आडोलित हो जाता हैं। उसकी तरंगों में बैठकर के आनंदित होता हैं। अपने ही मन में बो सोचता है कि मैं कितना सुंदर हो हैं धातु का बनाया हुआ दीप है? ऐसी तो कोई धातु है नहीं संसार में जो जलती रहे, दूसरों को भी आलोकित करती रहे और उस पर कभी भी न नष्ट हो यही नहीं, संसार में अमर हो कर तारागण बनकर चमकती रहे। ऐसे अनेक दीप अकेले अकेले मनुष्य में आता है जब वो अपने से संतुष्ट नहीं होता। अगर हम संसार में आये, जैसे आपने देखा बड़े-बड़े सन्त-साधु हो गये। इस महाराष्ट्र की भूमि में भी अनेक संत-साधु हो गये अकेले अकेले कहीं बैठे हुए धीमे-धीमे जलते रहे, तथा आज भी गया हूँ। कितनी सुंदरता मेरे अंदर से बह निकली है। पहली मर्तबा एक मानव अपने से पूर्णतया संतुप्ट होता हैं। असंतोष तब कहें कि आज हमारे पास एक चीज नहीं है इसलिए हम असतुष्ट है, तो यह बात नहीं, कल दूसरी चीज आ जाएगी उससे आप असंतुष्ट हो जाएगे, आप असंतुष्ट ही रहेंगे। जब आप अपने में संतुष्ट होंगे तो संतोष आप को बाहर खोजना न थे दीपावली नहीं थी। अकेले दीप थे, कभी कभी एक-दूसरे से पड़ेगा। वो कभी आप को बाहर मिल भी नहीं सकता। संतोष आप को अपने अंदर, अपने ही आत्मा से प्राप्त हो सकता है। ये प्रकाश, आज हम लोग देख रहे हैं, कितना बढ़ गया है। रही हूँ, वही सुंदर दीप हैं जो कि आलोकित हो गये और विशेषकर महाराष्ट्र में इसका प्रचार कितना अधिक हो गया है । और पुणे इस महाराष्ट्र का हृदय है। ये महाराष्ट्र के हृदय में आप लाग जो आये हैं आज जाते वक्त अपने साथ बहुत सारा तारागण बनकर संसार में छाये हुए हैं। लेकिन वो अकेले दीप मिल लेते थे। लेकिन आज हमारी दीपावली है। आप सब वहीं लोग हैं जिनकी मैं व्याव्या कर रही हैूँ। जिनका मैं वर्णन कर आलोकित होने के बाद दूसरे अनेक दीप जला रहे हैं । एक दीप से हजारों दीप जला रहे हैं। यही एक तरीका है जिससे संसार का अंधकार, अज्ञान नष्ट होगा। लेकिन इसके अंदर एक बात याद रखनी है कि, हम जिस तेल से जल रहे है, जिस प्यार लेकर जाइएगा। ये प्यार आप को वो प्रकाश देगा चिरंतन तक, अनंत तक आपके अंदर सुंदरता की लहरें उत्पन्न करता स्निग्धता से जल रहे है वो प्रेम वो निर्वाज्य प्रेम, वो निरपेक्ष प्रेम रहेगा और आप का मार्गदर्शन करता हुआ आप को एक ऐसे किसी से चिपकता नहीं हैं। उसकी कोई अभिलाषा नहीं है, वो आदर्शों तक पहुँचाएगा जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इसको आप सोच भी नहीं सकते कि आप ये सब कर सकते हैं। आपने बहुत बड़े-बड़े महान् लोगों के बारे में सुना कोई बदला नहीं चाहता। वो अविरल उस दीप को जलाए रखता हैं। अत्यंत सुंदरता से ऐसे दीप की कांति आप के मुख पर छा चैतन्य लहरी 15 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-16.txt होगा, इन सबसे कहीं अधिक आप लोग कार्य कर सकते हैं । इनसे कहीं अधिक आप आसानी से ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर पहुँच समाज के प्रति आएंगी। इतनी उदात्त भावनाएँ, इतनी महान भावनाएँ कि जिनसे संसार का हम पूरी तरह से उद्धार कर सकते हैं। सकते हैं। फर्क इतना ही है कि उनकी महत्त्वाकांक्षा जो थी उससे लड़ते-लड़ते जुझते-जूझते वो लोग तंग आ गये थे लेकिन आप अपना रास्ता इतना सुगम, सुरक्षित और आलोकित पाइएगा कि, उसमें किसी भी प्रकार की आप को अड़चन नहीं होगी। सिर्फ याद रखने की बात ये है कि, ये प्रेम का दिया है। ये दीप प्रेम से जल सकता हैं और किसी चीज से नहीं। जो भी आप कार्य करते हैं वो आप प्रेम से करें। जब आप किसी को शिक्षा देते हैं, जब आप किसी को सहजयोग के बारे में समझाते हैं तब ये सोच लेना चाहिए कि क्या मैं इनसे इसलिए समझा रहा हूँ कि, मुझे इनसे प्रेम है, इनके प्रति प्रेम है और क्या मैं चाहता हूँ कि, जो कुछ मैंने पाया है वो ये भी पा लें। मैं इस विचार से इनको समझा रहा हूँ मैं देखती हूँ कि, सहजयोग में बहुत लोग आ गये हैं। बहुत ज्यादा लोग भी आएंगे और आना चाहिए। लेकिन हर आदमी को एक विशेष रूप धारण कर के एक विशेष समझ रख कर आना है। ये नहीं कि, सब लोग बैठे हैं तो हम भी चले गये सहजयोग में। आप एक विशेष हैं, और आप जो सहजयोग में आये हैं तो आप का अवश्य इस में कोई न कोई विशेष काम होगा। अभी देखिए एक छोटी सी चीज खराब होने से ये यंत्र नहीं चल रहा। इस का हर -एक छोटा-छोटा पुर्जा भी कितना महत्वपूर्ण हैं । इसी प्रकार हर इन्सान, जो भी सहजयोग में आता है स्त्री हो या पुरुष हो, अत्यत महत्वपूर्ण है और हर एक को चाहिए कि, हम अपनी तबीयत ऐसी रखें, जिससे हमारा जो यह यन्त्र हे जो या मैं इसलिए समझा रहा हूँ कि, मैं काफी अच्छे से बातचीत कर सकता हूँ और मैं इन सबके बुद्धि पर छा सकता हूँ। सो इस प्रकार की बात सोचकर कोई अगर सहजयोग फैलाएगा तो नहीं फैला सकता। धीरे-धीरे आराम से जैसे कि, चन्द्रमा की चाँदनी धीरे-धीरे फैलती है और उस में सभी चीज स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है, उसी फ्रकार आपका बर्ताव दूसरों के प्रति होना चाहिए। उस में किसी भी परमात्मा ने यत्र बनाया है वो ठीक से चले। हमें जीवन की ओर ध्यान देना चाहिए कि, अपने जीवन में जो गलतियाँ हमने की हैं और हमनें जो पडरिपु इकट्ठे किये हैं वो हमें एक- एक कर के छोड़ देना चाहिए। यह बहुत ही आसान हे क्योंकि, अब आप अपने अंदर बसे साँप को देख सकते हैं। जब तक प्रकाश हुए बवव नहीं था आपने हाथ में सांप पकड़ा हुआ था, जैसा ही प्रकाश आ साँप छुट जाएगा। आप जैसे ही अपने को देखना शुरू करेंगे, इसी सुंदर प्रकाश में आप वो भी देख सकते हैं जो आप की सुंदरता है और वो भी देख सकते है जो आप की जाएगा तरह का आक्रमण किसी भी तरह की दीनता दिखाने की जरूरत नहीं हैं। हां एक बात है, इस दीप को संजोना चाहिए, सम्भालना चाहिए। इस की ओर ऐसी नज़र होनी चाहिए कि, एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज को हम ने पाया है। ये अभी अगर बाल्य स्वरूप में है तो इसे हमें धीरे धीरे आगे बढ़ाना होगा उस के प्रति बड़ा कुरुपता है। उस कुरुपता को एकदम से ही छोड़ देना चाहिए। 'आज छोड़ेंगे, कल छोड़ेंगे फिर कोशिश करेंगे, ऐसे आधे- अधूरे लोगों से ये काम नहीं होने वाला मराठी में कहते है ना, उसे चाहिए जाति का और जात कौन सी? तो सहजयोगी की अपनी ही आदर और एक तरह का सम्मान होना चाहिए। आज हम सहजयोगी हैं। गर हम सहजयोगी हैं तो हमारे अंदर विशेष गुण होने चाहिए इसलिए नहीं कि, हम गलत काम करेंगे तो उससे हमें दुर्घटना उठानी पड़ेगी या हमें कोई नुकसान हो जाएगा, या परमात्मा हमें कोई दण्ड देगा। इस भय हैं। आनंद से व फ्रेम से सहजयोग करना हैं। एक मर्जे की चीज है, हमें माँ ने पानी में तैरना सिखाया है और हम बहुत से पानी मे तैर सकते हैं डूबेंगे नहीं। कोई भी भय आशंका मन में न हुए हम को इस प्रेम को जानना चाहिए। जानना चाहिए एक जाति है। अपनी जाति एक है। ऐसे कहते है "या देवी सर्व भतेन जाति रूपेण संस्थिता" सभी में अनेक जाति है। देवी ने अनेक जाति बनायी हैं। एक ऐसी जाति है जो लोग परमात्मा से सहजयोग नहीं करना को पूछते भी नहीं हैं। वह एक जाति है, जाने दो, दूसरी एक जाति है, जो हमेशा परमात्मा के विरोध में होती है वह एक जाति है जाने दो। तीसरी एक जाति है जिनको बाकी के धंधे हैं और परमात्मा नहीं चाहिए वो एक जाति है जाने बहुत दो। ऐसे भी लोग है जो परमात्मा के नाम पर केवल कर्मकांड १हा रखते कि ये जो हमारा एक मुट्ठी भर का हृदय है इस में ये सागर कहाँ से आ गया। अजीब सी चीज हैं। देखा जाता है कि, इस छोटे से हृदय में पूरा सागर कहाँ से समाता चला जा रहा हैं। करते बैठे है, अनेक जन्म में किये हैं और अब भी कर रहे हैं वह छूट नहीं रहा हैं। कितना बताया तब भी छुटकारा नहीं है, जाने दो वे भी एक हैं। उन सबसे परे ऐसे भी लोग हैं जो सचमुच परमात्मा को खोज रहे हैं। उनकी बुद्धि उस मामले में बिल्कुल शुद्ध और जितना जितना इस के सूक्ष्म में आप उतरेंगे तो देखेंगे कि इस छोटे से हृदय में इतनी सुंदर भावनाएँ, दूसरों के प्रति, हैं। उन्हें स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि परमात्मा चैतन्य लहरी 16 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-17.txt को प्राप्त करना माने क्या ये लोग अपनी जाति के हैं, अपनी करते हैं। तो जो सीधे-सादे दिखनेवाले लोग है उनकी ओर जाति में आ सकते हैं। हर एक व्यक्ति से सहजयोग वर्णित दृष्टि करनी होगी। जिस देश में ये ऐसे लोग कार्यान्वित होते हैं उन देशों में गरीबी आती है। क्योंकि ये सब भूतनियों और प्रेतविद्या के काम करते है। बैठते हैं परमेशवर के मंदिर में, उन्हें मिलने के बाद सभी तरह के लोगों से जा भिड़ते हैं। कुछ अमीर कुछ भगवान का डर नहीं होता। भगवान के मंदिर में बैठकर लोग होते हैं, "श्री माता जी वे बड़े अमीर हैं आपसे मिलने की प्रेतविद्या करते हैं। कलकत्ता में जब मैं गयी तो ऐसे लगा यहाँ अब सहजयोग होगा कि नहीं ? जो मनुष्य आया उसे कुछ न जी से मिलने दो। फिर उन्हें क्या चाहिए? नहीं, केवल आप से कुछ बाधा, गरीबी तो इतनी है वहां कि, मानो कोई एक उजड़ा हुआ गाँव है और ऐसे अनेक गाँव मिलकर एक बड़ा प्रदेश बनाया जाये। ऐसी कलकत्ता की स्थिति है। तो मैंने पूछा तुम लोगों का हैं पर उस लायक नहीं हैं। पैसा आने से (लियाकत) नहीं ऐसा क्या है! तुम लोग कहीं गये थे क्या? तो कहने लगे हाँ, हम लोग सब दीक्षित है वहां दीक्षित नहीं कहते हैं दिखित कहते है। सब लोग दि.खित यहाँ से वहाँ, सारे के सारे दि. स्वित सी औरत आ गयी तो श्री माताजी खुद उठकर आयीं मिलने ये इसलिए दि.खित के साथ ये दुःखी लोग दुःखी होंगे ही। पर उन्हें बताना मुश्किल काम है। ये लोग सारे ऐरे गैरे हैं। केवल पैसे लेते तो भी कुछ नहीं पर उसके के साथ ही वे जो तरह तरह दिमाग है वैसे ही हम चलेंगे ना वैसा ही सहजयोगी का भी के काम करते है, वो अत्यंत जालिम होते है। किसी भी परमेश्वरी स्थान पर जाओ इस तरह का झमेला है, हर एक आप जेरूसलेम जाओ या मक्का जाओ या महालक्ष्मी के मंदिर परमात्मा के चरणों में जाने के लिए तत्पर है, लीन हैं ऐसे ही जाओ हर एक जगह इस तरह के काम हम करते हैं। इसलिए अलक्ष्मी आती है। लक्ष्मी का ये है कि इधर से बाधा आयी और उधर से वह चली जाती है। दूसरी चीज ये है कि बुरी आदतें बुरी आदतों वाले घर में भी लक्ष्मी कभी टिकती नहीं है। कहते हैं यहां से बोतल आयी कि वहाँ से लक्ष्मी चली जाएगी। केवल बोतल का ही नहीं काफी तरह की आदतें हम में होती है। अब सहजयोग से काफी आदतें चली जाती है। यह बात यच है। थोड़ी सी मेहनत अगर की तो सारी आदतें छूटती हैं। नहीं कर सकते सहजयोग को समझने के लिए भी एक विशेष पद्धति के लोग चाहिएं। मैं ऐसा देखती हूँ सहजयोगी सहजयोग प इच्छा करते हैं तो आगे क्या? वे कहते हैं हमें एक बार माता मिलना है" मैं कहती हूँ, जाने दो उनको थोड़ा और कमाने दो। लोग समझते नहीं हैं। ऐसे कैसे माताजी कहती हैं इतने अभीर आती। दूसरे आ गये बहुत बड़े पॉलीटीशियन हैं, आप मिलिए। हमने कहा-दूर से ही नमस्कार। मुझे समय नहीं हैं। पर सादी ऐसा कैसा। जो आप को सीधा-सादा और साधारण दिखता है वह हमें असाधारण दिखता हैं। उसे हम क्या करे? जैसा हमारा दिमाग होना चाहिए। बेकार के लोगों के पास अपना समय खोना नहीं चाहिए। जो लोग परमात्मा को खोज रहे हैं और जो लोग लोगों के पास जाना चाहिए। अब ये दीप आप ने जलाया है और इतने दिये जलाए हैं, पर किसी शराबी आदमी को दिया दिखाया या किसी भूतग्रस्त मनुष्य को दिया दिखाया तो बह आपको ही खाने को दौडेगा। ऐसे इन्सान को दिया दिखाने की क्या जरूरत है? दुनियां में ऐसे बहुत से लोग है जो जानते हैं कि, वे अंधकार में हैं और उनको परमात्मा से मिलना है। ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो परमात्मा को भौतिक लाभ के लिए मिलना चाहते है। कहना यह है कि, भौतिक लाभ होता हैं, उस में कोई भी সाक नहीं है। आज ये हम ने यहाँ लक्ष्मी पूजन जो रखा है उसका यही कारण है। पूजा की जो अलक्ष्मी है उस का सामना करना होगा। उसके बगैर पूजा जैसी इस पुण्य भूमि की अलक्ष्मी केवल बुरी आदतों से लक्ष्मी का ही नहीं जीवन में यश भी नहीं रहता है। आपका जो यश हैं वो भी नहीं रहेगा। लक्ष्मी जाते ही राजलक्ष्मी गयी गृहलक्ष्मी गयी। किसी भी मोह में मनुष्य फँस गया तो लक्ष्मी घर से निकल जाएगी, वह घर में नहीं रहेगी। आप कितनी भी दिवाली मनाओ या दीये जलाओ वह नहीं हटेगी। उसका मुख्य कारण क्या हो सकता है? पूजा पे अलक्ष्मी होने का मुख्य कारण यह है मारुती और गणेश जी के मंदिरों से उल्टे-सीधे लोग जाकर बैठे है। उन सब को पहले वहां से उठाना होगा। ये लोग जो बीच में बैठकर पेसे खाते हैं और अंदर नहीं आएगी। आप को नहीं दिखता घर में क्या है पर उसे सब दिखता है, वह बाहर की बाहर ही रहेगी। आप कितनी भी लक्ष्मी की आरती करिए, शकून गाइए, कोई फायदा नहीं उल्टे कहने वालों की जेबे गरम होंगी। ये करो वो करो। तो सबसे पूहले अपने में ऐसे जो कुछ विचार हैं जिससे हम ऐसे लोगों के लोगों को तिलक लगाते है वो तिलक लगाने पहले बंद तुम करने चाहिए। बड़ा कठिन काम दिख रहा है पर सहजयोग में इन लोगों के लिए अनेक इलाज हैं, वे इलाज हमें करने चाहिए। ये लोग यहाँ बैठकर सब के आज्ञा चक्र खराब करते हैं। उस पास जाते हैं या जो गलत रास्ते पर जाने वाले जो विचार हैं, ऐसे विचारों को त्यागना चाहिए। अब आप कहोगे तुकारामजी के पास कुछ लक्ष्मी नहीं थी वे अमीर नहीं थे ऐसे कैसे आप आज्ञा चक्र पे प्रहार करके जो मनुष्य जागृत होगा उसे भी नष्ट चैतन्य लहरी 17 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-18.txt गृहलक्ष्मी का स्थान है। हम ये कह सकते है कि, तुकाराम की जो पत्नी थी बड़ी जटिल स्त्री थी। जरा नम्र होती और अगर नगवान को मानती तो उन के घर लक्ष्मी आ सकती थी। तो घर में गृहलक्ष्मी कैसी है उससे लक्ष्मी आती है। उसे गर बाधा है और पति उसकी बाधा का शिकार होता है तो घर में कभी भी कहोगे? अब ऊपर से देखा जाये तो तुकाराम अमीर नहीं थे यही दिखेगा। सब को लगेगा उनके पास जेवरात वगैरा नहीं थे, लक्ष्मी कहां थी। पर वे कितने अमीर थे? इसे देखना है तो उनके चरित्र की ओर देखिए। जब शिवाजी महाराज संत जेवरात लेकर उनके दरवाजे पर गये तो उन्होंने शिवराय को बताया "हम तो किसान हैं हमें ये क्या करना है ? ये आप ही के पास रहने दीजिए। आप राजा हैं आप ही इसे इस्तेमाल करिए। मतलब कितने अमीर होंगे वे अपने यहाँ कोई अमीर होगा तो देखिए उसको अगर कोई जेवर देने जाओ तो उसे मोह *होगा कि नहीं। ऐसा कौन अमीर होगा कि जिसे मोह नहीं आएगा? एक हमारी बात छोड़िए। मतलब जिसे (लालच) आएगा जो ऐसी बातों कि तरफ ध्यान देता है मुझे मिलना चाहिए, वह एकदम भिखारी हो गया। होगा अमीर पर ऐसे अमीर लोग अधिकतर भिस्वारी होते हैं एक आध आने की चीज रह गयी तो भाग कर आयेंगे, अरे वो चीज रह गयी। तो अमीर है कि, भिखारी है। ये कौन तय करेगा? तो जो लोग हृदय से अमीर हैं वही असली अमीर हैं। सहजयोग में जिन लोगों के घर जाओं तो वहाँ घर में जो भी थोड़ा बहुत है बस वही है, पर थोड़ी भाकरी है लीजिए। कितनी रईसी है उसमें, जो था सब कुछ लाकर दे दिया। वही सच्ची अमीरी दिखवाई देती है। वही किसी अमीर के यहा जाओ "आप चाय पिएगे क्या" नहीं पी रह तो लक्ष्मी नहीं रह सकती। वह बाधित है पर पति कहता है तुम्हारी ये बाधा खत्म होनी चाहिए। पति दारू पीता है तब भी ये औरत पतिव्रता बनकर दारू चाहिए ना मेरे जेवर ले लो, मेरा मंगल सूत्र भी ले लो मैं ब्रहुत बड़ी पतिव्रता हूँ ऐसे कहकर उसे और भी नर्क में धकेल रही है तो ऐसे लोगों के घर में कभी भी लक्ष्मी नहीं रहेगी। गृहलक्ष्मी एक तेजस्वी स्त्री होनी चाहिए। उसे देखकर पुरुष को पता चले कि, कुछ तो घर में है। ऐसा वैसा कुछ किया हुआ घर में नहीं चलने वाला। पहले पुरुष लोग औरतों को मालिक मानते थे एक दबदबा रहता था घर में वह किसलिए? चिडचिड़ाहट से नहीं पर उसकी तेजस्विता से, उसकी उदारता गाम्भीर्य, दानशूरता उसकी निष्ठा सेवा और उसको प्रेम से। इन सभी बातों से उस स्त्री को एक तरह की तेजास्विता और चारित्र्य आता है। वह सब छुटकर आजकल की गृहलक्ष्मी को क्या नाम? माने आजकल की गृहलक्ष्मी की तुलना किस से करे यही मेरे समझ में नहीं आता। क्योंकि, उनके दिमाग में क्या है यही मेरी समझ में नहीं आता। पती की, बच्चों की और सास-ससुर की सब की सेवा करनी चाहिए यह ठीक है पर इसका ये मतलब नहीं कि, उनकी गलत बातें व मुर्खो जैसी बातों को मान्यता देना या उन्हें खुश रखने के लिए किसी भी रास्ते से जाना या कैसी भी बातें करना फिर क्या हुआ? पती हैं माताजी, ऐसा तो फिर आप और आप का पती. मैं कहती नहीं हूँ अब पर आप समझ गये होंगे। कोई बात नहीं रख देते हैं। वे कहा के अमीर है? शबरी ने जो बेर श्री राम को खिलाये! श्रीराम को क्या खाने को नहीं था कि उस बेर की इतनी महत्ता श्री राम ने गायी। उसी से सिद्ध होता है कि शबरी कितनी अमीर थी। अतिथ्य के लिए आयी तो उस के आतिथ्य का मान रखकर उस के झूठे बेर उन्होंने खाये। ये ऐसी अमीरी अगर आयी तो सचमुच वह लक्ष्मी जी की अमीरी है। पैसा रहे या न रहें मनुष्य अमीर हो सकता है। वह अपनी बादशाही में रह सकता है पर चलो सहजयोग में हम आप को शबरी की स्थिति में नहीं रखेंगे। सहजयोग में लक्ष्मी तो जरूर मिलेगी ही। मतलब "लक्ष्मी" ही (पैसा) वह सब को मिलेगी ही उस में कोई शक नहीं है। उस के लिए नहीं कि, आप भिखारी हों, पर दुनिया को नज़र आना चाहिए ना। दुनिया को गर दिखेगा कि, आप सहजयोग में आकर गरीब हो गये तो कोई भी सहजयोग में नहीं आएगा उनको लालच (प्रलोभन) देने के लिए आप को लक्ष्मी देनी ही पड़ेगी। उसके बगैर इन अंधों को दिखेगा नहीं इसलिए लक्ष्मी देनी ही पड़ेगी। और नाभी चक्र खुलते ही आप को लक्ष्मी मिल सकती है। इस गृहलक्ष्मी की स्थिति किसी कमल की भाँति होनी चाहिए। कमल ही गृहलक्ष्मी का स्थान हैं। हमेशा पानी के ऊपर, सुंगधित, अत्यंत नाजुक और लक्ष्मी को पूरी तरह से आधार (Suppori)। ऐसी कमल की भाति होनी चाहिए। वह राज्यलक्ष्मी होनी चाहिए। मतलब हर दरवाजे जाकर भीरव माँगना, आज जरा मुझे आप की साड़ी दीजिए पहनने को, आप कहाँ जा रही हैं? नहीं जरा मुझे आज लोगों में दिखाना हैं या किसी भी तरह का झूठा घमंड या किसी भी तरह की लुकाछिपी। उस का एक रुतबा, उस की एक शान यह जब स्त्री में होती है तब उस में राज्यलक्ष्मी विराजमान होती है सचमुच लक्ष्मीपूजन माने स्त्रियों पर ही लेकचर देना पड रहा हैं। पर ऐसी बात नहीं। स्त्री माने गजलक्ष्मी, गजलक्ष्मी माने अपने यहा जो गणपति है वह अत्यंत निष्पाप, वैसे निष्पाप होना चाहिए। उसे अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि नाभी चक्र पर लक्ष्मी को जो स्थान हे उस में पहला चैतन्य लहरी 18 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-19.txt हो गयीं| कहीं भी खड़े रहिए आप का चित्त हमेशा ऊपर उठेगा जैसे ज्योति हमेशा ऊपर उठेगी वैसे ही आप का चित्त हमेशा परमात्मा की तरफ ही रहेगा। ऐसी स्थिति आने पर लक्ष्मी आप के घर आएगी। अनेक प्रकार से। नरसी भगत की हुंडी तारी ये आप को पता होगा। कृष्ण ने सोने की द्वारका बनायी, ये भी आप को पता होगा। द्रौपदी की लज्जा का रक्षण किया ये भी होकर भी हाथी नहीं समझता कि अच्छा क्या और बुरा क्या। चलते समय भी भाग भागकर नहीं चलेगा। काफी औरतों को मैं देखती हूँ वे औरतों जैसी चलती ही नहीं है घोड़ों की तरह चलती हैं। इतनी भागा दौड़ी की बस! मुझे किसी ने पूछा "छोटे बच्चों को ब्लड कैंसर कैसे होता है" मैंने कहा, उनकी माँ को जाकर देखो वह भाग दौड़ करने वाली होंगी भाग-दौड करनेवाली औरतों के पास गजलक्ष्मी हो नहीं सकती। पर इसका मतलब ये नहीं कि कुछ से व मालूम है आप को। इन सभी चमत्कारपूर्ण बातों से आप परिपूर्ण रहिए। हर-रोज आपके सामने अनेक चमत्कार होते हैं वे सब लक्ष्मी जी की ही है। आशीर्वाद माने लक्ष्मी की कृपा है हमने एक साड़ी खरीदी दूसरा एक दुकानदार कहने लगा इसकी कीमत कम से कम दस पन्द्रह हजार होनी चाहिए। हमने कहा नहीं भई हमें तो ये तीन हजार में ही मिली। दूसरा ये लक्ष्मी की भी नहीं करना। जो भी करना हैं वह सबूरी और सुन्दरता करना है। इतना बड़ा हाथी है, जब उसे लक्ष्मी को हार पहनाना है तब सूंड में इतनी अच्छी से लेकर गले में ठीक से पहनाता है और जरा भी कहीं पर भी स्पर्श नहीं होने देता। यह जो सबूरी है सुघड़ गृहिणी कहते हैं। यह सब होना चाहिए। कृपा कृपा है। एक व्यक्ति आकर बताता है मेरे पास पैसे नहीं थे और मैंने गणपति पुले जाने का विचार किया। अब कैसे जाएं पैसे तो हैं नहीं। तो अचानक चिट्ठी आ गयी कि, आप के कुछ पैसे बचे थे तो वे हम भेज रहे हैं । ये सब तो चलो पैसों के बारे में ये सब हो गया पर पुरुषों को औरतों की इज्जत नहीं होगी और इन सब बातां की इज्जत नहीं होगी और गन्दी औरतों के पीछे वे भागते हैं और गलत औरतों को वे महत्व देते हैं या जबरदस्त औरतों से डरते हैं, ऐसे पुरुषों के घर लक्ष्मी नहीं रह सकती। जो अपनी पत्नी को जो सुपत्नी है उसे परेशान करते हैं उनके घर लक्ष्मी नहीं रह सकती। पुरुषों को लगता है जो कुछ इज्जत वगैरा है वह केवल पत्नी को ही संभालनी है। वह कैसे भी रहें वह धार्मिक ही होता है। दसरों की तरफ बरी दष्टि डालना अधार्मिक है ऐसा उसे महसूस ही नहीं होता। मतलब जागृति से पहले तक, सहजयोग के बाद आप की आँख ऐसे है। हो गया पर वैसे अनेक हैं आप की तबीयत खराब हो गयी। आप ने कहा "श्री माताजी मेरी तबीयत ठीक नहीं है" बस ठीक हो गये ऐसे कैसे हुआ? ये सब लक्ष्मी की कृपा है। डाक्टर कहते हैं हम विश्वास ही नहीं करते। ये सब लक्ष्मी की कृपा है। योगक्षेमं व्हाम्यम" उस में जो क्षेम का भाग है वह सब लक्ष्मी की कृपा है। केवल आर्थिक ही नहीं यह तो सब तरह का क्षेम होती है कि, ये सब आप के दिमाग में ही नहीं आता। ऐसे मोह के विचार ही नहीं आते। फिर ये सभी लक्ष्मियाँ आप में जागृत चैतन्य लहरी 19 1996_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_VI.pdf-page-20.txt सहजयोग में आकर कुछ लोग अन्य लोगों पर प्रभुत्व जमाने का या सहजयोग में धनार्जन करने का प्रयत्न करते हैं। उनका चित्त पैसे पर ही रहता है। सहजयोग में व्यापार या धनार्जन करना मूर्खतापूर्ण है। परन्तु जब आप ऐसा करना ही चाहते हैं तो मैं कहती हैँ "ठीक है. कुछ समय ऐसा करने का प्रयत्न करके देख लो।" आपको पता चल जाएगा कि सहजयोग व्यापार नहीं है.. समर्पित करें, इसके बिना आप कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। अपने हृदय सहजयोग को सत्ता के विषय में भी ऐसा ही है। कुछ लोग समझते हैं कि वे सहजयोगियों को प्रभावित कर सकते हैं, वश में कर सकते हैं तथा उन पर रौब जमा सकते हैं । ऐसे लोगों को परमचैतन्य सहजयोग से बाहर फैंक देता है। आपको प्रेम की शक्ति का आनन्द लेना चाहिए ताकि लोग आपके अपने रक्षक, सहायक और मित्र के रूप में देख सकें, रौब जमाने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं। आपको पिता सम होना है, लोगों को डराने-धमकाने वाला नहीं। आसुरी प्रवृत्ति के व्यक्तियों को सहजयोग स्वीकार नहीं करता। ऐसे लोगों के साथ कभी सहानुभूति न रखें। उनसे रहें क्योंकि सहजयोग उन्हें तो बाहर फैंक ही देता है कहीं आप पर भी उनका दुष्प्रभाव न पड़ जाएँ। दूर परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी सिडनी पूजा-14.31983