70 चैतन्य लहरी मई-जून, 2005 न 1 जनवरी 2005 को मुम्बई युवा शक्त की एक योगिनी द्वारा खींचे फोटो में श्री माता जी की दाई विशुद्धि पर सूर्य । वाशी चिकित्सा केन्द्र, मुम्बई के एक सामूहिक कार्यक्रम में खींची गई फोटो में कुण्डलिनियाँ ला मूलाधार से विशुद्धि तक कुण्डलिनी का आरोहण 25-12-2004, ईसामसीह पूजा, पुणे में पूजा स्यान से प्रस्थान करने के बाद भी फोटो में श्री माता जी सिंहासन पर विराजमान हैं । ७) C० ु परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी NIRMALA. UNIVERSAL PURE BELIGION इस अंक में परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र (लंदन 11 जुलाई 1980) 3. जन्मदिवस समारोह मुम्बई 21.3.1977 4. महालक्ष्मी पूजा कोल्हापुर 1.1.1983 20. एक अनुभव श्रद्धा भक्ति एवं समर्पण 22. 23. आत्म-साक्षात्कार का अथ सहजयोग 24. मनुष्यत्व का चरमोत्कर्ष 28 . पातांजलि की सूक्तियाँ एवं सहजयोग 33 प्रेम एवं विवाह 35. सहजयोगियों की दिनचर्या 36. जीवन की वास्तविकता 38. परम पूज्य श्री माता जी का प्रवचन 17.4.1981 DHARMA VMHSIA 9. चै त नय ल ह री प्रकाशक निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टेकनोलोजीजज़़ प्रा. लि. मुख्य कार्यालय इन्फेासिज़ हाउस, प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पॉड रोड कोठरुड़ पुणे 411 029 मुद्रक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिजाइनर्ज त्रीनगर, दिल्ली-110035 मोबाइल : 9868545679 आप अपने सुझाव एवं सदस्यता के लिए निम्न पते पर लिखें : श्री जी.एल. अग्रवाल निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टेकनोलोजीज़ प्रा. लि. 222, देशबन्धु अपार्टमैंट, कालकाजी, नई दिल्ली-110 C19 फोन : 26216654, 26422054 आप अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463). ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली-110034 परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र (मराठी से अनुवादित) लन्दन, ।। जुलाई ।980 ब्राम ाम आत्मतत्व पर भरोसा करने की योग्यता होनी चाहिए। अन्य लोगों को भी इसमें स्थान दें परन्तु सबसे पहले इस अवस्था में स्थापित हो जाएं। बहुत से सहजयोगियों ने बहुत से रोग ठीक किए हैं। उनके मन में मेरे लिए तथा अन्य लोगों के लिए अग्राध प्रेम है। अपनी पूर्व संपदा के कारण ये लोग कुशल हो गए है और वे यह कार्य कर सके। परन्तु हमारे अन्दर कुछ बुद्धिवादी लोग भी हैं जो अपने ज्ञान और बुद्धि के कारण सहजयोग की गहनता नहीं प्राप्त कर सके हैं। सहजयोग में पुस्तकों की कमी है। हमें हर भाषा में पुस्तकें लिखनी होंगी भिन्न शहरों में जाकर सहजयोगियों को भाषण भी देने चाहिएं। बहुत से लोग मुझे अपनी कविताएं भेजते हैं। हमें चाहिए कि इनका संग्रह करें । इसी प्रकार से मेरे पत्रों को भी छापा 1 बुस ॐ सर्व सहजयोगी गण, गुरु पूर्णिमा की संध्या पर आपका केबल प्राप्त हुआ। अत्यन्त सुन्दर शब्दों में जो भावनाएं आपने व्यक्त की हैं वो मेरे हृदय में उतर गई है। लन्दन में गुरु पूर्णिमा दिवस समारोह के अवसर जा सकता है। इस तरह का विज्ञापन आवश्यक है। पूरे विश्व को इस बात का ज्ञान होना आवश्यक पर मैने आत्म--साक्षात्कार की व्याख्या की और बताया कि आपने इसे प्राप्त किया है या नहीं। है कि कलयुग में विश्व की रक्षा करने के लिए सहजयोग ही एकमात्र उपाय है में एक पुस्तक लिख रही हूं परन्तु अभी यह सबके लिए उपयोगी नहीं है। सभी लोगों को चाहिए कि मेरे परामर्श की ओर ध्यान दें। सभी ध्यान केन्द्रों को भी इसी के अनुसार समझाया जाना चाहिए। डाक द्वारा भेजने के स्थान पर मैं इस प्रवचन का टेप किसी व्यक्ति के हाथ आपको भेजूंगी। अपने पिछले पत्रों में मैंने आपको 'आत्मतत्व' पर सोचने का परामर्श दिया था । आप क्योंकि आत्मा-स्वरूप हैं अत: आपके मन, बुद्धि और अहकार आत्म ज्योति द्वारा ज्योतित होने चाहिएं। बुद्धि में विवेक का प्रकाश केवल तभी चमकता है जब इसे आत्म ज्योति पूर्णतः ज्योतिर्भय कर दे । तब मन प्रेम-सुगन्ध प्रसारित करता हैं और अह महान एवं श्रेष्ठ कार्य, तथा व्यक्ति का अन्तर्अस्तित्व पूरी तरह से ज्योतिर्मय हो उठता है। आपमें माँ की ओर से सभी सहजयोगियों को अनन्त आशीर्वाद । हमेशा आपको याद रखते हुए आपकी माँ निर्मला दिवस समारोह जन्म (मुभ्वई 21.3.1977 ) परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सहजयोग को समझने के लिए श्रद्धावान हृदय का होना आवश्यक है) ुा र े यहाँ पर आए सभी सहजयोगियों तथा मेरा ये सांसारिक जन्मदिवस मनाने के लिए यहाँ स्वभाव है। इसे इस प्रकार होना ही हैं इसमें मैं कुछ नहीं कर सकती। ये तो एक घटना है जिसे पर आए अन्य सभी लोगों की मैं अत्यन्त आभारी, घटित होना ही है इसे आप कुछ और नहीं बना अत्यन्त धन्यवादी हूं। आनन्द एवं प्रसन्नता से मैं सकते ये स्वतः कार्य करती है और किए चले ओत-प्रोत हूँ और ये देखकर कि इस कलियुग में जाती है स्वयं को आप सबसे प्रेम करने से रोकना भी लोग उस माँ के प्रति इतने अनुगृहीत हैं, जो मेरे बस की बात नहीं। मेरी समझ में नहीं आता किस प्रकार लोग घृणा करना सीख लेते हैं! मेरे पास तो लोगों को प्रेम करने के लिए ही पर्याप्त समय नहीं है! चौबीस घण्टे भी मुझे बहुत कम आप हैरान होंगे कि मैं कुछ न दे सकती हूँ न ले समय लगता है। मैं नहीं जानती कि लोग किस प्रकार बैंठकर षड़यंत्र रचते हैं और आँखें बन्द केवल अमूर्त चैतन्य-लहरियाँ ही पदान करती हैं, चैतन्य-लहरियों मेरी आँखों से अश्रुधारा के रूप में बह रही हैं। वास्तव में मैं आपको कुछ नहीं देती। सकती हूँ। ये तो मुझसे प्रवाहित होती हैं । ये मेरा अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 5 करने के तरीके सोचते हैं। घृणा में करके घृणा कोई शक्ति नहीं है, ये तो आपके लिए तथा अन्य जागृति के कार्य को बहुत आगे बढ़ाया है। किस प्रकार आप उनकी आलोचना कर सकते हैं? उनके लोगों के लिए भी विनाशकारी है । विरुद्ध कहा गया एक भी शब्द मैं सहन नहीं कर सकती। मैं जानती हूँ कि उन्हें कितना सताया इस अवस्था में मैं आप सबसे अनुरोध गया और आज उनके विरुद्ध बोलने वाले लोग इस करूगी कि हर समय प्रेम के विषय में सोचें। आप देश पर शासन कर रहे हैं। आप तो उनके चरणों सभी लोगों को चाहिए कि सबको खुले हृदय से स्वीकार करें। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं चाहती हूँ कि आप लोग खुश रहें। आपकी खुशी के लिए मैं प्रार्थना करती हैँ। मैं आपके लिए जीवित हॅँ। चाहे पर पहुँचने के योग्य भी नहीं। तो क्यों आपको इतनी बड़ी-बड़ी बातें करनी चाहिए? समझें- कि आपने जीवन में क्या किया है? आपने ऐसा क्या किया है कि आप इन महान अवतरणों की आलोचना मे जागृत अवस्था में हूँ या मध्य अवस्था में, जब भी आप मुझे पुकारते हैं तो मैं आपके साथ हूँ। हर क्षण आप मेरे विचारों में होते हैं। आज मैं आप सबके मैं कर रहे हैं? झटके से कार रुकी क्योंकि कार के हुए थे और सामने सड़क पर बहुत से लोग लेटे लोग सड़क पर खड़े होकर कार को रोक रहे थे। वो मेरे नाम के जयघोष करने लगे, मैं आश्चर्य कुछ लिए अत्यन्त मंगलमय नववर्ष की कामना करती हूँ क्योंकि आज नवरोह का दिन है और नवरोह ने चकित थी। पृथ्वी पर जब अपना कार्य शुरु किया था तो वह मैंने पूछा, कि आप लोगों को कैसे पता एक महान सहजयोगी था। वह श्री दत्तात्रेय का चला कि मैं इस कार में हूँ? उन्होंने कहा, "आपने हमें चैतन्य लहरियाँ दी हैं। हमें पता चल गया कि अवतरण था शास्त्रों में आपको मोहम्मद साहब के बारे में भी बताया गया है। मुझे आपसे बताना है यही कार हमें चैतन्य लहरियाँ दे रही है।" अब कि वे मेरे पिता थे और साक्षात दत्तात्रिय के अवतार आपको यहाँ उतरना पड़ेगा। मैं वहाँ उतरी और उन सबको गले लगाया और हमारे सहजयोगी जो दुूसरी ओर खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे, मैंने कहा कोई 1 थे वो कोई सामान्य व्यक्ति न थे। जीवन पर्यन्त लोग उन्हें सताते रहे। हर क्षण उन्हें सताया गया। हजरत अली भी महान अवतरण हैं। वे दोनों एक बात नहीं, यही सहज' है, अर्थात् लोगों से प्रेम करना। उस समय मुझे ऐसा ही महसूस हुआ जैसे हैं। श्री ब्रह्मदेव ने केवल एक बार अवतार लिया और वह था हजरत अली के रूप में। अतः ये लोग एक बार श्रीराम को हुआ था। उन लोगों से आपको किस प्रकार ये चीजें महसूस होती हैं? इतने महान है कि आप इनकी आलोचना नहीं कर सकते। ये इतने महान हैं। उनका कहा हुआ हर अत्यन्त साधारण लोग श्रद्धा से परिपूर्ण, सहज शब्द मंत्र है। नमाज के विषय में उन्होंने जितना हृदय वाले, उनमें आपका प्रेम पाने और महसूस कुछ बताया है वह कुण्डलिनी जागृति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। मोहम्मद साहब ने सहजयोग के लिए महानतम कार्य किया है और कुण्डलिनी करने की कितनी भावना थी! प्रेम की आवश्यकता सभी को है। प्रेम के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। आपका पूर्ण अस्तित्व ही प्रेम पर टिका मि S ०S अक : 5 & 6-2005 चैतन्य लहरी अन्दर से फूट पड़ रहा है। इस प्यार को प्रसारित करने तथा इसे देने के विवेक का आनन्द भी लें। हुआ है। मैं चाहती हूैँ कि इस देश के आप सभी लोग यह समझे कि -जब तक आपके हृदय में प्रेम न हो, बाहर कुछ भी करने का प्रयत्न न करें क्योंकि बिना प्रेम के यदि आप कुछ करने का प्रयत्न करेंगे तो आपकी तुरन्त पोल खुल जाएगी। हर मनुष्य समझता है कि प्रेम क्या है आपके साथ बहुत सी चीजें घटित हो रही हैं। आपमें दिव्य परिवर्तन हो रहे हैं । मैं जानती हूँ ऐसा देने में महानतम आनन्द और प्रसन्नता है। लैने में कोई आनन्द नहीं है। राहुरी में इन्होंने जो कार्य किया है उसके विषय में आपने सुना है। जब मैं राहुरी विश्वविद्यालय जा रही थी तो आसपास के लोगों को पता चला कि हमारी कार इस रास्ते से गुजरेगी। वै सर्वसाधारण ग्रामीण लोग हैं। उन्होंने किसी योग के विषय में नहीं पढ़ा। चैतन्य लहरियों हो रहा है। साक्षात श्रीचक्र पृथ्वी पर उतर आया है का ये जो अनुभव आपको होता है उससे अधिक चैतन्य- लहरियों के विषय में वो कुछ नहीं समझते और सत्य युग का आरम्भ हो चुका है। यही कारण कि आप लोग इन चैतन्य लहरियों को अपनी अंगुलियों पर खोज रहे हैं और ये गुरु और ॠषि यह आत्मगत ज्ञान है। इसका कोई कार्य नहीं है। ये आत्मानुभूति है जिसे आप अपनी अंगुलियों पर महसूस करते हैं। लोगों ने इनका वर्णन किया था उन्होंने नहीं जिन खोजा, क्योंकि श्रीचक्र के आने के बाद ही यह अगने अस्तित्व पर महसूस करते हैं, परमात्मा की इस कृपा को। मैं जब वहाँ से जा कार्य सम्भव था। यहाँ पर इन्हें महसूस करना है रही थी तो ख्वाज़ा निजामुद्दीन माहिब भी महान औलिया थे इस बारे में कोई सन्देह नहीं है। परन्तु खिलजी जैसे भयानक राजा ने उन्हें सताने प्रेम ही ज्ञान है और ज्ञान ही प्रेम और समझना है। है। इससे आगे कुछ भी नहीं। आपके पास यदि ज्ञान है तो इसे प्रेम की परीक्षा पास करनी होगी। आप यदि किसी को जानते हैं तो इस पर आपको का प्रयत्न किया। उसका कत्ल हो गया और मृत लोगों में उसकी गिनतीं होने लगी। ख्वाजा कोई असर नहीं होता क्योंकि आप उसे बाह्य रूप से जानते हैं परन्तु यदि आप किसी को प्रेम करते निज़ामुददीन साहिब की दरगाह पर जाकर आप हैं केवल तभी उसे अच्छी तरह से समझते हैं। बहुत चैतन्य लहरियाँ देखें । आप चिश्ती और उनके मकबरे को देखें। अजमेर शरीफ में भी आपको है। यही वह ज्ञान है जिसे हम पराज्ञान कहते हैं। ऐसा ही देखने को मिलेगा पटना जाकर पटना हमें यही ज्ञान खोजना है सारे ग्रन्थ इसकी ओर साहिब देखें, वहाँ पर आपके महावीर साहब हैं, वहाँ हैं इन सभी लोगों ने भी उसी अच्छी तरह से आप उसे जानते हैं कि वह कैसा चैतन्य-लहसियाँ भी इशारा करते हैं। ये ग्रन्थ मील के पत्थर है जो हमें बताते हैं, "बढ़े चलो, बढ़े चलो। परमात्मा के सत्य के विषय में बत्ताया जो मैं आपको बता रही हूँं, परन्तु आज आप उन्हें समझ सकते हैं। आप जान जाएंगे कि वो कौन हैं। साम्राज्य में प्रवेश करने की समस्या का समाधान ये नहीं करते। मेरा आप सबसे अनुरोध है कि आप अपने अन्तर्निहित परमात्मा, परमात्मा के प्रेम को समझने की अवस्था प्राप्त करें। यह प्रेम आपके कृपया विनम्न बनने का प्रयत्न करें। चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 7. सर्वप्रथम अपने अंदर इस शाश्वत सत्य को पा मैं जो कुछ भी कह रही हूँ वह पूर्णतः सत्य है। लें। अपना शरीर यंत्र परमात्मा को समझने का हज़रत अली साहब का नाम लिए बिना आपके दिव्य उपकरण बनने दें। इधर-उधर से पढ़ी हुई स्वाधिष्ठान चक्र ठीक नहीं हो सकते। सभी चीज़ों के बहकावे में न आएं। संकीर्ण विचारों तथा अन्य लोगों का मज़ाक बनाने वाले मूर्खतापूर्ण पूजा में हमें मोहम्मद साहब और हजरत अली अहम् से संचालित न हों। हे मानव! सूझ-बूझ सहजयोगी इस बात को जानते हैं। सहजयोग साहब का नाम बार-बार लेना पड़ता है। हमं भगवान ईसा-मसीह (Jesus) का नाम भी लेना पड़ता है। भगवत् गीता में श्री कृष्ण ने उन्हें संसार प्राप्ति के इस महान अवसर के लिए स्वयं को जगाओ। ये प्रगल्भ शक्ति आपसे प्रसारित होने का आश्रय कहा है, वे महाविष्णु थे। आप स्वयं इसे पढ़ सकते हैं। और पढ़कर आप हैरान होंगे कि महाविष्णु के वर्णन बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे ईसा-मसीह के अत: मेरा आपसे अनुरोध है कि का प्रयत्न कर रही है। हमें इस विश्व को परिवर्तित करके सुन्दर बनाना है क्योंकि सृजनकर्ता अपनी सृष्टि को कभी भी नष्ट नहीं होने देगा । परन्तु आप यदि सत्य को स्वीकार नहीं कर लेते तो आप स्वयं नष्ट हो जाएंगे अतः माँ के रूप संकीर्ण मस्तिष्क न बनें। आपने सत्य को जान में एक बार पुनः मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि दिव्य सत्य को, परमेश्वरी प्रेम को स्वीकार करें और एक हो जाएं। आप सभी सहजयोगियों तथा गहन साधकों के लिए मैं परमात्मा और उनकी प्रेम-चेतना की महानतम उपलब्धि की कामना लिया है अतः उसे समझने का प्रयत्न करें आत्मीय (Subjective) बनें. इसे महससू करें, इसे समझें| सभी पुस्तकें बही बात कहती हैं जो मैं कह रही हूँ। अन्तर सिर्फ इतना है कि मैं इस कार्य को कर सकती हूँ। मैं भी इसे नहीं कर रही। यह तो सिर्फ करती हैँ। यही सत्य है। इसके अतिरिक्त सभी हो रहा है । इसी ज्योति-प्रज्जवलन के लिए मैं अवतरित हुई हूँ। ये घटित होना था और घटित होगा देखते हैं कि इस देश में, इस सुन्दर सब व्यर्थ हो गए हैं। वो नर्क में चले गए हैं, नष्ट योगभूमि में कितने लोग इसे स्वीकार करते हैं ! कुछ व्यर्थ है। जिन लोगों ने जीवन में अन्य प्रकार की सात्विक या तामसिक चीजों की खोज की वे हो गए हैं आप वह सब नहीं करना चाहते आप परमात्मा आप सबको बारम्बार आशीर्वादित करें, ये मेरा आशीर्वाद है। मच्चीस तारीख को मैं लन्दन साधारण सामान्य लोग हैं और इसीलिए आप सर्वोत्तम है क्योंकि आप सभी प्रकार की अति से जा रही हैूँ और मुझे आशा है पिछले दो दिनों में आपमें से जितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त बचे हुए हैं। आपका हृदय अत्यन्त सहज है। आप हुआ है वे भारतीय विद्याभवन में हमारे कार्यक्रम में आएंगे। मंगलवार के दिन हमारा ध्यान केन्द्र होता अत्यन्त धार्मिक और पावन वैवाहिक जीवनयापन कर रहे हैं ये स्थान केवल उन लोगों के लिए है जो भगवान बुद्ध के मध्ये मार्ग में हैं सहजयोग है। आर्य समाज रोड पर भी हमारा एक बहुत जीवन के सभी सत्यों का एकीकरण है। मैं इस अच्छा केन्द्र है। मुझे आशा है कि आप लोग बात को कुण्डलिनी पर प्रमाणितं कर सकती हूँ कि सहजयोग में गहन दिलचस्पी लेंगे, इसकी सारी টি अंक : 5 & 6 - 2005 ৪ चैतन्य लहरी धन्यवाद करती हूं। ये तो ऐसा है कि मेरे प्रेम का सागर जब आपके हृदयों के तट को छूता है और विधियों को सीखेंगे और कुण्डलिनी-कुशल बन जाएंगे। हमारे अन्दर बहुत से ऐसे लोग हैं जो इसके विषय में जानते हैं, आप उनसे बात कर सकते हैं । कार्यक्रमों में भी आप मेरे प्रवचन सुन सकते हैं जिनसे आप चीजों को समझेगे परन्तु तट से प्रतिक्रिया स्वरूप यह प्रेम लहर वापिस आती है यह परवलयिक (Parabolic) आंदोलन है। मेरा प्रेम आपमें से गुजर कर जब वापिस मेरे पास आता है तो मैं इसका आनन्द लेती हैँ। यह समझना कानों के माध्यम से नहीं, हृदय के इतना सुन्दर अनुभव है! कहने से मेरा अभिप्राय ये हैं कि यह एक भिन्न अनुभव है जिसे न तो घड़ा जा सकता है और न ही बोतलों में बन्द किया जा माध्यम से समझना है चैतन्य लहरियों के अनुभव के माध्यम से समझना है, केवल तभी आप कुण्डलिनी-कुशल बन सकते हैं। कल भी मैने आपसे अनुरोध किया था और आज भी पुनः मैं सकता है। बारम्बार आप सबका धन्यवाद। मैं सभी ट्रस्टीगणों का बारम्बार धन्यवाद करती हूँ और आप सब का भी। अपने पूर्ण वैभव, करुणा और आपसे अनुरोध करती हूँ कि सहजयोग को समझने के लिए आपको बहुत अधिक बुद्धि की आवश्यकता 1 अच्छाई के साथ परम मा का आशीर्वाद आपको सदैव प्राप्त हो और परम चैतन्य आपके अन्तर्निहित नहीं है। आवश्यकता है एक हृदय की। एक श्रद्धावान हृदय की। यह हृदय यदि आपमें है तो पूर्ण गरिमा की वर्षा आप पः सदेव करता रहे। यह कार्यान्वित होगी। समय आ गया है जब बहुत से पुष्प फल बन जाएंगे। समय उपयुक्त है। मेरे प्रति इतना प्रेम दर्शाने के लिए मैं बारम्चार आपका अनुवादित) श्री महालक्ष्मी पूजा कोल्हापुर 1.1.1983) नमस्ते गरुडारूढ़े कोल्हासुर भयंकरी सर्वपाप हरे देवी, महालक्ष्मी नमोऽस्तुते।। गरूड पर सवार कोल्हासुर मर्दनी, सर्वपाप निवारिणी हे देवी महालक्ष्मी आपको कोटिशत प्रणाम यह ऊपर की ओर जाता है। तीन सौ पैंसठ दिन गुजरने के कारण ऐसा नहीं होता, इसलिए 817 होता है क्योंकि सूर्य एक कदम और उत्थान की ओर चला गया है। हमने देखा है कि चेतना में मानव निश्चित रूप से पहले से, दो ॐ ा हजार वर्ष पूर्व की अपेक्षा, कहीं उन्नत हुआ है ब्रह्माण्ड का सृजन करने वाली प्रणाली ही पहला नमूना थी जिसका सृजन किया गया और नमूना तो पूर्ण होना चाहिए। तो नमूना पूर्ण था और इसने बाकी चीजों को भी पूर्णत! 43C9 शी की ओर ले जाना शुरु किया। अतः उत्थान के सिद्धांत में भी यही आदर्श नमूना है जो उत्क्रान्ति को कार्यान्वित कर रहा है। बाकी के ब्रह्माण्ड की पूर्णता भिन्न दिशाओं में घटित होती है । परन्तु आज हमने महालक्ष्मी के सिद्धांत एक बार पुनः आज नववर्ष दिवस है। को समझा है। महालक्ष्मी. जैसा मैंने आपको नववर्ष दिवस आते ही रहते हैं क्योंकि हमने बताया आदर्श सिद्धांत है। यह पूर्ण सिद्धांत है कुछ न कुछ नया प्राप्त करना होता है। इतनी अच्छी व्यवस्था की गई है कि सूर्य को तीन सौ पूर्ण। इसका जन्म ही पूर्ण हुआ है यह पूर्ण रहेगा, हमेशा-हमेशा के लिए, ताकि इसको सधारने की आवश्यकता न पड़े। आज में बार फिर नववर्ष आ गया है। वास्तव में पूरा महालक्ष्मी के बारे में इसलिए बातचीत पैंसठ दिन विचरण करना होता है और एक सौर-मण्डल कुण्डल की तरह से चलता है। कर रही हूँ क्योंकि संभवतः आज आप अतः निश्चित रूप से सौर-मण्डल की एक महालक्ष्मी के मंदिर को देख सकें गे । उच्च अवस्था हैं । हर वर्ष कुण्डल की तरह से ह अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 10 महालक्ष्मी के मन्दिर में जब आप जाएंगे वहाँ लक्ष्य से सृजित किए गए विशेष स्थानों का हमें अधिकतम लाभ उठाना चाहिए तो एक आपको समझना होगा कि इस देची का जन्म इस स्थान पर विशेष रूप से पृथ्वी माँ के गर्भ प्रकार से हमारा यहाँ पर होना सौभाग्य का है इसका अर्थ ये हुआ कि इस स्थान विषय है हमें अपने उत्थान के लिए महालक्ष्मी से हुआ में आपको शक्ति प्रदान करने की योग्यता है. एक अतिरिक्त शक्ति या उत्क्रान्ति का एक तत्व की देखभाल करनी है। जैसा आप जानते हैं, उत्क्रान्ति का आरम्भ नाभि से होता है जो गेहन एहसास। आप यदि पर्याप्त रूप से गुरुतत्व से घिरी हुई है। संवेदनशील हैं तो आप इसे देख सकते हैं. महसूस कर सकते हैं, और इस कार्य को कर सकते हैं। यदि आप अभी तक पर्याप्त संवेदनशील हमारे अन्तःस्थित गुरुतत्व यदि अस्थिर है. यह इस प्रकार से स्थापित है जहाँ ये ठीक नहीं हैं, बन्धनों में फँसे हुए हैं और अभी भी प्रकार से नाड़ी तंत्र को प्रभावित नहीं करता, यदि यह हमारे चरित्र और आचरण से प्रसारित अपने बाहर स्थित हैं तो ये कार्यान्वित न हो सकैगा। कहने का अभिप्राय ये है कि सभी नहीं हो रहा, तो हमारा महालक्ष्मी तत्व स्थापित कुछ किया जा सकता है परन्तु यदि कोई नहीं हो सकता। गुरु तत्व के माध्यम से पत्थर ही बना रहना चाहे तो आप उसके लिए महालक्ष्मी तत्व को शक्ति मिलती है। आज नहीं कर सकते। हमारा सौभाग्य है कि उस दिन श्री दत्तात्रेय के कुछ जन्म दिवस पर हमने उनकी पूजा की और अतः, इस स्थान कोल्हापुर में महालक्ष्मी तत्व कार्यरत है अपनी स्थिति के कारण प्रायः आज महालक्ष्मी पूजा है। तो हमें एक साथ दो अवसर प्राप्त हुए। पहली दत्त पूजा थी और दूसरी महालक्ष्मी पूजा। ये स्थान बहुत गर्म होना चाहिए। परन्तु मन्दिर से प्रसारित होने वाली चैतन्य लहरियों के गुरु तत्व को ठीक करने के लिए कारण गर्मियों में भी यह स्थान ठण्डा बना आवश्यक है कि हम अपने धर्म को ठीक करें। रहता है. हो सकता है कि यहाँ के स्थानीय जैसा मैंने कई बार बताया है कि धर्म दस हैं लोगों को भी इस बात का ज्ञान ने। हम और इन दस धर्मों की हमने सावधानी पूर्वक देखभाल करनी है। इसकी अभिव्यक्तित बाहर या नहीं। क्योंकि नकारात्मकता आगे बढ़ रही की ओर होती है परन्तु जो अन्दर होगा वही नहीं कह सकते कि उन्हें इस बात का ज्ञान है है, बहुत सी चीनी मिलें यहाँ पर हैं और तो बाहर आएगा। जब आप लोग बातें करते शराबबाजी भी बहुत हो रही है। परन्तु विशेष कहते हैं तो मैं एकदम से जान जाती हैं, कुछ चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 -2005 11 ये दुर्गुण देखने लगे तो हमें ये बान समझ हूँ कि नकारात्मक कौन है और सकारात्मक कौन है । सकारात्मकता की अभिव्यक्ति करने लेनी चाहिए कि हम सहजयोगी नहीं हैं। अपने अन्दर झाँककर हमें अन्य लोगों के प्रति शुद्ध से तरीके हैं। परन्तु मैं ये कैसे जान के बहुत जाती हूँ, ये बात मैं आपसे नहीं बता सकती प्रेम प्रताहित करना चाहिए। परन्तु हमेशा लोग क्योंकि मैं ये जानती ही नहीं कि इसे किस यही देखते हैं कि ये सारे दुर्गुण दूसरे व्यक्ति में हैं। मैं चाहे जो कहती रहूँ वे हमेशा दूसरे लोगों में ही त्रुराइयाँ देखते रहते है । प्रकार बताया जाए। फिर भी मैं ये बात जान जाती हैँं कि फलां आदमी नकारात्मक है और फलों सकारात्मक। मान लो हमारे अन्दर कोई दुष्प्रवृत्ति सकारात्मकता ये बात समझने में निहित व्यक्ति है। आपको उसके प्रति करुणामय ने है कि हम यहाँ किस लक्ष्य के लिए हैं। सर्वप्रथम की कोई जरूरत नहीं । इसके विपरीत, बेहतर लो हम इस पृथ्वी पर अवतरित क्यों हुए? हम मानव क्यों हैं? अपनी सूझ-बूझ में हम इन उससे मुक्ति पा लें, उससे कोई सम्बन्ध न प्रश्नों के विषय में क्या कर रहे हैं? हम रहें। जहाँ तल्त हो सके होगा कि उससे दूर रखें। निश्चित रूप से यह आपका अपने प्रति 1 सहजयोगी क्यों हैं? सहजयोगी को क्या करना महान करुणा का चिन्ह है, चाहे दूसरों के प्रति न हो। आपको यदि आगे बढ़ना है तो है? सहजयोगी के रूप में उसकी क्या जिम्मेदारी तब उसे ये समझने का प्रयत्न करना नकारात्मक प्रवृत्ति लोगों के साथ सम्बन्ध न चाहिए कि माँ (श्रीमाताजी) मेरे प्रति इतनी रखें, चाहे वह आपका भाई, बहन या कोई दयालु क्यों हैं? मुझे चैतन्य-लहरियाँ क्यों भिलीं? निकट सम्बन्धी ही क्यों न हो। जो भी व्यक्ति ह विशेष कृपा, चैतन्य लहरियों का विशेष सकारात्मक नहीं है उससे रहने का प्रयत्न दूर ज्ञान प्राप्त करने वाले थोड़े से लोगों में से एक मैं भी क्यों हैँ? और फिर स्वयं से प्रश्न करना करें। इससे बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। मैं आपसे ये बात बताती रही हूँ और है कि मैं इस दिशा में क्या कर रहा हूँ? क्या आपसे अनुरोध करती रही हैँ परन्तु आपके अब भी मैं अपनी उच्छुंखलताओं, बचकानियों, बंधन ऐसे हैं कि यद्यपि आप गुरु बन गए हैं मूर्खताओं, कटुताओं और आक्रामकरताओं में फिर भी अभी तक आप ये नहीं समझते कि फॅसा हुआ हूँ? ये सभी दुर्गुण हम सदैव अन्य लोगों में देखते हैं अपने में नहीं। अतः हम भाई बहन या सम्बन्धी कोई नहीं आपको निर्लिप्त होना है। क्योंकि गुरु के लिए है। माँ के सहजयोगी नहीं हैं। जब भी हम अन्य लोगों में सम्वन्ध के अतिरिक्त उसका कोई सम्बन्ध এ 12 अक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी नहीं। आप सब लोगों के लिए महत्वपूर्ण और अच्छी तरह से समझ लेने वाला एक सिद्धांत तत्व अन्ततोगत्वा मस्तिष्क में कार्य करता है। स्पष्ट किया जाना आवश्यक है क्योंकि महालक्ष्मी ये है कि "हमारा सम्बन्ध केवल श्रीमाताजी यही मस्तिष्क का प्रकाशमान होना है। ये कार्य और सहजयोगियों से है. किसी अन्य सम्बन्धी महालक्ष्मी तत्व करता है । यह आपको सत्य (सद) प्रदान करता है। अत: मस्तिष्क में आप स्पष्ट रहें तर्क-संगत होकर हमें इस परिणाम नहीं चाहे वो किसी सहजयोगी के माध्यम से आए हो या किसी अन्य माध्यम से। इस पर पहुँचना है कि हमें कौन से कार्य नहीं करने और कौन से कार्य करने हैं। मुझे उत्क्रान्ति बात का वर्णन मैं हमेशा करती रही हूँ क्योंकि हमारे महालक्ष्मी तत्व ठीक नहीं हैं। यही कारण प्राप्त करनी है इसी कारण से मैं यहाँ हूँ। है कि हम भटक जाते हैं, इन्हीं चीजों में खा जाते हैं । मुझसे क्या करने की आशा की जाती है? तो सर्वप्रथम तार्किकता से आप अपने मस्तिष्क महालक्ष्मी तत्व, कुल मिलाकर, आरोही को कायल करें। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ऐसा करना आवश्यक है क्योंकि तर्कसंगति से शक्ति (Ascending Force) की तरह से होना जैसे मेरे पिताजी एक उदाहरण दिया यदि आपका मस्तिष्क नहीं समझता तो यह करते थे कि मान लो आपन बहुत सारी गेहूँ हमेशा तुच्छ, बचकाना, गरिमाविहीन, कठोर या भयंकर कष्टकर बना रहेगा या इनमें से एकत्र की है और उसे जमीन पर डाल दिया है किसी एक प्रकार का। तो ये सारी बरबाद हो जाएगी। इधर-उधर बिखर कर ये सारी नष्ट हो जाएगी। परन्तु गुरु तत्व में दस मूल-तत्व हैं। इनमें यदि आप इसे बोरे में डालेंगे तो स्वाभाविक से पाँच का सरोकार वजन से है गुरु, किसी रूप से इसकी ऊँचाई बढ़ेगी. उसमें मर्यादाएं आएंगी और यह ऊपर को उठती चली जाएगी। भी व्यक्ति का वजन, वजन है वजन। आपमें कितना वजन है? इसे हम गुरुत्व कहते हैं। इसी प्रकार से महालक्ष्मी तत्व भी बिखर सकता है और श्रीमाताजी का दिया हुआ सभी कुछ व्यक्ति में गुरुत्व होता है। जब वह बात करता है तो उसमें कितना संतुलन है? भारतीय संगीत में हम इसे वज़न कहते हैं। व्यक्ति के तथा इन वर्षों में जो भी कुछ हमने प्राप्त किया है, वह सब इसके बिखर जाने पर नष्ट हो वजन का अर्थ ये है कि जब वह किसी अन्य सकता है! इसे अपने अन्दर एकत्र करने के लिए स्वयं पर चित्त देना होगा सर्वप्रथम तो से या अपने से व्यवहार करता है जो उसमें गस्तिष्क में अपने विचारों और सूझ-बूझ को कितना बजन होता है? अंग्रेजी में भी वज़न अंक : 5 & 6 - 2005 13 चैतन्य लहरी से, आँखों आदि से, विशुद्धि चक्र के माध्यम से का उपयोग होता है । दूसरों की दृष्टि में दिखाई पड़ता है। व्यक्ति की नाभि में जो भी उसका कितना वज़न है अर्थात् वह दूसरों को कितना प्रभावित कर सकता है। आप यदि होगा वह यहीं दिखाई देगा। मान लो किसी बहुत अधिक प्रभावित करते हैं तो वह व्यक्ति कहेगा, ओह! ये तो बहुत ज्यादा हो गया। पश्चिम के लोगों में ये गुण हैं, वो कहेंगे, ओह! व्यक्ति का महालक्ष्मी तत्व भली भांति विकसित तो उसमें किसी अन्य व्यक्ति से व्यवहार करने की समझ होगी, वजन होगा, सूझ-बूझ अधिक हो गया। उन लोगों में ये एक होगी कि उस व्यक्ति के साथ, किस सीमा ये बहुत विचार है जो कि अहं की देन है । ये बहुत तक जाना है? उसके साथ किस प्रकार निभाना अधिक है। उन्हें जरा सा भी ज्यादा बताएं तो है? उसके साथ कहाँ तक बात करनी है? वो ऐसा ही कहेंगे, ओह! ये तो बहुत अधिक उसके विषय में कहाँ तक सोचना है? उसे हैं। मेरे लिए ये बहुत अधिक है। ऐसा कहना आम बात है ये आम प्रतिक्रिया है। तो आपमें कितना वजन है और दूसरा आकर्षण का गुण कितना महत्व दिया जाना है? यह बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है । दूसरी बात ये है कि आपमें कितनी चुम्बकीय शक्ति है। अतः आप स्वयं पर ही है। दो चीजे हैं-वजन और चुम्बकीय शक्ति। पहला गुण वजन है अर्थात आप कितने गरिमामय हैं? आप किस प्रकार बातचीत करते हैं ? आपकी वापस आ जाते हैं । चुम्बकीय शक्ति एक चमत्कार है जो व्यक्ति को चमत्कृत करती भाषा कैसी है? आपका व्यवहार कैसा है? आपको मानवीय होना चाहिए परन्तु मैं देखती हूँ कि कभी कभी तो लोग मुझसे भी बड़े अटपटे ढंग से बात करते हैं । मेरी समझ में नहीं आता कि हमेशा वे गलत बातें कैसे करते है। चमत्कार के कारण ही व्यक्ति चुम्बकीस हाता है। ये चमत्कार आपके अपने व्यक्तित्व से आता है। आपके अपने व्यक्तित्व से। इस चुम्बकीयपन का आधार बाईं ओर से शु होता हैं? एक वाक्य भी यदि उन्होंने बोलना होता है है श्री गणेश ये आधार हैं। श्री गणश ही तो वो गलत बोलते हैं। उनके साथ ऐसा ही चुम्बकीय शक्ति का आधार हैं । अत आपका है। यह विशुद्धि की पकड़ है जो नाभि भी है । ये नाभि से आती है क्योंकि विशुद्धि चक्र नाभि अबोधपन चुम्बकीय शक्ति प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। किसी भीतिक तरीके से शक्ति का बर्णन नहीं किया है चक्र की ही उत्क्रान्ति है। अतः होता क्या चुम्बकीय जा कि वह व्यक्ति जैसा भी हो अपनी भाषा से, है। यह तो सकता। यह भौतिक पदार्थ नहीं निराकार चीज है जो आपके गणेश तत्व से आचरण से, अपनी मुखाकृति से, अपने नाक चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 14 का शुभ कं आती है। गणेश तत्व जिसका अच्छा है वही उपयोग करते हैं - जिस प्रकार से वे चलते व्यक्ति इस शक्ति से सम्पन्न होता है चुम्बकीय हैं, वस्त्र धारण करते हैं और रहते हैं, इन सारी चीजों का कोई उपयोग नहीं है यह शक्ति तो अर्थात ऐसा व्यक्ति अन्य लोगों को अपने वजन से, अपने गुणों से आकर्षित करता है. लेकिन आंतरिक हैं, ये सुगन्ध अत्यन्त आंतरिक है। वासना, लोभ तथा अन्य मूर्खतापूर्ण चीजों के इसे विकसित किया जाना चाहिए। लेकिन लिए आकर्षित नहीं करता। प्रेम की सुगन्ध के सहजयोग में मैंने देखा है कि लोग इसकी कारण लोगों को आकर्षित करता है। इसे चिन्ता नहीं करते। बिल्कुल चिन्ता ही नहीं करते। जिस प्रकार से वे रहते रहे हैं और हमेशा गलत समझा जाता रहा है क्योंकि यह निराकार है। अतः व्यक्ति को चाहिए कि इसे कार्य करते रहे हैं वे उसी प्रकार से सोचते रहे अत्यन्त सूक्ष्म तरीके से समझे कि चुम्बकीय हैं। वे यदि अंग्रेज हैं तो अंग्रेज हैं, फ्रैंच हैं तो शक्ति क्या है कुछ लोग अन्य लोगों का फ्रँंच हैं, भारतीय हैं तो भारतीय हैं, कोल्हापुर आकर्षित करने के लिए चनावटी संकेतों का के हैं तो कोल्हापुर वे हैं। सबसे पहले इन अंक : 5 & 6 - 2005 15 तत्व विकसित होता है। अपने पति-पत्नी, विचारों को रोका जाना चाहिए क्योंकि सुगन्ध बहन, देश आदि के प्रति समर्पित न होकर तो हर जगह फैलती है चाहे आप अंग्रेज हों या अपनी माँ के प्रति पूर्णतः समर्पित होने से, पूर्ण समर्पण से आपको यह आकर्षण, यह करिश्मा कोई और। तो व्यक्ति की सुगन्ध सर्वप्रथम तो अन्दर के गणेश तत्व के कारण विकसित होती प्राप्त होता हैं। सहजयोग में ऐसा व्यक्ति वास्तव है। अतः गणेश तत्व को सबसे पहले देखा में आकर्षक बन जाता है और उसमें ये गुण जाना चाहिए। गणेश तत्व वाला व्यक्ति हर होता है। समय पश्चाताप नहीं करता रहता, इतना भी व्यर्थ व्यक्ति नहीं होता कि चाहे आप उसकी कुछ लोग सोचते हैं कि आप यदि अत्यंत अकर्मण्य हैं और किसी की भी बात का पिटाई करें फिर भी उसे बर्दाश्त करता रहे. ऐसा नहीं होता। इसके विपरीत चुम्बकीय शक्ति बुरा नहीं मानते, यदि ऐसे व्यक्ति हैं तो आप इस प्रकार आकर्षित करती है कि व्यक्ति को योग-सिद्ध हैं । परन्तु ऐसा नहीं है। लोग आपको इसलिए पसन्द करते हैं क्योंकि वे आप पर रौब जमा सकते हैं। इस कारण से बेचैनी नहीं होती। ये बात समझ लेना बहुत आवश्यक है । आप यदि किसी अन्य प्रकार से प्रेम करते हैं, वासनात्मक या कोई अन्य प्रकार तो वह प्रेम व्यक्ति को आकर्षित तो करता है लोग आपको पसंद करते हैं। परन्तु यदि आप परन्तु उसे नष्ट कर देता है। परन्तु गणेश सोचे कि आक्रामक स्वभाव या लोगों पर चीखने तत्व का आकर्षण विनाशकारी नहीं होता । ये चिल्लाने से आप ये चमत्कारिक स्वभाव प्राप्त कर सकते हैं तो भी आप गलत हैं । इस । आकर्षण एक सीमा तक होता है जिसमें व्यक्ति नष्ट नहीं होता आप लोग क्योंकि बहुत उच्च प्रकार आप वह ऊँचाई नहीं प्राप्त कर सकते I तो किस प्रकार इसे प्राप्त किया जा सकता है, गहन है और वजनदार हैं, किसी चीज के है? और अधिक अबोध बनकर। आकर्षण से आप नष्ट नहीं हो सकते। हमेशा बड़ा चुम्बक छोटे चुम्बक को अपनी ओर खींचता है ये बात आपको समझनी चाहिए। ये जादू यह अबोधिता व्यक्ति में किस प्रकार विकसित होती है? इसके बारे में सोचने से और चमत्कार, व्यक्ति का चमत्कारिक स्वभाव यह विकसित नहीं होती। जैसे किसी ने मुझसे गणेश तत्व (अबोधिता) से आता है और दूसरे पूर्ण समर्पण एवं श्रद्धा से आता है। जो लोग पूछा कि आप अपना आयकर कैसे प्रबन्धन माँ के प्रति पूर्णतः समर्पित एवं श्रद्धावान हैं. करती हैं? मैंने उत्तर दिया "मैं कोई कमाई ही किसी अन्य चीज़ के प्रति नहीं उनमें गणेश नहीं करती"। तब उन्होंने मुझसे पूछा कि आप वैतन्य लहरी अंक :5 & 6 - 2005 16 ये क्यों सोचा जाता है कि उन्हें लोमड़ी की अपनी कार को कैसे संभालती हैं? मैंने कहा तरह से चालाक या फ्रायड की तरह से बुद्धिवादी मेरी अपनी कोई कार ही नहीं है फिर उन्होंने होना चाहिए। लोगों में सभी प्रकार की धारणाएं हैं। नहीं, सच्चाई ये नहीं है! आध्यात्मिक व्यक्तित्व केचल अबोध होता है. केवल अबोध। उसमें पूछा, अपनी घर की समस्याओं के बारे में कहा, मेरा कोई घर ही नहीं है। बताए नहीं, नहीं। मेर लिए कुछ भी नहीं। इन सारी समस्याओं का समाधान ये है कि इनकी सिरदर्दी चालाकी आदि नहीं होती। अबोधिता ही सभी कुछ है। व्यक्ति जो भी कुछ बोलता है या ही न पालें। अगर आप यह सिरदर्दी पालेंगे तो अबोधिता घटेगी सिरदर्द इस प्रकार से आते कहता है वह अबोधिता से ही आता है। इसमें पुस्तकों से प्राप्त की गई बौद्धिकता नहीं होती, ऐसा कुछ नहीं होता इसमें तो केवल शुद्ध और सहज अबोधिता होती है जो बहुत अच्छी तरह से कार्य करती है। ये इतनी स्वच्छ है। ये हैं कि ये मेरी शाल है, ये मेरी साड़ी है. ये मेरी चीज है आदि-आदि। होना ये चाहिए कि. ये मेरी माँ हैं और मुझे इनकी उदघोषणा करनी है, बस। अगर यह तरीका अपनाया जाए तो श्री गणेश की तरह से अबोधिता बढ़ने लगती केवल वही कहती है जो यह जानती है और यह उच्चतम है। है, किसी भी प्रकार ले सिरदर्द पालने से नहीं। अतः हमारे अन्दर बन्धन-मुक्ति आनी थ मेरा है वो मेरा' है यह 'मेरा- चाहिए। परन्तु इसके बारे में आपस में भी बाजी' सभी समस्याओं का कारण है। व्यक्तिगत बात-चीत नहीं करनी चाहिए। एक बार जब रूप से मैं सोचती हूँ कि यही कारण हो आप तर्क-वितर्क करने लगते हैं तो यह धर्म सकता है। 'मेरा तेरा पन सहज नहीं है। मेरा विज्ञान पर बहस बन जाती है। इसमें कोई धर्म विज्ञान नहीं है। ये अत्यन्त सहज है। शरीर मेरा सिर, मेरा सभी कुछ। मैं और मेरा अबोध होना सहजतम है। परन्तु अबोधिता समाप्त जब छूट जाते हैं तो बाकी बचती है आत्मा । हो जाती है। क्यों? क्योंकि हमारा चित्त अलग केवल 'मैं' बच जाता है और इसी मैं को हमने ढंग से चलता है हम दूसरी चीजों को देखते देखना है। तो आपको इन्हीं मेरे मेरे मेरे' को कम करते चले जाना है और अबोधिता की हैं आज मैं सोच रही थी मुझे तीन नौ गजी साड़ियाँ खरीदनी हैं क्योंकि तीन महिलाएं ऐसी शुद्ध आत्मा उन्नत होगी बारे में भी लोगों के विचार मेरी समझ में नहीं थीं जो नौ गज़ी साड़ियां पहनती हैं और आते। न जाने आध्यात्मिक लोगों के विषय में आध्यात्मिकता के उन्हें मैंने ये साड़ियाँ देनी थीं मैंने इनके विषय में चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 - 2005 17 केवल सोचा ही था मैं यहाँ आई तो देखा कि अतः 'नेति नेति' कहते हुए इस तत्व बहुत सुन्दर साड़ियाँ यहाँ रखी हुई थीं। मैंने उससे पूछा कि 'आप ये साड़ियाँ कहाँ से सारे दोषों को नेति नेति' कहते रहें । नेति को विकसित करने का प्रयत्न करें। अपने ाड मंगाती हैं?' उसने उत्तर दिया आपको ये यहीं नेति' कहकर आप 'ये मेरा नहीं है, मेरा नहीं है, मेरा नहीं है, मेरा नहीं है पर पहुँच जाते जाकर ये तीन साड़ियाँ खरीद लो। किसी हैं। तो चीजें इस प्रकार से हैं। अबोधिता पर मिल सकती हैं।' मैंने कहा, 'ठीक है। तो तुम प्रकार का कोई विश्लेषण करने की जरूरत पुरा भौतिक विश्व भी आक्रमण नहीं कर सकता, क्योंकि इससे बह घबराता है । अबोंधिता पर नहीं। मेरे दिमाग में आया ही था कि मैंने तीन साडियाँ खरीदनी है और काम हो गया, उत्तर आक्रमण कोई नहीं कर सकता। इसे नष्ट सामने है। तो वातावरण इतना स्वच्छ है। सारी स्थिति इतनी अबोध है कि अबोध लोगों को अबोधिता ही समाधान प्रदान करती है हर नहीं किया जा सकता। इसे नष्ट नहीं किया सकता। अबोधिता सर्वव्यापी है और इसे नष्ट नहीं किया जा सकता चाहे जो मर्जी लोग चीज़ में अबोधिता कार्य करती है। क्योंकि हर करते रहें। परन्तु इसे आच्छादित किया जा इन्सान में थोड़ी बहुत अबोधिता तो होती है। अयोधिता खम्भे की तरह से होती सकता है। पीछे धकेला जा सकता है। परन्तु है आपके नष्ट नहीं किया जा सकता क्योंकि यह तो अन्दर ये पाँचवां खम्भा है। तो कोई व्यक्ति अपने ही तरीके से कार्य करेगी। अतः इस यदि अबोध है तो वो आपके पाँचवें खम्भे अबोधिता को जो कि महालक्ष्मी तत्व का (शक्ति) पर कार्य करेगा और आपको ठीक आधार है विकसित करने का प्रयत् करें। हम कह सकते है कि यह महालक्ष्मी तत्व का सार कर देगा। जब आप दूसरे लोगों को बंधन देते हैं तो क्या होता है? आप उसे अपनी अबोधिता तत्व है। बाह्य चीजे जैसे वजन, गरिमा, आचरण आदि सभी बाहरी हैं। जिस तत्व, जिस सिद्धांत द्वारा बाँध देते हैं और बेचारे को पता भी नहीं पर यह आधारित है वह तो अबोधिता है। चलता। जो अबोधिता उसके अन्दर होती हैं उसे आप पकड़ लेते हैं। आप केवल इतना करते हैं और प्रबन्ध कर लेते हैं। कार्यान्वन अगर ये ऐसा ही है. यदि हम अपने अंतःस्थित महालक्ष्मी तत्व को समझते हैं तो करना बहुत आसान है। केवल सिद्धांत, तत्व, पूरी चीज़ तत्व पर निर्भर होती है और तत्प अबोधिता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह किस प्रकार कार्यान्वित होना चाहिए? यह बुद्धि का विषय नहीं है। मैं पुनः कहूँगी कि इसे पाने के लिए आप इसमें अपनी बुद्धि का चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 18 प्रक्षेपण न करें। आप जहाँ पर हैं वहीं बने रहें के लिए महालक्ष्मी तत्व है परन्तु अन्दर सृजन और स्वतः ही आपको उत्तर मिल जाएगा। बस अपना मस्तिष्क इसमें प्रक्षेपित न करें। आपको है और सभी तत्वों का सृजन होता है. इसके अन्दर इच्छा है और इस इच्छा के अन्दर श्री सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे क्योंकि किसी गणेश हैं। तो ये गणेश तत्व निश्चित रूप से भी व्यक्ति के अन्दर अबोधिता ऐसा सहज सभी चीजों पर हावी हो जाता है और सभी जहाँ सारी जटिलताएं अत्यन्त सुगमता चीजों से प्रसारित होता है। इसीलिए मैं कहती हूँ कि इसके विषय में सोचे नहीं । अपनी अबोधिता को बढ़ने दें, सहज-अबोधिता को उत्तर से चली जाती हैं । परमात्मा का प्रेम भी यही है। यही और अपनी गरिमा को गरिमा का होना भी लोग सोचते हैं कि अर्थ अपने मूर्खतापूर्ण प्रेम से तथा लोगों के लम्बे चोगे पहनकर यदि वे गलियों में घूमेंगे परमात्मा का प्रेम है। अतः इस दिव्य प्रेम का बहुत आवश्यक है। कुछ विषय में अपनी धारणाओं, सामंजस्य, असामंजस्य तो लोग उन्हें सन्यासी समझेंगे, ये बात गलत से न लगाएं । यह हमारे अन्दर का पावन प्रेम है क्यों? क्योंकि परमात्मा ने आपको इतना है, पावनता है। अबोधिता प्रेम है जोकि जीवन कुछ दिया है फिर भी आप गरिमामय नहीं है। । क्यों आप ये दर्शाने का प्रयत्न करें कि आपके है. या हम कह सकते हैं कि यह जीवन का बहुमूल्य हिस्सा है। परन्तु प्राणशक्ति महालक्ष्मी नहीं है। महालक्ष्मी तो सारतत्व है, हर चीज़ कि परमात्मा ने आपको कुछ नहीं दिया। का सार तत्व, क्योंकि यदि सृष्टि का सृजन पास कुछ नहीं है। आप ये दिखावा करते हैं परमात्मा के प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाने के घटित होना है, यदि परमात्मा की इच्छा है लिए आपको चाहिए कि अच्छे से अच्छे वस्त्र पहनें। पूजाओं के अवसर पर यदि यहाँ कि लाभ है? यदि सृजन कर भी दिया गया तो महिलाओं को देखें तो वे आभूषण, नथ आदि पहनकर मन्दिर में आती हैं और पुरुष भी कार्यान्वित करेंगे? आप इसे कार्यान्वित ही नहीं अच्छे और साफ सुथरे वस्त्र पहनकर आते हैं। परन्तु महालक्ष्मी तत्व नहीं है तो इच्छा का क्या बिना महालक्ष्मी तत्व के किस प्रकार आप इसे कर सकते। महालक्ष्मी तत्व का होना बहुत आवश्यक है। इसके बिना सृजन अर्थहीन है । कोई दिखावाबाज़ी नहीं होती, यह तो मात्र इस बात की अभिव्यक्ति होती है कि परमात्मा ने आपको कितना कुछ दिया है। हे परमात्मा! मैं तो. बाह्य रूप से तो महालक्ष्मी तत्व है आपका आभारी हूँ। परन्तु अन्दर इसकी तीन शक्तियाँ हैं। देखने चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 19 आज नववर्ष का महान दिन है और सन्देह नहीं, परन्तु यहाँ पर तो इन सभी देवी- देवताओं के मन्दिर हैं । यहाँ पर नान्त्रिकों आज के दिन महालक्ष्मी के स्थान पर कोल्हापुर ने अबोधिता पर आक्रमण किया है मन्दिरों में होना! ये स्थान कोल्हापुर कहलाता है क्योंकि यहाँ कोल्हासुर का वध हुआ था कोल्हासुर को किराए पर लेकर उन्होंने खुद वहाँ स्थापित लोमड़ी की तरह से चालाक, भयानक राक्षस होने का प्रयत्न भी किया, परन्तु शनैः शनैः उन्हें वहाँ से निकाला जा रहा है । सभी था । उसने पुनः जन्म ले लिया था। परमात्मा देवी- देवताओं के मन्दिर में ये तान्त्रिक पहुँच का शुक्र है कि अब उसकी मृत्यु हो गई है। गए थे परन्तु अब ये निकाल दिए जाएंगे । तो आप इसके विषय में सोचे नहीं, नहीं तो आपका मस्तिष्क भी भ्रमित हो जाएगा। आप सोचिए इस प्रकार से आक्रमण हुआ और तथाकथित नहीं। मैं इसके विषय में आपको बताऊंगी। ब्राह्मण यहाँ पर आकर जम गए, मन्दिरों में कर्मकाण्ड सिखाने लगे और वहाँ के वातावरण जानबूझकर मैंने उसका नाम नहीं बताया, उसका पुनर्जन्म हुआ था और उसे निकाल फेका को भ्रष्ट कर दिया। गया। तो यह वह स्थान है जहाँ कोल्हासुर का वध हुआ। यहाँ पर महालक्ष्मी अवतरित हुई और इसी कारण से इस स्थान का विशेष बनी रहे। मैं चाहती हैँ कि आप सबके अन्दर परमात्मा की कृपा सदैव आप सब पर महत्व है कि हम यहाँ पर तीर्थयात्रा के लिए चित्त की एकाग्रता विकसित हो ताकि आप आए हैं। आइए विनम्रता पूर्वक इसके विषय में सभी भ्रमों से ऊपर उठकर अपने महालक्ष्मी सोचें । पश्चिम में यह सब घटित नहीं हो तत्व के माध्यम से शुद्ध आत्मा' के साथ एकरूप हो सकें। सकता था। क्योंकि स्वयंभु देवता पृथ्वी के गर्भ से निकलकर वहाँ प्रकट भी हो जाते तो भी उन्हें कौन पहचानता, कौन उनका सम्मान परमात्मा आपको धन्य करें। करता और कौन उनकी पूजा करता? इसी (निर्मला योगा से उद्धृत कारण से ये स्वयंभु पश्चिमी देशों में प्रकट नहीं एवं अनुवादित) हुए। थोड़ा सा वहाँ पर भी है इसमें कोई गा। एक अनुभव एहसास अपने हाथों पर हुआ है? मुझे कुछ महसूस जहाँ तक मेरी स्मरण शक्ति जाती है मैं हमेशा पुस्तकें पढ़ता था, पुस्तकालय जाता और अधिक से अधिक पुस्तकें लेता। इसके बाद मैंने तो हुआ था परन्तु मैंने सोचा कि ऐसा शायद खुली हुई खिड़की के कारण हुआ है। उसने मुझसे मेरे पिता के विषय में पूछा, जिनकी मृत्यु एक सप्ताह यूरोप भ्रमण शुरु किया। मैं लन्दन में रहने लगा और पॉप संगीत, लड़कियाँ, शराब, नशीली दवाओं आदि का शौकीन बन गया इनसे क्योंकि निराशा पूर्व ही हुई थी। मुझे हैरानी हुई कि उन्होंने यह बात कैसे जानी उन्होंने मुझसे कहा, कि मैं जाकर ही मेरे हाथ लगी मैं अधिक से अधिक पुस्तकें पढ़ने लगा, वो पुस्तकें जो मानसिक शांति तनाव मुक्ति परम पूज्य श्रीमाताजी से मिलू। श्रीमाताजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं हठ योग करता हूँ? मैने हाँ एवं अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करने का दावा करती में उत्तर दिया। उन्होंने मेरा हाथ छुआ और कहा हैं। मैने कराटे, हटयोग, भिन्न प्रकार की एकाग्रता कि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है परन्तु मैं ठीक हो निकला। जाऊंगा। इसके बाद उन्हो ने मुझे एक प्रश्न पूछने और ध्यान भी किए परन्तु कोई परिणाम न के लिए कहा कि "क्या परम पूज्य श्रीमाताजी- मैं सोचने लगा कि कोई ऐसा व्यक्ति है आदिशक्ति (Holy Spirit) हैं?" मैंने प्रश्न पूछा । जो किसी गुरु को जानता हो मैंने गुरु खोजना मैं अन्दर से भयभीत था परन्तु वह भय निकल चाहा। बहुत से गुरुओं के विज्ञापन लन्दन की पत्रिकाओं में छपते थे, भिन्न प्रकार के ध्यान धारणा गया। हम सबने बढ़िया भारतीय खाना और मिठाइयों खाई और सहजयोग के विषय में बातचीत की | को्सो के बारे में भी छपता। परन्तु ये सब गुरु तो आसपास के बैठे हुए लोग मुझे अच्छे लगे। मुझे ऐसा लगा कि वो मरे पूर्व परिचित लोग हैं । एक से तो मैंने पूछा भी कि क्या हम पहले कभी मिल चुके है? मुस्कराकर उसने उत्तर दिया "हो सकता है पूर्व जन्म में मैं पूरी तरह से निर्विचार था और धन वसूलते थे। अतः मैं इनसे दूर ही रहा एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि एक भारतीय महिला योग सिखलाती हैं और उसने मुझे परमेश्वरी माँ का फोटो भी दिखलाया मिलकर हम उत्तरी लन्दन में स्थित उनके धर गए। एक छोटे कमरे में बहुत हल्का महसूस कर रहा था। मैं बिस्तर पर हमने प्रवेश किया। यहां परमेश्वरी माँ के सम्मुख लेटा और ज्यों ही आँखें बन्द की मुझे लगा कि मैं लगभग बीस लोग फर्श पर बैठे हुए थे। इनके पास पूर्णतः मौन था। मैंने सोचने का प्रयत्न किया परन्तु नाड़ी-तंत्र का, एक चार्ट था जो जाना-पहचाना कुछ सोच न पाया और एक नन्हें शिशु की तरह से महसूस होता था। वहाँ पर सुरक्षा का वातावरण था सो गया। उसके बाद लगभग हर सप्ताह मैं परम और मुझे लगा कि मैं अत्यन्त सुरक्षित हूँ। उपस्थित पूज्य श्रीमाताजी के कार्यक्रमों में जाता, उन्हें सुनना लोगों में से एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने सदा अत्यन्त सुखकर था। मुझसे पूछा कि क्या मुझे शीतल लहरियों का चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 - 2005 21 मेरे मित्रों को लगा कि पार्टियों और रात्रि रखकर कहा कि मैं उन पर संदेह न करूं। पूजा के पश्चात् श्रीमाताजी ने मुझसे पूछा कि क्या मुझे शीतल लहरियों का अनुभव हुआ? जो वास्तव में मुझे महसूस हुई थीं। तत्पश्चात् श्रीमाताजी ने क्लबों में मेरी दिलचस्पी समाप्त होती चली जा रही है। फिर भी अभी तक मैं इन स्थानों पर जाया करता था। मुझे मेरे हृदय, पेट और सिर में दर्द होने लगा। मैने सोचा कि मुझे कोई भयंकर बीमारी हो रही है और मैं अस्पताल पूर्ण चिकित्सकीय जाँच के लिए गया. परन्तु पता चला कि मुझे कोई रोग नहीं है। क्योंकि डॉक्टरों पर मुझे कभी विश्वास कहा, "परमात्मा तुम्हें आशीर्वादित करें।" इसके बाद मैं अन्य सहजयोगियों के साथ रहने के लिए आश्रम में आ गया और सहजयोग न था अतः में भ्रम में फंस गया और सभी प्रकार की का अधिक ज्ञान प्राप्त किया। पिछले दो वर्षों में बातें सोचने लगा। मुझे बहुत से अनुभव हुए जिन्होंने स्वयं को तथा अन्य लोगों को पहले से कहीं अधिक समझने में सहजयोग सभाओं में शनै शनै मुझे पता मेरी सहायता की। चला कि मेरी पीड़ाओं का कारण मेरे चक्रों की वाधाएं थी और कुण्डलिनी उन बाधाओं को दूर करने में लगी हुई थी। परन्तु अभी भी मैं अर्दध विश्वास. अरद्ध संदेह की अवस्था में था। एक दिन श्रीमाताजी का कृपा-ऋण वर्णन करने के ध लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। ध्यान की स्थिति में जब हमारे हृदय स्वच्छ होते हैं केवल तभी हम मुझे पूजा के लिए बुलाया गया, भारतीय शैली की अजीब पूजा, मैंने सम्मान पूर्वक पूजा की परम महसूस कर सकते हैं कि हम सब उन्हीं के विराट हृदय के अग-प्रत्यग है। पूज्य श्रीमाताजी ने अपना हाथ मेरे आज्ञा चक्र पर है महामाया, हे ब्रह्माण्ड स्वामिनी, आपको बारम्बार प्रणाम । (MODRAG) युगोस्लाविया (महावतार-1980) अनुवादित श्रद्दटा भकित एव सम्पण, अट एक दूध बेचने वाली नदी के किनारे रहने वाले ब्राह्मण प्ुजारी को दूध पहुँचाया करती थी। नियमित रूप से नाव न आने के कारण वह नित्य समय पर उसे दूध न पहुँचा पाती थी। एक दिन जब वह देर से पहुँची तो ब्राह्मण ने उसे डॉटा। बेचारी महिला कहने लगी "मैं क्या कर सकती हूं? घर से तो मैं बहुत जल्दी निकलती हूँ परन्तु नदी किनारे नाव के लिए मुझे बहुत देर तक रुकना पड़ता है।" पुजारी ने कहा, "हे महिला, परमात्मा का नाम लेकर लोग समुद्र पार कर लेते हैं और तुम्हारे से ये छोटी सी नदी भी पार नहीं होती?" नदी पार करने का यह ें आसान तरीका जानकर वह स्वच्छ हृदय महिला मन ही मन प्रसन्न हुई। अगले दिन से ब्राह्मण को हर सुबह समय पर दूध मिलने लगा। एक दिन उस पुजारी ने दूध वाली महिला से पूछा, "आजकल कैसे तुम्हें कभी भी देर नहीं होती?" महिला ने उत्तर दिया, "जैसा आपने मुझे बताया था आजकल मैं क। परमात्मा का नाम लेकर नदी पार कर लेती हैँ, मुझे नाव की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।" पुजारी इस बात पर विश्वास न कर पाया और कहने लगा, "क्या तुम मुझे दिखा सकती हो कि किस प्रकार तुम नदी पार करती हो? वह महिला पुजारी को अपने साथ ले गई और पानी पर चलने लगी। जब उसने पीछे मुडकर देखा तो पुजारी को अत्यन्त उदास मुद्रा में खड़ा पाया। वह बोली, "श्रीमान आप अपने मुँह से तो परमात्मा का नाम ले रहे हैं परन्तु हाथों से अपने कपड़ों को गीला होने से बचा रहे हैं। ये कैसे हो सकता है? क्या आपको परमात्मा पर पूरा विश्वास नहीं है?"" परमात्मा पर पूर्ण समर्पण और उनमें पूर्ण श्रद्धा ही सारे चमत्कारों का आधार है। अनुवादित (महावतार 1980 से उद्ध ते) आत्म-साक्षात्कार नेहरू नगर धुलिया) (रवि भवसार जनवरी 1980 तक मुझे सहजयोग के बारे में बिल्कुल पता न था। ती परन्तु हमारे पूर्वजों द्वारा आविष्क त योग में कोई सिद्धि पाने की आकांक्षा मुझमें हमेशा से बनी हुई थी। इसी कारण से बचपन से ही योग की ओर मेरा झुकाव था। सर्वदा विद्यमान इस आकर्षण के कारण ही मैं माताजी श्री निर्मला देवी के प्रवचन में गया। कुण्डलिनी जाग ति के उस कार्यक्रम में मुझे ाण] शांति एवं प्रसन्नता की एक दुर्लभ किरण प्राप्त हुई और इसी उपलब्धि के सहारे मैं अपने जीवन को सच्ची शांति एवं प्रसन्नता से परिपूर्ण करना चाहता हूँ । मुझे लगता है कि परमात्मा हमारे शरीर में विद्यमान है। जिस प्रकार हम ऑँखों से देखते हैं, नाक से सूंघते हैं, कानों से सुनते हैं, वैसे ही कुण्डलिनी भी विश्व में परमात्मा की उपस्थिति को महसूस करने का साधन है। श्रीमाताजी द्वारा दी गई शीतल, स्वच्छ, पावन चैतन्य-लहरियों द्वारा हम अत्यन्त शांत एवं प्रसन्न हो जाते हैं। उनके फोटो से निकलती हुई चैतन्य लहरियाँ उनकी पावनता का पक्का प्रमाण है। इस प्रकार हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारी श्रीमाताजी कितने महान हैं। जय श्री माताजी (महावतार 1980 से उद्ध त) रार पा सहजयोग मनुष्यत्व का चरमोत्कर्ष (गोरखपुर के एक सहज-योगी की अभिव्यक्ति) अन्तर्यात्रा के सुदीर्घ पथ पर यम, नियम प्रकृत मनुष्यता का बोध होते ही अन्धकार रूप अज्ञानयम जगत के अन्तराल दूर होगे सहजयोग रूपी शुद्ध कर्म से ही ज्ञान का उदय होगा, फिर ज्ञान से ही अनन्य भक्ति एवं प्रकृत भक्ति से ही प्रेम साम्राज्य में प्रवेशाधिकार प्राप्त होगा। 'मै' का अस्तित्व समाप्त होगा. प्रेम साम्राज्य में जाने पर ही परत्याहार, धारणा, निरोध, निग्रह रूप कढोर कर्म साधना का समय समाप्त हुआ। महाकरुणामयी आदि शक्ति माँ का आर्विभाव श्री श्री माताजी निर्मला देवी के रूप में हो चुका है । परमेश्वर के राज्य का मुख्य द्वार उन्मुक्त हो गया। मनुष्य नामधारी जीवों को प्रकृत मनुष्यत्व के आसन में अधिष्ठित होने की उपाय रूप चाबी सहजयोग, बन्धन मुक्ति के साथ साथ मातृ-कृपा प्राप्त कर प्रकृत मनुष्यत्व एवं पूर्णत्व प्राप्त करना सम्भव श्री माताजी की कृपा से सबको प्राप्त हो चुका। होगा। अब मनुष्यता के चरमोत्कर्ष को पाने के लिए सहजयोग ही एक मात्र उपाय है। वास्तविक मनुष्य श्री श्री माताजी निर्मला देवी की कृपा से समष्टि कर्म पूर्ण हो चुका है। समष्टि मन का आर्विभाव एवं उद्यापण भी सम्पूर्ण प्राय है। सिर्फ बनते ही मनुष्य के अन्दर बोध जागृत होगा। मनुष्य जन्म का उद्देश्य सिद्ध होगा, विशुद्ध कर्म का संकत पाकर मनुष्य कर्म प्रबृत्त होगा । जब तक मनुष्य जीवन का उत्कर्ष पथ अवरुद्ध करने वाले चहूँ ओर फैल जायेगा इ्ञान का आलोक फैलते ही बाह्म आवरण हटते ही समष्टि ज्ञान का आलोक प्रत्येक व्यक्ति इसके रहस्य को जान जायेगा| अन्तराल अपसारित नहीं होंगे तब तक वास्तविक संशय का कोई कारण नहीं रहेगा अब शुद्ध कर्म के द्वारा उस महाज्ञान को धारण करने की योग्यता श्री माताजी की कर्मपथ पर अग्रसर होकर पूर्णत्व प्राप्ति की आशा व्यर्थ है। श्री माता जी निर्मला देवी अपनी सन्तानों के कल्याण हेतु सही कर्मपथ की दिशा निर्देश करती आ रही हैं। मानव काल, राज्य में क्षुधा, कृपा से समष्टि कर्म एवं समर्टि मन का द्वार उद्घाटित अर्जित करनी होगी से. हुए सहस्रार के उन्मोचन से श्री माता जी ने समष्टि चेतना का बोध सबके लिए सुगम एवं सुलभ कर दिये। अब श्री माताजी की उस महाकृपा को धारण करने के लिए पुरुषाकार युक्त मनुष्य आवश्यक तृष्णा, बासना, कामना, जरा, मृत्यु आदि दुःखप्रद भावों द्वारा जर्जर होकर जीवन यापन करता आ के रहा है। मनुष्यत्व अवतरण के साथ ही ये सब विरोधी भाव सदा सर्वदा के लिए समाप्त होंगे। बास्तव में मनुष्यत्व का अवतरण ज्ञानावतरण ही है। मुक्त आकाश में सूर्यादय के साथ साथ स्वाभाविक है। ऑकार स्वरूप मनुष्य रूप की परम उत्क्रान्ति क्यों हुई? परमेश्वर की सूक्ष्म शक्तियों से समृद्ध किन्तु चक्षु बन्द रखने से या आलोक के सम्मुख न इस देह का क्या उद्देश्य है? स्व का क्या अस्तित्व है? यही बोध मनुष्य का ज्ञानावतरण है। रूप से उसकी प्रभा चतुर्दिक विकीर्ण होती है । रहने से कोई भी उससे युक्त नहीं हो सकता। इसीलिए कर्म साधना और कुछ नहीं, एक पुरुषाकार |25 अक : 5 & 6- 2005 चेतन्य लहरी का श्री गणेश होगा, तभी विशुद्ध सत्ता का प्रकाश एवं बोधयुक्त शिशु के समान अबोधिता के साथ श्री पूर्ण होगा। तभी अखण्ड पूर्ण सत्ता 'माँ' की सम्पूर्ण माता जी को पुकारना एवं समर्पित होना। 'माँ" प्राप्ति सम्भव होगी 'माँ को प्राप्त करने के पश्चात् उच्चारण के साथ साथ मातृभाव का उदय होता है। सामर्थ्य के हिसाब से मात्रा चाहे कम या अंधिक हो तथापि यह अमरत्व प्रदायी कर्म है। ही क्षण' का रहस्य उद्घाटित होगा। इस समय सबका एकमात्र कर्तव्य है, श्री माताजी के चरणों में समर्पित हो जाना। मनुष्यत्व प्राप्त करने के पश्चात् भी "माँ" ध्वनि प्रयोजनीय है। विश्व पूर्णत्व प्राप्ति के पथ पर चल रहा है। अतः मनुष्य की महामण्डली को इस महाकर्म में योग देना होगा, यही सामूहिकता भातृभावापन्न सन्तान ही महाप्रकाश को धारण करने में समर्थ हे ये महाप्रकाश या सहाज्ञान का आलोक मां की अगकान्ति है । सहजयोग से ही मनुष्य इस महाप्रकाश के आघात को सहन करने में समर्थ होगा । योग्यता तारतम्य से मनुष्यता अंश में भी तारतम्य होगा तथापि सर्वत्र मनुष्यता का का प्रधान कर्तव्य है। श्री माताजी के आश्रय के नहीं होगा बुद्धिगत बिना जीवत्व का कलंक दूर ज्ञान को अन्तर अवलोकन द्वारा निर्मल शुद्ध रूप अवतरण होगा। अतः "सर्व खल्वद ब्रह्म" इस बनाना होगा। शिशु-भाव ही एकमात्र शुद्ध-भाव है। शिशु माँ को छोड़कर जगत में अन्य कुछ श्रुति वाक्य की अनुरूप-अवस्था का उदय अवश्य भी होगा। नहीं पहचानता है। वह माँ की चिन्ता में विभोर कालनाशिनी हैं देव, देवी, "माँ" वस्तुतः सिद्ध, ऋषि, ईश्वर, कोई भी काल का नाश करने में समर्थ नहीं । पूर्ण कर्म के अभाव में काल भेद नहीं हो सका। चैतन्य प्राप्त मनुष्यों द्वारा ही पूर्ण रहता है। अत: उसके जीवन का समस्त कल्याण विधान माँ स्वयं करती हैं। ज्ञानी, भक्त, कर्मी प्रवृत्ति के अभिनय में जीव ने बहुत समय व्यर्थ किया है । इससे उसको चिर स्थायी शान्ति या परमानन्द का प्राप्ति नहीं हुई, वह मनुष्यत्व तक ही पा सका जवकि मनुष्यत्व उसका जन्मसिद्ध अधिकार है । दैहिक मान-मर्यादा, धन - जन यश-प्रतिष्ठा, ज्ञान-भक्ति सब अलीक स्वप्न मात्र प्रतीत हुआ ये कर्म सम्पन्न ही सकता है। किसी एक के कर्म द्वारा चिश्व व्यापी काल का विनाश सम्भव नहीं, जो पूर्ण कर्मी हैं, वे ही मन को समष्टि भाव से निजस्व करने में समर्थ है । उर्ध्य लोक से विशुद्ध सत्ता का अवतरण, सब मृत्यु के कराल ग्रास में विध्वस्त हो जाते हैं निर्वाण, कैवल्य, मुक्ति इत्यादि वास्तविक पूर्णत्व नहीं, न ही पूर्णत्व, स्वर्गलोक आदि किसी लोक- लोकान्तरों में प्राप्त होता है । पूर्णत्व प्राप्ति के लिए मनुष्यत्व का पूर्ण बोध एवं विकास सामूहिक रूप में आवश्यक है। रुची भेद से किसी भी देव-देवी 1 तत्पश्चात व्यक्ति मन द्वारा, समष्टि भाव साधन हेतु त्रिशक्ति जनित, त्रिविधकर्म का सम्पादन क्षण या वर्तमान का धारण एवं महाशक्ति मां के प्रति पूर्ण रूपेण समर्पण ही मनुष्यत्व के अवतरण का मूल है। मनुष्यत्व का अंवतरण एवं धरातल में ज्ञान राज्य की प्रतिष्ठा होने के पश्चात जब प्रत्येक की आराधना खण्ड उपासना है। अखण्ड मनुष्य में बोध का उदय होकर "स्व" भाव के कर्म मातृ शक्ति या पूर्णता प्राप्ति हेतु सहजयोग के यार चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 26 न करें तो विश्व व्यापी संहार से उसकी रक्षा करना माध्यम से माता जी श्री निर्मला देवी की शरण में आना ही होगा। आदि शक्ति माता जी वस्तुतः शक्ति, शिव, प्रकृति- पुरुष, सभी का समाहार है। यहाँ पर शिव, विष्णु, गणेश आदि में कोई भेद असम्भव होंगा। अखण्ड चैतन्य राज्य स्थापित होगा, जो वास्तव में निर्मल होगा प्रलय से देह रक्षा का एकमात्र उपाय है माँ को पुकारना। 'माँ ध्वनि से माँ के साथ योग स्थापना होगी, एवं काल नहीं। मातृ भाव, ब्रह्म भाव से भी अतीत है। चैतन-अचेतन उभय सत्ता इसी के अन्तर्गत है । इसमें शौच- अशौच, नियम-बन्धन विधि-निषेध का कोई प्रयोजन नहीं। शिशु भाव में प्रत्येक मनुष्य को संतानत्व का अधिकार है। इसके लिए योग्यता का अवसान होगा। काल राज्य नियति के अधीन है । देवतागण भी नियति उल्लंघन नहीं कर सकते। वास्तव में पुरुषाकार (ऊँ) काल के अतीत है। उससे अतीत है विश्व प्रकृति एवं सबसे उध्ध्व में है 'माँ। प्रणव' रूपी पुरुषाकार, प्रकृति एवं मों इन का विचार अनावश्यक है। सिर्फ माता जी के प्रति समर्पण ही यथेष्ट है। यहाँ शाक्त-वैष्णव का कोई तीनों के मिलन से ही अखण्ड परमेश्वर के साम्राज्य प्रश्न नहीं, जात-पात, धर्म-सम्प्रदायों का कोई की प्रतिष्ठा होगी। विभेद् नहीं। सिर्फ शिशु भाव से शरणागति ही आत्म बोध ही प्रकृत मनुष्यत्व है। इसकी सम्प्राप्ति हेतु देवगण भी नर देह धारण करते हैं । पूर्णत्व प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। परमेश्वर के साम्राज्य की परम शक्ति का नाम है अब समय अवशिष्ट नहीं रहा। विश्व व्यापी क्षण । योग के अतिरिक्त इसकी उपलब्धि असम्भव संहार काल आसन्न होकर सम्मुख दंडायमान हैं । कर्म सम्पूर्ण हो चुका। काल का स्थिर रहना अब है। 'क्षण की गति तीव्रतम है। वह मन का भेद करने में सक्षम है। क्षण असम्भव है। जीव के कर्म एवं कर्मफल का आश्रय " धारण बिना साधना लंकर काल स्थिर मातृ-माव द्वारा विश्व व्यापी संहार को रोकने में समर्थ है। तब जीव को मृत्यु से परित्राण मिलेगी। है। एकमात्र शिशु ही अनन्य समाप्त नहीं होती। मात्र क्षण' धारण से ही इस कर्मभूमि का कर्म समाप्त होगा। मन, देह एवं कर्म तीनों के एकत्रीकरण द्वारा किसी पदार्थ पर दृष्टि निरुद्ध करने से क्षण' आर्विभूत होती है। पृथ्वी के जीव माता जी के आशीर्वाद एवं कृपा से उस महान प्रतिष्ठित होंगे मनुष्यता प्राप्त कर अमरत्व प्राप्त होगा। व्यष्ट्ि मन एवं प्राण, जब समष्टि मन एवं प्राण से सम्मिलित होंगे तब मृत्युलोक एवं अमरलोक भी सम्मिलित होगा। मरणधर्मी मनुष्य सत्य जगत में I पूर्ण बोध के साथ चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठा लाभ में मनुष्यत्व रूपी परम वस्तु उदित होगी। करना आवश्यक है। यदि पृथ्वी का जीव पृथ्वी का निराकार माँ से काल का जन्म होता है। ही वैशिष्ट प्राप्त न कर सके, तो परम विज्ञान का संधान कैसे पायेगा? स्वयं अन्धकार मुक्त हो कर साकार माँ से काल का विनाश सम्भव होगा। होगा अन्धकार को आलोक रूप में विकसित करना, ही तब, जब शिशु भाव से माँ को पुकारना आयेगा, तब, देह चैतन्य से युक्त होगा। अगर व्यक्ति कर्म मनुष्य जीवन का चरमोत्कर्ष है। अंक : 5 & 6 - 2005 27 चैतन्य लहरी हो जायेंगे। जो पहले से श्री महाप्लावन में लुप्त माता जी के आश्रय ग्रहण पूर्वक चैतन्य से सर्वदा अन्धकार का कर्म पूर्ण हो गया। इस समय सबको आत्म साक्षात्कार प्राप्त कर लेना चाहिए। इस प्राप्ति से माँ की मातृ-स्वरूप में युक्त होकर, चेतना या पूर्ण बोध में रहेंगे, वे इस प्रसकुटित शक्ति का विकास होगा इस समय सरल शिशु भाव से माँ को पुकारना होगा। साधारण जीव के लिए यही एकमात्र कर्म है। संकट के समय आत्म विस्मृत नहीं होंगे जब महाकाल ही काल ग्रसन को उद्यत होंगे तब काल के साथ साथ, काल गर्भ में स्थित समस्त संसार महाकाल में लीन हो जायेगा। मनुष्य काल के श्री माता जी पूरे विश्व के स्त्री-पुरुष, अन्तर्गत है। अतः उसे अपनी आत्म रक्षा का उपाय वृद्ध-बालक, सभी को 'स्व' धर्म की ओर आकर्षित कर रही है। एक धर्म, एक कर्म, द्वारा विराट मन की प्राप्ति करनी होगी इस समय देह चैतन्य सबसे आवश्यक है । निजस्व मन के साथ मनुष्यत्व ग्रहण करना ही होगा। जीव जगत में एकमात्र मनुष्य में ही कुण्डलिनी एवं चैतन्य शक्ति है। जगत के घोरतर संकट काल में संतानों की रक्षा हेतु 'आदि शक्ति', माता जी श्री श्री निर्मला देवी के रूप में अवतरित हुई हैं। पृथ्वी पर जिस अभिनव, कालातीत. विज्ञानमय, आनन्दमय, पास विद्यमान है । तीव्र रूप से, आन्तरिक व्याकुलता मृत्युहीन सृष्टि का स्फुरण होगा, उसमें सबको स्थान देने के लिए करुणामयी माँ का आविर्भाव एवं माँ की कृपा का समन्वय स्थापित करना होगा। विराट आलोक एवं विराट अन्धकार आस से माँ को पुकारने पर यह अशुभ या अन्धकार अन्त प्रवेश नहीं कर पायेगा आशीर्वाद प्राप्त मनुष्य, तटस्थ साक्षी भाव से देखेगा। विशाल जगत के हुआ है मातृविमुख संतान, जो माँ को नहीं पुकारेगा वो प्राकृतिक नियमानुसार प्रलय के दंष्ट्राघात से चूर्ण हो जायेगा । समस्त भेद-भाव विराट अन्धकार में विलुप्त होते जा रहे है। तत्पश्चात् सर्वत्र एकाकार भाव का उदय होगा। अनन्त लोक-लोकान्तर, एवं स्तर समूह, पृथ्वी से युक्त होंगे वृक्ष, लता, पक्षी, गृह उद्यान, जलाशय, मुहूर्त मात्र में, विद्युत वेग से तिरोहित हो जायेंगे हठात् एक किसी अचिन्त्य शक्तिशाली, तीव्र अतिन्द्रिय पदार्थ की क्रिया समस्त अंतएव आइये, हम सब श्री श्री माताजी की कृपा दान रूप आत्म साक्षात्कार एवं कुण्डलिनी जागरण के आशीर्वाद से आशीर्वादित होकर मनुष्यता ार के चरमोत्कर्ष को प्राप्त करें। डा० शुभ्रांशु राय चौधुरी (सहजयोगी) 94. जगन्नाथपुर, निकट दुर्गा मन्दिर पार् गोरखपुर (उ०प्र० ) - 273001 जगत के उपर प्रकाशित होगी। संहार क्रिया चेतन-सत्ता को आघात पहुँचाने में असमर्थ होगी । जो चैतन्य का आश्रय ग्रहण नहीं करेंगे वे इस पातांजलि की सुक्तियाँ एवं सहजयोग पातांजल योग में पातांजलि की वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है । सूक्तियाँ या सूत्र योग पर श्रेष्ठतम लेख माने १. प्रमाण (Right Knowledge) है गए हैं। युग-युगान्तरों से इन्हें योग पर विश्वस्त इसे आगे इस प्रकार से बॉटा गया सूत्र माना जाता रहा है। कुछ विद्वानों के अ. प्रत्यक्ष ज्ञान अनुसार बौद्ध मत के कुप्रभाव का मुकाबला ब अनुमानित ज्ञान करने के लिए इनकी रचना की गई थी । स. प्रलोभन, ईर्ष्षा, घृणा तथा भ्रान्तियों से क्योंकि तब तक बौद्धमत अपभ्रष्ट हो चुका मुक्त उन महान गुरुओं से प्राप्त ज्ञान जिनकी था, फिर इसे शासक वर्ग का संरक्षण प्राप्त रुचि परहित में हो। यह 'अगम वृत्ति' है । था। ये सूत्र चार भागों में बांटे गए हैं जिन्हें अध्याय' कहते हैं और समाधिपद, साधनापद. किसी चीज को कुछ अन्य २. विपर्याय मान लेना। विभूतिपद तथा कैवल्य पद के नाम से जाने जाते हैं। ३. विकल्प - केवल शाब्दिक ज्ञान जिसके अनुरूप वास्तव में कुछ न हो। ४. निद्रा यह ऐसी वृत्ति है जिसमें सभी समाधिपद के दूसरे सूत्र में योग की वृत्तियों को अनुभव किया जा सकता है। परिभाषा, मस्तिष्क की विचार लहरियों को तपोगुण मस्तिष्क पर पूरी तरह से छा जाता रोकने की गतिविधि चित्तवृत्ति निरोध रूप है और अन्य सभी ज्ञानेन्द्रियों को निष्क्रिय बताई गई है। मस्तिष्क सतोगुण, रजोगुण कर देता है यह अनुभव भी अपने आप में और इसकी एक वृत्ति है जिसे निद्रा कहते हैं। ५. स्मृति - सभी अनुभव मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं और ये तब तक बने रहते और तपोगुण से बना है गतिविधियाँ किसी न किसी गुण के बाहुल्य के अनुसार होती हैं । वृत्ति निरोध करने से जब मस्तिष्क निर्विचार हो जाता है तो आत्मा जब तक वैसी ही परिस्थितियाँ उन्हें पुनः अपनी अवस्था में शान्त होता है। अन्यथा गतिशील न कर दें । ये वृत्तियाँ स्मृतियाँ हैं। यह वृत्तियों से एकरूप होता है वृत्तियों का 28 প প चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6- 2005 29 (ईश्वर प्रणिधान) दो वृत्तियों के मध्य विलम्ब की दूरी परमात्मा में श्रद्धा' को बढ़ाने के निरंतर अभ्यास से मस्तिष्क है। पातांजलि के अनुसार परमात्मा की की गतिविधियों को नियंत्रित किया जा अभिव्यक्ति करने वाला शब्द प्रणव है और इस शब्द की आवृत्ति से तथा इसके अर्थ का विचार करने से अन्तर्अवलोकन शक्ति बढ़ती सकता है। वृत्तियाँ जब नियंत्रित हो जाती हैं तो समाधि की अवस्था आती है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए स्थूल पर है तथा शारीरिक एवं मानसिक बाधाएं दूर ध्यान करना और फिर सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर होती हैं। असम्प्रद्यात समाधि दो प्रकार की है- सबीज और निर्बीज। अर्थात सांसारिक वस्तुओं पर ध्यान करना बताया गया है । और अन्त में मस्तिष्क को निर्विचार करने के वस्तुओं से लिप्त या अलिप्त होकर यह सूक्ष्म (बीज) रूप में विद्यमान है । संस्कार यदि नष्ट लिए परिष्कृत चीजों का ध्यान भी किया जा सकता है। परन्तु इस अवस्था में व्यक्तिगत नहीं होते तो अवसर मिलते ही चेतना बनी रहती है। यह सम्प्रद्यात समाधि जाते हैं और व्यक्ति को भले या बुरे कर्म जागृत हो है। अगली अवस्था असम्प्रद्यात समाधि है करने पर विवश करते हैं । इन संस्कारों के इसे मरितष्क की उस अवस्था को बढ़ाने से नष्ट हुए बिना आत्मसाक्षात्कार भी सम्भव प्राप्त किया जा सकता है जिसमें मस्तिष्क नहीं है । असम्प्रदयात समाधि द्वारा इन्हें निर्बीज सभी वृत्तियों से मुक्त होता है, इसमें वो वृत्तियाँ भी सम्मिलित हैं जो व्यक्तिगत चेतना अवस्था में लाया जा सकता है। से सम्बन्धित है। असम्प्रद्यात समाधि में 'मैं' समाधि पद में वर्णित समाधियाँ प्राप्त 'T' का भाव समाप्त हो जाता है। यद्यपि पूर्व करना कठिन कार्य है। साधनापद बताता है कर्मों के तथा अनुभवों के कुछ प्रभाव बने कि एक-एक कदम किस प्रकार आगे बढ़ाना रहते है। इस अवस्था में पहुँचने की उन्नति है ये कदम इस प्रकार हैं : इस पर निर्भर करती है कि हमें विश्वास १. तप-ध्यान धारणा और आंतरिक एवं बाह्य तथा श्रद्धा हो कि असम्प्रद्यात समाधि के शुद्धिकरण तथा शरीर साधन। माध्यम से निरंतर अभ्यास द्वारा आत्म- २. स्वाध्याय ३. ईश्वर प्रणिधान (परमात्मा के प्रति श्रद्धा) साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है यह अवस्था प्राप्त करने का एक अन्य टरीका ০ अंक : 5 & 6 - चैतन्य लहरी 30 जब उस भौतिक पदार्थ का साकार रूप "अगला कदम सत्य और असत्य में सदैव अन्तर देखते रहना और 'पुरुष' पर दृढ़ छोड़ दिया जाता है अनाभिव्यक्त अर्थ विश्वास क्योंकि आत्मा भौतिक पदार्थों से प्रतिबिम्बित होने लगता है, तो यह समाधि की अवस्था है। इन तीनों (ध्यान, धारणा भिन्न है। अतः मस्तिष्क पर वृत्ति का प्रभाव नहीं होना चाहिए। इससे अगला कदम अष्टांग योग है। यहाँ ये बता देना आवश्यक है कि और समाधि) का जब एक साथ अभ्यास किया जाता है तो यह साम्यम् कहलाता है। परन्तु ये अभ्यास भी निर्वीज, सम्प्रद्यात समाधि तक नहीं पहुँचाता क्योंकि मनुष्य में अभी भी सूक्ष्म इच्छाएं बनी रहती हैं । विभूति 1 पातांजलि ने उन योगासनों के विषय में कुछ भी नहीं कहा जिनमें कठोर परिश्रम करके लोग कुशलता प्राप्त करते हैं । उन्होंने तो पद का शेष भाग इस बात का वर्णन करता केवल इतना कहा कि ध्यान की मुद्रा दृढ़ ताि एवं सुखकर 'स्थिर सुखम् आसनम्' होना है कि साम्यम् के अभ्यास से किस प्रकार चाहिए। उन्होंने प्राणायाम को भी बहुत सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। परन्तु आधुनिक त अधिक महत्व नहीं दिया। इस पर केवल युग में इनका कोई महत्व नहीं हैं। सूत्रों के अनुसार इन्हें उत्क्रान्ति मार्ग में व्यवधान पांच सूत्र ही लिखे। अष्टांग योग की बात मानकर छोड़ दिया जाना चाहिए। आत्म- करते उन्होंने परमात्मा के प्रति श्रद्धा पर े हुए साक्षात्कार पाने के लिए चित्त और पुरुष बल दिया। (आत्मा) पर साम्यम् करने की राय दी गई की है । अष्टांग योग की अंतिम तीन अवस्थाएं ध्यान, धारणा और समाधि, जो कि आंतरिक विकास से जुड़ी हुई हैं, उनका जो भी हो, जब तक सूक्ष्म इच्छाएं वर्णन विभूतिपद में किया गया है। इनका पूर्णतः नष्ट नहीं हो जातीं आत्म-साक्षात्कार सम्भव नहीं है। कैवल्य पद में यह बताया अभ्यास देश के संदर्भानुसार होना चाहिए। देश की तुलना कई विद्वान चक्र से भी करते गया है कि अनुकूल वातावरण के अनुसार इच्छाओं की अभिव्यक्ति होगी। कारण और हैं। धारणा' मस्तिष्क को किसी भौतिक और उस चीज़ से चीज़ पर टिकाना है प्रभाव द्वारा सूक्ष्म इच्छाएं बनी रहती हैं और भले बुरे कर्मों का कारण बनती हैं और कर्म निरंतर प्रवाहित होने वाला ज्ञान ध्यान है। चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 31 अनुभवो के सूक्ष्म प्रभाव को पीछे छोड़ते हैं जिनके कारण और इच्छाओं का सृजन होता है। ये सब मस्तिष्क में एकत्र हो जाती हैं। बाह्य मामलों पर प्रतिक्रिया भी नई इच्छाओं आसनों पर बल दिया जा रहा है। परन्तु आंतरिक और बाह्य शुद्धिकरण, परमात्मा के प्रति श्रद्धा, ग्रन्थों का अध्ययन आदि आरम्भिक अवस्थाएँ पूरी तरह से नकार दी गई हैं । को जन्म देती है। इच्छाओं से सद्-सद-विवेक पातांजल योग में बहुत सी अच्छाइयाँ मस्तिष्क (असत्य) में भेद करने का गुण ही हैं परन्तु पातांजलि द्वारा सुझाए गए तरीकों का आधुनिक युग में निर्वाण प्राप्ति के लिए बुद्धि में बाधा आती है। आत्मा (सत्य) और कैवल्य प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है और यह सम्प्रदयात समाधि की प्राप्ति के बाद ही हो अभ्यास कर पाना न केवल कठिन है परन्तु जीवन यापन के लिए संघर्षरत सर्वसाधारण सकता है। गृहस्थ के लिए इस मार्ग पर चल पाना में साधना पद और विभूति पद के कुछ असम्भव भी है। इस प्रकार आज के युग भाग व्यवहारिक तरीके सुझाते हैं। परन्तु सद्गुरु सहजयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है के पथ प्रदर्शन, समर्पण एवं श्रद्धा के बिना क्योंकि जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानव के अन्दर विद्यमान गुणों की जागृति के लिए परमेश्वरी माँ श्री निर्मलादेवी द्वारा इन सूत्रों का कुछ खास लाभ नहीं हो सकता। साधना पद में सुझाए गए तरीकों द्वारा निर्विचार समाधि की अवस्था को पा लेना कठिन है । बताए गए सहज उपाय एवं पूर्ण समर्पण मस्तिष्क के पराचेतन (Supra Conscious) साधक के लिए अत्यन्त सुगम है। अवस्था में जाने के कारण चित्त वृत्तियाँ बढ़ती परमपूज्य श्रीमाताजी तत्क्षण साधक को निर्विचार चेतना प्रदान कर देती हैं। ज्योंही है जब तक चित्त विक्षेप को रोका नहीं जाता, चाहे जितने भी समय तक योगासन और प्राणायाम करते रहें ये साधक को कृण्डलिनी जागृत होती है, साधक के सहस्रार पर पहुँचती है और उसे दिव्य चैतन्य लहरियाँ प्राप्त होने लगती हैं। इतने कम समय में निर्विचार समाधि तक नहीं ले जा सकते। हो सकता है कि प्राचीन युगों में परिस्थितियों के अनुरूप इन क्रियाओं का कोई लाभ होता निर्विचार समाधि तथा आनन्द की अवस्था हो। आधुनिक युग में भी प्राणायाम और का प्राप्त कर लेना राधक की व्यक्तिगत, अंक : 5 & 6 - 2005. चैतन्य लहरी 32 शारीरिक और मानसिक अवस्था पर निर्भर अगली अवस्था अर्थात निर्विकल्प स्थिति में करता है। यह असम्प्रदयात समाधि की तरह से है । स्थापित हो पाना सम्भव है। परम पूज्य श्रीमाताजी साक्षात् ध्यान की अवस्था के अतिरिक्त आदिशक्ति हैं । उनकी शक्तियाँ सर्वव्यापी मस्तिष्क स्वच्छन्द रूप से कहीं भी जाने के हैं। वे सर्वज्ञ (तत्र निरातिश्यम सर्वज्ञ बीजं) है। चैतन्य लहरियाँ उनसे प्रसारित होने वाला लिप्सा लिए स्वतंत्र है । दैनिक जीवन में मस्तिष्क को अवचेतन और अतिचेतन के प्रणव हैं। (तस्थ वाचकः प्रणवः) जो शारीरिक एवं मानसिक रोग एवं व्याधियों को दूर करती बीच में भटकते रहने का कारण बनती है। हैं। साधना की उन्नति के मार्ग में आने वाली सुषुम्ना मार्ग पर चित्त को रखकर इस सम्भावित बाधाओं से बचने के लिए चैतन्य भटकन से बचना चाहिए। थोड़े से अभ्यास से कार्य करने के पश्चात् मर्तिष्क को मध्य में वापिस आने की आदत पड जाती है। दयालु हैं कि वे सभी को आत्मसाक्षात्कार चेतना सहायक होती है। श्रीमाताजी इतनी तत्पश्चात् चित्त को हृदय और फिर सहस्रार एवं निर्विचार समाधि प्रदान कर देती हैं। पर ले जाया जा सकता है। कुण्डलिनी जब उनके प्रति श्रद्धा ईश्वर प्राणिधान है जो पूर्व सहस्रार में विश्राम करती है तो निर्विचार कर्मों के बीज को नष्ट कर देता है और मोक्ष समाधिं की अवस्था को स्थापित किया जाना प्राप्ति को सम्भव बनाता है। उनके प्रति श्रद्धा सम्भव होता है। बाह्य बाधाएं स्वतः ही दूर हो एवं पूर्ण समर्पण आत्मा के साथ एकरूपता जाती है। परम पूज्य श्रीमाताजी ने निर्विचार है। वे सर्वोच्च हैं और सभी के भूत, भविष्य समाधि की अवस्था में स्थापित होने के महत्व और वर्तमान के बारे में जानती हैं। र पर बल दिया है क्योंकि इसी स्थिति से ही मत्समः पातकी नास्ति पापहनी त्वत्समा न हि । एवं ज्ञात्वा महादेवी यथायोग्यं तथा कुरु।। (महावतार 1980) -अनुवादित विवाह वं प्रभ ए सहजयोग में आने से पूर्व सभी चीजों में इस प्रथम नजरिए से मेरा जीवन वास्तव में परिवर्तित जीवन हो गया प्रथम एहसास से ही मेरा भय का तत्व होता है क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान पूरा परिवर्तित हो गया परन्तु इसका ये अर्थ नहीं है नहीं होता कि किसी स्थिति में वास्तव में क्या घटित हो रहा है या वास्तव में हम क्या महसूस कि उसी क्षण से मैं अत्यन्त साधु-स्वभाव एवं ा कर रहे हैं । प्रेम एवं विवाह भी छदम खेल है विवेकशील व्यक्ति बन गया नहीं। एक प्रकार से तो ये पाँच वर्ष मेरे जीवन का कठोरतम समय था। जिसके परिणाम के विषय में कुछ नहीं कहा जा ये कठिनाइयाँ सहजयोग के कारण नहीं थीं ये तो सकता। आत्म-साक्षात्कार प्राप्ति के पश्चात् हमारे वर्षा होती है तो मेरी अज्ञानता, उदण्डता संवेदनहीनता एवं आलस्य जीवन में जब श्रीमाताजी की कृपा जीवन की पूर्व अनिश्चितताएं धुल जाती हैं और के कारण थीं (किसी संत के शानदार गुण)। वास्तव में मैं स्वयं ही अपनी उत्क्रान्ति में बाधा थी। सभी भ्रम मूल्यवान स्पष्ट धारणाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। परन्तु सहजयोग में आने के पश्चात् यदि पश्चिमी देशों के साधकों की समस्याएं हम तुरन्त ये नही महसूस कर लेते कि आत्म- साक्षात्कार का अर्थ एकदम से पूर्णता प्राप्ति नहीं है पूर्व के साधकों से भिन्न होती हैं परन्तु बहुत से तो एक अन्य भय पनप सकता है। रातोंरात हमारे मामलों में हमारी कठिनाइयाँ एक सी होती हैं चाहे मा वे भिन्न दिखाई दें। प्रेम एवं विवाह भी ऐसी ही एक सभी निर्णय बिल्कुल ठीक नहीं हो सकते । विवेकपूर्वक हमें बढ़ना होगा जैसे नवजात शिशु को कठिनाई है । नकारात्मकता के आक्रमण के लिए से यह एक बहुत बड़ा आधार है क्योंकि परिवार ही तो ज्ञान आत्मसात करना होता है। ज्ञान सूझ-बूझ को आँखें बन्द करके रटा नहीं जा सकता। हमारे जीवन के आधार है। मेरे लिए समस्या मेरे ाम अवास्तविक विचार थे कि किस प्रकार मेरा विवाह सहजयोग में पाँच वर्षों के मेरे अनुभव होगा और विवाह और विवाह के पश्चात् मेरा जीवन कैसा होगा। अहं और प्रतिअहं एक दूसरे से लड़ते हैं प्रकटीकरण की एक श्रृंखलासम जिनका आरम्भ इस अवर्णनीय अहसास के साथ हुआ कि श्रीमाताजी रहे और उन्होंने मेरे सम्मुख दो तरह की आकृतियाँ से हमारा प्रथम साक्षात्कार हमारे अन्दर उस एहसास बनाई। एक तो शांत एवं विश्वसनीय साथी की और दूसरी रोमांचपूर्ण साथी की। इन दोनों विचारों को जगाता है कि सत्य, सौन्दर्य और दिव्यत्व हमारे का परिणाम एक ही था कि मुझे विवाह को नकार सभी स्वप्नों से कहीं अधिक सुंदर एवं सच्चे हैं। अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 34 श्रीमाताजी के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए, ये कहीं अधिक करना होगा क्योंकि नकारात्मकता के सारी मानवीय इच्छाएं भुला देनी चाहिएं। सहजयोग आक्रमण अब अधिक सूक्ष्म होंगे जो विवाह की में मेरे हाल ही के अनुभव हमारी परम करुणामय एकरूपता के आड़े आएंगे। मिलकर यदि सभी परमेश्वरी माँ के सम्मुख हुए मेरे विवाह के अनुभव बाधाओं का मुकाबला किया जाए तो कोई भी हानि से आए। मैंने उनकी सुरक्षा में रहकर उनके प्रति नहीं हो सकती। इसका मतलब ये भी नहीं है कि समर्पण के आनन्द को महसूस किया। ज्योंही मैंने परस्पर कभी किसी प्रकार का अन्तर न होगा। महसूस किया कि अपने नवविवाहित पति की इसका अर्थ प्रेमपूर्वक अन्तर्विरोधों को दूर करके प्रेममयी पत्नी बनना श्रीमाताजी की लीला का ही विवाह सूत्र को दृढ़ करना है। जहाँ तक मेरा एक हिस्सा था तो मैं आनन्द से रो पड़ी । सम्बन्ध है विवाह से हमें एक बच्चे का आशीर्वाद मिला, हमारा अपना श्रीगणेश। इस आशीर्वाद के जिस प्रकार से आत्म-साक्षात्कार एक एहसास को शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता । महान एहसास का आरम्भ है वैसे ही विवाह भी एक यह तो एक चमत्कार है हमारी श्रीमाताजी ने हमें महान समन्वय का आरम्भ है। परन्तु दोनों ही नर्क से स्वर्ग की ओर जाने का पथ दिखलाया है। साथियों को भली-भांति पोषित होकर उन्नत होना हम केवल उनका धन्यवाद कर सकते हैं और उनके चरण कमलों में समर्पित हो सकते हैं । होगा नकारात्मकता का मुकाबला पहले से भी ओऽम् त्वमेव साक्षात् श्री गृहलक्ष्मी श्री सीताराम साक्षात्, श्री आदिशक्ति माताजी, श्री निर्मला देव्यै नमो नमः ।। एक सहजयोगिनी लन्दन से (महावतार-1980) सहजयोगियों की दिनचर्या ( राउल बहन) सभी सहजयोगियों को चाहिए कि प्रतिदिन शाम के समय आरती करें और कुछ देर ध्यान में बैठें। सोने से पूर्व बंधन लेना और पानी पैर नियमित रूप से ध्यान धारणा में बैठे। प्रातःकाल जागने के पश्चात् बिस्तर में बैठे हुए ही लगभग दस मिनट ध्यान करें। बिस्तर छोड़ने से पूर्व सम्मानपूर्वक पृथ्वी माँ को प्रणाम करें, बन्धन लें और सर्वप्रथम श्रीमाताजी के फोटो के सम्मुख जाकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम करें, उनसे प्रार्थना करें और मौजूद हों तो पूरी मर्यादाएं निभाई जानी चाहिएं। उसके पश्चात् अन्य कार्यों में लगे स्नान करने के हमें चाहिए कि हम अत्यन्त विनम्र हों। ग्राह्य- पश्चात् पूजा करें, पूजा का आसन बिल्कुल स्वच्छ होना चाहिए। पूजा में काम आने वाली सभी चीजें वे कुछ पूछें केवल तभी बोलें उनके प्रवचन में बहुत अच्छी गुणवत्ता की होनी चाहिएं और उन्हें अलग-अलग ठीक से रखा जाना चाहिए। पूजा के स्थान को साफ करने के लिए झाडू भी बिल्कुल साफ होना चाहिए और इसका उपयोग केवल इसी स्थान के लिए किया जाना चाहिए। पूजा के लिएश्री माताजी पहुँचती हैं तब न तो उन्हें पुष्प समर्पण जल ताजा हो और पूजा आरम्भ करने से तुरन्त करने चाहिए और न ही उनके मस्तक पर कुम-कुम पहले नल से लें। यदि सम्भव हो तो तांबे के बर्तनों का ही उपयोग करें फोटोग्राफ को साफ करने पूजा होनी चाहिए। उनकी आज्ञा के बिना उनके क्रिया करना अत्यन्त आवश्यक है। सदैव श्रीमाताजी का नाम अत्यन्त सम्मान- पूर्वक लें और उनकी स्तुति करें जब वे साक्षात् में अवस्था में हों और हमारे अन्दर पूर्ण श्रद्धा हो। जब किसी भी प्रकार का व्यवधान न हों। वे सर्वशक्तिमान, सर्व्यापी एवं सर्वज्ञ है। जो भी कुछ वे हमें बताती हैं, हमें स्वीकार करना चाहिए और उसे जीवन में उतारना चाहिए। साक्षात् पूजा के समय या जब लगाना चाहिए। हमेशा उनके चरण-कमलों की ही चरणों को स्पर्श नहीं करना चाहिए। ये बात हमें वाला चस्त्र यदि हो सके तो लाल रंग का हो और भूली भाति साफ किया गया हो। इसका उपयोग हमेशा याद रखनी है। सभी सहजयोगियों को याद रखना है कि भी कहीं अन्य नहीं होना चाहिए। पूजा और ध्यान धारणा का उनके जीवन में सर्वोच्च पूजा करते हुए सबसे पहले जल (गुलाबजल) से फोटोग्राफ को साफ करें, कपड़े से पोछकर सुखाएं। फोटो पर कुमकुम लगाएं। फोटो समर्पण, पूर्ण श्रद्धा और श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय के सम्मुख पुष्प भेलपत्र आदि अर्पण करें। तीन बार मन्त्रोच्चारण करें और झुककर फोटो को संदेह करने से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा महत्व है। ब्रह्माण्ड स्वामिनी माँ जगदम्बा के आशीर्वाद की कामना यदि आप करते हैं तो पूर्ण आवश्यक है। प्रश्न पूछने से, सोच- विचार और प्रणाम करें। पूजा के पश्चात् कुछ देर ध्यान में बैठें, बाद में बन्धन लें। केवल स्नान के बाद ही पूजा की जानी चाहिए और पूजा का स्थान अच्छी तरह से सकता। अनुवादित (महावतार 1980 से उद्धृत) स्वच्छ होना चाहिए। की खास्तविकता जीखन शक्ति जो देख सकती है. आयोजन कर सकती है, आज के संसार में परमात्मा प्राप्ति के समझ सकती है और अन्य सभी कार्य कर सकती असंख्य धार्मिक एवं अन्य सिद्धांत प्रचलित हैं हर व्यक्ति की सर्वशक्तिमान परमात्मा के विषय में है. उनकी समझ से बाहर है । इसका कारण ये है कि उन्होंने ऊर्जा के कुछ ऐसे स्रोत खोज निकाले हैं जिन्हें नियंत्रित करके वे अपने मकसद के लिए अपनी ही धारणा है। इसलिए व्यक्ति के विश्वास एवं श्रद्धा बहुत हद तक परमात्मा के विषय में उसकी व्यक्तिगत धारणाओं पर निर्भर करते हैं। ऐसी बहुत सारी चीजें होती है जो उसे परमात्मा के विषय में नए-नए विचार देते हैं जैसे पुस्तकें. लोग और बाज़ार में बिकने वाले असंख्य गुरु। अंत में व्यक्ति परमात्मा को या तो भैंगी दृष्टि से देखने भी वो ये नहीं समझ पाते कि कहाँ से ये ऊर्जा लगता है या परमात्मा में विश्वास करना ही छोड़ आती है और कहाँ जाती है बहुत सी मूर्खतापूर्ण देता है। मनोवैज्ञानिक लोग कहते हैं कि भय, संस्कार तथा'इस प्रकार के अन्य कारणों से ही जीवित रहने के लिए है।" परन्तु अपना अर्थ जानने लोग परमात्मा में विश्वास करते हैं। वे यह देखने के बारे में आपकी क्या राय है? ये एक ऐसी चीज़ में असफल होते हैं कि परमात्मा किसी व्यक्ति है जिस पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। विशेष की धारणा नहीं है और न ही परमात्मा किसी उपयोग कर पाते हैं। उन्हें नियंत्रित करने वाली शक्ति को वै स्वीकार नहीं करते और इस प्रकार से स्वयं को ही धोखा देते हैं। क्या वे यह नहीं जानते कि जीवन ऊर्जा के कारण ही वे जीवित हैं? फिर धारणाएं विद्यमान हैं। उदाहरण के रूप में जीवन हर आदमी जानता है कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है? बेवकूफी भरी चीजों को गहन अर्थ देने का, कहानी के नायक हैं जिस पर किसी कारण से लोग विश्वास करते हैं । परमात्मा तो एक मात्र धोखाधड़ी, झूठ, धूर्त व्यवहार, अभद्रता आदि का वास्तविकता है, सभी चीजों का अस्तित्व उन्हीं से अर्थ खोजने का लोग प्रयत्न कर रहे हैं परन्तु स्वयं को लोग अनदेखा कर रहे हैं। है। एक नई धारणा जो अब लोगों के मस्तिष्क में घुस गई है और अत्यन्त नाटकीयतापूर्वक जिसे सांसारिक दृष्टिकोण के अनुसार इस कहा जाता है वह है -"हम परमात्मा को नहीं मानते हम तो आलौकिक शक्ति को मानते हैं।" अवस्था को व्यंग्यात्मक रूप से निःस्यार्थ अवस्था' एक बात उनकी समझ में नहीं आ सकती कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि यह आलौकिक शक्ति परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। परमेश्वरी शक्ति जो प्रेम करती है सोचती है. कहा जा सकता है। क्योंकि हर समय हम दूसरों के विषय में ही चिन्तित रहते हैं। पूरा समय यह गलतफहमी छुपी रहती है अभद्रंता को छुपाने के लिए बड़े-बड़े शब्द घड़े जाते हैं । निरंकुश यौन जानती है. समन्वयन करती है और. संक्षेप में, सारा संबंधों को प्रेम का नाम दिया जाता है. मद्यपान को कार्य करती है। अन्यथा ये पूरा ब्रह्माण्ड इतने समन्वित ढंग से किस प्रशार चल पाता? पूरे कार्य के पीछे कोई संस्था तो होनी ही चाहिए । ऐसी कोई शौक कहा जाता है, अभद्र भाषा अभिव्यक्ति कहलाती है और बनावट संभ्रान्तपना कहलाती है। किसी को भी इस बात का एहसास नहीं है कि दूसरों को अंक : 5 & 6 = 2005 चैतन्य लहरी 37 हानि पहुँचाने में वे सबसे अधिक अपना नुकसान समय है जिसमें हजारों साधकों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो जाएगा। ये प्रश्न किया जा सकता है कि कर रहे हैं। इस युग में ऐसा विशेष क्या है? उसका उत्तर ये यदि कोई कहे कि शराच पीना बुरी बात है है कि समय-समय पर दिव्य अवतरण पृथ्वी पर तो कोई नहीं सुनता क्योंकि धीमे-धीमे विषपान करना र्वीकार्य है। मद्यपान से केवल शरीर पर ही आए और महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई। ये भी उन्हीं में से एक काल है। अतः इसकी सम्भावना को नकारने या उसके विरोध की अपेक्षा क्यों न कुप्रभाव नही पड़ता परन्तु आत्मा के खोजने के लिए महत्वपूर्ण चेतना भी प्रभावित होती है आत्मज्ञान, हम स्वयं इसमें आकर ये देखें कि ये सब क्या है? एक अन्य प्रश्न भी किया जाता है, "माताजी कौन है?' इस प्रश्न के उत्तर में श्रीमाताजी कहती है, "पहले अपना अर्थ जान लो, स्वयं को समझ जो कि परमात्मा प्राप्ति का एक मात्र उपाय है, के अतिरिक्त हमें सभी कुछ महत्वपूर्ण दिखाई देता है। लेकिन कोई यदि गन्दगी का आदि होगा तो उससे रोने लो, तब आप मुझे जान जाओगे। स्वच्छता के बारे में बात करना व्यर्थ, है बिलखने तथा निराशावाद की पकड़ में जो व्यक्ति इतनी महान और असीम श्रीमाताजी के हो वह प्रसन्नता और आनन्द को कैसे समझ पाएगा? सर्वोपरि आज का व्यक्ति चौबीसों घण्टे विषय में कुछ कह पाना सम्भव नहीं है। इतना जान लेना काफी है कि वे हमारी अपनी माँ है जो हमें गहन प्रेम करती है, अगाध प्रेम। जितने मर्जी सन्देह भरे प्रश्न हम करते रहें परन्तु वे हमें अनन्त विचारों में डूबा रहता है। किस प्रकार वह निर्विचार समाधि, पूर्ण घेतना जहाँ सत्य, शांति एवं आनन्द है, का समझा सकता है? सत्य एव आनन्द साथ-साथ चलते हैं। यहुत समय तक महान कहलाने वाले, लोगों के पीछे साथक दौड़े हैं। परन्तु अब वे अपनी प्रेम करती हैं । अतः अच्छे बच्चों के रूप में ये हमारा कर्तव्य है कि हम वैसे ही बने जैसे हमारी माँ हमसे आशा करती हैं। और वो चाहती हैं कि हम रत्न बनें. ऐसे रत्न जिनकी स्वच्छता प्रेम, विनम्रता, महानता का एहसास कर सकते हैं. सत्य एवं अन्तरआनन्द को जान सकते हैं । ये सब किस प्रकार घटित होगा? उत्तर अत्यन्त सहज आनन्द और आत्मज्ञान की महानता एवं माँ की गरिमा दैदीप्यमान हो। बच्चा माँ से सि्फ इसलिए सहजयोग द्वारा । प्रेम करता है क्योंकि वह उसकी माँ है और आपकी माँ यदि परमेश्वरी हों तो किसी चीज से क्यों डरना ये अब घटित हो सकता है क्योंकि ये है! उनसे प्रवाहित होने वाले सुरक्षापूर्ण प्रेम में हमें कार्य करने के लिए अब परमेश्वरी माँ श्री निर्मला देवी हमारे मध्य हैं। उनके अनुसार यह बसन्त का प्रसन्न एवं आनन्दित होना है। ओऽम त्वमेव साक्षात श्री आदि शक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः । मनीष (महावतार 1980 से कक परम मूज्य श्री माताजी का प्रवचन 17 अप्रैल 1981) (नई दिल्ली अगर अन्दर से अव्यवस्थित हो तो बाहर जितना भी झंझावात हों, तो उसका जबरदस्त असर रहेगा। बड़ा अच्छा प्रोग्राम रहा। हम लोग जो देहली में उम्मीद कर रहे थे कि बहुत लोग आयेंगे तो बहुत लोग आ गये और पार भी हो गये इस प्रकार पहले भी होता रहा है, बहुत से लोग आते हैं पार भी हो जाते हैं, फिर खो जाते हैं। अगर आप अन्दर से बिल्कुल शान्ति हैं, तो बाहर कुछ भी हो रहा हो, उसका असर नहीं होगा, उल्टा जो बाहर है, वो भी शान्त हो जायेगा सबसे बड़ी चीज यह है कि अपने को जमा लेना चाहिए। अगर ऐसी जगह है, जहाँ बहुत उथल-पुथल है, तो ऐसी जगह से भली-भांति समझा-बुझा के किसी तरह से हट जाना चाहिए। उससे जूझना नहीं चाहिए और उससे हट जाना चाहिए और अपने दिल को वहाँ से हटा लेना चाहिए, जिससे हमारा चित्त जो तो पहली बात तो यह होनी चाहिए कि उन सब लोगों का कुछ न कुछ रजिस्ट्रेशन (Registration) कीजिए| आप कुछ ग्रुप (Group) में बाँट लीजिये और उनसे सम्पर्क सम्बन्ध स्थापित कीजिए। नहीं तो वो फिर खो जाते हैं और सहज योग में ऐसा है कि जब तक आदमी जम नहीं जाता, तब तक वो पनपता नहीं क्योंकि यह जीवन्त क्रिया (Living prcess) है, उस उलझन में, उस उथल-पुथल में व्यस्त न हो । सहज योग की अपनी अनेक समस्याएँ हैं! सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो लोग पार हो गये हैं उनकी चेतना और जो लोग पार नहीं हुए हैं है। हम लोगों को जान लेना चाहिये कि जीवन्त-क्रिया में क्या-क्या चीजों की जरूरत उनकी चेतना में बहुत बड़ा अन्तर है, बहुत महान होती है। सबसे पहले तो यह है कि कोई भी डांवांडोल जगह में यह जहाँ हर समय अन्तर है। थोड़े से ही क्षण में बड़ा अन्तर आ जाता है पार होने पर। वो इस चीज को समझ नहीं पाते। इसलिए कबीर रोते थे कि "सब ज़ग अन्धा, सब जग अन्धा"। जितने भी बड़े लोग हुए, यह कहकर रोते रहे कि, "एक हो तो कहूँ, यहाँ तो सब जग 1. (earthquate या eruptions) भूचाल होते रहते हैं, कोई भी ऐसी जगह हो तो वहाँ कोई सा पेड़ या ऐसी चीज़ टिक नहीं सकती। तो जिस वातावरण में हम रह रहे हैं, उस वातावरण में हमको पहले अपने आपको जमा लेना चाहिये। अन्धा, सब जग अन्धा" । जब सारे अन्धों के बीच में आप रह रहे हैं और जमाने के लिये सबसे बड़ी बात यह है कि जमाने के लिए हमारे चारों ओर आस-पास का जो वातावरण है, उससे जूझने की कोई जरूरत नहीं है। आप अपने से ही अगर ठीक हो जायें, तो बाहर की जितनी भी चीजें हैं, धीरे-धीरे अपने आप स्थिर हो जायेंगी। जो कुछ अन्दर है वही बाहर है। और सिर्फ एक आदमी के आँख है, तो बड़ा ही मुश्किल है दूसरों से बातचीत करना और जब आप किसी से सहजयोग की बात करेंगे तो वो लोग आप पर ऐसा असर डालेंगे कि आप ही बेवकूफ हैं। उस पर भी आप समझने लगे कि ये लोग अन्धे हैं तो उनको बहुत बुरा लग जायेंगा, अगर किसी भी चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 39 तरह आप उनसे कहें कि आप में गलती है और आपकी संभलना है। तो इन्सान को समझ लेना चाहिए कि आपकी चेतना और है। जैसे कि एक बीज है, ये बीज प्रस्फुटित हो गया जिसको कहना कोई आफत से आप बच जायें। अच्छे से दिन निकल जाये, कुछ गहरी परेशानियों से निकल जायें, परन्तु यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सहजयोग में आपकी कितनी वृद्धि हुई है, प्रगति हुई है। यह खास चीज है और इस वृद्धि के लिए आपको मध्य में रहना चाहिए. अपने चित्त पर निरोध होना चाहिए. which is being manifested now, which is sprouting. इन दो बीजों में बड़ा भारी अन्तर होता है- एक बीज जो जम रहा है और दूसरे बीज का तो कोई सवाल ही न जमने का वो तो बिल्कुल ही वैसा का वैसा पड़ा है और बैसे ही पड़ा रहेगा, सदियों तक। एक बीज जो जम रहा है, वो अलग चीज है और दूसरा बीज जो बिल्कुल ही वैसा पड़ा है, बिल्कुल ही दूसरी चीज़ है । ही उठता मतलब यह है कि अपने चित्त को देखना चाहिए कि कहाँ जाता है। आपके चित्त पर निरोध होना चाहिए। अपनी आदतों को देखियें, आपका चित्त किस चीज में बहुत ज्यादा उलझता है। जैसे किसी को ज्यादा बोलने की आदत है, माने एक तरह का बहकावा, बहलावा है। तो साहब अब जमने के लिए भी हमें हमेशा मध्यमार्ग रहना चाहिए। एक पेड़ की जो सध्य शाखा है. अपना नाम लिख लीजिये और समझ लीजिये कि मिस्टर फलाना फलाना, आप बोलते ज्यादा हैं, या मध्य में जो चीज चलती है, जो उसका पानी आप इसे कम करिये और आप बोलने पर अपना का प्रवाह है, जिसको sap कहना चाहिए, वो चित्त रखिये कि आप बोलते ही न जायें बीचोंबीच चलता है पेड़ भी हमेशा बीचों-बीच रहता है, एक तरफ ज्यादा झुकता नहीं, न दूसरी तरफ झुकता है। अगर उसने झुकना शुरु कर दिया तो उसकी ठीक से (growth) बढ़ोतरी नहीं रास्ते पर है। इसमें रहे या उसमें, दोनों ही चीज में होती। यो बढ़ नहीं सकता, पनप नहीं सकता। इसलिए ये जरूरी है कि इन्सान को जहाँ तक हो है दूसरा एकदम चुप रहता है, यानि जरूरत से ज्यादा कोई आदमी चुप रहता है तो भी गलत आदमी गलत रास्ते पर चलता है। सके, मध्य में रहना चाहिए। चित्त पर निरोध रखना चाहिए। अगर बोलते ज्यादा हों तो कम करें, अगर कम बोलते हैं वो बात जो मैं आपको विशेष रूप से तो ठीक ठीक बोलें। फिर हम बोलते समय क्या समझाने वाली हूँ, यह है कि आपको हमेशा मध्य में बोलते हैं. उस पर भी ध्यान रखना चाहिए। बेकार रहने की कोशिश करनी चाहिए। अगर मध्य में की बातें करने की कोई जरूरत नहीं। जहाँ तक हो सके तो सहजयोग की ही बात करें जहाँ तक हो सके उसी परमात्मा की ही बात करनी चाहिए। लेकिन अगर कुछ बोलना भी हुआ तो थोड़ा बहुत ठीक ठीक कह दिया। बात करें और फिर उससे नहीं रहेंगे और किसी भी (Extremes) अति पर उतरना छोड़ न देंगे तो आपकी growth ही नहीं हो सकती। हो सकता है कि कोई परेशानी है. या कोई accident है, उससे आप बच जायें या और चैतन्य लहरी 40 5 & 6- 2005 अक : तो फिर सहजयोग में आने पर भी यह विचार हमारे अन्दर बने रहते हैं। बहुत से लोग हैं अपना चित्त हटा लें। इससे आदमी का चित्त बीच में रहता है। परमात्मा की ओर दृष्टि रखने से चित्त हमेशा बीच में रहता है। समझ लीजिये झगड़ा है दो ग्रुप के लोगों में। एक कहेंगे कि साहब इनमें खराबी है, दूसरे कहंगे कि उनमें खराबी है। इन्सान में तो खराबी होती ही है वो चाहे किसी भी संस्था में क्यों न हो। इन्सान में और यदि हम परमात्मा के बारे में ही बोल रहे हैं या और किसी के बारे में बोल रहे हैं, और बहके जा रहे हैं, इस पर ध्यान देना चाहिए। इसमें बहुत सारी चीजें होती हैं जैसे कि किसी की गलती होती है। आप देखियेगा किसी बहाने से उसमें दोष आ ही जाते हैं । (Argumentative Nature) बहस करने की आदत होती है, यानि बहस करने की ही आदत्त हो सहजयोग ऐसी प्रणाली है जिसमें आने से सारे दोष जो हैं, वो खत्म होने लग जाते हैं। और जब आपके दोष खत्म होने लग जायें तो समझ लेना चाहिए कि आपने बड़ी भारी चीज़ हासिल कर हैं गई। दूसरे जैसे किसी में कंजूसी जरूरत से ज्यादा होती है। कोई आदमी पैसे के मामले में बड़ा meticulous होता है, हर चीज़ का, पैसे-पैसे का हिसाब लिखता है। ली। जब तक आपके अन्दर वही दोष बने हुए और आप उन्हीं चीजों में उसी प्रकार लगे हुए हैं. दूसरों से झगड़ रहे हैं, जूझ रहे हैं, तो आपको समझ लेना चाहिए कि आप मध्य में नहीं हैं। इस तरह से बहुत सी आदतें हमारे अन्दर हैं जिनको हम Misidentification कहते हैं। जैसे कि कोई आदमी जनसंघी है. वो सोचेगा इम क्योंकि जब आप मध्य में आ जायेंगे तो आप किसी भी एक चीज़ में लिपट नहीं सकते, आप सबमें समाये रहते हैं। जब तक आप एक चीज़ में लिपटे जनसंघी हैं, कांग्रेसी अपने को कांग्रेसी कहेगा। कोई कहेगा मैं हिन्दुस्तानी हॅँ, कोई कहेगा मैं औस्ट्रेलियन हैॅ। यह सब चीजें छोड़कर पहले तो और हम परमात्मा के बन्दे हैं। हैं, तो समझ लेना चाहिए आप मध्य में नहीं है। है हम इन्सान और मध्य में रहना ही एकमेव तरीका है. वृद्धि का और कोई तरीका है ही नहीं । परमात्मा ने हमें माना है, हमें Realization दिया है, जो सारे धर्मों का सार है. जिसे सबने माना हैं संसार में कोई धर्म नहीं है जिसने कहा हो कि आप हर चीज में आदमी चलता है। जैसे कोई पीर न हो या आप आत्मसाक्षात्कारी न हों. या द्विज न हों। ऐसा कोई धर्म नहीं। अब जब हम वो हो गए हैं. तो फिर हमारे लिए सब धर्म एक हैं और सब धर्म का तत्व है जो वह एक सार हममे समाया हुआ बड़ा intellectual होगा। उसकी यह आदत होगी कि वह बहुत ज्यादा हर चीज को सोचेगा, analyse करेगा और हर चीज़ का मतलब निकालता रहेगा। ऐ से करते-२ उसकी बाई विशुद्धि (Left सिम | आप जानते हैं कि हमारे अन्दर ही सारे धर्म हैं और हमारे अन्दर ही सारे देवता (Deities) बैठे हैं। तो फिर हमारे लिए सब धर्म एक हैं। Vishuddhi) बहुत जोरों से पकड़ सकती है क्योंकि वो अपने को Criticise करेगा कि मैंने ये हुए गलत काम किया वगैरह वगैरह। इस प्रकार उसके अंक 5 & 6 -2005 चैतन्य लहरी 41 को एक कपड़ा अन्दर जरूर पहनना चाहिए। मतलब यह है कि undershirt जरूर पहनना , भी चक्र पकड़े जायेंगे| अगर कोई मूर्ख होगा तो वो सामने की चीज को भी नहीं देखेगा अति अक्लमन्द भी किसी काम का नहीं, मन्दवुद्धि भी किसी काम का नहीं है। बीचोंबीच रहना चाहिए। परमात्मा की जो बुद्धि है, वो बीचांबीच है। उसी की बुद्धिं में समाकर नहीं पहनने से sense of insecurity बढ़ जायेगी रहना चाहिए। "तेरी जो बुद्धि है उसी में मुझे आपके दर्द होना शुरू हो जायेगा, जुकाम हो चला, तेरी जो आज्ञा है उसी में मुझे रहना है और पूरी तरह से उसमें मुझे समा ले।" इसी तरह की जय बुद्धि होती जायेगी तो धीरे-२ आप देखियेगा कि आपके प्रश्न हल होने शुरु हो जायेंगे और प्रश्न खडे ही नहीं होंगे। चाहिए । पूछते हैं कि माँ तुमने यह क्यों बन्धक डाली। वजह यह है कि अगर शर्ट के नीचे एक और कपड़ा होगा तो आपका जो चक्र जिसे अनहद चक्र कहते हैं. उस पर protection रहेगा। यह जायेगा, तरह-२ की बीमारी हो सकती है। क्योंकि जब आपके अन्दर गर्मी हो जाती है, पसीना छूटता है तेब उसका कुछ (Absorber) सोखने वाला होना चाहिए । नहीं होगा तो उसमें हवा लगेगी और यह छोटी सी चीज़ भी चक्र को नुकसान पहुँचा सकती है। क्योंकि चक्र की भी देह होती है, अगर हम लोगों में पकड़ भी इसीलिए आती है देह को कोई नुकसान हो जाये तो वो चक्र पर भी दिखाई देगा। इसलिए धीरे-२ वो चीज बढ़ती जाती है। इसलिए सहजयोग में इसका बन्धक है कि आपको जहाँ तक हो सके अन्दर कपड़ा कि हम ( extremes) अति पर चले जाते हैं और अपनी आदते नहीं बदलते। हर वार हम extreme पर चले जाते है या किसी न किसी extreme पर रहते हैं। जैसे अगर किसी औरत को कपड़ों का पहनना चाहिए। शौक है. तो उसको देख लेना चाहिए कि उसका हम लोगों में से कुछ ने अपने पिछले जीवन में भक्ति के तरीके इस्तेमाल किये। भवों के जरूरत से ज्यादा कपड़े पर ध्यान है, और उधर हमारा चित्त बटता है। क्या जरूरत है इतना ध्यान उधर देने को सर्वसाधारण तरीके से रहना चाहिए । बीच concentrate करने का रीका भी बहुत ने इस्तेमाल किया था । इस तरह की चीज प्रयोग में लाने का विचार पता नहीं कहाँ से उनके अब अगर दूसरी औरत हैं जो कहती है कि हमें किसी चीज़ की परवाह नहीं । उस औरत को ऐसा भी नहीं सोचना चाहिए क्योंकि वो भी एक दूसरा extreme हो गया कोई सोचे जैसे कि हमें तो कुछ भी परवाह नहीं, कि हम तो सन्यासी हैं-तो यह भी सहजयोग में बन्धक है। लोगों मन में आया था। यह बहुत गलत ीज है । जिसने ऐसा concentration का इस्तमाल किया है, इससे आज्ञा चक्र बहुत खराब हो सकता है ऐसे | इन्सान को चाहिए कि वह अपना चित सहसार पर रखे और सहस्रार पर हमें बैठाये। हमको यहाँ सहस्रार में बैठाए या हमको हृदय में बैठाए। एक यह भी एक बन्धक है। छोटी-२ चीजों के लिए ही बात है इसका ठीक करने का यही तरीका है । उससे आप देखियेगा कि कितना फर्क पड़ता है सहजयोग में बहुत सारे बन्धक हैं उसमें सहजयोग में बताया गया है, जैसे कि हर इन्सान अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 42 अभी आप कोशिश करें, हमें हृदय में बैठाएं। अभी आप हमारी तरफ देख रहे हैं। हमें हृदय में बैठाएं। आँख खुली रखें उसके बाद हमें सहस्रार पर बैठाने की कोशिश करें आँख खुली चाहिए, कि यह क्या बेवकूफी है कि हम हर समय ऐसा क्यों करते हैं? ऐसे आदमी को पीछे हटना चाहिए। कोई आदमी ऐसा होगा कि पीछे ही रहेगा. सामने आयेगा ही नहीं । काम होगा, मुँह मोड़ कर चला जायेगा। कुछ बात होगी, उधर चला जायेगा। काम-टालू जिसे कहते हैं. इस तरह के भी कुछ लोग होते हैं। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि रख कर यह प्रयत्न करें कि सहस्रार पर माँ को बैठाएं । आँख बन्द न करें। जब हम यहाँ बैठे हैं तो क्यों आँख बन्द कर रहे हैं? अब हल्का हो रहा है। 1 हम काम-टालू आदमी हैं, परमात्मा का काम है, अब आप जिस चीज़ को imagination उसे हमें करना चाहिए। इस तरह चित्त को बराबर कहते हैं, वह साक्षात् हो रहा है। अब आप जिस बीच में रखना चाहिए। जो आपकी आदत है, उस जिस चीज को को छुडाने का यह तरीका है कि आप दूसरी आदत डालें। जैसे आप काम-टालू हैं तो काम करिये। अगर अति काम करते हैं तो थोड़ा कम करिये। चीज़ को कहेंगे हो जायेगी। imagine करते हैं वो साक्षात् हो जायेगी। अब imagination साक्षात् होने लगता है पार होने से पहले अगर आप कहते हैं कि माँ को हम हृदय में बैठायें पर आप नहीं बैठा पाते| लेकिन अब तो 1 चित्त अब अन्दर घूम रहा है। आप खुद ही महसूस करेंगे कि अब चित्त अन्दर घूम रहा है। चित्त सहस्रार पर आ गया। अब चित्त से आप खोल सकते हैं सहस्रार । चित्त अन्दर घूम रहा है, आप माँ को हृदय में बैठा सकते हैं। अब आप चित्त को हर जगह घुमा सकते हैं। चित्त को हृदय में बैठा सकते हैं। देखिये चित्त को हृदय में ले जाइये, अब चित्त का movement आपको मिल गया। अब आप चित्त को अन्दर ले इससे पहले चित्त-निरोध की बात हो ही नहीं सकती थी। क्योंकि अपनी attention को जा सकते हैं। अब आप चित्त का निरोध करें, और भी आसानी से आप गहरे उतर सकते हैं। आप पकड़ नहीं पाते थे। अब attention आपके हाथ में आया है इससे पहले कोई भी बात होती थी उसका अर्थ कोई नहीं लगता था । अब सहस्रार पर बैठाइये हमें आँख खुली रखें और हमें सहस्रार पर बैठाइये हर चीज़ में अपनी आदतों को देखना चाहिए। जब आप देखना शुरु करेंगे, अपने को साक्षी बनायेंगे तभी आप हर चीज़ की गलती समझ पायेंगे। अब मैं आपसे कहती हैं कि बीच में रहिये। मतलब यह कि अपना चित्त इधर उधर गिरना बिखरना नहीं चाहिए, यानि spill नहीं होना चाहिए. कहीं छिटक नहीं जाना चाहिए। चित्त को पकड़े रहना चाहिए। चित्त पर कन्ट्रोल होना चाहिए। चित्त से ही अ्रगति (growth) होती है। कुछ लोगों को यह आदत होती है कि आगे आगे रहना। पहले आगे खड़े रहेंगे। जब हम जायेंगे तो जरूर सर उनका आगे रहेगा, कि फौरन लगाये या आगे दौंड़ेगे। ऐसे आदमी को सोचना परमात्मा आप पर कृपा करें। े रु इंसा-मसीह ईसामसीह पूजा 2004 के अवसर पर पूजा पूजा 2004 के अवसपर पर पुणे में उपस्थित सहजयोगी चैतन्य रूप में परिवर्तित हो गए । स्टेडियम में प्रकाश जाि सज्जा में नाचती हुई कुण्डलिनियाँ । की ज दिसम्बर 2004 में विवाहों के अवसर पर स्टेडियम में लिया गया फोटो । रा ---------------------- 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-0.txt 70 चैतन्य लहरी मई-जून, 2005 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-1.txt न 1 जनवरी 2005 को मुम्बई युवा शक्त की एक योगिनी द्वारा खींचे फोटो में श्री माता जी की दाई विशुद्धि पर सूर्य । वाशी चिकित्सा केन्द्र, मुम्बई के एक सामूहिक कार्यक्रम में खींची गई फोटो में कुण्डलिनियाँ ला मूलाधार से विशुद्धि तक कुण्डलिनी का आरोहण 25-12-2004, ईसामसीह पूजा, पुणे में पूजा स्यान से प्रस्थान करने के बाद भी फोटो में श्री माता जी सिंहासन पर विराजमान हैं । ७) C० 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-2.txt ु परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी NIRMALA. UNIVERSAL PURE BELIGION इस अंक में परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र (लंदन 11 जुलाई 1980) 3. जन्मदिवस समारोह मुम्बई 21.3.1977 4. महालक्ष्मी पूजा कोल्हापुर 1.1.1983 20. एक अनुभव श्रद्धा भक्ति एवं समर्पण 22. 23. आत्म-साक्षात्कार का अथ सहजयोग 24. मनुष्यत्व का चरमोत्कर्ष 28 . पातांजलि की सूक्तियाँ एवं सहजयोग 33 प्रेम एवं विवाह 35. सहजयोगियों की दिनचर्या 36. जीवन की वास्तविकता 38. परम पूज्य श्री माता जी का प्रवचन 17.4.1981 DHARMA VMHSIA 9. 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-3.txt चै त नय ल ह री प्रकाशक निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टेकनोलोजीजज़़ प्रा. लि. मुख्य कार्यालय इन्फेासिज़ हाउस, प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पॉड रोड कोठरुड़ पुणे 411 029 मुद्रक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिजाइनर्ज त्रीनगर, दिल्ली-110035 मोबाइल : 9868545679 आप अपने सुझाव एवं सदस्यता के लिए निम्न पते पर लिखें : श्री जी.एल. अग्रवाल निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टेकनोलोजीज़ प्रा. लि. 222, देशबन्धु अपार्टमैंट, कालकाजी, नई दिल्ली-110 C19 फोन : 26216654, 26422054 आप अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463). ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली-110034 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-4.txt परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र (मराठी से अनुवादित) लन्दन, ।। जुलाई ।980 ब्राम ाम आत्मतत्व पर भरोसा करने की योग्यता होनी चाहिए। अन्य लोगों को भी इसमें स्थान दें परन्तु सबसे पहले इस अवस्था में स्थापित हो जाएं। बहुत से सहजयोगियों ने बहुत से रोग ठीक किए हैं। उनके मन में मेरे लिए तथा अन्य लोगों के लिए अग्राध प्रेम है। अपनी पूर्व संपदा के कारण ये लोग कुशल हो गए है और वे यह कार्य कर सके। परन्तु हमारे अन्दर कुछ बुद्धिवादी लोग भी हैं जो अपने ज्ञान और बुद्धि के कारण सहजयोग की गहनता नहीं प्राप्त कर सके हैं। सहजयोग में पुस्तकों की कमी है। हमें हर भाषा में पुस्तकें लिखनी होंगी भिन्न शहरों में जाकर सहजयोगियों को भाषण भी देने चाहिएं। बहुत से लोग मुझे अपनी कविताएं भेजते हैं। हमें चाहिए कि इनका संग्रह करें । इसी प्रकार से मेरे पत्रों को भी छापा 1 बुस ॐ सर्व सहजयोगी गण, गुरु पूर्णिमा की संध्या पर आपका केबल प्राप्त हुआ। अत्यन्त सुन्दर शब्दों में जो भावनाएं आपने व्यक्त की हैं वो मेरे हृदय में उतर गई है। लन्दन में गुरु पूर्णिमा दिवस समारोह के अवसर जा सकता है। इस तरह का विज्ञापन आवश्यक है। पूरे विश्व को इस बात का ज्ञान होना आवश्यक पर मैने आत्म--साक्षात्कार की व्याख्या की और बताया कि आपने इसे प्राप्त किया है या नहीं। है कि कलयुग में विश्व की रक्षा करने के लिए सहजयोग ही एकमात्र उपाय है में एक पुस्तक लिख रही हूं परन्तु अभी यह सबके लिए उपयोगी नहीं है। सभी लोगों को चाहिए कि मेरे परामर्श की ओर ध्यान दें। सभी ध्यान केन्द्रों को भी इसी के अनुसार समझाया जाना चाहिए। डाक द्वारा भेजने के स्थान पर मैं इस प्रवचन का टेप किसी व्यक्ति के हाथ आपको भेजूंगी। अपने पिछले पत्रों में मैंने आपको 'आत्मतत्व' पर सोचने का परामर्श दिया था । आप क्योंकि आत्मा-स्वरूप हैं अत: आपके मन, बुद्धि और अहकार आत्म ज्योति द्वारा ज्योतित होने चाहिएं। बुद्धि में विवेक का प्रकाश केवल तभी चमकता है जब इसे आत्म ज्योति पूर्णतः ज्योतिर्भय कर दे । तब मन प्रेम-सुगन्ध प्रसारित करता हैं और अह महान एवं श्रेष्ठ कार्य, तथा व्यक्ति का अन्तर्अस्तित्व पूरी तरह से ज्योतिर्मय हो उठता है। आपमें माँ की ओर से सभी सहजयोगियों को अनन्त आशीर्वाद । हमेशा आपको याद रखते हुए आपकी माँ निर्मला 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-5.txt दिवस समारोह जन्म (मुभ्वई 21.3.1977 ) परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (सहजयोग को समझने के लिए श्रद्धावान हृदय का होना आवश्यक है) ुा र े यहाँ पर आए सभी सहजयोगियों तथा मेरा ये सांसारिक जन्मदिवस मनाने के लिए यहाँ स्वभाव है। इसे इस प्रकार होना ही हैं इसमें मैं कुछ नहीं कर सकती। ये तो एक घटना है जिसे पर आए अन्य सभी लोगों की मैं अत्यन्त आभारी, घटित होना ही है इसे आप कुछ और नहीं बना अत्यन्त धन्यवादी हूं। आनन्द एवं प्रसन्नता से मैं सकते ये स्वतः कार्य करती है और किए चले ओत-प्रोत हूँ और ये देखकर कि इस कलियुग में जाती है स्वयं को आप सबसे प्रेम करने से रोकना भी लोग उस माँ के प्रति इतने अनुगृहीत हैं, जो मेरे बस की बात नहीं। मेरी समझ में नहीं आता किस प्रकार लोग घृणा करना सीख लेते हैं! मेरे पास तो लोगों को प्रेम करने के लिए ही पर्याप्त समय नहीं है! चौबीस घण्टे भी मुझे बहुत कम आप हैरान होंगे कि मैं कुछ न दे सकती हूँ न ले समय लगता है। मैं नहीं जानती कि लोग किस प्रकार बैंठकर षड़यंत्र रचते हैं और आँखें बन्द केवल अमूर्त चैतन्य-लहरियाँ ही पदान करती हैं, चैतन्य-लहरियों मेरी आँखों से अश्रुधारा के रूप में बह रही हैं। वास्तव में मैं आपको कुछ नहीं देती। सकती हूँ। ये तो मुझसे प्रवाहित होती हैं । ये मेरा 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-6.txt अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 5 करने के तरीके सोचते हैं। घृणा में करके घृणा कोई शक्ति नहीं है, ये तो आपके लिए तथा अन्य जागृति के कार्य को बहुत आगे बढ़ाया है। किस प्रकार आप उनकी आलोचना कर सकते हैं? उनके लोगों के लिए भी विनाशकारी है । विरुद्ध कहा गया एक भी शब्द मैं सहन नहीं कर सकती। मैं जानती हूँ कि उन्हें कितना सताया इस अवस्था में मैं आप सबसे अनुरोध गया और आज उनके विरुद्ध बोलने वाले लोग इस करूगी कि हर समय प्रेम के विषय में सोचें। आप देश पर शासन कर रहे हैं। आप तो उनके चरणों सभी लोगों को चाहिए कि सबको खुले हृदय से स्वीकार करें। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं चाहती हूँ कि आप लोग खुश रहें। आपकी खुशी के लिए मैं प्रार्थना करती हैँ। मैं आपके लिए जीवित हॅँ। चाहे पर पहुँचने के योग्य भी नहीं। तो क्यों आपको इतनी बड़ी-बड़ी बातें करनी चाहिए? समझें- कि आपने जीवन में क्या किया है? आपने ऐसा क्या किया है कि आप इन महान अवतरणों की आलोचना मे जागृत अवस्था में हूँ या मध्य अवस्था में, जब भी आप मुझे पुकारते हैं तो मैं आपके साथ हूँ। हर क्षण आप मेरे विचारों में होते हैं। आज मैं आप सबके मैं कर रहे हैं? झटके से कार रुकी क्योंकि कार के हुए थे और सामने सड़क पर बहुत से लोग लेटे लोग सड़क पर खड़े होकर कार को रोक रहे थे। वो मेरे नाम के जयघोष करने लगे, मैं आश्चर्य कुछ लिए अत्यन्त मंगलमय नववर्ष की कामना करती हूँ क्योंकि आज नवरोह का दिन है और नवरोह ने चकित थी। पृथ्वी पर जब अपना कार्य शुरु किया था तो वह मैंने पूछा, कि आप लोगों को कैसे पता एक महान सहजयोगी था। वह श्री दत्तात्रेय का चला कि मैं इस कार में हूँ? उन्होंने कहा, "आपने हमें चैतन्य लहरियाँ दी हैं। हमें पता चल गया कि अवतरण था शास्त्रों में आपको मोहम्मद साहब के बारे में भी बताया गया है। मुझे आपसे बताना है यही कार हमें चैतन्य लहरियाँ दे रही है।" अब कि वे मेरे पिता थे और साक्षात दत्तात्रिय के अवतार आपको यहाँ उतरना पड़ेगा। मैं वहाँ उतरी और उन सबको गले लगाया और हमारे सहजयोगी जो दुूसरी ओर खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे, मैंने कहा कोई 1 थे वो कोई सामान्य व्यक्ति न थे। जीवन पर्यन्त लोग उन्हें सताते रहे। हर क्षण उन्हें सताया गया। हजरत अली भी महान अवतरण हैं। वे दोनों एक बात नहीं, यही सहज' है, अर्थात् लोगों से प्रेम करना। उस समय मुझे ऐसा ही महसूस हुआ जैसे हैं। श्री ब्रह्मदेव ने केवल एक बार अवतार लिया और वह था हजरत अली के रूप में। अतः ये लोग एक बार श्रीराम को हुआ था। उन लोगों से आपको किस प्रकार ये चीजें महसूस होती हैं? इतने महान है कि आप इनकी आलोचना नहीं कर सकते। ये इतने महान हैं। उनका कहा हुआ हर अत्यन्त साधारण लोग श्रद्धा से परिपूर्ण, सहज शब्द मंत्र है। नमाज के विषय में उन्होंने जितना हृदय वाले, उनमें आपका प्रेम पाने और महसूस कुछ बताया है वह कुण्डलिनी जागृति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। मोहम्मद साहब ने सहजयोग के लिए महानतम कार्य किया है और कुण्डलिनी करने की कितनी भावना थी! प्रेम की आवश्यकता सभी को है। प्रेम के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। आपका पूर्ण अस्तित्व ही प्रेम पर टिका मि S ०S 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-7.txt अक : 5 & 6-2005 चैतन्य लहरी अन्दर से फूट पड़ रहा है। इस प्यार को प्रसारित करने तथा इसे देने के विवेक का आनन्द भी लें। हुआ है। मैं चाहती हूैँ कि इस देश के आप सभी लोग यह समझे कि -जब तक आपके हृदय में प्रेम न हो, बाहर कुछ भी करने का प्रयत्न न करें क्योंकि बिना प्रेम के यदि आप कुछ करने का प्रयत्न करेंगे तो आपकी तुरन्त पोल खुल जाएगी। हर मनुष्य समझता है कि प्रेम क्या है आपके साथ बहुत सी चीजें घटित हो रही हैं। आपमें दिव्य परिवर्तन हो रहे हैं । मैं जानती हूँ ऐसा देने में महानतम आनन्द और प्रसन्नता है। लैने में कोई आनन्द नहीं है। राहुरी में इन्होंने जो कार्य किया है उसके विषय में आपने सुना है। जब मैं राहुरी विश्वविद्यालय जा रही थी तो आसपास के लोगों को पता चला कि हमारी कार इस रास्ते से गुजरेगी। वै सर्वसाधारण ग्रामीण लोग हैं। उन्होंने किसी योग के विषय में नहीं पढ़ा। चैतन्य लहरियों हो रहा है। साक्षात श्रीचक्र पृथ्वी पर उतर आया है का ये जो अनुभव आपको होता है उससे अधिक चैतन्य- लहरियों के विषय में वो कुछ नहीं समझते और सत्य युग का आरम्भ हो चुका है। यही कारण कि आप लोग इन चैतन्य लहरियों को अपनी अंगुलियों पर खोज रहे हैं और ये गुरु और ॠषि यह आत्मगत ज्ञान है। इसका कोई कार्य नहीं है। ये आत्मानुभूति है जिसे आप अपनी अंगुलियों पर महसूस करते हैं। लोगों ने इनका वर्णन किया था उन्होंने नहीं जिन खोजा, क्योंकि श्रीचक्र के आने के बाद ही यह अगने अस्तित्व पर महसूस करते हैं, परमात्मा की इस कृपा को। मैं जब वहाँ से जा कार्य सम्भव था। यहाँ पर इन्हें महसूस करना है रही थी तो ख्वाज़ा निजामुद्दीन माहिब भी महान औलिया थे इस बारे में कोई सन्देह नहीं है। परन्तु खिलजी जैसे भयानक राजा ने उन्हें सताने प्रेम ही ज्ञान है और ज्ञान ही प्रेम और समझना है। है। इससे आगे कुछ भी नहीं। आपके पास यदि ज्ञान है तो इसे प्रेम की परीक्षा पास करनी होगी। आप यदि किसी को जानते हैं तो इस पर आपको का प्रयत्न किया। उसका कत्ल हो गया और मृत लोगों में उसकी गिनतीं होने लगी। ख्वाजा कोई असर नहीं होता क्योंकि आप उसे बाह्य रूप से जानते हैं परन्तु यदि आप किसी को प्रेम करते निज़ामुददीन साहिब की दरगाह पर जाकर आप हैं केवल तभी उसे अच्छी तरह से समझते हैं। बहुत चैतन्य लहरियाँ देखें । आप चिश्ती और उनके मकबरे को देखें। अजमेर शरीफ में भी आपको है। यही वह ज्ञान है जिसे हम पराज्ञान कहते हैं। ऐसा ही देखने को मिलेगा पटना जाकर पटना हमें यही ज्ञान खोजना है सारे ग्रन्थ इसकी ओर साहिब देखें, वहाँ पर आपके महावीर साहब हैं, वहाँ हैं इन सभी लोगों ने भी उसी अच्छी तरह से आप उसे जानते हैं कि वह कैसा चैतन्य-लहसियाँ भी इशारा करते हैं। ये ग्रन्थ मील के पत्थर है जो हमें बताते हैं, "बढ़े चलो, बढ़े चलो। परमात्मा के सत्य के विषय में बत्ताया जो मैं आपको बता रही हूँं, परन्तु आज आप उन्हें समझ सकते हैं। आप जान जाएंगे कि वो कौन हैं। साम्राज्य में प्रवेश करने की समस्या का समाधान ये नहीं करते। मेरा आप सबसे अनुरोध है कि आप अपने अन्तर्निहित परमात्मा, परमात्मा के प्रेम को समझने की अवस्था प्राप्त करें। यह प्रेम आपके कृपया विनम्न बनने का प्रयत्न करें। 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-8.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 7. सर्वप्रथम अपने अंदर इस शाश्वत सत्य को पा मैं जो कुछ भी कह रही हूँ वह पूर्णतः सत्य है। लें। अपना शरीर यंत्र परमात्मा को समझने का हज़रत अली साहब का नाम लिए बिना आपके दिव्य उपकरण बनने दें। इधर-उधर से पढ़ी हुई स्वाधिष्ठान चक्र ठीक नहीं हो सकते। सभी चीज़ों के बहकावे में न आएं। संकीर्ण विचारों तथा अन्य लोगों का मज़ाक बनाने वाले मूर्खतापूर्ण पूजा में हमें मोहम्मद साहब और हजरत अली अहम् से संचालित न हों। हे मानव! सूझ-बूझ सहजयोगी इस बात को जानते हैं। सहजयोग साहब का नाम बार-बार लेना पड़ता है। हमं भगवान ईसा-मसीह (Jesus) का नाम भी लेना पड़ता है। भगवत् गीता में श्री कृष्ण ने उन्हें संसार प्राप्ति के इस महान अवसर के लिए स्वयं को जगाओ। ये प्रगल्भ शक्ति आपसे प्रसारित होने का आश्रय कहा है, वे महाविष्णु थे। आप स्वयं इसे पढ़ सकते हैं। और पढ़कर आप हैरान होंगे कि महाविष्णु के वर्णन बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे ईसा-मसीह के अत: मेरा आपसे अनुरोध है कि का प्रयत्न कर रही है। हमें इस विश्व को परिवर्तित करके सुन्दर बनाना है क्योंकि सृजनकर्ता अपनी सृष्टि को कभी भी नष्ट नहीं होने देगा । परन्तु आप यदि सत्य को स्वीकार नहीं कर लेते तो आप स्वयं नष्ट हो जाएंगे अतः माँ के रूप संकीर्ण मस्तिष्क न बनें। आपने सत्य को जान में एक बार पुनः मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि दिव्य सत्य को, परमेश्वरी प्रेम को स्वीकार करें और एक हो जाएं। आप सभी सहजयोगियों तथा गहन साधकों के लिए मैं परमात्मा और उनकी प्रेम-चेतना की महानतम उपलब्धि की कामना लिया है अतः उसे समझने का प्रयत्न करें आत्मीय (Subjective) बनें. इसे महससू करें, इसे समझें| सभी पुस्तकें बही बात कहती हैं जो मैं कह रही हूँ। अन्तर सिर्फ इतना है कि मैं इस कार्य को कर सकती हूँ। मैं भी इसे नहीं कर रही। यह तो सिर्फ करती हैँ। यही सत्य है। इसके अतिरिक्त सभी हो रहा है । इसी ज्योति-प्रज्जवलन के लिए मैं अवतरित हुई हूँ। ये घटित होना था और घटित होगा देखते हैं कि इस देश में, इस सुन्दर सब व्यर्थ हो गए हैं। वो नर्क में चले गए हैं, नष्ट योगभूमि में कितने लोग इसे स्वीकार करते हैं ! कुछ व्यर्थ है। जिन लोगों ने जीवन में अन्य प्रकार की सात्विक या तामसिक चीजों की खोज की वे हो गए हैं आप वह सब नहीं करना चाहते आप परमात्मा आप सबको बारम्बार आशीर्वादित करें, ये मेरा आशीर्वाद है। मच्चीस तारीख को मैं लन्दन साधारण सामान्य लोग हैं और इसीलिए आप सर्वोत्तम है क्योंकि आप सभी प्रकार की अति से जा रही हैूँ और मुझे आशा है पिछले दो दिनों में आपमें से जितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त बचे हुए हैं। आपका हृदय अत्यन्त सहज है। आप हुआ है वे भारतीय विद्याभवन में हमारे कार्यक्रम में आएंगे। मंगलवार के दिन हमारा ध्यान केन्द्र होता अत्यन्त धार्मिक और पावन वैवाहिक जीवनयापन कर रहे हैं ये स्थान केवल उन लोगों के लिए है जो भगवान बुद्ध के मध्ये मार्ग में हैं सहजयोग है। आर्य समाज रोड पर भी हमारा एक बहुत जीवन के सभी सत्यों का एकीकरण है। मैं इस अच्छा केन्द्र है। मुझे आशा है कि आप लोग बात को कुण्डलिनी पर प्रमाणितं कर सकती हूँ कि सहजयोग में गहन दिलचस्पी लेंगे, इसकी सारी টি 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-9.txt अंक : 5 & 6 - 2005 ৪ चैतन्य लहरी धन्यवाद करती हूं। ये तो ऐसा है कि मेरे प्रेम का सागर जब आपके हृदयों के तट को छूता है और विधियों को सीखेंगे और कुण्डलिनी-कुशल बन जाएंगे। हमारे अन्दर बहुत से ऐसे लोग हैं जो इसके विषय में जानते हैं, आप उनसे बात कर सकते हैं । कार्यक्रमों में भी आप मेरे प्रवचन सुन सकते हैं जिनसे आप चीजों को समझेगे परन्तु तट से प्रतिक्रिया स्वरूप यह प्रेम लहर वापिस आती है यह परवलयिक (Parabolic) आंदोलन है। मेरा प्रेम आपमें से गुजर कर जब वापिस मेरे पास आता है तो मैं इसका आनन्द लेती हैँ। यह समझना कानों के माध्यम से नहीं, हृदय के इतना सुन्दर अनुभव है! कहने से मेरा अभिप्राय ये हैं कि यह एक भिन्न अनुभव है जिसे न तो घड़ा जा सकता है और न ही बोतलों में बन्द किया जा माध्यम से समझना है चैतन्य लहरियों के अनुभव के माध्यम से समझना है, केवल तभी आप कुण्डलिनी-कुशल बन सकते हैं। कल भी मैने आपसे अनुरोध किया था और आज भी पुनः मैं सकता है। बारम्बार आप सबका धन्यवाद। मैं सभी ट्रस्टीगणों का बारम्बार धन्यवाद करती हूँ और आप सब का भी। अपने पूर्ण वैभव, करुणा और आपसे अनुरोध करती हूँ कि सहजयोग को समझने के लिए आपको बहुत अधिक बुद्धि की आवश्यकता 1 अच्छाई के साथ परम मा का आशीर्वाद आपको सदैव प्राप्त हो और परम चैतन्य आपके अन्तर्निहित नहीं है। आवश्यकता है एक हृदय की। एक श्रद्धावान हृदय की। यह हृदय यदि आपमें है तो पूर्ण गरिमा की वर्षा आप पः सदेव करता रहे। यह कार्यान्वित होगी। समय आ गया है जब बहुत से पुष्प फल बन जाएंगे। समय उपयुक्त है। मेरे प्रति इतना प्रेम दर्शाने के लिए मैं बारम्चार आपका अनुवादित) 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-10.txt श्री महालक्ष्मी पूजा कोल्हापुर 1.1.1983) नमस्ते गरुडारूढ़े कोल्हासुर भयंकरी सर्वपाप हरे देवी, महालक्ष्मी नमोऽस्तुते।। गरूड पर सवार कोल्हासुर मर्दनी, सर्वपाप निवारिणी हे देवी महालक्ष्मी आपको कोटिशत प्रणाम यह ऊपर की ओर जाता है। तीन सौ पैंसठ दिन गुजरने के कारण ऐसा नहीं होता, इसलिए 817 होता है क्योंकि सूर्य एक कदम और उत्थान की ओर चला गया है। हमने देखा है कि चेतना में मानव निश्चित रूप से पहले से, दो ॐ ा हजार वर्ष पूर्व की अपेक्षा, कहीं उन्नत हुआ है ब्रह्माण्ड का सृजन करने वाली प्रणाली ही पहला नमूना थी जिसका सृजन किया गया और नमूना तो पूर्ण होना चाहिए। तो नमूना पूर्ण था और इसने बाकी चीजों को भी पूर्णत! 43C9 शी की ओर ले जाना शुरु किया। अतः उत्थान के सिद्धांत में भी यही आदर्श नमूना है जो उत्क्रान्ति को कार्यान्वित कर रहा है। बाकी के ब्रह्माण्ड की पूर्णता भिन्न दिशाओं में घटित होती है । परन्तु आज हमने महालक्ष्मी के सिद्धांत एक बार पुनः आज नववर्ष दिवस है। को समझा है। महालक्ष्मी. जैसा मैंने आपको नववर्ष दिवस आते ही रहते हैं क्योंकि हमने बताया आदर्श सिद्धांत है। यह पूर्ण सिद्धांत है कुछ न कुछ नया प्राप्त करना होता है। इतनी अच्छी व्यवस्था की गई है कि सूर्य को तीन सौ पूर्ण। इसका जन्म ही पूर्ण हुआ है यह पूर्ण रहेगा, हमेशा-हमेशा के लिए, ताकि इसको सधारने की आवश्यकता न पड़े। आज में बार फिर नववर्ष आ गया है। वास्तव में पूरा महालक्ष्मी के बारे में इसलिए बातचीत पैंसठ दिन विचरण करना होता है और एक सौर-मण्डल कुण्डल की तरह से चलता है। कर रही हूँ क्योंकि संभवतः आज आप अतः निश्चित रूप से सौर-मण्डल की एक महालक्ष्मी के मंदिर को देख सकें गे । उच्च अवस्था हैं । हर वर्ष कुण्डल की तरह से ह 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-11.txt अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 10 महालक्ष्मी के मन्दिर में जब आप जाएंगे वहाँ लक्ष्य से सृजित किए गए विशेष स्थानों का हमें अधिकतम लाभ उठाना चाहिए तो एक आपको समझना होगा कि इस देची का जन्म इस स्थान पर विशेष रूप से पृथ्वी माँ के गर्भ प्रकार से हमारा यहाँ पर होना सौभाग्य का है इसका अर्थ ये हुआ कि इस स्थान विषय है हमें अपने उत्थान के लिए महालक्ष्मी से हुआ में आपको शक्ति प्रदान करने की योग्यता है. एक अतिरिक्त शक्ति या उत्क्रान्ति का एक तत्व की देखभाल करनी है। जैसा आप जानते हैं, उत्क्रान्ति का आरम्भ नाभि से होता है जो गेहन एहसास। आप यदि पर्याप्त रूप से गुरुतत्व से घिरी हुई है। संवेदनशील हैं तो आप इसे देख सकते हैं. महसूस कर सकते हैं, और इस कार्य को कर सकते हैं। यदि आप अभी तक पर्याप्त संवेदनशील हमारे अन्तःस्थित गुरुतत्व यदि अस्थिर है. यह इस प्रकार से स्थापित है जहाँ ये ठीक नहीं हैं, बन्धनों में फँसे हुए हैं और अभी भी प्रकार से नाड़ी तंत्र को प्रभावित नहीं करता, यदि यह हमारे चरित्र और आचरण से प्रसारित अपने बाहर स्थित हैं तो ये कार्यान्वित न हो सकैगा। कहने का अभिप्राय ये है कि सभी नहीं हो रहा, तो हमारा महालक्ष्मी तत्व स्थापित कुछ किया जा सकता है परन्तु यदि कोई नहीं हो सकता। गुरु तत्व के माध्यम से पत्थर ही बना रहना चाहे तो आप उसके लिए महालक्ष्मी तत्व को शक्ति मिलती है। आज नहीं कर सकते। हमारा सौभाग्य है कि उस दिन श्री दत्तात्रेय के कुछ जन्म दिवस पर हमने उनकी पूजा की और अतः, इस स्थान कोल्हापुर में महालक्ष्मी तत्व कार्यरत है अपनी स्थिति के कारण प्रायः आज महालक्ष्मी पूजा है। तो हमें एक साथ दो अवसर प्राप्त हुए। पहली दत्त पूजा थी और दूसरी महालक्ष्मी पूजा। ये स्थान बहुत गर्म होना चाहिए। परन्तु मन्दिर से प्रसारित होने वाली चैतन्य लहरियों के गुरु तत्व को ठीक करने के लिए कारण गर्मियों में भी यह स्थान ठण्डा बना आवश्यक है कि हम अपने धर्म को ठीक करें। रहता है. हो सकता है कि यहाँ के स्थानीय जैसा मैंने कई बार बताया है कि धर्म दस हैं लोगों को भी इस बात का ज्ञान ने। हम और इन दस धर्मों की हमने सावधानी पूर्वक देखभाल करनी है। इसकी अभिव्यक्तित बाहर या नहीं। क्योंकि नकारात्मकता आगे बढ़ रही की ओर होती है परन्तु जो अन्दर होगा वही नहीं कह सकते कि उन्हें इस बात का ज्ञान है है, बहुत सी चीनी मिलें यहाँ पर हैं और तो बाहर आएगा। जब आप लोग बातें करते शराबबाजी भी बहुत हो रही है। परन्तु विशेष कहते हैं तो मैं एकदम से जान जाती हैं, कुछ 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-12.txt चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 -2005 11 ये दुर्गुण देखने लगे तो हमें ये बान समझ हूँ कि नकारात्मक कौन है और सकारात्मक कौन है । सकारात्मकता की अभिव्यक्ति करने लेनी चाहिए कि हम सहजयोगी नहीं हैं। अपने अन्दर झाँककर हमें अन्य लोगों के प्रति शुद्ध से तरीके हैं। परन्तु मैं ये कैसे जान के बहुत जाती हूँ, ये बात मैं आपसे नहीं बता सकती प्रेम प्रताहित करना चाहिए। परन्तु हमेशा लोग क्योंकि मैं ये जानती ही नहीं कि इसे किस यही देखते हैं कि ये सारे दुर्गुण दूसरे व्यक्ति में हैं। मैं चाहे जो कहती रहूँ वे हमेशा दूसरे लोगों में ही त्रुराइयाँ देखते रहते है । प्रकार बताया जाए। फिर भी मैं ये बात जान जाती हैँं कि फलां आदमी नकारात्मक है और फलों सकारात्मक। मान लो हमारे अन्दर कोई दुष्प्रवृत्ति सकारात्मकता ये बात समझने में निहित व्यक्ति है। आपको उसके प्रति करुणामय ने है कि हम यहाँ किस लक्ष्य के लिए हैं। सर्वप्रथम की कोई जरूरत नहीं । इसके विपरीत, बेहतर लो हम इस पृथ्वी पर अवतरित क्यों हुए? हम मानव क्यों हैं? अपनी सूझ-बूझ में हम इन उससे मुक्ति पा लें, उससे कोई सम्बन्ध न प्रश्नों के विषय में क्या कर रहे हैं? हम रहें। जहाँ तल्त हो सके होगा कि उससे दूर रखें। निश्चित रूप से यह आपका अपने प्रति 1 सहजयोगी क्यों हैं? सहजयोगी को क्या करना महान करुणा का चिन्ह है, चाहे दूसरों के प्रति न हो। आपको यदि आगे बढ़ना है तो है? सहजयोगी के रूप में उसकी क्या जिम्मेदारी तब उसे ये समझने का प्रयत्न करना नकारात्मक प्रवृत्ति लोगों के साथ सम्बन्ध न चाहिए कि माँ (श्रीमाताजी) मेरे प्रति इतनी रखें, चाहे वह आपका भाई, बहन या कोई दयालु क्यों हैं? मुझे चैतन्य-लहरियाँ क्यों भिलीं? निकट सम्बन्धी ही क्यों न हो। जो भी व्यक्ति ह विशेष कृपा, चैतन्य लहरियों का विशेष सकारात्मक नहीं है उससे रहने का प्रयत्न दूर ज्ञान प्राप्त करने वाले थोड़े से लोगों में से एक मैं भी क्यों हैँ? और फिर स्वयं से प्रश्न करना करें। इससे बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। मैं आपसे ये बात बताती रही हूँ और है कि मैं इस दिशा में क्या कर रहा हूँ? क्या आपसे अनुरोध करती रही हैँ परन्तु आपके अब भी मैं अपनी उच्छुंखलताओं, बचकानियों, बंधन ऐसे हैं कि यद्यपि आप गुरु बन गए हैं मूर्खताओं, कटुताओं और आक्रामकरताओं में फिर भी अभी तक आप ये नहीं समझते कि फॅसा हुआ हूँ? ये सभी दुर्गुण हम सदैव अन्य लोगों में देखते हैं अपने में नहीं। अतः हम भाई बहन या सम्बन्धी कोई नहीं आपको निर्लिप्त होना है। क्योंकि गुरु के लिए है। माँ के सहजयोगी नहीं हैं। जब भी हम अन्य लोगों में सम्वन्ध के अतिरिक्त उसका कोई सम्बन्ध এ 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-13.txt 12 अक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी नहीं। आप सब लोगों के लिए महत्वपूर्ण और अच्छी तरह से समझ लेने वाला एक सिद्धांत तत्व अन्ततोगत्वा मस्तिष्क में कार्य करता है। स्पष्ट किया जाना आवश्यक है क्योंकि महालक्ष्मी ये है कि "हमारा सम्बन्ध केवल श्रीमाताजी यही मस्तिष्क का प्रकाशमान होना है। ये कार्य और सहजयोगियों से है. किसी अन्य सम्बन्धी महालक्ष्मी तत्व करता है । यह आपको सत्य (सद) प्रदान करता है। अत: मस्तिष्क में आप स्पष्ट रहें तर्क-संगत होकर हमें इस परिणाम नहीं चाहे वो किसी सहजयोगी के माध्यम से आए हो या किसी अन्य माध्यम से। इस पर पहुँचना है कि हमें कौन से कार्य नहीं करने और कौन से कार्य करने हैं। मुझे उत्क्रान्ति बात का वर्णन मैं हमेशा करती रही हूँ क्योंकि हमारे महालक्ष्मी तत्व ठीक नहीं हैं। यही कारण प्राप्त करनी है इसी कारण से मैं यहाँ हूँ। है कि हम भटक जाते हैं, इन्हीं चीजों में खा जाते हैं । मुझसे क्या करने की आशा की जाती है? तो सर्वप्रथम तार्किकता से आप अपने मस्तिष्क महालक्ष्मी तत्व, कुल मिलाकर, आरोही को कायल करें। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ऐसा करना आवश्यक है क्योंकि तर्कसंगति से शक्ति (Ascending Force) की तरह से होना जैसे मेरे पिताजी एक उदाहरण दिया यदि आपका मस्तिष्क नहीं समझता तो यह करते थे कि मान लो आपन बहुत सारी गेहूँ हमेशा तुच्छ, बचकाना, गरिमाविहीन, कठोर या भयंकर कष्टकर बना रहेगा या इनमें से एकत्र की है और उसे जमीन पर डाल दिया है किसी एक प्रकार का। तो ये सारी बरबाद हो जाएगी। इधर-उधर बिखर कर ये सारी नष्ट हो जाएगी। परन्तु गुरु तत्व में दस मूल-तत्व हैं। इनमें यदि आप इसे बोरे में डालेंगे तो स्वाभाविक से पाँच का सरोकार वजन से है गुरु, किसी रूप से इसकी ऊँचाई बढ़ेगी. उसमें मर्यादाएं आएंगी और यह ऊपर को उठती चली जाएगी। भी व्यक्ति का वजन, वजन है वजन। आपमें कितना वजन है? इसे हम गुरुत्व कहते हैं। इसी प्रकार से महालक्ष्मी तत्व भी बिखर सकता है और श्रीमाताजी का दिया हुआ सभी कुछ व्यक्ति में गुरुत्व होता है। जब वह बात करता है तो उसमें कितना संतुलन है? भारतीय संगीत में हम इसे वज़न कहते हैं। व्यक्ति के तथा इन वर्षों में जो भी कुछ हमने प्राप्त किया है, वह सब इसके बिखर जाने पर नष्ट हो वजन का अर्थ ये है कि जब वह किसी अन्य सकता है! इसे अपने अन्दर एकत्र करने के लिए स्वयं पर चित्त देना होगा सर्वप्रथम तो से या अपने से व्यवहार करता है जो उसमें गस्तिष्क में अपने विचारों और सूझ-बूझ को कितना बजन होता है? अंग्रेजी में भी वज़न 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-14.txt अंक : 5 & 6 - 2005 13 चैतन्य लहरी से, आँखों आदि से, विशुद्धि चक्र के माध्यम से का उपयोग होता है । दूसरों की दृष्टि में दिखाई पड़ता है। व्यक्ति की नाभि में जो भी उसका कितना वज़न है अर्थात् वह दूसरों को कितना प्रभावित कर सकता है। आप यदि होगा वह यहीं दिखाई देगा। मान लो किसी बहुत अधिक प्रभावित करते हैं तो वह व्यक्ति कहेगा, ओह! ये तो बहुत ज्यादा हो गया। पश्चिम के लोगों में ये गुण हैं, वो कहेंगे, ओह! व्यक्ति का महालक्ष्मी तत्व भली भांति विकसित तो उसमें किसी अन्य व्यक्ति से व्यवहार करने की समझ होगी, वजन होगा, सूझ-बूझ अधिक हो गया। उन लोगों में ये एक होगी कि उस व्यक्ति के साथ, किस सीमा ये बहुत विचार है जो कि अहं की देन है । ये बहुत तक जाना है? उसके साथ किस प्रकार निभाना अधिक है। उन्हें जरा सा भी ज्यादा बताएं तो है? उसके साथ कहाँ तक बात करनी है? वो ऐसा ही कहेंगे, ओह! ये तो बहुत अधिक उसके विषय में कहाँ तक सोचना है? उसे हैं। मेरे लिए ये बहुत अधिक है। ऐसा कहना आम बात है ये आम प्रतिक्रिया है। तो आपमें कितना वजन है और दूसरा आकर्षण का गुण कितना महत्व दिया जाना है? यह बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है । दूसरी बात ये है कि आपमें कितनी चुम्बकीय शक्ति है। अतः आप स्वयं पर ही है। दो चीजे हैं-वजन और चुम्बकीय शक्ति। पहला गुण वजन है अर्थात आप कितने गरिमामय हैं? आप किस प्रकार बातचीत करते हैं ? आपकी वापस आ जाते हैं । चुम्बकीय शक्ति एक चमत्कार है जो व्यक्ति को चमत्कृत करती भाषा कैसी है? आपका व्यवहार कैसा है? आपको मानवीय होना चाहिए परन्तु मैं देखती हूँ कि कभी कभी तो लोग मुझसे भी बड़े अटपटे ढंग से बात करते हैं । मेरी समझ में नहीं आता कि हमेशा वे गलत बातें कैसे करते है। चमत्कार के कारण ही व्यक्ति चुम्बकीस हाता है। ये चमत्कार आपके अपने व्यक्तित्व से आता है। आपके अपने व्यक्तित्व से। इस चुम्बकीयपन का आधार बाईं ओर से शु होता हैं? एक वाक्य भी यदि उन्होंने बोलना होता है है श्री गणेश ये आधार हैं। श्री गणश ही तो वो गलत बोलते हैं। उनके साथ ऐसा ही चुम्बकीय शक्ति का आधार हैं । अत आपका है। यह विशुद्धि की पकड़ है जो नाभि भी है । ये नाभि से आती है क्योंकि विशुद्धि चक्र नाभि अबोधपन चुम्बकीय शक्ति प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। किसी भीतिक तरीके से शक्ति का बर्णन नहीं किया है चक्र की ही उत्क्रान्ति है। अतः होता क्या चुम्बकीय जा कि वह व्यक्ति जैसा भी हो अपनी भाषा से, है। यह तो सकता। यह भौतिक पदार्थ नहीं निराकार चीज है जो आपके गणेश तत्व से आचरण से, अपनी मुखाकृति से, अपने नाक 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-15.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 14 का शुभ कं आती है। गणेश तत्व जिसका अच्छा है वही उपयोग करते हैं - जिस प्रकार से वे चलते व्यक्ति इस शक्ति से सम्पन्न होता है चुम्बकीय हैं, वस्त्र धारण करते हैं और रहते हैं, इन सारी चीजों का कोई उपयोग नहीं है यह शक्ति तो अर्थात ऐसा व्यक्ति अन्य लोगों को अपने वजन से, अपने गुणों से आकर्षित करता है. लेकिन आंतरिक हैं, ये सुगन्ध अत्यन्त आंतरिक है। वासना, लोभ तथा अन्य मूर्खतापूर्ण चीजों के इसे विकसित किया जाना चाहिए। लेकिन लिए आकर्षित नहीं करता। प्रेम की सुगन्ध के सहजयोग में मैंने देखा है कि लोग इसकी कारण लोगों को आकर्षित करता है। इसे चिन्ता नहीं करते। बिल्कुल चिन्ता ही नहीं करते। जिस प्रकार से वे रहते रहे हैं और हमेशा गलत समझा जाता रहा है क्योंकि यह निराकार है। अतः व्यक्ति को चाहिए कि इसे कार्य करते रहे हैं वे उसी प्रकार से सोचते रहे अत्यन्त सूक्ष्म तरीके से समझे कि चुम्बकीय हैं। वे यदि अंग्रेज हैं तो अंग्रेज हैं, फ्रैंच हैं तो शक्ति क्या है कुछ लोग अन्य लोगों का फ्रँंच हैं, भारतीय हैं तो भारतीय हैं, कोल्हापुर आकर्षित करने के लिए चनावटी संकेतों का के हैं तो कोल्हापुर वे हैं। सबसे पहले इन 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-16.txt अंक : 5 & 6 - 2005 15 तत्व विकसित होता है। अपने पति-पत्नी, विचारों को रोका जाना चाहिए क्योंकि सुगन्ध बहन, देश आदि के प्रति समर्पित न होकर तो हर जगह फैलती है चाहे आप अंग्रेज हों या अपनी माँ के प्रति पूर्णतः समर्पित होने से, पूर्ण समर्पण से आपको यह आकर्षण, यह करिश्मा कोई और। तो व्यक्ति की सुगन्ध सर्वप्रथम तो अन्दर के गणेश तत्व के कारण विकसित होती प्राप्त होता हैं। सहजयोग में ऐसा व्यक्ति वास्तव है। अतः गणेश तत्व को सबसे पहले देखा में आकर्षक बन जाता है और उसमें ये गुण जाना चाहिए। गणेश तत्व वाला व्यक्ति हर होता है। समय पश्चाताप नहीं करता रहता, इतना भी व्यर्थ व्यक्ति नहीं होता कि चाहे आप उसकी कुछ लोग सोचते हैं कि आप यदि अत्यंत अकर्मण्य हैं और किसी की भी बात का पिटाई करें फिर भी उसे बर्दाश्त करता रहे. ऐसा नहीं होता। इसके विपरीत चुम्बकीय शक्ति बुरा नहीं मानते, यदि ऐसे व्यक्ति हैं तो आप इस प्रकार आकर्षित करती है कि व्यक्ति को योग-सिद्ध हैं । परन्तु ऐसा नहीं है। लोग आपको इसलिए पसन्द करते हैं क्योंकि वे आप पर रौब जमा सकते हैं। इस कारण से बेचैनी नहीं होती। ये बात समझ लेना बहुत आवश्यक है । आप यदि किसी अन्य प्रकार से प्रेम करते हैं, वासनात्मक या कोई अन्य प्रकार तो वह प्रेम व्यक्ति को आकर्षित तो करता है लोग आपको पसंद करते हैं। परन्तु यदि आप परन्तु उसे नष्ट कर देता है। परन्तु गणेश सोचे कि आक्रामक स्वभाव या लोगों पर चीखने तत्व का आकर्षण विनाशकारी नहीं होता । ये चिल्लाने से आप ये चमत्कारिक स्वभाव प्राप्त कर सकते हैं तो भी आप गलत हैं । इस । आकर्षण एक सीमा तक होता है जिसमें व्यक्ति नष्ट नहीं होता आप लोग क्योंकि बहुत उच्च प्रकार आप वह ऊँचाई नहीं प्राप्त कर सकते I तो किस प्रकार इसे प्राप्त किया जा सकता है, गहन है और वजनदार हैं, किसी चीज के है? और अधिक अबोध बनकर। आकर्षण से आप नष्ट नहीं हो सकते। हमेशा बड़ा चुम्बक छोटे चुम्बक को अपनी ओर खींचता है ये बात आपको समझनी चाहिए। ये जादू यह अबोधिता व्यक्ति में किस प्रकार विकसित होती है? इसके बारे में सोचने से और चमत्कार, व्यक्ति का चमत्कारिक स्वभाव यह विकसित नहीं होती। जैसे किसी ने मुझसे गणेश तत्व (अबोधिता) से आता है और दूसरे पूर्ण समर्पण एवं श्रद्धा से आता है। जो लोग पूछा कि आप अपना आयकर कैसे प्रबन्धन माँ के प्रति पूर्णतः समर्पित एवं श्रद्धावान हैं. करती हैं? मैंने उत्तर दिया "मैं कोई कमाई ही किसी अन्य चीज़ के प्रति नहीं उनमें गणेश नहीं करती"। तब उन्होंने मुझसे पूछा कि आप 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-17.txt वैतन्य लहरी अंक :5 & 6 - 2005 16 ये क्यों सोचा जाता है कि उन्हें लोमड़ी की अपनी कार को कैसे संभालती हैं? मैंने कहा तरह से चालाक या फ्रायड की तरह से बुद्धिवादी मेरी अपनी कोई कार ही नहीं है फिर उन्होंने होना चाहिए। लोगों में सभी प्रकार की धारणाएं हैं। नहीं, सच्चाई ये नहीं है! आध्यात्मिक व्यक्तित्व केचल अबोध होता है. केवल अबोध। उसमें पूछा, अपनी घर की समस्याओं के बारे में कहा, मेरा कोई घर ही नहीं है। बताए नहीं, नहीं। मेर लिए कुछ भी नहीं। इन सारी समस्याओं का समाधान ये है कि इनकी सिरदर्दी चालाकी आदि नहीं होती। अबोधिता ही सभी कुछ है। व्यक्ति जो भी कुछ बोलता है या ही न पालें। अगर आप यह सिरदर्दी पालेंगे तो अबोधिता घटेगी सिरदर्द इस प्रकार से आते कहता है वह अबोधिता से ही आता है। इसमें पुस्तकों से प्राप्त की गई बौद्धिकता नहीं होती, ऐसा कुछ नहीं होता इसमें तो केवल शुद्ध और सहज अबोधिता होती है जो बहुत अच्छी तरह से कार्य करती है। ये इतनी स्वच्छ है। ये हैं कि ये मेरी शाल है, ये मेरी साड़ी है. ये मेरी चीज है आदि-आदि। होना ये चाहिए कि. ये मेरी माँ हैं और मुझे इनकी उदघोषणा करनी है, बस। अगर यह तरीका अपनाया जाए तो श्री गणेश की तरह से अबोधिता बढ़ने लगती केवल वही कहती है जो यह जानती है और यह उच्चतम है। है, किसी भी प्रकार ले सिरदर्द पालने से नहीं। अतः हमारे अन्दर बन्धन-मुक्ति आनी थ मेरा है वो मेरा' है यह 'मेरा- चाहिए। परन्तु इसके बारे में आपस में भी बाजी' सभी समस्याओं का कारण है। व्यक्तिगत बात-चीत नहीं करनी चाहिए। एक बार जब रूप से मैं सोचती हूँ कि यही कारण हो आप तर्क-वितर्क करने लगते हैं तो यह धर्म सकता है। 'मेरा तेरा पन सहज नहीं है। मेरा विज्ञान पर बहस बन जाती है। इसमें कोई धर्म विज्ञान नहीं है। ये अत्यन्त सहज है। शरीर मेरा सिर, मेरा सभी कुछ। मैं और मेरा अबोध होना सहजतम है। परन्तु अबोधिता समाप्त जब छूट जाते हैं तो बाकी बचती है आत्मा । हो जाती है। क्यों? क्योंकि हमारा चित्त अलग केवल 'मैं' बच जाता है और इसी मैं को हमने ढंग से चलता है हम दूसरी चीजों को देखते देखना है। तो आपको इन्हीं मेरे मेरे मेरे' को कम करते चले जाना है और अबोधिता की हैं आज मैं सोच रही थी मुझे तीन नौ गजी साड़ियाँ खरीदनी हैं क्योंकि तीन महिलाएं ऐसी शुद्ध आत्मा उन्नत होगी बारे में भी लोगों के विचार मेरी समझ में नहीं थीं जो नौ गज़ी साड़ियां पहनती हैं और आते। न जाने आध्यात्मिक लोगों के विषय में आध्यात्मिकता के उन्हें मैंने ये साड़ियाँ देनी थीं मैंने इनके विषय में 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-18.txt चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 - 2005 17 केवल सोचा ही था मैं यहाँ आई तो देखा कि अतः 'नेति नेति' कहते हुए इस तत्व बहुत सुन्दर साड़ियाँ यहाँ रखी हुई थीं। मैंने उससे पूछा कि 'आप ये साड़ियाँ कहाँ से सारे दोषों को नेति नेति' कहते रहें । नेति को विकसित करने का प्रयत्न करें। अपने ाड मंगाती हैं?' उसने उत्तर दिया आपको ये यहीं नेति' कहकर आप 'ये मेरा नहीं है, मेरा नहीं है, मेरा नहीं है, मेरा नहीं है पर पहुँच जाते जाकर ये तीन साड़ियाँ खरीद लो। किसी हैं। तो चीजें इस प्रकार से हैं। अबोधिता पर मिल सकती हैं।' मैंने कहा, 'ठीक है। तो तुम प्रकार का कोई विश्लेषण करने की जरूरत पुरा भौतिक विश्व भी आक्रमण नहीं कर सकता, क्योंकि इससे बह घबराता है । अबोंधिता पर नहीं। मेरे दिमाग में आया ही था कि मैंने तीन साडियाँ खरीदनी है और काम हो गया, उत्तर आक्रमण कोई नहीं कर सकता। इसे नष्ट सामने है। तो वातावरण इतना स्वच्छ है। सारी स्थिति इतनी अबोध है कि अबोध लोगों को अबोधिता ही समाधान प्रदान करती है हर नहीं किया जा सकता। इसे नष्ट नहीं किया सकता। अबोधिता सर्वव्यापी है और इसे नष्ट नहीं किया जा सकता चाहे जो मर्जी लोग चीज़ में अबोधिता कार्य करती है। क्योंकि हर करते रहें। परन्तु इसे आच्छादित किया जा इन्सान में थोड़ी बहुत अबोधिता तो होती है। अयोधिता खम्भे की तरह से होती सकता है। पीछे धकेला जा सकता है। परन्तु है आपके नष्ट नहीं किया जा सकता क्योंकि यह तो अन्दर ये पाँचवां खम्भा है। तो कोई व्यक्ति अपने ही तरीके से कार्य करेगी। अतः इस यदि अबोध है तो वो आपके पाँचवें खम्भे अबोधिता को जो कि महालक्ष्मी तत्व का (शक्ति) पर कार्य करेगा और आपको ठीक आधार है विकसित करने का प्रयत् करें। हम कह सकते है कि यह महालक्ष्मी तत्व का सार कर देगा। जब आप दूसरे लोगों को बंधन देते हैं तो क्या होता है? आप उसे अपनी अबोधिता तत्व है। बाह्य चीजे जैसे वजन, गरिमा, आचरण आदि सभी बाहरी हैं। जिस तत्व, जिस सिद्धांत द्वारा बाँध देते हैं और बेचारे को पता भी नहीं पर यह आधारित है वह तो अबोधिता है। चलता। जो अबोधिता उसके अन्दर होती हैं उसे आप पकड़ लेते हैं। आप केवल इतना करते हैं और प्रबन्ध कर लेते हैं। कार्यान्वन अगर ये ऐसा ही है. यदि हम अपने अंतःस्थित महालक्ष्मी तत्व को समझते हैं तो करना बहुत आसान है। केवल सिद्धांत, तत्व, पूरी चीज़ तत्व पर निर्भर होती है और तत्प अबोधिता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह किस प्रकार कार्यान्वित होना चाहिए? यह बुद्धि का विषय नहीं है। मैं पुनः कहूँगी कि इसे पाने के लिए आप इसमें अपनी बुद्धि का 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-19.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 18 प्रक्षेपण न करें। आप जहाँ पर हैं वहीं बने रहें के लिए महालक्ष्मी तत्व है परन्तु अन्दर सृजन और स्वतः ही आपको उत्तर मिल जाएगा। बस अपना मस्तिष्क इसमें प्रक्षेपित न करें। आपको है और सभी तत्वों का सृजन होता है. इसके अन्दर इच्छा है और इस इच्छा के अन्दर श्री सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे क्योंकि किसी गणेश हैं। तो ये गणेश तत्व निश्चित रूप से भी व्यक्ति के अन्दर अबोधिता ऐसा सहज सभी चीजों पर हावी हो जाता है और सभी जहाँ सारी जटिलताएं अत्यन्त सुगमता चीजों से प्रसारित होता है। इसीलिए मैं कहती हूँ कि इसके विषय में सोचे नहीं । अपनी अबोधिता को बढ़ने दें, सहज-अबोधिता को उत्तर से चली जाती हैं । परमात्मा का प्रेम भी यही है। यही और अपनी गरिमा को गरिमा का होना भी लोग सोचते हैं कि अर्थ अपने मूर्खतापूर्ण प्रेम से तथा लोगों के लम्बे चोगे पहनकर यदि वे गलियों में घूमेंगे परमात्मा का प्रेम है। अतः इस दिव्य प्रेम का बहुत आवश्यक है। कुछ विषय में अपनी धारणाओं, सामंजस्य, असामंजस्य तो लोग उन्हें सन्यासी समझेंगे, ये बात गलत से न लगाएं । यह हमारे अन्दर का पावन प्रेम है क्यों? क्योंकि परमात्मा ने आपको इतना है, पावनता है। अबोधिता प्रेम है जोकि जीवन कुछ दिया है फिर भी आप गरिमामय नहीं है। । क्यों आप ये दर्शाने का प्रयत्न करें कि आपके है. या हम कह सकते हैं कि यह जीवन का बहुमूल्य हिस्सा है। परन्तु प्राणशक्ति महालक्ष्मी नहीं है। महालक्ष्मी तो सारतत्व है, हर चीज़ कि परमात्मा ने आपको कुछ नहीं दिया। का सार तत्व, क्योंकि यदि सृष्टि का सृजन पास कुछ नहीं है। आप ये दिखावा करते हैं परमात्मा के प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाने के घटित होना है, यदि परमात्मा की इच्छा है लिए आपको चाहिए कि अच्छे से अच्छे वस्त्र पहनें। पूजाओं के अवसर पर यदि यहाँ कि लाभ है? यदि सृजन कर भी दिया गया तो महिलाओं को देखें तो वे आभूषण, नथ आदि पहनकर मन्दिर में आती हैं और पुरुष भी कार्यान्वित करेंगे? आप इसे कार्यान्वित ही नहीं अच्छे और साफ सुथरे वस्त्र पहनकर आते हैं। परन्तु महालक्ष्मी तत्व नहीं है तो इच्छा का क्या बिना महालक्ष्मी तत्व के किस प्रकार आप इसे कर सकते। महालक्ष्मी तत्व का होना बहुत आवश्यक है। इसके बिना सृजन अर्थहीन है । कोई दिखावाबाज़ी नहीं होती, यह तो मात्र इस बात की अभिव्यक्ति होती है कि परमात्मा ने आपको कितना कुछ दिया है। हे परमात्मा! मैं तो. बाह्य रूप से तो महालक्ष्मी तत्व है आपका आभारी हूँ। परन्तु अन्दर इसकी तीन शक्तियाँ हैं। देखने 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-20.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 19 आज नववर्ष का महान दिन है और सन्देह नहीं, परन्तु यहाँ पर तो इन सभी देवी- देवताओं के मन्दिर हैं । यहाँ पर नान्त्रिकों आज के दिन महालक्ष्मी के स्थान पर कोल्हापुर ने अबोधिता पर आक्रमण किया है मन्दिरों में होना! ये स्थान कोल्हापुर कहलाता है क्योंकि यहाँ कोल्हासुर का वध हुआ था कोल्हासुर को किराए पर लेकर उन्होंने खुद वहाँ स्थापित लोमड़ी की तरह से चालाक, भयानक राक्षस होने का प्रयत्न भी किया, परन्तु शनैः शनैः उन्हें वहाँ से निकाला जा रहा है । सभी था । उसने पुनः जन्म ले लिया था। परमात्मा देवी- देवताओं के मन्दिर में ये तान्त्रिक पहुँच का शुक्र है कि अब उसकी मृत्यु हो गई है। गए थे परन्तु अब ये निकाल दिए जाएंगे । तो आप इसके विषय में सोचे नहीं, नहीं तो आपका मस्तिष्क भी भ्रमित हो जाएगा। आप सोचिए इस प्रकार से आक्रमण हुआ और तथाकथित नहीं। मैं इसके विषय में आपको बताऊंगी। ब्राह्मण यहाँ पर आकर जम गए, मन्दिरों में कर्मकाण्ड सिखाने लगे और वहाँ के वातावरण जानबूझकर मैंने उसका नाम नहीं बताया, उसका पुनर्जन्म हुआ था और उसे निकाल फेका को भ्रष्ट कर दिया। गया। तो यह वह स्थान है जहाँ कोल्हासुर का वध हुआ। यहाँ पर महालक्ष्मी अवतरित हुई और इसी कारण से इस स्थान का विशेष बनी रहे। मैं चाहती हैँ कि आप सबके अन्दर परमात्मा की कृपा सदैव आप सब पर महत्व है कि हम यहाँ पर तीर्थयात्रा के लिए चित्त की एकाग्रता विकसित हो ताकि आप आए हैं। आइए विनम्रता पूर्वक इसके विषय में सभी भ्रमों से ऊपर उठकर अपने महालक्ष्मी सोचें । पश्चिम में यह सब घटित नहीं हो तत्व के माध्यम से शुद्ध आत्मा' के साथ एकरूप हो सकें। सकता था। क्योंकि स्वयंभु देवता पृथ्वी के गर्भ से निकलकर वहाँ प्रकट भी हो जाते तो भी उन्हें कौन पहचानता, कौन उनका सम्मान परमात्मा आपको धन्य करें। करता और कौन उनकी पूजा करता? इसी (निर्मला योगा से उद्धृत कारण से ये स्वयंभु पश्चिमी देशों में प्रकट नहीं एवं अनुवादित) हुए। थोड़ा सा वहाँ पर भी है इसमें कोई गा। 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-21.txt एक अनुभव एहसास अपने हाथों पर हुआ है? मुझे कुछ महसूस जहाँ तक मेरी स्मरण शक्ति जाती है मैं हमेशा पुस्तकें पढ़ता था, पुस्तकालय जाता और अधिक से अधिक पुस्तकें लेता। इसके बाद मैंने तो हुआ था परन्तु मैंने सोचा कि ऐसा शायद खुली हुई खिड़की के कारण हुआ है। उसने मुझसे मेरे पिता के विषय में पूछा, जिनकी मृत्यु एक सप्ताह यूरोप भ्रमण शुरु किया। मैं लन्दन में रहने लगा और पॉप संगीत, लड़कियाँ, शराब, नशीली दवाओं आदि का शौकीन बन गया इनसे क्योंकि निराशा पूर्व ही हुई थी। मुझे हैरानी हुई कि उन्होंने यह बात कैसे जानी उन्होंने मुझसे कहा, कि मैं जाकर ही मेरे हाथ लगी मैं अधिक से अधिक पुस्तकें पढ़ने लगा, वो पुस्तकें जो मानसिक शांति तनाव मुक्ति परम पूज्य श्रीमाताजी से मिलू। श्रीमाताजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं हठ योग करता हूँ? मैने हाँ एवं अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करने का दावा करती में उत्तर दिया। उन्होंने मेरा हाथ छुआ और कहा हैं। मैने कराटे, हटयोग, भिन्न प्रकार की एकाग्रता कि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है परन्तु मैं ठीक हो निकला। जाऊंगा। इसके बाद उन्हो ने मुझे एक प्रश्न पूछने और ध्यान भी किए परन्तु कोई परिणाम न के लिए कहा कि "क्या परम पूज्य श्रीमाताजी- मैं सोचने लगा कि कोई ऐसा व्यक्ति है आदिशक्ति (Holy Spirit) हैं?" मैंने प्रश्न पूछा । जो किसी गुरु को जानता हो मैंने गुरु खोजना मैं अन्दर से भयभीत था परन्तु वह भय निकल चाहा। बहुत से गुरुओं के विज्ञापन लन्दन की पत्रिकाओं में छपते थे, भिन्न प्रकार के ध्यान धारणा गया। हम सबने बढ़िया भारतीय खाना और मिठाइयों खाई और सहजयोग के विषय में बातचीत की | को्सो के बारे में भी छपता। परन्तु ये सब गुरु तो आसपास के बैठे हुए लोग मुझे अच्छे लगे। मुझे ऐसा लगा कि वो मरे पूर्व परिचित लोग हैं । एक से तो मैंने पूछा भी कि क्या हम पहले कभी मिल चुके है? मुस्कराकर उसने उत्तर दिया "हो सकता है पूर्व जन्म में मैं पूरी तरह से निर्विचार था और धन वसूलते थे। अतः मैं इनसे दूर ही रहा एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि एक भारतीय महिला योग सिखलाती हैं और उसने मुझे परमेश्वरी माँ का फोटो भी दिखलाया मिलकर हम उत्तरी लन्दन में स्थित उनके धर गए। एक छोटे कमरे में बहुत हल्का महसूस कर रहा था। मैं बिस्तर पर हमने प्रवेश किया। यहां परमेश्वरी माँ के सम्मुख लेटा और ज्यों ही आँखें बन्द की मुझे लगा कि मैं लगभग बीस लोग फर्श पर बैठे हुए थे। इनके पास पूर्णतः मौन था। मैंने सोचने का प्रयत्न किया परन्तु नाड़ी-तंत्र का, एक चार्ट था जो जाना-पहचाना कुछ सोच न पाया और एक नन्हें शिशु की तरह से महसूस होता था। वहाँ पर सुरक्षा का वातावरण था सो गया। उसके बाद लगभग हर सप्ताह मैं परम और मुझे लगा कि मैं अत्यन्त सुरक्षित हूँ। उपस्थित पूज्य श्रीमाताजी के कार्यक्रमों में जाता, उन्हें सुनना लोगों में से एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने सदा अत्यन्त सुखकर था। मुझसे पूछा कि क्या मुझे शीतल लहरियों का 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-22.txt चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 - 2005 21 मेरे मित्रों को लगा कि पार्टियों और रात्रि रखकर कहा कि मैं उन पर संदेह न करूं। पूजा के पश्चात् श्रीमाताजी ने मुझसे पूछा कि क्या मुझे शीतल लहरियों का अनुभव हुआ? जो वास्तव में मुझे महसूस हुई थीं। तत्पश्चात् श्रीमाताजी ने क्लबों में मेरी दिलचस्पी समाप्त होती चली जा रही है। फिर भी अभी तक मैं इन स्थानों पर जाया करता था। मुझे मेरे हृदय, पेट और सिर में दर्द होने लगा। मैने सोचा कि मुझे कोई भयंकर बीमारी हो रही है और मैं अस्पताल पूर्ण चिकित्सकीय जाँच के लिए गया. परन्तु पता चला कि मुझे कोई रोग नहीं है। क्योंकि डॉक्टरों पर मुझे कभी विश्वास कहा, "परमात्मा तुम्हें आशीर्वादित करें।" इसके बाद मैं अन्य सहजयोगियों के साथ रहने के लिए आश्रम में आ गया और सहजयोग न था अतः में भ्रम में फंस गया और सभी प्रकार की का अधिक ज्ञान प्राप्त किया। पिछले दो वर्षों में बातें सोचने लगा। मुझे बहुत से अनुभव हुए जिन्होंने स्वयं को तथा अन्य लोगों को पहले से कहीं अधिक समझने में सहजयोग सभाओं में शनै शनै मुझे पता मेरी सहायता की। चला कि मेरी पीड़ाओं का कारण मेरे चक्रों की वाधाएं थी और कुण्डलिनी उन बाधाओं को दूर करने में लगी हुई थी। परन्तु अभी भी मैं अर्दध विश्वास. अरद्ध संदेह की अवस्था में था। एक दिन श्रीमाताजी का कृपा-ऋण वर्णन करने के ध लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। ध्यान की स्थिति में जब हमारे हृदय स्वच्छ होते हैं केवल तभी हम मुझे पूजा के लिए बुलाया गया, भारतीय शैली की अजीब पूजा, मैंने सम्मान पूर्वक पूजा की परम महसूस कर सकते हैं कि हम सब उन्हीं के विराट हृदय के अग-प्रत्यग है। पूज्य श्रीमाताजी ने अपना हाथ मेरे आज्ञा चक्र पर है महामाया, हे ब्रह्माण्ड स्वामिनी, आपको बारम्बार प्रणाम । (MODRAG) युगोस्लाविया (महावतार-1980) अनुवादित 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-23.txt श्रद्दटा भकित एव सम्पण, अट एक दूध बेचने वाली नदी के किनारे रहने वाले ब्राह्मण प्ुजारी को दूध पहुँचाया करती थी। नियमित रूप से नाव न आने के कारण वह नित्य समय पर उसे दूध न पहुँचा पाती थी। एक दिन जब वह देर से पहुँची तो ब्राह्मण ने उसे डॉटा। बेचारी महिला कहने लगी "मैं क्या कर सकती हूं? घर से तो मैं बहुत जल्दी निकलती हूँ परन्तु नदी किनारे नाव के लिए मुझे बहुत देर तक रुकना पड़ता है।" पुजारी ने कहा, "हे महिला, परमात्मा का नाम लेकर लोग समुद्र पार कर लेते हैं और तुम्हारे से ये छोटी सी नदी भी पार नहीं होती?" नदी पार करने का यह ें आसान तरीका जानकर वह स्वच्छ हृदय महिला मन ही मन प्रसन्न हुई। अगले दिन से ब्राह्मण को हर सुबह समय पर दूध मिलने लगा। एक दिन उस पुजारी ने दूध वाली महिला से पूछा, "आजकल कैसे तुम्हें कभी भी देर नहीं होती?" महिला ने उत्तर दिया, "जैसा आपने मुझे बताया था आजकल मैं क। परमात्मा का नाम लेकर नदी पार कर लेती हैँ, मुझे नाव की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।" पुजारी इस बात पर विश्वास न कर पाया और कहने लगा, "क्या तुम मुझे दिखा सकती हो कि किस प्रकार तुम नदी पार करती हो? वह महिला पुजारी को अपने साथ ले गई और पानी पर चलने लगी। जब उसने पीछे मुडकर देखा तो पुजारी को अत्यन्त उदास मुद्रा में खड़ा पाया। वह बोली, "श्रीमान आप अपने मुँह से तो परमात्मा का नाम ले रहे हैं परन्तु हाथों से अपने कपड़ों को गीला होने से बचा रहे हैं। ये कैसे हो सकता है? क्या आपको परमात्मा पर पूरा विश्वास नहीं है?"" परमात्मा पर पूर्ण समर्पण और उनमें पूर्ण श्रद्धा ही सारे चमत्कारों का आधार है। अनुवादित (महावतार 1980 से उद्ध ते) 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-24.txt आत्म-साक्षात्कार नेहरू नगर धुलिया) (रवि भवसार जनवरी 1980 तक मुझे सहजयोग के बारे में बिल्कुल पता न था। ती परन्तु हमारे पूर्वजों द्वारा आविष्क त योग में कोई सिद्धि पाने की आकांक्षा मुझमें हमेशा से बनी हुई थी। इसी कारण से बचपन से ही योग की ओर मेरा झुकाव था। सर्वदा विद्यमान इस आकर्षण के कारण ही मैं माताजी श्री निर्मला देवी के प्रवचन में गया। कुण्डलिनी जाग ति के उस कार्यक्रम में मुझे ाण] शांति एवं प्रसन्नता की एक दुर्लभ किरण प्राप्त हुई और इसी उपलब्धि के सहारे मैं अपने जीवन को सच्ची शांति एवं प्रसन्नता से परिपूर्ण करना चाहता हूँ । मुझे लगता है कि परमात्मा हमारे शरीर में विद्यमान है। जिस प्रकार हम ऑँखों से देखते हैं, नाक से सूंघते हैं, कानों से सुनते हैं, वैसे ही कुण्डलिनी भी विश्व में परमात्मा की उपस्थिति को महसूस करने का साधन है। श्रीमाताजी द्वारा दी गई शीतल, स्वच्छ, पावन चैतन्य-लहरियों द्वारा हम अत्यन्त शांत एवं प्रसन्न हो जाते हैं। उनके फोटो से निकलती हुई चैतन्य लहरियाँ उनकी पावनता का पक्का प्रमाण है। इस प्रकार हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारी श्रीमाताजी कितने महान हैं। जय श्री माताजी (महावतार 1980 से उद्ध त) रार पा 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-25.txt सहजयोग मनुष्यत्व का चरमोत्कर्ष (गोरखपुर के एक सहज-योगी की अभिव्यक्ति) अन्तर्यात्रा के सुदीर्घ पथ पर यम, नियम प्रकृत मनुष्यता का बोध होते ही अन्धकार रूप अज्ञानयम जगत के अन्तराल दूर होगे सहजयोग रूपी शुद्ध कर्म से ही ज्ञान का उदय होगा, फिर ज्ञान से ही अनन्य भक्ति एवं प्रकृत भक्ति से ही प्रेम साम्राज्य में प्रवेशाधिकार प्राप्त होगा। 'मै' का अस्तित्व समाप्त होगा. प्रेम साम्राज्य में जाने पर ही परत्याहार, धारणा, निरोध, निग्रह रूप कढोर कर्म साधना का समय समाप्त हुआ। महाकरुणामयी आदि शक्ति माँ का आर्विभाव श्री श्री माताजी निर्मला देवी के रूप में हो चुका है । परमेश्वर के राज्य का मुख्य द्वार उन्मुक्त हो गया। मनुष्य नामधारी जीवों को प्रकृत मनुष्यत्व के आसन में अधिष्ठित होने की उपाय रूप चाबी सहजयोग, बन्धन मुक्ति के साथ साथ मातृ-कृपा प्राप्त कर प्रकृत मनुष्यत्व एवं पूर्णत्व प्राप्त करना सम्भव श्री माताजी की कृपा से सबको प्राप्त हो चुका। होगा। अब मनुष्यता के चरमोत्कर्ष को पाने के लिए सहजयोग ही एक मात्र उपाय है। वास्तविक मनुष्य श्री श्री माताजी निर्मला देवी की कृपा से समष्टि कर्म पूर्ण हो चुका है। समष्टि मन का आर्विभाव एवं उद्यापण भी सम्पूर्ण प्राय है। सिर्फ बनते ही मनुष्य के अन्दर बोध जागृत होगा। मनुष्य जन्म का उद्देश्य सिद्ध होगा, विशुद्ध कर्म का संकत पाकर मनुष्य कर्म प्रबृत्त होगा । जब तक मनुष्य जीवन का उत्कर्ष पथ अवरुद्ध करने वाले चहूँ ओर फैल जायेगा इ्ञान का आलोक फैलते ही बाह्म आवरण हटते ही समष्टि ज्ञान का आलोक प्रत्येक व्यक्ति इसके रहस्य को जान जायेगा| अन्तराल अपसारित नहीं होंगे तब तक वास्तविक संशय का कोई कारण नहीं रहेगा अब शुद्ध कर्म के द्वारा उस महाज्ञान को धारण करने की योग्यता श्री माताजी की कर्मपथ पर अग्रसर होकर पूर्णत्व प्राप्ति की आशा व्यर्थ है। श्री माता जी निर्मला देवी अपनी सन्तानों के कल्याण हेतु सही कर्मपथ की दिशा निर्देश करती आ रही हैं। मानव काल, राज्य में क्षुधा, कृपा से समष्टि कर्म एवं समर्टि मन का द्वार उद्घाटित अर्जित करनी होगी से. हुए सहस्रार के उन्मोचन से श्री माता जी ने समष्टि चेतना का बोध सबके लिए सुगम एवं सुलभ कर दिये। अब श्री माताजी की उस महाकृपा को धारण करने के लिए पुरुषाकार युक्त मनुष्य आवश्यक तृष्णा, बासना, कामना, जरा, मृत्यु आदि दुःखप्रद भावों द्वारा जर्जर होकर जीवन यापन करता आ के रहा है। मनुष्यत्व अवतरण के साथ ही ये सब विरोधी भाव सदा सर्वदा के लिए समाप्त होंगे। बास्तव में मनुष्यत्व का अवतरण ज्ञानावतरण ही है। मुक्त आकाश में सूर्यादय के साथ साथ स्वाभाविक है। ऑकार स्वरूप मनुष्य रूप की परम उत्क्रान्ति क्यों हुई? परमेश्वर की सूक्ष्म शक्तियों से समृद्ध किन्तु चक्षु बन्द रखने से या आलोक के सम्मुख न इस देह का क्या उद्देश्य है? स्व का क्या अस्तित्व है? यही बोध मनुष्य का ज्ञानावतरण है। रूप से उसकी प्रभा चतुर्दिक विकीर्ण होती है । रहने से कोई भी उससे युक्त नहीं हो सकता। इसीलिए कर्म साधना और कुछ नहीं, एक पुरुषाकार 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-26.txt |25 अक : 5 & 6- 2005 चेतन्य लहरी का श्री गणेश होगा, तभी विशुद्ध सत्ता का प्रकाश एवं बोधयुक्त शिशु के समान अबोधिता के साथ श्री पूर्ण होगा। तभी अखण्ड पूर्ण सत्ता 'माँ' की सम्पूर्ण माता जी को पुकारना एवं समर्पित होना। 'माँ" प्राप्ति सम्भव होगी 'माँ को प्राप्त करने के पश्चात् उच्चारण के साथ साथ मातृभाव का उदय होता है। सामर्थ्य के हिसाब से मात्रा चाहे कम या अंधिक हो तथापि यह अमरत्व प्रदायी कर्म है। ही क्षण' का रहस्य उद्घाटित होगा। इस समय सबका एकमात्र कर्तव्य है, श्री माताजी के चरणों में समर्पित हो जाना। मनुष्यत्व प्राप्त करने के पश्चात् भी "माँ" ध्वनि प्रयोजनीय है। विश्व पूर्णत्व प्राप्ति के पथ पर चल रहा है। अतः मनुष्य की महामण्डली को इस महाकर्म में योग देना होगा, यही सामूहिकता भातृभावापन्न सन्तान ही महाप्रकाश को धारण करने में समर्थ हे ये महाप्रकाश या सहाज्ञान का आलोक मां की अगकान्ति है । सहजयोग से ही मनुष्य इस महाप्रकाश के आघात को सहन करने में समर्थ होगा । योग्यता तारतम्य से मनुष्यता अंश में भी तारतम्य होगा तथापि सर्वत्र मनुष्यता का का प्रधान कर्तव्य है। श्री माताजी के आश्रय के नहीं होगा बुद्धिगत बिना जीवत्व का कलंक दूर ज्ञान को अन्तर अवलोकन द्वारा निर्मल शुद्ध रूप अवतरण होगा। अतः "सर्व खल्वद ब्रह्म" इस बनाना होगा। शिशु-भाव ही एकमात्र शुद्ध-भाव है। शिशु माँ को छोड़कर जगत में अन्य कुछ श्रुति वाक्य की अनुरूप-अवस्था का उदय अवश्य भी होगा। नहीं पहचानता है। वह माँ की चिन्ता में विभोर कालनाशिनी हैं देव, देवी, "माँ" वस्तुतः सिद्ध, ऋषि, ईश्वर, कोई भी काल का नाश करने में समर्थ नहीं । पूर्ण कर्म के अभाव में काल भेद नहीं हो सका। चैतन्य प्राप्त मनुष्यों द्वारा ही पूर्ण रहता है। अत: उसके जीवन का समस्त कल्याण विधान माँ स्वयं करती हैं। ज्ञानी, भक्त, कर्मी प्रवृत्ति के अभिनय में जीव ने बहुत समय व्यर्थ किया है । इससे उसको चिर स्थायी शान्ति या परमानन्द का प्राप्ति नहीं हुई, वह मनुष्यत्व तक ही पा सका जवकि मनुष्यत्व उसका जन्मसिद्ध अधिकार है । दैहिक मान-मर्यादा, धन - जन यश-प्रतिष्ठा, ज्ञान-भक्ति सब अलीक स्वप्न मात्र प्रतीत हुआ ये कर्म सम्पन्न ही सकता है। किसी एक के कर्म द्वारा चिश्व व्यापी काल का विनाश सम्भव नहीं, जो पूर्ण कर्मी हैं, वे ही मन को समष्टि भाव से निजस्व करने में समर्थ है । उर्ध्य लोक से विशुद्ध सत्ता का अवतरण, सब मृत्यु के कराल ग्रास में विध्वस्त हो जाते हैं निर्वाण, कैवल्य, मुक्ति इत्यादि वास्तविक पूर्णत्व नहीं, न ही पूर्णत्व, स्वर्गलोक आदि किसी लोक- लोकान्तरों में प्राप्त होता है । पूर्णत्व प्राप्ति के लिए मनुष्यत्व का पूर्ण बोध एवं विकास सामूहिक रूप में आवश्यक है। रुची भेद से किसी भी देव-देवी 1 तत्पश्चात व्यक्ति मन द्वारा, समष्टि भाव साधन हेतु त्रिशक्ति जनित, त्रिविधकर्म का सम्पादन क्षण या वर्तमान का धारण एवं महाशक्ति मां के प्रति पूर्ण रूपेण समर्पण ही मनुष्यत्व के अवतरण का मूल है। मनुष्यत्व का अंवतरण एवं धरातल में ज्ञान राज्य की प्रतिष्ठा होने के पश्चात जब प्रत्येक की आराधना खण्ड उपासना है। अखण्ड मनुष्य में बोध का उदय होकर "स्व" भाव के कर्म मातृ शक्ति या पूर्णता प्राप्ति हेतु सहजयोग के यार 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-27.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 26 न करें तो विश्व व्यापी संहार से उसकी रक्षा करना माध्यम से माता जी श्री निर्मला देवी की शरण में आना ही होगा। आदि शक्ति माता जी वस्तुतः शक्ति, शिव, प्रकृति- पुरुष, सभी का समाहार है। यहाँ पर शिव, विष्णु, गणेश आदि में कोई भेद असम्भव होंगा। अखण्ड चैतन्य राज्य स्थापित होगा, जो वास्तव में निर्मल होगा प्रलय से देह रक्षा का एकमात्र उपाय है माँ को पुकारना। 'माँ ध्वनि से माँ के साथ योग स्थापना होगी, एवं काल नहीं। मातृ भाव, ब्रह्म भाव से भी अतीत है। चैतन-अचेतन उभय सत्ता इसी के अन्तर्गत है । इसमें शौच- अशौच, नियम-बन्धन विधि-निषेध का कोई प्रयोजन नहीं। शिशु भाव में प्रत्येक मनुष्य को संतानत्व का अधिकार है। इसके लिए योग्यता का अवसान होगा। काल राज्य नियति के अधीन है । देवतागण भी नियति उल्लंघन नहीं कर सकते। वास्तव में पुरुषाकार (ऊँ) काल के अतीत है। उससे अतीत है विश्व प्रकृति एवं सबसे उध्ध्व में है 'माँ। प्रणव' रूपी पुरुषाकार, प्रकृति एवं मों इन का विचार अनावश्यक है। सिर्फ माता जी के प्रति समर्पण ही यथेष्ट है। यहाँ शाक्त-वैष्णव का कोई तीनों के मिलन से ही अखण्ड परमेश्वर के साम्राज्य प्रश्न नहीं, जात-पात, धर्म-सम्प्रदायों का कोई की प्रतिष्ठा होगी। विभेद् नहीं। सिर्फ शिशु भाव से शरणागति ही आत्म बोध ही प्रकृत मनुष्यत्व है। इसकी सम्प्राप्ति हेतु देवगण भी नर देह धारण करते हैं । पूर्णत्व प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। परमेश्वर के साम्राज्य की परम शक्ति का नाम है अब समय अवशिष्ट नहीं रहा। विश्व व्यापी क्षण । योग के अतिरिक्त इसकी उपलब्धि असम्भव संहार काल आसन्न होकर सम्मुख दंडायमान हैं । कर्म सम्पूर्ण हो चुका। काल का स्थिर रहना अब है। 'क्षण की गति तीव्रतम है। वह मन का भेद करने में सक्षम है। क्षण असम्भव है। जीव के कर्म एवं कर्मफल का आश्रय " धारण बिना साधना लंकर काल स्थिर मातृ-माव द्वारा विश्व व्यापी संहार को रोकने में समर्थ है। तब जीव को मृत्यु से परित्राण मिलेगी। है। एकमात्र शिशु ही अनन्य समाप्त नहीं होती। मात्र क्षण' धारण से ही इस कर्मभूमि का कर्म समाप्त होगा। मन, देह एवं कर्म तीनों के एकत्रीकरण द्वारा किसी पदार्थ पर दृष्टि निरुद्ध करने से क्षण' आर्विभूत होती है। पृथ्वी के जीव माता जी के आशीर्वाद एवं कृपा से उस महान प्रतिष्ठित होंगे मनुष्यता प्राप्त कर अमरत्व प्राप्त होगा। व्यष्ट्ि मन एवं प्राण, जब समष्टि मन एवं प्राण से सम्मिलित होंगे तब मृत्युलोक एवं अमरलोक भी सम्मिलित होगा। मरणधर्मी मनुष्य सत्य जगत में I पूर्ण बोध के साथ चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठा लाभ में मनुष्यत्व रूपी परम वस्तु उदित होगी। करना आवश्यक है। यदि पृथ्वी का जीव पृथ्वी का निराकार माँ से काल का जन्म होता है। ही वैशिष्ट प्राप्त न कर सके, तो परम विज्ञान का संधान कैसे पायेगा? स्वयं अन्धकार मुक्त हो कर साकार माँ से काल का विनाश सम्भव होगा। होगा अन्धकार को आलोक रूप में विकसित करना, ही तब, जब शिशु भाव से माँ को पुकारना आयेगा, तब, देह चैतन्य से युक्त होगा। अगर व्यक्ति कर्म मनुष्य जीवन का चरमोत्कर्ष है। 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-28.txt अंक : 5 & 6 - 2005 27 चैतन्य लहरी हो जायेंगे। जो पहले से श्री महाप्लावन में लुप्त माता जी के आश्रय ग्रहण पूर्वक चैतन्य से सर्वदा अन्धकार का कर्म पूर्ण हो गया। इस समय सबको आत्म साक्षात्कार प्राप्त कर लेना चाहिए। इस प्राप्ति से माँ की मातृ-स्वरूप में युक्त होकर, चेतना या पूर्ण बोध में रहेंगे, वे इस प्रसकुटित शक्ति का विकास होगा इस समय सरल शिशु भाव से माँ को पुकारना होगा। साधारण जीव के लिए यही एकमात्र कर्म है। संकट के समय आत्म विस्मृत नहीं होंगे जब महाकाल ही काल ग्रसन को उद्यत होंगे तब काल के साथ साथ, काल गर्भ में स्थित समस्त संसार महाकाल में लीन हो जायेगा। मनुष्य काल के श्री माता जी पूरे विश्व के स्त्री-पुरुष, अन्तर्गत है। अतः उसे अपनी आत्म रक्षा का उपाय वृद्ध-बालक, सभी को 'स्व' धर्म की ओर आकर्षित कर रही है। एक धर्म, एक कर्म, द्वारा विराट मन की प्राप्ति करनी होगी इस समय देह चैतन्य सबसे आवश्यक है । निजस्व मन के साथ मनुष्यत्व ग्रहण करना ही होगा। जीव जगत में एकमात्र मनुष्य में ही कुण्डलिनी एवं चैतन्य शक्ति है। जगत के घोरतर संकट काल में संतानों की रक्षा हेतु 'आदि शक्ति', माता जी श्री श्री निर्मला देवी के रूप में अवतरित हुई हैं। पृथ्वी पर जिस अभिनव, कालातीत. विज्ञानमय, आनन्दमय, पास विद्यमान है । तीव्र रूप से, आन्तरिक व्याकुलता मृत्युहीन सृष्टि का स्फुरण होगा, उसमें सबको स्थान देने के लिए करुणामयी माँ का आविर्भाव एवं माँ की कृपा का समन्वय स्थापित करना होगा। विराट आलोक एवं विराट अन्धकार आस से माँ को पुकारने पर यह अशुभ या अन्धकार अन्त प्रवेश नहीं कर पायेगा आशीर्वाद प्राप्त मनुष्य, तटस्थ साक्षी भाव से देखेगा। विशाल जगत के हुआ है मातृविमुख संतान, जो माँ को नहीं पुकारेगा वो प्राकृतिक नियमानुसार प्रलय के दंष्ट्राघात से चूर्ण हो जायेगा । समस्त भेद-भाव विराट अन्धकार में विलुप्त होते जा रहे है। तत्पश्चात् सर्वत्र एकाकार भाव का उदय होगा। अनन्त लोक-लोकान्तर, एवं स्तर समूह, पृथ्वी से युक्त होंगे वृक्ष, लता, पक्षी, गृह उद्यान, जलाशय, मुहूर्त मात्र में, विद्युत वेग से तिरोहित हो जायेंगे हठात् एक किसी अचिन्त्य शक्तिशाली, तीव्र अतिन्द्रिय पदार्थ की क्रिया समस्त अंतएव आइये, हम सब श्री श्री माताजी की कृपा दान रूप आत्म साक्षात्कार एवं कुण्डलिनी जागरण के आशीर्वाद से आशीर्वादित होकर मनुष्यता ार के चरमोत्कर्ष को प्राप्त करें। डा० शुभ्रांशु राय चौधुरी (सहजयोगी) 94. जगन्नाथपुर, निकट दुर्गा मन्दिर पार् गोरखपुर (उ०प्र० ) - 273001 जगत के उपर प्रकाशित होगी। संहार क्रिया चेतन-सत्ता को आघात पहुँचाने में असमर्थ होगी । जो चैतन्य का आश्रय ग्रहण नहीं करेंगे वे इस 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-29.txt पातांजलि की सुक्तियाँ एवं सहजयोग पातांजल योग में पातांजलि की वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है । सूक्तियाँ या सूत्र योग पर श्रेष्ठतम लेख माने १. प्रमाण (Right Knowledge) है गए हैं। युग-युगान्तरों से इन्हें योग पर विश्वस्त इसे आगे इस प्रकार से बॉटा गया सूत्र माना जाता रहा है। कुछ विद्वानों के अ. प्रत्यक्ष ज्ञान अनुसार बौद्ध मत के कुप्रभाव का मुकाबला ब अनुमानित ज्ञान करने के लिए इनकी रचना की गई थी । स. प्रलोभन, ईर्ष्षा, घृणा तथा भ्रान्तियों से क्योंकि तब तक बौद्धमत अपभ्रष्ट हो चुका मुक्त उन महान गुरुओं से प्राप्त ज्ञान जिनकी था, फिर इसे शासक वर्ग का संरक्षण प्राप्त रुचि परहित में हो। यह 'अगम वृत्ति' है । था। ये सूत्र चार भागों में बांटे गए हैं जिन्हें अध्याय' कहते हैं और समाधिपद, साधनापद. किसी चीज को कुछ अन्य २. विपर्याय मान लेना। विभूतिपद तथा कैवल्य पद के नाम से जाने जाते हैं। ३. विकल्प - केवल शाब्दिक ज्ञान जिसके अनुरूप वास्तव में कुछ न हो। ४. निद्रा यह ऐसी वृत्ति है जिसमें सभी समाधिपद के दूसरे सूत्र में योग की वृत्तियों को अनुभव किया जा सकता है। परिभाषा, मस्तिष्क की विचार लहरियों को तपोगुण मस्तिष्क पर पूरी तरह से छा जाता रोकने की गतिविधि चित्तवृत्ति निरोध रूप है और अन्य सभी ज्ञानेन्द्रियों को निष्क्रिय बताई गई है। मस्तिष्क सतोगुण, रजोगुण कर देता है यह अनुभव भी अपने आप में और इसकी एक वृत्ति है जिसे निद्रा कहते हैं। ५. स्मृति - सभी अनुभव मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं और ये तब तक बने रहते और तपोगुण से बना है गतिविधियाँ किसी न किसी गुण के बाहुल्य के अनुसार होती हैं । वृत्ति निरोध करने से जब मस्तिष्क निर्विचार हो जाता है तो आत्मा जब तक वैसी ही परिस्थितियाँ उन्हें पुनः अपनी अवस्था में शान्त होता है। अन्यथा गतिशील न कर दें । ये वृत्तियाँ स्मृतियाँ हैं। यह वृत्तियों से एकरूप होता है वृत्तियों का 28 প প 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-30.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6- 2005 29 (ईश्वर प्रणिधान) दो वृत्तियों के मध्य विलम्ब की दूरी परमात्मा में श्रद्धा' को बढ़ाने के निरंतर अभ्यास से मस्तिष्क है। पातांजलि के अनुसार परमात्मा की की गतिविधियों को नियंत्रित किया जा अभिव्यक्ति करने वाला शब्द प्रणव है और इस शब्द की आवृत्ति से तथा इसके अर्थ का विचार करने से अन्तर्अवलोकन शक्ति बढ़ती सकता है। वृत्तियाँ जब नियंत्रित हो जाती हैं तो समाधि की अवस्था आती है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए स्थूल पर है तथा शारीरिक एवं मानसिक बाधाएं दूर ध्यान करना और फिर सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर होती हैं। असम्प्रद्यात समाधि दो प्रकार की है- सबीज और निर्बीज। अर्थात सांसारिक वस्तुओं पर ध्यान करना बताया गया है । और अन्त में मस्तिष्क को निर्विचार करने के वस्तुओं से लिप्त या अलिप्त होकर यह सूक्ष्म (बीज) रूप में विद्यमान है । संस्कार यदि नष्ट लिए परिष्कृत चीजों का ध्यान भी किया जा सकता है। परन्तु इस अवस्था में व्यक्तिगत नहीं होते तो अवसर मिलते ही चेतना बनी रहती है। यह सम्प्रद्यात समाधि जाते हैं और व्यक्ति को भले या बुरे कर्म जागृत हो है। अगली अवस्था असम्प्रद्यात समाधि है करने पर विवश करते हैं । इन संस्कारों के इसे मरितष्क की उस अवस्था को बढ़ाने से नष्ट हुए बिना आत्मसाक्षात्कार भी सम्भव प्राप्त किया जा सकता है जिसमें मस्तिष्क नहीं है । असम्प्रदयात समाधि द्वारा इन्हें निर्बीज सभी वृत्तियों से मुक्त होता है, इसमें वो वृत्तियाँ भी सम्मिलित हैं जो व्यक्तिगत चेतना अवस्था में लाया जा सकता है। से सम्बन्धित है। असम्प्रद्यात समाधि में 'मैं' समाधि पद में वर्णित समाधियाँ प्राप्त 'T' का भाव समाप्त हो जाता है। यद्यपि पूर्व करना कठिन कार्य है। साधनापद बताता है कर्मों के तथा अनुभवों के कुछ प्रभाव बने कि एक-एक कदम किस प्रकार आगे बढ़ाना रहते है। इस अवस्था में पहुँचने की उन्नति है ये कदम इस प्रकार हैं : इस पर निर्भर करती है कि हमें विश्वास १. तप-ध्यान धारणा और आंतरिक एवं बाह्य तथा श्रद्धा हो कि असम्प्रद्यात समाधि के शुद्धिकरण तथा शरीर साधन। माध्यम से निरंतर अभ्यास द्वारा आत्म- २. स्वाध्याय ३. ईश्वर प्रणिधान (परमात्मा के प्रति श्रद्धा) साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है यह अवस्था प्राप्त करने का एक अन्य टरीका ০ 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-31.txt अंक : 5 & 6 - चैतन्य लहरी 30 जब उस भौतिक पदार्थ का साकार रूप "अगला कदम सत्य और असत्य में सदैव अन्तर देखते रहना और 'पुरुष' पर दृढ़ छोड़ दिया जाता है अनाभिव्यक्त अर्थ विश्वास क्योंकि आत्मा भौतिक पदार्थों से प्रतिबिम्बित होने लगता है, तो यह समाधि की अवस्था है। इन तीनों (ध्यान, धारणा भिन्न है। अतः मस्तिष्क पर वृत्ति का प्रभाव नहीं होना चाहिए। इससे अगला कदम अष्टांग योग है। यहाँ ये बता देना आवश्यक है कि और समाधि) का जब एक साथ अभ्यास किया जाता है तो यह साम्यम् कहलाता है। परन्तु ये अभ्यास भी निर्वीज, सम्प्रद्यात समाधि तक नहीं पहुँचाता क्योंकि मनुष्य में अभी भी सूक्ष्म इच्छाएं बनी रहती हैं । विभूति 1 पातांजलि ने उन योगासनों के विषय में कुछ भी नहीं कहा जिनमें कठोर परिश्रम करके लोग कुशलता प्राप्त करते हैं । उन्होंने तो पद का शेष भाग इस बात का वर्णन करता केवल इतना कहा कि ध्यान की मुद्रा दृढ़ ताि एवं सुखकर 'स्थिर सुखम् आसनम्' होना है कि साम्यम् के अभ्यास से किस प्रकार चाहिए। उन्होंने प्राणायाम को भी बहुत सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। परन्तु आधुनिक त अधिक महत्व नहीं दिया। इस पर केवल युग में इनका कोई महत्व नहीं हैं। सूत्रों के अनुसार इन्हें उत्क्रान्ति मार्ग में व्यवधान पांच सूत्र ही लिखे। अष्टांग योग की बात मानकर छोड़ दिया जाना चाहिए। आत्म- करते उन्होंने परमात्मा के प्रति श्रद्धा पर े हुए साक्षात्कार पाने के लिए चित्त और पुरुष बल दिया। (आत्मा) पर साम्यम् करने की राय दी गई की है । अष्टांग योग की अंतिम तीन अवस्थाएं ध्यान, धारणा और समाधि, जो कि आंतरिक विकास से जुड़ी हुई हैं, उनका जो भी हो, जब तक सूक्ष्म इच्छाएं वर्णन विभूतिपद में किया गया है। इनका पूर्णतः नष्ट नहीं हो जातीं आत्म-साक्षात्कार सम्भव नहीं है। कैवल्य पद में यह बताया अभ्यास देश के संदर्भानुसार होना चाहिए। देश की तुलना कई विद्वान चक्र से भी करते गया है कि अनुकूल वातावरण के अनुसार इच्छाओं की अभिव्यक्ति होगी। कारण और हैं। धारणा' मस्तिष्क को किसी भौतिक और उस चीज़ से चीज़ पर टिकाना है प्रभाव द्वारा सूक्ष्म इच्छाएं बनी रहती हैं और भले बुरे कर्मों का कारण बनती हैं और कर्म निरंतर प्रवाहित होने वाला ज्ञान ध्यान है। 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-32.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 31 अनुभवो के सूक्ष्म प्रभाव को पीछे छोड़ते हैं जिनके कारण और इच्छाओं का सृजन होता है। ये सब मस्तिष्क में एकत्र हो जाती हैं। बाह्य मामलों पर प्रतिक्रिया भी नई इच्छाओं आसनों पर बल दिया जा रहा है। परन्तु आंतरिक और बाह्य शुद्धिकरण, परमात्मा के प्रति श्रद्धा, ग्रन्थों का अध्ययन आदि आरम्भिक अवस्थाएँ पूरी तरह से नकार दी गई हैं । को जन्म देती है। इच्छाओं से सद्-सद-विवेक पातांजल योग में बहुत सी अच्छाइयाँ मस्तिष्क (असत्य) में भेद करने का गुण ही हैं परन्तु पातांजलि द्वारा सुझाए गए तरीकों का आधुनिक युग में निर्वाण प्राप्ति के लिए बुद्धि में बाधा आती है। आत्मा (सत्य) और कैवल्य प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है और यह सम्प्रदयात समाधि की प्राप्ति के बाद ही हो अभ्यास कर पाना न केवल कठिन है परन्तु जीवन यापन के लिए संघर्षरत सर्वसाधारण सकता है। गृहस्थ के लिए इस मार्ग पर चल पाना में साधना पद और विभूति पद के कुछ असम्भव भी है। इस प्रकार आज के युग भाग व्यवहारिक तरीके सुझाते हैं। परन्तु सद्गुरु सहजयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है के पथ प्रदर्शन, समर्पण एवं श्रद्धा के बिना क्योंकि जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानव के अन्दर विद्यमान गुणों की जागृति के लिए परमेश्वरी माँ श्री निर्मलादेवी द्वारा इन सूत्रों का कुछ खास लाभ नहीं हो सकता। साधना पद में सुझाए गए तरीकों द्वारा निर्विचार समाधि की अवस्था को पा लेना कठिन है । बताए गए सहज उपाय एवं पूर्ण समर्पण मस्तिष्क के पराचेतन (Supra Conscious) साधक के लिए अत्यन्त सुगम है। अवस्था में जाने के कारण चित्त वृत्तियाँ बढ़ती परमपूज्य श्रीमाताजी तत्क्षण साधक को निर्विचार चेतना प्रदान कर देती हैं। ज्योंही है जब तक चित्त विक्षेप को रोका नहीं जाता, चाहे जितने भी समय तक योगासन और प्राणायाम करते रहें ये साधक को कृण्डलिनी जागृत होती है, साधक के सहस्रार पर पहुँचती है और उसे दिव्य चैतन्य लहरियाँ प्राप्त होने लगती हैं। इतने कम समय में निर्विचार समाधि तक नहीं ले जा सकते। हो सकता है कि प्राचीन युगों में परिस्थितियों के अनुरूप इन क्रियाओं का कोई लाभ होता निर्विचार समाधि तथा आनन्द की अवस्था हो। आधुनिक युग में भी प्राणायाम और का प्राप्त कर लेना राधक की व्यक्तिगत, 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-33.txt अंक : 5 & 6 - 2005. चैतन्य लहरी 32 शारीरिक और मानसिक अवस्था पर निर्भर अगली अवस्था अर्थात निर्विकल्प स्थिति में करता है। यह असम्प्रदयात समाधि की तरह से है । स्थापित हो पाना सम्भव है। परम पूज्य श्रीमाताजी साक्षात् ध्यान की अवस्था के अतिरिक्त आदिशक्ति हैं । उनकी शक्तियाँ सर्वव्यापी मस्तिष्क स्वच्छन्द रूप से कहीं भी जाने के हैं। वे सर्वज्ञ (तत्र निरातिश्यम सर्वज्ञ बीजं) है। चैतन्य लहरियाँ उनसे प्रसारित होने वाला लिप्सा लिए स्वतंत्र है । दैनिक जीवन में मस्तिष्क को अवचेतन और अतिचेतन के प्रणव हैं। (तस्थ वाचकः प्रणवः) जो शारीरिक एवं मानसिक रोग एवं व्याधियों को दूर करती बीच में भटकते रहने का कारण बनती है। हैं। साधना की उन्नति के मार्ग में आने वाली सुषुम्ना मार्ग पर चित्त को रखकर इस सम्भावित बाधाओं से बचने के लिए चैतन्य भटकन से बचना चाहिए। थोड़े से अभ्यास से कार्य करने के पश्चात् मर्तिष्क को मध्य में वापिस आने की आदत पड जाती है। दयालु हैं कि वे सभी को आत्मसाक्षात्कार चेतना सहायक होती है। श्रीमाताजी इतनी तत्पश्चात् चित्त को हृदय और फिर सहस्रार एवं निर्विचार समाधि प्रदान कर देती हैं। पर ले जाया जा सकता है। कुण्डलिनी जब उनके प्रति श्रद्धा ईश्वर प्राणिधान है जो पूर्व सहस्रार में विश्राम करती है तो निर्विचार कर्मों के बीज को नष्ट कर देता है और मोक्ष समाधिं की अवस्था को स्थापित किया जाना प्राप्ति को सम्भव बनाता है। उनके प्रति श्रद्धा सम्भव होता है। बाह्य बाधाएं स्वतः ही दूर हो एवं पूर्ण समर्पण आत्मा के साथ एकरूपता जाती है। परम पूज्य श्रीमाताजी ने निर्विचार है। वे सर्वोच्च हैं और सभी के भूत, भविष्य समाधि की अवस्था में स्थापित होने के महत्व और वर्तमान के बारे में जानती हैं। र पर बल दिया है क्योंकि इसी स्थिति से ही मत्समः पातकी नास्ति पापहनी त्वत्समा न हि । एवं ज्ञात्वा महादेवी यथायोग्यं तथा कुरु।। (महावतार 1980) -अनुवादित 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-34.txt विवाह वं प्रभ ए सहजयोग में आने से पूर्व सभी चीजों में इस प्रथम नजरिए से मेरा जीवन वास्तव में परिवर्तित जीवन हो गया प्रथम एहसास से ही मेरा भय का तत्व होता है क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान पूरा परिवर्तित हो गया परन्तु इसका ये अर्थ नहीं है नहीं होता कि किसी स्थिति में वास्तव में क्या घटित हो रहा है या वास्तव में हम क्या महसूस कि उसी क्षण से मैं अत्यन्त साधु-स्वभाव एवं ा कर रहे हैं । प्रेम एवं विवाह भी छदम खेल है विवेकशील व्यक्ति बन गया नहीं। एक प्रकार से तो ये पाँच वर्ष मेरे जीवन का कठोरतम समय था। जिसके परिणाम के विषय में कुछ नहीं कहा जा ये कठिनाइयाँ सहजयोग के कारण नहीं थीं ये तो सकता। आत्म-साक्षात्कार प्राप्ति के पश्चात् हमारे वर्षा होती है तो मेरी अज्ञानता, उदण्डता संवेदनहीनता एवं आलस्य जीवन में जब श्रीमाताजी की कृपा जीवन की पूर्व अनिश्चितताएं धुल जाती हैं और के कारण थीं (किसी संत के शानदार गुण)। वास्तव में मैं स्वयं ही अपनी उत्क्रान्ति में बाधा थी। सभी भ्रम मूल्यवान स्पष्ट धारणाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। परन्तु सहजयोग में आने के पश्चात् यदि पश्चिमी देशों के साधकों की समस्याएं हम तुरन्त ये नही महसूस कर लेते कि आत्म- साक्षात्कार का अर्थ एकदम से पूर्णता प्राप्ति नहीं है पूर्व के साधकों से भिन्न होती हैं परन्तु बहुत से तो एक अन्य भय पनप सकता है। रातोंरात हमारे मामलों में हमारी कठिनाइयाँ एक सी होती हैं चाहे मा वे भिन्न दिखाई दें। प्रेम एवं विवाह भी ऐसी ही एक सभी निर्णय बिल्कुल ठीक नहीं हो सकते । विवेकपूर्वक हमें बढ़ना होगा जैसे नवजात शिशु को कठिनाई है । नकारात्मकता के आक्रमण के लिए से यह एक बहुत बड़ा आधार है क्योंकि परिवार ही तो ज्ञान आत्मसात करना होता है। ज्ञान सूझ-बूझ को आँखें बन्द करके रटा नहीं जा सकता। हमारे जीवन के आधार है। मेरे लिए समस्या मेरे ाम अवास्तविक विचार थे कि किस प्रकार मेरा विवाह सहजयोग में पाँच वर्षों के मेरे अनुभव होगा और विवाह और विवाह के पश्चात् मेरा जीवन कैसा होगा। अहं और प्रतिअहं एक दूसरे से लड़ते हैं प्रकटीकरण की एक श्रृंखलासम जिनका आरम्भ इस अवर्णनीय अहसास के साथ हुआ कि श्रीमाताजी रहे और उन्होंने मेरे सम्मुख दो तरह की आकृतियाँ से हमारा प्रथम साक्षात्कार हमारे अन्दर उस एहसास बनाई। एक तो शांत एवं विश्वसनीय साथी की और दूसरी रोमांचपूर्ण साथी की। इन दोनों विचारों को जगाता है कि सत्य, सौन्दर्य और दिव्यत्व हमारे का परिणाम एक ही था कि मुझे विवाह को नकार सभी स्वप्नों से कहीं अधिक सुंदर एवं सच्चे हैं। 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-35.txt अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 34 श्रीमाताजी के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए, ये कहीं अधिक करना होगा क्योंकि नकारात्मकता के सारी मानवीय इच्छाएं भुला देनी चाहिएं। सहजयोग आक्रमण अब अधिक सूक्ष्म होंगे जो विवाह की में मेरे हाल ही के अनुभव हमारी परम करुणामय एकरूपता के आड़े आएंगे। मिलकर यदि सभी परमेश्वरी माँ के सम्मुख हुए मेरे विवाह के अनुभव बाधाओं का मुकाबला किया जाए तो कोई भी हानि से आए। मैंने उनकी सुरक्षा में रहकर उनके प्रति नहीं हो सकती। इसका मतलब ये भी नहीं है कि समर्पण के आनन्द को महसूस किया। ज्योंही मैंने परस्पर कभी किसी प्रकार का अन्तर न होगा। महसूस किया कि अपने नवविवाहित पति की इसका अर्थ प्रेमपूर्वक अन्तर्विरोधों को दूर करके प्रेममयी पत्नी बनना श्रीमाताजी की लीला का ही विवाह सूत्र को दृढ़ करना है। जहाँ तक मेरा एक हिस्सा था तो मैं आनन्द से रो पड़ी । सम्बन्ध है विवाह से हमें एक बच्चे का आशीर्वाद मिला, हमारा अपना श्रीगणेश। इस आशीर्वाद के जिस प्रकार से आत्म-साक्षात्कार एक एहसास को शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता । महान एहसास का आरम्भ है वैसे ही विवाह भी एक यह तो एक चमत्कार है हमारी श्रीमाताजी ने हमें महान समन्वय का आरम्भ है। परन्तु दोनों ही नर्क से स्वर्ग की ओर जाने का पथ दिखलाया है। साथियों को भली-भांति पोषित होकर उन्नत होना हम केवल उनका धन्यवाद कर सकते हैं और उनके चरण कमलों में समर्पित हो सकते हैं । होगा नकारात्मकता का मुकाबला पहले से भी ओऽम् त्वमेव साक्षात् श्री गृहलक्ष्मी श्री सीताराम साक्षात्, श्री आदिशक्ति माताजी, श्री निर्मला देव्यै नमो नमः ।। एक सहजयोगिनी लन्दन से (महावतार-1980) 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-36.txt सहजयोगियों की दिनचर्या ( राउल बहन) सभी सहजयोगियों को चाहिए कि प्रतिदिन शाम के समय आरती करें और कुछ देर ध्यान में बैठें। सोने से पूर्व बंधन लेना और पानी पैर नियमित रूप से ध्यान धारणा में बैठे। प्रातःकाल जागने के पश्चात् बिस्तर में बैठे हुए ही लगभग दस मिनट ध्यान करें। बिस्तर छोड़ने से पूर्व सम्मानपूर्वक पृथ्वी माँ को प्रणाम करें, बन्धन लें और सर्वप्रथम श्रीमाताजी के फोटो के सम्मुख जाकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम करें, उनसे प्रार्थना करें और मौजूद हों तो पूरी मर्यादाएं निभाई जानी चाहिएं। उसके पश्चात् अन्य कार्यों में लगे स्नान करने के हमें चाहिए कि हम अत्यन्त विनम्र हों। ग्राह्य- पश्चात् पूजा करें, पूजा का आसन बिल्कुल स्वच्छ होना चाहिए। पूजा में काम आने वाली सभी चीजें वे कुछ पूछें केवल तभी बोलें उनके प्रवचन में बहुत अच्छी गुणवत्ता की होनी चाहिएं और उन्हें अलग-अलग ठीक से रखा जाना चाहिए। पूजा के स्थान को साफ करने के लिए झाडू भी बिल्कुल साफ होना चाहिए और इसका उपयोग केवल इसी स्थान के लिए किया जाना चाहिए। पूजा के लिएश्री माताजी पहुँचती हैं तब न तो उन्हें पुष्प समर्पण जल ताजा हो और पूजा आरम्भ करने से तुरन्त करने चाहिए और न ही उनके मस्तक पर कुम-कुम पहले नल से लें। यदि सम्भव हो तो तांबे के बर्तनों का ही उपयोग करें फोटोग्राफ को साफ करने पूजा होनी चाहिए। उनकी आज्ञा के बिना उनके क्रिया करना अत्यन्त आवश्यक है। सदैव श्रीमाताजी का नाम अत्यन्त सम्मान- पूर्वक लें और उनकी स्तुति करें जब वे साक्षात् में अवस्था में हों और हमारे अन्दर पूर्ण श्रद्धा हो। जब किसी भी प्रकार का व्यवधान न हों। वे सर्वशक्तिमान, सर्व्यापी एवं सर्वज्ञ है। जो भी कुछ वे हमें बताती हैं, हमें स्वीकार करना चाहिए और उसे जीवन में उतारना चाहिए। साक्षात् पूजा के समय या जब लगाना चाहिए। हमेशा उनके चरण-कमलों की ही चरणों को स्पर्श नहीं करना चाहिए। ये बात हमें वाला चस्त्र यदि हो सके तो लाल रंग का हो और भूली भाति साफ किया गया हो। इसका उपयोग हमेशा याद रखनी है। सभी सहजयोगियों को याद रखना है कि भी कहीं अन्य नहीं होना चाहिए। पूजा और ध्यान धारणा का उनके जीवन में सर्वोच्च पूजा करते हुए सबसे पहले जल (गुलाबजल) से फोटोग्राफ को साफ करें, कपड़े से पोछकर सुखाएं। फोटो पर कुमकुम लगाएं। फोटो समर्पण, पूर्ण श्रद्धा और श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय के सम्मुख पुष्प भेलपत्र आदि अर्पण करें। तीन बार मन्त्रोच्चारण करें और झुककर फोटो को संदेह करने से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा महत्व है। ब्रह्माण्ड स्वामिनी माँ जगदम्बा के आशीर्वाद की कामना यदि आप करते हैं तो पूर्ण आवश्यक है। प्रश्न पूछने से, सोच- विचार और प्रणाम करें। पूजा के पश्चात् कुछ देर ध्यान में बैठें, बाद में बन्धन लें। केवल स्नान के बाद ही पूजा की जानी चाहिए और पूजा का स्थान अच्छी तरह से सकता। अनुवादित (महावतार 1980 से उद्धृत) स्वच्छ होना चाहिए। 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-37.txt की खास्तविकता जीखन शक्ति जो देख सकती है. आयोजन कर सकती है, आज के संसार में परमात्मा प्राप्ति के समझ सकती है और अन्य सभी कार्य कर सकती असंख्य धार्मिक एवं अन्य सिद्धांत प्रचलित हैं हर व्यक्ति की सर्वशक्तिमान परमात्मा के विषय में है. उनकी समझ से बाहर है । इसका कारण ये है कि उन्होंने ऊर्जा के कुछ ऐसे स्रोत खोज निकाले हैं जिन्हें नियंत्रित करके वे अपने मकसद के लिए अपनी ही धारणा है। इसलिए व्यक्ति के विश्वास एवं श्रद्धा बहुत हद तक परमात्मा के विषय में उसकी व्यक्तिगत धारणाओं पर निर्भर करते हैं। ऐसी बहुत सारी चीजें होती है जो उसे परमात्मा के विषय में नए-नए विचार देते हैं जैसे पुस्तकें. लोग और बाज़ार में बिकने वाले असंख्य गुरु। अंत में व्यक्ति परमात्मा को या तो भैंगी दृष्टि से देखने भी वो ये नहीं समझ पाते कि कहाँ से ये ऊर्जा लगता है या परमात्मा में विश्वास करना ही छोड़ आती है और कहाँ जाती है बहुत सी मूर्खतापूर्ण देता है। मनोवैज्ञानिक लोग कहते हैं कि भय, संस्कार तथा'इस प्रकार के अन्य कारणों से ही जीवित रहने के लिए है।" परन्तु अपना अर्थ जानने लोग परमात्मा में विश्वास करते हैं। वे यह देखने के बारे में आपकी क्या राय है? ये एक ऐसी चीज़ में असफल होते हैं कि परमात्मा किसी व्यक्ति है जिस पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। विशेष की धारणा नहीं है और न ही परमात्मा किसी उपयोग कर पाते हैं। उन्हें नियंत्रित करने वाली शक्ति को वै स्वीकार नहीं करते और इस प्रकार से स्वयं को ही धोखा देते हैं। क्या वे यह नहीं जानते कि जीवन ऊर्जा के कारण ही वे जीवित हैं? फिर धारणाएं विद्यमान हैं। उदाहरण के रूप में जीवन हर आदमी जानता है कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है? बेवकूफी भरी चीजों को गहन अर्थ देने का, कहानी के नायक हैं जिस पर किसी कारण से लोग विश्वास करते हैं । परमात्मा तो एक मात्र धोखाधड़ी, झूठ, धूर्त व्यवहार, अभद्रता आदि का वास्तविकता है, सभी चीजों का अस्तित्व उन्हीं से अर्थ खोजने का लोग प्रयत्न कर रहे हैं परन्तु स्वयं को लोग अनदेखा कर रहे हैं। है। एक नई धारणा जो अब लोगों के मस्तिष्क में घुस गई है और अत्यन्त नाटकीयतापूर्वक जिसे सांसारिक दृष्टिकोण के अनुसार इस कहा जाता है वह है -"हम परमात्मा को नहीं मानते हम तो आलौकिक शक्ति को मानते हैं।" अवस्था को व्यंग्यात्मक रूप से निःस्यार्थ अवस्था' एक बात उनकी समझ में नहीं आ सकती कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि यह आलौकिक शक्ति परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। परमेश्वरी शक्ति जो प्रेम करती है सोचती है. कहा जा सकता है। क्योंकि हर समय हम दूसरों के विषय में ही चिन्तित रहते हैं। पूरा समय यह गलतफहमी छुपी रहती है अभद्रंता को छुपाने के लिए बड़े-बड़े शब्द घड़े जाते हैं । निरंकुश यौन जानती है. समन्वयन करती है और. संक्षेप में, सारा संबंधों को प्रेम का नाम दिया जाता है. मद्यपान को कार्य करती है। अन्यथा ये पूरा ब्रह्माण्ड इतने समन्वित ढंग से किस प्रशार चल पाता? पूरे कार्य के पीछे कोई संस्था तो होनी ही चाहिए । ऐसी कोई शौक कहा जाता है, अभद्र भाषा अभिव्यक्ति कहलाती है और बनावट संभ्रान्तपना कहलाती है। किसी को भी इस बात का एहसास नहीं है कि दूसरों को 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-38.txt अंक : 5 & 6 = 2005 चैतन्य लहरी 37 हानि पहुँचाने में वे सबसे अधिक अपना नुकसान समय है जिसमें हजारों साधकों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो जाएगा। ये प्रश्न किया जा सकता है कि कर रहे हैं। इस युग में ऐसा विशेष क्या है? उसका उत्तर ये यदि कोई कहे कि शराच पीना बुरी बात है है कि समय-समय पर दिव्य अवतरण पृथ्वी पर तो कोई नहीं सुनता क्योंकि धीमे-धीमे विषपान करना र्वीकार्य है। मद्यपान से केवल शरीर पर ही आए और महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई। ये भी उन्हीं में से एक काल है। अतः इसकी सम्भावना को नकारने या उसके विरोध की अपेक्षा क्यों न कुप्रभाव नही पड़ता परन्तु आत्मा के खोजने के लिए महत्वपूर्ण चेतना भी प्रभावित होती है आत्मज्ञान, हम स्वयं इसमें आकर ये देखें कि ये सब क्या है? एक अन्य प्रश्न भी किया जाता है, "माताजी कौन है?' इस प्रश्न के उत्तर में श्रीमाताजी कहती है, "पहले अपना अर्थ जान लो, स्वयं को समझ जो कि परमात्मा प्राप्ति का एक मात्र उपाय है, के अतिरिक्त हमें सभी कुछ महत्वपूर्ण दिखाई देता है। लेकिन कोई यदि गन्दगी का आदि होगा तो उससे रोने लो, तब आप मुझे जान जाओगे। स्वच्छता के बारे में बात करना व्यर्थ, है बिलखने तथा निराशावाद की पकड़ में जो व्यक्ति इतनी महान और असीम श्रीमाताजी के हो वह प्रसन्नता और आनन्द को कैसे समझ पाएगा? सर्वोपरि आज का व्यक्ति चौबीसों घण्टे विषय में कुछ कह पाना सम्भव नहीं है। इतना जान लेना काफी है कि वे हमारी अपनी माँ है जो हमें गहन प्रेम करती है, अगाध प्रेम। जितने मर्जी सन्देह भरे प्रश्न हम करते रहें परन्तु वे हमें अनन्त विचारों में डूबा रहता है। किस प्रकार वह निर्विचार समाधि, पूर्ण घेतना जहाँ सत्य, शांति एवं आनन्द है, का समझा सकता है? सत्य एव आनन्द साथ-साथ चलते हैं। यहुत समय तक महान कहलाने वाले, लोगों के पीछे साथक दौड़े हैं। परन्तु अब वे अपनी प्रेम करती हैं । अतः अच्छे बच्चों के रूप में ये हमारा कर्तव्य है कि हम वैसे ही बने जैसे हमारी माँ हमसे आशा करती हैं। और वो चाहती हैं कि हम रत्न बनें. ऐसे रत्न जिनकी स्वच्छता प्रेम, विनम्रता, महानता का एहसास कर सकते हैं. सत्य एवं अन्तरआनन्द को जान सकते हैं । ये सब किस प्रकार घटित होगा? उत्तर अत्यन्त सहज आनन्द और आत्मज्ञान की महानता एवं माँ की गरिमा दैदीप्यमान हो। बच्चा माँ से सि्फ इसलिए सहजयोग द्वारा । प्रेम करता है क्योंकि वह उसकी माँ है और आपकी माँ यदि परमेश्वरी हों तो किसी चीज से क्यों डरना ये अब घटित हो सकता है क्योंकि ये है! उनसे प्रवाहित होने वाले सुरक्षापूर्ण प्रेम में हमें कार्य करने के लिए अब परमेश्वरी माँ श्री निर्मला देवी हमारे मध्य हैं। उनके अनुसार यह बसन्त का प्रसन्न एवं आनन्दित होना है। ओऽम त्वमेव साक्षात श्री आदि शक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः । मनीष (महावतार 1980 से कक 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-39.txt परम मूज्य श्री माताजी का प्रवचन 17 अप्रैल 1981) (नई दिल्ली अगर अन्दर से अव्यवस्थित हो तो बाहर जितना भी झंझावात हों, तो उसका जबरदस्त असर रहेगा। बड़ा अच्छा प्रोग्राम रहा। हम लोग जो देहली में उम्मीद कर रहे थे कि बहुत लोग आयेंगे तो बहुत लोग आ गये और पार भी हो गये इस प्रकार पहले भी होता रहा है, बहुत से लोग आते हैं पार भी हो जाते हैं, फिर खो जाते हैं। अगर आप अन्दर से बिल्कुल शान्ति हैं, तो बाहर कुछ भी हो रहा हो, उसका असर नहीं होगा, उल्टा जो बाहर है, वो भी शान्त हो जायेगा सबसे बड़ी चीज यह है कि अपने को जमा लेना चाहिए। अगर ऐसी जगह है, जहाँ बहुत उथल-पुथल है, तो ऐसी जगह से भली-भांति समझा-बुझा के किसी तरह से हट जाना चाहिए। उससे जूझना नहीं चाहिए और उससे हट जाना चाहिए और अपने दिल को वहाँ से हटा लेना चाहिए, जिससे हमारा चित्त जो तो पहली बात तो यह होनी चाहिए कि उन सब लोगों का कुछ न कुछ रजिस्ट्रेशन (Registration) कीजिए| आप कुछ ग्रुप (Group) में बाँट लीजिये और उनसे सम्पर्क सम्बन्ध स्थापित कीजिए। नहीं तो वो फिर खो जाते हैं और सहज योग में ऐसा है कि जब तक आदमी जम नहीं जाता, तब तक वो पनपता नहीं क्योंकि यह जीवन्त क्रिया (Living prcess) है, उस उलझन में, उस उथल-पुथल में व्यस्त न हो । सहज योग की अपनी अनेक समस्याएँ हैं! सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो लोग पार हो गये हैं उनकी चेतना और जो लोग पार नहीं हुए हैं है। हम लोगों को जान लेना चाहिये कि जीवन्त-क्रिया में क्या-क्या चीजों की जरूरत उनकी चेतना में बहुत बड़ा अन्तर है, बहुत महान होती है। सबसे पहले तो यह है कि कोई भी डांवांडोल जगह में यह जहाँ हर समय अन्तर है। थोड़े से ही क्षण में बड़ा अन्तर आ जाता है पार होने पर। वो इस चीज को समझ नहीं पाते। इसलिए कबीर रोते थे कि "सब ज़ग अन्धा, सब जग अन्धा"। जितने भी बड़े लोग हुए, यह कहकर रोते रहे कि, "एक हो तो कहूँ, यहाँ तो सब जग 1. (earthquate या eruptions) भूचाल होते रहते हैं, कोई भी ऐसी जगह हो तो वहाँ कोई सा पेड़ या ऐसी चीज़ टिक नहीं सकती। तो जिस वातावरण में हम रह रहे हैं, उस वातावरण में हमको पहले अपने आपको जमा लेना चाहिये। अन्धा, सब जग अन्धा" । जब सारे अन्धों के बीच में आप रह रहे हैं और जमाने के लिये सबसे बड़ी बात यह है कि जमाने के लिए हमारे चारों ओर आस-पास का जो वातावरण है, उससे जूझने की कोई जरूरत नहीं है। आप अपने से ही अगर ठीक हो जायें, तो बाहर की जितनी भी चीजें हैं, धीरे-धीरे अपने आप स्थिर हो जायेंगी। जो कुछ अन्दर है वही बाहर है। और सिर्फ एक आदमी के आँख है, तो बड़ा ही मुश्किल है दूसरों से बातचीत करना और जब आप किसी से सहजयोग की बात करेंगे तो वो लोग आप पर ऐसा असर डालेंगे कि आप ही बेवकूफ हैं। उस पर भी आप समझने लगे कि ये लोग अन्धे हैं तो उनको बहुत बुरा लग जायेंगा, अगर किसी भी 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-40.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2005 39 तरह आप उनसे कहें कि आप में गलती है और आपकी संभलना है। तो इन्सान को समझ लेना चाहिए कि आपकी चेतना और है। जैसे कि एक बीज है, ये बीज प्रस्फुटित हो गया जिसको कहना कोई आफत से आप बच जायें। अच्छे से दिन निकल जाये, कुछ गहरी परेशानियों से निकल जायें, परन्तु यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सहजयोग में आपकी कितनी वृद्धि हुई है, प्रगति हुई है। यह खास चीज है और इस वृद्धि के लिए आपको मध्य में रहना चाहिए. अपने चित्त पर निरोध होना चाहिए. which is being manifested now, which is sprouting. इन दो बीजों में बड़ा भारी अन्तर होता है- एक बीज जो जम रहा है और दूसरे बीज का तो कोई सवाल ही न जमने का वो तो बिल्कुल ही वैसा का वैसा पड़ा है और बैसे ही पड़ा रहेगा, सदियों तक। एक बीज जो जम रहा है, वो अलग चीज है और दूसरा बीज जो बिल्कुल ही वैसा पड़ा है, बिल्कुल ही दूसरी चीज़ है । ही उठता मतलब यह है कि अपने चित्त को देखना चाहिए कि कहाँ जाता है। आपके चित्त पर निरोध होना चाहिए। अपनी आदतों को देखियें, आपका चित्त किस चीज में बहुत ज्यादा उलझता है। जैसे किसी को ज्यादा बोलने की आदत है, माने एक तरह का बहकावा, बहलावा है। तो साहब अब जमने के लिए भी हमें हमेशा मध्यमार्ग रहना चाहिए। एक पेड़ की जो सध्य शाखा है. अपना नाम लिख लीजिये और समझ लीजिये कि मिस्टर फलाना फलाना, आप बोलते ज्यादा हैं, या मध्य में जो चीज चलती है, जो उसका पानी आप इसे कम करिये और आप बोलने पर अपना का प्रवाह है, जिसको sap कहना चाहिए, वो चित्त रखिये कि आप बोलते ही न जायें बीचोंबीच चलता है पेड़ भी हमेशा बीचों-बीच रहता है, एक तरफ ज्यादा झुकता नहीं, न दूसरी तरफ झुकता है। अगर उसने झुकना शुरु कर दिया तो उसकी ठीक से (growth) बढ़ोतरी नहीं रास्ते पर है। इसमें रहे या उसमें, दोनों ही चीज में होती। यो बढ़ नहीं सकता, पनप नहीं सकता। इसलिए ये जरूरी है कि इन्सान को जहाँ तक हो है दूसरा एकदम चुप रहता है, यानि जरूरत से ज्यादा कोई आदमी चुप रहता है तो भी गलत आदमी गलत रास्ते पर चलता है। सके, मध्य में रहना चाहिए। चित्त पर निरोध रखना चाहिए। अगर बोलते ज्यादा हों तो कम करें, अगर कम बोलते हैं वो बात जो मैं आपको विशेष रूप से तो ठीक ठीक बोलें। फिर हम बोलते समय क्या समझाने वाली हूँ, यह है कि आपको हमेशा मध्य में बोलते हैं. उस पर भी ध्यान रखना चाहिए। बेकार रहने की कोशिश करनी चाहिए। अगर मध्य में की बातें करने की कोई जरूरत नहीं। जहाँ तक हो सके तो सहजयोग की ही बात करें जहाँ तक हो सके उसी परमात्मा की ही बात करनी चाहिए। लेकिन अगर कुछ बोलना भी हुआ तो थोड़ा बहुत ठीक ठीक कह दिया। बात करें और फिर उससे नहीं रहेंगे और किसी भी (Extremes) अति पर उतरना छोड़ न देंगे तो आपकी growth ही नहीं हो सकती। हो सकता है कि कोई परेशानी है. या कोई accident है, उससे आप बच जायें या और 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-41.txt चैतन्य लहरी 40 5 & 6- 2005 अक : तो फिर सहजयोग में आने पर भी यह विचार हमारे अन्दर बने रहते हैं। बहुत से लोग हैं अपना चित्त हटा लें। इससे आदमी का चित्त बीच में रहता है। परमात्मा की ओर दृष्टि रखने से चित्त हमेशा बीच में रहता है। समझ लीजिये झगड़ा है दो ग्रुप के लोगों में। एक कहेंगे कि साहब इनमें खराबी है, दूसरे कहंगे कि उनमें खराबी है। इन्सान में तो खराबी होती ही है वो चाहे किसी भी संस्था में क्यों न हो। इन्सान में और यदि हम परमात्मा के बारे में ही बोल रहे हैं या और किसी के बारे में बोल रहे हैं, और बहके जा रहे हैं, इस पर ध्यान देना चाहिए। इसमें बहुत सारी चीजें होती हैं जैसे कि किसी की गलती होती है। आप देखियेगा किसी बहाने से उसमें दोष आ ही जाते हैं । (Argumentative Nature) बहस करने की आदत होती है, यानि बहस करने की ही आदत्त हो सहजयोग ऐसी प्रणाली है जिसमें आने से सारे दोष जो हैं, वो खत्म होने लग जाते हैं। और जब आपके दोष खत्म होने लग जायें तो समझ लेना चाहिए कि आपने बड़ी भारी चीज़ हासिल कर हैं गई। दूसरे जैसे किसी में कंजूसी जरूरत से ज्यादा होती है। कोई आदमी पैसे के मामले में बड़ा meticulous होता है, हर चीज़ का, पैसे-पैसे का हिसाब लिखता है। ली। जब तक आपके अन्दर वही दोष बने हुए और आप उन्हीं चीजों में उसी प्रकार लगे हुए हैं. दूसरों से झगड़ रहे हैं, जूझ रहे हैं, तो आपको समझ लेना चाहिए कि आप मध्य में नहीं हैं। इस तरह से बहुत सी आदतें हमारे अन्दर हैं जिनको हम Misidentification कहते हैं। जैसे कि कोई आदमी जनसंघी है. वो सोचेगा इम क्योंकि जब आप मध्य में आ जायेंगे तो आप किसी भी एक चीज़ में लिपट नहीं सकते, आप सबमें समाये रहते हैं। जब तक आप एक चीज़ में लिपटे जनसंघी हैं, कांग्रेसी अपने को कांग्रेसी कहेगा। कोई कहेगा मैं हिन्दुस्तानी हॅँ, कोई कहेगा मैं औस्ट्रेलियन हैॅ। यह सब चीजें छोड़कर पहले तो और हम परमात्मा के बन्दे हैं। हैं, तो समझ लेना चाहिए आप मध्य में नहीं है। है हम इन्सान और मध्य में रहना ही एकमेव तरीका है. वृद्धि का और कोई तरीका है ही नहीं । परमात्मा ने हमें माना है, हमें Realization दिया है, जो सारे धर्मों का सार है. जिसे सबने माना हैं संसार में कोई धर्म नहीं है जिसने कहा हो कि आप हर चीज में आदमी चलता है। जैसे कोई पीर न हो या आप आत्मसाक्षात्कारी न हों. या द्विज न हों। ऐसा कोई धर्म नहीं। अब जब हम वो हो गए हैं. तो फिर हमारे लिए सब धर्म एक हैं और सब धर्म का तत्व है जो वह एक सार हममे समाया हुआ बड़ा intellectual होगा। उसकी यह आदत होगी कि वह बहुत ज्यादा हर चीज को सोचेगा, analyse करेगा और हर चीज़ का मतलब निकालता रहेगा। ऐ से करते-२ उसकी बाई विशुद्धि (Left सिम | आप जानते हैं कि हमारे अन्दर ही सारे धर्म हैं और हमारे अन्दर ही सारे देवता (Deities) बैठे हैं। तो फिर हमारे लिए सब धर्म एक हैं। Vishuddhi) बहुत जोरों से पकड़ सकती है क्योंकि वो अपने को Criticise करेगा कि मैंने ये हुए गलत काम किया वगैरह वगैरह। इस प्रकार उसके 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-42.txt अंक 5 & 6 -2005 चैतन्य लहरी 41 को एक कपड़ा अन्दर जरूर पहनना चाहिए। मतलब यह है कि undershirt जरूर पहनना , भी चक्र पकड़े जायेंगे| अगर कोई मूर्ख होगा तो वो सामने की चीज को भी नहीं देखेगा अति अक्लमन्द भी किसी काम का नहीं, मन्दवुद्धि भी किसी काम का नहीं है। बीचोंबीच रहना चाहिए। परमात्मा की जो बुद्धि है, वो बीचांबीच है। उसी की बुद्धिं में समाकर नहीं पहनने से sense of insecurity बढ़ जायेगी रहना चाहिए। "तेरी जो बुद्धि है उसी में मुझे आपके दर्द होना शुरू हो जायेगा, जुकाम हो चला, तेरी जो आज्ञा है उसी में मुझे रहना है और पूरी तरह से उसमें मुझे समा ले।" इसी तरह की जय बुद्धि होती जायेगी तो धीरे-२ आप देखियेगा कि आपके प्रश्न हल होने शुरु हो जायेंगे और प्रश्न खडे ही नहीं होंगे। चाहिए । पूछते हैं कि माँ तुमने यह क्यों बन्धक डाली। वजह यह है कि अगर शर्ट के नीचे एक और कपड़ा होगा तो आपका जो चक्र जिसे अनहद चक्र कहते हैं. उस पर protection रहेगा। यह जायेगा, तरह-२ की बीमारी हो सकती है। क्योंकि जब आपके अन्दर गर्मी हो जाती है, पसीना छूटता है तेब उसका कुछ (Absorber) सोखने वाला होना चाहिए । नहीं होगा तो उसमें हवा लगेगी और यह छोटी सी चीज़ भी चक्र को नुकसान पहुँचा सकती है। क्योंकि चक्र की भी देह होती है, अगर हम लोगों में पकड़ भी इसीलिए आती है देह को कोई नुकसान हो जाये तो वो चक्र पर भी दिखाई देगा। इसलिए धीरे-२ वो चीज बढ़ती जाती है। इसलिए सहजयोग में इसका बन्धक है कि आपको जहाँ तक हो सके अन्दर कपड़ा कि हम ( extremes) अति पर चले जाते हैं और अपनी आदते नहीं बदलते। हर वार हम extreme पर चले जाते है या किसी न किसी extreme पर रहते हैं। जैसे अगर किसी औरत को कपड़ों का पहनना चाहिए। शौक है. तो उसको देख लेना चाहिए कि उसका हम लोगों में से कुछ ने अपने पिछले जीवन में भक्ति के तरीके इस्तेमाल किये। भवों के जरूरत से ज्यादा कपड़े पर ध्यान है, और उधर हमारा चित्त बटता है। क्या जरूरत है इतना ध्यान उधर देने को सर्वसाधारण तरीके से रहना चाहिए । बीच concentrate करने का रीका भी बहुत ने इस्तेमाल किया था । इस तरह की चीज प्रयोग में लाने का विचार पता नहीं कहाँ से उनके अब अगर दूसरी औरत हैं जो कहती है कि हमें किसी चीज़ की परवाह नहीं । उस औरत को ऐसा भी नहीं सोचना चाहिए क्योंकि वो भी एक दूसरा extreme हो गया कोई सोचे जैसे कि हमें तो कुछ भी परवाह नहीं, कि हम तो सन्यासी हैं-तो यह भी सहजयोग में बन्धक है। लोगों मन में आया था। यह बहुत गलत ीज है । जिसने ऐसा concentration का इस्तमाल किया है, इससे आज्ञा चक्र बहुत खराब हो सकता है ऐसे | इन्सान को चाहिए कि वह अपना चित सहसार पर रखे और सहस्रार पर हमें बैठाये। हमको यहाँ सहस्रार में बैठाए या हमको हृदय में बैठाए। एक यह भी एक बन्धक है। छोटी-२ चीजों के लिए ही बात है इसका ठीक करने का यही तरीका है । उससे आप देखियेगा कि कितना फर्क पड़ता है सहजयोग में बहुत सारे बन्धक हैं उसमें सहजयोग में बताया गया है, जैसे कि हर इन्सान 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-43.txt अंक : 5 & 6 - 2005 चैतन्य लहरी 42 अभी आप कोशिश करें, हमें हृदय में बैठाएं। अभी आप हमारी तरफ देख रहे हैं। हमें हृदय में बैठाएं। आँख खुली रखें उसके बाद हमें सहस्रार पर बैठाने की कोशिश करें आँख खुली चाहिए, कि यह क्या बेवकूफी है कि हम हर समय ऐसा क्यों करते हैं? ऐसे आदमी को पीछे हटना चाहिए। कोई आदमी ऐसा होगा कि पीछे ही रहेगा. सामने आयेगा ही नहीं । काम होगा, मुँह मोड़ कर चला जायेगा। कुछ बात होगी, उधर चला जायेगा। काम-टालू जिसे कहते हैं. इस तरह के भी कुछ लोग होते हैं। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि रख कर यह प्रयत्न करें कि सहस्रार पर माँ को बैठाएं । आँख बन्द न करें। जब हम यहाँ बैठे हैं तो क्यों आँख बन्द कर रहे हैं? अब हल्का हो रहा है। 1 हम काम-टालू आदमी हैं, परमात्मा का काम है, अब आप जिस चीज़ को imagination उसे हमें करना चाहिए। इस तरह चित्त को बराबर कहते हैं, वह साक्षात् हो रहा है। अब आप जिस बीच में रखना चाहिए। जो आपकी आदत है, उस जिस चीज को को छुडाने का यह तरीका है कि आप दूसरी आदत डालें। जैसे आप काम-टालू हैं तो काम करिये। अगर अति काम करते हैं तो थोड़ा कम करिये। चीज़ को कहेंगे हो जायेगी। imagine करते हैं वो साक्षात् हो जायेगी। अब imagination साक्षात् होने लगता है पार होने से पहले अगर आप कहते हैं कि माँ को हम हृदय में बैठायें पर आप नहीं बैठा पाते| लेकिन अब तो 1 चित्त अब अन्दर घूम रहा है। आप खुद ही महसूस करेंगे कि अब चित्त अन्दर घूम रहा है। चित्त सहस्रार पर आ गया। अब चित्त से आप खोल सकते हैं सहस्रार । चित्त अन्दर घूम रहा है, आप माँ को हृदय में बैठा सकते हैं। अब आप चित्त को हर जगह घुमा सकते हैं। चित्त को हृदय में बैठा सकते हैं। देखिये चित्त को हृदय में ले जाइये, अब चित्त का movement आपको मिल गया। अब आप चित्त को अन्दर ले इससे पहले चित्त-निरोध की बात हो ही नहीं सकती थी। क्योंकि अपनी attention को जा सकते हैं। अब आप चित्त का निरोध करें, और भी आसानी से आप गहरे उतर सकते हैं। आप पकड़ नहीं पाते थे। अब attention आपके हाथ में आया है इससे पहले कोई भी बात होती थी उसका अर्थ कोई नहीं लगता था । अब सहस्रार पर बैठाइये हमें आँख खुली रखें और हमें सहस्रार पर बैठाइये हर चीज़ में अपनी आदतों को देखना चाहिए। जब आप देखना शुरु करेंगे, अपने को साक्षी बनायेंगे तभी आप हर चीज़ की गलती समझ पायेंगे। अब मैं आपसे कहती हैं कि बीच में रहिये। मतलब यह कि अपना चित्त इधर उधर गिरना बिखरना नहीं चाहिए, यानि spill नहीं होना चाहिए. कहीं छिटक नहीं जाना चाहिए। चित्त को पकड़े रहना चाहिए। चित्त पर कन्ट्रोल होना चाहिए। चित्त से ही अ्रगति (growth) होती है। कुछ लोगों को यह आदत होती है कि आगे आगे रहना। पहले आगे खड़े रहेंगे। जब हम जायेंगे तो जरूर सर उनका आगे रहेगा, कि फौरन लगाये या आगे दौंड़ेगे। ऐसे आदमी को सोचना परमात्मा आप पर कृपा करें। 2005_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-44.txt े रु इंसा-मसीह ईसामसीह पूजा 2004 के अवसर पर पूजा पूजा 2004 के अवसपर पर पुणे में उपस्थित सहजयोगी चैतन्य रूप में परिवर्तित हो गए । स्टेडियम में प्रकाश जाि सज्जा में नाचती हुई कुण्डलिनियाँ । की ज दिसम्बर 2004 में विवाहों के अवसर पर स्टेडियम में लिया गया फोटो । रा