चैतन्य लहरी सितम्बर अक्टूबर : 2006 बा सेर चै तन्य री ल ह पछ अंक : 9-10 NIRMALA तती IVERSAL PURE र इस अंक में शुद्धिकरण परम पूज्य श्री माता जी लन्दन में 2006 सोमा की हृदयाभिव्यक्ति - चिज़विक 18-6-2006 9. अनौपचारिक विदाई कार्यक्रम यू.के. 10 18-6-2006 विश्व युवाशक्ति की प्रेम-अभिव्यक्ति - यू.के. 17-6-20 10 सर सी. पी. श्रीवास्तव का भाषण - 11 जून, 2006 11 28 जुलाई, 1996 13 गुरु पूजा कबेला 24 गुरु स्तुति श्री कृष्ण पूजा -जिनेवा 28-8-1983 27 ा विशुद्धि चक्र विएना 32 4-9-1983 सहजयोग और आरम्भिक छन्द निर्मला योग 1983 37 सुनॉमी से चमत्कारिक सुरक्षा माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी एक कविता 40 41 DHARMA ৮AHS1N RELIGIO चै त नय लह री प्रकाशक निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टैक्नोलोजीज़ प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पॉड रोड, कोथरुड पुणे फोनः 020-25285232 411 029 मुद्रक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिज़ाइनर्ज 292/23 औंकार नगर 'बी त्रीनगर दिल्ली- 110035 मोबाइल : 9212238008 आप अपने सुझाव, सदस्यता एवं जानकारी के लिए निम्न पते पर लिखें : श्री जी.एल. अग्रवाल निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टैक्नोलोजीज़ प्रा. लि. 222, देशबन्धु अपार्टमैंट, कालकाजी, नई दिल्ली-110 019 फोन : 26422054 अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463). ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली-110 034 फोन : 55356811 लि शुद्धिकरण प्रिय पाठक, चैतन्य लहरी, अंक 3-4 (मार्च-अप्रैल) 2006 में, सहज परियोजनाओं की सूची के अन्तर्गत पृष्ठ 22 पर छपी 'निर्मल इन्फोसिस्टम्ज एण्ड टैक्नोलोजीज प्रा। लि., के निदेशक मण्डल में निम्नलिखित परिवर्तन किए गए हैं :- शासी निकाय (Governing Body) परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी अध्यक्षा सर सी.पी. श्रीवास्तव - उपाध्यक्ष श्री मुनीश पाण्डे महाप्रबन्धक (G.M.) जाड इसी अंक के पृष्ठ-24 में 'विश्व निर्मल प्रेम आश्रम परियोजना शीर्षक के नीचे पंक्ति-4 में "गैर-कानूनी' के स्थान पर 'गैर-सरकारी' कर लें। ते रा ॐ **** गं परम पूज्य श्री माता जी लन्दन में (2006) (लन्दन युवा-शक्ति आश्रम जाकर हमारी परमेश्वरी माँ ने इतिहास बनाया) प्रिय सहजीगण, इस विशेष अनुभव का आनन्द हम आपके साथ बाँटना चाहते हैं। इसलिए आए हैं क्योंकि यहाँ आना उनके लिए आवश्यक था। कल परम पूज्य माताजी और सर सी.पी. लन्दन के युवा शक्ति आश्रम में हमें मिलने तथा आशीर्वाद देने के लिए आए। उनका आगमन वास्तव में आश्चर्यजनक था, वहाँ उनकी उपस्थिति इतनी मनमोहक थी कि इसका वर्णन शब्दों में नहीं वे इस देश में (अर्थात यू.के.) वर्ष 1974 में प्रेम प्रसारित करने के लिए आईं और पाश्चात्य जगत के लिए सहजयोग आरम्भ किया पैंतीस वर्षों तक वे सभी महाद्वीपों में यात्रा करती रहीं। अब वे यह जिम्मेदारी आपको, युवा-शक्ति, (सहजयोग के भविष्य) को सौंपना चाहती हैं।.. किया जा सकता। आश्रम की बैठक में प्रतीक्षा करते हुए, स्थान की कमी के कारण यद्यपि हम भिंचे थे, फिर भी हमारे उत्साह में कोई कमी न "आज यहाँ वे आशीर्वाद देने के लिए आई हैं! वे चाहती हैं कि आप यह जिम्मेदारी सम्भालें और सहजयोग संदेश को फैलाएं।" हुए थी । ज्योंही श्रीमाताजी ने पदार्पण किया, हम सब खड़े होकर "स्वागत आगत" गाने लगे। तब उन्होंने उनकी ओर देखा, और फिर चैतन्य-लहरियों का प्रवाह अत्यन्त तेज मुड़कर हमारी ओर देखा तथा मुस्कराते हुए पूछा: था। कार पहुँची और सभी अंकल-आंटियाँ यह देखने के लिए बैठक में आए कि सभी कुछ ठीक है या नहीं। तत्पश्चात् व्हील चेयर में बैठे हुए. पहले श्रीमाताजी ने प्रवेश किया और उनके बाद "क्या आप सहमत हैं?" .और सभी लोगों ने स्पष्ट और बुलन्द आवाज़ में कहा : "हाँ"! सर सी.पी. आए। ये सब अत्यन्त आश्चर्यजनक था. तब हमें बैठने के लिए कहते हुए श्रीमाताजी ने हिन्दी में कहा, "बैठ जाओ, और हम सब चैतन्य प्रवाह में उड़ रहे थे! श्रीमाताजी हमें देख रही थीं उन्होंने कहा: "यदि आप चाहें तो एक भजन गा सकते हैं।. और निःसन्देह, क्योंकि भजनों की तैयारी की गई थी, हम सब गाने लगे "श्री जगदम्बे आई और हम वहाँ बैठे हुए थे.. और तब हम सबको देखते सर सी.पी. बोले हुए रे, मेरी निर्मल माँ ।" तत्पश्चात् श्रीमाताजी ने थोड़ा "क्या आप जानते हैं कि आज हम यहाँ सा जल पिया। जल का हर घूँट पीने के बाद वे कह रही थीं, "आह!. बाप रे... "आहा" क्यों आए हैं? हम यहाँ इसलिए आए है क्योंकि वे (श्रीमाताजी) यहाँ आना चाहती थीं हम यहाँ ৮ ट चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 सर सी. पी. ने पुनः बात करते हुए उठाया, निश्चित रूप से हम यहाँ आएंगे।" पुनः कहा, "यहाँ पर ये सब, सहज आन्दोलन, पाश्चात्य सभी लोगों ने तालियाँ बजाई और गाने जगत के लिए आरम्भ हुआ। फिर वे बोले, "हमें आशा है कि आज के दिन 13 जून 2006 को वैसी ही एक नई शुरूआत होगी!" फिर उन्होंने कहा, "अब हम विदा लेंगे".. सभी लोग अपलक उनकी ओर देख रहे थ.. चाहें तो पाँच मिनट में एक और भजन गा सकते हैं। और हम सब गाने लगे, "जागो सवेरा आया 1 "Mataji, Mataji... your face shines like a thousand suns, you have given us more than we could ask for, Bliss and Peace and Harmony". . फिर उन्होंने कहा, "यदि आप बाद में हम सब एक दूसरे की संगति का आनन्द ले रहे थे और, वास्तव में, विश्वास न कर पा रहे थे कि ऐसी घटना भी हो सकती है जो हुई! ने है माता बुलाया है। " उसके बाद चलते हुए उन्होंने कहा, "यू लन्दन से हार्दिक प्रेम (इन्टरनैट विवरण) रुपान्तरित के. में अपने अल्पवास का हमने वास्तव में आनन्द क री हे पम कु पा आ सोमा की हृदयाभिव्यक्ति चिज़विक- यू.के. 18 जून, 2006 (चिरज़विक में परम पूज्य श्रीमाताजी के घर पर सोमा का एक महीने से अधिक अल्पावास) कर रही हैं। बंगाल मिठाइयों के लिए प्रसिद्ध है, मैं क्योंकि बंगाल प्रदेश से आई हूँ मुझे लगा कि मेरे इस कार्य के माध्यम से श्रीमाताजी कुछ कार्यान्वित एक महीने से भी अधिक समय तक श्रीमाताजी के लिए खाना बनाने का अवसर प्राप्त होना मेरे लिए बहुत बड़ा वरदान था। मेरे जीवन कर रही हैं। का यह बहुमूल्यतम समय था। अगले दिन जब हम श्रीमाताजी के घर पर आए तो 5 मई, सहस्रार दिवस, से इसका आरम्भ के भानु ने पूछा: तो वह लड़का कहाँ है जिसने इतनी अच्छी तरह 'माता का करम' गाया था? सर सी.पी. हुआ। पूजा स्थान से मैं और प्रमिला माँ के घर पर खाना बनाने के लिए गए। ज्योंही हम वहाँ पहुँचे सक्सेना आण्टी (भारतीय रसोई प्रभारी) ने कहा, कि आज सहस्रार दिवस है, अतः देवी भोग उसके गाने की शैली बहुत पसन्द आई थी। अतः के लिए सभी सम्भव अच्छे-अच्छे भोज बनाओ। हृदय पूर्वक हमने बहुत सारी चीजें बनाई। शाम को कुछ अन्य आस्ट्रियन भाई-बहनों के साथ हमें सुन्दर बुद्ध पूजा की थी। रोहित भी वहाँ पर श्रीमाताजी के साक्षात् में एक छोटी सी पूजा में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ हमने पी. के सम्मुख पुनः माता का करम' गाया। उसे यहाँ चाहते हैं। यह रोहित था, सर सी. पी. को रोहित को आस्ट्रिया से हवाई-जहाज द्वारा वापिस आना पड़ा। बुद्ध-पूर्णिमा के दिन हमने अत्यन्त उपस्थित था। अतः हमने श्रीमाताजी और सर सी. भजन गाए श्रीमाताजी के सम्मुख 'सहस्रार स्वामिनी' गाने की इच्छा मुझमें हमेशा से थी और सहस्रार दिवस पर संगीत समूह के साथ मुझे 'सहस्रार स्वामिनी' गाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हमने अगला दिन मातृ-दिवस था । भिन्न देशों से उपहार भेजे गए थे। आस्ट्रिया के लोग भी बहुत सुन्दर केक और फूल लाए थे। उस दिन एक आश्चर्यजनक घटना हुईः रात को लगभग बारह बजे स्वयं श्रीमाताजी ने आरती करने के लिए माता का करम' भी गाया, श्रीमाताजी और सर सी. पी. को बहुत अच्छा लगा। कहा। हम सब दौड़े हुए बैठक में गए और आरती गाई। यह पूजा की तरह से थी। श्रीमाताजी ने आस्ट्रियन शॉल पहनी हुई थी, जिसे आस्ट्रिया की महिलाओं ने मिलकर बनाया था। सबीने (Sabine) भी वहाँ थी। हम सब बहुत प्रसन्न थे बाद में जब मुझे कल्पना दीदी के साथ मिलकर खाना बनाने 7 तारीख को, सहस्रार पूजा के दिन, मैं पुनः खाना बनाने के लिए गई। आण्टी ने कहा कि प्रसाद के लिए भिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाओ। एक के बाद एक हम भिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाने लगे। कुछ मिठाइयाँ मैंने पहली बार बनाई थीं परन्तु वे भी बहुत अच्छी बनीं। मुझे लगा कि मैं कुछ भी नहीं कर रही हैूँ, श्रीमाताजी ही सब कुछ का सुअवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बताया कि यह शॉल इतने हृदय से बनाई गई है कि अम्मा अंक : 9 & 10 - 2006 चैतन्य लहरी 7. (श्रीमाताजी) को यह बहुत पसन्द आई है । कभी-कभी जब श्रीमाताजी बाहर जाती हैं तो यह शॉल और स्कार्फ पहनती हैं। बैठकर ध्यान करते, इतने गहन ध्यान का आनन्द हमने लिया! एक बार स्वयं श्रीमाताजी ने हारमोनियम बजाया, उसे देखने के लिए हम रसोई से दौड़े चले आस्ट्रिया का मातृ-दिवस कार्ड लगातार श्रीमाताजी के शयन कक्ष में ही सजा हुआ था, आए, ये अत्यन्त अद्भुत दृश्य था। इसके बाद सर उनकी कुर्सी के बिल्कुल सामने। क्या आस्ट्रिया के सी. पी. ने गजल की दो पंक्तियाँ गाईं, 'दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं, कैसा हर्सी गुनाह किए जा रहा हूँ मैं। यह अत्यन्त अद्भुत सन्ध्या थी, मानो स्वर्ग में संगीत कार्यक्रम चल रहा हो । जाने से पूर्व कल्पना दीदी ने घर में सभी लोगों को कीमती उपहार दिए। उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया और अपनी मुट्ठी खोली, अत्यन्त सुन्दर माणिक जड़ित सोने की बालियों का जोड़ा! मैंने कहा ये बहुत अधिक है। वो बोली कि ये माँ का आशीर्वाद है। मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने मुझे गले लगाया और कहा कि आस्ट्रिया में बहुत अच्छी सामूहिकता है और वोल्फ गैंग (wolf Gang) बहुत अच्छे व्यक्ति हैं। तब उन्होंने कहा, कबेला में मिलेंगे यह अविस्मरणीय क्षण था । लोग भाग्यशाली नहीं हैं? चत एक बार नाश्ते के समय श्रीमाताजी रसोई के दरवाजे के सामने खाने की मेज पर बैठी हुई थीं। हम सब नाश्ता तैयार करने में व्यस्त थे। उन्होंने हम सबकी ओर देखा। हम सबने नमस्कार किया, यह अत्यन्त सुन्दर दर्शन था। ह कुछ दिन कल्पना दीदी वहाँ रहीं और हमें तीन दिन तक उनके साथ खाना बनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। तीन दिन तक हमने मिलकर खाना पकायाः अखनी पुलाव, कश्मीरी मुर्ग, कीमा, अण्डाकरी, मूँगदाल वड़ा। उन्होंने हमें बताया कि ये सब भोज श्रीमाताजी द्वारा बताई गई विधि (Recipe) के अनुरूप बनाए गए हैं। मातृ दिवस के अवसर पर एक बार फ्रांस की युवा-शक्ति उपहार देने के लिए आई और उन्होंने अत्यन्त मृदु एवं मधुर गीत गाया जो बहुत ही हृदयस्पर्शी था। हम लोग श्रीमाताजी के भोजनकक्ष में बैठकर देख रहे थे। ये सब बहुत ही अच्छा था। श्रीमाताजी जब बैठक में टी. वी. पर कुछ देख रही होती थीं तो प्रायः हम गलियारे में बैठ जाते थे मिलकर हमने कुछ हिन्दी फिल्में देखीं लगान, मुग़लेआज़म, दिल चाहता है..। एक बार हमने 2006 की सहस्रार पूजा देखी और आरती गाई। ऐसा करना बहुत अच्छा लगा। प्रायः जब हमारे पास कोई कार्य न होता तो हम बगीचे में एवं चैतन्य से परिपूर्ण था । सर सी. पी. ने युवा लोगों खुलने वाली, श्रीमाताजी के शयन कक्ष की खिड़की से बात-चीत की और उन्हें युवा पीढ़ी में सहज के सामने या श्रीमाताजी के कमरे के सामने फैलाने के लिए कहा। उन्होंने युवाशक्ति आश्रम 6 जून को युवाशक्ति भजन गाने के लिए आई। उन्होंने अत्यन्त सुन्दर गाया, पूरा घर आनन्द चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 श्रीमाताजी का पदप्रक्षालन अनुष्ठान हुआ। यह की तस्वीरें भेंट की। तत्पश्चात् सर सी.पी. ने सभी युवाओं को भोजन करवाने के लिए कहा। ये एक छोटी पूजा की तरह से था। तत्पश्चात् घर की पाँच महिलाओं से लक्ष्मी की पाँच टोकरियाँ श्रीमाताजी अत्यन्त शानदार सन्ध्या थी। अचानक श्री माताजी ने कहा कि वे व्हील चेयर में नहीं जाना चाहतीं, चलना चाहती हैं और वास्तव में वे बैठक से के सम्मुख लाने को कहा गया। मैं भी उन पाँच महिलाओं में से एक थी। मैं और आण्टी अत्यन्त सुन्दर क्रेनबैरी (Crenberry) गिलासों के सैट लेकर आए थे। ये हमने श्रीमाताजी को भेंट किए शयन कक्ष तक चलकर गईं! यह अत्यन्त असाधारण घटना थी। पूरा घर आनन्द से झूम उठा, हर व्यक्ति कह रहा था कि श्रीमाताजी चल रही हैं! उसके बाद हमेशा श्रीमाताजी शयन कक्ष से बैठक तक स्वयं चलकर आत्ती और वापिस जाती। और उन्हें प्रणाम किया। वे प्रसन्न थी। सर बहुत सी.पी. ने कहा कि ये क्रेनबैरी गिलास बहुत ही बहुमूल्य चीज़ हैं मुझे लगा कि अपने जीवन का 1 बहुमूल्यतम क्षण मुझे प्राप्त हो गया है। जब हम बाहर आए तो राचेल (Rachel) मुझसे बाजार से लाए जाने वाले सामान की सूची माँग रहा था, मैंने उससे कहा कि अब मैं कुछ सोच नहीं पा रही हूँ। राचेल ने भी वही बात कही। कुछ समय पश्चात् हमने खरीदे जाने वाले सामान की सूची बनानी आरम्भ की और भोजन का कार्य आरम्भ किया 7 जून को रसोई की टीम श्रीमाताजी को पुष्प अर्पण करने के लिए गई। हम सबने प्रणाम किया। यह अत्यन्त सुखद क्षण था। सर सी.पी. ने कहा, कि आप सब लोग इतने अच्छे-अच्छे खाने बनाकर हमें बिगाड़ रहे हैं। ये अत्यन्त मनमोहक दर्शन था। पूजा के दिन कुछ भारतीय पकवानों के साथ मैं आस्ट्रियन Schnitzel (भोज) भी पका पाई। ৪ जून को हमने पहली बार श्रीमाताजी के साथ आस्ट्रिया के भजनों की डी. वी.डी. देखी। हम बरामदे में बैठे हुए थे और श्रीमाताजी बैठक में । श्रीमाताजी और सर सी. पी. दोनों को भजन बहुत अच्छे लगे। मैं भी बैठकर गाना गा रही थी, मुझे ऐसे लगा मानो में आस्ट्रियन लोगों के साथ बैठकर भजन गा रही हूँ। उसके बाद श्रीमाताजी और सर सी.पी. ने बहुत बार वो डी.वी.डी. देखा, विशेष रूप से 'माता का करम भजन। आदिशक्ति पूजा सन्ध्या के दूसरे दिन भी उन्होंने 'माता का करम देखा। और पूजा से वापिस आकर भी इसी भजन को सुना। कितने आश्चर्य की बात है! श्रीमाताजी के दोपहर का खाना खाने के पश्चात् हम लोग पूजा के लिए तैयार हुए और बाहर प्रतीक्षा करने लगे, ताकि श्रीमाताजी के कार में बैठते ही हम लोग भी एकदम वैन में जाकर बैठ जाएं। श्रीमाताजी जब कार में जा रहीं थी तो हम सबने उन्हें नमस्कार किया और उन्होंने आशीर्वाद 1 मुद्रा में अपना हाथ उठाया। यह अत्यन्त अद्भुत था। हम पूजा के लिए गए और जीवन में पहली बार मैं प्रथम पंक्ति में बैठी हुई थी! पूजा में श्रीमाताजी बहुत प्रसन्न थी और पूजा के उपरान्त कव्वाली के साथ जब हम श्रीमाताजी के सम्मुख नाच रहे थे तो वे हम पर मुस्करा रही थी। इतना मधुर, माम आदिशक्ति पूजा के दिन प्रातः काल चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 -2006 9 हम घर लौटे और रात का खाना तैयार किया। ये मेरा अन्तिम दिन था। जब श्रीमाताजी ने भोजन समाप्त किया तब मैंने सभी को अलविदा मिनट में रात्रि भोज तैयार करना था, प्रायः ऐसा कर पाना बिल्कुल असम्भव होता है परन्तु यहाँ सभी कुछ ठीक समय पर सम्पन्न हुआ। तो वे स्वयं सब कुछ करती हैं। कहा। मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे और मुझे लगा मानो मैं मायके से दूर, ससुराल जा रही हूँ। भारत छोड़ने के समय भी मैं इतना न रोई थी। जब मैं वापिस आई तो मुझे लगा कि मैं स्वर्ग से पृथ्वी पर लौट आई हूँ। वहाँ पर बिल्कुल भिन्न संसार था। हमेशा पक्षी गीत गा रहे होते और सर्वत्र सुन्दर फूल खिले होते थे। वहाँ पर हर चीज़ कालातीत होती थी कभी-कभी तो रात्रि भोज सुबह के चार बजे समाप्त होता, कभी ढाई बजे, कभी साढ़े तीन बजे। सब कुछ बहुत सुन्दर था। एक महीने से भी अधिक समय तक मुझे साक्षात् परमात्मा की सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ था, ये मेरे जीवन का बहुमूल्यतम समय था। मैं नाश्ता, दोपहर का भोजन, रात्रि का भोजन, चाय और वो सभी कुछ, जो मेरे हृदय को अच्छा लगा और जब श्रीमाताजी ने चाहा, बना सकी। वहाँ कार्य करते हुए मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं कुछ भी नहीं करती। वो (श्रीमाताजी) विचार भेज रही हैं और मैं तो बस अपने हाथ हिला रही हूँ। बहुत सी ऐसी चीजें थी जो मैंने वहाँ पहली बार बनाई फिर हमेशा हम आनन्द और चैतन्य से परिपूर्ण होते थे । इससे अधिक कोई सहजयोगी क्या कामना कर सकता है? पृथ्वी पर स्वर्ग में यह मेरा अल्पवास था। जय श्री माताजी भी सभी कुछ बहुत अच्छा बना। एक बार हमें 45 सोमा मड (इन्टरनैट,विवरण) रूपान्तरित भाम छ ता |त कत द तह श्रीमाताजी ने अनौपचारिक विदाई कार्यक्रम की मेजबानी की (यू.के.- 18 जून, 2006) इटली को अपने प्रस्थान की पूर्वसन्ध्या को श्रीमाताजी ने कृपा करके यूके. सहजयोग समिति के सदस्यों तथा युवा शक्ति के लिए अनौपचारिक विदाई कार्यक्रम का आयोजन करवाया समिति को श्रीमाताजी की ओर से कुछ सुन्दर उपहार दिए गए और युवा शक्ति ने अपने विशेष लहजे में उनके श्री-चरणों में गीत गाए सर सी. पी. ने अपनी जवानी के समय की दो दिलचस्प कथाएं सुनाई और श्रीमाताजी को नए यू.के. राष्ट्रीय केन्द्र' की सम्पत्ति की पुस्तिका भेंट की गई। यह संध्या सभी के लिए अत्यन्त सुखद थी। हुआ एक फोटोग्राफ भी एक केक सहित श्रीमाताजी को भेंट किया गया| श्रीमाताजी और सर सी. पी. ने कार्ड में छपी कविताओं को पढ़ा और आशीर्वाद दिया। सर सी.पी. ने युवा आश्रम की उस सन्ध्या का पुनः स्मरण किया। पन्द्रह और युवा शक्ति भी कक्ष में मौजूद तीन युवा शक्ति सदस्यों के पास पहुँच गए और श्रीमाताजी को प्रणाम किया सर सी. पी. पुनः बोले जो चॉकलेट प्रसाद में बाँटे गए थे श्रीमाताजी ने उन्हें आशीर्वादित किया था। श्रीमाताजी और कक्ष में उपस्थित "loana Popa' (इंटरनैट विवरण) रूपान्तरित युवा- शक्ति ने तत्पश्चात् बाकी की युवा शक्ति को भी अन्दर आने के लिए कहा। सर सी.पी. ने विश्व के प्रति हमारी जिम्मेदारी और श्रीमाताजी के प्रति हमारी श्रद्धा के विषय में बताया और शक्ति परमेश्वरी माँ के प्रति विश्व युवा-शक्ति की गहनतम प्रेम एवं सत्य-निष्ठा की अभिव्यक्ति (चिज़विक, यू.के. शनिवार सांय 10.20. 17 जून 2006) युवा के एक सदस्य ने कहा कि श्रीमाताजी के प्रति हमारी श्रद्धा जीवन पर्यन्त रहेगी। चॉकलेट खाते हुए कक्ष तथा दरवाजों में खड़े अन्य सभी सहजयोगियों के साथ हमने 'जय गणेश' गाना शुरु किया श्रीमाताजी बहुत प्रसन्न थीं, उन्होंने सभी को धन्यवाद कहा। हम सबने मिलकर ऊँची आवाज में श्रीमाताजी के अच्छे स्वास्थ्य और चिरायु चिज़विक यू.के. में हम श्रीमाताजी की बैठक से बाहर निकले ही थे कल श्रीमाताजी इटली के लिए रवाना हो रही हैं आज रात 'यू.के. सहजयोग समिति' ने ब्रह्माण्ड के हृदय में कुछ समय निवास करने के लिए परमपूज्य श्रीमाताजी के प्रति हार्दिक प्रेम एवं कृतज्ञता की अभिव्यक्ति की। की प्रार्थना की तथा उनके चरण कमलों में प्रणाम किया। कक्ष में चैतन्य सागर में तैरते हुए हम बगीचे और रसोई में चले गए । की श्रीमाताजी, हमारे जीवन को अपने प्रेम, चैतन्य-लहरियों, अपने स्वप्न तथा अपने कार्य को इसके बाद युवा शक्ति आई। युवा-शक्ति के तीन सदस्यों ने श्रीमाताजी के कक्ष में प्रवेश करके उन्हें स्वर्ण एवं लाल रंग के फ्रेम वाला कार्ड भेंट किया जिसमें परमेश्वरी के प्रति सर्वप्रथम करने का सुअवसर प्रदान करने की आपकी कृपा के लिए हम हार्दिक गहनता और सत्यनिष्ठापूर्वक आपके प्रति आभारी हैं। जय श्री माताजी कृतज्ञता एवं वचनबद्धता की कविता लिखी हुई थ्री इसी सप्ताह युवाशक्ति आश्रम में 13 जून मंगलवार को जब श्रीमाताजी आई थीं तो उस समय लिया गया 75 युवा शक्ति का फ्रेम किया Michael Markl (इंटरनैट विवरण) रूपान्तरित आदिशक्ति पूजा (चिज़विक यू.के. - 11 जून, 2006) इन्टरनैट विवरण सर सी.पी. श्रीवास्तव का भाषण (प्रतिलिपि - ATranscript) "क्या मुझे आज्ञा है कि सर्वप्रथम मैं देवी और निःसन्देह पैदल भी यात्रा की.. तालियाँ... । क के प्रति नतमस्तक होऊं और फिर आप सभी फरिश्तों के सम्मुख। पृथ्वी पर यह फरिश्तों की सभा हैं और मुझे भी इसका अंग होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है मैं यू.के. और पूरे विश्व के सहजयोगियों और योगिनियों का गहन आभारी हूँ कि उन्होंने हमें यहाँ रहने का अवसर प्रदान किया यू.के. में हमारे पहुँचने के बाद से अब तक अत्यन्त प्रेम, स्नेह एवं हृदय पूर्वक हर तरह से हमारी देखभाल की गई। आपके प्रति हमारी कृतज्ञता की भावनाओं की अभिव्यक्ति कर पाना सम्भव नहीं है। ऐसा लगा मानो हम अपने घर आ गए हों। अत:, डॉ. स्पायरों आपके और अन्य सभी के प्रति मैं हमारी गहनतम 35 वर्षों तक उन्होंने ये कार्य किया, पर दो वर्ष पूर्व उन्होंने निर्णय किया कि अब समय आ गया है जब उन्हें पीछे बैठ जाना चाहिए और सहजयोग सन्देश को आगे फैलाने की जिम्मेदारी अपने बच्चों को दे देनी चाहिए यदि आप टी. वी. समाचार देखते हैं तो जानते होंगे, कि यह विश्व कठिनाई में है, परन्तु एक सन्देश है, उनका संदेश, सहजयोग सन्देश जो प्रेम से बना है और जो सभी देशों के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को एक परिवार के रूप में एकसूत्र में पिरोता है। मेरे बच्चो, अब उनके लिए, आप ये जिम्मेदारी सम्भाल लो, सहजयोग सन्देश को फैलाओ। दो वर्ष पूर्व उन्होंने सहजयोग प्रचार- प्रसार मैं आपके कुछ बहुमूल्य क्षण कुछ ऐसी विश्व परिषद' की स्थापना की और यह परिषद बातें कहने के लिए लेना चाहूँगा जो उनके (श्रीमाताजी) कार्यरत है। और तब से उन्होंने विश्व के सभी सहजयोगियों को आमन्त्रित किया, उनसे अनुरोध किया और उनसे सामूहिक नेतृत्व बनाने के लिए कहा ताकि सहजयोग-प्रचार-प्रसार के लिए अधिक से अधिक सहजयोगियों को सम्मिलित किया जा सके। ये कार्य हो गया है। अब यू.के प्रेम और शाश्वत आभार की भावनाएं अभिव्यक्त करना चाहता हूँ। दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । आप जानते हैं कि मानवमात्र को सहजयोग का प्रेम संदेश देने के लिए उन्होंने 35 वर्षों तक विश्वभर में यात्रा की। आज पाँच महाद्वीपों के 80 से भी अधिक देशों में सहजयोग है! (इन वर्षों में) वे यही कार्य कर रहीं थीं.... तालिया..। तथा अन्य बहुत से देशों में सामूहिक नेतृत्व हैं ये सामूहिक नेतृत्व, सहजयोगियों और योगिनियों की सामूहिकताएं, अब सहजयोग प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही हैं ये उनकी इच्छा है और ऐसा घटित होने की उन्हें खुशी है। सहजयोग को इसी प्रकार उन्होंने हवाई जहाज, हैलिकॉप्टर, कार और, यदि आपको अच्छा लगे, भारत में बैलगाड़ी से अंक : 9 & 10 - 2006 12 चैतन्य लहरी आज के विश्व को इस संदेश के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ की आवश्यकता नहीं है । से फैलाया जाना है। मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता परन्तु इस विश्व की ओर देखें तो आपको पता चलेगा कि विश्व संकट में है। यहाँ हिंसा हो रही है। केवल एक संदेश विश्व को बचा सकता है, और यह उनका संदेश है, सहजयोग में उनके प्रेम का सन्देश यहाँ पर आप उनके साक्षी हैं! अतः उनके (श्रीमाताजी) सम्मुख खड़े होकर उनकी ओर से मैं आपको ये संदेश देता हूँ। आपसे मिलना अत्यन्त सुखद है। ये वास्तव में पृथ्वी पर स्वर्ग है परन्तु इस स्वर्ग को इस संदेश को सर्वत्र फैलाएं, विश्व की रक्षा करें, और ये कार्य विश्व के किसी कोने में क्या आपको ऐसी करने में आप ही सक्षम हैं! तो क्या आप सबकी सामूहिकता मिल सकती है? नहीं, क्योंकि आप लोग प्रेम सूत्र करेंगे? एक विश्व परिषद है जिसे सहजयोग को बढ़ाना है। परन्तु आपके लिए भी सन्देश है:- आपमें से हर एक को चाहिए कि स्वयं को सहजयोग "हाँ" ओर से मैं ये बचन दे देँ कि आप इस कार्य को में बँधे हुए हैं, उनके सन्देश में हाँ, सहजयोगियों की सामूहिकता से एक बुलन्द तालियों की गड़गड़ाहट...। प्रचार-प्रसार के लिए उनका दूत माने। आप जानते हैं कि आपमें से एक यदि ये सन्देश एक जय श्रीमाताजी अन्य को दे तो एक से दो होंगे और दो से चार और कुछ ही वर्षों में यह विश्व सहजयोग से परिपूर्ण हो जाएगा, और मुझ पर विश्वास करें कि भूषण एवं माइकल (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित पत मा ार 11 ा गुरु पूजा कबेला- 28 जुलाई, 1996 (परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन) से मिल सकते थे। आप चाहे प्राप्त करके ही वे आज हम गुरुपूजा करने के लिए यहां गुरु मीलों चलकर आए हों, कोई बात नहीं, गुरु के लिए जरूरी नहीं था कि वह आपसे मिले । संभवतः गुरु के हृदय में साधकों के लिए प्रेम एवं करुणा का एकत्र हुए है। भारत में ये प्रथा प्राचीन काल में आरम्भ हुई थी, मैं सोचती हूँ, पातंजलि के समय में या हो सकता है, उससे भी पहले, जब महान साधक हुआ करते थे, उनके गुरु जंगलों में रहते थे और उनके पास जाने के लिए साधकों को उनकी आज्ञा लेनी पड़ती थी, तब कहीं उन्हें आत्म- अभाव था। उन्हें इस बात की समझ न थी कि बेचारे साधक निष्ठा पूर्वक सत्य की खोज कर रहे हैं, अतः उन्हें कष्ट नहीं होना चाहिए। साक्षात्कार प्राप्त होता था, बहुत थोड़े से लोगों को, किसी एक या दो को। अतः भारत में प्राचीन काल शायद इसी कारण से उन्हें साधकों की अधिक चिन्ता न थी। हर समय वे शिष्यों की परीक्षा लेने में ही लगे रहते थे शिवाजी के में बहुत से ऋषि मुनि हुआ करते थे। इस प्रकार गुरु प्रथा आरम्भ हुई। इसका एक अन्य कारण भी है कि भारत में कोई आयोजित धर्म न था। वहाँ पर न तो कोई पोप है और न ही कोई पादरी आदि हैं। मन्दिरों में केवल पूजा करने के लिए पुजारी होते गुरु रामदास भी बहुत बार उनकी परीक्षा लिया करते थे, यद्यपि शिवाजी जन्मजात आत्म-साक्षात्कारी थे। अतः ये गुरु पद पाने के लिए गुरु की अवस्था प्राप्त करने के लिए और उसके बाद सन्त अवस्था प्राप्त करने के लिए साधकों को अत्यन्त-अत्यन्त कठोर परिश्रम करना पड़ता था। परन्तु सहजयोग में, आप जानते हैं, ऐसा कुछ नहीं है। मैंने ये सोचा है परन्तु आत्म - साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए, उच्च-जीवन के बारे में जानने के लिए साधकों को अत्यन्त महान साक्षात्कारी सन्तों के पास जाना पड़ता था। शिष्य को स्वीकार करना या न करना, कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करके लोग स्वयं देखेंगे कि उनमें क्या कमी है अन्तर्वलोकन करके वे स्वयं को सुधारने का प्रयत्न करेंगे बहुत से लोगों के मामले में ये बात ठीक है। परन्तु कुछ लोग अब भी पिछड़े हुए ह हैं कि वे सहजयोगी हैं, उन्होंने बहुत कुछ पा लिया है तथा वे कुछ विशेष हैं। यह भ्रान्ति हर समय समस्याएं उत्पन्न करती हैं। ये भ्रान्तिपूर्ण सोच उन्हें अत्यन्त संकीर्ण, स्वार्थी, अपने तक सीमित पूरी तरह से गुरु पर निर्भर करता था। गुरु सबकी परीक्षा लेता था कि वे आत्म-साक्षात्कार के योग्य हैं भी या नहीं। ये परीक्षा अत्यन्त कठोर होती थी, अत्यन्त कठिन और कभी-कभी तो अत्याचार की 1 सीमा तक इतनी कठोर कि कोई बिरला ही उसमें उत्तीर्ण होता। सहजयोग की तरह नहीं था कि 'सभी सहजयोगी हैं ऐसा नहीं था निःसन्देह उन्होंने आत्म-साक्षात्कार प्राप्ति के मार्ग को अत्यन्त संकरा बना दिया था। और ये गुरु कभी अपनी गद्दी नहीं छोड़ा करते थे वे इसे तकिया' कहते थे हमेशा वे अपने स्थान पर बने रहते। जो लोग भी उनके पास आना चाहते, आते, उनकी आज्ञा हैं। वे चले जा रहे हैं और सोच रहे बनाती है और इस कारण से लोग उनके सहजयोगी होने पर विश्वास नहीं कर सकते। | अंक : 9 & 10 - 2006 चैतन्य लहरी 14 सकती हूँ, कहीं भी सो सकती हूैं। मेरी किसी भी प्रकार की कोई माँग नहीं होती। परन्तु यदि आप अपने शारीरिक सुख-सुविधाओं, शारीरिक कष्टों के बारे में चिन्तित हैं तो अभी तक आप शारीरिक अतः सर्वप्रथम महत्वपूर्णतम चीज़ जो हमने समझनी है वह ये है कि यह सहजयोग इसलिए कार्यान्वित हुआ है क्योंकि परम-चैतन्य करुणा का संचार कर रहा है। इसने पहले कभी ऐसा नहीं किया, इसका ऐसा दृष्टिकोण पहले कभी नहीं था जो अब है, क्योंकि मैं माँ हूँ। यह करुणा इस प्रकार से कार्यान्वित हुई कि आप सबको आत्म-साक्षात्कार मिल गया है, आपको ऐसी अवस्था प्राप्त हो गई है जिससे आप आत्म-साक्षात्कारी कहला सकते हैं परन्तु फिर भी क्योंकि आपने ये अवस्था आसानी से, सस्ते में पा ली है, इसलिए, मैं सोचती हूँ कि अभी भी हम ये नहीं समझ पाए हैं कि हमें क्या स्तर पर ही हैं आपको उससे ऊपर उठना होगा। आपको अपने वस्त्रों की चिन्ता है। आपको ये चिन्ता है कि आप कैसे लगते हैं, कैसे पहनते हैं, कैसे वस्त्र आपको पहनने चाहिएं। ये सभी चीजें आपको सहजयोगी नहीं बना सकती। ये उन सहजयोगियों की शैली है जो अब भी बहुत अधिक सुख-सुविधाएं चाहते हैं। क तो आपको क्या करना चाहिए? आपको यदि सुख-सुविधाओं की आदत है तो जाकर गली में सोने का प्रयत्न करें मैं ऐसा नहीं करूंगी, परन्तु आप कर सकते हैं, या आप पेड़ पर सो सकते हैं। चाहे गिर जाएं कोई बात नहीं। शरीर को ये समझाने के लिए कि आप शारीरिक सुखों से बंधे नहीं है। अपने शरीर को दण्डित करने के लिए सभी प्रकार के कदम उठाएं। ये देखना सबसे बड़ी बात है कि आप शारीरिक सुखों के गुलाम नहीं है। आपके पास यदि सुख-सुविधाएं हैं तो ठीक है और यदि नहीं हैं तो भी ठीक है। सहजयोगी के लिए प्राप्त हो गया है, अब भी हम ध्यान-धारणा, अन्तर्वलोकन और समर्पण का अभ्यास नहीं करते। निःसन्देह कुछ लोगों की स्थिति बहुत अच्छी है परन्तु हममें से अधिकतर इसी विचारभ्रम में बने हुए हैं कि हमने सब पा लिया है। तो अन्तर्वलोकन करने वाली पहली बात ये है कि क्या हमें अपनी चिन्ता है? क्या हम हर समय यही सोचते हैं कि हमें कष्ट है, हमें ये समस्या है, वो समस्या है या ऐसा किया जाना चाहिए वैसा किया जाना चाहिए। आपका चित्त यदि इस बात पर है कि हर समय आप अपने ही विषय में चिन्तित है तो आप अपने अस्तित्व के इस आवरण का भेदन नहीं कर सकते, इस खोल का जो आपके मानसिक स्वाथों या स्वःकेन्द्रण के नियंत्रण में है। स्वःकेन्द्रण (Self- centeredness) भी आपकी उत्क्रान्ति के बिल्कुल विरुद्ध है। मैंने देखा है कि बहुत से लोग कबेला आते हैं, उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ता है क्योंकि वे सोचते हैं कि उन्हें खुले स्थान पर रहना है और अपनी सुख सुविधा का प्रबन्ध करना है ऐसे लोगों को अभी बहुत उन्नत होना होगा सन्त के लिए हर स्थान स्वर्गसम होना चाहिए। आपने देखा होगा कि हर चीज़ का आनन्द लेती हूँ, कहीं भी रह आवश्यक है कि वह सन्त की तरह से रह सके, जरूरी नहीं कि वह सन्यासी बन जाए., अन्दर से ही आपका शरीर ऐसा होना चाहिए कि इसे आप अपने नियंत्रण में रख सकें। कहीं भी आप कैसे-नहीं सो सकते, कहीं भी आप क्यों नहीं सो सकते? फिर वे स्नानागारों का बहुत सुखद प्रबन्ध चाहते हैं, ये वो । ये सभी विचार इसलिए हैं कि आप अपने बारे में बहुत चेतन हैं परन्तु अतिचेतनता नहीं है। अपने लिए आप सभी कुछ प्रथम दर्जे का चाहते हैं और कोई अन्य यदि इस मामले में दखलन्दाजी करे तो आपको अच्छा नहीं लगता । कोई व्यक्ति यदि बूढ़ा चैतन्य लहरी अक : 9 & 10 - 2006 15 के लोगों को प्रभावित करना है तो आपको सन्त बनना ही होगा और यदि आप बेकार का हल्ला मचाने वाले हैं, बतंगड़ हैं तो आप अन्य लोगों को विश्वास नहीं दिला सकते कि आपको आत्म हो, जिसे बहुत आवश्यकता हो उसकी बात तो मैं समझ सकती हूँ। उसे तो कुछ शारीरिक सुविधाएं मिलनी ही चाहिएं। परन्तु आजकल तो युवा लोग भी बहुत अधिक सुख- वाली बात नहीं है। -संचालित हैं ये सहजयोगियों साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। बहुत से लोग मुझे कहते हैं, "लोगों को इतना कुछ करना पड़ा, इस कार्य के लिए हिमालय पर जाना पड़ा, इतनी समस्या के बाद उन्हें आत्म- मैंने देखा है कि पश्चिम के लोग इस मामले में कहीं बेहतर है। जब वे भारत गए तो उन्होंने मुझे बताया कि सुविधाजनक बसों की अपेक्षा उन्हें राज्य-परिवहन की बसें पसन्द हैं । मैंने कहा, "क्यों?" श्रीमाताजी, क्योंकि सामान से भरी इन बसों में हम उछल सकते हैं. इनकी खिड़कियाँ खुली होती हैं, शुद्ध हवा में हम श्वास ले सकते हैं। वो तो बैलगाड़ी पर भी चलना चाहते थे । कहने से अभिप्राय ये है कि वे इन सब चीज़ों का साक्षात्कार प्राप्त हुआ। आपने कैसे इन लोगों को आशीर्वादित कर दिया है? कुछ महान सन्त भी मुझसे पूछते हैं कि इन लोगों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का क्या अधिकार है? आपने इन्हें आत्म-साक्षात्कार क्यों दिया? इन्होंने क्या प्राप्त किया है? मैने कहा, "केवल अपनी इच्छा।" उनकी इच्छा बहुत तीव्र थी कि उन्हें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होना चाहिए और इसलिए उन्हें आत्म- साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। परन्तु इसकी गहनता मज़ा उन्हें इस सुख-सुविधा से सम्पन्न शैली से में उतरने के लिए केवल इच्छा काफी नहीं है । कहीं अधिक भाता है। परन्तु भारतीय, और मैं आपको अपनी आत्मा पर निर्भर होना होगा अपनी आत्मा के प्रकाश पर, आपको देखना चाहिए कि कमी कहाँ है। ये बहुत महत्वपूर्ण बात है। स्वयं से प्रश्न करें, "मुझे इसकी आवश्यकता क्यों है, ये कहीं भी सो सकते हैं, कुछ भी खा सकते हैं। आप मुझे क्यों चाहिए, लक्ष्य क्या है?" क्योंकि जैसे उनसे पूछे कि खाना कैसा लगा, तो उत्तर होगा आपने देखा है बाकी का सारा संसार तो पागल है, मैं इसे पागल कहती हैँ क्योंकि सभी लोग तुच्छ चीजों के पीछे दौड़ रहे हैं। वो ऐसी चीज़ें चाहते हैं जो आध्यात्मिकता के लिए अर्थहीन हैं। अतः आध्यात्मिकता अपने आप में ही आत्म--संतोष प्रदायी होनी चाहिए । आपमें यदि आध्यात्मिक गुण हैं तो आनन्द उठाते हैं। वास्तव में यदि आप देखें, तो पश्चिमी देशों में अधिक से अधिक लोग ग्रामीण जीवन शैली अपना रहे हैं। ग्रामीण जीवन शैली का का कहूँगी मलेशिया के, लोगों में ये बात नही है । मैं सोचती हूँ कि पश्चिमी देशों में मैं जिन लोगों से मिली उनमें से अधिकतर बहुत महान हैं क्योंकि वो के "श्रीमाताजी मैं नहीं जानता कि मैंने क्या खाया था।" यह चिन्ह है। यह उस व्यक्ति की निशानी है जिसे इस बात की चिन्ता नहीं है कि वह क्या खा रहा है, उसे क्या मिल रहा है, उसका स्वाद क्या है। मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है, ये शब्द छूट जाते हैं। ये कठिन नहीं है, ये कठिन नहीं है। हो सकता है आप ये सोचें कि मैं आपसे कोई कठिन कार्य करने को कह रही हूँ परन्तु ये बिल्कुल भी कठिन नहीं है। आपने यदि आस-पास आप आत्मसन्तुष्ट हैं। और आपके अन्दर का ये आत्म-संतोष आपको उस आनन्द के सागर तक ले जाएगा, जिसके बारे में मैं आपको बताती रही हूँ और जिसका वर्णन सभी धर्मग्रन्थों में किया गया है। अंक : 9& 10-2006 चैतन्य लहरी 16 सहजयोगियों के लिए जिस शब्द का उपयोग हम करते हैं वह है 'निरानन्द' । निरानन्द अर्थात आनन्द की वह अवस्था जिसमें किसी अन्य चीज़ की आवश्यकता न हो। आनन्द स्वयं आनन्द है आप केवल आनन्द का आनन्द ले रहे हैं. आपको प्रसन्न करने के लिए किसी और चीज की रखेगी। कुछ सहजयोगी एकदम से क्रोधित हो जाते हैं। मैं कहूंगी कि वे सहजयोगी हो ही नहीं सकते क्योंकि यदि आपको अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं है तो आपमें करुणा एवं प्रेम की शक्ति कैसे आ सकती है? परन्तु आपको तो यह नियंत्रण भी नहीं करना पड़ता, ये पहले से ही है। एक बार यदि आवश्यकता नहीं है। 'निरानन्द' अवस्था में प्राप्त आप ये अवस्था प्राप्त कर लें तो मात्र इसे देखें। होने वाले आनन्द के कारण आप प्रसन्न है। आप प्राचीन काल में अधिकतर सन्त लोग बहुत क्रोधी स्वभाव के हुआ करते थे संसार की मूर्खता उन्हें सहन न हो पाती थी। वे अत्यन्त क्रोधी तबीयत के होते थे और वहाँ से दूर भाग जाते थे। मैं नित्यानन्द स्वामी नामक एक सन्त को जानती हैँ जो हमेशा पेड़ पर रहते और कोई यदि उनके पास आने का यदि जाकर ये देखें कि ये सन्त किस प्रकार रहे तो आप हैरान होंगे! किस प्रकार वे अपने जीवन चलाते हैं, आपको अत्यन्त आश्चर्य होगा। कितने- कितने दिन खाने के बिना वे व्रत किया करते थे. इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की उन्होंने कभी नहीं सोचा कि यह व्रत था, वो तो यही सोचते थे कि हमारे पास खाना नहीं है सो नहीं है। निःसन्देह आपको इन पड़ा, आपको आत्म-साक्षात्कार मिल गया है। अतः अब आपमें कौशल प्राप्त करने की शक्ति है, प्रयत्न करता तो वे उस पर पत्थर फेंकते। लोगों सारी स्थितियों में से नहीं निकलना को वो सहन न कर पाते थे, सभी को बाहर बिठाया जाता। परन्तु आपको ये सब करने की आवश्यकता नहीं है आपके पास सभी दुखदायी, ईष्यालु तथा अब आपमें ये शक्ति है। आक्रामक लोगों का प्रेम एवं स्नेह प्राप्त करने की विधि है। इस दिशा में यदि आप थोड़ा सा प्रयत्न करें तो ये कार्य कठिन नहीं है कोई गर्ममिजाज व्यक्ति यदि मिल जाए तो अधिकतर लोग भाग एक अन्य चीज़ जो मैंने सहजयोगियों में देखी है कि उनमें दूसरों के प्रति मनोमालिन्य है । सहजयोग प्रेम का आशीर्वाद है, करुणा का आशीर्वाद है। सहजयोगियों में किसी भी प्रकार की घृणा, बदले की भावना या क्रोध का कोई स्थान नहीं है। आपमें यदि ये दुर्गुण है तो आप इस पर विजय प्राप्त करें। ये बहुत अच्छा अवसर है। आपको यदि कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो गर्ममिजाज हो, क्रोधी परन्तु गर्म-मिजाज व्यक्तित से आप किस प्रकार स्वभाव का हो तो जाकर ऐसे व्यक्ति को मित्र बनाएं। देखें कि आप उस व्यक्ति से निभा सकते महत्वपूर्ण है आपका प्रेम निश्चित रूप से उसे हैं या नहीं। कोई बिगडैल व्यक्ति यदि है तो उसके पिघला देगा क्योंकि वह भी सहजयोगी है। मैं उन साथ मित्रता स्थापित करें और देखें कि आपको लोगों की बात नहीं कर रही हूँ जो सहजयोगी नहीं वह शान्ति प्राप्त होगी जो सभी प्रकार की घृणा, सभी प्रकार के क्रोध और बुराइयों से आपको दूर खड़े होते हैं। वे उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहते। जो लोग शान्त हैं, अच्छे स्वभाव के हैं, उनसे तो कोई भी मित्रता कर सकता है इसमें क्या महानता है? इसमें क्या अच्छाई है, क्या माधुर्य है? 1 बात करते हैं, किस प्रकार उसे सम्भालते हैं, ये बात है। परन्तु सहजयोगियों के प्रति आपको अत्यन्त करुणा, स्नेह एवं प्रेममय होना होगा। পছ। कर अंक : 9& 10 - 2006 चैतन्य लहरी 17 चाहते हैं।" इस बात पर मुझे हैँसी आती है । देखिए, ये तो पहले से ही है, पहले से है, जैसे एक अन्य चीज जाननी भी हमारे लिए आवश्यक है कि हमें ये आत्म-साक्षात्कार माँ के एक बार यदि आप समुद्र में प्रवेश कर लें और कहें कि श्रीमाताजी हम समुद्र की तह में जाना चाहते हैं, आप जा सकते हैं। आगे को बढ़े और वहाँ पहुँच जाएंगे! प्रेम के माध्यम से प्राप्त हुआ है। केवल मेरी करुणा ने कार्य किया है, केवल माँ की करुणा की शक्ति ही इस कार्य को कर सकती थी। चाहे यह प्रेम पत्थरों की ओर बह रहा हो, पर्वतों की ओर या किसी अन्य ठोस चीज की ओर, इसकी लहरियाँ (Ripples) वापिस आती हैं। उन्हें वापिस आना इसी प्रकार से एक बार जब आत्म- साक्षात्कार को विकसित करके करुणा के सागर पड़ता है। उसी प्रकार से अब आप लोगों, जिन्हें में कूद पड़ते हैं तो कुछ अन्य प्राप्त करने की आवश्यकता ही नहीं है। प्राप्त करने का एहसास, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया है. को समझना होगा कि आपको केवल करुणा एवं प्रेम की ही शक्ति प्राप्त है, कोई अन्य नहीं। आप यदि स्वयं"मुझे वो होना चाहिए, मुझे ये होना चाहिए" ये से प्रेम करते हैं, यदि आपको केवल अपनी चिन्ता है, अपने परिवार की और अपने बच्चों की तो अभी तक आपने कुछ अधिक प्राप्त नहीं किया व्यक्ति हैं। अब आपको ये नहीं सोचना चाहिए कि है। आप केवल अपने बारे में चिन्तित है, क्योंकि मुझे ये अवस्था प्राप्त करनी चाहिए, वो अवस्था यही आपकी गतिविधियों का सीमित क्षेत्र है! परन्तु यदि आप इस दायरे को तोड़कर ऐसे स्थान खोज चले जाएं। अपने सिर पर लादे हुए सभी बोझ सके जहाँ आप अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कर सकें तो बेहतर है। आप ऐसा कर सकते हैं। जैसे कहते हैं कि पानी अपना स्तर खोज लेता है, इसी प्रकार से उस करुणा को भी सभी स्थानों, सभी गड्ढों तथा सर्वत्र बहकर अपना स्तर खोज लेना चाहिए। परन्तु यदि आप स्वयं से ही सन्तुष्ट हैं, किसी अन्य की आपको चिन्ता नहीं है, ये विश्वास कर लेने का प्रयत्न कर रहे हैं कि आप महान आत्मा हैं क्योंकि अधिकार नहीं है सबसे आगे बैठने का उन्हें कोई आप सहजयोगी हैं, तो मैं अवश्य कहूंगी कि आप बहुत बड़ी गलती पर हैं। इसी जीवन- काल में आपने ये अवस्था प्राप्त करनी है। इसी जीवन-काल अधिकार नहीं है। पूर्ण सन्तोषपूर्वक जहाँ भी स्थान सब बातें मानव-मस्तिष्क की तड़पन मात्र है ये अब समाप्त हो जानी चाहिएं, अब आप दिव्य प्राप्त करनी चाहिए। बस, फिसलते (गहनता में) उतार दें और यह कार्यान्वित हो जाएगा मैं हमेशा से आपको यही कहती आई हूँ कि करुणा के सागर में आपने स्वयं को विलीन कर देना है। अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जो आगे बने रहना चाहते हैं, विशेष रूप से भारतीय लोग सबसे आगे इकट्ठे बैठना चाहते हैं। इसका उन्हें कोई अधिकार नहीं है किसी को भी सबसे आगे बैठने का या आगे-आगे स्थान खोजने का कोई मिल जाए, उन्हें बैठ जाना चाहिए। आप चाहे सामने वैठें या किसी अंधेरे कोने में आप मेरी में आप अपने अन्दर उस अवस्था तक पहुँच सकते हैं। चैतन्य लहरियाँ पा सकते हैं, सभी कुछ पा सकते हैं। अतः किसी विशेष स्थान पर बैठकर विशिष्ट दिखाई देना आवश्यक नहीं है। दिखने में क्या परमात्म साक्षात्कार (God -Realization) तीसरी चीज़ जो सहजयोगियों को परेशान करती है कि "श्रीमाताजी हम परमात्म-साक्षात्कार अंक : 9& 10 - 2006 चैतन्य लहरी 18 आपने क्या त्याग किया है? केवल पत्थर? आपने क्या त्याग किया है? ये त्याग दिया, वो त्याग है, उससे क्या मिलता है? भीड़ में खो जाना, प्रेम चीज़ है। ये मात्र मिथक है कि किसी भी तरह से हमें सबसे आगे . के सागर में खो जाना ही मुख्य दिया, क्यों आप शेखी बघार रहे हैं? फिर सिर मुंडवाना! ये क्या हैं? स्थान प्राप्त कर लेना चाहिए। मराठी में कहते हैं. अर्थात मैने सबसे आगे स्थान प्राप्त कर लिया है आगे का स्थान पीछे का हो जाएगा और पीछे का आगे। आश्चर्य की बात है कि अब भी लोग इतनी मूर्खतापूर्ण चीज़ प्राप्त करने के प्रयत्न करते हैं! आपका मस्तिष्क कहाँ है, आपका चित्त कहाँ है, ये सभी बेकार की बाते हैं कि हमने ये किया है. हमने वो किया है सहजयोग में कोई व्यक्ति यदि सोचता है कि वह सहजयोग के लिए बहुत कार्य कर रहा है तो उसे चाहिए कि सहजयोग का काम बिल्कुल छोड़ दे। अज्ञान का यह एक अन्य चिन्ह है। आप यदि सागर के अंग-प्रत्यंग हैं नहीं आप क्या सोच रहे हैं? आप यदि निर्विचार हैं तो आप सन्तुष्ट होंगे, प्रसन्न होंगे और कुछ न मांगेंगे। आपको किसी चीज़ की आवश्यकता न रहेगी। पाने को क्या है? इतना महत्वपूर्ण क्या है? ये सभी विचार अज्ञान के कारण आते हैं। मैं अवश्य आपको तो सभी कुछ सांगर कर रहा है आप कुछ कर रहे। आपके अन्दर ऐसे विचारों का होना ये दर्शाता है कि अपने विषय में आपको कितना कम ज्ञान है! आप सागर है और यदि आप सागर हैं तो किस प्रकार दावा कर सकते हैं किे मैंने इस तट का स्पर्श किया है उस तट को स्पर्श किया है? अब बताऊंगी ये अज्ञान के कारण आते हैं। एक बार हरे रामा-हरे कृष्णा वाला एक आदमी मेरे पास आया और कहने लगा हमने सुना है कि आप महान सन्त हैं, ये, वो । परन्तु आपके पास जीवन की सभी सुख-सुविधाएं हैं, यहाँ पर सभी कुछ बहुत शानदार है। तो किस प्रकार आप सन्त हैं? "मैंने अपना तो "मैं" बची ही नहीं । एक बार जब ये "मैं" छूट जाती है तो केवल आपके अन्दर का शाश्वत अस्तित्व चमक उठता है। हमारे चरित्र में ये सारी चीजें स्पष्ट दिखाई देती है। कुछ लोग बहुत अधिक लिप्त है, अपने देश से, अपनी पूजा विधि से आदि-आदि। ये सभी मोह त्यागने होंगे लोग इतने बन्धन ग्रस्त हैं कि उनके लिए ऐसा कर पाना परिवार त्यागा है, कारें त्यागी हैं, घर त्यागा है, और अपने बच्चे त्याग दिए हैं।" मैंने कहा, एक अन्य चीज़ जो तुमने त्याग दी है वह है तुम्हारा मस्तिष्क कहने लगे कि आप कैसे कहती हैं कि हमने अपनी बुद्धि त्याग दी है? मैंने कहा., "बहुत अत्यन्त कठिन है। जब तक आपके बन्धन बने साधारण बात है।" मैंने किसी चीज को पकड़ा ही नहीं, इसलिए मैंने किस चीज़ को त्यागा ही नहीं जब आपने किसी चीज़ को पकड़ा ही न हो तो त्यागना क्या है? अब मैं कहूंगी कि इस घर में या मेरे शरीर पर, कहीं भी, यदि आप सोचते हैं कि आपको श्रीकृष्ण के धूल के एक कण के बराबर भी कोई चीज़ है तो आप इसे ले जा सकते हैं। परन्तु यह श्रीकृष्ण के धूल के एक कण के समान होनी चाहिए। वे लगे इधर-उधर देखने! मैंने कहा, "तो रहेंगे तब तक आप अपने मन से ऊपर नहीं उठ सकते-मन जो मिथ्या है। आप ऐसा नहीं कर सकते। अब ये समझने का प्रयत्न करें कि आपके बन्धन क्या है? एक बन्धन, जिसे देखकर मैं बहुत हैरान हुई थी, ये है कि आप पश्चिमी देशों में जाएं तो लोग केवल श्रीगणेश के ही भजन गाते हैं। श्री गणेश के सारे भजन उन्हें याद हैं, उनके सभी चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 -2006 19 फोटो उनके पास हैं, श्री गणेश का सभी कुछ, बच्चों के पास भी है और मैंने देखा है कि उनकी चैतन्य लहरियाँ रूक गई हैं। चैतन्य लहरियाँ क्या रुकनी चाहिएं? श्रीगणेश क्यों चैतन्य लहरियाँ रोकेंगे? मैंने इसका कारण महसूस किया, कि क्यों ऐसा हो रहा है, क्योंकि एक बार मैंने कहा था कि ईसा-मसीह श्रीगणेश के ही अवतार हैं। सूक्ष्म रूप से उनका सम्बन्ध केवल ईसा-मसीह और ईसाई धर्म है। कल्पना करें श्रीगणेश का जो संगीत हमने पूर्वी ब्लाक के देशों में सुना था और उससे चैतन्य- लहरियाँ रुक जाएं। वो सभी भजन केवल श्रीगणेश के गा रहे थे, सहजयोग का एक भी भजन नहीं गा रहे थे। की तो बात ही छोड़ दीजिए, एक बार यदि ये भारतीय है तो इसका रंग सांवला होगा। सभी प्रकार के ईसा-मसीह मैंने देखे हैं और मैं सोचती हूँ कि किस प्रकार ये ईसा-मसीह चैतन्य लहरियाँ प्रवाहित कर सकते हैं? मेरे फोटोग्राफ से किस प्रकार आप इनकी तुलना कर सकते हैं? कैमरे भी इसी समय विकसित होने थे क्या आप इस बात को समझ पाए हैं! कैमरे भी इसी समय बने इससे पहले नहीं। लाऊडस्पीकर भी अभी बना इससे पहले नहीं। हवाई जहाज भी इससे पूर्व नहीं बने । मैं 19 दिनों तक यात्रा करती रही, एक दिन हवाई-जहाज में वे ऐसा कुछ नहीं कर सके। कोई भी इस प्रकार नहीं कर सकता, न तो श्रीकृष्ण, न ही कोई और। उन दिनों में लोग हवाई जहाज से नहीं उड़ सकते थे। अब हम लोग कहते हैं कि हम 65 देशों में हैं। कोई कहता है 68 देशों में है ये संख्या बढ़ती ही चली जा रही है परन्तु ऐसा होना अभी में और दूसरे दिन सार्वजनिक कार्यक्रम गुरु भी नहीं । तो वहाँ भी सूक्ष्म लिप्सा है में एक व्यक्ति है, वो लोग स्वतन्त्र नहीं हैं क्योंकि सभी कलाकारों की एक विशेष शैली होती है। यदि यह रैमब्रैंड (Rambrandt) शैली है तो यही है, यदि यह लिओनार्डो (Leonardo) शैली है तो वही शैली है। ये लोग यद्यपि जन्मजात आत्म साक्षात्कारी हैं फिर भी उनकी एक ही शैली है ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो आज इस प्रकार बनाएगा और सम्भव हुआ है क्यों कि आज हवाई जहाज उपलब्ध हैं। इससे पहले ये कभी न थे तो ये सभी चीजें, बीडियो या जिस प्रकार से आप मेरी फोटो देखते हैं क्या ये इससे पूर्व कभी उपलब्ध थे? नहीं । अतः ये अत्यन्त विशेष समय है जिसमें विज्ञान ने भी साधकों को खोज करने में सहायता की है। विज्ञान ने यह कार्य किया है हमें इसका कृतज्ञ होना होगा, क्योंकि विज्ञान का एक भाग बहुत अधिक सहायक रहा है। पहले कारें भी नहीं होती थी मैं मिलानो नहीं जा पाती। बैलगाड़ी पर जाने कल उस प्रकार। स्वतन्त्रता बिल्कुल नहीं है। अपनी शैलियों से वे बंधे शैली है और उसी का वे अनुसरण करते हैं। क्या हैं। सभी की एक ही हुए कारण है? कारण ये है कि अधिकतर ने तीन या चार शैलियाँ सीखी होंगी, परन्तु लोगों ने इन्हें अस्वीकार कर दिया होगा, ये अच्छी नहीं है ये बेकार है। तो यह सब लोगों की राय है। इस प्रकार उन्होंने केवल एक शैली अपना ली कि यही शैली ठीक है' । की कल्पना करें, मेरा क्या हाल हुआ होता? तो ये समी चीजें आज आपके लिए बनाई गई है। विशेष कारणों से आप भी इसी समय जन्में है। आप ईसा-मसीह को देख सकते है यदि ये जापानी हैं तो इसकी छोटी-छोटी ऑँखे होगी, यदि ये चीनी हैं तो इसकी पिचकी हुई नाक होगी, य अवतरण त्म-साक्षात्कार नहीं दे सके य योकि उस समय आप लोग नहीं थे। आपकी योग्यता वाले बहुत कम लोग थे मुझे संदेह हे कि अंक : 9& 10-2006 20 चैतन्य लहरी हैं, जो उसके बाद आए या जो आगे आएंगे, युवा या वृद्ध महिलाएं. पुरूष या बच्चे?" ऐसा ही है। काश कि मैं अपने जीवन काल में आपमें से बहुत आप अपनी योग्यता को समझते भी हैं! जिस प्रकार से आप कभी-कभी बढ़ते हैं, उससे पता चलता है कि आपको अपने क्षेम का ज्ञान नहीं है। आप नहीं जानते कि आप क्या है, सारा वातावरण कितना से लोगों को इतना परिवर्तित, इतने सुन्दर रूप में, कार्यान्वित है! विज्ञान ने भी कार्य किया है। विज्ञान इतना अच्छा, इतना महान और इतने अच्छे वातावरण प्रकृति की देन है। ये सब आप लोगों पर कार्यान्वित में देख सक! मेरे लिए यह बहुत बड़ा संतोष है और किया गया है ताकि आप कम से कम समय में कई बार तो मैं सोचती हूँ कि अब करने को कुछ परन्तु, ये लोग कभी यहाँ आमन्त्रित करते हैं कभी वहाँ। लोग ऐसा करते हैं परन्तु सच्चाई ये है कि मैं अत्यन्त सन्तुष्ट उच्चतम अवस्था प्राप्त कर सकें। परन्तु इसके बाकी नहीं है, सब कार्य हो गया है। लिए आपको अत्यन्त अन्तर्वलोकन करने वाला होना होगा अन्तर्वलोकन आपकी सहायता करेगा हूँ। आपने जब पेड़ लगा दिया है, ये आम के पेड़ जैसा है। आम के पेड़ को यदि एक बार लगा दिया और आप वास्तव में महान गुरु बन जाएंगे जब आप अन्य गाँवों में, अन्य स्थानों पर, अन्य नगरों में जाएंगे तो आपको देखकर ही लोगों को समझ जाना चाहिए कि कोई महान लोग आ गए हैं। आपको कुछ नहीं बताना, कुछ प्रमाणित नहीं करना, आपके स्वभाव की सहजता ही सभी कार्य करेगी। पहली बार जब मैं लेनिनग्रैड (Leningrad) गई तो कोई भी मेरे विषय में कुछ न जानता था, कोई विज्ञापन नहीं हुए, कुछ नहीं। वहाँ केवल थोड़े से पोस्टर लगाए गए थे। फिर भी दो हजार लोग हॉल जाए और तीन चार वर्ष उसकी देखभाल कर ली जाए तो बाद में यह अपनी देखभाल स्वयं करता है। इसी प्रकार से आपके साथ भी घटित होना चाहिए। आपको स्वयं ही उन्नत होना चाहिए। निःसन्देह हमें ऐसे लोग भी मिलेंगे जो मूर्ख हैं, आक्रामक हैं और जो बिल्कुल भी सहजयोगी नहीं है, फिर भी सहजयोगी बनने का प्रयत् कर रहे हैं। सभी प्रकार के लोग मिलते हैं, आप बस उन्हें देखते रहिए केवल इतना ही। के अन्दर थे और दो हजार हॉल के बाहर तथा दो हजार लोग और आए, अधिकतर लोग जमीन पर बैठे हुए थे मैं हैरान थी! मैंने कहा, "किस प्रकार आप मेरे कार्यक्रम में आए?" उन्हों ने कहा, "श्रीमाताजी स्पष्ट है. आपके फोटोग्राफ से!" वहाँ पर वैज्ञानिक थे, डॉक्टर थे, और सभी प्रकार के बुद्धिजीवी लोग थे। सभी ने चेहरे से आध्यात्मिकता का अहसास किया। हमारे अन्दर भी ऐसी ही संवदेना होनी चाहिए, तब आपको विवेक की आवश्यकता नही रहेगी। कुछ नहीं। क्योंकि आप जानते हैं ये ऐसा है. ये ऐसा है. ये ऐसा है। न तो आपको अन्दाजे लगाने पडेंगे, न ही आपको सोचना पड़ेंगा । ये नहीं कह सकते कि "इसके लिए कौन सबसे अभिक उपयुक्त होगा, जो पहली बार आए इस गुरु पूजा में आपने निर्णय करना है कि मापदण्ड क्या हैं। पहली बात तो ये है कि गुरु को निरीच्छ होना चाहिए, किसी भी प्रकार की कोई इच्छा नहीं, पूर्णतः निरीच्छ । भारत में एक कुगुरु है जिन्होंने कहा कि यदि मेरे पास वो शक्तियाँ होतीं जो श्रीमाताजी के पास हैं तो मैं विश्व सम्राट बन गया होता!" लोगों ने कहा, "तो आप बन क्यों नहीं जाते?" वह कहने लगा, "माँ ऐसी क्यों नहीं बन जाती? वो साम्राज्ञी क्यों नहीं बन जात्ती?" लोगों ने कहा, "क्योंकि वे निरीच्छ हैं अर्थात उनमें कोई इच्छा नहीं है। इच्छा विहीन व्यक्ति कुछ भी नहीं बनेगा। तो मैंने कहा कि जाकर उसे बता दो कि अंक : 9& 10-2006 21 चैतन्य लहरी जब तक तुम्हारे अन्दर इच्छाएं हैं तुम शक्तियाँ भी प्राप्त नहीं कर सकते। वे क्योंकि निरीच्छ हैं है। क्योंकि उन्हें ही नुकसान होगा मुझे नहीं अतः इन चीजों की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं इसीलिए उनमें ये सारी शक्तियाँ हैं। अतः जब भी आपके मस्तिष्क में कोई इच्छा हो तो आपको कहना चाहिए, "मैं ये प्राप्त नहीं करना चाहता। एक. अन्य चीज ये है कि ये देखने का प्रयत्न करें कि आपका मस्तिष्क प्रतिक्रिया न करे। कुछ लोगों की प्रतिक्रिया करने की आदत है या मैं कहूंगी कि अधिकतर की आप इन्हें कुछ बताएं और वे अपनी भी एक पूँछ इसमें डाल देंगे। किसी अन्य की कही हुई बात को वे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। आप यदि प्रतिक्रिया कर रहे हैं तो आपके मस्तिष्क में क्या जाएगा, आपके हृदय में क्या जाएगा, और आपके चित्त में क्या जाएगा? अतः प्रतिक्रिया यह दर्शाती है कि आप का ठीक से विकास नहीं हुआ जो चित्त आपके मस्तिष्क, इसे भूल जाएं। इच्छा जब भी आप पर हावी होने लगे तो तुरन्त अपने चित्त को दूसरी ओर ले जाएं। कोई भी तुच्छ इच्छा आप पर नियंत्रण कर सकती है और केवल निर्विचार चेतना में जाने से ही आप निरीच्छ बन सकते हैं। जब भी कोई समस्या आए अपनी निर्विचार चेतना की अवस्था में चले जाने की योग्यता होनी चाहिए। बस शान्त हो जाएं। अपनी इच्छाओं को शान्तिपूर्वक देखें और उन्हें बताएं, "मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ, अब मत आओ। मुझे तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार से आप निरीच्छ बन सकते हैं। शरीर तथा सर्वत्र जाने का प्रयत्न करता है वह बहाँ नहीं जा पाता। वह वहाँ पर प्रवेश नहीं कर पाता, फिर करुणा है और वास्तव में करुणा ही क्योंकि ज्योंही ये प्रवेश करने का प्रयत्न करता है शक्ति बन जाती है। छोटी-छोटी चीजों में आप अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कर सकते हैं, छोटी- देखने के लिए आप किसी चीज़ को नहीं देख छोटी चीजों में । और अत्यन्त मधुरतापूर्वक आप अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कर सकते हैं। ये अत्यन्त महत्वपूर्ण है आज पूरे विश्व को प्रेम एवं शान्ति की कहती हैं कि पाँच बजे हैं तो आप कहते हैं कि पाँच आवश्यकता है और जहाँ तक हो सके हमें सभी को यह प्रेम एवं शान्ति देनी है सहजयोगियों को देना बहुत आसान है। परन्तु उन लोगों को भी प्रेम और शान्ति देनी है जो सहजयोगी नहीं है। हमें चाहिए कि उनसे प्रेम एवं सम्मान पूर्वक व्यवहार करें। परन्तु आपमें ये इच्छा नहीं होनी चाहिए कि होती है । अपने मस्तिष्क से यदि आप कह दें. इसके बदले उनसे हमें कोई आशा नहीं करनी है। उनके लिए जो कर दिया है बस ठीक है। आप ऐसे चीज के प्रति प्रतिक्रिया करने वाला नहीं हू, तो बहुत से सहजयोगियों को जानते हैं जो सहजयोग में आए, बहुत कुछ प्राप्त किया, फिर भी हमें धोखा दिया। कोई बात नहीं, ये कोई अहम बात नहीं है तो प्रतिक्रिया द्वारा आप इसे रोक देते हैं । केवल सकते। आपको तो प्रतिक्रिया करनी ही है। ये बात अच्छी नहीं है, बिल्कुल अच्छी नहीं है। मैं यदि बजकर दो मिनट तीन सैकेण्ड हुए हैं! ये संस्कार भयानक बन्धनों के कारण आते हैं। इन बन्धनों को जाना होगा 'प्रतिक्रिया नहीं करनी। किसलिए आपको प्रतिक्रिया करनीं चाहिए? फिर बहस शुरू हो जाती है, झगड़े शुरू हो जाते हैं, गालीगलोंच "बिल्कुल कुछ नहीं, तुम मिथ्या हो और मैं किसी 99.9% समस्याओं का समाधान हो जाएगा। और अन्त में 'अह' आता है। सन्त में अह अंक : 9& 10 2006 चैतन्य लहरी 22 का होना मेरी समझ से परे है । मैं इसे समझ ही नहीं सकती। अहं होना अत्यन्त मूर्खता है । ये तो एक प्रकार का नियंत्रण है छोटी सी चीज बिगड़ने वास्तव में विश्व पर विजय प्राप्त करते हैं! गुरु पूजा के इस दिन, गुरु से आशा की पर भी आप नाराज़ हो जाते हैं, कोई यदि कुछ जाती है कि वह शिष्यों को कुछ ऐसा बताए जिससे उनका सुधार हो। अपने मधुर ढंग से मैंने आपको जो भी कहा है उसका आप बुरा न माने। किसी भी प्रकार से मेरा अभिप्राय आपकी भत्त्सना करना नहीं है, आपको अन्तर्वलोकन का उपयुक्त विवेक प्रदान करना है, अन्तर्वलोकन का उपयुक्त विविक जिससे कहता है तो आप नाराज हो जाते हैं। इसका अर्थ ये है कि प्रेम एवं करुणा की आपकी शक्ति पूर्ण नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर निःसन्देह आप लोगों को सुधार सकते हैं, परन्तु इसके लिए आपके अन्दर ये शक्ति होनी चाहिए। जिस व्यक्ति को आप सुधार रहे हैं उसकी समझ में आना चाहिए कि प्रेम के कारण आप ऐसा कर रहे हैं स्वार्थ एवं अपने लाभ के लिए नहीं। परन्तु यह अहं बहुत बड़ी समस्या है। ये आपमें जाग जाता है और आपको आप सब गुरु पद प्राप्त कर सके। मेरी एक मात्र, मुझे इच्छा नहीं कहना चाहिए क्योंकि इच्छा तो मुझमें है ही नहीं, तो मेरा एकमात्र स्वप्न ये है कि मैं सभी योगियों को प्रेम की शक्ति में डूबे हुए, एक दूसरे के प्रेम का आनन्द लेते हुए. पारस्परिक सम्बन्धों का आनन्द लेते हुए, और पारस्परिक सम्बन्धों को सुधारते हुए देखूं। मैं जानती हूँ कि समस्याएँ खड़ी करने वाले लोग भी हैं. मैं जानती हूँ वे समस्याएँ खड़ी करते हैं। परन्तु यदि आप समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते तो आपके अक्खड़ एवं भयानक बना देता है। परन्तु यदि आप विनम्र हैं, सच्चाई में, व्यापारियों की तरह से विनम्र नहीं, अपने अन्दर से, अपने हृदय से यदि आप विनम्र हैं, विनम्रता का आनन्द लेते हैं तो यह अहं दूर हो सकता है। अब आपने स्वयं से प्रश्न पूछना है कि किस कारण से मैं नाराज हूँ? पुनः मैं उसी बिन्दु पर आ गई हूँ, 'अन्तर्वलोकन', क्योंकि यहाँ पर आप कोई कार्य करने के लिए नहीं आए, सन्त बनने के लिए आए हैं। ये अहं प्रेम एवं करुणा का शक्तिशाली यन्त्र बनाया जाना चाहिए। आप इस कार्य को कर सकते हैं, ये कठिन नहीं है 'अहं' क्या है? चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया किसी भी चीज के प्रति आप अत्यन्त मधुरता पूर्वक प्रतिक्रिया कर सकते हैं और अत्यन्त विनाशकारी ढंग से भी तब विनोदशीलता आती है। आपको इस प्रकार बोलना चाहिए मानो सुगन्धित फूलों की कलियाँ खिल रही हों । तब आपकी सभी गतिविधियाँ मधुर एवं सुकोमल बन जाएंगी अहं अत्यन्त कोमल अच्छा, मधुर, क्षमाशील एवं प्रेममय होना चाहिए। आइए ऐसा अहं प्राप्त करें, ऐसे अहं से शुरुआत करें। विपरीत दिशा से, और हमें हैरानी होगी कि किस प्रकार हम गुरु बनने का क्या लाभ है? अतः मैं आप पर छोड़ती हूँ कि जिन समस्याओं का आप सब सामना कर रहे हैं, उनका स्वयं समाधान करें, प्रेम एवं करुणापूर्वक अन्तर्वलोकन करके, अपनी भत्त्सना द्वारा नहीं। मुझे विश्वास है कि आप इस कार्य को कर सकते हैं। 1 परमात्मा आप पर कृपा करें। सभी पूजाओं में मैं मेजबान देशों को, सभी पुरुषों, सभी महिलाओं तथा अगुआओं को उपहार देती हूँ। परन्तु मुझे खेद है कि गुरु पूजा पर मेरा किसी को भी उपहार देना उचित नहीं समझा जाता। केवल गुरु ने ही आपसे सभी कुछ छीनना होता है। (हँसी.) ये सभी कुछ साड़ियाँ आदि जो मुझे दी जाती हैं केवल गुरु पूजा पर ही दिया अंक 9.& 10-2006 चैतन्य लहरी 23 जाना चाहिए। परन्तु मुझे खेद है कि मैं आज किसी भी देखना है क्योंकि आप सबने अन्दर और बाहर दोनों ओर उन्नत होना है, और सहजयोग को सर्वत्र फैलाना है अतः चाहे आप पुरुष हों या महिला, आपने देखना है कि आपने कितने लोगों को आत्म-साक्षात्कार दिया। विश्व भर में आत्म- को या किसी अन्य को कुछ नहीं अगुआ दे सकती। आशा है आप लोग बुरा नहीं मानेंगे। एक माँ के लिए गुरु बनना बहुत कठिन कार्य है क्योंकि गुरु हैं। वे हमेशा शिष्यों को अनुशासित करने का प्रयत्न करते हैं और उनके प्रति अत्यन्त कठोर व्यवहार करते हैं। परन्तु एक माँ इतनी कठोर नहीं हो सकती। माँ-गुरु के साथ ये समस्या होती है। ये भी एक कारण हो सकता है कि कभी-कभी लोग सहजयोग को स्वीकृत रूप से ले लेते हैं। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि आपको तो अत्यन्त कठोर अनुशासनप्रिय होते साक्षात्कार का कार्य आरम्भ करना आवश्यक है। इसी प्रकार से सहजयोग फैलेगा और जिस प्रकार मैं आजकल यात्रा कर रही हूँ, फिर मुझे वैसे यात्रा करने की आवश्यकता न रहेगी। सब लोग इस बात की जिम्मेदारी लें कि कम से कम अपने नगरों और कार्य स्थानों के क्षेत्र में यात्रा करें। खुलकर आप सहजयोग की बात करना आरम्भ करें सभी आशीर्वाद, सभी शक्तियाँ आपके साथ हैं। किसी को यदि कोई कठिनाई आए तो बन्धन देकर चीज़ों को ठीक कर लें। ऐसा करना आप अच्छी तरह से जानते हैं, सहजयोग की हर चीज का ज्ञान आपको है, इसके बारे में कुछ बताने की मुझे आवश्यकता नहीं है आवश्यकता तो केवल उपयोग करने की है। चाहे आपके पास सभी यन्त्र हों, परन्तु इनका उपयोग किए बिना कोई कार्य न होगा। पूर्ण प्रेम एवं आशीर्वाद के साथ अब मैं आपको अलविदा कहती हैँ। 1 आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। आप आत्म साक्षात्कारी हैं आप गुरु हैं। आपको अपनी उत्क्रान्ति की चिन्ता करनी चाहिए। मुझे आपको ये बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि आपको ऐसा करना है आपको वैसा, क्योंकि आपके हाथों में प्रकाश है और आप इस कार्य को भली-भांति कर सकते हैं आशा है कि आज का प्रवचन आपको बहुत पसन्द आया होगा और यदि मेरी कही हुई किसी बात से आपको परेशानी हुई हो तो आप उसका बुरा नहीं मानेंगे। परन्तु व्यक्ति को ये सब धन्यवाद । ९५ गुरु स्तुति परम पूज्य श्री माताजी के श्री चरणों में अर्पित ज्ञानेश्वरी के अध्याय 12 से 18 पर आधारित हे, गुरु माँ (गुरु मौली) आपको कोटि-कोटि प्रणाम। अपने बच्चों पर निर्मल एवं शाश्वत आनन्द, हे गुरु मौली (गुरु माँ) अपने अमृत का भोजन आप हमें प्रदान करती हैं और 'सोहं हंसा' के अनहद् नाद की लोरी गाकर हमारी आत्मा को 1. 7. आप ज्योतिर्मय करके हमें योगनिद्रा में सुलाती हैं। सर्वत्र विख्यात हैं। हे श्रीमाताजी, हे गुरुमूर्ति, आप ही सभी साधकों की माँ हैं। सारी विद्या का उद्भव आपके चरण कमलों से होता है। कृपा करके वर दें कि हम आपके चरण कमलों की छाया में सदा-सर्वदा है, गुरु माँ, हे करुणामयी, वासनारूपी सर्प अपने शिकंजे में कसकर जब हमें डसता है तो उसका जहर हमारी चेतना का हरण कर लेता है। वासना रूपी इस सर्प के जहर को उतारना भी बहुत कठिन कार्य है परन्तु हे प्रेममयी माँ, आपके एक कटाक्ष मात्र से यह ज़हर लुप्त हो जाता है तथा चेतना पुनर्जागृत हो उठती है। 8. 2. बने रहें। श्रीमाताजी अपनी करुणा का आश्रय जब आप हमें प्रदान करती हैं तो हम दिव्य ज्ञान (शुद्ध विद्या) में पारंगत हो जाते हैं। 9. हे, परमप्रिय गुरु, श्री माताजी, अत्यन्त कृपा कर आपने अमृत का सागर हमें प्रदान किया है। सांसारिक जीवन की तपन किस प्रकार हमें कष्ट दे सकती है और किस प्रकार इसके दुख हम पर विजयी हो सकते हैं? 3. हे गुरु, श्री माताजी, आपको कोटि-कोटि प्रणाम । आपके चरण कमलों की छत्रछाया में ही शुद्ध विद्या पनपती है श्रीमाताजी निःसन्देह आपके चरण कमल ही हमारी आत्मा हैं। 10. हे परम प्रिय गुरु, केवल आपकी कृपा के कारण ही आपके बच्चे योग के आशीष का शाश्वत् आनन्द उठा रहे हैं। आप ही अत्यन्त प्रेमपर्वूक हम पर सोहं (मैं वही हैं) की आशीष वर्षा कर रही हैं। 4. श्रीमातांजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम| 11. आपका स्मरण मात्र हमें शब्दों के अरथाह सागर पर आधिपत्य प्रदान करता है अर्थात अपनी सूक्ष्म भावनाओं को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने की शक्ति हमें प्राप्त हो जाती है और हमारी जिह्वा से दिव्य ज्ञान (शुद्धं विद्या) बहने लगती है । है माँ, अपने हृदय के झूले में, अपनी गोद में, अपनी पोषक शक्ति द्वारा आप प्रेमपूर्वक अपने बच्चों का लालन पालन करती हैं और उन्हें योगनिद्रा में सुलाती हैं। 5. श्रीमाता जी आपको कोटि कोटि प्रणाम। आपके स्मरण मात्र से व्यक्ति की वाणी इतनी हो जाती है कि माधुर्य, अमृत तथा सभी रस 12. मधुर विनम्र होकर शब्दों के माध्यम से तुरन्त अभिव्यक्त हो जाते हैं । श्री माताजी, आप हमें आरती का वरदान देती हैं, आत्मा जिसकी लपट है, और खेलने के लिए मनःशक्ति तथा प्राणशक्ति रूपी दो खिलौने प्रदान करती हैं। तथा, हे माँ, आध्यात्मिक आशीष के गहनों से हमारा श्रृंगार करती हैं। 6. श्रीमाताजी आपको कोटि कोटि प्रणाम आपकी अनुकम्पा से आपके बच्चों को ऐसे शब्द 13. चैतन्य लहरी अंक : 9& 10 -2006 25 जादू का सम्मोहन डालता है तो दर्शक पूरे विश्व को भूल जाते है। परन्तु जादूगर स्वयं को छुपा नहीं सकता। परन्तु श्रीमाताजी आपकी माया का आपके विषय में सत्य की चेतना को लुप्त सूझते हैं जो आत्मा से उदित होने वाले गहन अनुभव तथा सूक्ष्म रहस्यों को अभिव्यक्त करते हैं। श्रीमाताजी हमारे हृदय जब आपके चरण कमलों में होते हैं तो सौभाग्यश्री, दिव्य ज्ञान तथा साक्षात्कार की कृपा हम पर होती है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम। 14. जादू कर देता है और व्यक्ति भ्रान्तिमय संसार को सत्य मान लेता है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम् । श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । केवल आप ही संसार के ज़े-ज़रें में व्याप्त हैं। सहजयोगियों तथा आत्म साक्षात्कारी लोगों में आप श्रीमाताजी आप सर्वदेवों में महान् हैं। दिव्य ज्ञान का प्रकाश (प्रज्ञा) प्रदान करने वाले सूर्य आप ही हैं आप ही की कृपा से आपके बच्चे (साधक) निरानन्द रूपी जीवन आनन्द प्राप्त कर सके श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 20. 15. अपने ब्रह्म रूप में प्रकट होती है। ब्रह्मरूप में प्रकट होकर उन्हें अन्तरप्रकाश प्रदान करती हैं। परन्तु माया में लिप्त लोग आपके विषय में नहीं जान पाते। श्रीमाताजी आपसे सम्बन्धित आपकी यह लीला अत्यन्त अद्भुत है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम 16. आप ही वह वट वृक्ष हैं जिसकी छाया में आपके बच्चे सुख और सुरक्षा का अनुभव करते हैं। अपने बच्चों के हृदय में आप ही 'सोह का सूक्ष्म रहस्य प्रकट करती हैं। आप ही वह सागर है जिसमें तीनों लोक प्रकट तथा लुप्त होते हैं। श्रीमाताजी आप ही की शक्ति जल को तरलता तथा पृथ्वी माँ को क्षमा का गुण प्रदान करती है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 21. श्रीमाताजी त्रिलोकी में आप ही की शक्ति सूर्य तथा चन्द्र की तरह चमकती है। बिना आपकी शक्ति के वे मोती को जन्म देने वाली सीप के खोल सम होते। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि श्रीमाता जी कष्ट में फँसे अपने बच्चों की 22. 17. रक्षा करने में आप देर नहीं करती। आप करुणा को अनन्त सागर हैं। सारा दिव्य ज्ञान आपका अभिन्न मित्र है श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । प्रणाम । श्रीमाताजी आप ही की शक्ति के कारण श्रीमाता जी आपकी माया की लीला में 23. 18. पवन स्वतंत्रता पूर्वक कहीं भी बहती है तथा सर्वव्याप्त प्रतीत होने वाला गगन आपके ब्रह्माण्डीय अस्तित्व का मात्र नन्हा सा भाग है जिसे वैसे ही खोजना पड़ता जैसे लुका छिपी खेल में छिपे व्यक्ति जब हम लिप्त होते हैं तो हमें लगता है कि यह संसार सत्य है। परन्तु जब आप अपना ब्रह्म रूप प्रकट करती हैं अर्थात् सर्वशक्तिमान परमात्मा का सच्चा रूप, तो हमें इस बात का ज्ञान होता है कि श्रीमाताजी आप ही सर्वव्याप्त हैं श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । हुए को। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । श्रीमाताजी केवल इतना ही नहीं है माया भी आपके विराट रूप का एक नन्हा सा अंश है 24. श्रीमाताजी जादूगर जब दर्शकों पर अपने 19. अंक : 9& 10 -2006 26 चैतन्य लहरी पवित्र करके इसकी पाजेबें बनाकर इन्हें आपके चरणों में पहना सकें। और अन्तर प्रकाश का उद्भव भी आप ही की शक्ति के कारण है। श्रुतियों (वेदों) ने आपके रूप का वर्णन करने का निरर्थक प्रयास किया परन्तु आपके रूप को समझ न पाईं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । करें कि अपने प्रेम के श्रीमाताजी 30. कृपा शुद्ध स्वर्ण में अंगूठियाँ बनवाकर हम आपकी पादांगुलियों में पहनाएं। श्रीमाताजी परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करने में वेदों को दक्ष माना जाता था। परन्तु ये दक्षता तभी तक सीमित थी जब तक उन्होंने 25. श्रीमाताजी, आनन्द सुगन्ध से परिपूर्ण सत्व रूपी पुष्प हम आपके चरण कमलों में अर्पित करते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम | 31. गुण आपके ब्रह्म-रूप का अवलोकन नहीं किया आपके पावन स्वरूप का वर्णन आरम्भ करते ही वेद बिल्कुल वैसे ही शान्त हो जाते हैं जिस प्रकार हम आपके ध्यान की स्थिति में होते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । श्रीमाताजी, अपने अहं की अगरबत्ती जलाकर हम 'न अहं की भावना की ज्योति से आपके चरण कमलों की आरती उतारते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 32. श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । हम, आपके सभी बच्चों ने अपने हृदय शुद्ध कर लिए हैं। कृपा करके अपने चरण कमल हमारे हृदय में विराजित करें अपने हृदय में, श्रीमाताजी, में धारण कीजिए श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि हम आपके चरण कमलों की पूजा करना चाहते हैं। 26. श्रीमाताजी हमारा शरीर और प्राण पादुकाओं का जोड़ा है। कृपा करके इसे अपने चरण कमलों 33. 1 प्रणाम। श्रीमाताजी तदात्म्य भाव हमारी युग- हस्तांजलि सम है जिससे हम कलियाँ निकालकर आपके चरण कमलों में अर्पण करते हैं हमारी नाड़ियाँ चक्र तथा इन्द्रियाँ ही ये कलियाँ हैं इन्हें हम आपके चरण कमलों में समर्पित करते हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम| श्रीमाताजी कृपा करें कि आपके चरण 34. 27. जो आपके बच्चे कर रहे हैं, सभी कमलों में ये कमियों के बावजूद भी पूर्ण हो और आप इसे स्वीकार करें। पूजा, श्रीमाताजी अपनी पूजा का ये अवसर आपने हमें प्रदान किया, इसके लिए हम आपके श्रीमाताजी अनन्य भाव से (पूर्ण समर्पण सभी बच्चे अखण्ड आभारी हैं। हमारे जीवन से दुःख समाप्त हो गए हैं, पाप क्या होता है ये हम भूल गए हैं और दारिद्रय का अस्तित्व समाप्त हो गया है। आपके पावन दर्शन करके जीवन की पूर्णता का आनन्द हमें प्राप्त हो गया है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 35. 28. भाव से) हम आपके चरण कमल धोते हैं और उन पर अपनी अनामिका (Ring Finger ) से समर्पण का चन्दन लगाते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि- कोटि प्रणाम । जी श्रीमाताजी आपके प्रति हमारा प्रेम स्वर्ण 29. की तरह से है। कृपा करें कि हम इस स्वर्ण को श्रीकृष्ण पूजा ा कर जिनेवा 28-8-1983 (परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन) "योगेश्वर' रूप है और उनका दूसरा पक्ष 'विराट' आज इस पावन भूमि पर हम श्रीकृष्ण का जन्म-दिवस मना रहे हैं। श्रीकृष्ण पितृत्व रूप । ाम (Fatherhood) की पराकाष्ठा है, ये बात मैं पहले योगेश्वर अर्थात योग के स्वामी या योग भी वर्णन कर चुकी हूँ। पृथ्वी पर अवतरित होकर की शक्ति । वे योगेश्वर इसलिए कहलाते हैं क्योंकि उन्होंने इस पराकाष्ठा का उदाहरण दिया। अतः 1. उन्होंने उस उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लिया श्री कृष्ण-चेतना पृथ्वी पर पितृ-धर्म का उच्चतम था जो किसी भी योगी का लक्ष्य होती है मानो वे ही वो आदर्श हों जिस तक आपने पहुँचना है। योगी के रूप में, उनका जन्म एक शाही परिवार में उदाहरण है। परन्तु परमात्मा के साम्राज्य में, हम कह सकते हैं, स्वर्ग में या सबसे ऊपर सदाशिव का स्थान है जो कभी अवतरित नहीं होते (सदा शिव हैं) । श्रीकृष्ण उनके भिन्न पक्षों में से एक हैं। सदा शिव पिता हैं और श्रीकृष्ण उनके पक्षों में से एक पक्ष है और आदिशक्ति या परम चैतन्य इसी आदिशक्ति का एक अन्य अंश हैं, आदिशक्ति जो राधा रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुईं। ईसा-मसीह की माँ के रूप में अवतरित होने वाली भी वही हैं। श्रीकृष्ण के नाम पर ही उन्होंने ईसा-मसीह का नामकरण किया (खिस्त), मानो यह भी श्रीकृष्ण का ही नाम हो, श्रीकृष्ण' से। भारतीय भाषा में इसे खिस्त कहते हैं। पहले भी मैंने आपको बताया है हुआ परन्तु वे वनों में, जंगलों में, गऊओं के साथ, सर्व-साधारण लोगों.के साथ रहे। गायें चराने के लिए जब वे जाते तो कहीं भी सो जाते, कभी पत्थरों पर, कभी घास पर । अपनी शक्तियों के प्रति वे अत्यन्त जागरूक थे, अत्यन्त-अत्यन्त चेतन, अत्यधिक चेतन, परन्तु इस मामले में उनमें ज़रा भी अहं न था। संहार-शक्ति उनकी एक विशेष शक्ति थी जिससे वे दिव्याभिव्यक्ति को हानि पहुँचाने वाले सभी लोगों को नष्ट कर सकते थे। कि उन्हें 'येशु' या 'जेस क्यों कहते हैं। तो आज हम श्रीकृष्ण के उन दो पक्षों को देखेंगे जो उनके दिव्य अवतरण से अभिव्यक्त हुए। उनके हाथ का चक्र (सुदर्शन) इस संहार शक्ति की अभिव्यक्ति है और दूसरे उनकी गदा| ये दोनों शक्तियाँ उनके अन्दर थीं और वे राधा की शक्ति के अनुरूप कार्य करते थे क्योंकि राधा जी ही श्रीकृष्ण की शक्तियों को धारण करती है इसका प्रमाण ये है कि जब तक श्री राम के जीवन में उन्होंने एक ऐसे पुरुष को दर्शाया जो पुरुषोत्तम' थे, सांसारिकता के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम पिता और श्री कृष्ण के जीवन में उन्होंने सर्वश्रेष्ठ पितृ-धर्म को दर्शाया- योगेश्वर को, तथा उनके दिव्य कार्यों को अतः राधा के साथ गोकुल में थे तब तक उन्होंने 'संहार कार्य किया, तत्पश्चात् वे अर्जुन के सारथी बन गए। तो अपने शिष्य अर्जुन के लिए वो उनके श्रीकृष्ण का पहला पक्ष, जो हमने समझना है, सारथी तक बन गए । ा अंक : 9 & 10-2006 28 चैतन्य लहरी मि ईसा-मसीह करते हैं, आत्मा द्वारा होता है। अतः "योगेश्वर का एक अन्य महान गुण उनकी पूर्ण सद-सद् विवेक' की शक्ति थी। वो जानते थे कि कौन राक्षस है और कौन नहीं है, कौन अच्छा है और कौन बुरा, कौन भूत-बाधित है और कौन नहीं, कौन अबोध है और कौन नहीं। ये गुण उनके अन्तर्रचित था- 'सद-सद विवेक' की पूर्ण शक्ति। एक योगी के रूप में अब आपने महसूस करना है कि आपकी मानसिक स्थिति आकाशीय (स्वर्गीय) होनी चाहिए। े और आपके प्रति अहं की क्या स्थिति होनी चाहिए? यह इसका अहं भाग है कि आपको आकाशीय स्थिति में होना चाहिए, आपको चाहिए उनमें अपने साक्षी भाव को (साक्षित्व) चि प्रकट करने का सामर्थ्य था उनमें ये सामर्थ्य था । मेरा अर्थ ये है कि वो स्वयं साक्षी थे से समझना आसान होगा वे साक्षी थे। उनमें पूर कि नकारात्मकता के खेल को देख सकें। नकारात्मकता भाग जाएगी। आप इसके हाथों में न खेलें। नकारात्मकता आपसे दूर हो जाएगी। अह इस प्रकार विश्व को लीला रूप में देखने की क्षमता थी। श्री और प्रतिअहं दोनों विशुद्धि चक्र से उठते हैं। आज्ञा चक्र इन्हें अधोगति की ओर ले जा सकता है, परन्तु विशुद्धि चक्र को इन्हें अपने अन्दर राम के युग में, स्वयं को पूर्ण मानव दर्शाने के लिए वे अपनी समस्याओं में लिप्त हो गए थे ताकि लोग ये न कह सकें कि वे परमात्मा हैं। तो किस प्रकार खींचना होगा। हम परमात्मा को स्वीकार करें क्योंकि "आखिरकार तो वे परमात्मा थे। साक्षित्व की उनकी योग्यता सभी योगियों में दिखाई पड़नी चाहिए। वे आकाश योगेश्वर का महानतम गुण ये है कि वो तत्व को नियंत्रित करते हैं। संस्कृत में हम इसे बिल्कुल भी लिप्त नहीं होते, पूर्णतः निर्लिप्त हैं. पूर्णतः। खाना खाकर भी वो नहीं खाते. वो बोलते हैं फिर भी नहीं बोलते, वो देखते हैं फिर भी नहीं देखते सुनते हैं फिर भी नहीं सुनते इन चीजों की उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, कोई प्रभाव नहीं आकाश' (Ether) तत्व कहते हैं। अब आप जानते हैं कि आकाश तत्व को हम दूरदर्शन, रेडियो तथा अन्य सभी प्रकार के सामूहिक कार्यों के लिए उपयोग करते हैं। तो योगियों के रूप में आकाश-तत्व होता और न ही वे इनके अनुरूप कार्य करते हैं। वो जो भी हैं पूर्ण हैं - सोलह कलाएं, पूर्णिमा के पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए। यह सभी तत्वों में सूक्ष्मतम है। क्योंकि इसके माध्यम से आप किसी भी चीज़ में प्रवेश कर सकते हैं, बिल्कुल प्लास्टिक की तरह से, हर पदार्थ में, चीजें आकाश तत्व में प्रवेश नहीं कर सकती। अतः चाँद की होती हैं, चाँद का सोलहवाँ दिन पूर्णिमा होती है। व्यक्ति को भी ऐसा ही होना चाहिए, अपने आप में पूर्ण, पूर्णतः आत्म विश्वस्त। परन्तु अहंकार में भी। परन्तु ये वायु को आत्म-विश्वास नहीं मान लिया जाना चाहिए, नकारात्मकता भी आकाश-तत्व में प्रवेश नहीं कर आत्म विश्वास पूर्ण विवेक है, पूर्ण धर्म, पूर्ण प्रेम, पूर्ण सकती। तो जब आप आकाश क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो वास्तव में उस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जो सौन्दर्य और पूर्ण परमात्मा है इसे यही होना निर्विचार चेतना का क्षेत्र है और उसका सम्पोषण चाहिए। चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 29 अन्य चीज़, जो आज सहजयोग की अवस्था में हमने श्रीकृष्ण के बारे में समझनी है, वह है इस समय अभिव्यक्त होने वाली विराट शक्ति, उनके समय पर अभिव्यक्त होने वाली श्रीकृष्ण शक्ति नहीं। आज जो शक्ति कार्य कर रही है वह श्री राधा या श्री मैरी की शक्ति नहीं है यह 'वीराटांगना की शक्ति है। यही कारण है कि सहजयोगियों का जब उन्होंने गीता में कहा, "सर्वधर्माणां परित्यज्य मामेकमं शरणम व्रज।' तो उनका अभिप्राय ये था कि जिन चीजों के बारे में आप चिन्तित हैं उन सभी चीजों की चिन्ता को छोड़ कर मुझसे एक रूप हो जाएं, मैं आपकी देखभाल करुंगा। श्रीकृष्ण पर जिम्मेदारी छोड़ दें। तो पूर्ण समन्वित दिव्यत्व आपके माध्यम से अभिव्यक्त होने ज्ञान युग-युगान्तरों के सन्तों से कहीं विशाल है। परन्तु ये उनसे गहन नहीं है । अपने ज्ञान को लगेगा। अभिप्राय ये है कि यदि आप कहते हैं कि मुझे जिम्मेदार होना है तो वो कहते हैं, "ठीक है, यदि आप गहन बना सकें तो इस विस्तृत ज्ञान की जड़े आपके अन्दर ठीक से लग जाएंगी| अतः जड़ें मस्तिष्क में हैं, पूरे जीवन वृक्ष की जड़ें यहीं हैं। कुण्डलिनी जब उठती है तो सबसे पहले मुस्तिष्क को सींचती है ताकि पूरा जीवन-वृक्ष परमेश्वरी आशीर्वाद और परमेश्वरी ज्ञान से शराबोर आगे बढ़ो, और प्रयत्न करो।" परन्तु आप यदि कहते हैं कि "आप जिम्मेदार हैं, मैं तो केवल एक संस्था हूँ या आपके हाथों में यन्त्रवत् हूँ" तो आप इसकी अभिव्यक्ति भली-भांति कर सकते हैं। इस प्रकार से आपका विशुद्धि चक्र खुल जाता है। हो जाए । योगेश्वर के बारे में मैंने आपको थोड़ा सा है परन्तु हमारे अन्दर मस्तिष्क बन जाते हैं। दिव्य मस्तिष्क के सारे जो हमारे अन्दर हैं, हमें उनका ज्ञान वे हमारे अन्दर मस्तििष्क हैं। वे बताया अतः जिस विराट शक्ति को हमें कार्यान्वित करना है ये सर्वप्रथम हमें सामूहिक चेतना का विवेक प्रदान करती है। सर्वप्रथम हम इसे अपनी बौद्धिक शक्ति से समझते हैं। परन्तु मस्तिष्क की सारी शक्ति का सिंचन और पथ-प्रदर्शन हृदय गुण, होना चाहिए। अतः अपने मस्तिष्क से जो भी कुछ हम करते हैं, जैसे कुचक्र, धोखाधड़ी अन्य सभी बुराईयाँ, ये सब दिव्य उद्देश्य के लिए वही करते हैं और बुरे कार्य करने का इल्जाम भी अपने पर द्वारा होना चाहिए। संस्कृत का शब्द 'सिंचन' अत्यन्त सुन्दर है, जैसे ओस की बूंदें, परमात्मा के प्रेम का छिड़काव। तो मस्तिष्क का समन्वयन नहीं लेते और इसका दूसरा पक्ष सकारात्मक र कहलाता है। जैसे राजनीति, कूटनीति, नेतृत्व, ये प सब उन्हीं के कार्य हैं, जैसे भविष्य के बारे में आपके हृदय और जिगर के माध्यम से घटित होना सोचना, योजनाएं बनाना, विचार करना, प्रशासन, चाहिए। केवल तभी विराट शक्ति दूसरा रूप धारण ये सभी कार्य वे करते हैं । लीला के रूप में, हर करती है। विनाश के शस्त्र, क्षमा के शस्त्र बन कार्य खेल मानकर किया जाता है क्योंकि वे स्वामी हैं और 'सूत्रधार' भी जो मूक अभिनेता की तरह से तारों को झंकृत करते हैं। जाते हैं। सभी प्रकार की विनाशकारी शक्ति रचनात्मक शक्ति बन जाती है मानो युक्ति-पूर्वक इसका रुख बदल दिया गया हो। अंक : 9& 10 - 2006 चैतन्य लहरी 30 जैसे मैंने अभी इन्हें एक युक्ति बताई थी किस प्रकार इन गुरुओं से युक्ति का उपयोग करें उनके अन्दर की शक्ति को उन्हीं के विरुद्ध मोड़ा के पश्चात् किसी भी व्यक्ति को ये मूल्य प्राप्त हो जाता है और इस मूल्य (महत्व) के कारण उसका सम्मान होता है, उसे प्रेम प्राप्त होता है और यदि वह सच्चा सहजयोगी है तो उसे श्रेष्ठतम मान प्राप्त होता है। जा सकता है, जैसे कहा गया है कि उनके दाँत उन्हीं की गर्दन में गड़ा दो, उन्हीं के गले में गड़ा दो । उनके दाँत तोड़ देने की अपेक्षा उन दाँतों को उन्हीं के गले में गाड़ दो। आप यदि ऐसा कर आज आपको ये समझ लेना चाहिए कि विराट शक्ति-हम विराट शक्ति की करने सकते हैं तो जहाँ तक हम पर उनके प्रभाव का पूजा वाले हैं जिसने फल दिए हैं। इसके परिणाम स्वरूप प्रश्न है, कोई समस्या नहीं है क्योंकि आप अधिक शक्तिशाली हैं, अधिक युक्तियुक्त हैं । ये भिन्न चर्च, कट्टरवाद, अनीश्वरवाद, साम्यवाद तथा सभी वाद निष्क्रिय हो जाएंगे क्योंकि इन सबको इसी में अपना हित नजर आएगा, परन्तु विराट शक्ति ने अब वह रूप धारण कर आपको तो वह बनना है सबसे बड़ी बात जो व्यक्ति ने जाननी है, वह है पृथ्वी माँ की ओर झुकना, विनम्र होना। अन्दर पूर्ण विनम्रता का होना वास्तव में आपको सहजयोग के फलों का पूर्ण लिया है वैसे ही जैसे पेड़ जब बड़ा होता है तो ऊपर की ओर बढ़ता है परन्तु जब ये फलों से लद जाता है तो नीचे की ओर झुकता है। पहले तो ये अपने फूलों के कारण आकर्षित करता है, अपनी लकड़ी के कारण तथा शरीर के अन्य भागों के कारण। वृक्ष की इन खूबियों के कारण लोग इन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु जब वृक्ष पर फल आते हैं तो लोग इनकी रक्षा करना चाहते हैं, विनम्रता से पेड़ नीचे की ओर झुक जाता है और मूल्य प्रदान करेगा । जो सहजयोगी अपनी शेखियाँ बघारते रहते हैं वो ऐसे फल की तरह से हैं जो पेड़ पर ही जाते हैं केवल उन्हीं नष्ट हो रहा है। जो नीचे झुक फलों को पका हुआ माना जाता है, उनको नहीं जो बल देकर कहते हैं कि वे सबसे ऊँचे हैं। परन्तु यह बहुमूल्य बन जाता है। तो आप लोग फल हैं, वह वीराटांगना शक्ति हैं, आप फल हैं। आप इतने बहुमूल्य है कि जो लोग परमेश्वरी शक्ति को इस पृथ्वी से मिटाना कहीं ऐसा न हो कि नकारात्मक लोग इस बात का लाभ उठा लें और कहें कि क्योंकि वे विनम्रता दिखाते हैं इसलिए वे अच्छे हैं। ये कोई तर्क नहीं है। कुछ लोग विनम्र होने का दिखावा करते हैं, कुछ सड़े हुए फल भी झुक जाते हैं। परन्तु पका हुआ फल अपने वज़न से अपनी विनम्रता दर्शाता चाहते थे, नष्ट करना चाहते थे, वो अब सोचेंगे कि इन फलों से (योगियों से) उन्हें कुछ लाभ उठाना हैं तो आज इस विराट शक्ति ने आपकों महान मूल्य प्रदान किया है क्योंकि लोगों को नज़र आता है कि किसी सहजयोगी को साथ रखना कितना है। यह गुरु तत्व का वज़न है। अतः विराटांगना शक्ति से फल रूप में मंगलमय होता है! आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने चैतन्य लहरी। अंक : 9& 10 2006 31 विकसित होने की शक्ति आपको प्राप्त होती है और तब आप गुरुतत्व से आशीर्वादित होते हैं। जो लोग को प्राप्त करना है जो अन्ततः 'माधुर्य-शक्ति' बन अभी भी बेहतर धूप, बेहतर जल और अन्य चीजों को प्राप्त करने में लगे हुए हैं, वे अभी तक परिपक्व नहीं है क्योंकि फल को न तो पृथ्वी मीठा हो जाता है । इसी प्रकार से आपके पास भी माँ से कुछ चाहिए न ही अन्य तत्वों से ये तो सभी कुछ बहुत मधुर होना चाहिए। श्रीकृष्ण की समर्पित हो जाता है, झुक जाता है, पृथ्वी माँ के सारी लीला. उनके सारे नृत्य का संचालन भी यही सम्मुख झुक जाता है। अतः जो सहजयोगी माँ से माधुर्य शक्ति कर रही थी। उनकी सभी कथाएं प्रश्न किए चले जाते हैं, उनके सम्मुख निजी यदि आप पढ़ें तो ये माधुर्य शक्ति के अतिरिक्त समस्याएं, मूर्ख धारणाएं, नकारात्मकता लाते कुछ भी नहीं, गोप-गोपियों के साथ, अन्य ऊपर उठना है और इस विराट शक्ति के पूर्णत्व जाती है। 'मधुर' शब्द अंग्रेजी भाषा में नहीं है। परन्तु इसका अर्थ है मिठास की शक्ति । जैसे फल हुए सहजयोगियों के साथ, उनकी कथाएं हैं, वो सब अभी तक फल नहीं बने। ा परिपक्व व्यक्ति तो वो हैं जो समर्पित हो अतः अन्य सहजयोगियों को, दूसरे लोगों जाते हैं, पृथ्वी माँ के सम्मुख झुक जाते हैं। अतः विनम्रता अपना आंकलन करने का सर्वोत्तम मापदण्ड को नहीं, प्रसन्न रखकर आपको अपनी माँ को प्रसन्न रखना है। ये बहुत महत्वपूर्ण हैं आज पूजा को संक्षिप्त करने जा रहे हैं, इसी कारण ऊपर (की मंजिल पर) अधिक समय लगा इसे छोटा करने के लिए तो खोए हुए समय को हमेशा- हमेशा के लिए पा लें। है और सभी कुछ अपनी माँ की गुरुत्व शक्ति पर छोड़ देना ताकि वह आपके लिए कार्य कर सके। अपनी सभी छोटी-छोटी चिन्ताओं को पीछे छोड़ते हुए आपने विक्षिप्त करने वाली इन शक्तियों से करें। परमात्मा आप पर कृपा ताक ५ TIE विशुद्धि चक्र ा पतम विएना - 4.9.1983 (परम पूज्य श्रीमाताजी का पूजा-पूर्व प्रवचन) व्यक्ति की शक्ति उसकी वाणी में विशुद्धि चक्र से अमेरिका जाने से पूर्व मैं विशुद्धि चक्र और हमारे अन्तःस्थित श्री कृष्ण तत्व के बारे में कुछ और बताना चाहती थी जिनेवा की पहली पूजा में मैंने इसके बारे में काफी बताया था परन्तु इसका कोई अन्त नहीं है नि:सन्देह, क्योंकि ये विराट का चक्र है। परन्तु व्यक्ति को ये बात समझनी है कि श्री कृष्ण का सन्देश या समर्पित होना, स्थूल अर्थं में हम समर्पण का अर्थ वैसे लेते हैं जैसे एक शतरु आती है। परन्तु यह एकदम सख्त भी हो सकती है। ये शक्ति एकदम सख्त भी हो सकती है। मान लो आपके पास एक बहुत शक्तिशाली हथियार है परन्तु यदि आप उसे उठा ही नहीं सकते तो ऐसे हथियार के होने का क्या लाभ है? यह 'श्रीमान अहं इस हथियार को जाम मशीनगन की तरह से सख्त और भारी बनाने का प्रयत्न करता है। दूसरे शत्रु के सम्मुख समर्पण करता है। तो जब भी उन्होंने यही बात कही कि " समर्पण शब्द बोला जाता है, हमारे मन में एक अपना अह मुझे समर्पण कर दो," ताकि जब आप किसी मन्त्र या शब्दों का उच्चारण करें तो वे प्रभावशाली, अच्छे, धारणा बन जाती है कि हमें किसी अन्य के प्रति कुछ समर्पण करना है। परन्तु श्री कृष्ण ने जब समर्पण की बात की थी तो उन्होंने कहा था 'अपने शत्रुओं को मुझे समर्पित कर दो, ताकि मैं आपको इनसे मुक्ति दिला दूँ।" असरदार और कुशल हथियार बन सकें। जब हम बात करते हैं तो, आइए देखते हैं, किस प्रकार आपका अहं आपकी बातों से झलकता है, ताकि आप ये जान सकें कि 'मुझे किस प्रकार हमारा सबसे बड़ा शत्रु अहं है अहं से सम्बोधित करना है और किस प्रकार मेरा आँकलन अन्य सभी समस्याओं का आरम्भ होता है क्योंकि - हमारी उत्क्रान्ति में अहं सबसे बड़ी बाधा है और जैसा हम जानते हैं अहं विशुद्धि चक्र से आरम्भ करना है उदाहरण के लिए मेरे सम्मुख बहुत ज्यादा गर्दन हिलाना, इस बात की निशानी है कि श्रीमान अहं बिना बात के सिर हिला रहे हैं । जैसे बहुत से लोगो में आदत होती है यदि उन्हें हाँ होता है तथा विशुद्धि चक्र ही इसे सोखता है। कहना हो तो वे इस शब्द को दस बार कहेंगे। इसकी कोई आवश्यकता नहीं है विनम्रतापूर्वक केवल एक बार सिर हिलाकर कहें "हाँ श्रीमाताजी" ये ठीक है। ये समझते हुए कि वहाँ श्री कृष्ण बैठे हुए हैं, सम्मान-पूर्वक आप अपनी गर्दन को हिलाएं, गरिमापूर्वक। हमेशा हम इस बात को भूल जाते हैं और किसी से भी बात करते हुए हम अपने आपको दर्शाने के लिए गर्दन हिलाने लगते हैं। गर्दन को तो आइए देखें कि विशुद्धि चक्र किस्, प्रकार बना है। जिन भी सुरों का हम उपयोग करते हैं वे सब विशुद्धि चक्र से आते हैं । और जैसे देवनागरी भाषा में है - अं, अः भी यही हैं। स्वर के সव बिना आप किसी भी शब्द का संकलन नहीं कर सकते, यह इतना महत्वपूर्ण है । स्वर के बिना व्यंजन दुर्बल होता है, शक्तिहीन होता है। अतः चैतन्य लहरी अंक : 9& 10 -2006 33 मधुर कि किसी का दिल न दुखे। और आप हैरान होंगे कि बिना किसी देरी के विशुद्धि इतनी मधुरता पूर्वक बर्ताव करने लगेगी क्योंकि भूतों को मधुरता अच्छी नहीं लगती वे झगड़ालू होते हैं, कठोर होते हैं, और हमेशा वे ऐसा कुछ कहने का प्रयत्न करते हैं जिससे दूसरों को चोट पहुँचे। हम इस प्रकार हिलाते हैं कि दूसरे व्यक्ति पर । इसका रोब पड़े अब एक और तरीका है जिसमें मुझसे बात हुए आप कहते हैं "नहीं श्रीमाताजी"| आम बात है, मैं यदि कुछ कहती हूँ तो लोगों की प्रतिक्रिया ये भी हो सकती है, "नहीं श्रीमाताजी"। आखिरकार आप देखते हैं कि प्रगति चल रही है और जब मैं बोलती हूँ तो ये मन्त्र होता है, और जब करते दाईं विशुद्धि को समर्पण द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। वास्तव में आरम्भ में आप अपना अहं समर्पित करते हैं। इस अहं का जब मैं नहीं बोलती तो मन्त्र-प्रवाह हो रहा होता है और आप समर्पण करते हैं तो यह समर्पण हृदयपूर्वक होना चाहिए. ये केवल जुबानी जमा खर्च नहीं होना चाहिए। आपके हृदय से "अब मुझे इस अहं की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं सच्चाई चाहता हूँ।" मैं यह सच्चाई देखूं, इसे महसूस करूं, और इसका अचानक आप अपने "नहीं श्रीमाताजी" के साथ आ जाते हैं और पूरे वातावरण में एक तरंग की रचना कर देते हैं। उस समय आप यदि केवल मुझे सुने कि मैं क्या कह रही हूँ तो मेरा कथन ही इसे कार्यान्वित कर देगा। आपको नहीं करना पड़ेगा। कुछ आनन्द लू।" एक बार हृदय से जब आप ऐसा करने लगेंगे तो आपको हैरानी होगी कि आपकी आवाज मधुर हो जाएगी इसके अतिरिक्ति आपकी आवाज़ में परमेश्वरी शक्तियाँ प्रवाहित होने लगती हैं। यही बात हम कहते हैं कि अब आप में वाकू-शक्ति आ गई है, अर्थात वाणी की शक्ति ।" एक और तरीका आपकी वो शैली है जिसमें आप मुझसे बात करते हैं। इसमें भी मैं आपकी दाईं विशुद्धि को कार्य करते हुए पाती हूँ। ऐसा तब होता है जब हम आम-तौर पर एक दूसरे से बात करते हैं, हमें यदि हॉ कहना होता है तो हम जब आप अहं समर्पण करते हैं तब कहते हैं, "मैं कुछ नहीं कर रहा, आप ही सभी कुछ कर रहे हैं।" नन्हीं बूंद अब सागर बन गई है और आपकी वाणी में अब सागर की शक्ति उत्पन्न हो कहते हैं "हूँ-हूँ। यहाँ पर ए-ए कहना आम बात है। इस शैली में वे कहते हैं हूं-हूं और इससे भी अधिक वो कहते हैं "मं-मं" मानो आप इसे स्पष्ट देख रहे हैं इसमें आपको कुछ मिल नहीं रहा होता गई है। परन्तु आप इसे बराबर के दबाव में प्रवाहित करने का प्रयत्न कर रहे होते हैं। दूसरी बात ये है आपने अहं समर्पिंत करना है, मिथ्याभिमान समर्पित करना है। विनम्रता, विशुद्धि के अहं पर विजय पाने का सर्वोत्तम मार्ग है दूसरों से बात-चीत करते तौर तरीके विकसित करें, इतने मिथ्याभिमान बहुत प्रकार का हो सकता है, उन चीज़ों का जो पूर्णतः बनावटी होती हैं परमात्मा हुए ऐसे मधुर अंक : 9 & 10 -2006 34 चैतन्य लहरी रहते हैं। आप जानते हैं कि इन विवेकहीन ईष्ष्याओं का कोई मूल्य नहीं के सम्मुख आपकी सम्पत्ति कौन सी है? आपका पैसा क्या है? आपका पद क्या है? आपका न इस संसार में, न उस संसार में। आश्चर्य की बात तो यह है कि परिवार क्या है? शिक्षा क्या है? परमात्मा के सहजयोगियों में एक दूसरे के प्रति ईर्ष्याभाव है। मैं अभी तक नहीं समझ सकी कि ऐसा किस प्रकार सम्मुख ये सभी चीजें मूल्यहीन हैं। अतः व्यक्ति को महसूस करना है कि यदि हम परमात्मा की सम्पत्ति है तो हमें केवल एक ही चीज़ पर गर्व हो सकता है आप धूप में खड़े हैं और अपनी होना चाहिए कि उनका चैतन्य हमारे माध्यम से प्रवाहित होता है अर्थात उन्हें (परमात्मा) हम पर छाया से ईष्ष्या कर रहे हैं। किसी की छाया बड़ी है, किसी की छोटी है, इस कारण से आपको एक दूसरे से ईष्ष्या है। कभी-कभी मैं किसी एक व्यक्ति को तोहफा देती हूँ और दूसरे को नहीं दे पाती तो उनमें ईष्ष्या पैदा हो जाती है । कभी तो मैं केवल गर्व है। मान लो आप मुझे कोई फल देते हैं या गणेश या कुछ और देते हैं तो यह बहुमूल्य बन जाता है क्योंकि मैंने इसे छू लिया है और इसमें चैतन्य आ गया है। उदाहरण के रूप में यदि धातु उन लोगों को समय देती हूँ जो वास्तव में भटक रहे हैं। अतः व्यक्ति को समझना है कि हमारे को लें, तो इस गणेश का मूल्य कुछ भी नहीं है। ईष्ष्या के भाव मात्र मूर्खता हैं। मैं उन लोगों की बात परन्तु कला की चीज़ बनने के बाद इसका मूल्य नहीं समझ पाती जो आत्म साक्षात्कारी नहीं है फिर भी उन्हें सहजयोगियों से ईष्ष्या है और वे उन्हें गिराने का प्रयत्न करते रहते हैं। ईर्ष्याल बनने की अपेक्षा उन्हें सहजयोगियों जैसा बनना चाहिए। कुछ बढ़ गया है। इस संसार में कलात्मकता से चीज़ों के मूल्य बढ़ते हैं, परन्तु परमात्मा के साम्राज्य में या आध्यात्मिक संसार में, या परमेश्वरी संसार में गणेश जी का उसी गणेश का, उससे मूल्य, हजारों गुणा बढ़ जाएगा जितना वह उस समय था, जब वह केवल एक कलाकृति था। अतः अब जो आपको दिया जाएगा वह बहुत मूल्यवान है। अंतः बनावट और बनावटी चीज़ों का अहं और मिथ्याभिमान मानवकृत है, बनावटी है और यह समर्पित किया जाना चाहिए क्योंकि यह मात्र एक मिथक है। सहजयोग में भी मैंने कुछ अत्यन्त अटपटी चीजें घटित होते देखी हैं, इसका उदाहरण ये है कि एक व्यक्ति मेरे पास आया, वह बहुत नाराज़ था कि "श्रीमाताजी आपने उस व्यक्ति-विशेष को इतना समय दिया, मुझे बहुत जलन हो रही है और आपने कहा, "कि मुझे भी उस व्यक्ति जैसा होना चाहिए जिससे मुझे ईष्ष्या है । मैं जानना चाहूँगा कि जिस व्यक्ति को आपने इतना समय दिया, मैं उस जैसा कैसे बनू? मैंने कहा, "वह व्यक्ति वास्तव में मानव-मस्तिष्क में ईष्ष्यालुपन दूसरों से ईष्ष्या करना एक अन्य दुर्गुण है। यह विवेकहीनता पागल है! क्या आप भी पागल होना चाहते हैं? क्या के कारण आता है। परमात्मा के चरण कमलों में आपमें बिल्कुल भी विवेक नहीं है?" सहजयोगी की विशुद्धि यदि ठीक है तो उसमें विवेक होना ही यदि आप अपनी ईष्ष्याएं समर्पित कर दें । मेरा अभिप्राय है कि आप सभी प्रकार की मूर्खताएं करते 16 चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 35 कहते हैं, "मेरी नौकरी मेरा व्यापार, मेरा उद्यम|" चाहिए। आपको ये बात समझनी है कि मैं जो भी कहती हूँ उसका उपयोग विवेकपूर्वक उस दिन जिनेवा में एक सज्जन बहुत कष्टकर थे किया जाना चाहिए, आँखे बन्द करके नहीं। कुछ क्योंकि वो अपनी सभी चीज़ों के प्रति बहुत चेतन हैं । अतः आप समझ सकते हैं कि जो कुछ भी मैं कहती हैं बिना विवेक के बेतुके ढंग से उसका उपयोग करना आपकी उत्क्रान्ति के लिए हानिकारक भी हो सकता है। अतः लालच। अन्य महिलाओं के प्रति अधिक लिप्त होना, कामुकता और वासना में बहुत कामुकता के साधनों को बहुत अधिक महत्व देना। अहं की एक अन्य शाखा भी है - गर्म - इससे केवल सहजयोगियों के लिए ही नहीं पूरे मिज़ाज़ होना। नि:सन्देह इसका उपयोग उन लोगों सहजयोग के लिए भी बड़ी-बड़ी समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। इस प्रकार की वासनात्मकता की अभिव्यक्ति दोनों प्रकार के लोगों में होती है, उन लोगों में जो संसार में निरंकुश जीवन जी रहे हैं तथा उन लोगों में भी जो बहुत अधिक दबे हुए हैं। मैं ऐसे लोगों को जानती हूँ जिनके बारे में माना जाता है कि वे तथाकथित धार्मिक वातावरण में पले हैं, परन्तु महिलाओं का संग मिलते ही, अचानक वे बुरी तरह से उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। निा के विरुद्ध होता है जो आपकी माँ का अपमान करने का प्रयत्न करते हैं। उनके विरुद्ध आपको करना पड़ता है। जैसा ईसा-मसीह ने कहा था इसका उपयोग उनके लिए किया जाना चाहिए जो आदि शक्ति के विरुद्ध कार्य करते हैं। इसी प्रकार से आप लोगों को भी चाहिए कि मेरे विरुद्ध किसी भी प्रकार की हिमाकत को बर्दाश्त न करें, इतनी सी को भी नहीं। परन्तु अन्य मामलों में आप दूसरे सहजयोगियों को सहन कर सकते हैं। आपकी अबोधिता की परिपक्वता का विकास 'लालच" हमारा एक अन्य शत्रु है। मेरा अभिप्राय है पदार्थों का लालच तथा मानवीय लालच होना आवश्यक है, यही आपको धार्मिक व्यक्ति बनाए रखती है - पुरुषों और महिलाओं के साथ अपनी सीमा पहचानने की अबोधिता । बच्चों को, भी, जैसे अपनी पत्नी और बच्चों से लिप्सा, इस चीज से लिप्सा, श्रीमाताजी पर अधिकार । इसका भी समर्पण किया जाना चाहिए। सहजयोगियों में यदि आप देखें तो वे भली-भांति जानते हैं कि किसी महिला या पुरुष से किस प्रकार व्यवहार ये ० करना है। अतः अबोधिता मूर्खता नहीं है। ये पूर्ण विवेक है और पूर्ण परिपक्वता है। इसे इस बात का ज्ञान है कि बिना इन शत्रुओं में लिप्त हुए किस प्रकार लोगों के बीच रहना है। इन रिपुओं में से हर एक में, न केवल एक व्यक्ति परन्तु अरबों अरब लोगों को नष्ट करने की शक्ति है अतः अपने लालच का होना बहुत भयानक हो सकता है। मैरा कालीन है. ये मेरा कैमरा है. ये मेरा टेपरिकार्डर 1 है! एक बार जब आप समझ लेंगे कि ये सारी वस्तुएं असत्य है तो आप जान जाएंगे कि सत्य के सिवाए कुछ भी मेरा नहीं है । मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानती हूँ जों विशुद्धि चक्र के पूर्ण स्वभाव का विकास करने के चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 -2006 36 कि "सभी ध्मों को त्यागकर मेरे प्रति समर्पित हो लिए सर्वोत्तम उपाय है - सभी कुछ साक्षी भाव, निर्लिप्त मस्तिष्क से देखना और अपनी माँ जाओ।" हमारे देश में जो धर्म है, जैसे हम कहते (श्रीमाताजी) के लिए अपने हृदय में प्रेम विकसित हैं "पितृ-धर्म है, पिता के प्रति आपके कर्तव्य, करना ताकि वे इन सभी शत्रुओं से आपको इस प्रकार से मुक्त कर सकें ताकि जब भी इनसे आपका सामना हो तो आप उनसे कहीं शक्तिशाली हों। मातृ-धर्म, माता के प्रति आपके कर्तव्य, पति के प्रति कर्तव्य और इसी प्रकार सभी सम्बन्धों के अनुसार आपके धर्म। परन्तु जब वे कहते हैं कि "इन सभी धर्ों को त्यागकर", तो उनका अर्थ है "मेरे प्रति अपने धर्म का ज्ञान आपको होना चाहिए- परमेश्वर के प्रति । आज श्रीकृष्ण नहीं है, मैं ही श्रीकृष्ण हूँ, अतः आपको इस बात का ज्ञान होना मानसिक रूप से मैं सोचती हैँ, अधिकतर सहजयोगी समझते हैं कि परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी होना एकमात्र उपाय है। मानसिक रूप से, तार्किक रूप से। चाहे आप किसी चीज़ को चाहिए कि मेरे प्रति आपके क्या कर्तव्य हैं। मैंने केवल अपनी भाषा बदली है। वे तो अपनी अंगुली मानसिक रूप से समझ भी लें तो भी यह आपका उठाकर कह दिया करते थे, "सभी कुछ त्यागकर अन्तर्जात स्वभाव नहीं है। तो जैसा मैंने कल आपको बताया था किसी चीज़ को जब आप मानसिक रूप से स्वीकार कर लेते हैं परन्तु बहुत बड़ा प्रवचन- देकर आपको रास्ते पर लाती हूँ। उसके अनुरूप कार्य नहीं कर सकते, तो इस मामले में, आपके अन्दर दोषभाव आता है। ऐसी स्थिति में आप अपने गुरु बने और स्वयं को समर्पित होकर प्राप्त किए जाने वाले लक्ष्य से दण्डित करें, तथा इसे अपना अन्त्जात स्वभाव बनाने का प्रयत्न करें। यह एक अवस्था है जो मिल सभी लोगों पर यह भली -भांति कार्यान्वित होगा, जाती है। एक बार जब ये प्राप्त हो जाती है तो और मुझे विश्वास है कि एक दिन मैं पाऊंगी कि मेरे प्रति समर्पित हो जाओ। मैं वैसे नहीं करती, कार अतः ये चीजें आपके चित्त को, मेरे प्रति हटाकर दूसरी ओर न ले जाएं। यहाँ उपस्थित तुरन्त आप देखने लगते हैं। मैं जानती हैँं कि समर्पित कौन है। सभी जर्मन लोग परमात्मा के चरण-कमलों में समर्पित हो गए हैं । ला तो श्रीकृष्ण ने कहा है : सर्वधर्माणां परित्यज्य, मामेकम शरणम व्रज" उन्होंने कहा है जय परमात्मा आप पर कृपा करें। पे सहजयोग और आरम्भिक छन्द छOC (निर्मला योग - 1983) (रूपान्तरित) हा अब जब श्रीमाताजी ने हमें बहुत से सुन्दर बच्चों से आशीर्वादित कर दिया है, एक बार फिर न कर दो निर्माण इसका लकडियों और पत्थरों से, लकड़ियों और पत्थरों से, लकड़ियों और पत्थरों से निर्माण कर दो इसका, लकडियों और पत्थरों से, ओ मेरी निष्कलंक सुन्दरी। अपने बचपन के गानों को स्मरण करने पर हम युगों पुराने आरम्भिक छन्द गाने शुरु कर रहे हैं। एक बार हमारी प्रिय श्रीमाताजी ने बताया था कि श्रीमाताजी ही निष्कलंक सुन्दर महिला हैं। किस प्रकार ये आरम्भिक छन्द उनके तथा सहजयोग लन्दन के विषय में एक अन्य अत्यन्त के कुछ पक्षों का वर्णन करते हैं। ये लेखक इन छन्दों में सहजयोग के अन्य दृष्टिकोण खोजने की उपयुक्त आरम्भिक छन्द भी है यह निम्बुओं (क्योंकि अभी तक भी इंग्लैण्ड में मिर्चों के बारे में कोई न जानता था) और घण्टियों के बारे में है जिन्हें प्राचीन काल से आसुरी शक्तियों को हराने के लिए धृष्टता कर रहा है। आशा है कि उसके विचार सभी माता-पिताओं तथा अन्य लोगों के लिए भी आनन्दमयी होंगे। उपयोग किया जाता है। इस गाने में लन्दन शहर वि के चर्चो की घण्टियों का सन्दर्भ है, लन्दन शहर आजकल विश्व की आर्थिक राजधानी है तथा अन्य नीचे तीन छन्द दिए गए हैं जिनके विषय में स्वयं श्रीमाताजी ने बतायाः नव-यूरोशलम लन्दन, इंग्लैण्ड से आरम्भ होता है जो ब्रह्माण्ड का हृदय चीज़ों के साथ-साथ यहाँ पर नाभि की पकड़ भी । बहुत तेज है। "सन्तरे और निम्बू, कहती है घण्टियाँ सेंट क्लेमेन्टरस (St. Clement's) की । है और आजकल श्रीमाताजी का गृह भी है। परन्तु जब श्रीमाताजी लन्दन में अपने बच्चों को बुलाने के लिए आई थी, तब उनमें से बहुत से, 'पतन' (Falling down) की स्थिति तक क्षत हो चुके थे, और उनका पुनर्निर्माण करने के लिए श्रीमाताजी मुझ पर पाँच दमड़ियों का ऋण है तुम्हारा, कहती है घप्टियाँ सेन्ट मार्टिन (S. Martin) की । कब लौटाओगी मुझे ये दमड़ियाँ? कहती हैं घण्टियाँ, प्राचीन बैले (Bailey) की। को हर सम्भव उपाय अपनाना पड़ा। बहुत समय पूर्व किसी ने इसके विषय में एक गाना बनाया था अमीर होने के बाद, कहती है घण्टियाँ शोरेडिक (Shoraditch) की। जिसे बच्चे अब भी गाते हैं। "लन्दन-पुल गिर रहा है, गिर रहा है, गिर रहा है, लन्दन-पुल गिर रहा है औ मेरी निष्कलंक सुन्दरी सहायता करो इसका पुनर्निर्माण करने में, पुनर्निर्माण करने में, पुनर्निर्माण करने में ओ निष्कलंक सुन्दरी, सहायता करो, इसके पुनर्निर्माण करने में कब होगा ऐसा? पूछती हैं घण्टियाँ स्टेपनी (Stepney) की । मैं नहीं जानती, कहती हैं विशाल घण्टी बौ (Bow) की । " तीसरा छन्द जिस पर श्रीमाताजी ने टिप्पणी की चैतन्य लहरी अक : 9 & 10 - 2006 38 पूर्वास्थिति में न ला सके उन्हें" (All the King's horses and all the King's men थी, एक प्रकार से चेतावनी है, परन्तु यह माधुर्य से परिपूर्ण है। ये इस प्रकार है : couldn't put Humpty together again) यहाँ हम्पटी डम्पटी अहं के प्रतीक हैं बाबा ब्लेक 'महिला पंछी (Lady bird) महिला पंछी, महिला पंछी उड़ जाओ घर की ओर, घर में तुम्हारे आग लगी, बच्चे तुम्हारे चले गए।" की शीप एक अन्य' लोकप्रिय छन्द हैं। बा-बा काली भेड़, म क्या तुम पर कुछ ऊन है। हाँ श्रीमान, हाँ श्रीमान, तीन बोरे भरे हुए. श्रीमाताजी ने हमें बताया था कि इस गाने की महिला पंछी (Lady bird) वे स्वयं हैं। महिला पंछी लाल रंग का छोटा सा भृंग (भंवरे सा कीड़ा) होता है जिसकी पीठ पर सात काले धब्बे होते हैं। (इंग्लैण्ड और हिमालय के देशों सहित अन्य बहुत से देशों में ये आमतौर पर पाया जाता है। गुलाब एक स्वामी के लिए एक स्वामिनी के लिए एक उस नन्हें लड़के के लिए, गली के छोर पर रहता है जो।" ोन काली भेड़' उस अटपटे, सनकी व्यक्ति का वर्णन करने के लिए उपयोग किया गया है जो। स्वीकृत मानदण्डों में खरा नहीं उतरता । पश्चिमी। की झाड़ियों को नष्ट करने वाले जूँ जैसे कीड़े ( Aphids) को खाना इसे अच्छा लगता है। अतः यह मालियों का मित्र है छन्द की दूसरी पंक्ति पश्चिमी सहजयोगियों के लिए अत्यन्त स्पष्ट है। हैं ये छन्द शायद साधक प्रायः 'काली भेड़ सम इसके कारण की व्याख्या करता है। ऊन मिथ्या बन्धनों और अनावश्यक विचारों का ढेर है जिसके इन योगियों ने श्रीमाताजी के बच्चों पर हुए भयानक आक्रमणों को देखा है जिसके कारण वे सहजयोग माध्यम से हम अपने अहं और प्रतिअहं का प्रदर्शन करते हैं। एक बोरा स्वामी को (दाएं पक्ष को) दिया जाता है, दूसरा के छोर पर रहने वाला नन्हा लड़का निश्चित रूप से श्री गणेश है। को छोड़ तक देते हैं। श्रीमाताजी का घर सम्भवतः स्वामिनी को (बाएं पक्ष को)। गली साधकों का सहस्रार है। साधक जब पहली बार साक्षात्कार के लिए आते हैं तो उनका सहस्रार शीतल होने की अपेक्षा प्रायः जलता हुआ होता है। अत्यन्त घिनौने गाने भी बच्चे काफी जोशोखरोश से और निर्लिप्सा पूर्वक गा लेते हैं। ये अंग्रेजी भाषा में और भी बहुत से आरम्भिक छन्द हैं नीचे कुछ ऐसे छन्द दिए जा रहे हैं जो सहजयोग के विषय में प्रतीत होते हैं। पहला छन्द उसका उदाहरण हैं : "ओ मूर्ख, मूर्ख हंस, कहाँ घूमूँगा मैं? सीढ़ियों के ऊपर और सीढ़ियों से नीचे अपनी स्वामिनी (Lady) के कक्ष में तथा बढ़े हुए अहं के विषय में है। "हम्पटी डम्पटी दीवार पर चढ़ बैठे और बुरी तरह से गिरे" "राजा के सारे घोड़े और नौकर भी मिला मैं वहाँ एक वृद्ध व्यक्ति से प्रार्थना जो करता नहीं। चैतन्य लहरी अंक : 9& 10 - 2006 39 मैंने पकड़ा उसे बाईं टाँग से सीढ़ियों से नीचे फेंका उसे" रौप्य रंग के जायफल (Nutmeg) और सुनहरी नाशपाती (Pear के सिवाय स्पेन के राजा की पुत्री आई मिलने मुझे मेरे इस नन्हें गिरीदार के कारण।" हंस शब्द हँसा चक्र के लिए है, सद्सद् वृक्ष विवेकबुद्धि का स्थान, अर्थात हॅँस, सम्भवतः दूसरी पंक्ति, उस व्यक्ति की ओर इशारा करती है जो गिरीदार वृक्ष कुण्डलिनी है और चाँदी के हँसा चक्र के आस-पास घूमें चले जा रहा है परन्तु रंग का जायफल सम्भवतः चन्द्रमा या चॉँद है जो यह निर्णय नहीं कर पा रहा के सहस्रार में बाएं पक्ष की गरिमा को बढ़ाता है। (जायफल का उपयोग निद्रा की दवाई के रूप में किया जाता है और निद्रा बाएं पक्ष का गुण है।) स्वर्णिम नाशपाती सूर्य का प्रतीक है जिसका स्थान दाई ओर है। पुराने दिनों में स्पेन को महान सम्पदा तथा शानोशौकत का स्रोत माना जाता था इसीलिए स्पेन की राजकुमारी कुछ विशेष चीज़ हो सकती है। हो सकता है कि राजकुमारी श्रीमाताजी की गरिमा का प्रतीक हो, कुण्डलिनी के कारण जो साधक से मिलने के लिए और उसे आत्म-साक्षात्कार या (स्वामिनी के कक्ष में) स्थापित हुआ जाए या नहीं। उसके मूर्खों की तरह से घूमते रहने का परिणाम अन्तिम दो पंक्तियों में प्रकट किया गया है। समाप्त करने से पूर्व दो ऐसे और छन्द हैं जो श्रीमाताजी के बहुआयामी व्यक्तितत्व के दो आयामों का स्तुति-गान करते हैं। पहला श्री आदिकुण्डलिनी के रूप में । "एक गिरीदार फल का वृक्ष था मेरा मोक्ष प्रदान करने के लिए आती हो। फल कोई लगता नहीं था जिस पर जमलि ४ा े ययर शि पुरम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी की कृपा से सुनॉमी से चमत्कारिक सुरक्षा ट] (श्रीमति पुष्पा समादार) के कथनानुसार प्रतिदिन देवी-कवच आवश्यक था। मैं अत्यन्त शान्त थी। उनके फोटो के सम्मुख बैठकर मैंने कहा, श्रीमाताजी, आपकी बेटी आपकी हर इच्छा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने को तैयार है - जैसे राखो वैसे रहूँ।" कोई भी घर में घुसने की हिम्मत न कर पा रहा था, परन्तु मैं बाहर बैठे लोगों के लिए खाना बनाने हेतु अन्दर गई। मुझे पूर्ण विश्वास था कि हम सहजयोगी हैं और हमें कुछ नहीं हो सकता। 26 दिसम्बर 2004 की प्रातः भारतीय महासागर में अंडमान-निकोबार टापुओं सहित अन्य से टापुओं को नष्टभ्रष्ट करने वाली सुनॉमी बहुत त्रासदी से हम सब भली भांति परिचित हैं कोई न जानता था कि सुनॉमी की आसुरी विध्वंसक लहरों की क्रूरता ताण्डव के बीच भी परमेश्वरी माँ ने टापु पर बसे अपने सभी सहजयोगी बच्चों की रक्षा की। से किस प्रकार बचा जाए! परन्तु उस अण्डमान, पोर्टब्लेयर के ग्यारा चर्मा (Gyara Charma) गाँव की सहज योग ध्यान केन्द्र समन्विका योगिनी श्रीमती पुष्पा समादार इस विध्वंसक त्रासदी की साक्षी थीं। इस घटना के अपने अनुभव का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है:- एक सहजयोगी समुद्रतट के निकट अपने भाई के घर में था उसने तीस फुट ऊँची सुनॉमी आसुरी लहर को पूरा तट लीलते हुए देखा। उसने श्रीमाताजी के रक्षाकरी' रूप को तथा शरण लेने के लिए केन्द्र की ओर दौड़ा। महसूस किया "रविवार 26.12.2004 की सुबह थी। अपने अगले तीन महीने उसने शान्तिपूर्वक ध्यानकेन्द्र में बेटे के साथ मैं परम पूज्य श्रीमाताजी के चरण- कमलों का ध्यान कर रही थी मुझे एक जोरदार झूले का अहसास हुआ जिसे आरम्भ में, गलती से, अगले दिन मैंने देव की कुमकुम, हल्दी, जल मैं चैतन्य लहरियाँ समझ बैठी । परन्तु आँखे खोलने पर मैंने सीमेन्ट की चद्दरों की अपनी छत के एक पाईप को चरमराते पाया। मैंने अपने बैटे को झकझोरा। हम 'देवी कवच' पढ़ रहे थे, मेरा बेटा कहने लगा, "मम्मी, चिन्ता मत करो, श्रीमाताजी हमारे साथ हैं।" हमने अपना पाठ समापन किया। बिताये। 1 सागर को निरन्तर दहाड़ते हुए देख कर, समुद्र तथा पुष्प आदि से पूजा की और अपनी अन्तर-आत्मा से निकले - 'समुद्र-शान्त तथा भूमिकम्प-शान्त' मन्त्रों का उच्चारण किया परिणामस्वरूप यहाँ समुद्र शान्त हो गया। तीन दिनों के पश्चात जब मैं कार्यालय गई तो मेरे सहकर्मियों ने पूछा, "आप किस चक्की का आटा खाती हैं?" मैंने उत्तर दिया, "चक्की अवर्णनीय है क्योंकि ये साक्षात आदिशक्ति हैं मेरी गुरु, श्रीमाताजी निर्मला देवी।" तत्पश्चात्, श्रीमाताजी का एक फोटो लेकर बगीचे में वेदी बनाई, मोमबत्ती जला कर पूरी आवाज पर श्रीमाताजी का वह टेप-प्रवचन सुनने लगे जिसमें उन्होंने सात चक्रों के विषय में बताया है और बीच-बीच में भजन हैं। अण्डमान क्षेत्र में सुनॉमी त्रासदी से लगभग 30-40 हजार लोगों की सभी सहजयोगी अपने पूरे सामान सहित पूर्णतः सुरक्षित रहे।" जय श्रीमाता जी मृत्यु हो गई थी, परन्तु हम सुनॉमी की लहरों का प्रकोप शिखर पर था और अब तक पोर्ट ब्लेयर क्षेत्र को लील चुका था, परन्तु चमत्कार कि यह मोमबत्ती की लौ को न बुझा पाया था। मैंने महसूस किया कि, श्रीमाताजी (रूपान्तरित) ह माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी (डॉ राजीव कुमार) (৪। वें जब्मदिवस समारोह के सुअवसर पर श्री चरणों में समर्पित) माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी तुम पालनहारी, जग की स्खवारी, सब संकट टारी, दुःख भय-भंजनकारी पर मैं क्या जानू ये ऊँची बातें, मेरी तो तू है बस मैय्या प्यारी माँ किस विधि करू स्तुतिं तुम्हारी। देवों के ऊपर पहुँचाया महादेव का मरम जताया, शक्ति शिव का मिलन दिखाया सदाशिव का मार्ग जताया, अन्तर्मन प्रतिबिम्बित करवाया, माँ मैने ये सब बस यूही पाया। मन्त्रमुग्ध में अबोध बालक मैं क्या जानू ये ऊँची बातें मुझे तो भाये तेरी छवि व्यारी तेरी बिन्दिया प्यारी, तेरी महिमा भारी मेरी तो तू है बस मैय्या प्यारी माँ किस विधि करुं स्तुति तुम्हारी। कौन मणिपुर, कैसा अनहद् छोड़ चले हम इन चक्रों के चक्कर सातों स्वर्गो के भी ऊपर, बारह आदित्यों को वश में कर सामूहिकता में पूरे जम कर बस मस्त हुए चैतन्य को पीकर पूर्ण तेरी ममता के आभारी, तुझ पर बलिहारी, तेरे आँचल की छाया व्यारी तृप्त हैं ये तेरे बालक तू राज दुलारी तेरी छवि प्यारी मेरी तो तू है बस मैय्या प्यारी माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी। जय श्री माता जी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् आपको कुण्डलिनी और सहजयोग का बहुत सा ज्ञान प्राप्त हो जाता है परन्तु भक्ति के बिना सन्तुलन प्राप्त नहीं किया जा सकता । आपको भक्ति में डूब जाना है। भक्ति आपकी भावनाओं को समृद्ध करती है। बिना आलोचना किए अन्य सहजयोगियों को महसूस करने का प्रयत्न करें। मैं आप लोगों के अस्तित्व, आपके सौन्दर्य एवं गरिमा का आनन्द ले रही हूँ। मेरी कामना है कि आप भी ऐसा ही कर सकें और स्वयं को समुद्र में पड़ी बूँद की तरह से महसूस कर सर्कें। भक्ति आपकी कोणिकताओं (कमियों) (Angularities) तथा बाधाओं को सामूहिक समन्वयता में विलीन कर देगी।" ा ै परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी (निर्मला योग- 1983, से उद्धृत) रूपान्तरित ---------------------- 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी सितम्बर अक्टूबर : 2006 बा सेर 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-2.txt चै तन्य री ल ह पछ अंक : 9-10 NIRMALA तती IVERSAL PURE र इस अंक में शुद्धिकरण परम पूज्य श्री माता जी लन्दन में 2006 सोमा की हृदयाभिव्यक्ति - चिज़विक 18-6-2006 9. अनौपचारिक विदाई कार्यक्रम यू.के. 10 18-6-2006 विश्व युवाशक्ति की प्रेम-अभिव्यक्ति - यू.के. 17-6-20 10 सर सी. पी. श्रीवास्तव का भाषण - 11 जून, 2006 11 28 जुलाई, 1996 13 गुरु पूजा कबेला 24 गुरु स्तुति श्री कृष्ण पूजा -जिनेवा 28-8-1983 27 ा विशुद्धि चक्र विएना 32 4-9-1983 सहजयोग और आरम्भिक छन्द निर्मला योग 1983 37 सुनॉमी से चमत्कारिक सुरक्षा माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी एक कविता 40 41 DHARMA ৮AHS1N RELIGIO 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-3.txt चै त नय लह री प्रकाशक निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टैक्नोलोजीज़ प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पॉड रोड, कोथरुड पुणे फोनः 020-25285232 411 029 मुद्रक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिज़ाइनर्ज 292/23 औंकार नगर 'बी त्रीनगर दिल्ली- 110035 मोबाइल : 9212238008 आप अपने सुझाव, सदस्यता एवं जानकारी के लिए निम्न पते पर लिखें : श्री जी.एल. अग्रवाल निर्मल इन्फोसिस्टम्ज़ एवं टैक्नोलोजीज़ प्रा. लि. 222, देशबन्धु अपार्टमैंट, कालकाजी, नई दिल्ली-110 019 फोन : 26422054 अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463). ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली-110 034 फोन : 55356811 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-4.txt लि शुद्धिकरण प्रिय पाठक, चैतन्य लहरी, अंक 3-4 (मार्च-अप्रैल) 2006 में, सहज परियोजनाओं की सूची के अन्तर्गत पृष्ठ 22 पर छपी 'निर्मल इन्फोसिस्टम्ज एण्ड टैक्नोलोजीज प्रा। लि., के निदेशक मण्डल में निम्नलिखित परिवर्तन किए गए हैं :- शासी निकाय (Governing Body) परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी अध्यक्षा सर सी.पी. श्रीवास्तव - उपाध्यक्ष श्री मुनीश पाण्डे महाप्रबन्धक (G.M.) जाड इसी अंक के पृष्ठ-24 में 'विश्व निर्मल प्रेम आश्रम परियोजना शीर्षक के नीचे पंक्ति-4 में "गैर-कानूनी' के स्थान पर 'गैर-सरकारी' कर लें। ते रा ॐ **** गं 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-5.txt परम पूज्य श्री माता जी लन्दन में (2006) (लन्दन युवा-शक्ति आश्रम जाकर हमारी परमेश्वरी माँ ने इतिहास बनाया) प्रिय सहजीगण, इस विशेष अनुभव का आनन्द हम आपके साथ बाँटना चाहते हैं। इसलिए आए हैं क्योंकि यहाँ आना उनके लिए आवश्यक था। कल परम पूज्य माताजी और सर सी.पी. लन्दन के युवा शक्ति आश्रम में हमें मिलने तथा आशीर्वाद देने के लिए आए। उनका आगमन वास्तव में आश्चर्यजनक था, वहाँ उनकी उपस्थिति इतनी मनमोहक थी कि इसका वर्णन शब्दों में नहीं वे इस देश में (अर्थात यू.के.) वर्ष 1974 में प्रेम प्रसारित करने के लिए आईं और पाश्चात्य जगत के लिए सहजयोग आरम्भ किया पैंतीस वर्षों तक वे सभी महाद्वीपों में यात्रा करती रहीं। अब वे यह जिम्मेदारी आपको, युवा-शक्ति, (सहजयोग के भविष्य) को सौंपना चाहती हैं।.. किया जा सकता। आश्रम की बैठक में प्रतीक्षा करते हुए, स्थान की कमी के कारण यद्यपि हम भिंचे थे, फिर भी हमारे उत्साह में कोई कमी न "आज यहाँ वे आशीर्वाद देने के लिए आई हैं! वे चाहती हैं कि आप यह जिम्मेदारी सम्भालें और सहजयोग संदेश को फैलाएं।" हुए थी । ज्योंही श्रीमाताजी ने पदार्पण किया, हम सब खड़े होकर "स्वागत आगत" गाने लगे। तब उन्होंने उनकी ओर देखा, और फिर चैतन्य-लहरियों का प्रवाह अत्यन्त तेज मुड़कर हमारी ओर देखा तथा मुस्कराते हुए पूछा: था। कार पहुँची और सभी अंकल-आंटियाँ यह देखने के लिए बैठक में आए कि सभी कुछ ठीक है या नहीं। तत्पश्चात् व्हील चेयर में बैठे हुए. पहले श्रीमाताजी ने प्रवेश किया और उनके बाद "क्या आप सहमत हैं?" .और सभी लोगों ने स्पष्ट और बुलन्द आवाज़ में कहा : "हाँ"! सर सी.पी. आए। ये सब अत्यन्त आश्चर्यजनक था. तब हमें बैठने के लिए कहते हुए श्रीमाताजी ने हिन्दी में कहा, "बैठ जाओ, और हम सब चैतन्य प्रवाह में उड़ रहे थे! श्रीमाताजी हमें देख रही थीं उन्होंने कहा: "यदि आप चाहें तो एक भजन गा सकते हैं।. और निःसन्देह, क्योंकि भजनों की तैयारी की गई थी, हम सब गाने लगे "श्री जगदम्बे आई और हम वहाँ बैठे हुए थे.. और तब हम सबको देखते सर सी.पी. बोले हुए रे, मेरी निर्मल माँ ।" तत्पश्चात् श्रीमाताजी ने थोड़ा "क्या आप जानते हैं कि आज हम यहाँ सा जल पिया। जल का हर घूँट पीने के बाद वे कह रही थीं, "आह!. बाप रे... "आहा" क्यों आए हैं? हम यहाँ इसलिए आए है क्योंकि वे (श्रीमाताजी) यहाँ आना चाहती थीं हम यहाँ ৮ ट 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-6.txt चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 सर सी. पी. ने पुनः बात करते हुए उठाया, निश्चित रूप से हम यहाँ आएंगे।" पुनः कहा, "यहाँ पर ये सब, सहज आन्दोलन, पाश्चात्य सभी लोगों ने तालियाँ बजाई और गाने जगत के लिए आरम्भ हुआ। फिर वे बोले, "हमें आशा है कि आज के दिन 13 जून 2006 को वैसी ही एक नई शुरूआत होगी!" फिर उन्होंने कहा, "अब हम विदा लेंगे".. सभी लोग अपलक उनकी ओर देख रहे थ.. चाहें तो पाँच मिनट में एक और भजन गा सकते हैं। और हम सब गाने लगे, "जागो सवेरा आया 1 "Mataji, Mataji... your face shines like a thousand suns, you have given us more than we could ask for, Bliss and Peace and Harmony". . फिर उन्होंने कहा, "यदि आप बाद में हम सब एक दूसरे की संगति का आनन्द ले रहे थे और, वास्तव में, विश्वास न कर पा रहे थे कि ऐसी घटना भी हो सकती है जो हुई! ने है माता बुलाया है। " उसके बाद चलते हुए उन्होंने कहा, "यू लन्दन से हार्दिक प्रेम (इन्टरनैट विवरण) रुपान्तरित के. में अपने अल्पवास का हमने वास्तव में आनन्द क री हे पम कु पा आ 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-7.txt सोमा की हृदयाभिव्यक्ति चिज़विक- यू.के. 18 जून, 2006 (चिरज़विक में परम पूज्य श्रीमाताजी के घर पर सोमा का एक महीने से अधिक अल्पावास) कर रही हैं। बंगाल मिठाइयों के लिए प्रसिद्ध है, मैं क्योंकि बंगाल प्रदेश से आई हूँ मुझे लगा कि मेरे इस कार्य के माध्यम से श्रीमाताजी कुछ कार्यान्वित एक महीने से भी अधिक समय तक श्रीमाताजी के लिए खाना बनाने का अवसर प्राप्त होना मेरे लिए बहुत बड़ा वरदान था। मेरे जीवन कर रही हैं। का यह बहुमूल्यतम समय था। अगले दिन जब हम श्रीमाताजी के घर पर आए तो 5 मई, सहस्रार दिवस, से इसका आरम्भ के भानु ने पूछा: तो वह लड़का कहाँ है जिसने इतनी अच्छी तरह 'माता का करम' गाया था? सर सी.पी. हुआ। पूजा स्थान से मैं और प्रमिला माँ के घर पर खाना बनाने के लिए गए। ज्योंही हम वहाँ पहुँचे सक्सेना आण्टी (भारतीय रसोई प्रभारी) ने कहा, कि आज सहस्रार दिवस है, अतः देवी भोग उसके गाने की शैली बहुत पसन्द आई थी। अतः के लिए सभी सम्भव अच्छे-अच्छे भोज बनाओ। हृदय पूर्वक हमने बहुत सारी चीजें बनाई। शाम को कुछ अन्य आस्ट्रियन भाई-बहनों के साथ हमें सुन्दर बुद्ध पूजा की थी। रोहित भी वहाँ पर श्रीमाताजी के साक्षात् में एक छोटी सी पूजा में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ हमने पी. के सम्मुख पुनः माता का करम' गाया। उसे यहाँ चाहते हैं। यह रोहित था, सर सी. पी. को रोहित को आस्ट्रिया से हवाई-जहाज द्वारा वापिस आना पड़ा। बुद्ध-पूर्णिमा के दिन हमने अत्यन्त उपस्थित था। अतः हमने श्रीमाताजी और सर सी. भजन गाए श्रीमाताजी के सम्मुख 'सहस्रार स्वामिनी' गाने की इच्छा मुझमें हमेशा से थी और सहस्रार दिवस पर संगीत समूह के साथ मुझे 'सहस्रार स्वामिनी' गाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हमने अगला दिन मातृ-दिवस था । भिन्न देशों से उपहार भेजे गए थे। आस्ट्रिया के लोग भी बहुत सुन्दर केक और फूल लाए थे। उस दिन एक आश्चर्यजनक घटना हुईः रात को लगभग बारह बजे स्वयं श्रीमाताजी ने आरती करने के लिए माता का करम' भी गाया, श्रीमाताजी और सर सी. पी. को बहुत अच्छा लगा। कहा। हम सब दौड़े हुए बैठक में गए और आरती गाई। यह पूजा की तरह से थी। श्रीमाताजी ने आस्ट्रियन शॉल पहनी हुई थी, जिसे आस्ट्रिया की महिलाओं ने मिलकर बनाया था। सबीने (Sabine) भी वहाँ थी। हम सब बहुत प्रसन्न थे बाद में जब मुझे कल्पना दीदी के साथ मिलकर खाना बनाने 7 तारीख को, सहस्रार पूजा के दिन, मैं पुनः खाना बनाने के लिए गई। आण्टी ने कहा कि प्रसाद के लिए भिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाओ। एक के बाद एक हम भिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाने लगे। कुछ मिठाइयाँ मैंने पहली बार बनाई थीं परन्तु वे भी बहुत अच्छी बनीं। मुझे लगा कि मैं कुछ भी नहीं कर रही हैूँ, श्रीमाताजी ही सब कुछ का सुअवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बताया कि यह शॉल इतने हृदय से बनाई गई है कि अम्मा 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-8.txt अंक : 9 & 10 - 2006 चैतन्य लहरी 7. (श्रीमाताजी) को यह बहुत पसन्द आई है । कभी-कभी जब श्रीमाताजी बाहर जाती हैं तो यह शॉल और स्कार्फ पहनती हैं। बैठकर ध्यान करते, इतने गहन ध्यान का आनन्द हमने लिया! एक बार स्वयं श्रीमाताजी ने हारमोनियम बजाया, उसे देखने के लिए हम रसोई से दौड़े चले आस्ट्रिया का मातृ-दिवस कार्ड लगातार श्रीमाताजी के शयन कक्ष में ही सजा हुआ था, आए, ये अत्यन्त अद्भुत दृश्य था। इसके बाद सर उनकी कुर्सी के बिल्कुल सामने। क्या आस्ट्रिया के सी. पी. ने गजल की दो पंक्तियाँ गाईं, 'दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं, कैसा हर्सी गुनाह किए जा रहा हूँ मैं। यह अत्यन्त अद्भुत सन्ध्या थी, मानो स्वर्ग में संगीत कार्यक्रम चल रहा हो । जाने से पूर्व कल्पना दीदी ने घर में सभी लोगों को कीमती उपहार दिए। उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया और अपनी मुट्ठी खोली, अत्यन्त सुन्दर माणिक जड़ित सोने की बालियों का जोड़ा! मैंने कहा ये बहुत अधिक है। वो बोली कि ये माँ का आशीर्वाद है। मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने मुझे गले लगाया और कहा कि आस्ट्रिया में बहुत अच्छी सामूहिकता है और वोल्फ गैंग (wolf Gang) बहुत अच्छे व्यक्ति हैं। तब उन्होंने कहा, कबेला में मिलेंगे यह अविस्मरणीय क्षण था । लोग भाग्यशाली नहीं हैं? चत एक बार नाश्ते के समय श्रीमाताजी रसोई के दरवाजे के सामने खाने की मेज पर बैठी हुई थीं। हम सब नाश्ता तैयार करने में व्यस्त थे। उन्होंने हम सबकी ओर देखा। हम सबने नमस्कार किया, यह अत्यन्त सुन्दर दर्शन था। ह कुछ दिन कल्पना दीदी वहाँ रहीं और हमें तीन दिन तक उनके साथ खाना बनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। तीन दिन तक हमने मिलकर खाना पकायाः अखनी पुलाव, कश्मीरी मुर्ग, कीमा, अण्डाकरी, मूँगदाल वड़ा। उन्होंने हमें बताया कि ये सब भोज श्रीमाताजी द्वारा बताई गई विधि (Recipe) के अनुरूप बनाए गए हैं। मातृ दिवस के अवसर पर एक बार फ्रांस की युवा-शक्ति उपहार देने के लिए आई और उन्होंने अत्यन्त मृदु एवं मधुर गीत गाया जो बहुत ही हृदयस्पर्शी था। हम लोग श्रीमाताजी के भोजनकक्ष में बैठकर देख रहे थे। ये सब बहुत ही अच्छा था। श्रीमाताजी जब बैठक में टी. वी. पर कुछ देख रही होती थीं तो प्रायः हम गलियारे में बैठ जाते थे मिलकर हमने कुछ हिन्दी फिल्में देखीं लगान, मुग़लेआज़म, दिल चाहता है..। एक बार हमने 2006 की सहस्रार पूजा देखी और आरती गाई। ऐसा करना बहुत अच्छा लगा। प्रायः जब हमारे पास कोई कार्य न होता तो हम बगीचे में एवं चैतन्य से परिपूर्ण था । सर सी. पी. ने युवा लोगों खुलने वाली, श्रीमाताजी के शयन कक्ष की खिड़की से बात-चीत की और उन्हें युवा पीढ़ी में सहज के सामने या श्रीमाताजी के कमरे के सामने फैलाने के लिए कहा। उन्होंने युवाशक्ति आश्रम 6 जून को युवाशक्ति भजन गाने के लिए आई। उन्होंने अत्यन्त सुन्दर गाया, पूरा घर आनन्द 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-9.txt चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 श्रीमाताजी का पदप्रक्षालन अनुष्ठान हुआ। यह की तस्वीरें भेंट की। तत्पश्चात् सर सी.पी. ने सभी युवाओं को भोजन करवाने के लिए कहा। ये एक छोटी पूजा की तरह से था। तत्पश्चात् घर की पाँच महिलाओं से लक्ष्मी की पाँच टोकरियाँ श्रीमाताजी अत्यन्त शानदार सन्ध्या थी। अचानक श्री माताजी ने कहा कि वे व्हील चेयर में नहीं जाना चाहतीं, चलना चाहती हैं और वास्तव में वे बैठक से के सम्मुख लाने को कहा गया। मैं भी उन पाँच महिलाओं में से एक थी। मैं और आण्टी अत्यन्त सुन्दर क्रेनबैरी (Crenberry) गिलासों के सैट लेकर आए थे। ये हमने श्रीमाताजी को भेंट किए शयन कक्ष तक चलकर गईं! यह अत्यन्त असाधारण घटना थी। पूरा घर आनन्द से झूम उठा, हर व्यक्ति कह रहा था कि श्रीमाताजी चल रही हैं! उसके बाद हमेशा श्रीमाताजी शयन कक्ष से बैठक तक स्वयं चलकर आत्ती और वापिस जाती। और उन्हें प्रणाम किया। वे प्रसन्न थी। सर बहुत सी.पी. ने कहा कि ये क्रेनबैरी गिलास बहुत ही बहुमूल्य चीज़ हैं मुझे लगा कि अपने जीवन का 1 बहुमूल्यतम क्षण मुझे प्राप्त हो गया है। जब हम बाहर आए तो राचेल (Rachel) मुझसे बाजार से लाए जाने वाले सामान की सूची माँग रहा था, मैंने उससे कहा कि अब मैं कुछ सोच नहीं पा रही हूँ। राचेल ने भी वही बात कही। कुछ समय पश्चात् हमने खरीदे जाने वाले सामान की सूची बनानी आरम्भ की और भोजन का कार्य आरम्भ किया 7 जून को रसोई की टीम श्रीमाताजी को पुष्प अर्पण करने के लिए गई। हम सबने प्रणाम किया। यह अत्यन्त सुखद क्षण था। सर सी.पी. ने कहा, कि आप सब लोग इतने अच्छे-अच्छे खाने बनाकर हमें बिगाड़ रहे हैं। ये अत्यन्त मनमोहक दर्शन था। पूजा के दिन कुछ भारतीय पकवानों के साथ मैं आस्ट्रियन Schnitzel (भोज) भी पका पाई। ৪ जून को हमने पहली बार श्रीमाताजी के साथ आस्ट्रिया के भजनों की डी. वी.डी. देखी। हम बरामदे में बैठे हुए थे और श्रीमाताजी बैठक में । श्रीमाताजी और सर सी. पी. दोनों को भजन बहुत अच्छे लगे। मैं भी बैठकर गाना गा रही थी, मुझे ऐसे लगा मानो में आस्ट्रियन लोगों के साथ बैठकर भजन गा रही हूँ। उसके बाद श्रीमाताजी और सर सी.पी. ने बहुत बार वो डी.वी.डी. देखा, विशेष रूप से 'माता का करम भजन। आदिशक्ति पूजा सन्ध्या के दूसरे दिन भी उन्होंने 'माता का करम देखा। और पूजा से वापिस आकर भी इसी भजन को सुना। कितने आश्चर्य की बात है! श्रीमाताजी के दोपहर का खाना खाने के पश्चात् हम लोग पूजा के लिए तैयार हुए और बाहर प्रतीक्षा करने लगे, ताकि श्रीमाताजी के कार में बैठते ही हम लोग भी एकदम वैन में जाकर बैठ जाएं। श्रीमाताजी जब कार में जा रहीं थी तो हम सबने उन्हें नमस्कार किया और उन्होंने आशीर्वाद 1 मुद्रा में अपना हाथ उठाया। यह अत्यन्त अद्भुत था। हम पूजा के लिए गए और जीवन में पहली बार मैं प्रथम पंक्ति में बैठी हुई थी! पूजा में श्रीमाताजी बहुत प्रसन्न थी और पूजा के उपरान्त कव्वाली के साथ जब हम श्रीमाताजी के सम्मुख नाच रहे थे तो वे हम पर मुस्करा रही थी। इतना मधुर, माम आदिशक्ति पूजा के दिन प्रातः काल 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-10.txt चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 -2006 9 हम घर लौटे और रात का खाना तैयार किया। ये मेरा अन्तिम दिन था। जब श्रीमाताजी ने भोजन समाप्त किया तब मैंने सभी को अलविदा मिनट में रात्रि भोज तैयार करना था, प्रायः ऐसा कर पाना बिल्कुल असम्भव होता है परन्तु यहाँ सभी कुछ ठीक समय पर सम्पन्न हुआ। तो वे स्वयं सब कुछ करती हैं। कहा। मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे और मुझे लगा मानो मैं मायके से दूर, ससुराल जा रही हूँ। भारत छोड़ने के समय भी मैं इतना न रोई थी। जब मैं वापिस आई तो मुझे लगा कि मैं स्वर्ग से पृथ्वी पर लौट आई हूँ। वहाँ पर बिल्कुल भिन्न संसार था। हमेशा पक्षी गीत गा रहे होते और सर्वत्र सुन्दर फूल खिले होते थे। वहाँ पर हर चीज़ कालातीत होती थी कभी-कभी तो रात्रि भोज सुबह के चार बजे समाप्त होता, कभी ढाई बजे, कभी साढ़े तीन बजे। सब कुछ बहुत सुन्दर था। एक महीने से भी अधिक समय तक मुझे साक्षात् परमात्मा की सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ था, ये मेरे जीवन का बहुमूल्यतम समय था। मैं नाश्ता, दोपहर का भोजन, रात्रि का भोजन, चाय और वो सभी कुछ, जो मेरे हृदय को अच्छा लगा और जब श्रीमाताजी ने चाहा, बना सकी। वहाँ कार्य करते हुए मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं कुछ भी नहीं करती। वो (श्रीमाताजी) विचार भेज रही हैं और मैं तो बस अपने हाथ हिला रही हूँ। बहुत सी ऐसी चीजें थी जो मैंने वहाँ पहली बार बनाई फिर हमेशा हम आनन्द और चैतन्य से परिपूर्ण होते थे । इससे अधिक कोई सहजयोगी क्या कामना कर सकता है? पृथ्वी पर स्वर्ग में यह मेरा अल्पवास था। जय श्री माताजी भी सभी कुछ बहुत अच्छा बना। एक बार हमें 45 सोमा मड (इन्टरनैट,विवरण) रूपान्तरित भाम छ ता |त कत द तह 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-11.txt श्रीमाताजी ने अनौपचारिक विदाई कार्यक्रम की मेजबानी की (यू.के.- 18 जून, 2006) इटली को अपने प्रस्थान की पूर्वसन्ध्या को श्रीमाताजी ने कृपा करके यूके. सहजयोग समिति के सदस्यों तथा युवा शक्ति के लिए अनौपचारिक विदाई कार्यक्रम का आयोजन करवाया समिति को श्रीमाताजी की ओर से कुछ सुन्दर उपहार दिए गए और युवा शक्ति ने अपने विशेष लहजे में उनके श्री-चरणों में गीत गाए सर सी. पी. ने अपनी जवानी के समय की दो दिलचस्प कथाएं सुनाई और श्रीमाताजी को नए यू.के. राष्ट्रीय केन्द्र' की सम्पत्ति की पुस्तिका भेंट की गई। यह संध्या सभी के लिए अत्यन्त सुखद थी। हुआ एक फोटोग्राफ भी एक केक सहित श्रीमाताजी को भेंट किया गया| श्रीमाताजी और सर सी. पी. ने कार्ड में छपी कविताओं को पढ़ा और आशीर्वाद दिया। सर सी.पी. ने युवा आश्रम की उस सन्ध्या का पुनः स्मरण किया। पन्द्रह और युवा शक्ति भी कक्ष में मौजूद तीन युवा शक्ति सदस्यों के पास पहुँच गए और श्रीमाताजी को प्रणाम किया सर सी. पी. पुनः बोले जो चॉकलेट प्रसाद में बाँटे गए थे श्रीमाताजी ने उन्हें आशीर्वादित किया था। श्रीमाताजी और कक्ष में उपस्थित "loana Popa' (इंटरनैट विवरण) रूपान्तरित युवा- शक्ति ने तत्पश्चात् बाकी की युवा शक्ति को भी अन्दर आने के लिए कहा। सर सी.पी. ने विश्व के प्रति हमारी जिम्मेदारी और श्रीमाताजी के प्रति हमारी श्रद्धा के विषय में बताया और शक्ति परमेश्वरी माँ के प्रति विश्व युवा-शक्ति की गहनतम प्रेम एवं सत्य-निष्ठा की अभिव्यक्ति (चिज़विक, यू.के. शनिवार सांय 10.20. 17 जून 2006) युवा के एक सदस्य ने कहा कि श्रीमाताजी के प्रति हमारी श्रद्धा जीवन पर्यन्त रहेगी। चॉकलेट खाते हुए कक्ष तथा दरवाजों में खड़े अन्य सभी सहजयोगियों के साथ हमने 'जय गणेश' गाना शुरु किया श्रीमाताजी बहुत प्रसन्न थीं, उन्होंने सभी को धन्यवाद कहा। हम सबने मिलकर ऊँची आवाज में श्रीमाताजी के अच्छे स्वास्थ्य और चिरायु चिज़विक यू.के. में हम श्रीमाताजी की बैठक से बाहर निकले ही थे कल श्रीमाताजी इटली के लिए रवाना हो रही हैं आज रात 'यू.के. सहजयोग समिति' ने ब्रह्माण्ड के हृदय में कुछ समय निवास करने के लिए परमपूज्य श्रीमाताजी के प्रति हार्दिक प्रेम एवं कृतज्ञता की अभिव्यक्ति की। की प्रार्थना की तथा उनके चरण कमलों में प्रणाम किया। कक्ष में चैतन्य सागर में तैरते हुए हम बगीचे और रसोई में चले गए । की श्रीमाताजी, हमारे जीवन को अपने प्रेम, चैतन्य-लहरियों, अपने स्वप्न तथा अपने कार्य को इसके बाद युवा शक्ति आई। युवा-शक्ति के तीन सदस्यों ने श्रीमाताजी के कक्ष में प्रवेश करके उन्हें स्वर्ण एवं लाल रंग के फ्रेम वाला कार्ड भेंट किया जिसमें परमेश्वरी के प्रति सर्वप्रथम करने का सुअवसर प्रदान करने की आपकी कृपा के लिए हम हार्दिक गहनता और सत्यनिष्ठापूर्वक आपके प्रति आभारी हैं। जय श्री माताजी कृतज्ञता एवं वचनबद्धता की कविता लिखी हुई थ्री इसी सप्ताह युवाशक्ति आश्रम में 13 जून मंगलवार को जब श्रीमाताजी आई थीं तो उस समय लिया गया 75 युवा शक्ति का फ्रेम किया Michael Markl (इंटरनैट विवरण) रूपान्तरित 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-12.txt आदिशक्ति पूजा (चिज़विक यू.के. - 11 जून, 2006) इन्टरनैट विवरण सर सी.पी. श्रीवास्तव का भाषण (प्रतिलिपि - ATranscript) "क्या मुझे आज्ञा है कि सर्वप्रथम मैं देवी और निःसन्देह पैदल भी यात्रा की.. तालियाँ... । क के प्रति नतमस्तक होऊं और फिर आप सभी फरिश्तों के सम्मुख। पृथ्वी पर यह फरिश्तों की सभा हैं और मुझे भी इसका अंग होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है मैं यू.के. और पूरे विश्व के सहजयोगियों और योगिनियों का गहन आभारी हूँ कि उन्होंने हमें यहाँ रहने का अवसर प्रदान किया यू.के. में हमारे पहुँचने के बाद से अब तक अत्यन्त प्रेम, स्नेह एवं हृदय पूर्वक हर तरह से हमारी देखभाल की गई। आपके प्रति हमारी कृतज्ञता की भावनाओं की अभिव्यक्ति कर पाना सम्भव नहीं है। ऐसा लगा मानो हम अपने घर आ गए हों। अत:, डॉ. स्पायरों आपके और अन्य सभी के प्रति मैं हमारी गहनतम 35 वर्षों तक उन्होंने ये कार्य किया, पर दो वर्ष पूर्व उन्होंने निर्णय किया कि अब समय आ गया है जब उन्हें पीछे बैठ जाना चाहिए और सहजयोग सन्देश को आगे फैलाने की जिम्मेदारी अपने बच्चों को दे देनी चाहिए यदि आप टी. वी. समाचार देखते हैं तो जानते होंगे, कि यह विश्व कठिनाई में है, परन्तु एक सन्देश है, उनका संदेश, सहजयोग सन्देश जो प्रेम से बना है और जो सभी देशों के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को एक परिवार के रूप में एकसूत्र में पिरोता है। मेरे बच्चो, अब उनके लिए, आप ये जिम्मेदारी सम्भाल लो, सहजयोग सन्देश को फैलाओ। दो वर्ष पूर्व उन्होंने सहजयोग प्रचार- प्रसार मैं आपके कुछ बहुमूल्य क्षण कुछ ऐसी विश्व परिषद' की स्थापना की और यह परिषद बातें कहने के लिए लेना चाहूँगा जो उनके (श्रीमाताजी) कार्यरत है। और तब से उन्होंने विश्व के सभी सहजयोगियों को आमन्त्रित किया, उनसे अनुरोध किया और उनसे सामूहिक नेतृत्व बनाने के लिए कहा ताकि सहजयोग-प्रचार-प्रसार के लिए अधिक से अधिक सहजयोगियों को सम्मिलित किया जा सके। ये कार्य हो गया है। अब यू.के प्रेम और शाश्वत आभार की भावनाएं अभिव्यक्त करना चाहता हूँ। दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । आप जानते हैं कि मानवमात्र को सहजयोग का प्रेम संदेश देने के लिए उन्होंने 35 वर्षों तक विश्वभर में यात्रा की। आज पाँच महाद्वीपों के 80 से भी अधिक देशों में सहजयोग है! (इन वर्षों में) वे यही कार्य कर रहीं थीं.... तालिया..। तथा अन्य बहुत से देशों में सामूहिक नेतृत्व हैं ये सामूहिक नेतृत्व, सहजयोगियों और योगिनियों की सामूहिकताएं, अब सहजयोग प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही हैं ये उनकी इच्छा है और ऐसा घटित होने की उन्हें खुशी है। सहजयोग को इसी प्रकार उन्होंने हवाई जहाज, हैलिकॉप्टर, कार और, यदि आपको अच्छा लगे, भारत में बैलगाड़ी से 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-13.txt अंक : 9 & 10 - 2006 12 चैतन्य लहरी आज के विश्व को इस संदेश के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ की आवश्यकता नहीं है । से फैलाया जाना है। मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता परन्तु इस विश्व की ओर देखें तो आपको पता चलेगा कि विश्व संकट में है। यहाँ हिंसा हो रही है। केवल एक संदेश विश्व को बचा सकता है, और यह उनका संदेश है, सहजयोग में उनके प्रेम का सन्देश यहाँ पर आप उनके साक्षी हैं! अतः उनके (श्रीमाताजी) सम्मुख खड़े होकर उनकी ओर से मैं आपको ये संदेश देता हूँ। आपसे मिलना अत्यन्त सुखद है। ये वास्तव में पृथ्वी पर स्वर्ग है परन्तु इस स्वर्ग को इस संदेश को सर्वत्र फैलाएं, विश्व की रक्षा करें, और ये कार्य विश्व के किसी कोने में क्या आपको ऐसी करने में आप ही सक्षम हैं! तो क्या आप सबकी सामूहिकता मिल सकती है? नहीं, क्योंकि आप लोग प्रेम सूत्र करेंगे? एक विश्व परिषद है जिसे सहजयोग को बढ़ाना है। परन्तु आपके लिए भी सन्देश है:- आपमें से हर एक को चाहिए कि स्वयं को सहजयोग "हाँ" ओर से मैं ये बचन दे देँ कि आप इस कार्य को में बँधे हुए हैं, उनके सन्देश में हाँ, सहजयोगियों की सामूहिकता से एक बुलन्द तालियों की गड़गड़ाहट...। प्रचार-प्रसार के लिए उनका दूत माने। आप जानते हैं कि आपमें से एक यदि ये सन्देश एक जय श्रीमाताजी अन्य को दे तो एक से दो होंगे और दो से चार और कुछ ही वर्षों में यह विश्व सहजयोग से परिपूर्ण हो जाएगा, और मुझ पर विश्वास करें कि भूषण एवं माइकल (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित पत मा ार 11 ा 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-14.txt गुरु पूजा कबेला- 28 जुलाई, 1996 (परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन) से मिल सकते थे। आप चाहे प्राप्त करके ही वे आज हम गुरुपूजा करने के लिए यहां गुरु मीलों चलकर आए हों, कोई बात नहीं, गुरु के लिए जरूरी नहीं था कि वह आपसे मिले । संभवतः गुरु के हृदय में साधकों के लिए प्रेम एवं करुणा का एकत्र हुए है। भारत में ये प्रथा प्राचीन काल में आरम्भ हुई थी, मैं सोचती हूँ, पातंजलि के समय में या हो सकता है, उससे भी पहले, जब महान साधक हुआ करते थे, उनके गुरु जंगलों में रहते थे और उनके पास जाने के लिए साधकों को उनकी आज्ञा लेनी पड़ती थी, तब कहीं उन्हें आत्म- अभाव था। उन्हें इस बात की समझ न थी कि बेचारे साधक निष्ठा पूर्वक सत्य की खोज कर रहे हैं, अतः उन्हें कष्ट नहीं होना चाहिए। साक्षात्कार प्राप्त होता था, बहुत थोड़े से लोगों को, किसी एक या दो को। अतः भारत में प्राचीन काल शायद इसी कारण से उन्हें साधकों की अधिक चिन्ता न थी। हर समय वे शिष्यों की परीक्षा लेने में ही लगे रहते थे शिवाजी के में बहुत से ऋषि मुनि हुआ करते थे। इस प्रकार गुरु प्रथा आरम्भ हुई। इसका एक अन्य कारण भी है कि भारत में कोई आयोजित धर्म न था। वहाँ पर न तो कोई पोप है और न ही कोई पादरी आदि हैं। मन्दिरों में केवल पूजा करने के लिए पुजारी होते गुरु रामदास भी बहुत बार उनकी परीक्षा लिया करते थे, यद्यपि शिवाजी जन्मजात आत्म-साक्षात्कारी थे। अतः ये गुरु पद पाने के लिए गुरु की अवस्था प्राप्त करने के लिए और उसके बाद सन्त अवस्था प्राप्त करने के लिए साधकों को अत्यन्त-अत्यन्त कठोर परिश्रम करना पड़ता था। परन्तु सहजयोग में, आप जानते हैं, ऐसा कुछ नहीं है। मैंने ये सोचा है परन्तु आत्म - साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए, उच्च-जीवन के बारे में जानने के लिए साधकों को अत्यन्त महान साक्षात्कारी सन्तों के पास जाना पड़ता था। शिष्य को स्वीकार करना या न करना, कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करके लोग स्वयं देखेंगे कि उनमें क्या कमी है अन्तर्वलोकन करके वे स्वयं को सुधारने का प्रयत्न करेंगे बहुत से लोगों के मामले में ये बात ठीक है। परन्तु कुछ लोग अब भी पिछड़े हुए ह हैं कि वे सहजयोगी हैं, उन्होंने बहुत कुछ पा लिया है तथा वे कुछ विशेष हैं। यह भ्रान्ति हर समय समस्याएं उत्पन्न करती हैं। ये भ्रान्तिपूर्ण सोच उन्हें अत्यन्त संकीर्ण, स्वार्थी, अपने तक सीमित पूरी तरह से गुरु पर निर्भर करता था। गुरु सबकी परीक्षा लेता था कि वे आत्म-साक्षात्कार के योग्य हैं भी या नहीं। ये परीक्षा अत्यन्त कठोर होती थी, अत्यन्त कठिन और कभी-कभी तो अत्याचार की 1 सीमा तक इतनी कठोर कि कोई बिरला ही उसमें उत्तीर्ण होता। सहजयोग की तरह नहीं था कि 'सभी सहजयोगी हैं ऐसा नहीं था निःसन्देह उन्होंने आत्म-साक्षात्कार प्राप्ति के मार्ग को अत्यन्त संकरा बना दिया था। और ये गुरु कभी अपनी गद्दी नहीं छोड़ा करते थे वे इसे तकिया' कहते थे हमेशा वे अपने स्थान पर बने रहते। जो लोग भी उनके पास आना चाहते, आते, उनकी आज्ञा हैं। वे चले जा रहे हैं और सोच रहे बनाती है और इस कारण से लोग उनके सहजयोगी होने पर विश्वास नहीं कर सकते। | 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-15.txt अंक : 9 & 10 - 2006 चैतन्य लहरी 14 सकती हूँ, कहीं भी सो सकती हूैं। मेरी किसी भी प्रकार की कोई माँग नहीं होती। परन्तु यदि आप अपने शारीरिक सुख-सुविधाओं, शारीरिक कष्टों के बारे में चिन्तित हैं तो अभी तक आप शारीरिक अतः सर्वप्रथम महत्वपूर्णतम चीज़ जो हमने समझनी है वह ये है कि यह सहजयोग इसलिए कार्यान्वित हुआ है क्योंकि परम-चैतन्य करुणा का संचार कर रहा है। इसने पहले कभी ऐसा नहीं किया, इसका ऐसा दृष्टिकोण पहले कभी नहीं था जो अब है, क्योंकि मैं माँ हूँ। यह करुणा इस प्रकार से कार्यान्वित हुई कि आप सबको आत्म-साक्षात्कार मिल गया है, आपको ऐसी अवस्था प्राप्त हो गई है जिससे आप आत्म-साक्षात्कारी कहला सकते हैं परन्तु फिर भी क्योंकि आपने ये अवस्था आसानी से, सस्ते में पा ली है, इसलिए, मैं सोचती हूँ कि अभी भी हम ये नहीं समझ पाए हैं कि हमें क्या स्तर पर ही हैं आपको उससे ऊपर उठना होगा। आपको अपने वस्त्रों की चिन्ता है। आपको ये चिन्ता है कि आप कैसे लगते हैं, कैसे पहनते हैं, कैसे वस्त्र आपको पहनने चाहिएं। ये सभी चीजें आपको सहजयोगी नहीं बना सकती। ये उन सहजयोगियों की शैली है जो अब भी बहुत अधिक सुख-सुविधाएं चाहते हैं। क तो आपको क्या करना चाहिए? आपको यदि सुख-सुविधाओं की आदत है तो जाकर गली में सोने का प्रयत्न करें मैं ऐसा नहीं करूंगी, परन्तु आप कर सकते हैं, या आप पेड़ पर सो सकते हैं। चाहे गिर जाएं कोई बात नहीं। शरीर को ये समझाने के लिए कि आप शारीरिक सुखों से बंधे नहीं है। अपने शरीर को दण्डित करने के लिए सभी प्रकार के कदम उठाएं। ये देखना सबसे बड़ी बात है कि आप शारीरिक सुखों के गुलाम नहीं है। आपके पास यदि सुख-सुविधाएं हैं तो ठीक है और यदि नहीं हैं तो भी ठीक है। सहजयोगी के लिए प्राप्त हो गया है, अब भी हम ध्यान-धारणा, अन्तर्वलोकन और समर्पण का अभ्यास नहीं करते। निःसन्देह कुछ लोगों की स्थिति बहुत अच्छी है परन्तु हममें से अधिकतर इसी विचारभ्रम में बने हुए हैं कि हमने सब पा लिया है। तो अन्तर्वलोकन करने वाली पहली बात ये है कि क्या हमें अपनी चिन्ता है? क्या हम हर समय यही सोचते हैं कि हमें कष्ट है, हमें ये समस्या है, वो समस्या है या ऐसा किया जाना चाहिए वैसा किया जाना चाहिए। आपका चित्त यदि इस बात पर है कि हर समय आप अपने ही विषय में चिन्तित है तो आप अपने अस्तित्व के इस आवरण का भेदन नहीं कर सकते, इस खोल का जो आपके मानसिक स्वाथों या स्वःकेन्द्रण के नियंत्रण में है। स्वःकेन्द्रण (Self- centeredness) भी आपकी उत्क्रान्ति के बिल्कुल विरुद्ध है। मैंने देखा है कि बहुत से लोग कबेला आते हैं, उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ता है क्योंकि वे सोचते हैं कि उन्हें खुले स्थान पर रहना है और अपनी सुख सुविधा का प्रबन्ध करना है ऐसे लोगों को अभी बहुत उन्नत होना होगा सन्त के लिए हर स्थान स्वर्गसम होना चाहिए। आपने देखा होगा कि हर चीज़ का आनन्द लेती हूँ, कहीं भी रह आवश्यक है कि वह सन्त की तरह से रह सके, जरूरी नहीं कि वह सन्यासी बन जाए., अन्दर से ही आपका शरीर ऐसा होना चाहिए कि इसे आप अपने नियंत्रण में रख सकें। कहीं भी आप कैसे-नहीं सो सकते, कहीं भी आप क्यों नहीं सो सकते? फिर वे स्नानागारों का बहुत सुखद प्रबन्ध चाहते हैं, ये वो । ये सभी विचार इसलिए हैं कि आप अपने बारे में बहुत चेतन हैं परन्तु अतिचेतनता नहीं है। अपने लिए आप सभी कुछ प्रथम दर्जे का चाहते हैं और कोई अन्य यदि इस मामले में दखलन्दाजी करे तो आपको अच्छा नहीं लगता । कोई व्यक्ति यदि बूढ़ा 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-16.txt चैतन्य लहरी अक : 9 & 10 - 2006 15 के लोगों को प्रभावित करना है तो आपको सन्त बनना ही होगा और यदि आप बेकार का हल्ला मचाने वाले हैं, बतंगड़ हैं तो आप अन्य लोगों को विश्वास नहीं दिला सकते कि आपको आत्म हो, जिसे बहुत आवश्यकता हो उसकी बात तो मैं समझ सकती हूँ। उसे तो कुछ शारीरिक सुविधाएं मिलनी ही चाहिएं। परन्तु आजकल तो युवा लोग भी बहुत अधिक सुख- वाली बात नहीं है। -संचालित हैं ये सहजयोगियों साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। बहुत से लोग मुझे कहते हैं, "लोगों को इतना कुछ करना पड़ा, इस कार्य के लिए हिमालय पर जाना पड़ा, इतनी समस्या के बाद उन्हें आत्म- मैंने देखा है कि पश्चिम के लोग इस मामले में कहीं बेहतर है। जब वे भारत गए तो उन्होंने मुझे बताया कि सुविधाजनक बसों की अपेक्षा उन्हें राज्य-परिवहन की बसें पसन्द हैं । मैंने कहा, "क्यों?" श्रीमाताजी, क्योंकि सामान से भरी इन बसों में हम उछल सकते हैं. इनकी खिड़कियाँ खुली होती हैं, शुद्ध हवा में हम श्वास ले सकते हैं। वो तो बैलगाड़ी पर भी चलना चाहते थे । कहने से अभिप्राय ये है कि वे इन सब चीज़ों का साक्षात्कार प्राप्त हुआ। आपने कैसे इन लोगों को आशीर्वादित कर दिया है? कुछ महान सन्त भी मुझसे पूछते हैं कि इन लोगों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का क्या अधिकार है? आपने इन्हें आत्म-साक्षात्कार क्यों दिया? इन्होंने क्या प्राप्त किया है? मैने कहा, "केवल अपनी इच्छा।" उनकी इच्छा बहुत तीव्र थी कि उन्हें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होना चाहिए और इसलिए उन्हें आत्म- साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। परन्तु इसकी गहनता मज़ा उन्हें इस सुख-सुविधा से सम्पन्न शैली से में उतरने के लिए केवल इच्छा काफी नहीं है । कहीं अधिक भाता है। परन्तु भारतीय, और मैं आपको अपनी आत्मा पर निर्भर होना होगा अपनी आत्मा के प्रकाश पर, आपको देखना चाहिए कि कमी कहाँ है। ये बहुत महत्वपूर्ण बात है। स्वयं से प्रश्न करें, "मुझे इसकी आवश्यकता क्यों है, ये कहीं भी सो सकते हैं, कुछ भी खा सकते हैं। आप मुझे क्यों चाहिए, लक्ष्य क्या है?" क्योंकि जैसे उनसे पूछे कि खाना कैसा लगा, तो उत्तर होगा आपने देखा है बाकी का सारा संसार तो पागल है, मैं इसे पागल कहती हैँ क्योंकि सभी लोग तुच्छ चीजों के पीछे दौड़ रहे हैं। वो ऐसी चीज़ें चाहते हैं जो आध्यात्मिकता के लिए अर्थहीन हैं। अतः आध्यात्मिकता अपने आप में ही आत्म--संतोष प्रदायी होनी चाहिए । आपमें यदि आध्यात्मिक गुण हैं तो आनन्द उठाते हैं। वास्तव में यदि आप देखें, तो पश्चिमी देशों में अधिक से अधिक लोग ग्रामीण जीवन शैली अपना रहे हैं। ग्रामीण जीवन शैली का का कहूँगी मलेशिया के, लोगों में ये बात नही है । मैं सोचती हूँ कि पश्चिमी देशों में मैं जिन लोगों से मिली उनमें से अधिकतर बहुत महान हैं क्योंकि वो के "श्रीमाताजी मैं नहीं जानता कि मैंने क्या खाया था।" यह चिन्ह है। यह उस व्यक्ति की निशानी है जिसे इस बात की चिन्ता नहीं है कि वह क्या खा रहा है, उसे क्या मिल रहा है, उसका स्वाद क्या है। मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है, ये शब्द छूट जाते हैं। ये कठिन नहीं है, ये कठिन नहीं है। हो सकता है आप ये सोचें कि मैं आपसे कोई कठिन कार्य करने को कह रही हूँ परन्तु ये बिल्कुल भी कठिन नहीं है। आपने यदि आस-पास आप आत्मसन्तुष्ट हैं। और आपके अन्दर का ये आत्म-संतोष आपको उस आनन्द के सागर तक ले जाएगा, जिसके बारे में मैं आपको बताती रही हूँ और जिसका वर्णन सभी धर्मग्रन्थों में किया गया है। 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-17.txt अंक : 9& 10-2006 चैतन्य लहरी 16 सहजयोगियों के लिए जिस शब्द का उपयोग हम करते हैं वह है 'निरानन्द' । निरानन्द अर्थात आनन्द की वह अवस्था जिसमें किसी अन्य चीज़ की आवश्यकता न हो। आनन्द स्वयं आनन्द है आप केवल आनन्द का आनन्द ले रहे हैं. आपको प्रसन्न करने के लिए किसी और चीज की रखेगी। कुछ सहजयोगी एकदम से क्रोधित हो जाते हैं। मैं कहूंगी कि वे सहजयोगी हो ही नहीं सकते क्योंकि यदि आपको अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं है तो आपमें करुणा एवं प्रेम की शक्ति कैसे आ सकती है? परन्तु आपको तो यह नियंत्रण भी नहीं करना पड़ता, ये पहले से ही है। एक बार यदि आवश्यकता नहीं है। 'निरानन्द' अवस्था में प्राप्त आप ये अवस्था प्राप्त कर लें तो मात्र इसे देखें। होने वाले आनन्द के कारण आप प्रसन्न है। आप प्राचीन काल में अधिकतर सन्त लोग बहुत क्रोधी स्वभाव के हुआ करते थे संसार की मूर्खता उन्हें सहन न हो पाती थी। वे अत्यन्त क्रोधी तबीयत के होते थे और वहाँ से दूर भाग जाते थे। मैं नित्यानन्द स्वामी नामक एक सन्त को जानती हैँ जो हमेशा पेड़ पर रहते और कोई यदि उनके पास आने का यदि जाकर ये देखें कि ये सन्त किस प्रकार रहे तो आप हैरान होंगे! किस प्रकार वे अपने जीवन चलाते हैं, आपको अत्यन्त आश्चर्य होगा। कितने- कितने दिन खाने के बिना वे व्रत किया करते थे. इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की उन्होंने कभी नहीं सोचा कि यह व्रत था, वो तो यही सोचते थे कि हमारे पास खाना नहीं है सो नहीं है। निःसन्देह आपको इन पड़ा, आपको आत्म-साक्षात्कार मिल गया है। अतः अब आपमें कौशल प्राप्त करने की शक्ति है, प्रयत्न करता तो वे उस पर पत्थर फेंकते। लोगों सारी स्थितियों में से नहीं निकलना को वो सहन न कर पाते थे, सभी को बाहर बिठाया जाता। परन्तु आपको ये सब करने की आवश्यकता नहीं है आपके पास सभी दुखदायी, ईष्यालु तथा अब आपमें ये शक्ति है। आक्रामक लोगों का प्रेम एवं स्नेह प्राप्त करने की विधि है। इस दिशा में यदि आप थोड़ा सा प्रयत्न करें तो ये कार्य कठिन नहीं है कोई गर्ममिजाज व्यक्ति यदि मिल जाए तो अधिकतर लोग भाग एक अन्य चीज़ जो मैंने सहजयोगियों में देखी है कि उनमें दूसरों के प्रति मनोमालिन्य है । सहजयोग प्रेम का आशीर्वाद है, करुणा का आशीर्वाद है। सहजयोगियों में किसी भी प्रकार की घृणा, बदले की भावना या क्रोध का कोई स्थान नहीं है। आपमें यदि ये दुर्गुण है तो आप इस पर विजय प्राप्त करें। ये बहुत अच्छा अवसर है। आपको यदि कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो गर्ममिजाज हो, क्रोधी परन्तु गर्म-मिजाज व्यक्तित से आप किस प्रकार स्वभाव का हो तो जाकर ऐसे व्यक्ति को मित्र बनाएं। देखें कि आप उस व्यक्ति से निभा सकते महत्वपूर्ण है आपका प्रेम निश्चित रूप से उसे हैं या नहीं। कोई बिगडैल व्यक्ति यदि है तो उसके पिघला देगा क्योंकि वह भी सहजयोगी है। मैं उन साथ मित्रता स्थापित करें और देखें कि आपको लोगों की बात नहीं कर रही हूँ जो सहजयोगी नहीं वह शान्ति प्राप्त होगी जो सभी प्रकार की घृणा, सभी प्रकार के क्रोध और बुराइयों से आपको दूर खड़े होते हैं। वे उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहते। जो लोग शान्त हैं, अच्छे स्वभाव के हैं, उनसे तो कोई भी मित्रता कर सकता है इसमें क्या महानता है? इसमें क्या अच्छाई है, क्या माधुर्य है? 1 बात करते हैं, किस प्रकार उसे सम्भालते हैं, ये बात है। परन्तु सहजयोगियों के प्रति आपको अत्यन्त करुणा, स्नेह एवं प्रेममय होना होगा। পছ। कर 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-18.txt अंक : 9& 10 - 2006 चैतन्य लहरी 17 चाहते हैं।" इस बात पर मुझे हैँसी आती है । देखिए, ये तो पहले से ही है, पहले से है, जैसे एक अन्य चीज जाननी भी हमारे लिए आवश्यक है कि हमें ये आत्म-साक्षात्कार माँ के एक बार यदि आप समुद्र में प्रवेश कर लें और कहें कि श्रीमाताजी हम समुद्र की तह में जाना चाहते हैं, आप जा सकते हैं। आगे को बढ़े और वहाँ पहुँच जाएंगे! प्रेम के माध्यम से प्राप्त हुआ है। केवल मेरी करुणा ने कार्य किया है, केवल माँ की करुणा की शक्ति ही इस कार्य को कर सकती थी। चाहे यह प्रेम पत्थरों की ओर बह रहा हो, पर्वतों की ओर या किसी अन्य ठोस चीज की ओर, इसकी लहरियाँ (Ripples) वापिस आती हैं। उन्हें वापिस आना इसी प्रकार से एक बार जब आत्म- साक्षात्कार को विकसित करके करुणा के सागर पड़ता है। उसी प्रकार से अब आप लोगों, जिन्हें में कूद पड़ते हैं तो कुछ अन्य प्राप्त करने की आवश्यकता ही नहीं है। प्राप्त करने का एहसास, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया है. को समझना होगा कि आपको केवल करुणा एवं प्रेम की ही शक्ति प्राप्त है, कोई अन्य नहीं। आप यदि स्वयं"मुझे वो होना चाहिए, मुझे ये होना चाहिए" ये से प्रेम करते हैं, यदि आपको केवल अपनी चिन्ता है, अपने परिवार की और अपने बच्चों की तो अभी तक आपने कुछ अधिक प्राप्त नहीं किया व्यक्ति हैं। अब आपको ये नहीं सोचना चाहिए कि है। आप केवल अपने बारे में चिन्तित है, क्योंकि मुझे ये अवस्था प्राप्त करनी चाहिए, वो अवस्था यही आपकी गतिविधियों का सीमित क्षेत्र है! परन्तु यदि आप इस दायरे को तोड़कर ऐसे स्थान खोज चले जाएं। अपने सिर पर लादे हुए सभी बोझ सके जहाँ आप अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कर सकें तो बेहतर है। आप ऐसा कर सकते हैं। जैसे कहते हैं कि पानी अपना स्तर खोज लेता है, इसी प्रकार से उस करुणा को भी सभी स्थानों, सभी गड्ढों तथा सर्वत्र बहकर अपना स्तर खोज लेना चाहिए। परन्तु यदि आप स्वयं से ही सन्तुष्ट हैं, किसी अन्य की आपको चिन्ता नहीं है, ये विश्वास कर लेने का प्रयत्न कर रहे हैं कि आप महान आत्मा हैं क्योंकि अधिकार नहीं है सबसे आगे बैठने का उन्हें कोई आप सहजयोगी हैं, तो मैं अवश्य कहूंगी कि आप बहुत बड़ी गलती पर हैं। इसी जीवन- काल में आपने ये अवस्था प्राप्त करनी है। इसी जीवन-काल अधिकार नहीं है। पूर्ण सन्तोषपूर्वक जहाँ भी स्थान सब बातें मानव-मस्तिष्क की तड़पन मात्र है ये अब समाप्त हो जानी चाहिएं, अब आप दिव्य प्राप्त करनी चाहिए। बस, फिसलते (गहनता में) उतार दें और यह कार्यान्वित हो जाएगा मैं हमेशा से आपको यही कहती आई हूँ कि करुणा के सागर में आपने स्वयं को विलीन कर देना है। अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जो आगे बने रहना चाहते हैं, विशेष रूप से भारतीय लोग सबसे आगे इकट्ठे बैठना चाहते हैं। इसका उन्हें कोई अधिकार नहीं है किसी को भी सबसे आगे बैठने का या आगे-आगे स्थान खोजने का कोई मिल जाए, उन्हें बैठ जाना चाहिए। आप चाहे सामने वैठें या किसी अंधेरे कोने में आप मेरी में आप अपने अन्दर उस अवस्था तक पहुँच सकते हैं। चैतन्य लहरियाँ पा सकते हैं, सभी कुछ पा सकते हैं। अतः किसी विशेष स्थान पर बैठकर विशिष्ट दिखाई देना आवश्यक नहीं है। दिखने में क्या परमात्म साक्षात्कार (God -Realization) तीसरी चीज़ जो सहजयोगियों को परेशान करती है कि "श्रीमाताजी हम परमात्म-साक्षात्कार 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-19.txt अंक : 9& 10 - 2006 चैतन्य लहरी 18 आपने क्या त्याग किया है? केवल पत्थर? आपने क्या त्याग किया है? ये त्याग दिया, वो त्याग है, उससे क्या मिलता है? भीड़ में खो जाना, प्रेम चीज़ है। ये मात्र मिथक है कि किसी भी तरह से हमें सबसे आगे . के सागर में खो जाना ही मुख्य दिया, क्यों आप शेखी बघार रहे हैं? फिर सिर मुंडवाना! ये क्या हैं? स्थान प्राप्त कर लेना चाहिए। मराठी में कहते हैं. अर्थात मैने सबसे आगे स्थान प्राप्त कर लिया है आगे का स्थान पीछे का हो जाएगा और पीछे का आगे। आश्चर्य की बात है कि अब भी लोग इतनी मूर्खतापूर्ण चीज़ प्राप्त करने के प्रयत्न करते हैं! आपका मस्तिष्क कहाँ है, आपका चित्त कहाँ है, ये सभी बेकार की बाते हैं कि हमने ये किया है. हमने वो किया है सहजयोग में कोई व्यक्ति यदि सोचता है कि वह सहजयोग के लिए बहुत कार्य कर रहा है तो उसे चाहिए कि सहजयोग का काम बिल्कुल छोड़ दे। अज्ञान का यह एक अन्य चिन्ह है। आप यदि सागर के अंग-प्रत्यंग हैं नहीं आप क्या सोच रहे हैं? आप यदि निर्विचार हैं तो आप सन्तुष्ट होंगे, प्रसन्न होंगे और कुछ न मांगेंगे। आपको किसी चीज़ की आवश्यकता न रहेगी। पाने को क्या है? इतना महत्वपूर्ण क्या है? ये सभी विचार अज्ञान के कारण आते हैं। मैं अवश्य आपको तो सभी कुछ सांगर कर रहा है आप कुछ कर रहे। आपके अन्दर ऐसे विचारों का होना ये दर्शाता है कि अपने विषय में आपको कितना कम ज्ञान है! आप सागर है और यदि आप सागर हैं तो किस प्रकार दावा कर सकते हैं किे मैंने इस तट का स्पर्श किया है उस तट को स्पर्श किया है? अब बताऊंगी ये अज्ञान के कारण आते हैं। एक बार हरे रामा-हरे कृष्णा वाला एक आदमी मेरे पास आया और कहने लगा हमने सुना है कि आप महान सन्त हैं, ये, वो । परन्तु आपके पास जीवन की सभी सुख-सुविधाएं हैं, यहाँ पर सभी कुछ बहुत शानदार है। तो किस प्रकार आप सन्त हैं? "मैंने अपना तो "मैं" बची ही नहीं । एक बार जब ये "मैं" छूट जाती है तो केवल आपके अन्दर का शाश्वत अस्तित्व चमक उठता है। हमारे चरित्र में ये सारी चीजें स्पष्ट दिखाई देती है। कुछ लोग बहुत अधिक लिप्त है, अपने देश से, अपनी पूजा विधि से आदि-आदि। ये सभी मोह त्यागने होंगे लोग इतने बन्धन ग्रस्त हैं कि उनके लिए ऐसा कर पाना परिवार त्यागा है, कारें त्यागी हैं, घर त्यागा है, और अपने बच्चे त्याग दिए हैं।" मैंने कहा, एक अन्य चीज़ जो तुमने त्याग दी है वह है तुम्हारा मस्तिष्क कहने लगे कि आप कैसे कहती हैं कि हमने अपनी बुद्धि त्याग दी है? मैंने कहा., "बहुत अत्यन्त कठिन है। जब तक आपके बन्धन बने साधारण बात है।" मैंने किसी चीज को पकड़ा ही नहीं, इसलिए मैंने किस चीज़ को त्यागा ही नहीं जब आपने किसी चीज़ को पकड़ा ही न हो तो त्यागना क्या है? अब मैं कहूंगी कि इस घर में या मेरे शरीर पर, कहीं भी, यदि आप सोचते हैं कि आपको श्रीकृष्ण के धूल के एक कण के बराबर भी कोई चीज़ है तो आप इसे ले जा सकते हैं। परन्तु यह श्रीकृष्ण के धूल के एक कण के समान होनी चाहिए। वे लगे इधर-उधर देखने! मैंने कहा, "तो रहेंगे तब तक आप अपने मन से ऊपर नहीं उठ सकते-मन जो मिथ्या है। आप ऐसा नहीं कर सकते। अब ये समझने का प्रयत्न करें कि आपके बन्धन क्या है? एक बन्धन, जिसे देखकर मैं बहुत हैरान हुई थी, ये है कि आप पश्चिमी देशों में जाएं तो लोग केवल श्रीगणेश के ही भजन गाते हैं। श्री गणेश के सारे भजन उन्हें याद हैं, उनके सभी 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-20.txt चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 -2006 19 फोटो उनके पास हैं, श्री गणेश का सभी कुछ, बच्चों के पास भी है और मैंने देखा है कि उनकी चैतन्य लहरियाँ रूक गई हैं। चैतन्य लहरियाँ क्या रुकनी चाहिएं? श्रीगणेश क्यों चैतन्य लहरियाँ रोकेंगे? मैंने इसका कारण महसूस किया, कि क्यों ऐसा हो रहा है, क्योंकि एक बार मैंने कहा था कि ईसा-मसीह श्रीगणेश के ही अवतार हैं। सूक्ष्म रूप से उनका सम्बन्ध केवल ईसा-मसीह और ईसाई धर्म है। कल्पना करें श्रीगणेश का जो संगीत हमने पूर्वी ब्लाक के देशों में सुना था और उससे चैतन्य- लहरियाँ रुक जाएं। वो सभी भजन केवल श्रीगणेश के गा रहे थे, सहजयोग का एक भी भजन नहीं गा रहे थे। की तो बात ही छोड़ दीजिए, एक बार यदि ये भारतीय है तो इसका रंग सांवला होगा। सभी प्रकार के ईसा-मसीह मैंने देखे हैं और मैं सोचती हूँ कि किस प्रकार ये ईसा-मसीह चैतन्य लहरियाँ प्रवाहित कर सकते हैं? मेरे फोटोग्राफ से किस प्रकार आप इनकी तुलना कर सकते हैं? कैमरे भी इसी समय विकसित होने थे क्या आप इस बात को समझ पाए हैं! कैमरे भी इसी समय बने इससे पहले नहीं। लाऊडस्पीकर भी अभी बना इससे पहले नहीं। हवाई जहाज भी इससे पूर्व नहीं बने । मैं 19 दिनों तक यात्रा करती रही, एक दिन हवाई-जहाज में वे ऐसा कुछ नहीं कर सके। कोई भी इस प्रकार नहीं कर सकता, न तो श्रीकृष्ण, न ही कोई और। उन दिनों में लोग हवाई जहाज से नहीं उड़ सकते थे। अब हम लोग कहते हैं कि हम 65 देशों में हैं। कोई कहता है 68 देशों में है ये संख्या बढ़ती ही चली जा रही है परन्तु ऐसा होना अभी में और दूसरे दिन सार्वजनिक कार्यक्रम गुरु भी नहीं । तो वहाँ भी सूक्ष्म लिप्सा है में एक व्यक्ति है, वो लोग स्वतन्त्र नहीं हैं क्योंकि सभी कलाकारों की एक विशेष शैली होती है। यदि यह रैमब्रैंड (Rambrandt) शैली है तो यही है, यदि यह लिओनार्डो (Leonardo) शैली है तो वही शैली है। ये लोग यद्यपि जन्मजात आत्म साक्षात्कारी हैं फिर भी उनकी एक ही शैली है ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो आज इस प्रकार बनाएगा और सम्भव हुआ है क्यों कि आज हवाई जहाज उपलब्ध हैं। इससे पहले ये कभी न थे तो ये सभी चीजें, बीडियो या जिस प्रकार से आप मेरी फोटो देखते हैं क्या ये इससे पूर्व कभी उपलब्ध थे? नहीं । अतः ये अत्यन्त विशेष समय है जिसमें विज्ञान ने भी साधकों को खोज करने में सहायता की है। विज्ञान ने यह कार्य किया है हमें इसका कृतज्ञ होना होगा, क्योंकि विज्ञान का एक भाग बहुत अधिक सहायक रहा है। पहले कारें भी नहीं होती थी मैं मिलानो नहीं जा पाती। बैलगाड़ी पर जाने कल उस प्रकार। स्वतन्त्रता बिल्कुल नहीं है। अपनी शैलियों से वे बंधे शैली है और उसी का वे अनुसरण करते हैं। क्या हैं। सभी की एक ही हुए कारण है? कारण ये है कि अधिकतर ने तीन या चार शैलियाँ सीखी होंगी, परन्तु लोगों ने इन्हें अस्वीकार कर दिया होगा, ये अच्छी नहीं है ये बेकार है। तो यह सब लोगों की राय है। इस प्रकार उन्होंने केवल एक शैली अपना ली कि यही शैली ठीक है' । की कल्पना करें, मेरा क्या हाल हुआ होता? तो ये समी चीजें आज आपके लिए बनाई गई है। विशेष कारणों से आप भी इसी समय जन्में है। आप ईसा-मसीह को देख सकते है यदि ये जापानी हैं तो इसकी छोटी-छोटी ऑँखे होगी, यदि ये चीनी हैं तो इसकी पिचकी हुई नाक होगी, य अवतरण त्म-साक्षात्कार नहीं दे सके य योकि उस समय आप लोग नहीं थे। आपकी योग्यता वाले बहुत कम लोग थे मुझे संदेह हे कि 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-21.txt अंक : 9& 10-2006 20 चैतन्य लहरी हैं, जो उसके बाद आए या जो आगे आएंगे, युवा या वृद्ध महिलाएं. पुरूष या बच्चे?" ऐसा ही है। काश कि मैं अपने जीवन काल में आपमें से बहुत आप अपनी योग्यता को समझते भी हैं! जिस प्रकार से आप कभी-कभी बढ़ते हैं, उससे पता चलता है कि आपको अपने क्षेम का ज्ञान नहीं है। आप नहीं जानते कि आप क्या है, सारा वातावरण कितना से लोगों को इतना परिवर्तित, इतने सुन्दर रूप में, कार्यान्वित है! विज्ञान ने भी कार्य किया है। विज्ञान इतना अच्छा, इतना महान और इतने अच्छे वातावरण प्रकृति की देन है। ये सब आप लोगों पर कार्यान्वित में देख सक! मेरे लिए यह बहुत बड़ा संतोष है और किया गया है ताकि आप कम से कम समय में कई बार तो मैं सोचती हूँ कि अब करने को कुछ परन्तु, ये लोग कभी यहाँ आमन्त्रित करते हैं कभी वहाँ। लोग ऐसा करते हैं परन्तु सच्चाई ये है कि मैं अत्यन्त सन्तुष्ट उच्चतम अवस्था प्राप्त कर सकें। परन्तु इसके बाकी नहीं है, सब कार्य हो गया है। लिए आपको अत्यन्त अन्तर्वलोकन करने वाला होना होगा अन्तर्वलोकन आपकी सहायता करेगा हूँ। आपने जब पेड़ लगा दिया है, ये आम के पेड़ जैसा है। आम के पेड़ को यदि एक बार लगा दिया और आप वास्तव में महान गुरु बन जाएंगे जब आप अन्य गाँवों में, अन्य स्थानों पर, अन्य नगरों में जाएंगे तो आपको देखकर ही लोगों को समझ जाना चाहिए कि कोई महान लोग आ गए हैं। आपको कुछ नहीं बताना, कुछ प्रमाणित नहीं करना, आपके स्वभाव की सहजता ही सभी कार्य करेगी। पहली बार जब मैं लेनिनग्रैड (Leningrad) गई तो कोई भी मेरे विषय में कुछ न जानता था, कोई विज्ञापन नहीं हुए, कुछ नहीं। वहाँ केवल थोड़े से पोस्टर लगाए गए थे। फिर भी दो हजार लोग हॉल जाए और तीन चार वर्ष उसकी देखभाल कर ली जाए तो बाद में यह अपनी देखभाल स्वयं करता है। इसी प्रकार से आपके साथ भी घटित होना चाहिए। आपको स्वयं ही उन्नत होना चाहिए। निःसन्देह हमें ऐसे लोग भी मिलेंगे जो मूर्ख हैं, आक्रामक हैं और जो बिल्कुल भी सहजयोगी नहीं है, फिर भी सहजयोगी बनने का प्रयत् कर रहे हैं। सभी प्रकार के लोग मिलते हैं, आप बस उन्हें देखते रहिए केवल इतना ही। के अन्दर थे और दो हजार हॉल के बाहर तथा दो हजार लोग और आए, अधिकतर लोग जमीन पर बैठे हुए थे मैं हैरान थी! मैंने कहा, "किस प्रकार आप मेरे कार्यक्रम में आए?" उन्हों ने कहा, "श्रीमाताजी स्पष्ट है. आपके फोटोग्राफ से!" वहाँ पर वैज्ञानिक थे, डॉक्टर थे, और सभी प्रकार के बुद्धिजीवी लोग थे। सभी ने चेहरे से आध्यात्मिकता का अहसास किया। हमारे अन्दर भी ऐसी ही संवदेना होनी चाहिए, तब आपको विवेक की आवश्यकता नही रहेगी। कुछ नहीं। क्योंकि आप जानते हैं ये ऐसा है. ये ऐसा है. ये ऐसा है। न तो आपको अन्दाजे लगाने पडेंगे, न ही आपको सोचना पड़ेंगा । ये नहीं कह सकते कि "इसके लिए कौन सबसे अभिक उपयुक्त होगा, जो पहली बार आए इस गुरु पूजा में आपने निर्णय करना है कि मापदण्ड क्या हैं। पहली बात तो ये है कि गुरु को निरीच्छ होना चाहिए, किसी भी प्रकार की कोई इच्छा नहीं, पूर्णतः निरीच्छ । भारत में एक कुगुरु है जिन्होंने कहा कि यदि मेरे पास वो शक्तियाँ होतीं जो श्रीमाताजी के पास हैं तो मैं विश्व सम्राट बन गया होता!" लोगों ने कहा, "तो आप बन क्यों नहीं जाते?" वह कहने लगा, "माँ ऐसी क्यों नहीं बन जाती? वो साम्राज्ञी क्यों नहीं बन जात्ती?" लोगों ने कहा, "क्योंकि वे निरीच्छ हैं अर्थात उनमें कोई इच्छा नहीं है। इच्छा विहीन व्यक्ति कुछ भी नहीं बनेगा। तो मैंने कहा कि जाकर उसे बता दो कि 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-22.txt अंक : 9& 10-2006 21 चैतन्य लहरी जब तक तुम्हारे अन्दर इच्छाएं हैं तुम शक्तियाँ भी प्राप्त नहीं कर सकते। वे क्योंकि निरीच्छ हैं है। क्योंकि उन्हें ही नुकसान होगा मुझे नहीं अतः इन चीजों की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं इसीलिए उनमें ये सारी शक्तियाँ हैं। अतः जब भी आपके मस्तिष्क में कोई इच्छा हो तो आपको कहना चाहिए, "मैं ये प्राप्त नहीं करना चाहता। एक. अन्य चीज ये है कि ये देखने का प्रयत्न करें कि आपका मस्तिष्क प्रतिक्रिया न करे। कुछ लोगों की प्रतिक्रिया करने की आदत है या मैं कहूंगी कि अधिकतर की आप इन्हें कुछ बताएं और वे अपनी भी एक पूँछ इसमें डाल देंगे। किसी अन्य की कही हुई बात को वे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। आप यदि प्रतिक्रिया कर रहे हैं तो आपके मस्तिष्क में क्या जाएगा, आपके हृदय में क्या जाएगा, और आपके चित्त में क्या जाएगा? अतः प्रतिक्रिया यह दर्शाती है कि आप का ठीक से विकास नहीं हुआ जो चित्त आपके मस्तिष्क, इसे भूल जाएं। इच्छा जब भी आप पर हावी होने लगे तो तुरन्त अपने चित्त को दूसरी ओर ले जाएं। कोई भी तुच्छ इच्छा आप पर नियंत्रण कर सकती है और केवल निर्विचार चेतना में जाने से ही आप निरीच्छ बन सकते हैं। जब भी कोई समस्या आए अपनी निर्विचार चेतना की अवस्था में चले जाने की योग्यता होनी चाहिए। बस शान्त हो जाएं। अपनी इच्छाओं को शान्तिपूर्वक देखें और उन्हें बताएं, "मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ, अब मत आओ। मुझे तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार से आप निरीच्छ बन सकते हैं। शरीर तथा सर्वत्र जाने का प्रयत्न करता है वह बहाँ नहीं जा पाता। वह वहाँ पर प्रवेश नहीं कर पाता, फिर करुणा है और वास्तव में करुणा ही क्योंकि ज्योंही ये प्रवेश करने का प्रयत्न करता है शक्ति बन जाती है। छोटी-छोटी चीजों में आप अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कर सकते हैं, छोटी- देखने के लिए आप किसी चीज़ को नहीं देख छोटी चीजों में । और अत्यन्त मधुरतापूर्वक आप अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कर सकते हैं। ये अत्यन्त महत्वपूर्ण है आज पूरे विश्व को प्रेम एवं शान्ति की कहती हैं कि पाँच बजे हैं तो आप कहते हैं कि पाँच आवश्यकता है और जहाँ तक हो सके हमें सभी को यह प्रेम एवं शान्ति देनी है सहजयोगियों को देना बहुत आसान है। परन्तु उन लोगों को भी प्रेम और शान्ति देनी है जो सहजयोगी नहीं है। हमें चाहिए कि उनसे प्रेम एवं सम्मान पूर्वक व्यवहार करें। परन्तु आपमें ये इच्छा नहीं होनी चाहिए कि होती है । अपने मस्तिष्क से यदि आप कह दें. इसके बदले उनसे हमें कोई आशा नहीं करनी है। उनके लिए जो कर दिया है बस ठीक है। आप ऐसे चीज के प्रति प्रतिक्रिया करने वाला नहीं हू, तो बहुत से सहजयोगियों को जानते हैं जो सहजयोग में आए, बहुत कुछ प्राप्त किया, फिर भी हमें धोखा दिया। कोई बात नहीं, ये कोई अहम बात नहीं है तो प्रतिक्रिया द्वारा आप इसे रोक देते हैं । केवल सकते। आपको तो प्रतिक्रिया करनी ही है। ये बात अच्छी नहीं है, बिल्कुल अच्छी नहीं है। मैं यदि बजकर दो मिनट तीन सैकेण्ड हुए हैं! ये संस्कार भयानक बन्धनों के कारण आते हैं। इन बन्धनों को जाना होगा 'प्रतिक्रिया नहीं करनी। किसलिए आपको प्रतिक्रिया करनीं चाहिए? फिर बहस शुरू हो जाती है, झगड़े शुरू हो जाते हैं, गालीगलोंच "बिल्कुल कुछ नहीं, तुम मिथ्या हो और मैं किसी 99.9% समस्याओं का समाधान हो जाएगा। और अन्त में 'अह' आता है। सन्त में अह 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-23.txt अंक : 9& 10 2006 चैतन्य लहरी 22 का होना मेरी समझ से परे है । मैं इसे समझ ही नहीं सकती। अहं होना अत्यन्त मूर्खता है । ये तो एक प्रकार का नियंत्रण है छोटी सी चीज बिगड़ने वास्तव में विश्व पर विजय प्राप्त करते हैं! गुरु पूजा के इस दिन, गुरु से आशा की पर भी आप नाराज़ हो जाते हैं, कोई यदि कुछ जाती है कि वह शिष्यों को कुछ ऐसा बताए जिससे उनका सुधार हो। अपने मधुर ढंग से मैंने आपको जो भी कहा है उसका आप बुरा न माने। किसी भी प्रकार से मेरा अभिप्राय आपकी भत्त्सना करना नहीं है, आपको अन्तर्वलोकन का उपयुक्त विवेक प्रदान करना है, अन्तर्वलोकन का उपयुक्त विविक जिससे कहता है तो आप नाराज हो जाते हैं। इसका अर्थ ये है कि प्रेम एवं करुणा की आपकी शक्ति पूर्ण नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर निःसन्देह आप लोगों को सुधार सकते हैं, परन्तु इसके लिए आपके अन्दर ये शक्ति होनी चाहिए। जिस व्यक्ति को आप सुधार रहे हैं उसकी समझ में आना चाहिए कि प्रेम के कारण आप ऐसा कर रहे हैं स्वार्थ एवं अपने लाभ के लिए नहीं। परन्तु यह अहं बहुत बड़ी समस्या है। ये आपमें जाग जाता है और आपको आप सब गुरु पद प्राप्त कर सके। मेरी एक मात्र, मुझे इच्छा नहीं कहना चाहिए क्योंकि इच्छा तो मुझमें है ही नहीं, तो मेरा एकमात्र स्वप्न ये है कि मैं सभी योगियों को प्रेम की शक्ति में डूबे हुए, एक दूसरे के प्रेम का आनन्द लेते हुए. पारस्परिक सम्बन्धों का आनन्द लेते हुए, और पारस्परिक सम्बन्धों को सुधारते हुए देखूं। मैं जानती हूँ कि समस्याएँ खड़ी करने वाले लोग भी हैं. मैं जानती हूँ वे समस्याएँ खड़ी करते हैं। परन्तु यदि आप समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते तो आपके अक्खड़ एवं भयानक बना देता है। परन्तु यदि आप विनम्र हैं, सच्चाई में, व्यापारियों की तरह से विनम्र नहीं, अपने अन्दर से, अपने हृदय से यदि आप विनम्र हैं, विनम्रता का आनन्द लेते हैं तो यह अहं दूर हो सकता है। अब आपने स्वयं से प्रश्न पूछना है कि किस कारण से मैं नाराज हूँ? पुनः मैं उसी बिन्दु पर आ गई हूँ, 'अन्तर्वलोकन', क्योंकि यहाँ पर आप कोई कार्य करने के लिए नहीं आए, सन्त बनने के लिए आए हैं। ये अहं प्रेम एवं करुणा का शक्तिशाली यन्त्र बनाया जाना चाहिए। आप इस कार्य को कर सकते हैं, ये कठिन नहीं है 'अहं' क्या है? चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया किसी भी चीज के प्रति आप अत्यन्त मधुरता पूर्वक प्रतिक्रिया कर सकते हैं और अत्यन्त विनाशकारी ढंग से भी तब विनोदशीलता आती है। आपको इस प्रकार बोलना चाहिए मानो सुगन्धित फूलों की कलियाँ खिल रही हों । तब आपकी सभी गतिविधियाँ मधुर एवं सुकोमल बन जाएंगी अहं अत्यन्त कोमल अच्छा, मधुर, क्षमाशील एवं प्रेममय होना चाहिए। आइए ऐसा अहं प्राप्त करें, ऐसे अहं से शुरुआत करें। विपरीत दिशा से, और हमें हैरानी होगी कि किस प्रकार हम गुरु बनने का क्या लाभ है? अतः मैं आप पर छोड़ती हूँ कि जिन समस्याओं का आप सब सामना कर रहे हैं, उनका स्वयं समाधान करें, प्रेम एवं करुणापूर्वक अन्तर्वलोकन करके, अपनी भत्त्सना द्वारा नहीं। मुझे विश्वास है कि आप इस कार्य को कर सकते हैं। 1 परमात्मा आप पर कृपा करें। सभी पूजाओं में मैं मेजबान देशों को, सभी पुरुषों, सभी महिलाओं तथा अगुआओं को उपहार देती हूँ। परन्तु मुझे खेद है कि गुरु पूजा पर मेरा किसी को भी उपहार देना उचित नहीं समझा जाता। केवल गुरु ने ही आपसे सभी कुछ छीनना होता है। (हँसी.) ये सभी कुछ साड़ियाँ आदि जो मुझे दी जाती हैं केवल गुरु पूजा पर ही दिया 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-24.txt अंक 9.& 10-2006 चैतन्य लहरी 23 जाना चाहिए। परन्तु मुझे खेद है कि मैं आज किसी भी देखना है क्योंकि आप सबने अन्दर और बाहर दोनों ओर उन्नत होना है, और सहजयोग को सर्वत्र फैलाना है अतः चाहे आप पुरुष हों या महिला, आपने देखना है कि आपने कितने लोगों को आत्म-साक्षात्कार दिया। विश्व भर में आत्म- को या किसी अन्य को कुछ नहीं अगुआ दे सकती। आशा है आप लोग बुरा नहीं मानेंगे। एक माँ के लिए गुरु बनना बहुत कठिन कार्य है क्योंकि गुरु हैं। वे हमेशा शिष्यों को अनुशासित करने का प्रयत्न करते हैं और उनके प्रति अत्यन्त कठोर व्यवहार करते हैं। परन्तु एक माँ इतनी कठोर नहीं हो सकती। माँ-गुरु के साथ ये समस्या होती है। ये भी एक कारण हो सकता है कि कभी-कभी लोग सहजयोग को स्वीकृत रूप से ले लेते हैं। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि आपको तो अत्यन्त कठोर अनुशासनप्रिय होते साक्षात्कार का कार्य आरम्भ करना आवश्यक है। इसी प्रकार से सहजयोग फैलेगा और जिस प्रकार मैं आजकल यात्रा कर रही हूँ, फिर मुझे वैसे यात्रा करने की आवश्यकता न रहेगी। सब लोग इस बात की जिम्मेदारी लें कि कम से कम अपने नगरों और कार्य स्थानों के क्षेत्र में यात्रा करें। खुलकर आप सहजयोग की बात करना आरम्भ करें सभी आशीर्वाद, सभी शक्तियाँ आपके साथ हैं। किसी को यदि कोई कठिनाई आए तो बन्धन देकर चीज़ों को ठीक कर लें। ऐसा करना आप अच्छी तरह से जानते हैं, सहजयोग की हर चीज का ज्ञान आपको है, इसके बारे में कुछ बताने की मुझे आवश्यकता नहीं है आवश्यकता तो केवल उपयोग करने की है। चाहे आपके पास सभी यन्त्र हों, परन्तु इनका उपयोग किए बिना कोई कार्य न होगा। पूर्ण प्रेम एवं आशीर्वाद के साथ अब मैं आपको अलविदा कहती हैँ। 1 आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हो गया है। आप आत्म साक्षात्कारी हैं आप गुरु हैं। आपको अपनी उत्क्रान्ति की चिन्ता करनी चाहिए। मुझे आपको ये बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि आपको ऐसा करना है आपको वैसा, क्योंकि आपके हाथों में प्रकाश है और आप इस कार्य को भली-भांति कर सकते हैं आशा है कि आज का प्रवचन आपको बहुत पसन्द आया होगा और यदि मेरी कही हुई किसी बात से आपको परेशानी हुई हो तो आप उसका बुरा नहीं मानेंगे। परन्तु व्यक्ति को ये सब धन्यवाद । ९५ 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-25.txt गुरु स्तुति परम पूज्य श्री माताजी के श्री चरणों में अर्पित ज्ञानेश्वरी के अध्याय 12 से 18 पर आधारित हे, गुरु माँ (गुरु मौली) आपको कोटि-कोटि प्रणाम। अपने बच्चों पर निर्मल एवं शाश्वत आनन्द, हे गुरु मौली (गुरु माँ) अपने अमृत का भोजन आप हमें प्रदान करती हैं और 'सोहं हंसा' के अनहद् नाद की लोरी गाकर हमारी आत्मा को 1. 7. आप ज्योतिर्मय करके हमें योगनिद्रा में सुलाती हैं। सर्वत्र विख्यात हैं। हे श्रीमाताजी, हे गुरुमूर्ति, आप ही सभी साधकों की माँ हैं। सारी विद्या का उद्भव आपके चरण कमलों से होता है। कृपा करके वर दें कि हम आपके चरण कमलों की छाया में सदा-सर्वदा है, गुरु माँ, हे करुणामयी, वासनारूपी सर्प अपने शिकंजे में कसकर जब हमें डसता है तो उसका जहर हमारी चेतना का हरण कर लेता है। वासना रूपी इस सर्प के जहर को उतारना भी बहुत कठिन कार्य है परन्तु हे प्रेममयी माँ, आपके एक कटाक्ष मात्र से यह ज़हर लुप्त हो जाता है तथा चेतना पुनर्जागृत हो उठती है। 8. 2. बने रहें। श्रीमाताजी अपनी करुणा का आश्रय जब आप हमें प्रदान करती हैं तो हम दिव्य ज्ञान (शुद्ध विद्या) में पारंगत हो जाते हैं। 9. हे, परमप्रिय गुरु, श्री माताजी, अत्यन्त कृपा कर आपने अमृत का सागर हमें प्रदान किया है। सांसारिक जीवन की तपन किस प्रकार हमें कष्ट दे सकती है और किस प्रकार इसके दुख हम पर विजयी हो सकते हैं? 3. हे गुरु, श्री माताजी, आपको कोटि-कोटि प्रणाम । आपके चरण कमलों की छत्रछाया में ही शुद्ध विद्या पनपती है श्रीमाताजी निःसन्देह आपके चरण कमल ही हमारी आत्मा हैं। 10. हे परम प्रिय गुरु, केवल आपकी कृपा के कारण ही आपके बच्चे योग के आशीष का शाश्वत् आनन्द उठा रहे हैं। आप ही अत्यन्त प्रेमपर्वूक हम पर सोहं (मैं वही हैं) की आशीष वर्षा कर रही हैं। 4. श्रीमातांजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम| 11. आपका स्मरण मात्र हमें शब्दों के अरथाह सागर पर आधिपत्य प्रदान करता है अर्थात अपनी सूक्ष्म भावनाओं को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने की शक्ति हमें प्राप्त हो जाती है और हमारी जिह्वा से दिव्य ज्ञान (शुद्धं विद्या) बहने लगती है । है माँ, अपने हृदय के झूले में, अपनी गोद में, अपनी पोषक शक्ति द्वारा आप प्रेमपूर्वक अपने बच्चों का लालन पालन करती हैं और उन्हें योगनिद्रा में सुलाती हैं। 5. श्रीमाता जी आपको कोटि कोटि प्रणाम। आपके स्मरण मात्र से व्यक्ति की वाणी इतनी हो जाती है कि माधुर्य, अमृत तथा सभी रस 12. मधुर विनम्र होकर शब्दों के माध्यम से तुरन्त अभिव्यक्त हो जाते हैं । श्री माताजी, आप हमें आरती का वरदान देती हैं, आत्मा जिसकी लपट है, और खेलने के लिए मनःशक्ति तथा प्राणशक्ति रूपी दो खिलौने प्रदान करती हैं। तथा, हे माँ, आध्यात्मिक आशीष के गहनों से हमारा श्रृंगार करती हैं। 6. श्रीमाताजी आपको कोटि कोटि प्रणाम आपकी अनुकम्पा से आपके बच्चों को ऐसे शब्द 13. 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-26.txt चैतन्य लहरी अंक : 9& 10 -2006 25 जादू का सम्मोहन डालता है तो दर्शक पूरे विश्व को भूल जाते है। परन्तु जादूगर स्वयं को छुपा नहीं सकता। परन्तु श्रीमाताजी आपकी माया का आपके विषय में सत्य की चेतना को लुप्त सूझते हैं जो आत्मा से उदित होने वाले गहन अनुभव तथा सूक्ष्म रहस्यों को अभिव्यक्त करते हैं। श्रीमाताजी हमारे हृदय जब आपके चरण कमलों में होते हैं तो सौभाग्यश्री, दिव्य ज्ञान तथा साक्षात्कार की कृपा हम पर होती है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम। 14. जादू कर देता है और व्यक्ति भ्रान्तिमय संसार को सत्य मान लेता है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम् । श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । केवल आप ही संसार के ज़े-ज़रें में व्याप्त हैं। सहजयोगियों तथा आत्म साक्षात्कारी लोगों में आप श्रीमाताजी आप सर्वदेवों में महान् हैं। दिव्य ज्ञान का प्रकाश (प्रज्ञा) प्रदान करने वाले सूर्य आप ही हैं आप ही की कृपा से आपके बच्चे (साधक) निरानन्द रूपी जीवन आनन्द प्राप्त कर सके श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 20. 15. अपने ब्रह्म रूप में प्रकट होती है। ब्रह्मरूप में प्रकट होकर उन्हें अन्तरप्रकाश प्रदान करती हैं। परन्तु माया में लिप्त लोग आपके विषय में नहीं जान पाते। श्रीमाताजी आपसे सम्बन्धित आपकी यह लीला अत्यन्त अद्भुत है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम 16. आप ही वह वट वृक्ष हैं जिसकी छाया में आपके बच्चे सुख और सुरक्षा का अनुभव करते हैं। अपने बच्चों के हृदय में आप ही 'सोह का सूक्ष्म रहस्य प्रकट करती हैं। आप ही वह सागर है जिसमें तीनों लोक प्रकट तथा लुप्त होते हैं। श्रीमाताजी आप ही की शक्ति जल को तरलता तथा पृथ्वी माँ को क्षमा का गुण प्रदान करती है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 21. श्रीमाताजी त्रिलोकी में आप ही की शक्ति सूर्य तथा चन्द्र की तरह चमकती है। बिना आपकी शक्ति के वे मोती को जन्म देने वाली सीप के खोल सम होते। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि श्रीमाता जी कष्ट में फँसे अपने बच्चों की 22. 17. रक्षा करने में आप देर नहीं करती। आप करुणा को अनन्त सागर हैं। सारा दिव्य ज्ञान आपका अभिन्न मित्र है श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । प्रणाम । श्रीमाताजी आप ही की शक्ति के कारण श्रीमाता जी आपकी माया की लीला में 23. 18. पवन स्वतंत्रता पूर्वक कहीं भी बहती है तथा सर्वव्याप्त प्रतीत होने वाला गगन आपके ब्रह्माण्डीय अस्तित्व का मात्र नन्हा सा भाग है जिसे वैसे ही खोजना पड़ता जैसे लुका छिपी खेल में छिपे व्यक्ति जब हम लिप्त होते हैं तो हमें लगता है कि यह संसार सत्य है। परन्तु जब आप अपना ब्रह्म रूप प्रकट करती हैं अर्थात् सर्वशक्तिमान परमात्मा का सच्चा रूप, तो हमें इस बात का ज्ञान होता है कि श्रीमाताजी आप ही सर्वव्याप्त हैं श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । हुए को। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । श्रीमाताजी केवल इतना ही नहीं है माया भी आपके विराट रूप का एक नन्हा सा अंश है 24. श्रीमाताजी जादूगर जब दर्शकों पर अपने 19. 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-27.txt अंक : 9& 10 -2006 26 चैतन्य लहरी पवित्र करके इसकी पाजेबें बनाकर इन्हें आपके चरणों में पहना सकें। और अन्तर प्रकाश का उद्भव भी आप ही की शक्ति के कारण है। श्रुतियों (वेदों) ने आपके रूप का वर्णन करने का निरर्थक प्रयास किया परन्तु आपके रूप को समझ न पाईं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । करें कि अपने प्रेम के श्रीमाताजी 30. कृपा शुद्ध स्वर्ण में अंगूठियाँ बनवाकर हम आपकी पादांगुलियों में पहनाएं। श्रीमाताजी परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करने में वेदों को दक्ष माना जाता था। परन्तु ये दक्षता तभी तक सीमित थी जब तक उन्होंने 25. श्रीमाताजी, आनन्द सुगन्ध से परिपूर्ण सत्व रूपी पुष्प हम आपके चरण कमलों में अर्पित करते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम | 31. गुण आपके ब्रह्म-रूप का अवलोकन नहीं किया आपके पावन स्वरूप का वर्णन आरम्भ करते ही वेद बिल्कुल वैसे ही शान्त हो जाते हैं जिस प्रकार हम आपके ध्यान की स्थिति में होते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । श्रीमाताजी, अपने अहं की अगरबत्ती जलाकर हम 'न अहं की भावना की ज्योति से आपके चरण कमलों की आरती उतारते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 32. श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । हम, आपके सभी बच्चों ने अपने हृदय शुद्ध कर लिए हैं। कृपा करके अपने चरण कमल हमारे हृदय में विराजित करें अपने हृदय में, श्रीमाताजी, में धारण कीजिए श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि हम आपके चरण कमलों की पूजा करना चाहते हैं। 26. श्रीमाताजी हमारा शरीर और प्राण पादुकाओं का जोड़ा है। कृपा करके इसे अपने चरण कमलों 33. 1 प्रणाम। श्रीमाताजी तदात्म्य भाव हमारी युग- हस्तांजलि सम है जिससे हम कलियाँ निकालकर आपके चरण कमलों में अर्पण करते हैं हमारी नाड़ियाँ चक्र तथा इन्द्रियाँ ही ये कलियाँ हैं इन्हें हम आपके चरण कमलों में समर्पित करते हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम| श्रीमाताजी कृपा करें कि आपके चरण 34. 27. जो आपके बच्चे कर रहे हैं, सभी कमलों में ये कमियों के बावजूद भी पूर्ण हो और आप इसे स्वीकार करें। पूजा, श्रीमाताजी अपनी पूजा का ये अवसर आपने हमें प्रदान किया, इसके लिए हम आपके श्रीमाताजी अनन्य भाव से (पूर्ण समर्पण सभी बच्चे अखण्ड आभारी हैं। हमारे जीवन से दुःख समाप्त हो गए हैं, पाप क्या होता है ये हम भूल गए हैं और दारिद्रय का अस्तित्व समाप्त हो गया है। आपके पावन दर्शन करके जीवन की पूर्णता का आनन्द हमें प्राप्त हो गया है। श्रीमाताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । 35. 28. भाव से) हम आपके चरण कमल धोते हैं और उन पर अपनी अनामिका (Ring Finger ) से समर्पण का चन्दन लगाते हैं। श्रीमाताजी आपको कोटि- कोटि प्रणाम । जी श्रीमाताजी आपके प्रति हमारा प्रेम स्वर्ण 29. की तरह से है। कृपा करें कि हम इस स्वर्ण को 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-28.txt श्रीकृष्ण पूजा ा कर जिनेवा 28-8-1983 (परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन) "योगेश्वर' रूप है और उनका दूसरा पक्ष 'विराट' आज इस पावन भूमि पर हम श्रीकृष्ण का जन्म-दिवस मना रहे हैं। श्रीकृष्ण पितृत्व रूप । ाम (Fatherhood) की पराकाष्ठा है, ये बात मैं पहले योगेश्वर अर्थात योग के स्वामी या योग भी वर्णन कर चुकी हूँ। पृथ्वी पर अवतरित होकर की शक्ति । वे योगेश्वर इसलिए कहलाते हैं क्योंकि उन्होंने इस पराकाष्ठा का उदाहरण दिया। अतः 1. उन्होंने उस उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लिया श्री कृष्ण-चेतना पृथ्वी पर पितृ-धर्म का उच्चतम था जो किसी भी योगी का लक्ष्य होती है मानो वे ही वो आदर्श हों जिस तक आपने पहुँचना है। योगी के रूप में, उनका जन्म एक शाही परिवार में उदाहरण है। परन्तु परमात्मा के साम्राज्य में, हम कह सकते हैं, स्वर्ग में या सबसे ऊपर सदाशिव का स्थान है जो कभी अवतरित नहीं होते (सदा शिव हैं) । श्रीकृष्ण उनके भिन्न पक्षों में से एक हैं। सदा शिव पिता हैं और श्रीकृष्ण उनके पक्षों में से एक पक्ष है और आदिशक्ति या परम चैतन्य इसी आदिशक्ति का एक अन्य अंश हैं, आदिशक्ति जो राधा रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुईं। ईसा-मसीह की माँ के रूप में अवतरित होने वाली भी वही हैं। श्रीकृष्ण के नाम पर ही उन्होंने ईसा-मसीह का नामकरण किया (खिस्त), मानो यह भी श्रीकृष्ण का ही नाम हो, श्रीकृष्ण' से। भारतीय भाषा में इसे खिस्त कहते हैं। पहले भी मैंने आपको बताया है हुआ परन्तु वे वनों में, जंगलों में, गऊओं के साथ, सर्व-साधारण लोगों.के साथ रहे। गायें चराने के लिए जब वे जाते तो कहीं भी सो जाते, कभी पत्थरों पर, कभी घास पर । अपनी शक्तियों के प्रति वे अत्यन्त जागरूक थे, अत्यन्त-अत्यन्त चेतन, अत्यधिक चेतन, परन्तु इस मामले में उनमें ज़रा भी अहं न था। संहार-शक्ति उनकी एक विशेष शक्ति थी जिससे वे दिव्याभिव्यक्ति को हानि पहुँचाने वाले सभी लोगों को नष्ट कर सकते थे। कि उन्हें 'येशु' या 'जेस क्यों कहते हैं। तो आज हम श्रीकृष्ण के उन दो पक्षों को देखेंगे जो उनके दिव्य अवतरण से अभिव्यक्त हुए। उनके हाथ का चक्र (सुदर्शन) इस संहार शक्ति की अभिव्यक्ति है और दूसरे उनकी गदा| ये दोनों शक्तियाँ उनके अन्दर थीं और वे राधा की शक्ति के अनुरूप कार्य करते थे क्योंकि राधा जी ही श्रीकृष्ण की शक्तियों को धारण करती है इसका प्रमाण ये है कि जब तक श्री राम के जीवन में उन्होंने एक ऐसे पुरुष को दर्शाया जो पुरुषोत्तम' थे, सांसारिकता के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम पिता और श्री कृष्ण के जीवन में उन्होंने सर्वश्रेष्ठ पितृ-धर्म को दर्शाया- योगेश्वर को, तथा उनके दिव्य कार्यों को अतः राधा के साथ गोकुल में थे तब तक उन्होंने 'संहार कार्य किया, तत्पश्चात् वे अर्जुन के सारथी बन गए। तो अपने शिष्य अर्जुन के लिए वो उनके श्रीकृष्ण का पहला पक्ष, जो हमने समझना है, सारथी तक बन गए । 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-29.txt ा अंक : 9 & 10-2006 28 चैतन्य लहरी मि ईसा-मसीह करते हैं, आत्मा द्वारा होता है। अतः "योगेश्वर का एक अन्य महान गुण उनकी पूर्ण सद-सद् विवेक' की शक्ति थी। वो जानते थे कि कौन राक्षस है और कौन नहीं है, कौन अच्छा है और कौन बुरा, कौन भूत-बाधित है और कौन नहीं, कौन अबोध है और कौन नहीं। ये गुण उनके अन्तर्रचित था- 'सद-सद विवेक' की पूर्ण शक्ति। एक योगी के रूप में अब आपने महसूस करना है कि आपकी मानसिक स्थिति आकाशीय (स्वर्गीय) होनी चाहिए। े और आपके प्रति अहं की क्या स्थिति होनी चाहिए? यह इसका अहं भाग है कि आपको आकाशीय स्थिति में होना चाहिए, आपको चाहिए उनमें अपने साक्षी भाव को (साक्षित्व) चि प्रकट करने का सामर्थ्य था उनमें ये सामर्थ्य था । मेरा अर्थ ये है कि वो स्वयं साक्षी थे से समझना आसान होगा वे साक्षी थे। उनमें पूर कि नकारात्मकता के खेल को देख सकें। नकारात्मकता भाग जाएगी। आप इसके हाथों में न खेलें। नकारात्मकता आपसे दूर हो जाएगी। अह इस प्रकार विश्व को लीला रूप में देखने की क्षमता थी। श्री और प्रतिअहं दोनों विशुद्धि चक्र से उठते हैं। आज्ञा चक्र इन्हें अधोगति की ओर ले जा सकता है, परन्तु विशुद्धि चक्र को इन्हें अपने अन्दर राम के युग में, स्वयं को पूर्ण मानव दर्शाने के लिए वे अपनी समस्याओं में लिप्त हो गए थे ताकि लोग ये न कह सकें कि वे परमात्मा हैं। तो किस प्रकार खींचना होगा। हम परमात्मा को स्वीकार करें क्योंकि "आखिरकार तो वे परमात्मा थे। साक्षित्व की उनकी योग्यता सभी योगियों में दिखाई पड़नी चाहिए। वे आकाश योगेश्वर का महानतम गुण ये है कि वो तत्व को नियंत्रित करते हैं। संस्कृत में हम इसे बिल्कुल भी लिप्त नहीं होते, पूर्णतः निर्लिप्त हैं. पूर्णतः। खाना खाकर भी वो नहीं खाते. वो बोलते हैं फिर भी नहीं बोलते, वो देखते हैं फिर भी नहीं देखते सुनते हैं फिर भी नहीं सुनते इन चीजों की उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, कोई प्रभाव नहीं आकाश' (Ether) तत्व कहते हैं। अब आप जानते हैं कि आकाश तत्व को हम दूरदर्शन, रेडियो तथा अन्य सभी प्रकार के सामूहिक कार्यों के लिए उपयोग करते हैं। तो योगियों के रूप में आकाश-तत्व होता और न ही वे इनके अनुरूप कार्य करते हैं। वो जो भी हैं पूर्ण हैं - सोलह कलाएं, पूर्णिमा के पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए। यह सभी तत्वों में सूक्ष्मतम है। क्योंकि इसके माध्यम से आप किसी भी चीज़ में प्रवेश कर सकते हैं, बिल्कुल प्लास्टिक की तरह से, हर पदार्थ में, चीजें आकाश तत्व में प्रवेश नहीं कर सकती। अतः चाँद की होती हैं, चाँद का सोलहवाँ दिन पूर्णिमा होती है। व्यक्ति को भी ऐसा ही होना चाहिए, अपने आप में पूर्ण, पूर्णतः आत्म विश्वस्त। परन्तु अहंकार में भी। परन्तु ये वायु को आत्म-विश्वास नहीं मान लिया जाना चाहिए, नकारात्मकता भी आकाश-तत्व में प्रवेश नहीं कर आत्म विश्वास पूर्ण विवेक है, पूर्ण धर्म, पूर्ण प्रेम, पूर्ण सकती। तो जब आप आकाश क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो वास्तव में उस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जो सौन्दर्य और पूर्ण परमात्मा है इसे यही होना निर्विचार चेतना का क्षेत्र है और उसका सम्पोषण चाहिए। 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-30.txt चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 29 अन्य चीज़, जो आज सहजयोग की अवस्था में हमने श्रीकृष्ण के बारे में समझनी है, वह है इस समय अभिव्यक्त होने वाली विराट शक्ति, उनके समय पर अभिव्यक्त होने वाली श्रीकृष्ण शक्ति नहीं। आज जो शक्ति कार्य कर रही है वह श्री राधा या श्री मैरी की शक्ति नहीं है यह 'वीराटांगना की शक्ति है। यही कारण है कि सहजयोगियों का जब उन्होंने गीता में कहा, "सर्वधर्माणां परित्यज्य मामेकमं शरणम व्रज।' तो उनका अभिप्राय ये था कि जिन चीजों के बारे में आप चिन्तित हैं उन सभी चीजों की चिन्ता को छोड़ कर मुझसे एक रूप हो जाएं, मैं आपकी देखभाल करुंगा। श्रीकृष्ण पर जिम्मेदारी छोड़ दें। तो पूर्ण समन्वित दिव्यत्व आपके माध्यम से अभिव्यक्त होने ज्ञान युग-युगान्तरों के सन्तों से कहीं विशाल है। परन्तु ये उनसे गहन नहीं है । अपने ज्ञान को लगेगा। अभिप्राय ये है कि यदि आप कहते हैं कि मुझे जिम्मेदार होना है तो वो कहते हैं, "ठीक है, यदि आप गहन बना सकें तो इस विस्तृत ज्ञान की जड़े आपके अन्दर ठीक से लग जाएंगी| अतः जड़ें मस्तिष्क में हैं, पूरे जीवन वृक्ष की जड़ें यहीं हैं। कुण्डलिनी जब उठती है तो सबसे पहले मुस्तिष्क को सींचती है ताकि पूरा जीवन-वृक्ष परमेश्वरी आशीर्वाद और परमेश्वरी ज्ञान से शराबोर आगे बढ़ो, और प्रयत्न करो।" परन्तु आप यदि कहते हैं कि "आप जिम्मेदार हैं, मैं तो केवल एक संस्था हूँ या आपके हाथों में यन्त्रवत् हूँ" तो आप इसकी अभिव्यक्ति भली-भांति कर सकते हैं। इस प्रकार से आपका विशुद्धि चक्र खुल जाता है। हो जाए । योगेश्वर के बारे में मैंने आपको थोड़ा सा है परन्तु हमारे अन्दर मस्तिष्क बन जाते हैं। दिव्य मस्तिष्क के सारे जो हमारे अन्दर हैं, हमें उनका ज्ञान वे हमारे अन्दर मस्तििष्क हैं। वे बताया अतः जिस विराट शक्ति को हमें कार्यान्वित करना है ये सर्वप्रथम हमें सामूहिक चेतना का विवेक प्रदान करती है। सर्वप्रथम हम इसे अपनी बौद्धिक शक्ति से समझते हैं। परन्तु मस्तिष्क की सारी शक्ति का सिंचन और पथ-प्रदर्शन हृदय गुण, होना चाहिए। अतः अपने मस्तिष्क से जो भी कुछ हम करते हैं, जैसे कुचक्र, धोखाधड़ी अन्य सभी बुराईयाँ, ये सब दिव्य उद्देश्य के लिए वही करते हैं और बुरे कार्य करने का इल्जाम भी अपने पर द्वारा होना चाहिए। संस्कृत का शब्द 'सिंचन' अत्यन्त सुन्दर है, जैसे ओस की बूंदें, परमात्मा के प्रेम का छिड़काव। तो मस्तिष्क का समन्वयन नहीं लेते और इसका दूसरा पक्ष सकारात्मक र कहलाता है। जैसे राजनीति, कूटनीति, नेतृत्व, ये प सब उन्हीं के कार्य हैं, जैसे भविष्य के बारे में आपके हृदय और जिगर के माध्यम से घटित होना सोचना, योजनाएं बनाना, विचार करना, प्रशासन, चाहिए। केवल तभी विराट शक्ति दूसरा रूप धारण ये सभी कार्य वे करते हैं । लीला के रूप में, हर करती है। विनाश के शस्त्र, क्षमा के शस्त्र बन कार्य खेल मानकर किया जाता है क्योंकि वे स्वामी हैं और 'सूत्रधार' भी जो मूक अभिनेता की तरह से तारों को झंकृत करते हैं। जाते हैं। सभी प्रकार की विनाशकारी शक्ति रचनात्मक शक्ति बन जाती है मानो युक्ति-पूर्वक इसका रुख बदल दिया गया हो। 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-31.txt अंक : 9& 10 - 2006 चैतन्य लहरी 30 जैसे मैंने अभी इन्हें एक युक्ति बताई थी किस प्रकार इन गुरुओं से युक्ति का उपयोग करें उनके अन्दर की शक्ति को उन्हीं के विरुद्ध मोड़ा के पश्चात् किसी भी व्यक्ति को ये मूल्य प्राप्त हो जाता है और इस मूल्य (महत्व) के कारण उसका सम्मान होता है, उसे प्रेम प्राप्त होता है और यदि वह सच्चा सहजयोगी है तो उसे श्रेष्ठतम मान प्राप्त होता है। जा सकता है, जैसे कहा गया है कि उनके दाँत उन्हीं की गर्दन में गड़ा दो, उन्हीं के गले में गड़ा दो । उनके दाँत तोड़ देने की अपेक्षा उन दाँतों को उन्हीं के गले में गाड़ दो। आप यदि ऐसा कर आज आपको ये समझ लेना चाहिए कि विराट शक्ति-हम विराट शक्ति की करने सकते हैं तो जहाँ तक हम पर उनके प्रभाव का पूजा वाले हैं जिसने फल दिए हैं। इसके परिणाम स्वरूप प्रश्न है, कोई समस्या नहीं है क्योंकि आप अधिक शक्तिशाली हैं, अधिक युक्तियुक्त हैं । ये भिन्न चर्च, कट्टरवाद, अनीश्वरवाद, साम्यवाद तथा सभी वाद निष्क्रिय हो जाएंगे क्योंकि इन सबको इसी में अपना हित नजर आएगा, परन्तु विराट शक्ति ने अब वह रूप धारण कर आपको तो वह बनना है सबसे बड़ी बात जो व्यक्ति ने जाननी है, वह है पृथ्वी माँ की ओर झुकना, विनम्र होना। अन्दर पूर्ण विनम्रता का होना वास्तव में आपको सहजयोग के फलों का पूर्ण लिया है वैसे ही जैसे पेड़ जब बड़ा होता है तो ऊपर की ओर बढ़ता है परन्तु जब ये फलों से लद जाता है तो नीचे की ओर झुकता है। पहले तो ये अपने फूलों के कारण आकर्षित करता है, अपनी लकड़ी के कारण तथा शरीर के अन्य भागों के कारण। वृक्ष की इन खूबियों के कारण लोग इन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु जब वृक्ष पर फल आते हैं तो लोग इनकी रक्षा करना चाहते हैं, विनम्रता से पेड़ नीचे की ओर झुक जाता है और मूल्य प्रदान करेगा । जो सहजयोगी अपनी शेखियाँ बघारते रहते हैं वो ऐसे फल की तरह से हैं जो पेड़ पर ही जाते हैं केवल उन्हीं नष्ट हो रहा है। जो नीचे झुक फलों को पका हुआ माना जाता है, उनको नहीं जो बल देकर कहते हैं कि वे सबसे ऊँचे हैं। परन्तु यह बहुमूल्य बन जाता है। तो आप लोग फल हैं, वह वीराटांगना शक्ति हैं, आप फल हैं। आप इतने बहुमूल्य है कि जो लोग परमेश्वरी शक्ति को इस पृथ्वी से मिटाना कहीं ऐसा न हो कि नकारात्मक लोग इस बात का लाभ उठा लें और कहें कि क्योंकि वे विनम्रता दिखाते हैं इसलिए वे अच्छे हैं। ये कोई तर्क नहीं है। कुछ लोग विनम्र होने का दिखावा करते हैं, कुछ सड़े हुए फल भी झुक जाते हैं। परन्तु पका हुआ फल अपने वज़न से अपनी विनम्रता दर्शाता चाहते थे, नष्ट करना चाहते थे, वो अब सोचेंगे कि इन फलों से (योगियों से) उन्हें कुछ लाभ उठाना हैं तो आज इस विराट शक्ति ने आपकों महान मूल्य प्रदान किया है क्योंकि लोगों को नज़र आता है कि किसी सहजयोगी को साथ रखना कितना है। यह गुरु तत्व का वज़न है। अतः विराटांगना शक्ति से फल रूप में मंगलमय होता है! आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-32.txt चैतन्य लहरी। अंक : 9& 10 2006 31 विकसित होने की शक्ति आपको प्राप्त होती है और तब आप गुरुतत्व से आशीर्वादित होते हैं। जो लोग को प्राप्त करना है जो अन्ततः 'माधुर्य-शक्ति' बन अभी भी बेहतर धूप, बेहतर जल और अन्य चीजों को प्राप्त करने में लगे हुए हैं, वे अभी तक परिपक्व नहीं है क्योंकि फल को न तो पृथ्वी मीठा हो जाता है । इसी प्रकार से आपके पास भी माँ से कुछ चाहिए न ही अन्य तत्वों से ये तो सभी कुछ बहुत मधुर होना चाहिए। श्रीकृष्ण की समर्पित हो जाता है, झुक जाता है, पृथ्वी माँ के सारी लीला. उनके सारे नृत्य का संचालन भी यही सम्मुख झुक जाता है। अतः जो सहजयोगी माँ से माधुर्य शक्ति कर रही थी। उनकी सभी कथाएं प्रश्न किए चले जाते हैं, उनके सम्मुख निजी यदि आप पढ़ें तो ये माधुर्य शक्ति के अतिरिक्त समस्याएं, मूर्ख धारणाएं, नकारात्मकता लाते कुछ भी नहीं, गोप-गोपियों के साथ, अन्य ऊपर उठना है और इस विराट शक्ति के पूर्णत्व जाती है। 'मधुर' शब्द अंग्रेजी भाषा में नहीं है। परन्तु इसका अर्थ है मिठास की शक्ति । जैसे फल हुए सहजयोगियों के साथ, उनकी कथाएं हैं, वो सब अभी तक फल नहीं बने। ा परिपक्व व्यक्ति तो वो हैं जो समर्पित हो अतः अन्य सहजयोगियों को, दूसरे लोगों जाते हैं, पृथ्वी माँ के सम्मुख झुक जाते हैं। अतः विनम्रता अपना आंकलन करने का सर्वोत्तम मापदण्ड को नहीं, प्रसन्न रखकर आपको अपनी माँ को प्रसन्न रखना है। ये बहुत महत्वपूर्ण हैं आज पूजा को संक्षिप्त करने जा रहे हैं, इसी कारण ऊपर (की मंजिल पर) अधिक समय लगा इसे छोटा करने के लिए तो खोए हुए समय को हमेशा- हमेशा के लिए पा लें। है और सभी कुछ अपनी माँ की गुरुत्व शक्ति पर छोड़ देना ताकि वह आपके लिए कार्य कर सके। अपनी सभी छोटी-छोटी चिन्ताओं को पीछे छोड़ते हुए आपने विक्षिप्त करने वाली इन शक्तियों से करें। परमात्मा आप पर कृपा ताक ५ TIE 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-33.txt विशुद्धि चक्र ा पतम विएना - 4.9.1983 (परम पूज्य श्रीमाताजी का पूजा-पूर्व प्रवचन) व्यक्ति की शक्ति उसकी वाणी में विशुद्धि चक्र से अमेरिका जाने से पूर्व मैं विशुद्धि चक्र और हमारे अन्तःस्थित श्री कृष्ण तत्व के बारे में कुछ और बताना चाहती थी जिनेवा की पहली पूजा में मैंने इसके बारे में काफी बताया था परन्तु इसका कोई अन्त नहीं है नि:सन्देह, क्योंकि ये विराट का चक्र है। परन्तु व्यक्ति को ये बात समझनी है कि श्री कृष्ण का सन्देश या समर्पित होना, स्थूल अर्थं में हम समर्पण का अर्थ वैसे लेते हैं जैसे एक शतरु आती है। परन्तु यह एकदम सख्त भी हो सकती है। ये शक्ति एकदम सख्त भी हो सकती है। मान लो आपके पास एक बहुत शक्तिशाली हथियार है परन्तु यदि आप उसे उठा ही नहीं सकते तो ऐसे हथियार के होने का क्या लाभ है? यह 'श्रीमान अहं इस हथियार को जाम मशीनगन की तरह से सख्त और भारी बनाने का प्रयत्न करता है। दूसरे शत्रु के सम्मुख समर्पण करता है। तो जब भी उन्होंने यही बात कही कि " समर्पण शब्द बोला जाता है, हमारे मन में एक अपना अह मुझे समर्पण कर दो," ताकि जब आप किसी मन्त्र या शब्दों का उच्चारण करें तो वे प्रभावशाली, अच्छे, धारणा बन जाती है कि हमें किसी अन्य के प्रति कुछ समर्पण करना है। परन्तु श्री कृष्ण ने जब समर्पण की बात की थी तो उन्होंने कहा था 'अपने शत्रुओं को मुझे समर्पित कर दो, ताकि मैं आपको इनसे मुक्ति दिला दूँ।" असरदार और कुशल हथियार बन सकें। जब हम बात करते हैं तो, आइए देखते हैं, किस प्रकार आपका अहं आपकी बातों से झलकता है, ताकि आप ये जान सकें कि 'मुझे किस प्रकार हमारा सबसे बड़ा शत्रु अहं है अहं से सम्बोधित करना है और किस प्रकार मेरा आँकलन अन्य सभी समस्याओं का आरम्भ होता है क्योंकि - हमारी उत्क्रान्ति में अहं सबसे बड़ी बाधा है और जैसा हम जानते हैं अहं विशुद्धि चक्र से आरम्भ करना है उदाहरण के लिए मेरे सम्मुख बहुत ज्यादा गर्दन हिलाना, इस बात की निशानी है कि श्रीमान अहं बिना बात के सिर हिला रहे हैं । जैसे बहुत से लोगो में आदत होती है यदि उन्हें हाँ होता है तथा विशुद्धि चक्र ही इसे सोखता है। कहना हो तो वे इस शब्द को दस बार कहेंगे। इसकी कोई आवश्यकता नहीं है विनम्रतापूर्वक केवल एक बार सिर हिलाकर कहें "हाँ श्रीमाताजी" ये ठीक है। ये समझते हुए कि वहाँ श्री कृष्ण बैठे हुए हैं, सम्मान-पूर्वक आप अपनी गर्दन को हिलाएं, गरिमापूर्वक। हमेशा हम इस बात को भूल जाते हैं और किसी से भी बात करते हुए हम अपने आपको दर्शाने के लिए गर्दन हिलाने लगते हैं। गर्दन को तो आइए देखें कि विशुद्धि चक्र किस्, प्रकार बना है। जिन भी सुरों का हम उपयोग करते हैं वे सब विशुद्धि चक्र से आते हैं । और जैसे देवनागरी भाषा में है - अं, अः भी यही हैं। स्वर के সव बिना आप किसी भी शब्द का संकलन नहीं कर सकते, यह इतना महत्वपूर्ण है । स्वर के बिना व्यंजन दुर्बल होता है, शक्तिहीन होता है। अतः 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-34.txt चैतन्य लहरी अंक : 9& 10 -2006 33 मधुर कि किसी का दिल न दुखे। और आप हैरान होंगे कि बिना किसी देरी के विशुद्धि इतनी मधुरता पूर्वक बर्ताव करने लगेगी क्योंकि भूतों को मधुरता अच्छी नहीं लगती वे झगड़ालू होते हैं, कठोर होते हैं, और हमेशा वे ऐसा कुछ कहने का प्रयत्न करते हैं जिससे दूसरों को चोट पहुँचे। हम इस प्रकार हिलाते हैं कि दूसरे व्यक्ति पर । इसका रोब पड़े अब एक और तरीका है जिसमें मुझसे बात हुए आप कहते हैं "नहीं श्रीमाताजी"| आम बात है, मैं यदि कुछ कहती हूँ तो लोगों की प्रतिक्रिया ये भी हो सकती है, "नहीं श्रीमाताजी"। आखिरकार आप देखते हैं कि प्रगति चल रही है और जब मैं बोलती हूँ तो ये मन्त्र होता है, और जब करते दाईं विशुद्धि को समर्पण द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। वास्तव में आरम्भ में आप अपना अहं समर्पित करते हैं। इस अहं का जब मैं नहीं बोलती तो मन्त्र-प्रवाह हो रहा होता है और आप समर्पण करते हैं तो यह समर्पण हृदयपूर्वक होना चाहिए. ये केवल जुबानी जमा खर्च नहीं होना चाहिए। आपके हृदय से "अब मुझे इस अहं की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं सच्चाई चाहता हूँ।" मैं यह सच्चाई देखूं, इसे महसूस करूं, और इसका अचानक आप अपने "नहीं श्रीमाताजी" के साथ आ जाते हैं और पूरे वातावरण में एक तरंग की रचना कर देते हैं। उस समय आप यदि केवल मुझे सुने कि मैं क्या कह रही हूँ तो मेरा कथन ही इसे कार्यान्वित कर देगा। आपको नहीं करना पड़ेगा। कुछ आनन्द लू।" एक बार हृदय से जब आप ऐसा करने लगेंगे तो आपको हैरानी होगी कि आपकी आवाज मधुर हो जाएगी इसके अतिरिक्ति आपकी आवाज़ में परमेश्वरी शक्तियाँ प्रवाहित होने लगती हैं। यही बात हम कहते हैं कि अब आप में वाकू-शक्ति आ गई है, अर्थात वाणी की शक्ति ।" एक और तरीका आपकी वो शैली है जिसमें आप मुझसे बात करते हैं। इसमें भी मैं आपकी दाईं विशुद्धि को कार्य करते हुए पाती हूँ। ऐसा तब होता है जब हम आम-तौर पर एक दूसरे से बात करते हैं, हमें यदि हॉ कहना होता है तो हम जब आप अहं समर्पण करते हैं तब कहते हैं, "मैं कुछ नहीं कर रहा, आप ही सभी कुछ कर रहे हैं।" नन्हीं बूंद अब सागर बन गई है और आपकी वाणी में अब सागर की शक्ति उत्पन्न हो कहते हैं "हूँ-हूँ। यहाँ पर ए-ए कहना आम बात है। इस शैली में वे कहते हैं हूं-हूं और इससे भी अधिक वो कहते हैं "मं-मं" मानो आप इसे स्पष्ट देख रहे हैं इसमें आपको कुछ मिल नहीं रहा होता गई है। परन्तु आप इसे बराबर के दबाव में प्रवाहित करने का प्रयत्न कर रहे होते हैं। दूसरी बात ये है आपने अहं समर्पिंत करना है, मिथ्याभिमान समर्पित करना है। विनम्रता, विशुद्धि के अहं पर विजय पाने का सर्वोत्तम मार्ग है दूसरों से बात-चीत करते तौर तरीके विकसित करें, इतने मिथ्याभिमान बहुत प्रकार का हो सकता है, उन चीज़ों का जो पूर्णतः बनावटी होती हैं परमात्मा हुए ऐसे मधुर 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-35.txt अंक : 9 & 10 -2006 34 चैतन्य लहरी रहते हैं। आप जानते हैं कि इन विवेकहीन ईष्ष्याओं का कोई मूल्य नहीं के सम्मुख आपकी सम्पत्ति कौन सी है? आपका पैसा क्या है? आपका पद क्या है? आपका न इस संसार में, न उस संसार में। आश्चर्य की बात तो यह है कि परिवार क्या है? शिक्षा क्या है? परमात्मा के सहजयोगियों में एक दूसरे के प्रति ईर्ष्याभाव है। मैं अभी तक नहीं समझ सकी कि ऐसा किस प्रकार सम्मुख ये सभी चीजें मूल्यहीन हैं। अतः व्यक्ति को महसूस करना है कि यदि हम परमात्मा की सम्पत्ति है तो हमें केवल एक ही चीज़ पर गर्व हो सकता है आप धूप में खड़े हैं और अपनी होना चाहिए कि उनका चैतन्य हमारे माध्यम से प्रवाहित होता है अर्थात उन्हें (परमात्मा) हम पर छाया से ईष्ष्या कर रहे हैं। किसी की छाया बड़ी है, किसी की छोटी है, इस कारण से आपको एक दूसरे से ईष्ष्या है। कभी-कभी मैं किसी एक व्यक्ति को तोहफा देती हूँ और दूसरे को नहीं दे पाती तो उनमें ईष्ष्या पैदा हो जाती है । कभी तो मैं केवल गर्व है। मान लो आप मुझे कोई फल देते हैं या गणेश या कुछ और देते हैं तो यह बहुमूल्य बन जाता है क्योंकि मैंने इसे छू लिया है और इसमें चैतन्य आ गया है। उदाहरण के रूप में यदि धातु उन लोगों को समय देती हूँ जो वास्तव में भटक रहे हैं। अतः व्यक्ति को समझना है कि हमारे को लें, तो इस गणेश का मूल्य कुछ भी नहीं है। ईष्ष्या के भाव मात्र मूर्खता हैं। मैं उन लोगों की बात परन्तु कला की चीज़ बनने के बाद इसका मूल्य नहीं समझ पाती जो आत्म साक्षात्कारी नहीं है फिर भी उन्हें सहजयोगियों से ईष्ष्या है और वे उन्हें गिराने का प्रयत्न करते रहते हैं। ईर्ष्याल बनने की अपेक्षा उन्हें सहजयोगियों जैसा बनना चाहिए। कुछ बढ़ गया है। इस संसार में कलात्मकता से चीज़ों के मूल्य बढ़ते हैं, परन्तु परमात्मा के साम्राज्य में या आध्यात्मिक संसार में, या परमेश्वरी संसार में गणेश जी का उसी गणेश का, उससे मूल्य, हजारों गुणा बढ़ जाएगा जितना वह उस समय था, जब वह केवल एक कलाकृति था। अतः अब जो आपको दिया जाएगा वह बहुत मूल्यवान है। अंतः बनावट और बनावटी चीज़ों का अहं और मिथ्याभिमान मानवकृत है, बनावटी है और यह समर्पित किया जाना चाहिए क्योंकि यह मात्र एक मिथक है। सहजयोग में भी मैंने कुछ अत्यन्त अटपटी चीजें घटित होते देखी हैं, इसका उदाहरण ये है कि एक व्यक्ति मेरे पास आया, वह बहुत नाराज़ था कि "श्रीमाताजी आपने उस व्यक्ति-विशेष को इतना समय दिया, मुझे बहुत जलन हो रही है और आपने कहा, "कि मुझे भी उस व्यक्ति जैसा होना चाहिए जिससे मुझे ईष्ष्या है । मैं जानना चाहूँगा कि जिस व्यक्ति को आपने इतना समय दिया, मैं उस जैसा कैसे बनू? मैंने कहा, "वह व्यक्ति वास्तव में मानव-मस्तिष्क में ईष्ष्यालुपन दूसरों से ईष्ष्या करना एक अन्य दुर्गुण है। यह विवेकहीनता पागल है! क्या आप भी पागल होना चाहते हैं? क्या के कारण आता है। परमात्मा के चरण कमलों में आपमें बिल्कुल भी विवेक नहीं है?" सहजयोगी की विशुद्धि यदि ठीक है तो उसमें विवेक होना ही यदि आप अपनी ईष्ष्याएं समर्पित कर दें । मेरा अभिप्राय है कि आप सभी प्रकार की मूर्खताएं करते 16 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-36.txt चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 - 2006 35 कहते हैं, "मेरी नौकरी मेरा व्यापार, मेरा उद्यम|" चाहिए। आपको ये बात समझनी है कि मैं जो भी कहती हूँ उसका उपयोग विवेकपूर्वक उस दिन जिनेवा में एक सज्जन बहुत कष्टकर थे किया जाना चाहिए, आँखे बन्द करके नहीं। कुछ क्योंकि वो अपनी सभी चीज़ों के प्रति बहुत चेतन हैं । अतः आप समझ सकते हैं कि जो कुछ भी मैं कहती हैं बिना विवेक के बेतुके ढंग से उसका उपयोग करना आपकी उत्क्रान्ति के लिए हानिकारक भी हो सकता है। अतः लालच। अन्य महिलाओं के प्रति अधिक लिप्त होना, कामुकता और वासना में बहुत कामुकता के साधनों को बहुत अधिक महत्व देना। अहं की एक अन्य शाखा भी है - गर्म - इससे केवल सहजयोगियों के लिए ही नहीं पूरे मिज़ाज़ होना। नि:सन्देह इसका उपयोग उन लोगों सहजयोग के लिए भी बड़ी-बड़ी समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। इस प्रकार की वासनात्मकता की अभिव्यक्ति दोनों प्रकार के लोगों में होती है, उन लोगों में जो संसार में निरंकुश जीवन जी रहे हैं तथा उन लोगों में भी जो बहुत अधिक दबे हुए हैं। मैं ऐसे लोगों को जानती हूँ जिनके बारे में माना जाता है कि वे तथाकथित धार्मिक वातावरण में पले हैं, परन्तु महिलाओं का संग मिलते ही, अचानक वे बुरी तरह से उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। निा के विरुद्ध होता है जो आपकी माँ का अपमान करने का प्रयत्न करते हैं। उनके विरुद्ध आपको करना पड़ता है। जैसा ईसा-मसीह ने कहा था इसका उपयोग उनके लिए किया जाना चाहिए जो आदि शक्ति के विरुद्ध कार्य करते हैं। इसी प्रकार से आप लोगों को भी चाहिए कि मेरे विरुद्ध किसी भी प्रकार की हिमाकत को बर्दाश्त न करें, इतनी सी को भी नहीं। परन्तु अन्य मामलों में आप दूसरे सहजयोगियों को सहन कर सकते हैं। आपकी अबोधिता की परिपक्वता का विकास 'लालच" हमारा एक अन्य शत्रु है। मेरा अभिप्राय है पदार्थों का लालच तथा मानवीय लालच होना आवश्यक है, यही आपको धार्मिक व्यक्ति बनाए रखती है - पुरुषों और महिलाओं के साथ अपनी सीमा पहचानने की अबोधिता । बच्चों को, भी, जैसे अपनी पत्नी और बच्चों से लिप्सा, इस चीज से लिप्सा, श्रीमाताजी पर अधिकार । इसका भी समर्पण किया जाना चाहिए। सहजयोगियों में यदि आप देखें तो वे भली-भांति जानते हैं कि किसी महिला या पुरुष से किस प्रकार व्यवहार ये ० करना है। अतः अबोधिता मूर्खता नहीं है। ये पूर्ण विवेक है और पूर्ण परिपक्वता है। इसे इस बात का ज्ञान है कि बिना इन शत्रुओं में लिप्त हुए किस प्रकार लोगों के बीच रहना है। इन रिपुओं में से हर एक में, न केवल एक व्यक्ति परन्तु अरबों अरब लोगों को नष्ट करने की शक्ति है अतः अपने लालच का होना बहुत भयानक हो सकता है। मैरा कालीन है. ये मेरा कैमरा है. ये मेरा टेपरिकार्डर 1 है! एक बार जब आप समझ लेंगे कि ये सारी वस्तुएं असत्य है तो आप जान जाएंगे कि सत्य के सिवाए कुछ भी मेरा नहीं है । मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानती हूँ जों विशुद्धि चक्र के पूर्ण स्वभाव का विकास करने के 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-37.txt चैतन्य लहरी अंक : 9 & 10 -2006 36 कि "सभी ध्मों को त्यागकर मेरे प्रति समर्पित हो लिए सर्वोत्तम उपाय है - सभी कुछ साक्षी भाव, निर्लिप्त मस्तिष्क से देखना और अपनी माँ जाओ।" हमारे देश में जो धर्म है, जैसे हम कहते (श्रीमाताजी) के लिए अपने हृदय में प्रेम विकसित हैं "पितृ-धर्म है, पिता के प्रति आपके कर्तव्य, करना ताकि वे इन सभी शत्रुओं से आपको इस प्रकार से मुक्त कर सकें ताकि जब भी इनसे आपका सामना हो तो आप उनसे कहीं शक्तिशाली हों। मातृ-धर्म, माता के प्रति आपके कर्तव्य, पति के प्रति कर्तव्य और इसी प्रकार सभी सम्बन्धों के अनुसार आपके धर्म। परन्तु जब वे कहते हैं कि "इन सभी धर्ों को त्यागकर", तो उनका अर्थ है "मेरे प्रति अपने धर्म का ज्ञान आपको होना चाहिए- परमेश्वर के प्रति । आज श्रीकृष्ण नहीं है, मैं ही श्रीकृष्ण हूँ, अतः आपको इस बात का ज्ञान होना मानसिक रूप से मैं सोचती हैँ, अधिकतर सहजयोगी समझते हैं कि परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी होना एकमात्र उपाय है। मानसिक रूप से, तार्किक रूप से। चाहे आप किसी चीज़ को चाहिए कि मेरे प्रति आपके क्या कर्तव्य हैं। मैंने केवल अपनी भाषा बदली है। वे तो अपनी अंगुली मानसिक रूप से समझ भी लें तो भी यह आपका उठाकर कह दिया करते थे, "सभी कुछ त्यागकर अन्तर्जात स्वभाव नहीं है। तो जैसा मैंने कल आपको बताया था किसी चीज़ को जब आप मानसिक रूप से स्वीकार कर लेते हैं परन्तु बहुत बड़ा प्रवचन- देकर आपको रास्ते पर लाती हूँ। उसके अनुरूप कार्य नहीं कर सकते, तो इस मामले में, आपके अन्दर दोषभाव आता है। ऐसी स्थिति में आप अपने गुरु बने और स्वयं को समर्पित होकर प्राप्त किए जाने वाले लक्ष्य से दण्डित करें, तथा इसे अपना अन्त्जात स्वभाव बनाने का प्रयत्न करें। यह एक अवस्था है जो मिल सभी लोगों पर यह भली -भांति कार्यान्वित होगा, जाती है। एक बार जब ये प्राप्त हो जाती है तो और मुझे विश्वास है कि एक दिन मैं पाऊंगी कि मेरे प्रति समर्पित हो जाओ। मैं वैसे नहीं करती, कार अतः ये चीजें आपके चित्त को, मेरे प्रति हटाकर दूसरी ओर न ले जाएं। यहाँ उपस्थित तुरन्त आप देखने लगते हैं। मैं जानती हैँं कि समर्पित कौन है। सभी जर्मन लोग परमात्मा के चरण-कमलों में समर्पित हो गए हैं । ला तो श्रीकृष्ण ने कहा है : सर्वधर्माणां परित्यज्य, मामेकम शरणम व्रज" उन्होंने कहा है जय परमात्मा आप पर कृपा करें। पे 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-38.txt सहजयोग और आरम्भिक छन्द छOC (निर्मला योग - 1983) (रूपान्तरित) हा अब जब श्रीमाताजी ने हमें बहुत से सुन्दर बच्चों से आशीर्वादित कर दिया है, एक बार फिर न कर दो निर्माण इसका लकडियों और पत्थरों से, लकड़ियों और पत्थरों से, लकड़ियों और पत्थरों से निर्माण कर दो इसका, लकडियों और पत्थरों से, ओ मेरी निष्कलंक सुन्दरी। अपने बचपन के गानों को स्मरण करने पर हम युगों पुराने आरम्भिक छन्द गाने शुरु कर रहे हैं। एक बार हमारी प्रिय श्रीमाताजी ने बताया था कि श्रीमाताजी ही निष्कलंक सुन्दर महिला हैं। किस प्रकार ये आरम्भिक छन्द उनके तथा सहजयोग लन्दन के विषय में एक अन्य अत्यन्त के कुछ पक्षों का वर्णन करते हैं। ये लेखक इन छन्दों में सहजयोग के अन्य दृष्टिकोण खोजने की उपयुक्त आरम्भिक छन्द भी है यह निम्बुओं (क्योंकि अभी तक भी इंग्लैण्ड में मिर्चों के बारे में कोई न जानता था) और घण्टियों के बारे में है जिन्हें प्राचीन काल से आसुरी शक्तियों को हराने के लिए धृष्टता कर रहा है। आशा है कि उसके विचार सभी माता-पिताओं तथा अन्य लोगों के लिए भी आनन्दमयी होंगे। उपयोग किया जाता है। इस गाने में लन्दन शहर वि के चर्चो की घण्टियों का सन्दर्भ है, लन्दन शहर आजकल विश्व की आर्थिक राजधानी है तथा अन्य नीचे तीन छन्द दिए गए हैं जिनके विषय में स्वयं श्रीमाताजी ने बतायाः नव-यूरोशलम लन्दन, इंग्लैण्ड से आरम्भ होता है जो ब्रह्माण्ड का हृदय चीज़ों के साथ-साथ यहाँ पर नाभि की पकड़ भी । बहुत तेज है। "सन्तरे और निम्बू, कहती है घण्टियाँ सेंट क्लेमेन्टरस (St. Clement's) की । है और आजकल श्रीमाताजी का गृह भी है। परन्तु जब श्रीमाताजी लन्दन में अपने बच्चों को बुलाने के लिए आई थी, तब उनमें से बहुत से, 'पतन' (Falling down) की स्थिति तक क्षत हो चुके थे, और उनका पुनर्निर्माण करने के लिए श्रीमाताजी मुझ पर पाँच दमड़ियों का ऋण है तुम्हारा, कहती है घप्टियाँ सेन्ट मार्टिन (S. Martin) की । कब लौटाओगी मुझे ये दमड़ियाँ? कहती हैं घण्टियाँ, प्राचीन बैले (Bailey) की। को हर सम्भव उपाय अपनाना पड़ा। बहुत समय पूर्व किसी ने इसके विषय में एक गाना बनाया था अमीर होने के बाद, कहती है घण्टियाँ शोरेडिक (Shoraditch) की। जिसे बच्चे अब भी गाते हैं। "लन्दन-पुल गिर रहा है, गिर रहा है, गिर रहा है, लन्दन-पुल गिर रहा है औ मेरी निष्कलंक सुन्दरी सहायता करो इसका पुनर्निर्माण करने में, पुनर्निर्माण करने में, पुनर्निर्माण करने में ओ निष्कलंक सुन्दरी, सहायता करो, इसके पुनर्निर्माण करने में कब होगा ऐसा? पूछती हैं घण्टियाँ स्टेपनी (Stepney) की । मैं नहीं जानती, कहती हैं विशाल घण्टी बौ (Bow) की । " तीसरा छन्द जिस पर श्रीमाताजी ने टिप्पणी की 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-39.txt चैतन्य लहरी अक : 9 & 10 - 2006 38 पूर्वास्थिति में न ला सके उन्हें" (All the King's horses and all the King's men थी, एक प्रकार से चेतावनी है, परन्तु यह माधुर्य से परिपूर्ण है। ये इस प्रकार है : couldn't put Humpty together again) यहाँ हम्पटी डम्पटी अहं के प्रतीक हैं बाबा ब्लेक 'महिला पंछी (Lady bird) महिला पंछी, महिला पंछी उड़ जाओ घर की ओर, घर में तुम्हारे आग लगी, बच्चे तुम्हारे चले गए।" की शीप एक अन्य' लोकप्रिय छन्द हैं। बा-बा काली भेड़, म क्या तुम पर कुछ ऊन है। हाँ श्रीमान, हाँ श्रीमान, तीन बोरे भरे हुए. श्रीमाताजी ने हमें बताया था कि इस गाने की महिला पंछी (Lady bird) वे स्वयं हैं। महिला पंछी लाल रंग का छोटा सा भृंग (भंवरे सा कीड़ा) होता है जिसकी पीठ पर सात काले धब्बे होते हैं। (इंग्लैण्ड और हिमालय के देशों सहित अन्य बहुत से देशों में ये आमतौर पर पाया जाता है। गुलाब एक स्वामी के लिए एक स्वामिनी के लिए एक उस नन्हें लड़के के लिए, गली के छोर पर रहता है जो।" ोन काली भेड़' उस अटपटे, सनकी व्यक्ति का वर्णन करने के लिए उपयोग किया गया है जो। स्वीकृत मानदण्डों में खरा नहीं उतरता । पश्चिमी। की झाड़ियों को नष्ट करने वाले जूँ जैसे कीड़े ( Aphids) को खाना इसे अच्छा लगता है। अतः यह मालियों का मित्र है छन्द की दूसरी पंक्ति पश्चिमी सहजयोगियों के लिए अत्यन्त स्पष्ट है। हैं ये छन्द शायद साधक प्रायः 'काली भेड़ सम इसके कारण की व्याख्या करता है। ऊन मिथ्या बन्धनों और अनावश्यक विचारों का ढेर है जिसके इन योगियों ने श्रीमाताजी के बच्चों पर हुए भयानक आक्रमणों को देखा है जिसके कारण वे सहजयोग माध्यम से हम अपने अहं और प्रतिअहं का प्रदर्शन करते हैं। एक बोरा स्वामी को (दाएं पक्ष को) दिया जाता है, दूसरा के छोर पर रहने वाला नन्हा लड़का निश्चित रूप से श्री गणेश है। को छोड़ तक देते हैं। श्रीमाताजी का घर सम्भवतः स्वामिनी को (बाएं पक्ष को)। गली साधकों का सहस्रार है। साधक जब पहली बार साक्षात्कार के लिए आते हैं तो उनका सहस्रार शीतल होने की अपेक्षा प्रायः जलता हुआ होता है। अत्यन्त घिनौने गाने भी बच्चे काफी जोशोखरोश से और निर्लिप्सा पूर्वक गा लेते हैं। ये अंग्रेजी भाषा में और भी बहुत से आरम्भिक छन्द हैं नीचे कुछ ऐसे छन्द दिए जा रहे हैं जो सहजयोग के विषय में प्रतीत होते हैं। पहला छन्द उसका उदाहरण हैं : "ओ मूर्ख, मूर्ख हंस, कहाँ घूमूँगा मैं? सीढ़ियों के ऊपर और सीढ़ियों से नीचे अपनी स्वामिनी (Lady) के कक्ष में तथा बढ़े हुए अहं के विषय में है। "हम्पटी डम्पटी दीवार पर चढ़ बैठे और बुरी तरह से गिरे" "राजा के सारे घोड़े और नौकर भी मिला मैं वहाँ एक वृद्ध व्यक्ति से प्रार्थना जो करता नहीं। 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-40.txt चैतन्य लहरी अंक : 9& 10 - 2006 39 मैंने पकड़ा उसे बाईं टाँग से सीढ़ियों से नीचे फेंका उसे" रौप्य रंग के जायफल (Nutmeg) और सुनहरी नाशपाती (Pear के सिवाय स्पेन के राजा की पुत्री आई मिलने मुझे मेरे इस नन्हें गिरीदार के कारण।" हंस शब्द हँसा चक्र के लिए है, सद्सद् वृक्ष विवेकबुद्धि का स्थान, अर्थात हॅँस, सम्भवतः दूसरी पंक्ति, उस व्यक्ति की ओर इशारा करती है जो गिरीदार वृक्ष कुण्डलिनी है और चाँदी के हँसा चक्र के आस-पास घूमें चले जा रहा है परन्तु रंग का जायफल सम्भवतः चन्द्रमा या चॉँद है जो यह निर्णय नहीं कर पा रहा के सहस्रार में बाएं पक्ष की गरिमा को बढ़ाता है। (जायफल का उपयोग निद्रा की दवाई के रूप में किया जाता है और निद्रा बाएं पक्ष का गुण है।) स्वर्णिम नाशपाती सूर्य का प्रतीक है जिसका स्थान दाई ओर है। पुराने दिनों में स्पेन को महान सम्पदा तथा शानोशौकत का स्रोत माना जाता था इसीलिए स्पेन की राजकुमारी कुछ विशेष चीज़ हो सकती है। हो सकता है कि राजकुमारी श्रीमाताजी की गरिमा का प्रतीक हो, कुण्डलिनी के कारण जो साधक से मिलने के लिए और उसे आत्म-साक्षात्कार या (स्वामिनी के कक्ष में) स्थापित हुआ जाए या नहीं। उसके मूर्खों की तरह से घूमते रहने का परिणाम अन्तिम दो पंक्तियों में प्रकट किया गया है। समाप्त करने से पूर्व दो ऐसे और छन्द हैं जो श्रीमाताजी के बहुआयामी व्यक्तितत्व के दो आयामों का स्तुति-गान करते हैं। पहला श्री आदिकुण्डलिनी के रूप में । "एक गिरीदार फल का वृक्ष था मेरा मोक्ष प्रदान करने के लिए आती हो। फल कोई लगता नहीं था जिस पर जमलि ४ा े ययर शि 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-41.txt पुरम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी की कृपा से सुनॉमी से चमत्कारिक सुरक्षा ट] (श्रीमति पुष्पा समादार) के कथनानुसार प्रतिदिन देवी-कवच आवश्यक था। मैं अत्यन्त शान्त थी। उनके फोटो के सम्मुख बैठकर मैंने कहा, श्रीमाताजी, आपकी बेटी आपकी हर इच्छा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने को तैयार है - जैसे राखो वैसे रहूँ।" कोई भी घर में घुसने की हिम्मत न कर पा रहा था, परन्तु मैं बाहर बैठे लोगों के लिए खाना बनाने हेतु अन्दर गई। मुझे पूर्ण विश्वास था कि हम सहजयोगी हैं और हमें कुछ नहीं हो सकता। 26 दिसम्बर 2004 की प्रातः भारतीय महासागर में अंडमान-निकोबार टापुओं सहित अन्य से टापुओं को नष्टभ्रष्ट करने वाली सुनॉमी बहुत त्रासदी से हम सब भली भांति परिचित हैं कोई न जानता था कि सुनॉमी की आसुरी विध्वंसक लहरों की क्रूरता ताण्डव के बीच भी परमेश्वरी माँ ने टापु पर बसे अपने सभी सहजयोगी बच्चों की रक्षा की। से किस प्रकार बचा जाए! परन्तु उस अण्डमान, पोर्टब्लेयर के ग्यारा चर्मा (Gyara Charma) गाँव की सहज योग ध्यान केन्द्र समन्विका योगिनी श्रीमती पुष्पा समादार इस विध्वंसक त्रासदी की साक्षी थीं। इस घटना के अपने अनुभव का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है:- एक सहजयोगी समुद्रतट के निकट अपने भाई के घर में था उसने तीस फुट ऊँची सुनॉमी आसुरी लहर को पूरा तट लीलते हुए देखा। उसने श्रीमाताजी के रक्षाकरी' रूप को तथा शरण लेने के लिए केन्द्र की ओर दौड़ा। महसूस किया "रविवार 26.12.2004 की सुबह थी। अपने अगले तीन महीने उसने शान्तिपूर्वक ध्यानकेन्द्र में बेटे के साथ मैं परम पूज्य श्रीमाताजी के चरण- कमलों का ध्यान कर रही थी मुझे एक जोरदार झूले का अहसास हुआ जिसे आरम्भ में, गलती से, अगले दिन मैंने देव की कुमकुम, हल्दी, जल मैं चैतन्य लहरियाँ समझ बैठी । परन्तु आँखे खोलने पर मैंने सीमेन्ट की चद्दरों की अपनी छत के एक पाईप को चरमराते पाया। मैंने अपने बैटे को झकझोरा। हम 'देवी कवच' पढ़ रहे थे, मेरा बेटा कहने लगा, "मम्मी, चिन्ता मत करो, श्रीमाताजी हमारे साथ हैं।" हमने अपना पाठ समापन किया। बिताये। 1 सागर को निरन्तर दहाड़ते हुए देख कर, समुद्र तथा पुष्प आदि से पूजा की और अपनी अन्तर-आत्मा से निकले - 'समुद्र-शान्त तथा भूमिकम्प-शान्त' मन्त्रों का उच्चारण किया परिणामस्वरूप यहाँ समुद्र शान्त हो गया। तीन दिनों के पश्चात जब मैं कार्यालय गई तो मेरे सहकर्मियों ने पूछा, "आप किस चक्की का आटा खाती हैं?" मैंने उत्तर दिया, "चक्की अवर्णनीय है क्योंकि ये साक्षात आदिशक्ति हैं मेरी गुरु, श्रीमाताजी निर्मला देवी।" तत्पश्चात्, श्रीमाताजी का एक फोटो लेकर बगीचे में वेदी बनाई, मोमबत्ती जला कर पूरी आवाज पर श्रीमाताजी का वह टेप-प्रवचन सुनने लगे जिसमें उन्होंने सात चक्रों के विषय में बताया है और बीच-बीच में भजन हैं। अण्डमान क्षेत्र में सुनॉमी त्रासदी से लगभग 30-40 हजार लोगों की सभी सहजयोगी अपने पूरे सामान सहित पूर्णतः सुरक्षित रहे।" जय श्रीमाता जी मृत्यु हो गई थी, परन्तु हम सुनॉमी की लहरों का प्रकोप शिखर पर था और अब तक पोर्ट ब्लेयर क्षेत्र को लील चुका था, परन्तु चमत्कार कि यह मोमबत्ती की लौ को न बुझा पाया था। मैंने महसूस किया कि, श्रीमाताजी (रूपान्तरित) ह 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-42.txt माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी (डॉ राजीव कुमार) (৪। वें जब्मदिवस समारोह के सुअवसर पर श्री चरणों में समर्पित) माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी तुम पालनहारी, जग की स्खवारी, सब संकट टारी, दुःख भय-भंजनकारी पर मैं क्या जानू ये ऊँची बातें, मेरी तो तू है बस मैय्या प्यारी माँ किस विधि करू स्तुतिं तुम्हारी। देवों के ऊपर पहुँचाया महादेव का मरम जताया, शक्ति शिव का मिलन दिखाया सदाशिव का मार्ग जताया, अन्तर्मन प्रतिबिम्बित करवाया, माँ मैने ये सब बस यूही पाया। मन्त्रमुग्ध में अबोध बालक मैं क्या जानू ये ऊँची बातें मुझे तो भाये तेरी छवि व्यारी तेरी बिन्दिया प्यारी, तेरी महिमा भारी मेरी तो तू है बस मैय्या प्यारी माँ किस विधि करुं स्तुति तुम्हारी। कौन मणिपुर, कैसा अनहद् छोड़ चले हम इन चक्रों के चक्कर सातों स्वर्गो के भी ऊपर, बारह आदित्यों को वश में कर सामूहिकता में पूरे जम कर बस मस्त हुए चैतन्य को पीकर पूर्ण तेरी ममता के आभारी, तुझ पर बलिहारी, तेरे आँचल की छाया व्यारी तृप्त हैं ये तेरे बालक तू राज दुलारी तेरी छवि प्यारी मेरी तो तू है बस मैय्या प्यारी माँ किस विधि करूं स्तुति तुम्हारी। जय श्री माता जी 2006_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-43.txt आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् आपको कुण्डलिनी और सहजयोग का बहुत सा ज्ञान प्राप्त हो जाता है परन्तु भक्ति के बिना सन्तुलन प्राप्त नहीं किया जा सकता । आपको भक्ति में डूब जाना है। भक्ति आपकी भावनाओं को समृद्ध करती है। बिना आलोचना किए अन्य सहजयोगियों को महसूस करने का प्रयत्न करें। मैं आप लोगों के अस्तित्व, आपके सौन्दर्य एवं गरिमा का आनन्द ले रही हूँ। मेरी कामना है कि आप भी ऐसा ही कर सकें और स्वयं को समुद्र में पड़ी बूँद की तरह से महसूस कर सर्कें। भक्ति आपकी कोणिकताओं (कमियों) (Angularities) तथा बाधाओं को सामूहिक समन्वयता में विलीन कर देगी।" ा ै परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी (निर्मला योग- 1983, से उद्धृत) रूपान्तरित