॥हि चैतन्य लहरी লहा मई-जून : 2007 लह री चै त न्य प्रकाशक निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8. चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पॉड रोड, कोथरुड़ पुणे - 411 029 फोन: 020-25285232 मुदक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिजाइनर्ज 292/23 ओंकार नगर बी' त्रीनगर, दिल्ली- 110035 मोबाइल : 9212238008 आप अपने सुझाव, सदस्यता एवं जानकारी के लिए निम्न पते पर लिखें : निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी पॉड रोड, कोथरुड धुणे - 411 029 फोनः 020-25285232 अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463), ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली- 110034 फोन : 011-65356811 चै त न्य ल ह री अंक : 5 -6, 2007 NIRMALA UNIVERSAL PURE RELIGIC इस अंक में शिव पूजा एवं जन्मदिवस सेमिनार - पुणे (18-21 मार्च 2007) पूजा उत्क्रान्ति पथ 3 नवरात्रि पूजा, लॉस एंजलिस, अक्टूबर 2006 4 मास्को में डॉ. बोडन का एक उत्कृष्ट संस्मरण अगस्त 1991 श्री कृष्ण पूजा, गारलेट- मिलान आश्रम 8. 6-8-1988 16 हँसा चक्र पूजा, Green Ashachu, जर्मनी - 10-7-88। बोर्डी 12-2-1984 26 बोर्डी पूजा, सहजयोग और शारीरिक चिकित्सा - 2 27 1983 से उद्घृत आत्मा, निर्मला योग 29 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का परामर्श, 32 हैम्पस्टैड टाऊन हॉल ( इंग्लैण्ड) 31.03.83 सहजी माताओं को श्री माताजी का परामर्श 37 निर्मल नगरी पुणे की पावन भूमि पर श्री महालक्ष्मी का पुनर्आगमन अतिविशिष्ट व्यक्ति सम्मेलन -16-6-1999 40 22-10-2006 43 DHARMA MHSIA १ चार दिवसीय सहजयोग सेमिनार निर्मल नगरी पुणे 18-21 मार्च 2007 पू दृश्य था उपस्थित सभी सहजयोगी अपने-अपने स्थानों पर खड़े होकर आनन्दनृत्य कर रहे थे। ऐसा लगता था मानों असंख्य कुण्डलिनियाँ हों! आस्ट्रेलिया की नन्हीं सत्यभामा कल्पा ने अद्वितीय कुचिपुड़ी नृत्य पेश किया तथा नन्हीं बालिकाओं के एक अन्य समूह ने भरतनाट्यम पेश किया। 18 मार्च को आरम्भ होकर 21 मार्च को सम्पन्न होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय सहजयोग सेमिनार की मेज़बानी टर्की, दुबई, इज़राइल, ट्यूनीशिया, यूनान, मोरक्को, ईरान तथा भारत ने मिलकर की। इस पावन स्थल पर शिव पूजा और परम पूज्य श्रीमाताजी की जन्म दिवस पूजा में भाग लेने के लिए आए 8 से 9 हजार सहजयोगियों का सामूहिक तारतम्य तथा वहाँ मंचन किए गए अद्वितीय सांस्कृतिक कार्यक्रम देखते ही बनते थे। नृत्य कर रही न द श्री शिव पूजा 19 मार्च 2007- 19 मार्च का दिन तीन कारणों से महत्वपूर्ण था। सर्वप्रथम तो इस दिन अद्वितीय सूर्यग्रहण था जो पूरे भारत वर्ष में दिखाई भारत वर्ष में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में (1000-1400) विदेशी सहजयोगी भाई बहन परमपावनी श्रीमाताजी को 84वीं जन्म दिवस पूजा दिया। दूसरे श्रीराम जन्मदिवस समारोह का यह प्रथम नवरात्र था और तीसरे महाराष्ट्र का लोकप्रिय तथा शिव पूजा के अवसर पर उनके श्री चरणों में गुडोपडवा दिवस था- विक्रमीसम्वत जिसे पूरा अपने हृदयार्पण के लिए उपस्थित हुए थे संगीत कार्यक्रमों ने दोनों पूजाओं को अत्यन्त उल्लासमय बना दिया। पुणे के सहजयोगियों द्वारा किए गए भारतवर्ष नववर्ष के रूप में जानता है। इस शुभ दिन हमारी परमपावनी श्रीमाता जी की शिव रूप में पूजा की गई। "अपने-अपने देशों में सहजयोग प्रचार-प्रसार के गुफा के आकार में बनाए गए मंच पर बने अनुभव" विषय पर अत्यन्त सशक्त सत्र हुआ शिवलिंग मंच को कैलाश पर्वत पर श्री शिव का इसमें टक्की, इजराइल, ईरान, मोरक्को और दुबई के संयोजकों ने अपने-अपने अनुभव बताए। भारत के नगरी में परम पूज्य श्रीमाताजी के पावन दर्शन हुए। नगर सहजयोग संयोजकों ने भी इसमें अपने अनुभव निवास दर्शा रहे थे लगभग आठ बजे सायं निर्मल "विनरती सुनिए आदिशक्ति" प्रार्थना भजन के साथ नन्हें गणेश श्रीगणेश के रूप में श्रीमाताजी के चरणों सुनाए। पेश किए गए शास्त्रीय कार्यक्रमों में उच्च कोटि की कला एवं सहजयोगसंस्कृति को प्रदर्शित में पुष्प अर्पण करने के लिए दौड़ते हुए दिखाई किया गया। विश्व निर्मल प्रेम आश्रम (N.G.O.) से दिए। आए नन्हें बच्चों ने देवी की स्तुति करते हुए नृत्य एवं भजन पेश किए। पण्डित अरुण आप्टे, सुरेखा तत्पश्चात् देवी पूजा की गईी "तेरे ही. गुण गाते हैं, मनोबुद्धिहंकार, आया माता का पूजन दिन आया" भजनों के साथ देवी का श्रंगार किया गया| "बोलो शिव-शिव शम्भू" भजन के साथ देवी पूजा आप्टे, पण्डित सुब्रामण्यम तथा अन्य सहजयोगी गायकों का संगीत अत्यन्त जीवन्त और आनन्दमय था । आस्ट्रेलिया के सहजयोगियों ने भी बहुत सुन्दर सम्पन्न हुई। भजन गाए। परन्तु ईरान के सहजयोगी अपने स्थानीय वाद्ययन्त्रों के साथ जब भजन गाने लगे तो स्वर्गीय तत्पश्चात् श्रीमाताजी की श्री शिव के रूप अंक 5 & 6 2007 2 चैतन्य लहरी में पूजा आरम्भ हुई। गेरु तथा सुरभित पाउडर श्रीमाताजी के मुखारबिन्द पर लगाए गए। लगभग बजे सायं पूरी सामूहिकता ने श्रीमाताजी के श्वेत वस्त्रों में श्री शिव रूप में दर्शन किए। सर्वत्र शान्ति एवं प्रेम का साम्राज्य था। अन्तर्परिवर्तन की शान्ति को सभी हृदय सामूहिक रूप से महसूस कर रहे थे- मानो कह रहे हों 'शिवोहं, शिवोह"। अनुग्रह की भावना से सभी हृदय श्री शिव के चरणों में नतमस्तक थे। विश्ववन्दिता गाया गया आरती हुई पावनदर्शन सभी को दिए और अगले ही क्षण और उसके बाद तीन महामन्त्रों का उच्चारण हुआ। प्रसाद को चैतन्यित करते हुए श्रीमाताजी की सक्रियता हमें पूर्व वर्षों की याद दिला रही थी। ग्यारह साड़ियों दौड़ पडे। वे अत्यन्त ध्यान से नन्हें गणेशों को का अन्तर्राष्ट्रीय उपहार श्रीचरणों में भेंट किया गया, सम्भवत: एकादशरुद्र की ग्यारह शक्तियों के प्रतीक के रूप में। आशा विश्वास हमारे' भजन गाया। निर्मल नगरी में श्रीमाताजी के प्रवेश के समाचार ने निरभ्र आकाश को आतिशबाजी की चमक से भर दिया। भजन गाते हुए पूरी सामूहिकता परम पावनी माँ के स्वागत के लिए खड़ी हो गई। सभी लोग गा रहे थे, 'श्री जगदम्बे आई रे'। मंच के पर्दे हटे, परम पावनी माँ ने अपने श्रीगणेशअथर्वशीर्षम पढ़ा जाने लगा। नन्हें बच्चे श्रीमाताजी के चरण कमलों की पूजा करने के लिए निहार रही थीं । 'जागो सवेरा आया, तथा 'छिन्दवाड़ा में जन्म हुआ के साथ श्रीमाताजी का शृंगार हुआ। पौने नौ बजे चरण कमलों की आरती की पूजा समापन होने पर हमारे प्रिय पापाजी ने गई और बाद में उत्सुक सामूहिकता ने श्रीमाताजी सहज सामूहिकता को सम्बोधित करते हुए पिछले और सर सी. पी. को जन्मदिवस केक काटते हुए 37 वर्षों में श्रीमाताजी द्वारा किए गए अथक परिश्रम देखा। पूरे वातावरण में आनन्द का साम्राज्य फैल एवं प्रयासों की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि श्रीमाताजी ने सभी राष्ट्रों, धर्मों, भाषाओं तथा जातियों के लोगों को समान रूप से प्रेम प्रदान किया है। तथा गया, आतिशबाजियाँ जलाई जा रही थीं, आकाश में गुब्बारे उड़ाए जा रहे थे पूर्ण सामूहिकता परम पूज्य श्रीमाताजी के साक्षात् में आनन्दमग्न थी। पुनः जन्मदिन आयो' गाया गया। अब समय आ गया है कि श्रीमाताजी के पावन प्रेम और उनके द्वारा किए गए कठोर परिश्रम के लिए उनके प्रति हम अपनी कृतज्ञता प्रकट करें। ऐसा हम केवल तभी कर सकते हैं जब हम सब उनके प्रेम संदेश (सहजयोग सन्देश) को जन-जन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले लें। श्री राजेश शाह ने परम पूज्य श्रीमाताजी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में विश्व की जानी मानी हस्तियों द्वारा भेजे गए बधाई सन्देश पढ़ कर सुनाए। भारत के माननीय राष्ट्रपति तथा टर्की, टेक्सास और ओकलाहोमा तथा पृथ्वी के भिन्न देशों से श्रीमाताजी को मंगल कामनाएं भेजी गई थीं। मंगल संदेश भेजने वाले लोगों में गवर्नर, मेयर्स तथा अन्य विभूतियाँ थीं जिन्होंने श्रीमाताजी के कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जन्म दिवस पुजा 21 मार्च 2007 21 मार्च का दिन यद्यपि काफी गर्म था परन्तु सन्ध्या अत्यन्त शीतल एवं सुखकर थी। पूजा के लिए लालायित 9000 सहजयोगी उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। पूजा मंच को महल की तरह से सजाया गया। स्थान-स्थान पर सुरभित पुष्प तथा रंग-बिरंगे गुब्बारे लगे हुए थे। तत्पश्चात् सर सी.पी. से सामूहिकता को सम्बोधित करने का अनुरोध किया गया और अत्यन्त विनम्रतापूर्वक उन्होंने परम पावनी श्रीमाताजी का ं " सायं सात बजे सामूहिक बन्धन और महामन्तों के साथ शुभारम्भ किया गया सुरेखा आप्टे ने 'तुम सन्देश सुनाया। सर सी.पी. ने "जय श्रीमाताजी (शेष पृष्ठ 7 पर) उत्क्रान्ति पथ आपका हर कार्य मुझे प्रसन्न करने के लिए होना चाहिए। ये एक तरीका है। हर कार्य मुझे प्रसन्न करने के लिए होना चाहिए। ये एक चिन्ह है । रह सकें। अपने चरण कमल मेरे हृदय में स्थापित कीजिए। मेरे हृदय में अपने चरण कमलों की पूजा होने दीजिए मुझे भ्रान्तियों से बचाइए, भ्रमों से दूर ले जाइए। मुझे सत्य में स्थापित कीजिए। उथलेपन की चमक दमक दूर कीजिए । अपने हृदय में मैं आपके चरणकमलों का आनन्द ले सकू । तो हम इस कार्य को कैसे करें? मुझे अपने हृदय में स्थापित करें अपने हृदय में मुझे स्थापित करने का प्रयत्न मात्र करें। ऐसा करना बहुत सहज है। अब मैं आपके सम्मुख हूँ, मानव रूप में (साक्षात)। आपके चरण कमल मैं अपने हृदय में देख सकू।" केवल ऐसे लोग- ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने आज ही मैं अपने एक सम्बन्धी को भी ऐसा ही किया। ये न समझें कि केवल आपको ही ऐसा करना पड़ रहा है। 1 आत्म-साक्षात्कार देने का प्रयत्न कर रही थी और मैंने उससे कहा, "आ ।" आप अपनी ऑँखें बन्द मत करें अतः विनम्र बनें। अपने हृदय में विनम्रता लाएं, हृदय में विनम्रता लाएं. अपनी विनम्रता का आनन्द ले, अपने सद्गुणों का आनन्द उठाएं । विनम्रता किसी भी सहजयोगी का सबसे बड़ा सद्गुण होता है। अपने को विश्वस्त करने के लिए आपने बहुत सी चीजें देखी हैं परन्तु यह किसी भी प्रकार का समर्पण नहीं है क्योंकि आप मुझे क्या समर्पित कर सकते हैं? इस विषय में सोचें। हर समर्पण जब आशीर्बाद है तो आप क्या समर्पण कर रहे हैं? उसने कहा, "नहीं मैं आपके चेहरे को नहीं देखँगा क्योंकि जब भी मैं आपका चेहरा देखता हूँ तो मुझे लगता है आप मेरी आन्टी हैं। मैं केवल आपके चरणकमलो को देख रहा हूँ ताकि मुझे ये न लगे कि आप मेरी आन्टी है। आप अत्यन्त महान है और आपका मुख मुझे भ्रम में डाल देता है।" वह ये बात देख पाया कि ये महामाया है कहने लगा, "केवल आपके चरण कमलों पर ही मैं उन्नत होता हूँ और आपके चरणकमलों के माध्यम से ही भावनाओं की इस बाधा को पार कर सकता हूँ। हृदय की हर भावना आशीर्वाद है। अभी आप इसे महसूस करें और अपने हृदय में आपको आनन्द की अनुभूति होगी। तो आपका समर्पण क्या है और किस विषय में है? उन लोगों की बात तो मैं समझ इसी प्रकार से, 'मैं जानती हूँ कि मैं महामाया हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं हूँ। मुझे बनना पड़ा। परन्तु आपको मेरे चरण अपने हृदय में स्थापित करने पड़ेंगे। केवल चरण अपने हृदय में स्थापित करने पड़ेंगे क्योंकि मेरा चित्र तो लुप्त हो जाता है। हर चीज़ भ्रम हो सकती है। हो सकता है कि मेरी मुखाकृति देखने से आप अपने बन्धनों की दीवारों को पार न कर पाएं। य सकती हूँ जो नए-नए आए हैं या बेकार है। परन्तु आप तो परिधि रेखा पर नहीं है। परन्तु कुछ लोग एक दम से परिधि रेखा पर चले जाते हैं। आप उन्हें कोई कार्य दीजिए। बस समाप्त। मैं यदि किसी के प्रति समाप्त। मैं यदि किसी से मिल लँ मधुर हो जाऊं - समाप्त। कहने का अभिप्राय ये है कि ये, अतिशयता है। मैं तो आपके प्रति सहृद भी नहीं हो सकती। ये कहना, "मैं अवश्य श्रीमाताजी से मिलूंगा, अवश्य मुझे ऐसा करना है, श्रीमाताजी को अवश्य मेरे घर आना चाहिए, अवश्य उन्हें मेरे घर पर आना चाहिए:- ये सब बातें मूर्खता हैं। मैं नहीं समझ पाती कि लोगों को क्या समस्या है!" आप यदि कोई गलती करते हैं, ठीक है, फिर आप उसे महसूस करते हैं और आपकी बाईं विशुद्धि पकड़ जाती है, गलती तो आपने कर ली है,"हो गया , समाप्त।" आप मुझे प्रेम करते हैं, हो सकता है प्रेम में श्रीमाताजी कृपा करके सेरे हृदय में आइए। मेरा हृदय स्वच्छ कीजिए ताकि आप वहाँ चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2007 4 कोई गलती हो या कुछ हो गया हो। कोई बात नहीं। परमेश्वरी भय की बात करनी है। "अब मैं सावधान रहूँगा अब मैं गलतियाँ नहीं करूंगा, किस प्रकार मैं गलतियाँ कर सकता हूँ? क्योंकि मेरा प्रेम अधूरा था। मैं यदि वास्तव में प्रेम करता तो मुझसे ऐसी गलती न होती।" ऐसा करना बहुत महत्वपूर्ण है। और एक बार जब आपके अन्दर परमेश्वरी भय (श्रद्धा) विकसित हो जाएगा तो आपके ऊपर एकादशरुद्र का प्रकोप समाप्त हो जाएगा। उस परमेश्वरी भय (Awe) के विषय में सोचें । विज्ञान, उसके आनन्द और परमेश्वरी श्रद्धा के ठीक है, अपना प्रेम विकसित करें। परन्तु नहीं, आप तो कहेगे, "मैं दोषी हूँ, क्योंकि मैंने ऐसा किया है, तो आप ये भी खो देते हैं और वो भी और इस प्रकार आपकी आनन्द को देखें। यह अत्यन्त-गहन है, सागर की तरह गहरा। उथले स्तर पर सागर अत्यन्त उग्र होता है। परन्तु गहरे स्तर पर यह पूर्णतः शान्ति होता है। गलती एक बार फिर बाधा बन जाती है। उस गहनता को महसूस करें। श्रद्धा (Awe) इसके विषय में स्वयं को दोषी न मानें। हमें आगे उन्नत होना है। भूत को भूल जाएं. भूल जाएं, भूल जाएं, आपको आगे बढ़ना है। आपको गहन होना है। बातचीत करते हुए हमें उस गरिमा की, उस के बिना आप गहनता में नहीं उतर सकते। (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित नवरात्रि पूजा लॉस एंजलिस, अक्टूबर 2006 (रिपोर्ट) पिछले लगभग दो सप्ताहों से यहाँ पर प्रतिदिन नवरात्रि के उपलक्ष्य में श्रीमाताजी की संक्षिप्त पूजाएं की जा रहीं थीं, जिनमें श्री माताजी को ओटी अर्पण की जाती थी और कभी-कभी भजन भी गाए से एक थे। उन्होंने मुझे कुछ आश्चर्यजनक कहानियाँ सुनाई। गाँधीजी के जन्मदिवस पर श्रीमाताजी के सम्मुख भारत का राष्ट्रीयगान गाया गया और इसके बाद देवी के श्री चरणों में कुछ भजन अर्पित किए गए।"माँ तेरी जय हो" भजन को स्वय श्रीमाताजी ने अपने मुखारबिन्द से गाया साधना दीदी की आँखों से आँसू झर रहे थे और अविश्वास के कारण सभी लोगों के मुँह खुले हुए थे मुझे बताया गया कि जब श्री माताजी गा रही थीं तो कक्ष में चैतन्य लहरियाँ विद्युत-तरंगों की तरह से प्रवाहित हो रही थी तथा सभी लोग श्रीमाताजी से प्रवाहित होती हुई शक्ति को महसूस कर सके। यह अत्यन्त आनन्ददायी समाचार से जाते थे। पूजा संक्षिप्त होने के कारण सभी लोग इनमें भाग न ले पाते थे परन्तु कुछ सहज़योगी जिन्हें इनमें सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उन्होंने इस प्रकार बतायाः नवरात्रि के छठे दिन डेढ़ बजे रात्रि (Morning) माँ स्वयं बार-बार कह रही थीं, "मैं देवी हूँ, मैं देवी हूँ।" जो महिलाएँ उन्हें ओटी अर्पण करने के लिए गईं, वे श्रीमाताजी को केवल इतना ही कह पाईं, "श्रीमाताजी आप ही देवी हैं, आप महादेवी हैं. कृपा करके हमारी रक्षा कीजिए।" श्रीमाताजी के था, इसकी केवल कल्पना कर सकता हूँ कि इस क्षण का साक्षी होना कैसा होता! न जाने इसकी आडियो/बीडियो रिकार्डिंग भी की गई है या नहीं। मुख इन शब्दों को सुनकर सभी लोग आश्चर्य चकित थे! कमरे में मौजूद लोगों ने इन शब्दों की शक्ति को महसूस किया नवरात्रि के दसवें दिन, दशहरे के दिन, कुछ योगियों को श्रीमाताजी के घर पर भजन पेश करने के लिए कहा गया। मेरे पिताजी भी उनमें क प्रेमपूर्वक Sulu युवा शक्ति इन्टरनैट विवरण (रूपान्तरित) मास्को में डॉ. बोडन का एक उत्कृष्ट संस्मरण (अगस्त1991 में मास्को विपल्व की सन्ध्या, सार्वजनिक कार्यक्रम के पश्चात् विक्टर बेजेका के निवास पर रात्रिभोज वार्ता में लिपिवद्ध) उस सन्ध्या पूरे मास्को में केवल श्रीमाताजी बैठे हुए थे। श्रीमाताजी पीछे की सीट पर दाई ओर ही कार्यक्रम कर पाई क्योंकि सेना खेलसभागार का हॉल हमने आरक्षित (Book) करवा लिया था। उस दिन वहाँ पर होने वाले अन्य सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए गए थे, परन्तु पहले से ही हमें चेतावनी ये दे दी गई थी कि दस बजे कफू लग जाएगा। हमेशा की तरह श्रीमाताजी ने अत्यन्त सुन्दर कार्यक्रम फिर किया। मैं कहूँगा कि लगभग चार हजार लोग थे। कार्यक्रम के बाद में सभी ने श्रीमाताजी को घेर लिया, कुछ तो अश्रुपूर्ण आँखों के साथ श्रीमाताजी कमीज के बाजू ऊपर चढ़ाने शुरु किए तो मैं समझ की ओर जा रहे थे। और माँ तो बस माँ हैं निरन्तर प्रेम विकीर्णित करती हुई माँ। ये लोग धीरे-धीरे माँ कठिनाई में हैं, काश कि यह व्यक्ति सहायता के को पीछे की ओर धक्केल रहे हैं क्योंकि ये माँ को छूना चाहते हैं, उनके समीप आना चाहते हैं। तो धौरे-धीरे वे पीछे हट रही हैं, और मैंने सोचा, हे परमात्मा लगभग दस बज गए हैं, दस बजने में हुई थी। मेरा नाक खिड़की तक जाता है, पाँच मिनट बाकी हैं और अभी हमें मास्को के मध्य से गुज़रना है. जहाँ क्यू तथा मार्शल लॉ लगा है। मैं चालक था, हमारे पास श्रीमाताजी की बैठी हुई थीं। इसी सीट के नीचे का टायर पंक्चर हुआ था। मैंने कार का जैक निकाला, इसका पम्प चलाकर पहिए को निकाला, दूसरा टायर लिया और इसे लगाने का प्रयत्न करने लगा। परन्तु लग नहीं रहा था। मैं स्वयं से कहता हूँ, बोडन देखो, चार बोल्ट हैं और चार सुराख है परन्तु भी पहिया लग नहीं रहा! मुझे पसीने आने लगे। कार से बाहर आकर जब योगी महाजन ने अपनी गया कि स्थिति गम्भीर हैं। मैं जानता था कि हम लिए आ जाए.. (हँसी)! तब मैंने कहा, 'ठीक है। मैं माँ की ओर देखने लगा, उनकी तरफ की खिड़की थोड़ी सी खुली श्रीमाताजी क्या आप ठीक हैं और उसी क्षण लगभग साठ टी. 82 टैंक, युद्ध के बड़े-बड़े टैंक, दक्षिण की ओर से लेनिनग्रेडस्कया मार्ग में आए। ये टैंक मध्य खेलपरिसर वाले पड़ाव पर जा रहे थे। इस परिसर पर सेना का अधिकार था। हुआ मॉस्कविच (Moscvitch) कार थी। पटरी पर, गटर पर चढ़ाकर पैदल चलने वाले रास्ते पर मैंने गाड़ी को लम्बा खड़ा कर दिया। ज्योंही श्रीमाताजी पीछे की ओर गईं तो मैंने कार का पीछे का दरवाजा खोल दिया। श्रीमाताजी जब एक मीटर दूर थीं तो मैंने कहा, 'श्रीमाताजी आपकी कार । 1 मैं इन टैंकों तथा क्लासिक सिग्नेचर, च्म हैट पहने रेडआर्मी टैंक कमाण्डरों को देखता हूँ। हर टैंक कमाण्डर का रंग पीला पड़ा हुआ है, परन्तु वह दृढ़ है, सीधा आगे की ओर देख रहा है, स्पष्ट रूप से परेशान है क्योंकि उन्हें अपने ही लोगों पर गोले दागने की सम्भावना का सामना करना पड़ रहा है। परन्तु मुझे वे अत्यन्त युवा, पर अत्यन्त पीले दिखाई दिए। मैंने कहा ये बच्चे हैं, ये लोग क्या कर रहे हैं? बच्चों को युद्ध में झोंक रहे हैं? मैंने वास्तव में यही महसूस किया। मैंने कहा, क्यों नहीं ये वृद्ध लोग...?" उन्होंने चारों ओर देखा, आहे, बहुत अच्छा और कार में बैठ गईं। मैंने दरवाजा बन्द किया। और हम तेजी से चल पड़े क्योंकि हमें कफ्ू से पहले पहुॅ चना था। हम लेनिनग्र डस्क्या (Leningradskaya) स्टेट से निकल रहे थे, सड़क पर पूरी तरह अंधेरा था क्योंकि बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। अचानक मुझे 'टक-टक-टक-टक की आवाज़ सुनाई दी। हे परमात्मा, ये तो टायर में से हवा ये मेरी भावना थी, परन्तु तब मैंने सोचा निःसन्देह, बोडन 18-19 साल के लडके हमेशा में जाते रहे हैं, परन्तु वे बच्चे हैं। 18 या 19 वर्ष, मैं उन्हें बच्चे ही मानता था। और यही मौत के मुँह में जाते हैं तथा पूरे राजनीतिज्ञ अपने कैबिनेटों निकल गई है।' हम रुके। इससे पूर्व कभी मैंने मॉस्कविच कार का टायर नहीं बदला था. पहली युद्ध बार मुझे ये कार्य करना था। (हँसी) योगी महाजन भी कार में श्रीमाताजी के साथ पिछली सीट पर अंक : 5 & 6 -2007 6 चैतन्य लहरी (दफ्तरों) में बैठकर वोडका, और यदि वे अंग्रेज हैं तो शैरी या पोर्ट पीते हैं। तो ये मेरा पहला विचार था। लिया। वे सफलता की चाबी थे। तो मैने पहिया लगाया और हम चल पड़े। मैंने सूट पहना हुआ था। पुनः अपनी जैकेट पहनी, मेरे गए थे और कोहनियों तक ग्रीज़ से सने हुए थे। ये बाजू काले हो तब, मैंने श्रीमाताजी से कहा, श्रीमाताजी क्या आप ठीक हैं? उन्होंने अपने छोटे-छोटे चश्में पहन लिए थे, वे बोली, हाँ, मैं उनका अध्ययन कर रही हैँ, तब साठ टैंक दहाड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। अगस्त का महीना था। तो लेनिनग्रेडस्क्या मार्ग पर हम मध्य-मास्को की ओर जा रहे थे, अभी गोर्की मार्ग न आया था । अचानक दूरी पर हमें अस्थाई बैरिकों में सैनिक न बाद में हमें पता चला कि ये साठ टैंक विपल्व की सहायता करने के लिए थे, परन्तु सेना के कमाण्डरों ने इन टैंको को न भेजने का निर्णय लिया, ये दिखाई दिए। मैं कह उठा 'ओह, ये हमें नहीं शान्त खड़े होकर प्रतीक्षा करते रहे, ऐसा प्रतीत हुआ मानों वास्तव में ये गोर्बाचोफ के लिए हों। (Rastergoeva) जाना था, और श्रीमाताजी ने इसीलिए हमारा ये टायर पंक्चर हुआ था ताकि बड़ी धीमी, सहमी सी आवाज में कहा, 'बोडन, हम श्रीमाताजी इन टैंकों का अध्ययन कर सके। मैं सोचता हूँ कि इन टैंकों को यदि मास्को के भिन्न क्षेत्रों में तैनात किया गया होता तो इन्होंने विपल्व की सफलता में सहायता की होती। तो इन्हें छोड़ उठा 'निःसन्देह, श्रीमाताजी मैंने सोचा :- दिया गया, श्रीमाताजी की पावन दृष्टि, उनके पावन चित्त से ये निष्प्रभावित हो गए थे । निकलने देंगे और हमें तो दक्षिण में रास्त्रगोएवा ठीक तो रहेंगे न ? श्रीमाताजी जिन्होंने उस क्षण मेरा मध्य-हृदय-चक्र खोला था, मैं उन्हीं को बड़े जोर से पुनः विश्वस्त करने के लिए लगभग कह हे, क्षणभर रुको, यहाँ पर आदिशक्ति बैठी हैं, जन्हीं ने मुझे यह विशाल हृदय प्रदान किया है, उसमें बिल्कुल भय नहीं है, आदि आदि। अब वे मुझे किस माया में डाल रही हैं? अपने हृदय में मैंने कहा, 'मॉँ मुझे खेद (Sorry) है, आप ही तो. जो भी हो, तब मैंने महसूस किया कि श्रीमाताजी रूस की रक्षा कर रही हैं और मैं टायर की रक्षा कर रहा हूँ, हम सब अपने-अपने कार्य पर थे हर आदमी अपने कार्य पर था। तो मैं कार का पहिया लगा रहा था। मैंने सोचा कि कहीं चौरस सुराख परन्तु इन दोनों का आकार गोल था-सुराख और बोल्ट का। समझ पाना मेरे लिए असम्भव था, |ह । और जोर से मैं बोला, 'जी, श्रीमाताजी मैं सोचता हूँ कि हमें कुछ नहीं होगा। परन्तु, आप जानते हैं, वे तो लीला कर रही थीं, खेल कर रहीं मैं में गोल बोल्ट तो नहीं डाल रहा हूँ, थीं। वास्तव में वे लीला कर रही थी! वे पुनः बोलीं, पगला रहा था। योगी महाजन मेरी सहायता के लिए आये, उन्होंने दो छोटी गाइड पिनें देखीं जिन्हें मैं न देख पाया था । इन पिनों से पहिया चारों बोल्टों पर ठीक प्रकार से लग गया बाद में मुझे ' 'बोडन' बहुत पहली प्रतिक्रिया ये थी कि श्रीमाताजी नहीं जानती। और तब, 'बोडन, क्या तुम पागल हो? क्या विचार आ रहा है कि श्रीमाताजी नहीं जानती! तुम बिल्कुल ही धीमी आवाज में, 'बायें मुड़ो। मेरी पता चला कि विश्वयुद्ध के पश्चात 1947-48 में अंग्रेजी कारों में ऐसी ही प्रणाली थी। तो अन्ततः मैं से विचार निष्प्रभावित हो गया मैंने कहा, "जी, शान्त रहो। क्षणभर में यह सब हो गया, एक दम जान गया कि क्या बात थी। योगी ने जब ये बताया तो लगभग खड़े हो कर मैने उन्हें चूम ने कहा, 'यहाँ से दायें मुड़ो, और मैं दायें मुड़ श्रीमाताजी और बायें मुड गया। तब श्री माताजी अंक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी गया। यहाँ अंधेरा था। हम वास्तव में, मैं सोचता हूँ किसी एक-ओर (One-way) मार्ग पर गलत तरफ से चले गए थे मैंने न तो कुछ पूछा और न कुछ देखा, एक-ओर-मार्ग पर चलता गया हम घरों, गुम्बदों के बीच आ गए थे (रूसी लोग बड़े-बड़े भवन समूहों के फ्लैटों में खास ही प्रकार से रहते हैं। ये भवन समूह सड़क से हट कर घास और है!" आश्चर्यचकित ऐलन कह उठे, "कल्पना करें, ऐसा लगता है मानों आप कोई उपन्यास पढ़ रहे हों, या स्वप्न देख रहें हैं। जिसमें रूस की रक्षा करने के लिए परमात्मा को छोटी सी वृद्ध महिला के रूप में मॉस्कविच (Moscvitch) कार में बिठा कर मॉस्को के मध्य से ले जाया जा रहा है। व्यक्ति सोच भी नहीं सकता कि ऐसा होना सम्भव गंदगी में बने होते हैं) हम न जानते थे कि खड्डे में गिरेंगे, किसी दीवार या चट्टान से टकराएंगे! मैं चले जा रहा था! माँ कह रहीं थीं- बायें चलो, दायें चलो' और हम दक्षिण की ओर बहने वाली नदी के दूसरी ओर वारस्वस्का एक्सप्रैस मार्ग पर पहुँच गए! मैं नहीं जानता कैसे, क्योंकि नगर का मध्य तो पूरी बोडन बोले, "यह एक अति अद्भुत अनुभव था।" इन्टरनैट विवरण (रूपान्तरित) (From Alan Wherry < shivalan@gmail.com >August 10, 2005) तरह से बन्द था!" (पृष्ठ 2 का शेष भाग) (परावाणी) सीधे हमारी मध्यमा (हृदय) को प्रभावित कर रही थी।" कहकर भाषण शुरु किया। उन्होंने कहा कि हम सभी लोग मिलकर प्रार्थना करें कि आज तो हम सब श्रीमाताजी के सम्मुख बैठकर उनका जन्मदिवस मना रहे हैं परन्तु भविष्य में हमारे बच्चों और नाती पोतों के सम्मुख भी अपने जन्मदिवस के अवसर पर श्रीमाताजी साक्षात् विराजमान हों। सभी उपस्थित लोगों ने प्रार्थना की विश्व का हर मानव परिवर्तित नहीं हो जाता कृपा करके तब तक पृथ्वी पर अपने साकार रूप को विराजमान रखें श्रीमाताजी की ओर से सर सी.पी. ने सभी सहजयोगियों से अनुरोध किया कि सहजयोग प्रचार-प्रसार कार्य की जिम्मेदारी अब वे अपने कन्धों पर ले लें और श्रीमाताजी के निश्छल पावन प्रेम को जन-जन में बाँटें। उन्होंने सभी से अनुरोध सी.पी. भी तालियाँ बजाए बिना न रह सके। ऐसा किया कि अब आप सहजयोग प्रचार -प्रसार करें प्रतीत होता था मानो वो श्रीमाताजी से कह रहे हों, और अपनी माँ को आराम करने दें। प्रस्थान से पूर्व सर सी.पी. ने एक बार फिर पुणे सामूहिकता विशेष रूप से श्री पुगलिया को इतना सुन्दर आयोजन करने के लिए धन्यवाद किया। पूरी सामूहिकता अपनी परम पावनी श्रीमाताजी के बाद " श्रीमाताजी जब तक सम्मुख नतमस्तक थी। ऐसे प्रतीत होता था मानो सर सी.पी. के मुख से स्वयं श्रीमाताजी बोल रही हों। आनन्दमग्न सहजयोगियों की माँग पर एक बार फिर 'माता का करम गाया गया। आनन्दमग्न हर कुण्डलिनी नाच उठी। आनन्द से झूमते हुए सर "देखो आपके जन्मदिवस पर आपके बच्चे कितने प्रसन्न है... उन्हें आशीर्वाद दो... .! "यद्यपि श्रीमाताजी मुख से कुछ नहीं बोले परन्तु चैतन्य-लहरियों के माध्यम से उनकी वैखरी जय श्रीमाताजी (इन्टरनैट विवरण) श्री कृष्ण पूजा गारलेट- मिलान आश्रम 6.8.1988 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन Krishna) इतना महत्वपूर्ण है कि विशुद्धि चक्र पर आज हम यहाँ श्री कृष्ण पूजा करने के लिए एकत्र हुए है। विशुद्धि चक्र पर श्री कृष्ण के आगमन के पहुँचकर हम पूर्ण हो जाते हैं क्योंकि जब सहस्रार महत्व को समझना हमारे लिए आवश्यक है। जैसे आप भली -भाँति जानते हैं, श्री ब्रह्मदेव एक या दो करने लगते हैं, अभी तक आप पूरी तरह से पूर्ण नहीं बार से अधिक अवतरित नहीं हुए। श्री गणेश भी होते यदि आप पूर्ण हो गए होते तो यह आपकी केवल एक ही बार भगवान ईसा-मसीह के रूप में विकास प्रक्रिया का अन्त होता. उस अवस्था पर पहुँच अवतरित हुए। परन्तु श्री विष्णु (विष्णु -तत्व) ने पृथ्वी जाने में यदि पूर्णता प्राप्त हो जाती तो सहजयोग की पर बहुत बार जन्म लिया। देवी भी पृथ्वी पर बहुत कोई आवश्यकता न होती। परन्तु वास्तव में इसका बार अवतरित हुईं। उन्हें बहुत बार मिलकर कार्य करना पड़ा और विष्णु तत्व के साथ मिलकर महालक्ष्मी-तत्व ने लोगों की उत्क्रान्ति के लिए कार्य किया अतः विष्णु तत्व आपकी उत्क्रान्ति के लिए है, मानव की विकास प्रक्रिया के लिए है। इसी आगमन (अवतरण) आपके लिए खुलता है तो आप चैतन्य लहरियाँ महसूस अर्थ ये है कि एक बार सहस्रार खुल जाने के बाद आपको वापिस अपने विशुद्धि चक्र पर आना पड़ता है अर्थात अपनी सामूहिकता के स्तर पर। विशुद्धि चक्र यदि ज्योतिर्मय नहीं हो तो आप चैतन्य लहरियाँ महसूस नहीं कर सकते जैसे कल आपने देखा कलाकारों ने के माध्यम से और महालक्ष्मी की शक्ति के माध्यम से एक अत्यन्त नए आयाम में बजाना आरम्भ कर दिया। यह इसलिए नहीं था कि उनकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। नि सन्देह कुण्डलिनी तो पहले से ही जागृत थी परन्तु. इसे वापिस विशुद्धि चक्र पर आना पड़ा। मैं यदि इसे विशुद्धि चक्र पर वापिस न ला पाती तो उनके (कलाकारों) हाथ इतनी तेजी से न चलते, कभी उन्हें श्री कृष्ण ले माधुर्य का एहसास न होता और न ही वे उस माधुर्य की अभिव्यक्ति कर पाते अतः जो भी आपकी अंगुलियों और हाथों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है उसमें माधुर्य सृजन करने की नई चेतना आ जाती है। आपकी कला में, संगीत में हाव-भाव में, आपके हाथ हर प्रकार से महत्वपूर्ण हैं। परन्तु विशुद्धि चक्र की भी बहुत बड़ी भूमिका है । जैसा आप जानते हैं, इसकी सोलह पंखुड़ियाँ हमारी हम अमीबा से मानव बने। हमारे लिए यह सब स्वतः घटित होता है, परन्तु विष्णुतत्व को विकसित करने के लिए श्री विष्णु को बहुत से अवतरण लेने पड़े। आप जानते हैं कि आरम्भ में श्री विष्णु मतस्य रूप में अवतरित हुए और भिन्न रूपों में अवतरित होकर श्री कृष्ण रूप में अवतरित हुए. जिन्हें पूर्णांवतार' माना जाता है। परन्तु हमें समझना होगा कि वे (श्री विष्णु) हमारे मध्य नाड़ीतन्त्र पर कार्य करते हैं, हमारे मध्य नाड़ीतन्त्र की रचना करते हैं। हमारी विकास प्रक्रिया के माध्यम से हमारा मध्य-नाड़ी-तन्त्र बनाया गया है और इसी मध्य-नाड़ी-तन्त्र ने हमें हमारी मानवीय चेतना प्रदान की है, नहीं तो हम पत्थर की तरह से होते। इस चेतना की रचना के माध्यम से, मुखाकृति, हमारे कान, नाक, ऑँखें और गर्दन की देखभाल करती हैं। इन सब अवयवों की देखभाल विशुद्धि चक्र करता है. परिणामस्वरूप आप महान अभिनेता बन सकते है, आपकी आँखें अत्यन्त पावन हो सकती हैं, आपकी त्वचा तेजोमय हो जाती है हमारे अन्दर एक के बाद एक चक्र बनाकर यह विष्णु तत्व हमें उस अवस्था तक ले आया है जहाँ हम समझ सकें कि हमें सत्य-साधना करनी है और सहजयोगी बनना है। अंतः यह कृष्ण-तत्व (Principle of Shri अंक 5 & 6 चैतन्य लहरी 2007 9 - साक्षीभाव से आप इसे देखते हैं और बिल्कुल व्याकुल आपके कान परमेश्वरी सगीत सुन सकते हैं, और नाक आपकी गरिमा को दर्शाती है। इसी फ्रकार से आपके चेहरे की अभिव्यक्तियाँ परिवर्तित हो जाती हैं । आप यदि कठोर व्यक्ति हैं. उग्र-स्वभाव है. आपके चेहरे पर यदि कठोरता है, आपका चेहरा यदि हर नहीं होते। उस देखने, उस साक्षी अवस्था में अद्भुत शक्ति होती है। निर्विचारिता में जिस समस्या को आप देखते हैं उस समस्या का समाधान हो जाता है। आपको कोई भी समस्या हो, एक बार जब आप यह साक्षी अवस्था प्राप्त कर लेते हैं, यह तटस्थता समय भिखारियों की तरह से बना रहता है. हर समय यदि आप रोते-बिलखते रहते हैं, तो आपकी मुखाकृति अत्यन्त दयनीय दिखाई पड़ती है। सभी कुछ परिवर्तित हो जाता है और मध्य में आ जाता है. जहाँ आप सुन्दर प्राप्त कर लेते हैं अर्थात सागर के तट पर खड़े होकर आप लहरों के आवागमन को देखते हैं, तब आप जान जाते हैं कि समस्या का सामाधान किस प्रकार और दिव्य रूप से आकर्षक दिखाई देते है और आपकी करना है। मुखाकृति अत्यन्त मोहक हो जाती है। अत: आपकी साक्षी अवस्था का विकसित होना आवश्यक है, और कभी-कभी, मैंने देखा है. साक्षी अवस्था विकसित करने में लोगो को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। एक बार कुण्डलिनी का सहस्रार में से नीचे की ओर चैतन्य प्रवाहित करना, जो आपके चक्रों से प्रवाहित होकर भिन्न चक्रों का पोषण करे, आवश्यक है। विशुद्धि चक्र दाँतों और जिहवा की देखभाल भी विशुद्धि चक्र करता है, अतः आपके दाँतों के रोग भी ठीक हो जाते हैं.. आष. जैसे मैने आपको बताया, अपने जीवन में मैं कभी दाँतों के डॉक्टर के पास नही गई। तो आप समझ सकते हैं कि यदि आपका विशुद्धि चक्र ठीक है तो अब आपको डॉक्टर के पास नहीं जाना पर जब यह रुकती है तो वास्तव में आपको विक्षोभ की अवस्था में ले जाने का प्रयत्न करती है, और आप सोचने लगते है, "देखो मेरी पत्नी इतनी अच्छी थी, मुझे इतने आशीर्वाद प्राप्त थे और अब क्या हो गया है!" परन्तु यह वह समय है जब आपको तटस्थ हो जाना चाहिए अर्थात आपको साक्षी हो जाना चाहिए। यदि आप साक्षी हो जाएं तो सभी कुछ सुधर जाता है पड़ता । आपकी जिह्वा में भी सुधार होता है उदाहरण के रूप में कुछ लोग स्वभाव से व्यंग्यप्रिय (Sarcastic) होते हैं, वे कोई मीठी बात नहीं कर सकते, हर समय व्यंग्य करते हैं और व्यंग्यपूर्ण बातें कहते हैं। कुछ लोगों की भाषा बड़ी गाली-गुफ़्तार वाली होती है, कुछ लोग अत्यन्त भिखारियों जैसे होते हैं. हर समय भिखारियों की तरह से बात करते है, कुछ लोगों में गरिमा, माधुर्य और आत्मविश्वास नहीं होता कुछ लोग हकलाते हैं. उदाहरण के रूप में मान लो आप एक ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी स्थान पर कार्य कर रहा है. ज्योही वह कुछ मंच पर खड़े होकर भाषण नहीं दे सकते। विशुद्धि चक्र के सुधरते ही ये सब कमियाँ दूर हो जाती हैं। साक्षी बनता है तो उसका चित्त अन्दर की ओर चला जाता है और वह अपने अन्दर से बाहर की चीजों को यह केवल बाह्य है. विशुद्धि चक्र पर श्रीकृष्ण की जागृति के माध्यम से आपके अन्दर विशुद्धि चक्र सुधारने की यह बाह्य अभिव्यक्ति है। वास्तव में होता क्या है कि अपने अन्तस में आप साक्षी बन जाते है, साक्षी अर्थात परेशान करने वाली, कष्ट देने वाली हर देखता है। परिणाम स्वरूप आप जान जाते हैं कि कहा पर क्या कमी है और क्योंकि आपमें साक्षित्व की शक्ति है, उस शक्ति से आप अपनी समस्याओं का समाधान कर लेते हैं। परिस्थिति से लिप्त होने के स्थान पर यदि समस्या को आप अपने अन्दर देखने लगते हैं। अंक : 5 & 6 -2007 10 चैतन्य लहरी वो वध कर देते थे और या वे बहुत मधुर थे, बीच की कोई बात नहीं है। लोगों के प्रति या तो मृदु होना है या फिर किसी को समाप्त कर देना है। अब आप वध करने का कार्य त्याग दीजिए। आपको तो केवल मधुर होना है। आप सबको परस्पर बहुत मधुर होना है विशेष रूप से सहजयोगियों को परस्पर एक दूसरे के प्रति बहुत ही मधुर होना है। दूसरों से व्यवहार करते समय भी यदि आप उनमें कोई कमी देखे तो भी आप उसे साक्षी भाव से देखना जानते है तो समस्याओं का समाधान अत्यन्त आसानी से हो जाता है। यही सर्वोत्तम अवस्था है जिसे आप "साक्षी स्वरूपत्व" कहते हैं। यह अवस्था आपको तब प्राप्त होती है जब कुण्डलिनी ऊपर आती है और योग स्थापित होता है और दिव्य लहरियाँ झरने लगती हैं और आपके विशुद्धि चक्र को समृद्ध बनाती हैं। श्री कृष्ण का नाम "कृष' शब्द से आया है मधुरतापूर्वक उन्हें बताएं कि यह अच्छी बात नहीं है, अब आप सहज योग में आ गए है, आपको इस प्रकार जिसका अर्थ है जोतना-हल चलाना, फसल बोने के लिए जुमीन में हल चलाना। उन्होंने ही हमारे लिए हल चलाने का कार्य किया है, अर्थात उन्होंने इस प्रकार से व्यवहार करना होगा। श्री कृष्ण के जीवन ने एक अन्य महत्वपूर्ण से हमारा सृजन किया है कि बीजारोपण के समय हम पूरी तरह से तैयार हो। परन्तु हम मानव अपने विशुद्धि चक्र को बहुत सी गलत चीजों से खराब कर लेते हैं। जैसे आपने देखा है, हम धूम्रपान करते हैं. नशे लेते हैं. तम्बाकू खाते हैं आदि-आदि और इनसे हमारा विशुद्धि चक्र बिगड़ जाता है। इससे भी ऊपर यदि आप ऐसे व्यक्ति हैं जो बिल्कुल नहीं बोलता या बहुत अधिक बोलता है या जो चीखता चिल्लाता है और अपना क्रोध दिखाता है, ऊँची आवाज में बोलता है, तो ऐसा व्यक्ति अपने विशुद्धि चक्र को खराब कर लेता है। भूमिका निभानी है वे श्रीराम के अवतरण के पश्चात् पृथ्वी पर अवतरिन हुए। श्रीराम भी श्री विष्णु के अवतार थे श्रीराम जब पृथ्वी पर अवतरित हुए तो लोग अत्यन्त अज्ञानी थे, उन्हें धर्म की कोई समझ ही न थी। राजा होने के नाते उन्होंने लोगों को धर्म सिखाना चाहा और इस कारण से वे अत्यन्त गम्भीर हो गए। तो उनका अवतरण एक अत्यन्त गम्भीर पिता सा था जो अत्यन्त गम्भीरता पूर्वक सभी प्रकार की उथल-पुथल को निभा रहा है और हितकारी राजा के मूर्तरूप का सृजन कर रहा है। परिणामस्वरूप जब उनका अवतरण समाप्त हुआ तो लोग अत्यन्त गम्भीर-प्रवृत्ति बन गए अतः पहली चीज ये है कि अपने विशद्धि चक्र का उपयोग करते समय आपको याद रखना है और धर्म में अत्यन्त गम्भीरता आ गई सभी प्रकार के कर्मकाण्ड आरम्भ हो गए, लोग अत्यन्त कट्टर हो कि इसका उपयोग मिठास (माधूर्य) के लिए होना चाहिए। किसी को यदि आप कुछ कहना चाहते हैं तो कोई मधुर या अच्छी बात कहने का प्रयत्न करें, ऐसा करने का अभ्यास करें। कुछ स्थानों पर मैने देखा है गए और उन्होंने कठोरता पूर्वक जीवन के आनन्द को समाप्त कर दिया। उस कठोरता से बहुत सी अन्य चीजे आरम्भ हो गई- ब्राह्मणवाद का आरम्भ। कि लोग इस प्रकार से बात करने के आदी होते हैं कि वे मधुरतापूर्वक बात कर ही नहीं सकते। उनके लिए ये अधर्म है, किसी से मधुरतापूर्वक बात करना। वो तो कैवल ये मानते हैं कि उन्हें इस प्रकार से बात करनी चाहिए कि जिससे अन्य लोगों को चोट पहुँचे। किसी जब लोगों ने ब्राह्मणवाद को जन्म सिद्ध अधिकार मान लिया तो भारत में ब्राह्मणवाद का आरम्भ हो गया, जबकि वास्तव में बाह्मण होना जन्म सिद्ध अधिकार नहीं है, व्यक्ति को ब्राह्मण बनना पड़ता है। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आप ब्राह्मण बन जाते हैं, को चोट पहुँचाना श्री कृष्ण के धर्म में नहीं है- या तो अक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी 11 में आत्मा का निवास है। ये सत्य केवल श्री कृष्ण के समय पर ही स्थापित नहीं हुआ. श्री राम के समय में भी इसकी स्थापना हुई क्योंकि श्री राम स्वयं भी ब्राह्मण नहीं थे उन्होंने एक वाल्मीकि, एक निम्न जाति के मछुआरे से अपनी रामायण लिखवाई। आश्चर्य की बात है कि उन्होंने अब सहजयोग में हमने साबित कर दिया है कि आप चाहे जिस धर्म को मानने वाले हो, जिन विचारों या दर्शन का आप अनुसरण करते हों, चाहे जिसको मानते हों, आप सब आत्मसाक्षात्कारी बन लोग इस मछुआरे को रामायण लिखने को कहा जो ब्राह्मण भी नहीं था। उन्होंने उसे ब्राह्मण बनाया, विल्कुल वैसे ही जैसे आप लोग ब्राह्मण बने हैं, अर्थात ब्रह्म को जानने वाले ब्रह्म को जानने वाला व्यक्ति ही संच्चा सकते हैं। अतः कोई न तो उच्च है न निम्न। कुछ सोचते हैं कि यह मानना सर्वोत्तम है कि हमारे सिवाय सब गलत है। परन्तु ऐसा मानने वाले लोगों को सीधे नरक में जाना होगा क्योंकि वे सत्य तक नहीं पहुँचे है। सत्य ये है कि आपको आत्म-साक्षात्कारी बनना है। ब्राह्मण होता है, किसी ब्राह्मण के घर जन्म लेने काला नहीं। यदि आप आत्म-साक्षात्कारी नहीं हैं तो परमात्मा के समीप भी नहीं पहुँचे। आपको परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करना होगा स्वय ईसामसीह ने कहा था इसी कारण इन तथाकथित धार्मिक लोगों को देखकर कई बार लोग परेशान हो जाते हैं। ये यदि इतने विकृत है और सभी प्रकार के पाप कर सकते हैं. तो ब्राह्मण कैसे हो सकते हैं? अतः इस प्रकार के धर्मों या इस प्रकार की कट्टरताओं का अनुसरण करके आप सुधर नही सकते आप यदि ईसाई है तो ईसाईयो में एक चीज देखी जानी चाहिए कि उनकी दृष्टि आपको परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करना होगा। आपको पुनर्जन्म लेना होगा और जब आप ईसा. ईसा' कहकर मुझे पुकारेंगे तो मैं तुम्हें पहचानूगा भी नहीं ।' उन्होंने ये बात स्पष्ट कही. आपको चेतावनी दी। मोहम्मद साहब ने भी स्वयं कहा कि 'कयामा के समय आपके हाथ बोलेंगे।' अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में अपवित्र नहीं होनी चाहिए। अब मैं ये जानना चाहूगी कि कितने ईसाई पवित्र दृष्टि का दावा करते हैं। महिलाओं के प्रति यदि उनकी दृष्टि अपवित्र नहीं है तो अन्य चीजों के प्रति उनकी दृष्टि अपवित्र होगी। तो आप ये नहीं कह सकते कि ईसाई धर्म अपना कर आप वास्तव में ईसाई बन गए है। उन्होंने कहा "कयामा के समय तक आप वे सारे कर्मकाण्ड करेंगे जैसे. माला आदि-आदि। परन्तु कयामा आने पर जब आपको पुनर्जन्म प्राप्त हो जाएगा तब आपको यह सब नहीं करना पड़ेगा।" ये बात उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट कही है। परन्तु कयामा को खोजने का प्रयत्न कोई भी नहीं करता, वे तो केवल एक चीज इसी प्रकार से हम हिन्दुओं के बारे में भी कह सकते हैं। हिन्दूधर्म में श्री कृष्ण ने कहा है कि सभी के अन्दर आत्मा का निवास है। उन्होंने ये कभी नहीं कहा कि जन्म से 'जाति' निश्चित होती है। परन्तु हिन्दूधर्म में हम लोग विश्वास करते हैं कि हर व्यक्ति की अपनी जाति होती है तथा हर व्यक्ति भिन्न है। कुछ लोगों को निम्न मान कर व्यवहार किया जाता है और कुछ को में दोष खोजते है दूसरी चीज में दोष खोजते हैं और परस्पर युद्ध करते हैं। उनका बताया हुआ पुनर्जन्म का समय, जब आपके हाथ बोलें गे, सहजयोग में है। अतः आत्म-साक्षात्कार के पश्चात् आपको कोई कर्मकाण्ड नहीं करने। उनके अनुसार अब आप पीर की शिक्षा के उच्च मानकर। ऐसा करना श्री बन गए है। एक बार जब आप वली बन गए हैं तो कृष्ण बिल्कुल विपरीत है क्योंकि उन्होंने कहा था कि सभी आपको ये सब कर्मकाण्ड करने की कोई आवश्यकता अंक : 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी 12 नहीं है क्योंकि आप धर्मातीत हो जाते हैं। भारतीय दर्शन में भी श्री कृष्ण ने कहा था कि आप धर्मातीत हो जाते हैं। आप धर्म से ऊपर उठ जाते हैं अर्थात धर्म अवतरणों के प्रयाण के पश्चात् लोगों ने कर्मकाण्ड आरम्भ कर दिए, अजीब-अजीब कर्मकाण्ड। जब श्रीकृष्ण ने प्रयाण किया तो लोग नहीं जानते थे कि अब क्या करें। क्योंकि उन्होंने कहा था, "अब कर्मकाण्डों अब बस होली खेलो. आपका अंग-प्रत्यग बन जाता है। आपको बाह्य धर्म नहीं अपनाने पड़ते क्योंकि ये सब बेकार हैं ये बात लती की आवश्यकता नही प्रसन्न रहो, आनन्द मनाओ, नाचो और गाओ।" उन्होंने यही कहा था। अब क्या करें जब उन्होंने ये कहा है? तो लोगों ने एक नई चीज़ शुरु कर दी, "क्यों न इसे रोमांचक बना दें?" किसी भी चीज़ को विकृत करना मानव अच्छी तरह से जानता है। इस मामले में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। तो लोगों ने श्रीकृष्ण को अत्यन्त रोमांचक व्यक्तित्व बना दिया, राधा से प्रेम लीला करते हुए। 'रा-धा', 'रा अर्थात शक्ति 'धा' अर्थात शक्ति को धारण करने स्पष्ट कही गई थी। श्री कृष्ण ने यह बात इतनी स्पष्ट कही जितनी कोई अन्य व्यक्ति कह सकता कि आपको अपने गुणों अत्यन्त-अत्यन्त स्पष्ट... से, धर्मों से ऊपर उठना है, अर्थात आपको ऐसा व्यक्ति बनना है जो अन्तर्जात रूप से धार्मिक हो, ऐसा व्यक्ति नहीं जो बाहर से ईसाई, हिन्दू या मुसलमान जैसा हो। नहीं। अन्दर से। अपने अन्दर आपको बनना है। अब परिणामस्वरूप आपने वो देखा है जो ने वाली। परन्तु लोग श्री कृष्ण को राधा से रोमांस करते हुए दिखाते है...... वे साक्षात् महालक्ष्मी थी। ये लोग महालक्ष्मी से श्रीकृष्ण का सम्बन्ध इस प्रकार दर्शाते हैं मानो वो पति-पत्नी हों! बहुत से कवि उनका वर्णन पति-पत्नी के रूप में करने लगे तथा अन्य सभी प्रकार की मूर्खताएँ। श्री कृष्ण कहा था कि एक बार आप अन्दर से बन जाएं तो मुझे आपको ये नहीं बताना पड़ेगा कि 'शराब मत पिओ", "ऐसा मत करो, 'वैसा मत करो', कुछ नहीं। आप ऐसा करते ही नहीं, बस, ऐसा करते ही नहीं और आप अच्छी तरह से समझ जाते है कि ये कार्य नहीं करना चाहिए, वो कार्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वरी सम्बन्धों में पति-पत्नी जैसी कोई चीजू नहीं। एक मादा शक्ति है और दूसरी गतिज (Kinetic) (नर) शक्ति। जिस प्रकार के सम्बन्ध मनुष्य इन सभी मूर्खतापूर्ण धार्मिक कर्मकाण्डों पर नियन्त्रण करने के लिए श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। बहुत महत्वपूर्ण अवतरण था, परन्तु मैं नही जानती कि कितने लोग इस बात को समझते है। वो ये दर्शाने के लिए आए थे कि यह सब लीला है. सारा परमात्मा ये दर्शाने का प्रयत्न करता है वैसा कोई सम्बन्ध नहीं है। मानव में परमेश्वरी अवतरणों को अपने स्तर तक लाने की आदत है। जैसा आपने देखा, "यूनानी लोग सबसे आगे थे जो महान अवतरणों को अपने स्तर पर का खेल है। गम्भीर होने की क्या बात है? कर्मकाण्डी बनने की क्या बात है? परमात्मा को आप कर्मकाण्डों खींच लाए। इसी प्रकार से जब वे श्री कृष्ण के साथ बहुत अधिक न कर सके तो उन्होंने सोचा ठीक है इन्हें रोमांटिक " व्यक्तित्व बना दो, ये हमारे लिए उपयुक्त में नहीं बाँध सकते, इसीलिए पृथ्वी पर उनका अवतरण हुआ, आपको यह बताने के लिए कि स्वयं को इन मूर्खतापूर्ण कर्मकाण्डों में नही जकड़ना चाहिए उनके यही उपदेश थे। बहुत वर्ष पूर्व, ये उपदेश उन्होंने होगा।" बहुत से दुष्ट लोगों को ये बात बहुत पसन्द आई। हमारे यहाँ Wanhabin Laknow हुए जिनकी 6000 वर्ष पूर्व दिए थे। परन्तु आज भी यदि आप देखें तो हर धर्म में बहुत से कर्मकाणरड चले जा रहे है । चैतन्य लहरी 5& 6 -2007 13 कि यदि मैं योगेश्वर हूँ तो तुम नीचे आ जाओ ।"ठीक है, जाकर नदी से कहो कि यदि सन्त ने कुछ नहीं खाया, और यदि वह पूर्णतः निर्लिप्त हैं तो हे नदी, तुम नीचे आ जाओ।" वो हैरान हो गई क्योंकि उन्होंने अभी सन्त को सभी कुछ खिलाया था. सन्त ने सभी 365 पत्नियाँ थीं और वे कभी श्री की तरह वस्त्र कृष्ण धारण करते और कभी राधा की तरह और नृत्य करते। वे कहते. "अब मैं श्रीकृष्ण बन गया हूँ। श्रीकृष्ण के रूप में बॉसुरी बजाते हुए, अन्य सभी को अपनी गोपियाँ आदि, और सभी प्रकार की मूर्खतापूर्ण बातें कहते हुए बहुत से गुरु आए। अब भी बहुत से समूह इसी प्रकार से कार्य कर रहे हैं, ब्रह्मकुमारियाँ आदि। कुछ खा लिया था। वो नदी पर गई और कहा. "हे नदी. यदि सन्त ने कभी कुछ नहीं खाया, भोजन के विषय में यदि वह पूर्णतः निर्लिप्त है, उसने यदि खाना छुआ जब श्री कृष्ण केवल एक है तो बाकी सब गोपियाँ और गोप है वो विवाह नहीं करते और सभी प्रकार की मूर्खताएं । विवाह न करना पूर्णतः बेतुकापन और विकृति है जो श्रीकृष्ण को भी बदनाम करती है। तक नहीं तो तुम शान्त हो जाओ।" और नदी का स्तर नीचे चला गया। वे बहुत हैरान हुई "ये कैसे हो श्रीकृष्ण योगेश्वर थे। वे योगेश्वर थे। वे इतने निर्लिप्त थे कि, एक बार उनकी पत्नियों, जो उनकी शक्तियोँ भी थीं, ने कहा कि हम "नदी पार किसी स्थिति में था वह खाने में लिप्त नहीं था, वह निर्लिप्त सन्त के पास जाना चाहती हैं। उन्होंने कहा, "ठीक हैं, था इस बात पर उन्हें बहुत हैरानी हुई। मानवीय जाती क्यों नही?" उन्होंने उत्तर दिया, " नदी चढ़ी हुई दृष्टिकोण से यह असत्य लगता है, परन्तु ऐसा है है, हम नहीं जानती कि नदी को पार कैसे करें? श्री नहीं। ऐसा नहीं है, ये सत्य है। वे योगेश्वर हैं और कृष्ण ने कहा, ठीक है, जाकर नदी से कहो कि तुम नदी पार फला सन्त के दर्शन करना चाहती हो और सकता है कि सभी कुछ खाकर भी सन्त ने कुछ नहीं खाया!" इसका अर्थ ये है कि वह 'अस्वधा की अत्यन्त निर्लिप्त है। तो लोग दिव्यत्व को नहीं समझते और सोचते श्रीकृष्ण ने कहा है कि तुम शान्त हो जाओ। यदि श्रीकृष्ण योगेश्वर है, ब्रह्मचारी हैं तो तुम नीचे आ हैं कि, "सोलह हजार पल्नियों और पाँच पटरानियों वाला व्यक्ति किस प्रकार ब्रह्मचारी हो सकता है?" श्री जाओ।" कृष्ण के लिए यह सम्भव था क्योंकि वे योगेश्वर थे। इसी प्रकार से आप सबको भी योगेश्वर बनना होगा। वे नदी पर गई और उससे कहा, "यदि श्रीकृष्ण की कोई पत्नी नहीं है और यदि वे योगेश्वर हैं तो कृपा करके अपना स्तर कम कर लो।" और नदी का स्तर घट गया। वो सब बहुत हैरान हुई कि वे हमारे पति हैं फिर भी वे योगेश्वर हैं, वे इतने निर्लिप्त हैं!" उन्होंने नदी पार की, जाकर सन्त की पूजा की। सन्त आप विवाहित हैं. आपके बच्चे हैं मुझे खुशी है कि आप विवाहित हैं क्योंकि विवाह करना शुभ होता है। आपको अपने परिवार से लिप्त नहीं होना... परन्तु मेरे बच्चे, मेरा परिवार। मैंने देखा है कि सहजयोग में आकर बहुत से लोग विवाह करते हैं और खो जाते हैं। क्योंकि उनके लिए.. अब हो गया विवाह अब अपने परिवार का आनन्द ले रहा हूँ, उसकी ने कहा,"अब तुम वापिस जाओं।" मैं जब वे वापिस नदी पर आई तो नदी उफ़ान पर थी। उन्होंने जाकर सन्त से पूछा "हम कैसे वापिस जाएं," उसने कहा, "तुम आई कैसे थीं," उन्होंने बताया," श्रीकृष्ण ने कहा था कि जाकर नदी से पूछो देखभाल कर रहा हूँ। पूरा ब्रह्माण्ड हमारा परिवार है- केवल 'मेरी पत्नी' और 'मेरे बच्चे ही नहीं बल्कि पूरा ब्रह्माण्ड आपका परिवार है। आप सार्वभौमिक - 2007 14 अक : 5 & 6 चैतन्य लहरी मानव (Universal Being) हैं। हमेशा उन्होंने यही शिक्षा दी कि आप सार्वभौमिक मानव हैं और आपको पूर्ण महत्व नहीं पता चलता, तब आप ये भी नहीं समझ पाते कि आपमें क्या खराबी आ गई है। का अग-प्रत्यग बनना होगा। जब आप पूर्ण के आपने यदि, "मुझे खेद है" कहना ही है तो अंग-प्रत्यंग बन जाएंगे तो लघु-ब्रह्माण्ड (Microcosm) परमात्मा के सम्मुख कहे और उसके बाद कभी न कहें कि 'मुझे खेद है, मुझे खेद है। सामना करें। कोई वृहत ब्रह्माण्ड (Macrocosm) जाएगा। अपराध यदि हुआ है तो उसका सामना करें। ये बात गलत थी, ठीक है... आगे ऐसा नहीं होगा। न तो इससे बहस करें और न ही इसे दोहराते रहें। बस ये मात्र प्रवचन नहीं है, इसे आपके अन्दर घटित होना है आपको अपनी सामूहिक चेतना विकसित करनी होगी। ये श्रीकृष्ण का उपहार है क्योंकि मस्तिष्क के स्तर पर वे विराट बन जाते हैं। तो अब इसका सामना करें और कहें कि ये कार्य गलत था और यह गलत कार्य में पुनः नहीं करूगा, समाप्त। हमारे अन्दर तीन व्यक्तित्व (Three Identities) है हृदय पर शिव हैं, मस्तिष्क में श्री कृष्ण हैं, विराट रूप में और जिगर में ब्रह्मदेव है। तो हमारे अन्दर तीन देव क्योंकि आखिरकार अब आप 'सन्त' बन गए हैं अब आप 'वली' बन गए है, आप 'आत्मसाक्षात्कारी' हो गए हैं, "आत्मज हो गए हैं। आपको ब्रह्मचैतन्य प्राप्त हो गया है। आपने देखा है कि आपके सिरों के ऊपर हैं और पेट में, जिसे आप भवसागर कहते है, पूरा गुरु तत्व है जिसमें श्री आदिनाथ, मोहम्मद साहब से लेकर शिरडी साईनाथ तक के सभी आदि गुरु विराजते है । प्रकाश था, आपने इसका प्रमाण देखा है। ये सब गुरुतत्व है जिसकी हमने पिछली बार, Andorra अब मुझे आपकों दूसरा प्रमाण पत्र नहीं देना। बेहतर होगा कि आप अपनी अवस्था के प्रति जागृत में पूजा की थीं। हो जाएं, जैसा श्रीकृष्ण ने कहा था। आपको आत्मचेतन तो जिस प्रकार ये परस्पर सम्बन्धित हैं, जिस प्रकार आपको साक्षी अवस्था तक लाने के लिए इन्होंने कार्य किया है वह महत्वपूर्ण है । होना होगा। पहले आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना और फिर अपनी स्थिति के प्रति चेतन होना। तब आप हैरान होंगे कि किस प्रकार आपमें यथोचित चित्त और अब आपका विशुद्धि चक्र सुधरना आवश्यक है। सर्वप्रथम-कल दोषभाव बाधा इतनी अधिक थी कि इसे निकाल पाना असम्भव था। दोषभाव की कोई बात ही नहीं है। यह तो एक फैशन है, मात्र एक यथोचित सूझ-बूझ विकसित होती है। ज्यों ही आप जान जाते हैं कि आपको साक्षी अवस्था प्राप्त हो गई है तो ऐसा करना बहुत ही सुगम है। अत: कृपया स्वयं को साक्षी बना लें। किसी चीज को देखते ही निर्विचार चेतना में चले जाएं। ये आपका किला है। विचार न करें, चीज़ के अन्दर के सौन्दर्य को देखें। अपने अन्दर उतारते हुए, केवल देखें कि किस प्रकार ये पेड़ शान्तिपूर्वक खड़े होकर आप सबको देख रहे है। बिल्कुल निश्चल होकर, कोई भी हिल-डुल नहीं रहा है। वो अपना एक पत्ता भी नहीं हिलने देते... फैशन- 'मुझे खेद है (I am Sorry)। सुबह से शाम तक मुझे खेद है, मुझे खेद है! आपको किस बात का खेद है? मानव होने का या सहजयोगी होने का? अतः व्यक्ति को अपने प्रति अत्यन्त प्रसन्न-चित्त होना चाहिए, "हर समय मुझे खेद है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था।" हर समय दोषभावग्रस्त रहने से आपकी बाई विशुद्धि बिगड़ती है बाई विशुद्धि के बिगड़ने से आपका कृष्णतत्व चला जाता है। तब आपको सामूहिकता का आप भी ऐसा ही करें। जब तक शीतल वायु बहने नहीं लगती, जबतक माँ (श्रीमाताजी) शीतल अंक : 5 & 6 चैतन्य लहरी -2007 15 धारणा करना आवश्यक है, अन्यथा कुण्डलिनी नीचे आ जाएगी और आप सारी प्रतिभाएं खो देंगे। ये सत्य वायु प्रवाहित नहीं करतीं, तब तक हमें शान्त रहकर देखना है। इन पर्वतों को देखें किस प्रकार ये निरन्तर हर चीज़ को देख रहे हैं और आनन्द एवं सौन्दर्य प्रसारित कर रहे हैं । इसी प्रकार से हमें भी साक्षी है जो बताया जाना आवश्यक है और आपने देखा है हैं। कि लोग किस प्रकार परिवर्तित हुए बनना हैं। बहुत अधिक बोलने की हमें आवश्यकता नहीं है और न ही बिल्कुल चुप रहने की है। मध्य में रहते हुए हमें चाहिए कि साक्षी रूप से लीला' मानकर परन्तु कभी-कभी यह स्थिति बहुत अस्थाई हो सकती है और यदि लोग ठीक प्रकार से ध्यान नहीं करते तो कुण्डलिनी नीचे जा सकती है। साक्षी अवस्था प्राप्त करने के लिए मैं आप सबको शुभ कामनाएं देती हूँ। साक्षी अवस्था में हम किसी भी प्रकार के अटपटे ढंग से स्वयं को अभिव्यक्त नही कर सकते परन्तु सब कुछ देखें। इसी कारण से वे 'लीलाधर' कहलाए अर्थात वह व्यक्ति जो लोगों की लीला को आश्रय देता है। अपनी अभिव्यक्ति अपने अन्दर स्वयं को देखते यह न तो आपको पागल बनाता है और न ही हुए हास्यास्पद, ये तो आपको आनन्दित करता है। श्रीकृष्ण का विष्णुतत्व ही आनन्द प्रदायक है। मुझे आशा है, कि भविष्य में हम अपने विष्णुतत्व का वैसे ही आनन्द करते हैं। क्योंकि हमीं ने सारी समस्याओं की सृष्टि की है और केवल हम ही स्वयं को स्वयं से अलग करके इन समस्याओं को देख सकते है और इनका समाधान कर सकते हैं। परमात्मा की कृपा से, मैं जानती हूँ, आप सब बहुत उन्नत होंगे और यह अवस्था १ लेगे जैसा ध्यान-धारणा करके आपने पहले भी लिया था, क्योंकि जब हम ध्यान धारणा करते हैं तो निर्विचार समाधि में जाते हैं और जब निर्विचार अवस्था में होते हैं केवल तभी उन्नत होते हैं, प्राप्त कर पाएंगे। हर स्थिति में चाहे ये वरदान हो, अन्यथा उन्नत नहीं हो सकते। जो चाहे करने का प्रयत्न करें, उन्नत नहीं हो सकते। ध्यान धारणा किए बिना हम निर्विचार चेतना में नहीं जा सकते। उन्नति हो या उथल-पुथल की स्थिति हो, आपको आगे बढ़ने के योग्य होना चाहिए। यात्रायोग्य समुद्री जहाज़ वही होता है जो न केवल सुगम यात्राएं कर सकता है परन्तु उथल-पुथल और तूफानों का भी जो लोग जीवन में किसी भी पेशे में, किसी भी आयाम में उन्नति करना चाहते हैं या जो महान सामना कर सकता है। कलाकार, महान वैज्ञानिक आदि बनना चाहते है उनके लिए ध्यान धारणा आवश्यक है। सहजयोग में ध्यान परमात्मा आपको धन्य करें। (रूपान्तरित) हँसा चक्र पूजा Green Ashachu, परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन 10-7-88 आज हमने जर्मनी में हँसा चक्र पूजा करने का निर्णय लिया है। हँसा चक्र पर हमने कभी अधिक ध्यान नहीं दिया है मैं सोचती हैँ कि पाश्चात्य विवेकबुद्धि को गहनतापूर्वक समझना है और यह भी कि किस प्रकार सद्-सद् विवेकबुद्धि विकसित की जाए परन्तु इससे पूर्व कि हम वहाँ तक जाएं, आइए दे खें कि किस प्रकार वह विवे कबु द्धि हमारी अभिव्यक्तियों का बाहर प्रकटीकरण करती है । परन्तु विश्व के लिए, भारत या पूर्वी विश्व की अपेक्षा, यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसका कारण ये है कि हँसा चक्र पर ईड़ा और पिंगला के कुछ भाग की अभिव्यक्ति होती है इसका अर्थ ये हुआ कि ईड़ा और पिंगला की अभिव्यक्ति हँसा चक्र के माध्यम से होती है । तो हँसा पश्चिम के हम सभी लोग हमेशा बाहर अपनी अभिव्यक्ति करते हैं। आप कैसे दिखाई देते हैं ये महत्वपूर्ण है। आप कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं. क्या देखते हैं, ये सब भी महत्वपूर्ण है। ये महत्वपूर्ण है कि चक्र वह चक्र है जो यद्यपि आज्ञा चक्र तक नही गया फिर भी जिसने ईड़ा और पिंगला के कुछ सूत्र या कुछ भाग थामे हुए हैं और ये सूत्र नाक की ओर प्रवाहित होने लगते हैं, आपकी आँखों से, मुँह से और मस्तक के माध्यम से इनकी अभिव्यक्ति होने लगती है। आप जानते हैं कि विशुद्धि चक्र की सोलह पंखुड़ियाँ हैं जो आँख, नाक, जिह्वा, गला और दाँतों की देखभाल करती हैं परन्तु इनकी अभिव्यक्ति का कार्य हँसा चक्र के माध्यम से होता है, इन सबकी। आपका रंगरूप (Appearance) अच्छा होना चाहिए। लोग इस मामले में बहुत ही सावधान हैं, वे अपना रंगरूप सुधारने पर बहुत समय खर्च करते है। ये कम से कम है। फिर उनका एक तरीका है जिसे आप मीडिया कहते हैं। देश मीडिया के माध्यम से बोलता है और मीडिया को प्रशिक्षित होना आवश्यक है। हर देश की अपनी विशेषता है, एक से बढ़कर एक। जब आप उन सबको देखते हैं तो पता चलता है कि उनमें अतः पश्चिमी मस्तिष्क के लिए हँसा चक्र को समझ सद्सद् विवेकबुद्धि का पूर्ण अभाव है। हमारी वाणी में, हमारी साहित्यिक अभिव्यक्ति में, काव्याभिव्यक्ति लेना अत्यन्त-अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संस्कृत में इसके विषय में एक सुन्दर दोहा है. में, दूसरों के प्रति हमारे सम्बन्धों की अभिव्यक्ति में, किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति में सद्-सद् विवेक की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि सद्-सद् विवेक अन्त स्थित गहनज्ञान है या विवेक है। हँस: श्वेतः बकः श्वेतः को मेदो हँस: बकः, नीर क्षीर विवेकेतु. हँस: हँस: बकः बकः। पश्चिम के लोग यदि इतने बाह्यमुखी न होते, तो मैं सोचती हूँ, वो कहीं बेहतर होते। मान लो इंग्लैंण्ड के लोग यदि पक (Punk) न बने तो बाकी के लोग उनपर हँसेंगे। वो सोचेंगे कि देखो इस व्यक्ति के पास पक बनने के लिए पैसा नहीं है। तो एक प्रकार अर्थात हँस और बगुला दोनों श्वेत होते हैं। परन्तु दोनों में क्या अन्तर है। दूध में पानी मिलाकर यदि हँस के सम्मुख रख दें तो हँस इसमें से केवल दूध पी लेगा और पानी को छोड़ देगा। हँस दूध और पानी के भेद को समझता है, जबकि बगुला ऐसा नहीं कर सकता। यह समझना सहजयोगियों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि अपने अन्दर सद्-सद् का फैशन समाज में प्रचलित हो जाता है जिसमें विवेक का पूर्ण अभाव होता है और जो अत्यन्त अपमानजनक होता है। गहन परम्परावादी तथा जीवन अंक : 5 & 6 -2007 17 चैतन्य लहरी की यथोचित सूझ-बूझ वाले देशों में फैशन क्रियान्वित के मूर्खतापूर्ण विचारों में फँस सकते है परन्तु नहीं होते नि:सन्देह जो देश बहुत प्राचीन हैं, जो तो फ्रॉयड को ईसा-मसीह से कहीं अधिक मानते परम्परानुसार गलतियों और प्रयासों द्वारा स्वयं को सुधारने के प्रयत्न में लगे रहे हैं, उनमें कहीं बेहतर विवेक होता तो वे बच जाते। यह पारम्परिक विवेक विवेक विकसित हुआ है उनमें उन देशों के मुकाबले में कहीं बेहतर सूझ-बूझ विकसित हुई है जिन्हें अग्निपरीक्षा (Ordeals) में से नहीं गुजरना पड़ा, जिन्होंने अनुशासन को न तो क्रियान्वित किया और न ही जो अनुशासन में रहे, जिनमें सद्-सद् होना चाहिए। परन्तु यह बिल्कुल गलत धारणा है। विवेकबुद्धि का अभाव है। यही कारण है कि बहुत लोग गहन इच्छा के होने के बावजूद भी साधना में भटक गए हैं यदि उनमें सद्-सद्-विवेकबुद्धि होती बुरी ये बात देखी जानी चाहिए। प्रतिबन्धनों के विषय तो वे न भटकते, गलत स्थानों पर न जाते, परन्तु लोग क्योंकि विवेक का पूर्ण अभाव है। उनमें यदि पारम्परिक ईड़ा नाड़ी के माध्यम से आता है। परन्तु लोग इसे अन्धनग्रस्त होना मानते है और कहते हैं कि बन्धन ग्रस्त होना बहुत बुरी बात है लोगों को बन्धन ग्रस्त नहीं होना चाहिए, बन्धन मुक्त 1 से इस धारणा में भी विवेक बिल्कुल नहीं है कौनसी प्रतिबन्धता (Conditioning) अच्छी है और कौन सी में सद्-सद्-विवेक के अभाव के कारण, हम पूर्वजों से मिले अनुभवों तथा परम्पराओं को भी त्यागते चले जा रहे हैं। इतिहास को भी त्यागा जा रहा है और हम कहते हैं, "ओह, नहीं हम इससे ऊपर हैं।" हम स्वयं सद्-सद् विवेक का अभाव था। तो बात सद्-सद् विवेक पर आ जाती है कि किस प्रकार ईड़ा नाड़ी और पिंगला नाड़ी का उपयोग भले-बुरे में भेद करने के लिए किया जाए। ईड़ा नाड़ी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें विवेक केवल पारम्परिक सूझ-बूझ के माध्यम से ही आता है। श्री गणेश के स्थान (मूलाधार) से ईड़ा को स्वतन्त्र मानते हैं। जैसे कल, मैं हैरान थी, हवाई जहाज़ में किसी ने मुझे बताया कि "जब मैं निर्वस्त्र होता हूँ तो मुझे लगता है मैं अत्यन्त स्वतन्त्र हूँ। नाड़ी का आरम्भ होता है। कहने से अभिप्राय ये है कि यदि वस्त्र आपकी स्वतन्त्रता का हुनन करते हैं तो वास्तविक जेलों का क्या होगा। वे आपके लिए क्यां करेंगी? परन्तु इस प्रकार के अटपटे विचार लोगों के मस्तिष्क में आते हैं और वो सोचते हैं कि हम अपनी सारी मूर्खता को तर्कसंगत ठहरा सकते हैं क्योंकि ऐसा करने की स्वतन्त्रता हमें है। बुद्धि विवेक नहीं हो सकती। जहाँ तक प्रतिबन्धनों (conditioning) का सम्बन्ध है, बुद्धि विवेक नहीं हो सकती। सहजयोगी के लिए यह समझ यदि हमें यह विवेक उन्नत करना है तो मूलाधार पर पावनता और मंगलमयता का पोषण, सबसे बड़ा आश्रय है। हम हमेशा उन चीजों को अपनाते हैं जो हमारी उत्क्रान्ति के लिए बाधक तो हैं ही, वे हमें. केवल हमें ही नहीं पूरे देश को नष्ट भी कर सकती है। सद्-सद् विवेक के अभाव में हमें ऐसे लोग अच्छे लगते है जो विध्वंसक हैं। विवेक का अर्थ अच्छी, हितैषी, सामूहिकता के लिए हितकर और उत्क्रान्ति में सहायक चीजों को चुनना है। इसके विपरीत विवेकहीन लोग फ्रॉयड जैसे गलत लोगों के जाल में फँस जाते हैं । कहने से अभिप्राय ये है कि कोई भारतीय तो फ्रॉयड पर विश्वास कर ही नहीं सकता. कोई इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि आप इस प्रकार लेना आवश्यक है कि विवेक किस प्रकार विकसित करना है। कल मैने पैरिस की महिलाओं को, या मैं कहूंगी कि फ्राँस की महिलाओं के विवेक विषय पर बहुत सुन्दर भाषण दिया था। अन्तर्बोध (Intution) अ्ट अंक : 5 & 6 -2007 18 चैतन्य लहरी हैं। उन लोगों की बातें न सुने जो सहजयोगी नहीं है। ईडा-नाड़ी का विवेक है। ध्यान-शक्तयों के माध्यम यह "हूँ भाग है, मैं हूँ। अह नहीं, हूँ। ये समझने के लिए कि मैं योगी हूँ, ऐसी बहुत सी बातें जानता हूँ जो प्रायः लोग नही जानते, इसलिए उनसे मुझे कुछ नहीं लेना-देना। मुझे उनसे कोई सबक नहीं लेना। वो मुझे कुछ सिखाने के लिए नहीं हैं, जितना सूक्ष्मज्ञान उन्हें है उससे कहीं अधिक मुझे है।स्वयं' के प्रति चेतन होना', 'हॅँ है मैं कहूँगी कि यह दाई ओर से आता है। 'हूँ' दाई और का विवेक है। और 'सा' बाई ओर का विवेक है। 'सा' अर्थात 'तुम' अर्थात आप वही हैं। जहाँ तक आपका सम्बन्ध है आप जानते हैं कि से यदि आप अपने अन्दर वह विवेक विकसित कर लें तो आपमें अन्तर्बोध विकसित हो जाता है और अन्तर्बोध हमारे चहुँ ओर विद्यमान गणों की सहायता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। आप यदि गणों से सहायता लेना सीख लें तो अपनी बुद्धि के अधिक उपयोग के बिना ही आप अन्तर्बोधी (Intutive) हो सकते हैं और सही चीजें बता सकते है पूरा सहजयोग या मैं कहूँगी कि कम से कम इसका 50 प्रतिशत अन्तर्बोध पर आधारित है। उसके लिए आपको श्री गणेश का यथोचित संवेदन विकसित करना होगा, श्री गणेश को उनके सही अर्थो 'तुम' कौन है। परन्तु अन्य लोगों के लिए 'तुम' दिव्य है। केवल आप ही हैं, ये बाईं ओर से आता है. यह में समझना होगा। वही से सब आरम्भ होता है, क्योंकि वे गणपति हैं, वही सब गणों के स्वामी हैं। तो गण अन्तर्बोध के साथ जीवित रहते हैं। उदाहरण के रूप "सा' है। तो हँसा शब्द दो प्रकार के विवेकों से बना है में मुझे कहीं जाना होता है, परन्तु मैं कह देती हूँ, नहीं, कल मैं वहाँ नहीं जा पाऊंगी। किसी भी कारण मैं वहाँ नहीं जाती। लोग मुझसे पूछते है श्रीमाताजी आप कैसे जानते हैं? मैं जानती हूँ क्योंकि गण हैं और जो वो बताते हैं वो सत्य है, वो सभी बारे में मैं जो कहती हैँ वह सत्य साबित होता है। लोग कि 'मैं हूँ, 'हॅँ को कहाँ देखना है और 'सा' को कहाँ देखना है। इन दो संतुलनों पर, जैसा सुन्दरता पूर्वक दिखाया गया है, सूर्य और चाँद, क्रॉस इसका मध्य है जो आपको सन्तुलन प्रदान करता है, जो आपको धर्म कुछ जानते हैं। किसी के प्रदान करता है। किस प्रकार चीज़ें परस्पर जुड़ी हुईं मुझसे पूछते हैं, 'आपने इसके विषय में कैसे जाना?' अपने अन्तर्बोध से मैंने जान लिया। जैसे मैंने यदि है, एक के बाद एक, तहों के बाद तहे। आप देख है! सकते हैं कि धर्म किस प्रकार विवेक से जुड़ा हुआ कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अचानक किसी प्रकार के कर्मकाण्ड में फँस जाते हैं! उदाहरण के रूप हवाई-जहाज पकड़ना हो तो अपने अन्तर्बोध से मैं जान जाती हैँ कि क्या होने वाला है। श्री गणेश पूजा द्वारा यह गुणं विकसित होता है। अतः कल्पना करे कि में, मैंने देखा है, कुछ सहजयोगी पूजा के लिए आते है और पागलों की तरह से बन्धन देते रहते हैं। रास्ते पर चलते हुए वे बन्धन देते हैं, जहाँ कहीं भी वे जाते हैं पागलों की तरह से बन्धन देते हैं। ये मात्र प्रतिबन्धता श्री गणेश हँसा चक्र के एक भाग को भी नियन्त्रित करते हैं। जब हम कहते हैं हूँ और 'सा'. तो ये दोनों वास्तव में आज्ञा के बीज मन्त्र है। परन्तु जब आज्ञा पकड़ती है तो हँसा चक्र का कार्य आरम्भ हो जाता है। (Conditioning) है, ये विवेक नहीं है, ये सहजयोग नहीं हैं ये देखा जाना चाहिए कि बन्धन देना चाहिए यही कारण है कि आज्ञा के मूल में हँसा चक्र है। है अर्थात 'मैं हूँ'। आपमें यदि विवेक है तो आप फैशनों में नहीं फँसेंगे मूर्खतापूर्ण धारणाओं पर आपको हँसी या नहीं? श्रीमाताजी के साक्षात् में तो बन्धन होता ही है। स्वयं को बन्धन देने की क्या आवश्यकता है? आएगी। आपका अपना व्यक्तित्व है। आप सहजयोगी परन्तु मैं जब बोल रही होती हूँ तो लोग बन्धन दे रहे चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 - 2007 19 धर्मपरायणता से गौरवान्वित करते हैं। जैसे आप ईसा- मसीह का उदाहरण ले सकते हैं। ईसा-मसीह में ये विवेक था। जब मेरी मेगडेलिन नामक वेश्या को पत्थर होते हैं, अपनी कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं! मैं सोचती हूँ ये सब पागल लोग हैं। इसी प्रकार से कुछ और लोग हैं। कल मैंने सुना कि सभी आश्रमों में एक ही मारे जा रहे थे, यद्यपि उनका वेश्या से कुछ लेना देना प्रकार के संगीत का रिकार्ड बजाया जाता है क्योंकि नहीं था, कोई लेना-देना नहीं था, कोई सम्बन्ध नहीं था फिर भी अपने विवेक द्वारा वे देख पाए कि उसे पत्थर मारने का इन लोगों को कोई अधिकार नहीं है। पूर्ण साहसपूर्वक वे खड़े हो गए और कहने लगे "जिन्होंने कभी पाप नहीं किया वो मुझ पर पत्थर फेंक सकते हैं।" यह उनके विवेक की शक्ति है, जिसे एक दम से लोगों ने अपने अन्दर महसूस किया और इस संगीत में वे इस प्रकार उछल-कूद कर सकते हैं मानों ऊँट पर बैठे हैं। ये संगीत इनको प्रिय है सभी को ये रिकार्ड अच्छा लगता है। क्यों? क्योंकि वे ऊँट की तरह से उछल सकते है। एक बार यदि आप ऊँटों की तरह से उछलने लगे तो फिर इसे छोड़ नहीं पाते, ये आदंत बन जाती है। तो यह विशेष संगीत उन्हें अच्छा लगता है। ऊँट की तरह से वे उछले चले जाते है क्योंकि अब वे ऊँट बन गए हैं. उन्हें ऊँटों की तरह उस विवेक द्वारा उन्हें लगा कि "यह व्यक्ति पावन से व्यवहार करना होगा। हो सकता है दुड़की लगाने लगे। एक बार जब वे इसे सुन लेते हैं तो अचानक उसी लय पर चलने लगते हैं। अब वे घोड़े बन जाते हैं व्यक्ति है और हम उस पर पत्थर नहीं फेंक सकते।" सहजयोगियों के रूप में यदि आप विवेकशील हैं तो आप अन्य लोगों को भी विवेकशील बनाएंगे। अन्य लोगों को भी विवेकशील होकर समझना पड़ेगा। यदि और सरपट दौड़ते हैं। घोड़े बनकर उन्हें केवल सरपट आप अपने अन्दर यह विवेक विकसित कर लें तो ये संगीत अच्छा लगता है। तो ये सब चलता रहता है। वे नीर-क्षीर -विवेक, दूध और पानी में, बुरे-भले में गधे भी बन सकते हैं, कुछ भी बन सकते हैं। अन्तर देखने का गुण आपमें भी आ सकता है। हम पेशु नही है हम मानव है। 'हँ "हम है, हम सहजयोगी हैं किसी विशेष प्रकार की लय या संगीत का हमारे ऊपर नियंत्रण नहीं है। सभी प्रकार के संगीत सहजयोग में भी हर कदम पर दाई ओर (आक्रामकता) के अविवेक के कारण लोगों को डगमगाता देख सकते हैं। दाईं ओर का ये अविवेक लोगों में अहं की अभिव्यक्ति के कारण आता है। ये को हम समझ और सराह सकते हैं, बशर्ते कि वह धार्मिक हो, बशर्ते कि वह मंगलमय हो और पावन हो। तो आप देख सकते हैं कि हँसा चक्र पर कितनी चीज़ों का निर्णय होता है। मेरे विचार से पूरा सहजयोग हँसा चक्र के सन्तुलन पर खड़ा है। कुछ लोग बहुत ईमानदार होते हैं, परन्तु यह ईमानदारी मूर्खता की सीमा तक जा सकती है। कुछ लोग कठोर परिश्रमी भी हैं, कठोर परिश्रम भी मूर्खता की सीमा तक जा सकता है। तो अच्छे समझे जाने वाले ये अह जैसे मैंने कहा 'हूँ है। जब आवश्यकता होती है तब ये अह कार्य नहीं करता। उदाहरण के रूप में मुझे पता चला कि कुछ लोग विवाह के लिए चर्च में गए। है । हम निःसन्देह सहजयोगियों का ऐसा करना गलत मानव द्वारा बनाए गए धर्मों में विश्वास नहीं करते ये बात आप जानते हैं। ठीक है. आप चर्च गए। परन्तु उन्होंने एक, महिला को लौरा एशले परिधान खरीदने के लिए लन्दन भेजा और मैं ये भी सोचती हूँ कि कुछ 1. गुण धर्मपरायणता नहीं गौरवान्वित-विवेक ही धर्मपरायणता है। हो सकते । पुरुषों ने भी अवश्य विवाह के लिए टेलकोट पहने होंगे। तो अहं समाप्त कहाँ हुआ? सहजयोगी होने का आपमें यदि विवेक है तो उस विवेक को आप अंक : 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी 20 अह तो पूरी तरह खो गया था। मेरे ख्याल से ये लोग बाल बनवाने के लिए और सभी प्रकार की चीजों के लिए भी गए होंगे और मूर्ख पादरियों की कब्रों के समीप चर्च में पुराने ईसाइयों की तरह से जाना चाहा होगा ऐसा केवल यहीं नहीं है। जहाँ तक धर्म का तक उन्नत नहीं हुए हैं। जो लोग किसी राष्ट्र विशेष का होने का दावा करते हैं वो नहीं जानते कि उनकी राष्ट्रीयता परिवर्तित हो चुकी है। परमात्मा के साम्राज्य में जाने के लिए आपको किसी पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं पड़ती। राष्ट्रीयता मोटे-मोटे अक्षरों में आपके चेहरों पर लिखी होती है। परन्तु अब भी अन्त स्थित गहनबन्धन बने हुए हूँ। मेरा देश बहुत महान है, तुम्हारा देश इतना अच्छा नहीं है।" विवेक ये सोचना है कि 'ठीक है मेरा जन्म जर्मनी में हुआ और जर्मनी ने सी गलतियाँ की। क्यों न मैं इन गलतियों को सुधारूं, ताकि मैं अपने जर्मन लोगों को एक ऐसे क्षेत्र में ले जाऊ जहाँ शान्ति, सम्बन्ध है, भारत की स्थिति तो और भी खराब है। हैं कि मैं 'इस देश से सम्बन्धित वामपक्ष, वे तो अत्यन्त-अत्यन्त बन्धनग्रस्त लोग हैं उन्हें तो समझ ही नहीं आता कि विवेक है क्या? उदाहरण के लिए हमारे यहाँ ज्ञानदेव हुए। वे महान अवतरण थे, उनके पैरों में जूते भी नहीं थे। और आजकल श्री ज्ञानदेव के जूते पालकी में रखकर के लोग उनका जुलूस निकालते हैं और हज़ारों-हज़ार लोग उनका स्तुति गान करते हुए उनकी पालकी के साथ चलते हैं, कल्पना करें! उन्हें कौन बताए कि ज्ञानदेव के पास तो जूते थे ही नहीं। पालकी पर तुम कौन से जूतों का जुलूस निकाल रहे हो ? जुलूस जिस गाँव या शहर में जाता है वहाँ उन्हें शानदार खाना खिलाया जाता है। हर आदमी उनके पैरों में पड़ता है- 'पालकी के साथ सन्त आए हैं पालकी में रखे हुए जूते कभी भी ज्ञानदेव के नहीं थे! बहुत आनन्द और प्रसन्नता का साम्राज्य है। यहाँ इस बन्धन का उपयोग विवेक के रूप में किया जाता है। आप पाएंगे कि हर चीज़ के दो पक्ष हैं। ये आपके विवेक पर निर्भर है कि आप किधर जाते हैं। उदाहरण, के रूप में कुछ लोगों में बन्धन है, विशेष रूप से धर्म के बन्धन मान लो वे यहूदी धर्म से हैं और सहजयोग में आ गए है या ईसाई धर्म से हैं और सहजयोग में आ गए हैं तो अब विवेक क्या है? ज्योही कोई अन्य यहूदी या ईसाई आता है तो वे भूतों की बिरादरी बना लेते है और गहन मित्र बन बैठते हैं। तो ये पागलपन चलता रहता है। अपने चहूँ ओर ये चीजें घटित होते हुए आप देखते हैं, सभी देशों में, सभी धर्मों में, सभी क्षेत्रों में, आप ये सब घटित 'क्योंकि वह यहूदी है और मैं भी यहूदी हूँ, मेरे पिता यहूदी हैं, मेरी माँ यहूदी है, मेरी ये चीज़ यहूदी है।" ईसाईयों का भी यही हाल है, अन्य जातियों और राष्ट्रों का भी यही हाल है। होते हुए देख सकते हैं। परन्तु आप भी इसमें सम्मिलित हो जाते हैं, इससे एकरूप हो जाते हैं और तब ये समझना कठिन हो जाता है कि आपको क्या हो गया साधना में विवेक का क्या अर्थ है? सर्वोत्तम है! ये अह जब ठीक प्रकार से उपयोग किया जाता है चीज़ उस बिन्दु पर विवेक ये देखना है कि अवतरणों की मृत्यु के बाद बने मानवरचित धर्मों में क्या बुराईयाँ है। या हम कह सकते हैं कि अवतरणों तथा पैगम्बरों तो यह विवेक बन जाता है। धर्म के अतिरिक्त. लोगों में एक अन्य अत्यन्त-अत्यन्त भयानक बन्धन भी है- वह है देशों का बन्धन, "मैं भारत से सम्बन्धित हूँ, मैं द्वारा चलाए गए धर्मों में? ये प्रथम विवेक है। दूसरा विवेक उन धर्मग्रन्थों को पढ़कर ये पता लगाना है कि जर्मनी से हूँ, मै इंग्लैण्ड से सम्बन्धित हूँ।" सभी कुछ व्यर्थ है। कहने से अभिप्राय है कि ऐसा कुछ कहने का उन अवतरणों ने ऐसी कौन सी विशेष चीज लिखी मतलब ये है कि अभी तक आप सहस्रार के स्तर अंक : 5 & 6 - 2007 21 चैतन्य लहरी थी मैं कहूंगी कि यदि कोई व्यक्ति मुसलमान है तो वह कुरान को गहनता पूर्वक पढ़े और पता लगाए कि कुरान में सहजयोग सम्बन्धित क्या लिखा है। यदि कोई ईसाई है तो वह बाइबल को पढ़कर पता लगाए कि इसमें सहजयोग से सम्बन्धित क्या है। क्योंकि सहजयोग सत्य है और जो सत्य लिखा हुआ है उसका पता लगाना होगा। ऐसी चीज यदि विकसित हो जाए तो आप आगे बढ़ सकते हैं। आप यदि बहादुर हैं तो साहस पूर्वक लोगों से यह बता सकते हैं कि देखों तुम किस मूर्खता के पीछे दौड़ रहे हो, यह न तो लिखी हुई है और न ही की गई है। हम कुछ भिन्न लोग हैं। ये लाल बिन्दी अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि बिन्दी लगाने के बाद भूत आपको नहीं पकड़ते बिन्दी लगाई जानी चाहिए। बाइबल में लिखा हुआ है कि उनके सिर पर एक निशान होगा. परन्तु हरे रामा-हरे कृष्णा वालों की तरह से और भी बहुत से मूर्ख लोग हैं। मैं नहीं सोचती कि वे कोई चिन्ह धारण करेंगे। हम समाज से डरते हैं बिन्दी कैसे लगाएं? परन्तु मान लो कि आपको कहा जाए कि बाल बिखेर कर घूमों, तो ये कार्य आप कर लेंगे क्योंकि समाज में इसकी स्वीकृति है। हमें ऐसे लोग बनना है जिन्हें समाज का भय जो भी कुछ लिखा गया है वह पूर्ण का सार है। यह तीसरी अवस्था है जहाँ किसी धर्म या राष्ट्रीयता विशेष के सम्बन्धों में आपने अपने विवेक का उपयोग न हो। समाज के आडम्बरों से बाहर आकर हमें उन्हें सिखाना है कि जो अच्छे कार्य हैं हम उन्हें करेंगे चाहे आपको पसन्द हों या न हों। सन्त का यही चिन्ह है किया है। कहीं भी यदि आपने किसी सन्त को देखा है तो सत्य प्रयत्न किया और बताया मैं जब पश्चिम में होती हूँ तो मुझे पश्चिम के बारे में बात करनी होती है। परन्तु जब मैं भारत में होती हूँ तब भी अवश्य मुझे सुने। वहाँ की भाषा को न समझ पाना आपके हित में है, भारतीयों के प्रति पूर्ण सम्मान भाव से मैं उनकी खूब डॉँट-डपट करती हूँ और उन्हें बताती हैँ कि उनमें क्या कमी है। परन्तु बताने के लिए उन्होंने पूरा कि क्या करना है और किसका अनुसरण करना है। ये सन्त का चिन्ह है। अन्यथा आपके अन्दर का सन्त भी कभी-कभी समाज में विलीन हो जाता है. कभी सहजयोग में, कभी अन्यत्र। ऐसे सन्त का क्या लाभ है? आप मुझे किसी ऐसे सन्त का नाम बताए जो समाज से न लड़ा हो, जिसने समाज की गलतियों को निर्भयता पूर्वक, स्पष्ट रूप से न बताया हो। पश्चिम में ये देखना महत्वपूर्ण है कि यहाँ पर क्या कमियों हैं। अतः विवेक यह देखने में है कि हमारे अन्दर क्या कमियाँ आ गई हैं। हम कहाँ गलत हैं? सहजयोगियों में साहस का होना अत्यन्त हमारे अन्दर थोड़ा सा भी साहस है या नहीं? आवश्यक है। आप यदि विवेक विकसित कर लें तो ये कार्य हो जाता है। अहंग्रस्त होकर आप कैसा विवेक उदाहरण के रूप में महिलाओं में बाहर साड़ीं विकसित कर सकते है और किस प्रकार? दाई ओर सभी देवता है, सभी देवी-देवता आपके आस-पास पहनने का साहस नहीं है, या पुरुष बाहर भारतीय वस्त्र नहीं पहनते, इसके लिए थोड़े से 'हँ (साहस) बैठे हुए हैं। इन देवी-देवताओं को समझना होगा। की आवश्यकता है। इन वस्त्रो का उन्हें आनन्द आता है फिर भी वे ये वस्त्र नहीं पहनते। वही अटपटी, सुराखों वाली पैन्टें पहनते हैं। वे पंक लोगों वाली चीजें पहनते हैं परन्तु विवेक शील, अच्छे वस्त्र नहीं पहन पाते ये (वस्त्र) ऐसी चीज है जो आपको बताती है कि आपको ये ज्ञान प्राप्त करना होगा कि वे क्या करने वाले हैं। मान लो आप मार्ग में कहीं खो गए हैं। ऐसे में आपको आम लोगों की तरह से ये नहीं सोचना चाहिए "मैं रास्ते पर खो गया हूँ, मैं वहाँ कैसे कि ओह, अंक : 5 & 6 - 2007 22 चैतन्य लहरी चीज़ों को वैसे ही स्वीकार करना चाहिए जैसे वे आती पहुँचूँगा? मैं क्या करुंगा?" आप किसी बेकार के काम के लिए ही तो जा रहे हैं? कोई बात नहीं। परन्तु आपको अवश्य सोचना चाहिए कि 'क्यों हनुमान जी मुझे यहाँ लाए, अवश्य वे मुझे यहाँ किसी उद्देश्य से लाए होंगे। आपको केवल देखना होगा। "इसे स्वीकार करें, स्थिति को स्वीकार करें। स्थिति को जब आप है। इसका पहला उदाहरण श्रीकृष्ण थे जिनके पास सच्चा विवेक था। परन्तु आखिरकार वे श्रीकृष्ण थे। विवेक के उनके तरीके इतने रुचिकर थे कि ये जानने में आनन्द आता है कि किस प्रकार उन्होंने राक्षसों का संहार किया। हर बार उन्होंने सुदर्शन चक्र का उपयोग किया। जैसे एक राक्षस पांडवीं को हराने का प्रयत्न ार स्वीकार कर लेते हैं तो आप देवी -देवताओं के हाथ में चले जाते हैं और वे आपका पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। आपके देवी-देवता इसे क्रियान्वित कर रहे है। इसे स्वीकार करें, यह स्वीकृति आपको अपने अहं पर शानदार विवेक प्रदान करेगी जो भी कुछ गलत होता है. ठीक है, हम इसे स्वीकार करते हैं । और सर्वोपरि, आपने चैतन्य-लहरियों को भी देखना है। आप यदि कुछ करते है और चैतन्य-लहरियों का स्तर नीचे आने लगता है, तो नि:सन्देह, मैं सहजयोगी हूँ, मेरे लिए चैतन्य-लहरियाँ और मेरी उत्क्रान्ति महत्वपूर्ण हैं।" अतः दाई ओर का विवेक विकसित करने के लिए आपको अपना ध्येय जानना होगा, अपना लक्ष्य कर रहा था, उन पांडवों को जो बहुत ही भले थे। श्रीकृष्ण ने कहा कि अब इस भयानक राक्षस का क्या करुं? इस राक्षस को ब्रह्मदेव, महादेव आदि सभी देवताओं से वर प्राप्त थे। बीच में होने के कारण श्रीकृष्ण उस राक्षस का संहार भली-भांति आयोजित करना चाहते थे। एक दाई ओर के महान सन्त निद्रा मग्न थे उन्हें वर प्राप्त था कि जब वे सोए हुए होंगे और कोई व्यक्ति यदि उन्हें जगा देगा तो उनकी दृष्टि मात्र से वह व्यक्ति नष्ट हो जाएगा| यही सन्त गुफा में सोए हुए थे। उस राक्षस से युद्ध करते हुए श्री कृष्ण उसके सामने युद्ध से भाग लिए, इसी कारण उनका नाम "रणछोड़दास' पड़ा। वे जान- बूझकर वहाँ से भाग पड़े। श्रीकृष्ण इसलिए भागे क्योंकि इस भयानक राक्षस को मारने का और कोई तरीका ही नहीं था। श्री कृष्ण ने पीताम्बर पहना हुआ था। दौड़ते हुए वे जानना होगा। आपको समझना होगा, कि आप किस पथ पर खड़े हैं और आपको कहाँ लाया गया है? आज आप कहाँ है? हम अन्य लोगों की तरह से नहीं हैं, यदि आप इस प्रकार का विवेक विकसित कर लें, अपने अन्दर-शुद्धबुद्धि क्योंकि यह शुद्धबुद्धि है, क्योंकि हँसा चक्र में शुद्धबुद्धि पूरे विश्व पर आरोहण करती है इसे किसी चीज पर प्रभुत्व नहीं जमाना होता ये यदि जल पर होती है तो झील को अत्यन्त सुन्दरता प्रदान करती है, उसे साधक पर प्रभुत्व जमाने की उसे विलय करने की आज्ञा नहीं देती। यह वह भाग है जहाँ वे 'हँ' हैं। वे यदि चाहेंगे तो इसमें और नहीं चाहेंगे तो नहीं लगाएंगे। वे सागर पर विहार कर रहे हैं, हैँसा के सागर पर, अपने भव-सागर पर और वे इसमें डूबेंगे नहीं। ये इसका 'हैं' भाग है जिसका विवेक आपको होना चाहिए। एक ओर तो आपको उस महान सन्त की गुफा में आ गए और सोए हुए सन्त पर उन्होंने अपना पीताम्बर डाल दिया और स्वयं वही छिप गए। श्रीकृष्ण का पीछा करता हुआ राक्षस गुफा में आया. कहने लगा. "युद्ध के मैदान से भागकर तुम थककर सो गए हो! खड़े हो जाओ। ज्यों ही उसने ऐसा कहा, सन्त की नींद टूट गई और उनकी दृष्टिमात्र से वह राक्षस भस्म हो गया। अतः श्री कृष्ण अपने चरणों पर यदि विराट है, या अपने सिर पर यदि वे विटठ्ल हैं तो इन दोनों के बीच में हँसा चक्र है। श्री कृष्ण के जीवन में विवेक डुबकी लगाएंगे का बहुत सुन्दर वर्णन है। हम कह सकते है कि विवेक े अंक : 5 & 6 चैतन्य लहरी 2007 23 जाते हैं और हर व्यक्ति को बता रहे होते हैं कि उसकी । का उपयोग करने के उनके बड़े शरारती तरीके थे। उन्होंने ऐसे बहुत से कार्य किए। परन्तु इस प्रकार उन्होंने नाटक किया, अपनी लीला की, क्योंकि वे लीलाधर थे इसलिए नाटक करने के लिए उन्होंने अपने विवेक का उपयोग किया तो एक ओर तो विवेक प्रदान करने के लिए हमें श्रीकृष्ण की सहायता प्राप्त है और दूसरी ओर हमारे पास श्री ईसामसीह है और इन दोनों के बीच में हँसा चक्र स्थापित किया गया है तो हमारे अन्दर दो महान अवतरण है जो विवेक की प्रतिमूर्तियाँ हैं। एक ओर श्री कृष्ण हैं जो हमारे बन्धनों (प्रतिअहं) को देखते हैं और दूसरी ओर चैतन्य-लहरियाँ खराब है। आपका चित्त खराब है व्यर्थ की चीज़ों पर चित्त डालने से आपकी चैतन्य लहरियाँ पूर्णतः समाप्त हो सकती हैं। तो विवेक के साथ-साथ आपमें सहजबुद्धि, व्यवहारिकता भी होनी आवश्यक है। मैंने देखा है कि कुछ लोग अचानक किसी से भी सहजयोग की बातें करने लगते हैं। ऐसा करना व्यवहारिक नहीं है। सहजयोग 'बहुमूल्य रत्न' है, उसे आप सबको नहीं दे सकते। मैंने देखा है कि हवाई अड्डे पर भी लोग सबकी कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं। नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए, साधकों को आना होगा और सहजयोग ईसा-मसीह हैं जो हमारे अहं पक्ष को देखते हैं। उन्होंने माँगना होगा उन्हें इसकी याचना करनी होगी सूली पर चढ़कर भी कहा, हे, परमात्मा. इन्हें क्षमा कर दो, क्योंकि ये अज्ञानी है। हे, 'परमात्मा इन्हें क्षमा कर दो क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं। ये वही केवल तभी उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिल पाएगा। हमें बड़ी संख्या की नहीं उत्कृष्टता की आवश्यकता है। मेरे सारे प्रवचनों में, आपने देखा है कि मैं सहजयोगियों और साधकों की उत्कृष्टता पर बल देती हूँ। लेकिन जब हम श्रीमाताजी को बोट देने के लिए बहसंख्या की बात सोचने लगते है तो इसके विषय में मुझे ये कहना है कि मैं कोई चुनाव नहीं लड़ने वाली हूँ। आप चाहे मुझे चुने या न चुने, मैं चुनी हुई हूँ। आपको ये कार्य नही करना। इसके लिए मुझे बहुत ज्यादा लोग नहीं चाहिएं। परन्तु जब आप विवेक के मामले के असफल हो जाते हैं तो मैं पाती हूँ कि कुछ ईसा-मसीह थे जो अपने हाथ में हण्टर लेकर परमात्मा के नाम पर पैसा बनाने वाले लोगों को पीटते थे । इस विवेक को देखें, सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण जो हजारों हज़ार राक्षसों का वध करने में सक्षम थे, अर्जुन के सारथी बन गए। उनके व्यवहार का विरोधाभास उनके विवेक की अत्यन्त सुन्दर गाथा बन गई है। सहजयोगियों के लिए आवश्यक है कि वे अपने विवेक को इस प्रकार कार्यान्वित करें कि उनमें अन्तर्बोध विकसित हो। मैं कहूंगी कि पहला विचार भी अन्तर्बोध हो सकता है, अन्तर्बोध हो सकता समस्याएं खड़ी हो जाती हैं । अब आपको ये देखना है कि आपने कौन से विवेकहीन कार्य किए हैं, कहाँ है। आजमाएं, प्रयोग करें। परन्तु सहजयोग में किसी गलती की है? किस प्रकार से आपने गलती की है? आपने स्वयं इसे खोजना है और गलती को दूर करना है। अन्यथा सहजयोग में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, कोई कठिनाईयाँ नहीं होनी चाहिए, केवल भी चीज की अति तक जाना गलत है, हमें हर कार्य सीमा में करना चाहिए। जैसे मैंने इन्हें कहा कि हर चीज को चैतन्य पर देखो। तो ये हर चीज की ओर अपने हाथ फैला देते हैं. "मैं ये साड़ी खरीदूं कि नहीं खरीदूं? इससे भी आगे चले जाते हैं, "मैं यह चेहरे का पाउडर खरीदूं कि नहीं खरीदू?" ये हास्यास्पद है। ऐसा करना इतना बुरा है कि अन्ततः आप भूत बन आनन्द, आनन्द और आनन्द ही होना चाहिए । विवेक यह पता लगाने में है कि आपकी दुर्बलताएं क्या है। आपने कहाँ गलती की, क्या गलत हुआ, कहाँ और अंक : 5 & 6 - 2007 24 चैतन्य लहरी के लिए हम कुछ भी करने को तैयार है, कृपा करके किस भाग में तथा किस प्रकार आप असफल हुए। कभी कभी लोग सोचते हैं, "उस समय हमने बहुत कार्य किया. अब हम नहीं कर सकते। तब आप आ जाइए। इस बार वे गुरु पूजा चाहते हैं। कल्पना करें, भारत में आप गुरु पूजा में भाग न ले पाते। अंडोरा में मेरा एक विशेष लक्ष्य है । अतः कृपा असफल होते हैं। मैंने सुना है कि लोग कह रहे हैं कि हम यहाँ आए है अतः अब हम गुरु पूजा करने नहीं जाएंगे। ये बहुत गलत है। किसी भी कीमत पर आपको परन्तु करके समझें कि मैं निरुद्देश्य व्यक्ति नहीं हूँ। शनैः-शनैः सीखें कि किस प्रकार मैं उद्देश्य पूरा करती हूँ- आपका. अपना और सहजयोग का, एक गुरु पूजा पर आना है। गुरु पूजा ऐसी पूजा है जिसे आप छोड़ नहीं सकते। सहसार पूजा को यदि आप छोड़ दें तो छोड़ दें परन्तु गुरु पूजा बहुत महत्वपूर्ण है। किसी भी कीमत पर आपको गुरु पूजा में आना है जो दिन आप सब भी विवेक के सभी सुन्दर तरीके विकसित अंडोरा में है। ये हिमालय नहीं है। सहजयोग इतना आरामदेह है कि हम चाहते हैं कि हमें अपनी उड़ाने भी कभी गलत कार्य नहीं करेंगे। न बदलनी पड़े। सीधे ही हम हँस पर बैठ जाए और अंडोरा पहुँच जाएं। आप पहुँचेंगे, आप ये बात देखेंगे। परन्तु यदि आपमें सोचने की आदत बन जाती है, शारीरिक पक्ष को भी काफी देखना पड़ेगा। अतः हँसा ओह, इसमें कठिनाई होगी, तो कठिनाई होगी'। परन्तु जैसा वारेन ने कहा है यह सबसे सुगम कुछ कार्यान्वित होगा, एक बार जब ऐसा सोचेंगे तो सभी परन्तु पहले कार्य को साथ । कितनी सुन्दरता पूर्वक मैं इसे कार्यान्वित करती हूँ! आप समझ जाएंगे और मुझे आशा है कि एक कर लेंगे जिनके द्वारा आप केवल ठीक कार्य करेंगे, हँसा चक्र. जो शारीरिक पक्ष पर अधिक है. बाहर की ओर, इसे ठीक करने के लिए लोगों को चक्र को ठीक करने के लिए हमें नाक में घी आदि डालना पड़ेगा हँसा चक्र को ठीक करने के लिए ये भी आवश्यक है कि चुम्बन आदि न करें मैं सोचती हूँ कि चुम्बन तो बिल्कुल छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि चुम्बन से दूसरे व्यक्ति के कीटाणु प्रवेश कर जाते हैं। सहजयोग में ये ठीक है, परन्तु एक बार यदि मैं ऐसा कह देँ तो इसका अर्थ ये नहीं है कि होगा, सभी कुछ कार्यान्वित होगा। करने की शुद्ध इच्छा तो होनी चाहिए। जब भी आपके मस्तिष्क में ऐसे विचार आएं तो पुनः अपने विवेक का उपयोग करें। 'हम गुरु पूजा पर अपनी गहनता के लिए जाते हैं। यदि आपको याद है तो हर गुरु पूजा चुम्बन के मामले में पगला जाएं। भारत में यदि आप किसी को चूमें तो वो हैरान हो जाएगा! उसकी समझ पर आपकी गहनता बढ़ी है। मैं कहती हैँ हर गुरु पूजा पर। नि सन्देह आप कहते हैं कि महाराष्ट्र यात्रा अच्छी में ही नहीं आएगा कि क्या हो रहा है। इन सब चेष्टाओ से जितनी अधिक प्रेम की अभिव्यक्ति आप करते हैं उतना ही कम प्रेम आपके हृदय में होता है। धन्यवाद देना भी एक तरीका है, पर आप कहते चले जाते हैं है, मैं सहमत हूँ कि महाराष्ट्र यात्रा से आपको लाभ होता है। परन्तु ये यात्रा तीस दिन की है, इतनी गहन । गुरु पूजा केवल एक दिन की है। महाराष्ट्र यात्रा में आपको कितनी मिलती है? कम से कम आठ धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद। ये सब जुबानी जमा खर्च है बहुत से देशों के लोग धन्यवाद कहते ही नहीं। अन्दर से वे अति कृतज्ञ होते है। हृदय की पूजाए या नौ, कभी-कभी तो दस। इसीलिए इनका अधिक लाभदायक होना स्वाभाविक है। भारतीय लोग मुझे कहते हैं, 'श्रीमाताजी कम से कम एक बार तो हमें ये पूजा दे दीजिए। कोई अन्य नहीं गुरु पूजा'। गुरु-पूजा कृतज्ञता आवश्यक गहनता का सृजन करती है। अतः अपने विवेक में किसी भी चीज को सतही रूप से अंक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी 25 लिख रहा है, वह मेरे पास आकर कहेगा कृपा करके मेरी कविता की त्रुटियाँ सुधार दीजिए मैं एक कविता ठीक करुगी, दो करुंगी, तीन करुंगी, दस कविताएं ठीक करुंगी, और फिर उसमें कविताएं लिखने की करने से बचना चाहिए। परन्तु अति से बचना, बाह्य अभिव्यक्ति से बहुत ज्यादा बचना, बाह्य अभिव्यक्ति से बहुत ज्यादा बचना. एक अन्य अविविक को जन्म दे सकता है। जैसे अंग्रेज । वे बोलते ही नहीं, वे बिल्कुल शक्ति समाप्त हो जाएंगी। इस प्रकार से अपने स्वार्थ के लिए आपको मेरा उपयोग नहीं करना चाहिए, नहीं बोलते। आप रोज उनके साथ पच्चीस मील यात्रा करें, उनके साथ बैठें, परन्तु वे आपसे से नहीं पूर्छेगे कि आप कौन हैं? उनसे बोलने की आशा नहीं परन्तु आप किसी न किसी ढंग से मेरा उपयोग कर रहे हैं। इस सूझ-बूझ के साथ कि " श्रीमाताजी हर की जा सकती। ये सब बनावटी है। समय मेरे साथ हैं, और मेरी सहायता कर रही है, अतः दूसरी बात जो हमें अपनानी है वह ये है कि हमें बनावटी नहीं बनना। ठीक है कोई व्यक्ति "आपको उछलकर मेरे पास आगे आने की, मेरा समय बर्बाद करने की, और मुझे परेशान करने यदि हृदय से मुझे प्रेम करना चाहता है या गले लगता है तो ठीक है। इसमें कोई बनावट नहीं है। बच्चे अत्यन्त स्वाभाविक होते हैं, उनमें बनावट नहीं होती। उनमें बिल्कुल बनावट नहीं होती। इसी प्रकार से हमें भी हर चीज के विषय में अत्यन्त स्वाभाविक होना होगा। बातचीत करते हुए यदि पुरुष दूसरे पुरुषों को थोड़ी बहुत चोट भी पहुँचाएं तो कोई बात नहीं है। इससे उनका अपमान नहीं होता। यह प्रेम की अभिव्यक्ति है। परन्तु ये सब नैसर्गिक होना चाहिए, बनावटी नहीं । सहजयोग में हमें बनावटीपन को नहीं अपनाना, किसी की कोई जरूरत नहीं है, कि मुझे ऐसा लगे कि 'हे परमात्मा, कब मुझे इससे छुटकारा मिलेगा? कुछ लोगों में ये भी बात है, श्रीमाताजी आप मैरे घर पर अवश्य आइए, मेरे बच्चे को उठाइए, मेरे पति से मिलिए, चाहे वह शराबी ही क्यों न हो। मेरा अपना कहे जाने वाले किसी व्यक्ति या चीजू पर चित्त ले जाना भी अविवेक है। मेरा चित्त अपने पर ले जाने की अपेक्षा आप अपना चित्त मुझ पर डालें। विवेक की ये अत्यन्त सूक्ष्म रेखा है, मानो तलवार की धार पर चलना, यह विवेक की अत्यन्त-अत्यन्त सूक्ष्म रेखा भी प्रकार से नही। परन्तु कपड़े पहनना बनावट नही हैं भद्र होना बनावट नहीं है। गौरवशाली होना बनावट है। परन्तु एक बार जब विवेक की इस अवस्था (State) को आप अपने अन्दर जान जाते हैं तो आप विवेकमय हैं, और फिर चाहने पर भी आप विवेकहीन नहीं बन नहीं है। बनावट तो उस बात को कहना है जिसे आप अन्दर महसूस नहीं करते। ये बनावट है। परन्तु सहजयोगी में वह लज्जा, वह शर्म, बह मर्यादा होती है सकते। और यही उत्थान है। एक बार जब आप इस चक्र से निकलकर आज्ञा चक्र को पार करते हैं तो सहसार में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ आपको विवेकमय होना पड़ता है। वहाँ से जो कुछ भी निकलता है वो आशीर्वादित होता है। वहाँ से जो भी अभिव्यक्ति निकलती है वह आशीर्वादित होती है। सहस्रार से निकलने वाली हर अभिव्यक्ति विवेकमय एवं सुन्दर होती है। और वह अपने शरीर का सम्मान करता है। शरीर के सम्मान के कारण वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहता जिससे शरीर का अपमान हो। और इ्स प्रकार आप जान जाते हैं कि किस सीमा तक जाना है और कहाँ तक नहीं। सहजयोग में अविवेक का एक और तरीका भी है, मैंने देखा है कि लोग मुझे बहुत प्रकार से उपयोग करने लगते हैं मान लो कोई व्यक्ति कविता (शेष पृष्ठ 28 पर) बोर्डी पूजा पटम पूज्य श्री माताजी का प्रवचन बोरडी 12.2.1984 वर्षत सकल मंगली ईश्वरीनष्ठांची मंदियाली अनवरत भूमंडला भेटतू भूतां ॥ चला कल्पतरूचे आख चेतना चिन्तामणीचे गाव बोलते जे अर्णव पीपूषांचे।॥ विम चन्द्रमे जे अलांछन मार्तन्ड जे तापहीन ते सर्वाही सदा सज्जन सोयरे होत।। किंबहुना सर्व सुखी पूर्ण होउनि तिही लोकी भजिजो अदिपुरुखी अखोडित।। उसके ओर दृष्टि रखनी चाहिये। ये ऊँचाई जो भी इन्होंने हासिल की है, तो इस वातावरण से लड़ कर, अब मैं हिन्दी में आपको थोड़ा सा बताना चाहती हैं कि सहजयोग में हम लोग अब ये नहीं जानते कि हमारे बारे में हज़ारों वर्ष से ये बताया गया था कि ऐसे महान् लोग संसार में आयेंगे और पहाड़ के पहाड़, बड़े-बड़े वृक्षों के ऐसे अरण्य संसार में घूमेंगे जो बोलते हुए, चलते हुए, दुनिया को उनकी इच्छाओं की पूर्ति के कल्पतरु जैसे उनको आशीर्वाद देंगे। और उनके एक-एक व्यक्ति में जैसे सागर उमड़ते हों, जिसमें झगेड़ कर, बाहर आकर, सर ऊँचा उठाकर की है। और जो लोग अपना सर दुनियाई चीजों के लिये, कृत्रिम चीजों के लिए. बाह्य चीजों के लिये झुका लेते हैं, तो कैसे उठ सकते हैं? या जो अपना चित्त इस धरती माँ से हटा लेते हैं, वो तो मर ही जाएंगे। इसलिये हर सहजयोगी का ये 'कर्तव्य' है- अमृत बोलता हो ऐसे सागर। ऐसे सूरज होंगे- चमकते हुए सूरज कि जिसके अंदर कोई भी दाह नहीं, अग्नि नहीं, ऐसे चन्द्रमा जिसके ऊपर कोई कलंक नहीं। ये पूरी तरह से कर्तव्य है- कि वो जाने कि सारी दुनिया आपकी तरफ आँख लगाए बैठी हुई है और आप अपने गौरव को पहचानें। आप लोग यहाँ मुझे वचन देने आए हैं, इस International Seminar (अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठी ) में कि "माँ जितनी तुम मेहनत करती हो, उसी तरह से ये आपके वर्णन लोगों ने किये। और तीन सौ वर्ष पहले ज्ञानेश्वर जी ने कि कितना आपका महत्व उन्होंने बताया। कितना महत्व कि कितना जरूरी है, सारी दुनिया के लिए एक आशा दी । हम भी मेहनत करेंगे।" उस शान्तिमय गौरव में आप अपने को ऊँचा इस तरह से हो रहा है और हो गया। लेकिन उठाइये। अपने बारे में पूरी आपको कल्पना होनी चाहिये, कि आप हैं क्या !. आप सबसे यही विनती है कि कृपया अपनी ओर नजुर करें। आप सब सिंहासन पर बैठिए, उस सिंहासन को पाइये, उसके जैसे होइये। अभी इसकी प्रगति मेरे विचार से बहुत, बहुत धीमी इसकी प्रगति बहुत धीमी है। प्रगति आपकी वजह से धीमी हो जाती है। ऐसी जगह चित्त अपना जाता है जहाँ हम अपने को गिरा लेते हैं। दुनिया के मुकाबले में आप बहुत बड़ी चीज हैं। अपना चित्त, इस पेड़ का जैसा पृथ्वी से पूरी तरह से निघड़ित है. ऐसा आपको अपनी माँ के साथ निघड़ित रखना चाहिए। और उसकी जो ऊँचाई है अनन्त आशीर्वाद (निर्मलायोग-1984) सहजयोग और शारीरिक चिकित्सा -2 के लिए स्नान आदि के बारे में धारणाएं बदलना अस्थमा :- यह बाई ओर का रोग है जिसमें फेफडे शिथिल हो जाने के कारण श्वास लेने में कठिनाई होती है। असुरक्षा की भावना या पितां से सम्बन्ध ठीक न होना इस रोग के मूल कारण हो सकते हैं। इसके कारण मध्य या दायाँ हृदय आवश्यक है। गर्मियों में ठण्डे पानी से स्नान करना चाहिए और सर्दियों में गुनगुने पानी से। परन्तु गुनगुने पानी से स्नान करने के बाद कुछ देर सर्दी में बाहर नहीं निकलना चाहिए। (क्रमानुसार) प्रभावित होते हैं। ऐसी स्थिति में श्वेत रक्त कोषाणुओं (W.B.C.) की संख्या लाल रक्त कोषाणुओं (R.B.C.) की अपेक्षा बढ़ जाती है। बाई नाभि और स्वाधिष्ठान की पकड़ इसका कारण पीलिया रोग :- इस रोग में दाई नाभि और स्वाधिष्ठान प्रभावित होते हैं। हमारी परम प्रिय श्री माताजी ने इस रोग, (जिसे ठीक करना चिकित्सक लोगों के लिए कठिन होता है) से मुक्ति पाने के लिए बहुत ही आसान दवाई बताई है। ताजी मूली तपेदिक :- ये रोग भी बाईं ओर की के पत्ते उबालकर उसमें मिश्री मिलाकर, मूली के पत्तों का ये उबला हुआ पानी तीन दिन तक सादे पानी के स्थान पर पीना चाहिए। तले हुए पदार्थ, प्रोटीन आदि से बचना चाहिए। ऐसा करने पर ये प्रभावित होते हैं। उपरोक्त दोनों रोगों से पीड़ित बीमारी तीन दिन में ठीक हो जाएगी। बायाँ हाथ रोगियों को अपनी दाईं ओर उठाकर बाईं ओर को ज़िगर पर रखकर तथा दायाँ हाथ श्रीमाताजी की चैतन्यित करना चाहिए और बायाँ हाथ श्री माताजी फोटो की ओर करके हृदय पूर्वक दस बार होती है। समस्या है और कुपोषण, भोजन में प्रोटीन की कमी तथा बाई ओर की कुछ अन्य समस्याओं के कारण होता है। बाईं नाभि, स्वाधिष्ठान तथा मध्य हृदय बि की ओर तथा दायाँ हाथ पृथ्वी की ओर करके पानी पैर क्रिया करना चाहिए। पौष्टिक भोजन करना चाहिए और प्रभावित चक्रों को चैतन्य देना चाहिए। आदिगुरुदत्तात्रेय का मन्त्र लेना चाहिए। शक्कर रोग :- इस रोग में दाईं नाभि और स्वाधिष्ठान प्रभावित होते हैं। ध्यान करते हुए बाई सर्दी जुकाम:- बाईं या दाई विशुद्धि की ओर 108 बार ऊपर को उठाकर दाई ओर को नीचे पकड़ इस रोग का कारण होती है। हँसा चक्र भी को गिराना चाहिए और इस प्रकार दाएं पक्ष को प्रभावित हो जाता है । यदि बाईं विशुद्ध की पकड़ हो तो नाक बन्द हो जाता है और यदि दाईं विशुद्धि गुनगुने पानी में नमक डालकर पानी पैर क्रिया चैतन्य देना चाहिए। अग्न्याश्य पर दायाँ हाथ रखकर करना चाहिए। शक्कर रोग से पीड़ित साधकों को की पकड़ हो तो नाक बहता रहता है। नाक यदि बहुता है तो इसे ठीक करने के लिए कच्चे कोयले पर्याप्त मात्रा में चैतन्यित नमक लेना चाहिए तथा के अंगारे पर अजवायन डालकर उसकी धूनी लेनी श्री माताजी की फोटो के सम्मुख बैठकर मन्त्र कहना चाहिए। तुलसी के पत्ते, अजवायन, अदरक, और चाहिए, श्रीमाताजी में स्वयं का गुरु हूँ" ये मन्त्र चीनी का काढा पीकर बिस्तर में आराम करना चाहिए। नाक यदि बन्द हो तो नाक में कपूर मिला बनानी छोड़ देनी चाहिए। हुआ शुद्ध घी डालना चाहिए। दस बार उच्चारण करना चाहिए। भविष्य की योजनाएं अनिद्रा :- दाईं ओर की अत्यधिक गतिशीलता के कारण ये रोग होता है। बाईं ओर को फेफड़ों और गले की समस्याओं से बचने প चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 -2007 28 उठाकर दाईं ओर नीचे को गिरानी चाहिए तथा उसे जिम्मेदारियों के प्रति बहुत अधिक उत्सुकता या चैतन्य दिया जाना चाहिए। निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण किया जाना चाहिए: या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । बेचैनी भी इसका कारण बनती है अनुकम्पी नाड़ी तन्त्र का सन्तुलन ठीक किया जाना चाहिए और चैतन्य देकर, चैतन्यित मिट्टी के तेल से मालिश द्वारा तथा गुनगुने पानी में पानी-पैर क्रिया द्वारा प्रभावित अंगों को रोग मुक्त किया जाना चाहिए। दुर्बल स्मरण शक्ति :- बाई ओर को उठाकर दाई ओर नीचे गिराई जानी चाहिए और उसे चैतन्य प्रदान करना चाहिए। निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए: या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै, गृध्सी (Sciatica ):- ये बायें अनुकम्पी का रोग है। बाई नाभि और स्वाधिष्ठान प्रभावित होते हैं। बायें अनुकम्पी को चैतन्य देकर तथा प्रभावित चक्रों के अवयवों की चैतन्यित मिट्टी के तेल से मालिश करके चैतन्य देकर उनका इलाज किया जाना चाहिए। नमस्तस्यै नमो नमः । स्पोन्डिलाइटिस (Spondylitis):- ये रोग बाएं या दाएं अनुकम्पी नाड़ी तन्त्र के कारण हो सकता है, कुपोषण, बहुत अधिक कार्य, अपनी निर्मला योग- 1983 (रूपान्तरित) ( पृष्ठ 25 का शेष भाग) कुछ लोगों में मुझ पर रौब जमाने की आदत भी होती है। जैसे मैं जब बोल रही होती हूँ तो वे बीच में बोल पड़ते हैं। मैं यदि कुछ कर रही हूँ तो वे आगे आ जाएंगे। तब मैं खेल करती हूँ। चालाकी करने में मैं मेरे विचार से यही विवेक सारे धर्मों का सार तत्व है अब तक किए गए हमारे सारे प्रयत्न हमारे सभी पूर्वजन्म, सभी कुछ इसी विवेक के चहुँ और घूमते हैं । परमात्मा आप पर कृपा करें। बहुत कुशल हूँ, परन्तु मैं बहुत विवेकशील भी हूँ। तो यह ठीक है। मेरा विवेक चालाकी करता है. क्योंकि श्रीमाताजी ध्यान में चली जाती हैं। विवेक के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता सीधे से अगर मैं चालाकी करुंगी तो आपको अच्छा है, कहने का अभिप्राय ये है कि ये अनन्त है। इसके विषय में मैं कहाँ तक कहूँ? अपने सभी निर्णयों में. सभी कार्यों में आपको विवेकमय होना है। ये दिव्य नहीं लगेगा। अतः बेहतर होगा कि विवेकमय होकर चालाकी की जाए। जो भी कार्य हम करते हैं उसमें विवेक अपनी अभिव्यक्ति करता है। और यदि आप पक्के सहजयोगी या सहजयोगिनी हैं, आप विवेक- कुशल है, तो सभी लोग इसे देखते हैं, इसके बारे में जानते हैं कि यह विवेक है। अतः आप सब लोगों के लिए आवश्यक है कि आज अपना विवेक विकसित करें और मुझसे अपने हँसा चक्र में विराजने की प्रार्थना करें ताकि हर समय आप अपने विवेक की शक्ति में स्थापित हो सकें। विवेक के कारण ही हम विवेक है। विवेक के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है इसका कोई अन्त नहीं है। जैसा आप जानते है, भ्रम के इन दिनों में यही विवेक हमें सही दिशा में ले जाएगा। अतः हमारे सभी निर्णयों में, छोटी-बड़ी चीजों को समझने में, सर्वत्र, विवेक अत्यन्त महत्वपूर्ण है- विवेक जो परमेश्वरी सूझ-बूझ है जिसे हमने प्राप्त करना है। परमात्मा आपको धन्य करें। मानव अवस्था तक विकसित हुए हैं और आगे जाने के लिए हमें अपना अन्तर्जात विवेक विकसित करना होगा। (रूपान्तरित) आत्मा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन निर्मला योग- 1983 से उद्घुत हमारे अन्दर आत्मा बहुमूल्यतम निधि है। आत्मा के मूल्य को मापा नहीं जा सकता, इसीलिए इसे शाश्वत मूल्यवान कहा जाता है, क्योंकि ये असीम है, हम इसे माप नहीं सकते। प्रकार से सर्वशक्तिमान परमात्मा भी प्रकाश की तरह से साक्षी-मात्र हैं। है। परन्तु 'चित्त' उनका दूसरा गुण यह चित्त है। इसमें जब स्फुरण (Pulsation) होता है या परमात्मा का 'चित्त' जब स्फुरित होता है तो अपने चित्त के माध्यम से वे सूजन करने लगते हैं । हम कहते हैं कि सर्वशक्तिमान परमात्मा सत्-चित्त-आनन्द है। सत् अर्थात सत्य। मानव की परिभाषा में सत्य का जो अर्थ हम समझते हैं प्रासंगिक (Relative) विषय में मैं आपसे बता रही हूँ, वह पूर्ण (Absolute) है, जहाँ से सभी सम्बन्ध आरम्भ होते हैं। इसे समझने के लिए मैं आपको एक उदाहरण दूंगी। तीसरा गुण 'आनन्द उनका ( परमात्मा) है। आनन्द अर्थात आनन्द का भाव जो उन्हें अपने बोध, अपने सृजन से प्राप्त होता है। ये तीनों गुण है। परन्तु जिस 'सत्य' के सत्-चित्त-आनन्द' जब परस्पर मिलते हैं और शून्य बिन्दु (zero point पर होते हैं, तब ये ब्रह्म-तत्व बन जाते हैं। जब ये तीनों गुण एकरूप हो जाते हैं, जहाँ पूर्ण मौन (Silence) होता है, तो न पृथ्वी पर सागर, नदियाँ तथा सभी रूपों में जल है, आप ये कह सकते हैं। परन्तु इन सबको पृथ्वी ने अपने अन्दर संजोया (Enveloped) हुआ पृथ्वी तो कोई सृजन होता है और न ही कोई अभिव्यक्ति। माँ यदि न होतीं तो इनमें से किसी का भी अस्तित्व केवल आनन्द होता है जो चित्त के साथ एकरूप है न होता। अत: हम कह सकते हैं कि पृथ्वी पर विद्यमान सभी चीज़ों का आधार पृथ्वी माँ हैं वे हमें संजोए (Enveloping) हुए हैं। सूक्ष्म अणुओं, विशाल पर्वतों में उनका अस्तित्व है, उनका अस्तित्व है क्योंकि तत्व (Element) पृथ्वी का ही अंश हैं। हैं) तो तीन प्रकार के तत्वों का सृजन होता है। सर्वशक्तिमान परमात्मा भी ऐसे ही हैं। 'सत्' नामक उनका अंश, सृजित हुई या असृजित (created or not created) सभी चीज़ों का आधार है। एक अन्य उदाहरण को समझने का प्रयत्न करें। 'सत' किस से 'असत्' की ओर, 'माया' की ओर चल प्रकार 'पुरुष' है, किस प्रकार परमात्मा है जो सृजन पड़ती है। उस समय सुष्टि कार्यान्वित होने कार्य में वास्तव में भाग नहीं लेता, यह मात्र उत्प्रेरक लगती है और जब ये कार्यान्वित होने लगती है है। क्योंकि आनन्द से एकरूप होने के लिए चित्त उस है तक पहुँच गया और आनन्द का तादात्म्य सत्य से हो गया है। तीनों गुणों का संयोजन जब समाप्त होता है ( सत्-चित्त-आनन्द जब अलग होते अन्तस में 'आनन्द' उनकी (परमात्मा ) सृष्टि और 'सत्य' में विलय हो जाता है। आनन्द जब सृजन के साथ चलने लगता है तो सृष्टि 'सत्' (catalyst) है। उदाहरण इस प्रकार हो सकता है जैसे मैं सारा कार्य कर रही हूँ, हर चीज़ का सृजन तो आनन्द जो कि बाएं पक्ष में है, परमात्मा के भावनात्मक पक्ष में, बह भी स्थूल स्थूलतर होता चला जाता है। जब तक मनुष्य उस अवस्था तक नहीं पहुँच जाते जहाँ तमोगुण का पूर्ण अन्धकार है, जहाँ, 'सृजनात्मकता' का पूर्ण अन्त है और 'आनन्द' की पूर्ण सुप्ताबस्था। क्या ये से कर रही हूँ परन्तु मेरे हाथ में प्रकाश है। इस प्रकाश के बिना कुछ नहीं कर सकती। प्रकाश मेरे कार्य मैं है। परन्तु जो भी कार्य मैं का आधारि (Support) कर रही हूँ उसमें प्रकाश कुछ भी नहीं करता। इसी अंक : 5 & 6 2 2007 30 चैंतन्य लहरी बात स्पष्ट है? अब आप महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती को समझेंगे। इसीलिए ईसामसीह ने कहा था, "मैं ही प्रकाश हूँ।" क्योंकि वे 'सत्' व प्रतिनिधि हैं- परमात्मा के प्रकाश के और परमात्मा ये बहुत सुन्दर है। मैंने इसको छुआ मात्र है। जब आप मानव बनते हैं, लोग कहते हैं कि मानव में आत्मा होती है, परन्तु इसका अर्थ ये नहीं कि अन्य प्राणियों में नहीं होती, परन्तु केवल मनुष्य में ही प्रकाश दीप जलने लगता है। का प्रकाश जब पूर्णत: स्थूल, सुप्त या मृत हो जाता है तो यह सृजन की दूसरी अवस्था पर पहुँचता है। उसी 'प्रकाश' के कारण हम धर्म की बात ये सभी चीजें गहन से गहनतर होती चली जाती हैं करते हैं, परमात्मा की बात करते हैं और शाश्वत तत्वों की बात करते हैं। परन्तु वास्तव में यह अत्यन्त अनिश्चित अवस्था है-मानव होना। परन्तु उस अवस्था में आपको थोड़ा सा उस ओर उछलना और स्थूल बन जाती हैं। दृष्टान्त का यह एक भाग है। अब जब आप सर्वशक्तिमान परमात्मा को पुन: प्राप्त कर रहे हैं तो यह दृष्टान्त का दूसरा भाग है। यह प्रक्रिया शनै: शनै: उच्चतर, सूक्ष्मतर और होता है, परन्तु कभी आप इधर-उछलते हैं, कभी उधर। क्योंकि यह छलांग तब तक सम्भव नहीं है उत्कृष्टतर होती चली जाती है। परिष्कृत होने की इस क्रिया में अन्ततः प्रकाश उत्तक्रान्ति के लिए कार्य करता है । शनै: शनैः स्थूल भाग ज्योतिर्मय होने लगते हैं। आप देखते हैं कि छोटे जीव-जन्तुओं में इतना प्रकाश (बोध) नहीं होता जितना बड़े पशुओं में होता है। धीरे-धीरे-आनन्द भी जब तक चेतना उस अवस्था तक नहीं पहुँच जाती जहाँ आप स्वतन्त्र हो जाते हैं और उस स्वतन्त्रता में आप अपना मार्ग खोज नहीं लेते। ये स्थिति है क्योंकि आपकी आत्मा (self) आपकी अपनी तब तक नहीं हो सकती, जब तक आप स्वतन्त्र नहीं हैं। से सूक्ष्मतर सूक्ष्म जब तक आप दास हैं या पाश में बंधे हुए हैं, या होने लगता है। हम इसे सुन्दर कह सकते हैं। मानव स्थूल अवस्था, में हैं आप किस प्रकार अपने अन्तःस्थित शाश्वत आनन्द का आनन्द उठा सकते होता है। तो आनन्द की अभिव्यक्तिह? अपनी आत्मा (self ) को अधिक से अधिक का आनन्द, पशुओं के आनन्द की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर भी परिवर्तित होने लगती है। अर्थात आपके आनन्द उघाड़ कर और अधिक सूक्ष्म और स्वच्छ बनकर ताकि आप परमात्मा को महसूस कर सकें। उस आनन्द के प्रति स्वयं को अनावृत करना आप पर का दायरा बढ़ता चला जाता है और आपके हाथों में पहुँच जाता है। उदाहरण के रूप में कुत्ते के लिए सौन्दर्य का कोई अर्थ नहीं है, भद्रता का कोई अर्थ निर्भर करता है। नहीं है। अत: मानव अवस्था पर पहुँचने तक, उस एक बार जब आप इस तथ्य को जान सीमा तक, आप अपना 'सत्' जो कि चेतना है, उस सीमा तक अपना आनन्द तथा सृजनात्मक क्रिया को भी विकसित करते हैं । अब आप देखिए कि किस जाएंगे कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् जब तक इन तीनों तत्वों (सत्-चित्त-आनन्द) में संयोजन नहीं होने लगता, आप ये नहीं महसूस कर सकते कि आपने स्वयं को स्थापित कर लिया है । प्रकार परमात्मा की 'सृजनात्मकता' मानव के हाथों में आती है, अवस्था परिवर्तन के साथ किस प्रकार अपने अन्त:स्थित आनन्द को चेतना के माध्यम से महसूस करना होगा, अन्यथा आप इसे देख नहीं सकते। मान लो आपमें आँखे नहीं हैं तो आप किस परमात्मा का आनन्द मानव के हाथ आता है और किस प्रकार परमात्मा का 'प्रकाश' आत्मा के रूप में मानव के हृदय में आता है। he अंक : 5 & 6 -2007 3। चैतन्य लहरी प्रकार देख सकते हैं? मुझे देखने की चेतना यदि आपमें न होती तो आप मुझे कैसे देखते? मुझे सुनने का बोध यदि आपमें न होता तो किस प्रकार आप निम्नस्तर के व्यक्ति से मित्रता करने का या उससे लिप्त होने का प्रयत्न करता है तो उस व्यक्ति से उसे आनन्द कभी नहीं प्राप्त हो सकता। वह केवल इतना कर सकता है कि उस व्यक्ति को अपनी और जो आनन्द मुझे समझ पाते। एक बार जब वह चेतना आपमें आ जाती है केवल तभी वह आनन्द आपमें जागृत होता बुलंदियों के स्तर तक उठाए है। चेतना के सूक्ष्मभाव के माध्यम से ही आप आनन्द को आत्मसात करने वाले हैं। अभी आपने करवाए। मान लो कोई कलाकार किसी अन्धी महसूस किया, और आपने कहा, "कितनी सुन्दर लड़की से विवाह करता है! क्या लाभ है? वह चीज़ है।" आपको बहुत प्रसन्नता हुई। इस अवस्था लड़की इस व्यक्ति द्वारा सृजित कला का आनन्द आपको प्राप्त हो रहा है उसे भी वह आनन्द महसूस पर आप सृजन का आनन्द महसूस कर रहे हैं और नहीं ले सकती। इसी प्रकार से यदि आप अपने मानव तो सृजन की पराकाष्ठा है। परन्तु 'शिखर परिवार के लोगों में, अपने (crown) भाग अत्यन्त छोटी सी चीज़ है। बहुत में दिलचस्पी लेते हैं तो पहला और सर्वोत्तम कार्य छोटी सी चीज़। तत्क्षण यह थोड़ी सी दूरी को पार करता है, केवल इन तीनों तत्वों (सत्-चित्त-आनन्द) का संयोजन होना चाहिए। इसी कारण से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् भी आपकी लिए खोल दें, यही बहुमूल्यतम चीज़ है। यहा सम्बन्धियों में, मित्रों जो आप कर सकते हैं वह है उन्हें आत्मसाक्षात्कार देना अर्थात अपनी आत्मा का 'आनन्द' देना। उनकी आत्मा के आनन्द के द्वार उनके लगता है कि आप उस शक्ति (Silence) को महसूस नहीं कर पाते। क्योंकि आप 'प्रकाश' नहीं बने, आप कारण है कि लोग फड़फड़ाते हैं, समय नष्ट करते हैं और परेशानी का एहसास उन्हें होता है। छोटी-छोटी चीजों के लिए आसानी से वो अपने आनन्द का आनन्द' को महसूस नहीं करते क्योंकि आप आनन्द नहीं बने। ये आपका बायाँ पक्ष है। हर चीज़ में आनन्द है। मानव रूप में आप प्रतिकृतियों (patterns) में आनन्द देखने लगते हैं। आप एक पिटारा देखते हैं, इसे खोलते हैं। इसमें आपको जहाँ में हूँ और मैं चाहती हूँ कि आप सब इसमें प्रतिकृति दिखाई देती है। आप इसे मुल्लमा कहते हैं आएं और आनन्द उठाएं। आपके चीज़ों के खुरदरेपन, उनकी कोमलता और सामंजस्य की बात आप करते हैं। आप पदार्थों को, परमात्मा अन्ते कर लेते हैं। आपके सम्मुख यह सागर की तरह से है, लिए यही काफ़ी है। आपके आनन्द के लिए ही सारा सृजन किया गया था। आपको सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनना होगा। परन्तु आप तो अत्यन्त स्थूल चीज़ों पर अपना बहुत क्यै सृष्टि के आनन्द को महसूस करने लगते हैं। सा समय बरबाद कर रहे हैं। परन्तु आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आप सृष्टि के आनन्द को महसूस करने लगते हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। मानव ही सृजन की पराकाष्ठा है, इसलिए सहजयोगी को महसूस करना चाहिए कि यदि वह किसी निर्मलायोग-1983 (अनुवादित) परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का परामर्श हैम्पस्टैड टाऊन हॉल (इंग्लैण्ड) 31.03.83 परमात्मा का कार्य और नकारात्मकता मुझे लगता है कि परमात्मा के नज़रिए से गर्व है और इसे अधिक बिगाडने पर और अपनी जब भी कोई कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है तो स्थिति को और खराब करने पर हम लगे हुए हैं। सारी नकारात्मक शक्तियाँ इस दिव्य कार्य में विलम्ब करवाने के लिए, इसमें विघ्न डालने के लिए तथा इसका पथ परिवर्तन करने के लिए अपनी योजनाओं के लिए, उस पर प्रयोग करने के लिए, हमें दी गई को कार्यान्वित करने लगती हैं। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है। आज बेहतर होगा कि मैं आपको परमात्मा की इच्छा के विषय में बताऊं और ये भी कि किस प्रकार हम मानव हर समय इसके विरुद्ध लगते हैं तो मात्र, 'आत्मा' ही हमारी चिन्ता नहीं रह इस प्रकार से हम चलते हैं। जो चेतना हमारी अपनी थी, मानवीय चेतना, वह हमारी स्वतन्त्रता को परखने थी। इसके द्वारा हम आत्मा बन जाते हैं। आखिरकार आपने आत्मा बनना है। परन्तु जब हम अपनी तथाकथित चेतना में उन्नत होने जाने का प्रयत्न करते हैं। जाती। मैं कहूंगी कि हम उस वृक्ष की तरह से हैं जो खड़े होने और उन्नत होने के लिए अपनी जड़े पृथ्वी में उतारता है। इसी प्रकार से हमारी जड़ें भी हमारे मस्तिष्क में हैं। और फिर हम पत्ते परमात्मा की इच्छा अत्यन्त सहज है। उनका प्रेम दिव्य है, वे करुणामय हैं और दया के सागर हैं। उन्होंने इस विश्व का सृजन किया और उसके बाद मानव का सृजन किया ताकि वे उसे जीवन की निकलने, फूल खिलने और फल बनने तक ऊपर उच्चतम चीज़ 'आनन्द' प्रदान कर सकें। आनन्द, उठते चले जाते हैं। परन्तु इसके विपरीत फल की जो कि अत्यन्त सहज गुण है, में उधार ली गई प्रसन्नता की तरह से दोहरापन (Duality) नहीं सृजन करने और उनका आनन्द लेने लगते हैं। हम अवस्था तक पहुँचने से पहले हम बनावटी पत्तों का होता। परन्तु किस प्रकार हम परमात्मा-विरोधी और आनन्द-विरोधी हैं तथा ऐसा क्यों होता है? बनावट में फँस जाते हैं। एक बार जब हम इस बनावटीपन को अपनाने लगते हैं तब हम वास्तविकता हमारी चेतना, जैसे आप जानते हैं, हमारे से दूर हट कर नकारात्मक विचारों या परमात्मा-विरोधी मस्तिष्क के माध्यम से नीचे की ओर ( अधोगति) बढ़ती हैं और अधोगति की ओर जाते हुए ये हमें हैं क्योंकि इन्हीं विचारों के कारण हम एटम बम सकारात्मक विचारों की अति की ओर बढने लगते आदि बनाते हैं। परमात्मा से दूर ले जाती है। परमात्मा को प्राप्त करना हमारा अन्तिम लक्ष्य है। परन्तु सर्वप्रथम हम परमात्मा से तादात्मय की चेतना से थोड़ा दूर जाते बँट जाते हैं। कुछ लोग बाई ओर को या नकारात्मक हैं, केवल ये समझने के लिए कि स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण की ओर जाना चाहते हैं। वे स्वयं को नष्ट उचित उपयोग होना चाहिए। इस प्रशिक्षण के बिना, इस शिक्षा के बिना मानव को स्वतन्त्रता देना व्यर्थ करते हैं जिनके कारण अत्यन्त दयनीय ढंग से है। आपने स्वतन्त्र देशों को देखा है। अपनी स्वतन्त्रता में उन्होंने क्या प्राप्त किया है? अपनी हत्या करने जाते हैं, वे अपने शरीर को कष्ट देते हैं। अपनी हर के लिए एटम बम! यह मूर्खता है, जाहिलपन है, चीज़ को कष्ट देते हैं। दूसरा दायाँ पक्ष है। इसमें निरर्थक है। परन्तु अत: वास्तव में दो शाखाएं हैं जिनमें हम करते हैं, स्वयं को कष्ट देते हैं और सभी ऐसे कार्य उनकी मृत्यु होती है। उन्हें सभी प्रकार के रोग हो हमने ऐसा किया है। हमें इस पर जानेवाले लोग अन्य लोगों को कष्ट देते हैं, उन्हें अंक : 5 & 6 चैतन्य लहरी 33 -2007 सृजन नहीं कर सकते। शरीर की तो बात ही छोड़ के नष्ट करते हैं, उन पर नियंत्रण करते हैं। दोनों ही मार्ग परमात्मा, उनकी दया और उनकी कृपा से दूर दें आप अपने लिए एक गुलाब फूल का सृजन हैं। लक्ष्य केवल एक होना चाहिए-आत्मा, केवल नहीं कर सकते। फिर हमें आत्मविरोधी क्यों होना तभी उचित दिशा की ओर बढ़ सकते हैं। परन्तु चाहिए? जिस समाज का हमने सृजन किया है, उस समाज का विरोधी हमें क्यों होना चाहिए? या जिस राष्ट्र या राष्ट्रों का हमने सृजन किया है उनके विरुद्ध मानव इस लक्ष्य से आसानी से भटक जाते हैं क्योंकि ऐसा करने के लिए वे स्वतन्त्र हैं। अपने अहं के कारण वे इसे इस प्रकार तितर-बितर कर हमें क्यों होना चाहिए? आज ये सब राजनीतिज्ञ क्या देते हैं कि जब आप लोग सुगम जीवनयापन के बनावटी रास्ते विकसित कर लेते हैं तो आपमें ओर देखें। मैं समझ नहीं सकती कि ये सारी लड़ाई परमात्मा की चेतना ही लुप्त हो जाती है-कि परमात्मा का अस्तित्व है और वही पूरे विश्व को चला रहे हैं। अपने बारे में हम इतने चेतन हो जाते हैं कि हम सोचने लगते हैं कि 'कुछ भी गलत नहीं है।' उल्टे-सीधे कार्य कर करके हम स्वयं को सभी प्रकार की समस्याओं में फँसा लेते हैं। ये जो भी कुछ हम कर रहे हैं, ये हमारे विरोध में है, और इसलिए कि कुछ लोगों के दिमाग फिर गए हैं? और हमारी आत्मा अर्थात 'परमात्मा', के भी क्योंकि कर रहे हैं? परस्पर लड़ रहे हैं । किसलिए? इनकी किस लिए है। और अधिक विनाशकारी शक्तियों का सृजन करने के लिए? अबोध मनुष्यों की हत्या करने के लिए, अधिक भयानक हथियार बनाने के लिए? जो अबोध हैं उन्हें केवल चेतावनी है वो नहीं जानते कि वे क्या करें। उनकी समझ में नहीं आता कि कल उनकी हत्या क्यों हो जाएगी! केवल ये सब विकृत मस्तिष्क के लोग सत्तारुढ़ हैं! इस परमात्मा ने हमारा सृजन किया है और हमें प्रेम करते हैं। हम स्वयं को प्रेम नहीं करते। यदि हमें स्वयं से प्रेम होता तो हम अपने शरीर, अपने तन्त्र और अपनी हर चीज का ये कहकर दुरुपयोग नहीं करते कि "क्या खराबी है? क्यों न ये कार्य किया जाए?" आपको अपने इस शरीर, अपने इस मस्तिष्क और इस समाज को प्रेम करना चाहिए। अपनी हर चीज से आपको प्रेम करना चाहिए क्योंकि अपने प्रकार से हमारे अन्दर नकारात्मकता बढ़ती है। हम नकारात्मक हो जाते हैं। दोनों ही दृष्टिकोण नकारात्मक हैं क्योंकि ये परमात्मा को नकारते हैं। पहला अपराध जो हमने किया, वह है परमात्मा को नकारना। हमें परमात्मा का भय नहीं है। वे करुणा हैं, दया हैं, सभी कुछ हैं। परन्तु अपनी करुणा में ही वे इस विश्व को नष्ट करने वाले हैं अपने विरुद्ध और अधिक अपराध करने की आज्ञा वो नहीं देंगे । वैसे भी वो विनाश करते हैं। प्रेम के कारण परमात्मा ने आपका सृजन किया है। परन्तु प्रेम शब्द को ही अत्यन्त विकृत कर दिया गया है। क ते हैं असंयमित यौन सम्बन्धों में क्या कैंसर (कर्क रोग) क्या है? हमारे शरीर में होने बुराई है? क्या ये प्रेम है? मैं यदि आपसे कहं कि वाले ये सभी रोग क्या हैं? ये उन्हीं विनाशकारी ये प्रेम नहीं है क्योंकि यह प्रकृति के विरुद्ध है और शक्तियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जिनकी रचना आपको कष्ट देता है, इसके कारण आप समस्याओं हमने स्वयं अपने अन्दर की है। किसी भी बाह्य, में फँस जाएंगे। परन्तु लोग सोच सकते हैं कि ये किसी ग्रह या किसी भी प्रकार के सांसारिक आक्रमण महिला बुढ़िया गई हैं, पुराने फैशन की है या विक्टोरियन युग की है। सुनिए, ये सत्य है। क्यों हम ऐसे कार्य करते हैं जो हमें नष्ट कर दें? आप अपना का कोई भय नहीं है। नहीं, ऐसा कोई भय नहीं है। आक्रमण की रचना हमारे अपने अन्दर होती है और इसका ज्ञान हमें होना चाहिए। स्वतन्त्रता के नाम पर अंक : 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी 34. और आप क्या करने चले हैं? हमें केन्द्रक (Nucleus) बनाने होंगे जो खुलकर परमात्मा के विषय में बात कर सकें। ये देखकर मैं हैरान थी कि इस देश में लोगों को परमात्मा क विषय में बात करना पसन्द नहीं हैं। क्या आप ऐसी अवस्था की कल्पना कर सकते हैं जहाँ आप अपने सृजनकर्ता हमने अपने अन्दर विनाश के सभी जीवाणु एकत्र कर लिए हैं। यह ऐसी अन्तर्रचित प्रक्रिया है कि हमें इस बात का पता भी नहीं चलता कि आक्रमण होने वाला है तथा आक्रमणकारी तत्व मौजूद हैं। हम अपने आप से, अपने बनावटी जीवन से, अंपने शिष्टाचारों तथा सतही व्यवहार विधियों से पूरी तरह के बारे में बात ही न कर सकें या जहाँ पर धर्म का सन्तुष्ट हैं! कोई अर्थ ही न हो? या फिर आप किसी प्रकार की अन्तर्जात रूप में हमारे अन्दर आत्मा का गुप्त संस्था बनाते हैं जिसमें सबको आने की आज्ा न हो और कहते हैं, "अब हम फलाँ पंथ से निवास है जो हमें ज्योतिर्मय करना चाहती है, और हमें शान्त अस्तित्व का आशीर्वाद और आनन्द प्रदान करना चाहती है। आपके इस सन्दर चिराग सम्बन्धित हैं। परमात्मा के पंथ किस प्रकार हो का सृजन किसी उद्देश्य से किया गया है इसे ज्योतिर्मय किया जाना है। अपना सम्मान करें। आज हैं? इस बारे में सोचिए, उनके अलग-अलग चर्च, अलग अलग मन्दिर और अलग-अलग मस्जिद सकते के शब्दकोश में 'सम्मान' शब्द बचा ही नहीं है। किस प्रकार हो सकते हैं? परमात्मा के नाम पर हम अपना सम्मान करें। हमें इस दीपक का, जिसमें धर्मान्ध कैसे हो सकते हैं? क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हैं? हमने परमात्मा के साथ यही किया आत्मा का प्रकाश है, सम्मान करना होगा और इसे ज्योतिर्मय करना होगा। हमें वह चिराग बनना चाहिए है। हम धर्मान्ध हो गए हैं। एक ऐसा पत्थर है जिसे जो गरिमा को दर्शाता है। परमात्मा- सृजित यह विश्व बहुत सुन्दर है परन्तु अपनी अज्ञानता में, है। किसी चीज़ को भी जब वे छूते हैं तो वह सोना अपनी तथाकथित स्वतन्त्रता में, हमने बहुत सी चीज़ों को नष्ट कर दिया है। ये देखकर दुख होता है कि लोग किधर जा रहे हैं- सीधे नर्क की ओर! एक माँ के लिए यह अत्यन्त चिन्ता का विषय है। इस पतन को किस प्रकार रोका जाए? उन्हें इससे बाहर कैसे निकाला जाए? किस प्रकार उन्हें समझाया जाए कि उनका जब वे (परमात्मा) छूते हैं तो यह सोना बन जाता बन जाती है। परन्तु पत्थर तो होना चाहिए। मानव को जब वे छूते हैं तो वे कैदियों की तरह से बन जाते हैं। इसी कारण से इतनी धर्मान्धता है। आपको ये समाचार, ये सन्देश देना ही एक समस्या है कि आप आत्मा हैं तथा आपको आत्मा बनना है। मेरी मातृभाषा मराठी है और परमात्मा का धन्यवाद कि मैंने महाराष्ट्र में जन्म लिया क्योंकि ये सन्तों का देश है। इस देश में हजारों सन्त हुए। ये परम्परावादी है, ये इतना आध्यात्मिक है। जिस स्थान पर मेरा जन्म हुआ, आध्यात्मिकता वहाँ की परम्परा महत्व क्या है, उनका मूल्य क्या है? आपको मानव जीवन को स्वीकृत नहीं मान लेना चाहिए। बहुत सी प्रक्रियाओं के बाद इस बहुमूल्य जीवन का सृजन किया गया। अत्यन्त कठिनाई से ये सृजन हुआ। मत है। महा-राष्ट्र अर्थात महान राष्ट्र। आध्यात्मिकता भूलिए कि आपको 'आत्मा' बनना है, इसके बिना वहाँ की परम्परा हैं, मद्यपान, नशा सेवन या अन्य आपका जीवन व्यर्थ है (आत्मा बने बिना) क्योंकि व्यसन नहीं। आध्यात्मिकता उस देश की परम्परा है जहाँ नामदेव नामक अत्यन्त सामान्य कवि का जन्म आप सृजन की पराकाष्ठा हैं। आप ही उस सृजन का निष्कर्ष हैं। हुआ। वे दर्जी थे, मात्र एक साधारण दर्जी। परन्तु अंक 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी उन्होंने बहुत सी मधुर कविताएं लिखीं। मैं वर्णन करुंगी कि उन्होंने क्या कहा:- "एक नन्हां बालक हमें समझना है कि अब तक इन लोगों ने क्या किया है जिसे हमने स्वीकार कर लिया है। ये सब आकाश में पतंग उड़ा रहा है। वह आकाश को देख क्षितिज से परे हैं। हमारे अन्दर एक सितारा चमक रहा है, अपने मित्रों से बात कर रहा हैं, हो रहा है, कभी-कभी बातें भी कर लेता है। परन्तु उसका चित्त सदा पतंग पर टिका हुआ है। तब वे के विषय में बात करते हैं, ऐसे पंथ बनाते हैं जो कहते है कि अपने नन्हें शिशु को उठाए हुए एक महिला घर का कार्य कर रही है- पति को पानी दे रही है, बच्चे के साथ बैठी है, खाना बना रही है और बर्तन धोने के लिए खड़ी होती है। बच्चा उसने आराम से अपनी कमर पर उठाया हुआ है। सारे कार्य हो रहे हैं। तर्क ये दिया जाता है कि " आपको कार्य करते हुए भी उसका चित्त हर समय बच्चे पर टिका हुआ हुए है, वह दूसरी महिलाओं के साथ चल रही है। मिलकर चलते हुए वो हँस रही हैं, मुस्करा रही हैं कि ईसामसीह का कियाधरा सब व्यर्थ था और अब और एक दूसरे से ठिठोली कर रही हैं। परन्तु उनका चित्त हमेशा पानी से भरे घड़ों पर टिका है। अर्थात ऊपर नीचे रहा है और यह हमारी आत्मा है। लोग इसके विषय में बात करते हैं, परमात्मा कहते हैं कि वे परमात्मा का कार्य कर रहे हैं । परमात्मा के कार्य में महिलाएं अपनी जंघाओं को बाँध रही हैं और अपनी चमडी को चमका रही हैं! कल्पना करें, परमात्मा के नाम पर ऐसे भयानक अपने को तपाना होगा।" अपना दमन क्यों करना चाहिए? "क्योंकि ईसामसीह ने ऐसा किया था । क्या आप ईसामसीह हैं? और इसका अर्थ ये हुआ है। एक अन्य महिला सिर पर घड़े रखे त आपके योगदान की आवश्यकता है। जो भी कुछ किया गया वह पर्याप्त था क्योंकि ईसामसीह तो राजकुमार थे और यदि राजकुमार को कष्ट झेलने उनका चित्त 'आत्मा' पर है। इसी प्रकार से यद्यपि हम यहाँ जीवन के पड़े तो इसमें कौन सी महान बात है? ये कार्य वो कार्यों में लगे हुए हैं परन्तु खेद की बात है कि पहले ही कर चुके हैं और उन्होंने हमारे लिए कार्य हमारा चित्त अपनी आत्मा पर नहीं है जो जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्रदान करती है। ज्योंही आप आध्यात्मिकता की बात करने लगते हैं तो लोग सोचते हैं कि ये बेकार की बातें नहीं सुननी चाहिएं। परन्तु आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लेना सर्वोत्तम है बार-बार वे उन्हीं सांसारिक चीजों के विषय में सुनना चाहते हैं। Conservative या Labour पार्टी की कोई आकाशवाणी यदि हो तो वो इसे घण्टों तक सुनेंगे- ऐसी व्यर्थ की सांसारिक चीजों को। हर साल मुझे विश्वास है। अपने स्तर पर मैंने पूरी कोशिश आप इसे सुनते हैं परन्तु यदि कोई कहे कि "नहीं, ये सब बनावटी है, आपके सुनने के लिए आपके है। वास्तव में यह पहाड़ उठाने जैसा कार्य है। इतनी अन्दर कुछ और भी बहुमूल्य है, "तब लोग सोचते हैं, कि वो यहाँ ये सब बातें सुनने के लिए नहीं को नहीं समझना चाहता। अत: निराश आए। "माँ हमें ये सब क्या बता रही हैं?" परन्तु अब जागो और खड़े हो जाओ। एक अलग स्तर पर किया है। हमें अपने अन्दर उन्हें जागृत करना होगा और इस प्रकार से आत्मसाक्षात्कार पाना होगा। सर्वसुगम विधि ये है कि बैठकर प्रश्न पूछे आज यही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। नि:सन्देह, आज की परिस्थितियों में मानव जैसा है, ये कार्य बहुत जल्दी से कार्यान्वित नहीं होगा। इस बात का की। पहाड़ जैसी कुण्डलिनी आपको उठानी होती अधिक थकान होती है। परन्तु कोई इसके महत्व न हों, इस विषय में दुखी न हों। धीरे-धीरे निरन्तर, मुझे विश्वास है, आपकी की গাঁc चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 -2007 36 आँखों में झाँककर लोग देखेंगे कि आपका जीवन आपको यदि दूसरों से हमदर्दी है, उनकी यदि आनन्द, आशीष और सूझ-बूझ में परिवर्तित हो गया आपको चिन्ता है तो आपको अपना साहस और है। वो देखेंगे कि आप कितने प्रेममय और प्रसन्नचित्त सूझ-बूझ बनाए रखना होगा। वे आपको समझेंगे हो गए हैं। और तब उन्हें विश्वास होगा कि उनके और आप, केवल आप, अधिक से अधिक लोगों लिए एक बेहतर जीवन है । कुछ लोगों की स्थिति को बचा पाएंगे और उनका उद्धार कर पाएंगे तथा वे इतनी खराब होती है कि वे हर चीज़ में बुराई ही देखते हैं। वे इतने निराश हो चुके हैं कि उन्होंने सभी कुछ छोड़ दिया है। सब कुछ छोड़ दिया है । कहते हैं, "अब हम ये सब छोड़ चुके हैं। हम सब कुछ कर चुके हैं, कुछ और नहीं करना चाहते। फ्राँस में मैंने ये देखा है। वे लोग विश्व के पतन और सिर पर लटकते हुए विश्व के विनाश की ही ये नहीं जानते कि इस सांसारिक खींचातानी के बात करते हैं। वे बहस करते हैं कि अब हमें जीवन से परे भी कोई जीवन है- सौन्दर्य और समाप्त हो जाना चाहिए। ये सब हम काफी देख चुके। किसी भी प्रकार से, एटम बम या किसी है, यह कार्यान्वित होगा। विशेषरूप से परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करेंगे। एकमात्र बाधा ये है कि आपको लगेगा कि अब भी बहुत से लोग खो गए हैं। कोई बात नहीं आपको कठोर परिश्रम करना होगा, हमें समझना होगा कि अब भी ऐसी नकारात्मक शक्तियाँ हैं जो उन्हें नीचे की ओर घसीट रही हैं। वे अज्ञानी हैं जो गरिमा से परिपूर्ण शाश्वत जीवन। परन्तु शनै: शनै: मुझे विश्वास इस सभा के लिए। उन्होंने बहुत और सभी हतोत्साहित हो गये। अन्य प्रकार से अन्ततः अब हमें नष्ट हो जाना से उतार-चढ़ावे चाहिए। अब हमें समाप्त हो जाना चाहिए। इतना देखे अधिक उन्माद है। इन चीजों के विषय में सोचने वालों, जो लोग इसके विषय में चिन्तित हैं उनके उन्माद को में समझ सकती हूँ। मुझे इसकी चिन्ता है। मुझे कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति को उन्माद हो ही जाना चाहिए। कभी-कभी तो सहजयोगी कर्तव्यों को पूर्ण कर सकें। समय बीत रहा है, अब परन्तु अब भी व्यक्ति को समझना होगा कि परमात्मा, के कार्य परमात्मा से ही आशीर्वादित होते हैं। अपने सारे आशीर्वादों और सहायता की कृपावर्षा वे आप पर करेंगे ताकि आप मनचाहे भी अत्यन्त परेशान हो जाते हैं और उन्माद में आकर कहते हैं, " श्रीमाताजी ये सब छोड़ दीजिए, हम ये सब कर चुके, अब और नहीं। " परन्तु मैं नहीं जानती किस प्रकार अपना चित्त आत्मा से हटाऊं। बहुत कम समय बचा है। समय तेजी से बीत रहा हैं। इसीलिए उन्माद बढ़ता जा रहा है। यह उन्माद पृथ्वी पर सहजयोग के आगमन का कारण बना है। अपने आस-पास विद्यमान बाधाओं से लड़ने के लिए आपको स्वयं को अधिक सुदृढ़ महसूस करना आप यदि प्रयत्न कर सकते हैं, तो अपने स्तर पर इसे हटाने का भरसक प्रयत्न करें। आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि आप इसमें हैं। अत: जो होगा और सृजन के इस अन्तिम लक्ष्य को कार्यान्वित कुछ भी हो, आप अधिक से अधिक लोगों को बचाने के लिए लड़ते रहेंगे। अत: कुछ-कुछ समय के बाद निराश होने वाले इन सभी सहजयोगियों को मुझे कहना है कि आपको निराश नहीं होना। करना होगा। परमात्मा आप पर कृपा करें। निर्मला योग-1983) रूपान्तरित सहजी माताओं को श्री माताजी का परामर्श "माँ बनना- सर्वोच्च जिम्मेदारी का पद है। माँ का पद, यह किसी राजा की जिम्मेदारी से भी बड़ी जिम्मेदारी का पद है- माँ बनना।" ( श्री माताजी ) किसी साक्षात्कारी की माँ बनने ने हमारे की रक्षा कर सकते हैं परन्तु माँ बाप की लहरियों सम्मुख बहुत से व्यवहारिक प्रश्न खड़े कर दिए हैं के प्रभाव से उन्हें नहीं बचा सकते। अत: ये जो सम्भवत: सहजयोग से पूर्व कभी हमारे सम्मुख न आते। लन्दन की सहजयोगिनियों को परम पूज्य श्री माताजी का परामर्श प्राप्त करने का विशेष यही है कि नन्हें शिशुओं और बच्चों को होने वाली आशीष प्राप्त हुआ। ये जानकर कि इस मार्ग दर्शन चैतन्य-लहरियों की समस्याएं माता-पिता से ही की विधियों को जानने की कितनी प्यास हमारे आती हैं। आवश्यक है कि माता-पिता, जहाँ तक सम्भव हो, स्वयं को स्वच्छ करें। हमारा व्यवहारिक अनुभव भी अन्दर थी, हमने श्री माताजी के भिन्न लोगों को बताए गए कुछ परामर्शों को एकत्र किया है। जहाँ के पालन-पोषण के लिए (That of having तक हम जानते हैं ये पथ प्रदर्शन किसी व्यक्ति विशेष के लिए न होकर सभी सहजयोगियों के लिए है। आशा है आपके लिए भी यह हितकर साबित होगा। सहजयोगिनी माताओं से बातचीत करते हुए को दी। उन्होंने कहा, कि पाश्चात्य समाज में वैसे "यह अत्यन्त विशिष्ट जिम्मेदारी है, बच्चों children)"I विवेकशील माता-पिता न होने की स्थिति में श्री माताजी ने माँ और बच्चे की देखरेख विषय पर उपलब्ध पुस्तकें भी पढ़ने की सलाह माताओं श्री माताजी ने हमें बताया कि पाश्चात्य समाज में बच्चे हमारे अहं और प्रतिअहं के साथ जन्म लेते माता-पिताओं का अभाव है जैसे भारत में हैं, वहाँ तो दादी माँ भी बच्चे के लालन-पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में तो पूरा समाज ही बच्चे हैं- यही कारण है कि जन्म के समय उनके सिर पर या तो बहुत कम बाल होते हैं या बिल्कुल नही को उचित दिशा में परिवर्तित करके ठीक प्रकार से होते। भारत में श्री माताजी ने बताया, जन्म के प्रशिक्षित करने में योगदान देता है। समय अवश्य बच्चों के सिर पर बाल होते हैं। एक बार जब बच्चे की जरूरतें पूरी कर दी जाएं अर्थात उसकी नैपी बदल दी जाए, दूध पिला दिया जाए तो उसके बाद उसे हर समय उठाए नहीं रखना चाहिए व्यवहारिक परामर्श : गर्भावस्था के समय माँ के मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को स्वच्छ एवं सकारात्मकता से परिपूर्ण रखा जाना आवश्यक है। क्योंकि इस प्रकार उसके अहं को बढ़ावा मिलता है। "मस्तिष्क में जो चल रहा है उसका प्रभाव दृढ़तापूर्वक श्री माताजी ने हमें बताया कि आरम्भ से ही बच्चों को नियमित रूप से दूध देना है और उनके लिए एक लचीली दिनचर्या बनानी है। बच्चे पर भी पड़ेगा- मन प्रसन्न होना चाहिए- बनावट या भावना के साथ आप नहीं रह सकते।" शारीरिक स्तर पर माँ यदि स्वस्थ हे और गर्भ सामान्य है तो-गर्भावस्था के पूरे समय श्री माताजी ने सैर करने का परामर्श दिया। उन्होंने बताया कि इस प्रकार सैर करते रहने से प्रसव पीड़ा कम होगी (कहने का अभिप्राय ये भी था कि इस बात पर बल दिया गया कि एक विवेक पूर्ण सीमा तक बच्चों को हमारी जीवन शैली के अनुकूल होना चाहिए और उन्हें हम पर शासन नहीं करना चाहिए। श्री माताजी ने ये भी व्याख्या की कि परमात्मा अत्यन्त हानिकारक लहरियों से तो बच्चों चैतन्य लहरी 38 अक : 5 & 6 -2007 स्वाधिष्ठान चक्र यदि ठीक होगा तो इससे सहायता मिलेगी। जा सकता है, परन्तु यह पहले उबाला जाना चाहिए। जन्म के पश्चात : माँ और बच्चे को चालीस दिनों तक अन्दर रहना चाहिए। इसे समय में उन लोगों से मिलना जुलना कम से कम होना चाहिए जो सहजयोगी नहीं हैं। अन्य परहेज :- (d) बच्चे को ठीक प्रकार से वायुमुक्त किया जाना चाहिए चाहे वो सोया हुआ हो। 1. बच्चे को वायुमुक्त करते हुए हाथ नीचे की ओर चलने चाहिएं, गर्दन से रीढ़ के 2. जन्म के पश्चात् से ही बच्चे को चीनी और उबला पानी दिया जा सकता है। अन्त तक। उदरशूल (पेटदर्द) उपचार : ऐसा लगता है कि हमारे बहुत से बच्चों को वायु और उदरशूल की समस्याएं भुगतनी पड़ीं। श्री माताजी ने इस विषय पर बहुत सारे परामर्श दिए कि किस प्रकार आपके बच्चे को यदि वायु की समस्या है और आप बच्चे को स्तनपान कराती हैं तो आपका अपना भोजन भी महत्वपूर्ण है। ऐसा भोजन करें जिससे वायु न बने। इस समस्या का उपचार किया जाए और रोका a. चावल नहीं खाने चाहिएं। जाए:- पृथ्वी के अन्दर जड़ों में उत्पन्न होने वाली सब्जियाँ नहीं खानी चाहिएं। b. अजवायन उपचार : निम्नलिखित विधि (a) से अजवायन का सेक करें। मैदा या मैदे से बनी चीजें नहीं खानी चाहिएं। C. अजवायन को स्वयं चबा कर 1. किसी सुखे बर्तन में इसे आँच पर गरम करके, किसी कपड़े या रुमाल में डालकर बच्चे की नाभि पर सेक करें। दूध में कोई अनाज आदि पकाकर पीना चाहिए, केवल दूध नहीं। 2. d. ठण्डे पेय से बचें। e. (b) माँ को भी प्रतिदिन ठीक ठाक मात्रा में f. सभी वायु उत्पन्न करने वाले पदार्थों से बचें, जैसे बीन्स और मसाले। अजवायन चबानी चाहिए, अजवायन लेने का एक अन्य तरीका भी श्रीमाताजी ने हमें बताया कि किस प्रकार इसका पेय बनाया खाने के लिए अच्छा आहार निम्नलिखित है:- सूजी, बादाम (चीनी मिलाकर या सादे), भारतीय रसगुल्ला आदि। जा सकता है:- सौंफ के सात दाने और अजवायन के दो दाने और मिशरी मिलाकर पानी को उबालें और बच्चे के पीने के लिए बनाएं। बढ़ी हुई मात्रा में सौंफ और अजवायन डाल कर भी, माँ और बच्चा यदि इसका उपयोग करें तो भी लाभ हो सकता है। स्नान : बच्चे को नहलाते हुए हमें चाहिए कि उन्हें गर्म रखें। सर्दियाँ यदि अधिक हैं तो बच्चे को रोज़ नहलाना आवश्यक नहीं है। श्री माताजी कहती हैं कि ऐसा करना आवश्यक नहीं है परन्तु प्रतिदिन तेल मालिश आवश्यक है। बच्चे की प्रतिदिन तेलमालिश होनी चाहिए क्योंकि यह चक्रों के लिए अच्छी होती है। मालिश बच्चा जब बड़ा हो जाए-एक या दो महीने (c) का तो ग्राइप वाटर भी दिन में दो बार दिया अंक : 5 & 6 -2007 39 चैतन्य लहरी के लिए जैतून, बादाम या सरसों का तेल उपयोग किया जाना चाहिए, बाजारी बेबी तेल नहीं क्योंकि ढकी हुई है। लड़कियों को लड़कियों जैसी या इसमें विटामिनों का अभाव होता है। बालों में जैतून पंजाबी सूट पहनाए जाने चाहिए और लड़कों को का तेल न लगाएं इससे बाल सफेद होते हैं। सहस्रार लड़कों जैसी वेशभूषाएं। पर तेल की मालिश ऐसे की जानी चाहिए मानो सहस्रार को तेल से भरना हो। रखना आवश्यक है कि बच्चे की नाभि भली भाँति खिलौने : खिलौने भी प्राकृतिक तन्तुओं से बने होने चाहिए जैसे लकड़ी। प्लास्टिक के खिलौनों की चैतन्य-लहरियाँ अच्छी नहीं होतीं इसलिए इनसे बचना चाहिए। श्री माताजी ने बताया कि बच्चों के पास थोड़े से खिलौने होने चाहिएं परन्तु बाजुओं से बच्चे को न उठाए इससे उसके कन्धों को हानि पहुँच सकती है, उसे बहुत तकलीफ भी पहुँच सकती है। बालों में कंघी अवश्य की जानी चाहिए बहुत अच्छी गुणवत्ता के। चाहे अधिक बाल न हों। सिर पर सामने से पीछे की ओर कंधी करें। पीछे से सहस्रार की ओर ऊपर दूध छुड़ाई : बच्चों की दूध छुड़ाई छठे माह से शुरु होनी चाहिए और दसवें माह तक पूरी तथा दोनों तरफ। ऐसा सहस्रार को खोलने के लिएहो जानी चाहिए। बच्चों को दिए जाने वाले भोजन किया जाता है तथा बालों को बढ़ने के लिए ताजा होने चाहिए। डिब्बा बन्द बनावटी भोजन बच्चों को नहीं देने चाहिएं। श्री माताजी ने परामर्श दिया प्रोत्साहित करने के लिए। वस्त्र : श्री माताजी ने स्पष्ट शब्दों में कि दूध छुड़ाई के लिए बच्चों को दिया जाने वाला बताया कि बच्चों को 100% प्राकृतिक तन्तुओं से बने वस्त्र पहनाए जाने चाहिएं और चमड़ी के समीप के वस्त्र शुद्ध कपास के होने चाहिए। ठण्डी जलवायु के इलाकों में या स्दी के मौसम में सुती कपड़ों के यदि शीशे की हों तो बेहतर हैं। ऊपर ऊनी कपड़े पहनाए जाने चाहिएं। ग्रीवा अस्थि का छोटा सा खाली स्थान ढका जाना आवश्यक है लिए श्री माताजी ने बच्चों को टीकाकरण का क्योंकि इससे बच्चे ठण्ड नहीं पकड़ते। केरुबीम परामर्श दिया क्योंकि इससे बच्चों में नकारात्मकता (Sherub) की पोशाक सूती वस्त्रों पर पहनाई जानी लाभकारी है। पहला भोजन, चीनी मिश्रित दूध में मसले चावल खीर) होना चाहिए। दही के साथ बच्चों का भोजन न आरम्भ करें। बच्चों के दूध पिलाने की बोतलें टीकाकरण : बाल रोगों से बचने के का मुकाबला करने की शक्ति बढती है। ध्यानधारणाः- श्री माताजी ने बताया कि बच्चों के लिए रेशम के कपड़े ठीक नहीं हैं। नेपियाँ 100% सूती होनी चाहिएं क्योंकि उनका चैतन्य अच्छा होता है। यरन्तु सेमिनार आदि के अवसर पर 'उपयोग करो और फेंकों' नेपियाँ ठीक हैं शैशवकाल से ही बच्चों को हमारे साथ प्रातः काल ध्यान करना चाहिए। "हमें याद रखना है कि मातृत्व बहुत ही महत्वपूर्ण हैं- माँ ने इस ब्रह्माण्ड का सृजन चैतन्य लहरियों के अच्छे प्रवाह के लिए किया है, पिता तो मात्र साक्षी थे।" श्रीमाताजी दो भागों की पोशाकें अच्छी होती हैं वस्त्र बच्चों के टखनों तक आने चाहिए। ठण्डे मौसम में ध्यान निर्मला योग-1983 (रूपान्तरित) ही निर्मल नगरी-पूणे की पावन भूमि पर श्री महालक्ष्मी का पुनर्आगमन - रविवार, 22 अक्तूबर 2006 होगा-कृतयुग। यह वह समय है जब कार्य होगा (परम पूज्य श्री माताजी चैलशम रोड लन्दन 2 अप्रैल रविवार, 22 अक्तूबर 2006 का दिन मानव इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हजारों वर्षों के बाद एक बार फिर पुणे (भारत) के खाटपेवाड़ी गाँव 1982) , भूकुम में बनाई गई निर्मल नगरी की पावन भूमि पर परम-पूज्य श्रीमाताजी के रूप में श्री महालक्ष्मा के दिवाली के त्यौहार का सूक्ष्म महत्व यह भी है कि यह श्री राम की रावण पर विजय और उनकी चरण-कमल पड़े। अयोध्या वापिसी से सम्बन्धित है। उनके आगमन की खुशी में प्रकाश उत्सव मनाया गया था। आसुरी शक्तियों पर अच्छाई की विजय का आनन्द लेने के हजारों वर्ष पूर्व त्रेतायुग में श्री विष्णु और श्री महालक्ष्मी के अवतरण श्री राम और सीताजी ने अपने चरण-कमलों से इस भूमि को चैतन्यित किया था। महाराष्ट्र ही केवल ऐसा प्रदेश था जहाँ श्री सीता-राम नंगे पाँव पैदल चले। मिथक इस प्रकार से है कि चौदह वर्षों के बनवास में श्री सीता-राम ने कुछ समय इस भूमि पर बिताया खाटपेवाड़ी के ग्रामीण इस बात का दावा करते हैं कि जो बर्तन श्रीराम और सीता ने उस समय उपयोग किए थे उनके अवशेष साथ वाली पहाड़ी पर मौजूद है और उनके उस स्थान पर आने का प्रमाण है। इस भूमि पर प्रवाहित होने वाला चैतन्य भी इसके महत्व को बताता है। इसी पावन लिए हर व्यक्ति प्रेमदीप जलाना चाहता है ताकि उनके अन्दर राजलक्ष्मी तत्व्र ज्योतिर्मय हो सकें। श्रीमाताजी कहती हैं :- आपकी आत्मा के लिए जो कुछ भी अच्छा है, यह संयोजन होते ही वह स्वतः कार्यान्वित हो जाएगा, आज सहजयोग का यही कार्य है। इसीलिए मैंने कहा कि यह कृतयुग है और इसमें यह कार्य होना है। यह समन्वय हमें अपने अन्दर प्राप्त करना है, अतः कई बार आपको अपने शरीर उस स्तर के बनाने पड़ते है। परम पूज्य श्री माताजी चैलशम रोड, लन्दन ( भूमि के लगभग ग्यारह एकड़ क्षेत्र में निर्मल नगरी बनाई गई है। श्री राम के अवतरण के बारे में बताते हुए एक बार श्रीमाताजी ने बताया था कि इस भूमि को चैतन्यित करने के लिए श्रीराम वहाँ पर नगे पाँव 2 अप्रैल 1 982) दिवाली पूजा का उत्सव मनाने के लिए आत्म-साक्षात्कारियों की सामूहिकता के रूप में विद्यमान यहाँ उपस्थित हम सब सहजयोगी कितने भाग्यशाली हैं! और इसी पावन भूमि पर दिसम्बर 2006 में हमें ईसा-मसीह के जन्म दिवस का उत्सव मनाने का भी सौभाग्य प्राप्त होगा! चले और पृथ्वी तत्व के रूप में वहाँ श्री गणेश अपनी अभिव्यक्ति करते हैं। क्योंकि पहली बार जब मानव पृथ्वी पर आया तो वह सभी पशुओं और भयानक राक्षसों से भयभीत था। ऐसी स्थिति में मनुष्य को एक राजा, सारी भाग-दौड़ और दिन की तपन के बावजूद भी ये दिवस अत्यन्त आनन्ददायी था । शाम के समय थोड़ी सी ठण्ड हो गई थी और आकाश में छिट-पट बादल भी दिखाई दे रहे थे। आज निर्मल नगरी बिल्कुल भिन्न नजुर आ रही थी। सर्वत्र आनन्द एवं उल्लहास का वातावरण था और सभी हृदय इसका पूर्ण आनन्द उठाना चाहते थे । एक शासक की आवश्यकता थी जो आदर्श राजा हो और धर्म-पूर्वक शासन करे श्री राम उन्ही शासकों में से एक थे। वे त्रेता युग में अवतरित हुए और श्री कृष्ण द्वापर युग में। मैं जब अवतरित हुई तो कलियुग था परन्तु आज कृतयुग का समय है-ऐसा युग जिसमें कार्य अंक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी 41 आगे आगे चल रही थी। इतने थोड़े समय में परम दिवाली से पूर्व के दिनों में इन्टरनैट से प्राप्त हुई सूचनाओं से सभी योगियों के हृदय प्रफुल्लित थे क्योंकि हमें पता चला था कि श्रीमाताजी का स्वास्थ्य 1 पावनी माँ का स्वागत करने के लिए स्थान ग्रहण करने को भागते हुए सहजयोगियों को देखना वास्तव में एक दृश्य था। मानो सभी हृदय उनकी स्तुति गान कर रहे हों, 'शुभ-मंगलमय दिवस है आया...आदि शक्ति है स्वयं पधारी। बहुत अच्छा है, वे बहुत प्रसन्न हैं। इग्लैण्ड में वे खरीददारी के लिए भी गईं और एक शाम सहजयोगियों के साथ उन्होंने अपने ही लिखे हुए भजन का एक पूरा अन्तरा गाया-माँ तेरी जय हो, तेरी ही विजय हो। पूजा का समय शाम को साढ़े पाँच बजे घोषित किया गया था और अब सभी आँखें कुछ समय के लिए पूर्ण शान्ति छा गई । श्रीमाताजी, विशेष रूप से उनके लिए सजाए गए मंच के साथ के कमरे में आ गई थीं। चैतन्य प्रवाह बता | दिवाली पूजा में उनके पावन दर्शन करने की प्रतीक्षा रहा था कि परम पावनी माँ वहाँ विराजमान हैं। और कर रही थी। विश्व भर के देशों से महालक्ष्मी रूप में फिर अचानक "स्वागत आगत स्वागतम की धुन परम पूज्य श्रीमाताजी के चरण कमलों की पूजा करने के लिए निर्मल नगरी में एकत्र हुए तेरह-पन्द्रह हजार सहजयोगियों का उल्लास देखते ही बनता था! लहरा उठी। पौने छः बज चुके थे परन्तु मंच के पर्दे अभी तक गिरे हुए थे। पर्दे जब हटे तो मंच पर स्वर्गीय दृश्य था। सभी लोग वहाँ लगे चार विशाल स्क्रीनों पर मस्दम नजर आने वाली तस्वीरों को देख रहे थे आम सोच तथा पूर्वानुभवों के अनुसार अधिकतर लोगों ने यही सोचा कि के लिए घोषित क्योंकि अभी तक पर्याप्त अन्धेरा नहीं हुआ था। तभी समय, वास्तव में श्रीमाताजी के पहुँचने से बहुत अधिक पहले होता है। यद्यपि पूजा का समय साढ़े गूंज उठा और उसके पश्चात् सर सी पी. प्रिय पापाजी पाँच बजे शाम घोषित किया गया था फिर भी पाँच बजे तक पूरी सामूहिकता ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया था वे नहीं जानते थे कि दिव्य-लीला क्या है। में हिन्दी भाषा में परम पावनी मॉ का पावन सन्देश पूजा स्वीकार करने के लिए श्रीमाताजी समय से पूर्व सुनाया ही तैयार हो गईं थीं। क्या ये चैतन्यित-भूमि परम पावनी माँ का स्वागत करने के लिए बेचैन थी या स्वीकार करने के लिए स्वयं महालक्ष्मी की एक पूजा श्री आदि-शक्ति माताजी श्री निर्मला देवी का जयकारा का जय घोष हुआ। तत्पश्चात् सर सी पी. ने माइक पर विश्व सामूहिकता के सम्मुख, अपनी विशेष शैली | उन्होंने कहा-श्रीमाताजी ने आप सबके लिए सन्देश दिया है...हम सब एक है, परमात्मा केवल एक है, कहने के लिए अब कुछ नहीं बचा हैं। इस लक्ष्य के लिए और मानव मात्र के हित के लिए उन्होंने पिछले पैतीस वर्षों में विश्व भर में अथक प्रयास किए है और यात्राएं की हैं। अब हमें भूल जाना चाहिए कि हम भिन्न हैं। हम सब एक हैं और उनके स्वप्न को पूजा बार फिर वहाँ जाने की इच्छा भी? या श्रीमाताजी श्री गणेश की इस इच्छा को नकार नहीं पाई कि वे समय से पूर्व पहुँचकर अपने दर्शन दें? अतः श्रीमाताजी ने पूजा के घोषित समय से बहुत पहले प्रतिष्ठान से रवाना होने का फैसला किया। साकार करने की तथा पूरे देश में उनके सन्देश को फैलाने की जिम्मेदारी हमें अपने कन्धों पर ले लेनी अचानक कारों का एक काफिला श्री माताजी की कार के पीछे-पीछे आता हुआ. पौने पाँच बजे निर्मल नगरी के द्वार के समीप दिखाई दिया। मार्गदर्शक कार (Pilot Car) श्रीमाताजी की गाड़ी के चाहिए। श्रीमाताजी गहनता पूर्वक सामूहिकता को देख रही थीं और कभी-कभी वे अत्यन्त स्नेहपूर्वक हमारे अंक : 5 & 6 - 2007 42 चैतन्य लहरी अन्तर्राष्ट्रीय ने श्रीमाताजी को उपहार देने के लिए लाइन लगा ली। भारत फ्रांस. आस्ट्रेलिया, स्विटजरलैण्ड, पुर्तगाल, इटली, बहरीन, हॉग-काँग आस्ट्रिया, मालता आयर लैण्ड, बल्ारिया, रूस, यूनान, अर्जेन्टीना, रोमानिया, अमेरिका तथा अन्य बहुत से देशों ने अपने उपहार अर्पण किए। छिन्दवाड़ा योजना के विकास के लिए भिन्न देशों द्वारा प्रिय पापाजी को देख लेतीं, मानों स्वीकृति में सिर हिला रही हों उनकी सुन्दर मुखाकृति हमें प्रसिद्ध भजन की याद दिला रही थी, 'प्यार भरे ये दो निर्मल नैन।' मानो उनके पावन दर्शनों के आशीर्वाद से हमारे हृदय पिघल रहे हों! नि:सन्देह यही वह क्षण था जिसकी हज़ारों साधकों को प्रतीक्षा थी। सवा छ: बजे बच्चों-नन्हे गणेशों-को परम उदारता-पूर्वक दी गई घनराशियाँ महालक्ष्मी तत्व की अभिव्यक्ति कर रहीं थी। उपहार अर्पण समारोह की समाप्ति पर घोषणा की गई कि चौबीस, पच्चीस और छब्बीस दिसम्बर 2006 को निर्मल नगरी पुणे मे अन्तर्राष्ट्रीय ईंसामसीह जन्म दिवस पूजा का आयोजन किया जाएगा। तालियाँ बजाकर योगियों ने पूज्य श्रीमाताजी के चरण कमलों की पूजा फूलों से करने के लिए मंच की ओर दौड़ते देखा गया । 'श्री गणेश अथर्वशीर्षम्' पढ़ा जा रहा था, तत्पश्चात् 'विनती सुनिए आदिशक्ति' और फिर श्रीमाताजी के 108 नामों वाला भजन 'जागो सवेरा गाया गया इसके बाद सात विवाहित महिलाओं ने श्री महालक्ष्मी के संगार के लिए उनके सम्मुख पर्दा पकड़ा और महामाया महाकाली, तुझ्या पूजनी तथा महालक्ष्मी स्तोत्रम गाए गए। हुए इस घोषणा का स्वागत किया। लगभग साढ़े सात या पौने आठ बजे मंच के पर्दे गिरा दिए गए और सारी ठीक सात बजे आरती और तीन महामन्त्रों सामूहिकता अपने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई। के साथ श्री महालक्ष्मी रूप में श्रीमाताजी के चरण कमलों में दिवाली पूजा का समापन हुआ। तेज़ हवा का एक झोंका आया और उसी के साथ सामूहिकता पर बारिश की कुछ बूंदें गिरीं । ऐसा प्रतीत हुआ मानो वरुण देवता और सभी गण इस पावन भूमि पर श्रीमहालक्ष्मी की पूजा से प्रसन्न होकर हल्की-हल्की बूँदों से अपने आनन्द की अभिव्यक्ति किए बिना न रह सके हों! नन्हीं-नन्हीं है परम पावनी माँ केवल आपकी कृपा से ही आज हम यहाँ उपस्थित हो पाए। विश्व भर के सहजयोगी भाई-बहनों की ओर से हम सब प्रार्थना करते हैं कि आपके चरण कमलों में हमारे कोटि-कोटि प्रणाम स्वीकार हों। पूजा को स्वीकार करने के लिए बूंदे शनै शनैः बड़ी बूँदों में परिवर्तित हो गई और पूर्ण समर्पित हृदय से हम आपके प्रति आभारी हैं। तत्पश्चात् अद्भुत रंग-बिरंगी आतिशबाजी का प्रदर्शन हुआ जिसने निर्मल नगरी के पूरे आकाश को आच्छादित कर दिया। उल्लसित ननहें गणेश (बच्चे) श्रीमाताजी के जाने के बाद आधे घण्टे तक बरसती रहीं। बारिश की बूंदों से पावन मिट्टी की सुगन्ध सर्वत्र फैल गई। परन्तु बूँदें इतनी बड़ी भी न थीं कि योगीगण भीग सकें। वातावरण अत्यन्त आनन्दमय हो गया था। लगभग साढ़े आठ हजार योगियों ने बाकी की शाम चैतन्य का आनन्द उठाया और लगभग इधर-उधर उछलते हुए दिखाई दिए और स्वयं श्रीमाताजी भी अत्यन्त प्रसन्नता एवं प्रेम पूर्वक आकाश पाँच से छः हजार लोग पूजा स्थान से श्री महालक्ष्मी में चैतन्य स्नान करके अपने धरों को लौट गए। की ओर देखती हुई दिखाई दी। मानो अपने बच्चों के पूजा कबूल रही हो! चैतन्य-लहरियों का प्रेम- प्रदर्शन को -जय श्रीमाताजी रबि घोष (भारत) प्रवाह आश्चर्यजनक था! आकाश में अभी आतिशबाजी चल ही रही (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित थी कि मेजुबान देशों के प्रतिनिधियों, राष्ट्रीय और अतिविशिष्ट व्यक्ति सम्मेलन (न्यूयार्क, यू. एस. ए. परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर 16-6-1999) प्रश्न :- आज सन्ध्या को किए गए ध्यान से क्या उठाए है। अतः यह बिल्कुल भिन्न है। मैं नहीं जानती कि कुण्डलिनीयोग के नाम पर वो लोग क्या करते हैं। कोई रोग निवारक शक्ति आएगी? श्रीमाताजी :- हाँ, सर्वप्रथम हमें ये समझना है कि ये शक्ति है क्या। ये बात अवश्य समझनी है। यह शक्ति रोग निवारण करती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। पहले ये आपके रोग निवारण करेगी और फिर अन्य लोगों प्रश्न:- क्या आप जानती है किं कुण्डलिनी वही जीवन दायिनी (Life Force) ऊर्जा है जिसे चीन के लोगों ने ची" (Chi) कहा, तथा यह ऊर्जा हमारा एक भाग है, परे विश्व का एक हिस्सा है जिस तक हम इस प्रकार के, इस बात में कोई सन्देह नहीं है। पहुँच सकते हैं, और ची-गोंग (Chi-Gong) और ताय-ची (Ta-Chi) के माध्यम से भी क्या यह वही शक्ति है? प्रश्न- सहजयोग और रेकी में क्या सम्बन्ध है? क्या ये एक दूसरे के समानान्तर हैं? श्रीमाताजी हां, हॉ ये सत्य है परन्तु आप देखिए कि इसका सम्बन्धे हमारे अहं और प्रतिअहं से है चीन के लोगों ने जो लिखा वह ठीक है। परन्तु चीन के लोग भी ये नहीं जानते कि लाओत्से कौन हैं, क्या श्रीमाताजी- मैं किसी चीज की आलोचना नहीं करना चाहतीं, आपको केवल ये देखना चाहिए कि किसी चीज़ से आपको क्या लाभ प्राप्त हुआ.... पहला प्रश्न ये कि किसी कार्य को करने से आपको क्या लाभ आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं? लाओत्से वह व्यक्ति थे जिन्होंने इस शक्ति के विषय में बताया । उन्होंने उन लोगों को कुण्डलिनी के विषय में बताया और वो ये भी नहीं जानते हैं कि लाओत्से कौन हैं! हुआ? क्या आपको परमेश्वरी ज्ञान प्राप्त हुआ? क्या आपको आदिशक्ति (Holy Ghost) की शीतल लहरियाँ प्राप्त हुई? एक माँ के नाते मैं पूछती हूँ कि इससे आपको क्या प्राप्त हुआ? बाजार में बहुत लोग हैं, बहुत से। मैं आपसे यही प्रश्न पूछूगी कि बच्चे आपको क्या मिला? इन चीजों का कोई अन्त नहीं है। अमरीका में, विशेष रूप से, मैं नहीं समझ सकती कि किस प्रकार के चीनी लोग यहाँ रहते है। प्रश्न :- जो कुण्डलिनीयोग आप सिखाती हैं क्या उसका सम्बन्ध तन्त्रयोग से है? यह ज्ञान का महान स्रोत है और उन्होंने (लाओत्से) जो भी कहा वह बिल्कुल ठीक है। परन्तु सहजयोग में हर चीज़ का समन्वय है। सारे ज्ञान, सभी धर्म ग्रन्थ, सभी कुछ इसमें समन्वित हो जाता है। पूर्णतः समन्वित हो जाता है क्योंकि इसके प्रकाश में आप सभी के सत्य को देख सकते हैं। हर चीज में सत्य है, हर धर्म में सत्य निहित है... । श्रीमाताजी :- देखिए, कुण्डलिनीयोग मात्र एक नाम है परन्तु आपको ये बताना आवश्यक है कि इसका कुण्डलिनी से कोई लेना देना नहीं है। अतः यदि आप शब्दों के अर्थ को देखेंगे तो 'सहजयोग' और कुण्डलिनीयोग' एक से प्रतीत होंगे। परन्तु वास्तव में मैंने देखा है कि 'कुण्डलिनीयोग अत्यन्त भयानक कार्य है। क्योंकि इसके कारण लोगों ने बहुत कष्ट (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित ल भ По PRATISHTHAN SRIVASTAVA र "निःसन्देह सहजयोग बढ़ेगा, पर इसे आयोजित मत कीजिए। आयोजन शुरु करते ही बढ़ोतरी रूक जाएगी। जैसे, आपने देखा होगा काटकर सुव्यवस्थित (आयोजित) करने से पेड़ बौना हो जाता है। मैंने ऐसा कोई वृक्ष नहीं देखा जो आयोजन से बढ़ता हो। ज्यादा से ज्यादा आप इसका पोषण कर सकते हैं, पानी दे सकते हैं, पर आप इसके विकास की गति नहीं बढ़ा सकते। परम पूज्य श्री माताजी ---------------------- 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-0.txt ॥हि चैतन्य लहरी লहा मई-जून : 2007 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-1.txt लह री चै त न्य प्रकाशक निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8. चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पॉड रोड, कोथरुड़ पुणे - 411 029 फोन: 020-25285232 मुदक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिजाइनर्ज 292/23 ओंकार नगर बी' त्रीनगर, दिल्ली- 110035 मोबाइल : 9212238008 आप अपने सुझाव, सदस्यता एवं जानकारी के लिए निम्न पते पर लिखें : निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी पॉड रोड, कोथरुड धुणे - 411 029 फोनः 020-25285232 अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463), ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली- 110034 फोन : 011-65356811 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-2.txt चै त न्य ल ह री अंक : 5 -6, 2007 NIRMALA UNIVERSAL PURE RELIGIC इस अंक में शिव पूजा एवं जन्मदिवस सेमिनार - पुणे (18-21 मार्च 2007) पूजा उत्क्रान्ति पथ 3 नवरात्रि पूजा, लॉस एंजलिस, अक्टूबर 2006 4 मास्को में डॉ. बोडन का एक उत्कृष्ट संस्मरण अगस्त 1991 श्री कृष्ण पूजा, गारलेट- मिलान आश्रम 8. 6-8-1988 16 हँसा चक्र पूजा, Green Ashachu, जर्मनी - 10-7-88। बोर्डी 12-2-1984 26 बोर्डी पूजा, सहजयोग और शारीरिक चिकित्सा - 2 27 1983 से उद्घृत आत्मा, निर्मला योग 29 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का परामर्श, 32 हैम्पस्टैड टाऊन हॉल ( इंग्लैण्ड) 31.03.83 सहजी माताओं को श्री माताजी का परामर्श 37 निर्मल नगरी पुणे की पावन भूमि पर श्री महालक्ष्मी का पुनर्आगमन अतिविशिष्ट व्यक्ति सम्मेलन -16-6-1999 40 22-10-2006 43 DHARMA MHSIA १ 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-3.txt चार दिवसीय सहजयोग सेमिनार निर्मल नगरी पुणे 18-21 मार्च 2007 पू दृश्य था उपस्थित सभी सहजयोगी अपने-अपने स्थानों पर खड़े होकर आनन्दनृत्य कर रहे थे। ऐसा लगता था मानों असंख्य कुण्डलिनियाँ हों! आस्ट्रेलिया की नन्हीं सत्यभामा कल्पा ने अद्वितीय कुचिपुड़ी नृत्य पेश किया तथा नन्हीं बालिकाओं के एक अन्य समूह ने भरतनाट्यम पेश किया। 18 मार्च को आरम्भ होकर 21 मार्च को सम्पन्न होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय सहजयोग सेमिनार की मेज़बानी टर्की, दुबई, इज़राइल, ट्यूनीशिया, यूनान, मोरक्को, ईरान तथा भारत ने मिलकर की। इस पावन स्थल पर शिव पूजा और परम पूज्य श्रीमाताजी की जन्म दिवस पूजा में भाग लेने के लिए आए 8 से 9 हजार सहजयोगियों का सामूहिक तारतम्य तथा वहाँ मंचन किए गए अद्वितीय सांस्कृतिक कार्यक्रम देखते ही बनते थे। नृत्य कर रही न द श्री शिव पूजा 19 मार्च 2007- 19 मार्च का दिन तीन कारणों से महत्वपूर्ण था। सर्वप्रथम तो इस दिन अद्वितीय सूर्यग्रहण था जो पूरे भारत वर्ष में दिखाई भारत वर्ष में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में (1000-1400) विदेशी सहजयोगी भाई बहन परमपावनी श्रीमाताजी को 84वीं जन्म दिवस पूजा दिया। दूसरे श्रीराम जन्मदिवस समारोह का यह प्रथम नवरात्र था और तीसरे महाराष्ट्र का लोकप्रिय तथा शिव पूजा के अवसर पर उनके श्री चरणों में गुडोपडवा दिवस था- विक्रमीसम्वत जिसे पूरा अपने हृदयार्पण के लिए उपस्थित हुए थे संगीत कार्यक्रमों ने दोनों पूजाओं को अत्यन्त उल्लासमय बना दिया। पुणे के सहजयोगियों द्वारा किए गए भारतवर्ष नववर्ष के रूप में जानता है। इस शुभ दिन हमारी परमपावनी श्रीमाता जी की शिव रूप में पूजा की गई। "अपने-अपने देशों में सहजयोग प्रचार-प्रसार के गुफा के आकार में बनाए गए मंच पर बने अनुभव" विषय पर अत्यन्त सशक्त सत्र हुआ शिवलिंग मंच को कैलाश पर्वत पर श्री शिव का इसमें टक्की, इजराइल, ईरान, मोरक्को और दुबई के संयोजकों ने अपने-अपने अनुभव बताए। भारत के नगरी में परम पूज्य श्रीमाताजी के पावन दर्शन हुए। नगर सहजयोग संयोजकों ने भी इसमें अपने अनुभव निवास दर्शा रहे थे लगभग आठ बजे सायं निर्मल "विनरती सुनिए आदिशक्ति" प्रार्थना भजन के साथ नन्हें गणेश श्रीगणेश के रूप में श्रीमाताजी के चरणों सुनाए। पेश किए गए शास्त्रीय कार्यक्रमों में उच्च कोटि की कला एवं सहजयोगसंस्कृति को प्रदर्शित में पुष्प अर्पण करने के लिए दौड़ते हुए दिखाई किया गया। विश्व निर्मल प्रेम आश्रम (N.G.O.) से दिए। आए नन्हें बच्चों ने देवी की स्तुति करते हुए नृत्य एवं भजन पेश किए। पण्डित अरुण आप्टे, सुरेखा तत्पश्चात् देवी पूजा की गईी "तेरे ही. गुण गाते हैं, मनोबुद्धिहंकार, आया माता का पूजन दिन आया" भजनों के साथ देवी का श्रंगार किया गया| "बोलो शिव-शिव शम्भू" भजन के साथ देवी पूजा आप्टे, पण्डित सुब्रामण्यम तथा अन्य सहजयोगी गायकों का संगीत अत्यन्त जीवन्त और आनन्दमय था । आस्ट्रेलिया के सहजयोगियों ने भी बहुत सुन्दर सम्पन्न हुई। भजन गाए। परन्तु ईरान के सहजयोगी अपने स्थानीय वाद्ययन्त्रों के साथ जब भजन गाने लगे तो स्वर्गीय तत्पश्चात् श्रीमाताजी की श्री शिव के रूप 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-4.txt अंक 5 & 6 2007 2 चैतन्य लहरी में पूजा आरम्भ हुई। गेरु तथा सुरभित पाउडर श्रीमाताजी के मुखारबिन्द पर लगाए गए। लगभग बजे सायं पूरी सामूहिकता ने श्रीमाताजी के श्वेत वस्त्रों में श्री शिव रूप में दर्शन किए। सर्वत्र शान्ति एवं प्रेम का साम्राज्य था। अन्तर्परिवर्तन की शान्ति को सभी हृदय सामूहिक रूप से महसूस कर रहे थे- मानो कह रहे हों 'शिवोहं, शिवोह"। अनुग्रह की भावना से सभी हृदय श्री शिव के चरणों में नतमस्तक थे। विश्ववन्दिता गाया गया आरती हुई पावनदर्शन सभी को दिए और अगले ही क्षण और उसके बाद तीन महामन्त्रों का उच्चारण हुआ। प्रसाद को चैतन्यित करते हुए श्रीमाताजी की सक्रियता हमें पूर्व वर्षों की याद दिला रही थी। ग्यारह साड़ियों दौड़ पडे। वे अत्यन्त ध्यान से नन्हें गणेशों को का अन्तर्राष्ट्रीय उपहार श्रीचरणों में भेंट किया गया, सम्भवत: एकादशरुद्र की ग्यारह शक्तियों के प्रतीक के रूप में। आशा विश्वास हमारे' भजन गाया। निर्मल नगरी में श्रीमाताजी के प्रवेश के समाचार ने निरभ्र आकाश को आतिशबाजी की चमक से भर दिया। भजन गाते हुए पूरी सामूहिकता परम पावनी माँ के स्वागत के लिए खड़ी हो गई। सभी लोग गा रहे थे, 'श्री जगदम्बे आई रे'। मंच के पर्दे हटे, परम पावनी माँ ने अपने श्रीगणेशअथर्वशीर्षम पढ़ा जाने लगा। नन्हें बच्चे श्रीमाताजी के चरण कमलों की पूजा करने के लिए निहार रही थीं । 'जागो सवेरा आया, तथा 'छिन्दवाड़ा में जन्म हुआ के साथ श्रीमाताजी का शृंगार हुआ। पौने नौ बजे चरण कमलों की आरती की पूजा समापन होने पर हमारे प्रिय पापाजी ने गई और बाद में उत्सुक सामूहिकता ने श्रीमाताजी सहज सामूहिकता को सम्बोधित करते हुए पिछले और सर सी. पी. को जन्मदिवस केक काटते हुए 37 वर्षों में श्रीमाताजी द्वारा किए गए अथक परिश्रम देखा। पूरे वातावरण में आनन्द का साम्राज्य फैल एवं प्रयासों की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि श्रीमाताजी ने सभी राष्ट्रों, धर्मों, भाषाओं तथा जातियों के लोगों को समान रूप से प्रेम प्रदान किया है। तथा गया, आतिशबाजियाँ जलाई जा रही थीं, आकाश में गुब्बारे उड़ाए जा रहे थे पूर्ण सामूहिकता परम पूज्य श्रीमाताजी के साक्षात् में आनन्दमग्न थी। पुनः जन्मदिन आयो' गाया गया। अब समय आ गया है कि श्रीमाताजी के पावन प्रेम और उनके द्वारा किए गए कठोर परिश्रम के लिए उनके प्रति हम अपनी कृतज्ञता प्रकट करें। ऐसा हम केवल तभी कर सकते हैं जब हम सब उनके प्रेम संदेश (सहजयोग सन्देश) को जन-जन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले लें। श्री राजेश शाह ने परम पूज्य श्रीमाताजी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में विश्व की जानी मानी हस्तियों द्वारा भेजे गए बधाई सन्देश पढ़ कर सुनाए। भारत के माननीय राष्ट्रपति तथा टर्की, टेक्सास और ओकलाहोमा तथा पृथ्वी के भिन्न देशों से श्रीमाताजी को मंगल कामनाएं भेजी गई थीं। मंगल संदेश भेजने वाले लोगों में गवर्नर, मेयर्स तथा अन्य विभूतियाँ थीं जिन्होंने श्रीमाताजी के कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जन्म दिवस पुजा 21 मार्च 2007 21 मार्च का दिन यद्यपि काफी गर्म था परन्तु सन्ध्या अत्यन्त शीतल एवं सुखकर थी। पूजा के लिए लालायित 9000 सहजयोगी उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। पूजा मंच को महल की तरह से सजाया गया। स्थान-स्थान पर सुरभित पुष्प तथा रंग-बिरंगे गुब्बारे लगे हुए थे। तत्पश्चात् सर सी.पी. से सामूहिकता को सम्बोधित करने का अनुरोध किया गया और अत्यन्त विनम्रतापूर्वक उन्होंने परम पावनी श्रीमाताजी का ं " सायं सात बजे सामूहिक बन्धन और महामन्तों के साथ शुभारम्भ किया गया सुरेखा आप्टे ने 'तुम सन्देश सुनाया। सर सी.पी. ने "जय श्रीमाताजी (शेष पृष्ठ 7 पर) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-5.txt उत्क्रान्ति पथ आपका हर कार्य मुझे प्रसन्न करने के लिए होना चाहिए। ये एक तरीका है। हर कार्य मुझे प्रसन्न करने के लिए होना चाहिए। ये एक चिन्ह है । रह सकें। अपने चरण कमल मेरे हृदय में स्थापित कीजिए। मेरे हृदय में अपने चरण कमलों की पूजा होने दीजिए मुझे भ्रान्तियों से बचाइए, भ्रमों से दूर ले जाइए। मुझे सत्य में स्थापित कीजिए। उथलेपन की चमक दमक दूर कीजिए । अपने हृदय में मैं आपके चरणकमलों का आनन्द ले सकू । तो हम इस कार्य को कैसे करें? मुझे अपने हृदय में स्थापित करें अपने हृदय में मुझे स्थापित करने का प्रयत्न मात्र करें। ऐसा करना बहुत सहज है। अब मैं आपके सम्मुख हूँ, मानव रूप में (साक्षात)। आपके चरण कमल मैं अपने हृदय में देख सकू।" केवल ऐसे लोग- ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने आज ही मैं अपने एक सम्बन्धी को भी ऐसा ही किया। ये न समझें कि केवल आपको ही ऐसा करना पड़ रहा है। 1 आत्म-साक्षात्कार देने का प्रयत्न कर रही थी और मैंने उससे कहा, "आ ।" आप अपनी ऑँखें बन्द मत करें अतः विनम्र बनें। अपने हृदय में विनम्रता लाएं, हृदय में विनम्रता लाएं. अपनी विनम्रता का आनन्द ले, अपने सद्गुणों का आनन्द उठाएं । विनम्रता किसी भी सहजयोगी का सबसे बड़ा सद्गुण होता है। अपने को विश्वस्त करने के लिए आपने बहुत सी चीजें देखी हैं परन्तु यह किसी भी प्रकार का समर्पण नहीं है क्योंकि आप मुझे क्या समर्पित कर सकते हैं? इस विषय में सोचें। हर समर्पण जब आशीर्बाद है तो आप क्या समर्पण कर रहे हैं? उसने कहा, "नहीं मैं आपके चेहरे को नहीं देखँगा क्योंकि जब भी मैं आपका चेहरा देखता हूँ तो मुझे लगता है आप मेरी आन्टी हैं। मैं केवल आपके चरणकमलो को देख रहा हूँ ताकि मुझे ये न लगे कि आप मेरी आन्टी है। आप अत्यन्त महान है और आपका मुख मुझे भ्रम में डाल देता है।" वह ये बात देख पाया कि ये महामाया है कहने लगा, "केवल आपके चरण कमलों पर ही मैं उन्नत होता हूँ और आपके चरणकमलों के माध्यम से ही भावनाओं की इस बाधा को पार कर सकता हूँ। हृदय की हर भावना आशीर्वाद है। अभी आप इसे महसूस करें और अपने हृदय में आपको आनन्द की अनुभूति होगी। तो आपका समर्पण क्या है और किस विषय में है? उन लोगों की बात तो मैं समझ इसी प्रकार से, 'मैं जानती हूँ कि मैं महामाया हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं हूँ। मुझे बनना पड़ा। परन्तु आपको मेरे चरण अपने हृदय में स्थापित करने पड़ेंगे। केवल चरण अपने हृदय में स्थापित करने पड़ेंगे क्योंकि मेरा चित्र तो लुप्त हो जाता है। हर चीज़ भ्रम हो सकती है। हो सकता है कि मेरी मुखाकृति देखने से आप अपने बन्धनों की दीवारों को पार न कर पाएं। य सकती हूँ जो नए-नए आए हैं या बेकार है। परन्तु आप तो परिधि रेखा पर नहीं है। परन्तु कुछ लोग एक दम से परिधि रेखा पर चले जाते हैं। आप उन्हें कोई कार्य दीजिए। बस समाप्त। मैं यदि किसी के प्रति समाप्त। मैं यदि किसी से मिल लँ मधुर हो जाऊं - समाप्त। कहने का अभिप्राय ये है कि ये, अतिशयता है। मैं तो आपके प्रति सहृद भी नहीं हो सकती। ये कहना, "मैं अवश्य श्रीमाताजी से मिलूंगा, अवश्य मुझे ऐसा करना है, श्रीमाताजी को अवश्य मेरे घर आना चाहिए, अवश्य उन्हें मेरे घर पर आना चाहिए:- ये सब बातें मूर्खता हैं। मैं नहीं समझ पाती कि लोगों को क्या समस्या है!" आप यदि कोई गलती करते हैं, ठीक है, फिर आप उसे महसूस करते हैं और आपकी बाईं विशुद्धि पकड़ जाती है, गलती तो आपने कर ली है,"हो गया , समाप्त।" आप मुझे प्रेम करते हैं, हो सकता है प्रेम में श्रीमाताजी कृपा करके सेरे हृदय में आइए। मेरा हृदय स्वच्छ कीजिए ताकि आप वहाँ 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-6.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 - 2007 4 कोई गलती हो या कुछ हो गया हो। कोई बात नहीं। परमेश्वरी भय की बात करनी है। "अब मैं सावधान रहूँगा अब मैं गलतियाँ नहीं करूंगा, किस प्रकार मैं गलतियाँ कर सकता हूँ? क्योंकि मेरा प्रेम अधूरा था। मैं यदि वास्तव में प्रेम करता तो मुझसे ऐसी गलती न होती।" ऐसा करना बहुत महत्वपूर्ण है। और एक बार जब आपके अन्दर परमेश्वरी भय (श्रद्धा) विकसित हो जाएगा तो आपके ऊपर एकादशरुद्र का प्रकोप समाप्त हो जाएगा। उस परमेश्वरी भय (Awe) के विषय में सोचें । विज्ञान, उसके आनन्द और परमेश्वरी श्रद्धा के ठीक है, अपना प्रेम विकसित करें। परन्तु नहीं, आप तो कहेगे, "मैं दोषी हूँ, क्योंकि मैंने ऐसा किया है, तो आप ये भी खो देते हैं और वो भी और इस प्रकार आपकी आनन्द को देखें। यह अत्यन्त-गहन है, सागर की तरह गहरा। उथले स्तर पर सागर अत्यन्त उग्र होता है। परन्तु गहरे स्तर पर यह पूर्णतः शान्ति होता है। गलती एक बार फिर बाधा बन जाती है। उस गहनता को महसूस करें। श्रद्धा (Awe) इसके विषय में स्वयं को दोषी न मानें। हमें आगे उन्नत होना है। भूत को भूल जाएं. भूल जाएं, भूल जाएं, आपको आगे बढ़ना है। आपको गहन होना है। बातचीत करते हुए हमें उस गरिमा की, उस के बिना आप गहनता में नहीं उतर सकते। (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित नवरात्रि पूजा लॉस एंजलिस, अक्टूबर 2006 (रिपोर्ट) पिछले लगभग दो सप्ताहों से यहाँ पर प्रतिदिन नवरात्रि के उपलक्ष्य में श्रीमाताजी की संक्षिप्त पूजाएं की जा रहीं थीं, जिनमें श्री माताजी को ओटी अर्पण की जाती थी और कभी-कभी भजन भी गाए से एक थे। उन्होंने मुझे कुछ आश्चर्यजनक कहानियाँ सुनाई। गाँधीजी के जन्मदिवस पर श्रीमाताजी के सम्मुख भारत का राष्ट्रीयगान गाया गया और इसके बाद देवी के श्री चरणों में कुछ भजन अर्पित किए गए।"माँ तेरी जय हो" भजन को स्वय श्रीमाताजी ने अपने मुखारबिन्द से गाया साधना दीदी की आँखों से आँसू झर रहे थे और अविश्वास के कारण सभी लोगों के मुँह खुले हुए थे मुझे बताया गया कि जब श्री माताजी गा रही थीं तो कक्ष में चैतन्य लहरियाँ विद्युत-तरंगों की तरह से प्रवाहित हो रही थी तथा सभी लोग श्रीमाताजी से प्रवाहित होती हुई शक्ति को महसूस कर सके। यह अत्यन्त आनन्ददायी समाचार से जाते थे। पूजा संक्षिप्त होने के कारण सभी लोग इनमें भाग न ले पाते थे परन्तु कुछ सहज़योगी जिन्हें इनमें सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उन्होंने इस प्रकार बतायाः नवरात्रि के छठे दिन डेढ़ बजे रात्रि (Morning) माँ स्वयं बार-बार कह रही थीं, "मैं देवी हूँ, मैं देवी हूँ।" जो महिलाएँ उन्हें ओटी अर्पण करने के लिए गईं, वे श्रीमाताजी को केवल इतना ही कह पाईं, "श्रीमाताजी आप ही देवी हैं, आप महादेवी हैं. कृपा करके हमारी रक्षा कीजिए।" श्रीमाताजी के था, इसकी केवल कल्पना कर सकता हूँ कि इस क्षण का साक्षी होना कैसा होता! न जाने इसकी आडियो/बीडियो रिकार्डिंग भी की गई है या नहीं। मुख इन शब्दों को सुनकर सभी लोग आश्चर्य चकित थे! कमरे में मौजूद लोगों ने इन शब्दों की शक्ति को महसूस किया नवरात्रि के दसवें दिन, दशहरे के दिन, कुछ योगियों को श्रीमाताजी के घर पर भजन पेश करने के लिए कहा गया। मेरे पिताजी भी उनमें क प्रेमपूर्वक Sulu युवा शक्ति इन्टरनैट विवरण (रूपान्तरित) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-7.txt मास्को में डॉ. बोडन का एक उत्कृष्ट संस्मरण (अगस्त1991 में मास्को विपल्व की सन्ध्या, सार्वजनिक कार्यक्रम के पश्चात् विक्टर बेजेका के निवास पर रात्रिभोज वार्ता में लिपिवद्ध) उस सन्ध्या पूरे मास्को में केवल श्रीमाताजी बैठे हुए थे। श्रीमाताजी पीछे की सीट पर दाई ओर ही कार्यक्रम कर पाई क्योंकि सेना खेलसभागार का हॉल हमने आरक्षित (Book) करवा लिया था। उस दिन वहाँ पर होने वाले अन्य सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए गए थे, परन्तु पहले से ही हमें चेतावनी ये दे दी गई थी कि दस बजे कफू लग जाएगा। हमेशा की तरह श्रीमाताजी ने अत्यन्त सुन्दर कार्यक्रम फिर किया। मैं कहूँगा कि लगभग चार हजार लोग थे। कार्यक्रम के बाद में सभी ने श्रीमाताजी को घेर लिया, कुछ तो अश्रुपूर्ण आँखों के साथ श्रीमाताजी कमीज के बाजू ऊपर चढ़ाने शुरु किए तो मैं समझ की ओर जा रहे थे। और माँ तो बस माँ हैं निरन्तर प्रेम विकीर्णित करती हुई माँ। ये लोग धीरे-धीरे माँ कठिनाई में हैं, काश कि यह व्यक्ति सहायता के को पीछे की ओर धक्केल रहे हैं क्योंकि ये माँ को छूना चाहते हैं, उनके समीप आना चाहते हैं। तो धौरे-धीरे वे पीछे हट रही हैं, और मैंने सोचा, हे परमात्मा लगभग दस बज गए हैं, दस बजने में हुई थी। मेरा नाक खिड़की तक जाता है, पाँच मिनट बाकी हैं और अभी हमें मास्को के मध्य से गुज़रना है. जहाँ क्यू तथा मार्शल लॉ लगा है। मैं चालक था, हमारे पास श्रीमाताजी की बैठी हुई थीं। इसी सीट के नीचे का टायर पंक्चर हुआ था। मैंने कार का जैक निकाला, इसका पम्प चलाकर पहिए को निकाला, दूसरा टायर लिया और इसे लगाने का प्रयत्न करने लगा। परन्तु लग नहीं रहा था। मैं स्वयं से कहता हूँ, बोडन देखो, चार बोल्ट हैं और चार सुराख है परन्तु भी पहिया लग नहीं रहा! मुझे पसीने आने लगे। कार से बाहर आकर जब योगी महाजन ने अपनी गया कि स्थिति गम्भीर हैं। मैं जानता था कि हम लिए आ जाए.. (हँसी)! तब मैंने कहा, 'ठीक है। मैं माँ की ओर देखने लगा, उनकी तरफ की खिड़की थोड़ी सी खुली श्रीमाताजी क्या आप ठीक हैं और उसी क्षण लगभग साठ टी. 82 टैंक, युद्ध के बड़े-बड़े टैंक, दक्षिण की ओर से लेनिनग्रेडस्कया मार्ग में आए। ये टैंक मध्य खेलपरिसर वाले पड़ाव पर जा रहे थे। इस परिसर पर सेना का अधिकार था। हुआ मॉस्कविच (Moscvitch) कार थी। पटरी पर, गटर पर चढ़ाकर पैदल चलने वाले रास्ते पर मैंने गाड़ी को लम्बा खड़ा कर दिया। ज्योंही श्रीमाताजी पीछे की ओर गईं तो मैंने कार का पीछे का दरवाजा खोल दिया। श्रीमाताजी जब एक मीटर दूर थीं तो मैंने कहा, 'श्रीमाताजी आपकी कार । 1 मैं इन टैंकों तथा क्लासिक सिग्नेचर, च्म हैट पहने रेडआर्मी टैंक कमाण्डरों को देखता हूँ। हर टैंक कमाण्डर का रंग पीला पड़ा हुआ है, परन्तु वह दृढ़ है, सीधा आगे की ओर देख रहा है, स्पष्ट रूप से परेशान है क्योंकि उन्हें अपने ही लोगों पर गोले दागने की सम्भावना का सामना करना पड़ रहा है। परन्तु मुझे वे अत्यन्त युवा, पर अत्यन्त पीले दिखाई दिए। मैंने कहा ये बच्चे हैं, ये लोग क्या कर रहे हैं? बच्चों को युद्ध में झोंक रहे हैं? मैंने वास्तव में यही महसूस किया। मैंने कहा, क्यों नहीं ये वृद्ध लोग...?" उन्होंने चारों ओर देखा, आहे, बहुत अच्छा और कार में बैठ गईं। मैंने दरवाजा बन्द किया। और हम तेजी से चल पड़े क्योंकि हमें कफ्ू से पहले पहुॅ चना था। हम लेनिनग्र डस्क्या (Leningradskaya) स्टेट से निकल रहे थे, सड़क पर पूरी तरह अंधेरा था क्योंकि बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। अचानक मुझे 'टक-टक-टक-टक की आवाज़ सुनाई दी। हे परमात्मा, ये तो टायर में से हवा ये मेरी भावना थी, परन्तु तब मैंने सोचा निःसन्देह, बोडन 18-19 साल के लडके हमेशा में जाते रहे हैं, परन्तु वे बच्चे हैं। 18 या 19 वर्ष, मैं उन्हें बच्चे ही मानता था। और यही मौत के मुँह में जाते हैं तथा पूरे राजनीतिज्ञ अपने कैबिनेटों निकल गई है।' हम रुके। इससे पूर्व कभी मैंने मॉस्कविच कार का टायर नहीं बदला था. पहली युद्ध बार मुझे ये कार्य करना था। (हँसी) योगी महाजन भी कार में श्रीमाताजी के साथ पिछली सीट पर 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-8.txt अंक : 5 & 6 -2007 6 चैतन्य लहरी (दफ्तरों) में बैठकर वोडका, और यदि वे अंग्रेज हैं तो शैरी या पोर्ट पीते हैं। तो ये मेरा पहला विचार था। लिया। वे सफलता की चाबी थे। तो मैने पहिया लगाया और हम चल पड़े। मैंने सूट पहना हुआ था। पुनः अपनी जैकेट पहनी, मेरे गए थे और कोहनियों तक ग्रीज़ से सने हुए थे। ये बाजू काले हो तब, मैंने श्रीमाताजी से कहा, श्रीमाताजी क्या आप ठीक हैं? उन्होंने अपने छोटे-छोटे चश्में पहन लिए थे, वे बोली, हाँ, मैं उनका अध्ययन कर रही हैँ, तब साठ टैंक दहाड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। अगस्त का महीना था। तो लेनिनग्रेडस्क्या मार्ग पर हम मध्य-मास्को की ओर जा रहे थे, अभी गोर्की मार्ग न आया था । अचानक दूरी पर हमें अस्थाई बैरिकों में सैनिक न बाद में हमें पता चला कि ये साठ टैंक विपल्व की सहायता करने के लिए थे, परन्तु सेना के कमाण्डरों ने इन टैंको को न भेजने का निर्णय लिया, ये दिखाई दिए। मैं कह उठा 'ओह, ये हमें नहीं शान्त खड़े होकर प्रतीक्षा करते रहे, ऐसा प्रतीत हुआ मानों वास्तव में ये गोर्बाचोफ के लिए हों। (Rastergoeva) जाना था, और श्रीमाताजी ने इसीलिए हमारा ये टायर पंक्चर हुआ था ताकि बड़ी धीमी, सहमी सी आवाज में कहा, 'बोडन, हम श्रीमाताजी इन टैंकों का अध्ययन कर सके। मैं सोचता हूँ कि इन टैंकों को यदि मास्को के भिन्न क्षेत्रों में तैनात किया गया होता तो इन्होंने विपल्व की सफलता में सहायता की होती। तो इन्हें छोड़ उठा 'निःसन्देह, श्रीमाताजी मैंने सोचा :- दिया गया, श्रीमाताजी की पावन दृष्टि, उनके पावन चित्त से ये निष्प्रभावित हो गए थे । निकलने देंगे और हमें तो दक्षिण में रास्त्रगोएवा ठीक तो रहेंगे न ? श्रीमाताजी जिन्होंने उस क्षण मेरा मध्य-हृदय-चक्र खोला था, मैं उन्हीं को बड़े जोर से पुनः विश्वस्त करने के लिए लगभग कह हे, क्षणभर रुको, यहाँ पर आदिशक्ति बैठी हैं, जन्हीं ने मुझे यह विशाल हृदय प्रदान किया है, उसमें बिल्कुल भय नहीं है, आदि आदि। अब वे मुझे किस माया में डाल रही हैं? अपने हृदय में मैंने कहा, 'मॉँ मुझे खेद (Sorry) है, आप ही तो. जो भी हो, तब मैंने महसूस किया कि श्रीमाताजी रूस की रक्षा कर रही हैं और मैं टायर की रक्षा कर रहा हूँ, हम सब अपने-अपने कार्य पर थे हर आदमी अपने कार्य पर था। तो मैं कार का पहिया लगा रहा था। मैंने सोचा कि कहीं चौरस सुराख परन्तु इन दोनों का आकार गोल था-सुराख और बोल्ट का। समझ पाना मेरे लिए असम्भव था, |ह । और जोर से मैं बोला, 'जी, श्रीमाताजी मैं सोचता हूँ कि हमें कुछ नहीं होगा। परन्तु, आप जानते हैं, वे तो लीला कर रही थीं, खेल कर रहीं मैं में गोल बोल्ट तो नहीं डाल रहा हूँ, थीं। वास्तव में वे लीला कर रही थी! वे पुनः बोलीं, पगला रहा था। योगी महाजन मेरी सहायता के लिए आये, उन्होंने दो छोटी गाइड पिनें देखीं जिन्हें मैं न देख पाया था । इन पिनों से पहिया चारों बोल्टों पर ठीक प्रकार से लग गया बाद में मुझे ' 'बोडन' बहुत पहली प्रतिक्रिया ये थी कि श्रीमाताजी नहीं जानती। और तब, 'बोडन, क्या तुम पागल हो? क्या विचार आ रहा है कि श्रीमाताजी नहीं जानती! तुम बिल्कुल ही धीमी आवाज में, 'बायें मुड़ो। मेरी पता चला कि विश्वयुद्ध के पश्चात 1947-48 में अंग्रेजी कारों में ऐसी ही प्रणाली थी। तो अन्ततः मैं से विचार निष्प्रभावित हो गया मैंने कहा, "जी, शान्त रहो। क्षणभर में यह सब हो गया, एक दम जान गया कि क्या बात थी। योगी ने जब ये बताया तो लगभग खड़े हो कर मैने उन्हें चूम ने कहा, 'यहाँ से दायें मुड़ो, और मैं दायें मुड़ श्रीमाताजी और बायें मुड गया। तब श्री माताजी 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-9.txt अंक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी गया। यहाँ अंधेरा था। हम वास्तव में, मैं सोचता हूँ किसी एक-ओर (One-way) मार्ग पर गलत तरफ से चले गए थे मैंने न तो कुछ पूछा और न कुछ देखा, एक-ओर-मार्ग पर चलता गया हम घरों, गुम्बदों के बीच आ गए थे (रूसी लोग बड़े-बड़े भवन समूहों के फ्लैटों में खास ही प्रकार से रहते हैं। ये भवन समूह सड़क से हट कर घास और है!" आश्चर्यचकित ऐलन कह उठे, "कल्पना करें, ऐसा लगता है मानों आप कोई उपन्यास पढ़ रहे हों, या स्वप्न देख रहें हैं। जिसमें रूस की रक्षा करने के लिए परमात्मा को छोटी सी वृद्ध महिला के रूप में मॉस्कविच (Moscvitch) कार में बिठा कर मॉस्को के मध्य से ले जाया जा रहा है। व्यक्ति सोच भी नहीं सकता कि ऐसा होना सम्भव गंदगी में बने होते हैं) हम न जानते थे कि खड्डे में गिरेंगे, किसी दीवार या चट्टान से टकराएंगे! मैं चले जा रहा था! माँ कह रहीं थीं- बायें चलो, दायें चलो' और हम दक्षिण की ओर बहने वाली नदी के दूसरी ओर वारस्वस्का एक्सप्रैस मार्ग पर पहुँच गए! मैं नहीं जानता कैसे, क्योंकि नगर का मध्य तो पूरी बोडन बोले, "यह एक अति अद्भुत अनुभव था।" इन्टरनैट विवरण (रूपान्तरित) (From Alan Wherry < shivalan@gmail.com >August 10, 2005) तरह से बन्द था!" (पृष्ठ 2 का शेष भाग) (परावाणी) सीधे हमारी मध्यमा (हृदय) को प्रभावित कर रही थी।" कहकर भाषण शुरु किया। उन्होंने कहा कि हम सभी लोग मिलकर प्रार्थना करें कि आज तो हम सब श्रीमाताजी के सम्मुख बैठकर उनका जन्मदिवस मना रहे हैं परन्तु भविष्य में हमारे बच्चों और नाती पोतों के सम्मुख भी अपने जन्मदिवस के अवसर पर श्रीमाताजी साक्षात् विराजमान हों। सभी उपस्थित लोगों ने प्रार्थना की विश्व का हर मानव परिवर्तित नहीं हो जाता कृपा करके तब तक पृथ्वी पर अपने साकार रूप को विराजमान रखें श्रीमाताजी की ओर से सर सी.पी. ने सभी सहजयोगियों से अनुरोध किया कि सहजयोग प्रचार-प्रसार कार्य की जिम्मेदारी अब वे अपने कन्धों पर ले लें और श्रीमाताजी के निश्छल पावन प्रेम को जन-जन में बाँटें। उन्होंने सभी से अनुरोध सी.पी. भी तालियाँ बजाए बिना न रह सके। ऐसा किया कि अब आप सहजयोग प्रचार -प्रसार करें प्रतीत होता था मानो वो श्रीमाताजी से कह रहे हों, और अपनी माँ को आराम करने दें। प्रस्थान से पूर्व सर सी.पी. ने एक बार फिर पुणे सामूहिकता विशेष रूप से श्री पुगलिया को इतना सुन्दर आयोजन करने के लिए धन्यवाद किया। पूरी सामूहिकता अपनी परम पावनी श्रीमाताजी के बाद " श्रीमाताजी जब तक सम्मुख नतमस्तक थी। ऐसे प्रतीत होता था मानो सर सी.पी. के मुख से स्वयं श्रीमाताजी बोल रही हों। आनन्दमग्न सहजयोगियों की माँग पर एक बार फिर 'माता का करम गाया गया। आनन्दमग्न हर कुण्डलिनी नाच उठी। आनन्द से झूमते हुए सर "देखो आपके जन्मदिवस पर आपके बच्चे कितने प्रसन्न है... उन्हें आशीर्वाद दो... .! "यद्यपि श्रीमाताजी मुख से कुछ नहीं बोले परन्तु चैतन्य-लहरियों के माध्यम से उनकी वैखरी जय श्रीमाताजी (इन्टरनैट विवरण) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-10.txt श्री कृष्ण पूजा गारलेट- मिलान आश्रम 6.8.1988 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन Krishna) इतना महत्वपूर्ण है कि विशुद्धि चक्र पर आज हम यहाँ श्री कृष्ण पूजा करने के लिए एकत्र हुए है। विशुद्धि चक्र पर श्री कृष्ण के आगमन के पहुँचकर हम पूर्ण हो जाते हैं क्योंकि जब सहस्रार महत्व को समझना हमारे लिए आवश्यक है। जैसे आप भली -भाँति जानते हैं, श्री ब्रह्मदेव एक या दो करने लगते हैं, अभी तक आप पूरी तरह से पूर्ण नहीं बार से अधिक अवतरित नहीं हुए। श्री गणेश भी होते यदि आप पूर्ण हो गए होते तो यह आपकी केवल एक ही बार भगवान ईसा-मसीह के रूप में विकास प्रक्रिया का अन्त होता. उस अवस्था पर पहुँच अवतरित हुए। परन्तु श्री विष्णु (विष्णु -तत्व) ने पृथ्वी जाने में यदि पूर्णता प्राप्त हो जाती तो सहजयोग की पर बहुत बार जन्म लिया। देवी भी पृथ्वी पर बहुत कोई आवश्यकता न होती। परन्तु वास्तव में इसका बार अवतरित हुईं। उन्हें बहुत बार मिलकर कार्य करना पड़ा और विष्णु तत्व के साथ मिलकर महालक्ष्मी-तत्व ने लोगों की उत्क्रान्ति के लिए कार्य किया अतः विष्णु तत्व आपकी उत्क्रान्ति के लिए है, मानव की विकास प्रक्रिया के लिए है। इसी आगमन (अवतरण) आपके लिए खुलता है तो आप चैतन्य लहरियाँ महसूस अर्थ ये है कि एक बार सहस्रार खुल जाने के बाद आपको वापिस अपने विशुद्धि चक्र पर आना पड़ता है अर्थात अपनी सामूहिकता के स्तर पर। विशुद्धि चक्र यदि ज्योतिर्मय नहीं हो तो आप चैतन्य लहरियाँ महसूस नहीं कर सकते जैसे कल आपने देखा कलाकारों ने के माध्यम से और महालक्ष्मी की शक्ति के माध्यम से एक अत्यन्त नए आयाम में बजाना आरम्भ कर दिया। यह इसलिए नहीं था कि उनकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। नि सन्देह कुण्डलिनी तो पहले से ही जागृत थी परन्तु. इसे वापिस विशुद्धि चक्र पर आना पड़ा। मैं यदि इसे विशुद्धि चक्र पर वापिस न ला पाती तो उनके (कलाकारों) हाथ इतनी तेजी से न चलते, कभी उन्हें श्री कृष्ण ले माधुर्य का एहसास न होता और न ही वे उस माधुर्य की अभिव्यक्ति कर पाते अतः जो भी आपकी अंगुलियों और हाथों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है उसमें माधुर्य सृजन करने की नई चेतना आ जाती है। आपकी कला में, संगीत में हाव-भाव में, आपके हाथ हर प्रकार से महत्वपूर्ण हैं। परन्तु विशुद्धि चक्र की भी बहुत बड़ी भूमिका है । जैसा आप जानते हैं, इसकी सोलह पंखुड़ियाँ हमारी हम अमीबा से मानव बने। हमारे लिए यह सब स्वतः घटित होता है, परन्तु विष्णुतत्व को विकसित करने के लिए श्री विष्णु को बहुत से अवतरण लेने पड़े। आप जानते हैं कि आरम्भ में श्री विष्णु मतस्य रूप में अवतरित हुए और भिन्न रूपों में अवतरित होकर श्री कृष्ण रूप में अवतरित हुए. जिन्हें पूर्णांवतार' माना जाता है। परन्तु हमें समझना होगा कि वे (श्री विष्णु) हमारे मध्य नाड़ीतन्त्र पर कार्य करते हैं, हमारे मध्य नाड़ीतन्त्र की रचना करते हैं। हमारी विकास प्रक्रिया के माध्यम से हमारा मध्य-नाड़ी-तन्त्र बनाया गया है और इसी मध्य-नाड़ी-तन्त्र ने हमें हमारी मानवीय चेतना प्रदान की है, नहीं तो हम पत्थर की तरह से होते। इस चेतना की रचना के माध्यम से, मुखाकृति, हमारे कान, नाक, ऑँखें और गर्दन की देखभाल करती हैं। इन सब अवयवों की देखभाल विशुद्धि चक्र करता है. परिणामस्वरूप आप महान अभिनेता बन सकते है, आपकी आँखें अत्यन्त पावन हो सकती हैं, आपकी त्वचा तेजोमय हो जाती है हमारे अन्दर एक के बाद एक चक्र बनाकर यह विष्णु तत्व हमें उस अवस्था तक ले आया है जहाँ हम समझ सकें कि हमें सत्य-साधना करनी है और सहजयोगी बनना है। अंतः यह कृष्ण-तत्व (Principle of Shri 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-11.txt अंक 5 & 6 चैतन्य लहरी 2007 9 - साक्षीभाव से आप इसे देखते हैं और बिल्कुल व्याकुल आपके कान परमेश्वरी सगीत सुन सकते हैं, और नाक आपकी गरिमा को दर्शाती है। इसी फ्रकार से आपके चेहरे की अभिव्यक्तियाँ परिवर्तित हो जाती हैं । आप यदि कठोर व्यक्ति हैं. उग्र-स्वभाव है. आपके चेहरे पर यदि कठोरता है, आपका चेहरा यदि हर नहीं होते। उस देखने, उस साक्षी अवस्था में अद्भुत शक्ति होती है। निर्विचारिता में जिस समस्या को आप देखते हैं उस समस्या का समाधान हो जाता है। आपको कोई भी समस्या हो, एक बार जब आप यह साक्षी अवस्था प्राप्त कर लेते हैं, यह तटस्थता समय भिखारियों की तरह से बना रहता है. हर समय यदि आप रोते-बिलखते रहते हैं, तो आपकी मुखाकृति अत्यन्त दयनीय दिखाई पड़ती है। सभी कुछ परिवर्तित हो जाता है और मध्य में आ जाता है. जहाँ आप सुन्दर प्राप्त कर लेते हैं अर्थात सागर के तट पर खड़े होकर आप लहरों के आवागमन को देखते हैं, तब आप जान जाते हैं कि समस्या का सामाधान किस प्रकार और दिव्य रूप से आकर्षक दिखाई देते है और आपकी करना है। मुखाकृति अत्यन्त मोहक हो जाती है। अत: आपकी साक्षी अवस्था का विकसित होना आवश्यक है, और कभी-कभी, मैंने देखा है. साक्षी अवस्था विकसित करने में लोगो को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। एक बार कुण्डलिनी का सहस्रार में से नीचे की ओर चैतन्य प्रवाहित करना, जो आपके चक्रों से प्रवाहित होकर भिन्न चक्रों का पोषण करे, आवश्यक है। विशुद्धि चक्र दाँतों और जिहवा की देखभाल भी विशुद्धि चक्र करता है, अतः आपके दाँतों के रोग भी ठीक हो जाते हैं.. आष. जैसे मैने आपको बताया, अपने जीवन में मैं कभी दाँतों के डॉक्टर के पास नही गई। तो आप समझ सकते हैं कि यदि आपका विशुद्धि चक्र ठीक है तो अब आपको डॉक्टर के पास नहीं जाना पर जब यह रुकती है तो वास्तव में आपको विक्षोभ की अवस्था में ले जाने का प्रयत्न करती है, और आप सोचने लगते है, "देखो मेरी पत्नी इतनी अच्छी थी, मुझे इतने आशीर्वाद प्राप्त थे और अब क्या हो गया है!" परन्तु यह वह समय है जब आपको तटस्थ हो जाना चाहिए अर्थात आपको साक्षी हो जाना चाहिए। यदि आप साक्षी हो जाएं तो सभी कुछ सुधर जाता है पड़ता । आपकी जिह्वा में भी सुधार होता है उदाहरण के रूप में कुछ लोग स्वभाव से व्यंग्यप्रिय (Sarcastic) होते हैं, वे कोई मीठी बात नहीं कर सकते, हर समय व्यंग्य करते हैं और व्यंग्यपूर्ण बातें कहते हैं। कुछ लोगों की भाषा बड़ी गाली-गुफ़्तार वाली होती है, कुछ लोग अत्यन्त भिखारियों जैसे होते हैं. हर समय भिखारियों की तरह से बात करते है, कुछ लोगों में गरिमा, माधुर्य और आत्मविश्वास नहीं होता कुछ लोग हकलाते हैं. उदाहरण के रूप में मान लो आप एक ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी स्थान पर कार्य कर रहा है. ज्योही वह कुछ मंच पर खड़े होकर भाषण नहीं दे सकते। विशुद्धि चक्र के सुधरते ही ये सब कमियाँ दूर हो जाती हैं। साक्षी बनता है तो उसका चित्त अन्दर की ओर चला जाता है और वह अपने अन्दर से बाहर की चीजों को यह केवल बाह्य है. विशुद्धि चक्र पर श्रीकृष्ण की जागृति के माध्यम से आपके अन्दर विशुद्धि चक्र सुधारने की यह बाह्य अभिव्यक्ति है। वास्तव में होता क्या है कि अपने अन्तस में आप साक्षी बन जाते है, साक्षी अर्थात परेशान करने वाली, कष्ट देने वाली हर देखता है। परिणाम स्वरूप आप जान जाते हैं कि कहा पर क्या कमी है और क्योंकि आपमें साक्षित्व की शक्ति है, उस शक्ति से आप अपनी समस्याओं का समाधान कर लेते हैं। परिस्थिति से लिप्त होने के स्थान पर यदि समस्या को आप अपने अन्दर देखने लगते हैं। 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-12.txt अंक : 5 & 6 -2007 10 चैतन्य लहरी वो वध कर देते थे और या वे बहुत मधुर थे, बीच की कोई बात नहीं है। लोगों के प्रति या तो मृदु होना है या फिर किसी को समाप्त कर देना है। अब आप वध करने का कार्य त्याग दीजिए। आपको तो केवल मधुर होना है। आप सबको परस्पर बहुत मधुर होना है विशेष रूप से सहजयोगियों को परस्पर एक दूसरे के प्रति बहुत ही मधुर होना है। दूसरों से व्यवहार करते समय भी यदि आप उनमें कोई कमी देखे तो भी आप उसे साक्षी भाव से देखना जानते है तो समस्याओं का समाधान अत्यन्त आसानी से हो जाता है। यही सर्वोत्तम अवस्था है जिसे आप "साक्षी स्वरूपत्व" कहते हैं। यह अवस्था आपको तब प्राप्त होती है जब कुण्डलिनी ऊपर आती है और योग स्थापित होता है और दिव्य लहरियाँ झरने लगती हैं और आपके विशुद्धि चक्र को समृद्ध बनाती हैं। श्री कृष्ण का नाम "कृष' शब्द से आया है मधुरतापूर्वक उन्हें बताएं कि यह अच्छी बात नहीं है, अब आप सहज योग में आ गए है, आपको इस प्रकार जिसका अर्थ है जोतना-हल चलाना, फसल बोने के लिए जुमीन में हल चलाना। उन्होंने ही हमारे लिए हल चलाने का कार्य किया है, अर्थात उन्होंने इस प्रकार से व्यवहार करना होगा। श्री कृष्ण के जीवन ने एक अन्य महत्वपूर्ण से हमारा सृजन किया है कि बीजारोपण के समय हम पूरी तरह से तैयार हो। परन्तु हम मानव अपने विशुद्धि चक्र को बहुत सी गलत चीजों से खराब कर लेते हैं। जैसे आपने देखा है, हम धूम्रपान करते हैं. नशे लेते हैं. तम्बाकू खाते हैं आदि-आदि और इनसे हमारा विशुद्धि चक्र बिगड़ जाता है। इससे भी ऊपर यदि आप ऐसे व्यक्ति हैं जो बिल्कुल नहीं बोलता या बहुत अधिक बोलता है या जो चीखता चिल्लाता है और अपना क्रोध दिखाता है, ऊँची आवाज में बोलता है, तो ऐसा व्यक्ति अपने विशुद्धि चक्र को खराब कर लेता है। भूमिका निभानी है वे श्रीराम के अवतरण के पश्चात् पृथ्वी पर अवतरिन हुए। श्रीराम भी श्री विष्णु के अवतार थे श्रीराम जब पृथ्वी पर अवतरित हुए तो लोग अत्यन्त अज्ञानी थे, उन्हें धर्म की कोई समझ ही न थी। राजा होने के नाते उन्होंने लोगों को धर्म सिखाना चाहा और इस कारण से वे अत्यन्त गम्भीर हो गए। तो उनका अवतरण एक अत्यन्त गम्भीर पिता सा था जो अत्यन्त गम्भीरता पूर्वक सभी प्रकार की उथल-पुथल को निभा रहा है और हितकारी राजा के मूर्तरूप का सृजन कर रहा है। परिणामस्वरूप जब उनका अवतरण समाप्त हुआ तो लोग अत्यन्त गम्भीर-प्रवृत्ति बन गए अतः पहली चीज ये है कि अपने विशद्धि चक्र का उपयोग करते समय आपको याद रखना है और धर्म में अत्यन्त गम्भीरता आ गई सभी प्रकार के कर्मकाण्ड आरम्भ हो गए, लोग अत्यन्त कट्टर हो कि इसका उपयोग मिठास (माधूर्य) के लिए होना चाहिए। किसी को यदि आप कुछ कहना चाहते हैं तो कोई मधुर या अच्छी बात कहने का प्रयत्न करें, ऐसा करने का अभ्यास करें। कुछ स्थानों पर मैने देखा है गए और उन्होंने कठोरता पूर्वक जीवन के आनन्द को समाप्त कर दिया। उस कठोरता से बहुत सी अन्य चीजे आरम्भ हो गई- ब्राह्मणवाद का आरम्भ। कि लोग इस प्रकार से बात करने के आदी होते हैं कि वे मधुरतापूर्वक बात कर ही नहीं सकते। उनके लिए ये अधर्म है, किसी से मधुरतापूर्वक बात करना। वो तो कैवल ये मानते हैं कि उन्हें इस प्रकार से बात करनी चाहिए कि जिससे अन्य लोगों को चोट पहुँचे। किसी जब लोगों ने ब्राह्मणवाद को जन्म सिद्ध अधिकार मान लिया तो भारत में ब्राह्मणवाद का आरम्भ हो गया, जबकि वास्तव में बाह्मण होना जन्म सिद्ध अधिकार नहीं है, व्यक्ति को ब्राह्मण बनना पड़ता है। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आप ब्राह्मण बन जाते हैं, को चोट पहुँचाना श्री कृष्ण के धर्म में नहीं है- या तो 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-13.txt अक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी 11 में आत्मा का निवास है। ये सत्य केवल श्री कृष्ण के समय पर ही स्थापित नहीं हुआ. श्री राम के समय में भी इसकी स्थापना हुई क्योंकि श्री राम स्वयं भी ब्राह्मण नहीं थे उन्होंने एक वाल्मीकि, एक निम्न जाति के मछुआरे से अपनी रामायण लिखवाई। आश्चर्य की बात है कि उन्होंने अब सहजयोग में हमने साबित कर दिया है कि आप चाहे जिस धर्म को मानने वाले हो, जिन विचारों या दर्शन का आप अनुसरण करते हों, चाहे जिसको मानते हों, आप सब आत्मसाक्षात्कारी बन लोग इस मछुआरे को रामायण लिखने को कहा जो ब्राह्मण भी नहीं था। उन्होंने उसे ब्राह्मण बनाया, विल्कुल वैसे ही जैसे आप लोग ब्राह्मण बने हैं, अर्थात ब्रह्म को जानने वाले ब्रह्म को जानने वाला व्यक्ति ही संच्चा सकते हैं। अतः कोई न तो उच्च है न निम्न। कुछ सोचते हैं कि यह मानना सर्वोत्तम है कि हमारे सिवाय सब गलत है। परन्तु ऐसा मानने वाले लोगों को सीधे नरक में जाना होगा क्योंकि वे सत्य तक नहीं पहुँचे है। सत्य ये है कि आपको आत्म-साक्षात्कारी बनना है। ब्राह्मण होता है, किसी ब्राह्मण के घर जन्म लेने काला नहीं। यदि आप आत्म-साक्षात्कारी नहीं हैं तो परमात्मा के समीप भी नहीं पहुँचे। आपको परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करना होगा स्वय ईसामसीह ने कहा था इसी कारण इन तथाकथित धार्मिक लोगों को देखकर कई बार लोग परेशान हो जाते हैं। ये यदि इतने विकृत है और सभी प्रकार के पाप कर सकते हैं. तो ब्राह्मण कैसे हो सकते हैं? अतः इस प्रकार के धर्मों या इस प्रकार की कट्टरताओं का अनुसरण करके आप सुधर नही सकते आप यदि ईसाई है तो ईसाईयो में एक चीज देखी जानी चाहिए कि उनकी दृष्टि आपको परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करना होगा। आपको पुनर्जन्म लेना होगा और जब आप ईसा. ईसा' कहकर मुझे पुकारेंगे तो मैं तुम्हें पहचानूगा भी नहीं ।' उन्होंने ये बात स्पष्ट कही. आपको चेतावनी दी। मोहम्मद साहब ने भी स्वयं कहा कि 'कयामा के समय आपके हाथ बोलेंगे।' अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में अपवित्र नहीं होनी चाहिए। अब मैं ये जानना चाहूगी कि कितने ईसाई पवित्र दृष्टि का दावा करते हैं। महिलाओं के प्रति यदि उनकी दृष्टि अपवित्र नहीं है तो अन्य चीजों के प्रति उनकी दृष्टि अपवित्र होगी। तो आप ये नहीं कह सकते कि ईसाई धर्म अपना कर आप वास्तव में ईसाई बन गए है। उन्होंने कहा "कयामा के समय तक आप वे सारे कर्मकाण्ड करेंगे जैसे. माला आदि-आदि। परन्तु कयामा आने पर जब आपको पुनर्जन्म प्राप्त हो जाएगा तब आपको यह सब नहीं करना पड़ेगा।" ये बात उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट कही है। परन्तु कयामा को खोजने का प्रयत्न कोई भी नहीं करता, वे तो केवल एक चीज इसी प्रकार से हम हिन्दुओं के बारे में भी कह सकते हैं। हिन्दूधर्म में श्री कृष्ण ने कहा है कि सभी के अन्दर आत्मा का निवास है। उन्होंने ये कभी नहीं कहा कि जन्म से 'जाति' निश्चित होती है। परन्तु हिन्दूधर्म में हम लोग विश्वास करते हैं कि हर व्यक्ति की अपनी जाति होती है तथा हर व्यक्ति भिन्न है। कुछ लोगों को निम्न मान कर व्यवहार किया जाता है और कुछ को में दोष खोजते है दूसरी चीज में दोष खोजते हैं और परस्पर युद्ध करते हैं। उनका बताया हुआ पुनर्जन्म का समय, जब आपके हाथ बोलें गे, सहजयोग में है। अतः आत्म-साक्षात्कार के पश्चात् आपको कोई कर्मकाण्ड नहीं करने। उनके अनुसार अब आप पीर की शिक्षा के उच्च मानकर। ऐसा करना श्री बन गए है। एक बार जब आप वली बन गए हैं तो कृष्ण बिल्कुल विपरीत है क्योंकि उन्होंने कहा था कि सभी आपको ये सब कर्मकाण्ड करने की कोई आवश्यकता 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-14.txt अंक : 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी 12 नहीं है क्योंकि आप धर्मातीत हो जाते हैं। भारतीय दर्शन में भी श्री कृष्ण ने कहा था कि आप धर्मातीत हो जाते हैं। आप धर्म से ऊपर उठ जाते हैं अर्थात धर्म अवतरणों के प्रयाण के पश्चात् लोगों ने कर्मकाण्ड आरम्भ कर दिए, अजीब-अजीब कर्मकाण्ड। जब श्रीकृष्ण ने प्रयाण किया तो लोग नहीं जानते थे कि अब क्या करें। क्योंकि उन्होंने कहा था, "अब कर्मकाण्डों अब बस होली खेलो. आपका अंग-प्रत्यग बन जाता है। आपको बाह्य धर्म नहीं अपनाने पड़ते क्योंकि ये सब बेकार हैं ये बात लती की आवश्यकता नही प्रसन्न रहो, आनन्द मनाओ, नाचो और गाओ।" उन्होंने यही कहा था। अब क्या करें जब उन्होंने ये कहा है? तो लोगों ने एक नई चीज़ शुरु कर दी, "क्यों न इसे रोमांचक बना दें?" किसी भी चीज़ को विकृत करना मानव अच्छी तरह से जानता है। इस मामले में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। तो लोगों ने श्रीकृष्ण को अत्यन्त रोमांचक व्यक्तित्व बना दिया, राधा से प्रेम लीला करते हुए। 'रा-धा', 'रा अर्थात शक्ति 'धा' अर्थात शक्ति को धारण करने स्पष्ट कही गई थी। श्री कृष्ण ने यह बात इतनी स्पष्ट कही जितनी कोई अन्य व्यक्ति कह सकता कि आपको अपने गुणों अत्यन्त-अत्यन्त स्पष्ट... से, धर्मों से ऊपर उठना है, अर्थात आपको ऐसा व्यक्ति बनना है जो अन्तर्जात रूप से धार्मिक हो, ऐसा व्यक्ति नहीं जो बाहर से ईसाई, हिन्दू या मुसलमान जैसा हो। नहीं। अन्दर से। अपने अन्दर आपको बनना है। अब परिणामस्वरूप आपने वो देखा है जो ने वाली। परन्तु लोग श्री कृष्ण को राधा से रोमांस करते हुए दिखाते है...... वे साक्षात् महालक्ष्मी थी। ये लोग महालक्ष्मी से श्रीकृष्ण का सम्बन्ध इस प्रकार दर्शाते हैं मानो वो पति-पत्नी हों! बहुत से कवि उनका वर्णन पति-पत्नी के रूप में करने लगे तथा अन्य सभी प्रकार की मूर्खताएँ। श्री कृष्ण कहा था कि एक बार आप अन्दर से बन जाएं तो मुझे आपको ये नहीं बताना पड़ेगा कि 'शराब मत पिओ", "ऐसा मत करो, 'वैसा मत करो', कुछ नहीं। आप ऐसा करते ही नहीं, बस, ऐसा करते ही नहीं और आप अच्छी तरह से समझ जाते है कि ये कार्य नहीं करना चाहिए, वो कार्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वरी सम्बन्धों में पति-पत्नी जैसी कोई चीजू नहीं। एक मादा शक्ति है और दूसरी गतिज (Kinetic) (नर) शक्ति। जिस प्रकार के सम्बन्ध मनुष्य इन सभी मूर्खतापूर्ण धार्मिक कर्मकाण्डों पर नियन्त्रण करने के लिए श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। बहुत महत्वपूर्ण अवतरण था, परन्तु मैं नही जानती कि कितने लोग इस बात को समझते है। वो ये दर्शाने के लिए आए थे कि यह सब लीला है. सारा परमात्मा ये दर्शाने का प्रयत्न करता है वैसा कोई सम्बन्ध नहीं है। मानव में परमेश्वरी अवतरणों को अपने स्तर तक लाने की आदत है। जैसा आपने देखा, "यूनानी लोग सबसे आगे थे जो महान अवतरणों को अपने स्तर पर का खेल है। गम्भीर होने की क्या बात है? कर्मकाण्डी बनने की क्या बात है? परमात्मा को आप कर्मकाण्डों खींच लाए। इसी प्रकार से जब वे श्री कृष्ण के साथ बहुत अधिक न कर सके तो उन्होंने सोचा ठीक है इन्हें रोमांटिक " व्यक्तित्व बना दो, ये हमारे लिए उपयुक्त में नहीं बाँध सकते, इसीलिए पृथ्वी पर उनका अवतरण हुआ, आपको यह बताने के लिए कि स्वयं को इन मूर्खतापूर्ण कर्मकाण्डों में नही जकड़ना चाहिए उनके यही उपदेश थे। बहुत वर्ष पूर्व, ये उपदेश उन्होंने होगा।" बहुत से दुष्ट लोगों को ये बात बहुत पसन्द आई। हमारे यहाँ Wanhabin Laknow हुए जिनकी 6000 वर्ष पूर्व दिए थे। परन्तु आज भी यदि आप देखें तो हर धर्म में बहुत से कर्मकाणरड चले जा रहे है । 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-15.txt चैतन्य लहरी 5& 6 -2007 13 कि यदि मैं योगेश्वर हूँ तो तुम नीचे आ जाओ ।"ठीक है, जाकर नदी से कहो कि यदि सन्त ने कुछ नहीं खाया, और यदि वह पूर्णतः निर्लिप्त हैं तो हे नदी, तुम नीचे आ जाओ।" वो हैरान हो गई क्योंकि उन्होंने अभी सन्त को सभी कुछ खिलाया था. सन्त ने सभी 365 पत्नियाँ थीं और वे कभी श्री की तरह वस्त्र कृष्ण धारण करते और कभी राधा की तरह और नृत्य करते। वे कहते. "अब मैं श्रीकृष्ण बन गया हूँ। श्रीकृष्ण के रूप में बॉसुरी बजाते हुए, अन्य सभी को अपनी गोपियाँ आदि, और सभी प्रकार की मूर्खतापूर्ण बातें कहते हुए बहुत से गुरु आए। अब भी बहुत से समूह इसी प्रकार से कार्य कर रहे हैं, ब्रह्मकुमारियाँ आदि। कुछ खा लिया था। वो नदी पर गई और कहा. "हे नदी. यदि सन्त ने कभी कुछ नहीं खाया, भोजन के विषय में यदि वह पूर्णतः निर्लिप्त है, उसने यदि खाना छुआ जब श्री कृष्ण केवल एक है तो बाकी सब गोपियाँ और गोप है वो विवाह नहीं करते और सभी प्रकार की मूर्खताएं । विवाह न करना पूर्णतः बेतुकापन और विकृति है जो श्रीकृष्ण को भी बदनाम करती है। तक नहीं तो तुम शान्त हो जाओ।" और नदी का स्तर नीचे चला गया। वे बहुत हैरान हुई "ये कैसे हो श्रीकृष्ण योगेश्वर थे। वे योगेश्वर थे। वे इतने निर्लिप्त थे कि, एक बार उनकी पत्नियों, जो उनकी शक्तियोँ भी थीं, ने कहा कि हम "नदी पार किसी स्थिति में था वह खाने में लिप्त नहीं था, वह निर्लिप्त सन्त के पास जाना चाहती हैं। उन्होंने कहा, "ठीक हैं, था इस बात पर उन्हें बहुत हैरानी हुई। मानवीय जाती क्यों नही?" उन्होंने उत्तर दिया, " नदी चढ़ी हुई दृष्टिकोण से यह असत्य लगता है, परन्तु ऐसा है है, हम नहीं जानती कि नदी को पार कैसे करें? श्री नहीं। ऐसा नहीं है, ये सत्य है। वे योगेश्वर हैं और कृष्ण ने कहा, ठीक है, जाकर नदी से कहो कि तुम नदी पार फला सन्त के दर्शन करना चाहती हो और सकता है कि सभी कुछ खाकर भी सन्त ने कुछ नहीं खाया!" इसका अर्थ ये है कि वह 'अस्वधा की अत्यन्त निर्लिप्त है। तो लोग दिव्यत्व को नहीं समझते और सोचते श्रीकृष्ण ने कहा है कि तुम शान्त हो जाओ। यदि श्रीकृष्ण योगेश्वर है, ब्रह्मचारी हैं तो तुम नीचे आ हैं कि, "सोलह हजार पल्नियों और पाँच पटरानियों वाला व्यक्ति किस प्रकार ब्रह्मचारी हो सकता है?" श्री जाओ।" कृष्ण के लिए यह सम्भव था क्योंकि वे योगेश्वर थे। इसी प्रकार से आप सबको भी योगेश्वर बनना होगा। वे नदी पर गई और उससे कहा, "यदि श्रीकृष्ण की कोई पत्नी नहीं है और यदि वे योगेश्वर हैं तो कृपा करके अपना स्तर कम कर लो।" और नदी का स्तर घट गया। वो सब बहुत हैरान हुई कि वे हमारे पति हैं फिर भी वे योगेश्वर हैं, वे इतने निर्लिप्त हैं!" उन्होंने नदी पार की, जाकर सन्त की पूजा की। सन्त आप विवाहित हैं. आपके बच्चे हैं मुझे खुशी है कि आप विवाहित हैं क्योंकि विवाह करना शुभ होता है। आपको अपने परिवार से लिप्त नहीं होना... परन्तु मेरे बच्चे, मेरा परिवार। मैंने देखा है कि सहजयोग में आकर बहुत से लोग विवाह करते हैं और खो जाते हैं। क्योंकि उनके लिए.. अब हो गया विवाह अब अपने परिवार का आनन्द ले रहा हूँ, उसकी ने कहा,"अब तुम वापिस जाओं।" मैं जब वे वापिस नदी पर आई तो नदी उफ़ान पर थी। उन्होंने जाकर सन्त से पूछा "हम कैसे वापिस जाएं," उसने कहा, "तुम आई कैसे थीं," उन्होंने बताया," श्रीकृष्ण ने कहा था कि जाकर नदी से पूछो देखभाल कर रहा हूँ। पूरा ब्रह्माण्ड हमारा परिवार है- केवल 'मेरी पत्नी' और 'मेरे बच्चे ही नहीं बल्कि पूरा ब्रह्माण्ड आपका परिवार है। आप सार्वभौमिक 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-16.txt - 2007 14 अक : 5 & 6 चैतन्य लहरी मानव (Universal Being) हैं। हमेशा उन्होंने यही शिक्षा दी कि आप सार्वभौमिक मानव हैं और आपको पूर्ण महत्व नहीं पता चलता, तब आप ये भी नहीं समझ पाते कि आपमें क्या खराबी आ गई है। का अग-प्रत्यग बनना होगा। जब आप पूर्ण के आपने यदि, "मुझे खेद है" कहना ही है तो अंग-प्रत्यंग बन जाएंगे तो लघु-ब्रह्माण्ड (Microcosm) परमात्मा के सम्मुख कहे और उसके बाद कभी न कहें कि 'मुझे खेद है, मुझे खेद है। सामना करें। कोई वृहत ब्रह्माण्ड (Macrocosm) जाएगा। अपराध यदि हुआ है तो उसका सामना करें। ये बात गलत थी, ठीक है... आगे ऐसा नहीं होगा। न तो इससे बहस करें और न ही इसे दोहराते रहें। बस ये मात्र प्रवचन नहीं है, इसे आपके अन्दर घटित होना है आपको अपनी सामूहिक चेतना विकसित करनी होगी। ये श्रीकृष्ण का उपहार है क्योंकि मस्तिष्क के स्तर पर वे विराट बन जाते हैं। तो अब इसका सामना करें और कहें कि ये कार्य गलत था और यह गलत कार्य में पुनः नहीं करूगा, समाप्त। हमारे अन्दर तीन व्यक्तित्व (Three Identities) है हृदय पर शिव हैं, मस्तिष्क में श्री कृष्ण हैं, विराट रूप में और जिगर में ब्रह्मदेव है। तो हमारे अन्दर तीन देव क्योंकि आखिरकार अब आप 'सन्त' बन गए हैं अब आप 'वली' बन गए है, आप 'आत्मसाक्षात्कारी' हो गए हैं, "आत्मज हो गए हैं। आपको ब्रह्मचैतन्य प्राप्त हो गया है। आपने देखा है कि आपके सिरों के ऊपर हैं और पेट में, जिसे आप भवसागर कहते है, पूरा गुरु तत्व है जिसमें श्री आदिनाथ, मोहम्मद साहब से लेकर शिरडी साईनाथ तक के सभी आदि गुरु विराजते है । प्रकाश था, आपने इसका प्रमाण देखा है। ये सब गुरुतत्व है जिसकी हमने पिछली बार, Andorra अब मुझे आपकों दूसरा प्रमाण पत्र नहीं देना। बेहतर होगा कि आप अपनी अवस्था के प्रति जागृत में पूजा की थीं। हो जाएं, जैसा श्रीकृष्ण ने कहा था। आपको आत्मचेतन तो जिस प्रकार ये परस्पर सम्बन्धित हैं, जिस प्रकार आपको साक्षी अवस्था तक लाने के लिए इन्होंने कार्य किया है वह महत्वपूर्ण है । होना होगा। पहले आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना और फिर अपनी स्थिति के प्रति चेतन होना। तब आप हैरान होंगे कि किस प्रकार आपमें यथोचित चित्त और अब आपका विशुद्धि चक्र सुधरना आवश्यक है। सर्वप्रथम-कल दोषभाव बाधा इतनी अधिक थी कि इसे निकाल पाना असम्भव था। दोषभाव की कोई बात ही नहीं है। यह तो एक फैशन है, मात्र एक यथोचित सूझ-बूझ विकसित होती है। ज्यों ही आप जान जाते हैं कि आपको साक्षी अवस्था प्राप्त हो गई है तो ऐसा करना बहुत ही सुगम है। अत: कृपया स्वयं को साक्षी बना लें। किसी चीज को देखते ही निर्विचार चेतना में चले जाएं। ये आपका किला है। विचार न करें, चीज़ के अन्दर के सौन्दर्य को देखें। अपने अन्दर उतारते हुए, केवल देखें कि किस प्रकार ये पेड़ शान्तिपूर्वक खड़े होकर आप सबको देख रहे है। बिल्कुल निश्चल होकर, कोई भी हिल-डुल नहीं रहा है। वो अपना एक पत्ता भी नहीं हिलने देते... फैशन- 'मुझे खेद है (I am Sorry)। सुबह से शाम तक मुझे खेद है, मुझे खेद है! आपको किस बात का खेद है? मानव होने का या सहजयोगी होने का? अतः व्यक्ति को अपने प्रति अत्यन्त प्रसन्न-चित्त होना चाहिए, "हर समय मुझे खेद है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था।" हर समय दोषभावग्रस्त रहने से आपकी बाई विशुद्धि बिगड़ती है बाई विशुद्धि के बिगड़ने से आपका कृष्णतत्व चला जाता है। तब आपको सामूहिकता का आप भी ऐसा ही करें। जब तक शीतल वायु बहने नहीं लगती, जबतक माँ (श्रीमाताजी) शीतल 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-17.txt अंक : 5 & 6 चैतन्य लहरी -2007 15 धारणा करना आवश्यक है, अन्यथा कुण्डलिनी नीचे आ जाएगी और आप सारी प्रतिभाएं खो देंगे। ये सत्य वायु प्रवाहित नहीं करतीं, तब तक हमें शान्त रहकर देखना है। इन पर्वतों को देखें किस प्रकार ये निरन्तर हर चीज़ को देख रहे हैं और आनन्द एवं सौन्दर्य प्रसारित कर रहे हैं । इसी प्रकार से हमें भी साक्षी है जो बताया जाना आवश्यक है और आपने देखा है हैं। कि लोग किस प्रकार परिवर्तित हुए बनना हैं। बहुत अधिक बोलने की हमें आवश्यकता नहीं है और न ही बिल्कुल चुप रहने की है। मध्य में रहते हुए हमें चाहिए कि साक्षी रूप से लीला' मानकर परन्तु कभी-कभी यह स्थिति बहुत अस्थाई हो सकती है और यदि लोग ठीक प्रकार से ध्यान नहीं करते तो कुण्डलिनी नीचे जा सकती है। साक्षी अवस्था प्राप्त करने के लिए मैं आप सबको शुभ कामनाएं देती हूँ। साक्षी अवस्था में हम किसी भी प्रकार के अटपटे ढंग से स्वयं को अभिव्यक्त नही कर सकते परन्तु सब कुछ देखें। इसी कारण से वे 'लीलाधर' कहलाए अर्थात वह व्यक्ति जो लोगों की लीला को आश्रय देता है। अपनी अभिव्यक्ति अपने अन्दर स्वयं को देखते यह न तो आपको पागल बनाता है और न ही हुए हास्यास्पद, ये तो आपको आनन्दित करता है। श्रीकृष्ण का विष्णुतत्व ही आनन्द प्रदायक है। मुझे आशा है, कि भविष्य में हम अपने विष्णुतत्व का वैसे ही आनन्द करते हैं। क्योंकि हमीं ने सारी समस्याओं की सृष्टि की है और केवल हम ही स्वयं को स्वयं से अलग करके इन समस्याओं को देख सकते है और इनका समाधान कर सकते हैं। परमात्मा की कृपा से, मैं जानती हूँ, आप सब बहुत उन्नत होंगे और यह अवस्था १ लेगे जैसा ध्यान-धारणा करके आपने पहले भी लिया था, क्योंकि जब हम ध्यान धारणा करते हैं तो निर्विचार समाधि में जाते हैं और जब निर्विचार अवस्था में होते हैं केवल तभी उन्नत होते हैं, प्राप्त कर पाएंगे। हर स्थिति में चाहे ये वरदान हो, अन्यथा उन्नत नहीं हो सकते। जो चाहे करने का प्रयत्न करें, उन्नत नहीं हो सकते। ध्यान धारणा किए बिना हम निर्विचार चेतना में नहीं जा सकते। उन्नति हो या उथल-पुथल की स्थिति हो, आपको आगे बढ़ने के योग्य होना चाहिए। यात्रायोग्य समुद्री जहाज़ वही होता है जो न केवल सुगम यात्राएं कर सकता है परन्तु उथल-पुथल और तूफानों का भी जो लोग जीवन में किसी भी पेशे में, किसी भी आयाम में उन्नति करना चाहते हैं या जो महान सामना कर सकता है। कलाकार, महान वैज्ञानिक आदि बनना चाहते है उनके लिए ध्यान धारणा आवश्यक है। सहजयोग में ध्यान परमात्मा आपको धन्य करें। (रूपान्तरित) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-18.txt हँसा चक्र पूजा Green Ashachu, परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन 10-7-88 आज हमने जर्मनी में हँसा चक्र पूजा करने का निर्णय लिया है। हँसा चक्र पर हमने कभी अधिक ध्यान नहीं दिया है मैं सोचती हैँ कि पाश्चात्य विवेकबुद्धि को गहनतापूर्वक समझना है और यह भी कि किस प्रकार सद्-सद् विवेकबुद्धि विकसित की जाए परन्तु इससे पूर्व कि हम वहाँ तक जाएं, आइए दे खें कि किस प्रकार वह विवे कबु द्धि हमारी अभिव्यक्तियों का बाहर प्रकटीकरण करती है । परन्तु विश्व के लिए, भारत या पूर्वी विश्व की अपेक्षा, यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसका कारण ये है कि हँसा चक्र पर ईड़ा और पिंगला के कुछ भाग की अभिव्यक्ति होती है इसका अर्थ ये हुआ कि ईड़ा और पिंगला की अभिव्यक्ति हँसा चक्र के माध्यम से होती है । तो हँसा पश्चिम के हम सभी लोग हमेशा बाहर अपनी अभिव्यक्ति करते हैं। आप कैसे दिखाई देते हैं ये महत्वपूर्ण है। आप कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं. क्या देखते हैं, ये सब भी महत्वपूर्ण है। ये महत्वपूर्ण है कि चक्र वह चक्र है जो यद्यपि आज्ञा चक्र तक नही गया फिर भी जिसने ईड़ा और पिंगला के कुछ सूत्र या कुछ भाग थामे हुए हैं और ये सूत्र नाक की ओर प्रवाहित होने लगते हैं, आपकी आँखों से, मुँह से और मस्तक के माध्यम से इनकी अभिव्यक्ति होने लगती है। आप जानते हैं कि विशुद्धि चक्र की सोलह पंखुड़ियाँ हैं जो आँख, नाक, जिह्वा, गला और दाँतों की देखभाल करती हैं परन्तु इनकी अभिव्यक्ति का कार्य हँसा चक्र के माध्यम से होता है, इन सबकी। आपका रंगरूप (Appearance) अच्छा होना चाहिए। लोग इस मामले में बहुत ही सावधान हैं, वे अपना रंगरूप सुधारने पर बहुत समय खर्च करते है। ये कम से कम है। फिर उनका एक तरीका है जिसे आप मीडिया कहते हैं। देश मीडिया के माध्यम से बोलता है और मीडिया को प्रशिक्षित होना आवश्यक है। हर देश की अपनी विशेषता है, एक से बढ़कर एक। जब आप उन सबको देखते हैं तो पता चलता है कि उनमें अतः पश्चिमी मस्तिष्क के लिए हँसा चक्र को समझ सद्सद् विवेकबुद्धि का पूर्ण अभाव है। हमारी वाणी में, हमारी साहित्यिक अभिव्यक्ति में, काव्याभिव्यक्ति लेना अत्यन्त-अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संस्कृत में इसके विषय में एक सुन्दर दोहा है. में, दूसरों के प्रति हमारे सम्बन्धों की अभिव्यक्ति में, किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति में सद्-सद् विवेक की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि सद्-सद् विवेक अन्त स्थित गहनज्ञान है या विवेक है। हँस: श्वेतः बकः श्वेतः को मेदो हँस: बकः, नीर क्षीर विवेकेतु. हँस: हँस: बकः बकः। पश्चिम के लोग यदि इतने बाह्यमुखी न होते, तो मैं सोचती हूँ, वो कहीं बेहतर होते। मान लो इंग्लैंण्ड के लोग यदि पक (Punk) न बने तो बाकी के लोग उनपर हँसेंगे। वो सोचेंगे कि देखो इस व्यक्ति के पास पक बनने के लिए पैसा नहीं है। तो एक प्रकार अर्थात हँस और बगुला दोनों श्वेत होते हैं। परन्तु दोनों में क्या अन्तर है। दूध में पानी मिलाकर यदि हँस के सम्मुख रख दें तो हँस इसमें से केवल दूध पी लेगा और पानी को छोड़ देगा। हँस दूध और पानी के भेद को समझता है, जबकि बगुला ऐसा नहीं कर सकता। यह समझना सहजयोगियों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि अपने अन्दर सद्-सद् का फैशन समाज में प्रचलित हो जाता है जिसमें विवेक का पूर्ण अभाव होता है और जो अत्यन्त अपमानजनक होता है। गहन परम्परावादी तथा जीवन 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-19.txt अंक : 5 & 6 -2007 17 चैतन्य लहरी की यथोचित सूझ-बूझ वाले देशों में फैशन क्रियान्वित के मूर्खतापूर्ण विचारों में फँस सकते है परन्तु नहीं होते नि:सन्देह जो देश बहुत प्राचीन हैं, जो तो फ्रॉयड को ईसा-मसीह से कहीं अधिक मानते परम्परानुसार गलतियों और प्रयासों द्वारा स्वयं को सुधारने के प्रयत्न में लगे रहे हैं, उनमें कहीं बेहतर विवेक होता तो वे बच जाते। यह पारम्परिक विवेक विवेक विकसित हुआ है उनमें उन देशों के मुकाबले में कहीं बेहतर सूझ-बूझ विकसित हुई है जिन्हें अग्निपरीक्षा (Ordeals) में से नहीं गुजरना पड़ा, जिन्होंने अनुशासन को न तो क्रियान्वित किया और न ही जो अनुशासन में रहे, जिनमें सद्-सद् होना चाहिए। परन्तु यह बिल्कुल गलत धारणा है। विवेकबुद्धि का अभाव है। यही कारण है कि बहुत लोग गहन इच्छा के होने के बावजूद भी साधना में भटक गए हैं यदि उनमें सद्-सद्-विवेकबुद्धि होती बुरी ये बात देखी जानी चाहिए। प्रतिबन्धनों के विषय तो वे न भटकते, गलत स्थानों पर न जाते, परन्तु लोग क्योंकि विवेक का पूर्ण अभाव है। उनमें यदि पारम्परिक ईड़ा नाड़ी के माध्यम से आता है। परन्तु लोग इसे अन्धनग्रस्त होना मानते है और कहते हैं कि बन्धन ग्रस्त होना बहुत बुरी बात है लोगों को बन्धन ग्रस्त नहीं होना चाहिए, बन्धन मुक्त 1 से इस धारणा में भी विवेक बिल्कुल नहीं है कौनसी प्रतिबन्धता (Conditioning) अच्छी है और कौन सी में सद्-सद्-विवेक के अभाव के कारण, हम पूर्वजों से मिले अनुभवों तथा परम्पराओं को भी त्यागते चले जा रहे हैं। इतिहास को भी त्यागा जा रहा है और हम कहते हैं, "ओह, नहीं हम इससे ऊपर हैं।" हम स्वयं सद्-सद् विवेक का अभाव था। तो बात सद्-सद् विवेक पर आ जाती है कि किस प्रकार ईड़ा नाड़ी और पिंगला नाड़ी का उपयोग भले-बुरे में भेद करने के लिए किया जाए। ईड़ा नाड़ी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें विवेक केवल पारम्परिक सूझ-बूझ के माध्यम से ही आता है। श्री गणेश के स्थान (मूलाधार) से ईड़ा को स्वतन्त्र मानते हैं। जैसे कल, मैं हैरान थी, हवाई जहाज़ में किसी ने मुझे बताया कि "जब मैं निर्वस्त्र होता हूँ तो मुझे लगता है मैं अत्यन्त स्वतन्त्र हूँ। नाड़ी का आरम्भ होता है। कहने से अभिप्राय ये है कि यदि वस्त्र आपकी स्वतन्त्रता का हुनन करते हैं तो वास्तविक जेलों का क्या होगा। वे आपके लिए क्यां करेंगी? परन्तु इस प्रकार के अटपटे विचार लोगों के मस्तिष्क में आते हैं और वो सोचते हैं कि हम अपनी सारी मूर्खता को तर्कसंगत ठहरा सकते हैं क्योंकि ऐसा करने की स्वतन्त्रता हमें है। बुद्धि विवेक नहीं हो सकती। जहाँ तक प्रतिबन्धनों (conditioning) का सम्बन्ध है, बुद्धि विवेक नहीं हो सकती। सहजयोगी के लिए यह समझ यदि हमें यह विवेक उन्नत करना है तो मूलाधार पर पावनता और मंगलमयता का पोषण, सबसे बड़ा आश्रय है। हम हमेशा उन चीजों को अपनाते हैं जो हमारी उत्क्रान्ति के लिए बाधक तो हैं ही, वे हमें. केवल हमें ही नहीं पूरे देश को नष्ट भी कर सकती है। सद्-सद् विवेक के अभाव में हमें ऐसे लोग अच्छे लगते है जो विध्वंसक हैं। विवेक का अर्थ अच्छी, हितैषी, सामूहिकता के लिए हितकर और उत्क्रान्ति में सहायक चीजों को चुनना है। इसके विपरीत विवेकहीन लोग फ्रॉयड जैसे गलत लोगों के जाल में फँस जाते हैं । कहने से अभिप्राय ये है कि कोई भारतीय तो फ्रॉयड पर विश्वास कर ही नहीं सकता. कोई इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि आप इस प्रकार लेना आवश्यक है कि विवेक किस प्रकार विकसित करना है। कल मैने पैरिस की महिलाओं को, या मैं कहूंगी कि फ्राँस की महिलाओं के विवेक विषय पर बहुत सुन्दर भाषण दिया था। अन्तर्बोध (Intution) अ्ट 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-20.txt अंक : 5 & 6 -2007 18 चैतन्य लहरी हैं। उन लोगों की बातें न सुने जो सहजयोगी नहीं है। ईडा-नाड़ी का विवेक है। ध्यान-शक्तयों के माध्यम यह "हूँ भाग है, मैं हूँ। अह नहीं, हूँ। ये समझने के लिए कि मैं योगी हूँ, ऐसी बहुत सी बातें जानता हूँ जो प्रायः लोग नही जानते, इसलिए उनसे मुझे कुछ नहीं लेना-देना। मुझे उनसे कोई सबक नहीं लेना। वो मुझे कुछ सिखाने के लिए नहीं हैं, जितना सूक्ष्मज्ञान उन्हें है उससे कहीं अधिक मुझे है।स्वयं' के प्रति चेतन होना', 'हॅँ है मैं कहूँगी कि यह दाई ओर से आता है। 'हूँ' दाई और का विवेक है। और 'सा' बाई ओर का विवेक है। 'सा' अर्थात 'तुम' अर्थात आप वही हैं। जहाँ तक आपका सम्बन्ध है आप जानते हैं कि से यदि आप अपने अन्दर वह विवेक विकसित कर लें तो आपमें अन्तर्बोध विकसित हो जाता है और अन्तर्बोध हमारे चहुँ ओर विद्यमान गणों की सहायता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। आप यदि गणों से सहायता लेना सीख लें तो अपनी बुद्धि के अधिक उपयोग के बिना ही आप अन्तर्बोधी (Intutive) हो सकते हैं और सही चीजें बता सकते है पूरा सहजयोग या मैं कहूँगी कि कम से कम इसका 50 प्रतिशत अन्तर्बोध पर आधारित है। उसके लिए आपको श्री गणेश का यथोचित संवेदन विकसित करना होगा, श्री गणेश को उनके सही अर्थो 'तुम' कौन है। परन्तु अन्य लोगों के लिए 'तुम' दिव्य है। केवल आप ही हैं, ये बाईं ओर से आता है. यह में समझना होगा। वही से सब आरम्भ होता है, क्योंकि वे गणपति हैं, वही सब गणों के स्वामी हैं। तो गण अन्तर्बोध के साथ जीवित रहते हैं। उदाहरण के रूप "सा' है। तो हँसा शब्द दो प्रकार के विवेकों से बना है में मुझे कहीं जाना होता है, परन्तु मैं कह देती हूँ, नहीं, कल मैं वहाँ नहीं जा पाऊंगी। किसी भी कारण मैं वहाँ नहीं जाती। लोग मुझसे पूछते है श्रीमाताजी आप कैसे जानते हैं? मैं जानती हूँ क्योंकि गण हैं और जो वो बताते हैं वो सत्य है, वो सभी बारे में मैं जो कहती हैँ वह सत्य साबित होता है। लोग कि 'मैं हूँ, 'हॅँ को कहाँ देखना है और 'सा' को कहाँ देखना है। इन दो संतुलनों पर, जैसा सुन्दरता पूर्वक दिखाया गया है, सूर्य और चाँद, क्रॉस इसका मध्य है जो आपको सन्तुलन प्रदान करता है, जो आपको धर्म कुछ जानते हैं। किसी के प्रदान करता है। किस प्रकार चीज़ें परस्पर जुड़ी हुईं मुझसे पूछते हैं, 'आपने इसके विषय में कैसे जाना?' अपने अन्तर्बोध से मैंने जान लिया। जैसे मैंने यदि है, एक के बाद एक, तहों के बाद तहे। आप देख है! सकते हैं कि धर्म किस प्रकार विवेक से जुड़ा हुआ कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अचानक किसी प्रकार के कर्मकाण्ड में फँस जाते हैं! उदाहरण के रूप हवाई-जहाज पकड़ना हो तो अपने अन्तर्बोध से मैं जान जाती हैँ कि क्या होने वाला है। श्री गणेश पूजा द्वारा यह गुणं विकसित होता है। अतः कल्पना करे कि में, मैंने देखा है, कुछ सहजयोगी पूजा के लिए आते है और पागलों की तरह से बन्धन देते रहते हैं। रास्ते पर चलते हुए वे बन्धन देते हैं, जहाँ कहीं भी वे जाते हैं पागलों की तरह से बन्धन देते हैं। ये मात्र प्रतिबन्धता श्री गणेश हँसा चक्र के एक भाग को भी नियन्त्रित करते हैं। जब हम कहते हैं हूँ और 'सा'. तो ये दोनों वास्तव में आज्ञा के बीज मन्त्र है। परन्तु जब आज्ञा पकड़ती है तो हँसा चक्र का कार्य आरम्भ हो जाता है। (Conditioning) है, ये विवेक नहीं है, ये सहजयोग नहीं हैं ये देखा जाना चाहिए कि बन्धन देना चाहिए यही कारण है कि आज्ञा के मूल में हँसा चक्र है। है अर्थात 'मैं हूँ'। आपमें यदि विवेक है तो आप फैशनों में नहीं फँसेंगे मूर्खतापूर्ण धारणाओं पर आपको हँसी या नहीं? श्रीमाताजी के साक्षात् में तो बन्धन होता ही है। स्वयं को बन्धन देने की क्या आवश्यकता है? आएगी। आपका अपना व्यक्तित्व है। आप सहजयोगी परन्तु मैं जब बोल रही होती हूँ तो लोग बन्धन दे रहे 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-21.txt चैतन्य लहरी अक : 5 & 6 - 2007 19 धर्मपरायणता से गौरवान्वित करते हैं। जैसे आप ईसा- मसीह का उदाहरण ले सकते हैं। ईसा-मसीह में ये विवेक था। जब मेरी मेगडेलिन नामक वेश्या को पत्थर होते हैं, अपनी कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं! मैं सोचती हूँ ये सब पागल लोग हैं। इसी प्रकार से कुछ और लोग हैं। कल मैंने सुना कि सभी आश्रमों में एक ही मारे जा रहे थे, यद्यपि उनका वेश्या से कुछ लेना देना प्रकार के संगीत का रिकार्ड बजाया जाता है क्योंकि नहीं था, कोई लेना-देना नहीं था, कोई सम्बन्ध नहीं था फिर भी अपने विवेक द्वारा वे देख पाए कि उसे पत्थर मारने का इन लोगों को कोई अधिकार नहीं है। पूर्ण साहसपूर्वक वे खड़े हो गए और कहने लगे "जिन्होंने कभी पाप नहीं किया वो मुझ पर पत्थर फेंक सकते हैं।" यह उनके विवेक की शक्ति है, जिसे एक दम से लोगों ने अपने अन्दर महसूस किया और इस संगीत में वे इस प्रकार उछल-कूद कर सकते हैं मानों ऊँट पर बैठे हैं। ये संगीत इनको प्रिय है सभी को ये रिकार्ड अच्छा लगता है। क्यों? क्योंकि वे ऊँट की तरह से उछल सकते है। एक बार यदि आप ऊँटों की तरह से उछलने लगे तो फिर इसे छोड़ नहीं पाते, ये आदंत बन जाती है। तो यह विशेष संगीत उन्हें अच्छा लगता है। ऊँट की तरह से वे उछले चले जाते है क्योंकि अब वे ऊँट बन गए हैं. उन्हें ऊँटों की तरह उस विवेक द्वारा उन्हें लगा कि "यह व्यक्ति पावन से व्यवहार करना होगा। हो सकता है दुड़की लगाने लगे। एक बार जब वे इसे सुन लेते हैं तो अचानक उसी लय पर चलने लगते हैं। अब वे घोड़े बन जाते हैं व्यक्ति है और हम उस पर पत्थर नहीं फेंक सकते।" सहजयोगियों के रूप में यदि आप विवेकशील हैं तो आप अन्य लोगों को भी विवेकशील बनाएंगे। अन्य लोगों को भी विवेकशील होकर समझना पड़ेगा। यदि और सरपट दौड़ते हैं। घोड़े बनकर उन्हें केवल सरपट आप अपने अन्दर यह विवेक विकसित कर लें तो ये संगीत अच्छा लगता है। तो ये सब चलता रहता है। वे नीर-क्षीर -विवेक, दूध और पानी में, बुरे-भले में गधे भी बन सकते हैं, कुछ भी बन सकते हैं। अन्तर देखने का गुण आपमें भी आ सकता है। हम पेशु नही है हम मानव है। 'हँ "हम है, हम सहजयोगी हैं किसी विशेष प्रकार की लय या संगीत का हमारे ऊपर नियंत्रण नहीं है। सभी प्रकार के संगीत सहजयोग में भी हर कदम पर दाई ओर (आक्रामकता) के अविवेक के कारण लोगों को डगमगाता देख सकते हैं। दाईं ओर का ये अविवेक लोगों में अहं की अभिव्यक्ति के कारण आता है। ये को हम समझ और सराह सकते हैं, बशर्ते कि वह धार्मिक हो, बशर्ते कि वह मंगलमय हो और पावन हो। तो आप देख सकते हैं कि हँसा चक्र पर कितनी चीज़ों का निर्णय होता है। मेरे विचार से पूरा सहजयोग हँसा चक्र के सन्तुलन पर खड़ा है। कुछ लोग बहुत ईमानदार होते हैं, परन्तु यह ईमानदारी मूर्खता की सीमा तक जा सकती है। कुछ लोग कठोर परिश्रमी भी हैं, कठोर परिश्रम भी मूर्खता की सीमा तक जा सकता है। तो अच्छे समझे जाने वाले ये अह जैसे मैंने कहा 'हूँ है। जब आवश्यकता होती है तब ये अह कार्य नहीं करता। उदाहरण के रूप में मुझे पता चला कि कुछ लोग विवाह के लिए चर्च में गए। है । हम निःसन्देह सहजयोगियों का ऐसा करना गलत मानव द्वारा बनाए गए धर्मों में विश्वास नहीं करते ये बात आप जानते हैं। ठीक है. आप चर्च गए। परन्तु उन्होंने एक, महिला को लौरा एशले परिधान खरीदने के लिए लन्दन भेजा और मैं ये भी सोचती हूँ कि कुछ 1. गुण धर्मपरायणता नहीं गौरवान्वित-विवेक ही धर्मपरायणता है। हो सकते । पुरुषों ने भी अवश्य विवाह के लिए टेलकोट पहने होंगे। तो अहं समाप्त कहाँ हुआ? सहजयोगी होने का आपमें यदि विवेक है तो उस विवेक को आप 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-22.txt अंक : 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी 20 अह तो पूरी तरह खो गया था। मेरे ख्याल से ये लोग बाल बनवाने के लिए और सभी प्रकार की चीजों के लिए भी गए होंगे और मूर्ख पादरियों की कब्रों के समीप चर्च में पुराने ईसाइयों की तरह से जाना चाहा होगा ऐसा केवल यहीं नहीं है। जहाँ तक धर्म का तक उन्नत नहीं हुए हैं। जो लोग किसी राष्ट्र विशेष का होने का दावा करते हैं वो नहीं जानते कि उनकी राष्ट्रीयता परिवर्तित हो चुकी है। परमात्मा के साम्राज्य में जाने के लिए आपको किसी पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं पड़ती। राष्ट्रीयता मोटे-मोटे अक्षरों में आपके चेहरों पर लिखी होती है। परन्तु अब भी अन्त स्थित गहनबन्धन बने हुए हूँ। मेरा देश बहुत महान है, तुम्हारा देश इतना अच्छा नहीं है।" विवेक ये सोचना है कि 'ठीक है मेरा जन्म जर्मनी में हुआ और जर्मनी ने सी गलतियाँ की। क्यों न मैं इन गलतियों को सुधारूं, ताकि मैं अपने जर्मन लोगों को एक ऐसे क्षेत्र में ले जाऊ जहाँ शान्ति, सम्बन्ध है, भारत की स्थिति तो और भी खराब है। हैं कि मैं 'इस देश से सम्बन्धित वामपक्ष, वे तो अत्यन्त-अत्यन्त बन्धनग्रस्त लोग हैं उन्हें तो समझ ही नहीं आता कि विवेक है क्या? उदाहरण के लिए हमारे यहाँ ज्ञानदेव हुए। वे महान अवतरण थे, उनके पैरों में जूते भी नहीं थे। और आजकल श्री ज्ञानदेव के जूते पालकी में रखकर के लोग उनका जुलूस निकालते हैं और हज़ारों-हज़ार लोग उनका स्तुति गान करते हुए उनकी पालकी के साथ चलते हैं, कल्पना करें! उन्हें कौन बताए कि ज्ञानदेव के पास तो जूते थे ही नहीं। पालकी पर तुम कौन से जूतों का जुलूस निकाल रहे हो ? जुलूस जिस गाँव या शहर में जाता है वहाँ उन्हें शानदार खाना खिलाया जाता है। हर आदमी उनके पैरों में पड़ता है- 'पालकी के साथ सन्त आए हैं पालकी में रखे हुए जूते कभी भी ज्ञानदेव के नहीं थे! बहुत आनन्द और प्रसन्नता का साम्राज्य है। यहाँ इस बन्धन का उपयोग विवेक के रूप में किया जाता है। आप पाएंगे कि हर चीज़ के दो पक्ष हैं। ये आपके विवेक पर निर्भर है कि आप किधर जाते हैं। उदाहरण, के रूप में कुछ लोगों में बन्धन है, विशेष रूप से धर्म के बन्धन मान लो वे यहूदी धर्म से हैं और सहजयोग में आ गए है या ईसाई धर्म से हैं और सहजयोग में आ गए हैं तो अब विवेक क्या है? ज्योही कोई अन्य यहूदी या ईसाई आता है तो वे भूतों की बिरादरी बना लेते है और गहन मित्र बन बैठते हैं। तो ये पागलपन चलता रहता है। अपने चहूँ ओर ये चीजें घटित होते हुए आप देखते हैं, सभी देशों में, सभी धर्मों में, सभी क्षेत्रों में, आप ये सब घटित 'क्योंकि वह यहूदी है और मैं भी यहूदी हूँ, मेरे पिता यहूदी हैं, मेरी माँ यहूदी है, मेरी ये चीज़ यहूदी है।" ईसाईयों का भी यही हाल है, अन्य जातियों और राष्ट्रों का भी यही हाल है। होते हुए देख सकते हैं। परन्तु आप भी इसमें सम्मिलित हो जाते हैं, इससे एकरूप हो जाते हैं और तब ये समझना कठिन हो जाता है कि आपको क्या हो गया साधना में विवेक का क्या अर्थ है? सर्वोत्तम है! ये अह जब ठीक प्रकार से उपयोग किया जाता है चीज़ उस बिन्दु पर विवेक ये देखना है कि अवतरणों की मृत्यु के बाद बने मानवरचित धर्मों में क्या बुराईयाँ है। या हम कह सकते हैं कि अवतरणों तथा पैगम्बरों तो यह विवेक बन जाता है। धर्म के अतिरिक्त. लोगों में एक अन्य अत्यन्त-अत्यन्त भयानक बन्धन भी है- वह है देशों का बन्धन, "मैं भारत से सम्बन्धित हूँ, मैं द्वारा चलाए गए धर्मों में? ये प्रथम विवेक है। दूसरा विवेक उन धर्मग्रन्थों को पढ़कर ये पता लगाना है कि जर्मनी से हूँ, मै इंग्लैण्ड से सम्बन्धित हूँ।" सभी कुछ व्यर्थ है। कहने से अभिप्राय है कि ऐसा कुछ कहने का उन अवतरणों ने ऐसी कौन सी विशेष चीज लिखी मतलब ये है कि अभी तक आप सहस्रार के स्तर 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-23.txt अंक : 5 & 6 - 2007 21 चैतन्य लहरी थी मैं कहूंगी कि यदि कोई व्यक्ति मुसलमान है तो वह कुरान को गहनता पूर्वक पढ़े और पता लगाए कि कुरान में सहजयोग सम्बन्धित क्या लिखा है। यदि कोई ईसाई है तो वह बाइबल को पढ़कर पता लगाए कि इसमें सहजयोग से सम्बन्धित क्या है। क्योंकि सहजयोग सत्य है और जो सत्य लिखा हुआ है उसका पता लगाना होगा। ऐसी चीज यदि विकसित हो जाए तो आप आगे बढ़ सकते हैं। आप यदि बहादुर हैं तो साहस पूर्वक लोगों से यह बता सकते हैं कि देखों तुम किस मूर्खता के पीछे दौड़ रहे हो, यह न तो लिखी हुई है और न ही की गई है। हम कुछ भिन्न लोग हैं। ये लाल बिन्दी अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि बिन्दी लगाने के बाद भूत आपको नहीं पकड़ते बिन्दी लगाई जानी चाहिए। बाइबल में लिखा हुआ है कि उनके सिर पर एक निशान होगा. परन्तु हरे रामा-हरे कृष्णा वालों की तरह से और भी बहुत से मूर्ख लोग हैं। मैं नहीं सोचती कि वे कोई चिन्ह धारण करेंगे। हम समाज से डरते हैं बिन्दी कैसे लगाएं? परन्तु मान लो कि आपको कहा जाए कि बाल बिखेर कर घूमों, तो ये कार्य आप कर लेंगे क्योंकि समाज में इसकी स्वीकृति है। हमें ऐसे लोग बनना है जिन्हें समाज का भय जो भी कुछ लिखा गया है वह पूर्ण का सार है। यह तीसरी अवस्था है जहाँ किसी धर्म या राष्ट्रीयता विशेष के सम्बन्धों में आपने अपने विवेक का उपयोग न हो। समाज के आडम्बरों से बाहर आकर हमें उन्हें सिखाना है कि जो अच्छे कार्य हैं हम उन्हें करेंगे चाहे आपको पसन्द हों या न हों। सन्त का यही चिन्ह है किया है। कहीं भी यदि आपने किसी सन्त को देखा है तो सत्य प्रयत्न किया और बताया मैं जब पश्चिम में होती हूँ तो मुझे पश्चिम के बारे में बात करनी होती है। परन्तु जब मैं भारत में होती हूँ तब भी अवश्य मुझे सुने। वहाँ की भाषा को न समझ पाना आपके हित में है, भारतीयों के प्रति पूर्ण सम्मान भाव से मैं उनकी खूब डॉँट-डपट करती हूँ और उन्हें बताती हैँ कि उनमें क्या कमी है। परन्तु बताने के लिए उन्होंने पूरा कि क्या करना है और किसका अनुसरण करना है। ये सन्त का चिन्ह है। अन्यथा आपके अन्दर का सन्त भी कभी-कभी समाज में विलीन हो जाता है. कभी सहजयोग में, कभी अन्यत्र। ऐसे सन्त का क्या लाभ है? आप मुझे किसी ऐसे सन्त का नाम बताए जो समाज से न लड़ा हो, जिसने समाज की गलतियों को निर्भयता पूर्वक, स्पष्ट रूप से न बताया हो। पश्चिम में ये देखना महत्वपूर्ण है कि यहाँ पर क्या कमियों हैं। अतः विवेक यह देखने में है कि हमारे अन्दर क्या कमियाँ आ गई हैं। हम कहाँ गलत हैं? सहजयोगियों में साहस का होना अत्यन्त हमारे अन्दर थोड़ा सा भी साहस है या नहीं? आवश्यक है। आप यदि विवेक विकसित कर लें तो ये कार्य हो जाता है। अहंग्रस्त होकर आप कैसा विवेक उदाहरण के रूप में महिलाओं में बाहर साड़ीं विकसित कर सकते है और किस प्रकार? दाई ओर सभी देवता है, सभी देवी-देवता आपके आस-पास पहनने का साहस नहीं है, या पुरुष बाहर भारतीय वस्त्र नहीं पहनते, इसके लिए थोड़े से 'हँ (साहस) बैठे हुए हैं। इन देवी-देवताओं को समझना होगा। की आवश्यकता है। इन वस्त्रो का उन्हें आनन्द आता है फिर भी वे ये वस्त्र नहीं पहनते। वही अटपटी, सुराखों वाली पैन्टें पहनते हैं। वे पंक लोगों वाली चीजें पहनते हैं परन्तु विवेक शील, अच्छे वस्त्र नहीं पहन पाते ये (वस्त्र) ऐसी चीज है जो आपको बताती है कि आपको ये ज्ञान प्राप्त करना होगा कि वे क्या करने वाले हैं। मान लो आप मार्ग में कहीं खो गए हैं। ऐसे में आपको आम लोगों की तरह से ये नहीं सोचना चाहिए "मैं रास्ते पर खो गया हूँ, मैं वहाँ कैसे कि ओह, 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-24.txt अंक : 5 & 6 - 2007 22 चैतन्य लहरी चीज़ों को वैसे ही स्वीकार करना चाहिए जैसे वे आती पहुँचूँगा? मैं क्या करुंगा?" आप किसी बेकार के काम के लिए ही तो जा रहे हैं? कोई बात नहीं। परन्तु आपको अवश्य सोचना चाहिए कि 'क्यों हनुमान जी मुझे यहाँ लाए, अवश्य वे मुझे यहाँ किसी उद्देश्य से लाए होंगे। आपको केवल देखना होगा। "इसे स्वीकार करें, स्थिति को स्वीकार करें। स्थिति को जब आप है। इसका पहला उदाहरण श्रीकृष्ण थे जिनके पास सच्चा विवेक था। परन्तु आखिरकार वे श्रीकृष्ण थे। विवेक के उनके तरीके इतने रुचिकर थे कि ये जानने में आनन्द आता है कि किस प्रकार उन्होंने राक्षसों का संहार किया। हर बार उन्होंने सुदर्शन चक्र का उपयोग किया। जैसे एक राक्षस पांडवीं को हराने का प्रयत्न ार स्वीकार कर लेते हैं तो आप देवी -देवताओं के हाथ में चले जाते हैं और वे आपका पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। आपके देवी-देवता इसे क्रियान्वित कर रहे है। इसे स्वीकार करें, यह स्वीकृति आपको अपने अहं पर शानदार विवेक प्रदान करेगी जो भी कुछ गलत होता है. ठीक है, हम इसे स्वीकार करते हैं । और सर्वोपरि, आपने चैतन्य-लहरियों को भी देखना है। आप यदि कुछ करते है और चैतन्य-लहरियों का स्तर नीचे आने लगता है, तो नि:सन्देह, मैं सहजयोगी हूँ, मेरे लिए चैतन्य-लहरियाँ और मेरी उत्क्रान्ति महत्वपूर्ण हैं।" अतः दाई ओर का विवेक विकसित करने के लिए आपको अपना ध्येय जानना होगा, अपना लक्ष्य कर रहा था, उन पांडवों को जो बहुत ही भले थे। श्रीकृष्ण ने कहा कि अब इस भयानक राक्षस का क्या करुं? इस राक्षस को ब्रह्मदेव, महादेव आदि सभी देवताओं से वर प्राप्त थे। बीच में होने के कारण श्रीकृष्ण उस राक्षस का संहार भली-भांति आयोजित करना चाहते थे। एक दाई ओर के महान सन्त निद्रा मग्न थे उन्हें वर प्राप्त था कि जब वे सोए हुए होंगे और कोई व्यक्ति यदि उन्हें जगा देगा तो उनकी दृष्टि मात्र से वह व्यक्ति नष्ट हो जाएगा| यही सन्त गुफा में सोए हुए थे। उस राक्षस से युद्ध करते हुए श्री कृष्ण उसके सामने युद्ध से भाग लिए, इसी कारण उनका नाम "रणछोड़दास' पड़ा। वे जान- बूझकर वहाँ से भाग पड़े। श्रीकृष्ण इसलिए भागे क्योंकि इस भयानक राक्षस को मारने का और कोई तरीका ही नहीं था। श्री कृष्ण ने पीताम्बर पहना हुआ था। दौड़ते हुए वे जानना होगा। आपको समझना होगा, कि आप किस पथ पर खड़े हैं और आपको कहाँ लाया गया है? आज आप कहाँ है? हम अन्य लोगों की तरह से नहीं हैं, यदि आप इस प्रकार का विवेक विकसित कर लें, अपने अन्दर-शुद्धबुद्धि क्योंकि यह शुद्धबुद्धि है, क्योंकि हँसा चक्र में शुद्धबुद्धि पूरे विश्व पर आरोहण करती है इसे किसी चीज पर प्रभुत्व नहीं जमाना होता ये यदि जल पर होती है तो झील को अत्यन्त सुन्दरता प्रदान करती है, उसे साधक पर प्रभुत्व जमाने की उसे विलय करने की आज्ञा नहीं देती। यह वह भाग है जहाँ वे 'हँ' हैं। वे यदि चाहेंगे तो इसमें और नहीं चाहेंगे तो नहीं लगाएंगे। वे सागर पर विहार कर रहे हैं, हैँसा के सागर पर, अपने भव-सागर पर और वे इसमें डूबेंगे नहीं। ये इसका 'हैं' भाग है जिसका विवेक आपको होना चाहिए। एक ओर तो आपको उस महान सन्त की गुफा में आ गए और सोए हुए सन्त पर उन्होंने अपना पीताम्बर डाल दिया और स्वयं वही छिप गए। श्रीकृष्ण का पीछा करता हुआ राक्षस गुफा में आया. कहने लगा. "युद्ध के मैदान से भागकर तुम थककर सो गए हो! खड़े हो जाओ। ज्यों ही उसने ऐसा कहा, सन्त की नींद टूट गई और उनकी दृष्टिमात्र से वह राक्षस भस्म हो गया। अतः श्री कृष्ण अपने चरणों पर यदि विराट है, या अपने सिर पर यदि वे विटठ्ल हैं तो इन दोनों के बीच में हँसा चक्र है। श्री कृष्ण के जीवन में विवेक डुबकी लगाएंगे का बहुत सुन्दर वर्णन है। हम कह सकते है कि विवेक े 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-25.txt अंक : 5 & 6 चैतन्य लहरी 2007 23 जाते हैं और हर व्यक्ति को बता रहे होते हैं कि उसकी । का उपयोग करने के उनके बड़े शरारती तरीके थे। उन्होंने ऐसे बहुत से कार्य किए। परन्तु इस प्रकार उन्होंने नाटक किया, अपनी लीला की, क्योंकि वे लीलाधर थे इसलिए नाटक करने के लिए उन्होंने अपने विवेक का उपयोग किया तो एक ओर तो विवेक प्रदान करने के लिए हमें श्रीकृष्ण की सहायता प्राप्त है और दूसरी ओर हमारे पास श्री ईसामसीह है और इन दोनों के बीच में हँसा चक्र स्थापित किया गया है तो हमारे अन्दर दो महान अवतरण है जो विवेक की प्रतिमूर्तियाँ हैं। एक ओर श्री कृष्ण हैं जो हमारे बन्धनों (प्रतिअहं) को देखते हैं और दूसरी ओर चैतन्य-लहरियाँ खराब है। आपका चित्त खराब है व्यर्थ की चीज़ों पर चित्त डालने से आपकी चैतन्य लहरियाँ पूर्णतः समाप्त हो सकती हैं। तो विवेक के साथ-साथ आपमें सहजबुद्धि, व्यवहारिकता भी होनी आवश्यक है। मैंने देखा है कि कुछ लोग अचानक किसी से भी सहजयोग की बातें करने लगते हैं। ऐसा करना व्यवहारिक नहीं है। सहजयोग 'बहुमूल्य रत्न' है, उसे आप सबको नहीं दे सकते। मैंने देखा है कि हवाई अड्डे पर भी लोग सबकी कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं। नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए, साधकों को आना होगा और सहजयोग ईसा-मसीह हैं जो हमारे अहं पक्ष को देखते हैं। उन्होंने माँगना होगा उन्हें इसकी याचना करनी होगी सूली पर चढ़कर भी कहा, हे, परमात्मा. इन्हें क्षमा कर दो, क्योंकि ये अज्ञानी है। हे, 'परमात्मा इन्हें क्षमा कर दो क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं। ये वही केवल तभी उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिल पाएगा। हमें बड़ी संख्या की नहीं उत्कृष्टता की आवश्यकता है। मेरे सारे प्रवचनों में, आपने देखा है कि मैं सहजयोगियों और साधकों की उत्कृष्टता पर बल देती हूँ। लेकिन जब हम श्रीमाताजी को बोट देने के लिए बहसंख्या की बात सोचने लगते है तो इसके विषय में मुझे ये कहना है कि मैं कोई चुनाव नहीं लड़ने वाली हूँ। आप चाहे मुझे चुने या न चुने, मैं चुनी हुई हूँ। आपको ये कार्य नही करना। इसके लिए मुझे बहुत ज्यादा लोग नहीं चाहिएं। परन्तु जब आप विवेक के मामले के असफल हो जाते हैं तो मैं पाती हूँ कि कुछ ईसा-मसीह थे जो अपने हाथ में हण्टर लेकर परमात्मा के नाम पर पैसा बनाने वाले लोगों को पीटते थे । इस विवेक को देखें, सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण जो हजारों हज़ार राक्षसों का वध करने में सक्षम थे, अर्जुन के सारथी बन गए। उनके व्यवहार का विरोधाभास उनके विवेक की अत्यन्त सुन्दर गाथा बन गई है। सहजयोगियों के लिए आवश्यक है कि वे अपने विवेक को इस प्रकार कार्यान्वित करें कि उनमें अन्तर्बोध विकसित हो। मैं कहूंगी कि पहला विचार भी अन्तर्बोध हो सकता है, अन्तर्बोध हो सकता समस्याएं खड़ी हो जाती हैं । अब आपको ये देखना है कि आपने कौन से विवेकहीन कार्य किए हैं, कहाँ है। आजमाएं, प्रयोग करें। परन्तु सहजयोग में किसी गलती की है? किस प्रकार से आपने गलती की है? आपने स्वयं इसे खोजना है और गलती को दूर करना है। अन्यथा सहजयोग में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, कोई कठिनाईयाँ नहीं होनी चाहिए, केवल भी चीज की अति तक जाना गलत है, हमें हर कार्य सीमा में करना चाहिए। जैसे मैंने इन्हें कहा कि हर चीज को चैतन्य पर देखो। तो ये हर चीज की ओर अपने हाथ फैला देते हैं. "मैं ये साड़ी खरीदूं कि नहीं खरीदूं? इससे भी आगे चले जाते हैं, "मैं यह चेहरे का पाउडर खरीदूं कि नहीं खरीदू?" ये हास्यास्पद है। ऐसा करना इतना बुरा है कि अन्ततः आप भूत बन आनन्द, आनन्द और आनन्द ही होना चाहिए । विवेक यह पता लगाने में है कि आपकी दुर्बलताएं क्या है। आपने कहाँ गलती की, क्या गलत हुआ, कहाँ और 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-26.txt अंक : 5 & 6 - 2007 24 चैतन्य लहरी के लिए हम कुछ भी करने को तैयार है, कृपा करके किस भाग में तथा किस प्रकार आप असफल हुए। कभी कभी लोग सोचते हैं, "उस समय हमने बहुत कार्य किया. अब हम नहीं कर सकते। तब आप आ जाइए। इस बार वे गुरु पूजा चाहते हैं। कल्पना करें, भारत में आप गुरु पूजा में भाग न ले पाते। अंडोरा में मेरा एक विशेष लक्ष्य है । अतः कृपा असफल होते हैं। मैंने सुना है कि लोग कह रहे हैं कि हम यहाँ आए है अतः अब हम गुरु पूजा करने नहीं जाएंगे। ये बहुत गलत है। किसी भी कीमत पर आपको परन्तु करके समझें कि मैं निरुद्देश्य व्यक्ति नहीं हूँ। शनैः-शनैः सीखें कि किस प्रकार मैं उद्देश्य पूरा करती हूँ- आपका. अपना और सहजयोग का, एक गुरु पूजा पर आना है। गुरु पूजा ऐसी पूजा है जिसे आप छोड़ नहीं सकते। सहसार पूजा को यदि आप छोड़ दें तो छोड़ दें परन्तु गुरु पूजा बहुत महत्वपूर्ण है। किसी भी कीमत पर आपको गुरु पूजा में आना है जो दिन आप सब भी विवेक के सभी सुन्दर तरीके विकसित अंडोरा में है। ये हिमालय नहीं है। सहजयोग इतना आरामदेह है कि हम चाहते हैं कि हमें अपनी उड़ाने भी कभी गलत कार्य नहीं करेंगे। न बदलनी पड़े। सीधे ही हम हँस पर बैठ जाए और अंडोरा पहुँच जाएं। आप पहुँचेंगे, आप ये बात देखेंगे। परन्तु यदि आपमें सोचने की आदत बन जाती है, शारीरिक पक्ष को भी काफी देखना पड़ेगा। अतः हँसा ओह, इसमें कठिनाई होगी, तो कठिनाई होगी'। परन्तु जैसा वारेन ने कहा है यह सबसे सुगम कुछ कार्यान्वित होगा, एक बार जब ऐसा सोचेंगे तो सभी परन्तु पहले कार्य को साथ । कितनी सुन्दरता पूर्वक मैं इसे कार्यान्वित करती हूँ! आप समझ जाएंगे और मुझे आशा है कि एक कर लेंगे जिनके द्वारा आप केवल ठीक कार्य करेंगे, हँसा चक्र. जो शारीरिक पक्ष पर अधिक है. बाहर की ओर, इसे ठीक करने के लिए लोगों को चक्र को ठीक करने के लिए हमें नाक में घी आदि डालना पड़ेगा हँसा चक्र को ठीक करने के लिए ये भी आवश्यक है कि चुम्बन आदि न करें मैं सोचती हूँ कि चुम्बन तो बिल्कुल छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि चुम्बन से दूसरे व्यक्ति के कीटाणु प्रवेश कर जाते हैं। सहजयोग में ये ठीक है, परन्तु एक बार यदि मैं ऐसा कह देँ तो इसका अर्थ ये नहीं है कि होगा, सभी कुछ कार्यान्वित होगा। करने की शुद्ध इच्छा तो होनी चाहिए। जब भी आपके मस्तिष्क में ऐसे विचार आएं तो पुनः अपने विवेक का उपयोग करें। 'हम गुरु पूजा पर अपनी गहनता के लिए जाते हैं। यदि आपको याद है तो हर गुरु पूजा चुम्बन के मामले में पगला जाएं। भारत में यदि आप किसी को चूमें तो वो हैरान हो जाएगा! उसकी समझ पर आपकी गहनता बढ़ी है। मैं कहती हैँ हर गुरु पूजा पर। नि सन्देह आप कहते हैं कि महाराष्ट्र यात्रा अच्छी में ही नहीं आएगा कि क्या हो रहा है। इन सब चेष्टाओ से जितनी अधिक प्रेम की अभिव्यक्ति आप करते हैं उतना ही कम प्रेम आपके हृदय में होता है। धन्यवाद देना भी एक तरीका है, पर आप कहते चले जाते हैं है, मैं सहमत हूँ कि महाराष्ट्र यात्रा से आपको लाभ होता है। परन्तु ये यात्रा तीस दिन की है, इतनी गहन । गुरु पूजा केवल एक दिन की है। महाराष्ट्र यात्रा में आपको कितनी मिलती है? कम से कम आठ धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद। ये सब जुबानी जमा खर्च है बहुत से देशों के लोग धन्यवाद कहते ही नहीं। अन्दर से वे अति कृतज्ञ होते है। हृदय की पूजाए या नौ, कभी-कभी तो दस। इसीलिए इनका अधिक लाभदायक होना स्वाभाविक है। भारतीय लोग मुझे कहते हैं, 'श्रीमाताजी कम से कम एक बार तो हमें ये पूजा दे दीजिए। कोई अन्य नहीं गुरु पूजा'। गुरु-पूजा कृतज्ञता आवश्यक गहनता का सृजन करती है। अतः अपने विवेक में किसी भी चीज को सतही रूप से 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-27.txt अंक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी 25 लिख रहा है, वह मेरे पास आकर कहेगा कृपा करके मेरी कविता की त्रुटियाँ सुधार दीजिए मैं एक कविता ठीक करुगी, दो करुंगी, तीन करुंगी, दस कविताएं ठीक करुंगी, और फिर उसमें कविताएं लिखने की करने से बचना चाहिए। परन्तु अति से बचना, बाह्य अभिव्यक्ति से बहुत ज्यादा बचना, बाह्य अभिव्यक्ति से बहुत ज्यादा बचना. एक अन्य अविविक को जन्म दे सकता है। जैसे अंग्रेज । वे बोलते ही नहीं, वे बिल्कुल शक्ति समाप्त हो जाएंगी। इस प्रकार से अपने स्वार्थ के लिए आपको मेरा उपयोग नहीं करना चाहिए, नहीं बोलते। आप रोज उनके साथ पच्चीस मील यात्रा करें, उनके साथ बैठें, परन्तु वे आपसे से नहीं पूर्छेगे कि आप कौन हैं? उनसे बोलने की आशा नहीं परन्तु आप किसी न किसी ढंग से मेरा उपयोग कर रहे हैं। इस सूझ-बूझ के साथ कि " श्रीमाताजी हर की जा सकती। ये सब बनावटी है। समय मेरे साथ हैं, और मेरी सहायता कर रही है, अतः दूसरी बात जो हमें अपनानी है वह ये है कि हमें बनावटी नहीं बनना। ठीक है कोई व्यक्ति "आपको उछलकर मेरे पास आगे आने की, मेरा समय बर्बाद करने की, और मुझे परेशान करने यदि हृदय से मुझे प्रेम करना चाहता है या गले लगता है तो ठीक है। इसमें कोई बनावट नहीं है। बच्चे अत्यन्त स्वाभाविक होते हैं, उनमें बनावट नहीं होती। उनमें बिल्कुल बनावट नहीं होती। इसी प्रकार से हमें भी हर चीज के विषय में अत्यन्त स्वाभाविक होना होगा। बातचीत करते हुए यदि पुरुष दूसरे पुरुषों को थोड़ी बहुत चोट भी पहुँचाएं तो कोई बात नहीं है। इससे उनका अपमान नहीं होता। यह प्रेम की अभिव्यक्ति है। परन्तु ये सब नैसर्गिक होना चाहिए, बनावटी नहीं । सहजयोग में हमें बनावटीपन को नहीं अपनाना, किसी की कोई जरूरत नहीं है, कि मुझे ऐसा लगे कि 'हे परमात्मा, कब मुझे इससे छुटकारा मिलेगा? कुछ लोगों में ये भी बात है, श्रीमाताजी आप मैरे घर पर अवश्य आइए, मेरे बच्चे को उठाइए, मेरे पति से मिलिए, चाहे वह शराबी ही क्यों न हो। मेरा अपना कहे जाने वाले किसी व्यक्ति या चीजू पर चित्त ले जाना भी अविवेक है। मेरा चित्त अपने पर ले जाने की अपेक्षा आप अपना चित्त मुझ पर डालें। विवेक की ये अत्यन्त सूक्ष्म रेखा है, मानो तलवार की धार पर चलना, यह विवेक की अत्यन्त-अत्यन्त सूक्ष्म रेखा भी प्रकार से नही। परन्तु कपड़े पहनना बनावट नही हैं भद्र होना बनावट नहीं है। गौरवशाली होना बनावट है। परन्तु एक बार जब विवेक की इस अवस्था (State) को आप अपने अन्दर जान जाते हैं तो आप विवेकमय हैं, और फिर चाहने पर भी आप विवेकहीन नहीं बन नहीं है। बनावट तो उस बात को कहना है जिसे आप अन्दर महसूस नहीं करते। ये बनावट है। परन्तु सहजयोगी में वह लज्जा, वह शर्म, बह मर्यादा होती है सकते। और यही उत्थान है। एक बार जब आप इस चक्र से निकलकर आज्ञा चक्र को पार करते हैं तो सहसार में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ आपको विवेकमय होना पड़ता है। वहाँ से जो कुछ भी निकलता है वो आशीर्वादित होता है। वहाँ से जो भी अभिव्यक्ति निकलती है वह आशीर्वादित होती है। सहस्रार से निकलने वाली हर अभिव्यक्ति विवेकमय एवं सुन्दर होती है। और वह अपने शरीर का सम्मान करता है। शरीर के सम्मान के कारण वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहता जिससे शरीर का अपमान हो। और इ्स प्रकार आप जान जाते हैं कि किस सीमा तक जाना है और कहाँ तक नहीं। सहजयोग में अविवेक का एक और तरीका भी है, मैंने देखा है कि लोग मुझे बहुत प्रकार से उपयोग करने लगते हैं मान लो कोई व्यक्ति कविता (शेष पृष्ठ 28 पर) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-28.txt बोर्डी पूजा पटम पूज्य श्री माताजी का प्रवचन बोरडी 12.2.1984 वर्षत सकल मंगली ईश्वरीनष्ठांची मंदियाली अनवरत भूमंडला भेटतू भूतां ॥ चला कल्पतरूचे आख चेतना चिन्तामणीचे गाव बोलते जे अर्णव पीपूषांचे।॥ विम चन्द्रमे जे अलांछन मार्तन्ड जे तापहीन ते सर्वाही सदा सज्जन सोयरे होत।। किंबहुना सर्व सुखी पूर्ण होउनि तिही लोकी भजिजो अदिपुरुखी अखोडित।। उसके ओर दृष्टि रखनी चाहिये। ये ऊँचाई जो भी इन्होंने हासिल की है, तो इस वातावरण से लड़ कर, अब मैं हिन्दी में आपको थोड़ा सा बताना चाहती हैं कि सहजयोग में हम लोग अब ये नहीं जानते कि हमारे बारे में हज़ारों वर्ष से ये बताया गया था कि ऐसे महान् लोग संसार में आयेंगे और पहाड़ के पहाड़, बड़े-बड़े वृक्षों के ऐसे अरण्य संसार में घूमेंगे जो बोलते हुए, चलते हुए, दुनिया को उनकी इच्छाओं की पूर्ति के कल्पतरु जैसे उनको आशीर्वाद देंगे। और उनके एक-एक व्यक्ति में जैसे सागर उमड़ते हों, जिसमें झगेड़ कर, बाहर आकर, सर ऊँचा उठाकर की है। और जो लोग अपना सर दुनियाई चीजों के लिये, कृत्रिम चीजों के लिए. बाह्य चीजों के लिये झुका लेते हैं, तो कैसे उठ सकते हैं? या जो अपना चित्त इस धरती माँ से हटा लेते हैं, वो तो मर ही जाएंगे। इसलिये हर सहजयोगी का ये 'कर्तव्य' है- अमृत बोलता हो ऐसे सागर। ऐसे सूरज होंगे- चमकते हुए सूरज कि जिसके अंदर कोई भी दाह नहीं, अग्नि नहीं, ऐसे चन्द्रमा जिसके ऊपर कोई कलंक नहीं। ये पूरी तरह से कर्तव्य है- कि वो जाने कि सारी दुनिया आपकी तरफ आँख लगाए बैठी हुई है और आप अपने गौरव को पहचानें। आप लोग यहाँ मुझे वचन देने आए हैं, इस International Seminar (अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठी ) में कि "माँ जितनी तुम मेहनत करती हो, उसी तरह से ये आपके वर्णन लोगों ने किये। और तीन सौ वर्ष पहले ज्ञानेश्वर जी ने कि कितना आपका महत्व उन्होंने बताया। कितना महत्व कि कितना जरूरी है, सारी दुनिया के लिए एक आशा दी । हम भी मेहनत करेंगे।" उस शान्तिमय गौरव में आप अपने को ऊँचा इस तरह से हो रहा है और हो गया। लेकिन उठाइये। अपने बारे में पूरी आपको कल्पना होनी चाहिये, कि आप हैं क्या !. आप सबसे यही विनती है कि कृपया अपनी ओर नजुर करें। आप सब सिंहासन पर बैठिए, उस सिंहासन को पाइये, उसके जैसे होइये। अभी इसकी प्रगति मेरे विचार से बहुत, बहुत धीमी इसकी प्रगति बहुत धीमी है। प्रगति आपकी वजह से धीमी हो जाती है। ऐसी जगह चित्त अपना जाता है जहाँ हम अपने को गिरा लेते हैं। दुनिया के मुकाबले में आप बहुत बड़ी चीज हैं। अपना चित्त, इस पेड़ का जैसा पृथ्वी से पूरी तरह से निघड़ित है. ऐसा आपको अपनी माँ के साथ निघड़ित रखना चाहिए। और उसकी जो ऊँचाई है अनन्त आशीर्वाद (निर्मलायोग-1984) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-29.txt सहजयोग और शारीरिक चिकित्सा -2 के लिए स्नान आदि के बारे में धारणाएं बदलना अस्थमा :- यह बाई ओर का रोग है जिसमें फेफडे शिथिल हो जाने के कारण श्वास लेने में कठिनाई होती है। असुरक्षा की भावना या पितां से सम्बन्ध ठीक न होना इस रोग के मूल कारण हो सकते हैं। इसके कारण मध्य या दायाँ हृदय आवश्यक है। गर्मियों में ठण्डे पानी से स्नान करना चाहिए और सर्दियों में गुनगुने पानी से। परन्तु गुनगुने पानी से स्नान करने के बाद कुछ देर सर्दी में बाहर नहीं निकलना चाहिए। (क्रमानुसार) प्रभावित होते हैं। ऐसी स्थिति में श्वेत रक्त कोषाणुओं (W.B.C.) की संख्या लाल रक्त कोषाणुओं (R.B.C.) की अपेक्षा बढ़ जाती है। बाई नाभि और स्वाधिष्ठान की पकड़ इसका कारण पीलिया रोग :- इस रोग में दाई नाभि और स्वाधिष्ठान प्रभावित होते हैं। हमारी परम प्रिय श्री माताजी ने इस रोग, (जिसे ठीक करना चिकित्सक लोगों के लिए कठिन होता है) से मुक्ति पाने के लिए बहुत ही आसान दवाई बताई है। ताजी मूली तपेदिक :- ये रोग भी बाईं ओर की के पत्ते उबालकर उसमें मिश्री मिलाकर, मूली के पत्तों का ये उबला हुआ पानी तीन दिन तक सादे पानी के स्थान पर पीना चाहिए। तले हुए पदार्थ, प्रोटीन आदि से बचना चाहिए। ऐसा करने पर ये प्रभावित होते हैं। उपरोक्त दोनों रोगों से पीड़ित बीमारी तीन दिन में ठीक हो जाएगी। बायाँ हाथ रोगियों को अपनी दाईं ओर उठाकर बाईं ओर को ज़िगर पर रखकर तथा दायाँ हाथ श्रीमाताजी की चैतन्यित करना चाहिए और बायाँ हाथ श्री माताजी फोटो की ओर करके हृदय पूर्वक दस बार होती है। समस्या है और कुपोषण, भोजन में प्रोटीन की कमी तथा बाई ओर की कुछ अन्य समस्याओं के कारण होता है। बाईं नाभि, स्वाधिष्ठान तथा मध्य हृदय बि की ओर तथा दायाँ हाथ पृथ्वी की ओर करके पानी पैर क्रिया करना चाहिए। पौष्टिक भोजन करना चाहिए और प्रभावित चक्रों को चैतन्य देना चाहिए। आदिगुरुदत्तात्रेय का मन्त्र लेना चाहिए। शक्कर रोग :- इस रोग में दाईं नाभि और स्वाधिष्ठान प्रभावित होते हैं। ध्यान करते हुए बाई सर्दी जुकाम:- बाईं या दाई विशुद्धि की ओर 108 बार ऊपर को उठाकर दाई ओर को नीचे पकड़ इस रोग का कारण होती है। हँसा चक्र भी को गिराना चाहिए और इस प्रकार दाएं पक्ष को प्रभावित हो जाता है । यदि बाईं विशुद्ध की पकड़ हो तो नाक बन्द हो जाता है और यदि दाईं विशुद्धि गुनगुने पानी में नमक डालकर पानी पैर क्रिया चैतन्य देना चाहिए। अग्न्याश्य पर दायाँ हाथ रखकर करना चाहिए। शक्कर रोग से पीड़ित साधकों को की पकड़ हो तो नाक बहता रहता है। नाक यदि बहुता है तो इसे ठीक करने के लिए कच्चे कोयले पर्याप्त मात्रा में चैतन्यित नमक लेना चाहिए तथा के अंगारे पर अजवायन डालकर उसकी धूनी लेनी श्री माताजी की फोटो के सम्मुख बैठकर मन्त्र कहना चाहिए। तुलसी के पत्ते, अजवायन, अदरक, और चाहिए, श्रीमाताजी में स्वयं का गुरु हूँ" ये मन्त्र चीनी का काढा पीकर बिस्तर में आराम करना चाहिए। नाक यदि बन्द हो तो नाक में कपूर मिला बनानी छोड़ देनी चाहिए। हुआ शुद्ध घी डालना चाहिए। दस बार उच्चारण करना चाहिए। भविष्य की योजनाएं अनिद्रा :- दाईं ओर की अत्यधिक गतिशीलता के कारण ये रोग होता है। बाईं ओर को फेफड़ों और गले की समस्याओं से बचने প 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-30.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 -2007 28 उठाकर दाईं ओर नीचे को गिरानी चाहिए तथा उसे जिम्मेदारियों के प्रति बहुत अधिक उत्सुकता या चैतन्य दिया जाना चाहिए। निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण किया जाना चाहिए: या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । बेचैनी भी इसका कारण बनती है अनुकम्पी नाड़ी तन्त्र का सन्तुलन ठीक किया जाना चाहिए और चैतन्य देकर, चैतन्यित मिट्टी के तेल से मालिश द्वारा तथा गुनगुने पानी में पानी-पैर क्रिया द्वारा प्रभावित अंगों को रोग मुक्त किया जाना चाहिए। दुर्बल स्मरण शक्ति :- बाई ओर को उठाकर दाई ओर नीचे गिराई जानी चाहिए और उसे चैतन्य प्रदान करना चाहिए। निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए: या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै, गृध्सी (Sciatica ):- ये बायें अनुकम्पी का रोग है। बाई नाभि और स्वाधिष्ठान प्रभावित होते हैं। बायें अनुकम्पी को चैतन्य देकर तथा प्रभावित चक्रों के अवयवों की चैतन्यित मिट्टी के तेल से मालिश करके चैतन्य देकर उनका इलाज किया जाना चाहिए। नमस्तस्यै नमो नमः । स्पोन्डिलाइटिस (Spondylitis):- ये रोग बाएं या दाएं अनुकम्पी नाड़ी तन्त्र के कारण हो सकता है, कुपोषण, बहुत अधिक कार्य, अपनी निर्मला योग- 1983 (रूपान्तरित) ( पृष्ठ 25 का शेष भाग) कुछ लोगों में मुझ पर रौब जमाने की आदत भी होती है। जैसे मैं जब बोल रही होती हूँ तो वे बीच में बोल पड़ते हैं। मैं यदि कुछ कर रही हूँ तो वे आगे आ जाएंगे। तब मैं खेल करती हूँ। चालाकी करने में मैं मेरे विचार से यही विवेक सारे धर्मों का सार तत्व है अब तक किए गए हमारे सारे प्रयत्न हमारे सभी पूर्वजन्म, सभी कुछ इसी विवेक के चहुँ और घूमते हैं । परमात्मा आप पर कृपा करें। बहुत कुशल हूँ, परन्तु मैं बहुत विवेकशील भी हूँ। तो यह ठीक है। मेरा विवेक चालाकी करता है. क्योंकि श्रीमाताजी ध्यान में चली जाती हैं। विवेक के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता सीधे से अगर मैं चालाकी करुंगी तो आपको अच्छा है, कहने का अभिप्राय ये है कि ये अनन्त है। इसके विषय में मैं कहाँ तक कहूँ? अपने सभी निर्णयों में. सभी कार्यों में आपको विवेकमय होना है। ये दिव्य नहीं लगेगा। अतः बेहतर होगा कि विवेकमय होकर चालाकी की जाए। जो भी कार्य हम करते हैं उसमें विवेक अपनी अभिव्यक्ति करता है। और यदि आप पक्के सहजयोगी या सहजयोगिनी हैं, आप विवेक- कुशल है, तो सभी लोग इसे देखते हैं, इसके बारे में जानते हैं कि यह विवेक है। अतः आप सब लोगों के लिए आवश्यक है कि आज अपना विवेक विकसित करें और मुझसे अपने हँसा चक्र में विराजने की प्रार्थना करें ताकि हर समय आप अपने विवेक की शक्ति में स्थापित हो सकें। विवेक के कारण ही हम विवेक है। विवेक के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है इसका कोई अन्त नहीं है। जैसा आप जानते है, भ्रम के इन दिनों में यही विवेक हमें सही दिशा में ले जाएगा। अतः हमारे सभी निर्णयों में, छोटी-बड़ी चीजों को समझने में, सर्वत्र, विवेक अत्यन्त महत्वपूर्ण है- विवेक जो परमेश्वरी सूझ-बूझ है जिसे हमने प्राप्त करना है। परमात्मा आपको धन्य करें। मानव अवस्था तक विकसित हुए हैं और आगे जाने के लिए हमें अपना अन्तर्जात विवेक विकसित करना होगा। (रूपान्तरित) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-31.txt आत्मा परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन निर्मला योग- 1983 से उद्घुत हमारे अन्दर आत्मा बहुमूल्यतम निधि है। आत्मा के मूल्य को मापा नहीं जा सकता, इसीलिए इसे शाश्वत मूल्यवान कहा जाता है, क्योंकि ये असीम है, हम इसे माप नहीं सकते। प्रकार से सर्वशक्तिमान परमात्मा भी प्रकाश की तरह से साक्षी-मात्र हैं। है। परन्तु 'चित्त' उनका दूसरा गुण यह चित्त है। इसमें जब स्फुरण (Pulsation) होता है या परमात्मा का 'चित्त' जब स्फुरित होता है तो अपने चित्त के माध्यम से वे सूजन करने लगते हैं । हम कहते हैं कि सर्वशक्तिमान परमात्मा सत्-चित्त-आनन्द है। सत् अर्थात सत्य। मानव की परिभाषा में सत्य का जो अर्थ हम समझते हैं प्रासंगिक (Relative) विषय में मैं आपसे बता रही हूँ, वह पूर्ण (Absolute) है, जहाँ से सभी सम्बन्ध आरम्भ होते हैं। इसे समझने के लिए मैं आपको एक उदाहरण दूंगी। तीसरा गुण 'आनन्द उनका ( परमात्मा) है। आनन्द अर्थात आनन्द का भाव जो उन्हें अपने बोध, अपने सृजन से प्राप्त होता है। ये तीनों गुण है। परन्तु जिस 'सत्य' के सत्-चित्त-आनन्द' जब परस्पर मिलते हैं और शून्य बिन्दु (zero point पर होते हैं, तब ये ब्रह्म-तत्व बन जाते हैं। जब ये तीनों गुण एकरूप हो जाते हैं, जहाँ पूर्ण मौन (Silence) होता है, तो न पृथ्वी पर सागर, नदियाँ तथा सभी रूपों में जल है, आप ये कह सकते हैं। परन्तु इन सबको पृथ्वी ने अपने अन्दर संजोया (Enveloped) हुआ पृथ्वी तो कोई सृजन होता है और न ही कोई अभिव्यक्ति। माँ यदि न होतीं तो इनमें से किसी का भी अस्तित्व केवल आनन्द होता है जो चित्त के साथ एकरूप है न होता। अत: हम कह सकते हैं कि पृथ्वी पर विद्यमान सभी चीज़ों का आधार पृथ्वी माँ हैं वे हमें संजोए (Enveloping) हुए हैं। सूक्ष्म अणुओं, विशाल पर्वतों में उनका अस्तित्व है, उनका अस्तित्व है क्योंकि तत्व (Element) पृथ्वी का ही अंश हैं। हैं) तो तीन प्रकार के तत्वों का सृजन होता है। सर्वशक्तिमान परमात्मा भी ऐसे ही हैं। 'सत्' नामक उनका अंश, सृजित हुई या असृजित (created or not created) सभी चीज़ों का आधार है। एक अन्य उदाहरण को समझने का प्रयत्न करें। 'सत' किस से 'असत्' की ओर, 'माया' की ओर चल प्रकार 'पुरुष' है, किस प्रकार परमात्मा है जो सृजन पड़ती है। उस समय सुष्टि कार्यान्वित होने कार्य में वास्तव में भाग नहीं लेता, यह मात्र उत्प्रेरक लगती है और जब ये कार्यान्वित होने लगती है है। क्योंकि आनन्द से एकरूप होने के लिए चित्त उस है तक पहुँच गया और आनन्द का तादात्म्य सत्य से हो गया है। तीनों गुणों का संयोजन जब समाप्त होता है ( सत्-चित्त-आनन्द जब अलग होते अन्तस में 'आनन्द' उनकी (परमात्मा ) सृष्टि और 'सत्य' में विलय हो जाता है। आनन्द जब सृजन के साथ चलने लगता है तो सृष्टि 'सत्' (catalyst) है। उदाहरण इस प्रकार हो सकता है जैसे मैं सारा कार्य कर रही हूँ, हर चीज़ का सृजन तो आनन्द जो कि बाएं पक्ष में है, परमात्मा के भावनात्मक पक्ष में, बह भी स्थूल स्थूलतर होता चला जाता है। जब तक मनुष्य उस अवस्था तक नहीं पहुँच जाते जहाँ तमोगुण का पूर्ण अन्धकार है, जहाँ, 'सृजनात्मकता' का पूर्ण अन्त है और 'आनन्द' की पूर्ण सुप्ताबस्था। क्या ये से कर रही हूँ परन्तु मेरे हाथ में प्रकाश है। इस प्रकाश के बिना कुछ नहीं कर सकती। प्रकाश मेरे कार्य मैं है। परन्तु जो भी कार्य मैं का आधारि (Support) कर रही हूँ उसमें प्रकाश कुछ भी नहीं करता। इसी 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-32.txt अंक : 5 & 6 2 2007 30 चैंतन्य लहरी बात स्पष्ट है? अब आप महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती को समझेंगे। इसीलिए ईसामसीह ने कहा था, "मैं ही प्रकाश हूँ।" क्योंकि वे 'सत्' व प्रतिनिधि हैं- परमात्मा के प्रकाश के और परमात्मा ये बहुत सुन्दर है। मैंने इसको छुआ मात्र है। जब आप मानव बनते हैं, लोग कहते हैं कि मानव में आत्मा होती है, परन्तु इसका अर्थ ये नहीं कि अन्य प्राणियों में नहीं होती, परन्तु केवल मनुष्य में ही प्रकाश दीप जलने लगता है। का प्रकाश जब पूर्णत: स्थूल, सुप्त या मृत हो जाता है तो यह सृजन की दूसरी अवस्था पर पहुँचता है। उसी 'प्रकाश' के कारण हम धर्म की बात ये सभी चीजें गहन से गहनतर होती चली जाती हैं करते हैं, परमात्मा की बात करते हैं और शाश्वत तत्वों की बात करते हैं। परन्तु वास्तव में यह अत्यन्त अनिश्चित अवस्था है-मानव होना। परन्तु उस अवस्था में आपको थोड़ा सा उस ओर उछलना और स्थूल बन जाती हैं। दृष्टान्त का यह एक भाग है। अब जब आप सर्वशक्तिमान परमात्मा को पुन: प्राप्त कर रहे हैं तो यह दृष्टान्त का दूसरा भाग है। यह प्रक्रिया शनै: शनै: उच्चतर, सूक्ष्मतर और होता है, परन्तु कभी आप इधर-उछलते हैं, कभी उधर। क्योंकि यह छलांग तब तक सम्भव नहीं है उत्कृष्टतर होती चली जाती है। परिष्कृत होने की इस क्रिया में अन्ततः प्रकाश उत्तक्रान्ति के लिए कार्य करता है । शनै: शनैः स्थूल भाग ज्योतिर्मय होने लगते हैं। आप देखते हैं कि छोटे जीव-जन्तुओं में इतना प्रकाश (बोध) नहीं होता जितना बड़े पशुओं में होता है। धीरे-धीरे-आनन्द भी जब तक चेतना उस अवस्था तक नहीं पहुँच जाती जहाँ आप स्वतन्त्र हो जाते हैं और उस स्वतन्त्रता में आप अपना मार्ग खोज नहीं लेते। ये स्थिति है क्योंकि आपकी आत्मा (self) आपकी अपनी तब तक नहीं हो सकती, जब तक आप स्वतन्त्र नहीं हैं। से सूक्ष्मतर सूक्ष्म जब तक आप दास हैं या पाश में बंधे हुए हैं, या होने लगता है। हम इसे सुन्दर कह सकते हैं। मानव स्थूल अवस्था, में हैं आप किस प्रकार अपने अन्तःस्थित शाश्वत आनन्द का आनन्द उठा सकते होता है। तो आनन्द की अभिव्यक्तिह? अपनी आत्मा (self ) को अधिक से अधिक का आनन्द, पशुओं के आनन्द की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर भी परिवर्तित होने लगती है। अर्थात आपके आनन्द उघाड़ कर और अधिक सूक्ष्म और स्वच्छ बनकर ताकि आप परमात्मा को महसूस कर सकें। उस आनन्द के प्रति स्वयं को अनावृत करना आप पर का दायरा बढ़ता चला जाता है और आपके हाथों में पहुँच जाता है। उदाहरण के रूप में कुत्ते के लिए सौन्दर्य का कोई अर्थ नहीं है, भद्रता का कोई अर्थ निर्भर करता है। नहीं है। अत: मानव अवस्था पर पहुँचने तक, उस एक बार जब आप इस तथ्य को जान सीमा तक, आप अपना 'सत्' जो कि चेतना है, उस सीमा तक अपना आनन्द तथा सृजनात्मक क्रिया को भी विकसित करते हैं । अब आप देखिए कि किस जाएंगे कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् जब तक इन तीनों तत्वों (सत्-चित्त-आनन्द) में संयोजन नहीं होने लगता, आप ये नहीं महसूस कर सकते कि आपने स्वयं को स्थापित कर लिया है । प्रकार परमात्मा की 'सृजनात्मकता' मानव के हाथों में आती है, अवस्था परिवर्तन के साथ किस प्रकार अपने अन्त:स्थित आनन्द को चेतना के माध्यम से महसूस करना होगा, अन्यथा आप इसे देख नहीं सकते। मान लो आपमें आँखे नहीं हैं तो आप किस परमात्मा का आनन्द मानव के हाथ आता है और किस प्रकार परमात्मा का 'प्रकाश' आत्मा के रूप में मानव के हृदय में आता है। he 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-33.txt अंक : 5 & 6 -2007 3। चैतन्य लहरी प्रकार देख सकते हैं? मुझे देखने की चेतना यदि आपमें न होती तो आप मुझे कैसे देखते? मुझे सुनने का बोध यदि आपमें न होता तो किस प्रकार आप निम्नस्तर के व्यक्ति से मित्रता करने का या उससे लिप्त होने का प्रयत्न करता है तो उस व्यक्ति से उसे आनन्द कभी नहीं प्राप्त हो सकता। वह केवल इतना कर सकता है कि उस व्यक्ति को अपनी और जो आनन्द मुझे समझ पाते। एक बार जब वह चेतना आपमें आ जाती है केवल तभी वह आनन्द आपमें जागृत होता बुलंदियों के स्तर तक उठाए है। चेतना के सूक्ष्मभाव के माध्यम से ही आप आनन्द को आत्मसात करने वाले हैं। अभी आपने करवाए। मान लो कोई कलाकार किसी अन्धी महसूस किया, और आपने कहा, "कितनी सुन्दर लड़की से विवाह करता है! क्या लाभ है? वह चीज़ है।" आपको बहुत प्रसन्नता हुई। इस अवस्था लड़की इस व्यक्ति द्वारा सृजित कला का आनन्द आपको प्राप्त हो रहा है उसे भी वह आनन्द महसूस पर आप सृजन का आनन्द महसूस कर रहे हैं और नहीं ले सकती। इसी प्रकार से यदि आप अपने मानव तो सृजन की पराकाष्ठा है। परन्तु 'शिखर परिवार के लोगों में, अपने (crown) भाग अत्यन्त छोटी सी चीज़ है। बहुत में दिलचस्पी लेते हैं तो पहला और सर्वोत्तम कार्य छोटी सी चीज़। तत्क्षण यह थोड़ी सी दूरी को पार करता है, केवल इन तीनों तत्वों (सत्-चित्त-आनन्द) का संयोजन होना चाहिए। इसी कारण से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात् भी आपकी लिए खोल दें, यही बहुमूल्यतम चीज़ है। यहा सम्बन्धियों में, मित्रों जो आप कर सकते हैं वह है उन्हें आत्मसाक्षात्कार देना अर्थात अपनी आत्मा का 'आनन्द' देना। उनकी आत्मा के आनन्द के द्वार उनके लगता है कि आप उस शक्ति (Silence) को महसूस नहीं कर पाते। क्योंकि आप 'प्रकाश' नहीं बने, आप कारण है कि लोग फड़फड़ाते हैं, समय नष्ट करते हैं और परेशानी का एहसास उन्हें होता है। छोटी-छोटी चीजों के लिए आसानी से वो अपने आनन्द का आनन्द' को महसूस नहीं करते क्योंकि आप आनन्द नहीं बने। ये आपका बायाँ पक्ष है। हर चीज़ में आनन्द है। मानव रूप में आप प्रतिकृतियों (patterns) में आनन्द देखने लगते हैं। आप एक पिटारा देखते हैं, इसे खोलते हैं। इसमें आपको जहाँ में हूँ और मैं चाहती हूँ कि आप सब इसमें प्रतिकृति दिखाई देती है। आप इसे मुल्लमा कहते हैं आएं और आनन्द उठाएं। आपके चीज़ों के खुरदरेपन, उनकी कोमलता और सामंजस्य की बात आप करते हैं। आप पदार्थों को, परमात्मा अन्ते कर लेते हैं। आपके सम्मुख यह सागर की तरह से है, लिए यही काफ़ी है। आपके आनन्द के लिए ही सारा सृजन किया गया था। आपको सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनना होगा। परन्तु आप तो अत्यन्त स्थूल चीज़ों पर अपना बहुत क्यै सृष्टि के आनन्द को महसूस करने लगते हैं। सा समय बरबाद कर रहे हैं। परन्तु आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आप सृष्टि के आनन्द को महसूस करने लगते हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। मानव ही सृजन की पराकाष्ठा है, इसलिए सहजयोगी को महसूस करना चाहिए कि यदि वह किसी निर्मलायोग-1983 (अनुवादित) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-34.txt परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का परामर्श हैम्पस्टैड टाऊन हॉल (इंग्लैण्ड) 31.03.83 परमात्मा का कार्य और नकारात्मकता मुझे लगता है कि परमात्मा के नज़रिए से गर्व है और इसे अधिक बिगाडने पर और अपनी जब भी कोई कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है तो स्थिति को और खराब करने पर हम लगे हुए हैं। सारी नकारात्मक शक्तियाँ इस दिव्य कार्य में विलम्ब करवाने के लिए, इसमें विघ्न डालने के लिए तथा इसका पथ परिवर्तन करने के लिए अपनी योजनाओं के लिए, उस पर प्रयोग करने के लिए, हमें दी गई को कार्यान्वित करने लगती हैं। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है। आज बेहतर होगा कि मैं आपको परमात्मा की इच्छा के विषय में बताऊं और ये भी कि किस प्रकार हम मानव हर समय इसके विरुद्ध लगते हैं तो मात्र, 'आत्मा' ही हमारी चिन्ता नहीं रह इस प्रकार से हम चलते हैं। जो चेतना हमारी अपनी थी, मानवीय चेतना, वह हमारी स्वतन्त्रता को परखने थी। इसके द्वारा हम आत्मा बन जाते हैं। आखिरकार आपने आत्मा बनना है। परन्तु जब हम अपनी तथाकथित चेतना में उन्नत होने जाने का प्रयत्न करते हैं। जाती। मैं कहूंगी कि हम उस वृक्ष की तरह से हैं जो खड़े होने और उन्नत होने के लिए अपनी जड़े पृथ्वी में उतारता है। इसी प्रकार से हमारी जड़ें भी हमारे मस्तिष्क में हैं। और फिर हम पत्ते परमात्मा की इच्छा अत्यन्त सहज है। उनका प्रेम दिव्य है, वे करुणामय हैं और दया के सागर हैं। उन्होंने इस विश्व का सृजन किया और उसके बाद मानव का सृजन किया ताकि वे उसे जीवन की निकलने, फूल खिलने और फल बनने तक ऊपर उच्चतम चीज़ 'आनन्द' प्रदान कर सकें। आनन्द, उठते चले जाते हैं। परन्तु इसके विपरीत फल की जो कि अत्यन्त सहज गुण है, में उधार ली गई प्रसन्नता की तरह से दोहरापन (Duality) नहीं सृजन करने और उनका आनन्द लेने लगते हैं। हम अवस्था तक पहुँचने से पहले हम बनावटी पत्तों का होता। परन्तु किस प्रकार हम परमात्मा-विरोधी और आनन्द-विरोधी हैं तथा ऐसा क्यों होता है? बनावट में फँस जाते हैं। एक बार जब हम इस बनावटीपन को अपनाने लगते हैं तब हम वास्तविकता हमारी चेतना, जैसे आप जानते हैं, हमारे से दूर हट कर नकारात्मक विचारों या परमात्मा-विरोधी मस्तिष्क के माध्यम से नीचे की ओर ( अधोगति) बढ़ती हैं और अधोगति की ओर जाते हुए ये हमें हैं क्योंकि इन्हीं विचारों के कारण हम एटम बम सकारात्मक विचारों की अति की ओर बढने लगते आदि बनाते हैं। परमात्मा से दूर ले जाती है। परमात्मा को प्राप्त करना हमारा अन्तिम लक्ष्य है। परन्तु सर्वप्रथम हम परमात्मा से तादात्मय की चेतना से थोड़ा दूर जाते बँट जाते हैं। कुछ लोग बाई ओर को या नकारात्मक हैं, केवल ये समझने के लिए कि स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण की ओर जाना चाहते हैं। वे स्वयं को नष्ट उचित उपयोग होना चाहिए। इस प्रशिक्षण के बिना, इस शिक्षा के बिना मानव को स्वतन्त्रता देना व्यर्थ करते हैं जिनके कारण अत्यन्त दयनीय ढंग से है। आपने स्वतन्त्र देशों को देखा है। अपनी स्वतन्त्रता में उन्होंने क्या प्राप्त किया है? अपनी हत्या करने जाते हैं, वे अपने शरीर को कष्ट देते हैं। अपनी हर के लिए एटम बम! यह मूर्खता है, जाहिलपन है, चीज़ को कष्ट देते हैं। दूसरा दायाँ पक्ष है। इसमें निरर्थक है। परन्तु अत: वास्तव में दो शाखाएं हैं जिनमें हम करते हैं, स्वयं को कष्ट देते हैं और सभी ऐसे कार्य उनकी मृत्यु होती है। उन्हें सभी प्रकार के रोग हो हमने ऐसा किया है। हमें इस पर जानेवाले लोग अन्य लोगों को कष्ट देते हैं, उन्हें 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-35.txt अंक : 5 & 6 चैतन्य लहरी 33 -2007 सृजन नहीं कर सकते। शरीर की तो बात ही छोड़ के नष्ट करते हैं, उन पर नियंत्रण करते हैं। दोनों ही मार्ग परमात्मा, उनकी दया और उनकी कृपा से दूर दें आप अपने लिए एक गुलाब फूल का सृजन हैं। लक्ष्य केवल एक होना चाहिए-आत्मा, केवल नहीं कर सकते। फिर हमें आत्मविरोधी क्यों होना तभी उचित दिशा की ओर बढ़ सकते हैं। परन्तु चाहिए? जिस समाज का हमने सृजन किया है, उस समाज का विरोधी हमें क्यों होना चाहिए? या जिस राष्ट्र या राष्ट्रों का हमने सृजन किया है उनके विरुद्ध मानव इस लक्ष्य से आसानी से भटक जाते हैं क्योंकि ऐसा करने के लिए वे स्वतन्त्र हैं। अपने अहं के कारण वे इसे इस प्रकार तितर-बितर कर हमें क्यों होना चाहिए? आज ये सब राजनीतिज्ञ क्या देते हैं कि जब आप लोग सुगम जीवनयापन के बनावटी रास्ते विकसित कर लेते हैं तो आपमें ओर देखें। मैं समझ नहीं सकती कि ये सारी लड़ाई परमात्मा की चेतना ही लुप्त हो जाती है-कि परमात्मा का अस्तित्व है और वही पूरे विश्व को चला रहे हैं। अपने बारे में हम इतने चेतन हो जाते हैं कि हम सोचने लगते हैं कि 'कुछ भी गलत नहीं है।' उल्टे-सीधे कार्य कर करके हम स्वयं को सभी प्रकार की समस्याओं में फँसा लेते हैं। ये जो भी कुछ हम कर रहे हैं, ये हमारे विरोध में है, और इसलिए कि कुछ लोगों के दिमाग फिर गए हैं? और हमारी आत्मा अर्थात 'परमात्मा', के भी क्योंकि कर रहे हैं? परस्पर लड़ रहे हैं । किसलिए? इनकी किस लिए है। और अधिक विनाशकारी शक्तियों का सृजन करने के लिए? अबोध मनुष्यों की हत्या करने के लिए, अधिक भयानक हथियार बनाने के लिए? जो अबोध हैं उन्हें केवल चेतावनी है वो नहीं जानते कि वे क्या करें। उनकी समझ में नहीं आता कि कल उनकी हत्या क्यों हो जाएगी! केवल ये सब विकृत मस्तिष्क के लोग सत्तारुढ़ हैं! इस परमात्मा ने हमारा सृजन किया है और हमें प्रेम करते हैं। हम स्वयं को प्रेम नहीं करते। यदि हमें स्वयं से प्रेम होता तो हम अपने शरीर, अपने तन्त्र और अपनी हर चीज का ये कहकर दुरुपयोग नहीं करते कि "क्या खराबी है? क्यों न ये कार्य किया जाए?" आपको अपने इस शरीर, अपने इस मस्तिष्क और इस समाज को प्रेम करना चाहिए। अपनी हर चीज से आपको प्रेम करना चाहिए क्योंकि अपने प्रकार से हमारे अन्दर नकारात्मकता बढ़ती है। हम नकारात्मक हो जाते हैं। दोनों ही दृष्टिकोण नकारात्मक हैं क्योंकि ये परमात्मा को नकारते हैं। पहला अपराध जो हमने किया, वह है परमात्मा को नकारना। हमें परमात्मा का भय नहीं है। वे करुणा हैं, दया हैं, सभी कुछ हैं। परन्तु अपनी करुणा में ही वे इस विश्व को नष्ट करने वाले हैं अपने विरुद्ध और अधिक अपराध करने की आज्ञा वो नहीं देंगे । वैसे भी वो विनाश करते हैं। प्रेम के कारण परमात्मा ने आपका सृजन किया है। परन्तु प्रेम शब्द को ही अत्यन्त विकृत कर दिया गया है। क ते हैं असंयमित यौन सम्बन्धों में क्या कैंसर (कर्क रोग) क्या है? हमारे शरीर में होने बुराई है? क्या ये प्रेम है? मैं यदि आपसे कहं कि वाले ये सभी रोग क्या हैं? ये उन्हीं विनाशकारी ये प्रेम नहीं है क्योंकि यह प्रकृति के विरुद्ध है और शक्तियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जिनकी रचना आपको कष्ट देता है, इसके कारण आप समस्याओं हमने स्वयं अपने अन्दर की है। किसी भी बाह्य, में फँस जाएंगे। परन्तु लोग सोच सकते हैं कि ये किसी ग्रह या किसी भी प्रकार के सांसारिक आक्रमण महिला बुढ़िया गई हैं, पुराने फैशन की है या विक्टोरियन युग की है। सुनिए, ये सत्य है। क्यों हम ऐसे कार्य करते हैं जो हमें नष्ट कर दें? आप अपना का कोई भय नहीं है। नहीं, ऐसा कोई भय नहीं है। आक्रमण की रचना हमारे अपने अन्दर होती है और इसका ज्ञान हमें होना चाहिए। स्वतन्त्रता के नाम पर 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-36.txt अंक : 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी 34. और आप क्या करने चले हैं? हमें केन्द्रक (Nucleus) बनाने होंगे जो खुलकर परमात्मा के विषय में बात कर सकें। ये देखकर मैं हैरान थी कि इस देश में लोगों को परमात्मा क विषय में बात करना पसन्द नहीं हैं। क्या आप ऐसी अवस्था की कल्पना कर सकते हैं जहाँ आप अपने सृजनकर्ता हमने अपने अन्दर विनाश के सभी जीवाणु एकत्र कर लिए हैं। यह ऐसी अन्तर्रचित प्रक्रिया है कि हमें इस बात का पता भी नहीं चलता कि आक्रमण होने वाला है तथा आक्रमणकारी तत्व मौजूद हैं। हम अपने आप से, अपने बनावटी जीवन से, अंपने शिष्टाचारों तथा सतही व्यवहार विधियों से पूरी तरह के बारे में बात ही न कर सकें या जहाँ पर धर्म का सन्तुष्ट हैं! कोई अर्थ ही न हो? या फिर आप किसी प्रकार की अन्तर्जात रूप में हमारे अन्दर आत्मा का गुप्त संस्था बनाते हैं जिसमें सबको आने की आज्ा न हो और कहते हैं, "अब हम फलाँ पंथ से निवास है जो हमें ज्योतिर्मय करना चाहती है, और हमें शान्त अस्तित्व का आशीर्वाद और आनन्द प्रदान करना चाहती है। आपके इस सन्दर चिराग सम्बन्धित हैं। परमात्मा के पंथ किस प्रकार हो का सृजन किसी उद्देश्य से किया गया है इसे ज्योतिर्मय किया जाना है। अपना सम्मान करें। आज हैं? इस बारे में सोचिए, उनके अलग-अलग चर्च, अलग अलग मन्दिर और अलग-अलग मस्जिद सकते के शब्दकोश में 'सम्मान' शब्द बचा ही नहीं है। किस प्रकार हो सकते हैं? परमात्मा के नाम पर हम अपना सम्मान करें। हमें इस दीपक का, जिसमें धर्मान्ध कैसे हो सकते हैं? क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हैं? हमने परमात्मा के साथ यही किया आत्मा का प्रकाश है, सम्मान करना होगा और इसे ज्योतिर्मय करना होगा। हमें वह चिराग बनना चाहिए है। हम धर्मान्ध हो गए हैं। एक ऐसा पत्थर है जिसे जो गरिमा को दर्शाता है। परमात्मा- सृजित यह विश्व बहुत सुन्दर है परन्तु अपनी अज्ञानता में, है। किसी चीज़ को भी जब वे छूते हैं तो वह सोना अपनी तथाकथित स्वतन्त्रता में, हमने बहुत सी चीज़ों को नष्ट कर दिया है। ये देखकर दुख होता है कि लोग किधर जा रहे हैं- सीधे नर्क की ओर! एक माँ के लिए यह अत्यन्त चिन्ता का विषय है। इस पतन को किस प्रकार रोका जाए? उन्हें इससे बाहर कैसे निकाला जाए? किस प्रकार उन्हें समझाया जाए कि उनका जब वे (परमात्मा) छूते हैं तो यह सोना बन जाता बन जाती है। परन्तु पत्थर तो होना चाहिए। मानव को जब वे छूते हैं तो वे कैदियों की तरह से बन जाते हैं। इसी कारण से इतनी धर्मान्धता है। आपको ये समाचार, ये सन्देश देना ही एक समस्या है कि आप आत्मा हैं तथा आपको आत्मा बनना है। मेरी मातृभाषा मराठी है और परमात्मा का धन्यवाद कि मैंने महाराष्ट्र में जन्म लिया क्योंकि ये सन्तों का देश है। इस देश में हजारों सन्त हुए। ये परम्परावादी है, ये इतना आध्यात्मिक है। जिस स्थान पर मेरा जन्म हुआ, आध्यात्मिकता वहाँ की परम्परा महत्व क्या है, उनका मूल्य क्या है? आपको मानव जीवन को स्वीकृत नहीं मान लेना चाहिए। बहुत सी प्रक्रियाओं के बाद इस बहुमूल्य जीवन का सृजन किया गया। अत्यन्त कठिनाई से ये सृजन हुआ। मत है। महा-राष्ट्र अर्थात महान राष्ट्र। आध्यात्मिकता भूलिए कि आपको 'आत्मा' बनना है, इसके बिना वहाँ की परम्परा हैं, मद्यपान, नशा सेवन या अन्य आपका जीवन व्यर्थ है (आत्मा बने बिना) क्योंकि व्यसन नहीं। आध्यात्मिकता उस देश की परम्परा है जहाँ नामदेव नामक अत्यन्त सामान्य कवि का जन्म आप सृजन की पराकाष्ठा हैं। आप ही उस सृजन का निष्कर्ष हैं। हुआ। वे दर्जी थे, मात्र एक साधारण दर्जी। परन्तु 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-37.txt अंक 5 & 6 2007 चैतन्य लहरी उन्होंने बहुत सी मधुर कविताएं लिखीं। मैं वर्णन करुंगी कि उन्होंने क्या कहा:- "एक नन्हां बालक हमें समझना है कि अब तक इन लोगों ने क्या किया है जिसे हमने स्वीकार कर लिया है। ये सब आकाश में पतंग उड़ा रहा है। वह आकाश को देख क्षितिज से परे हैं। हमारे अन्दर एक सितारा चमक रहा है, अपने मित्रों से बात कर रहा हैं, हो रहा है, कभी-कभी बातें भी कर लेता है। परन्तु उसका चित्त सदा पतंग पर टिका हुआ है। तब वे के विषय में बात करते हैं, ऐसे पंथ बनाते हैं जो कहते है कि अपने नन्हें शिशु को उठाए हुए एक महिला घर का कार्य कर रही है- पति को पानी दे रही है, बच्चे के साथ बैठी है, खाना बना रही है और बर्तन धोने के लिए खड़ी होती है। बच्चा उसने आराम से अपनी कमर पर उठाया हुआ है। सारे कार्य हो रहे हैं। तर्क ये दिया जाता है कि " आपको कार्य करते हुए भी उसका चित्त हर समय बच्चे पर टिका हुआ हुए है, वह दूसरी महिलाओं के साथ चल रही है। मिलकर चलते हुए वो हँस रही हैं, मुस्करा रही हैं कि ईसामसीह का कियाधरा सब व्यर्थ था और अब और एक दूसरे से ठिठोली कर रही हैं। परन्तु उनका चित्त हमेशा पानी से भरे घड़ों पर टिका है। अर्थात ऊपर नीचे रहा है और यह हमारी आत्मा है। लोग इसके विषय में बात करते हैं, परमात्मा कहते हैं कि वे परमात्मा का कार्य कर रहे हैं । परमात्मा के कार्य में महिलाएं अपनी जंघाओं को बाँध रही हैं और अपनी चमडी को चमका रही हैं! कल्पना करें, परमात्मा के नाम पर ऐसे भयानक अपने को तपाना होगा।" अपना दमन क्यों करना चाहिए? "क्योंकि ईसामसीह ने ऐसा किया था । क्या आप ईसामसीह हैं? और इसका अर्थ ये हुआ है। एक अन्य महिला सिर पर घड़े रखे त आपके योगदान की आवश्यकता है। जो भी कुछ किया गया वह पर्याप्त था क्योंकि ईसामसीह तो राजकुमार थे और यदि राजकुमार को कष्ट झेलने उनका चित्त 'आत्मा' पर है। इसी प्रकार से यद्यपि हम यहाँ जीवन के पड़े तो इसमें कौन सी महान बात है? ये कार्य वो कार्यों में लगे हुए हैं परन्तु खेद की बात है कि पहले ही कर चुके हैं और उन्होंने हमारे लिए कार्य हमारा चित्त अपनी आत्मा पर नहीं है जो जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्रदान करती है। ज्योंही आप आध्यात्मिकता की बात करने लगते हैं तो लोग सोचते हैं कि ये बेकार की बातें नहीं सुननी चाहिएं। परन्तु आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लेना सर्वोत्तम है बार-बार वे उन्हीं सांसारिक चीजों के विषय में सुनना चाहते हैं। Conservative या Labour पार्टी की कोई आकाशवाणी यदि हो तो वो इसे घण्टों तक सुनेंगे- ऐसी व्यर्थ की सांसारिक चीजों को। हर साल मुझे विश्वास है। अपने स्तर पर मैंने पूरी कोशिश आप इसे सुनते हैं परन्तु यदि कोई कहे कि "नहीं, ये सब बनावटी है, आपके सुनने के लिए आपके है। वास्तव में यह पहाड़ उठाने जैसा कार्य है। इतनी अन्दर कुछ और भी बहुमूल्य है, "तब लोग सोचते हैं, कि वो यहाँ ये सब बातें सुनने के लिए नहीं को नहीं समझना चाहता। अत: निराश आए। "माँ हमें ये सब क्या बता रही हैं?" परन्तु अब जागो और खड़े हो जाओ। एक अलग स्तर पर किया है। हमें अपने अन्दर उन्हें जागृत करना होगा और इस प्रकार से आत्मसाक्षात्कार पाना होगा। सर्वसुगम विधि ये है कि बैठकर प्रश्न पूछे आज यही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। नि:सन्देह, आज की परिस्थितियों में मानव जैसा है, ये कार्य बहुत जल्दी से कार्यान्वित नहीं होगा। इस बात का की। पहाड़ जैसी कुण्डलिनी आपको उठानी होती अधिक थकान होती है। परन्तु कोई इसके महत्व न हों, इस विषय में दुखी न हों। धीरे-धीरे निरन्तर, मुझे विश्वास है, आपकी की গাঁc 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-38.txt चैतन्य लहरी अंक : 5 & 6 -2007 36 आँखों में झाँककर लोग देखेंगे कि आपका जीवन आपको यदि दूसरों से हमदर्दी है, उनकी यदि आनन्द, आशीष और सूझ-बूझ में परिवर्तित हो गया आपको चिन्ता है तो आपको अपना साहस और है। वो देखेंगे कि आप कितने प्रेममय और प्रसन्नचित्त सूझ-बूझ बनाए रखना होगा। वे आपको समझेंगे हो गए हैं। और तब उन्हें विश्वास होगा कि उनके और आप, केवल आप, अधिक से अधिक लोगों लिए एक बेहतर जीवन है । कुछ लोगों की स्थिति को बचा पाएंगे और उनका उद्धार कर पाएंगे तथा वे इतनी खराब होती है कि वे हर चीज़ में बुराई ही देखते हैं। वे इतने निराश हो चुके हैं कि उन्होंने सभी कुछ छोड़ दिया है। सब कुछ छोड़ दिया है । कहते हैं, "अब हम ये सब छोड़ चुके हैं। हम सब कुछ कर चुके हैं, कुछ और नहीं करना चाहते। फ्राँस में मैंने ये देखा है। वे लोग विश्व के पतन और सिर पर लटकते हुए विश्व के विनाश की ही ये नहीं जानते कि इस सांसारिक खींचातानी के बात करते हैं। वे बहस करते हैं कि अब हमें जीवन से परे भी कोई जीवन है- सौन्दर्य और समाप्त हो जाना चाहिए। ये सब हम काफी देख चुके। किसी भी प्रकार से, एटम बम या किसी है, यह कार्यान्वित होगा। विशेषरूप से परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करेंगे। एकमात्र बाधा ये है कि आपको लगेगा कि अब भी बहुत से लोग खो गए हैं। कोई बात नहीं आपको कठोर परिश्रम करना होगा, हमें समझना होगा कि अब भी ऐसी नकारात्मक शक्तियाँ हैं जो उन्हें नीचे की ओर घसीट रही हैं। वे अज्ञानी हैं जो गरिमा से परिपूर्ण शाश्वत जीवन। परन्तु शनै: शनै: मुझे विश्वास इस सभा के लिए। उन्होंने बहुत और सभी हतोत्साहित हो गये। अन्य प्रकार से अन्ततः अब हमें नष्ट हो जाना से उतार-चढ़ावे चाहिए। अब हमें समाप्त हो जाना चाहिए। इतना देखे अधिक उन्माद है। इन चीजों के विषय में सोचने वालों, जो लोग इसके विषय में चिन्तित हैं उनके उन्माद को में समझ सकती हूँ। मुझे इसकी चिन्ता है। मुझे कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति को उन्माद हो ही जाना चाहिए। कभी-कभी तो सहजयोगी कर्तव्यों को पूर्ण कर सकें। समय बीत रहा है, अब परन्तु अब भी व्यक्ति को समझना होगा कि परमात्मा, के कार्य परमात्मा से ही आशीर्वादित होते हैं। अपने सारे आशीर्वादों और सहायता की कृपावर्षा वे आप पर करेंगे ताकि आप मनचाहे भी अत्यन्त परेशान हो जाते हैं और उन्माद में आकर कहते हैं, " श्रीमाताजी ये सब छोड़ दीजिए, हम ये सब कर चुके, अब और नहीं। " परन्तु मैं नहीं जानती किस प्रकार अपना चित्त आत्मा से हटाऊं। बहुत कम समय बचा है। समय तेजी से बीत रहा हैं। इसीलिए उन्माद बढ़ता जा रहा है। यह उन्माद पृथ्वी पर सहजयोग के आगमन का कारण बना है। अपने आस-पास विद्यमान बाधाओं से लड़ने के लिए आपको स्वयं को अधिक सुदृढ़ महसूस करना आप यदि प्रयत्न कर सकते हैं, तो अपने स्तर पर इसे हटाने का भरसक प्रयत्न करें। आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि आप इसमें हैं। अत: जो होगा और सृजन के इस अन्तिम लक्ष्य को कार्यान्वित कुछ भी हो, आप अधिक से अधिक लोगों को बचाने के लिए लड़ते रहेंगे। अत: कुछ-कुछ समय के बाद निराश होने वाले इन सभी सहजयोगियों को मुझे कहना है कि आपको निराश नहीं होना। करना होगा। परमात्मा आप पर कृपा करें। निर्मला योग-1983) रूपान्तरित 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-39.txt सहजी माताओं को श्री माताजी का परामर्श "माँ बनना- सर्वोच्च जिम्मेदारी का पद है। माँ का पद, यह किसी राजा की जिम्मेदारी से भी बड़ी जिम्मेदारी का पद है- माँ बनना।" ( श्री माताजी ) किसी साक्षात्कारी की माँ बनने ने हमारे की रक्षा कर सकते हैं परन्तु माँ बाप की लहरियों सम्मुख बहुत से व्यवहारिक प्रश्न खड़े कर दिए हैं के प्रभाव से उन्हें नहीं बचा सकते। अत: ये जो सम्भवत: सहजयोग से पूर्व कभी हमारे सम्मुख न आते। लन्दन की सहजयोगिनियों को परम पूज्य श्री माताजी का परामर्श प्राप्त करने का विशेष यही है कि नन्हें शिशुओं और बच्चों को होने वाली आशीष प्राप्त हुआ। ये जानकर कि इस मार्ग दर्शन चैतन्य-लहरियों की समस्याएं माता-पिता से ही की विधियों को जानने की कितनी प्यास हमारे आती हैं। आवश्यक है कि माता-पिता, जहाँ तक सम्भव हो, स्वयं को स्वच्छ करें। हमारा व्यवहारिक अनुभव भी अन्दर थी, हमने श्री माताजी के भिन्न लोगों को बताए गए कुछ परामर्शों को एकत्र किया है। जहाँ के पालन-पोषण के लिए (That of having तक हम जानते हैं ये पथ प्रदर्शन किसी व्यक्ति विशेष के लिए न होकर सभी सहजयोगियों के लिए है। आशा है आपके लिए भी यह हितकर साबित होगा। सहजयोगिनी माताओं से बातचीत करते हुए को दी। उन्होंने कहा, कि पाश्चात्य समाज में वैसे "यह अत्यन्त विशिष्ट जिम्मेदारी है, बच्चों children)"I विवेकशील माता-पिता न होने की स्थिति में श्री माताजी ने माँ और बच्चे की देखरेख विषय पर उपलब्ध पुस्तकें भी पढ़ने की सलाह माताओं श्री माताजी ने हमें बताया कि पाश्चात्य समाज में बच्चे हमारे अहं और प्रतिअहं के साथ जन्म लेते माता-पिताओं का अभाव है जैसे भारत में हैं, वहाँ तो दादी माँ भी बच्चे के लालन-पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में तो पूरा समाज ही बच्चे हैं- यही कारण है कि जन्म के समय उनके सिर पर या तो बहुत कम बाल होते हैं या बिल्कुल नही को उचित दिशा में परिवर्तित करके ठीक प्रकार से होते। भारत में श्री माताजी ने बताया, जन्म के प्रशिक्षित करने में योगदान देता है। समय अवश्य बच्चों के सिर पर बाल होते हैं। एक बार जब बच्चे की जरूरतें पूरी कर दी जाएं अर्थात उसकी नैपी बदल दी जाए, दूध पिला दिया जाए तो उसके बाद उसे हर समय उठाए नहीं रखना चाहिए व्यवहारिक परामर्श : गर्भावस्था के समय माँ के मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को स्वच्छ एवं सकारात्मकता से परिपूर्ण रखा जाना आवश्यक है। क्योंकि इस प्रकार उसके अहं को बढ़ावा मिलता है। "मस्तिष्क में जो चल रहा है उसका प्रभाव दृढ़तापूर्वक श्री माताजी ने हमें बताया कि आरम्भ से ही बच्चों को नियमित रूप से दूध देना है और उनके लिए एक लचीली दिनचर्या बनानी है। बच्चे पर भी पड़ेगा- मन प्रसन्न होना चाहिए- बनावट या भावना के साथ आप नहीं रह सकते।" शारीरिक स्तर पर माँ यदि स्वस्थ हे और गर्भ सामान्य है तो-गर्भावस्था के पूरे समय श्री माताजी ने सैर करने का परामर्श दिया। उन्होंने बताया कि इस प्रकार सैर करते रहने से प्रसव पीड़ा कम होगी (कहने का अभिप्राय ये भी था कि इस बात पर बल दिया गया कि एक विवेक पूर्ण सीमा तक बच्चों को हमारी जीवन शैली के अनुकूल होना चाहिए और उन्हें हम पर शासन नहीं करना चाहिए। श्री माताजी ने ये भी व्याख्या की कि परमात्मा अत्यन्त हानिकारक लहरियों से तो बच्चों 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-40.txt चैतन्य लहरी 38 अक : 5 & 6 -2007 स्वाधिष्ठान चक्र यदि ठीक होगा तो इससे सहायता मिलेगी। जा सकता है, परन्तु यह पहले उबाला जाना चाहिए। जन्म के पश्चात : माँ और बच्चे को चालीस दिनों तक अन्दर रहना चाहिए। इसे समय में उन लोगों से मिलना जुलना कम से कम होना चाहिए जो सहजयोगी नहीं हैं। अन्य परहेज :- (d) बच्चे को ठीक प्रकार से वायुमुक्त किया जाना चाहिए चाहे वो सोया हुआ हो। 1. बच्चे को वायुमुक्त करते हुए हाथ नीचे की ओर चलने चाहिएं, गर्दन से रीढ़ के 2. जन्म के पश्चात् से ही बच्चे को चीनी और उबला पानी दिया जा सकता है। अन्त तक। उदरशूल (पेटदर्द) उपचार : ऐसा लगता है कि हमारे बहुत से बच्चों को वायु और उदरशूल की समस्याएं भुगतनी पड़ीं। श्री माताजी ने इस विषय पर बहुत सारे परामर्श दिए कि किस प्रकार आपके बच्चे को यदि वायु की समस्या है और आप बच्चे को स्तनपान कराती हैं तो आपका अपना भोजन भी महत्वपूर्ण है। ऐसा भोजन करें जिससे वायु न बने। इस समस्या का उपचार किया जाए और रोका a. चावल नहीं खाने चाहिएं। जाए:- पृथ्वी के अन्दर जड़ों में उत्पन्न होने वाली सब्जियाँ नहीं खानी चाहिएं। b. अजवायन उपचार : निम्नलिखित विधि (a) से अजवायन का सेक करें। मैदा या मैदे से बनी चीजें नहीं खानी चाहिएं। C. अजवायन को स्वयं चबा कर 1. किसी सुखे बर्तन में इसे आँच पर गरम करके, किसी कपड़े या रुमाल में डालकर बच्चे की नाभि पर सेक करें। दूध में कोई अनाज आदि पकाकर पीना चाहिए, केवल दूध नहीं। 2. d. ठण्डे पेय से बचें। e. (b) माँ को भी प्रतिदिन ठीक ठाक मात्रा में f. सभी वायु उत्पन्न करने वाले पदार्थों से बचें, जैसे बीन्स और मसाले। अजवायन चबानी चाहिए, अजवायन लेने का एक अन्य तरीका भी श्रीमाताजी ने हमें बताया कि किस प्रकार इसका पेय बनाया खाने के लिए अच्छा आहार निम्नलिखित है:- सूजी, बादाम (चीनी मिलाकर या सादे), भारतीय रसगुल्ला आदि। जा सकता है:- सौंफ के सात दाने और अजवायन के दो दाने और मिशरी मिलाकर पानी को उबालें और बच्चे के पीने के लिए बनाएं। बढ़ी हुई मात्रा में सौंफ और अजवायन डाल कर भी, माँ और बच्चा यदि इसका उपयोग करें तो भी लाभ हो सकता है। स्नान : बच्चे को नहलाते हुए हमें चाहिए कि उन्हें गर्म रखें। सर्दियाँ यदि अधिक हैं तो बच्चे को रोज़ नहलाना आवश्यक नहीं है। श्री माताजी कहती हैं कि ऐसा करना आवश्यक नहीं है परन्तु प्रतिदिन तेल मालिश आवश्यक है। बच्चे की प्रतिदिन तेलमालिश होनी चाहिए क्योंकि यह चक्रों के लिए अच्छी होती है। मालिश बच्चा जब बड़ा हो जाए-एक या दो महीने (c) का तो ग्राइप वाटर भी दिन में दो बार दिया 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-41.txt अंक : 5 & 6 -2007 39 चैतन्य लहरी के लिए जैतून, बादाम या सरसों का तेल उपयोग किया जाना चाहिए, बाजारी बेबी तेल नहीं क्योंकि ढकी हुई है। लड़कियों को लड़कियों जैसी या इसमें विटामिनों का अभाव होता है। बालों में जैतून पंजाबी सूट पहनाए जाने चाहिए और लड़कों को का तेल न लगाएं इससे बाल सफेद होते हैं। सहस्रार लड़कों जैसी वेशभूषाएं। पर तेल की मालिश ऐसे की जानी चाहिए मानो सहस्रार को तेल से भरना हो। रखना आवश्यक है कि बच्चे की नाभि भली भाँति खिलौने : खिलौने भी प्राकृतिक तन्तुओं से बने होने चाहिए जैसे लकड़ी। प्लास्टिक के खिलौनों की चैतन्य-लहरियाँ अच्छी नहीं होतीं इसलिए इनसे बचना चाहिए। श्री माताजी ने बताया कि बच्चों के पास थोड़े से खिलौने होने चाहिएं परन्तु बाजुओं से बच्चे को न उठाए इससे उसके कन्धों को हानि पहुँच सकती है, उसे बहुत तकलीफ भी पहुँच सकती है। बालों में कंघी अवश्य की जानी चाहिए बहुत अच्छी गुणवत्ता के। चाहे अधिक बाल न हों। सिर पर सामने से पीछे की ओर कंधी करें। पीछे से सहस्रार की ओर ऊपर दूध छुड़ाई : बच्चों की दूध छुड़ाई छठे माह से शुरु होनी चाहिए और दसवें माह तक पूरी तथा दोनों तरफ। ऐसा सहस्रार को खोलने के लिएहो जानी चाहिए। बच्चों को दिए जाने वाले भोजन किया जाता है तथा बालों को बढ़ने के लिए ताजा होने चाहिए। डिब्बा बन्द बनावटी भोजन बच्चों को नहीं देने चाहिएं। श्री माताजी ने परामर्श दिया प्रोत्साहित करने के लिए। वस्त्र : श्री माताजी ने स्पष्ट शब्दों में कि दूध छुड़ाई के लिए बच्चों को दिया जाने वाला बताया कि बच्चों को 100% प्राकृतिक तन्तुओं से बने वस्त्र पहनाए जाने चाहिएं और चमड़ी के समीप के वस्त्र शुद्ध कपास के होने चाहिए। ठण्डी जलवायु के इलाकों में या स्दी के मौसम में सुती कपड़ों के यदि शीशे की हों तो बेहतर हैं। ऊपर ऊनी कपड़े पहनाए जाने चाहिएं। ग्रीवा अस्थि का छोटा सा खाली स्थान ढका जाना आवश्यक है लिए श्री माताजी ने बच्चों को टीकाकरण का क्योंकि इससे बच्चे ठण्ड नहीं पकड़ते। केरुबीम परामर्श दिया क्योंकि इससे बच्चों में नकारात्मकता (Sherub) की पोशाक सूती वस्त्रों पर पहनाई जानी लाभकारी है। पहला भोजन, चीनी मिश्रित दूध में मसले चावल खीर) होना चाहिए। दही के साथ बच्चों का भोजन न आरम्भ करें। बच्चों के दूध पिलाने की बोतलें टीकाकरण : बाल रोगों से बचने के का मुकाबला करने की शक्ति बढती है। ध्यानधारणाः- श्री माताजी ने बताया कि बच्चों के लिए रेशम के कपड़े ठीक नहीं हैं। नेपियाँ 100% सूती होनी चाहिएं क्योंकि उनका चैतन्य अच्छा होता है। यरन्तु सेमिनार आदि के अवसर पर 'उपयोग करो और फेंकों' नेपियाँ ठीक हैं शैशवकाल से ही बच्चों को हमारे साथ प्रातः काल ध्यान करना चाहिए। "हमें याद रखना है कि मातृत्व बहुत ही महत्वपूर्ण हैं- माँ ने इस ब्रह्माण्ड का सृजन चैतन्य लहरियों के अच्छे प्रवाह के लिए किया है, पिता तो मात्र साक्षी थे।" श्रीमाताजी दो भागों की पोशाकें अच्छी होती हैं वस्त्र बच्चों के टखनों तक आने चाहिए। ठण्डे मौसम में ध्यान निर्मला योग-1983 (रूपान्तरित) ही 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-42.txt निर्मल नगरी-पूणे की पावन भूमि पर श्री महालक्ष्मी का पुनर्आगमन - रविवार, 22 अक्तूबर 2006 होगा-कृतयुग। यह वह समय है जब कार्य होगा (परम पूज्य श्री माताजी चैलशम रोड लन्दन 2 अप्रैल रविवार, 22 अक्तूबर 2006 का दिन मानव इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हजारों वर्षों के बाद एक बार फिर पुणे (भारत) के खाटपेवाड़ी गाँव 1982) , भूकुम में बनाई गई निर्मल नगरी की पावन भूमि पर परम-पूज्य श्रीमाताजी के रूप में श्री महालक्ष्मा के दिवाली के त्यौहार का सूक्ष्म महत्व यह भी है कि यह श्री राम की रावण पर विजय और उनकी चरण-कमल पड़े। अयोध्या वापिसी से सम्बन्धित है। उनके आगमन की खुशी में प्रकाश उत्सव मनाया गया था। आसुरी शक्तियों पर अच्छाई की विजय का आनन्द लेने के हजारों वर्ष पूर्व त्रेतायुग में श्री विष्णु और श्री महालक्ष्मी के अवतरण श्री राम और सीताजी ने अपने चरण-कमलों से इस भूमि को चैतन्यित किया था। महाराष्ट्र ही केवल ऐसा प्रदेश था जहाँ श्री सीता-राम नंगे पाँव पैदल चले। मिथक इस प्रकार से है कि चौदह वर्षों के बनवास में श्री सीता-राम ने कुछ समय इस भूमि पर बिताया खाटपेवाड़ी के ग्रामीण इस बात का दावा करते हैं कि जो बर्तन श्रीराम और सीता ने उस समय उपयोग किए थे उनके अवशेष साथ वाली पहाड़ी पर मौजूद है और उनके उस स्थान पर आने का प्रमाण है। इस भूमि पर प्रवाहित होने वाला चैतन्य भी इसके महत्व को बताता है। इसी पावन लिए हर व्यक्ति प्रेमदीप जलाना चाहता है ताकि उनके अन्दर राजलक्ष्मी तत्व्र ज्योतिर्मय हो सकें। श्रीमाताजी कहती हैं :- आपकी आत्मा के लिए जो कुछ भी अच्छा है, यह संयोजन होते ही वह स्वतः कार्यान्वित हो जाएगा, आज सहजयोग का यही कार्य है। इसीलिए मैंने कहा कि यह कृतयुग है और इसमें यह कार्य होना है। यह समन्वय हमें अपने अन्दर प्राप्त करना है, अतः कई बार आपको अपने शरीर उस स्तर के बनाने पड़ते है। परम पूज्य श्री माताजी चैलशम रोड, लन्दन ( भूमि के लगभग ग्यारह एकड़ क्षेत्र में निर्मल नगरी बनाई गई है। श्री राम के अवतरण के बारे में बताते हुए एक बार श्रीमाताजी ने बताया था कि इस भूमि को चैतन्यित करने के लिए श्रीराम वहाँ पर नगे पाँव 2 अप्रैल 1 982) दिवाली पूजा का उत्सव मनाने के लिए आत्म-साक्षात्कारियों की सामूहिकता के रूप में विद्यमान यहाँ उपस्थित हम सब सहजयोगी कितने भाग्यशाली हैं! और इसी पावन भूमि पर दिसम्बर 2006 में हमें ईसा-मसीह के जन्म दिवस का उत्सव मनाने का भी सौभाग्य प्राप्त होगा! चले और पृथ्वी तत्व के रूप में वहाँ श्री गणेश अपनी अभिव्यक्ति करते हैं। क्योंकि पहली बार जब मानव पृथ्वी पर आया तो वह सभी पशुओं और भयानक राक्षसों से भयभीत था। ऐसी स्थिति में मनुष्य को एक राजा, सारी भाग-दौड़ और दिन की तपन के बावजूद भी ये दिवस अत्यन्त आनन्ददायी था । शाम के समय थोड़ी सी ठण्ड हो गई थी और आकाश में छिट-पट बादल भी दिखाई दे रहे थे। आज निर्मल नगरी बिल्कुल भिन्न नजुर आ रही थी। सर्वत्र आनन्द एवं उल्लहास का वातावरण था और सभी हृदय इसका पूर्ण आनन्द उठाना चाहते थे । एक शासक की आवश्यकता थी जो आदर्श राजा हो और धर्म-पूर्वक शासन करे श्री राम उन्ही शासकों में से एक थे। वे त्रेता युग में अवतरित हुए और श्री कृष्ण द्वापर युग में। मैं जब अवतरित हुई तो कलियुग था परन्तु आज कृतयुग का समय है-ऐसा युग जिसमें कार्य 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-43.txt अंक : 5 & 6 -2007 चैतन्य लहरी 41 आगे आगे चल रही थी। इतने थोड़े समय में परम दिवाली से पूर्व के दिनों में इन्टरनैट से प्राप्त हुई सूचनाओं से सभी योगियों के हृदय प्रफुल्लित थे क्योंकि हमें पता चला था कि श्रीमाताजी का स्वास्थ्य 1 पावनी माँ का स्वागत करने के लिए स्थान ग्रहण करने को भागते हुए सहजयोगियों को देखना वास्तव में एक दृश्य था। मानो सभी हृदय उनकी स्तुति गान कर रहे हों, 'शुभ-मंगलमय दिवस है आया...आदि शक्ति है स्वयं पधारी। बहुत अच्छा है, वे बहुत प्रसन्न हैं। इग्लैण्ड में वे खरीददारी के लिए भी गईं और एक शाम सहजयोगियों के साथ उन्होंने अपने ही लिखे हुए भजन का एक पूरा अन्तरा गाया-माँ तेरी जय हो, तेरी ही विजय हो। पूजा का समय शाम को साढ़े पाँच बजे घोषित किया गया था और अब सभी आँखें कुछ समय के लिए पूर्ण शान्ति छा गई । श्रीमाताजी, विशेष रूप से उनके लिए सजाए गए मंच के साथ के कमरे में आ गई थीं। चैतन्य प्रवाह बता | दिवाली पूजा में उनके पावन दर्शन करने की प्रतीक्षा रहा था कि परम पावनी माँ वहाँ विराजमान हैं। और कर रही थी। विश्व भर के देशों से महालक्ष्मी रूप में फिर अचानक "स्वागत आगत स्वागतम की धुन परम पूज्य श्रीमाताजी के चरण कमलों की पूजा करने के लिए निर्मल नगरी में एकत्र हुए तेरह-पन्द्रह हजार सहजयोगियों का उल्लास देखते ही बनता था! लहरा उठी। पौने छः बज चुके थे परन्तु मंच के पर्दे अभी तक गिरे हुए थे। पर्दे जब हटे तो मंच पर स्वर्गीय दृश्य था। सभी लोग वहाँ लगे चार विशाल स्क्रीनों पर मस्दम नजर आने वाली तस्वीरों को देख रहे थे आम सोच तथा पूर्वानुभवों के अनुसार अधिकतर लोगों ने यही सोचा कि के लिए घोषित क्योंकि अभी तक पर्याप्त अन्धेरा नहीं हुआ था। तभी समय, वास्तव में श्रीमाताजी के पहुँचने से बहुत अधिक पहले होता है। यद्यपि पूजा का समय साढ़े गूंज उठा और उसके पश्चात् सर सी पी. प्रिय पापाजी पाँच बजे शाम घोषित किया गया था फिर भी पाँच बजे तक पूरी सामूहिकता ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया था वे नहीं जानते थे कि दिव्य-लीला क्या है। में हिन्दी भाषा में परम पावनी मॉ का पावन सन्देश पूजा स्वीकार करने के लिए श्रीमाताजी समय से पूर्व सुनाया ही तैयार हो गईं थीं। क्या ये चैतन्यित-भूमि परम पावनी माँ का स्वागत करने के लिए बेचैन थी या स्वीकार करने के लिए स्वयं महालक्ष्मी की एक पूजा श्री आदि-शक्ति माताजी श्री निर्मला देवी का जयकारा का जय घोष हुआ। तत्पश्चात् सर सी पी. ने माइक पर विश्व सामूहिकता के सम्मुख, अपनी विशेष शैली | उन्होंने कहा-श्रीमाताजी ने आप सबके लिए सन्देश दिया है...हम सब एक है, परमात्मा केवल एक है, कहने के लिए अब कुछ नहीं बचा हैं। इस लक्ष्य के लिए और मानव मात्र के हित के लिए उन्होंने पिछले पैतीस वर्षों में विश्व भर में अथक प्रयास किए है और यात्राएं की हैं। अब हमें भूल जाना चाहिए कि हम भिन्न हैं। हम सब एक हैं और उनके स्वप्न को पूजा बार फिर वहाँ जाने की इच्छा भी? या श्रीमाताजी श्री गणेश की इस इच्छा को नकार नहीं पाई कि वे समय से पूर्व पहुँचकर अपने दर्शन दें? अतः श्रीमाताजी ने पूजा के घोषित समय से बहुत पहले प्रतिष्ठान से रवाना होने का फैसला किया। साकार करने की तथा पूरे देश में उनके सन्देश को फैलाने की जिम्मेदारी हमें अपने कन्धों पर ले लेनी अचानक कारों का एक काफिला श्री माताजी की कार के पीछे-पीछे आता हुआ. पौने पाँच बजे निर्मल नगरी के द्वार के समीप दिखाई दिया। मार्गदर्शक कार (Pilot Car) श्रीमाताजी की गाड़ी के चाहिए। श्रीमाताजी गहनता पूर्वक सामूहिकता को देख रही थीं और कभी-कभी वे अत्यन्त स्नेहपूर्वक हमारे 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-44.txt अंक : 5 & 6 - 2007 42 चैतन्य लहरी अन्तर्राष्ट्रीय ने श्रीमाताजी को उपहार देने के लिए लाइन लगा ली। भारत फ्रांस. आस्ट्रेलिया, स्विटजरलैण्ड, पुर्तगाल, इटली, बहरीन, हॉग-काँग आस्ट्रिया, मालता आयर लैण्ड, बल्ारिया, रूस, यूनान, अर्जेन्टीना, रोमानिया, अमेरिका तथा अन्य बहुत से देशों ने अपने उपहार अर्पण किए। छिन्दवाड़ा योजना के विकास के लिए भिन्न देशों द्वारा प्रिय पापाजी को देख लेतीं, मानों स्वीकृति में सिर हिला रही हों उनकी सुन्दर मुखाकृति हमें प्रसिद्ध भजन की याद दिला रही थी, 'प्यार भरे ये दो निर्मल नैन।' मानो उनके पावन दर्शनों के आशीर्वाद से हमारे हृदय पिघल रहे हों! नि:सन्देह यही वह क्षण था जिसकी हज़ारों साधकों को प्रतीक्षा थी। सवा छ: बजे बच्चों-नन्हे गणेशों-को परम उदारता-पूर्वक दी गई घनराशियाँ महालक्ष्मी तत्व की अभिव्यक्ति कर रहीं थी। उपहार अर्पण समारोह की समाप्ति पर घोषणा की गई कि चौबीस, पच्चीस और छब्बीस दिसम्बर 2006 को निर्मल नगरी पुणे मे अन्तर्राष्ट्रीय ईंसामसीह जन्म दिवस पूजा का आयोजन किया जाएगा। तालियाँ बजाकर योगियों ने पूज्य श्रीमाताजी के चरण कमलों की पूजा फूलों से करने के लिए मंच की ओर दौड़ते देखा गया । 'श्री गणेश अथर्वशीर्षम्' पढ़ा जा रहा था, तत्पश्चात् 'विनती सुनिए आदिशक्ति' और फिर श्रीमाताजी के 108 नामों वाला भजन 'जागो सवेरा गाया गया इसके बाद सात विवाहित महिलाओं ने श्री महालक्ष्मी के संगार के लिए उनके सम्मुख पर्दा पकड़ा और महामाया महाकाली, तुझ्या पूजनी तथा महालक्ष्मी स्तोत्रम गाए गए। हुए इस घोषणा का स्वागत किया। लगभग साढ़े सात या पौने आठ बजे मंच के पर्दे गिरा दिए गए और सारी ठीक सात बजे आरती और तीन महामन्त्रों सामूहिकता अपने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई। के साथ श्री महालक्ष्मी रूप में श्रीमाताजी के चरण कमलों में दिवाली पूजा का समापन हुआ। तेज़ हवा का एक झोंका आया और उसी के साथ सामूहिकता पर बारिश की कुछ बूंदें गिरीं । ऐसा प्रतीत हुआ मानो वरुण देवता और सभी गण इस पावन भूमि पर श्रीमहालक्ष्मी की पूजा से प्रसन्न होकर हल्की-हल्की बूँदों से अपने आनन्द की अभिव्यक्ति किए बिना न रह सके हों! नन्हीं-नन्हीं है परम पावनी माँ केवल आपकी कृपा से ही आज हम यहाँ उपस्थित हो पाए। विश्व भर के सहजयोगी भाई-बहनों की ओर से हम सब प्रार्थना करते हैं कि आपके चरण कमलों में हमारे कोटि-कोटि प्रणाम स्वीकार हों। पूजा को स्वीकार करने के लिए बूंदे शनै शनैः बड़ी बूँदों में परिवर्तित हो गई और पूर्ण समर्पित हृदय से हम आपके प्रति आभारी हैं। तत्पश्चात् अद्भुत रंग-बिरंगी आतिशबाजी का प्रदर्शन हुआ जिसने निर्मल नगरी के पूरे आकाश को आच्छादित कर दिया। उल्लसित ननहें गणेश (बच्चे) श्रीमाताजी के जाने के बाद आधे घण्टे तक बरसती रहीं। बारिश की बूंदों से पावन मिट्टी की सुगन्ध सर्वत्र फैल गई। परन्तु बूँदें इतनी बड़ी भी न थीं कि योगीगण भीग सकें। वातावरण अत्यन्त आनन्दमय हो गया था। लगभग साढ़े आठ हजार योगियों ने बाकी की शाम चैतन्य का आनन्द उठाया और लगभग इधर-उधर उछलते हुए दिखाई दिए और स्वयं श्रीमाताजी भी अत्यन्त प्रसन्नता एवं प्रेम पूर्वक आकाश पाँच से छः हजार लोग पूजा स्थान से श्री महालक्ष्मी में चैतन्य स्नान करके अपने धरों को लौट गए। की ओर देखती हुई दिखाई दी। मानो अपने बच्चों के पूजा कबूल रही हो! चैतन्य-लहरियों का प्रेम- प्रदर्शन को -जय श्रीमाताजी रबि घोष (भारत) प्रवाह आश्चर्यजनक था! आकाश में अभी आतिशबाजी चल ही रही (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित थी कि मेजुबान देशों के प्रतिनिधियों, राष्ट्रीय और 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-45.txt अतिविशिष्ट व्यक्ति सम्मेलन (न्यूयार्क, यू. एस. ए. परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर 16-6-1999) प्रश्न :- आज सन्ध्या को किए गए ध्यान से क्या उठाए है। अतः यह बिल्कुल भिन्न है। मैं नहीं जानती कि कुण्डलिनीयोग के नाम पर वो लोग क्या करते हैं। कोई रोग निवारक शक्ति आएगी? श्रीमाताजी :- हाँ, सर्वप्रथम हमें ये समझना है कि ये शक्ति है क्या। ये बात अवश्य समझनी है। यह शक्ति रोग निवारण करती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। पहले ये आपके रोग निवारण करेगी और फिर अन्य लोगों प्रश्न:- क्या आप जानती है किं कुण्डलिनी वही जीवन दायिनी (Life Force) ऊर्जा है जिसे चीन के लोगों ने ची" (Chi) कहा, तथा यह ऊर्जा हमारा एक भाग है, परे विश्व का एक हिस्सा है जिस तक हम इस प्रकार के, इस बात में कोई सन्देह नहीं है। पहुँच सकते हैं, और ची-गोंग (Chi-Gong) और ताय-ची (Ta-Chi) के माध्यम से भी क्या यह वही शक्ति है? प्रश्न- सहजयोग और रेकी में क्या सम्बन्ध है? क्या ये एक दूसरे के समानान्तर हैं? श्रीमाताजी हां, हॉ ये सत्य है परन्तु आप देखिए कि इसका सम्बन्धे हमारे अहं और प्रतिअहं से है चीन के लोगों ने जो लिखा वह ठीक है। परन्तु चीन के लोग भी ये नहीं जानते कि लाओत्से कौन हैं, क्या श्रीमाताजी- मैं किसी चीज की आलोचना नहीं करना चाहतीं, आपको केवल ये देखना चाहिए कि किसी चीज़ से आपको क्या लाभ प्राप्त हुआ.... पहला प्रश्न ये कि किसी कार्य को करने से आपको क्या लाभ आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं? लाओत्से वह व्यक्ति थे जिन्होंने इस शक्ति के विषय में बताया । उन्होंने उन लोगों को कुण्डलिनी के विषय में बताया और वो ये भी नहीं जानते हैं कि लाओत्से कौन हैं! हुआ? क्या आपको परमेश्वरी ज्ञान प्राप्त हुआ? क्या आपको आदिशक्ति (Holy Ghost) की शीतल लहरियाँ प्राप्त हुई? एक माँ के नाते मैं पूछती हूँ कि इससे आपको क्या प्राप्त हुआ? बाजार में बहुत लोग हैं, बहुत से। मैं आपसे यही प्रश्न पूछूगी कि बच्चे आपको क्या मिला? इन चीजों का कोई अन्त नहीं है। अमरीका में, विशेष रूप से, मैं नहीं समझ सकती कि किस प्रकार के चीनी लोग यहाँ रहते है। प्रश्न :- जो कुण्डलिनीयोग आप सिखाती हैं क्या उसका सम्बन्ध तन्त्रयोग से है? यह ज्ञान का महान स्रोत है और उन्होंने (लाओत्से) जो भी कहा वह बिल्कुल ठीक है। परन्तु सहजयोग में हर चीज़ का समन्वय है। सारे ज्ञान, सभी धर्म ग्रन्थ, सभी कुछ इसमें समन्वित हो जाता है। पूर्णतः समन्वित हो जाता है क्योंकि इसके प्रकाश में आप सभी के सत्य को देख सकते हैं। हर चीज में सत्य है, हर धर्म में सत्य निहित है... । श्रीमाताजी :- देखिए, कुण्डलिनीयोग मात्र एक नाम है परन्तु आपको ये बताना आवश्यक है कि इसका कुण्डलिनी से कोई लेना देना नहीं है। अतः यदि आप शब्दों के अर्थ को देखेंगे तो 'सहजयोग' और कुण्डलिनीयोग' एक से प्रतीत होंगे। परन्तु वास्तव में मैंने देखा है कि 'कुण्डलिनीयोग अत्यन्त भयानक कार्य है। क्योंकि इसके कारण लोगों ने बहुत कष्ट (इन्टरनैट विवरण) रूपान्तरित 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-47.txt ल भ По PRATISHTHAN SRIVASTAVA र "निःसन्देह सहजयोग बढ़ेगा, पर इसे आयोजित मत कीजिए। आयोजन शुरु करते ही बढ़ोतरी रूक जाएगी। जैसे, आपने देखा होगा काटकर सुव्यवस्थित (आयोजित) करने से पेड़ बौना हो जाता है। मैंने ऐसा कोई वृक्ष नहीं देखा जो आयोजन से बढ़ता हो। ज्यादा से ज्यादा आप इसका पोषण कर सकते हैं, पानी दे सकते हैं, पर आप इसके विकास की गति नहीं बढ़ा सकते। परम पूज्य श्री माताजी