चैतन्य लहरी जुलाई-अगस्त : 2007 १ चै तन्य ल ह री प्रकाशक निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी पॉड रोड कोथरुड पुणे - 411 029 फोनः 020-25285232 मुद्रक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिजाइन्ज 292/23 ऑंकार नगर "बी' त्रीनगर दिल्ली- 110035 मोबाइल 9212238008 आप अपने सुझाव, सदस्यता एवं जानकारी के लिए निम्न पते पर लिखें : निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी पॉड रोड, कोथरुड पुणे - 411 029 फोन: 020-25285232 अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463), ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली-110034 फोन : 011-65356811 चै त नय ल हरी अंक : 7 - 8, 2007 नछा ल जा की नंडा NIRMALA व बिद नत ज् ड अधिक का स मा स sAL, g E চ । ्री हे का न RELAG किन ज्ञी कर प कीर बन्ह 9384 न्दग इस अंक में े के क ह दाम] प सिगा म ईस्टर पूजा -8 अप्रैल -1982, पुणे प्रतिष्ठान, भारत म िच रक न धया की निर्मल बि गीतिका ा भगवान ईसामसीह का सृजन -11.4.1982 न पईड क र्रा कि परम पूज्य भाता जी श्री निर्मला देवी का परामर्श न 12 हे पा 13 परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र ा ब क कही चा डि 14 परम पूज्य श्री मातारजी का एक पत्र जओ क ेत क्र्रास श्री ईसामसीह के जन्म का वर्णन द्रा असफलताएं सफलता की सीढियाँ 16 पान जिहि त वि कस कहा न व 18 हैं 19 परम पूज्य श्री माताजी का परामर्श ISPA य * 22 श्रीकृष्ण पूजा पर्व - 2. 6. 1985 े ईस्टर पूजा 29 -3.4. 1988 कि ब कपत हल 38 मराठी कविता परम पूज्य श्री माताजी का प्रवचन 39 -21. 5. 1988 1 महाशिवरात्रि पूजा, नई दिल्ली -9. 2. 1991 कब परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र प 41 44 हम DHARMA VAHSIA UNIT ईस्टर पूजा 8-अप्रैल- 2007, पुणे, प्रतिष्ठान, भारत परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (वीडियो रिकोर्डिंग के अनुरूप) ये शक्ति अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने के "आज अत्यन्त महत्वपूर्ण दिन है। ये आप सबके लिए एक नई शुरुआत है। समझने का प्रयत्न करें कि आपने अब तक कठोर परिश्रम लिए मिली है। आपको ये मिल गई है, परन्तु अब आपने इसका उपयोग करना है। जिन्हें आत्मसाक्षात्कार किया तथा जो भी कुछ आप कर पाए, आपकी मिल गया है. उन्हें चाहिए कि अपनी शक्ति को इच्छा उससे कहीं अधिक कार्य करने की थी। ये आपकी इच्छा थी और ये कार्यान्वित होगी, निश्चित रूप से ये कार्यान्वित होगी आपकी इच्छा यदि तीव्र है तो चीजें कार्यान्वित होंगी और आपको उसी प्रकार अन्य लोगों की सहायता करने का बर्बाद न करें इसे देने का प्रयत्न करें। इस विश्व में अव्यवस्था और लड़ाई झगड़े अभी तक चल रहे हैं, अतः आपका कर्तव्य और आपका कार्य ये है कि लोगों से बात करें और उन्हें बताएँ । पहली महत्वपूर्ण चीज़ ये है कि सहजयोगियों को हर हाल में शान्त होना चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि सभी कुछ कार्यान्वित होगा आप है महान अवसर प्राप्त होगा जिस प्रकार आपको अपनी सहायता करने का अवसर प्राप्त हुआ था, तथा जिसके विषय में आप बहुत प्रसन्न थे। इतने सारे लोगों के साथ भी ये कार्यान्वचित हुआ बहुत अच्छी बात है कि आपने अन्य लोगों की सहायता करने का निर्णय किया है। ये महत्वपूर्ण और ये अन्य लोगों के साथ भी होगा। बात है सभी को आशीर्वादित होना चाहिए आप ये कार्य कर सकते हैं। आपका नेतृत्व इसी बात में निहित है कि आपने अन्य लोगों को देना है। आपमें से अधिकतर लोगों ने इसे अपने लिए ही पाया है, परन्तु इसे आपने अन्य लोगों को भी देना मुझसे और सर्वशक्तिमान परमात्मा से बहुत अच्छी है। अन्य लोगों को भी आध्यात्मिक लाभ उठाने दें मैं जानती हूँ कि आपमें से बहुत से लोगों को आत्मसाक्षात्कार मिल गया है और इसमें काफी गहरे उतर गए हैं, और आप बहुत प्रसन्न है। अंतः प्रसन्न एवं प्रफुल्लित बने रहें। आत्मसाक्षात्कारी होने की ये प्रथम निशानी है कि आपको आत्मसाक्षात्कार मिल गया है। इस आत्मसाक्षात्कार से आप अन्य लोगों को भी आत्मसाक्षात्कार दे सकते हैं। क यह केवल प्रवचन नहीं है, परन्तु कुछ घटित हो रहा है। अतः याद रखने का प्रयत्न करे कि आप सब सहजयोगी हैं और आपमें उम्दा किस्म की सहायता प्राप्त करने की योग्यता है, किस्म की सहायता। परेशान होने की कोई बात नहीं है। ये सब भिन्न प्रकार की परीक्षाएं हैं जो आपके अन्दर की अच्छाई को कार्यान्वित करेंगी तथा लोगों को परिणाम प्राप्त होंगे कि सहजयोगी विशेष प्रकार के लोग हैं। आप पाएंगे आप, इतने सारे लोगों को देखना अत्यन्त सुखद है जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने का प्रयत्न किया, और जो बास्तव में आत्मसाक्षात्कार आज के दिन का महत्व ये है कि हमारे लिए कुछ कार्य करने के लिए ईसामसीह पुनर्जीवित हो उठे| अतः ये दिन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मैं कहूँगी कि आज आपको समझना है कि आपको पा चुके है। बहुत से ऐसे लोग है जो आत्मसाक्षात्कार पाना चाहते हैं, परन्तु पहले से बहुत से ऐसे लोग हैं जो आत्मसाक्षात्कारी हैं और जो अन्य लोगों की सहायता के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। चैतन्य लहरी 7 & 8 - 2007 अक अपने तक सीमित रखने के लिए नहीं है। आपने यदि पा लिया है तो बिल्कुल न सोचें कि ये अवसर आप ही के लिए था। अन्य लोगों को भी अवसर दें, अन्य लोगों को भी अवसर दें। अपने भविष्य के विषय में निर्णय करने के लिए आज का दिन बहुत अच्छा है। आपने निर्णय करना है कि अधिक सहजयोगी प्राप्त करने के लिए आप अन्य सहजयोगियों की मदद करेंगे और आपने सहजयोग फैलाना है। बहुत सी समस्याएं हैं, परन्तु सहजयोगियों की संख्या बढ़ने से कोई मैं पूर्णरूपेण आपके साथ हूँ, और यदि आपको कोई व्यक्तिगत या अन्य समस्या है तो समस्या न बचेगी, सभी का समाधान हो जाएगा। आपको चाहिए कि मुझे लिखें। अतः मैं आपको मंगलकामनाएँ देती हूँ। अपने आत्मसाक्षात्कार को ठीक प्रकार से सुदृढ़ करने का प्रयत्न करें। मुझे आशा है कि इसके विषय में आपको कोई सन्देह नहीं है। कोई सन्देह यदि आपको हो तो मुझे इसके विषय में लिखें मुझे खेद है कि इस विशेष दिन पर मैं आपको कुछ दे न पाऊँगी। परमात्मा आपको धन्य करें। अधिकृत वीडियो यहाँ समाप्त होता है परन्तु प्रवचन समाप्त होने के पश्चात् और उपहार भेंट करने से पूर्व श्रीमाताजी ने निम्नलिखित शब्द भी कहे:- अब हमारे पास बहुत से भले और अच्छे लोग हैं जो सहजयोग में आए हैं, अतः अब ये देखना आपका कर्तव्य है कि ये लोग अच्छे सहजयोगी बने और आशीर्वादों का आनन्द लें। "एक बार आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो जाने के पश्चात् आपने इसका सम्मान करना है और अन्य लोगों को देना है. इसका सम्मान करना अत्यन्त आवश्यक है। मुझे विश्वास हैं कि ये कार्यान्वित होगा और आप सब मुझे बहुत अच्छे नज़र आओगे मुझे ये भी विश्वास है कि आप सब लोग इस कार्य को करेंगे। मैं अपने आरम्भ किए हुए किसी भी कार्य को पूरा नहीं कर पाई हूँ और अन्य लोगों को प्रेरित करने के लिए मुझे कठोर आप इतने सारे लोगों को आते हुए देख बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे लिए भी आज का दिन बहुत अच्छा है। ईसामसीह के जीवन में ये महान - घटना घटित हुई, कि वे बन पाए, वही बन पाए जो वो पहले से थे- एक सहजयोगी, और यदि सम्भव होता तो वे बहुत से सहजयोगी बनाने का प्रयत्न करते। परन्तु उस समय वो उतने सावधान न थे जितने आप लोग हैं। आप विशेष लोग हैं जो परिश्रम करना है ताकि वे अपने मूल्य को समझ जिज्ञासु हैं और जिन्होंने पा लिया है तथा आप अन्य लोगों को भी दे सकते हैं। यह (आत्मसाक्षात्कार ) मैं सकें।" द्िं निर्मल- गीतिका ड निर्मल-गीतिका त है ्क लि एक बीर, बस एक बार, तू सहजी बन कर देख, पगले सहजी बन कर देख, खोला है अमृत-द्वार, हमारी निर्मल मैया ने, बें्त्र खोला है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने, ई कि f6 विक ककर मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में कितने जनम गँवाये, मैया ने सहज बताया शीम 3 तुम देह नहीं, समझाया, अब अपने को पहचानो, भृरिः वन् व हिर गिरजा-घर भी गया, वहाँ भी लाखों दिए जलाये, से नि. तुम आत्मतत्व अविकार धक दोला है सौ सौ बार, हमारी निर्मल मैया ने, सउई बनदि |ा वन, वन भटका हिरना बन तू, कुछ भी हाथ न आया, श्न प्रानी िश्सा सख खोला है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने, एक बार माँ के मंडप का, मनमौजी बन कर देख, टराहिक याय वेद कुरान बाइबिल ली, गीता सौ-सौ बार सुनी, मैया के खेल अनोखे, जाने वह जिसने देखे मिल जाती है पल भर में, ि पृ र 3ै। घ] म । नेने रोम, रोम रम रहा राम जो तककली शीतल लहरों की धार, भ उसमें कब तेरी बुद्धि रमी? शिल ति म राजकुँवर बन कर जन्मा तू, फिर भी रहा भिखारी बोला है कितनी बार, हमारी निर्मल मैया ने, का हि खोला है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने ন एक बार माँ के रंग का, रंगरेजी बन कर देख, र पि काी पोप, पादरी, पंडित, काज़ी, ন से ह ি। मेया का ज्ञान निराला टाली ए उ निम म S सब अपने गुरुबन जाते 5 प्र सारे जग का रखवाला স तरह-तरह के खेल-तमाशे,ध पाछी सबने तुझे सताया, ला दिम तक पा जाते सुख का सार, चित तेरा भरमाया, भि क नी ः ्र तिम्य बोला है बारम्बार, हमारी निर्मल मैया ने, सब कुछ है तेरे ही अंदर, अपने को पहचान, खोला ा है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने । एक बार निर्मल नगरी का सहभोजी बन कर देख। डॉ. सरोजिनी अग्रवाल (मुरादाबाद) ॐ त् स] भगवान ईसामसीह का सृजन शु ज SPE (Bonslaik मार परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन - 11-4-82 ाा पा ाम प्रा র ही PESTE पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। वे कोई अन्य न होकर महालक्ष्मी का अवतार थीं-- अर्थात वे राधा थीं। रा-धा, रा अर्थात शक्ति, धा अर्थात शक्ति को धारण करने वाली। अपने पिछले प्रवचनों में मैंने आपको बताया होगरसी ন था कि ईसामसीह का सृजन किस प्रकार पहले स्वर्ग में किया गया। यदि आप देवी भागवत पढ़े तो उनका श े. सृजन महाविष्णु के रूप में किया गया और यह स्पष्ट वर्णित है कि पहले उनका सृजन अण्ड (Egg) पार नाकी कर "ईस्टर' के बहुत से पक्ष हैं जिन्हें व्यक्ति के रूप में किया गया यह इस पुस्तक में लिखा है जो सम्भवतः चौंदहः हजार वर्ष पूर्व लिखी गई थी। ये है और इसी कारण से पश्चिम के लोग ईस्टर के दिन अपने मित्रों को अण्डे भेंट करते हैं । तो अण्डे के को समझना चाहिए। परन्तु सर्वोपरि ये है कि 'उन्हें मृत्यु की क्या आवश्यकता थी और क्यों वे पुनर्जीवित हुआ पुस्तक ईसामसीह की भविष्यवाणी करती हुए?' इस बात पर अभी तक शायद मैंने स्पष्ट रूप यही बात आज में आपको बताना चाहती हूँ क्योंकि केवल आप लोग ही ईसामसीह के जीवन के महत्व को समझ सकते हैं। जब यें कहा जाता है कि ईसामसीह के माध्यम से आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना होगा, अर्थात उन्हें आपके आज्ञा चक्र का भेदन करना पड़ा। उन्हें वहाँ मौजूद होना पड़ा। इस द्वार में (आज्ञा)। यदि उन्होंने ये मार्ग से कुछ भी नहीं कहा है- रूप में जो अस्तित्व पुथ्वी पर आया वह ईसामसीह थे, जिनका कुछ हिस्सा इसी अवस्था में रखा गया और बाकी का श्री महालक्ष्मी श्री आदिशक्ति ने ईसामसीह का सृजन करने के लिए उपयोग किया उस प्राचीन पुस्तक में उन्हें महाविष्णु कहा गया अर्थात विष्णु का महान रूप। परन्तु वास्तव में विष्णु पिता हैं और वे (ईसामसीह) पुत्र हैं जिनका न-बनाया होता तो कभी हमें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त ने हुआ होता। इसीलिए कहा जाता है कि केवल ईसामसीह की कृपा से ही आप स्वर्गद्वार से गुजर सकते हैं। नि:सन्देह, इसका अर्थ चर्च नहीं है, इसका अर्थ चर्च बिल्कुल नहीं है। सहजयोगी के रूप में सृजन आदिशक्ति ने किया। मेरे प्रवचन के बाद यदि हि ये पुस्तके उपलब्ध है तो, मैं चाहूंगी कि आप इनके सम्मुख पढें, पूर्ण वर्णन, कि किस प्रकार ईसामसीह का सृजन किया गया और कब उनका सृजन हुआ। अपने पिता के लिए वे रोए और क्रूस पर चढ़कर भी आपको समझना होगा कि आपको आज्ञा चक्र पार करना है और यह बहुत ही संकीर्णतम स्थान है जहाँ से व्यक्ति को गुज़रना होता है, क्योंकि आज्ञा चक्र पर आपके अहं और प्रतिअहं पूर्णत: विकसित अवस्था वो एक बार रोए, वर्षों तक वे रोए और तब वहाँ महाविष्णु अवस्था में उनके पिता ( परमात्मा) ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारी अवस्था मेरी अवस्था से में होते हैं। केवल मानव अवस्था में ये अहं बढ़ता है। जाम अब समस्या ये थी कि इस अहं पर किस प्रकार २ काबू पाया जाए, और इसका समाधान करने के लिए ईसामसीह को यह सब करना पड़ा। आरम्भ में जब भी उच्च होंगी तथा तुम आधार बनोगे- अर्थात 'ब्रह्माण्ड के आधार'। अब देखें कि किस प्रकार वे मूलाधार से आधार बनते हैं। ] काम श्री गणेश के रूप में उनका सृजन किया गया- उनके सृजन की कहानी आप जानते हैं। श्री पार्वती के शरीर यह सब कार्य दिव्य स्तर पर किया गया- का मल एकत्र किया गया- विवाह से पूर्व जब उनके शरीर पर सुगन्धित उबटन लगाया गया तो उस उबटन वैकुण्ठ के स्तर पर। आप कह सकते हैं कि आदिशक्ति ने उन्हें जन्म दिया जो ईसामसीह की माँ के रूप में दर चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 2007 ा संवेदना (Bodily Existance) से ऊपर उठाने के के उतार को एकत्र किया गया जिसमें से उनका चैतन्य प्रवाहित हो रहा था। इसी उबटन के उतार को लिए उन्होंने यह द्वार पार किया अर्थात उन लोगों लेकर अपने पावित्र्य की रक्षा करने के लिए उन्होंने को जो पंचमहाभूतों पर निर्भर करते हैं, उन्हें आत्मा इस शिशु का सृजन किया। शिशु को उन्होंने अपने स्नानागार के बाहर प्रहरी के रूप में खड़ा कर दिया- सारी कहानी आप जानते हैं। अब इस शिशु में केवल हैं, अपने चित्त से, आत्मा के चित्त पर छलांग पृथ्वी तत्व का अंश विद्यमान था। बाकी सभी चक्रों लगा लेते हैं, जहाँ आप अपने चित्त को महसूस में भी कोई न कोई तत्व विद्यमान होता है- जैसे पृथ्वी तत्व, जल तत्व, वायु तत्व और जब आप यहा आपके साथ भी घटित हुई है। परन्तु जब उनका (आज्ञा) पर पहुँचते हैं तो यह प्रकाश तत्व है। यह पुनर्जन्म हुआ तो वे शुद्ध आत्मा, शुद्ध ब्रह्मतत्व बन प्रकाश है। और आज्ञा-चक्र पर उन्हें जिस अन्तिम से के स्तर पर लाने के लिए। अतः पुनर्जन्म वह है जहाँ आप बन जाते कर पाते हैं और आत्मा बन जाते हैं। यही घटना गए। पुनर्जन्म, मूलाधार चक्र से पृथ्वी तत्व के रूप में आरम्भ हुई उस दिव्य शक्ति की उत्क्रान्ति की घटना है जिसने वहाँ ( मूलाधार चक्र) जन्म लिया और आज्ञा चक्र पर आई। वहाँ पर सभी तत्वों को पार करके अन्ततः सहस्रार में प्रवेश करके पूर्ण ब्रह्मतत्व बनने के लिए ईसामसीह का सृजन किया गया। यह बहुत कठिन कार्य था, अत्यन्त प्रयोगात्मक तथा ये प्रयोग भी बहुत ही भयानक था प्रयोग असफल भी तत्व में गुजरना पड़ा, वह था प्रकाश तत्व- अर्थात उन्हें दिव्य शक्ति के सच्चे रूप में आना पड़ा- 'ओंकार' रूप में, आप ये भी कह सकते हैं कि चैतन्य लहरियों के रूप में या पूर्ण रूप में जिसे आप नाद ( Logos) या शब्दब्रह्म आदि कुछ अंत: उन्हें ब्रह्मतत्व बनना पड़ा ब्रह्मतत्व बनने के लिए उन्हें सभी अन्य महातत्वों (महाभूतों ) से अलग होना पड़ा। कहते हैं। और हो सकता था क्योंकि उनके अन्दर भी मानवीय तत्व थे, शरीरतत्व, जिन्हें कष्ट होता है। और उन्होंनें कष्ट उठाए क्योंकि शरीर-तत्वों को कष्ट होता है, आत्मा को नहीं। आत्मा कष्टों से ऊपर है, शरीर को कष्ट झेलना पड़ता है। अत: शरीरतत्व के कारण उन्हें कष्ट झेलना पड़ा, इस पर नियंत्रण करने के लिए, इससे मुक्त होने के लिए और इसे नियन्त्रित करने के लिए उन्हें अथाह साहस करना पड़ा। यह अत्यन्त कठिन कार्य था जिसे उनके ( ईसामसीह) अतिरिक्त कोई न कर पाता। वो जानते थे कि यह पूर्वविधान है, परन्तु इस घटना का घटित होना कठिनतम कार्य था। अन्तिम तत्व प्रकाशतत्व था और उन्हें इसको भी पार करना पड़ा। तो उनके अन्दर पृथ्वी तत्व था क्योंकि उबटन के मल से उनका सृजन हुआ था तथा और भी तत्व उनमें थे। परन्तु जब वे आज्ञा चक्र पर आते हैं तो बाकी सभी तत्व उन्हें छोड़ने पड़ते हैं और अपने अन्दर मौजूद इन सभी तत्वों को निकालने के लिए उन्हें मरना पड़ता है- पूर्ण, सम्पूर्णत:, पावन आत्मा बनने के लिए। जो कार्य उन्होंने सूक्ष्म रूप में किया वह स्थूल रूप में कार्यान्वित होता है। इसी कार्य को करने के लिए उन्हें मरना पड़ा। उनके अन्दर जिस चीजू की मृत्यु हुई वह थी उनके अन्दर का पृथ्वी तत्व तथा अन्य तत्व और उनसे 'पावन आत्मा' (Pure Spirit) का उद्भव हुआ। अण्डे का महत्व मैं हैरान होती हूँ कि बहुत से ईसाईयों को अण्डे का महत्व ही नहीं पता। अण्डा उस अवस्था उसका पुनर्जन्म हुआ, पावन आत्मा का, शुद्ध ब्रह्मतत्व का जिसने ईसामसीह के शरीर की रचना की थी और यह घटना घटित हुई। ईसामसीह पूर्व होते हैं। अण्डे के खोल में जब आप बंद ने वही कार्य किया जिसकी भविष्यवाणी उनके होते हैं- कि आप श्रीमान x, आप श्रीमति y हैं। विषय में की गई थी। उन्हें रक्षक ( Saviour) इसलिए कहा जाता है क्योंकि मानव को शारीरिक तैयार हो जाता है और यह समय आपको सेने का प्रतीक है जिसमें आप आत्मसाक्षात्कार से परन्तु अन्दर से पूर्णतः परिपक्व होने पर पक्षी चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 2007 8. इसे पकड़ नहीं सकते। आपके मस्तिष्क में जो भी कुछ है वो सत्य नहीं है, सत्य इससे परे है। (Hatch) का है। यही वह समय है जब आप द्विज बनते हैं। तो ईसामसीह का पुनर्जन्म इसी बात को दर्शाता है और इसी कारण से हम लोगों को अण्डे उपहार के रूप में देते हैं उन्हें इस बात का पुनः स्मरण करवाने के लिए कि आप यही अण्डे हैं, यही। ये भी लिखा हुआ है कि परन्तु ईसामसीह के समय रोमन लोगों के सत्ता में आने के कारण मानव के लिए मस्तिष्क से परे की किसी बात को स्वीकार करना कठिन कार्य बन गया था वे इतने अहंवादी थे, अहंकार से इतने लिप्त थे कि मार्ग बनाने के लिए, उनके अहं को नष्ट करने के लिए, किसी को यह कार्य (क्रूसारोपण) सर्वप्रथम जब वे आए तो एक आण्डा था, उनका सृजन अण्डे के रूप में किया गया- उसमें से आधा अण्डा श्रीगणेश के रूप में बना रहा और करना पड़ा। आधा महाविष्णु बन गया। वे पृथ्वी पर अवतरित हुए और फिर अपने सभी तत्वों के साथ चले गए और कि जिन लोगों ने उन्हें क्रसारोपित किया वे सभी तत्पश्चात् पावन चैतन्य लहरियों ने उनके शरीर का मूर्ख थे, अहंवादी थे, अन्धे थे और वे वह सब न सृजन किया। जागृत होने के लिए वे आप सबके देख पाए जो ईसामसीह देख सके। ये लोग न देख अन्दर बने रहे और जब कुण्डलिनी आपके चित्त को उस बिन्दु (आज्ञा) से ऊपर को ले जाती है तो आप भी आत्मा बन जाते हैं इसीलिए उन्होंने कहा, "मैं ये है कि यह मूर्खता की पराकाष्ठा थी पर उन्होंने ही द्वार हूँ, मैं ही मार्ग हूँ"- क्योंकि आप ईसामसीह ईसामसीह को सूली पर चढ़ा दिया। सबको यही बन सकते हैं। इसीलिए उन्होंने कभी नहीं कहा कि "मैं ही लक्ष्य हूँ" कि आपको उन्हें (उस स्थिति सूली पर ही चढ़ा सकते थे। इसके अतिरिक्त वो क्या को) प्राप्त करना होगा। उन्होंने आपके लिए यह स्थान ( मार्ग) बना दिया है। आप आध्यात्मिक रूप से जागृत हो सकते हैं और स्वयं आत्मा बन सकते हैं। इस मृत्यु से बहुत सी चीजें प्रमाणित हुई- पाए कि ईसामसीह कितने विशुद्ध व्यक्तित् थे। इन लोगों ने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया। कहने का अभिप्राय आशा थी क्योंकि ये लोग इतने मूर्ख थे कि ये उन्हें कर सकते थे? क्योंकि अपने तुच्छ हंकार के कारण वे किसी ऐसे व्यक्ति को सहन न कर पाए जो इतना सहज हो, इतना निष्कपट हो और इतना सच्चा हो! अत: उन्होंने ईसामसीह को सुली पर चढ़ा दिया और उनके क्रूसारोपण ने हमारे लिए नए द्वार खोल दिए। परन्तु हमारे लिए सन्देश 'पुनर्जन्म' है। हमारे लिए सन्देश पुनर्जन्म है क्रूसारोपण नहीं। क्रूसारोपण सन्देश नहीं है क्योंकि यह कार्य तो ईसामसीह हमारे पा परन्तु ईसामसीह एक अवतरण हैं। वे परमात्मा के पुत्र थे, अत: वे अवतरण हैं। आपको अपने पंचतत्वों से मुक्त होकर आत्मा बनाने के लिए वे इस पृथ्वी पर अवतरित हुए। परन्तु यह कार्य इतना कठिन क्यों था क्योंकि मानव ने अपनी खोपड़ी में सभी लिए कर गए हैं। ये एक ऐसा तथ्य है जो यहूदियों प्रकार की बनावटी बाधाएं उत्पन्न कर ली हैं। आप देखें कि जो भी कुछ हम सोचते हैं या अपने मस्तिष्क से जो भी कुछ हम करते हैं वह सब निर्जीव है मानवरचित, बनावटी, क्योंकि वास्तविकता तो आपके मस्तिष्क से परे है, यह आपके मस्तिष्क में नहीं है। आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते, इतने सारे यहदियों की हत्या क्यों हुई?" उन्होंने को समझना होगा। उस दिन में पढ़ रही थी- आज ही- केन्टरबरी के आर्कबिशप के साथ कुछ वार्तालाप हुआ और साक्षात्कारकर्ता उनसे इस प्रकार प्रश्न पूछ रहा था मानों वह परमात्मा हों। एक प्रकार से उन्होंने यह कहा भी कि "ये प्रश्न में परमात्मा से पूछूगा कि अंक : 7 & 8 2007 9 चैतन्य लहरी उलम पुृथ्वीतत्व के स्तर पर। इसकी याचना की! वो चाहते थे कि वे स्वयं कष्ट उठाएं, क्योंकि कष्ट उठाने का श्रेय वो ईसामसीह को नहीं देना चाहते थे! उन्होंने सोचा कि हम सबको इसके पश्चात् हमें अन्य समस्याएं हैं जैसे भावनात्मक लिप्तता (मोह):- ये मेरी बेटी है, ये मेरा बच्चा है, ये मेरा. बच्चे से इतना लिप्त हूँ, ये मेरा देश है, ये आपका देश है। हम समस्याएं खड़ी करते हैं। यह फॉकलैण्ड? इस क्षेत्र से हमें क्या मिलने वाला है? परमात्मा ने कभी अर्जेन्टीना, चिली, इंग्लैण्ड और इन सब की रचना नहीं की। उन्होंने (आदिशक्ति) तो एकरूप ढाँचे का सृजन किया ताकि लोग एक दूसरे की देखभाल कर सकें- जैसे हृदय का सृजन किया गया जिगर, मस्तिष्क और नाक बनाए गए। अब यदि ये कु ये मेरा है, मैं अपने कष्ट उठाना होगा। अहं। ये अहं हैं। "किस प्रकार हमारे लिए कोई अन्य व्यक्ति कष्ट उठा सकता है? हम सबको व्यक्तिगत रूप से कष्ट उठाना होगा। वे ईसामसीह को श्रेय न दें सके, और बाद की सोच ये थी कि हमें कष्ट उठाने ही चाहिए। तो जो भी कुछ आप सोचते हैं, स्थूल स्तर पर वह कार्यान्वित होने लगता है। अत: श्रीमान हिटलर ने जन्म लिया और उन्हें कष्ट उठाने के लिए विवश किया। पृथ्वी पर विद्यमान सभी समस्याओं के लिए मानवीय मुर्खताएं ही जिम्मेदार हैं। लि ন ন आपस में लड़ने लगे, मान लो एक आँख दूसरी आँख से लड़ने लगे...! (हम हँसते हैं।) परन्तु हम मानव ऐसा ही करते हैं। हर समय हम यही कर हान एक अन्य प्रश्न था कि "बच्चों को श्वेत ार रक्तता (Leukemia) रोग क्यों हो जाता है, ये प्रश्न वो परमात्मा से पूछेंगे।" किस प्रकार बच्चों को श्वेत रहे हैं। मानव की मूर्खता ही सारी समस्याओं को रक्तता रोग हो जाता है? माता-पिता यदि अति प्रचण्ड और तीव्रगति हों तो बच्चों को ये रोग हो तो कोई दुष्ट इसका फायदा उठाता है और हिटलर सकता है। विवाह होने पर भी यदि आप शान्त नहीं हैं, बच्चा गर्भ में होने पर भी यदि आप तलाक आदि मूर्खताओं के बारे में सोचते हैं तो इस प्रचण्डता का प्रभाव बच्चे पर होगा। मनोवैज्ञानिक रूप से ये बाई ओर की समस्या है और बच्चे को जन्म के तुरन्त बाद ही श्वेत रक्तता रोग का शिकार होना पड़ता है। जन्म दे रही है। जब आप अत्यन्त मुर्ख बन जाते हैं की तरह से पृथ्वी पर आकर आपको ठीक करने का प्रयत्न करता है। र इन सब चीजों की आपको आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो केवल विवेक एवं अपने आत्मसाक्षात्कार की। और आज यही कार्य किया गया हे- कि आपको आत्मसाक्षात्कार मिला। अत: विश्वभर के सहजयोगियों के लिए ईस्टर महत्वपूर्णतम घटना है, क्योंकि यदि ये घटना न हुई होती तो लोगों को THESFT यह इस प्रकार है। अतः सभी समस्याएं मानव की अपनी मूर्खताओं के कारण उत्पन्न होती है। परमात्मा आपके लिए कोई भी समस्या खड़ी नहीं करते। उसने आपकी सारी समस्याओं का समाधान कर दिया है। वे आपकी सभी समस्याओं का समाधान करते हैं । आपने देखा है कि सहजयोग में किस प्रकार परमात्मा आपकी छोटी-छोटी समस्याओं का भी समाधान करते आत्म-साक्षात्कार दे पाना सम्भव न होता। मेरे विचार से गैविन आपको वो पत्र पढ़कर सुनाएंगे जिस पर ईसामसीह के विषय में देवी-भागवत (पृष्ट-25) में वर्णित तथ्य को लिखा गया है। चौदह हजार वर्ष पूर्व मार्कण्डेय ऋषि ने यह पुस्तक लिखी थी। कल्पना करें- चौदह हजार वर्ष पूर्व! वो जानते थे, ब्लेक की तरह से दूरदृष्टा ईसामसीह के अवतरण के समय क्या घटित होने वाला है। ईसामसीह को महाविष्णु कहा गया। वो विष्णु नहीं थे। विष्णु पुत्र थे। कितने ईसाई ईस्टर के होने के कारण, कि हैं! परन्तु अपनी मूर्खताओं से पंचमहाभूतों, भौतिकपदार्थों और सांसारिक आदतों के नशे में हम स्वयं अपने लिए समस्याएं खड़ी करते हैं। भौतिकता हमारे सिर पर सवार हो जाती है अर्थात हम कह सकते हैं कि अंक : 7 & 8 चैतन्य लहरी 2007 10 इस तथ्य को समझते हैं? उन्हें इसका ज्ञान नहीं है। आजकल इसाईयत मात्र एक मूत गतिविधि है, विवेकहीन, किसी भी अन्य विवेकहीन धर्म की तरह से परे की अवस्था पा लेते हैं जहाँ आप सामूहिक से। ये भी एक अन्य मूर्खतापूर्ण बेकार धर्म है जो अर्थहीन है। जब तक आप आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं कर लेते, जब तक आप चैतन्य-लहरियाँ महसूस कि आपने अपनी नाक, और आँखों की सहायता नहीं करते, जब तक अपने चहूँ ओर मौजूद परमेश्वरी करनी है क्योंकि आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। तब शक्ति का एहसास आपको नहीं होता आप किस प्रकार समझेंगे? क्योंकि केवल वही चीज़ तो सत्य हैं, ज्ञान हो जाता है कि मैं भी उतना ही महत्वपूर्ण हूँ केवल वही तो वास्तविकता है। इसे प्राप्त किए बिना जितने अन्य कोषाणु और उन कोषाणुओं की मेरे द्वारा आप ईसामसीह के विषय में कैसे जान पाएंगे? और उन्हें लेकर झगड रहे हैं! किस प्रकार आप झगड़ सकते हैं? मैं नहीं समझ सकती। मेरी दृष्टि में ये मुर्खता है, दूसरी अति तक जाना। ऐसा करके वास्तव में आप करते ये हैं कि इन सब अवतरणों का उपयोग एक दूसरे की हत्या करवाने के लिए करते हैं! क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हैं। जो चले जाते हैं। आप अपने छोटे-छोटे कुएं खोदने लगते हैं अवतरण आपकी उत्क्रान्ति के लिए आए थे, आपको उच्च जीवन प्रदान करने के लिए आए थे, उन्हीं के नाम अब आप हत्या के लिए, एक दूसरे का बध करने के लिए, और एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए करते हैं! अधिक से अधिक जब आप एक ऐसे बिन्दु तक पहुँच जाते हैं जहाँ आपकी समझ में कुछ नहीं आता, तब लोग कहते हैं, "ये रहस्य है।" क्या आप अपने अन्दर व्याप्त नहीं होने देते तो आप पतन की ओर चले जाते हैं। मान लो आप पंचतत्वों १। चेतन होते हैं, आपको इस बात का ज्ञान होता है कि आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। तब आप ये जानते हैं आप उस अवस्था तक पहुँच जाते हैं जहाँ आपको ये मदद होती है क्योंकि उन्होंने मेरा पोषण करना है। हम एक हैं पूर्ण सामंजस्य होना चाहिए। यह चेतना आत्म-साक्षात्कार के बाद आती है और यदि आप इस बात को नहीं समझ पाते कि यही चेतना, यही सामूहिक चेतना, एक मात्र मार्ग है जिसके द्वारा आप इस क्षेत्र में बने रह सकते हैं, तो आप बाहर और फिर उन्हीं में गिर जाते हैं । जितना अधिक आप स्वयं का विस्तार करेंगे आप उतना ही ऊँचा उठेंगे। परन्तु आप बार-बार अपनी बाधाओं के शिकार हो जाते हैं । यदि आप ये सोचें कि मुझे पूर्ण के लिए जीवित रहना है, मैं पूर्ण के लिए जिम्मेदार हूँ, कोपाणु का केन्द्रक (Nucleus) बनाना मेरी जिम्मेदारी है ताकि वो पूर्ण की देखभाल करे, यदि मेरा पतन होगा तो शेष भाग को भी कष्ट होगा। अब मुझे पतन की ओर जाने का अधिकार नहीं है क्योंकि मुझे इस बिन्दु तक उठाया गया है, मैं सामूहिकता की अवस्था में प्रवेश कर गया हूँ जहाँ मेरा अस्तित्व, जो कि आत्मा है, सामूहिक अस्तित्व है और मुझे वहीं बने रहना है। मैं पतन की ओर रहस्य हैं? सहजयोग में कोई रहस्य नहीं है। सभी कुछ स्पष्ट है। मेरे लिए तो मनुष्य ही एक रहस्य है। उन्हें नहीं समझ पाती। मैं नहीं समझ सकती। ईसामसीह के पुनर्जन्म को अब सामूहिक पुनर्जन्म बनना होगा । महायोग की यही व्याख्या है। सामूहिक पुनर्जन्म नहीं जा सकता। कंवल यही मार्ग है जिसके द्वारा मैं होना आवश्यक है और इस सामूहिक पुनर्जन्म के लिए सर्वप्रथम सहजयोगियों को सामूहिक बनने का निर्णय करना होगा कुण्डलिनी जागृति के पाने के बाद भी लोग अपने आडम्बर से मुक्त नहीं माध्यम से नि:सन्देह आप पार हो जाते हैं। आप पार हो जाते हैं। परन्तु पार होकर आप सामूहिक अपने पंख फैलाकर वे न तो वो गीत गा सकते हैं क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । उस सामूहिकता को यदि जीवित रह सकता हूँ। परन्तु मेंने देखा है कि आत्म-साक्षात्कार होते। अब भी वे अपने पूर्व आवरण में बने रहते हैं। और न ही अपने खोल से बाहर आकर उड़ सकते हैं अंक : 7 & 8 -2007 चैतन्य लहरी वे ऐसा नहीं कर सकते सभी प्रकार की तुच्छतापूर्वक हैं। व्यक्तिगत रूप से आप पर आने वाली सारी अब भी वे जीवन के तुच्छ मार्ग पर बने रहते हैं । छूट्टी के दिन आप (आश्रम से) चले जाते हैं क्योंकि आप अलग से छुट्टी मनाना चाहते है; क्यों? यह पावनता का समय है- पावन दिवस (Holiday)। ये पावन दिवस है। जब आप अन्य सहजयोगियों के साथ होते हैं, तभी वास्तव में छुट्टी का आनन्द लेते है। अन्यथा कब आप छुट्टी का आनन्द लेते हैं? और कौन सा उपाय है? सहजयोगियों के साथ होना ही वास्तव में छुट्टी है। इसी कारण से व्यक्ति को में पूरे विश्व के विषय में, आपको होना चाहिए। समझना चाहिए कि आपको अपनी सामूहिकता का विस्तार करना होगा। अपनी सामूहिकता का विस्तार यदि आप नहीं कर सकते तो आप व्यर्थ हैं। तब आप सहजयोगियों का बेकार समूह हैं, जो, मूर्खतापूर्ण विचार त्याग दिए जाने चाहिए। क्योंकि खेदपूर्वक मुझे कहना पड़ता है, पतन की ओर चला जाएगा। आरम्भ में ऐसे लोग दिखावा भी है और वे आपकी देखभाल करेंगे। अपने अन्दर करते हैं, परन्तु शनै: शनै: वो बेहतर और वेहतर होते चले जाते हैं और जब उच्च अवस्था में पहुंच जाते हैं तो बिना एक-दूसरे के भय के, बिना किसी माह शनै: शनै: सभी लोग सुधर जाएंगे। मैने देखा है कि के, बिना किसी आशा के, एक दूसरे का आनन्द लेने कठिनतम लोग भी सुधर गए। परन्तु आपके विषय लगते हैं। यह घटित होना चाहिए। हमारे शरीर के में क्या है, जो अन्य सभी को सुधार रहे हैं? सारे कोषाणु ऐसे ही हैं। कोषाणु यदि ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं। क्योंकि हमारे अन्दर तो इतना है? आपकी श्रेद्धा कहाँ तक पहुँची है? आप तो ये अधिक विवेक है- कम से कम हम ये सोचते तो अवश्य हैं कि हमारे अन्दर कोषाणुओं की अपेक्षा कहीं अधिक विवेक है! कम से कम हमसे यही है तथा परमात्मा की शक्ति मेरा पथ प्रदर्शन कर रही आशा की जाती है क्योंकि हम एक कोषाणु मात्र से है और मुझे इसका ज्ञान भी है। मुझे इस बात का इस अवस्था तक विकसित हुए हैं। और आप तो परमात्मा के सृजन का निष्कर्ष हैं आप सर्वोच्च लोग चुका हूँ और मेरी इस चेतना की अभिव्यक्ति मेरी हैं! तो क्यों नहीं? पुनर्जन्म लेने के बाद पहली सामूहिकता के माध्यम से हो रही है। अत: 'सामूहिकता' चीज़ जो आपके अन्दर घटित होनी चाहिए वो सहजयोगी का स्वभाव है और इसी बात का एहसास ये समझना कि अब आप व्यक्ति मात्र नहीं हैं, व्यक्ति को होना चाहिए। सामूहिक अस्तित्व हैं। अब आप व्यक्ति मात्र नहीं रहे। जो चीज़ें आपके व्यक्तित्व को सीमित करती हैं उन्हें निकाल फेंकें। अब आप व्यक्ति मात्र नहीं समस्याएं पूर्णतः बेकार हैं, असत्य हैं, व्यर्थ हैं। सामूहिक समस्याओं के बारे में सोचें। मुझे ऐसे ही लोग अच्छे लगते हैं। जैसे उस दिन (Fergie) फर्जी Bristol के बारे में जानने को उत्सुक थी कि वहाँ पर कौन से बिन्दुओं (स्थानों) पर पृथ्वी माँ से चैतन्य प्रवाहित हो रहा है वही पूरे Bristol और जमैका के लोगों के विषय में और बाद व्यक्ति को ये नहीं सोचना चाहिए कि मेरी बेटी का विवाह कैसे होगा, वहाँ जाने के लिए मुझे टिकट किस प्रकार मिल पाएगा? ये सभी अब आप परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर गए आप वह अवस्था स्थापित करें कि आप सामूहिक अस्तित्व बन जाएं। बाकी सभी चीजें छंट जाएंगी। आपकी स्थिति क्या है? आप कहाँ तक पहुँचे जानते हैं कि मैं परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर गया हूँ तथा मेरी हर गतिविधि की देखभाल हो रही ज्ञान है कि मैं परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर है परमात्मा आप पर कृपा करें। (निर्मलायोग- 1983- रूपान्तरित) N.३ परम पूज्य श्री माताजी का परामर्श मेरी इच्छा है कि आप सब लोग पूर्णत: हैं। मनुष्य स्वयं से इस प्रकार लिप्त है कि वह अपने दोषों को जानना ही नहीं चाहता और जब उसे दोषों का ज्ञान होता है तो बह पलायन करना चाहता परन्तु जन्मों-जन्मों तक अपने अपराधों का बोझ ढोने के स्थान पर यंदि आप उन्हें समझ लें और उन्हें सुधार लें तो बेहतर होगा। 1) धार्मिक बनने का दृढ़ निश्चय करें। धार्मिक होना बहुत कठिन हैं। समाज और वातावरण आपको अधार्मिक बनने के लिए विवश करते हैं । अबोधिता में आप जन्म लेते हैं परन्तु बाद में अधार्मिकता को सामान्य मानकर समझौता किए चले जाते हैं । सहजयोगी के लिए अधार्मिक बनना बहुत कठिन है। वह यदि कोई गलत कार्य करने का प्रयत्न करे तो चैतन्य लहरियाँ उसे सुधारती हैं। परन्तु यदि आप अपने अन्त: करण का हनन किए चले जाते हैं, तो ऐसा करने के लिए और उत्क्रान्ति के अपने अवसर को नष्ट करने के लिए आप स्वतन्त्र हैं। इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। आप यदि स्वयं को थोड़ा सा स्थिर कर ले तो आप समझ जाएंगे कि वह शक्ति कितनी शक्तिशाली है जो केवल आपके दोषों को उजागर करती है बल्कि उन्हें पूर्णतः दूर भी करती है। न आपका अहं कर्म करता है। आपने अवश्य 5) देखा होगा कि सहजयोग में आने के पश्चात् आप अपने अहंकार को तथा इसकी कार्यशैली को स्पष्ट देख सकते हैं। सहजयोग में भी आपको बहुत से प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है और यदि आपका अहं हावी है तो आप भूल जाते हैं कि आपने सहजयोग की ओर जाना है या सहजयोग ने आपकी ओर आना है। बहुत से लोग जब अपने अहं का शिकार हो जाते हैं तो सहजयोग की ओर पीठ कर लेते हैं। बो आशा करते हैं कि सहजयोग उनके पीछे दौड़ेगा! सहजयोग में आपको अपना भूतकाल भुलाना होगा क्योंकि अब आपको नवजात शिशु की तरह से परमेश्वरी प्रेम में नहला दिया गया है। पति-पत्नी के बीच परस्पर वफादारी की हृदय की पावनता के रूप में अभिव्यक्ति अत्यन्त आनन्ददायी गुण है। तथा यह बहुत शक्तिशाली भी है। सम्बन्धों की पावनता को समझने के बाद ही आप उनका अधिकतम आनन्द उठा सकते हैं। पृथ्वी माँ पर अपने चित्त को रखते हुए अपने चित्त स्थिर करने का प्रयत्न करें। इस प्रकार से अपनी दादी माँ का प्रेममय कवच प्राप्त जब तक आपका अहं आप पर हावी है तब तक आप आत्मा की झलक भी नहीं पा सकते। परन्तु अपने अहं से नहीं लड़ना होता मात्र इसे देखना होता है क्योंकि आपका चित्त जागृत हो करके आप अपनी कामुकता के दासत्व से मुक्ति पा लेते हैं। दिव्यत्व फैशन नहीं है, यह जीवन का मार्ग 2) जाता है। देखने मात्र से अहं शान्त हो जाता है। क्योंकि अब आपकी अन्तर्दृष्टि ज्योतिर्मय हो चुकी है। उस प्रकाश में आप अपने अहं के खेल को देखते हैं और उस पर हँसते हैं ज्योंही आप स्वयं को देखने लगते हैं तो आपके अहं के गुब्बारे की हवा निकलनी शुरु हो जाती है और जब अहं कम होता है तो आप अपने अन्त: प्रकाश में उन्नत होते हैं। है, आपके जीवन की आवश्यकता है। आपको वही (सोहं) बनना है आपको जान लेना होगा कि सत्य आपके 3) चरणों पर नहीं गिरने वाला। यदि आप सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको सत्य के कदमों में गिरना होगा। मानव की बुद्धि में बहुत से सन्देह उठते हैं। सहजयोग में जब व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार 6) 4) प्राप्त हो जाता है तो वह अपने दोषों को देखने लगता पहला सन्देह, जो कि आम है, ये है कि अंक : 5 & 6 13 2007 चैतन्य लहरी किसी व्यक्ति को यदि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हो गया है और यदि वो ऐसे स्थान पर जाता है जो नहीं समझ सकते। और मुझे समझने का प्रयत्न भी देखा जाना चाहिए या जिसका एहसास नहीं किया जाना चाहिए या जो अच्छा स्थान नहीं या यदि वह किसी कुगुरु के पास जाता है तो तुरन्त उसे तपन (जलन) हो जाएगी वह यदि वहाँ से नहीं दौड़ता और अब भी यदि वह वहाँ जाता है तो उसकी चैतन्य-लहरियाँ समाप्त हो जाएंगी और वह किसी श्रीमाताजी कौन हैं?"' मैं आपको बताना चाहती हूँ कि बिना आत्म-चक्षु खुले आप मुझे नहीं है आपको नहीं करना चाहिए। पहले अपने आत्म चक्षु खोलें। 7) कर लेते हैं तो चिरंजीवी (देवदूत) आपके सम्मुख समर्पित हो जाते हैं। वे आपको देख रहे हैं। आप उनकी जिम्मेदारी हैं। सभी देवी-देवता आपके अन्दर जागृत हैं। आप यदि देवी-देवताओं के विरुद्ध कोई कार्य करेंगे तो तुरन्त वे आपको हानि पहुँचाएंगे। एक बार जब आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त अन्य सर्वसाधारण व्यक्ति की तरह से हो जाएगा। निर्मला योग- 1983 (रूपान्तरित) 10+-4- परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र प्रिय सहजयोगियों, मेरे प्रिय बच्चों, यद्यपि जो भी कुछ मैं कहती हैं उसे तोड़-मरोड़ दिया जाता है, फिर भी सत्य तो अटल है। सत्य को आप बदल नहीं सकते। ऐसा करने पर आप ही अज्ञानी और पिछडे हुए बने रहेंगे। इस कारण से में अप्रसन्न हूँ। ये दिवाली आपके अन्दर प्रेम का प्रकाश रोशन कर दे। आप स्वयं वो दीप हैं जिनका प्रकाश दूर तक फेलता है, आवरण से नहीं। आवरण से कहीं अधिक शक्तिशाली बन जाते हैं। ये उनकी अपनी सम्पत्ति है परन्तु चोट पड़ने पर हमारे दीप विचलित हो जाते है! दिवाली वास्तविक आकांक्षाओं का दिन होता है। पूरे ब्रह्माण्ड का आह्वान करें। बहुत से दीप बात को आप सोचें। क्या आप पर कोई पारगामी कवच नहीं है? क्या आप अपनी माँ के प्रेम को भूल बैठे हैं और इसीलिए विचलित हैं? जिस प्रकार शीशा लेम्प की रक्षा करता है इसी प्रकार से मेरा प्रेम भी आपकी रक्षा करेगा। जलने हैं, और उनकी रक्षा की जानी है। इसमें प्रेम का तेल डालें, कुण्डलिनी बत्ती है और अपने अन्दर की आत्मा के प्रकाश से अन्य लोगों की कुण्डलिनी जागृत करें। कुण्डलिनी की लौ प्रज्जवलित हो जाएगी और आपके अन्तःस्थित लौ मशाल बन जाएगी। परन्तु शीशा साफ रखना होगा, मैं किस प्रकार यह बात समझाऊं? क्या मुझे भी श्रीकृष्ण की तरह से कहना होगा "सर्वधर्माणां परित्यज्य मामेकम् शरणम् वृज," या श्री ईसामसीह की तरह से कि "मैं ही मार्ग हूँ मैं ही द्वार हूँ?" मशाल बुझती नहीं है। तब मेरे प्रम की पावन कवच उपलब्ध होगा जिसकी न तो कोई सीमा होगी और न ही कोई अन्त। मैं आपको देखती रहूँगी। असंख्य आशीर्वादों के रूप में मेरे प्रेम की वर्षा आप पर हो रही है। मैं बताना चाहती हूँ कि मैं ही वह लक्ष्य हूँ। परन्तु क्या आप लोग इस बात को स्वीकार करेंगे? क्या यह बात आपके दिलों में उतरेगी?" हमेशा आपकी प्रेममयी माँ निर्मला। ( अंग्रेजी रूपान्तरण से रूपान्तरित) परम पूज्य श्रीमाताजी का एक पत्र मानव शान्ति, वैभव, सत्ता आदि की आकांक्षा होने दें। प्रेम असीम है। आपका चित्त तो भौतिक करता हैं, परन्तु इन सब चीजों का उद्भव परमात्मा पदार्थों में फँसा हुआ है और बातें आप अनन्त से है। तो मानव के अन्दर परमात्मा को प्राप्त करने की करते हैं! आपका चित्त अनन्त में विलय की इच्छा क्यों नहीं होनी चाहिए? उसमें परमात्मा से हो जाना चाहिए ताकि आप अनन्त जीवन प्राप्त मिलने की अभिलाषा क्यों नहीं होनी चाहिए। शान्ति प्राप्त करने के लिए हमें परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए और उनसे मिलन की इच्छा बनाए रखनी चाहिए जो स्वयं शान्ति हैं। एक सर्वसाधारण मनुष्य और एक सहजयोगी के सन्तोष में यह अन्तर होना चाहिए। परमात्मा से मिलन की इच्छा को परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित करने के लिए व्यक्ति को तैयार रहना चाहिए। पूरा चित्त उन पर होना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति में समर्पण भाव, दुढ़-निश्चय और तपस्विता का होना आवश्यक है और इन्हीं में सभी भौतिक लिप्साएँ विलीन करनी चाहिएं। लिप्त होने के लिए संसार में क्या है? के बाद बाकी सब कुछ आपको आसानी से आपको चाहिए कि उन चरण कमलों को गरिमा मिल जाएगा। को महसूस करें जिनमें विलय होकर सभी कुछ शान्तिमय बन जाता है। केवल तभी आप अपनी गरिमा को पा सकेंगे। कर सकें। आप परमात्मा के साम्राज्य के अधिकारी (official ) हैं, फिर किसलिए खीझ रहे हैं? इस साम्राज्य में सभी देवता आपके बड़े भाई हैं। कुण्डलिनी के मार्ग में वे भिन्न रूपों में विद्यमान हैं। आपको चाहिए कि उन्हें पहचानें और प्राप्त कर लें । कुण्डलिनी आपकी माँ है। हमेशा उनकी देख-रेख में रहना सीखें। उनके बालक बने और वे आपको अन्तिम लक्ष्य तक ले जाएंगी। जहाँ से हर चीज़ का उद्भव हुआ है उसे प्राप्त करने परन्तु अपनी ध्यान-धारणा, पेम और शान्त-जीवन में आप दृढ़ नहीं हैं। मुझसे भी आप लापरवाही से बात करते हैं। सांसारिक चीजों में परन्तु आप कितने उत्सुक हैं। किसी भी चीज़ को प्राप्त करने के लिए आप किस तरह से अड़ जाते हैं! इस मामले में आप लापरवाह क्यों नहीं है? वास्तविकता से न भागें क्योंकि मैं महामाया हूँ। मैं आपकी हूँ, मुझे पा लें। मैं आपके लिए हूँ। मैंने आपको वो दे दिया है जो महान सन्तों और पैगम्बरों को भी दुर्लभ था। किस प्रकार आप इसका उपयोग करेंगे? आपको इतनी बड़ी सम्पदा दे दी गई है जिसकी एक लहर मात्र से हजारों व्यक्ति को अपनी उपलब्धियों की डींग क्यों हॉकनी चाहिए? आपको ये समझना आवश्यक है कि जो भी कार्य आप कर रहे हैं, ये परमात्मा की शक्ति है अर्थात आदिशक्ति का कार्य है, आप तो इन चमत्कारों के साक्षी मात्र हैं। वह अवस्था प्राप्त करने के लिए आपको प्रार्थना करनी चाहिए, "हे परमात्मा, हमारा अहंभाव समाप्त हो जाए, हम इस सत्य को आत्मसात कर सकें कि हम सब आपके तुच्छ अंश हैं ताकि आपका परमेश्वरी सितारों और ग्रहों का सृजन किया गया! आशीर्वाद हमारे शरीर के जरें-जरें को गुंजरित कर सके और ये जीवन उन मधुर गीतों से भर उठे जो मानवमात्र को मोह लें तथा पूरे विश्व को सहजयोगी इस कार्य को कर सकते हैं। यह बहुत प्रकाश दिखलाएं।" अपने हृदय से प्रेम प्रवाहित आपके पुनर्जन्म का महान महत्व है। परन्तु आपने स्वयं इसे प्राप्त करना है। स्वः का अर्थ खोजें बडा कौशल है। मैंने आपको इसका रहस्य बता दिया 2007 15 अक : 7 & 8 चैतन्य लहरी परन्तु आपने क्या प्राप्त किया? लाभ उठाकर तो सहजयोगी ही प्रिय लोग हैं, आप ही को अधिकारी कोई खीझता नहीं है। आपके अप्रसन्न होने का अर्थ ये है कि आपको लाभ नहीं हुआ। ये भैद यदि आप जान लें तो आप आनन्द के मार्ग खोल लेंगे और हो जाएंगे और दूसरी ओर सहजयोग का पूर्णज्ञान न आनन्द उठाते हुए स्वयं को भूल जाएंगे। सांसारिक पदार्थों से कोई प्रसन्न नहीं होता। मैंने आपको विवेकशील बनें और डटे रहें। हर गतिविधि की हजारों खज़ाने की चाबी दे दी है, ये चाबी अन्य लोगों दिशाएं होती हैं। अपनी चैतन्य किरणों को भिन्न को नहीं मिली। परन्तु द्वार खोलने के लिए आपको दिशाओं में फैलने दें । आप पूरे विश्व का हित करेंगे। कार्य करना होगा आपने हर चीज़ को लापरवाही अपने आलस्य को गतिशील बनाएं। आपको कप्तान से लिया है। आप चाहते हैं कि श्रीमाताजी आपका भरण-पोषण करें, सुबह जगाएं और आपके क्रोध एवं घूणा को स्वच्छ करने के लिए आपको ध्यान में नहीं हैं उनके प्रति सद्भावनाएं बनाएं और परमात्मा है बनाया गया है। आप यदि इसकी अनदेखी करते हैं तो एक ओर तो आप आनन्द के इस महान स्रोत से वंचित होने के कारण आप अपना अधिकार खो देंगे। अत: बनना है। अपनी बाँसुरी से दिव्य संगीत बजने दें। जो लोग आत्मसाक्षात्कारी और आशीर्वादित बिठाएं। का साम्राज्य आपका होगा। मेरी कामना है कि आपको ये मंगलमयता प्राप्त हो, मेरे सभी प्रयास इसी के गुरु दक्षिणा दी है? समझें कि आपका पैसा तो लिए हैं। आपको मन्दिर की तरह से बनाया गया आपकी गुरु माँ के चरणों की धूल के बराबर भी है। इसे स्वच्छ रखें। आपमें से कुछ लोग आशीष सागर का आनन्द उठा रहे हैं। मेरा आशीर्वाद है कि आप सब प्रसन्न हों। आपका सांसारिक जीवन और स्वच्छ करें। इस मामले में आलस्य न करें। शपथ लें। संतोष भी उसी स्तर का हो। सहजयोगी का सन्तोष और उसकी परिस्थितियाँ सन्तुलित होती हैं। हमारी घण्टा ध्यान और पूजा पर लगाएं। शाम को दोनों टाँगे बराबर बढ़ती हैं। एक टाँग यदि छोटी हो जाए तो व्यक्ति लंगड़ा हो जाएगा। संतोष की यदि कमी है तो भी मैं आपको अपनी परिस्थितियों का स्तर नीचा करने के लिए नहीं कहना चाहती। परन्तु सहजयोगियों का सन्तोष उसकी परिस्थितियों पर आज गुरु पूजा का दिन है। आपने मुझे क्या नहीं है। आपको अपने हृदय समर्पित करने चाहिएं, केवल स्वच्छ एवं पावन हृदय। अपने शरीर को प्रातः काल जल्दी उठें और कम से कम एक आरती एवं ध्यान करें। शैतान के शिष्य श्मशान घाटों पर कठोर परिश्रम करते हैं। मैं समझ नहीं पाती कि आप लोग हर चीज़ को इतनी लापरवाही से क्यों लेते हैं। सारी गप्पें बन्द करें, सभी ईष्ष्या और झगड़े त्याग दें। समय कभी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। खज़ाने की निर्भर नहीं करता। वह हर परिस्थिति में प्रसन्न रहता है। यदि वह प्रसन्न नहीं है तो उसका सन्तोष दिखावा है आन्तरिक नहीं। परमात्मा आपको अपने चरण कमलों में निरन्तर स्थान प्रदान करें। चाबी प्राप्त करने के बाद भी क्या आप खाली हाथ जाना चाहते हैं? आपकी माँ निर्मला निर्मला योग-1983 परमात्मा के साम्राज्य को यदि आप स्वीकार नहीं करते तो शैतान का साम्राज्य आएगा और इसके लिए आपको स्वयं को दोष देना होगा। याद रखें आप (रूपान्तरित) श्री ईसामसीह के जन्म का वर्णन अध्याय-3 श्रीमद् भागवतम् श्री ब्रह्माजी के पुत्र श्री नारद से श्री नारायण ने स्वर्गा वाला ब्रह्मलोक है और इसके नीचे सात पाताल हैं। ब्रह्मानन्द की यह सीमाएं हैं। इस पृथ्वी से ठीक ऊपर भूलोक है, इसके बाद ऊपर भुवलोंक है, फिर (स्वरलोक) स्वाहालोक है, उसके बाद जनलोंक है? तत्पश्चात् तपलोक है, फिर सत्यलोक और इनके ऊपर ब्रह्मलोक है । ब्रह्मलोक का रंग पिघले हुए सोने इस प्रकार कहा : (1-34): ओ देवर्षि! ब्रह्माजी की के आयु बराबर वर्षों से जल में तैरता हुआ मूल प्रकृति से जन्मा अण्डा, जिसका समय अब पूर्ण हो गया था, दो भागों में अलग हो गया। उस अण्डे में महान शक्तिशाली बालक था, हजारों सूर्यों से भी अधिक तंजस्वी। जैसा है परन्तु ब्रह्मलोक के अन्दर या बाहर के सभी बच्चा माँ का दूध न पी सका क्योंकि माँ उसे छोड़ पदार्थ नश्वर हैं। ब्रह्माण्ड के विलय के साथ ही हर गई थी। भूख से परेशान होकर बच्चा बार-बार रोया। असंख्य ब्रह्माण्डों का स्वामी बनने वाला वह शिशु जो अब माता-पिता विहीन था, पानी से ऊपर की ओर देखने लगा। स्थूल अवस्था प्राप्त करने पर बाद यही बच्चा 'महाविराट' के नाम से जाना गया । जिस शाश्वत हैं। इस महाविराट के कण-कण में एक प्रकार रेडियम से अधिक सूक्ष्म कुछ भी नहीं है वैसे ब्रह्माण्ड विद्यमान है। किसी और की तो क्या बात ही महाविराट से अधिक स्थूल कुछ भी नहीं है। चीज का विलय हो जाता है और सभी कुछ नष्ट हो जाता है सभी कुछ। ये सब पानी के बुलबुले की तरह से अस्थाई है। केंवल गोलोक और वैकुण्ठलोक ही करें स्वयं श्री कृष्ण भी इन ब्रह्माण्डों की संख्या की गिनती नहीं कर सकते। हर ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। हे, वत्स नारद! हर ब्रह्माण्ड में तीन की महाविराट शक्ति इस श्रीकृष्ण (1/16) है। परन्तु प्रकृति (राधा) से उत्पन्न े बालक पूरे ब्रह्माण्ड का आधार है और महाविष्णु से नियंत्रित है । उनके रोम-रोम में असंख्य ्रह्माण्ड विद्यमान हैं- इतने अधिक कि स्वयं श्री कृष्ण भी उनकी गिनती नहीं कर पाए। सम्भवतः धूल के कणों की भी गिनती की जा सके परन्तु ब्रह्माण्डों की गिनती नहीं की जा सकती। अत: असंख्य ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। हर ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और -सर्वकलासम्पन्न-की शक्ति का सोलहवाँ भाग कोटि देवो-देवता हैं। उनमें से कुछ दिक्पति हैं, कुछ दिक्पाल हैं, कुछ तारापुंज हैं और कुछ ग्रह हैं। भूलोक में चार वर्ण हैं, और पाताल में नाग हैं इस प्रकार ब्रह्माण्ड चल और अचल चीजों से बने हैं (ब्रह्माण्ड विवर्ति)। ओ, नारद! विवर्त पुरुष ने अब बार-बार आकाश की ओर देखना शुरु कर दिया परन्तु उस अण्डे में वो रिक्ति (Void) के अतिरिक्त कुछ न देख सका। भूख से तंग आकर वह बार-बार रोया और चिन्ता में खो अगले क्षण होश में आते ही वह श्री कृष्ण, सर्वोंच्च पुरुष के बारे में सोचने लगा और एकदम उसे ब्रह्मा का प्रकाश नज़र आया। वहाँ जैसे महेश हैं। हर ब्रह्माण्ड पाताल लोक से ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। वैकुण्ठ लोक इनसे भी ऊपर है (अर्थात यह ब्रह्माण्ड से बाहर स्थित है)। गोलोक वैकुण्ठ से पचास कोटी योजन 50x10x4x2 उसने श्री कृष्ण का गहरा नीला रूप देखा, Milon Miles) ऊँचा है। गोलोकधाम भी वैसे ही नवनिर्मित मेघ का रंग होता है। उनके दो हाथ थे, शाश्वत और सत्य है जैसे श्रीकृष्ण। सात टापुओं से पीताम्बर वस्त्र पहना हुआ था, उनके मुख पर मधुर बना ये विश्व, सात महासागरों से घिरा हुआ है मुस्कान थी, हाथों में बाँसुरी थी और अपने भक्तों उनके समीप ही 49 उपद्वीप हैं। इसके अतिरिक्त को अपनी सुन्दर छटा दिखाने के लिए वो लालायित प्रतीत होते थे। अपने परम पिता परमात्मा की ओर असंख्य पर्वत और जंगल हैं। पृथ्वी से ऊँचा सात গত चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 - 2007 17 और तो उन्हीं की कृपा के कारण है और उन्हीं की भक्ति और पूजा मनुष्य नहीं करता! जब तक आत्मा शरीर में रहती है, शरीर के अन्दर शक्तियाँ बनी रहती हैं, आत्मा के प्रस्थान करते ही सारी शक्तियाँ भी उसके साथ चली जाती हैं। हे महात्मा, आप तो शाश्वत आत्मा हैं जो प्रकृति से भी ऊपर हैं, जो दिव्य इच्छा है, पुरातन पुरुष है, और महानतम प्रकाशसम है। इस प्रकार ये सब कहकर विराट बालक मौन हो गया। देखकर वो लड़का प्रसन्न हो गया मुस्कराया। वर देने वाले परमात्मा ने उस क्षण के अनुरूप वर दिए:- "हे वत्स! तुम्हें मेरी ही तरह से ज्ञान प्राप्त हो, तुम्हारी भूख, प्यास समाप्त हो जाए, प्रलय के समय तक तुम असंख्य ब्रह्माण्डों के आधार बनो। नि:स्वार्थ, निर्भय और सभी को वर प्रदान करने वाले बनो। वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग, शोक, तथा किसी अन्य प्रकार का रोग तुम्हें कष्ट न दे सके। उसके कान में उन्होंने तीन बार सोलह शब्दों का मन्त्र दोहराया : तब श्री कृष्ण अपनी मधुर-वाणी में बोले: हे, वत्स! तुम भी मेरी तरह से निरन्तर प्रफुल्लित "ॐ कृष्णाय स्वाहा:" जिसकी पूजा, वेद अपने अंगों के साथ करते हैं और जो कामनाओं को पूर्ण रहो। असंख्य ब्रह्माओं की मृत्यु हो जाने पर भी करने वाले तथा कष्टों और विपत्तियों को नष्ट करने कभी तुम्हारा पतन न हो। वाले हैं, ओ ब्रह्मा-पुत्र! इस प्रकार उसे मन्त्र देते हुए श्री कृष्ण ने उसके लिए भोजन का प्रबन्ध किया: "हर ब्रह्माण्ड में जो भी भेंट श्री कृष्ण को चढ़ाई जाएगी उसका सोलहवाँ भाग (1/L6) वैंकुण्ठ स्वामी श्री नारायण को जाएगा और 15/16 भाग इस बालक, विराट को प्राप्त होगा। श्री कृष्ण ने अपने लिए भेट होंगे। एकादश रुद्रों में से कालाग्नि नामक रुद्र सभी में से कोई हिस्सा न रखा। स्वयं सर्वगुणों से ऊपर, पूर्ण, वे हमेशा स्वयं में ही सन्तुष्ट रहते हैं। उन्हें तम्हारे उपभागों में से विष्णु प्रकट होंगे और वे किसी भेंट की क्या आवश्यकता है? लोग जो भी भेंट भगवान को या लक्ष्मी को अर्पण करते हैं, उन सबको विराट खाते हैं इस प्रकार भगवान कृष्ण ने भक्ति से परिपूर्ण रहेगा और मेरा ध्यान करते ही तुम विराट को वरदान और मन्त्र देकर कहा। "हे वत्स! कहो, अब तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुरन्त तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूगा। सुनकर विराट बालक बोला, "हे सर्वशक्तिमान! मेरे अन्दर इस इच्छा के अतिरिक्त कोई इच्छा नहीं बची कि जब तक में जीवित रहूँ, थोड़ा समय या अधिक समय, आपके चरण कमलों की पावन भक्ति में बना रहू। (42-57) तुम स्वयं को भागों में बाँट लो और हर ब्रह्माण्ड में छोटे विराटों का रूप धारण कर लो। तुम्हारी नाभि से होकर ब्रह्मा ब्रह्माण्डों का सृजन करेंगे। सृष्टि को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा के मस्तक से एकादश रुद्र-प्रकट होंगे परन्तु वे शिव के ही अंश विश्वों (ब्रह्माण्डों) को नष्ट करेगा। इसके अतिरिक्त भगवान विष्णु इस विश्व के परिरक्षक होंगे। मैं वर देता हूँ कि मेरी कृपा से तुम्हारा हृदय हमेशा मेरी मेरे प्रिय रूप को देख सकोगे। इसमें कोई सन्देह नहीं है। और तुम्हारी माँ, जिनका निवास मेरे वक्ष में है उनके दर्शन करना भी तुम्हारे लिए कठिन न होगा। तुम यहाँ सुख-शान्तिपूर्वक रहो। अब मैं गोलोक प्रस्थान करता हूँ। ये कहकर विश्व के स्वामी श्री कृष्ण लुप्त हों गए। अपने लोक में जाकर उन्होंने सृजन के कार्यों में कुशल ब्रह्मा और शंकर से तुरन्त बात की "हे वत्स ब्रह्मा! तुरन्त जाओ और महान विराट के रोमों से प्रकट होने वाले छोटे विराटों की नाभियों से प्रकट होओ। हे वत्स, महादेव! जाओ और सृष्टि को नष्ट करने के लिए हर ब्रह्माण्ड में प्रकट हुए ब्रह्मा के मस्तक से जन्म लो, परन्तु याद रहे कि बहुत लम्बे समय तक तपस्या में लगे रहना- हे सृष्टि सृजनकर्ता ब्रह्मा के पुत्र! इतना कहकर ब्रह्माण्ड स्वामी मौन हो गए। ब्रह्मा और मंगलमय शिव, भगवान को " श्री कृष्ण के इन शब्दों को (35-41) इस संसार में तुम्हारा भक्त जीवन मुक्त है और भक्तिहीन भ्रमित मूर्ख जीवित होते हुए भी मृत है। जिस व्यक्ति में श्री कृष्ण की भक्ति नहीं उसे जप, तप, बलिदान, पूजा, उपवास आदि करने का, तीर्थ वात्रा पर जाने का तथा अन्य धार्मिक कार्यों को करने का कोई लाभ नहीं। श्रीकृष्ण की भक्ति- विहीन व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है। क्यथोंकि यह जीवन লnc चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 18 शीश नवाकर अपने कार्यों पर चले गए। दूसरी ओर महाविराट अपने लघुविराट के रोम-रोम से सृजित पहले सनक और अन्य भाईयों ने जन्म लिया और ब्रह्माण्ड क्षेत्र के जल पर शयन करते रहे। महान ब्रह्माण्डों के आकार में, नीले-हरे रंग की झाँई वाला पीताम्बर पहने, सर्वव्याप्त युवा जनार्दन, शयन करते रहे। उनकी नाभि से ब्रह्माजी ने जन्म लिया, जन्म लेने के उपरान्त वे नाभिकमल में भ्रमण करने लगे और इस कमल के तने में एक लाख युगों तक भ्रमण किया, परन्तु वो इस बात का पता न लगा सके कि इस कमल के तने का आरम्भ कहाँ से है। हे नारद! तब तुम्हारे पिता बहुत हैरान हुए और अपने पूर्व सारे ब्रह्माण्ड प्रकट हुए हैं और हर ब्रह्माण्ड में एक स्थान पर वापिस आकर श्री कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान करने लगे। अपने ध्यान में अन्त्दृष्टि द्वारा पहले उन्हें नन्हें विराट दिखाई दिए और उसके बाद जलशैय्या पर शयन करते हुए महाविराट के दर्शन है जो अत्यन्त सुख एवं मोक्ष की दाता है। अब उन्हें हुए, उन महाविराट के, जिनके रोम-रोम में बताओ तुम और क्या सुनना चाहते हो? इसके साथ ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं। तत्पश्चात उन्होंने गोलोक में ही महापुराण श्रीमद् देवी भागवत् के अट्ठारह हजार गोप-गोपियों के साथ भगवान कृष्ण को देखा। वे गोलोकस्वामी की स्तुति करने लगे। जब गोलोक स्वामी ने तुम्हारे पिता को वरदान दिया तब उन्होंने सृष्टिसृजन का कार्य आरम्भ किया। (58-62) तुम्हारे पिता के मस्तक से सबसे इसके बाद उनके मस्तक से एकादशरुद्र प्रकटे हुए। तत्पश्चात् जलशैय्या पर लेटे नन्हें विराट के बाएं पक्ष से ब्रह्माण्ड परिरक्षक भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप (Shwetadvipa) चले गए और वहीं रहने लगे। तब तुम्हारे पिता इस नन्हें विराट पुरुष की नाभि में इस चल-अचल त्रिलोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) से बने इस ब्रह्माण्ड के सृजन कार्यों में लग गए। है, नारद! इस प्रकार से इन महान विराट के रोम-रोम से नन्हा विराट है, एक ब्रह्मा हैं, एक विष्णु है, एक शिव है तथा सनक आदि भी हैं। हे, द्विजोत्तम! इस प्रकार से मैंने श्री कुष्ण की महिमा का वर्णन किया श्लोकों में महर्षि वेद व्यास वर्णित ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अवतरण के नौवें स्कन्द का तीसरा अध्याय निर्मला योग- 1983 समाप्त होता है। (रूपान्तरित) असफलताएं सफलता की सीढ़ियाँ हैं दृष्टिहीनता का मुकाबला करके चार्टड अकाऊंटेंट बनने वाली एक महिला का कथन) ' दृष्टिहीनता की शिकार सी. ए,जी. रजनी उन अलभ्य साहसिक महिलाओं में से हैं जिन्होंने सी. ए. की डिग्री प्राप्त करने के लिए मार्ग में आने वाली चुनौतियों को स्वीकार किया और अन्ततः दक्ष पेशेवर बनने में सफल हुई। सम्मानमय पद पर आरूढ़ सी.ए, बिरादरी तथा सी.ए. बनने के आकांक्षी लोगों से वे उन चुनौतियों के विषय में बताती हैं जिनका उन्हें सामना करना पड़ा। दृष्टि से ही अपनी स्नातिक डिग्री तथा इन्टरमीडिएट सी ए. की पढ़ाई पूर्ण की । वर्ष 1994 में मेरी दृष्टि पूर्णतः समाप्त हो गई। मेरे पिताजी की निरन्तर बीमारी के कारण मुझे शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक मोर्चों पर एक साथ युद्ध करना पड़ा। "मैंने सहजयोग ध्यान-धारणा करना आरम्भ किया। जिसके आशीर्वाद स्वरूप इस मानसिक आघात से ऊपर उठने के लिए मुझे आत्मबल और पूर्ण सन्तुलन प्राप्त हुआ।" चिकित्सकीय लापरवाहियों के कारण नौ वर्ष की आयु में ही मुझे स्टीवन जॉनसन सिंड्रोम (Steven Johnson Syndrome) रोग हो गया और निरन्तर मेरी दृष्टि दुर्बल होती चली गई। इसके बावजूद भी मैंने सीमित अन्ततः निरन्तर परिश्रम, प्रयत्न, सत्यनिष्ठा और दूढ़ निश्चय से मैंने अपना लक्ष्य प्राप्त किया। ा मैंने सहजयोग ध्यान-धारणा करना आरम्भ किया। जिसके आशीर्वाद स्वरूप इस मानसिक आधात से उठने के लिए मुझे आत्मबल और पूर्ण सन्तुलन प्राप्त हुआ।" परम पूज्य श्रीमाताजी का परामर्श आत्मसाक्षात्कार देते हुए यदि आपको भूख लगी होगी या कोई अन्य शारीरिक आवश्यकता आपको होगी तो उसका आप पर कोई प्रभाव न होगा। आध्यात्मिकता के इतिहास में कभी भी किसी इतने कम समय में कुण्डलिनी जागृत नहीं की जैसे आप लोग कर रहे हैं। ये आपकी अंगुलियों के इशारें पर चलती है। ये श्री गणेश की शक्ति है जो आपको प्रदान की गई है। किसी प्रकार का चित्त विक्षेप न होगा। आप कोई भी गरिमाविहीन कार्य नहीं करेंगे उस समय आपको आत्मविश्वास प्रदान करने के लिए आपको गरिमा का आशीष मिलता है। उस समय न आपके अन्तर्स्थित श्री गणेश ने स्वयं आपको तो आप मज़ाक करेंगे, न किसी का मजाक उड़ाएंगे गणेशशक्ति प्रदान की है। आपको आत्मविश्वास और न ही ओछापन दिखाएंगे। आप उस व्यक्ति से प्रदान करने के लिए, ताकि आप कुण्डलिनी जागृत कर सकें। परन्तु आत्मविश्वास का अर्थ आपके अन्दर कर्ताभाव आना बिल्कुल नहीं है, कि आप कुण्डलिनी उठा रहे हैं। सहजयोग के प्रति स्वयं को समर्पित किए बिना यदि चलते हैं तो कुछ ही समय इस प्रकार बात करेंगे कि वह व्यक्ति भी विवेकशील बन जाएगा। आपकी बातें विवेक से परिपूर्ण होंगी। यदि आप श्री गणेश का अनुसरण करें तो इन शक्तियों को बनाए रखा जा सकता है। ये श्री गणेश की शक्तियाँ है । पश्चात् शीध्रता से आप ये शक्ति खो देंगे । आपमें आदिशक्ति की तीन शक्तियाँ कार्य जब आप अपना हाथ कुण्डलिनी पर चला रहे होते हैं तो महानतम शक्ति का उपयोग कर रहे होते हैं। मैं नहीं जानती कि आपको स्वयं में, तथा प्राप्त हुई शक्ति में, कितनी श्रद्धा है! उस समय आपके हाथ के सम्मुख किसी से भी कोई बाधा नहीं आएगी । करती हैं। एक आपको दीर्घायु प्रदान करती है और इच्छाओं के मामले में आपके विचारों को पावन करती है। आपकी इच्छाएं यदि शुद्ध हैं तो ये शक्तियाँ आपकी सभी इच्छाओं को पूर्ण करती हैं। अपने हृदय को बन्धन देकर आप ये शक्तियाँ प्राप्त कर सकते हैं। आपमें जो भी इच्छा हो उसे सात बार अपने हृदय में दोहराएँ। इसे बन्धन दें और कार्य हो जाएगा। परन्तु मूर्खतापूर्ण इच्छाओं के लिए इसका दुरुपयोग न करें क्योंकि ऐसा करने से आपकी ये शक्ति चली जाएगी। इसका उपयोग कोई उच्च उपलब्धि पाने के लिए करें। जब आप कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं तो जागृति लेने वाले व्यक्ति का चित्त बाह्य चीज़़ों की ओर आकर्षित नहीं होगा उसका अर्थ ये है कि आप किसी भी समय कुण्डलिनी जागृत कर सकते हैं क्योंकि उस समय आपका निवास बन्दकमल में होता है। कुण्डलिनी जागृत करते हुए आपके अन्दर जागृति लेने वाले व्यक्ति के प्रति अपवित्र भावनाएं नहीं आएंगी। पहले या बाद में ऐसा हो सकता है, सभी लोग आपकी ओर ऐसे आकर्षित होंगे जैसे चम्बक की ओर और सदैव महान आत्माएं और देवदूत आपका पथ प्रदर्शन करेंगे। परन्तु आत्मसाक्षात्कार देते । अन्दर ये अपवित्र भाव नहीं आएंगे। आपको अपना मस्तिष्क शान्त नहीं करना पड़ेगा, स्वतः ही ये कार्य हो जाएगा आप पूर्णतः सन्तुष्ट हो जाएंगे। हुए नहीं। स्वत: ही आपके इच्छा की यह शक्ति हर सम्भव तरीके से आपकी सुरक्षा करती है, आपका पथ प्रदर्शन करती है, आपकी देखभाल करती है, आपको शान्ति प्रदान अंक क : 7 & 8 -2007 20 चैतन्य लहरी करती है और सहजयोग में गहन श्रद्धा देती है। सहजयोग के प्रवाह के साथ स्वयं को बहने दें। यदि ये कार्यान्वित हो जाए तो बहुत अच्छी बात अन्तत: आप सहजानन्द से परिपूर्ण हो जाते हैं तथा सहजयोग के अतिरिक्त आपको कुछ अच्छा नहीं है और न हो तो भी ठीक है। इसे इस प्रकार चलने दें और आप हैरान होंगे कि कैसे ये महालक्ष्मी शक्ति सुधरती है ओर इसके आशीर्वाद भी बहुत आश्चर्यजनक है! लगता। परन्तु कई बार अहलिप्त होकर हम समझ लेते हैं कि हमारा अहं ही सहजयोग है। कई बार, मैंने देखा है कि लोग किसी चीज़ को केवल इसलिए पसन्द करते हैं क्योंकि वह उनके अहं से जुड़ी है। अहं को सहजयोग से अलग कर लेना चाहिए और शक्ितयाँ जागत हो गई हैं। उदाहरण के रूप में इसे अपने जीवन में, अपने रोजमर्रा के जीवन में लाना चाहिए। परस्पर मिलते हुए, एक दूसरे से बात करते हुए, आपको देखना चाहिए कि यह बिल्कुल जाते हैं कि आप सहजयोगी हैं, खाते हुए आपको इसी प्रकार से आपके अन्दर एक हज़ार एक विशुद्धि के चक्र में आपके अन्दर सोलह हजार शक्तियाँ जागृत हो गई हैं। परन्तु बोलते हुए आप भूल वैसे ही हो जैसे सागर की एक लहर चढ़ती है फिर उतरती है, दूसरी लहर चढ़ती है और उतरती है और सभी परस्पर एक हो जाती हैं। समझ नहीं आता कि आपकी जिहवा सहजयोगी की जिह्वा है और इसे किसी चीज़ की लालसा नहीं होनी चाहिए। खाने के विषय में बहुत अधिक सोचने से आपकी विशुद्धि खराब होती है, बहुत अधिक। मध्य-शक्ति से आप लोगों को आत्मसाक्षात्कार देंगे, उनको चक्रों के विषय में बताएंगे और अपने मेरे सम्मुख किसी की बुराई करने से, किसी की चक्र ठीक करेंगे। केवल इसी शक्ति से आप अपनी शिकायत करने से, आपकी विशुद्धि खराब होती है। इच्छा पर नियन्त्रण प्राप्त कर लेंगे। जैसा बनना चाहेंगे मैं यदि कुछ पूछू और आप बताओं तो ठीक है, परन्तु वैसे बनेंगे। बिना किसी कठिनाई के आप स्वयं को परिवर्तित कर सकते हैं श्री महालक्ष्मी की बहुत सी शक्तियाँ हैं जो आपने प्राप्त करनी हैं, परन्तु इसके लिए आपकी सुष्म्ना का स्वच्छ होना आवश्यक इसके लिए आपको अपने जीवन में निरलिप्सा का गुण विकसित करना होगा। नि्लिप्तता के बिना महालक्ष्मी की गहन शक्तियाँ विकसित न होंगी। उदाहरण के रूप में, छोटी-छोटी चीजों जैसे मुझसे उनके निर्णय पर निर्भर करेगी कि आप कहाँ पर हैं। सम्बन्ध जोड़ना- ये कार्य भी निर्लिप्त भाव से होना चाहिए। महालक्ष्मी की शक्ति अपने अन्दर विकसित कुछ लोग सोचते हों कि वो महान सहजयोगी हैं करने के लिए आपको निर्लिप्त होना होगा तब आप इससे परे (आगे) जाएं। आपका हर काम समय पर होने लगेगा। आपको समय देखने की आवश्यकता नहीं रहेगी। समय की इस शक्ति को बनाए रखने के चाहते हैं, हो सकता है कि इन लोगों का स्थान कहीं लिए आपको हड़कम्प मचाने की कोई जरूरत नहीं ऊँचा हो! इन परिस्थितियों में न तो व्यक्ति को शेखी ही है और न ही घड़ी का गुलाम बनने की जरूरत है बघारनी चाहिए और न ही अपने को बहुत उच्च मानना सब चलने दें। किसी भी चीज़ के बारे में जिद्द चाहिए। अपनी शक्तियों को तथा अपनी विशुद्धि को न करें। हर समय एक दूसरे की बुराई करने से आपकी विशुद्धि विगड़ेगी। जब आप दूसरों का आकलन करते हैं तब है। आपको जान लेना चाहिए कि परमात्मा तुम्हारा भी आकलन कर रहे हैं। दूसरों का आकलन करने में परमात्मा ने आपका भी आकलन किया है। ये बात आज जो लोग सहजयोग में हैं, हो सकता है उनमें से बहुत बड़े लोग है। परन्तु ये भी हो सकता है कि वो वास्तव में ऐसे न हों और जो लोग अपने को बहुत तुच्छ सोचते हैं और शक्ति को सुधारना और बढ़ाना सम्भाले रखने का यह बेहतर ढंग है। चैतन्य लहरी 21 अक : 7 & 8 2007 बनने का प्रयत्न करें। और आपमें ये शक्ति है अपना चित्त हमेशा सकारात्मकता पर रखें, नकारात्मकता पर मैंने ये भी देखा है कि लोग बड़े ही अटपटे ढंग से मेरे बारे में बहस करने लगते हैं। मैं सोचती नहीं। मैंने देखा है कि प्रायः नकारात्मक लोग अन्य हूँ कि इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान ये है कि आप मेरे विषय में बिल्कुल बात न करें और यदि बोलें तो आपको इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि आप जो कह रहे हैं वह पूर्णतः ये जानते हैं कि आप लोगों के रोग दूर कर सकारात्मक है। यदि आप ऐसा नहीं करते तो स्वयं को तथा अन्य लोगों को हानि पहुँचा रहे हैं। तो इस प्रकार से विशुद्धि चक्र की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं और जब आप स्वयं को भ्रमित करने, और स्वयं से झगड़ने का प्रयत्न करते हैं तथा सोचते हैं कि आपके आने से सहजयोग को लाभ हुआ और तब आपमें वो शक्ति ही नहीं रहती। इसके नकारत्मक लोगों की ओर ही बढ़ते हैं। आपमें रोग निवारक शक्तियाँ हैं आप सकते हैं। परन्तु इस चक्कर में न पड़ें क्योंकि वहाँ पर महामाया अपनी भूमिका निभाती हैं जब मुझे लगता है कि आप किसी व्यक्ति विशेष से लिप्त हो रहे हैं तो मैं आपको रोकती हूँ। मैं ऐसे बहुत से कार्य करती हूँ जिनसे आपको रोक सकें हैं, तब ये समस्याएं विशेष रूप से बढ़ती हैं। आपको लाभ है सहजयोग को नहीं। सहजयोग स्वत: प्रमाणित हुआ है। इसे आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं है। विपरीत आप स्वयं भी काफी कष्ट भोगते हैं क्योंकि आप ये नहीं जानते कि इस नकारात्मकता से अपनी रक्षा कि प्रकार करनी है। अत: मैं आपसे प्रार्थना करती हैँ कि अन्य लोगों का इलाज करने से पहले स्वयं को रोग मुक्त करें, अन्य लोगों का इलाज करने के लिए आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग भी कर सकते हैं । यदि 'सत्य' है तो सत्य को स्वीकार करने से आपकी बढ़ोतरी हुई है, आपके पद में बढ़ोतरी हुई है, सत्य की स्थिति में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। अत: ये धारणा आपके मस्तिष्क से एकदम निकल जानी चाहिए। यदि आप स्वयं को साक्षी अवस्था में रखें आप एक ऐसे दीप हैं जिसका प्रकाश अन्य लोगों के मस्तिष्क भी ज्योतिर्मय करता है ये बहुत महान चीज़ है। इससे पूर्व करोड़ों लोगों में से कोई से तो अपनी विशुद्धि को ठीक रखना सुगमतम कार्य है। आत्मसाक्षात्कार के बाद यदि आप हर चीज़ को निर्विचारिता में करने की आदत विकसित करें तो यह कार्य सम्भव है। ये आदत बना लेने से, आपको एक ऐसा व्यक्ति होता था, परन्तु अब आप बहुत लोग हैं। परन्तु यदि आप अपनी गुणवत्ता को बेहतर हैरानी होगी कि आपकी साक्षी अवस्था में सुधार नहीं बनाते तो मामला अत्यन्त निराशाजनक हो जाएगा। होगा और यह आपके अन्दर उन्नत होगी। अतः अवश्य अपनी गुणवत्ता को सुधारें। ये समझ लेना बहुत आवश्यक है कि परिवर्तित हुए बिना आपका कोई अर्थ नहीं है। आप जो हैं वही न बने रहें, जो आप बनना चाहते हैं वो निर्मला योग-1983 रूपान्तरित श्री कृष्ण पूजा (पर्व) न्यू जर्सी 2 जून, 1985 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के प्रवचन पर आधारित। आज हम श्रीकृष्ण की पूजा करने वाले हैं। भारत में श्रीकृष्ण का अवतरण उस समय हुआ जब वहाँ के लोग अत्यधिक कर्मकाण्डी हो गए थे। वे सन्तान थे परन्तु उन्होंने गीता लिखी! तो श्रीकृष्ण अवतार ने इस धारणा (जन्म से जाति) का उपहास किया। उन्होंने इस धारणा का उपहास किया कि केवल ब्राह्मण ही परमात्मा की इन तथाकथित ब्राह्मणों के दास बन गए थे, उन ब्राह्मणों के जिन्हें परमात्मा का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं पूजा कर सकते हैं। अत: श्री राम द्वारा बनाई गई कठोर मर्यादाओं को सन्तुलित करने के लिए, क्योंकि इन मर्यादाओं ने कट्टरता का रूप धारण कर लिया था, कर्मकाण्डों की कट्टरता और धर्मान्धता आ गई थी, लोगों को मध्य में लाने के लिए श्रीकृष्ण उन्हें विपरीत दिशा में ले गए। कर्मकाण्डों और धर्मान्धता का अन्त करने के लिए वे चाहते थे कि समाज दूसरी दिशा में रूप में अवतरित हुए। अत: उन्होंने एक नई धारणा का आरम्भ किया जो बिल्कुल सम्भावित थी। ऐसी धारणा का आना विकास प्रक्रिया के था। उन्होंने एक प्रथा आरम्भ कर दी थी कि ब्राह्मण का बेटा ही ब्राह्मण होगा। इस प्रकार जन्म से जाति का निर्णय होने लगा। इससे पूर्व ऐसा नहीं था कि ब्राह्मण का बेटा ही ब्राह्मण होगा। ये बात सत्य है कि आप यदि आत्म-साक्षात्कारी हैं, वास्तव में, आप यदि सच्चे आत्म-साक्षात्कारी हैं, तो आपके यहाँ जाए नि:सन्देह श्री राम ही श्रीकृष्ण जन्म लेने वाला बच्चा भी अवश्य आत्मसाक्षात्कारी होगा। इसी प्रकार से ये कहा जाता था कि पिता यदि ब्राह्मण है, आत्मसाक्षात्कारी है तो उसका बेटा भी ब्राह्मण ही होगा। क्योंकि अब आप सहजयोगी हैं, आप ये समझ सकते हैं कि सहजयोगी का बेटा भी प्रायः सहजयोगी ही बनेगा। अत: इस बात पर सहमति बन गई कि 'ब्राह्मण' के बच्चे ही ब्राह्मण कहलाएंगे। शनैः शनै: इसका अर्थ ये ले लिया गया कि व्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण कहलाएगी। अब हमने देखा है कि बहुत से सहजयोगियों के बच्चे सहजयोगी नहीं हैं। हो सकता है ये उनके कर्मों के कारण हो या बच्चों के कर्मों के कारण, कुछ भी हो सकता है। परन्तु मैंने ये भी देखा है कि कुछ सहजयोगियों के बच्चे भयानक आसुरी प्रवृत्ति (devilish) होते हैं। नहीं जानना चाहिए। किसी भी प्रकार के निषेध, इससे प्रकट होता है कि जन्म से आप ब्राह्मण होने का या ब्रह्मज्ञानी होने का दावा नहीं कर सकते। ब्रह्म तो सर्वव्यापी शक्ति है। अत: आपको अपने कर्मों से, कार्यकलापों से, ब्राह्मण बनना होगा। जैसे बाल्मिकी बने, जो वास्तव में मछुआरे थे। उन्होंने रामायण अनुरूप था। नई धारणा ये थी कि सभी कुछ मात्र एक लीला है। अत: किसी भी चीज़ को इतनी गम्भीरता से, कट्टरता पूर्वक, धर्मान्धता से नहीं लिया जाना चाहिए, किसी भी प्रकार से कट्टर नहीं होना चाहिए। सभी कुछ लीला है। श्रीकृष्ण ने इसी धारणा पर कार्य किया और इसकी स्थापना की कि सभी कुछ एक खेल मात्र है। अमेरिका में भी आप यही देखते हैं, ये आम-बात हैं, लोगों के लिए सभी कुछ मज़ाक बन गया है वो सोचते हैं कि जीवन को गम्भीरता पूर्वक किसी विशेष प्रकार की जीवन शैली में फँसने के स्थान पर सभी कुछ करने में अधिक आनन्द है। परन्तु अमेरिका में अब ये धारणा मजूाक बन गई है क्योंकि इस प्रकार की जीवन शैली अपनाने के लिए व्यक्ति को श्री कृष्ण बनना होगा, उसे आत्म साक्षात्कार प्राप्त करना होगा। जैसे यदि आप पानी में खड़े हैं तो पानी में लिखी। वे महान ब्राह्मण थे। इसके अतिरिक्त गीता के लेखक व्यासदेव जी हुए। वे मछुआरिन की अवैध ত अंक : 7 & 8 2007 23 चैतन्य लहरी यह जानने के लिए आपमें विवेक बुद्धि होनी चाहिए कि कामदी क्या है, त्रासदी क्या है। आपके लिए ये कार्य है। आप यदि अभिनय कर रहे हैं तो आप अभिनय कर रहे हैं और आप अभिनेता हैं तथा इसमें लिप्त हैं। अत: उस स्थिति में त्रासदी और कामदी में अन्तर करना आपका कार्य नहीं है। जब तक आपको अच्छा पैसा मिलता है और आप अपने कार्य को भली-भाँति करते हैं तब तक आप मात्र एक अभिनेता हैं और यह आपके लिए कामदी है। अन्यथा ये त्रासदी है। चलने वाली लहरें आपके लिए पूर्णतः सत्य हैं परन्तु यदि आप सोचते हैं कि ये भ्रम है तो आप बिल्कुल नष्ट हो जाएंगे। 'यह भ्रम है' सोचने मात्र से सत्य भ्रम में परिवर्तित नहीं हो जाता। परन्तु यदि आप नाव में हैं तो आपके चहूँ ओर का पानी एक भ्रम मात्र है। यही बात उस अवस्था पर भी लागू होती है। जिसमें आप हैं। यदि आप आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में हैं तो सभी कुछ भ्रममात्र है, अन्यथा नहीं है। तब ये सच्चाई है। तो इस बिन्दु पर जो बात वो भूल गए वो ये थी कि आप उस अवस्था में नहीं हैं जिसे भ्रम कहा जाए। अत: हर चीज को भ्रम कहना अपने आपको धोखा देने जैसा है। ये सोचना कि यह सब मात्र एक भ्रम है, 'कोई बात नही', 'क्या बुराई है', 'तो क्या', ये बात प्रतीकात्मक है कि श्री कृष्ण की अवस्था में यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि सभी कुछ भ्रान्ति है। तो कौन गलत है, कौन बुरा है, कुछ भी बुरा कुछ लोग तो यहाँ तक भी कह देते हैं कि 'भूत', 'राक्षस', और 'आसुरी शक्ति' जैसी कोई चीज़ नहीं है। तो अब दो प्रकार की चेतनाएं हैं, एक चेतना दर्शक की है और दूसरी उस व्यक्ति की जो इसमें लिप्त है। अत: व्यक्ति को श्री कृष्ण के कथन 'सभी कुछ लीला है' के प्रकाश में समझना है कि यह बात वह अपने लिए कह रहे थे, अन्य लोगों के लिए नहीं। उनके लिए यह खेल है। अतः जब लोग आपसे 'लीला' और 'भ्रम' के बारे में बात करें तो आप अवश्य उनसे पूछे कि तब उन्होंने कस का वध क्यों किया? क्यों उन्होंने जरासन्ध का बध किया? नहीं है, बुरे-भले जैसा कुछ भी नहीं है । अब श्री कृष्ण चीजों को किस प्रकार देखते क्यों कंस का साथ देने वाले सभी लोगों को उन्होंनें थे? किसी राक्षस का वध करना भी उनके लिए खेल था- राक्षसों को नष्ट करना उनके लिए खेल था। उस लीला में ही उस राक्षस को नष्ट होना था। तो ही उन्होंने यह सब कार्य किए। उन्होंने एक प्रकार से अन्तर किया कि कौन सी लीला को नष्ट करना है और कौन सी को नहीं। उन्होंने अपनी लीला से आसुरी लीला को नष्ट किया। अत: ये कहना गलत होगा कि 'कुछ भी बुरा नहीं है। आप यदि ये कहते हैं कि सभी कुछ एक लीला है तो होता क्या है कि इसके प्रति आपका दृष्टिकोण दर्शक जैसा बन जाता है। एक दर्शक की तरह से आप हर चीज को देखते हैं। जैसे किसी नाटक में जब आप बैठते हैं तो हर चीज को दर्शक के नजूरिए से देखते हैं। परन्तु आपको इस बात का ज्ञान होता है कि त्रासदी किस चीज़ से बन रही हैं इसी कारण से आप लोग भी बिना अधिक परम्पराओं और कामदी (Comedy) का सृजन किस चीज़ से हो रहा है। इनके विषय में आप निष्क्रिय हैं तो बेकार हैं। इसका अर्थ ये नहीं है कि आप निष्क्रिय हो जाएं। समाप्त किया?' तो उनके लिए यह एक खेल था, उनके लिए सभी कुछ खेल था और लीला मानकर अतः यदि आपके अन्दर श्री कृष्ण की शक्तियाँ जागृत हैं तो सर्वप्रथम आपमें विवेक जागृत होना चाहिए। विवेक को वर्णन नहीं किया जा सकता। आप ये नहीं कह सकते कि विवेक क्या है? इसका वर्णन करना या चित्रण करना बहुत कठिन है। विवेक तो स्वभाव है, व्यक्तित्व का ऐसा गुण जो बार-बार प्रयत्न और गलतियाँ करके स्वयं को संतुलित करने से प्राप्त होता है। सभी पारम्परिक देशों में अन्तर्जात विवेक उन देशों से कहीं अधिक है जो पारम्परिक नहीं हैं। परन्तु श्री कृष्ण ने सभी परम्पराएं तोड़ दीं। के यहाँ मौजूद हैं। श्रीकृष्ण ने सभी परम्पराएं तोड़ दीं परन्तु वे श्री कृष्ण थे उन्हें परम्पराओं की बिल्कुल आवश्यकता न थी। परन्तु आप लोगों को परम्परावादी चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 2007 24 लोगों से विवेक सीखना है। अत: हम प्रयत्न करते हैं रंगते हैं, आप उन्हें कहें कि ऐसा मत करो इससे और गलतियाँ करते हैं । गलतियाँ करते हैं और उनसे सीखते हैं। परन्तु अमरीका जैसे देश में जब अहं को विगाड़ने का हमें पूरा हक है स्वयं को नष्ट शक्तिशाली हो जाता है तब हम गलतियों को स्वीकार करने का हमें अधिकार है! मानों वे श्रीकृष्ण हों जो ही नहीं करते। यह हमारी उत्क्रान्ति, हमारी लक्ष्य प्राप्ति के विरुद्ध है। तुच्छ उद्देश्यों को प्राप्त करके हैं? एक छोटी सी चींटी का सृजन तो वो कर नहीं हम सन्तुष्ट हो जाते हैं। जैसे मैंने सहजयोग में लोगों सकते। चींटी की तो वात क्या है वे एक पत्थर भी को बेतुके काम करते हुए देखा है। उन्हें ये भी नहीं बना सकते, तो उन्हें स्वयं को नष्ट करने का एहसास नहीं होता कि ऐसा करना उनके लिए हानिकारक है, जो भी कार्य वो कर रहे हैं वे उनके विरुद्ध हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा करना गलत है। इस कारण से उनकी बाई विशुद्धि पकड़ती है। आपमें क्योंकि विवेक का अभाव है इसलिए आप गलत कार्य करते हैं। विवेक विकसित करने के लिए एवं उनकी शक्ति प्रदान करती हैं। उसके कटाक्ष मात्र आप गलतियाँ करते हैं। गलतियों के बारे में विवेकशील होने के स्थान पर, उन्हें महसूस करने, आगे न करने है, यदि उसमें चेतना है तो उसके कटाक्ष मात्र तथा उनका सामना करने के स्थान पर हम दोषभावे में कुण्डलिनी जागृत करने की शक्ति होनी चाहिए। ग्रस्त हो जाते हैं और पलायन करने के चक्कर में आपकी आँखें खराब हो जाती हैं 'तो क्या'? स्वयं स्वयं को नष्ट कर सकते हैं। क्या वे ऐसा कर सकते क्या अधिकार है? अत: यह दाईं ओर का दोष है जिसमें हम सोचते हैं कि हमें नष्ट करने का अधिकार है। कल जैसे मैंने आपको बताया था, आँखें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ये आपको श्रीकृष्ण की लीला से, दृष्टि मात्र से, जिस व्यक्ति में श्रीकृष्ण की चेतना कृष्ण उत्थान प्रदान करने की शक्ति होनी चाहिए, सुख प्रदान करने की शक्ति होनी चाहिए, किसी को भी अपने अन्य चक्र भी बिगाड़ लेते हैं। इस प्रकार से लोगों को बाई विशुद्धि की समस्या हो जाती है। बाई रोग मुक्त करने की योग्यता होनी चाहिए। व्यक्ति में विशुद्धि अर्थात दोषभाव ग्रस्त होना। गलतियों का सामना करने के स्थान पर स्वयं को दोषी महसूस करना, गलतियों से पलायन करने का बहुत अच्छा तरीका है। वास्तव में हमने देखा है कि अहं के जो स्वयं कहते हैं कि हमारे अन्दर कृष्णचेतना है, जो कारण बाईं विशुद्धि की समस्या आती है। जब अहं बहुत बढ़ जाता है तो आप अहं को सहन नहीं कर सकते और दोष भाव में अहं को रखकर आप कहते हैं। दोष भाव-ग्रस्त होकर आप इसकी अभिव्यक्ति हैं मैं अत्यन्त दोषी हूँ- मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए यदि कृष्ण चेतना है तो उसके एक कटाक्ष, एक तरफ से देखने मात्र से, ये सब कार्य हो सकते हैं। परन्तु स्वप्रमाणित लोग ऐसा नहीं कर सकते, वो लोग हर समय श्रीकृष्ण या राम का मन्त्र जपते रहते हें अत: बाई ओर को पलायन स्वयं को दोषी मानने में का तरीका खोजने लगते हैं और किसी गुरु के पास जाते हैं जो कोई मन्त्र दे देता है और वे उसे रटे चले जाते हैं। परिणामस्वरूप उनकी दाई विशुद्धि भी बिगड़ जाती है, क्योंकि बिना योग के यदि आप मन्त्र रटे चले जाएं तो पूरी तरह से पकड़ जाते हैं। तो बाईं विशुद्धि बिल्कुल खराब हो जाती है और आपके मन्त्र बिल्कुल बेकार हो जाते हैं । ऐसे गुरु साधकों को बर्बाद कर रहे हैं। वास्तव में मैंने देखा हैं कि बहुत से लोग जिन्हें हृदयाघात, हृदयशूल और कैंसर आदि था। अब दूसरी ओर दाईं विशुद्धि है जो बहुत ही भयानक है। दाईं विशुद्धि के कारण हम अपने सारे विवेकहीन आचरण को उचित ठहराने का प्रयत्न करते हैं । तो क्या गलती है? इसमें क्या बुराई है? तो क्या? ये सब दाई विशुद्धि की समस्याएं हैं। किसी अन्य को ये कहना आम बात है कि ऐसा करना गलत है। उदाहरण के लिए लोग अपने बालों को अंक : 7 & 8 -2007 चैतन्य लहरी 25 रोग होते हैं वे वही लोग हैं जो बिना परमात्मा से योग प्राप्त किए मन्त्रोच्चारण किए चले जाते हैं। यदि आपका योग नहीं हुआ, उदाहरण के रूप में, मान लो ये यन्त्र ठीक से जुड़ा हुआ नहीं है और में इसका बहुत अधिक उपयोग किए चली जाऊं तो यह बिल्कुल खराब हो जाएगा। अत: बिना योग के यदि आप मन्त्रोच्चारण करेंगे, मन्त्र की शक्ति को महसूस किए बिना, तो बाईं मैं इसलिए नशे में धुत्त हुआ क्योंकि मैं आपकी सहायता करना चाहता था। या हिटलर कह सकता है कि "मैंने इतने सारे लोगों की हत्या इसलिए की क्योंकि मैं उन सभी यहूदियों को समाप्त करना चाहता था जिन्होंने ईसा-मसीह की हत्या की।" तो यह दाई विशुद्धि आपको ऐसा मस्तिष्क प्रदान करती है जो आपके हर दोष को तर्कसंगत ठहराने और उसकी व्याख्या करने का प्रयत्न करता है। सभी ओर का चक्र खराब हो ही जाएगा। सहजयोग में बाई ओर के मन्त्रों के दुष्प्रभाव कार्यों को तर्कसंगत ठहराया जा सकता है। तुमने को कम करने के लिए भी मन्त्र हैं। बड़ी-बड़ी बातें करने से दाई ओर की समस्याएं होती हैं। राजनीतिज्ञों किया? इस कारण से। एक बार जब आप अपने के लिए ये आम बात है। वे बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, सोचते हैं कि वे बहुत जिम्मेदार आदमी हैं परन्तु सारे तब जो कुछ गैर जिम्मेदाराना काम करते हैं। दाई विशुद्धि चक्र को यदि किसी ने बिगाडूना हो तो वह गैर-जिम्मेदाराना कोई तर्क होता है। जैसे यदि मैं कहूं कि अमरीकन बातें करें। इसी प्रकार से हम कह सकते हैं "मैं आपके लिए ऐसा कर दूंगा, मैं वैसा करुंगा, मुझे ये उनकी भूमि छीन ली और बड़ी आसानी से यहाँ बस पसन्द है, मैं ये खोज सकता हूँ, मैं यह संचालन कर सकता हूँ।" समाप्त। अहंकारपूर्वक जब आप कहने विशुद्धि पकड़ जाएंगी, ओह हम अत्यन्त दोषी हैं, लगते हैं कि "मुझे ये करना होगा, मैं यह करुंगा", तब आपका अहं झलकता है, परन्तु इसके विपरीत यदि आप ये कहें, "आपके लिए मुझे ये करना है. करेगा? वो कहेगा, "ठीक है, मेरे पूर्वजों ने ये कार्य हे परमपिता मुझे आपके लिए ये कार्य करना है, हे माँ, "मैं आप ही का कार्य कर रहा हूँ।" तब सारा अहं लुप्त हो जाता हैं और आपको इस्लाम(समर्पण) की स्थिति प्राप्त हो जाती है। 'इस्लाम' समर्पण के मैं उनका देखभाल करूंगा। जो भी सम्भव हुआ अतिरिक्त कुछ भी नहीं। अत: ये कहते हुए स्वयं को उन्हें देने का प्रयत्न करूंगा।" सामना करने का ये समर्पित करें कि "हे पिता, ये आपका कार्य है, मैं तरीका है, ये कहना नहीं कि मैं दोषी हूँ क्योंकि मेरे आपके लिए कार्य कर रहा हूँ, मैं आपका माध्यम हूँ, पूर्वजों ने ऐसा किया, वैसा किया। आप इसके विषय में आपका फल हूँ।" अत: परमात्मा का संगीत में क्या कर रहे हैं? बजाएं परन्तु उसके लिए भी विवेक का मध्यबिन्दु उपयोग करना होगा। कत्ल क्यों किया? इस कारण से। तुमने ऐसा क्यों गलत कार्यों को तर्कसंगत ठहराने लगते हैं तो दाई विशुद्धि मस्तिष्क तक चली जाती है। भी आप करते हैं उसके लिए आपके पास कोई न इस देश में आए, वास्तव में उन्होंने यहाँ के लोगों से गए। मेरे ऐसा कहते ही अधिकतर लोगों की बाई हमने ऐसा किया, हमने वैसा किया। परन्तु सच्चा सहजयोगी ऐसा नहीं करेगा। सच्चा सहजयोगी क्या किया था, मैने नहीं किया, परन्तु मैं इसे सुधारने का प्रयन करूंगा। में प्रजातिवाद से ऊपर उठने का प्रयत्न करूंगा। जिन लोगों की भूमि छीन ली गई है मैं मैं स्विटज़रलैण्ड गई और कहा कि स्वयं को दोषी मत मानो। तो एक महिला कहने लगी "वियतनाम के लिए मैं स्वयं को दोषी समझतो हूँ। मैंने पूछा, "आपने वहाँ क्या किया? केवल वियतनाम के लिए ही क्यों आप स्वयं को दोषी मान रही हैं? आप तो वहाँ युद्ध करने के लिए नहीं गई, तो क्यों हर बार विवेक में चले जाएं, कुछ लोग सभी उल्टे-सीधे कार्य करके कहते हैं, "हमने आपके लिए ये किया।" ये कैसे हो सकता है? जैसे कोई शराब पीना चाहता है, तो वो कहते हैं, " श्रीमाताजी चैतन्य लहरी अंक :7 & 8 -2007 26 आप स्वयं को इसके लिए दोषी मान रही हैं?" तो वह कहने लगी "मैं इसलिए स्वयं को दोषी मानती हूँ क्योंकि में सोचती हूँ कार्य किए हैं। मैंने पूछा, परन्तु आप स्वयं को स्वतन्त्र कैसे कहती हैं? तो यह भी एक अन्य बात है जो अविवेक के कारण आती है। हम अचानक ऐसे व्यक्तित्व बन जाते हैं जो पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। तब हम सोचते हैं कि ओह, हम अमरीकन लोग पूरे विश्व के हैं। ठीक है- कैसे? जिस दिन आप पूरे विश्व के बन जाएंगे अधिकतर समस्याओं का समाधान हो जाएगा। ये सबसे बड़े सिर दर्द हैं, जैसे रूस के लोग हैं दोनों पूरे विश्व के लिए सिरदर्द हैं। यदि वे पूरे विश्व के बन जाएं तो कोई समस्या हैं ही नहीं क्योंकि तब तो वे प्रेम बन जाएंगे। परन्तु स्वयं को ऐसी अवस्था में मान लेना जहाँ हम सोचें, हम लगे कि उन्हें दूसरों को मारने का अधिकार है । कैसे, हैं, 'हम।' हम कौन है? पति-पत्नी, बाप और बच्चे तो मिलकर रह नहीं सकते, माँ बच्चों के साथ नहीं किस प्रकार आप किसी की हत्या कर सकते हैं ? रह सकती, तो हम क्या हैं? हम कहाँ हैं? इतना विखण्डन? जेब के चाकू तथा ऐसी ही छोटी-छोटी चीजों के लिए भी तो वे आपस में झगड़ते हैं। कौन सा जेब का चाकू खरीदना है इस बात के लिए तो वे झगडते हैं। हम कैसे हैं? न उनमें कोई एकता है और न सामंजस्य और विशुद्धि चक्र इन सबके की चिंता छोड़ दें, वह कार्य परमात्मा को करने दें। बिल्कुल विपरीत है। चीज़ों को शक्तिहीन कर दो जो मानव के लिए विनाशकारी हैं।' सहजयोगी को यही चीज़ मांगनी है। उसकी अपेक्षा कई बार सहजयोगी इन्हीं विनाशकारी धारणाओं का साथ देने लगते हैं! ये बात ठीक नहीं है। आपको साहस-पूर्वक इसका विरोध करना चाहिए। ने गलत हम....० १ श्रीकृष्ण ने जब अर्जुन से कहा कि अपने सारे सम्बन्धियों, सारे मित्रों, गुरुसम प्रतीत होने वाले लोगों का वध करो क्योंकि "ये सब तो पहले से ही मरे हुए हैं। तो ये बात श्रीकृष्ण ने कही थी जो कि एक अवतरण थे। परन्तु इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि आप भी अर्जुन की तरह से लोगों का वध करना आरम्भ कर दें। आप अर्जुन नहीं हैं| इस प्रकार की धारणाओं के कारण मनुष्य ने कुछ संस्थाएं बना लीं और दूसरे लोगों का वध करने लगे सोचने क्या आपमें भले-बुरे का बिल्कुल विवेक नहीं है? हत्या करने के स्थान पर लोगों को बचाना शुरु करें। मान लो आप किसी नाव को डूबते हुए देखते हैं, उसमें सवार लोग डूब रहे हैं तो आपको लगता है कि आपको उन्हें बचाना चाहिए। आप उन्हें बचाएंगे या नष्ट करेंगे? अब वध करने का समय नहीं है। मारने आपको तो लोगों की रक्षा करनी है, अधिक से अधिक लोगों को बचाना है, गलत लोगों को भूल अतः आरम्भ से ही यदि आप किसी साक्षात्कारी व्यक्ति को देखें तो वह हर चीज को जाए, उनसे कोई सम्बन्ध न रखें। खेल की तरह से देखेगा। असुरों का विनाश भी महत्वपूर्ण है क्योंकि बुराई को यदि नष्ट नहीं किया समझनी है कि आप यहाँ किसी का वध करने के गया तो असुरों का साम्राज्य आ जाएगा| क्या आप हैं कि हिटलर की रक्षा करके उसे परमात्मा अत: सहजयोगियों के रूप में आपने ये बात लिए, किसी को नष्ट करने के लिए या कोई अनुचित कार्य करने के लिए नहीं। कठोर शब्द बोलने की भी सोंचते का प्रभारी बना दिया जाता? हिटलर की हत्या करके उसकी रक्षा की गई। श्रीकृष्ण के जीवन से यह बात समझी जानी चाहिए कि आप लोगों के हित के लिए असुरों का नष्ट होना आवश्यक है। अतः आपने प्रार्थना करनी है कि 'हे परमात्मा विश्व की सारी आवश्यकता नहीं है। परमात्मा सब सम्भालेंगे। आप मंच पर हैं और परमात्मा आपकी सहायता करने के लिए उत्सुक हैं क्योंकि आप उनका कार्य कर रहे हैं। परन्तु उनका कार्य करते हुए उनकी तलवार अपने हाथ में लेकर लोगों को मारना न शुरु करें। सहजयोग में ये आम बात है। मैंने देखा हैं कि यहाँ लोग आसुरी शक्तियों को समाप्त कर दो। सभी ऐसी बहुत चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 27 मात्र से वह व्यक्ति भस्म हो जाएगा। श्री कृष्ण गुफा आक्रामक हो जाते हैं। वे अत्यन्त क्रोध-पूर्वक बात करते हैं । विशेष रूप से पहली बार कार्यक्रम में आने में घुसे और अपना पीतवस्त्र उस सन्त को ओढ़ा वाले लोगों से। नए लोगों के प्रति करुणामय, सज्जन और भले बनने के स्थान पर वे एकदम से कहते हैं हुए वह राक्षस भी गुफा में आया और पीतवस्त्र ओढ़े तुम भूत हो।' यह आम बात है। क्या आपने कभी मुझे ऐसा कहते हुए देखा है? फिर, विशुद्धितत्व के विरुद्ध, आप परस्पर आक्रामक होने लगते हैं। आपने आक्रामक नहीं होना क्योंकि आपकी हर गतिविधि विवेक बन जाती है। विवेक क्या है? यह नीति है। के कारण श्री कृष्ण 'रणछोड़दास' कहलाए। यह आपकी विवेकबुद्धि से परमेश्वरी नीति की अभिव्यक्ति होती है। आपमें यदि समझ है तो आप जान जाते हैं की। अपने विवेक के कारण भले-बुरे में अन्तर करने कि फलां व्यक्ति खतरनाक है। वह आपको कष्ट दे के लिए उन्हें कोई समस्या न हुई। उन्हें अपनी सारी रहा है। आपमें यदि समझ है तो आप उस व्यक्ति को शक्तियों को पृथ्वी पर लाना था। उनकी सभी शक्तियाँ इस प्रकार से अपने बीच से हटा देंगे कि उसके बाद वहाँ कोई परेशानी न रहेगी। परन्तु आप क्या करते हैं कि उस व्यक्ति को चुनौती देते हैं और युद्ध आरम्भ हो जाता है। सहजयोगी लड़ते हैं और मेरी समझ में नहीं आता कि इन लड़ाईयों के बारे में क्या कहूँ। आपमें सूझ-बूझ और विवेक होना आवश्यक है। उन्होंने सभी प्रकार की लीलाएं की। मान लो कोई व्यक्ति आपके पास आकर कहता है कि फलां व्यक्ति ने ऐसा कहा और फिर उसके पास जाकर आपके बारे में कुछ गलत बताता है और आप लोग झगड़ने लगते हैं। इस सबका कारण खोजे बिना हैं वे महालक्ष्मी हैं और बही हमारी सुषुम्ना नाड़ी की ये सोचे बिना कि हम तो मित्र हैं- अब क्या हो गया है? ऐसा करने की अपेक्षा लोग क्रोधित हो जाते हैं उनका बायाँ हाथ बाहर होता है क्योंकि बाईं ओर और झगड़ने लगते हैं। ये आत्म-साक्षात्कारी लोगों का तरीका नहीं है। उन्हें तो अत्यन्त विवेकमय कोमल ढके रखती हैं क्योंकि वे महासरस्वती की शक्ति और सुन्दर होना चाहिए। केवल तभी आप सहजयोग को कार्यान्वित कर पाएंगे। तो श्रीकृष्ण का अवतार परमेश्वरी कूटनीति का अवतरण था। वो लीला करते हैं। उदाहरण के मन्दिर है जहाँ उनकी पूजा होती है। अत: वे अपने लिए एक राक्षस को श्री शिव का वरदान प्राप्त था दाएं पक्ष को ढक कर रखती हैं और बायाँ बाजू कि कोई उसका वध नहीं कर सकता। उससे यद्ध उघाड़ती हैं। अपने सारे भक्तों की रक्षा के लिए करते हुए श्रीकृष्ण रणभूमि से भाग खड़े हुए। भागते-भागते वे एक गुफा में जा छिपे जहाँ एक सन्त योगनिद्रा में सोया हुआ था। उसे वर प्राप्त था कि यदि कोई उसे नींद से जगाएगा तो उसकी दृष्टि एक दिन नारदजी ने उनकी एक पत्नी को भड़का दिया और स्वयं छिप गए। श्रीकृष्ण का पीछा करते उस सन्त से कहने लगा, 'हाँ, थककर सो गए हो! राक्षस ने ज्यों ही जोर से पीतवस्त्र को खींचा तो उस सन्त की नींद टूट गई और उसकी दृष्टि मात्र से वह राक्षस वहीं भस्म हो गया। युद्ध के मैदान से भागने उनकी दिव्य नीति थी। पूरा जीवन श्रीकृष्ण ने लोला स्त्रीरूप में पृथ्वी पर अवतरित हुईं, एक बलशाली राजा उन्हें अपने दरबार में ले गया। उस राजा को पराजित करके श्रीकृष्ण अपनी सारी शक्तियों को अपने साथ ले आए और उनसे विवाह कर लिया। अब मैं तुम्हें वह कहानी सुनाती हूँ जो लीला उन्होंने राधाजी के साथ की। आज मैंने भी राधा जी जैसे वस्त्र पहने हुए हैं क्योंकि वे विराटांगना रक्षा करती हैं। वे भी इस प्रकार से साड़ी पहनती हैं। महाकाली की शक्ति है और अपने दाई बाजू को वे हैं अर्थात सृजनात्मक शक्ति। उन्होंने ही सारा सृजन किया है- पृथ्वी का सृजन, मानव का सृजन- सभी कार्य किए हैं। भारत में ब्रह्मदेव का केवल एक उनका विशाल आँचल है। तो मैं उनकी कहानी सुनाऊंगी। उनकी कहानी सुनाकर राधा और श्रीकृष्ण का प्रवचन समापन करूंगी। चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 28 2007 धूल लेकर श्रीकृष्ण के पास आए। श्रीकृष्ण ने पूछा, "क्या उन्होंने अपने चरणों की धूल दे दी?" नारदजी बोले, 'हाँ' मैं हैरान हूँ कि उन्होंने पाप-पुण्य की भी चिन्ता नहीं की! श्रीकृष्ण ने कहा, 'मैं जानता हूँ।' श्रीकृष्ण ने राधा के चरणों की धूल ली, उनके चरणों को दिया कि श्रीकृष्ण तुमसे प्रेम नहीं करते वे केवल राधाजी से प्रेम करते हैं तुम्हें तो वे केवल कहानियाँ सुनाते रहते हैं। वास्तव में प्रेम तो वो राधाजी से करते हैं। उनकी सभी पत्नियों में ये बात फैल गई। सभी मिलकर श्रीकृष्ण के पास आई और कहने लगीं तुम हमसे प्रेम नहीं करते, केवल राधा को प्रेम करते हो । श्रीकृष्ण ने पूछा, "तुम्हें किसने बताया", उन्होंने उत्तर दिया नारद ने। श्रीकृष्ण बोले कि नारद झूठ बोल रहे हैं। वे तुम्हारे और मेरे बीच झगड़ा करवाना चाहते हैं, उनकी बात मत सुनो। परन्तु पत्नियों ने उनकी बात नहीं मानी। अचानक श्रीकृष्ण ने लीला की, वे पेट-दर्द से कराहने लगे। सभी को चिन्ता हुई। हृदय में हैं इन चरणों की धूल देना कौन सा पाप उन्होंने पूछा कि आपके दर्द को ठीक करने के लिएहै? उन महिलाओं ने जब ये बात सुनी तो वे समझ हम क्या कर सकते हैं ? श्रीकृष्ण ने कहा, "बहुत पाईं कि श्रीकृष्ण से उनका प्रेम कितना अधूरा है । आसान तरीका है, अपने चरणों की थोड़ी सी धुल श्रीकृष्ण को समझने के लिए उन्हें राधासम यदि पानी में मिलाकर मुझे पिला दो तो मैं बच सकता हूँ। पत्नियों से- सोचा कि ऐसा करना तो पाप होगा, और अपने पैरों की धूल देने से इन्कार कर दिया। इतने में नारद जी वहाँ आए और श्रीकृष्ण से पूछा कि अब क्या करें? श्रीकृष्ण ने कहा केवल एक तरीका है कि राधाजी के पास जाकर उनसे कहा कि श्रीकृष्ण के पेट में दर्द है। और उसके चरणों की धूल उनके पेट दर्द का इलाज है। नारद जी राधाजी के पास गए और उनसे कहा, "श्रीकृष्ण बीमार हैं उनके पेट में बहुत तेज़ दर्द है जो केवल तुम्हारे चरणों की धूल से दूर क्यों नहीं? मेरे चरणों की धूल ले जाओ।" नारदजी पर वृदावन की पीले रंग की धुल थी। उस धूल जब श्रीकृष्ण ने पिया तो नारद ने श्रीकृष्ण के हृदय -कमल पर राधाजी को विराजित देखा। हृदयकमल का पराग राधा जी के चरणों पर लग रहा था। इसी कारण से राधाजी ने कहा था, "कि में जब रहती ही श्री कृष्ण के हृदय में हूँ तो मेरे चरण भी श्रीकृष्ण के है। होना पड़ेगा। छोटी-छोटी लीलाओं द्वारा उन्होंने जीवन के मौन्दर्य की अभिव्यक्ति की। उन्होंने रास की-रास, शक्ति संचार। नृत्य य करते हुए सबमें शक्ति संचार किया। लीला के आनन्द को चरम-सीमा तक पहुँचाने के लिए उन्होंने होली का त्योहार आरम्भ किया। परन्तु आज लोगों ने उनकी रास-लीला और होली का दुरुपयोग आरम्भ कर दिया है! उसका अर्थ उन्होंने मर्यादाविहीन आचूरण समझ लिया है। इन सब कार्यकलापों से भूत उनकी ओर आकृष्ट होते हैं। मनुष्य का सारा आकर्षण समाप्त हो जाता है क्योंकि हो सकता है। 'राधा जी एकदम से बोलीं, केवल आत्मा का प्रकाश ही मनुष्य को आकर्षक ने पूछा, "क्या तुम नहीं जानतीं कि ऐसा करना पाप होगा?" राधा ने उत्तर दिया, "कि श्रीकृष्ण के लिए भी करना में पाप नहीं समझती, उसका दण्ड बनाता है। परमात्मा आपको धन्य करें। कुछ भुगतने के लिए तैयार हूँ। नारद राधा के चरणों की (श्रीमाताजी के प्रवचन पर आधारित (रूपान्तरित) ईस्टर पूजा 3 अप्रैल 1988 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन आज हम सब लोग यहाँ पर ईसा-मसीह के पुनर्जन्म का उत्सव मनाने के लिए एकत्र हुए हैं। कर पाए क्योंकि वे दिव्य थे, ओ३म थे, शब्द थे और ब्रह्म थे। (Divine, Aum, Logos and Brahma) ा ईसा-मसीह का पुनर्जन्म हम सब सहजयोगियों के लिए महत्वपूर्णतम है। हमें ये बात समझनी है कि वे स्वयं इसलिए पुनर्जीवित हुए ताकि हम लोग भी पुनर्जन्म ले सकें। उनके जीवन का सन्देश उनका पुनर्जन्म है, उनका क्रॉस (Cross) नहीं। क्रॉस तो उन्होंने हमारे लिया उठाया, अब हमें क्रॉस उठाने की हुई। वे हमारे अन्दर विराजमान हैं, हमारे हृदयों में. आवश्यकता नहीं है। मैंने बहुत से लोगों को यह नाटक करते हुए देखा है। दिखावे के लिए वे इस प्रकार क्रॉस लिए घूमते हैं मानो वे ही ईसामसीह का कार्य करने वाले हैं, मानो इन नाटक करने वालों के लिए ईसामसीह ने कोई कार्य अधूरा छोड़ा हो! परन्तु यह सारा नाटक आपको तथा अन्य लोगों को धोखा से या आपकी कुण्डलिनी के माध्यम से, परन्तु देने के लिए है। ईसामसीह के कष्टों को दर्शाने के परन्तु अब आप सब लोगों ने आत्म- साक्षात्कार पा लिया है। अब मैं आपके चेहरों पर ईसामसीह की स्पष्ट झलक देख सकती हूँ, आपकी आँखों में सुन्दरतापूर्वक चमकती हुई और टिमटिमाती हमारी आँखों में, और उन्हीं ने पुनर्जन्म लिया है और आपको भी पुनर्जन्म प्रदान किया है। परन्तु अब आपने अन्य लोगों को पुनर्जन्म प्रदान करना है। आप अन्य लोगों को पुनर्जन्म दें सकते हैं। यह शक्ति आपको प्राप्त हो गई है। हो सकता है उनके माध्यम आपमें अन्य लोगों को पुनर्जीवन देने की शक्ति है। लिए ये सब नाटक करना विवेकहीनता है। आपको रुलाने या कष्ट देने के लिए ईसामसीह ने ये कष्ट नहीं झेले। उन्होंने कष्ट इसलिए झेले ताकि आप आनन्द ले सकें, प्रसन्न रह सर्के और अपने सृजनकर्ता का पालन किया और किस प्रकार उन्होंने अपनी सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रति आभारी होते हुए जरूरतों को किया। किस प्रकार वे इस एकमात्र परन्तु, सर्वप्रथम और सर्वोपरि, आवश्यकता ये है कि आपको ईसा-मसीह की तरह शक्तिशाली बनना होगा। किस प्रकार उन्होंने अपनी माँ की आज्ञा पूरा आनन्दमय जीवन बिता सकें। परमात्मा कभी नहीं चाहेंगे कि आप दुखी हों। कौन सा पिता चाहेगा कि उसके बच्चे दुखी हों? कार्य के प्रति वचनबद्ध थे और किस प्रकार उन्होंने स्वयं को इसके प्रति समर्पित किया! उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने, या किसी प्रकार का तैराक , बहुत बड़ा अफसर बनने या महान घुड़सवार, एल्पस पर्वत पर चढ़ने वाले महान आरोही बनने या ऐसा ही कुछ और बनने की चिन्ता नहीं की। उन्होंने ये सब चालाकियाँ करने का प्रयत्न नहीं किया और न ही उन सभी चीज़ों के पीछे दौड़ने किया जो कई बार हमें बिल्कुल पागल कर देती हैं। उन्होंने जो कार्य किया, वह था स्वयं को ब्रह्मा के रूप में, दिव्य चैतन्य लहरियों के रूप में स्थापित करना। और इस रूप में वे स्वयं को स्थापित कर पाए। अत: हमें समझना है कि उनका संदेश, उनके जीवन का सन्देश, जिस महानतम कार्य को करने के लिए वे पृथ्वी पर आए, पुनर्जन्म है। उन्होंने यदि पुनर्जन्म नहीं लिया होता तो मैं सहजयोग कार्यान्वित नहीं कर पाती। अत: हमें उनके और उनके जीवन के प्रति सदा-सर्वदा आभारी होना होगा। जिस प्रकार से का प्रयत्न उन्होंने ये सभी दुष्कर कार्य किए, सभी कुछ स्वयं सहन कर लिया, वह हम मानव नहीं कर सकते। ये कार्य हम नहीं कर सकते। केवलं वही इस कार्य को अंक : 7 & 8 2007 30 चैतन्य लहरी मैंने सोचा कि बिना चाँद के मैं कैसे इस कार्य को करूंगी? चाँद का होना आवश्यक है। चाँद होना आवश्यक है। तो मैंने सोचा कि किसी और समय पूजा करेंगे और अचानक मुझे यहाँ आना पड़ा, सौभाग्य से मैं यहाँ पर पहुँची। हैं है स्वयं को आपने जो कार्य करना वह द्विज (Resurrected) रूप में, आत्मसाक्षात्कारी, सहजयोगी के रूप में स्थापित करना। और ये कार्य बहुत सुगम हो गया है। अब आपके लिए सभी कुछ बहुत सहज बना दिया गया है, आपका आत्मसाक्षात्कार, आपकी शक्तियाँ- सभी कुछ अत्यन्त सुन्दर रूप से पिछले एक सप्ताह से ये लोग टेलिविजन आपके अन्दर स्थापित कर दिया गया है। अत्यन्त पर बता रहे हैं कि मूसलाधार बारिश होने वाली है, सुन्दरतापूर्वक, धीरे-धीरे, निरन्तर ये सब क्रियान्वित बारिश होने वाली है, बादल बने रहेंगे, तापमान बहुत हुआ है मैं सोचती हूँ कि मैंने कभी आपको कोई कार्य करने के लिए विवश नहीं किया। अपनी उत्क्रान्ति के माध्यम से आप ये देख पाए कि आपमें क्या कमी है या उन लोगों में क्या कमी है जिनकी हम बात कर रहे हैं इन्हीं शक्तियों के माध्यम से सोचा अब क्या करें, बादलों को यदि जाने के लिए आप जानने योग्य सभी कुछ जान सकते हैं। हर अज्ञात चीजू का ज्ञान आपको हो सकता है। परन्तु औ आपका चित्त अपनी उत्क्रान्ति की ओर, अपनी अवस्था की ओर होना चाहिए। बुरा होगा और मूसलाधार वर्षा होने वाली है... ..हँसी और तालियाँ। बार बार हर रात, हर समय जब ये मौसम के विषय में घोषणा करते थे तो हर समय ये और भी खराब प्रतीत होता था। अत: मैंने न कहें तो उसके लिए बहुत तेज़ हवा की जरूरत होगी और तेज हवा आपके तम्बुओं को उखाड़ फेंकगी। तो किसी तरह से मैंने बादलों से कहा कि धीरें-धीरे निरन्तर बढ़ते हुए न्यूफाऊंडलैण्ड की ओर चले जाओ, ज्यादा तेजी से नहीं, और उन्होंने ऐसा ही उत्क्रान्ति, किसी भी प्रकार से, शारीरिक क़िया। प्रक्रिया नहीं हैं। ये ऐसा नहीं है कि आप सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। यह आपके व्यक्तित्व की एक स्थिति State ) है, जहाँ पर मैं हमेशा कहती हूँ... ( क्षमा कीजिए मेरे विचार से...सूर्य अपना प्रभाव दिखा रहा है? देखें किस प्रकार सूर्य मेरी बात सुनता है। थोड़ी सी मदद कर सकते हैं? धन्यवाद। ) मेरे लिए बहुत गर्मी है, मैं नहीं जानती आप लोगों को कैसा आज्ञाकारी, कितना समर्पित और कितना सुन्दर हैं। लग रहा है। मैं आपको सूर्य के बारे में बताना भूल क्योंकि आज माँ (श्रीमाताजी) की पूजा गई इसलिए बह शायद मुझे परंशान कर रहा है। यथोचित प्रकाश चाहिए और आपके लिए उपयुक्त बेहतर होगा मैं आपको उसके विपय में बताऊं। (.. हँसी और तालियाँ ये लोग बता रहे थे कि और फिर चमचमाता हुआ सूर्य निकल आया। प्रात: काल मेंने उसे देखा था, यह मेरी साडी की तरह से लाल था, अत्यन्त सुन्दर। आप सब लोग सोए हुए थे लेकिन मैं बहुत ही सुबह जाग गई थी। है, मैं देख रही थी कि यह किस प्रकार उदय हो रहा मेरी बिन्दी की तरह से यह ऊपर आया! मैंने इसे क्या आप चीजों को बाहर निकालकर मेरी देखा, मैंने कहा सूर्य की ओर देखो ये कितना है । आपको तापमान होना भी आवश्यक है। आकाश की ओर देखा, हर चीज़ की ओर देखा और तब शनै: शनै: यह आपके चेहरों के रंग की तरह से गुलाबी हो गया। ये बहुत सुन्दर हैं, गुलावी हो गया, सुन्दर गुलाबी, और अब यह चमक रहा है। मुझे खेद है कि मुझे सूर्य की प्रशंसा करनी चाहिए थी, जिस प्रकार पिछले एक साल से हम यहाँ पूजा के लिए आने की सोच रहे थे, और मैं चाहती थी कि यहाँ पर ईस्टर पूजा होनी चाहिए। परन्तु तिथियाँ सुविधाजनक न थी क्योंकि उन दिनों में चाँद उतरती दशा में होगा। अत: चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 - 2007 31 उसने कार्य किया। इसलिए अब यह मुझे थोड़ा सा परेशान कर रहा है, मुझे याद दिलाने के लिए । आदर्श का अनुकरण नहीं करना। बहुत से लोग सोचते हैं कि क्योंकि उन्होंने क्रॉस उठाया था, हम भी क्रॉस उठा लेते हैं। कोई भी क्रॉस उठा सकता है। जैसा आप जानते हैं, सूर्य आज्ञा चक्र है। ईसामसीह सूर्य में निवास करते हैं। शरीर में, अस्तित्व भारत में यदि आप किसी कुली को पाँच रुपये दें तो वह क्रॉस उठाए घूमेगा। इसमें क्या महानता है? अपने कंधों पर क्रॉस लिए घूमने में क्या महानता है? ये में, वे आत्मा हैं। जब वे आत्मा होते हैं तो वे चाँद हैं और जब आज्ञा पर कार्य करते हैं तो वे सूर्य हैं। उनके जीवन में हमने देखा है कि वे पूर्णतया निष्कलंक थे, निर्मल थे। उनमें बिल्कुल भी दोष न थे। उनका व्यक्तित्व सम्पूर्ण था (Perfect ) । प्रश्न किया जा सकता है कि तब वे पुनर्जन्म क्यों लेना इसामसीह के पुनर्जीवन देने के कार्य का भार चाहते थे? उनके काल में पुनर्जन्म का क्या अर्थ था? उनका पुनर्जन्म आज्ञा चक्र में से मार्ग बनाने के लिए था ताकि आप सब इसे पार कर सकें। वे द्वार की काई बड़ी महान बात नहीं है। कोई भी पहलवान ऐसा कर सकता है, कोई भी व्यक्ति ऐसा कर सकता है। ये बात नहीं है। वास्तविकता तो ये है कि हमें उठाना है। ये बात हमने महसूस करनी है। हमें अपने जीवन के, अपने अस्तित्व के महत्त्व को समझना है, जैसे ईसामसीह ने समझा था कि वे इस महान कार्य को करने के लिए यहाँ आए हैं। यद्यपि वे मानव रूप में यहाँ आए, यद्यपि वे एक सर्वसाधारण बढई के रूप में आए, पृथ्वी पर यद्यपि तरह से थे, या हम कह सकते हैं कि उन्होंने ही आप सबके लिए द्वार खोला। क्योंकि वे अत्यन्त कुशल थे हमारी तरह से उन्हें अपने चक्रों और कुण्डलिनी की समस्याएं न थीं, उन्हें कोई समस्या न थी। परन्तु वे चैतन्य-लहरियों के स्वभावानुसार पूर्ण करुणा थे। चैतन्य-लहरियाँ पूर्ण करुणा बन गई। यहाँ तक कि जब वे पुनर्जीवित हुए और उससे भी पूर्व जब उन्हें क्रूसारोपित किया गया तब उन्होंने कहा, हे परमात्मा! हे परमपिता! कृपा करके इन लोगों को क्षमा कर दीजिए, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।" इतनी क्षमा, इतनी करुणा, और माँ को यह सब देखना पड़ा, खामोश रहकर! क्योंकि यह तो एक खेल था, ऐसा कार्य जो उन्हीं को करना था। उन्हें अपना खेल खेलना पड़ा और ये खेल उन्होंने अच्छी उनका एक शरीर था और वे किसी अन्य सामान्य मानव की तरह से रहते थे फिर भी वे जानते थे उन्हें क्या करना है? वे जानते थे कि उनका लक्ष्य क्या है और उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। मेरे विचार से उनका कार्य कठिनतम था जिसे उन्होंने पूर्ण किया और जिसे उन्होंने इतनी अच्छी तरह से अन्जाम दिया कि आज हमें उसके पूरे लाभ प्राप्त हो रहे हैं। आइए अब हम देखें कि क्या हमने सहजयोग के लिए कुछ किया है या नहीं? हम सबको अपना निरीक्षण करना चाहिए। हमने सहजयोग के लिए क्या किया? मेरा अभिप्राय क्रॉस उठाना नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि भारत में यात्रा करते हुए यदि वे कातटी म तरह से खेला। तो अब ईसामसीह की बात याद रखते हुए किसी का सामान उठाकर नीचे लाते हैं तो वे हमें एक बात याद रखनी है कि उन्होंने यह सब कुछ हमारे लिए किया और अब हम उनके लिए क्या करने वाले हैं मान लो वे आदर्श हैं जिनका हमने अनुसरण करना है, परन्तु इसका अर्थ ये नहीं है कि हम अपने कन्धे पर क्रॉस उठाकर चल दें, आपने इस ईसा-मसीह का क्रॉस उठाते हैं, यह तरीका नहीं है। हमारे सोचने के लिए यह अत्यन्त-अत्यन्त गम्भीर चीज़ है। गम्भीरता ये है कि हमने कहाँ तक वह अवस्था प्राप्त की है, उसके लिए हमने क्या किया अंक : 7 & 8 चैतन्य लहरी - 2007 32 है? मैं आप सब लोगों से एक मामूली चीज़ माँग रही हूँ- आपको प्रतिदिन ध्यान करना होगा। परन्तु, किसी न किसी प्रकार से, किसी को भी ध्यान-धारणा करने के लिए समय नहीं है! सिक्ख मत के नाम पर हों, ये सब असत्य हैं। इसमें सत्य नहीं है। अपने लक्ष्यसाधन के प्रयत्न के लिए सभी लोगों ने इनका उपयोग किया है सत्य केवल एक है कि ये सभी महान पैगम्बर, सभी महान अवतरण, पृथ्वी पर आपकी उत्क्रान्ति के लिए अवतरित हुए, इन धर्मों को स्थापित करने के लिए नहीं, जिन्हें चलाने वालों की दिलचस्पी हमारे पास ये जो घड़ियाँ हैं इनका मकसद है कि हमें ध्यान-धारणा करनी है। ये किसी और काम के लिए नहीं हैं। हमारे जीवन ध्यान-धारणा करने के लिए हैं। इस पर आपने चौबीसों घण्टे नहीं लगाने, परन्तु हर रोज़ आपको ध्यान-धारणा करनी है। अवश्य केवल यह बताना सिर्फ पैसों में है। इन धर्मों में भी आप पाएंगे कि लोग या तो तामसिक प्रवृत्ति (Left sided) हैं या आक्रामक प्रवृत्ति (Right Sided)। कुछ धर्म ऐसे हैं जो अत्यन्त अनुशासित होने का उपदेश देते हैं: आपको ये नहीं करना चाहिए, आपको वो नहीं करना चाहिए, आपको शराब नहीं पीनी चाहिए, आपको धूम्रपान नहीं करना चाहिए, कुछ धर्म कहते हैं- आपको विवाह नहीं करना चाहिए, महिलाओं की ओर नहीं देखना चाहिए, पुरुषों की ओर नहीं देखना चाहिए, सभी प्रकार की पावन्दियाँ। विद्यमान तथा ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए अन्धविश्वासों को यदि आप देखें तो आपको सदमा लगेगा। हर चीज़ के बारे में कोई न कोई अन्धविश्वास ध्यान-धारणा करें। आप यदि ध्यान-धारणा करेंगे तो आपके बच्चे भी ध्यान धारणा करेंगे। ध्यान-धारणा अत्यन्त सहज है, आप लोगों के लिए इसे इतना सहज बना दिया गया है कि, आप देखते हैं, सभी तत्व इसे कार्यान्वित करते हैं । आपके चक्र भिन्न तत्वों से बने हुए हैं और भिन्न शैलियों से जब आप इन्हें स्वच्छ करते हैं- कहने से अभिप्राय है कि आप सहजयोग के सारे तरीके और सारी तकनीकें जानते हैं- उनके अनुसार जब आप चक्रों को साफ करते हैं, उन्हें जब आप स्वच्छ करते हैं तो आप पूर्णत: स्वतनत्र हो जाते हैं। उस अवस्था में ऐसा होना ही चाहिए। परन्तु यदि आप इतना भी नहीं करते, ध्यान-धारणा भी नहीं करते तो आपके लिए, और मेरे लिए भी, वह प्राप्त करना अत्यन्त-अत्यन्त कठिन होगा जिसके लिए आप पृथ्वी पर आए है। है। आप यदि बायाँ हाथ आगे करके चलते हैं तो इसका ये अर्थ है और यदि दायाँ हाथ आगे करके चलते हैं तो इसका ये अर्थ है। हर चीज़ के विषय में! उन्होंने मनुष्य को मशीन बना दिया है और नैसर्गिकता का पूर्ण अभाव है। इस्लाम में भी बहुत सी असहज चीजें हैं। लिया है। यह बात में जानती हूँ। परन्तु में जानती हूँ परन्तु इंग्लैण्ड जैसे स्वतन्त्र स्थान पर भी हम वही , इंग्लैण्ड जहाँ पूर्ण स्वच्छन्दता ( Leftsidedness) है, जहाँ आप जो जी चाहे कर सकते हैं और फिर भी आप ईसाई बने रहते हैं। आप शराब पीते हैं, ठीक है, आपकी दस पत्नियाँ हैं, कोई बात नहीं, आपकी पन्द्रह रखेलें हैं, तो भी ठीक है। जब तक आप चर्च जाते हैं और पैसा देते हैं आपका है। मैंने यह बहुत बड़ा कार्य करने का दायित्व ले कि इसे कैसे करना है और आप भी यह कार्य चीजें देखते हैं। करना जानते हैं। परन्तु कठिनाई ये है कि आप अपने भिन्न बन्धनों में फँस जाते हैं। अब, अब तक आप लोगों ने ये बात महसूस कर ली होगी कि ये तथाकथित धर्म चाहे वे किसी के नाम पर हों, चाहे वह इस्लाम के नाम पर हों, ईसाई मत के नाम पर हों, हिन्दुत्व के नाम पर हो या हर कर्म ठीक है। तो प्रोटेस्टेंट ईसाईयों में ऐसा ही है। मैं स्वयं चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 - 2007 33 इसी धर्म में ही पैदा हुई यहाँ भी किसी चीज़ के लिए मनाही नहीं है। यहाँ भी सभी कुछ वैसा ही है। आध्यात्मिक व्यक्ति माने जाते थे! उन्होंने मुझे जारों (czars) के बारे में एक कहानी सुनाई। जार शासकों ने कोई धर्म अपनाना चाहा क्योंकि सभी लोगों का कोई न कोई धर्म है। उन्होंने सोचा, हमारा भी अवश्य कोई धर्म होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने कुछ लोगों को बुलाया। आरम्भ में उनके पास कैथोलिक धर्म के लिए लोग आए। उन्होंने बताया, ठीक है, कैथोलिक धर्म में आप शराब पी सकते हैं। मैं नहीं जानती कि उन्होंने ये धारणा कैसे बनाई। परन्तु उन्होंने कहा कैथोलिक धर्म में आप शराब पी सकते हैं, परन्तु एक से अधिक पत्नी नहीं रख सकते। जार कहने लगे, 'नहीं, ये सम्भव नहीं है। हमें तो बहुत सी जारनियाँ रखनी होंगी। बहुत से कारणों के कारण हम ये धर्म नहीं अपना सकते। और उन्होंने इसका विचार छोड़ ये सभी धर्म या तो बाईं ओर को है या दाई ओर को। कुछ लोगों को बायाँ पक्ष पसन्द है और कुछ को दायाँ। मैं आपको एक पादरी की कहानी सुनाऊंगी जिसे में रूस में मिली। कुछ लोगों को शायद मैने इसके बारे में पहले भी बताया है। मैं रूस गई और वहाँ के लोगों ने मुझसे पूछा, "आप क्या देखना पसन्द करेंगी?" मैंने उन्हें बताया, मैं कुछ। चर्च देखना चाहूंगी, उन्होंने कहा, "ठीक है बहुत बढ़िया। हम आपको एक चर्च में ले चलेंगे।" वे मुझे एक चर्च में ले गए, ये यूनानी रूढ़िवाढी चर्च था- और Black Order जिसे सर्वाच्च माना जाता है। मैं नहीं जानती कि वे ऐसा क्यों मानते हैं। हमने प्रवेश किया। वहाँ पादरी कहने लगा "ठीक है, हमें खेद है कि हमारा उपवास होने के कारण आज हम आपको माँसाहार नहीं करवा सकेंगे। परन्तु हम दोपहर का खाना खाएंगे।" हमने बहुत ही शानदार दोपहर का खाना खाया। परन्तु वह पादरी शराब पीने में ही व्यस्त था। उनके अनुसार उपवास के दिन शराब पीने की आज्ञा है। इसलिए वह पिए जा रहा था, पिए जा दिया। तब इस्लाम का नम्बर आया। मेरे विचार से शायद उस समय हिन्दू उपलब्ध नहीं थे। परमात्मा का शुक्र है। तो वहाँ इस्लाम धर्म के लोग आए और उन्होंने कहा, "नहीं ठीक है। आप पाँच पत्नियाँ रख सकते हैं परन्तु आप शराब नहीं पी सकते। वे कहने लगे,"ये असम्भव है। हम कैसे इस्लाम को अपना रहा था, पिए जा रहा था। उसने इतनी शराब पी ली कि भूल ही गया कि हम भी वहाँ थे। हम लोग सकते हैं? ये असम्भव है।" उन्होंने इस्लाम का भी अतिविशिष्ट समझे जाने वाले लोगों (V.IL.P.) में से विचार छोड़ दिया। तत्पश्चात् रूढ़िवादी (Orthodox) थे परन्तु उसने तो अपने को शराब में डुबो दिया था । अतः हमने सोचा कि सम्मानपूर्वक बापिस चले जाने हमें कोई परेशानी नहीं यदि आप शराब पीएं या बहुत में ही भलाई है। हम लोग उठे और वहाँ से बाहर आ गए। वह पादरी हमें अलविदा कहने के लिए बाहर तक नहीं आया। परन्तु इन रूसी अफसरों ने शराब को छुआ तक नहीं, कुछ भी नहीं किया, वे हँसे जा रहे थे, हँसे जा रहे थे, उन्होंने कहा, " देखिए, ये ईसाइयत है। इसी कारण से हम इसे नहीं अपनाना चाहते।" मैंने कहा, "परन्तु देखिए यह ईसामसीह नहीं हैं।" कहने लगे, ये बात सत्य है, परन्त ये लोग है। अब सहज धर्म ही आन्तरिक धर्म है जिसका जो कह रहे हैं, क्या यही ईसाईधर्म है?" मैंने कहा, "ऐसा नहीं है।" अब ये सज्जन रूस में उच्चतम लोग आए। वे कहने लगे, देखिए हम मध्य में हैं। सी पतनियाँ रखें। आपको बस हमें बहुत सा धन देते रहना होगा। जार ने कहा, "ठीक है, ये अच्छा हम ये धर्म अपना लेते है।" और इस प्रकार उन्होंने यह (Orthodox) धर्म अपना लिया। अतः आज धर्म की यह स्थिति है। ये सभी धर्म- विकृत-मूर्तियाँ बन गए हैं, जो बिल्कुल बेकार अनुसरण किया जाना चाहिए। भारत में मैंने बताया कि हम सब अब सहज बन गए हैं। एक कहानी है, अक 2007 : 7 & 8 34 चैतन्य लहरी ने भी बहाँ जाने का निर्णय किया, मैने उनसे नहीं कहा था और न ही उन्होंने मुझे बताया। जब वे वापिस आए तो मुझे देखते ही बेहोश हो गए। मेंने कहा, "क्या हुआ? तुम लोग कहाँ गए थे?""ओह, हम इस मन्दिर में गए थे। " मैंने कहा, " क्यों? तुमने मुझे बताया भी नहीं। वहाँ तुमने क्या किया?" एक ग्रामीण व्यक्ति ईसाई बनना चाहता था और ईसाई बनने के लिए वह इलाहाबाद आया। आकर उसने उन्हें कहा, कि आप मुझे बहुत बड़ा नाम दो ताकि लगे कि मैं साहब हूँ और अंग्रेज बन गया हूँ। भं अत: आप मुझे बहुत बड़ा नाम दं उन्होंने पूछा, कौन सा नाम चाहते है? कहने लगा, " ऐसा नाम दो जैसे सिकन्दर महान ( Alexander The Great)।" तो उन्होंने उसे अलेक्जेन्डर नाम दे दिया। मुझे कोई देखिए, ब्राह्मण ने टीका लगाया और समाप्त।" उनके चक्र ठीक होने में एक महीना लगा। अब वे मन्दिर नहीं जाते हैं। इसका उन्होंने काफी स्वाद चख लिया परन्तु यह मिलाजुला नाम था। उसका वास्तविक भारतीय नाम 'भूरा' था, तो वह उसे अलेक्जेंडर भूरा है। ईसाई भी ऐसा ही करते हैं। उस दिन मैंने एक बुलाने लगे। अलेक्जेंडर भूरा इलाहाबाद आया और कहानी सुनी कि लोग पैरिस के एक चर्च में शादी स्नान करने के लिए गंगा नदीं पर गया पादरी ने उसे कहा कि तुम ऐसा नहीं कर सकते।"' उसने पूछा, क्यों मैं ऐसा नहीं कर सकता?" पादरी बोला, के विशेष वस्त्र खरीदने के लिए आया था वो कौन नहीं, तुम गंगा नदीं पर जाकर स्नान नहीं कर सकते क्योंकि स्नान करने से तुम्हारी ईसाइयत झड़ जाएगी।" उसने कहा, तुम ऐसा नहीं कर सकते। " तो अलैक्जेंडर भूरा बोला, "मैं यदि साहब बन गया हूँ, अंग्रेज बन गया हूँ, इसका मतलब ये नहीं है मेंने अपना धर्म छोड़ दिया है!" किसी भी धर्म को जब हम मानने का प्रथत्न करते हैं तो बिल्कुल ऐसा ही होता है। करना चाहते थे। इस अवसर के लिए उन्होंने विशेष बस्त्र भी बनवाएं होंगे। कोई व्यक्ति यहाँ पर विवाह सी दुकान थी? उसका क्या नाम हैं? कोई बड़ा सा नाम है। क्योंकि उन्होंने चर्च जाना था, इसलिए विशेष वस्त्र पहने जाने तो आवश्यक थे ही! ये वस्त्र पहनकर जब वे चर्च से बाहर निकले तो वे भूत बन कि चुके थे मैं हैरान थी! इन पच्चीस लोगों को क्या हो गया था! हुआ क्या था कि चर्च में बहुत से मृत शरीर दफनाए हुए होते हैं। ये शरीर उन लोगों के हैं जो किसी न किसी पकड़ में हैं। अत: चर्च की सुन्दर वास्तुकला को देखने के लिए भी आप जाएं तो निर्लिप्त मस्तिष्क से जाएं। ये न सोचें कि आप उस चर्च से जुड़े हुए हैं। इस तरह की किसी भी चीज़ से लिप्त न हों। जिन धर्मों में हमारा जन्म हुआ, उन तथाकथित धर्मों से हम अब भी जुड़े हुए में, मैं वदि भारतीय लोगों को कहूं कि मन्दिर मत जाओ, तुम्हें मन्दिर नहीं जाना, चाहे ये स्वयंभू मन्दिर ही दयों न हों, मुझे बताए बिना आपने स्वयंभू मन्दिर में भी नहीं जाना। बहुत से चर्चों में भी बहुत अच्छी मूर्तियाँ हैं या कुछ ऐसा है जो बास्तव में स्वयंभू है, परन्तु ये बहुत कम हैं। अत: जाने से पूर्व मुझे बता कर जाएं। परन्तु वो मेरी बात को नहीं सुनते, मेरी बात नहीं सुनते और जब वहाँ जाते हैं तो उनका हैं। उदाहरण के रूप आज में आपको बताती हूँ कि ईसामसीह किसी धर्म विशेष से जुड़े हुए नहीं थे। वे किसी धर्म के अनुयायी नहीं थे। वे तो अपने अध्यात्मिक धर्म को मानते थे वे एक चर्च में गए जहाँ कुछ यहूदी लोग वाद-विवाद कर रहे थे। वहाँ जाकर वे उनसे बात करने लगे। उस दिन मैंने अखबारों में छपी एक सुन्दर चित्रकारी देखी, बहुत ही सुन्दर चित्रकारी जिसमें ईसामसीह चिकित्सकों से बात कर रहे हैं और आज्ञा चक्र पकड़ जाता है! एक बार मैं एक मन्दिर देखने के लिए गई जो, नि:सन्देह स्वयंभू मन्दिर था। कुछ सहजयोगियों चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 35 दण्डित नहीं करेगा क्योंकि आप आत्मसाक्षात्कारी लोग हैं। ये आपको दण्डित नहीं करेगा। ये उस सीमा तक आपको दण्डित नहीं करेगा। परन्तु याद रखें कि सत्य के साथ-साथ एकादश भी घूरी तरह से कार्य कर रहा है। आप यदि कोई गलत कार्य करते हैं, जैसे ये लोग जो चर्च गए बात करते हुए भी अपने स्वाधिष्ठान चक्र को सहला रहे हैं। सभी डॉक्टर उनकी बात सुन रहे हैं, एक उनकी ओर देख रहा है, उन्हें एकटक देख रहा है, दूसरें का ध्यान भी उन्हीं पर है और वे बस अपने बाएं स्वाधिष्ठान को सहला रहे हैं । ये बात स्पष्ट है, इसे आप स्पष्ट देख सकते हैं। और अब ये नई उपलब्धियाँ प्राप्त होने के पश्चात् आपको इन चीजों से ऊपर उठना है और समझना है तो इन सब पर पकड़ आ गई। अब वे ये कह सकते हैं कि, "श्रीमाताजी, हमें पकड़ क्यों आ गई? हम सहजयोगी है।" क्योंकि आप लोग कि स्वतनत्र रूप से हमें स्वयं को देखना है। हम किसी धर्म विशेष से जुड़े हुए नहीं हैं। हम परमात्मा के धर्म से जुड़े हुए हैं जो सहज है । और सहजधर्म ऐसा है जो केवल तभी फैलेगा जब आप सहज हो जाएंगे। परन्तु मेरी समझ में नहीं आता कि ये चीज क्रियान्वित ही नहीं होती। मैं किसी से मिली, मैं भूल गई हूँ किससे, कोई तथाकथित Amity था जिसे अवतरण माना जाता था। उसके अनुयायी बिल्कुल ऐसे बर्ताव करते थे जिस पर विश्वास ही नहीं किया जा सकता। कितनी सत्यनिष्ठा पूर्वक वे इस व्यक्ति दुर्बल (भेद्य) हैं। आप ( Vulnerable) हैं। अभी तक आप उस अवस्था तक नहीं पहुँचे। जब आप उस अवस्था तक पहुँच जाएंगे तब आपके चर्च जाने पर वहाँ उपस्थित लोग चर्च से दौड़ जाएंगे। आपके सम्मुख वे काँपने लगेंगे। उनकी समझ में नहीं आएगा कि क्या हो गया है। मैने देखा है कि जब मैं किसी चर्च में प्रवेश करती हूँ तो वहाँ पर जलती हुई सारी मोमबत्तियाँ चर, चर, चर, चर, चर करने लगती हैं और लोग हैरान हो जाते हैं कि क्या हो गया है। जब वे मोमबत्ती प्रकाश ( Candle जो Light) में रात्रि भोज ले रहे होते हैं तो भी जिस प्रकार मोमबत्तियाँ फड़फड़ाती हैं उन्हें देखकर मैं हैरान होती हूँ। लोग देखने लगते हैं क्योंकि भूत उनके सामने बैठे होते हैं! अत: मोमबत्तियाँ तुरन्त दर्शाती हैं कि यहाँ पर ये भूत बैठे हुए इतना ज्ञान पर विश्वास करते थे! जो भी कुछ वो कहता था, भी कुछ वो करता था, किस प्रकार वे उस पर विश्वास करते थे! अत्यन्त आश्चर्य की बात हैं! आप किसी भी ऐसे व्यक्ति से मिलिए जो किसी गुरु का अनुयायी है, किसी का भी---- जिस प्रकार कट्टरतापूर्वक वो अपने गुरु को मानते हैं, उस पर आश्चर्य होता है। उसके विरुद्ध वो कुछ भी नहीं सुनते। वो यदि कह दें कि सारी रात अपने सिर के भार खड़े रहो तो खड़े रहेंगे। मैं नहीं जानती कि क्या हैं। आपको प्राप्त हुआ है, इतना प्रकाश आपको मिला है, जिसके कारण आप प्रबुद्ध हुए हैं, इसके बावजूद भी यदि आप बाएं और दाएं पक्ष की चीजों की ओर जाते हैं तो यह बहुत खतरनाक है। हो जाता है? आज हम ये भी देखते हैं, मैं आपको विद्यमान राजनीति (Politics) के बारे में भी बता देँ, राजनीति में भी इन लोगों ने दो तरह के सिद्धान्त बना लिए हैं। एक तामसिक है और एक आक्रामक (Left जब असत्य की बात आती है तो हम इसका अनुसरण करते हैं और जब हम सत्य को जान जाते हैं कि यह सत्य है- तब हम इसका लाभ उठाते हैं और समझौता करने का भी प्रयत्न करते हैं। हम सोचते हैं कि हमारे किए गए समझौते से सत्य का क्या लेना-देना है। ऐसा नहीं है कि सत्य आपको दण्डित करेगा, ये आपको sided and Right Sided)। बाई ओर के सिद्धान्त जनतान्त्रिक हैं- इनमें आप किसी भी चीज में दखलेअन्दाजी कर सकते हैं इसमें व्यक्त महत्वपूर्ण चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 -2007 36 वह नियंत्रण नहीं करता। अब भी वह वहीं है। अवसर प्राप्त होते ही वह इन्हीं बन्धनों में उलझ जाता है। तो यह चीज असफल हो जाती है। ऐसी स्थितियों में व्यक्ति दुर्बल होते हैं । और जहाँ पर पूरी स्वच्छंदता हो, जो चाहे आप कह सको, जैसे चाहो रह सको, जहाँ आसक्ति और सभी प्रकार के दुर्गुण हों, आप प्रतिदिन देखते हैं और कहते हैं, "हे परमात्मा, यह विनाशोन्मुख समाज है। व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता है और पसन्द का कार्य करने से उसे रोका नहीं जाना चाहिए। वह क्योंकि व्यक्ति है तो उसे अपनी नाक काट लेने का, अपनी आँखे फोड़ लेने का पूरा अधिकार है । व्यक्ति को कुछ भी करने की पूरी आज्ञा दी जाती है और फिर परिणाम क्या होता है? हम देखते हैं कि लोकतन्त्र असुरतन्त्र बन जाता है! हर आदमी असुर बन जाता है। हर आदमी गला काटने, जीवन की जड़ों है, जिसमें यह सब हो रहा है।" और विनाश का कारण ये है कि जिस मानव को आपने इतनी शक्तियाँ दी हैं, उसमें उन शक्तियों को झेलने की शक्ति नहीं है। व्यक्ति धन को नहीं झेल सकता, और आधार को नष्ट करने में व्यस्त हो जाता है क्योंकि हर व्यक्ति ब्रह्म है, हर व्यक्ति महान व्यक्तित्व बन जाता है क्योंकि व्यक्ति इतना महान है, और इस किसी भी प्रकार की शक्ति को नहीं झेल पाता, वह प्रकार सामूहिकता समाप्त हो जाती है, पूर्णतः खो जाती है। प्रेम को नहीं झेल सकता, करुणा को नहीं झंल सकता, शक्ति को भी नहीं समझ सकता क्योंकि अभी तक वह व्यक्ति मात्र है। दूसरी ओर जहाँ बहुत ज्यादा अनुशासन है, है, बहुत ज्यादा नियंत्रण है बहुत ज्यादा आक्रामक्ता और हर चीज उग्र (Right Sided) है, जिसे हम साम्यवाद कह सकते हैं, वहाँ हर समय जनता का नियंत्रण रहता है। पर क्यों? क्योंकि सामूहिकता के लिए व्यक्ति को बलिदान हो जाना चाहिए। उस मामले में व्यक्ति ( Individual ) दुर्बल हो जाता है और व्यक्ति यदि दुर्बल होंगे तो सामूहिकता शक्तिशाली व्यक्ति जब सामूहिक हो जाता है तो सुपुम्ना ) के रास्ते उत्क्रान्ति होती है। जब वह सामूहिक बनता है, अपनी शक्ति से सामूहिकता को शक्तिशाली बनाता है तो सामूहिकता भी उसकी देखभाल करती है, सुरक्षा करती है और व्यक्ति का पथ प्रदर्शन करती है। यही सहजयोग है। अत: सहजयोग की राजनीति यह है कि आपको सामूहिक व्यक्तित्व बनना है। और है नहीं हो सकती। यह शक्तिशाली नहीं हो सकती। व्यक्ति (Individual) को शक्तिशाली होना ही होगा। उदाहरण के रूप में, आप यदि देख कि साम्यवादी हैं, हम भिन्न हैं, हम भारतीय हैं या हम इंग्लैण्ड से देशों से आने वाले लोग यहाँ के लोगों से कही है या फ़्रांस से हैं, अब भी यदि हम इन्हीं चीजों में अधिक शराब पीते हैं या वो लोग जो इस्लामी देशों फँसे हैं तो हम सामूहिक नहीं हैं। से आते हैं जहाँ बो किसी चीज़ को छूते भी नहीं, वो सरदारजी लोगों से भी अधिक शराब पीते हैं! अत: अब भी यदि हमें लगता कि हम कुछ महान चीज़ हुए सामूहिकता की दृष्टि से हम सब एक हैं, एक ही अस्तित्व के अंग-प्रत्यंग हैं। तब आप वास्तव में सामूहिक अस्तित्व के रूप में कार्य करते हैं और परमात्मा से जुड़े होते हैं। इस अवस्था में सूर्य, चाँद, बायु, पृथ्वी माँ तथा अन्य सभी तत्व आपकी देखभाल कर रहे होते हैं, आपके लिए कार्य करते हैं । आकाश तत्व्व, सभी कुछ, आपके लिए कार्य करता है और आप कल्पना कर सकते हैं कि मानव की स्थिति क्या है कि भय के कारण यदि आप उसका नियंत्रण करने का प्रयत्न करें तो वह आक्रामक हो जाता है। परन्तु वह किसी भी प्रकार से सम्पूर्ण नहीं है। उसमें किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हुआ, वह स्थिति को स्वीकार नहीं करता। अपने अन्तःस्थित प्रवृत्तियों पर अंक :7 & 8 2007 37 चैतन्य लहरी आप बहुत अच्छी तरह से सुरक्षित होते हैं तथा आनन्द का आनन्द लेने के विशेष गुण का आशीर्वाद सामूहिक अस्तित्व है। आपको प्राप्त होता है। तब आप उस आनन्द के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं, जब आप पूर्ण से एक रूप होते हैं, जैसे मान लो यह उँगली या यह उँगली यदि कि उन्होंने हमें मार्ग दिखलाया, और हमें अपने पूर्ण से एक रूप नहीं है तो यह जड़वत हो जाता है, विषय में अत्यन्त सावधान और चिन्तित रहना जैसे कोढ़ में होता है, वैसे ही यह उँगली निर्जीव हो जाती है। उँगली को चाहे चूहा काट ले तो भी हमें पता नहीं चलता क्योंकि सम्बन्ध टूट जाता है। कोई क्या है? हमारे से क्या आंशा भी नाड़ी कार्य नहीं कर रही होती और उँगली पूर्णतः संवेदनहीन हो जाती है। इसी प्रकार से आप भी यदि सामूहिक नहीं हैं और सामूहिकता की चिन्ता नहीं करते तो आपको भी छोड़ दिया जाएगा। अपनी गरिमा तथा सामूहिकता का आनन्द लेने के लिए आप वहाँ नहीं होंगे। अत: व्यक्ति को समझना है कि आत्मा बनना है तथा वह आत्मा जो कि हमारे अन्दर है कि आज पुनर्जन्म के इस दिन मुझे आशा हमें ईसामसीह के प्रति अत्यन्त आभारी होना होगा होगा। हम कहाँ है ? हम कहाँ खड़े हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? हम क्या कर रहे हैं? हमारा उत्तरदायित्व की जाती है? हमें ये सब आशीर्वाद किसलिए हैं? दिए गए सहजयोग में कोई बलिदान नहीं है, कोई भी आपसे किसी प्रकार का वचन नहीं चाहता, किसी प्रकार की सदस्यता या कुछ और नहीं चाहता। मेरे विचार से यह मेरी वचन बद्धता (My Commit- हमें स्वयं बहुत शक्तिशाली होना होगा। उत्क्रान्ति पाकर हमें सामूहिक बनना होगा दूसरे लोगों में दोष खोजना बहुत आसान है, अगुआओं में दोष परन्तु आपका भी एक दृढ़ निश्चय होना चाहिए. आपकी खोजना बहुत आसान है, सहजयोग में दोष खोजना भी बहुत आसान है, कभी-कभी मुझमें दोष खोजना भी बहुत आसान है। बेहतर होगा कि अपने अन्दर दोष खोजें, बाकी का सब काम में कर लूगी। सर्वप्रथम आप केवल अपने. अन्दर दोष खोजें और अन्य लोगों को समझने का, उन्हें प्रेम करने का और उनकी संगति का आनन्द लेने ment) है, जैसा मैंने कहा, कि परमात्मा का वचन है, इच्छा शुद्ध होनी चाहिए। केवल यही चीज़ है, कि मेरी इच्छा शुद्ध हो जाए, किसी भी प्रकार की नकारात्मकता इसे प्रभावित न करे। जिस प्रकार ईसामसीह की इच्छा अत्यन्त पविवि थी और जिस प्रकार उन्होंने लक्ष्य को प्राप्त किया, मुझे विश्वास है, आप भी अपने जीवन में बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। जजा आज मरा 65वाँ जन्मदिवस हैं। अव कल्पना करें, में 65 वर्ष की आयु की हूँ और इस आयु तक अधिकतर महिलाएं केवल.... मैं नहीं जानती कि वे क्या करती हैं अत: अब आप आगे बढ़कर, जहाँ तक सम्भव हो, सभी कुछ कार्यान्वित करें, ये सोचते हुए कि हम सबने खड़ा होना है। अब बच्चे आगे आ रहे हैं वे भी खड़े हो जाएंगे। आप सभी लोग मुझे युवा प्रतीत हो रहे हैं, हर रोज़ जब मैं आपको देखती हैं। का प्रयत्न करें। एक बार यदि आप निर्णय कर लें कि हमें आनन्द लेना है, तो मैं आपको बताती हूँ, यह अत्यन्त नैसर्गिक है। यह निर्णय मात्र अपने अन्दर यह विश्वास कि अब में अपनी आत्मा का मैं अपने अन्तःस्थित सामूहिकता का आनन्द लूगा, आनन्द लूंगा जो कि आत्मा है, यह निर्णय मात्र ही आपको आनन्द लेने की शक्ति देगा। परन्तु यह दृढ़ निश्चय होना चाहिए, पाखण्ड नहीं, खिलवाड़, अहं, बन्धन आदि नहीं, केवल हृदय में शुद्ध इच्छा कि हमें ि हूँ तो आप पहले से अधिक युवा दिखाई देते कभी-कभी तो मैं आपको पहचान भी नहीं पाती। काम चैतन्य लहरी ) अंक : 7 & 8 =2007 38 38 आप इस प्रकार से युवा प्रतीत होते हैं कि मुझे देखूंगी और आपको पहचान भी न पाऊंगी। ईसामसीह सोचना पड़ता है कि ये पिता है या पुत्र। स्थिति ये हैं की मृत्यु बहुत ही छोटी आयु में हो गयी, बहुत ही कि आप सब आशीर्वादित हैं। आपके पास नौकरियाँ छोटी आयु में। मैं कहना चाहूंगी कि वे बहुत ही छोटें थे। परन्तु उन्होंने मानवता के लिए कितना कुछ हैं, सभी कुछ है। हर व्यक्ति मुझे बताता है कि, श्रीमाताजी, ऐसा घटित हुआ, वैसा घटित हुआ किया? इतनी छोटी आयु में जितना कुछ उन्होंने प्राप्त आदि।" तो अब क्या? ये सारे प्रलोभन हैं सावधान रहें, ये वो चीजें नहीं हैं जो आपने मांगी थीं| आपने अपने अन्दर श्रद्धा की वो अवस्था माँगी थी जिसमें माँगने की कोई आवश्यकता ही न रहे, कुछ भी माँगने की। सभी कुछ कार्यान्वित हो आपमें से हर एक कुछ महान कार्य करे। आज कुछ किया, कोई अन्य न कर पाता। ये प्रशंसनीय है, वास्तव में प्रशंसनीय है। मैं आशा करती हैँ कि आप भी उनका अनुसरण करेंगे और प्रशंसनीय कार्य करने में उनके कदमों पर चलेंगे मैं देखना चाहती हूँ कि वचन देने का दिन है। इसके लिए परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। मेरा जन्म-दिवस मनाने के लिए मैं आपका हृदय से धन्यवाद करती हूँ। जाएगा। यह कार्यान्वित होता है। यही सच्ची बात है। मुझे आशा है कि अगली बार जब हम लोगों को मिलेंगे तो मैं आज से कहीं अधिक युवा शयत (रूपान्तरित कृम मि क् किम ई ज खि हे मराठी-कविता (साक्षात श्रीमाताजी ने इसे पढ़ा तथा सराहा) लड इथोनी आनंदू रे आनंद रर्त्त कृपासागर तू गोविंदू रे मकरी हे ले क्र मै जै ोआनंदू रे आनंदू री तिड शकि ा लिसह मिशन] छरिन ी कामा हैर श्री ललीप्ा महाराजाचे राऊळी वाजे ब्रम्हानंद टाळी क ि स য वाजे ब्रम्हानंद टाळी ड कक लस सा आनंदू रे आनंद স क लक्ष्मी चतुर्भुज झाळी ह ती कि के प्रसाद घेऊन बाहेर आळी कि मी क कात कम एका जर्नादनी नाम ड पाहना मिळे आत्माराम इथोनी आनंदू रे आनंदू से क है छपया मी जाही पत ह शमीही ह परम पूज्य श्रीमाताजी का प्रवचन (स्पेनिश भजनों के बाद) वासेलोना- स्पेन 2। मई 1988 इन भजनों को बनाने वाले लोगों की लय अन्य लोग क्या नहीं हैं। यह चेतना आपका एक भाग होना चाहिए, आपके अस्तित्व का अन्तर्जात भाग। केवल तभी यह कार्य करेगी और पूरे वातावरण तथा अन्य लोगों में प्रवेश करेगी। मुझे आशा है कि जब आप लोग अपने देशों में लौटेंगे तो उन्हें मेरा सन्देश देंगे कि हम सबको अपनी आत्मा के प्रति चेतन होना और भावना को हम महसूस कर सके। इस देश में भावनाओं का प्राचुर्य है। हमारे अन्दर भावनाएं बहती हैं। जहाँ भी मैं गई, लोग कहा करते थे, "क्या मैं स्पेनिश महिला हूँ?" मैं हैरान होती थी कि मुझमें और स्पेन की महिलाओं में ऐसी कौन सी समानता आ होगा। है। मेरे विचार से मेरे हृदय का प्रेम, मेरे चेहरे पर अभिव्यक्त होता है, शायद। मुझे आशा है कि स्पेन की महिलाएं अन्य लोगों के प्रति प्रेम एवं स्नेहमय हो जाएंगी। हीरे पर यदि कीचड़ लगा दिया जाए तो यह चमकेगा नहीं, परन्तु हीरे की चमक से कीचड़ को कुछ लेना-देना नहीं है। कीचड़ हटाते ही हौरा जोर से चमकने लगेगा, इसके लिए आप जानते हैं कि एक बात हमें महसूस करनी होगी कि सहजयोग प्रेम है, परमेश्वरी प्रेम। यह मोह नहीं है, ये स्वामित्व नहीं है। ये प्रेम प्रदान करना है। ये शारीरिक प्रेम नहीं है, भौतिक पदार्थों का प्रेम नहीं है और न ही आपकी कीर्ति का प्रेम है। यह तो परमेश्वरी प्रेम है। क्या करना है, स्वयं को स्वच्छ करना है आप यदि अब भी आक्रामक हैं या तामसिक (Right Sided or Left Sided) तो स्वयं देखें और पता लगाएं कि क्या कमी है। इसे स्वच्छ कर दें, बिल्कुल स्वीकार न करें, बिल्कुल स्वीकार न करें, क्योंकि इसी गरन्दगी ने आपके हीरे को ढका हुआ है। सहजयोग में हमने वास्तव में ये परिवर्तन होता है, यदि आप इसे स्वयं साक्षी भाव से देखें कि क्यों और किसलिए आप किसी चीज से लिप्त हैं। एक बार जब हम जान जाएंगे कि हम अपनी साक्षी अवस्था में निर्लिप्त हैं तो स्वत: ही शुद्ध प्रेम प्रवाहित होने लगेगा। प्रकाश के होते ही, सूर्य के प्रकाश से सारा कोहरा छँट जाता है। इसी प्रकार ज्योंही आपके चित्त में आत्मा प्रकाशित होती है तो आपके सभी संदेह, सभी गलतियाँ लुप्त हो जाती हैं। आज मैंने आपको यही बताया कि केवल इतनी है कि वे आपके अन्दर सच्चाई को आपको अपनी आत्मा के प्रति चेतन होना होगा क्योंकि अब आपने 'स्वयं' को, अपनी 'आत्मा' को, यही समझना है। एक बारे जब आप उस शान से चमकेंगे तो किसी को ये समझाने का प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा कि यह हीरा है। आप हीरे हैं, इस चमक पर कोई सन्देह नहीं कर सकता। किसी धोखेबाजू, अपवित्र और अधर्मी व्यक्ति को परमात्मा के विषय में बात करते कोई पसन्द हुए नहीं करता। सभी सच्चाई चाहते हैं। आवश्यकता देख लें या आप अपनी सच्चाई बाहर व्यक्त कर सकें। पहली चीज़ हमारे हाथ में नहीं है- उन्हें महसूस कर लिया है। जब आप आत्मा बन जाते हैं सच्चाई देखने के लिए विवश करना- परन्तु दूसरी तो आप चमकते हुए हीरे की तरह से होते हैं जो स्वत: ही प्रकाश दे रहा होता है। अत: यह समझ चीज़- सच्चाई की अभिव्यक्ति करना- हमारे हाथ में है। उदाहरण के रूप में आपने देखा है कि जब लेना अत्यन्त आवश्यक है कि आप क्या हैं, और चैतन्य लहसी 2007 40 अंक : 7 & 8 पर तेज देख सकता हूँ। और आप देख सकते हैं कि एक ऐसी तस्वीर आई है जिसमें सभी के सिर पर भी मैं यात्रा करती हूँ और किसी कार्यक्रम का आयोजन करती हैँ तो वहाँ हजारों लोग होते हैं। इंटली में लोगों ने केवल मेरा फोटो देखा और कार्यक्रम में आ गए। मैं किसी बात का दावा नहीं करती, कोई वचन नहीं देती, फिर भी वे लोग आए। कारण ये है कि लोगों में संवेदनशीलता है और वो देख सकते हैं कि इस चेहरे में सच्चाई है। अन्दर जो होता है उसी की अभिव्यक्ति बाहर होती है। हैं और आप सबके सिर पर प्रकाश है, जो आपका प्रकाश है। उस दिन मेंने एलग्रेसो (EI Greco) द्वारा बनाई हुई एक चित्रकारी देखी जिसमें आदिशक्ति (Holy Ghost) ईसामसीह के शिष्यों को आशीर्वादित कर रही हैं और उन सबके सिर से प्रकाश निकल रहा है। ये बहुत थोड़े लोग थे, परन्तु आप बहुत सारे कुछ आप यदि सच्चे नहीं है तो ये कपट बाहर दिखाई देता है। अत: अन्तःस्थित प्रकाश अत्यन्त विशाल पृथ प्रदर्शन कर रहा है, आपकी देखभाल कर रहा है, आपको प्रेम कर रहा है और मार्ग दिखला रहा है । आपको कभी नहीं सोचना चाहिए कि आप अकेले हैं, बस स्वयं को स्वच्छ रखने का प्रयत्न करें, क्योंकि यह प्रकाश लुप्त भी हो सकता है। और उज्जवल बनाया जाना चाहिए ताकि तीव्र प्रकाश में हम लोगों को सच्चाई दिखा सकें। मुझे विश्वास है कि लोग यह सच्चाई, आपके चेहरों का ये तेज, देख सकते हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। (रूपान्तरित) रोम में जब लोग भजन गा रहे थे तो एक वृद्ध व्यक्ति आए और कहने लगे कि मैं इनके चेहरों परन्तु यह दृढ़ निश्चय होना चाहिए, पाखण्ड नहीं, खिलवाड़, अहं, बन्धन आदि नहीं, केवल हृदय में उत्क्रान्ति पाकर हमें सामूहिक बनना होगा। दूसरे लोगों में दोष खोजना बहुत आसान है, अगुआओं में दोष खोजना बहुत आसान है, सहजयोग में दोष खोजना भी बहुत आसान है, कभी-कभी मुझमें दोष खोजना भी बहुत आसान है। बेहतर होगा कि अपने अन्दर दोष खोजें, बाकी का सब काम में कर लूगा। सर्वप्रथम आप केवल अपने अन्दर दोष खोजें और अन्य लोगों को समझने का, उन्हें प्रेम करने का और उनकी संगति का आनन्द लेने का प्रयत्न करें। एक शुद्ध इच्छा कि हमें आत्मा बनना है तथा बह आत्मा जो कि हमारे अन्दर सामूहिक अस्तित्व है | मुझे आशा है कि आज पुनर्जन्स के इस दिन हमें ईसामसीह के प्रति अत्यन्त आभारी होना होगा कि उन्होंने हमें मार्ग दिखलाया, और हमें अपने विषय में अत्यन्त सावधान और चिन्तित रहना होगा। हम कहाँ है? हम कहाँ खड़े हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? हम क्या कर रहे हैं? हमारा उत्तरदायित्व क्या है? बार यदि आप निर्णय कर लें कि हमें आनन्द लेना है, तो मैं आपको बताती हूँ, यह अत्यन्त नैसर्गिक है। हमारे से क्या आशा की जाती है? हमें ये सब यह निर्णय, मात्र अपने अन्दर यह विश्वास कि अब में अपनी आत्मा का आनन्द लूंगा, में अपने अन्त:स्थित सामूहिकता का आनन्द लूगा जो कि आत्मा है, यह निर्णय मात्र ही आपको आनन्द लेने की शक्ति देगा। आशीर्वाद किसलिए दिए गए हैं?" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी ईस्टर पूजा 3-4-1988 গত वड महाशिवरात्रि पूजा क क THES CopeE आज का प्रवचन आप सब लोगों के लिए काफी बड़ा था। मैं बहुत प्रसन्न हूं कि आप सब लोग शिव पूजा के लिए यहाँ आए और अब, जैसे प्रार्थना की गई है, हम यूरोप में, रोम में भी सत्रह तारीख को शिव पूजा करने वाले हैं पश्चिम में कभी शिव पूजा नहीं हुई, इसी कारण मैंने निर्णय किया है कि हम दो पूजाएं करेंगे। यद्यपि इतने शीघ्र एक और ल हक नई दिल्ली, 9 फरवरी 1991 क परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन से पते े आपको अच्छा स्नानागार चाहिए, अच्छा बिस्तर चाहिए और अन्य सभी सुविधा चाहिए, परन्तु यदि आप इसमें मज़ा चाहते हैं तो यह बहुत दिलचस्य है। एक बार में लखनऊ में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ रहने गई। उनके यहाँ केवल एक चारपाई थी। वो अमीर न थे। उनकी सारी जुमीदारी समाप्त हो गई थी। कहने लगे हमारे पास केवल एक चारपाई है आप चारपाई पर सोना चाहेंगी या जमीन पर? मैंने कहा, "ठीक है, मैं चारपाई, पर सोकर देखती हूँ। वह चारपाई नारियल की रस्सी की बनी हुई थी और रस्सियाँ इतनी ढीली थीं कि जमीन को छू रही थीं eir BEE गस शिव पूजा करना अत्यन्त कठिन कार्य है। न आां आज मैंने बताया है कि हमारे हृदय में जहाँ श्री शिव का निवास है, चार नाड़ियाँ हैं और किस प्रकार हमने अन्तर्वलोकन करना है तथा अपने चित्त को नियन्त्रित करना है। क्योंकि सहजयोग तथा इस पर सोना भी ऐसे ही था जैसे जमीन पर सोना। रात को मैंने बहुत से चूहों को अपने शरीर पर में पूर्ण स्वतन्त्रता है कि हम जैसा चाहें बने। जैसे पहले कहा जाता था, कोई बलिदान करने के लिए कुछ त्यागने के लिए, हिमालय पर जाने के लिए. कपड़े उतारकर ठण्ड में कॉपने के लिए तथा अन्य सभी प्रकार के उपद्रव करने के लिए नहीं कहा दौड़ते हुए पाया। मैं उन्हें देख रही थी लोगों को बहुत चिन्ता हुई, उन्होंने कहा, कि ये चूहे आप पर रेंग रहे हैं और चक्कर लगा रहे हैं। मैंने कहा हाँ, उसमें से एक तो अभी भी मेरे पैर के नीचे है! वे न कहने लगे कि फिर भी आपको घवराहट नहीं हो जाता। शरीर, शरीर के महत्व को कम करना है और इसके लिए आपको चित्त अन्दर स्थापित करके, हर रही? मैंने कहा, घबराने की कौन सी बात है, मैं तो बस उन्हें देख रही हूँ, मैंने एक साथ इतने अधिक चूहे कभी नहीं देखें। में तो इनका आनन्द ले रही थी। चीज़ में आनन्द प्राप्त करने का प्रवत्न करना होगा। अन्दर चित्त डालना बहुत आसान है क्योंकि आप फिर वे कहने लगे कि आप ऐसी चारपाई पर सो रहीं लोग ध्यान धारणा करते हैं। मान लो आप बैलगाड़ी थी, कहीं कल तुम्हारे शरीर पर दर्द न हो जाए मैंने कहा नहीं नहीं, मैं तो आनन्द ले रही थी, ये चारपाई अच्छे झुले की तरह से है, इसमें आप झूल से जा रहे हैं, कोई व्यक्ति यदि रोल्ज़रायस पर मह चलता है तो हर समय शिकायत करता रहेगा कि ये तो बहुत सकते हैं। ये क्या पागलपन है, मुझे क्यों बैलगाड़ी से जाना है, भयानक, ये, वो। परन्तु कोई बालक यदि बैलगाडी से चलेगा तो वह इसकी आनन्द उठाएगा। कहेगा कितनी अच्छी चीज है, ऊपर नीचे उछलती है, बहुत अच्छा बहुत अच्छी है, बहुत ही रुचिकर। अगले दिन मैं बिल्कुल तरोताज़ा थी, वे लोग हैरान थे कि मैं कैसे इतनी तरोताज़ा हूँ। भा गान तो शरीर की ये सब तकलीफें आदि, जिस प्रकार हम हर चीज़ को सुधारते रहते हैं, हर चीजू के विषय में गिले-शिकवे करते हैं, हर चीज की शिकायत ा] लगता है, किस प्रकार बैल दौड़ रहे हैं, सुन्दर! बाहर की हर चीज को आप अच्छी तरह से देख सकते हैं! क्योंकि वह बालक शिव की तरह से अवोध है। जैसे अंक : 7 & 8 चैतन्य लहरी 42 2007 करते हैं, ये सब मात्र मिथ्या हैं । यदि आप किसी गुरु के पास जाते तो सुझाया जाता कि आपको अत्यन्त कठोर जीवन बिताना होगा अब आपको इतनी तपस्विता बार सभी लोग ऐसा करेंगे और सम्भवतः यही फैशन का रूप धारण कर लें। आप यदि इस प्रकार से अपना चित्त डालें, इस प्रकार से कि यह शरीर तपस्या के लिए नहीं है, हवन के लिए है, इसका उपयोग हवन के लिए होना है, यज्ञ के लिए कर दें, इन सभी सुख-सुविधाओं को आतत्द के होना है, तब आप अपने शरीर को बखूबी कह सागर में विलय कर दें। अब जीवन के ये जो सकते हैं कि अब जाओ। अतः सर्वप्रथम बनावटी मापदण्ड आ गए हैं, जैसे हमारे बाल विखरे आपने इसकी भर्त्सना करनी है, इसकी सभी माँगों की भत्त्सना करनी है, केवल तभी यह परमात्मा के कार्यों में उपयोग करने की चीज बनता है। मैं कहूँगी कि भारतीयों की तुलना में पश्चिम के लोग इस मामले में कहीं बेहतर हैं, म अवश्य कहूंगी। भारतीय सबसे पहले अच्छे कमरे ले यह व्यक्ति ठीक नहीं है या 'ये कितना अजीब लेते हैं बो तो इसके लिए लड़ने से भी नहीं चूकते? अब शनै: शनै: उनमें कुछ सुधार हो रहा है परन्तु की आवश्यकता नहीं है। अब आपको करना क्या है? इन सभी चीजों को आनन्द के सागर में विलीन सुधर हुए होने चाहिए नहीं तो आप पिंछड़ गए हैं, फैशन के साथ चलना आपके लिए जरूरी है, मैं सोचती हूँ कि ऐसी और बहुत सी मूर्खतापूर्ण चीजें फैशन में हैं और लोग उन्हें इसलिए मानते हैं क्योंकि यही मानदण्ड हैं। आप यदि ऐसा नहीं करते तो लोग सोचते हैं कि व्यक्ति है।" इसका अर्थ ये नहीं है कि आप स्वयं को अजीबोगरीब, हिप्पी या ऐसा ही कुछ बोी अब भी कभी-कभी वो इस बात का शिकवा करते हैं, कभी उस बात का। में नहीं जानती कि किस और बना लें। कुम प्रकार से, परन्तु ये बात में अवश्य कहूंगी कि क्रा पश्चिम में या आस्ट्रेलिया में लोग इन चीज़ों की इन मानदण्डों की अधिक चिन्ता करने की कोई आवश्कता नहीं है। इंग्लैण्ड में मैंने एक दिन देखा कि एक सज्जन बड़े परेशान थे, एक भारतीय मैंने चिन्ता नहीं करते। मुझे याद है, हम एक बार गणपति पुले गए थे, बहुत समय पूर्व। वहाँ पर सोने के लिए सज्जन। पूछा, क्या हुआ, तुम इतने परेशान क्यों हो? कहने लगा, "मैंने गलती से मांस खाने के लिए कोई प्रबन्ध न थे क्योंकि एम.टी.डी.सी. ने कमरे मछली खाने वाला चाकू उपयोग कर लिया । " तो क्या? "सभी लोगों ने मुझे देखा।" मैंने कहा, ठीक है, तुमने वो चाकू किसी को घोंपा तो नहीं। कोई बात नहीं यदि तुमने मछली खाने वाले चाकू से मीट खा लिया। तो आप मछली वाला चाकू उपयोग कीजिए। ये, वो सारी मूर्खता। आपके मानसिक सन्तुलन की तुलना में ये चीजें अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं । तो ये लिप्साएं हैं। सर्वप्रथम तो हम कह सकते हैं कि इच्छा सारी छोटी-छोटी चीजें हमें परेशान कर सकती हैं। है, इसके विपरीत, मैं कहती, वास्तव में, मैंने खाया क्या? मैंने वास्तव में मछली खाई, बहुत अच्छा। मेंने कोई बन्धन तो तोड़ा। औपचारिक रात्रिभोज की कोई भी जाए तो भी हम सन्तुष्ट नहीं होते। तो हम अपनी प्रथा तो मैंने तोड़ी। तो यह बहुत अच्छा हुआ। अगली इच्छाओं का क्या करें? इन्हें शुद्ध इच्छा में विलीन थौ। खाली नहीं किये थे उन्होंने अगले दिन कमरे खाली से करने थे तो उनमें से (पश्चिमी सहजयोगी) बहुत उस रात समुद्र तट पर जाकर सो गए। कहने लगे, "हाँ श्रीमाताजी हमने बहुत आनन्द लिया। पूरा चाँद था। इमने वास्तव में इसका आनन्द लिया। " दूसरी बात ये है कि लोगों में अब भी ये प्राप्त करने की इच्छा, वो प्राप्त करने की इच्छा, सभी प्रकार की इच्छाएं। जैसे आपने देखा है इच्छा कभी पूर्ण नहीं होंगी और इच्छा यदि पूर्ण हो चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 43 यह आपकी चौथी नाड़ी की पोषण करता है, जो खिलती है, आपकी बाईं विशुद्धि के माध्यम से उठती है, आपके सहस्रार में प्रवेश करके कर दें, कुण्डलिनी की शुद्ध इच्छा में । तीसरी बात ये हैं कि हमारे सम्बन्धी भी हैं। ये बात मैंने पश्चिमी लोगों में देखी है विशेष रूप से जब उनके विवाह हो जाते हैं तो मैं नहीं जानती उन्हें कमल का रूप धारण करती है, कमलदल का। तब सहस्रार हृदय की सुगन्ध बिखेरने लगता है। क्या हो जाता है! अचानक वो सोचने लगते हैं कि अब हमारे विवाह हो गए हैं। तो अब वे रोमियो और जूलियट बन गए हैं, उनसे भी 108 गुणे अधिक रोमांचक! और भारतीय बिल्कुल दूसरी ओर हैं। मेरा अभिप्राय ये है कि उनके साथ भी ऐसा ही होता है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि ठीक है, ये एक घटना है, मेरा विवाह हो गया है परन्तु चित्त किसी व्यक्ति विशेष में लिप्त नहीं होना चाहिए। जैसा मैंने बहुत बार बताया है, जैसे पेड़ के रस को इस प्रकार से हुदय और मस्तिष्क का समन्वय घटित होता है। तो ये चित्त स्वयं श्री शिव की शक्ति है, इसी चित्त को 'चित्ती" कहते हैं। सर्वव्यापी शक्ति, चैतन्य के हर कोने में यह चित्त विद्यमान है। जब यह चैतन्य, ये कोने गतिशील होते हैं, तब वास्तव में चित्ती सम्मानित होती है। यह चित्ती जब शान्त होती है तो यह देखती है, मात्र देखती है- प्रतिक्रिया नहीं करती परन्तु ये चैतन्यकण चित्त को इसकी वस्तुस्थिति में देखते हैं और जानते हैं कि यह क्या है और उसी के अनुरूप ये कार्य करते हैं। वे, श्री शिव, मात्र एक दर्शक हैं जो देवी ( आदिशक्ति) के कार्य को देख रहे हैं केवल वही दर्शक हैं और यदि वे नाराज़ हो जाएं, यदि उन्हें लगे कि मनुष्य उनकी शक्तियों का सम्मान नहीं करते तो वे गतिशील होकर पूरे विश्व को नष्ट कर देते हैं। देवी की पूरी सृष्टि को नष्ट कर देते हैं। अत: यह ऊपर उठाकर पेड़ के सभी हिस्सों का पोषण करके वापिस आना होता है, यदि यह किसी भाग विशेष से लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ मर जाएगा और उसका वह भाग भी मर जाएगा। तो किसी सम्बन्ध में भी, जो भी आपको देना है, अपनी बहन को अपने भाई को, बच्चों को और अपनी पत्नी को, जो भी आपने देना है वो देना है, परन्तु आपने उनसे लिप्त नहीं होना। तो अपनी लिप्साओं का हम क्या करें? इन्हें करुणा (compassion) में विलीन कर दें। करुणा सागर की तरह है। करुणा का स्वभाव ऐसा है जो कार्यान्वित करें, देवी के कार्य को, ताकि श्री शिव सभी खड्डे भरता है और सभी दोषों को दूर करता आवश्यक है कि आप भी उनका साथ दें, इसे प्रसन्न हों और हम आध्यात्मिकता और सौन्दर्य के एक नए विश्व का सृजन कर सकें। है। बस इसके अन्दर प्रवाहित होता है। परमात्मा आपको धन्य करे। चौथी नाड़ी आपकी उत्क्रान्ति के लिए है। रूपान्तरित जब आपका चित्त अत्यन्त पवित्र हो जाता है तो ५ बा परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र (मराठी से रूपान्तरित) संस्कृति दोनों बाजार में बेच रहे हैं। नीति नाम की चीज़ कोई मानता ही नहीं। चोरी-डाकाखोरी का नाम, अमीरी और वेश्या व्यवसाय शुरु है। इस समय हमारे घुड़सवार (सहजयोगीजन ) आपस में गले काट रहे हैं, कुछ लोग लूटमार करके पैसे इकट्ठा कर रहे हैं। ऐसा जो सामने आएगा तो सहजयोग की दवाई कोन पिएगा? उसका परहेंज करना ही पड़ेगा। आपने क्या कमाया वह देखना जरूरी है। कौन कौन से नवरात्रि के दिन सभी सहजयोगियों को अनेकानेक आशीर्वाद। नवरात्रि की शुरुआत का मतलेब एक महायुद्ध की शुरुआत है। नवरात्रि का एक एक दिन एक महापर्व की गाथा है। ये युद्ध अनेक युगों में हुआ है- केवल मानव के संरक्षणार्थ। परन्तु उस मानव का संरक्षण क्यों करना है? सारी सृष्टि ने उन्हें वरदान क्यों देना है? इसे सोचना चाहिए। मनुष्य को सर्वोच्च पद पर राज्य करने के लिए बिठाया परन्तु कलियुग में मनुष्य ने अत्यन्त क्षुद्र गति स्वीकार की है। अपने 'स्व' का साम्राज्य क्षुद्रता में कैसे होगा? कलंक (दाग) छुटे और आप कैसे पवित्र हुए (निर्मल हुए) ये देखना चाहिए। दूसरों के अच्छे गुण देखिए और अपने दुर्गुण (बुराई) देखिए। फिर अपने आप आपका चित्त काम करेगा। ढाल का काम तलवार से आप सहजयोगीगण विशेष जीव हैं। इस सारे संसार में कितने लोगों को चैतन्य लहरी मत लीजिए। तलवार का काम ढाल से लेकर कैसे लड़ाई जीतोगे मर्यादा है वही तोड के- अमर्यादा विसार कर- चेतना में एकरूप होना है- विशाल होना है। ? अपने आप से लड़ना है। जो आपकी का आभास है और कितने लोगों को इस के विषय में ज्ञान है? लोग जानते नहीं हैं तो वह दोष अज्ञानता प्रेम की खाली बातें नहीं चाहिए। मन से का है। परन्तु जब आप अपने आप की महत्ता जानते हैं तो दोष किसका है? आँखें खोलकर जो गढ्ढे में गिर जाता है उसे लोग मूर्ख कहते हैं और आँख ऊपर करके जो चढ़ता है उसे विजयी कहते हैं। आप क्यों गिरते हैं? आपकी आँखें कहाँ रहती हैं? वह देखिए तब समझोंगे, आपका चित्त मार्ग पर है कि दूसरों की तरफ यह देखना जरूरी है। घोडे के आाँख पर दोनों तरफ चमड़े की गद्दी डालते हैं ताकि लक्ष्य इधर उधर हो प्यार करना बहुत आसान है। क्योंंकि जब वैराग्य आता है तब किसी को देना बहुत आसान लगता है (सहज लगता है)। परन्तु वेराग्य मतलब देने की उत्कठा जागृत होनी चाहिए। पास से गंगा बह रही है। लेकिन वह बह रही है ये मालूम होना चाहिए। उसका कारण आप खुद ही हैं, यह जान लीजिए। दूसरा कोई कैसे भी होगा तब भी आपकी लहरें रुकती नहीं हैं। परन्तु जब आप की मशीन ठीक होगी तो औरों की भी ठीक हो जाएगी और उनकी लहरें भी बढ़ जाएंगी। जो आपसे आगे हैं उनके संपर्क में न पाए। परन्तु आप सहजयोग के सवार हो, घोड़े नहीं। सवार की आँख पर गद्दी नहीं डालते। घुड़सवार स्वतन्त्र है, आजाद है। वह जानकार है। वह घोड़े को रहिए। आपका ध्यान उस पर होना चाहिए। भी जानता है और मार्ग को भी जानता है। कलियुग सहजयोग कितना अद्भुत है, ये जानना चाहिए और उसके मुताबिक अपने आप की विशेषता में महान घमासान युद्ध चालू है। यह आपातकाल का समय है। पीछे हटकर नहीं चलेगा। शैतानों का साम्राज्य हर एक के हृदय में प्रस्थापित है। अच्छे बुरे समझनी चाहिए। आप आगे जाते जाते बीच में की पहचान नहीं रही। राक्षस लोग परमेश्वर और क्यों रुकते हो? पीछे मल मुडिए क्योंकि फिसलोगे चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 -2007 45 बा नार संरा के लक्षण हैं क्या? आज ही प्रतिज्ञा कीजिये। अपने चछड और चढ़ाई मुश्किल हो जाएगी। स्वयं के दोष, गलतियाँ देखनी हैं। अपने हृदय से सब प्रेम की महत्ता हम क्या गाएं? उसके सुर कुछ अर्पण करना है, प्रेम करना है सबसे। जो मन दूसरों की गलतियाँ दिखाता है वह घोड़ा उल्टे रास्ते आप सुनिए और मस्त हो जाइए। इसलिए यह सारी मेहनत, इतने प्रयत्न, संसार की रचना और अवतार, आखिर जिनको ये मधुर संगीत सुनाने बिठाया वो तो औरंगजेब निकले (जिनको इसकी कोई चाह नहीं उल्टे नफरत ही है)। ये दुर्भाग्य है कि आपकी समझ में नहीं आता। से जा रहा है, उसे सीधे-सरल रास्ते पर लाकर आगे हिए ह ह हमने तो आप लोगों पर अपना जीवन अर्पण किया है और सारा पुण्य आप ही के उद्धार हेतु अच्छाई लिए) लगाया है। आपको भी तो थोड़ा-थोड़ा का रास्ता चलना है। र परन्तु फिर भी हमें संतोष है क्योंकि आप लोगों में कई बड़े शौकीन लोग हैं। उन्होंने अनेक पुण्य जोड़ना चाहिए कि नहीं? सारे संसार के आप प्रकाश दीप हो, आपस जन्मों में जो कमाया है उसे जानकार, समझकर सहजयोग को पक्के पकड़कर उसका स्वाद ले रहे में भाई-बहन हो। एकाकार बनिए, तन्मय हो जाइए, हैं। आनन्द सागर में तैर रहे हैं। उन्हें विरह नहीं है, जागृत हो जाइए। दु:ख नहीं है। उनका जीवन एक सुन्दर काव्य बन कि सभी को आशीर्वाद, गया है। ऐसे भी कई फूल हैं। कभी कभी उन्हें भी साड क र आपकी माँ निर्मला आप दु:ख देते हो, कुचलते हो। अरे, ये कोई योगियों जजाड हर कि कतेकेर श कल सम ए माहि्ह भार्र केना म । स होवन आप वही मांगिये जिसे मांगना चाहिए, और वह है परम्| वह परम्तत्व आपके ही अन्दर है जिसे 1835 सुपान लि आपको पाना है" -श्री माताजी क लक्ष्मी तत्त्व की जागृति के पश्चात् ही लक्ष्मी जी का आगमन होता है। धन आना और चीज़ है और ऐपाल पिहि ि लक्ष्मी तत्त्व का जागृत होना और चीज है ।" -श्रीमाताजी म निक ह ा हे क ा जार न्सप् दिम् ा साता जजा स ह ताम नशा वि प निर्मला योग-1984 য त मनः हार कि लाे से G ি, सई ल के मः ा रो 4५ तो विवेक के साथ-साथ आपमें सहजबुद्धि, व्यवहारिकता भी होनी आवश्यक है । मैंने देखा है कि कुछ लोग अचानक किसी से भी सहजयोग की बातें करने लगते हैं। ऐसा करना व्यवहारिक नहीं है। सहजयोग 'बहुमूल्य रत्न' है, उसे आप सबको नहीं दे सकते। मैंने देखा है कि हवाई अड्डे पर भी लोग सबकी कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं । नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए, साधकों को आना होगा और सहजयोग माँगना होगा। उन्हें इसकी याचना करनी होगी। केवल तभी उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिल याएगा। हमें बड़ी संख्या की नहीं उत्कृष्टता की आवश्यकता है। मेरे सारें प्रवचनों में, आपने देखा है कि मैं सहजयोगियों और साधकों की उत्कृष्टता पर बल देती हूँ। लेकिन जब हम श्रीमाताजी को वोट देने के लिए बहुसंख्या की बात सोचने लगते हैं तो इसके विषय में मुझे ये कहना है कि मैं कोई चुनाव नहीं लड़ने वाली हूँ। आप चाहे मुझे चुने या न चुने, मैं चुनी हुई हूँ। आपको ये कार्य नहीं करना। इसके लिए मुझे बहुत ज्यादा लोग नहीं चाहिए। परन्तु जब आप विवेक के मामले में असफल हो जाते हैं तो .... कुछ समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी (हँसा चक्र पजा. जर्मनी-10.7.1988) ि ---------------------- 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी जुलाई-अगस्त : 2007 १ 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-1.txt चै तन्य ल ह री प्रकाशक निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी पॉड रोड कोथरुड पुणे - 411 029 फोनः 020-25285232 मुद्रक कृष्णा प्रिन्टर्ज एण्ड डिजाइन्ज 292/23 ऑंकार नगर "बी' त्रीनगर दिल्ली- 110035 मोबाइल 9212238008 आप अपने सुझाव, सदस्यता एवं जानकारी के लिए निम्न पते पर लिखें : निर्मल ट्रॉसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लाट नं. 8, चन्द्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी पॉड रोड, कोथरुड पुणे - 411 029 फोन: 020-25285232 अपने अनुभव, सहज सम्बन्धी लेख आदि निम्नलिखित पते पर भेजें : श्री ओ.पी. चान्दना जी-11-(463), ऋषि नगर, रानी बाग दिल्ली-110034 फोन : 011-65356811 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-2.txt चै त नय ल हरी अंक : 7 - 8, 2007 नछा ल जा की नंडा NIRMALA व बिद नत ज् ड अधिक का स मा स sAL, g E চ । ्री हे का न RELAG किन ज्ञी कर प कीर बन्ह 9384 न्दग इस अंक में े के क ह दाम] प सिगा म ईस्टर पूजा -8 अप्रैल -1982, पुणे प्रतिष्ठान, भारत म िच रक न धया की निर्मल बि गीतिका ा भगवान ईसामसीह का सृजन -11.4.1982 न पईड क र्रा कि परम पूज्य भाता जी श्री निर्मला देवी का परामर्श न 12 हे पा 13 परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र ा ब क कही चा डि 14 परम पूज्य श्री मातारजी का एक पत्र जओ क ेत क्र्रास श्री ईसामसीह के जन्म का वर्णन द्रा असफलताएं सफलता की सीढियाँ 16 पान जिहि त वि कस कहा न व 18 हैं 19 परम पूज्य श्री माताजी का परामर्श ISPA य * 22 श्रीकृष्ण पूजा पर्व - 2. 6. 1985 े ईस्टर पूजा 29 -3.4. 1988 कि ब कपत हल 38 मराठी कविता परम पूज्य श्री माताजी का प्रवचन 39 -21. 5. 1988 1 महाशिवरात्रि पूजा, नई दिल्ली -9. 2. 1991 कब परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र प 41 44 हम DHARMA VAHSIA UNIT 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-3.txt ईस्टर पूजा 8-अप्रैल- 2007, पुणे, प्रतिष्ठान, भारत परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन (वीडियो रिकोर्डिंग के अनुरूप) ये शक्ति अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने के "आज अत्यन्त महत्वपूर्ण दिन है। ये आप सबके लिए एक नई शुरुआत है। समझने का प्रयत्न करें कि आपने अब तक कठोर परिश्रम लिए मिली है। आपको ये मिल गई है, परन्तु अब आपने इसका उपयोग करना है। जिन्हें आत्मसाक्षात्कार किया तथा जो भी कुछ आप कर पाए, आपकी मिल गया है. उन्हें चाहिए कि अपनी शक्ति को इच्छा उससे कहीं अधिक कार्य करने की थी। ये आपकी इच्छा थी और ये कार्यान्वित होगी, निश्चित रूप से ये कार्यान्वित होगी आपकी इच्छा यदि तीव्र है तो चीजें कार्यान्वित होंगी और आपको उसी प्रकार अन्य लोगों की सहायता करने का बर्बाद न करें इसे देने का प्रयत्न करें। इस विश्व में अव्यवस्था और लड़ाई झगड़े अभी तक चल रहे हैं, अतः आपका कर्तव्य और आपका कार्य ये है कि लोगों से बात करें और उन्हें बताएँ । पहली महत्वपूर्ण चीज़ ये है कि सहजयोगियों को हर हाल में शान्त होना चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि सभी कुछ कार्यान्वित होगा आप है महान अवसर प्राप्त होगा जिस प्रकार आपको अपनी सहायता करने का अवसर प्राप्त हुआ था, तथा जिसके विषय में आप बहुत प्रसन्न थे। इतने सारे लोगों के साथ भी ये कार्यान्वचित हुआ बहुत अच्छी बात है कि आपने अन्य लोगों की सहायता करने का निर्णय किया है। ये महत्वपूर्ण और ये अन्य लोगों के साथ भी होगा। बात है सभी को आशीर्वादित होना चाहिए आप ये कार्य कर सकते हैं। आपका नेतृत्व इसी बात में निहित है कि आपने अन्य लोगों को देना है। आपमें से अधिकतर लोगों ने इसे अपने लिए ही पाया है, परन्तु इसे आपने अन्य लोगों को भी देना मुझसे और सर्वशक्तिमान परमात्मा से बहुत अच्छी है। अन्य लोगों को भी आध्यात्मिक लाभ उठाने दें मैं जानती हूँ कि आपमें से बहुत से लोगों को आत्मसाक्षात्कार मिल गया है और इसमें काफी गहरे उतर गए हैं, और आप बहुत प्रसन्न है। अंतः प्रसन्न एवं प्रफुल्लित बने रहें। आत्मसाक्षात्कारी होने की ये प्रथम निशानी है कि आपको आत्मसाक्षात्कार मिल गया है। इस आत्मसाक्षात्कार से आप अन्य लोगों को भी आत्मसाक्षात्कार दे सकते हैं। क यह केवल प्रवचन नहीं है, परन्तु कुछ घटित हो रहा है। अतः याद रखने का प्रयत्न करे कि आप सब सहजयोगी हैं और आपमें उम्दा किस्म की सहायता प्राप्त करने की योग्यता है, किस्म की सहायता। परेशान होने की कोई बात नहीं है। ये सब भिन्न प्रकार की परीक्षाएं हैं जो आपके अन्दर की अच्छाई को कार्यान्वित करेंगी तथा लोगों को परिणाम प्राप्त होंगे कि सहजयोगी विशेष प्रकार के लोग हैं। आप पाएंगे आप, इतने सारे लोगों को देखना अत्यन्त सुखद है जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने का प्रयत्न किया, और जो बास्तव में आत्मसाक्षात्कार आज के दिन का महत्व ये है कि हमारे लिए कुछ कार्य करने के लिए ईसामसीह पुनर्जीवित हो उठे| अतः ये दिन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मैं कहूँगी कि आज आपको समझना है कि आपको पा चुके है। बहुत से ऐसे लोग है जो आत्मसाक्षात्कार पाना चाहते हैं, परन्तु पहले से बहुत से ऐसे लोग हैं जो आत्मसाक्षात्कारी हैं और जो अन्य लोगों की सहायता के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-4.txt चैतन्य लहरी 7 & 8 - 2007 अक अपने तक सीमित रखने के लिए नहीं है। आपने यदि पा लिया है तो बिल्कुल न सोचें कि ये अवसर आप ही के लिए था। अन्य लोगों को भी अवसर दें, अन्य लोगों को भी अवसर दें। अपने भविष्य के विषय में निर्णय करने के लिए आज का दिन बहुत अच्छा है। आपने निर्णय करना है कि अधिक सहजयोगी प्राप्त करने के लिए आप अन्य सहजयोगियों की मदद करेंगे और आपने सहजयोग फैलाना है। बहुत सी समस्याएं हैं, परन्तु सहजयोगियों की संख्या बढ़ने से कोई मैं पूर्णरूपेण आपके साथ हूँ, और यदि आपको कोई व्यक्तिगत या अन्य समस्या है तो समस्या न बचेगी, सभी का समाधान हो जाएगा। आपको चाहिए कि मुझे लिखें। अतः मैं आपको मंगलकामनाएँ देती हूँ। अपने आत्मसाक्षात्कार को ठीक प्रकार से सुदृढ़ करने का प्रयत्न करें। मुझे आशा है कि इसके विषय में आपको कोई सन्देह नहीं है। कोई सन्देह यदि आपको हो तो मुझे इसके विषय में लिखें मुझे खेद है कि इस विशेष दिन पर मैं आपको कुछ दे न पाऊँगी। परमात्मा आपको धन्य करें। अधिकृत वीडियो यहाँ समाप्त होता है परन्तु प्रवचन समाप्त होने के पश्चात् और उपहार भेंट करने से पूर्व श्रीमाताजी ने निम्नलिखित शब्द भी कहे:- अब हमारे पास बहुत से भले और अच्छे लोग हैं जो सहजयोग में आए हैं, अतः अब ये देखना आपका कर्तव्य है कि ये लोग अच्छे सहजयोगी बने और आशीर्वादों का आनन्द लें। "एक बार आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो जाने के पश्चात् आपने इसका सम्मान करना है और अन्य लोगों को देना है. इसका सम्मान करना अत्यन्त आवश्यक है। मुझे विश्वास हैं कि ये कार्यान्वित होगा और आप सब मुझे बहुत अच्छे नज़र आओगे मुझे ये भी विश्वास है कि आप सब लोग इस कार्य को करेंगे। मैं अपने आरम्भ किए हुए किसी भी कार्य को पूरा नहीं कर पाई हूँ और अन्य लोगों को प्रेरित करने के लिए मुझे कठोर आप इतने सारे लोगों को आते हुए देख बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे लिए भी आज का दिन बहुत अच्छा है। ईसामसीह के जीवन में ये महान - घटना घटित हुई, कि वे बन पाए, वही बन पाए जो वो पहले से थे- एक सहजयोगी, और यदि सम्भव होता तो वे बहुत से सहजयोगी बनाने का प्रयत्न करते। परन्तु उस समय वो उतने सावधान न थे जितने आप लोग हैं। आप विशेष लोग हैं जो परिश्रम करना है ताकि वे अपने मूल्य को समझ जिज्ञासु हैं और जिन्होंने पा लिया है तथा आप अन्य लोगों को भी दे सकते हैं। यह (आत्मसाक्षात्कार ) मैं सकें।" 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-5.txt द्िं निर्मल- गीतिका ड निर्मल-गीतिका त है ्क लि एक बीर, बस एक बार, तू सहजी बन कर देख, पगले सहजी बन कर देख, खोला है अमृत-द्वार, हमारी निर्मल मैया ने, बें्त्र खोला है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने, ई कि f6 विक ककर मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में कितने जनम गँवाये, मैया ने सहज बताया शीम 3 तुम देह नहीं, समझाया, अब अपने को पहचानो, भृरिः वन् व हिर गिरजा-घर भी गया, वहाँ भी लाखों दिए जलाये, से नि. तुम आत्मतत्व अविकार धक दोला है सौ सौ बार, हमारी निर्मल मैया ने, सउई बनदि |ा वन, वन भटका हिरना बन तू, कुछ भी हाथ न आया, श्न प्रानी िश्सा सख खोला है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने, एक बार माँ के मंडप का, मनमौजी बन कर देख, टराहिक याय वेद कुरान बाइबिल ली, गीता सौ-सौ बार सुनी, मैया के खेल अनोखे, जाने वह जिसने देखे मिल जाती है पल भर में, ि पृ र 3ै। घ] म । नेने रोम, रोम रम रहा राम जो तककली शीतल लहरों की धार, भ उसमें कब तेरी बुद्धि रमी? शिल ति म राजकुँवर बन कर जन्मा तू, फिर भी रहा भिखारी बोला है कितनी बार, हमारी निर्मल मैया ने, का हि खोला है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने ন एक बार माँ के रंग का, रंगरेजी बन कर देख, र पि काी पोप, पादरी, पंडित, काज़ी, ন से ह ি। मेया का ज्ञान निराला टाली ए उ निम म S सब अपने गुरुबन जाते 5 प्र सारे जग का रखवाला স तरह-तरह के खेल-तमाशे,ध पाछी सबने तुझे सताया, ला दिम तक पा जाते सुख का सार, चित तेरा भरमाया, भि क नी ः ्र तिम्य बोला है बारम्बार, हमारी निर्मल मैया ने, सब कुछ है तेरे ही अंदर, अपने को पहचान, खोला ा है सहस्रार, हमारी निर्मल मैया ने । एक बार निर्मल नगरी का सहभोजी बन कर देख। डॉ. सरोजिनी अग्रवाल (मुरादाबाद) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-6.txt ॐ त् स] भगवान ईसामसीह का सृजन शु ज SPE (Bonslaik मार परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन - 11-4-82 ाा पा ाम प्रा র ही PESTE पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। वे कोई अन्य न होकर महालक्ष्मी का अवतार थीं-- अर्थात वे राधा थीं। रा-धा, रा अर्थात शक्ति, धा अर्थात शक्ति को धारण करने वाली। अपने पिछले प्रवचनों में मैंने आपको बताया होगरसी ন था कि ईसामसीह का सृजन किस प्रकार पहले स्वर्ग में किया गया। यदि आप देवी भागवत पढ़े तो उनका श े. सृजन महाविष्णु के रूप में किया गया और यह स्पष्ट वर्णित है कि पहले उनका सृजन अण्ड (Egg) पार नाकी कर "ईस्टर' के बहुत से पक्ष हैं जिन्हें व्यक्ति के रूप में किया गया यह इस पुस्तक में लिखा है जो सम्भवतः चौंदहः हजार वर्ष पूर्व लिखी गई थी। ये है और इसी कारण से पश्चिम के लोग ईस्टर के दिन अपने मित्रों को अण्डे भेंट करते हैं । तो अण्डे के को समझना चाहिए। परन्तु सर्वोपरि ये है कि 'उन्हें मृत्यु की क्या आवश्यकता थी और क्यों वे पुनर्जीवित हुआ पुस्तक ईसामसीह की भविष्यवाणी करती हुए?' इस बात पर अभी तक शायद मैंने स्पष्ट रूप यही बात आज में आपको बताना चाहती हूँ क्योंकि केवल आप लोग ही ईसामसीह के जीवन के महत्व को समझ सकते हैं। जब यें कहा जाता है कि ईसामसीह के माध्यम से आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना होगा, अर्थात उन्हें आपके आज्ञा चक्र का भेदन करना पड़ा। उन्हें वहाँ मौजूद होना पड़ा। इस द्वार में (आज्ञा)। यदि उन्होंने ये मार्ग से कुछ भी नहीं कहा है- रूप में जो अस्तित्व पुथ्वी पर आया वह ईसामसीह थे, जिनका कुछ हिस्सा इसी अवस्था में रखा गया और बाकी का श्री महालक्ष्मी श्री आदिशक्ति ने ईसामसीह का सृजन करने के लिए उपयोग किया उस प्राचीन पुस्तक में उन्हें महाविष्णु कहा गया अर्थात विष्णु का महान रूप। परन्तु वास्तव में विष्णु पिता हैं और वे (ईसामसीह) पुत्र हैं जिनका न-बनाया होता तो कभी हमें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त ने हुआ होता। इसीलिए कहा जाता है कि केवल ईसामसीह की कृपा से ही आप स्वर्गद्वार से गुजर सकते हैं। नि:सन्देह, इसका अर्थ चर्च नहीं है, इसका अर्थ चर्च बिल्कुल नहीं है। सहजयोगी के रूप में सृजन आदिशक्ति ने किया। मेरे प्रवचन के बाद यदि हि ये पुस्तके उपलब्ध है तो, मैं चाहूंगी कि आप इनके सम्मुख पढें, पूर्ण वर्णन, कि किस प्रकार ईसामसीह का सृजन किया गया और कब उनका सृजन हुआ। अपने पिता के लिए वे रोए और क्रूस पर चढ़कर भी आपको समझना होगा कि आपको आज्ञा चक्र पार करना है और यह बहुत ही संकीर्णतम स्थान है जहाँ से व्यक्ति को गुज़रना होता है, क्योंकि आज्ञा चक्र पर आपके अहं और प्रतिअहं पूर्णत: विकसित अवस्था वो एक बार रोए, वर्षों तक वे रोए और तब वहाँ महाविष्णु अवस्था में उनके पिता ( परमात्मा) ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारी अवस्था मेरी अवस्था से में होते हैं। केवल मानव अवस्था में ये अहं बढ़ता है। जाम अब समस्या ये थी कि इस अहं पर किस प्रकार २ काबू पाया जाए, और इसका समाधान करने के लिए ईसामसीह को यह सब करना पड़ा। आरम्भ में जब भी उच्च होंगी तथा तुम आधार बनोगे- अर्थात 'ब्रह्माण्ड के आधार'। अब देखें कि किस प्रकार वे मूलाधार से आधार बनते हैं। ] काम श्री गणेश के रूप में उनका सृजन किया गया- उनके सृजन की कहानी आप जानते हैं। श्री पार्वती के शरीर यह सब कार्य दिव्य स्तर पर किया गया- का मल एकत्र किया गया- विवाह से पूर्व जब उनके शरीर पर सुगन्धित उबटन लगाया गया तो उस उबटन वैकुण्ठ के स्तर पर। आप कह सकते हैं कि आदिशक्ति ने उन्हें जन्म दिया जो ईसामसीह की माँ के रूप में दर 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-7.txt चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 2007 ा संवेदना (Bodily Existance) से ऊपर उठाने के के उतार को एकत्र किया गया जिसमें से उनका चैतन्य प्रवाहित हो रहा था। इसी उबटन के उतार को लिए उन्होंने यह द्वार पार किया अर्थात उन लोगों लेकर अपने पावित्र्य की रक्षा करने के लिए उन्होंने को जो पंचमहाभूतों पर निर्भर करते हैं, उन्हें आत्मा इस शिशु का सृजन किया। शिशु को उन्होंने अपने स्नानागार के बाहर प्रहरी के रूप में खड़ा कर दिया- सारी कहानी आप जानते हैं। अब इस शिशु में केवल हैं, अपने चित्त से, आत्मा के चित्त पर छलांग पृथ्वी तत्व का अंश विद्यमान था। बाकी सभी चक्रों लगा लेते हैं, जहाँ आप अपने चित्त को महसूस में भी कोई न कोई तत्व विद्यमान होता है- जैसे पृथ्वी तत्व, जल तत्व, वायु तत्व और जब आप यहा आपके साथ भी घटित हुई है। परन्तु जब उनका (आज्ञा) पर पहुँचते हैं तो यह प्रकाश तत्व है। यह पुनर्जन्म हुआ तो वे शुद्ध आत्मा, शुद्ध ब्रह्मतत्व बन प्रकाश है। और आज्ञा-चक्र पर उन्हें जिस अन्तिम से के स्तर पर लाने के लिए। अतः पुनर्जन्म वह है जहाँ आप बन जाते कर पाते हैं और आत्मा बन जाते हैं। यही घटना गए। पुनर्जन्म, मूलाधार चक्र से पृथ्वी तत्व के रूप में आरम्भ हुई उस दिव्य शक्ति की उत्क्रान्ति की घटना है जिसने वहाँ ( मूलाधार चक्र) जन्म लिया और आज्ञा चक्र पर आई। वहाँ पर सभी तत्वों को पार करके अन्ततः सहस्रार में प्रवेश करके पूर्ण ब्रह्मतत्व बनने के लिए ईसामसीह का सृजन किया गया। यह बहुत कठिन कार्य था, अत्यन्त प्रयोगात्मक तथा ये प्रयोग भी बहुत ही भयानक था प्रयोग असफल भी तत्व में गुजरना पड़ा, वह था प्रकाश तत्व- अर्थात उन्हें दिव्य शक्ति के सच्चे रूप में आना पड़ा- 'ओंकार' रूप में, आप ये भी कह सकते हैं कि चैतन्य लहरियों के रूप में या पूर्ण रूप में जिसे आप नाद ( Logos) या शब्दब्रह्म आदि कुछ अंत: उन्हें ब्रह्मतत्व बनना पड़ा ब्रह्मतत्व बनने के लिए उन्हें सभी अन्य महातत्वों (महाभूतों ) से अलग होना पड़ा। कहते हैं। और हो सकता था क्योंकि उनके अन्दर भी मानवीय तत्व थे, शरीरतत्व, जिन्हें कष्ट होता है। और उन्होंनें कष्ट उठाए क्योंकि शरीर-तत्वों को कष्ट होता है, आत्मा को नहीं। आत्मा कष्टों से ऊपर है, शरीर को कष्ट झेलना पड़ता है। अत: शरीरतत्व के कारण उन्हें कष्ट झेलना पड़ा, इस पर नियंत्रण करने के लिए, इससे मुक्त होने के लिए और इसे नियन्त्रित करने के लिए उन्हें अथाह साहस करना पड़ा। यह अत्यन्त कठिन कार्य था जिसे उनके ( ईसामसीह) अतिरिक्त कोई न कर पाता। वो जानते थे कि यह पूर्वविधान है, परन्तु इस घटना का घटित होना कठिनतम कार्य था। अन्तिम तत्व प्रकाशतत्व था और उन्हें इसको भी पार करना पड़ा। तो उनके अन्दर पृथ्वी तत्व था क्योंकि उबटन के मल से उनका सृजन हुआ था तथा और भी तत्व उनमें थे। परन्तु जब वे आज्ञा चक्र पर आते हैं तो बाकी सभी तत्व उन्हें छोड़ने पड़ते हैं और अपने अन्दर मौजूद इन सभी तत्वों को निकालने के लिए उन्हें मरना पड़ता है- पूर्ण, सम्पूर्णत:, पावन आत्मा बनने के लिए। जो कार्य उन्होंने सूक्ष्म रूप में किया वह स्थूल रूप में कार्यान्वित होता है। इसी कार्य को करने के लिए उन्हें मरना पड़ा। उनके अन्दर जिस चीजू की मृत्यु हुई वह थी उनके अन्दर का पृथ्वी तत्व तथा अन्य तत्व और उनसे 'पावन आत्मा' (Pure Spirit) का उद्भव हुआ। अण्डे का महत्व मैं हैरान होती हूँ कि बहुत से ईसाईयों को अण्डे का महत्व ही नहीं पता। अण्डा उस अवस्था उसका पुनर्जन्म हुआ, पावन आत्मा का, शुद्ध ब्रह्मतत्व का जिसने ईसामसीह के शरीर की रचना की थी और यह घटना घटित हुई। ईसामसीह पूर्व होते हैं। अण्डे के खोल में जब आप बंद ने वही कार्य किया जिसकी भविष्यवाणी उनके होते हैं- कि आप श्रीमान x, आप श्रीमति y हैं। विषय में की गई थी। उन्हें रक्षक ( Saviour) इसलिए कहा जाता है क्योंकि मानव को शारीरिक तैयार हो जाता है और यह समय आपको सेने का प्रतीक है जिसमें आप आत्मसाक्षात्कार से परन्तु अन्दर से पूर्णतः परिपक्व होने पर पक्षी 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-8.txt चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 2007 8. इसे पकड़ नहीं सकते। आपके मस्तिष्क में जो भी कुछ है वो सत्य नहीं है, सत्य इससे परे है। (Hatch) का है। यही वह समय है जब आप द्विज बनते हैं। तो ईसामसीह का पुनर्जन्म इसी बात को दर्शाता है और इसी कारण से हम लोगों को अण्डे उपहार के रूप में देते हैं उन्हें इस बात का पुनः स्मरण करवाने के लिए कि आप यही अण्डे हैं, यही। ये भी लिखा हुआ है कि परन्तु ईसामसीह के समय रोमन लोगों के सत्ता में आने के कारण मानव के लिए मस्तिष्क से परे की किसी बात को स्वीकार करना कठिन कार्य बन गया था वे इतने अहंवादी थे, अहंकार से इतने लिप्त थे कि मार्ग बनाने के लिए, उनके अहं को नष्ट करने के लिए, किसी को यह कार्य (क्रूसारोपण) सर्वप्रथम जब वे आए तो एक आण्डा था, उनका सृजन अण्डे के रूप में किया गया- उसमें से आधा अण्डा श्रीगणेश के रूप में बना रहा और करना पड़ा। आधा महाविष्णु बन गया। वे पृथ्वी पर अवतरित हुए और फिर अपने सभी तत्वों के साथ चले गए और कि जिन लोगों ने उन्हें क्रसारोपित किया वे सभी तत्पश्चात् पावन चैतन्य लहरियों ने उनके शरीर का मूर्ख थे, अहंवादी थे, अन्धे थे और वे वह सब न सृजन किया। जागृत होने के लिए वे आप सबके देख पाए जो ईसामसीह देख सके। ये लोग न देख अन्दर बने रहे और जब कुण्डलिनी आपके चित्त को उस बिन्दु (आज्ञा) से ऊपर को ले जाती है तो आप भी आत्मा बन जाते हैं इसीलिए उन्होंने कहा, "मैं ये है कि यह मूर्खता की पराकाष्ठा थी पर उन्होंने ही द्वार हूँ, मैं ही मार्ग हूँ"- क्योंकि आप ईसामसीह ईसामसीह को सूली पर चढ़ा दिया। सबको यही बन सकते हैं। इसीलिए उन्होंने कभी नहीं कहा कि "मैं ही लक्ष्य हूँ" कि आपको उन्हें (उस स्थिति सूली पर ही चढ़ा सकते थे। इसके अतिरिक्त वो क्या को) प्राप्त करना होगा। उन्होंने आपके लिए यह स्थान ( मार्ग) बना दिया है। आप आध्यात्मिक रूप से जागृत हो सकते हैं और स्वयं आत्मा बन सकते हैं। इस मृत्यु से बहुत सी चीजें प्रमाणित हुई- पाए कि ईसामसीह कितने विशुद्ध व्यक्तित् थे। इन लोगों ने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया। कहने का अभिप्राय आशा थी क्योंकि ये लोग इतने मूर्ख थे कि ये उन्हें कर सकते थे? क्योंकि अपने तुच्छ हंकार के कारण वे किसी ऐसे व्यक्ति को सहन न कर पाए जो इतना सहज हो, इतना निष्कपट हो और इतना सच्चा हो! अत: उन्होंने ईसामसीह को सुली पर चढ़ा दिया और उनके क्रूसारोपण ने हमारे लिए नए द्वार खोल दिए। परन्तु हमारे लिए सन्देश 'पुनर्जन्म' है। हमारे लिए सन्देश पुनर्जन्म है क्रूसारोपण नहीं। क्रूसारोपण सन्देश नहीं है क्योंकि यह कार्य तो ईसामसीह हमारे पा परन्तु ईसामसीह एक अवतरण हैं। वे परमात्मा के पुत्र थे, अत: वे अवतरण हैं। आपको अपने पंचतत्वों से मुक्त होकर आत्मा बनाने के लिए वे इस पृथ्वी पर अवतरित हुए। परन्तु यह कार्य इतना कठिन क्यों था क्योंकि मानव ने अपनी खोपड़ी में सभी लिए कर गए हैं। ये एक ऐसा तथ्य है जो यहूदियों प्रकार की बनावटी बाधाएं उत्पन्न कर ली हैं। आप देखें कि जो भी कुछ हम सोचते हैं या अपने मस्तिष्क से जो भी कुछ हम करते हैं वह सब निर्जीव है मानवरचित, बनावटी, क्योंकि वास्तविकता तो आपके मस्तिष्क से परे है, यह आपके मस्तिष्क में नहीं है। आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते, इतने सारे यहदियों की हत्या क्यों हुई?" उन्होंने को समझना होगा। उस दिन में पढ़ रही थी- आज ही- केन्टरबरी के आर्कबिशप के साथ कुछ वार्तालाप हुआ और साक्षात्कारकर्ता उनसे इस प्रकार प्रश्न पूछ रहा था मानों वह परमात्मा हों। एक प्रकार से उन्होंने यह कहा भी कि "ये प्रश्न में परमात्मा से पूछूगा कि 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-9.txt अंक : 7 & 8 2007 9 चैतन्य लहरी उलम पुृथ्वीतत्व के स्तर पर। इसकी याचना की! वो चाहते थे कि वे स्वयं कष्ट उठाएं, क्योंकि कष्ट उठाने का श्रेय वो ईसामसीह को नहीं देना चाहते थे! उन्होंने सोचा कि हम सबको इसके पश्चात् हमें अन्य समस्याएं हैं जैसे भावनात्मक लिप्तता (मोह):- ये मेरी बेटी है, ये मेरा बच्चा है, ये मेरा. बच्चे से इतना लिप्त हूँ, ये मेरा देश है, ये आपका देश है। हम समस्याएं खड़ी करते हैं। यह फॉकलैण्ड? इस क्षेत्र से हमें क्या मिलने वाला है? परमात्मा ने कभी अर्जेन्टीना, चिली, इंग्लैण्ड और इन सब की रचना नहीं की। उन्होंने (आदिशक्ति) तो एकरूप ढाँचे का सृजन किया ताकि लोग एक दूसरे की देखभाल कर सकें- जैसे हृदय का सृजन किया गया जिगर, मस्तिष्क और नाक बनाए गए। अब यदि ये कु ये मेरा है, मैं अपने कष्ट उठाना होगा। अहं। ये अहं हैं। "किस प्रकार हमारे लिए कोई अन्य व्यक्ति कष्ट उठा सकता है? हम सबको व्यक्तिगत रूप से कष्ट उठाना होगा। वे ईसामसीह को श्रेय न दें सके, और बाद की सोच ये थी कि हमें कष्ट उठाने ही चाहिए। तो जो भी कुछ आप सोचते हैं, स्थूल स्तर पर वह कार्यान्वित होने लगता है। अत: श्रीमान हिटलर ने जन्म लिया और उन्हें कष्ट उठाने के लिए विवश किया। पृथ्वी पर विद्यमान सभी समस्याओं के लिए मानवीय मुर्खताएं ही जिम्मेदार हैं। लि ন ন आपस में लड़ने लगे, मान लो एक आँख दूसरी आँख से लड़ने लगे...! (हम हँसते हैं।) परन्तु हम मानव ऐसा ही करते हैं। हर समय हम यही कर हान एक अन्य प्रश्न था कि "बच्चों को श्वेत ार रक्तता (Leukemia) रोग क्यों हो जाता है, ये प्रश्न वो परमात्मा से पूछेंगे।" किस प्रकार बच्चों को श्वेत रहे हैं। मानव की मूर्खता ही सारी समस्याओं को रक्तता रोग हो जाता है? माता-पिता यदि अति प्रचण्ड और तीव्रगति हों तो बच्चों को ये रोग हो तो कोई दुष्ट इसका फायदा उठाता है और हिटलर सकता है। विवाह होने पर भी यदि आप शान्त नहीं हैं, बच्चा गर्भ में होने पर भी यदि आप तलाक आदि मूर्खताओं के बारे में सोचते हैं तो इस प्रचण्डता का प्रभाव बच्चे पर होगा। मनोवैज्ञानिक रूप से ये बाई ओर की समस्या है और बच्चे को जन्म के तुरन्त बाद ही श्वेत रक्तता रोग का शिकार होना पड़ता है। जन्म दे रही है। जब आप अत्यन्त मुर्ख बन जाते हैं की तरह से पृथ्वी पर आकर आपको ठीक करने का प्रयत्न करता है। र इन सब चीजों की आपको आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो केवल विवेक एवं अपने आत्मसाक्षात्कार की। और आज यही कार्य किया गया हे- कि आपको आत्मसाक्षात्कार मिला। अत: विश्वभर के सहजयोगियों के लिए ईस्टर महत्वपूर्णतम घटना है, क्योंकि यदि ये घटना न हुई होती तो लोगों को THESFT यह इस प्रकार है। अतः सभी समस्याएं मानव की अपनी मूर्खताओं के कारण उत्पन्न होती है। परमात्मा आपके लिए कोई भी समस्या खड़ी नहीं करते। उसने आपकी सारी समस्याओं का समाधान कर दिया है। वे आपकी सभी समस्याओं का समाधान करते हैं । आपने देखा है कि सहजयोग में किस प्रकार परमात्मा आपकी छोटी-छोटी समस्याओं का भी समाधान करते आत्म-साक्षात्कार दे पाना सम्भव न होता। मेरे विचार से गैविन आपको वो पत्र पढ़कर सुनाएंगे जिस पर ईसामसीह के विषय में देवी-भागवत (पृष्ट-25) में वर्णित तथ्य को लिखा गया है। चौदह हजार वर्ष पूर्व मार्कण्डेय ऋषि ने यह पुस्तक लिखी थी। कल्पना करें- चौदह हजार वर्ष पूर्व! वो जानते थे, ब्लेक की तरह से दूरदृष्टा ईसामसीह के अवतरण के समय क्या घटित होने वाला है। ईसामसीह को महाविष्णु कहा गया। वो विष्णु नहीं थे। विष्णु पुत्र थे। कितने ईसाई ईस्टर के होने के कारण, कि हैं! परन्तु अपनी मूर्खताओं से पंचमहाभूतों, भौतिकपदार्थों और सांसारिक आदतों के नशे में हम स्वयं अपने लिए समस्याएं खड़ी करते हैं। भौतिकता हमारे सिर पर सवार हो जाती है अर्थात हम कह सकते हैं कि 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-10.txt अंक : 7 & 8 चैतन्य लहरी 2007 10 इस तथ्य को समझते हैं? उन्हें इसका ज्ञान नहीं है। आजकल इसाईयत मात्र एक मूत गतिविधि है, विवेकहीन, किसी भी अन्य विवेकहीन धर्म की तरह से परे की अवस्था पा लेते हैं जहाँ आप सामूहिक से। ये भी एक अन्य मूर्खतापूर्ण बेकार धर्म है जो अर्थहीन है। जब तक आप आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं कर लेते, जब तक आप चैतन्य-लहरियाँ महसूस कि आपने अपनी नाक, और आँखों की सहायता नहीं करते, जब तक अपने चहूँ ओर मौजूद परमेश्वरी करनी है क्योंकि आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। तब शक्ति का एहसास आपको नहीं होता आप किस प्रकार समझेंगे? क्योंकि केवल वही चीज़ तो सत्य हैं, ज्ञान हो जाता है कि मैं भी उतना ही महत्वपूर्ण हूँ केवल वही तो वास्तविकता है। इसे प्राप्त किए बिना जितने अन्य कोषाणु और उन कोषाणुओं की मेरे द्वारा आप ईसामसीह के विषय में कैसे जान पाएंगे? और उन्हें लेकर झगड रहे हैं! किस प्रकार आप झगड़ सकते हैं? मैं नहीं समझ सकती। मेरी दृष्टि में ये मुर्खता है, दूसरी अति तक जाना। ऐसा करके वास्तव में आप करते ये हैं कि इन सब अवतरणों का उपयोग एक दूसरे की हत्या करवाने के लिए करते हैं! क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हैं। जो चले जाते हैं। आप अपने छोटे-छोटे कुएं खोदने लगते हैं अवतरण आपकी उत्क्रान्ति के लिए आए थे, आपको उच्च जीवन प्रदान करने के लिए आए थे, उन्हीं के नाम अब आप हत्या के लिए, एक दूसरे का बध करने के लिए, और एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए करते हैं! अधिक से अधिक जब आप एक ऐसे बिन्दु तक पहुँच जाते हैं जहाँ आपकी समझ में कुछ नहीं आता, तब लोग कहते हैं, "ये रहस्य है।" क्या आप अपने अन्दर व्याप्त नहीं होने देते तो आप पतन की ओर चले जाते हैं। मान लो आप पंचतत्वों १। चेतन होते हैं, आपको इस बात का ज्ञान होता है कि आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। तब आप ये जानते हैं आप उस अवस्था तक पहुँच जाते हैं जहाँ आपको ये मदद होती है क्योंकि उन्होंने मेरा पोषण करना है। हम एक हैं पूर्ण सामंजस्य होना चाहिए। यह चेतना आत्म-साक्षात्कार के बाद आती है और यदि आप इस बात को नहीं समझ पाते कि यही चेतना, यही सामूहिक चेतना, एक मात्र मार्ग है जिसके द्वारा आप इस क्षेत्र में बने रह सकते हैं, तो आप बाहर और फिर उन्हीं में गिर जाते हैं । जितना अधिक आप स्वयं का विस्तार करेंगे आप उतना ही ऊँचा उठेंगे। परन्तु आप बार-बार अपनी बाधाओं के शिकार हो जाते हैं । यदि आप ये सोचें कि मुझे पूर्ण के लिए जीवित रहना है, मैं पूर्ण के लिए जिम्मेदार हूँ, कोपाणु का केन्द्रक (Nucleus) बनाना मेरी जिम्मेदारी है ताकि वो पूर्ण की देखभाल करे, यदि मेरा पतन होगा तो शेष भाग को भी कष्ट होगा। अब मुझे पतन की ओर जाने का अधिकार नहीं है क्योंकि मुझे इस बिन्दु तक उठाया गया है, मैं सामूहिकता की अवस्था में प्रवेश कर गया हूँ जहाँ मेरा अस्तित्व, जो कि आत्मा है, सामूहिक अस्तित्व है और मुझे वहीं बने रहना है। मैं पतन की ओर रहस्य हैं? सहजयोग में कोई रहस्य नहीं है। सभी कुछ स्पष्ट है। मेरे लिए तो मनुष्य ही एक रहस्य है। उन्हें नहीं समझ पाती। मैं नहीं समझ सकती। ईसामसीह के पुनर्जन्म को अब सामूहिक पुनर्जन्म बनना होगा । महायोग की यही व्याख्या है। सामूहिक पुनर्जन्म नहीं जा सकता। कंवल यही मार्ग है जिसके द्वारा मैं होना आवश्यक है और इस सामूहिक पुनर्जन्म के लिए सर्वप्रथम सहजयोगियों को सामूहिक बनने का निर्णय करना होगा कुण्डलिनी जागृति के पाने के बाद भी लोग अपने आडम्बर से मुक्त नहीं माध्यम से नि:सन्देह आप पार हो जाते हैं। आप पार हो जाते हैं। परन्तु पार होकर आप सामूहिक अपने पंख फैलाकर वे न तो वो गीत गा सकते हैं क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । उस सामूहिकता को यदि जीवित रह सकता हूँ। परन्तु मेंने देखा है कि आत्म-साक्षात्कार होते। अब भी वे अपने पूर्व आवरण में बने रहते हैं। और न ही अपने खोल से बाहर आकर उड़ सकते हैं 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-11.txt अंक : 7 & 8 -2007 चैतन्य लहरी वे ऐसा नहीं कर सकते सभी प्रकार की तुच्छतापूर्वक हैं। व्यक्तिगत रूप से आप पर आने वाली सारी अब भी वे जीवन के तुच्छ मार्ग पर बने रहते हैं । छूट्टी के दिन आप (आश्रम से) चले जाते हैं क्योंकि आप अलग से छुट्टी मनाना चाहते है; क्यों? यह पावनता का समय है- पावन दिवस (Holiday)। ये पावन दिवस है। जब आप अन्य सहजयोगियों के साथ होते हैं, तभी वास्तव में छुट्टी का आनन्द लेते है। अन्यथा कब आप छुट्टी का आनन्द लेते हैं? और कौन सा उपाय है? सहजयोगियों के साथ होना ही वास्तव में छुट्टी है। इसी कारण से व्यक्ति को में पूरे विश्व के विषय में, आपको होना चाहिए। समझना चाहिए कि आपको अपनी सामूहिकता का विस्तार करना होगा। अपनी सामूहिकता का विस्तार यदि आप नहीं कर सकते तो आप व्यर्थ हैं। तब आप सहजयोगियों का बेकार समूह हैं, जो, मूर्खतापूर्ण विचार त्याग दिए जाने चाहिए। क्योंकि खेदपूर्वक मुझे कहना पड़ता है, पतन की ओर चला जाएगा। आरम्भ में ऐसे लोग दिखावा भी है और वे आपकी देखभाल करेंगे। अपने अन्दर करते हैं, परन्तु शनै: शनै: वो बेहतर और वेहतर होते चले जाते हैं और जब उच्च अवस्था में पहुंच जाते हैं तो बिना एक-दूसरे के भय के, बिना किसी माह शनै: शनै: सभी लोग सुधर जाएंगे। मैने देखा है कि के, बिना किसी आशा के, एक दूसरे का आनन्द लेने कठिनतम लोग भी सुधर गए। परन्तु आपके विषय लगते हैं। यह घटित होना चाहिए। हमारे शरीर के में क्या है, जो अन्य सभी को सुधार रहे हैं? सारे कोषाणु ऐसे ही हैं। कोषाणु यदि ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं। क्योंकि हमारे अन्दर तो इतना है? आपकी श्रेद्धा कहाँ तक पहुँची है? आप तो ये अधिक विवेक है- कम से कम हम ये सोचते तो अवश्य हैं कि हमारे अन्दर कोषाणुओं की अपेक्षा कहीं अधिक विवेक है! कम से कम हमसे यही है तथा परमात्मा की शक्ति मेरा पथ प्रदर्शन कर रही आशा की जाती है क्योंकि हम एक कोषाणु मात्र से है और मुझे इसका ज्ञान भी है। मुझे इस बात का इस अवस्था तक विकसित हुए हैं। और आप तो परमात्मा के सृजन का निष्कर्ष हैं आप सर्वोच्च लोग चुका हूँ और मेरी इस चेतना की अभिव्यक्ति मेरी हैं! तो क्यों नहीं? पुनर्जन्म लेने के बाद पहली सामूहिकता के माध्यम से हो रही है। अत: 'सामूहिकता' चीज़ जो आपके अन्दर घटित होनी चाहिए वो सहजयोगी का स्वभाव है और इसी बात का एहसास ये समझना कि अब आप व्यक्ति मात्र नहीं हैं, व्यक्ति को होना चाहिए। सामूहिक अस्तित्व हैं। अब आप व्यक्ति मात्र नहीं रहे। जो चीज़ें आपके व्यक्तित्व को सीमित करती हैं उन्हें निकाल फेंकें। अब आप व्यक्ति मात्र नहीं समस्याएं पूर्णतः बेकार हैं, असत्य हैं, व्यर्थ हैं। सामूहिक समस्याओं के बारे में सोचें। मुझे ऐसे ही लोग अच्छे लगते हैं। जैसे उस दिन (Fergie) फर्जी Bristol के बारे में जानने को उत्सुक थी कि वहाँ पर कौन से बिन्दुओं (स्थानों) पर पृथ्वी माँ से चैतन्य प्रवाहित हो रहा है वही पूरे Bristol और जमैका के लोगों के विषय में और बाद व्यक्ति को ये नहीं सोचना चाहिए कि मेरी बेटी का विवाह कैसे होगा, वहाँ जाने के लिए मुझे टिकट किस प्रकार मिल पाएगा? ये सभी अब आप परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर गए आप वह अवस्था स्थापित करें कि आप सामूहिक अस्तित्व बन जाएं। बाकी सभी चीजें छंट जाएंगी। आपकी स्थिति क्या है? आप कहाँ तक पहुँचे जानते हैं कि मैं परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर गया हूँ तथा मेरी हर गतिविधि की देखभाल हो रही ज्ञान है कि मैं परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर है परमात्मा आप पर कृपा करें। (निर्मलायोग- 1983- रूपान्तरित) N.३ 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-12.txt परम पूज्य श्री माताजी का परामर्श मेरी इच्छा है कि आप सब लोग पूर्णत: हैं। मनुष्य स्वयं से इस प्रकार लिप्त है कि वह अपने दोषों को जानना ही नहीं चाहता और जब उसे दोषों का ज्ञान होता है तो बह पलायन करना चाहता परन्तु जन्मों-जन्मों तक अपने अपराधों का बोझ ढोने के स्थान पर यंदि आप उन्हें समझ लें और उन्हें सुधार लें तो बेहतर होगा। 1) धार्मिक बनने का दृढ़ निश्चय करें। धार्मिक होना बहुत कठिन हैं। समाज और वातावरण आपको अधार्मिक बनने के लिए विवश करते हैं । अबोधिता में आप जन्म लेते हैं परन्तु बाद में अधार्मिकता को सामान्य मानकर समझौता किए चले जाते हैं । सहजयोगी के लिए अधार्मिक बनना बहुत कठिन है। वह यदि कोई गलत कार्य करने का प्रयत्न करे तो चैतन्य लहरियाँ उसे सुधारती हैं। परन्तु यदि आप अपने अन्त: करण का हनन किए चले जाते हैं, तो ऐसा करने के लिए और उत्क्रान्ति के अपने अवसर को नष्ट करने के लिए आप स्वतन्त्र हैं। इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। आप यदि स्वयं को थोड़ा सा स्थिर कर ले तो आप समझ जाएंगे कि वह शक्ति कितनी शक्तिशाली है जो केवल आपके दोषों को उजागर करती है बल्कि उन्हें पूर्णतः दूर भी करती है। न आपका अहं कर्म करता है। आपने अवश्य 5) देखा होगा कि सहजयोग में आने के पश्चात् आप अपने अहंकार को तथा इसकी कार्यशैली को स्पष्ट देख सकते हैं। सहजयोग में भी आपको बहुत से प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है और यदि आपका अहं हावी है तो आप भूल जाते हैं कि आपने सहजयोग की ओर जाना है या सहजयोग ने आपकी ओर आना है। बहुत से लोग जब अपने अहं का शिकार हो जाते हैं तो सहजयोग की ओर पीठ कर लेते हैं। बो आशा करते हैं कि सहजयोग उनके पीछे दौड़ेगा! सहजयोग में आपको अपना भूतकाल भुलाना होगा क्योंकि अब आपको नवजात शिशु की तरह से परमेश्वरी प्रेम में नहला दिया गया है। पति-पत्नी के बीच परस्पर वफादारी की हृदय की पावनता के रूप में अभिव्यक्ति अत्यन्त आनन्ददायी गुण है। तथा यह बहुत शक्तिशाली भी है। सम्बन्धों की पावनता को समझने के बाद ही आप उनका अधिकतम आनन्द उठा सकते हैं। पृथ्वी माँ पर अपने चित्त को रखते हुए अपने चित्त स्थिर करने का प्रयत्न करें। इस प्रकार से अपनी दादी माँ का प्रेममय कवच प्राप्त जब तक आपका अहं आप पर हावी है तब तक आप आत्मा की झलक भी नहीं पा सकते। परन्तु अपने अहं से नहीं लड़ना होता मात्र इसे देखना होता है क्योंकि आपका चित्त जागृत हो करके आप अपनी कामुकता के दासत्व से मुक्ति पा लेते हैं। दिव्यत्व फैशन नहीं है, यह जीवन का मार्ग 2) जाता है। देखने मात्र से अहं शान्त हो जाता है। क्योंकि अब आपकी अन्तर्दृष्टि ज्योतिर्मय हो चुकी है। उस प्रकाश में आप अपने अहं के खेल को देखते हैं और उस पर हँसते हैं ज्योंही आप स्वयं को देखने लगते हैं तो आपके अहं के गुब्बारे की हवा निकलनी शुरु हो जाती है और जब अहं कम होता है तो आप अपने अन्त: प्रकाश में उन्नत होते हैं। है, आपके जीवन की आवश्यकता है। आपको वही (सोहं) बनना है आपको जान लेना होगा कि सत्य आपके 3) चरणों पर नहीं गिरने वाला। यदि आप सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको सत्य के कदमों में गिरना होगा। मानव की बुद्धि में बहुत से सन्देह उठते हैं। सहजयोग में जब व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार 6) 4) प्राप्त हो जाता है तो वह अपने दोषों को देखने लगता पहला सन्देह, जो कि आम है, ये है कि 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-13.txt अंक : 5 & 6 13 2007 चैतन्य लहरी किसी व्यक्ति को यदि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हो गया है और यदि वो ऐसे स्थान पर जाता है जो नहीं समझ सकते। और मुझे समझने का प्रयत्न भी देखा जाना चाहिए या जिसका एहसास नहीं किया जाना चाहिए या जो अच्छा स्थान नहीं या यदि वह किसी कुगुरु के पास जाता है तो तुरन्त उसे तपन (जलन) हो जाएगी वह यदि वहाँ से नहीं दौड़ता और अब भी यदि वह वहाँ जाता है तो उसकी चैतन्य-लहरियाँ समाप्त हो जाएंगी और वह किसी श्रीमाताजी कौन हैं?"' मैं आपको बताना चाहती हूँ कि बिना आत्म-चक्षु खुले आप मुझे नहीं है आपको नहीं करना चाहिए। पहले अपने आत्म चक्षु खोलें। 7) कर लेते हैं तो चिरंजीवी (देवदूत) आपके सम्मुख समर्पित हो जाते हैं। वे आपको देख रहे हैं। आप उनकी जिम्मेदारी हैं। सभी देवी-देवता आपके अन्दर जागृत हैं। आप यदि देवी-देवताओं के विरुद्ध कोई कार्य करेंगे तो तुरन्त वे आपको हानि पहुँचाएंगे। एक बार जब आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त अन्य सर्वसाधारण व्यक्ति की तरह से हो जाएगा। निर्मला योग- 1983 (रूपान्तरित) 10+-4- परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र प्रिय सहजयोगियों, मेरे प्रिय बच्चों, यद्यपि जो भी कुछ मैं कहती हैं उसे तोड़-मरोड़ दिया जाता है, फिर भी सत्य तो अटल है। सत्य को आप बदल नहीं सकते। ऐसा करने पर आप ही अज्ञानी और पिछडे हुए बने रहेंगे। इस कारण से में अप्रसन्न हूँ। ये दिवाली आपके अन्दर प्रेम का प्रकाश रोशन कर दे। आप स्वयं वो दीप हैं जिनका प्रकाश दूर तक फेलता है, आवरण से नहीं। आवरण से कहीं अधिक शक्तिशाली बन जाते हैं। ये उनकी अपनी सम्पत्ति है परन्तु चोट पड़ने पर हमारे दीप विचलित हो जाते है! दिवाली वास्तविक आकांक्षाओं का दिन होता है। पूरे ब्रह्माण्ड का आह्वान करें। बहुत से दीप बात को आप सोचें। क्या आप पर कोई पारगामी कवच नहीं है? क्या आप अपनी माँ के प्रेम को भूल बैठे हैं और इसीलिए विचलित हैं? जिस प्रकार शीशा लेम्प की रक्षा करता है इसी प्रकार से मेरा प्रेम भी आपकी रक्षा करेगा। जलने हैं, और उनकी रक्षा की जानी है। इसमें प्रेम का तेल डालें, कुण्डलिनी बत्ती है और अपने अन्दर की आत्मा के प्रकाश से अन्य लोगों की कुण्डलिनी जागृत करें। कुण्डलिनी की लौ प्रज्जवलित हो जाएगी और आपके अन्तःस्थित लौ मशाल बन जाएगी। परन्तु शीशा साफ रखना होगा, मैं किस प्रकार यह बात समझाऊं? क्या मुझे भी श्रीकृष्ण की तरह से कहना होगा "सर्वधर्माणां परित्यज्य मामेकम् शरणम् वृज," या श्री ईसामसीह की तरह से कि "मैं ही मार्ग हूँ मैं ही द्वार हूँ?" मशाल बुझती नहीं है। तब मेरे प्रम की पावन कवच उपलब्ध होगा जिसकी न तो कोई सीमा होगी और न ही कोई अन्त। मैं आपको देखती रहूँगी। असंख्य आशीर्वादों के रूप में मेरे प्रेम की वर्षा आप पर हो रही है। मैं बताना चाहती हूँ कि मैं ही वह लक्ष्य हूँ। परन्तु क्या आप लोग इस बात को स्वीकार करेंगे? क्या यह बात आपके दिलों में उतरेगी?" हमेशा आपकी प्रेममयी माँ निर्मला। ( अंग्रेजी रूपान्तरण से रूपान्तरित) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-14.txt परम पूज्य श्रीमाताजी का एक पत्र मानव शान्ति, वैभव, सत्ता आदि की आकांक्षा होने दें। प्रेम असीम है। आपका चित्त तो भौतिक करता हैं, परन्तु इन सब चीजों का उद्भव परमात्मा पदार्थों में फँसा हुआ है और बातें आप अनन्त से है। तो मानव के अन्दर परमात्मा को प्राप्त करने की करते हैं! आपका चित्त अनन्त में विलय की इच्छा क्यों नहीं होनी चाहिए? उसमें परमात्मा से हो जाना चाहिए ताकि आप अनन्त जीवन प्राप्त मिलने की अभिलाषा क्यों नहीं होनी चाहिए। शान्ति प्राप्त करने के लिए हमें परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए और उनसे मिलन की इच्छा बनाए रखनी चाहिए जो स्वयं शान्ति हैं। एक सर्वसाधारण मनुष्य और एक सहजयोगी के सन्तोष में यह अन्तर होना चाहिए। परमात्मा से मिलन की इच्छा को परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित करने के लिए व्यक्ति को तैयार रहना चाहिए। पूरा चित्त उन पर होना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति में समर्पण भाव, दुढ़-निश्चय और तपस्विता का होना आवश्यक है और इन्हीं में सभी भौतिक लिप्साएँ विलीन करनी चाहिएं। लिप्त होने के लिए संसार में क्या है? के बाद बाकी सब कुछ आपको आसानी से आपको चाहिए कि उन चरण कमलों को गरिमा मिल जाएगा। को महसूस करें जिनमें विलय होकर सभी कुछ शान्तिमय बन जाता है। केवल तभी आप अपनी गरिमा को पा सकेंगे। कर सकें। आप परमात्मा के साम्राज्य के अधिकारी (official ) हैं, फिर किसलिए खीझ रहे हैं? इस साम्राज्य में सभी देवता आपके बड़े भाई हैं। कुण्डलिनी के मार्ग में वे भिन्न रूपों में विद्यमान हैं। आपको चाहिए कि उन्हें पहचानें और प्राप्त कर लें । कुण्डलिनी आपकी माँ है। हमेशा उनकी देख-रेख में रहना सीखें। उनके बालक बने और वे आपको अन्तिम लक्ष्य तक ले जाएंगी। जहाँ से हर चीज़ का उद्भव हुआ है उसे प्राप्त करने परन्तु अपनी ध्यान-धारणा, पेम और शान्त-जीवन में आप दृढ़ नहीं हैं। मुझसे भी आप लापरवाही से बात करते हैं। सांसारिक चीजों में परन्तु आप कितने उत्सुक हैं। किसी भी चीज़ को प्राप्त करने के लिए आप किस तरह से अड़ जाते हैं! इस मामले में आप लापरवाह क्यों नहीं है? वास्तविकता से न भागें क्योंकि मैं महामाया हूँ। मैं आपकी हूँ, मुझे पा लें। मैं आपके लिए हूँ। मैंने आपको वो दे दिया है जो महान सन्तों और पैगम्बरों को भी दुर्लभ था। किस प्रकार आप इसका उपयोग करेंगे? आपको इतनी बड़ी सम्पदा दे दी गई है जिसकी एक लहर मात्र से हजारों व्यक्ति को अपनी उपलब्धियों की डींग क्यों हॉकनी चाहिए? आपको ये समझना आवश्यक है कि जो भी कार्य आप कर रहे हैं, ये परमात्मा की शक्ति है अर्थात आदिशक्ति का कार्य है, आप तो इन चमत्कारों के साक्षी मात्र हैं। वह अवस्था प्राप्त करने के लिए आपको प्रार्थना करनी चाहिए, "हे परमात्मा, हमारा अहंभाव समाप्त हो जाए, हम इस सत्य को आत्मसात कर सकें कि हम सब आपके तुच्छ अंश हैं ताकि आपका परमेश्वरी सितारों और ग्रहों का सृजन किया गया! आशीर्वाद हमारे शरीर के जरें-जरें को गुंजरित कर सके और ये जीवन उन मधुर गीतों से भर उठे जो मानवमात्र को मोह लें तथा पूरे विश्व को सहजयोगी इस कार्य को कर सकते हैं। यह बहुत प्रकाश दिखलाएं।" अपने हृदय से प्रेम प्रवाहित आपके पुनर्जन्म का महान महत्व है। परन्तु आपने स्वयं इसे प्राप्त करना है। स्वः का अर्थ खोजें बडा कौशल है। मैंने आपको इसका रहस्य बता दिया 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-15.txt 2007 15 अक : 7 & 8 चैतन्य लहरी परन्तु आपने क्या प्राप्त किया? लाभ उठाकर तो सहजयोगी ही प्रिय लोग हैं, आप ही को अधिकारी कोई खीझता नहीं है। आपके अप्रसन्न होने का अर्थ ये है कि आपको लाभ नहीं हुआ। ये भैद यदि आप जान लें तो आप आनन्द के मार्ग खोल लेंगे और हो जाएंगे और दूसरी ओर सहजयोग का पूर्णज्ञान न आनन्द उठाते हुए स्वयं को भूल जाएंगे। सांसारिक पदार्थों से कोई प्रसन्न नहीं होता। मैंने आपको विवेकशील बनें और डटे रहें। हर गतिविधि की हजारों खज़ाने की चाबी दे दी है, ये चाबी अन्य लोगों दिशाएं होती हैं। अपनी चैतन्य किरणों को भिन्न को नहीं मिली। परन्तु द्वार खोलने के लिए आपको दिशाओं में फैलने दें । आप पूरे विश्व का हित करेंगे। कार्य करना होगा आपने हर चीज़ को लापरवाही अपने आलस्य को गतिशील बनाएं। आपको कप्तान से लिया है। आप चाहते हैं कि श्रीमाताजी आपका भरण-पोषण करें, सुबह जगाएं और आपके क्रोध एवं घूणा को स्वच्छ करने के लिए आपको ध्यान में नहीं हैं उनके प्रति सद्भावनाएं बनाएं और परमात्मा है बनाया गया है। आप यदि इसकी अनदेखी करते हैं तो एक ओर तो आप आनन्द के इस महान स्रोत से वंचित होने के कारण आप अपना अधिकार खो देंगे। अत: बनना है। अपनी बाँसुरी से दिव्य संगीत बजने दें। जो लोग आत्मसाक्षात्कारी और आशीर्वादित बिठाएं। का साम्राज्य आपका होगा। मेरी कामना है कि आपको ये मंगलमयता प्राप्त हो, मेरे सभी प्रयास इसी के गुरु दक्षिणा दी है? समझें कि आपका पैसा तो लिए हैं। आपको मन्दिर की तरह से बनाया गया आपकी गुरु माँ के चरणों की धूल के बराबर भी है। इसे स्वच्छ रखें। आपमें से कुछ लोग आशीष सागर का आनन्द उठा रहे हैं। मेरा आशीर्वाद है कि आप सब प्रसन्न हों। आपका सांसारिक जीवन और स्वच्छ करें। इस मामले में आलस्य न करें। शपथ लें। संतोष भी उसी स्तर का हो। सहजयोगी का सन्तोष और उसकी परिस्थितियाँ सन्तुलित होती हैं। हमारी घण्टा ध्यान और पूजा पर लगाएं। शाम को दोनों टाँगे बराबर बढ़ती हैं। एक टाँग यदि छोटी हो जाए तो व्यक्ति लंगड़ा हो जाएगा। संतोष की यदि कमी है तो भी मैं आपको अपनी परिस्थितियों का स्तर नीचा करने के लिए नहीं कहना चाहती। परन्तु सहजयोगियों का सन्तोष उसकी परिस्थितियों पर आज गुरु पूजा का दिन है। आपने मुझे क्या नहीं है। आपको अपने हृदय समर्पित करने चाहिएं, केवल स्वच्छ एवं पावन हृदय। अपने शरीर को प्रातः काल जल्दी उठें और कम से कम एक आरती एवं ध्यान करें। शैतान के शिष्य श्मशान घाटों पर कठोर परिश्रम करते हैं। मैं समझ नहीं पाती कि आप लोग हर चीज़ को इतनी लापरवाही से क्यों लेते हैं। सारी गप्पें बन्द करें, सभी ईष्ष्या और झगड़े त्याग दें। समय कभी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। खज़ाने की निर्भर नहीं करता। वह हर परिस्थिति में प्रसन्न रहता है। यदि वह प्रसन्न नहीं है तो उसका सन्तोष दिखावा है आन्तरिक नहीं। परमात्मा आपको अपने चरण कमलों में निरन्तर स्थान प्रदान करें। चाबी प्राप्त करने के बाद भी क्या आप खाली हाथ जाना चाहते हैं? आपकी माँ निर्मला निर्मला योग-1983 परमात्मा के साम्राज्य को यदि आप स्वीकार नहीं करते तो शैतान का साम्राज्य आएगा और इसके लिए आपको स्वयं को दोष देना होगा। याद रखें आप (रूपान्तरित) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-16.txt श्री ईसामसीह के जन्म का वर्णन अध्याय-3 श्रीमद् भागवतम् श्री ब्रह्माजी के पुत्र श्री नारद से श्री नारायण ने स्वर्गा वाला ब्रह्मलोक है और इसके नीचे सात पाताल हैं। ब्रह्मानन्द की यह सीमाएं हैं। इस पृथ्वी से ठीक ऊपर भूलोक है, इसके बाद ऊपर भुवलोंक है, फिर (स्वरलोक) स्वाहालोक है, उसके बाद जनलोंक है? तत्पश्चात् तपलोक है, फिर सत्यलोक और इनके ऊपर ब्रह्मलोक है । ब्रह्मलोक का रंग पिघले हुए सोने इस प्रकार कहा : (1-34): ओ देवर्षि! ब्रह्माजी की के आयु बराबर वर्षों से जल में तैरता हुआ मूल प्रकृति से जन्मा अण्डा, जिसका समय अब पूर्ण हो गया था, दो भागों में अलग हो गया। उस अण्डे में महान शक्तिशाली बालक था, हजारों सूर्यों से भी अधिक तंजस्वी। जैसा है परन्तु ब्रह्मलोक के अन्दर या बाहर के सभी बच्चा माँ का दूध न पी सका क्योंकि माँ उसे छोड़ पदार्थ नश्वर हैं। ब्रह्माण्ड के विलय के साथ ही हर गई थी। भूख से परेशान होकर बच्चा बार-बार रोया। असंख्य ब्रह्माण्डों का स्वामी बनने वाला वह शिशु जो अब माता-पिता विहीन था, पानी से ऊपर की ओर देखने लगा। स्थूल अवस्था प्राप्त करने पर बाद यही बच्चा 'महाविराट' के नाम से जाना गया । जिस शाश्वत हैं। इस महाविराट के कण-कण में एक प्रकार रेडियम से अधिक सूक्ष्म कुछ भी नहीं है वैसे ब्रह्माण्ड विद्यमान है। किसी और की तो क्या बात ही महाविराट से अधिक स्थूल कुछ भी नहीं है। चीज का विलय हो जाता है और सभी कुछ नष्ट हो जाता है सभी कुछ। ये सब पानी के बुलबुले की तरह से अस्थाई है। केंवल गोलोक और वैकुण्ठलोक ही करें स्वयं श्री कृष्ण भी इन ब्रह्माण्डों की संख्या की गिनती नहीं कर सकते। हर ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। हे, वत्स नारद! हर ब्रह्माण्ड में तीन की महाविराट शक्ति इस श्रीकृष्ण (1/16) है। परन्तु प्रकृति (राधा) से उत्पन्न े बालक पूरे ब्रह्माण्ड का आधार है और महाविष्णु से नियंत्रित है । उनके रोम-रोम में असंख्य ्रह्माण्ड विद्यमान हैं- इतने अधिक कि स्वयं श्री कृष्ण भी उनकी गिनती नहीं कर पाए। सम्भवतः धूल के कणों की भी गिनती की जा सके परन्तु ब्रह्माण्डों की गिनती नहीं की जा सकती। अत: असंख्य ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। हर ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और -सर्वकलासम्पन्न-की शक्ति का सोलहवाँ भाग कोटि देवो-देवता हैं। उनमें से कुछ दिक्पति हैं, कुछ दिक्पाल हैं, कुछ तारापुंज हैं और कुछ ग्रह हैं। भूलोक में चार वर्ण हैं, और पाताल में नाग हैं इस प्रकार ब्रह्माण्ड चल और अचल चीजों से बने हैं (ब्रह्माण्ड विवर्ति)। ओ, नारद! विवर्त पुरुष ने अब बार-बार आकाश की ओर देखना शुरु कर दिया परन्तु उस अण्डे में वो रिक्ति (Void) के अतिरिक्त कुछ न देख सका। भूख से तंग आकर वह बार-बार रोया और चिन्ता में खो अगले क्षण होश में आते ही वह श्री कृष्ण, सर्वोंच्च पुरुष के बारे में सोचने लगा और एकदम उसे ब्रह्मा का प्रकाश नज़र आया। वहाँ जैसे महेश हैं। हर ब्रह्माण्ड पाताल लोक से ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। वैकुण्ठ लोक इनसे भी ऊपर है (अर्थात यह ब्रह्माण्ड से बाहर स्थित है)। गोलोक वैकुण्ठ से पचास कोटी योजन 50x10x4x2 उसने श्री कृष्ण का गहरा नीला रूप देखा, Milon Miles) ऊँचा है। गोलोकधाम भी वैसे ही नवनिर्मित मेघ का रंग होता है। उनके दो हाथ थे, शाश्वत और सत्य है जैसे श्रीकृष्ण। सात टापुओं से पीताम्बर वस्त्र पहना हुआ था, उनके मुख पर मधुर बना ये विश्व, सात महासागरों से घिरा हुआ है मुस्कान थी, हाथों में बाँसुरी थी और अपने भक्तों उनके समीप ही 49 उपद्वीप हैं। इसके अतिरिक्त को अपनी सुन्दर छटा दिखाने के लिए वो लालायित प्रतीत होते थे। अपने परम पिता परमात्मा की ओर असंख्य पर्वत और जंगल हैं। पृथ्वी से ऊँचा सात গত 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-17.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 - 2007 17 और तो उन्हीं की कृपा के कारण है और उन्हीं की भक्ति और पूजा मनुष्य नहीं करता! जब तक आत्मा शरीर में रहती है, शरीर के अन्दर शक्तियाँ बनी रहती हैं, आत्मा के प्रस्थान करते ही सारी शक्तियाँ भी उसके साथ चली जाती हैं। हे महात्मा, आप तो शाश्वत आत्मा हैं जो प्रकृति से भी ऊपर हैं, जो दिव्य इच्छा है, पुरातन पुरुष है, और महानतम प्रकाशसम है। इस प्रकार ये सब कहकर विराट बालक मौन हो गया। देखकर वो लड़का प्रसन्न हो गया मुस्कराया। वर देने वाले परमात्मा ने उस क्षण के अनुरूप वर दिए:- "हे वत्स! तुम्हें मेरी ही तरह से ज्ञान प्राप्त हो, तुम्हारी भूख, प्यास समाप्त हो जाए, प्रलय के समय तक तुम असंख्य ब्रह्माण्डों के आधार बनो। नि:स्वार्थ, निर्भय और सभी को वर प्रदान करने वाले बनो। वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग, शोक, तथा किसी अन्य प्रकार का रोग तुम्हें कष्ट न दे सके। उसके कान में उन्होंने तीन बार सोलह शब्दों का मन्त्र दोहराया : तब श्री कृष्ण अपनी मधुर-वाणी में बोले: हे, वत्स! तुम भी मेरी तरह से निरन्तर प्रफुल्लित "ॐ कृष्णाय स्वाहा:" जिसकी पूजा, वेद अपने अंगों के साथ करते हैं और जो कामनाओं को पूर्ण रहो। असंख्य ब्रह्माओं की मृत्यु हो जाने पर भी करने वाले तथा कष्टों और विपत्तियों को नष्ट करने कभी तुम्हारा पतन न हो। वाले हैं, ओ ब्रह्मा-पुत्र! इस प्रकार उसे मन्त्र देते हुए श्री कृष्ण ने उसके लिए भोजन का प्रबन्ध किया: "हर ब्रह्माण्ड में जो भी भेंट श्री कृष्ण को चढ़ाई जाएगी उसका सोलहवाँ भाग (1/L6) वैंकुण्ठ स्वामी श्री नारायण को जाएगा और 15/16 भाग इस बालक, विराट को प्राप्त होगा। श्री कृष्ण ने अपने लिए भेट होंगे। एकादश रुद्रों में से कालाग्नि नामक रुद्र सभी में से कोई हिस्सा न रखा। स्वयं सर्वगुणों से ऊपर, पूर्ण, वे हमेशा स्वयं में ही सन्तुष्ट रहते हैं। उन्हें तम्हारे उपभागों में से विष्णु प्रकट होंगे और वे किसी भेंट की क्या आवश्यकता है? लोग जो भी भेंट भगवान को या लक्ष्मी को अर्पण करते हैं, उन सबको विराट खाते हैं इस प्रकार भगवान कृष्ण ने भक्ति से परिपूर्ण रहेगा और मेरा ध्यान करते ही तुम विराट को वरदान और मन्त्र देकर कहा। "हे वत्स! कहो, अब तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुरन्त तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूगा। सुनकर विराट बालक बोला, "हे सर्वशक्तिमान! मेरे अन्दर इस इच्छा के अतिरिक्त कोई इच्छा नहीं बची कि जब तक में जीवित रहूँ, थोड़ा समय या अधिक समय, आपके चरण कमलों की पावन भक्ति में बना रहू। (42-57) तुम स्वयं को भागों में बाँट लो और हर ब्रह्माण्ड में छोटे विराटों का रूप धारण कर लो। तुम्हारी नाभि से होकर ब्रह्मा ब्रह्माण्डों का सृजन करेंगे। सृष्टि को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा के मस्तक से एकादश रुद्र-प्रकट होंगे परन्तु वे शिव के ही अंश विश्वों (ब्रह्माण्डों) को नष्ट करेगा। इसके अतिरिक्त भगवान विष्णु इस विश्व के परिरक्षक होंगे। मैं वर देता हूँ कि मेरी कृपा से तुम्हारा हृदय हमेशा मेरी मेरे प्रिय रूप को देख सकोगे। इसमें कोई सन्देह नहीं है। और तुम्हारी माँ, जिनका निवास मेरे वक्ष में है उनके दर्शन करना भी तुम्हारे लिए कठिन न होगा। तुम यहाँ सुख-शान्तिपूर्वक रहो। अब मैं गोलोक प्रस्थान करता हूँ। ये कहकर विश्व के स्वामी श्री कृष्ण लुप्त हों गए। अपने लोक में जाकर उन्होंने सृजन के कार्यों में कुशल ब्रह्मा और शंकर से तुरन्त बात की "हे वत्स ब्रह्मा! तुरन्त जाओ और महान विराट के रोमों से प्रकट होने वाले छोटे विराटों की नाभियों से प्रकट होओ। हे वत्स, महादेव! जाओ और सृष्टि को नष्ट करने के लिए हर ब्रह्माण्ड में प्रकट हुए ब्रह्मा के मस्तक से जन्म लो, परन्तु याद रहे कि बहुत लम्बे समय तक तपस्या में लगे रहना- हे सृष्टि सृजनकर्ता ब्रह्मा के पुत्र! इतना कहकर ब्रह्माण्ड स्वामी मौन हो गए। ब्रह्मा और मंगलमय शिव, भगवान को " श्री कृष्ण के इन शब्दों को (35-41) इस संसार में तुम्हारा भक्त जीवन मुक्त है और भक्तिहीन भ्रमित मूर्ख जीवित होते हुए भी मृत है। जिस व्यक्ति में श्री कृष्ण की भक्ति नहीं उसे जप, तप, बलिदान, पूजा, उपवास आदि करने का, तीर्थ वात्रा पर जाने का तथा अन्य धार्मिक कार्यों को करने का कोई लाभ नहीं। श्रीकृष्ण की भक्ति- विहीन व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है। क्यथोंकि यह जीवन লnc 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-18.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 18 शीश नवाकर अपने कार्यों पर चले गए। दूसरी ओर महाविराट अपने लघुविराट के रोम-रोम से सृजित पहले सनक और अन्य भाईयों ने जन्म लिया और ब्रह्माण्ड क्षेत्र के जल पर शयन करते रहे। महान ब्रह्माण्डों के आकार में, नीले-हरे रंग की झाँई वाला पीताम्बर पहने, सर्वव्याप्त युवा जनार्दन, शयन करते रहे। उनकी नाभि से ब्रह्माजी ने जन्म लिया, जन्म लेने के उपरान्त वे नाभिकमल में भ्रमण करने लगे और इस कमल के तने में एक लाख युगों तक भ्रमण किया, परन्तु वो इस बात का पता न लगा सके कि इस कमल के तने का आरम्भ कहाँ से है। हे नारद! तब तुम्हारे पिता बहुत हैरान हुए और अपने पूर्व सारे ब्रह्माण्ड प्रकट हुए हैं और हर ब्रह्माण्ड में एक स्थान पर वापिस आकर श्री कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान करने लगे। अपने ध्यान में अन्त्दृष्टि द्वारा पहले उन्हें नन्हें विराट दिखाई दिए और उसके बाद जलशैय्या पर शयन करते हुए महाविराट के दर्शन है जो अत्यन्त सुख एवं मोक्ष की दाता है। अब उन्हें हुए, उन महाविराट के, जिनके रोम-रोम में बताओ तुम और क्या सुनना चाहते हो? इसके साथ ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं। तत्पश्चात उन्होंने गोलोक में ही महापुराण श्रीमद् देवी भागवत् के अट्ठारह हजार गोप-गोपियों के साथ भगवान कृष्ण को देखा। वे गोलोकस्वामी की स्तुति करने लगे। जब गोलोक स्वामी ने तुम्हारे पिता को वरदान दिया तब उन्होंने सृष्टिसृजन का कार्य आरम्भ किया। (58-62) तुम्हारे पिता के मस्तक से सबसे इसके बाद उनके मस्तक से एकादशरुद्र प्रकटे हुए। तत्पश्चात् जलशैय्या पर लेटे नन्हें विराट के बाएं पक्ष से ब्रह्माण्ड परिरक्षक भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप (Shwetadvipa) चले गए और वहीं रहने लगे। तब तुम्हारे पिता इस नन्हें विराट पुरुष की नाभि में इस चल-अचल त्रिलोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) से बने इस ब्रह्माण्ड के सृजन कार्यों में लग गए। है, नारद! इस प्रकार से इन महान विराट के रोम-रोम से नन्हा विराट है, एक ब्रह्मा हैं, एक विष्णु है, एक शिव है तथा सनक आदि भी हैं। हे, द्विजोत्तम! इस प्रकार से मैंने श्री कुष्ण की महिमा का वर्णन किया श्लोकों में महर्षि वेद व्यास वर्णित ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अवतरण के नौवें स्कन्द का तीसरा अध्याय निर्मला योग- 1983 समाप्त होता है। (रूपान्तरित) असफलताएं सफलता की सीढ़ियाँ हैं दृष्टिहीनता का मुकाबला करके चार्टड अकाऊंटेंट बनने वाली एक महिला का कथन) ' दृष्टिहीनता की शिकार सी. ए,जी. रजनी उन अलभ्य साहसिक महिलाओं में से हैं जिन्होंने सी. ए. की डिग्री प्राप्त करने के लिए मार्ग में आने वाली चुनौतियों को स्वीकार किया और अन्ततः दक्ष पेशेवर बनने में सफल हुई। सम्मानमय पद पर आरूढ़ सी.ए, बिरादरी तथा सी.ए. बनने के आकांक्षी लोगों से वे उन चुनौतियों के विषय में बताती हैं जिनका उन्हें सामना करना पड़ा। दृष्टि से ही अपनी स्नातिक डिग्री तथा इन्टरमीडिएट सी ए. की पढ़ाई पूर्ण की । वर्ष 1994 में मेरी दृष्टि पूर्णतः समाप्त हो गई। मेरे पिताजी की निरन्तर बीमारी के कारण मुझे शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक मोर्चों पर एक साथ युद्ध करना पड़ा। "मैंने सहजयोग ध्यान-धारणा करना आरम्भ किया। जिसके आशीर्वाद स्वरूप इस मानसिक आघात से ऊपर उठने के लिए मुझे आत्मबल और पूर्ण सन्तुलन प्राप्त हुआ।" चिकित्सकीय लापरवाहियों के कारण नौ वर्ष की आयु में ही मुझे स्टीवन जॉनसन सिंड्रोम (Steven Johnson Syndrome) रोग हो गया और निरन्तर मेरी दृष्टि दुर्बल होती चली गई। इसके बावजूद भी मैंने सीमित अन्ततः निरन्तर परिश्रम, प्रयत्न, सत्यनिष्ठा और दूढ़ निश्चय से मैंने अपना लक्ष्य प्राप्त किया। ा मैंने सहजयोग ध्यान-धारणा करना आरम्भ किया। जिसके आशीर्वाद स्वरूप इस मानसिक आधात से उठने के लिए मुझे आत्मबल और पूर्ण सन्तुलन प्राप्त हुआ।" 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-19.txt परम पूज्य श्रीमाताजी का परामर्श आत्मसाक्षात्कार देते हुए यदि आपको भूख लगी होगी या कोई अन्य शारीरिक आवश्यकता आपको होगी तो उसका आप पर कोई प्रभाव न होगा। आध्यात्मिकता के इतिहास में कभी भी किसी इतने कम समय में कुण्डलिनी जागृत नहीं की जैसे आप लोग कर रहे हैं। ये आपकी अंगुलियों के इशारें पर चलती है। ये श्री गणेश की शक्ति है जो आपको प्रदान की गई है। किसी प्रकार का चित्त विक्षेप न होगा। आप कोई भी गरिमाविहीन कार्य नहीं करेंगे उस समय आपको आत्मविश्वास प्रदान करने के लिए आपको गरिमा का आशीष मिलता है। उस समय न आपके अन्तर्स्थित श्री गणेश ने स्वयं आपको तो आप मज़ाक करेंगे, न किसी का मजाक उड़ाएंगे गणेशशक्ति प्रदान की है। आपको आत्मविश्वास और न ही ओछापन दिखाएंगे। आप उस व्यक्ति से प्रदान करने के लिए, ताकि आप कुण्डलिनी जागृत कर सकें। परन्तु आत्मविश्वास का अर्थ आपके अन्दर कर्ताभाव आना बिल्कुल नहीं है, कि आप कुण्डलिनी उठा रहे हैं। सहजयोग के प्रति स्वयं को समर्पित किए बिना यदि चलते हैं तो कुछ ही समय इस प्रकार बात करेंगे कि वह व्यक्ति भी विवेकशील बन जाएगा। आपकी बातें विवेक से परिपूर्ण होंगी। यदि आप श्री गणेश का अनुसरण करें तो इन शक्तियों को बनाए रखा जा सकता है। ये श्री गणेश की शक्तियाँ है । पश्चात् शीध्रता से आप ये शक्ति खो देंगे । आपमें आदिशक्ति की तीन शक्तियाँ कार्य जब आप अपना हाथ कुण्डलिनी पर चला रहे होते हैं तो महानतम शक्ति का उपयोग कर रहे होते हैं। मैं नहीं जानती कि आपको स्वयं में, तथा प्राप्त हुई शक्ति में, कितनी श्रद्धा है! उस समय आपके हाथ के सम्मुख किसी से भी कोई बाधा नहीं आएगी । करती हैं। एक आपको दीर्घायु प्रदान करती है और इच्छाओं के मामले में आपके विचारों को पावन करती है। आपकी इच्छाएं यदि शुद्ध हैं तो ये शक्तियाँ आपकी सभी इच्छाओं को पूर्ण करती हैं। अपने हृदय को बन्धन देकर आप ये शक्तियाँ प्राप्त कर सकते हैं। आपमें जो भी इच्छा हो उसे सात बार अपने हृदय में दोहराएँ। इसे बन्धन दें और कार्य हो जाएगा। परन्तु मूर्खतापूर्ण इच्छाओं के लिए इसका दुरुपयोग न करें क्योंकि ऐसा करने से आपकी ये शक्ति चली जाएगी। इसका उपयोग कोई उच्च उपलब्धि पाने के लिए करें। जब आप कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं तो जागृति लेने वाले व्यक्ति का चित्त बाह्य चीज़़ों की ओर आकर्षित नहीं होगा उसका अर्थ ये है कि आप किसी भी समय कुण्डलिनी जागृत कर सकते हैं क्योंकि उस समय आपका निवास बन्दकमल में होता है। कुण्डलिनी जागृत करते हुए आपके अन्दर जागृति लेने वाले व्यक्ति के प्रति अपवित्र भावनाएं नहीं आएंगी। पहले या बाद में ऐसा हो सकता है, सभी लोग आपकी ओर ऐसे आकर्षित होंगे जैसे चम्बक की ओर और सदैव महान आत्माएं और देवदूत आपका पथ प्रदर्शन करेंगे। परन्तु आत्मसाक्षात्कार देते । अन्दर ये अपवित्र भाव नहीं आएंगे। आपको अपना मस्तिष्क शान्त नहीं करना पड़ेगा, स्वतः ही ये कार्य हो जाएगा आप पूर्णतः सन्तुष्ट हो जाएंगे। हुए नहीं। स्वत: ही आपके इच्छा की यह शक्ति हर सम्भव तरीके से आपकी सुरक्षा करती है, आपका पथ प्रदर्शन करती है, आपकी देखभाल करती है, आपको शान्ति प्रदान 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-20.txt अंक क : 7 & 8 -2007 20 चैतन्य लहरी करती है और सहजयोग में गहन श्रद्धा देती है। सहजयोग के प्रवाह के साथ स्वयं को बहने दें। यदि ये कार्यान्वित हो जाए तो बहुत अच्छी बात अन्तत: आप सहजानन्द से परिपूर्ण हो जाते हैं तथा सहजयोग के अतिरिक्त आपको कुछ अच्छा नहीं है और न हो तो भी ठीक है। इसे इस प्रकार चलने दें और आप हैरान होंगे कि कैसे ये महालक्ष्मी शक्ति सुधरती है ओर इसके आशीर्वाद भी बहुत आश्चर्यजनक है! लगता। परन्तु कई बार अहलिप्त होकर हम समझ लेते हैं कि हमारा अहं ही सहजयोग है। कई बार, मैंने देखा है कि लोग किसी चीज़ को केवल इसलिए पसन्द करते हैं क्योंकि वह उनके अहं से जुड़ी है। अहं को सहजयोग से अलग कर लेना चाहिए और शक्ितयाँ जागत हो गई हैं। उदाहरण के रूप में इसे अपने जीवन में, अपने रोजमर्रा के जीवन में लाना चाहिए। परस्पर मिलते हुए, एक दूसरे से बात करते हुए, आपको देखना चाहिए कि यह बिल्कुल जाते हैं कि आप सहजयोगी हैं, खाते हुए आपको इसी प्रकार से आपके अन्दर एक हज़ार एक विशुद्धि के चक्र में आपके अन्दर सोलह हजार शक्तियाँ जागृत हो गई हैं। परन्तु बोलते हुए आप भूल वैसे ही हो जैसे सागर की एक लहर चढ़ती है फिर उतरती है, दूसरी लहर चढ़ती है और उतरती है और सभी परस्पर एक हो जाती हैं। समझ नहीं आता कि आपकी जिहवा सहजयोगी की जिह्वा है और इसे किसी चीज़ की लालसा नहीं होनी चाहिए। खाने के विषय में बहुत अधिक सोचने से आपकी विशुद्धि खराब होती है, बहुत अधिक। मध्य-शक्ति से आप लोगों को आत्मसाक्षात्कार देंगे, उनको चक्रों के विषय में बताएंगे और अपने मेरे सम्मुख किसी की बुराई करने से, किसी की चक्र ठीक करेंगे। केवल इसी शक्ति से आप अपनी शिकायत करने से, आपकी विशुद्धि खराब होती है। इच्छा पर नियन्त्रण प्राप्त कर लेंगे। जैसा बनना चाहेंगे मैं यदि कुछ पूछू और आप बताओं तो ठीक है, परन्तु वैसे बनेंगे। बिना किसी कठिनाई के आप स्वयं को परिवर्तित कर सकते हैं श्री महालक्ष्मी की बहुत सी शक्तियाँ हैं जो आपने प्राप्त करनी हैं, परन्तु इसके लिए आपकी सुष्म्ना का स्वच्छ होना आवश्यक इसके लिए आपको अपने जीवन में निरलिप्सा का गुण विकसित करना होगा। नि्लिप्तता के बिना महालक्ष्मी की गहन शक्तियाँ विकसित न होंगी। उदाहरण के रूप में, छोटी-छोटी चीजों जैसे मुझसे उनके निर्णय पर निर्भर करेगी कि आप कहाँ पर हैं। सम्बन्ध जोड़ना- ये कार्य भी निर्लिप्त भाव से होना चाहिए। महालक्ष्मी की शक्ति अपने अन्दर विकसित कुछ लोग सोचते हों कि वो महान सहजयोगी हैं करने के लिए आपको निर्लिप्त होना होगा तब आप इससे परे (आगे) जाएं। आपका हर काम समय पर होने लगेगा। आपको समय देखने की आवश्यकता नहीं रहेगी। समय की इस शक्ति को बनाए रखने के चाहते हैं, हो सकता है कि इन लोगों का स्थान कहीं लिए आपको हड़कम्प मचाने की कोई जरूरत नहीं ऊँचा हो! इन परिस्थितियों में न तो व्यक्ति को शेखी ही है और न ही घड़ी का गुलाम बनने की जरूरत है बघारनी चाहिए और न ही अपने को बहुत उच्च मानना सब चलने दें। किसी भी चीज़ के बारे में जिद्द चाहिए। अपनी शक्तियों को तथा अपनी विशुद्धि को न करें। हर समय एक दूसरे की बुराई करने से आपकी विशुद्धि विगड़ेगी। जब आप दूसरों का आकलन करते हैं तब है। आपको जान लेना चाहिए कि परमात्मा तुम्हारा भी आकलन कर रहे हैं। दूसरों का आकलन करने में परमात्मा ने आपका भी आकलन किया है। ये बात आज जो लोग सहजयोग में हैं, हो सकता है उनमें से बहुत बड़े लोग है। परन्तु ये भी हो सकता है कि वो वास्तव में ऐसे न हों और जो लोग अपने को बहुत तुच्छ सोचते हैं और शक्ति को सुधारना और बढ़ाना सम्भाले रखने का यह बेहतर ढंग है। 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-21.txt चैतन्य लहरी 21 अक : 7 & 8 2007 बनने का प्रयत्न करें। और आपमें ये शक्ति है अपना चित्त हमेशा सकारात्मकता पर रखें, नकारात्मकता पर मैंने ये भी देखा है कि लोग बड़े ही अटपटे ढंग से मेरे बारे में बहस करने लगते हैं। मैं सोचती नहीं। मैंने देखा है कि प्रायः नकारात्मक लोग अन्य हूँ कि इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान ये है कि आप मेरे विषय में बिल्कुल बात न करें और यदि बोलें तो आपको इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि आप जो कह रहे हैं वह पूर्णतः ये जानते हैं कि आप लोगों के रोग दूर कर सकारात्मक है। यदि आप ऐसा नहीं करते तो स्वयं को तथा अन्य लोगों को हानि पहुँचा रहे हैं। तो इस प्रकार से विशुद्धि चक्र की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं और जब आप स्वयं को भ्रमित करने, और स्वयं से झगड़ने का प्रयत्न करते हैं तथा सोचते हैं कि आपके आने से सहजयोग को लाभ हुआ और तब आपमें वो शक्ति ही नहीं रहती। इसके नकारत्मक लोगों की ओर ही बढ़ते हैं। आपमें रोग निवारक शक्तियाँ हैं आप सकते हैं। परन्तु इस चक्कर में न पड़ें क्योंकि वहाँ पर महामाया अपनी भूमिका निभाती हैं जब मुझे लगता है कि आप किसी व्यक्ति विशेष से लिप्त हो रहे हैं तो मैं आपको रोकती हूँ। मैं ऐसे बहुत से कार्य करती हूँ जिनसे आपको रोक सकें हैं, तब ये समस्याएं विशेष रूप से बढ़ती हैं। आपको लाभ है सहजयोग को नहीं। सहजयोग स्वत: प्रमाणित हुआ है। इसे आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं है। विपरीत आप स्वयं भी काफी कष्ट भोगते हैं क्योंकि आप ये नहीं जानते कि इस नकारात्मकता से अपनी रक्षा कि प्रकार करनी है। अत: मैं आपसे प्रार्थना करती हैँ कि अन्य लोगों का इलाज करने से पहले स्वयं को रोग मुक्त करें, अन्य लोगों का इलाज करने के लिए आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग भी कर सकते हैं । यदि 'सत्य' है तो सत्य को स्वीकार करने से आपकी बढ़ोतरी हुई है, आपके पद में बढ़ोतरी हुई है, सत्य की स्थिति में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। अत: ये धारणा आपके मस्तिष्क से एकदम निकल जानी चाहिए। यदि आप स्वयं को साक्षी अवस्था में रखें आप एक ऐसे दीप हैं जिसका प्रकाश अन्य लोगों के मस्तिष्क भी ज्योतिर्मय करता है ये बहुत महान चीज़ है। इससे पूर्व करोड़ों लोगों में से कोई से तो अपनी विशुद्धि को ठीक रखना सुगमतम कार्य है। आत्मसाक्षात्कार के बाद यदि आप हर चीज़ को निर्विचारिता में करने की आदत विकसित करें तो यह कार्य सम्भव है। ये आदत बना लेने से, आपको एक ऐसा व्यक्ति होता था, परन्तु अब आप बहुत लोग हैं। परन्तु यदि आप अपनी गुणवत्ता को बेहतर हैरानी होगी कि आपकी साक्षी अवस्था में सुधार नहीं बनाते तो मामला अत्यन्त निराशाजनक हो जाएगा। होगा और यह आपके अन्दर उन्नत होगी। अतः अवश्य अपनी गुणवत्ता को सुधारें। ये समझ लेना बहुत आवश्यक है कि परिवर्तित हुए बिना आपका कोई अर्थ नहीं है। आप जो हैं वही न बने रहें, जो आप बनना चाहते हैं वो निर्मला योग-1983 रूपान्तरित 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-22.txt श्री कृष्ण पूजा (पर्व) न्यू जर्सी 2 जून, 1985 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी के प्रवचन पर आधारित। आज हम श्रीकृष्ण की पूजा करने वाले हैं। भारत में श्रीकृष्ण का अवतरण उस समय हुआ जब वहाँ के लोग अत्यधिक कर्मकाण्डी हो गए थे। वे सन्तान थे परन्तु उन्होंने गीता लिखी! तो श्रीकृष्ण अवतार ने इस धारणा (जन्म से जाति) का उपहास किया। उन्होंने इस धारणा का उपहास किया कि केवल ब्राह्मण ही परमात्मा की इन तथाकथित ब्राह्मणों के दास बन गए थे, उन ब्राह्मणों के जिन्हें परमात्मा का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं पूजा कर सकते हैं। अत: श्री राम द्वारा बनाई गई कठोर मर्यादाओं को सन्तुलित करने के लिए, क्योंकि इन मर्यादाओं ने कट्टरता का रूप धारण कर लिया था, कर्मकाण्डों की कट्टरता और धर्मान्धता आ गई थी, लोगों को मध्य में लाने के लिए श्रीकृष्ण उन्हें विपरीत दिशा में ले गए। कर्मकाण्डों और धर्मान्धता का अन्त करने के लिए वे चाहते थे कि समाज दूसरी दिशा में रूप में अवतरित हुए। अत: उन्होंने एक नई धारणा का आरम्भ किया जो बिल्कुल सम्भावित थी। ऐसी धारणा का आना विकास प्रक्रिया के था। उन्होंने एक प्रथा आरम्भ कर दी थी कि ब्राह्मण का बेटा ही ब्राह्मण होगा। इस प्रकार जन्म से जाति का निर्णय होने लगा। इससे पूर्व ऐसा नहीं था कि ब्राह्मण का बेटा ही ब्राह्मण होगा। ये बात सत्य है कि आप यदि आत्म-साक्षात्कारी हैं, वास्तव में, आप यदि सच्चे आत्म-साक्षात्कारी हैं, तो आपके यहाँ जाए नि:सन्देह श्री राम ही श्रीकृष्ण जन्म लेने वाला बच्चा भी अवश्य आत्मसाक्षात्कारी होगा। इसी प्रकार से ये कहा जाता था कि पिता यदि ब्राह्मण है, आत्मसाक्षात्कारी है तो उसका बेटा भी ब्राह्मण ही होगा। क्योंकि अब आप सहजयोगी हैं, आप ये समझ सकते हैं कि सहजयोगी का बेटा भी प्रायः सहजयोगी ही बनेगा। अत: इस बात पर सहमति बन गई कि 'ब्राह्मण' के बच्चे ही ब्राह्मण कहलाएंगे। शनैः शनै: इसका अर्थ ये ले लिया गया कि व्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण कहलाएगी। अब हमने देखा है कि बहुत से सहजयोगियों के बच्चे सहजयोगी नहीं हैं। हो सकता है ये उनके कर्मों के कारण हो या बच्चों के कर्मों के कारण, कुछ भी हो सकता है। परन्तु मैंने ये भी देखा है कि कुछ सहजयोगियों के बच्चे भयानक आसुरी प्रवृत्ति (devilish) होते हैं। नहीं जानना चाहिए। किसी भी प्रकार के निषेध, इससे प्रकट होता है कि जन्म से आप ब्राह्मण होने का या ब्रह्मज्ञानी होने का दावा नहीं कर सकते। ब्रह्म तो सर्वव्यापी शक्ति है। अत: आपको अपने कर्मों से, कार्यकलापों से, ब्राह्मण बनना होगा। जैसे बाल्मिकी बने, जो वास्तव में मछुआरे थे। उन्होंने रामायण अनुरूप था। नई धारणा ये थी कि सभी कुछ मात्र एक लीला है। अत: किसी भी चीज़ को इतनी गम्भीरता से, कट्टरता पूर्वक, धर्मान्धता से नहीं लिया जाना चाहिए, किसी भी प्रकार से कट्टर नहीं होना चाहिए। सभी कुछ लीला है। श्रीकृष्ण ने इसी धारणा पर कार्य किया और इसकी स्थापना की कि सभी कुछ एक खेल मात्र है। अमेरिका में भी आप यही देखते हैं, ये आम-बात हैं, लोगों के लिए सभी कुछ मज़ाक बन गया है वो सोचते हैं कि जीवन को गम्भीरता पूर्वक किसी विशेष प्रकार की जीवन शैली में फँसने के स्थान पर सभी कुछ करने में अधिक आनन्द है। परन्तु अमेरिका में अब ये धारणा मजूाक बन गई है क्योंकि इस प्रकार की जीवन शैली अपनाने के लिए व्यक्ति को श्री कृष्ण बनना होगा, उसे आत्म साक्षात्कार प्राप्त करना होगा। जैसे यदि आप पानी में खड़े हैं तो पानी में लिखी। वे महान ब्राह्मण थे। इसके अतिरिक्त गीता के लेखक व्यासदेव जी हुए। वे मछुआरिन की अवैध ত 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-23.txt अंक : 7 & 8 2007 23 चैतन्य लहरी यह जानने के लिए आपमें विवेक बुद्धि होनी चाहिए कि कामदी क्या है, त्रासदी क्या है। आपके लिए ये कार्य है। आप यदि अभिनय कर रहे हैं तो आप अभिनय कर रहे हैं और आप अभिनेता हैं तथा इसमें लिप्त हैं। अत: उस स्थिति में त्रासदी और कामदी में अन्तर करना आपका कार्य नहीं है। जब तक आपको अच्छा पैसा मिलता है और आप अपने कार्य को भली-भाँति करते हैं तब तक आप मात्र एक अभिनेता हैं और यह आपके लिए कामदी है। अन्यथा ये त्रासदी है। चलने वाली लहरें आपके लिए पूर्णतः सत्य हैं परन्तु यदि आप सोचते हैं कि ये भ्रम है तो आप बिल्कुल नष्ट हो जाएंगे। 'यह भ्रम है' सोचने मात्र से सत्य भ्रम में परिवर्तित नहीं हो जाता। परन्तु यदि आप नाव में हैं तो आपके चहूँ ओर का पानी एक भ्रम मात्र है। यही बात उस अवस्था पर भी लागू होती है। जिसमें आप हैं। यदि आप आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में हैं तो सभी कुछ भ्रममात्र है, अन्यथा नहीं है। तब ये सच्चाई है। तो इस बिन्दु पर जो बात वो भूल गए वो ये थी कि आप उस अवस्था में नहीं हैं जिसे भ्रम कहा जाए। अत: हर चीज को भ्रम कहना अपने आपको धोखा देने जैसा है। ये सोचना कि यह सब मात्र एक भ्रम है, 'कोई बात नही', 'क्या बुराई है', 'तो क्या', ये बात प्रतीकात्मक है कि श्री कृष्ण की अवस्था में यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि सभी कुछ भ्रान्ति है। तो कौन गलत है, कौन बुरा है, कुछ भी बुरा कुछ लोग तो यहाँ तक भी कह देते हैं कि 'भूत', 'राक्षस', और 'आसुरी शक्ति' जैसी कोई चीज़ नहीं है। तो अब दो प्रकार की चेतनाएं हैं, एक चेतना दर्शक की है और दूसरी उस व्यक्ति की जो इसमें लिप्त है। अत: व्यक्ति को श्री कृष्ण के कथन 'सभी कुछ लीला है' के प्रकाश में समझना है कि यह बात वह अपने लिए कह रहे थे, अन्य लोगों के लिए नहीं। उनके लिए यह खेल है। अतः जब लोग आपसे 'लीला' और 'भ्रम' के बारे में बात करें तो आप अवश्य उनसे पूछे कि तब उन्होंने कस का वध क्यों किया? क्यों उन्होंने जरासन्ध का बध किया? नहीं है, बुरे-भले जैसा कुछ भी नहीं है । अब श्री कृष्ण चीजों को किस प्रकार देखते क्यों कंस का साथ देने वाले सभी लोगों को उन्होंनें थे? किसी राक्षस का वध करना भी उनके लिए खेल था- राक्षसों को नष्ट करना उनके लिए खेल था। उस लीला में ही उस राक्षस को नष्ट होना था। तो ही उन्होंने यह सब कार्य किए। उन्होंने एक प्रकार से अन्तर किया कि कौन सी लीला को नष्ट करना है और कौन सी को नहीं। उन्होंने अपनी लीला से आसुरी लीला को नष्ट किया। अत: ये कहना गलत होगा कि 'कुछ भी बुरा नहीं है। आप यदि ये कहते हैं कि सभी कुछ एक लीला है तो होता क्या है कि इसके प्रति आपका दृष्टिकोण दर्शक जैसा बन जाता है। एक दर्शक की तरह से आप हर चीज को देखते हैं। जैसे किसी नाटक में जब आप बैठते हैं तो हर चीज को दर्शक के नजूरिए से देखते हैं। परन्तु आपको इस बात का ज्ञान होता है कि त्रासदी किस चीज़ से बन रही हैं इसी कारण से आप लोग भी बिना अधिक परम्पराओं और कामदी (Comedy) का सृजन किस चीज़ से हो रहा है। इनके विषय में आप निष्क्रिय हैं तो बेकार हैं। इसका अर्थ ये नहीं है कि आप निष्क्रिय हो जाएं। समाप्त किया?' तो उनके लिए यह एक खेल था, उनके लिए सभी कुछ खेल था और लीला मानकर अतः यदि आपके अन्दर श्री कृष्ण की शक्तियाँ जागृत हैं तो सर्वप्रथम आपमें विवेक जागृत होना चाहिए। विवेक को वर्णन नहीं किया जा सकता। आप ये नहीं कह सकते कि विवेक क्या है? इसका वर्णन करना या चित्रण करना बहुत कठिन है। विवेक तो स्वभाव है, व्यक्तित्व का ऐसा गुण जो बार-बार प्रयत्न और गलतियाँ करके स्वयं को संतुलित करने से प्राप्त होता है। सभी पारम्परिक देशों में अन्तर्जात विवेक उन देशों से कहीं अधिक है जो पारम्परिक नहीं हैं। परन्तु श्री कृष्ण ने सभी परम्पराएं तोड़ दीं। के यहाँ मौजूद हैं। श्रीकृष्ण ने सभी परम्पराएं तोड़ दीं परन्तु वे श्री कृष्ण थे उन्हें परम्पराओं की बिल्कुल आवश्यकता न थी। परन्तु आप लोगों को परम्परावादी 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-24.txt चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 2007 24 लोगों से विवेक सीखना है। अत: हम प्रयत्न करते हैं रंगते हैं, आप उन्हें कहें कि ऐसा मत करो इससे और गलतियाँ करते हैं । गलतियाँ करते हैं और उनसे सीखते हैं। परन्तु अमरीका जैसे देश में जब अहं को विगाड़ने का हमें पूरा हक है स्वयं को नष्ट शक्तिशाली हो जाता है तब हम गलतियों को स्वीकार करने का हमें अधिकार है! मानों वे श्रीकृष्ण हों जो ही नहीं करते। यह हमारी उत्क्रान्ति, हमारी लक्ष्य प्राप्ति के विरुद्ध है। तुच्छ उद्देश्यों को प्राप्त करके हैं? एक छोटी सी चींटी का सृजन तो वो कर नहीं हम सन्तुष्ट हो जाते हैं। जैसे मैंने सहजयोग में लोगों सकते। चींटी की तो वात क्या है वे एक पत्थर भी को बेतुके काम करते हुए देखा है। उन्हें ये भी नहीं बना सकते, तो उन्हें स्वयं को नष्ट करने का एहसास नहीं होता कि ऐसा करना उनके लिए हानिकारक है, जो भी कार्य वो कर रहे हैं वे उनके विरुद्ध हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा करना गलत है। इस कारण से उनकी बाई विशुद्धि पकड़ती है। आपमें क्योंकि विवेक का अभाव है इसलिए आप गलत कार्य करते हैं। विवेक विकसित करने के लिए एवं उनकी शक्ति प्रदान करती हैं। उसके कटाक्ष मात्र आप गलतियाँ करते हैं। गलतियों के बारे में विवेकशील होने के स्थान पर, उन्हें महसूस करने, आगे न करने है, यदि उसमें चेतना है तो उसके कटाक्ष मात्र तथा उनका सामना करने के स्थान पर हम दोषभावे में कुण्डलिनी जागृत करने की शक्ति होनी चाहिए। ग्रस्त हो जाते हैं और पलायन करने के चक्कर में आपकी आँखें खराब हो जाती हैं 'तो क्या'? स्वयं स्वयं को नष्ट कर सकते हैं। क्या वे ऐसा कर सकते क्या अधिकार है? अत: यह दाईं ओर का दोष है जिसमें हम सोचते हैं कि हमें नष्ट करने का अधिकार है। कल जैसे मैंने आपको बताया था, आँखें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ये आपको श्रीकृष्ण की लीला से, दृष्टि मात्र से, जिस व्यक्ति में श्रीकृष्ण की चेतना कृष्ण उत्थान प्रदान करने की शक्ति होनी चाहिए, सुख प्रदान करने की शक्ति होनी चाहिए, किसी को भी अपने अन्य चक्र भी बिगाड़ लेते हैं। इस प्रकार से लोगों को बाई विशुद्धि की समस्या हो जाती है। बाई रोग मुक्त करने की योग्यता होनी चाहिए। व्यक्ति में विशुद्धि अर्थात दोषभाव ग्रस्त होना। गलतियों का सामना करने के स्थान पर स्वयं को दोषी महसूस करना, गलतियों से पलायन करने का बहुत अच्छा तरीका है। वास्तव में हमने देखा है कि अहं के जो स्वयं कहते हैं कि हमारे अन्दर कृष्णचेतना है, जो कारण बाईं विशुद्धि की समस्या आती है। जब अहं बहुत बढ़ जाता है तो आप अहं को सहन नहीं कर सकते और दोष भाव में अहं को रखकर आप कहते हैं। दोष भाव-ग्रस्त होकर आप इसकी अभिव्यक्ति हैं मैं अत्यन्त दोषी हूँ- मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए यदि कृष्ण चेतना है तो उसके एक कटाक्ष, एक तरफ से देखने मात्र से, ये सब कार्य हो सकते हैं। परन्तु स्वप्रमाणित लोग ऐसा नहीं कर सकते, वो लोग हर समय श्रीकृष्ण या राम का मन्त्र जपते रहते हें अत: बाई ओर को पलायन स्वयं को दोषी मानने में का तरीका खोजने लगते हैं और किसी गुरु के पास जाते हैं जो कोई मन्त्र दे देता है और वे उसे रटे चले जाते हैं। परिणामस्वरूप उनकी दाई विशुद्धि भी बिगड़ जाती है, क्योंकि बिना योग के यदि आप मन्त्र रटे चले जाएं तो पूरी तरह से पकड़ जाते हैं। तो बाईं विशुद्धि बिल्कुल खराब हो जाती है और आपके मन्त्र बिल्कुल बेकार हो जाते हैं । ऐसे गुरु साधकों को बर्बाद कर रहे हैं। वास्तव में मैंने देखा हैं कि बहुत से लोग जिन्हें हृदयाघात, हृदयशूल और कैंसर आदि था। अब दूसरी ओर दाईं विशुद्धि है जो बहुत ही भयानक है। दाईं विशुद्धि के कारण हम अपने सारे विवेकहीन आचरण को उचित ठहराने का प्रयत्न करते हैं । तो क्या गलती है? इसमें क्या बुराई है? तो क्या? ये सब दाई विशुद्धि की समस्याएं हैं। किसी अन्य को ये कहना आम बात है कि ऐसा करना गलत है। उदाहरण के लिए लोग अपने बालों को 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-25.txt अंक : 7 & 8 -2007 चैतन्य लहरी 25 रोग होते हैं वे वही लोग हैं जो बिना परमात्मा से योग प्राप्त किए मन्त्रोच्चारण किए चले जाते हैं। यदि आपका योग नहीं हुआ, उदाहरण के रूप में, मान लो ये यन्त्र ठीक से जुड़ा हुआ नहीं है और में इसका बहुत अधिक उपयोग किए चली जाऊं तो यह बिल्कुल खराब हो जाएगा। अत: बिना योग के यदि आप मन्त्रोच्चारण करेंगे, मन्त्र की शक्ति को महसूस किए बिना, तो बाईं मैं इसलिए नशे में धुत्त हुआ क्योंकि मैं आपकी सहायता करना चाहता था। या हिटलर कह सकता है कि "मैंने इतने सारे लोगों की हत्या इसलिए की क्योंकि मैं उन सभी यहूदियों को समाप्त करना चाहता था जिन्होंने ईसा-मसीह की हत्या की।" तो यह दाई विशुद्धि आपको ऐसा मस्तिष्क प्रदान करती है जो आपके हर दोष को तर्कसंगत ठहराने और उसकी व्याख्या करने का प्रयत्न करता है। सभी ओर का चक्र खराब हो ही जाएगा। सहजयोग में बाई ओर के मन्त्रों के दुष्प्रभाव कार्यों को तर्कसंगत ठहराया जा सकता है। तुमने को कम करने के लिए भी मन्त्र हैं। बड़ी-बड़ी बातें करने से दाई ओर की समस्याएं होती हैं। राजनीतिज्ञों किया? इस कारण से। एक बार जब आप अपने के लिए ये आम बात है। वे बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, सोचते हैं कि वे बहुत जिम्मेदार आदमी हैं परन्तु सारे तब जो कुछ गैर जिम्मेदाराना काम करते हैं। दाई विशुद्धि चक्र को यदि किसी ने बिगाडूना हो तो वह गैर-जिम्मेदाराना कोई तर्क होता है। जैसे यदि मैं कहूं कि अमरीकन बातें करें। इसी प्रकार से हम कह सकते हैं "मैं आपके लिए ऐसा कर दूंगा, मैं वैसा करुंगा, मुझे ये उनकी भूमि छीन ली और बड़ी आसानी से यहाँ बस पसन्द है, मैं ये खोज सकता हूँ, मैं यह संचालन कर सकता हूँ।" समाप्त। अहंकारपूर्वक जब आप कहने विशुद्धि पकड़ जाएंगी, ओह हम अत्यन्त दोषी हैं, लगते हैं कि "मुझे ये करना होगा, मैं यह करुंगा", तब आपका अहं झलकता है, परन्तु इसके विपरीत यदि आप ये कहें, "आपके लिए मुझे ये करना है. करेगा? वो कहेगा, "ठीक है, मेरे पूर्वजों ने ये कार्य हे परमपिता मुझे आपके लिए ये कार्य करना है, हे माँ, "मैं आप ही का कार्य कर रहा हूँ।" तब सारा अहं लुप्त हो जाता हैं और आपको इस्लाम(समर्पण) की स्थिति प्राप्त हो जाती है। 'इस्लाम' समर्पण के मैं उनका देखभाल करूंगा। जो भी सम्भव हुआ अतिरिक्त कुछ भी नहीं। अत: ये कहते हुए स्वयं को उन्हें देने का प्रयत्न करूंगा।" सामना करने का ये समर्पित करें कि "हे पिता, ये आपका कार्य है, मैं तरीका है, ये कहना नहीं कि मैं दोषी हूँ क्योंकि मेरे आपके लिए कार्य कर रहा हूँ, मैं आपका माध्यम हूँ, पूर्वजों ने ऐसा किया, वैसा किया। आप इसके विषय में आपका फल हूँ।" अत: परमात्मा का संगीत में क्या कर रहे हैं? बजाएं परन्तु उसके लिए भी विवेक का मध्यबिन्दु उपयोग करना होगा। कत्ल क्यों किया? इस कारण से। तुमने ऐसा क्यों गलत कार्यों को तर्कसंगत ठहराने लगते हैं तो दाई विशुद्धि मस्तिष्क तक चली जाती है। भी आप करते हैं उसके लिए आपके पास कोई न इस देश में आए, वास्तव में उन्होंने यहाँ के लोगों से गए। मेरे ऐसा कहते ही अधिकतर लोगों की बाई हमने ऐसा किया, हमने वैसा किया। परन्तु सच्चा सहजयोगी ऐसा नहीं करेगा। सच्चा सहजयोगी क्या किया था, मैने नहीं किया, परन्तु मैं इसे सुधारने का प्रयन करूंगा। में प्रजातिवाद से ऊपर उठने का प्रयत्न करूंगा। जिन लोगों की भूमि छीन ली गई है मैं मैं स्विटज़रलैण्ड गई और कहा कि स्वयं को दोषी मत मानो। तो एक महिला कहने लगी "वियतनाम के लिए मैं स्वयं को दोषी समझतो हूँ। मैंने पूछा, "आपने वहाँ क्या किया? केवल वियतनाम के लिए ही क्यों आप स्वयं को दोषी मान रही हैं? आप तो वहाँ युद्ध करने के लिए नहीं गई, तो क्यों हर बार विवेक में चले जाएं, कुछ लोग सभी उल्टे-सीधे कार्य करके कहते हैं, "हमने आपके लिए ये किया।" ये कैसे हो सकता है? जैसे कोई शराब पीना चाहता है, तो वो कहते हैं, " श्रीमाताजी 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-26.txt चैतन्य लहरी अंक :7 & 8 -2007 26 आप स्वयं को इसके लिए दोषी मान रही हैं?" तो वह कहने लगी "मैं इसलिए स्वयं को दोषी मानती हूँ क्योंकि में सोचती हूँ कार्य किए हैं। मैंने पूछा, परन्तु आप स्वयं को स्वतन्त्र कैसे कहती हैं? तो यह भी एक अन्य बात है जो अविवेक के कारण आती है। हम अचानक ऐसे व्यक्तित्व बन जाते हैं जो पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। तब हम सोचते हैं कि ओह, हम अमरीकन लोग पूरे विश्व के हैं। ठीक है- कैसे? जिस दिन आप पूरे विश्व के बन जाएंगे अधिकतर समस्याओं का समाधान हो जाएगा। ये सबसे बड़े सिर दर्द हैं, जैसे रूस के लोग हैं दोनों पूरे विश्व के लिए सिरदर्द हैं। यदि वे पूरे विश्व के बन जाएं तो कोई समस्या हैं ही नहीं क्योंकि तब तो वे प्रेम बन जाएंगे। परन्तु स्वयं को ऐसी अवस्था में मान लेना जहाँ हम सोचें, हम लगे कि उन्हें दूसरों को मारने का अधिकार है । कैसे, हैं, 'हम।' हम कौन है? पति-पत्नी, बाप और बच्चे तो मिलकर रह नहीं सकते, माँ बच्चों के साथ नहीं किस प्रकार आप किसी की हत्या कर सकते हैं ? रह सकती, तो हम क्या हैं? हम कहाँ हैं? इतना विखण्डन? जेब के चाकू तथा ऐसी ही छोटी-छोटी चीजों के लिए भी तो वे आपस में झगड़ते हैं। कौन सा जेब का चाकू खरीदना है इस बात के लिए तो वे झगडते हैं। हम कैसे हैं? न उनमें कोई एकता है और न सामंजस्य और विशुद्धि चक्र इन सबके की चिंता छोड़ दें, वह कार्य परमात्मा को करने दें। बिल्कुल विपरीत है। चीज़ों को शक्तिहीन कर दो जो मानव के लिए विनाशकारी हैं।' सहजयोगी को यही चीज़ मांगनी है। उसकी अपेक्षा कई बार सहजयोगी इन्हीं विनाशकारी धारणाओं का साथ देने लगते हैं! ये बात ठीक नहीं है। आपको साहस-पूर्वक इसका विरोध करना चाहिए। ने गलत हम....० १ श्रीकृष्ण ने जब अर्जुन से कहा कि अपने सारे सम्बन्धियों, सारे मित्रों, गुरुसम प्रतीत होने वाले लोगों का वध करो क्योंकि "ये सब तो पहले से ही मरे हुए हैं। तो ये बात श्रीकृष्ण ने कही थी जो कि एक अवतरण थे। परन्तु इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि आप भी अर्जुन की तरह से लोगों का वध करना आरम्भ कर दें। आप अर्जुन नहीं हैं| इस प्रकार की धारणाओं के कारण मनुष्य ने कुछ संस्थाएं बना लीं और दूसरे लोगों का वध करने लगे सोचने क्या आपमें भले-बुरे का बिल्कुल विवेक नहीं है? हत्या करने के स्थान पर लोगों को बचाना शुरु करें। मान लो आप किसी नाव को डूबते हुए देखते हैं, उसमें सवार लोग डूब रहे हैं तो आपको लगता है कि आपको उन्हें बचाना चाहिए। आप उन्हें बचाएंगे या नष्ट करेंगे? अब वध करने का समय नहीं है। मारने आपको तो लोगों की रक्षा करनी है, अधिक से अधिक लोगों को बचाना है, गलत लोगों को भूल अतः आरम्भ से ही यदि आप किसी साक्षात्कारी व्यक्ति को देखें तो वह हर चीज को जाए, उनसे कोई सम्बन्ध न रखें। खेल की तरह से देखेगा। असुरों का विनाश भी महत्वपूर्ण है क्योंकि बुराई को यदि नष्ट नहीं किया समझनी है कि आप यहाँ किसी का वध करने के गया तो असुरों का साम्राज्य आ जाएगा| क्या आप हैं कि हिटलर की रक्षा करके उसे परमात्मा अत: सहजयोगियों के रूप में आपने ये बात लिए, किसी को नष्ट करने के लिए या कोई अनुचित कार्य करने के लिए नहीं। कठोर शब्द बोलने की भी सोंचते का प्रभारी बना दिया जाता? हिटलर की हत्या करके उसकी रक्षा की गई। श्रीकृष्ण के जीवन से यह बात समझी जानी चाहिए कि आप लोगों के हित के लिए असुरों का नष्ट होना आवश्यक है। अतः आपने प्रार्थना करनी है कि 'हे परमात्मा विश्व की सारी आवश्यकता नहीं है। परमात्मा सब सम्भालेंगे। आप मंच पर हैं और परमात्मा आपकी सहायता करने के लिए उत्सुक हैं क्योंकि आप उनका कार्य कर रहे हैं। परन्तु उनका कार्य करते हुए उनकी तलवार अपने हाथ में लेकर लोगों को मारना न शुरु करें। सहजयोग में ये आम बात है। मैंने देखा हैं कि यहाँ लोग आसुरी शक्तियों को समाप्त कर दो। सभी ऐसी बहुत 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-27.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 27 मात्र से वह व्यक्ति भस्म हो जाएगा। श्री कृष्ण गुफा आक्रामक हो जाते हैं। वे अत्यन्त क्रोध-पूर्वक बात करते हैं । विशेष रूप से पहली बार कार्यक्रम में आने में घुसे और अपना पीतवस्त्र उस सन्त को ओढ़ा वाले लोगों से। नए लोगों के प्रति करुणामय, सज्जन और भले बनने के स्थान पर वे एकदम से कहते हैं हुए वह राक्षस भी गुफा में आया और पीतवस्त्र ओढ़े तुम भूत हो।' यह आम बात है। क्या आपने कभी मुझे ऐसा कहते हुए देखा है? फिर, विशुद्धितत्व के विरुद्ध, आप परस्पर आक्रामक होने लगते हैं। आपने आक्रामक नहीं होना क्योंकि आपकी हर गतिविधि विवेक बन जाती है। विवेक क्या है? यह नीति है। के कारण श्री कृष्ण 'रणछोड़दास' कहलाए। यह आपकी विवेकबुद्धि से परमेश्वरी नीति की अभिव्यक्ति होती है। आपमें यदि समझ है तो आप जान जाते हैं की। अपने विवेक के कारण भले-बुरे में अन्तर करने कि फलां व्यक्ति खतरनाक है। वह आपको कष्ट दे के लिए उन्हें कोई समस्या न हुई। उन्हें अपनी सारी रहा है। आपमें यदि समझ है तो आप उस व्यक्ति को शक्तियों को पृथ्वी पर लाना था। उनकी सभी शक्तियाँ इस प्रकार से अपने बीच से हटा देंगे कि उसके बाद वहाँ कोई परेशानी न रहेगी। परन्तु आप क्या करते हैं कि उस व्यक्ति को चुनौती देते हैं और युद्ध आरम्भ हो जाता है। सहजयोगी लड़ते हैं और मेरी समझ में नहीं आता कि इन लड़ाईयों के बारे में क्या कहूँ। आपमें सूझ-बूझ और विवेक होना आवश्यक है। उन्होंने सभी प्रकार की लीलाएं की। मान लो कोई व्यक्ति आपके पास आकर कहता है कि फलां व्यक्ति ने ऐसा कहा और फिर उसके पास जाकर आपके बारे में कुछ गलत बताता है और आप लोग झगड़ने लगते हैं। इस सबका कारण खोजे बिना हैं वे महालक्ष्मी हैं और बही हमारी सुषुम्ना नाड़ी की ये सोचे बिना कि हम तो मित्र हैं- अब क्या हो गया है? ऐसा करने की अपेक्षा लोग क्रोधित हो जाते हैं उनका बायाँ हाथ बाहर होता है क्योंकि बाईं ओर और झगड़ने लगते हैं। ये आत्म-साक्षात्कारी लोगों का तरीका नहीं है। उन्हें तो अत्यन्त विवेकमय कोमल ढके रखती हैं क्योंकि वे महासरस्वती की शक्ति और सुन्दर होना चाहिए। केवल तभी आप सहजयोग को कार्यान्वित कर पाएंगे। तो श्रीकृष्ण का अवतार परमेश्वरी कूटनीति का अवतरण था। वो लीला करते हैं। उदाहरण के मन्दिर है जहाँ उनकी पूजा होती है। अत: वे अपने लिए एक राक्षस को श्री शिव का वरदान प्राप्त था दाएं पक्ष को ढक कर रखती हैं और बायाँ बाजू कि कोई उसका वध नहीं कर सकता। उससे यद्ध उघाड़ती हैं। अपने सारे भक्तों की रक्षा के लिए करते हुए श्रीकृष्ण रणभूमि से भाग खड़े हुए। भागते-भागते वे एक गुफा में जा छिपे जहाँ एक सन्त योगनिद्रा में सोया हुआ था। उसे वर प्राप्त था कि यदि कोई उसे नींद से जगाएगा तो उसकी दृष्टि एक दिन नारदजी ने उनकी एक पत्नी को भड़का दिया और स्वयं छिप गए। श्रीकृष्ण का पीछा करते उस सन्त से कहने लगा, 'हाँ, थककर सो गए हो! राक्षस ने ज्यों ही जोर से पीतवस्त्र को खींचा तो उस सन्त की नींद टूट गई और उसकी दृष्टि मात्र से वह राक्षस वहीं भस्म हो गया। युद्ध के मैदान से भागने उनकी दिव्य नीति थी। पूरा जीवन श्रीकृष्ण ने लोला स्त्रीरूप में पृथ्वी पर अवतरित हुईं, एक बलशाली राजा उन्हें अपने दरबार में ले गया। उस राजा को पराजित करके श्रीकृष्ण अपनी सारी शक्तियों को अपने साथ ले आए और उनसे विवाह कर लिया। अब मैं तुम्हें वह कहानी सुनाती हूँ जो लीला उन्होंने राधाजी के साथ की। आज मैंने भी राधा जी जैसे वस्त्र पहने हुए हैं क्योंकि वे विराटांगना रक्षा करती हैं। वे भी इस प्रकार से साड़ी पहनती हैं। महाकाली की शक्ति है और अपने दाई बाजू को वे हैं अर्थात सृजनात्मक शक्ति। उन्होंने ही सारा सृजन किया है- पृथ्वी का सृजन, मानव का सृजन- सभी कार्य किए हैं। भारत में ब्रह्मदेव का केवल एक उनका विशाल आँचल है। तो मैं उनकी कहानी सुनाऊंगी। उनकी कहानी सुनाकर राधा और श्रीकृष्ण का प्रवचन समापन करूंगी। 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-28.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 28 2007 धूल लेकर श्रीकृष्ण के पास आए। श्रीकृष्ण ने पूछा, "क्या उन्होंने अपने चरणों की धूल दे दी?" नारदजी बोले, 'हाँ' मैं हैरान हूँ कि उन्होंने पाप-पुण्य की भी चिन्ता नहीं की! श्रीकृष्ण ने कहा, 'मैं जानता हूँ।' श्रीकृष्ण ने राधा के चरणों की धूल ली, उनके चरणों को दिया कि श्रीकृष्ण तुमसे प्रेम नहीं करते वे केवल राधाजी से प्रेम करते हैं तुम्हें तो वे केवल कहानियाँ सुनाते रहते हैं। वास्तव में प्रेम तो वो राधाजी से करते हैं। उनकी सभी पत्नियों में ये बात फैल गई। सभी मिलकर श्रीकृष्ण के पास आई और कहने लगीं तुम हमसे प्रेम नहीं करते, केवल राधा को प्रेम करते हो । श्रीकृष्ण ने पूछा, "तुम्हें किसने बताया", उन्होंने उत्तर दिया नारद ने। श्रीकृष्ण बोले कि नारद झूठ बोल रहे हैं। वे तुम्हारे और मेरे बीच झगड़ा करवाना चाहते हैं, उनकी बात मत सुनो। परन्तु पत्नियों ने उनकी बात नहीं मानी। अचानक श्रीकृष्ण ने लीला की, वे पेट-दर्द से कराहने लगे। सभी को चिन्ता हुई। हृदय में हैं इन चरणों की धूल देना कौन सा पाप उन्होंने पूछा कि आपके दर्द को ठीक करने के लिएहै? उन महिलाओं ने जब ये बात सुनी तो वे समझ हम क्या कर सकते हैं ? श्रीकृष्ण ने कहा, "बहुत पाईं कि श्रीकृष्ण से उनका प्रेम कितना अधूरा है । आसान तरीका है, अपने चरणों की थोड़ी सी धुल श्रीकृष्ण को समझने के लिए उन्हें राधासम यदि पानी में मिलाकर मुझे पिला दो तो मैं बच सकता हूँ। पत्नियों से- सोचा कि ऐसा करना तो पाप होगा, और अपने पैरों की धूल देने से इन्कार कर दिया। इतने में नारद जी वहाँ आए और श्रीकृष्ण से पूछा कि अब क्या करें? श्रीकृष्ण ने कहा केवल एक तरीका है कि राधाजी के पास जाकर उनसे कहा कि श्रीकृष्ण के पेट में दर्द है। और उसके चरणों की धूल उनके पेट दर्द का इलाज है। नारद जी राधाजी के पास गए और उनसे कहा, "श्रीकृष्ण बीमार हैं उनके पेट में बहुत तेज़ दर्द है जो केवल तुम्हारे चरणों की धूल से दूर क्यों नहीं? मेरे चरणों की धूल ले जाओ।" नारदजी पर वृदावन की पीले रंग की धुल थी। उस धूल जब श्रीकृष्ण ने पिया तो नारद ने श्रीकृष्ण के हृदय -कमल पर राधाजी को विराजित देखा। हृदयकमल का पराग राधा जी के चरणों पर लग रहा था। इसी कारण से राधाजी ने कहा था, "कि में जब रहती ही श्री कृष्ण के हृदय में हूँ तो मेरे चरण भी श्रीकृष्ण के है। होना पड़ेगा। छोटी-छोटी लीलाओं द्वारा उन्होंने जीवन के मौन्दर्य की अभिव्यक्ति की। उन्होंने रास की-रास, शक्ति संचार। नृत्य य करते हुए सबमें शक्ति संचार किया। लीला के आनन्द को चरम-सीमा तक पहुँचाने के लिए उन्होंने होली का त्योहार आरम्भ किया। परन्तु आज लोगों ने उनकी रास-लीला और होली का दुरुपयोग आरम्भ कर दिया है! उसका अर्थ उन्होंने मर्यादाविहीन आचूरण समझ लिया है। इन सब कार्यकलापों से भूत उनकी ओर आकृष्ट होते हैं। मनुष्य का सारा आकर्षण समाप्त हो जाता है क्योंकि हो सकता है। 'राधा जी एकदम से बोलीं, केवल आत्मा का प्रकाश ही मनुष्य को आकर्षक ने पूछा, "क्या तुम नहीं जानतीं कि ऐसा करना पाप होगा?" राधा ने उत्तर दिया, "कि श्रीकृष्ण के लिए भी करना में पाप नहीं समझती, उसका दण्ड बनाता है। परमात्मा आपको धन्य करें। कुछ भुगतने के लिए तैयार हूँ। नारद राधा के चरणों की (श्रीमाताजी के प्रवचन पर आधारित (रूपान्तरित) 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-29.txt ईस्टर पूजा 3 अप्रैल 1988 परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन आज हम सब लोग यहाँ पर ईसा-मसीह के पुनर्जन्म का उत्सव मनाने के लिए एकत्र हुए हैं। कर पाए क्योंकि वे दिव्य थे, ओ३म थे, शब्द थे और ब्रह्म थे। (Divine, Aum, Logos and Brahma) ा ईसा-मसीह का पुनर्जन्म हम सब सहजयोगियों के लिए महत्वपूर्णतम है। हमें ये बात समझनी है कि वे स्वयं इसलिए पुनर्जीवित हुए ताकि हम लोग भी पुनर्जन्म ले सकें। उनके जीवन का सन्देश उनका पुनर्जन्म है, उनका क्रॉस (Cross) नहीं। क्रॉस तो उन्होंने हमारे लिया उठाया, अब हमें क्रॉस उठाने की हुई। वे हमारे अन्दर विराजमान हैं, हमारे हृदयों में. आवश्यकता नहीं है। मैंने बहुत से लोगों को यह नाटक करते हुए देखा है। दिखावे के लिए वे इस प्रकार क्रॉस लिए घूमते हैं मानो वे ही ईसामसीह का कार्य करने वाले हैं, मानो इन नाटक करने वालों के लिए ईसामसीह ने कोई कार्य अधूरा छोड़ा हो! परन्तु यह सारा नाटक आपको तथा अन्य लोगों को धोखा से या आपकी कुण्डलिनी के माध्यम से, परन्तु देने के लिए है। ईसामसीह के कष्टों को दर्शाने के परन्तु अब आप सब लोगों ने आत्म- साक्षात्कार पा लिया है। अब मैं आपके चेहरों पर ईसामसीह की स्पष्ट झलक देख सकती हूँ, आपकी आँखों में सुन्दरतापूर्वक चमकती हुई और टिमटिमाती हमारी आँखों में, और उन्हीं ने पुनर्जन्म लिया है और आपको भी पुनर्जन्म प्रदान किया है। परन्तु अब आपने अन्य लोगों को पुनर्जन्म प्रदान करना है। आप अन्य लोगों को पुनर्जन्म दें सकते हैं। यह शक्ति आपको प्राप्त हो गई है। हो सकता है उनके माध्यम आपमें अन्य लोगों को पुनर्जीवन देने की शक्ति है। लिए ये सब नाटक करना विवेकहीनता है। आपको रुलाने या कष्ट देने के लिए ईसामसीह ने ये कष्ट नहीं झेले। उन्होंने कष्ट इसलिए झेले ताकि आप आनन्द ले सकें, प्रसन्न रह सर्के और अपने सृजनकर्ता का पालन किया और किस प्रकार उन्होंने अपनी सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रति आभारी होते हुए जरूरतों को किया। किस प्रकार वे इस एकमात्र परन्तु, सर्वप्रथम और सर्वोपरि, आवश्यकता ये है कि आपको ईसा-मसीह की तरह शक्तिशाली बनना होगा। किस प्रकार उन्होंने अपनी माँ की आज्ञा पूरा आनन्दमय जीवन बिता सकें। परमात्मा कभी नहीं चाहेंगे कि आप दुखी हों। कौन सा पिता चाहेगा कि उसके बच्चे दुखी हों? कार्य के प्रति वचनबद्ध थे और किस प्रकार उन्होंने स्वयं को इसके प्रति समर्पित किया! उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने, या किसी प्रकार का तैराक , बहुत बड़ा अफसर बनने या महान घुड़सवार, एल्पस पर्वत पर चढ़ने वाले महान आरोही बनने या ऐसा ही कुछ और बनने की चिन्ता नहीं की। उन्होंने ये सब चालाकियाँ करने का प्रयत्न नहीं किया और न ही उन सभी चीज़ों के पीछे दौड़ने किया जो कई बार हमें बिल्कुल पागल कर देती हैं। उन्होंने जो कार्य किया, वह था स्वयं को ब्रह्मा के रूप में, दिव्य चैतन्य लहरियों के रूप में स्थापित करना। और इस रूप में वे स्वयं को स्थापित कर पाए। अत: हमें समझना है कि उनका संदेश, उनके जीवन का सन्देश, जिस महानतम कार्य को करने के लिए वे पृथ्वी पर आए, पुनर्जन्म है। उन्होंने यदि पुनर्जन्म नहीं लिया होता तो मैं सहजयोग कार्यान्वित नहीं कर पाती। अत: हमें उनके और उनके जीवन के प्रति सदा-सर्वदा आभारी होना होगा। जिस प्रकार से का प्रयत्न उन्होंने ये सभी दुष्कर कार्य किए, सभी कुछ स्वयं सहन कर लिया, वह हम मानव नहीं कर सकते। ये कार्य हम नहीं कर सकते। केवलं वही इस कार्य को 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-30.txt अंक : 7 & 8 2007 30 चैतन्य लहरी मैंने सोचा कि बिना चाँद के मैं कैसे इस कार्य को करूंगी? चाँद का होना आवश्यक है। चाँद होना आवश्यक है। तो मैंने सोचा कि किसी और समय पूजा करेंगे और अचानक मुझे यहाँ आना पड़ा, सौभाग्य से मैं यहाँ पर पहुँची। हैं है स्वयं को आपने जो कार्य करना वह द्विज (Resurrected) रूप में, आत्मसाक्षात्कारी, सहजयोगी के रूप में स्थापित करना। और ये कार्य बहुत सुगम हो गया है। अब आपके लिए सभी कुछ बहुत सहज बना दिया गया है, आपका आत्मसाक्षात्कार, आपकी शक्तियाँ- सभी कुछ अत्यन्त सुन्दर रूप से पिछले एक सप्ताह से ये लोग टेलिविजन आपके अन्दर स्थापित कर दिया गया है। अत्यन्त पर बता रहे हैं कि मूसलाधार बारिश होने वाली है, सुन्दरतापूर्वक, धीरे-धीरे, निरन्तर ये सब क्रियान्वित बारिश होने वाली है, बादल बने रहेंगे, तापमान बहुत हुआ है मैं सोचती हूँ कि मैंने कभी आपको कोई कार्य करने के लिए विवश नहीं किया। अपनी उत्क्रान्ति के माध्यम से आप ये देख पाए कि आपमें क्या कमी है या उन लोगों में क्या कमी है जिनकी हम बात कर रहे हैं इन्हीं शक्तियों के माध्यम से सोचा अब क्या करें, बादलों को यदि जाने के लिए आप जानने योग्य सभी कुछ जान सकते हैं। हर अज्ञात चीजू का ज्ञान आपको हो सकता है। परन्तु औ आपका चित्त अपनी उत्क्रान्ति की ओर, अपनी अवस्था की ओर होना चाहिए। बुरा होगा और मूसलाधार वर्षा होने वाली है... ..हँसी और तालियाँ। बार बार हर रात, हर समय जब ये मौसम के विषय में घोषणा करते थे तो हर समय ये और भी खराब प्रतीत होता था। अत: मैंने न कहें तो उसके लिए बहुत तेज़ हवा की जरूरत होगी और तेज हवा आपके तम्बुओं को उखाड़ फेंकगी। तो किसी तरह से मैंने बादलों से कहा कि धीरें-धीरे निरन्तर बढ़ते हुए न्यूफाऊंडलैण्ड की ओर चले जाओ, ज्यादा तेजी से नहीं, और उन्होंने ऐसा ही उत्क्रान्ति, किसी भी प्रकार से, शारीरिक क़िया। प्रक्रिया नहीं हैं। ये ऐसा नहीं है कि आप सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। यह आपके व्यक्तित्व की एक स्थिति State ) है, जहाँ पर मैं हमेशा कहती हूँ... ( क्षमा कीजिए मेरे विचार से...सूर्य अपना प्रभाव दिखा रहा है? देखें किस प्रकार सूर्य मेरी बात सुनता है। थोड़ी सी मदद कर सकते हैं? धन्यवाद। ) मेरे लिए बहुत गर्मी है, मैं नहीं जानती आप लोगों को कैसा आज्ञाकारी, कितना समर्पित और कितना सुन्दर हैं। लग रहा है। मैं आपको सूर्य के बारे में बताना भूल क्योंकि आज माँ (श्रीमाताजी) की पूजा गई इसलिए बह शायद मुझे परंशान कर रहा है। यथोचित प्रकाश चाहिए और आपके लिए उपयुक्त बेहतर होगा मैं आपको उसके विपय में बताऊं। (.. हँसी और तालियाँ ये लोग बता रहे थे कि और फिर चमचमाता हुआ सूर्य निकल आया। प्रात: काल मेंने उसे देखा था, यह मेरी साडी की तरह से लाल था, अत्यन्त सुन्दर। आप सब लोग सोए हुए थे लेकिन मैं बहुत ही सुबह जाग गई थी। है, मैं देख रही थी कि यह किस प्रकार उदय हो रहा मेरी बिन्दी की तरह से यह ऊपर आया! मैंने इसे क्या आप चीजों को बाहर निकालकर मेरी देखा, मैंने कहा सूर्य की ओर देखो ये कितना है । आपको तापमान होना भी आवश्यक है। आकाश की ओर देखा, हर चीज़ की ओर देखा और तब शनै: शनै: यह आपके चेहरों के रंग की तरह से गुलाबी हो गया। ये बहुत सुन्दर हैं, गुलावी हो गया, सुन्दर गुलाबी, और अब यह चमक रहा है। मुझे खेद है कि मुझे सूर्य की प्रशंसा करनी चाहिए थी, जिस प्रकार पिछले एक साल से हम यहाँ पूजा के लिए आने की सोच रहे थे, और मैं चाहती थी कि यहाँ पर ईस्टर पूजा होनी चाहिए। परन्तु तिथियाँ सुविधाजनक न थी क्योंकि उन दिनों में चाँद उतरती दशा में होगा। अत: 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-31.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 - 2007 31 उसने कार्य किया। इसलिए अब यह मुझे थोड़ा सा परेशान कर रहा है, मुझे याद दिलाने के लिए । आदर्श का अनुकरण नहीं करना। बहुत से लोग सोचते हैं कि क्योंकि उन्होंने क्रॉस उठाया था, हम भी क्रॉस उठा लेते हैं। कोई भी क्रॉस उठा सकता है। जैसा आप जानते हैं, सूर्य आज्ञा चक्र है। ईसामसीह सूर्य में निवास करते हैं। शरीर में, अस्तित्व भारत में यदि आप किसी कुली को पाँच रुपये दें तो वह क्रॉस उठाए घूमेगा। इसमें क्या महानता है? अपने कंधों पर क्रॉस लिए घूमने में क्या महानता है? ये में, वे आत्मा हैं। जब वे आत्मा होते हैं तो वे चाँद हैं और जब आज्ञा पर कार्य करते हैं तो वे सूर्य हैं। उनके जीवन में हमने देखा है कि वे पूर्णतया निष्कलंक थे, निर्मल थे। उनमें बिल्कुल भी दोष न थे। उनका व्यक्तित्व सम्पूर्ण था (Perfect ) । प्रश्न किया जा सकता है कि तब वे पुनर्जन्म क्यों लेना इसामसीह के पुनर्जीवन देने के कार्य का भार चाहते थे? उनके काल में पुनर्जन्म का क्या अर्थ था? उनका पुनर्जन्म आज्ञा चक्र में से मार्ग बनाने के लिए था ताकि आप सब इसे पार कर सकें। वे द्वार की काई बड़ी महान बात नहीं है। कोई भी पहलवान ऐसा कर सकता है, कोई भी व्यक्ति ऐसा कर सकता है। ये बात नहीं है। वास्तविकता तो ये है कि हमें उठाना है। ये बात हमने महसूस करनी है। हमें अपने जीवन के, अपने अस्तित्व के महत्त्व को समझना है, जैसे ईसामसीह ने समझा था कि वे इस महान कार्य को करने के लिए यहाँ आए हैं। यद्यपि वे मानव रूप में यहाँ आए, यद्यपि वे एक सर्वसाधारण बढई के रूप में आए, पृथ्वी पर यद्यपि तरह से थे, या हम कह सकते हैं कि उन्होंने ही आप सबके लिए द्वार खोला। क्योंकि वे अत्यन्त कुशल थे हमारी तरह से उन्हें अपने चक्रों और कुण्डलिनी की समस्याएं न थीं, उन्हें कोई समस्या न थी। परन्तु वे चैतन्य-लहरियों के स्वभावानुसार पूर्ण करुणा थे। चैतन्य-लहरियाँ पूर्ण करुणा बन गई। यहाँ तक कि जब वे पुनर्जीवित हुए और उससे भी पूर्व जब उन्हें क्रूसारोपित किया गया तब उन्होंने कहा, हे परमात्मा! हे परमपिता! कृपा करके इन लोगों को क्षमा कर दीजिए, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।" इतनी क्षमा, इतनी करुणा, और माँ को यह सब देखना पड़ा, खामोश रहकर! क्योंकि यह तो एक खेल था, ऐसा कार्य जो उन्हीं को करना था। उन्हें अपना खेल खेलना पड़ा और ये खेल उन्होंने अच्छी उनका एक शरीर था और वे किसी अन्य सामान्य मानव की तरह से रहते थे फिर भी वे जानते थे उन्हें क्या करना है? वे जानते थे कि उनका लक्ष्य क्या है और उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। मेरे विचार से उनका कार्य कठिनतम था जिसे उन्होंने पूर्ण किया और जिसे उन्होंने इतनी अच्छी तरह से अन्जाम दिया कि आज हमें उसके पूरे लाभ प्राप्त हो रहे हैं। आइए अब हम देखें कि क्या हमने सहजयोग के लिए कुछ किया है या नहीं? हम सबको अपना निरीक्षण करना चाहिए। हमने सहजयोग के लिए क्या किया? मेरा अभिप्राय क्रॉस उठाना नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि भारत में यात्रा करते हुए यदि वे कातटी म तरह से खेला। तो अब ईसामसीह की बात याद रखते हुए किसी का सामान उठाकर नीचे लाते हैं तो वे हमें एक बात याद रखनी है कि उन्होंने यह सब कुछ हमारे लिए किया और अब हम उनके लिए क्या करने वाले हैं मान लो वे आदर्श हैं जिनका हमने अनुसरण करना है, परन्तु इसका अर्थ ये नहीं है कि हम अपने कन्धे पर क्रॉस उठाकर चल दें, आपने इस ईसा-मसीह का क्रॉस उठाते हैं, यह तरीका नहीं है। हमारे सोचने के लिए यह अत्यन्त-अत्यन्त गम्भीर चीज़ है। गम्भीरता ये है कि हमने कहाँ तक वह अवस्था प्राप्त की है, उसके लिए हमने क्या किया 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-32.txt अंक : 7 & 8 चैतन्य लहरी - 2007 32 है? मैं आप सब लोगों से एक मामूली चीज़ माँग रही हूँ- आपको प्रतिदिन ध्यान करना होगा। परन्तु, किसी न किसी प्रकार से, किसी को भी ध्यान-धारणा करने के लिए समय नहीं है! सिक्ख मत के नाम पर हों, ये सब असत्य हैं। इसमें सत्य नहीं है। अपने लक्ष्यसाधन के प्रयत्न के लिए सभी लोगों ने इनका उपयोग किया है सत्य केवल एक है कि ये सभी महान पैगम्बर, सभी महान अवतरण, पृथ्वी पर आपकी उत्क्रान्ति के लिए अवतरित हुए, इन धर्मों को स्थापित करने के लिए नहीं, जिन्हें चलाने वालों की दिलचस्पी हमारे पास ये जो घड़ियाँ हैं इनका मकसद है कि हमें ध्यान-धारणा करनी है। ये किसी और काम के लिए नहीं हैं। हमारे जीवन ध्यान-धारणा करने के लिए हैं। इस पर आपने चौबीसों घण्टे नहीं लगाने, परन्तु हर रोज़ आपको ध्यान-धारणा करनी है। अवश्य केवल यह बताना सिर्फ पैसों में है। इन धर्मों में भी आप पाएंगे कि लोग या तो तामसिक प्रवृत्ति (Left sided) हैं या आक्रामक प्रवृत्ति (Right Sided)। कुछ धर्म ऐसे हैं जो अत्यन्त अनुशासित होने का उपदेश देते हैं: आपको ये नहीं करना चाहिए, आपको वो नहीं करना चाहिए, आपको शराब नहीं पीनी चाहिए, आपको धूम्रपान नहीं करना चाहिए, कुछ धर्म कहते हैं- आपको विवाह नहीं करना चाहिए, महिलाओं की ओर नहीं देखना चाहिए, पुरुषों की ओर नहीं देखना चाहिए, सभी प्रकार की पावन्दियाँ। विद्यमान तथा ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए अन्धविश्वासों को यदि आप देखें तो आपको सदमा लगेगा। हर चीज़ के बारे में कोई न कोई अन्धविश्वास ध्यान-धारणा करें। आप यदि ध्यान-धारणा करेंगे तो आपके बच्चे भी ध्यान धारणा करेंगे। ध्यान-धारणा अत्यन्त सहज है, आप लोगों के लिए इसे इतना सहज बना दिया गया है कि, आप देखते हैं, सभी तत्व इसे कार्यान्वित करते हैं । आपके चक्र भिन्न तत्वों से बने हुए हैं और भिन्न शैलियों से जब आप इन्हें स्वच्छ करते हैं- कहने से अभिप्राय है कि आप सहजयोग के सारे तरीके और सारी तकनीकें जानते हैं- उनके अनुसार जब आप चक्रों को साफ करते हैं, उन्हें जब आप स्वच्छ करते हैं तो आप पूर्णत: स्वतनत्र हो जाते हैं। उस अवस्था में ऐसा होना ही चाहिए। परन्तु यदि आप इतना भी नहीं करते, ध्यान-धारणा भी नहीं करते तो आपके लिए, और मेरे लिए भी, वह प्राप्त करना अत्यन्त-अत्यन्त कठिन होगा जिसके लिए आप पृथ्वी पर आए है। है। आप यदि बायाँ हाथ आगे करके चलते हैं तो इसका ये अर्थ है और यदि दायाँ हाथ आगे करके चलते हैं तो इसका ये अर्थ है। हर चीज़ के विषय में! उन्होंने मनुष्य को मशीन बना दिया है और नैसर्गिकता का पूर्ण अभाव है। इस्लाम में भी बहुत सी असहज चीजें हैं। लिया है। यह बात में जानती हूँ। परन्तु में जानती हूँ परन्तु इंग्लैण्ड जैसे स्वतन्त्र स्थान पर भी हम वही , इंग्लैण्ड जहाँ पूर्ण स्वच्छन्दता ( Leftsidedness) है, जहाँ आप जो जी चाहे कर सकते हैं और फिर भी आप ईसाई बने रहते हैं। आप शराब पीते हैं, ठीक है, आपकी दस पत्नियाँ हैं, कोई बात नहीं, आपकी पन्द्रह रखेलें हैं, तो भी ठीक है। जब तक आप चर्च जाते हैं और पैसा देते हैं आपका है। मैंने यह बहुत बड़ा कार्य करने का दायित्व ले कि इसे कैसे करना है और आप भी यह कार्य चीजें देखते हैं। करना जानते हैं। परन्तु कठिनाई ये है कि आप अपने भिन्न बन्धनों में फँस जाते हैं। अब, अब तक आप लोगों ने ये बात महसूस कर ली होगी कि ये तथाकथित धर्म चाहे वे किसी के नाम पर हों, चाहे वह इस्लाम के नाम पर हों, ईसाई मत के नाम पर हों, हिन्दुत्व के नाम पर हो या हर कर्म ठीक है। तो प्रोटेस्टेंट ईसाईयों में ऐसा ही है। मैं स्वयं 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-33.txt चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 - 2007 33 इसी धर्म में ही पैदा हुई यहाँ भी किसी चीज़ के लिए मनाही नहीं है। यहाँ भी सभी कुछ वैसा ही है। आध्यात्मिक व्यक्ति माने जाते थे! उन्होंने मुझे जारों (czars) के बारे में एक कहानी सुनाई। जार शासकों ने कोई धर्म अपनाना चाहा क्योंकि सभी लोगों का कोई न कोई धर्म है। उन्होंने सोचा, हमारा भी अवश्य कोई धर्म होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने कुछ लोगों को बुलाया। आरम्भ में उनके पास कैथोलिक धर्म के लिए लोग आए। उन्होंने बताया, ठीक है, कैथोलिक धर्म में आप शराब पी सकते हैं। मैं नहीं जानती कि उन्होंने ये धारणा कैसे बनाई। परन्तु उन्होंने कहा कैथोलिक धर्म में आप शराब पी सकते हैं, परन्तु एक से अधिक पत्नी नहीं रख सकते। जार कहने लगे, 'नहीं, ये सम्भव नहीं है। हमें तो बहुत सी जारनियाँ रखनी होंगी। बहुत से कारणों के कारण हम ये धर्म नहीं अपना सकते। और उन्होंने इसका विचार छोड़ ये सभी धर्म या तो बाईं ओर को है या दाई ओर को। कुछ लोगों को बायाँ पक्ष पसन्द है और कुछ को दायाँ। मैं आपको एक पादरी की कहानी सुनाऊंगी जिसे में रूस में मिली। कुछ लोगों को शायद मैने इसके बारे में पहले भी बताया है। मैं रूस गई और वहाँ के लोगों ने मुझसे पूछा, "आप क्या देखना पसन्द करेंगी?" मैंने उन्हें बताया, मैं कुछ। चर्च देखना चाहूंगी, उन्होंने कहा, "ठीक है बहुत बढ़िया। हम आपको एक चर्च में ले चलेंगे।" वे मुझे एक चर्च में ले गए, ये यूनानी रूढ़िवाढी चर्च था- और Black Order जिसे सर्वाच्च माना जाता है। मैं नहीं जानती कि वे ऐसा क्यों मानते हैं। हमने प्रवेश किया। वहाँ पादरी कहने लगा "ठीक है, हमें खेद है कि हमारा उपवास होने के कारण आज हम आपको माँसाहार नहीं करवा सकेंगे। परन्तु हम दोपहर का खाना खाएंगे।" हमने बहुत ही शानदार दोपहर का खाना खाया। परन्तु वह पादरी शराब पीने में ही व्यस्त था। उनके अनुसार उपवास के दिन शराब पीने की आज्ञा है। इसलिए वह पिए जा रहा था, पिए जा दिया। तब इस्लाम का नम्बर आया। मेरे विचार से शायद उस समय हिन्दू उपलब्ध नहीं थे। परमात्मा का शुक्र है। तो वहाँ इस्लाम धर्म के लोग आए और उन्होंने कहा, "नहीं ठीक है। आप पाँच पत्नियाँ रख सकते हैं परन्तु आप शराब नहीं पी सकते। वे कहने लगे,"ये असम्भव है। हम कैसे इस्लाम को अपना रहा था, पिए जा रहा था। उसने इतनी शराब पी ली कि भूल ही गया कि हम भी वहाँ थे। हम लोग सकते हैं? ये असम्भव है।" उन्होंने इस्लाम का भी अतिविशिष्ट समझे जाने वाले लोगों (V.IL.P.) में से विचार छोड़ दिया। तत्पश्चात् रूढ़िवादी (Orthodox) थे परन्तु उसने तो अपने को शराब में डुबो दिया था । अतः हमने सोचा कि सम्मानपूर्वक बापिस चले जाने हमें कोई परेशानी नहीं यदि आप शराब पीएं या बहुत में ही भलाई है। हम लोग उठे और वहाँ से बाहर आ गए। वह पादरी हमें अलविदा कहने के लिए बाहर तक नहीं आया। परन्तु इन रूसी अफसरों ने शराब को छुआ तक नहीं, कुछ भी नहीं किया, वे हँसे जा रहे थे, हँसे जा रहे थे, उन्होंने कहा, " देखिए, ये ईसाइयत है। इसी कारण से हम इसे नहीं अपनाना चाहते।" मैंने कहा, "परन्तु देखिए यह ईसामसीह नहीं हैं।" कहने लगे, ये बात सत्य है, परन्त ये लोग है। अब सहज धर्म ही आन्तरिक धर्म है जिसका जो कह रहे हैं, क्या यही ईसाईधर्म है?" मैंने कहा, "ऐसा नहीं है।" अब ये सज्जन रूस में उच्चतम लोग आए। वे कहने लगे, देखिए हम मध्य में हैं। सी पतनियाँ रखें। आपको बस हमें बहुत सा धन देते रहना होगा। जार ने कहा, "ठीक है, ये अच्छा हम ये धर्म अपना लेते है।" और इस प्रकार उन्होंने यह (Orthodox) धर्म अपना लिया। अतः आज धर्म की यह स्थिति है। ये सभी धर्म- विकृत-मूर्तियाँ बन गए हैं, जो बिल्कुल बेकार अनुसरण किया जाना चाहिए। भारत में मैंने बताया कि हम सब अब सहज बन गए हैं। एक कहानी है, 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-34.txt अक 2007 : 7 & 8 34 चैतन्य लहरी ने भी बहाँ जाने का निर्णय किया, मैने उनसे नहीं कहा था और न ही उन्होंने मुझे बताया। जब वे वापिस आए तो मुझे देखते ही बेहोश हो गए। मेंने कहा, "क्या हुआ? तुम लोग कहाँ गए थे?""ओह, हम इस मन्दिर में गए थे। " मैंने कहा, " क्यों? तुमने मुझे बताया भी नहीं। वहाँ तुमने क्या किया?" एक ग्रामीण व्यक्ति ईसाई बनना चाहता था और ईसाई बनने के लिए वह इलाहाबाद आया। आकर उसने उन्हें कहा, कि आप मुझे बहुत बड़ा नाम दो ताकि लगे कि मैं साहब हूँ और अंग्रेज बन गया हूँ। भं अत: आप मुझे बहुत बड़ा नाम दं उन्होंने पूछा, कौन सा नाम चाहते है? कहने लगा, " ऐसा नाम दो जैसे सिकन्दर महान ( Alexander The Great)।" तो उन्होंने उसे अलेक्जेन्डर नाम दे दिया। मुझे कोई देखिए, ब्राह्मण ने टीका लगाया और समाप्त।" उनके चक्र ठीक होने में एक महीना लगा। अब वे मन्दिर नहीं जाते हैं। इसका उन्होंने काफी स्वाद चख लिया परन्तु यह मिलाजुला नाम था। उसका वास्तविक भारतीय नाम 'भूरा' था, तो वह उसे अलेक्जेंडर भूरा है। ईसाई भी ऐसा ही करते हैं। उस दिन मैंने एक बुलाने लगे। अलेक्जेंडर भूरा इलाहाबाद आया और कहानी सुनी कि लोग पैरिस के एक चर्च में शादी स्नान करने के लिए गंगा नदीं पर गया पादरी ने उसे कहा कि तुम ऐसा नहीं कर सकते।"' उसने पूछा, क्यों मैं ऐसा नहीं कर सकता?" पादरी बोला, के विशेष वस्त्र खरीदने के लिए आया था वो कौन नहीं, तुम गंगा नदीं पर जाकर स्नान नहीं कर सकते क्योंकि स्नान करने से तुम्हारी ईसाइयत झड़ जाएगी।" उसने कहा, तुम ऐसा नहीं कर सकते। " तो अलैक्जेंडर भूरा बोला, "मैं यदि साहब बन गया हूँ, अंग्रेज बन गया हूँ, इसका मतलब ये नहीं है मेंने अपना धर्म छोड़ दिया है!" किसी भी धर्म को जब हम मानने का प्रथत्न करते हैं तो बिल्कुल ऐसा ही होता है। करना चाहते थे। इस अवसर के लिए उन्होंने विशेष बस्त्र भी बनवाएं होंगे। कोई व्यक्ति यहाँ पर विवाह सी दुकान थी? उसका क्या नाम हैं? कोई बड़ा सा नाम है। क्योंकि उन्होंने चर्च जाना था, इसलिए विशेष वस्त्र पहने जाने तो आवश्यक थे ही! ये वस्त्र पहनकर जब वे चर्च से बाहर निकले तो वे भूत बन कि चुके थे मैं हैरान थी! इन पच्चीस लोगों को क्या हो गया था! हुआ क्या था कि चर्च में बहुत से मृत शरीर दफनाए हुए होते हैं। ये शरीर उन लोगों के हैं जो किसी न किसी पकड़ में हैं। अत: चर्च की सुन्दर वास्तुकला को देखने के लिए भी आप जाएं तो निर्लिप्त मस्तिष्क से जाएं। ये न सोचें कि आप उस चर्च से जुड़े हुए हैं। इस तरह की किसी भी चीज़ से लिप्त न हों। जिन धर्मों में हमारा जन्म हुआ, उन तथाकथित धर्मों से हम अब भी जुड़े हुए में, मैं वदि भारतीय लोगों को कहूं कि मन्दिर मत जाओ, तुम्हें मन्दिर नहीं जाना, चाहे ये स्वयंभू मन्दिर ही दयों न हों, मुझे बताए बिना आपने स्वयंभू मन्दिर में भी नहीं जाना। बहुत से चर्चों में भी बहुत अच्छी मूर्तियाँ हैं या कुछ ऐसा है जो बास्तव में स्वयंभू है, परन्तु ये बहुत कम हैं। अत: जाने से पूर्व मुझे बता कर जाएं। परन्तु वो मेरी बात को नहीं सुनते, मेरी बात नहीं सुनते और जब वहाँ जाते हैं तो उनका हैं। उदाहरण के रूप आज में आपको बताती हूँ कि ईसामसीह किसी धर्म विशेष से जुड़े हुए नहीं थे। वे किसी धर्म के अनुयायी नहीं थे। वे तो अपने अध्यात्मिक धर्म को मानते थे वे एक चर्च में गए जहाँ कुछ यहूदी लोग वाद-विवाद कर रहे थे। वहाँ जाकर वे उनसे बात करने लगे। उस दिन मैंने अखबारों में छपी एक सुन्दर चित्रकारी देखी, बहुत ही सुन्दर चित्रकारी जिसमें ईसामसीह चिकित्सकों से बात कर रहे हैं और आज्ञा चक्र पकड़ जाता है! एक बार मैं एक मन्दिर देखने के लिए गई जो, नि:सन्देह स्वयंभू मन्दिर था। कुछ सहजयोगियों 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-35.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 35 दण्डित नहीं करेगा क्योंकि आप आत्मसाक्षात्कारी लोग हैं। ये आपको दण्डित नहीं करेगा। ये उस सीमा तक आपको दण्डित नहीं करेगा। परन्तु याद रखें कि सत्य के साथ-साथ एकादश भी घूरी तरह से कार्य कर रहा है। आप यदि कोई गलत कार्य करते हैं, जैसे ये लोग जो चर्च गए बात करते हुए भी अपने स्वाधिष्ठान चक्र को सहला रहे हैं। सभी डॉक्टर उनकी बात सुन रहे हैं, एक उनकी ओर देख रहा है, उन्हें एकटक देख रहा है, दूसरें का ध्यान भी उन्हीं पर है और वे बस अपने बाएं स्वाधिष्ठान को सहला रहे हैं । ये बात स्पष्ट है, इसे आप स्पष्ट देख सकते हैं। और अब ये नई उपलब्धियाँ प्राप्त होने के पश्चात् आपको इन चीजों से ऊपर उठना है और समझना है तो इन सब पर पकड़ आ गई। अब वे ये कह सकते हैं कि, "श्रीमाताजी, हमें पकड़ क्यों आ गई? हम सहजयोगी है।" क्योंकि आप लोग कि स्वतनत्र रूप से हमें स्वयं को देखना है। हम किसी धर्म विशेष से जुड़े हुए नहीं हैं। हम परमात्मा के धर्म से जुड़े हुए हैं जो सहज है । और सहजधर्म ऐसा है जो केवल तभी फैलेगा जब आप सहज हो जाएंगे। परन्तु मेरी समझ में नहीं आता कि ये चीज क्रियान्वित ही नहीं होती। मैं किसी से मिली, मैं भूल गई हूँ किससे, कोई तथाकथित Amity था जिसे अवतरण माना जाता था। उसके अनुयायी बिल्कुल ऐसे बर्ताव करते थे जिस पर विश्वास ही नहीं किया जा सकता। कितनी सत्यनिष्ठा पूर्वक वे इस व्यक्ति दुर्बल (भेद्य) हैं। आप ( Vulnerable) हैं। अभी तक आप उस अवस्था तक नहीं पहुँचे। जब आप उस अवस्था तक पहुँच जाएंगे तब आपके चर्च जाने पर वहाँ उपस्थित लोग चर्च से दौड़ जाएंगे। आपके सम्मुख वे काँपने लगेंगे। उनकी समझ में नहीं आएगा कि क्या हो गया है। मैने देखा है कि जब मैं किसी चर्च में प्रवेश करती हूँ तो वहाँ पर जलती हुई सारी मोमबत्तियाँ चर, चर, चर, चर, चर करने लगती हैं और लोग हैरान हो जाते हैं कि क्या हो गया है। जब वे मोमबत्ती प्रकाश ( Candle जो Light) में रात्रि भोज ले रहे होते हैं तो भी जिस प्रकार मोमबत्तियाँ फड़फड़ाती हैं उन्हें देखकर मैं हैरान होती हूँ। लोग देखने लगते हैं क्योंकि भूत उनके सामने बैठे होते हैं! अत: मोमबत्तियाँ तुरन्त दर्शाती हैं कि यहाँ पर ये भूत बैठे हुए इतना ज्ञान पर विश्वास करते थे! जो भी कुछ वो कहता था, भी कुछ वो करता था, किस प्रकार वे उस पर विश्वास करते थे! अत्यन्त आश्चर्य की बात हैं! आप किसी भी ऐसे व्यक्ति से मिलिए जो किसी गुरु का अनुयायी है, किसी का भी---- जिस प्रकार कट्टरतापूर्वक वो अपने गुरु को मानते हैं, उस पर आश्चर्य होता है। उसके विरुद्ध वो कुछ भी नहीं सुनते। वो यदि कह दें कि सारी रात अपने सिर के भार खड़े रहो तो खड़े रहेंगे। मैं नहीं जानती कि क्या हैं। आपको प्राप्त हुआ है, इतना प्रकाश आपको मिला है, जिसके कारण आप प्रबुद्ध हुए हैं, इसके बावजूद भी यदि आप बाएं और दाएं पक्ष की चीजों की ओर जाते हैं तो यह बहुत खतरनाक है। हो जाता है? आज हम ये भी देखते हैं, मैं आपको विद्यमान राजनीति (Politics) के बारे में भी बता देँ, राजनीति में भी इन लोगों ने दो तरह के सिद्धान्त बना लिए हैं। एक तामसिक है और एक आक्रामक (Left जब असत्य की बात आती है तो हम इसका अनुसरण करते हैं और जब हम सत्य को जान जाते हैं कि यह सत्य है- तब हम इसका लाभ उठाते हैं और समझौता करने का भी प्रयत्न करते हैं। हम सोचते हैं कि हमारे किए गए समझौते से सत्य का क्या लेना-देना है। ऐसा नहीं है कि सत्य आपको दण्डित करेगा, ये आपको sided and Right Sided)। बाई ओर के सिद्धान्त जनतान्त्रिक हैं- इनमें आप किसी भी चीज में दखलेअन्दाजी कर सकते हैं इसमें व्यक्त महत्वपूर्ण 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-36.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 -2007 36 वह नियंत्रण नहीं करता। अब भी वह वहीं है। अवसर प्राप्त होते ही वह इन्हीं बन्धनों में उलझ जाता है। तो यह चीज असफल हो जाती है। ऐसी स्थितियों में व्यक्ति दुर्बल होते हैं । और जहाँ पर पूरी स्वच्छंदता हो, जो चाहे आप कह सको, जैसे चाहो रह सको, जहाँ आसक्ति और सभी प्रकार के दुर्गुण हों, आप प्रतिदिन देखते हैं और कहते हैं, "हे परमात्मा, यह विनाशोन्मुख समाज है। व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता है और पसन्द का कार्य करने से उसे रोका नहीं जाना चाहिए। वह क्योंकि व्यक्ति है तो उसे अपनी नाक काट लेने का, अपनी आँखे फोड़ लेने का पूरा अधिकार है । व्यक्ति को कुछ भी करने की पूरी आज्ञा दी जाती है और फिर परिणाम क्या होता है? हम देखते हैं कि लोकतन्त्र असुरतन्त्र बन जाता है! हर आदमी असुर बन जाता है। हर आदमी गला काटने, जीवन की जड़ों है, जिसमें यह सब हो रहा है।" और विनाश का कारण ये है कि जिस मानव को आपने इतनी शक्तियाँ दी हैं, उसमें उन शक्तियों को झेलने की शक्ति नहीं है। व्यक्ति धन को नहीं झेल सकता, और आधार को नष्ट करने में व्यस्त हो जाता है क्योंकि हर व्यक्ति ब्रह्म है, हर व्यक्ति महान व्यक्तित्व बन जाता है क्योंकि व्यक्ति इतना महान है, और इस किसी भी प्रकार की शक्ति को नहीं झेल पाता, वह प्रकार सामूहिकता समाप्त हो जाती है, पूर्णतः खो जाती है। प्रेम को नहीं झेल सकता, करुणा को नहीं झंल सकता, शक्ति को भी नहीं समझ सकता क्योंकि अभी तक वह व्यक्ति मात्र है। दूसरी ओर जहाँ बहुत ज्यादा अनुशासन है, है, बहुत ज्यादा नियंत्रण है बहुत ज्यादा आक्रामक्ता और हर चीज उग्र (Right Sided) है, जिसे हम साम्यवाद कह सकते हैं, वहाँ हर समय जनता का नियंत्रण रहता है। पर क्यों? क्योंकि सामूहिकता के लिए व्यक्ति को बलिदान हो जाना चाहिए। उस मामले में व्यक्ति ( Individual ) दुर्बल हो जाता है और व्यक्ति यदि दुर्बल होंगे तो सामूहिकता शक्तिशाली व्यक्ति जब सामूहिक हो जाता है तो सुपुम्ना ) के रास्ते उत्क्रान्ति होती है। जब वह सामूहिक बनता है, अपनी शक्ति से सामूहिकता को शक्तिशाली बनाता है तो सामूहिकता भी उसकी देखभाल करती है, सुरक्षा करती है और व्यक्ति का पथ प्रदर्शन करती है। यही सहजयोग है। अत: सहजयोग की राजनीति यह है कि आपको सामूहिक व्यक्तित्व बनना है। और है नहीं हो सकती। यह शक्तिशाली नहीं हो सकती। व्यक्ति (Individual) को शक्तिशाली होना ही होगा। उदाहरण के रूप में, आप यदि देख कि साम्यवादी हैं, हम भिन्न हैं, हम भारतीय हैं या हम इंग्लैण्ड से देशों से आने वाले लोग यहाँ के लोगों से कही है या फ़्रांस से हैं, अब भी यदि हम इन्हीं चीजों में अधिक शराब पीते हैं या वो लोग जो इस्लामी देशों फँसे हैं तो हम सामूहिक नहीं हैं। से आते हैं जहाँ बो किसी चीज़ को छूते भी नहीं, वो सरदारजी लोगों से भी अधिक शराब पीते हैं! अत: अब भी यदि हमें लगता कि हम कुछ महान चीज़ हुए सामूहिकता की दृष्टि से हम सब एक हैं, एक ही अस्तित्व के अंग-प्रत्यंग हैं। तब आप वास्तव में सामूहिक अस्तित्व के रूप में कार्य करते हैं और परमात्मा से जुड़े होते हैं। इस अवस्था में सूर्य, चाँद, बायु, पृथ्वी माँ तथा अन्य सभी तत्व आपकी देखभाल कर रहे होते हैं, आपके लिए कार्य करते हैं । आकाश तत्व्व, सभी कुछ, आपके लिए कार्य करता है और आप कल्पना कर सकते हैं कि मानव की स्थिति क्या है कि भय के कारण यदि आप उसका नियंत्रण करने का प्रयत्न करें तो वह आक्रामक हो जाता है। परन्तु वह किसी भी प्रकार से सम्पूर्ण नहीं है। उसमें किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हुआ, वह स्थिति को स्वीकार नहीं करता। अपने अन्तःस्थित प्रवृत्तियों पर 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-37.txt अंक :7 & 8 2007 37 चैतन्य लहरी आप बहुत अच्छी तरह से सुरक्षित होते हैं तथा आनन्द का आनन्द लेने के विशेष गुण का आशीर्वाद सामूहिक अस्तित्व है। आपको प्राप्त होता है। तब आप उस आनन्द के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं, जब आप पूर्ण से एक रूप होते हैं, जैसे मान लो यह उँगली या यह उँगली यदि कि उन्होंने हमें मार्ग दिखलाया, और हमें अपने पूर्ण से एक रूप नहीं है तो यह जड़वत हो जाता है, विषय में अत्यन्त सावधान और चिन्तित रहना जैसे कोढ़ में होता है, वैसे ही यह उँगली निर्जीव हो जाती है। उँगली को चाहे चूहा काट ले तो भी हमें पता नहीं चलता क्योंकि सम्बन्ध टूट जाता है। कोई क्या है? हमारे से क्या आंशा भी नाड़ी कार्य नहीं कर रही होती और उँगली पूर्णतः संवेदनहीन हो जाती है। इसी प्रकार से आप भी यदि सामूहिक नहीं हैं और सामूहिकता की चिन्ता नहीं करते तो आपको भी छोड़ दिया जाएगा। अपनी गरिमा तथा सामूहिकता का आनन्द लेने के लिए आप वहाँ नहीं होंगे। अत: व्यक्ति को समझना है कि आत्मा बनना है तथा वह आत्मा जो कि हमारे अन्दर है कि आज पुनर्जन्म के इस दिन मुझे आशा हमें ईसामसीह के प्रति अत्यन्त आभारी होना होगा होगा। हम कहाँ है ? हम कहाँ खड़े हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? हम क्या कर रहे हैं? हमारा उत्तरदायित्व की जाती है? हमें ये सब आशीर्वाद किसलिए हैं? दिए गए सहजयोग में कोई बलिदान नहीं है, कोई भी आपसे किसी प्रकार का वचन नहीं चाहता, किसी प्रकार की सदस्यता या कुछ और नहीं चाहता। मेरे विचार से यह मेरी वचन बद्धता (My Commit- हमें स्वयं बहुत शक्तिशाली होना होगा। उत्क्रान्ति पाकर हमें सामूहिक बनना होगा दूसरे लोगों में दोष खोजना बहुत आसान है, अगुआओं में दोष परन्तु आपका भी एक दृढ़ निश्चय होना चाहिए. आपकी खोजना बहुत आसान है, सहजयोग में दोष खोजना भी बहुत आसान है, कभी-कभी मुझमें दोष खोजना भी बहुत आसान है। बेहतर होगा कि अपने अन्दर दोष खोजें, बाकी का सब काम में कर लूगी। सर्वप्रथम आप केवल अपने. अन्दर दोष खोजें और अन्य लोगों को समझने का, उन्हें प्रेम करने का और उनकी संगति का आनन्द लेने ment) है, जैसा मैंने कहा, कि परमात्मा का वचन है, इच्छा शुद्ध होनी चाहिए। केवल यही चीज़ है, कि मेरी इच्छा शुद्ध हो जाए, किसी भी प्रकार की नकारात्मकता इसे प्रभावित न करे। जिस प्रकार ईसामसीह की इच्छा अत्यन्त पविवि थी और जिस प्रकार उन्होंने लक्ष्य को प्राप्त किया, मुझे विश्वास है, आप भी अपने जीवन में बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। जजा आज मरा 65वाँ जन्मदिवस हैं। अव कल्पना करें, में 65 वर्ष की आयु की हूँ और इस आयु तक अधिकतर महिलाएं केवल.... मैं नहीं जानती कि वे क्या करती हैं अत: अब आप आगे बढ़कर, जहाँ तक सम्भव हो, सभी कुछ कार्यान्वित करें, ये सोचते हुए कि हम सबने खड़ा होना है। अब बच्चे आगे आ रहे हैं वे भी खड़े हो जाएंगे। आप सभी लोग मुझे युवा प्रतीत हो रहे हैं, हर रोज़ जब मैं आपको देखती हैं। का प्रयत्न करें। एक बार यदि आप निर्णय कर लें कि हमें आनन्द लेना है, तो मैं आपको बताती हूँ, यह अत्यन्त नैसर्गिक है। यह निर्णय मात्र अपने अन्दर यह विश्वास कि अब में अपनी आत्मा का मैं अपने अन्तःस्थित सामूहिकता का आनन्द लूगा, आनन्द लूंगा जो कि आत्मा है, यह निर्णय मात्र ही आपको आनन्द लेने की शक्ति देगा। परन्तु यह दृढ़ निश्चय होना चाहिए, पाखण्ड नहीं, खिलवाड़, अहं, बन्धन आदि नहीं, केवल हृदय में शुद्ध इच्छा कि हमें ि हूँ तो आप पहले से अधिक युवा दिखाई देते कभी-कभी तो मैं आपको पहचान भी नहीं पाती। काम 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-38.txt चैतन्य लहरी ) अंक : 7 & 8 =2007 38 38 आप इस प्रकार से युवा प्रतीत होते हैं कि मुझे देखूंगी और आपको पहचान भी न पाऊंगी। ईसामसीह सोचना पड़ता है कि ये पिता है या पुत्र। स्थिति ये हैं की मृत्यु बहुत ही छोटी आयु में हो गयी, बहुत ही कि आप सब आशीर्वादित हैं। आपके पास नौकरियाँ छोटी आयु में। मैं कहना चाहूंगी कि वे बहुत ही छोटें थे। परन्तु उन्होंने मानवता के लिए कितना कुछ हैं, सभी कुछ है। हर व्यक्ति मुझे बताता है कि, श्रीमाताजी, ऐसा घटित हुआ, वैसा घटित हुआ किया? इतनी छोटी आयु में जितना कुछ उन्होंने प्राप्त आदि।" तो अब क्या? ये सारे प्रलोभन हैं सावधान रहें, ये वो चीजें नहीं हैं जो आपने मांगी थीं| आपने अपने अन्दर श्रद्धा की वो अवस्था माँगी थी जिसमें माँगने की कोई आवश्यकता ही न रहे, कुछ भी माँगने की। सभी कुछ कार्यान्वित हो आपमें से हर एक कुछ महान कार्य करे। आज कुछ किया, कोई अन्य न कर पाता। ये प्रशंसनीय है, वास्तव में प्रशंसनीय है। मैं आशा करती हैँ कि आप भी उनका अनुसरण करेंगे और प्रशंसनीय कार्य करने में उनके कदमों पर चलेंगे मैं देखना चाहती हूँ कि वचन देने का दिन है। इसके लिए परमात्मा आपको आशीर्वादित करें। मेरा जन्म-दिवस मनाने के लिए मैं आपका हृदय से धन्यवाद करती हूँ। जाएगा। यह कार्यान्वित होता है। यही सच्ची बात है। मुझे आशा है कि अगली बार जब हम लोगों को मिलेंगे तो मैं आज से कहीं अधिक युवा शयत (रूपान्तरित कृम मि क् किम ई ज खि हे मराठी-कविता (साक्षात श्रीमाताजी ने इसे पढ़ा तथा सराहा) लड इथोनी आनंदू रे आनंद रर्त्त कृपासागर तू गोविंदू रे मकरी हे ले क्र मै जै ोआनंदू रे आनंदू री तिड शकि ा लिसह मिशन] छरिन ी कामा हैर श्री ललीप्ा महाराजाचे राऊळी वाजे ब्रम्हानंद टाळी क ि स য वाजे ब्रम्हानंद टाळी ड कक लस सा आनंदू रे आनंद স क लक्ष्मी चतुर्भुज झाळी ह ती कि के प्रसाद घेऊन बाहेर आळी कि मी क कात कम एका जर्नादनी नाम ड पाहना मिळे आत्माराम इथोनी आनंदू रे आनंदू से क है छपया मी जाही पत ह शमीही ह 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-39.txt परम पूज्य श्रीमाताजी का प्रवचन (स्पेनिश भजनों के बाद) वासेलोना- स्पेन 2। मई 1988 इन भजनों को बनाने वाले लोगों की लय अन्य लोग क्या नहीं हैं। यह चेतना आपका एक भाग होना चाहिए, आपके अस्तित्व का अन्तर्जात भाग। केवल तभी यह कार्य करेगी और पूरे वातावरण तथा अन्य लोगों में प्रवेश करेगी। मुझे आशा है कि जब आप लोग अपने देशों में लौटेंगे तो उन्हें मेरा सन्देश देंगे कि हम सबको अपनी आत्मा के प्रति चेतन होना और भावना को हम महसूस कर सके। इस देश में भावनाओं का प्राचुर्य है। हमारे अन्दर भावनाएं बहती हैं। जहाँ भी मैं गई, लोग कहा करते थे, "क्या मैं स्पेनिश महिला हूँ?" मैं हैरान होती थी कि मुझमें और स्पेन की महिलाओं में ऐसी कौन सी समानता आ होगा। है। मेरे विचार से मेरे हृदय का प्रेम, मेरे चेहरे पर अभिव्यक्त होता है, शायद। मुझे आशा है कि स्पेन की महिलाएं अन्य लोगों के प्रति प्रेम एवं स्नेहमय हो जाएंगी। हीरे पर यदि कीचड़ लगा दिया जाए तो यह चमकेगा नहीं, परन्तु हीरे की चमक से कीचड़ को कुछ लेना-देना नहीं है। कीचड़ हटाते ही हौरा जोर से चमकने लगेगा, इसके लिए आप जानते हैं कि एक बात हमें महसूस करनी होगी कि सहजयोग प्रेम है, परमेश्वरी प्रेम। यह मोह नहीं है, ये स्वामित्व नहीं है। ये प्रेम प्रदान करना है। ये शारीरिक प्रेम नहीं है, भौतिक पदार्थों का प्रेम नहीं है और न ही आपकी कीर्ति का प्रेम है। यह तो परमेश्वरी प्रेम है। क्या करना है, स्वयं को स्वच्छ करना है आप यदि अब भी आक्रामक हैं या तामसिक (Right Sided or Left Sided) तो स्वयं देखें और पता लगाएं कि क्या कमी है। इसे स्वच्छ कर दें, बिल्कुल स्वीकार न करें, बिल्कुल स्वीकार न करें, क्योंकि इसी गरन्दगी ने आपके हीरे को ढका हुआ है। सहजयोग में हमने वास्तव में ये परिवर्तन होता है, यदि आप इसे स्वयं साक्षी भाव से देखें कि क्यों और किसलिए आप किसी चीज से लिप्त हैं। एक बार जब हम जान जाएंगे कि हम अपनी साक्षी अवस्था में निर्लिप्त हैं तो स्वत: ही शुद्ध प्रेम प्रवाहित होने लगेगा। प्रकाश के होते ही, सूर्य के प्रकाश से सारा कोहरा छँट जाता है। इसी प्रकार ज्योंही आपके चित्त में आत्मा प्रकाशित होती है तो आपके सभी संदेह, सभी गलतियाँ लुप्त हो जाती हैं। आज मैंने आपको यही बताया कि केवल इतनी है कि वे आपके अन्दर सच्चाई को आपको अपनी आत्मा के प्रति चेतन होना होगा क्योंकि अब आपने 'स्वयं' को, अपनी 'आत्मा' को, यही समझना है। एक बारे जब आप उस शान से चमकेंगे तो किसी को ये समझाने का प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा कि यह हीरा है। आप हीरे हैं, इस चमक पर कोई सन्देह नहीं कर सकता। किसी धोखेबाजू, अपवित्र और अधर्मी व्यक्ति को परमात्मा के विषय में बात करते कोई पसन्द हुए नहीं करता। सभी सच्चाई चाहते हैं। आवश्यकता देख लें या आप अपनी सच्चाई बाहर व्यक्त कर सकें। पहली चीज़ हमारे हाथ में नहीं है- उन्हें महसूस कर लिया है। जब आप आत्मा बन जाते हैं सच्चाई देखने के लिए विवश करना- परन्तु दूसरी तो आप चमकते हुए हीरे की तरह से होते हैं जो स्वत: ही प्रकाश दे रहा होता है। अत: यह समझ चीज़- सच्चाई की अभिव्यक्ति करना- हमारे हाथ में है। उदाहरण के रूप में आपने देखा है कि जब लेना अत्यन्त आवश्यक है कि आप क्या हैं, और 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-40.txt चैतन्य लहसी 2007 40 अंक : 7 & 8 पर तेज देख सकता हूँ। और आप देख सकते हैं कि एक ऐसी तस्वीर आई है जिसमें सभी के सिर पर भी मैं यात्रा करती हूँ और किसी कार्यक्रम का आयोजन करती हैँ तो वहाँ हजारों लोग होते हैं। इंटली में लोगों ने केवल मेरा फोटो देखा और कार्यक्रम में आ गए। मैं किसी बात का दावा नहीं करती, कोई वचन नहीं देती, फिर भी वे लोग आए। कारण ये है कि लोगों में संवेदनशीलता है और वो देख सकते हैं कि इस चेहरे में सच्चाई है। अन्दर जो होता है उसी की अभिव्यक्ति बाहर होती है। हैं और आप सबके सिर पर प्रकाश है, जो आपका प्रकाश है। उस दिन मेंने एलग्रेसो (EI Greco) द्वारा बनाई हुई एक चित्रकारी देखी जिसमें आदिशक्ति (Holy Ghost) ईसामसीह के शिष्यों को आशीर्वादित कर रही हैं और उन सबके सिर से प्रकाश निकल रहा है। ये बहुत थोड़े लोग थे, परन्तु आप बहुत सारे कुछ आप यदि सच्चे नहीं है तो ये कपट बाहर दिखाई देता है। अत: अन्तःस्थित प्रकाश अत्यन्त विशाल पृथ प्रदर्शन कर रहा है, आपकी देखभाल कर रहा है, आपको प्रेम कर रहा है और मार्ग दिखला रहा है । आपको कभी नहीं सोचना चाहिए कि आप अकेले हैं, बस स्वयं को स्वच्छ रखने का प्रयत्न करें, क्योंकि यह प्रकाश लुप्त भी हो सकता है। और उज्जवल बनाया जाना चाहिए ताकि तीव्र प्रकाश में हम लोगों को सच्चाई दिखा सकें। मुझे विश्वास है कि लोग यह सच्चाई, आपके चेहरों का ये तेज, देख सकते हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। (रूपान्तरित) रोम में जब लोग भजन गा रहे थे तो एक वृद्ध व्यक्ति आए और कहने लगे कि मैं इनके चेहरों परन्तु यह दृढ़ निश्चय होना चाहिए, पाखण्ड नहीं, खिलवाड़, अहं, बन्धन आदि नहीं, केवल हृदय में उत्क्रान्ति पाकर हमें सामूहिक बनना होगा। दूसरे लोगों में दोष खोजना बहुत आसान है, अगुआओं में दोष खोजना बहुत आसान है, सहजयोग में दोष खोजना भी बहुत आसान है, कभी-कभी मुझमें दोष खोजना भी बहुत आसान है। बेहतर होगा कि अपने अन्दर दोष खोजें, बाकी का सब काम में कर लूगा। सर्वप्रथम आप केवल अपने अन्दर दोष खोजें और अन्य लोगों को समझने का, उन्हें प्रेम करने का और उनकी संगति का आनन्द लेने का प्रयत्न करें। एक शुद्ध इच्छा कि हमें आत्मा बनना है तथा बह आत्मा जो कि हमारे अन्दर सामूहिक अस्तित्व है | मुझे आशा है कि आज पुनर्जन्स के इस दिन हमें ईसामसीह के प्रति अत्यन्त आभारी होना होगा कि उन्होंने हमें मार्ग दिखलाया, और हमें अपने विषय में अत्यन्त सावधान और चिन्तित रहना होगा। हम कहाँ है? हम कहाँ खड़े हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? हम क्या कर रहे हैं? हमारा उत्तरदायित्व क्या है? बार यदि आप निर्णय कर लें कि हमें आनन्द लेना है, तो मैं आपको बताती हूँ, यह अत्यन्त नैसर्गिक है। हमारे से क्या आशा की जाती है? हमें ये सब यह निर्णय, मात्र अपने अन्दर यह विश्वास कि अब में अपनी आत्मा का आनन्द लूंगा, में अपने अन्त:स्थित सामूहिकता का आनन्द लूगा जो कि आत्मा है, यह निर्णय मात्र ही आपको आनन्द लेने की शक्ति देगा। आशीर्वाद किसलिए दिए गए हैं?" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी ईस्टर पूजा 3-4-1988 গত 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-41.txt वड महाशिवरात्रि पूजा क क THES CopeE आज का प्रवचन आप सब लोगों के लिए काफी बड़ा था। मैं बहुत प्रसन्न हूं कि आप सब लोग शिव पूजा के लिए यहाँ आए और अब, जैसे प्रार्थना की गई है, हम यूरोप में, रोम में भी सत्रह तारीख को शिव पूजा करने वाले हैं पश्चिम में कभी शिव पूजा नहीं हुई, इसी कारण मैंने निर्णय किया है कि हम दो पूजाएं करेंगे। यद्यपि इतने शीघ्र एक और ल हक नई दिल्ली, 9 फरवरी 1991 क परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन से पते े आपको अच्छा स्नानागार चाहिए, अच्छा बिस्तर चाहिए और अन्य सभी सुविधा चाहिए, परन्तु यदि आप इसमें मज़ा चाहते हैं तो यह बहुत दिलचस्य है। एक बार में लखनऊ में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ रहने गई। उनके यहाँ केवल एक चारपाई थी। वो अमीर न थे। उनकी सारी जुमीदारी समाप्त हो गई थी। कहने लगे हमारे पास केवल एक चारपाई है आप चारपाई पर सोना चाहेंगी या जमीन पर? मैंने कहा, "ठीक है, मैं चारपाई, पर सोकर देखती हूँ। वह चारपाई नारियल की रस्सी की बनी हुई थी और रस्सियाँ इतनी ढीली थीं कि जमीन को छू रही थीं eir BEE गस शिव पूजा करना अत्यन्त कठिन कार्य है। न आां आज मैंने बताया है कि हमारे हृदय में जहाँ श्री शिव का निवास है, चार नाड़ियाँ हैं और किस प्रकार हमने अन्तर्वलोकन करना है तथा अपने चित्त को नियन्त्रित करना है। क्योंकि सहजयोग तथा इस पर सोना भी ऐसे ही था जैसे जमीन पर सोना। रात को मैंने बहुत से चूहों को अपने शरीर पर में पूर्ण स्वतन्त्रता है कि हम जैसा चाहें बने। जैसे पहले कहा जाता था, कोई बलिदान करने के लिए कुछ त्यागने के लिए, हिमालय पर जाने के लिए. कपड़े उतारकर ठण्ड में कॉपने के लिए तथा अन्य सभी प्रकार के उपद्रव करने के लिए नहीं कहा दौड़ते हुए पाया। मैं उन्हें देख रही थी लोगों को बहुत चिन्ता हुई, उन्होंने कहा, कि ये चूहे आप पर रेंग रहे हैं और चक्कर लगा रहे हैं। मैंने कहा हाँ, उसमें से एक तो अभी भी मेरे पैर के नीचे है! वे न कहने लगे कि फिर भी आपको घवराहट नहीं हो जाता। शरीर, शरीर के महत्व को कम करना है और इसके लिए आपको चित्त अन्दर स्थापित करके, हर रही? मैंने कहा, घबराने की कौन सी बात है, मैं तो बस उन्हें देख रही हूँ, मैंने एक साथ इतने अधिक चूहे कभी नहीं देखें। में तो इनका आनन्द ले रही थी। चीज़ में आनन्द प्राप्त करने का प्रवत्न करना होगा। अन्दर चित्त डालना बहुत आसान है क्योंकि आप फिर वे कहने लगे कि आप ऐसी चारपाई पर सो रहीं लोग ध्यान धारणा करते हैं। मान लो आप बैलगाड़ी थी, कहीं कल तुम्हारे शरीर पर दर्द न हो जाए मैंने कहा नहीं नहीं, मैं तो आनन्द ले रही थी, ये चारपाई अच्छे झुले की तरह से है, इसमें आप झूल से जा रहे हैं, कोई व्यक्ति यदि रोल्ज़रायस पर मह चलता है तो हर समय शिकायत करता रहेगा कि ये तो बहुत सकते हैं। ये क्या पागलपन है, मुझे क्यों बैलगाड़ी से जाना है, भयानक, ये, वो। परन्तु कोई बालक यदि बैलगाडी से चलेगा तो वह इसकी आनन्द उठाएगा। कहेगा कितनी अच्छी चीज है, ऊपर नीचे उछलती है, बहुत अच्छा बहुत अच्छी है, बहुत ही रुचिकर। अगले दिन मैं बिल्कुल तरोताज़ा थी, वे लोग हैरान थे कि मैं कैसे इतनी तरोताज़ा हूँ। भा गान तो शरीर की ये सब तकलीफें आदि, जिस प्रकार हम हर चीज़ को सुधारते रहते हैं, हर चीजू के विषय में गिले-शिकवे करते हैं, हर चीज की शिकायत ा] लगता है, किस प्रकार बैल दौड़ रहे हैं, सुन्दर! बाहर की हर चीज को आप अच्छी तरह से देख सकते हैं! क्योंकि वह बालक शिव की तरह से अवोध है। जैसे 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-42.txt अंक : 7 & 8 चैतन्य लहरी 42 2007 करते हैं, ये सब मात्र मिथ्या हैं । यदि आप किसी गुरु के पास जाते तो सुझाया जाता कि आपको अत्यन्त कठोर जीवन बिताना होगा अब आपको इतनी तपस्विता बार सभी लोग ऐसा करेंगे और सम्भवतः यही फैशन का रूप धारण कर लें। आप यदि इस प्रकार से अपना चित्त डालें, इस प्रकार से कि यह शरीर तपस्या के लिए नहीं है, हवन के लिए है, इसका उपयोग हवन के लिए होना है, यज्ञ के लिए कर दें, इन सभी सुख-सुविधाओं को आतत्द के होना है, तब आप अपने शरीर को बखूबी कह सागर में विलय कर दें। अब जीवन के ये जो सकते हैं कि अब जाओ। अतः सर्वप्रथम बनावटी मापदण्ड आ गए हैं, जैसे हमारे बाल विखरे आपने इसकी भर्त्सना करनी है, इसकी सभी माँगों की भत्त्सना करनी है, केवल तभी यह परमात्मा के कार्यों में उपयोग करने की चीज बनता है। मैं कहूँगी कि भारतीयों की तुलना में पश्चिम के लोग इस मामले में कहीं बेहतर हैं, म अवश्य कहूंगी। भारतीय सबसे पहले अच्छे कमरे ले यह व्यक्ति ठीक नहीं है या 'ये कितना अजीब लेते हैं बो तो इसके लिए लड़ने से भी नहीं चूकते? अब शनै: शनै: उनमें कुछ सुधार हो रहा है परन्तु की आवश्यकता नहीं है। अब आपको करना क्या है? इन सभी चीजों को आनन्द के सागर में विलीन सुधर हुए होने चाहिए नहीं तो आप पिंछड़ गए हैं, फैशन के साथ चलना आपके लिए जरूरी है, मैं सोचती हूँ कि ऐसी और बहुत सी मूर्खतापूर्ण चीजें फैशन में हैं और लोग उन्हें इसलिए मानते हैं क्योंकि यही मानदण्ड हैं। आप यदि ऐसा नहीं करते तो लोग सोचते हैं कि व्यक्ति है।" इसका अर्थ ये नहीं है कि आप स्वयं को अजीबोगरीब, हिप्पी या ऐसा ही कुछ बोी अब भी कभी-कभी वो इस बात का शिकवा करते हैं, कभी उस बात का। में नहीं जानती कि किस और बना लें। कुम प्रकार से, परन्तु ये बात में अवश्य कहूंगी कि क्रा पश्चिम में या आस्ट्रेलिया में लोग इन चीज़ों की इन मानदण्डों की अधिक चिन्ता करने की कोई आवश्कता नहीं है। इंग्लैण्ड में मैंने एक दिन देखा कि एक सज्जन बड़े परेशान थे, एक भारतीय मैंने चिन्ता नहीं करते। मुझे याद है, हम एक बार गणपति पुले गए थे, बहुत समय पूर्व। वहाँ पर सोने के लिए सज्जन। पूछा, क्या हुआ, तुम इतने परेशान क्यों हो? कहने लगा, "मैंने गलती से मांस खाने के लिए कोई प्रबन्ध न थे क्योंकि एम.टी.डी.सी. ने कमरे मछली खाने वाला चाकू उपयोग कर लिया । " तो क्या? "सभी लोगों ने मुझे देखा।" मैंने कहा, ठीक है, तुमने वो चाकू किसी को घोंपा तो नहीं। कोई बात नहीं यदि तुमने मछली खाने वाले चाकू से मीट खा लिया। तो आप मछली वाला चाकू उपयोग कीजिए। ये, वो सारी मूर्खता। आपके मानसिक सन्तुलन की तुलना में ये चीजें अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं । तो ये लिप्साएं हैं। सर्वप्रथम तो हम कह सकते हैं कि इच्छा सारी छोटी-छोटी चीजें हमें परेशान कर सकती हैं। है, इसके विपरीत, मैं कहती, वास्तव में, मैंने खाया क्या? मैंने वास्तव में मछली खाई, बहुत अच्छा। मेंने कोई बन्धन तो तोड़ा। औपचारिक रात्रिभोज की कोई भी जाए तो भी हम सन्तुष्ट नहीं होते। तो हम अपनी प्रथा तो मैंने तोड़ी। तो यह बहुत अच्छा हुआ। अगली इच्छाओं का क्या करें? इन्हें शुद्ध इच्छा में विलीन थौ। खाली नहीं किये थे उन्होंने अगले दिन कमरे खाली से करने थे तो उनमें से (पश्चिमी सहजयोगी) बहुत उस रात समुद्र तट पर जाकर सो गए। कहने लगे, "हाँ श्रीमाताजी हमने बहुत आनन्द लिया। पूरा चाँद था। इमने वास्तव में इसका आनन्द लिया। " दूसरी बात ये है कि लोगों में अब भी ये प्राप्त करने की इच्छा, वो प्राप्त करने की इच्छा, सभी प्रकार की इच्छाएं। जैसे आपने देखा है इच्छा कभी पूर्ण नहीं होंगी और इच्छा यदि पूर्ण हो 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-43.txt चैतन्य लहरी अक : 7 & 8 2007 43 यह आपकी चौथी नाड़ी की पोषण करता है, जो खिलती है, आपकी बाईं विशुद्धि के माध्यम से उठती है, आपके सहस्रार में प्रवेश करके कर दें, कुण्डलिनी की शुद्ध इच्छा में । तीसरी बात ये हैं कि हमारे सम्बन्धी भी हैं। ये बात मैंने पश्चिमी लोगों में देखी है विशेष रूप से जब उनके विवाह हो जाते हैं तो मैं नहीं जानती उन्हें कमल का रूप धारण करती है, कमलदल का। तब सहस्रार हृदय की सुगन्ध बिखेरने लगता है। क्या हो जाता है! अचानक वो सोचने लगते हैं कि अब हमारे विवाह हो गए हैं। तो अब वे रोमियो और जूलियट बन गए हैं, उनसे भी 108 गुणे अधिक रोमांचक! और भारतीय बिल्कुल दूसरी ओर हैं। मेरा अभिप्राय ये है कि उनके साथ भी ऐसा ही होता है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि ठीक है, ये एक घटना है, मेरा विवाह हो गया है परन्तु चित्त किसी व्यक्ति विशेष में लिप्त नहीं होना चाहिए। जैसा मैंने बहुत बार बताया है, जैसे पेड़ के रस को इस प्रकार से हुदय और मस्तिष्क का समन्वय घटित होता है। तो ये चित्त स्वयं श्री शिव की शक्ति है, इसी चित्त को 'चित्ती" कहते हैं। सर्वव्यापी शक्ति, चैतन्य के हर कोने में यह चित्त विद्यमान है। जब यह चैतन्य, ये कोने गतिशील होते हैं, तब वास्तव में चित्ती सम्मानित होती है। यह चित्ती जब शान्त होती है तो यह देखती है, मात्र देखती है- प्रतिक्रिया नहीं करती परन्तु ये चैतन्यकण चित्त को इसकी वस्तुस्थिति में देखते हैं और जानते हैं कि यह क्या है और उसी के अनुरूप ये कार्य करते हैं। वे, श्री शिव, मात्र एक दर्शक हैं जो देवी ( आदिशक्ति) के कार्य को देख रहे हैं केवल वही दर्शक हैं और यदि वे नाराज़ हो जाएं, यदि उन्हें लगे कि मनुष्य उनकी शक्तियों का सम्मान नहीं करते तो वे गतिशील होकर पूरे विश्व को नष्ट कर देते हैं। देवी की पूरी सृष्टि को नष्ट कर देते हैं। अत: यह ऊपर उठाकर पेड़ के सभी हिस्सों का पोषण करके वापिस आना होता है, यदि यह किसी भाग विशेष से लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ मर जाएगा और उसका वह भाग भी मर जाएगा। तो किसी सम्बन्ध में भी, जो भी आपको देना है, अपनी बहन को अपने भाई को, बच्चों को और अपनी पत्नी को, जो भी आपने देना है वो देना है, परन्तु आपने उनसे लिप्त नहीं होना। तो अपनी लिप्साओं का हम क्या करें? इन्हें करुणा (compassion) में विलीन कर दें। करुणा सागर की तरह है। करुणा का स्वभाव ऐसा है जो कार्यान्वित करें, देवी के कार्य को, ताकि श्री शिव सभी खड्डे भरता है और सभी दोषों को दूर करता आवश्यक है कि आप भी उनका साथ दें, इसे प्रसन्न हों और हम आध्यात्मिकता और सौन्दर्य के एक नए विश्व का सृजन कर सकें। है। बस इसके अन्दर प्रवाहित होता है। परमात्मा आपको धन्य करे। चौथी नाड़ी आपकी उत्क्रान्ति के लिए है। रूपान्तरित जब आपका चित्त अत्यन्त पवित्र हो जाता है तो ५ बा 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-44.txt परम पूज्य श्री माताजी का एक पत्र (मराठी से रूपान्तरित) संस्कृति दोनों बाजार में बेच रहे हैं। नीति नाम की चीज़ कोई मानता ही नहीं। चोरी-डाकाखोरी का नाम, अमीरी और वेश्या व्यवसाय शुरु है। इस समय हमारे घुड़सवार (सहजयोगीजन ) आपस में गले काट रहे हैं, कुछ लोग लूटमार करके पैसे इकट्ठा कर रहे हैं। ऐसा जो सामने आएगा तो सहजयोग की दवाई कोन पिएगा? उसका परहेंज करना ही पड़ेगा। आपने क्या कमाया वह देखना जरूरी है। कौन कौन से नवरात्रि के दिन सभी सहजयोगियों को अनेकानेक आशीर्वाद। नवरात्रि की शुरुआत का मतलेब एक महायुद्ध की शुरुआत है। नवरात्रि का एक एक दिन एक महापर्व की गाथा है। ये युद्ध अनेक युगों में हुआ है- केवल मानव के संरक्षणार्थ। परन्तु उस मानव का संरक्षण क्यों करना है? सारी सृष्टि ने उन्हें वरदान क्यों देना है? इसे सोचना चाहिए। मनुष्य को सर्वोच्च पद पर राज्य करने के लिए बिठाया परन्तु कलियुग में मनुष्य ने अत्यन्त क्षुद्र गति स्वीकार की है। अपने 'स्व' का साम्राज्य क्षुद्रता में कैसे होगा? कलंक (दाग) छुटे और आप कैसे पवित्र हुए (निर्मल हुए) ये देखना चाहिए। दूसरों के अच्छे गुण देखिए और अपने दुर्गुण (बुराई) देखिए। फिर अपने आप आपका चित्त काम करेगा। ढाल का काम तलवार से आप सहजयोगीगण विशेष जीव हैं। इस सारे संसार में कितने लोगों को चैतन्य लहरी मत लीजिए। तलवार का काम ढाल से लेकर कैसे लड़ाई जीतोगे मर्यादा है वही तोड के- अमर्यादा विसार कर- चेतना में एकरूप होना है- विशाल होना है। ? अपने आप से लड़ना है। जो आपकी का आभास है और कितने लोगों को इस के विषय में ज्ञान है? लोग जानते नहीं हैं तो वह दोष अज्ञानता प्रेम की खाली बातें नहीं चाहिए। मन से का है। परन्तु जब आप अपने आप की महत्ता जानते हैं तो दोष किसका है? आँखें खोलकर जो गढ्ढे में गिर जाता है उसे लोग मूर्ख कहते हैं और आँख ऊपर करके जो चढ़ता है उसे विजयी कहते हैं। आप क्यों गिरते हैं? आपकी आँखें कहाँ रहती हैं? वह देखिए तब समझोंगे, आपका चित्त मार्ग पर है कि दूसरों की तरफ यह देखना जरूरी है। घोडे के आाँख पर दोनों तरफ चमड़े की गद्दी डालते हैं ताकि लक्ष्य इधर उधर हो प्यार करना बहुत आसान है। क्योंंकि जब वैराग्य आता है तब किसी को देना बहुत आसान लगता है (सहज लगता है)। परन्तु वेराग्य मतलब देने की उत्कठा जागृत होनी चाहिए। पास से गंगा बह रही है। लेकिन वह बह रही है ये मालूम होना चाहिए। उसका कारण आप खुद ही हैं, यह जान लीजिए। दूसरा कोई कैसे भी होगा तब भी आपकी लहरें रुकती नहीं हैं। परन्तु जब आप की मशीन ठीक होगी तो औरों की भी ठीक हो जाएगी और उनकी लहरें भी बढ़ जाएंगी। जो आपसे आगे हैं उनके संपर्क में न पाए। परन्तु आप सहजयोग के सवार हो, घोड़े नहीं। सवार की आँख पर गद्दी नहीं डालते। घुड़सवार स्वतन्त्र है, आजाद है। वह जानकार है। वह घोड़े को रहिए। आपका ध्यान उस पर होना चाहिए। भी जानता है और मार्ग को भी जानता है। कलियुग सहजयोग कितना अद्भुत है, ये जानना चाहिए और उसके मुताबिक अपने आप की विशेषता में महान घमासान युद्ध चालू है। यह आपातकाल का समय है। पीछे हटकर नहीं चलेगा। शैतानों का साम्राज्य हर एक के हृदय में प्रस्थापित है। अच्छे बुरे समझनी चाहिए। आप आगे जाते जाते बीच में की पहचान नहीं रही। राक्षस लोग परमेश्वर और क्यों रुकते हो? पीछे मल मुडिए क्योंकि फिसलोगे 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-45.txt चैतन्य लहरी अंक : 7 & 8 -2007 45 बा नार संरा के लक्षण हैं क्या? आज ही प्रतिज्ञा कीजिये। अपने चछड और चढ़ाई मुश्किल हो जाएगी। स्वयं के दोष, गलतियाँ देखनी हैं। अपने हृदय से सब प्रेम की महत्ता हम क्या गाएं? उसके सुर कुछ अर्पण करना है, प्रेम करना है सबसे। जो मन दूसरों की गलतियाँ दिखाता है वह घोड़ा उल्टे रास्ते आप सुनिए और मस्त हो जाइए। इसलिए यह सारी मेहनत, इतने प्रयत्न, संसार की रचना और अवतार, आखिर जिनको ये मधुर संगीत सुनाने बिठाया वो तो औरंगजेब निकले (जिनको इसकी कोई चाह नहीं उल्टे नफरत ही है)। ये दुर्भाग्य है कि आपकी समझ में नहीं आता। से जा रहा है, उसे सीधे-सरल रास्ते पर लाकर आगे हिए ह ह हमने तो आप लोगों पर अपना जीवन अर्पण किया है और सारा पुण्य आप ही के उद्धार हेतु अच्छाई लिए) लगाया है। आपको भी तो थोड़ा-थोड़ा का रास्ता चलना है। र परन्तु फिर भी हमें संतोष है क्योंकि आप लोगों में कई बड़े शौकीन लोग हैं। उन्होंने अनेक पुण्य जोड़ना चाहिए कि नहीं? सारे संसार के आप प्रकाश दीप हो, आपस जन्मों में जो कमाया है उसे जानकार, समझकर सहजयोग को पक्के पकड़कर उसका स्वाद ले रहे में भाई-बहन हो। एकाकार बनिए, तन्मय हो जाइए, हैं। आनन्द सागर में तैर रहे हैं। उन्हें विरह नहीं है, जागृत हो जाइए। दु:ख नहीं है। उनका जीवन एक सुन्दर काव्य बन कि सभी को आशीर्वाद, गया है। ऐसे भी कई फूल हैं। कभी कभी उन्हें भी साड क र आपकी माँ निर्मला आप दु:ख देते हो, कुचलते हो। अरे, ये कोई योगियों जजाड हर कि कतेकेर श कल सम ए माहि्ह भार्र केना म । स होवन आप वही मांगिये जिसे मांगना चाहिए, और वह है परम्| वह परम्तत्व आपके ही अन्दर है जिसे 1835 सुपान लि आपको पाना है" -श्री माताजी क लक्ष्मी तत्त्व की जागृति के पश्चात् ही लक्ष्मी जी का आगमन होता है। धन आना और चीज़ है और ऐपाल पिहि ि लक्ष्मी तत्त्व का जागृत होना और चीज है ।" -श्रीमाताजी म निक ह ा हे क ा जार न्सप् दिम् ा साता जजा स ह ताम नशा वि प निर्मला योग-1984 য त मनः हार कि लाे से G ি, सई ल के मः ा 2007_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-47.txt रो 4५ तो विवेक के साथ-साथ आपमें सहजबुद्धि, व्यवहारिकता भी होनी आवश्यक है । मैंने देखा है कि कुछ लोग अचानक किसी से भी सहजयोग की बातें करने लगते हैं। ऐसा करना व्यवहारिक नहीं है। सहजयोग 'बहुमूल्य रत्न' है, उसे आप सबको नहीं दे सकते। मैंने देखा है कि हवाई अड्डे पर भी लोग सबकी कुण्डलिनी उठा रहे होते हैं । नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए, साधकों को आना होगा और सहजयोग माँगना होगा। उन्हें इसकी याचना करनी होगी। केवल तभी उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिल याएगा। हमें बड़ी संख्या की नहीं उत्कृष्टता की आवश्यकता है। मेरे सारें प्रवचनों में, आपने देखा है कि मैं सहजयोगियों और साधकों की उत्कृष्टता पर बल देती हूँ। लेकिन जब हम श्रीमाताजी को वोट देने के लिए बहुसंख्या की बात सोचने लगते हैं तो इसके विषय में मुझे ये कहना है कि मैं कोई चुनाव नहीं लड़ने वाली हूँ। आप चाहे मुझे चुने या न चुने, मैं चुनी हुई हूँ। आपको ये कार्य नहीं करना। इसके लिए मुझे बहुत ज्यादा लोग नहीं चाहिए। परन्तु जब आप विवेक के मामले में असफल हो जाते हैं तो .... कुछ समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।" परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी (हँसा चक्र पजा. जर्मनी-10.7.1988) ि