चैवन्य लहरी मार्च - अप्रेल २००८ लष्ध ा ए ৯ १ ॐो ও प्रकाशक * न प्रा. लि. निर्मल ट्रॉसफोर्मेश प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे ४११०२९ का फोन : ०२०-२५२८६७२०, २५२८५२३२ पन व अंक में के ध्यान की आवश्यकता १. २. सूर्य की शक्ति ज्ञान, प्रकाश ८ ३. गणेश पूजा ४. आत्म प्रकाश १ -१२ ५. रुद्र 430 ६. शिवलिंग - १३ न ७. आँखे १४ ८. गुड़ी पाड़वा-शिक्षा - १६ ९. मधुमेह - १८ १०. कोष्ठबध्दता - १९ ११. मधुर, प्रेमपूर्वक और शान्ति से रहना २० १२. सहजयोग में प्रगति का मार्गः २२ सें १३. इस्टर पूजा संदेश -२४ १४. जन्मदिन का असली भेंट २६ १५. महावीर जयन्ती के अवसर पर २७ १६. तुर्या -२८ १७. आदिशक्ती -३० १८. कुछ भारतीय मसालों का उपयोग - ३२ ৯ ध्यान की आवश्यकता |Dনা प.पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन दिल्ली २७ नवम्बर १९९१ . आ ज बहुत दिनों के बाद मुलाकात हो रही है। सहजयोग के बारे में हम लोगों को समझ लेना चाहिए। सहजयोग इस संसार की भलाई के लिए संसार में उत्पन्न हुआ है और उसके आप लोग माध्यम है। आपकी जिम्मेदारियाँ बहुत ज्यादा हैं आप चैतन्य भी जिन नसों में इसके माध्यम है। और कोई नहीं है इसका माध्यम। हम अगर किसी पेड़ को चैतन्य दें या किसी मंदिर को vibrations दें या कहीं और भी vibrations दें तो भी यह बहुता है, वह शुद्ध चलायमान नहीं हो सकता। वह कार्यान्वित नहीं हो सकता। आप ही की धारणा से और होनी चाहिए। और नसों को आपही के कार्य से फेल सकता है। शुद्ध करने की जिम्मेदारी फिर हमें सोचना यह चाहिए कि, सहजयोग में एक ही दोष है। ऐसे तो सहज हैं। सहज में प्राप्ती हो जाती है। प्राप्ती सहज में होने पर भी, उसका सम्भालना बहुत कठिन है क्योंकि हम कोई हिमालय पर नहीं रह रहे है । हम किसी ऐसी जगह नहीं रह रहे है जहाँ आप लोगों की है। और कोई नही बस एक अध्यात्मिक वातावरण हो; हर तरह के वातावरण में हम रहते हैं। उसी के साथ साथ हमारी भी उपाधियाँ बहुत सारी हैं, जो हमें चिपकी हई हैं। तो में शुद्ध बनना, शुद्धता अंदर लाना, यह कार्य हमें करना पड़ता हैं। जैसे कि सहजयोग कोई भी चेनल हो वह गर शुद्ध न हो जैसे कि अगर पानी के नल में कोई भी चीज भरी हुई है; तो उसमें से पानी नहीं गुजर सकता। इसी प्रकार यह चैतन्य भी जिन नसों में बहता हैं, वह शुद्ध होनी चाहिए। और इन नसों को शुद्ध करने की जिम्मेदारी आप लोगों पर है। हालांकि आपने, कितने बार कहा है कि, 'माँ, हमें भक्ति दो; माँ अपने प्रति श्रद्धा दो। किन्तु यह चीज आपको पूरी समझदारी से जाननी है। जब आपकी नसें शुद्ध हो जाएंगी, तो आप आनन्द में आ जाएंगे। आपको लगेगा ही नहीं कि आप कोई कार्य कर रहे है। आप जो भी कार्य करते जाएंगे उसमें आप यश प्राप्त करेंगे। बहुत सहज में ही कार्य होते जाएंगे वो दुनियावी कार्य हर तरह की सहूलियत आप के अंदर आएंगे। हर तरह के लोग आपके पास आ करके आपकी मदद करेंगे। आपको कभी कभी आश्चर्य होगा कि किस तरह से बिगड़ी बन रही है और किस तरह से हम ऊँचे उठते जा रहे हैं । इससे लक्ष्मीजी की भी कृपा आ जाती है। इससे कला की भी उन्नति होती है। हर तरह की उन्नति, प्रगल्भता इसमें आ जाती है। पर यह सारे एक तरह के प्रलोभन हैं, यह समझ लेना चाहिए। क्योंकि कभी कभी में देखती हैं कि किसी आदमी ने व्यापार किया सहजयोग में २ ध्यान की आवश्यकता.... उसको बहुत रुपया मिल जाता हैं। फिर वह गिर जाता है। और इतना बुरी तरह से गिरता है कि, उठाना मुश्किल हो जाता है। तो नसों की स्वच्छता हमें करनी चाहिए। इसमें सर्ेरे का ध्यान अवश्य करना चाहिए। तो नसों की अगर आपका सवेरे ध्यान नहीं लगता, तो कुछ न कुछ खराबी हममें आ गयी है। कोई न कोई गड़बड़ी हमारे अंदर हो गयी है। कोई न कोई अशुद्ध विचार हमारे अंदर आ गए हैं। उसको देखना चाहिए, जानना चाहिए, समझना चाहिए और सफाई करनी चाहिए। इसी को introspection (अन्तर्दर्शन) कहते हैं। हमें अपनी ओर मुड़ के देखना चाहिए। यह आपके हित के लिए मैं कह रही हैं किसी और के हित के लिए नहीं। पहले तो अपना ही हित आप साध्य कर लीजिए। अगर आपके अन्दर कोई दोष है, बहुत वजह से उपाधियाँ होती है, आदतें होती हैं, वातावरण होता हैं, तोर तरीके होते हैं। तरह-तरह की चीजों से मनुष्य में यह षड़रिपु बैठे रहते हैं। यह हमारे भीतर के ही दुश्मन हैं। वे अंदर छिपे रहते हैं और वह बार बार अपना सर उठाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि अपने को कोर्से नही। अपने को पापी न कहें। अपने को खराब न कहें। अपने को किसी तरह से लांछित न स्वच्छता हमें करनी चाहिए । इसमें सवेरे का ध्यान अवश्य करें। लेकिन इसमें से निकलने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसे कमल हैं, किसी भी गंदे बिल्कुल सड़े हुए जगह में पैदा होता है। और वह सबमें से निकल के फिर जब खिलता है, तो सुरभित हो करके सारा वातावरण को भी सुरभित कर देता है। इसी प्रकार सहजयोग की विशेषता है। आप भी उसी कमल जैसे हैं। न होते तो आप सहज में न आते। न इसे आप करना चाहिए। अगट आपका प्राप्त करते। आप कीड़े-मकोड़े तो है नहीं, आप अवश्य ही कमल हैं। लेकिन इस कमल को सुरभित होने के लिए थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ती है अपनी ओर नजर करने की। सवेरे ध्यान सवेरे का जो ध्यान है वह अपनी ओर नजर करने का ध्यान है कि में क्या कर रहा हूँ? मेरे अंदर क्या दोष है? मेरे अंदर क्रोध आता है। इस क्रोध को में कैसे नष्ट करू? मुझे नहीं लगता, तो और ऐसी कुछ इच्छाएं होती है जो कि मैरे लिए दुखदायी है; मुझे नष्ट करेंगी। उधर मैं क्यों जाता हूँ? इस तरह ध्यान देने से आपको पता लगेगा कि आपके अंदर कौन से चक्र की पकड़ है। उसे आपको साफ करना है। उसको साफ करके ठीकठाक करके और फिर आप ध्यान में बैठे। इसको प्रत्याहार कहते हैं । माने की सफाई, इसकी सफाई पहले करनी चाहिए। अपने मन की सफाई करनी चाहिए। अपने से अगर हमें खेद है, हमारे कुछ न कुछ खराबी हममें अंदर स्वार्थ है तो 'स्व' का 'अर्थ' जान लेना चाहिए और सोच लेना चाहिए कि इन खराबियों से हमें क्या फायदा होना है। क्षणिक से होता है आनंद मिला हो, क्षणिक से आ गयी है। उसे सुख, लाभ हो। कोई बात हुई भी हो तो उसके लिए तो मेंने अपना बड़ा भारी कि आपकी एकाकारिता नुकसान कर लिया क्योंकि ध्यान नहीं लगा। माने यही हुआ भी साध्य नहीं हुई। अब कुछ लोग कह देते हैं कि हमारा तो ध्यान लगता है। पर ध्यान होता नहीं। तो अपने साथ सच्चाई रखना बहुत जरुरी है। अगर हम अपने साथ सच्चाई नहीं रखेंगे तो हम किसके साथ सच्चाई रख सकते हैं? यह अपने हित के लिए है। हमारी अच्छाई के लिए है। हमारे भलाई के लिए है अधिकतर लोगों को मैं देखती हैँ ३ की ध्यान आवश्यकता.... सहजयोग में आने के बाद कोई बीमारियाँ अधिकतर नहीं होती है। अधिकतर सहजयोग में आने के बाद बहुत लाभ हो जाता है। अधिकतर लोगों को में बहुत आनंद में भी पाती हूँ। सब कुछ व्यवस्थित हो जाता है। उनके घर के जो प्रश्न हैं वह भी छूट जाते हैं। सब कुछ ठीक हो जाता है। तो कभी कभी ऐसा होता है कि कोई न कोई वजह से, किसी न किसी पुरानी त्रुटी की वजह से, सहज का ध्यान नहीं लगता। सुबह उठ के ध्यान करना जो लोग सवेरे उठ के ध्यान बहुत आवश्यक है। जो लोग सवेरे उठ के ध्यान नहीं करेंगे, वह सहज में कितने भी कार्यान्वित रहें और नहीं करेंगे, वह सब कुछ करते रहें, उनकी गहराई वह पा नहीं सकते। तो फिर आपकी गहराई में ही सारा सुख समाधान है। सारी सम्पत्ति, ऐश्वर्य, श्री, सभी कुछ उसी गहराई में हैं। उस गहराई में उतरने के लिए बीच की जो कुछ भी रुकावटें हैं, उनको आपको निकाल देना चाहिए। अपने पर प्रेम करके, अपनी ओर दृष्टि करके, अपने को समझ के की मेरे अंदर यह दोष हैं, इस दोष को मुझे निकाल लेना चाहिए। दूसरों के दोषों के ओर बहुत जल्दी हमारी सहज में कितने भी कार्यान्वित नजर जाती है। यह काम आपका नहीं। मेरा काम हैं। यह काम आप मेरे ऊपर छोड़ रहें औट सब कुछ दीजिए । आप अपने दोषों की ओर देखें। और उसके बाद शाम का ध्यान है। शाम के ध्यान में समर्पण होना चाहिए। तब फिर आगे की बात आती है कि आप किस तरह से समर्पित है। यानि के इस वक्त यह सोचना चाहिए कि मैंने सहजयोग के लिए क्या किया? मैंने सहजयोगियों के लिए कौनसा कार्य किया? शरीर से, मन से, बुद्धि से । एक अंधे गायक हैं। बहुत मशहूर हैं। विद्वान है। सुंदर कविता लिखते हैं। बहुत पढ़े लिखे है। अंधी आखों से पढ़ा मुझसे बस तीन चार बार मिले और ऐसी कविता उनकी फूट पड़ी कि मैने सोचा यह कैसे करते रहें, अपनी गहराई वह पा है उन्होंने । वह नहीं सकते । तो एकदम धस गए अपने गहराई में? ऐसी कविता फूटी कैसे इनके भीतर से? ऐसी ऐसी बातें कि जो देवी के नाम में भी नहीं लिखी गई है वह भी उन्होंने वर्णित की । बिल्कुल सही मानें ऐसा उन्होंने वर्णन-कैसे किया? तो उनकी गहराई पहले थी जैसे आप सबकी है। लेकिन फिर आपकी वह घुस पड़े उसमें। उसको प्राप्त किया उन्होंने । पहुंच गए वहाँ । सबके अंदर यह संपदा हैं। गहराई में ही आप सभी पूरी तरह से इसे प्राप्त भी कर सकते है। तो शाम का ध्यान है वह बाहर की ओर होना है। जैसे मैने औरों के लिए क्या किया? मैने सहजयोग के लिए क्या सारा सुख किया? मैने माँ के लिए क्या किया? वे सब विचार आपको रखना चाहिए। जब आप ऐसे बैठके सोचेंगे तो सोचना चाहिए इस तरह से कि वह मुझे कितना प्यार करतें हैं । समाधान है। उन्होंने मुझे कितना प्यार दिया? क्या मैने उन्हें दिया है इतना प्यार? वे कितने मेरे तरफ Sincere (सच्चे) है। मैं भी उतना उनके तरफ Sincere (सच्चा)रहा? इस तरह की बात सोचने से फिर आपको आनंद आने लग जाएगा| जब आप सोचने लग जाएंगे कि मैने इतना प्यार दिया है तो फिर आपको आनन्द आने लग जाएगा। क्रोध करना, नाराज होना, झगड़ा करना, दूसरों के दोष देखना इसमें अपना समय बरबाद करने की जगह की ध्यान आवश्यकता.... देखना चाहिए कि उन्होंने किस तरह से मुझे प्यार किया। हमारे सहजयोग में प्यार बहुत शुद्ध हैं। इसमें कोई गंदगी नहीं होनी चाहिए। अब इस प्यार में गंदगी आ जाए तो सहज का प्यार नहीं। बिल्कुल देने वाला, इसको निव्व्याज कहा गया है। निव्य्याज माने जिसमें ब्याज भी नही मांगा जाता। ऐसा प्यार मैने किसे दिया? जब आप सोचेंगे कि मैं इतना एकाध दिन नहीं खाना प्यार करता हूँ। प्यार करती हैँ तो बड़ा आनंद आएगा। न कि तब जबकी आप कहते है वाया तो कोई में उससे बिलकुल नफरत करता हूँ। वो ऐसा है, वो खराब है, ये है। तब आनन्द नहीं आयेगा। आनंद तभी आता है, जब हम ये सोचते हैं कि ये प्यार का आंदोलन चल रहा खात नहीं। है। बड़ी सुंदर भावना मन में उठती है फिर। और ये सुंदर भावना एक तरह की प्रेरणा स्वरूप होती है। उसका वर्णन तो करना मुश्किल ही है, किन्तु उसकी झलक चेहरे पे दिखाई देती है। उसकी झलक आपके शरीर में दिखाई देती है। आपकी गृहस्थी में दिखाई देती है, वातावरण में दिखाई देती है और सारे ही समाज में दिखाई देती हैं । एकाध दिन इसलिए दोनों समय का ध्यान अवश्य ही सबको करना चाहिए । खाहट घुमने एकाध दिन नहीं खाना खाया तो कोई बात नहीं। एकाध दिन बाहर घुमने नहीं गए नहीं गए तो तो कोई बात नहीं। एकाध दिन आराम नहीं हुआ तो कोई बात नहीं। लेकिन ध्यान सहजयोगियों को अवश्य करना चाहिए। क्योंकि ध्यान ही में आनंद पाया जाता है। तो सवेरे का ध्यान अगर हम कहें कि ज्ञान का है तो शाम का ध्यान भक्ति का है। इस तरह से कोई बात नहीं। खुद को जब आप बिठाते जाएंगे तब आप समझ लेंगे कि आप कितने महत्त्वपूर्ण है। आपका महत्त्व इतिहास में कितना है कि इतना बड़ा कार्य जो हो रहा है, सहजयोग में ये एकाध दिन आटाम सब आप ही के माध्यम से हो जाएगा। आप अपने को औरों से मत तोलिए, वो लोग ये काम करने वाले नहीं । डरपोक लोगों से भी ये काम नहीं होने वाला। पहले लोग हिमालय पे जाते थे, हजारों में से एकाध को आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति होती थी और बाकी तो सब ऐसे ही रह जाते थे बड़ी तपस्या करनी पड़ती थी अब आपको तपस्या करने की जरुरत नहीं। हिमालय में जाने की जरुरत नहीं। भूखे रहने की जरूरत नहीं। कुछ करने की जरूरत नहीं। तो आपकी सफाई होने का कौन सा मार्ग सहजयोग में है? शायद आपने जाना नहीं तो जान लीजिए कि सामूहिकता ही आपकी सफाई का मार्ग है। जो लोग सामूहिक हो सकते हैं, निर्वाज्य तरीके से जो लोग सामूहिक हो सकते है उनकी सफाई अपने आप होती जाएगी। उनको कोई विशेष तपस्या करने की जरूरत नहीं हुआ ता कोई बात नहीं। 1 लेकिन ध्यान सहजयोगियों नही है। सामूहिकता को भी एक तपस्या के तौर पर नहीं, पर एक आनंद की तौर से मानना चाहिए। उसमें अगर ये सोचे कि भाई कैसे इन लोगों के साथ रहा जाए ये तो ऐसे को अवश्य क्योंकि सहजयोग में सबके लिए द्वार खुले हैं। तो वह लोग हैं, वह तो वैसे लोग है आपके लिए कठिन हो जाएगा। तपस्या के मामले में जो उसे मजे से उठा सकता है, वही करना चाहिए। सहज की तपस्या है। सब चीज हो ही जाती हैं उसमें करने का क्या है? सब चीज बनी ही रही है, उसमें बनाने का क्या? आपकी स्थिती देवताओं जैसी हैं। ये समझ लेना चाहिए। उससे कम नहीं है। तो जैसे देवता लोग- हम उनसे कहे या न कहे अपने कार्य ध्यान की आवश्यकता.... अपने शांति के को करते ही रहते हैं उसी प्रकार आपको भी हो जाना चाहिए। उस स्थिती में आप बहुत आसानी से जा सकते हैं। कोई कठिन नहीं है। और कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन थोड़ा सा समय तो हमें अपने को भी देना चाहिए। और सवेरे और शाम प्रतिदिन ध्यान करना चाहिए । प्रतिदिन । इसमें अगर नहीं हुआ तो मैने बड़ा गलत कर दिया ऐसी बात नहीं। ध्यान गर नहीं हुआ तो कोई बात नहीं। पर ध्यान करना चाहिए। ये मैं जो कह रही हूैं कोई লिए, अपने के लिए, सुख order (आज्ञा) की तरह से नहीं। एक सूझबूझ की बात है एक विचार की बात है जिससे हम स्थिर रहते हैं। मुझे फोरन पता चल जाता है कि कौन लोग रोज ध्यान करते हैं और कौन नहीं करते हैं । क्योंकि जैसे कोई कपड़ा रोज धोए तो साफ ही रहता है उसमें गंदगी कैसे रहेगी? और जो ध्यान नहीं करते हैं उसकी गंदगी फौरन दिखाई पड़ती है। बहत लोगों में दो चार दिन ध्यान नहीं करने से एकदम खराबी आ जाती है। तो ये स्नान है। स्नान न करने से भी चलेगा लेकिन ध्यान जरूर करना चाहिए। अपने शांति के लिए, अपने सुख के लिए, अपने हित के लिए और सारे संसार के हित के लिए हमें ध्यान करना हैं। अपने से गर हमें प्रेम हैं तो हमें जान लेना चाहिए कि हम कितने महत्त्वपूर्ण हैं । कितने गौरवशाली हैं। और हमें सबसे कितना बड़ा काम, कितना उँचा काम आता है। अपने हित के लिए और सारे संसार के हित के लिए हमें ध्यान आशा है, आप लोग मेरा Lecture ( प्रवचन) सुनकर उसपर थोड़ा सा विचार करेंगे, मनन करेंगे। ये नहीं कि मैने कह दिया उसके बाद माताजी ने कह दिया। फिर वह दूसरों पे लगाते हैं अपने लिए ऐसा नहीं सोचते है, माँ ने उनके लिए कहा, मेरे लिए नहीं करना है। कहा हर एक को सोचना चाहिए, ये मेरे ही लिए कहा है और मुझको कैसे उपर चढ़ना है। इसमें कैसे मुझे कामयाब होना है। मुझे कैसे बढ़ना है। आप सबको अनन्त आशीर्वाद । म है र ह नं र ा सूर्य की शक्ति, ज्ञान, प्रकाश ज संक्रांती है। संक्रांती का मतलब है आज कुछ तो भी नवीन होना। आप के अंदर कुण्डलिनी का जागरण हो गया और आप पहले से नवीन हो गए। लेकिन संक्रांती के दिन अब ये जान लेना चाहिए तूम्हाटे अंदट चैतन्य बह रहा है। अब इटस कि अपने अंदर बैठी हुई देवी जो है, उसे खुश करना हैं। उसको खुश करने चैतन्य को इस्तेमाल करो। अपने अंदर के लिए क्या करना चाहिए? तिल और गुड़ दिया। यह होता है प्यार के शवित लाओं औट अपने अंदर शोंति लाओ लिए। आपस का प्यार बढ़ाने के लिए तिल और गुड़ देतें हैं और आज सूर्य अपना स्थान छोड़के उत्तरायण में हमारे पास आया। इस वक्त हमें उसे औट दुनिया को बताओ कि अपने ही अंदर बहुत धन्यवाद देना चाहिए। उसकी क्रिया से अपने देश में न जाने क्या क्या यह शक्ति हैं औट इसे हमें प्राप्त करना है । होता है । आज सबको सूर्य को नमस्कार करना चाहिए और उनकी शक्ति, १७ जनवरी २००८, पुणे उनका ज्ञान और प्रकाश हमारे अंदर आना चाहिए। मैं तो यही कहुँगी कि तुम सब लोग जागृत हो गए हो। तुम्हारे अंदर चैतन्य बह रहा है। अब इस चैतन्य को इस्तेमाल करो । अपने अंदर शक्ति लाओ और अपने अंदर शांति लाओ और दुनिया को बताओं कि अपने ही अंदर यह शक्ति हैं और अपने गुणों से और अपने सत्य वचनों से इसे इसे हमें प्राप्त करना है पनपाओ, इसे बढ़ाओ। आज का दिवस विशेष होता है कारण सूर्य का आज विशेष उपकार हमारे ऊपर है, इसके लिए धन्यवाद होना चाहिए। आपको बहुत कुछ मिला हैं, और भी मिलना है, बहुत मिलेगा। इसको बढ़ाना चाहिए। और इतनी पूजा आपने मेरी करी है, मैं तो हैरान हूँ, इतनी मेरी पूजा करके आप क्या चाहतें हैं? मैं चाहती हूँ की आप बड़े भारी मी सहजयोगी बन जाएं और हजारों और लोगों को इस दुनिया में सत्मार्ग में लगाए, अच्छाई सिखाए और अपने अंदर उस शक्ति का अहसास करें जो आप के अंदर बह रही है। आप सब को देखकर मुझे बड़ा आनंद आ रहा क है । तो अब हम चलें ? ८ श्री गणेश पूजा १० फरवरी २००८, पुणे आज का दिन हम सब सहजयोगियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आज श्री गणेशजी का जन्म हुआ और श्री गणेश हमारे आराध्य है। उन्ही की वजह से आपने जागृती पायी। उनको कितना भी याद करीए, जब तक आप उनकी विशेषता को नहीं जानिएगा तब तक उनको नहीं पा सकते। उनकी विशेषता ये है कि वे शुद्ध स्वरूप पूर्णतया ब्रह्माण्ड की सारे स्वामी। वो अवतार ही ब्रह्म का है और उन्होंने दुनिया में आकर संगीत, ताल, सुर सब बनाया। उन्ही की कृपा से लोग तल्लीन हो जाते थे। छोटा सा बालक दुनिया में आया और उसने इतना कार्यं किया और इतने सबको चीजें दी और अभी भी आज वो कार्यान्वित है। गणेश की पूजा जितनी भी करिये वो कम ही है। बहुत से लोग कहते है कि हमें गणेशजी दिखते ही नहीं। हम पूजा करते है तो मिलते ही नहीं। वो सरबंज्ञ है, सब जगह है, हर चीज में वो व्याप्त है। कारा लेकिन उनको आप पहचान नहीं सकते जब तक आप पार नहीं होते, उसके बाद आप पहचान सकते है कि गणेश क्या है और गणेश जो है शुद्धता है, शुद्ध आत्मा है और वा जब हमारे अन्दर जागृत हो जाते है तो हमें कोई भी प्रश्न नही रह जाता। हर एक कार्य में सफलता मिलती हैं। हर एक समझ में सफलता रहती है और हमें हर एक चीज में आनन्द आता है। वो आनन्द स्वरूप है और सब को आनन्द देते है। उनकी सेवा करना परम धर्म है और उनकी सेवा माने क्या कि छोटे बच्चों का खयाल करना, उनकी सेवा करना, उनको संभालना, उनके साथ कोई दुष्टता नहीं होने चाहिए। उनसे वो बहुत प्रसन्न होते हैं। ऐसे प्रेमस्वरूप, सरल हृदय श्री गणेश का आज जन्म हुआ था। आज इसलिए उनकी मन्नत है। आज के दिन आप कुछ माँग ले तो श्री गणेश आपकी इच्छा पूरी करेंगे। उनका अधिकार है कि आपकी जो भी इच्छा हो वो व्यक्त करे क्योंकि अब आप सब पार है। आप उनको पूरे हृदय से माँग लें और हर एक तरह से बो आप की मदद करेंगे हर घड़ी, हर पल। आज का दिन बहुत बड़ा है क्योंकि साक्षात पवित्र आत्मा ने जन्म लिया और उनकी इतनी अनादि स्थिति थी कि बहुत लोग कुछ लिख भी न पायें और बहुतों ने कुछ बताया भी नहीं। जैसा समझ में आया लिख दिया। जैसे दिमाग में आया लिख दिया। पर आप लोग समझ सकते हैं कि गणेश के नाम से आप को जागृती हो जाती है। उनके नाम से कई सारे रोग हों, कोई सी भी तकलीफ हो वो भाग जाती है। वे चिरआयु है। पर हमारे अन्दर हमेशा उनका वास है। जब आप पार हो जाते हैं तो आप महसूस कर सकते है उनका वास और अगर नहीं हुए तो उन्हें समझ में नहीं आता। इसी से लोग गलत मार्ग पर जाते है और गलत काम करते है। पर गणेश की कृपा से आप अनेक काम कर सकते है और आप को कोई आलस नहीं आएगी, न ही कोई तकलीफ होगी क्योंकि आप का सारा काम वो ही कर देते है। वो ही आपको सँभालते है। छोटेसे बालक है पर वो ही आपको सँभालते है । एक बड़ी प्रचंड शक्ति है। गणेशजी की शक्ति से अनेक कार्य होते है । हमारे लिए तो परम पवित्र और बहुत ही अपने है। हम उनको तो बहुत सताते है। कभी कोई आदमी फँस जाता है तो गणेश से ही कहते है,'"तुम ही सँभालो । तुम ही ठीक करो।" मेरे बस के नहीं है। यह मुश्किल आदमी है। तो वो कर देते है। तो आज का दिन वैसे भी शुभ हुआ कि आज उनका जन्म हुआ। दूसरी बात है कि आज पंचमी है और ये पंचमी इसलिए मानी जाती है कि ये दिन हम एक वख्र पहनते है, जो भी कपड़े पहनते हैं वो सब इसलिए की हमारा शरीर हम ठीक से ढक सके, शरीर का जो लज्जा है वो उन्ही के वजह से मिलती है। 'लज्जा रूपेण संस्थिता'। तो आप के अंदर गर कोई लज्जा है तो वो उनकी कृपा है और उस से आपको बहुत लाभ होगा। कोई सा भी आनन्द आप उठा नही सकते, जब तक की आप गणेश की आराधना नही करते। गणेश की आराधना से ही आनन्द बढ़ जाता है, आनन्द मिलता है। इसलिए वो स्वयं आनन्द स्वरूप है। इस वजह से दोनो चीजें आज हम-आज ये समझ लोजिए कि आज उनका जनमदिन भी है और उनकी सहायता भी। हर एक कार्य में उनकी सहायता हम लोग लेते है। ऐसा हम लोगों का तरीका है। पर हम वो नहीं कहते कि उनको सिद्ध करने के लिए हम क्या करते है। उधर हम लोगों का ध्यान नही जाता कि हम भी कुछ करें, हम भी कोई ऐसी स्थिती बनाए अपनी कि हमारे अंदर गणेश जागृत हो जाए जिससे हम कभी भी गलत मार्ग पर नहीं जाए गणेश में जो स्थित लोग है-विशेष रहते हैं। उनको दुनिया भर के गलत चीजों से नफरत होती है। और वो कोई सा भी गलत काम नहीं करते है क्योंकि गणेश उनको रोकते है। कोई सी भी गलत काम में उन्हे आनन्द नही आता। ये गणेश जी की बड़ी कृपा है। इसी आनन्दमय जीवन में आप लोग आ गए है। इसलिए आप आज उनकी सेवा में कुछ सुनाईये, कुछ बताईये जिस से कि वो खुश हो जाए। आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद है। आत्म प्रकाश.... "कौ. ५ आपका पिता है और कौन आपकी माता? कौन आपका पति है और कौन आपकी पत्नी? शिव ये सब बातें नहीं न जानते । शिव तथा उनकी शक्ति अविच्छेद्य हैं। अतः वे अद्वैत हैं उनमें दूवित्य नहीं हैं। दूवित्व की अवस्था में ही आप कहते हैं 'मेरी पत्नी'। आप कहते हैं मेरी' नाक, 'मेरे हाथ, मेरे कान, मेरा, मेरा, मेरा और इस तरह गहन अंधकार में फसते चलें जाते हैं। जब आप कहते हैं 'मेरा' तब तक द्वित्व बाकी हैं। लेकिन मैं कहती हैं "मैं नाक" तो कोई द्वित्व नहीं । शिव शक्ति है और शक्ति शिव । कोई द्वित्व नहीं । पर हम पूरा जीवन द्वित्व में ही रहते हैं और इसी कारण मोह होता है। द्वित्व यदि न हो तो मोह का कोई अर्थ नहीं। यदि आप ही प्रकाश है और आप ही दीपक, तो द्वित्व कहाँ है? आप ही यदि चाँद है और आपही चाँदनी भी हैं तो द्वित्व कहाँ है? सूर्य तथा धूप यदि आप ही है, शब्द तथा अर्थ यदि आप ही हैं तो द्वित्व कहाँ है? परन्तु जब पृथक्करण है तो द्वित्व है। और इसी पृथक्करण के कारण आपको मोह होता है। क्योंकि यदि आप ही वह होते तो किस प्रकार मोह में फंसते? क्या आपको यह बात समझ आई? क्योंकि आपमें तथा आपके में भिन्नता तथा दूरी हैं इसलिए आपको इससे मोह है। परन्तु यह 'में हूँ। अन्य कोन है? सभी कुछ में ही हूँ, दूसरा कौन है? अत: अन्य कौन है? कोई नहीं! यह तभी सम्भव हैं जब आपकी आत्मा आपके मस्तिष्क में आ जाए तथा आप विराट के अंग प्रत्यंग बन जाएं। जैसे मैने तुम्हें बताया विराट ही मस्तिष्क है। समझने का प्रयत्न कीजिए कि यदि सागर में थोड़ा सा रंग ड़ाल दिया जाए तो रंग का अस्तित्व ही मिट जाता है। आत्मा सागर की तरह है, जिसमें प्रकाश है जब यह सागर आपके मस्तिष्क रूपी छोटे से प्याले में उड़लता है तो इस प्याले का अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा सभी कुछ अध्यात्मिक बन जाता है। सभी कुछ! जिस भी चीज को आप छू दें वह अध्यात्मिक हो जाती हैं। रेत, भूमि, वातावरण तथा स्वर्गीय जीव भी अध्यात्मिक हो जाते हैं। सभी कुछ अध्यात्मिक हो जाता है। की अत: यह सागर है जो कि आत्मा है। आपका मस्तिष्क सीमित है। अत: आपके मस्तिष्क में निल्लिप्तता आनी चाहिए। आपके मस्तिष्क की सीमाएं टूटनी चाहिए ताकि जब आत्म तो सागर इसे भरे यह प्याला टूट जाए तथा इसका हर कतरा रंग जाए। आत्म प्रकाश ही आत्मा का रंग हैं। यह प्रकाश कार्य करता हैं. सोचता है, सहयोग करता है, सभी कुछ करता है।" इसी कारण आज मैने शिव तत्व को मस्तिष्क में लाने का निर्णय किया। में आपके साथ हैँ। अत: एक प्रकार से आपको कोई पूजा करने की आवश्यकता नहीं। पर वह अवस्था प्राप्त करनी पड़ेगी और उसे प्राप्त करने के लिए आपको पूजा करना आवश्यक है । मुझे आशा है कि आपमें से अधिकतर मेरे जीवनकाल में ही शिवतत्व बन जाएंगे। पर ये मत सोचिए कि मैं आपको कष्ट उठाने को कह रही हूँ। इस प्रकार के उत्थान में कोई कष्ट नहीं है। जब आप समझ जाएंगे कि यह पूर्ण १० ० ४ आनंद की अवस्था है उस समय आप निरानन्द बन जाएंगे। सहस्रार पर आनन्द निरानन्द कहलाता है। आप जानते है कि आपकी माँ का नाम भी 'निरा' हैं। अत: आप निरानन्द बन जाते हैं। तो आज की शिव पूजा का एक विशेष अर्थ है। मेरे विचार से जो भी हम बाह्य तथा स्थूल रूप में करते हैं, यह सूक्ष्म रूप में भी होता है। मैं आपकी आत्मा को आपके मस्तिष्क में लाना चाह रही हूँ, परन्तु आपके चित्त लिप्त होने के कारण कभी कभी मुझे इस कार्य में कठिनाई होती है। स्वयं को निर्लिप्त करने का प्रयत्न कीजिए। क्रोध, वासना, लोभ आदि को कम करने का प्रयत्न कीजिए, इन्हें वश में करने का प्रयत्न कीजिए। में जानती हैँ कि आप में से कुछ अधिक कार्य नहीं करेंगे। बार बार मैं तुम्हें बताऊँगी और तुम्हारी सहायता करुंगी। पर आप भी इस कार्य को कर सकते हैं। करने का प्रयत्न कीजिए। आज से हम सहजयोग को एक गहन स्तर पर करना आरंभ करते हैं। आप सबको गहनता में उतरने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए बहुत पढ़ा-लिखा या उच्च पदारुढ़ होना आवश्यक नहीं हैं। बिल्कुल भी नहीं। जो लोग ध्यान-धारणा करते हैं, समर्पण करते हैं, गहनता में जाते हैं, वे वृक्ष की पहली जड़ों की तरह उदाहरण बन कर गहरे उतरते हैं, ताकि लोक अनुसरण कर सकें । श्री माताजी "शिव सदा स्वच्छ, पवित्र तथा निष्कलंक हैं। निर्मला योग, ०५ ०६-१९९३ ११ रुद्र .. रुद्र, शिव (आत्मा) की प्रलय शक्ति हैं। क्ष. मा शक्ति उनका स्वभाव है। मानव होने के कारण शिव हमें क्षमा करते हैं। हम गलतियाँ करते हैं, गलत कार्य करते हैं, प्रलोभित होते हैं, हमारा चित्त अस्थिर हैं, अत: वे हमें क्षमा करते हैं। जब हम अपनी पवित्रता भंग करते हैं, चरित्रहीन कार्य करते हैं, चोरी करते हैं, ईश्वर विरोधी कार्य या बातें करते हैं, तब भी वे हमें क्षमा करते हैं। हमारी अवांछित सुख सुविधाओं, ईर्ष्याओं, वासनाओं तथा क्रोध को भी क्षमा करते हैं। हमारे तुच्छ मोह, ईर्ष्या, मिथ्याभिमान तथा स्वामित्व भाव को भी वे क्षमा करते हैं। हमारे गर्व पूर्ण आचरण तथा गलत चीजों की दासतां को भी वे क्षमा करते हैं। परन्तु हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमें क्षमा करने पर वे सोचते हैं कि उन्होंने हमें एक अतिरिक्त अवसर दिया है। यह प्रतिक्रिया शिव के अन्तस में, क्षमा प्राप्त करके भी अधिक गलतियाँ करते रहनेवाले लोगों के लिए, क्रोध की रचना करती है। विशेषतया आत्म साक्षात्कारी लोगों के लिए, क्योंकि आत्म साक्षात्कार बहुत बड़ा वरदान है। आपको प्रकाश प्राप्त हो गया है, फिर भी यदि आप अपने तुच्छ स्वार्थों से चिपके हुए हैं तो आपकी मूर्खता शिव के क्रोध को बढ़ावा देती है। में कह रही हैूँ कि क्षमा प्राप्त करके आत्म साक्षात्कार पा लेने के उपरान्त भी जब लोग अपराध किए चले जाते हैं तो शिव अत्याधिक संवेदनशील तथा क्रूद्ध हो जाते हैं। अत: उनकी क्षमा घटने लगती हैं तथा क्रोध बढ़ने लगता है। परन्तु उनके क्षमा करने पर यदि आप कृतज्ञ रहते हैं तो उनकी आशीष वर्षा आप पर होने लगती है। वे आपको अद्भुत क्षमा शक्ति प्रदान करते हैं । आपकी वासना को शान्त करते है। आपकी लोभवृत्ति को शान्त करते हैं। ओस की सुन्दर बूंदो की तरह उनकी आशीष वर्षा हम पर होती हैं और हम सुन्दर फूलों की तरह खिल उठते हैं । उनके आशीष की धूप में दीप्तिमान हो जाते हैं। हमें दुःख देने वाली सभी शक्तियों के विनाश के लिए अब वे अपने क्रोध तथा संहारशक्ति का उपयोग करते हैं। हर कदम पर तथा हर तरह से वे आत्म साक्षात्कारी लोगों की रक्षा करते हैं। नकारात्मक शक्तियाँ सहजयोगी पर आक्रमण करना चाहती हैं, परन्तु शिव की महान सुरक्षा शक्ति उन आसुरी वृत्तियों का मर्दन करती हैं। उनकी चैतन्य-चेतना हमारा पथ प्रदर्शन करती है। शिव के सुन्दर आशीष का वर्णन बायबल के तेईसवें भजन में इस प्रकार किया गया हैं। "परमात्मा मेरे चरवाहे (धर्म गुरु एवं पथ प्रदर्शक) हैं।" इस प्रकार पथ प्रदर्शक बन कर वे हमारी रक्षा करते हैं। परन्तु शिव दुष्टों की रक्षा नहीं करते। उनका संहार करते हैं। सहजयोग में आ कर भी जिन्होंने अपना दुष्ट-स्वभाव नहीं त्यागा उनका विनाश हो जाता है। सहजयोग में आकर भी जो ध्यान-धारणा नहीं करते तथा प्रगति नहीं करते तो, या तो उनका विनाश हो जाता है, या उन्हें सहजयोग से बाहर फेंक दिया जाता है। जो सहजयोगी परमात्मा विरोधी बातें करते तथा जिनका रहन-सहन एक सहजयोगी के उपयुक्त नहीं, परमात्मा उन्हें हटा देते हैं । अत: एक शक्ति द्वारा शिव रक्षा करते हैं तथा दूसरी शक्ति द्वारा वे दूर फेकते हैं। परन्तु जब उनकी संहारक शक्तियों का बाहुल्य हो जाता है, तो हम कहते है कि "अब एकादश रुद्र कार्यान्वित हो गया है।" जब स्वयं कल्की कार्य करने लगेगी अर्थात परमात्मा की संहारक शक्ति जब पृथ्वी से नकारात्मकता (बुराई) का संहार करके अच्छाई की रक्षा करेगी तो एकादश रुद्र की अभिव्यक्ति होगी। अत: सहजयोगियों के लिए आवश्यकता है कि अपने वैवाहिक, सामाजिक जीवन या उन पर हुई परमात्मा की आशीष वृष्टि से संतुष्ट हो कर बेठने के स्थान पर तीव्रता से उत्थान प्राप्ति के लिए कार्य करें। परमात्मा ने जो हमारे लिए कार्य किया है, जो चमत्कार हम पर किए हैं, उन्हे हम सदा देखते हैं। परंतु हमें देखना है कि हमने अपने लिए क्या किया है और अपने उत्थान तथा विकास के लिए हम (एकादश रुद्र पूजा, इटली), निर्मला योग क्यों कर रहे है? १२ शिर्वलिंग. .० OOO০ ० ो ्जि १० ए এ৩ रु की भ लिं. गज्ञानातीत का द्योतक है, यह द्वेत तथा सृष्टि का अंकारण-कारण है। (कथा) लिंगोद्भव मूर्ती में बताया गया है कि एक बार भगवान ब्रह्मा तथा विष्णु में इस बात को ले कर कहा-सुनी हो गई कि सृष्टि का रचयिता कौन है? अचानक उनके सम्मुख अंतरिक्षीय अग्नि के रुप में शिवलिंग प्रकट हो गया। दोनो ने झगड़ना बंद कर लिया तथा लिंग का आदि एवं अन्त खोजने लगे। शूकर रूप में ब्रह्माजी ने पुृथ्वी को गहराई में खोदा और विष्णुजी ने उसकी उंचाई का पता लगाने का प्रयत्न किया। पर दोनों के हाथ कुछ न लगा यह जानकर कि उनसे ऊँचा भी कोई अन्य है, दोनों ने नम्रतापूर्वक लिंग-पूजन किया। प्रसन्न होकर हजारों बाहू तथा जंघाओंवाले शिव ने सूर्य, चंद्र तथा अग्नि जिनके तीन चक्षु थे, लिंग से प्रकट होकर ब्रह्मा तथा विष्णु को सम्बोधित किया तथा उन्हें बताया कि वे दोनों क्रमश: उनके दायें तथा बांये कटि (कमर) से जन्मे हैं । अत: वे दोनों एक ही तत्व है । इतना बताकर महादेव पुन: लिंग में समा गए। (निर्मला योग १९९३- ३.४) १३ ত C०॥ EEEEEEEEEEEEEEEENN आँखे .... परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश (अनुवादित) "अ ब कहते है कि अगर आपकी आँखे अस्थिर है तो आपका आज्ञा भी अस्थिर होगा। आपको उन्हे शांत करने के लिए अपने आँखो को स्थिर करना होगा। सबसे अच्छा शांत करने वाला चीज है 'हरी घास' । घास देखने के लिए आपको अपनी आँखों को नीचे जमीन की तरफ देखकर चलना चाहिए।" आज्ञाचक्र, प्रवचन, कॅक्स्टन हॉल, लंडन (१८-१२-१९७८) सहज योग में मैंने देखा कि आज कल कई लोगों ने अपने आज्ञा चक्र को खराब कर लिया है। इसका कारण यह है कि वे अयोग्य गुरु को मानते हैं या अनुचित जगह पर नमस्कार करते हैं, या माथा टेकते हैं। बहुत सारी आँखों की बीमारी इन गलत आचरणों से हुई हैं। मराठी में उपदेश, मुंबई २६-९-१९७९, निर्मला योग, २४ नं. (अनुवाद) अगर बालक की आँखे खराब है, आपको दृष्टी में काले बिन्दु या दो चमकते हुए बिन्दु दिखाई देंगे । अब, अगर आप अपने आप आँखे बंद करते हो तो आप अपने आँखो के सामने रंगो के दृष्य देखोगे। आप रंग देखते हैं, आप इसे रंग नहीं कह सकते हैं, लेकिन आप थोड़ा भूरा, थोड़ा सफेद कह सकते हैं जो कि, दिखता हैं । अगर बालक को आँखो में कुछ तकलीफ हैं, आप को दो काले बिन्दु, बहुत तीव्र दिखेंगे, या दो सफेद गोल बिन्दु, पूरी तरह गोल, दो बिन्दु आपको दिखेंगे। वे है संकेत कि बच्चे की आँखे... लेकिन अगर आपके आँखे खराब हैं और जब आप अपने चित्त को अपनी ओर रखेंगे या थोड़े से जब वे थके हुए होते हैं, तब आपको वे दो छोटेसे बिन्दु दिखेंगे। आप अगर बच्चे की आँख में एक छोटा सा फोड़ा देखें- जैसे एक लाल चिन्ह तो फिर जान लीजिए की बच्चा बीमार हैं, उसे कहीं गाँठ या सूजन हैं। आप शायद एक फोड़ा देखेंगे, हृदय के आकार में या गोल हो सकता है उस रंग में, हृदय के रंग का तो फिर जान लीजिए कि बच्चा बीमार हैं। वह ठीक नहीं है। (माताओं और बच्चों को उपदेश - १९८३) १४ अब आँखो को स्वच्छ रखने के लिए काजल लगाना चाहिए। अब साधारण काजल बनाने के लिए हम क्या करते हैं- थोड़ा सा कर्पूर जलातें हैं और कर्पूर की कालिख को चांदी की थाली में केंद्रित करते हैं। चांदी की थाली जब ठंडा होता है, फिर उसे थोड़ा पृड री सा मक्खन या शुद्ध घी के साथ मिलाना हैं। घी ज्यादा अच्छा होता है। अच्छी शुद्ध घी के साथ मिलाकर उसमें पानी ड्रालना हैं। पानी में उसे थोड़ी देर के लिए साफ करने के लिए रख दीजिए और फिर जब पानी पूरी तरह निकल जाए (निथार करने पर), तो फिर बाद में पानी उसको चिपकेगा नहीं क्योंकि वह सब घी ही हैं। फिर उसे एक योग्य इब्बी में रखिए और इस उंगली ( विशुद्धी की) का उपयोग काजल लगाने के लिए करें, हर दिन बच्चे को नहलाने के बाद। हर दिन लगाना चाहिए, कारण ये उन्हे तीक्ष्ण आँखे देंगे और काफी समय के लिए आँखों की कोई तकलीफ नहीं होगी। २] न (माताओं और बच्चों को उपदेश - १९८३) यदि पीछे का आज्ञा चक्र-खराब हो जाए तो इसका अर्थ ये है निश्चित रूप से आप भूतबाधित हैं। पीछे का आज्ञा चक्र खराब होने पर व्यक्ति को आँखे खुली रहते हुए भी अंधापन हो सकता है। भारत में ये समस्या आम है। हमारी आँखों में एक अन्य चीज़ भी घटित होती है, स्वाधिष्ठान चक्र जब खराब हो जाता हैं, इसकी अभिव्यक्ति भी यहाँ पीछे है - यह पीछे की आज्ञा के चारों ओर है। व्यक्ति को जब शक्कर रोग या ऐसा ही कुछ और हो तो लोग अंधे होने लगतें हैं क्योंकि पीछे की आज्ञा के चहूँ ओर विद्यमान स्वाधिष्ठान चक्र अपने आस-पास के आज्ञा क्षेत्र को दबाता चला जाता है, इस पर अत्याचार करता है और इस केन्द्र को अधिक गतिशील कर देता है तथा परिणामस्वरूप आँखे देख नहीं पातीं । इनमें प्रकाश नहीं रहता । लोगों की आँखें खुली होती हैं फिर भी उनक है। आपने से शक्कर रोगियों को इस प्रकार अन्धा होते हुए देखा है। अत: अपने स्वाधिष्ठान को ठीक करके सर्वप्रथम अपना कसम्मुख अन्धकार होता बहुत शक्कर रोग ठीक करें। पीछे की ओर अपने स्वाधीष्ठान के आस- पास आप बर्फ का प्रयोग भी कर सकते हैं। (आज्ञा चक्र, प्रवचन, दिल्ली, ३-२-१९८३, निर्मला योग) मैं पिछले पाँच साल से चष्मा पहन रही हूँ, क्योंकि हमारे कार्यक्रमों में घंटों तक भारी रोशनी हमारे आँखो पर लगती है। नजदीकी दृष्टी को आसानी से ठीक किया जा सकता हैं... एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी बढ़ती आयु को मान लेना चाहिए... क्यों कि वातावरण के कारण, प्रदूषण ये सब आँखों के ऊपर असर करते हैं। चप्मा पहनना कोई भी बीमारी नहीं हैं। (डॉक्टरों का कॉन्फरेन्स, भाषण से, मेरीडियल होटल, दिल्ली, २५-३-१९९३ ) १५ न -शिक्षा.... गूड़ी पाडवा परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी द्वारा दी गई शिक्षा, दिल्ली २४-०३-९३ आजसत्य युग का पहला दिन हैं। प्रकृति आप को बताएगी कि सत्य युग आरम्भ हो गया है। सहजयोग सत्ययुग ले आया हैं। आप आत्म साक्षात्कारी हैं, आपको स्वयं में श्रद्धा तथा विश्वास होना चाहिए। सहजयोग की कार्य शैली में आपकी श्रद्धा होनी चाहिए। आपकी ज्योतिर्मय श्रद्धा में क्या कार्य करता है? पूर्ण विश्वास होना चाहिए। मेरी ओर देखिए। मैनें अकेले सहजयोग को फैला दिया हैं। बस परम चैतन्य में विश्वास रखें। यदि आपको कोई सन्देह हैं, तो मुझसे पूछ लें। परमात्मा तो नहीं है पर मै तो आप से बातचीत करने के लिए यहाँ हूँ। अत:अब सहजयोगियों को सन्देहमुक्त होना चाहिए। ने १. सहजयोगियों को बहुत सावधान रहना चाहिए। उन्हें अहंकार विहीन होना चाहिए। वे संदेश के माध्यम मात्र हैं जैसे पोस्ट करने के लिए मुझे पत्र को लिफाफे में ड्रालना पड़ता हैं। स्वामित्व भाव से वे सावधान रहें। २. किसी भी चीज की योजना बनाते समय हमारा चित्त सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज पर होना चाहिए। आपकी प्राथमिकताएं स्पष्ट होनी चाहिए। ३. यदि कोई नकारात्मकता हो तो मुझे बताए, में इसे ठीक करुंगी। ४. प्रायः आयोजक धन की चिन्ता करने लगते हैं । सहजयोग में आपको सदा धन प्राप्त हो जाएगा। परन्तु यदि आप चिन्ता करेंगे तो धन नहीं मिलेगा। धन इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। ५. एक दूसरे के लिए हम में विवेक होना चाहिए। ६. आपको कोई भय नहीं होना चाहिए। यह तो केवल एक नाटक चल रहा है। चिन्ता की कोई बात नहीं हैं। आप यदि कहते हैं कि मुझे ड़र है तो मैं क्या कहूँ? आप यदि कोई गलती कर दें तो भी कोई बात नहीं। मैं आपको कह सकती हूँ कि यह गलती हैं, आप इसका बुरा न मानें । यदि सुधारने को कुछ हुआ तो में सुधार ढूँगी यदि आप भयभीत है तो आपका अहंकार आड़े आएगा और मैं बस इसे भेद दूंगी। कम से कम आप को तो मुझसे नहीं डरना चाहिए। अपनी गलतियों से हम सीखते हैं। गलतियाँ करने से हमें ड्रना नहीं चाहिए। हि १६ ा २3 र (१ सहजयोग में गहनता प्राप्त करने के लिए परम पूज्य श्री माताजी की सहजयोगियों को शिक्षा ... १. हर सहजयोगी को प्रतिदिन अपने चक्र साफ करने चाहिए । २. सभी को निर्विचार समाधी तथा गहनता प्राप्त करनी चाहिए। ३. हर सहजयोगी को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से प्रार्थना करनी चाहिए । ४. सहजयोगी को पूर्ण श्रद्धापूर्वक समझदारी, विवेक तथा बुद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। ५. हर सहजयोगी को सदा याद रखना चाहिए कि श्री माताजी के चरण कमल उन सभी के हृदय में हैं। श्री माताजी ने संत गोरा कुम्हार तथा संत नामदेव के एक दूसरे के प्रति सम्मान का उदाहरण दिया। एक सहजयोगी के दूसरे सहजयोगी के लिए भी यही भाव होने चाहिए। ६. हम में परस्पर वाद-विवाद तथा विचार भिन्नता नहीं होनी चाहिए। ७. नियमित ध्यान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। १७ मधूमेह (डायबटीज) परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश (अनुवादित) मधुमेह दाई ओर की क्रिया का असर है, जो बाईं ओर के (किसी समस्या के) प्रभाव के सुत कारण से होता है। दाँया ओर अति संवेदनशील हो जाने के कारण पहली बात, जब आप विचार ज्यादा करतें हैं, आप उसकी ओर ध्यान नहीं देते और अपने आदतों में रहते हैं, तब भय का तत्व संवेदनशीलता को बढ़ाती है। जैसे कि एक बहुत मेहनत करनेवाला आदमी बहुत ज्यादा विचार करता हैं तो उसके सारी चर्बी कोशिकायें दिमाग के लिए प्रयोग हो जाते हैं । बाँया भाग शोषित हो जाता हैं। अगर आप में भय आ जाता है, आप ग्रहणशील हो जाते हैं और इसके साथ आप अपने आपको अपराधी मानने लगते हैं तब आप मधुमेह से पीड़ित होते हैं। इसका उपाय, मन्त्र में 'अली रक्त में मधमेह की वजह से चीनी आ के नाम का प्रयोग। बीमारी का मूल कारण हैं 'स्वाधिष्ठान और बाईं नाभी' बाँया नाभी पहले पीड़ित होती है, पत्नी की भय से या पत्नी के लिए चिंता या परिवार के अन्य सदस्य की चिंता। इसके अतिरिक्त आपकी संवेदनशीलता, उस अवस्था में, मधुमेह की ओर ले आती है। आज्ञा चक्र को ठीक करने से ये ठीक होगा। ज्यादा मत सोचिए। निर्विचार ध्यान में चले जाइए। बायें ओर की जाती है तीजी की वजह से नहीं बोल्क शक्ति को दाँये ओर लाइए। ज्यादा नमक लीजिए ताकि मधुरस के बहाव को अप्रभाव कर सके, कारण इसमें दाने बनाने का पानी होता हैं। दारयाँ स्वाधिष्ठान और नाभी में बर्फ रखिए। सही जाँच के (शिवरात्री - १९८७) से बाद शक्कर को चाहे तो बंद कर दीजिए। मधमेह की वजह "देखिए, मैने बताया है कि- रक्त में मधुमेह की वजह से चीनी आ जाती है, हैना? चीनी की वजह से नही, बल्कि मधुमेह की वजह से ही आती है और मधुमेह होता है, ज्यादा विचार करने की वजह से ।" ही आती है और (माताओं और बच्चों से बात, १९८३) मधुमेह होता है एक और चीज जो हमारे आँखो को हो सकती है जब हमारा स्वाधिष्ठान बिगड़ जाता है- यह चक्र हमारे सिर के पीछे पिछले आज्ञा के चारों तरफ प्रतिरुप है। जब किसीको मधुमेह या ऐसी कोई बीमारी होती है, लोग अंधे होने लगते हैं... आपने कई मधुमेह से पीड़ित लोगों को अंधापन आते देखा होगा! तो सबसे पहले आप अपने स्वाधिष्ठान को ठीक करके अपना मधुमेह का इलाज कीजिए । और आप अपने स्वाधिष्ठान के चारो ओर-पीछे की ओर, बर्फ की गठरी का भी प्रयोग कर सकते हैं। अगर वह स्वाधिष्ठान है तो बर्फ की गठरी का भी प्रयोग कर सकतें हैं, लेकिन अगर वह ज्यादा विचार करने की वजह से ।*" भूतग्रस्त की है, मधुमेह के अलावा अगर वह भूतग्रस्त है तो फिर रोशनी का उपयोग करना होगा। हम आज्ञाचक्र को इस तरह से ठीक करतें हैं । सिर्फ निर्मला योग) (आज्ञा चक्र प्रवचन, दिल्ली, ३-२-१९८३ १८ मधुमेह - आप के ज्यादा चीनी खाने से नहीं होती.... देखेंगे, वहाँ चीनी ऐसे लेते है जिससे एक कप में चमच समकोण में खड़ा होना चाहिए, नहीं तो वह नहीं लेंगे । लेकिन उन्हे मधुमेह कभी नहीं होता। इसका कारण यह है कि वह कल के बारे में कभी नहीं सोचता, वे सिर्फ कड़ी मेहनत करते हैं, अपना खाना खाते हैं और अच्छी तरह सो जाते हैं। कभी वह सोने की दवाईयाँ नही लेते है। तो ये मधुमेह ज्यादा विचार करने से होता है और ये बहुत आसानी से ठीक किया जा सकता हैं अगर आप सहजयोग करे तो । मुझपर विश्वास कीजिए । भारत में अगर आप गांवो में जाएँगे, तो आप (पोरचेस्टर हॉल, यूके, भाषण से, १-८-१९८९) अगर एक गर्भवती स्त्री ज्यादा विचार करती है, तो उसके बच्चे को मधुमेह होने की संभावना है। (मास्को, मेडिकल कॉन्फरेन्स, भाषण, जून १९९०) कोष्ठबध्दता. कब्ज) परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश (अनुवादित) J "ड न सभी लोगों (जो दायीं प्रवृत्ति के हैं) की इन्द्रियाँ अति चंचल होती हैं। अति चंचल इन्द्रियों के कारण वे एक बहुत खराब हृदय बना लेते हैं जो अतितीव्र काम करता हैं। जहाँ हृदय तेजी से पम्प करता है वहाँ हाफन पैदा होती हैं। फेफड़ों में उनसे अस्थमा हो जाता हैं। उनके अँतड़ियों में उसे कोष्ठबद्धता (कब्ज़) होती हैं। उनका जिगर बहुत ही खराब हो जाता है। चमड़ा बहुत ही पीला हो जाता हैं और ऐसा व्यक्ति बहुत झगड़ालू और उत्तेजित होता है। (व्याधि और इलाज, नई दिल्ली, ९-२-१९८३, निर्मला योग, नं. २५) जिगर की गर्मी थोड़े समय के बाद फेफड़ों को शक्तिहीन करती हैं, जो अस्थमा की ओर ले जाती है। जब जिगर को आवश्यक पोषण नहीं मिलता है, तो वह अति तीव्र हो जाता हैं। अँतडियां सूख जाती है और कोष्ठबध्दता का कारण बन जाती है। (मॉस्को मेडिकल कॉन्फरन्स, भाषण-जून १९९०) भारत में इसे (कब्ज़) दूर करने के बहुत तरीके हैं, जैसे कि हम अजवाइन के चूरण को काले सूखी अंगुर के साथ लेते हैं- किशमिश-काली किशमिश। प्रन(सूखा आलूबोखारा), सन्तरे के रस के साथ भी अच्छा है, या माँ का दूध या उबाला हुआ दूध रात को पीना भी अच्छा है। (माताओं और बच्चों से बाते, १९८३) १९ मधुर, प्रेमपूर्वक और अ भी अभी मैंने इन्हें (भारतीय सहजयोगीयों) को बताया की वे अहंचलित पाश्चात्य समाज की शैली की नकल करने का प्रयत्न न करें । क्योंकि उसमें ये लोग कठोर शब्द प्रयोग करते हैं और ऐसा करके हम सोचते हैं कि हम आधुनिक बन गए हैं। वे ऐसे कठोर शब्द का उपयोग करते हैं, "मै क्या परवाह करता हूँ!" ऐसे सभी वाक्य जो हमने कभी प्रयोग नहीं किए, ऐसे वाक्यों से हम परिचित नहीं है। किसी से भी ऐसे वाक्य कहना अभद्रता है। किस प्रकार आप कह सकते है, "मै तुमसे घृणा करता हूँ।" परन्तु अब मैने लोगों को इस प्रकार बात करते देखा है कि हममें क्या दोष है? आप ऐसा कहने वाले कौन होते है? ये हमारा बात करने का तरीका नहीं है। देखिए ये बात करने का तरीका नहीं है। किसी भी अच्छे परिवार का व्यक्ति इस प्रकार बात नहीं कर सकता क्योंकि इस प्रकार की बातों से उसका परिवार प्रतिबिम्बित होता हैं। परन्तु यहाँ पाश्चात्य देशों की अपेक्षा भाषा की नक्कल अधिक होती हैं। जिस प्रकार लोग बसों में, टैक्सियों में, रास्ते में बातचीत करते हैं उसपर मुझे हैरानी होती है । ये मेरी समझ में नहीं आता। अत: मैने उनसे कहा है कि भाषा प्रेममय तथा हमारी पारम्परिक शैली की होनी चाहिए। इस प्रकार तो हम अपने बच्चों को भी नहीं डाँटते। अपने बच्चों को भी यदि हमें डाँटना हो तो तब भी हम ऐसी भाषा का उपयोग करते है, जो उन्हें सन्मानमय बनाए (श्रेष्ठमानव)। ( दामले साहब ने कुर्ता पजामा पहना हुआा ० र] २० शान्ति से रहना.... जन्मदिन पूजा के अवसर पर संदेश है,"आप शिवाजी महाराज जैसे लग रहे है। शिवाजी महाराज आपका स्वागत है।") हमें ऐसी सन्मानमय भाषा में बोलना चाहिए जिससे वो घवरा न जाएं। सुधार यदि आवश्यक होता तो हम इस प्रकार सुधार किया करते थे। दूसरी विधि ठीक नहीं है क्योंकि इससे सुधार नहीं होता। देखिए, दूसरे तरीके से आप अपने बच्चों को नियन्त्रित नहीं कर सकते। हर समय आप उन्हें डांटते रहते हैं, अपमानित करते रहते हैं, अन्य लोगों को अपमानित करते रहते हैं। अपमानजनक तरीके और भावनात्मक धमकी तथा ये सारी व्यवस्था इस देश की परम्परा नहीं है। ऐसा करनेवाले लोगों को बाहर फेंक दिया जाएगा। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए । मैं आपको बताती हूँ कि सहजयोग में आप ऐसा नहीं कर सकते। लोगों को अपमानित करने की, उनके लिए अपमानजनक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की धारणाएं आपमें नहीं होनी चाहिए। ये सब आधुनिक शैली है। अत: हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। सहजयोग में हमें अत्यन्त गरिमामय आचरण करना चाहिए जो हमारी शैली और हमारी परम्परा के अनुरूप हो। सहजयोग की परम्परा ये है कि हम लोगों से अत्यन्त सभ्य, मधुर, स्नेहमय एवं प्रोत्साहित करने वाले तरीके से व्यवहार करें। हम सबको इसी प्रकार बोलना चाहिए। अत: पहली बात में ये बताती हैँ कि अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करते हुए आपको चिल्लाना नहीं चाहिए। मैं उन लोगों पर चिल्लाती हूँ जिनमें भूत हैं। मेरे चिल्लाने से भूत भाग जाते हैं, परन्तु यदि आप चिल्लाएंगे तो आपको भूत पकड़ लेंगे, भूत भागेंगे नहीं। अत: बेहतर होगा कि आप चिल्लाए नहीं । यदि आप में मेरी तरह से शक्तियाँ हैं तो आप ऐसा कर सकते हैं। परन्तु आप में ये शक्तियाँ नहीं हैं। किसी भूत वाले व्यक्ति पर यदि आप चिल्लाएंगे तो भूत आपको पकड़ लेंगे। अत: सावधान रहें। मेरी विधियाँ न अपनायें। मैं बिल्कुल भिन्न प्रकार की व्यक्ति हँ और सोच-समझकर बात कहती हैं। आप ऐसा नहीं करते। अत: यदि आप ने मेरी बातों का अनुसरण करना हो तो मेरी क्षमा, प्रेम और स्नेह आदि गुणों को अपनायें उन चीजों को नहीं जहाँ मैं भयंकर होती हूँ। अब मैं दो चीजें माँग रही हूँ। बड़ी अटपटी सी बात है कि माँ अपने मुँह से कोई उपहार माँगे। जो उपहार आपने देना हैं उसमें पहली चीज़ तो ये है कि आपके चरित्र में शक्ति की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। परन्तु इसका अर्थ ये भी नहीं है कि शान्त लोग भीरु होते हैं, अस्वस्थ, जो सभी मूर्खताओं को सहन कर लेते हैं। नहीं परन्तु वो शान्तिपूर्वक विरोध करने वाले लोग होते हैं। आपको किसी चीज़ से भय नहीं है। किसी चीज़ के आगे आपने झुकना नहीं है, किसी चीज़ से समझौता नहीं करना। परन्तु आप में ऐसे स्वभाव का विकसित होना अत्यन्त आवश्यक है। दूसरी चीज़ ये है कि आपकी इस शक्ति से, आपके प्रेम की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। प्रेम एवं स्नेहपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। आप जो चाहे करें-चाहे भूखे रहें, परन्तु अन्य लोगों से करुणा एवं स्नेहपूर्वक व्यवहार करें ताकि अन्य लोगों पर प्रभाव पड़े और वे सोचें कि यह व्यक्ति अक्ख़ड नहीं है। भगवान आपको आशिर्वाद दे- जुहू, मुबई २२.३.१९८४, प्रवचन का परिच्छेद २१ सहजयोग में प्रगति का मार्ग आको विराजना चाहिए। विराजिए, आसन पर विराजिए । आसन पर बैठकर भीख मांग रहे हैं, रो रहे हैं! आसन पर बैठकर पागलपन कर रहे हैं! इनका किया क्या जाये? अरे भई, आसन पर विराजो। आप ३० राजा साहब हैं। बैठिये, और अपनी पाँचों इन्द्रियों को आप आज्ञा दीजिए, जनाब आप अब ऐसे चलिए, बहुत हो गया अब ये ठीक है, अब वो ठीक है, हाँ बहुत समझ लिया आपको।" जब आप इस तरह से में अपने को करंगे, जब आप अपने को पूरी तरह (Command) कमाण्ड कण्ट्रोल (Control) में करेंगे, तभी तो आप अच्छे सहजयोगी हुए। नहीं तो आपके मन (Mind) ने कहा, "चलों इधर", आप बोलते हैं, "माताजी, क्या करुं, इतना मन को रोकता हूँ, पर मन इधर जाता है।" फिर मन क्या है? मन तो एक (Living Force) जीवन्त शक्ति है, वो जाएगा ही। मन तो उसी जगह जाएगा, जहाँ जाना है। हमारी जो इन्द्रियाँ हैं, वो जागृत हो जाती हैं और फिर हम इधर-उधर जाना ही नहीं चाहेंगे और बहुत सी चीजें छोड़ते चले जाएंगे। इन सब चीज़ो में हमको एक ही ध्यान रखना चाहिए: अपने हृदय को स्वच्छ रखना। जिन लोगों का हृदय स्वच्छ रहता है, उनको समस्या (Problem) कम होती हैं। इसका मतलब यह नहीं है, कि आप लोग गंदी बातें सोचते रहते हैं । स्वच्छ हृदय का मतलब है, समर्पण। सहजयोग में अगर समर्पण में कमी हो जाय या कोई समझे कि मैं कोई विशेष हूँ, तो उस आदमी में (Growth) प्रगति नहीं हो सकती। उसके लिए कोई पढ़े-लिखे नहीं चाहिएं, कोई विशेष रुप के नहीं चाहिएं। "मुझे यह नहीं हुआ , मुझे कोई अनुभूति नहीं हुई'" - तो दोष आपका है या सहजयोग का? लोग तो कभी कभी इस तरह से मुझसे बातें करते हैं जैसे कि मैंने ठेका ही ले रखा है या मेरे पास आपने कोई रुपया पैसा जमा किया हुआ है कि माँ, हम तो आपके पास पच्चीस साल से आ रहे हैं। पच्चीस क्या, तीस साल तक; बूढ़े होने तक भी कोई काम नहीं होने वाला। इसलिए अगर यह नहीं हो रहा है, इसका मतलब है कि आपमें कोई न कोई कमी है। लेकिन जैसे ही आप अपने को अपने से हटाना शुरु करेंगे, आपको अपने दोष बड़ी ही जल्दी दिखाई देंगे और जैसे ही दिखाई देंगे, वैसे ही आप पूरी तरह से विराजिए, जैसे कोई राजा साहब हैं; अपने सिंहासन पर बैठे हैं। आपको अगर सुनाई दिया कि हमारे प्रजाजन, कुछ गड़बड़ कर रहे हैं; तो कहिए, "चुप रहिए, ऐसा नहीं करने का है यह नहीं २२ कि ऐसा करो, वैसा करो।" अपने को पूरी तरह (Command) कमाण्ड में जो आदमी कर लेता है, वही शक्तिशाली है। मिसाल के तौर पर लोगों की बातचीत लें। लोग जब बात करते हैं यानी हमसे भी बातचीत करने में ख्याल ही नहीं रहता कि किससे बात कर रहे हैं। ऐसी बात करते हैं कि बड़ा आश्चर्य सा होता है। उनको अन्दाज नहीं रह जाता कि हमें क्या कहना चाहिए, क्या नहीं कहना चाहिए। हमारी जबान पर भी काबू होना चाहिए। यह काबू भी तभी होता है, जब आप अपने को अपने से हटे देखेंगे। यह जबान है न, उसे ठीक रखना पड़ता है। धीरे धीरें, आपकी नई आदतें हो जाएंगी, नए तरीके बन जाएंगे, नया अन्दाज बन जाएगा फिर आप अपने को (order) आदेश देंगे। हमेशा 3rd Person में । जो आदमी पार होता है वो कभी 1st Person में बात नहीं करता हमेशा 3rd Person में बात करते हैं, वहाँ चलिये, वहाँ बैठिए। बच्चे भी ज्यादातर ऐसा ही करते हैं 3rd Person में बात करते हैं, "ये निर्मला अब जाने वाली नहीं है। ये यहीं बैठी रहेगी।" सहजयोगियों को भी इसी तरह बात करनी चाहिए। अपनी जो इच्छाएं हैं, अपने जो 1deas (विचार) हैं, या और कोई ideas, जैसे सत्ता के ideas, इत्यादि, ये सब छोड़कर हमें यह सोचना चाहिए कि हम सहजयोग के लिए क्या कर रहे हैं कर और क्या करना है। श्री माताजी निर्मला देवी का उपदेश दिल्ली में दी गई उपदेश - ११ मार्च १९८१ के प्रवचन का परिच्छेद हमारी जबान पर भी काबू होना चाहिए। यह काबू भी तभी होता है, जब आप अपने को अपने से हदे देखेंगे । २३ ईस्टर पजा संदेश... स * सहजयोग में आपने अपना कायाकल्प कर लिया हैं। मैं कहूंगी कि आपकी कुण्डलिनी ने कार्य कर दिया है। पर अभी भी आपमें तथा ईसा में अन्तर है। आप एक ऐसे वातावरण, जीवन शेली तथा विचारों से आयें हैं जो घातक हैं। आप देखें कि सभी कुछ आपके विनाश के लिए था अब जब आप इससे मुक्त हो रहे हैं फिर भी इनकी पकड़ हैं। अब भी आप इनसे प्रभावित हो जाते हैं। ऊँचाई की ओर बढ़ते हुए भी जान पाते हैं कि आपको किसी हास्यास्पद अवस्था किसी लज्जाजनक स्थिति में घसीट लिया गया है। निसन्देह आपकी कई बार स्वयं पर हैरानी होती हैं। कभी आप यह सब स्वीकार कर लेते हैं। साक्षात्कार प्राप्त एक सहजयोगी के लिये आवश्यक है कि वह अत्यन्त अन्तर्दशी हों। दूसरों के दोष देखने के स्थान पर वह अपने दोष देखें। आपको पता होना चाहिए कि अध्यात्मिकता में आप कहाँ तक जा रहे हैं। ईसा को तो यह सब करने की आवश्यकता न थी। उन्हें तो अन्तर्दर्शन की भी आवश्यकता न थी। वे तो भ्रष्टाचार से परे थे। मृत्यु और फिर पुनर्जीवन तो उनके लिये शारीरिक परिवर्तन मात्र था। वे मरे और पुनर्जीवित हो गये। पर हमारे लिए यह बिल्कुल भिन्न हैं। अब हम सहजयोगी हैं परन्तु पहले हम साधारण मानव थे और हमारे अन्दर प्रकाश न था। करी अब हममें प्रकाश आ गया हैं। तो हमें क्या बनना हैं? हमें प्रकाश बनना है। इसा को ऐसा नहीं बनना पड़ा। हमें प्रकाश बनना होगा। अब आपने सावधान रहना होगा कि कहीं उस प्रकाश में बाधा न आ जाऐ। कभी ये कम न हो जाऐ या कहीं ये दीप बुझ न जाए। इस प्रकाश के साथ चलना पहली आवश्यकता हैं। यदि प्रकाश में गड़बड़ है तो आप अभी प्रकाश नहीं हैं। आपको प्रकाश बनना हैं। जब आप प्रकाश बन जाएंगे तो देख सकेंगे कि आपका मस्तिष्क किस २४ प्रकार कार्य करता है। कौन से विंचार यह देता है तथा उत्थान के समय आपके मस्तिष्क को क्या प्रभावित करता है। क्या ये चिंता हैं या आपकी जिम्मेदारियां? या ये आपकी बुरी आदतें हैं? यह अध्यात्मिक व्यक्तित्व के आपके विकास में एक बाधा है। अत: हर क्षण आपने अपनी रक्षा करनी है और देखना है कि किस प्रकार आप उन्नति कर रहे हैं। यह अति सुन्दर यात्रा है। हमें समझ लेना ....किस प्रकार आप यह श्रद्धा पाते हैं? इसके लिए न कोई पाठ्यक्रम हैं और न कोई साहित्य । परन्तु आपके अन्दर जागृति होती है जो प्रश्न करेगी कि मैं क्या हूँ| मैंने क्या प्राप्त किया है? ये पूछेगी कि मैंने क्या पाया है? सहजयोग से मुझे ब्या मिला? ये सभी प्रश्न आपसे पूछे चाहिए कि से चमत्कारों ने जाएंगे। परन्तु यदि आपका विश्वास प्रकाशित है तथा जिसे जीवन के बहुत प्रकाशमय बनाया है तो छोटी-छोटी चीजों में आपको चमत्कार दिखाई पड़ेंगे। तब आप जानेंगे कि अब आप सहजयोग में जम गए हैं। उदाहरणतया यदि वर्षा होने लगें तो आपमें से आधे लोग हमारी अपनी चिंतित हो जाएंगे, परन्तु वे जान जाएंगे कि सुन्दर छत हैं और कुछ नहीं हो सकता। वर्षा होने दो। तब आपको विश्वास होगा कि वर्षा हमें गीला नहीं कर सकती। इस तरह हमारे अंदर यह विश्वास हृढ़ होना चाहिए। विश्वास आपको अत्यन्त दृढ़ तथा हजारों लोगों को पुनर्जीवन देने योग्य बनाता है। हमें समझ लेना चाहिए कि हमारी अपनी स्थिरता, सूझबूझ तथा अवलोकन द्वारा ही हम अपने स्थिरता, अन्तस में तथा सहजयोग में स्थापित हो सकते हैं। यह हुआ है और आप सबके साथ भी घटित होना चाहिए। आप सबको स्वयं को तथा अपनी आत्मा को जानने का अवसर मिलना चाहिए। सूझबूझ तथा व्यक्ति का स्वयं पर विश्वास होना चाहिए। मैंने देखा हैं कि बहुत से सहजयोगी आ कर कहते हैं। बेकार हूं। में कोई काम नहीं करता।" यह ठीक है पर कि, "श्री माताजी मुझमें कोई गुण नहीं, मैं अवलोकन द्वारा जो भी आप चाहते हैं वो मागिए। आप न भी माँगे तो भी यह हो जाएगा। केवल आपके सोचने तथा चित्त देने से भी कार्य हो जाएगा क्योंकि यह सर्वव्यापक शक्ति ही वास्तविक शक्ति है। बाकी सारी शक्तियाँ व्यर्थ हैं । यह इतनी कार्यकुशल तथा करुणामय है कि एक क्षण से भी कम समय में ही हम अपने यह कार्य कर सकती हैं। उस दिन एक आस्ट्रेलियन को किसी ने धोखे से कुछ जमीन तथा घर बहुत महंगे दामों पर लेने को मजबूर कर दिया। उसके पास धन न था। उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं जितने पैसे आपके पास हैं दे दो, बाकी बाद में दे देना । विश्वास करके उसने अपना सारा धन बयाने के रूप में दे दिया। अब बेचारा बहुत परेशान हुआ कि यदि उसने बाकी का ऋण न चुकाया अन्तस में तथा तो उसे जेल जाना पड़ेगा। समझ न पा रहा था कि किस प्रकार झंझट से छुटकारा पायें उसके पास कोई सहजयोगी गया और कहा कि स्वयं पर विश्वास रखो। किसी अन्य व्यक्ति ने कहीं बड़ी सहजयोग में रकम में वह जमीन उससे माँग ली। इस प्रकार जेल जाने के स्थान पर धनवान बन गया। इस प्रकार बहुत से चमत्कार हो जाते हैं। आत्मसाक्षात्कार के बाद भी विश्वास का न होना दर्शाता है कि आपका व्यक्तित्व कितना दुर्बल हैं। हैरानी की बात हैं कि आत्मसाक्षात्कार के बाद भी लोगों स्थापित हो में आत्मविश्वास नहीं होता। जिनमें हैं उन्होंने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है। हममें और इसा में यह अंतर है कि विश्वास ईसा का अंग-प्रत्यंग था । वे ही विश्वास थे। पर हमें विश्वास करना पड़ता है। हमें स्वयं पर भरोसा करना पड़ता है। रोमानिया में व्हील चेअर पर एक खी को मेरे पास ले आये। सकते हैं । वह चल न पाती थी कहने लगी, "माँ, मैं जानती हूँ कि आप मुझे ठीक कर सकती हैं।" मैंने कहा "यदि तुम्हें विश्वास हैं तो खड़ी हो जाओ।" वह खड़ी हो गई और चलने लगी। विश्वास हो तो सारे देवता सहायक होते हैं..... इस्टर पूजा - मैगलानो, इटली, ११ अप्रैल १९९३ चेतन्य लहरी, खंड V, अंक 8 में का परिच्छेद २५ जन्मदिन का असली भेंट.. (जुहू, मुंबई, २२ मार्च १९८४) , के प्रवचन में का परिच्छेद मै ০6 वि एक बात कहना चाहती हैँ कि आप उँचे से उँचे लोग होंगे, पर आज आपको मुझे सबसे पहले आश्वासन देना होगा कि आपके बातोंमे, आपके चालचलन में, आपके हृदय में, आप मुझे प्रेम से बसाएंगे। दूसरी चीज़ जो मुझे आपसे माँगनी है कि शांति से रहो। अपने भीतर शांति रखने की कोशिश करों। अपने आप से लड़ो मत। अब, पश्चिमी लोगों के साथ ये समस्या है- वे अपने आप से लड़ते रहते हैं। " ये मेरे साथ ऐसा क्यो हो रहा है? मै ऐसा हूँ। मैं बहुत बुरा हूँ। मै अच्छा नहीं हूं।" अगर आप अपने आप से इस तरह से लड़ते रहोगे तो आप प्रगति नहीं कर सकोगे। आप को कहना चाहिए, " मै इतना अच्छा हूँ, मुझ में क्या दोष हो सकता है?" मुझे आत्मसाक्षात्कार मिला है, मुझ में क्या दोष है? मुझमें कोई भी दोष नहीं हैं। अपने ऊपर ऐसे विश्वास रखो और फिर काम बनेगा। यह नहीं न्द कि आप दूसरों के ऊपर चिल्लाने लगो, पर आप जब समझ जातें है कि आपमें कोई दोष नहीं है, आप को शांत रहना चाहिए। आप सबको ये करना होगा, वैसे मत कीजिए, अपने मस्तिष्क को आराम से रखने की कोशिश कीजिए । बहुत से लोग मेरे पास आते हैं जिनके चेहरे मुड़े हुए. बिगडे हुए होते हैं और मैं उनके मस्तिष्क पर भूतों को बैठते हुए देखती हूँ। फिर मै उनपर चिल्लाती हूँ, फिर उनका मस्तिष्क शांत होता हैं। "मैं नहीं करता हूँ, माँ कर रही है" शांत.... जब आप ऐसे शांत ও क 1 करेंगे, अपने आप को तो आप देखेंगे कि आप का हृदय खुलता है। क्यों आप अपने हृदय खोल नहीं पाते हो? क्यों कि आपको अपने उपर भरोसा नहीं है। यह आपके आज्ञा चक्र को ळ्० खोल देगा, सहस्त्रार खुल जाएगा और आपका हृदय भी खुलेगा। जब आपका सहस्त्रार खुल जाता है, तब आप अपने जीवन में शांति पाएंगे। भगवान आपको आशीर्वाद दें - २६ महावीर जयन्ती के अवसर पर.. (सारांश-निर्मला योग), दिल्ली ०४-०४-१९९३ भ. मगवान महावीर ईड़ा नाड़ीपर हैं वे हमारे संस्कारों को देखते है। उन्होंने तपश्चर्या का जीवन है तो बाई ओर को बिताया। व्यक्ति जब गलतियाँ करता जाकर नर्क में चला जाता है। मृत्यु से पूर्व इसी संसार में ही नर्क है। अपराधियों को उनके अपराध ही नष्ट कर देंगे । इतनी आसुरी शक्तियाँ है कि जो लोग मुक्त नहीं हो जाएंगे उनका विनाश हो जाएगा। आत्म साक्षात्कारी लोग हजारों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करके उनकी रक्षा कर सकते है । सहजयोग में हम भगवान महावीर को श्री भैरवनाथ का अवतरण मानते है। वे इमाम हसैन बनकर भी अवतरित हुए। सेंट माइकल को सेंट जार्ज (लन्दन के रक्षक देवदूत) भी कहते है। आप सहजयोग का आनन्द ले रहे है, मेरे लिए यह बात अत्यन्त आनन्ददायी है। सहजयोग परिवार को बढ़ाएं| अधिक से अधिक लोगों की रक्षा करें। अपने बच्चों का विशेष ध्यान रखें। उन्हें बहुत नकारात्मकता का सामना करना पड़ रहा है। सहजयोग केवल आपके लिए ही नही है, यह पूरे विश्व के लिए है। भजनों, संगीत तथा नाटकों के माध्यम से सहजयोग गांवो में फैलाया जा सकता है। पंच तत्वों, अपनी भावनाओं में सृजन तथा कला में हमें चैतन्य लहरियाँ लानी चाहिए। सृजन तथा कला का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे सहजयोग से लाभान्वित न किया जा सके। हमारे व्यवहार, आचरण, संगीत और संस्कृति में सहजयोग की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। बाई ओर से भक्ति की अभिव्यक्ति दाई ओर की सृजन द्वारा की जा सकती हैं। ३० हमें अपनी भक्ति को बढ़ाना है। यह भगवान महावीर का ुम ा कार्य है । (६) तुर्ा .. परम पूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी की सलाह स. बसे महत्त्वपूर्ण बात हम सब को जानना जरूरी है कि एक नाड़ी है जो बाईं हृदय से विशुद्धि हो कर जाती हैं हृदय से निकलकर ऊपर जाकर, आज्ञा चक्र से आगे जाती है। उसके चार पंखुडियाँ होती हैं, जो खुलती हैं। यही है जो आपको वह स्थिती देती है जिसे हम तुर्या कहते है। हम तीन अवस्थाओं में रहते हैं। जागृत अवस्था में हमारा चित्त इधर-उधर और सब जगह जाता है, हम अपने चित्त को खराब करते हैं। दूसरी वह है जिसे हम कहते है कि हम सोते है। जब हम सोते हैं, तब भी वह सब जो हो गए हैं बह अतीत से आते हैं। लेकिन उसके बाद हम गहरी नींद में चले जाते हैं, जिसे हम 'सुशुप्ती' कहतें हैं। वह एक ऐसी स्थिति हैं जहाँ गहरी नींद होती हैं और आप किसी चीज के स्वप्न देखते हैं जो सत्य भी होते हैं। आपको मेरे बारे में सपने आ सकतें हैं । वह अचेत का आकाशीय का इथर संबंधी भाग है जहाँ सुंदर सूचनाएँ दी जाती है। मान लीजिए कि मै इटली आ गई हूँ। इटली वालों को अपने सुशुप्ती में पता चलेगा कि मैं यहाँ आई हूँ या शायद किसी को भी पता चलेगा । लेकिन एक चौथी अवस्था है जिसे 'तुर्या' कहते है। इसके अतिरिक्त और भी दो स्थितियाँ हैं। आप तुर्या अवस्था में हैं, जो चौथी अवस्था हैं। तुर्या माने चौथा। चौथी अवस्था वह है जहाँ पर आपकी निर्विचार अवस्था है। जब कोई विचार नहीं आतें हैं, जरा सोचिए जब आपको कोई विचार नहीं होता तब आपको अबोध होना चाहिए। जब आपको कोई विचार नहीं आता तब आपको चैतन्य लहरियाँ आनी चाहिए। जब आप के साथ कोई विचार नहीं होते तब आप किसी से आसक्त नहीं हो सकते। तब आप इस निर्विचार अवस्था में आ जाते है। वह, 'तुर्या स्थिति' है। और इस स्थिति में जब आप है, ये चार पंखुडियाँ जो आपके अंदर है, वो आपके दिमाग में खुलनी चाहिए। वह आपके हृदय से दिमाग में आती हैं और यह तब होता है जब आप भगवान क्या है ये पूरी तरह से समझेंगे। पूरी तरह जानेंगे कि भगवान क्या है? यह उस समय होता है जब आपको सत्य का ज्ञान आना शुरू होता है। परन्तुजब तक ये चारो पंखुडिया नहीं खुलती तब आप नीचे भी गिर सकते है। (महाशिवरात्री पूजा १६-२-१९९१) जब आप मध्य में है तब आप साक्षी हैं, आप साक्षी बनने लगते हैं। तब आप अपने आप को मध्य में स्थिर करते हैं। क्योंकि कुछ लोग बाईं ओर से शुरु होते हैं, फिर दाएँ चले जाते हैं, फिर वे इतने अहंकारयुक्त हो जाते है कि उन्हे संभालना मुश्किल हो जाता हैं । ह २८ |कं ० लेकिन अगर आपमध्य में हैं, यानी कि चौथी अवस्था, मध्य मेंरहना है। तुर्याचौथा आयाम है। अगर आप वहाँ रहेंगे तो आप साक्षी बन सकते हैं और वहीं स्थिति है जब आप हर क्षण हर चीज का, हर कार्य का, हर मैत्री का, हर संबंध का, हर समझ का आनन्द प्राप्त करने लगते हैं। (भाषण, ब्रॉम्पटन स्कोअर, लंडन ७-२-८१) "तो आदि कुंडलिनी के साथ संबंध यह है कि वह आदि कुंडलिनी का प्रतिबिम्ब है। अब प्रतिबिम्ब मान लीजिए कि आपने भारतीय दर्पण लिया, अपना चेहरा उसमें देखा , आप देखेंगे कि आप दुनिया के कोई भी तुल्यरुप नहीं दिखेंगे। बह आपके तीन तुकड़ा कर देती है, शायद, या कुछ भी लेकिन अगर आप बेल्जियम के शीशे को लेंगे तो प्रतिबिम्ब सही होता है, पूरा और फिर भी तीन आयामीय नहीं होता है, लेकिन यह चार आयामीय प्रतिबिम्ब होता हैं चार आयामीय है जिसे हम 'तुर्या' कहते हैं, और वह चार आयामीय व्यक्तित्व जो आप प्रतिबिम्बित करते हैं वह आपके इच्छा स्वरूप परावर्तन से होता हैं। इच्छा ही परावर्तक है और प्रतिबिम्ब पूर्ण हैं । (श्री आदि कुंडलिनी पूजा, ११-८-१९९१ तुर्या चौथी अवस्था है। चौथी अवस्था में आप इन तीन गुणों पर शासन करतें हैं। आप सभी तत्वो को नियंत्रण में रखते हैं । इस स्थिति में आप सिर्फ कहते है और काम होता है। आपने देखा कल क्या हआ हमारे साथ । वह काम कर देता है, आप तीनो गुणों के अधिकारी बन जाते है। जैसे, मैं आपको वर्णन करती थी कि पहले आप कार में बैठते है और कोई दूसरा आपको चलाता हैं। वह आपके बाईं और दाईं तरफ का प्रयोग करता हैं, या आप कह सकतें है, ब्रेक और एक्सलरेटर और कार को चलाया जाता हैं। फिर बह आपको सिखाने लगता है कि कैसे चलाना है। फिर आप सीखने लगते हैं। आपके बायाँ और दायाँ याने की एक्सलरेटर और ब्रेक का प्रयोग करके । फिर एक तीसरी स्थिति आती है जब आप वाहन चालक बन जातें हैं। लेकिन आपको अब भी पीछे बैठे हुए शिक्षक की चिंता हैं, कि आप अब भी कुछ भूल तो नहीं कर रहें हैं या कुछ गलत कर रहें हैं। लेकिन फिर एक चौथी अवस्था आती है जब आप गुरू बन जातें हैं। आप दूसरों को चलाते है। आज्ञा दो किसी को भी, आज्ञा दो सूर्य को, आज्ञा दो चंद्र को, आज्ञा दो। आज्ञा माने सिर्फ कहना, इसका मतलब यह नही कि किसी के भी उपर राज्य करना। सिर्फ इच्छा। सिर्फ कहना हैं, और काम हो जाता हैं। अब ये चौथी स्थिति को 'तुर्या' दशा कहते हैं। फिर एक पाँचवी स्थिति हैं जिसे मैं नाम देना नहीं चाहती क्योंकि आप उसी को पकड़ लेंगे। वे इतनी साफ बनी हुई नहीं हैं। वे एक 1 दूसरे से संयुक्त हो जातें हैं और वे मिश्रण हैं । लेकिन तुर्या अवस्था में जब आप पूरी तरह से सिद्ध हो जाते है फिर आप पाँचवी अवस्था में कूद जाते है, जहाँ आप कुछ नहीं करते है, आप संकल्प भी नही करते है। आप कुछ निश्चय करते या कहते नहीं। कुछ आप के मुँह से निकल पड़ता है, या निकले भी न, वह काम हो जाता हैं। वह एक अवस्था है। वहाँ आप पूरी स्थिति को संभाल लेतें है, यहाँ बेठे हुए। छठी अवस्था - यहाँ बैठे बैठे, आप हर एक चीज जानते है। फिर आप ना केवल उस पर अधिकारी होते है, लेकिन आप उसके अंदर हैं, "मैं आपके (सबकांशस) अचेत अवस्था या सामूहिक अचेतन या अतिचेतन जा सकतें हैं । अब उदाहरण में में ये कहती (सुप्राकांशस) अवस्था, इन सब भागों में जा सकती हूँ, अगर में चाहूँ तो।" ये तब होता है जब आप इसके उपर परिपूर्णता से अधिकार पाते हैं, फिर आप उसमें प्रवेश कर सकते हैं। जब आप अधिकारी है तब आप प्रवेश करतें है। जब आप इस घर के अधिकारी हैं, तब आप कहीं भी प्रवेश कर सकतें है । फिर आती है एक सातवी अवस्था और वह ऐसी स्थिती है जहाँ आप, सिर्फ आप है। आपकी उपस्थिति ही काफी है, सिर्फ वहाँ होना। कुछ नहीं होता है, सिर्फ आप अपने लिए है। अब आप ये सातों स्थिति तक पहुँच सकतें हैं, कारण-मैं उसके परे खड़ी हूं और मैं पहले स्थिति में उतरकर आई हैँ। मैं आपको खीचकर बाहर निकालने की कोशिश कर रही हूं। अगर आप मुझे नीचे नहीं खिचेंगे तो मैं आपको बहुत जल्दी उपर उठा सकती हैं। इसलिए आपसे एक ही प्रार्थना है कि मुझे नीचे नहीं खींचिए। (ओल्ड आल्सफोर्ड सेमीनार, यु.के., प्रवचन, १८-५-१९८०) २९ आदिशक्ति.... परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश जो भी इस आदिशक्ति का प्रतिबिंब ही आपके अन्दर कुण्डलिनी हैं जो भी इस सृष्टि में रचना हुई है और अन्य सृष्टियों में, वह आदिशक्ति का ही काम हैं। अब बहुत सारे लोग मानते हैं कि सृष्ठी की भगवान एक है, ये सत्य है कि भगवान एक ही है-परमात्मा, लेकिन उनके पास अपनी शक्तियाँ है। जिसे वे साकार कर सकतें है किसी भी व्यक्ति में और अपने आप को प्रत्यक्ष प्रकट कर सकतें हैं। इसलिए सब से पहले उन्होंने आदिशक्ति की रचना की । जब वह प्रकट हुई, एक ध्वनि निकली जिसे हम 'ॐ' कहते है। लोगों से या जो आप कहना चाहतें है, वह आदि ध्वनि ये तीन शक्तियाँ-उसी ध्वनि से निकली, जैसे आ ऊ,मा (अ ऊ म) ॐ ( ओम रचना हुई ) । आदिशक्ति ही है जो परमात्मा की इच्छाशक्ति का साकार रुप धारण करती हैं। परमात्मा की इच्छाशक्ति उनकी कृपा से होती हैं और स्वयं को व्यक्त करने के लिए, स्वयं को प्रकट करने के लिए, स्वयं के प्रतिबिम्ब के लिए। मैं कहूँगी कि वे अपने अकेलेपन से थक गए होंगे इसलिए उन्होंने एक साथी के रचना है औट अन्य का विचार किया होगा जो उनकी इच्छाओं को प्रकट कर सकें। सृष्टीयों की इस प्रकार उनकी शक्ति उनसे अलग हुई और उनकी कृपा, उनकी सृष्टि रचना की इच्छा शक्ति को साकार स्वरुप दिया। संस्कृत में इसे 'चित्विलास' कहतें चित्त लगाना ही ध्यान हैं चित्त स्वयं में ध्यान हैं। चित्त स्वयं में आनंद हैं और उस चित्त के आनंद को प्रकट करने के लिए, वह सभी सृष्टियों की रचना की, इस पृथ्वी माता की रचना की, हैं आदिशक्ति का आनन्द। वो आदिशक्ति ये सब सृष्टि की रचना की, वह सभी जानवरों की रचना की, वह सभी मनुष्य की रचना की और सभी सहजयोगियों की रचना की । ये सारी सृष्टि इसी तरह बनी। अब इस समय, कोई पूछ सकता है, "क्यों उन्होंने सीधे ही मनुष्य की रचना नहीं की? वह का ही तो परमात्मा का संकल्प था-सिर्फ मनुष्य का निर्माण करने का लेकिन आदिशक्ति, माँ होने के कारण", उसका रुप प्रकट करने का अपना ही तरीका था। उसने सोचा कि परमात्मा को अपना चेहरा देखने के लिए उसे शीशों की रचना करनी होगी ताकि वे अपनी प्रतिमा देख सकें, वे स्वभाव देख सरकें, वे अपने स्वभाव देख सके और इस तरह से इस लम्बे फैलाव का विकास काम हैं। हुआ। यह विकास इस तरह करना पड़ा क्योंकि उन्हे पता होना था कि वे कहाँ से आए हैं। हमें जानना है कि हम प्रकृति से आए हैं और प्रकृति को भी ये जानना चाहिए कि वह पृथ्वी माता से आई हुई है और पृथ्वी माता की अपनी कुण्डलिनी है और वह भी सिर्फ निर्जीव मिट्टी नहीं हैं, वह जानती है., वह सोचती है, वह समझती है और वह व्यवस्था करती हैं। (कबेला प्रवचन, ८-६-१९९६, सहजपथ न्युजलेटर से अनुवादित) ३० के मसालों का उपयोग.. भारतीय कुछ २६ अगस्त १९९२, चैतन्य लहरी १९९३, खंड ५, अंक ५ ६ अगस्त १९९२ के दिन नाश्ते के समय श्री माताजी ने कुछ भारतीय मसालों तथा अन्य वस्तुओं के विषय में हमें आदेश दे कर कृतार्थ किया। किसके लिए अच्छी है। वस्तु का नाम घनियाँ बीज: दाँत, जिंगर, पत्ते : शरीर की सुगन्ध को प्राकृतिक रूप से नियमित करते है। दाँत तथा जिगर (जीरा, धनिया और अजवाइन वायु रोगों के लिए अच्छे हैं।) जीरा हल्दी चर्म तथा जिगर जिगर अदरक उच्च रक्तचाप और हृदय रोग (लहसुन सुधा से आया इसलिए यह हृदय के लिए अच्छा है। लहसुन भूत आदि भी इससे ड्रते है।) विशुद्धि (पुरे विश्व में उपयोग किया जाने वाला यह शाश्वत पौंधा है। तुलसी श्री कृष्ण को यह बहुत तजिशिशती पसंद है।) तुलसी के एक ताजे पत्ते में लपेट कर एक काली मिर्च प्रतिदिन एक बार लेने से आप जुकाम से बच सकेंगे। कालीमिर्च उष्णता प्रदान करती है। गर्म मसाला उष्णता प्रदायक है। यह लगभग एक दर्जन मसाले का मिश्रण है। मिर्च विटामिन सी, कब्ज की दवा है। विटामिन ए, हृदय के लिए गुणकारी प्याज विटामिन सी नीबू सुखी मछली कब्ज़ की दवा है। (परन्तु जिगर के लिए लाभदायी नही) मन्जनी फूल अत्यंत शीतल, कैलाश जीवन की तरह श्री माताजी ने हमें इलायची के बीज चांदी के वर्क में लपेट कर दिए । तुरंत ही हमारे शरीर का चांदी वर्क दाँया भाग शीतल हो गया। अत्यंत ठण्डी (छिलका नहीं खाया जाना चाहिए) इलायची बीज : गर्म मसाले तथा चाय को संतुलित करने के लिए ३१ जैसे कमल हैं, किसी भी गंदे बिल्कुल सड़े हुए जगह में पैदा होता है । औट वह सबमें से निकल के फिर जब खिखिलता है, तो र सुरभित कर देता है। भत हो करके सारा वातावरण को भी सु इसी प्रकार सहजयोग की विशेषता है। आप भी उसी कमल जैसे है । न होते तो आप सहज में न आते ---------------------- 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-0.txt चैवन्य लहरी मार्च - अप्रेल २००८ लष्ध ा 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-1.txt ए ৯ १ ॐो ও प्रकाशक * न प्रा. लि. निर्मल ट्रॉसफोर्मेश प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे ४११०२९ का फोन : ०२०-२५२८६७२०, २५२८५२३२ पन व 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-2.txt अंक में के ध्यान की आवश्यकता १. २. सूर्य की शक्ति ज्ञान, प्रकाश ८ ३. गणेश पूजा ४. आत्म प्रकाश १ -१२ ५. रुद्र 430 ६. शिवलिंग - १३ न ७. आँखे १४ ८. गुड़ी पाड़वा-शिक्षा - १६ ९. मधुमेह - १८ १०. कोष्ठबध्दता - १९ ११. मधुर, प्रेमपूर्वक और शान्ति से रहना २० १२. सहजयोग में प्रगति का मार्गः २२ सें १३. इस्टर पूजा संदेश -२४ १४. जन्मदिन का असली भेंट २६ १५. महावीर जयन्ती के अवसर पर २७ १६. तुर्या -२८ १७. आदिशक्ती -३० १८. कुछ भारतीय मसालों का उपयोग - ३२ ৯ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-3.txt ध्यान की आवश्यकता |Dনা प.पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी का प्रवचन दिल्ली २७ नवम्बर १९९१ . आ ज बहुत दिनों के बाद मुलाकात हो रही है। सहजयोग के बारे में हम लोगों को समझ लेना चाहिए। सहजयोग इस संसार की भलाई के लिए संसार में उत्पन्न हुआ है और उसके आप लोग माध्यम है। आपकी जिम्मेदारियाँ बहुत ज्यादा हैं आप चैतन्य भी जिन नसों में इसके माध्यम है। और कोई नहीं है इसका माध्यम। हम अगर किसी पेड़ को चैतन्य दें या किसी मंदिर को vibrations दें या कहीं और भी vibrations दें तो भी यह बहुता है, वह शुद्ध चलायमान नहीं हो सकता। वह कार्यान्वित नहीं हो सकता। आप ही की धारणा से और होनी चाहिए। और नसों को आपही के कार्य से फेल सकता है। शुद्ध करने की जिम्मेदारी फिर हमें सोचना यह चाहिए कि, सहजयोग में एक ही दोष है। ऐसे तो सहज हैं। सहज में प्राप्ती हो जाती है। प्राप्ती सहज में होने पर भी, उसका सम्भालना बहुत कठिन है क्योंकि हम कोई हिमालय पर नहीं रह रहे है । हम किसी ऐसी जगह नहीं रह रहे है जहाँ आप लोगों की है। और कोई नही बस एक अध्यात्मिक वातावरण हो; हर तरह के वातावरण में हम रहते हैं। उसी के साथ साथ हमारी भी उपाधियाँ बहुत सारी हैं, जो हमें चिपकी हई हैं। तो में शुद्ध बनना, शुद्धता अंदर लाना, यह कार्य हमें करना पड़ता हैं। जैसे कि सहजयोग कोई भी चेनल हो वह गर शुद्ध न हो जैसे कि अगर पानी के नल में कोई भी चीज भरी हुई है; तो उसमें से पानी नहीं गुजर सकता। इसी प्रकार यह चैतन्य भी जिन नसों में बहता हैं, वह शुद्ध होनी चाहिए। और इन नसों को शुद्ध करने की जिम्मेदारी आप लोगों पर है। हालांकि आपने, कितने बार कहा है कि, 'माँ, हमें भक्ति दो; माँ अपने प्रति श्रद्धा दो। किन्तु यह चीज आपको पूरी समझदारी से जाननी है। जब आपकी नसें शुद्ध हो जाएंगी, तो आप आनन्द में आ जाएंगे। आपको लगेगा ही नहीं कि आप कोई कार्य कर रहे है। आप जो भी कार्य करते जाएंगे उसमें आप यश प्राप्त करेंगे। बहुत सहज में ही कार्य होते जाएंगे वो दुनियावी कार्य हर तरह की सहूलियत आप के अंदर आएंगे। हर तरह के लोग आपके पास आ करके आपकी मदद करेंगे। आपको कभी कभी आश्चर्य होगा कि किस तरह से बिगड़ी बन रही है और किस तरह से हम ऊँचे उठते जा रहे हैं । इससे लक्ष्मीजी की भी कृपा आ जाती है। इससे कला की भी उन्नति होती है। हर तरह की उन्नति, प्रगल्भता इसमें आ जाती है। पर यह सारे एक तरह के प्रलोभन हैं, यह समझ लेना चाहिए। क्योंकि कभी कभी में देखती हैं कि किसी आदमी ने व्यापार किया सहजयोग में २ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-4.txt ध्यान की आवश्यकता.... उसको बहुत रुपया मिल जाता हैं। फिर वह गिर जाता है। और इतना बुरी तरह से गिरता है कि, उठाना मुश्किल हो जाता है। तो नसों की स्वच्छता हमें करनी चाहिए। इसमें सर्ेरे का ध्यान अवश्य करना चाहिए। तो नसों की अगर आपका सवेरे ध्यान नहीं लगता, तो कुछ न कुछ खराबी हममें आ गयी है। कोई न कोई गड़बड़ी हमारे अंदर हो गयी है। कोई न कोई अशुद्ध विचार हमारे अंदर आ गए हैं। उसको देखना चाहिए, जानना चाहिए, समझना चाहिए और सफाई करनी चाहिए। इसी को introspection (अन्तर्दर्शन) कहते हैं। हमें अपनी ओर मुड़ के देखना चाहिए। यह आपके हित के लिए मैं कह रही हैं किसी और के हित के लिए नहीं। पहले तो अपना ही हित आप साध्य कर लीजिए। अगर आपके अन्दर कोई दोष है, बहुत वजह से उपाधियाँ होती है, आदतें होती हैं, वातावरण होता हैं, तोर तरीके होते हैं। तरह-तरह की चीजों से मनुष्य में यह षड़रिपु बैठे रहते हैं। यह हमारे भीतर के ही दुश्मन हैं। वे अंदर छिपे रहते हैं और वह बार बार अपना सर उठाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि अपने को कोर्से नही। अपने को पापी न कहें। अपने को खराब न कहें। अपने को किसी तरह से लांछित न स्वच्छता हमें करनी चाहिए । इसमें सवेरे का ध्यान अवश्य करें। लेकिन इसमें से निकलने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसे कमल हैं, किसी भी गंदे बिल्कुल सड़े हुए जगह में पैदा होता है। और वह सबमें से निकल के फिर जब खिलता है, तो सुरभित हो करके सारा वातावरण को भी सुरभित कर देता है। इसी प्रकार सहजयोग की विशेषता है। आप भी उसी कमल जैसे हैं। न होते तो आप सहज में न आते। न इसे आप करना चाहिए। अगट आपका प्राप्त करते। आप कीड़े-मकोड़े तो है नहीं, आप अवश्य ही कमल हैं। लेकिन इस कमल को सुरभित होने के लिए थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ती है अपनी ओर नजर करने की। सवेरे ध्यान सवेरे का जो ध्यान है वह अपनी ओर नजर करने का ध्यान है कि में क्या कर रहा हूँ? मेरे अंदर क्या दोष है? मेरे अंदर क्रोध आता है। इस क्रोध को में कैसे नष्ट करू? मुझे नहीं लगता, तो और ऐसी कुछ इच्छाएं होती है जो कि मैरे लिए दुखदायी है; मुझे नष्ट करेंगी। उधर मैं क्यों जाता हूँ? इस तरह ध्यान देने से आपको पता लगेगा कि आपके अंदर कौन से चक्र की पकड़ है। उसे आपको साफ करना है। उसको साफ करके ठीकठाक करके और फिर आप ध्यान में बैठे। इसको प्रत्याहार कहते हैं । माने की सफाई, इसकी सफाई पहले करनी चाहिए। अपने मन की सफाई करनी चाहिए। अपने से अगर हमें खेद है, हमारे कुछ न कुछ खराबी हममें अंदर स्वार्थ है तो 'स्व' का 'अर्थ' जान लेना चाहिए और सोच लेना चाहिए कि इन खराबियों से हमें क्या फायदा होना है। क्षणिक से होता है आनंद मिला हो, क्षणिक से आ गयी है। उसे सुख, लाभ हो। कोई बात हुई भी हो तो उसके लिए तो मेंने अपना बड़ा भारी कि आपकी एकाकारिता नुकसान कर लिया क्योंकि ध्यान नहीं लगा। माने यही हुआ भी साध्य नहीं हुई। अब कुछ लोग कह देते हैं कि हमारा तो ध्यान लगता है। पर ध्यान होता नहीं। तो अपने साथ सच्चाई रखना बहुत जरुरी है। अगर हम अपने साथ सच्चाई नहीं रखेंगे तो हम किसके साथ सच्चाई रख सकते हैं? यह अपने हित के लिए है। हमारी अच्छाई के लिए है। हमारे भलाई के लिए है अधिकतर लोगों को मैं देखती हैँ ३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-5.txt की ध्यान आवश्यकता.... सहजयोग में आने के बाद कोई बीमारियाँ अधिकतर नहीं होती है। अधिकतर सहजयोग में आने के बाद बहुत लाभ हो जाता है। अधिकतर लोगों को में बहुत आनंद में भी पाती हूँ। सब कुछ व्यवस्थित हो जाता है। उनके घर के जो प्रश्न हैं वह भी छूट जाते हैं। सब कुछ ठीक हो जाता है। तो कभी कभी ऐसा होता है कि कोई न कोई वजह से, किसी न किसी पुरानी त्रुटी की वजह से, सहज का ध्यान नहीं लगता। सुबह उठ के ध्यान करना जो लोग सवेरे उठ के ध्यान बहुत आवश्यक है। जो लोग सवेरे उठ के ध्यान नहीं करेंगे, वह सहज में कितने भी कार्यान्वित रहें और नहीं करेंगे, वह सब कुछ करते रहें, उनकी गहराई वह पा नहीं सकते। तो फिर आपकी गहराई में ही सारा सुख समाधान है। सारी सम्पत्ति, ऐश्वर्य, श्री, सभी कुछ उसी गहराई में हैं। उस गहराई में उतरने के लिए बीच की जो कुछ भी रुकावटें हैं, उनको आपको निकाल देना चाहिए। अपने पर प्रेम करके, अपनी ओर दृष्टि करके, अपने को समझ के की मेरे अंदर यह दोष हैं, इस दोष को मुझे निकाल लेना चाहिए। दूसरों के दोषों के ओर बहुत जल्दी हमारी सहज में कितने भी कार्यान्वित नजर जाती है। यह काम आपका नहीं। मेरा काम हैं। यह काम आप मेरे ऊपर छोड़ रहें औट सब कुछ दीजिए । आप अपने दोषों की ओर देखें। और उसके बाद शाम का ध्यान है। शाम के ध्यान में समर्पण होना चाहिए। तब फिर आगे की बात आती है कि आप किस तरह से समर्पित है। यानि के इस वक्त यह सोचना चाहिए कि मैंने सहजयोग के लिए क्या किया? मैंने सहजयोगियों के लिए कौनसा कार्य किया? शरीर से, मन से, बुद्धि से । एक अंधे गायक हैं। बहुत मशहूर हैं। विद्वान है। सुंदर कविता लिखते हैं। बहुत पढ़े लिखे है। अंधी आखों से पढ़ा मुझसे बस तीन चार बार मिले और ऐसी कविता उनकी फूट पड़ी कि मैने सोचा यह कैसे करते रहें, अपनी गहराई वह पा है उन्होंने । वह नहीं सकते । तो एकदम धस गए अपने गहराई में? ऐसी कविता फूटी कैसे इनके भीतर से? ऐसी ऐसी बातें कि जो देवी के नाम में भी नहीं लिखी गई है वह भी उन्होंने वर्णित की । बिल्कुल सही मानें ऐसा उन्होंने वर्णन-कैसे किया? तो उनकी गहराई पहले थी जैसे आप सबकी है। लेकिन फिर आपकी वह घुस पड़े उसमें। उसको प्राप्त किया उन्होंने । पहुंच गए वहाँ । सबके अंदर यह संपदा हैं। गहराई में ही आप सभी पूरी तरह से इसे प्राप्त भी कर सकते है। तो शाम का ध्यान है वह बाहर की ओर होना है। जैसे मैने औरों के लिए क्या किया? मैने सहजयोग के लिए क्या सारा सुख किया? मैने माँ के लिए क्या किया? वे सब विचार आपको रखना चाहिए। जब आप ऐसे बैठके सोचेंगे तो सोचना चाहिए इस तरह से कि वह मुझे कितना प्यार करतें हैं । समाधान है। उन्होंने मुझे कितना प्यार दिया? क्या मैने उन्हें दिया है इतना प्यार? वे कितने मेरे तरफ Sincere (सच्चे) है। मैं भी उतना उनके तरफ Sincere (सच्चा)रहा? इस तरह की बात सोचने से फिर आपको आनंद आने लग जाएगा| जब आप सोचने लग जाएंगे कि मैने इतना प्यार दिया है तो फिर आपको आनन्द आने लग जाएगा। क्रोध करना, नाराज होना, झगड़ा करना, दूसरों के दोष देखना इसमें अपना समय बरबाद करने की जगह 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-6.txt की ध्यान आवश्यकता.... देखना चाहिए कि उन्होंने किस तरह से मुझे प्यार किया। हमारे सहजयोग में प्यार बहुत शुद्ध हैं। इसमें कोई गंदगी नहीं होनी चाहिए। अब इस प्यार में गंदगी आ जाए तो सहज का प्यार नहीं। बिल्कुल देने वाला, इसको निव्व्याज कहा गया है। निव्य्याज माने जिसमें ब्याज भी नही मांगा जाता। ऐसा प्यार मैने किसे दिया? जब आप सोचेंगे कि मैं इतना एकाध दिन नहीं खाना प्यार करता हूँ। प्यार करती हैँ तो बड़ा आनंद आएगा। न कि तब जबकी आप कहते है वाया तो कोई में उससे बिलकुल नफरत करता हूँ। वो ऐसा है, वो खराब है, ये है। तब आनन्द नहीं आयेगा। आनंद तभी आता है, जब हम ये सोचते हैं कि ये प्यार का आंदोलन चल रहा खात नहीं। है। बड़ी सुंदर भावना मन में उठती है फिर। और ये सुंदर भावना एक तरह की प्रेरणा स्वरूप होती है। उसका वर्णन तो करना मुश्किल ही है, किन्तु उसकी झलक चेहरे पे दिखाई देती है। उसकी झलक आपके शरीर में दिखाई देती है। आपकी गृहस्थी में दिखाई देती है, वातावरण में दिखाई देती है और सारे ही समाज में दिखाई देती हैं । एकाध दिन इसलिए दोनों समय का ध्यान अवश्य ही सबको करना चाहिए । खाहट घुमने एकाध दिन नहीं खाना खाया तो कोई बात नहीं। एकाध दिन बाहर घुमने नहीं गए नहीं गए तो तो कोई बात नहीं। एकाध दिन आराम नहीं हुआ तो कोई बात नहीं। लेकिन ध्यान सहजयोगियों को अवश्य करना चाहिए। क्योंकि ध्यान ही में आनंद पाया जाता है। तो सवेरे का ध्यान अगर हम कहें कि ज्ञान का है तो शाम का ध्यान भक्ति का है। इस तरह से कोई बात नहीं। खुद को जब आप बिठाते जाएंगे तब आप समझ लेंगे कि आप कितने महत्त्वपूर्ण है। आपका महत्त्व इतिहास में कितना है कि इतना बड़ा कार्य जो हो रहा है, सहजयोग में ये एकाध दिन आटाम सब आप ही के माध्यम से हो जाएगा। आप अपने को औरों से मत तोलिए, वो लोग ये काम करने वाले नहीं । डरपोक लोगों से भी ये काम नहीं होने वाला। पहले लोग हिमालय पे जाते थे, हजारों में से एकाध को आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति होती थी और बाकी तो सब ऐसे ही रह जाते थे बड़ी तपस्या करनी पड़ती थी अब आपको तपस्या करने की जरुरत नहीं। हिमालय में जाने की जरुरत नहीं। भूखे रहने की जरूरत नहीं। कुछ करने की जरूरत नहीं। तो आपकी सफाई होने का कौन सा मार्ग सहजयोग में है? शायद आपने जाना नहीं तो जान लीजिए कि सामूहिकता ही आपकी सफाई का मार्ग है। जो लोग सामूहिक हो सकते हैं, निर्वाज्य तरीके से जो लोग सामूहिक हो सकते है उनकी सफाई अपने आप होती जाएगी। उनको कोई विशेष तपस्या करने की जरूरत नहीं हुआ ता कोई बात नहीं। 1 लेकिन ध्यान सहजयोगियों नही है। सामूहिकता को भी एक तपस्या के तौर पर नहीं, पर एक आनंद की तौर से मानना चाहिए। उसमें अगर ये सोचे कि भाई कैसे इन लोगों के साथ रहा जाए ये तो ऐसे को अवश्य क्योंकि सहजयोग में सबके लिए द्वार खुले हैं। तो वह लोग हैं, वह तो वैसे लोग है आपके लिए कठिन हो जाएगा। तपस्या के मामले में जो उसे मजे से उठा सकता है, वही करना चाहिए। सहज की तपस्या है। सब चीज हो ही जाती हैं उसमें करने का क्या है? सब चीज बनी ही रही है, उसमें बनाने का क्या? आपकी स्थिती देवताओं जैसी हैं। ये समझ लेना चाहिए। उससे कम नहीं है। तो जैसे देवता लोग- हम उनसे कहे या न कहे अपने कार्य 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-7.txt ध्यान की आवश्यकता.... अपने शांति के को करते ही रहते हैं उसी प्रकार आपको भी हो जाना चाहिए। उस स्थिती में आप बहुत आसानी से जा सकते हैं। कोई कठिन नहीं है। और कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन थोड़ा सा समय तो हमें अपने को भी देना चाहिए। और सवेरे और शाम प्रतिदिन ध्यान करना चाहिए । प्रतिदिन । इसमें अगर नहीं हुआ तो मैने बड़ा गलत कर दिया ऐसी बात नहीं। ध्यान गर नहीं हुआ तो कोई बात नहीं। पर ध्यान करना चाहिए। ये मैं जो कह रही हूैं कोई লिए, अपने के लिए, सुख order (आज्ञा) की तरह से नहीं। एक सूझबूझ की बात है एक विचार की बात है जिससे हम स्थिर रहते हैं। मुझे फोरन पता चल जाता है कि कौन लोग रोज ध्यान करते हैं और कौन नहीं करते हैं । क्योंकि जैसे कोई कपड़ा रोज धोए तो साफ ही रहता है उसमें गंदगी कैसे रहेगी? और जो ध्यान नहीं करते हैं उसकी गंदगी फौरन दिखाई पड़ती है। बहत लोगों में दो चार दिन ध्यान नहीं करने से एकदम खराबी आ जाती है। तो ये स्नान है। स्नान न करने से भी चलेगा लेकिन ध्यान जरूर करना चाहिए। अपने शांति के लिए, अपने सुख के लिए, अपने हित के लिए और सारे संसार के हित के लिए हमें ध्यान करना हैं। अपने से गर हमें प्रेम हैं तो हमें जान लेना चाहिए कि हम कितने महत्त्वपूर्ण हैं । कितने गौरवशाली हैं। और हमें सबसे कितना बड़ा काम, कितना उँचा काम आता है। अपने हित के लिए और सारे संसार के हित के लिए हमें ध्यान आशा है, आप लोग मेरा Lecture ( प्रवचन) सुनकर उसपर थोड़ा सा विचार करेंगे, मनन करेंगे। ये नहीं कि मैने कह दिया उसके बाद माताजी ने कह दिया। फिर वह दूसरों पे लगाते हैं अपने लिए ऐसा नहीं सोचते है, माँ ने उनके लिए कहा, मेरे लिए नहीं करना है। कहा हर एक को सोचना चाहिए, ये मेरे ही लिए कहा है और मुझको कैसे उपर चढ़ना है। इसमें कैसे मुझे कामयाब होना है। मुझे कैसे बढ़ना है। आप सबको अनन्त आशीर्वाद । म है र ह नं र ा 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-9.txt सूर्य की शक्ति, ज्ञान, प्रकाश ज संक्रांती है। संक्रांती का मतलब है आज कुछ तो भी नवीन होना। आप के अंदर कुण्डलिनी का जागरण हो गया और आप पहले से नवीन हो गए। लेकिन संक्रांती के दिन अब ये जान लेना चाहिए तूम्हाटे अंदट चैतन्य बह रहा है। अब इटस कि अपने अंदर बैठी हुई देवी जो है, उसे खुश करना हैं। उसको खुश करने चैतन्य को इस्तेमाल करो। अपने अंदर के लिए क्या करना चाहिए? तिल और गुड़ दिया। यह होता है प्यार के शवित लाओं औट अपने अंदर शोंति लाओ लिए। आपस का प्यार बढ़ाने के लिए तिल और गुड़ देतें हैं और आज सूर्य अपना स्थान छोड़के उत्तरायण में हमारे पास आया। इस वक्त हमें उसे औट दुनिया को बताओ कि अपने ही अंदर बहुत धन्यवाद देना चाहिए। उसकी क्रिया से अपने देश में न जाने क्या क्या यह शक्ति हैं औट इसे हमें प्राप्त करना है । होता है । आज सबको सूर्य को नमस्कार करना चाहिए और उनकी शक्ति, १७ जनवरी २००८, पुणे उनका ज्ञान और प्रकाश हमारे अंदर आना चाहिए। मैं तो यही कहुँगी कि तुम सब लोग जागृत हो गए हो। तुम्हारे अंदर चैतन्य बह रहा है। अब इस चैतन्य को इस्तेमाल करो । अपने अंदर शक्ति लाओ और अपने अंदर शांति लाओ और दुनिया को बताओं कि अपने ही अंदर यह शक्ति हैं और अपने गुणों से और अपने सत्य वचनों से इसे इसे हमें प्राप्त करना है पनपाओ, इसे बढ़ाओ। आज का दिवस विशेष होता है कारण सूर्य का आज विशेष उपकार हमारे ऊपर है, इसके लिए धन्यवाद होना चाहिए। आपको बहुत कुछ मिला हैं, और भी मिलना है, बहुत मिलेगा। इसको बढ़ाना चाहिए। और इतनी पूजा आपने मेरी करी है, मैं तो हैरान हूँ, इतनी मेरी पूजा करके आप क्या चाहतें हैं? मैं चाहती हूँ की आप बड़े भारी मी सहजयोगी बन जाएं और हजारों और लोगों को इस दुनिया में सत्मार्ग में लगाए, अच्छाई सिखाए और अपने अंदर उस शक्ति का अहसास करें जो आप के अंदर बह रही है। आप सब को देखकर मुझे बड़ा आनंद आ रहा क है । तो अब हम चलें ? ८ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-10.txt श्री गणेश पूजा १० फरवरी २००८, पुणे आज का दिन हम सब सहजयोगियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आज श्री गणेशजी का जन्म हुआ और श्री गणेश हमारे आराध्य है। उन्ही की वजह से आपने जागृती पायी। उनको कितना भी याद करीए, जब तक आप उनकी विशेषता को नहीं जानिएगा तब तक उनको नहीं पा सकते। उनकी विशेषता ये है कि वे शुद्ध स्वरूप पूर्णतया ब्रह्माण्ड की सारे स्वामी। वो अवतार ही ब्रह्म का है और उन्होंने दुनिया में आकर संगीत, ताल, सुर सब बनाया। उन्ही की कृपा से लोग तल्लीन हो जाते थे। छोटा सा बालक दुनिया में आया और उसने इतना कार्यं किया और इतने सबको चीजें दी और अभी भी आज वो कार्यान्वित है। गणेश की पूजा जितनी भी करिये वो कम ही है। बहुत से लोग कहते है कि हमें गणेशजी दिखते ही नहीं। हम पूजा करते है तो मिलते ही नहीं। वो सरबंज्ञ है, सब जगह है, हर चीज में वो व्याप्त है। कारा लेकिन उनको आप पहचान नहीं सकते जब तक आप पार नहीं होते, उसके बाद आप पहचान सकते है कि गणेश क्या है और गणेश जो है शुद्धता है, शुद्ध आत्मा है और वा जब हमारे अन्दर जागृत हो जाते है तो हमें कोई भी प्रश्न नही रह जाता। हर एक कार्य में सफलता मिलती हैं। हर एक समझ में सफलता रहती है और हमें हर एक चीज में आनन्द आता है। वो आनन्द स्वरूप है और सब को आनन्द देते है। उनकी सेवा करना परम धर्म है और उनकी सेवा माने क्या कि छोटे बच्चों का खयाल करना, उनकी सेवा करना, उनको संभालना, उनके साथ कोई दुष्टता नहीं होने चाहिए। उनसे वो बहुत प्रसन्न होते हैं। ऐसे प्रेमस्वरूप, सरल हृदय श्री गणेश का आज जन्म हुआ था। आज इसलिए उनकी मन्नत है। आज के दिन आप कुछ माँग ले तो श्री गणेश आपकी इच्छा पूरी करेंगे। उनका अधिकार है कि आपकी जो भी इच्छा हो वो व्यक्त करे क्योंकि अब आप सब पार है। आप उनको पूरे हृदय से माँग लें और हर एक तरह से बो आप की मदद करेंगे हर घड़ी, हर पल। आज का दिन बहुत बड़ा है क्योंकि साक्षात पवित्र आत्मा ने जन्म लिया और उनकी इतनी अनादि स्थिति थी कि बहुत लोग कुछ लिख भी न पायें और बहुतों ने कुछ बताया भी नहीं। जैसा समझ में आया लिख दिया। जैसे दिमाग में आया लिख दिया। पर आप लोग समझ सकते हैं कि गणेश के नाम से आप को जागृती हो जाती है। उनके नाम से कई सारे रोग हों, कोई सी भी तकलीफ हो वो भाग जाती है। वे चिरआयु है। पर हमारे अन्दर हमेशा उनका वास है। जब आप पार हो जाते हैं तो आप महसूस कर सकते है उनका वास और अगर नहीं हुए तो उन्हें समझ में नहीं आता। इसी से लोग गलत मार्ग पर जाते है और गलत काम करते है। पर गणेश की कृपा से आप अनेक काम कर सकते है और आप को कोई आलस नहीं आएगी, न ही कोई तकलीफ होगी क्योंकि आप का सारा काम वो ही कर देते है। वो ही आपको सँभालते है। छोटेसे बालक है पर वो ही आपको सँभालते है । एक बड़ी प्रचंड शक्ति है। गणेशजी की शक्ति से अनेक कार्य होते है । हमारे लिए तो परम पवित्र और बहुत ही अपने है। हम उनको तो बहुत सताते है। कभी कोई आदमी फँस जाता है तो गणेश से ही कहते है,'"तुम ही सँभालो । तुम ही ठीक करो।" मेरे बस के नहीं है। यह मुश्किल आदमी है। तो वो कर देते है। तो आज का दिन वैसे भी शुभ हुआ कि आज उनका जन्म हुआ। दूसरी बात है कि आज पंचमी है और ये पंचमी इसलिए मानी जाती है कि ये दिन हम एक वख्र पहनते है, जो भी कपड़े पहनते हैं वो सब इसलिए की हमारा शरीर हम ठीक से ढक सके, शरीर का जो लज्जा है वो उन्ही के वजह से मिलती है। 'लज्जा रूपेण संस्थिता'। तो आप के अंदर गर कोई लज्जा है तो वो उनकी कृपा है और उस से आपको बहुत लाभ होगा। कोई सा भी आनन्द आप उठा नही सकते, जब तक की आप गणेश की आराधना नही करते। गणेश की आराधना से ही आनन्द बढ़ जाता है, आनन्द मिलता है। इसलिए वो स्वयं आनन्द स्वरूप है। इस वजह से दोनो चीजें आज हम-आज ये समझ लोजिए कि आज उनका जनमदिन भी है और उनकी सहायता भी। हर एक कार्य में उनकी सहायता हम लोग लेते है। ऐसा हम लोगों का तरीका है। पर हम वो नहीं कहते कि उनको सिद्ध करने के लिए हम क्या करते है। उधर हम लोगों का ध्यान नही जाता कि हम भी कुछ करें, हम भी कोई ऐसी स्थिती बनाए अपनी कि हमारे अंदर गणेश जागृत हो जाए जिससे हम कभी भी गलत मार्ग पर नहीं जाए गणेश में जो स्थित लोग है-विशेष रहते हैं। उनको दुनिया भर के गलत चीजों से नफरत होती है। और वो कोई सा भी गलत काम नहीं करते है क्योंकि गणेश उनको रोकते है। कोई सी भी गलत काम में उन्हे आनन्द नही आता। ये गणेश जी की बड़ी कृपा है। इसी आनन्दमय जीवन में आप लोग आ गए है। इसलिए आप आज उनकी सेवा में कुछ सुनाईये, कुछ बताईये जिस से कि वो खुश हो जाए। आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद है। 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-11.txt आत्म प्रकाश.... "कौ. ५ आपका पिता है और कौन आपकी माता? कौन आपका पति है और कौन आपकी पत्नी? शिव ये सब बातें नहीं न जानते । शिव तथा उनकी शक्ति अविच्छेद्य हैं। अतः वे अद्वैत हैं उनमें दूवित्य नहीं हैं। दूवित्व की अवस्था में ही आप कहते हैं 'मेरी पत्नी'। आप कहते हैं मेरी' नाक, 'मेरे हाथ, मेरे कान, मेरा, मेरा, मेरा और इस तरह गहन अंधकार में फसते चलें जाते हैं। जब आप कहते हैं 'मेरा' तब तक द्वित्व बाकी हैं। लेकिन मैं कहती हैं "मैं नाक" तो कोई द्वित्व नहीं । शिव शक्ति है और शक्ति शिव । कोई द्वित्व नहीं । पर हम पूरा जीवन द्वित्व में ही रहते हैं और इसी कारण मोह होता है। द्वित्व यदि न हो तो मोह का कोई अर्थ नहीं। यदि आप ही प्रकाश है और आप ही दीपक, तो द्वित्व कहाँ है? आप ही यदि चाँद है और आपही चाँदनी भी हैं तो द्वित्व कहाँ है? सूर्य तथा धूप यदि आप ही है, शब्द तथा अर्थ यदि आप ही हैं तो द्वित्व कहाँ है? परन्तु जब पृथक्करण है तो द्वित्व है। और इसी पृथक्करण के कारण आपको मोह होता है। क्योंकि यदि आप ही वह होते तो किस प्रकार मोह में फंसते? क्या आपको यह बात समझ आई? क्योंकि आपमें तथा आपके में भिन्नता तथा दूरी हैं इसलिए आपको इससे मोह है। परन्तु यह 'में हूँ। अन्य कोन है? सभी कुछ में ही हूँ, दूसरा कौन है? अत: अन्य कौन है? कोई नहीं! यह तभी सम्भव हैं जब आपकी आत्मा आपके मस्तिष्क में आ जाए तथा आप विराट के अंग प्रत्यंग बन जाएं। जैसे मैने तुम्हें बताया विराट ही मस्तिष्क है। समझने का प्रयत्न कीजिए कि यदि सागर में थोड़ा सा रंग ड़ाल दिया जाए तो रंग का अस्तित्व ही मिट जाता है। आत्मा सागर की तरह है, जिसमें प्रकाश है जब यह सागर आपके मस्तिष्क रूपी छोटे से प्याले में उड़लता है तो इस प्याले का अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा सभी कुछ अध्यात्मिक बन जाता है। सभी कुछ! जिस भी चीज को आप छू दें वह अध्यात्मिक हो जाती हैं। रेत, भूमि, वातावरण तथा स्वर्गीय जीव भी अध्यात्मिक हो जाते हैं। सभी कुछ अध्यात्मिक हो जाता है। की अत: यह सागर है जो कि आत्मा है। आपका मस्तिष्क सीमित है। अत: आपके मस्तिष्क में निल्लिप्तता आनी चाहिए। आपके मस्तिष्क की सीमाएं टूटनी चाहिए ताकि जब आत्म तो सागर इसे भरे यह प्याला टूट जाए तथा इसका हर कतरा रंग जाए। आत्म प्रकाश ही आत्मा का रंग हैं। यह प्रकाश कार्य करता हैं. सोचता है, सहयोग करता है, सभी कुछ करता है।" इसी कारण आज मैने शिव तत्व को मस्तिष्क में लाने का निर्णय किया। में आपके साथ हैँ। अत: एक प्रकार से आपको कोई पूजा करने की आवश्यकता नहीं। पर वह अवस्था प्राप्त करनी पड़ेगी और उसे प्राप्त करने के लिए आपको पूजा करना आवश्यक है । मुझे आशा है कि आपमें से अधिकतर मेरे जीवनकाल में ही शिवतत्व बन जाएंगे। पर ये मत सोचिए कि मैं आपको कष्ट उठाने को कह रही हूँ। इस प्रकार के उत्थान में कोई कष्ट नहीं है। जब आप समझ जाएंगे कि यह पूर्ण १० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-12.txt ० ४ आनंद की अवस्था है उस समय आप निरानन्द बन जाएंगे। सहस्रार पर आनन्द निरानन्द कहलाता है। आप जानते है कि आपकी माँ का नाम भी 'निरा' हैं। अत: आप निरानन्द बन जाते हैं। तो आज की शिव पूजा का एक विशेष अर्थ है। मेरे विचार से जो भी हम बाह्य तथा स्थूल रूप में करते हैं, यह सूक्ष्म रूप में भी होता है। मैं आपकी आत्मा को आपके मस्तिष्क में लाना चाह रही हूँ, परन्तु आपके चित्त लिप्त होने के कारण कभी कभी मुझे इस कार्य में कठिनाई होती है। स्वयं को निर्लिप्त करने का प्रयत्न कीजिए। क्रोध, वासना, लोभ आदि को कम करने का प्रयत्न कीजिए, इन्हें वश में करने का प्रयत्न कीजिए। में जानती हैँ कि आप में से कुछ अधिक कार्य नहीं करेंगे। बार बार मैं तुम्हें बताऊँगी और तुम्हारी सहायता करुंगी। पर आप भी इस कार्य को कर सकते हैं। करने का प्रयत्न कीजिए। आज से हम सहजयोग को एक गहन स्तर पर करना आरंभ करते हैं। आप सबको गहनता में उतरने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए बहुत पढ़ा-लिखा या उच्च पदारुढ़ होना आवश्यक नहीं हैं। बिल्कुल भी नहीं। जो लोग ध्यान-धारणा करते हैं, समर्पण करते हैं, गहनता में जाते हैं, वे वृक्ष की पहली जड़ों की तरह उदाहरण बन कर गहरे उतरते हैं, ताकि लोक अनुसरण कर सकें । श्री माताजी "शिव सदा स्वच्छ, पवित्र तथा निष्कलंक हैं। निर्मला योग, ०५ ०६-१९९३ ११ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-13.txt रुद्र .. रुद्र, शिव (आत्मा) की प्रलय शक्ति हैं। क्ष. मा शक्ति उनका स्वभाव है। मानव होने के कारण शिव हमें क्षमा करते हैं। हम गलतियाँ करते हैं, गलत कार्य करते हैं, प्रलोभित होते हैं, हमारा चित्त अस्थिर हैं, अत: वे हमें क्षमा करते हैं। जब हम अपनी पवित्रता भंग करते हैं, चरित्रहीन कार्य करते हैं, चोरी करते हैं, ईश्वर विरोधी कार्य या बातें करते हैं, तब भी वे हमें क्षमा करते हैं। हमारी अवांछित सुख सुविधाओं, ईर्ष्याओं, वासनाओं तथा क्रोध को भी क्षमा करते हैं। हमारे तुच्छ मोह, ईर्ष्या, मिथ्याभिमान तथा स्वामित्व भाव को भी वे क्षमा करते हैं। हमारे गर्व पूर्ण आचरण तथा गलत चीजों की दासतां को भी वे क्षमा करते हैं। परन्तु हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमें क्षमा करने पर वे सोचते हैं कि उन्होंने हमें एक अतिरिक्त अवसर दिया है। यह प्रतिक्रिया शिव के अन्तस में, क्षमा प्राप्त करके भी अधिक गलतियाँ करते रहनेवाले लोगों के लिए, क्रोध की रचना करती है। विशेषतया आत्म साक्षात्कारी लोगों के लिए, क्योंकि आत्म साक्षात्कार बहुत बड़ा वरदान है। आपको प्रकाश प्राप्त हो गया है, फिर भी यदि आप अपने तुच्छ स्वार्थों से चिपके हुए हैं तो आपकी मूर्खता शिव के क्रोध को बढ़ावा देती है। में कह रही हैूँ कि क्षमा प्राप्त करके आत्म साक्षात्कार पा लेने के उपरान्त भी जब लोग अपराध किए चले जाते हैं तो शिव अत्याधिक संवेदनशील तथा क्रूद्ध हो जाते हैं। अत: उनकी क्षमा घटने लगती हैं तथा क्रोध बढ़ने लगता है। परन्तु उनके क्षमा करने पर यदि आप कृतज्ञ रहते हैं तो उनकी आशीष वर्षा आप पर होने लगती है। वे आपको अद्भुत क्षमा शक्ति प्रदान करते हैं । आपकी वासना को शान्त करते है। आपकी लोभवृत्ति को शान्त करते हैं। ओस की सुन्दर बूंदो की तरह उनकी आशीष वर्षा हम पर होती हैं और हम सुन्दर फूलों की तरह खिल उठते हैं । उनके आशीष की धूप में दीप्तिमान हो जाते हैं। हमें दुःख देने वाली सभी शक्तियों के विनाश के लिए अब वे अपने क्रोध तथा संहारशक्ति का उपयोग करते हैं। हर कदम पर तथा हर तरह से वे आत्म साक्षात्कारी लोगों की रक्षा करते हैं। नकारात्मक शक्तियाँ सहजयोगी पर आक्रमण करना चाहती हैं, परन्तु शिव की महान सुरक्षा शक्ति उन आसुरी वृत्तियों का मर्दन करती हैं। उनकी चैतन्य-चेतना हमारा पथ प्रदर्शन करती है। शिव के सुन्दर आशीष का वर्णन बायबल के तेईसवें भजन में इस प्रकार किया गया हैं। "परमात्मा मेरे चरवाहे (धर्म गुरु एवं पथ प्रदर्शक) हैं।" इस प्रकार पथ प्रदर्शक बन कर वे हमारी रक्षा करते हैं। परन्तु शिव दुष्टों की रक्षा नहीं करते। उनका संहार करते हैं। सहजयोग में आ कर भी जिन्होंने अपना दुष्ट-स्वभाव नहीं त्यागा उनका विनाश हो जाता है। सहजयोग में आकर भी जो ध्यान-धारणा नहीं करते तथा प्रगति नहीं करते तो, या तो उनका विनाश हो जाता है, या उन्हें सहजयोग से बाहर फेंक दिया जाता है। जो सहजयोगी परमात्मा विरोधी बातें करते तथा जिनका रहन-सहन एक सहजयोगी के उपयुक्त नहीं, परमात्मा उन्हें हटा देते हैं । अत: एक शक्ति द्वारा शिव रक्षा करते हैं तथा दूसरी शक्ति द्वारा वे दूर फेकते हैं। परन्तु जब उनकी संहारक शक्तियों का बाहुल्य हो जाता है, तो हम कहते है कि "अब एकादश रुद्र कार्यान्वित हो गया है।" जब स्वयं कल्की कार्य करने लगेगी अर्थात परमात्मा की संहारक शक्ति जब पृथ्वी से नकारात्मकता (बुराई) का संहार करके अच्छाई की रक्षा करेगी तो एकादश रुद्र की अभिव्यक्ति होगी। अत: सहजयोगियों के लिए आवश्यकता है कि अपने वैवाहिक, सामाजिक जीवन या उन पर हुई परमात्मा की आशीष वृष्टि से संतुष्ट हो कर बेठने के स्थान पर तीव्रता से उत्थान प्राप्ति के लिए कार्य करें। परमात्मा ने जो हमारे लिए कार्य किया है, जो चमत्कार हम पर किए हैं, उन्हे हम सदा देखते हैं। परंतु हमें देखना है कि हमने अपने लिए क्या किया है और अपने उत्थान तथा विकास के लिए हम (एकादश रुद्र पूजा, इटली), निर्मला योग क्यों कर रहे है? १२ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-14.txt शिर्वलिंग. .० OOO০ ० ो ्जि १० ए এ৩ रु की भ लिं. गज्ञानातीत का द्योतक है, यह द्वेत तथा सृष्टि का अंकारण-कारण है। (कथा) लिंगोद्भव मूर्ती में बताया गया है कि एक बार भगवान ब्रह्मा तथा विष्णु में इस बात को ले कर कहा-सुनी हो गई कि सृष्टि का रचयिता कौन है? अचानक उनके सम्मुख अंतरिक्षीय अग्नि के रुप में शिवलिंग प्रकट हो गया। दोनो ने झगड़ना बंद कर लिया तथा लिंग का आदि एवं अन्त खोजने लगे। शूकर रूप में ब्रह्माजी ने पुृथ्वी को गहराई में खोदा और विष्णुजी ने उसकी उंचाई का पता लगाने का प्रयत्न किया। पर दोनों के हाथ कुछ न लगा यह जानकर कि उनसे ऊँचा भी कोई अन्य है, दोनों ने नम्रतापूर्वक लिंग-पूजन किया। प्रसन्न होकर हजारों बाहू तथा जंघाओंवाले शिव ने सूर्य, चंद्र तथा अग्नि जिनके तीन चक्षु थे, लिंग से प्रकट होकर ब्रह्मा तथा विष्णु को सम्बोधित किया तथा उन्हें बताया कि वे दोनों क्रमश: उनके दायें तथा बांये कटि (कमर) से जन्मे हैं । अत: वे दोनों एक ही तत्व है । इतना बताकर महादेव पुन: लिंग में समा गए। (निर्मला योग १९९३- ३.४) १३ ত C०॥ EEEEEEEEEEEEEEEENN 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-15.txt आँखे .... परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश (अनुवादित) "अ ब कहते है कि अगर आपकी आँखे अस्थिर है तो आपका आज्ञा भी अस्थिर होगा। आपको उन्हे शांत करने के लिए अपने आँखो को स्थिर करना होगा। सबसे अच्छा शांत करने वाला चीज है 'हरी घास' । घास देखने के लिए आपको अपनी आँखों को नीचे जमीन की तरफ देखकर चलना चाहिए।" आज्ञाचक्र, प्रवचन, कॅक्स्टन हॉल, लंडन (१८-१२-१९७८) सहज योग में मैंने देखा कि आज कल कई लोगों ने अपने आज्ञा चक्र को खराब कर लिया है। इसका कारण यह है कि वे अयोग्य गुरु को मानते हैं या अनुचित जगह पर नमस्कार करते हैं, या माथा टेकते हैं। बहुत सारी आँखों की बीमारी इन गलत आचरणों से हुई हैं। मराठी में उपदेश, मुंबई २६-९-१९७९, निर्मला योग, २४ नं. (अनुवाद) अगर बालक की आँखे खराब है, आपको दृष्टी में काले बिन्दु या दो चमकते हुए बिन्दु दिखाई देंगे । अब, अगर आप अपने आप आँखे बंद करते हो तो आप अपने आँखो के सामने रंगो के दृष्य देखोगे। आप रंग देखते हैं, आप इसे रंग नहीं कह सकते हैं, लेकिन आप थोड़ा भूरा, थोड़ा सफेद कह सकते हैं जो कि, दिखता हैं । अगर बालक को आँखो में कुछ तकलीफ हैं, आप को दो काले बिन्दु, बहुत तीव्र दिखेंगे, या दो सफेद गोल बिन्दु, पूरी तरह गोल, दो बिन्दु आपको दिखेंगे। वे है संकेत कि बच्चे की आँखे... लेकिन अगर आपके आँखे खराब हैं और जब आप अपने चित्त को अपनी ओर रखेंगे या थोड़े से जब वे थके हुए होते हैं, तब आपको वे दो छोटेसे बिन्दु दिखेंगे। आप अगर बच्चे की आँख में एक छोटा सा फोड़ा देखें- जैसे एक लाल चिन्ह तो फिर जान लीजिए की बच्चा बीमार हैं, उसे कहीं गाँठ या सूजन हैं। आप शायद एक फोड़ा देखेंगे, हृदय के आकार में या गोल हो सकता है उस रंग में, हृदय के रंग का तो फिर जान लीजिए कि बच्चा बीमार हैं। वह ठीक नहीं है। (माताओं और बच्चों को उपदेश - १९८३) १४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-16.txt अब आँखो को स्वच्छ रखने के लिए काजल लगाना चाहिए। अब साधारण काजल बनाने के लिए हम क्या करते हैं- थोड़ा सा कर्पूर जलातें हैं और कर्पूर की कालिख को चांदी की थाली में केंद्रित करते हैं। चांदी की थाली जब ठंडा होता है, फिर उसे थोड़ा पृड री सा मक्खन या शुद्ध घी के साथ मिलाना हैं। घी ज्यादा अच्छा होता है। अच्छी शुद्ध घी के साथ मिलाकर उसमें पानी ड्रालना हैं। पानी में उसे थोड़ी देर के लिए साफ करने के लिए रख दीजिए और फिर जब पानी पूरी तरह निकल जाए (निथार करने पर), तो फिर बाद में पानी उसको चिपकेगा नहीं क्योंकि वह सब घी ही हैं। फिर उसे एक योग्य इब्बी में रखिए और इस उंगली ( विशुद्धी की) का उपयोग काजल लगाने के लिए करें, हर दिन बच्चे को नहलाने के बाद। हर दिन लगाना चाहिए, कारण ये उन्हे तीक्ष्ण आँखे देंगे और काफी समय के लिए आँखों की कोई तकलीफ नहीं होगी। २] न (माताओं और बच्चों को उपदेश - १९८३) यदि पीछे का आज्ञा चक्र-खराब हो जाए तो इसका अर्थ ये है निश्चित रूप से आप भूतबाधित हैं। पीछे का आज्ञा चक्र खराब होने पर व्यक्ति को आँखे खुली रहते हुए भी अंधापन हो सकता है। भारत में ये समस्या आम है। हमारी आँखों में एक अन्य चीज़ भी घटित होती है, स्वाधिष्ठान चक्र जब खराब हो जाता हैं, इसकी अभिव्यक्ति भी यहाँ पीछे है - यह पीछे की आज्ञा के चारों ओर है। व्यक्ति को जब शक्कर रोग या ऐसा ही कुछ और हो तो लोग अंधे होने लगतें हैं क्योंकि पीछे की आज्ञा के चहूँ ओर विद्यमान स्वाधिष्ठान चक्र अपने आस-पास के आज्ञा क्षेत्र को दबाता चला जाता है, इस पर अत्याचार करता है और इस केन्द्र को अधिक गतिशील कर देता है तथा परिणामस्वरूप आँखे देख नहीं पातीं । इनमें प्रकाश नहीं रहता । लोगों की आँखें खुली होती हैं फिर भी उनक है। आपने से शक्कर रोगियों को इस प्रकार अन्धा होते हुए देखा है। अत: अपने स्वाधिष्ठान को ठीक करके सर्वप्रथम अपना कसम्मुख अन्धकार होता बहुत शक्कर रोग ठीक करें। पीछे की ओर अपने स्वाधीष्ठान के आस- पास आप बर्फ का प्रयोग भी कर सकते हैं। (आज्ञा चक्र, प्रवचन, दिल्ली, ३-२-१९८३, निर्मला योग) मैं पिछले पाँच साल से चष्मा पहन रही हूँ, क्योंकि हमारे कार्यक्रमों में घंटों तक भारी रोशनी हमारे आँखो पर लगती है। नजदीकी दृष्टी को आसानी से ठीक किया जा सकता हैं... एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी बढ़ती आयु को मान लेना चाहिए... क्यों कि वातावरण के कारण, प्रदूषण ये सब आँखों के ऊपर असर करते हैं। चप्मा पहनना कोई भी बीमारी नहीं हैं। (डॉक्टरों का कॉन्फरेन्स, भाषण से, मेरीडियल होटल, दिल्ली, २५-३-१९९३ ) १५ न 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-17.txt -शिक्षा.... गूड़ी पाडवा परमपूज्य माताजी श्री निर्मला देवी द्वारा दी गई शिक्षा, दिल्ली २४-०३-९३ आजसत्य युग का पहला दिन हैं। प्रकृति आप को बताएगी कि सत्य युग आरम्भ हो गया है। सहजयोग सत्ययुग ले आया हैं। आप आत्म साक्षात्कारी हैं, आपको स्वयं में श्रद्धा तथा विश्वास होना चाहिए। सहजयोग की कार्य शैली में आपकी श्रद्धा होनी चाहिए। आपकी ज्योतिर्मय श्रद्धा में क्या कार्य करता है? पूर्ण विश्वास होना चाहिए। मेरी ओर देखिए। मैनें अकेले सहजयोग को फैला दिया हैं। बस परम चैतन्य में विश्वास रखें। यदि आपको कोई सन्देह हैं, तो मुझसे पूछ लें। परमात्मा तो नहीं है पर मै तो आप से बातचीत करने के लिए यहाँ हूँ। अत:अब सहजयोगियों को सन्देहमुक्त होना चाहिए। ने १. सहजयोगियों को बहुत सावधान रहना चाहिए। उन्हें अहंकार विहीन होना चाहिए। वे संदेश के माध्यम मात्र हैं जैसे पोस्ट करने के लिए मुझे पत्र को लिफाफे में ड्रालना पड़ता हैं। स्वामित्व भाव से वे सावधान रहें। २. किसी भी चीज की योजना बनाते समय हमारा चित्त सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज पर होना चाहिए। आपकी प्राथमिकताएं स्पष्ट होनी चाहिए। ३. यदि कोई नकारात्मकता हो तो मुझे बताए, में इसे ठीक करुंगी। ४. प्रायः आयोजक धन की चिन्ता करने लगते हैं । सहजयोग में आपको सदा धन प्राप्त हो जाएगा। परन्तु यदि आप चिन्ता करेंगे तो धन नहीं मिलेगा। धन इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। ५. एक दूसरे के लिए हम में विवेक होना चाहिए। ६. आपको कोई भय नहीं होना चाहिए। यह तो केवल एक नाटक चल रहा है। चिन्ता की कोई बात नहीं हैं। आप यदि कहते हैं कि मुझे ड़र है तो मैं क्या कहूँ? आप यदि कोई गलती कर दें तो भी कोई बात नहीं। मैं आपको कह सकती हूँ कि यह गलती हैं, आप इसका बुरा न मानें । यदि सुधारने को कुछ हुआ तो में सुधार ढूँगी यदि आप भयभीत है तो आपका अहंकार आड़े आएगा और मैं बस इसे भेद दूंगी। कम से कम आप को तो मुझसे नहीं डरना चाहिए। अपनी गलतियों से हम सीखते हैं। गलतियाँ करने से हमें ड्रना नहीं चाहिए। हि १६ ा 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-18.txt २3 र (१ सहजयोग में गहनता प्राप्त करने के लिए परम पूज्य श्री माताजी की सहजयोगियों को शिक्षा ... १. हर सहजयोगी को प्रतिदिन अपने चक्र साफ करने चाहिए । २. सभी को निर्विचार समाधी तथा गहनता प्राप्त करनी चाहिए। ३. हर सहजयोगी को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से प्रार्थना करनी चाहिए । ४. सहजयोगी को पूर्ण श्रद्धापूर्वक समझदारी, विवेक तथा बुद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। ५. हर सहजयोगी को सदा याद रखना चाहिए कि श्री माताजी के चरण कमल उन सभी के हृदय में हैं। श्री माताजी ने संत गोरा कुम्हार तथा संत नामदेव के एक दूसरे के प्रति सम्मान का उदाहरण दिया। एक सहजयोगी के दूसरे सहजयोगी के लिए भी यही भाव होने चाहिए। ६. हम में परस्पर वाद-विवाद तथा विचार भिन्नता नहीं होनी चाहिए। ७. नियमित ध्यान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। १७ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-19.txt मधूमेह (डायबटीज) परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश (अनुवादित) मधुमेह दाई ओर की क्रिया का असर है, जो बाईं ओर के (किसी समस्या के) प्रभाव के सुत कारण से होता है। दाँया ओर अति संवेदनशील हो जाने के कारण पहली बात, जब आप विचार ज्यादा करतें हैं, आप उसकी ओर ध्यान नहीं देते और अपने आदतों में रहते हैं, तब भय का तत्व संवेदनशीलता को बढ़ाती है। जैसे कि एक बहुत मेहनत करनेवाला आदमी बहुत ज्यादा विचार करता हैं तो उसके सारी चर्बी कोशिकायें दिमाग के लिए प्रयोग हो जाते हैं । बाँया भाग शोषित हो जाता हैं। अगर आप में भय आ जाता है, आप ग्रहणशील हो जाते हैं और इसके साथ आप अपने आपको अपराधी मानने लगते हैं तब आप मधुमेह से पीड़ित होते हैं। इसका उपाय, मन्त्र में 'अली रक्त में मधमेह की वजह से चीनी आ के नाम का प्रयोग। बीमारी का मूल कारण हैं 'स्वाधिष्ठान और बाईं नाभी' बाँया नाभी पहले पीड़ित होती है, पत्नी की भय से या पत्नी के लिए चिंता या परिवार के अन्य सदस्य की चिंता। इसके अतिरिक्त आपकी संवेदनशीलता, उस अवस्था में, मधुमेह की ओर ले आती है। आज्ञा चक्र को ठीक करने से ये ठीक होगा। ज्यादा मत सोचिए। निर्विचार ध्यान में चले जाइए। बायें ओर की जाती है तीजी की वजह से नहीं बोल्क शक्ति को दाँये ओर लाइए। ज्यादा नमक लीजिए ताकि मधुरस के बहाव को अप्रभाव कर सके, कारण इसमें दाने बनाने का पानी होता हैं। दारयाँ स्वाधिष्ठान और नाभी में बर्फ रखिए। सही जाँच के (शिवरात्री - १९८७) से बाद शक्कर को चाहे तो बंद कर दीजिए। मधमेह की वजह "देखिए, मैने बताया है कि- रक्त में मधुमेह की वजह से चीनी आ जाती है, हैना? चीनी की वजह से नही, बल्कि मधुमेह की वजह से ही आती है और मधुमेह होता है, ज्यादा विचार करने की वजह से ।" ही आती है और (माताओं और बच्चों से बात, १९८३) मधुमेह होता है एक और चीज जो हमारे आँखो को हो सकती है जब हमारा स्वाधिष्ठान बिगड़ जाता है- यह चक्र हमारे सिर के पीछे पिछले आज्ञा के चारों तरफ प्रतिरुप है। जब किसीको मधुमेह या ऐसी कोई बीमारी होती है, लोग अंधे होने लगते हैं... आपने कई मधुमेह से पीड़ित लोगों को अंधापन आते देखा होगा! तो सबसे पहले आप अपने स्वाधिष्ठान को ठीक करके अपना मधुमेह का इलाज कीजिए । और आप अपने स्वाधिष्ठान के चारो ओर-पीछे की ओर, बर्फ की गठरी का भी प्रयोग कर सकते हैं। अगर वह स्वाधिष्ठान है तो बर्फ की गठरी का भी प्रयोग कर सकतें हैं, लेकिन अगर वह ज्यादा विचार करने की वजह से ।*" भूतग्रस्त की है, मधुमेह के अलावा अगर वह भूतग्रस्त है तो फिर रोशनी का उपयोग करना होगा। हम आज्ञाचक्र को इस तरह से ठीक करतें हैं । सिर्फ निर्मला योग) (आज्ञा चक्र प्रवचन, दिल्ली, ३-२-१९८३ १८ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-20.txt मधुमेह - आप के ज्यादा चीनी खाने से नहीं होती.... देखेंगे, वहाँ चीनी ऐसे लेते है जिससे एक कप में चमच समकोण में खड़ा होना चाहिए, नहीं तो वह नहीं लेंगे । लेकिन उन्हे मधुमेह कभी नहीं होता। इसका कारण यह है कि वह कल के बारे में कभी नहीं सोचता, वे सिर्फ कड़ी मेहनत करते हैं, अपना खाना खाते हैं और अच्छी तरह सो जाते हैं। कभी वह सोने की दवाईयाँ नही लेते है। तो ये मधुमेह ज्यादा विचार करने से होता है और ये बहुत आसानी से ठीक किया जा सकता हैं अगर आप सहजयोग करे तो । मुझपर विश्वास कीजिए । भारत में अगर आप गांवो में जाएँगे, तो आप (पोरचेस्टर हॉल, यूके, भाषण से, १-८-१९८९) अगर एक गर्भवती स्त्री ज्यादा विचार करती है, तो उसके बच्चे को मधुमेह होने की संभावना है। (मास्को, मेडिकल कॉन्फरेन्स, भाषण, जून १९९०) कोष्ठबध्दता. कब्ज) परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश (अनुवादित) J "ड न सभी लोगों (जो दायीं प्रवृत्ति के हैं) की इन्द्रियाँ अति चंचल होती हैं। अति चंचल इन्द्रियों के कारण वे एक बहुत खराब हृदय बना लेते हैं जो अतितीव्र काम करता हैं। जहाँ हृदय तेजी से पम्प करता है वहाँ हाफन पैदा होती हैं। फेफड़ों में उनसे अस्थमा हो जाता हैं। उनके अँतड़ियों में उसे कोष्ठबद्धता (कब्ज़) होती हैं। उनका जिगर बहुत ही खराब हो जाता है। चमड़ा बहुत ही पीला हो जाता हैं और ऐसा व्यक्ति बहुत झगड़ालू और उत्तेजित होता है। (व्याधि और इलाज, नई दिल्ली, ९-२-१९८३, निर्मला योग, नं. २५) जिगर की गर्मी थोड़े समय के बाद फेफड़ों को शक्तिहीन करती हैं, जो अस्थमा की ओर ले जाती है। जब जिगर को आवश्यक पोषण नहीं मिलता है, तो वह अति तीव्र हो जाता हैं। अँतडियां सूख जाती है और कोष्ठबध्दता का कारण बन जाती है। (मॉस्को मेडिकल कॉन्फरन्स, भाषण-जून १९९०) भारत में इसे (कब्ज़) दूर करने के बहुत तरीके हैं, जैसे कि हम अजवाइन के चूरण को काले सूखी अंगुर के साथ लेते हैं- किशमिश-काली किशमिश। प्रन(सूखा आलूबोखारा), सन्तरे के रस के साथ भी अच्छा है, या माँ का दूध या उबाला हुआ दूध रात को पीना भी अच्छा है। (माताओं और बच्चों से बाते, १९८३) १९ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-21.txt मधुर, प्रेमपूर्वक और अ भी अभी मैंने इन्हें (भारतीय सहजयोगीयों) को बताया की वे अहंचलित पाश्चात्य समाज की शैली की नकल करने का प्रयत्न न करें । क्योंकि उसमें ये लोग कठोर शब्द प्रयोग करते हैं और ऐसा करके हम सोचते हैं कि हम आधुनिक बन गए हैं। वे ऐसे कठोर शब्द का उपयोग करते हैं, "मै क्या परवाह करता हूँ!" ऐसे सभी वाक्य जो हमने कभी प्रयोग नहीं किए, ऐसे वाक्यों से हम परिचित नहीं है। किसी से भी ऐसे वाक्य कहना अभद्रता है। किस प्रकार आप कह सकते है, "मै तुमसे घृणा करता हूँ।" परन्तु अब मैने लोगों को इस प्रकार बात करते देखा है कि हममें क्या दोष है? आप ऐसा कहने वाले कौन होते है? ये हमारा बात करने का तरीका नहीं है। देखिए ये बात करने का तरीका नहीं है। किसी भी अच्छे परिवार का व्यक्ति इस प्रकार बात नहीं कर सकता क्योंकि इस प्रकार की बातों से उसका परिवार प्रतिबिम्बित होता हैं। परन्तु यहाँ पाश्चात्य देशों की अपेक्षा भाषा की नक्कल अधिक होती हैं। जिस प्रकार लोग बसों में, टैक्सियों में, रास्ते में बातचीत करते हैं उसपर मुझे हैरानी होती है । ये मेरी समझ में नहीं आता। अत: मैने उनसे कहा है कि भाषा प्रेममय तथा हमारी पारम्परिक शैली की होनी चाहिए। इस प्रकार तो हम अपने बच्चों को भी नहीं डाँटते। अपने बच्चों को भी यदि हमें डाँटना हो तो तब भी हम ऐसी भाषा का उपयोग करते है, जो उन्हें सन्मानमय बनाए (श्रेष्ठमानव)। ( दामले साहब ने कुर्ता पजामा पहना हुआा ० र] २० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-22.txt शान्ति से रहना.... जन्मदिन पूजा के अवसर पर संदेश है,"आप शिवाजी महाराज जैसे लग रहे है। शिवाजी महाराज आपका स्वागत है।") हमें ऐसी सन्मानमय भाषा में बोलना चाहिए जिससे वो घवरा न जाएं। सुधार यदि आवश्यक होता तो हम इस प्रकार सुधार किया करते थे। दूसरी विधि ठीक नहीं है क्योंकि इससे सुधार नहीं होता। देखिए, दूसरे तरीके से आप अपने बच्चों को नियन्त्रित नहीं कर सकते। हर समय आप उन्हें डांटते रहते हैं, अपमानित करते रहते हैं, अन्य लोगों को अपमानित करते रहते हैं। अपमानजनक तरीके और भावनात्मक धमकी तथा ये सारी व्यवस्था इस देश की परम्परा नहीं है। ऐसा करनेवाले लोगों को बाहर फेंक दिया जाएगा। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए । मैं आपको बताती हूँ कि सहजयोग में आप ऐसा नहीं कर सकते। लोगों को अपमानित करने की, उनके लिए अपमानजनक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की धारणाएं आपमें नहीं होनी चाहिए। ये सब आधुनिक शैली है। अत: हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। सहजयोग में हमें अत्यन्त गरिमामय आचरण करना चाहिए जो हमारी शैली और हमारी परम्परा के अनुरूप हो। सहजयोग की परम्परा ये है कि हम लोगों से अत्यन्त सभ्य, मधुर, स्नेहमय एवं प्रोत्साहित करने वाले तरीके से व्यवहार करें। हम सबको इसी प्रकार बोलना चाहिए। अत: पहली बात में ये बताती हैँ कि अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करते हुए आपको चिल्लाना नहीं चाहिए। मैं उन लोगों पर चिल्लाती हूँ जिनमें भूत हैं। मेरे चिल्लाने से भूत भाग जाते हैं, परन्तु यदि आप चिल्लाएंगे तो आपको भूत पकड़ लेंगे, भूत भागेंगे नहीं। अत: बेहतर होगा कि आप चिल्लाए नहीं । यदि आप में मेरी तरह से शक्तियाँ हैं तो आप ऐसा कर सकते हैं। परन्तु आप में ये शक्तियाँ नहीं हैं। किसी भूत वाले व्यक्ति पर यदि आप चिल्लाएंगे तो भूत आपको पकड़ लेंगे। अत: सावधान रहें। मेरी विधियाँ न अपनायें। मैं बिल्कुल भिन्न प्रकार की व्यक्ति हँ और सोच-समझकर बात कहती हैं। आप ऐसा नहीं करते। अत: यदि आप ने मेरी बातों का अनुसरण करना हो तो मेरी क्षमा, प्रेम और स्नेह आदि गुणों को अपनायें उन चीजों को नहीं जहाँ मैं भयंकर होती हूँ। अब मैं दो चीजें माँग रही हूँ। बड़ी अटपटी सी बात है कि माँ अपने मुँह से कोई उपहार माँगे। जो उपहार आपने देना हैं उसमें पहली चीज़ तो ये है कि आपके चरित्र में शक्ति की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। परन्तु इसका अर्थ ये भी नहीं है कि शान्त लोग भीरु होते हैं, अस्वस्थ, जो सभी मूर्खताओं को सहन कर लेते हैं। नहीं परन्तु वो शान्तिपूर्वक विरोध करने वाले लोग होते हैं। आपको किसी चीज़ से भय नहीं है। किसी चीज़ के आगे आपने झुकना नहीं है, किसी चीज़ से समझौता नहीं करना। परन्तु आप में ऐसे स्वभाव का विकसित होना अत्यन्त आवश्यक है। दूसरी चीज़ ये है कि आपकी इस शक्ति से, आपके प्रेम की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। प्रेम एवं स्नेहपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। आप जो चाहे करें-चाहे भूखे रहें, परन्तु अन्य लोगों से करुणा एवं स्नेहपूर्वक व्यवहार करें ताकि अन्य लोगों पर प्रभाव पड़े और वे सोचें कि यह व्यक्ति अक्ख़ड नहीं है। भगवान आपको आशिर्वाद दे- जुहू, मुबई २२.३.१९८४, प्रवचन का परिच्छेद २१ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-23.txt सहजयोग में प्रगति का मार्ग आको विराजना चाहिए। विराजिए, आसन पर विराजिए । आसन पर बैठकर भीख मांग रहे हैं, रो रहे हैं! आसन पर बैठकर पागलपन कर रहे हैं! इनका किया क्या जाये? अरे भई, आसन पर विराजो। आप ३० राजा साहब हैं। बैठिये, और अपनी पाँचों इन्द्रियों को आप आज्ञा दीजिए, जनाब आप अब ऐसे चलिए, बहुत हो गया अब ये ठीक है, अब वो ठीक है, हाँ बहुत समझ लिया आपको।" जब आप इस तरह से में अपने को करंगे, जब आप अपने को पूरी तरह (Command) कमाण्ड कण्ट्रोल (Control) में करेंगे, तभी तो आप अच्छे सहजयोगी हुए। नहीं तो आपके मन (Mind) ने कहा, "चलों इधर", आप बोलते हैं, "माताजी, क्या करुं, इतना मन को रोकता हूँ, पर मन इधर जाता है।" फिर मन क्या है? मन तो एक (Living Force) जीवन्त शक्ति है, वो जाएगा ही। मन तो उसी जगह जाएगा, जहाँ जाना है। हमारी जो इन्द्रियाँ हैं, वो जागृत हो जाती हैं और फिर हम इधर-उधर जाना ही नहीं चाहेंगे और बहुत सी चीजें छोड़ते चले जाएंगे। इन सब चीज़ो में हमको एक ही ध्यान रखना चाहिए: अपने हृदय को स्वच्छ रखना। जिन लोगों का हृदय स्वच्छ रहता है, उनको समस्या (Problem) कम होती हैं। इसका मतलब यह नहीं है, कि आप लोग गंदी बातें सोचते रहते हैं । स्वच्छ हृदय का मतलब है, समर्पण। सहजयोग में अगर समर्पण में कमी हो जाय या कोई समझे कि मैं कोई विशेष हूँ, तो उस आदमी में (Growth) प्रगति नहीं हो सकती। उसके लिए कोई पढ़े-लिखे नहीं चाहिएं, कोई विशेष रुप के नहीं चाहिएं। "मुझे यह नहीं हुआ , मुझे कोई अनुभूति नहीं हुई'" - तो दोष आपका है या सहजयोग का? लोग तो कभी कभी इस तरह से मुझसे बातें करते हैं जैसे कि मैंने ठेका ही ले रखा है या मेरे पास आपने कोई रुपया पैसा जमा किया हुआ है कि माँ, हम तो आपके पास पच्चीस साल से आ रहे हैं। पच्चीस क्या, तीस साल तक; बूढ़े होने तक भी कोई काम नहीं होने वाला। इसलिए अगर यह नहीं हो रहा है, इसका मतलब है कि आपमें कोई न कोई कमी है। लेकिन जैसे ही आप अपने को अपने से हटाना शुरु करेंगे, आपको अपने दोष बड़ी ही जल्दी दिखाई देंगे और जैसे ही दिखाई देंगे, वैसे ही आप पूरी तरह से विराजिए, जैसे कोई राजा साहब हैं; अपने सिंहासन पर बैठे हैं। आपको अगर सुनाई दिया कि हमारे प्रजाजन, कुछ गड़बड़ कर रहे हैं; तो कहिए, "चुप रहिए, ऐसा नहीं करने का है यह नहीं २२ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-24.txt कि ऐसा करो, वैसा करो।" अपने को पूरी तरह (Command) कमाण्ड में जो आदमी कर लेता है, वही शक्तिशाली है। मिसाल के तौर पर लोगों की बातचीत लें। लोग जब बात करते हैं यानी हमसे भी बातचीत करने में ख्याल ही नहीं रहता कि किससे बात कर रहे हैं। ऐसी बात करते हैं कि बड़ा आश्चर्य सा होता है। उनको अन्दाज नहीं रह जाता कि हमें क्या कहना चाहिए, क्या नहीं कहना चाहिए। हमारी जबान पर भी काबू होना चाहिए। यह काबू भी तभी होता है, जब आप अपने को अपने से हटे देखेंगे। यह जबान है न, उसे ठीक रखना पड़ता है। धीरे धीरें, आपकी नई आदतें हो जाएंगी, नए तरीके बन जाएंगे, नया अन्दाज बन जाएगा फिर आप अपने को (order) आदेश देंगे। हमेशा 3rd Person में । जो आदमी पार होता है वो कभी 1st Person में बात नहीं करता हमेशा 3rd Person में बात करते हैं, वहाँ चलिये, वहाँ बैठिए। बच्चे भी ज्यादातर ऐसा ही करते हैं 3rd Person में बात करते हैं, "ये निर्मला अब जाने वाली नहीं है। ये यहीं बैठी रहेगी।" सहजयोगियों को भी इसी तरह बात करनी चाहिए। अपनी जो इच्छाएं हैं, अपने जो 1deas (विचार) हैं, या और कोई ideas, जैसे सत्ता के ideas, इत्यादि, ये सब छोड़कर हमें यह सोचना चाहिए कि हम सहजयोग के लिए क्या कर रहे हैं कर और क्या करना है। श्री माताजी निर्मला देवी का उपदेश दिल्ली में दी गई उपदेश - ११ मार्च १९८१ के प्रवचन का परिच्छेद हमारी जबान पर भी काबू होना चाहिए। यह काबू भी तभी होता है, जब आप अपने को अपने से हदे देखेंगे । २३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-25.txt ईस्टर पजा संदेश... स * सहजयोग में आपने अपना कायाकल्प कर लिया हैं। मैं कहूंगी कि आपकी कुण्डलिनी ने कार्य कर दिया है। पर अभी भी आपमें तथा ईसा में अन्तर है। आप एक ऐसे वातावरण, जीवन शेली तथा विचारों से आयें हैं जो घातक हैं। आप देखें कि सभी कुछ आपके विनाश के लिए था अब जब आप इससे मुक्त हो रहे हैं फिर भी इनकी पकड़ हैं। अब भी आप इनसे प्रभावित हो जाते हैं। ऊँचाई की ओर बढ़ते हुए भी जान पाते हैं कि आपको किसी हास्यास्पद अवस्था किसी लज्जाजनक स्थिति में घसीट लिया गया है। निसन्देह आपकी कई बार स्वयं पर हैरानी होती हैं। कभी आप यह सब स्वीकार कर लेते हैं। साक्षात्कार प्राप्त एक सहजयोगी के लिये आवश्यक है कि वह अत्यन्त अन्तर्दशी हों। दूसरों के दोष देखने के स्थान पर वह अपने दोष देखें। आपको पता होना चाहिए कि अध्यात्मिकता में आप कहाँ तक जा रहे हैं। ईसा को तो यह सब करने की आवश्यकता न थी। उन्हें तो अन्तर्दर्शन की भी आवश्यकता न थी। वे तो भ्रष्टाचार से परे थे। मृत्यु और फिर पुनर्जीवन तो उनके लिये शारीरिक परिवर्तन मात्र था। वे मरे और पुनर्जीवित हो गये। पर हमारे लिए यह बिल्कुल भिन्न हैं। अब हम सहजयोगी हैं परन्तु पहले हम साधारण मानव थे और हमारे अन्दर प्रकाश न था। करी अब हममें प्रकाश आ गया हैं। तो हमें क्या बनना हैं? हमें प्रकाश बनना है। इसा को ऐसा नहीं बनना पड़ा। हमें प्रकाश बनना होगा। अब आपने सावधान रहना होगा कि कहीं उस प्रकाश में बाधा न आ जाऐ। कभी ये कम न हो जाऐ या कहीं ये दीप बुझ न जाए। इस प्रकाश के साथ चलना पहली आवश्यकता हैं। यदि प्रकाश में गड़बड़ है तो आप अभी प्रकाश नहीं हैं। आपको प्रकाश बनना हैं। जब आप प्रकाश बन जाएंगे तो देख सकेंगे कि आपका मस्तिष्क किस २४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-26.txt प्रकार कार्य करता है। कौन से विंचार यह देता है तथा उत्थान के समय आपके मस्तिष्क को क्या प्रभावित करता है। क्या ये चिंता हैं या आपकी जिम्मेदारियां? या ये आपकी बुरी आदतें हैं? यह अध्यात्मिक व्यक्तित्व के आपके विकास में एक बाधा है। अत: हर क्षण आपने अपनी रक्षा करनी है और देखना है कि किस प्रकार आप उन्नति कर रहे हैं। यह अति सुन्दर यात्रा है। हमें समझ लेना ....किस प्रकार आप यह श्रद्धा पाते हैं? इसके लिए न कोई पाठ्यक्रम हैं और न कोई साहित्य । परन्तु आपके अन्दर जागृति होती है जो प्रश्न करेगी कि मैं क्या हूँ| मैंने क्या प्राप्त किया है? ये पूछेगी कि मैंने क्या पाया है? सहजयोग से मुझे ब्या मिला? ये सभी प्रश्न आपसे पूछे चाहिए कि से चमत्कारों ने जाएंगे। परन्तु यदि आपका विश्वास प्रकाशित है तथा जिसे जीवन के बहुत प्रकाशमय बनाया है तो छोटी-छोटी चीजों में आपको चमत्कार दिखाई पड़ेंगे। तब आप जानेंगे कि अब आप सहजयोग में जम गए हैं। उदाहरणतया यदि वर्षा होने लगें तो आपमें से आधे लोग हमारी अपनी चिंतित हो जाएंगे, परन्तु वे जान जाएंगे कि सुन्दर छत हैं और कुछ नहीं हो सकता। वर्षा होने दो। तब आपको विश्वास होगा कि वर्षा हमें गीला नहीं कर सकती। इस तरह हमारे अंदर यह विश्वास हृढ़ होना चाहिए। विश्वास आपको अत्यन्त दृढ़ तथा हजारों लोगों को पुनर्जीवन देने योग्य बनाता है। हमें समझ लेना चाहिए कि हमारी अपनी स्थिरता, सूझबूझ तथा अवलोकन द्वारा ही हम अपने स्थिरता, अन्तस में तथा सहजयोग में स्थापित हो सकते हैं। यह हुआ है और आप सबके साथ भी घटित होना चाहिए। आप सबको स्वयं को तथा अपनी आत्मा को जानने का अवसर मिलना चाहिए। सूझबूझ तथा व्यक्ति का स्वयं पर विश्वास होना चाहिए। मैंने देखा हैं कि बहुत से सहजयोगी आ कर कहते हैं। बेकार हूं। में कोई काम नहीं करता।" यह ठीक है पर कि, "श्री माताजी मुझमें कोई गुण नहीं, मैं अवलोकन द्वारा जो भी आप चाहते हैं वो मागिए। आप न भी माँगे तो भी यह हो जाएगा। केवल आपके सोचने तथा चित्त देने से भी कार्य हो जाएगा क्योंकि यह सर्वव्यापक शक्ति ही वास्तविक शक्ति है। बाकी सारी शक्तियाँ व्यर्थ हैं । यह इतनी कार्यकुशल तथा करुणामय है कि एक क्षण से भी कम समय में ही हम अपने यह कार्य कर सकती हैं। उस दिन एक आस्ट्रेलियन को किसी ने धोखे से कुछ जमीन तथा घर बहुत महंगे दामों पर लेने को मजबूर कर दिया। उसके पास धन न था। उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं जितने पैसे आपके पास हैं दे दो, बाकी बाद में दे देना । विश्वास करके उसने अपना सारा धन बयाने के रूप में दे दिया। अब बेचारा बहुत परेशान हुआ कि यदि उसने बाकी का ऋण न चुकाया अन्तस में तथा तो उसे जेल जाना पड़ेगा। समझ न पा रहा था कि किस प्रकार झंझट से छुटकारा पायें उसके पास कोई सहजयोगी गया और कहा कि स्वयं पर विश्वास रखो। किसी अन्य व्यक्ति ने कहीं बड़ी सहजयोग में रकम में वह जमीन उससे माँग ली। इस प्रकार जेल जाने के स्थान पर धनवान बन गया। इस प्रकार बहुत से चमत्कार हो जाते हैं। आत्मसाक्षात्कार के बाद भी विश्वास का न होना दर्शाता है कि आपका व्यक्तित्व कितना दुर्बल हैं। हैरानी की बात हैं कि आत्मसाक्षात्कार के बाद भी लोगों स्थापित हो में आत्मविश्वास नहीं होता। जिनमें हैं उन्होंने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है। हममें और इसा में यह अंतर है कि विश्वास ईसा का अंग-प्रत्यंग था । वे ही विश्वास थे। पर हमें विश्वास करना पड़ता है। हमें स्वयं पर भरोसा करना पड़ता है। रोमानिया में व्हील चेअर पर एक खी को मेरे पास ले आये। सकते हैं । वह चल न पाती थी कहने लगी, "माँ, मैं जानती हूँ कि आप मुझे ठीक कर सकती हैं।" मैंने कहा "यदि तुम्हें विश्वास हैं तो खड़ी हो जाओ।" वह खड़ी हो गई और चलने लगी। विश्वास हो तो सारे देवता सहायक होते हैं..... इस्टर पूजा - मैगलानो, इटली, ११ अप्रैल १९९३ चेतन्य लहरी, खंड V, अंक 8 में का परिच्छेद २५ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-27.txt जन्मदिन का असली भेंट.. (जुहू, मुंबई, २२ मार्च १९८४) , के प्रवचन में का परिच्छेद मै ০6 वि एक बात कहना चाहती हैँ कि आप उँचे से उँचे लोग होंगे, पर आज आपको मुझे सबसे पहले आश्वासन देना होगा कि आपके बातोंमे, आपके चालचलन में, आपके हृदय में, आप मुझे प्रेम से बसाएंगे। दूसरी चीज़ जो मुझे आपसे माँगनी है कि शांति से रहो। अपने भीतर शांति रखने की कोशिश करों। अपने आप से लड़ो मत। अब, पश्चिमी लोगों के साथ ये समस्या है- वे अपने आप से लड़ते रहते हैं। " ये मेरे साथ ऐसा क्यो हो रहा है? मै ऐसा हूँ। मैं बहुत बुरा हूँ। मै अच्छा नहीं हूं।" अगर आप अपने आप से इस तरह से लड़ते रहोगे तो आप प्रगति नहीं कर सकोगे। आप को कहना चाहिए, " मै इतना अच्छा हूँ, मुझ में क्या दोष हो सकता है?" मुझे आत्मसाक्षात्कार मिला है, मुझ में क्या दोष है? मुझमें कोई भी दोष नहीं हैं। अपने ऊपर ऐसे विश्वास रखो और फिर काम बनेगा। यह नहीं न्द कि आप दूसरों के ऊपर चिल्लाने लगो, पर आप जब समझ जातें है कि आपमें कोई दोष नहीं है, आप को शांत रहना चाहिए। आप सबको ये करना होगा, वैसे मत कीजिए, अपने मस्तिष्क को आराम से रखने की कोशिश कीजिए । बहुत से लोग मेरे पास आते हैं जिनके चेहरे मुड़े हुए. बिगडे हुए होते हैं और मैं उनके मस्तिष्क पर भूतों को बैठते हुए देखती हूँ। फिर मै उनपर चिल्लाती हूँ, फिर उनका मस्तिष्क शांत होता हैं। "मैं नहीं करता हूँ, माँ कर रही है" शांत.... जब आप ऐसे शांत ও क 1 करेंगे, अपने आप को तो आप देखेंगे कि आप का हृदय खुलता है। क्यों आप अपने हृदय खोल नहीं पाते हो? क्यों कि आपको अपने उपर भरोसा नहीं है। यह आपके आज्ञा चक्र को ळ्० खोल देगा, सहस्त्रार खुल जाएगा और आपका हृदय भी खुलेगा। जब आपका सहस्त्रार खुल जाता है, तब आप अपने जीवन में शांति पाएंगे। भगवान आपको आशीर्वाद दें - २६ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-28.txt महावीर जयन्ती के अवसर पर.. (सारांश-निर्मला योग), दिल्ली ०४-०४-१९९३ भ. मगवान महावीर ईड़ा नाड़ीपर हैं वे हमारे संस्कारों को देखते है। उन्होंने तपश्चर्या का जीवन है तो बाई ओर को बिताया। व्यक्ति जब गलतियाँ करता जाकर नर्क में चला जाता है। मृत्यु से पूर्व इसी संसार में ही नर्क है। अपराधियों को उनके अपराध ही नष्ट कर देंगे । इतनी आसुरी शक्तियाँ है कि जो लोग मुक्त नहीं हो जाएंगे उनका विनाश हो जाएगा। आत्म साक्षात्कारी लोग हजारों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करके उनकी रक्षा कर सकते है । सहजयोग में हम भगवान महावीर को श्री भैरवनाथ का अवतरण मानते है। वे इमाम हसैन बनकर भी अवतरित हुए। सेंट माइकल को सेंट जार्ज (लन्दन के रक्षक देवदूत) भी कहते है। आप सहजयोग का आनन्द ले रहे है, मेरे लिए यह बात अत्यन्त आनन्ददायी है। सहजयोग परिवार को बढ़ाएं| अधिक से अधिक लोगों की रक्षा करें। अपने बच्चों का विशेष ध्यान रखें। उन्हें बहुत नकारात्मकता का सामना करना पड़ रहा है। सहजयोग केवल आपके लिए ही नही है, यह पूरे विश्व के लिए है। भजनों, संगीत तथा नाटकों के माध्यम से सहजयोग गांवो में फैलाया जा सकता है। पंच तत्वों, अपनी भावनाओं में सृजन तथा कला में हमें चैतन्य लहरियाँ लानी चाहिए। सृजन तथा कला का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे सहजयोग से लाभान्वित न किया जा सके। हमारे व्यवहार, आचरण, संगीत और संस्कृति में सहजयोग की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। बाई ओर से भक्ति की अभिव्यक्ति दाई ओर की सृजन द्वारा की जा सकती हैं। ३० हमें अपनी भक्ति को बढ़ाना है। यह भगवान महावीर का ुम ा कार्य है । (६) 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-29.txt तुर्ा .. परम पूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी की सलाह स. बसे महत्त्वपूर्ण बात हम सब को जानना जरूरी है कि एक नाड़ी है जो बाईं हृदय से विशुद्धि हो कर जाती हैं हृदय से निकलकर ऊपर जाकर, आज्ञा चक्र से आगे जाती है। उसके चार पंखुडियाँ होती हैं, जो खुलती हैं। यही है जो आपको वह स्थिती देती है जिसे हम तुर्या कहते है। हम तीन अवस्थाओं में रहते हैं। जागृत अवस्था में हमारा चित्त इधर-उधर और सब जगह जाता है, हम अपने चित्त को खराब करते हैं। दूसरी वह है जिसे हम कहते है कि हम सोते है। जब हम सोते हैं, तब भी वह सब जो हो गए हैं बह अतीत से आते हैं। लेकिन उसके बाद हम गहरी नींद में चले जाते हैं, जिसे हम 'सुशुप्ती' कहतें हैं। वह एक ऐसी स्थिति हैं जहाँ गहरी नींद होती हैं और आप किसी चीज के स्वप्न देखते हैं जो सत्य भी होते हैं। आपको मेरे बारे में सपने आ सकतें हैं । वह अचेत का आकाशीय का इथर संबंधी भाग है जहाँ सुंदर सूचनाएँ दी जाती है। मान लीजिए कि मै इटली आ गई हूँ। इटली वालों को अपने सुशुप्ती में पता चलेगा कि मैं यहाँ आई हूँ या शायद किसी को भी पता चलेगा । लेकिन एक चौथी अवस्था है जिसे 'तुर्या' कहते है। इसके अतिरिक्त और भी दो स्थितियाँ हैं। आप तुर्या अवस्था में हैं, जो चौथी अवस्था हैं। तुर्या माने चौथा। चौथी अवस्था वह है जहाँ पर आपकी निर्विचार अवस्था है। जब कोई विचार नहीं आतें हैं, जरा सोचिए जब आपको कोई विचार नहीं होता तब आपको अबोध होना चाहिए। जब आपको कोई विचार नहीं आता तब आपको चैतन्य लहरियाँ आनी चाहिए। जब आप के साथ कोई विचार नहीं होते तब आप किसी से आसक्त नहीं हो सकते। तब आप इस निर्विचार अवस्था में आ जाते है। वह, 'तुर्या स्थिति' है। और इस स्थिति में जब आप है, ये चार पंखुडियाँ जो आपके अंदर है, वो आपके दिमाग में खुलनी चाहिए। वह आपके हृदय से दिमाग में आती हैं और यह तब होता है जब आप भगवान क्या है ये पूरी तरह से समझेंगे। पूरी तरह जानेंगे कि भगवान क्या है? यह उस समय होता है जब आपको सत्य का ज्ञान आना शुरू होता है। परन्तुजब तक ये चारो पंखुडिया नहीं खुलती तब आप नीचे भी गिर सकते है। (महाशिवरात्री पूजा १६-२-१९९१) जब आप मध्य में है तब आप साक्षी हैं, आप साक्षी बनने लगते हैं। तब आप अपने आप को मध्य में स्थिर करते हैं। क्योंकि कुछ लोग बाईं ओर से शुरु होते हैं, फिर दाएँ चले जाते हैं, फिर वे इतने अहंकारयुक्त हो जाते है कि उन्हे संभालना मुश्किल हो जाता हैं । ह २८ |कं ० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-30.txt लेकिन अगर आपमध्य में हैं, यानी कि चौथी अवस्था, मध्य मेंरहना है। तुर्याचौथा आयाम है। अगर आप वहाँ रहेंगे तो आप साक्षी बन सकते हैं और वहीं स्थिति है जब आप हर क्षण हर चीज का, हर कार्य का, हर मैत्री का, हर संबंध का, हर समझ का आनन्द प्राप्त करने लगते हैं। (भाषण, ब्रॉम्पटन स्कोअर, लंडन ७-२-८१) "तो आदि कुंडलिनी के साथ संबंध यह है कि वह आदि कुंडलिनी का प्रतिबिम्ब है। अब प्रतिबिम्ब मान लीजिए कि आपने भारतीय दर्पण लिया, अपना चेहरा उसमें देखा , आप देखेंगे कि आप दुनिया के कोई भी तुल्यरुप नहीं दिखेंगे। बह आपके तीन तुकड़ा कर देती है, शायद, या कुछ भी लेकिन अगर आप बेल्जियम के शीशे को लेंगे तो प्रतिबिम्ब सही होता है, पूरा और फिर भी तीन आयामीय नहीं होता है, लेकिन यह चार आयामीय प्रतिबिम्ब होता हैं चार आयामीय है जिसे हम 'तुर्या' कहते हैं, और वह चार आयामीय व्यक्तित्व जो आप प्रतिबिम्बित करते हैं वह आपके इच्छा स्वरूप परावर्तन से होता हैं। इच्छा ही परावर्तक है और प्रतिबिम्ब पूर्ण हैं । (श्री आदि कुंडलिनी पूजा, ११-८-१९९१ तुर्या चौथी अवस्था है। चौथी अवस्था में आप इन तीन गुणों पर शासन करतें हैं। आप सभी तत्वो को नियंत्रण में रखते हैं । इस स्थिति में आप सिर्फ कहते है और काम होता है। आपने देखा कल क्या हआ हमारे साथ । वह काम कर देता है, आप तीनो गुणों के अधिकारी बन जाते है। जैसे, मैं आपको वर्णन करती थी कि पहले आप कार में बैठते है और कोई दूसरा आपको चलाता हैं। वह आपके बाईं और दाईं तरफ का प्रयोग करता हैं, या आप कह सकतें है, ब्रेक और एक्सलरेटर और कार को चलाया जाता हैं। फिर बह आपको सिखाने लगता है कि कैसे चलाना है। फिर आप सीखने लगते हैं। आपके बायाँ और दायाँ याने की एक्सलरेटर और ब्रेक का प्रयोग करके । फिर एक तीसरी स्थिति आती है जब आप वाहन चालक बन जातें हैं। लेकिन आपको अब भी पीछे बैठे हुए शिक्षक की चिंता हैं, कि आप अब भी कुछ भूल तो नहीं कर रहें हैं या कुछ गलत कर रहें हैं। लेकिन फिर एक चौथी अवस्था आती है जब आप गुरू बन जातें हैं। आप दूसरों को चलाते है। आज्ञा दो किसी को भी, आज्ञा दो सूर्य को, आज्ञा दो चंद्र को, आज्ञा दो। आज्ञा माने सिर्फ कहना, इसका मतलब यह नही कि किसी के भी उपर राज्य करना। सिर्फ इच्छा। सिर्फ कहना हैं, और काम हो जाता हैं। अब ये चौथी स्थिति को 'तुर्या' दशा कहते हैं। फिर एक पाँचवी स्थिति हैं जिसे मैं नाम देना नहीं चाहती क्योंकि आप उसी को पकड़ लेंगे। वे इतनी साफ बनी हुई नहीं हैं। वे एक 1 दूसरे से संयुक्त हो जातें हैं और वे मिश्रण हैं । लेकिन तुर्या अवस्था में जब आप पूरी तरह से सिद्ध हो जाते है फिर आप पाँचवी अवस्था में कूद जाते है, जहाँ आप कुछ नहीं करते है, आप संकल्प भी नही करते है। आप कुछ निश्चय करते या कहते नहीं। कुछ आप के मुँह से निकल पड़ता है, या निकले भी न, वह काम हो जाता हैं। वह एक अवस्था है। वहाँ आप पूरी स्थिति को संभाल लेतें है, यहाँ बेठे हुए। छठी अवस्था - यहाँ बैठे बैठे, आप हर एक चीज जानते है। फिर आप ना केवल उस पर अधिकारी होते है, लेकिन आप उसके अंदर हैं, "मैं आपके (सबकांशस) अचेत अवस्था या सामूहिक अचेतन या अतिचेतन जा सकतें हैं । अब उदाहरण में में ये कहती (सुप्राकांशस) अवस्था, इन सब भागों में जा सकती हूँ, अगर में चाहूँ तो।" ये तब होता है जब आप इसके उपर परिपूर्णता से अधिकार पाते हैं, फिर आप उसमें प्रवेश कर सकते हैं। जब आप अधिकारी है तब आप प्रवेश करतें है। जब आप इस घर के अधिकारी हैं, तब आप कहीं भी प्रवेश कर सकतें है । फिर आती है एक सातवी अवस्था और वह ऐसी स्थिती है जहाँ आप, सिर्फ आप है। आपकी उपस्थिति ही काफी है, सिर्फ वहाँ होना। कुछ नहीं होता है, सिर्फ आप अपने लिए है। अब आप ये सातों स्थिति तक पहुँच सकतें हैं, कारण-मैं उसके परे खड़ी हूं और मैं पहले स्थिति में उतरकर आई हैँ। मैं आपको खीचकर बाहर निकालने की कोशिश कर रही हूं। अगर आप मुझे नीचे नहीं खिचेंगे तो मैं आपको बहुत जल्दी उपर उठा सकती हैं। इसलिए आपसे एक ही प्रार्थना है कि मुझे नीचे नहीं खींचिए। (ओल्ड आल्सफोर्ड सेमीनार, यु.के., प्रवचन, १८-५-१९८०) २९ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-31.txt आदिशक्ति.... परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश जो भी इस आदिशक्ति का प्रतिबिंब ही आपके अन्दर कुण्डलिनी हैं जो भी इस सृष्टि में रचना हुई है और अन्य सृष्टियों में, वह आदिशक्ति का ही काम हैं। अब बहुत सारे लोग मानते हैं कि सृष्ठी की भगवान एक है, ये सत्य है कि भगवान एक ही है-परमात्मा, लेकिन उनके पास अपनी शक्तियाँ है। जिसे वे साकार कर सकतें है किसी भी व्यक्ति में और अपने आप को प्रत्यक्ष प्रकट कर सकतें हैं। इसलिए सब से पहले उन्होंने आदिशक्ति की रचना की । जब वह प्रकट हुई, एक ध्वनि निकली जिसे हम 'ॐ' कहते है। लोगों से या जो आप कहना चाहतें है, वह आदि ध्वनि ये तीन शक्तियाँ-उसी ध्वनि से निकली, जैसे आ ऊ,मा (अ ऊ म) ॐ ( ओम रचना हुई ) । आदिशक्ति ही है जो परमात्मा की इच्छाशक्ति का साकार रुप धारण करती हैं। परमात्मा की इच्छाशक्ति उनकी कृपा से होती हैं और स्वयं को व्यक्त करने के लिए, स्वयं को प्रकट करने के लिए, स्वयं के प्रतिबिम्ब के लिए। मैं कहूँगी कि वे अपने अकेलेपन से थक गए होंगे इसलिए उन्होंने एक साथी के रचना है औट अन्य का विचार किया होगा जो उनकी इच्छाओं को प्रकट कर सकें। सृष्टीयों की इस प्रकार उनकी शक्ति उनसे अलग हुई और उनकी कृपा, उनकी सृष्टि रचना की इच्छा शक्ति को साकार स्वरुप दिया। संस्कृत में इसे 'चित्विलास' कहतें चित्त लगाना ही ध्यान हैं चित्त स्वयं में ध्यान हैं। चित्त स्वयं में आनंद हैं और उस चित्त के आनंद को प्रकट करने के लिए, वह सभी सृष्टियों की रचना की, इस पृथ्वी माता की रचना की, हैं आदिशक्ति का आनन्द। वो आदिशक्ति ये सब सृष्टि की रचना की, वह सभी जानवरों की रचना की, वह सभी मनुष्य की रचना की और सभी सहजयोगियों की रचना की । ये सारी सृष्टि इसी तरह बनी। अब इस समय, कोई पूछ सकता है, "क्यों उन्होंने सीधे ही मनुष्य की रचना नहीं की? वह का ही तो परमात्मा का संकल्प था-सिर्फ मनुष्य का निर्माण करने का लेकिन आदिशक्ति, माँ होने के कारण", उसका रुप प्रकट करने का अपना ही तरीका था। उसने सोचा कि परमात्मा को अपना चेहरा देखने के लिए उसे शीशों की रचना करनी होगी ताकि वे अपनी प्रतिमा देख सकें, वे स्वभाव देख सरकें, वे अपने स्वभाव देख सके और इस तरह से इस लम्बे फैलाव का विकास काम हैं। हुआ। यह विकास इस तरह करना पड़ा क्योंकि उन्हे पता होना था कि वे कहाँ से आए हैं। हमें जानना है कि हम प्रकृति से आए हैं और प्रकृति को भी ये जानना चाहिए कि वह पृथ्वी माता से आई हुई है और पृथ्वी माता की अपनी कुण्डलिनी है और वह भी सिर्फ निर्जीव मिट्टी नहीं हैं, वह जानती है., वह सोचती है, वह समझती है और वह व्यवस्था करती हैं। (कबेला प्रवचन, ८-६-१९९६, सहजपथ न्युजलेटर से अनुवादित) ३० के 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-32.txt मसालों का उपयोग.. भारतीय कुछ २६ अगस्त १९९२, चैतन्य लहरी १९९३, खंड ५, अंक ५ ६ अगस्त १९९२ के दिन नाश्ते के समय श्री माताजी ने कुछ भारतीय मसालों तथा अन्य वस्तुओं के विषय में हमें आदेश दे कर कृतार्थ किया। किसके लिए अच्छी है। वस्तु का नाम घनियाँ बीज: दाँत, जिंगर, पत्ते : शरीर की सुगन्ध को प्राकृतिक रूप से नियमित करते है। दाँत तथा जिगर (जीरा, धनिया और अजवाइन वायु रोगों के लिए अच्छे हैं।) जीरा हल्दी चर्म तथा जिगर जिगर अदरक उच्च रक्तचाप और हृदय रोग (लहसुन सुधा से आया इसलिए यह हृदय के लिए अच्छा है। लहसुन भूत आदि भी इससे ड्रते है।) विशुद्धि (पुरे विश्व में उपयोग किया जाने वाला यह शाश्वत पौंधा है। तुलसी श्री कृष्ण को यह बहुत तजिशिशती पसंद है।) तुलसी के एक ताजे पत्ते में लपेट कर एक काली मिर्च प्रतिदिन एक बार लेने से आप जुकाम से बच सकेंगे। कालीमिर्च उष्णता प्रदान करती है। गर्म मसाला उष्णता प्रदायक है। यह लगभग एक दर्जन मसाले का मिश्रण है। मिर्च विटामिन सी, कब्ज की दवा है। विटामिन ए, हृदय के लिए गुणकारी प्याज विटामिन सी नीबू सुखी मछली कब्ज़ की दवा है। (परन्तु जिगर के लिए लाभदायी नही) मन्जनी फूल अत्यंत शीतल, कैलाश जीवन की तरह श्री माताजी ने हमें इलायची के बीज चांदी के वर्क में लपेट कर दिए । तुरंत ही हमारे शरीर का चांदी वर्क दाँया भाग शीतल हो गया। अत्यंत ठण्डी (छिलका नहीं खाया जाना चाहिए) इलायची बीज : गर्म मसाले तथा चाय को संतुलित करने के लिए ३१ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_II.pdf-page-33.txt जैसे कमल हैं, किसी भी गंदे बिल्कुल सड़े हुए जगह में पैदा होता है । औट वह सबमें से निकल के फिर जब खिखिलता है, तो र सुरभित कर देता है। भत हो करके सारा वातावरण को भी सु इसी प्रकार सहजयोग की विशेषता है। आप भी उसी कमल जैसे है । न होते तो आप सहज में न आते