चैतन्य लहरी मई - जून २00८ न १. का ऊ ३ कु पा यम प्रकाशक + निर्मल ट्राँसफोर्मेशन प्रा. लि. द्ासिफ प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - फोन : ०२०- २५२८६७२०, २५२८५२३२ ४११ ०२९ पर ४. इस अंक में आपको क्षमा करनी चाहिए (ईस्टर पूजा) १) ध्यानधारणा एवं प्रार्थनाएँ २) ८ ३) श्री भैरवनाथ पूजा - १२ ४) प्रश्नोत्तर १४ ५) पीलिया व अधिक गर्म जिगर का आहार १५ १६ श्री बुद्ध पूजा ६) आपको लोगों तक पहुँचना है -२० ७) ८) तीन नाड़ियाँ और चक्रों का महत्त्व २२ ९) विशेष उत्तरदायित्व -२३ -- १०) श्री विष्णुमाया २४ ११) मिथ्या -- - २६ १२) बच्चों पर श्री माताजी की वार्ता २८ ८ र शनद कि भी क आपको क्षमा करना चाहिए (ईस्ट पूजा ) पूजा) प्राईड होटेल - २३ मार्च ०८, अनुवादित री HAPPY EASTER ४ न. मस्ते, आज जो भी यहाँ पूजा के लिए उपस्थित हैं मुझे पता नहीं आप लोग कैसे आ पाए वैसे भी, आज का दिन बड़ा ही महत्त्वपूर्ण दिन है हम सब के लिए, क्योंकि आप जानते हैं कि किस तरह ईसा की मृत्यु हुई। उन्हे सूली पर चढ़ाया गया और फिर वह गुजर गए। हमे भी दूसरों को क्षमा करना चाहिए। ऐसा करना लोगों को बड़ा ही कठिन लगता है और फिर अगर वह नाराज हैं तो वह नाराज है। वे क्षमा नहीं कर सकते। फिर आप सहजयोगी नहीं है। सहजयोगियों को अवश्य क्षमा करना चाहिए। ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ईसा मसीह से यही शक्ति हमें प्राप्त हुई है - क्षमा करना। मानव गलतियाँ करता है, यह उसके जिंदगी का एक हिस्सा है। पर सहजयोगी होने के नाते आपको समझ लेना चाहिए कि आप को क्षमा करना है। क्योंकि गुस्सा होने से भी यह कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । इसीलिए जो भी व्यक्ति गलती करता है आप के मुताबिक या फिर भगवान के मुताबिक, उसे आपको क्षमा कर देना चाहिए। क्षमा का गुण इतना महान और संतोषजनक है कि आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। अगर आप लोगों को माफ कर दोगे तो आप अत्यन्त शुद्ध हो जाओगे क्योंकि अपने अन्दर जो गंदगी या गुस्सा है वह बाहर निकल जाएगा । इसलिए क्षमा करना मनुष्य का सबसे बड़ा वरदान है। हालांकि ईसा भी यही कहते थे, 'मैं उन्हें क्षमा करता हूँ क्योंकि उन्हें पता नहीं कि वे क्या कर रहें हैं।' अगर ईसा का ऐसा कहना है तो फिर आपका क्या? हम सब साधारण मनुष्य हैं और अगर हम कोई गलती करेंगे तो फिर लोग गुस्सा हो जाएंगे और नाराज हो जाएंगे। पर आप के लिए सब से अच्छी बात है-क्षमा करना। उसके लिए क्षमा करें जो कार्य नहीं किया जाना चाहिए था। यह ईसा का सबसे बड़ा गुण था कि वे जानते थे कि किस तरह से क्षमा करना चाहिए। उन्होंने उन्हें भी क्षमा किया जिन्होंने भयंकर गलतियाँ की। फिर भी उन्हें क्षमा किया क्योंकि वे उनसे प्यार करते थे । और आप की जो भी शक्तियाँ हो, यही है जो हमें भी करना है - क्षमा । आज उस के लिए विशेष दिन है, एक विशेष दिन क्षमा के लिए । और इसलिए मैंने आप ने जो भी कहा है कि आप जो भी सोचे कि बहुत देर हो चुकी है, पर हमें मिलना था क्योंकि मुझे समय गवाना नहीं था। क्षमाशीलता उन लोगों से आती है जो बड़े उदार होते हैं, अच्छे हृदय के होते हासिल किया हैं। यद्यपि हर कोई गलती करता है, तो हम भी गलती कर सकते हैं, और इसका मतलब है कि हमें क्षमा करने का अधिकार है और क्षमा करने के लिए हृदय भी। अगर आप के पास हो अपनी वह नहीं है तो आप सहजयोगी नहीं है। आप को क्षमा करना सीखना है और बिना किसी शर्त के आप को क्षमा करनी है। जिन्दगी में, दि० आज का दिन बड़ा विशेष है क्योंकि ईसा ने भी यही किया था। आप कह सकते हैं कि वे एक सबसे अधिक शक्तिशाली देवता थे, सबसे अधिक शक्तिशाली। वे कुछ भी कर सकते थे और वे उन्हें सजा दे सकते थे-सबको, उनके दुराचार के लिए । पर उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा कि, मैं क्षमा करता हूँ और उन्होंने भगवान से भी कहा कि 'उन्हें क्षमा कर दें।' आप कोई भी पदाधिकारी हों अत: आप की जो भी शक्तियाँ हों, आप ने जो भी हासिल किया हो अपनी जिन्दगी में, आप कोई भी पदाधिकारी हो पर आप को सीखना चाहिए कि किस तरह से क्षमा करना चाहिए, वरना आप अपनी जिन्दगी में कहीं के नहीं रहेंगे। आप को सीखने का प्रयत्न करना चाहिए- पट आप को क्षमा करना। वह एक बहुत हो महान गुण है। अगर आप क्षमा कर सके तो हर वक्त क्षमा करें । सीखना चाहिए और इसलिए आज मुझे आप सबसे मिलना था और बताना था कि आज का दिन कि किस तरह क्षमा का है। इसका यह मतलब नहीं कि आप बैठकर के सोचने लग जाएं कि आप को कितने लोगों को क्षमा करना है? वह मूर्खता होगी। पर कभी कभी कुछ बातें आप को परेशान करती हैं और आप सोचने लगते हैं कि आप को सताया गया है और आप को क्षमा कटना मुश्किल में ड्राला गया है। वे बस ऐसा सोचते रहते है और आपको पता नहीं कि कितनी शक्तियाँ हैं आपमें और इतनी सब शक्तियाँ होने के बावजूद आप क्षमा नहीं कर सकते। और चाहिए, वटना सबसे महान शक्ति जो आप में है, वह क्षमा की शक्ति है। आप अपनी आज का दिन क्षमा का है। उन लोगों को क्षमा करना है जिन्होंने आप के मुताबिक गलती की है या फिर आप से सख्त रहे हों। कृपया याद करने की कोशिश करें कि आप अभी जिन्दगी में भी और कितने लोगों से नाराज हैं और उन्हें क्षमा कर दें। ऐसा करने पर आप ने उन्हें उनकी सजा दे दी। अगर आप उन्हें दिल से माफ कर दें तो फिर समझ लीजिए कि आप ने उन्हें सजा कहीं के नहीं दे दी। आप ने उन्हें वो वापिस कर दिया जिसके वे योग्य थे या जिसे चाहते थे इसलिए ऐसी कोई बड़ी मुश्किल बात नहीं है - क्षमा करना । पर लोग सोचते है कि बड़ा कठिन होता है माफ करना क्योंकि उन्हें अपने बारे में समझ होती है की वे कुछ महान है। और फिर वे सोचते हैं कि किस तरह से वे क्षमा कर सकते हैं ? रह जाएंगे । मुझे पता नहीं कि कौन सी बातें आपको परेशान करती हैं, कुछ भी आप को परेशान हमें अपनी कर सकता है, आखिरकार आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। आप ने अपना पुर्नजन्म पाया है, आप लोग विशेष हैं। इसलिए आप में विशेष गुण होना चाहिए और वह विशेष गुण है क्षमा का । शक्ति को यह क्षमा करना, न कि याद करते जाना कि किन बातों से आप को नाराज होना है और कौन सी बातों से परेशान, बस केवल याद करें कि किन सब बातों को क्षमा करना है। सोचने में नहीं बस, केवल क्षमा करें ! किसलिए? ये बड़ी सरल सी बात है। समझ लीजिए कि आप को किसी ने थप्पड़ मारा। ठीक है, अगर कोई मुझे थप्पड मारें तो मुझे क्या करना चाहिए? गरवाँना चाहिए क्या मुझे भी उसे थप्पड़ मारना चाहिए? नहीं। तो फिर क्या मुझे उसे पुछना चाहिए कि आपने मुझे थप्पड क्यों मारा? नहीं। फिर मैं ये सोचूंगी कि वह नासमझ, मूर्ख था जो उसने ऐसा किया। इससे भी कुछ होनेवाला नहीं है। इसके बजाय आप क्षमा कर सकें तो आप क्षमा करें उस व्यक्ति को जिसने कुछ गलती की हो । आपके लिए ये महत्त्वपूर्ण है कि उसे क्षमा करें क्योंकि इसका कोई परिणाम नहीं होगा। एक बार आपने क्षमा किया तो इसका कि क्या गलत है, उसने क्या आप पर, आप की अच्छाई पर या पवित्रता पर कोई असर नहीं पड़ेगा। किया और पर मुझे लगता है कि मनुष्य को सामान्य तौर पर क्षमा करने में बड़ी कठिनाई होती है। सामान्यतीर पर..... आपको उसके पर आप सब आत्म साक्षात्कारी हैं, आप केवल साधारण मनुष्य नहीं हैं इसलिए मैं आपसे विनती करती हैँ कि आप यह याद रखें कि आप के पास शक्ति है क्षमा करने की। हर उस व्यक्ति को क्षमा करें जिसने भी आपको चोट पहुँचाई हो, जिसने आपको तकलीफ दी साथ क्या हो, जिसने आप को दुःख पहुँचाया हो। हम कितनी दूर तक जा सकते हैं? सिर्फ उसे क्षमा करने की सोचो और फिर आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे, वह बदल जाएगा। उसमें बदलाव । करना ह आएगा और आप भी अपने आप से संतुष्ट हो जाएँगे। यह समझना लोगों के लिए बड़ा कठिन कार्य है पर आप सिर्फ प्रयत्न कीजिए । मैं जो कहती हैँ उसे आप सिर्फ प्रयत्न कीजिए । अगर कोई आपको नुकसान पहुँचाता हो, आप उसे सिर्फ क्षमा कीजिए और प्रतिक्रिया देखिए, उस व्यक्ति की प्रतिक्रिया और स्वयं को भी देखिए क्या होता है। पर अगर आपको नाराजगी और मूर्खता और जो भी हो उसका बोझ उठाना हो, तो आप अनावश्यक चीज़ों से यह सब हमें नहीं करना है। उसे अकेला दब जाएंगे। छोड़ दें और हमें अपनी शक्ति को यह सोचने में नहीं गवाँना चाहिए कि क्या गलत है, उसने क्या किया और आपको उसके साथ क्या करना है। यह सब हमें नहीं करना है। उसे अकेला छोड़ दें और आप सिर्फ क्षमा करें और कहें कि मैेंने क्षमा किया। आप सिर्फ क्षमा ईसा को देखिए, इतने शक्तिमान व्यक्ति, इतने शक्तिमान भगवान और ज़ब उन्हें सूली पर चढ़ाया गया तब भी उन्होंने उन लोगों के लिए क्षमा माँगी। उन्होंने ऐसा क्यों किया ? क्योंकि उस में शक्ति है। यह कहना कि मैंने क्षमा किया बहुत ही प्रभावशाली होता है। आप अपनी शक्ति नहीं खोएंगे, इसके विपरीत आप अपनी शक्ति के और अधिक उँचाई तक पहुँच जाएंगे, आप अपने व्यक्तित्त्व में अधिक ऊँचाई पर पहुँच जाएंगे। सिर्फ, क्षमा करें। करें और कहें कि मैंने क्षमा किया। बस, यह कहना बड़ा ही आसान है कि "मैंने क्षमा किया"। कर स सक मा यही मेरा तरीका है क्योंकि लोगों के अपने ही तौर-तरीके रहते है और वे जो चाहें करते हैं पर मुझे इस बात पर कभी गुस्सा नहीं आता है। मैं उस बात से नाराज नहीं होती हूँ और ना ही मुझे उस बात की परवाह है। मैं सिर्फ कहुँगी, मैंने क्षमा किया, बस और आपको आश्चर्य होगा, मेरे अन्दर इससे बड़ी मदद हुई। सही में, बहुत ही मदद हुई। बा बा तो यह एक बड़ा गुण है जिसके लिए आज का दिन बड़ा महत्त्वपूर्ण है। सूली पर ईसा ने कहा हे भगवान, उन्हें क्षमा करों, क्योंकि उन्हें पता नहीं कि वेक्या कर रहेंहैं।' सूली पर, जहाँ पर उनकी मृत्यु हो रही थी। उन्होंने ऐसा कहा और इससे हमें सीखना है - क्षमा करना। यह अपनी भलाई के लिए है ना कि दूसरों के लिए । इससे हमारी मदद होगी। अगर आपने क्षमा किया तो अपने लिए यह अंत: से बहुत ही उपयोगी संदेश है। यह संदेश आज के लिए और हमेशा के लिए है, हमेशा के लिए। यदि अगर आप बारबार किसी से गुस्सा हो जाएँ तो सिर्फ कहिए कि 'मैंने क्षमा किया' । आप देखोगे कि यदि कोई आपको दुःख दे रहा है या सता रहा है या कोई नुकसान पहुँचा रहा है तो आप की प्रतिक्रिया कैसे होगी? सिर्फ क्षमा करो। सिर्फ क्षमा करो । सिर्फ यही एक रास्ता है। इसलिए आज का दिन हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । मुझे बहुत आनन्द हो रहा है कि कुछ लोग यहाँ हैं और इसलिए भी की मैं आप से बात कर पायी। धन्यवाद ! ंः पम S0C:,- ध्यान धारणा एवं प्रार्थनाएँ (श्री माताजी द्वारा कराई विधि : शुडी कैम्प, इंग्लैंड १२.६.८८, के प्रवचन में का परिच्छेद) को ात वि वतने भयानक समय से हम गुजर रहे हैं। इससे मुकाबला करना आवश्यक है। अब तक लड़े गए युद्धों से यह कार्य से यह कहीं कठिन है । एक भयानक विश्व की सृष्टि हो चुकी है और हमने इसे कहीं कठिन है। मानव द्वारा किए गए सभी संघर्ों परिवर्तित करना है। यह अति कठिन कार्य है। इसके लिए आपको अत्यन्त सच्चाई से कार्य करना होगा । मुझे विश्वास है कि यह घटित होगा। इसे घटित होना होगा। एक मस्तिष्क तथा हृदय से, सामुहिक रूप में आपने यह प्राप्त करना है। मैं क्या बलिदान करूँ? मुझे क्या करना चाहिए? किस प्रकार मुझे सहायता करनी चाहिए? मेरा क्या योगदान है? काश, मैं अपने जीवनकाल में वे दिन देख पाती। अत: आज हमें अन्तर्दर्शन करना है । तो क्या हम ध्यान करें? कृपया आप सब अपनी आँखे बंद कर लीजिए । जैसे हम जन कार्यक्रम में करते हैं वैसे ही ध्यान करेंगे। अपना बायाँ हाथ मेरी ओर करके शरीर के बायें भाग में आप सब कार्य करेंगे। सर्वप्रथम अपने हृदय पर दायाँ हाथ रखना है। हृदय में शिव का निवास है, आत्मा का स्थान है। अत: आपने अपनी आत्मा का धन्यवाद करना है कि इसने आपके चित्त को प्रकाशमय किया है। क्योंकि आप संत है अत: जो प्रकाश आपके हृदय में हुआ है उससे आपने पूरे विश्व को ज्योतिर्मय करना है। अत: कृपया अपने हृदय में प्रार्थना कीजिए कि : श्री माताजी, परमात्मा के प्रति मेरे प्रेम का यह प्रकाश पूरे विश्व में फैले। अपने प्रति पूर्ण सच्चाई तथा समझदारी रखते हुए कि आप परमात्मा से जुड़े करेंगे वह पूरी होगी। हैं और पूर्ण आत्मविश्वास से आप जो इच्छा हुए अपना दायाँ हाथ अपने पेट के उपरी हिस्से पर, बाईं ओर रखें । यह आपके धर्म का केन्द्र है। यहाँ आपको प्रार्थना करनी है कि प्रार्थना .... श्री माताजी, विश्व निर्मला धर्म पूरे विश्व में फैले । हमारा धार्मिक जीवन तथा धर्मपरायणता लोगों को प्रकाश दिखाए। अपनी घर्मपरायणता लोगों को देखने दें ताकि वे विश्व निर्मला धर्म स्वीकार करें जिसके द्वारा उन्हें ज्ञान, हितैषिता, उच्च जीवन तथा उत्थान की इच्छा प्राप्त होगी। अब अपना दायाँ हाथ अपने पेट के निचले हिस्से पर, बाई ओर रखें। इसे थोड़ा सा दबायें। यह आपकी शुद्ध विद्या का केंद्र हैं। सहजयोगी होने के नाते यहाँ पर आप कहें कि :- परमात्मा की कार्यप्रणाली का पूर्ण ज्ञान हमें हमारी श्री माताजी ने प्रदान किया है। हमारी सूझबूझ तथा सहनशक्ति े अनुसार श्री माताजी ने हमें सारे मंत्र तथा शुद्ध विद्या दी है। हम सब को इसका पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। मैंने देखा है कि, यदि पति अगुआ है तो पत्नी को सहजयोग का एक शब्द भी नहीं आता। यदि पत्नी को सहजयोग का ज्ञान है तो पति इसके बारे में कुछ नहीं जानता। प्रार्थना कीजिए कि श्री माताजी, मुझे इस ज्ञान में निपुण कीजिए ताकि मैं लोगों को आत्मसाक्षात्कार दे सकूं, तथा उन्हें दैवी-कानून, कुण्डलिनी तथा चक्रों के विषय में समझा सकूं श्री माताजी कृपा कीजिए कि मेरा चित्त सांसारिक वस्तुओं की अपेक्षा सहजयोग में अधिक हो। अब दायाँ हाथ पेट के उपरी हिस्से में, बाईं ओर रखें। आँखे बंद रखें। पेट को हाथ से थोड़ा सा दबा कर रखें। यहाँ पर कहें कि श्री माताजी ने मुझे आत्मा प्रदान की है, जो कि मेरी गुरू हैं। पूर्ण हृदय से कहें श्री माताजी, मैं स्वयं का गुरू हूँ। मुझमें असंयम न हो, मेरे चरित्र में गरिमा और आचरण में उदारता हो। अन्य सहजयोगियों के लिए मुझमें करुणा तथा प्रेम हो। श्री माताजी मुझ में बनावटीपन न हो। परमात्मा के प्रेम तथा उसके कार्यों का गहन ज्ञान मुझे हो ताकि जब लोग मेरे पास आयें तो मैं उन्हें प्रेम तथा नम्रतापूर्वक सहजयोग के विषय में बता सकूं और यह महान ज्ञान उन्हें दे सकूं । अब अपना दायाँ हाथ अपने हृदय पर रखें। यहां पूर्ण हृदय से कहें :- श्रीमाताजी, आनन्द तथा क्षमा के सागर का अनुभव आपने हमें प्रदान किया। अपनी ही तरह अत: क्षमाशीलता आप ने हमें दी। श्री माताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । कृपा करके मेरे हृदय को इतना विशाल कीजिए कि पूरा ब्रह्माण्ड इसमें समा जाए। मेरा प्रेम आपके नाम का गुंजन करे। मेरा हर श्वास आपके प्रेम की सुन्दरता की अभिव्यक्ति करे। अब आप अपना दायाँ हाथ बाईं विशुद्धि की ओर से ले जाकर गर्दन के मध्य में पीछे की ओर मध्य विशुद्धि चक्र पर रखें । पूर्ण विश्वास के साथ कहें : मैं कपट तथा दोष से लिप्त नहीं रहूँगा । अपने दोषों को मैं छिपाऊँगा नहीं, उनका सामना करके उनसे मुक्त हुँगा। मैं दूसरों के दोष नही ढूँढूंगा। अपने सहजयोग के ज्ञान द्वारा उन्हें दोषमुक्त करुँगा (हमारे पास चुपके चुपके दूसरों के दोष दूर करने, के बहुत से तरीके है) श्री माताजी मेरी सामुहिकता को इतना महान बनाइए कि पूर्ण सहजयोग जाति मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरा घर तथा मेरा सर्वस्व बन जाएं क्योंकि हम सबकी एक ही माँ है। अत: मुझमें पूरी तरह तथा अन्तर्जात रूप से यह भाव जागृत हो जाए कि मैं पूर्ण का ही अंग प्रत्यंग हूँ, मुझे पूरे विश्व की समस्याओं को जानने की तथा अपनी शुद्ध इच्छा तथा शक्ति से उनका समाधान करने की चिंता हो। श्री माताजी कृपा करके हमें अपने हृद्य में, अन्तर्जात रूप से पूरे विश्व की समस्याओं को जानने तथा उनके कारणों को जड़ से समाप्त करने की भावना मुझे प्रदान कीजिए। मुझे इन समस्याओं के मूल तक पहुँचाइये ताकि मैं अपनी सहजयोग तथा सन्त सुलभ शक्तियां द्वारा इन्हें दूर करने का प्रयास करूँ। अब अपने दायें हाथ से आप अपने कपाल को पकड़िये। यहाँ आपको यह कहना होगा कि : श्री माताजी, मैं उन सब लोगों को क्षमा करता हूँ, जो सहजयोग में नही आये हैं, जो अभी परिधि-रेखा पर हैं, जो आते है और जाते हैं, जो कभी सहजसागर के अन्दर कूदते हैं और कभी इससे बाहर। परन्तु सर्वप्रथम में सारे सहजयोगियों को क्षमा करता हूँ क्योंकि वे सब मुझसे कहीं अच्छे हैं। मैं उनके दोष खोजने की चेष्टा करता हूँ पर वास्तव में में उन सबसे तुच्छ हूँ। मुझे सबको क्षमा करना हैं क्योंकि मुझे अभी बहुत दूर जाना हैं। में अभी बहुत तुच्छ हूँ। मुझे स्वयं को सुधारना हैं । यह नम्रता हममें आनी चाहिए, अत: आपको यहाँ कहना होगा कि - श्री माताजी, मेरे हृदय की सच्ची नप्रता मेरे अन्दर क्षमाभाव उत्पन्न करें ताकि में वास्तविकता, परमात्मा तथा सहजयोग के प्रति नतमस्तक हो जाऊँ। अब आप अपना दायाँ हाथ सिर के पीछे के भाग पर रखें । सिर को अपने हाथ पर पीछे की ओर झुका लें। यहाँ पर आप कहें कि श्री माताजी, अभी तक आपके प्रति हमने जो भी अपराध किये हैं, हमारे मस्तिष्क में जो भी बुराई आती है, जो भी तुच्छता आपको दिखाई है, किसी भी प्रकार से आपको दुःख पहुँचाया है या आपको चुनौती दी है, तो कृपा करकें हमें क्षमा कर दीजिए । आपको क्षमा मांगनी पड़ेगी। अपने विवेक से आपको जानना चाहिए कि मैं क्या हूँ। मुझे बार-बार यह बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । ट अब सहस्रार पर आपको मेरा धन्यवाद करना होगा अपना दायाँ हाथ सहस्रार पर रखकर सात बार घड़ीकी सुई की दिशा में इस प्रकार घुमाएं कि सिर की चमड़ी भी हल्की-हल्की घूमें सात बार मेरा धन्यवाद करें । कहें कि :- १. श्री माताजी आत्मसाक्षात्कार प्रदान करने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटिप्रणाम । २. श्री माताजी हमारी महानता हमें समझाने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । to ० ३. श्री माताजी परमात्मा के सभी आशीर्वाद हम तक लाने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ४. श्री माताजी हमें तुच्छता से उठा कर उच्च स्थिती पर लाने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ५. श्री माताजी जो आश्रय आपने हमें प्रदान किया तथा आत्मोत्रति के लिए जो सहायता आपने कृपा करके हमें दी उसके लिए हम हृदय से आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ६. श्री माताजी हम हृदय से आभारी हैं कि आप पृथ्वी पर अवतरित हुए मानव जन्म लिया और हम सब के उत्थान के लिए घोर परिश्रम कर रहे हैं । आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ७. श्री माताजी हमारा रोम रोम आपका ऋणी है। आपको कोटि-कोटिप्रणाम । ११ भैरवनाथ श्री पजा में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहजयोगी की क्षमता है। हर नकारात्मकता ६ अगस्त १९८९, कारलेट, इटली आजहम श्री भैरवनाथ की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। मेरे विचार में हमने श्री भैरवनाथजी, जो कि ईड़ा- नाड़ी पर हैं और उपर-नीचे की ओर विचरण करते हैं, का महत्त्व नहीं समझा है। ईड़ा-नाड़ी चन्द्र नाड़ी है। अत: यह स्वयं को शांत करने का मार्ग है और भैरवनाथजी का महत्त्व हमें शांत करने का है। उदाहरणतया अहं और जिगर की गर्मी ही हमारे क्रोध का कारण है। जब मनुष्य अत्याधिक क्रोध में होता है तो श्री भैरवनाथ उसे दुर्बल बनाने के लिए चाल चलते हैं। वे श्री हनुमान जी की सहायता से उस क्रुद्ध मनुष्य को इस सत्य की अनुभूति कराते हैं कि क्रोध की मूर्खता में कोई अच्छाई नहीं है। |वे। एक वाम-तरफी व्यक्ति सामूहिक नहीं हो सकता। एक उदास, अप्रसन्न तथा चिंतित व्यक्ति के लिए सामूहिकता का आनन्द ले पाना अति कठिन है। जबकि एक क्रोधी, राजसिक व्यक्ति दूसरों को सामूहिकता का आनन्द लेने नहीं देता। परन्तु स्वयं सामूहिकता में रहने का प्रयत्न करता है जिससे उसका उत्थान हो सके। ऐसा व्यक्ति केवल अपनी श्रेष्ठता को ही दिखाना चाहता है। अत: वह सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इसके विपरीत जो व्यक्ति हर समय खिन्न है और सोचता है कि मुझे कोई प्यार नहीं करता, कोई मेरी चिन्ता नहीं करता, और जो हर समय दूसरों से आशा रखता है, वह भी सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इस प्रकार के बाम तरफी व्यक्ति को हर चीज़ से उदासी ही प्राप्त होगी। हर चीज़ को अशुभ समझने की नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण हम अपनी बांयी तरफ को हानि पहुंचाते है। श्री भैरवनाथ अपने हाथों में प्रकाशदीप लिए ईड़ा -नाड़ी में ऊपर-नीचे को दौड़ते आपके लिए मार्ग प्रकाशित करते हैं जिससे कि आप देख सको कि नकारात्मक कुछ भी नहीं। नकारात्मकता हम में कई प्रकार से आ जाती है। एक नकारात्मक तत्त्व हुए हे कि "यह मेरा है" "मेरा बच्चा" " ", "मेरी सम्पत्ति" इस प्रकार एक बार जब आप लिप्त हो जाते हैं तो आपके बच्चों में भी नकारात्मक तत्त्व आ जाते हैं। परन्तु यदि आप सकारात्मक होना चाहते हैं तो यह सुगम है, इसके लिए आपको देखना है कि आपका चित्त कहाँ है? हर नकारात्मकता में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहजयोगी की 'मेरा पति' क्षमता है। नकारात्मकता का कोई अस्तित्व नहीं, यह केवल अज्ञानता है। अज्ञानता का भी कोई अस्तित्व नहीं। जब हर चीज़ केवल सर्वत्र व्याप्त शक्ति मात्र है तो अज्ञानता का अस्तित्व कैसे हो सकता है? परन्तु यदि आप इस शक्ति की तहों में छुप जाओ और इससे दूर दौड़ जाओ तो आप कहेंगे कि नकारात्मकता है। उसी प्रकार से जैसे आप यदि अपने आपको एक गुफा में छिपा लें और गुफा को अच्छी तरह बंद करके कहें कि "सूर्य नहीं है।" बो लोग जो सामूहिक नहीं रह पाते या तो बायीं ओर के होते हैं या दायीं ओर के। बायीं ओर के लोग नकारात्मकता में सामूहिक हो सकते हैं जैसे की शराबियों का बन्धुत्व, ये लोग अंत में पागलपन तक पहुँच जाते हैं। जबकि दायीं ओर के लोग मूर्ख हो जाते हैं । यदि एक सहजयोगी सामूहिक नहीं हो सकता तो उसे जान लेना चाहिए कि वह सहजयोगी नही है। भैरवनाथ हमें अंधेरे में भी प्रकाश प्रदान करते हैं क्योंकि वह हमारे अंदर के भूतों और भूत ही विचारों का विनाश करते हैं। श्री भैरवनाथ श्री गणेश से भी संबंधित हैं। श्री गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं और श्री भैरव बायीं तरफ जाकर दायीं तरफ चले जाते हैं। अत: हर प्रकार के बंधन और आदतों पर श्री भैरवनाथ की सहायता से विजय पायी जा सकती है। नेपाल में श्री भैरव की एक बहुत बड़ी स्वयंभू मूर्ति है । वहां लोग बहुत बायीं ओर हैं। अत: वे श्री भैरव से ड्रते है। यदि किसी को चोरी करने की बुरी आदत हो तो उसे छोड़ने २र १२ ु ीिं ा भि ी म 5ा ाग क गुल ১ १० ० ह क मा कम के लिए वह श्री भैरवनाथ के सामने दिया जलाकर उनके सम्मुख अपना अपराध स्वीकार करें तथा इस बुरी आदत से बचने में उनकी मदद लें। अनुचित तथा धूर्ततापूर्ण कार्य करने से भी श्री भैरवनाथ हमारी रक्षा करते है। जिस कार्य को हम बहत ही गुप्त रूप से करते हैं वह भी श्री भैरव से छुपाया नही जा सकता। यदि आप अपने में परिवर्तन नही लाते तो वे आपकी बुराईयों का भांड़ा फोड़ देते हैं। इसी तरह उन्होंने सब भयानक तथा झूठे गुरूओं का भांड़ा फोड़ दिया है। बाद में श्री भेरव का अवतरण इस पृथ्वी पर श्री महावीर के रूप में हुआ । वेनर्क के द्वार पर खड़े रहते हैं ताकि लोगों को नर्क पड़ने से बचा सकें। परन्तु यदि आप नर्क में जाना ही चाहे तो वे आपको रोकते नहीं। अच्छा हो यदि हम अपनी नकारात्मकता से लड़ने का प्रयत्न करें तथा दूसरों का संग पसन्द करनेवाले, दूसरों से प्रेम करनेवाले तथा चुहल पसन्द लोग बन जाएं । दूसरे आपके लिए क्या कर रहे हैं। इसकी चिंता किए बिना आप केवल ये सोचे कि आप दूसरों का क्या भला कर सकते हैं। आओ हम श्री भैरवनाथ से प्रार्थना करें कि वे हमें "हँसी", "आनन्द" तथा "चुहल" की चेतना प्रदान करें। १३ सुज कि ी प्रश्नोत्तर चैतन्य लहरी १९८९ गुरु की व्याख्या क्या है? प्रश्न १ गुरू को अपने शिष्य की पूरी भलाई व धर्मपरायणता का उत्तरदायित्व एक माँ की भाँति लेना पड़ता है। गुरू वह हैं जो अपने शिष्य को ब्रह्म चैतन्य से जोड़ता है। आप उसे खरीद नहीं सकते । यदि आप गुरू को खरीदते हैं तो वह आपका सेवक हो जाता है, गुरू नहीं रह सकता। : राज योग, भक्ति योग, जप योग व सहज योग में क्या अन्तर है? प्रश्न २ -आधुनिक राजयोग, बिना ईंधन को जलाये कार के पहियों को चलाने के प्रत्यन के समान है। राजयोग अपने आप ही सहजयोग में समाविष्ट है। जैसे खाना खाते ही हमारा पाचनतंत्र स्वयं ही क्रियाशील हो जाता है। उसी- तरह जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो आप स्वयं ही ईश्वर से जुड़ जाते हैं। जब आप ईश्वर के साम्राज्य में हैं तो एक बार ही ईश्वर का नाम लेना (ध्यान देना) काफी है । बार बार ईश्वर का नाम जपकर यह मत समझियें कि ईश्वर आपकी जेब में हैं। (उन्मुक्त हँसी) भक्ति दो प्रकार की हो सकती है, पहली -अन्ध भक्ति, दूसरी - जागृत भक्ति अर्थात सहजयोग । ईश्वर से बिना जुड़े भक्ति करना व्यर्थ है। वह एक बिना सम्बन्ध जोड़े फोन करने के समान है। श्री कृष्णजी के कथनानुसार यह अनन्य भक्ति होनी चाहिए अर्थात इस जैसा अन्य कोई हो ही नहीं सकता। : सभी नदियाँ कहीं न कहीं जाकर समुद्र में गिरती है, हमें कैसे ज्ञात होगा कि हम कब पहुँचे? -मैं सोचती हूँ की आप, अपनी यात्रा के गंतव्य पर पहुँच गये हैं। यदि आप सोचते हैं कि आप नहीं पहुँचे, तो अच्छा हो कि आप वापिस जायें और फिर अपनी यात्रा कर यहाँ पहुँचे। (उन्मुक्त हँसी) : गीता का उपदेश अर्जुन को दिया गया था लेकिन इसका आदेश सार्वभौमिक है । सभी ग्रन्थों का उपदेश सारी मानवजाति के लिए है। यह सिर्फ शद्वों तक ही सीमित नहीं अपितु अपने को उसके प्रश्न ३ प्रश्न ४ अनुसार ढ़ालने में है। एक स्थित प्रज्ञ (जागृत आत्मा) तथा गीता के अध्ययनकर्ता या उपदेशक में इतना अन्तर क्यों हैं? क्योंकि आपको एक "स्थित प्रज्ञ" बनना है, उसी कार्य के लिए मैं आई हूँ। : शिक्षा के सम्बन्ध में? प्रश्न ५ उच्च शिक्षा पा लेना ही काफी नहीं हैं। निर्णय क्षमता (Discretion) का भी प्रयोग करना है। क्या ध्यान करना (Meditation) मेस्मेरिजम है? प्रश्न ६ -मेस्मेरिजम में मानव चेतना नहीं रहती । सहजयोग में मानव चेतना जागृत व विस्तृत होती है। वह असीम हो जाती है। मेस्मेरिजम में आपकी आँखे खुली रहती है जिन से आप अचेत अवस्था में पहुँचाये जाते हैं जबकि सहजयोग में ध्यान करते समय आपकी आँखे बन्द रहती हैं। इसलिए उनका प्रयोग मेस्मेरिजम के लिए नहीं किया जा सकता। प्रश्न ७ : महाराष्ट्र में अकाल क्यों? जबकि यह एक योग भूमि है? -क्योंकि यहाँ के लोगों ने चीनी से शराब बनाना शुरू कर दिया है। जो योग भूमि में रह रहे है उन्हें ज्ञान होना चाहिए कि वह क्या कर रहें हैं। जो इस योग भूमि में पैदा हुए हैं उनका बड़ा उत्तरदायित्व है कि आत्म जागृति प्राप्त करें। १४ श्री माताजी द्वारा दी गई सलाह पीलिया व अधिक गर्म जिगट का आहार चैतन्य लहरी १९९०, भाग २, खण्ड १, २ रोज सुबह व शाम एक ग्लास मूली के पत्ते का चीनी के साथ उबाला हुआ रस पीजिए। रोज सुबह एक ग्लास कोकम शरबत पीजिए । २. बॉयें हाथ में पकड़ कर बर्फ कपड़े में लिपटा, जिगर पर रखें और दाँयें हाथ को प. पू.श्री माताजी की तस्वीर की ओर करें। तस्वीर के सामने बिना कोई दिया या मोमबत्ती जलाकर ध्यान करें। ३. बंगाली मिठाईयाँ खा सकते हैं। (रसगुल्ला इ. मलाई बगैर) चरबी, तेल, लाल मिर्च और तला हुआ खाना किसी भी स्थिति में नही खाना चाहिए। ५. मछली और दूध से बने पदार्थ मना है। मठूा (लस्सी) जिससे मक्खन निकाला हो, लिया जा सकता है। ६. टिन का पनीर बिल्कुल मना है। ७. लिव-५२ की गोलियाँ - दिन में ३-४ गोलियाँ दो महीने तक। ८. सब नींबू का सट (Citrus) फल खा सकते है। (आम, सेब, केला, पपीता या चीकू मना है।) ९. गत्ने का रस व गत्ना बहुत अच्छा है। १०. ११. मख्खने मना है। १२. उड़द व अरहर (तुअर) दाल मना है। १३. उबले चावल, सब सब्जियाँ और मूँग ड्राल ठीक है। १४. खाने में मिर्च बिल्कुल नहीं । १५. अदरक, प्याज, आलू, ककड़ी (खीरा) ठीक है। १६. नियमित रूप से वायव्रेटिड चीनी को नींबू में ड्ाल पीना है। आईसक्रीम खाना मना है। १७. आँवले का मुरब्बा अच्छा होता है, और सुबह शाम दोनो बार खाया जा सकता है। १८. खाने पर चाँदी का वर्क अच्छा होता है। १९. धरती के नीचे पैदा हुए सब सब्जियाँ व फल खा सकते हैं। २०. मूँगफली व मूँगफली का तेल मना है। मूँगफली व मूँगफली का तेल गुदों के लिए बहुत खराब है। थोडी मात्रा में सूरजमुखी के तेल में पकाना ठीक है। २१. १५ श्री बुद्ध पूजा शुडी कैम्प, इग्लैंड ३१.५.९२ स. तभी-धर्म किसी न किसी प्रकार की धर्मान्धिता में विलय हो गए क्योंकि किसी को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त न होने के कारण सभी ने अपने ही ढंग से धर्म की स्थापना कर ली। ताओ और जेन भी इसी की शाखाएं हैं। श्री बुद्ध को लगा कि व्यक्ति को जीवन से आगे कुछ खोजना चाहिए। वे एक राजकुमार थे, उनकी अच्छी पत्नी तथा पुत्र थे और उनकी स्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति अति सन्तुष्ट होता। एक दिन उन्होंने एक रोगी, एक भिखारी तथा एक मृतक को देखा। वे समझ न पाए कि ये सारे कष्ट किस प्रकार आए। आप में से बहुत लोगों की तरह से वे भी अपने परिवार और सुखमय जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में चल पड़े। सत्य प्राप्ति के ा= लिए उन्होंने सभी उपनिषद तथा अन्य ग्रन्थ पढ़ ड्राले पर कुछ प्राप्त न कर सके। उन्होंने भोजन त्याग दिया। सभी कुछ त्याग कर जब वे एक बढ़ के वृक्ष के नीचे रह रहे थे तो आदिशक्ति ने उन्हें आत्म साक्षात्कार प्रदान किया। वे विराट के विशिष्ट अंश बनने वालों में से एक थे इसलिए उन्हें आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हुई। उन्होंने खोज निकाला कि आशा ही सभी कष्टों का कारण है। वे न जानते थे कि शुद्ध इच्छा क्या है। इसी कारण वे लोगों को न बता पाये कि कुण्डलिनी की जागृति के द्वारा ही साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। क्योंकि उन्होंने तपस्वी जीवन बिताया था अत: बौद्ध धर्म के अनुयाइयों के लिए तपस्या एक नियम बन गई । बिना भोजन तथा निवास का प्रबन्ध किए श्री बुद्ध अपने साथ कम से कम नंगे पांव चलने वाले एक हजार शिष्य रखा करते थे । उन्हे अपने सिर के बाल मुंडवाने पड़ते थे । सर्दी हो या गर्मी वे केवल एक ही वखतर ओढ़ते थे। उन्हे नाचने गाना या किसी भी प्रकार के मनोरंजन की आज्ञा न थी जिन गांवो में वे जाते थे वहां से भिक्षा मांग कर भोजन एकत्र किया जाता था। वह भिक्षा का भोजन अपने गुरू को खिलाने के बाद वे स्वयं खाते थे । चिलचिलाती गर्मी, कीचड़ या वर्षा में वे नंगे पांव चलते थे। परिवार का वे त्याग कर देते थे । यदि पति-पत्नी भी संघ में सम्मिलित हो जाते तो भी पति-पत्नी की तरह रहने की आज्ञा उन्हें न होती थी। व्यक्ति को सभी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक आवश्यकतांए त्यागनी होती थी बुद्ध धर्मी चाहे वह सम्राट ही क्यों न हों यह सब कुछ करता है। सम्राट अशोक भी बुद्ध धर्मी थे। उन्होंने पूर्ण त्यागमय जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न किया यह अति कठिन जीवन था पर उन्होंने सोचा कि ऐसा जीवन-यापन करके वे आत्म-साक्षात्कार को पा लेंगे। श्री बुद्ध के दो शिष्यों को 1 LII तम साक्षात्कार मिल सका। पर उनका पूरा जीवन कठोर एवं नीरस था। इसमें कोई मनोरंजन न था। सन्तान तथा परिवार को आज्ञा न थी। यह संघ था पर इस सामूहिकता में कोई तारतम्य न था क्योंकि अधिक बोलने की आज्ञा उन्हें न थी। वे केवल ध्यान धारणा तथा उच्च जीवन प्राप्ति के बारे में बात कर सकते थे। यह प्रथा बहत से ध्मों में प्रचलित रही। बाद में त्याग के नाम पर गृहस्थों से धन बटोरने लगे। श्री बुद्ध के समय भी साधकों को त्याग करना पड़ता था। पर यह उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने का श्री बुद्ध का वास्तविक प्रयत्न था। उन्हें पूर्ण सत्य का ज्ञान दिलाने का प्रयत्न था। पर एसा न हुआ। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध के अनुयायी भिन्न प्रकार के हास्यास्पद धर्म बना कर बैठ गए। उदाहरणार्थ जापान में पशुवध की आज्ञा न थी पर मांस खाना निषेध न था, मनुष्य का वध किया जा सकता था। मनुष्य का वध करने में जापानी विशेषज्ञ बन गए। किस प्रकार से लोग बहाने ढूंढ लेते हैं। जब लाओत्से ने ताओ के विषय में उपदेश दिए तो दूसरे प्रकार के बुद्ध धर्म का उदय हुआ । ताओ कुण्डलिनी हैं। लोग न समझ पाए कि वे क्या कह रहे हैं। कठोरता से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने चित्र-कला में अपनी अभिव्यक्ति की । इसके बावजूद भी गहनता में न जा सके। यंगत्जे नाम की एक नदी है जहां सुन्दर पर्वत तथा झरनों के कारण हर पांच मिनट में दष्य परिवर्तित हो जाता है। कहा गया है कि इन बाह्य आकर्षणों की ओर अपने चित्त को न भटकने दें। उन्हें देख कर हमें चल देना चाहिए। ताओ के साथ भी ऐसा ही है। के कला की ओर झुक गए। मूलत: बुद्ध ने कभी भी कला के बारे में नहीं सोचा । उन्होंने कहा कि अन्न्तदर्शन द्वारा अपने अन्तस की गहराइयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। अत: सभी कुछ पथ-भ्रष्ट हो गया। १६ जेन प्रणाली जो जापान में शुरू हुई, ये भी कुण्डलिनी मिश्रित है । इस प्रणाली में वे पीठ पर रीढ़ की हड्डी तथा चक्रों पर चोट मार कर कुण्डलिनी जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। जेन प्रणाली में कुण्डलिनी जागृति की कठोर विधियां खोज निकाली गई । यह कठोरता इस सीमा तक गई कि लोगों की रीढ़ तक टूट जाती है। टूटी रीढ़ में कुण्डलिनी कभी नहीं उठेगी । मैं विदित्म जेन प्रणाली के मुखिया से मिली। वह बहुत बीमार था तथा उसे रोग मुक्त करने के बुद्ध का अर्थ लिए मुझे बुलाया गया। मैंने पाया कि वह तो आत्म साक्षात्कारी था ही नहीं और न ही उसे कुण्डलिनी के बारे में कुछ पता था। मैंने उससे पूछा कि जेन क्या है इसका अर्थ है ध्यान । जेन के बारे में वह इतना भ्रमित था। कई शताद्वियों में उनमें कोई साक्षात्कारी न हुआ। आप कल्पना कीजिए कि कितने सहज में , बिना किसी बलिदान, तपस्या या त्याग के आपको है बोध अर्थात आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ। बुद्ध, ईसा और महावीर आज्ञा चक्र पर तप हैं। तप का अर्थ सत्य को अपने है तपस्या। सहजयोग में तपस्या का अर्थ है ध्यान-धारणा आपको सिर नही मुंडवाना, नंगे पांव नही चलना, भूखें नहीं रहना और न ही गृहस्थ जीवन का त्याग करना है। आप नाच, गा और मनोरंजन कर सकते हैं। मध्य-जाड़ी तंत्र बुद्ध का अर्थ है बोध अर्थात सत्य को अपने मध्य-नाड़ी तंत्र पर जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए बुद्ध बन गए हैं क्योंकि उनका त्याग करना तो मूर्खता थी। यह सब मिथ्या था। संगीत से या नृत्य से क्या अन्तर पड़ता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु विचार उनमें इतने गहन हो गए कि आपको उन पर दया आती है। वे खाना नहीं खाते थे, भूखो रह रह कर वे तपेदिक के रोगियों से भी बुरे प्रतीत होते हैं। जब कि आप लोग सुन्दरतापूर्वक जीवन का आनन्द ले रहे हैं तथा गुलाब की तरह खिले हुए हैं। फिर भी श्री बुद्ध का वह तत्व हमारे अन्दर होना चाहिए। अर्थात हमें तप करना चाहिए। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप भूखे रहें। परन्तु यदि आपको अधिक खाना अच्छा लगता हो तो कम खाना खाने लगे मोक्ष, जागृति एवं उत्थान के लिए बने संगीत का आनन्द लें। हम बन्धनों में इतना जकड़े हुए हैं कि लोग ये भी नहीं समझ पाते कि आत्मा क्या है। परमात्मा के असीम प्रेम की अभिव्यक्ति ही आत्मा है । अब भी हम में बहुत से बन्धन कार्यरत हैं। आप में से कुछ को अपनी राष्ट्रीयता पर बहुत गर्व है। दूसरे लोगों के साथ हम घुल-मिल नहीं सकते। दूसरे लोगों के मुकाबले स्वयं को बहुत ऊँचा समझते हैं । अब आप सर्व व्यापक व्यक्ति हैं। अत: आप में यह मूर्खतापूर्ण मिथ्या सीमाएं कैसे हो सकती हैं। आपके अन्दर ज्योति है और आप जानते हैं कि इस प्रकाश को फैलाने की आवश्यकता है यदि अब भी आप इसे फैलाने में असमर्थ हैं, तो जान लीजिए कि आपको अभी और शक्ति की आवश्यकता है। यह सीखना आपके लिए आवश्यक है कि किस प्रकार अपनी कुण्डलिनी चढ़़ाकर हर समय परमात्मा की शक्ति से जुड़े रहें ताकि निर्विचार समाधि में रहते हुए आप अपने अन्दर गहनता में बढ़े । पट जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए बुद्ध बन गए हैं तयोकि उनका त्याग कटना तो मूर्ता थी। "मेरा" शब्द का शक्तिशाली बन्धन मुझे अब भी सहजयोगियों में मिलता है। पहले पश्चिमी देशों के लोग अपने परिवार, पल्नियों तथा बच्चे की चिन्ता न किया करते थे । अब मुझे लगता है कि वे गोंद की तरह इनसे चिपक जाते हैं । पति, बच्चे और घर बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बच्चे संघ के (सामूहिकता के) हैं, आप मत सोचें कि यह आपका बच्चा है। ऐसा सोच कर आप अपने को सीमित करते हैं और समस्याओं में फंसते है। हर देश में १७ स.. सभी-धर्म किसी न किसी प्रकार की धर्मन्धिता में विलय हो गए क्योंकि किसी को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त न होने के कारण सभी ने अपने ही ढंग से धर्म की स्थापना कर ली। ताओ और जेन भी इसी की शाखाएं हैं। श्री बुद्ध को लगा कि व्यक्ति को जीवन से आगे कुछ खोजना चाहिए। वे एक राजकुमार थे, उनकी अच्छी पत्नी तथा पुत्र थे और उनकी स्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति अति सन्तुष्ट होता। एक दिन उन्होंने एक रोगी, एक भिखारी तथा एक मृतक को देखा । वे समझ न पाए कि ये सारे कष्ट किस प्रकार आए आप में से बहुत लोगों की तरह से वे भी अपने परिवार और सुखमय जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में चल पड़े। सत्य प्राप्ति के लिए उन्होंने सभी उपनिषद तथा अन्य ग्रन्थ पढ़ डाले पर कुछ प्राप्त न कर सके। उन्होंने भोजन त्याग दिया। कुछ त्याग कर जब वे एक बढ़ के वृक्ष के नीचे रह रहे थे तो आदिशक्ति ने उन्हें आत्म साक्षात्कार प्रदान किया। वे विराट के विशिष्ट अंश बनने वालों में से एक थे इसलिए उनहें सभी अपनी आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हुई। ज्योतिर्मय चेतना उन्होंने खोज निकाला कि आशा ही सभी कष्टों का कारण है। वे न जानते थे कि शुद्ध इच्छा क्या है। इसी कारण वे लोगों को न बता पाये कि कुण्डलिनी की जागृति के द्वारा ही साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। क्योंकि उन्होंने तपस्वी जीवन बिताया था अत: बौद्ध धर्म के अनुयाइयों के लिए तपस्या एक नियम बन गई । बिना भोजन तथा निवास का प्रबन्ध किए श्री बुद्ध अपने साथ कम से कम नंगे पांव चलने वाले एक हजार शिष्य रखा करते थे। उन्हें अपने सिर के बाल मुंडवाने पड़ते थे। सर्दी हो या गर्मी वे केवल एक ही वत्र ओढ़ते थे । उन्हे नाचने गानेा या किसी भी प्रकार के मनोरंजन की आज्ञा न थी। जिन गांवो में वे जाते थे वहां से भिक्षा मांग कर भोजन एकत्र जाता था। वह भिक्षा का भोजन अपने गुरू को खिलाने के बाद वे स्वयं खाते थे । चिलचिलाती गर्मी, कीचड़ या वर्षा में वे नंगे पांव चलते थे । परिवार का वे त्याग कर देते थे। यदि पति-पत्नी भी संघ में सम्मिलित हो जाते तो भी पति-पत्नी की तरह रहने की आज्ञा उन्हें न होती थी। व्यक्ति को सभी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक आवश्यकतांए त्यागनी होती थी बुद्ध धर्मी चाहे वह सम्राट ही क्यों न हों यह सब कुछ करता है । सम्राट अशोक भी बुद्ध धर्मी थे। उन्होंने पूर्ण त्यागमय जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न किया यह अति कठिन जीवन था पर उन्होंने सोचा कि ऐसा से सारी मूर्खता को देखिए तथा किया इसका आनन्द लीजिए। जीवन-यापन करके वे आत्म-साक्षात्कार को पा लेंगे। श्री बुद्ध के दो शिष्यों को साक्षात्कार मिल सका। पर उनका पूरा जीवन कठोर एवं नीरस था। इसमें कोई मनोरंजन न था। सन्तान तथा परिवार को आज्ञा न थी। यह संघ था पर इस सामूहिकता में कोई तारतम्य न था क्योंकि अधिक बोलने की आज्ञा उन्हें न थी। वे केवल ध्यान धारणा तथा उच्च जीवन प्राप्ति के बारे में बात कर सकते थे। यह प्रथा बहुत से धर्मों में प्रचलित रही। बाद में त्याग के नाम पर गृहस्थों से धन बटोरने लगे। श्री बुद्ध के समय भी साधकों को त्याग करना पड़ता था। पर यह उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने का श्री बुद्ध का वास्तविक प्रयत्न था उन्हें पूर्ण सत्य का ज्ञान दिलाने का प्रयत्न था। पर ऐसा न हुआ। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध के अनुयायी भिन्न प्रकार के हास्यास्पद धर्म बना कर बैठ गए। उदाहरणार्थ जापान में पशुवध की आज्ञा न थी पर मांस खाना निषेध न था, मनुष्य का वध किया जा सकता था। मनुष्य का वध करने में जापानी विशेषज्ञ बन गए। किस प्रकार से लोग बहाने ढूंढ १८ लेते हैं । जब लाओत्से ने ताओ के विषय में उपदेश दिए तो दूसरे प्रकार के बुद्ध धर्म का उदय हुआ। ताओ कुण्डलिनी हैं। लोग न समझ पाए कि वे क्या कह रहे हैं। कठोरता से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने चित्र-कला में अपनी अभिव्यक्ति की। इसके बावजूद भी गहनता में न जा सके। यंगत्जे नाम की एक नदी है जहां सुन्दर पर्वत तथा झरनों के कारण हर पांच मिनट में दृष्य परिवर्तित हो जाता है। कहा गया है कि इन बाह्य आकर्षणों की ओर अपने चित्त को न भटकने दें। उन्हें देख कर हमें चल देना चाहिए। ताओ के साथ भी ऐसा ही है। के कला की ओर झुक गए। मूलत: बुद्ध ने कभी भी कला के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने कहा कि अन्न्तदर्शन द्वारा अपने अन्तस की गहराइयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। अतः सभी कुछ पथ- पति भ्रष्ट हो गया। जेन प्रणाली जो जापान में शुरू हुई, ये भी कुण्डलिनी मिश्रित है। इस प्रणाली में वे पीठ पर रीढ़ की हड्डी तथा के चक्रों पर चोट मार कर कुण्डलिनी जागृत करने का प्रयत्न करते हैं । जेन प्रणाली में कुण्डलिनी जागृति की कठोर विधियां खोज निकाली गई । यह कठोरता इस सीमा तक गई कि लोगों की रीढ़ तक टूट जाती है। टूटी रीढ़ में कुण्डलिनी कभी नहीं उठेगी। मैं विदित्म जेन प्रणाली के मुखिया से मिली। वह बहुत बीमार था तथा उसे रोग मुक्त करने के लिए मुझे बुलाया गया। मैंने पाया कि वह तो आत्म साक्षात्कारी था ही नहीं और न ही उसे कुण्डलिनी के थी बारे में कुछ पता था। मैने उससे पूछा कि जेन क्या है इसका अर्थ है ध्यान । जेन के बारे में वह इतना भ्रमित था। कई शताद्वियों में उनमें कोई साक्षात्कारी न हुआ। आप कल्पना कीजिए कि कितने सहज में, बिना किसी बलिदान, तपस्या या त्याग के आपको आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ। बुद्ध, ईसा और महावीर आज्ञा चक्र पर तप हैं। तप का अर्थ हैं तपस्या। सहजयोग में तपस्या का अर्थ है ध्यान-धारणा । आपको सिर नही मुंडवाना, नंगे पांव नहीं चलना, भूखे नहीं रहना और न ही गृहस्थ जीवन का त्याग करना है। आप नाच, गा और मनोरंजन कर सकते हैं । बुद्ध का अर्थ है बोध अर्थात सत्य को अपने मध्य- २३० नाड़ी तंत्र पर जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए १९ ६ं ा मं रा ि ि ह ०] ी आपको लोगों तक पहुँचना है ... एक औरत थी। वह आत्म साक्षात्कार चाहती थी वे आई और उन्हें मिला। उसे बहुत अच्छी तरह से मिला । ऐसे कई लोग है जो इसकी खोज़ में लगे हुए हैं। आप को उनसे सम्पर्क करना होगा और उनको आगे लाना होगा। मुझे प्रवास करने में कोई तकलीफ नहीं है। में इतने दूर, भारत से आई हैँ। और फिर आप लोग मेरे सुविधा की कोई कसर नहीं छोड़ते। देखिए, आप जो भी हों, जहाँ भी आप कार्यक्रम आयोजन करेंगे वहाँ मैं जाऊँगी। जहाँ तक संभव होगा मैं अवश्य जाऊँगी । तं आज कल तो बड़ी सुविधाएँ उपलब्ध है, पर जब में गांवों में कार्य करती थी तब में बैलगाड़ी से जाया करती थी। आप के पास इसकी तस्वीरें (Photos) होंगी। आप समझ सकते है कि बैलगाड़ी पर मीलों दूर तक जाना कैसे होता है। मुझे मालूम था कि मुझे यह सब करना है। सहजयोगियों को हासिल करने के लिए मुझे उस तरह से काम करना ही था इसके लिए मेरी पूरी तैयारी थी। मुझे अन्दर से कभी भी, किसी भी प्रकार की थकान महसूस नहीं हुई- कभी भी नहीं। इसके उपरांत आप सब से मिलने पर मुझे बहुत आनन्द आता है। श्री माताजी निर्मला देवी, सिडनी रा नाडियाँ और चक्रों का तीन महत्त्व पब्लिक प्रोग्राम ( परिच्छेद), ६-७ फरवरी १९९०, हैद्राबाद चैतन्य लहरी १९९०, भाग २, खण्ड १, २ मव ु ७ ३१४ [१ ० हेभि इ. न चक्रों और तीन नाड़ियों का महत्त्व इस तरह से भी समझा जा सकता है - जैसे कि हम देखें कि कैंसर कैसे ठीक होता है और वह सहजयोग में कैसे ठीक हो जाता है। जब ईड़ा और पिंगला नाड़ी में असन्तुलन आता है तो उन दोनों से जुड़े सभी चक्रों में भी असन्तुलन आ जाता है और चक्रों के बीच की जगह, जहाँ से सुषुम्ना नाड़ी से होती हुई कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की ओर जाती है, छोटी हो जाती है। इससे चक्र कुण्डलिनी शक्ति द्वारा पूर्ण रूप से प्रभावित और प्लावित नहीं हो पाते जिस से चक्रों की शक्ति कम हो जाती है और इस तरह से चक्रों के दोष अथवा कमजोरी की वजह से बीमारी होने लगती है और जब कोई चक्र बिल्कुल टूट जाता है तब हमारे मेरूदण्ड का सम्बन्ध भी हमारे मस्तिष्क से टूट जाता है और मस्तिष्क का शरीर पर नियन्त्रण समाप्त हो जाने से शरीर के किसी भी भाग की कोशिकाओं (cells) में असन्तुलन वृद्धि होने लगती है और इस तरह से कैंसर का रोग घटित होता है। अब जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो वह ट्ूटे हुए चक्र को अपनी शक्ति द्वारा जोड़ने लगती है और धीरे धीरे चक्र की शक्तिहीनता भी समाप्त हो जाती है। तथा मेरूदण्ड का सम्बन्ध फिर से मस्तिष्क के साथ स्थापित हो जाता है। इस से शरीर की अनियन्त्रित वृद्धि समाप्त हो जाती है और कैंसर ठीक हो जाता है। इसी प्रकार अनेक रोग ठीक हो सकते हैं क्योंकि इन चक्रों की ही खराबी के कारण बीमारी आती है और जब यह चक्र ठीक हो जाते हैं, तो बीमारी भी ठीक हो जाती है। २२ ५ द fि उत्तरदायि्च विशेष हैद्राबाद पब्लिक प्रोग्राम (परिच्छेद), ६-७ फरवरी १९९० चैतन्य लहरी १९९०, भाग २, खण्ड १, २ सहजयोग से शारीरिक, मानसिक, भौतिक लाभ तो होते ही हैं परन्तु सबसे बड़ी चीज यह है कि आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करते हैं । आप अपने गुरू हो जाते हैं और आप समर्थ भी हो जाते हैं और सब बुरी आदतें, जो पहले आप नही छोड़ पाए अब स्वयं छूट जाती हैं। आप में सन्तुलन आ जाता है और चक्र पूरी तरह से खुलना शुरू हो जाते हैं। स्वभाव में दया, प्रेम छलकने लगता है, मुख पर कान्ति आ जाती है। सोचने का दृष्टिकोण और जीवन मूल्य बदल जाते हैं। आप निर्विचारिता में उतर जाते हैं और आनन्द के सागर में रहने लगते हैं। आपका सम्बन्ध परम चैतन्य से होने के कारण परम चैतन्य आप की सारी गतिविधियों को सम्भालता है और आप को पूरी तरह से आशीर्वादित करता है। इसका अनुभव आप को होने लगता है और आप आश्चर्यचकित होते हैं कि किस तरह से हर एक चीज़ अपने आप घटित होने लगती है। आप परमात्मा के साम्राज्य में आ जाते है जो अत्यन्त दक्ष, कुशल एवं प्रेममय है और वह आपको इतना सम्भालता है कि आप आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि मेरा इतना गौरव और शक्ति कहाँ से आ गई। यह सब आपके अन्दर है और आपको इसे प्राप्त करना चाहिए और इससे अपने और सबके जीवन को खुशहाल बनाना चाहिए। यह हुए बगैर संसार बदल नही सकता आप विशेष लोग हैं जो इस योग भूमि में पैदा हुए हैं। आप पर इस विश्व के प्रति एक विशेष उत्तरदायित्त्व है । इसलिए आप इस योग को प्राप्त करें और उसमें स्वयं को स्थापित करें। आज वह समय आ गया है जब यह घटित होना ही चाहिए। २३ श्री विष्णुमाया परमपूज्य श्री माताजी निर्मला देवी के प्रवचन का परिच्छेद, शॉनी, पैन्सिलवानिया, यू.एस.ए. १९/९/१९९२ विष्णुमाया वि ष्णुमाया का आरंभ अति रोचक है। विष्णुमाया श्री कृष्ण की बहन थी जो श्री कृष्ण के बाद उत्पन्न हुई। वास्तव में वे नन्द और यशोदा के घर जन्मी न्द-यशोदा ने श्री कृष्ण के बदले में उसे दे दिया। कंस को बताया गया कि वह लड़की उसकी बहन का आठवाँ बालक है। लड़की होने के कारण कंस ने उसे आकाश में फेंक दिया "वहाँ से उसने उद्घोषणा की कि श्री कृष्ण अवतरित हो चुके हैं और वही तुम्हारा वध करेंगे। विष्णुमाया अवतरणों की तथा अच्छी घटनाओं की घोषणा करनेवाली शक्ति है। आध्यात्मिक हदृष्टि से अपवित्र चीज़ों को भी जला सकती हैं । की सूक्ष्म बात यह है कि वह महाभारत के समय वे द्रौपदी के रूप में अवतरित हुई। जब दुर्योधन उसे निर्वस्त्र करवाना सच्चाई जानती चाहता था तो उसने श्री कृष्ण को पुकारा तथा े बिना विलम्ब के द्वारिका से अपने शस्त्रों सहित आ गए। द्रौपदी का चीर तब तक बढ़ाया जब तक दु:शासन थेक कर पृथ्वी पर न गिर गया। अत: विष्णुमाया पंचतत्त्वों में रहनेवाली पवित्रता हैं। यही पवित्रता द्रौपदी के विवाह के समय पाँचो पाण्डवों को दिखाई गई थी। उनकी कौमार्यता ( पवित्रता) की शक्ति का उपयोग धर्म नाश है। वह करने के इच्छुक कौरवों का भाण्डाफोड़ करने के लिए किया गया। द्रोपदी ने पाण्डवों से आग्रह किया कि धर्म की रक्षा के लिए तुम्हें युद्ध करना ही होगा परिणाम चाहे जो भी हो । चमकती है, भाई के रूप में श्री कृष्ण ने सदा उनकी सहायता की। अत: भारत में भाई-बहन सम्बन्ध अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। सहज योगियों में भी ऐसा ही होना चाहिए। हमारे यहाँ रक्षाबंधन तथा भाईदूज होता है जिसमें दिवाली के दिन हम भाई को राखी बाँधते हैं। "यह राखी विष्णुमाया की शक्ति है जो भाई की रक्षा करती है।" सम आयु, एक सी सूझबूझ, सुरक्षा, प्रेम और पवित्रता के कारण भाई-बहन सम्बन्ध अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इस सम्बन्ध को विष्णुमाया चलाती हैं..... और आप सब विष्णुमाया की सूक्ष्म बात यह है कि वह सच्चाई जानती है। वह चमकती है, और आप सब कुछ देख सकते हैं। इसी प्रकार जब विष्णुमाया आप पर कार्य करने लगती है तो वह सत्य को अनावृत्त करती है। परन्तु यदि आपकी बाँयीं विशुद्धि की पकड़ बनी रहती है तो विष्णुमाया चली जाती है। विष्णुमाया चली जाती है। विष्णुमाया आपको सुधारने, किसी तरह आपकी सहायता करने या आपको अनावृत्त करने के लिए नहीं है। तब आप कुछ भी महसूस नहीं करते, आपकी बाई ओर जड़वत हो जाती है। बायीं ओर से ही इधर के रोगों का पता चलता है। यही कारण है कि भारत की अपेक्षा पश्चिमी देशों में बायीं ओर के रोगों का बहुल्य है।.... कुछ देख सकते हैं । आज का कार्यक्रम विष्णुमाया के लिए किया गया । आप सहजयोगियों में इस शक्ति को संचालित करने की योग्यता होनी चाहिए। उनकी पूजा करने की योग्यता भी आप में होनी चाहिए ताकि वे आपको देख सकें, आपकी देखभाल कर सकें तथा आपके जीवन का संचालन करें।.. २४ 8० बाम ार वे कुमारी (निर्मल) हैं तथा कौमार्य का सम्मान करती हैं । कौमार्य केवल स्त्रियों के लिए नहीं होता। यदि पुरुष भी अपने पतिव्रत्य और पवित्रता का सम्मान नहीं करते तो उन पर भी कई प्रकार से विष्णुमाया का आक्रमण होता है।............. दो अन्य चीजें भी विष्णुमाया को परेशान करती हैं। इनमें से एक है धूम्रपान। दूसरी चीज़ जिसे लोग नहीं जानते, वह है मन्त्र श्री विष्णुमाया ही मंत्रों को शक्ति देती है। यदि आप परमात्मा की शक्ति से संबंध बनाए बिना ही मन्त्रोच्चारण किए जा रहे हैं तो आपको उस शक्ति को जोड़नेवाले तार जल सकते हैं तथा आपको गले की समस्याएं हो सकती हैं क्योंकि कृष्ण तथा विष्णु में कोई अन्तर नहीं। आपको विराट की समस्या भी हो सकती हैं। चैतन्य लहरी १९९३, खण्ड ५, अंक ३ व ४ २५ म ० ० मिथ्या ५ मई १९७५ सहस्त्रार दिवस पर परमपूज्य माताजी द्वारा लिखा गया पत्र निर्मला योग, वर्ष २ अंक ७, मई-जून १९८३ पर. यदामले, अनेकानेक आशीर्वाद! आपका पत्र मिला। सहस्त्रार पर खिचाव आना बहुत अच्छा लक्षण है। क्योंकि सहस्ार के माध्यम से मनुष्य का हृदय अनन्त किरणों से भरा जाता है और अन्त:स्थिति के लिए नये दरवाजे खुलते हैं। परन्तु इस अन्तःस्थिति के लिए सहस्त्रार पर खिंचाव आना जरूरी है। हृदय का खिंचाव हम जानते हैं, जो मूक (Silent) है और एकतरफा है, मतलब भावात्मक होता है, परन्तु सहर्रार का खिचाव सामूहिक होता है। वहाँ मनुष्य की स्थिति, धर्म और चेतना एक होकर चैतन्य को ही (प्रभुप्रेम को ही) याद करने लगती है तब ऐसी स्थिति (सहस्त्रार पर खिंचाव आना) आती है। ये सब अपने आप घटित होता है। यह सब आपकी कुण्डलिनी का करिश्मा होता है। किन्तु आपका व्यक्तित्व ऐसा हो कि कुण्डलिनी शक्तिशाली बन सके। यह सम्पदा पिछले अनेक जन्मों से कमायी है। इसलिए यह जन्म उच्च है कि ऐसे हीरे मेरे काम के लिए मिले । मेरा शरीर यहाँ होते हुए भी मैं सभी जगह हूँ, यह अगर जानोगे तो ये भी समझना चाहिए कि शरीर भी एक मिथ्या दर्शन ही है । यह स्थिति आना मुश्किल है । परन्तु अगर धीरे-धीरे मिथ्या को आप जानने लगोगे तब सत्य अपने आप ही मन में बसेगा (आत्मसात होगा) । और महा आनन्द की लहरें पूरे व्यक्तित्व को घेर लेंगी। इस पत्र में में मिथ्या क्या है वह बताने जा रही हैँं। वह सब को बताइए। और उस पर सोच-विचार कीजिए । २६ इस संसार में जन्म लिया और मिथ्या शुरू । आपका नाम क्या है? गाँव क्या है? देश क्या है? राशि क्या है? भविष्य क्या है? इस तरह की कितनी बातें आप के साथ चिपकती हैं या चिपकायी जाती हैं। एक बार ब्रह्मरन्ध्र बन्द होते ही अनेक प्रकार के मिथ्या विचार आपके मन के (आत्मा के) भाव हो जाते हैं। जैसे कि, ये चीजें मेरी, ये मेरा, वह मेरा वरगैरा झूठे विचार मन में बसते हैं । उसी प्रकार मेरा शरीर निरोगी और सुन्दर रहना चाहिए ऐसे बन्धनकारक मिथ्यावादी विचार जो कि मनुष्य ने स्वयं बनाये हुए हैं हमारी बुद्धि में बस जाते है। इसके बाद ये मेरा भाई, ये मेरा बाप, ये मेरी माँ इस तरह के मिथ्या रिश्ते सिर पर बैठते हैं। फिर धीरे-धीरे अहंकार जम गया कि मैं अमीर, मैं गरीब, मैें अनाथ या मैं बड़े खानदान का इस तरह का पागलपन सिर पर सवार हो जाता है। बहुत से अधिकारियों को और राजनीतिज्ञों (Politicians) को घमण्ड की, मतलब गधेपन की बाधा होती है। उसके बाद क्रोध, द्वेष, संयम, विरह, दुःख, प्यार के पीछे छिपा हुआ मोह, लालसा के पर्दे में बसी हुई संस्कृति, इन सभी मिथ्या आचरणों को मनुष्य प्यार से गले लगाता है। इन सभी से छुटकारा पाना है ऐसा जब सोचोगे और यत्न शुरू करते ही मिथ्या ज्ञान प्राप्त होता है। फिर पिंगला नाड़ी पर से चित्त फिसल कर सिद्धि वगैरा प्रलोभनों में मनुष्य फैसता है। कुण्डलिनी का दर्शन तथा चक्रदर्शन आदि सारा मिथ्या ही है क्योंकि उससे कोई लाभ नहीं होता, उल्टा नुकसान होता है। जो-जो नियम व संयम आचरण में लाना जरूरी है इसकी जिद पकड़ते हैं वह सभी चित्त को बन्धनकारक होता है और मुक्ति का मार्ग ही नहीं मिलता। परन्तु सभी मिथ्या आत्मसाक्षात्कार से नहीं जाते। किन्तु धीरे-धीरे ये भी छूट सकते हैं। अगर पूर्ण संकल्प से मिथ्या को हृदय से निकाला जाए तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन होता है और फिर वही शुद्ध स्वरूप आत्मसात होता है। और तब मानवचित्त अनन्त, अनादि, सत्य, प्रेममय शिवस्वरूप में मग्न हो जाता है। इसी सत्य की पहचान उस चित्त में होती है। और केवल यही जानने के लिए यह मानवचित्त है । उस आत्मा में इस चित्त को उतरना चाहिए। जो चित्त मिथ्या का त्याग करते- करते अग्रसर होगा और जो 'सब कुछ है, पर नहीं है' का मिथ्या बन्धन तोड़ेगा वही चित्त आत्मस्वरूप होगा। आत्मा कभी भी खराब नहीं होती और न ही नष्ट होती। केवल मानव चित्त ही अपनी इच्छा के पीछे भागकर अपना मार्ग छोड़ देता है। यह माया है, इसे जान-बूझकर बनाया है। इसके बगैर चित्त की तैयारी नहीं होती। इसलिए इस माया से ड्रने के बजाय उसे पहचानिए। तब वही आपका मार्ग प्रकाशित करेगी। जैसे सूर्य को बादल ढक देते हैं और उसके दर्शन भी करा सकते हैं । माया मिथ्या है यह जानते ही वह अलग हट जाती है और सूर्य का दर्शन होता है। सूर्य तो सदासर्वदा है ही परन्तु बादल का काम क्या होता है? बादलों की वजह से ही मन में सूर्य-दर्शन की तीव्र इच्छा पैदा होती है। फिर सूर्य क्षणभर के लिए चमकता है और छिप जाता है। इस कारण आँखो को सूर्य देखने की ताकत और हिम्मत आती है। कितनी मेहनत से मनुष्य को बनाया है केवल एक कदम अपने दम पे लेगा तो काम बन जाएगा। परन्तु अभी तक तो वैसा कुछ नहीं बन रहा है। इसलिए आपकी माँ बनकर आयी हूँ। आप के जो प्रश्न हैं वे लिखकर भेजिए ध्यान में बैठिए। आपस में भी सहजयोग पर बातें करें तो बहुत अच्छा है। चित्त हमेशा अपने अन्तरीय उड्डान पर रखिए। बाहर का जितना हो सके उतना भूल जाइए। उसकी सारी व्यवस्था होती है ये विश्वास रखिए। उसके कितने ही प्रमाण हैं। उसके बाद कुछ भी करते समय चित्त आत्मस्वरूप रहता है। संसार, असंसार ये भेद नहीं रहता क्योंकि भेद दिखानेवाला विकृत अँधेरा खत्म होकर ज्ञान के प्रकाश में सारा ही शुभ घटित होता है। फिर कृष्ण द्वारा संहार हो या क्राइस्ट का वधस्तम्भ। ये सब बताकर समझ में आनेवाली नहीं, मार्ग दिखाकर नहीं होगा। उसको चलकर काटना होगा, तभी सब कुछ समझ में आएगा। रा आपकी चिट्ठियाँ आती हैं तब मैं अगला कार्यक्रम निश्चित करती हैं। कुछ दिनों बाद उसकी भी जरूरत नहीं पड़ेगी। परन्तु अभी तो सब कोई चिटठ्ठी लीखिए और उसमें अपनी प्रगति लीखिए । फिर आने के बाद देखते हैं विराट की कितनी नाड़ियाँ जागृत हुई हैं। इस कार्य की बढ़ोत्तरी भारत-भूमि के पवित्र आंचल में होगी यही दिख रहा है । आगे यह कार्य जोर पकड़ने पर सारे देश-विदेश में इसका प्रसार होगा। लन्दन में आज ५ मई को सहस्त्रार दिन मनाया । तब मैंने गिने-चुने २०-२५ लोगों को बुलाकर सब रूपरेखा बनायी। सबको अनेकानेक आशीर्वाद और अनन्त प्रेम । सदैव आपकी माँ, निर्मला २७ बच्चों पर श्री माताजी की वार्ता विएना, ९/७/१९८६, चेतन्य लहरी १९९१, खंड ३, अंक १ णा २ ड० ना ज. न्मोपरान्त शिशु अत्यंत संवेदनशील होते हैं । सावधान होने के लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण समय है । बच्चे के लिए दूध उबालते हुए आपको सावधान होना है। दूध और पानी अलग-अलग उबाल कर देने से बच्चे को जुकाम, नाक बहना, कब्ज या दस्त आदि रोग हो सकते हैं। दोनों को मिलाकर अच्छी तरह उबालिए और थर्मोस बोतल में भरकर या फ्रिज आदि में रखें। कुछ बच्चों का शरीर बहुत पतला तथा भार बहुत कम होता है। ऐसे बच्चे को जिगर की समस्या तो नहीं यह जान लेना चाहिए। हो सकता है जन्मजात साक्षात्कारी उस बच्चे को यह रोग चिकित्सालय में विद्यमान जिगर हानिकारक रोगाणुओं (हिपेटाइटिस) के कारण हुआ हो। मूली के पत्तों को उबाल कर उनमें मिश्री मिलाकर देना एक अच्छी औषध है । लगभग छः माह का होने तक बच्चों को पानी न दें। छोटी आयु में आप मूली के उबले पत्तोंवाला पानी थोड़ा सा गुनगुना करके दे सकते हैं। हुए इसका स्वाद अच्छा न होते हुए भी जिगर रोग पीडित बच्चों के लिए यह बहुत अच्छी औषध है। बायाँ हाथ जिगर पर रखकर दायाँ फोटोग्राफ की ओर करके चन्द्र देव का मन्त्रोच्चारण करते हुए चैतन्य लहरियों द्वारा जिगर को आराम पहुँचा सकते हैं। जिगर सूजन 1 की अवस्था में बच्चे पर्याप्त मात्रा में दूध न पीने के कारण पतले पड़ जाते हैं और उनका चेहरा पीला पड़ जाता है तथा निष्क्रिय जिगर के कारण बच्चों की चमड़ी पर धब्बे पड़ने लगते हैं। निष्क्रिय जिगर होने पर बच्चों को किसी भी रूप में कैलशियम देना चाहिए तथा चर्म रोग की अवस्था में विटामिन ए और डी। अडैक्सोलिन भी अच्छी है यह शार्क के तेल की गोलियाँ होती है। यदि शार्क के तेल की गोलियाँ न मिलें तो एक चम्मच दूध में एक बूंद अडैक्सोलिन डाल कर बच्चे को दे दें। यह बच्चे की अस्थियों तथा है. शरीर को सुदृढ़ करती है। २८ नि कुछ बच्चे अति दुर्बल प्रकार के होते हैं। उनकी मांस पेशियाँ विकसित नहीं होती। अच्छी मांस-पेशियों के विकास के लिए मालिश से अच्छा कुछ भी नहीं। जैतुन तेल (olive Oil) के साथ बच्चे की अच्छी तरह मालिश कीजिए और अडेक्सोलिन दीजिए । मख्खन की मालिश सबसे अच्छी है । मख्खन इसलिए अच्छा है क्योंकि इसमें विटामिन 'ए' और 'डी' होता है। मख्खन सिर में नहीं ड़ालना चाहिए। सिर के लिए नारियल तेल अच्छा है क्योंकि इसमें विटामिन 'ए' होता है। बच्चा अति स्वस्थ होना चाहिए। स्वास्थ्य सुधारने के लिए उनमें चैतन्य प्रवाहित कीजिए। उनका स्वास्थ्य और माँस पेशियाँ विकसित होनी चाहिए। बाल्यकाल में च्बी संग्रह करके बाद में इसकी सहायता से बालक बढ़ता है। बच्चे के लिए यह चर्बी खुराक का कार्य करती है। पतले होना या शरीर पर चर्बी न चढ़ने देने का विचार लोगों को दुर्बल कर देगा। किसी भी रूप में आप बच्चों को कैलशियम दे सकते हैं। परन्तु होम्योपैथिक औषध कलकेरिया कार्ब रूप में भी कैलशियम दिया जा सकता है। बच्चों के लिए होम्यौपैथिक लाभकर है परन्तु इसका कोई समझदार डॉक्टर होना चाहिए। दूध में भी कैलशियम होता है। अधिक चर्बी वाला दूध नहीं होना चाहिए। थोड़ी सी चर्बी वाला दूध कैलशियम होता है। अधिक चर्बीवाला दूध नहीं होना चाहिए। थोड़ी सी चर्बीवाला दूध कैलशियम प्रदान करता है। कई बच्चे ठीक-ठाक उत्पन्न होकर भी माँ या पिता की अति सक्रियता के कारण बाल-अति सक्रियता रोग ग्रस्त हो जाते है। ऐसे बच्चे को शीघ्र ही माता-पिता से (विशेष कर माँ से) पृथक कर देना चाहिए क्योंकि उन्हे यह माँ के वजह से ही होता है। ऐसे बच्चे को देखभाल के लिए किसी आश्रम में भेज देना चाहिए जिससे कि वह माँ के प्रभाव से बच सके। तब बर्फ उपचार द्वारा तथा दाँयीं ओर को बाँयी पर ड्ाल कर जिगर को ठीक करने का प्रयत्न करना चाहिए। अति सक्रियता विश्व भर में फैला अति भयानक रोग है। बच्चा एक मिनट भी बैठ नहीं सकता, वह इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। यह भूतबाधा भी हो सकती है। भूत उसे दौड़ाते ही रहते है। हमें ा मूलाधार की भलाई के लिए बच्चे को पहनाए गए कठोट व्त्र रगड़ देते है। सूर्ती अन्तरवख पहनना अच्छा है। अह ० र बच्चे को एक अतिमौलिक, सुन्दर नींव देनी चाहिए जिससे किबाद में उसे किसी स्वास्थ्यसमस्या का सामना नकरना पड़े। मूलाधार की भलाई के लिए सूती अन्त्तवस्र पहनना अच्छा है। बच्चे को पहनाए गए कठोर वर्त्र रंगड़ देते है। इस तरह के सख्त वर्त्र मूलाधार को क्षति पहुँचाते हैं तथा कई अन्य समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं । सुन्दर सी कोमल लंगोट बना लेना बहुत अच्छा है। उसे बाहर की ओर से प्लास्टिक लगा सकते है। भारत में क्योंकि प्लास्टिक का प्रयोग नहीं करते इसलिए जितनी बार भी बच्चा गीला होता है हम उसकी लंगोट बदल देते है। प्लास्टिक के स्थान पर हम बोगडी (तौलिए की तरह का एक कपड़ा) का प्रयोग करते हैं। इसके कई तरह के गद्दे के रूप में सिलाई होती है। बच्चे के नीचे इसे बिछाकर इसके नीचे कोई रबर आदि बिछा दिया जाता है। सभी महिलाएं जान लें कि ये साक्षात्कारी बच्चे हैं, तीन महीने इनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। बहुत छोटी आयु में अनावश्यक रूप से कोई बच्चे को छुए नहीं। बच्चे को उठाने से पूर्व अपने हाथ धोईए । तीन माह तक सावधान रहें । इसके पश्चात यदि कोई चाहे तो बच्चे को भाँति-भाँति ढ़क कर उसकी गोद में दे दिया जाए बच्चा चूमा नहीं जाना चाहिए। कुछ लोग बच्चे को संभालना नहीं जानते। उठाते हुए वे बच्चे की दोनों बाहें खींच देते हैं । दोनों ओर अपने हाथ ड्रालकर बच्चे को उठाइए । कई नवजात शिशुओं की छातियाँ दूध से भरी होती है। वे रोते चिल्लाते हैं परन्तु आपको कुछ पता नहीं होता। भारत में हम अंगूठे को साफ कर उस पर रोगाणुरोधक लगाकर बच्चे की गल तुण्डिकाओं को दोनो ओर तथा उपर की ओर दबाते हैं। इस के पश्चात गल तुण्डिकाएं (टॉन्सिल) कभी नहीं बढ़ते । बच्चों के साथ यह सब करना अति साधारण कार्य है । आँखों को अच्छी तरह से साफ करके उनमें काजल डाला जाना चाहिए। साधारण काजल बनाने के लिए थोड़ा सा कपूर जलाइए और उसकी कजली को चांदी की प्लेट पर इकठ्ठा कर लीजिए । चांदी शीतलता दायक है। फिर इस कजली में कोई अच्छा घी मिलाइए। घी को साफ करने के लिए पहले इसे चलते नल के नीचे रखिए । घी के बह जाने पर पानी इससे चिपकेगा नहीं। अब ই० ३० र १ ० कि प्रतिदिन अपनी अंगुली से बच्चे की आँखों में काजल ड़ाले। यह बच्चे को तीखे तथा रोगमुक्त नयन प्रदान करेगा। मैंने देखा है कि प्रारम्भ में हम बच्चे के केवल शारीरिक पक्ष को ही देखते हैं। बाद में उसके अहं पक्ष पर ध्यान दिया जाता है। तीन माह से दो वर्ष की अवस्था में बच्चे के अहं का विकास होने लगता है। अपने स्नेह द्वारा आप उनके भावनात्मक पक्ष का भी ध्यान रखें। आपका, अपने बड़ों का, श्री माताजी का तथा स्वयं का सम्मान करना आप उन्हें सिखाएं। उसी आयु में ही आदर करना सिखाया जा सकता है। जब वे नमस्ते, सुप्रभात आदि करने लगे तो सराहना कर आप उन्हें उत्साहित करें । आप उन्हें चूम भी सकते हैं। तब वह जाने पाएंगे कि कुछ अच्छा कार्य हो रहा है। सम्मान तथा महान भावनाएं विकसित करने के लिए यह अत्यंत प्रभावनीय अवस्था है। देखभाल के लिए बच्चा किसी अन्य महिला को दें, इस प्रकार बच्चा केवल आपकी सम्पत्ति न रहकर सभी की सम्पत्ति बन जाता है। बच्चे में सामूहिकता तथा अच्छे मूलाधार का विकास शुरू हो जाता है। यदि आप केवल एक व्यक्ति (जैसे माँ) से ही घुले मिले हैं तो तरुण होने पर जिस भी अन्य व्यक्ति से आप मिलेंगे उसमें यौन-भाव पाएंगे। परन्तु अबोध काल में यदि आपने उन महान भावनाओं को छू लिया है तो यह बेहुदगी आप में न होगी। अत: बच्चे को सभी के साथ रहने तथा बातचीत करने दीजिए, फिर भी सोए वह माता-पिता के कमरे में ही । दो साल की आयु तक बच्चे को माता-पिता के कमरे में रहने देना चाहिए । दो साल की आयु तक बच्चे को दूसरे खटोले पर सुलायें। इससे बड़ा होने पर वे सामूहिकता में, दूसरे कक्ष में जिसमें कोई बड़ा व्यक्ति भी हो, सो सकते हैं। तब बच्चों को माता-पिता के साथ नहीं सोना चाहिए। सामूहिकता को समझाने का तब उन्हें प्रयास करना चाहिए। बच्चों के कपड़े तथा सामान मिलाकर रखें। तब शिशु किसी व्यक्ति विशेष के नहीं होने चाहिए। माता-पिता से दूर सामूहिकता में बच्चों का रहना महत्त्वपूर्ण है। छः वर्ष की आयु तक बच्चे स्वतन्त्र बन जाते हैं, बड़ों का सम्मान करने लगते हैं, सबको अच्छी तरह सम्बोधित करना तथा सद्व्यवहार करना शुरू कर देते हैं । छः वर्ष की आयु के पश्चात बे वास्तविक रूप ज ३ १ २स बच्चे को बनाना अति रचनात्मक कार्य है। जैसे मैं समझती हूं कि सहजयोगी बनाना बहुत रचनात्मक कार्य है । ९ क জি ভ ह ए ॐ से परिपक्व तथा अच्छे बालक बने होते हैं । तब वे अध्ययन में लग जाते हैं। बच्चे यदि अच्छे न हों तो पांच वर्ष की आयु तक आप उन्हें प्रताड़ित कर सकते हैं यदि वे शरारती हैं तो एक कमरे में ले जा कर आप उनसे कह सकते हैं कि यदि वे न सुधरे तो उनकी पिटाई होगी। उनसे एकान्त में बात कीजिए सबके सामने नहीं । उन पर चिल्लाइए भी नहीं। दूसरों के सामने बच्चों को झिड़काना नहीं चाहिए। कमरे में ले जाकर उसे बताइए 'देखो अब हम माताजी से मिलने जा रहे हैं, श्री माताजी देवी हैं, तुम्हें भी वैसा व्यवहार करना है। हम उनके घर जा रहे है और तुम वहाँ कुछ नहीं मांगोगे। शांत रह कर तुम्हें अच्छा बर्ताव करना है।' इसी आयु में आप उन्हें आत्म-सम्मान सिखा सकते हैं। आप बच्चों को बताएं वे सोचेंगे कि तुम एक भिखारी के पुत्र हो। हमें गौरवशील लोगों की तरह व्यवहार करना है। अब तुम एक राजा के समान हो, तुम एक साक्षात्कारी आत्मा हो।' ये सब विचार आपने उनके मस्तिष्क में छः बर्ष की आयु तक भर देने हैं। चालीस वर्ष की आयु में यदि आप उन्हें आत्मसम्मान सिखाने लगें तो असम्भव है । दस वर्ष की आयु में भी आप यह नहीं कर पाएंगे। यह दो और छः वर्ष की आयु में होना चाहिए। आत्मसम्मान, साफ सुधरापन, अनुशासन आदि का विवेक केवल इसी आयु में ही सिखाया जा सकता है। यह अत्याधिक महत्त्वपूर्ण समय है क्योंकि पहले तीन महीने वे माँ के दूध पर होते हैं और तीन माह से दो वर्ष का समय एक प्रकार से बीच की अवस्था है। परन्तु दो से छ: वर्ष का समय ही केवल वांछित समय है। बनाया हुआ कच्चा मटका अब तक आग पर नहीं चढ़ा होता। दो से छः साल के बीच में आप इसे भट्टी में पकाते हैं। परन्तु आग में डालने से पहले आप इस पर प्रभाव छोड़ दें और फिर आग में डालें। ऐसा करना अति सरल है। बच्चे को बनाना अति रचनात्मक कार्य है । जैसे मैं समझती हैं कि सहजयोगी बनाना बहुत रचनात्मक कार्य है। एक मानव उत्पन्न करना महानतम, कलात्मक कार्य है। परमात्मा की बनाई यह महानतम रचना है। इस आयु में आप बच्चों की प्रतिभा खोज सकते हैं। उनकी रुचियाँ क्या हैं? क्या वे संगीत प्रवृत्त है? संगीत आरम्भ होते ही वह ३२ ाब े =ं की ি र लय को देखने लगेगा। क्या उनकी रुचि नृत्य में है या किसी अन्य कार्य में । प्रारम्भ से ही उनकी प्रतिभा खोज निकालनी चाहिए। बच्चे पर सभी कुछ न थोपे । कुछ बच्चे गणित में प्रखर होते हैं। परन्तु अन्य नहीं होते । यदि कोई बालक हस्तकला में अच्छा है तो उसे वहीं करने दो । सभी ज्ञान समान है। सहजयोग में ऐसा कुछ नहीं कि यह ज्ञान उस ज्ञान से ऊँचा है। यह सोचना केवल अविद्या मात्र है। जो रचना आप करना चाहते हैं उसका कौशल आपको प्राप्त करना है। सीखते हुए आपके लिए ऊँचा-नीचा कुछ नहीं। अत: बच्चे को उसकी रुचि के अनुसार करने दें । उसे संचालन करने दें लक्ष्य प्राप्ति हो जाएगी। कुछ बच्चों की रुचि कमरे तथा सभी कुछ साफ रखने में खाना बनाने में होती है । वे होटल प्रवन्धक बन सकते है । बच्चों को उदारता सिखाइए। उदारकृत्यों के लिए उनकी सराहना कीजिए। दूसरों की प्रशंसा करना बच्चों को सिखाएं। किसी की मिथ्यालोचना यदि वे करें तो आप बिल्कुल न सुनें । जब वे दूसरों की प्रशंसा करें तो आप ध्यान से सुने। छ: वर्ष की आयु तक यदि वे किसीसे लड़ रहे हो तो आप उन्हें लड़ने दें। अपनी समस्या का समाधान वे स्वयं कर लेंगे। परन्तु यदि वे बहुत अधिक झगड़ रहे हों तो उन्हें दो डंड़े ला दीजिए और एक दूसरे को मारने को कहिए । तब वे समझ सकेंगे। आप उनसे कहो, "एक दूसरे को अच्छी तरह मारो। जब आप दोनों घायल हो जाएंगे तो हम आपको चिकित्सालय ले चलेंगे अब लड़ाई करो।" उनके झगड़े का कारण खोजिए। ध्यानाकर्षण भी बच्चों का मनोविज्ञान है। ध्यानाकर्षित करने की इच्छा से बच्चा गाली गलौच की भाषा का प्रयोग भी कर सकता है। यदि आप कहें, 'ऐसा करने पर में तुम्हें मारुंगा', तो वे पुन: वैसा ही कहेंगे। परन्तु यदि आप उसे कोई तूल न देंगे तो बच्चा भूल जाएगा। पूरी मनोवृत्ति आपके ध्यानाकर्षण की है। परन्तु उनके किए गए अच्छे कार्य को यदि आप महत्त्व देंगे तो उस कार्य को भी बच्चे दोहराएंगे। ३३ ॥स नव आगमन NEW RELEASES CODE DVD'S -12th Ocr 2007 01) Navratni Celebmatoas 2007 02) Makar Sankataili Puja 03) Shri Ganesh Puja 04) 56 Republic Day Celehration 05) Christmas Puja 06) Guru Puja 07) Shri Gancsha Puja'iPait 1i 08) Birthday Puja (Pit - LALID 09) Shri Devi Puja (Part - 1) 10) Puja at Brahumupuri 11) Mihalakshmi Puji 12) Shri Kartikeya Puja 13) Diwali Puja i Shri Laxmi Puja) - Dist Nov! 19HG 14) Public Prograin 15) Shri Mahakalt Puja 16) Sahasrara Puja 17) Shri Cianeslu Puja. 195 17th Jan 2008 NEW RELEASES Tod Feb' 2008 197 26th lan' 2008 198 CODE SPEECH ACD'S & ACS 23rd De 1981 199 HINDI - 04th Jul 1982 200 027 -22nd Mar' 1979 24th Mar' 1979 -09th Jan' 1979 14th Jan' 1979 15th Jan' 1979 1 7th Jan 1979 13th Mar 1979 16th Mar' 1979 22nd Aug 1982 17th Mar 1985 31st May'1985 17th io, 1985 264 (12) पाने को बाद 3) लार्वजनिक कार्यक्र (14) मकर सन्काती पुजा 0S) मकर सन्करांती नेमीनाम (M6) चक्रोपन जरपस्धित देवता = (07) सार्वजनिक कार्यक्रम (8) विशुद्धो चक {9) दो संस्थाएँ - मन और बुद्धि 12) सार्वजनिक कार्यक्रम 202 356 357 203 204 358 - 06th Jan' 1986 205 359 13th Jut 1986 360 207 361 -05th May 1987 - 16th Ocr 1987 - Osth May'1988 16th Aug' 1990 31st Aung" 1990 06th Dee 1990 -10th Doc" 1950 Ith Dec' 1940) I6th Fel 1991 Jkth Juf (991 108 362 29th Jan' 1980 13th Dee' 1980 23rd Dec 1987 209 365 210 13) सार्वजनिक कार्यक्रम MARATHI 366 211 18) Shn Hana 1912 Publjc Program 20) सार्वजनिक बार् 212 uman Puja i0) सहज सेमीनार - माण ? ।) सहज सेमीनार 09th Dee 1980 363 364 213 10th Dec' 1980 214 21) लार्वजनिक दवारक 22) Mahaihiviatri Paja Part 1n 23) Guru l'uja Part -|&T) 24)Chirstmas Celebrations 2007 215 BHAJAN ACD/ACS CODE D NIRMAL SANGEET Meena Phatarpekar 129 25th Dee 2007 217 2) SAHAJ KI RAAH PAR 3) SHAHNAI RECITAL 4) VOCAL RECITAL 5) SAHAI KRANTI KI NIRMAL BHAKTI Baba Mama 130 Ustad Bismillah Khan 32 1311 25) Shni Bhairavnuith Puja, Part-I 261 Shri Cantsh Pija 06th Aig 1989 04th Augi" 1985 065 Jayteerth Mevuidi 079 Dhananjay Dhaumal TELUGU BHAJAN ACD 133 CODE D AMRUT VARSHINI PUJA TELIA HAJANS PL.B, Subra PL. B. Suhramanian 134 135 amaian अब आप स्वयं मंगवा सकते है - सहज योग की किताबे प्रवचन, पेडेटस् आदि মारत के किसी भी कौने से !!! ७ सरल विधी आदेश के :- NII के कटॉग (जो मुफ्त में किय जा सकते है) के जरिये भाघ ऑटियो और विडियो प्रवचन पुर्तके, फोटोगराप स आदि(की पर्मादय करे) को चुने । १) DNITL आपकटनोग ा आेटन. इ मेल केज्रिये alesar nilLc.in पर करकते है |nilLen.in पर ककते हैं। २) अपने आदेश को दूर-धनी, -मेत. फैक्स के जरिये NITL तक पहुँचा सकते हैं ३) नंपर्क नूचना निर्मल ट्रान्सफॉरमेशन प्रा. लि. लॉटनं, ८, चंद्रगु होउमिंग सोसायटी, पौड रोड कोयरुड, पुणे ४११.०३८ . फोन - ९१-२०-२५२८६५३ २. फैक्स : + ९१-२५२८६२२ आमकी सुतिधा के लिए दो भीर आदेशों के तरीकि (तेवसाईट पेमेंट गेट वे और टोत फी नंबर) जल्द ही उपतता तिये जानेवाते हैं। x) निम्नतिखित सूची जल्दही जपलu करवायी जाएगी। BOOKS RELEASE आपके आदेश ((RER) की कीमत, निप्रमेद ख संहित । आपके मा्सत को आप तक पहुँचाने का रामय। NAME RATE जिस आदेश (ORDER) की कीमत र्थये - १०.०००/- से ज्यादा होगी 1) The Advent 200/- उस पर कोई अतिरिक्त शिपमेंट की रकम नगाई नहीं जाएगी। TELUGU BOOKS 1) Nirmalanjali ५) एक्सिस बैंक के हमारे अकाऊंट- 10.4010100185554 में विसी भी शास्वा के RATE दवारारकम जमा करमकत हैं 100/- जमा की गई रकम की आप हमें जानकारी दें। अपने आदेश ((RER) को सीध aपने घर पाईये । ६) कि ७) 2) Face of God 150/- का मं १ा मि क्या गंगा तुम्हारी गागर की कीमत मापती है? अरे ! गंगा तो तुम्हारा वरण करके तुम्हारे अुभ घर आई है। तुम्हारे चरण धोती है इसलिए कि इस निर्मल प्रेम को वरण करो और रों की गागर भरो । साम दूस श्री माताजी निर्मला देवी श्र हा ---------------------- 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी मई - जून २00८ न १. 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-1.txt का ऊ ३ कु पा यम प्रकाशक + निर्मल ट्राँसफोर्मेशन प्रा. लि. द्ासिफ प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - फोन : ०२०- २५२८६७२०, २५२८५२३२ ४११ ०२९ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-2.txt पर ४. इस अंक में आपको क्षमा करनी चाहिए (ईस्टर पूजा) १) ध्यानधारणा एवं प्रार्थनाएँ २) ८ ३) श्री भैरवनाथ पूजा - १२ ४) प्रश्नोत्तर १४ ५) पीलिया व अधिक गर्म जिगर का आहार १५ १६ श्री बुद्ध पूजा ६) आपको लोगों तक पहुँचना है -२० ७) ८) तीन नाड़ियाँ और चक्रों का महत्त्व २२ ९) विशेष उत्तरदायित्व -२३ -- १०) श्री विष्णुमाया २४ ११) मिथ्या -- - २६ १२) बच्चों पर श्री माताजी की वार्ता २८ ८ र शनद कि भी क 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-3.txt आपको क्षमा करना चाहिए (ईस्ट पूजा ) पूजा) प्राईड होटेल - २३ मार्च ०८, अनुवादित री HAPPY EASTER ४ न. मस्ते, आज जो भी यहाँ पूजा के लिए उपस्थित हैं मुझे पता नहीं आप लोग कैसे आ पाए वैसे भी, आज का दिन बड़ा ही महत्त्वपूर्ण दिन है हम सब के लिए, क्योंकि आप जानते हैं कि किस तरह ईसा की मृत्यु हुई। उन्हे सूली पर चढ़ाया गया और फिर वह गुजर गए। हमे भी दूसरों को क्षमा करना चाहिए। ऐसा करना लोगों को बड़ा ही कठिन लगता है और फिर अगर वह नाराज हैं तो वह नाराज है। वे क्षमा नहीं कर सकते। फिर आप सहजयोगी नहीं है। सहजयोगियों को अवश्य क्षमा करना चाहिए। ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ईसा मसीह से यही शक्ति हमें प्राप्त हुई है - क्षमा करना। मानव गलतियाँ करता है, यह उसके जिंदगी का एक हिस्सा है। पर सहजयोगी होने के नाते आपको समझ लेना चाहिए कि आप को क्षमा करना है। क्योंकि गुस्सा होने से भी यह कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । इसीलिए जो भी व्यक्ति गलती करता है आप के मुताबिक या फिर भगवान के मुताबिक, उसे आपको क्षमा कर देना चाहिए। क्षमा का गुण इतना महान और संतोषजनक है कि आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। अगर आप लोगों को माफ कर दोगे तो आप अत्यन्त शुद्ध हो जाओगे क्योंकि अपने अन्दर जो गंदगी या गुस्सा है वह बाहर निकल जाएगा । इसलिए क्षमा करना मनुष्य का सबसे बड़ा वरदान है। हालांकि ईसा भी यही कहते थे, 'मैं उन्हें क्षमा करता हूँ क्योंकि उन्हें पता नहीं कि वे क्या कर रहें हैं।' अगर ईसा का ऐसा कहना है तो फिर आपका क्या? हम सब साधारण मनुष्य हैं और अगर हम कोई गलती करेंगे तो फिर लोग गुस्सा हो जाएंगे और नाराज हो जाएंगे। पर आप के लिए सब से अच्छी बात है-क्षमा करना। 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-4.txt उसके लिए क्षमा करें जो कार्य नहीं किया जाना चाहिए था। यह ईसा का सबसे बड़ा गुण था कि वे जानते थे कि किस तरह से क्षमा करना चाहिए। उन्होंने उन्हें भी क्षमा किया जिन्होंने भयंकर गलतियाँ की। फिर भी उन्हें क्षमा किया क्योंकि वे उनसे प्यार करते थे । और आप की जो भी शक्तियाँ हो, यही है जो हमें भी करना है - क्षमा । आज उस के लिए विशेष दिन है, एक विशेष दिन क्षमा के लिए । और इसलिए मैंने आप ने जो भी कहा है कि आप जो भी सोचे कि बहुत देर हो चुकी है, पर हमें मिलना था क्योंकि मुझे समय गवाना नहीं था। क्षमाशीलता उन लोगों से आती है जो बड़े उदार होते हैं, अच्छे हृदय के होते हासिल किया हैं। यद्यपि हर कोई गलती करता है, तो हम भी गलती कर सकते हैं, और इसका मतलब है कि हमें क्षमा करने का अधिकार है और क्षमा करने के लिए हृदय भी। अगर आप के पास हो अपनी वह नहीं है तो आप सहजयोगी नहीं है। आप को क्षमा करना सीखना है और बिना किसी शर्त के आप को क्षमा करनी है। जिन्दगी में, दि० आज का दिन बड़ा विशेष है क्योंकि ईसा ने भी यही किया था। आप कह सकते हैं कि वे एक सबसे अधिक शक्तिशाली देवता थे, सबसे अधिक शक्तिशाली। वे कुछ भी कर सकते थे और वे उन्हें सजा दे सकते थे-सबको, उनके दुराचार के लिए । पर उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा कि, मैं क्षमा करता हूँ और उन्होंने भगवान से भी कहा कि 'उन्हें क्षमा कर दें।' आप कोई भी पदाधिकारी हों अत: आप की जो भी शक्तियाँ हों, आप ने जो भी हासिल किया हो अपनी जिन्दगी में, आप कोई भी पदाधिकारी हो पर आप को सीखना चाहिए कि किस तरह से क्षमा करना चाहिए, वरना आप अपनी जिन्दगी में कहीं के नहीं रहेंगे। आप को सीखने का प्रयत्न करना चाहिए- पट आप को क्षमा करना। वह एक बहुत हो महान गुण है। अगर आप क्षमा कर सके तो हर वक्त क्षमा करें । सीखना चाहिए और इसलिए आज मुझे आप सबसे मिलना था और बताना था कि आज का दिन कि किस तरह क्षमा का है। इसका यह मतलब नहीं कि आप बैठकर के सोचने लग जाएं कि आप को कितने लोगों को क्षमा करना है? वह मूर्खता होगी। पर कभी कभी कुछ बातें आप को परेशान करती हैं और आप सोचने लगते हैं कि आप को सताया गया है और आप को क्षमा कटना मुश्किल में ड्राला गया है। वे बस ऐसा सोचते रहते है और आपको पता नहीं कि कितनी शक्तियाँ हैं आपमें और इतनी सब शक्तियाँ होने के बावजूद आप क्षमा नहीं कर सकते। और चाहिए, वटना सबसे महान शक्ति जो आप में है, वह क्षमा की शक्ति है। आप अपनी आज का दिन क्षमा का है। उन लोगों को क्षमा करना है जिन्होंने आप के मुताबिक गलती की है या फिर आप से सख्त रहे हों। कृपया याद करने की कोशिश करें कि आप अभी जिन्दगी में भी और कितने लोगों से नाराज हैं और उन्हें क्षमा कर दें। ऐसा करने पर आप ने उन्हें उनकी सजा दे दी। अगर आप उन्हें दिल से माफ कर दें तो फिर समझ लीजिए कि आप ने उन्हें सजा कहीं के नहीं दे दी। आप ने उन्हें वो वापिस कर दिया जिसके वे योग्य थे या जिसे चाहते थे इसलिए ऐसी कोई बड़ी मुश्किल बात नहीं है - क्षमा करना । पर लोग सोचते है कि बड़ा कठिन होता है माफ करना क्योंकि उन्हें अपने बारे में समझ होती है की वे कुछ महान है। और फिर वे सोचते हैं कि किस तरह से वे क्षमा कर सकते हैं ? रह जाएंगे । 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-5.txt मुझे पता नहीं कि कौन सी बातें आपको परेशान करती हैं, कुछ भी आप को परेशान हमें अपनी कर सकता है, आखिरकार आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। आप ने अपना पुर्नजन्म पाया है, आप लोग विशेष हैं। इसलिए आप में विशेष गुण होना चाहिए और वह विशेष गुण है क्षमा का । शक्ति को यह क्षमा करना, न कि याद करते जाना कि किन बातों से आप को नाराज होना है और कौन सी बातों से परेशान, बस केवल याद करें कि किन सब बातों को क्षमा करना है। सोचने में नहीं बस, केवल क्षमा करें ! किसलिए? ये बड़ी सरल सी बात है। समझ लीजिए कि आप को किसी ने थप्पड़ मारा। ठीक है, अगर कोई मुझे थप्पड मारें तो मुझे क्या करना चाहिए? गरवाँना चाहिए क्या मुझे भी उसे थप्पड़ मारना चाहिए? नहीं। तो फिर क्या मुझे उसे पुछना चाहिए कि आपने मुझे थप्पड क्यों मारा? नहीं। फिर मैं ये सोचूंगी कि वह नासमझ, मूर्ख था जो उसने ऐसा किया। इससे भी कुछ होनेवाला नहीं है। इसके बजाय आप क्षमा कर सकें तो आप क्षमा करें उस व्यक्ति को जिसने कुछ गलती की हो । आपके लिए ये महत्त्वपूर्ण है कि उसे क्षमा करें क्योंकि इसका कोई परिणाम नहीं होगा। एक बार आपने क्षमा किया तो इसका कि क्या गलत है, उसने क्या आप पर, आप की अच्छाई पर या पवित्रता पर कोई असर नहीं पड़ेगा। किया और पर मुझे लगता है कि मनुष्य को सामान्य तौर पर क्षमा करने में बड़ी कठिनाई होती है। सामान्यतीर पर..... आपको उसके पर आप सब आत्म साक्षात्कारी हैं, आप केवल साधारण मनुष्य नहीं हैं इसलिए मैं आपसे विनती करती हैँ कि आप यह याद रखें कि आप के पास शक्ति है क्षमा करने की। हर उस व्यक्ति को क्षमा करें जिसने भी आपको चोट पहुँचाई हो, जिसने आपको तकलीफ दी साथ क्या हो, जिसने आप को दुःख पहुँचाया हो। हम कितनी दूर तक जा सकते हैं? सिर्फ उसे क्षमा करने की सोचो और फिर आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे, वह बदल जाएगा। उसमें बदलाव । करना ह आएगा और आप भी अपने आप से संतुष्ट हो जाएँगे। यह समझना लोगों के लिए बड़ा कठिन कार्य है पर आप सिर्फ प्रयत्न कीजिए । मैं जो कहती हैँ उसे आप सिर्फ प्रयत्न कीजिए । अगर कोई आपको नुकसान पहुँचाता हो, आप उसे सिर्फ क्षमा कीजिए और प्रतिक्रिया देखिए, उस व्यक्ति की प्रतिक्रिया और स्वयं को भी देखिए क्या होता है। पर अगर आपको नाराजगी और मूर्खता और जो भी हो उसका बोझ उठाना हो, तो आप अनावश्यक चीज़ों से यह सब हमें नहीं करना है। उसे अकेला दब जाएंगे। छोड़ दें और हमें अपनी शक्ति को यह सोचने में नहीं गवाँना चाहिए कि क्या गलत है, उसने क्या किया और आपको उसके साथ क्या करना है। यह सब हमें नहीं करना है। उसे अकेला छोड़ दें और आप सिर्फ क्षमा करें और कहें कि मैेंने क्षमा किया। आप सिर्फ क्षमा ईसा को देखिए, इतने शक्तिमान व्यक्ति, इतने शक्तिमान भगवान और ज़ब उन्हें सूली पर चढ़ाया गया तब भी उन्होंने उन लोगों के लिए क्षमा माँगी। उन्होंने ऐसा क्यों किया ? क्योंकि उस में शक्ति है। यह कहना कि मैंने क्षमा किया बहुत ही प्रभावशाली होता है। आप अपनी शक्ति नहीं खोएंगे, इसके विपरीत आप अपनी शक्ति के और अधिक उँचाई तक पहुँच जाएंगे, आप अपने व्यक्तित्त्व में अधिक ऊँचाई पर पहुँच जाएंगे। सिर्फ, क्षमा करें। करें और कहें कि मैंने क्षमा किया। बस, यह कहना बड़ा ही आसान है कि "मैंने क्षमा किया"। 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-6.txt कर स सक मा यही मेरा तरीका है क्योंकि लोगों के अपने ही तौर-तरीके रहते है और वे जो चाहें करते हैं पर मुझे इस बात पर कभी गुस्सा नहीं आता है। मैं उस बात से नाराज नहीं होती हूँ और ना ही मुझे उस बात की परवाह है। मैं सिर्फ कहुँगी, मैंने क्षमा किया, बस और आपको आश्चर्य होगा, मेरे अन्दर इससे बड़ी मदद हुई। सही में, बहुत ही मदद हुई। बा बा तो यह एक बड़ा गुण है जिसके लिए आज का दिन बड़ा महत्त्वपूर्ण है। सूली पर ईसा ने कहा हे भगवान, उन्हें क्षमा करों, क्योंकि उन्हें पता नहीं कि वेक्या कर रहेंहैं।' सूली पर, जहाँ पर उनकी मृत्यु हो रही थी। उन्होंने ऐसा कहा और इससे हमें सीखना है - क्षमा करना। यह अपनी भलाई के लिए है ना कि दूसरों के लिए । इससे हमारी मदद होगी। अगर आपने क्षमा किया तो अपने लिए यह अंत: से बहुत ही उपयोगी संदेश है। यह संदेश आज के लिए और हमेशा के लिए है, हमेशा के लिए। यदि अगर आप बारबार किसी से गुस्सा हो जाएँ तो सिर्फ कहिए कि 'मैंने क्षमा किया' । आप देखोगे कि यदि कोई आपको दुःख दे रहा है या सता रहा है या कोई नुकसान पहुँचा रहा है तो आप की प्रतिक्रिया कैसे होगी? सिर्फ क्षमा करो। सिर्फ क्षमा करो । सिर्फ यही एक रास्ता है। इसलिए आज का दिन हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । मुझे बहुत आनन्द हो रहा है कि कुछ लोग यहाँ हैं और इसलिए भी की मैं आप से बात कर पायी। धन्यवाद ! ंः पम S0C:,- 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-7.txt ध्यान धारणा एवं प्रार्थनाएँ (श्री माताजी द्वारा कराई विधि : शुडी कैम्प, इंग्लैंड १२.६.८८, के प्रवचन में का परिच्छेद) को ात वि वतने भयानक समय से हम गुजर रहे हैं। इससे मुकाबला करना आवश्यक है। अब तक लड़े गए युद्धों से यह कार्य से यह कहीं कठिन है । एक भयानक विश्व की सृष्टि हो चुकी है और हमने इसे कहीं कठिन है। मानव द्वारा किए गए सभी संघर्ों परिवर्तित करना है। यह अति कठिन कार्य है। इसके लिए आपको अत्यन्त सच्चाई से कार्य करना होगा । मुझे विश्वास है कि यह घटित होगा। इसे घटित होना होगा। एक मस्तिष्क तथा हृदय से, सामुहिक रूप में आपने यह प्राप्त करना है। मैं क्या बलिदान करूँ? मुझे क्या करना चाहिए? किस प्रकार मुझे सहायता करनी चाहिए? मेरा क्या योगदान है? काश, मैं अपने जीवनकाल में वे दिन देख पाती। अत: आज हमें अन्तर्दर्शन करना है । तो क्या हम ध्यान करें? कृपया आप सब अपनी आँखे बंद कर लीजिए । जैसे हम जन कार्यक्रम में करते हैं वैसे ही ध्यान करेंगे। अपना बायाँ हाथ मेरी ओर करके शरीर के बायें भाग में आप सब कार्य करेंगे। सर्वप्रथम अपने हृदय पर दायाँ हाथ रखना है। हृदय में शिव का निवास है, आत्मा का स्थान है। अत: आपने अपनी आत्मा का धन्यवाद करना है कि इसने आपके चित्त को प्रकाशमय किया है। क्योंकि आप संत है अत: जो प्रकाश आपके हृदय में हुआ है उससे आपने पूरे विश्व को ज्योतिर्मय करना है। अत: कृपया अपने हृदय में प्रार्थना कीजिए कि : श्री माताजी, परमात्मा के प्रति मेरे प्रेम का यह प्रकाश पूरे विश्व में फैले। अपने प्रति पूर्ण सच्चाई तथा समझदारी रखते हुए कि आप परमात्मा से जुड़े करेंगे वह पूरी होगी। हैं और पूर्ण आत्मविश्वास से आप जो इच्छा हुए अपना दायाँ हाथ अपने पेट के उपरी हिस्से पर, बाईं ओर रखें । यह आपके धर्म का केन्द्र है। यहाँ आपको प्रार्थना करनी है कि 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-8.txt प्रार्थना .... श्री माताजी, विश्व निर्मला धर्म पूरे विश्व में फैले । हमारा धार्मिक जीवन तथा धर्मपरायणता लोगों को प्रकाश दिखाए। अपनी घर्मपरायणता लोगों को देखने दें ताकि वे विश्व निर्मला धर्म स्वीकार करें जिसके द्वारा उन्हें ज्ञान, हितैषिता, उच्च जीवन तथा उत्थान की इच्छा प्राप्त होगी। अब अपना दायाँ हाथ अपने पेट के निचले हिस्से पर, बाई ओर रखें। इसे थोड़ा सा दबायें। यह आपकी शुद्ध विद्या का केंद्र हैं। सहजयोगी होने के नाते यहाँ पर आप कहें कि :- परमात्मा की कार्यप्रणाली का पूर्ण ज्ञान हमें हमारी श्री माताजी ने प्रदान किया है। हमारी सूझबूझ तथा सहनशक्ति े अनुसार श्री माताजी ने हमें सारे मंत्र तथा शुद्ध विद्या दी है। हम सब को इसका पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। मैंने देखा है कि, यदि पति अगुआ है तो पत्नी को सहजयोग का एक शब्द भी नहीं आता। यदि पत्नी को सहजयोग का ज्ञान है तो पति इसके बारे में कुछ नहीं जानता। प्रार्थना कीजिए कि श्री माताजी, मुझे इस ज्ञान में निपुण कीजिए ताकि मैं लोगों को आत्मसाक्षात्कार दे सकूं, तथा उन्हें दैवी-कानून, कुण्डलिनी तथा चक्रों के विषय में समझा सकूं श्री माताजी कृपा कीजिए कि मेरा चित्त सांसारिक वस्तुओं की अपेक्षा सहजयोग में अधिक हो। अब दायाँ हाथ पेट के उपरी हिस्से में, बाईं ओर रखें। आँखे बंद रखें। पेट को हाथ से थोड़ा सा दबा कर रखें। यहाँ पर कहें कि श्री माताजी ने मुझे आत्मा प्रदान की है, जो कि मेरी गुरू हैं। पूर्ण हृदय से कहें श्री माताजी, मैं स्वयं का गुरू हूँ। मुझमें असंयम न हो, मेरे चरित्र में गरिमा और आचरण में उदारता हो। अन्य सहजयोगियों के लिए मुझमें करुणा तथा प्रेम हो। श्री माताजी मुझ में बनावटीपन न हो। परमात्मा के प्रेम तथा उसके कार्यों का गहन ज्ञान मुझे हो ताकि जब लोग मेरे पास आयें तो मैं उन्हें प्रेम तथा नम्रतापूर्वक सहजयोग के विषय में बता सकूं और यह महान ज्ञान उन्हें दे सकूं । अब अपना दायाँ हाथ अपने हृदय पर रखें। यहां पूर्ण हृदय से कहें :- श्रीमाताजी, आनन्द तथा क्षमा के सागर का अनुभव आपने हमें प्रदान किया। अपनी ही तरह अत: क्षमाशीलता आप ने हमें दी। श्री माताजी आपको कोटि-कोटि प्रणाम । कृपा करके मेरे हृदय को इतना विशाल कीजिए कि पूरा ब्रह्माण्ड इसमें समा जाए। मेरा प्रेम आपके नाम का गुंजन करे। मेरा हर श्वास आपके प्रेम की सुन्दरता की अभिव्यक्ति करे। अब आप अपना दायाँ हाथ बाईं विशुद्धि की ओर से ले जाकर गर्दन के मध्य में पीछे की ओर मध्य विशुद्धि चक्र पर रखें । पूर्ण विश्वास के साथ कहें : 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-9.txt मैं कपट तथा दोष से लिप्त नहीं रहूँगा । अपने दोषों को मैं छिपाऊँगा नहीं, उनका सामना करके उनसे मुक्त हुँगा। मैं दूसरों के दोष नही ढूँढूंगा। अपने सहजयोग के ज्ञान द्वारा उन्हें दोषमुक्त करुँगा (हमारे पास चुपके चुपके दूसरों के दोष दूर करने, के बहुत से तरीके है) श्री माताजी मेरी सामुहिकता को इतना महान बनाइए कि पूर्ण सहजयोग जाति मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरा घर तथा मेरा सर्वस्व बन जाएं क्योंकि हम सबकी एक ही माँ है। अत: मुझमें पूरी तरह तथा अन्तर्जात रूप से यह भाव जागृत हो जाए कि मैं पूर्ण का ही अंग प्रत्यंग हूँ, मुझे पूरे विश्व की समस्याओं को जानने की तथा अपनी शुद्ध इच्छा तथा शक्ति से उनका समाधान करने की चिंता हो। श्री माताजी कृपा करके हमें अपने हृद्य में, अन्तर्जात रूप से पूरे विश्व की समस्याओं को जानने तथा उनके कारणों को जड़ से समाप्त करने की भावना मुझे प्रदान कीजिए। मुझे इन समस्याओं के मूल तक पहुँचाइये ताकि मैं अपनी सहजयोग तथा सन्त सुलभ शक्तियां द्वारा इन्हें दूर करने का प्रयास करूँ। अब अपने दायें हाथ से आप अपने कपाल को पकड़िये। यहाँ आपको यह कहना होगा कि : श्री माताजी, मैं उन सब लोगों को क्षमा करता हूँ, जो सहजयोग में नही आये हैं, जो अभी परिधि-रेखा पर हैं, जो आते है और जाते हैं, जो कभी सहजसागर के अन्दर कूदते हैं और कभी इससे बाहर। परन्तु सर्वप्रथम में सारे सहजयोगियों को क्षमा करता हूँ क्योंकि वे सब मुझसे कहीं अच्छे हैं। मैं उनके दोष खोजने की चेष्टा करता हूँ पर वास्तव में में उन सबसे तुच्छ हूँ। मुझे सबको क्षमा करना हैं क्योंकि मुझे अभी बहुत दूर जाना हैं। में अभी बहुत तुच्छ हूँ। मुझे स्वयं को सुधारना हैं । यह नम्रता हममें आनी चाहिए, अत: आपको यहाँ कहना होगा कि - श्री माताजी, मेरे हृदय की सच्ची नप्रता मेरे अन्दर क्षमाभाव उत्पन्न करें ताकि में वास्तविकता, परमात्मा तथा सहजयोग के प्रति नतमस्तक हो जाऊँ। अब आप अपना दायाँ हाथ सिर के पीछे के भाग पर रखें । सिर को अपने हाथ पर पीछे की ओर झुका लें। यहाँ पर आप कहें कि श्री माताजी, अभी तक आपके प्रति हमने जो भी अपराध किये हैं, हमारे मस्तिष्क में जो भी बुराई आती है, जो भी तुच्छता आपको दिखाई है, किसी भी प्रकार से आपको दुःख पहुँचाया है या आपको चुनौती दी है, तो कृपा करकें हमें क्षमा कर दीजिए । आपको क्षमा मांगनी पड़ेगी। अपने विवेक से आपको जानना चाहिए कि मैं क्या हूँ। मुझे बार-बार यह बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । ट अब सहस्रार पर आपको मेरा धन्यवाद करना होगा अपना दायाँ हाथ सहस्रार पर रखकर सात बार घड़ीकी सुई की दिशा में इस प्रकार घुमाएं कि सिर की चमड़ी भी हल्की-हल्की घूमें सात बार मेरा धन्यवाद करें । कहें कि :- १. श्री माताजी आत्मसाक्षात्कार प्रदान करने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटिप्रणाम । २. श्री माताजी हमारी महानता हमें समझाने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । to 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-10.txt ० ३. श्री माताजी परमात्मा के सभी आशीर्वाद हम तक लाने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ४. श्री माताजी हमें तुच्छता से उठा कर उच्च स्थिती पर लाने के लिए हम आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ५. श्री माताजी जो आश्रय आपने हमें प्रदान किया तथा आत्मोत्रति के लिए जो सहायता आपने कृपा करके हमें दी उसके लिए हम हृदय से आपके आभारी हैं। आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ६. श्री माताजी हम हृदय से आभारी हैं कि आप पृथ्वी पर अवतरित हुए मानव जन्म लिया और हम सब के उत्थान के लिए घोर परिश्रम कर रहे हैं । आपको कोटि-कोटि प्रणाम । ७. श्री माताजी हमारा रोम रोम आपका ऋणी है। आपको कोटि-कोटिप्रणाम । ११ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-11.txt भैरवनाथ श्री पजा में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहजयोगी की क्षमता है। हर नकारात्मकता ६ अगस्त १९८९, कारलेट, इटली आजहम श्री भैरवनाथ की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। मेरे विचार में हमने श्री भैरवनाथजी, जो कि ईड़ा- नाड़ी पर हैं और उपर-नीचे की ओर विचरण करते हैं, का महत्त्व नहीं समझा है। ईड़ा-नाड़ी चन्द्र नाड़ी है। अत: यह स्वयं को शांत करने का मार्ग है और भैरवनाथजी का महत्त्व हमें शांत करने का है। उदाहरणतया अहं और जिगर की गर्मी ही हमारे क्रोध का कारण है। जब मनुष्य अत्याधिक क्रोध में होता है तो श्री भैरवनाथ उसे दुर्बल बनाने के लिए चाल चलते हैं। वे श्री हनुमान जी की सहायता से उस क्रुद्ध मनुष्य को इस सत्य की अनुभूति कराते हैं कि क्रोध की मूर्खता में कोई अच्छाई नहीं है। |वे। एक वाम-तरफी व्यक्ति सामूहिक नहीं हो सकता। एक उदास, अप्रसन्न तथा चिंतित व्यक्ति के लिए सामूहिकता का आनन्द ले पाना अति कठिन है। जबकि एक क्रोधी, राजसिक व्यक्ति दूसरों को सामूहिकता का आनन्द लेने नहीं देता। परन्तु स्वयं सामूहिकता में रहने का प्रयत्न करता है जिससे उसका उत्थान हो सके। ऐसा व्यक्ति केवल अपनी श्रेष्ठता को ही दिखाना चाहता है। अत: वह सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इसके विपरीत जो व्यक्ति हर समय खिन्न है और सोचता है कि मुझे कोई प्यार नहीं करता, कोई मेरी चिन्ता नहीं करता, और जो हर समय दूसरों से आशा रखता है, वह भी सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इस प्रकार के बाम तरफी व्यक्ति को हर चीज़ से उदासी ही प्राप्त होगी। हर चीज़ को अशुभ समझने की नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण हम अपनी बांयी तरफ को हानि पहुंचाते है। श्री भैरवनाथ अपने हाथों में प्रकाशदीप लिए ईड़ा -नाड़ी में ऊपर-नीचे को दौड़ते आपके लिए मार्ग प्रकाशित करते हैं जिससे कि आप देख सको कि नकारात्मक कुछ भी नहीं। नकारात्मकता हम में कई प्रकार से आ जाती है। एक नकारात्मक तत्त्व हुए हे कि "यह मेरा है" "मेरा बच्चा" " ", "मेरी सम्पत्ति" इस प्रकार एक बार जब आप लिप्त हो जाते हैं तो आपके बच्चों में भी नकारात्मक तत्त्व आ जाते हैं। परन्तु यदि आप सकारात्मक होना चाहते हैं तो यह सुगम है, इसके लिए आपको देखना है कि आपका चित्त कहाँ है? हर नकारात्मकता में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहजयोगी की 'मेरा पति' क्षमता है। नकारात्मकता का कोई अस्तित्व नहीं, यह केवल अज्ञानता है। अज्ञानता का भी कोई अस्तित्व नहीं। जब हर चीज़ केवल सर्वत्र व्याप्त शक्ति मात्र है तो अज्ञानता का अस्तित्व कैसे हो सकता है? परन्तु यदि आप इस शक्ति की तहों में छुप जाओ और इससे दूर दौड़ जाओ तो आप कहेंगे कि नकारात्मकता है। उसी प्रकार से जैसे आप यदि अपने आपको एक गुफा में छिपा लें और गुफा को अच्छी तरह बंद करके कहें कि "सूर्य नहीं है।" बो लोग जो सामूहिक नहीं रह पाते या तो बायीं ओर के होते हैं या दायीं ओर के। बायीं ओर के लोग नकारात्मकता में सामूहिक हो सकते हैं जैसे की शराबियों का बन्धुत्व, ये लोग अंत में पागलपन तक पहुँच जाते हैं। जबकि दायीं ओर के लोग मूर्ख हो जाते हैं । यदि एक सहजयोगी सामूहिक नहीं हो सकता तो उसे जान लेना चाहिए कि वह सहजयोगी नही है। भैरवनाथ हमें अंधेरे में भी प्रकाश प्रदान करते हैं क्योंकि वह हमारे अंदर के भूतों और भूत ही विचारों का विनाश करते हैं। श्री भैरवनाथ श्री गणेश से भी संबंधित हैं। श्री गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं और श्री भैरव बायीं तरफ जाकर दायीं तरफ चले जाते हैं। अत: हर प्रकार के बंधन और आदतों पर श्री भैरवनाथ की सहायता से विजय पायी जा सकती है। नेपाल में श्री भैरव की एक बहुत बड़ी स्वयंभू मूर्ति है । वहां लोग बहुत बायीं ओर हैं। अत: वे श्री भैरव से ड्रते है। यदि किसी को चोरी करने की बुरी आदत हो तो उसे छोड़ने २र १२ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-12.txt ु ीिं ा भि ी म 5ा ाग क गुल ১ १० ० ह क मा कम के लिए वह श्री भैरवनाथ के सामने दिया जलाकर उनके सम्मुख अपना अपराध स्वीकार करें तथा इस बुरी आदत से बचने में उनकी मदद लें। अनुचित तथा धूर्ततापूर्ण कार्य करने से भी श्री भैरवनाथ हमारी रक्षा करते है। जिस कार्य को हम बहत ही गुप्त रूप से करते हैं वह भी श्री भैरव से छुपाया नही जा सकता। यदि आप अपने में परिवर्तन नही लाते तो वे आपकी बुराईयों का भांड़ा फोड़ देते हैं। इसी तरह उन्होंने सब भयानक तथा झूठे गुरूओं का भांड़ा फोड़ दिया है। बाद में श्री भेरव का अवतरण इस पृथ्वी पर श्री महावीर के रूप में हुआ । वेनर्क के द्वार पर खड़े रहते हैं ताकि लोगों को नर्क पड़ने से बचा सकें। परन्तु यदि आप नर्क में जाना ही चाहे तो वे आपको रोकते नहीं। अच्छा हो यदि हम अपनी नकारात्मकता से लड़ने का प्रयत्न करें तथा दूसरों का संग पसन्द करनेवाले, दूसरों से प्रेम करनेवाले तथा चुहल पसन्द लोग बन जाएं । दूसरे आपके लिए क्या कर रहे हैं। इसकी चिंता किए बिना आप केवल ये सोचे कि आप दूसरों का क्या भला कर सकते हैं। आओ हम श्री भैरवनाथ से प्रार्थना करें कि वे हमें "हँसी", "आनन्द" तथा "चुहल" की चेतना प्रदान करें। १३ सुज कि ी 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-13.txt प्रश्नोत्तर चैतन्य लहरी १९८९ गुरु की व्याख्या क्या है? प्रश्न १ गुरू को अपने शिष्य की पूरी भलाई व धर्मपरायणता का उत्तरदायित्व एक माँ की भाँति लेना पड़ता है। गुरू वह हैं जो अपने शिष्य को ब्रह्म चैतन्य से जोड़ता है। आप उसे खरीद नहीं सकते । यदि आप गुरू को खरीदते हैं तो वह आपका सेवक हो जाता है, गुरू नहीं रह सकता। : राज योग, भक्ति योग, जप योग व सहज योग में क्या अन्तर है? प्रश्न २ -आधुनिक राजयोग, बिना ईंधन को जलाये कार के पहियों को चलाने के प्रत्यन के समान है। राजयोग अपने आप ही सहजयोग में समाविष्ट है। जैसे खाना खाते ही हमारा पाचनतंत्र स्वयं ही क्रियाशील हो जाता है। उसी- तरह जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो आप स्वयं ही ईश्वर से जुड़ जाते हैं। जब आप ईश्वर के साम्राज्य में हैं तो एक बार ही ईश्वर का नाम लेना (ध्यान देना) काफी है । बार बार ईश्वर का नाम जपकर यह मत समझियें कि ईश्वर आपकी जेब में हैं। (उन्मुक्त हँसी) भक्ति दो प्रकार की हो सकती है, पहली -अन्ध भक्ति, दूसरी - जागृत भक्ति अर्थात सहजयोग । ईश्वर से बिना जुड़े भक्ति करना व्यर्थ है। वह एक बिना सम्बन्ध जोड़े फोन करने के समान है। श्री कृष्णजी के कथनानुसार यह अनन्य भक्ति होनी चाहिए अर्थात इस जैसा अन्य कोई हो ही नहीं सकता। : सभी नदियाँ कहीं न कहीं जाकर समुद्र में गिरती है, हमें कैसे ज्ञात होगा कि हम कब पहुँचे? -मैं सोचती हूँ की आप, अपनी यात्रा के गंतव्य पर पहुँच गये हैं। यदि आप सोचते हैं कि आप नहीं पहुँचे, तो अच्छा हो कि आप वापिस जायें और फिर अपनी यात्रा कर यहाँ पहुँचे। (उन्मुक्त हँसी) : गीता का उपदेश अर्जुन को दिया गया था लेकिन इसका आदेश सार्वभौमिक है । सभी ग्रन्थों का उपदेश सारी मानवजाति के लिए है। यह सिर्फ शद्वों तक ही सीमित नहीं अपितु अपने को उसके प्रश्न ३ प्रश्न ४ अनुसार ढ़ालने में है। एक स्थित प्रज्ञ (जागृत आत्मा) तथा गीता के अध्ययनकर्ता या उपदेशक में इतना अन्तर क्यों हैं? क्योंकि आपको एक "स्थित प्रज्ञ" बनना है, उसी कार्य के लिए मैं आई हूँ। : शिक्षा के सम्बन्ध में? प्रश्न ५ उच्च शिक्षा पा लेना ही काफी नहीं हैं। निर्णय क्षमता (Discretion) का भी प्रयोग करना है। क्या ध्यान करना (Meditation) मेस्मेरिजम है? प्रश्न ६ -मेस्मेरिजम में मानव चेतना नहीं रहती । सहजयोग में मानव चेतना जागृत व विस्तृत होती है। वह असीम हो जाती है। मेस्मेरिजम में आपकी आँखे खुली रहती है जिन से आप अचेत अवस्था में पहुँचाये जाते हैं जबकि सहजयोग में ध्यान करते समय आपकी आँखे बन्द रहती हैं। इसलिए उनका प्रयोग मेस्मेरिजम के लिए नहीं किया जा सकता। प्रश्न ७ : महाराष्ट्र में अकाल क्यों? जबकि यह एक योग भूमि है? -क्योंकि यहाँ के लोगों ने चीनी से शराब बनाना शुरू कर दिया है। जो योग भूमि में रह रहे है उन्हें ज्ञान होना चाहिए कि वह क्या कर रहें हैं। जो इस योग भूमि में पैदा हुए हैं उनका बड़ा उत्तरदायित्व है कि आत्म जागृति प्राप्त करें। १४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-14.txt श्री माताजी द्वारा दी गई सलाह पीलिया व अधिक गर्म जिगट का आहार चैतन्य लहरी १९९०, भाग २, खण्ड १, २ रोज सुबह व शाम एक ग्लास मूली के पत्ते का चीनी के साथ उबाला हुआ रस पीजिए। रोज सुबह एक ग्लास कोकम शरबत पीजिए । २. बॉयें हाथ में पकड़ कर बर्फ कपड़े में लिपटा, जिगर पर रखें और दाँयें हाथ को प. पू.श्री माताजी की तस्वीर की ओर करें। तस्वीर के सामने बिना कोई दिया या मोमबत्ती जलाकर ध्यान करें। ३. बंगाली मिठाईयाँ खा सकते हैं। (रसगुल्ला इ. मलाई बगैर) चरबी, तेल, लाल मिर्च और तला हुआ खाना किसी भी स्थिति में नही खाना चाहिए। ५. मछली और दूध से बने पदार्थ मना है। मठूा (लस्सी) जिससे मक्खन निकाला हो, लिया जा सकता है। ६. टिन का पनीर बिल्कुल मना है। ७. लिव-५२ की गोलियाँ - दिन में ३-४ गोलियाँ दो महीने तक। ८. सब नींबू का सट (Citrus) फल खा सकते है। (आम, सेब, केला, पपीता या चीकू मना है।) ९. गत्ने का रस व गत्ना बहुत अच्छा है। १०. ११. मख्खने मना है। १२. उड़द व अरहर (तुअर) दाल मना है। १३. उबले चावल, सब सब्जियाँ और मूँग ड्राल ठीक है। १४. खाने में मिर्च बिल्कुल नहीं । १५. अदरक, प्याज, आलू, ककड़ी (खीरा) ठीक है। १६. नियमित रूप से वायव्रेटिड चीनी को नींबू में ड्ाल पीना है। आईसक्रीम खाना मना है। १७. आँवले का मुरब्बा अच्छा होता है, और सुबह शाम दोनो बार खाया जा सकता है। १८. खाने पर चाँदी का वर्क अच्छा होता है। १९. धरती के नीचे पैदा हुए सब सब्जियाँ व फल खा सकते हैं। २०. मूँगफली व मूँगफली का तेल मना है। मूँगफली व मूँगफली का तेल गुदों के लिए बहुत खराब है। थोडी मात्रा में सूरजमुखी के तेल में पकाना ठीक है। २१. १५ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-15.txt श्री बुद्ध पूजा शुडी कैम्प, इग्लैंड ३१.५.९२ स. तभी-धर्म किसी न किसी प्रकार की धर्मान्धिता में विलय हो गए क्योंकि किसी को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त न होने के कारण सभी ने अपने ही ढंग से धर्म की स्थापना कर ली। ताओ और जेन भी इसी की शाखाएं हैं। श्री बुद्ध को लगा कि व्यक्ति को जीवन से आगे कुछ खोजना चाहिए। वे एक राजकुमार थे, उनकी अच्छी पत्नी तथा पुत्र थे और उनकी स्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति अति सन्तुष्ट होता। एक दिन उन्होंने एक रोगी, एक भिखारी तथा एक मृतक को देखा। वे समझ न पाए कि ये सारे कष्ट किस प्रकार आए। आप में से बहुत लोगों की तरह से वे भी अपने परिवार और सुखमय जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में चल पड़े। सत्य प्राप्ति के ा= लिए उन्होंने सभी उपनिषद तथा अन्य ग्रन्थ पढ़ ड्राले पर कुछ प्राप्त न कर सके। उन्होंने भोजन त्याग दिया। सभी कुछ त्याग कर जब वे एक बढ़ के वृक्ष के नीचे रह रहे थे तो आदिशक्ति ने उन्हें आत्म साक्षात्कार प्रदान किया। वे विराट के विशिष्ट अंश बनने वालों में से एक थे इसलिए उन्हें आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हुई। उन्होंने खोज निकाला कि आशा ही सभी कष्टों का कारण है। वे न जानते थे कि शुद्ध इच्छा क्या है। इसी कारण वे लोगों को न बता पाये कि कुण्डलिनी की जागृति के द्वारा ही साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। क्योंकि उन्होंने तपस्वी जीवन बिताया था अत: बौद्ध धर्म के अनुयाइयों के लिए तपस्या एक नियम बन गई । बिना भोजन तथा निवास का प्रबन्ध किए श्री बुद्ध अपने साथ कम से कम नंगे पांव चलने वाले एक हजार शिष्य रखा करते थे । उन्हे अपने सिर के बाल मुंडवाने पड़ते थे । सर्दी हो या गर्मी वे केवल एक ही वखतर ओढ़ते थे। उन्हे नाचने गाना या किसी भी प्रकार के मनोरंजन की आज्ञा न थी जिन गांवो में वे जाते थे वहां से भिक्षा मांग कर भोजन एकत्र किया जाता था। वह भिक्षा का भोजन अपने गुरू को खिलाने के बाद वे स्वयं खाते थे । चिलचिलाती गर्मी, कीचड़ या वर्षा में वे नंगे पांव चलते थे। परिवार का वे त्याग कर देते थे । यदि पति-पत्नी भी संघ में सम्मिलित हो जाते तो भी पति-पत्नी की तरह रहने की आज्ञा उन्हें न होती थी। व्यक्ति को सभी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक आवश्यकतांए त्यागनी होती थी बुद्ध धर्मी चाहे वह सम्राट ही क्यों न हों यह सब कुछ करता है। सम्राट अशोक भी बुद्ध धर्मी थे। उन्होंने पूर्ण त्यागमय जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न किया यह अति कठिन जीवन था पर उन्होंने सोचा कि ऐसा जीवन-यापन करके वे आत्म-साक्षात्कार को पा लेंगे। श्री बुद्ध के दो शिष्यों को 1 LII तम साक्षात्कार मिल सका। पर उनका पूरा जीवन कठोर एवं नीरस था। इसमें कोई मनोरंजन न था। सन्तान तथा परिवार को आज्ञा न थी। यह संघ था पर इस सामूहिकता में कोई तारतम्य न था क्योंकि अधिक बोलने की आज्ञा उन्हें न थी। वे केवल ध्यान धारणा तथा उच्च जीवन प्राप्ति के बारे में बात कर सकते थे। यह प्रथा बहत से ध्मों में प्रचलित रही। बाद में त्याग के नाम पर गृहस्थों से धन बटोरने लगे। श्री बुद्ध के समय भी साधकों को त्याग करना पड़ता था। पर यह उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने का श्री बुद्ध का वास्तविक प्रयत्न था। उन्हें पूर्ण सत्य का ज्ञान दिलाने का प्रयत्न था। पर एसा न हुआ। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध के अनुयायी भिन्न प्रकार के हास्यास्पद धर्म बना कर बैठ गए। उदाहरणार्थ जापान में पशुवध की आज्ञा न थी पर मांस खाना निषेध न था, मनुष्य का वध किया जा सकता था। मनुष्य का वध करने में जापानी विशेषज्ञ बन गए। किस प्रकार से लोग बहाने ढूंढ लेते हैं। जब लाओत्से ने ताओ के विषय में उपदेश दिए तो दूसरे प्रकार के बुद्ध धर्म का उदय हुआ । ताओ कुण्डलिनी हैं। लोग न समझ पाए कि वे क्या कह रहे हैं। कठोरता से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने चित्र-कला में अपनी अभिव्यक्ति की । इसके बावजूद भी गहनता में न जा सके। यंगत्जे नाम की एक नदी है जहां सुन्दर पर्वत तथा झरनों के कारण हर पांच मिनट में दष्य परिवर्तित हो जाता है। कहा गया है कि इन बाह्य आकर्षणों की ओर अपने चित्त को न भटकने दें। उन्हें देख कर हमें चल देना चाहिए। ताओ के साथ भी ऐसा ही है। के कला की ओर झुक गए। मूलत: बुद्ध ने कभी भी कला के बारे में नहीं सोचा । उन्होंने कहा कि अन्न्तदर्शन द्वारा अपने अन्तस की गहराइयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। अत: सभी कुछ पथ-भ्रष्ट हो गया। १६ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-16.txt जेन प्रणाली जो जापान में शुरू हुई, ये भी कुण्डलिनी मिश्रित है । इस प्रणाली में वे पीठ पर रीढ़ की हड्डी तथा चक्रों पर चोट मार कर कुण्डलिनी जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। जेन प्रणाली में कुण्डलिनी जागृति की कठोर विधियां खोज निकाली गई । यह कठोरता इस सीमा तक गई कि लोगों की रीढ़ तक टूट जाती है। टूटी रीढ़ में कुण्डलिनी कभी नहीं उठेगी । मैं विदित्म जेन प्रणाली के मुखिया से मिली। वह बहुत बीमार था तथा उसे रोग मुक्त करने के बुद्ध का अर्थ लिए मुझे बुलाया गया। मैंने पाया कि वह तो आत्म साक्षात्कारी था ही नहीं और न ही उसे कुण्डलिनी के बारे में कुछ पता था। मैंने उससे पूछा कि जेन क्या है इसका अर्थ है ध्यान । जेन के बारे में वह इतना भ्रमित था। कई शताद्वियों में उनमें कोई साक्षात्कारी न हुआ। आप कल्पना कीजिए कि कितने सहज में , बिना किसी बलिदान, तपस्या या त्याग के आपको है बोध अर्थात आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ। बुद्ध, ईसा और महावीर आज्ञा चक्र पर तप हैं। तप का अर्थ सत्य को अपने है तपस्या। सहजयोग में तपस्या का अर्थ है ध्यान-धारणा आपको सिर नही मुंडवाना, नंगे पांव नही चलना, भूखें नहीं रहना और न ही गृहस्थ जीवन का त्याग करना है। आप नाच, गा और मनोरंजन कर सकते हैं। मध्य-जाड़ी तंत्र बुद्ध का अर्थ है बोध अर्थात सत्य को अपने मध्य-नाड़ी तंत्र पर जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए बुद्ध बन गए हैं क्योंकि उनका त्याग करना तो मूर्खता थी। यह सब मिथ्या था। संगीत से या नृत्य से क्या अन्तर पड़ता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु विचार उनमें इतने गहन हो गए कि आपको उन पर दया आती है। वे खाना नहीं खाते थे, भूखो रह रह कर वे तपेदिक के रोगियों से भी बुरे प्रतीत होते हैं। जब कि आप लोग सुन्दरतापूर्वक जीवन का आनन्द ले रहे हैं तथा गुलाब की तरह खिले हुए हैं। फिर भी श्री बुद्ध का वह तत्व हमारे अन्दर होना चाहिए। अर्थात हमें तप करना चाहिए। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप भूखे रहें। परन्तु यदि आपको अधिक खाना अच्छा लगता हो तो कम खाना खाने लगे मोक्ष, जागृति एवं उत्थान के लिए बने संगीत का आनन्द लें। हम बन्धनों में इतना जकड़े हुए हैं कि लोग ये भी नहीं समझ पाते कि आत्मा क्या है। परमात्मा के असीम प्रेम की अभिव्यक्ति ही आत्मा है । अब भी हम में बहुत से बन्धन कार्यरत हैं। आप में से कुछ को अपनी राष्ट्रीयता पर बहुत गर्व है। दूसरे लोगों के साथ हम घुल-मिल नहीं सकते। दूसरे लोगों के मुकाबले स्वयं को बहुत ऊँचा समझते हैं । अब आप सर्व व्यापक व्यक्ति हैं। अत: आप में यह मूर्खतापूर्ण मिथ्या सीमाएं कैसे हो सकती हैं। आपके अन्दर ज्योति है और आप जानते हैं कि इस प्रकाश को फैलाने की आवश्यकता है यदि अब भी आप इसे फैलाने में असमर्थ हैं, तो जान लीजिए कि आपको अभी और शक्ति की आवश्यकता है। यह सीखना आपके लिए आवश्यक है कि किस प्रकार अपनी कुण्डलिनी चढ़़ाकर हर समय परमात्मा की शक्ति से जुड़े रहें ताकि निर्विचार समाधि में रहते हुए आप अपने अन्दर गहनता में बढ़े । पट जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए बुद्ध बन गए हैं तयोकि उनका त्याग कटना तो मूर्ता थी। "मेरा" शब्द का शक्तिशाली बन्धन मुझे अब भी सहजयोगियों में मिलता है। पहले पश्चिमी देशों के लोग अपने परिवार, पल्नियों तथा बच्चे की चिन्ता न किया करते थे । अब मुझे लगता है कि वे गोंद की तरह इनसे चिपक जाते हैं । पति, बच्चे और घर बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बच्चे संघ के (सामूहिकता के) हैं, आप मत सोचें कि यह आपका बच्चा है। ऐसा सोच कर आप अपने को सीमित करते हैं और समस्याओं में फंसते है। हर देश में १७ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-17.txt स.. सभी-धर्म किसी न किसी प्रकार की धर्मन्धिता में विलय हो गए क्योंकि किसी को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त न होने के कारण सभी ने अपने ही ढंग से धर्म की स्थापना कर ली। ताओ और जेन भी इसी की शाखाएं हैं। श्री बुद्ध को लगा कि व्यक्ति को जीवन से आगे कुछ खोजना चाहिए। वे एक राजकुमार थे, उनकी अच्छी पत्नी तथा पुत्र थे और उनकी स्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति अति सन्तुष्ट होता। एक दिन उन्होंने एक रोगी, एक भिखारी तथा एक मृतक को देखा । वे समझ न पाए कि ये सारे कष्ट किस प्रकार आए आप में से बहुत लोगों की तरह से वे भी अपने परिवार और सुखमय जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में चल पड़े। सत्य प्राप्ति के लिए उन्होंने सभी उपनिषद तथा अन्य ग्रन्थ पढ़ डाले पर कुछ प्राप्त न कर सके। उन्होंने भोजन त्याग दिया। कुछ त्याग कर जब वे एक बढ़ के वृक्ष के नीचे रह रहे थे तो आदिशक्ति ने उन्हें आत्म साक्षात्कार प्रदान किया। वे विराट के विशिष्ट अंश बनने वालों में से एक थे इसलिए उनहें सभी अपनी आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हुई। ज्योतिर्मय चेतना उन्होंने खोज निकाला कि आशा ही सभी कष्टों का कारण है। वे न जानते थे कि शुद्ध इच्छा क्या है। इसी कारण वे लोगों को न बता पाये कि कुण्डलिनी की जागृति के द्वारा ही साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। क्योंकि उन्होंने तपस्वी जीवन बिताया था अत: बौद्ध धर्म के अनुयाइयों के लिए तपस्या एक नियम बन गई । बिना भोजन तथा निवास का प्रबन्ध किए श्री बुद्ध अपने साथ कम से कम नंगे पांव चलने वाले एक हजार शिष्य रखा करते थे। उन्हें अपने सिर के बाल मुंडवाने पड़ते थे। सर्दी हो या गर्मी वे केवल एक ही वत्र ओढ़ते थे । उन्हे नाचने गानेा या किसी भी प्रकार के मनोरंजन की आज्ञा न थी। जिन गांवो में वे जाते थे वहां से भिक्षा मांग कर भोजन एकत्र जाता था। वह भिक्षा का भोजन अपने गुरू को खिलाने के बाद वे स्वयं खाते थे । चिलचिलाती गर्मी, कीचड़ या वर्षा में वे नंगे पांव चलते थे । परिवार का वे त्याग कर देते थे। यदि पति-पत्नी भी संघ में सम्मिलित हो जाते तो भी पति-पत्नी की तरह रहने की आज्ञा उन्हें न होती थी। व्यक्ति को सभी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक आवश्यकतांए त्यागनी होती थी बुद्ध धर्मी चाहे वह सम्राट ही क्यों न हों यह सब कुछ करता है । सम्राट अशोक भी बुद्ध धर्मी थे। उन्होंने पूर्ण त्यागमय जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न किया यह अति कठिन जीवन था पर उन्होंने सोचा कि ऐसा से सारी मूर्खता को देखिए तथा किया इसका आनन्द लीजिए। जीवन-यापन करके वे आत्म-साक्षात्कार को पा लेंगे। श्री बुद्ध के दो शिष्यों को साक्षात्कार मिल सका। पर उनका पूरा जीवन कठोर एवं नीरस था। इसमें कोई मनोरंजन न था। सन्तान तथा परिवार को आज्ञा न थी। यह संघ था पर इस सामूहिकता में कोई तारतम्य न था क्योंकि अधिक बोलने की आज्ञा उन्हें न थी। वे केवल ध्यान धारणा तथा उच्च जीवन प्राप्ति के बारे में बात कर सकते थे। यह प्रथा बहुत से धर्मों में प्रचलित रही। बाद में त्याग के नाम पर गृहस्थों से धन बटोरने लगे। श्री बुद्ध के समय भी साधकों को त्याग करना पड़ता था। पर यह उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने का श्री बुद्ध का वास्तविक प्रयत्न था उन्हें पूर्ण सत्य का ज्ञान दिलाने का प्रयत्न था। पर ऐसा न हुआ। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध के अनुयायी भिन्न प्रकार के हास्यास्पद धर्म बना कर बैठ गए। उदाहरणार्थ जापान में पशुवध की आज्ञा न थी पर मांस खाना निषेध न था, मनुष्य का वध किया जा सकता था। मनुष्य का वध करने में जापानी विशेषज्ञ बन गए। किस प्रकार से लोग बहाने ढूंढ १८ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-18.txt लेते हैं । जब लाओत्से ने ताओ के विषय में उपदेश दिए तो दूसरे प्रकार के बुद्ध धर्म का उदय हुआ। ताओ कुण्डलिनी हैं। लोग न समझ पाए कि वे क्या कह रहे हैं। कठोरता से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने चित्र-कला में अपनी अभिव्यक्ति की। इसके बावजूद भी गहनता में न जा सके। यंगत्जे नाम की एक नदी है जहां सुन्दर पर्वत तथा झरनों के कारण हर पांच मिनट में दृष्य परिवर्तित हो जाता है। कहा गया है कि इन बाह्य आकर्षणों की ओर अपने चित्त को न भटकने दें। उन्हें देख कर हमें चल देना चाहिए। ताओ के साथ भी ऐसा ही है। के कला की ओर झुक गए। मूलत: बुद्ध ने कभी भी कला के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने कहा कि अन्न्तदर्शन द्वारा अपने अन्तस की गहराइयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। अतः सभी कुछ पथ- पति भ्रष्ट हो गया। जेन प्रणाली जो जापान में शुरू हुई, ये भी कुण्डलिनी मिश्रित है। इस प्रणाली में वे पीठ पर रीढ़ की हड्डी तथा के चक्रों पर चोट मार कर कुण्डलिनी जागृत करने का प्रयत्न करते हैं । जेन प्रणाली में कुण्डलिनी जागृति की कठोर विधियां खोज निकाली गई । यह कठोरता इस सीमा तक गई कि लोगों की रीढ़ तक टूट जाती है। टूटी रीढ़ में कुण्डलिनी कभी नहीं उठेगी। मैं विदित्म जेन प्रणाली के मुखिया से मिली। वह बहुत बीमार था तथा उसे रोग मुक्त करने के लिए मुझे बुलाया गया। मैंने पाया कि वह तो आत्म साक्षात्कारी था ही नहीं और न ही उसे कुण्डलिनी के थी बारे में कुछ पता था। मैने उससे पूछा कि जेन क्या है इसका अर्थ है ध्यान । जेन के बारे में वह इतना भ्रमित था। कई शताद्वियों में उनमें कोई साक्षात्कारी न हुआ। आप कल्पना कीजिए कि कितने सहज में, बिना किसी बलिदान, तपस्या या त्याग के आपको आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ। बुद्ध, ईसा और महावीर आज्ञा चक्र पर तप हैं। तप का अर्थ हैं तपस्या। सहजयोग में तपस्या का अर्थ है ध्यान-धारणा । आपको सिर नही मुंडवाना, नंगे पांव नहीं चलना, भूखे नहीं रहना और न ही गृहस्थ जीवन का त्याग करना है। आप नाच, गा और मनोरंजन कर सकते हैं । बुद्ध का अर्थ है बोध अर्थात सत्य को अपने मध्य- २३० नाड़ी तंत्र पर जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए १९ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-19.txt ६ं ा मं रा ि ि ह ०] ी आपको लोगों तक पहुँचना है ... एक औरत थी। वह आत्म साक्षात्कार चाहती थी वे आई और उन्हें मिला। उसे बहुत अच्छी तरह से मिला । ऐसे कई लोग है जो इसकी खोज़ में लगे हुए हैं। आप को उनसे सम्पर्क करना होगा और उनको आगे लाना होगा। मुझे प्रवास करने में कोई तकलीफ नहीं है। में इतने दूर, भारत से आई हैँ। और फिर आप लोग मेरे सुविधा की कोई कसर नहीं छोड़ते। देखिए, आप जो भी हों, जहाँ भी आप कार्यक्रम आयोजन करेंगे वहाँ मैं जाऊँगी। जहाँ तक संभव होगा मैं अवश्य जाऊँगी । तं आज कल तो बड़ी सुविधाएँ उपलब्ध है, पर जब में गांवों में कार्य करती थी तब में बैलगाड़ी से जाया करती थी। आप के पास इसकी तस्वीरें (Photos) होंगी। आप समझ सकते है कि बैलगाड़ी पर मीलों दूर तक जाना कैसे होता है। मुझे मालूम था कि मुझे यह सब करना है। सहजयोगियों को हासिल करने के लिए मुझे उस तरह से काम करना ही था इसके लिए मेरी पूरी तैयारी थी। मुझे अन्दर से कभी भी, किसी भी प्रकार की थकान महसूस नहीं हुई- कभी भी नहीं। इसके उपरांत आप सब से मिलने पर मुझे बहुत आनन्द आता है। श्री माताजी निर्मला देवी, सिडनी रा 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-21.txt नाडियाँ और चक्रों का तीन महत्त्व पब्लिक प्रोग्राम ( परिच्छेद), ६-७ फरवरी १९९०, हैद्राबाद चैतन्य लहरी १९९०, भाग २, खण्ड १, २ मव ु ७ ३१४ [१ ० हेभि इ. न चक्रों और तीन नाड़ियों का महत्त्व इस तरह से भी समझा जा सकता है - जैसे कि हम देखें कि कैंसर कैसे ठीक होता है और वह सहजयोग में कैसे ठीक हो जाता है। जब ईड़ा और पिंगला नाड़ी में असन्तुलन आता है तो उन दोनों से जुड़े सभी चक्रों में भी असन्तुलन आ जाता है और चक्रों के बीच की जगह, जहाँ से सुषुम्ना नाड़ी से होती हुई कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की ओर जाती है, छोटी हो जाती है। इससे चक्र कुण्डलिनी शक्ति द्वारा पूर्ण रूप से प्रभावित और प्लावित नहीं हो पाते जिस से चक्रों की शक्ति कम हो जाती है और इस तरह से चक्रों के दोष अथवा कमजोरी की वजह से बीमारी होने लगती है और जब कोई चक्र बिल्कुल टूट जाता है तब हमारे मेरूदण्ड का सम्बन्ध भी हमारे मस्तिष्क से टूट जाता है और मस्तिष्क का शरीर पर नियन्त्रण समाप्त हो जाने से शरीर के किसी भी भाग की कोशिकाओं (cells) में असन्तुलन वृद्धि होने लगती है और इस तरह से कैंसर का रोग घटित होता है। अब जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो वह ट्ूटे हुए चक्र को अपनी शक्ति द्वारा जोड़ने लगती है और धीरे धीरे चक्र की शक्तिहीनता भी समाप्त हो जाती है। तथा मेरूदण्ड का सम्बन्ध फिर से मस्तिष्क के साथ स्थापित हो जाता है। इस से शरीर की अनियन्त्रित वृद्धि समाप्त हो जाती है और कैंसर ठीक हो जाता है। इसी प्रकार अनेक रोग ठीक हो सकते हैं क्योंकि इन चक्रों की ही खराबी के कारण बीमारी आती है और जब यह चक्र ठीक हो जाते हैं, तो बीमारी भी ठीक हो जाती है। २२ ५ द fि 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-22.txt उत्तरदायि्च विशेष हैद्राबाद पब्लिक प्रोग्राम (परिच्छेद), ६-७ फरवरी १९९० चैतन्य लहरी १९९०, भाग २, खण्ड १, २ सहजयोग से शारीरिक, मानसिक, भौतिक लाभ तो होते ही हैं परन्तु सबसे बड़ी चीज यह है कि आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करते हैं । आप अपने गुरू हो जाते हैं और आप समर्थ भी हो जाते हैं और सब बुरी आदतें, जो पहले आप नही छोड़ पाए अब स्वयं छूट जाती हैं। आप में सन्तुलन आ जाता है और चक्र पूरी तरह से खुलना शुरू हो जाते हैं। स्वभाव में दया, प्रेम छलकने लगता है, मुख पर कान्ति आ जाती है। सोचने का दृष्टिकोण और जीवन मूल्य बदल जाते हैं। आप निर्विचारिता में उतर जाते हैं और आनन्द के सागर में रहने लगते हैं। आपका सम्बन्ध परम चैतन्य से होने के कारण परम चैतन्य आप की सारी गतिविधियों को सम्भालता है और आप को पूरी तरह से आशीर्वादित करता है। इसका अनुभव आप को होने लगता है और आप आश्चर्यचकित होते हैं कि किस तरह से हर एक चीज़ अपने आप घटित होने लगती है। आप परमात्मा के साम्राज्य में आ जाते है जो अत्यन्त दक्ष, कुशल एवं प्रेममय है और वह आपको इतना सम्भालता है कि आप आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि मेरा इतना गौरव और शक्ति कहाँ से आ गई। यह सब आपके अन्दर है और आपको इसे प्राप्त करना चाहिए और इससे अपने और सबके जीवन को खुशहाल बनाना चाहिए। यह हुए बगैर संसार बदल नही सकता आप विशेष लोग हैं जो इस योग भूमि में पैदा हुए हैं। आप पर इस विश्व के प्रति एक विशेष उत्तरदायित्त्व है । इसलिए आप इस योग को प्राप्त करें और उसमें स्वयं को स्थापित करें। आज वह समय आ गया है जब यह घटित होना ही चाहिए। २३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-23.txt श्री विष्णुमाया परमपूज्य श्री माताजी निर्मला देवी के प्रवचन का परिच्छेद, शॉनी, पैन्सिलवानिया, यू.एस.ए. १९/९/१९९२ विष्णुमाया वि ष्णुमाया का आरंभ अति रोचक है। विष्णुमाया श्री कृष्ण की बहन थी जो श्री कृष्ण के बाद उत्पन्न हुई। वास्तव में वे नन्द और यशोदा के घर जन्मी न्द-यशोदा ने श्री कृष्ण के बदले में उसे दे दिया। कंस को बताया गया कि वह लड़की उसकी बहन का आठवाँ बालक है। लड़की होने के कारण कंस ने उसे आकाश में फेंक दिया "वहाँ से उसने उद्घोषणा की कि श्री कृष्ण अवतरित हो चुके हैं और वही तुम्हारा वध करेंगे। विष्णुमाया अवतरणों की तथा अच्छी घटनाओं की घोषणा करनेवाली शक्ति है। आध्यात्मिक हदृष्टि से अपवित्र चीज़ों को भी जला सकती हैं । की सूक्ष्म बात यह है कि वह महाभारत के समय वे द्रौपदी के रूप में अवतरित हुई। जब दुर्योधन उसे निर्वस्त्र करवाना सच्चाई जानती चाहता था तो उसने श्री कृष्ण को पुकारा तथा े बिना विलम्ब के द्वारिका से अपने शस्त्रों सहित आ गए। द्रौपदी का चीर तब तक बढ़ाया जब तक दु:शासन थेक कर पृथ्वी पर न गिर गया। अत: विष्णुमाया पंचतत्त्वों में रहनेवाली पवित्रता हैं। यही पवित्रता द्रौपदी के विवाह के समय पाँचो पाण्डवों को दिखाई गई थी। उनकी कौमार्यता ( पवित्रता) की शक्ति का उपयोग धर्म नाश है। वह करने के इच्छुक कौरवों का भाण्डाफोड़ करने के लिए किया गया। द्रोपदी ने पाण्डवों से आग्रह किया कि धर्म की रक्षा के लिए तुम्हें युद्ध करना ही होगा परिणाम चाहे जो भी हो । चमकती है, भाई के रूप में श्री कृष्ण ने सदा उनकी सहायता की। अत: भारत में भाई-बहन सम्बन्ध अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। सहज योगियों में भी ऐसा ही होना चाहिए। हमारे यहाँ रक्षाबंधन तथा भाईदूज होता है जिसमें दिवाली के दिन हम भाई को राखी बाँधते हैं। "यह राखी विष्णुमाया की शक्ति है जो भाई की रक्षा करती है।" सम आयु, एक सी सूझबूझ, सुरक्षा, प्रेम और पवित्रता के कारण भाई-बहन सम्बन्ध अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इस सम्बन्ध को विष्णुमाया चलाती हैं..... और आप सब विष्णुमाया की सूक्ष्म बात यह है कि वह सच्चाई जानती है। वह चमकती है, और आप सब कुछ देख सकते हैं। इसी प्रकार जब विष्णुमाया आप पर कार्य करने लगती है तो वह सत्य को अनावृत्त करती है। परन्तु यदि आपकी बाँयीं विशुद्धि की पकड़ बनी रहती है तो विष्णुमाया चली जाती है। विष्णुमाया चली जाती है। विष्णुमाया आपको सुधारने, किसी तरह आपकी सहायता करने या आपको अनावृत्त करने के लिए नहीं है। तब आप कुछ भी महसूस नहीं करते, आपकी बाई ओर जड़वत हो जाती है। बायीं ओर से ही इधर के रोगों का पता चलता है। यही कारण है कि भारत की अपेक्षा पश्चिमी देशों में बायीं ओर के रोगों का बहुल्य है।.... कुछ देख सकते हैं । आज का कार्यक्रम विष्णुमाया के लिए किया गया । आप सहजयोगियों में इस शक्ति को संचालित करने की योग्यता होनी चाहिए। उनकी पूजा करने की योग्यता भी आप में होनी चाहिए ताकि वे आपको देख सकें, आपकी देखभाल कर सकें तथा आपके जीवन का संचालन करें।.. २४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-24.txt 8० बाम ार वे कुमारी (निर्मल) हैं तथा कौमार्य का सम्मान करती हैं । कौमार्य केवल स्त्रियों के लिए नहीं होता। यदि पुरुष भी अपने पतिव्रत्य और पवित्रता का सम्मान नहीं करते तो उन पर भी कई प्रकार से विष्णुमाया का आक्रमण होता है।............. दो अन्य चीजें भी विष्णुमाया को परेशान करती हैं। इनमें से एक है धूम्रपान। दूसरी चीज़ जिसे लोग नहीं जानते, वह है मन्त्र श्री विष्णुमाया ही मंत्रों को शक्ति देती है। यदि आप परमात्मा की शक्ति से संबंध बनाए बिना ही मन्त्रोच्चारण किए जा रहे हैं तो आपको उस शक्ति को जोड़नेवाले तार जल सकते हैं तथा आपको गले की समस्याएं हो सकती हैं क्योंकि कृष्ण तथा विष्णु में कोई अन्तर नहीं। आपको विराट की समस्या भी हो सकती हैं। चैतन्य लहरी १९९३, खण्ड ५, अंक ३ व ४ २५ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-25.txt म ० ० मिथ्या ५ मई १९७५ सहस्त्रार दिवस पर परमपूज्य माताजी द्वारा लिखा गया पत्र निर्मला योग, वर्ष २ अंक ७, मई-जून १९८३ पर. यदामले, अनेकानेक आशीर्वाद! आपका पत्र मिला। सहस्त्रार पर खिचाव आना बहुत अच्छा लक्षण है। क्योंकि सहस्ार के माध्यम से मनुष्य का हृदय अनन्त किरणों से भरा जाता है और अन्त:स्थिति के लिए नये दरवाजे खुलते हैं। परन्तु इस अन्तःस्थिति के लिए सहस्त्रार पर खिंचाव आना जरूरी है। हृदय का खिंचाव हम जानते हैं, जो मूक (Silent) है और एकतरफा है, मतलब भावात्मक होता है, परन्तु सहर्रार का खिचाव सामूहिक होता है। वहाँ मनुष्य की स्थिति, धर्म और चेतना एक होकर चैतन्य को ही (प्रभुप्रेम को ही) याद करने लगती है तब ऐसी स्थिति (सहस्त्रार पर खिंचाव आना) आती है। ये सब अपने आप घटित होता है। यह सब आपकी कुण्डलिनी का करिश्मा होता है। किन्तु आपका व्यक्तित्व ऐसा हो कि कुण्डलिनी शक्तिशाली बन सके। यह सम्पदा पिछले अनेक जन्मों से कमायी है। इसलिए यह जन्म उच्च है कि ऐसे हीरे मेरे काम के लिए मिले । मेरा शरीर यहाँ होते हुए भी मैं सभी जगह हूँ, यह अगर जानोगे तो ये भी समझना चाहिए कि शरीर भी एक मिथ्या दर्शन ही है । यह स्थिति आना मुश्किल है । परन्तु अगर धीरे-धीरे मिथ्या को आप जानने लगोगे तब सत्य अपने आप ही मन में बसेगा (आत्मसात होगा) । और महा आनन्द की लहरें पूरे व्यक्तित्व को घेर लेंगी। इस पत्र में में मिथ्या क्या है वह बताने जा रही हैँं। वह सब को बताइए। और उस पर सोच-विचार कीजिए । २६ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-26.txt इस संसार में जन्म लिया और मिथ्या शुरू । आपका नाम क्या है? गाँव क्या है? देश क्या है? राशि क्या है? भविष्य क्या है? इस तरह की कितनी बातें आप के साथ चिपकती हैं या चिपकायी जाती हैं। एक बार ब्रह्मरन्ध्र बन्द होते ही अनेक प्रकार के मिथ्या विचार आपके मन के (आत्मा के) भाव हो जाते हैं। जैसे कि, ये चीजें मेरी, ये मेरा, वह मेरा वरगैरा झूठे विचार मन में बसते हैं । उसी प्रकार मेरा शरीर निरोगी और सुन्दर रहना चाहिए ऐसे बन्धनकारक मिथ्यावादी विचार जो कि मनुष्य ने स्वयं बनाये हुए हैं हमारी बुद्धि में बस जाते है। इसके बाद ये मेरा भाई, ये मेरा बाप, ये मेरी माँ इस तरह के मिथ्या रिश्ते सिर पर बैठते हैं। फिर धीरे-धीरे अहंकार जम गया कि मैं अमीर, मैं गरीब, मैें अनाथ या मैं बड़े खानदान का इस तरह का पागलपन सिर पर सवार हो जाता है। बहुत से अधिकारियों को और राजनीतिज्ञों (Politicians) को घमण्ड की, मतलब गधेपन की बाधा होती है। उसके बाद क्रोध, द्वेष, संयम, विरह, दुःख, प्यार के पीछे छिपा हुआ मोह, लालसा के पर्दे में बसी हुई संस्कृति, इन सभी मिथ्या आचरणों को मनुष्य प्यार से गले लगाता है। इन सभी से छुटकारा पाना है ऐसा जब सोचोगे और यत्न शुरू करते ही मिथ्या ज्ञान प्राप्त होता है। फिर पिंगला नाड़ी पर से चित्त फिसल कर सिद्धि वगैरा प्रलोभनों में मनुष्य फैसता है। कुण्डलिनी का दर्शन तथा चक्रदर्शन आदि सारा मिथ्या ही है क्योंकि उससे कोई लाभ नहीं होता, उल्टा नुकसान होता है। जो-जो नियम व संयम आचरण में लाना जरूरी है इसकी जिद पकड़ते हैं वह सभी चित्त को बन्धनकारक होता है और मुक्ति का मार्ग ही नहीं मिलता। परन्तु सभी मिथ्या आत्मसाक्षात्कार से नहीं जाते। किन्तु धीरे-धीरे ये भी छूट सकते हैं। अगर पूर्ण संकल्प से मिथ्या को हृदय से निकाला जाए तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन होता है और फिर वही शुद्ध स्वरूप आत्मसात होता है। और तब मानवचित्त अनन्त, अनादि, सत्य, प्रेममय शिवस्वरूप में मग्न हो जाता है। इसी सत्य की पहचान उस चित्त में होती है। और केवल यही जानने के लिए यह मानवचित्त है । उस आत्मा में इस चित्त को उतरना चाहिए। जो चित्त मिथ्या का त्याग करते- करते अग्रसर होगा और जो 'सब कुछ है, पर नहीं है' का मिथ्या बन्धन तोड़ेगा वही चित्त आत्मस्वरूप होगा। आत्मा कभी भी खराब नहीं होती और न ही नष्ट होती। केवल मानव चित्त ही अपनी इच्छा के पीछे भागकर अपना मार्ग छोड़ देता है। यह माया है, इसे जान-बूझकर बनाया है। इसके बगैर चित्त की तैयारी नहीं होती। इसलिए इस माया से ड्रने के बजाय उसे पहचानिए। तब वही आपका मार्ग प्रकाशित करेगी। जैसे सूर्य को बादल ढक देते हैं और उसके दर्शन भी करा सकते हैं । माया मिथ्या है यह जानते ही वह अलग हट जाती है और सूर्य का दर्शन होता है। सूर्य तो सदासर्वदा है ही परन्तु बादल का काम क्या होता है? बादलों की वजह से ही मन में सूर्य-दर्शन की तीव्र इच्छा पैदा होती है। फिर सूर्य क्षणभर के लिए चमकता है और छिप जाता है। इस कारण आँखो को सूर्य देखने की ताकत और हिम्मत आती है। कितनी मेहनत से मनुष्य को बनाया है केवल एक कदम अपने दम पे लेगा तो काम बन जाएगा। परन्तु अभी तक तो वैसा कुछ नहीं बन रहा है। इसलिए आपकी माँ बनकर आयी हूँ। आप के जो प्रश्न हैं वे लिखकर भेजिए ध्यान में बैठिए। आपस में भी सहजयोग पर बातें करें तो बहुत अच्छा है। चित्त हमेशा अपने अन्तरीय उड्डान पर रखिए। बाहर का जितना हो सके उतना भूल जाइए। उसकी सारी व्यवस्था होती है ये विश्वास रखिए। उसके कितने ही प्रमाण हैं। उसके बाद कुछ भी करते समय चित्त आत्मस्वरूप रहता है। संसार, असंसार ये भेद नहीं रहता क्योंकि भेद दिखानेवाला विकृत अँधेरा खत्म होकर ज्ञान के प्रकाश में सारा ही शुभ घटित होता है। फिर कृष्ण द्वारा संहार हो या क्राइस्ट का वधस्तम्भ। ये सब बताकर समझ में आनेवाली नहीं, मार्ग दिखाकर नहीं होगा। उसको चलकर काटना होगा, तभी सब कुछ समझ में आएगा। रा आपकी चिट्ठियाँ आती हैं तब मैं अगला कार्यक्रम निश्चित करती हैं। कुछ दिनों बाद उसकी भी जरूरत नहीं पड़ेगी। परन्तु अभी तो सब कोई चिटठ्ठी लीखिए और उसमें अपनी प्रगति लीखिए । फिर आने के बाद देखते हैं विराट की कितनी नाड़ियाँ जागृत हुई हैं। इस कार्य की बढ़ोत्तरी भारत-भूमि के पवित्र आंचल में होगी यही दिख रहा है । आगे यह कार्य जोर पकड़ने पर सारे देश-विदेश में इसका प्रसार होगा। लन्दन में आज ५ मई को सहस्त्रार दिन मनाया । तब मैंने गिने-चुने २०-२५ लोगों को बुलाकर सब रूपरेखा बनायी। सबको अनेकानेक आशीर्वाद और अनन्त प्रेम । सदैव आपकी माँ, निर्मला २७ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-27.txt बच्चों पर श्री माताजी की वार्ता विएना, ९/७/१९८६, चेतन्य लहरी १९९१, खंड ३, अंक १ णा २ ड० ना ज. न्मोपरान्त शिशु अत्यंत संवेदनशील होते हैं । सावधान होने के लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण समय है । बच्चे के लिए दूध उबालते हुए आपको सावधान होना है। दूध और पानी अलग-अलग उबाल कर देने से बच्चे को जुकाम, नाक बहना, कब्ज या दस्त आदि रोग हो सकते हैं। दोनों को मिलाकर अच्छी तरह उबालिए और थर्मोस बोतल में भरकर या फ्रिज आदि में रखें। कुछ बच्चों का शरीर बहुत पतला तथा भार बहुत कम होता है। ऐसे बच्चे को जिगर की समस्या तो नहीं यह जान लेना चाहिए। हो सकता है जन्मजात साक्षात्कारी उस बच्चे को यह रोग चिकित्सालय में विद्यमान जिगर हानिकारक रोगाणुओं (हिपेटाइटिस) के कारण हुआ हो। मूली के पत्तों को उबाल कर उनमें मिश्री मिलाकर देना एक अच्छी औषध है । लगभग छः माह का होने तक बच्चों को पानी न दें। छोटी आयु में आप मूली के उबले पत्तोंवाला पानी थोड़ा सा गुनगुना करके दे सकते हैं। हुए इसका स्वाद अच्छा न होते हुए भी जिगर रोग पीडित बच्चों के लिए यह बहुत अच्छी औषध है। बायाँ हाथ जिगर पर रखकर दायाँ फोटोग्राफ की ओर करके चन्द्र देव का मन्त्रोच्चारण करते हुए चैतन्य लहरियों द्वारा जिगर को आराम पहुँचा सकते हैं। जिगर सूजन 1 की अवस्था में बच्चे पर्याप्त मात्रा में दूध न पीने के कारण पतले पड़ जाते हैं और उनका चेहरा पीला पड़ जाता है तथा निष्क्रिय जिगर के कारण बच्चों की चमड़ी पर धब्बे पड़ने लगते हैं। निष्क्रिय जिगर होने पर बच्चों को किसी भी रूप में कैलशियम देना चाहिए तथा चर्म रोग की अवस्था में विटामिन ए और डी। अडैक्सोलिन भी अच्छी है यह शार्क के तेल की गोलियाँ होती है। यदि शार्क के तेल की गोलियाँ न मिलें तो एक चम्मच दूध में एक बूंद अडैक्सोलिन डाल कर बच्चे को दे दें। यह बच्चे की अस्थियों तथा है. शरीर को सुदृढ़ करती है। २८ नि 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-28.txt कुछ बच्चे अति दुर्बल प्रकार के होते हैं। उनकी मांस पेशियाँ विकसित नहीं होती। अच्छी मांस-पेशियों के विकास के लिए मालिश से अच्छा कुछ भी नहीं। जैतुन तेल (olive Oil) के साथ बच्चे की अच्छी तरह मालिश कीजिए और अडेक्सोलिन दीजिए । मख्खन की मालिश सबसे अच्छी है । मख्खन इसलिए अच्छा है क्योंकि इसमें विटामिन 'ए' और 'डी' होता है। मख्खन सिर में नहीं ड़ालना चाहिए। सिर के लिए नारियल तेल अच्छा है क्योंकि इसमें विटामिन 'ए' होता है। बच्चा अति स्वस्थ होना चाहिए। स्वास्थ्य सुधारने के लिए उनमें चैतन्य प्रवाहित कीजिए। उनका स्वास्थ्य और माँस पेशियाँ विकसित होनी चाहिए। बाल्यकाल में च्बी संग्रह करके बाद में इसकी सहायता से बालक बढ़ता है। बच्चे के लिए यह चर्बी खुराक का कार्य करती है। पतले होना या शरीर पर चर्बी न चढ़ने देने का विचार लोगों को दुर्बल कर देगा। किसी भी रूप में आप बच्चों को कैलशियम दे सकते हैं। परन्तु होम्योपैथिक औषध कलकेरिया कार्ब रूप में भी कैलशियम दिया जा सकता है। बच्चों के लिए होम्यौपैथिक लाभकर है परन्तु इसका कोई समझदार डॉक्टर होना चाहिए। दूध में भी कैलशियम होता है। अधिक चर्बी वाला दूध नहीं होना चाहिए। थोड़ी सी चर्बी वाला दूध कैलशियम होता है। अधिक चर्बीवाला दूध नहीं होना चाहिए। थोड़ी सी चर्बीवाला दूध कैलशियम प्रदान करता है। कई बच्चे ठीक-ठाक उत्पन्न होकर भी माँ या पिता की अति सक्रियता के कारण बाल-अति सक्रियता रोग ग्रस्त हो जाते है। ऐसे बच्चे को शीघ्र ही माता-पिता से (विशेष कर माँ से) पृथक कर देना चाहिए क्योंकि उन्हे यह माँ के वजह से ही होता है। ऐसे बच्चे को देखभाल के लिए किसी आश्रम में भेज देना चाहिए जिससे कि वह माँ के प्रभाव से बच सके। तब बर्फ उपचार द्वारा तथा दाँयीं ओर को बाँयी पर ड्ाल कर जिगर को ठीक करने का प्रयत्न करना चाहिए। अति सक्रियता विश्व भर में फैला अति भयानक रोग है। बच्चा एक मिनट भी बैठ नहीं सकता, वह इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। यह भूतबाधा भी हो सकती है। भूत उसे दौड़ाते ही रहते है। हमें ा 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-29.txt मूलाधार की भलाई के लिए बच्चे को पहनाए गए कठोट व्त्र रगड़ देते है। सूर्ती अन्तरवख पहनना अच्छा है। अह ० र बच्चे को एक अतिमौलिक, सुन्दर नींव देनी चाहिए जिससे किबाद में उसे किसी स्वास्थ्यसमस्या का सामना नकरना पड़े। मूलाधार की भलाई के लिए सूती अन्त्तवस्र पहनना अच्छा है। बच्चे को पहनाए गए कठोर वर्त्र रंगड़ देते है। इस तरह के सख्त वर्त्र मूलाधार को क्षति पहुँचाते हैं तथा कई अन्य समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं । सुन्दर सी कोमल लंगोट बना लेना बहुत अच्छा है। उसे बाहर की ओर से प्लास्टिक लगा सकते है। भारत में क्योंकि प्लास्टिक का प्रयोग नहीं करते इसलिए जितनी बार भी बच्चा गीला होता है हम उसकी लंगोट बदल देते है। प्लास्टिक के स्थान पर हम बोगडी (तौलिए की तरह का एक कपड़ा) का प्रयोग करते हैं। इसके कई तरह के गद्दे के रूप में सिलाई होती है। बच्चे के नीचे इसे बिछाकर इसके नीचे कोई रबर आदि बिछा दिया जाता है। सभी महिलाएं जान लें कि ये साक्षात्कारी बच्चे हैं, तीन महीने इनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। बहुत छोटी आयु में अनावश्यक रूप से कोई बच्चे को छुए नहीं। बच्चे को उठाने से पूर्व अपने हाथ धोईए । तीन माह तक सावधान रहें । इसके पश्चात यदि कोई चाहे तो बच्चे को भाँति-भाँति ढ़क कर उसकी गोद में दे दिया जाए बच्चा चूमा नहीं जाना चाहिए। कुछ लोग बच्चे को संभालना नहीं जानते। उठाते हुए वे बच्चे की दोनों बाहें खींच देते हैं । दोनों ओर अपने हाथ ड्रालकर बच्चे को उठाइए । कई नवजात शिशुओं की छातियाँ दूध से भरी होती है। वे रोते चिल्लाते हैं परन्तु आपको कुछ पता नहीं होता। भारत में हम अंगूठे को साफ कर उस पर रोगाणुरोधक लगाकर बच्चे की गल तुण्डिकाओं को दोनो ओर तथा उपर की ओर दबाते हैं। इस के पश्चात गल तुण्डिकाएं (टॉन्सिल) कभी नहीं बढ़ते । बच्चों के साथ यह सब करना अति साधारण कार्य है । आँखों को अच्छी तरह से साफ करके उनमें काजल डाला जाना चाहिए। साधारण काजल बनाने के लिए थोड़ा सा कपूर जलाइए और उसकी कजली को चांदी की प्लेट पर इकठ्ठा कर लीजिए । चांदी शीतलता दायक है। फिर इस कजली में कोई अच्छा घी मिलाइए। घी को साफ करने के लिए पहले इसे चलते नल के नीचे रखिए । घी के बह जाने पर पानी इससे चिपकेगा नहीं। अब ই० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-30.txt ३० र १ ० कि प्रतिदिन अपनी अंगुली से बच्चे की आँखों में काजल ड़ाले। यह बच्चे को तीखे तथा रोगमुक्त नयन प्रदान करेगा। मैंने देखा है कि प्रारम्भ में हम बच्चे के केवल शारीरिक पक्ष को ही देखते हैं। बाद में उसके अहं पक्ष पर ध्यान दिया जाता है। तीन माह से दो वर्ष की अवस्था में बच्चे के अहं का विकास होने लगता है। अपने स्नेह द्वारा आप उनके भावनात्मक पक्ष का भी ध्यान रखें। आपका, अपने बड़ों का, श्री माताजी का तथा स्वयं का सम्मान करना आप उन्हें सिखाएं। उसी आयु में ही आदर करना सिखाया जा सकता है। जब वे नमस्ते, सुप्रभात आदि करने लगे तो सराहना कर आप उन्हें उत्साहित करें । आप उन्हें चूम भी सकते हैं। तब वह जाने पाएंगे कि कुछ अच्छा कार्य हो रहा है। सम्मान तथा महान भावनाएं विकसित करने के लिए यह अत्यंत प्रभावनीय अवस्था है। देखभाल के लिए बच्चा किसी अन्य महिला को दें, इस प्रकार बच्चा केवल आपकी सम्पत्ति न रहकर सभी की सम्पत्ति बन जाता है। बच्चे में सामूहिकता तथा अच्छे मूलाधार का विकास शुरू हो जाता है। यदि आप केवल एक व्यक्ति (जैसे माँ) से ही घुले मिले हैं तो तरुण होने पर जिस भी अन्य व्यक्ति से आप मिलेंगे उसमें यौन-भाव पाएंगे। परन्तु अबोध काल में यदि आपने उन महान भावनाओं को छू लिया है तो यह बेहुदगी आप में न होगी। अत: बच्चे को सभी के साथ रहने तथा बातचीत करने दीजिए, फिर भी सोए वह माता-पिता के कमरे में ही । दो साल की आयु तक बच्चे को माता-पिता के कमरे में रहने देना चाहिए । दो साल की आयु तक बच्चे को दूसरे खटोले पर सुलायें। इससे बड़ा होने पर वे सामूहिकता में, दूसरे कक्ष में जिसमें कोई बड़ा व्यक्ति भी हो, सो सकते हैं। तब बच्चों को माता-पिता के साथ नहीं सोना चाहिए। सामूहिकता को समझाने का तब उन्हें प्रयास करना चाहिए। बच्चों के कपड़े तथा सामान मिलाकर रखें। तब शिशु किसी व्यक्ति विशेष के नहीं होने चाहिए। माता-पिता से दूर सामूहिकता में बच्चों का रहना महत्त्वपूर्ण है। छः वर्ष की आयु तक बच्चे स्वतन्त्र बन जाते हैं, बड़ों का सम्मान करने लगते हैं, सबको अच्छी तरह सम्बोधित करना तथा सद्व्यवहार करना शुरू कर देते हैं । छः वर्ष की आयु के पश्चात बे वास्तविक रूप ज ३ १ २स 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-31.txt बच्चे को बनाना अति रचनात्मक कार्य है। जैसे मैं समझती हूं कि सहजयोगी बनाना बहुत रचनात्मक कार्य है । ९ क জি ভ ह ए ॐ से परिपक्व तथा अच्छे बालक बने होते हैं । तब वे अध्ययन में लग जाते हैं। बच्चे यदि अच्छे न हों तो पांच वर्ष की आयु तक आप उन्हें प्रताड़ित कर सकते हैं यदि वे शरारती हैं तो एक कमरे में ले जा कर आप उनसे कह सकते हैं कि यदि वे न सुधरे तो उनकी पिटाई होगी। उनसे एकान्त में बात कीजिए सबके सामने नहीं । उन पर चिल्लाइए भी नहीं। दूसरों के सामने बच्चों को झिड़काना नहीं चाहिए। कमरे में ले जाकर उसे बताइए 'देखो अब हम माताजी से मिलने जा रहे हैं, श्री माताजी देवी हैं, तुम्हें भी वैसा व्यवहार करना है। हम उनके घर जा रहे है और तुम वहाँ कुछ नहीं मांगोगे। शांत रह कर तुम्हें अच्छा बर्ताव करना है।' इसी आयु में आप उन्हें आत्म-सम्मान सिखा सकते हैं। आप बच्चों को बताएं वे सोचेंगे कि तुम एक भिखारी के पुत्र हो। हमें गौरवशील लोगों की तरह व्यवहार करना है। अब तुम एक राजा के समान हो, तुम एक साक्षात्कारी आत्मा हो।' ये सब विचार आपने उनके मस्तिष्क में छः बर्ष की आयु तक भर देने हैं। चालीस वर्ष की आयु में यदि आप उन्हें आत्मसम्मान सिखाने लगें तो असम्भव है । दस वर्ष की आयु में भी आप यह नहीं कर पाएंगे। यह दो और छः वर्ष की आयु में होना चाहिए। आत्मसम्मान, साफ सुधरापन, अनुशासन आदि का विवेक केवल इसी आयु में ही सिखाया जा सकता है। यह अत्याधिक महत्त्वपूर्ण समय है क्योंकि पहले तीन महीने वे माँ के दूध पर होते हैं और तीन माह से दो वर्ष का समय एक प्रकार से बीच की अवस्था है। परन्तु दो से छ: वर्ष का समय ही केवल वांछित समय है। बनाया हुआ कच्चा मटका अब तक आग पर नहीं चढ़ा होता। दो से छः साल के बीच में आप इसे भट्टी में पकाते हैं। परन्तु आग में डालने से पहले आप इस पर प्रभाव छोड़ दें और फिर आग में डालें। ऐसा करना अति सरल है। बच्चे को बनाना अति रचनात्मक कार्य है । जैसे मैं समझती हैं कि सहजयोगी बनाना बहुत रचनात्मक कार्य है। एक मानव उत्पन्न करना महानतम, कलात्मक कार्य है। परमात्मा की बनाई यह महानतम रचना है। इस आयु में आप बच्चों की प्रतिभा खोज सकते हैं। उनकी रुचियाँ क्या हैं? क्या वे संगीत प्रवृत्त है? संगीत आरम्भ होते ही वह ३२ ाब े 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-32.txt =ं की ি र लय को देखने लगेगा। क्या उनकी रुचि नृत्य में है या किसी अन्य कार्य में । प्रारम्भ से ही उनकी प्रतिभा खोज निकालनी चाहिए। बच्चे पर सभी कुछ न थोपे । कुछ बच्चे गणित में प्रखर होते हैं। परन्तु अन्य नहीं होते । यदि कोई बालक हस्तकला में अच्छा है तो उसे वहीं करने दो । सभी ज्ञान समान है। सहजयोग में ऐसा कुछ नहीं कि यह ज्ञान उस ज्ञान से ऊँचा है। यह सोचना केवल अविद्या मात्र है। जो रचना आप करना चाहते हैं उसका कौशल आपको प्राप्त करना है। सीखते हुए आपके लिए ऊँचा-नीचा कुछ नहीं। अत: बच्चे को उसकी रुचि के अनुसार करने दें । उसे संचालन करने दें लक्ष्य प्राप्ति हो जाएगी। कुछ बच्चों की रुचि कमरे तथा सभी कुछ साफ रखने में खाना बनाने में होती है । वे होटल प्रवन्धक बन सकते है । बच्चों को उदारता सिखाइए। उदारकृत्यों के लिए उनकी सराहना कीजिए। दूसरों की प्रशंसा करना बच्चों को सिखाएं। किसी की मिथ्यालोचना यदि वे करें तो आप बिल्कुल न सुनें । जब वे दूसरों की प्रशंसा करें तो आप ध्यान से सुने। छ: वर्ष की आयु तक यदि वे किसीसे लड़ रहे हो तो आप उन्हें लड़ने दें। अपनी समस्या का समाधान वे स्वयं कर लेंगे। परन्तु यदि वे बहुत अधिक झगड़ रहे हों तो उन्हें दो डंड़े ला दीजिए और एक दूसरे को मारने को कहिए । तब वे समझ सकेंगे। आप उनसे कहो, "एक दूसरे को अच्छी तरह मारो। जब आप दोनों घायल हो जाएंगे तो हम आपको चिकित्सालय ले चलेंगे अब लड़ाई करो।" उनके झगड़े का कारण खोजिए। ध्यानाकर्षण भी बच्चों का मनोविज्ञान है। ध्यानाकर्षित करने की इच्छा से बच्चा गाली गलौच की भाषा का प्रयोग भी कर सकता है। यदि आप कहें, 'ऐसा करने पर में तुम्हें मारुंगा', तो वे पुन: वैसा ही कहेंगे। परन्तु यदि आप उसे कोई तूल न देंगे तो बच्चा भूल जाएगा। पूरी मनोवृत्ति आपके ध्यानाकर्षण की है। परन्तु उनके किए गए अच्छे कार्य को यदि आप महत्त्व देंगे तो उस कार्य को भी बच्चे दोहराएंगे। ३३ ॥स 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-33.txt नव आगमन NEW RELEASES CODE DVD'S -12th Ocr 2007 01) Navratni Celebmatoas 2007 02) Makar Sankataili Puja 03) Shri Ganesh Puja 04) 56 Republic Day Celehration 05) Christmas Puja 06) Guru Puja 07) Shri Gancsha Puja'iPait 1i 08) Birthday Puja (Pit - LALID 09) Shri Devi Puja (Part - 1) 10) Puja at Brahumupuri 11) Mihalakshmi Puji 12) Shri Kartikeya Puja 13) Diwali Puja i Shri Laxmi Puja) - Dist Nov! 19HG 14) Public Prograin 15) Shri Mahakalt Puja 16) Sahasrara Puja 17) Shri Cianeslu Puja. 195 17th Jan 2008 NEW RELEASES Tod Feb' 2008 197 26th lan' 2008 198 CODE SPEECH ACD'S & ACS 23rd De 1981 199 HINDI - 04th Jul 1982 200 027 -22nd Mar' 1979 24th Mar' 1979 -09th Jan' 1979 14th Jan' 1979 15th Jan' 1979 1 7th Jan 1979 13th Mar 1979 16th Mar' 1979 22nd Aug 1982 17th Mar 1985 31st May'1985 17th io, 1985 264 (12) पाने को बाद 3) लार्वजनिक कार्यक्र (14) मकर सन्काती पुजा 0S) मकर सन्करांती नेमीनाम (M6) चक्रोपन जरपस्धित देवता = (07) सार्वजनिक कार्यक्रम (8) विशुद्धो चक {9) दो संस्थाएँ - मन और बुद्धि 12) सार्वजनिक कार्यक्रम 202 356 357 203 204 358 - 06th Jan' 1986 205 359 13th Jut 1986 360 207 361 -05th May 1987 - 16th Ocr 1987 - Osth May'1988 16th Aug' 1990 31st Aung" 1990 06th Dee 1990 -10th Doc" 1950 Ith Dec' 1940) I6th Fel 1991 Jkth Juf (991 108 362 29th Jan' 1980 13th Dee' 1980 23rd Dec 1987 209 365 210 13) सार्वजनिक कार्यक्रम MARATHI 366 211 18) Shn Hana 1912 Publjc Program 20) सार्वजनिक बार् 212 uman Puja i0) सहज सेमीनार - माण ? ।) सहज सेमीनार 09th Dee 1980 363 364 213 10th Dec' 1980 214 21) लार्वजनिक दवारक 22) Mahaihiviatri Paja Part 1n 23) Guru l'uja Part -|&T) 24)Chirstmas Celebrations 2007 215 BHAJAN ACD/ACS CODE D NIRMAL SANGEET Meena Phatarpekar 129 25th Dee 2007 217 2) SAHAJ KI RAAH PAR 3) SHAHNAI RECITAL 4) VOCAL RECITAL 5) SAHAI KRANTI KI NIRMAL BHAKTI Baba Mama 130 Ustad Bismillah Khan 32 1311 25) Shni Bhairavnuith Puja, Part-I 261 Shri Cantsh Pija 06th Aig 1989 04th Augi" 1985 065 Jayteerth Mevuidi 079 Dhananjay Dhaumal TELUGU BHAJAN ACD 133 CODE D AMRUT VARSHINI PUJA TELIA HAJANS PL.B, Subra PL. B. Suhramanian 134 135 amaian अब आप स्वयं मंगवा सकते है - सहज योग की किताबे प्रवचन, पेडेटस् आदि মारत के किसी भी कौने से !!! ७ सरल विधी आदेश के :- NII के कटॉग (जो मुफ्त में किय जा सकते है) के जरिये भाघ ऑटियो और विडियो प्रवचन पुर्तके, फोटोगराप स आदि(की पर्मादय करे) को चुने । १) DNITL आपकटनोग ा आेटन. इ मेल केज्रिये alesar nilLc.in पर करकते है |nilLen.in पर ककते हैं। २) अपने आदेश को दूर-धनी, -मेत. फैक्स के जरिये NITL तक पहुँचा सकते हैं ३) नंपर्क नूचना निर्मल ट्रान्सफॉरमेशन प्रा. लि. लॉटनं, ८, चंद्रगु होउमिंग सोसायटी, पौड रोड कोयरुड, पुणे ४११.०३८ . फोन - ९१-२०-२५२८६५३ २. फैक्स : + ९१-२५२८६२२ आमकी सुतिधा के लिए दो भीर आदेशों के तरीकि (तेवसाईट पेमेंट गेट वे और टोत फी नंबर) जल्द ही उपतता तिये जानेवाते हैं। x) निम्नतिखित सूची जल्दही जपलu करवायी जाएगी। BOOKS RELEASE आपके आदेश ((RER) की कीमत, निप्रमेद ख संहित । आपके मा्सत को आप तक पहुँचाने का रामय। NAME RATE जिस आदेश (ORDER) की कीमत र्थये - १०.०००/- से ज्यादा होगी 1) The Advent 200/- उस पर कोई अतिरिक्त शिपमेंट की रकम नगाई नहीं जाएगी। TELUGU BOOKS 1) Nirmalanjali ५) एक्सिस बैंक के हमारे अकाऊंट- 10.4010100185554 में विसी भी शास्वा के RATE दवारारकम जमा करमकत हैं 100/- जमा की गई रकम की आप हमें जानकारी दें। अपने आदेश ((RER) को सीध aपने घर पाईये । ६) कि ७) 2) Face of God 150/- 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_III.pdf-page-35.txt का मं १ा मि क्या गंगा तुम्हारी गागर की कीमत मापती है? अरे ! गंगा तो तुम्हारा वरण करके तुम्हारे अुभ घर आई है। तुम्हारे चरण धोती है इसलिए कि इस निर्मल प्रेम को वरण करो और रों की गागर भरो । साम दूस श्री माताजी निर्मला देवी श्र हा