चैतन्य लहरी हिंदी मै पाम ৯ जुलाई - अग्त २००८ ाव ए ११८ १० प्रकाशक निर्मल ट्राँसफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८ फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ ि ५० ७ रा अनुकनपिका] १) श्री कृष्ण पूजा ४ २) एक सहजयोगी के लिए महान सत्य ------ ११ ३) बच्चों के लिए स्वास्थ्यवर्धक घरेलू उपचार १२ ४) आप जो भी कहेंगे १३ ५ ) सहजयोगियों के लिए भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का महत्व १४ - ६) समर्पण ३० ७) श्री बुद्ध पूजा (पिछले अंक का शेष भाग) ३२ ८) आदिशक्ति पूजा ३४ श्री कृष्ण पूजा १४ अगस्त १९८९, सफरौन, यू.के. प २त ह। आजहम श्री कृष्णावतार की पूजा करने के लिए एकत्र हुए हैं। श्री कृष्णजी, श्री नारायण तथा श्री विष्णुजी का अवतार हैं । हर अवतरण अपने साथ सभी सद्गुण, शक्तियों तथा अपनी पूर्ण प्रकृति को साथ ले कर आते हैं। अत: उनके अवतरण के समय ही उनमें श्री नारायण तथा श्री राम के सभी सद्गुण थे। पिछले अवतरण में जिस अवतार के विचारों का गलत अर्थ लिया गया हो या उनकी कही बातों को अति में ले जाया गया हो तो अपने अगले अवतरण में वे उन सब बातों में सुधार लाते हैं। यही कारण है कि वे बार-बार अवतरिंत होते हैं । श्री विष्णुजी संसार तथा धर्म के रक्षक हैं। तो जब वे अवतरित हुए तो उन्हें देखना पड़ा कि लोग धर्माचरण करें । आप को ठीक रहने के लिए आत्मसाक्षात्कार लेना होगा और महालक्ष्मी के मध्य मार्ग में रहना होगा। पहले अवतार के विषय में हम कह सकते हैं कि उन्होंने राम रूप में एक परोपकारी राजा की रचना करने का प्रयत्न किया। श्री राम पुरुषोत्तम थे। उन्होंने एक पूर्ण मनुष्य के रूप में अपने सारे मानवी सद्गुणों के साथ अवतार लिया। श्री सीता जी के रूप में उन्होंने लक्ष्मी तत्त्व से विवाह किया और एक साधारण विवाहित जीवन व्यतीत किया। फिर उन्होंने अपनी पत्नी के बिना एक तपस्वी का जीवन व्यतीत किया। जीवन से उन्होंने दर्शाया कि एक पति का अपनी पत्नी के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए। बाद में उन्हें एक राजा के रूप में अभिनय करना पड़ा। राजा बनने पर उन्होंने पाया कि रावण से सीता जी को वापिस लाने पर प्रजा उनकी आलोचना कर रही है। अत: श्री राम जी ने सीता जी को वनवास भेज दिया। श्री राम की तरह से अपने नीचे कार्यरत लोगों में अपने शुभ आचरण द्वारा आदर्श स्थापित करने की चेतना कितने लोगों में है? महालक्ष्मी अवतार श्री सीता जी इस नाटक को समझती थी अत: वे घर छोड़ कर चली गई। ১৯ है., केवल विनोद है । ईश्वर की पूर्ण रचना केवल एक लौला राजा रूप में श्री राम ने सिखाया कि प्रजा पर शासन कैसे किया जाना चाहिए। राज्यादशों को उन्होंने स्थापित किया। राम- राज्य को सर्वाधिक आदर्श राज्य माना जाता है। उनके राज्य में शांति थी, प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। सदाचार, धर्मांचरण, आनन्द, आशीर्वाद तथा शांति के कारण प्रजा-जन प्रसन्न थे परन्तु लोग कुछ ऐसी बातें अपना लेते हैं जो किसी अवतार के लिए स्वाभाविक न हो। श्री राम तपस्वी बनकर रहे अत: लोगों ने भी तपस्या का मार्ग पकड़ लिया। लोग रूखे हो गए। वे न तो हंसते न मुस्कराते । हर चीज़ गम्भीर हो गई। विवाह-अभाव में लोगों का संतुलन बिगड़ गया विवाह आपको संतुलित करता है। यह समय था जब श्री कृष्ण जी अवतरित हुए और यह दर्शाया कि ईश्वर की पूर्ण रचना केवल एक लीला है, केवल विनोद है। गम्भीर, रूखा 1 या तपस्वी होने की कोई आवश्यकता नहीं। वास्तव में श्री राम से पूर्व सभी महात्मा विवाह किया करते थे। तब एक निराधार ब्राह्मणाचार का भी आरम्भ हुआ। जातिवाद, जिसका निर्णय मनुष्य के जन्म से ना कर उसके कार्यानुसार किया जाता था, उसको भी तथा-कथित ब्राह्मणाचार ने दुर्बल बना दिया। ब्राह्मणों ने दूसरों पर प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। अत: श्री कृष्ण जी एक ग्वाले के पुत्र के रूप में अवतरित हुए। लि जब श्री कृष्ण जी केवल पाँच वर्ष के थे उन्होंने विभिन्न प्रकार की क्रीडाएं तथा लीलाएं की जैसे (कालिया) सर्प मर्दन और खेल खेल में अपनी शक्ति द्वारा बहुत से राक्षसों का वध। यद्यपि नाना प्रकार से उन पर यह प्रकट हो चुका था कि वे एक अवतरण है फिर भी मर्यादाओं के हित में उन्होंने यह सत्य कभी नहीं स्वीकारा। महामाया की ही तरह से। यद्यपि आज साधारण कैमरे भी आपको वास्तविक महामाया का प्रमाण दे रहे हैं और बता रहे हैं कि वे कैसी हैं फिर भी व्यक्ति को यही दर्शाता है कि उसे कुछ स्मरण नहीं, उसे इस वास्तविकता की कोई स्मृति नहीं । क्योंकि यदि व्यक्ति इस सत्य को याद रखता है तो कार्य-कलाप मानवी नहीं होंगे। ही लाभदायक है। विशुद्धि चक्र के लिए मक्यवन बहुत वे (कार्य-कलाप) ईश्वरीय कार्य बन जाएंगे जो कि मनुष्यों के लिए ठीक न होंगे। क्योंकि मनुष्य उन कार्यों को सहन न कर सकेंगे। वे डर जाएंगे और भय फेल जाएगा। अत: श्री कृष्ण जी ने एक साधारण मनुष्य की तरह से व्यवहार किया। अपने बचपन में उन्हें मक्खन बहुत पसन्द था। विशुद्धि चक्र के लिए मक्खन बहुत ही लाभदायक है। चाय में भी थोड़ा मक्खन मिला लें ताकि आपके शुष्क गले को आराम मिले । अपने मित्रों की सहायता से श्री कृष्ण मटकियाँ तोड़कर सारा मक्खन खा जाते थे। छोटे छोटे झूठ बोल देते। उनकी सब लीलाएं, बालसुलभ, मधुर-असत्य केवल मधुरता की भावना जागृत करने के लिए थीं। जब बच्चे माँ के साथ इस प्रकार की नटखटता करते हैं तो वे बहुत ही प्रिय लगते हैं। पूर्वी देशों के लोग अपने बच्चों की नटखटता का आनन्द लेते है। अपने बच्चों से प्रेम-अभाव के कारण ही लोग उनके प्रति कठोर हो जाते है। वे अपने कालीन तथा भौतिक वस्तुओं को केवल बेच सकने के लिए ही प्रेम करते हैं। अपने बच्चों को तो वे बेच नहीं सकते। बच्चे और माता-पिता भौतिकता के विचारों के कारण ही एक दूसरे से दूर हो जाते हैं, और भौतिक वस्तुऐं बहुत महत्त्व ग्रहण कर लेती हैं। चोरी यद्यपि बुरी है फिर भी जो स्त्रियां अपने मक्खन को मथुरा के राक्षसों के लिए ले जाती थी, उनका मक्खन श्री कृष्ण जी चुरा लिया करते थे। इन स्त्रियों द्वारा दिए गए मक्खन को खा कर राक्षसगण शक्तिशाली हो रहे थे। अत: श्री कृष्ण जी ने सारे मक्खन को खा लेना ही उचित समझा जिससे कि यह राक्षसों तक न पहुँच पाये। इस चोरी का महत्त्व हमें इस सत्य में भी प्रतीत होगा कि थोड़े से धन के लालच में हम अपने बच्चों को भूखा रखते हैं। "हर वस्तु विक्रय के लिए है" इस विचार में धन-लोलुपता छिपी है और इसी के कारण बच्चें हम पर स्थायी बोझ बन जाते हैं । बच्चों के साथ केवल बोझ की तरह से व्यवहार किया जाता है। जीवन के सब मूल्य यदि केवल धन पर आधारित हो जाएं तो बच्चों के लिए परिवार में कोई स्थान नहीं रह जाएगा। सहजयोग के अनुसार बच्चें कुबेर श्री कृष्ण को धर्म की स्थापना कार्य के लिए पंच-तत्तवों की आवश्यकता पड़ी । के धन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और उनका लालन पालन उसी प्रकार होना चाहिए। बच्चों को अपने गौरव के प्रति जागरूक होना चाहिए और उस गौरव के अनरूप ही उन्हें व्यवहार करना चाहिए फिर भी बच्चों की छोटी-छोटी क्रीड़ाओं को अच्छी तरह से समझा जाना चाहिए तथा उनका आनन्द लिया जाना चाहिए। बचपन में ही तो वे प्यार भरी शरारतें कर सकते हैं, बड़े होकर नहीं। उन्हें मधुर शरारतें करने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए नहीं तो वे बहत ही गम्भीर बन जाएंगे और तपस्वी भी बन सकते हैं। बच्चों के प्रति कठोर माता-पिता कभी स्वाभाविक नहीं हो सकते। वे या तो अति विकृत होते हैं या मोनीगर्त में समाकर वे जीवन का सामना नहीं कर सकते । दोनों एक ही प्रकार के होते हैं, एक जीवन का सामना करने में असमर्थ है तो दूसरे का सामना "जीवन" नहीं करता। आपको बहुत प्रेम तथा सूझबूझ के साथ अपने बच्चों से बत्ताव करना है। परन्तु बच्चों को इस बात का भी ज्ञान होना आवश्यक है कि अनुचित व्यवहार की अवस्था में उनके प्रति आपका सब प्रेम समाप्त हो जाएगा। बच्चे धन आदि को नहीं समझते, वे केवल प्रेम को जानते हैं। अपने बच्चों में जो प्रेम आप स्थापित करते हैं वह अमूल्य निधि बन जाता हैं। सहजयोग ईश्वरीय-प्रेम पर आधारित है और यह तभी कार्य कर सकता है जब लोगों में प्रेम भाव हो। अपने बच्चों, परिवार को प्रेम न करके यदि लोग धन, शक्ति तथा प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं तो वे समाज का एक बहुत बड़ा भाग खो रहे है। राजा रूप में भी कृष्ण ने लोगों को धर्म में स्थापित करना चाहा । इस कार्य के लिए उन्हें पंच -तत्त्वों की आवश्यकता पड़ी । इन तत्त्वों की रचना उन्होंने उन पाँच स्त्रियों के रूप में की जिनसे उन्होंने विवाह कर लिया। परन्तु वे स्त्रियां उनकी ही अभिन्न अंग हैं। योगेश्वर कृष्णपूर्ण तथा अनासक्त थे । परन्तु सांसारिक कार्यों के लिए उनकी पाँच पत्नियाँ थीं तथा सोलह हजार अन्य पत्नियाँ जो कि बास्तव में उनकी सोलह हजार शक्तियाँ थी। विशुद्धि चक्र की सोलह पंखुडियों का गुणान विराट की एक सहस्र पंखुडियों से करने पर "मौन" धारण करके अपनी दायी विशूद्धि को आराम देना, इसे ठीक करने का सबसे अच्छा उपाय है। এधु र १६.०००शक्तियाँ बनती हैं। यही १६, ०० ० शक्तियाँ स्त्रियों के रूप में अवतरित हुई और इन्हें एक दुष्ट राजा ले गया। इस राजा को पराजित करके श्री कृष्ण ने इन शक्तियों को स्वतंत्र कराया तथा उनसे विवाह करके अपनी छत्र-छाया में ले लिया। विशुद्धि की समस्याओं की दशा में हमें विशुद्धि के दोनों ओर स्थित देवताओं और सद्गुणी का ज्ञान होना चाहिए-जिनके अभाव में हम कष्ट उठा रहे हैं। पकड़ की अवस्था में हम अपनी दायी विशुद्धि को देखें । माधुर्य श्री कृष्ण जी का परम गुण है। राधा उनकी शक्ति थी। रा-शक्ति, धा-धारण करने वाला। और आल्हाद, आनन्द प्रदान करने वाले सद्गुण-उनकी शक्ति थी। श्री कृष्ण की खूबी उनका योगेश्वर-साक्षी रूप होना ही थी। एक व्यक्ति जो ऊँचा बोलता है, चिल्लाता है, चीखता है और शीघ्र क्रोधित हो जाता है वह दायीं विशुद्धि की समस्या का शिकार है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि किसी की प्रताड़ना भी करनी हो तो भी हमें प्रेमपूर्वक उससे कहना है कि "आप ये क्या कर रहे है?"' "मौन" धारण करके अपनी दायीं विशुद्धिको आराम देना, इसे ठीक करने का सबसे अच्छा उपाय है। दायी तरफ जिगर से गर्मी का प्रवाह शुरू हो जाता है। यह प्रवाह ऊपर को उठना शुरू कर सबसे पहले दाये-हृदय को प्रभावित करता है। परिणामतः आप एक क्रोधी पति या पिता बन जाते हैं तब यह गर्मी दायी विशुद्धि पर पहुँचती है और आप एक चिड़चिड़े, उग्र, क्रोधी, हर समय दूसरों पर चिल्लाने वाले व्यक्ति बन जाते हैं जिस व्यक्ति पर आप क्रोध करते हैं वह आप से भयभीत हो जाएगा, उसमें हीनता की भावना भी उत्पन्न हो सकती है, वह वाम- तरफी भी बन सकता है। जिस व्यक्ति पर हर समय कोई चिल्लाने वाला हो उस व्यक्ति का भाग्य तो ईश्वर ही जानता है। हन श्री कृष्णजी मधुट बाँसुटी बजाकर सारे वातावरण को पूर्णतया शांत कर देते थे। हह श्री कृष्णजी के जीवन से हमें सीखना है कैसे वे मधुर बाँसुरी बजाकर सारे वातावरण को पूर्णतया शांत कर देते थे। परन्तु आधुनिक काल में मामला बिल्कुल ही विपरीत है। यहाँ दायी विशुद्धि टूटने और फटने के समीप है । आज का संगीत शान्ति प्रदानकरने के स्थान पर अधिकाधिक उत्तेजित करता है। इस प्रकार का संगीत सहस्रार खंड, जो कि श्री कृष्ण के विराट तत्त्व का स्थान है, को शिथिल कर देता है। दायी विशुद्धि से यह सहस्रार को जाता है। तब आप नशा लेना शुरू कर देते हैं क्योंकि आपका दिमाग शिथिल हो चुका होता है। इस प्रकार सख्त नशे लेना आप शुरू कर देते हैं। आप एक ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ से कोई वापसी नही। जहाँ केवल आत्मविनाश है। श्री कृष्ण एक ईश्वरीय राजनीतिज्ञ थे। ईश्वरीय राजनीति क्या है? आपको चिल्लाना नहीं है। यदि आप किसी को परिणाम विशेष तक ले जाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको विषय परिवर्तन करना होगा। यह बड़ा चतुराई का कार्य है। किसी व्यक्ति के साथ पूर्ण तादात्म्य करना उसके साथ खेलने जैसा है। व्यक्ति को जान लेना चाहिए कि राजनीति का निष्कर्ष परोपकारिता है। मानव मात्र के हित का लक्ष्य तुम्हें प्राप्त करना है। यदि आप यह कार्य कर रहे हैं तो अपने या किसी व्यक्ति विशेष के स्वार्थ के लिए नहीं कर रहे हैं। अत: चीखने की कोई आवश्यकता नहीं। इसके साथ खेल करते रहो। और इसे परोपकारिता तक ले जाओ । श्री कृष्ण ने हमें मधुरतापूर्वक सत्य बोलने को कहा। ऐसा सत्य जो परोपकार के लिए हो। माना कि आपका सत्य व्यवहार इस क्षण किसी व्यक्ति विशेष को अच्छा न लगे लेकिन यदि हित ही आपका लक्ष्य है तो भविष्य में वही व्यक्ति आपके प्रति अनुग्रहीत होगा। परोपकार के लिए यदि आपको झूठ भी बोलना पड़े तो भी कोई बात नहीं क्योंकि विशुद्धि के शासक श्री कृष्ण इस सत्य को जानते हैं। अपने अधीन व्यक्तियों, परिवार के सदस्यों तथा सम्बन्धियों को उनकी त्रुटियां बताने में आप कभी न हिचकिचायें । स्पष्ट रूप | ४ से उन्हें वही बताएं जो उचित हो। यह आपका कर्तव्य है। लोग इस कार्य से भी बचते हैं। बहत से लोग अपने बच्चों के लिए उन्हें बहुत से खिलौने देकर चले जाते हैं। अनुशासन का अर्थ शासन नहीं परन्तु इसका अभिप्राय यह है कि जो भी आप कर रहे हैं वह आप की और दूसरों की आत्मा के हित के लिए है। यही सहज का अनुशासन है। बाईं विशुद्धि बिजली की चमक सी है। यह एक ऐसे व्यक्ति की है जो चीख चिल्ला सके और विष्णुमाया की तरह दोषों को उखाड़ सकें। आपको निड़र होना चाहिए। स्वयं को दोषी मानने वाले अधिकतर व्यक्ति अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं । और अहं उनकी बाई ओर प्रविष्ट हो जाता है। यह बहुत ही पेंचीदा अवस्था है। सावधानीपूर्वक हमें देखना चाहिए कि अपने आप को हम दोषी न मान बैठे। दोष का भाव कहते हैं। आपको वास्तविकता का सामना करना है। अपनी ओर दूसरों की त्रुटियों को खोजने का प्रयत्न करो । क्योंकि विष्णमाया केवल विद्युत मात्र है। बिजली लोगों के दोषों पर से पर्दा उठाती है तथा उन पर गरजती भी है। अपनी बाईं विशुद्धि को ठीक करने के लिए आपको ये विधियाँ अपनानी होंगी। बाई विशुद्धि की समस्या वाले व्यक्ति को समुद्र पर जाकर जोर से कहना चाहिए "में समुद्र का स्वामी हूँ" "मैं ये हूँ - मैं वो हूँ" इत्यादि । 1 गले में दाई ओर श्री कृष्ण जी की शक्ति स्वरों में है - यह माधुर्य की शक्ति है । विष्णुमाया अपनी महान शक्तियों को केवल अपना अस्तित्व बताने के लिए ही प्रयोग करती है। यह सब चमत्कृत तस्वीरें आपको विष्णुमाया की ही देन है। वही विद्युत रूप में कार्य करती है और यह सब कुछ संभालती है। चाहे वह श्री कृष्ण की बहन है तो भी वे बहुत सूक्ष्म हैं और बड़ी सूक्ष्मतापूर्वक आपकी सहायता करती हैं । इस माईक्रोफोन के अन्दर विद्युत है और आप हैरान होंगे कि इसके अन्दर से चैतन्य लहरियाँ बह रही है। यहाँ से जहाँ आप चाहे ये लहरियाँ जाएंगी। दूसरी ओर कम्प्यूटर रखकर आप इन्हें महसूस कर सकते हैं। कितनी प्रशंसनीय बात है कि इतनी महान शक्ति हमारी बाई ओर विराज कर स्वयं को दोषी मानने वाले तथा हीन-भाव पीड़ित लोगों की रक्षा करती है। अन्तर देखिए। आत्मविश्वास विहीन लोगों में विष्णुमाया अपनी शक्ति प्रकट करती है जिससे कि उनका आत्मविश्वास जाग उठे। विष्णुमाया की बात करते हुए हमें ज्ञान होना चाहिए की वह वहाँ विशुद्धि पर विराजमान है, जब चाहे हम महान वक्ता बन सकते हैं दूसरों के दोषों का पर्दाफाश कर सकते हैं। हम बिजली या मेघ ध्वनि जो कि हम नहीं हैं-की तरह बन सकते हैं। अत: यह दोनों तरह के लोगों को संतुलन देती है। मध्य में जब कुण्डलिनी उठती है तो अधिकतर लोगों की विशुद्धि पकड़ी होती है। अतः उन्हें ध्यान रखना है कि वे निर्दोष हैं, और अपने आप में पूरी तरह से संतुलित हैं तथा वे मध्यम मार्ग में जिससे कि वे मधुर, करुणामय और अच्छे बन सकते हैं। बहुत से लोग केवल दूसरों का लाभ उठाने के लिए दिखावे मात्र को मधुर हैं ऐसे लोग नर्क में जाएंगे क्योंकि श्री कृष्ण की शक्ति का दुरूपयोग कर रहे हैं। हमारे लिए यह समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि हमारी विशुद्धि साफ़ होनी चाहिए। सर्वप्रथम हमारा हृदय सुन्दर और स्वच्छ होना चाहिए जहाँ से कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी विशुद्धि को सुधारे। विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारो क्योंकि आपके सिवाय कोई अन्य इन्हें नहीं सुधार सकता। देखो कि तुम्हें अपना पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी विशुद्धि के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धि पर आकर ही आप साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कमियों को जान सकेंगे। श्री कृष्ण की पूजा करते हुए हमें ये जानना है कि अंत में वे बुद्धि-तत्त्व बन जाते हैं पेट पर की चर्बी सूक्ष्म रूप में बुद्धि को पहुँचती है तथा श्री नारायण बुद्धि में प्रवेश कर विराट" रूप हो जाते हैं अकबर बन जाते हैं और जब वे अकबर बन जाते हैं तभी पदार्थ के अन्दर बुद्धि (ज्ञान) बन जाते हैं। यही कारण है कि श्री कृष्ण को पूजने वाले लोग-अहंकार रहित बुद्धिमान बन जाते हैं। उनकी बुद्धि विकसित होती है परन्तु यह अहंग्रसित नहीं होती । बिना अहं की बुद्धि जिसे मैं शुद्ध बुद्धि कहती हैं, प्रकट होने लगती है। 1 ईश्वर आपको आशीर्वादित करें । १० ा एक सहजयोगी के लिए महान सत्य १९९६ में कबेला में हुई श्री कृष्ण पूजा में श्री माताजी सभी देशों से आये हुए प्रतिनिधियों से मिली। उस दौरान श्री माताजी ने प्रश्न पूछे और उनके उत्तर भी दिए। प्र. १ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ी गलती क्या है? अपने मन पर विश्वास करना। प्र. २ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद क्या है? - Collective Conscious (सामूहिक चेतना) प्र. ३ सबसे बड़ा मूर्ख कौन है? - वो जो सत्य को नहीं पहचानता। प्र. ४ सहजयोगी के लिए जीवन में निश्चित चीज़ क्या है? आपकी माँ का प्रेम । प्र. ५ सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा आनन्द कोनसा है? - सच्चा आनन्द - निर्मल आनन्द प्र.६ सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा अवसर क्या है? - लोगों को जागृति देना। प्र.७ सहजयोगी के लिए सबसे महान विचार क्या है? - निर्विचारिता प्र. ८ सहज योगी के लिए सबसे बड़ी विजय क्या है? - अपने अहंकार पर विजय प्राप्त करना। प्र. ९ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ी अड़चन क्या है? अहभाव - प्र. १० सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा नुकसान क्या है? अपने हृदय से माँ की छवि खोना। प्र. ११ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है? निर्विकल्प - पूर्ण विश्वास ११ बत्चों के लिए स्वारथ्यव ्ैक घरेलू उपचार 00 EO ची. नी पानी में घोलकर दीजिए, जिससे कि वो दाँत में न लगे। पानी में घोलकर दी हुई चीनी बच्चों के लिए बहुत जरूरी है। डॉक्टरों का इस मामलें में मत सुनिए । वो तो general (सामान्य) चीज़ चलाते हैं कि अब चीनी मत खाओ । सब लोग चीनी नहीं खा रहे। फिर नमक नहीं खाओ। सब लोग नमक नहीं खा रहे। भाई जिसको, जिस चीज़ की जरूरत है वो खाओ । बच्चों को चीनी की जरूरत बहुत है। उनको आप चीनी दीजिए। लेकिन ऐसी चीनी न दीजिए जो दाँत से वो खाऐं या इस तरह की । पर चीनी जो कि पेट में चली जाए । दूसरे ये कि गर्मियों में 'कोकम' नाम का एक फल आता है, महाराष्ट्र में मिलेगा उसको भिगो लिया रात को । उसके दूसरे दिन चाहे तो थोड़ा उबाल लिया। उसका रस निकाल कर उसमें चीनी ड़ाल दीजिए । चीनी ड़ालकर के उसको रख लीजिए । दिन भर बच्चे को वो पीने को दीजिए । अगर जॉन्ड़िस जैसी बीमारी हो जाए तो मूली के पत्ते को, छोटी-छोटी जो पत्तियाँ होती हैं उनको उबाल लीजिए। कोमल पत्तियाँ जिनको कहना चाहिए कि अभी जो निकली हैं। उनको उबालकर के उसमें खड़ी शक्कर मिला करके या चीनी जो वाइब्रेटिड हो मिलाकर बच्चे को दीजिए । और कोई पानी न दें। एक दिन के अन्दर बच्चे का जॉन्डिस ठीक हो सकता है। और गर्मियों में अगर मूली का रस दे सकें तो बहुत ही अच्छा है। मूली खूब खाने को दीजिए बच्चों को । बच्चों के लिए मूली बहुत फायदे की चीज़ है। और उनको ऐसी ऐसी चीजें दीजिए जिससे कि उन पर बहुत ज्यादा fat (चर्बी) न पहुँचे । हमारे यहाँ ज्यादा तली हुई चीज़ बच्चों को दे देते हैं , कुछ सोचते ही नहीं। तली हुई चीज़ बिलकुल नहीं देनी चाहिए। और दूसरा यहाँ पर बहुत एक 'लिव ५२' भी अच्छी दवा मिलती है। वो अगर शुरू कर दें तो एक साल के अन्दर वो भी चल सकती है। लेकिन एक चीज़ बनती है जिसको मराठी में कहते हैं 'एरोण्या', छोटी-छोटी, काली-काली। नागपुर में बहुत होती है इसलिए नागपुर में किसी को liver (जिगर) की trouble (बीमारी) नहीं होती। और जब जाड़ा पड़े तो सौंठ थोड़ी सी पीस कर उसमें चीनी मिला कर सबेरे बच्चों को जाड़ा पड़ने पर दें । दूसरी चीज़ कि गन्ने का रस जितना बच्चा पी सके उतनी चीज़ अच्छी है उसके लिए। उसमें अदरक, नींबू ड़रालकर। ये सब फायदा करती हैं। और बच्चों को ज्यादातर 'ये कर रे, वो कर रे" ऐसा नहीं कहना चाहिए 'सबेरे उठो, जल्दी चलो, ये करो" ऐसा नहीं कहना चाहिए। इससे इनकी, जिसे तिल्ली कहते हैं, spleen खराब हो जाती है और इंसी से ब्लड कैंसर हो जाता है। Hectic life जो lead करता है उसे ब्लड केंसर होता है। बच्चों को hectic नहीं बनाना चाहिए। बच्चों को बहुत शांतिपूर्वक रखना चाहिए। पूड़ी खाना, पराठे खाना ये सब गन्दी चीजें हैं। पराठे तो बिलकुल बन्द कर दीजिए आप लोग। दिल्ली, २५/३/१९८५ १२ आप जो भी कहेंगे वहीं पटमात्मा आपके साथ कटेगा। अ. व हम लोग ध्यान में जाएंगे। मैंने जैसे कहा है पहले अपने को प्रेम से भर लो। आप जानते हैं मैं आप की माँ हूँ। पूर्णतया आप इसे जानें कि मैं आपकी माँ हूँ। और माँ होने का मतलब होता है कि सम्पूर्ण security हैं, संरक्षण है। कोई भी चीज गड़बड़-शड़बड़ नहीं होने वाली। आप मेरी ओर हाथ करिए। और धीरे-घीरे से आँख बन्द करके और अपने विचारों की ओर देखिए, आप निर्विचार हो जाएंगे। आपको कुछ करने का है ही नहीं। आप जैसे ही निर्विचार हो जाएंगे, वैसे ही आप अन्दर जाएंगे। पहले अपने से इतना बता दो कि आज से निश्चय हो कि किसी को कोई सी भी चोट मैं नहीं पहुँचाऊंगा। और सब को प्रभु तुम क्षमा कर दो, जिन्होंने मुझे चोट पहुँचाई हो। और मुझे क्षमा करो क्योंकि मैंने दुनिया में बहुत लोगों पर चोट की है। आप जो भी कहेंगे वही परमात्मा आपके साथ करेगा आप उससे कहेंगे कि "प्रभु शांति दो" तो तुम्हें शांति देगा। लेकिन आप माँगते नहीं हैं शांति । "संतोष दो" तो वो तुम्हें संतोष देगा, तो वो माँगते नहीं है। 'मेरे अंदर सुन्दर चरित्र दो" तो वो चरित्र देगा। अब प्रार्थना का अर्थ है, क्योंकि आपका connection हो गया है परमात्मा से।. "मुझे माधुर्य दो, मिठास दो।" जो भी उनसे माँगोगे, वो तुम्हें "मुझे अपने चरण में समा लो।"...."मेरी बूँद को अपने सागर में समा लो।" "मेरे अन्दर प्रेम दो । सारे संसार के लिये प्रेम दो।".... देगा। और कुछ नहीं माँगो। अपने लिए ही माँगो। ... "जो भी कुछ मेरे अन्दर अशुद्ध है, उसे निकाल दो।" परमात्मा से जो कुछ भी प्रार्थना में कहोगे, वही होगा। "मुझे विशाल करो। मुझे समझदार करो। तुम्हारी समझ मुझे दो। तुम्हारा ज्ञान मुझे बताओ।" "सारे संसार का कल्याण हो, सारे संसार का हित हो । सारे संसार में प्रेम का राज्य हो । उसके लिये मेरा दीप जलने दो । उसमें ये शरीर मिटने दो। उसमें ये मन लगने दो। उसमें ये हृदय खपने दो।" सुन्दर से सुन्दर बातें सोच करके उस परमात्मा से मांगे। जो कुछ भी सुन्दर है, वही माँगो तो मिलेगा। तुम असुन्दर माँगते हो तो भी वो दे देता है। बेकार माँगते हो तो भी वो दे ही देता है। लेकिन जो असली है उसे माँगो, तो क्या वो नहीं देगा? प्रभादेवी, बम्बई १ फरवरी १९७५ यूँ ही ऊपरी तरह से नहीं, "अन्दर से", आंतरिक हो करके माँगो । १३ सहजयोगियों के लिए भषारतीय सटता एवं संति छ का महत्व आ् आ ज नवरात्रि के शुभ अवसर पर सबको बधाई ! सहजयोग के प्रति जो उत्कण्ठा और आदर, प्रेम आप लोगों में है वो जरूर सराहनीय है, इसमें कोई शंका नहीं। क्योंकि जो हमने उत्तर हिन्दुस्तान की स्थिति देखी है वहाँ पर हमारी परम्परागत जो कुछ धारणाएं हैं उसी प्रकार शिक्षा प्रणालियाँ हैं, सब कुछ खोई हुई हैं। बहुत कुछ हम लोगों का अतीत मिट चुका है और हम लोग एक उधेड़बुन में लगे हुए हैं कि नवीन वातावरण, जो कि तीन सौ साल की गुलामी के बाद स्वतन्त्रता पाने पर तैयार हुआ, वो एक बहुत विस्मयकारी जरूर है, लेकिन विध्वंसकारी भी है। माने कि जैसे कि हम अपने मूलभूत तत्त्वों से उखड़ से गए हैं। उनका सिंचन नहीं हुआ, ये बात जरूर है, लेकिन हमारा भी रुझान ज्यादा बाह्य की ओर रहा। ये उत्तर हिन्दुस्तान पर एक तरह का शाप सा है। उत्तर प्रदेश में मैं सोचती हूँ कि सीताजीके साथ जो दुर्व्यवहार किया गया उसके फलस्वरूप अब मेरे ख्याल से धोबियों का ही राज शुरू हो गया है। और बड़ी दुःख की बात है कि जब आप उत्तर प्रदेश में सफर करते हैं तो देखते हैं कि लोगों में बड़ा उथलापन, अधूरापन, अश्रद्धा, अनास्था आदि इतने बुरे गुण आ गये हैं कि लगता नहीं है कि वहाँ कभी सहजयोग पनप सकता है। दूसरी बात बिहार, पंजाब, हर जगह ये पाया जाता है कि हम अपने को कहलाते हैं कि हिन्दू या भारतीय हैं, लेकिन हम अपनी संस्कृति से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। हम कुछ भी नहीं जानते कि हमारी जड़ें क्या हैं? किस जड़ के सहारे हम खड़े हैं? दूसरों की जड़े अपने अन्दर बिठा कर हम पनप नहीं सकते और जो हमारी जड़े हैं वो इतनी महत्त्वपूर्ण हैं कि उसी से सारे संसार की जड़े प्लावित होंगी। उसी से वो उच्च स्तर पर उठेंगी। लेकिन यहाँ का मानव ऐसा कुछ अजीब वातावरण में है कि न इधर के न उधर के हैं और जब भी मैं अन्दर देखती हूँ, तो बड़ा आश्चर्य होता है कि जो गहनतम विशेषताऐं दक्षिण में हैं, वो यहाँ एकदम खो सी गई हैं। इस ओर हमें चिन्ता करनी चाहिए और ध्यान देना चाहिए कि हमने ये सब क्यों खो दिया? जो हमारा इतना महत्त्वपूर्ण ऊँचा था, उसे हमने क्यों त्याग दिया? उससे तो मैं सिख लोगों को ज्यादा मानती हूँ, क्योंकि कुछ नहीं तो कुछ न कुछ तो वो जानते हैं अपने धर्म के बारे में । ऐसा कोई सिख आपको नहीं मिलेगा जो अपने धर्म के बारे में कुछ भी न जानता हो। लेकिन ऐसे 9999969 १४ के आपको हजारों हजारों हिन्दू मिल जाएंगे जो कुछ भी नहीं जानते और उसमें उनको कोई हर्ज भी नहीं है। इसका एक फायदा जरूर होता है कि जब धर्म बहुत ज्यादा संकलित होता है, organised (संगठित) होता है तो उसकी श्रृंखलाएं जरूर अटकाव रखती हैं, उससे आदमी अति पर जाकर fanatic (धर्मान्ध) हो सकता है यह एक बात है। लेकिन दूसरी बात कि हम बिलकुल अनभिज्ञ हैं अपने धर्म के बारे में। अपने विश्वासों के बारे में और अपनी धारणाओं के बारे में होने से अंग्रेजों को तो कह सकते हैं, परदेसी लोगों को कह सकते हैं कि आपको यह सीखना है, आपको यह जानना है, अपनी गहराई में उतरना है, लेकिन हिन्दुस्तानियों को क्या कहा जाए? वो तो अपने को अंग्रेज ठहराए बैठे हैं। वो सोचते हैं कि हम तो बहुत ऊँची पदवी पर पहुँचे हुए हैं। कितना उथला जीवन हम बिता रहे हैं। इसकी ओर हमारी दृष्टि नहीं। इसलिए हमारी संवेदना, जो आत्मा की है, वो गहन नहीं हो पाती आत्मा की संवेदना गहन हैं, उथली नहीं है। जो मनुष्य उथलेपन से जीता है, वो गहनता को कैसे पाएगा? इस ओर ध्यान देना चाहिए कि इसे हमने क्यों खोया? और खोने पर अब हमारा सम्बन्ध इससे कैसे हो सकता है? हम किस तरह से अपने को गहनता में उतार सकते हैं? एक तो धर्म के प्रति हमारी बड़ी उदासीनता है। मैं कोई बाह्य के धर्म की बात नहीं कर रही हैं, ये आप जानते हैं, पर अन्दर का धर्म होना बहुत जरूरी है। अन्दर का धर्म माने संतुलित जीवन में वो सब चीजों में असर करता है। कोई कहेगा कि 'माँ कपड़े पहनने से क्या होता है, वो तो जो है जड़ वस्तु है। सूक्ष्म में ही सब कुछ है ।' अरे भाई, आप सूक्ष्म में जब जाओगे, तब जड़ को आप पाओगे। जब जड़ में भी आप इतने उच्छृंखल हैं, तो आप सूक्ष्म में कैसे उतरेंगे? हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषताऐं जो हैं, उनको समझे बगैर ही लोग गलत काम करते हैं। जैसे कि हाथ में चूड़ी पहनना एक छोटी सी बहुत चीज़ है। ये क्या चीज़ है आप जानते हैं? विशुद्धि के चक्र में स्त्री में कंकण होना चाहिए। पुरुष भी पहले कंकण पहनते थे। मेरे नाक में (नथ), ये शुक्र का तारा है, ये मुझे पहनना पड़ा। पहले पहना नहीं था बहुत दिनों तक। लेकिन समझ गई मैं इसको पहने बगैर काम होगा नहीं इसलिए पहना । हर चीज़ हमारी संस्कृति में बहुत नापतोल अऔर समझ से बनाई गई है। ये कोई किसी धर्म ने नहीं बनाई। ये द्रष्टाओं ने बनाई हैं, बड़े-बड़े ऋषियों और मुनियों की बनाई गई चीजें हैं, इसको हमें समझ लेना चाहिए। हर चीज़ में, हर रहन-सहन में, बातचीत में, ढंग में हमें पहले भारतीय होना चाहिए। जब तक हम भारतीय नहीं है तब तक सहजयोग आप में बैठने वाला नहीं। क्योंकि जो परदेसी हैं वो हर समय ये कोशिश करते हैं कि हम भारतीय लिबास में कैसे रहें, भारतीय तरीके से कैसे उठें, बैठे, बोलें। हर चीज़ वो ये देखते रहते हैं, और सीखते रहते हैं । या १५ विशुद्धि के चक्र में ख्री में कंकण होना चाहिए। हे कोशिश करते हैं । आज ही हमारी बहु ने एक बात कहीं कि 'जो सहजयोगी हमने foreign (परदेस) में देखे, उनकी जो आस्था और dedication (श्रद्धा, भक्ति ) देखा, वो यहाँ के सहजयोगियों में नहीं है। यहाँ तो सहजयोगी सिर्फ बीमारी ठीक कराने आते हैं।' तो हिन्दुस्तानियों का भारतीय होना बड़ा कठिन दिखाई दे रहा है, बजाय इसके कि परदेसियों का । एक तो बुद्धि में उनकी बड़ी शुद्धता है और बहुत चमक है। उस बुद्धि से वो समझते हैं कि जो आज तक हम लोगों ने ये अहंकार के सहारे कार्य किये हैं इनको छोड़ देना चाहिए और सीधे सरल तरीके से जो भारतीयता हमेशा आत्मा की ओर निर्देश करती है उसे स्वीकार करना चाहिए। वो इसे समझते हैं बहत अच्छी तरह से और गहनता से और जिस चीज़ को समझते हैं और मानते हैं उसको करते हैं । क्योंकि उनमें बड़ी समग्रता आ गई है। लेकिन हम लोग माँ के सामने एक बात, बादमें दूसरी बात 'उसमें क्या हर्ज है, अगर इस तरह से रहा जाए, उस तरह से रहा जाए। आज मैं आपके सामने एक ही प्रस्ताव रख रही हैं क्योंकि आप जानते हैं हमने 'विश्व निर्मल धर्म' की स्थापना की है। लेकिन विश्व धर्म जो है उसकी संस्कृति भारतीय है। संस्कृति बिलकुल, पूरी तरह से भारतीय है। उसमें कोई भी हम लवलेश नहीं करेंगे । जो भारत में आएंगे उनको भारतीयों जैसे रहना पड़ेगा क्योंकि ये संस्कृति हजारों वर्षों से सोच समझकर बनाई गयी है। इसमें जो गलतियाँ हैं उसे ठीक कर के। अनेक वर्ष बिता कर, इसमें से जो कुछ भी दोष हैं उसे निकाल कर, ये संस्कृति बनाई गयी। 1 और इस संस्कृति में एक ही बात निहित है कि 'अपना चित्त हमेशा निरोध में रखो।' अपने चित्त का निरोध। अपने चित्त को रोकिए। आप देख लीजिए दिल्ली शहर में कहीं भी जाइए, सब की आँखे इधर-उधर घूमती रहती हैं हर समय । किसी की आँख में शुद्धता नहीं पाईयेगा। वासना भरी हुई है, जिसे lust और greed कहते हैं। चित्त का निरोध तभी हो सकता है कि जब हम इस तरह से अपना भी लिबास रखें, और दूसरों का भी लिबास इस प्रकार रहे जिसमें कि मुनष्य सौष्ठवपूर्ण हो, असुन्दर न हो । लेकिन उसमें वासनामय चीज़ें न हों। १६ का शुक्र का तारा है, ये मुझे पहनना पड़ा । फeি मेरे नाक में (नथ), ये जीवन के हर व्यवहार में हमारा जीवन अत्यंत सौष्ठवपूर्ण होना चाहिए। सौष्ठव का मतलब होता है 'सु' से आता है-जिसमें शुभदायी चीज़ हो, सबका मन पवित्रता से भर जाए। ऐसा स्त्री का स्वरूप, पुरुष का स्वरूप होना चाहिए, उनका व्यवहार होना चाहिए। लेकिन हम उनकी जो बुरी बातें हैं, पूरी तरह सीख लेते हैं और उनकी अच्छी बात है तो हम नहीं सीख पाते। और अपने को ये समझ कर कि हम एकदम से बड़े भारी आधुनिक बन गए हैं, इस आधुनिकता के जो शाप हैं उनसे आप वंचित नहीं रहेंगे । अपने बच्चों की ओर नजर करें। अपने बच्चों में भी भारतीयता आनी चाहिए। बच्चों में आदर, आस्था, भक्ति, नम्रता सब होनी चाहिए । अब आप महाराष्ट्र के बच्चे देखिए, सीधे बैठे रहते हैं । मैंने कभी नहीं देखा कि बच्चे इधर -उधर देख रहे हैं, ये कर रहे हैं, हँस रहे हैं, बोल रहे हैं कभी नहीं। आप देखिए शांति से, ध्यान में बैठे रहते हैं। अगर आप अंग्रेज बच्चों को देखिए तो इतना दौड़ते हैं कि उनको सबको बाहर रखा जाता है, उनकी मॉओको भी बाहर रखा जाता है। तो हमें जान लेना चाहिए क्या बात है? सहजयोग इतना गहरा हमारे अन्दर क्यों नहीं उतर रहा। हमें अपनी ओर दृष्टि करके देखना चाहिए कि हम क्या स्वयं गहन हैं? हमारे अन्दर गहनता आयी हुई है? भारतीय संस्कृति को जरूर अपनाना होगा, पूरी तरह से और उसकी पूरी इज्जत करते हुए, जैसे बड़ों का मान करना। हमने सुना कि कोई सहजयोगी हैं, अपनी माता को बहुत सताते हैं और बड़े भारी सहजयोगी हैं। ये कैसे हो सकता है? सबके अधिकार होते हैं. सबका एक तरीका होता है। अगर माँ कोई ऐसी शैतान हो या भूतग्रस्त हो तब तो समझ में आयी बात। लेकिन किसी भी माँ को सताना हमारी संस्कृति में मना है। भाई - बहनों से दूर भागना भी बिलकुल मना है। दूसरी बात, अपने यहाँ कोई आदमी, कोई भी मेहमान घर में आए उसके लिए हम लोगों को जान दे देनी चाहिए। इसके अनेक उदाहरण हैं। जो हमने खोया हुआ है, पूरा का पूरा हमें सहजयोग से लाना है। पत्नाबाई जैसी औरतें, जिसने अपने बच्चे को त्याग दिया। युवराज को बचाने के लिए जिसने अपने बच्चे को त्याग दिया पद्मिनी जैसी स्त्री इतनी लावण्यपूर्ण थी । उन सब को याद करिए जिन्होंने अपनी जान देश की आन में मिटा दी। उस संस्कृति को छोड़कर के आप किसी भी तरह से सहजयोग में पनप नहीं सकते । मैंने सारी संसार की संस्कृतियाँ देख लीं। एक तो जो अनादि काल से संस्कृतियाँ चली आ रहीं हैं। Egypt (मिस्त्र) में कहिए, ० China (चीन) में कहिए, या आप चाहे तो Greece (यूनान) में कहिए ।taly (इटली) में कहिए काफी पुरानी सभ्यताएँ हैं। हजारों वर्ष की सभ्यताएं हैं और ऐतिहासिक भी हैं। हमारी तो इतनी पुरानी है कि वो कुछ ऐतिहासिक है, कोई पौराणिक है और कोई तो कोई समझ ही नहीं पाता, इतनी पुरानी सभ्यता हमारी है। और इन सभी सभ्यताओं ने विकृति को ही माना और उसमें बहक गए। उसमें दिखाया कि परशुराम जो थे उनमें औरतों के प्रति बड़ा आकर्षण था। कैसे हो सकता है? बाप रे बाप! वो तो जल्लाद थे। वो कैसे औरतों के प्रति आकर्षण रखेंगे? विष्णु को दूसरे गन्दे स्वरूप में दिखा दिया। इस तरह हरेक देव-देवताओं को उन्होंने उतार के छोड़ा। अब, आप रोम में जाईए। वहाँ की संस्कृति देखिए तो Romans (रोमन लोगों) के लिए तो लोग कहते हैं कि जहाँ ये गये वहाँ ही सत्यानाश । राक्षसी प्रवृत्ति के लोग थे Egypt (मिस्र) में जाईए तो भारी भूत विद्या। China (चीन) में जाईए तो थोड़ा सा आभास हिन्दुस्तान का मिलता है। पर जो भी उनकी संस्कृति है वो हिन्दुस्तान की संस्कृति पर ही बसी हुई है। जो भी कुछ वो मानते हैं वो हिन्दुस्तान से गयी हुई सभ्यता पर बसी है। उसी प्रकार आप अगर जापान में जाएं वहाँ भी आप पाते हैं कि हिन्दुस्तान की संस्कृति पर बसी हुई चीज़े जैसे कि Zen (जेन) आदि हैं। ये सब हिन्दुस्तान से गयी हुई चीजें ैं। संसार को हमें सभ्यता देनी है। हमारी संस्कृति में सारी सभ्यताएँ इतनी सुन्दर हैं, सबको भूलाकर के और अब हम उस सभ्यता को ले रहे हैं जिसमें कोई भी सभ्य चीज़ नहीं है, असभ्य है । इतना ही नहीं कि हम सभ्य हों, हम सुसभ्य हों । सभ्यता ऐसी हो कि हमारे व्यक्तित्व से शुभ झरे। तभी संसार ठीक हो सकता है। तो पहले एक भारतीय होने के नाते आप अपने प्रति गर्व की दृष्टि से देखें। अपने प्रति एक अभिमान रखें कि आप भारतीय हैं, आप के पास से संस्कृति की इतनी सम्पदा है। और कृपया कोशिश करें कि हमारे हर एक जीवन में हम भारतीयता के अंग्रेजियत को त्याग दें। विलायती चीज़ों का इस्तेमाल करना बहुत गलत है। साथ रहे। आप जानते हैं आपकी माँ सब भारतीय चीज़ इस्तेमाल करती है। क्रीम तक वो भारतीय लगायेगी, साबुन भारतीय रहेगा। सब चीज़ भारतीय होनी चाहिए। चाहें इम्लैंड में रहें, चाहे दुनिया में कहीं भी रहें । और मैं देखती हैं कि बाहर की कोई चीज़ लगाओ तो मेरे को तो सुहाती ही नहीं है। कोई क्रीम बाहर की लगाओ तो वो मेरे को सुहाएगी नहीं। मुझे सुहाता नहीं है। इसलिए जो यहाँ पर विशेषकर (उत्तरी भारत) में आप देखते हैं कि लोग बहुत ज्यादा परदेसी चीज़ों की ओर, परदेसी सभ्यता की ओर, परदेसी व्यवहार की ओर इतने झुके जा रहे हैं । ये कहाँ पहुँचे हैं? कम से कम अपनी सभ्यता तो सँम्भालो । १८ क उ ०] N० सभ्यता के बाद धर्म का सवाल आाता है। धर्म हमारे यहाँ संतुलन में है। जरूरत से ज्यादा बात करना, जरूरत से ज्यादा किसी पर अतिशयता करना, किसी पर हावी होना, ये गलत बात है। सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात ये है कि हमारे यहाँ उत्तर हिन्दुस्तान में औरतों पर बड़ा ज्यादा domination (अधिपत्य) है । औरतों को बहुत बुरी तरह से हम लोग यहाँ पर सताते हैं। कोई औरतों की इज्जत ही नहीं है उत्तर हिन्दुस्तान में। औरत को जिस तरह से भी हो सके दबाया जाए? औरत के प्रति कोई भी श्रद्धा नहीं दिखाई देती। फिर औरतें निकलती हैं एकदम यहाँ से जो वो तो एकदम तूफानमार, फिर वो जूते से ही बोलती हैं। अगर आप इतनी उस चीज़ को दबा दीजिए तो ऐसी ही औरतें खोपड़ी पर बैठेंगी। मैं तो यू.पी में देखती हैँ कि वहाँ तो जो औरत वेश्या जैसी है तो बहुत मानी जाती है और या जो औरत डंडा लेकर बैठी है। और सीधी, सरल, अच्छी औरत हमेशा दबाई जाती है। बुरी तरह से उसको सताया जाता है। ये वो कहते हैं मुसलमानों से आया है। लेकिन मैं मुसलमान देशों में गयी हूँ, रियाद में रही हूँ। हाँ, मानते हैं वहाँ चार बीवियाँ करते हैं, जो भी करते हैं, लेकिन औरत की कितनी इज्जत हैं वहाँ! बहुत खयाल करते हैं कि एक औरत अबला है, उसकी मदद करनी चाहिए। बहुत इज्जत करते हैं। हम न तो मुसलमान, न हिन्दू पता नहीं कहाँ के आ गए जो कि औरतों को इस तरह से सताते हैं। अपने इस देहली शहर में सुनते हैं बहुत सी bride-burning (वधुओं को जलाना) हो गयी। 1 में आज ये बात इसलिए कह रही हूँ कि में परदेस में गई। वहाँ मुझसे लोग यही पूछते हैं कि ये क्या आपकी सभ्यता है कि आप अपने यहाँ की bride (वधु) को जला देते हैं ? अब 'कायदा पास करो, कायदा कराओ'। क्या हम लोग अन्दर से कायदा नहीं रख सकते? औरत की हम इज्जत नहीं कर सकते? औरत पर हम बिगड़ते हैं। औरत पर क्रोध करना पाप है। आपको क्या अधिकार है कि आप औरत पर क्रोध करें? वो आपके बच्चों की माँ है। औरतों को जरूर चाहिए कि वो भी चरित्रवान हों और वो भी पूजनीय रहें। अगर औरत पूजनीय नहीं है, तो भी उस पर क्रोध करने से फायदा क्या? लेकिन अगर पुरुष पूजनीय नहीं है तो भी वो क्रोध कर सकता है और वो महादुष्ट हो और उसे और किसी खत्री से लगाव होता तो भी वो दुष्टता कर सकता है। ये भारतीय संस्कृति नहीं है। इस देश में इतनी बड़ी बड़ी महान औरतें हो गई हैं जो पंडितों के साथ बैठकर वाद-विवाद किया करती थी। वो सब कुछ खो गया। या तो अब कोई राक्षसी प्रकृति की स्त्री आ जाए उसके सामने आप झुक जाएंगे और या तो कोई बिलकुल ही गिरी हुई औरत हो तो उसके आगे आप दौड़ेंगे। ये क्या पुरुषार्थ है? अब रही औरतों की बात कि वो भी और औरतों की देखा-देखी उस तरह से रहने लग जाती है जिस तरफ औरतों की नजर जाती ९९ औरत धरा ( है, उसके पास अनन्त शक्ति है । धरती जैसी (७ है। जैसे आदमी लोग औरतों की ओर देखते हैं, उधर ही उनकी नजर जाती है, तो जैसे ये औरतें जिस तरह का कपड़ा पहनती हैं, इस तरह से घूमती-फिरती हैं, इस तरह से बातचीत करती हैं, इनका ढंग जैसा बिलकुल छिछोरा है, उसी ढंग से औरतें भी अपने को बनाना शुरू कर देती है। क्योंकि औरत में व्यक्तित्त्व ही नहीं है। उसको दबा दबा कर मार डाला । वो सोचती है, भाई इसी बहाने खुश हो जाए आदमी। मैं तो इसमें दोषी पुरुषों को समझंगी हर हालत में क्योंकि जब पुरुष औरत को बढ़ावा दें, उसकी महानता बढ़ाए, तभी औरत बढ़ती है इस देश में । इसका ये कभी भी मतलब नहीं कि औरत आदमी के सामने बोले। इसका मतलब नहीं। औरत को सम्मान के साथ अपने पति के साथ रहना चाहिए। उसकी हर इच्छा को पूर्ण करना चाहिए, उसमें कुछ नहीं जाता। औरत धरा (धरती) जैसी है, उसके पास अनन्त शक्ति है। धरा जैसे उसे पति को प्लावित करना चाहिए। लेकिन अगर आप हर समय धरा को चूसते रहें तो एक दिन अन्दर से ज्वालामुखी निकल आता है यह भी समझ लेना चाहिए। बाहर जाकर शर्म आती है यह सोच सोचकर कि जिस तरह के किस्से यहाँ के लोगों की तरफ फैले। पर ये चीजें महाराष्ट्र में क्यों नहीं होती? महाराष्ट्र में तो dowry system (दहेज प्रथा) बिलकुल नहीं है। South India (दक्षिण भारत) में भी dowry (दहेज) का system (प्रथा) बहुत चल पड़ा है। उसकी वजह वह दिल्ली में जो आकर बैठे है सब मद्रासी। दिल्ली में सीखे हैं "इतने रुपये dowry लेंगे, उतने रुपये dowry लेंगे। " बड़ा आश्चर्य होता है! हाँ, ठीक है, लड़की के नाम से रुपया-पैसा जरूर कर देना चाहिए। लेकिन dowry लेनेवाले होते ही दूसरे हैं, लड़की से थोड़े ही कोई सम्बन्ध रहता है? भारतीय सभ्यता में ये कहीं भी नहीं है। हमेशा र्त्री का मान किया गया है। 'राधा कृष्ण' कहा जाता है। कृष्ण, राधा के बगैर कुछ भी नहीं हैं। मान लीजिए जब कंस को मारना था तब भी उन्होंने राधा को याद किया। राधा की ही शक्ति से ही मारा है। वे क्या मार सकते थे अपने मामा को? अगर मार सकते तो जब पैदा हुए तभी मार ड़रालते। २० हमारे यहाँ 'सीता-राम' कहा जाता है। हमारी संस्कृति में सब चीज़ें इतनी सुन्दर-सुन्दर हैं कि उसको अगर बारीकी से देखा जाए तो मनुष्य समझ सकता है कि इसकी सुन्दरता क्या है। टा लेकिन ज्यादातर भारतीय संस्कृति के बारे में लिखनेवाले ऐसे लिखते हैं जैसे कि बैंक में कहाँ कहाँ छेद हों उसका अनुभव कि इसमें ये खराबी है, वो खराबी है। कोई ये बात नहीं लिखता है कि कितनी बड़ी भारी बैंक है। लिखता ये है इसमें इधर से छेद है, उधर से छेद है। वो बनाए इन्होंने ही हैं। हो सकता है उसमें एक दो बातें ठीक करनी भी हों, एकाध इधर उधर की लेकिन एक एक चीज़ पर आप देखिए कि 'स्वार्थ' शब्द दिखेगा। 'स्वार्थ' का अर्थ पाना है । परम स्वार्थ वही है कि जब आपने परम को पा लिया । और मैं देखती हैं कि जो परदेश में भी लोग हैं वो जब हमारी औरतों को देखते हैं कि हम उनके जैसे कपड़े पहन के घूमती हैं, उनके जैसी बातचीत करती हैं, उनको जरा भी इज्जत नहीं करते। और जो औरत अपनी भारतीयता पर खड़ी है, उसकी बड़ी इज्जत होती है। में जब एक बार जापान गयी थी १९६० में, बहुत साल पहले की बात है, तो हर जगह जाए, तो बड़ा हमारा मान-पान हुआ । और जब हम शिकामा नाम के एक बन्दरगाह पर पहुँचे तो 'हजारों' लोगों की भीड़ वहाँ पर थी। तो मैंने कहा, 'ये कौन आए हैं? सब लोग कहाँ से आए हैं?' तो कहने लगे, 'आपको देखने ।' मुझे? क्यों?' कहने लगे, 'क्योंकि उनके पास खबर पहुँची कि बिलकुल पूरी भारतीय सत्री यहाँ पर आयी हुई है। और उसको देखने से पता हो जाएगा कि बुद्ध की माँ कैसी थी।' और सब वहाँ खड़े तरस गये देखने के लिए एक भारतीय स्त्री को। वहाँ सारी सिन्धी औरतें आधे कपड़े पहनकर घूमती हैं। वो तरस गए देखने के लिए कि एक भारतीय नारी कैसी होती है? किस तरह से कपड़े पहनती हैं? कैसे उसके बाल हैं? क्या है? हम लोग जहाँ भी जाएं हमें वो लोग कुछ उपहार दे दें एक जगह बरसात हो रही थी तो हम अन्दर चले गए। वहाँ उन्होंने हमको कुछ दे दिये। तो जो translate (अनुवाद) कर रहे थे, तो उनसे हमने कहा, ये हमको हर जगह उपहार क्यों देते हैं?' टैक्सी में बैठिए तो टैक्सीवाला गाड़ी रोककर कुछ उपहार देगा। कहने लगे, 'क्योंकि आप Royal family (सम्मानित परिवार) के हैं ' हमने कहा Royal family के ये कैसे कहा ? ये तो बात नहीं हैं। नहीं', कहने लगे, देखिए आप बाल कैसे बनाती है। हमारे यहाँ Royal family के लोग ही इस तरह के बाल बनाते हैं। और बाकी के जो हैं hair dresser के पास जाते हैं। ये तो रॉयलपन की निशानी है कि अपनी इज्जत में खड़े हो । 'हम लोग इतने हैरान हो गए । हमारी लड़कियाँ और हम तो इतने हैरान हो गए कि सच्ची ये बात है। इसका निरूपण हम तभी कर सकते हैं जब हम इसे बाहर जाकर देखें । और जब तक हम इस देश में हैं हम नहीं समझ पाते कि हरेक कितनी सुन्दर है और अच्छी बनाई गयी है। २१ रा स्त्री के लिए अलंकार आवश्यक बताया गया है। उसे अलंकार पहनना चाहिए। विवाहित स्त्री के लिए बताया गया है कि उसको अलंकार पहनना चाहिए। खासकर के उस पर सारे घर की दारोमदार होती है, उसके चक्र ठीक रहने चाहिए। उनको सुशोभित रखना चाहिए। उस तरह से कायदे से कपड़े पहनना चाहिए। कायदे से रहना चाहिए। लेकिन अपने को विशेष आकर्षण बनाना वरगैरे ये सब चीजें भारतीय संस्कृति की नहीं हैं। कोई भी स्त्री भारत में अपने को आकर्षक बनाने के लिए नहीं पहनती है पर हरेक समय समय पर जो 0Ccasion (अवसर) होता है, उसके अनुसार वो अपने को इसलिए सजाती है और इसलिए कपड़े अच्छे से पहनती है कि जो वो अवसर है वो और भी सुन्दर हो जाए । जैसे कि महाराष्ट्र में आप देखिए कि अगर अब हमारी पूजा हो रही है तो नाक की नथ पहनेंगे, यहाँ का पहनेंगे, वहाँ का पहनेंगे, best (सबसे अच्छी) साड़ी जो होगी वो पहन कर आएंगी। यहाँ तक airport (हवाई अड्डे) पर जब हमें लेने आएंगी तो सब पहनकर आएंगी। तो मैंने कहा कि ये सब airport पर पहनकर क्यों आयी। तो कहने लगी कि देवी के मंदिर में जाना है, देवी को देखना है तो क्या ऐसे ही देखेंगे? ये दिखाना चाहिए कि हम कितने खुश हैं, कितने सुख में हैं 1 लेकिन शहरी जो हमारी औरतें हैं, महाराष्ट्ट्र में तो भी अपने खासकर दिल्ली से सम्बन्ध अगर हो गया है तो उनके नखरे ही नहीं मिलते। तो दिल्ली से बहुत लोग प्रभावित हैं । इसलिए मैं सोचती हूँ कि आप लोगों को पूरा समझाया जाए कि भारतीय संस्कृति की एक एक चीज़ को आप समझें, उसके बारे में पढ़ें। से स्त्री की कल्पना, ये समझना चाहिए किे हर एक स्त्री एक गृहलक्ष्मी है। घर में उसका मान रखना, उनको इज्जत जरूरी है। रखना बहुत दूसरी बड़ी मुझे हैरानी होती है कि उत्तर हिन्दुस्तान में लोग अपनी पत्नी को इतना नहीं मानते जितना अपनी लड़कियों को मानते हैं। समझ में नहीं आता बिलकुल मुसलमानी पद्धति है लड़की को मानना और बीबी को नहीं मानना ये बड़ी अजीब सी बात लगती है। लड़की तो कल ब्याह होकर चली जाएगी और बीबी तो जिन्दगी भर के लिए आपकी अपनी है, ये कुछ समझ में बात आती नहीं है। उसी प्रकार अपने पति को कुछ नही मानना और लड़के को सब कुछ मानना ये भी इधर ज्यादा बीमारी है। लड़का बहुत बड़ी चीज़ है। इधर उत्तर हिन्दुस्तान में लड़का बहुत बड़ी चीज़ है। किसी के लड़का न हो गया कि क्या उसके घर में हाथी आ गया। वो बाद में उठकर माँ को लात ही मारे कोई हर्ज नहीं है। उसका रात दिन अपमान ही करे कोई हर्ज नहीं पर लड़का हो गया। उसके बाद असल मिठाई बाँटी जाएगी। RR शुरु से ही स्व्ी के प्रति ऐसी निन्दनीय वृत्ति रखने से औरत हमेशा असुरक्षित (insecure) रहती है। जो औरत insecure रहती है वो या तो आपको नचा के छोड़ देगी या आपका सर्वनाश करके छोड़ेगी। ्त्री के अन्दर पूरी इज्जत और मान आप दीजिए। बच्चों को भी। बच्च्चों से भी आप मान से बात करिए। 'आप बच्चे हैं, आप विशेष हैं, आप सहजयोगी हैं। आप का मान होना चाहिए। आप बड़ों जैसे बैठिए। आप सहजयोगियों जैसे बैठिए । ये अगर आप अपने बच्चों को समझाने लग जाए तो बच्चे कहाँ से कहाँ पहुँच सकते हैं। लेकिन ये बात बहुत कम पायी जाती है। ज्यादातर हम बच्चों को झिड़कते ही रहते हैं, उनके अन्दर कोई इज्जत की भावना नहीं आती। जब उनके अन्दर कोई इज्जत की भावना नहीं आती है तो बच्चे उसी तरह से बर्ताव करते हैं जैसे आपके नौकर लोग बताव करें। मैं तो कहती हैं नौकरों तक को हम लोगों को एक इज्जत से, बकायदा जैसे कुटुम्ब पद्धति हमारे यहाँ है, उसको सम्भाल के वो करना चाहिए। सारे कुटुम्ब को सम्भाल के, सबको प्यार दे कर के। अपनी न बात करें। जिस तरह से औरतों की भी आदत होती है। मैने देखा कि हमें तो ये चीज़ पसन्द नहीं। ये सफाई नहीं हुई। घर में ये नहीं हुआ। ये ठीक होना चाहिए।' आप करिए । ये आपका काम है। और खुश होईये। और तीन बार खराब हो तो चार बार ठीक करिये। क्योंकि ये आपका शौक है। खाना बनाने का शौक होना चाहिए। हर चीज़ का शोक होना चाहिए औरत को। और दूसरों के लिए करने की शक्ति होनी चाहिए। लेकिन इसका मतलब नहीं कि आदमी खोपड़ी पर चढ़ कर बैठ जाए । वो इस चीज़ की इज्जत करें और सोचे... इंग्लैण्ड में हर आदमी बर्तन माँजता है हर आदमी। सिवाय हमारे घर के। और वो तो अगर आप कह दें कि आप बर्तन मांजिए तो गए। कल बर्तन ही टूट जाएंगे । वो जरूर माँजेंगे, जब गुस्सा चढ़े तो। लेकिन अगर वो बर्तन माँजने बैठ जाएं तो गए काम से। सबसे बड़ा अहंकार ये है कि "मैं पुरुष हूँ।" पुरुष, श्री कृष्ण के सिवाय, मैं तो किसी को नहीं देख पाती। जो करने वाला है वही है और भोगने वाले भी वही हैं। पुरुष और प्रकृति जो है सो है, हम अपने को बेकार ही पुरुष समझ करके बड़ा भारी अहंकार अपने अन्दर लिये हुए हैं। हम सब माँ के बेटे हैं। इस अहंकार से आप सब लोग छुट्टी पाइए। बहुत ज्यादा है! अभी भी सहजयोग में भी बहत है। और फिर यहाँ तक कि बीवि को मारना, पीटना। बीवि को मारना, पीटना ये अधर्म है। फिर बीवि पीटे तो बिलकुल अधर्म हो जाता है। हाँ, होती हैं ऐसी भी हमने देखी हैं। लेकिन समझदारी की बात ये है हम दोनो रथ के दो पहिये हैं एक left (बायें) में है और एक right (दायें) में है। कोई सा भी पहिया अगर छोटा हो जाए तो पहिया गोल गोल घूमेगा। दोनों एक साथ एक जैसे होने चाहिए, पर दोनों एक जगह नहीं है। एक left में है और एक right में । Right (दायाँ) जो है उसका कार्य ये है कि वो दिशा दे, बाह्य की तरफ २३ का देखे, बाह्य की चीजें सम्भाले, घर के बाहर सफाई करें। जैसे वहाँ करते हैं लोग। बाहर की सफाई आदमियों को करना आना ही चाहिए, सहजयोगियों को। क्योंकि वो बाहर की सफाई नहीं करते हैं, इसलिए अपने बाहर के आँगन गन्दे रहते हैं, अन्दर की सब सफाई रहती है। औरत जो है झाडू मारे, सब करे, घर के अन्दर और आदमी जो है वो बिलकुल नहीं देखता कि बाहर सफाई है या नहीं। औरत तो बाहर जा नहीं सकती और आदमी करने वाला नहीं है इसलिए अपने जितने गाँव, शहर गन्दे रहते हैं इसलिए कि आदमी अपने बहाँ कोई सफाई नहीं करते। इंग्लैण्ड में देखिए हर Saturday, Sunday (शनिवार, रविवार) सब आदमी आपस में competition (स्पर्धा) लगाते हैं कि तेरा अच्छा कि मेरा अच्छा। सब एक special dress (खास पोशाक) पहनकर सब खड़े हो जाते हैं और अपनी सफाई करते हैं। सहजयोगियों को कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि हमें बदलना है। हम दूसरे हैं। हमें कोई हर्ज नहीं है कि हम ये करें। पहले जमाने में हमारी संस्कृति सही थी कि बाहर की सारी सफाई आदमी लोग करते थे, औरते नहीं। और वही चीज़ आज भी हमारे अन्दर आ जाए तो आप देखिए कि शुरूआत हो जाएगी कि हम बाहर की सफाई और अन्दर की सफाई हमारे देश की शुरू हो जाए, तो गन्दगी कहाँ रहेगी? लेकिन उससे बड़े फायदे हो जाते हैं, जब आदमी लोग सफाई करना शुरू कर देते हैं । जैसे लंड़न पहुँचे आप तो हमने देखा यहाँ बर्तन धोने के, kitchen (रसोई घर) साफ करने के इन्तजामात बड़े जबरदस्त हैं। तो हमने कहा कि भाई ये कैसे किया? यहाँ एक से एक चीज़े बनी हुई हैं। इससे इसको रगड़ दो तो पाँच मिनट में निकल जाएगा । वो कढ़ाई है, उसमें ये लगा दो तो दो मिनट में सफाई हो जाती है। हमने कहा हम लोग तो रगड़ते-रगड़ते मर जाएं, ये निकलती नहीं कढ़ाई । ये है क्या? पता हुआ कि आदमियों को सफाई करनी पड़ती है! तो उन्होंने सारे scientists (वैज्ञानिकों) को बुलाया कि "बाबा रे! पता लगाओ इसको निकालने का इंतजाम। नहीं तो हमको कढ़ाई माँजनी पड़ेगी। " कभी कभी बर्तन अगर आदमी माँजे तो कुछ फायदा ही हो जाएगा। और जब आप काम करते हैं उनके साथ तो हाथ बटाने से ये पता होता है कि ये काम कितना कठिन है और कितनी मुश्किल का काम है। लंड़न पहुँचे आप तो हमने देखा यहाँ बर्तन धोने के, kitchen (रसोई घर) साफ करने के इन्तजामात बड़े जबरदस्त हैं। तो हमने कहा कि भाई ये कैसे किया ? यहाँ एक से एक चीज़े बनी हुई हैं। इससे इसको रगड़ दो तो पाँच मिनट में निकल जाएगा । वो कढ़ाई है, उसमें ये लगा दो तो दो मिनट में सफाई हो जाती है। हमने कहा हम लोग तो रगड़ते-रगड़ते मर जाएं, ये निकलती नहीं कढ़ाई । ये है क्या? पता हुआ कि आदमियों को सफाई करनी पड़ती है! तो उन्होंने सारे scientists (वैज्ञानिकों) को बुलाया कि "बाबा रे! पता लगाओ इसको निकालने का इंतजाम। नहीं तो हमको कढ़ाई माँजनी पड़ेगी।" कभी कभी बर्तन अगर आदमी माँजे तो कुछ फायदा ही हो जाएगा। और जब आप काम करते हैं उनके साथ तो हाथ बँटाने से ये पता होता है कि ये काम कितना कठिन है और कितनी मुश्किल का काम है। २४ तो अपने प्रति धारणाएं बना लेने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। और मुझे तो ये आश्चर्य होता है कि सब सहजयोगिनी जो हैं भारतीय भी हैं, तो हमसे कहती हैं,"माँ, हमारी शादी बाहर ही करा दो, अच्छा है।" तो मैंने कहा क्यों? कहने लगी,"अब हमें सहजयोगिनी होकर डूंडे नहीं खाने ।" आप सोच लीजिए। बड़ी मुश्किल से ये परदेसी लड़कियों को भुलावा दे देकर मैं यहाँ शादी कराती हूँ। टिक जाएं तो नसीब समझ लो! लेकिन वो चले जाते हैं परदेस, फिर सीख जाते हैं वहाँ । हमने देखा कि वे खूब बर्तन माँज रहा है! तो हमने कहा कि भाई कैसे क्या सीख गए? कहने लगे,"यहाँ सभी सीख जाते हैं।" खूप पतीले उठा रहा था हमारे साथ। और यहाँ अगर आप कहते तो बिगड़ता और कहता कि, "नहीं, मुझसे नही होने वाली ये सब बेकार की चीज़़ें।" वहाँ खूब मेरे साथ पतीले उठा रहा था। मेंने कहा,"उन लोगों को करने दो। तुम क्यों उठा रहे हो?" कहने लगे, "मुझे सीखना जो है।" जो आदमी वहाँ ये सब जानता नहीं उसे वहाँ 'निठल्लू' कहते हैं। उन लोगों से ये चीज़ जरूर हमें सीखनी है। नसीब से भाई हमारे यहाँ ये प्रश्न नहीं क्योंकि हमें तीन servants (नौकर) allowed (मिले) हैं । तो भगवान की कृपा से हमारे घरवाले तो कभी नहीं कर सकते। हमने ही उनको खराब कर रखा है। लेकिन तो भी मैं कहती हूँ कि कोशिश करते हैं । उनको जरा लगता है कि भई देखो सब लोग कर रहे हैं और हम नहीं कर रहे है, वो क्या कहेंगे। कोशिश करते हैं। इसलिए जो जो वहाँ जा रहे हैं, कृपया सब सीख कर जाएं। उसके बगैर आपका वहाँ मान नहीं होने वाला। तो ये चीज़ें हम लोग इस पर ले आते हैं कि आनन्द का स्रोत आत्मा है। और इस आनन्द को हमने पाया और वो हमारे रग रग में से बहना चाहिए। हमारे जीवन से बहना चाहिए, हमारे हर व्यवहार से बहना चाहिए। उसके लिए क्या करना चाहिए? र पहले, सबसे पहले हमें देना आना चाहिए जो आदमी दे नहीं सकता वो आनन्द का मजा नहीं उठा सकता क्योंकि जब तक चीज़ बहेगी नहीं तो कैसा मजा आएगा? जैसे एक मेंढक एक छोटे से तालाब में, जिसका पानी नहीं बहुता है, खाई में रहता है। उसी प्रकार अगर हम अपने जीवन को बिताएं, तो बिता सकते हैं। और हमारे भी शरीर पर जैसे कि एक मेंढक के शरीर पर भी काई जैसे जम जाती है, काई जैसा रंग ऐसा ही हमारे जीवन का रंग काई जैसा हो जाएगा। लेकिन जीवन का रस अगर हमें पाना है और उसका मजा उठाना है और आत्मा का आनन्द देखना है तो हमें चाहिए कि हम अपना दिल खोल दें और बहाएं इस आनन्द को । आप जानते हैं कि आपकी माँ की उम्र अब तिरसठ ( ६३) साल की हो गई है और हिन्दुस्तान के हिसाब से चौंसठ ( ६४) साल जब तक देने की शक्ति आप के अन्दर है तब तक आप कभी भी बूढ़़े नहीं हो सकते । इसलिए देना सीरखिए। है २० ा के हो गए। लेकिन कितनी मेहनत करती है आपकी माँ। कितना सफर । करीबन हर तीसरे दिन सफर, दूसरे दिन सफर । उसके अलावा पहाड़ों जैसी कुण्डलिनी उठाना, बड़ी मेहनत... । फिर सारे news paper (अखबार) वाले कि कुछ हैं, की कुछ हैं। 'पूरी' समय मेहनत चलती है। हमारे साथ एक देवीजी आयीं । हम सें पाँच साल छोटी हैं और मोदी साहब पूरी समय कहें कि ये बुढ़िया देखो, बेचारी कितनी मेहनत कर रही है। मैंने कहा और मेरी बात नहीं कर रहे हो तुम? मैं उनसे पाँच साल बड़ी हैं। उनके लिए तो ये बुढ़िया बेचारी कितना चल रही है, ये बुदढ़िया बेचारी कितना कर रही है। मैंने कहा, मैं कौन हुँ?' मुझको देखो। वो तो सोचते ही नहीं कि मैं बुढ़िया हूँ। 1 क्योंकि अभी तक देने की शक्ति बहुत ज्यादा है, उसकी क्षमता है। जब तक देने की शक्ति आप के अन्दर है तब तक आप कभी भी बुढ़े नहीं हो सकते । इसलिए देना सीखिए, दिल खोल दीजिए तब आन्द देखिए कैसा बहेगा। सूक्ष्म में दिल खोल देना चाहिए, कहना चाहिए। लेकिन ये ही हमारी सभ्यता का तत्त्व है, कि दो । जितने, जितने अपने यहाँ लोग हो गए हैं बड़े बड़े, जिनके आख्यान आपने सुने, चाहे हरिश्चन्द्र हैं, जिनकी आपने बात सुनी होगी। ये जो कुछ भी आपने पढ़ा है उसमें ऐसे लोगों की महानता बताई है जो दिल खोलकर के देते थे । और वही आपको भी देना है। 1 इस संस्कृति की महत्ता जितनी भी गाई जाए वो कम है। लेकिन सिर्फ महत्ता से नहीं है, बो हमारे अन्दर आत्मसात होनी चाहिए। हमारे अन्दर उसका पूरा प्रवेश होना चाहिए। उसके अंग अंग में हमें मजा आना चाहिए। और हमें उससे खुश होना चाहिए। अभी भी जहाँ ये संस्कृति है वहाँ बड़ा मजा आता है । एक बार हम गए थे राहूरी के पास । वहाँ के बहुत से इंजीनियर थे बेचारे। कोई खास तनख्वाह नहीं। छोटे छोटे घर, जिनमें कि एक छोटी सी वो आईं। कहने लगी, "माँ, कल आप लोग हमारे यहाँ breakfast (नाश्ते) पर आइए।" हमने कहा "क्या कर रहे हो? तीस आदमी हैं हम लेाग। कहाँ आप करोगे?" "माँ आप आओ न एकबार। मान जाओ। हमें बड़ी खुशी होगी।" मुझे बड़ा force (आग्रह) किया। मैंने कहा, "क्या कर रही हो? तीस आदमियों का ब्रेकफास्ट (नाश्ता) कैसे बनाओगी तुम?" सुबह छः बजे पहुँचे, तो मंडप बना हुआ है ऐसा। सब लोगों ने मिलकर रात को तीन बजे से खाना बनाया। और 'इतनी' खुश! और इतना बढ़िया उन्होंने ब्रेकफास्ट (नाश्ता) खिलाया कि मुझे भूलता ही नहीं है। और पता नहीं कहाँ से बेंचेस लाकर लगाए, कहाँ से इन्तजामात किए? और इतनी खुश जैसे बड़ा भारी कोई बड़ा समारंभ हो गया हो। २६ जा ान ुन ३ः ये हमारा देश है। ये हमारी सभ्यता है। इसको मत छोड़िए। इसको फिर से पनपाना है, इसको बढ़ावा देना है। हमारा संगीत, हमारी कलाएँ, हमारा जो कुछ भी है, बड़ा गहन है। उसको समझिए क्या चीज़ है । इसकी गहनता में घुसें । मैं चाहूँगी आपसे जितना भी बन पड़े हमारे संगीत के बारे में, कला के बारे में जानने का प्रयत्न करें। जो अपनी कला को नहीं जानते, अपने संगीत को नहीं जानते, अपनी भारत माता को नहीं जानते, वो इस माता को कैसे प्यार कर सकते हैं? इसलिए तो हम झगड़ेबाजी करते हैं। आज सिर्फ आपसे बातचीत करनी थी, सो कर ली। अब मैं चाहती हूँ कि अगले समय मैं आऊँ तो आप लोग ये समझें कि हमारे क्या-क्या त्यौहार होते हैं, इन त्यौहारों में क्या-क्या होता है। हमारे यहाँ छोटी-छोटी दवाइयाँ हैं जो कि बहुत सालों से चली आ रही हैं । छोटी-छोटी बातें हैं जैसे केला खाया, उसके बाद चना खाओ या कोई चीज़ खाओ, उसके बाद पानी पिओ। धूप में से आए आप पानी मत पियो । आजकल लोग सब हिन्दुस्तान में बीमार हो जाते हैं। वजह क्या है? ये छोटे छोटे नियम जीवन के जो बनाए हुए हैं, समझदारी के वो हम नहीं मानते हैं। "इसमें क्या हो गया?" हो गया क्या? आप अस्पताल में जाएंगे और क्या होगा? अब जैसे अंगूर दिया इन्होंने समझ लीजिए। अब पहले हमने अंगूर खा लिया। उसके बाद हम लिम्का (जल पेय) नहीं पी सकते। अब तो पी लिया हमने, कहा चलो अब क्या करें? हमारी बात और है। लेकिन आप लोगों को नहीं करना। फल खाने के बाद पानी पी लिया, आइसक्रीम खाने के बाद कॉफी पी ली, या कॉफी के बाद आइसक्रीम खा ली, तब तो गए। ये छोटी-छोटी बातें हमारे जीवन की जो छोटी-छोटी चीजें, हरेक, जिसे कहते हैं कि हरेक अणु-परमाणु में जो हमारा जीवन बड़ा ही सुधड़, सुव्यवस्थित और ऐसा बनाया गया है जिससे कि मनुष्य हमेशा स्वस्थ रहे, उसकी तन्दुरुस्ती स्वस्थ रहे, उसका मन स्वस्थ रहे, उसका चित्त स्वस्थ रहे और जिससे अन्त में वो परमात्मा को प्राप्त करे। ऐसा सुन्दर सारा बनाया गया है। लेकिन उसको समझ लेना चाहिए। और जिस आदमी में चरित्र ही नहीं है वो आदमी किस काम का? लेकिन चरित्र को बढ़ावा देने वाली, उसको सजाने वाली, उसको पूरी तरह से प्लावित करने वाली जो शक्ति है, वो है आपकी सभ्यता । सभ्यता से ही आप जानते हैं कि "ये असत्य है, ये हमें शोभा नहीं देता।" आज की हमारी भेंट में हम चाहेंगे कि आप अपनी भारतीय संस्कृति जो है उसको सर-आँखों पर लगाकर मान्य करे, उसे स्वीकार करे और उसमें ही आप देखियेगा कि आपका चरित्र ऊँचा उठता जाएगा। २७ संस्कृति में कहा जाता है कि पटरी जो है वो माँ समान है । शिवाजी का चरित्र माना जाता है कि बहुत ऊँचा था। शिवाजी की न जाने कितनी ही बातें आपको बतानी चाहिए. लेकिन उनके चरित्र में माँ का बहुत बड़ा स्थान है। लेकिन एक बार सुनते हैं कि कल्याण के सूबेदार की बहु को उनके सरदार पकड़ कर लाए। वो बहुत लावण्यवती थी। और उसका बहुत खजाना (धन) था सब कुछ उठाकर ले आए। उसका सारा माल, उसके सारे जेवरात और ये और वो, काफी लोगों को पकड़ कर लाए । और जब शिवाजी दरबार में बैठे, उनके सामने पेश किया तो वो घूंघट तो नहीं पर नकाब पहने हुई थी। तो उन्होंने कहा कि आप अपना नकाब हटाइये। जब उन्होंने नकाब हटाया तो बड़े काव्यमय थे। बजाय इसके कि कहें की आप हमारी बहन हैं उन्होंने कहा कि 'अगर हमारी माँ आपकी जितनी खूबसूरत होती तो हम भी आपके जितने खूबसूरत होते।' उसके आँख से आँसू निकल आए । उसके बाद उनकी जितनी भी चीजें थी, जो जेवरात थे, हर चीज़, उनके हर आदमी को बाइज्जत कल्याण तक पहुँचाया। और बहुत नाराज हुए। ये हमारे देश का चरित्र है। राणा प्रताप एक बार जरा झुक गए क्योंकि बहुत परेशानी में थे । उनकी लड़की के लिए घास की रोटी बनाई वो तक एक बिड़ाल (बिल्ली) उठाकर ले गई। उसको देख करके.... कहाँ राणा प्रताप जैसा आज कोई आदमी है आपकी politics (राजनीति) में? सब चोर बैठे हैं। तो जब वो उठाकर ले गई बिल्ली तो राणा प्रताप के मन में आया और वो चिट्ठी लिखने बैठे शाहजहाँ को कि मैं आपकी शरणागत हूँ। जैसे उनकी बीवि ने पढ़ा उन्होने भाला उठाया और अपनी लड़की को मारने के लिए दौड़ी। तो कहने लगे, "ये क्या कर रही हो?" कहने लगी, "इसको ही मार ड़ालती हैं, जिसकी वजह से तुम ये सोच रहे हो ।" ये हमारी देश की औरतों का चरित्र है । और आजकल ये नमूने दिखाई दे रहे हैं। ये कहाँ से पैदा हुए यहाँ पता नहीं? लेकिन सहजयोगियों की औरतें इस तरह की होनी चाहिए और मर्द भी इसी तरह के होने चाहिए। संस्कृति में कहा जाता है कि परस्त्री जो है वो माँ समान है। कोई भी परस्त्री माँ समान है। और परकन्या बेटी समान है। तो हम जब शादी होकर यू.पी. में गए तो लोग कहने लगे ये तो असम्भव है। मेंने कहा,"हमने तो बहत ऐसे लोग देखे हैं। अधिकतर तो हम ऐसे ही लोग देखते हैं। यहाँ यू.पी. में क्या विशेषता है कि यहाँ असम्भव बात हैं? आपकी नजर इतनी खराब कैसे हैं? हमने तो जिन्दगी भर ऐसे ही लोग देखे हैं। ये कहाँ से ये लोग आ गए?" तो हुआ कि नवाब साहब कोई थे, उनकी १६५ बिवीयाँ थी और पता नहीं क्या क्या... ॐ. तो और क्या होगा। उनके सामने ideal (आदर्श) ही ऐसे गन्दे हैं वहाँ तो और क्या होगा? कोई अच्छे ideal (आदर्श) तो दिखाई नहीं देते। जैसे लंडन में एक राजा साहब थे। उन्होंने सात बीवियों को मार ड़राला। तो वहाँ और क्या होगा? आजकल वहाँ औरतें मार रही हैं आदमियों को। तो अपनी संस्कृति जो है, बहुत महत्त्वपूर्ण है। और उस महत्त्वपूर्ण संस्कृति को समझना, उसकी गहनता को समझना, हरेक सहजयोगी का परम कर्तव्य है। जब आप लोग उसे समझेंगे, उस पर कुछ लिखेंगे तभी तो न हमारे परदेश के सहजयोगी भी उसको आत्मसात करेंगे। वो लोग छोटी छोटी बातें देखते रहते हैं और सारा वो जोड़ते रहते हैं अपने अन्दर में, मैं देखती हैं। लेकिन हम लोग ये नहीं सीखते क्योंकि न इधर के, न उधर के रहने की वजह से कोई चीज़ हम नहीं सीख पाते । आशा है अगली बार में आऊँ तो आप लोग आनन्द से आत्मा का प्रकाश सब ओर फैलाते हुए नजर आए। मेरी यही इच्छा है कि जो कुछ मेरे अन्दर है सब मेरे बच्चे पा लें । सब कुछ। और उसी प्रकार दे जैसे में दे रही हूँ। उसी मन से, उसी शुद्ध भावना से, उसी प्रेम के साथ सबको ये बाँटते रहें । यही मैं चाहती हूँ। दिल्ली, २५/३/१९८५ खाना बनाने का शौक होना चाहिए । हिए औरत को । हर चाज़़ का शौक होना चा ार ओ क हा समर्पण मुंबई, ८ जनवरी ७७ ट स C back an you say how we should do it on your thinking that is not Sahaj. You cannot go saying that I don't do anything. You are all the time forward, moving forward saying how? कैसे आगे जानेका? इसी को स्वीकार कर लेना कि यह घटना चेतना की ओर होती है। और चेतना ही इसको घटित करती है। हमें पूरी तरह से प्रयत्न को छोड़ देना है। जब हम अकर्म में उतरते है तब यह चेतना घटित होती है। इसका मतलब है कि आपको कुछ भी नहीं करना है। यह बहुत कठिन काम है मनुष्य के लिए । कुछ नहीं तो विचार ही करता रहेगा। लेकिन यह घटना जब घटित होती है तो विचार भी डूब जाते हैं क्योंकि अभी तक जो भी आपने साधना देखी है उसमें आपको कुछ न कुछ करना पड़ता है। यह सब साधना आपको अपने से बाहर ले जातीं है। सहजयोग घटना है वह अन्दर ही घटित होती है। जब लोग पूछते हैं कि समर्पण कैसे करना है? सीधा हिसाब है, आपको कुछ नहीं करना है। समर्पित हो गए। मनुष्य इस गति में, इस दिशा में आज तक चला नहीं इसलिए उसके लिए यह नई चीज़ है और नया मार्ग है। इसमें मनुष्य कुछ नहीं करता। अपने आप चीज़ घटित हो जाती है क्योंकि उसने बहुत कुछ कर लिया है, बहुत कुछ दूर चला गया है अपने से । इसलिए उसे अन्दर खींचना मुश्किल हो जाता है। इसलिए किसी किसी की कुण्डलिनी एक क्षण में जागृत हो कर मनुष्य पार हो जाता है। और किसी किसी की जागृत हुई कुण्डलिनी भी फिर से लौटकर वापस चली जाती है। कुछ भी नहीं करना है यही समर्पण है। उस point तक अगर आप पहुँच जाएँ तो कुछ भी नहीं करना है, जहाँ नि:शब्द, निर्विचार । लेकिन यह भी करना ही होता है। मनुष्य ने यह भी करना ही होता है। इसलिए उसी पर छोड़ दीजिए जो इसे करेगा। आपको कुछ भी नहीं करना है। आप बस उसे छोड़ दीजिए । कोई पूछेगा कि आज हम नए आयें हैं तो क्या करें। सिर्फ आप इस तरह से हाथ मेरी ओर करिएगा । सीधे ऐसे करिए और घटना घटित हो जाएगी। और जिसकी घटित नहीं होगी, बाद में ये लोग जा कर के देख लेंगे आपको। आज इतने लोग यहाँ सहजयोगी है और एक-एक आदमी पार है। इतना ही नहीं लेकिन कुण्डलिनी शास्त्र में एकदम पारंगत है। एक- एक आदमी यहाँ जो बैठे हुए है कुण्डलिनी शात्त्र में पूरी तरह से पारंगत है और हजारों आदमियों की कुण्डलिनियाँ अपने उँगलियों के इशारे पे ३० सहजयोग में आपको कुछ-कुछ चीजें छोड़नी पड़ती हैं। द २ हट ० उठा सकते है, इतना ही नहीं, पार कर सकते हैं। आप पूछेंगे फिर यह करते क्यों नहीं? इसका कारण यह है कि सहजयोग के तरफ लोग बहुत आसानी से नहीं आते। मनुष्य के लिए बहुत मुश्किल है ऐसी जगह आना जहाँ ये कहा जाए तुम्हे कुछ पैसा नहीं देना है, कुछ करना नहीं है, चुपचाप बैठ जाओ । लेकिन जब डूबने लगते हैं तब फिर आते हैं। इसलिए सहजयोग जल्दी से नहीं होता है। क्योंकि सहजयोग में आपको कुछ-कुछ चीज़े छोड़नी पड़ती है। मतलब यह कि हमें कुछ करना है, हमें कुछ विचार करना है, हमें कुछ सर के बल खड़ा होना है, हमको कोई द्राविड़ी प्राणायाम करना है या हमें कुछ किताबें पढ़नी है या हमें कुछ ग्रन्थ रखने हैं या हमें कुछ मन्त्र कहने हैं। यह सब कुछ आप छोड़ दीजिए। और बाद में पार होने के बाद में आप अधिकारी हो जाते है। जो कुछ भी करना है फिर तब होता है। अकर्म ही, in action ही action में आता है। कर्म रख दिए जाते है। तो कैसे उसे आप देखिए, जो घटित होगा वह होगा, जो नहीं होना हो वह नहीं होगा। इसमें कोई compulsion नहीं, इसमें कोई argument नहीं । जिसका होना है उसी का होगा, जिसका नहीं होना है वह नहीं होगा। जिसकी रुकावट जो है वो है। उसको निकाल सकते है लेकिन उसको argue नहीं कर सकते । जिसके अन्दर जो रुकावट जेसे बन गयी, अब कोई कहता है साहब मैने तो कुछ किया नहीं है, है अन्दर रुकावट तो है। उसको निकालना चाहिए। सिर्फ अपना स्वार्थ देखिए। 'स्व' का अर्थ जानिए। इसमें हमारा कोई लाभ नहीं होने वाला। लाभ आपका ही होगा, पूरी तरह से। आप ही का पूरा लाभ होने वाला इतना समझ कर के हाथ उपर करें । अब जब घटना घटित होती है तो पहले कुण्डलिनी उठकर के आज्ञा चक्र को लॉघ जाती है। जैसे ही यह आज्ञा चक्र को लॉँघ जाएगी वैसे ही आपको निरविचार, समाधि ज्ञान आदि आ जाएगा। लेकिन समाधि का अर्थ ये नहीं कि बेहोश होना, ट्रान्स में जाना आदि। तब आप पूरी तरह चेतन अवस्था में है। पूरी तरह से सतर्क है। लेकिन आप निर्विचार में है, शांति में है। लेकिन आप पूरी बात सुन रहे हैं। अन्दर से कोई विचार आपके अहंकार, प्रति अहंकार, ego, superego से नहीं आनेवाला। आप एकदम जिस तरंग और जब कुण्डलिनी आपके ब्रह्म- रंध्र को छेद देती है तब आपके अन्दर से यह चेतन्य की लहरियाँ जिसको शंकराचार्य ने बताया है वो बहेंगी। बिलकुल सीधा हिसाब है। इसमें करना कुछ नहीं है जैसे एक जलता हुआ दीप दूसरे दीप को एकदम जलाकर के सीमा से असीम में छोड़ देता है। उसी प्रकार यह घटित होता है। इसमें बुद्धि का कोई भी चिन्ह नहीं । 1 ईश्वर आपको आशीर्वादित करें। ३१ समस्याएं कम हो रही है। हमे जातीयता पसन्द नहीं है। भारतीय सहजयोगी चाहते हैं कि जाति प्रथा समाप्त हो जाए। क्योंकि यह प्रथा आत्म-विनाशक है। अत: हम अपने अन्दर ही देखने लगते हैं कि मेरे लिए, मेरे परिवार के लिए, देश के लिए तथा पूरे विश्व के लिए घातक क्या है। आपके रचनात्मक जीवन के ठीक विपरीत इन सब दुःस्साहसिक कार्यों को आप समझने लगते हैं और इन्हें रोक सकते हैं। यह तभी संभव है जब अन्तर्दर्शन तथा समर्पण करने का प्रयत्न करे और देखे कि क्या थरी श्री बुद्ध पूजा का शेष भाग... आप में वह गुण हें। अब कुण्डलिनी ने आपकेसभी सुन्दर गुणों को जागृत कर दिया है। ये सारे गुण आप में अक्षत (सही-सलामत) थे। जागृत होते हुए कुण्डलिनी नेइन सभी गुणों को भी जागृत कर दिया है। सहजयोग इतना बहुमूल्य है कि मानव को बहुत पहले से इसका ज्ञान हो जाना चाहिए था। यह केवल परमात्मा के बारे में बात करना या मात्र यह कहना ही नहीं कि आपके अन्दर देवत्त्व निहित है। यह तो इनकी प्रभावकारिता है। आपको किसी विज्ञान की आवश्यकता नहीं। जब भी अपनी आपको कोई समस्या हो तो एक बन्धन दे दीजिए। यह इतना सुगम है। विज्ञान से होने बाले हर कार्य को आप सहजयोग से कर सकते हैं। हम कम्प्यूटर भी हैं। आपको मात्र अपनी गहिनता को विकसित करना होगा। आप अब ठीक रास्ते पर हैं । हमें इस विनाशकारी आधुनिक विज्ञान की ज्योतिर्मय चेतना आवश्यकता नहीं है। आप में आत्म सम्मान का होना आवश्यक है। आपको समझना है कि आप एक सहजयोगी हैं और आपको वह अवस्था प्राप्त करनी है जहां आप में वह सब कुछ करने का से सारी मूर्वता सामर्थ्य हो जो विज्ञान कर सकता है। आप सब शक्तियों के अवतार बन जाइए। कुछ लोग आ कर कहते हैं "श्री माताजी हम अपना हृदय नहीं खोल सकते।" क्या आप करूणा का अनुभव नही को देखिए तथा कर सकते? मैंने देखा है कि लोगों का हृदय कुत्ते-बिल्लियों के लिए तो खुला होता है पर अपने बच्चों के लिए नहीं। यही वह स्थान है जहाँ आत्मा का निवास है और जहाँ से यह अपना प्रकाश फेलाती है। यही वह प्रथम स्थान है जहां प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति का प्रकाश आप देख पाते हैं। हो सकता है। इसका आनन्द आप में केवल अहं हो, आत्म सम्मान न हो और इसी कारण आप हृदय को न खोल पाते हों। श्री बुद्ध अहं का नाश करने वाले हैं। हमारी पिंगला नाड़ी पर विचरण करते और बस जाते हैं। हमारे अहंको वेसंभालते हैं और हमारी दायीं ओर की पूर्ति करते हैं। दायी ओर को हुए वे हमारे बाईं लीजिए। झुका व्यक्ति न कभी हंसता है न मुस्कराता है। परन्तु बुद्ध को मांसल (मोटा) तथा हँसता हुआ दिखाया गया है। हँसने मात्र से वे दायी ओर को सम्भालते हैं। वे अपना मजाक उड़ाते हैं ओर सारा ड्रामा देखते हैं। अपनी ज्योतिर्मय चेतना से सारी मूर्खता को देखिए तथा इसका आनन्द लीजिए। जैसे एलिजाबेथ टेलर को विवाह कर के मधुमास (हनीमून) पर जाते देख कर, ऐसे अशुभ व्यक्ति पर, मोहित होने के स्थान पर उसकी मूर्खता को देखें । वस्तुओं के प्रति आपकी प्रतिक्रिया आपके चित्त की अवस्था पर निर्भर करती है। यदि यह कोई दैवी वस्तु है तो आपका चित्त भाव-विभोर होना चाहिए । परन्तु यदि यह कोई मूर्खतापूर्ण या हास्यप्रद चीज़ है तो आप इसके तत्त्व को देख सकते हैं। अपने चित्त से आप सत्य से संबंधित हर चीज़ के तत्त्व को देखें। सत्य की तुलना में यह मूर्खतापूर्ण या मिथ्या या पाखण्ड हो सकती है। पर यदि आप सहजयोगी हैं तो आप में वह बात देखकर उसका आनन्द लेने की योग्यता होनी चाहिए। एक आयु तक बच्चे ऐसा करते हैं। आपकी प्रतिक्रिया आपके प्रकाशित चित्त पर निर्भर करती है। एक प्रकाशित चित्त किसी मूर्ख, भ्रमित तथा नकारात्मक चित्त से भिन्न प्रतिक्रिया करता है। जो हम है उसे स्वीकार करना चाहिए. और हम आत्मा हैं। इ२ श्री बुद्ध की चार बातें आप सब को प्रात:काल कहनी चाहिएं। प्रथम- "बुद्धं शरणम् गच्छामि":- अर्थात मैं स्वयं को अपने प्रकाशित चित्त के प्रति समर्पित करता हूँ फिर उन्होंने कहा "धर्मम् शरणं गच्छामि" :- मैं स्वयं को धर्म के प्रति समर्पित करता हूँ। यह कोई मिथ्या धर्म नहीं जो विकृत हो गए इसका अर्थ है कि मैं स्वयं को अपने अन्तर्जात धर्म (धर्मपरायणता) के प्रति समर्पित करता हूँ । तीसरी बात जो उन्होंने कही "संघं शरणम् गच्छामि:'"। मैं स्वयं को सामूहिकता के प्रति समर्पित करता हूँ। पिकनिक आदि के बहाने आप कम से कम महीने में एक बार मिले । आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। लघु-ब्रह्माण्ड विशाल- ब्रह्माण्ड बन गया है। आप विराट के अंग-प्रत्यंग है। इस बात का ज्ञान आपको होना चाहिए, इस प्रकार कार्य होते हैं मा तथा हम नकारात्मक तथा सकारात्मक, अहंकारी तथा नम्र व्यक्तियों को पहचान सकते हैं । हम वास्तविक सहजयोगियों को तथा सहजयोगी कहलाने वाले व्यक्तियों ्ं को पहचान सकते हैं तथा मिथ्या लोगों को त्याग देते हैं। सामूहिक हुए बिना आप सामूहिकता के महत्त्व को कभी नहीं समझ सकते। सामूहिकता आपको इतनी शक्तियाँ, इतनी सन्तुष्टि और आनन्द प्रदान करती है कि व्यक्ति को सहजयोग में सामूहिकता पर सर्वप्रथम ध्यान देना चाहिए । किसी चीज़ की कमी हो तो भी आप बस सामूहिक हो जाइए। सामूहिकता में आपको अन्य किसी की भी आलोचना नहीं करनी चाहिए, न उनको गाली देनी चाहिए और न उनके दोष देखने चाहिए। अन्तर्दर्शन कीजिए कि भी जब सभी लोग आनन्द ले रहे हैं तो मैं ही क्यों बैठकर दूसरों के दोष खोज रहा हूँ। यदि आप दूसरों के स्थान पर अपने दोष खोजने पर चित्त लगा दें तो मुझे विश्वास है कि आप कहीं अधिक सामूहिक हो जाएंगे। सहजयोग अति व्यवहारिक है क्योंकि यह पूर्ण सत्य । अत: अपनी सारी शक्तियाँ सूझ-बूझ और करूणामय प्रेम के साथ आपको अपने विषय में आश्वस्त होना है और जानना है कि हर समय परमात्मा की सर्व व्यापक शक्ति उन्नत होने में आपकी सहायता, रक्षा मार्गदर्शन, पोषण तथा देखभाल कर रही है। परमात्मा आप पर कृपा करे। ३३ आदिशक्ति पूजा परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश जादिशक्ति पूजा जून माह की ६ तारीख को कबेला, इटली में साक्षात श्री माताजी की चरण कमलों में समर्पित की गई। शाम के करीब सात बजे श्री माताजी सहजी-जन के बीच पधारी थीं और लगभग डेढ़ घंटे तक विराजमान रहीं। इस बीच श्री माताजी की चरण कमलों में पूजा अर्पित की गयी। श्री माताजी के दरबार में उपस्थित लोगों को पूजा के दौरान अत्यन्त आनन्द का अनुभव होता रहा। वहाँ उपस्थित सहजी-जन ने शान्ति का अनुभव किया। पूजा के उपरान्त जब श्री माताजी कबेला में स्थित घर पहुँची तब उन्होंने यह कहा कि 'यह एक बहुत ही मनोरम पूजा थी। आम् दिशक्ति का प्रतिम्बिब ही आपके अन्दर कुण्डलिनी है। जब भी इस सृष्टि तथा अन्य सष्टियों की रचना हुई वो आदिशक्ति का ही कार्य है। अब बहुत सारे लोग कहते हैं कि भगवान एक है और ये सत्य है कि भगवान एक ही है-परमात्मा, लेकिन उनके पास अपनी शक्तियाँ है। जिन्हे वे साकार कर सकते हैं, किसी भी व्यक्ति में और अपने आपको प्रत्यक्ष प्रकट कर सकते है। तब सब से पहले उन्होंने आदिशक्ति की रचना की । जब वह प्रकट हुई, एक ध्वनि निकली जिसे हम 'ॐ' कहते हैं। लोगों से या जो आप कहना चाहते हैं, वह आदि ध्वनि और ये तीन शक्तियाँ-उस ध्वनि से निकली। जैसे आ,ऊ.मा (अ ऊम) ॐ (ओम) आदिशक्ति ही है जो परमात्मा की इच्छाशक्ति का साकार रुप धारण करती है। परमात्मा की इच्छाशक्ति उनकी कृपा से होती है और स्वयं को व्यक्त करने के लिए, स्वयं को प्रकट करने के लिए, स्वयं को प्रतिम्बिबित करने के लिए । मैं कहँ तो वे अपने अकेलेपन से थक गए होंगे इसलिए उन्होने एक साथी का विचार किया होगा जो उनकी इच्छाओं को प्रकट कर सके। इस प्रकार उनकी शक्ति उनसे अलग हुई और उनकी कृपा, उनकी सृष्टि रचना को, इच्छा शक्ति को साकार स्वरुप दिया। संस्कृत में इसे 'चित्विलास' कहते हैं। आदिशक्ति का उपयोग करना। चित्त ही ध्यान है। चित्त स्वयं में ध्यान है। चित्त स्वयं में आनन्द हैं और उस चित्त के आनन्द को प्रकट करने के लिए सभी सृष्टियों की रचना की गई, पृथ्वी माता की रचना की गई, ये सब सृष्टि की रचना की गई। सभी जानवरों की रचना की गई, सभी मनुष्य की रचना की गई और सभी सहजयोगियोंकी रचना की गई। ये सारी सृष्टि इसी तरह बनी। पत अब इस समय, कोई पूछ सकता है, "क्यों उसने सीधे मनुष्य की रचना नहीं की?" वह तो परमात्मा का संकल्प था-सिर्फ मनुष्य की रचना करने का लेकिन आदिशक्ति माँ होने के कारण उसका रुप प्रकट करने का अपना ही तरीका था। उसने सोचा कि परमात्मा को अपना चेहरा देखने के लिए उसे शीशों की रचना करनी होगी। ताकि वे अपनी प्रतिमा देख सकें, वे स्वभाव देख सकें और इस तरह से इस लम्बे फैलाव का विकास हुआ। ये विकास इस तरह करना पड़ा। क्योंकि उन्हे पता होना था कि वे कहाँ से आए है। हमें जानना है कि हम प्रकृति से आए हैं। और प्रकृति को भी ये जानना चाहिए कि वह पृथ्वी माता से आई हुई है और पृथ्वी माता की अपनी कुण्डलिनी है और वह भी सिर्फ निर्जीव मिट्टी नहीं है, वह जानती है, वह सोचती है, वह समझती है और वह व्यवस्था करती है। (कबेला में दिया गया भाषण, ८-६-१९९६, सहज पथ न्यूजलेटर) ह र ८ NEW RELEASES ****X- ** **** ** CODE DVD 1) Mahashivratri Puja 218 6th Mar' 2008 - 8th - 9th Mar' 2008 219 2) Shiv Puja (Part I & II) 3) Birthday Celebration 4) Ramnavmi Puja - 18th - 21st Mar' 2008 220 आ 3T -13th Apr' 2008 221 5) Easter Puja - 23rd Mar'2008 222 224 6) श्री महाकाली पूजा (भाग १ व २) -Ist Apr' 1986 225 7) Mahadevi Puja (Part I & II) -21st Dec' 1986 म 226 7) Christmas Puja (Part I& II) - 25th Dec' 1986 227 8) Guru Puja Ist Aug 1999 **-*X***- ****X X ********** ****X-* BHAJAN ACD/ACS CODE 1) Mhari Pyari Nirmal Maa Padharo Mhare Des 136 Rajsthan Collectivity - Mrs. Kirti Vispute 2) Manhi Maay 137 138 3) Devotion Ajit Kadade ****-******* ****X- **** *-*-********* ** SPEECH ACD/ACS CODE 1) Public Program 31st Dee' 1983 367 -Ist Aug' 1999 2) Guru Puja 195 3) Shri Rajlakshmi Puja 149 -7th Dec' 1996 *** ****X-***X-***** जिस में सहजयोग का कार्य करने की इच्छा है, मनुष्य में दीप बनने का सामर्थ्य है, जिस मनुष्य ऐसे ही लोगों की पटमात्मा मदद करेंगे और का परमात्मा मदद कटग 3 ऐसे ही दीप जलाएंगे जिनसे इस पूरे विश्व में प्रकाश फैलेगा। ज ---------------------- 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिंदी मै पाम ৯ जुलाई - अग्त २००८ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-1.txt ाव ए ११८ १० प्रकाशक निर्मल ट्राँसफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८ फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ ि ५० ७ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-2.txt रा अनुकनपिका] १) श्री कृष्ण पूजा ४ २) एक सहजयोगी के लिए महान सत्य ------ ११ ३) बच्चों के लिए स्वास्थ्यवर्धक घरेलू उपचार १२ ४) आप जो भी कहेंगे १३ ५ ) सहजयोगियों के लिए भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का महत्व १४ - ६) समर्पण ३० ७) श्री बुद्ध पूजा (पिछले अंक का शेष भाग) ३२ ८) आदिशक्ति पूजा ३४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-3.txt श्री कृष्ण पूजा १४ अगस्त १९८९, सफरौन, यू.के. प २त ह। आजहम श्री कृष्णावतार की पूजा करने के लिए एकत्र हुए हैं। श्री कृष्णजी, श्री नारायण तथा श्री विष्णुजी का अवतार हैं । हर अवतरण अपने साथ सभी सद्गुण, शक्तियों तथा अपनी पूर्ण प्रकृति को साथ ले कर आते हैं। अत: उनके अवतरण के समय ही उनमें श्री नारायण तथा श्री राम के सभी सद्गुण थे। पिछले अवतरण में जिस अवतार के विचारों का गलत अर्थ लिया गया हो या उनकी कही बातों को अति में ले जाया गया हो तो अपने अगले अवतरण में वे उन सब बातों में सुधार लाते हैं। यही कारण है कि वे बार-बार अवतरिंत होते हैं । श्री विष्णुजी संसार तथा धर्म के रक्षक हैं। तो जब वे अवतरित हुए तो उन्हें देखना पड़ा कि लोग धर्माचरण करें । आप को ठीक रहने के लिए आत्मसाक्षात्कार लेना होगा और महालक्ष्मी के मध्य मार्ग में रहना होगा। पहले अवतार के विषय में हम कह सकते हैं कि उन्होंने राम रूप में एक परोपकारी राजा की रचना करने का प्रयत्न किया। श्री राम पुरुषोत्तम थे। उन्होंने एक पूर्ण मनुष्य के रूप में अपने सारे मानवी सद्गुणों के साथ अवतार लिया। श्री सीता जी के रूप में उन्होंने लक्ष्मी तत्त्व से विवाह किया और एक साधारण विवाहित जीवन व्यतीत किया। फिर उन्होंने अपनी पत्नी के बिना एक तपस्वी का जीवन व्यतीत किया। जीवन से उन्होंने दर्शाया कि एक पति का अपनी पत्नी के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए। बाद में उन्हें एक राजा के रूप में अभिनय करना पड़ा। राजा बनने पर उन्होंने पाया कि रावण से सीता जी को वापिस लाने पर प्रजा उनकी आलोचना कर रही है। अत: श्री राम जी ने सीता जी को वनवास भेज दिया। श्री राम की तरह से अपने नीचे कार्यरत लोगों में अपने शुभ आचरण द्वारा आदर्श स्थापित करने की चेतना कितने लोगों में है? महालक्ष्मी अवतार श्री सीता जी इस नाटक को समझती थी अत: वे घर छोड़ कर चली गई। ১৯ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-4.txt है., केवल विनोद है । ईश्वर की पूर्ण रचना केवल एक लौला राजा रूप में श्री राम ने सिखाया कि प्रजा पर शासन कैसे किया जाना चाहिए। राज्यादशों को उन्होंने स्थापित किया। राम- राज्य को सर्वाधिक आदर्श राज्य माना जाता है। उनके राज्य में शांति थी, प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। सदाचार, धर्मांचरण, आनन्द, आशीर्वाद तथा शांति के कारण प्रजा-जन प्रसन्न थे परन्तु लोग कुछ ऐसी बातें अपना लेते हैं जो किसी अवतार के लिए स्वाभाविक न हो। श्री राम तपस्वी बनकर रहे अत: लोगों ने भी तपस्या का मार्ग पकड़ लिया। लोग रूखे हो गए। वे न तो हंसते न मुस्कराते । हर चीज़ गम्भीर हो गई। विवाह-अभाव में लोगों का संतुलन बिगड़ गया विवाह आपको संतुलित करता है। यह समय था जब श्री कृष्ण जी अवतरित हुए और यह दर्शाया कि ईश्वर की पूर्ण रचना केवल एक लीला है, केवल विनोद है। गम्भीर, रूखा 1 या तपस्वी होने की कोई आवश्यकता नहीं। वास्तव में श्री राम से पूर्व सभी महात्मा विवाह किया करते थे। तब एक निराधार ब्राह्मणाचार का भी आरम्भ हुआ। जातिवाद, जिसका निर्णय मनुष्य के जन्म से ना कर उसके कार्यानुसार किया जाता था, उसको भी तथा-कथित ब्राह्मणाचार ने दुर्बल बना दिया। ब्राह्मणों ने दूसरों पर प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। अत: श्री कृष्ण जी एक ग्वाले के पुत्र के रूप में अवतरित हुए। लि जब श्री कृष्ण जी केवल पाँच वर्ष के थे उन्होंने विभिन्न प्रकार की क्रीडाएं तथा लीलाएं की जैसे (कालिया) सर्प मर्दन और खेल खेल में अपनी शक्ति द्वारा बहुत से राक्षसों का वध। यद्यपि नाना प्रकार से उन पर यह प्रकट हो चुका था कि वे एक अवतरण है फिर भी मर्यादाओं के हित में उन्होंने यह सत्य कभी नहीं स्वीकारा। महामाया की ही तरह से। यद्यपि आज साधारण कैमरे भी आपको वास्तविक महामाया का प्रमाण दे रहे हैं और बता रहे हैं कि वे कैसी हैं फिर भी व्यक्ति को यही दर्शाता है कि उसे कुछ स्मरण नहीं, उसे इस वास्तविकता की कोई स्मृति नहीं । क्योंकि यदि व्यक्ति इस सत्य को याद रखता है तो कार्य-कलाप मानवी नहीं होंगे। 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-5.txt ही लाभदायक है। विशुद्धि चक्र के लिए मक्यवन बहुत वे (कार्य-कलाप) ईश्वरीय कार्य बन जाएंगे जो कि मनुष्यों के लिए ठीक न होंगे। क्योंकि मनुष्य उन कार्यों को सहन न कर सकेंगे। वे डर जाएंगे और भय फेल जाएगा। अत: श्री कृष्ण जी ने एक साधारण मनुष्य की तरह से व्यवहार किया। अपने बचपन में उन्हें मक्खन बहुत पसन्द था। विशुद्धि चक्र के लिए मक्खन बहुत ही लाभदायक है। चाय में भी थोड़ा मक्खन मिला लें ताकि आपके शुष्क गले को आराम मिले । अपने मित्रों की सहायता से श्री कृष्ण मटकियाँ तोड़कर सारा मक्खन खा जाते थे। छोटे छोटे झूठ बोल देते। उनकी सब लीलाएं, बालसुलभ, मधुर-असत्य केवल मधुरता की भावना जागृत करने के लिए थीं। जब बच्चे माँ के साथ इस प्रकार की नटखटता करते हैं तो वे बहुत ही प्रिय लगते हैं। पूर्वी देशों के लोग अपने बच्चों की नटखटता का आनन्द लेते है। अपने बच्चों से प्रेम-अभाव के कारण ही लोग उनके प्रति कठोर हो जाते है। वे अपने कालीन तथा भौतिक वस्तुओं को केवल बेच सकने के लिए ही प्रेम करते हैं। अपने बच्चों को तो वे बेच नहीं सकते। बच्चे और माता-पिता भौतिकता के विचारों के कारण ही एक दूसरे से दूर हो जाते हैं, और भौतिक वस्तुऐं बहुत महत्त्व ग्रहण कर लेती हैं। चोरी यद्यपि बुरी है फिर भी जो स्त्रियां अपने मक्खन को मथुरा के राक्षसों के लिए ले जाती थी, उनका मक्खन श्री कृष्ण जी चुरा लिया करते थे। इन स्त्रियों द्वारा दिए गए मक्खन को खा कर राक्षसगण शक्तिशाली हो रहे थे। अत: श्री कृष्ण जी ने सारे मक्खन को खा लेना ही उचित समझा जिससे कि यह राक्षसों तक न पहुँच पाये। इस चोरी का महत्त्व हमें इस सत्य में भी प्रतीत होगा कि थोड़े से धन के लालच में हम अपने बच्चों को भूखा रखते हैं। "हर वस्तु विक्रय के लिए है" इस विचार में धन-लोलुपता छिपी है और इसी के कारण बच्चें हम पर स्थायी बोझ बन जाते हैं । बच्चों के साथ केवल बोझ की तरह से व्यवहार किया जाता है। जीवन के सब मूल्य यदि केवल धन पर आधारित हो जाएं तो बच्चों के लिए परिवार में कोई स्थान नहीं रह जाएगा। सहजयोग के अनुसार बच्चें कुबेर 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-6.txt श्री कृष्ण को धर्म की स्थापना कार्य के लिए पंच-तत्तवों की आवश्यकता पड़ी । के धन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और उनका लालन पालन उसी प्रकार होना चाहिए। बच्चों को अपने गौरव के प्रति जागरूक होना चाहिए और उस गौरव के अनरूप ही उन्हें व्यवहार करना चाहिए फिर भी बच्चों की छोटी-छोटी क्रीड़ाओं को अच्छी तरह से समझा जाना चाहिए तथा उनका आनन्द लिया जाना चाहिए। बचपन में ही तो वे प्यार भरी शरारतें कर सकते हैं, बड़े होकर नहीं। उन्हें मधुर शरारतें करने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए नहीं तो वे बहत ही गम्भीर बन जाएंगे और तपस्वी भी बन सकते हैं। बच्चों के प्रति कठोर माता-पिता कभी स्वाभाविक नहीं हो सकते। वे या तो अति विकृत होते हैं या मोनीगर्त में समाकर वे जीवन का सामना नहीं कर सकते । दोनों एक ही प्रकार के होते हैं, एक जीवन का सामना करने में असमर्थ है तो दूसरे का सामना "जीवन" नहीं करता। आपको बहुत प्रेम तथा सूझबूझ के साथ अपने बच्चों से बत्ताव करना है। परन्तु बच्चों को इस बात का भी ज्ञान होना आवश्यक है कि अनुचित व्यवहार की अवस्था में उनके प्रति आपका सब प्रेम समाप्त हो जाएगा। बच्चे धन आदि को नहीं समझते, वे केवल प्रेम को जानते हैं। अपने बच्चों में जो प्रेम आप स्थापित करते हैं वह अमूल्य निधि बन जाता हैं। सहजयोग ईश्वरीय-प्रेम पर आधारित है और यह तभी कार्य कर सकता है जब लोगों में प्रेम भाव हो। अपने बच्चों, परिवार को प्रेम न करके यदि लोग धन, शक्ति तथा प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं तो वे समाज का एक बहुत बड़ा भाग खो रहे है। राजा रूप में भी कृष्ण ने लोगों को धर्म में स्थापित करना चाहा । इस कार्य के लिए उन्हें पंच -तत्त्वों की आवश्यकता पड़ी । इन तत्त्वों की रचना उन्होंने उन पाँच स्त्रियों के रूप में की जिनसे उन्होंने विवाह कर लिया। परन्तु वे स्त्रियां उनकी ही अभिन्न अंग हैं। योगेश्वर कृष्णपूर्ण तथा अनासक्त थे । परन्तु सांसारिक कार्यों के लिए उनकी पाँच पत्नियाँ थीं तथा सोलह हजार अन्य पत्नियाँ जो कि बास्तव में उनकी सोलह हजार शक्तियाँ थी। विशुद्धि चक्र की सोलह पंखुडियों का गुणान विराट की एक सहस्र पंखुडियों से करने पर 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-7.txt "मौन" धारण करके अपनी दायी विशूद्धि को आराम देना, इसे ठीक करने का सबसे अच्छा उपाय है। এधु र १६.०००शक्तियाँ बनती हैं। यही १६, ०० ० शक्तियाँ स्त्रियों के रूप में अवतरित हुई और इन्हें एक दुष्ट राजा ले गया। इस राजा को पराजित करके श्री कृष्ण ने इन शक्तियों को स्वतंत्र कराया तथा उनसे विवाह करके अपनी छत्र-छाया में ले लिया। विशुद्धि की समस्याओं की दशा में हमें विशुद्धि के दोनों ओर स्थित देवताओं और सद्गुणी का ज्ञान होना चाहिए-जिनके अभाव में हम कष्ट उठा रहे हैं। पकड़ की अवस्था में हम अपनी दायी विशुद्धि को देखें । माधुर्य श्री कृष्ण जी का परम गुण है। राधा उनकी शक्ति थी। रा-शक्ति, धा-धारण करने वाला। और आल्हाद, आनन्द प्रदान करने वाले सद्गुण-उनकी शक्ति थी। श्री कृष्ण की खूबी उनका योगेश्वर-साक्षी रूप होना ही थी। एक व्यक्ति जो ऊँचा बोलता है, चिल्लाता है, चीखता है और शीघ्र क्रोधित हो जाता है वह दायीं विशुद्धि की समस्या का शिकार है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि किसी की प्रताड़ना भी करनी हो तो भी हमें प्रेमपूर्वक उससे कहना है कि "आप ये क्या कर रहे है?"' "मौन" धारण करके अपनी दायीं विशुद्धिको आराम देना, इसे ठीक करने का सबसे अच्छा उपाय है। दायी तरफ जिगर से गर्मी का प्रवाह शुरू हो जाता है। यह प्रवाह ऊपर को उठना शुरू कर सबसे पहले दाये-हृदय को प्रभावित करता है। परिणामतः आप एक क्रोधी पति या पिता बन जाते हैं तब यह गर्मी दायी विशुद्धि पर पहुँचती है और आप एक चिड़चिड़े, उग्र, क्रोधी, हर समय दूसरों पर चिल्लाने वाले व्यक्ति बन जाते हैं जिस व्यक्ति पर आप क्रोध करते हैं वह आप से भयभीत हो जाएगा, उसमें हीनता की भावना भी उत्पन्न हो सकती है, वह वाम- तरफी भी बन सकता है। जिस व्यक्ति पर हर समय कोई चिल्लाने वाला हो उस व्यक्ति का भाग्य तो ईश्वर ही जानता है। हन 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-8.txt श्री कृष्णजी मधुट बाँसुटी बजाकर सारे वातावरण को पूर्णतया शांत कर देते थे। हह श्री कृष्णजी के जीवन से हमें सीखना है कैसे वे मधुर बाँसुरी बजाकर सारे वातावरण को पूर्णतया शांत कर देते थे। परन्तु आधुनिक काल में मामला बिल्कुल ही विपरीत है। यहाँ दायी विशुद्धि टूटने और फटने के समीप है । आज का संगीत शान्ति प्रदानकरने के स्थान पर अधिकाधिक उत्तेजित करता है। इस प्रकार का संगीत सहस्रार खंड, जो कि श्री कृष्ण के विराट तत्त्व का स्थान है, को शिथिल कर देता है। दायी विशुद्धि से यह सहस्रार को जाता है। तब आप नशा लेना शुरू कर देते हैं क्योंकि आपका दिमाग शिथिल हो चुका होता है। इस प्रकार सख्त नशे लेना आप शुरू कर देते हैं। आप एक ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ से कोई वापसी नही। जहाँ केवल आत्मविनाश है। श्री कृष्ण एक ईश्वरीय राजनीतिज्ञ थे। ईश्वरीय राजनीति क्या है? आपको चिल्लाना नहीं है। यदि आप किसी को परिणाम विशेष तक ले जाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको विषय परिवर्तन करना होगा। यह बड़ा चतुराई का कार्य है। किसी व्यक्ति के साथ पूर्ण तादात्म्य करना उसके साथ खेलने जैसा है। व्यक्ति को जान लेना चाहिए कि राजनीति का निष्कर्ष परोपकारिता है। मानव मात्र के हित का लक्ष्य तुम्हें प्राप्त करना है। यदि आप यह कार्य कर रहे हैं तो अपने या किसी व्यक्ति विशेष के स्वार्थ के लिए नहीं कर रहे हैं। अत: चीखने की कोई आवश्यकता नहीं। इसके साथ खेल करते रहो। और इसे परोपकारिता तक ले जाओ । श्री कृष्ण ने हमें मधुरतापूर्वक सत्य बोलने को कहा। ऐसा सत्य जो परोपकार के लिए हो। माना कि आपका सत्य व्यवहार इस क्षण किसी व्यक्ति विशेष को अच्छा न लगे लेकिन यदि हित ही आपका लक्ष्य है तो भविष्य में वही व्यक्ति आपके प्रति अनुग्रहीत होगा। परोपकार के लिए यदि आपको झूठ भी बोलना पड़े तो भी कोई बात नहीं क्योंकि विशुद्धि के शासक श्री कृष्ण इस सत्य को जानते हैं। अपने अधीन व्यक्तियों, परिवार के सदस्यों तथा सम्बन्धियों को उनकी त्रुटियां बताने में आप कभी न हिचकिचायें । स्पष्ट रूप | ४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-9.txt से उन्हें वही बताएं जो उचित हो। यह आपका कर्तव्य है। लोग इस कार्य से भी बचते हैं। बहत से लोग अपने बच्चों के लिए उन्हें बहुत से खिलौने देकर चले जाते हैं। अनुशासन का अर्थ शासन नहीं परन्तु इसका अभिप्राय यह है कि जो भी आप कर रहे हैं वह आप की और दूसरों की आत्मा के हित के लिए है। यही सहज का अनुशासन है। बाईं विशुद्धि बिजली की चमक सी है। यह एक ऐसे व्यक्ति की है जो चीख चिल्ला सके और विष्णुमाया की तरह दोषों को उखाड़ सकें। आपको निड़र होना चाहिए। स्वयं को दोषी मानने वाले अधिकतर व्यक्ति अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं । और अहं उनकी बाई ओर प्रविष्ट हो जाता है। यह बहुत ही पेंचीदा अवस्था है। सावधानीपूर्वक हमें देखना चाहिए कि अपने आप को हम दोषी न मान बैठे। दोष का भाव कहते हैं। आपको वास्तविकता का सामना करना है। अपनी ओर दूसरों की त्रुटियों को खोजने का प्रयत्न करो । क्योंकि विष्णमाया केवल विद्युत मात्र है। बिजली लोगों के दोषों पर से पर्दा उठाती है तथा उन पर गरजती भी है। अपनी बाईं विशुद्धि को ठीक करने के लिए आपको ये विधियाँ अपनानी होंगी। बाई विशुद्धि की समस्या वाले व्यक्ति को समुद्र पर जाकर जोर से कहना चाहिए "में समुद्र का स्वामी हूँ" "मैं ये हूँ - मैं वो हूँ" इत्यादि । 1 गले में दाई ओर श्री कृष्ण जी की शक्ति स्वरों में है - यह माधुर्य की शक्ति है । विष्णुमाया अपनी महान शक्तियों को केवल अपना अस्तित्व बताने के लिए ही प्रयोग करती है। यह सब चमत्कृत तस्वीरें आपको विष्णुमाया की ही देन है। वही विद्युत रूप में कार्य करती है और यह सब कुछ संभालती है। चाहे वह श्री कृष्ण की बहन है तो भी वे बहुत सूक्ष्म हैं और बड़ी सूक्ष्मतापूर्वक आपकी सहायता करती हैं । इस माईक्रोफोन के अन्दर विद्युत है और आप हैरान होंगे कि इसके अन्दर से चैतन्य लहरियाँ बह रही है। यहाँ से जहाँ आप चाहे ये लहरियाँ जाएंगी। दूसरी ओर कम्प्यूटर रखकर आप इन्हें महसूस कर सकते हैं। कितनी प्रशंसनीय बात है कि इतनी महान शक्ति हमारी बाई ओर विराज कर स्वयं को दोषी मानने वाले तथा हीन-भाव पीड़ित लोगों की रक्षा करती है। अन्तर देखिए। आत्मविश्वास विहीन लोगों में विष्णुमाया अपनी शक्ति प्रकट करती है जिससे कि उनका आत्मविश्वास जाग उठे। विष्णुमाया की बात करते हुए हमें ज्ञान होना चाहिए की वह वहाँ विशुद्धि पर विराजमान है, जब चाहे हम महान वक्ता बन सकते हैं दूसरों के दोषों का पर्दाफाश कर सकते हैं। हम बिजली या मेघ ध्वनि जो कि हम नहीं हैं-की तरह बन सकते हैं। अत: यह दोनों तरह के लोगों को संतुलन देती है। मध्य में जब कुण्डलिनी उठती है तो अधिकतर लोगों की विशुद्धि पकड़ी होती है। अतः उन्हें ध्यान रखना है कि वे निर्दोष हैं, और अपने आप में पूरी तरह से संतुलित हैं तथा वे मध्यम मार्ग में जिससे कि वे मधुर, करुणामय और अच्छे बन सकते हैं। बहुत से लोग केवल दूसरों का लाभ उठाने के लिए दिखावे मात्र को मधुर हैं ऐसे लोग नर्क में जाएंगे क्योंकि श्री कृष्ण की शक्ति का दुरूपयोग कर रहे हैं। हमारे लिए यह समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि हमारी विशुद्धि साफ़ होनी चाहिए। सर्वप्रथम हमारा हृदय सुन्दर और स्वच्छ होना चाहिए जहाँ से कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी विशुद्धि को सुधारे। विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारो क्योंकि आपके सिवाय कोई अन्य इन्हें नहीं सुधार सकता। देखो कि तुम्हें अपना पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी विशुद्धि के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धि पर आकर ही आप साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कमियों को जान सकेंगे। श्री कृष्ण की पूजा करते हुए हमें ये जानना है कि अंत में वे बुद्धि-तत्त्व बन जाते हैं पेट पर की चर्बी सूक्ष्म रूप में बुद्धि को पहुँचती है तथा श्री नारायण बुद्धि में प्रवेश कर विराट" रूप हो जाते हैं अकबर बन जाते हैं और जब वे अकबर बन जाते हैं तभी पदार्थ के अन्दर बुद्धि (ज्ञान) बन जाते हैं। यही कारण है कि श्री कृष्ण को पूजने वाले लोग-अहंकार रहित बुद्धिमान बन जाते हैं। उनकी बुद्धि विकसित होती है परन्तु यह अहंग्रसित नहीं होती । बिना अहं की बुद्धि जिसे मैं शुद्ध बुद्धि कहती हैं, प्रकट होने लगती है। 1 ईश्वर आपको आशीर्वादित करें । १० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-10.txt ा एक सहजयोगी के लिए महान सत्य १९९६ में कबेला में हुई श्री कृष्ण पूजा में श्री माताजी सभी देशों से आये हुए प्रतिनिधियों से मिली। उस दौरान श्री माताजी ने प्रश्न पूछे और उनके उत्तर भी दिए। प्र. १ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ी गलती क्या है? अपने मन पर विश्वास करना। प्र. २ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद क्या है? - Collective Conscious (सामूहिक चेतना) प्र. ३ सबसे बड़ा मूर्ख कौन है? - वो जो सत्य को नहीं पहचानता। प्र. ४ सहजयोगी के लिए जीवन में निश्चित चीज़ क्या है? आपकी माँ का प्रेम । प्र. ५ सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा आनन्द कोनसा है? - सच्चा आनन्द - निर्मल आनन्द प्र.६ सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा अवसर क्या है? - लोगों को जागृति देना। प्र.७ सहजयोगी के लिए सबसे महान विचार क्या है? - निर्विचारिता प्र. ८ सहज योगी के लिए सबसे बड़ी विजय क्या है? - अपने अहंकार पर विजय प्राप्त करना। प्र. ९ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ी अड़चन क्या है? अहभाव - प्र. १० सहजयोगी के लिए सबसे बड़ा नुकसान क्या है? अपने हृदय से माँ की छवि खोना। प्र. ११ एक सहजयोगी के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है? निर्विकल्प - पूर्ण विश्वास ११ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-11.txt बत्चों के लिए स्वारथ्यव ्ैक घरेलू उपचार 00 EO ची. नी पानी में घोलकर दीजिए, जिससे कि वो दाँत में न लगे। पानी में घोलकर दी हुई चीनी बच्चों के लिए बहुत जरूरी है। डॉक्टरों का इस मामलें में मत सुनिए । वो तो general (सामान्य) चीज़ चलाते हैं कि अब चीनी मत खाओ । सब लोग चीनी नहीं खा रहे। फिर नमक नहीं खाओ। सब लोग नमक नहीं खा रहे। भाई जिसको, जिस चीज़ की जरूरत है वो खाओ । बच्चों को चीनी की जरूरत बहुत है। उनको आप चीनी दीजिए। लेकिन ऐसी चीनी न दीजिए जो दाँत से वो खाऐं या इस तरह की । पर चीनी जो कि पेट में चली जाए । दूसरे ये कि गर्मियों में 'कोकम' नाम का एक फल आता है, महाराष्ट्र में मिलेगा उसको भिगो लिया रात को । उसके दूसरे दिन चाहे तो थोड़ा उबाल लिया। उसका रस निकाल कर उसमें चीनी ड़ाल दीजिए । चीनी ड़ालकर के उसको रख लीजिए । दिन भर बच्चे को वो पीने को दीजिए । अगर जॉन्ड़िस जैसी बीमारी हो जाए तो मूली के पत्ते को, छोटी-छोटी जो पत्तियाँ होती हैं उनको उबाल लीजिए। कोमल पत्तियाँ जिनको कहना चाहिए कि अभी जो निकली हैं। उनको उबालकर के उसमें खड़ी शक्कर मिला करके या चीनी जो वाइब्रेटिड हो मिलाकर बच्चे को दीजिए । और कोई पानी न दें। एक दिन के अन्दर बच्चे का जॉन्डिस ठीक हो सकता है। और गर्मियों में अगर मूली का रस दे सकें तो बहुत ही अच्छा है। मूली खूब खाने को दीजिए बच्चों को । बच्चों के लिए मूली बहुत फायदे की चीज़ है। और उनको ऐसी ऐसी चीजें दीजिए जिससे कि उन पर बहुत ज्यादा fat (चर्बी) न पहुँचे । हमारे यहाँ ज्यादा तली हुई चीज़ बच्चों को दे देते हैं , कुछ सोचते ही नहीं। तली हुई चीज़ बिलकुल नहीं देनी चाहिए। और दूसरा यहाँ पर बहुत एक 'लिव ५२' भी अच्छी दवा मिलती है। वो अगर शुरू कर दें तो एक साल के अन्दर वो भी चल सकती है। लेकिन एक चीज़ बनती है जिसको मराठी में कहते हैं 'एरोण्या', छोटी-छोटी, काली-काली। नागपुर में बहुत होती है इसलिए नागपुर में किसी को liver (जिगर) की trouble (बीमारी) नहीं होती। और जब जाड़ा पड़े तो सौंठ थोड़ी सी पीस कर उसमें चीनी मिला कर सबेरे बच्चों को जाड़ा पड़ने पर दें । दूसरी चीज़ कि गन्ने का रस जितना बच्चा पी सके उतनी चीज़ अच्छी है उसके लिए। उसमें अदरक, नींबू ड़रालकर। ये सब फायदा करती हैं। और बच्चों को ज्यादातर 'ये कर रे, वो कर रे" ऐसा नहीं कहना चाहिए 'सबेरे उठो, जल्दी चलो, ये करो" ऐसा नहीं कहना चाहिए। इससे इनकी, जिसे तिल्ली कहते हैं, spleen खराब हो जाती है और इंसी से ब्लड कैंसर हो जाता है। Hectic life जो lead करता है उसे ब्लड केंसर होता है। बच्चों को hectic नहीं बनाना चाहिए। बच्चों को बहुत शांतिपूर्वक रखना चाहिए। पूड़ी खाना, पराठे खाना ये सब गन्दी चीजें हैं। पराठे तो बिलकुल बन्द कर दीजिए आप लोग। दिल्ली, २५/३/१९८५ १२ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-12.txt आप जो भी कहेंगे वहीं पटमात्मा आपके साथ कटेगा। अ. व हम लोग ध्यान में जाएंगे। मैंने जैसे कहा है पहले अपने को प्रेम से भर लो। आप जानते हैं मैं आप की माँ हूँ। पूर्णतया आप इसे जानें कि मैं आपकी माँ हूँ। और माँ होने का मतलब होता है कि सम्पूर्ण security हैं, संरक्षण है। कोई भी चीज गड़बड़-शड़बड़ नहीं होने वाली। आप मेरी ओर हाथ करिए। और धीरे-घीरे से आँख बन्द करके और अपने विचारों की ओर देखिए, आप निर्विचार हो जाएंगे। आपको कुछ करने का है ही नहीं। आप जैसे ही निर्विचार हो जाएंगे, वैसे ही आप अन्दर जाएंगे। पहले अपने से इतना बता दो कि आज से निश्चय हो कि किसी को कोई सी भी चोट मैं नहीं पहुँचाऊंगा। और सब को प्रभु तुम क्षमा कर दो, जिन्होंने मुझे चोट पहुँचाई हो। और मुझे क्षमा करो क्योंकि मैंने दुनिया में बहुत लोगों पर चोट की है। आप जो भी कहेंगे वही परमात्मा आपके साथ करेगा आप उससे कहेंगे कि "प्रभु शांति दो" तो तुम्हें शांति देगा। लेकिन आप माँगते नहीं हैं शांति । "संतोष दो" तो वो तुम्हें संतोष देगा, तो वो माँगते नहीं है। 'मेरे अंदर सुन्दर चरित्र दो" तो वो चरित्र देगा। अब प्रार्थना का अर्थ है, क्योंकि आपका connection हो गया है परमात्मा से।. "मुझे माधुर्य दो, मिठास दो।" जो भी उनसे माँगोगे, वो तुम्हें "मुझे अपने चरण में समा लो।"...."मेरी बूँद को अपने सागर में समा लो।" "मेरे अन्दर प्रेम दो । सारे संसार के लिये प्रेम दो।".... देगा। और कुछ नहीं माँगो। अपने लिए ही माँगो। ... "जो भी कुछ मेरे अन्दर अशुद्ध है, उसे निकाल दो।" परमात्मा से जो कुछ भी प्रार्थना में कहोगे, वही होगा। "मुझे विशाल करो। मुझे समझदार करो। तुम्हारी समझ मुझे दो। तुम्हारा ज्ञान मुझे बताओ।" "सारे संसार का कल्याण हो, सारे संसार का हित हो । सारे संसार में प्रेम का राज्य हो । उसके लिये मेरा दीप जलने दो । उसमें ये शरीर मिटने दो। उसमें ये मन लगने दो। उसमें ये हृदय खपने दो।" सुन्दर से सुन्दर बातें सोच करके उस परमात्मा से मांगे। जो कुछ भी सुन्दर है, वही माँगो तो मिलेगा। तुम असुन्दर माँगते हो तो भी वो दे देता है। बेकार माँगते हो तो भी वो दे ही देता है। लेकिन जो असली है उसे माँगो, तो क्या वो नहीं देगा? प्रभादेवी, बम्बई १ फरवरी १९७५ यूँ ही ऊपरी तरह से नहीं, "अन्दर से", आंतरिक हो करके माँगो । १३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-13.txt सहजयोगियों के लिए भषारतीय सटता एवं संति छ का महत्व आ् आ ज नवरात्रि के शुभ अवसर पर सबको बधाई ! सहजयोग के प्रति जो उत्कण्ठा और आदर, प्रेम आप लोगों में है वो जरूर सराहनीय है, इसमें कोई शंका नहीं। क्योंकि जो हमने उत्तर हिन्दुस्तान की स्थिति देखी है वहाँ पर हमारी परम्परागत जो कुछ धारणाएं हैं उसी प्रकार शिक्षा प्रणालियाँ हैं, सब कुछ खोई हुई हैं। बहुत कुछ हम लोगों का अतीत मिट चुका है और हम लोग एक उधेड़बुन में लगे हुए हैं कि नवीन वातावरण, जो कि तीन सौ साल की गुलामी के बाद स्वतन्त्रता पाने पर तैयार हुआ, वो एक बहुत विस्मयकारी जरूर है, लेकिन विध्वंसकारी भी है। माने कि जैसे कि हम अपने मूलभूत तत्त्वों से उखड़ से गए हैं। उनका सिंचन नहीं हुआ, ये बात जरूर है, लेकिन हमारा भी रुझान ज्यादा बाह्य की ओर रहा। ये उत्तर हिन्दुस्तान पर एक तरह का शाप सा है। उत्तर प्रदेश में मैं सोचती हूँ कि सीताजीके साथ जो दुर्व्यवहार किया गया उसके फलस्वरूप अब मेरे ख्याल से धोबियों का ही राज शुरू हो गया है। और बड़ी दुःख की बात है कि जब आप उत्तर प्रदेश में सफर करते हैं तो देखते हैं कि लोगों में बड़ा उथलापन, अधूरापन, अश्रद्धा, अनास्था आदि इतने बुरे गुण आ गये हैं कि लगता नहीं है कि वहाँ कभी सहजयोग पनप सकता है। दूसरी बात बिहार, पंजाब, हर जगह ये पाया जाता है कि हम अपने को कहलाते हैं कि हिन्दू या भारतीय हैं, लेकिन हम अपनी संस्कृति से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। हम कुछ भी नहीं जानते कि हमारी जड़ें क्या हैं? किस जड़ के सहारे हम खड़े हैं? दूसरों की जड़े अपने अन्दर बिठा कर हम पनप नहीं सकते और जो हमारी जड़े हैं वो इतनी महत्त्वपूर्ण हैं कि उसी से सारे संसार की जड़े प्लावित होंगी। उसी से वो उच्च स्तर पर उठेंगी। लेकिन यहाँ का मानव ऐसा कुछ अजीब वातावरण में है कि न इधर के न उधर के हैं और जब भी मैं अन्दर देखती हूँ, तो बड़ा आश्चर्य होता है कि जो गहनतम विशेषताऐं दक्षिण में हैं, वो यहाँ एकदम खो सी गई हैं। इस ओर हमें चिन्ता करनी चाहिए और ध्यान देना चाहिए कि हमने ये सब क्यों खो दिया? जो हमारा इतना महत्त्वपूर्ण ऊँचा था, उसे हमने क्यों त्याग दिया? उससे तो मैं सिख लोगों को ज्यादा मानती हूँ, क्योंकि कुछ नहीं तो कुछ न कुछ तो वो जानते हैं अपने धर्म के बारे में । ऐसा कोई सिख आपको नहीं मिलेगा जो अपने धर्म के बारे में कुछ भी न जानता हो। लेकिन ऐसे 9999969 १४ के 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-14.txt आपको हजारों हजारों हिन्दू मिल जाएंगे जो कुछ भी नहीं जानते और उसमें उनको कोई हर्ज भी नहीं है। इसका एक फायदा जरूर होता है कि जब धर्म बहुत ज्यादा संकलित होता है, organised (संगठित) होता है तो उसकी श्रृंखलाएं जरूर अटकाव रखती हैं, उससे आदमी अति पर जाकर fanatic (धर्मान्ध) हो सकता है यह एक बात है। लेकिन दूसरी बात कि हम बिलकुल अनभिज्ञ हैं अपने धर्म के बारे में। अपने विश्वासों के बारे में और अपनी धारणाओं के बारे में होने से अंग्रेजों को तो कह सकते हैं, परदेसी लोगों को कह सकते हैं कि आपको यह सीखना है, आपको यह जानना है, अपनी गहराई में उतरना है, लेकिन हिन्दुस्तानियों को क्या कहा जाए? वो तो अपने को अंग्रेज ठहराए बैठे हैं। वो सोचते हैं कि हम तो बहुत ऊँची पदवी पर पहुँचे हुए हैं। कितना उथला जीवन हम बिता रहे हैं। इसकी ओर हमारी दृष्टि नहीं। इसलिए हमारी संवेदना, जो आत्मा की है, वो गहन नहीं हो पाती आत्मा की संवेदना गहन हैं, उथली नहीं है। जो मनुष्य उथलेपन से जीता है, वो गहनता को कैसे पाएगा? इस ओर ध्यान देना चाहिए कि इसे हमने क्यों खोया? और खोने पर अब हमारा सम्बन्ध इससे कैसे हो सकता है? हम किस तरह से अपने को गहनता में उतार सकते हैं? एक तो धर्म के प्रति हमारी बड़ी उदासीनता है। मैं कोई बाह्य के धर्म की बात नहीं कर रही हैं, ये आप जानते हैं, पर अन्दर का धर्म होना बहुत जरूरी है। अन्दर का धर्म माने संतुलित जीवन में वो सब चीजों में असर करता है। कोई कहेगा कि 'माँ कपड़े पहनने से क्या होता है, वो तो जो है जड़ वस्तु है। सूक्ष्म में ही सब कुछ है ।' अरे भाई, आप सूक्ष्म में जब जाओगे, तब जड़ को आप पाओगे। जब जड़ में भी आप इतने उच्छृंखल हैं, तो आप सूक्ष्म में कैसे उतरेंगे? हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषताऐं जो हैं, उनको समझे बगैर ही लोग गलत काम करते हैं। जैसे कि हाथ में चूड़ी पहनना एक छोटी सी बहुत चीज़ है। ये क्या चीज़ है आप जानते हैं? विशुद्धि के चक्र में स्त्री में कंकण होना चाहिए। पुरुष भी पहले कंकण पहनते थे। मेरे नाक में (नथ), ये शुक्र का तारा है, ये मुझे पहनना पड़ा। पहले पहना नहीं था बहुत दिनों तक। लेकिन समझ गई मैं इसको पहने बगैर काम होगा नहीं इसलिए पहना । हर चीज़ हमारी संस्कृति में बहुत नापतोल अऔर समझ से बनाई गई है। ये कोई किसी धर्म ने नहीं बनाई। ये द्रष्टाओं ने बनाई हैं, बड़े-बड़े ऋषियों और मुनियों की बनाई गई चीजें हैं, इसको हमें समझ लेना चाहिए। हर चीज़ में, हर रहन-सहन में, बातचीत में, ढंग में हमें पहले भारतीय होना चाहिए। जब तक हम भारतीय नहीं है तब तक सहजयोग आप में बैठने वाला नहीं। क्योंकि जो परदेसी हैं वो हर समय ये कोशिश करते हैं कि हम भारतीय लिबास में कैसे रहें, भारतीय तरीके से कैसे उठें, बैठे, बोलें। हर चीज़ वो ये देखते रहते हैं, और सीखते रहते हैं । या १५ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-15.txt विशुद्धि के चक्र में ख्री में कंकण होना चाहिए। हे कोशिश करते हैं । आज ही हमारी बहु ने एक बात कहीं कि 'जो सहजयोगी हमने foreign (परदेस) में देखे, उनकी जो आस्था और dedication (श्रद्धा, भक्ति ) देखा, वो यहाँ के सहजयोगियों में नहीं है। यहाँ तो सहजयोगी सिर्फ बीमारी ठीक कराने आते हैं।' तो हिन्दुस्तानियों का भारतीय होना बड़ा कठिन दिखाई दे रहा है, बजाय इसके कि परदेसियों का । एक तो बुद्धि में उनकी बड़ी शुद्धता है और बहुत चमक है। उस बुद्धि से वो समझते हैं कि जो आज तक हम लोगों ने ये अहंकार के सहारे कार्य किये हैं इनको छोड़ देना चाहिए और सीधे सरल तरीके से जो भारतीयता हमेशा आत्मा की ओर निर्देश करती है उसे स्वीकार करना चाहिए। वो इसे समझते हैं बहत अच्छी तरह से और गहनता से और जिस चीज़ को समझते हैं और मानते हैं उसको करते हैं । क्योंकि उनमें बड़ी समग्रता आ गई है। लेकिन हम लोग माँ के सामने एक बात, बादमें दूसरी बात 'उसमें क्या हर्ज है, अगर इस तरह से रहा जाए, उस तरह से रहा जाए। आज मैं आपके सामने एक ही प्रस्ताव रख रही हैं क्योंकि आप जानते हैं हमने 'विश्व निर्मल धर्म' की स्थापना की है। लेकिन विश्व धर्म जो है उसकी संस्कृति भारतीय है। संस्कृति बिलकुल, पूरी तरह से भारतीय है। उसमें कोई भी हम लवलेश नहीं करेंगे । जो भारत में आएंगे उनको भारतीयों जैसे रहना पड़ेगा क्योंकि ये संस्कृति हजारों वर्षों से सोच समझकर बनाई गयी है। इसमें जो गलतियाँ हैं उसे ठीक कर के। अनेक वर्ष बिता कर, इसमें से जो कुछ भी दोष हैं उसे निकाल कर, ये संस्कृति बनाई गयी। 1 और इस संस्कृति में एक ही बात निहित है कि 'अपना चित्त हमेशा निरोध में रखो।' अपने चित्त का निरोध। अपने चित्त को रोकिए। आप देख लीजिए दिल्ली शहर में कहीं भी जाइए, सब की आँखे इधर-उधर घूमती रहती हैं हर समय । किसी की आँख में शुद्धता नहीं पाईयेगा। वासना भरी हुई है, जिसे lust और greed कहते हैं। चित्त का निरोध तभी हो सकता है कि जब हम इस तरह से अपना भी लिबास रखें, और दूसरों का भी लिबास इस प्रकार रहे जिसमें कि मुनष्य सौष्ठवपूर्ण हो, असुन्दर न हो । लेकिन उसमें वासनामय चीज़ें न हों। १६ का 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-16.txt शुक्र का तारा है, ये मुझे पहनना पड़ा । फeি मेरे नाक में (नथ), ये जीवन के हर व्यवहार में हमारा जीवन अत्यंत सौष्ठवपूर्ण होना चाहिए। सौष्ठव का मतलब होता है 'सु' से आता है-जिसमें शुभदायी चीज़ हो, सबका मन पवित्रता से भर जाए। ऐसा स्त्री का स्वरूप, पुरुष का स्वरूप होना चाहिए, उनका व्यवहार होना चाहिए। लेकिन हम उनकी जो बुरी बातें हैं, पूरी तरह सीख लेते हैं और उनकी अच्छी बात है तो हम नहीं सीख पाते। और अपने को ये समझ कर कि हम एकदम से बड़े भारी आधुनिक बन गए हैं, इस आधुनिकता के जो शाप हैं उनसे आप वंचित नहीं रहेंगे । अपने बच्चों की ओर नजर करें। अपने बच्चों में भी भारतीयता आनी चाहिए। बच्चों में आदर, आस्था, भक्ति, नम्रता सब होनी चाहिए । अब आप महाराष्ट्र के बच्चे देखिए, सीधे बैठे रहते हैं । मैंने कभी नहीं देखा कि बच्चे इधर -उधर देख रहे हैं, ये कर रहे हैं, हँस रहे हैं, बोल रहे हैं कभी नहीं। आप देखिए शांति से, ध्यान में बैठे रहते हैं। अगर आप अंग्रेज बच्चों को देखिए तो इतना दौड़ते हैं कि उनको सबको बाहर रखा जाता है, उनकी मॉओको भी बाहर रखा जाता है। तो हमें जान लेना चाहिए क्या बात है? सहजयोग इतना गहरा हमारे अन्दर क्यों नहीं उतर रहा। हमें अपनी ओर दृष्टि करके देखना चाहिए कि हम क्या स्वयं गहन हैं? हमारे अन्दर गहनता आयी हुई है? भारतीय संस्कृति को जरूर अपनाना होगा, पूरी तरह से और उसकी पूरी इज्जत करते हुए, जैसे बड़ों का मान करना। हमने सुना कि कोई सहजयोगी हैं, अपनी माता को बहुत सताते हैं और बड़े भारी सहजयोगी हैं। ये कैसे हो सकता है? सबके अधिकार होते हैं. सबका एक तरीका होता है। अगर माँ कोई ऐसी शैतान हो या भूतग्रस्त हो तब तो समझ में आयी बात। लेकिन किसी भी माँ को सताना हमारी संस्कृति में मना है। भाई - बहनों से दूर भागना भी बिलकुल मना है। दूसरी बात, अपने यहाँ कोई आदमी, कोई भी मेहमान घर में आए उसके लिए हम लोगों को जान दे देनी चाहिए। इसके अनेक उदाहरण हैं। जो हमने खोया हुआ है, पूरा का पूरा हमें सहजयोग से लाना है। पत्नाबाई जैसी औरतें, जिसने अपने बच्चे को त्याग दिया। युवराज को बचाने के लिए जिसने अपने बच्चे को त्याग दिया पद्मिनी जैसी स्त्री इतनी लावण्यपूर्ण थी । उन सब को याद करिए जिन्होंने अपनी जान देश की आन में मिटा दी। उस संस्कृति को छोड़कर के आप किसी भी तरह से सहजयोग में पनप नहीं सकते । मैंने सारी संसार की संस्कृतियाँ देख लीं। एक तो जो अनादि काल से संस्कृतियाँ चली आ रहीं हैं। Egypt (मिस्त्र) में कहिए, 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-17.txt ० China (चीन) में कहिए, या आप चाहे तो Greece (यूनान) में कहिए ।taly (इटली) में कहिए काफी पुरानी सभ्यताएँ हैं। हजारों वर्ष की सभ्यताएं हैं और ऐतिहासिक भी हैं। हमारी तो इतनी पुरानी है कि वो कुछ ऐतिहासिक है, कोई पौराणिक है और कोई तो कोई समझ ही नहीं पाता, इतनी पुरानी सभ्यता हमारी है। और इन सभी सभ्यताओं ने विकृति को ही माना और उसमें बहक गए। उसमें दिखाया कि परशुराम जो थे उनमें औरतों के प्रति बड़ा आकर्षण था। कैसे हो सकता है? बाप रे बाप! वो तो जल्लाद थे। वो कैसे औरतों के प्रति आकर्षण रखेंगे? विष्णु को दूसरे गन्दे स्वरूप में दिखा दिया। इस तरह हरेक देव-देवताओं को उन्होंने उतार के छोड़ा। अब, आप रोम में जाईए। वहाँ की संस्कृति देखिए तो Romans (रोमन लोगों) के लिए तो लोग कहते हैं कि जहाँ ये गये वहाँ ही सत्यानाश । राक्षसी प्रवृत्ति के लोग थे Egypt (मिस्र) में जाईए तो भारी भूत विद्या। China (चीन) में जाईए तो थोड़ा सा आभास हिन्दुस्तान का मिलता है। पर जो भी उनकी संस्कृति है वो हिन्दुस्तान की संस्कृति पर ही बसी हुई है। जो भी कुछ वो मानते हैं वो हिन्दुस्तान से गयी हुई सभ्यता पर बसी है। उसी प्रकार आप अगर जापान में जाएं वहाँ भी आप पाते हैं कि हिन्दुस्तान की संस्कृति पर बसी हुई चीज़े जैसे कि Zen (जेन) आदि हैं। ये सब हिन्दुस्तान से गयी हुई चीजें ैं। संसार को हमें सभ्यता देनी है। हमारी संस्कृति में सारी सभ्यताएँ इतनी सुन्दर हैं, सबको भूलाकर के और अब हम उस सभ्यता को ले रहे हैं जिसमें कोई भी सभ्य चीज़ नहीं है, असभ्य है । इतना ही नहीं कि हम सभ्य हों, हम सुसभ्य हों । सभ्यता ऐसी हो कि हमारे व्यक्तित्व से शुभ झरे। तभी संसार ठीक हो सकता है। तो पहले एक भारतीय होने के नाते आप अपने प्रति गर्व की दृष्टि से देखें। अपने प्रति एक अभिमान रखें कि आप भारतीय हैं, आप के पास से संस्कृति की इतनी सम्पदा है। और कृपया कोशिश करें कि हमारे हर एक जीवन में हम भारतीयता के अंग्रेजियत को त्याग दें। विलायती चीज़ों का इस्तेमाल करना बहुत गलत है। साथ रहे। आप जानते हैं आपकी माँ सब भारतीय चीज़ इस्तेमाल करती है। क्रीम तक वो भारतीय लगायेगी, साबुन भारतीय रहेगा। सब चीज़ भारतीय होनी चाहिए। चाहें इम्लैंड में रहें, चाहे दुनिया में कहीं भी रहें । और मैं देखती हैं कि बाहर की कोई चीज़ लगाओ तो मेरे को तो सुहाती ही नहीं है। कोई क्रीम बाहर की लगाओ तो वो मेरे को सुहाएगी नहीं। मुझे सुहाता नहीं है। इसलिए जो यहाँ पर विशेषकर (उत्तरी भारत) में आप देखते हैं कि लोग बहुत ज्यादा परदेसी चीज़ों की ओर, परदेसी सभ्यता की ओर, परदेसी व्यवहार की ओर इतने झुके जा रहे हैं । ये कहाँ पहुँचे हैं? कम से कम अपनी सभ्यता तो सँम्भालो । १८ क 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-18.txt उ ०] N० सभ्यता के बाद धर्म का सवाल आाता है। धर्म हमारे यहाँ संतुलन में है। जरूरत से ज्यादा बात करना, जरूरत से ज्यादा किसी पर अतिशयता करना, किसी पर हावी होना, ये गलत बात है। सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात ये है कि हमारे यहाँ उत्तर हिन्दुस्तान में औरतों पर बड़ा ज्यादा domination (अधिपत्य) है । औरतों को बहुत बुरी तरह से हम लोग यहाँ पर सताते हैं। कोई औरतों की इज्जत ही नहीं है उत्तर हिन्दुस्तान में। औरत को जिस तरह से भी हो सके दबाया जाए? औरत के प्रति कोई भी श्रद्धा नहीं दिखाई देती। फिर औरतें निकलती हैं एकदम यहाँ से जो वो तो एकदम तूफानमार, फिर वो जूते से ही बोलती हैं। अगर आप इतनी उस चीज़ को दबा दीजिए तो ऐसी ही औरतें खोपड़ी पर बैठेंगी। मैं तो यू.पी में देखती हैँ कि वहाँ तो जो औरत वेश्या जैसी है तो बहुत मानी जाती है और या जो औरत डंडा लेकर बैठी है। और सीधी, सरल, अच्छी औरत हमेशा दबाई जाती है। बुरी तरह से उसको सताया जाता है। ये वो कहते हैं मुसलमानों से आया है। लेकिन मैं मुसलमान देशों में गयी हूँ, रियाद में रही हूँ। हाँ, मानते हैं वहाँ चार बीवियाँ करते हैं, जो भी करते हैं, लेकिन औरत की कितनी इज्जत हैं वहाँ! बहुत खयाल करते हैं कि एक औरत अबला है, उसकी मदद करनी चाहिए। बहुत इज्जत करते हैं। हम न तो मुसलमान, न हिन्दू पता नहीं कहाँ के आ गए जो कि औरतों को इस तरह से सताते हैं। अपने इस देहली शहर में सुनते हैं बहुत सी bride-burning (वधुओं को जलाना) हो गयी। 1 में आज ये बात इसलिए कह रही हूँ कि में परदेस में गई। वहाँ मुझसे लोग यही पूछते हैं कि ये क्या आपकी सभ्यता है कि आप अपने यहाँ की bride (वधु) को जला देते हैं ? अब 'कायदा पास करो, कायदा कराओ'। क्या हम लोग अन्दर से कायदा नहीं रख सकते? औरत की हम इज्जत नहीं कर सकते? औरत पर हम बिगड़ते हैं। औरत पर क्रोध करना पाप है। आपको क्या अधिकार है कि आप औरत पर क्रोध करें? वो आपके बच्चों की माँ है। औरतों को जरूर चाहिए कि वो भी चरित्रवान हों और वो भी पूजनीय रहें। अगर औरत पूजनीय नहीं है, तो भी उस पर क्रोध करने से फायदा क्या? लेकिन अगर पुरुष पूजनीय नहीं है तो भी वो क्रोध कर सकता है और वो महादुष्ट हो और उसे और किसी खत्री से लगाव होता तो भी वो दुष्टता कर सकता है। ये भारतीय संस्कृति नहीं है। इस देश में इतनी बड़ी बड़ी महान औरतें हो गई हैं जो पंडितों के साथ बैठकर वाद-विवाद किया करती थी। वो सब कुछ खो गया। या तो अब कोई राक्षसी प्रकृति की स्त्री आ जाए उसके सामने आप झुक जाएंगे और या तो कोई बिलकुल ही गिरी हुई औरत हो तो उसके आगे आप दौड़ेंगे। ये क्या पुरुषार्थ है? अब रही औरतों की बात कि वो भी और औरतों की देखा-देखी उस तरह से रहने लग जाती है जिस तरफ औरतों की नजर जाती ९९ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-19.txt औरत धरा ( है, उसके पास अनन्त शक्ति है । धरती जैसी (७ है। जैसे आदमी लोग औरतों की ओर देखते हैं, उधर ही उनकी नजर जाती है, तो जैसे ये औरतें जिस तरह का कपड़ा पहनती हैं, इस तरह से घूमती-फिरती हैं, इस तरह से बातचीत करती हैं, इनका ढंग जैसा बिलकुल छिछोरा है, उसी ढंग से औरतें भी अपने को बनाना शुरू कर देती है। क्योंकि औरत में व्यक्तित्त्व ही नहीं है। उसको दबा दबा कर मार डाला । वो सोचती है, भाई इसी बहाने खुश हो जाए आदमी। मैं तो इसमें दोषी पुरुषों को समझंगी हर हालत में क्योंकि जब पुरुष औरत को बढ़ावा दें, उसकी महानता बढ़ाए, तभी औरत बढ़ती है इस देश में । इसका ये कभी भी मतलब नहीं कि औरत आदमी के सामने बोले। इसका मतलब नहीं। औरत को सम्मान के साथ अपने पति के साथ रहना चाहिए। उसकी हर इच्छा को पूर्ण करना चाहिए, उसमें कुछ नहीं जाता। औरत धरा (धरती) जैसी है, उसके पास अनन्त शक्ति है। धरा जैसे उसे पति को प्लावित करना चाहिए। लेकिन अगर आप हर समय धरा को चूसते रहें तो एक दिन अन्दर से ज्वालामुखी निकल आता है यह भी समझ लेना चाहिए। बाहर जाकर शर्म आती है यह सोच सोचकर कि जिस तरह के किस्से यहाँ के लोगों की तरफ फैले। पर ये चीजें महाराष्ट्र में क्यों नहीं होती? महाराष्ट्र में तो dowry system (दहेज प्रथा) बिलकुल नहीं है। South India (दक्षिण भारत) में भी dowry (दहेज) का system (प्रथा) बहुत चल पड़ा है। उसकी वजह वह दिल्ली में जो आकर बैठे है सब मद्रासी। दिल्ली में सीखे हैं "इतने रुपये dowry लेंगे, उतने रुपये dowry लेंगे। " बड़ा आश्चर्य होता है! हाँ, ठीक है, लड़की के नाम से रुपया-पैसा जरूर कर देना चाहिए। लेकिन dowry लेनेवाले होते ही दूसरे हैं, लड़की से थोड़े ही कोई सम्बन्ध रहता है? भारतीय सभ्यता में ये कहीं भी नहीं है। हमेशा र्त्री का मान किया गया है। 'राधा कृष्ण' कहा जाता है। कृष्ण, राधा के बगैर कुछ भी नहीं हैं। मान लीजिए जब कंस को मारना था तब भी उन्होंने राधा को याद किया। राधा की ही शक्ति से ही मारा है। वे क्या मार सकते थे अपने मामा को? अगर मार सकते तो जब पैदा हुए तभी मार ड़रालते। २० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-20.txt हमारे यहाँ 'सीता-राम' कहा जाता है। हमारी संस्कृति में सब चीज़ें इतनी सुन्दर-सुन्दर हैं कि उसको अगर बारीकी से देखा जाए तो मनुष्य समझ सकता है कि इसकी सुन्दरता क्या है। टा लेकिन ज्यादातर भारतीय संस्कृति के बारे में लिखनेवाले ऐसे लिखते हैं जैसे कि बैंक में कहाँ कहाँ छेद हों उसका अनुभव कि इसमें ये खराबी है, वो खराबी है। कोई ये बात नहीं लिखता है कि कितनी बड़ी भारी बैंक है। लिखता ये है इसमें इधर से छेद है, उधर से छेद है। वो बनाए इन्होंने ही हैं। हो सकता है उसमें एक दो बातें ठीक करनी भी हों, एकाध इधर उधर की लेकिन एक एक चीज़ पर आप देखिए कि 'स्वार्थ' शब्द दिखेगा। 'स्वार्थ' का अर्थ पाना है । परम स्वार्थ वही है कि जब आपने परम को पा लिया । और मैं देखती हैं कि जो परदेश में भी लोग हैं वो जब हमारी औरतों को देखते हैं कि हम उनके जैसे कपड़े पहन के घूमती हैं, उनके जैसी बातचीत करती हैं, उनको जरा भी इज्जत नहीं करते। और जो औरत अपनी भारतीयता पर खड़ी है, उसकी बड़ी इज्जत होती है। में जब एक बार जापान गयी थी १९६० में, बहुत साल पहले की बात है, तो हर जगह जाए, तो बड़ा हमारा मान-पान हुआ । और जब हम शिकामा नाम के एक बन्दरगाह पर पहुँचे तो 'हजारों' लोगों की भीड़ वहाँ पर थी। तो मैंने कहा, 'ये कौन आए हैं? सब लोग कहाँ से आए हैं?' तो कहने लगे, 'आपको देखने ।' मुझे? क्यों?' कहने लगे, 'क्योंकि उनके पास खबर पहुँची कि बिलकुल पूरी भारतीय सत्री यहाँ पर आयी हुई है। और उसको देखने से पता हो जाएगा कि बुद्ध की माँ कैसी थी।' और सब वहाँ खड़े तरस गये देखने के लिए एक भारतीय स्त्री को। वहाँ सारी सिन्धी औरतें आधे कपड़े पहनकर घूमती हैं। वो तरस गए देखने के लिए कि एक भारतीय नारी कैसी होती है? किस तरह से कपड़े पहनती हैं? कैसे उसके बाल हैं? क्या है? हम लोग जहाँ भी जाएं हमें वो लोग कुछ उपहार दे दें एक जगह बरसात हो रही थी तो हम अन्दर चले गए। वहाँ उन्होंने हमको कुछ दे दिये। तो जो translate (अनुवाद) कर रहे थे, तो उनसे हमने कहा, ये हमको हर जगह उपहार क्यों देते हैं?' टैक्सी में बैठिए तो टैक्सीवाला गाड़ी रोककर कुछ उपहार देगा। कहने लगे, 'क्योंकि आप Royal family (सम्मानित परिवार) के हैं ' हमने कहा Royal family के ये कैसे कहा ? ये तो बात नहीं हैं। नहीं', कहने लगे, देखिए आप बाल कैसे बनाती है। हमारे यहाँ Royal family के लोग ही इस तरह के बाल बनाते हैं। और बाकी के जो हैं hair dresser के पास जाते हैं। ये तो रॉयलपन की निशानी है कि अपनी इज्जत में खड़े हो । 'हम लोग इतने हैरान हो गए । हमारी लड़कियाँ और हम तो इतने हैरान हो गए कि सच्ची ये बात है। इसका निरूपण हम तभी कर सकते हैं जब हम इसे बाहर जाकर देखें । और जब तक हम इस देश में हैं हम नहीं समझ पाते कि हरेक कितनी सुन्दर है और अच्छी बनाई गयी है। २१ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-21.txt रा स्त्री के लिए अलंकार आवश्यक बताया गया है। उसे अलंकार पहनना चाहिए। विवाहित स्त्री के लिए बताया गया है कि उसको अलंकार पहनना चाहिए। खासकर के उस पर सारे घर की दारोमदार होती है, उसके चक्र ठीक रहने चाहिए। उनको सुशोभित रखना चाहिए। उस तरह से कायदे से कपड़े पहनना चाहिए। कायदे से रहना चाहिए। लेकिन अपने को विशेष आकर्षण बनाना वरगैरे ये सब चीजें भारतीय संस्कृति की नहीं हैं। कोई भी स्त्री भारत में अपने को आकर्षक बनाने के लिए नहीं पहनती है पर हरेक समय समय पर जो 0Ccasion (अवसर) होता है, उसके अनुसार वो अपने को इसलिए सजाती है और इसलिए कपड़े अच्छे से पहनती है कि जो वो अवसर है वो और भी सुन्दर हो जाए । जैसे कि महाराष्ट्र में आप देखिए कि अगर अब हमारी पूजा हो रही है तो नाक की नथ पहनेंगे, यहाँ का पहनेंगे, वहाँ का पहनेंगे, best (सबसे अच्छी) साड़ी जो होगी वो पहन कर आएंगी। यहाँ तक airport (हवाई अड्डे) पर जब हमें लेने आएंगी तो सब पहनकर आएंगी। तो मैंने कहा कि ये सब airport पर पहनकर क्यों आयी। तो कहने लगी कि देवी के मंदिर में जाना है, देवी को देखना है तो क्या ऐसे ही देखेंगे? ये दिखाना चाहिए कि हम कितने खुश हैं, कितने सुख में हैं 1 लेकिन शहरी जो हमारी औरतें हैं, महाराष्ट्ट्र में तो भी अपने खासकर दिल्ली से सम्बन्ध अगर हो गया है तो उनके नखरे ही नहीं मिलते। तो दिल्ली से बहुत लोग प्रभावित हैं । इसलिए मैं सोचती हूँ कि आप लोगों को पूरा समझाया जाए कि भारतीय संस्कृति की एक एक चीज़ को आप समझें, उसके बारे में पढ़ें। से स्त्री की कल्पना, ये समझना चाहिए किे हर एक स्त्री एक गृहलक्ष्मी है। घर में उसका मान रखना, उनको इज्जत जरूरी है। रखना बहुत दूसरी बड़ी मुझे हैरानी होती है कि उत्तर हिन्दुस्तान में लोग अपनी पत्नी को इतना नहीं मानते जितना अपनी लड़कियों को मानते हैं। समझ में नहीं आता बिलकुल मुसलमानी पद्धति है लड़की को मानना और बीबी को नहीं मानना ये बड़ी अजीब सी बात लगती है। लड़की तो कल ब्याह होकर चली जाएगी और बीबी तो जिन्दगी भर के लिए आपकी अपनी है, ये कुछ समझ में बात आती नहीं है। उसी प्रकार अपने पति को कुछ नही मानना और लड़के को सब कुछ मानना ये भी इधर ज्यादा बीमारी है। लड़का बहुत बड़ी चीज़ है। इधर उत्तर हिन्दुस्तान में लड़का बहुत बड़ी चीज़ है। किसी के लड़का न हो गया कि क्या उसके घर में हाथी आ गया। वो बाद में उठकर माँ को लात ही मारे कोई हर्ज नहीं है। उसका रात दिन अपमान ही करे कोई हर्ज नहीं पर लड़का हो गया। उसके बाद असल मिठाई बाँटी जाएगी। RR 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-22.txt शुरु से ही स्व्ी के प्रति ऐसी निन्दनीय वृत्ति रखने से औरत हमेशा असुरक्षित (insecure) रहती है। जो औरत insecure रहती है वो या तो आपको नचा के छोड़ देगी या आपका सर्वनाश करके छोड़ेगी। ्त्री के अन्दर पूरी इज्जत और मान आप दीजिए। बच्चों को भी। बच्च्चों से भी आप मान से बात करिए। 'आप बच्चे हैं, आप विशेष हैं, आप सहजयोगी हैं। आप का मान होना चाहिए। आप बड़ों जैसे बैठिए। आप सहजयोगियों जैसे बैठिए । ये अगर आप अपने बच्चों को समझाने लग जाए तो बच्चे कहाँ से कहाँ पहुँच सकते हैं। लेकिन ये बात बहुत कम पायी जाती है। ज्यादातर हम बच्चों को झिड़कते ही रहते हैं, उनके अन्दर कोई इज्जत की भावना नहीं आती। जब उनके अन्दर कोई इज्जत की भावना नहीं आती है तो बच्चे उसी तरह से बर्ताव करते हैं जैसे आपके नौकर लोग बताव करें। मैं तो कहती हैं नौकरों तक को हम लोगों को एक इज्जत से, बकायदा जैसे कुटुम्ब पद्धति हमारे यहाँ है, उसको सम्भाल के वो करना चाहिए। सारे कुटुम्ब को सम्भाल के, सबको प्यार दे कर के। अपनी न बात करें। जिस तरह से औरतों की भी आदत होती है। मैने देखा कि हमें तो ये चीज़ पसन्द नहीं। ये सफाई नहीं हुई। घर में ये नहीं हुआ। ये ठीक होना चाहिए।' आप करिए । ये आपका काम है। और खुश होईये। और तीन बार खराब हो तो चार बार ठीक करिये। क्योंकि ये आपका शौक है। खाना बनाने का शौक होना चाहिए। हर चीज़ का शोक होना चाहिए औरत को। और दूसरों के लिए करने की शक्ति होनी चाहिए। लेकिन इसका मतलब नहीं कि आदमी खोपड़ी पर चढ़ कर बैठ जाए । वो इस चीज़ की इज्जत करें और सोचे... इंग्लैण्ड में हर आदमी बर्तन माँजता है हर आदमी। सिवाय हमारे घर के। और वो तो अगर आप कह दें कि आप बर्तन मांजिए तो गए। कल बर्तन ही टूट जाएंगे । वो जरूर माँजेंगे, जब गुस्सा चढ़े तो। लेकिन अगर वो बर्तन माँजने बैठ जाएं तो गए काम से। सबसे बड़ा अहंकार ये है कि "मैं पुरुष हूँ।" पुरुष, श्री कृष्ण के सिवाय, मैं तो किसी को नहीं देख पाती। जो करने वाला है वही है और भोगने वाले भी वही हैं। पुरुष और प्रकृति जो है सो है, हम अपने को बेकार ही पुरुष समझ करके बड़ा भारी अहंकार अपने अन्दर लिये हुए हैं। हम सब माँ के बेटे हैं। इस अहंकार से आप सब लोग छुट्टी पाइए। बहुत ज्यादा है! अभी भी सहजयोग में भी बहत है। और फिर यहाँ तक कि बीवि को मारना, पीटना। बीवि को मारना, पीटना ये अधर्म है। फिर बीवि पीटे तो बिलकुल अधर्म हो जाता है। हाँ, होती हैं ऐसी भी हमने देखी हैं। लेकिन समझदारी की बात ये है हम दोनो रथ के दो पहिये हैं एक left (बायें) में है और एक right (दायें) में है। कोई सा भी पहिया अगर छोटा हो जाए तो पहिया गोल गोल घूमेगा। दोनों एक साथ एक जैसे होने चाहिए, पर दोनों एक जगह नहीं है। एक left में है और एक right में । Right (दायाँ) जो है उसका कार्य ये है कि वो दिशा दे, बाह्य की तरफ २३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-23.txt का देखे, बाह्य की चीजें सम्भाले, घर के बाहर सफाई करें। जैसे वहाँ करते हैं लोग। बाहर की सफाई आदमियों को करना आना ही चाहिए, सहजयोगियों को। क्योंकि वो बाहर की सफाई नहीं करते हैं, इसलिए अपने बाहर के आँगन गन्दे रहते हैं, अन्दर की सब सफाई रहती है। औरत जो है झाडू मारे, सब करे, घर के अन्दर और आदमी जो है वो बिलकुल नहीं देखता कि बाहर सफाई है या नहीं। औरत तो बाहर जा नहीं सकती और आदमी करने वाला नहीं है इसलिए अपने जितने गाँव, शहर गन्दे रहते हैं इसलिए कि आदमी अपने बहाँ कोई सफाई नहीं करते। इंग्लैण्ड में देखिए हर Saturday, Sunday (शनिवार, रविवार) सब आदमी आपस में competition (स्पर्धा) लगाते हैं कि तेरा अच्छा कि मेरा अच्छा। सब एक special dress (खास पोशाक) पहनकर सब खड़े हो जाते हैं और अपनी सफाई करते हैं। सहजयोगियों को कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि हमें बदलना है। हम दूसरे हैं। हमें कोई हर्ज नहीं है कि हम ये करें। पहले जमाने में हमारी संस्कृति सही थी कि बाहर की सारी सफाई आदमी लोग करते थे, औरते नहीं। और वही चीज़ आज भी हमारे अन्दर आ जाए तो आप देखिए कि शुरूआत हो जाएगी कि हम बाहर की सफाई और अन्दर की सफाई हमारे देश की शुरू हो जाए, तो गन्दगी कहाँ रहेगी? लेकिन उससे बड़े फायदे हो जाते हैं, जब आदमी लोग सफाई करना शुरू कर देते हैं । जैसे लंड़न पहुँचे आप तो हमने देखा यहाँ बर्तन धोने के, kitchen (रसोई घर) साफ करने के इन्तजामात बड़े जबरदस्त हैं। तो हमने कहा कि भाई ये कैसे किया? यहाँ एक से एक चीज़े बनी हुई हैं। इससे इसको रगड़ दो तो पाँच मिनट में निकल जाएगा । वो कढ़ाई है, उसमें ये लगा दो तो दो मिनट में सफाई हो जाती है। हमने कहा हम लोग तो रगड़ते-रगड़ते मर जाएं, ये निकलती नहीं कढ़ाई । ये है क्या? पता हुआ कि आदमियों को सफाई करनी पड़ती है! तो उन्होंने सारे scientists (वैज्ञानिकों) को बुलाया कि "बाबा रे! पता लगाओ इसको निकालने का इंतजाम। नहीं तो हमको कढ़ाई माँजनी पड़ेगी। " कभी कभी बर्तन अगर आदमी माँजे तो कुछ फायदा ही हो जाएगा। और जब आप काम करते हैं उनके साथ तो हाथ बटाने से ये पता होता है कि ये काम कितना कठिन है और कितनी मुश्किल का काम है। लंड़न पहुँचे आप तो हमने देखा यहाँ बर्तन धोने के, kitchen (रसोई घर) साफ करने के इन्तजामात बड़े जबरदस्त हैं। तो हमने कहा कि भाई ये कैसे किया ? यहाँ एक से एक चीज़े बनी हुई हैं। इससे इसको रगड़ दो तो पाँच मिनट में निकल जाएगा । वो कढ़ाई है, उसमें ये लगा दो तो दो मिनट में सफाई हो जाती है। हमने कहा हम लोग तो रगड़ते-रगड़ते मर जाएं, ये निकलती नहीं कढ़ाई । ये है क्या? पता हुआ कि आदमियों को सफाई करनी पड़ती है! तो उन्होंने सारे scientists (वैज्ञानिकों) को बुलाया कि "बाबा रे! पता लगाओ इसको निकालने का इंतजाम। नहीं तो हमको कढ़ाई माँजनी पड़ेगी।" कभी कभी बर्तन अगर आदमी माँजे तो कुछ फायदा ही हो जाएगा। और जब आप काम करते हैं उनके साथ तो हाथ बँटाने से ये पता होता है कि ये काम कितना कठिन है और कितनी मुश्किल का काम है। २४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-24.txt तो अपने प्रति धारणाएं बना लेने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। और मुझे तो ये आश्चर्य होता है कि सब सहजयोगिनी जो हैं भारतीय भी हैं, तो हमसे कहती हैं,"माँ, हमारी शादी बाहर ही करा दो, अच्छा है।" तो मैंने कहा क्यों? कहने लगी,"अब हमें सहजयोगिनी होकर डूंडे नहीं खाने ।" आप सोच लीजिए। बड़ी मुश्किल से ये परदेसी लड़कियों को भुलावा दे देकर मैं यहाँ शादी कराती हूँ। टिक जाएं तो नसीब समझ लो! लेकिन वो चले जाते हैं परदेस, फिर सीख जाते हैं वहाँ । हमने देखा कि वे खूब बर्तन माँज रहा है! तो हमने कहा कि भाई कैसे क्या सीख गए? कहने लगे,"यहाँ सभी सीख जाते हैं।" खूप पतीले उठा रहा था हमारे साथ। और यहाँ अगर आप कहते तो बिगड़ता और कहता कि, "नहीं, मुझसे नही होने वाली ये सब बेकार की चीज़़ें।" वहाँ खूब मेरे साथ पतीले उठा रहा था। मेंने कहा,"उन लोगों को करने दो। तुम क्यों उठा रहे हो?" कहने लगे, "मुझे सीखना जो है।" जो आदमी वहाँ ये सब जानता नहीं उसे वहाँ 'निठल्लू' कहते हैं। उन लोगों से ये चीज़ जरूर हमें सीखनी है। नसीब से भाई हमारे यहाँ ये प्रश्न नहीं क्योंकि हमें तीन servants (नौकर) allowed (मिले) हैं । तो भगवान की कृपा से हमारे घरवाले तो कभी नहीं कर सकते। हमने ही उनको खराब कर रखा है। लेकिन तो भी मैं कहती हूँ कि कोशिश करते हैं । उनको जरा लगता है कि भई देखो सब लोग कर रहे हैं और हम नहीं कर रहे है, वो क्या कहेंगे। कोशिश करते हैं। इसलिए जो जो वहाँ जा रहे हैं, कृपया सब सीख कर जाएं। उसके बगैर आपका वहाँ मान नहीं होने वाला। तो ये चीज़ें हम लोग इस पर ले आते हैं कि आनन्द का स्रोत आत्मा है। और इस आनन्द को हमने पाया और वो हमारे रग रग में से बहना चाहिए। हमारे जीवन से बहना चाहिए, हमारे हर व्यवहार से बहना चाहिए। उसके लिए क्या करना चाहिए? र पहले, सबसे पहले हमें देना आना चाहिए जो आदमी दे नहीं सकता वो आनन्द का मजा नहीं उठा सकता क्योंकि जब तक चीज़ बहेगी नहीं तो कैसा मजा आएगा? जैसे एक मेंढक एक छोटे से तालाब में, जिसका पानी नहीं बहुता है, खाई में रहता है। उसी प्रकार अगर हम अपने जीवन को बिताएं, तो बिता सकते हैं। और हमारे भी शरीर पर जैसे कि एक मेंढक के शरीर पर भी काई जैसे जम जाती है, काई जैसा रंग ऐसा ही हमारे जीवन का रंग काई जैसा हो जाएगा। लेकिन जीवन का रस अगर हमें पाना है और उसका मजा उठाना है और आत्मा का आनन्द देखना है तो हमें चाहिए कि हम अपना दिल खोल दें और बहाएं इस आनन्द को । आप जानते हैं कि आपकी माँ की उम्र अब तिरसठ ( ६३) साल की हो गई है और हिन्दुस्तान के हिसाब से चौंसठ ( ६४) साल 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-25.txt जब तक देने की शक्ति आप के अन्दर है तब तक आप कभी भी बूढ़़े नहीं हो सकते । इसलिए देना सीरखिए। है २० ा के हो गए। लेकिन कितनी मेहनत करती है आपकी माँ। कितना सफर । करीबन हर तीसरे दिन सफर, दूसरे दिन सफर । उसके अलावा पहाड़ों जैसी कुण्डलिनी उठाना, बड़ी मेहनत... । फिर सारे news paper (अखबार) वाले कि कुछ हैं, की कुछ हैं। 'पूरी' समय मेहनत चलती है। हमारे साथ एक देवीजी आयीं । हम सें पाँच साल छोटी हैं और मोदी साहब पूरी समय कहें कि ये बुढ़िया देखो, बेचारी कितनी मेहनत कर रही है। मैंने कहा और मेरी बात नहीं कर रहे हो तुम? मैं उनसे पाँच साल बड़ी हैं। उनके लिए तो ये बुढ़िया बेचारी कितना चल रही है, ये बुदढ़िया बेचारी कितना कर रही है। मैंने कहा, मैं कौन हुँ?' मुझको देखो। वो तो सोचते ही नहीं कि मैं बुढ़िया हूँ। 1 क्योंकि अभी तक देने की शक्ति बहुत ज्यादा है, उसकी क्षमता है। जब तक देने की शक्ति आप के अन्दर है तब तक आप कभी भी बुढ़े नहीं हो सकते । इसलिए देना सीखिए, दिल खोल दीजिए तब आन्द देखिए कैसा बहेगा। सूक्ष्म में दिल खोल देना चाहिए, कहना चाहिए। लेकिन ये ही हमारी सभ्यता का तत्त्व है, कि दो । जितने, जितने अपने यहाँ लोग हो गए हैं बड़े बड़े, जिनके आख्यान आपने सुने, चाहे हरिश्चन्द्र हैं, जिनकी आपने बात सुनी होगी। ये जो कुछ भी आपने पढ़ा है उसमें ऐसे लोगों की महानता बताई है जो दिल खोलकर के देते थे । और वही आपको भी देना है। 1 इस संस्कृति की महत्ता जितनी भी गाई जाए वो कम है। लेकिन सिर्फ महत्ता से नहीं है, बो हमारे अन्दर आत्मसात होनी चाहिए। हमारे अन्दर उसका पूरा प्रवेश होना चाहिए। उसके अंग अंग में हमें मजा आना चाहिए। और हमें उससे खुश होना चाहिए। अभी भी जहाँ ये संस्कृति है वहाँ बड़ा मजा आता है । एक बार हम गए थे राहूरी के पास । वहाँ के बहुत से इंजीनियर थे बेचारे। कोई खास तनख्वाह नहीं। छोटे छोटे घर, जिनमें कि एक छोटी सी वो आईं। कहने लगी, "माँ, कल आप लोग हमारे यहाँ breakfast (नाश्ते) पर आइए।" हमने कहा "क्या कर रहे हो? तीस आदमी हैं हम लेाग। कहाँ आप करोगे?" "माँ आप आओ न एकबार। मान जाओ। हमें बड़ी खुशी होगी।" मुझे बड़ा force (आग्रह) किया। मैंने कहा, "क्या कर रही हो? तीस आदमियों का ब्रेकफास्ट (नाश्ता) कैसे बनाओगी तुम?" सुबह छः बजे पहुँचे, तो मंडप बना हुआ है ऐसा। सब लोगों ने मिलकर रात को तीन बजे से खाना बनाया। और 'इतनी' खुश! और इतना बढ़िया उन्होंने ब्रेकफास्ट (नाश्ता) खिलाया कि मुझे भूलता ही नहीं है। और पता नहीं कहाँ से बेंचेस लाकर लगाए, कहाँ से इन्तजामात किए? और इतनी खुश जैसे बड़ा भारी कोई बड़ा समारंभ हो गया हो। २६ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-26.txt जा ान ुन ३ः ये हमारा देश है। ये हमारी सभ्यता है। इसको मत छोड़िए। इसको फिर से पनपाना है, इसको बढ़ावा देना है। हमारा संगीत, हमारी कलाएँ, हमारा जो कुछ भी है, बड़ा गहन है। उसको समझिए क्या चीज़ है । इसकी गहनता में घुसें । मैं चाहूँगी आपसे जितना भी बन पड़े हमारे संगीत के बारे में, कला के बारे में जानने का प्रयत्न करें। जो अपनी कला को नहीं जानते, अपने संगीत को नहीं जानते, अपनी भारत माता को नहीं जानते, वो इस माता को कैसे प्यार कर सकते हैं? इसलिए तो हम झगड़ेबाजी करते हैं। आज सिर्फ आपसे बातचीत करनी थी, सो कर ली। अब मैं चाहती हूँ कि अगले समय मैं आऊँ तो आप लोग ये समझें कि हमारे क्या-क्या त्यौहार होते हैं, इन त्यौहारों में क्या-क्या होता है। हमारे यहाँ छोटी-छोटी दवाइयाँ हैं जो कि बहुत सालों से चली आ रही हैं । छोटी-छोटी बातें हैं जैसे केला खाया, उसके बाद चना खाओ या कोई चीज़ खाओ, उसके बाद पानी पिओ। धूप में से आए आप पानी मत पियो । आजकल लोग सब हिन्दुस्तान में बीमार हो जाते हैं। वजह क्या है? ये छोटे छोटे नियम जीवन के जो बनाए हुए हैं, समझदारी के वो हम नहीं मानते हैं। "इसमें क्या हो गया?" हो गया क्या? आप अस्पताल में जाएंगे और क्या होगा? अब जैसे अंगूर दिया इन्होंने समझ लीजिए। अब पहले हमने अंगूर खा लिया। उसके बाद हम लिम्का (जल पेय) नहीं पी सकते। अब तो पी लिया हमने, कहा चलो अब क्या करें? हमारी बात और है। लेकिन आप लोगों को नहीं करना। फल खाने के बाद पानी पी लिया, आइसक्रीम खाने के बाद कॉफी पी ली, या कॉफी के बाद आइसक्रीम खा ली, तब तो गए। ये छोटी-छोटी बातें हमारे जीवन की जो छोटी-छोटी चीजें, हरेक, जिसे कहते हैं कि हरेक अणु-परमाणु में जो हमारा जीवन बड़ा ही सुधड़, सुव्यवस्थित और ऐसा बनाया गया है जिससे कि मनुष्य हमेशा स्वस्थ रहे, उसकी तन्दुरुस्ती स्वस्थ रहे, उसका मन स्वस्थ रहे, उसका चित्त स्वस्थ रहे और जिससे अन्त में वो परमात्मा को प्राप्त करे। ऐसा सुन्दर सारा बनाया गया है। लेकिन उसको समझ लेना चाहिए। और जिस आदमी में चरित्र ही नहीं है वो आदमी किस काम का? लेकिन चरित्र को बढ़ावा देने वाली, उसको सजाने वाली, उसको पूरी तरह से प्लावित करने वाली जो शक्ति है, वो है आपकी सभ्यता । सभ्यता से ही आप जानते हैं कि "ये असत्य है, ये हमें शोभा नहीं देता।" आज की हमारी भेंट में हम चाहेंगे कि आप अपनी भारतीय संस्कृति जो है उसको सर-आँखों पर लगाकर मान्य करे, उसे स्वीकार करे और उसमें ही आप देखियेगा कि आपका चरित्र ऊँचा उठता जाएगा। २७ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-27.txt संस्कृति में कहा जाता है कि पटरी जो है वो माँ समान है । शिवाजी का चरित्र माना जाता है कि बहुत ऊँचा था। शिवाजी की न जाने कितनी ही बातें आपको बतानी चाहिए. लेकिन उनके चरित्र में माँ का बहुत बड़ा स्थान है। लेकिन एक बार सुनते हैं कि कल्याण के सूबेदार की बहु को उनके सरदार पकड़ कर लाए। वो बहुत लावण्यवती थी। और उसका बहुत खजाना (धन) था सब कुछ उठाकर ले आए। उसका सारा माल, उसके सारे जेवरात और ये और वो, काफी लोगों को पकड़ कर लाए । और जब शिवाजी दरबार में बैठे, उनके सामने पेश किया तो वो घूंघट तो नहीं पर नकाब पहने हुई थी। तो उन्होंने कहा कि आप अपना नकाब हटाइये। जब उन्होंने नकाब हटाया तो बड़े काव्यमय थे। बजाय इसके कि कहें की आप हमारी बहन हैं उन्होंने कहा कि 'अगर हमारी माँ आपकी जितनी खूबसूरत होती तो हम भी आपके जितने खूबसूरत होते।' उसके आँख से आँसू निकल आए । उसके बाद उनकी जितनी भी चीजें थी, जो जेवरात थे, हर चीज़, उनके हर आदमी को बाइज्जत कल्याण तक पहुँचाया। और बहुत नाराज हुए। ये हमारे देश का चरित्र है। राणा प्रताप एक बार जरा झुक गए क्योंकि बहुत परेशानी में थे । उनकी लड़की के लिए घास की रोटी बनाई वो तक एक बिड़ाल (बिल्ली) उठाकर ले गई। उसको देख करके.... कहाँ राणा प्रताप जैसा आज कोई आदमी है आपकी politics (राजनीति) में? सब चोर बैठे हैं। तो जब वो उठाकर ले गई बिल्ली तो राणा प्रताप के मन में आया और वो चिट्ठी लिखने बैठे शाहजहाँ को कि मैं आपकी शरणागत हूँ। जैसे उनकी बीवि ने पढ़ा उन्होने भाला उठाया और अपनी लड़की को मारने के लिए दौड़ी। तो कहने लगे, "ये क्या कर रही हो?" कहने लगी, "इसको ही मार ड़ालती हैं, जिसकी वजह से तुम ये सोच रहे हो ।" ये हमारी देश की औरतों का चरित्र है । और आजकल ये नमूने दिखाई दे रहे हैं। ये कहाँ से पैदा हुए यहाँ पता नहीं? लेकिन सहजयोगियों की औरतें इस तरह की होनी चाहिए और मर्द भी इसी तरह के होने चाहिए। संस्कृति में कहा जाता है कि परस्त्री जो है वो माँ समान है। कोई भी परस्त्री माँ समान है। और परकन्या बेटी समान है। तो हम जब शादी होकर यू.पी. में गए तो लोग कहने लगे ये तो असम्भव है। मेंने कहा,"हमने तो बहत ऐसे लोग देखे हैं। अधिकतर तो हम ऐसे ही लोग देखते हैं। यहाँ यू.पी. में क्या विशेषता है कि यहाँ असम्भव बात हैं? आपकी नजर इतनी खराब कैसे हैं? हमने तो जिन्दगी भर ऐसे ही लोग देखे हैं। ये कहाँ से ये लोग आ गए?" तो हुआ कि नवाब साहब कोई थे, उनकी १६५ बिवीयाँ थी और पता नहीं क्या क्या... ॐ. 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-28.txt तो और क्या होगा। उनके सामने ideal (आदर्श) ही ऐसे गन्दे हैं वहाँ तो और क्या होगा? कोई अच्छे ideal (आदर्श) तो दिखाई नहीं देते। जैसे लंडन में एक राजा साहब थे। उन्होंने सात बीवियों को मार ड़राला। तो वहाँ और क्या होगा? आजकल वहाँ औरतें मार रही हैं आदमियों को। तो अपनी संस्कृति जो है, बहुत महत्त्वपूर्ण है। और उस महत्त्वपूर्ण संस्कृति को समझना, उसकी गहनता को समझना, हरेक सहजयोगी का परम कर्तव्य है। जब आप लोग उसे समझेंगे, उस पर कुछ लिखेंगे तभी तो न हमारे परदेश के सहजयोगी भी उसको आत्मसात करेंगे। वो लोग छोटी छोटी बातें देखते रहते हैं और सारा वो जोड़ते रहते हैं अपने अन्दर में, मैं देखती हैं। लेकिन हम लोग ये नहीं सीखते क्योंकि न इधर के, न उधर के रहने की वजह से कोई चीज़ हम नहीं सीख पाते । आशा है अगली बार में आऊँ तो आप लोग आनन्द से आत्मा का प्रकाश सब ओर फैलाते हुए नजर आए। मेरी यही इच्छा है कि जो कुछ मेरे अन्दर है सब मेरे बच्चे पा लें । सब कुछ। और उसी प्रकार दे जैसे में दे रही हूँ। उसी मन से, उसी शुद्ध भावना से, उसी प्रेम के साथ सबको ये बाँटते रहें । यही मैं चाहती हूँ। दिल्ली, २५/३/१९८५ खाना बनाने का शौक होना चाहिए । हिए औरत को । हर चाज़़ का शौक होना चा ार ओ क हा 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-29.txt समर्पण मुंबई, ८ जनवरी ७७ ट स C back an you say how we should do it on your thinking that is not Sahaj. You cannot go saying that I don't do anything. You are all the time forward, moving forward saying how? कैसे आगे जानेका? इसी को स्वीकार कर लेना कि यह घटना चेतना की ओर होती है। और चेतना ही इसको घटित करती है। हमें पूरी तरह से प्रयत्न को छोड़ देना है। जब हम अकर्म में उतरते है तब यह चेतना घटित होती है। इसका मतलब है कि आपको कुछ भी नहीं करना है। यह बहुत कठिन काम है मनुष्य के लिए । कुछ नहीं तो विचार ही करता रहेगा। लेकिन यह घटना जब घटित होती है तो विचार भी डूब जाते हैं क्योंकि अभी तक जो भी आपने साधना देखी है उसमें आपको कुछ न कुछ करना पड़ता है। यह सब साधना आपको अपने से बाहर ले जातीं है। सहजयोग घटना है वह अन्दर ही घटित होती है। जब लोग पूछते हैं कि समर्पण कैसे करना है? सीधा हिसाब है, आपको कुछ नहीं करना है। समर्पित हो गए। मनुष्य इस गति में, इस दिशा में आज तक चला नहीं इसलिए उसके लिए यह नई चीज़ है और नया मार्ग है। इसमें मनुष्य कुछ नहीं करता। अपने आप चीज़ घटित हो जाती है क्योंकि उसने बहुत कुछ कर लिया है, बहुत कुछ दूर चला गया है अपने से । इसलिए उसे अन्दर खींचना मुश्किल हो जाता है। इसलिए किसी किसी की कुण्डलिनी एक क्षण में जागृत हो कर मनुष्य पार हो जाता है। और किसी किसी की जागृत हुई कुण्डलिनी भी फिर से लौटकर वापस चली जाती है। कुछ भी नहीं करना है यही समर्पण है। उस point तक अगर आप पहुँच जाएँ तो कुछ भी नहीं करना है, जहाँ नि:शब्द, निर्विचार । लेकिन यह भी करना ही होता है। मनुष्य ने यह भी करना ही होता है। इसलिए उसी पर छोड़ दीजिए जो इसे करेगा। आपको कुछ भी नहीं करना है। आप बस उसे छोड़ दीजिए । कोई पूछेगा कि आज हम नए आयें हैं तो क्या करें। सिर्फ आप इस तरह से हाथ मेरी ओर करिएगा । सीधे ऐसे करिए और घटना घटित हो जाएगी। और जिसकी घटित नहीं होगी, बाद में ये लोग जा कर के देख लेंगे आपको। आज इतने लोग यहाँ सहजयोगी है और एक-एक आदमी पार है। इतना ही नहीं लेकिन कुण्डलिनी शास्त्र में एकदम पारंगत है। एक- एक आदमी यहाँ जो बैठे हुए है कुण्डलिनी शात्त्र में पूरी तरह से पारंगत है और हजारों आदमियों की कुण्डलिनियाँ अपने उँगलियों के इशारे पे ३० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-30.txt सहजयोग में आपको कुछ-कुछ चीजें छोड़नी पड़ती हैं। द २ हट ० उठा सकते है, इतना ही नहीं, पार कर सकते हैं। आप पूछेंगे फिर यह करते क्यों नहीं? इसका कारण यह है कि सहजयोग के तरफ लोग बहुत आसानी से नहीं आते। मनुष्य के लिए बहुत मुश्किल है ऐसी जगह आना जहाँ ये कहा जाए तुम्हे कुछ पैसा नहीं देना है, कुछ करना नहीं है, चुपचाप बैठ जाओ । लेकिन जब डूबने लगते हैं तब फिर आते हैं। इसलिए सहजयोग जल्दी से नहीं होता है। क्योंकि सहजयोग में आपको कुछ-कुछ चीज़े छोड़नी पड़ती है। मतलब यह कि हमें कुछ करना है, हमें कुछ विचार करना है, हमें कुछ सर के बल खड़ा होना है, हमको कोई द्राविड़ी प्राणायाम करना है या हमें कुछ किताबें पढ़नी है या हमें कुछ ग्रन्थ रखने हैं या हमें कुछ मन्त्र कहने हैं। यह सब कुछ आप छोड़ दीजिए। और बाद में पार होने के बाद में आप अधिकारी हो जाते है। जो कुछ भी करना है फिर तब होता है। अकर्म ही, in action ही action में आता है। कर्म रख दिए जाते है। तो कैसे उसे आप देखिए, जो घटित होगा वह होगा, जो नहीं होना हो वह नहीं होगा। इसमें कोई compulsion नहीं, इसमें कोई argument नहीं । जिसका होना है उसी का होगा, जिसका नहीं होना है वह नहीं होगा। जिसकी रुकावट जो है वो है। उसको निकाल सकते है लेकिन उसको argue नहीं कर सकते । जिसके अन्दर जो रुकावट जेसे बन गयी, अब कोई कहता है साहब मैने तो कुछ किया नहीं है, है अन्दर रुकावट तो है। उसको निकालना चाहिए। सिर्फ अपना स्वार्थ देखिए। 'स्व' का अर्थ जानिए। इसमें हमारा कोई लाभ नहीं होने वाला। लाभ आपका ही होगा, पूरी तरह से। आप ही का पूरा लाभ होने वाला इतना समझ कर के हाथ उपर करें । अब जब घटना घटित होती है तो पहले कुण्डलिनी उठकर के आज्ञा चक्र को लॉघ जाती है। जैसे ही यह आज्ञा चक्र को लॉँघ जाएगी वैसे ही आपको निरविचार, समाधि ज्ञान आदि आ जाएगा। लेकिन समाधि का अर्थ ये नहीं कि बेहोश होना, ट्रान्स में जाना आदि। तब आप पूरी तरह चेतन अवस्था में है। पूरी तरह से सतर्क है। लेकिन आप निर्विचार में है, शांति में है। लेकिन आप पूरी बात सुन रहे हैं। अन्दर से कोई विचार आपके अहंकार, प्रति अहंकार, ego, superego से नहीं आनेवाला। आप एकदम जिस तरंग और जब कुण्डलिनी आपके ब्रह्म- रंध्र को छेद देती है तब आपके अन्दर से यह चेतन्य की लहरियाँ जिसको शंकराचार्य ने बताया है वो बहेंगी। बिलकुल सीधा हिसाब है। इसमें करना कुछ नहीं है जैसे एक जलता हुआ दीप दूसरे दीप को एकदम जलाकर के सीमा से असीम में छोड़ देता है। उसी प्रकार यह घटित होता है। इसमें बुद्धि का कोई भी चिन्ह नहीं । 1 ईश्वर आपको आशीर्वादित करें। ३१ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-31.txt समस्याएं कम हो रही है। हमे जातीयता पसन्द नहीं है। भारतीय सहजयोगी चाहते हैं कि जाति प्रथा समाप्त हो जाए। क्योंकि यह प्रथा आत्म-विनाशक है। अत: हम अपने अन्दर ही देखने लगते हैं कि मेरे लिए, मेरे परिवार के लिए, देश के लिए तथा पूरे विश्व के लिए घातक क्या है। आपके रचनात्मक जीवन के ठीक विपरीत इन सब दुःस्साहसिक कार्यों को आप समझने लगते हैं और इन्हें रोक सकते हैं। यह तभी संभव है जब अन्तर्दर्शन तथा समर्पण करने का प्रयत्न करे और देखे कि क्या थरी श्री बुद्ध पूजा का शेष भाग... आप में वह गुण हें। अब कुण्डलिनी ने आपकेसभी सुन्दर गुणों को जागृत कर दिया है। ये सारे गुण आप में अक्षत (सही-सलामत) थे। जागृत होते हुए कुण्डलिनी नेइन सभी गुणों को भी जागृत कर दिया है। सहजयोग इतना बहुमूल्य है कि मानव को बहुत पहले से इसका ज्ञान हो जाना चाहिए था। यह केवल परमात्मा के बारे में बात करना या मात्र यह कहना ही नहीं कि आपके अन्दर देवत्त्व निहित है। यह तो इनकी प्रभावकारिता है। आपको किसी विज्ञान की आवश्यकता नहीं। जब भी अपनी आपको कोई समस्या हो तो एक बन्धन दे दीजिए। यह इतना सुगम है। विज्ञान से होने बाले हर कार्य को आप सहजयोग से कर सकते हैं। हम कम्प्यूटर भी हैं। आपको मात्र अपनी गहिनता को विकसित करना होगा। आप अब ठीक रास्ते पर हैं । हमें इस विनाशकारी आधुनिक विज्ञान की ज्योतिर्मय चेतना आवश्यकता नहीं है। आप में आत्म सम्मान का होना आवश्यक है। आपको समझना है कि आप एक सहजयोगी हैं और आपको वह अवस्था प्राप्त करनी है जहां आप में वह सब कुछ करने का से सारी मूर्वता सामर्थ्य हो जो विज्ञान कर सकता है। आप सब शक्तियों के अवतार बन जाइए। कुछ लोग आ कर कहते हैं "श्री माताजी हम अपना हृदय नहीं खोल सकते।" क्या आप करूणा का अनुभव नही को देखिए तथा कर सकते? मैंने देखा है कि लोगों का हृदय कुत्ते-बिल्लियों के लिए तो खुला होता है पर अपने बच्चों के लिए नहीं। यही वह स्थान है जहाँ आत्मा का निवास है और जहाँ से यह अपना प्रकाश फेलाती है। यही वह प्रथम स्थान है जहां प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति का प्रकाश आप देख पाते हैं। हो सकता है। इसका आनन्द आप में केवल अहं हो, आत्म सम्मान न हो और इसी कारण आप हृदय को न खोल पाते हों। श्री बुद्ध अहं का नाश करने वाले हैं। हमारी पिंगला नाड़ी पर विचरण करते और बस जाते हैं। हमारे अहंको वेसंभालते हैं और हमारी दायीं ओर की पूर्ति करते हैं। दायी ओर को हुए वे हमारे बाईं लीजिए। झुका व्यक्ति न कभी हंसता है न मुस्कराता है। परन्तु बुद्ध को मांसल (मोटा) तथा हँसता हुआ दिखाया गया है। हँसने मात्र से वे दायी ओर को सम्भालते हैं। वे अपना मजाक उड़ाते हैं ओर सारा ड्रामा देखते हैं। अपनी ज्योतिर्मय चेतना से सारी मूर्खता को देखिए तथा इसका आनन्द लीजिए। जैसे एलिजाबेथ टेलर को विवाह कर के मधुमास (हनीमून) पर जाते देख कर, ऐसे अशुभ व्यक्ति पर, मोहित होने के स्थान पर उसकी मूर्खता को देखें । वस्तुओं के प्रति आपकी प्रतिक्रिया आपके चित्त की अवस्था पर निर्भर करती है। यदि यह कोई दैवी वस्तु है तो आपका चित्त भाव-विभोर होना चाहिए । परन्तु यदि यह कोई मूर्खतापूर्ण या हास्यप्रद चीज़ है तो आप इसके तत्त्व को देख सकते हैं। अपने चित्त से आप सत्य से संबंधित हर चीज़ के तत्त्व को देखें। सत्य की तुलना में यह मूर्खतापूर्ण या मिथ्या या पाखण्ड हो सकती है। पर यदि आप सहजयोगी हैं तो आप में वह बात देखकर उसका आनन्द लेने की योग्यता होनी चाहिए। एक आयु तक बच्चे ऐसा करते हैं। आपकी प्रतिक्रिया आपके प्रकाशित चित्त पर निर्भर करती है। एक प्रकाशित चित्त किसी मूर्ख, भ्रमित तथा नकारात्मक चित्त से भिन्न प्रतिक्रिया करता है। जो हम है उसे स्वीकार करना चाहिए. और हम आत्मा हैं। इ२ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-32.txt श्री बुद्ध की चार बातें आप सब को प्रात:काल कहनी चाहिएं। प्रथम- "बुद्धं शरणम् गच्छामि":- अर्थात मैं स्वयं को अपने प्रकाशित चित्त के प्रति समर्पित करता हूँ फिर उन्होंने कहा "धर्मम् शरणं गच्छामि" :- मैं स्वयं को धर्म के प्रति समर्पित करता हूँ। यह कोई मिथ्या धर्म नहीं जो विकृत हो गए इसका अर्थ है कि मैं स्वयं को अपने अन्तर्जात धर्म (धर्मपरायणता) के प्रति समर्पित करता हूँ । तीसरी बात जो उन्होंने कही "संघं शरणम् गच्छामि:'"। मैं स्वयं को सामूहिकता के प्रति समर्पित करता हूँ। पिकनिक आदि के बहाने आप कम से कम महीने में एक बार मिले । आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। लघु-ब्रह्माण्ड विशाल- ब्रह्माण्ड बन गया है। आप विराट के अंग-प्रत्यंग है। इस बात का ज्ञान आपको होना चाहिए, इस प्रकार कार्य होते हैं मा तथा हम नकारात्मक तथा सकारात्मक, अहंकारी तथा नम्र व्यक्तियों को पहचान सकते हैं । हम वास्तविक सहजयोगियों को तथा सहजयोगी कहलाने वाले व्यक्तियों ्ं को पहचान सकते हैं तथा मिथ्या लोगों को त्याग देते हैं। सामूहिक हुए बिना आप सामूहिकता के महत्त्व को कभी नहीं समझ सकते। सामूहिकता आपको इतनी शक्तियाँ, इतनी सन्तुष्टि और आनन्द प्रदान करती है कि व्यक्ति को सहजयोग में सामूहिकता पर सर्वप्रथम ध्यान देना चाहिए । किसी चीज़ की कमी हो तो भी आप बस सामूहिक हो जाइए। सामूहिकता में आपको अन्य किसी की भी आलोचना नहीं करनी चाहिए, न उनको गाली देनी चाहिए और न उनके दोष देखने चाहिए। अन्तर्दर्शन कीजिए कि भी जब सभी लोग आनन्द ले रहे हैं तो मैं ही क्यों बैठकर दूसरों के दोष खोज रहा हूँ। यदि आप दूसरों के स्थान पर अपने दोष खोजने पर चित्त लगा दें तो मुझे विश्वास है कि आप कहीं अधिक सामूहिक हो जाएंगे। सहजयोग अति व्यवहारिक है क्योंकि यह पूर्ण सत्य । अत: अपनी सारी शक्तियाँ सूझ-बूझ और करूणामय प्रेम के साथ आपको अपने विषय में आश्वस्त होना है और जानना है कि हर समय परमात्मा की सर्व व्यापक शक्ति उन्नत होने में आपकी सहायता, रक्षा मार्गदर्शन, पोषण तथा देखभाल कर रही है। परमात्मा आप पर कृपा करे। ३३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-33.txt आदिशक्ति पूजा परमपूज्य श्री माताजी निर्मलादेवी का उपदेश जादिशक्ति पूजा जून माह की ६ तारीख को कबेला, इटली में साक्षात श्री माताजी की चरण कमलों में समर्पित की गई। शाम के करीब सात बजे श्री माताजी सहजी-जन के बीच पधारी थीं और लगभग डेढ़ घंटे तक विराजमान रहीं। इस बीच श्री माताजी की चरण कमलों में पूजा अर्पित की गयी। श्री माताजी के दरबार में उपस्थित लोगों को पूजा के दौरान अत्यन्त आनन्द का अनुभव होता रहा। वहाँ उपस्थित सहजी-जन ने शान्ति का अनुभव किया। पूजा के उपरान्त जब श्री माताजी कबेला में स्थित घर पहुँची तब उन्होंने यह कहा कि 'यह एक बहुत ही मनोरम पूजा थी। आम् दिशक्ति का प्रतिम्बिब ही आपके अन्दर कुण्डलिनी है। जब भी इस सृष्टि तथा अन्य सष्टियों की रचना हुई वो आदिशक्ति का ही कार्य है। अब बहुत सारे लोग कहते हैं कि भगवान एक है और ये सत्य है कि भगवान एक ही है-परमात्मा, लेकिन उनके पास अपनी शक्तियाँ है। जिन्हे वे साकार कर सकते हैं, किसी भी व्यक्ति में और अपने आपको प्रत्यक्ष प्रकट कर सकते है। तब सब से पहले उन्होंने आदिशक्ति की रचना की । जब वह प्रकट हुई, एक ध्वनि निकली जिसे हम 'ॐ' कहते हैं। लोगों से या जो आप कहना चाहते हैं, वह आदि ध्वनि और ये तीन शक्तियाँ-उस ध्वनि से निकली। जैसे आ,ऊ.मा (अ ऊम) ॐ (ओम) आदिशक्ति ही है जो परमात्मा की इच्छाशक्ति का साकार रुप धारण करती है। परमात्मा की इच्छाशक्ति उनकी कृपा से होती है और स्वयं को व्यक्त करने के लिए, स्वयं को प्रकट करने के लिए, स्वयं को प्रतिम्बिबित करने के लिए । मैं कहँ तो वे अपने अकेलेपन से थक गए होंगे इसलिए उन्होने एक साथी का विचार किया होगा जो उनकी इच्छाओं को प्रकट कर सके। इस प्रकार उनकी शक्ति उनसे अलग हुई और उनकी कृपा, उनकी सृष्टि रचना को, इच्छा शक्ति को साकार स्वरुप दिया। संस्कृत में इसे 'चित्विलास' कहते हैं। आदिशक्ति का उपयोग करना। चित्त ही ध्यान है। चित्त स्वयं में ध्यान है। चित्त स्वयं में आनन्द हैं और उस चित्त के आनन्द को प्रकट करने के लिए सभी सृष्टियों की रचना की गई, पृथ्वी माता की रचना की गई, ये सब सृष्टि की रचना की गई। सभी जानवरों की रचना की गई, सभी मनुष्य की रचना की गई और सभी सहजयोगियोंकी रचना की गई। ये सारी सृष्टि इसी तरह बनी। पत अब इस समय, कोई पूछ सकता है, "क्यों उसने सीधे मनुष्य की रचना नहीं की?" वह तो परमात्मा का संकल्प था-सिर्फ मनुष्य की रचना करने का लेकिन आदिशक्ति माँ होने के कारण उसका रुप प्रकट करने का अपना ही तरीका था। उसने सोचा कि परमात्मा को अपना चेहरा देखने के लिए उसे शीशों की रचना करनी होगी। ताकि वे अपनी प्रतिमा देख सकें, वे स्वभाव देख सकें और इस तरह से इस लम्बे फैलाव का विकास हुआ। ये विकास इस तरह करना पड़ा। क्योंकि उन्हे पता होना था कि वे कहाँ से आए है। हमें जानना है कि हम प्रकृति से आए हैं। और प्रकृति को भी ये जानना चाहिए कि वह पृथ्वी माता से आई हुई है और पृथ्वी माता की अपनी कुण्डलिनी है और वह भी सिर्फ निर्जीव मिट्टी नहीं है, वह जानती है, वह सोचती है, वह समझती है और वह व्यवस्था करती है। (कबेला में दिया गया भाषण, ८-६-१९९६, सहज पथ न्यूजलेटर) ह र ८ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-34.txt NEW RELEASES ****X- ** **** ** CODE DVD 1) Mahashivratri Puja 218 6th Mar' 2008 - 8th - 9th Mar' 2008 219 2) Shiv Puja (Part I & II) 3) Birthday Celebration 4) Ramnavmi Puja - 18th - 21st Mar' 2008 220 आ 3T -13th Apr' 2008 221 5) Easter Puja - 23rd Mar'2008 222 224 6) श्री महाकाली पूजा (भाग १ व २) -Ist Apr' 1986 225 7) Mahadevi Puja (Part I & II) -21st Dec' 1986 म 226 7) Christmas Puja (Part I& II) - 25th Dec' 1986 227 8) Guru Puja Ist Aug 1999 **-*X***- ****X X ********** ****X-* BHAJAN ACD/ACS CODE 1) Mhari Pyari Nirmal Maa Padharo Mhare Des 136 Rajsthan Collectivity - Mrs. Kirti Vispute 2) Manhi Maay 137 138 3) Devotion Ajit Kadade ****-******* ****X- **** *-*-********* ** SPEECH ACD/ACS CODE 1) Public Program 31st Dee' 1983 367 -Ist Aug' 1999 2) Guru Puja 195 3) Shri Rajlakshmi Puja 149 -7th Dec' 1996 *** ****X-***X-***** 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_IV.pdf-page-35.txt जिस में सहजयोग का कार्य करने की इच्छा है, मनुष्य में दीप बनने का सामर्थ्य है, जिस मनुष्य ऐसे ही लोगों की पटमात्मा मदद करेंगे और का परमात्मा मदद कटग 3 ऐसे ही दीप जलाएंगे जिनसे इस पूरे विश्व में प्रकाश फैलेगा। ज