चैतन्य लहरी सितम्बर-अक्तुबर २००८ ४। ी ब ४० ७ हिन्दी ०ु कुा ३े औी र ে ९ २ प्रकाशक निर्मल ट्राँसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८ फोन : ०२०-२५२८६५३७, २५२८६०३२ े की ।।ॐ ह३ि में इस अंक श्री गणेश की शक्ति दुष्टों का संहार कर सकती है १. ४ २ नवरात्री पूजा का संदेश ८ ३. कार्तिकेय पूजा १० ४. कुण्डलिनी और श्री गणेश पूजा -- १८ दिवाली पूजा --- ५. ३१ सो श्री गणेश की शक्ति दष्टों का संहार कर सकती है। ওु कळवे, ३१ दिसम्बर १९९१ ० र পड आजहम लोग यहाँ पर पहले श्री गणेश, बाद में देवी की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। श्री गणेश को इस महाराष्ट्र में विशेषतः बहुत माना जाता है। यहाँ पर स्वयंभू अष्टविनायक है। अब लोग ये भी कह सकते हैं कि गणेश नाम की कोई चीज़ नहीं थी और ये भी कह सकते हैं कि ये स्वयंभू अष्टविनायक नहीं हैं। लेकिन जब आप लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करते हैं, जब आप चैतन्य को प्राप्त करते हैं, तो आप पूछ सकते हैं कि क्या ये स्वयंभू है? क्या ये वास्तविक पृथ्वी तत्त्व ने बनायी चीज़ है? गणेश के अनेक चमत्कार सहजयोग में हुए हैं। विशेषकर के हमारे फोटोग्राफ है, अगर आप उन्हें देख लीजिए तो हैरान हो जाइयेगा। किस तरह से उन्होंने अपने दर्शन दिए हए हैं। गणेश की विशेषता ये है कि वो हर चक्र पर विराजमान हैं। सबसे पहले गणेश की ही स्थापना की जाती है और गणेश जो है वो पवित्रता को फैलाने के लिए संसार में हैं, जिससे कि पहले सारा संसार पवित्र हो जाए सबसे बड़ी चीज़ है पवित्रता। अगर पवित्रता नहीं रहेगी तो कोई भी सृजन नहीं हो सकता। समझ लीजिए, अगर कोई पेड़ है और उसके आसपास का वातावरण दूषित हो जाएगा तो वो पेड़ मर जाएगा। इसी प्रकार इस सारी सृष्टि का जो वातावरण है, उसे पूर्णतया शुद्ध करने के लिए ही श्री गणेश की स्थापना की गयी थी। आजकल के इस वातावरण में लोग समझ नहीं सकते हैं कि पवित्रता चीज़ क्या है? और पवित्रता का अर्थ क्या है? यही गणेश आगे जाकर के आपके आज्ञा चक्र पर ईसा मसी के रूप से प्रकट हुए थे इसलिए ईसा मसी ने भी सबसे ज्यादा पवित्रता का महत्त्व बताया कि आपकी आँखे तक पवित्र होनी चाहिए. क्योंकि आज्ञा चक्र पर है। आँखों तक में पवित्रता होनी चाहिए। अगर आप की आँखो में पवित्रता नहीं है तो फिर आप किसी भी तरह से पवित्र नहीं माने जाएंगे। लेकिन इसका ये मतलब 1 ह । नहीं कि आप अपने से कहें की हम में वो खराबी है, ये खराबी है। किंतु श्री गणेश को अगर हम मानते हैं, पूजा करते हैं, तो उनके गुण भी हमारे अन्दर आने चाहिए। पहला तो उनका गुण है पवित्रता। अब इस पवित्रता को हम कब, किस तरह से पा सकते हैं। कहने से नहीं हो सकता। किसी आदमी से कहा जाए कि तुम पवित्र हो जाओ, तो नहीं हो सकता। गंगाजल से नहाने से भी मनुष्य पवित्र नहीं हो सकता। तो ये पवित्रता आने के लिए क्या करना चाहिए? इस के लिए आपकी कुण्डलिनी का पहले जागरण होना चाहिए। जब जागरण हो जाएगा तभी समझना चाहिए कि धीरे-धीरे ये जो कुण्डलिनी है, ये सब चक्रों को स्वच्छ कर देगी। लेकिन वहाँ पर भी श्री गणेश जी का कार्य है क्योंकि ये चैतन्य है और वो चैतन्य स्वरूप श्री गणेश आप के हर चक्र को भी साफ करते रहते हैं। और अंत में जाकर के सहस्रार में भी श्री गणेश, आप जानते है, वो सदाशिव के गोद में बैठे है। ये जो भी चीजे हम लोगों को लगती हैं ये पौराणिक है, mythological है, इस सब की सत्यता सहजयोग में आप प्राप्त कर सकते हैं। पहले आप को 'केवल सत्य' को प्राप्त करना चाहिए, absolute truth (एकमेव सत्य)। उसके बाद आप कोई भी सवाल पूछे, उसका जवाब सही मायने में आपके ऊँगलियों के उपर आ जाएगा। आप इससे जानेंगे कि सत्य क्या है? किसी भी चीज़ को कह देने से कि असत्य है, वो चीज़ असत्य नहीं होती । उसकी खोजबीन करनी चाहिए। ये बहत गहरी चीज़ है और श्री गणेश का कार्य अत्यंत अत्यंत गहरा है। और वो एक चिर बालक है। उनमें जो अबोधिता है, innocence है वो एक चिर बालक है, वो बालक स्वरूप है। ने s1s22 1 if you have to enter into the kingdom of god, you have to become like children, cia बच्चों में निश्चल स्वभाव होता है वो हमारे अन्दर आना चाहिए। लेकिन वो जबरदस्ती करने से, या रोज का अभ्यास करने से नहीं आएगा। अगर आप जबरदस्ती करेंगे तो आपका अहंकार बढ़ जाएगा। अगर आप ये कहेंगे कि हम पापी हैं, हमने बड़े पाप किए हैं, हम बडे खराब हैं तो आपका प्रति अहंकार बढ़ जाएगा। दोनो तरह से एक अलग बात हुई। तो उसके लिए करना क्या चाहिए? करना ऐसा चाहिए कि अपनी कुण्डलिनी का जागरण पहले करना चाहिए। कुण्डलिनी के जागरण से आप दूसरे आयाम में, उसके डायमेन्शन में उतरते हैं। उसके डायमेन्शन में उतरते ही धीरे-धीरे अन्दर से ही स्वच्छता होती रहती है। ये अनादिकाल से कुण्डलिनी आपके अन्दर स्थित है और ये उसी समय के इंतजार में है, उसी के लिए बैठी हुई है कि जिस वक्त आप को वो व्यक्ति मिल जाए, जो आपकी कुण्डलिनी का जागरण कर सके, क्योंकि ये आपकी माँ है और आपकी अपनी वैयक्तिक माँ है। वो आपके बारे में सब कुछ जानती है। और जिस प्रकार आप की माँ ने आपको जन्म देते वक्त सब तकलीफें खुद उठाई, वो कुण्डलिनी ही सारी तकलीफें उठा लेती है और आप इस आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होते हैं। आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होने के बाद आप को सिर्फ इतना करना है कि अपने इस योग को जो आपका परम चैतन्य के साथ हुआ है, उसके साथ एकात्मिता स्थापित करें । चारों तरफ हम देखते हैं, फूल देखें कितने सुन्दर हैं। सृष्टि कितनी सुन्दर है, पर हम कभी सोचते नहीं कि ये कैसे बनीं? इस को कौन बनाता है? एक फूल के पौधे एक ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। कोई पेड़ एक ही ऊँचाई तक बढ़ता है। ये सारा कौन करता है? इसे आपको पातंजलि में अगर आप देखने जाएं तो लिखा हआ है कि 'ऋतंभरा प्रज्ञा' । इसका नाम ऋतंभरा रखा लेकिन यही ब्रह्मचैतन्य है, ये परम चैतन्य है जो चारो तरफ फैला हुआ है और जिसके लिए आदि शंकराचार्य ने बताया हआ है कि 'सलीलं सलीलं' । ठण्डी ठण्डी हवा इसकी बह रही है। बाइबल में भी इसको 'कूल ब्रीज ऑफ द होली घोस्ट कहा है। इस प्रकार की कुण्डलिनी हमारे अन्दर है और वो बिलकुल व्यवस्थित रूप से इसी इंतजार में है कि कब आप का पुर्नजन्म हो। अभी तक अमीबा से इस स्थिति में हम आ गए इन्सान बन गये। लेकिन इस से कोई न कोई उच्च स्थिति जरूर होनी चाहिए। अगर हम सत्य को प्राप्त किए होते तो आजकल के ये जो झगडे हैं ये नहीं रहते। हम सब एक मन से, एक विचार से, एक सत्य के साथ जीते हैं। लेकिन ये जो झगड़े हो रहे हैं इसकी वजह यही है कि हम लोगों ने अभी तक उस केवल सत्य को प्राप्त नहीं किया। और जब तक हम उस सत्य को प्राप्त नहीं करेंगे तब तक उत्क्रांति याने की evolution की जो चरम सीमा है, उसे हमने प्राप्त नहीं की। उसे प्राप्त किए बगैर हम कभी भी शान्ति से, समाधान से, सुख-चैन से रह नहीं सकते। संसार के जितने भी प्रश्न हैं अधिकतर मनुष्य ने ही खड़े किये हुए हैं। इस मनुष्य के परिवर्तन के लिए श्री गणेश का बहुत कार्य है। बड़ी मेहनत करते हैं। इनके गण हैं, इसलिए उनको गणपति कहा जाता है और ये हर समय माँ की सेवा में लगे रहते हैं और हर जगह, जहाँ जरूरत है वहाँ तुरंत दौड के जाते हैं। उस स्तर को स्थापित कर सकते हैं जिसकी महिमा शास्त्रों ने गाई हुई है। कोई कठिन बात नहीं है। और इसके लिए सिर्फ हमें सज्ज होना है। हमें शुद्ध इच्छा रखनी चाहिए कि हम इसे प्राप्त करेंगे। ये कोई झूठी बात नहीं है, ये कोई ऐसी बात नहीं है जिससे किसी को भुलावा डाला जाए, किंतु ये बात सत्य है और इसे हमें प्राप्त करना चाहिए। हम श्री गणेश को नमस्कार करते है । लेकिन ये नहीं सोचते कि श्री गणेश क्या है? हमारे अन्दर कहाँ स्थित हैं? क्या कार्य करते हैं? और इन से हमें क्या क्या प्राप्त करना है ? दूसरी चीज़, हमें प्राप्त करनी है वो है सुबुद्धि , जिसे wisdom कहते हैं। श्री गणेश में इतनी सुबुद्धि और इतना प्रेम है कि वो सी ४ जानते हैं कि आप लोग गलती कर रहे हैं, वो जानते है कि आप में कुछ दोष है, लेकिन छोटे बच्चे जैसे क्षमा कर देते हैं हर एक चीज़ को। उनको मालूम नहीं किसी से नाराज होना। इसी प्रकार वो आपको बहुत क्षमा करते हैं। किसी हद तक काफी क्षमा कर देते हैं। पर जब आप हद से गुजर जाते हैं तब वो जरूर नाराज हो जाते हैं। तो उनको सिर्फ मानना, मंदिरों में जाना और उन पर पैसे चढ़ाना, उनको पैसे-वैसे कुछ समझ में नहीं आता। अगर कुछ चढ़ाना है तो अपने हृदय को चढ़ाना होगा। और उस गणेश को अपने हृदय में बसाना होगा। जब तक वो हमारे हृदय में नहीं आएंगे हमारा जीवन पवित्र नहीं होगा और उस पवित्रता के कारण जो हमें आशीर्वाद मिलने है वो नहीं मिलते। इसके अलावा उन में ये भी शक्ति है कि वो दुष्टों का संहार कर सकते हैं। अगर कोई आपको तंग करे, तकलीफ दे तो वो आप के आसपास लगे रहते हैं। बड़ें चमत्कार सहजयोग में हुए हैं। अनेक लोगों ने बताया कि न जाने उनके अनेक प्रश्न थे वो एकदम से हल हो गए। श्री गणेश जी इस तरह से काम करते हैं कि समझ में नहीं आता वो किस तरह से काम करते हैं? और उस में कोई भी त्रुटि नहीं रह जाती। इतने बड़े श्री गणेश अगर हमारे साथ हैं तो फिर हमें डरने की क्या बात है, घबराने की क्या बात है। सिर्फ हमें गणेश को वरण करना है और अपने अन्दर उन्हें स्थापित करना है। ये चीज़ कितना भी समझाने से नहीं होगी ये तो जब आप महसूस करेंगे इसको, उसके बारे में जब बोध होगा आपको, तब आप समझेंगे कि श्री गणेश कितने महत्त्वपूर्ण है । यहाँ जो विदेशी लोग बैठे हुए हैं उन्होंने श्री गणेश का 'ग' भी नहीं सुना । उनको मालूम भी नहीं था, पर ये हर समय श्री गणेश की स्तुति करते है क्योंकि उनकी स्तुति करने से उनको अनेक लाभ हुए है और आप लोग जो यहाँ आए हुए है सब आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हों और उस श्री गणेश को हृदय में रखो जिसकी आज पूजा होने वाली है। ति र भी ३) ह ि ं ২म पू. पूजा किस प्रकार से करनी चाहिए? पूजा करने का दृष्टिकोण इस तरह का होना चाहिए कि आप देवी माँ से मोहित हो गये हैं और आप उनकी प्रशंसा कर रहे हैं ये बुद्धि की कसरत नहीं। आप खुश करने के लिए ये सब बातें बोल रहे हैं। जैसे आप किसी पर प्रेम कर रहे हों और उसे खुश करने के लिए बोल रहे हैं उसी प्रकार आप देवी से बोल रहे हो। यह बातें खुद को व्यक्त करने के लिए संतों ने लिखी थी कि 'आप देवी हो, ऐसी हो, वैसी हो।'मुझे मिलने वाले खत भी कुछ इसी प्रकार के होते हैं। उनकी भावना पूरी तरह से व्यक्त करने वाले पर ये कोई भाषण देने का कोर्स तो नहीं। ये हर एक की दृष्टि की समझ है। तो पूरी भक्ति में ये सब करना चाहिए। पूरी विनम्रता से आपके हृदय में इसको समझिए। ये प्रार्थना जैसे व्यक्त स्वरूप की है। ये प्रार्थना है। ये प्रार्थना होनी चाहिए। ये कोई बुद्धिवादी लोगों की चर्चा नहीं। ये देवी की प्रार्थना है। आपका दृष्टिकोण इस तरह से तेयार नहीं हुआ तो आप ज्यादा दूर तक नहीं जा पाओगे। हृदय से, पूरी तरह से समर्पित होना चाहिए । अपना हृदय खोलो । पूरे हृदय से प्रार्थना कीजिए । विश्लेषण करने जैसा वहाँ कुछ भी नहीं है। हृदय से अगर आप कुछ करोगे नहीं तो आप जो भी बोलोगे वह सब ऊपरी होगा। अपना हृदय प्रकाशित करने के लिए देवी की प्रशंसा करनी चाहिए और वो इस तरह से व्यक्त करो कि आपको ये सब दूसरों को कहने की इच्छा हो। ये सब बाते कहते समय आपको उनसे एकरूप होना चाहिए । ८ श्री माताजी द्वारा दिया गया नवरात्री पूजा का संदेश १९८८, प्रतिष्ठान आप जब फोटो के सामने बैठकर ध्यान करते हैं तब फोटो को अपने हृदय में रखने का प्रयास करें, 'माँ, मैं आपसे प्रेम करता हूँ। कृपा कर े के मेरे हृदय में आईये' ऐसा कहो। सब बुद्धि इस हृदय में होती है। सब कर्तृत्व है। हृदय में ही सब कुछ उत्पन्न होता है। पर अगर आपने हृदय को बंद किया तो दिमाग विचलित होता है और शर রর বয় ाम आप हृदय के बाहर जाते हो। हृदय जो आत्मा का सिंहासन है, वो सब पर काबू रखता है। स्वयंचालित म जास स्था, पॅरासिंपथेटिक, उत्क्रांति ज्ञान सब ए सिंपथे टि क , इसलिए सबसे पहली बात कुछ अपने हृदय को तैयार करो। का कार्तिकेय पूजा २१/१२/१९९६, मुंबई अनुवादित ४] स ह आ. जाजआप सब लोगों ने महालक्ष्मी पूजा करने की इच्छा व्यक्त की है। परंतु इस महाराष्ट्र में महालक्ष्मी की पूजा तो पहले से ही हो रही है और वे स्वयं यहाँ प्रकट हुई हैं। परंतु मुझे यहाँ सबको कार्तिकेय के बारे में बताने की आंतरिक इच्छा हुई क्योंकि उन्होंने महाराष्ट्र में ही जन्म लिया और वहीं ज्ञानेश्वर स्वयं कार्तिकेय ने इस महाराष्ट्र में जन्म लिया और इतनी सुंदर 'ज्ञानेश्वरी' तथा 'अमृतानुभव' जैसे दो बहुत बड़े महान ग्रंथों की रचना की। श्री ज्ञानेश्वर ही कार्तिकेय थे या नहीं, अगर यह आप लहरियों पर देखें तो तुरंत ही आप स्वयं को महासागर में, आनंद की लहरों में पाएंगे। इतनी बड़ी बात आज तक मैंने नहीं बताई इसका कारण महाराष्ट्रियन लोगों की प्रवृत्ति ही है। शायद इसके पहले अपने यहाँ राजकीय लोग भयंकर रहे होंगे। उनकी भयानकरता और गन्दगी पूरे महाराष्ट्र में प्रसारित हो गई होगी और ये समझकर की कार्तिकेय भी महाराष्ट्र के हैं, खुद को ही कार्तिकेय समझ लेना यह महाराष्ट्रियन लोगों की मानसिकता बन गई है:हम तो कुछ विशेष हैं। थे। आज तक मैंने कुछ नहीं बताया क्योंकि महाराष्ट्र के लोग इस पर विश्वास नहीं करते। अब इन्होंने सच ही कहा कि चालीस आई.ए. एस. अधिकारी आए थे और मैंने आते समय वहाँ पुलिस के तीन देखे। मैंने कहा, ये कौन आए थे?' तो उन्होंने कहा कि खुद चीफ सेक्रेटरी आए थे वहाँ के गव्हर्नर ने भी मुझे बुलाया कहा, 'माताजी, मैंने आपको सम्मानित करने के लिए आमंत्रित नहीं किया होता तो ये लोग मुझे उठाकर फेंक देते।' इतनी समझ वहाँ के लोगों में है। वहाँ ज्ञानेश्वर जी ने जन्म नहीं लिया, सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों जन्म लिया- यह अब मेरी समझ में आ रहा है। तेईस साल में ही यह कहर समाधि ले ली कि रहने दो बाबा! यह महाराष्ट्र।' घुडसवार खड़े और महाराष्ट्र में संतों को जितनी तकलीफ हुई, उनको परेशान किया गया, उतना कहीं भी, किसी भी संत को परेशान नहीं किया १० गया। हमारे यहाँ यह समझते हैं कि इसी में (सताने में) बहादुरी है। उनके (संतों के) मरने के बाद मंदिर बनाओ, टाल बजाओ, बिना कामधाम का धंदा करो। शिवाजी महाराज ने बहुत वर्ष पहले स्वधर्म को जागृत करने के लिए कहा 'महाराष्ट्र मेरी मातृभूमि , मेरी मातृभाषा!' और ज्ञानेश्वरजी ने पहले ही कह दिया था 'विश्व स्वधर्मे सूर्ये पाहो' तब शिवाजी महाराज ने भी वही कहा। उसी कार्य को हम भी देख रहें है कि विश्व, स्वधर्म, सूर्य की जागृति होनी चाहिए और वह पहले महाराष्ट्र में होनी चाहिए क्योंकि ज्ञानेश्वर जी ने यहाँ सबको बताया है। कल मैंने महाराष्ट्र के बारे में जो कहा उसका बुरा मत मानिए अपितु ऐसा मत सोचो कि माताजी उसके बारे में कह रहीं थीं, इसके बारे में कह रही थीं। खुद की ओर ध्यान दीजिए, उसकेलिए उन्होंने introspection शब्द का प्रयोग किया है । 'माताजी ने कहा है कि इतने साधु-संत हुए नहीं हैं।' इसका मतलब यह नहीं कि तुम कोई साधु-संत हो। जैसे कीचड़ में कमल खिलने पर मेंढक बोलें वाह! वाह!, इन कमलों के तले हम कितने महान हो गए।' अपने महाराष्ट्र में इस तरह की चीज़ें बहुत हैं, इसपर ध्यान देना चाहिए। जिस तरह की चीज़ें मैंने यहाँ देखी वो इस जगत में और कहीं नहीं देखी । सबसे पहली बात झगड़ालू प्रवृत्ति । इतने झगड़ालू हैं कि मैं कभी कभी इतनी निराश हो जाती हैँ कि सिर्फ एक ही पूजा करवाने के लिए कहती हूँ, बस इस के आगे नहीं। अब गणपतिपुले में इतना सुंदर आश्रम बनाया, तो उसके पीछे हाथ धो कर पड़ गये। इतने गन्दे लोग हैं। कुछ समझता नहीं इनको । पर हम संतों की भूमि में रहने वाले, हमारे यहाँ अष्टविनायक! हमारे यहाँ साढ़ेतीन देवियों का प्रकटीकरण! इससे मुझे यह लगता है कि इस तमाम गंदगी की सफाई के लिए इन लोगों (संतों) ने हिम्मत की है। वैसे ही हमने भी हिम्मत जुटाई है। पर अब हर चीज़ देखती हूँ तो आश्चर्य होता है। एक आदमी जिसका मुँह तक मैंने देखा नहीं, मेरी अनुमति के बगैर मेरी शोभायात्रा निकाली। दूसरे एक गृहस्थ जो मेरे नाम से खुद की ही पूजा करवाते हैं। ऐसी होशियारी के काम मैंने कहीं नहीं देखे- मद्रास में भी नहीं, बंगाल में नहीं। भगवान का डूर ही नहीं रहा। कुछ भी करते हैं, इतने बुरे लोग थे। वे सहजयोग का पालन नहीं कर सकते कथे । उनसे कहा, 'अभी आप सहजयोग में मत रहो। सहजयोग में रहकर पहले अपनी स्थिति सुधारो।' बस, इतना कहते ही, "माताजी प्रेम की बात करती हैं, फिर सब पर गुस्सा क्यों करती हैं?" मैं माँ हैं। जो आपकी भलाई के लिए है, वो तो कहना ही पड़ेगा और मैं कहूँगी। पर कहीं कहीं जगह तो बताना नहीं पड़ता, जरूरत ही नहीं पड़ती उसकी । अत्यंत घमंड़ी लोग हैं और जो भी उन्होंने कहा, सच है, आगे आगे करना, 'जान बूझकर मैं फूल ले कर छि है ६ ॐ े ैं २ रि ववT ३ दा १ु० हर] ११ গ. ठाणे से आया हँ। खास माताजी के लिए। में स्वयं ही माताजी को फूल दूँगा।' पागलखाने से आए हुए लगते है। तो ऐसा क्यों है महाराष्ट्र में? मेरी तो समझ के बाहर है। इतने साधु-संत हो गए इसलिए ये पावनभूमि है, यहाँ अष्टविनायक हैं इसलिए ये पावनभूमि है और तो और यहाँ साढ़ेतीन देवियाँ प्रकट हुई इसलिए ये परम पावनभूमि है। इस भूमि पर ऐसी गन्दी चीज़ें क्यों होती हैं? दूसरे एक गृहस्थ थे, जिन्हे भूतबाधा थी, उनसे कहा की 'भाई, आप सहजयोग छोड़ दो।' तो उन्होंने अपना दूसरा ही सहजयोग शुरू कर दिया। मुझमें जो दोष हैं, बुराईयाँ हैं वो मत निकालो अपितु मैं तो कुछ खास हूँ। इतना कि उनकी पत्नी सबको बताने लगी कि 'हमारे ये तो माताजी से भी ऊपर हैं। ऊपर है या नीचे भगवान ही जाने! ऐसी बहुत सी बातें सुनकर मुझे अचरज हुआ। इस तरह सहजयोग में कहीं पर भी हुआ नहीं। ऊपर से मराठी अखबार! उनसे तो अच्छे हिंदी और अंग्रेजी के हैं। कुछ भी लिखते हैं, कुछ भी करते हैं। झगड़ालू प्रवृत्ति तो महाराष्ट्र का पहला स्वभाव है। चलो माना कि झगड़ालू प्रवृत्ति तो महाराष्ट्रीयन का पहला स्वभाव है, परंतु अब तो आप सहजयोग में आ गए हो। इतनी ईष्ष्या, इतने झगड़े, इतना घमंड़ है, और कहते हैं कि हम तो पुराने सहजयोगी हैं और ये नए, उनको तो कुछ आता ही नहीं है। धोरे-धीरे उत्तर हिंदुस्तान के लोग सहजयोग में आ रहे हैं। और इतनी अजीबो-गरीब चीज़ें देखकर वो भी वापस जा रहे हैं। जब मैं पूना गई तो वहाँ सहजयोग में पंजाब के लोग आए थे। उन्होंने कहा, 'माताजी, इन महाराषट्रियन लोगों को लेकर आप क्या कर रही हैं? वे बहुत गर्दे लोग है। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने कहा, 'ऐसे कैसे बोल रहे हो । उनको भला बुरा कहते हो। ये क्या बोलने का तरीका है? आप खुद को क्या समझते हो?' पर आज वे आठ-दस लोग पक्के सहजयोगी बन गए हैं। मुझे पता है। दिल्ली में आश्रम बनवाया तो आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि रोज सुबह दफ्तर जाने से पहले करीब सौ लोग दस-दस मील से ध्यान के लिए मोटर या बस से आते हैं। बाकी सबकुछ सुंदर है। इतनी सुंदर चीज़े हैं अपने पास । दीप जलाने में कुशल हैं, सब करने में कुशल हैं, लेकिन अन्दर के दीप कब जलाएंगे? हम कितने गहन हैं, यह देखने के लिए अन्दर का दीप पहले जला लो। जो अभी इन्होंने आपको बताया वह उनसे कहने को मैंे ही कहा था क्योंकि मैं ऐसी बातें बोल नहीं सकती। यह जो अब सहजयोग में आये हैं-पहले दारू पीते थे, ड्रग्ज लेते थे, सबकुछ करते थे और अब ये कहाँ के कहाँ पहुँच गए हैं। और महाराष्ट्र में लोग आपस में ही लड़ाई-झगड़ा करते हैं। क्या मतलब है इसका? कहते हैं,"माताजी हम पर गुस्सा होती हैं।" गुस्सा नहीं करूं तो क्या हार ड़ालूं आपके गले में? आपस में झगड़ा करने में माहिर हैं। खाली बैठने वालों के धंधे-ये ऐसा करते हैं, वे वैसा करते हैं करने दो । और कुछ नहीं सुझा तो 'आजकल माताजी पैसे-वैसे नहीं देती, तो हमें ज्यादा पैसे देने पड़ते है।' अरे, मैं ही सब चीज़ों के लिए पैसे देती हूँ। तुम्हारे खाने के, पीने के। सब देकर देख लिया। अब कुछ नहीं तो ऐसी बातें बोलने लगे। मैं क्या इन राजकीय लोगों जैसी हूँ? फिर बोलते हैं कि माताजी, यहाँ भूकंप क्यों होते हैं? ये क्यों होता है, वो क्यों होता है? महाराष्ट्र में दारू पीने वालों की कमी नहीं है। महाराष्ट्र में जितना पीते है उतनी कहीं नहीं। दारू पीकर रास्ते पर चलने वाले महाराष्ट्र में कितने हैं? आप ही बताईये। दिल्ली में आपको राह पर एक भी नहीं दिखेगा। परदेस में भी मेंने नहीं देखा। पर महाराष्ट्र में आप बाहर कहीं भी जाओ तो दारू पीकर जाओ। ये पहले से ही चला आ रहा है। बहुत साल हो गए हैं। एक बार में राहुरी गयी थी। रास्ता चढ़ाई वाला था और आगे बड़ा रास्ता था। वहाँ जाकर जब मेंने गाड़ी रोकी तो देखती हूँ कि खटमल की तरह लोग मर रहे थे। मुझे लगा कॉलरा हुआ होगा। सफेद टोपी, सफेद कमीज, सफेद पैजामा पहने हुए नीचे से उपर आए और खटमल जैसे पटापट गिर गए। मैंने पूछा,"अरे,भाई, क्या हुआ?" बोले, "वहाँ इंदिरा नगर है।" ठीक है, आगे बोलो। "वहाँ सस्ते में दारू मिलती है।" वहाँ दारू पीकर ऊपर आकर फट से मर रहे थे इतने लोग यहाँ दारू पीते है। दिल्ली में बहुत कम लोग दारू पीते है। बहुत से लोग तो जहाँ दारू रहती हैं, वहाँ जाते भी नहीं। परंतु यहाँ पर पार्टी में दारू पिएंगे नहीं तो वो महाराष्ट्रियन कैसे? महाराष्ट्रियन लोग दारू पीते हैं। हमको तो बचपन से ही पता नहीं था दारू का मतलब क्या होता है। उसका रंग भी मालूम नहीं था । अब किसीसे कुछ कहो तो कहते है, 'देखो वे तो सत्तर साल के थे, फिर भी दारू पी रहे थे।' मैने कहा, "ऐसा है तो अब उनका पुतला खड़ा करो।" अब हम उस लायक बन गए है क्या? हमने सात वर्ष की उम्र में दारू की दुकाने बंद करने के लिए विरोध किया था । अब यहाँ तो इतने सारे लोग हो गए हैं. जो दारू के बगैर रह नहीं सकते। अब में दारू के विरोध में बोलती हूँ तो सब दारू पीने वाले लगे मेरे पीछे हाथ धोकर। किसी को कुछ बोलना भी ठीक नहीं। अखबार वाले भी वैसे ही हैं, यही सब यहाँ व्यापार करने वाले ति १२ लोग, बड़े अचरज की बात है। लखनऊ में वाजिद अली शाह जैसा आदमी, जो नवाब था। वहाँ के लोग कितने सौम्य हैं। वैसे उनकी भाषा में नम्रता है। इतनी नम्रता, इतना सौजन्य मुझे आश्चर्य हुआ और यहाँ इसकी बुराई कर, उसकी बुराई कर, उसके बारे में बुरा बोल। मुझे इतने गन्दे खत पे खत भी भेजते हैं। हर एक के चरित्र पर कुछ न कुछ कहते हैं। मैं तो तंग आ गयी हैं। महाराष्ट्र से पत्र आने के बाद तो मैं फेंकने के लिए कहती हैं। अब उस ज्ञानदेव के आगे क्या बोलूँ। खुद वे तेईस साल की उम्र में आपको नमस्कार करके चले गए। उन्होंने किसी को क्रिटीसाइज़ नहीं किया। उन्होंने बहाँ की सत्य स्थिति बताई। उन्होंने उस स्थिति में रहने वालों की बात की। वो इनकी दिमाग में कहाँ से आएगी। इन महाराष्ट्रियन लोगों की दिमाग में आने वाली नहीं मैं ऐसा नहीं कहूँगी कि महाराष्ट्र में मुझे लोग मिले नहीं। परंतु यहाँ जितनी मेहनत से मैंने कार्य किया है और जितना बड़ा यह महाराष्ट्र है उससे तो और ज्यादा होना चाहिए। एक तो यह कि 'में विशेष रूप से आया हूँ।' क्यों आए? किसने कहा था आने के लिए। बिलकुल भी मत आओ। जब मैं आती हूँ तो मेरे दर्शन के समय खुद के ही दर्शन देंगे, इसलिए धका-मुक्की करेंगे, आगे आएंगे। आगे आकर मुझे अपने भयानक चेहरे दिखाऐंगे। आप चाहे कितना भी कहें फिर भी आप लोगों को बहुत कुछ सीखना है । इसका ध्यान रहे। तानाजी की आन-बान छोड़ो। वे कहाँ गए मेरी समझ में नहीं आता। पर कम से कम नम्रता तो चाहिए, कि माताजी, हमें कुछ हासिल करना है। हमको उपर उठना है। कहाँ हैं वे संत-साधु? मैं तो कहूँगी ब्राह्मणों के कर्दनकाल पूरा इधर ही उपस्थित हो गया है क्या? क्योंकि ये गरु, वो गुरू, वो गुरू और उनका प्रस्थ। अगर बेकार के प्रस्थ बनाने हों तो या अमेरिका में या तो फिर महाराष्ट्र में बनाओ। इतने बड़े मूर्ख है कि अभी तक ये पता नहीं कि सच क्या है, झूठ क्या है। आपने ही जाकर लोगों को बताना है। महाराष्ट्र में लोगों को कहना चाहिए कि सच और झूठ ये भी पता नहीं, तो आप किस काम के? में आज इसलिए कह रही हैँ कि अगर आप सच्चे सहजयोगी हो तो 'हम महाराष्ट्रीयन और ज्ञानेश्वरजी के सगे-संबंधी', कहीं भी जाओ तो 'ये हमारे पूर्वज, हम उन्ही के वंश के। ऐसा क्या? ठीक है। दिख ही रहा है। क ब १३ और मराठी अखबार तो पढ़ो ही मत । सब बेकार हैं। कुछ मालूम नहीं है क्या लिखना है, क्या नहीं। लोगों के लिए क्या अच्छा, क्या ठीक है। मानती हैं, एक-दो मक्कार आप के यहाँ आए, राजनीति में आए, पर आप सब वैसे ही बनोगे क्या? अब सभी सहजयोगियों से विनती है कि आपस में वाद-विवाद करना छोड़ो और जितने भी लोग सहजयोग छोड़कर गए है उनकी ओर देखो भी मत । उनका हमारा कुछ संबंध नहीं । परसो एक गृहस्थ मुझ से मिलने के लिए आए उनके सिर में बड़े बड़े फोड़े निकले हुए थे। मैंने पूछा, 'क्या हुआ? बोले, माताजी, मैं मर रहा हूँ।' फिर पूछा, हुआ क्या?' कहने लगे, मैं वो आपके सहजयोगी हैं उनके पास गया था । 'क्यों गये थे? आपके लिए सेंटर्स हैं, वहाँ जाइए।' अब कोई किसी के सेंटर्स में इंटरफिअरन्स न करे। मुझे हर एक को देखना है कैसे करते हैं। कोई भी बीच में न बोले। अब मैं यही सबको बताने वाली हूँ। लोग मुझे कहने लगे की इधर उधर बोलते हैं और इसी से सब गडबड़ी होती है। जहाँ जो सेंटर चलाता है वही वहाँ का मुख्य, वहीं का लीड़र। आगे से अपने लीड़र के विरोध में कुछ लिखकर भेजा तो मैं आपको सहजयोग से निकाल दूँगी। क्राइस्ट ने इसे 'मरमरींग सोल' (बड़बड़ाती आत्मायें) कहा है। फालतू की बातें करते हैं। पहले जमाने में मंदिर में औरते बाती (कपास की)बनाते बैठती थी, तो कहा जाता था कि 'दादीमाँ बैठ गई बाती बनाने ।' पर अब तरुण लोग भी यही धंधे करने लग गए। अब क्या बोलें? एक दूसरे के विरोध में बोलने या फिर ये ऐसा क्यों करते हैं? वैसा क्यों करते हैं? ऐसा सोचने की आपको इच्छा भी कैसे होती है? मैं तुम्हे वहाँ ले जाने का सोच रही हैूँ। उस संत पद का विशेष दान देनेवाली हूँ, दिया भी है, पर आपको संतों जैसे रहना चाहिए। र कल मैंने वारकरी लोगों के बारे में कहा था । ये बहुत सालों से कहना चाहती थी, पर सोचा नहीं। गलत जगह श्रद्धा रखना ये तो महाराष्ट्रीयन लोगों की खासियत है । वैसे ही अमेरिकन्स । मैं अमेरिकन्स को हमेशा बोलती हूँ कि उन में अभी तक मॅच्युरिटी नहीं आयी। प्रगल्भता नहीं है। पर यहाँ तो सब अच्छे परिपक्व लोग रहते हैं। ऐसे परिपक्व लोगों को हुआ क्या है? जिस भूमि पर आप बैठे है, वहाँ संतों ने अपना खून बहाया है और आपका संत होना कुछ कठिन नहीं है। इसलिए आपका जन्म यहाँ हुआ है। ये नहीं चलेगा फिर भी अगर अपने मूँछ पर हाथ फेरते हुए 'हम सहजयोगी' ऐसा गर्व से कहोगे, तो आप कैसे सहजयोगी? ये ऐसी भाषा? मराठी जैसी आध्यात्मिक भाषा नहीं है। महाराष्ट्र में बहुत अध्यात्म हआ है। इसकी जितनी महत्ता गाओ उतनी कम है। और आप इस महाराष्ट्र में जन्मे, वो क्या पुण्याई के बगैर? पर वह काम ना आएगी। मैंने ज्ञानेश्वर जी जैसे तेईसवे वर्ष में ही समाधिनहीं ले ली है। और इतना सब कुछ होने के बाद भी हाथ में कुछ भी नहीं आता। जैसा कल मैंने बताया, हम अंधश्रद्धा निर्मूलन वाले,' यह एक और प्रकार है। किसी ने कुछ कहा तो लग गये उसके पीछे। हजारों लोग जायेंगे गन्दी जगह।...इतने पैसे बनायें उन्होंने माताजी, और उनकी बीवी रजनीश के साथ भाग गई। उसे पैसे-वैसे दिए नहीं होंगे शायद! हम उनको ही मानते थे, तो मानिए। हम उनको ही मानते हैं पर 'आप हैं कौन?' नम्रता की यहीं से शुरुआत करनी है। मैं कौन? मैं सहजयोगी हूँ। आत्मा स्वरूपत्त्व प्राप्त हुआ ऐसा में सहजयोगी हूँ और मुझे कैसे रहना चाहिए। भाई, ज्ञानेश्वरजी का उदाहरण सामने है। तुकाराम जी, रामदास जी, एकनाथ जी ऐसे संतों के उदाहरण सामने है। वो नहीं सुना क्या आपने? वो नहीं देखा क्या? जिस नामदेव को गुरू नानक जी ने हृदय से लगाया वो नामदिव महाराष्ट्र में दर्जी (टेलर) ही था। पर इस नामदेव जी के मंदिर में दस दर्जी (टेलर) भी मन से आए तो भी बहुत है। उनके कार्य से कुछ लिया, ऐसा कह सकते हैं। अब उन सभी संतों-साधुओं को एक ही विनती है कि वापस इस देश में जन्म लेकर सब को ठीक करें। सहजयोग की जितनी प्रगति होनी चाहिए उतनी हुई नहीं। सिर्फ सहजयोग बढ़ रहा है। जो ज्यादा फैलता, पर अगर उस में ताकत नहीं होगी तो वो फटता है। तो अब ये ग्रुप अलग, वो ग्रुप अलग वहाँ ये सब सुनने को नहीं मिलता। ऐसे झगड़े वहाँ पर दिखते ही नहीं। भाई, सहजयोग में ये अलग-अलग ग्रुप कैसे ? स्वयं साक्षात कार्तिकेय ने यहाँ जन्म लिया है। सरस्वती को भी 'स्कंध माता' बोलते हैं। वो उसकी माँ नहीं थी। वो कुँवारी थी। पर स्कंध को उन्होंने हृदय से लगाया था और उसे अपना पुत्र मानती थी। उसी कार्तिकेय ने ढूँढ कर महाराष्ट्र में जन्म लिया। ज्ञानेश्वरजी ने जो कुछ भी लिखा उससे सारा विश्व अचंभित हो गया। पर अपने यहाँ उलटा हो रहा है। अमेरिका से कुछ लोग यहाँ 'पीस (peace) युनिव्हर्सिटी' बनाने के लिए आए । आलंदी में बनानी थी पर हुआ क्या? आलंदी में वे करने वाले नहीं । मेरी शरण में आए और बोले, माताजी, आप ही सब कीजिए । सब आपके ही हवाले करते हैं। हमें यहाँ महाराष्ट्र ें किसी से, कुछ नहीं करवाना है। We don't want to deal with them.' हुआ क्या कि एक आदमी ने, बहुत बड़े हैं वो, उनके ढ़ाई करोड रुपये मार लिए । दूसरे ने साढ़े तीन करोड रुपये मार लिए । उन्होंने मुझे कहा, 'नहीं चाहिए महाराष्ट्र । आप ही कीजिए, आपके नाम १४ से कीजिए। हम आपको मानते हैं। मेरी उनसे मुलाकात सिर्फ दो घंटों की थी । वे तो दंग रह गए, क्या लोग हैं! जिन्होंने पैसे ऐंठ लिए वो कोई राजनेता नहीं। जिसे देखो पैसे के पीछे। यह सब कहने का तात्पर्य है कि गहनता आने के लिए पहले खुद को देखना चाहिए। खुद की ओर ध्यान दें। देखना चाहिए कि माताजी ने जो कहा है उसमें से कितना मेरे अन्दर है। में सब से कहती हैँ कि जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो सब यादि-व्याधि, वैसे ही तरह की उपाधि, अपने आप निकल जाती है। सब कुछ निकल कर एक सुंदर कमल का फूल आता है । पर महाराष्ट्र में आने के बाद ऐसा कुछ दिखता नहीं है। और सबसे बड़ा प्रश्न कि मुझे कौनसा बड़ा पद मिला? ये लीड़र कौन? ये बोलने वाला कौन? ये क्यों आकर मुझे ठीक करता है? में लीडर नहीं मानता । तो उसके विरोध में लिखो, उसके चरित्र के बारे में लिखो। माताजी, आपने हमें सहजयोग से निकाला पर जिस आदमी के कारण निकाला उसका चरित्र ही ठीक नहीं। मुझे अकल है कि नहीं? आप की अकल से में चलती तो क्या हुआ होता? सब से ज्यादा हम लोग बहुत कर्मकाण्डी हैं। सुबह चार वजे उठेंगे, नहाएंगे। माताजी के सामने ध्यान के लिए बैठेंगे। 'मैं इतना करती हूँ फिर भी मेरा भला कैसे नहीं होता? उसके लिए हृदय चाहिए। हृरदय कहाँ दिया तुमने । अपना हृदय मुझे दो । तुम्हारा हृदय नहीं मिला तो उस में क्या भरू? प्रेम भरने के लिए हदय चाहिए। झगड़ालू लोगों का हृदय होता है ऐसा तो मुझे नहीं लगता । आज की पूजा में इतना सब कहा क्योंकि जैसे आपने यहाँ दिए जलाए, मराठी में कहते है, 'दिवे लावू नका' मराठी भाषा ऐसी ही तलवार जैसी, मेरे कहने का मतलब यह है कि हृदय में दीप जलाइए। उसके जलने के बाद स्वयं को जानोगे बचपन में हमारी माँ कहती थी 'आपका ध्यान है किधर? आपका लक्ष्य क्या है? अभी उसका मतलब समझ में आ रहा है। धीरे-धीरे कुछ करना, चिड़चिड़ापन, गुस्सा होना, कुछ तो नया निकालना, यह सब सहजयोग में चलने वाला नहीं। मनुष्य का चित्त शांत रहना चाहिए। इस के बारे में ज्ञानेश्वर जी ने लिखे 'अमृतानुभव' में कैसे अच्छी तरह से लोगों को समझाया है। पर है कहाँ समझने के लिए? क्या लिखा है वह इनकी समझ में आता ही नहीं। तो अमृतानुभव पढ़ो । उसमें लिखे एक-एक शब्द का अर्थ देखो। कैसे एक सहजयोगी अपने समाधान में समाया हुआ है। उसे सत्ता नहीं चाहिए, पैसा नहीं चाहिए । कुछ भी नहीं चाहिए। वो कैसे आनन्द 76 बिब कि र ८ में है। उसका व्यक्तित्त्व विशेष है। महाराष्ट्र में सहजयोग में बहुत तराशे हुए हीरे हैं बहुत हैं। उत्तम। अति उत्तम। पर वे और बाकी लोग भी ऐसे ही लगते है मुझे। मुझे कोई भी पत्र ना लिखे। और उसमें दूसरों की निंदा भी मत करो। मुझे ये अच्छा नहीं लगता है। मुझे गन्दे पत्र भी मत लिखे। आपके अनुसार से वे बहत अच्छे हैं तो उसे अपने पास ही रखिए । मुझे कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। मुझे सब मालूम है। सिर्फ आपको सब मालूम होना चाहिए। आपमें से ही हीरे-माणिक निकलने वाले हैं । मुझे पता है ये खान है उस में अगर कोयला दिख रहा है तो उसी में हीरे हैं। इतने साल से मैं मेहनत कर रही हैँ। अब अगर आप लोगों ने स्वयं को नहीं पहचाना, तो में क्या करूँ । ज्ञानेश्वरजी की तेईस वर्ष की आयु बहुत महत्त्वपूर्ण थी, उन्होंने कैसे बिताई होगी। विशेष रूप से सन्यासी के घर में जन्म लिया। लोगों को दिखाने के लिए कि यह सब उपरी कर्मकाण्ड है और कुछ भी नहीं। इतना सब होने के बावजूद उन्होंने जन्म लिया और ढोंगी लोगों ने उन्हे यातनाएं दी। वैसा छलावा सहजयोग में मत करो। मुझे सबके बारे में सब कुछ पता है। मुझे कुछ भी बताने की जरूरत नहीं। सिर्फ आप अपने को पहचानो। मुझे जानने से अच्छा है कि अगर आप अपने को जानो, तो आज की मेरी ये पूजा धन्य हो गई ऐसा मैं कहँगी। इस में कोई शक नहीं। उत्तर हिंदुस्थान में सही में कार्य बहुत जोर से शुरू है। वहाँ के आय.ए.एस.ऑफीसर्स ने आपस में एक संघठन बनाया कि अगर कोई corrupt होगा, कितना भी बड़ा ऑफिसर हो तो भी उन पर कारवाई की जाएगी सब information इकड्ठा करते हैं। कैसे पैसा कमाया? कहाँ से पैसा कमाया? और फिर उसे कोर्ट ले जाएंगे। मैंने उनसे पूछा, "आप आय.ए.एस. के लोग सहजयोग में आए कैसे? "माताजी, तकलीफ ये है कि हम लोग इमानदार है । हमें बेईमानी करनी आती ही नहीं है।" सुना आप लोगों ने। मेरे पति भी वैसे ही है । मेरा दामाद भी वैसा ही है। हमें बेईमानी करनी आती ही नहीं। "हम क्या करें? इन लोगों के साथ कैसे रहें? वे हमें कहते हैं बेईमानी करो। आखिर में हमें मार्ग मिला और हम सहजयोगी हो गए और हम सब सहजयोगी, सब एक हो गए। कोई झगड़ा नहीं करता, कुछ नहीं। यहाँ पर वैसी ही संघटना होनी चाहिए सहजयोग की। हम सत्य में खड़े हैं और हमें कोई भी हिला नहीं सकता। हम उस सत्य पर अड़िग १६ खड़े हैं। पर उस सत्य का प्रकाश प्रेम है और आपसी प्रेम.. रिश्तेदारी यह ज्ञानेश्वर जी ने स्पष्ट कहा है। वही आपके सगे-संबंधी। 'हमारे यहाँ हल्दी-कुमकुम है।' 'अच्छा, फिर कौन आने वाला है?' 'मेरी चाची आने वाली है। वो इस देवता को मानती है। वो उस देवता को मानती है।' सहजयोगी आने वाले है? आपके सगे-संबंधी कौन? यही आपके भाई-बंध हैं। इस पूरे विश्व में सहजयोग में सभी जीव एक हो गए हैं। जिसे, में जो सामूहिकता कहती हूं, वो जागृत हो गयी है। पैंसष्ठ देशों में मैंने उसका निनाद सुना है। पर महाराष्ट्र में ऐसा कुछ दिखता नहीं है। एकजुट होना चाहिए। कुछ भी हो हम सहजयोगी हैं और बाकी सब अलग। यह जब तक आपके अन्दर आएगा नहीं तब तक आप सहजयोग में उतर नहीं सकते क्योंकि आप सामूहिक नहीं। सामूहिक हुए बगैर ये काम होने वाला नहीं। समुद्र को ध्यान से देखने के बाद पाओगे कि एक लहर निकली तो वह संपूर्ण समुद्र में तरंगित होती है क्योंकि समुद्र सामूहिक है। सारी बूंदे एक हैं। अगर एकाध बूंद बाहर निकल गई तो वह सूर्यताप से नष्ट हो जाती है। वैसे ही अपने सहजयोग में है। जो है वह पूरी तरह से है, नहीं तो नहीं है। एक-दूसरे के विरूद्ध बोलना, निंदा करना शोभा नहीं देता। आज पूजा के दिन अपना हृदय साफ कर लो और उस हृदय में प्रेम की गंगा बहने दो। मुझे माताजी से मिलना ही है, माताजी को सन्देश भेजो। बिलकुल भी नहीं। मुझसे मिलना हो तो मात्र अपने हृदय में मुझे देखिए । वहीं पर मैं मिलने वाली हूँ और यही बहुत है। भीड़-भाड़ के साथ प्रतिष्ठान में आते हैं। 'मुझे मिलना ही है, मैं कुछ तो खास, मैं डॉक्टर।' होंगे। 'मैं वरकील, मैं अमका हूँ, मैं तमका हूँ । मैं चीफ मिनिस्टर का चपरासी हूँ।' अंहकार के जितने प्रकार महाराष्ट्र में देखोगे उतने और कहीं नहीं। आपको महाराष्ट्रीयन बनाया इस महाराष्ट्र में जन्मे हुए आप तो महान हो वो ऐसे कीचड़ में क्यों जाते हैं? यहाँ पर जो आए हैं, उनमें लीड्र कौन है, आप पहचान भी नहीं पाओगे। वो उनमें है ही नहीं क्योंकि नम्रता से ही सहजयोगी में रह सकते हैं, यह वो जानते हैं । आज की पूजा में मैं आप सबको अनन्त आशीर्वाद देती हूँ कि आप स्वयं की आत्मा की अनुभूति से परिपूर्ण हो जाओ। आधाअधूरापन नहीं चलेगा। परिपूर्ण हो जाईए । यह अनंत आशीर्वाद मैं आप सबको देती हैं। र ক, १७ कुण्डलिनी और श्री गणेश पूजा २२ सितम्बर १९७९, दादर, मुंबई आ ज के इस नवरात्रि के प्रथम दिन शुभ घड़ी में, ऐसे इस सुन्दर वातावरण में इतना सुन्दर विषय, सभी योगायोग मिले हुए दिखते हैं। आज तक मुझे किसी ने पूजा की बात नहीं कही थी, परन्तु वह कितनी महत्त्वपूर्ण है! विशेषतः इस भारत भूमि में, महाराष्टर की पूण्य भूमि में, जहाँ अष्टविनायकों की रचना सृष्टि देवी ने (प्रकृति ने) की है। वहाँ श्री गणेश का क्या महत्त्व है और अष्टविनायक का महत्व क्यों है? ये बातें बहुत से लोगों को मालूम नहीं है। इसका मुझे बहुत आश्चर्य है। हो सकता है जिन्हें सब कुछ पता था या जिन्हें सब कुछ मालुम था ऐसे बड़े-बड़े साधु सन्त आपकी इसी सन्त भूमि में हुए हैं, उन्हें किसी ने बोलने का मौका नहीं दिया या उनकी किसी ने सुनी नहीं। परन्तु इसके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है और एक के जगह सात भाषण भी रखते तो भी श्री गणेश के बारे में बोलने के लिए मुझे वो कम होता । आज का सुमुहर्त घटपूजन का है। घटस्थापना अनादि है। मतलब जब इस सृष्टि की रचना हुई, (सृष्टि की रचना एक ही समय नहीं हुई वह अनेक बार हुई है।) तब पहले घटस्थापना करनी पड़ी। अब 'घट का क्या मतलब है, यह अत्यन्त गहनता से समझ लेना जरूरी है। प्रथम, ब्रह्मत्त्व में जो स्थिति है, वहाँ परमेश्वर का वास्तव्य होता है। उसे हम अंग्रेजी में entrophy कहेंगे। इस स्थिति में कहीं कुछ हलचल नहीं होती है। परन्तु स्थिति में जब इच्छा ॐ ैरदे मा य० १८ ह का ै। ाई ० ক भवए का उद्गम होता है या इच्छा की लहर 'परमेश्वर' को आती है, तब उसी में परमेश्वर की इच्छा समा जाती है। वह इच्छा ऐसी है कि अब इस संसार कुछ सृजन करना चाहिए। यह इच्छा उन्हें क्यों होती है? वह उनकी इच्छा! परमेश्वर को इच्छा क्यों होती है, ये समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है । ऐसी बहुत सी बातें मनुष्य की सर्वसाधारण बुद्धिमत्ता से परे हैं। परन्तु जैसे हम कोई बात मान लेते हैं, वैसे ही ये भी मानना पड़ेगा कि परमेश्वर की इच्छा उनका शीक है। उनकी इच्छा, उन्हें जो कुछ करना है वे करते रहते हैं। यह इच्छा उन्हीं में विलीन होती है (एकरूप होती है) और वह फिर से जागृत होती है। जैसे कोई मनुष्य सो जाता है और फिर जग जाता है। सो जाने के बाद भी उसकी इच्छाएँ उसी के साथ सोती हैं, परन्तु वे वहीं होती हैं और जगने के बाद कार्यान्वित होती हैं। वैसे ही परमेश्वर का हैं। जब उन्हें इच्छा हुई कि अब एक सृष्टि की रचना करें, तब इस सारी सृष्टि की रचना की इच्छा को, जिसे हम तरंग कहेंगे या जो लहरें हैं, वह एकत्रित करके एक घट में भर दिया। यही वह 'घट' है। और इस घट का मतलब परमेश्वर है। में मतलब परमेश्वर व उनकी इच्छाशक्ति अगर अलग की जाय, हम अगर ऐसा समझ सकें तो समझ में आएगा। आपका भी उसी तरह है, परन्तु थोड़ा सा फर्क है। आप और आप की इच्छा शक्ति इस में फर्क है। वह पहले जन्म लेती है। जब तक आपको किसी बात की इच्छा नहीं होती तब तक कोई काम नहीं होता। मतलब अब जो ये सुन्दर विश्व बना है वह किसी को इच्छा के कारण है। हर एक बात इच्छा होने पर ही कार्यान्वित होती है। और परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित होने के लिए उसे उनसे अलग करना पड़ता है। उसे हम 'आदिशक्ति' कहेंगे। ये प्रथम स्थिति जब आयी तब घटस्थापना हुई। यह अनादिकाल से अनेक बार हुआ है। और आज भी जब हम घटस्थापना करते हैं, तो उस अनादि अनंत क्रिया को याद करते हैं । तो उस नवरात्रि के प्रथम दिन हम घटस्थापना करते हैं। मतलब कितनी बड़ी ये चीज़ है! याद रखिए । उस समय परमेश्वर ने जो इच्छा की, वह कार्यान्वित करने से पहले एकत्रित की और एक घट में भर दी। उसी 'इच्छा' का हम आज पूजन कर रहे हैं। उसी का आज हमने पूजन किया वह इच्छा परमेश्वर को हुई, उन्होंने आज हमें मनुष्यकत्त्व तक लाया, इतनी बड़ी स्थिति तक पहुँचाया, तब आपका ये परम कर्तव्य है कि उनकी इस इच्छा को पहले वंदन करें। १९ उस इच्छा को हमारे सहजयोग की भाषा में श्री 'महाकाली की इच्छा' कहते हैं या 'महाकाली की शक्ति' कहते हैं। ये महाकाली की शक्ति है और ये जो नवरात्रि के नव दिन (विशेषकर महाराष्ट्र में) समारंभ होते हैं वे इस महाकाली के जो कुछ अनेक अवतरण हुए हैं उनके बारे में है। अब महाकाली शक्ति से पहले, यानी इच्छा शक्ति के पहले, कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए इच्छा शक्ति आदि है, और अन्त भी उसी में होता है। प्रथम इच्छा से ही सब कुछ बनता है और उसी में विलीन होता है। तो ये सदाशिव की शक्ति या आदिशक्ति है। ये आप में महाकाली की शक्ति बनकर बहती है। अगर यहाँ पर बे परमेश्वर है ऐसा समझ लें, ये विराट का अंश स्वरूप माना तो उसमें जो बायीं तरफ की शक्ति है वह आप की इड़ा नाड़ी से प्रवाहित होती है। उस शक्ति को महाकाली की शक्ति कहते हैं। इसका मनुष्य में सबसे ज्यादा प्रादुर्भाव हुआ है। पशुओं में उतना नहीं है। अपने में वह (मनुष्य प्राणी में ) अपनी दायीं तरफ से सिर में से निकलती है। उसके बाद बायीं तरफ जाकर त्रिकोणाकार अस्थि के नीचे जो श्री गणेश का स्थान है वहाँ खत्म होती है। मतलब महाकाली की शक्ति ने सर्वप्रथम केवल श्री गणेश को जन्म दिया| तब श्री गणेश स्थापित हुए श्री गणेश सर्वप्रथम स्थापित किए हुए देवता हैं। और इसी तरह, जिस प्रकार श्री महाकाली का है, उसी प्रकार श्री गणेश का है। ये बीज है और बीज से सारा विश्व निकल कर उसी में वापस समा जाता है, वैसे ही सब गणेश तत्त्व से निकलकर गणेश तत्त्व में समा जाता है। श्री गणेश, ये जो कुछ है, उसी का बीज है, जो आपको आँख से दिख रहा है, कृति में है, इच्छा में है, उसका बीज है। इसलिए श्री गणेश को प्रमुख देवता माना जाता है। इतना ही नहीं, श्री गणेश का पूजन किए बगैर आप कोई भी कार्य नहीं कर सकते। फिर वे कोई भी हो, शिव हो, वैष्णव हो या ब्रह्मदेव को मानने वाले हों, सभी प्रथम श्री गणेश का पूजन करते हैं । उसका कारण है कि श्री गणेश तत्त्व परमेश्वर ने सबसे पहले इस सृष्टि में स्थापित किया। श्री गणेश तत्त्व, मतलब जिसे हम अबोधिता कहते हैं या अंग्रेजी में innocence कहते हैं, अब ये तत्त्व बहुत ही सूक्ष्म है। ये हमारी समझ में नहीं आता। जो बच्चों में रहता है, जिसके चारों तरफ आविर्भाव है और जिसकी सुगन्ध फैली हुई है। इसलिए छोटे बच्चे इतने प्यारे लगते हैं। ऐसा यह अबोधिता का तत्त्व है। बह इस श्री गणेश में समाया है। अब ये मनुष्य को समझना जरा मुश्किल है कि कैसे एक ही देवता में ये सब कुछ समाया है? परन्तु अगर हमने सूरज को देखा तो जैसी उनमें प्रकाश देने की शक्ति है उसी प्रकार श्री गणेश में ये अबोधिता है । तो ये जो अबोधिता की शक्ति परमेश्वर ने हम में भरी है उसकी हमें पूजा करनी है। मतलब हम भी इसी प्रकार अबोध हो जाएं । अबोधिता का अर्थ बहुतों को लगता है 'अज्ञानी' । परन्तु अबोधिता, मतलब भोलापन, जो किसी बच्चे में है या मासूमियत कहिए, वह हमारे में आनी चाहिए। ये कितना बड़ा तत्त्व है ये आप नहीं समझते हैं। एक छोटा बच्चा अगर खेलने लगे। वैसे आजकल के बच्चों में भोलापन नहीं रहा है। उसका कारण आप बड़े लोग ही हैं। हम दूसरों को क्या बताएं? हम कौन से अपने धर्म का पालन कर रहे हैं? कितने धार्मिक हम हैं, जो अपने बच्चों को धार्मिक बनाऐं। ये सब उसी पर निर्भर है। इसलिए बच्चे ऐसे हैं। अब ये जो मनुष्य में 'अबोधिता' का लक्षण है वह किसी बच्चे को देखकर पहचाना जा सकता है। जिस मनुष्य में अबोधिता होती है वह कितना भी बड़ा हो, वह उसमें रहती है। जैसे कोई छोटा बच्चा खेलेगा, खेल में वह शिवाजी राजा बनेगा, किला बनवाएगा, सब कुछ करेगा, उसके बाद सब कुछ छोड़कर वह चला जाएगा। मतलब सब कुछ करके उससे अलिप्त (अलग) रहना। जो कुछ किया, उसके प्रति अलगाव उसके पीछे दौड़ना नहीं। ये साधारणतया एक बच्चे का बर्ताव होता है। आपने किसी भी बच्चे को कुछ भी दिया तो वह उसको संभालकर रखेगा। फिर थोड़ी देर बाद आपने उसे कुछ फुसलाकर वह वापस ले लिया तो उसे उसका कोई दुःख नहीं रहेगा। परन्तु कुछ बातें ऐसी हैं जो छोटा बच्चा कभी नहीं छोड़ता। उसमें एक बात महत्त्वपूर्ण है। वह है उसकी 'माँ' । उसकी माँ वह नहीं छोड़ता। बाकी सब कुछ आपने उससे निकाल लिया तो कोई बात नहीं। उसे कुछ नहीं मालुम, पैसा नहीं मालुम है, पढ़ाई नहीं मालुम, कुछ नहीं मालुम । उसे केवल एक ही बात मालुम है। वह है उसकी माँ । यह मेरी माँ है, ये मेरी जन्मदात्री है, यही मेरी सबकुछ है। वह माँ से ज्यादा किसी भी चीज़ को महत्त्व नहीं देता। रविन्द्रनाथ ने एक बहुत ही सुन्दर बात लिखी है। एक छोटा सा बालक बाजार में कहीं खो गया और वह जोर जोर से रोने लगा। उसे लोगों ने पकड़ा और पूछा कि उसे क्या चाहिए। वो तो बस रोये जा रहा था। लोगों ने उससे कहा कि वे उसे घोड़ा देंगे, हाथी देंगे, पर वह बोला कुछ नहीं बस मुझे मेरी माँ चाहिए। और वह रोये जा रहा था। खाने के लिए दिया तो भी उसने नहीं खाया। सारा दिन रोता रहा जब उसकी माँ मिली तब वह चुप हो गया। मतलब हम सभी में बचपन से ये बीजतत्त्व है। इसलिए हम अपनी माँ को नहीं छोड़ते। हमें पता रहता है उसने हमें जन्म दिया है। परन्तु उसके सिवाय, एक दूसरी माँ परमेश्वर ने आपमें आपको दी है और वही माँ अपने आप में आपकी 'कुण्डलिनी' है। कुण्डलिनी माता, जो आप में त्रिकोणाकार अस्थि में परमेश्वर ने बिठायी है, वह आपकी माँ हैं। उसे आप हमेशा खोजते हैं। आपकी सभी खोजों में, फिर वो राज-काज में हो, सामाजिक हो या शिक्षा-क्षेत्र में हो, किसी भी चीज़ का आपको शौक हो, उन सभी शौकों के पीछे आप उस कुण्डलिनी माँ को खोजते हैं। यह कुण्डलिनी माँ, आपको परम पद तक पहुँचाती है, जहाँ सभी तरह का समाधान मिलता है। इस माँ की खोज, माने इस माँ के प्रति खिंचाव जो आप में अदृश्य है, वह आप में श्री गणेश तत्त्व के कारण जागृत है। ल थे ० ॐ मं र की जिस मनुष्य का श्री गणेश तत्त्व एकदम नष्ट हुआ होता है, उस में अबोधिता नहीं होती है। अबोधिता में बहुत से गुण मनुष्य में दिखते हैं। मतलब माँ-बहन, भाई उनके प्रति पवित्रता रखना। जीवन में बर्ताव करते समय, संसार में रहते समय परमेश्वर ने एक अपनी 'पत्नी' और बाकी सब लोग जो हैं उनसे आपका पवित्र रिश्ता है, ऐसा परमेश्वर ने बताया है, और ऐसा अगर आपके व्यवहार में दिखने लगा तो मानना पड़ेगा कि इस मुनष्य में सच्ची अबोधिता है। वह उनकी सच्ची पहचान है। अबोधिता की ये पहचान है कि मनुष्य को सभी में पवित्रता दिखाई देती है क्योंकि अपने आप पवित्र होने के कारण वह अपवित्र नजरों से किसी को नहीं देखता। अब अपने यहाँ पवित्रता समझाने की बात नहीं है अपने यहाँ पवित्रता क्या है ये मनुष्य को मालूम है। इंग्लैंड में, अमेरिका में समझाना पड़ता है क्योंकि उनके दिमाग ठिकाने नहीं होते। पर आप सब तो समझदार हो। विशेषतः इस भारत भूमि से परमेश्वर कृपा से, अष्टविनायक कृपा से या आपकी पूर्व पुण्याई से, आपके गुरु-सन्तों की, की हुई सेवा के कारण पृथ्वी पर महाराष्ट्र एक ऐसी भूमि है कि जहाँ से ये पवित्रता अभी तक नहीं हिली है। और इसी पवित्रता का आज आप पूजन कर रहे हैं। मतलब पूजन करते समय आपमें वह पवित्रता है कि नहीं है इधर ध्यान देना जरूरी है। अब हमारे सहजयोग में जिनमें गणेश तत्त्व नहीं है वह व्यक्ति किसी काम का नहीं, क्योंकि ये जो गणेश बिठाये हैं वे गौरी के पुत्र है और श्री गौरी आप की कुण्डलिनी शक्ति है। यही ये गौरी शक्ति है। आज श्री गौरी पूजन है और आज श्री गणेश पूजन है। मतलब कितना बड़ा दिन है। ये आप समझ लीजिए। आप में जो आपका श्री गणेश तत्त्व श्री गौरी से कहता है कि ये मुनष्य ठीक है कि नहीं, मतलब उसमें कितनी सुन्दर व्यवस्था की है ये आप देखिए । इड़ा और पिंगला ये दो नाड़ियाँ आप में है। इस में एक महाकाली और एक महासरस्वती है। महाकाली से महासरस्वती निकली है। महासरस्वती क्रियाशक्ति है। पहली इच्छाशक्ति है और दूसरी क्रियाशक्ति है। इन दोनों शक्तियों से आपने जो कुछ इस जन्म में किया है, पूर्वजन्मों में किया है, जो कुछ सुकृत है और दुष्कृत है उन सबका ब्यौरा ये श्री गणेश वहाँ बैठकर देखते हैं। वे देखते हैं इस मनुष्य कितना ने किया है। अब पुण्य क्या है, ये तो आजकल के मॉडर्न लोगों को मालुम नहीं और उस बारे में जानने की जरुरत महसूस पुण्य नहीं करते। लोगों को लगता है इसमें क्या रखा है? पुण्य क्या है, कितना है? अगर पाप पुण्य की भावना ही नहीं है तो पाप और उसका क्षालन ये बातें समझाने का कोई मतलब ही नहीं है। मनुष्य में पाप और पुण्य भाव हैं, जानवरों में नहीं है। जानवरों में बहुत से भाव नहीं हैं। अब देखिए, किसी जानवर को आप गोबर में से ले जाओ या गन्दगी में से ले जाओ, उसे बदबू नहीं आती। उसे सौंदर्य २१ ा OBANK CHADIGE ूट] २ व क्या है, ये भी नहीं मालूम। मनुष्य बनते ही आपको पाप -पुण्य का विचार आता है। आप जानते हैं ये पाप है, ये गलत है, इसे नहीं करना है। ये पुण्य है, इसे करना चाहिए। पाप-पुण्य का न्याय आप नहीं करते, आप में बैठे श्री गणेश इसका हिसाब करते हैं। प्रत्येक मनुष्य में श्री गणेश का स्थान है, वह प्रोस्टेट ग्लैण्ड के पास , उसे हम मूलाधार चक्र कहते हैं। त्रिकोणाकार अस्थि को मूलाधार कहा है। वहाँ कुण्डलिनी माँ बैठी है। उस त्रिकोणाकार अस्थि के नीचे श्री गणेश उनकी लज्जा की रक्षा करते हैं। अब आपको मालूम होगा श्री गणेश की स्थापना श्री गौरी ने कैसे की थी। उनकी शादी हुई थी पर अभी पति से भेंट नहीं हुई थी। उस समय वह नहाने गयीं और अपना (बदन का) मैल जो था उससे श्री गणेश बनाया। अब देखिए, हाथ में अगर चैतन्य लहरें (vibrations) है तो सारे शरीर में भी चैतन्य लहरें होंगी, तो वह चैतन्य गौरी माता ने मैल में ले लिया तो वह मैल भी चैतन्यमय हो गया और उसी मैल का उन्होंने श्री गणेश बनाया उसे अपने स्नानघर के बाहर रखा। अब देखिए, सामने नहीं रखा, क्योंकि स्नानघर से सारी गन्दगी बहकर बाहर आती है। अपने यहाँ बहुत से लोगों कों मालूम है। ये जो स्नानघर का बहता पानी है उस में लोग अरबी के पत्ते व कभी कभी कमल के फूल उगाते हैं और वहीं पर ही वे अच्छा उगते हैं। ठीक इसी तरह श्री गणेश का है, आश्चर्य की बात है कि सबसे गन्दी जगहों में ये कमल उगते हैं और वह अपने सुगन्ध से उस सारी गन्दगी को सुगन्धित कर देते हैं। ये जो उनकी शक्ति है वह आपके जीवन में भी आपकी बहुत मदद करती है। अपने में जो कुछ गन्दगी दिखाई देती है वह इस श्री गणेश तत्त्व के कारण दूर होती है। अब इस श्री गणेश तत्त्व से कुण्डलिनी का, माने श्री गौरी का, पहले पूजन करना पड़ता है। मतलब अपने में अबोधिता होनी चाहिए। आपको आश्चर्य होगा, जब अपनी कुण्डलिनी का जागरण होता है तब श्री गणेश तत्त्व की सुगंध सारे शरीर में फैलती है। बहुतों की, विशेषत: सहजयोगियों का जिस समय कुण्डलिनी जागरण होता है उस समय खुशबू आती है। क्योंकि श्री गणेश तत्व पृथ्वी तत्त्व से बना है। इस श्री महागणेश ने पृथ्वी बनायी है। तो अपने में जो श्री गणेश हैं, वे भी पृथ्वी तत्त्व से बने हैं। अब आपको मालुम है कि सारी सुगंध पृथ्वी से आती हैं। सारे फूलों की सुगंध पृथ्वी से आती है इसलिए कुण्डलिनी का जागरण होते समय बहुतों को विभिन्न प्रकार की सुगंध आती हैं। इतना ही नहीं बहुत से सहजयोगी तो मुझे कहते हैं, श्री माताजी, आपकी याद आते ही अत्यंत आती है । बहुतों को भ्रम होता है कि श्री माताजी कुछ इत्र वगैरा लगाती हैं। पर ऐसा नहीं है भाप खुशबू । अगर आप में श्री गणेश तत्त्व जागृत हो तो अन्दर खुशबू आती है। तरह-तरह की सुगन्ध मनुष्य के अन्दर से आती है। परन्तु कुछ दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो अपने आपको साधु-सन्त कहलवाते हैं और उन्हें सुगन्ध से नफरत है। अपने यहाँ किसी देवता का वर्णन आपने पढ़ा होगा, विशेषतः से २२ श्री गणेश तो सुगन्धप्रिय हैं, वे कुसुमप्रिय भी हैं, और कमलप्रिय हैं। वैसे ही श्री विष्णु के वर्णनों में लिखा है। श्री देवी के वर्णनों में लिखा है। इसका मतलब है कि जिन लोगों को सुगन्ध प्रिय नहीं व जिनको सुगन्ध अच्छा नहीं लगता उनमें कुछ भयंकर दोष हैं। वे परमेश्वर के विरोध में हैं, उनमें परमेश्वर शक्ति नहीं है। जिस मनुष्य को सुगन्ध विलकुल अच्छा नहीं लगता उसमें कुछ भयंकर दोष हैं और परमेश्वर के विरोधी तत्त्व बैठे हैं, यह निश्चित है क्योंकि सुगन्ध पृथ्वी तत्त्व का एक महान तत्त्व है। योगभाषा में उसके अनेक नाम हैं। परन्तु कहना ये है कि जो कुछ पंचमहातत्त्व हैं और उनके पहले उनके जो प्राणतत्त्व है, उस प्राणतत्त्व में आद्य या सर्वप्रथम सुगन्ध है। उसी तत्त्व से हमारी पृथ्वी भी बनी है। उसी प्राणतत्त्व से बना हुआ श्री गणेश है। तो श्री गणेश का पूजन करते समय प्रथम हमें अपने आप को सुगन्धित करना चाहिए। मतलब यह कि अपना जीवन अति सूक्ष्मता में सुगन्धित होना चाहिए। बाह्यत: मनुष्य जितना दुष्ट होगा, बुरा होगा उतना ही बह दुर्गंधी होता है। हमारे सहजयोग के हिसाब से ऐसा मनुष्य दुर्गंधी है। उपर से उसने खुशबू लगायी होगी तो भी वह मनुष्य सुगन्धित नहीं है। सुगन्ध ऐसा होना चाहिए कि मनुष्य आकर्षक लगे तो वह मनुष्य सच में सुगन्धित है। दूसरा, मनुष्य जिसमें से लालच और गन्दगी बाहर बह रही है उस मनुष्य के पास जाकर खड़े होने से गन्दा लगेगा । परन्तु ऐसे मनुष्य को देखकर कुछ लोगों को अच्छा भी लगता होगा। यह उनके दोष पर निभ्भर है। वे लोग श्री गणेश तत्त्व के नहीं हैं। श्री गणेश तत्त्व वाला मनुष्य अत्यंत सात्त्वक होता है। उस मनुष्य में एक तरह का विशेष आकर्षण होता है। उस आकर्षण में इतनी पवित्रता होती है कि वह आकर्षण ही मनुष्य को सुखी रखता है। अब आकर्षण की कल्पनाऐँ भी विक्षिप्त हो गयी हैं। इसका कारण है कि मनुष्य में श्री गणेश तत्त्व रहा नहीं है। अगर मनुष्य में श्री गणेश तत्त्व होगा तो आकर्षण भी श्री गणेश तत्त्व पर निर्भर है, सहज ही है। जहाँ आकर्षण (श्री गणेश तत्त्व) है वहाँ वह तत्त्व अपने में होगा। तभी अपने को आकर्षण महसूस होगा। एक बहुत ही सुप्रसिद्ध मोनालिसा का चित्र है। आपने सुना होगा 'लिओनार्द-द-विची' ने उसे बनाया है। बहुत ही सुन्दर चित्र है और उसे पॅरिस म्यूज़ीअम में रखा हुआ है। अगर उस चित्र को या उस औरत को देखें तो आजकल के मॉडर्न औरतों की दृष्टि से और ब्यूटी के बारें में जो मॉडर्न आयडियाज़ है, उसकी दृष्टि से उसे कभी भी ब्यूटी क्वीन नहीं कह सकते और उसके चेहरे पर एक स्मितहास्य है जिसे 'मोबाईल स्माईल ऑफ मोनालिसा' कहते हैं और उस स्माईल पर हजारों साल मेहनत करके भी लोग इस तरह का चित्र निकाल नहीं सके। उसमें प्रमुख क्या है; वो उसका पावित्र्य। उस चित्र में इतनी पवित्रता है कि उसी से वो आकर्षक हुआ है। पर आजकल के मॉडर्न युग में, विचित्र और विकृत भावनाओं के पीछे भी, मुझे आश्चर्य हो रहा है कि हजारो लोग वो चित्र देखने के लिए वहाँ आते हैं। अगर जिस दिन वो चित्र वहाँ नहीं होगा तो कोई भी अन्दर नहीं जाता। इतना बड़ा म्यूज़ीअम है फिर भी कोई अन्दर जाने के लिए तैयार नहीं। परन्तु आजकल के आधुनिक युग में अगर आपने पवित्रता की बातें की तो आप में जो बड़े-बड़े बुद्धिजीवी लोग हैं, उन्हें यह बिलकुल मान्य नहीं होगा। उन्हें लगता है ये सब पुरानी कल्पनाएँ हैं। और इसी पुरानी कल्पनाओं से कहते हैं यह मत करो, वह मत करो, ऐसा मत करो, वैसा मत करो, ऐसा नहीं करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए। इस तरह से आप लोगों की conditioning करते हैं। ऐसी बातों से फिर मनुष्य बुरे मार्ग की तरफ बढ़ता है। कहने का मतलब है कि मनुष्य में पवित्रता माँ-बाप की संगति से आती है। प्रथमतः अगर माँ पवित्र नहीं होगी तो बेटे का पवित्र रहना बहुत मुश्किल है। परन्तु कोई ऐसा एक जीव होता है जो अत्यंत बुरी औरत के यहाँ जन्म लेता है और वह इसलिए पैदा होता है कि उस औरत का उद्धार हो जाए। और वह खुद बहुत बड़ा जीव होता है। विशेष पुण्यवान आत्मा होती है। मतलब जैसे गन्दगी में कमल का फूलना वैसे ही वह मनुष्य जन्म लेता है। लन्दन में विशेष कर के मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि वहाँ ऐसे कई बालक है जिनकी माँओं को हम द्वार पर भी खड़े नहीं कर सकते निसर्गतः अगर माँ पवित्र होगी तो लड़का या लड़की पवित्र होती है, या सहजता में उन्हें पवित्रता प्राप्त होती है। पवित्रता में सर्वप्रथम बात है, उसे अपने पति के लिए निष्ठा होनी जरुरी है। अगर श्री पार्वती में श्री शंकर के लिए निष्ठा नहीं तो उस में क्या कोई अर्थ है? श्री पार्वती का श्री शंकर के बिना कोई अर्थ नहीं। वह श्री शंकर से ज्यादा शक्तिशाली हैं। परन्तु वह शक्ति श्री शंकर की है। श्री सदाशिव की वह शक्ति प्रथम शंकर की शरण गयी है, तभी वह शक्तिशाली मानी गयी, परन्तु वह उनकी शक्ति है। परमेश्वर की व अन्य देवताओं की बातें अलग होती हैं और मनुष्य की अलग मनुष्य की समझ में ये नहीं आएगा। उन्हें समझ में नहीं आएगा, पति और पत्नी में इतनी एकता कि उनमें दो हिस्से नहीं है। जैसे चंद्र और चंद्रिका या सूर्य और सूर्य की किरणें, वैसी उनमें एकता मनुष्य के समझ में नहीं आएगी। मनुष्य को लगता है पति और पत्नी में लड़ाईयाँ होनी ही चाहिए। अगर लड़ाईयाँ नहीं हुई तो ये कोई अजीब बात है। एक तरह का एक अत्यंत पवित्र बंधन पति व पत्नी में या कहना चाहिए श्री सदाशिव व श्री पार्वती में है और अपना पुत्र श्री गणेश श्री पार्वती ने केवल अपनी पवित्रता और संकल्प से पैदा किया है। कितनी महानता है उनकी पवित्रता में ! उन्होंने यह संकल्प से सिद्ध किया हुआ है। सहजयोग में हमने हमारा जो कुछ भी पुण्य है वह लगाया है। उससे जितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार देना संभव है उतनों को देना यही एक हमारे जीवन का अर्थ है। फिर भी कोई हमें 'श्री माताजी देवी हैं' कहता है तो वह पसन्द नहीं। ऐसा कुछ नहीं कहना। क्यों कहना है? लोगों को यह पसन्द नहीं है। क्या जरुरत है ा हुए ाि 1 यह कहने की ? उन्हें गुस्सा २३ संद आएगा। अपने से कोई ऊँचा है, ऐसा कहते ही मनुष्य को गुस्सा आता है। परन्तु धूर्त लोगों ने अपने आप को देवता या भगवान कहलवाया तो लोग उनके सामने माथा टेकते हैं। उन्हें वे एकदम भगवान मानने लगते हैं, क्योंकि वे बेवकूफ बनाने की प्रेतविद्या, भूतविद्या व श्मशान विद्या, सम्मोहन विद्या काम मे लाते हैं। उससे मनुष्य का दिमाग काम नहीं करता। उन्हें बिलकुल नंगा बनाकर नचाया या पैसे लूट कर दिवालिया बनाया तो भी चलेगा, पर वे उन्हें भगवान कहेंगे। परन्तु जो सच्चा है उसे पाना होता है। और अगर वो आप पा लेंगे तो आप समझेंगे उसमें कितना अर्थ है और क्यों ऐसा कहना पड़ता है? वह मैं आज आपको बताने जा रही हूँ। मतलब श्री गणेश को अगर आपने भगवान नहीं माना तो नहीं चलेगा । परन्तु वह प्रत्यक्ष में नहीं दिखाई देता। इसलिए लोगों की समझ में नहीं आता। एक डॉक्टर भी घर में श्री गणेश की फोटो रखेगा, उसे कुंकुम लगाएगा, टीका लगाएगा। परन्तु उसे अगर आपने बताया कि श्री गणेश तत्त्व आपके शरीर में स्थित है और उससे आपको कितने शारीरिक फायदे होंगे तो वह ये कभी भी मानने को तैयार नहीं होगा। परन्तु उन्हें मैंने कहा, आप श्री गणेश की ये फोटो उतारकर रख दीजिए, तो ये भी वे मानेंगे नहीं। लेकिन मैंने ये कहा श्री गणेश तत्त्व के बिना आप हिल भी नहीं सकते तो वे ये बात मानने को तैयार नहीं हैं। अब देवत्त्व आप नहीं मानते परन्तु सहजयोग में श्री गणेश को मानना ही पड़ेगा। उसका कारण है कि आपको कोई बीमारी या परेशानी इस गणेश तत्त्व के कारण हुई होगी तो आपको श्री गणेश को ही भजना पड़ेगा। मतलब कि आपमें स्थित श्री गणेश नाराज होते हैं तो आपका श्री गणेश तत्व खराब होता है और आपको प्रोस्टेट ग्लैंड की तकलीफ व यूट्स का कैन्सर वगैरा होता है। श्री गणेश तत्त्व को अगर आपने ठीक से नहीं रखा, मतलब अपने पुत्र से अगर ठीक से व्यवहार नहीं किया, माने आपमें मातृत्व की भावना नहीं हो तो इन सब बातों के कारण यूट्रस का कैन्सर होता है । एक बात बताती हैं। हमारे एक शिष्य हैं अग्निहोत्री। उनका नाम राजवाडे हैं पर उन्होंने अग्नि के बड़े बड़े यज्ञ किये इसलिए वे अग्निहोत्री है। बहुत अच्छे सहजयोगी है। २-३ साल पहले एक दिन मेरे पास आए और बोले, 'मुझे कुछ तकलीफ नहीं, सिर्फ प्रोस्टेट की तकलीफ है।' मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। ये इतने बड़े गणेश भक्त और सहजयोगी, इनको प्रोस्टेट की तकलीफ कैसे होगी? क्योंकि प्रोस्टेट की तकलीफ गणेश तत्त्व खराब होने से होती है। उनके उपर श्री गणेश कैसे रुठ सकते हैं ? क्योंकि ये बहुत अच्छे सहजयोगी ओर मुझपर उनकी श्रद्धा है और बहुत ही भोले है। तो ये गणेश तत्त्व इनके हाथ में कैसे उल्टे चलने लगे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने कहा, 'लीजिए थोड़ा प्रसाद।' प्रसाद के तौर पर चने रहते है। उसे देने के बाद उनके साथ जो थे, वो कहने लगे, आज दादा कुछ २४ खाते नहीं है।' मैंने पूछा, 'क्यों? आज क्यों नहीं खाते आप?' तो कहने लगे, 'सब कहते है कि संकष्टी को चने नहीं खाते।' मैंने कहा यहीं पर गलती हुई है। संकष्टी मतलब श्री गणेश का जन्मदिन। आप सब पढ़े लिखे लोग, किसीने कुछ कहा फिर भी अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। संकष्टी और गणेश चतुर्थी ये उनके जन्मदिन है। उनके जन्मदिन पर आप उपवास रखेंगे, मतलब किसी की मृत्यु पर सूतक रखने जैसा हुआ। जब घर में कोई मर जाता है तो ही हम खाना नहीं खाते। अगर आपके घर लड़का या नाती हो गये तो आप मिठाई बाटेंगे, मेजवानी देंगे। तो श्री गणेश के जन्म पर आप क्या उपवास रखेंगे ? फिर तो प्रोस्टेट की तकलीफ होगी ही। फिर यूट्रस का कैन्सर। श्री गणेश तत्त्व के साथ आप अगर अच्छा ब्ताव नहीं करोगे तो यूट्स की तकलीफ होगी। श्री गणेश तत्व बहुत पवित्र नियम हैं, उनका अगर आपने ठीक से पालन नहीं किया तो आपको ऐसी तकलीफें होती हैं। परन्तु इन तकलीफों का संबंध डॉक्टर श्री गणेश तत्त्व के साथ नहीं जान सकते । पर उनका संबंध श्री गणेश के ही साथ है। वे यहाँ तक ही जानते हैं कि प्रोस्टेट ग्लैण्ड खराब है या ज्यादा से ज्यादा पेल्विक प्लेक्सस खराब हो गया है। परन्तु इसके पीछे जो परमात्मा का हाथ है, मतलब अंतज्ञांन का या यों कहिए परोक्ष ज्ञान से जो जाना जाता है, जो ऊपरी ज्ञान से परे है, जो आपको दिखाई नहीं देता, उसके लिए आपके पास अभी आँखे नहीं है, संवेदना नहीं है, अभी तक आपकी परिपर्ति नहीं हुई है, तो आप कैसे समझोगे कि ये तकलीफें श्री गणेश तत्त्व खराब होने से हो गयी हैं। श्री गणेश हम से नाराज हैं, तो उन्हें प्रसन्न किये बिना हम सहजयोग नहीं पा सकते। ऐसा कहते ही वे डॉक्टर एकदम बिगड़ गये 'हम श्री गणेश को मानने को तैयार नहीं, हम केवल विज्ञान को ही मानते हैं।' फिर देख लीजिए आपका कैन्सर श्री गणेश तत्व को माने बगैर ठीक नहीं होने वाला। श्री गणेश तत्त्व खराब होने से कैन्सर होता है। श्री गणेश तत्त्व हर जगह प्रत्येक अणु-रेणु (कण- कण) में सब तरफ संतुलन देखते हैं। हम कैन्सर ठीक करते हैं, किया है और करेंगे। पर ये हमारा व्यवसाय नहीं है। तो ये श्री गणेश तत्त्व कितना महत्त्वपूर्ण है, उसे जितनी महत्ता दें उतनी कम है। कुछ ये अत्यन्त सुन्दर चार पंखुडियों से बना श्री गणेश तत्त्व हम में हैं। इस चार पंखुडियों के बने हुए गणेश तत्त्व में बीचोबीच बैठे गणेश हमारे शरीर में हैं। मतलब अपने शरीर में उनके एक-एक अंग है। उनके अनेक अंग हैं। उसमें से पहला अंग मानसिक अंग। मानसिक अंग का जो बीज है वह श्री गणेश तत्त्व का है। इच्छाशक्ति, माने जो बायें तरफ की शक्ति है, जो अपने में सारी भावनाएँ पैदा करती है, उन भावनाओं के जड़ में श्री गणेश बैठे हैं। अगर कोई मनुष्य पागल है तो फिर उसका श्री गणेश तत्त्व खराब होना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं है कि वह मनुष्य अपवित्र है। परन्तु इसकी पवित्रता को किसी के ठेस पहँचाने पर उसे ऐसा होता है। किसी मनुष्य को अगर दूसरे लोगों ने बहुत सताया तो भी उसका श्री गणेश तत्त्व खराब हो सकता है। क्योंकि उसे लगता है कि परमेश्वर है और अगर श्री गणेश है तो इस मनुष्य को वे मार क्यों नहीं देते ? इस तरह के सवाल उसके मन में आने पर धीरे-धीरे उसकी बायीं बाजू खराब होने लगती हैं। अब देखिए, गणेश त्त्व का कितना संतुलन है। अगर आपने बहुत परिश्रम किया और तकलीफें उठायी, बुद्धि से बहुत मेहनत करी और आगे का, माने भविष्य का बहुत विचार किया (आजकल के लोगों में एक बीमारी लगी हुई है सोचने की) माने बहुत ज्यादा विचार किया और उसमें कहीं संतुलन नहीं रहा तो आपकी बायीं बाजू एकदम खराब हो जाती है। वह जम जाती है और दायीं तरफ अधिक बढ़ जाती है। उससे बायीं तरफ की जो बीमारियाँ हैं वह सब गणेश तत्त्व खराब होने के कारण होती है। उसमें डायबिटीस ये बीमारी श्री गणेश तत्त्व खराब होने के कारण होती है। श्री गणेश की जो संतुलन व्यवस्था है, वे यह बीमारी ठीक करने के लिए लगाते हैं। ऐसा मनुष्य तुरन्त काम-काम करता है। उसी प्रकार हृदयविकार (दिल की बीमारी) भी है अगर आपने बुद्धि से बहुत ज्यादा काम किया तो हृदयविकार होता है। क्योंकि श्री गणेश जी का स्वस्तिक अपने शरीर में बना है वह दो बाती की तरह दिखने वाली शक्तियाँ होती है और ये एक के अन्दर एक पायी जाती है। एक बायी तरफ की शक्ति महाकाली की इस तरह आती है व दूसरी दायीं तरफ की शक्ति महासरस्वती की । बीचोबीच जहाँ उनका मिलन बिंदु है वो मिलन बिन्दु केवल महालक्ष्मी शक्ति के बीच की खड़ी रेखा में है। बायें तरफ की सिंपथेटिक न्वस सिस्टम जो है वह महाकाली की शक्ति से चलती है। माने, इच्छाशक्ति से चालित है। अब किसी मनुष्य की इच्छा के विरोध में बहुत कार्य हुआ और उसकी एक भी इच्छा पूरी नहीं हुई तो वह पागल हो जाता है। उसे हार्टोंटैक (दिल का दौरा) नहीं आता है। हार्ट अॅटैक उन लोगों को आता है जिनको बहुत ज्यादा चाहिए, बहुत प्लॅनिंग चाहिए। वो करना होता है, देशकार्य के लिए निकलते हैं, राष्ट्रकार्य के लिए निकलते हैं कुछ लोग तो ऐसे ही होते है, ये केवल उनका भ्रम होता है। किसी ने कुछ किया ही नहीं है, किया होता तो वो दिखता। सिर्फ आपस में झगड़े लगाये हुए है। वरना उन्हें हृदय विकार का झटका होता है। मतलब ऊपर कही गयी सारी बीमारियां अति सोचने से होती हैं और उसका संतुलन श्री गणेश लाते हैं। ये श्री गणेश का काम है। आपने देखा होगा कि लोग कितनी भी जल्दी में हों, तब भी श्री गणेश का मन्दिर देखते ही नमस्कार कर लेंगे। सिद्धिविनायक के मन्दिर में भी कितनी बड़ी लाइन लगती है। परन्तु उससे कोई लाभ है? वह करके तब ही फायदा होगा, जब आप में आत्मसाक्षात्कार आया होगा अगर आप में आत्मसाक्षात्कार आया नहीं तो आपका परमात्मा से कनेक्शन (सम्बन्ध) नहीं होगा। कौन झूठा गुरू है, कौन सच्चा गुरू है, ये भी आपके समझ में नहीं आएगा। मतलब, आपमें ये जो बीज़ श्री गणेश का है, वह २५ १ कुण्डलिनी उठने पर उसको सर्वप्रथम समझा देते हैं और ये कुण्डलिनी दिखा देती है उस मनुष्य को कौन सी तकलीफ है। अगर किसी को लीवर (जिगर) की तकलीफ होगी तो वह (कुण्डलिनी) वहाँ जाकर धपधप करेगी। आपकी आँखों से दिखाई देगी। अगर आपका नाभी चक्र पकड़ा हुआ होगा या नाभी चक्र पर पकड़ आयी होगी, तो नाभी चक्र के पास कुण्डलिनी जब उठेगी तब आप अपनी आँखों से उसका स्पंदन देख सकते हैं। किसी व्यक्ति को अगर भूतबाधा होगी तो वह पूरी पीठ पर जैसे धकधक करेगी आपको आश्चर्य होगा । हमने उस पर फिल्म ली है। आपको उसमें धकधक स्पष्ट दिखेगा। कुण्डलिनी हमसे जागृत होती है इसमें कोई शक नहीं है। कुण्डलिनी उठती है परन्तु अगर श्री गणेश तत्त्व खराब होगा तो श्री गणेश उसे फिर नीचे खींच लेते है । वह ऊपर आयी हुई भी वापस नीचे आ जाएगी। मतलब सर्वप्रथम आपको श्री गणेशतत्त्व सुधारना पड़ेगा। उनकी खासियत यह है कि अगर कुण्डलिनी को उपर लाकर बाँध दी जाए फिर भी वह नीचे आ जाती है। और उन्होंने गणेश तत्त्व को क्या हानि पहुँचायी वो मुझे पता नहीं। उन्हेोंने वहाँ क्या कर रखा है ये हमें पता नहीं। पाँच बार ऊपर कुण्डलिनी को उठाया तो भी वह नीचे गिर जाती है। इसलिए इसकी वजह ढूँढने के लिए मैं गुरु जनों के पास भी जा कर आयी हूँ। तभी मैंने देखा कि बहुत से लोग अनुचित तरीके से कार्य करते है। पहले तो वो किसी न किसी कार्य से गणेश तत्त्व को खराब करते है और वो कहते है कि कुण्डलिनी को उठाने के लिए हमें नीचे हाथ ड्ालना पड़ता है । मतलब देखो श्री गणेश तत्त्व अपनी माँ की लज्जा रक्षणार्थ छोटे बालक जैसे वहाँ बैठे हैं और गणेश तत्त्व से अपने सेक्स को चालना मिलती है इसलिए जो लोग ऐसा कहते है कि सेक्स से हम कुण्डलिनी जागृत करेंगे, मतलब वो ऐसा कहते हैं कि श्री गणेश का बुरा संबंध उनकी कुण्डलिनी से, माने उनकी माँ से लगा रहे है। वो वही बैठे है अगर वो उस मार्ग से जाता है तो वो उसे तड़ाक मारते है। हमारे यहाँ बहुत लोग आते है, जो ये कहने के लिए आए कि हमारी कुण्डलिनी जागृत हुई है। मैने कहा, 'ऐसा क्या? क्या हो रहा है?" कुण्डलिनी जागृत होने पर हाथ में ठण्डी हवा आनी चाहिए। किसी किसी लोगों में बहुत गर्मी होती है । वह श्री गणेश तत्त्व के खराब होने से होती है । दिल्ली के पास रहने वाले एक आदमी ने मुझे तार दिया था कि, माताजी, मेरी कुण्डलिनी जागृत हो गयी है। में क्या करुं?' तब मैं मुम्बई में थी। मैने कहा उसे तार करके बुला लीजिए। पर जब मैं वहाँ से निकली तब वे वहाँ आ गये। तब मेरी भाभी कह रह थी की वे इधर-उधर दौड़ रहे थे। जैसे उन्हें हजारों चिंटीयों या बिच्छूओं ने ड्रसा हो। दिल्ली में एक गृहस्थ है डॉ. बत्रा करके, RE वो ऐसे ही किसी प्रोग्राम में आये हुए थे। वो कहने लगे, श्री माताजी, एक महिने से मुझे तकलीफ हो रही है।' उसे हजार बिच्छू काट रहे हैं। तब मैंने कहा दो मिनट बैठिए। उनसे बिलकुल बैठा नहीं जा रहा था। तब मैंने उनके पास जाकर उन्हें शांत किया पाँच मिनट में इसका कारण, ये पृथ्वी माता। वे जमीन पर खड़े थे। आप आज जमीन पर बैठे हो मुझे बहुत खुशी हुई। आज बिलकुल सभी बातें मिल गयी हैं। उस पृथ्वी माता ने उनकी सारी गरमी खींच ली। अब आप कैसे पृथ्वी माता से कहेंगे कि हे पृथ्वी माता, आप हमारी सारी गर्मी निकाल लीजिए। वह नहीं निकालेगी, पर सहजयोगी की वह निकाल लेगी आपमें जागृत होने पर वही तत्व इस पृथ्वी में होने के कारण, उसी त्व पर यह पृथ्वी चलने के कारण, वह सब खींच लेती है। और इसलिए अपने में यह तत्त्व जागृत रखना चाहिए और वह पवित्र रखना चाहिए। इतना ही नहीं सहजयोग में वह सहजयोगी जो पवित्रता की मूर्ति है उसे चलाने वाला बादशाह श्री गणेश है। उस देश में वह राज्य करता है। ऐसे श्री गणेश को तीन बार नमस्कार करके उसका पावित्र्य अपने में लाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। । उसका कारण है कि एक बार श्री गणेश तत्त्व अब जो बातें करनी नहीं चाहिए और जो लोग कहते हैं, जिनका बहुत बोल-बाला हुआ है और इसी तरह बहुत से तान्त्रिकों ने भी हमारे देश में आक्रमण किया है। उनका आक्रमण राजकीय नहीं है, फिर भी वह इतना अनैतिक और इतना घातक है कि उस की तकलीफें हम आज उठा रहे हैं। इस तान्त्रिकों ने सारी गन्दगी फैला रखी है। इसका कारण ये है कि उस समय के राजा लोग बहुत ही विलासी, बेपरवाह थे। इस तरह के लोगों के पैसों पर तान्त्रिक ने मजा उड़ाया। ज्यादा पैसा होने से यही होता है; सबसे पहले श्री गणेश तत्त्व खराब । पैसा ज्यादा होने से, वह पहले श्री गणेश तत्त्व के पीछे पड़ता है। जवान लड़कियों के पीछे पड़ना, छोटी, अबोध लड़कियों को सताना, ये सब श्री गणेश तत्त्व खोने की निशानियाँ हैं। ये तान्त्रिक लोग भी यही करते हैं। कोई अबोध नारी दिखायी देने पर उसे मारना। अपनी ही अबोधिता खत्म करना। इससे मालूम होता है कि ये विलासी लोग परमात्मा से दूर रहे हैं। इसी प्रकार अनेक कर्मठ लोग, जिन्होंने परमेश्वर के पास जाने का बहुत प्रयत्न किया, फिर भी परमेश्वर उन्हें नहीं प्राप्त हुए। अपने में विलासिता की तरह कर्मठता भी बहुत है। महाराष्ट्र में तो कर्मठता कुछ ज्यादा ही है। मतलब सुबह ६३ बार हाथ धोना जरूरी हैं। किसने बताया पता नहीं! अगर उस औरत ने ६२ बार धोये, ६३ बार नहीं धोये तो उसे नींद नहीं आएगी। कुछ तो बातियाँ बनाना ही चाहिए (महाराष्ट्र में दीपक की बत्तियाँ बनाने का काम बूढ़ी औरतें बहुत करती है।) कुछ अमुक लाख जप होना ही चाहिए। परन्तु जो करना जरुरी है, वह उनसे नहीं होता। मतलब वक्तियाँ बनाते समय अपनी बहुओं की या लड़कियों की बुराईयाँ करना; इस तरह की अजीब बातें हमारे यहाँ हैं। तो कहना है कि सहजयोग इस तरह के लोगों में नहीं फलने वाला। 'येऱ्या गवाळ्याचे काम नोहे' (ऐसे ऐरेगैरों का ये काम नहीं ) । श्री रामदास जी ने हमारे काम की पूर्वपीठिका बनायी है। अगर आपने 'दासबोध' पढ़ा तो आपको कुछ बताने की जरूरत नहीं।('दासबोध' गुरू रामदास जी का लिखा हुआ मराठी ग्रन्थ है।) उन्होंने ये सारा बताया हुआ है और वह सच है। जिस मनुष्य में उतना धैर्य है और जो सचमुच उतनी ऊँचाई का होगा, उसी मनुष्य को सहजयोग प्राप्त होगा। सबको नहीं होगा। मतलब चैतऱ्य लहरियाँ आएंगी, पार भी होंगे पर उसमें फलने वाले थोड़े है। हमने हजारो लोगों को जागृति दी। क्योंकि लोगों की नजर ही उल्टी तरफ जाती है तो हमें ही जागृत करना पड़ेगा और वैसा ही समय आया है। अगर अब सहजयोग नहीं हुआ तो ये परमेश्वर के घर का न्याय है ये आपको समझ लेना चाहिए। अब ऐसा कुछ नहीं चलेगा । अभी आपको पार होना पड़ेगा। आगे जो कुछ होने वाला है वहाँ पर फिर आपको अवसर मिलने वाला नहीं। उस समय 'एकादश रुद्र' आने वाले हैं। एक ही रुद्र इस पूरे विश्व को खत्म करने के लिए काफी है और एकादश माने ग्यारह, जब ग्यारह रुद्र आएंगे तब आप उनकी कल्पना नहीं कर सकते। वे पूरी तरह खत्म कर देंगे। उससे पहले जिन लोगों को चुनना है वह हो जाएगा। वह न्याय अभी सहजयोग से होगा और लोगों को उसे पाना चाहिए। पर ज्यादातर लोगों का ये होता है कि छोटी-छोटी बातों को लेकर बैठ जाना और चले जाना। अगर हम कुछ पैसे लेते और पाखंड रचते तो लोगों को पसन्द आता। 1 ार मतलब मनुष्य के अहंकार को बढ़ावा दिया जाए तो मनुष्य आने के लिए तैयार है। परंतु सहजयोग में कहना तो ये है कि सब परमात्मा का कार्य है। तो ये सब सहज घटित होता है। उसे पैसे की जरूरत नहीं है। एक फूल से जैसे फल बनता है, वैसे ही आपका भी होने वाला है। जिस तरह आपको नाक, आँखें, मुँह और ये स्थिति मिली है, उसी तरह 'अतिमानव स्थिति' परमेश्वर ही आपको देने वाले हैं, ये उनका दान है । वह आपको जो दे रहे हैं उस में आप कुछ नहीं बोल सकते। ये भूमिका मानने को मनुष्य बिल्कुल तैयार नहीं है। उसे इतना अहंकार हुआ है कि उसे लगता है मैं जब तक सर के बल दस दिन खड़ा नहीं होऊँगा तब तक मुझे कुछ मिलने वाला नहीं है। पहले ये समझना चाहिए कि जिस परमात्मा ने ये अनन्त चीजज़ें बनायी हैं उसमें से हम एक भी नहीं तैयार कर सकते। कोई भी जीवन्त कार्य आप नहीं कर सकते, वहाँ हम अतिमानव कैसे बने। परन्तु इतना ही होता है कि पार होने पर मनुष्य को मनुष्य योनि में ही मालूम होता है कि मैं पार हो गया हूँ। ये पहली बात है । दूसरी, उसमें वह शक्ति आती है कि जिससे वह दूसरों को पार करा सकता है। उसमें से वह शक्ति बहने लगती है। वह एक-एक करके अनेक हो सकता है। मतलब उसे देवत्त्व प्राप्त होता है। वह स्वयं देवत्त्व में उतरता है। अब ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अच्छे-अच्छे गुरु बनाये हैं। गुरू बड़े-बड़े हैं, पर उनके शिष्यों में मैंने देवत्व आया हुआ २७ ा तिस ि १ नहीं देखा । उनमें परिवर्तन नहीं हुआ। वे जहाँ पर हैं वहीं पर हैं। क्योंकि, शिष्य भी हुए तो भय के कारण, या श्रद्धा से वे पूरी तरह घटित नहीं हुए हैं। वह घटना घटित नहीं हुई है। वह परिवर्तन अन्दर से नहीं आया है । मतलब इनकी अगर जड़ें ही ठीक करनी हैं या फूल का फल बनाना है तो पूर्णत: बदलना पड़ता है। ऐसी स्थिति अभी किसी की नहीं आयी है। तो कहना ये है कि उसके लिए अपना श्री गणेश तत्त्व जागृत होना चाहिए। उसे आपको सर्वप्रथम संभालना चाहिए। आजकल के जमाने में हम तरह-तरह के सिनेमा नाटक देखते हैं, विज्ञापन देखते हैं और पढ़ते हैं। कुछ विज्ञापन तो पूरी तरह अश्लीलता से भरे रहते हैं और पूरी तरह की उनमें अपवित्रता है । और ये जो शहरों में हुआ है वही अब गाँवो में भी गया है। उससे कुछ लोग इतने दु:खी हैं कि अब रात-दिन उनकी योजना बन रही है कि हम किस प्रकार आत्महत्या करें। यह उनकी स्थिति है। तो आपने उनके मार्ग पर चलते समय ठीक से सोचना चाहिए। उसी प्रकार रूढ़ीवादी लोगों को सोचना होगा, हर एक पुरानी बात हम क्यों कर रहे हैं? हम मनुष्य स्थिति तक आये हैं, तो हमको इसका अर्थ जानना होगा। जिन्दगीभर वही-वही बातें करने में कोई अर्थ नहीं है। जैसे-जैसे लोग परमेश्वर को तत्त्वतः छोड रहे हैं वैसे-वैसे वे केवल परमेश्वर के नाम से चिपके हैं। सुबह उठकर भगवान को दिया दिखाया, घंटी बजायी कि हो गया काम पूरा । इस तरह का बर्ताव करने वाले लोग हैं ; उन्हें समझ लेना होगा कि इस तरह की फिजूल की बातों से परमात्मा कदापि प्राप्त नहीं होंगे। परमात्मा आप में है उन्हें जागृत करना पड़ेगा और हमेशा जागृत रखना पड़ेगा, और दूसरों में वह जागृत करना चाहिए। कुण्डलिनी माँ है और श्री गणेश उनकी कृति हैं और श्री गणेश उनकी जड़ हैं। 1 हुए आपमें जो कुण्डलिनी है वह श्री गणेश के हाथ पर घूमती है । श्री गणेश के हाथ में क्या है ये आपने देखा होगा। उनके पेट पर एक सर्प बंधा रहता है। यों कहा जाए तो श्री गणेश के चार ही हाथ हैं, परन्तु सच कहा जाए तो उनके अनन्त हाथ हैं। जिस हाथ में सर्प दिखाते हैं वही ये कुण्डलिनी है। उसी प्रकार हमारे सहजयोगियों का है। आश्चर्य की बात ये है कि सहजयोगी ये जो पार होते हैं उनके हाथ पर कुण्डलिनी चढ़ती है। उनके हाथ ऊपर करते ही दूसरों की कुण्डलिनी ऊपर उठती है। मतलब अब छोटा सा सहजयोगी लड़का भी कुण्डलिनी ऊपर उठाता है दो-दो साल के बच्चे, पाँच-छः महीने के बच्चे आपको कहेंगे, आपकी कुण्डलिनी कहाँ पर अटकी है. उसकी क्या स्थिति है। मेरी नाती सात-आठ महीने की थी, तब ये श्री मोदी मेरे यहाँ आए थे, और उनका आज्ञा चक्र पकड़ा हुआ था तो बातें करते करते उनकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह घुटनों पर चलते चलते अपने हाथ में कुमकुम की डिबिया लेकर आयी और उनके माथे पर कुमकुम लगाया और उनका आज्ञाचक्र उसने छुड़ाया। हर वक्त उसका यही काम हुआ करता था। यही मैंने मेरे ऑऔर सहजयोगियों के बच्चों में देखा है। कितने लोग जन्म से ही पार हैं। जन्म से पार होना कितनी बड़ी बात है। मतलब, साक्षात जन्म से ही पार अब संसार में पैदा हो रहे हैं। उसके लिए सन्यास की जरूरत नहीं है। जिसे सन्यास लेने की जरूरत लगती है समझो वे अभी तक पार नहीं हुए हैं। पार होने के बाद आप अन्दर से छूटते जाते हैं। ऐसा होने से संन्यास बाहर से लेने की जरूरत नहीं है। यदि अन्दर से सन्यास लिया है तो उसका प्रदर्शन व विज्ञापन करने की क्या आवश्यकता है? अगर आप पुरुष हैं तो आप के चेहरे को देखकर ही लोग कहंगे ये पुरुष है या स्त्री है। उसका आप विज्ञापन लगाकर तो नहीं घूमते कि हम पुरुष हैं, हम ्त्री हैं। उसी तरह ये हो गया। आप मन से सन्यासी हैं तो बहुत कुछ होने पर भी अन्दर से इस शरीर में सांसारिक, पारमार्थिक सुख, समाधान बर्गैरेह सहजयोग में सहज मिलता है। उसके लिए संन्यास से (प्रपंच से) जाने की भी आवश्यकता नहीं है। श्री शंकर जी की जो स्थिति है या कहिए श्री शंकर जी ने जो स्थिति प्राप्त करी है उसके लिए उन्हें भी श्री गणेश निर्माण करने पड़े। उसी प्रकार आपको भी श्री गणेश निर्माण करने होंगे। अभी ये कहा जा रहा है कि हिन्दुस्तान में जन संख्या बहुत अधिक है। मैं कहती हैँ कि और कहाँ बढ़ेगी जन संख्या । इग्लैंड में माईनस हो रही है, जर्मनी में माईनस हो रही है, अमरिका में माईनस हो रही है, वहाँ कोई समझदार जन्म ही नहीं ले सकता। वे सब अपने इधर ही आएँगे। क्योंकि वहाँ हर आठ दिन में बच्चों को माता-पिता मारते है। ये वहाँ का सांख्यकी है। तो कौन समझदार वहाँ जन्म लेगा। मजे की बात देखिए, वहाँ की भाषा में 'दूडदूड धावणे' (छोटे बच्चे का मंदगति से क्रीड़ामय आमोदकारी भागना-दौड़ना) इस क्रिया का प्रतिशब्द ही नहीं है । छोटे बच्चों को वे कभी भागते दौड़ते हुए देखते भी हैं कि नहीं पता नहीं। यहाँ 'दूडदूड धावणे' वात्सल्य रस है। अपने यहाँ श्री कृष्ण का, श्रीराम का बचपन का वर्णन पढ़ते समय आनन्द होता है। परन्तु आपको उनकी भाषा में येशु ख्रिस्त का बचपन का वर्णन कहीं नहीं मिलेगा। पाश्चिमात्य देशों में नयी-नयी मूर्खतापूर्ण कल्पनाएँं बनाकर उन्होंने अपने जीवन से अबोधिता खत्म कर दी है। वे कहते हैं, बच्चों ने दुबला-पतला रहना है। पुष्ट नहीं होना है क्योंकि उनके आदर्श सिनेमा के अभिनेता, अभिनेत्रियाँ है। वहाँ पर सभी तरह की और सुविधा होते हुए भी वहाँ के लोग बच्चों को प्यार नहीं देते। छोटा बच्चा जन्मने पर उसकी माँ उसकी हिन्दुस्तानी माँ की सुबत्ता तरह परवरिश नहीं करती, उसे एक कमरे में ड़्ाल देती है। इसलिए बचपन में वहाँ के बच्चों को माँ की ममता व प्यार नहीं मिलता। बचपन से ही वे अपने बच्चों को अलग कमरे में डाल देती है और कुत्ते और बिल्ली को मात्र अपने बेडरुम में रखती है। जब मेरी बेटी और उनके बच्चे आने वाले थे तब हमारे साहब (पति) की सेक्रेटरी, जिनको कोई बच्चा नहीं था, वे कहने लगी कि, 'आप अपसेट होंगी?' मैंने कहा, 'क्यों ? बच्चें आ रहे हैं इसलिए में बहुत खुश हूँ।' वे बोली, नहीं, आपका घर गन्दा हो जाएगा। मैंने कहा होने दो गन्दा। हमारे यहाँ ऐसे विचार तक नहीं आते। मतलब, अगर आप गणेश तत्त्व की ओर ध्यान नहीं दोगे तो वह अहंकारी हो जाता है। जो बड़े राजकीय नेता होते है, उनका चारित्र्य अगर आप देखे तो एकदम जीरो (शून्य)। उसका कारण यही है (अहंकार)। क्योंकि मनुष्य को इगो हो जाने पर वह दायीं तरफ से बढ़ने लगता है। दायीं बाजू के बढ़ने से इगो आता है और इगो आने से श्री गणेश क्या है? और श्री गणेश तत्त्व क्या है? पवित्रता माने क्या ? 'मैं ही सबकुछ हूँ', ऐसा जो समझता है उसका ये श्री गणेश तत्त्व नष्ट हो जाता है। परन्तु उसका एक सुन्दर उदाहरण है-सन्यास लेना और विवाह नहीं करना। घर से बाहर रहना और दूसरे किसी के साथ सम्बन्ध नहीं रखना। ये भी दूसरे ही लोग हैं। श्री गणेश तत्त्व अगर आप में जागृत है तो संसार में रहकर ही आपको परमेश्वर प्राप्ति होगी और देवत्व चाहिए तो भी संसार में रहना होगा। अगर आपने बहुत तीव्र और कठिन वैराग्य का पालन किया तो ब्रह्मर्षिपद मिल सकता है। परन्तु मुझे ऐसा महसूस होने लगा है कि ब्रह्मर्षि भी बहुत पहुँचे हुए हैं। मैं जानती हूँ उन लोगों को, परन्तु वे अब कुछ करने को तैयार नहीं है, उनमें इतनी आन्तरिकता, आत्मीयता नहीं और वे मेहनत करने को भी तैयार नहीं है। मुझे कभी-कभी बहुत दुःख होता है। उनकी भावना है कि ये जो भक्त लोग हैं, उन भक्तों की अभी तक कुछ भी तैयारी नहीं है। पर, अगर मेहनत की तो हम तैयारी कर सकते हैं, और उसे (भक्त को) आगे बढ़ा सकते हैं। बहुत बार मुझे लगता है ये सभी मेरी मदद के लिए अब दौड़कर आएं तो कितना अच्छा होगा। मुझे बहुत मानने वाले एक कलकत्ता के पास हैं, उनका नाम श्री ब्रह्मचारी है और वे बहुत पहुँचे हुए हैं। उन्होंने मेरे बारे में किसी अमेरिकन मनुष्य को कहा कि श्री माताजी अब साक्षात आयी हैं तो हम अब उनका काम देख रहे हैं । हमें भी यही काम करना है और कुछ राक्षसों का नाश हम मनन-शक्ति से करते हैं। वे मेरे पास आने पर, मैंने उन्हें कहा, आप अमेरिका क्यों नहीं जाते? वे अमेरिका गए परन्तु वहाँ से पाँच दिनों में भाग आये और मुझे कहने लगा, मुझे ऐसे लोगों से नहीं मिलना है, वे एकदम गन्दे लोग हैं। मतलब ये ब्रह्मचारी जैसे लोग, मनुष्यों में न रहने की वजह से, एकदम 'माणुसघाणा' (मनुष्य जिसे में से बदबू आए ऐसा) हुए हैं। ऐसा ही करना चाहिए। ऐसे कोई साधु-सन्त आने पर आप ज्यादा से ज्यादा उनके चरणों पर जाओगे। उनपर श्रद्धा रखोगे, उसके कारण आपकी स्थिति में सुधार आएगा। पर फिर आपके साक्षात्कार का क्या ? क्योंकि उसके लिए हाथ चलाने पड़ते हैं। बच्चे को ठीक करना है, उसे संभालना है तो माँ को गन्दगी में हाथ ड्रालना पड़ता है। अगर वह 'गन्द-गन्द' कहने लगी तो बच्चे को कौन साफ करेगा? और इसलिए, ये एक माँ का काम है और वही हम सहजयोग में करते हैं। आप सब उसमें नहा लीजिए, उसका 1 २९ आनन्द उठाइये, यही एक माँ की इच्छा है। माँ की एक ही इच्छा होती है, अपनी शक्ति अपने बच्चे में आनी चाहिए। जब तक सामान्यजन उसमें से कुछ प्राप्त नहीं करते और जब तक उनको अपनी माँ की शक्तियाँ नहीं प्राप्त होती, तो ऐसी माँ का क्या फायदा? ऐसी माँ होने से तो न हो तो अच्छा। तो जिन को माँ या गुरू माना जाए, अपने से बड़ा माना जाए, उन्होंने अगर स्व का मतलब नहीं जाना, तो आपको उनके जीवन से क्या आदर्श मिलने वाला है? सहजयोग में 'स्व' का मतलब है, आपकी आत्मा । मूलाधार चक्र पर श्री गणेश का स्थान कैसे है, उसमें कुण्डलिनी की आवाज कैसे होती है और कुण्डलिनी कैसे घुमती है, हर-एक पंखुडी में कितने तरह-तरह के रंग हैं और वे किस तरह पंखुडी में रहते हैं और सारा शोभित करते हैं, वगैरा बहुत कुछ है। उसका सब ज्ञान आपको मिलना चाहिए और वह मिलेगा और उसमें से हम कुछ भी छिपा कर नहीं रखेंगे। हर-एक बात हम आपको बताने के लिए तैयार हैं परन्तु आपको भी तो पार होकर पुरुषार्थ करना होगा। आपने पुरुषार्थ नहीं किया तो आपको कोई फायदा नहीं होने वाला। अब पूजा में क्या करना चाहिए यह सवाल लोगों का रहता है। श्री माताजी, गणेश का पूजन कैसे करें? क्योंकि हम 'परोक्ष विद्या जानते हैं, जो आपको दिखाई नहीं देता, जिसे नानक जी ने 'अलख' कहा है। उस आँख से हम देखते हैं। जो हमें कहना है, सर्वप्रथम देखिए आप में पावित्र्य है कि नहीं । स्नान वगैरा करना ये तो है ही, परन्तु उसका इतना महत्त्व नहीं है, वह अगर न भी हो तो कोई बात नहीं। एक मुसलमान भी श्री गणेश पूजा बहुत अच्छी करता है। आपको आश्चर्य होगा, अल्जीरिया के करीब पाँच सौ मुसलमान सहजयोगी हैं। जवान लड़के-लड़कियाँ पार हुए हैं। परन्तु उनका प्रमुख जो है, उसका नाम है श्री जमेल और वह श्री गणेश पूजा इतनी सुन्दर करता है कि देखने लायक है। श्री गणेश को रखकर स्वयं उनकी सुन्दर पूजा करता है। मतलब सहजयोग में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी आते हैं, और फिर उनके देवी देवता कैसे सहजयोगी में हैं, वह उसमें दिखाया है । अब ये श्री गणेश तत्त्व आज्ञा चक्र पर आकर श्री येशू क्रिस्त के स्वरूप में संसार में आए हैं। देवी महात्म्य, अर्थात देवी भागवत, जो मार्कण्डेय जी ने लिखा है, ये आप पढ़िये। उसमें जो श्री महाविष्णु का वर्णन है, वह आप पढ़िये। उन्होंने कहा है, श्री राधा जी ने अपना पुत्र तैयार किया था, जिस तरह श्री पार्वती जी ने किया था। परन्तु श्री गणेश तत्त्व उनमें मुख्य तत्त्व है और उस श्री गणेश तत्त्व पर आधारित जो पुत्र बनाया था वह इस संसार में श्री येशु क्रिस्त बनकर आया। अब 'क्रिस्त' क्योंकि, राधाजी ने बनाया था इसलिए कृष्ण के नाम पर वह श्री क्रिस्त हुआ और यशोदा है वहाँ इसलिए येशु। और इसी तरह उन्होंने ये जो गणेश तत्त्व है, उसको पूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया, वह श्री क्रिस्त स्वरूप में है। अब ये अपने आपको ईसाई कहने वालों को मालूम नहीं है कि ये येशु क्रिस्त पहले श्री गणेश थे और ये श्री गणेश तत्त्व का अविभाव है। वह अब एकादश रुद्र में किस तरह आने वाला है वह में आपको बाद में बताऊँगी। कहने का मतलब है कि मूलाधार चक्र पर जो श्री गणेश परशु हाथ में लेकर सबको धाड़-धाड़ मारते थे, वही आज्ञा चक्र पर आकर क्षमा का एक तत्त्व बन गये। क्षमा करना मनुष्य का सबसे बड़ा हथियार है। यह एक साधन होने से उसे हाथ में तलवार भी नहीं चाहिए। केवल उन्होंने लोगों को क्षमा किया तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी। इसलिए आजकल के जमाने में सहजयोग में जिसका आज्ञा चक्र पकड़ता है उसे हम इतना ही कहते हैं, 'सबको माफ करो'। और उससे कितना फायदा होता है, वह अनेक लोगोंको पता है? और सहजयोगी लोगों ने उसे मान्यता दी है। देखा है, सब कुछ सहजयोग में प्रत्यक्ष में है। अगर आपने क्षमा नहीं की तो आपका आज्ञाचक्र नहीं खुलने वाला, आपका सिरदर्द नहीं जाने वाला और आपका ट्यूमर भी नीचे नहीं आने वाला। इसलिए क्षमा करना जरूरी है, क्योंकि जब तक नाक नहीं पकड़ो तब तक मनुष्य कोई बात मानने के लिए राजी नहीं है। इसलिए ये सभी बीमारियाँ आयी हैं, ऐसा मुझे लगने लगा है, क्योंकि कितना भी मनुष्य को समझाओ फिर भी वह एक पर एक अपनी बुद्धि चलाता है। इसका मतलब हैं आपको अभी अपना अर्थ नहीं मालूम हुआ है। आपका संयन्त्र जुड़ा नहीं है, पहले उसे जोड़ लीजिए, पहले आत्म-साक्षात्कार पा लीजिए, यही हमारा कहना है उसमें अपनी मत चलाइए। जो विचारों से, पुस्तकें पढ़कर नहीं होता, वह अन्दर से होना चाहिए। ये घटना घटित होनी चाहिए। कभी-कभी इतने महामूर्ख लोग होते हैं, विशेषतः शहरों में, गाँवो में नहीं। वे कहते हैं, अजी हमारा तो कुण्डलिनी जागरण हुआ ही नहीं है। देखिए, हम कैसे? मतलब, बहुत अच्छे हैं आप। क्या कहने? अगर आपका कुण्डलिनी जागरण नहीं हुआ है तो आप में कोई बहुत बड़ा दोष है। शारीरिक हो, मानसिक हो, बौद्धिक हो उसे निकलवा लीजिए। वह कुछ अच्छा नहीं है। साफ होना पड़ेगा। साफ होने के बाद ही आनन्द आने वाला है। यह जानना होगा। फिर सब कुछ ठीक होगा। ये मा अब जो अहंकार का भाव है वह श्री गणेश जी के चरणों में अर्पण कीजिए। श्री गणेश की प्रार्थना करिए, हमारा अहंकार निकाल लीजिए। ऐसा अगर आपने उन्हें आज कहा तो मेरे लिए बहुत आनन्द की बात होगी क्योंकि श्री गणेश जैसा सबका पुत्र हो, ऐसा हम कहते हैं। उनके केवल नाम से हमारा पूरा शरीर चैतन्य लहरियों से नहाने लगता है। ऐसे सुन्दर श्री गणेश को नमस्कार करके आज का भाषण पूरा करती हूँ। (मराठी भाषण का हिन्दी अनुवाद) ३० २ का २ ज सुतल के ২ বीর হ ा कन टी উे हे २ ८ल २४ दिवाली पूजा रुस, १२ नवम्बर १९९३ दे वी लक्ष्मी की पूजा करने विश्वभर से रूस में आये इतने सारे लोगों को देख कर प्रसन्नता हुई। बौद्धिक रूप से जब आप सारी चीज़ों को नहीं समझा सकते, जिस बात को आप शब्दों से या तर्क से नहीं कह सकते तो उसे कहने के लिए तथा अन्त्तभिव्यक्ति करने के लिए आपको कला तथा प्रतीकों की शरण लेनी पड़ती है कलाकार तथा कवि यही करते हैं; अपनी कल्पना को वे उस कदर फैलाते हैं कि प्रतीकों का सृजन कर ड़ालते हैं। परन्तु सीमित मस्तिष्क के कारण वे एक सीमा तक ही जा सकते हैं और यदि यह सृष्टि सत्य और वास्तविकता सिद्ध न हो तो कुछ समय पश्चात इसका पतन हो जाता है। पूर्ण रेखांकीय गतिविधि नीचे आ जाती है तथा इसका पतन हो जाता है। हर क्षेत्र में हमें ऐसा देखने को मिलता है, विशेष कर आजकल, जब कि सभी महान चीज़ों का हरास हो गया है। परन्तु आत्मसाक्षात्कार पाने के बाद जब आप आत्मा बन जाते हैं तो आपकी कल्पना वास्तविकता को छू लेती है। तब विकृत तथा मिथ्या निरूपित प्रतीक छूट जाते हैं और आप प्रतीकों की वास्तविकता को छू लेते हैं। हर जगह यही घटित हुआ। उदाहरणार्थ भारत में वैभव की देवी लक्ष्मी। सन्तों और पैगम्बरों ने वास्तविकता में लक्ष्मी के प्रतीक का वर्णन किया परन्तु बाद में लोग इस प्रतीक तथा इसमें छिपी वास्तविकता को न समझ सके तथा सोचा कि लक्ष्मी धन, वैभव, सोना, चांदी और हीरे ही है और वे धन की पूजा करने लगे। इस प्रकार वैभव का प्रतीक, देवी लक्ष्मी विकृत हो गया । ३१ आ ডি जा ल रा रा ० लि र ड ४ लोग समझ नहीं पाते की जब उन्हें धन प्राप्त हो जाता है तो वे गलत कार्य क्यों करने लग जाते हैं। लक्ष्मी का प्रतीक अत्यन्त भिन्न है । सर्वप्रथम, जिसके पास लक्ष्मी है उसे माँ सम होना चाहिए। माँ की तरह से ही उसमें बच्चों के प्रति प्रेम होना आवश्यक है। उसे स्त्री सम होना है, और स्त्री अत्यन्त उच्चता का प्रतीक है। माँ सारी शक्तियों का स्रोत है । उसमें धैर्य है, प्रेम और करुणा है। करुणाविहीन धनवान व्यक्ति कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकता। अपना धन दूसरों के हित के लिए उपयोग करने में ही उसे प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है। आज के विकसित देशों के साथ क्या हुआ? अपने धन से वे स्वयं को ही नष्ट करने में जुट गये हैं। अपने क्रोध, कामुकता तथा लोलुपता को अभिव्यक्त करने में उन्होंने अपना सारा धन लगा दिया। यह दशनि में कि वे बहत व्यक्तिवादी हैं, उन्होंने अपना सारा धन बर्बाद कर डाला। जैसे अमेरिका में मैं एक वैभवशाली व्यक्ति से मिली, जब मैं उसकी कार तक पहुँची तो उसने बताया कि कार के दरवाजों के हैंडल दूसरी ओर को खुलते हैं। तो मैंने कहा इसका क्या लाभ है। कोई भी व्यक्ति कार में फँस जाएगा। उसने कहा ये मेरा व्यक्तित्व है, मेरी योग्यता है जिसने यह असामान्य चीज़ बनाई। जब में उसके घर गई तो उसने बताया कि सावधान रहें, यह गुसलखाना बहुत विशेष है। यह बटन यदि आप दबाएंगी तो उछलकर तरणताल में जा मिलेंगी मैंने कहा कि मैं इस गुसलखाने में नहीं जा सकती। तब उसने अपना शयनकक्ष दिखाया, यदि आप यह बटने दबाएंगी तो आपका सिर ऊँचा हो जाएगा। मैंने कहा कि मैं सारी रात इस तरह की वर्जिश नहीं करना चाहती, मैं तो पृथ्वी पर ही सो जाऊँगी। लोग सोचते हैं कि अमेरिका या युरोप के वैभवशाली कहलाने वाले लोग बहुत प्रसन्न हैं । परन्तु वे प्रसन्न नहीं हैं क्योंकि उनमें विवेक नहीं है। वे पैसे को इस तरह से बर्बाद करते रहते हैं, इन लोगों के पास इतना धन था, कि वे समझ न पाए कि इसका क्या करें। अब उन्होंने सोचा की यह पर्याप्त नहीं है, हमें और आगे खोज करनी है। तब वे नशे तथा सब प्रकार की बुरी चीजें लेने लगे । लक्ष्मी तत्त्व ऐसा है कि वे एक माँ हैं और उनके दो हाथों में गुलाबी रंग के कमल हैं। कमल का फूल अपने अन्दर काले-कटीले भंवरे को भी शरण देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि लक्ष्मीपति का परिवार कमलसम सुन्दर तथा सबका स्वागत करने वाला होना चाहिए। भंवरा कमल की सुन्दर कलियों पर रात को शयन करता है और कमल उसे ठण्ड से बचाने के लिए अपनी कलियाँ बंद कर लेता है। आवश्यक नहीं की एक वैभवशाली व्यक्ति लक्ष्मीपति हो या उसे लक्ष्मी जी का आशीर्वाद प्राप्त हो । परन्तु एक विवेकशील ३२ ए वैभवशाली व्यक्ति को लक्ष्मीजी का आशीष प्राप्त होता है। जैसे कमल अपने अन्दर अतिथियों के आने के लिए तथा उनकी देखभाल करने को उत्सुक रहता है, उसी प्रकार एक वैभवशाली व्यक्ति को भी अतिथि सत्कार करने को उत्सुक रहना चाहिए। हैरानी की बात है कि वैभवशाली कहलाने वाले सारे राष्ट्र पराश्रयी हैं उन्होंने अन्य देशों को लूटा और अपने साम्राज्य बनाए। जैसे भारत में तीन सौ सालों तक अंग्रेज हमारे अतिथि थे। बिना किसी आमंत्रण के यहाँ आ गये। परन्तु अब यदि किसी भारतीय को इग्लैंड जाना हो तो यह बहुत कठिन कार्य है। जो लोग वहाँ जाते हैं उनसे भी समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। अमेरिका में भी ऐसा ही है। परमात्मा का धन्यवाद कि कोलम्बस, जो की भारत आ रहा था, उसे श्री हनुमानजी अमेरिका ले गये, नहीं तो सारे भारतीय समाप्त हो जाते। उन्होंने वहाँ पर सारे लाल भारतीयों को मार ड़ाला, उनकी सारी जमीन हथिया ली और अब वे स्वयं को वैभवशाली कहते हैं। जो अपराध उन्होंने किये हैं उसका दण्ड उन्हें भुगतना होगा। अधिक धन कमाने की योग्यता के आधार पर स्वयं को उच्च जाति कहने वाले अन्य लोग भी हमें देख सकते हैं। उन्होंने लोगों को गैस कक्षों में मरवा दिया और इस तरह के अन्य अपराध किये। क्या यही उच्चता की निशानी है? ईसा यदि उच्च व्यक्तित्व के प्रतीक हैं तो उनकी क्या विशेषताऐँं हैं। वे श्रेठ पुरुष थे, चरित्र,क्षमा, उदारता और गरिमा का जहाँ तक सम्बन्ध है उनका महानतम व्यक्तित्व था। उन्हें लक्ष्मीजी का आशीर्वाद प्राप्त था। वे आत्म सन्तुष्ट थे। कोई गलत कार्य वे न करते थे। कोई उन्हें खरीद नहीं सकता था। सहजयोग में आने के उपरान्त यह जानना आवश्यक है कि आप पर लक्ष्मी जी की कृपा है। वे एक हाथ से देती हैं। देना उनका स्वभाव है। जैसे यदि केवल एक द्वार खुला हो तो हवा नहीं आती, परन्तु दूसरा द्वार भी आप खोल दें तो हवा बहने लगती है। सन्तुष्ट रहना सहजयोगी की एक विशेषता है। कुछ सहजयोगी बहुत से चमत्कार चाहते हैं, यह ठीक नहीं। आपका दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि अब आप आत्मा हैं और आत्मा शरीर और मन के सुख की चिंता नहीं करती, यह तो आत्मा का सुख चाहती है। आप में से बहुत से लोग आत्मा बन चुके हैं परन्तु आप अपनी स्थिति के प्रति चेतन नहीं है, इसके प्रति आपको चेतन होना है। दूसरे हाथ से श्री लक्ष्मीजी उन लोगों को सुरक्षा प्रदान करती है जो उनके लिए कार्य करते हैं तथा उनकी पूजा करते हैं। हर वैभवशाली व्यक्ति को चाहिए कि अपने आश्रितों को सुरक्षा प्रदान करें। हम अब एक ऐसे क्षेत्र में उत्थानित हो गए हैं जहाँ हमारे मस्तिष्क में कोई धर्मान्धता नहीं है, परन्तु हम सभी महान अवतरणों, सन्तों और पैगम्बरों की पूजा करते हैं। उनमें से अधिकतर के पास धन न था परन्तु वे आत्म संतुष्ट थे। लक्ष्मीजी की यह विशेषता है कि वे सन्तोष प्रदान करती हैं। आप जानते हैं कि अर्थशास्त्र के अनुसार प्राय: इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। कौन सी ऐसी इच्छा है जिसकी पूर्ति हो सकती है? यह शुद्ध इच्छा है, जो की कुण्डलिनी है। जब आप पूर्णतया संतुष्ट हो जाते हैं और जान जाते हैं कि धन, सत्ता और अन्य मूर्खतापूर्ण चीज़ों के पीछे भागने का कोई लाभ नहीं, तब आप के अन्दर महालक्ष्मी तत्त्व जागृत हो जाता है। यह महालक्ष्मी तत्त्व आपको जिज्ञासा प्रदान करता है । तब आप एक विशेष श्रेणीं के लोग बन जाते हैं, जिन्हें विलियम ब्लेक ने 'परमात्मा के पुरुष कहा है। तब आप में बचपन के , राष्ट्रीयता के या बाह्य धरमों के बन्धन नहीं रह जाते। आप का उत्थान होता है और आप आत्मा बन जाते हैं। इस समय आप अपने अन्दर के लक्ष्मी तत्त्व को समझते हैं। लक्ष्मी तत्त्व यह है कि दूसरों के लिए कार्य करने में आप आनन्द प्राप्त करें। सामूहिक चेतना में आप अन्य लोगों के लिए कार्य करना चाहते हैं। अभी तक भी यदि आप अपनी सुख- सुविधा, धनार्जन और यश के लिए चिंतित हैं तो आप असन्तुलित है। लक्ष्मीजी कमल पर बड़े सन्तुलित ढंग से खड़ी है। वह यह नहीं दर्शाती की वह वैभव की देवी हैं। स्वयं से वे संतुष्ट हैं। यदि आप असंतुष्ट हैं तो इसका अर्थ है कि आपने स्वयं को नहीं जाना। आप आधे-अधूरे सहजयोगी हैं। सहजयोगी आत्मसंतुष्ट व्यक्ति होते हैं। क्योंकि सहजयोगी की आत्मा ही पूर्ण मान आनन्द और उसके चित्त प्रकाश का रोत होती है। आनन्द, प्रसन्नता या अप्रसन्नता नहीं है। प्रसन्नता या अप्रसन्नता तो अहम् पर निर्भर है परन्तु आनन्द अपने आप में पूर्ण है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आप धन आदि की चिन्ता नहीं करते। आपके पास यदि धन है तो भी ठीक और यदि नहीं है तो भी ठीक। आप पूर्णतया निर्लिप्त हैं। अन्त में मैं आपको श्री राम की पत्नी श्री सीता जी के पिता की कहानी सुनाऊँगी। छः हजार वर्ष पूर्व वे एक राजा थे। राजाओं के सारे वस्त्र, आभूषण उन्हें धारण करने पड़ते थे। परन्तु उस समय के सारे सन्त उनके चरण स्पर्श किया करते थे। एक बार एक अन्य गुरू के शिष्य नचिकेता ने पूछा कि आप लोग इनके पैर क्यों छूते हैं? ये तो राजा के समान रहते हैं। गुरू ने कहा कि तुम इनके बारे में ३३ नहीं जानते। यदि उन्हें तुम पर दया आ जाए तो वे तुम्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं। नचिकेता राजा जनक के पास गये और उनसे आत्मसाक्षात्कार की याचना की। राजा जनक ने कहा कि मुझे दुःख है कि में तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता। तुम मेरा सारा राज्य ले लो पर तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता क्योंकि अभी तक तुम्हारा व्यक्तित्व इतना विकसित नहीं हुआ है। नचिकेत बहुत निराश हुए और कहने लगे में तब तक प्रतीक्षा करुँगा जब तक आप मेरी परीक्षा लेकर यह नहीं जान लेते कि मैं आत्मसाक्षात्कार के योग्य हूं। राजा जनक ने कहा, ठीक है, आओ चलें नदी में स्नान करें। जब वे नदी में स्नान कर रहे थे तो नौकरों ने आकर सूचित किया कि महल में आग लग गयी है, पर राजा जनक ध्यान करते रहे। थोड़ी देर बाद नौकर फिर आये और कहा कि अग्नि यहाँ तक फैल रही है और आपके वस्त्र भी जल जाएँगे। पर राजा जनक ध्यान मग्न रहे, परन्तु नचिकेत ने उनके वस्त्र उठाए और मैं दौड़ पड़े। तब उन्हें समझ आया कि राजा जनक अपने धन, वैभव और परिवार से कितने निर्लिप्त थे। और वे स्वयं छोटी-छोटी चीज़ों के लिए कितने चिंतित। राजा जनक को इस तरह के कपड़े पहनने पड़ते थे क्योंकि वे एक राजा थे तब नचिकेत ने स्वयं को राजा जनक के सम्मुख समर्पित कर दिया और आत्मसात्कार प्राप्त किया। उन दिनों आत्मसाक्षात्कार पाना तथा देना अत्यन्त दुष्कर कार्य था। परन्तु आजकल का समय विशेष है, बसन्त ऋुतु। इसे अन्तिम निर्णय', 'पुनर्जन्म का समय' तथा कुरान में इसे 'कयामा' कहा गया है। कहा गया है कि कब्रों में से निकल कर लोग पुनर्जन्म को प्राप्त करेंगे, पर कब्र में तो थोड़ी सी हड्डियों के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। नहीं, यह सारी मृत आत्माऐं मानव जन्म लेकर इस विशेष युग में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करेंगी। आपको अपने पूर्व पुण्यों के कारण आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ है। परन्तु आपको इसका सम्मान करना है तथा जानना है कि आपको इतनी महान चीज़ मिली। आप समझ लें कि अब आप आत्मा हैं। आप विशेष लोग हैं। आप अपने देश, जाति, समाज तथा परिवार की समस्याओं का समाधान करेंगे। पूरे विश्व की समस्याओं का आप समाधान करेंगे आप लोग ही पृथ्वी पर शान्ति लाएंगे। आप ही सुन्दर, दिव्य मानवों से परिपूर्ण एक नये विश्व का सृजन करेंगे। स्वयं पर विश्वास करें। यह विश्वास अत्यन्त द्रतगति से कार्य करता है । यह मिथ्या विश्वास नहीं, यह सत्य है। सहजयोग में विकसित हों, बौने न बने रहें। अब आप लक्ष्मीजी का आशीष माँग रहे हैं सर्वप्रथम आपको सन्तोष माँगना चाहिए और फिर उदारता । लक्ष्मी से आशीर्वादित व्यक्ति कभी कंजूस नहीं हो सकता। आप जानते हैं कि आपके कोई कर्म शेष नहीं रहे। सब कर्म समाप्त हो गए तथा अब आप अति सुन्दर नये मानव हैं। बसन्त काल आ गया है, अपनी परेशानियों तथा कष्टों की ओर चित्त न दें। नि:सन्देह चीजें सुधरेंगी। कोई मुझे कह रहा था कि उसके घुटनों में दर्द है। मुझे लगा कि आपके दर्द को सोखने के कारण बहुत बार मेरे घुटनों में दर्द हो जाता है पर मैं इसके बारे में सोचती ही नहीं। मैं कभी चिन्ता नहीं करती, क्योंकि मुझे लगता है कि मेरा शरीर ठीक है। इस मशीन की तरह, यदि यह बिगड़ जाए तो इसे ठीक कर लीजिए, बस। परन्तु हर समय यदि आप यही सोचते रहें कि यहाँ दर्द हो रहा है, वहाँ दर्द हो रहा है, मेरे पास इतना धन है, मुझे यह करना है, व्यापार करना है तो कुछ न होगा। अब हमें उच्च चेतना के क्षेत्र में रहना होगा। किसी श्रेष्ठ तथा सुन्दर चीज़ के बारे में बोलती ही चली जा सकती हैं। पर भाषण तो मात्र शब्द जाल (शब्द जालम्) हैं। आपको मस्तिष्क से परे जाना होगा। मेरा यही स्वप्न है और बहुत से लोगों ने इसे साकार किया है। मैं सदैव आपकी हूँ, जहाँ भी आप चाहेंगे, मैं आऊँगी। मेरा प्रेम, मेरी इच्छा से अधिक है। परन्तु आप अपनी आत्मा से तथा अपने आत्मसाक्षात्कार से प्रेम करें। ि परमात्मा आप पर कृपा करें। ৪ नव-आगमन CODE. NOS. Lang. Type Speech Title Place Date DVD/HH VCD/HH |ACD/HH|ACS/HH Mahashivratri Puja 218 Pu Pune 6-Mar-08 Shiv Puja Part 1 & 2 Pu Pune 8-9th Mar- 08 219" Birthday Puja Cele. 2008, Part 1& 2 Easter Puja Pu 221 Chhindwara 20-23rd Mar-08 Pu 222 Nagpur 23-Mar-08 Pu Ramnavami Puja 223 Pune 13-Apr-08 H. Sp/Pu Shri Mahakali Puja - Part I &II 224 Kolkata 1-Аpг-86 H/E Maha devi Puja - Part I & II Sp/Pu 225 Alibag 21-Dec-86 Christmas Puja - Part I& II M/E Sp/Pu 226 Pavana Dam 25-Dec-86 Guru Puja Sp/Pu 195 Cabella 195" 227* 1-Aug-99 रानिक कार् PP 367 Brahmapuri 31-Dec-89 Shri Rajlakshmi Puja H/E 028 Sp/Pu 149 Delhi 7-Dec-96 149* Navratri Puja 150 Sp/Pu Cabella 164 164 5-Oct-97 Diwali Puja Sp/Pu 229 183 25-Oct-98 Italy 183" Easter Puja Sp/Pu 230 199 Istambul 199* 25-Apr-99 Shri Ganesh Puja Sp/Pu 200 Cabella 200 231" 25-Sep-99 Shri Krishna Puja Sp/Pu 232* 20-Aug-00 Cabella 211" 211 Sahastrar Puja Sp/Pu 221 Cabella 221* 021" 6-May-01 Guru Puja 240 042 Sp/Pu 21-Jul-02 240 042 Cabella Guru Puja 124 Sp/Pu Cabella 008 4-Jul-04 BHAJAN / MUSIC Title Artist ACD ACS Mahri Nirmal Maa Padharo Mhare Dess Rajasthan Coll. 136" MANHI MAAY (Ahirani Language) Kirti Vispute 137" DEVOTION (Instrumental) Ajit Kakde 138* BOOKS LANGUAGE PRICE Title Author Eternally Recollections English 150/- 100/- Yogi Mahajan नव सहस्राब्दि Hindi 100/- New Millennium Yogi Mahajan English 34 E. E. E. द ८ र स्वस्तिक बहुत ही संवेदनशील यन्त्र है। यह स्वस्तिक और कुछ नहीं बल्कि संतुलन दर्शाता हैं। जब यह दायीं तरफ चलने लगता है तब रचनात्मक कार्य होने लगते है और ये वो सब करता है जो जिंदगी के लिए महत्त्वपूर्ण है। जब ये उल्टी तरफ से चलने लगता है तब ये विनाश का कार्य करता है। (१७/०६/१९८९) Jai Shri Mataji बा! ---------------------- 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी सितम्बर-अक्तुबर २००८ ४। ी ब ४० ७ हिन्दी 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-1.txt ०ु कुा ३े औी र ে ९ २ प्रकाशक निर्मल ट्राँसफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८ फोन : ०२०-२५२८६५३७, २५२८६०३२ े की ।।ॐ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-2.txt ह३ि में इस अंक श्री गणेश की शक्ति दुष्टों का संहार कर सकती है १. ४ २ नवरात्री पूजा का संदेश ८ ३. कार्तिकेय पूजा १० ४. कुण्डलिनी और श्री गणेश पूजा -- १८ दिवाली पूजा --- ५. ३१ सो 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-3.txt श्री गणेश की शक्ति दष्टों का संहार कर सकती है। ওु कळवे, ३१ दिसम्बर १९९१ ० र পड आजहम लोग यहाँ पर पहले श्री गणेश, बाद में देवी की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। श्री गणेश को इस महाराष्ट्र में विशेषतः बहुत माना जाता है। यहाँ पर स्वयंभू अष्टविनायक है। अब लोग ये भी कह सकते हैं कि गणेश नाम की कोई चीज़ नहीं थी और ये भी कह सकते हैं कि ये स्वयंभू अष्टविनायक नहीं हैं। लेकिन जब आप लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करते हैं, जब आप चैतन्य को प्राप्त करते हैं, तो आप पूछ सकते हैं कि क्या ये स्वयंभू है? क्या ये वास्तविक पृथ्वी तत्त्व ने बनायी चीज़ है? गणेश के अनेक चमत्कार सहजयोग में हुए हैं। विशेषकर के हमारे फोटोग्राफ है, अगर आप उन्हें देख लीजिए तो हैरान हो जाइयेगा। किस तरह से उन्होंने अपने दर्शन दिए हए हैं। गणेश की विशेषता ये है कि वो हर चक्र पर विराजमान हैं। सबसे पहले गणेश की ही स्थापना की जाती है और गणेश जो है वो पवित्रता को फैलाने के लिए संसार में हैं, जिससे कि पहले सारा संसार पवित्र हो जाए सबसे बड़ी चीज़ है पवित्रता। अगर पवित्रता नहीं रहेगी तो कोई भी सृजन नहीं हो सकता। समझ लीजिए, अगर कोई पेड़ है और उसके आसपास का वातावरण दूषित हो जाएगा तो वो पेड़ मर जाएगा। इसी प्रकार इस सारी सृष्टि का जो वातावरण है, उसे पूर्णतया शुद्ध करने के लिए ही श्री गणेश की स्थापना की गयी थी। आजकल के इस वातावरण में लोग समझ नहीं सकते हैं कि पवित्रता चीज़ क्या है? और पवित्रता का अर्थ क्या है? यही गणेश आगे जाकर के आपके आज्ञा चक्र पर ईसा मसी के रूप से प्रकट हुए थे इसलिए ईसा मसी ने भी सबसे ज्यादा पवित्रता का महत्त्व बताया कि आपकी आँखे तक पवित्र होनी चाहिए. क्योंकि आज्ञा चक्र पर है। आँखों तक में पवित्रता होनी चाहिए। अगर आप की आँखो में पवित्रता नहीं है तो फिर आप किसी भी तरह से पवित्र नहीं माने जाएंगे। लेकिन इसका ये मतलब 1 ह । 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-4.txt नहीं कि आप अपने से कहें की हम में वो खराबी है, ये खराबी है। किंतु श्री गणेश को अगर हम मानते हैं, पूजा करते हैं, तो उनके गुण भी हमारे अन्दर आने चाहिए। पहला तो उनका गुण है पवित्रता। अब इस पवित्रता को हम कब, किस तरह से पा सकते हैं। कहने से नहीं हो सकता। किसी आदमी से कहा जाए कि तुम पवित्र हो जाओ, तो नहीं हो सकता। गंगाजल से नहाने से भी मनुष्य पवित्र नहीं हो सकता। तो ये पवित्रता आने के लिए क्या करना चाहिए? इस के लिए आपकी कुण्डलिनी का पहले जागरण होना चाहिए। जब जागरण हो जाएगा तभी समझना चाहिए कि धीरे-धीरे ये जो कुण्डलिनी है, ये सब चक्रों को स्वच्छ कर देगी। लेकिन वहाँ पर भी श्री गणेश जी का कार्य है क्योंकि ये चैतन्य है और वो चैतन्य स्वरूप श्री गणेश आप के हर चक्र को भी साफ करते रहते हैं। और अंत में जाकर के सहस्रार में भी श्री गणेश, आप जानते है, वो सदाशिव के गोद में बैठे है। ये जो भी चीजे हम लोगों को लगती हैं ये पौराणिक है, mythological है, इस सब की सत्यता सहजयोग में आप प्राप्त कर सकते हैं। पहले आप को 'केवल सत्य' को प्राप्त करना चाहिए, absolute truth (एकमेव सत्य)। उसके बाद आप कोई भी सवाल पूछे, उसका जवाब सही मायने में आपके ऊँगलियों के उपर आ जाएगा। आप इससे जानेंगे कि सत्य क्या है? किसी भी चीज़ को कह देने से कि असत्य है, वो चीज़ असत्य नहीं होती । उसकी खोजबीन करनी चाहिए। ये बहत गहरी चीज़ है और श्री गणेश का कार्य अत्यंत अत्यंत गहरा है। और वो एक चिर बालक है। उनमें जो अबोधिता है, innocence है वो एक चिर बालक है, वो बालक स्वरूप है। ने s1s22 1 if you have to enter into the kingdom of god, you have to become like children, cia बच्चों में निश्चल स्वभाव होता है वो हमारे अन्दर आना चाहिए। लेकिन वो जबरदस्ती करने से, या रोज का अभ्यास करने से नहीं आएगा। अगर आप जबरदस्ती करेंगे तो आपका अहंकार बढ़ जाएगा। अगर आप ये कहेंगे कि हम पापी हैं, हमने बड़े पाप किए हैं, हम बडे खराब हैं तो आपका प्रति अहंकार बढ़ जाएगा। दोनो तरह से एक अलग बात हुई। तो उसके लिए करना क्या चाहिए? करना ऐसा चाहिए कि अपनी कुण्डलिनी का जागरण पहले करना चाहिए। कुण्डलिनी के जागरण से आप दूसरे आयाम में, उसके डायमेन्शन में उतरते हैं। उसके डायमेन्शन में उतरते ही धीरे-धीरे अन्दर से ही स्वच्छता होती रहती है। ये अनादिकाल से कुण्डलिनी आपके अन्दर स्थित है और ये उसी समय के इंतजार में है, उसी के लिए बैठी हुई है कि जिस वक्त आप को वो व्यक्ति मिल जाए, जो आपकी कुण्डलिनी का जागरण कर सके, क्योंकि ये आपकी माँ है और आपकी अपनी वैयक्तिक माँ है। वो आपके बारे में सब कुछ जानती है। और जिस प्रकार आप की माँ ने आपको जन्म देते वक्त सब तकलीफें खुद उठाई, वो कुण्डलिनी ही सारी तकलीफें उठा लेती है और आप इस आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होते हैं। आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होने के बाद आप को सिर्फ इतना करना है कि अपने इस योग को जो आपका परम चैतन्य के साथ हुआ है, उसके साथ एकात्मिता स्थापित करें । चारों तरफ हम देखते हैं, फूल देखें कितने सुन्दर हैं। सृष्टि कितनी सुन्दर है, पर हम कभी सोचते नहीं कि ये कैसे बनीं? इस को कौन बनाता है? एक फूल के पौधे एक ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। कोई पेड़ एक ही ऊँचाई तक बढ़ता है। ये सारा कौन करता है? इसे आपको 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-5.txt पातंजलि में अगर आप देखने जाएं तो लिखा हआ है कि 'ऋतंभरा प्रज्ञा' । इसका नाम ऋतंभरा रखा लेकिन यही ब्रह्मचैतन्य है, ये परम चैतन्य है जो चारो तरफ फैला हुआ है और जिसके लिए आदि शंकराचार्य ने बताया हआ है कि 'सलीलं सलीलं' । ठण्डी ठण्डी हवा इसकी बह रही है। बाइबल में भी इसको 'कूल ब्रीज ऑफ द होली घोस्ट कहा है। इस प्रकार की कुण्डलिनी हमारे अन्दर है और वो बिलकुल व्यवस्थित रूप से इसी इंतजार में है कि कब आप का पुर्नजन्म हो। अभी तक अमीबा से इस स्थिति में हम आ गए इन्सान बन गये। लेकिन इस से कोई न कोई उच्च स्थिति जरूर होनी चाहिए। अगर हम सत्य को प्राप्त किए होते तो आजकल के ये जो झगडे हैं ये नहीं रहते। हम सब एक मन से, एक विचार से, एक सत्य के साथ जीते हैं। लेकिन ये जो झगड़े हो रहे हैं इसकी वजह यही है कि हम लोगों ने अभी तक उस केवल सत्य को प्राप्त नहीं किया। और जब तक हम उस सत्य को प्राप्त नहीं करेंगे तब तक उत्क्रांति याने की evolution की जो चरम सीमा है, उसे हमने प्राप्त नहीं की। उसे प्राप्त किए बगैर हम कभी भी शान्ति से, समाधान से, सुख-चैन से रह नहीं सकते। संसार के जितने भी प्रश्न हैं अधिकतर मनुष्य ने ही खड़े किये हुए हैं। इस मनुष्य के परिवर्तन के लिए श्री गणेश का बहुत कार्य है। बड़ी मेहनत करते हैं। इनके गण हैं, इसलिए उनको गणपति कहा जाता है और ये हर समय माँ की सेवा में लगे रहते हैं और हर जगह, जहाँ जरूरत है वहाँ तुरंत दौड के जाते हैं। उस स्तर को स्थापित कर सकते हैं जिसकी महिमा शास्त्रों ने गाई हुई है। कोई कठिन बात नहीं है। और इसके लिए सिर्फ हमें सज्ज होना है। हमें शुद्ध इच्छा रखनी चाहिए कि हम इसे प्राप्त करेंगे। ये कोई झूठी बात नहीं है, ये कोई ऐसी बात नहीं है जिससे किसी को भुलावा डाला जाए, किंतु ये बात सत्य है और इसे हमें प्राप्त करना चाहिए। हम श्री गणेश को नमस्कार करते है । लेकिन ये नहीं सोचते कि श्री गणेश क्या है? हमारे अन्दर कहाँ स्थित हैं? क्या कार्य करते हैं? और इन से हमें क्या क्या प्राप्त करना है ? दूसरी चीज़, हमें प्राप्त करनी है वो है सुबुद्धि , जिसे wisdom कहते हैं। श्री गणेश में इतनी सुबुद्धि और इतना प्रेम है कि वो सी ४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-6.txt जानते हैं कि आप लोग गलती कर रहे हैं, वो जानते है कि आप में कुछ दोष है, लेकिन छोटे बच्चे जैसे क्षमा कर देते हैं हर एक चीज़ को। उनको मालूम नहीं किसी से नाराज होना। इसी प्रकार वो आपको बहुत क्षमा करते हैं। किसी हद तक काफी क्षमा कर देते हैं। पर जब आप हद से गुजर जाते हैं तब वो जरूर नाराज हो जाते हैं। तो उनको सिर्फ मानना, मंदिरों में जाना और उन पर पैसे चढ़ाना, उनको पैसे-वैसे कुछ समझ में नहीं आता। अगर कुछ चढ़ाना है तो अपने हृदय को चढ़ाना होगा। और उस गणेश को अपने हृदय में बसाना होगा। जब तक वो हमारे हृदय में नहीं आएंगे हमारा जीवन पवित्र नहीं होगा और उस पवित्रता के कारण जो हमें आशीर्वाद मिलने है वो नहीं मिलते। इसके अलावा उन में ये भी शक्ति है कि वो दुष्टों का संहार कर सकते हैं। अगर कोई आपको तंग करे, तकलीफ दे तो वो आप के आसपास लगे रहते हैं। बड़ें चमत्कार सहजयोग में हुए हैं। अनेक लोगों ने बताया कि न जाने उनके अनेक प्रश्न थे वो एकदम से हल हो गए। श्री गणेश जी इस तरह से काम करते हैं कि समझ में नहीं आता वो किस तरह से काम करते हैं? और उस में कोई भी त्रुटि नहीं रह जाती। इतने बड़े श्री गणेश अगर हमारे साथ हैं तो फिर हमें डरने की क्या बात है, घबराने की क्या बात है। सिर्फ हमें गणेश को वरण करना है और अपने अन्दर उन्हें स्थापित करना है। ये चीज़ कितना भी समझाने से नहीं होगी ये तो जब आप महसूस करेंगे इसको, उसके बारे में जब बोध होगा आपको, तब आप समझेंगे कि श्री गणेश कितने महत्त्वपूर्ण है । यहाँ जो विदेशी लोग बैठे हुए हैं उन्होंने श्री गणेश का 'ग' भी नहीं सुना । उनको मालूम भी नहीं था, पर ये हर समय श्री गणेश की स्तुति करते है क्योंकि उनकी स्तुति करने से उनको अनेक लाभ हुए है और आप लोग जो यहाँ आए हुए है सब आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हों और उस श्री गणेश को हृदय में रखो जिसकी आज पूजा होने वाली है। ति र भी ३) ह 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-7.txt ि ं ২म पू. पूजा किस प्रकार से करनी चाहिए? पूजा करने का दृष्टिकोण इस तरह का होना चाहिए कि आप देवी माँ से मोहित हो गये हैं और आप उनकी प्रशंसा कर रहे हैं ये बुद्धि की कसरत नहीं। आप खुश करने के लिए ये सब बातें बोल रहे हैं। जैसे आप किसी पर प्रेम कर रहे हों और उसे खुश करने के लिए बोल रहे हैं उसी प्रकार आप देवी से बोल रहे हो। यह बातें खुद को व्यक्त करने के लिए संतों ने लिखी थी कि 'आप देवी हो, ऐसी हो, वैसी हो।'मुझे मिलने वाले खत भी कुछ इसी प्रकार के होते हैं। उनकी भावना पूरी तरह से व्यक्त करने वाले पर ये कोई भाषण देने का कोर्स तो नहीं। ये हर एक की दृष्टि की समझ है। तो पूरी भक्ति में ये सब करना चाहिए। पूरी विनम्रता से आपके हृदय में इसको समझिए। ये प्रार्थना जैसे व्यक्त स्वरूप की है। ये प्रार्थना है। ये प्रार्थना होनी चाहिए। ये कोई बुद्धिवादी लोगों की चर्चा नहीं। ये देवी की प्रार्थना है। आपका दृष्टिकोण इस तरह से तेयार नहीं हुआ तो आप ज्यादा दूर तक नहीं जा पाओगे। हृदय से, पूरी तरह से समर्पित होना चाहिए । अपना हृदय खोलो । पूरे हृदय से प्रार्थना कीजिए । विश्लेषण करने जैसा वहाँ कुछ भी नहीं है। हृदय से अगर आप कुछ करोगे नहीं तो आप जो भी बोलोगे वह सब ऊपरी होगा। अपना हृदय प्रकाशित करने के लिए देवी की प्रशंसा करनी चाहिए और वो इस तरह से व्यक्त करो कि आपको ये सब दूसरों को कहने की इच्छा हो। ये सब बाते कहते समय आपको उनसे एकरूप होना चाहिए । ८ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-8.txt श्री माताजी द्वारा दिया गया नवरात्री पूजा का संदेश १९८८, प्रतिष्ठान आप जब फोटो के सामने बैठकर ध्यान करते हैं तब फोटो को अपने हृदय में रखने का प्रयास करें, 'माँ, मैं आपसे प्रेम करता हूँ। कृपा कर े के मेरे हृदय में आईये' ऐसा कहो। सब बुद्धि इस हृदय में होती है। सब कर्तृत्व है। हृदय में ही सब कुछ उत्पन्न होता है। पर अगर आपने हृदय को बंद किया तो दिमाग विचलित होता है और शर রর বয় ाम आप हृदय के बाहर जाते हो। हृदय जो आत्मा का सिंहासन है, वो सब पर काबू रखता है। स्वयंचालित म जास स्था, पॅरासिंपथेटिक, उत्क्रांति ज्ञान सब ए सिंपथे टि क , इसलिए सबसे पहली बात कुछ अपने हृदय को तैयार करो। का 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-9.txt कार्तिकेय पूजा २१/१२/१९९६, मुंबई अनुवादित ४] स ह आ. जाजआप सब लोगों ने महालक्ष्मी पूजा करने की इच्छा व्यक्त की है। परंतु इस महाराष्ट्र में महालक्ष्मी की पूजा तो पहले से ही हो रही है और वे स्वयं यहाँ प्रकट हुई हैं। परंतु मुझे यहाँ सबको कार्तिकेय के बारे में बताने की आंतरिक इच्छा हुई क्योंकि उन्होंने महाराष्ट्र में ही जन्म लिया और वहीं ज्ञानेश्वर स्वयं कार्तिकेय ने इस महाराष्ट्र में जन्म लिया और इतनी सुंदर 'ज्ञानेश्वरी' तथा 'अमृतानुभव' जैसे दो बहुत बड़े महान ग्रंथों की रचना की। श्री ज्ञानेश्वर ही कार्तिकेय थे या नहीं, अगर यह आप लहरियों पर देखें तो तुरंत ही आप स्वयं को महासागर में, आनंद की लहरों में पाएंगे। इतनी बड़ी बात आज तक मैंने नहीं बताई इसका कारण महाराष्ट्रियन लोगों की प्रवृत्ति ही है। शायद इसके पहले अपने यहाँ राजकीय लोग भयंकर रहे होंगे। उनकी भयानकरता और गन्दगी पूरे महाराष्ट्र में प्रसारित हो गई होगी और ये समझकर की कार्तिकेय भी महाराष्ट्र के हैं, खुद को ही कार्तिकेय समझ लेना यह महाराष्ट्रियन लोगों की मानसिकता बन गई है:हम तो कुछ विशेष हैं। थे। आज तक मैंने कुछ नहीं बताया क्योंकि महाराष्ट्र के लोग इस पर विश्वास नहीं करते। अब इन्होंने सच ही कहा कि चालीस आई.ए. एस. अधिकारी आए थे और मैंने आते समय वहाँ पुलिस के तीन देखे। मैंने कहा, ये कौन आए थे?' तो उन्होंने कहा कि खुद चीफ सेक्रेटरी आए थे वहाँ के गव्हर्नर ने भी मुझे बुलाया कहा, 'माताजी, मैंने आपको सम्मानित करने के लिए आमंत्रित नहीं किया होता तो ये लोग मुझे उठाकर फेंक देते।' इतनी समझ वहाँ के लोगों में है। वहाँ ज्ञानेश्वर जी ने जन्म नहीं लिया, सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों जन्म लिया- यह अब मेरी समझ में आ रहा है। तेईस साल में ही यह कहर समाधि ले ली कि रहने दो बाबा! यह महाराष्ट्र।' घुडसवार खड़े और महाराष्ट्र में संतों को जितनी तकलीफ हुई, उनको परेशान किया गया, उतना कहीं भी, किसी भी संत को परेशान नहीं किया १० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-10.txt गया। हमारे यहाँ यह समझते हैं कि इसी में (सताने में) बहादुरी है। उनके (संतों के) मरने के बाद मंदिर बनाओ, टाल बजाओ, बिना कामधाम का धंदा करो। शिवाजी महाराज ने बहुत वर्ष पहले स्वधर्म को जागृत करने के लिए कहा 'महाराष्ट्र मेरी मातृभूमि , मेरी मातृभाषा!' और ज्ञानेश्वरजी ने पहले ही कह दिया था 'विश्व स्वधर्मे सूर्ये पाहो' तब शिवाजी महाराज ने भी वही कहा। उसी कार्य को हम भी देख रहें है कि विश्व, स्वधर्म, सूर्य की जागृति होनी चाहिए और वह पहले महाराष्ट्र में होनी चाहिए क्योंकि ज्ञानेश्वर जी ने यहाँ सबको बताया है। कल मैंने महाराष्ट्र के बारे में जो कहा उसका बुरा मत मानिए अपितु ऐसा मत सोचो कि माताजी उसके बारे में कह रहीं थीं, इसके बारे में कह रही थीं। खुद की ओर ध्यान दीजिए, उसकेलिए उन्होंने introspection शब्द का प्रयोग किया है । 'माताजी ने कहा है कि इतने साधु-संत हुए नहीं हैं।' इसका मतलब यह नहीं कि तुम कोई साधु-संत हो। जैसे कीचड़ में कमल खिलने पर मेंढक बोलें वाह! वाह!, इन कमलों के तले हम कितने महान हो गए।' अपने महाराष्ट्र में इस तरह की चीज़ें बहुत हैं, इसपर ध्यान देना चाहिए। जिस तरह की चीज़ें मैंने यहाँ देखी वो इस जगत में और कहीं नहीं देखी । सबसे पहली बात झगड़ालू प्रवृत्ति । इतने झगड़ालू हैं कि मैं कभी कभी इतनी निराश हो जाती हैँ कि सिर्फ एक ही पूजा करवाने के लिए कहती हूँ, बस इस के आगे नहीं। अब गणपतिपुले में इतना सुंदर आश्रम बनाया, तो उसके पीछे हाथ धो कर पड़ गये। इतने गन्दे लोग हैं। कुछ समझता नहीं इनको । पर हम संतों की भूमि में रहने वाले, हमारे यहाँ अष्टविनायक! हमारे यहाँ साढ़ेतीन देवियों का प्रकटीकरण! इससे मुझे यह लगता है कि इस तमाम गंदगी की सफाई के लिए इन लोगों (संतों) ने हिम्मत की है। वैसे ही हमने भी हिम्मत जुटाई है। पर अब हर चीज़ देखती हूँ तो आश्चर्य होता है। एक आदमी जिसका मुँह तक मैंने देखा नहीं, मेरी अनुमति के बगैर मेरी शोभायात्रा निकाली। दूसरे एक गृहस्थ जो मेरे नाम से खुद की ही पूजा करवाते हैं। ऐसी होशियारी के काम मैंने कहीं नहीं देखे- मद्रास में भी नहीं, बंगाल में नहीं। भगवान का डूर ही नहीं रहा। कुछ भी करते हैं, इतने बुरे लोग थे। वे सहजयोग का पालन नहीं कर सकते कथे । उनसे कहा, 'अभी आप सहजयोग में मत रहो। सहजयोग में रहकर पहले अपनी स्थिति सुधारो।' बस, इतना कहते ही, "माताजी प्रेम की बात करती हैं, फिर सब पर गुस्सा क्यों करती हैं?" मैं माँ हैं। जो आपकी भलाई के लिए है, वो तो कहना ही पड़ेगा और मैं कहूँगी। पर कहीं कहीं जगह तो बताना नहीं पड़ता, जरूरत ही नहीं पड़ती उसकी । अत्यंत घमंड़ी लोग हैं और जो भी उन्होंने कहा, सच है, आगे आगे करना, 'जान बूझकर मैं फूल ले कर छि है ६ ॐ े ैं २ रि ववT ३ दा १ु० हर] ११ গ. 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-11.txt ठाणे से आया हँ। खास माताजी के लिए। में स्वयं ही माताजी को फूल दूँगा।' पागलखाने से आए हुए लगते है। तो ऐसा क्यों है महाराष्ट्र में? मेरी तो समझ के बाहर है। इतने साधु-संत हो गए इसलिए ये पावनभूमि है, यहाँ अष्टविनायक हैं इसलिए ये पावनभूमि है और तो और यहाँ साढ़ेतीन देवियाँ प्रकट हुई इसलिए ये परम पावनभूमि है। इस भूमि पर ऐसी गन्दी चीज़ें क्यों होती हैं? दूसरे एक गृहस्थ थे, जिन्हे भूतबाधा थी, उनसे कहा की 'भाई, आप सहजयोग छोड़ दो।' तो उन्होंने अपना दूसरा ही सहजयोग शुरू कर दिया। मुझमें जो दोष हैं, बुराईयाँ हैं वो मत निकालो अपितु मैं तो कुछ खास हूँ। इतना कि उनकी पत्नी सबको बताने लगी कि 'हमारे ये तो माताजी से भी ऊपर हैं। ऊपर है या नीचे भगवान ही जाने! ऐसी बहुत सी बातें सुनकर मुझे अचरज हुआ। इस तरह सहजयोग में कहीं पर भी हुआ नहीं। ऊपर से मराठी अखबार! उनसे तो अच्छे हिंदी और अंग्रेजी के हैं। कुछ भी लिखते हैं, कुछ भी करते हैं। झगड़ालू प्रवृत्ति तो महाराष्ट्र का पहला स्वभाव है। चलो माना कि झगड़ालू प्रवृत्ति तो महाराष्ट्रीयन का पहला स्वभाव है, परंतु अब तो आप सहजयोग में आ गए हो। इतनी ईष्ष्या, इतने झगड़े, इतना घमंड़ है, और कहते हैं कि हम तो पुराने सहजयोगी हैं और ये नए, उनको तो कुछ आता ही नहीं है। धोरे-धीरे उत्तर हिंदुस्तान के लोग सहजयोग में आ रहे हैं। और इतनी अजीबो-गरीब चीज़ें देखकर वो भी वापस जा रहे हैं। जब मैं पूना गई तो वहाँ सहजयोग में पंजाब के लोग आए थे। उन्होंने कहा, 'माताजी, इन महाराषट्रियन लोगों को लेकर आप क्या कर रही हैं? वे बहुत गर्दे लोग है। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने कहा, 'ऐसे कैसे बोल रहे हो । उनको भला बुरा कहते हो। ये क्या बोलने का तरीका है? आप खुद को क्या समझते हो?' पर आज वे आठ-दस लोग पक्के सहजयोगी बन गए हैं। मुझे पता है। दिल्ली में आश्रम बनवाया तो आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि रोज सुबह दफ्तर जाने से पहले करीब सौ लोग दस-दस मील से ध्यान के लिए मोटर या बस से आते हैं। बाकी सबकुछ सुंदर है। इतनी सुंदर चीज़े हैं अपने पास । दीप जलाने में कुशल हैं, सब करने में कुशल हैं, लेकिन अन्दर के दीप कब जलाएंगे? हम कितने गहन हैं, यह देखने के लिए अन्दर का दीप पहले जला लो। जो अभी इन्होंने आपको बताया वह उनसे कहने को मैंे ही कहा था क्योंकि मैं ऐसी बातें बोल नहीं सकती। यह जो अब सहजयोग में आये हैं-पहले दारू पीते थे, ड्रग्ज लेते थे, सबकुछ करते थे और अब ये कहाँ के कहाँ पहुँच गए हैं। और महाराष्ट्र में लोग आपस में ही लड़ाई-झगड़ा करते हैं। क्या मतलब है इसका? कहते हैं,"माताजी हम पर गुस्सा होती हैं।" गुस्सा नहीं करूं तो क्या हार ड़ालूं आपके गले में? आपस में झगड़ा करने में माहिर हैं। खाली बैठने वालों के धंधे-ये ऐसा करते हैं, वे वैसा करते हैं करने दो । और कुछ नहीं सुझा तो 'आजकल माताजी पैसे-वैसे नहीं देती, तो हमें ज्यादा पैसे देने पड़ते है।' अरे, मैं ही सब चीज़ों के लिए पैसे देती हूँ। तुम्हारे खाने के, पीने के। सब देकर देख लिया। अब कुछ नहीं तो ऐसी बातें बोलने लगे। मैं क्या इन राजकीय लोगों जैसी हूँ? फिर बोलते हैं कि माताजी, यहाँ भूकंप क्यों होते हैं? ये क्यों होता है, वो क्यों होता है? महाराष्ट्र में दारू पीने वालों की कमी नहीं है। महाराष्ट्र में जितना पीते है उतनी कहीं नहीं। दारू पीकर रास्ते पर चलने वाले महाराष्ट्र में कितने हैं? आप ही बताईये। दिल्ली में आपको राह पर एक भी नहीं दिखेगा। परदेस में भी मेंने नहीं देखा। पर महाराष्ट्र में आप बाहर कहीं भी जाओ तो दारू पीकर जाओ। ये पहले से ही चला आ रहा है। बहुत साल हो गए हैं। एक बार में राहुरी गयी थी। रास्ता चढ़ाई वाला था और आगे बड़ा रास्ता था। वहाँ जाकर जब मेंने गाड़ी रोकी तो देखती हूँ कि खटमल की तरह लोग मर रहे थे। मुझे लगा कॉलरा हुआ होगा। सफेद टोपी, सफेद कमीज, सफेद पैजामा पहने हुए नीचे से उपर आए और खटमल जैसे पटापट गिर गए। मैंने पूछा,"अरे,भाई, क्या हुआ?" बोले, "वहाँ इंदिरा नगर है।" ठीक है, आगे बोलो। "वहाँ सस्ते में दारू मिलती है।" वहाँ दारू पीकर ऊपर आकर फट से मर रहे थे इतने लोग यहाँ दारू पीते है। दिल्ली में बहुत कम लोग दारू पीते है। बहुत से लोग तो जहाँ दारू रहती हैं, वहाँ जाते भी नहीं। परंतु यहाँ पर पार्टी में दारू पिएंगे नहीं तो वो महाराष्ट्रियन कैसे? महाराष्ट्रियन लोग दारू पीते हैं। हमको तो बचपन से ही पता नहीं था दारू का मतलब क्या होता है। उसका रंग भी मालूम नहीं था । अब किसीसे कुछ कहो तो कहते है, 'देखो वे तो सत्तर साल के थे, फिर भी दारू पी रहे थे।' मैने कहा, "ऐसा है तो अब उनका पुतला खड़ा करो।" अब हम उस लायक बन गए है क्या? हमने सात वर्ष की उम्र में दारू की दुकाने बंद करने के लिए विरोध किया था । अब यहाँ तो इतने सारे लोग हो गए हैं. जो दारू के बगैर रह नहीं सकते। अब में दारू के विरोध में बोलती हूँ तो सब दारू पीने वाले लगे मेरे पीछे हाथ धोकर। किसी को कुछ बोलना भी ठीक नहीं। अखबार वाले भी वैसे ही हैं, यही सब यहाँ व्यापार करने वाले ति १२ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-12.txt लोग, बड़े अचरज की बात है। लखनऊ में वाजिद अली शाह जैसा आदमी, जो नवाब था। वहाँ के लोग कितने सौम्य हैं। वैसे उनकी भाषा में नम्रता है। इतनी नम्रता, इतना सौजन्य मुझे आश्चर्य हुआ और यहाँ इसकी बुराई कर, उसकी बुराई कर, उसके बारे में बुरा बोल। मुझे इतने गन्दे खत पे खत भी भेजते हैं। हर एक के चरित्र पर कुछ न कुछ कहते हैं। मैं तो तंग आ गयी हैं। महाराष्ट्र से पत्र आने के बाद तो मैं फेंकने के लिए कहती हैं। अब उस ज्ञानदेव के आगे क्या बोलूँ। खुद वे तेईस साल की उम्र में आपको नमस्कार करके चले गए। उन्होंने किसी को क्रिटीसाइज़ नहीं किया। उन्होंने बहाँ की सत्य स्थिति बताई। उन्होंने उस स्थिति में रहने वालों की बात की। वो इनकी दिमाग में कहाँ से आएगी। इन महाराष्ट्रियन लोगों की दिमाग में आने वाली नहीं मैं ऐसा नहीं कहूँगी कि महाराष्ट्र में मुझे लोग मिले नहीं। परंतु यहाँ जितनी मेहनत से मैंने कार्य किया है और जितना बड़ा यह महाराष्ट्र है उससे तो और ज्यादा होना चाहिए। एक तो यह कि 'में विशेष रूप से आया हूँ।' क्यों आए? किसने कहा था आने के लिए। बिलकुल भी मत आओ। जब मैं आती हूँ तो मेरे दर्शन के समय खुद के ही दर्शन देंगे, इसलिए धका-मुक्की करेंगे, आगे आएंगे। आगे आकर मुझे अपने भयानक चेहरे दिखाऐंगे। आप चाहे कितना भी कहें फिर भी आप लोगों को बहुत कुछ सीखना है । इसका ध्यान रहे। तानाजी की आन-बान छोड़ो। वे कहाँ गए मेरी समझ में नहीं आता। पर कम से कम नम्रता तो चाहिए, कि माताजी, हमें कुछ हासिल करना है। हमको उपर उठना है। कहाँ हैं वे संत-साधु? मैं तो कहूँगी ब्राह्मणों के कर्दनकाल पूरा इधर ही उपस्थित हो गया है क्या? क्योंकि ये गरु, वो गुरू, वो गुरू और उनका प्रस्थ। अगर बेकार के प्रस्थ बनाने हों तो या अमेरिका में या तो फिर महाराष्ट्र में बनाओ। इतने बड़े मूर्ख है कि अभी तक ये पता नहीं कि सच क्या है, झूठ क्या है। आपने ही जाकर लोगों को बताना है। महाराष्ट्र में लोगों को कहना चाहिए कि सच और झूठ ये भी पता नहीं, तो आप किस काम के? में आज इसलिए कह रही हैँ कि अगर आप सच्चे सहजयोगी हो तो 'हम महाराष्ट्रीयन और ज्ञानेश्वरजी के सगे-संबंधी', कहीं भी जाओ तो 'ये हमारे पूर्वज, हम उन्ही के वंश के। ऐसा क्या? ठीक है। दिख ही रहा है। क ब १३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-13.txt और मराठी अखबार तो पढ़ो ही मत । सब बेकार हैं। कुछ मालूम नहीं है क्या लिखना है, क्या नहीं। लोगों के लिए क्या अच्छा, क्या ठीक है। मानती हैं, एक-दो मक्कार आप के यहाँ आए, राजनीति में आए, पर आप सब वैसे ही बनोगे क्या? अब सभी सहजयोगियों से विनती है कि आपस में वाद-विवाद करना छोड़ो और जितने भी लोग सहजयोग छोड़कर गए है उनकी ओर देखो भी मत । उनका हमारा कुछ संबंध नहीं । परसो एक गृहस्थ मुझ से मिलने के लिए आए उनके सिर में बड़े बड़े फोड़े निकले हुए थे। मैंने पूछा, 'क्या हुआ? बोले, माताजी, मैं मर रहा हूँ।' फिर पूछा, हुआ क्या?' कहने लगे, मैं वो आपके सहजयोगी हैं उनके पास गया था । 'क्यों गये थे? आपके लिए सेंटर्स हैं, वहाँ जाइए।' अब कोई किसी के सेंटर्स में इंटरफिअरन्स न करे। मुझे हर एक को देखना है कैसे करते हैं। कोई भी बीच में न बोले। अब मैं यही सबको बताने वाली हूँ। लोग मुझे कहने लगे की इधर उधर बोलते हैं और इसी से सब गडबड़ी होती है। जहाँ जो सेंटर चलाता है वही वहाँ का मुख्य, वहीं का लीड़र। आगे से अपने लीड़र के विरोध में कुछ लिखकर भेजा तो मैं आपको सहजयोग से निकाल दूँगी। क्राइस्ट ने इसे 'मरमरींग सोल' (बड़बड़ाती आत्मायें) कहा है। फालतू की बातें करते हैं। पहले जमाने में मंदिर में औरते बाती (कपास की)बनाते बैठती थी, तो कहा जाता था कि 'दादीमाँ बैठ गई बाती बनाने ।' पर अब तरुण लोग भी यही धंधे करने लग गए। अब क्या बोलें? एक दूसरे के विरोध में बोलने या फिर ये ऐसा क्यों करते हैं? वैसा क्यों करते हैं? ऐसा सोचने की आपको इच्छा भी कैसे होती है? मैं तुम्हे वहाँ ले जाने का सोच रही हैूँ। उस संत पद का विशेष दान देनेवाली हूँ, दिया भी है, पर आपको संतों जैसे रहना चाहिए। र कल मैंने वारकरी लोगों के बारे में कहा था । ये बहुत सालों से कहना चाहती थी, पर सोचा नहीं। गलत जगह श्रद्धा रखना ये तो महाराष्ट्रीयन लोगों की खासियत है । वैसे ही अमेरिकन्स । मैं अमेरिकन्स को हमेशा बोलती हूँ कि उन में अभी तक मॅच्युरिटी नहीं आयी। प्रगल्भता नहीं है। पर यहाँ तो सब अच्छे परिपक्व लोग रहते हैं। ऐसे परिपक्व लोगों को हुआ क्या है? जिस भूमि पर आप बैठे है, वहाँ संतों ने अपना खून बहाया है और आपका संत होना कुछ कठिन नहीं है। इसलिए आपका जन्म यहाँ हुआ है। ये नहीं चलेगा फिर भी अगर अपने मूँछ पर हाथ फेरते हुए 'हम सहजयोगी' ऐसा गर्व से कहोगे, तो आप कैसे सहजयोगी? ये ऐसी भाषा? मराठी जैसी आध्यात्मिक भाषा नहीं है। महाराष्ट्र में बहुत अध्यात्म हआ है। इसकी जितनी महत्ता गाओ उतनी कम है। और आप इस महाराष्ट्र में जन्मे, वो क्या पुण्याई के बगैर? पर वह काम ना आएगी। मैंने ज्ञानेश्वर जी जैसे तेईसवे वर्ष में ही समाधिनहीं ले ली है। और इतना सब कुछ होने के बाद भी हाथ में कुछ भी नहीं आता। जैसा कल मैंने बताया, हम अंधश्रद्धा निर्मूलन वाले,' यह एक और प्रकार है। किसी ने कुछ कहा तो लग गये उसके पीछे। हजारों लोग जायेंगे गन्दी जगह।...इतने पैसे बनायें उन्होंने माताजी, और उनकी बीवी रजनीश के साथ भाग गई। उसे पैसे-वैसे दिए नहीं होंगे शायद! हम उनको ही मानते थे, तो मानिए। हम उनको ही मानते हैं पर 'आप हैं कौन?' नम्रता की यहीं से शुरुआत करनी है। मैं कौन? मैं सहजयोगी हूँ। आत्मा स्वरूपत्त्व प्राप्त हुआ ऐसा में सहजयोगी हूँ और मुझे कैसे रहना चाहिए। भाई, ज्ञानेश्वरजी का उदाहरण सामने है। तुकाराम जी, रामदास जी, एकनाथ जी ऐसे संतों के उदाहरण सामने है। वो नहीं सुना क्या आपने? वो नहीं देखा क्या? जिस नामदेव को गुरू नानक जी ने हृदय से लगाया वो नामदिव महाराष्ट्र में दर्जी (टेलर) ही था। पर इस नामदेव जी के मंदिर में दस दर्जी (टेलर) भी मन से आए तो भी बहुत है। उनके कार्य से कुछ लिया, ऐसा कह सकते हैं। अब उन सभी संतों-साधुओं को एक ही विनती है कि वापस इस देश में जन्म लेकर सब को ठीक करें। सहजयोग की जितनी प्रगति होनी चाहिए उतनी हुई नहीं। सिर्फ सहजयोग बढ़ रहा है। जो ज्यादा फैलता, पर अगर उस में ताकत नहीं होगी तो वो फटता है। तो अब ये ग्रुप अलग, वो ग्रुप अलग वहाँ ये सब सुनने को नहीं मिलता। ऐसे झगड़े वहाँ पर दिखते ही नहीं। भाई, सहजयोग में ये अलग-अलग ग्रुप कैसे ? स्वयं साक्षात कार्तिकेय ने यहाँ जन्म लिया है। सरस्वती को भी 'स्कंध माता' बोलते हैं। वो उसकी माँ नहीं थी। वो कुँवारी थी। पर स्कंध को उन्होंने हृदय से लगाया था और उसे अपना पुत्र मानती थी। उसी कार्तिकेय ने ढूँढ कर महाराष्ट्र में जन्म लिया। ज्ञानेश्वरजी ने जो कुछ भी लिखा उससे सारा विश्व अचंभित हो गया। पर अपने यहाँ उलटा हो रहा है। अमेरिका से कुछ लोग यहाँ 'पीस (peace) युनिव्हर्सिटी' बनाने के लिए आए । आलंदी में बनानी थी पर हुआ क्या? आलंदी में वे करने वाले नहीं । मेरी शरण में आए और बोले, माताजी, आप ही सब कीजिए । सब आपके ही हवाले करते हैं। हमें यहाँ महाराष्ट्र ें किसी से, कुछ नहीं करवाना है। We don't want to deal with them.' हुआ क्या कि एक आदमी ने, बहुत बड़े हैं वो, उनके ढ़ाई करोड रुपये मार लिए । दूसरे ने साढ़े तीन करोड रुपये मार लिए । उन्होंने मुझे कहा, 'नहीं चाहिए महाराष्ट्र । आप ही कीजिए, आपके नाम १४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-14.txt से कीजिए। हम आपको मानते हैं। मेरी उनसे मुलाकात सिर्फ दो घंटों की थी । वे तो दंग रह गए, क्या लोग हैं! जिन्होंने पैसे ऐंठ लिए वो कोई राजनेता नहीं। जिसे देखो पैसे के पीछे। यह सब कहने का तात्पर्य है कि गहनता आने के लिए पहले खुद को देखना चाहिए। खुद की ओर ध्यान दें। देखना चाहिए कि माताजी ने जो कहा है उसमें से कितना मेरे अन्दर है। में सब से कहती हैँ कि जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो सब यादि-व्याधि, वैसे ही तरह की उपाधि, अपने आप निकल जाती है। सब कुछ निकल कर एक सुंदर कमल का फूल आता है । पर महाराष्ट्र में आने के बाद ऐसा कुछ दिखता नहीं है। और सबसे बड़ा प्रश्न कि मुझे कौनसा बड़ा पद मिला? ये लीड़र कौन? ये बोलने वाला कौन? ये क्यों आकर मुझे ठीक करता है? में लीडर नहीं मानता । तो उसके विरोध में लिखो, उसके चरित्र के बारे में लिखो। माताजी, आपने हमें सहजयोग से निकाला पर जिस आदमी के कारण निकाला उसका चरित्र ही ठीक नहीं। मुझे अकल है कि नहीं? आप की अकल से में चलती तो क्या हुआ होता? सब से ज्यादा हम लोग बहुत कर्मकाण्डी हैं। सुबह चार वजे उठेंगे, नहाएंगे। माताजी के सामने ध्यान के लिए बैठेंगे। 'मैं इतना करती हूँ फिर भी मेरा भला कैसे नहीं होता? उसके लिए हृदय चाहिए। हृरदय कहाँ दिया तुमने । अपना हृदय मुझे दो । तुम्हारा हृदय नहीं मिला तो उस में क्या भरू? प्रेम भरने के लिए हदय चाहिए। झगड़ालू लोगों का हृदय होता है ऐसा तो मुझे नहीं लगता । आज की पूजा में इतना सब कहा क्योंकि जैसे आपने यहाँ दिए जलाए, मराठी में कहते है, 'दिवे लावू नका' मराठी भाषा ऐसी ही तलवार जैसी, मेरे कहने का मतलब यह है कि हृदय में दीप जलाइए। उसके जलने के बाद स्वयं को जानोगे बचपन में हमारी माँ कहती थी 'आपका ध्यान है किधर? आपका लक्ष्य क्या है? अभी उसका मतलब समझ में आ रहा है। धीरे-धीरे कुछ करना, चिड़चिड़ापन, गुस्सा होना, कुछ तो नया निकालना, यह सब सहजयोग में चलने वाला नहीं। मनुष्य का चित्त शांत रहना चाहिए। इस के बारे में ज्ञानेश्वर जी ने लिखे 'अमृतानुभव' में कैसे अच्छी तरह से लोगों को समझाया है। पर है कहाँ समझने के लिए? क्या लिखा है वह इनकी समझ में आता ही नहीं। तो अमृतानुभव पढ़ो । उसमें लिखे एक-एक शब्द का अर्थ देखो। कैसे एक सहजयोगी अपने समाधान में समाया हुआ है। उसे सत्ता नहीं चाहिए, पैसा नहीं चाहिए । कुछ भी नहीं चाहिए। वो कैसे आनन्द 76 बिब कि र 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-15.txt ८ में है। उसका व्यक्तित्त्व विशेष है। महाराष्ट्र में सहजयोग में बहुत तराशे हुए हीरे हैं बहुत हैं। उत्तम। अति उत्तम। पर वे और बाकी लोग भी ऐसे ही लगते है मुझे। मुझे कोई भी पत्र ना लिखे। और उसमें दूसरों की निंदा भी मत करो। मुझे ये अच्छा नहीं लगता है। मुझे गन्दे पत्र भी मत लिखे। आपके अनुसार से वे बहत अच्छे हैं तो उसे अपने पास ही रखिए । मुझे कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। मुझे सब मालूम है। सिर्फ आपको सब मालूम होना चाहिए। आपमें से ही हीरे-माणिक निकलने वाले हैं । मुझे पता है ये खान है उस में अगर कोयला दिख रहा है तो उसी में हीरे हैं। इतने साल से मैं मेहनत कर रही हैँ। अब अगर आप लोगों ने स्वयं को नहीं पहचाना, तो में क्या करूँ । ज्ञानेश्वरजी की तेईस वर्ष की आयु बहुत महत्त्वपूर्ण थी, उन्होंने कैसे बिताई होगी। विशेष रूप से सन्यासी के घर में जन्म लिया। लोगों को दिखाने के लिए कि यह सब उपरी कर्मकाण्ड है और कुछ भी नहीं। इतना सब होने के बावजूद उन्होंने जन्म लिया और ढोंगी लोगों ने उन्हे यातनाएं दी। वैसा छलावा सहजयोग में मत करो। मुझे सबके बारे में सब कुछ पता है। मुझे कुछ भी बताने की जरूरत नहीं। सिर्फ आप अपने को पहचानो। मुझे जानने से अच्छा है कि अगर आप अपने को जानो, तो आज की मेरी ये पूजा धन्य हो गई ऐसा मैं कहँगी। इस में कोई शक नहीं। उत्तर हिंदुस्थान में सही में कार्य बहुत जोर से शुरू है। वहाँ के आय.ए.एस.ऑफीसर्स ने आपस में एक संघठन बनाया कि अगर कोई corrupt होगा, कितना भी बड़ा ऑफिसर हो तो भी उन पर कारवाई की जाएगी सब information इकड्ठा करते हैं। कैसे पैसा कमाया? कहाँ से पैसा कमाया? और फिर उसे कोर्ट ले जाएंगे। मैंने उनसे पूछा, "आप आय.ए.एस. के लोग सहजयोग में आए कैसे? "माताजी, तकलीफ ये है कि हम लोग इमानदार है । हमें बेईमानी करनी आती ही नहीं है।" सुना आप लोगों ने। मेरे पति भी वैसे ही है । मेरा दामाद भी वैसा ही है। हमें बेईमानी करनी आती ही नहीं। "हम क्या करें? इन लोगों के साथ कैसे रहें? वे हमें कहते हैं बेईमानी करो। आखिर में हमें मार्ग मिला और हम सहजयोगी हो गए और हम सब सहजयोगी, सब एक हो गए। कोई झगड़ा नहीं करता, कुछ नहीं। यहाँ पर वैसी ही संघटना होनी चाहिए सहजयोग की। हम सत्य में खड़े हैं और हमें कोई भी हिला नहीं सकता। हम उस सत्य पर अड़िग १६ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-16.txt खड़े हैं। पर उस सत्य का प्रकाश प्रेम है और आपसी प्रेम.. रिश्तेदारी यह ज्ञानेश्वर जी ने स्पष्ट कहा है। वही आपके सगे-संबंधी। 'हमारे यहाँ हल्दी-कुमकुम है।' 'अच्छा, फिर कौन आने वाला है?' 'मेरी चाची आने वाली है। वो इस देवता को मानती है। वो उस देवता को मानती है।' सहजयोगी आने वाले है? आपके सगे-संबंधी कौन? यही आपके भाई-बंध हैं। इस पूरे विश्व में सहजयोग में सभी जीव एक हो गए हैं। जिसे, में जो सामूहिकता कहती हूं, वो जागृत हो गयी है। पैंसष्ठ देशों में मैंने उसका निनाद सुना है। पर महाराष्ट्र में ऐसा कुछ दिखता नहीं है। एकजुट होना चाहिए। कुछ भी हो हम सहजयोगी हैं और बाकी सब अलग। यह जब तक आपके अन्दर आएगा नहीं तब तक आप सहजयोग में उतर नहीं सकते क्योंकि आप सामूहिक नहीं। सामूहिक हुए बगैर ये काम होने वाला नहीं। समुद्र को ध्यान से देखने के बाद पाओगे कि एक लहर निकली तो वह संपूर्ण समुद्र में तरंगित होती है क्योंकि समुद्र सामूहिक है। सारी बूंदे एक हैं। अगर एकाध बूंद बाहर निकल गई तो वह सूर्यताप से नष्ट हो जाती है। वैसे ही अपने सहजयोग में है। जो है वह पूरी तरह से है, नहीं तो नहीं है। एक-दूसरे के विरूद्ध बोलना, निंदा करना शोभा नहीं देता। आज पूजा के दिन अपना हृदय साफ कर लो और उस हृदय में प्रेम की गंगा बहने दो। मुझे माताजी से मिलना ही है, माताजी को सन्देश भेजो। बिलकुल भी नहीं। मुझसे मिलना हो तो मात्र अपने हृदय में मुझे देखिए । वहीं पर मैं मिलने वाली हूँ और यही बहुत है। भीड़-भाड़ के साथ प्रतिष्ठान में आते हैं। 'मुझे मिलना ही है, मैं कुछ तो खास, मैं डॉक्टर।' होंगे। 'मैं वरकील, मैं अमका हूँ, मैं तमका हूँ । मैं चीफ मिनिस्टर का चपरासी हूँ।' अंहकार के जितने प्रकार महाराष्ट्र में देखोगे उतने और कहीं नहीं। आपको महाराष्ट्रीयन बनाया इस महाराष्ट्र में जन्मे हुए आप तो महान हो वो ऐसे कीचड़ में क्यों जाते हैं? यहाँ पर जो आए हैं, उनमें लीड्र कौन है, आप पहचान भी नहीं पाओगे। वो उनमें है ही नहीं क्योंकि नम्रता से ही सहजयोगी में रह सकते हैं, यह वो जानते हैं । आज की पूजा में मैं आप सबको अनन्त आशीर्वाद देती हूँ कि आप स्वयं की आत्मा की अनुभूति से परिपूर्ण हो जाओ। आधाअधूरापन नहीं चलेगा। परिपूर्ण हो जाईए । यह अनंत आशीर्वाद मैं आप सबको देती हैं। र ক, १७ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-17.txt कुण्डलिनी और श्री गणेश पूजा २२ सितम्बर १९७९, दादर, मुंबई आ ज के इस नवरात्रि के प्रथम दिन शुभ घड़ी में, ऐसे इस सुन्दर वातावरण में इतना सुन्दर विषय, सभी योगायोग मिले हुए दिखते हैं। आज तक मुझे किसी ने पूजा की बात नहीं कही थी, परन्तु वह कितनी महत्त्वपूर्ण है! विशेषतः इस भारत भूमि में, महाराष्टर की पूण्य भूमि में, जहाँ अष्टविनायकों की रचना सृष्टि देवी ने (प्रकृति ने) की है। वहाँ श्री गणेश का क्या महत्त्व है और अष्टविनायक का महत्व क्यों है? ये बातें बहुत से लोगों को मालूम नहीं है। इसका मुझे बहुत आश्चर्य है। हो सकता है जिन्हें सब कुछ पता था या जिन्हें सब कुछ मालुम था ऐसे बड़े-बड़े साधु सन्त आपकी इसी सन्त भूमि में हुए हैं, उन्हें किसी ने बोलने का मौका नहीं दिया या उनकी किसी ने सुनी नहीं। परन्तु इसके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है और एक के जगह सात भाषण भी रखते तो भी श्री गणेश के बारे में बोलने के लिए मुझे वो कम होता । आज का सुमुहर्त घटपूजन का है। घटस्थापना अनादि है। मतलब जब इस सृष्टि की रचना हुई, (सृष्टि की रचना एक ही समय नहीं हुई वह अनेक बार हुई है।) तब पहले घटस्थापना करनी पड़ी। अब 'घट का क्या मतलब है, यह अत्यन्त गहनता से समझ लेना जरूरी है। प्रथम, ब्रह्मत्त्व में जो स्थिति है, वहाँ परमेश्वर का वास्तव्य होता है। उसे हम अंग्रेजी में entrophy कहेंगे। इस स्थिति में कहीं कुछ हलचल नहीं होती है। परन्तु स्थिति में जब इच्छा ॐ ैरदे मा य० १८ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-18.txt ह का ै। ाई ० ক भवए का उद्गम होता है या इच्छा की लहर 'परमेश्वर' को आती है, तब उसी में परमेश्वर की इच्छा समा जाती है। वह इच्छा ऐसी है कि अब इस संसार कुछ सृजन करना चाहिए। यह इच्छा उन्हें क्यों होती है? वह उनकी इच्छा! परमेश्वर को इच्छा क्यों होती है, ये समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है । ऐसी बहुत सी बातें मनुष्य की सर्वसाधारण बुद्धिमत्ता से परे हैं। परन्तु जैसे हम कोई बात मान लेते हैं, वैसे ही ये भी मानना पड़ेगा कि परमेश्वर की इच्छा उनका शीक है। उनकी इच्छा, उन्हें जो कुछ करना है वे करते रहते हैं। यह इच्छा उन्हीं में विलीन होती है (एकरूप होती है) और वह फिर से जागृत होती है। जैसे कोई मनुष्य सो जाता है और फिर जग जाता है। सो जाने के बाद भी उसकी इच्छाएँ उसी के साथ सोती हैं, परन्तु वे वहीं होती हैं और जगने के बाद कार्यान्वित होती हैं। वैसे ही परमेश्वर का हैं। जब उन्हें इच्छा हुई कि अब एक सृष्टि की रचना करें, तब इस सारी सृष्टि की रचना की इच्छा को, जिसे हम तरंग कहेंगे या जो लहरें हैं, वह एकत्रित करके एक घट में भर दिया। यही वह 'घट' है। और इस घट का मतलब परमेश्वर है। में मतलब परमेश्वर व उनकी इच्छाशक्ति अगर अलग की जाय, हम अगर ऐसा समझ सकें तो समझ में आएगा। आपका भी उसी तरह है, परन्तु थोड़ा सा फर्क है। आप और आप की इच्छा शक्ति इस में फर्क है। वह पहले जन्म लेती है। जब तक आपको किसी बात की इच्छा नहीं होती तब तक कोई काम नहीं होता। मतलब अब जो ये सुन्दर विश्व बना है वह किसी को इच्छा के कारण है। हर एक बात इच्छा होने पर ही कार्यान्वित होती है। और परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित होने के लिए उसे उनसे अलग करना पड़ता है। उसे हम 'आदिशक्ति' कहेंगे। ये प्रथम स्थिति जब आयी तब घटस्थापना हुई। यह अनादिकाल से अनेक बार हुआ है। और आज भी जब हम घटस्थापना करते हैं, तो उस अनादि अनंत क्रिया को याद करते हैं । तो उस नवरात्रि के प्रथम दिन हम घटस्थापना करते हैं। मतलब कितनी बड़ी ये चीज़ है! याद रखिए । उस समय परमेश्वर ने जो इच्छा की, वह कार्यान्वित करने से पहले एकत्रित की और एक घट में भर दी। उसी 'इच्छा' का हम आज पूजन कर रहे हैं। उसी का आज हमने पूजन किया वह इच्छा परमेश्वर को हुई, उन्होंने आज हमें मनुष्यकत्त्व तक लाया, इतनी बड़ी स्थिति तक पहुँचाया, तब आपका ये परम कर्तव्य है कि उनकी इस इच्छा को पहले वंदन करें। १९ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-19.txt उस इच्छा को हमारे सहजयोग की भाषा में श्री 'महाकाली की इच्छा' कहते हैं या 'महाकाली की शक्ति' कहते हैं। ये महाकाली की शक्ति है और ये जो नवरात्रि के नव दिन (विशेषकर महाराष्ट्र में) समारंभ होते हैं वे इस महाकाली के जो कुछ अनेक अवतरण हुए हैं उनके बारे में है। अब महाकाली शक्ति से पहले, यानी इच्छा शक्ति के पहले, कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए इच्छा शक्ति आदि है, और अन्त भी उसी में होता है। प्रथम इच्छा से ही सब कुछ बनता है और उसी में विलीन होता है। तो ये सदाशिव की शक्ति या आदिशक्ति है। ये आप में महाकाली की शक्ति बनकर बहती है। अगर यहाँ पर बे परमेश्वर है ऐसा समझ लें, ये विराट का अंश स्वरूप माना तो उसमें जो बायीं तरफ की शक्ति है वह आप की इड़ा नाड़ी से प्रवाहित होती है। उस शक्ति को महाकाली की शक्ति कहते हैं। इसका मनुष्य में सबसे ज्यादा प्रादुर्भाव हुआ है। पशुओं में उतना नहीं है। अपने में वह (मनुष्य प्राणी में ) अपनी दायीं तरफ से सिर में से निकलती है। उसके बाद बायीं तरफ जाकर त्रिकोणाकार अस्थि के नीचे जो श्री गणेश का स्थान है वहाँ खत्म होती है। मतलब महाकाली की शक्ति ने सर्वप्रथम केवल श्री गणेश को जन्म दिया| तब श्री गणेश स्थापित हुए श्री गणेश सर्वप्रथम स्थापित किए हुए देवता हैं। और इसी तरह, जिस प्रकार श्री महाकाली का है, उसी प्रकार श्री गणेश का है। ये बीज है और बीज से सारा विश्व निकल कर उसी में वापस समा जाता है, वैसे ही सब गणेश तत्त्व से निकलकर गणेश तत्त्व में समा जाता है। श्री गणेश, ये जो कुछ है, उसी का बीज है, जो आपको आँख से दिख रहा है, कृति में है, इच्छा में है, उसका बीज है। इसलिए श्री गणेश को प्रमुख देवता माना जाता है। इतना ही नहीं, श्री गणेश का पूजन किए बगैर आप कोई भी कार्य नहीं कर सकते। फिर वे कोई भी हो, शिव हो, वैष्णव हो या ब्रह्मदेव को मानने वाले हों, सभी प्रथम श्री गणेश का पूजन करते हैं । उसका कारण है कि श्री गणेश तत्त्व परमेश्वर ने सबसे पहले इस सृष्टि में स्थापित किया। श्री गणेश तत्त्व, मतलब जिसे हम अबोधिता कहते हैं या अंग्रेजी में innocence कहते हैं, अब ये तत्त्व बहुत ही सूक्ष्म है। ये हमारी समझ में नहीं आता। जो बच्चों में रहता है, जिसके चारों तरफ आविर्भाव है और जिसकी सुगन्ध फैली हुई है। इसलिए छोटे बच्चे इतने प्यारे लगते हैं। ऐसा यह अबोधिता का तत्त्व है। बह इस श्री गणेश में समाया है। अब ये मनुष्य को समझना जरा मुश्किल है कि कैसे एक ही देवता में ये सब कुछ समाया है? परन्तु अगर हमने सूरज को देखा तो जैसी उनमें प्रकाश देने की शक्ति है उसी प्रकार श्री गणेश में ये अबोधिता है । तो ये जो अबोधिता की शक्ति परमेश्वर ने हम में भरी है उसकी हमें पूजा करनी है। मतलब हम भी इसी प्रकार अबोध हो जाएं । अबोधिता का अर्थ बहुतों को लगता है 'अज्ञानी' । परन्तु अबोधिता, मतलब भोलापन, जो किसी बच्चे में है या मासूमियत कहिए, वह हमारे में आनी चाहिए। ये कितना बड़ा तत्त्व है ये आप नहीं समझते हैं। एक छोटा बच्चा अगर खेलने लगे। वैसे आजकल के बच्चों में भोलापन नहीं रहा है। उसका कारण आप बड़े लोग ही हैं। हम दूसरों को क्या बताएं? हम कौन से अपने धर्म का पालन कर रहे हैं? कितने धार्मिक हम हैं, जो अपने बच्चों को धार्मिक बनाऐं। ये सब उसी पर निर्भर है। इसलिए बच्चे ऐसे हैं। अब ये जो मनुष्य में 'अबोधिता' का लक्षण है वह किसी बच्चे को देखकर पहचाना जा सकता है। जिस मनुष्य में अबोधिता होती है वह कितना भी बड़ा हो, वह उसमें रहती है। जैसे कोई छोटा बच्चा खेलेगा, खेल में वह शिवाजी राजा बनेगा, किला बनवाएगा, सब कुछ करेगा, उसके बाद सब कुछ छोड़कर वह चला जाएगा। मतलब सब कुछ करके उससे अलिप्त (अलग) रहना। जो कुछ किया, उसके प्रति अलगाव उसके पीछे दौड़ना नहीं। ये साधारणतया एक बच्चे का बर्ताव होता है। आपने किसी भी बच्चे को कुछ भी दिया तो वह उसको संभालकर रखेगा। फिर थोड़ी देर बाद आपने उसे कुछ फुसलाकर वह वापस ले लिया तो उसे उसका कोई दुःख नहीं रहेगा। परन्तु कुछ बातें ऐसी हैं जो छोटा बच्चा कभी नहीं छोड़ता। उसमें एक बात महत्त्वपूर्ण है। वह है उसकी 'माँ' । उसकी माँ वह नहीं छोड़ता। बाकी सब कुछ आपने उससे निकाल लिया तो कोई बात नहीं। उसे कुछ नहीं मालुम, पैसा नहीं मालुम है, पढ़ाई नहीं मालुम, कुछ नहीं मालुम । उसे केवल एक ही बात मालुम है। वह है उसकी माँ । यह मेरी माँ है, ये मेरी जन्मदात्री है, यही मेरी सबकुछ है। वह माँ से ज्यादा किसी भी चीज़ को महत्त्व नहीं देता। रविन्द्रनाथ ने एक बहुत ही सुन्दर बात लिखी है। एक छोटा सा बालक बाजार में कहीं खो गया और वह जोर जोर से रोने लगा। उसे लोगों ने पकड़ा और पूछा कि उसे क्या चाहिए। वो तो बस रोये जा रहा था। लोगों ने उससे कहा कि वे उसे घोड़ा देंगे, हाथी देंगे, पर वह बोला कुछ नहीं बस मुझे मेरी माँ चाहिए। और वह रोये जा रहा था। खाने के लिए दिया तो भी उसने नहीं खाया। सारा दिन रोता रहा जब उसकी माँ मिली तब वह चुप हो गया। मतलब हम सभी में बचपन से ये बीजतत्त्व है। इसलिए हम अपनी माँ को नहीं छोड़ते। हमें पता रहता है उसने हमें जन्म दिया है। परन्तु उसके सिवाय, एक दूसरी माँ परमेश्वर ने आपमें आपको दी है और वही माँ अपने आप में आपकी 'कुण्डलिनी' है। कुण्डलिनी माता, जो आप में त्रिकोणाकार अस्थि में परमेश्वर ने बिठायी है, वह आपकी माँ हैं। उसे आप हमेशा खोजते हैं। आपकी सभी खोजों में, फिर वो राज-काज में हो, सामाजिक हो या शिक्षा-क्षेत्र में हो, किसी भी चीज़ का आपको शौक हो, उन सभी शौकों के पीछे आप उस कुण्डलिनी माँ को खोजते हैं। यह कुण्डलिनी माँ, आपको परम पद तक पहुँचाती है, जहाँ सभी तरह का समाधान मिलता है। इस माँ की खोज, माने इस माँ के प्रति खिंचाव जो आप में अदृश्य है, वह आप में श्री गणेश तत्त्व के कारण जागृत है। 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-20.txt ल थे ० ॐ मं र की जिस मनुष्य का श्री गणेश तत्त्व एकदम नष्ट हुआ होता है, उस में अबोधिता नहीं होती है। अबोधिता में बहुत से गुण मनुष्य में दिखते हैं। मतलब माँ-बहन, भाई उनके प्रति पवित्रता रखना। जीवन में बर्ताव करते समय, संसार में रहते समय परमेश्वर ने एक अपनी 'पत्नी' और बाकी सब लोग जो हैं उनसे आपका पवित्र रिश्ता है, ऐसा परमेश्वर ने बताया है, और ऐसा अगर आपके व्यवहार में दिखने लगा तो मानना पड़ेगा कि इस मुनष्य में सच्ची अबोधिता है। वह उनकी सच्ची पहचान है। अबोधिता की ये पहचान है कि मनुष्य को सभी में पवित्रता दिखाई देती है क्योंकि अपने आप पवित्र होने के कारण वह अपवित्र नजरों से किसी को नहीं देखता। अब अपने यहाँ पवित्रता समझाने की बात नहीं है अपने यहाँ पवित्रता क्या है ये मनुष्य को मालूम है। इंग्लैंड में, अमेरिका में समझाना पड़ता है क्योंकि उनके दिमाग ठिकाने नहीं होते। पर आप सब तो समझदार हो। विशेषतः इस भारत भूमि से परमेश्वर कृपा से, अष्टविनायक कृपा से या आपकी पूर्व पुण्याई से, आपके गुरु-सन्तों की, की हुई सेवा के कारण पृथ्वी पर महाराष्ट्र एक ऐसी भूमि है कि जहाँ से ये पवित्रता अभी तक नहीं हिली है। और इसी पवित्रता का आज आप पूजन कर रहे हैं। मतलब पूजन करते समय आपमें वह पवित्रता है कि नहीं है इधर ध्यान देना जरूरी है। अब हमारे सहजयोग में जिनमें गणेश तत्त्व नहीं है वह व्यक्ति किसी काम का नहीं, क्योंकि ये जो गणेश बिठाये हैं वे गौरी के पुत्र है और श्री गौरी आप की कुण्डलिनी शक्ति है। यही ये गौरी शक्ति है। आज श्री गौरी पूजन है और आज श्री गणेश पूजन है। मतलब कितना बड़ा दिन है। ये आप समझ लीजिए। आप में जो आपका श्री गणेश तत्त्व श्री गौरी से कहता है कि ये मुनष्य ठीक है कि नहीं, मतलब उसमें कितनी सुन्दर व्यवस्था की है ये आप देखिए । इड़ा और पिंगला ये दो नाड़ियाँ आप में है। इस में एक महाकाली और एक महासरस्वती है। महाकाली से महासरस्वती निकली है। महासरस्वती क्रियाशक्ति है। पहली इच्छाशक्ति है और दूसरी क्रियाशक्ति है। इन दोनों शक्तियों से आपने जो कुछ इस जन्म में किया है, पूर्वजन्मों में किया है, जो कुछ सुकृत है और दुष्कृत है उन सबका ब्यौरा ये श्री गणेश वहाँ बैठकर देखते हैं। वे देखते हैं इस मनुष्य कितना ने किया है। अब पुण्य क्या है, ये तो आजकल के मॉडर्न लोगों को मालुम नहीं और उस बारे में जानने की जरुरत महसूस पुण्य नहीं करते। लोगों को लगता है इसमें क्या रखा है? पुण्य क्या है, कितना है? अगर पाप पुण्य की भावना ही नहीं है तो पाप और उसका क्षालन ये बातें समझाने का कोई मतलब ही नहीं है। मनुष्य में पाप और पुण्य भाव हैं, जानवरों में नहीं है। जानवरों में बहुत से भाव नहीं हैं। अब देखिए, किसी जानवर को आप गोबर में से ले जाओ या गन्दगी में से ले जाओ, उसे बदबू नहीं आती। उसे सौंदर्य २१ ा 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-21.txt OBANK CHADIGE ूट] २ व क्या है, ये भी नहीं मालूम। मनुष्य बनते ही आपको पाप -पुण्य का विचार आता है। आप जानते हैं ये पाप है, ये गलत है, इसे नहीं करना है। ये पुण्य है, इसे करना चाहिए। पाप-पुण्य का न्याय आप नहीं करते, आप में बैठे श्री गणेश इसका हिसाब करते हैं। प्रत्येक मनुष्य में श्री गणेश का स्थान है, वह प्रोस्टेट ग्लैण्ड के पास , उसे हम मूलाधार चक्र कहते हैं। त्रिकोणाकार अस्थि को मूलाधार कहा है। वहाँ कुण्डलिनी माँ बैठी है। उस त्रिकोणाकार अस्थि के नीचे श्री गणेश उनकी लज्जा की रक्षा करते हैं। अब आपको मालूम होगा श्री गणेश की स्थापना श्री गौरी ने कैसे की थी। उनकी शादी हुई थी पर अभी पति से भेंट नहीं हुई थी। उस समय वह नहाने गयीं और अपना (बदन का) मैल जो था उससे श्री गणेश बनाया। अब देखिए, हाथ में अगर चैतन्य लहरें (vibrations) है तो सारे शरीर में भी चैतन्य लहरें होंगी, तो वह चैतन्य गौरी माता ने मैल में ले लिया तो वह मैल भी चैतन्यमय हो गया और उसी मैल का उन्होंने श्री गणेश बनाया उसे अपने स्नानघर के बाहर रखा। अब देखिए, सामने नहीं रखा, क्योंकि स्नानघर से सारी गन्दगी बहकर बाहर आती है। अपने यहाँ बहुत से लोगों कों मालूम है। ये जो स्नानघर का बहता पानी है उस में लोग अरबी के पत्ते व कभी कभी कमल के फूल उगाते हैं और वहीं पर ही वे अच्छा उगते हैं। ठीक इसी तरह श्री गणेश का है, आश्चर्य की बात है कि सबसे गन्दी जगहों में ये कमल उगते हैं और वह अपने सुगन्ध से उस सारी गन्दगी को सुगन्धित कर देते हैं। ये जो उनकी शक्ति है वह आपके जीवन में भी आपकी बहुत मदद करती है। अपने में जो कुछ गन्दगी दिखाई देती है वह इस श्री गणेश तत्त्व के कारण दूर होती है। अब इस श्री गणेश तत्त्व से कुण्डलिनी का, माने श्री गौरी का, पहले पूजन करना पड़ता है। मतलब अपने में अबोधिता होनी चाहिए। आपको आश्चर्य होगा, जब अपनी कुण्डलिनी का जागरण होता है तब श्री गणेश तत्त्व की सुगंध सारे शरीर में फैलती है। बहुतों की, विशेषत: सहजयोगियों का जिस समय कुण्डलिनी जागरण होता है उस समय खुशबू आती है। क्योंकि श्री गणेश तत्व पृथ्वी तत्त्व से बना है। इस श्री महागणेश ने पृथ्वी बनायी है। तो अपने में जो श्री गणेश हैं, वे भी पृथ्वी तत्त्व से बने हैं। अब आपको मालुम है कि सारी सुगंध पृथ्वी से आती हैं। सारे फूलों की सुगंध पृथ्वी से आती है इसलिए कुण्डलिनी का जागरण होते समय बहुतों को विभिन्न प्रकार की सुगंध आती हैं। इतना ही नहीं बहुत से सहजयोगी तो मुझे कहते हैं, श्री माताजी, आपकी याद आते ही अत्यंत आती है । बहुतों को भ्रम होता है कि श्री माताजी कुछ इत्र वगैरा लगाती हैं। पर ऐसा नहीं है भाप खुशबू । अगर आप में श्री गणेश तत्त्व जागृत हो तो अन्दर खुशबू आती है। तरह-तरह की सुगन्ध मनुष्य के अन्दर से आती है। परन्तु कुछ दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो अपने आपको साधु-सन्त कहलवाते हैं और उन्हें सुगन्ध से नफरत है। अपने यहाँ किसी देवता का वर्णन आपने पढ़ा होगा, विशेषतः से २२ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-22.txt श्री गणेश तो सुगन्धप्रिय हैं, वे कुसुमप्रिय भी हैं, और कमलप्रिय हैं। वैसे ही श्री विष्णु के वर्णनों में लिखा है। श्री देवी के वर्णनों में लिखा है। इसका मतलब है कि जिन लोगों को सुगन्ध प्रिय नहीं व जिनको सुगन्ध अच्छा नहीं लगता उनमें कुछ भयंकर दोष हैं। वे परमेश्वर के विरोध में हैं, उनमें परमेश्वर शक्ति नहीं है। जिस मनुष्य को सुगन्ध विलकुल अच्छा नहीं लगता उसमें कुछ भयंकर दोष हैं और परमेश्वर के विरोधी तत्त्व बैठे हैं, यह निश्चित है क्योंकि सुगन्ध पृथ्वी तत्त्व का एक महान तत्त्व है। योगभाषा में उसके अनेक नाम हैं। परन्तु कहना ये है कि जो कुछ पंचमहातत्त्व हैं और उनके पहले उनके जो प्राणतत्त्व है, उस प्राणतत्त्व में आद्य या सर्वप्रथम सुगन्ध है। उसी तत्त्व से हमारी पृथ्वी भी बनी है। उसी प्राणतत्त्व से बना हुआ श्री गणेश है। तो श्री गणेश का पूजन करते समय प्रथम हमें अपने आप को सुगन्धित करना चाहिए। मतलब यह कि अपना जीवन अति सूक्ष्मता में सुगन्धित होना चाहिए। बाह्यत: मनुष्य जितना दुष्ट होगा, बुरा होगा उतना ही बह दुर्गंधी होता है। हमारे सहजयोग के हिसाब से ऐसा मनुष्य दुर्गंधी है। उपर से उसने खुशबू लगायी होगी तो भी वह मनुष्य सुगन्धित नहीं है। सुगन्ध ऐसा होना चाहिए कि मनुष्य आकर्षक लगे तो वह मनुष्य सच में सुगन्धित है। दूसरा, मनुष्य जिसमें से लालच और गन्दगी बाहर बह रही है उस मनुष्य के पास जाकर खड़े होने से गन्दा लगेगा । परन्तु ऐसे मनुष्य को देखकर कुछ लोगों को अच्छा भी लगता होगा। यह उनके दोष पर निभ्भर है। वे लोग श्री गणेश तत्त्व के नहीं हैं। श्री गणेश तत्त्व वाला मनुष्य अत्यंत सात्त्वक होता है। उस मनुष्य में एक तरह का विशेष आकर्षण होता है। उस आकर्षण में इतनी पवित्रता होती है कि वह आकर्षण ही मनुष्य को सुखी रखता है। अब आकर्षण की कल्पनाऐँ भी विक्षिप्त हो गयी हैं। इसका कारण है कि मनुष्य में श्री गणेश तत्त्व रहा नहीं है। अगर मनुष्य में श्री गणेश तत्त्व होगा तो आकर्षण भी श्री गणेश तत्त्व पर निर्भर है, सहज ही है। जहाँ आकर्षण (श्री गणेश तत्त्व) है वहाँ वह तत्त्व अपने में होगा। तभी अपने को आकर्षण महसूस होगा। एक बहुत ही सुप्रसिद्ध मोनालिसा का चित्र है। आपने सुना होगा 'लिओनार्द-द-विची' ने उसे बनाया है। बहुत ही सुन्दर चित्र है और उसे पॅरिस म्यूज़ीअम में रखा हुआ है। अगर उस चित्र को या उस औरत को देखें तो आजकल के मॉडर्न औरतों की दृष्टि से और ब्यूटी के बारें में जो मॉडर्न आयडियाज़ है, उसकी दृष्टि से उसे कभी भी ब्यूटी क्वीन नहीं कह सकते और उसके चेहरे पर एक स्मितहास्य है जिसे 'मोबाईल स्माईल ऑफ मोनालिसा' कहते हैं और उस स्माईल पर हजारों साल मेहनत करके भी लोग इस तरह का चित्र निकाल नहीं सके। उसमें प्रमुख क्या है; वो उसका पावित्र्य। उस चित्र में इतनी पवित्रता है कि उसी से वो आकर्षक हुआ है। पर आजकल के मॉडर्न युग में, विचित्र और विकृत भावनाओं के पीछे भी, मुझे आश्चर्य हो रहा है कि हजारो लोग वो चित्र देखने के लिए वहाँ आते हैं। अगर जिस दिन वो चित्र वहाँ नहीं होगा तो कोई भी अन्दर नहीं जाता। इतना बड़ा म्यूज़ीअम है फिर भी कोई अन्दर जाने के लिए तैयार नहीं। परन्तु आजकल के आधुनिक युग में अगर आपने पवित्रता की बातें की तो आप में जो बड़े-बड़े बुद्धिजीवी लोग हैं, उन्हें यह बिलकुल मान्य नहीं होगा। उन्हें लगता है ये सब पुरानी कल्पनाएँ हैं। और इसी पुरानी कल्पनाओं से कहते हैं यह मत करो, वह मत करो, ऐसा मत करो, वैसा मत करो, ऐसा नहीं करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए। इस तरह से आप लोगों की conditioning करते हैं। ऐसी बातों से फिर मनुष्य बुरे मार्ग की तरफ बढ़ता है। कहने का मतलब है कि मनुष्य में पवित्रता माँ-बाप की संगति से आती है। प्रथमतः अगर माँ पवित्र नहीं होगी तो बेटे का पवित्र रहना बहुत मुश्किल है। परन्तु कोई ऐसा एक जीव होता है जो अत्यंत बुरी औरत के यहाँ जन्म लेता है और वह इसलिए पैदा होता है कि उस औरत का उद्धार हो जाए। और वह खुद बहुत बड़ा जीव होता है। विशेष पुण्यवान आत्मा होती है। मतलब जैसे गन्दगी में कमल का फूलना वैसे ही वह मनुष्य जन्म लेता है। लन्दन में विशेष कर के मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि वहाँ ऐसे कई बालक है जिनकी माँओं को हम द्वार पर भी खड़े नहीं कर सकते निसर्गतः अगर माँ पवित्र होगी तो लड़का या लड़की पवित्र होती है, या सहजता में उन्हें पवित्रता प्राप्त होती है। पवित्रता में सर्वप्रथम बात है, उसे अपने पति के लिए निष्ठा होनी जरुरी है। अगर श्री पार्वती में श्री शंकर के लिए निष्ठा नहीं तो उस में क्या कोई अर्थ है? श्री पार्वती का श्री शंकर के बिना कोई अर्थ नहीं। वह श्री शंकर से ज्यादा शक्तिशाली हैं। परन्तु वह शक्ति श्री शंकर की है। श्री सदाशिव की वह शक्ति प्रथम शंकर की शरण गयी है, तभी वह शक्तिशाली मानी गयी, परन्तु वह उनकी शक्ति है। परमेश्वर की व अन्य देवताओं की बातें अलग होती हैं और मनुष्य की अलग मनुष्य की समझ में ये नहीं आएगा। उन्हें समझ में नहीं आएगा, पति और पत्नी में इतनी एकता कि उनमें दो हिस्से नहीं है। जैसे चंद्र और चंद्रिका या सूर्य और सूर्य की किरणें, वैसी उनमें एकता मनुष्य के समझ में नहीं आएगी। मनुष्य को लगता है पति और पत्नी में लड़ाईयाँ होनी ही चाहिए। अगर लड़ाईयाँ नहीं हुई तो ये कोई अजीब बात है। एक तरह का एक अत्यंत पवित्र बंधन पति व पत्नी में या कहना चाहिए श्री सदाशिव व श्री पार्वती में है और अपना पुत्र श्री गणेश श्री पार्वती ने केवल अपनी पवित्रता और संकल्प से पैदा किया है। कितनी महानता है उनकी पवित्रता में ! उन्होंने यह संकल्प से सिद्ध किया हुआ है। सहजयोग में हमने हमारा जो कुछ भी पुण्य है वह लगाया है। उससे जितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार देना संभव है उतनों को देना यही एक हमारे जीवन का अर्थ है। फिर भी कोई हमें 'श्री माताजी देवी हैं' कहता है तो वह पसन्द नहीं। ऐसा कुछ नहीं कहना। क्यों कहना है? लोगों को यह पसन्द नहीं है। क्या जरुरत है ा हुए ाि 1 यह कहने की ? उन्हें गुस्सा २३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-23.txt संद आएगा। अपने से कोई ऊँचा है, ऐसा कहते ही मनुष्य को गुस्सा आता है। परन्तु धूर्त लोगों ने अपने आप को देवता या भगवान कहलवाया तो लोग उनके सामने माथा टेकते हैं। उन्हें वे एकदम भगवान मानने लगते हैं, क्योंकि वे बेवकूफ बनाने की प्रेतविद्या, भूतविद्या व श्मशान विद्या, सम्मोहन विद्या काम मे लाते हैं। उससे मनुष्य का दिमाग काम नहीं करता। उन्हें बिलकुल नंगा बनाकर नचाया या पैसे लूट कर दिवालिया बनाया तो भी चलेगा, पर वे उन्हें भगवान कहेंगे। परन्तु जो सच्चा है उसे पाना होता है। और अगर वो आप पा लेंगे तो आप समझेंगे उसमें कितना अर्थ है और क्यों ऐसा कहना पड़ता है? वह मैं आज आपको बताने जा रही हूँ। मतलब श्री गणेश को अगर आपने भगवान नहीं माना तो नहीं चलेगा । परन्तु वह प्रत्यक्ष में नहीं दिखाई देता। इसलिए लोगों की समझ में नहीं आता। एक डॉक्टर भी घर में श्री गणेश की फोटो रखेगा, उसे कुंकुम लगाएगा, टीका लगाएगा। परन्तु उसे अगर आपने बताया कि श्री गणेश तत्त्व आपके शरीर में स्थित है और उससे आपको कितने शारीरिक फायदे होंगे तो वह ये कभी भी मानने को तैयार नहीं होगा। परन्तु उन्हें मैंने कहा, आप श्री गणेश की ये फोटो उतारकर रख दीजिए, तो ये भी वे मानेंगे नहीं। लेकिन मैंने ये कहा श्री गणेश तत्त्व के बिना आप हिल भी नहीं सकते तो वे ये बात मानने को तैयार नहीं हैं। अब देवत्त्व आप नहीं मानते परन्तु सहजयोग में श्री गणेश को मानना ही पड़ेगा। उसका कारण है कि आपको कोई बीमारी या परेशानी इस गणेश तत्त्व के कारण हुई होगी तो आपको श्री गणेश को ही भजना पड़ेगा। मतलब कि आपमें स्थित श्री गणेश नाराज होते हैं तो आपका श्री गणेश तत्व खराब होता है और आपको प्रोस्टेट ग्लैंड की तकलीफ व यूट्स का कैन्सर वगैरा होता है। श्री गणेश तत्त्व को अगर आपने ठीक से नहीं रखा, मतलब अपने पुत्र से अगर ठीक से व्यवहार नहीं किया, माने आपमें मातृत्व की भावना नहीं हो तो इन सब बातों के कारण यूट्रस का कैन्सर होता है । एक बात बताती हैं। हमारे एक शिष्य हैं अग्निहोत्री। उनका नाम राजवाडे हैं पर उन्होंने अग्नि के बड़े बड़े यज्ञ किये इसलिए वे अग्निहोत्री है। बहुत अच्छे सहजयोगी है। २-३ साल पहले एक दिन मेरे पास आए और बोले, 'मुझे कुछ तकलीफ नहीं, सिर्फ प्रोस्टेट की तकलीफ है।' मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। ये इतने बड़े गणेश भक्त और सहजयोगी, इनको प्रोस्टेट की तकलीफ कैसे होगी? क्योंकि प्रोस्टेट की तकलीफ गणेश तत्त्व खराब होने से होती है। उनके उपर श्री गणेश कैसे रुठ सकते हैं ? क्योंकि ये बहुत अच्छे सहजयोगी ओर मुझपर उनकी श्रद्धा है और बहुत ही भोले है। तो ये गणेश तत्त्व इनके हाथ में कैसे उल्टे चलने लगे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने कहा, 'लीजिए थोड़ा प्रसाद।' प्रसाद के तौर पर चने रहते है। उसे देने के बाद उनके साथ जो थे, वो कहने लगे, आज दादा कुछ २४ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-24.txt खाते नहीं है।' मैंने पूछा, 'क्यों? आज क्यों नहीं खाते आप?' तो कहने लगे, 'सब कहते है कि संकष्टी को चने नहीं खाते।' मैंने कहा यहीं पर गलती हुई है। संकष्टी मतलब श्री गणेश का जन्मदिन। आप सब पढ़े लिखे लोग, किसीने कुछ कहा फिर भी अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। संकष्टी और गणेश चतुर्थी ये उनके जन्मदिन है। उनके जन्मदिन पर आप उपवास रखेंगे, मतलब किसी की मृत्यु पर सूतक रखने जैसा हुआ। जब घर में कोई मर जाता है तो ही हम खाना नहीं खाते। अगर आपके घर लड़का या नाती हो गये तो आप मिठाई बाटेंगे, मेजवानी देंगे। तो श्री गणेश के जन्म पर आप क्या उपवास रखेंगे ? फिर तो प्रोस्टेट की तकलीफ होगी ही। फिर यूट्रस का कैन्सर। श्री गणेश तत्त्व के साथ आप अगर अच्छा ब्ताव नहीं करोगे तो यूट्स की तकलीफ होगी। श्री गणेश तत्व बहुत पवित्र नियम हैं, उनका अगर आपने ठीक से पालन नहीं किया तो आपको ऐसी तकलीफें होती हैं। परन्तु इन तकलीफों का संबंध डॉक्टर श्री गणेश तत्त्व के साथ नहीं जान सकते । पर उनका संबंध श्री गणेश के ही साथ है। वे यहाँ तक ही जानते हैं कि प्रोस्टेट ग्लैण्ड खराब है या ज्यादा से ज्यादा पेल्विक प्लेक्सस खराब हो गया है। परन्तु इसके पीछे जो परमात्मा का हाथ है, मतलब अंतज्ञांन का या यों कहिए परोक्ष ज्ञान से जो जाना जाता है, जो ऊपरी ज्ञान से परे है, जो आपको दिखाई नहीं देता, उसके लिए आपके पास अभी आँखे नहीं है, संवेदना नहीं है, अभी तक आपकी परिपर्ति नहीं हुई है, तो आप कैसे समझोगे कि ये तकलीफें श्री गणेश तत्त्व खराब होने से हो गयी हैं। श्री गणेश हम से नाराज हैं, तो उन्हें प्रसन्न किये बिना हम सहजयोग नहीं पा सकते। ऐसा कहते ही वे डॉक्टर एकदम बिगड़ गये 'हम श्री गणेश को मानने को तैयार नहीं, हम केवल विज्ञान को ही मानते हैं।' फिर देख लीजिए आपका कैन्सर श्री गणेश तत्व को माने बगैर ठीक नहीं होने वाला। श्री गणेश तत्त्व खराब होने से कैन्सर होता है। श्री गणेश तत्त्व हर जगह प्रत्येक अणु-रेणु (कण- कण) में सब तरफ संतुलन देखते हैं। हम कैन्सर ठीक करते हैं, किया है और करेंगे। पर ये हमारा व्यवसाय नहीं है। तो ये श्री गणेश तत्त्व कितना महत्त्वपूर्ण है, उसे जितनी महत्ता दें उतनी कम है। कुछ ये अत्यन्त सुन्दर चार पंखुडियों से बना श्री गणेश तत्त्व हम में हैं। इस चार पंखुडियों के बने हुए गणेश तत्त्व में बीचोबीच बैठे गणेश हमारे शरीर में हैं। मतलब अपने शरीर में उनके एक-एक अंग है। उनके अनेक अंग हैं। उसमें से पहला अंग मानसिक अंग। मानसिक अंग का जो बीज है वह श्री गणेश तत्त्व का है। इच्छाशक्ति, माने जो बायें तरफ की शक्ति है, जो अपने में सारी भावनाएँ पैदा करती है, उन भावनाओं के जड़ में श्री गणेश बैठे हैं। अगर कोई मनुष्य पागल है तो फिर उसका श्री गणेश तत्त्व खराब होना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं है कि वह मनुष्य अपवित्र है। परन्तु इसकी पवित्रता को किसी के ठेस पहँचाने पर उसे ऐसा होता है। किसी मनुष्य को अगर दूसरे लोगों ने बहुत सताया तो भी उसका श्री गणेश तत्त्व खराब हो सकता है। क्योंकि उसे लगता है कि परमेश्वर है और अगर श्री गणेश है तो इस मनुष्य को वे मार क्यों नहीं देते ? इस तरह के सवाल उसके मन में आने पर धीरे-धीरे उसकी बायीं बाजू खराब होने लगती हैं। अब देखिए, गणेश त्त्व का कितना संतुलन है। अगर आपने बहुत परिश्रम किया और तकलीफें उठायी, बुद्धि से बहुत मेहनत करी और आगे का, माने भविष्य का बहुत विचार किया (आजकल के लोगों में एक बीमारी लगी हुई है सोचने की) माने बहुत ज्यादा विचार किया और उसमें कहीं संतुलन नहीं रहा तो आपकी बायीं बाजू एकदम खराब हो जाती है। वह जम जाती है और दायीं तरफ अधिक बढ़ जाती है। उससे बायीं तरफ की जो बीमारियाँ हैं वह सब गणेश तत्त्व खराब होने के कारण होती है। उसमें डायबिटीस ये बीमारी श्री गणेश तत्त्व खराब होने के कारण होती है। श्री गणेश की जो संतुलन व्यवस्था है, वे यह बीमारी ठीक करने के लिए लगाते हैं। ऐसा मनुष्य तुरन्त काम-काम करता है। उसी प्रकार हृदयविकार (दिल की बीमारी) भी है अगर आपने बुद्धि से बहुत ज्यादा काम किया तो हृदयविकार होता है। क्योंकि श्री गणेश जी का स्वस्तिक अपने शरीर में बना है वह दो बाती की तरह दिखने वाली शक्तियाँ होती है और ये एक के अन्दर एक पायी जाती है। एक बायी तरफ की शक्ति महाकाली की इस तरह आती है व दूसरी दायीं तरफ की शक्ति महासरस्वती की । बीचोबीच जहाँ उनका मिलन बिंदु है वो मिलन बिन्दु केवल महालक्ष्मी शक्ति के बीच की खड़ी रेखा में है। बायें तरफ की सिंपथेटिक न्वस सिस्टम जो है वह महाकाली की शक्ति से चलती है। माने, इच्छाशक्ति से चालित है। अब किसी मनुष्य की इच्छा के विरोध में बहुत कार्य हुआ और उसकी एक भी इच्छा पूरी नहीं हुई तो वह पागल हो जाता है। उसे हार्टोंटैक (दिल का दौरा) नहीं आता है। हार्ट अॅटैक उन लोगों को आता है जिनको बहुत ज्यादा चाहिए, बहुत प्लॅनिंग चाहिए। वो करना होता है, देशकार्य के लिए निकलते हैं, राष्ट्रकार्य के लिए निकलते हैं कुछ लोग तो ऐसे ही होते है, ये केवल उनका भ्रम होता है। किसी ने कुछ किया ही नहीं है, किया होता तो वो दिखता। सिर्फ आपस में झगड़े लगाये हुए है। वरना उन्हें हृदय विकार का झटका होता है। मतलब ऊपर कही गयी सारी बीमारियां अति सोचने से होती हैं और उसका संतुलन श्री गणेश लाते हैं। ये श्री गणेश का काम है। आपने देखा होगा कि लोग कितनी भी जल्दी में हों, तब भी श्री गणेश का मन्दिर देखते ही नमस्कार कर लेंगे। सिद्धिविनायक के मन्दिर में भी कितनी बड़ी लाइन लगती है। परन्तु उससे कोई लाभ है? वह करके तब ही फायदा होगा, जब आप में आत्मसाक्षात्कार आया होगा अगर आप में आत्मसाक्षात्कार आया नहीं तो आपका परमात्मा से कनेक्शन (सम्बन्ध) नहीं होगा। कौन झूठा गुरू है, कौन सच्चा गुरू है, ये भी आपके समझ में नहीं आएगा। मतलब, आपमें ये जो बीज़ श्री गणेश का है, वह २५ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-25.txt १ कुण्डलिनी उठने पर उसको सर्वप्रथम समझा देते हैं और ये कुण्डलिनी दिखा देती है उस मनुष्य को कौन सी तकलीफ है। अगर किसी को लीवर (जिगर) की तकलीफ होगी तो वह (कुण्डलिनी) वहाँ जाकर धपधप करेगी। आपकी आँखों से दिखाई देगी। अगर आपका नाभी चक्र पकड़ा हुआ होगा या नाभी चक्र पर पकड़ आयी होगी, तो नाभी चक्र के पास कुण्डलिनी जब उठेगी तब आप अपनी आँखों से उसका स्पंदन देख सकते हैं। किसी व्यक्ति को अगर भूतबाधा होगी तो वह पूरी पीठ पर जैसे धकधक करेगी आपको आश्चर्य होगा । हमने उस पर फिल्म ली है। आपको उसमें धकधक स्पष्ट दिखेगा। कुण्डलिनी हमसे जागृत होती है इसमें कोई शक नहीं है। कुण्डलिनी उठती है परन्तु अगर श्री गणेश तत्त्व खराब होगा तो श्री गणेश उसे फिर नीचे खींच लेते है । वह ऊपर आयी हुई भी वापस नीचे आ जाएगी। मतलब सर्वप्रथम आपको श्री गणेशतत्त्व सुधारना पड़ेगा। उनकी खासियत यह है कि अगर कुण्डलिनी को उपर लाकर बाँध दी जाए फिर भी वह नीचे आ जाती है। और उन्होंने गणेश तत्त्व को क्या हानि पहुँचायी वो मुझे पता नहीं। उन्हेोंने वहाँ क्या कर रखा है ये हमें पता नहीं। पाँच बार ऊपर कुण्डलिनी को उठाया तो भी वह नीचे गिर जाती है। इसलिए इसकी वजह ढूँढने के लिए मैं गुरु जनों के पास भी जा कर आयी हूँ। तभी मैंने देखा कि बहुत से लोग अनुचित तरीके से कार्य करते है। पहले तो वो किसी न किसी कार्य से गणेश तत्त्व को खराब करते है और वो कहते है कि कुण्डलिनी को उठाने के लिए हमें नीचे हाथ ड्ालना पड़ता है । मतलब देखो श्री गणेश तत्त्व अपनी माँ की लज्जा रक्षणार्थ छोटे बालक जैसे वहाँ बैठे हैं और गणेश तत्त्व से अपने सेक्स को चालना मिलती है इसलिए जो लोग ऐसा कहते है कि सेक्स से हम कुण्डलिनी जागृत करेंगे, मतलब वो ऐसा कहते हैं कि श्री गणेश का बुरा संबंध उनकी कुण्डलिनी से, माने उनकी माँ से लगा रहे है। वो वही बैठे है अगर वो उस मार्ग से जाता है तो वो उसे तड़ाक मारते है। हमारे यहाँ बहुत लोग आते है, जो ये कहने के लिए आए कि हमारी कुण्डलिनी जागृत हुई है। मैने कहा, 'ऐसा क्या? क्या हो रहा है?" कुण्डलिनी जागृत होने पर हाथ में ठण्डी हवा आनी चाहिए। किसी किसी लोगों में बहुत गर्मी होती है । वह श्री गणेश तत्त्व के खराब होने से होती है । दिल्ली के पास रहने वाले एक आदमी ने मुझे तार दिया था कि, माताजी, मेरी कुण्डलिनी जागृत हो गयी है। में क्या करुं?' तब मैं मुम्बई में थी। मैने कहा उसे तार करके बुला लीजिए। पर जब मैं वहाँ से निकली तब वे वहाँ आ गये। तब मेरी भाभी कह रह थी की वे इधर-उधर दौड़ रहे थे। जैसे उन्हें हजारों चिंटीयों या बिच्छूओं ने ड्रसा हो। दिल्ली में एक गृहस्थ है डॉ. बत्रा करके, RE 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-26.txt वो ऐसे ही किसी प्रोग्राम में आये हुए थे। वो कहने लगे, श्री माताजी, एक महिने से मुझे तकलीफ हो रही है।' उसे हजार बिच्छू काट रहे हैं। तब मैंने कहा दो मिनट बैठिए। उनसे बिलकुल बैठा नहीं जा रहा था। तब मैंने उनके पास जाकर उन्हें शांत किया पाँच मिनट में इसका कारण, ये पृथ्वी माता। वे जमीन पर खड़े थे। आप आज जमीन पर बैठे हो मुझे बहुत खुशी हुई। आज बिलकुल सभी बातें मिल गयी हैं। उस पृथ्वी माता ने उनकी सारी गरमी खींच ली। अब आप कैसे पृथ्वी माता से कहेंगे कि हे पृथ्वी माता, आप हमारी सारी गर्मी निकाल लीजिए। वह नहीं निकालेगी, पर सहजयोगी की वह निकाल लेगी आपमें जागृत होने पर वही तत्व इस पृथ्वी में होने के कारण, उसी त्व पर यह पृथ्वी चलने के कारण, वह सब खींच लेती है। और इसलिए अपने में यह तत्त्व जागृत रखना चाहिए और वह पवित्र रखना चाहिए। इतना ही नहीं सहजयोग में वह सहजयोगी जो पवित्रता की मूर्ति है उसे चलाने वाला बादशाह श्री गणेश है। उस देश में वह राज्य करता है। ऐसे श्री गणेश को तीन बार नमस्कार करके उसका पावित्र्य अपने में लाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। । उसका कारण है कि एक बार श्री गणेश तत्त्व अब जो बातें करनी नहीं चाहिए और जो लोग कहते हैं, जिनका बहुत बोल-बाला हुआ है और इसी तरह बहुत से तान्त्रिकों ने भी हमारे देश में आक्रमण किया है। उनका आक्रमण राजकीय नहीं है, फिर भी वह इतना अनैतिक और इतना घातक है कि उस की तकलीफें हम आज उठा रहे हैं। इस तान्त्रिकों ने सारी गन्दगी फैला रखी है। इसका कारण ये है कि उस समय के राजा लोग बहुत ही विलासी, बेपरवाह थे। इस तरह के लोगों के पैसों पर तान्त्रिक ने मजा उड़ाया। ज्यादा पैसा होने से यही होता है; सबसे पहले श्री गणेश तत्त्व खराब । पैसा ज्यादा होने से, वह पहले श्री गणेश तत्त्व के पीछे पड़ता है। जवान लड़कियों के पीछे पड़ना, छोटी, अबोध लड़कियों को सताना, ये सब श्री गणेश तत्त्व खोने की निशानियाँ हैं। ये तान्त्रिक लोग भी यही करते हैं। कोई अबोध नारी दिखायी देने पर उसे मारना। अपनी ही अबोधिता खत्म करना। इससे मालूम होता है कि ये विलासी लोग परमात्मा से दूर रहे हैं। इसी प्रकार अनेक कर्मठ लोग, जिन्होंने परमेश्वर के पास जाने का बहुत प्रयत्न किया, फिर भी परमेश्वर उन्हें नहीं प्राप्त हुए। अपने में विलासिता की तरह कर्मठता भी बहुत है। महाराष्ट्र में तो कर्मठता कुछ ज्यादा ही है। मतलब सुबह ६३ बार हाथ धोना जरूरी हैं। किसने बताया पता नहीं! अगर उस औरत ने ६२ बार धोये, ६३ बार नहीं धोये तो उसे नींद नहीं आएगी। कुछ तो बातियाँ बनाना ही चाहिए (महाराष्ट्र में दीपक की बत्तियाँ बनाने का काम बूढ़ी औरतें बहुत करती है।) कुछ अमुक लाख जप होना ही चाहिए। परन्तु जो करना जरुरी है, वह उनसे नहीं होता। मतलब वक्तियाँ बनाते समय अपनी बहुओं की या लड़कियों की बुराईयाँ करना; इस तरह की अजीब बातें हमारे यहाँ हैं। तो कहना है कि सहजयोग इस तरह के लोगों में नहीं फलने वाला। 'येऱ्या गवाळ्याचे काम नोहे' (ऐसे ऐरेगैरों का ये काम नहीं ) । श्री रामदास जी ने हमारे काम की पूर्वपीठिका बनायी है। अगर आपने 'दासबोध' पढ़ा तो आपको कुछ बताने की जरूरत नहीं।('दासबोध' गुरू रामदास जी का लिखा हुआ मराठी ग्रन्थ है।) उन्होंने ये सारा बताया हुआ है और वह सच है। जिस मनुष्य में उतना धैर्य है और जो सचमुच उतनी ऊँचाई का होगा, उसी मनुष्य को सहजयोग प्राप्त होगा। सबको नहीं होगा। मतलब चैतऱ्य लहरियाँ आएंगी, पार भी होंगे पर उसमें फलने वाले थोड़े है। हमने हजारो लोगों को जागृति दी। क्योंकि लोगों की नजर ही उल्टी तरफ जाती है तो हमें ही जागृत करना पड़ेगा और वैसा ही समय आया है। अगर अब सहजयोग नहीं हुआ तो ये परमेश्वर के घर का न्याय है ये आपको समझ लेना चाहिए। अब ऐसा कुछ नहीं चलेगा । अभी आपको पार होना पड़ेगा। आगे जो कुछ होने वाला है वहाँ पर फिर आपको अवसर मिलने वाला नहीं। उस समय 'एकादश रुद्र' आने वाले हैं। एक ही रुद्र इस पूरे विश्व को खत्म करने के लिए काफी है और एकादश माने ग्यारह, जब ग्यारह रुद्र आएंगे तब आप उनकी कल्पना नहीं कर सकते। वे पूरी तरह खत्म कर देंगे। उससे पहले जिन लोगों को चुनना है वह हो जाएगा। वह न्याय अभी सहजयोग से होगा और लोगों को उसे पाना चाहिए। पर ज्यादातर लोगों का ये होता है कि छोटी-छोटी बातों को लेकर बैठ जाना और चले जाना। अगर हम कुछ पैसे लेते और पाखंड रचते तो लोगों को पसन्द आता। 1 ार मतलब मनुष्य के अहंकार को बढ़ावा दिया जाए तो मनुष्य आने के लिए तैयार है। परंतु सहजयोग में कहना तो ये है कि सब परमात्मा का कार्य है। तो ये सब सहज घटित होता है। उसे पैसे की जरूरत नहीं है। एक फूल से जैसे फल बनता है, वैसे ही आपका भी होने वाला है। जिस तरह आपको नाक, आँखें, मुँह और ये स्थिति मिली है, उसी तरह 'अतिमानव स्थिति' परमेश्वर ही आपको देने वाले हैं, ये उनका दान है । वह आपको जो दे रहे हैं उस में आप कुछ नहीं बोल सकते। ये भूमिका मानने को मनुष्य बिल्कुल तैयार नहीं है। उसे इतना अहंकार हुआ है कि उसे लगता है मैं जब तक सर के बल दस दिन खड़ा नहीं होऊँगा तब तक मुझे कुछ मिलने वाला नहीं है। पहले ये समझना चाहिए कि जिस परमात्मा ने ये अनन्त चीजज़ें बनायी हैं उसमें से हम एक भी नहीं तैयार कर सकते। कोई भी जीवन्त कार्य आप नहीं कर सकते, वहाँ हम अतिमानव कैसे बने। परन्तु इतना ही होता है कि पार होने पर मनुष्य को मनुष्य योनि में ही मालूम होता है कि मैं पार हो गया हूँ। ये पहली बात है । दूसरी, उसमें वह शक्ति आती है कि जिससे वह दूसरों को पार करा सकता है। उसमें से वह शक्ति बहने लगती है। वह एक-एक करके अनेक हो सकता है। मतलब उसे देवत्त्व प्राप्त होता है। वह स्वयं देवत्त्व में उतरता है। अब ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अच्छे-अच्छे गुरु बनाये हैं। गुरू बड़े-बड़े हैं, पर उनके शिष्यों में मैंने देवत्व आया हुआ २७ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-27.txt ा तिस ि १ नहीं देखा । उनमें परिवर्तन नहीं हुआ। वे जहाँ पर हैं वहीं पर हैं। क्योंकि, शिष्य भी हुए तो भय के कारण, या श्रद्धा से वे पूरी तरह घटित नहीं हुए हैं। वह घटना घटित नहीं हुई है। वह परिवर्तन अन्दर से नहीं आया है । मतलब इनकी अगर जड़ें ही ठीक करनी हैं या फूल का फल बनाना है तो पूर्णत: बदलना पड़ता है। ऐसी स्थिति अभी किसी की नहीं आयी है। तो कहना ये है कि उसके लिए अपना श्री गणेश तत्त्व जागृत होना चाहिए। उसे आपको सर्वप्रथम संभालना चाहिए। आजकल के जमाने में हम तरह-तरह के सिनेमा नाटक देखते हैं, विज्ञापन देखते हैं और पढ़ते हैं। कुछ विज्ञापन तो पूरी तरह अश्लीलता से भरे रहते हैं और पूरी तरह की उनमें अपवित्रता है । और ये जो शहरों में हुआ है वही अब गाँवो में भी गया है। उससे कुछ लोग इतने दु:खी हैं कि अब रात-दिन उनकी योजना बन रही है कि हम किस प्रकार आत्महत्या करें। यह उनकी स्थिति है। तो आपने उनके मार्ग पर चलते समय ठीक से सोचना चाहिए। उसी प्रकार रूढ़ीवादी लोगों को सोचना होगा, हर एक पुरानी बात हम क्यों कर रहे हैं? हम मनुष्य स्थिति तक आये हैं, तो हमको इसका अर्थ जानना होगा। जिन्दगीभर वही-वही बातें करने में कोई अर्थ नहीं है। जैसे-जैसे लोग परमेश्वर को तत्त्वतः छोड रहे हैं वैसे-वैसे वे केवल परमेश्वर के नाम से चिपके हैं। सुबह उठकर भगवान को दिया दिखाया, घंटी बजायी कि हो गया काम पूरा । इस तरह का बर्ताव करने वाले लोग हैं ; उन्हें समझ लेना होगा कि इस तरह की फिजूल की बातों से परमात्मा कदापि प्राप्त नहीं होंगे। परमात्मा आप में है उन्हें जागृत करना पड़ेगा और हमेशा जागृत रखना पड़ेगा, और दूसरों में वह जागृत करना चाहिए। कुण्डलिनी माँ है और श्री गणेश उनकी कृति हैं और श्री गणेश उनकी जड़ हैं। 1 हुए आपमें जो कुण्डलिनी है वह श्री गणेश के हाथ पर घूमती है । श्री गणेश के हाथ में क्या है ये आपने देखा होगा। उनके पेट पर एक सर्प बंधा रहता है। यों कहा जाए तो श्री गणेश के चार ही हाथ हैं, परन्तु सच कहा जाए तो उनके अनन्त हाथ हैं। जिस हाथ में सर्प दिखाते हैं वही ये कुण्डलिनी है। उसी प्रकार हमारे सहजयोगियों का है। आश्चर्य की बात ये है कि सहजयोगी ये जो पार होते हैं उनके हाथ पर कुण्डलिनी चढ़ती है। उनके हाथ ऊपर करते ही दूसरों की कुण्डलिनी ऊपर उठती है। मतलब अब छोटा सा सहजयोगी लड़का भी कुण्डलिनी ऊपर उठाता है दो-दो साल के बच्चे, पाँच-छः महीने के बच्चे आपको कहेंगे, आपकी कुण्डलिनी कहाँ पर अटकी है. उसकी क्या स्थिति है। मेरी नाती सात-आठ महीने की थी, तब ये श्री मोदी मेरे यहाँ आए थे, और उनका आज्ञा चक्र पकड़ा हुआ था तो बातें करते करते उनकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह घुटनों पर चलते चलते अपने हाथ में कुमकुम की डिबिया लेकर आयी और उनके माथे पर कुमकुम लगाया और उनका आज्ञाचक्र उसने छुड़ाया। हर वक्त उसका यही काम हुआ करता था। यही मैंने मेरे ऑऔर 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-28.txt सहजयोगियों के बच्चों में देखा है। कितने लोग जन्म से ही पार हैं। जन्म से पार होना कितनी बड़ी बात है। मतलब, साक्षात जन्म से ही पार अब संसार में पैदा हो रहे हैं। उसके लिए सन्यास की जरूरत नहीं है। जिसे सन्यास लेने की जरूरत लगती है समझो वे अभी तक पार नहीं हुए हैं। पार होने के बाद आप अन्दर से छूटते जाते हैं। ऐसा होने से संन्यास बाहर से लेने की जरूरत नहीं है। यदि अन्दर से सन्यास लिया है तो उसका प्रदर्शन व विज्ञापन करने की क्या आवश्यकता है? अगर आप पुरुष हैं तो आप के चेहरे को देखकर ही लोग कहंगे ये पुरुष है या स्त्री है। उसका आप विज्ञापन लगाकर तो नहीं घूमते कि हम पुरुष हैं, हम ्त्री हैं। उसी तरह ये हो गया। आप मन से सन्यासी हैं तो बहुत कुछ होने पर भी अन्दर से इस शरीर में सांसारिक, पारमार्थिक सुख, समाधान बर्गैरेह सहजयोग में सहज मिलता है। उसके लिए संन्यास से (प्रपंच से) जाने की भी आवश्यकता नहीं है। श्री शंकर जी की जो स्थिति है या कहिए श्री शंकर जी ने जो स्थिति प्राप्त करी है उसके लिए उन्हें भी श्री गणेश निर्माण करने पड़े। उसी प्रकार आपको भी श्री गणेश निर्माण करने होंगे। अभी ये कहा जा रहा है कि हिन्दुस्तान में जन संख्या बहुत अधिक है। मैं कहती हैँ कि और कहाँ बढ़ेगी जन संख्या । इग्लैंड में माईनस हो रही है, जर्मनी में माईनस हो रही है, अमरिका में माईनस हो रही है, वहाँ कोई समझदार जन्म ही नहीं ले सकता। वे सब अपने इधर ही आएँगे। क्योंकि वहाँ हर आठ दिन में बच्चों को माता-पिता मारते है। ये वहाँ का सांख्यकी है। तो कौन समझदार वहाँ जन्म लेगा। मजे की बात देखिए, वहाँ की भाषा में 'दूडदूड धावणे' (छोटे बच्चे का मंदगति से क्रीड़ामय आमोदकारी भागना-दौड़ना) इस क्रिया का प्रतिशब्द ही नहीं है । छोटे बच्चों को वे कभी भागते दौड़ते हुए देखते भी हैं कि नहीं पता नहीं। यहाँ 'दूडदूड धावणे' वात्सल्य रस है। अपने यहाँ श्री कृष्ण का, श्रीराम का बचपन का वर्णन पढ़ते समय आनन्द होता है। परन्तु आपको उनकी भाषा में येशु ख्रिस्त का बचपन का वर्णन कहीं नहीं मिलेगा। पाश्चिमात्य देशों में नयी-नयी मूर्खतापूर्ण कल्पनाएँं बनाकर उन्होंने अपने जीवन से अबोधिता खत्म कर दी है। वे कहते हैं, बच्चों ने दुबला-पतला रहना है। पुष्ट नहीं होना है क्योंकि उनके आदर्श सिनेमा के अभिनेता, अभिनेत्रियाँ है। वहाँ पर सभी तरह की और सुविधा होते हुए भी वहाँ के लोग बच्चों को प्यार नहीं देते। छोटा बच्चा जन्मने पर उसकी माँ उसकी हिन्दुस्तानी माँ की सुबत्ता तरह परवरिश नहीं करती, उसे एक कमरे में ड़्ाल देती है। इसलिए बचपन में वहाँ के बच्चों को माँ की ममता व प्यार नहीं मिलता। बचपन से ही वे अपने बच्चों को अलग कमरे में डाल देती है और कुत्ते और बिल्ली को मात्र अपने बेडरुम में रखती है। जब मेरी बेटी और उनके बच्चे आने वाले थे तब हमारे साहब (पति) की सेक्रेटरी, जिनको कोई बच्चा नहीं था, वे कहने लगी कि, 'आप अपसेट होंगी?' मैंने कहा, 'क्यों ? बच्चें आ रहे हैं इसलिए में बहुत खुश हूँ।' वे बोली, नहीं, आपका घर गन्दा हो जाएगा। मैंने कहा होने दो गन्दा। हमारे यहाँ ऐसे विचार तक नहीं आते। मतलब, अगर आप गणेश तत्त्व की ओर ध्यान नहीं दोगे तो वह अहंकारी हो जाता है। जो बड़े राजकीय नेता होते है, उनका चारित्र्य अगर आप देखे तो एकदम जीरो (शून्य)। उसका कारण यही है (अहंकार)। क्योंकि मनुष्य को इगो हो जाने पर वह दायीं तरफ से बढ़ने लगता है। दायीं बाजू के बढ़ने से इगो आता है और इगो आने से श्री गणेश क्या है? और श्री गणेश तत्त्व क्या है? पवित्रता माने क्या ? 'मैं ही सबकुछ हूँ', ऐसा जो समझता है उसका ये श्री गणेश तत्त्व नष्ट हो जाता है। परन्तु उसका एक सुन्दर उदाहरण है-सन्यास लेना और विवाह नहीं करना। घर से बाहर रहना और दूसरे किसी के साथ सम्बन्ध नहीं रखना। ये भी दूसरे ही लोग हैं। श्री गणेश तत्त्व अगर आप में जागृत है तो संसार में रहकर ही आपको परमेश्वर प्राप्ति होगी और देवत्व चाहिए तो भी संसार में रहना होगा। अगर आपने बहुत तीव्र और कठिन वैराग्य का पालन किया तो ब्रह्मर्षिपद मिल सकता है। परन्तु मुझे ऐसा महसूस होने लगा है कि ब्रह्मर्षि भी बहुत पहुँचे हुए हैं। मैं जानती हूँ उन लोगों को, परन्तु वे अब कुछ करने को तैयार नहीं है, उनमें इतनी आन्तरिकता, आत्मीयता नहीं और वे मेहनत करने को भी तैयार नहीं है। मुझे कभी-कभी बहुत दुःख होता है। उनकी भावना है कि ये जो भक्त लोग हैं, उन भक्तों की अभी तक कुछ भी तैयारी नहीं है। पर, अगर मेहनत की तो हम तैयारी कर सकते हैं, और उसे (भक्त को) आगे बढ़ा सकते हैं। बहुत बार मुझे लगता है ये सभी मेरी मदद के लिए अब दौड़कर आएं तो कितना अच्छा होगा। मुझे बहुत मानने वाले एक कलकत्ता के पास हैं, उनका नाम श्री ब्रह्मचारी है और वे बहुत पहुँचे हुए हैं। उन्होंने मेरे बारे में किसी अमेरिकन मनुष्य को कहा कि श्री माताजी अब साक्षात आयी हैं तो हम अब उनका काम देख रहे हैं । हमें भी यही काम करना है और कुछ राक्षसों का नाश हम मनन-शक्ति से करते हैं। वे मेरे पास आने पर, मैंने उन्हें कहा, आप अमेरिका क्यों नहीं जाते? वे अमेरिका गए परन्तु वहाँ से पाँच दिनों में भाग आये और मुझे कहने लगा, मुझे ऐसे लोगों से नहीं मिलना है, वे एकदम गन्दे लोग हैं। मतलब ये ब्रह्मचारी जैसे लोग, मनुष्यों में न रहने की वजह से, एकदम 'माणुसघाणा' (मनुष्य जिसे में से बदबू आए ऐसा) हुए हैं। ऐसा ही करना चाहिए। ऐसे कोई साधु-सन्त आने पर आप ज्यादा से ज्यादा उनके चरणों पर जाओगे। उनपर श्रद्धा रखोगे, उसके कारण आपकी स्थिति में सुधार आएगा। पर फिर आपके साक्षात्कार का क्या ? क्योंकि उसके लिए हाथ चलाने पड़ते हैं। बच्चे को ठीक करना है, उसे संभालना है तो माँ को गन्दगी में हाथ ड्रालना पड़ता है। अगर वह 'गन्द-गन्द' कहने लगी तो बच्चे को कौन साफ करेगा? और इसलिए, ये एक माँ का काम है और वही हम सहजयोग में करते हैं। आप सब उसमें नहा लीजिए, उसका 1 २९ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-29.txt आनन्द उठाइये, यही एक माँ की इच्छा है। माँ की एक ही इच्छा होती है, अपनी शक्ति अपने बच्चे में आनी चाहिए। जब तक सामान्यजन उसमें से कुछ प्राप्त नहीं करते और जब तक उनको अपनी माँ की शक्तियाँ नहीं प्राप्त होती, तो ऐसी माँ का क्या फायदा? ऐसी माँ होने से तो न हो तो अच्छा। तो जिन को माँ या गुरू माना जाए, अपने से बड़ा माना जाए, उन्होंने अगर स्व का मतलब नहीं जाना, तो आपको उनके जीवन से क्या आदर्श मिलने वाला है? सहजयोग में 'स्व' का मतलब है, आपकी आत्मा । मूलाधार चक्र पर श्री गणेश का स्थान कैसे है, उसमें कुण्डलिनी की आवाज कैसे होती है और कुण्डलिनी कैसे घुमती है, हर-एक पंखुडी में कितने तरह-तरह के रंग हैं और वे किस तरह पंखुडी में रहते हैं और सारा शोभित करते हैं, वगैरा बहुत कुछ है। उसका सब ज्ञान आपको मिलना चाहिए और वह मिलेगा और उसमें से हम कुछ भी छिपा कर नहीं रखेंगे। हर-एक बात हम आपको बताने के लिए तैयार हैं परन्तु आपको भी तो पार होकर पुरुषार्थ करना होगा। आपने पुरुषार्थ नहीं किया तो आपको कोई फायदा नहीं होने वाला। अब पूजा में क्या करना चाहिए यह सवाल लोगों का रहता है। श्री माताजी, गणेश का पूजन कैसे करें? क्योंकि हम 'परोक्ष विद्या जानते हैं, जो आपको दिखाई नहीं देता, जिसे नानक जी ने 'अलख' कहा है। उस आँख से हम देखते हैं। जो हमें कहना है, सर्वप्रथम देखिए आप में पावित्र्य है कि नहीं । स्नान वगैरा करना ये तो है ही, परन्तु उसका इतना महत्त्व नहीं है, वह अगर न भी हो तो कोई बात नहीं। एक मुसलमान भी श्री गणेश पूजा बहुत अच्छी करता है। आपको आश्चर्य होगा, अल्जीरिया के करीब पाँच सौ मुसलमान सहजयोगी हैं। जवान लड़के-लड़कियाँ पार हुए हैं। परन्तु उनका प्रमुख जो है, उसका नाम है श्री जमेल और वह श्री गणेश पूजा इतनी सुन्दर करता है कि देखने लायक है। श्री गणेश को रखकर स्वयं उनकी सुन्दर पूजा करता है। मतलब सहजयोग में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी आते हैं, और फिर उनके देवी देवता कैसे सहजयोगी में हैं, वह उसमें दिखाया है । अब ये श्री गणेश तत्त्व आज्ञा चक्र पर आकर श्री येशू क्रिस्त के स्वरूप में संसार में आए हैं। देवी महात्म्य, अर्थात देवी भागवत, जो मार्कण्डेय जी ने लिखा है, ये आप पढ़िये। उसमें जो श्री महाविष्णु का वर्णन है, वह आप पढ़िये। उन्होंने कहा है, श्री राधा जी ने अपना पुत्र तैयार किया था, जिस तरह श्री पार्वती जी ने किया था। परन्तु श्री गणेश तत्त्व उनमें मुख्य तत्त्व है और उस श्री गणेश तत्त्व पर आधारित जो पुत्र बनाया था वह इस संसार में श्री येशु क्रिस्त बनकर आया। अब 'क्रिस्त' क्योंकि, राधाजी ने बनाया था इसलिए कृष्ण के नाम पर वह श्री क्रिस्त हुआ और यशोदा है वहाँ इसलिए येशु। और इसी तरह उन्होंने ये जो गणेश तत्त्व है, उसको पूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया, वह श्री क्रिस्त स्वरूप में है। अब ये अपने आपको ईसाई कहने वालों को मालूम नहीं है कि ये येशु क्रिस्त पहले श्री गणेश थे और ये श्री गणेश तत्त्व का अविभाव है। वह अब एकादश रुद्र में किस तरह आने वाला है वह में आपको बाद में बताऊँगी। कहने का मतलब है कि मूलाधार चक्र पर जो श्री गणेश परशु हाथ में लेकर सबको धाड़-धाड़ मारते थे, वही आज्ञा चक्र पर आकर क्षमा का एक तत्त्व बन गये। क्षमा करना मनुष्य का सबसे बड़ा हथियार है। यह एक साधन होने से उसे हाथ में तलवार भी नहीं चाहिए। केवल उन्होंने लोगों को क्षमा किया तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी। इसलिए आजकल के जमाने में सहजयोग में जिसका आज्ञा चक्र पकड़ता है उसे हम इतना ही कहते हैं, 'सबको माफ करो'। और उससे कितना फायदा होता है, वह अनेक लोगोंको पता है? और सहजयोगी लोगों ने उसे मान्यता दी है। देखा है, सब कुछ सहजयोग में प्रत्यक्ष में है। अगर आपने क्षमा नहीं की तो आपका आज्ञाचक्र नहीं खुलने वाला, आपका सिरदर्द नहीं जाने वाला और आपका ट्यूमर भी नीचे नहीं आने वाला। इसलिए क्षमा करना जरूरी है, क्योंकि जब तक नाक नहीं पकड़ो तब तक मनुष्य कोई बात मानने के लिए राजी नहीं है। इसलिए ये सभी बीमारियाँ आयी हैं, ऐसा मुझे लगने लगा है, क्योंकि कितना भी मनुष्य को समझाओ फिर भी वह एक पर एक अपनी बुद्धि चलाता है। इसका मतलब हैं आपको अभी अपना अर्थ नहीं मालूम हुआ है। आपका संयन्त्र जुड़ा नहीं है, पहले उसे जोड़ लीजिए, पहले आत्म-साक्षात्कार पा लीजिए, यही हमारा कहना है उसमें अपनी मत चलाइए। जो विचारों से, पुस्तकें पढ़कर नहीं होता, वह अन्दर से होना चाहिए। ये घटना घटित होनी चाहिए। कभी-कभी इतने महामूर्ख लोग होते हैं, विशेषतः शहरों में, गाँवो में नहीं। वे कहते हैं, अजी हमारा तो कुण्डलिनी जागरण हुआ ही नहीं है। देखिए, हम कैसे? मतलब, बहुत अच्छे हैं आप। क्या कहने? अगर आपका कुण्डलिनी जागरण नहीं हुआ है तो आप में कोई बहुत बड़ा दोष है। शारीरिक हो, मानसिक हो, बौद्धिक हो उसे निकलवा लीजिए। वह कुछ अच्छा नहीं है। साफ होना पड़ेगा। साफ होने के बाद ही आनन्द आने वाला है। यह जानना होगा। फिर सब कुछ ठीक होगा। ये मा अब जो अहंकार का भाव है वह श्री गणेश जी के चरणों में अर्पण कीजिए। श्री गणेश की प्रार्थना करिए, हमारा अहंकार निकाल लीजिए। ऐसा अगर आपने उन्हें आज कहा तो मेरे लिए बहुत आनन्द की बात होगी क्योंकि श्री गणेश जैसा सबका पुत्र हो, ऐसा हम कहते हैं। उनके केवल नाम से हमारा पूरा शरीर चैतन्य लहरियों से नहाने लगता है। ऐसे सुन्दर श्री गणेश को नमस्कार करके आज का भाषण पूरा करती हूँ। (मराठी भाषण का हिन्दी अनुवाद) ३० 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-30.txt २ का २ ज सुतल के ২ বीর হ ा कन टी উे हे २ ८ल २४ दिवाली पूजा रुस, १२ नवम्बर १९९३ दे वी लक्ष्मी की पूजा करने विश्वभर से रूस में आये इतने सारे लोगों को देख कर प्रसन्नता हुई। बौद्धिक रूप से जब आप सारी चीज़ों को नहीं समझा सकते, जिस बात को आप शब्दों से या तर्क से नहीं कह सकते तो उसे कहने के लिए तथा अन्त्तभिव्यक्ति करने के लिए आपको कला तथा प्रतीकों की शरण लेनी पड़ती है कलाकार तथा कवि यही करते हैं; अपनी कल्पना को वे उस कदर फैलाते हैं कि प्रतीकों का सृजन कर ड़ालते हैं। परन्तु सीमित मस्तिष्क के कारण वे एक सीमा तक ही जा सकते हैं और यदि यह सृष्टि सत्य और वास्तविकता सिद्ध न हो तो कुछ समय पश्चात इसका पतन हो जाता है। पूर्ण रेखांकीय गतिविधि नीचे आ जाती है तथा इसका पतन हो जाता है। हर क्षेत्र में हमें ऐसा देखने को मिलता है, विशेष कर आजकल, जब कि सभी महान चीज़ों का हरास हो गया है। परन्तु आत्मसाक्षात्कार पाने के बाद जब आप आत्मा बन जाते हैं तो आपकी कल्पना वास्तविकता को छू लेती है। तब विकृत तथा मिथ्या निरूपित प्रतीक छूट जाते हैं और आप प्रतीकों की वास्तविकता को छू लेते हैं। हर जगह यही घटित हुआ। उदाहरणार्थ भारत में वैभव की देवी लक्ष्मी। सन्तों और पैगम्बरों ने वास्तविकता में लक्ष्मी के प्रतीक का वर्णन किया परन्तु बाद में लोग इस प्रतीक तथा इसमें छिपी वास्तविकता को न समझ सके तथा सोचा कि लक्ष्मी धन, वैभव, सोना, चांदी और हीरे ही है और वे धन की पूजा करने लगे। इस प्रकार वैभव का प्रतीक, देवी लक्ष्मी विकृत हो गया । ३१ आ ডি 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-31.txt जा ल रा रा ० लि र ड ४ लोग समझ नहीं पाते की जब उन्हें धन प्राप्त हो जाता है तो वे गलत कार्य क्यों करने लग जाते हैं। लक्ष्मी का प्रतीक अत्यन्त भिन्न है । सर्वप्रथम, जिसके पास लक्ष्मी है उसे माँ सम होना चाहिए। माँ की तरह से ही उसमें बच्चों के प्रति प्रेम होना आवश्यक है। उसे स्त्री सम होना है, और स्त्री अत्यन्त उच्चता का प्रतीक है। माँ सारी शक्तियों का स्रोत है । उसमें धैर्य है, प्रेम और करुणा है। करुणाविहीन धनवान व्यक्ति कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकता। अपना धन दूसरों के हित के लिए उपयोग करने में ही उसे प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है। आज के विकसित देशों के साथ क्या हुआ? अपने धन से वे स्वयं को ही नष्ट करने में जुट गये हैं। अपने क्रोध, कामुकता तथा लोलुपता को अभिव्यक्त करने में उन्होंने अपना सारा धन लगा दिया। यह दशनि में कि वे बहत व्यक्तिवादी हैं, उन्होंने अपना सारा धन बर्बाद कर डाला। जैसे अमेरिका में मैं एक वैभवशाली व्यक्ति से मिली, जब मैं उसकी कार तक पहुँची तो उसने बताया कि कार के दरवाजों के हैंडल दूसरी ओर को खुलते हैं। तो मैंने कहा इसका क्या लाभ है। कोई भी व्यक्ति कार में फँस जाएगा। उसने कहा ये मेरा व्यक्तित्व है, मेरी योग्यता है जिसने यह असामान्य चीज़ बनाई। जब में उसके घर गई तो उसने बताया कि सावधान रहें, यह गुसलखाना बहुत विशेष है। यह बटन यदि आप दबाएंगी तो उछलकर तरणताल में जा मिलेंगी मैंने कहा कि मैं इस गुसलखाने में नहीं जा सकती। तब उसने अपना शयनकक्ष दिखाया, यदि आप यह बटने दबाएंगी तो आपका सिर ऊँचा हो जाएगा। मैंने कहा कि मैं सारी रात इस तरह की वर्जिश नहीं करना चाहती, मैं तो पृथ्वी पर ही सो जाऊँगी। लोग सोचते हैं कि अमेरिका या युरोप के वैभवशाली कहलाने वाले लोग बहुत प्रसन्न हैं । परन्तु वे प्रसन्न नहीं हैं क्योंकि उनमें विवेक नहीं है। वे पैसे को इस तरह से बर्बाद करते रहते हैं, इन लोगों के पास इतना धन था, कि वे समझ न पाए कि इसका क्या करें। अब उन्होंने सोचा की यह पर्याप्त नहीं है, हमें और आगे खोज करनी है। तब वे नशे तथा सब प्रकार की बुरी चीजें लेने लगे । लक्ष्मी तत्त्व ऐसा है कि वे एक माँ हैं और उनके दो हाथों में गुलाबी रंग के कमल हैं। कमल का फूल अपने अन्दर काले-कटीले भंवरे को भी शरण देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि लक्ष्मीपति का परिवार कमलसम सुन्दर तथा सबका स्वागत करने वाला होना चाहिए। भंवरा कमल की सुन्दर कलियों पर रात को शयन करता है और कमल उसे ठण्ड से बचाने के लिए अपनी कलियाँ बंद कर लेता है। आवश्यक नहीं की एक वैभवशाली व्यक्ति लक्ष्मीपति हो या उसे लक्ष्मी जी का आशीर्वाद प्राप्त हो । परन्तु एक विवेकशील ३२ ए 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-32.txt वैभवशाली व्यक्ति को लक्ष्मीजी का आशीष प्राप्त होता है। जैसे कमल अपने अन्दर अतिथियों के आने के लिए तथा उनकी देखभाल करने को उत्सुक रहता है, उसी प्रकार एक वैभवशाली व्यक्ति को भी अतिथि सत्कार करने को उत्सुक रहना चाहिए। हैरानी की बात है कि वैभवशाली कहलाने वाले सारे राष्ट्र पराश्रयी हैं उन्होंने अन्य देशों को लूटा और अपने साम्राज्य बनाए। जैसे भारत में तीन सौ सालों तक अंग्रेज हमारे अतिथि थे। बिना किसी आमंत्रण के यहाँ आ गये। परन्तु अब यदि किसी भारतीय को इग्लैंड जाना हो तो यह बहुत कठिन कार्य है। जो लोग वहाँ जाते हैं उनसे भी समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। अमेरिका में भी ऐसा ही है। परमात्मा का धन्यवाद कि कोलम्बस, जो की भारत आ रहा था, उसे श्री हनुमानजी अमेरिका ले गये, नहीं तो सारे भारतीय समाप्त हो जाते। उन्होंने वहाँ पर सारे लाल भारतीयों को मार ड़ाला, उनकी सारी जमीन हथिया ली और अब वे स्वयं को वैभवशाली कहते हैं। जो अपराध उन्होंने किये हैं उसका दण्ड उन्हें भुगतना होगा। अधिक धन कमाने की योग्यता के आधार पर स्वयं को उच्च जाति कहने वाले अन्य लोग भी हमें देख सकते हैं। उन्होंने लोगों को गैस कक्षों में मरवा दिया और इस तरह के अन्य अपराध किये। क्या यही उच्चता की निशानी है? ईसा यदि उच्च व्यक्तित्व के प्रतीक हैं तो उनकी क्या विशेषताऐँं हैं। वे श्रेठ पुरुष थे, चरित्र,क्षमा, उदारता और गरिमा का जहाँ तक सम्बन्ध है उनका महानतम व्यक्तित्व था। उन्हें लक्ष्मीजी का आशीर्वाद प्राप्त था। वे आत्म सन्तुष्ट थे। कोई गलत कार्य वे न करते थे। कोई उन्हें खरीद नहीं सकता था। सहजयोग में आने के उपरान्त यह जानना आवश्यक है कि आप पर लक्ष्मी जी की कृपा है। वे एक हाथ से देती हैं। देना उनका स्वभाव है। जैसे यदि केवल एक द्वार खुला हो तो हवा नहीं आती, परन्तु दूसरा द्वार भी आप खोल दें तो हवा बहने लगती है। सन्तुष्ट रहना सहजयोगी की एक विशेषता है। कुछ सहजयोगी बहुत से चमत्कार चाहते हैं, यह ठीक नहीं। आपका दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि अब आप आत्मा हैं और आत्मा शरीर और मन के सुख की चिंता नहीं करती, यह तो आत्मा का सुख चाहती है। आप में से बहुत से लोग आत्मा बन चुके हैं परन्तु आप अपनी स्थिति के प्रति चेतन नहीं है, इसके प्रति आपको चेतन होना है। दूसरे हाथ से श्री लक्ष्मीजी उन लोगों को सुरक्षा प्रदान करती है जो उनके लिए कार्य करते हैं तथा उनकी पूजा करते हैं। हर वैभवशाली व्यक्ति को चाहिए कि अपने आश्रितों को सुरक्षा प्रदान करें। हम अब एक ऐसे क्षेत्र में उत्थानित हो गए हैं जहाँ हमारे मस्तिष्क में कोई धर्मान्धता नहीं है, परन्तु हम सभी महान अवतरणों, सन्तों और पैगम्बरों की पूजा करते हैं। उनमें से अधिकतर के पास धन न था परन्तु वे आत्म संतुष्ट थे। लक्ष्मीजी की यह विशेषता है कि वे सन्तोष प्रदान करती हैं। आप जानते हैं कि अर्थशास्त्र के अनुसार प्राय: इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। कौन सी ऐसी इच्छा है जिसकी पूर्ति हो सकती है? यह शुद्ध इच्छा है, जो की कुण्डलिनी है। जब आप पूर्णतया संतुष्ट हो जाते हैं और जान जाते हैं कि धन, सत्ता और अन्य मूर्खतापूर्ण चीज़ों के पीछे भागने का कोई लाभ नहीं, तब आप के अन्दर महालक्ष्मी तत्त्व जागृत हो जाता है। यह महालक्ष्मी तत्त्व आपको जिज्ञासा प्रदान करता है । तब आप एक विशेष श्रेणीं के लोग बन जाते हैं, जिन्हें विलियम ब्लेक ने 'परमात्मा के पुरुष कहा है। तब आप में बचपन के , राष्ट्रीयता के या बाह्य धरमों के बन्धन नहीं रह जाते। आप का उत्थान होता है और आप आत्मा बन जाते हैं। इस समय आप अपने अन्दर के लक्ष्मी तत्त्व को समझते हैं। लक्ष्मी तत्त्व यह है कि दूसरों के लिए कार्य करने में आप आनन्द प्राप्त करें। सामूहिक चेतना में आप अन्य लोगों के लिए कार्य करना चाहते हैं। अभी तक भी यदि आप अपनी सुख- सुविधा, धनार्जन और यश के लिए चिंतित हैं तो आप असन्तुलित है। लक्ष्मीजी कमल पर बड़े सन्तुलित ढंग से खड़ी है। वह यह नहीं दर्शाती की वह वैभव की देवी हैं। स्वयं से वे संतुष्ट हैं। यदि आप असंतुष्ट हैं तो इसका अर्थ है कि आपने स्वयं को नहीं जाना। आप आधे-अधूरे सहजयोगी हैं। सहजयोगी आत्मसंतुष्ट व्यक्ति होते हैं। क्योंकि सहजयोगी की आत्मा ही पूर्ण मान आनन्द और उसके चित्त प्रकाश का रोत होती है। आनन्द, प्रसन्नता या अप्रसन्नता नहीं है। प्रसन्नता या अप्रसन्नता तो अहम् पर निर्भर है परन्तु आनन्द अपने आप में पूर्ण है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आप धन आदि की चिन्ता नहीं करते। आपके पास यदि धन है तो भी ठीक और यदि नहीं है तो भी ठीक। आप पूर्णतया निर्लिप्त हैं। अन्त में मैं आपको श्री राम की पत्नी श्री सीता जी के पिता की कहानी सुनाऊँगी। छः हजार वर्ष पूर्व वे एक राजा थे। राजाओं के सारे वस्त्र, आभूषण उन्हें धारण करने पड़ते थे। परन्तु उस समय के सारे सन्त उनके चरण स्पर्श किया करते थे। एक बार एक अन्य गुरू के शिष्य नचिकेता ने पूछा कि आप लोग इनके पैर क्यों छूते हैं? ये तो राजा के समान रहते हैं। गुरू ने कहा कि तुम इनके बारे में ३३ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-33.txt नहीं जानते। यदि उन्हें तुम पर दया आ जाए तो वे तुम्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं। नचिकेता राजा जनक के पास गये और उनसे आत्मसाक्षात्कार की याचना की। राजा जनक ने कहा कि मुझे दुःख है कि में तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता। तुम मेरा सारा राज्य ले लो पर तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता क्योंकि अभी तक तुम्हारा व्यक्तित्व इतना विकसित नहीं हुआ है। नचिकेत बहुत निराश हुए और कहने लगे में तब तक प्रतीक्षा करुँगा जब तक आप मेरी परीक्षा लेकर यह नहीं जान लेते कि मैं आत्मसाक्षात्कार के योग्य हूं। राजा जनक ने कहा, ठीक है, आओ चलें नदी में स्नान करें। जब वे नदी में स्नान कर रहे थे तो नौकरों ने आकर सूचित किया कि महल में आग लग गयी है, पर राजा जनक ध्यान करते रहे। थोड़ी देर बाद नौकर फिर आये और कहा कि अग्नि यहाँ तक फैल रही है और आपके वस्त्र भी जल जाएँगे। पर राजा जनक ध्यान मग्न रहे, परन्तु नचिकेत ने उनके वस्त्र उठाए और मैं दौड़ पड़े। तब उन्हें समझ आया कि राजा जनक अपने धन, वैभव और परिवार से कितने निर्लिप्त थे। और वे स्वयं छोटी-छोटी चीज़ों के लिए कितने चिंतित। राजा जनक को इस तरह के कपड़े पहनने पड़ते थे क्योंकि वे एक राजा थे तब नचिकेत ने स्वयं को राजा जनक के सम्मुख समर्पित कर दिया और आत्मसात्कार प्राप्त किया। उन दिनों आत्मसाक्षात्कार पाना तथा देना अत्यन्त दुष्कर कार्य था। परन्तु आजकल का समय विशेष है, बसन्त ऋुतु। इसे अन्तिम निर्णय', 'पुनर्जन्म का समय' तथा कुरान में इसे 'कयामा' कहा गया है। कहा गया है कि कब्रों में से निकल कर लोग पुनर्जन्म को प्राप्त करेंगे, पर कब्र में तो थोड़ी सी हड्डियों के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। नहीं, यह सारी मृत आत्माऐं मानव जन्म लेकर इस विशेष युग में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करेंगी। आपको अपने पूर्व पुण्यों के कारण आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ है। परन्तु आपको इसका सम्मान करना है तथा जानना है कि आपको इतनी महान चीज़ मिली। आप समझ लें कि अब आप आत्मा हैं। आप विशेष लोग हैं। आप अपने देश, जाति, समाज तथा परिवार की समस्याओं का समाधान करेंगे। पूरे विश्व की समस्याओं का आप समाधान करेंगे आप लोग ही पृथ्वी पर शान्ति लाएंगे। आप ही सुन्दर, दिव्य मानवों से परिपूर्ण एक नये विश्व का सृजन करेंगे। स्वयं पर विश्वास करें। यह विश्वास अत्यन्त द्रतगति से कार्य करता है । यह मिथ्या विश्वास नहीं, यह सत्य है। सहजयोग में विकसित हों, बौने न बने रहें। अब आप लक्ष्मीजी का आशीष माँग रहे हैं सर्वप्रथम आपको सन्तोष माँगना चाहिए और फिर उदारता । लक्ष्मी से आशीर्वादित व्यक्ति कभी कंजूस नहीं हो सकता। आप जानते हैं कि आपके कोई कर्म शेष नहीं रहे। सब कर्म समाप्त हो गए तथा अब आप अति सुन्दर नये मानव हैं। बसन्त काल आ गया है, अपनी परेशानियों तथा कष्टों की ओर चित्त न दें। नि:सन्देह चीजें सुधरेंगी। कोई मुझे कह रहा था कि उसके घुटनों में दर्द है। मुझे लगा कि आपके दर्द को सोखने के कारण बहुत बार मेरे घुटनों में दर्द हो जाता है पर मैं इसके बारे में सोचती ही नहीं। मैं कभी चिन्ता नहीं करती, क्योंकि मुझे लगता है कि मेरा शरीर ठीक है। इस मशीन की तरह, यदि यह बिगड़ जाए तो इसे ठीक कर लीजिए, बस। परन्तु हर समय यदि आप यही सोचते रहें कि यहाँ दर्द हो रहा है, वहाँ दर्द हो रहा है, मेरे पास इतना धन है, मुझे यह करना है, व्यापार करना है तो कुछ न होगा। अब हमें उच्च चेतना के क्षेत्र में रहना होगा। किसी श्रेष्ठ तथा सुन्दर चीज़ के बारे में बोलती ही चली जा सकती हैं। पर भाषण तो मात्र शब्द जाल (शब्द जालम्) हैं। आपको मस्तिष्क से परे जाना होगा। मेरा यही स्वप्न है और बहुत से लोगों ने इसे साकार किया है। मैं सदैव आपकी हूँ, जहाँ भी आप चाहेंगे, मैं आऊँगी। मेरा प्रेम, मेरी इच्छा से अधिक है। परन्तु आप अपनी आत्मा से तथा अपने आत्मसाक्षात्कार से प्रेम करें। ि परमात्मा आप पर कृपा करें। ৪ 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-34.txt नव-आगमन CODE. NOS. Lang. Type Speech Title Place Date DVD/HH VCD/HH |ACD/HH|ACS/HH Mahashivratri Puja 218 Pu Pune 6-Mar-08 Shiv Puja Part 1 & 2 Pu Pune 8-9th Mar- 08 219" Birthday Puja Cele. 2008, Part 1& 2 Easter Puja Pu 221 Chhindwara 20-23rd Mar-08 Pu 222 Nagpur 23-Mar-08 Pu Ramnavami Puja 223 Pune 13-Apr-08 H. Sp/Pu Shri Mahakali Puja - Part I &II 224 Kolkata 1-Аpг-86 H/E Maha devi Puja - Part I & II Sp/Pu 225 Alibag 21-Dec-86 Christmas Puja - Part I& II M/E Sp/Pu 226 Pavana Dam 25-Dec-86 Guru Puja Sp/Pu 195 Cabella 195" 227* 1-Aug-99 रानिक कार् PP 367 Brahmapuri 31-Dec-89 Shri Rajlakshmi Puja H/E 028 Sp/Pu 149 Delhi 7-Dec-96 149* Navratri Puja 150 Sp/Pu Cabella 164 164 5-Oct-97 Diwali Puja Sp/Pu 229 183 25-Oct-98 Italy 183" Easter Puja Sp/Pu 230 199 Istambul 199* 25-Apr-99 Shri Ganesh Puja Sp/Pu 200 Cabella 200 231" 25-Sep-99 Shri Krishna Puja Sp/Pu 232* 20-Aug-00 Cabella 211" 211 Sahastrar Puja Sp/Pu 221 Cabella 221* 021" 6-May-01 Guru Puja 240 042 Sp/Pu 21-Jul-02 240 042 Cabella Guru Puja 124 Sp/Pu Cabella 008 4-Jul-04 BHAJAN / MUSIC Title Artist ACD ACS Mahri Nirmal Maa Padharo Mhare Dess Rajasthan Coll. 136" MANHI MAAY (Ahirani Language) Kirti Vispute 137" DEVOTION (Instrumental) Ajit Kakde 138* BOOKS LANGUAGE PRICE Title Author Eternally Recollections English 150/- 100/- Yogi Mahajan नव सहस्राब्दि Hindi 100/- New Millennium Yogi Mahajan English 34 E. E. E. 2008_Chaitanya_Lehari_H_(Scan)_V.pdf-page-35.txt द ८ र स्वस्तिक बहुत ही संवेदनशील यन्त्र है। यह स्वस्तिक और कुछ नहीं बल्कि संतुलन दर्शाता हैं। जब यह दायीं तरफ चलने लगता है तब रचनात्मक कार्य होने लगते है और ये वो सब करता है जो जिंदगी के लिए महत्त्वपूर्ण है। जब ये उल्टी तरफ से चलने लगता है तब ये विनाश का कार्य करता है। (१७/०६/१९८९) Jai Shri Mataji बा!