चैतुन्य लहरी भार्च - अप्रैल २००९ ० हिन्दी 60 Haspis Hap Hapby irthdav Hap Hap २ इस ७ अंक में मुर्यादाओं का मतलब - १ है ा मस्तिष्क की देखभाल - १० भाँग - १२ और अन्य ईश्वर साक्षात्कार १३ 3० माता-पिता का बच्चों के साथ सम्बन्ध १९ कुण्डलिनी और ब्रह्मशक्ति - २३ श्रीखण्ड - ३१ १ )२ 5০ आप तो इतिहास जानते हैं और पौराणिक बात भी जानते हैं कि होलिका को जलाने पर ही होली जलाई जाने लगी और इसमें किसानों के लिए भी उनका सब काम-वाम खत्म हो गया और ये सोच करके कि अब सब कुछ जो बोया था उसका फल मिल गया था। उसको बेच-बाच कर आराम से बैठे हैं, तो थोड़ासा उसका आनन्द भोगना चाहिए, पर इससे भी पहली बात ये है कि होली की शुरुआत जो थी हालांकि ये होलिका का दहन जो हुआ उसी मुहूर्त में बिठायी हुई बात है। ये काम श्रीकृष्ण ने किया क्योंकि श्रीराम जब संसार में आये तो श्रीराम ने मर्यादायें बाँधी। अपने, स्वयं अपने जीवन से, अपने तौरतरीकों से, अपने आदर्शों से, अपने व्यवहार से कि मनुष्य जो है मर्यादा पुरुषोत्तम की ओर देखे। ये मर्यादा पुरुषोत्तम जो है ये एक चरित्र, ये एक महान आदर्श हम लोगों के सामने रखा गया कि जो राज्यकर्ता है, जो राजा हैं वो हितकारी होने चाहिए, जिसे सॉक्रेटिस ने 'बिनोवलेंट किंग' कहा है। वो आदर्श स्वरूप श्रीराम हमारे इस संसार में हैं और इतना बड़ा आदर्श उन्होंने सबके सामने रखा कि लोगों के हित के लिए, जनमत के लिए उन्होंने अपनी पत्नी तक का त्याग कर दिया, हालांकि उनकी पत्नी साक्षात महालक्ष्मी थीं । वो जानते थे कि उन्हें कुछ नहीं हो सकता। तो भी लोकाचार में, दुनिया के सामने उन्होंने अपने पत्नी को त्याग दिया कि जिससे लोकमत हमारे प्रति विक्षुब्ध न हो और लोकमत का मान रखें । लेकिन वर्तमान काल में हम देखते हैं कि हमारे यहाँ लोकमत का जरा भी विचार नहीं किया जाता। लोग बिलकुल निर्लज्जता से राज्य करते हैं और उसके प्रति ध्यान नहीं देते । उसकी वजह ये है कि लोग मर्यादा पुरुषोत्तम के बारे में जानते ही नहीं या जानते हैं तो उसे समझते नहीं और समझते हैं तो भी उसे अपनाते नहीं। ये कितनी आवश्यक बात है कि जो राज्य करते हैं वो अपनी मर्यादाओं में रहें। अपने को मर्यादाओं से बाँधे। और तभी सारा संसार जो है 'अपने को मर्यादाओं से बाँधे। और तभी सारा संसार जो है उन मर्यादाओं में बाँधा जाएगा।' उन मर्यादाओं में बाँधा जाएगा। लेकिन राज्यकर्ता ही अगर किसी मर्यादा के बगैर, किसी आदर्शों के बगैर या किसी १ मर्यादाओं का मतलब ... विशेष तरह की प्रणाली के बगैर चलें तो घातक होगा ही और सबसे ज्यादा जो राजकीय और विश्वबंधुत्व है वो सारा ही नष्ट हो जाएगा। आज मनुष्य जो हैं अपने देश में भी बहुत संकीर्ण होता जा रहा है क्योंकि हमने अपनी मर्यादायें जो बाँधनी थी वो नहीं बाँधी और जो नहीं बाँधनी थी वो बाँधी। जैसे हमने अपने को, मैंने आपसे पहले बताया दिल्ली वाले समझते हैं, हम बम्बई वाले समझते हैं फिर बम्बई वाले दिल्ली में हम लोग कोई है तो बम्बई शहर वाले हो गये फिर वो कोई दिल्ली वाले हो गये, कोई नोएडा वाले हो गये। फिर करते-करते इस तरह की हम अपनी सीमायें बाँधते जा रहे हैं। जब हम विश्वबंधुत्व में उतरें, जब हम विश्व के एक नागरिक हो गये हैं तब भी हम इस तरह की छोटी छोटी मर्यादाओं में बँधे हये हैं और जो मर्यादायें हमें अपने व्यक्तित्व में, अपने पर्सनेलिटी में बाँधनी चाहिए वो हमने नहीं बाँधी। जो श्रीराम ने बाँधी थी क्योंकि आप जानते हैं कि श्रीराम विश्व के लिए आदर्श राजा के रूप में आये थें। लेकिन उनका अपना स्वयं का जीवन एक आदर्श और मर्यादाओं से बँधा हुआ था। तो जिन मर्यादाओं को हमने बाँध रखा है उससे तो हम क्षुद्र हो जाएंगे, छोटे हो जाएंगे, संकीर्ण हो जाएंगे और जो मर्यादायें श्रीराम ने अपने चारों तरफ बाँधी हुई थी उससे हम सबल हो जाएंगे। जैसे कि समझ लीजिए कि ऐरोप्लेन है। उसके अन्दर के सारे स्तक्रू वरगैरा है वो अगर ठीक से ना बाँधे जाएं और वो अगर ठीक से ना जोड़े जाएं या वो कार्यान्वित ना हो और जब ये अरोप्लेन उड़ेगा तो सब ये अव्यवस्थित हो जाएगा। उसकी जितनी भी शक्ति है वो नष्ट हो जाएगी। | होली पूजा, २८-०२-९१ जो मर्यादायें हमारी शक्ति को नष्ट करती हैं वो तो हम बहुत आसानी से बाँध लेते हैं किंतु जो मर्यादायें हमारी शक्ति को बढ़ाती है, हमारा हित करती है इतना ही नहीं हमें एक प्रभुत्व देती है, व्यक्तित्व देती है, एक बड़प्पन देती है उसको हम नहीं बाँधते। यही एक बड़ा भारी दोष हमारी सूझबूझ का और विचार का है। लेकिन तो भी इन मर्यादाओं के बीच में बँधे हुए लोगों ने उल्टी तरफ से जब चलना शुरू कर दिया और मर्यादाओं का मतलब कर्मकाण्ड में घुस जाना और एक-दूसरे से अलग हट जाना या जैसे श्रीरामचन्द्रजी ने पत्नी का त्याग कर दिया वैसे हम भी अपनी पत्नी का त्याग करेंगे। पत्नी ने भी बाद में उनका त्याग कर दिया था लेकिन अपने ढ़ंग से, अपनी अस्तित्व की लाज रखते अपने ढ़ंग से श्रीरामचन्द्रजी का त्याग कर दिया था। तो जब हम अपने को इस तरह से संकीर्ण बनाते जा रहे हैं और बनते जा रहे हैं तब हमको चाहिए कि हम अपनी ओर थोड़ा विचार करें कि हमने कौन सी मर्यादायें बाँध रखी हैं और कौनसी मर्यादाओं में हम बँधते चले जा रहे हैं और कौन सी मर्यादायें हमने बाँधनी चाहिए थी , बाँधी ही नहीं । उसकी वजह से हमारा सारा सामाजिक जीवन, राजकीय जीवन और विश्वबंधुत्व की भावनायें सब एकदम अस्त-व्यस्त हो गईं। ढीली पड़ गईं। लेकिन जो मर्यादायें श्री रामचन्द्रजी बाँधे थें, उससे इसी तरह की मर्यादायें लोग बाँधने लगे जिसे मैंने बताया और इसी तरह से कर्मकाण्डों में आदमी जाने लगे और धर्म माने ऐसी कोई बड़ी भारी ऐसी कोई न कोई चीज़ माने जिसमें आप हँस भी नहीं सकते, बोल भी नहीं सकते। 'आप उपवास करिये' इस तरह के उस वक्त के ब्राह्मणाचार थे और पंडितों ने इस तरह की गलत चीज़ें सिखा दी कि यही धर्म है। धर्म का मतलब है आप कर्मकाण्ड करो, इसमें पैसा दो, उसमें पैसा दो और गम्भीरता से रहो, हँसो मत, बोलो मत, किसीसे मिलो मत, एकान्त में रहो। इस तरह की जो धारणायें लोगों ने बना दी उसको तोड़ने के लिए श्रीकृष्ण ने जन्म लिया और श्रीराम स्वयं, साक्षात श्रीकृष्ण थे उन्होंने जन्म लिया और श्रीकृष्ण बनकर आये तब उन्होंने लीलायें रची और सारे संसार में लीला का प्रचार किया। हुए २ दूसरी बात ये कि श्रीराम ने जन की गहराई को किस तरह से छूना चाहिए इसमें भी खेल रचा। श्रीकृष्ण की जो लीला थी वो और तरह की थी और श्रीराम का जनता की ओर जो ध्यान था वो और था। क्योंकि आप जानते हैं, विशुद्धि चक्र पर जन हो जाता है । और नाभी चक्र पर आपने देखा कि धारणा हो जाती है। विशुद्धि चक्र पर आप जन पर आ जाते हैं माने कलेक्टिविटी पर आ जाते हैं। सामूहिकता पे आ जाते हैं। जब आप कलेक्टिविटी में आ गये तो कलेक्टिविटी में भी किस तरह से श्रीकृष्ण ने लीला से ही लोगों को जाग्रत करने का प्रयत्न किया। जब वे छोटे थें, पाँच साल की उम्र के थें तो उन्होंने औरतें जो नहा रही थी, उनके कपड़े छिपा लिये। चार-पाँच साल की उम्र में बच्चों को क्या समझता है। आजकल के बच्चे जरा ज्यादा ही होशियार हैं। उस ज़माने में तो बीस साल के लड़कों को भी अकल नहीं होती थी। आजकल सब चीज़ बहुत ज्यादा लोग समझने लग गये हैं। तो उस जमाने के बच्चों ने कैसा जीवन बिताया। उस दृष्टि से देखा जाए तो श्रीकृष्ण तो बिलकुल ही आजकल के एक महीने के बच्चे के बराबर होंगे। क्योंकि आजकल के बच्चें तो इतने जल्दी बढ़ जाते हैं कि कुछ समझ नहीं आता। उनको दुनियाभर की बातें मालूम हैं। तो इस तरह से एक बड़ी अबोधिता में उन्होंने औरतों के कपड़े छिपायें, और ये लोग जमनाजी में नहाती थीं। जमनाजी में सीताजी के बाद महालक्ष्मी, महालक्ष्मी से ही उत्थान होता हैं। महालक्ष्मी तत्व से ही आप लोग सहजयोग में जो कुछ प्राप्त कर पाये हो, वो प्राप्त किया। तो उनकी पीठ पर, उपर बैठ कर के वो देखते थे कि किस तरह से इनकी जागृति करें। दृष्टि इनकी पीठ पर रहती थी। उसके बाद जब औरतें घड़ा लेकर चलती थीं , उनके घड़े पीछे से तोड़ते थे कि वो जो जल, जो कि जमनाजी का जल है, जो कि वायब्रेट हो गया, उनको फोड़ने से वो जल उनके पीठ पर गिर जाए तो इससे इनकी भी जागृति हो जाएगी। इनका खेल देखिये। उसके बाद रास, 'रा' माने शक्ति और 'स' माने सहिता जैसे सहज है, तो रास खेलते थे हात पकड़के तो सब लोग थक जाते थे। श्री राधाजी कहती थी, 'में तो थक गयी।' रा...धा.. फिर वही शक्ति की धारणा करने वाली। 'अच्छा, अच्छा कोई बात नहीं मैं तुम्हारे पैर दबा दूँगा, पर तुम नाचो।' सबको नचाते थे। सब रास खेलते थे। रास में सब लोग नाचते थे। रास में नाचकर वो राधाजी की शक्ति सबमें संचालित करते थे | मुरली बजाते थे | मुरली भी एक तरह से कुण्डलिनी ही है क्योंकि उसमें भी छिद्र वैसे ही होते है जैसे कुण्डलिनी में चक्र होते हैं और उस नृत्य के दौरान वो राधाजी की जो शक्ति थी सबके हाथों में से बहाते थे। इस प्रकार उन्होंने लीला रचायी पर बाद में होली के लिए भी उन्होंने एक बड़ा सुन्दर तरीका ढूँढ निकाला कि पानी में रंग मिलायें । आज के जैसे गंदे रंग पहले नहीं होते थे। आप तो जानते हैं कि फूलों के बड़े सुगन्धित रंग पहले बनाये जाते थे। और उसे संजो करके, बहुत पवित्र चीज़़ समझ के बनाया जाता था। हर त्यौहार उस जमाने में जो भी मनाया जाता था, हमारे जमाने में भी तो वो बहुत पवित्र चीज़ समझी जाती थी। अब तो अपवित्र चीज़ ही अच्छी मानी जाती है। ऐसा कुछ नज़र आता है जैसे कि कीचड़ है, ये है, वो है लोग फेंकते हैं ये तो अनादर है। इस तरह के बना करके और वो चेतित पानी जो था, वायब्रेटेड पानी, वो सबके बदन पर फेंकते थे जिससे उनके अंग-प्रत्यंग चेतित हो जाए। ये उनका विचार था। ये उनका अभी | खेल था। ये नहीं कि आप लोगों पे ऐसी-ऐसी चीजें फेंके। मैंने तो कि एक साहब के प्राण चले सुना ३ 'रा' माने शक्ति और 'स' माने सहिता गये। उनपर कुछ गुब्बारा मारा गया था। ये कितनी शर्म की बात है। जो चीज़ सुन्दर से सुन्दर भी किसी भी अवतरण में बनायी गयी उसका किस तरह से विपर्यास करना चाहिए, उसको किस तरह से कबाड़ा करना चाहिए, उसको किस तरह से बिलकुल ही निम्न स्तर की चीज़ बनानी चाहिए ये सिर्फ इन्सान से ही हो सकता है। जानवर भी नहीं कर सकते। इन्सान तो एक खास चीज़ है। पता नहीं उनको क्या हो जाता है। रंग खेलते-खेलते रंग अगर खत्म हो गया तो उन्होंने कीचड़ उठा लिया। कीचड़ खत्म हो गया तो उन्होंने गोबर उठा लिया। गोबर खत्म हो गया तो उन्होंने टार उठा लिया। अब जो उनको जोश चढ़ गया। अरे भाई , किस चीज़ के लिए होली हो रही है ? उसका तत्व ही खत्म कर देना और उसकी सारी जो सुन्दरता है कि इससे हमारे आपसी प्रेम को बढ़ावा मिले। जन के बीच में चेतित जल फेंका जाए और उससे भी बढ़कर आपसी मेल हो जाएं। जो कुछ भी हमारे अन्दर दृष्ट भावनायें हैं, दूसरों के प्रति वो सब क्षमा हो जाए। सब आपस में एक तरह से बहुत ही ज्यादा स्वच्छंद हो कर के, तन्मय हो कर के एकसाथ होली खेलें। उसमें कोई पाप की भावना नहीं होनी चाहिए। कोई हृदय में खराबी नहीं होनी चाहिए । | इस तरह से ये इतनी सुन्दर चीज़ बनायी थी। लेकिन उसका विपर्यास अभी हम देखते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है। जैसे पुणे में गणपति त्यौहार होता है आजकल, तो वहाँ गन्दे-गन्दे सिनेमा के गाने होते हैं। इस तरह की चीज़ें होती हैं। आप वैसे तो कभी सुनेंगे नहीं। पर वहाँ आप गणपति के सामने खड़े हो और आपको सुनना ही पड़ता है और शराब पी कर के उनके सामने झिंगना। गुजरातियों में रास। आजकल बहुत रास करते हैं नवरात्रि में। तो शराब पी कर सब लोग आते हैं। औरतें -आदमी सब शराब पी कर आते हैं। और बढ़िया-बढ़िया कपड़े पहनना , वो तो ठीक है, लेकिन वो सब किसलिए ? और क्या वहाँ शुरू हो जाता है। खास करके लंदन में एक बार उन्होंने मुझे बुलाया था 'वहाँ पे भी है, आप आईये।' मैं देखने गयी। मैंने कहा ठीक है रास -लीला में बुलाया है तो जायेंगे। वहाँ जो देखा तो औरतें , | | मैं वहाँ पर खड़ी थी, मैंने कहा कि भाई, यहाँ कैसे? ये तो सारे शराबी लोग। बिलकुल लड़कियाँ सब शराब पी कर के और इतनी अश्लील तरीके से आपस में वो लोग व्यवहार कर रहे थें कि मैंने कहा कि देवी तो यहाँ से उठ जाएंगी और भूत ही यहाँ नाच सकते हैं। उसी दिन पेपर में आ गया कि इनके यहाँ जो रास होती हैं वो ऐसी होती है। इनके यहाँ ऐसा होता है, वैसा होता है। याने जहाँ की पाश्चिमात्य लोग, जिस काम को करने में लज्जित हो जाए। माने वो तो बहुत ही नैतिकता के स्तर पर अपने से बहुत कम। वो भी जहाँ लज्जित हो जाए । ऐसे काम वहाँ हिन्दुस्तानी करते हैं-रास| ये बहुत | शर्म की बात है। अब वो रास का तो मजा गया, मुझे तो इतना दुःख हुआ। मैं रातभर सोचती रहीं कि क्या ये हिन्दुस्तानी यहाँ आ कर के अप्रदर्शन कर रहे हैं और दूसरे दिन वही पेपर में आया कि ये सिर्फ एक अनैतिकता, एक बहाना है कि रास में लोग आयें । तो जो मर्यादायें नैतिकता की और प्रेम की, आदर की, ये छोड़ करके आप होली खेलेंगे तो उस होली का अर्थ यही होता है कि कोई एक बहाना ढूँढ लिया आपने जिससे कि आपके अन्दर जो छिपी हुई गन्दगियाँ हैं उसे आप निकाल रहे हैं। उसकी शोभा ही खत्म हो गयी । अशोभनीय काम में कभी मजा आ ही नहीं सकता। खास कर सहजयोगियों को तो आना ही नहीं चाहिए। सब कुछ शोभनीय होना चाहिए। रास भी तालबद्ध, स्वरबद्ध होती है। रास याने की ढ़माढ़म बजा रहे हैं, एक दूसरे पर गिरा ४ holi '-पहले तो यही बात सोचना चाहिए कि हमने विशुद द्ध लाँघी है या नहीं। ' ०) जा रहा है। इसमें तालबद्धता है, स्वरबद्धता है शुद्ध चित्त हो इसलिए रास होती है। क्योंकि नृत्य करते वक्त मनुष्य का ध्यान नृत्य के लय पर और सुर पर होता है। और इसलिए उसका चित्त शुद्ध हो जाता है। पर उस वक्त मैंने तो देखा उनका ध्यान कहीं और ही था। तो ये होली का त्यौहार जो श्रीकृष्ण ने, लीलाधर ने बनाया उसकी विशेषता ही ये थी कि मनुष्य उसे एक लीला समझे। सारा संसार एक लीला है। सहजयोग में भी आपने देखा होगा कि यहाँ पर वाकई आप लोग लीलामय हो गये। संगीत और हर चीज़ में आप तन्मय हो जाते हैं और आनन्द से उसका भोग उठाते हैं। आपस में इतने प्रेम से और बहुत शुद्ध भाव है। सहजयोग में लोगों में बहुत शुद्ध भाव है और बहुत नैतिकता से आप सारा कार्य सुन्दरता से करते हैं। इसमें कोई शक नहीं। लेकिन लीलामय होना ही विशुद्धि पर रूक जाना होगा। विशुद्धि पर लीलामय है पर उसके आगे आज्ञा पर चलना है। तो जो आज्ञा का चक्र है ये तप है। तब आपको होलिका का जलना सोचना चाहिए क्या था? प्रल्हाद के तप के कारण होलिका जल गयी। तो हम भी उस तप में आगे बढ़ें। क्योंकि विशुद्धि तक तो हम लोग आ गये समझ लीजिए कि सब आपस में प्रेम से रहते हैं। अब ये भी पता नहीं कि हैं कि नहीं। थोड़ा सा उसमें भी मुझे शक है। पर कहना नहीं चाहती क्योंकि आप सोचने लगेंगे कि हमने गलत काम किया, ये किया, वो किया तो और भी बायीं विशुद्धि पकड़ जाएगी। लेकिन विशुद्धि तक है, ठीक है, हममें सामाजिकता आ गयी। आपसी प्रेम आ गया । सारे विश्वबंधुत्व में उतरें। अभी भी ऐसे लोग तो बहुत हैं ही जो गहरे उतर गये हैं लेकिन ऐसे भी थोड़े बहुत लोग हैं जो अब भी अपनी छोटी-छोटी बातें सोचते रहते हैं कि 'मैं कौन जाति का हूँ ? मैं कौन जगह का हूँ? और फिर ऐसा कैसे हो सकता है?' और हम विश्वबंधुत्व की बात कर रहे हैं। विश्वबंधुत्व में तो आपकी जाति-पाति, देश-विदेश सब छूट जाते हैं, वो जो छोटी मर्यादायें बनी हुई हैं। अगर आप अमेरिका में पैदा होते हैं तो आप अमेरिकन हो जाते हैं, आप यहाँ पैदा हैं तो हिन्दुस्तानी हो। इसका मतलब ये नहीं कि आप हिन्दुस्तानी हो गये तो अमेरीका या कहीं भी देश के लोगों से आपका रिश्ता नहीं है। आप सभी एक ही माँ के बेटे-बेटियाँ हैं। इसलिए विश्वबंधुत्व में उतरे हुए हो। तो पहले तो यही बात सोचनी चाहिए कि हमनें विशुद्धि लाँघी है या नहीं। जब हम होली खेल रहे हैं तो हम मर्यादा में हैं या नहीं। अभी किसी ने पूछा था कि 'माँ, क्या औरतों के साथ आदमियों ने होली खेलनी चाहिए?' मैंने कहा, 'वैसे तो कुछ भी करें लेकिन सहजयोग में नहीं। क्योंकि भाई-बहन में होली नहीं खेली जाती। आप जानते हैं। क्योंकि श्रीकृष्ण ने अपनी मर्यादायें जैसे, भाभी है, देवर है इनके बीच में एक तरह की मर्यादा है। भाई- बहन में पूरी मर्यादायें होनी चाहिए। देखिए भाई - बहन का रिश्ता कितना सुन्दर है कि पूरी मर्यादायें हैं। पूरा प्रेम है। लेकिन भाई-बहन कभी एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नहीं बैठते। अपने देश की जो विशेष चीज़ है वो हमारा कल्चर है । हमारी संस्कृति है। | इधर एक भाईसाहब हैं उनकी एक बहन है, दोनो एक साथ कभी नहीं बैठेंगे। अलग -अलग बैठतें हैं। लेकिन प्रेम भाई-बहन में बहुत ज्यादा होता है। अपने आप से भी। वैसे लड़ाई करेंगे आपस में भाई -बहन। लेकिन उनकी बहन को कोई कहे तो मारने पर, खून पर आ उतरेंगे। इस प्रेम की जो विलक्षण प्रकृति है, एक विलक्षण प्रकृति है। एक विशेष प्रकृति है भाई - बहन में और वो नैसर्गिक है । निसर्ग से मिली हैं। कुदरती है। तो भाई और बहन में आपसी प्रेम बहुत है, नितांत श्रद्धा है। लड़ाई भी करेंगे, भी हो जाए। बचपन में तो हाथापाई भी हो जाती है। कोई बात नहीं। पर अन्दर से बहुत ज्यादा प्रेम है। और भी करेंगे। तू-तू, मैं-में झगड़ा ५ ा जब हम होली खेल रहे हैं तो हम मर्यादा में हैं या नहीं। अत्यन्त शुद्ध प्रेम है और इस शुद्ध प्रेम की होली हम नहीं खेल सकते कि कहीं हमारी बहन का हमारे हाथों अपमान न हो जाएं। भावज है और देवर है वो आपस में मज़ाक उड़ायें या उनके कपड़े फाड़ ड़ाले, कुछ भी करे चल जाता है। वैसे करना नहीं चाहिए, लेकिन उनका रिश्ता और है। लेकिन भाई-बहन के रिश्ते में एक तरह का बड़ा ही सुन्दर सा, गोपनीय, मर्यादित, बँधा हुआ प्यार है और उसके संगोपन में नैतिकता की अतिशयता है। अतिशयता है। तो भाई - बहन में होली खेलना मना है। कोई सोचता भी नहीं ऐसा क्यों ? उसके बाद इस लीलामय जीवन से हमें अगर ऊपर उठना है, आज ठीक है, कल ठीक है, होली खेल लीजिए, गाना-वाना गा लीजिए, नाच भी लीजिए, आज भी नाचिए कोई हर्ज नहीं लेकिन उसके बाद हमें आज्ञा पर उतरना जरूरी है। क्योंकि इस तरह के व्यवहार से जो आनन्द मिलता है, आपस में जो शुद्धता मिलती है, अच्छाई मिलती है, भाईचारा होता है, विश्वबंधुत्व आता है उससे हम फैल से जाते हैं। गहराई को छूने के लिए जरूरी है कि तपस्विता चाहिए । फैल हम जाते हैं बहुत। सोचो बहुत जल्दी फैलता है। फैलेगा बहुत जल्दी। लेकिन गहरे कितने उतरे हैं? गहराई के लिए तपस्विता की जरूरत हैं। अब तप का मतलब ये नहीं कि बैठ के उपवास करो। जरूरी नहीं। पर अपना चित्त अगर खाने पर है तो उसे हटाना है। मेरा चित्त कहाँ है इसको देखना ही सहजयोग की तपस्विता है। क्योंकि चित्त से ही आप अपनी आज्ञा खराब करते हैं। कहाँ है मेरा चित्त? मैं क्या सोच रहा हूँ? इस वक्त मैं क्या कर रहा हूँ? क्या सोच रहा हूँ? ये अगर अपना चित्त आप देखें अंतर्मन को हमेशा अपने सामने रखें तो आपका चित्त जो है वो आज्ञा में प्रकाशित हो जाएगा । यही तपस्या है कि अपने चित्त का निरोध , अपने चित्त का अवलोकन, चित्त का विचार। अब देखिए आपका चित्त कहाँ गया ? मैं बात कर रही हूँ चित्त कहाँ है? चित्त की बात करते ही चित्त कहाँ गया देखिए। इतना विचलित चित्त, मैं बात कर रही हूँ। आपका चित्त कहाँ हैं? चित्त की ओर नज़र रखना। चित्त का निरोध माने जबरदस्ती नहीं । लेकिन अब आत्मा के प्रकाश में अपने चित्त को देखने से अपना चित्त जो है वो आलोकित हो जाता है। एकाग्र हो करके अपना चित्त देखना चाहिए । किसी भी चीज़ को देखना है। जैसे अब ये खंभा है मेरे सामने। इसमें सुन्दर से फूल लगे हुए हैं। अब हर कटाक्ष में निरीक्षण हो जाता है। ये सारा मुझे याद है कि कौन सा कहाँ पर ? कितना अन्तर रह गया? चित्र सामने है। चित्त की जो एकाग्रता है उसी से ये चित्र बनता है। उसीसे आपकी स्मृति अच्छी हो जाती है। सब चीज़ पूरी तरह से आप जान सकते हैं। चित्त से ही सब चीज़ जानी जा सकती है। लेकिन चित्त अगर विचलित हो तो आप किसी भी चीज़ को गहराई से नहीं पकड़ सकते। उपरी तरह से। हम देखते हैं कि बीस-बीस साल के लोगों को भी कुछ पूछिए खास कर विलायत में किसीसे पूछिए, 'तुम्हारा नाम क्या है?' तो पहले हूँ, फिर हाँ, फिर हीं। 'अरे भाई, हमने पूछा तुम्हारा नाम क्या है?' 'आपने क्या पूछा मेरा नाम क्या है?' 'हाँ, मैंने पूछा आपका नाम क्या है?' हाँ, फिर सोचा मेरा नाम क्या है? 'क्या कहा आपने मेरा नाम क्या है? पाँच मिनट उनको यही नहीं समझ में आ रहा कि मैं क्या कह रही हूँ। तो मैने कहा, 'भाई, तुम डूरग-वर्ग लेकर आये हो कि क्या?' 'नहीं, मैं लेता था।' मैंने कहा, 'तुम्हारा जो ब्रेन है उसका तो बिलकुल मलिदा बन गया। तुमको मैं पाँच मिनट से पूछ रही हूँ तुम्हारा नाम क्या है? तुम हाँ, हाँ, हीं, हीं कर रहे हो। क्योंकि असल में ड्रग से नहीं हुआ इतना, जितना चित्त से हुआ है। चित्त इतना विचलित हो जाने से, चित्त हर समय घूमता ही रहेगा। अब देखिए आप, मैं तो हर जगह देखती हूँ एअरपोर्ट पर, बात इनसे कर रहे हैं देख रहे हैं इधर, उधर देख रहे हैं, उधर देख रहे हैं। याद कुछ भी नहीं रहा, कौन है, क्या है? शुद्ध चित्त जो पूरा ६ होता है वो एकाग्र होता है। और एकाग्र चित्त वही चीज़ लेता है जो लेना है । जो नहीं लेना है उधर देखता ही नहीं। उसको दिखाई ही नहीं देगा, हट जाएगा चित्त वहाँ से अपने आप| क्योंकि वो इतना शुद्ध है कि अशुद्ध चीज़ में वो मलिन हो ही नहीं सकता। जा ही नहीं सकता। तो ये अब आप ही के हाथ में है कि आप अपने अन्दर इसको देखें, कि हमारा चित्त कहाँ जा रहा है? यही तप, सहजयोग का तप सिर्फ ये ही कि मेरा चित्त कहाँ है? मैं कहाँ जा रहा हूँ? मेरा मन कहाँ जा रहा है? अगर ये तप आपने कर लिया तो आज्ञा को आप लाँघ गये। और सहस्रार में तो कोई प्रश्न ही नहीं क्योंकि हम बैठे ही हुए हैं। पर अगर आप आज्ञा को नहीं लांघेंगे तो फिर सहस्रार में हमें बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्योंकि आज्ञा का चक्र बहुत ही ज्यादा संकीर्ण है। उसमें से खींच निकालना माने मुझे ड्र लगता है कहीं हाथ-पाँव न टूट जाए आप लोगों के। तो आज्ञा के लिए जरूरी है कि तप करें। और जैसे ही आप तप करना शुरू कर दें तो आप गहराई को छू लेते हैं। सहजयोग में एक साहब बता रहे थे, सहजयोगी हैं उनको कैन्सर हो गया है। मैंने कहा, 'वो कैसे सहजयोगी हैं। वो आये होंगे प्रोग्राम में लेकिन उनका चित्त इधर-उधर होगा। शायद अपने लड़के के लिए लड़की ढूँढ रहे होंगे, या कुछ और ढूँढ रहे होंगे, ऐसे कैसे उनको होगा। कैन्सर तो उनको हो ही नहीं सकता।' हो गया, इसकी वजह ये बैठे थे प्रोग्राम में, आये थे लेकिन कुछ न कुछ अपनी विपदा सोचते रहे । 'अरे, मेरे साथ ये हुआ, मेरे साथ वो हुआ, ऐसा हुआ, वैसा हुआ। और माताजी से मैं कब बताउऊ मेरी विपदा क्या हुई?' बजाय इसके जो कहे जा रहे उसको समझें। अपनी ही अंदरूनी बात कोई सोच-सोच के आप चले गये उस बहकावे में और उस बहकावे में कैन्सर की बीमारी हो गयी| ये बीमारी हो गयी, वो बीमारी हो गई। वैसे ही मानसिकता थी, हम मन से क्या सोच रहे हैं। मन में हमारे कौनसे विचार आ रहे हैं । सब यही ना कि हमको ये दुःख है, वो दुःख है, ये पहाड़ है। लेकिन सोचना चाहिए अपने पर कितने आशीर्वाद हैं माँ के । दिल्ली शहर में करोड़ो लोग रहते हैं। कितनों को सहजयोग मिला है। हम कोई विशेष व्यक्ति हैं, ऐसे नहीं कि अपने चित्त को बेकार करें । हमें सहजयोग मिला है। इसकी धारणा होनी चाहिए अन्दर से और उस अन्तर्मन में उतरना चाहिए। उसी से ये झूठी मर्यादायें जो हैं टूट जाएंगी। और अगर आप नहीं तोडियेगा तो किसी न किसी तरह से आपको कुछ अनुभव आयेंगे कि आप टूट जाएंगे। जिस चीज़ को आप सोचेंगे कि ये हमारा अपना है आप कहेंगे हम दिल्ली वाले हैं। एक दिन ऐसा आएगा कि दिल्ली वाले ही आपको ठिकाने लगायेंगे। आप नोएड़ा वालेहैं तो एक दिन ऐसा आएगा कि नोएड़ा वाले आपके पीछे बन्दूक ले कर लग जाएंगे। तब आपके समझ में आ जाएगा कि क्यों कहता था नोएड़ा वाला हूँ? और फिर जब दौडेंगे दिल्ली की तरफ तो दिल्ली वाले कहेंगे कि 'आप तो नोएड़ा वाले हो , यहाँ किस लिए आये तुम?' तो घर के न घाट के ये हालत आपकी हो सकती है। | | उसकी वजह ये कि आपका चित्त ही ऐसा है जो न घर का न घाट का। जब तक इस गहराई में नहीं उतरेंगे तब तक आप अगर अपने को सहजयोगी न कहें तो सहजयोग ही क्या है। तो भी मैं मानती नहीं इस चीज़ को कि सहजयोगी का पहला लक्षण ये है कि वो शान्त चित्त और अत्यन्त सबल होता है। किसी से ड्रता नहीं। सबल है और उसका जीवन अत्यन्त शुद्ध होता है। उसका शरीर शुद्ध होता है। उसका मन शुद्ध होता है और आत्मा के प्रकाश से वो सारी दुनिया में प्रेम फैलाता है। जो आदमी प्रेम नहीं कर सकता वो हमारे विचार से सहजयोगी बिलकुल है ही नहीं। वो तो पहली ही सीढ़ी नहीं चढ़े। इस तरह से अगर आप समझे कि आज होली है, होली के दिन हम बहुत मज़ा उठायेंगे। कोई बात नहीं। श्रीकृष्ण ने ही कह दिया तो खेलो, कूदो, ये लीला है। सब दुनिया लीला है। और लीला के ऊपर जो मर्यादायें है उसको पाने के लिए आज्ञा पर आपको तप करना होगा। जैसे आकाश में आप देखते हैं कि ७ *सहजयोगी का पहला लक्षण ये है कि वो शान्त चित्त और अत्यन्त सबल होता है। सी पतंगे चल रही हैं। लेकिन वो किसी के हाथ में होती है। अगर कोई भी पतंग कट जाए, हाथ से बहुत तो न जाने वो कहाँ चली जाए। वही हाथ आत्मा है। अपने चित्त को अपने आत्मा की ओर छूट जाए रखिए। अपने को शुद्ध करते जाना ही सहजयोग में तपस्वरूप है। इसके लिए आपने आज हवन किया। ये भी तप है। क्योंकि अग्नि जो है वो सब चीज़ को भस्म कर देता है। उसी तरह से आपके तप से आपके अन्दर जो भी इस तरह के दु्विचार है या गलत इस तरह की मर्यादायें है वो सब टूट जाएंगी। आनन्द पाना ये आपका अधिकार है, और आप आनन्द को पा सकते हैं और पाया है आपने आनन्द को। लेकिन आनन्द बाँटने के लिए अपने अन्दर गहराई होनी चाहिए। अगर आप गंगाजी में जाए और इतनी सी एक छोटी कटोरी ले जाए तो आप कटोरी भर पानी लेकर आ जाईये । लेकिन अगर आप एक गागर ले जाए तो आप गागर भर के ले आ सकते हैं। किन्तु किसी तरह से आप ऐसा कुछ इंतजाम कर लें कि पूरा समय गंगा जी का पानी बहता आये आपकी तरफ तो आपकी चारो तरफ गंगा ही बहती रहें। तो किस स्थिति में आप लोगोंको देखना चाहिए कि क्या आप कटोरी भर पानी सहजयोग से ले रहे हैं। क्या आप सीमित आनन्द में है। क्या आप सबके आनन्द के लिए हैं और अगर स्वयं ही इसका स्रोत हैं तब आपके समझ में आ जाएगा कि होली मनाने के लिए भी गहराई चाहिए और इस आनन्द को भी हमेशा उपभोग लेने के लिए भी गहराई चाहिए। इसलिए आज्ञा का और विशुद्धि का बड़ा नज़दीकी रिश्ता है। और आप तो जानते हैं कि बाप-बेटे का रिश्ता है, कितना गहरा रिश्ता है। तो गंभीरता से रहना, बेकार में मुँह बना के रखना और रौब झाडूने के लिए बहुत लोग कम बात करते हैं और कोई लोग बेकार में ही ज्यादा बात करते हैं। इस तरह से दोनो तरफ से विशुद्धि खराब हो जाती है। लेकिन दूसरों को सुख देने के लिए अच्छी बात करना। दूसरों से प्रेम जोड़ने के लिए अच्छी बात करना। आपसी लड़ाई, झगड़े मिटाने के लिए सुन्दरता से बात करना इस सबसे विशुद्धि चक्र जो है वो एकदम ठीक होते जाता है और इस तरह से जब आपकी विशुद्धि ठीक हो जाती है तब फिर आप देखते हैं कि 'जब मैं किसी से बात करता हूँ तो उपरी तरह से ही लोगों को खुश कर रहा हूँ। अन्दरूनी तरीके से नहीं हो रहा।' तब आपको ख्याल करना चाहिए कि मेरी गहराई अभी नहीं हुई। जैसे नितान्त सा किसी के प्रति कह दें हम कि हाँ भाई, कल हम आपके लिए ये चीज़ लायेंगे, और छोटी तबियत के आदमी या कहना चाहिए कि बहुत ही उथले स्वभाव के आदमी है वो बहुत उथले मन से लाएंगे वो चीज़ें। उसका कोई असर नहीं होने वाला, पर एक अगर छोटा सा फूल भी कोई पूरे हृदय से दे, उसका बहुत असर सहजयोग में हो सकता है। तो जिसे कहते है पूरे हृदय से कोई कार्य करना। किसी की दोस्ती है ऊपरी-ऊपरी नहीं रखो। अन्दरूनी रखो। वही चीज़ रहेगी जो कुछ भी विशुद्धि है, जब तक खुश है, आज्ञा की गहराई नहीं होगी तब तक आपकी विशुद्धि जो है बहुत ही उथली रह जाएगी। आज्ञा की गहराई होना बहुत जरूरी है। आज्ञा की गहराई माने ये कि कोई भी विचार करके आपने चीज़़ नहीं करी। उसको कैलक्यूलेट करके नहीं करते कि मैं इनको आज एक रूपया दूँ तो मुझे मिल जाएगा। माताजी के पास अगर मैं पाँच रूपये देता तो मुझे सौ रूपये मिलते हैं। या ऐसा करने से ये हो जाए । नहीं अन्दर से मुझे लग रहा है कि करना ही चाहिए। सहजयोग में मुझे करना ही चाहिए। मुझे देना ही चाहिए । मैंने कुछ नहीं दिया अभी तक। दिखावे के लिए नहीं कि आज पेपर में छप जाएं कि आज सहजयोग में पाँच सौ या दो रूपये दिये। या कुछ इस तरह से। नहीं, नहीं। आपने जो भी किया हृदय से की ये चीज़ क्यों नहीं मैं कर सकता। मुझे करना चाहिए। उसके बगैर चैन ही नहीं आना चाहिए । मैंने कुछ नहीं किया। जब ये स्थिति आपमें आ जाएगी तब आप समझ लीजिए कि आपकी गहराई जो है वो विशुद्धि पर काम कर रही है , और गहराई में आप जब विशुद्धि पर काम करेंगे तभी आपका जनहित, जनसंबंध और विश्वबंधुत्व जो है उसमें कोई ठोसपन आ जाएगा। नहीं तो ऐसे ही ठीक है जैसे आप राम-राम, सलाम, नमस्कार। तो आज के इस होली के दिन हमें वो चीजें जला देनी चाहिए जिससे हमारा चित्त खराब हो जाता है । ८ जिससे हमारी आज्ञा खराब हो जाती है। तो दोनो ही चीज़ है कि चित्त भी साफ हो जाए और आनन्द और बोध में लोग होली मनायें। जिस दिन इसका पूर्ण काम्बिनेशन बन जाएगा, इसमें एकरूपता आ जाएगी दोनो चक्रों में, सहस्रार में कोई प्रश्न नहीं रहेगा । यही दो चक्र जो है जो गड़बड़ करते हैं । और विशुद्धि से ही निकलकर आप जानते हैं कि दोनो नाड़ियाँ ऊपर जाकर और आज्ञा पर क्रॉस करती हैं। तो विशुद्धि से बहुत ही संबंध है। इसलिए विशुद्धि की ओर जब आपका चित्त जाता है, श्रीकृष्ण की ओर, तो उनकी जो विशेषता थी वो ये थी कि राधाजी और राधाजी की शक्ति, आल्हाददायक, दूसरों को आल्हाद देना। आनन्द देना, दूसरों को आनन्द देने की उनके अन्दर की शक्ति थी। उनको देखते ही लोगों को आनन्द आ जाता है। जानवर हैं, पक्षी हैं, सब। ये विशुद्धि की देन है कि जो देखे वो खुश हो जाएं। जो बोले खुश हो जाए। जो कहे खुश हो जाए । जिसको कहते हैं बागबाँ हो जाना। जो कि फूलों में है, बच्चों में है । वो आल्हाददायिनी शक्ति आपके अन्दर जाग्रत हो सकती है। लेकिन जब तक उसमें गहराई नहीं आएगी तब तक ये आल्हाददायिनी शक्ति ऐसे ही ऊपरी, जबानी जमा-खर्च| तो इन दोनो का मेल आपको सोच लेना चाहिए। तो कोई भी आज सीरियस बात तो मैंने कही नहीं । लेकिन समझाने की बात ये है कि हमारे अन्दर गहराई का आना बहुत जरूरी है और गहराई से किसी चीज़ का आनन्द लेना भी बहत जरूरी है। हम | आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! भा. ा र मस्तिष्क की देखभाल.... एक सहजयोगी को कभी भी धूप में नहीं जाना चाहिए। मेरा कहना मानिए, कभी भी धूप में नहीं जाना चाहिए। इस मस्तिष्क को शान्ति चाहिए और सूर्य की किसी क्रिया की आवश्यकता नहीं। आप जब भी सोते हों उस वक्त सूर्य की एक भी किरण नहीं होनी चाहिए। मैं भी जब सोती हूँ मुझे पूरी तरह से अंधेरा चाहिए। लोग जानते हैं; रोशनी की एक भी किरण हो तो मुझे नींद नहीं लगती है क्योंकि मुझे कार्य करना है। तो इस तरह से इस रोशनी से मुझ पर असर होता है। हो सकता है कि मैं इन तत्त्वों के प्रति बहुत संवेदनशील हूँ पर आप का क्या? जहाँ तक हो सके सोते समय सूर्य की रोशनी से बचना है और धूप में ज्यादा देर तक नहीं बैठना है। हाँ धूप में बैठने से विटामिन 'डी' मिलता है जो हड्डियों को अच्छा बनाता है। पर मुझे लगता है कि आपकी हड्डी अच्छी ही है इससे ज्यादा इसे अच्छा बनाने की जरुरत नहीं है। अब तो भगवान की कृपा से आपको खाने वाली कैल्शियम (soluble calcium) भी मिलती है। जिसे खा कर आपको विटामिन डी मिलता है और विटामिन ए भी मिल सकता है अगर आप चाहें तो। क्या जरूरत है इस मस्तिष्क को तपाने की? धूप में बैठनेसे यदि तो आप गंजे हो जाओगे या सिर पर जंगल उग जाएगा। इन दोनो में से कुछ भी हो सकता है, ये आपके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। इसलिए कि ये आपके मस्तिष्क को सहन नहीं होता है । आपकी त्वचा को सहन नहीं होता । आखिरकार हम कोई जंगली लोग थोड़े ही हैं ? आप जंगल के लोगों से पूछिए वो भी धूप में नहीं बैठते हैं । बस, कुछ लोगों ने आपके दिमाग में भर दिया है कि आपको धूप में बैठना है। अगर आप एस्किमोज को देखेंगे जो बर्फ के घरों में रहते हैं, वो तक धूप नहीं सेंकते । क्या आप ने कभी देखा है उन्हें धूप सेंकते हुए या कोई तस्वीरें देखी हैं ऐसी? फिर क्यों ऐसे कुछ लोग ऐसी नासमझी करते हैं कि इन बेवकूफ बातों में पड़ जाते हैं । अपनी बनायी गयी मशीनरी को चलाने के लिए दूसरों को बेवकूफ बनाना और उनमें कुछ कमजोरी ड़ाल देना, यही इन लोगों का काम हैं। लोगों को बेवकूफ बनाते हैं, कहते हैं कि 'समुद्र किनारे जाकर धूप में टैन होने से आप सुन्दर दिखेंगे।' उलटा इससे आप भयंकर दिखोगे । वो कहते हैं कि 'धूप में समुद्र किनारे आपका स्वास्थ्य बनेगा।' इसलिए बहुत ज्यादा लोग जाने लगे हैं। त्वचा कैन्सर होने लगा है क्योंकि आपकी त्वचा इसे अस्वीकार करती है और आपको त्वचा कैन्सर हो जाता है । आपको ज़िगर की तकलीफ हो जाती है, होने लगती है, वैसे भी आप लोगों को ज़िगर की पकड़ है । आप वैसे भी सोचते ही रहते हो तों फिर ऊपर से आपको धूप की क्या आवश्यकता है? मुझे तो ये समझ में ही नहीं आता है । आपको पता होना चाहिए कि आज आपको सहस्रार का कार्य करना है। सहस्रार मस्तिष्क है। हमें मस्तिष्क पर कार्य करना है और अगर आपको इस मस्तिष्क के सही उपयोग की जानकारी नहीं है तो मुझे पता नहीं कि मैं क्या करुँगी । आज कुछ भारतीय लोगों से बातें करते वक्त मुझे कुछ भयंकर बातें पता चली है और हँसी भी आई मुझे उस पर । वो बता रहे थे कि एक भारतीय मुर्गा अगर देख लें कि दूसरे अन्य मुर्गे पर अगर हमला हो रहा है तो वो तुरन्त इतनी आवाज करने लग जाएगा कि दूसरे सभी मुर्गे भी शामिल हो कर इतना शोर मचा देंगे कि उनका मालिक आकर उस मुर्गे को बचा लेगा। पर अगर यही हमला एक अंग्रेज मुल्क के मुर्गों के साथ होगा और उसे खा भी लो और दूसरे मुर्गे को भी खाने लग जाए तब भी वह दूसरा मुर्गा खड़े का खड़ा रह जाएगा। और कहेगा 'मुझे भी खा लो, कोई फर्क नहीं पड़ता में दूसरा जन्म लेकर फिर से आ जाऊँगा ।' देखिए उन्हें कोई दिमाग नहीं रहता, कोई दिमाग नहीं रहता ।.... | | | १३ जनवरी १९८६ आपको इस सहस्रार का कार्य करना है । सहस्रार पंखुडियाँ जो कि कमल हैं। परमात्मा का कमल है जो कि कुण्डलिनी से प्रज्वलित है। ये सजीव पंखुडियाँ हैं। इससे ताक-झाँक न करें । इसलिए मैं कहती हैँ कि अजीब ( उटपटांग) किताबें न पढ़ें । अजीब चीजे न देखें । अजीब लोगों से बातें न करें । भविष्य के बारे में सोचकर अपनी शक्ति को बर्बाद नहीं करना है । अपने तक रखें इसे पनपने दें क्योंकि झड़ें मस्तिष्क में होती हैं । चेतना का वृक्ष नीचे की ओर बढ़ता है । झड़ें इनकी मस्तिष्क में होती है आपको इन झड़ों तक जाना है और क्योंकि आपने वो कार्य कर दिया है अब आप वापस पीछे आ जाईये और उसके लिए आपको पता होना चाहिए कि किस तरह से मस्तिष्क की देखभाल करनी है। .... | १० ४ श] भाँग पीने की सहजयोगियों को कोई जरूरत नहीं भाँग का जो उपयोग है, ८ वाम पार्श्व (left side) में जाने का वह हम लोग ऐसे ही करते हैं। १ ..तो * बात यह है कि भाँग वांग पीने की सहजयोगियों को कोई जरूरत नहीं। जब चाहे तब मन में ही भाँग पी ली। भाँग का जो उपयोग है, वाम पार्शर्व (left side) में जाने का वह हम लोग ऐसे ही करते हैं। मतलब यह है कि अगर कोई आदमी बड़ा ही ego oriented (अहंकारी) है, बहुत शुष्क है, गम्भीर है, तो उसके लिए सहजयोग में पूर्ण व्यवस्था है कि वह अपने आज्ञा चक्र को ठीक कर ले। आज्ञा चक्र को अगर वह किसी तरह से खुलवा ले, अपने ही आज्ञा चक्र को ठीक कर ले तो वह लेफ्ट साइड में जा सकता है। निद्रा के समय अगर आप आज्ञा चक्र को घुमाकर सो जाएं तो अच्छी निद्रा आती है और अगर उसको फिर भाँग की दशा से निकलना है, तो फिर आज्ञा चक्र को कस लें, राइट साइड में। तो जब अपने ही हाथ में सारी चीज़ पड़ी हुई है, जब हमारी सारी ही शक्ति हमारे अन्दर समाई हुई है और जब इस का पूरा ही ज्ञान हमको मालूम है कि कौनसा स्विच किस वक्त घुमाना है तो उन बाहर की चीज़ों का अवलम्बन करने की जरूरत नहीं है। उस समय में भाँग शायद, यह चीज़ न्यायसंगत थी, शायद कृष्ण के जमाने में। शायद कृष्ण नहीं पीते थे-खाते हैं शायद पता नहीं क्या करते हैं। तो उन्होंने नहीं किया लेकिन बाकी लोगों को जरूरत पड़ी क्योंकि जो गम्भीर लोग थे, वे भाँग पी लें क्योंकि भ्रम हैं हम महाराजा है, हम महारानी हैं, हम घर के मालिक हैं, हम फलाँ है, हम कैसे मेहतर से मिलें', भई मेहतर तो घरों में झाडू लगाते हैं। तो उसके लिए यह कि पहले तुम भाँग पियो जिससे मेहतर और तुम एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम ब्राह्मण हो और वह मेहतर है । इसलिय भाँग पिला देते थे कि तम्हें कुछ होश ही न रहे, जो भ्रम बने हुए हैं कि हम फलाँ हैं, हम ढिकाने हैं-भाँग पी लिए, तो सब एक हो गए। अब इसी का ऊँचा हिस्सा ऐसा है, जैसे कबीरदास जी ने कहा कि सुरति जब चढ़ती है, तो सब एक हो जाते हैं। तो उन्होंने सोचा कि जब तम्बाकू आदमी खाता है, तो वह भी एक जात हो जाता है। तो तम्बाकू का नाम सुरति रख दिया। जब हिसाब नहीं लगा पाये तो सोचा कि तम्बाकू ही सुरति होगी। तम्बाकू जब खाते हैं, तो जिसकी तम्बाकू की तलब होती है तो चाहे वह राजा हो, तो उस वक्त सामने अगर गरीब भी बैठा हो, तो उसके सामने 'तम्बाकू मेरे को भी दो' माँगने लगता है। तो उन्होंने कहा तम्बाकू सुरति हो सकता है क्योंकि इसमें राजा व रंक एक हो जाते हैं। यह इन्सान की खासियत है कि किसको कहाँ जाकर मिलाएगा, वह ही जाने। लेकिन होली की जो विशेषता है, उसमें यही याद रखना चाहिए कि अगर दिवाली इसे बनानी है, तो शीलता के साथ, indecency नहीं। अश्लीलता बिलकुल नहीं आनी चाहिए । अश्लीलता अगर आई तो वह फिर होली नहीं । श्री कृष्ण ही नहीं , वह तो होली हुई ऐसे लोगों की जो 'पार' नहीं हैं। जब 'पार' हो जाते हैं तो होली खेलते वक्त कोई भी अश्लीलता नहीं होनी चाहिए । यानी ऐसे, जैसे सहजयोग में स्त्री पुरुष होली नहीं खेलते। पुरुष, पुरुषों के साथ और ओरतें औरतों के साथ। सहजयोग में भाभी-देवर में हो सकती है। उसका भी एक नियम है, आप जानते हैं कि जो औरतें बड़ी हैं, वे अपने से छोटों के साथ होली खेल सकती हैं। और अगर पुरुष बड़े हों और स्त्री छोटी हो, तो किसी भी तरह का व्यवहार पर्दा होता है। उससे उलट, अगर स्त्री बड़ी हो, तो उसके साथ में पुरुष का व्यवहार खुला होता है, जैसे अपने यहाँ भाभी होती है। इसलिए भाभी, देवर में होली होती है, लेकिन जेठ और दुल्हन में नहीं होती। जेठ से हिन्दुस्तान में है। और वह अपने आप ही चलता है, हम लोगों के अन्तरहित है, अन्दर से ही हमारे संस्कारों में बैठा होता है, क्योंकि हमारे यहाँ उल्टा काम नहीं है, अधिकतर कि जैसे इंग्लैण्ड में आप देखेंगे कि अस्सी साल की बुढ़िया है, अठारह साल के लड़के से शादी करेगी। अपने यहाँ तो कोई सोच भी नहीं सकता ऐसा। मानें, इनमें अपनी बुद्धि ही नहीं है।... २६ मार्च १९८३ 6. पर्दा होता है। और यह कायदा आपको आश्चर्य होगा कि सारे १२ ईश्वर साक्षात्कार आम ज हम लोग श्री शिव की पूजा करने जा रहे हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि श्री शिव, हमारे अन्दर सदाशिव के प्रतिबिम्ब हैं। मैं इस प्रतिबिम्ब के बारे में आपको पहले बता चुकी हूँ। सदाशिव सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं, जो आदिशक्ति की लीला का निरीक्षण करते रहते हैं। वह परम पिता हैं, जो उनकी हर सृष्टि को देखते रहते हैं। आदिशक्ति को उनका अवलंबन पूर्ण रूप से शक्तिप्रदायक होता है। उनके दिमाग में आदिशक्ति की क्षमता के बारे में कोई संदेह नहीं है, परन्तु जब वह पाते हैं कि आदिशक्ति के लोग खलल ड्रालने का प्रयत्न कर रहे हैं तब वह विनाशक दशा में चले जाते हैं और ऐसे लोगों को नष्ट कर देते हैं, हो सकता है वे पूरी सृष्टि नष्ट कर दें, एक तरफ तो नि:सन्देह वह | कार्यकलाप में दुनिया के कुछ क्रोधमय हैं परन्तु दूसरी तरफ वह करूणा और आनन्द के सागर हैं। इसलिए जब वह हमारे अन्दर प्रतिबिम्बित होते हैं तब हम आत्मसाक्षात्कार पाते हैं। हम अपने आत्मा का प्रकाश पाते हैं और आनन्द के सागर में डूब जाते हैं। इसके अतिरिक्त वह ज्ञान के सागर भी हैं। अत: जिनको आत्मसाक्षात्कार मिलता है उन्हें दैवी ज्ञान भी प्राप्त होता है, जो कि बहुत ही सूक्ष्म है और हर अणु-परमाणु में व्याप्त है। इस ज्ञान में शक्ति है । उनकी कार्यशैली ऐसी है कि वे अपनी करूणा में दुष्ट राक्षसों, जो उनको पूर्ण रूपसे समर्पण कर देते हैं, उन तक को भी क्षमा कर देते हैं क्योंकि उनकी करूणा की कोई सीमा नहीं है। कभी- कभी वे लोग, जो उनसे (सदाशिव से) आशीर्वादित होते हैं, आदिशक्ति के भक्तों को कष्ट देने की कोशिश करते हैं। परन्तु यह सब एक नाटक, एक घटना की उत्पत्ति के लिए किया जाता है। अगर कोई नाटक न हो तो लोग (घटना तथ्यों को) नहीं समझ पाएंगे। इसलिए रामायण, महाभारत इसा मसीह का क्रुसीकरण होना जरुरी था । मोहम्मद साहब का उत्पीड़ण होना जरुरी था । इन सभी लीलाओं का होना जरुरी था क्योंकि बिना इस तरह की घटनाओं के लोग उन्हें नहीं याद रखेंगे । इसलिए मानव के आध्यात्मिक जीवन में शिव के आशीर्वाद और आदिशक्ति की शक्ति के बीच बहत से नाटकीय संघर्ष घटित हुए हैं । महाशिवरात्रि पूजा प्रवचन (अनुवादित), सिडनी, ३ मार्च १९९६ जैसे समय बीतता गया, आज मानव के आध्यात्मिक इतिहास में एक महान अविष्कार हआ है जिसमें हजारों लोग समूह में आत्मसाक्षात्कार पा सकते हैं। हमें जानना चाहिए कि यह आत्मसाक्षात्कार क्या है? हमें यह मिला है इसका क्या अर्थ है? इसका उत्कर्ष क्या है? सबसे पहले हमें मन के बारे में बताना है, जिस पर हम निर्भर हैं, मिथ्या है । मन जैसा कुछ भी नहीं है; मस्तिष्क वास्तविकता है परन्तु मन नहीं। मन को बाहरी दुनिया से प्रतिक्रिया करके हमने बनाया है, या तो हम अपने अहंकार या प्रनुबंधन से प्रतिक्रिया करते हैं। इस तरह सत्य के समुद्र पर मन बुलबुले जैसा है परन्तु वह अपने आप में सत्य नहीं है। इस मन से हम जो कुछ निर्णय लेते हैं हम जानते हैं कि बहुत सीमित, भ्रमात्मक और कभी १३ कभी तो बहत आघातकारी होता है। मन हमेशा रेखीय दिशा में चलता है क्योंकि इसमें कोई सत्यता नहीं होती, यह पलटता है, बुरे प्रभाव के साथ वापस लौटता है। इसलिए सभी उद्यम , योजनायें जो हमने बनाई हैं सभी हम पर प्रतिकारित हुई है । जो कुछ भी वे खोजते हैं, वे एक विनाशक शक्ति के रूप में हम तक वापस आते हैं या एक बहुत बड़े सदमें के रूप में । इसलिए हमें निर्णय लेना होगा, कि हमें क्या करना है, दिमाग (मन) के ज़ाल से कैसे बाहर निकला जाए? कुण्डलिनी ही इसका हल है । जब कुण्डलिनी जागृत की जाती है, तब अपने जागरण से आपको मन से दूर कर देती है। पहली चीज़ है कि आप अपने मन से बाहर हो जाते हैं। मन से आप बहुत से कार्य करते हैं, परन्तु इससे संतोष नहीं होगा, इससे समाधान नहीं होगा, यह सहायक नहीं होगा और जब हम मन पर बहुत अधिक आश्रित हो जाते हैं तो हममें बहुत सी शारीरिक, मानसिक और भावात्मक समस्यायें आ जाती हैं। अब, सबसे आधुनिक है तनाव । लोग कहते है कि तनाव का कोई इलाज़ नहीं है, परन्तु सहजयोग में मन से ऊपर होकर इसका इलाज है। विकास के लिए यह एक बाधा जैसा है। अत: जब आपका आत्मसाक्षात्कार होता है तो आपको जानना चाहिए कि आपकी कुण्डलिनी आपके चित्त को मन से अलग कर देती है। हम बाहरी दुनिया से प्रतिकार इसलिए करते हैं क्योंकि हम मनुष्यों का मस्तिष्क प्रिज्म की शक्ल की तरह है और जब दैवी शक्ति इससे गुजरती है, मैंने अपनी पुस्तक में बताया है, तो अपवर्तित (refract) हो कर बँट जाती है, जिससे हमारा चित्त बाहरी दुनिया की तरफ जाता है और हम प्रतिक्रिया करते हैं। अगर हम बहुत प्रतिक्रिया करते हैं तो यह बुलबुला एक भयंकर दिमाग (मन) को जन्म देता है जो कुछ भी कर सकता है । यह हर चीज़ को न्यायोचित साबित करता है और आपके अहंकार को बढ़ाता है। अहंकार और प्रतिअहंकार, जो मन की उत्पत्ति करते हैं ढ़ीले पड़ने लगते हैं और यह मन हर तरह की धारणा, विचारों के संग्रह की पूर्ति के लिए, जिसका कोई आधार नहीं है और कोई सत्यता नहीं है, पूर्णता करता रहता है। यह वैसे ही है, जैसे हम बनाते हैं और अन्तत: हम उसके दास हो जाते हैं, हमने घड़ी बनाई और हम घड़ी के गुलाम बन गये। इस तरह से यह (मन) मनुष्य पर नियंत्रण करता है। जब बहुत शक्तिशाली मन का कोई व्यक्ति विध्वंसक निर्णय लेता है, जैसे हिटलर ने किसी विचार से लिया, तो वह विनाश करता जाता है, जिसका मानव सभ्यता और आध्यात्मिकता पर दूरगामी प्रभाव पड़ता । है अब पहला कदम हैं कि आप जागरूक अवस्था में निर्विचार हों, जहाँ आप अपने मन को पार कर जाते हैं, आप मन से ऊपर हो जाते हैं। मन आपको प्रभावित नहीं करता । यह पहली अवस्था है जिसे हम निर्विचार चेतना कहते हैं। दूसरी वह अवस्था है जब आप परमचैतन्य की कार्यपद्धति को देखने लगते हैं-सर्वव्यापी शक्ति की और आप जागरूक हो जाते हैं कि श्री माताजी जो कहती हैं उसमें बहुत ही सत्यता है कि एक परमशक्ति है, जो बहुत सारी चीज़ों को कार्यान्वित करती है। आश्चर्यजनक ढंग से आपके लिए बहुत कुछ करती हैं-यह आशीर्वादित करती है, यह दिशादर्शन करती है, यह बहुत तरीकों से सहायता करती है। यह आपको अच्छा स्वास्थ्य, अच्छी संपत्ति, बहत अच्छे लोगों का समाज, सामूहिकता में देती है । यह सब आप स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं । यह निर्विचार चेतना की घटना की अवस्था पाना बहुत आसान और सरल है परन्तु उस स्थिति को बनाये रखना कठिन है । आप अभी भी प्रतिक्रिया करते हैं, धारणायें बनाते हैं, कुछ भी देखते है, उसकी प्रतिक्रिया करते हैं। अब निर्विचार चेतना की अवस्था पाने के लिए, पहले आपको १४ अपने चित्त के लगाव को बदलना होगा। उदाहरणार्थ, एक बार हम पहाड़ी पर स्थित पालीताना मन्दिर को देखने के लिए चढ़ रहे थें । मैं , मेरी बेटी और दामाद थे । हम लोग थक गये थे क्योंकि हमनें बहुत सी सीढ़ियाँ चढ़ीं और जब हम ऊपर गये तो एक सुन्दर विश्रामगृह तराशे हुए संगमरमर का बना था । हम लोग वहाँ आराम के लिए लेट गये। वे लोग बहुत थक गये थे और बोले कि यह किस प्रकार का मंन्दिर यहाँ है? वे लोग शिकायत कर रहे थे और मैंने देखा कि बहुत से सुन्दर हाथियों को पत्थर तराश कर बनाया गया था । मैंने अपने दामाद से कहा कि देखो, इन हाथियों की पूँछे अलग-अलग ढूंग से बनाई गई हैं । उन्होंने कहा,"मम्मी, हम मर रहे हैं, हम हाथियों की पूँछों की तरफ कैसे देख सकते हैं।" परन्तु मेरा कहना सिर्फ उनके चित्त को थकावट से बदलने के लिए था । मैंने उनसे कहा कि 'उन हाथियों को देखों जिनकी पूँछे अलग-अलग ढंग की बनीं हैं ।' इसलिए ऐसा है कि जब बाहर की ओर अपना चित्त बहुत देर तक रख रहे हैं तो पहले उसे (चित्त) बदलते रहना चाहिए । उदाहरण के लिए, यहाँ कुछ सुन्दर चीजें बनीं हैं। आपका चित्त कहीं और है । इनकी सुन्दरता को निर्विचारिता में देखें क्योंकि कवे आपकी नहीं है, किसी दूसरे की है; खराब होने का सिरदर्द आपका नहीं है। यह बहुत अच्छा है, अन्यथा अगर यह आपकी होते तो सोचते, हे प्रभु! मैंने यहाँ इन्हें बिछा दिया है, इनका क्या होगा। इनका बीमा कराना चाहिए या कुछ करना होगा आदि-आदि। यह साधारण मानव प्रतिक्रिया है। परन्तु अगर वे आपकी नहीं है, आप इन्हें अच्छी तरह देख सकते हैं। आप सिर्फ इन्हें देखें और (कुछ भी न सोचे) आपको आश्चर्य होगा जब आप देखेंगे कि कलाकार ने किस तरह से सुन्दरता इसमें भर दी है। आप उस कलाकार को देखेंगे जिसने अपना आनन्द तथा उल्लास उसमें ड्राल दिया है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आप देखेंगे कि आप में एक आनन्द भर जाता है, एक ठंड़ी विश्रान्ति महसूस होती है और आपकी कुण्डलिनी उठेगी तथा आप अपनी निर्विचार चेतना में स्थिर हो जाएंगे। अत: जो कुछ भी आप देखें, सुन्दर चीज़ों को देखें । उदाहरण के लिए आज के चुनाव को लें सिर्फ उस आदमी को देखें जो जीत गया है । उसे सिर्फ देखने मात्र से उसे अच्छे विचार, आशीर्वाद मिलेंगे । आपको भी सत्यता से अच्छे विचार मिलेंगे जो वहाँ मौजूद हैं। 'किस तरह से इस आदमी को सफल व्यक्ति बनाना है या इस देश को एक सफल स्वतंत्र राष्ट्र बनाना है।' यह सभी चीज़ें तभी घटित होती हैं, जब आपका चित्त आलोचना करने एक साक्षी स्वरूप बनिए । | या प्रतिक्रिया करने से हटाया जाता है। आप केवल देखें । एक साक्षी स्वरूप बनिए । अभी तक ऐसा कार्यान्वित नहीं हो रहा है | मैंने देखा है कि जब हम आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं, तो हम नहीं महसूस करते हैं कि हमें साक्षीस्वरूप होना चाहिए । जब आप अपनी आत्मा से देखते हैं तब दूसरे की बुराईयाँ नहीं देखते बल्कि अच्छाईयाँ देखते हैं। व्यक्ति में अच्छाईयाँ ही आपको नज़र आती हैं। जब आप इस तरह देखते हैं आपका साक्षीस्वरूप बढ़ने लगता है और दूसरे व्यक्ति से आप आनंदित होते हैं। अगर आपमें सामर्थ्य है तो एक छोटे टुकड़े में भी आपको आनन्द आने लगेगा। जापान में 'ज़ेन सिद्धांत' इसी आधार पर शुरू हुआ था और विधिध्मा, इसे शुरू करने वाले ने काई (मॉस) का बगीचा बनाया, अनेक प्रकार के । उसमें छोटे-छोटे फूल भी थे, मुश्किल से ५ फीट का बगीचा जो प्रश्नचिन्ह की शक्ल का था । व्यक्ति को लिफ्ट से जाना होता था और पहाड़ी के ऊपर प्लेटफार्म पर पहुँचते थे, जहाँ पर अनेक तरह की काइयाँ, अनेक ढ़ंग से व्यवस्थित थी, एक सुन्दर बगीचे में । जब आप उसे देखना शुरू करते हैं तो आपके विचार रूक जाते हैं क्योंकि जब आप इस सुन्दर रचना पर अपना चित्त ड़रालते हैं, इसकी उत्पत्ति देखते हैं तो आपके विचार रूक जाते हैं । अत: इसका अभ्यास करें कि कैसे आपके विचार रुकते हैं, कैसे आप साक्षी स्वरूप बनते हैं। जब आप इस आदत को विकसित करेंगे तो आप स्वयं को निर्विचार समाधि में सुंदरता से स्थित कर लेंगे । तब आप देखेंना शुरू करेंगे की कैसे सहजयोग ने आपकी मदद की। कैसे यह मंगलकारी रहा। आजकल परमचैतन्य बहुत ही सक्रिय हो गया है क्योंकि कृतयुग आ गया है। आाप देख सकते कि मेरे चारों तरफ चैतन्य लहरियों से किस तरह क्रीड़ा कर रहा है। आपने मेरे से चित्र देखे होंगे बहुत १५ थु नि २ र ८ / ी जिसमें वाइब्रेशन दिखते हैं, आपने फोटोग्राफ देखे होंगे जिसमें मेरे सामने बहुत से सहजयोगी बैठे हैं और उनके सिर पर अरबी भाषा में मेरा नाम लिखा है । आप अनेक ढंग से देख सकते हैं और पा सकते हैं कि इसमें दैवी- लीला है। फिर भी मन बहत सी शंकायें उत्पन्न करेगा परन्तु उस पर ध्यान न दें, सिर्फ देखें । सहजयोग का प्रभाव आप अपने ऊपर देखें, अपने शरीर पर देखें, परन्तु सोचे नहीं, सिर्फ देखें। आप खुद आश्चर्य करेंगे कि आप किस तरह बदल गये हैं। वास्तव में, जब मैं आस्ट्रेलिया आती हूँ कभी-कभी मैं आप लोगों को पहचान नहीं पाती- आप काफी कम उम्र के लगते हैं, ज्यादा प्रफुल्लित लगते हैं, बेहतर लगते हैं। जिसमें मैं पहचान नहीं पाती कि ये कौन लोग हैं। यह साक्षीस्वरूप अवस्था ही है जो आपको दूसरे क्षेत्र में ले जाती है जिसे हम निर्विकल्प चेतना कहते हैं । उस अवस्था में आपमें इतनी शक्ति आ जाती है कि आप दूसरों को आत्मसाक्षात्कार दे सकते हैं, आप सहजयोग का पूर्ण ज्ञान दे सकते हैं, आप दूसरों को प्रवचन दे सकते हैं और चैतन्य लहरियाँ भी उत्सर्जित करते ( बहाते) हैं (रूकावट पर जब मैं देख रही हूैं, तब मैं गर्मी सोख रही हँ, यह मेरी समस्या है) अत: आपकी आध्यात्मिक स्थिति इतनी आनन्ददायक हो जाती है कि आप इतने शक्तिशाली, इतने करुणामय, प्रेममय तथा संतुलित हो जाते हैं; पूर्ण रूप से विनाशक विचारों से स्वच्छ, उदासी से स्वच्छ हो जाते हैं और तब आप महान सहजयोगी बन जाते हैं जो बहुत कार्य कर सकता है। जैसे मैंने अभी हाल में सुना कि जर्मन और आस्ट्रियन (सहजयोग प्रचार के लिए) इज़रायल जाने लगे हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि उनके पूर्वजों ने यहदी लोगों को मारा था और इज़रायल में एक बड़ा केन्द्र स्थापित हो गया है। जरा सोचिए किस तरह से उस अवस्था में पहुँचने पर इन लोगों ने उस देश में अकेले इतना कार्य किया, उसी तरह टर्की में, उसी तरह दक्षिणी अफ्रिका के दूरदराज़, कमजोर स्थानों में। क्योंकि अन्दर से अब वे अपनी निर्विचारिता में, अपनी निर्विकल्प चेतना में इतने विश्वस्त हो गये हैं । अब जब आप ध्यानात्मक चित्त से विकसित होते हैं तब आपका चित्त प्रबोधित ( प्रकाशित) हो जाता है। ऐसे में सिर्फ आनन्द लेने के बजाय चित्त को प्रेरित करना चाहिए तथा कोई समस्या हो तो उस पर चित्त लगाना चाहिए। मान लीजिए, राष्ट्रीय स्तर पर कोई समस्या है, आप सभी उस पर अपना चित्त लगा सकते हैं और यह कार्यान्वित होगा क्योंकि लोग परम चैतन्य की नाड़ियाँ (वाहक) हैं जो आपके लिए नई दुनिया की रचना कर रहा है-नये तरह की मानव रचना। और यह क्रान्ति बहुत तेजी से कार्यान्वित हो सकती है अगर आप लोग निर्णय कर लें कि हमारे अन्दर जो ( शक्ति) है उसे प्रेरित करें , दिशा दें और इस चित्त को कुछ अच्छे कार्य में लगायें । इसका दुरूपयोग नहीं करना चाहिए, जो कुछ संपत्ति हमारे पास है उसका दुरूपयोग नहीं करना चाहिए । १६ अब आज का मुख्य प्रश्न है जो मैं आपको बताने जा रही हूँ कि ईश्वर साक्षात्कार क्या है ? प्रथम तो यह आत्मसाक्षात्कार है। बहुत से महत्वाकांक्षी व्यक्ति हैं जो ईश्वर साक्षात्कारी होना चाहते हैं। प्रथम चीज़ जो जानने की है कि, मानव ईश्वर नहीं बन सकते । यह इसे बनने का नहीं है । एक तरह से आप अभी आत्मा भी नहीं बने हैं क्योंकि आत्मा आप से उत्सर्जित हो रही है, आपका प्रयोग कर रही है, आपकी देखभाल कर रही है। अगर आत्मा हो जाते हो तो शरीर का कुछ भी बचेगा नहीं, कुछ भी नहीं बचेगा। अत: इस शरीर से अखंडित हो कर भी आत्मा इस शरीर से कार्य कर रही है, सभी प्रकार की बुद्धि ( प्रबोधन) दे रही है परन्तु कोई भी सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं बन सकता है । यह व्यक्ती को अच्छी तरह जान लेना चाहिए। परन्तु ईश्वर साक्षात्कार क्या है? यह ईश्वर के बारे में जानना कि उसकी शक्तियाँ कैसे कार्य कर रही है, किस तरह से व्यक्ति ईश्वर का अभिन्न अंग बन कर उनकी शक्तियों पर नियंत्रण करता है। उदाहरण के लिए, मेरी अंगुली मेरे मस्तिष्क के बारे में कुछ नहीं जानती, परन्तु यह मेरे मस्तिष्क के अनुसार कार्य करती है। अंगुली मस्तिष्क नहीं बन सकती परन्तु इसे पूर्णरूपेण मस्तिष्क के अनुसार चलना होता है क्योंकि यह मस्तिष्क से जुड़ी है, जैसे यह एक ही है । यहाँ पर, जब आपको ईश्वर साक्षात्कार हो जाता है तो आप मस्तिष्क के बारे में जानते हैं, आप ईश्वर के बारे में जानते हैं, आप ईश्वर की शक्तियों के बारे में जानते हैं, आप उनके बारे में सब कुछ जानते हैं । जहाँ तक मेरा सवाल है, आपके लिए यह मुश्किल काम है क्योंकि मैं महामाया हूँ मेरे बारे में हर चीज़ को जानना आपके लिए बहुत मुश्किल है। मैं बहुत ही मायावी व्यक्ति हूँ जो आप जानते हैं, और जो भी मैं करती हूँ या प्राप्त करती हैँ वह आप लोगों के लिए जानना और समझना है कि आखिरकार सहजयोग कुछ यह आदिशक्ति है जो यह सब कुछ कर सकतीं है। आप भी सब कुछ कर सकते हैं परन्तु आप लोग 'मेरे जैसे' नहीं बन सकते परन्तु आपको यह जानना है - प्यार से, भक्ति से और प्रार्थनाओं से। ईश्वर की शक्ति को जानना ही ईश्वर साक्षात्कार प्राप्त होने का रास्ता है। तब फिर आप प्रकृति पर नियंत्रण कर सकते हैं, सभी चीज़ पर नियंत्रण कर सकते हैं, अगर आप में ईश्वर के बारे में इस तरह का ज्ञान है। इसके लिए पूर्ण विनम्रता चाहिए कि आप सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं बन सकते हैं, आप देवता नहीं बन सकते हैं, परन्तु निश्चय ही आप ईश्वर साक्षात्कारी बन सकते हैं, मतलब कि ईश्वर आपके द्वारा कार्य करता है, आपको अपनी शक्ति के लिए प्रयोग में लाता है, अपनी नाड़ी के रूप में आपका उपयोग करता है तथा आप जानते हैं कि वह आपके साथ क्या कर रहा है, आप से क्या कह रहा है, उनका दृष्टिकोण क्या है और कौनसी सूचना है? (क्योंकि) सम्बन्ध ही ऐसा है । में बहुत से लोगों को फायदा हुआ है। मैं जानती हूँ कि सहजयोग में बहुत से लोगों को फायदा हुआ है, परन्तु उन्हें पता नहीं है कि किस तरह उन्हें फायदा हुआ है? क्या और कैसे कार्यान्वित हुआ है? उनके कौन से सम्बन्ध से उन्हें सहायता मिली है? एक बार जब आप वह करते हैं आप स्पष्ट रूप से जान लेते हैं कि किस तरह से चीज़ें घटित हो रही हैं, किन शक्तियों के द्वारा आपने इसे पाया है तब यह ईश्वर साक्षात्कार है। इस तरह के लोग बहुत ही शक्तिशाली हो जाते हैं, मतलब यह कि वे बहुत सी चीज़ों को नियंत्रित कर सकते हैं । इस तरह के बहुत से संत हैं परन्तु वे उस पराकाष्ठा से गिर गये क्योंकि उन्होंने अहंकार विकसित कर लिया है । उनमें वह विनम्रता नहीं थी कि उनमें वह श्रद्धा, भक्ति व समर्पण होना चाहिए। अत: गिर गये। आप उन्हें देखें । मैंने उनमें कुछ को देखा है कि उनमें अपनी प्रतिभा का बहुत घमंड़ नहीं देना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि उन्होंने बहुत कठिनाईयों से प्राप्त किया है, इसलिए इसे किसी को क्यों दें। इस तरह के लोग और अधिक ऊँचाइयों तक नहीं जा सकते । परन्तु आप लोग, जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया है, जो विनम्र है, जानते हैं कि विनम्रता के द्वारा ही आप अपना समर्पण प्राप्त कर सकते हैं। इस्लाम के मायने समर्पण, मोहम्मद साहब ने बताया था इस्लाम का अर्थ समर्पण होता है। अगर आप समर्पण नहीं कर सकते तो आप ईश्वर को कभी नहीं जान सकते । उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक आप अपने को नहीं जानते, आप ईश्वर को नहीं जान पायेंगे। अत: एक सहजी के है और किसी अन्य को कुछ १७ रूप में आपको छोटी से छोटी और सभी बड़ी चीजज़ों की ओर आप महान दिव्य दृष्टि को घटित कर सकते हैं क्योंकि आप ईश्वर के साम्राज्य में हैं क्योंकि यह ईश्वर की दया, आशीर्वाद और उनका आपके प्रति प्रेम से यह सम्भव हो पाया है। मैं कह सकती हूँ कि आप प्रवेश पा चुके हैं या आप वह अवस्था पा चुके हैं फिर भी आप वहाँ नहीं हैं। उदाहरणार्थ मैं किसी से कह सकती हूँ कि आप आस्ट्रेलिया में हैं। वह आस्ट्रेलिया में न भी हो फिर भी मैं कह सकती हूँ कि अब आप आस्ट्रेलिया में हो और वह विश्वास करने लग जाय कि वह आस्ट्रेलिया में है। परन्तु यह तरीका नहीं है । आपको आस्ट्रेलिया में होना है और उसके बारे में आपको जानना है%3B आपको जानना है कि वहाँ कैसा मौसम है, वह कैसा है? मुझे लगता है कि यहाँ (आस्ट्रेलिया) मे माता-पिता को अपने बच्चों से अच्छा संपर्क रखना होगा। माता-पिता की बच्चों से ज्यादा घनिष्टता नहीं है । उनकी स्कूल में अच्छी देखभाल हो रही है और वे बहुत कुछ करना चाहते हैं। लेकिन जब बच्चे यहाँ वापस आयें तो माता-पिता को देखना चाहिए कि उनमें (बच्चों में) उपयुक्त अनुशासन, संवेदना विकसित हो रही है न कि माता-पिता बहुत आसक्त हो जाएँ जिससे बच्चे खराब हो जाएं। अगर आप बहुत आसक्त हो जाते हैं तब वे खराब हो जाते हैं। शिव का एक गुण है पूर्ण अनासक्ति, यही आपको विकसित करना है। अनासक्ति का मतलब यह नहीं होता कि आप किसी चीज़ की उपेक्षा करें । मैंने कई बार आप लोगों को बताया है कि पेड़ का जीवन रस उसके हर भाग में जाता है फिर उड़ जाता है या तो पृथ्वी में वापस लौट जाता है। उसी तरह आपकी अनासक्ति होनी चाहिए। अगर किसी बच्चे से आप आसक्त है कि वह आपका बच्चा है या वह आस्ट्रेलियन है या वह किसी खास परिवार या समुदाय का है, तो अभी भी आप सीमित हैं। इस तरह की सभी सीमाओं को आपको छोड़ना होगा अगर आप इनसे ऊपर उठना चाहते हैं। इस तरह की सीमाएंँ आप पर बहुत बोझ बनती हैं, जिसकेपरिणाम स्वरूप में कुछ भी कोशिश करूँया आप कुछ भी करें, आप निर्विचारिता में स्थिर नहीं रह सकते हैं। वही सबसे सुन्दर अवस्था है जिसमें आप सबको होना चाहिए । निर्विचारिता में न तो आप प्रभुत्व दिखा रहेहैं न तो समझौता कर रहे हैं, आप अपने पैरों पर खड़े होते हैं और आप निश्चित रूप से जानते हैं कि आप किसी विचार या किसी के प्रभुत्व या अपने किसी प्रभुत्व के बहकावे में नहीं है। इस प्रकार आप पूर्ण रूप से स्वतंत्र प्राणी हो जाते हैं, पूर्ण रूप से स्वतंत्र पक्षी और फिर आपका काम हैं अपनी उड़ान लेना-पहली उड़ान निर्विचार समाधि तक, दूसरी निर्विकल्प समाधि तक तथा तीसरी ईश्वर साक्षात्कार तक । ॐ मैंने देखा है कि कुछ लोग जो मेरे बहुत करीब होते हैं वे भी नहीं समझ पाते हैं। वे इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे वे अब देवता हो गये हैं, इस तरह से अहंकारी हो जाते हैं कि हमें आश्चर्य होता है, फिर उन्हें सहजयोग छोड़ना पड़ता है। अतः आप देखें कि मैं अगर आपकी बहुत प्रशंसा भी करूँ तो आपको घमंड़ नहीं होना चाहिए। यह परीक्षा की घड़ी है या अगर मैं कहूँ कि यह ठीक नहीं है आप सुधारिये तो आपको बुरा नहीं लगना चाहिए क्योंकि मुझे ऐसा करना है। यह मेरा काम है और आपका काम सुनना है क्योंकि मुझे आपसे कुछ भी नहीं पाना है । मैं आपसे कुछ भी नहीं माँगती हूँ। मैं चाहती हूँ कि आप सब मेरी सभी शक्तियाँ पा जाएं। मैं मानती हूँ कि आप वह नहीं बन सकते जो मैं हूँ लेकिन कृपया मेरी सभी शक्तियाँ पाने की कोशिश कीजिए जो कि बहुत कठिन नहीं है । यही ईश्वर साक्षात्कार है, यही शिव और सदाशिव को जानना है । शिव के द्वारा आप सदाशिव को जान पाएंगे। आप प्रतिबिम्ब को जानिए, उससे जान पाइयेगा कि मूल क्या है? प्रतिबिम्ब से आप सीखते हैं अत: आप उस अवस्था में पहुँचते हैं जहाँ आप सोचते हैं कि अब आप ईश्वर के साम्राज्य में निश्चित ही स्थिर हो गये हैं और आप ईश्वर को देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं, आप ईश्वर को समझ सकते हैं और आप ईश्वर से प्यार कर सकते हैं । ईश्वर आपको आशीरवार्दित करें। १८ माता - पिता का चच्चों के साथ े सम्बन्ध सहज मन्दिर, दिल्ली १५ दिसम्बर १९८३ नि के ८ र एु ৯ भू ' बच्चों के साथ हमारे दो सम्बन्ध बन ही जाते हैं, जिसमें एक तो भावना होती है, और एक में कर्तव्य होता है। स. हजयोग क्या है और उसमें मनुष्य क्या-क्या पाता है, आप जान सकते हैं। लेकिन आज में आपको एक छोटी-सी बात बताने वाली हूँ कि माता-पिता का सम्बन्ध बच्चों के साथ कैसा होना चाहिए। सबसे पहले बच्चों के साथ हमारे दो सम्बन्ध बन ही जाते हैं, जिसमें एक तो भावना होती है, और एक में कर्तव्य होता है। भावना और कर्तव्य दो अलग-अलग चीज़ बनी रहती हैं। जैसे कि कोई माँ है, बच्चा अगर कोई गलत काम करता है, गलत बातें सीखता है, तो भी अपनी भावना के कारण कहती है, "ठीक है, चलने दो| आजकल बच्चे ऐसे ही हैं, बच्चों से क्या कहना । जैसा भी है ठीक है।" दूसरी माँ होती है कि वो सोचती है कि वो बच्चों को कर्तव्य परायण बनाए। कर्तव्य परायण बनाने के लिए वो फिर बच्चों से कहती है कि "सवेरे जल्दी उठना चाहिए आपको। पढ़ने बैठना चाहिए। फिर आप जल्दी से स्कूल जाइए। ये समय से करना चाहिए। वहाँ बैठना चाहिए। यहाँ उठना चाहिए, ऐसे कपड़े पहनना चाहिए।" इन सब चीजों के पीछे में लगी रहती है। अब इसे कहना चाहिए कि ये सम्यक नहीं है, integrated (सम्यक) बात नहीं है। इसमें integration (समग्रता) नहीं है और आज का सहजयोग जो है वह integration (समग्रता) है । दोनों चीज़ों का integration (विलय, एकीकरण, चाहिए न कि combination (एकत्रीकरण) होना चाहिए । समग्रता और एकत्रीकरण में ये फर्क हो जाता है कि हमारी जो भावना है वो कर्तव्य होनी चाहिए और कर्तव्य हमारी भावना होनी चाहिए । समग्रीकरण) होना जैसे कि हमें अपने बच्चे के प्रति प्रेम है। तो हम कहेंगे कि प्रेम है, इसलिए हमारा कर्तव्य है-हमारा बच्चा ठीक रास्ते पर चले और बच्चा ठीक रास्ते पर इसलिए चले क्योंकि हमें उससे प्रेम है। अगर हम अपने बच्चे को ये नहीं बताते कि वो ठीक रास्ते पर चले, तो है हम भावना-प्रधान हैं। ये तो बहुत आसान है कि हम इस चीज़ को सोचें कि 'हम बच्चों से क्या कहें? जाने दीजिए। इसका मतलब बच्चे से कहने में बच्चे दु:खी हो जाते हैं, तकलीफ होती है उनको। उनको क्यों दुःखी करें ?' और एक होता है ये सोचा जाए कि 'नहीं, कितना भी दु:ख हो तो भी बच्चों को जो है एकदम धो करके, माँज करके, बिलकुल साफ कर दें।' जब समग्रीकरण (integration) हो जाता है तब मनुष्य इस तरह से अपना ही बर्ताव कर लेता है कि जिसका सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। २० जैसे पिताजी तो हैं आलसी नम्बर एक, समझ लीजिए और या तो शराब पीते हैं, सिगरेट पीते हैं। या माँ बहुत गुस्सैली है, बच्चों को मारती, पीटती, झिड़कती रहती है। तो उसका असर बच्चों पर अपने आप पड़ जाता है। ऊपर से आप उन्हें कितने भी सदुपदेश दें, कितनी भी बाते बताएं, वो ये देखते हैं कि ये लोग कैसे हैं। बताने से कुछ नहीं होने वाला। जो फर्क होता है वो देखने से होता है कि हमारे माँ-बाप का बर्ताव कैसा है । उनका दूसरों के साथ बर्ताव कैसा है और उनका हमारे साथ बर्ताव कैसा है और उनका आपस में बत्ताव कैसा है । बच्चे हमेशा ये चीज़ देखते रहते है। एक छोटा सा किस्सा है कि एक औरत बहुत दुष्ट स्वभाव की थी और ससुर बुढ़े हो गए थे। तो उनको वो दूध वगैरेह देती थी, तो एक बड़ा गन्दा सा बर्तन था मिट्टी का, उसमें दिया करती थी और वो बेचारे उसी में दूध पीते थे। और वो बच्चा जो था उनका, वो ले जा करके दूध अपने दादा को देता था। एक दिन वो बर्तन टूट गया। तो बच्चा जोर-जोर से रोने लगा। तो उन्होंने कहा, "इसमें रोने की कौन सी बात है? वो तो टूट गया, सो टूट गया। इसमें रोने की कौन सी बात है?" तो बच्चे ने कहा कि, "मैं ये सोच रहा था माँ, कि जब तुम बुढी हो जाओगी, तो मैं तुम को किस चीज़ में दूध दूँगा?" तब उसका दिमाग जगा कि देखो बच्चे ने बात समझ ली, और फिर कहा कि, "अच्छा, अगर दूसरा आ सकता है तो बहुत अच्छी बात है। अब मैं नहीं रोऊँगा, क्योंकि उसमें मैं तुमको दूध दूँगा।" तो बच्चें हमेशा ये देखते रहते हैं कि आपका बर्ताव कैसा है । और इसकी जो छाप बच्चे पर पड़ती है बड़ी गहरी होती है, बनिस्बत इसके कि आप सुबह- शाम बच्चे को लेक्चर देते रहें। इसलिए जो लोग सहजयोगी यहाँ पर हैं, या जिनके बच्चे यहाँ पर पढ़ते हैं, उनको समझ लेना चाहिए कि तो नहीं क्या आप में वो सम्यक ज्ञान आया है या नहीं। सम्यक ज्ञान आने पर मनुष्य कितना भी समझाए बुरा लगेगा, कितना भी प्रेम करे तो भी खराब नहीं हेगा । आप लोगों पर मेरा अनन्त प्रेम है, और बहुत बार आपको मैं समझाती भी हूँ, लेकिन न आप लोग बुरा मानते हैं, न ही आप बिगड़ गए हैं। इस की वजह ये है कि सम्यक ज्ञान से काम करना है। अगर बच्चे जानते हैं कि आप पूरी तरह से उनको प्यार करते हैं, तो एक बार की भी झिड़की बहुत होती है। लेकिन अगर आप हर समय झिड़कते रहें तो बच्चे कहेंगे कि इनकी तो आदत ही झिड़कने की है। इसलिए बच्चों को बहुत ही संभाल कर और प्यार से रखना चाहिए। वास्तव में मैं तो यही कहूँगी कि प्यार ही से रखिए और जब कभी भी बच्चे में कोई दोष देखें, कुछ देखें, दो- चार बार देखने के बाद शांति से उनको बिठा करके कहें कि ये ठीक नहीं है। आपको आश्चर्य होगा कि आपका उनके साथ अगर सद्व्यवहार रहा, तो इस घबड़ाहट में, कि कहीं इनका प्यार न खत्म हो जाए, एकदम ठीक हो जाएंगे। लेकिन आपने अगर कोई प्यार ही कभी बच्चे को जताया नहीं, हर समय 'ये ठीक से रखो, वो ठीक से रखो, इसे ये करो, वो करो' करते रहे, तो बच्चे ये सोचेंगे कि यह तो इनकी आदत है, एक बात और कह दी तो क्या कर लेंगे। अत: अपना व्यवहार सम्यक होना चाहिए। अपने देश में भी हमनें देखें हैं कि लोग अपने बच्चों के लिए झूठ बोलेंगे, चोरी करेंगे, चकारी करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। यहाँ तक कि उनका बस चले तो देश भी बेच ड़रालें, और कुछ लोग होते हैं, परदेस में खास करके, वो अपने बच्चों की इतनी भी परवाह नहीं करते हैं कि अगर बच्चे मर रहे हों तो उनके मुँह में पानी ड्राल दें। ये दोनों चीज़े सम्यक नहीं है। उनको यही रहता है कि हमारा कालीन गन्दा नहीं होना चाहिए, हमारा दरवाजा साफ रहना चाहिए और हमारी गाड़ी ठीक रहनी चाहिए और बच्चों को काम करना चाहिए। उनके पीछे में पड़े रहते हैं, और यहाँ हम बच्चों को खराब करते हैं। खासकर माँ बच्चों को बहुत खराब करती हैं। पिता भी कभी-कभी बच्चों को खराब करते हैं। तो पहले अपनी ओर देखना चाहिए कि हम बच्चों को क्यों खराब करते हैं? इस कदर उनको प्यार नहीं देना २१ चाहिए कि जिससे बच्चे खराब हो जाएं , आप की बात न सुनें, मनमानी करें, या बच्चें ये न सोचें कि, 'हाँ ये तो...हम, इनको सब समझा लेंगे। ये तो अपने हाथ की बात है।' इस कदर हम अपने अति-प्यार से उनको गलत रास्ते पर ड़ाल देते हैं। उसी प्रकार कभी कभी उनके साथ बहुत सख्ती करने से भी उनको हम इस तरह के बना देते हैं कि वो हमसे मुँह मोड़ लेते हैं। फिर हमारा वो मुँह नहीं देखना चाहते। दोनो चीज़ के बीचोंबीच सहजयोग है, सुषुम्ना नाड़ी पर। अत: सुषुम्ना नाड़ी पर चलना चाहिए। न तो अति-प्यार के बहाव में रहना चाहिए और न ही अति कर्तव्य के बहाव में, किन्तु आत्मा के बहाव में चलना चाहिए। और जब आप आत्मा के आदेश से चलेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि आपकी आत्मोन्नति तो होगी ही, साथ में आपके देखा-देखी आपके बच्चों की भी होगी । ये सहजयोग का स्कूल इसलिए नहीं बनाया गया है कि देश में स्कूल कम हैं। स्कूल तो बहुत लोग बनाएंगे, बना भी सकते हैं, पैसा भी बना सकते हैं, बच्चे पढ़ भी जाएंगे, ग्रेज्यूएट भी हो जाएंगे , और सब हो जाएंगे | सहजयोग का स्कूल बनाने का मेरा विचार सिर्फ एक ही बात से था कि हमारे देश में आज ऐसे नागरिकों की ज़रूरत है जो एक विशेष रूप के आदर्शवादी हों। और ये विशेष रूप के आदर्शवादी बच्चें कहाँ तैय्यार होंगे ? उनके लिए कोई ऐसी शाला होनी चाहिए जहाँ इसकी पूरी व्यवस्था हों....। निर्मला योग, मई-जून १९८५ ओ० ३ै जे कुण्डलिनी और ब्रह्मशक्ति २३ सितम्बर १९७९, दादर, निर्मला योग, १९८४ ल क्र आ. अजका विषय है कुण्डलिनी और विष्णुशक्ति तथा ब्रह्मशक्ति। वैसे देखा जाय तो ये बहुत ही बड़ा विषय है। थोड़ी देर में इस विषय में बहुत ही थोड़ा सा जिसे प्रारंभिक ज्ञान कहते हैं उतना ही बता सकते हैं तब भी अगर आपने ध्यानपूर्वक ये विषय तो आपकी समझ में आएगा कि भाषण देते समय भी मेरा ध्यान आपकी कुण्डलिनी पर ही रहता है। इसलिय आप हाथ मेरी तरफ रखें जैसे कुछ माँग रहे हों, इससे पूरे भाषण का अर्थ समझ सकते हैं और तभी आप पार हो जाते हैं। नहीं तो उसका कुछ मतलब नहीं है। पाँव में जूते हों तो उतारकर रखिए । गले में काले धागे हों, कमर में कुछ बाँधा हो, तो उसे भी उतारें तो अच्छा है। कल मेैंने बताया परमेश्वर की शक्ति आप के बां तरफ से इड़ा नाड़ी से बहती है। उस इच्छाशक्ति का थोड़ा सा हिस्सा कुण्डलिनी है। मतलब परमेश्वर की इच्छा ही आपकी इस त्रिकोणाकार अस्थी में रखी है । मनुष्य का पिंड तैयार होने के बाद जो बची हुई शक्ति है-वही ये शक्ति है। इसे अंग्रेजी में अवशिष्ट ऊर्जा (Residual Energy) कहते हैं। परंतु ये शुद्ध शक्ति है। वैसे ही ये शुद्ध इच्छाशक्ति भी है। ये सुना संपूर्णतया परमेश्वर की इच्छा होने के कारण अथवा इसमें अपनी इच्छा का कोई समागम न होने के कारण और उस पर आपकी इच्छा का कोई परिणाम न होने के कारण वह अत्यंत शुद्ध है। उसी शुद्धता पर यह वहाँ पर बैठी हुई है। वह त्रिकोणाकार अस्थि की शक्ति जो बाहर से दिख रही है किन्तु अन्दर से वह साढ़े तीन बल दिए हुए हैं। उसका बहुत बड़ा गणित है परन्तु मैंने कहा कि, मैं सभी बातों का केवल उल्लेख करूंगी उस पर जो किताबें लिखी गयी हैं वही आप पढ़िए। हमारे यहाँ 'दी अड़वेन्ट' एक बहुत सुन्दर किताब है। वह आप पढ़े तो आपको बहुत फायदा होगा। जैसे एक बीज़ में शक्ति है, वैसे ही ये भी एक अपार शक्ति है। अब ये जो इच्छाशक्ति है ये जब आप इस्तेमाल करने लगे तब ये आपके इड़ा नाड़ी से बहने लगी। तब इच्छा को पूरा करने से कोई दृष्य नज़र नहीं आएगा। इसलिए उस २३ इच्छा को क्रिया में ढ़ालना पड़ेगा और उसी इच्छा से क्रियाशक्ति निकली है। और वही क्रियाशक्ति आप के दायीं तरफ आयी है। वह आपके शरीर से पिंगला नाड़ी में से बहती है। यह दोनों नाड़ियाँ नीचे जहाँ मिलती हैं वहाँ श्री गणेश का स्थान है। इच्छाशक्ति भावनामय है, भावनात्मक है। मनुष्य की भावनाएं दिखाई नहीं देती है। उन भावनाओं को जब साकार रूप आ जाता है तभी उन का आविष्कार होता है। वह साकार रूप भी उसी शक्ति के कारण आता है। तभी यह दूसरी क्रियाशक्ति बाएं से दायें में आती है। इस क्रियाशक्ति को हम सहजयोग में महासरस्वती की शक्ति कहते हैं। पहली महाकाली की व दूसरी महासरस्वती की शक्ति। महासरस्वती की शक्ति आपके पिंगला नाड़ी में से बहती है। यही ब्रह्मशक्ति है। यह ब्रह्मशक्ति जब कार्यान्वित होती है अर्थात् क्रियाशक्ति जब कार्यान्वित होती है तब इसी को ब्रह्मशक्ति कहते हैं और इसके देवता हैं ब्रह्मदेव, महासरस्वती, इस ब्रह्मक्रिया को मदद करे हैं। यदि वह शक्ति उनमें से होकर बहती है, तभी ब्रह्म कार्यान्वित होता है। अब जो कुछ आपने वेदान्त वरगैरा पढ़ा है वह केवल ब्रह्मशक्ति से लिखा है। आश्चर्य की बात है जब मनुष्य संसार में आया तब उसे भी क्रिया करने की इच्छा हुई। इच्छाशक्ति तो उसमें थी परन्तु क्रिया करने की इच्छा हुई। क्रिया करने के लिए मनुष्य को पहले पंचमहाभूतों से सामना करना पड़ा। ये पंचमहाभूत हमारे यहाँ कहाँ से आए? उनकी पाँच तन्मात्राएं होती हैं। उससे पहले महत् अहंकार कुल मिलाकर २४ गुण होते हैं। इन सब शक्तियों से ही ये २४ गुण प्रगट हुए। और उन्होंने इस संसार में पंचमहाभूतों का निर्माण किया । इन पंचमहाभूतों को कैसे हाथ में पकड़ना, उन पर मास्टरी (नियन्त्रण) कैसे प्राप्त करनी और उन्हें किस तरह उपयोग में लाना है? उन्हें कैसे समझना? तब एक अंदाज मिला कि इन पंचमहाभूतों के एक-एक देवता हैं और एक-एक कोई कोई शक्ति है और वही शक्ति उन्हें नियमबद्ध करती है। प्रत्येक पंचमहाभूतों की एक-एक शक्ति है और वे उन्हें सँभालती हैं। और वही शक्ति उन में अविनाशी रहती है। तब उन्होंने अग्नि, वायु वगैरा प्रत्येक देवता की पूजा शुरू में की। पंचमहाभूतों के एक-एक देवता हैं | और उसके बाद उन्होंने यज्ञ-हवन करके इन पंचमहाभूतों को जागृत किया। इन्हें जागृत करते समय उनको पता चला कि, इनमें सात शक्तियाँ हैं। उन सातों में से एक है गायत्री व दूसरी है सावित्री। ऐसी सात शक्तियाँ हैं। तब गायत्री मंत्र वेदों में से निकला है। गायत्री मन्त्र, ये भी पिंगला नाड़ी पर बैठे हुए सभी देवताओं को और पंचमहाभूतों के सारे देवताओं को विराट के दाएं तरफ के देवताओं को जागृत करने के लिए है। एक - एक कोई -को्ड शक्ति है । एक महान शक्ति का मनुष्य ने निर्माण किया और जब उन्होंने पंचमहाभूतों को आहति देकर उनके देवताओं को आवाहन किया तब वे देवता जागृत हुए। उन देवताओं की जागृति से वे सभी शक्तियाँ जागृत हो गयीं और तब उनसे गुण जाग्रत कर के, मनुष्य ने सारी सुख-सुविधाएं निर्मित करके आज मानव उच्च स्थिति में पहुँच गया है। ये बहत वर्षों पुरानी बात है। श्री रामचन्द्रजी के जमाने में भी हवाई जहाज़ थे। हवाई जहाज़ों से लोग घूमते थे । उन्होंने ( रामचन्द्रजी ) खुद लंका से अयोध्या तक सफर किया है। और अर्जुन के समय में अपने यहाँ चक्रव्यूह था। इस तरह विशेष साधन थे। ऐसे उपकरण थे कि जिससे आप लोग बड़े-बड़े युद्ध जीत सकते थे। आयुध (लड़ाई का सामान) वर्गैरा सब कुछ अपने यहाँ था। और अब एटमबम्ब है, इस प्रकार के अस्त्र भी थे। उसी प्रकार अंतरिक्ष में जाने की सभी व्यवस्था थी। ये बात बिलकुल सच है। | उस समय हिन्दुस्तानियों की स्थिति बहुत अच्छी थी। 'भारतीय वास्तुशास्त्र' आप कहते हो, उस थे। समय आप उच्चतम स्थिति में थे। लोगों के पास अनेक प्रकार के वाहन । प्रासाद वर्गैरा बहुत ही सुन्दर | बनाये हुए थे। ये सभी पिंगला नाड़ी की कृपा से मिले हुए थे। अंग्रेजी में हम इसे 'सुप्राकॉन्शस एरिया' कहते हैं। मतलब इस प्रांत में अगर मनुष्या आया और उच्च स्थिति में पहुँचा तो भू-गर्भ में क्या है, में क्या है? इसका विवरण दे सकता है। परंतु इस पिंगला नाड़ी की प्रार्थना करते समय अनेक आकाश २४ बातों का ध्यान रखा जाता था। सर्वप्रथम आपकी वर्णव्यवस्था कौनसी थी। वह वर्णव्यवस्था विशेष पद्धति से बनी थी। २५ साल के उम्र के होन तक लड़का या लड़की एक ही युनिवर्सिटी में जाते थे और उसे ही हम गोत्र कहते हैं। इस युनिवर्सिटी के लड़के-लड़कियाँ विवाह नहीं कर सकते थे। अगर उनकी ऐसी इच्छा हुई कि यहाँ विवाह कर लें तो यह रूढ़ी के विरोध में होता है। अभी भी अपने यहाँ सगोत्र विवाह नहीं होते। पूरे पच्चीस साल ब्रह्मचर्य में रहना पड़ता था। उनके आत्मसाक्षात्कारी गुरू होते थे। वे उन लड़के-लड़कियों को हठयोग सिखाते थे । आजकल का हठयोग सिनेमा ऐक्टर, ऐक्ट्रेस बनाने वाला है। कल ही मुझे सवाल किया गया था, 'माताजी, हठयोग और कुण्डलिनी का क्या सम्बन्ध है?' अब आजकल सब गंदा होने के कारण पुराना जो पातंजली शास्त्र था उसमें जो अष्टांग योग कहा गया है उससे सारे आठों अंगों पर जोर है। इसलिए केवल आसन करने से लोगों के दिमाग में ये आने वाला नहीं था। पूर्व समय में आसन वरगैरा ये सब पच्चीस साल तक जब तक लड़का या लड़की जिनकी शादी नहीं हुई है और भाई-बहन बनकर एक साथ रहकर किसी आत्मसाक्षात्कारी पुरुष वाले आसन झूठे है।अब सभी आसनों में मैं देख रही हूँ कुण्डलिनी को विरोध करने वाली घटनाएं होती हैं। इन आसनों में से बहुत ही थोड़े आसन ऐसे हैं जो आत्मिक उन्नति के लिए पोषक है । पहले जमाने में सच्चे गुरू के पास जो लड़के होते थे वे गिने -चुने रहते थे। उन्हें बचपन से पच्चीस साल तक बहुत ही कड़ी मेहनत से योगाभ्यास सिखाना पड़ता था। इस स्थिति में साधक बच्चों की धार्मिकता बहत अच्छी तरह से बनायी जाती थी| ऐसे बच्चों में भी कुछ ही गिनेचुने बच्चों को ही गुरू आत्मज्ञान देते थे। आजकल ऐसा ज्ञान लेने दो-चार लोग गए हुए हैं। हिमालय के सच्चे गुरू लोग उनको निकाल देंगे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसके अलावा इस प्रकार हठयोग का ज्ञान समाज में फैलाने वाले जो के पास रहकर आसनों की शिक्षा लेते थे। आजकल सिखाने अ-गुरू हैं उनके पास अगर धर्म का कोई मेल ही नहीं है तो आत्मज्ञान कहाँ से आएगा? लोग कहते हैं कि ऐसे आसनों से हमें अच्छा लगता है। शारीरिक दृष्टि से आपको ठीक लगने कुछ लगेगा। पिंगला नाड़ी आपने ज्यादा उपयोग में लायी तो आपका शरीर बिलकुल ठीक होगा क्योंकि शारीरिक और मानसिक इन दोनों बातों के लिए इसमें से शक्ति बहती है । परन्तु शरीर को ठीक लगने लगा तो आपकी भावनाओं का क्या ? इस मार्ग से चलने वाले लोग अत्यंत रुखे होते हैं, क्योंकि ये सूर्यनाड़ी है। कई बार ऐसे लोग इतने रूखे होते हैं कि, ऐसे लोगों का जीवन हमेशा खराब ही होता है। उनकी अपनी बीबी से कभी नहीं पटेगी और इससे घर में हमेशा अशांति। इस के अलावा इन लोगों में एक तरह वैराग्य होता है और कभी-कभी ऐसे लोग इतने गुस्सैल होते हैं कि जैसे अपने यहाँ कुछ पुराने लोग होते थे। वे त्राहि त्राहि करके सताते थे। ये आपको मालूम भी नहीं होगा। 'विश्वामित्र ऋषि' ये कोई कल्याणकारी थे? ऋषि विश्वामित्र बहुत पहुँचे हुए तपस्वी थे कि जिसे देखते उसे भस्म करके रख देते। ये कोई कल्याण का रास्ता है? ये मार्ग हमारा नहीं है और सहजयोग में आपको ये मार्ग अपनाकर नहीं चलेगा। इस मार्ग से कहते हैं कई लोग महर्षि बने हैं! बने होंगे!! परन्तु इनका मनुष्य को क्या फायदा ? इन्होंने इतना करके क्या प्राप्त किया ? कभी-कभी मुझे लगता है इस तरह के जो आधे पहुँचे लोग केवल सन्यासीपन का पाखंड रचाकर घूमते रहते हैं। इसलिए सन्यासी का सहजयोग में कोई स्थान नहीं है। सन्यासी वृत्ति पिंगला नाड़ी की जाग्रति से होती है, परन्तु वह नाड़ी सहजयोग में आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद जाग्रत होनी चाहिए। उससे पहले की जाग्रति ठीक नहीं है। वह अधूरी, मतलब एकांगी होती है। इसलिए गलत है। मैं आपको स्पष्ट कहती हूँ सन्यासी लोग भगवी वस्त्र पहनने के लिए सन्यासी होते हैं। मतलब ये कि वयस्क होने के बाद भी उनकी नानाविध करतूतें छूटती नहीं है, और उसी में फँसे होते हैं। उसके लिए उन्हें अपना पूरा जन्म व्यतीत करना पड़ता है। २५ ब्रह्मरशक्ति मतलब पॉँच तन्मात्रा और उनमें से निकले हुए पंचमहाभूतों को जाग्रत करने की शक्ति। ८ एक बार आप सहजयोग में आते ही आपके धर्म का साँचा बन जाता है। आपको ज्यादा प्रयास भी नहीं करना पड़ता और मनुष्य में अपने आप शुद्धता, पवित्रता जाग्रत होती है। उसे औरतों के प्रति और दुसरी स्त्रियों के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहता क्योंकि वह समाधानी हो जाता है। जब वेद व श्रुति से पंचमहाभूतों को जाग्रत किया उसी के फलस्वरूप आज अपने यहाँ विज्ञान आया। विज्ञान भी कहाँ से आया । ये जो वेदमंत्र वगैरा बोलने वाले लोग थे उन्होंने पाश्चिमात्य देशों में जन्म लिया और उनका जो परमेश्वरी शोधकार्य अधूरा रहा था उसे उन्होंने पंचमहाभूतों को विज्ञान के जरिये जीतने का प्रयास किया और विज्ञान के बलपर उन्हें लगता हैं कि विज्ञान के कारण ही हम जीतेंगे और इसलिए वे अब चाँद पर, शुक्र पर कहाँ-कहाँ जा रहे हैं। परन्तु ये दायीं साईड बहुत अजीब है। मनुष्य को उसी में ज्यादा महत्ता लगने लगती है। मतलब ये कि किसी ने आपसे कहा आप आकाश में उड़ सकते हैं तो वे तुरन्त एक हजार पौंड देने के लिए तैयार ये है। एकदम मूर्खतापूर्ण बात है। अब आकाश में उड़ने कि क्या है? अजी अब पंछी बनकर क्या मिलने वाला है? पंछी से ऊँची स्थिति प्राप्त करोगे? अब पंछी बनने के लिए हमारे पास हवाई जहाज़ है, सब कुछ है। अब क्या पंछी बनने की स्थिति आपकी आयी हैं? और उड़कर भी क्या मिलने वाला है ? अमेरिका से अपने यहाँ कुछ साल पहले एक बड़े वैज्ञानिक आये थे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने उन्हें कहा उड़ने की जो बात है वह हो सकती है, लेकिन उस में भूतबाधा होती है। उड़ रहे हैं ऐसा लगता है, वह आभास होता | है। उसे लगता है सब लोग अलग हैं और मैं अलग हूँ। ऊपर से मुझे सब कुछ दिख रहा है। ये सब भूतबाधा है। इस दायी तरफ के ही बहुत से लोग होते हैं वे अत्यंत महत्त्वाकांक्षी होते हैं। ऐसे लोग जब मरते हैं तब उनकी आत्मा अतृप्त रहती है । उन्हें लगता है कुछ भी करके फिर से संसार में आ जाए। वे मरने के लिए तैयार नहीं होते। इसलिए वे किसी मनुष्य में घुसकर कुछ करते रहते हैं। उनका एक गुण है कि लोगों को ठीक करना। ब्रह्मशक्ति मतलब पाँच तन्मात्रा और उनमें से निकले हुए पंचमहाभूतों को जागृत करने की शक्ति। वह पिंगला नाड़ी पर है। मनुष्य जब कोई भी क्रिया करता है और आगे की सोचता है और अगर वह अपने शारीरिक कार्य के लिए उपयुक्त होता है, मतलब मेरा शरीर अच्छा रहना चाहिए, शरीर का आकार अच्छा रहना चाहिए, मेरी प्रकृति अच्छी रहनी चाहिए इस तरह की बातें सोचता रहता है तब ये पिंगला नाड़ी की शक्ति बहने लगती है। उसके अलावा अपनी शारीरिक स्थिति का उपयोग करने लगता है तब भी ये शक्ति बहने लगती २६ है। मतलब एक ही शक्ति ज्यादा बहने से इस मनुष्य में कभी-कभी विकृति का निर्माण हो जाता है । जब आप दायीं तरफ ज्यादा इस्तेमाल करेंगे तब बायीं बाजू बेकार हो जाती है। अब दायीं तरफ ज्यादा उपयोग में लाने से कौनसी बीमारियाँ होती है; ये हम देखेंगे : अब सर्वप्रथम ये देखिए हम जब ये शक्ति बहुत उपयोग में लाते हैं तब आपको जो मुख्य काम करना है वह हम नहीं कर सकते । स्वाधिष्ठान चक्र महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि 'ब्रह्मदेव' स्वाधिष्ठान चक्र पर बैठे हैं और वे इसे शक्ति देते हैं। तो इनका पहला कार्य ये है कि सृजन कार्य के लिए जो शक्ति चाहिए उसे देते हैं। अब देखिए अगर आप कलाकार हैं और सहजयोगी नहीं हैं तो आपको कौनसी बीमारी होने की सम्भावनाएं हैं। पहली बीमारी ये कि आप बहुत कठोर स्वभाव के हो सकते हैं। आपमें कोई प्रेम नहीं है। आपके साथ कोई मनुष्य खड़ा नहीं रह सकता। कोई कहता है वह बड़ा आर्टिस्ट होगा। फिर वह दाढ़ी बढ़ाएगा। कुछ भी दिखावा, हम कोई सन्यासी वगैरा हैं, ये सभी दिखावा इ.। इस तरह की हरकतें करने लग जाता है। आर्टिस्ट का मतलब आप इसे हजारों लोगों में पहचान लेंगे, 'क्यों जी आप आर्टिस्ट हैं?' ऐसा कहते ही उन्होंने अपनी एक कालर ऊपर उठाली। ऐसा मनुष्य बहुत क्रोधी होता है। उसका कारण दायीं तरफ ज्यादा उपयोग में लाने के कारण संतुलन नहीं आता है। उसकी भावनाएं कम हो जाती है। अगर कोई मनुष्य बहुत दौड़ता है। हिन्दुस्तान में ये सब नहीं दिखाई देता, परन्तु बाकी सभी देशों में इस प्रकार की प्रतियोगिताएं बहुत चलती हैं। वहाँ के सारे लोग भागते रहते हैं। एक दिन हमारे यहाँ ऐसा एक आदमी आया और कहने लगा, में हमेशा भागता रहता हूँ, मुझे कोई सुख नहीं है और दु:ख नहीं है, में सुख-दु:ख के परे हूँ। मैंने कहा, 'ऐसा कुछ नहीं है।' आनन्द एक चीज़ है और सुख- दुःख के उस पार जाकर रहना, पत्थर का होना, इन्सानियत नहीं है। ये मनुष्य मनुष्यता को ही भूल जाता है। मतलब अब कई लोग अत्यंत स्पष्ट बोलते हैं। किसी को कुछ दु:ख होगा, परेशानी होगी या हमारे बोलने से किसी को दर्द होगा, ये उस मनुष्य के दिमाग में ही नहीं आता है। क्योंकि कभी कभी वह बहुत विजयी भी होता है। जिसे हम विजय कहते हैं वह पाँच तत्वों के जीतने से भी आ सकता है। मतलब कोई मनुष्य बहुत बड़ा अफसर है या वह कोई बड़ा सत्ताधीश बना, तो उसे खास पिंगला नाड़ी की बीमारी होगी मतलब की अहंकार की बाधा होगी। इस प्रकार के मनुष्य के पास एक ढाल लेकर जाना पड़ता है। सीधे तरीके से आप मिलने जाओगे तो कब आपका सर टूटेगा इसका कोई पता नहीं। एक बार एक मनुष्य के पास एक आदमी मिलने आया। वहाँ पर एक और आदमी था। वे सभी पर चिल्ला रहे थे। मिलने गया हुआ आदमी बेचारा सीधा, गाँव का आदमी, उसके समझ में कोई बात नहीं आ रही थी । उन्होंने चिल्लाने वाले से पूछा 'आपको क्या चाहिए?' तो जबाब मिला , 'आप कौन होते हो पूछने वाले ?' 'मैं पी.ए. हूँ' 'अरे, पहले बताते तुम?' उन्होंने फिर से कहा, 'मैं पी. ए. हूँ ।' पी. ए. बन गये तो कौनसी बड़ी बात हो गयी? पिंगला नाड़ी पर जो बहुत कार्य करते हैं वे 'हम ये करेंगे, वो करेंगे' ऐसा बोलते रहते हैं। उनके पीछे एक अत्यंत विचित्र प्राणी जिन्दा होता है। वह है अत्यंत कठोर हृदय कि जिसकी प्रेम का विचार ही नहीं होता है: अत्यंत कठोर हदय जिसे किसी के भी सुख-दुःख का ख्याल नहीं रहता। अब अपने महाराष्ट्र में लोगों का कहना है कि महाराष्ट्रियन लोग जरा ज्यादा ही कठोर बोलते हैं। कठिन बोलने का रिवाज महाराष्ट्र में बहुत है। मीठा बोलना अपने यहाँ ज़रा कम है। उसका कारण मुझे लगता है, अपने सन्तों ने शब्दों के वार किये। तब हमें भी लगता है कि हम भी दो-चार चिकोटे काटें तो क्या हर्ज हैं? परन्तु साधु-सन्तों का अलग है। उनका परीक्षा लेना का वही तरीका था। तब भी हमें सब के साथ मीठी बोली बोलनी चाहिए। मीठी बात बोलने में आप किसी की चापलूसी नहीं कर रहे हैं। एक तो आप किसी की चापलूसी करेंगे, नहीं तो किसीको तोड़ देंगे । कुछ बीचों-बीच है कि नहीं? साधु- २७ हमारा सहजयोग मध्यमार्ग में होता है। कहने का उद्देश्य है कि में एक तरह की मिठास होनी चाहिए। बोलते समय उसमें कुछ भावना चाहिए। दूसरों की भी भावनाएऐं होती हैं। उन्हें दुखाते समय हमें सोचना चाहिए। वही कभी-कभी इतनी दुष्टता करती हैं कि आश्चर्य होता है। इतनी दुष्टता उनमें कैसे आती है? उसका कारण है वे बड़ी विचित्र होती हैं। मतलब हमेशा आज खाना क्या बनाना है? अब लड़की के ऑफिस में खाना भेजना है, मेरे पति का ये काम करना है, इस तरह सारी भविष्य की बातें सोचनी हैं। उस समय ये दांयी बाजू पकड़ी जाती है। दायीं तरफ जाने वाला मनुष्य एकदम दुःखी जीव होता है। क्योंकि ऐसे मनुष्य को कोई भी अपने नज़दीक नहीं आने देता। ये सबसे बड़ी बीमारी है। ये किसी को नज़र नहीं आती। भारत में बड़े बड़े विजयी लोग हैं। परन्तु उनके रूखेपन के कारण उनका नाम कोई सवेरे लेने के लिए तैयार नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा शाम को लेंगे और तुरन्त मुंह धो डालेंगे। ऐसी स्थिति है। अब इस तरह से चलने वाले लोगों का मतलब जो अति पर उतरते हैं, माने अति काम करते मनुष्य हैं-वो समझते हैं हम बड़ा भव्य, दिव्य काम कर रहे हैं। ऐसी धारणा बनाकर बाकी सभी से वंचित रह जाते हैं। आपका परिवार है, बच्चे हैं, ये हो गया एक मार्गीपन। विशेषत: ये हमारे देश में बहुत है, औरतों का भी, पुरुषों का भी। उन्हें लगता है पूरा समय हमें बाहर कुछ करके दिखाना चाहिए, दुनिया में कुछ तो भी विशेष करना चाहिए। सब से महत्त्वपूर्ण बात पैसे कमाने चाहिए और किस तरह से कमाने चाहिए ये दूसरी महत्त्वपूर्ण बात। इसलिए सारी औरतें व पुरुष उसी के पीछे लगे हुए हैं। इस पैसे कमाने की में कभी पति-पत्नी की पटती नहीं और किसी से भी किसी की पटती नहीं । ० 'सहजयोग धुन मैं लंदन गयी थी तो मुझे लगा सब कोई कुत्तों की तरह क्यों भौंक रहे हैं? बात करते समय लड़ाई पर उतर आएंगे । टेलीविज़न पर भी पति-पत्नी की लड़ाई दिखाएंगे , नहीं तो माँ -बेटों की, नहीं तो भाई - बहनों की लड़ाइयाँ दिखाएंगे। लड़ाइयों के सिवाय और कुछ नहीं। कोई प्यार से किसी से बातें कर रहा है ये कभी नहीं दिखाई देता। हँसने लगेंगे तो इतने गर्दे हँसेंगे कि देखने को जी नहीं करता। आखिर आपको टेलीविज़न बंद करना पड़ेगा। आपस में प्यार से रहना चाहिए। चिकचिक करना, दूसरों को नीचा दिखाना, किसी से बुरी तरह से बातें करना ये सभी मनुष्य के दोष हैं। ये बीमारियाँ फैलते ही सारे समाज का विनाश होता है। जब पिंगला नाड़ी अपने में बहुत बलशाली होती है तब मनुष्य एक तरह की से आप में ब्रह्मतत्व जागृत में होता है। उन्मत्तता आ जाती है और उस वेग में उसे ये भी समझ नहीं आता कि हम दूसरों को बुरी बातें सुना रहे हैं। व उनके साथ बेशरमों की तरह बर्ताव कर रहे हैं । दूसरों की भावनाएं दुखा रहे हैं। दुसरों को ठेस पहुँचायी है। अब इस पर क्या इलाज करना चाहिए? अगर मैंने लोगों से कहा 'आप नियोजन मत करिए,' तो उनको लगता है, माताजी पुराने ख्यालात की है। पर मैं कहती हूँ आप नियोजन मत करिए। पहले परमेश्वर का नियोजन देखिए और उस के बाद नियोजन कीजिए । परमेश्वर का प्लैनिंग पहचानना चाहिए। जब तक परमेश्वर का नियोजन हम पहचानते नहीं तब तक आपके नियोजन का कोई मतलब नहीं। हर एक काम नयोजित है। हर एक नियोजन में परमेश्वर का हाथ है क्योंकि उनका कार्य बहुत बड़ा है। उनके पास सभी प्रकार की शक्तियाँ हैं। अब ये जो ब्रह्मतत्व है ये हमारे हाथों से आता रहता है। इसका फायदा सहजयोग में कैसा होता है ये अब मैं बताने जा रही हूँ। अब आपको आश्चर्य होगा कि सहजयोग से आप में ब्रह्मत्व जागृत होता है। तब क्या होता है? तो अपने हाथों से जो चैतन्य लहरियाँ आती हैं वे हमारे साथ बोलने लगती हैं। यहाँ बैठे-बैठे आप बता सकते हैं कि आपके पिताजी की हालत कैसी है? अपनी माता की स्थिति कैसी है? देश का क्या हाल है? प्रधानमन्त्री की स्थिति कैसी है ? वे कहाँ हैं? उनकी कुण्डलिनी कहाँ हैं? वे कहाँ पर बैठी हैं? उन्हें क्या परेशानी है? उन्हें कौनसी बीमारी होने वाली है ? कौनसी बीमारी हुई है। यहाँ पर बैठे-बैठे आप २८ कह सकते हैं। जब ब्रह्मतत्व जागृत होता है तब अपने पूरे कार्यक्षेत्र में जो कुछ भी हम करते हैं उसमें एक प्रकार की तेजस्विता आती है और उस कृति को एक प्रकार की शिस्तबद्धता आ जाती है। उसका एक गुणक संख्यांक है। उसका गुणकसंख्यांक निकाला जाय तो उसके एकदम ठीक चैतन्य लहरियाँ शुरू होते ही दूसरा जो मनुष्य बैठा है उसकी आत्मा को आनन्द होने लगता है और उसे भी वह प्राप्त होता है। अब हमारे एक सहजयोगी थे, वे मेरे पास आये और कहने लगे, "माताजी, मैं क्या करूँ ?" तो मैंने कहा इंटैरिअर डैकोरेटर (घर की भीतरी सजावट करने वाला) बनिए । तो वे कहने लगे 'सर मेरा!' लकड़ी किस चीज़ से काटते हैं ये भी मुझे पता नहीं और आप मुझे इंटैरिअर डैकोरेटर होने को बता रही हैं। मैंने कहा करके तो देखिए आप, केवल चैतन्य लहरियों पर! और आज उन्होंने लाखों रूपये कमाये हैं। मतलब ये कि केवल चैतन्य लहरियाँ पर मालूम होता है और जो चैतन्य लहरियों पर मालूम होता है वह जागतिक है। जो चीज़ सारे संसार ने मानी हुई है उसे ही अच्छे वाइब्रेशन्स आते हैं। सौंदर्य दृष्टी उसी से आती है अब यहाँ बैठे-बैठे ही आप बता सकते हैं कहाँ अच्छे वाइब्रेशन्स हैं, आपके गुरू कौन हैं ? कोई पार 'जो चीज़ हर्ज नहीं वे अब इस संसार में नही है तब भी आप बता सकते हैं वे सच्चे हैं कि झूठे हैं। ज्यादा से ज्यादा आप लंदन फोन कर सकते हैं। लंदन में आप के मित्र बीमार हैं या कैसे हैं ये यहाँ बैठे-बैठे कह सकते हैं सारे संसार और उसके लिए आपका एक पैसा भी नहीं लगता। उसका ये है वहाँ वे बीमार हैं तो यहीं से आप उन्हें बन्धन दीजिए तो वे वहाँ पर ठीक हो जाएंगे। ये सब आप से हो सकता है और उसके मज़ेदार खेल भी होते रहते हैं ने मानी अहंकार ये चीज़ ऐसी है कि ये जब आप में फैल गयी तो वह आपको एकदम अन्धकार में खींच सकती है। अपने आपको साधक पहचान नहीं सकता इतने अंध:कार में मनुष्य जाने लगता है। अब अहंकार कैसे आता है ये मैं बताती हैँ। ये इड़ा नाड़ी ये यहाँ से शुरू होती है और ये पिंगला नाड़ी ये जब कार्यान्वित होती है तब उनमें से निकाला हुआ धुआँ-कहिए किसी फैक्ट्री से धुआँ निकलता है ? -या उसीका कोई उप-उत्पादन कहिए, ये दोनों संस्थाएं तैयार होती हैं। एक है अहंकार, दूसरा है प्रति अहंकार- मतलब हम जो क्रियाशक्ति उपयोग में लाते हैं उससे हमारे में अहंकार निर्माण होता है। वह ऐसे यहाँ से बायीं निकलकर उल्टी तरफ से निकलता है। और जब हम भावनात्मक बरताव करते हैं तब प्रति- अहंकार आते हैं। इसमें जो लोग अति भावनात्मक होते हैं उनमें प्रति-अहंकार होता है। समझ लीजिए एक छोटा बच्चा माँ का दूध पी रहा है और दूध पीते समय उसे बिलकुल खुश रखना है। उस समय उसकी माँ कहती है 'अब मत रोना। मैं तुझे दूसरी तरफ से पिलाती हूँ।' माँ ने उसे ऐसे घुमाया तो उसमें अहंकार आ गया। 'किसलिए इन्होंने मेरे आनन्द में विघ्न किया।' अहंकार आते ही माँ ने कहा, 'अब हुई है उसे ही अच्छे वाइब्रेशन्स आते हैं। रोना नहीं, चुप रहो' तो वह चुप हो गया। अब प्रति-अहंकार आया। जब अहंकार दबता है तब प्रति- अहंकार आता है। उसे ही संस्कारित, चित्रित होना कहते हैं। हम जितना भी पढ़ते हैं, मतलब जितने अपने में संस्कार होते हैं वे सारे प्रति-अहंकार से होते हैं और जो अहंकार से हम कार्य करते हैं वह तो आपको मालूम है। परन्तु सुख, सुसंस्कार अलग बातें हैं। संस्कार करवाने के लिए बहत से लोग कहते हैं, हम इसे मानते नहीं है, आपने कुछ अनुभव किया है? आप में मन का खुलापन नहीं है। दूसरा अहंकारी मनुष्य कहता है 'मेरा परमेश्वर पर विश्वास नहीं है । मैं परमेश्वर को ही नहीं मानता हूँ। मैं किसी को भी नहीं मानता।' मतलब उस पर कोई संस्कार नहीं है। एक में अति संस्कार हुए है और दूसरे में कोई संस्कार नहीं है। उसे अहंकार और प्रति-अहंकार कहते हैं । अब ये शक्ति जो पिंगला नाड़ी में है वह हमारे दांयी सिम्पथैटिक नाड़ी तन्त्र में आती है। जब हम वह शक्ति उपयोग में लाने लगते हैं-ज्यादा या बहुत ही कम करने लगते हैं-तब हमें कैन्सर जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। कैन्सर जैसी बीमारी कैसे २९ हश ब बा ३ र का होती है ये देखना बहुत जरूरी है। एक बाईं संस्था है, एक दाईं संस्था है। उसके बाद ये इड़ा नाड़ी का कार्य है व दूसरा पिंगला नाड़ी का और बीच में सुषुम्ना नाड़ी है। अगर हमने ये दाईं बाजू ज्यादा इस्तेमाल की तो बाईं बाजू बहुत भारी होती है और इस बाजू का चक्र है, वह टूट जाता है और हमारे उस चक्र पर के देवता एक तो सो जाते हैं या तो कभी-कभी लुप्त हो जाते हैं। उसके बाद वह बाजू (इड़ा या पिंगला नाड़ी जो ज्यादा भारी हुई वह) अपने आप चलने लगती है। उससे कैन्सर जैसी बीमारी हो सकती है। तो किसी भी बात की वजह से आपकी सिम्परथैटिक नाड़ी संस्थान) ज्यादा उत्तेजित नहीं होनी चाहिए। वैसे भी गलत गुरू करने से व काली विद्या- ब्लैक मैजिक-की वजह से कैन्सर होता है। आश्चर्य की बात है कैन्सर के पीछे किसी न किसी गुरू का ही हाथ है। कितने प्रकार के गुरू हैं। मैंने जितने रोगी ठीक किये हैं उन सभी में किसी न किसी गुरू का प्रकार या काली विद्या, मतलब ये जो कैन्सर की शक्ति है वह बाईं तरफ से शुरू होती है और बाईं तरफ डाक्टर नहीं जा सकते| वे ज्यादा से ज्यादा नाक काटेंगे, कान काटेंगे या आँख परंतु कैन्सर वे ठीक नहीं कर सकते। अब जो बीच की शक्ति है वह है- विष्णुशक्ति। इस शक्ति के बारे में इतनी थोड़ी देर में मैं नहीं कह पाऊँगी । तो इस शक्ति के बारे में मैं कल बताऊँगी। और इसी शक्ति के दम पर आप ने सहजयोग अपनाया है। अगर ये दोनों शक्तियाँ नहीं होती तो आपकी उत्क्रान्ति नहीं होती। हम अमीबा से मानव नहीं बनते और न आज इस स्थििति तक पहुँचते। परमेश्वर आपको सुखी रखे ये मेरा आशीर्वाद है। | ३० श्रीखण्ड म री उा हुी रा सामग्री :- २ ली.दही, चीनी स्वादानुसार (१८० ग्राम), १/४ छोटा चम्मच इलायची पाऊडर, १/४ छोटा चम्मच केसर, १२५ मि.ली.फेंटी हुई मलाई (इच्छानुसार), १ बड़ा चम्मच बिना नमक का हरा पिस्ता-बारीक कटा हुआ सजावट के लिए। विधि :- १) रातभर दही को मलमल के कपड़े में ड्राल कर टॉग दे। २) मिक्सर के साथ छने हुए दही को क्रीम के समान होने तक फेंटे। ३) चीनी, केसर और इलायची पाऊडर ड्रालें। चीनी के पिघलने तक फेंटे। अब फेंटी हुई मलाई आहिस्ता से मिलाएं। ४) फ्रिज में १५ मिनट के लिए रखे। ५ ) कटोरियों में ड्राल कर ऊपर पिस्ता ड़राल कर परोसे। ( श्री माताजी द्वारा लिखित ' Cooking with Love' से लिया गया है।) ३१ शतल बा नव-आगमन Code. Nos. Type Speech Title Date Place DVD/HH VCD/HH|ACD/HHACS/HH Shri Saraswati Puja : Part-I & II Sp/Pu 099* 078 14-Jan-83 Dhulia 2-Feb-83 Talk about Vishudhi Delhi PP 267* 17 Dec 85 | Saptshrungi Puja : Part I & II Sp/Pu 268* Nasik सार्वजनिक कार्यक्रम - योग म्हणजे परमेश्वराच्या साम्राज्यात जाणे Ganapatipule PP 3-Jan-86 269* 22-Dec-87 सार्वजनिक कार्यक्रम - कुण्डलिनी शास्त्र आणि चक्रे 270* Sangamner PP 6-May-90 | Sahastrar Puja : The Announcement (You have to all become Mahayogis now)| Fiuggi Sp/Pu| 271* 272* Shri Krishna Puja : Part-I & II The Technique of the Play / Collective Conditionings 1-Sep-91 Cabella Sp 26-Jun-94 | Shri Adishakti Puja : Seekers, Ego, Women are Shaktis Cabella Sp 273* 27 Sep 98 | Navaratri Puja : You all should depend on Parama Chaitanya 180 Cabella Sp 274* 14-Feb-99 | Maha Shivratri Puja : Principle of Shiva is in your heart Delhi Sp 186 033* BHAJAN / MUSIC CODE ARTIST TITLE ACD ACS - Music of Joy Group Music of Joy - I 145* 145* Music of Joy Group Music of Joy - Il 146* 146* Music of Joy Group Music of Joy - I|I 147* 147* Pt. P. Dhakade Chaitanya Ki Lahren 148* 148* Jai Janani - || 149* Anandita Basu 149* प्रकाशक निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ Happy Gudi Padwa ! ---------------------- 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-0.txt चैतुन्य लहरी भार्च - अप्रैल २००९ ० हिन्दी 60 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-1.txt Haspis Hap Hapby irthdav Hap Hap 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-2.txt २ इस ७ अंक में मुर्यादाओं का मतलब - १ है ा मस्तिष्क की देखभाल - १० भाँग - १२ और अन्य ईश्वर साक्षात्कार १३ 3० माता-पिता का बच्चों के साथ सम्बन्ध १९ कुण्डलिनी और ब्रह्मशक्ति - २३ श्रीखण्ड - ३१ १ )२ 5০ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-3.txt आप तो इतिहास जानते हैं और पौराणिक बात भी जानते हैं कि होलिका को जलाने पर ही होली जलाई जाने लगी और इसमें किसानों के लिए भी उनका सब काम-वाम खत्म हो गया और ये सोच करके कि अब सब कुछ जो बोया था उसका फल मिल गया था। उसको बेच-बाच कर आराम से बैठे हैं, तो थोड़ासा उसका आनन्द भोगना चाहिए, पर इससे भी पहली बात ये है कि होली की शुरुआत जो थी हालांकि ये होलिका का दहन जो हुआ उसी मुहूर्त में बिठायी हुई बात है। ये काम श्रीकृष्ण ने किया क्योंकि श्रीराम जब संसार में आये तो श्रीराम ने मर्यादायें बाँधी। अपने, स्वयं अपने जीवन से, अपने तौरतरीकों से, अपने आदर्शों से, अपने व्यवहार से कि मनुष्य जो है मर्यादा पुरुषोत्तम की ओर देखे। ये मर्यादा पुरुषोत्तम जो है ये एक चरित्र, ये एक महान आदर्श हम लोगों के सामने रखा गया कि जो राज्यकर्ता है, जो राजा हैं वो हितकारी होने चाहिए, जिसे सॉक्रेटिस ने 'बिनोवलेंट किंग' कहा है। वो आदर्श स्वरूप श्रीराम हमारे इस संसार में हैं और इतना बड़ा आदर्श उन्होंने सबके सामने रखा कि लोगों के हित के लिए, जनमत के लिए उन्होंने अपनी पत्नी तक का त्याग कर दिया, हालांकि उनकी पत्नी साक्षात महालक्ष्मी थीं । वो जानते थे कि उन्हें कुछ नहीं हो सकता। तो भी लोकाचार में, दुनिया के सामने उन्होंने अपने पत्नी को त्याग दिया कि जिससे लोकमत हमारे प्रति विक्षुब्ध न हो और लोकमत का मान रखें । लेकिन वर्तमान काल में हम देखते हैं कि हमारे यहाँ लोकमत का जरा भी विचार नहीं किया जाता। लोग बिलकुल निर्लज्जता से राज्य करते हैं और उसके प्रति ध्यान नहीं देते । उसकी वजह ये है कि लोग मर्यादा पुरुषोत्तम के बारे में जानते ही नहीं या जानते हैं तो उसे समझते नहीं और समझते हैं तो भी उसे अपनाते नहीं। ये कितनी आवश्यक बात है कि जो राज्य करते हैं वो अपनी मर्यादाओं में रहें। अपने को मर्यादाओं से बाँधे। और तभी सारा संसार जो है 'अपने को मर्यादाओं से बाँधे। और तभी सारा संसार जो है उन मर्यादाओं में बाँधा जाएगा।' उन मर्यादाओं में बाँधा जाएगा। लेकिन राज्यकर्ता ही अगर किसी मर्यादा के बगैर, किसी आदर्शों के बगैर या किसी १ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-4.txt मर्यादाओं का मतलब ... विशेष तरह की प्रणाली के बगैर चलें तो घातक होगा ही और सबसे ज्यादा जो राजकीय और विश्वबंधुत्व है वो सारा ही नष्ट हो जाएगा। आज मनुष्य जो हैं अपने देश में भी बहुत संकीर्ण होता जा रहा है क्योंकि हमने अपनी मर्यादायें जो बाँधनी थी वो नहीं बाँधी और जो नहीं बाँधनी थी वो बाँधी। जैसे हमने अपने को, मैंने आपसे पहले बताया दिल्ली वाले समझते हैं, हम बम्बई वाले समझते हैं फिर बम्बई वाले दिल्ली में हम लोग कोई है तो बम्बई शहर वाले हो गये फिर वो कोई दिल्ली वाले हो गये, कोई नोएडा वाले हो गये। फिर करते-करते इस तरह की हम अपनी सीमायें बाँधते जा रहे हैं। जब हम विश्वबंधुत्व में उतरें, जब हम विश्व के एक नागरिक हो गये हैं तब भी हम इस तरह की छोटी छोटी मर्यादाओं में बँधे हये हैं और जो मर्यादायें हमें अपने व्यक्तित्व में, अपने पर्सनेलिटी में बाँधनी चाहिए वो हमने नहीं बाँधी। जो श्रीराम ने बाँधी थी क्योंकि आप जानते हैं कि श्रीराम विश्व के लिए आदर्श राजा के रूप में आये थें। लेकिन उनका अपना स्वयं का जीवन एक आदर्श और मर्यादाओं से बँधा हुआ था। तो जिन मर्यादाओं को हमने बाँध रखा है उससे तो हम क्षुद्र हो जाएंगे, छोटे हो जाएंगे, संकीर्ण हो जाएंगे और जो मर्यादायें श्रीराम ने अपने चारों तरफ बाँधी हुई थी उससे हम सबल हो जाएंगे। जैसे कि समझ लीजिए कि ऐरोप्लेन है। उसके अन्दर के सारे स्तक्रू वरगैरा है वो अगर ठीक से ना बाँधे जाएं और वो अगर ठीक से ना जोड़े जाएं या वो कार्यान्वित ना हो और जब ये अरोप्लेन उड़ेगा तो सब ये अव्यवस्थित हो जाएगा। उसकी जितनी भी शक्ति है वो नष्ट हो जाएगी। | होली पूजा, २८-०२-९१ जो मर्यादायें हमारी शक्ति को नष्ट करती हैं वो तो हम बहुत आसानी से बाँध लेते हैं किंतु जो मर्यादायें हमारी शक्ति को बढ़ाती है, हमारा हित करती है इतना ही नहीं हमें एक प्रभुत्व देती है, व्यक्तित्व देती है, एक बड़प्पन देती है उसको हम नहीं बाँधते। यही एक बड़ा भारी दोष हमारी सूझबूझ का और विचार का है। लेकिन तो भी इन मर्यादाओं के बीच में बँधे हुए लोगों ने उल्टी तरफ से जब चलना शुरू कर दिया और मर्यादाओं का मतलब कर्मकाण्ड में घुस जाना और एक-दूसरे से अलग हट जाना या जैसे श्रीरामचन्द्रजी ने पत्नी का त्याग कर दिया वैसे हम भी अपनी पत्नी का त्याग करेंगे। पत्नी ने भी बाद में उनका त्याग कर दिया था लेकिन अपने ढ़ंग से, अपनी अस्तित्व की लाज रखते अपने ढ़ंग से श्रीरामचन्द्रजी का त्याग कर दिया था। तो जब हम अपने को इस तरह से संकीर्ण बनाते जा रहे हैं और बनते जा रहे हैं तब हमको चाहिए कि हम अपनी ओर थोड़ा विचार करें कि हमने कौन सी मर्यादायें बाँध रखी हैं और कौनसी मर्यादाओं में हम बँधते चले जा रहे हैं और कौन सी मर्यादायें हमने बाँधनी चाहिए थी , बाँधी ही नहीं । उसकी वजह से हमारा सारा सामाजिक जीवन, राजकीय जीवन और विश्वबंधुत्व की भावनायें सब एकदम अस्त-व्यस्त हो गईं। ढीली पड़ गईं। लेकिन जो मर्यादायें श्री रामचन्द्रजी बाँधे थें, उससे इसी तरह की मर्यादायें लोग बाँधने लगे जिसे मैंने बताया और इसी तरह से कर्मकाण्डों में आदमी जाने लगे और धर्म माने ऐसी कोई बड़ी भारी ऐसी कोई न कोई चीज़ माने जिसमें आप हँस भी नहीं सकते, बोल भी नहीं सकते। 'आप उपवास करिये' इस तरह के उस वक्त के ब्राह्मणाचार थे और पंडितों ने इस तरह की गलत चीज़ें सिखा दी कि यही धर्म है। धर्म का मतलब है आप कर्मकाण्ड करो, इसमें पैसा दो, उसमें पैसा दो और गम्भीरता से रहो, हँसो मत, बोलो मत, किसीसे मिलो मत, एकान्त में रहो। इस तरह की जो धारणायें लोगों ने बना दी उसको तोड़ने के लिए श्रीकृष्ण ने जन्म लिया और श्रीराम स्वयं, साक्षात श्रीकृष्ण थे उन्होंने जन्म लिया और श्रीकृष्ण बनकर आये तब उन्होंने लीलायें रची और सारे संसार में लीला का प्रचार किया। हुए २ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-5.txt दूसरी बात ये कि श्रीराम ने जन की गहराई को किस तरह से छूना चाहिए इसमें भी खेल रचा। श्रीकृष्ण की जो लीला थी वो और तरह की थी और श्रीराम का जनता की ओर जो ध्यान था वो और था। क्योंकि आप जानते हैं, विशुद्धि चक्र पर जन हो जाता है । और नाभी चक्र पर आपने देखा कि धारणा हो जाती है। विशुद्धि चक्र पर आप जन पर आ जाते हैं माने कलेक्टिविटी पर आ जाते हैं। सामूहिकता पे आ जाते हैं। जब आप कलेक्टिविटी में आ गये तो कलेक्टिविटी में भी किस तरह से श्रीकृष्ण ने लीला से ही लोगों को जाग्रत करने का प्रयत्न किया। जब वे छोटे थें, पाँच साल की उम्र के थें तो उन्होंने औरतें जो नहा रही थी, उनके कपड़े छिपा लिये। चार-पाँच साल की उम्र में बच्चों को क्या समझता है। आजकल के बच्चे जरा ज्यादा ही होशियार हैं। उस ज़माने में तो बीस साल के लड़कों को भी अकल नहीं होती थी। आजकल सब चीज़ बहुत ज्यादा लोग समझने लग गये हैं। तो उस जमाने के बच्चों ने कैसा जीवन बिताया। उस दृष्टि से देखा जाए तो श्रीकृष्ण तो बिलकुल ही आजकल के एक महीने के बच्चे के बराबर होंगे। क्योंकि आजकल के बच्चें तो इतने जल्दी बढ़ जाते हैं कि कुछ समझ नहीं आता। उनको दुनियाभर की बातें मालूम हैं। तो इस तरह से एक बड़ी अबोधिता में उन्होंने औरतों के कपड़े छिपायें, और ये लोग जमनाजी में नहाती थीं। जमनाजी में सीताजी के बाद महालक्ष्मी, महालक्ष्मी से ही उत्थान होता हैं। महालक्ष्मी तत्व से ही आप लोग सहजयोग में जो कुछ प्राप्त कर पाये हो, वो प्राप्त किया। तो उनकी पीठ पर, उपर बैठ कर के वो देखते थे कि किस तरह से इनकी जागृति करें। दृष्टि इनकी पीठ पर रहती थी। उसके बाद जब औरतें घड़ा लेकर चलती थीं , उनके घड़े पीछे से तोड़ते थे कि वो जो जल, जो कि जमनाजी का जल है, जो कि वायब्रेट हो गया, उनको फोड़ने से वो जल उनके पीठ पर गिर जाए तो इससे इनकी भी जागृति हो जाएगी। इनका खेल देखिये। उसके बाद रास, 'रा' माने शक्ति और 'स' माने सहिता जैसे सहज है, तो रास खेलते थे हात पकड़के तो सब लोग थक जाते थे। श्री राधाजी कहती थी, 'में तो थक गयी।' रा...धा.. फिर वही शक्ति की धारणा करने वाली। 'अच्छा, अच्छा कोई बात नहीं मैं तुम्हारे पैर दबा दूँगा, पर तुम नाचो।' सबको नचाते थे। सब रास खेलते थे। रास में सब लोग नाचते थे। रास में नाचकर वो राधाजी की शक्ति सबमें संचालित करते थे | मुरली बजाते थे | मुरली भी एक तरह से कुण्डलिनी ही है क्योंकि उसमें भी छिद्र वैसे ही होते है जैसे कुण्डलिनी में चक्र होते हैं और उस नृत्य के दौरान वो राधाजी की जो शक्ति थी सबके हाथों में से बहाते थे। इस प्रकार उन्होंने लीला रचायी पर बाद में होली के लिए भी उन्होंने एक बड़ा सुन्दर तरीका ढूँढ निकाला कि पानी में रंग मिलायें । आज के जैसे गंदे रंग पहले नहीं होते थे। आप तो जानते हैं कि फूलों के बड़े सुगन्धित रंग पहले बनाये जाते थे। और उसे संजो करके, बहुत पवित्र चीज़़ समझ के बनाया जाता था। हर त्यौहार उस जमाने में जो भी मनाया जाता था, हमारे जमाने में भी तो वो बहुत पवित्र चीज़ समझी जाती थी। अब तो अपवित्र चीज़ ही अच्छी मानी जाती है। ऐसा कुछ नज़र आता है जैसे कि कीचड़ है, ये है, वो है लोग फेंकते हैं ये तो अनादर है। इस तरह के बना करके और वो चेतित पानी जो था, वायब्रेटेड पानी, वो सबके बदन पर फेंकते थे जिससे उनके अंग-प्रत्यंग चेतित हो जाए। ये उनका विचार था। ये उनका अभी | खेल था। ये नहीं कि आप लोगों पे ऐसी-ऐसी चीजें फेंके। मैंने तो कि एक साहब के प्राण चले सुना ३ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-6.txt 'रा' माने शक्ति और 'स' माने सहिता गये। उनपर कुछ गुब्बारा मारा गया था। ये कितनी शर्म की बात है। जो चीज़ सुन्दर से सुन्दर भी किसी भी अवतरण में बनायी गयी उसका किस तरह से विपर्यास करना चाहिए, उसको किस तरह से कबाड़ा करना चाहिए, उसको किस तरह से बिलकुल ही निम्न स्तर की चीज़ बनानी चाहिए ये सिर्फ इन्सान से ही हो सकता है। जानवर भी नहीं कर सकते। इन्सान तो एक खास चीज़ है। पता नहीं उनको क्या हो जाता है। रंग खेलते-खेलते रंग अगर खत्म हो गया तो उन्होंने कीचड़ उठा लिया। कीचड़ खत्म हो गया तो उन्होंने गोबर उठा लिया। गोबर खत्म हो गया तो उन्होंने टार उठा लिया। अब जो उनको जोश चढ़ गया। अरे भाई , किस चीज़ के लिए होली हो रही है ? उसका तत्व ही खत्म कर देना और उसकी सारी जो सुन्दरता है कि इससे हमारे आपसी प्रेम को बढ़ावा मिले। जन के बीच में चेतित जल फेंका जाए और उससे भी बढ़कर आपसी मेल हो जाएं। जो कुछ भी हमारे अन्दर दृष्ट भावनायें हैं, दूसरों के प्रति वो सब क्षमा हो जाए। सब आपस में एक तरह से बहुत ही ज्यादा स्वच्छंद हो कर के, तन्मय हो कर के एकसाथ होली खेलें। उसमें कोई पाप की भावना नहीं होनी चाहिए। कोई हृदय में खराबी नहीं होनी चाहिए । | इस तरह से ये इतनी सुन्दर चीज़ बनायी थी। लेकिन उसका विपर्यास अभी हम देखते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है। जैसे पुणे में गणपति त्यौहार होता है आजकल, तो वहाँ गन्दे-गन्दे सिनेमा के गाने होते हैं। इस तरह की चीज़ें होती हैं। आप वैसे तो कभी सुनेंगे नहीं। पर वहाँ आप गणपति के सामने खड़े हो और आपको सुनना ही पड़ता है और शराब पी कर के उनके सामने झिंगना। गुजरातियों में रास। आजकल बहुत रास करते हैं नवरात्रि में। तो शराब पी कर सब लोग आते हैं। औरतें -आदमी सब शराब पी कर आते हैं। और बढ़िया-बढ़िया कपड़े पहनना , वो तो ठीक है, लेकिन वो सब किसलिए ? और क्या वहाँ शुरू हो जाता है। खास करके लंदन में एक बार उन्होंने मुझे बुलाया था 'वहाँ पे भी है, आप आईये।' मैं देखने गयी। मैंने कहा ठीक है रास -लीला में बुलाया है तो जायेंगे। वहाँ जो देखा तो औरतें , | | मैं वहाँ पर खड़ी थी, मैंने कहा कि भाई, यहाँ कैसे? ये तो सारे शराबी लोग। बिलकुल लड़कियाँ सब शराब पी कर के और इतनी अश्लील तरीके से आपस में वो लोग व्यवहार कर रहे थें कि मैंने कहा कि देवी तो यहाँ से उठ जाएंगी और भूत ही यहाँ नाच सकते हैं। उसी दिन पेपर में आ गया कि इनके यहाँ जो रास होती हैं वो ऐसी होती है। इनके यहाँ ऐसा होता है, वैसा होता है। याने जहाँ की पाश्चिमात्य लोग, जिस काम को करने में लज्जित हो जाए। माने वो तो बहुत ही नैतिकता के स्तर पर अपने से बहुत कम। वो भी जहाँ लज्जित हो जाए । ऐसे काम वहाँ हिन्दुस्तानी करते हैं-रास| ये बहुत | शर्म की बात है। अब वो रास का तो मजा गया, मुझे तो इतना दुःख हुआ। मैं रातभर सोचती रहीं कि क्या ये हिन्दुस्तानी यहाँ आ कर के अप्रदर्शन कर रहे हैं और दूसरे दिन वही पेपर में आया कि ये सिर्फ एक अनैतिकता, एक बहाना है कि रास में लोग आयें । तो जो मर्यादायें नैतिकता की और प्रेम की, आदर की, ये छोड़ करके आप होली खेलेंगे तो उस होली का अर्थ यही होता है कि कोई एक बहाना ढूँढ लिया आपने जिससे कि आपके अन्दर जो छिपी हुई गन्दगियाँ हैं उसे आप निकाल रहे हैं। उसकी शोभा ही खत्म हो गयी । अशोभनीय काम में कभी मजा आ ही नहीं सकता। खास कर सहजयोगियों को तो आना ही नहीं चाहिए। सब कुछ शोभनीय होना चाहिए। रास भी तालबद्ध, स्वरबद्ध होती है। रास याने की ढ़माढ़म बजा रहे हैं, एक दूसरे पर गिरा ४ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-7.txt holi '-पहले तो यही बात सोचना चाहिए कि हमने विशुद द्ध लाँघी है या नहीं। ' ०) जा रहा है। इसमें तालबद्धता है, स्वरबद्धता है शुद्ध चित्त हो इसलिए रास होती है। क्योंकि नृत्य करते वक्त मनुष्य का ध्यान नृत्य के लय पर और सुर पर होता है। और इसलिए उसका चित्त शुद्ध हो जाता है। पर उस वक्त मैंने तो देखा उनका ध्यान कहीं और ही था। तो ये होली का त्यौहार जो श्रीकृष्ण ने, लीलाधर ने बनाया उसकी विशेषता ही ये थी कि मनुष्य उसे एक लीला समझे। सारा संसार एक लीला है। सहजयोग में भी आपने देखा होगा कि यहाँ पर वाकई आप लोग लीलामय हो गये। संगीत और हर चीज़ में आप तन्मय हो जाते हैं और आनन्द से उसका भोग उठाते हैं। आपस में इतने प्रेम से और बहुत शुद्ध भाव है। सहजयोग में लोगों में बहुत शुद्ध भाव है और बहुत नैतिकता से आप सारा कार्य सुन्दरता से करते हैं। इसमें कोई शक नहीं। लेकिन लीलामय होना ही विशुद्धि पर रूक जाना होगा। विशुद्धि पर लीलामय है पर उसके आगे आज्ञा पर चलना है। तो जो आज्ञा का चक्र है ये तप है। तब आपको होलिका का जलना सोचना चाहिए क्या था? प्रल्हाद के तप के कारण होलिका जल गयी। तो हम भी उस तप में आगे बढ़ें। क्योंकि विशुद्धि तक तो हम लोग आ गये समझ लीजिए कि सब आपस में प्रेम से रहते हैं। अब ये भी पता नहीं कि हैं कि नहीं। थोड़ा सा उसमें भी मुझे शक है। पर कहना नहीं चाहती क्योंकि आप सोचने लगेंगे कि हमने गलत काम किया, ये किया, वो किया तो और भी बायीं विशुद्धि पकड़ जाएगी। लेकिन विशुद्धि तक है, ठीक है, हममें सामाजिकता आ गयी। आपसी प्रेम आ गया । सारे विश्वबंधुत्व में उतरें। अभी भी ऐसे लोग तो बहुत हैं ही जो गहरे उतर गये हैं लेकिन ऐसे भी थोड़े बहुत लोग हैं जो अब भी अपनी छोटी-छोटी बातें सोचते रहते हैं कि 'मैं कौन जाति का हूँ ? मैं कौन जगह का हूँ? और फिर ऐसा कैसे हो सकता है?' और हम विश्वबंधुत्व की बात कर रहे हैं। विश्वबंधुत्व में तो आपकी जाति-पाति, देश-विदेश सब छूट जाते हैं, वो जो छोटी मर्यादायें बनी हुई हैं। अगर आप अमेरिका में पैदा होते हैं तो आप अमेरिकन हो जाते हैं, आप यहाँ पैदा हैं तो हिन्दुस्तानी हो। इसका मतलब ये नहीं कि आप हिन्दुस्तानी हो गये तो अमेरीका या कहीं भी देश के लोगों से आपका रिश्ता नहीं है। आप सभी एक ही माँ के बेटे-बेटियाँ हैं। इसलिए विश्वबंधुत्व में उतरे हुए हो। तो पहले तो यही बात सोचनी चाहिए कि हमनें विशुद्धि लाँघी है या नहीं। जब हम होली खेल रहे हैं तो हम मर्यादा में हैं या नहीं। अभी किसी ने पूछा था कि 'माँ, क्या औरतों के साथ आदमियों ने होली खेलनी चाहिए?' मैंने कहा, 'वैसे तो कुछ भी करें लेकिन सहजयोग में नहीं। क्योंकि भाई-बहन में होली नहीं खेली जाती। आप जानते हैं। क्योंकि श्रीकृष्ण ने अपनी मर्यादायें जैसे, भाभी है, देवर है इनके बीच में एक तरह की मर्यादा है। भाई- बहन में पूरी मर्यादायें होनी चाहिए। देखिए भाई - बहन का रिश्ता कितना सुन्दर है कि पूरी मर्यादायें हैं। पूरा प्रेम है। लेकिन भाई-बहन कभी एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नहीं बैठते। अपने देश की जो विशेष चीज़ है वो हमारा कल्चर है । हमारी संस्कृति है। | इधर एक भाईसाहब हैं उनकी एक बहन है, दोनो एक साथ कभी नहीं बैठेंगे। अलग -अलग बैठतें हैं। लेकिन प्रेम भाई-बहन में बहुत ज्यादा होता है। अपने आप से भी। वैसे लड़ाई करेंगे आपस में भाई -बहन। लेकिन उनकी बहन को कोई कहे तो मारने पर, खून पर आ उतरेंगे। इस प्रेम की जो विलक्षण प्रकृति है, एक विलक्षण प्रकृति है। एक विशेष प्रकृति है भाई - बहन में और वो नैसर्गिक है । निसर्ग से मिली हैं। कुदरती है। तो भाई और बहन में आपसी प्रेम बहुत है, नितांत श्रद्धा है। लड़ाई भी करेंगे, भी हो जाए। बचपन में तो हाथापाई भी हो जाती है। कोई बात नहीं। पर अन्दर से बहुत ज्यादा प्रेम है। और भी करेंगे। तू-तू, मैं-में झगड़ा ५ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-8.txt ा जब हम होली खेल रहे हैं तो हम मर्यादा में हैं या नहीं। अत्यन्त शुद्ध प्रेम है और इस शुद्ध प्रेम की होली हम नहीं खेल सकते कि कहीं हमारी बहन का हमारे हाथों अपमान न हो जाएं। भावज है और देवर है वो आपस में मज़ाक उड़ायें या उनके कपड़े फाड़ ड़ाले, कुछ भी करे चल जाता है। वैसे करना नहीं चाहिए, लेकिन उनका रिश्ता और है। लेकिन भाई-बहन के रिश्ते में एक तरह का बड़ा ही सुन्दर सा, गोपनीय, मर्यादित, बँधा हुआ प्यार है और उसके संगोपन में नैतिकता की अतिशयता है। अतिशयता है। तो भाई - बहन में होली खेलना मना है। कोई सोचता भी नहीं ऐसा क्यों ? उसके बाद इस लीलामय जीवन से हमें अगर ऊपर उठना है, आज ठीक है, कल ठीक है, होली खेल लीजिए, गाना-वाना गा लीजिए, नाच भी लीजिए, आज भी नाचिए कोई हर्ज नहीं लेकिन उसके बाद हमें आज्ञा पर उतरना जरूरी है। क्योंकि इस तरह के व्यवहार से जो आनन्द मिलता है, आपस में जो शुद्धता मिलती है, अच्छाई मिलती है, भाईचारा होता है, विश्वबंधुत्व आता है उससे हम फैल से जाते हैं। गहराई को छूने के लिए जरूरी है कि तपस्विता चाहिए । फैल हम जाते हैं बहुत। सोचो बहुत जल्दी फैलता है। फैलेगा बहुत जल्दी। लेकिन गहरे कितने उतरे हैं? गहराई के लिए तपस्विता की जरूरत हैं। अब तप का मतलब ये नहीं कि बैठ के उपवास करो। जरूरी नहीं। पर अपना चित्त अगर खाने पर है तो उसे हटाना है। मेरा चित्त कहाँ है इसको देखना ही सहजयोग की तपस्विता है। क्योंकि चित्त से ही आप अपनी आज्ञा खराब करते हैं। कहाँ है मेरा चित्त? मैं क्या सोच रहा हूँ? इस वक्त मैं क्या कर रहा हूँ? क्या सोच रहा हूँ? ये अगर अपना चित्त आप देखें अंतर्मन को हमेशा अपने सामने रखें तो आपका चित्त जो है वो आज्ञा में प्रकाशित हो जाएगा । यही तपस्या है कि अपने चित्त का निरोध , अपने चित्त का अवलोकन, चित्त का विचार। अब देखिए आपका चित्त कहाँ गया ? मैं बात कर रही हूँ चित्त कहाँ है? चित्त की बात करते ही चित्त कहाँ गया देखिए। इतना विचलित चित्त, मैं बात कर रही हूँ। आपका चित्त कहाँ हैं? चित्त की ओर नज़र रखना। चित्त का निरोध माने जबरदस्ती नहीं । लेकिन अब आत्मा के प्रकाश में अपने चित्त को देखने से अपना चित्त जो है वो आलोकित हो जाता है। एकाग्र हो करके अपना चित्त देखना चाहिए । किसी भी चीज़ को देखना है। जैसे अब ये खंभा है मेरे सामने। इसमें सुन्दर से फूल लगे हुए हैं। अब हर कटाक्ष में निरीक्षण हो जाता है। ये सारा मुझे याद है कि कौन सा कहाँ पर ? कितना अन्तर रह गया? चित्र सामने है। चित्त की जो एकाग्रता है उसी से ये चित्र बनता है। उसीसे आपकी स्मृति अच्छी हो जाती है। सब चीज़ पूरी तरह से आप जान सकते हैं। चित्त से ही सब चीज़ जानी जा सकती है। लेकिन चित्त अगर विचलित हो तो आप किसी भी चीज़ को गहराई से नहीं पकड़ सकते। उपरी तरह से। हम देखते हैं कि बीस-बीस साल के लोगों को भी कुछ पूछिए खास कर विलायत में किसीसे पूछिए, 'तुम्हारा नाम क्या है?' तो पहले हूँ, फिर हाँ, फिर हीं। 'अरे भाई, हमने पूछा तुम्हारा नाम क्या है?' 'आपने क्या पूछा मेरा नाम क्या है?' 'हाँ, मैंने पूछा आपका नाम क्या है?' हाँ, फिर सोचा मेरा नाम क्या है? 'क्या कहा आपने मेरा नाम क्या है? पाँच मिनट उनको यही नहीं समझ में आ रहा कि मैं क्या कह रही हूँ। तो मैने कहा, 'भाई, तुम डूरग-वर्ग लेकर आये हो कि क्या?' 'नहीं, मैं लेता था।' मैंने कहा, 'तुम्हारा जो ब्रेन है उसका तो बिलकुल मलिदा बन गया। तुमको मैं पाँच मिनट से पूछ रही हूँ तुम्हारा नाम क्या है? तुम हाँ, हाँ, हीं, हीं कर रहे हो। क्योंकि असल में ड्रग से नहीं हुआ इतना, जितना चित्त से हुआ है। चित्त इतना विचलित हो जाने से, चित्त हर समय घूमता ही रहेगा। अब देखिए आप, मैं तो हर जगह देखती हूँ एअरपोर्ट पर, बात इनसे कर रहे हैं देख रहे हैं इधर, उधर देख रहे हैं, उधर देख रहे हैं। याद कुछ भी नहीं रहा, कौन है, क्या है? शुद्ध चित्त जो पूरा ६ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-9.txt होता है वो एकाग्र होता है। और एकाग्र चित्त वही चीज़ लेता है जो लेना है । जो नहीं लेना है उधर देखता ही नहीं। उसको दिखाई ही नहीं देगा, हट जाएगा चित्त वहाँ से अपने आप| क्योंकि वो इतना शुद्ध है कि अशुद्ध चीज़ में वो मलिन हो ही नहीं सकता। जा ही नहीं सकता। तो ये अब आप ही के हाथ में है कि आप अपने अन्दर इसको देखें, कि हमारा चित्त कहाँ जा रहा है? यही तप, सहजयोग का तप सिर्फ ये ही कि मेरा चित्त कहाँ है? मैं कहाँ जा रहा हूँ? मेरा मन कहाँ जा रहा है? अगर ये तप आपने कर लिया तो आज्ञा को आप लाँघ गये। और सहस्रार में तो कोई प्रश्न ही नहीं क्योंकि हम बैठे ही हुए हैं। पर अगर आप आज्ञा को नहीं लांघेंगे तो फिर सहस्रार में हमें बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्योंकि आज्ञा का चक्र बहुत ही ज्यादा संकीर्ण है। उसमें से खींच निकालना माने मुझे ड्र लगता है कहीं हाथ-पाँव न टूट जाए आप लोगों के। तो आज्ञा के लिए जरूरी है कि तप करें। और जैसे ही आप तप करना शुरू कर दें तो आप गहराई को छू लेते हैं। सहजयोग में एक साहब बता रहे थे, सहजयोगी हैं उनको कैन्सर हो गया है। मैंने कहा, 'वो कैसे सहजयोगी हैं। वो आये होंगे प्रोग्राम में लेकिन उनका चित्त इधर-उधर होगा। शायद अपने लड़के के लिए लड़की ढूँढ रहे होंगे, या कुछ और ढूँढ रहे होंगे, ऐसे कैसे उनको होगा। कैन्सर तो उनको हो ही नहीं सकता।' हो गया, इसकी वजह ये बैठे थे प्रोग्राम में, आये थे लेकिन कुछ न कुछ अपनी विपदा सोचते रहे । 'अरे, मेरे साथ ये हुआ, मेरे साथ वो हुआ, ऐसा हुआ, वैसा हुआ। और माताजी से मैं कब बताउऊ मेरी विपदा क्या हुई?' बजाय इसके जो कहे जा रहे उसको समझें। अपनी ही अंदरूनी बात कोई सोच-सोच के आप चले गये उस बहकावे में और उस बहकावे में कैन्सर की बीमारी हो गयी| ये बीमारी हो गयी, वो बीमारी हो गई। वैसे ही मानसिकता थी, हम मन से क्या सोच रहे हैं। मन में हमारे कौनसे विचार आ रहे हैं । सब यही ना कि हमको ये दुःख है, वो दुःख है, ये पहाड़ है। लेकिन सोचना चाहिए अपने पर कितने आशीर्वाद हैं माँ के । दिल्ली शहर में करोड़ो लोग रहते हैं। कितनों को सहजयोग मिला है। हम कोई विशेष व्यक्ति हैं, ऐसे नहीं कि अपने चित्त को बेकार करें । हमें सहजयोग मिला है। इसकी धारणा होनी चाहिए अन्दर से और उस अन्तर्मन में उतरना चाहिए। उसी से ये झूठी मर्यादायें जो हैं टूट जाएंगी। और अगर आप नहीं तोडियेगा तो किसी न किसी तरह से आपको कुछ अनुभव आयेंगे कि आप टूट जाएंगे। जिस चीज़ को आप सोचेंगे कि ये हमारा अपना है आप कहेंगे हम दिल्ली वाले हैं। एक दिन ऐसा आएगा कि दिल्ली वाले ही आपको ठिकाने लगायेंगे। आप नोएड़ा वालेहैं तो एक दिन ऐसा आएगा कि नोएड़ा वाले आपके पीछे बन्दूक ले कर लग जाएंगे। तब आपके समझ में आ जाएगा कि क्यों कहता था नोएड़ा वाला हूँ? और फिर जब दौडेंगे दिल्ली की तरफ तो दिल्ली वाले कहेंगे कि 'आप तो नोएड़ा वाले हो , यहाँ किस लिए आये तुम?' तो घर के न घाट के ये हालत आपकी हो सकती है। | | उसकी वजह ये कि आपका चित्त ही ऐसा है जो न घर का न घाट का। जब तक इस गहराई में नहीं उतरेंगे तब तक आप अगर अपने को सहजयोगी न कहें तो सहजयोग ही क्या है। तो भी मैं मानती नहीं इस चीज़ को कि सहजयोगी का पहला लक्षण ये है कि वो शान्त चित्त और अत्यन्त सबल होता है। किसी से ड्रता नहीं। सबल है और उसका जीवन अत्यन्त शुद्ध होता है। उसका शरीर शुद्ध होता है। उसका मन शुद्ध होता है और आत्मा के प्रकाश से वो सारी दुनिया में प्रेम फैलाता है। जो आदमी प्रेम नहीं कर सकता वो हमारे विचार से सहजयोगी बिलकुल है ही नहीं। वो तो पहली ही सीढ़ी नहीं चढ़े। इस तरह से अगर आप समझे कि आज होली है, होली के दिन हम बहुत मज़ा उठायेंगे। कोई बात नहीं। श्रीकृष्ण ने ही कह दिया तो खेलो, कूदो, ये लीला है। सब दुनिया लीला है। और लीला के ऊपर जो मर्यादायें है उसको पाने के लिए आज्ञा पर आपको तप करना होगा। जैसे आकाश में आप देखते हैं कि ७ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-10.txt *सहजयोगी का पहला लक्षण ये है कि वो शान्त चित्त और अत्यन्त सबल होता है। सी पतंगे चल रही हैं। लेकिन वो किसी के हाथ में होती है। अगर कोई भी पतंग कट जाए, हाथ से बहुत तो न जाने वो कहाँ चली जाए। वही हाथ आत्मा है। अपने चित्त को अपने आत्मा की ओर छूट जाए रखिए। अपने को शुद्ध करते जाना ही सहजयोग में तपस्वरूप है। इसके लिए आपने आज हवन किया। ये भी तप है। क्योंकि अग्नि जो है वो सब चीज़ को भस्म कर देता है। उसी तरह से आपके तप से आपके अन्दर जो भी इस तरह के दु्विचार है या गलत इस तरह की मर्यादायें है वो सब टूट जाएंगी। आनन्द पाना ये आपका अधिकार है, और आप आनन्द को पा सकते हैं और पाया है आपने आनन्द को। लेकिन आनन्द बाँटने के लिए अपने अन्दर गहराई होनी चाहिए। अगर आप गंगाजी में जाए और इतनी सी एक छोटी कटोरी ले जाए तो आप कटोरी भर पानी लेकर आ जाईये । लेकिन अगर आप एक गागर ले जाए तो आप गागर भर के ले आ सकते हैं। किन्तु किसी तरह से आप ऐसा कुछ इंतजाम कर लें कि पूरा समय गंगा जी का पानी बहता आये आपकी तरफ तो आपकी चारो तरफ गंगा ही बहती रहें। तो किस स्थिति में आप लोगोंको देखना चाहिए कि क्या आप कटोरी भर पानी सहजयोग से ले रहे हैं। क्या आप सीमित आनन्द में है। क्या आप सबके आनन्द के लिए हैं और अगर स्वयं ही इसका स्रोत हैं तब आपके समझ में आ जाएगा कि होली मनाने के लिए भी गहराई चाहिए और इस आनन्द को भी हमेशा उपभोग लेने के लिए भी गहराई चाहिए। इसलिए आज्ञा का और विशुद्धि का बड़ा नज़दीकी रिश्ता है। और आप तो जानते हैं कि बाप-बेटे का रिश्ता है, कितना गहरा रिश्ता है। तो गंभीरता से रहना, बेकार में मुँह बना के रखना और रौब झाडूने के लिए बहुत लोग कम बात करते हैं और कोई लोग बेकार में ही ज्यादा बात करते हैं। इस तरह से दोनो तरफ से विशुद्धि खराब हो जाती है। लेकिन दूसरों को सुख देने के लिए अच्छी बात करना। दूसरों से प्रेम जोड़ने के लिए अच्छी बात करना। आपसी लड़ाई, झगड़े मिटाने के लिए सुन्दरता से बात करना इस सबसे विशुद्धि चक्र जो है वो एकदम ठीक होते जाता है और इस तरह से जब आपकी विशुद्धि ठीक हो जाती है तब फिर आप देखते हैं कि 'जब मैं किसी से बात करता हूँ तो उपरी तरह से ही लोगों को खुश कर रहा हूँ। अन्दरूनी तरीके से नहीं हो रहा।' तब आपको ख्याल करना चाहिए कि मेरी गहराई अभी नहीं हुई। जैसे नितान्त सा किसी के प्रति कह दें हम कि हाँ भाई, कल हम आपके लिए ये चीज़ लायेंगे, और छोटी तबियत के आदमी या कहना चाहिए कि बहुत ही उथले स्वभाव के आदमी है वो बहुत उथले मन से लाएंगे वो चीज़ें। उसका कोई असर नहीं होने वाला, पर एक अगर छोटा सा फूल भी कोई पूरे हृदय से दे, उसका बहुत असर सहजयोग में हो सकता है। तो जिसे कहते है पूरे हृदय से कोई कार्य करना। किसी की दोस्ती है ऊपरी-ऊपरी नहीं रखो। अन्दरूनी रखो। वही चीज़ रहेगी जो कुछ भी विशुद्धि है, जब तक खुश है, आज्ञा की गहराई नहीं होगी तब तक आपकी विशुद्धि जो है बहुत ही उथली रह जाएगी। आज्ञा की गहराई होना बहुत जरूरी है। आज्ञा की गहराई माने ये कि कोई भी विचार करके आपने चीज़़ नहीं करी। उसको कैलक्यूलेट करके नहीं करते कि मैं इनको आज एक रूपया दूँ तो मुझे मिल जाएगा। माताजी के पास अगर मैं पाँच रूपये देता तो मुझे सौ रूपये मिलते हैं। या ऐसा करने से ये हो जाए । नहीं अन्दर से मुझे लग रहा है कि करना ही चाहिए। सहजयोग में मुझे करना ही चाहिए। मुझे देना ही चाहिए । मैंने कुछ नहीं दिया अभी तक। दिखावे के लिए नहीं कि आज पेपर में छप जाएं कि आज सहजयोग में पाँच सौ या दो रूपये दिये। या कुछ इस तरह से। नहीं, नहीं। आपने जो भी किया हृदय से की ये चीज़ क्यों नहीं मैं कर सकता। मुझे करना चाहिए। उसके बगैर चैन ही नहीं आना चाहिए । मैंने कुछ नहीं किया। जब ये स्थिति आपमें आ जाएगी तब आप समझ लीजिए कि आपकी गहराई जो है वो विशुद्धि पर काम कर रही है , और गहराई में आप जब विशुद्धि पर काम करेंगे तभी आपका जनहित, जनसंबंध और विश्वबंधुत्व जो है उसमें कोई ठोसपन आ जाएगा। नहीं तो ऐसे ही ठीक है जैसे आप राम-राम, सलाम, नमस्कार। तो आज के इस होली के दिन हमें वो चीजें जला देनी चाहिए जिससे हमारा चित्त खराब हो जाता है । ८ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-11.txt जिससे हमारी आज्ञा खराब हो जाती है। तो दोनो ही चीज़ है कि चित्त भी साफ हो जाए और आनन्द और बोध में लोग होली मनायें। जिस दिन इसका पूर्ण काम्बिनेशन बन जाएगा, इसमें एकरूपता आ जाएगी दोनो चक्रों में, सहस्रार में कोई प्रश्न नहीं रहेगा । यही दो चक्र जो है जो गड़बड़ करते हैं । और विशुद्धि से ही निकलकर आप जानते हैं कि दोनो नाड़ियाँ ऊपर जाकर और आज्ञा पर क्रॉस करती हैं। तो विशुद्धि से बहुत ही संबंध है। इसलिए विशुद्धि की ओर जब आपका चित्त जाता है, श्रीकृष्ण की ओर, तो उनकी जो विशेषता थी वो ये थी कि राधाजी और राधाजी की शक्ति, आल्हाददायक, दूसरों को आल्हाद देना। आनन्द देना, दूसरों को आनन्द देने की उनके अन्दर की शक्ति थी। उनको देखते ही लोगों को आनन्द आ जाता है। जानवर हैं, पक्षी हैं, सब। ये विशुद्धि की देन है कि जो देखे वो खुश हो जाएं। जो बोले खुश हो जाए। जो कहे खुश हो जाए । जिसको कहते हैं बागबाँ हो जाना। जो कि फूलों में है, बच्चों में है । वो आल्हाददायिनी शक्ति आपके अन्दर जाग्रत हो सकती है। लेकिन जब तक उसमें गहराई नहीं आएगी तब तक ये आल्हाददायिनी शक्ति ऐसे ही ऊपरी, जबानी जमा-खर्च| तो इन दोनो का मेल आपको सोच लेना चाहिए। तो कोई भी आज सीरियस बात तो मैंने कही नहीं । लेकिन समझाने की बात ये है कि हमारे अन्दर गहराई का आना बहुत जरूरी है और गहराई से किसी चीज़ का आनन्द लेना भी बहत जरूरी है। हम | आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! भा. ा र 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-12.txt मस्तिष्क की देखभाल.... एक सहजयोगी को कभी भी धूप में नहीं जाना चाहिए। मेरा कहना मानिए, कभी भी धूप में नहीं जाना चाहिए। इस मस्तिष्क को शान्ति चाहिए और सूर्य की किसी क्रिया की आवश्यकता नहीं। आप जब भी सोते हों उस वक्त सूर्य की एक भी किरण नहीं होनी चाहिए। मैं भी जब सोती हूँ मुझे पूरी तरह से अंधेरा चाहिए। लोग जानते हैं; रोशनी की एक भी किरण हो तो मुझे नींद नहीं लगती है क्योंकि मुझे कार्य करना है। तो इस तरह से इस रोशनी से मुझ पर असर होता है। हो सकता है कि मैं इन तत्त्वों के प्रति बहुत संवेदनशील हूँ पर आप का क्या? जहाँ तक हो सके सोते समय सूर्य की रोशनी से बचना है और धूप में ज्यादा देर तक नहीं बैठना है। हाँ धूप में बैठने से विटामिन 'डी' मिलता है जो हड्डियों को अच्छा बनाता है। पर मुझे लगता है कि आपकी हड्डी अच्छी ही है इससे ज्यादा इसे अच्छा बनाने की जरुरत नहीं है। अब तो भगवान की कृपा से आपको खाने वाली कैल्शियम (soluble calcium) भी मिलती है। जिसे खा कर आपको विटामिन डी मिलता है और विटामिन ए भी मिल सकता है अगर आप चाहें तो। क्या जरूरत है इस मस्तिष्क को तपाने की? धूप में बैठनेसे यदि तो आप गंजे हो जाओगे या सिर पर जंगल उग जाएगा। इन दोनो में से कुछ भी हो सकता है, ये आपके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। इसलिए कि ये आपके मस्तिष्क को सहन नहीं होता है । आपकी त्वचा को सहन नहीं होता । आखिरकार हम कोई जंगली लोग थोड़े ही हैं ? आप जंगल के लोगों से पूछिए वो भी धूप में नहीं बैठते हैं । बस, कुछ लोगों ने आपके दिमाग में भर दिया है कि आपको धूप में बैठना है। अगर आप एस्किमोज को देखेंगे जो बर्फ के घरों में रहते हैं, वो तक धूप नहीं सेंकते । क्या आप ने कभी देखा है उन्हें धूप सेंकते हुए या कोई तस्वीरें देखी हैं ऐसी? फिर क्यों ऐसे कुछ लोग ऐसी नासमझी करते हैं कि इन बेवकूफ बातों में पड़ जाते हैं । अपनी बनायी गयी मशीनरी को चलाने के लिए दूसरों को बेवकूफ बनाना और उनमें कुछ कमजोरी ड़ाल देना, यही इन लोगों का काम हैं। लोगों को बेवकूफ बनाते हैं, कहते हैं कि 'समुद्र किनारे जाकर धूप में टैन होने से आप सुन्दर दिखेंगे।' उलटा इससे आप भयंकर दिखोगे । वो कहते हैं कि 'धूप में समुद्र किनारे आपका स्वास्थ्य बनेगा।' इसलिए बहुत ज्यादा लोग जाने लगे हैं। त्वचा कैन्सर होने लगा है क्योंकि आपकी त्वचा इसे अस्वीकार करती है और आपको त्वचा कैन्सर हो जाता है । आपको ज़िगर की तकलीफ हो जाती है, होने लगती है, वैसे भी आप लोगों को ज़िगर की पकड़ है । आप वैसे भी सोचते ही रहते हो तों फिर ऊपर से आपको धूप की क्या आवश्यकता है? मुझे तो ये समझ में ही नहीं आता है । आपको पता होना चाहिए कि आज आपको सहस्रार का कार्य करना है। सहस्रार मस्तिष्क है। हमें मस्तिष्क पर कार्य करना है और अगर आपको इस मस्तिष्क के सही उपयोग की जानकारी नहीं है तो मुझे पता नहीं कि मैं क्या करुँगी । आज कुछ भारतीय लोगों से बातें करते वक्त मुझे कुछ भयंकर बातें पता चली है और हँसी भी आई मुझे उस पर । वो बता रहे थे कि एक भारतीय मुर्गा अगर देख लें कि दूसरे अन्य मुर्गे पर अगर हमला हो रहा है तो वो तुरन्त इतनी आवाज करने लग जाएगा कि दूसरे सभी मुर्गे भी शामिल हो कर इतना शोर मचा देंगे कि उनका मालिक आकर उस मुर्गे को बचा लेगा। पर अगर यही हमला एक अंग्रेज मुल्क के मुर्गों के साथ होगा और उसे खा भी लो और दूसरे मुर्गे को भी खाने लग जाए तब भी वह दूसरा मुर्गा खड़े का खड़ा रह जाएगा। और कहेगा 'मुझे भी खा लो, कोई फर्क नहीं पड़ता में दूसरा जन्म लेकर फिर से आ जाऊँगा ।' देखिए उन्हें कोई दिमाग नहीं रहता, कोई दिमाग नहीं रहता ।.... | | | १३ जनवरी १९८६ आपको इस सहस्रार का कार्य करना है । सहस्रार पंखुडियाँ जो कि कमल हैं। परमात्मा का कमल है जो कि कुण्डलिनी से प्रज्वलित है। ये सजीव पंखुडियाँ हैं। इससे ताक-झाँक न करें । इसलिए मैं कहती हैँ कि अजीब ( उटपटांग) किताबें न पढ़ें । अजीब चीजे न देखें । अजीब लोगों से बातें न करें । भविष्य के बारे में सोचकर अपनी शक्ति को बर्बाद नहीं करना है । अपने तक रखें इसे पनपने दें क्योंकि झड़ें मस्तिष्क में होती हैं । चेतना का वृक्ष नीचे की ओर बढ़ता है । झड़ें इनकी मस्तिष्क में होती है आपको इन झड़ों तक जाना है और क्योंकि आपने वो कार्य कर दिया है अब आप वापस पीछे आ जाईये और उसके लिए आपको पता होना चाहिए कि किस तरह से मस्तिष्क की देखभाल करनी है। .... | १० 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-13.txt ४ श] भाँग पीने की सहजयोगियों को कोई जरूरत नहीं भाँग का जो उपयोग है, ८ वाम पार्श्व (left side) में जाने का वह हम लोग ऐसे ही करते हैं। १ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-14.txt ..तो * बात यह है कि भाँग वांग पीने की सहजयोगियों को कोई जरूरत नहीं। जब चाहे तब मन में ही भाँग पी ली। भाँग का जो उपयोग है, वाम पार्शर्व (left side) में जाने का वह हम लोग ऐसे ही करते हैं। मतलब यह है कि अगर कोई आदमी बड़ा ही ego oriented (अहंकारी) है, बहुत शुष्क है, गम्भीर है, तो उसके लिए सहजयोग में पूर्ण व्यवस्था है कि वह अपने आज्ञा चक्र को ठीक कर ले। आज्ञा चक्र को अगर वह किसी तरह से खुलवा ले, अपने ही आज्ञा चक्र को ठीक कर ले तो वह लेफ्ट साइड में जा सकता है। निद्रा के समय अगर आप आज्ञा चक्र को घुमाकर सो जाएं तो अच्छी निद्रा आती है और अगर उसको फिर भाँग की दशा से निकलना है, तो फिर आज्ञा चक्र को कस लें, राइट साइड में। तो जब अपने ही हाथ में सारी चीज़ पड़ी हुई है, जब हमारी सारी ही शक्ति हमारे अन्दर समाई हुई है और जब इस का पूरा ही ज्ञान हमको मालूम है कि कौनसा स्विच किस वक्त घुमाना है तो उन बाहर की चीज़ों का अवलम्बन करने की जरूरत नहीं है। उस समय में भाँग शायद, यह चीज़ न्यायसंगत थी, शायद कृष्ण के जमाने में। शायद कृष्ण नहीं पीते थे-खाते हैं शायद पता नहीं क्या करते हैं। तो उन्होंने नहीं किया लेकिन बाकी लोगों को जरूरत पड़ी क्योंकि जो गम्भीर लोग थे, वे भाँग पी लें क्योंकि भ्रम हैं हम महाराजा है, हम महारानी हैं, हम घर के मालिक हैं, हम फलाँ है, हम कैसे मेहतर से मिलें', भई मेहतर तो घरों में झाडू लगाते हैं। तो उसके लिए यह कि पहले तुम भाँग पियो जिससे मेहतर और तुम एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम ब्राह्मण हो और वह मेहतर है । इसलिय भाँग पिला देते थे कि तम्हें कुछ होश ही न रहे, जो भ्रम बने हुए हैं कि हम फलाँ हैं, हम ढिकाने हैं-भाँग पी लिए, तो सब एक हो गए। अब इसी का ऊँचा हिस्सा ऐसा है, जैसे कबीरदास जी ने कहा कि सुरति जब चढ़ती है, तो सब एक हो जाते हैं। तो उन्होंने सोचा कि जब तम्बाकू आदमी खाता है, तो वह भी एक जात हो जाता है। तो तम्बाकू का नाम सुरति रख दिया। जब हिसाब नहीं लगा पाये तो सोचा कि तम्बाकू ही सुरति होगी। तम्बाकू जब खाते हैं, तो जिसकी तम्बाकू की तलब होती है तो चाहे वह राजा हो, तो उस वक्त सामने अगर गरीब भी बैठा हो, तो उसके सामने 'तम्बाकू मेरे को भी दो' माँगने लगता है। तो उन्होंने कहा तम्बाकू सुरति हो सकता है क्योंकि इसमें राजा व रंक एक हो जाते हैं। यह इन्सान की खासियत है कि किसको कहाँ जाकर मिलाएगा, वह ही जाने। लेकिन होली की जो विशेषता है, उसमें यही याद रखना चाहिए कि अगर दिवाली इसे बनानी है, तो शीलता के साथ, indecency नहीं। अश्लीलता बिलकुल नहीं आनी चाहिए । अश्लीलता अगर आई तो वह फिर होली नहीं । श्री कृष्ण ही नहीं , वह तो होली हुई ऐसे लोगों की जो 'पार' नहीं हैं। जब 'पार' हो जाते हैं तो होली खेलते वक्त कोई भी अश्लीलता नहीं होनी चाहिए । यानी ऐसे, जैसे सहजयोग में स्त्री पुरुष होली नहीं खेलते। पुरुष, पुरुषों के साथ और ओरतें औरतों के साथ। सहजयोग में भाभी-देवर में हो सकती है। उसका भी एक नियम है, आप जानते हैं कि जो औरतें बड़ी हैं, वे अपने से छोटों के साथ होली खेल सकती हैं। और अगर पुरुष बड़े हों और स्त्री छोटी हो, तो किसी भी तरह का व्यवहार पर्दा होता है। उससे उलट, अगर स्त्री बड़ी हो, तो उसके साथ में पुरुष का व्यवहार खुला होता है, जैसे अपने यहाँ भाभी होती है। इसलिए भाभी, देवर में होली होती है, लेकिन जेठ और दुल्हन में नहीं होती। जेठ से हिन्दुस्तान में है। और वह अपने आप ही चलता है, हम लोगों के अन्तरहित है, अन्दर से ही हमारे संस्कारों में बैठा होता है, क्योंकि हमारे यहाँ उल्टा काम नहीं है, अधिकतर कि जैसे इंग्लैण्ड में आप देखेंगे कि अस्सी साल की बुढ़िया है, अठारह साल के लड़के से शादी करेगी। अपने यहाँ तो कोई सोच भी नहीं सकता ऐसा। मानें, इनमें अपनी बुद्धि ही नहीं है।... २६ मार्च १९८३ 6. पर्दा होता है। और यह कायदा आपको आश्चर्य होगा कि सारे १२ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-15.txt ईश्वर साक्षात्कार आम ज हम लोग श्री शिव की पूजा करने जा रहे हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि श्री शिव, हमारे अन्दर सदाशिव के प्रतिबिम्ब हैं। मैं इस प्रतिबिम्ब के बारे में आपको पहले बता चुकी हूँ। सदाशिव सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं, जो आदिशक्ति की लीला का निरीक्षण करते रहते हैं। वह परम पिता हैं, जो उनकी हर सृष्टि को देखते रहते हैं। आदिशक्ति को उनका अवलंबन पूर्ण रूप से शक्तिप्रदायक होता है। उनके दिमाग में आदिशक्ति की क्षमता के बारे में कोई संदेह नहीं है, परन्तु जब वह पाते हैं कि आदिशक्ति के लोग खलल ड्रालने का प्रयत्न कर रहे हैं तब वह विनाशक दशा में चले जाते हैं और ऐसे लोगों को नष्ट कर देते हैं, हो सकता है वे पूरी सृष्टि नष्ट कर दें, एक तरफ तो नि:सन्देह वह | कार्यकलाप में दुनिया के कुछ क्रोधमय हैं परन्तु दूसरी तरफ वह करूणा और आनन्द के सागर हैं। इसलिए जब वह हमारे अन्दर प्रतिबिम्बित होते हैं तब हम आत्मसाक्षात्कार पाते हैं। हम अपने आत्मा का प्रकाश पाते हैं और आनन्द के सागर में डूब जाते हैं। इसके अतिरिक्त वह ज्ञान के सागर भी हैं। अत: जिनको आत्मसाक्षात्कार मिलता है उन्हें दैवी ज्ञान भी प्राप्त होता है, जो कि बहुत ही सूक्ष्म है और हर अणु-परमाणु में व्याप्त है। इस ज्ञान में शक्ति है । उनकी कार्यशैली ऐसी है कि वे अपनी करूणा में दुष्ट राक्षसों, जो उनको पूर्ण रूपसे समर्पण कर देते हैं, उन तक को भी क्षमा कर देते हैं क्योंकि उनकी करूणा की कोई सीमा नहीं है। कभी- कभी वे लोग, जो उनसे (सदाशिव से) आशीर्वादित होते हैं, आदिशक्ति के भक्तों को कष्ट देने की कोशिश करते हैं। परन्तु यह सब एक नाटक, एक घटना की उत्पत्ति के लिए किया जाता है। अगर कोई नाटक न हो तो लोग (घटना तथ्यों को) नहीं समझ पाएंगे। इसलिए रामायण, महाभारत इसा मसीह का क्रुसीकरण होना जरुरी था । मोहम्मद साहब का उत्पीड़ण होना जरुरी था । इन सभी लीलाओं का होना जरुरी था क्योंकि बिना इस तरह की घटनाओं के लोग उन्हें नहीं याद रखेंगे । इसलिए मानव के आध्यात्मिक जीवन में शिव के आशीर्वाद और आदिशक्ति की शक्ति के बीच बहत से नाटकीय संघर्ष घटित हुए हैं । महाशिवरात्रि पूजा प्रवचन (अनुवादित), सिडनी, ३ मार्च १९९६ जैसे समय बीतता गया, आज मानव के आध्यात्मिक इतिहास में एक महान अविष्कार हआ है जिसमें हजारों लोग समूह में आत्मसाक्षात्कार पा सकते हैं। हमें जानना चाहिए कि यह आत्मसाक्षात्कार क्या है? हमें यह मिला है इसका क्या अर्थ है? इसका उत्कर्ष क्या है? सबसे पहले हमें मन के बारे में बताना है, जिस पर हम निर्भर हैं, मिथ्या है । मन जैसा कुछ भी नहीं है; मस्तिष्क वास्तविकता है परन्तु मन नहीं। मन को बाहरी दुनिया से प्रतिक्रिया करके हमने बनाया है, या तो हम अपने अहंकार या प्रनुबंधन से प्रतिक्रिया करते हैं। इस तरह सत्य के समुद्र पर मन बुलबुले जैसा है परन्तु वह अपने आप में सत्य नहीं है। इस मन से हम जो कुछ निर्णय लेते हैं हम जानते हैं कि बहुत सीमित, भ्रमात्मक और कभी १३ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-16.txt कभी तो बहत आघातकारी होता है। मन हमेशा रेखीय दिशा में चलता है क्योंकि इसमें कोई सत्यता नहीं होती, यह पलटता है, बुरे प्रभाव के साथ वापस लौटता है। इसलिए सभी उद्यम , योजनायें जो हमने बनाई हैं सभी हम पर प्रतिकारित हुई है । जो कुछ भी वे खोजते हैं, वे एक विनाशक शक्ति के रूप में हम तक वापस आते हैं या एक बहुत बड़े सदमें के रूप में । इसलिए हमें निर्णय लेना होगा, कि हमें क्या करना है, दिमाग (मन) के ज़ाल से कैसे बाहर निकला जाए? कुण्डलिनी ही इसका हल है । जब कुण्डलिनी जागृत की जाती है, तब अपने जागरण से आपको मन से दूर कर देती है। पहली चीज़ है कि आप अपने मन से बाहर हो जाते हैं। मन से आप बहुत से कार्य करते हैं, परन्तु इससे संतोष नहीं होगा, इससे समाधान नहीं होगा, यह सहायक नहीं होगा और जब हम मन पर बहुत अधिक आश्रित हो जाते हैं तो हममें बहुत सी शारीरिक, मानसिक और भावात्मक समस्यायें आ जाती हैं। अब, सबसे आधुनिक है तनाव । लोग कहते है कि तनाव का कोई इलाज़ नहीं है, परन्तु सहजयोग में मन से ऊपर होकर इसका इलाज है। विकास के लिए यह एक बाधा जैसा है। अत: जब आपका आत्मसाक्षात्कार होता है तो आपको जानना चाहिए कि आपकी कुण्डलिनी आपके चित्त को मन से अलग कर देती है। हम बाहरी दुनिया से प्रतिकार इसलिए करते हैं क्योंकि हम मनुष्यों का मस्तिष्क प्रिज्म की शक्ल की तरह है और जब दैवी शक्ति इससे गुजरती है, मैंने अपनी पुस्तक में बताया है, तो अपवर्तित (refract) हो कर बँट जाती है, जिससे हमारा चित्त बाहरी दुनिया की तरफ जाता है और हम प्रतिक्रिया करते हैं। अगर हम बहुत प्रतिक्रिया करते हैं तो यह बुलबुला एक भयंकर दिमाग (मन) को जन्म देता है जो कुछ भी कर सकता है । यह हर चीज़ को न्यायोचित साबित करता है और आपके अहंकार को बढ़ाता है। अहंकार और प्रतिअहंकार, जो मन की उत्पत्ति करते हैं ढ़ीले पड़ने लगते हैं और यह मन हर तरह की धारणा, विचारों के संग्रह की पूर्ति के लिए, जिसका कोई आधार नहीं है और कोई सत्यता नहीं है, पूर्णता करता रहता है। यह वैसे ही है, जैसे हम बनाते हैं और अन्तत: हम उसके दास हो जाते हैं, हमने घड़ी बनाई और हम घड़ी के गुलाम बन गये। इस तरह से यह (मन) मनुष्य पर नियंत्रण करता है। जब बहुत शक्तिशाली मन का कोई व्यक्ति विध्वंसक निर्णय लेता है, जैसे हिटलर ने किसी विचार से लिया, तो वह विनाश करता जाता है, जिसका मानव सभ्यता और आध्यात्मिकता पर दूरगामी प्रभाव पड़ता । है अब पहला कदम हैं कि आप जागरूक अवस्था में निर्विचार हों, जहाँ आप अपने मन को पार कर जाते हैं, आप मन से ऊपर हो जाते हैं। मन आपको प्रभावित नहीं करता । यह पहली अवस्था है जिसे हम निर्विचार चेतना कहते हैं। दूसरी वह अवस्था है जब आप परमचैतन्य की कार्यपद्धति को देखने लगते हैं-सर्वव्यापी शक्ति की और आप जागरूक हो जाते हैं कि श्री माताजी जो कहती हैं उसमें बहुत ही सत्यता है कि एक परमशक्ति है, जो बहुत सारी चीज़ों को कार्यान्वित करती है। आश्चर्यजनक ढंग से आपके लिए बहुत कुछ करती हैं-यह आशीर्वादित करती है, यह दिशादर्शन करती है, यह बहुत तरीकों से सहायता करती है। यह आपको अच्छा स्वास्थ्य, अच्छी संपत्ति, बहत अच्छे लोगों का समाज, सामूहिकता में देती है । यह सब आप स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं । यह निर्विचार चेतना की घटना की अवस्था पाना बहुत आसान और सरल है परन्तु उस स्थिति को बनाये रखना कठिन है । आप अभी भी प्रतिक्रिया करते हैं, धारणायें बनाते हैं, कुछ भी देखते है, उसकी प्रतिक्रिया करते हैं। अब निर्विचार चेतना की अवस्था पाने के लिए, पहले आपको १४ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-17.txt अपने चित्त के लगाव को बदलना होगा। उदाहरणार्थ, एक बार हम पहाड़ी पर स्थित पालीताना मन्दिर को देखने के लिए चढ़ रहे थें । मैं , मेरी बेटी और दामाद थे । हम लोग थक गये थे क्योंकि हमनें बहुत सी सीढ़ियाँ चढ़ीं और जब हम ऊपर गये तो एक सुन्दर विश्रामगृह तराशे हुए संगमरमर का बना था । हम लोग वहाँ आराम के लिए लेट गये। वे लोग बहुत थक गये थे और बोले कि यह किस प्रकार का मंन्दिर यहाँ है? वे लोग शिकायत कर रहे थे और मैंने देखा कि बहुत से सुन्दर हाथियों को पत्थर तराश कर बनाया गया था । मैंने अपने दामाद से कहा कि देखो, इन हाथियों की पूँछे अलग-अलग ढूंग से बनाई गई हैं । उन्होंने कहा,"मम्मी, हम मर रहे हैं, हम हाथियों की पूँछों की तरफ कैसे देख सकते हैं।" परन्तु मेरा कहना सिर्फ उनके चित्त को थकावट से बदलने के लिए था । मैंने उनसे कहा कि 'उन हाथियों को देखों जिनकी पूँछे अलग-अलग ढंग की बनीं हैं ।' इसलिए ऐसा है कि जब बाहर की ओर अपना चित्त बहुत देर तक रख रहे हैं तो पहले उसे (चित्त) बदलते रहना चाहिए । उदाहरण के लिए, यहाँ कुछ सुन्दर चीजें बनीं हैं। आपका चित्त कहीं और है । इनकी सुन्दरता को निर्विचारिता में देखें क्योंकि कवे आपकी नहीं है, किसी दूसरे की है; खराब होने का सिरदर्द आपका नहीं है। यह बहुत अच्छा है, अन्यथा अगर यह आपकी होते तो सोचते, हे प्रभु! मैंने यहाँ इन्हें बिछा दिया है, इनका क्या होगा। इनका बीमा कराना चाहिए या कुछ करना होगा आदि-आदि। यह साधारण मानव प्रतिक्रिया है। परन्तु अगर वे आपकी नहीं है, आप इन्हें अच्छी तरह देख सकते हैं। आप सिर्फ इन्हें देखें और (कुछ भी न सोचे) आपको आश्चर्य होगा जब आप देखेंगे कि कलाकार ने किस तरह से सुन्दरता इसमें भर दी है। आप उस कलाकार को देखेंगे जिसने अपना आनन्द तथा उल्लास उसमें ड्राल दिया है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आप देखेंगे कि आप में एक आनन्द भर जाता है, एक ठंड़ी विश्रान्ति महसूस होती है और आपकी कुण्डलिनी उठेगी तथा आप अपनी निर्विचार चेतना में स्थिर हो जाएंगे। अत: जो कुछ भी आप देखें, सुन्दर चीज़ों को देखें । उदाहरण के लिए आज के चुनाव को लें सिर्फ उस आदमी को देखें जो जीत गया है । उसे सिर्फ देखने मात्र से उसे अच्छे विचार, आशीर्वाद मिलेंगे । आपको भी सत्यता से अच्छे विचार मिलेंगे जो वहाँ मौजूद हैं। 'किस तरह से इस आदमी को सफल व्यक्ति बनाना है या इस देश को एक सफल स्वतंत्र राष्ट्र बनाना है।' यह सभी चीज़ें तभी घटित होती हैं, जब आपका चित्त आलोचना करने एक साक्षी स्वरूप बनिए । | या प्रतिक्रिया करने से हटाया जाता है। आप केवल देखें । एक साक्षी स्वरूप बनिए । अभी तक ऐसा कार्यान्वित नहीं हो रहा है | मैंने देखा है कि जब हम आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं, तो हम नहीं महसूस करते हैं कि हमें साक्षीस्वरूप होना चाहिए । जब आप अपनी आत्मा से देखते हैं तब दूसरे की बुराईयाँ नहीं देखते बल्कि अच्छाईयाँ देखते हैं। व्यक्ति में अच्छाईयाँ ही आपको नज़र आती हैं। जब आप इस तरह देखते हैं आपका साक्षीस्वरूप बढ़ने लगता है और दूसरे व्यक्ति से आप आनंदित होते हैं। अगर आपमें सामर्थ्य है तो एक छोटे टुकड़े में भी आपको आनन्द आने लगेगा। जापान में 'ज़ेन सिद्धांत' इसी आधार पर शुरू हुआ था और विधिध्मा, इसे शुरू करने वाले ने काई (मॉस) का बगीचा बनाया, अनेक प्रकार के । उसमें छोटे-छोटे फूल भी थे, मुश्किल से ५ फीट का बगीचा जो प्रश्नचिन्ह की शक्ल का था । व्यक्ति को लिफ्ट से जाना होता था और पहाड़ी के ऊपर प्लेटफार्म पर पहुँचते थे, जहाँ पर अनेक तरह की काइयाँ, अनेक ढ़ंग से व्यवस्थित थी, एक सुन्दर बगीचे में । जब आप उसे देखना शुरू करते हैं तो आपके विचार रूक जाते हैं क्योंकि जब आप इस सुन्दर रचना पर अपना चित्त ड़रालते हैं, इसकी उत्पत्ति देखते हैं तो आपके विचार रूक जाते हैं । अत: इसका अभ्यास करें कि कैसे आपके विचार रुकते हैं, कैसे आप साक्षी स्वरूप बनते हैं। जब आप इस आदत को विकसित करेंगे तो आप स्वयं को निर्विचार समाधि में सुंदरता से स्थित कर लेंगे । तब आप देखेंना शुरू करेंगे की कैसे सहजयोग ने आपकी मदद की। कैसे यह मंगलकारी रहा। आजकल परमचैतन्य बहुत ही सक्रिय हो गया है क्योंकि कृतयुग आ गया है। आाप देख सकते कि मेरे चारों तरफ चैतन्य लहरियों से किस तरह क्रीड़ा कर रहा है। आपने मेरे से चित्र देखे होंगे बहुत १५ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-18.txt थु नि २ र ८ / ी जिसमें वाइब्रेशन दिखते हैं, आपने फोटोग्राफ देखे होंगे जिसमें मेरे सामने बहुत से सहजयोगी बैठे हैं और उनके सिर पर अरबी भाषा में मेरा नाम लिखा है । आप अनेक ढंग से देख सकते हैं और पा सकते हैं कि इसमें दैवी- लीला है। फिर भी मन बहत सी शंकायें उत्पन्न करेगा परन्तु उस पर ध्यान न दें, सिर्फ देखें । सहजयोग का प्रभाव आप अपने ऊपर देखें, अपने शरीर पर देखें, परन्तु सोचे नहीं, सिर्फ देखें। आप खुद आश्चर्य करेंगे कि आप किस तरह बदल गये हैं। वास्तव में, जब मैं आस्ट्रेलिया आती हूँ कभी-कभी मैं आप लोगों को पहचान नहीं पाती- आप काफी कम उम्र के लगते हैं, ज्यादा प्रफुल्लित लगते हैं, बेहतर लगते हैं। जिसमें मैं पहचान नहीं पाती कि ये कौन लोग हैं। यह साक्षीस्वरूप अवस्था ही है जो आपको दूसरे क्षेत्र में ले जाती है जिसे हम निर्विकल्प चेतना कहते हैं । उस अवस्था में आपमें इतनी शक्ति आ जाती है कि आप दूसरों को आत्मसाक्षात्कार दे सकते हैं, आप सहजयोग का पूर्ण ज्ञान दे सकते हैं, आप दूसरों को प्रवचन दे सकते हैं और चैतन्य लहरियाँ भी उत्सर्जित करते ( बहाते) हैं (रूकावट पर जब मैं देख रही हूैं, तब मैं गर्मी सोख रही हँ, यह मेरी समस्या है) अत: आपकी आध्यात्मिक स्थिति इतनी आनन्ददायक हो जाती है कि आप इतने शक्तिशाली, इतने करुणामय, प्रेममय तथा संतुलित हो जाते हैं; पूर्ण रूप से विनाशक विचारों से स्वच्छ, उदासी से स्वच्छ हो जाते हैं और तब आप महान सहजयोगी बन जाते हैं जो बहुत कार्य कर सकता है। जैसे मैंने अभी हाल में सुना कि जर्मन और आस्ट्रियन (सहजयोग प्रचार के लिए) इज़रायल जाने लगे हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि उनके पूर्वजों ने यहदी लोगों को मारा था और इज़रायल में एक बड़ा केन्द्र स्थापित हो गया है। जरा सोचिए किस तरह से उस अवस्था में पहुँचने पर इन लोगों ने उस देश में अकेले इतना कार्य किया, उसी तरह टर्की में, उसी तरह दक्षिणी अफ्रिका के दूरदराज़, कमजोर स्थानों में। क्योंकि अन्दर से अब वे अपनी निर्विचारिता में, अपनी निर्विकल्प चेतना में इतने विश्वस्त हो गये हैं । अब जब आप ध्यानात्मक चित्त से विकसित होते हैं तब आपका चित्त प्रबोधित ( प्रकाशित) हो जाता है। ऐसे में सिर्फ आनन्द लेने के बजाय चित्त को प्रेरित करना चाहिए तथा कोई समस्या हो तो उस पर चित्त लगाना चाहिए। मान लीजिए, राष्ट्रीय स्तर पर कोई समस्या है, आप सभी उस पर अपना चित्त लगा सकते हैं और यह कार्यान्वित होगा क्योंकि लोग परम चैतन्य की नाड़ियाँ (वाहक) हैं जो आपके लिए नई दुनिया की रचना कर रहा है-नये तरह की मानव रचना। और यह क्रान्ति बहुत तेजी से कार्यान्वित हो सकती है अगर आप लोग निर्णय कर लें कि हमारे अन्दर जो ( शक्ति) है उसे प्रेरित करें , दिशा दें और इस चित्त को कुछ अच्छे कार्य में लगायें । इसका दुरूपयोग नहीं करना चाहिए, जो कुछ संपत्ति हमारे पास है उसका दुरूपयोग नहीं करना चाहिए । १६ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-19.txt अब आज का मुख्य प्रश्न है जो मैं आपको बताने जा रही हूँ कि ईश्वर साक्षात्कार क्या है ? प्रथम तो यह आत्मसाक्षात्कार है। बहुत से महत्वाकांक्षी व्यक्ति हैं जो ईश्वर साक्षात्कारी होना चाहते हैं। प्रथम चीज़ जो जानने की है कि, मानव ईश्वर नहीं बन सकते । यह इसे बनने का नहीं है । एक तरह से आप अभी आत्मा भी नहीं बने हैं क्योंकि आत्मा आप से उत्सर्जित हो रही है, आपका प्रयोग कर रही है, आपकी देखभाल कर रही है। अगर आत्मा हो जाते हो तो शरीर का कुछ भी बचेगा नहीं, कुछ भी नहीं बचेगा। अत: इस शरीर से अखंडित हो कर भी आत्मा इस शरीर से कार्य कर रही है, सभी प्रकार की बुद्धि ( प्रबोधन) दे रही है परन्तु कोई भी सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं बन सकता है । यह व्यक्ती को अच्छी तरह जान लेना चाहिए। परन्तु ईश्वर साक्षात्कार क्या है? यह ईश्वर के बारे में जानना कि उसकी शक्तियाँ कैसे कार्य कर रही है, किस तरह से व्यक्ति ईश्वर का अभिन्न अंग बन कर उनकी शक्तियों पर नियंत्रण करता है। उदाहरण के लिए, मेरी अंगुली मेरे मस्तिष्क के बारे में कुछ नहीं जानती, परन्तु यह मेरे मस्तिष्क के अनुसार कार्य करती है। अंगुली मस्तिष्क नहीं बन सकती परन्तु इसे पूर्णरूपेण मस्तिष्क के अनुसार चलना होता है क्योंकि यह मस्तिष्क से जुड़ी है, जैसे यह एक ही है । यहाँ पर, जब आपको ईश्वर साक्षात्कार हो जाता है तो आप मस्तिष्क के बारे में जानते हैं, आप ईश्वर के बारे में जानते हैं, आप ईश्वर की शक्तियों के बारे में जानते हैं, आप उनके बारे में सब कुछ जानते हैं । जहाँ तक मेरा सवाल है, आपके लिए यह मुश्किल काम है क्योंकि मैं महामाया हूँ मेरे बारे में हर चीज़ को जानना आपके लिए बहुत मुश्किल है। मैं बहुत ही मायावी व्यक्ति हूँ जो आप जानते हैं, और जो भी मैं करती हूँ या प्राप्त करती हैँ वह आप लोगों के लिए जानना और समझना है कि आखिरकार सहजयोग कुछ यह आदिशक्ति है जो यह सब कुछ कर सकतीं है। आप भी सब कुछ कर सकते हैं परन्तु आप लोग 'मेरे जैसे' नहीं बन सकते परन्तु आपको यह जानना है - प्यार से, भक्ति से और प्रार्थनाओं से। ईश्वर की शक्ति को जानना ही ईश्वर साक्षात्कार प्राप्त होने का रास्ता है। तब फिर आप प्रकृति पर नियंत्रण कर सकते हैं, सभी चीज़ पर नियंत्रण कर सकते हैं, अगर आप में ईश्वर के बारे में इस तरह का ज्ञान है। इसके लिए पूर्ण विनम्रता चाहिए कि आप सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं बन सकते हैं, आप देवता नहीं बन सकते हैं, परन्तु निश्चय ही आप ईश्वर साक्षात्कारी बन सकते हैं, मतलब कि ईश्वर आपके द्वारा कार्य करता है, आपको अपनी शक्ति के लिए प्रयोग में लाता है, अपनी नाड़ी के रूप में आपका उपयोग करता है तथा आप जानते हैं कि वह आपके साथ क्या कर रहा है, आप से क्या कह रहा है, उनका दृष्टिकोण क्या है और कौनसी सूचना है? (क्योंकि) सम्बन्ध ही ऐसा है । में बहुत से लोगों को फायदा हुआ है। मैं जानती हूँ कि सहजयोग में बहुत से लोगों को फायदा हुआ है, परन्तु उन्हें पता नहीं है कि किस तरह उन्हें फायदा हुआ है? क्या और कैसे कार्यान्वित हुआ है? उनके कौन से सम्बन्ध से उन्हें सहायता मिली है? एक बार जब आप वह करते हैं आप स्पष्ट रूप से जान लेते हैं कि किस तरह से चीज़ें घटित हो रही हैं, किन शक्तियों के द्वारा आपने इसे पाया है तब यह ईश्वर साक्षात्कार है। इस तरह के लोग बहुत ही शक्तिशाली हो जाते हैं, मतलब यह कि वे बहुत सी चीज़ों को नियंत्रित कर सकते हैं । इस तरह के बहुत से संत हैं परन्तु वे उस पराकाष्ठा से गिर गये क्योंकि उन्होंने अहंकार विकसित कर लिया है । उनमें वह विनम्रता नहीं थी कि उनमें वह श्रद्धा, भक्ति व समर्पण होना चाहिए। अत: गिर गये। आप उन्हें देखें । मैंने उनमें कुछ को देखा है कि उनमें अपनी प्रतिभा का बहुत घमंड़ नहीं देना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि उन्होंने बहुत कठिनाईयों से प्राप्त किया है, इसलिए इसे किसी को क्यों दें। इस तरह के लोग और अधिक ऊँचाइयों तक नहीं जा सकते । परन्तु आप लोग, जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया है, जो विनम्र है, जानते हैं कि विनम्रता के द्वारा ही आप अपना समर्पण प्राप्त कर सकते हैं। इस्लाम के मायने समर्पण, मोहम्मद साहब ने बताया था इस्लाम का अर्थ समर्पण होता है। अगर आप समर्पण नहीं कर सकते तो आप ईश्वर को कभी नहीं जान सकते । उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक आप अपने को नहीं जानते, आप ईश्वर को नहीं जान पायेंगे। अत: एक सहजी के है और किसी अन्य को कुछ १७ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-20.txt रूप में आपको छोटी से छोटी और सभी बड़ी चीजज़ों की ओर आप महान दिव्य दृष्टि को घटित कर सकते हैं क्योंकि आप ईश्वर के साम्राज्य में हैं क्योंकि यह ईश्वर की दया, आशीर्वाद और उनका आपके प्रति प्रेम से यह सम्भव हो पाया है। मैं कह सकती हूँ कि आप प्रवेश पा चुके हैं या आप वह अवस्था पा चुके हैं फिर भी आप वहाँ नहीं हैं। उदाहरणार्थ मैं किसी से कह सकती हूँ कि आप आस्ट्रेलिया में हैं। वह आस्ट्रेलिया में न भी हो फिर भी मैं कह सकती हूँ कि अब आप आस्ट्रेलिया में हो और वह विश्वास करने लग जाय कि वह आस्ट्रेलिया में है। परन्तु यह तरीका नहीं है । आपको आस्ट्रेलिया में होना है और उसके बारे में आपको जानना है%3B आपको जानना है कि वहाँ कैसा मौसम है, वह कैसा है? मुझे लगता है कि यहाँ (आस्ट्रेलिया) मे माता-पिता को अपने बच्चों से अच्छा संपर्क रखना होगा। माता-पिता की बच्चों से ज्यादा घनिष्टता नहीं है । उनकी स्कूल में अच्छी देखभाल हो रही है और वे बहुत कुछ करना चाहते हैं। लेकिन जब बच्चे यहाँ वापस आयें तो माता-पिता को देखना चाहिए कि उनमें (बच्चों में) उपयुक्त अनुशासन, संवेदना विकसित हो रही है न कि माता-पिता बहुत आसक्त हो जाएँ जिससे बच्चे खराब हो जाएं। अगर आप बहुत आसक्त हो जाते हैं तब वे खराब हो जाते हैं। शिव का एक गुण है पूर्ण अनासक्ति, यही आपको विकसित करना है। अनासक्ति का मतलब यह नहीं होता कि आप किसी चीज़ की उपेक्षा करें । मैंने कई बार आप लोगों को बताया है कि पेड़ का जीवन रस उसके हर भाग में जाता है फिर उड़ जाता है या तो पृथ्वी में वापस लौट जाता है। उसी तरह आपकी अनासक्ति होनी चाहिए। अगर किसी बच्चे से आप आसक्त है कि वह आपका बच्चा है या वह आस्ट्रेलियन है या वह किसी खास परिवार या समुदाय का है, तो अभी भी आप सीमित हैं। इस तरह की सभी सीमाओं को आपको छोड़ना होगा अगर आप इनसे ऊपर उठना चाहते हैं। इस तरह की सीमाएंँ आप पर बहुत बोझ बनती हैं, जिसकेपरिणाम स्वरूप में कुछ भी कोशिश करूँया आप कुछ भी करें, आप निर्विचारिता में स्थिर नहीं रह सकते हैं। वही सबसे सुन्दर अवस्था है जिसमें आप सबको होना चाहिए । निर्विचारिता में न तो आप प्रभुत्व दिखा रहेहैं न तो समझौता कर रहे हैं, आप अपने पैरों पर खड़े होते हैं और आप निश्चित रूप से जानते हैं कि आप किसी विचार या किसी के प्रभुत्व या अपने किसी प्रभुत्व के बहकावे में नहीं है। इस प्रकार आप पूर्ण रूप से स्वतंत्र प्राणी हो जाते हैं, पूर्ण रूप से स्वतंत्र पक्षी और फिर आपका काम हैं अपनी उड़ान लेना-पहली उड़ान निर्विचार समाधि तक, दूसरी निर्विकल्प समाधि तक तथा तीसरी ईश्वर साक्षात्कार तक । ॐ मैंने देखा है कि कुछ लोग जो मेरे बहुत करीब होते हैं वे भी नहीं समझ पाते हैं। वे इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे वे अब देवता हो गये हैं, इस तरह से अहंकारी हो जाते हैं कि हमें आश्चर्य होता है, फिर उन्हें सहजयोग छोड़ना पड़ता है। अतः आप देखें कि मैं अगर आपकी बहुत प्रशंसा भी करूँ तो आपको घमंड़ नहीं होना चाहिए। यह परीक्षा की घड़ी है या अगर मैं कहूँ कि यह ठीक नहीं है आप सुधारिये तो आपको बुरा नहीं लगना चाहिए क्योंकि मुझे ऐसा करना है। यह मेरा काम है और आपका काम सुनना है क्योंकि मुझे आपसे कुछ भी नहीं पाना है । मैं आपसे कुछ भी नहीं माँगती हूँ। मैं चाहती हूँ कि आप सब मेरी सभी शक्तियाँ पा जाएं। मैं मानती हूँ कि आप वह नहीं बन सकते जो मैं हूँ लेकिन कृपया मेरी सभी शक्तियाँ पाने की कोशिश कीजिए जो कि बहुत कठिन नहीं है । यही ईश्वर साक्षात्कार है, यही शिव और सदाशिव को जानना है । शिव के द्वारा आप सदाशिव को जान पाएंगे। आप प्रतिबिम्ब को जानिए, उससे जान पाइयेगा कि मूल क्या है? प्रतिबिम्ब से आप सीखते हैं अत: आप उस अवस्था में पहुँचते हैं जहाँ आप सोचते हैं कि अब आप ईश्वर के साम्राज्य में निश्चित ही स्थिर हो गये हैं और आप ईश्वर को देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं, आप ईश्वर को समझ सकते हैं और आप ईश्वर से प्यार कर सकते हैं । ईश्वर आपको आशीरवार्दित करें। १८ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-21.txt माता - पिता का चच्चों के साथ े सम्बन्ध सहज मन्दिर, दिल्ली १५ दिसम्बर १९८३ नि के ८ र एु ৯ भू 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-22.txt ' बच्चों के साथ हमारे दो सम्बन्ध बन ही जाते हैं, जिसमें एक तो भावना होती है, और एक में कर्तव्य होता है। स. हजयोग क्या है और उसमें मनुष्य क्या-क्या पाता है, आप जान सकते हैं। लेकिन आज में आपको एक छोटी-सी बात बताने वाली हूँ कि माता-पिता का सम्बन्ध बच्चों के साथ कैसा होना चाहिए। सबसे पहले बच्चों के साथ हमारे दो सम्बन्ध बन ही जाते हैं, जिसमें एक तो भावना होती है, और एक में कर्तव्य होता है। भावना और कर्तव्य दो अलग-अलग चीज़ बनी रहती हैं। जैसे कि कोई माँ है, बच्चा अगर कोई गलत काम करता है, गलत बातें सीखता है, तो भी अपनी भावना के कारण कहती है, "ठीक है, चलने दो| आजकल बच्चे ऐसे ही हैं, बच्चों से क्या कहना । जैसा भी है ठीक है।" दूसरी माँ होती है कि वो सोचती है कि वो बच्चों को कर्तव्य परायण बनाए। कर्तव्य परायण बनाने के लिए वो फिर बच्चों से कहती है कि "सवेरे जल्दी उठना चाहिए आपको। पढ़ने बैठना चाहिए। फिर आप जल्दी से स्कूल जाइए। ये समय से करना चाहिए। वहाँ बैठना चाहिए। यहाँ उठना चाहिए, ऐसे कपड़े पहनना चाहिए।" इन सब चीजों के पीछे में लगी रहती है। अब इसे कहना चाहिए कि ये सम्यक नहीं है, integrated (सम्यक) बात नहीं है। इसमें integration (समग्रता) नहीं है और आज का सहजयोग जो है वह integration (समग्रता) है । दोनों चीज़ों का integration (विलय, एकीकरण, चाहिए न कि combination (एकत्रीकरण) होना चाहिए । समग्रता और एकत्रीकरण में ये फर्क हो जाता है कि हमारी जो भावना है वो कर्तव्य होनी चाहिए और कर्तव्य हमारी भावना होनी चाहिए । समग्रीकरण) होना जैसे कि हमें अपने बच्चे के प्रति प्रेम है। तो हम कहेंगे कि प्रेम है, इसलिए हमारा कर्तव्य है-हमारा बच्चा ठीक रास्ते पर चले और बच्चा ठीक रास्ते पर इसलिए चले क्योंकि हमें उससे प्रेम है। अगर हम अपने बच्चे को ये नहीं बताते कि वो ठीक रास्ते पर चले, तो है हम भावना-प्रधान हैं। ये तो बहुत आसान है कि हम इस चीज़ को सोचें कि 'हम बच्चों से क्या कहें? जाने दीजिए। इसका मतलब बच्चे से कहने में बच्चे दु:खी हो जाते हैं, तकलीफ होती है उनको। उनको क्यों दुःखी करें ?' और एक होता है ये सोचा जाए कि 'नहीं, कितना भी दु:ख हो तो भी बच्चों को जो है एकदम धो करके, माँज करके, बिलकुल साफ कर दें।' जब समग्रीकरण (integration) हो जाता है तब मनुष्य इस तरह से अपना ही बर्ताव कर लेता है कि जिसका सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। २० 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-23.txt जैसे पिताजी तो हैं आलसी नम्बर एक, समझ लीजिए और या तो शराब पीते हैं, सिगरेट पीते हैं। या माँ बहुत गुस्सैली है, बच्चों को मारती, पीटती, झिड़कती रहती है। तो उसका असर बच्चों पर अपने आप पड़ जाता है। ऊपर से आप उन्हें कितने भी सदुपदेश दें, कितनी भी बाते बताएं, वो ये देखते हैं कि ये लोग कैसे हैं। बताने से कुछ नहीं होने वाला। जो फर्क होता है वो देखने से होता है कि हमारे माँ-बाप का बर्ताव कैसा है । उनका दूसरों के साथ बर्ताव कैसा है और उनका हमारे साथ बर्ताव कैसा है और उनका आपस में बत्ताव कैसा है । बच्चे हमेशा ये चीज़ देखते रहते है। एक छोटा सा किस्सा है कि एक औरत बहुत दुष्ट स्वभाव की थी और ससुर बुढ़े हो गए थे। तो उनको वो दूध वगैरेह देती थी, तो एक बड़ा गन्दा सा बर्तन था मिट्टी का, उसमें दिया करती थी और वो बेचारे उसी में दूध पीते थे। और वो बच्चा जो था उनका, वो ले जा करके दूध अपने दादा को देता था। एक दिन वो बर्तन टूट गया। तो बच्चा जोर-जोर से रोने लगा। तो उन्होंने कहा, "इसमें रोने की कौन सी बात है? वो तो टूट गया, सो टूट गया। इसमें रोने की कौन सी बात है?" तो बच्चे ने कहा कि, "मैं ये सोच रहा था माँ, कि जब तुम बुढी हो जाओगी, तो मैं तुम को किस चीज़ में दूध दूँगा?" तब उसका दिमाग जगा कि देखो बच्चे ने बात समझ ली, और फिर कहा कि, "अच्छा, अगर दूसरा आ सकता है तो बहुत अच्छी बात है। अब मैं नहीं रोऊँगा, क्योंकि उसमें मैं तुमको दूध दूँगा।" तो बच्चें हमेशा ये देखते रहते हैं कि आपका बर्ताव कैसा है । और इसकी जो छाप बच्चे पर पड़ती है बड़ी गहरी होती है, बनिस्बत इसके कि आप सुबह- शाम बच्चे को लेक्चर देते रहें। इसलिए जो लोग सहजयोगी यहाँ पर हैं, या जिनके बच्चे यहाँ पर पढ़ते हैं, उनको समझ लेना चाहिए कि तो नहीं क्या आप में वो सम्यक ज्ञान आया है या नहीं। सम्यक ज्ञान आने पर मनुष्य कितना भी समझाए बुरा लगेगा, कितना भी प्रेम करे तो भी खराब नहीं हेगा । आप लोगों पर मेरा अनन्त प्रेम है, और बहुत बार आपको मैं समझाती भी हूँ, लेकिन न आप लोग बुरा मानते हैं, न ही आप बिगड़ गए हैं। इस की वजह ये है कि सम्यक ज्ञान से काम करना है। अगर बच्चे जानते हैं कि आप पूरी तरह से उनको प्यार करते हैं, तो एक बार की भी झिड़की बहुत होती है। लेकिन अगर आप हर समय झिड़कते रहें तो बच्चे कहेंगे कि इनकी तो आदत ही झिड़कने की है। इसलिए बच्चों को बहुत ही संभाल कर और प्यार से रखना चाहिए। वास्तव में मैं तो यही कहूँगी कि प्यार ही से रखिए और जब कभी भी बच्चे में कोई दोष देखें, कुछ देखें, दो- चार बार देखने के बाद शांति से उनको बिठा करके कहें कि ये ठीक नहीं है। आपको आश्चर्य होगा कि आपका उनके साथ अगर सद्व्यवहार रहा, तो इस घबड़ाहट में, कि कहीं इनका प्यार न खत्म हो जाए, एकदम ठीक हो जाएंगे। लेकिन आपने अगर कोई प्यार ही कभी बच्चे को जताया नहीं, हर समय 'ये ठीक से रखो, वो ठीक से रखो, इसे ये करो, वो करो' करते रहे, तो बच्चे ये सोचेंगे कि यह तो इनकी आदत है, एक बात और कह दी तो क्या कर लेंगे। अत: अपना व्यवहार सम्यक होना चाहिए। अपने देश में भी हमनें देखें हैं कि लोग अपने बच्चों के लिए झूठ बोलेंगे, चोरी करेंगे, चकारी करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। यहाँ तक कि उनका बस चले तो देश भी बेच ड़रालें, और कुछ लोग होते हैं, परदेस में खास करके, वो अपने बच्चों की इतनी भी परवाह नहीं करते हैं कि अगर बच्चे मर रहे हों तो उनके मुँह में पानी ड्राल दें। ये दोनों चीज़े सम्यक नहीं है। उनको यही रहता है कि हमारा कालीन गन्दा नहीं होना चाहिए, हमारा दरवाजा साफ रहना चाहिए और हमारी गाड़ी ठीक रहनी चाहिए और बच्चों को काम करना चाहिए। उनके पीछे में पड़े रहते हैं, और यहाँ हम बच्चों को खराब करते हैं। खासकर माँ बच्चों को बहुत खराब करती हैं। पिता भी कभी-कभी बच्चों को खराब करते हैं। तो पहले अपनी ओर देखना चाहिए कि हम बच्चों को क्यों खराब करते हैं? इस कदर उनको प्यार नहीं देना २१ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-24.txt चाहिए कि जिससे बच्चे खराब हो जाएं , आप की बात न सुनें, मनमानी करें, या बच्चें ये न सोचें कि, 'हाँ ये तो...हम, इनको सब समझा लेंगे। ये तो अपने हाथ की बात है।' इस कदर हम अपने अति-प्यार से उनको गलत रास्ते पर ड़ाल देते हैं। उसी प्रकार कभी कभी उनके साथ बहुत सख्ती करने से भी उनको हम इस तरह के बना देते हैं कि वो हमसे मुँह मोड़ लेते हैं। फिर हमारा वो मुँह नहीं देखना चाहते। दोनो चीज़ के बीचोंबीच सहजयोग है, सुषुम्ना नाड़ी पर। अत: सुषुम्ना नाड़ी पर चलना चाहिए। न तो अति-प्यार के बहाव में रहना चाहिए और न ही अति कर्तव्य के बहाव में, किन्तु आत्मा के बहाव में चलना चाहिए। और जब आप आत्मा के आदेश से चलेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि आपकी आत्मोन्नति तो होगी ही, साथ में आपके देखा-देखी आपके बच्चों की भी होगी । ये सहजयोग का स्कूल इसलिए नहीं बनाया गया है कि देश में स्कूल कम हैं। स्कूल तो बहुत लोग बनाएंगे, बना भी सकते हैं, पैसा भी बना सकते हैं, बच्चे पढ़ भी जाएंगे, ग्रेज्यूएट भी हो जाएंगे , और सब हो जाएंगे | सहजयोग का स्कूल बनाने का मेरा विचार सिर्फ एक ही बात से था कि हमारे देश में आज ऐसे नागरिकों की ज़रूरत है जो एक विशेष रूप के आदर्शवादी हों। और ये विशेष रूप के आदर्शवादी बच्चें कहाँ तैय्यार होंगे ? उनके लिए कोई ऐसी शाला होनी चाहिए जहाँ इसकी पूरी व्यवस्था हों....। निर्मला योग, मई-जून १९८५ ओ० ३ै जे 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-25.txt कुण्डलिनी और ब्रह्मशक्ति २३ सितम्बर १९७९, दादर, निर्मला योग, १९८४ ल क्र आ. अजका विषय है कुण्डलिनी और विष्णुशक्ति तथा ब्रह्मशक्ति। वैसे देखा जाय तो ये बहुत ही बड़ा विषय है। थोड़ी देर में इस विषय में बहुत ही थोड़ा सा जिसे प्रारंभिक ज्ञान कहते हैं उतना ही बता सकते हैं तब भी अगर आपने ध्यानपूर्वक ये विषय तो आपकी समझ में आएगा कि भाषण देते समय भी मेरा ध्यान आपकी कुण्डलिनी पर ही रहता है। इसलिय आप हाथ मेरी तरफ रखें जैसे कुछ माँग रहे हों, इससे पूरे भाषण का अर्थ समझ सकते हैं और तभी आप पार हो जाते हैं। नहीं तो उसका कुछ मतलब नहीं है। पाँव में जूते हों तो उतारकर रखिए । गले में काले धागे हों, कमर में कुछ बाँधा हो, तो उसे भी उतारें तो अच्छा है। कल मेैंने बताया परमेश्वर की शक्ति आप के बां तरफ से इड़ा नाड़ी से बहती है। उस इच्छाशक्ति का थोड़ा सा हिस्सा कुण्डलिनी है। मतलब परमेश्वर की इच्छा ही आपकी इस त्रिकोणाकार अस्थी में रखी है । मनुष्य का पिंड तैयार होने के बाद जो बची हुई शक्ति है-वही ये शक्ति है। इसे अंग्रेजी में अवशिष्ट ऊर्जा (Residual Energy) कहते हैं। परंतु ये शुद्ध शक्ति है। वैसे ही ये शुद्ध इच्छाशक्ति भी है। ये सुना संपूर्णतया परमेश्वर की इच्छा होने के कारण अथवा इसमें अपनी इच्छा का कोई समागम न होने के कारण और उस पर आपकी इच्छा का कोई परिणाम न होने के कारण वह अत्यंत शुद्ध है। उसी शुद्धता पर यह वहाँ पर बैठी हुई है। वह त्रिकोणाकार अस्थि की शक्ति जो बाहर से दिख रही है किन्तु अन्दर से वह साढ़े तीन बल दिए हुए हैं। उसका बहुत बड़ा गणित है परन्तु मैंने कहा कि, मैं सभी बातों का केवल उल्लेख करूंगी उस पर जो किताबें लिखी गयी हैं वही आप पढ़िए। हमारे यहाँ 'दी अड़वेन्ट' एक बहुत सुन्दर किताब है। वह आप पढ़े तो आपको बहुत फायदा होगा। जैसे एक बीज़ में शक्ति है, वैसे ही ये भी एक अपार शक्ति है। अब ये जो इच्छाशक्ति है ये जब आप इस्तेमाल करने लगे तब ये आपके इड़ा नाड़ी से बहने लगी। तब इच्छा को पूरा करने से कोई दृष्य नज़र नहीं आएगा। इसलिए उस २३ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-26.txt इच्छा को क्रिया में ढ़ालना पड़ेगा और उसी इच्छा से क्रियाशक्ति निकली है। और वही क्रियाशक्ति आप के दायीं तरफ आयी है। वह आपके शरीर से पिंगला नाड़ी में से बहती है। यह दोनों नाड़ियाँ नीचे जहाँ मिलती हैं वहाँ श्री गणेश का स्थान है। इच्छाशक्ति भावनामय है, भावनात्मक है। मनुष्य की भावनाएं दिखाई नहीं देती है। उन भावनाओं को जब साकार रूप आ जाता है तभी उन का आविष्कार होता है। वह साकार रूप भी उसी शक्ति के कारण आता है। तभी यह दूसरी क्रियाशक्ति बाएं से दायें में आती है। इस क्रियाशक्ति को हम सहजयोग में महासरस्वती की शक्ति कहते हैं। पहली महाकाली की व दूसरी महासरस्वती की शक्ति। महासरस्वती की शक्ति आपके पिंगला नाड़ी में से बहती है। यही ब्रह्मशक्ति है। यह ब्रह्मशक्ति जब कार्यान्वित होती है अर्थात् क्रियाशक्ति जब कार्यान्वित होती है तब इसी को ब्रह्मशक्ति कहते हैं और इसके देवता हैं ब्रह्मदेव, महासरस्वती, इस ब्रह्मक्रिया को मदद करे हैं। यदि वह शक्ति उनमें से होकर बहती है, तभी ब्रह्म कार्यान्वित होता है। अब जो कुछ आपने वेदान्त वरगैरा पढ़ा है वह केवल ब्रह्मशक्ति से लिखा है। आश्चर्य की बात है जब मनुष्य संसार में आया तब उसे भी क्रिया करने की इच्छा हुई। इच्छाशक्ति तो उसमें थी परन्तु क्रिया करने की इच्छा हुई। क्रिया करने के लिए मनुष्य को पहले पंचमहाभूतों से सामना करना पड़ा। ये पंचमहाभूत हमारे यहाँ कहाँ से आए? उनकी पाँच तन्मात्राएं होती हैं। उससे पहले महत् अहंकार कुल मिलाकर २४ गुण होते हैं। इन सब शक्तियों से ही ये २४ गुण प्रगट हुए। और उन्होंने इस संसार में पंचमहाभूतों का निर्माण किया । इन पंचमहाभूतों को कैसे हाथ में पकड़ना, उन पर मास्टरी (नियन्त्रण) कैसे प्राप्त करनी और उन्हें किस तरह उपयोग में लाना है? उन्हें कैसे समझना? तब एक अंदाज मिला कि इन पंचमहाभूतों के एक-एक देवता हैं और एक-एक कोई कोई शक्ति है और वही शक्ति उन्हें नियमबद्ध करती है। प्रत्येक पंचमहाभूतों की एक-एक शक्ति है और वे उन्हें सँभालती हैं। और वही शक्ति उन में अविनाशी रहती है। तब उन्होंने अग्नि, वायु वगैरा प्रत्येक देवता की पूजा शुरू में की। पंचमहाभूतों के एक-एक देवता हैं | और उसके बाद उन्होंने यज्ञ-हवन करके इन पंचमहाभूतों को जागृत किया। इन्हें जागृत करते समय उनको पता चला कि, इनमें सात शक्तियाँ हैं। उन सातों में से एक है गायत्री व दूसरी है सावित्री। ऐसी सात शक्तियाँ हैं। तब गायत्री मंत्र वेदों में से निकला है। गायत्री मन्त्र, ये भी पिंगला नाड़ी पर बैठे हुए सभी देवताओं को और पंचमहाभूतों के सारे देवताओं को विराट के दाएं तरफ के देवताओं को जागृत करने के लिए है। एक - एक कोई -को्ड शक्ति है । एक महान शक्ति का मनुष्य ने निर्माण किया और जब उन्होंने पंचमहाभूतों को आहति देकर उनके देवताओं को आवाहन किया तब वे देवता जागृत हुए। उन देवताओं की जागृति से वे सभी शक्तियाँ जागृत हो गयीं और तब उनसे गुण जाग्रत कर के, मनुष्य ने सारी सुख-सुविधाएं निर्मित करके आज मानव उच्च स्थिति में पहुँच गया है। ये बहत वर्षों पुरानी बात है। श्री रामचन्द्रजी के जमाने में भी हवाई जहाज़ थे। हवाई जहाज़ों से लोग घूमते थे । उन्होंने ( रामचन्द्रजी ) खुद लंका से अयोध्या तक सफर किया है। और अर्जुन के समय में अपने यहाँ चक्रव्यूह था। इस तरह विशेष साधन थे। ऐसे उपकरण थे कि जिससे आप लोग बड़े-बड़े युद्ध जीत सकते थे। आयुध (लड़ाई का सामान) वर्गैरा सब कुछ अपने यहाँ था। और अब एटमबम्ब है, इस प्रकार के अस्त्र भी थे। उसी प्रकार अंतरिक्ष में जाने की सभी व्यवस्था थी। ये बात बिलकुल सच है। | उस समय हिन्दुस्तानियों की स्थिति बहुत अच्छी थी। 'भारतीय वास्तुशास्त्र' आप कहते हो, उस थे। समय आप उच्चतम स्थिति में थे। लोगों के पास अनेक प्रकार के वाहन । प्रासाद वर्गैरा बहुत ही सुन्दर | बनाये हुए थे। ये सभी पिंगला नाड़ी की कृपा से मिले हुए थे। अंग्रेजी में हम इसे 'सुप्राकॉन्शस एरिया' कहते हैं। मतलब इस प्रांत में अगर मनुष्या आया और उच्च स्थिति में पहुँचा तो भू-गर्भ में क्या है, में क्या है? इसका विवरण दे सकता है। परंतु इस पिंगला नाड़ी की प्रार्थना करते समय अनेक आकाश २४ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-27.txt बातों का ध्यान रखा जाता था। सर्वप्रथम आपकी वर्णव्यवस्था कौनसी थी। वह वर्णव्यवस्था विशेष पद्धति से बनी थी। २५ साल के उम्र के होन तक लड़का या लड़की एक ही युनिवर्सिटी में जाते थे और उसे ही हम गोत्र कहते हैं। इस युनिवर्सिटी के लड़के-लड़कियाँ विवाह नहीं कर सकते थे। अगर उनकी ऐसी इच्छा हुई कि यहाँ विवाह कर लें तो यह रूढ़ी के विरोध में होता है। अभी भी अपने यहाँ सगोत्र विवाह नहीं होते। पूरे पच्चीस साल ब्रह्मचर्य में रहना पड़ता था। उनके आत्मसाक्षात्कारी गुरू होते थे। वे उन लड़के-लड़कियों को हठयोग सिखाते थे । आजकल का हठयोग सिनेमा ऐक्टर, ऐक्ट्रेस बनाने वाला है। कल ही मुझे सवाल किया गया था, 'माताजी, हठयोग और कुण्डलिनी का क्या सम्बन्ध है?' अब आजकल सब गंदा होने के कारण पुराना जो पातंजली शास्त्र था उसमें जो अष्टांग योग कहा गया है उससे सारे आठों अंगों पर जोर है। इसलिए केवल आसन करने से लोगों के दिमाग में ये आने वाला नहीं था। पूर्व समय में आसन वरगैरा ये सब पच्चीस साल तक जब तक लड़का या लड़की जिनकी शादी नहीं हुई है और भाई-बहन बनकर एक साथ रहकर किसी आत्मसाक्षात्कारी पुरुष वाले आसन झूठे है।अब सभी आसनों में मैं देख रही हूँ कुण्डलिनी को विरोध करने वाली घटनाएं होती हैं। इन आसनों में से बहुत ही थोड़े आसन ऐसे हैं जो आत्मिक उन्नति के लिए पोषक है । पहले जमाने में सच्चे गुरू के पास जो लड़के होते थे वे गिने -चुने रहते थे। उन्हें बचपन से पच्चीस साल तक बहुत ही कड़ी मेहनत से योगाभ्यास सिखाना पड़ता था। इस स्थिति में साधक बच्चों की धार्मिकता बहत अच्छी तरह से बनायी जाती थी| ऐसे बच्चों में भी कुछ ही गिनेचुने बच्चों को ही गुरू आत्मज्ञान देते थे। आजकल ऐसा ज्ञान लेने दो-चार लोग गए हुए हैं। हिमालय के सच्चे गुरू लोग उनको निकाल देंगे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसके अलावा इस प्रकार हठयोग का ज्ञान समाज में फैलाने वाले जो के पास रहकर आसनों की शिक्षा लेते थे। आजकल सिखाने अ-गुरू हैं उनके पास अगर धर्म का कोई मेल ही नहीं है तो आत्मज्ञान कहाँ से आएगा? लोग कहते हैं कि ऐसे आसनों से हमें अच्छा लगता है। शारीरिक दृष्टि से आपको ठीक लगने कुछ लगेगा। पिंगला नाड़ी आपने ज्यादा उपयोग में लायी तो आपका शरीर बिलकुल ठीक होगा क्योंकि शारीरिक और मानसिक इन दोनों बातों के लिए इसमें से शक्ति बहती है । परन्तु शरीर को ठीक लगने लगा तो आपकी भावनाओं का क्या ? इस मार्ग से चलने वाले लोग अत्यंत रुखे होते हैं, क्योंकि ये सूर्यनाड़ी है। कई बार ऐसे लोग इतने रूखे होते हैं कि, ऐसे लोगों का जीवन हमेशा खराब ही होता है। उनकी अपनी बीबी से कभी नहीं पटेगी और इससे घर में हमेशा अशांति। इस के अलावा इन लोगों में एक तरह वैराग्य होता है और कभी-कभी ऐसे लोग इतने गुस्सैल होते हैं कि जैसे अपने यहाँ कुछ पुराने लोग होते थे। वे त्राहि त्राहि करके सताते थे। ये आपको मालूम भी नहीं होगा। 'विश्वामित्र ऋषि' ये कोई कल्याणकारी थे? ऋषि विश्वामित्र बहुत पहुँचे हुए तपस्वी थे कि जिसे देखते उसे भस्म करके रख देते। ये कोई कल्याण का रास्ता है? ये मार्ग हमारा नहीं है और सहजयोग में आपको ये मार्ग अपनाकर नहीं चलेगा। इस मार्ग से कहते हैं कई लोग महर्षि बने हैं! बने होंगे!! परन्तु इनका मनुष्य को क्या फायदा ? इन्होंने इतना करके क्या प्राप्त किया ? कभी-कभी मुझे लगता है इस तरह के जो आधे पहुँचे लोग केवल सन्यासीपन का पाखंड रचाकर घूमते रहते हैं। इसलिए सन्यासी का सहजयोग में कोई स्थान नहीं है। सन्यासी वृत्ति पिंगला नाड़ी की जाग्रति से होती है, परन्तु वह नाड़ी सहजयोग में आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद जाग्रत होनी चाहिए। उससे पहले की जाग्रति ठीक नहीं है। वह अधूरी, मतलब एकांगी होती है। इसलिए गलत है। मैं आपको स्पष्ट कहती हूँ सन्यासी लोग भगवी वस्त्र पहनने के लिए सन्यासी होते हैं। मतलब ये कि वयस्क होने के बाद भी उनकी नानाविध करतूतें छूटती नहीं है, और उसी में फँसे होते हैं। उसके लिए उन्हें अपना पूरा जन्म व्यतीत करना पड़ता है। २५ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-28.txt ब्रह्मरशक्ति मतलब पॉँच तन्मात्रा और उनमें से निकले हुए पंचमहाभूतों को जाग्रत करने की शक्ति। ८ एक बार आप सहजयोग में आते ही आपके धर्म का साँचा बन जाता है। आपको ज्यादा प्रयास भी नहीं करना पड़ता और मनुष्य में अपने आप शुद्धता, पवित्रता जाग्रत होती है। उसे औरतों के प्रति और दुसरी स्त्रियों के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहता क्योंकि वह समाधानी हो जाता है। जब वेद व श्रुति से पंचमहाभूतों को जाग्रत किया उसी के फलस्वरूप आज अपने यहाँ विज्ञान आया। विज्ञान भी कहाँ से आया । ये जो वेदमंत्र वगैरा बोलने वाले लोग थे उन्होंने पाश्चिमात्य देशों में जन्म लिया और उनका जो परमेश्वरी शोधकार्य अधूरा रहा था उसे उन्होंने पंचमहाभूतों को विज्ञान के जरिये जीतने का प्रयास किया और विज्ञान के बलपर उन्हें लगता हैं कि विज्ञान के कारण ही हम जीतेंगे और इसलिए वे अब चाँद पर, शुक्र पर कहाँ-कहाँ जा रहे हैं। परन्तु ये दायीं साईड बहुत अजीब है। मनुष्य को उसी में ज्यादा महत्ता लगने लगती है। मतलब ये कि किसी ने आपसे कहा आप आकाश में उड़ सकते हैं तो वे तुरन्त एक हजार पौंड देने के लिए तैयार ये है। एकदम मूर्खतापूर्ण बात है। अब आकाश में उड़ने कि क्या है? अजी अब पंछी बनकर क्या मिलने वाला है? पंछी से ऊँची स्थिति प्राप्त करोगे? अब पंछी बनने के लिए हमारे पास हवाई जहाज़ है, सब कुछ है। अब क्या पंछी बनने की स्थिति आपकी आयी हैं? और उड़कर भी क्या मिलने वाला है ? अमेरिका से अपने यहाँ कुछ साल पहले एक बड़े वैज्ञानिक आये थे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने उन्हें कहा उड़ने की जो बात है वह हो सकती है, लेकिन उस में भूतबाधा होती है। उड़ रहे हैं ऐसा लगता है, वह आभास होता | है। उसे लगता है सब लोग अलग हैं और मैं अलग हूँ। ऊपर से मुझे सब कुछ दिख रहा है। ये सब भूतबाधा है। इस दायी तरफ के ही बहुत से लोग होते हैं वे अत्यंत महत्त्वाकांक्षी होते हैं। ऐसे लोग जब मरते हैं तब उनकी आत्मा अतृप्त रहती है । उन्हें लगता है कुछ भी करके फिर से संसार में आ जाए। वे मरने के लिए तैयार नहीं होते। इसलिए वे किसी मनुष्य में घुसकर कुछ करते रहते हैं। उनका एक गुण है कि लोगों को ठीक करना। ब्रह्मशक्ति मतलब पाँच तन्मात्रा और उनमें से निकले हुए पंचमहाभूतों को जागृत करने की शक्ति। वह पिंगला नाड़ी पर है। मनुष्य जब कोई भी क्रिया करता है और आगे की सोचता है और अगर वह अपने शारीरिक कार्य के लिए उपयुक्त होता है, मतलब मेरा शरीर अच्छा रहना चाहिए, शरीर का आकार अच्छा रहना चाहिए, मेरी प्रकृति अच्छी रहनी चाहिए इस तरह की बातें सोचता रहता है तब ये पिंगला नाड़ी की शक्ति बहने लगती है। उसके अलावा अपनी शारीरिक स्थिति का उपयोग करने लगता है तब भी ये शक्ति बहने लगती २६ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-29.txt है। मतलब एक ही शक्ति ज्यादा बहने से इस मनुष्य में कभी-कभी विकृति का निर्माण हो जाता है । जब आप दायीं तरफ ज्यादा इस्तेमाल करेंगे तब बायीं बाजू बेकार हो जाती है। अब दायीं तरफ ज्यादा उपयोग में लाने से कौनसी बीमारियाँ होती है; ये हम देखेंगे : अब सर्वप्रथम ये देखिए हम जब ये शक्ति बहुत उपयोग में लाते हैं तब आपको जो मुख्य काम करना है वह हम नहीं कर सकते । स्वाधिष्ठान चक्र महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि 'ब्रह्मदेव' स्वाधिष्ठान चक्र पर बैठे हैं और वे इसे शक्ति देते हैं। तो इनका पहला कार्य ये है कि सृजन कार्य के लिए जो शक्ति चाहिए उसे देते हैं। अब देखिए अगर आप कलाकार हैं और सहजयोगी नहीं हैं तो आपको कौनसी बीमारी होने की सम्भावनाएं हैं। पहली बीमारी ये कि आप बहुत कठोर स्वभाव के हो सकते हैं। आपमें कोई प्रेम नहीं है। आपके साथ कोई मनुष्य खड़ा नहीं रह सकता। कोई कहता है वह बड़ा आर्टिस्ट होगा। फिर वह दाढ़ी बढ़ाएगा। कुछ भी दिखावा, हम कोई सन्यासी वगैरा हैं, ये सभी दिखावा इ.। इस तरह की हरकतें करने लग जाता है। आर्टिस्ट का मतलब आप इसे हजारों लोगों में पहचान लेंगे, 'क्यों जी आप आर्टिस्ट हैं?' ऐसा कहते ही उन्होंने अपनी एक कालर ऊपर उठाली। ऐसा मनुष्य बहुत क्रोधी होता है। उसका कारण दायीं तरफ ज्यादा उपयोग में लाने के कारण संतुलन नहीं आता है। उसकी भावनाएं कम हो जाती है। अगर कोई मनुष्य बहुत दौड़ता है। हिन्दुस्तान में ये सब नहीं दिखाई देता, परन्तु बाकी सभी देशों में इस प्रकार की प्रतियोगिताएं बहुत चलती हैं। वहाँ के सारे लोग भागते रहते हैं। एक दिन हमारे यहाँ ऐसा एक आदमी आया और कहने लगा, में हमेशा भागता रहता हूँ, मुझे कोई सुख नहीं है और दु:ख नहीं है, में सुख-दु:ख के परे हूँ। मैंने कहा, 'ऐसा कुछ नहीं है।' आनन्द एक चीज़ है और सुख- दुःख के उस पार जाकर रहना, पत्थर का होना, इन्सानियत नहीं है। ये मनुष्य मनुष्यता को ही भूल जाता है। मतलब अब कई लोग अत्यंत स्पष्ट बोलते हैं। किसी को कुछ दु:ख होगा, परेशानी होगी या हमारे बोलने से किसी को दर्द होगा, ये उस मनुष्य के दिमाग में ही नहीं आता है। क्योंकि कभी कभी वह बहुत विजयी भी होता है। जिसे हम विजय कहते हैं वह पाँच तत्वों के जीतने से भी आ सकता है। मतलब कोई मनुष्य बहुत बड़ा अफसर है या वह कोई बड़ा सत्ताधीश बना, तो उसे खास पिंगला नाड़ी की बीमारी होगी मतलब की अहंकार की बाधा होगी। इस प्रकार के मनुष्य के पास एक ढाल लेकर जाना पड़ता है। सीधे तरीके से आप मिलने जाओगे तो कब आपका सर टूटेगा इसका कोई पता नहीं। एक बार एक मनुष्य के पास एक आदमी मिलने आया। वहाँ पर एक और आदमी था। वे सभी पर चिल्ला रहे थे। मिलने गया हुआ आदमी बेचारा सीधा, गाँव का आदमी, उसके समझ में कोई बात नहीं आ रही थी । उन्होंने चिल्लाने वाले से पूछा 'आपको क्या चाहिए?' तो जबाब मिला , 'आप कौन होते हो पूछने वाले ?' 'मैं पी.ए. हूँ' 'अरे, पहले बताते तुम?' उन्होंने फिर से कहा, 'मैं पी. ए. हूँ ।' पी. ए. बन गये तो कौनसी बड़ी बात हो गयी? पिंगला नाड़ी पर जो बहुत कार्य करते हैं वे 'हम ये करेंगे, वो करेंगे' ऐसा बोलते रहते हैं। उनके पीछे एक अत्यंत विचित्र प्राणी जिन्दा होता है। वह है अत्यंत कठोर हृदय कि जिसकी प्रेम का विचार ही नहीं होता है: अत्यंत कठोर हदय जिसे किसी के भी सुख-दुःख का ख्याल नहीं रहता। अब अपने महाराष्ट्र में लोगों का कहना है कि महाराष्ट्रियन लोग जरा ज्यादा ही कठोर बोलते हैं। कठिन बोलने का रिवाज महाराष्ट्र में बहुत है। मीठा बोलना अपने यहाँ ज़रा कम है। उसका कारण मुझे लगता है, अपने सन्तों ने शब्दों के वार किये। तब हमें भी लगता है कि हम भी दो-चार चिकोटे काटें तो क्या हर्ज हैं? परन्तु साधु-सन्तों का अलग है। उनका परीक्षा लेना का वही तरीका था। तब भी हमें सब के साथ मीठी बोली बोलनी चाहिए। मीठी बात बोलने में आप किसी की चापलूसी नहीं कर रहे हैं। एक तो आप किसी की चापलूसी करेंगे, नहीं तो किसीको तोड़ देंगे । कुछ बीचों-बीच है कि नहीं? साधु- २७ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-30.txt हमारा सहजयोग मध्यमार्ग में होता है। कहने का उद्देश्य है कि में एक तरह की मिठास होनी चाहिए। बोलते समय उसमें कुछ भावना चाहिए। दूसरों की भी भावनाएऐं होती हैं। उन्हें दुखाते समय हमें सोचना चाहिए। वही कभी-कभी इतनी दुष्टता करती हैं कि आश्चर्य होता है। इतनी दुष्टता उनमें कैसे आती है? उसका कारण है वे बड़ी विचित्र होती हैं। मतलब हमेशा आज खाना क्या बनाना है? अब लड़की के ऑफिस में खाना भेजना है, मेरे पति का ये काम करना है, इस तरह सारी भविष्य की बातें सोचनी हैं। उस समय ये दांयी बाजू पकड़ी जाती है। दायीं तरफ जाने वाला मनुष्य एकदम दुःखी जीव होता है। क्योंकि ऐसे मनुष्य को कोई भी अपने नज़दीक नहीं आने देता। ये सबसे बड़ी बीमारी है। ये किसी को नज़र नहीं आती। भारत में बड़े बड़े विजयी लोग हैं। परन्तु उनके रूखेपन के कारण उनका नाम कोई सवेरे लेने के लिए तैयार नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा शाम को लेंगे और तुरन्त मुंह धो डालेंगे। ऐसी स्थिति है। अब इस तरह से चलने वाले लोगों का मतलब जो अति पर उतरते हैं, माने अति काम करते मनुष्य हैं-वो समझते हैं हम बड़ा भव्य, दिव्य काम कर रहे हैं। ऐसी धारणा बनाकर बाकी सभी से वंचित रह जाते हैं। आपका परिवार है, बच्चे हैं, ये हो गया एक मार्गीपन। विशेषत: ये हमारे देश में बहुत है, औरतों का भी, पुरुषों का भी। उन्हें लगता है पूरा समय हमें बाहर कुछ करके दिखाना चाहिए, दुनिया में कुछ तो भी विशेष करना चाहिए। सब से महत्त्वपूर्ण बात पैसे कमाने चाहिए और किस तरह से कमाने चाहिए ये दूसरी महत्त्वपूर्ण बात। इसलिए सारी औरतें व पुरुष उसी के पीछे लगे हुए हैं। इस पैसे कमाने की में कभी पति-पत्नी की पटती नहीं और किसी से भी किसी की पटती नहीं । ० 'सहजयोग धुन मैं लंदन गयी थी तो मुझे लगा सब कोई कुत्तों की तरह क्यों भौंक रहे हैं? बात करते समय लड़ाई पर उतर आएंगे । टेलीविज़न पर भी पति-पत्नी की लड़ाई दिखाएंगे , नहीं तो माँ -बेटों की, नहीं तो भाई - बहनों की लड़ाइयाँ दिखाएंगे। लड़ाइयों के सिवाय और कुछ नहीं। कोई प्यार से किसी से बातें कर रहा है ये कभी नहीं दिखाई देता। हँसने लगेंगे तो इतने गर्दे हँसेंगे कि देखने को जी नहीं करता। आखिर आपको टेलीविज़न बंद करना पड़ेगा। आपस में प्यार से रहना चाहिए। चिकचिक करना, दूसरों को नीचा दिखाना, किसी से बुरी तरह से बातें करना ये सभी मनुष्य के दोष हैं। ये बीमारियाँ फैलते ही सारे समाज का विनाश होता है। जब पिंगला नाड़ी अपने में बहुत बलशाली होती है तब मनुष्य एक तरह की से आप में ब्रह्मतत्व जागृत में होता है। उन्मत्तता आ जाती है और उस वेग में उसे ये भी समझ नहीं आता कि हम दूसरों को बुरी बातें सुना रहे हैं। व उनके साथ बेशरमों की तरह बर्ताव कर रहे हैं । दूसरों की भावनाएं दुखा रहे हैं। दुसरों को ठेस पहुँचायी है। अब इस पर क्या इलाज करना चाहिए? अगर मैंने लोगों से कहा 'आप नियोजन मत करिए,' तो उनको लगता है, माताजी पुराने ख्यालात की है। पर मैं कहती हूँ आप नियोजन मत करिए। पहले परमेश्वर का नियोजन देखिए और उस के बाद नियोजन कीजिए । परमेश्वर का प्लैनिंग पहचानना चाहिए। जब तक परमेश्वर का नियोजन हम पहचानते नहीं तब तक आपके नियोजन का कोई मतलब नहीं। हर एक काम नयोजित है। हर एक नियोजन में परमेश्वर का हाथ है क्योंकि उनका कार्य बहुत बड़ा है। उनके पास सभी प्रकार की शक्तियाँ हैं। अब ये जो ब्रह्मतत्व है ये हमारे हाथों से आता रहता है। इसका फायदा सहजयोग में कैसा होता है ये अब मैं बताने जा रही हूँ। अब आपको आश्चर्य होगा कि सहजयोग से आप में ब्रह्मत्व जागृत होता है। तब क्या होता है? तो अपने हाथों से जो चैतन्य लहरियाँ आती हैं वे हमारे साथ बोलने लगती हैं। यहाँ बैठे-बैठे आप बता सकते हैं कि आपके पिताजी की हालत कैसी है? अपनी माता की स्थिति कैसी है? देश का क्या हाल है? प्रधानमन्त्री की स्थिति कैसी है ? वे कहाँ हैं? उनकी कुण्डलिनी कहाँ हैं? वे कहाँ पर बैठी हैं? उन्हें क्या परेशानी है? उन्हें कौनसी बीमारी होने वाली है ? कौनसी बीमारी हुई है। यहाँ पर बैठे-बैठे आप २८ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-31.txt कह सकते हैं। जब ब्रह्मतत्व जागृत होता है तब अपने पूरे कार्यक्षेत्र में जो कुछ भी हम करते हैं उसमें एक प्रकार की तेजस्विता आती है और उस कृति को एक प्रकार की शिस्तबद्धता आ जाती है। उसका एक गुणक संख्यांक है। उसका गुणकसंख्यांक निकाला जाय तो उसके एकदम ठीक चैतन्य लहरियाँ शुरू होते ही दूसरा जो मनुष्य बैठा है उसकी आत्मा को आनन्द होने लगता है और उसे भी वह प्राप्त होता है। अब हमारे एक सहजयोगी थे, वे मेरे पास आये और कहने लगे, "माताजी, मैं क्या करूँ ?" तो मैंने कहा इंटैरिअर डैकोरेटर (घर की भीतरी सजावट करने वाला) बनिए । तो वे कहने लगे 'सर मेरा!' लकड़ी किस चीज़ से काटते हैं ये भी मुझे पता नहीं और आप मुझे इंटैरिअर डैकोरेटर होने को बता रही हैं। मैंने कहा करके तो देखिए आप, केवल चैतन्य लहरियों पर! और आज उन्होंने लाखों रूपये कमाये हैं। मतलब ये कि केवल चैतन्य लहरियाँ पर मालूम होता है और जो चैतन्य लहरियों पर मालूम होता है वह जागतिक है। जो चीज़ सारे संसार ने मानी हुई है उसे ही अच्छे वाइब्रेशन्स आते हैं। सौंदर्य दृष्टी उसी से आती है अब यहाँ बैठे-बैठे ही आप बता सकते हैं कहाँ अच्छे वाइब्रेशन्स हैं, आपके गुरू कौन हैं ? कोई पार 'जो चीज़ हर्ज नहीं वे अब इस संसार में नही है तब भी आप बता सकते हैं वे सच्चे हैं कि झूठे हैं। ज्यादा से ज्यादा आप लंदन फोन कर सकते हैं। लंदन में आप के मित्र बीमार हैं या कैसे हैं ये यहाँ बैठे-बैठे कह सकते हैं सारे संसार और उसके लिए आपका एक पैसा भी नहीं लगता। उसका ये है वहाँ वे बीमार हैं तो यहीं से आप उन्हें बन्धन दीजिए तो वे वहाँ पर ठीक हो जाएंगे। ये सब आप से हो सकता है और उसके मज़ेदार खेल भी होते रहते हैं ने मानी अहंकार ये चीज़ ऐसी है कि ये जब आप में फैल गयी तो वह आपको एकदम अन्धकार में खींच सकती है। अपने आपको साधक पहचान नहीं सकता इतने अंध:कार में मनुष्य जाने लगता है। अब अहंकार कैसे आता है ये मैं बताती हैँ। ये इड़ा नाड़ी ये यहाँ से शुरू होती है और ये पिंगला नाड़ी ये जब कार्यान्वित होती है तब उनमें से निकाला हुआ धुआँ-कहिए किसी फैक्ट्री से धुआँ निकलता है ? -या उसीका कोई उप-उत्पादन कहिए, ये दोनों संस्थाएं तैयार होती हैं। एक है अहंकार, दूसरा है प्रति अहंकार- मतलब हम जो क्रियाशक्ति उपयोग में लाते हैं उससे हमारे में अहंकार निर्माण होता है। वह ऐसे यहाँ से बायीं निकलकर उल्टी तरफ से निकलता है। और जब हम भावनात्मक बरताव करते हैं तब प्रति- अहंकार आते हैं। इसमें जो लोग अति भावनात्मक होते हैं उनमें प्रति-अहंकार होता है। समझ लीजिए एक छोटा बच्चा माँ का दूध पी रहा है और दूध पीते समय उसे बिलकुल खुश रखना है। उस समय उसकी माँ कहती है 'अब मत रोना। मैं तुझे दूसरी तरफ से पिलाती हूँ।' माँ ने उसे ऐसे घुमाया तो उसमें अहंकार आ गया। 'किसलिए इन्होंने मेरे आनन्द में विघ्न किया।' अहंकार आते ही माँ ने कहा, 'अब हुई है उसे ही अच्छे वाइब्रेशन्स आते हैं। रोना नहीं, चुप रहो' तो वह चुप हो गया। अब प्रति-अहंकार आया। जब अहंकार दबता है तब प्रति- अहंकार आता है। उसे ही संस्कारित, चित्रित होना कहते हैं। हम जितना भी पढ़ते हैं, मतलब जितने अपने में संस्कार होते हैं वे सारे प्रति-अहंकार से होते हैं और जो अहंकार से हम कार्य करते हैं वह तो आपको मालूम है। परन्तु सुख, सुसंस्कार अलग बातें हैं। संस्कार करवाने के लिए बहत से लोग कहते हैं, हम इसे मानते नहीं है, आपने कुछ अनुभव किया है? आप में मन का खुलापन नहीं है। दूसरा अहंकारी मनुष्य कहता है 'मेरा परमेश्वर पर विश्वास नहीं है । मैं परमेश्वर को ही नहीं मानता हूँ। मैं किसी को भी नहीं मानता।' मतलब उस पर कोई संस्कार नहीं है। एक में अति संस्कार हुए है और दूसरे में कोई संस्कार नहीं है। उसे अहंकार और प्रति-अहंकार कहते हैं । अब ये शक्ति जो पिंगला नाड़ी में है वह हमारे दांयी सिम्पथैटिक नाड़ी तन्त्र में आती है। जब हम वह शक्ति उपयोग में लाने लगते हैं-ज्यादा या बहुत ही कम करने लगते हैं-तब हमें कैन्सर जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। कैन्सर जैसी बीमारी कैसे २९ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-32.txt हश ब बा ३ र का होती है ये देखना बहुत जरूरी है। एक बाईं संस्था है, एक दाईं संस्था है। उसके बाद ये इड़ा नाड़ी का कार्य है व दूसरा पिंगला नाड़ी का और बीच में सुषुम्ना नाड़ी है। अगर हमने ये दाईं बाजू ज्यादा इस्तेमाल की तो बाईं बाजू बहुत भारी होती है और इस बाजू का चक्र है, वह टूट जाता है और हमारे उस चक्र पर के देवता एक तो सो जाते हैं या तो कभी-कभी लुप्त हो जाते हैं। उसके बाद वह बाजू (इड़ा या पिंगला नाड़ी जो ज्यादा भारी हुई वह) अपने आप चलने लगती है। उससे कैन्सर जैसी बीमारी हो सकती है। तो किसी भी बात की वजह से आपकी सिम्परथैटिक नाड़ी संस्थान) ज्यादा उत्तेजित नहीं होनी चाहिए। वैसे भी गलत गुरू करने से व काली विद्या- ब्लैक मैजिक-की वजह से कैन्सर होता है। आश्चर्य की बात है कैन्सर के पीछे किसी न किसी गुरू का ही हाथ है। कितने प्रकार के गुरू हैं। मैंने जितने रोगी ठीक किये हैं उन सभी में किसी न किसी गुरू का प्रकार या काली विद्या, मतलब ये जो कैन्सर की शक्ति है वह बाईं तरफ से शुरू होती है और बाईं तरफ डाक्टर नहीं जा सकते| वे ज्यादा से ज्यादा नाक काटेंगे, कान काटेंगे या आँख परंतु कैन्सर वे ठीक नहीं कर सकते। अब जो बीच की शक्ति है वह है- विष्णुशक्ति। इस शक्ति के बारे में इतनी थोड़ी देर में मैं नहीं कह पाऊँगी । तो इस शक्ति के बारे में मैं कल बताऊँगी। और इसी शक्ति के दम पर आप ने सहजयोग अपनाया है। अगर ये दोनों शक्तियाँ नहीं होती तो आपकी उत्क्रान्ति नहीं होती। हम अमीबा से मानव नहीं बनते और न आज इस स्थििति तक पहुँचते। परमेश्वर आपको सुखी रखे ये मेरा आशीर्वाद है। | ३० 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-33.txt श्रीखण्ड म री उा हुी रा सामग्री :- २ ली.दही, चीनी स्वादानुसार (१८० ग्राम), १/४ छोटा चम्मच इलायची पाऊडर, १/४ छोटा चम्मच केसर, १२५ मि.ली.फेंटी हुई मलाई (इच्छानुसार), १ बड़ा चम्मच बिना नमक का हरा पिस्ता-बारीक कटा हुआ सजावट के लिए। विधि :- १) रातभर दही को मलमल के कपड़े में ड्राल कर टॉग दे। २) मिक्सर के साथ छने हुए दही को क्रीम के समान होने तक फेंटे। ३) चीनी, केसर और इलायची पाऊडर ड्रालें। चीनी के पिघलने तक फेंटे। अब फेंटी हुई मलाई आहिस्ता से मिलाएं। ४) फ्रिज में १५ मिनट के लिए रखे। ५ ) कटोरियों में ड्राल कर ऊपर पिस्ता ड़राल कर परोसे। ( श्री माताजी द्वारा लिखित ' Cooking with Love' से लिया गया है।) ३१ शतल बा 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-34.txt नव-आगमन Code. Nos. Type Speech Title Date Place DVD/HH VCD/HH|ACD/HHACS/HH Shri Saraswati Puja : Part-I & II Sp/Pu 099* 078 14-Jan-83 Dhulia 2-Feb-83 Talk about Vishudhi Delhi PP 267* 17 Dec 85 | Saptshrungi Puja : Part I & II Sp/Pu 268* Nasik सार्वजनिक कार्यक्रम - योग म्हणजे परमेश्वराच्या साम्राज्यात जाणे Ganapatipule PP 3-Jan-86 269* 22-Dec-87 सार्वजनिक कार्यक्रम - कुण्डलिनी शास्त्र आणि चक्रे 270* Sangamner PP 6-May-90 | Sahastrar Puja : The Announcement (You have to all become Mahayogis now)| Fiuggi Sp/Pu| 271* 272* Shri Krishna Puja : Part-I & II The Technique of the Play / Collective Conditionings 1-Sep-91 Cabella Sp 26-Jun-94 | Shri Adishakti Puja : Seekers, Ego, Women are Shaktis Cabella Sp 273* 27 Sep 98 | Navaratri Puja : You all should depend on Parama Chaitanya 180 Cabella Sp 274* 14-Feb-99 | Maha Shivratri Puja : Principle of Shiva is in your heart Delhi Sp 186 033* BHAJAN / MUSIC CODE ARTIST TITLE ACD ACS - Music of Joy Group Music of Joy - I 145* 145* Music of Joy Group Music of Joy - Il 146* 146* Music of Joy Group Music of Joy - I|I 147* 147* Pt. P. Dhakade Chaitanya Ki Lahren 148* 148* Jai Janani - || 149* Anandita Basu 149* प्रकाशक निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ 2009_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-35.txt Happy Gudi Padwa !