चैतन्य लहरी मई - जून २००९ हिन्दी THPPI'I'ITH প रा चेतन होकर देखो उसे दिव्य आनन्द से तुम्हारे रोम रोम को चैतन्यित करता हुआ, पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाश से भरता हुआ । आपकी माँ निर्मला के ा ० इस अंक में १४ स्थितियाँ १-९ पकोड़ा १० प्रपंच और सहजयोग १५-२७ और अन्य ও जागृत का मतलब : ठण्डी ठण्डी हवा - ११-१२ समर्पण और भक्ति - १३-१४ विविध कार्यक्रमों का वृत्तांत - २८-३१ १४ स्थितियाँ ५ मई १९८३ २ आज सहजयोग ३र चौ दह वर्ष पूर्व कहना चाहिये या जिसे तेरह वर्ष हो गए और अब चौदहवाँ वर्ष चल पड़ा है, यह महान कार्य संसार में हुआ था, जबकि सहस्रार खोला गया। इसके बारे में मैंने अनेक बार आपसे हर सहस्रार दिन पर बताया हुआ है कि क्या हुआ था, किस तरह से ये घटना हुई, क्यों की गई और इसका महात्म्य क्या है? लेकिन चौदहवाँ जन्मदिन बहुत बड़ी चीज़ है। क्योंकि मनुष्य चौदह स्तर पर रहता है, और जिस दिन चौदह स्तर वो लाँघ जाता है, तो वो फिर पूरी तरह से सहजयोगी हो जाता है। इसलिये आज सहजयोग भी सहजयोगी हो गया। ने अपने अन्दर इस प्रकार परमात्मा चौदह स्तर बनाए है। अगर आप गिनिये, सीधे तरीके से, तो भी अपने अन्दर आप जानते हैं सात चक्र हैं, एक साथ अपने आप। उसके अलावा और दो चक्र जो हैं, उसके बारे में आप लोग बातचीत ज़्यादा नहीं करते, वो हैं 'चन्द्र' का चक्र और 'सूर्य' का चक्र। फिर एक हम्सा चक्र है, इस प्रकार तीन चक्र और आ गए। तो, सात और तीन- दस। उसके ऊपर और चार चक्र हैं। सहस्रार से ऊपर और चार चक्र हैं। और उन चक्रों के बारे में भी मैंने आप से बताया था-अर्धबिन्दु, बिन्दु, वलय और प्रदक्षिणा। इन चार चक्रों के बाद कह सकते हैं कि हम लोग सहजयोगी हो गए। और दूसरी तरह से भी आप देखें, तो हमारे अन्दर चौदह स्थितियाँ सहस्रार तक पहुँचने पर भी हैं। अगर उसको विभाजित किया जाए तो सात चक्र अगर इड़ा नाड़ी पर और सात पिंगला नाड़ी पर हैं। मनुष्य जब चढ़ता है, तो वो सीधे नहीं चढ़ता । वो पहले बायें (लेफ्ट) में में आता है, फिर दायें (राइट) में जाता है, फिर लेफ्ट में आता है, फिर राइट जाता है और कुण्डलिनी जो है, वो भी जब चढ़ती है तो इन दोनों में विभाजित होती हुई चढ़ती है। इसकी वजह ये है कि मैं आपको अगर समझाऊँ कि दो रस्सी और दोनों रस्सियाँ इस प्रकार नीचे उतरते वक्त या ऊपर चढ़ते वक्त भी दो अवगुण्ठन लेती हैं। जब दो अवगुण्ठन लेती हैं, तो उसके लेफ्ट और राइट इस प्रकार से पहले लेफ्ट और फिर राइट, दोनों के अवगुण्ठन होने से, फिर राइट वाली राइट को आ जाती है, लेफ्ट वाली लेफ्ट को चली जाती है। आप अगर इसको देखें, तो मैं आपको दिखा सकती हूँ। समझ लीजिये इस तरह से आया। अब इसने चक्कर लिया, और दूसरे चक्कर लेने में फिर आ गई इसी तरफ। इस प्रकार दो अवगुण्ठन उसमें होते जाते हैं। इसलिये आपकी जब कुण्डलिनी चढ़ती है, तो चक्र पर आपको दिखाई देता है, कि ा भी सहजयोगी हो गया । लेफ्ट पकड़ा है या राइट क्योंकि कुण्डलिनी तो एक है। फिर आपको एक ही चक्र पर दोनों चीज़ दिखाई देती हैं। इस प्रकार आप देखें कि लेफ्ट पकड़ा है या राइट पकड़ा है। तो इस प्रकार हमारे अन्दर लेफ्ट और राइट अगर दोनों का विभाजन किया जाए, एक चक्र का, तो सात दूनी चौदह। वैसे ही हमारे अन्दर चौदह स्थितियाँ तो पहले ही क्रास (पार ) करनी पड़ती हैं, जब आप सहस्रार तक पहुँचते हैं। और अगर इसको आप समझ लें कि सात ये, और ऊपर के सात-इस तरह भी तो चौदह का एक मार्ग बना। इसलिये 'चौदह' चीज़ जो हैं वो कुण्डलिनी शास्त्र में बहुत महत्वपूर्ण, बहुत महत्वपूर्ण हैं । बहुत महत्वपूर्ण चीज़ हैं। और जब तक हम इस चीज़ को पूरी तरह से न समझ लें, कि इन चौदह चीज़ों से जब हम परे उठेंगे, तभी हम सहजयोग के पूरी तरह अधिकारी हैं। हमको आगे बढ़ते ही रहना चाहिए और उसमें पूरी तरह से रजते रहना पड़ेगा। राजना, बिराजना-ये शब्द आपके सामने पहले भी मैंने बहुत कहे हैं लेकिन आज के दिन विशेषकर के, हम लोगों को समझना चाहिए कि सहस्रार के दिन राजना क्या है? बिराजना क्या है? से अब आप यहाँ बैठे हैं, ये पेड़ों को आप देखिये। ये पेड़ श्रीफल का है। नारियल को 'श्रीफल' कहा जाता है। श्रीफल, जो नारियल है, इसके बारे में आपने कभी सोचा या नहीं, पता नहीं। लेकिन बड़े सोचने की चीज़ है-'इसे श्रीफल क्यों कहते हैं?' ये समुद्र के किनारे होता है, और कहीं होता नहीं। सबसे अच्छा जो ये फल होता है, समुद्र के किनारे। वजह ये है कि समुद्र जो है, ये 'धर्म' है। जहाँ धर्म होगा, वहीं श्रीफल फलता है। जहाँ धर्म नहीं होगा, वहाँ श्रीफल नहीं होगा। लेकिन समुद्र बसी रहती हैं। हर तरह की सफाई, गन्दगी हर चीज़ इसमें होती है। ये पानी भी 'नमक से भरा होता है। इसमें नमक होता है। ईसा मसीहने कहा था कि 'तुम संसार के नमक हो।' माने हर चीज़ में आप घुस सकते हो, 'हर चीज़' में आप स्वाद दे सकते हो। 'नमक हो' नमक के बगैर इन्सान जी नहीं सकता। जो हम ये प्राणशक्ति अन्दर लेते हैं, अगर हमारे अन्दर नमक न हो तो वो प्राणशक्ति भी कुछ कार्य नहीं कर सकती ये कार्यसाधक है। और ये नमक जो है, ये हमें जीने का, संसार में रहने का, प्रपंच में रहने की पूर्ण व्यवस्था नमक करता है। अगर मनुष्य में नमक न हो, तो वो किसी काम का इन्सान नहीं। लेकिन परमात्मा की तरफ जब ये चीज़ उठती है, तो वो सब नमक को नीचे ही छोड़ देती है-'सब' चीज़ छूट जाती हैं। और जब इन पेड़ों पर सूर्य की रोशनी पड़ती है, और सूर्य की रोशनी पड़ने पर जब इसके पत्तों का रस और सारे पेड़ का रस, ऊपर की ओर खिंच आता है क्योंकि evaporation होता है, तब इसमें से जो; इस तना में से जो यही पानी ऊपर बहता है- वो 'सब' कुछ छोड़कर के, उन चौदह चीज़ों को लाँघ करके, ऊपर जाकर के, श्रीफल बनता है। वही श्रीफल आप हैं। और देवी को श्रीफल जरूर देना होता है । श्रीफल दिये बगैर पूजा सम्पन्न नहीं होती। श्रीफल भी एक अजीब तरह से बना हुआ है। दुनिया में ऐसा कोईसा भी फल नहीं, जैसे श्रीफल है। उसका कोईसा भी हिस्सा बेकार नहीं जाता। इसका एक- एक हिस्सा इस्तेमाल होता है। इसके पत्तों से लेकर हर चीज़ इस्तेमाल होती है और श्रीफल का भी - हर एक चीज़ इस्तेमाल होती है। आप देखें कि श्रीफल भी मनुष्य के सहस्त्रार जैसा है। जैसे बाल अपने हैं, इस तरह से श्रीफल के भी बाल हैं। 'यही श्रीफल है।' इसमें बाल होते हैं ऊपर में, इसकी रक्षा के लिये। मृत्यु से रक्षा हमें बालों से मिलती है। इसलिये बालों का बड़ा महान मान किया गया है। बाल बहुत महान हैं और बड़ी शक्तिशाली चीज़ हैं क्योंकि आपकी रक्षा करते हैं। इनसे आपकी रक्षा होती है। और इसके अन्दर जो, हमारे जो cranial bones हैं, जो हड्डियाँ हैं, वो भी आप देखते हैं कि श्रीफल के अन्दर में बहुत कड़ा-सा इस तरह का एक ऊपर से आवरण होता है। उसके बाद हमारे अन्दर grey matter और white matter ऐसी दो चीजें हमारे अन्दर होती हैं। श्रीफल में भी आप देखें - grey matter और white matter... और उसके अन्दर पानी होता है, जो हमारे में cerebospinal fluid होता है। उसके अन्दर भी पानी होता है-वो limbic area होता है। तो ये साक्षात् श्रीफल जो है, ये ही हमारा, अगर इनके लिये ये फल है, तो हमारे लिये ये फल है। जो हमारा मस्तिष्क है, ये हमारी सारी उत्क्रान्ति का फल है। आज तक जितनी हमारी उत्क्रान्ति हुई है-जो अमिबा से आज हम इन्सान बने हैं, वो सब हमने इस के अन्दर सभी चीजें ४ ० ० मस्तिष्क के फलस्वरूप पाया है। ये जो मस्तिष्क है, ये सबकुछ-जो कुछ हमने पाया है इस मस्तिष्क से। इसी में सब तरह की शक्तियाँ, सब तरह का इसी में सब पाया हुआ धन संचित है। अब इस हृदय के अन्दर जो आत्मा बिराजती है और उसका जो प्रकाश हमारे अन्दर सहजयोग के बाद सात परतों में फैलता है, दोनों तरफ से वो तभी हो सकता है, जब आदमी का सहस्रार खुला हो। अभी तक हम इस दिमाग से वो ही काम करते हैं । आत्मसाक्षात्कार से पहले, सिवाय इसके कि हम अहंकार और प्रतिअहंकार (सुपर इगो) इन दोनों के माध्यम से जो कार्य करना है, वो करते हैं। अहंकार और प्रतिअहंकार या आप कहिये मन और 'अहंकार' -इन दोनों के सहारे हम सारे कार्य करते हैं। लेकिन साक्षात्कार (रियलाइजेशन) के बाद हम आत्मा के सहारे कार्य करते हैं। आत्मा रियलाइजेशन से पहले हृदय में ही विराजमान है, बिल्कुल अलग - 'क्षेत्रज्ञ' बना हुआ, देखते रहने वाला। उसका काम, वो जैसा भी है, देखने मात्र- वो करता रहता है। लेकिन उसका प्रकाश हमारे चित्त में नहीं है, वो हमसे अलग है, वो हमारे चित्त में नहीं है। रियलाइजेशन के बाद वो हमारे चित्त में आ जाता है, पहले। पहले चित्त में आता है। और चित्त आप जानते हैं कि भवसागर (वॉइड) में बसा है। उसके बाद उसका प्रकाश सत्य में आ जाता है, क्योंकि हमारा जो मस्तिष्क है, उसमें प्रकाश आ जाने से हम सत्य को जानते हैं। जानते-माने ये नहीं कि बुद्धि से जानते हैं, पर साक्षात् में जानते हैं कि ये है 'सत्य'। उसके बाद उसका प्रकाश हृदय में दिखाई देता है। हृदय प्रगढ़-हृदय बढ़ने लग जाता है, 'विशाल' होने लगता है, उसकी आनन्द की शक्ति बढ़ने लगती है। इसलिये 'सच्चिदानन्द'- सत्, प्रकाशित होने लगता है। उसका प्रकाश पहले धीरे-धीरे फैलता है, ये आप सब जानते हैं। उसका प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता है, सूक्ष्म चीज़ होती है, पहले बहुत सूक्ष्म क्योंकि हम जिस स्थूल व्यवस्था में रहते हैं, उस व्यवस्था में उस सूक्ष्म को पकड़ना कठिन हो जाता है। धीरे-धीरे वो पकड़ आ जाती है। उसके बाद आप बढ़ने लग जाते हैं, अग्रसर होते हैं। सहस्रार का एक पर्दा खुलने से ही कुण्डलिनी आ जाने से आप ने सदाशिव के पीठ को नमस्कार कर दिया। आप के अन्दर की आत्मा का प्रकाश धुँधला-धुँधला बहने लगा, लेकिन अभी इस मस्तिष्क में वो पूरा खिला नहीं। अब आश्चर्य की बात है कि आप अगर मस्तिष्क से इसको फैलाना चाहें तो नहीं फैला सकते। अपना मस्तिष्क और अपना हृदय-इसका अब बड़ा सन्तुलन दिखाना होगा। आपको तो पता ही है, कि जब आप अपने बुद्धि से बहुत ज़्यादा काम करते हैं, तो हृदय की गति रुकती है। और जब आप हृदय बहुत ज़्यादा काम करते हैं, तो आपका मस्तिष्क (ब्रेन) फेल हो जाता है। इनका एक सम्बन्ध बना ही हुआ है, पहले से बना हुआ है। बहुत गहन सम्बन्ध है। और उस गहन सम्बन्ध की वजह से, जिस वक्त आप पार हो जाते हैं, इसका सम्बन्ध और भी गहन होना पड़ता है। हृदय और इस मस्तिष्क (ब्रेन) का सम्बन्ध बहुत ही घना होना चाहिये। जिस वक्त ये पूरा एक (इंटीग्रेट) हो जाता है, तब चित्त आपका जो है, पूर्णतया परमेश्वर-स्वरूप हो जाता है। ऐसा ही कहा जाता है हठ योग में भी कि 'मन' और 'अहंकार' दोनों का लय हो जाता है। लेकिन ऐसे बात करने से तो किसी की समझ ही में नहीं आयेगा, 'इसका लय कैसे होगा?' मन और अहंकार का। तो, वो मन के पीछे लगे रहते हैं, अहंकार के पीछे लगे रहते हैं, अहंकार को मारते रहो, तो मन बढ़ जाता है। उनके समझ ही में नहीं आता, कि ये पागलपन क्या है। ये किस तरह से जाए? मन और अहंकार को किस तरह से जीता जाए? उसका एक ही द्वार है - 'आज्ञा चक्र'। आज्ञा चक्र पर काम करने से मन और अहंकार जो है, उसका | चित्त और आनन्द-सत् मस्तिष्क में, चित् हमारे धर्म में और आनन्द हमारी आत्मा में १४ स्थितियाँ से ५ जु पूरी तरह से लय हो जाता है। और वो लय होते ही हृदय और ये जो मस्तिष्क (ब्रेन) है, इनमें पूरा 'सामंजस्य' पहले आ जाता है-concord। लेकिन एकता नहीं आती। 'इस एकता को ही, हम को पाना है।' तो आपका जो हृदय है, वही सहस्रार है, वही हृदय। जो आप सोचते हैं, वही आपके हृदय में है, और जो कुछ आपके हृदय में है, वही आप सोचते हैं। ऐसी जब गति हो जाए तो कोई तरह की आशंका, कोई भी तरह का अविश्वास, किसी भी तरह का भय, कोईसी भी चीज़ नहीं रहती । जैसे आदमी को भय लगता है, तो उसे क्या करते हैं? उसे मस्तिष्क (ब्रेन) से सिखाते हैं, देखो भाई, भय करने की कोई बात नहीं। देखो , तुम तो बेकार चीज़ से डर रहे थे ; 'ये देखो, प्रकाश लेकर।' फिर वो अपनी बुद्धि से तो समझ लेता है, पर फिर ड़रता है। लेकिन जब दोनों चीज़ एक हो जाती हैं-आप इस बात को समझने की कोशिश कीजिये कि जिस मस्तिष्क से आप सोचते हैं, जो आपके मन को समझाता है और सम्भालता है, वही आपका मन अगर हो जाए; यानि, समझ लीजिये कि ऐसा कोई यन्त्र हो कि जिसमें accelerator और ब्रेक दोनों स्वचालित (automatic) हों और दोनों 'एक' हों-जब चाहे तो वो ब्रेक बन जाए और जब चाहे तो वो accelerator हो जाए-और वो सब जानता है। ऐसी जब दशा आ जाए, तो आप पूरे गुरु हो गये। ऐसी दशा हमको आनी चाहिये। अभी तक आप लोग काफी उन्नति कर गए हैं, काफी ऊँचे स्तर पर पहुँच गए हैं। जरूर अब आपको कहना चाहिए कि अब आप श्रीफल हो गये हैं। लेकिन मैं हमेशा आगे की बात इसलिये करती हूँ कि इस पेड़ पर अगर चढ़ना हो, तो क्या आपने देखा है, कि किस तरह से लोग चढ़ते हैं? अगर एक आदमी को चढ़ाकर देखिये तो आप समझ जाएंगे कि वो एक डोर बाँध लेता है चारों तरफ से अपने, और उस डोर को ऊपर फँसाते जाता है। वो डोर जब ऊपर फँस जाता है, तो उस पर वो चढ़ता है। इसी तरह से अपनी डोर को ऊँची फँसाते जाना है। और यही जब आप सीख लेंगे, तभी आपका चढ़ना बहुत जल्दी हो सकेगा। पर ज़्यादातर हम ड्रोर को नीचे ही फँसाते रहते हैं। सहजयोग में जाने के बाद भी डोर हम नीचे की तरफ फँसाते हैं, और कहते हैं कि माँ हमारी तो कोई प्रगति नहीं हुई।' अब होगी कैसे? जब तुम ड्रोर ही उल्टी तरफ फँसा कर नीचे उतरने की व्यवस्था करते हो। जिस वक्त नीचे उतरना है, तो फिर ड्रोर को फँसाने की भी जरूरत नहीं। आप जरा सी ढील दे दीजिये, ढर-ढ़र- ढ़र आप नीचे चले आएंगे । वह तो इन्तजाम से बना हुआ है- नीचे आने का। ऊपर चढ़ने का इन्तज़ाम बनाना पड़ता है। तो कुछ बनने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। और जो पाया है, उसे खोने के लिये कोई मेहनत की ज़रूरत नहीं - आप सीधे चले आइये ज़मीन पर ; उसमें कोई तो प्रश्न खड़ा नहीं होता। इसको अगर आप समझ लें, इस बात को, तो आप जान लेंगे कि 'नज़र अपनी हमेशा ऊँची रखें।' अगर कोई भी सीढ़ी पर आप खड़े हैं, लेकिन आप की नज़र ऊँची है, तो वो आदमी 'उस' आदमी से ऊँचा है 'जो' ऊपर खड़े होकर भी नज़र नीची रखता है । इसलिए कभी-कभी बड़े पुराने सहजयोगी भी 'धक' से नीचे चले आते हैं। लोग बताते हैं कि 'माँ ये तो बड़े पुराने सहजयोगी थे। इतने साल से आपके साथ रहे, ये किया, वो किया -पर नज़र तो उनकी हमेशा नीचे रही! तो मैं क्या करू अगर नज़र नीचे रखी तो वो चले आये नीचे। नज़र हमेशा ऊपर रखनी चाहिए। अब इसे भी, फल को देखना है तो नज़र आपकी ऊपर। इनकी भी नज़र ऊपर है। इन सबकी नज़र ऊपर है, क्योंकि बगैर नज़र ऊपर किये वो जानते हैं कि न हम सूर्य को पा सकते हैं, न ही हुए ६ न्य ३. १४ स्थितियाँ ये कार्य हो सकता है; 'न तो हम श्रीफल बन सकते हैं।' वृक्ष को बहुत अच्छे से देखना चाहिये और समझना चाहिये। सहजयोग आप वृक्ष से बहत अच्छे से सीख सकते हैं। बड़ा भारी ये आपके लिये गुरू है। जैसे कि जब हम वृक्ष की ओर देखते हैं, तो पहले देखना चाहिये कि ये अपनी जड़ों को कैसे बैठाता है। पहले अपनी जड़ को ये सम्भाल लेता है। जड़ में घुसा जाता है। हमारा धर्म है, ये हमारा चित्त है- 'इसमें' ये घुसा चला जाता है और उसी चित्त से वो खींचता है, सर्वव्यापी शक्ति को। ये तो उल्टा पेड़ है, ऐसा कहिये तो ठीक है। उस सर्वव्यापी शक्ति को ये जड़ खींचने लग जाता है, और इसको खींचने के बाद में आखिर उसको खींच कर करना क्या है? फिर उसकी नज़र ऊपर जाती है और इसी प्रकार वो श्रीफल बना हुआ है। ी ज ३ दि म३] [शा ा म ये ॐि उस हे आपका सहस्रार भी इसी श्रीफल जैसा है। माँ को अत्यन्त प्रिय है और इसी सहस्र को समर्पण करना चाहिये । अनेक लोगों ने कल मुझसे कहा कि 'माँ, हाथ में ठण्डा आता है, में भी ठण्डा आता हैं, पर यहाँ नहीं आता।' वहाँ कौन बैठा हुआ है? बस इसको जान लेना चाहिये, यहाँ से ठण्डक आ जाएगी। और वहाँ जो बैठे हैं, वो सारे ही चीज़ों का फल हैं। इस पेड़ की जो नीचे गढी हुई जडें हैं, वो भी उसी से जन्मी हैं। इसकी जो तना है, इसकी जो मेहनत है, इसकी जो उत्क्रान्ति है, यह सब पैर काम] ४ हुए ' कुछ अन्त में जाकर के वो फल बना। उस फल में सब कुछ निहित है। फिर से आप उस फल को जमीन में ड्राल दीजिये, फिर से वही सारी चीज़ निकल आयेगी। 'वो सबका अर्थ यही | है; वो सबका अन्त वही है। सारे संसार में जो कुछ भी आज तक परमात्मा का कार्य हुआ है, जो भी उन्होंने कार्य किया है, उसका सारा समग्र-स्वरूप, फलस्वरूप आज का हमारा यह महायोग है। और उसकी स्वामिनी कौन हैं ? आप | ७ निथ एूव भा क एुम फ्रूर एक र ऋ एका जानते हैं। तो ऐसे शुभ अवसर में आकर के आपने ये प्राप्त किया है, सो धन्य समझना चाहिए और इस श्रीफल स्वरूप होकर के और समर्पित होना चाहिये। पेड़ से तभी फल हटाया जाता है जब वो परिपक्व होता है, नहीं तो बेकार है । पकने से पहले वो माँ को नहीं दिया जाता। इसलिये परिपक्वता आनी चाहिये। बचपना छोड़ देना चाहिए। जब तक बचपना रहेगा, आप पेड़ से चिपके रहेंगे। लेकिन समर्पण के लिये पेड़ पर चिपका हुआ फल किस काम का? उस पेड़ से हटाकर के जो अगर वो समर्पित हो तभी माना जाता है कि पूजा सम्पन्न हुई। इसलिये सहजयोग को समझने के लिये एक बड़ा भारी आपके सामने प्रतीक रूप से स्वयं साक्षात् श्रीफल ही खड़ा हुआ है। यह बड़ी मेहरबानी हो गई कि आज यहाँ पर हम लोग सब एकत्रित हुए और इस महान समारोह में इन सब पेड़ों ने भी हमारा साथ दिया है। यह भी सारी बातों से नादित, यह भी स्पन्दित और यह भी सुन रहे हैं; उसी ताल पर यह भी नाच रहे हैं। यह भी समझ रहे हैं कि बात क्या है। इसी प्रकार आप लोग भी श्रीफल हैं, उसको पूरी तरह से परिपक्व, उसको परिपक्व करने का एक ही तरीका है कि अपने हृदय सामंजस्य बनायें। हृदय से एकाकार होने की चीज़ है। हृदय में और मस्तिष्क में कोई भी अन्तर नहीं है। हृदय से इच्छा करते हैं और मस्तिष्क से उसकी पूर्ति करते हैं। दोनों चीज़ें जब एकाकार हो जाऐंगी तभी आपको पूरा लाभ होगा। अब सर्वसाधारण लोगों के लिये सहजयोग एक बड़ी रहस्यमयी बात है। उनकी समझ में नहीं आने वाली-क्योंकि उनका जीवन रोज़मर्राका उसी स्तर का है। उस पर वो चलते हैं। लेकिन आपका स्तर अलग है। आप अपने स्तर से रहिये। दूसरों की ओर अधिकतर जब आप देखते हैं तो दया-दृष्टि से, क्योंकि यह बेचारे क्या हैं, इनका क्या होने वाला है। यह कहाँ जायेंगे इनकी समझ में नहीं आता, इनकी गति ही क्या है? यह कोौनसे मार्ग में पहुँचने वाले हैं? इसको समझ करके और आप लोग यह समझें कि इनको अगर समझाने से समझ आ जाये सहजयोग, तो बहुत अच्छा है-समझाया जाए। लेकिन अगर यह लोग परवाह न करें तो इनके आगे सर फोड़ने से कोई फायदा नहीं। अपने श्रीफल को फोड़ने से कोई फायदा नहीं। इसको बचाकर रखें। इसका कार्य बहुत ऊँचा है। इसको बड़ी ऊँची चीज़ के लिये आपने पाया हुआ है और उसी ऊँचे स्तर पर इसे रखें और उसी सम्पन्न अद्भुत स्थिति को प्राप्त होने पर ही आप अपने को धन्य समझ सकते हैं। इसलिये हमको व्यर्थ चीज़ों के लिये अपनी खोपड़ी फाड़ने की कोई जरूरत नहीं । किसी से बहस करने की जरूरत नहीं । पर अपनी स्थिति को बनाये रखना चाहिए। नीचे उतरना नहीं चाहिए। जब तक यह नहीं होगा तब तक सहजयोग का पूरा-पूरा आप में जो कुछ समर्पण पाना था वो नहीं पाया। जो कुछ अपनाना था वो नहीं पाया। जो कुछ वृद्धि थी वो नहीं पाई। जो आपकी पूरी तरह से उन्नति होने की थी, वो नहीं हुई और आप गलतफहमी में फँस गये इसलिये किसी भी मिथ्या चीज़ पर आप यह न सोचें कि हम कोई बड़े भारी सहजयोगी हो गये या कुछ हो गये। जब आप बहुत बड़े हो जाते हैं तो आप झुक जाते हैं, आप झुक जाते हैं। देखिये, इन तीन पेड़ों की ओर, हवा उल्टी तरफ बह रही है। वास्तव में तो पेड़ों को इस तरफ झुक जाना चाहिये जबकि हवा इस तरफ बह रही है। लेकिन पेड़ किस तरफ झुके जा रहे हैं? आप लोगों ने कभी मार्क (mark) किया है कि सारे पेड़ों की दिशा उधर है । क्यों? वहाँ से तो हवा आकर के उसको धकेले जा रही है फिर तो भी पेड़ उसी तरफ क्यों झुक रहे हैं? और अगर ये हवा न चले तो न जाने और कितने ये लोग झुक जायें। क्योंकि ये जानते हैं कि सबको देने वाला 'वो' है । उसके प्रति नतमस्तक होकर के वो झुक रहे हैं और 'वो' देने वाला जो है, वो है 'धर्म'। हमारे अन्दर जो धर्म है जब वो पूरी तरह से जागृत होगा, पूरी तरह से कार्यान्वित होगा, तभी हमारे अन्दर के श्रीफल इतने मीठे, सुन्दर और पौष्टिक होंगे। फिर तो आपके जीवन से ही संसार आपको जानेगा और किसी चीज़ से नहीं जानेगा, आप लोग कैसे हैं। | से | अब चौदह बार आप इसका जन्मदिन, इस सहस्रार को मना रहे हैं। और न जाने कितने साल और इसको मनाएंगे। लेकिन जो भी आपने इस सहस्रार तक जन्मदिन मनाया उसी के साथ-साथ आपका भी सहस्रार खुल रहा है और बढ़ रहा है। कोई भी तरह का समझौता करना, कोई भी तरह की बातों में अपने को ढ़ील दे देना, सहजयोगियों को शोभा नहीं देता। जो आदमी सहजयोगी हैं वो वीरस्वपूर्ण अपना मार्ग आगे बढ़ाना चाहिये । कितनी भी रुकावटें आयें, घर वाले हैं, family वाले हैं, ये हैं, वो हैं, तमाशे हैं, इनका कोई मतलब नहीं। ये सब आपके हो चुके हज़ार बार । इस जन्म में आपको पाने का है और आपके पाने से और लोग पा गये तो उनका धन्य है, उनका भाग्य है। नहीं पा गये तो क्या आप क्या उनको अपने हाथ से पकड़कर ऊपर ले जाओगे? ८ यह तो ऐसे हो गया कि आप समुद्र में जायें और अपने पैर में बड़े-बड़े पत्थर जोड़ लें और कहें कि 'समुद्र, देखो, मुझे तो तैराकर ले जाओ।' समुद्र कहेगा कि 'भई! ये पत्थर तो छोड़ो पहले पैर के, नहीं तो कैसे ले जाऊँगा मैं?' पैर में बड़े-बड़े आपने लोढ़ बाँध दिये तो उनको कटवा ही देना अच्छा है और नहीं कटवा सकते तो कम-से-कम ये करो कि उनसे परे रहो । इस तरह की चीज़ें जो-जो आपने पैर में बाँध रखी हैं, उसे एकदम तोड़-ताड़ कर ऊपर उठ जाओ। कहना, 'जाइये, आपको जो करना है करिये लेकिन हम से कोई मतलब नहीं क्योंकि और ऐसे ही कितनी बाधायें हैं और यह फालतू की बाधायें लगा लेने से कोई फायदा नहीं। जिस तरह से ये पेड़ देखिये, इतना भारी फल उसको उठा लेते हैं-ऊपर। कितना भारी होता है यह फल, इसके अन्दर पानी होता है। इस फल को उसने ऊपर उठाया है। इसी प्रकार आपको भी इस सर को उठाना है। और इस सर को उठाते वक्त ये याद रखना चाहिए कि सर को नतमस्तक होना चाहिये, समुद्र की ओर। समुद्र जो है, ये धर्म का लक्षण है। इसको धर्म की ओर नतमस्तक होना चाहिए। बहुत से सहजयोगी यह समझते ही नहीं हैं कि जब तक हम 'धर्म' में पूरी तरह नहीं उतरते, हम सहजयोगी हो ही नहीं सकते। हर तरह की गलतियाँ करते रहते हैं। जैसे बहुत से लोग हैं, तम्बाकू खाते हैं, सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं, ये सब करते रहते हैं और फिर कहते हैं 'हमारी सहजयोग में प्रगति नहीं हुई।' तो होगी कैसे ? आप अपने ही पीछे हाथ धो करके लगे हैं। सहजयोग के कुछ छोटे-छोटे नियम हैं, बहुत साधे हैं-इसके लिये आपको शक्ति मिली है वो पूरी तरह से आप अपने आचरण में व्यवहार में लायें। और सबसे बड़ी चीज़ जो इनके (पेड़ों के) झुकाव में हैं वो नतमस्तक होना, और उस प्रेम को अपने अन्दर से दर्शित करना। जो कुछ आपने परमात्मा से पाया, उस प्रेम को परमात्मा को समर्पित करते हुए याद रखना चाहिए कि सबके प्रति प्रेम हो । अन्त में यही कहना चाहिये कि जिस मस्तिष्क में, जिस सहस्रार में प्रेम नहीं हो, वहाँ हमारा वास नहीं है। सिर्फ दिमाग में प्रेम ही की बात आनी चाहिए कि प्रेम के लक्षण में क्या करना है। गहराई से सोचें, तो मैं फिर वही कह रही हूँ कि दिल को कैसे हम प्रेम में ला सकते हैं। यही सोचना चाहिये कि क्या ये मैं प्रेम में कर रहा हूँ? ये क्या प्रेम में बात हो रही है ? सारी चीज़ मैं प्रेम में कर रही हूँ। ये सब कुछ बोलना मेरा, करना-धरना क्या प्रेम में हो रहा है? किसी को मार-पीट भी सके हैं आप प्रेम में। इसमें हर्ज नहीं। अगर झूठ बात हो तो मार सकते हैं-कोई हर्ज नहीं। लेकिन यह क्या प्रेम में हो रहा है? देवीजी ने इतने राक्षसों को १४ स्थितियाँ जिस सहस्रार में प्रेम नहीं हो, वहाँ हमारा वास वो भी प्रेम में ही मारा। उन से भी प्रेम किया, उससे वो ज़्यादा नहीं, और भी राक्षस के महाराक्षस न मारा, बन जायें और अपने भक्तों को प्रेम की वजह से, उनको बचाने के लिये, उनको मारा। उस अनन्त शक्ति में भी प्रेम का ही भाव है जिससे उनका हित हो वही प्रेम है। तो क्या आप इस तरह का प्रेम कर रहे हैं कि जिससे उनका हित हो? यह सोचना है। और अगर कर रहे हैं तो आपने वो चीज़ पा ली जो मैं कह रही थी कि सामंजस्य आना चाहिए| तो वो सामंजस्य आपके अन्दर आ गया। एक ही शक्ति है जिसे हम कह सकते हैं 'प्रेम' और प्रेम ही से सब आकारित होने से सब चीज़ सुन्दर, सुडौल और व्यवस्थित हो सकती है। जो सिर्फ शुष्क विचार है उसमें कोई अर्थ नहीं। और शुष्क विचार तो आप जानते ही हैं, वो सिर्फ अहंकार से आता है और जो मन से आने वाली चीज़ है वो दूसरी-ऊपर से ज़रूरी उसको खूबसूरती ला देती है लेकिन अन्दर से खोखली है। इसलिए एक चीज़़ गन्दी होती है लेकिन शुष्क होती है, दूसरी चीज़ सुन्दर होती है लेकिन नीरस होती है, पूर्णतया खोखली होती है। एक नीरस है, तो दूसरी खोखली। दोनों चीज़ों का सामंजस्य इस तरह से बैठ ही नहीं सकता क्योंकि एक दूसरे के विरोध में है। लेकिन आत्मसाक्षात्कार के बाद में, सहजयोग में आने के बाद में सारे विरोध छूटकर के जो चीज़़ विरोधात्मक लगती है, वो ऐसा लगता है कि वो एक ही चीज़ के दो अंग है। और यह आपके अन्दर हो जाना चाहिये। जिस दिन ये चीज़ घटित होगी, तब हमें मानना पड़ेगा कि हमने अपने सहस्त्रार का १४ वाँ जन्मदिन पूरी तरह से मनाया। परमात्मा आप सबको सुखी रखे और इस शुभ अवसर पर हमारी ओर से और सारे देवताओं की ओर से. परमात्मा की ओर से आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! ९ ० पकोड़ा पल और ह ा शत नभा को म 5ी ४ के ন सामग्री :- १ बड़ा प्याज ( या कोई भी सब्ज़ी) १२० ग्राम बेसन क : १/४ छोटा चम्मच हल्दी पाऊडर, १/४ छोटा चम्मच लाल मिर्च पाऊडर, १/२ छोटा चम्मच बेकिंग पाऊडर, १ छोटा चम्मच अजवाइन, करीब १२५ मि.ली.पानी. नमक स्वादानुसार, १ बड़ा चम्मच बारीक कटा हरा धनिया, १ बड़ा चम्मच पिघला हुआ मक्खन तेल तलने के लिए विधि :- १) प्याज़ को लम्बाई में २ भागों में काटें और फिर १/२ सें.मी. मोटे टुकड़ों में काटें। २ ) बेसन छाने व 'क' के मसाले ड़ालें। इतना पानी ड़ालें कि पेस्ट न बहुत गाढ़ा हो और न ही एकदम पतली। नमक, हरा धनिया व पिघला मक्खन ड्राल कर अच्छे से मिलाएं। ३) प्याज़ के टुकड़ों को बेसन की पेस्ट में डूबा कर सुनहरा होने तक तेल में तलें। उन्हें 'किचन पेपर' पर निकालें और अधिक तेल उसमें से अलग हो जाएगा । गरम स्नैक्स के रूप में चटनी के साथ परोसे। (श्री माताजी द्वारा लिखित 'Cooking with Love' से लिया गया है।) १० 4नर तुक ल जागत का मतलब : ठण्डी ठण्डी हवा Bु ये भी एक बड़ा भारी समर्पण है जहाँ शक्ति दोनो side (तरफ)से आती है left and right sympathetic nervous system का जो यहाँ ये expression है, उस रास्ते से। और इसके बीच में ही सुषुम्ना नाड़ी है। ऐसा करते ही सुषुम्ना नाड़ी अन्दर चलना शुरू हो जाती है। लेकिन ये जागृत होना चाहिए। अगर ये जागृत नहीं है, इसका मतलब सुषुम्ना चल नहीं रही है। और जागृत का मतलब ये है कि आपके अन्दर सारी उंगलियों में से धीरे-धीरे ठण्डी- ठण्डी ऐसी हवा आने लगेगी । अगर आपके अन्दर ऐसी ठण्डी-ठण्डी हवा जा रही है; पूरी तरह से आप 'निर्विचार' हैं उस 'तरण्य में' ध्यान में है तो आप बढ़ रहे हैं, आगे आप चले जा रहे हैं । जैसे कि आप aeroplane में बैठते हैं, आपको पता नहीं आप कहाँ जा रहे हैं, लेकिन आप कहीं पहुँच जाते हैं । aa h ha ae | मुंबई, १ फरवरी १९७५ जब तक हम यहाँ पर हैं, ये जरूरी है कि जो सहजयोगी आप लोग हैं, ज्यादा इसमें Part (हिस्सा) लें और आगे बढ़े। और जाने के बाद भी अपना समष्टी-रूप खराब न करें। आपसी बेकार की बातें बोलने पर आप कुछ न कुछ दंड देखेंगे । जिसने भी कोई सहजयोग के सिवाय, अन्दर की बात के सिवाय बाहर की बात जरा भी करी, उसको दंड । बाहर की कोई भी बात नहीं करनी। अन्दर ही की बात करें। अपने-अपने चक्रों को साफ करिए। उसमें 'कोई' शर्म की बात नहीं है । जिसके-जिसके चक्र पकड़े हैं वो बाहरी चीज है। बिलकुल हिम्मत से सारी सफाई करके और नीचे ड़ाल दें। जिसके भी हाथ जल रहे हैं, निकाल दें। हमारे भी हाथ जल रहे हैं- निकालियेगा नहीं तो क्या करियेगा ? बैठ भी नहीं सकते । | और भी तरीके आप जानते हैं बहुत सारे, ध्यान में अपने को सफाई करने के इसमें कोई बुराई की बात नहीं है, अगर मैं किसी से कह दूँ कि आप पानी में पैर डाल कर बैठिए और इस तरह से निकालिये। इसमें कौनसी बुराई की बात है? इसमें क्या बुरा मानने की बात है? कितना पागलपन है, किस बात पर लोग बुरा मान जाते हैं? वो सोचते हैं"माताजी ने क्या कह दिया।" आप क्या कोई बड़े भारी saint (सन्त) है? यानि बड़े-बड़े saint तक ये काम करते हैं, आपको पता नहीं है । जैसे मेंने कबीर दास जी के लिये कहा कि "दास कबीर जतन से ओढ़ी" कबीर दास भी अपने लिये कहते हैं कि "मैंने जतन से ओढ़ी भई'- जो कि इतने बड़े महापुरूष थे । फिर आपको इसमें बुरा मानने की कौन सी बात है? जरा-सा किसी से कहा कि भई मटका लेकर आओ, तो बुरा मान गए; फिर इतना बड़ा-बड़ा मटका लेकर आते हैं। 'बेकार' की बातें, 'मुर्खों' जैसी अपनी जो कल्पनाएं है अपने बारे में उसको "त्याग" दीजिए । "बचखानापन" है, बचपना नहीं। child-like होना चाहिए childish नहीं । १२ म T810 पी और भक्ति आप सबको मेरे प्रति समर्पण होना चाहिए, सहजयोग के प्रति नही, परन्तु मेरे प्रति । सहजयोग केवल मेरा एक पहलू है। सब कुछ छोड़कर आपको समर्पित होना है । सम्पूर्ण समर्पण अन्यथा आपका उत्थान नहीं हो सकता । बिना किसी प्रश्न या वाद-विवाद के। अपनी व्यथाओं से छुटकारा पाने | के लिए समर्पण सबसे आसान तरीका है । सम्पूर्ण समर्पण ही उत्थान का तरीका है । श्री कृष्ण ने कहा है,"सर्व धर्मानाम परित्यज्ये मामेकम शरणम व्रजा " | विश्व के सभी धर्मों को भूल जाओ । श्री कृष्ण में है, और मुझ में कोई अन्तर नहीं परन्तु आज मैं हूँ-मैंने ही आपको आत्म साक्षात्कार दिया है। इन सब धर्मों के पूर्णतया त्याग दीजिए और मेरे प्रति हृदय से समर्पित हो जाइए । आज, जब कि आप मेरे समक्ष बैठे हैं, मैं आपको नि:संकोच बताना चाहती हूँ, जैसा कि श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, "सर्व धर्मानाम परित्यज्ये मामेकम् शरणम् व्रजा"। श्री कृष्ण ने कहा है कि, "अपने सब धर्मों को मुझे समर्पित हो जाओ"। आपको यह जानना है कि आपका मेरी ओर क्या उत्तरदायित्व है - अर्थात दिव्यता ! श्री कृष्ण निर्मला योग अब नहीं हैं, मैं ही श्री कृष्ण हूँ, इसलिए आपको मेरे प्रति अपना उत्तरदायित्व जानना चाहिए । देवी केवल भक्ति और समर्पण से ही प्राप्त की जा सकती है, वह केवल अपने भक्तों को ही चाहती है । इसके लिए ध्यान ही एकमात्र उपाय है। भावात्मक रूप से आप मुझे अपने हृदय के समीप पाते होंगे, परन्तु समर्पण केवल ध्यान से। ध्यान और कुछ नहीं केवल समर्पण है- सम्पूर्ण समर्पण। अपनी सम्पूर्ण स्वतंत्रता से समर्पण करना है। आप मुझे केवल अपनी भक्ति और समर्पण से ही पा सकते हैं । आप में दिव्य शक्तियों का प्रकट होना ही मेरी सफलता है। यह बहुत सरल है। बहूत सरल बनाया गया है। में उन्ही लोगों से प्रसन्न होती हैूँ जो सरल, अबोध है और न कि चालबाज, जो एक दूसरे के प्रति स्नेही है । मुझे प्रसन्न करना अत्यंत सरल है। जब मैं देखती हूँ कि आप आपस में प्रेम करते हैं, एक दूसरे के विषय में अच्छी बातें करते हैं, एक दूसरे की सहायता करते हैं, एक दूसरे की इज्जत करते हैं, आपस में हँसते हैं, एक दूसरे के साथ प्रसन्न हैं तो मुझे अपना पहला आशीर्वाद और पहला आनन्द मिलता है। इसलिए | ध्यान में समर्पण । ध्यान में सम्पूर्ण समर्पण का अभ्यास करना चाहिए । यह अब आपके "अपने" हित के लिए नहीं है, जो कर रहे है, जिसे "अपना " कहते हैं । पहले आप एक छोटे बच्चे के समान थे, एक छोटा सा व्यक्तित्व । अब आप सामूहिक व्यक्तित्व है, इसलिए आप अपने लिए कुछ नहीं कर रहे परन्तु उस सामूहिकता के लिए । आप में विराट के प्रति चेतना उत्पन्न हो रही है, जो कि बनने वाले हैं । आपकी नौकरी, धन, पत्नियाँ, पति, बच्चे, माता, पिता, सम्बन्धी यह सब विचार अब समाप्त हैं। आप सबको सहजयोग की जिम्मेदारी लेनी है । आप सब समर्थ है, आपको उसी के लिए यहाँ तक पहुँचाया गया है। पूर्ण समर्पण के साथ आपको यह अपने हित के लिए करना है, अपनी सफलता के लिए, वो सब अब समाप्त है। पूर्णतय: भ्रम से बाहर निकल जमीन पर खड़ा होना है और परम पिता परमेश्वर की प्रशंसा गानी है। आपको अपने ऊपर लेना होगा। त्याग जो कि अब त्याग नहीं हैं, क्योंकि आत्मा देती है, वह | त्याग नहीं करती । इसकी विशेषता है "देना", इसलिए आप त्याग नहीं करते, केवल देते है । १४ प्रपंच और संबंध जोड़ना सहजयोग माने परमात्मा से स. त्य की खोज़ में रहने वाले आप सब लोगों को हमारा नमस्कार। आज का विषय है 'प्रपंच और सहजयोग' । सर्वप्रथम 'प्रपंच' यह क्या शब्द है ये देखते हैं। 'प्रपंच पंच माने हमारे में जो पंच महाभूत हैं, उनके द्वारा निर्मित स्थिति । परन्तु उससे पहले 'प्र' आने से उसका अर्थ दूसरा हो जाता है। वह है इन पंचमहाभूतों में जिन्होंने प्रकाश डाला वह 'प्रपंच' है । 'अवघाची संसार सुखाचा करीन' (समस्त संसार सुखमय बनाऊंगा) ये जो कहा है वह सुख प्रपंच में मिलना चाहिए। प्रपंच छोड़कर अन्यत्र परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। बहुतों की कल्पना है कि 'योग' दादर २९ नवम्बर १९८४ का बतलब है कहीं हिमालय में जाकर बैठना और ठण्डे होकर मर जाना। ये योग नहीं है, ये हठ है। हठ भी में नहीं, बल्कि थोड़ी मूर्खता है। ये जो कल्पना योग के बारे में है अत्यन्त गलत है। विशेषकर महाराषट्र जितने भी साधु-सन्त हो गये वे सभी गृहस्थी में रहे। उन्होंने प्रपंच किया है । केवल रामदास स्वामी ने प्रपंच नहीं किया। परन्तु 'दासबोध' (श्री रामदासस्वामी विरचित मराठी ग्रन्थ) में हर एक पन्ने पर प्रपंच बह रहा है। प्रपंच छोड़कर आप परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात उन्होंने अनेक बार कही है। प्रपंच छोड़कर परमेश्वर को प्राप्त करना, ये कल्पना अपने देश में बहुत सालों से चली आ रही है। इसका कारण है श्री गौतम ने प्रपंच छोड़ा और जंगल गये और उन्हें वहाँ आत्मसाक्षात्कार हुआ। परन्तु वे अगर संसार में रहते तो भी उन्हें साक्षात्कार होता। समझ लीजिए हमें दादर जाना है, तो हम सीधे मार्ग से इस जगह पहुँच सकते हैं। परन्तु अगर हम भिवंडी गए, वहाँ से पूना गये, वहाँ से और चार-पाँच जगह घूमकर बुद्ध दादर पहुँचे। एक रास्ता सीधा और दूसरा घूम-घामकर है। बहुत घूमकर आया हुआ मार्ग ही सच्चा है, ये बात नहीं। उस समय सुगम मार्ग नहीं था इसलिए वे दुर्गम मार्ग से गए । जो सुगम है उसे उन्होंने दुर्गम बनाया। इसलिए क्या हमें भी दुर्गम बना लेना चाहिए? अर्थात् जो सुगम है उसे सभी ने बताया है। 'सहज' है। सहज समाधि में जाना। सभी संत - साधुओं ने बताया है, 'सहज समाधी लागो'। कबीर ने विवाह किया था। गुरू नानक जी ने विवाह किया था। जनक से लेकर अब तक जितने भी बड़े-बड़े अवधूत हो गए हैं उन सभी ने विवाह किया था। और उनके बाद बहुत से आए। उन्होंने विवाह नहीं किया, परन्तु किसी ने भी विवाह संस्था को गलत नहीं कहा। और जिसे हम प्रपंच कहते हैं वह गलत है ऐसा नहीं कहा है। तो सर्वप्रथम हमें अपने दिमाग से ये कल्पना हटानी चाहिए कि अगर हमें योग मार्ग से जाना है तो हमें प्रपंच छोड़ना होगा। उलटे अगर आप प्रपंच करते हैं तो आपको सहजयोग में जरूर आना चाहिए । शुरू में इस दादर में जब हमने सहजयोग शुरू किया तो सब लोग प्रपंच की शिकायतें लेकर आते थे। मेरी सास ठीक नहीं है, मेरा ससूर ठीक नहीं है, मेरी पत्नी ठीक नहीं है, मेरे बच्चे ठीक नहीं हैं। इस तरह सभी प्रपंच की जो छोटी-छोटी शिकायतें हैं वही लेकर सहजयोग में आते थे। शुरू में ऐसे ही होता है। हम १५ परमात्मा के पास प्रपंच की तकलीफों से तंग आकर या प्रपंच दुःखों को दूर करने के लिए जाते हैं, और परमेश्वर के पास जाकर भी यही मांगते हैं, 'हे परमात्मा, मेरा घर ठीक रहे। मेरे बच्चे ठीक रहें। हमारी गृहस्थी सुख से रहे। सभी खुशी से रहें।' बस! मनुष्य की वृत्ति यहाँ तक हल्की होती है, और उसी छोटेपन से वह देखता है। परन्तु यह छोटापन- हलकापन जरूरी है। वह नहीं होगा तो आगे का मामला नहीं बनने वाला। पहली सीढ़ी के बगैर दूसरी सीढ़ी पर नहीं आ सकते। तो सहजयोग की सबसे बड़ी सीढ़ी प्रपंच होना जरूरी है। हम सन्यासी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। नहीं दे सकते। क्या करें? बहुत बार करके देखा, पर मामला नहीं बनता। उसके लिए व्यर्थ का बड़प्पन किसलिए? उसका कारण है कि हमने बाह्य में सन्यासी के कपड़े पहने हैं, पर अन्दर से क्या आप सन्यासी हैं? सन्यास एक भाव है। ये कोई कपड़े पहनकर दिखावा नहीं है कि हम सन्यासी हैं, हमने सन्यास लिया है, हमने घर छोड़ा, ये छोड़ा, वह छोड़ा, ऐसा कहकर जो लोग कहते हैं कि हम योग मार्ग तक पहुँचेंगे, ये अपने आपको भुलावा है। अगर आप पलायनवादी हैं, आपमें पलायन भाव (escapism) है तो उसका कोई इलाज नहीं है । जिस मनुष्य में थोड़ी भी सुबुद्धि है उसे सोचना चाहिए कि यहाँ हम प्रपंच में हैं । यहाँ से निकलकर हमने कुछ प्राप्त किया भी तो प्रपंच और सहजयोग सहजयोग की सबसे बड़ी सीढ़ी ना उसका क्या फायदा? समझ लीजिए किसी जंगल में आपको ले गये और वहाँ बैठकर आपने कहा, 'देखिए, मैं कैसे पानी के बगैर रह सकता हूँ?' तो उसमें कौन-सी विशेष बात है ? पानी में रहकर भी आपको पानी की जरूरत नहीं है, आप पानी में रहकर भी पानी से निर्लिप्त हैं, ऐसी जब आपकी स्थिति हो, प्रपंच होना जरूरी है। तब सच्चा प्रपंच हो सकता है। और आज हमें उसी की जरूरत है। उस प्रपंच की। आपको जनक जी के बारे में मालूम होगा। नचिकेता ने सोचा, ये जनक राजा जो अपने सर पर मुकुट पहनते हैं, इनके पास सब दास-दासी हैं, नृत्य, गायन होता रहता है, ये जब हमारे आश्रम में आते हैं तो हमारे गुरू इनके चरण छूते हैं? ये ऐसे क्या महान हैं? तो उनके गुरू ने कहा, "तुम ही जाओ और देखो ये कैसे महान हैं?" तो नचिकेता एकदम उनके आगे जाकर खड़ा हुआ और कहने लगा, "आप मुझे आत्मसाक्षात्कार दीजिए। मेरे गुरू ने कहा है, आप आत्मसाक्षात्कार देते हैं। सो कृपा करके आप मुझे आत्मसाक्षात्कार दीजिए।" उन्होंने कहा, "देखो, तुम सारे विश्व का ब्रह्मांड भी माँगते तो मैं देता, पर तुम्हें में आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता। उसका कारण है, उस चीज़ का तत्व ही जिसे मालूम नहीं, उस मनुष्य को आत्मसाक्षात्कार कैसे दें? जो मनुष्य तत्व को समझेगा वही उसमें उतर सकता है।" तो प्रपंच का तत्व है 'प्' और वह 'प्र' माने प्रकाश। वह जब तक आपमें जागृत नहीं होता तब तक आप 'पंच' में हैं 'प्रपंच' में नहीं उतरे। नचिकेता ने जब उपरोक्त सवाल राजा जनक से पूछा, तो उन्होंने कहा कि अब तुम मेरे साथ रहो और बाकी सब कहानी तो आपको मालूम है। मुझे वह फिर से कहने की आवश्यकता नहीं है । परन्तु अन्त में नचिकेता समझ गया, इस मनुष्य (राजा जनक) का किसी प्रकार का लगाव नहीं है या कहिए चिन्ता नहीं है, न किसी चीज़ के प्रति आत्मीयता है कि जिसे हम संसार कहते हैं, इस तरह की चीज़ों की। और ये एक अवधूत की तरह रहने वाला मनुष्य है। सिर पर मुकुट धारण करेगा, धरती पर भी सो जाएगा, जैसे बादशाह है। उसे कोई आराम की जरूरत नहीं। कहीं तो पलंग पर सोएगा, गद्दियों पर लेटेगा, जमीन पर ही पड़ा रहेगा, ऐसा ये बादशाह है। उसे किसी भी चीज़ की परवाह नहीं । उसे किसी ने भी पकडा नहीं है । जो मनुष्य प्रपंच में है उसको न किसी आराम की ओऔर न किसी गुलामी की आदत लगती है। उसे किसी पत्थर पर सर टिकाकर सोने को कहा तो वह सो सकता है। चोकर (रूखी-सूखी रोटी) भी खा सकता है, और दावत भी खा सकता है। उसे कल अगर पूछा जाए, भई अब आश्रम बनाना है, तो कैसे करे? तो वह सब कुछ बता देगा। सीमेन्ट से लेकर सभी बातें बता देगा। ये कहाँ मिलेगा ? वो कहाँ मिलेगा। सब कुछ बता देगा । उसे अन्दर से किसी चीज़ की पकड़ नहीं। ये बात तत्व की बात है। इसे आप समझ लीजिए। नामदेव जी ने एक कविता लिखी है और वही नानक साहब ने भी वन्दनीय मानकर गुरू ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित की है। वह अत्यन्त सुन्दर है। उसका मैं केवल यहाँ पर आशय वरर्णन करती हूँ। उस कविता में कहा है, 'आकाश में पतंग उड़ रही है और एक लड़का हाथ में उस पतंग की डोर पकड़ कर खड़ा है। वह १७ सबसे बातें कर रहा है, हंस रहा है, आगे पीछे जा रहा है, यहाँ वहाँ भाग रहा है। परन्तु उसका सारा चित्त उस पतंग पर है।' दूसरे दोहे में उन्होंने कहा है, 'बहुत सी औरतें पानी भरकर ले जा रही हैं और मार्ग से जाते समय आपस में मज़ाक कर रही हैं, घर की यह वह बातें कर रही हैं। परन्तु उनका सारा चित्त सर पर रखे घड़ों पर है कि पानी न गिरे।' इसी तरह और एक दोहे में माँ का वर्णन है, 'एक माँ बच्चे को गोद में लिए सभी काम करती है। चूल्हा जलाती है, खाना बनाती है, सभी प्रकार के काम करती है। उन कामों में कभी झुकती है, कभी भागती है। सब कुछ उसे करना पड़ता है, परन्तु उसका सारा चित्त पूरे समय उस बच्चे पर रहता है कि बच्चा गिर न जाए।' इसी तरह साधु-सन्तों का है। सभी तरह के कामों का उनहें ज्ञान होता है। वे सभी कार्य करते हैं किन्तु वे सब करते समय उनका सारा चित्त अपनी आत्मा पर होता है। ये सभी लोग बिल्कुल आपकी तरह गृहस्थाश्रम में रहने वाले होते हैं, उनके बाल-बच्चे होते हैं। सब कुछ होते हुए भी इनमें जो वैचित्र्य है वह आपको तत्व में आकर पहचानना चाहिए। वह क्या वैचित्र्य है? और वही माने 'सहजयोग' है। वह वैचित्र्य अपने में आने पर अपने को भी उससे क्या लाभ होते हैं ये देखना जरूरी है । क्योंकि प्रपंच में आप लाभ और हानि पहले देखते हैं। लाभ कितना है ? हानि कितनी है? सर्वप्रथम कहना ये है कि परमात्मा उन सभी से परे है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु बहुतों को उसका मतलब मालूम नहीं। और आज कल के समय में परमात्मा की बातेंें करने से लोगों को लगता है 'इन महिला को अभी आधुनिक शिक्षा वगैरेह मिली नहीं परमेश्वर है और वह रहेगा। वह अनन्त में है। परन्तु परमेश्वर हमारे साथ प्रपंच में किस तरह कार्यान्वित होता है यह देखना चाहिए । परमेश्वर है और वह रहेगा। है और ये कोई पुराने जमाने की बेकार नानी -दादी की कथाएं सुना रही है।' परन्तु सर्वप्रथम अब देखें कोई समस्या है। किसी ने मुझ से कहा, 'माताजी, मेरे घर में तकलीफ है, मुझे काम-धंधा नहीं है।' इस तरह की बातें, अत्यन्त छोटी-छोटी बातें, जड़-लौकिक बातें, 'ये ऐसा है, वैसा है' और थोड़े दिनों के बाद वह कहता है, "माताजी, सब कुछ ठीक हो गया।" तो ये सब कैसे होता है ? यह देखना चाहिए। एक दिन की बात है, हमारी एक शिष्या है, विदेशी है। मैं 'शिष्या' वगैरा तो कहती नहीं हूँ 'बच्चे' ही कहती हैँ। तो दोनों लड़कियाँ थीं। वे दोनों जर्मनी में एक मोटर में जा रही थीं । और जर्मनी में 'ऑटेबान' करके बहुत बड़े रास्ते होते हैं। और उस पर से बड़ी तेजी से गाड़ियाँ इधर - उधर दौड़ती हैं। तो उन्होंने मुझे चिटठ्ठी लिखी, दोनों तरफ से ट्रक, बड़ी - बड़ी बसें, बड़ी - बड़ीं कारें, जो 'डबल- लोडर्स' होती हैं, वह सब जा रही थीं और बीच में हमारी मोटर। उसका ब्रेक भी काम नहीं कर रहा था और गाड़ी भी 'बर्लिंग' (कंपन) करने लगी। तो मुझे लगा कि अब मैं गयी, अब तो मैं बच ही नहीं सकती। अगर ब्रेक भी कुछ ठीक रहता तो कुछ उम्मीद थी। पर वह ठीक नहीं था । ' तो उस स्थिति में उसमें एक तरह की प्रेरणा आ गयी। जिसे हम कहेंगे 'इमरजेन्सी की प्रेरणा' वह निर्माण हो गईं। वह है कि 'अब सब कुछ गया, अब भी नहीं रहा, विनाश का समय आ गया। तो शरणागत होकर उसने कहा, "श्री माताजी, अब कुछ आपको जो करना है वह करें। मैं तो आँख मूँद लेती हूँ।" और उसने आँखें मँद लीं। उसकी चिठ्ठी में लिखा था, "थोड़ी देर बाद मैंने देखा तो मेरी कार अच्छी तरह से एक तरफ आकर रूकी हुई खड़ी थी और मेरा ब्रेक भी ठीक हो गया था।" अब माताजी ने कुछ नहीं किया था, मलतब यह जो परिणाम हुआ है वह किसी न किसी कारणवश हुआ है। मतलब 'कारण व परिणाम'। समझ लीजिए आपके घर में झगड़ा है। उसका कारण है आपकी पत्नी या आपकी माँ या आपके पिताजी या कोई 'अ' मनुष्य और उसका परिणाम है घर में अशान्ति। जो मनुष्य सर्वसाधारण बुद्धि का होगा वह 'परिणाम' से ही लड़ता रहेगा । अभी मुझे इसे लड़ना है। फिर कोई दूसरी लड़ाई निकल आएगी। फिर ये आप देखिए। यह कैसे होता है? तीसरी। अब जो कारण है उस पर कौन सोचते हैं? कुछ लोग सूक्ष्म बुद्धि के होते हैं। वे उसका जो 'कारण हैं उससे लड़ते हैं। उस कारण से लड़ाई करने पर वह कारण भी उनसे लड़ना शुरू कर देता है। और 'कारण और परिणाम' इसके चक्कर में पड़ने से वे दोनों ही समस्या वैसी की वैसी रह जाती है। उसके परे वे जा नहीं सकते। और इसलिए 'प्रपंच करना बहुत कठिन काम है', ऐसा सब लोग कहते हैं। इसका इलाज क्या १८ प्रपंच और सहजयोग मूलाधार में ये जो शक्ति है वह प्रयंच में कैसे है? इसका इलाज ये है कि उसका जो कारण है, उस कारण के परे जाना होगा। उसका जो कारण था, ब्रेक टूट गया था, उस ब्रेक से वह लड़ रही थी। परन्तु जब उसे महसूस हुआ, इन सबके परे भी कुछ है कोई शक्ति है और वह शक्ति कारण के परे होने से कारण भी नष्ट हो ये गया और उसका परिणाम भी नष्ट हो गया। ये ऐसे होता है। आप विश्वास करिए या मत करिए, पर ये बात होती है। परन्तु अन्धविश्वास से नहीं होती है। अब बहत से लोग मेरे पास आकर कहते हैं, "माताजी, हम इतना भगवान को याद करते हैं परन्तु हमें कैन्सर हो गया। हम इतना करते हैं, मन्दिर में जाते हैं, सिद्धीविनायक के मन्दिर में रोज जाकर खड़े रहते हैं, घंटे-घंटे। मंगल के दिन तो विशेष करके जाते हैं, परन्तु तब भी हमारा कुछ भी अच्छा नहीं हुआ, इस भगवान ने हमारा कुछ भी अच्छा नहीं किया, फिर हम इसे क्यों भजें ?" ठीक है। आप जिस भगवान को बुला रहे हैं उसका आपका क्या कोई कनेक्शन (सम्बन्ध) हुआ है? आपका जब तक कनेक्शन नहीं हुआ, तब तक अच्छा कैसे होगा? भगवान तक आपके टेलीफोन की कनेक्शन तो होना चाहिए। इस तरह आप रात दिन परमेश्वर की पूजा करते हैं? परन्तु क्या आप जो बोल रहे हो उस परमेश्वर को सुनाई दिया है? चाहे जो धंधे करो , चाहे जैसा बर्ताव करो और उसके बाद 'हे परमात्मा, मुझे आप देते हैं कि नहीं?' कहकर उसके सामने बैठ जाना। उस परमात्मा ने आपको किसलिए देना है? आपका कोई कनेक्शन होगा तो आप कुछ भारत सरकार से माँग सकते हैं, क्योंकि आप उसके नागरिक हो, परमात्मा के साम्राज्य के नहीं। पहले उसके साम्राज्य के नागरिक बनिए, फिर देखिए उसकी याद करने के पहले ही परमेश्वर ये करता है कि नहीं । अब समझ लीजिए यहाँ पर बैठे-बैठे ही कोई अगर इंग्लैण्ड की रानी को कहेगा कि वह हमारे लिए ये नहीं करती, वह नहीं करती। वह आपके लिए क्यों करने लगी? तो यहाँ तो परमात्मा हैं और वह परमात्मा आपके लिए क्यों करने लगा? आप उनके साम्राज्य में अभी आए नहीं हैं। केवल उन पर तानाशाही करना 'हे परमात्मा!' जैसे कोई वे आप की जेब में बैठे हैं। और अब आपको ये भी विचार नहीं है कि हमें परमात्मा का स्मरण करना है। सुस्मरण कहा है, जैसे 'प्र' शब्द है वैसे ही 'सु' शब्द है। 'स्' माने जहाँ मनुष्य का सम्बन्ध होकर आपमें मांगल्य का आशीर्वाद आया हआ है तभी वह सुस्मरण होगा। अन्यथा तोते की तरह बिना समझे बोलना है। उसका असर युवा पीढ़ी पर होता है। वे कहते हैं 'इस परमात्मा का क्या अर्थ हुआ? परमात्मा का नाम लेकर यहाँ दो बाबा आए और हमारी माँ का पैसा ले गये, वहाँ कोई गले में काला धागा बाँध गये और रुपया ले गए। ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ हुआ?' इसलिए उनका कहना ठीक लगता है। फिर उनकी तरह और लोग भी कहते हैं 'परमात्मा है स्मरण नहीं कहा है। सुस्मरण करते समय भी 'सु' कहा है। ये देखिए, 'सु' माने क्या ? ही नहीं। परन्तु सर्वप्रथम अपनी समझ में ये गलती हुई है कि क्या हमारा परमात्मा के सात कोई सम्बन्ध हुआ है? क्या हमारा उन पर अधिकार है? हमने उनके लिए क्या किया है? ये तो देखना चाहिए। पहले उनके साथ अपना कनेक्शन (सम्बन्ध) जोड़ लीजिए । अब सहजयोग माने परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ना। सहज इस शब्द में 'सह' माने अपने साथ, 'ज' माने जन्मा हुआ। जन्म से ही आपमें योग (सम्बन्ध जोड़ना), योग सिद्धि का जो अधिकार है, वह माने 'सहजयोग' है। आपमें परमात्मा ने कुण्डलिनी नाम की एक शक्ति रखी है वह आपमें स्थित है। आप विश्वास कीजिए या न कीजिए । क्योंकि ऊपरी (बाह्य) आँखों (दष्टि) वाले लोगों को कुछ कहना कठिन है। विशेषकर अपने यहाँ के साहित्यिक और बुद्धिजीवी लोग विचारों पर चलते हैं। और विचार कहाँ तक जाएंगे , इसका कोई ठिकाना नहीं है । किसी विचार का किसी से मेल नहीं है । इसलिए इतने झगड़े हैं। तो इन विचारों के परे जो शक्ति है, उसके बारे में अपने देश में परम्परागत अनादि काल से बताया गया है। उस तरफ कुछ ध्यान देना जरूरी है। परन्तु इन विचारवान लोगों में इतना अहंकार है कि वे उधर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं। हो सकता है शायद इसमें उनके पेट का सवाल है। परन्तु सहजयोग में आने के बाद पेट के लिए आप आशीर्वादित होते हैं। परमात्मा से सम्बन्ध घटित होने के बाद आपकी समस्याएं ऐसे हल होती हैं कि आपको आश्चर्य होगा। 'ऐसा हमने क्या किया है? इतना हमें परमात्मा ने कैसे दे दिया ? इतनी सही व्यवस्था कैसे हो गयी ?' ऐसा सवाल आप | १९ কার্यাन्বির है यह आप देखिट। आव देखिए । अपने आपसे पूछ कर चकित रह जाते हैं। ज्ञानदेव की 'ज्ञानेश्वरी' का आखरी पसायदान (दोहा) आपने होगा उन्होंने जो वर्णन किया है वह आज की स्थिति है। ये सब अब घटित होने वाला है। जिस चीज़ की जो इच्छा करेगा वह (परमेश्वरी आनन्द) उसे प्राप्त होगी। परन्तु वह करने के पहले आप केवल कुण्डलिनी का जागरण कर लीजिए। उसके बिना में आपको कोई वचन नहीं दे सकती। और न मिनिस्टर (मन्त्री) लोगों की तरह आश्वासन देती हूँ। जो बात है वह मैं अपनी बोली में अपने ही ढंग से कह रही हँ। कोई साहित्यिक भाषा में नहीं बोल रही हूँ। जैसे कोई माँ अपने बच्चे को घरेलू बातें समझाती है उसी तरह मैं आपको समझा रही हूँ। आपमें जो संपदा है वह प्राप्त कीजिए। आप कहते हैं हम प्रपंच में बँध गए हैं। 'बँध गए हैं' माने क्या ? तो फालतू बातों का आपको महत्व लगने लगा। मुझे नौकरी मिलनी चाहिए वो क्यों नहीं मिल रही है, क्योंकि बेकारी ज्यादा है? माने बेकार ज्यादा हैं इसलिए। बेकारी क्यों ज्यादा है? बेकारों की संख्या बढ़ रही है। वो बढ़ती ही जाएगी। इन कारणों के परे कैसे जाना है? उसका इलाज है कि वह जो शक्ति हमारे चारों तरफ है उसका आव्हान करना होगा। अपने में वह शक्ति मूलाधार चक्र में रहती है। मूलाधार में ये जो शक्ति है वह प्रपंच में कैसे कार्यान्वित है यह आप देखिए । अपना ध्यान उस (शक्ति की) तरफ होना चाहिए। और सर्वप्रथम ये विचार होना चाहिए कि मूलाधार में जो कुण्डलिनी शक्ति है वह श्री गणेश की कृपा से वहाँ बैठी है। अब इस महाराष्ट्र को बहुत बड़ा वरदान है। कहना चाहिए। यहाँ जो अष्टविनायक हैं वह आपके लिए परमात्मा का बहुत बड़ा उपकार हैं। इसी कारण महाराष्ट्र में मैं सहजयोग स्थापित कर सकी हूँ। क्योंकि श्री गणेश का जो प्रभाव है उसी का आप पर आवरण है। उसी आवरण के कारण सचमुच मेरी बहुत मदद हुई है। ये श्री गणेश आपके मूलाधार में विराजमान हैं। अब कोई डॉक्टर है तो वह अपने घर में श्री गणेश का फोटो रखेगा। मन्दिर भी बनाएगा। वहाँ जाकर नमस्कार करेगा। परन्तु उस श्री गणेश का और डॉक्टरी का क्या सम्बन्ध है ये उसकी समझ में नहीं आएगा और उसे वह स्वीकार भी नहीं करेगा। परन्तु उस श्री गणेश के बिना डॉक्टरी भी बेकार है। अब ये जो श्री गणेश शक्ति आपमें है उसी के कारण आपके बच्चे पैदा होते हैं। अब जरा सोचिए, एक माता-पिता जिस तरह उनके चेहरे हैं उसी तरह का बच्चा पैदा होता है। हजारों, करोड़ों लोग इस देश में हैं, दूसरे देशों में हैं। परन्तु हर एक का बच्चा या तो उसके माता-पिता की तरह होता है, नहीं तो दादा-दादी या उस परिवार के किसी व्यक्ति के चेहरे पर होता है। तो इसका जो नियमन है वह कौन करता है? वह श्री गणेश करते हैं। सुना आपका कर्तव्य है कि अपने घर में जो गणेश (बच्चे) हैं उनमें जो बाल्यवत अबोधिता है उसे स्वीकार करें । वह अबोधिता अपने में आनी चाहिए। घर में छोटे बच्चे होते हैं। छोटे बच्चे कितने अबोध होते हैं । उनके सामने हम गाली - गलौच करते हैं, बूरे शब्द बोलते हैं। ऐसे वातावरण में हम उनको पालते हैं, जहाँ सब अमंगल है। उन्हें जो इच्छा करने देते हैं या कहिए उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देते। यही (बच्चे) तो आपके घर के गणेश हैं। उनके संवर्धन में, पालन-पोषण में आपका ध्यान नहीं है। आजकल तो इंग्लैण्ड में ८० वर्ष की आयु की औरतें भी शादी करती हैं। तो अब क्या कहें कुछ समझ में नहीं आता। वहाँ की गन्द यहाँ मत लाओ। वहाँ की गन्द वहीं रहने दीजिए। ते 'अति शहाणे, त्यांचे बैल रिकामे' (जो ज़्यादा सयाना हैं उनकी खोपड़ी खाली है।) तो श्री गणेश की अप्रसन्नता हम पर न हो उसका निश्चय करना होगा। श्री गणेश हम में बैठकर हमारे बच्चों का पालन करते हैं। प्रथम जनन और उसके बाद पालन। और वह जो भोला गणेश (बच्चा) है वह घर के सभी लोगों को आनन्द देता है। किसी घर में बच्चा पैदा होते ही कितनी खुशियाँ छा जाती हैं। उस बच्चे से कितनी आनन्द की लहरें घर में फैलती हैं। परन्तु जिस घर में बच्चा नहीं होता वहाँ कैसा खालीपन सा महसूस होता है। ऐसा लगता है उस घर में जाएं नहीं। क्योंकि वहाँ बच्चों की गुनगुनाहट नहीं, हँसना नहीं, खिलखिलाना नहीं, वह मस्ती नहीं। ऐसे घर में कोई माधुर्य नहीं। परन्तु आजकल जमाना कुछ दूसरा ही है। जिन देशों को अमीर affluent कहते हैं उन देशों में बच्चे पैदा ही नहीं होते। उनकी आबादी घटती जा रही है। २० प्रपंच और सहजयोग और हमारे भारत देश की आबादी बढ़ती जा रही है । इसलिय लोग कहते हैं यह बहुत बुरा है। आपके देश की आबादी इतनी नहीं बढ़नी चाहिए। मान लिया, परन्तु कहना ये है कि जो बच्चे आज जन्म ले रहे हैं उनमें भी अक्ल होती है। वे क्यों उन देशों में जन्म लेने लगे ? वे कहेंगे वहाँ रोज पति-पत्नी तलाक लेते हैं और बच्चों को जान से मार डालते हैं। वही हमारे साथ होगा। क्योंकि यहाँ (भारत में) माँ-बाप को बच्चों के प्रति जो आस्था, जो प्रेम, जो सहज-बुद्धि है वह इन लोगों में (अमीर देशों में) बिल्कुल नहीं है। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि लन्दन शहर में माँ-बाप एक हफ्ते में दो बच्चों को मार देते हैं। जितना सुनोगे उतना कम है। मुझे रोज ही धक्का सा लगता है। और उन्हें उसका कुछ भी असर नहीं है। क्योंकि अहंकार में इतने डूबे हैं कि इसमें कुछ अनुचित है ये महसूस ही नहीं करते। वहाँ जाकर मालूम हुआ हिन्दुस्तानी कितना अच्छा है। यहाँ (भारत) के टेलीफोन ठीक नहीं हैं। माईक ठीक नहीं हैं। रेलगाड़ियाँ ठीक | श्री गणेश मनुष्य नहीं हैं। सब कुछ मान लिया। पर लोग तो ठीक हैं। उस अच्छाई में जो गहन से गहन है, वह है गणेश तत्व। और जिस घर में गणेश तत्व ठीक नहीं है वहाँ सब कुछ गलत होता है। जहाँ बच्चे बिगड़ रहे हैं उसका दोष मैं समाज से ज्यादा माँ-बाप को देती हूँ। आजकल माँ भी नौकरी करती हैं। बाप तो करते ही हैं । तब भी हम में बैठकर जितना समय आप अपने बच्चों के साथ काटते हैं, वह कितना गहन है ये देखना जरूरी है। अब सहजयोग में आने पर क्या होता है ये देखना जरूरी है। मतलब सहजयोग का सम्बन्ध आपके बच्चों के साथ किस तरह है ये देखना जरूरी है। सहजयोग में आपकी गणेश शक्ति जो जागृत होती है वह कुण्डलिनी शक्ति के कारण है। तब प्रथम मनुष्य में सुबुद्धि आती है। हम उसे विनायक (गणेश ) कहते हैं। वही सबको सुबुद्धि देने वाला है। मैंने ऐसे बच्चे देखे हैं, जिन्हें लोग मेरे पास लेकर आते हैं, कहते हैं, बच्चा क्लास में एकदम 'शून्य' है, खाली मस्ती करता है, मास्टरजी से करते हो?" उसने कहा, "मुझे कुछ नहीं आता और मास्टरजी भी मुझे डाँटते रहते हैं। फिर मैं क्या करूं ? हमारे बच्चों का | उल्टा-सीधा बोलता है। मैंने उससे पूछा, "तुम ऐसे क्यों पालन करते हैं । वही बच्चा फस्स्ट क्लास फस्स्ट (प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान) में पास हुआ है। ये कैसे हुआ है? वह गणेश अपने में जागृत होते ही वह शक्ति आपमें बहने लगती है और मनुष्य में एक नये तरह का आयाम शुरू हो जाता है। उस आयाम को हम सामूहिक चेतना कहते हैं। उस नयी चेतना में जो चीजें पहले मनुष्य साधारणतया दिखाई नहीं देतीं, अनुभव नहीं होतीं, वे सहज में ही होने लगती हैं। ये नया आयाम या कहिए ये जो एक नयी चेतना-शक्ति अपने में आने लगती है उस शक्ति से मनुष्य सच्चा समर्थ हो जाता है। और उस समर्थता से एक चमत्कार घटित होता है। जो बच्चे बेकार हैं, जो किसी को काम के लायक नहीं है, माने जो शराब वगैरा पीते हैं-आजकल आपको है ड्रग वरगैरा चलता है- हमने तो कभी चरस नाम की चीज़ ही नहीं देखी थी। अब मालूम होता है कि आजकल स्कूलों में चरस बिकती है। ये सब मूर्खता, सुबुद्धि न होने के कारण होती है। वह सुबुद्धि जागृत होते ही जो लोग इग्लैण्ड, अमेरिका में चरस लेते हैं वे यह सब छोड़कर अच्छे नागरिक बन गए हैं। ये सहजयोग की शक्ति है। बच्चों में शिष्टाचार आता है। मैं देखती हैँ आजकल बच्चों में शिष्टाचार नहीं है क्योंकि माँ-बाप आपस में लड़ते हैं, बच्चों का आदर नहीं करते। उनसे चाहे जैसा व्यवहार करते हैं। जैसी माँ-बाप की प्रकृति, वैसी ही बच्चों की बन जाती है और वे वैसे ही असभ्य आचरण करते हैं। सहजयोग में आकर माता-पिता की कुण्डलिनी अगर जागृत हो गयी और बच्चों की भी हो गयी तो फिर सब एकदम कायदे से व्यवहार करते हैं। पहले मालूम आत्म-सम्मान जागृत होता है। उपदेश करने से आत्म-सम्मान जागृत नहीं होता। परन्तु सहजयोग में कुण्डलिनी जागृति से मनुष्य में सम्मान आता है। अपने देश में जो मनुष्य सत्ताधीश है उसी का सम्मान करने की रूढ़ी चली आ रही है। परन्तु सच्ची सत्ता श्री गणेश की है। उनकी सत्ता जिनके पास हो उन्हीं के चरणों में झुकना चाहिए। बाकी सब ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे आज आएंगे कल चले जाएंगे। उनका कोई मतलब नहीं, बेकार हैं वे लोग। जिन्होंने गणेश को अपने आप में जागृत किया है उनके सामने झुकना चाहिए। | २१ गणेश शक्ति जागृत होते ही आदमी में बहुत अन्तर आ जाता है। जैसे कि आजकल पुरुषों की नज़र इधर-उधर दौड़ती रहती है, चंचल रहती है, आज्ञा चक्र पकड़ता है। हरदम पागलों की तरह इधर-उधर देखते रहना, जिसे कहते हैं तमाशगीर। आजकल तमाशगीरों की बड़ी भारी संख्या है। महाराष्ट्र में भी शुरू हुआ है। हम जब छोटे थे, स्कूल, कॉलेजों में पढ़ते थे तब हमने ऐसे तमाशगीर नहीं देखे थे । परन्तु अब ये नये लोग निकले हैं। ये लोग हरदम अपनी आँखें इधर से उधर दौड़ाते रहते हैं। उससे बहुत शक्ति नष्ट होती है और उसमें किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं है। नीरस क्रिया (joyless pursuit) कहना चाहिए । उसमें | अपना सारा चित्त लगाकर अपनी आँखें इधर-उधर घुमाते रहते हैं। हरदम इधर-उधर देखना, जैसे रास्ते के विज्ञापन देखना। गलती से कोई विज्ञापन देखना छूट गया तो उन्हें लगेगा जैसे अपना कुछ महत्वपूर्ण काम चूक गया। फिर से आँख घुमाकर वह विज्ञापन पढ़ेंगे। हर-एक चीज़ देखना जरूरी है। ये जो आँखों की बीमारी है यह एकदम नष्ट होकर मनुष्य सहजयोग में एकाग्र होता है। तब इसमें एकाग्र दृष्टि आती है। ऐसी एकाग्र दृष्टि व गणेश शक्ति अगर जागृत हो जाती है, उसे 'कटाक्ष निरीक्षण' कहते हैं। आपकी कटाक्ष दृष्टि जहाँ पड़ेगी वहाँ कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी। जिसकी तरफ आप देखेंगे उसमें पवित्रता आ जाएगी। इतना पावित्र्य आँखों में आ जाएगा। ये केवल अकेले गणेश का काम है। और ये गणेश आपके घर ही में है। आपने अपने गणेश को पहचाना नहीं। अगर पहचाना होता तो अपनी पवित्रता में स्थित होते। जो पवित्र है वही करना चाहिए। परन्तु आपने अपने गणेश को नहीं पूजा। कोई बात नहीं। अपने घर में बच्चे हैं, उनके गणेश को देखिए । उन्हें पूजनीय बनाइए और अपने गणेश को भी। आप अपनी कुण्डलिनी जागृत करवाइए। परन्तु सहजयोग की विशेषता ये है कि ये सहज में होता है । उसके लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं। कुण्डलिनी जागृत होने पर मनुष्य में सुबुद्धि आती है और उस मनुष्य का सारा व्यक्तित्व एक विशेष प्रकार का हो जाता है। अब यहाँ पर जो साहित्यिक लोग होंगे वे कहेंगे माताजी कोई भ्रामक (विचित्र) कहानियाँ सुना रही हैं। परन्तु आपको सुनकर आश्चर्य होगा। अहमदनगर जिले में सहजयोग के कारण दस हजार लोगों ने शराब छोड़ी है। मैं शराब बन्दी हो जाए वगैरा नहीं बोलती हूँ। मैं कुछ नहीं बोलती। आप जैसे भी हो आप आइए। आकर अपना आत्मारूपी दिया जलाइए। दिया जलने के बाद शरीर में क्या दोष हैं वे आपको दिखाई देंगे। जब दिया नहीं जलेगा तब तक साड़ी में क्या लगा है ये नहीं दिखाई देगा। उसी तरह एक बार दिया जला कि सब कुछ दिखाई देगा। बिल्कुल थोड़ा सा भी जल गया तो भी आपको दिखाई देगा कि अपनी क्या क्या त्रुटियाँ हैं। आप ही अपने गुरू बनिए और अपने आपको गणेश शक्ति जो जागृत होती है.. तब प्रथम में मनुष्य सुबुद्धि आती है। अच्छा बनाइए। स्वयं को पवित्र बनाइए। जो लोग पवित्र होते हैं उनके आनन्द की कोई सीमा नहीं। उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहता। किसी ने कहा है, 'जब मस्त हुए फिर क्या बोलें?' अब हम मस्ती में आए हैं तो उस मस्ती की हालत में अब हम क्या बोलें? ऐसी स्थिति हो जाती है। पवित्रता आनन्दमयी है और केवल आनन्दमयी ही नहीं, पूरे व्यक्तित्व को सुगंधमय कर देती है। ऐसा मनुष्य कहीं भी खड़ा होगा लोग कहेंगे, 'हे भाई , इसमें कुछ तो तो भी कुछ विशेष बात है इस मनुष्य में।' जिन्हें विशेष नहीं बनना है उनके लिए सहजयोग नहीं है। जिन्हें विशेष बनना है वे बनेंगे। आप विशेष बनने वाले हो ये सर्वविदित है । वह आपको अर्जन करना है, कमाना है। जिन्हें विशेष बनना है, उन प्रापंचिक लोगों के लिए, घर-गृहस्थी में रहने वाले लोगों के लिए सहजयोग है। जिन्हें कुछ बनना नहीं, जो समझते हैं हम बिल्कुल ठीक हैं, हमें कुछ नहीं चाहिए माताजी, तो भाई ठीक है, आपको हमारा नमस्कार। आप पधारिए। आप पर हम जबरदस्ती नहीं कर सकते। अगर आपको पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है। अगर आपको नर्क में जाना है तो बेशक जाइए, और अगर स्वर्ग में आना है तो आइए। हम आप पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं कर सकते। सर्वप्रथम अपने प्रपंच में सुख का कारण बच्चा होता है। गर्भारम्भ से ही घर में आनन्द शुरू हो जाता | है। माता के कष्टों की समाप्ति के पश्चात बच्चे का अत्यन्त उल्लास के बीच जन्म होता है। आजकल मैंने देखा है जो लोग पार हैं उनके जो बच्चे होते हैं, वे जन्म से ही पार होते हैं, चाहे वे लोग कहीं भी रहें । कितने २२ प्रपंच और सहजयोग वर ही बड़े-बड़े आत्मपिडों को जन्म लेना है । सबको मैं देख रही हूँ। वे कह रहे हैं, 'ऐसा कौन है जो हमारी आत्मा को सुचारू रखेगा? ऐसे-वैसे लोगों के यहाँ साधु-सन्त नहीं जन्म लेते। ऐसे बड़े-बड़े आत्मपिंड आज जन्म लेने वाले हैं और उनके लिए ऐसे लोगों की जरूरत है जिनके प्रपंच सचमुच ही प्रकाशित हैं। और ऐसे प्रकाशित प्रपंच निर्माण करने के लिए आप सहजयोग अपनाकर अपनी कुण्डलिनी जागृत करवा लीजिए । वह होने के बाद दूसरे चक्र से जिसे हम 'स्वाधिष्ठान चक्र' कहते हैं उससे प्रपंच में बहुत से लाभ होते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का पहला काम है, आपकी गुरु-शक्ति को प्रबल बनाना। बहुत से घरों में मैंने देखा है, पिता की कोई इज्जत नहीं, माँ की कोई इज्जत नहीं। छोटे-छोटे १५-१६ साल के बच्चे ही सब कुछ है। आजकल बाज़ार में मैं देखती हैँ, हमारे जैसे वयस्क लोगों के लिए साड़ी खरीदना एक समस्या है। सभी साड़ियाँ युवा लड़कियों के लिए ही हैं। बड़े-बूढे लोगों के लिए साड़ियाँ बनाने का आजकल रिवाज ही नहीं रहा। पहले जमाने में बूढ़े लोगों के पास पैसा रहता था, उनके लिए सब कुछ ठीक-ठाक रहता था। अब बूढ़़े लोगों को कोई पूछता नहीं। उनके लिए शादीब्याह में एकाध साड़ी खरीदना भी मुश्किल हो गया है। जिस समय ये गुरु शक्ति आपमें जागृत होती है तब ये जो बूढ़ापन, वृद्धत्व आता है, उसमें बुजर्ग आदमी को लें। अपने पिता भी कभी-कभी बिल्कुल मूर्खों की तरह बर्ताव करते हैं । माँ महामूरखों की तरह बर्ताव करती है। बाहर से जो लोग आते हैं उनके सामने किस तरह रहना है उसे नहीं मालूम। चिल्लाती रहती है, सारा ध्यान उसका चाभियों पर, नहीं तो जात-पात के लड़ाई-झगड़ों पर रहता है। कोकणस्थ की शादी कोकणस्थ से ही होनी चाहिए, देशस्थों की देशस्थों से। ऐसा नहीं हुआ तो सास लड़ती है। ये जो बुड्ढ़े लोगों की अजीब बातें है, ये तब खत्म हो जाती हैं और उसके स्थान पर उस बूढ़ेपन में एक तरह की 'तेजस्विता' आ जाती है। वह व्यक्ति अपने सम्मान के साथ खडा रहता है। आपको लगेगा ' अरे बाप रे! हमारे पिताजी ये क्या हो गए?' पहले जमाने के जो दादोजी कोंडदेव (शिवाजी के जमाने के लोग) वगैरा लोग थे, क्या वही यहाँ खड़े हो गए?' और तुरन्त उनके सामने हम विनम्र हो जाते हैं । तो इस युवा पीढ़ी में जो खलबली मची हुई है। बात-बात पर तलाक, पत्नी के साथ लड़ाई, माँ-बाप से नहीं बनती, घर में रह नहीं २३ सपने प्रयंच में सुख का कारण बच्चा होता है। स्वाधिष्ठान का पहला काम है, गुरु-शक्ति को बनाना। प्रबल सकते, घर से बाहर भाग जाना, छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े, ये सब हो रहा है। काम-धंधा नहीं, पैसे नहीं, सभी बुरी आदतें, सब तरफ से आजकल की युवा पीढ़ी एक बड़े संक्रमण काल की तरफ बढ़ रही है। उनकी पृष्ठभूमि (background) बहुत महान है। पर मैं कहती हूँ महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि तो बहुत ही महान है। पर वह सब भूलकर भी प़ेंगे नहीं, सुनेंगे नहीं। अब संगीत का अपने महाराष्ट्र में कितना ज्ञान है? साधु-सन्तों का कितना साहित्य है अपनी भाषा में। पर वह सब किताबें कौन पढ़ता है? गन्दी किताबें सड़क पर खरीद कर पढ़ना। कुछ अत्यन्त नकली, superficial (जो गहराई में नहीं जाते, बस ऊपर ऊपर उतरते रहते हैं) इस तरह की युवा पीढ़ी बनती मैं जा रही है। इस युवा पीढ़ी को अगर इसी तरह रखा तो ये इसी हवा में खो जाएगी। किसी काम की नहीं रहेगी। मुझसे पूछिए आप, अमेरिका गई थी तो ६५% पुरुष बेकार है। वहाँ के जो लोग हैं उन्हें एक डर है। वहाँ 'एडस' नाम की कोई बीमारी है। उससे सभी युवा लोग मर रहे हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इससे कैसे छुटकारा मिले? उसका कारण है, 'ये करने में क्या हर्ज है? इसमें क्या बुरा है? हो गए होंगे श्री रामदास स्वामी, हमें उनसे क्या मतलब ? वह सब बातें रखिए अपने पास । हम अब मॉडर्न बन रहे हैं।' बड़े आए मॉडर्न बनने वाले! वे (अमेरिकन) मॉडर्न कहाँ गए हैं। वह देखिए एक बार उस देशों में जाकर। वहाँ के मॉडर्न लोगों की क्या स्थिति है ये जरा जाकर देखिए । यहाँ के लेखकगण यहीं बैठकर वहाँ के वर्णन लिखते रहते हैं। वहाँ जाकर देखिए । वहाँ के वयस्क लोग रात दिन एक ही बात सोचते हैं, हम किस तरह आत्महत्या करें? एक ही विचार है उनका, आत्महत्या। यही एक रास्ता है उनके पास। तो हवा में खत्म होने वाले जो ये लोग हैं उनकी तरह आपको मॉडर्न होना है तो आपको हमारा नमस्कार! परन्तु आप को अपनी शक्ति में खड़े रहना है और कोई विशेष बनना है, तो आप जो चले जा रहे हैं सो रुकना पड़ेगा। जरा शान्त होकर सोचिए ये (विदेशी) जो सारे दौड़ रहे हैं, जो अन्धाधुन्द दौड़ (rat race) चल रही है उसमें भी क्या भाग रहा हूँ? एक मिनट शान्त होकर सोचना चाहिए हमारी भारतीय विरासत क्या है? सम्पत्ति के बटवारे में यदि एक कतरन (छोटा टुकड़ा) कम-ज्यादा मिली तो कोर्ट में लड़ने जाते हैं! परन्तु अपने इस देश की बड़ी परम्परा है। उस तरफ किसी का ध्यान नहीं। वह खत्म होने जा रही है। उसका हमने कितना लाभ उठाया है? इसका ज्ञान सहजयोग में आने पर वयस्क लोगों को होता है। क्योंकि तब उन्हें मालूम होता है कि हम पहले जो थे उससे कितने ऊँचे उठ २४ प्रपंच और सहजयोग गए है। मेरे बचपन में मेरे पिताजी ने मुझसे कहा था सर्वप्रथम इस युवा वर्ग की जागृति होनी चाहिए। दसवीं मंजिल (चेतना के स्तर) पर बैठे साधु-सन्त नहीं समझ पाते कि साधारण लोगों को, जो अभी पहली मंजिल पर भी नहीं पहुँचे, उनकी चेतना की क्या अवस्था है। ये (साधारण लोग) ताल-मजीरे अवश्य बजाते हैं, किन्तु उन गीतों व भजनों के पीछे क्या भाव है यह वे नहीं समझते। जब वे पहली मंजिल (आत्मसाक्षात्कार) पर पहुँचेंगे तब उन्हें पता चलेगा कि उससे ऊपर और भी मंजिलें हैं। तो इस सर्वसाधारण मानवी चेतना के परे एक बहुत बड़ी चेतना है। उसे 'ऋतंभरा शक्ति' कहते हैं। वह आपको सहज में प्राप्त होती है। वह प्राप्त होने के बाद आपको अपने जीवन का दर्शन होगा। हम क्या हैं, कितने महान हैं और हम ये जो अपने जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, ये क्या हमें शोभा देता है? कितनी आपके पास सम्पदा है आपने अपनी क्या इज्जत रखी ? आपको अपने बारे में कुछ पता नहीं है। ये आप समझने की कोशिश कीजिए और सहजयोग में अपनी जागृति कराइए। इसी तरह आजकल की युवा पीढ़ी है। ये भी परमात्मा के साम्राज्य में सहज में आ सकती है। इस युवा-पीढ़ी को पार कराना बहुत आसान काम है। सारे भोलेपन में गलत काम करते हैं। इनका सब भोलापन ही है। एक लड़का सिगरेट पीता है तो मैं भी पिऊं, बस! किसी ने कुछ विशेष तरह के कपड़े पहने तो मैं भी पहनूंगा, इतना ही! सब कुछ भोलापन! परन्तु कभी-कभी इस भोलेपन से ही अनर्थ हो सकता है। परन्तु यही युवा पीढ़ी आज कहाँ से कहाँ पहुँच सकती है। आज अपने देश में किस बात की कमी है? कोई कहेगा खाने की है। परन्तु मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। मुझे लगता है हम ज्यादा ही खाते हैं और दूसरों को भी देते हैं। मैं जब भी यहाँ आती हैँ तो सबको हाथ जोड़कर बोलती रहती हूैँ, अब खाना बस करिए मुझे अब नहीं चाहिए। हर- वहाँ कहता है हिन्दुस्तान में खाने की कुछ कमी नहीं दिखाई देती, क्योंकि इतना खिलाते | मानवी चेतना के परे एक बहुत बड़ी चेतना है.... उसे 'ऋतंभरा शक्ति' एक मनुष्य हैं,आग्रह कर करके। लगता है खाना ही न खाएं। तो अपने यहाँ कमी किस बात की है? लोग भी बहत वाद-विवाद चर्चा करने में नंबर एक हैं। वे अगर यहाँ खड़े होंगे तो मुझसे भी जबरदस्त भाषण देंगे, सभी बातों में। बहुत होशियार हैं हम लोग। कुछ ज्यादा ही होशियार! सब कुछ है हमारे पास, कुछ। कमी किस बात की है? एक ही कमी है कि हमें ये ज्ञान नहीं कि हम कौन हैं? मैं कौन हूँ? इसका अभी तक ज्ञान नहीं है । जिस समय ये घटित होगा तब पूरा शरीर पुलकित हो उठेगा और आपके शरीर से प्रेम अर्थात चैतन्य की लहें बहने लगेंगी। केवल ये घटना आप में घटित होनी चाहिए। इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता। होगा तो होगा, नहीं तो नहीं भी। आज नहीं तो कल घटित होगा। इस प्रपंच में आपकी आर्थिक समस्याएं हैं। महाराष्ट्र में देखो तो 'श्री माताजी, गरीबों को आप से से कहते हैं। सोना चांदी, सब क्या लाभ होगा?' आप क्या हैं, गरीब हैं या अमीर, या मध्यम ? फिर आपको क्या लाभ चाहिए? आप चाहे मध्यम हो, अमीर हो, रईस हो, चाहे गरीब, किसी को भी संतोष नहीं । रेडियो है तो वी. डी . ओ. चाहिए । वी डी . ओ . है तो एयरकंडीशनर चाहिए । और उसके बाद जहाज चाहिए। और आगे क्या, वह परमात्मा ही जाने! अर्थशास्त्र का एक सर्वसाधारण नियम है। इच्छाएं सामान्यरूप से कभी भी पूरी नहीं होती। आपकी एक इच्छा हुई तो वह पूरी होगी। परन्तु साधारणतया ऐसा होता नहीं। आज एक हुई, कल दुसरी, उसके बाद तीसरी। एक बात स्पष्ट है जो हमने इच्छा की वह शुद्ध इच्छा नहीं थी। अगर वह शुद्ध इच्छा होती तो वह पूरी होने के बाद हमें पूर्ण समाधान होता। परन्तु ऐसा है नहीं। मतलब आपकी इच्छा शुद्ध नहीं थी। अशुद्ध इच्छा में रहे। इसलिए एक के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी इस चक्कर में आप घूमते रहे। अब शुद्ध इच्छा साक्षात कुण्डलिनी है। क्योंकि वह परमात्मा की इच्छा है। ये जागृत होते ही जो आप इच्छा करोगे...जो जे वांछिल, तो ते लाहो (जो जिसकी इच्छा है वह उसे प्राप्त होगा ।) इतना कि आप कहेंगे अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। आपकी जो इच्छाएं हैं वे पूरी होती हैं, परन्तु वे इच्छाएं जड़ वस्तुओं की नहीं होती। उनमें एक तरह की प्रगल्भता,उदात्तता होती है। और आपकी जो छोटी-छोटी बातें हैं वह कृष्ण के कथनानुसार 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' जब आपका योग घटित होगा तो क्षेम होगा ही। परन्तु पहले योग कहा है, 'क्षेमयोग' नहीं कहा है। 'योग क्षेम वहाम्यहम्' पहले योग घटित होना जरूरी है। सुदामा को पहले २५ ज कृष्ण को जाकर मिलना पड़ा तब उसकी सुदामा नगरी सोने की बनी। आपका कहना है हम यहीं बैठे रहेंगे और हाथ में सब कुछ आ जाए। क्यों? परमात्मा पर आप इतना अधिकार क्यों जताते हैं। किसलिए? चार पैसों के फूल लिए और परमात्मा को दे आए। इसलिए? उलटे इसमें आपकी बड़ी गलती है। बहुत से लोग मैंने देखे हैं जो शिवभक्त हैं। वे 'शिव-शिव' करते रहते हैं और उन्हें हार्ट अटैक होता है। शिव आप के हृदय में बैठे हैं। फिर ऐसा क्यों? उन्हें हार्ट अटैक क्यों हुआ? क्योंकि शिव नाराज हो गये। आप किसी मनुष्य को ऐसे बुलाते रहें बार-बार, तो उसे भी लगेगा ये आदमी मुझे क्यों परेशान कर रहा है। कल आप राजीव गांधी के घर जाकर 'राजीव, राजीव' ऐसे कहते रहे तो लोग आपको कैद कर लेंगे । यह हुआ है। और इससे आपको न परमात्मा की प्राप्ति हो रही है और न ही प्रपंच की। ऐसी स्थिति है। इसलिए 'मध्यमार्ग' में आना जरूरी है। और मध्यमार्ग को 'सुषुम्ना नाड़ी का मार्ग' कहते हैं। वहाँ से जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तब मनुष्य बीचों-बीच (मध्य में) आकर समाधानी होता है। बिल्कुल समाधानी बन जाता है। आजकल संतोषी देवी का व्रत चला है। संतोषी नाम की कोई देवी है ही नहीं। सिनेमा वालों ने यह निकाली तो लगे सब व्रत रखने लगे। जो स्वयं संतोष का स्रोत है उसे क्या कहेंगे वह संतोषी है। और इसी तरह कुछ गलत-सलत बनाते रहते हैं। व्रत रखना, आज खट्टा नहीं खाना, ये करना, वह नहीं करना। कुछ तमाशे करते रहना और फिर परमात्मा को दोष देना, हम इतना परमात्मा की सेवा करते हैं फिर भी हम बीमार हैं। उसके बारे में कुछ दिमाग से सोचना चाहिए । परमात्मा के जो नियम हैं उनका विज्ञान है। वह पहले आप सीख लीजिए। वह सीखे बगैर गलत-सलत करते हो। फिर कुछ बिगड़ गया तो उसे क्यों दोष देते हो? परमात्मा है या नहीं, यही सिद्ध करने के लिए हम आए हैं। बिल्कुल सिद्ध करने के लिए । आपे हाथों से चैतन्य बहेगा। आपके हाथों की उंगलियों पर परमात्मा मिलने वाले हैं । परन्तु उसके लिए आपकी तैयारी है? बुद्धि ज्यादा चलती है। श्री माताजी क्या कह रही हैं? जरा दिमाग ठंडा कीजिए, फिर होगा। आपकी समस्याएं आपकी बुद्धि से हल होने वाली नहीं है। आपकी राजकीय समस्याएं हल नहीं होने वाली, न सामाजिक और प्रपंच की तो बिलकुल ही नहीं । राजकीय प्रश्न ये है कि हम पूँजीपति (capitalist) हैं। उसी के लिए लड़ रहे हैं। क्या वे लोग सुखी है ? स्वतन्त्रता भी सम्भाली जाती है उनसे ? दूसरे कहते हैं हम कम्युनिस्ट २६ अ प्रपंच और सहजयोग (साम्यवादी) हैं। किन्तु सच्चे कपिटलिस्ट (पूँजिपति) हम हैं क्योंकि हमारे पास शक्ति (की पूँजी) है। ये सब ऊपरी बातें हैं। इसमें आप लोग मत उलझिए। आप अपने आप में (अपने भीतर) परमात्मा का साम्राज्य लाइए और उसके नागरिक बनिए । फिर देखिए आप क्या बनते हैं। उसके लिए प्रपंच छोड़ने की जरूरत नहीं है। पैसे देने की जरूरत नहीं है। इसमें क्या पैसे देने? ये तो जीवन प्रक्रिया है आपमें । किसी पेड को आपने पैसे दिए तो क्या वह आपको फूल देता है? उसे क्या मालूम पैसा क्या चीज़ है? उसी तरह परमात्मा है। उन्हें पैसे वगैरा नहीं मालूम। किसी बाबाजी को ले आते हैं और उसे कहते हैं, ये लो पैसे। गाँव में हमारे विषय में कहा 'माताजी पैसे नहीं लेतीं।' तो कहते लीजिए। परन्तु पैसे किस चीज़ के दे रहे हो? ये (आत्मसाक्षात्कार) तो आप ही का है। इसे क्या खुद खरीदोगे? प्रेम के द्वारा सब कुछ काम होता है। वह प्रेम प्राप्त करना होगा, जो आजकल प्रपंच में नहीं है। और जो प्रेम नजर आता है वह गलत तरीके का है। किसी पेड़ को आपने देखा होगा। उसका रस ऊपर हैं अच्छा १० पैसे नहीं तो २५ ले जिस घर में परमात्मा आता रहता है और जिस जिस भाग को चाहिए उसे देते देते वह अपनी जगह तक जाता है। वह किसी फूल का दिया भी पर या पत्ते पर नहीं अटकता। अटक गया तो बस वह पत्ता भी खत्म और वह पेड़ भी खत्म और खत्म। उसी तरह हम लोगों का है। हमारा प्रेम माने 'मेरा बेटा! वह तो दुनिया का नवाब शाह हो गया! मेरी बेटी, मेरा काम', 'मेरा-मेरा' चलता रहता है। वह क्या आपका है? लेकिन ये कह सुनकर नहीं होने वाला। कितना भी कह छोड़िए, 'मेरा-मेरा नहीं छूटने वाला। उसे छुड़वाने के लिये आप की कुण्डलिनी उठनी चाहिए। वह उठने के बाद और पार होने के बाद 'तुम्हारा-तुम्हारा' की शुरूआत होती है। कबीर ने कहा है जब बकरी जीवित होती है तब बार-बार 'मी-मी' (मैं-मैं) करती है। 'मैं-मैं -मैं' करती है। लेकिन वह मरने के बाद उसकी आँत निकाल कर उसका तार खींचकर धुंदके में बाँधी जाती है तो उसमें से आवाज आती है, 'तूही-तूही-तूही'। उसी तरह मनुष्य का है। एक बार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत होती है तब लगता है सब कुछ 'तुम्हारा' है। मनुष्य 'अकर्म' में उतरता है। फिर ये बच्चे, सगे-सोयरे सभी तुम्हारे! लोगों को आश्चर्य होता है, ये सब कैसे होता है? इस बम्बई शहर में इतने लोगों की प्रापंचिक स्थिति में सुधार आया है कि आपको आश्चर्य होगा। परन्तु हम उस तरफ देखते ही नहीं। हमें विश्वास ही नहीं है। नहीं करते तो मत करिए। पता नहीं आपका अपने स्वयं पर भी भरोसा है या नहीं, परमात्मा ही जाने। अब ये व्यर्थ वर्तमान पत्र ( समाचार पत्र) वादिता छोड़कर सचमुच की वर्तमान स्थिति में क्या हो रहा है ये देखना चाहिए। श्रीकृष्ण आए, कुछ एक परम्परा लेकर आए और उन्होंने कृषि का कार्य किया। एक बीज बोया। आज वह सम्पदा आपको इस स्थिति तक लाई है। आप फूलों से फल बनने वाले हो। वह आपको प्राप्त कर लेना चाहिए। अगर इस बार आप चूक गए तो समझ लीजिए हमेशा के लिए चूक गए। आपकी सारी प्रापंचिक समस्याएं खत्म होकर आप परमात्मा के प्रपंच में आते हैं। उनके प्रपंच में आए बगैर आपको सुख नहीं मिलने वाला। सारे दुनिया भर के दु:ख परमात्मा के चरणों में आने से खत्म होते हैं, ऐसा कहते हैं। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि आप जाकर विठ्ठल ( परमात्मा) के चरणों में सर फोड़ लें। श्री विठ्ठल को अपने आप में जागृत करना है। और उसे कैसे जगाना है? उसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है। वह साक्षात् आप में है। केवल कुण्डलिनी का जागरण होने के बाद, जिस तरह दिया जलाया जाता है, उसी तरह आपमें वह जलता है। जिस घर में परमात्मा का दिया जलता रहेगा वहाँ दु:ख- दर्द कहाँ? गरीबी और परेशानियाँ कहाँ? वहाँ तो सुख का संसार होना चाहिए। और इसलिए हम गाँव- गाँव सब जगह घूमते हैं। आपको मेरी नम्र विनती है कि ये जो आप में शक्ति है वह जागृत करवा लीजिए और सारे संसार के प्रपंच का उद्धार कीजिए। मैं आपको हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। फूल जलता रहेगा वहाँ | दुःख दर्द कहाँ? २७ १७ १ ० हॉ. चंद्रिका प्रमाद श्रीवाम्नय मैं, भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटील, व्यक्तिगत गुणों के लिए आपके सम्मानार्थ, पद्म विभूषण प्रदान करती हूं। (७ सर सी.पी. पद्म विभूषण प्रदान किया गया। को दिल्ली, ३१ मार्च २००९ २१ मार्च को मंगलवार के दिन सर सी.पी.को पद्म विभूषण, राष्ट्र का द्वितीय सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार देश की राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभाताई पाटील द्वारा प्रदान किया गया| इस अवसर पर कई विशिष्ट अतिथि उपस्थित थे। श्री माताजी भी वहाँ उपस्थित थीं। पुरस्कार की घोषणा दि.२६ जनवरी २००९ को हुई थी। जय श्री माताजी! २८ ट जन्मदिन पूजा नोएडा, २१ मार्च २००९ आ. ज का दिन बहुत शुभ है और इस दिन की शुरुआत ध्यान से हुई और उसके पश्चात् युवा सेमिनार संपन्न हुआ। इसके बाद सहज के सूक्ष्म ज्ञान के बारे में एक कार्यक्रम हुआ और उसके बाद सवाल-जवाब का कार्यक्रम चला। शाम को मुख्य पंडाल बहुत ही सुंदर प्रकार से सुगन्धित फूलों से सजाया गया। इस मंगलमय अवसर पर करीबन २० हजार सहजयोगी उपस्थित थे। शाम के ध्यान के बाद छिंदवाडा के संजीव मेश्राम जी की बनाई गयी एक छोटी फिल्म दिखाई गयी और १९८६ के श्री लक्ष्मी पूजा के भजन का वीडिओ दिखाया गया। करीबन शाम ७.३० बजे आतिशबाजियों से श्री माताजी के आगमन की दी गयी। स्वागत भजन प्रस्तुत किया गया और उसके बाद 'शुभमंगल दिवस' और 'श्री जगदम्बे आई रे मेरी निर्मल माँ' यह भजन गाये गये। परम पूज्यनीय माँ के चरणों पर छोटे बच्चों ने श्री गणेश पूजा की। सूचना यह करते वक्त श्री गणेश अथर्वशीर्ष का उच्चारण किया गया। उसके बाद देवी पूजा का आरम्भ हुआ और 'जागो सवेरा आया है', 'हासत आली निर्मल आई' और 'निर्मला किती वर्णावी' यह भजन गाये गये। करीबन रात ८.३० बजे श्री आदिशक्ति माँ की आरती की गयी। रात ९ बजे श्री माताजी ने एक अतिसुंदर केक काटा और सभी बच्चों को आशीर्वादित किया। तभी 'जन्मदिन आयो आदिशक्ति का' भजन गाया गया। उसके पश्चात् निम्नलिखित पदाधिकारियों द्वारा भेजे गये बधाई सन्देश पढ़े गये थे १) श्रीमती प्रतिभा पाटील ( भारत की राष्ट्रपति) २) श्री.सुशिलकुमार शिंदे (ऊर्जा मन्त्री ) ३) श्रीमती शीला दीक्षित (मुख्यमन्त्री, दिल्ली) ४) अमेरिका के पाँच राज्यों के राज्यपाल (न्यूयॉर्क, न्यू जर्सी, कनेक्टिकट, फ्लोरिडा आदि) और करीबन १२ शहरों के प्रमुख ५ ) इटली की सरकार ६ ) सिडनी :- उसके बाद सफदरजंग आश्रम के नींव की शिला को श्री माताजी ने आशीर्वादित किया और उसके तुरन्त पश्चात माँ के सामने छिन्दवाडा में बनाये जा रहे आश्रम की प्रतिकृति लायी गयी जिसे माँ ने आशीर्वादित किया। अंत में करीबन रात ९.३० बजे श्री माताजी के पोते आनन्द के शादी की शहनाई की धुन से पूरा वातावरण झूम उठा। उसके बाद प्रसिद्ध पद्मश्री वडाली भाइयों ने बहुत सुन्दर सूफी कव्वालियाँ पेश की। सूफी कव्वालियाँ और श्री माताजी की पावन उपस्थिति से शाम और भी चैतन्यित हो उठी थी । सभी सहजी चैतन्य की ठण्डी लहरियों में डूब गये थे। वहाँ मौजूद सभी सहजियों के साथ करीबन ५ घण्टे बीतने के बाद श्री माताजी ने वहाँ से रात के १२.३० बजे प्रतिष्ठान की ओर प्रस्थान किया। जय श्री माताजी। ३० मि ५ त ए ईस्टर पूजा और शादी की द२ वीं सालगिरह दिल्ली, ७ एप्रिल २००९ ७ एप्रिल को नोएडा, दिल्ली में ईस्टर पूजा तथा शादी की ६२ वीं सालगिरह मनायी गयी। इस कार्यक्रम में करीबन ८-१० हजार लोगों की उपस्थिति रही। पूजा के पण्डाल को बहुत ही सुन्दर तरीके से सजाया गया था। शाम के करीबन ६.३० बजे सामूहिक ध्यान से कार्यक्रम की शुरुआत की गई। इसके बाद 'श्री गणेश वन्दना', 'जय गणेश , जय गणेश' जैसे सुन्दर भजन गाये गये। इसके बाद ईस्टर पूजा २००४ (नागपुर, भारत ) के प्रवचन वीडिओ को स्क्रीन पर दिखाया गया। 6. इस प्रवचन का सन्देश 'क्षमा' था। इस में श्री माताजी ने बताया कि जब येशू ख्रिस्त ने तक क्षमा किया, तब हम लोग क्यों नहीं कर सकते ? इसके बाद नारगोल का एक विडिओ दिखाया गया जिसमें श्री माताजी ने सहस्रार को खोला था उस भूमि का नामकरण 'निर्मल वन' किया गया था, इसे दिखाया गया। और इसमें वहाँ की प्रगति और गतिविधियों की भी जानकारी दी गयी। इसके कुछ देर बाद श्री माताजी आयीं। आरती से उनका स्वागत किया गया। | पूजा की शुरुआत बाल युवाओं ने श्री माताजी के चरण कमलों में फूलों के समर्पण के साथ की गयी। 'विनती सुनिये आदिशक्ति मेरी' भजन को इस दौरान गाया गया , इसके बाद 'गणेश अथर्वशीर्ष' और फिर श्रृंगार भजन 'हासत आली निर्मला आई' पर श्री माताजी का श्रृंगार किया गया और फिर 'भय काय तया' भजन गाया गया। इसके बाद आरती के साथ ही पूजा की समाप्ति हुई । पूजा के बाद इस्टर के अण्डे के आकार के केक को श्री माताजी ने काटा। इसके उपरान्त श्री माताजी और पापाजी के शादी की ६२ वीं सालगिरह मनायी गयी। इस सुहाने अवसर पर श्री माताजी की दोनो बेटियों ने माताजी द्वारा ही लिखित भजन, 'माँ तेरी जय हो' गाया। और वहाँ उपस्थित सारे योगी जनों ने भी उनका साथ दिया। इसके बाद सूफी कव्वाली गायक 'साबरी भाईयों' ने कव्वाली गाई। रात के पौने बारह बजे श्री माताजी ने वहाँ से प्रस्थान किया और इस दिनभर के कार्यक्रमों की भी समाप्ती हुई। ३१ हा Г परमात्मा आप सबको सुरखी रखे। मेरा पूर्ण आशीर्वाद आपके साथ है। मेरा हृदय, मुन, शरीर हर समय आप ही की सेवा में संलठ् है। वो एक पल भी आपसे दर नहीं। जब भी आप मुझे सिर्फ आँख बन्द करके याद कर लें उसी वक्त में पूर्णशक्ति लेकर के "शंख, चक्र, गदा, पद्म, गुरुड़ लई धाये एक क्षण भी विलम्ब नहीं ले कि न ल गं गI। आपको मेरा होना पड़ेगा। ये जरुरी हैं। अगर आप मेरे है तो एक क्षण भी मुझे नहीं लगेगा, मैं आपके पास आ जाउँगी। सबको परमात्मा सुखी रखे और सुबुद्धी दे। सम्मति से रहो । | सम्मति से रहो।.... मुंबई - २७ मई १९७६ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ e-mail : sale@nitl.co.in गूभ जैसे समुद्र पर तैरते हुए हर क्षण कोई समुद्र के प्यार से उछाला जाय, उसी प्रकार हरेक सहजयोगी को आनन्द, प्रेम, शान्ति का आनंद मिलते रहता है .... निर्मला योग ---------------------- 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी मई - जून २००९ हिन्दी THPPI'I'ITH 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-1.txt প रा चेतन होकर देखो उसे दिव्य आनन्द से तुम्हारे रोम रोम को चैतन्यित करता हुआ, पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाश से भरता हुआ । आपकी माँ निर्मला के ा ० 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-2.txt इस अंक में १४ स्थितियाँ १-९ पकोड़ा १० प्रपंच और सहजयोग १५-२७ और अन्य ও जागृत का मतलब : ठण्डी ठण्डी हवा - ११-१२ समर्पण और भक्ति - १३-१४ विविध कार्यक्रमों का वृत्तांत - २८-३१ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-4.txt १४ स्थितियाँ ५ मई १९८३ २ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-5.txt आज सहजयोग ३र चौ दह वर्ष पूर्व कहना चाहिये या जिसे तेरह वर्ष हो गए और अब चौदहवाँ वर्ष चल पड़ा है, यह महान कार्य संसार में हुआ था, जबकि सहस्रार खोला गया। इसके बारे में मैंने अनेक बार आपसे हर सहस्रार दिन पर बताया हुआ है कि क्या हुआ था, किस तरह से ये घटना हुई, क्यों की गई और इसका महात्म्य क्या है? लेकिन चौदहवाँ जन्मदिन बहुत बड़ी चीज़ है। क्योंकि मनुष्य चौदह स्तर पर रहता है, और जिस दिन चौदह स्तर वो लाँघ जाता है, तो वो फिर पूरी तरह से सहजयोगी हो जाता है। इसलिये आज सहजयोग भी सहजयोगी हो गया। ने अपने अन्दर इस प्रकार परमात्मा चौदह स्तर बनाए है। अगर आप गिनिये, सीधे तरीके से, तो भी अपने अन्दर आप जानते हैं सात चक्र हैं, एक साथ अपने आप। उसके अलावा और दो चक्र जो हैं, उसके बारे में आप लोग बातचीत ज़्यादा नहीं करते, वो हैं 'चन्द्र' का चक्र और 'सूर्य' का चक्र। फिर एक हम्सा चक्र है, इस प्रकार तीन चक्र और आ गए। तो, सात और तीन- दस। उसके ऊपर और चार चक्र हैं। सहस्रार से ऊपर और चार चक्र हैं। और उन चक्रों के बारे में भी मैंने आप से बताया था-अर्धबिन्दु, बिन्दु, वलय और प्रदक्षिणा। इन चार चक्रों के बाद कह सकते हैं कि हम लोग सहजयोगी हो गए। और दूसरी तरह से भी आप देखें, तो हमारे अन्दर चौदह स्थितियाँ सहस्रार तक पहुँचने पर भी हैं। अगर उसको विभाजित किया जाए तो सात चक्र अगर इड़ा नाड़ी पर और सात पिंगला नाड़ी पर हैं। मनुष्य जब चढ़ता है, तो वो सीधे नहीं चढ़ता । वो पहले बायें (लेफ्ट) में में आता है, फिर दायें (राइट) में जाता है, फिर लेफ्ट में आता है, फिर राइट जाता है और कुण्डलिनी जो है, वो भी जब चढ़ती है तो इन दोनों में विभाजित होती हुई चढ़ती है। इसकी वजह ये है कि मैं आपको अगर समझाऊँ कि दो रस्सी और दोनों रस्सियाँ इस प्रकार नीचे उतरते वक्त या ऊपर चढ़ते वक्त भी दो अवगुण्ठन लेती हैं। जब दो अवगुण्ठन लेती हैं, तो उसके लेफ्ट और राइट इस प्रकार से पहले लेफ्ट और फिर राइट, दोनों के अवगुण्ठन होने से, फिर राइट वाली राइट को आ जाती है, लेफ्ट वाली लेफ्ट को चली जाती है। आप अगर इसको देखें, तो मैं आपको दिखा सकती हूँ। समझ लीजिये इस तरह से आया। अब इसने चक्कर लिया, और दूसरे चक्कर लेने में फिर आ गई इसी तरफ। इस प्रकार दो अवगुण्ठन उसमें होते जाते हैं। इसलिये आपकी जब कुण्डलिनी चढ़ती है, तो चक्र पर आपको दिखाई देता है, कि ा 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-6.txt भी सहजयोगी हो गया । लेफ्ट पकड़ा है या राइट क्योंकि कुण्डलिनी तो एक है। फिर आपको एक ही चक्र पर दोनों चीज़ दिखाई देती हैं। इस प्रकार आप देखें कि लेफ्ट पकड़ा है या राइट पकड़ा है। तो इस प्रकार हमारे अन्दर लेफ्ट और राइट अगर दोनों का विभाजन किया जाए, एक चक्र का, तो सात दूनी चौदह। वैसे ही हमारे अन्दर चौदह स्थितियाँ तो पहले ही क्रास (पार ) करनी पड़ती हैं, जब आप सहस्रार तक पहुँचते हैं। और अगर इसको आप समझ लें कि सात ये, और ऊपर के सात-इस तरह भी तो चौदह का एक मार्ग बना। इसलिये 'चौदह' चीज़ जो हैं वो कुण्डलिनी शास्त्र में बहुत महत्वपूर्ण, बहुत महत्वपूर्ण हैं । बहुत महत्वपूर्ण चीज़ हैं। और जब तक हम इस चीज़ को पूरी तरह से न समझ लें, कि इन चौदह चीज़ों से जब हम परे उठेंगे, तभी हम सहजयोग के पूरी तरह अधिकारी हैं। हमको आगे बढ़ते ही रहना चाहिए और उसमें पूरी तरह से रजते रहना पड़ेगा। राजना, बिराजना-ये शब्द आपके सामने पहले भी मैंने बहुत कहे हैं लेकिन आज के दिन विशेषकर के, हम लोगों को समझना चाहिए कि सहस्रार के दिन राजना क्या है? बिराजना क्या है? से अब आप यहाँ बैठे हैं, ये पेड़ों को आप देखिये। ये पेड़ श्रीफल का है। नारियल को 'श्रीफल' कहा जाता है। श्रीफल, जो नारियल है, इसके बारे में आपने कभी सोचा या नहीं, पता नहीं। लेकिन बड़े सोचने की चीज़ है-'इसे श्रीफल क्यों कहते हैं?' ये समुद्र के किनारे होता है, और कहीं होता नहीं। सबसे अच्छा जो ये फल होता है, समुद्र के किनारे। वजह ये है कि समुद्र जो है, ये 'धर्म' है। जहाँ धर्म होगा, वहीं श्रीफल फलता है। जहाँ धर्म नहीं होगा, वहाँ श्रीफल नहीं होगा। लेकिन समुद्र बसी रहती हैं। हर तरह की सफाई, गन्दगी हर चीज़ इसमें होती है। ये पानी भी 'नमक से भरा होता है। इसमें नमक होता है। ईसा मसीहने कहा था कि 'तुम संसार के नमक हो।' माने हर चीज़ में आप घुस सकते हो, 'हर चीज़' में आप स्वाद दे सकते हो। 'नमक हो' नमक के बगैर इन्सान जी नहीं सकता। जो हम ये प्राणशक्ति अन्दर लेते हैं, अगर हमारे अन्दर नमक न हो तो वो प्राणशक्ति भी कुछ कार्य नहीं कर सकती ये कार्यसाधक है। और ये नमक जो है, ये हमें जीने का, संसार में रहने का, प्रपंच में रहने की पूर्ण व्यवस्था नमक करता है। अगर मनुष्य में नमक न हो, तो वो किसी काम का इन्सान नहीं। लेकिन परमात्मा की तरफ जब ये चीज़ उठती है, तो वो सब नमक को नीचे ही छोड़ देती है-'सब' चीज़ छूट जाती हैं। और जब इन पेड़ों पर सूर्य की रोशनी पड़ती है, और सूर्य की रोशनी पड़ने पर जब इसके पत्तों का रस और सारे पेड़ का रस, ऊपर की ओर खिंच आता है क्योंकि evaporation होता है, तब इसमें से जो; इस तना में से जो यही पानी ऊपर बहता है- वो 'सब' कुछ छोड़कर के, उन चौदह चीज़ों को लाँघ करके, ऊपर जाकर के, श्रीफल बनता है। वही श्रीफल आप हैं। और देवी को श्रीफल जरूर देना होता है । श्रीफल दिये बगैर पूजा सम्पन्न नहीं होती। श्रीफल भी एक अजीब तरह से बना हुआ है। दुनिया में ऐसा कोईसा भी फल नहीं, जैसे श्रीफल है। उसका कोईसा भी हिस्सा बेकार नहीं जाता। इसका एक- एक हिस्सा इस्तेमाल होता है। इसके पत्तों से लेकर हर चीज़ इस्तेमाल होती है और श्रीफल का भी - हर एक चीज़ इस्तेमाल होती है। आप देखें कि श्रीफल भी मनुष्य के सहस्त्रार जैसा है। जैसे बाल अपने हैं, इस तरह से श्रीफल के भी बाल हैं। 'यही श्रीफल है।' इसमें बाल होते हैं ऊपर में, इसकी रक्षा के लिये। मृत्यु से रक्षा हमें बालों से मिलती है। इसलिये बालों का बड़ा महान मान किया गया है। बाल बहुत महान हैं और बड़ी शक्तिशाली चीज़ हैं क्योंकि आपकी रक्षा करते हैं। इनसे आपकी रक्षा होती है। और इसके अन्दर जो, हमारे जो cranial bones हैं, जो हड्डियाँ हैं, वो भी आप देखते हैं कि श्रीफल के अन्दर में बहुत कड़ा-सा इस तरह का एक ऊपर से आवरण होता है। उसके बाद हमारे अन्दर grey matter और white matter ऐसी दो चीजें हमारे अन्दर होती हैं। श्रीफल में भी आप देखें - grey matter और white matter... और उसके अन्दर पानी होता है, जो हमारे में cerebospinal fluid होता है। उसके अन्दर भी पानी होता है-वो limbic area होता है। तो ये साक्षात् श्रीफल जो है, ये ही हमारा, अगर इनके लिये ये फल है, तो हमारे लिये ये फल है। जो हमारा मस्तिष्क है, ये हमारी सारी उत्क्रान्ति का फल है। आज तक जितनी हमारी उत्क्रान्ति हुई है-जो अमिबा से आज हम इन्सान बने हैं, वो सब हमने इस के अन्दर सभी चीजें ४ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-7.txt ० ० मस्तिष्क के फलस्वरूप पाया है। ये जो मस्तिष्क है, ये सबकुछ-जो कुछ हमने पाया है इस मस्तिष्क से। इसी में सब तरह की शक्तियाँ, सब तरह का इसी में सब पाया हुआ धन संचित है। अब इस हृदय के अन्दर जो आत्मा बिराजती है और उसका जो प्रकाश हमारे अन्दर सहजयोग के बाद सात परतों में फैलता है, दोनों तरफ से वो तभी हो सकता है, जब आदमी का सहस्रार खुला हो। अभी तक हम इस दिमाग से वो ही काम करते हैं । आत्मसाक्षात्कार से पहले, सिवाय इसके कि हम अहंकार और प्रतिअहंकार (सुपर इगो) इन दोनों के माध्यम से जो कार्य करना है, वो करते हैं। अहंकार और प्रतिअहंकार या आप कहिये मन और 'अहंकार' -इन दोनों के सहारे हम सारे कार्य करते हैं। लेकिन साक्षात्कार (रियलाइजेशन) के बाद हम आत्मा के सहारे कार्य करते हैं। आत्मा रियलाइजेशन से पहले हृदय में ही विराजमान है, बिल्कुल अलग - 'क्षेत्रज्ञ' बना हुआ, देखते रहने वाला। उसका काम, वो जैसा भी है, देखने मात्र- वो करता रहता है। लेकिन उसका प्रकाश हमारे चित्त में नहीं है, वो हमसे अलग है, वो हमारे चित्त में नहीं है। रियलाइजेशन के बाद वो हमारे चित्त में आ जाता है, पहले। पहले चित्त में आता है। और चित्त आप जानते हैं कि भवसागर (वॉइड) में बसा है। उसके बाद उसका प्रकाश सत्य में आ जाता है, क्योंकि हमारा जो मस्तिष्क है, उसमें प्रकाश आ जाने से हम सत्य को जानते हैं। जानते-माने ये नहीं कि बुद्धि से जानते हैं, पर साक्षात् में जानते हैं कि ये है 'सत्य'। उसके बाद उसका प्रकाश हृदय में दिखाई देता है। हृदय प्रगढ़-हृदय बढ़ने लग जाता है, 'विशाल' होने लगता है, उसकी आनन्द की शक्ति बढ़ने लगती है। इसलिये 'सच्चिदानन्द'- सत्, प्रकाशित होने लगता है। उसका प्रकाश पहले धीरे-धीरे फैलता है, ये आप सब जानते हैं। उसका प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता है, सूक्ष्म चीज़ होती है, पहले बहुत सूक्ष्म क्योंकि हम जिस स्थूल व्यवस्था में रहते हैं, उस व्यवस्था में उस सूक्ष्म को पकड़ना कठिन हो जाता है। धीरे-धीरे वो पकड़ आ जाती है। उसके बाद आप बढ़ने लग जाते हैं, अग्रसर होते हैं। सहस्रार का एक पर्दा खुलने से ही कुण्डलिनी आ जाने से आप ने सदाशिव के पीठ को नमस्कार कर दिया। आप के अन्दर की आत्मा का प्रकाश धुँधला-धुँधला बहने लगा, लेकिन अभी इस मस्तिष्क में वो पूरा खिला नहीं। अब आश्चर्य की बात है कि आप अगर मस्तिष्क से इसको फैलाना चाहें तो नहीं फैला सकते। अपना मस्तिष्क और अपना हृदय-इसका अब बड़ा सन्तुलन दिखाना होगा। आपको तो पता ही है, कि जब आप अपने बुद्धि से बहुत ज़्यादा काम करते हैं, तो हृदय की गति रुकती है। और जब आप हृदय बहुत ज़्यादा काम करते हैं, तो आपका मस्तिष्क (ब्रेन) फेल हो जाता है। इनका एक सम्बन्ध बना ही हुआ है, पहले से बना हुआ है। बहुत गहन सम्बन्ध है। और उस गहन सम्बन्ध की वजह से, जिस वक्त आप पार हो जाते हैं, इसका सम्बन्ध और भी गहन होना पड़ता है। हृदय और इस मस्तिष्क (ब्रेन) का सम्बन्ध बहुत ही घना होना चाहिये। जिस वक्त ये पूरा एक (इंटीग्रेट) हो जाता है, तब चित्त आपका जो है, पूर्णतया परमेश्वर-स्वरूप हो जाता है। ऐसा ही कहा जाता है हठ योग में भी कि 'मन' और 'अहंकार' दोनों का लय हो जाता है। लेकिन ऐसे बात करने से तो किसी की समझ ही में नहीं आयेगा, 'इसका लय कैसे होगा?' मन और अहंकार का। तो, वो मन के पीछे लगे रहते हैं, अहंकार के पीछे लगे रहते हैं, अहंकार को मारते रहो, तो मन बढ़ जाता है। उनके समझ ही में नहीं आता, कि ये पागलपन क्या है। ये किस तरह से जाए? मन और अहंकार को किस तरह से जीता जाए? उसका एक ही द्वार है - 'आज्ञा चक्र'। आज्ञा चक्र पर काम करने से मन और अहंकार जो है, उसका | चित्त और आनन्द-सत् मस्तिष्क में, चित् हमारे धर्म में और आनन्द हमारी आत्मा में १४ स्थितियाँ से ५ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-8.txt जु पूरी तरह से लय हो जाता है। और वो लय होते ही हृदय और ये जो मस्तिष्क (ब्रेन) है, इनमें पूरा 'सामंजस्य' पहले आ जाता है-concord। लेकिन एकता नहीं आती। 'इस एकता को ही, हम को पाना है।' तो आपका जो हृदय है, वही सहस्रार है, वही हृदय। जो आप सोचते हैं, वही आपके हृदय में है, और जो कुछ आपके हृदय में है, वही आप सोचते हैं। ऐसी जब गति हो जाए तो कोई तरह की आशंका, कोई भी तरह का अविश्वास, किसी भी तरह का भय, कोईसी भी चीज़ नहीं रहती । जैसे आदमी को भय लगता है, तो उसे क्या करते हैं? उसे मस्तिष्क (ब्रेन) से सिखाते हैं, देखो भाई, भय करने की कोई बात नहीं। देखो , तुम तो बेकार चीज़ से डर रहे थे ; 'ये देखो, प्रकाश लेकर।' फिर वो अपनी बुद्धि से तो समझ लेता है, पर फिर ड़रता है। लेकिन जब दोनों चीज़ एक हो जाती हैं-आप इस बात को समझने की कोशिश कीजिये कि जिस मस्तिष्क से आप सोचते हैं, जो आपके मन को समझाता है और सम्भालता है, वही आपका मन अगर हो जाए; यानि, समझ लीजिये कि ऐसा कोई यन्त्र हो कि जिसमें accelerator और ब्रेक दोनों स्वचालित (automatic) हों और दोनों 'एक' हों-जब चाहे तो वो ब्रेक बन जाए और जब चाहे तो वो accelerator हो जाए-और वो सब जानता है। ऐसी जब दशा आ जाए, तो आप पूरे गुरु हो गये। ऐसी दशा हमको आनी चाहिये। अभी तक आप लोग काफी उन्नति कर गए हैं, काफी ऊँचे स्तर पर पहुँच गए हैं। जरूर अब आपको कहना चाहिए कि अब आप श्रीफल हो गये हैं। लेकिन मैं हमेशा आगे की बात इसलिये करती हूँ कि इस पेड़ पर अगर चढ़ना हो, तो क्या आपने देखा है, कि किस तरह से लोग चढ़ते हैं? अगर एक आदमी को चढ़ाकर देखिये तो आप समझ जाएंगे कि वो एक डोर बाँध लेता है चारों तरफ से अपने, और उस डोर को ऊपर फँसाते जाता है। वो डोर जब ऊपर फँस जाता है, तो उस पर वो चढ़ता है। इसी तरह से अपनी डोर को ऊँची फँसाते जाना है। और यही जब आप सीख लेंगे, तभी आपका चढ़ना बहुत जल्दी हो सकेगा। पर ज़्यादातर हम ड्रोर को नीचे ही फँसाते रहते हैं। सहजयोग में जाने के बाद भी डोर हम नीचे की तरफ फँसाते हैं, और कहते हैं कि माँ हमारी तो कोई प्रगति नहीं हुई।' अब होगी कैसे? जब तुम ड्रोर ही उल्टी तरफ फँसा कर नीचे उतरने की व्यवस्था करते हो। जिस वक्त नीचे उतरना है, तो फिर ड्रोर को फँसाने की भी जरूरत नहीं। आप जरा सी ढील दे दीजिये, ढर-ढ़र- ढ़र आप नीचे चले आएंगे । वह तो इन्तजाम से बना हुआ है- नीचे आने का। ऊपर चढ़ने का इन्तज़ाम बनाना पड़ता है। तो कुछ बनने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। और जो पाया है, उसे खोने के लिये कोई मेहनत की ज़रूरत नहीं - आप सीधे चले आइये ज़मीन पर ; उसमें कोई तो प्रश्न खड़ा नहीं होता। इसको अगर आप समझ लें, इस बात को, तो आप जान लेंगे कि 'नज़र अपनी हमेशा ऊँची रखें।' अगर कोई भी सीढ़ी पर आप खड़े हैं, लेकिन आप की नज़र ऊँची है, तो वो आदमी 'उस' आदमी से ऊँचा है 'जो' ऊपर खड़े होकर भी नज़र नीची रखता है । इसलिए कभी-कभी बड़े पुराने सहजयोगी भी 'धक' से नीचे चले आते हैं। लोग बताते हैं कि 'माँ ये तो बड़े पुराने सहजयोगी थे। इतने साल से आपके साथ रहे, ये किया, वो किया -पर नज़र तो उनकी हमेशा नीचे रही! तो मैं क्या करू अगर नज़र नीचे रखी तो वो चले आये नीचे। नज़र हमेशा ऊपर रखनी चाहिए। अब इसे भी, फल को देखना है तो नज़र आपकी ऊपर। इनकी भी नज़र ऊपर है। इन सबकी नज़र ऊपर है, क्योंकि बगैर नज़र ऊपर किये वो जानते हैं कि न हम सूर्य को पा सकते हैं, न ही हुए ६ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-9.txt न्य ३. १४ स्थितियाँ ये कार्य हो सकता है; 'न तो हम श्रीफल बन सकते हैं।' वृक्ष को बहुत अच्छे से देखना चाहिये और समझना चाहिये। सहजयोग आप वृक्ष से बहत अच्छे से सीख सकते हैं। बड़ा भारी ये आपके लिये गुरू है। जैसे कि जब हम वृक्ष की ओर देखते हैं, तो पहले देखना चाहिये कि ये अपनी जड़ों को कैसे बैठाता है। पहले अपनी जड़ को ये सम्भाल लेता है। जड़ में घुसा जाता है। हमारा धर्म है, ये हमारा चित्त है- 'इसमें' ये घुसा चला जाता है और उसी चित्त से वो खींचता है, सर्वव्यापी शक्ति को। ये तो उल्टा पेड़ है, ऐसा कहिये तो ठीक है। उस सर्वव्यापी शक्ति को ये जड़ खींचने लग जाता है, और इसको खींचने के बाद में आखिर उसको खींच कर करना क्या है? फिर उसकी नज़र ऊपर जाती है और इसी प्रकार वो श्रीफल बना हुआ है। ी ज ३ दि म३] [शा ा म ये ॐि उस हे आपका सहस्रार भी इसी श्रीफल जैसा है। माँ को अत्यन्त प्रिय है और इसी सहस्र को समर्पण करना चाहिये । अनेक लोगों ने कल मुझसे कहा कि 'माँ, हाथ में ठण्डा आता है, में भी ठण्डा आता हैं, पर यहाँ नहीं आता।' वहाँ कौन बैठा हुआ है? बस इसको जान लेना चाहिये, यहाँ से ठण्डक आ जाएगी। और वहाँ जो बैठे हैं, वो सारे ही चीज़ों का फल हैं। इस पेड़ की जो नीचे गढी हुई जडें हैं, वो भी उसी से जन्मी हैं। इसकी जो तना है, इसकी जो मेहनत है, इसकी जो उत्क्रान्ति है, यह सब पैर काम] ४ हुए ' कुछ अन्त में जाकर के वो फल बना। उस फल में सब कुछ निहित है। फिर से आप उस फल को जमीन में ड्राल दीजिये, फिर से वही सारी चीज़ निकल आयेगी। 'वो सबका अर्थ यही | है; वो सबका अन्त वही है। सारे संसार में जो कुछ भी आज तक परमात्मा का कार्य हुआ है, जो भी उन्होंने कार्य किया है, उसका सारा समग्र-स्वरूप, फलस्वरूप आज का हमारा यह महायोग है। और उसकी स्वामिनी कौन हैं ? आप | ७ निथ एूव भा क एुम फ्रूर एक र ऋ एका 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-10.txt जानते हैं। तो ऐसे शुभ अवसर में आकर के आपने ये प्राप्त किया है, सो धन्य समझना चाहिए और इस श्रीफल स्वरूप होकर के और समर्पित होना चाहिये। पेड़ से तभी फल हटाया जाता है जब वो परिपक्व होता है, नहीं तो बेकार है । पकने से पहले वो माँ को नहीं दिया जाता। इसलिये परिपक्वता आनी चाहिये। बचपना छोड़ देना चाहिए। जब तक बचपना रहेगा, आप पेड़ से चिपके रहेंगे। लेकिन समर्पण के लिये पेड़ पर चिपका हुआ फल किस काम का? उस पेड़ से हटाकर के जो अगर वो समर्पित हो तभी माना जाता है कि पूजा सम्पन्न हुई। इसलिये सहजयोग को समझने के लिये एक बड़ा भारी आपके सामने प्रतीक रूप से स्वयं साक्षात् श्रीफल ही खड़ा हुआ है। यह बड़ी मेहरबानी हो गई कि आज यहाँ पर हम लोग सब एकत्रित हुए और इस महान समारोह में इन सब पेड़ों ने भी हमारा साथ दिया है। यह भी सारी बातों से नादित, यह भी स्पन्दित और यह भी सुन रहे हैं; उसी ताल पर यह भी नाच रहे हैं। यह भी समझ रहे हैं कि बात क्या है। इसी प्रकार आप लोग भी श्रीफल हैं, उसको पूरी तरह से परिपक्व, उसको परिपक्व करने का एक ही तरीका है कि अपने हृदय सामंजस्य बनायें। हृदय से एकाकार होने की चीज़ है। हृदय में और मस्तिष्क में कोई भी अन्तर नहीं है। हृदय से इच्छा करते हैं और मस्तिष्क से उसकी पूर्ति करते हैं। दोनों चीज़ें जब एकाकार हो जाऐंगी तभी आपको पूरा लाभ होगा। अब सर्वसाधारण लोगों के लिये सहजयोग एक बड़ी रहस्यमयी बात है। उनकी समझ में नहीं आने वाली-क्योंकि उनका जीवन रोज़मर्राका उसी स्तर का है। उस पर वो चलते हैं। लेकिन आपका स्तर अलग है। आप अपने स्तर से रहिये। दूसरों की ओर अधिकतर जब आप देखते हैं तो दया-दृष्टि से, क्योंकि यह बेचारे क्या हैं, इनका क्या होने वाला है। यह कहाँ जायेंगे इनकी समझ में नहीं आता, इनकी गति ही क्या है? यह कोौनसे मार्ग में पहुँचने वाले हैं? इसको समझ करके और आप लोग यह समझें कि इनको अगर समझाने से समझ आ जाये सहजयोग, तो बहुत अच्छा है-समझाया जाए। लेकिन अगर यह लोग परवाह न करें तो इनके आगे सर फोड़ने से कोई फायदा नहीं। अपने श्रीफल को फोड़ने से कोई फायदा नहीं। इसको बचाकर रखें। इसका कार्य बहुत ऊँचा है। इसको बड़ी ऊँची चीज़ के लिये आपने पाया हुआ है और उसी ऊँचे स्तर पर इसे रखें और उसी सम्पन्न अद्भुत स्थिति को प्राप्त होने पर ही आप अपने को धन्य समझ सकते हैं। इसलिये हमको व्यर्थ चीज़ों के लिये अपनी खोपड़ी फाड़ने की कोई जरूरत नहीं । किसी से बहस करने की जरूरत नहीं । पर अपनी स्थिति को बनाये रखना चाहिए। नीचे उतरना नहीं चाहिए। जब तक यह नहीं होगा तब तक सहजयोग का पूरा-पूरा आप में जो कुछ समर्पण पाना था वो नहीं पाया। जो कुछ अपनाना था वो नहीं पाया। जो कुछ वृद्धि थी वो नहीं पाई। जो आपकी पूरी तरह से उन्नति होने की थी, वो नहीं हुई और आप गलतफहमी में फँस गये इसलिये किसी भी मिथ्या चीज़ पर आप यह न सोचें कि हम कोई बड़े भारी सहजयोगी हो गये या कुछ हो गये। जब आप बहुत बड़े हो जाते हैं तो आप झुक जाते हैं, आप झुक जाते हैं। देखिये, इन तीन पेड़ों की ओर, हवा उल्टी तरफ बह रही है। वास्तव में तो पेड़ों को इस तरफ झुक जाना चाहिये जबकि हवा इस तरफ बह रही है। लेकिन पेड़ किस तरफ झुके जा रहे हैं? आप लोगों ने कभी मार्क (mark) किया है कि सारे पेड़ों की दिशा उधर है । क्यों? वहाँ से तो हवा आकर के उसको धकेले जा रही है फिर तो भी पेड़ उसी तरफ क्यों झुक रहे हैं? और अगर ये हवा न चले तो न जाने और कितने ये लोग झुक जायें। क्योंकि ये जानते हैं कि सबको देने वाला 'वो' है । उसके प्रति नतमस्तक होकर के वो झुक रहे हैं और 'वो' देने वाला जो है, वो है 'धर्म'। हमारे अन्दर जो धर्म है जब वो पूरी तरह से जागृत होगा, पूरी तरह से कार्यान्वित होगा, तभी हमारे अन्दर के श्रीफल इतने मीठे, सुन्दर और पौष्टिक होंगे। फिर तो आपके जीवन से ही संसार आपको जानेगा और किसी चीज़ से नहीं जानेगा, आप लोग कैसे हैं। | से | अब चौदह बार आप इसका जन्मदिन, इस सहस्रार को मना रहे हैं। और न जाने कितने साल और इसको मनाएंगे। लेकिन जो भी आपने इस सहस्रार तक जन्मदिन मनाया उसी के साथ-साथ आपका भी सहस्रार खुल रहा है और बढ़ रहा है। कोई भी तरह का समझौता करना, कोई भी तरह की बातों में अपने को ढ़ील दे देना, सहजयोगियों को शोभा नहीं देता। जो आदमी सहजयोगी हैं वो वीरस्वपूर्ण अपना मार्ग आगे बढ़ाना चाहिये । कितनी भी रुकावटें आयें, घर वाले हैं, family वाले हैं, ये हैं, वो हैं, तमाशे हैं, इनका कोई मतलब नहीं। ये सब आपके हो चुके हज़ार बार । इस जन्म में आपको पाने का है और आपके पाने से और लोग पा गये तो उनका धन्य है, उनका भाग्य है। नहीं पा गये तो क्या आप क्या उनको अपने हाथ से पकड़कर ऊपर ले जाओगे? ८ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-11.txt यह तो ऐसे हो गया कि आप समुद्र में जायें और अपने पैर में बड़े-बड़े पत्थर जोड़ लें और कहें कि 'समुद्र, देखो, मुझे तो तैराकर ले जाओ।' समुद्र कहेगा कि 'भई! ये पत्थर तो छोड़ो पहले पैर के, नहीं तो कैसे ले जाऊँगा मैं?' पैर में बड़े-बड़े आपने लोढ़ बाँध दिये तो उनको कटवा ही देना अच्छा है और नहीं कटवा सकते तो कम-से-कम ये करो कि उनसे परे रहो । इस तरह की चीज़ें जो-जो आपने पैर में बाँध रखी हैं, उसे एकदम तोड़-ताड़ कर ऊपर उठ जाओ। कहना, 'जाइये, आपको जो करना है करिये लेकिन हम से कोई मतलब नहीं क्योंकि और ऐसे ही कितनी बाधायें हैं और यह फालतू की बाधायें लगा लेने से कोई फायदा नहीं। जिस तरह से ये पेड़ देखिये, इतना भारी फल उसको उठा लेते हैं-ऊपर। कितना भारी होता है यह फल, इसके अन्दर पानी होता है। इस फल को उसने ऊपर उठाया है। इसी प्रकार आपको भी इस सर को उठाना है। और इस सर को उठाते वक्त ये याद रखना चाहिए कि सर को नतमस्तक होना चाहिये, समुद्र की ओर। समुद्र जो है, ये धर्म का लक्षण है। इसको धर्म की ओर नतमस्तक होना चाहिए। बहुत से सहजयोगी यह समझते ही नहीं हैं कि जब तक हम 'धर्म' में पूरी तरह नहीं उतरते, हम सहजयोगी हो ही नहीं सकते। हर तरह की गलतियाँ करते रहते हैं। जैसे बहुत से लोग हैं, तम्बाकू खाते हैं, सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं, ये सब करते रहते हैं और फिर कहते हैं 'हमारी सहजयोग में प्रगति नहीं हुई।' तो होगी कैसे ? आप अपने ही पीछे हाथ धो करके लगे हैं। सहजयोग के कुछ छोटे-छोटे नियम हैं, बहुत साधे हैं-इसके लिये आपको शक्ति मिली है वो पूरी तरह से आप अपने आचरण में व्यवहार में लायें। और सबसे बड़ी चीज़ जो इनके (पेड़ों के) झुकाव में हैं वो नतमस्तक होना, और उस प्रेम को अपने अन्दर से दर्शित करना। जो कुछ आपने परमात्मा से पाया, उस प्रेम को परमात्मा को समर्पित करते हुए याद रखना चाहिए कि सबके प्रति प्रेम हो । अन्त में यही कहना चाहिये कि जिस मस्तिष्क में, जिस सहस्रार में प्रेम नहीं हो, वहाँ हमारा वास नहीं है। सिर्फ दिमाग में प्रेम ही की बात आनी चाहिए कि प्रेम के लक्षण में क्या करना है। गहराई से सोचें, तो मैं फिर वही कह रही हूँ कि दिल को कैसे हम प्रेम में ला सकते हैं। यही सोचना चाहिये कि क्या ये मैं प्रेम में कर रहा हूँ? ये क्या प्रेम में बात हो रही है ? सारी चीज़ मैं प्रेम में कर रही हूँ। ये सब कुछ बोलना मेरा, करना-धरना क्या प्रेम में हो रहा है? किसी को मार-पीट भी सके हैं आप प्रेम में। इसमें हर्ज नहीं। अगर झूठ बात हो तो मार सकते हैं-कोई हर्ज नहीं। लेकिन यह क्या प्रेम में हो रहा है? देवीजी ने इतने राक्षसों को १४ स्थितियाँ जिस सहस्रार में प्रेम नहीं हो, वहाँ हमारा वास वो भी प्रेम में ही मारा। उन से भी प्रेम किया, उससे वो ज़्यादा नहीं, और भी राक्षस के महाराक्षस न मारा, बन जायें और अपने भक्तों को प्रेम की वजह से, उनको बचाने के लिये, उनको मारा। उस अनन्त शक्ति में भी प्रेम का ही भाव है जिससे उनका हित हो वही प्रेम है। तो क्या आप इस तरह का प्रेम कर रहे हैं कि जिससे उनका हित हो? यह सोचना है। और अगर कर रहे हैं तो आपने वो चीज़ पा ली जो मैं कह रही थी कि सामंजस्य आना चाहिए| तो वो सामंजस्य आपके अन्दर आ गया। एक ही शक्ति है जिसे हम कह सकते हैं 'प्रेम' और प्रेम ही से सब आकारित होने से सब चीज़ सुन्दर, सुडौल और व्यवस्थित हो सकती है। जो सिर्फ शुष्क विचार है उसमें कोई अर्थ नहीं। और शुष्क विचार तो आप जानते ही हैं, वो सिर्फ अहंकार से आता है और जो मन से आने वाली चीज़ है वो दूसरी-ऊपर से ज़रूरी उसको खूबसूरती ला देती है लेकिन अन्दर से खोखली है। इसलिए एक चीज़़ गन्दी होती है लेकिन शुष्क होती है, दूसरी चीज़ सुन्दर होती है लेकिन नीरस होती है, पूर्णतया खोखली होती है। एक नीरस है, तो दूसरी खोखली। दोनों चीज़ों का सामंजस्य इस तरह से बैठ ही नहीं सकता क्योंकि एक दूसरे के विरोध में है। लेकिन आत्मसाक्षात्कार के बाद में, सहजयोग में आने के बाद में सारे विरोध छूटकर के जो चीज़़ विरोधात्मक लगती है, वो ऐसा लगता है कि वो एक ही चीज़ के दो अंग है। और यह आपके अन्दर हो जाना चाहिये। जिस दिन ये चीज़ घटित होगी, तब हमें मानना पड़ेगा कि हमने अपने सहस्त्रार का १४ वाँ जन्मदिन पूरी तरह से मनाया। परमात्मा आप सबको सुखी रखे और इस शुभ अवसर पर हमारी ओर से और सारे देवताओं की ओर से. परमात्मा की ओर से आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! ९ ० 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-12.txt पकोड़ा पल और ह ा शत नभा को म 5ी ४ के ন सामग्री :- १ बड़ा प्याज ( या कोई भी सब्ज़ी) १२० ग्राम बेसन क : १/४ छोटा चम्मच हल्दी पाऊडर, १/४ छोटा चम्मच लाल मिर्च पाऊडर, १/२ छोटा चम्मच बेकिंग पाऊडर, १ छोटा चम्मच अजवाइन, करीब १२५ मि.ली.पानी. नमक स्वादानुसार, १ बड़ा चम्मच बारीक कटा हरा धनिया, १ बड़ा चम्मच पिघला हुआ मक्खन तेल तलने के लिए विधि :- १) प्याज़ को लम्बाई में २ भागों में काटें और फिर १/२ सें.मी. मोटे टुकड़ों में काटें। २ ) बेसन छाने व 'क' के मसाले ड़ालें। इतना पानी ड़ालें कि पेस्ट न बहुत गाढ़ा हो और न ही एकदम पतली। नमक, हरा धनिया व पिघला मक्खन ड्राल कर अच्छे से मिलाएं। ३) प्याज़ के टुकड़ों को बेसन की पेस्ट में डूबा कर सुनहरा होने तक तेल में तलें। उन्हें 'किचन पेपर' पर निकालें और अधिक तेल उसमें से अलग हो जाएगा । गरम स्नैक्स के रूप में चटनी के साथ परोसे। (श्री माताजी द्वारा लिखित 'Cooking with Love' से लिया गया है।) १० 4नर तुक ल 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-13.txt जागत का मतलब : ठण्डी ठण्डी हवा Bु 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-14.txt ये भी एक बड़ा भारी समर्पण है जहाँ शक्ति दोनो side (तरफ)से आती है left and right sympathetic nervous system का जो यहाँ ये expression है, उस रास्ते से। और इसके बीच में ही सुषुम्ना नाड़ी है। ऐसा करते ही सुषुम्ना नाड़ी अन्दर चलना शुरू हो जाती है। लेकिन ये जागृत होना चाहिए। अगर ये जागृत नहीं है, इसका मतलब सुषुम्ना चल नहीं रही है। और जागृत का मतलब ये है कि आपके अन्दर सारी उंगलियों में से धीरे-धीरे ठण्डी- ठण्डी ऐसी हवा आने लगेगी । अगर आपके अन्दर ऐसी ठण्डी-ठण्डी हवा जा रही है; पूरी तरह से आप 'निर्विचार' हैं उस 'तरण्य में' ध्यान में है तो आप बढ़ रहे हैं, आगे आप चले जा रहे हैं । जैसे कि आप aeroplane में बैठते हैं, आपको पता नहीं आप कहाँ जा रहे हैं, लेकिन आप कहीं पहुँच जाते हैं । aa h ha ae | मुंबई, १ फरवरी १९७५ जब तक हम यहाँ पर हैं, ये जरूरी है कि जो सहजयोगी आप लोग हैं, ज्यादा इसमें Part (हिस्सा) लें और आगे बढ़े। और जाने के बाद भी अपना समष्टी-रूप खराब न करें। आपसी बेकार की बातें बोलने पर आप कुछ न कुछ दंड देखेंगे । जिसने भी कोई सहजयोग के सिवाय, अन्दर की बात के सिवाय बाहर की बात जरा भी करी, उसको दंड । बाहर की कोई भी बात नहीं करनी। अन्दर ही की बात करें। अपने-अपने चक्रों को साफ करिए। उसमें 'कोई' शर्म की बात नहीं है । जिसके-जिसके चक्र पकड़े हैं वो बाहरी चीज है। बिलकुल हिम्मत से सारी सफाई करके और नीचे ड़ाल दें। जिसके भी हाथ जल रहे हैं, निकाल दें। हमारे भी हाथ जल रहे हैं- निकालियेगा नहीं तो क्या करियेगा ? बैठ भी नहीं सकते । | और भी तरीके आप जानते हैं बहुत सारे, ध्यान में अपने को सफाई करने के इसमें कोई बुराई की बात नहीं है, अगर मैं किसी से कह दूँ कि आप पानी में पैर डाल कर बैठिए और इस तरह से निकालिये। इसमें कौनसी बुराई की बात है? इसमें क्या बुरा मानने की बात है? कितना पागलपन है, किस बात पर लोग बुरा मान जाते हैं? वो सोचते हैं"माताजी ने क्या कह दिया।" आप क्या कोई बड़े भारी saint (सन्त) है? यानि बड़े-बड़े saint तक ये काम करते हैं, आपको पता नहीं है । जैसे मेंने कबीर दास जी के लिये कहा कि "दास कबीर जतन से ओढ़ी" कबीर दास भी अपने लिये कहते हैं कि "मैंने जतन से ओढ़ी भई'- जो कि इतने बड़े महापुरूष थे । फिर आपको इसमें बुरा मानने की कौन सी बात है? जरा-सा किसी से कहा कि भई मटका लेकर आओ, तो बुरा मान गए; फिर इतना बड़ा-बड़ा मटका लेकर आते हैं। 'बेकार' की बातें, 'मुर्खों' जैसी अपनी जो कल्पनाएं है अपने बारे में उसको "त्याग" दीजिए । "बचखानापन" है, बचपना नहीं। child-like होना चाहिए childish नहीं । १२ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-15.txt म T810 पी 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-16.txt और भक्ति आप सबको मेरे प्रति समर्पण होना चाहिए, सहजयोग के प्रति नही, परन्तु मेरे प्रति । सहजयोग केवल मेरा एक पहलू है। सब कुछ छोड़कर आपको समर्पित होना है । सम्पूर्ण समर्पण अन्यथा आपका उत्थान नहीं हो सकता । बिना किसी प्रश्न या वाद-विवाद के। अपनी व्यथाओं से छुटकारा पाने | के लिए समर्पण सबसे आसान तरीका है । सम्पूर्ण समर्पण ही उत्थान का तरीका है । श्री कृष्ण ने कहा है,"सर्व धर्मानाम परित्यज्ये मामेकम शरणम व्रजा " | विश्व के सभी धर्मों को भूल जाओ । श्री कृष्ण में है, और मुझ में कोई अन्तर नहीं परन्तु आज मैं हूँ-मैंने ही आपको आत्म साक्षात्कार दिया है। इन सब धर्मों के पूर्णतया त्याग दीजिए और मेरे प्रति हृदय से समर्पित हो जाइए । आज, जब कि आप मेरे समक्ष बैठे हैं, मैं आपको नि:संकोच बताना चाहती हूँ, जैसा कि श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, "सर्व धर्मानाम परित्यज्ये मामेकम् शरणम् व्रजा"। श्री कृष्ण ने कहा है कि, "अपने सब धर्मों को मुझे समर्पित हो जाओ"। आपको यह जानना है कि आपका मेरी ओर क्या उत्तरदायित्व है - अर्थात दिव्यता ! श्री कृष्ण निर्मला योग अब नहीं हैं, मैं ही श्री कृष्ण हूँ, इसलिए आपको मेरे प्रति अपना उत्तरदायित्व जानना चाहिए । देवी केवल भक्ति और समर्पण से ही प्राप्त की जा सकती है, वह केवल अपने भक्तों को ही चाहती है । इसके लिए ध्यान ही एकमात्र उपाय है। भावात्मक रूप से आप मुझे अपने हृदय के समीप पाते होंगे, परन्तु समर्पण केवल ध्यान से। ध्यान और कुछ नहीं केवल समर्पण है- सम्पूर्ण समर्पण। अपनी सम्पूर्ण स्वतंत्रता से समर्पण करना है। आप मुझे केवल अपनी भक्ति और समर्पण से ही पा सकते हैं । आप में दिव्य शक्तियों का प्रकट होना ही मेरी सफलता है। यह बहुत सरल है। बहूत सरल बनाया गया है। में उन्ही लोगों से प्रसन्न होती हैूँ जो सरल, अबोध है और न कि चालबाज, जो एक दूसरे के प्रति स्नेही है । मुझे प्रसन्न करना अत्यंत सरल है। जब मैं देखती हूँ कि आप आपस में प्रेम करते हैं, एक दूसरे के विषय में अच्छी बातें करते हैं, एक दूसरे की सहायता करते हैं, एक दूसरे की इज्जत करते हैं, आपस में हँसते हैं, एक दूसरे के साथ प्रसन्न हैं तो मुझे अपना पहला आशीर्वाद और पहला आनन्द मिलता है। इसलिए | ध्यान में समर्पण । ध्यान में सम्पूर्ण समर्पण का अभ्यास करना चाहिए । यह अब आपके "अपने" हित के लिए नहीं है, जो कर रहे है, जिसे "अपना " कहते हैं । पहले आप एक छोटे बच्चे के समान थे, एक छोटा सा व्यक्तित्व । अब आप सामूहिक व्यक्तित्व है, इसलिए आप अपने लिए कुछ नहीं कर रहे परन्तु उस सामूहिकता के लिए । आप में विराट के प्रति चेतना उत्पन्न हो रही है, जो कि बनने वाले हैं । आपकी नौकरी, धन, पत्नियाँ, पति, बच्चे, माता, पिता, सम्बन्धी यह सब विचार अब समाप्त हैं। आप सबको सहजयोग की जिम्मेदारी लेनी है । आप सब समर्थ है, आपको उसी के लिए यहाँ तक पहुँचाया गया है। पूर्ण समर्पण के साथ आपको यह अपने हित के लिए करना है, अपनी सफलता के लिए, वो सब अब समाप्त है। पूर्णतय: भ्रम से बाहर निकल जमीन पर खड़ा होना है और परम पिता परमेश्वर की प्रशंसा गानी है। आपको अपने ऊपर लेना होगा। त्याग जो कि अब त्याग नहीं हैं, क्योंकि आत्मा देती है, वह | त्याग नहीं करती । इसकी विशेषता है "देना", इसलिए आप त्याग नहीं करते, केवल देते है । १४ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-17.txt प्रपंच और संबंध जोड़ना सहजयोग माने परमात्मा से स. त्य की खोज़ में रहने वाले आप सब लोगों को हमारा नमस्कार। आज का विषय है 'प्रपंच और सहजयोग' । सर्वप्रथम 'प्रपंच' यह क्या शब्द है ये देखते हैं। 'प्रपंच पंच माने हमारे में जो पंच महाभूत हैं, उनके द्वारा निर्मित स्थिति । परन्तु उससे पहले 'प्र' आने से उसका अर्थ दूसरा हो जाता है। वह है इन पंचमहाभूतों में जिन्होंने प्रकाश डाला वह 'प्रपंच' है । 'अवघाची संसार सुखाचा करीन' (समस्त संसार सुखमय बनाऊंगा) ये जो कहा है वह सुख प्रपंच में मिलना चाहिए। प्रपंच छोड़कर अन्यत्र परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। बहुतों की कल्पना है कि 'योग' दादर २९ नवम्बर १९८४ का बतलब है कहीं हिमालय में जाकर बैठना और ठण्डे होकर मर जाना। ये योग नहीं है, ये हठ है। हठ भी में नहीं, बल्कि थोड़ी मूर्खता है। ये जो कल्पना योग के बारे में है अत्यन्त गलत है। विशेषकर महाराषट्र जितने भी साधु-सन्त हो गये वे सभी गृहस्थी में रहे। उन्होंने प्रपंच किया है । केवल रामदास स्वामी ने प्रपंच नहीं किया। परन्तु 'दासबोध' (श्री रामदासस्वामी विरचित मराठी ग्रन्थ) में हर एक पन्ने पर प्रपंच बह रहा है। प्रपंच छोड़कर आप परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात उन्होंने अनेक बार कही है। प्रपंच छोड़कर परमेश्वर को प्राप्त करना, ये कल्पना अपने देश में बहुत सालों से चली आ रही है। इसका कारण है श्री गौतम ने प्रपंच छोड़ा और जंगल गये और उन्हें वहाँ आत्मसाक्षात्कार हुआ। परन्तु वे अगर संसार में रहते तो भी उन्हें साक्षात्कार होता। समझ लीजिए हमें दादर जाना है, तो हम सीधे मार्ग से इस जगह पहुँच सकते हैं। परन्तु अगर हम भिवंडी गए, वहाँ से पूना गये, वहाँ से और चार-पाँच जगह घूमकर बुद्ध दादर पहुँचे। एक रास्ता सीधा और दूसरा घूम-घामकर है। बहुत घूमकर आया हुआ मार्ग ही सच्चा है, ये बात नहीं। उस समय सुगम मार्ग नहीं था इसलिए वे दुर्गम मार्ग से गए । जो सुगम है उसे उन्होंने दुर्गम बनाया। इसलिए क्या हमें भी दुर्गम बना लेना चाहिए? अर्थात् जो सुगम है उसे सभी ने बताया है। 'सहज' है। सहज समाधि में जाना। सभी संत - साधुओं ने बताया है, 'सहज समाधी लागो'। कबीर ने विवाह किया था। गुरू नानक जी ने विवाह किया था। जनक से लेकर अब तक जितने भी बड़े-बड़े अवधूत हो गए हैं उन सभी ने विवाह किया था। और उनके बाद बहुत से आए। उन्होंने विवाह नहीं किया, परन्तु किसी ने भी विवाह संस्था को गलत नहीं कहा। और जिसे हम प्रपंच कहते हैं वह गलत है ऐसा नहीं कहा है। तो सर्वप्रथम हमें अपने दिमाग से ये कल्पना हटानी चाहिए कि अगर हमें योग मार्ग से जाना है तो हमें प्रपंच छोड़ना होगा। उलटे अगर आप प्रपंच करते हैं तो आपको सहजयोग में जरूर आना चाहिए । शुरू में इस दादर में जब हमने सहजयोग शुरू किया तो सब लोग प्रपंच की शिकायतें लेकर आते थे। मेरी सास ठीक नहीं है, मेरा ससूर ठीक नहीं है, मेरी पत्नी ठीक नहीं है, मेरे बच्चे ठीक नहीं हैं। इस तरह सभी प्रपंच की जो छोटी-छोटी शिकायतें हैं वही लेकर सहजयोग में आते थे। शुरू में ऐसे ही होता है। हम १५ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-19.txt परमात्मा के पास प्रपंच की तकलीफों से तंग आकर या प्रपंच दुःखों को दूर करने के लिए जाते हैं, और परमेश्वर के पास जाकर भी यही मांगते हैं, 'हे परमात्मा, मेरा घर ठीक रहे। मेरे बच्चे ठीक रहें। हमारी गृहस्थी सुख से रहे। सभी खुशी से रहें।' बस! मनुष्य की वृत्ति यहाँ तक हल्की होती है, और उसी छोटेपन से वह देखता है। परन्तु यह छोटापन- हलकापन जरूरी है। वह नहीं होगा तो आगे का मामला नहीं बनने वाला। पहली सीढ़ी के बगैर दूसरी सीढ़ी पर नहीं आ सकते। तो सहजयोग की सबसे बड़ी सीढ़ी प्रपंच होना जरूरी है। हम सन्यासी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। नहीं दे सकते। क्या करें? बहुत बार करके देखा, पर मामला नहीं बनता। उसके लिए व्यर्थ का बड़प्पन किसलिए? उसका कारण है कि हमने बाह्य में सन्यासी के कपड़े पहने हैं, पर अन्दर से क्या आप सन्यासी हैं? सन्यास एक भाव है। ये कोई कपड़े पहनकर दिखावा नहीं है कि हम सन्यासी हैं, हमने सन्यास लिया है, हमने घर छोड़ा, ये छोड़ा, वह छोड़ा, ऐसा कहकर जो लोग कहते हैं कि हम योग मार्ग तक पहुँचेंगे, ये अपने आपको भुलावा है। अगर आप पलायनवादी हैं, आपमें पलायन भाव (escapism) है तो उसका कोई इलाज नहीं है । जिस मनुष्य में थोड़ी भी सुबुद्धि है उसे सोचना चाहिए कि यहाँ हम प्रपंच में हैं । यहाँ से निकलकर हमने कुछ प्राप्त किया भी तो प्रपंच और सहजयोग सहजयोग की सबसे बड़ी सीढ़ी ना उसका क्या फायदा? समझ लीजिए किसी जंगल में आपको ले गये और वहाँ बैठकर आपने कहा, 'देखिए, मैं कैसे पानी के बगैर रह सकता हूँ?' तो उसमें कौन-सी विशेष बात है ? पानी में रहकर भी आपको पानी की जरूरत नहीं है, आप पानी में रहकर भी पानी से निर्लिप्त हैं, ऐसी जब आपकी स्थिति हो, प्रपंच होना जरूरी है। तब सच्चा प्रपंच हो सकता है। और आज हमें उसी की जरूरत है। उस प्रपंच की। आपको जनक जी के बारे में मालूम होगा। नचिकेता ने सोचा, ये जनक राजा जो अपने सर पर मुकुट पहनते हैं, इनके पास सब दास-दासी हैं, नृत्य, गायन होता रहता है, ये जब हमारे आश्रम में आते हैं तो हमारे गुरू इनके चरण छूते हैं? ये ऐसे क्या महान हैं? तो उनके गुरू ने कहा, "तुम ही जाओ और देखो ये कैसे महान हैं?" तो नचिकेता एकदम उनके आगे जाकर खड़ा हुआ और कहने लगा, "आप मुझे आत्मसाक्षात्कार दीजिए। मेरे गुरू ने कहा है, आप आत्मसाक्षात्कार देते हैं। सो कृपा करके आप मुझे आत्मसाक्षात्कार दीजिए।" उन्होंने कहा, "देखो, तुम सारे विश्व का ब्रह्मांड भी माँगते तो मैं देता, पर तुम्हें में आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता। उसका कारण है, उस चीज़ का तत्व ही जिसे मालूम नहीं, उस मनुष्य को आत्मसाक्षात्कार कैसे दें? जो मनुष्य तत्व को समझेगा वही उसमें उतर सकता है।" तो प्रपंच का तत्व है 'प्' और वह 'प्र' माने प्रकाश। वह जब तक आपमें जागृत नहीं होता तब तक आप 'पंच' में हैं 'प्रपंच' में नहीं उतरे। नचिकेता ने जब उपरोक्त सवाल राजा जनक से पूछा, तो उन्होंने कहा कि अब तुम मेरे साथ रहो और बाकी सब कहानी तो आपको मालूम है। मुझे वह फिर से कहने की आवश्यकता नहीं है । परन्तु अन्त में नचिकेता समझ गया, इस मनुष्य (राजा जनक) का किसी प्रकार का लगाव नहीं है या कहिए चिन्ता नहीं है, न किसी चीज़ के प्रति आत्मीयता है कि जिसे हम संसार कहते हैं, इस तरह की चीज़ों की। और ये एक अवधूत की तरह रहने वाला मनुष्य है। सिर पर मुकुट धारण करेगा, धरती पर भी सो जाएगा, जैसे बादशाह है। उसे कोई आराम की जरूरत नहीं। कहीं तो पलंग पर सोएगा, गद्दियों पर लेटेगा, जमीन पर ही पड़ा रहेगा, ऐसा ये बादशाह है। उसे किसी भी चीज़ की परवाह नहीं । उसे किसी ने भी पकडा नहीं है । जो मनुष्य प्रपंच में है उसको न किसी आराम की ओऔर न किसी गुलामी की आदत लगती है। उसे किसी पत्थर पर सर टिकाकर सोने को कहा तो वह सो सकता है। चोकर (रूखी-सूखी रोटी) भी खा सकता है, और दावत भी खा सकता है। उसे कल अगर पूछा जाए, भई अब आश्रम बनाना है, तो कैसे करे? तो वह सब कुछ बता देगा। सीमेन्ट से लेकर सभी बातें बता देगा। ये कहाँ मिलेगा ? वो कहाँ मिलेगा। सब कुछ बता देगा । उसे अन्दर से किसी चीज़ की पकड़ नहीं। ये बात तत्व की बात है। इसे आप समझ लीजिए। नामदेव जी ने एक कविता लिखी है और वही नानक साहब ने भी वन्दनीय मानकर गुरू ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित की है। वह अत्यन्त सुन्दर है। उसका मैं केवल यहाँ पर आशय वरर्णन करती हूँ। उस कविता में कहा है, 'आकाश में पतंग उड़ रही है और एक लड़का हाथ में उस पतंग की डोर पकड़ कर खड़ा है। वह १७ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-20.txt सबसे बातें कर रहा है, हंस रहा है, आगे पीछे जा रहा है, यहाँ वहाँ भाग रहा है। परन्तु उसका सारा चित्त उस पतंग पर है।' दूसरे दोहे में उन्होंने कहा है, 'बहुत सी औरतें पानी भरकर ले जा रही हैं और मार्ग से जाते समय आपस में मज़ाक कर रही हैं, घर की यह वह बातें कर रही हैं। परन्तु उनका सारा चित्त सर पर रखे घड़ों पर है कि पानी न गिरे।' इसी तरह और एक दोहे में माँ का वर्णन है, 'एक माँ बच्चे को गोद में लिए सभी काम करती है। चूल्हा जलाती है, खाना बनाती है, सभी प्रकार के काम करती है। उन कामों में कभी झुकती है, कभी भागती है। सब कुछ उसे करना पड़ता है, परन्तु उसका सारा चित्त पूरे समय उस बच्चे पर रहता है कि बच्चा गिर न जाए।' इसी तरह साधु-सन्तों का है। सभी तरह के कामों का उनहें ज्ञान होता है। वे सभी कार्य करते हैं किन्तु वे सब करते समय उनका सारा चित्त अपनी आत्मा पर होता है। ये सभी लोग बिल्कुल आपकी तरह गृहस्थाश्रम में रहने वाले होते हैं, उनके बाल-बच्चे होते हैं। सब कुछ होते हुए भी इनमें जो वैचित्र्य है वह आपको तत्व में आकर पहचानना चाहिए। वह क्या वैचित्र्य है? और वही माने 'सहजयोग' है। वह वैचित्र्य अपने में आने पर अपने को भी उससे क्या लाभ होते हैं ये देखना जरूरी है । क्योंकि प्रपंच में आप लाभ और हानि पहले देखते हैं। लाभ कितना है ? हानि कितनी है? सर्वप्रथम कहना ये है कि परमात्मा उन सभी से परे है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु बहुतों को उसका मतलब मालूम नहीं। और आज कल के समय में परमात्मा की बातेंें करने से लोगों को लगता है 'इन महिला को अभी आधुनिक शिक्षा वगैरेह मिली नहीं परमेश्वर है और वह रहेगा। वह अनन्त में है। परन्तु परमेश्वर हमारे साथ प्रपंच में किस तरह कार्यान्वित होता है यह देखना चाहिए । परमेश्वर है और वह रहेगा। है और ये कोई पुराने जमाने की बेकार नानी -दादी की कथाएं सुना रही है।' परन्तु सर्वप्रथम अब देखें कोई समस्या है। किसी ने मुझ से कहा, 'माताजी, मेरे घर में तकलीफ है, मुझे काम-धंधा नहीं है।' इस तरह की बातें, अत्यन्त छोटी-छोटी बातें, जड़-लौकिक बातें, 'ये ऐसा है, वैसा है' और थोड़े दिनों के बाद वह कहता है, "माताजी, सब कुछ ठीक हो गया।" तो ये सब कैसे होता है ? यह देखना चाहिए। एक दिन की बात है, हमारी एक शिष्या है, विदेशी है। मैं 'शिष्या' वगैरा तो कहती नहीं हूँ 'बच्चे' ही कहती हैँ। तो दोनों लड़कियाँ थीं। वे दोनों जर्मनी में एक मोटर में जा रही थीं । और जर्मनी में 'ऑटेबान' करके बहुत बड़े रास्ते होते हैं। और उस पर से बड़ी तेजी से गाड़ियाँ इधर - उधर दौड़ती हैं। तो उन्होंने मुझे चिटठ्ठी लिखी, दोनों तरफ से ट्रक, बड़ी - बड़ी बसें, बड़ी - बड़ीं कारें, जो 'डबल- लोडर्स' होती हैं, वह सब जा रही थीं और बीच में हमारी मोटर। उसका ब्रेक भी काम नहीं कर रहा था और गाड़ी भी 'बर्लिंग' (कंपन) करने लगी। तो मुझे लगा कि अब मैं गयी, अब तो मैं बच ही नहीं सकती। अगर ब्रेक भी कुछ ठीक रहता तो कुछ उम्मीद थी। पर वह ठीक नहीं था । ' तो उस स्थिति में उसमें एक तरह की प्रेरणा आ गयी। जिसे हम कहेंगे 'इमरजेन्सी की प्रेरणा' वह निर्माण हो गईं। वह है कि 'अब सब कुछ गया, अब भी नहीं रहा, विनाश का समय आ गया। तो शरणागत होकर उसने कहा, "श्री माताजी, अब कुछ आपको जो करना है वह करें। मैं तो आँख मूँद लेती हूँ।" और उसने आँखें मँद लीं। उसकी चिठ्ठी में लिखा था, "थोड़ी देर बाद मैंने देखा तो मेरी कार अच्छी तरह से एक तरफ आकर रूकी हुई खड़ी थी और मेरा ब्रेक भी ठीक हो गया था।" अब माताजी ने कुछ नहीं किया था, मलतब यह जो परिणाम हुआ है वह किसी न किसी कारणवश हुआ है। मतलब 'कारण व परिणाम'। समझ लीजिए आपके घर में झगड़ा है। उसका कारण है आपकी पत्नी या आपकी माँ या आपके पिताजी या कोई 'अ' मनुष्य और उसका परिणाम है घर में अशान्ति। जो मनुष्य सर्वसाधारण बुद्धि का होगा वह 'परिणाम' से ही लड़ता रहेगा । अभी मुझे इसे लड़ना है। फिर कोई दूसरी लड़ाई निकल आएगी। फिर ये आप देखिए। यह कैसे होता है? तीसरी। अब जो कारण है उस पर कौन सोचते हैं? कुछ लोग सूक्ष्म बुद्धि के होते हैं। वे उसका जो 'कारण हैं उससे लड़ते हैं। उस कारण से लड़ाई करने पर वह कारण भी उनसे लड़ना शुरू कर देता है। और 'कारण और परिणाम' इसके चक्कर में पड़ने से वे दोनों ही समस्या वैसी की वैसी रह जाती है। उसके परे वे जा नहीं सकते। और इसलिए 'प्रपंच करना बहुत कठिन काम है', ऐसा सब लोग कहते हैं। इसका इलाज क्या १८ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-21.txt प्रपंच और सहजयोग मूलाधार में ये जो शक्ति है वह प्रयंच में कैसे है? इसका इलाज ये है कि उसका जो कारण है, उस कारण के परे जाना होगा। उसका जो कारण था, ब्रेक टूट गया था, उस ब्रेक से वह लड़ रही थी। परन्तु जब उसे महसूस हुआ, इन सबके परे भी कुछ है कोई शक्ति है और वह शक्ति कारण के परे होने से कारण भी नष्ट हो ये गया और उसका परिणाम भी नष्ट हो गया। ये ऐसे होता है। आप विश्वास करिए या मत करिए, पर ये बात होती है। परन्तु अन्धविश्वास से नहीं होती है। अब बहत से लोग मेरे पास आकर कहते हैं, "माताजी, हम इतना भगवान को याद करते हैं परन्तु हमें कैन्सर हो गया। हम इतना करते हैं, मन्दिर में जाते हैं, सिद्धीविनायक के मन्दिर में रोज जाकर खड़े रहते हैं, घंटे-घंटे। मंगल के दिन तो विशेष करके जाते हैं, परन्तु तब भी हमारा कुछ भी अच्छा नहीं हुआ, इस भगवान ने हमारा कुछ भी अच्छा नहीं किया, फिर हम इसे क्यों भजें ?" ठीक है। आप जिस भगवान को बुला रहे हैं उसका आपका क्या कोई कनेक्शन (सम्बन्ध) हुआ है? आपका जब तक कनेक्शन नहीं हुआ, तब तक अच्छा कैसे होगा? भगवान तक आपके टेलीफोन की कनेक्शन तो होना चाहिए। इस तरह आप रात दिन परमेश्वर की पूजा करते हैं? परन्तु क्या आप जो बोल रहे हो उस परमेश्वर को सुनाई दिया है? चाहे जो धंधे करो , चाहे जैसा बर्ताव करो और उसके बाद 'हे परमात्मा, मुझे आप देते हैं कि नहीं?' कहकर उसके सामने बैठ जाना। उस परमात्मा ने आपको किसलिए देना है? आपका कोई कनेक्शन होगा तो आप कुछ भारत सरकार से माँग सकते हैं, क्योंकि आप उसके नागरिक हो, परमात्मा के साम्राज्य के नहीं। पहले उसके साम्राज्य के नागरिक बनिए, फिर देखिए उसकी याद करने के पहले ही परमेश्वर ये करता है कि नहीं । अब समझ लीजिए यहाँ पर बैठे-बैठे ही कोई अगर इंग्लैण्ड की रानी को कहेगा कि वह हमारे लिए ये नहीं करती, वह नहीं करती। वह आपके लिए क्यों करने लगी? तो यहाँ तो परमात्मा हैं और वह परमात्मा आपके लिए क्यों करने लगा? आप उनके साम्राज्य में अभी आए नहीं हैं। केवल उन पर तानाशाही करना 'हे परमात्मा!' जैसे कोई वे आप की जेब में बैठे हैं। और अब आपको ये भी विचार नहीं है कि हमें परमात्मा का स्मरण करना है। सुस्मरण कहा है, जैसे 'प्र' शब्द है वैसे ही 'सु' शब्द है। 'स्' माने जहाँ मनुष्य का सम्बन्ध होकर आपमें मांगल्य का आशीर्वाद आया हआ है तभी वह सुस्मरण होगा। अन्यथा तोते की तरह बिना समझे बोलना है। उसका असर युवा पीढ़ी पर होता है। वे कहते हैं 'इस परमात्मा का क्या अर्थ हुआ? परमात्मा का नाम लेकर यहाँ दो बाबा आए और हमारी माँ का पैसा ले गये, वहाँ कोई गले में काला धागा बाँध गये और रुपया ले गए। ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ हुआ?' इसलिए उनका कहना ठीक लगता है। फिर उनकी तरह और लोग भी कहते हैं 'परमात्मा है स्मरण नहीं कहा है। सुस्मरण करते समय भी 'सु' कहा है। ये देखिए, 'सु' माने क्या ? ही नहीं। परन्तु सर्वप्रथम अपनी समझ में ये गलती हुई है कि क्या हमारा परमात्मा के सात कोई सम्बन्ध हुआ है? क्या हमारा उन पर अधिकार है? हमने उनके लिए क्या किया है? ये तो देखना चाहिए। पहले उनके साथ अपना कनेक्शन (सम्बन्ध) जोड़ लीजिए । अब सहजयोग माने परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ना। सहज इस शब्द में 'सह' माने अपने साथ, 'ज' माने जन्मा हुआ। जन्म से ही आपमें योग (सम्बन्ध जोड़ना), योग सिद्धि का जो अधिकार है, वह माने 'सहजयोग' है। आपमें परमात्मा ने कुण्डलिनी नाम की एक शक्ति रखी है वह आपमें स्थित है। आप विश्वास कीजिए या न कीजिए । क्योंकि ऊपरी (बाह्य) आँखों (दष्टि) वाले लोगों को कुछ कहना कठिन है। विशेषकर अपने यहाँ के साहित्यिक और बुद्धिजीवी लोग विचारों पर चलते हैं। और विचार कहाँ तक जाएंगे , इसका कोई ठिकाना नहीं है । किसी विचार का किसी से मेल नहीं है । इसलिए इतने झगड़े हैं। तो इन विचारों के परे जो शक्ति है, उसके बारे में अपने देश में परम्परागत अनादि काल से बताया गया है। उस तरफ कुछ ध्यान देना जरूरी है। परन्तु इन विचारवान लोगों में इतना अहंकार है कि वे उधर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं। हो सकता है शायद इसमें उनके पेट का सवाल है। परन्तु सहजयोग में आने के बाद पेट के लिए आप आशीर्वादित होते हैं। परमात्मा से सम्बन्ध घटित होने के बाद आपकी समस्याएं ऐसे हल होती हैं कि आपको आश्चर्य होगा। 'ऐसा हमने क्या किया है? इतना हमें परमात्मा ने कैसे दे दिया ? इतनी सही व्यवस्था कैसे हो गयी ?' ऐसा सवाल आप | १९ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-22.txt কার্यাन्বির है यह आप देखिट। आव देखिए । अपने आपसे पूछ कर चकित रह जाते हैं। ज्ञानदेव की 'ज्ञानेश्वरी' का आखरी पसायदान (दोहा) आपने होगा उन्होंने जो वर्णन किया है वह आज की स्थिति है। ये सब अब घटित होने वाला है। जिस चीज़ की जो इच्छा करेगा वह (परमेश्वरी आनन्द) उसे प्राप्त होगी। परन्तु वह करने के पहले आप केवल कुण्डलिनी का जागरण कर लीजिए। उसके बिना में आपको कोई वचन नहीं दे सकती। और न मिनिस्टर (मन्त्री) लोगों की तरह आश्वासन देती हूँ। जो बात है वह मैं अपनी बोली में अपने ही ढंग से कह रही हँ। कोई साहित्यिक भाषा में नहीं बोल रही हूँ। जैसे कोई माँ अपने बच्चे को घरेलू बातें समझाती है उसी तरह मैं आपको समझा रही हूँ। आपमें जो संपदा है वह प्राप्त कीजिए। आप कहते हैं हम प्रपंच में बँध गए हैं। 'बँध गए हैं' माने क्या ? तो फालतू बातों का आपको महत्व लगने लगा। मुझे नौकरी मिलनी चाहिए वो क्यों नहीं मिल रही है, क्योंकि बेकारी ज्यादा है? माने बेकार ज्यादा हैं इसलिए। बेकारी क्यों ज्यादा है? बेकारों की संख्या बढ़ रही है। वो बढ़ती ही जाएगी। इन कारणों के परे कैसे जाना है? उसका इलाज है कि वह जो शक्ति हमारे चारों तरफ है उसका आव्हान करना होगा। अपने में वह शक्ति मूलाधार चक्र में रहती है। मूलाधार में ये जो शक्ति है वह प्रपंच में कैसे कार्यान्वित है यह आप देखिए । अपना ध्यान उस (शक्ति की) तरफ होना चाहिए। और सर्वप्रथम ये विचार होना चाहिए कि मूलाधार में जो कुण्डलिनी शक्ति है वह श्री गणेश की कृपा से वहाँ बैठी है। अब इस महाराष्ट्र को बहुत बड़ा वरदान है। कहना चाहिए। यहाँ जो अष्टविनायक हैं वह आपके लिए परमात्मा का बहुत बड़ा उपकार हैं। इसी कारण महाराष्ट्र में मैं सहजयोग स्थापित कर सकी हूँ। क्योंकि श्री गणेश का जो प्रभाव है उसी का आप पर आवरण है। उसी आवरण के कारण सचमुच मेरी बहुत मदद हुई है। ये श्री गणेश आपके मूलाधार में विराजमान हैं। अब कोई डॉक्टर है तो वह अपने घर में श्री गणेश का फोटो रखेगा। मन्दिर भी बनाएगा। वहाँ जाकर नमस्कार करेगा। परन्तु उस श्री गणेश का और डॉक्टरी का क्या सम्बन्ध है ये उसकी समझ में नहीं आएगा और उसे वह स्वीकार भी नहीं करेगा। परन्तु उस श्री गणेश के बिना डॉक्टरी भी बेकार है। अब ये जो श्री गणेश शक्ति आपमें है उसी के कारण आपके बच्चे पैदा होते हैं। अब जरा सोचिए, एक माता-पिता जिस तरह उनके चेहरे हैं उसी तरह का बच्चा पैदा होता है। हजारों, करोड़ों लोग इस देश में हैं, दूसरे देशों में हैं। परन्तु हर एक का बच्चा या तो उसके माता-पिता की तरह होता है, नहीं तो दादा-दादी या उस परिवार के किसी व्यक्ति के चेहरे पर होता है। तो इसका जो नियमन है वह कौन करता है? वह श्री गणेश करते हैं। सुना आपका कर्तव्य है कि अपने घर में जो गणेश (बच्चे) हैं उनमें जो बाल्यवत अबोधिता है उसे स्वीकार करें । वह अबोधिता अपने में आनी चाहिए। घर में छोटे बच्चे होते हैं। छोटे बच्चे कितने अबोध होते हैं । उनके सामने हम गाली - गलौच करते हैं, बूरे शब्द बोलते हैं। ऐसे वातावरण में हम उनको पालते हैं, जहाँ सब अमंगल है। उन्हें जो इच्छा करने देते हैं या कहिए उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देते। यही (बच्चे) तो आपके घर के गणेश हैं। उनके संवर्धन में, पालन-पोषण में आपका ध्यान नहीं है। आजकल तो इंग्लैण्ड में ८० वर्ष की आयु की औरतें भी शादी करती हैं। तो अब क्या कहें कुछ समझ में नहीं आता। वहाँ की गन्द यहाँ मत लाओ। वहाँ की गन्द वहीं रहने दीजिए। ते 'अति शहाणे, त्यांचे बैल रिकामे' (जो ज़्यादा सयाना हैं उनकी खोपड़ी खाली है।) तो श्री गणेश की अप्रसन्नता हम पर न हो उसका निश्चय करना होगा। श्री गणेश हम में बैठकर हमारे बच्चों का पालन करते हैं। प्रथम जनन और उसके बाद पालन। और वह जो भोला गणेश (बच्चा) है वह घर के सभी लोगों को आनन्द देता है। किसी घर में बच्चा पैदा होते ही कितनी खुशियाँ छा जाती हैं। उस बच्चे से कितनी आनन्द की लहरें घर में फैलती हैं। परन्तु जिस घर में बच्चा नहीं होता वहाँ कैसा खालीपन सा महसूस होता है। ऐसा लगता है उस घर में जाएं नहीं। क्योंकि वहाँ बच्चों की गुनगुनाहट नहीं, हँसना नहीं, खिलखिलाना नहीं, वह मस्ती नहीं। ऐसे घर में कोई माधुर्य नहीं। परन्तु आजकल जमाना कुछ दूसरा ही है। जिन देशों को अमीर affluent कहते हैं उन देशों में बच्चे पैदा ही नहीं होते। उनकी आबादी घटती जा रही है। २० 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-23.txt प्रपंच और सहजयोग और हमारे भारत देश की आबादी बढ़ती जा रही है । इसलिय लोग कहते हैं यह बहुत बुरा है। आपके देश की आबादी इतनी नहीं बढ़नी चाहिए। मान लिया, परन्तु कहना ये है कि जो बच्चे आज जन्म ले रहे हैं उनमें भी अक्ल होती है। वे क्यों उन देशों में जन्म लेने लगे ? वे कहेंगे वहाँ रोज पति-पत्नी तलाक लेते हैं और बच्चों को जान से मार डालते हैं। वही हमारे साथ होगा। क्योंकि यहाँ (भारत में) माँ-बाप को बच्चों के प्रति जो आस्था, जो प्रेम, जो सहज-बुद्धि है वह इन लोगों में (अमीर देशों में) बिल्कुल नहीं है। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि लन्दन शहर में माँ-बाप एक हफ्ते में दो बच्चों को मार देते हैं। जितना सुनोगे उतना कम है। मुझे रोज ही धक्का सा लगता है। और उन्हें उसका कुछ भी असर नहीं है। क्योंकि अहंकार में इतने डूबे हैं कि इसमें कुछ अनुचित है ये महसूस ही नहीं करते। वहाँ जाकर मालूम हुआ हिन्दुस्तानी कितना अच्छा है। यहाँ (भारत) के टेलीफोन ठीक नहीं हैं। माईक ठीक नहीं हैं। रेलगाड़ियाँ ठीक | श्री गणेश मनुष्य नहीं हैं। सब कुछ मान लिया। पर लोग तो ठीक हैं। उस अच्छाई में जो गहन से गहन है, वह है गणेश तत्व। और जिस घर में गणेश तत्व ठीक नहीं है वहाँ सब कुछ गलत होता है। जहाँ बच्चे बिगड़ रहे हैं उसका दोष मैं समाज से ज्यादा माँ-बाप को देती हूँ। आजकल माँ भी नौकरी करती हैं। बाप तो करते ही हैं । तब भी हम में बैठकर जितना समय आप अपने बच्चों के साथ काटते हैं, वह कितना गहन है ये देखना जरूरी है। अब सहजयोग में आने पर क्या होता है ये देखना जरूरी है। मतलब सहजयोग का सम्बन्ध आपके बच्चों के साथ किस तरह है ये देखना जरूरी है। सहजयोग में आपकी गणेश शक्ति जो जागृत होती है वह कुण्डलिनी शक्ति के कारण है। तब प्रथम मनुष्य में सुबुद्धि आती है। हम उसे विनायक (गणेश ) कहते हैं। वही सबको सुबुद्धि देने वाला है। मैंने ऐसे बच्चे देखे हैं, जिन्हें लोग मेरे पास लेकर आते हैं, कहते हैं, बच्चा क्लास में एकदम 'शून्य' है, खाली मस्ती करता है, मास्टरजी से करते हो?" उसने कहा, "मुझे कुछ नहीं आता और मास्टरजी भी मुझे डाँटते रहते हैं। फिर मैं क्या करूं ? हमारे बच्चों का | उल्टा-सीधा बोलता है। मैंने उससे पूछा, "तुम ऐसे क्यों पालन करते हैं । वही बच्चा फस्स्ट क्लास फस्स्ट (प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान) में पास हुआ है। ये कैसे हुआ है? वह गणेश अपने में जागृत होते ही वह शक्ति आपमें बहने लगती है और मनुष्य में एक नये तरह का आयाम शुरू हो जाता है। उस आयाम को हम सामूहिक चेतना कहते हैं। उस नयी चेतना में जो चीजें पहले मनुष्य साधारणतया दिखाई नहीं देतीं, अनुभव नहीं होतीं, वे सहज में ही होने लगती हैं। ये नया आयाम या कहिए ये जो एक नयी चेतना-शक्ति अपने में आने लगती है उस शक्ति से मनुष्य सच्चा समर्थ हो जाता है। और उस समर्थता से एक चमत्कार घटित होता है। जो बच्चे बेकार हैं, जो किसी को काम के लायक नहीं है, माने जो शराब वगैरा पीते हैं-आजकल आपको है ड्रग वरगैरा चलता है- हमने तो कभी चरस नाम की चीज़ ही नहीं देखी थी। अब मालूम होता है कि आजकल स्कूलों में चरस बिकती है। ये सब मूर्खता, सुबुद्धि न होने के कारण होती है। वह सुबुद्धि जागृत होते ही जो लोग इग्लैण्ड, अमेरिका में चरस लेते हैं वे यह सब छोड़कर अच्छे नागरिक बन गए हैं। ये सहजयोग की शक्ति है। बच्चों में शिष्टाचार आता है। मैं देखती हैँ आजकल बच्चों में शिष्टाचार नहीं है क्योंकि माँ-बाप आपस में लड़ते हैं, बच्चों का आदर नहीं करते। उनसे चाहे जैसा व्यवहार करते हैं। जैसी माँ-बाप की प्रकृति, वैसी ही बच्चों की बन जाती है और वे वैसे ही असभ्य आचरण करते हैं। सहजयोग में आकर माता-पिता की कुण्डलिनी अगर जागृत हो गयी और बच्चों की भी हो गयी तो फिर सब एकदम कायदे से व्यवहार करते हैं। पहले मालूम आत्म-सम्मान जागृत होता है। उपदेश करने से आत्म-सम्मान जागृत नहीं होता। परन्तु सहजयोग में कुण्डलिनी जागृति से मनुष्य में सम्मान आता है। अपने देश में जो मनुष्य सत्ताधीश है उसी का सम्मान करने की रूढ़ी चली आ रही है। परन्तु सच्ची सत्ता श्री गणेश की है। उनकी सत्ता जिनके पास हो उन्हीं के चरणों में झुकना चाहिए। बाकी सब ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे आज आएंगे कल चले जाएंगे। उनका कोई मतलब नहीं, बेकार हैं वे लोग। जिन्होंने गणेश को अपने आप में जागृत किया है उनके सामने झुकना चाहिए। | २१ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-24.txt गणेश शक्ति जागृत होते ही आदमी में बहुत अन्तर आ जाता है। जैसे कि आजकल पुरुषों की नज़र इधर-उधर दौड़ती रहती है, चंचल रहती है, आज्ञा चक्र पकड़ता है। हरदम पागलों की तरह इधर-उधर देखते रहना, जिसे कहते हैं तमाशगीर। आजकल तमाशगीरों की बड़ी भारी संख्या है। महाराष्ट्र में भी शुरू हुआ है। हम जब छोटे थे, स्कूल, कॉलेजों में पढ़ते थे तब हमने ऐसे तमाशगीर नहीं देखे थे । परन्तु अब ये नये लोग निकले हैं। ये लोग हरदम अपनी आँखें इधर से उधर दौड़ाते रहते हैं। उससे बहुत शक्ति नष्ट होती है और उसमें किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं है। नीरस क्रिया (joyless pursuit) कहना चाहिए । उसमें | अपना सारा चित्त लगाकर अपनी आँखें इधर-उधर घुमाते रहते हैं। हरदम इधर-उधर देखना, जैसे रास्ते के विज्ञापन देखना। गलती से कोई विज्ञापन देखना छूट गया तो उन्हें लगेगा जैसे अपना कुछ महत्वपूर्ण काम चूक गया। फिर से आँख घुमाकर वह विज्ञापन पढ़ेंगे। हर-एक चीज़ देखना जरूरी है। ये जो आँखों की बीमारी है यह एकदम नष्ट होकर मनुष्य सहजयोग में एकाग्र होता है। तब इसमें एकाग्र दृष्टि आती है। ऐसी एकाग्र दृष्टि व गणेश शक्ति अगर जागृत हो जाती है, उसे 'कटाक्ष निरीक्षण' कहते हैं। आपकी कटाक्ष दृष्टि जहाँ पड़ेगी वहाँ कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी। जिसकी तरफ आप देखेंगे उसमें पवित्रता आ जाएगी। इतना पावित्र्य आँखों में आ जाएगा। ये केवल अकेले गणेश का काम है। और ये गणेश आपके घर ही में है। आपने अपने गणेश को पहचाना नहीं। अगर पहचाना होता तो अपनी पवित्रता में स्थित होते। जो पवित्र है वही करना चाहिए। परन्तु आपने अपने गणेश को नहीं पूजा। कोई बात नहीं। अपने घर में बच्चे हैं, उनके गणेश को देखिए । उन्हें पूजनीय बनाइए और अपने गणेश को भी। आप अपनी कुण्डलिनी जागृत करवाइए। परन्तु सहजयोग की विशेषता ये है कि ये सहज में होता है । उसके लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं। कुण्डलिनी जागृत होने पर मनुष्य में सुबुद्धि आती है और उस मनुष्य का सारा व्यक्तित्व एक विशेष प्रकार का हो जाता है। अब यहाँ पर जो साहित्यिक लोग होंगे वे कहेंगे माताजी कोई भ्रामक (विचित्र) कहानियाँ सुना रही हैं। परन्तु आपको सुनकर आश्चर्य होगा। अहमदनगर जिले में सहजयोग के कारण दस हजार लोगों ने शराब छोड़ी है। मैं शराब बन्दी हो जाए वगैरा नहीं बोलती हूँ। मैं कुछ नहीं बोलती। आप जैसे भी हो आप आइए। आकर अपना आत्मारूपी दिया जलाइए। दिया जलने के बाद शरीर में क्या दोष हैं वे आपको दिखाई देंगे। जब दिया नहीं जलेगा तब तक साड़ी में क्या लगा है ये नहीं दिखाई देगा। उसी तरह एक बार दिया जला कि सब कुछ दिखाई देगा। बिल्कुल थोड़ा सा भी जल गया तो भी आपको दिखाई देगा कि अपनी क्या क्या त्रुटियाँ हैं। आप ही अपने गुरू बनिए और अपने आपको गणेश शक्ति जो जागृत होती है.. तब प्रथम में मनुष्य सुबुद्धि आती है। अच्छा बनाइए। स्वयं को पवित्र बनाइए। जो लोग पवित्र होते हैं उनके आनन्द की कोई सीमा नहीं। उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहता। किसी ने कहा है, 'जब मस्त हुए फिर क्या बोलें?' अब हम मस्ती में आए हैं तो उस मस्ती की हालत में अब हम क्या बोलें? ऐसी स्थिति हो जाती है। पवित्रता आनन्दमयी है और केवल आनन्दमयी ही नहीं, पूरे व्यक्तित्व को सुगंधमय कर देती है। ऐसा मनुष्य कहीं भी खड़ा होगा लोग कहेंगे, 'हे भाई , इसमें कुछ तो तो भी कुछ विशेष बात है इस मनुष्य में।' जिन्हें विशेष नहीं बनना है उनके लिए सहजयोग नहीं है। जिन्हें विशेष बनना है वे बनेंगे। आप विशेष बनने वाले हो ये सर्वविदित है । वह आपको अर्जन करना है, कमाना है। जिन्हें विशेष बनना है, उन प्रापंचिक लोगों के लिए, घर-गृहस्थी में रहने वाले लोगों के लिए सहजयोग है। जिन्हें कुछ बनना नहीं, जो समझते हैं हम बिल्कुल ठीक हैं, हमें कुछ नहीं चाहिए माताजी, तो भाई ठीक है, आपको हमारा नमस्कार। आप पधारिए। आप पर हम जबरदस्ती नहीं कर सकते। अगर आपको पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है। अगर आपको नर्क में जाना है तो बेशक जाइए, और अगर स्वर्ग में आना है तो आइए। हम आप पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं कर सकते। सर्वप्रथम अपने प्रपंच में सुख का कारण बच्चा होता है। गर्भारम्भ से ही घर में आनन्द शुरू हो जाता | है। माता के कष्टों की समाप्ति के पश्चात बच्चे का अत्यन्त उल्लास के बीच जन्म होता है। आजकल मैंने देखा है जो लोग पार हैं उनके जो बच्चे होते हैं, वे जन्म से ही पार होते हैं, चाहे वे लोग कहीं भी रहें । कितने २२ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-25.txt प्रपंच और सहजयोग वर ही बड़े-बड़े आत्मपिडों को जन्म लेना है । सबको मैं देख रही हूँ। वे कह रहे हैं, 'ऐसा कौन है जो हमारी आत्मा को सुचारू रखेगा? ऐसे-वैसे लोगों के यहाँ साधु-सन्त नहीं जन्म लेते। ऐसे बड़े-बड़े आत्मपिंड आज जन्म लेने वाले हैं और उनके लिए ऐसे लोगों की जरूरत है जिनके प्रपंच सचमुच ही प्रकाशित हैं। और ऐसे प्रकाशित प्रपंच निर्माण करने के लिए आप सहजयोग अपनाकर अपनी कुण्डलिनी जागृत करवा लीजिए । वह होने के बाद दूसरे चक्र से जिसे हम 'स्वाधिष्ठान चक्र' कहते हैं उससे प्रपंच में बहुत से लाभ होते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का पहला काम है, आपकी गुरु-शक्ति को प्रबल बनाना। बहुत से घरों में मैंने देखा है, पिता की कोई इज्जत नहीं, माँ की कोई इज्जत नहीं। छोटे-छोटे १५-१६ साल के बच्चे ही सब कुछ है। आजकल बाज़ार में मैं देखती हैँ, हमारे जैसे वयस्क लोगों के लिए साड़ी खरीदना एक समस्या है। सभी साड़ियाँ युवा लड़कियों के लिए ही हैं। बड़े-बूढे लोगों के लिए साड़ियाँ बनाने का आजकल रिवाज ही नहीं रहा। पहले जमाने में बूढ़े लोगों के पास पैसा रहता था, उनके लिए सब कुछ ठीक-ठाक रहता था। अब बूढ़़े लोगों को कोई पूछता नहीं। उनके लिए शादीब्याह में एकाध साड़ी खरीदना भी मुश्किल हो गया है। जिस समय ये गुरु शक्ति आपमें जागृत होती है तब ये जो बूढ़ापन, वृद्धत्व आता है, उसमें बुजर्ग आदमी को लें। अपने पिता भी कभी-कभी बिल्कुल मूर्खों की तरह बर्ताव करते हैं । माँ महामूरखों की तरह बर्ताव करती है। बाहर से जो लोग आते हैं उनके सामने किस तरह रहना है उसे नहीं मालूम। चिल्लाती रहती है, सारा ध्यान उसका चाभियों पर, नहीं तो जात-पात के लड़ाई-झगड़ों पर रहता है। कोकणस्थ की शादी कोकणस्थ से ही होनी चाहिए, देशस्थों की देशस्थों से। ऐसा नहीं हुआ तो सास लड़ती है। ये जो बुड्ढ़े लोगों की अजीब बातें है, ये तब खत्म हो जाती हैं और उसके स्थान पर उस बूढ़ेपन में एक तरह की 'तेजस्विता' आ जाती है। वह व्यक्ति अपने सम्मान के साथ खडा रहता है। आपको लगेगा ' अरे बाप रे! हमारे पिताजी ये क्या हो गए?' पहले जमाने के जो दादोजी कोंडदेव (शिवाजी के जमाने के लोग) वगैरा लोग थे, क्या वही यहाँ खड़े हो गए?' और तुरन्त उनके सामने हम विनम्र हो जाते हैं । तो इस युवा पीढ़ी में जो खलबली मची हुई है। बात-बात पर तलाक, पत्नी के साथ लड़ाई, माँ-बाप से नहीं बनती, घर में रह नहीं २३ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-26.txt सपने प्रयंच में सुख का कारण बच्चा होता है। स्वाधिष्ठान का पहला काम है, गुरु-शक्ति को बनाना। प्रबल सकते, घर से बाहर भाग जाना, छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े, ये सब हो रहा है। काम-धंधा नहीं, पैसे नहीं, सभी बुरी आदतें, सब तरफ से आजकल की युवा पीढ़ी एक बड़े संक्रमण काल की तरफ बढ़ रही है। उनकी पृष्ठभूमि (background) बहुत महान है। पर मैं कहती हूँ महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि तो बहुत ही महान है। पर वह सब भूलकर भी प़ेंगे नहीं, सुनेंगे नहीं। अब संगीत का अपने महाराष्ट्र में कितना ज्ञान है? साधु-सन्तों का कितना साहित्य है अपनी भाषा में। पर वह सब किताबें कौन पढ़ता है? गन्दी किताबें सड़क पर खरीद कर पढ़ना। कुछ अत्यन्त नकली, superficial (जो गहराई में नहीं जाते, बस ऊपर ऊपर उतरते रहते हैं) इस तरह की युवा पीढ़ी बनती मैं जा रही है। इस युवा पीढ़ी को अगर इसी तरह रखा तो ये इसी हवा में खो जाएगी। किसी काम की नहीं रहेगी। मुझसे पूछिए आप, अमेरिका गई थी तो ६५% पुरुष बेकार है। वहाँ के जो लोग हैं उन्हें एक डर है। वहाँ 'एडस' नाम की कोई बीमारी है। उससे सभी युवा लोग मर रहे हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इससे कैसे छुटकारा मिले? उसका कारण है, 'ये करने में क्या हर्ज है? इसमें क्या बुरा है? हो गए होंगे श्री रामदास स्वामी, हमें उनसे क्या मतलब ? वह सब बातें रखिए अपने पास । हम अब मॉडर्न बन रहे हैं।' बड़े आए मॉडर्न बनने वाले! वे (अमेरिकन) मॉडर्न कहाँ गए हैं। वह देखिए एक बार उस देशों में जाकर। वहाँ के मॉडर्न लोगों की क्या स्थिति है ये जरा जाकर देखिए । यहाँ के लेखकगण यहीं बैठकर वहाँ के वर्णन लिखते रहते हैं। वहाँ जाकर देखिए । वहाँ के वयस्क लोग रात दिन एक ही बात सोचते हैं, हम किस तरह आत्महत्या करें? एक ही विचार है उनका, आत्महत्या। यही एक रास्ता है उनके पास। तो हवा में खत्म होने वाले जो ये लोग हैं उनकी तरह आपको मॉडर्न होना है तो आपको हमारा नमस्कार! परन्तु आप को अपनी शक्ति में खड़े रहना है और कोई विशेष बनना है, तो आप जो चले जा रहे हैं सो रुकना पड़ेगा। जरा शान्त होकर सोचिए ये (विदेशी) जो सारे दौड़ रहे हैं, जो अन्धाधुन्द दौड़ (rat race) चल रही है उसमें भी क्या भाग रहा हूँ? एक मिनट शान्त होकर सोचना चाहिए हमारी भारतीय विरासत क्या है? सम्पत्ति के बटवारे में यदि एक कतरन (छोटा टुकड़ा) कम-ज्यादा मिली तो कोर्ट में लड़ने जाते हैं! परन्तु अपने इस देश की बड़ी परम्परा है। उस तरफ किसी का ध्यान नहीं। वह खत्म होने जा रही है। उसका हमने कितना लाभ उठाया है? इसका ज्ञान सहजयोग में आने पर वयस्क लोगों को होता है। क्योंकि तब उन्हें मालूम होता है कि हम पहले जो थे उससे कितने ऊँचे उठ २४ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-27.txt प्रपंच और सहजयोग गए है। मेरे बचपन में मेरे पिताजी ने मुझसे कहा था सर्वप्रथम इस युवा वर्ग की जागृति होनी चाहिए। दसवीं मंजिल (चेतना के स्तर) पर बैठे साधु-सन्त नहीं समझ पाते कि साधारण लोगों को, जो अभी पहली मंजिल पर भी नहीं पहुँचे, उनकी चेतना की क्या अवस्था है। ये (साधारण लोग) ताल-मजीरे अवश्य बजाते हैं, किन्तु उन गीतों व भजनों के पीछे क्या भाव है यह वे नहीं समझते। जब वे पहली मंजिल (आत्मसाक्षात्कार) पर पहुँचेंगे तब उन्हें पता चलेगा कि उससे ऊपर और भी मंजिलें हैं। तो इस सर्वसाधारण मानवी चेतना के परे एक बहुत बड़ी चेतना है। उसे 'ऋतंभरा शक्ति' कहते हैं। वह आपको सहज में प्राप्त होती है। वह प्राप्त होने के बाद आपको अपने जीवन का दर्शन होगा। हम क्या हैं, कितने महान हैं और हम ये जो अपने जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, ये क्या हमें शोभा देता है? कितनी आपके पास सम्पदा है आपने अपनी क्या इज्जत रखी ? आपको अपने बारे में कुछ पता नहीं है। ये आप समझने की कोशिश कीजिए और सहजयोग में अपनी जागृति कराइए। इसी तरह आजकल की युवा पीढ़ी है। ये भी परमात्मा के साम्राज्य में सहज में आ सकती है। इस युवा-पीढ़ी को पार कराना बहुत आसान काम है। सारे भोलेपन में गलत काम करते हैं। इनका सब भोलापन ही है। एक लड़का सिगरेट पीता है तो मैं भी पिऊं, बस! किसी ने कुछ विशेष तरह के कपड़े पहने तो मैं भी पहनूंगा, इतना ही! सब कुछ भोलापन! परन्तु कभी-कभी इस भोलेपन से ही अनर्थ हो सकता है। परन्तु यही युवा पीढ़ी आज कहाँ से कहाँ पहुँच सकती है। आज अपने देश में किस बात की कमी है? कोई कहेगा खाने की है। परन्तु मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। मुझे लगता है हम ज्यादा ही खाते हैं और दूसरों को भी देते हैं। मैं जब भी यहाँ आती हैँ तो सबको हाथ जोड़कर बोलती रहती हूैँ, अब खाना बस करिए मुझे अब नहीं चाहिए। हर- वहाँ कहता है हिन्दुस्तान में खाने की कुछ कमी नहीं दिखाई देती, क्योंकि इतना खिलाते | मानवी चेतना के परे एक बहुत बड़ी चेतना है.... उसे 'ऋतंभरा शक्ति' एक मनुष्य हैं,आग्रह कर करके। लगता है खाना ही न खाएं। तो अपने यहाँ कमी किस बात की है? लोग भी बहत वाद-विवाद चर्चा करने में नंबर एक हैं। वे अगर यहाँ खड़े होंगे तो मुझसे भी जबरदस्त भाषण देंगे, सभी बातों में। बहुत होशियार हैं हम लोग। कुछ ज्यादा ही होशियार! सब कुछ है हमारे पास, कुछ। कमी किस बात की है? एक ही कमी है कि हमें ये ज्ञान नहीं कि हम कौन हैं? मैं कौन हूँ? इसका अभी तक ज्ञान नहीं है । जिस समय ये घटित होगा तब पूरा शरीर पुलकित हो उठेगा और आपके शरीर से प्रेम अर्थात चैतन्य की लहें बहने लगेंगी। केवल ये घटना आप में घटित होनी चाहिए। इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता। होगा तो होगा, नहीं तो नहीं भी। आज नहीं तो कल घटित होगा। इस प्रपंच में आपकी आर्थिक समस्याएं हैं। महाराष्ट्र में देखो तो 'श्री माताजी, गरीबों को आप से से कहते हैं। सोना चांदी, सब क्या लाभ होगा?' आप क्या हैं, गरीब हैं या अमीर, या मध्यम ? फिर आपको क्या लाभ चाहिए? आप चाहे मध्यम हो, अमीर हो, रईस हो, चाहे गरीब, किसी को भी संतोष नहीं । रेडियो है तो वी. डी . ओ. चाहिए । वी डी . ओ . है तो एयरकंडीशनर चाहिए । और उसके बाद जहाज चाहिए। और आगे क्या, वह परमात्मा ही जाने! अर्थशास्त्र का एक सर्वसाधारण नियम है। इच्छाएं सामान्यरूप से कभी भी पूरी नहीं होती। आपकी एक इच्छा हुई तो वह पूरी होगी। परन्तु साधारणतया ऐसा होता नहीं। आज एक हुई, कल दुसरी, उसके बाद तीसरी। एक बात स्पष्ट है जो हमने इच्छा की वह शुद्ध इच्छा नहीं थी। अगर वह शुद्ध इच्छा होती तो वह पूरी होने के बाद हमें पूर्ण समाधान होता। परन्तु ऐसा है नहीं। मतलब आपकी इच्छा शुद्ध नहीं थी। अशुद्ध इच्छा में रहे। इसलिए एक के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी इस चक्कर में आप घूमते रहे। अब शुद्ध इच्छा साक्षात कुण्डलिनी है। क्योंकि वह परमात्मा की इच्छा है। ये जागृत होते ही जो आप इच्छा करोगे...जो जे वांछिल, तो ते लाहो (जो जिसकी इच्छा है वह उसे प्राप्त होगा ।) इतना कि आप कहेंगे अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। आपकी जो इच्छाएं हैं वे पूरी होती हैं, परन्तु वे इच्छाएं जड़ वस्तुओं की नहीं होती। उनमें एक तरह की प्रगल्भता,उदात्तता होती है। और आपकी जो छोटी-छोटी बातें हैं वह कृष्ण के कथनानुसार 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' जब आपका योग घटित होगा तो क्षेम होगा ही। परन्तु पहले योग कहा है, 'क्षेमयोग' नहीं कहा है। 'योग क्षेम वहाम्यहम्' पहले योग घटित होना जरूरी है। सुदामा को पहले २५ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-28.txt ज कृष्ण को जाकर मिलना पड़ा तब उसकी सुदामा नगरी सोने की बनी। आपका कहना है हम यहीं बैठे रहेंगे और हाथ में सब कुछ आ जाए। क्यों? परमात्मा पर आप इतना अधिकार क्यों जताते हैं। किसलिए? चार पैसों के फूल लिए और परमात्मा को दे आए। इसलिए? उलटे इसमें आपकी बड़ी गलती है। बहुत से लोग मैंने देखे हैं जो शिवभक्त हैं। वे 'शिव-शिव' करते रहते हैं और उन्हें हार्ट अटैक होता है। शिव आप के हृदय में बैठे हैं। फिर ऐसा क्यों? उन्हें हार्ट अटैक क्यों हुआ? क्योंकि शिव नाराज हो गये। आप किसी मनुष्य को ऐसे बुलाते रहें बार-बार, तो उसे भी लगेगा ये आदमी मुझे क्यों परेशान कर रहा है। कल आप राजीव गांधी के घर जाकर 'राजीव, राजीव' ऐसे कहते रहे तो लोग आपको कैद कर लेंगे । यह हुआ है। और इससे आपको न परमात्मा की प्राप्ति हो रही है और न ही प्रपंच की। ऐसी स्थिति है। इसलिए 'मध्यमार्ग' में आना जरूरी है। और मध्यमार्ग को 'सुषुम्ना नाड़ी का मार्ग' कहते हैं। वहाँ से जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तब मनुष्य बीचों-बीच (मध्य में) आकर समाधानी होता है। बिल्कुल समाधानी बन जाता है। आजकल संतोषी देवी का व्रत चला है। संतोषी नाम की कोई देवी है ही नहीं। सिनेमा वालों ने यह निकाली तो लगे सब व्रत रखने लगे। जो स्वयं संतोष का स्रोत है उसे क्या कहेंगे वह संतोषी है। और इसी तरह कुछ गलत-सलत बनाते रहते हैं। व्रत रखना, आज खट्टा नहीं खाना, ये करना, वह नहीं करना। कुछ तमाशे करते रहना और फिर परमात्मा को दोष देना, हम इतना परमात्मा की सेवा करते हैं फिर भी हम बीमार हैं। उसके बारे में कुछ दिमाग से सोचना चाहिए । परमात्मा के जो नियम हैं उनका विज्ञान है। वह पहले आप सीख लीजिए। वह सीखे बगैर गलत-सलत करते हो। फिर कुछ बिगड़ गया तो उसे क्यों दोष देते हो? परमात्मा है या नहीं, यही सिद्ध करने के लिए हम आए हैं। बिल्कुल सिद्ध करने के लिए । आपे हाथों से चैतन्य बहेगा। आपके हाथों की उंगलियों पर परमात्मा मिलने वाले हैं । परन्तु उसके लिए आपकी तैयारी है? बुद्धि ज्यादा चलती है। श्री माताजी क्या कह रही हैं? जरा दिमाग ठंडा कीजिए, फिर होगा। आपकी समस्याएं आपकी बुद्धि से हल होने वाली नहीं है। आपकी राजकीय समस्याएं हल नहीं होने वाली, न सामाजिक और प्रपंच की तो बिलकुल ही नहीं । राजकीय प्रश्न ये है कि हम पूँजीपति (capitalist) हैं। उसी के लिए लड़ रहे हैं। क्या वे लोग सुखी है ? स्वतन्त्रता भी सम्भाली जाती है उनसे ? दूसरे कहते हैं हम कम्युनिस्ट २६ अ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-29.txt प्रपंच और सहजयोग (साम्यवादी) हैं। किन्तु सच्चे कपिटलिस्ट (पूँजिपति) हम हैं क्योंकि हमारे पास शक्ति (की पूँजी) है। ये सब ऊपरी बातें हैं। इसमें आप लोग मत उलझिए। आप अपने आप में (अपने भीतर) परमात्मा का साम्राज्य लाइए और उसके नागरिक बनिए । फिर देखिए आप क्या बनते हैं। उसके लिए प्रपंच छोड़ने की जरूरत नहीं है। पैसे देने की जरूरत नहीं है। इसमें क्या पैसे देने? ये तो जीवन प्रक्रिया है आपमें । किसी पेड को आपने पैसे दिए तो क्या वह आपको फूल देता है? उसे क्या मालूम पैसा क्या चीज़ है? उसी तरह परमात्मा है। उन्हें पैसे वगैरा नहीं मालूम। किसी बाबाजी को ले आते हैं और उसे कहते हैं, ये लो पैसे। गाँव में हमारे विषय में कहा 'माताजी पैसे नहीं लेतीं।' तो कहते लीजिए। परन्तु पैसे किस चीज़ के दे रहे हो? ये (आत्मसाक्षात्कार) तो आप ही का है। इसे क्या खुद खरीदोगे? प्रेम के द्वारा सब कुछ काम होता है। वह प्रेम प्राप्त करना होगा, जो आजकल प्रपंच में नहीं है। और जो प्रेम नजर आता है वह गलत तरीके का है। किसी पेड़ को आपने देखा होगा। उसका रस ऊपर हैं अच्छा १० पैसे नहीं तो २५ ले जिस घर में परमात्मा आता रहता है और जिस जिस भाग को चाहिए उसे देते देते वह अपनी जगह तक जाता है। वह किसी फूल का दिया भी पर या पत्ते पर नहीं अटकता। अटक गया तो बस वह पत्ता भी खत्म और वह पेड़ भी खत्म और खत्म। उसी तरह हम लोगों का है। हमारा प्रेम माने 'मेरा बेटा! वह तो दुनिया का नवाब शाह हो गया! मेरी बेटी, मेरा काम', 'मेरा-मेरा' चलता रहता है। वह क्या आपका है? लेकिन ये कह सुनकर नहीं होने वाला। कितना भी कह छोड़िए, 'मेरा-मेरा नहीं छूटने वाला। उसे छुड़वाने के लिये आप की कुण्डलिनी उठनी चाहिए। वह उठने के बाद और पार होने के बाद 'तुम्हारा-तुम्हारा' की शुरूआत होती है। कबीर ने कहा है जब बकरी जीवित होती है तब बार-बार 'मी-मी' (मैं-मैं) करती है। 'मैं-मैं -मैं' करती है। लेकिन वह मरने के बाद उसकी आँत निकाल कर उसका तार खींचकर धुंदके में बाँधी जाती है तो उसमें से आवाज आती है, 'तूही-तूही-तूही'। उसी तरह मनुष्य का है। एक बार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत होती है तब लगता है सब कुछ 'तुम्हारा' है। मनुष्य 'अकर्म' में उतरता है। फिर ये बच्चे, सगे-सोयरे सभी तुम्हारे! लोगों को आश्चर्य होता है, ये सब कैसे होता है? इस बम्बई शहर में इतने लोगों की प्रापंचिक स्थिति में सुधार आया है कि आपको आश्चर्य होगा। परन्तु हम उस तरफ देखते ही नहीं। हमें विश्वास ही नहीं है। नहीं करते तो मत करिए। पता नहीं आपका अपने स्वयं पर भी भरोसा है या नहीं, परमात्मा ही जाने। अब ये व्यर्थ वर्तमान पत्र ( समाचार पत्र) वादिता छोड़कर सचमुच की वर्तमान स्थिति में क्या हो रहा है ये देखना चाहिए। श्रीकृष्ण आए, कुछ एक परम्परा लेकर आए और उन्होंने कृषि का कार्य किया। एक बीज बोया। आज वह सम्पदा आपको इस स्थिति तक लाई है। आप फूलों से फल बनने वाले हो। वह आपको प्राप्त कर लेना चाहिए। अगर इस बार आप चूक गए तो समझ लीजिए हमेशा के लिए चूक गए। आपकी सारी प्रापंचिक समस्याएं खत्म होकर आप परमात्मा के प्रपंच में आते हैं। उनके प्रपंच में आए बगैर आपको सुख नहीं मिलने वाला। सारे दुनिया भर के दु:ख परमात्मा के चरणों में आने से खत्म होते हैं, ऐसा कहते हैं। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि आप जाकर विठ्ठल ( परमात्मा) के चरणों में सर फोड़ लें। श्री विठ्ठल को अपने आप में जागृत करना है। और उसे कैसे जगाना है? उसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है। वह साक्षात् आप में है। केवल कुण्डलिनी का जागरण होने के बाद, जिस तरह दिया जलाया जाता है, उसी तरह आपमें वह जलता है। जिस घर में परमात्मा का दिया जलता रहेगा वहाँ दु:ख- दर्द कहाँ? गरीबी और परेशानियाँ कहाँ? वहाँ तो सुख का संसार होना चाहिए। और इसलिए हम गाँव- गाँव सब जगह घूमते हैं। आपको मेरी नम्र विनती है कि ये जो आप में शक्ति है वह जागृत करवा लीजिए और सारे संसार के प्रपंच का उद्धार कीजिए। मैं आपको हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। फूल जलता रहेगा वहाँ | दुःख दर्द कहाँ? २७ १७ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-30.txt १ ० हॉ. चंद्रिका प्रमाद श्रीवाम्नय मैं, भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटील, व्यक्तिगत गुणों के लिए आपके सम्मानार्थ, पद्म विभूषण प्रदान करती हूं। (७ सर सी.पी. पद्म विभूषण प्रदान किया गया। को दिल्ली, ३१ मार्च २००९ २१ मार्च को मंगलवार के दिन सर सी.पी.को पद्म विभूषण, राष्ट्र का द्वितीय सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार देश की राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभाताई पाटील द्वारा प्रदान किया गया| इस अवसर पर कई विशिष्ट अतिथि उपस्थित थे। श्री माताजी भी वहाँ उपस्थित थीं। पुरस्कार की घोषणा दि.२६ जनवरी २००९ को हुई थी। जय श्री माताजी! २८ ट 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-32.txt जन्मदिन पूजा नोएडा, २१ मार्च २००९ आ. ज का दिन बहुत शुभ है और इस दिन की शुरुआत ध्यान से हुई और उसके पश्चात् युवा सेमिनार संपन्न हुआ। इसके बाद सहज के सूक्ष्म ज्ञान के बारे में एक कार्यक्रम हुआ और उसके बाद सवाल-जवाब का कार्यक्रम चला। शाम को मुख्य पंडाल बहुत ही सुंदर प्रकार से सुगन्धित फूलों से सजाया गया। इस मंगलमय अवसर पर करीबन २० हजार सहजयोगी उपस्थित थे। शाम के ध्यान के बाद छिंदवाडा के संजीव मेश्राम जी की बनाई गयी एक छोटी फिल्म दिखाई गयी और १९८६ के श्री लक्ष्मी पूजा के भजन का वीडिओ दिखाया गया। करीबन शाम ७.३० बजे आतिशबाजियों से श्री माताजी के आगमन की दी गयी। स्वागत भजन प्रस्तुत किया गया और उसके बाद 'शुभमंगल दिवस' और 'श्री जगदम्बे आई रे मेरी निर्मल माँ' यह भजन गाये गये। परम पूज्यनीय माँ के चरणों पर छोटे बच्चों ने श्री गणेश पूजा की। सूचना यह करते वक्त श्री गणेश अथर्वशीर्ष का उच्चारण किया गया। उसके बाद देवी पूजा का आरम्भ हुआ और 'जागो सवेरा आया है', 'हासत आली निर्मल आई' और 'निर्मला किती वर्णावी' यह भजन गाये गये। करीबन रात ८.३० बजे श्री आदिशक्ति माँ की आरती की गयी। रात ९ बजे श्री माताजी ने एक अतिसुंदर केक काटा और सभी बच्चों को आशीर्वादित किया। तभी 'जन्मदिन आयो आदिशक्ति का' भजन गाया गया। उसके पश्चात् निम्नलिखित पदाधिकारियों द्वारा भेजे गये बधाई सन्देश पढ़े गये थे १) श्रीमती प्रतिभा पाटील ( भारत की राष्ट्रपति) २) श्री.सुशिलकुमार शिंदे (ऊर्जा मन्त्री ) ३) श्रीमती शीला दीक्षित (मुख्यमन्त्री, दिल्ली) ४) अमेरिका के पाँच राज्यों के राज्यपाल (न्यूयॉर्क, न्यू जर्सी, कनेक्टिकट, फ्लोरिडा आदि) और करीबन १२ शहरों के प्रमुख ५ ) इटली की सरकार ६ ) सिडनी :- उसके बाद सफदरजंग आश्रम के नींव की शिला को श्री माताजी ने आशीर्वादित किया और उसके तुरन्त पश्चात माँ के सामने छिन्दवाडा में बनाये जा रहे आश्रम की प्रतिकृति लायी गयी जिसे माँ ने आशीर्वादित किया। अंत में करीबन रात ९.३० बजे श्री माताजी के पोते आनन्द के शादी की शहनाई की धुन से पूरा वातावरण झूम उठा। उसके बाद प्रसिद्ध पद्मश्री वडाली भाइयों ने बहुत सुन्दर सूफी कव्वालियाँ पेश की। सूफी कव्वालियाँ और श्री माताजी की पावन उपस्थिति से शाम और भी चैतन्यित हो उठी थी । सभी सहजी चैतन्य की ठण्डी लहरियों में डूब गये थे। वहाँ मौजूद सभी सहजियों के साथ करीबन ५ घण्टे बीतने के बाद श्री माताजी ने वहाँ से रात के १२.३० बजे प्रतिष्ठान की ओर प्रस्थान किया। जय श्री माताजी। ३० 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-33.txt मि ५ त ए ईस्टर पूजा और शादी की द२ वीं सालगिरह दिल्ली, ७ एप्रिल २००९ ७ एप्रिल को नोएडा, दिल्ली में ईस्टर पूजा तथा शादी की ६२ वीं सालगिरह मनायी गयी। इस कार्यक्रम में करीबन ८-१० हजार लोगों की उपस्थिति रही। पूजा के पण्डाल को बहुत ही सुन्दर तरीके से सजाया गया था। शाम के करीबन ६.३० बजे सामूहिक ध्यान से कार्यक्रम की शुरुआत की गई। इसके बाद 'श्री गणेश वन्दना', 'जय गणेश , जय गणेश' जैसे सुन्दर भजन गाये गये। इसके बाद ईस्टर पूजा २००४ (नागपुर, भारत ) के प्रवचन वीडिओ को स्क्रीन पर दिखाया गया। 6. इस प्रवचन का सन्देश 'क्षमा' था। इस में श्री माताजी ने बताया कि जब येशू ख्रिस्त ने तक क्षमा किया, तब हम लोग क्यों नहीं कर सकते ? इसके बाद नारगोल का एक विडिओ दिखाया गया जिसमें श्री माताजी ने सहस्रार को खोला था उस भूमि का नामकरण 'निर्मल वन' किया गया था, इसे दिखाया गया। और इसमें वहाँ की प्रगति और गतिविधियों की भी जानकारी दी गयी। इसके कुछ देर बाद श्री माताजी आयीं। आरती से उनका स्वागत किया गया। | पूजा की शुरुआत बाल युवाओं ने श्री माताजी के चरण कमलों में फूलों के समर्पण के साथ की गयी। 'विनती सुनिये आदिशक्ति मेरी' भजन को इस दौरान गाया गया , इसके बाद 'गणेश अथर्वशीर्ष' और फिर श्रृंगार भजन 'हासत आली निर्मला आई' पर श्री माताजी का श्रृंगार किया गया और फिर 'भय काय तया' भजन गाया गया। इसके बाद आरती के साथ ही पूजा की समाप्ति हुई । पूजा के बाद इस्टर के अण्डे के आकार के केक को श्री माताजी ने काटा। इसके उपरान्त श्री माताजी और पापाजी के शादी की ६२ वीं सालगिरह मनायी गयी। इस सुहाने अवसर पर श्री माताजी की दोनो बेटियों ने माताजी द्वारा ही लिखित भजन, 'माँ तेरी जय हो' गाया। और वहाँ उपस्थित सारे योगी जनों ने भी उनका साथ दिया। इसके बाद सूफी कव्वाली गायक 'साबरी भाईयों' ने कव्वाली गाई। रात के पौने बारह बजे श्री माताजी ने वहाँ से प्रस्थान किया और इस दिनभर के कार्यक्रमों की भी समाप्ती हुई। ३१ हा 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-34.txt Г परमात्मा आप सबको सुरखी रखे। मेरा पूर्ण आशीर्वाद आपके साथ है। मेरा हृदय, मुन, शरीर हर समय आप ही की सेवा में संलठ् है। वो एक पल भी आपसे दर नहीं। जब भी आप मुझे सिर्फ आँख बन्द करके याद कर लें उसी वक्त में पूर्णशक्ति लेकर के "शंख, चक्र, गदा, पद्म, गुरुड़ लई धाये एक क्षण भी विलम्ब नहीं ले कि न ल गं गI। आपको मेरा होना पड़ेगा। ये जरुरी हैं। अगर आप मेरे है तो एक क्षण भी मुझे नहीं लगेगा, मैं आपके पास आ जाउँगी। सबको परमात्मा सुखी रखे और सुबुद्धी दे। सम्मति से रहो । | सम्मति से रहो।.... मुंबई - २७ मई १९७६ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ e-mail : sale@nitl.co.in गूभ 2009_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-35.txt जैसे समुद्र पर तैरते हुए हर क्षण कोई समुद्र के प्यार से उछाला जाय, उसी प्रकार हरेक सहजयोगी को आनन्द, प्रेम, शान्ति का आनंद मिलते रहता है .... निर्मला योग