चैतन्य लहरी जुलाई-अगस्त २००९ १ ० ८ १ ्ु हिन्दी ा ... jagaddhitaya Krishnaya Govindaya Namo Namah || श्रीकृष्ण शक्ति पं्म लि कथ क श्री. कृष्ण शक्ति जागृत होती है तब आपका सम्बन्ध विराट से होता है। इसमें आपको समष्टि दृष्टि आती है। इसका अर्थ आप मेरी तरफ या मेरी फोटो की तरफ हाथ फैलाकर वैठोगे तो श्रीकृष्ण शक्ति जागृत होकर आप विराट से सम्बन्धित होते हैं और आपके हाथ में ये जो श्रीकृष्ण की विराट शक्ति सर्वत्र फैली हुई है, उससे चैतन्य जा सकता है। (हाथ में जा सकता है) जिस समय आपके हाथ से ये श्रीकृष्ण शक्ति बहने लगती है तब आपमें साक्षी भाव आता है। इसका मतलब आप सभी वातें किसी नाटक की तरह देखते हैं। असल में यह सब नाटक ही है। श्रीकृष्ण जी की उस समय की लीला या प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने उस समय जो कुछ किया वह सभी नाटक ही था। इतने सुन्दर ढंग से उन्होंने वह नाटक प्रस्तुत किया कि वेसम्पूर्णत: उसमें समरस होगये। श्रीकृष्णजी नेअनेकलीलाऐं की। वो पूर्णावतार थे। जब मनुष्य में पूर्णत्व आता है तब वह विश्व की ओर नाटक की तरह देखता है और वह सम्पूर्ण साक्षित्व में उतरता है। उस समय वह भ्रमित भी नहीं होता और दुःखी भी नहीं होता, न सुखी होता। वह आनन्द में समरस रहता है। यह श्रीकृष्ण शक्ति से होता है। २५/९/१९७९ ा डस अंक में गुरु पूजा - २ सद्गुरु तत्व - १० सत्ी - बेसन हलवा ३२ आजञा - २र ग्रहण - ३0 क পররে गुरु. पूत्रा एक शिक्षक की रूपांतर के लिए आपको सहतयोग का ज्ञान होना चाहिए। कबेला, २० जुलाई २००८, अनुवादित स भी सहजयोगियों के लिए आज एक महान दिन है। क्योंकि आपके भीतर सहस्रार खुला, आप सब परमात्मा के अस्तित्व को महसूस कर पाए। केवल यह कहना काफी नहीं था कि परमात्मा है तथा यह कहना कि परमात्मा नहीं है, ये गलत है, बहुत गलत है तथा इस प्रकार की बातें कहने वालों को कष्ट उठाने पड़े। केवल साक्षात्कार लेने पश्चात् ही आपको ज्ञान होता है (जान जाते हैं) कि परमात्मा है तथा चैतन्य लहरियाँ के हैं। संपूर्ण विश्व में यह एक बहुत बड़ी शुरुआत है। आज इसी कारण में आपसे कहती हूैं कि यह आपके लिए महानतम दिनों में से एक दिन है। आप में से बहुत से लोगों ने अपनी हाथों पर तथा मस्तिष्क में से शीतल लहरियों का अनुभव किया है। कुछ लोगों ने सहजयोग में प्रगति लोग अभी भी पीछे ही है । की है और कुछ कुछ लोग अभी तक अपनी पुरानी पकड़ों के साथ चल रहे हैं। किंतु अब मुझे कहना है कि आपमें से से लोग अर्थात शिक्षक बन सकते हैं। तथा आपको एक गुरू बहुत की भाँति आचरण करना होगा। एक शिक्षक की रूपान्तर के लिए आप को गुरु- सहजयोग का ज्ञान होना चाहिए। और उसका अनुभव भी पूर्णतया होना २ि चाहिए और उसके अनुसार बत्ताव भी करना चाहिए, इसके बाद आप महान गुरू बन सकते हैं। यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, एक गुरू के लिए बहुत समझदारी भी। सर्वप्रथम आपमें कोई अहंकार नहीं होना चाहिए । आपके किसी भी चक्र में कोई पकड़ नहीं होनी चाहिए। आपको हर समय पूर्ण रूप से स्वच्छ बने रहना होगा। तथा आपके दोनो हाथों से चैतन्य लहरियाँ बहती रहनी चाहिए। यदि लहरियाँ एक हाथ से आ रही हो तथा दूसरे हाथ से नहीं तो आप एक गुरू नहीं बन सकते । अतः आपको एक परिपूर्ण सहजयोगी बनना होगा, केवल तभी आप एक गुरू बन सकते हैं। और आपमें से कई लोग बन सकते हैं पर आपको पहले पता लगाना होगा, क्या आप गुरू बनने के लायक हैं अथवा नहीं? विनम्रता से आप समझ जाएंगे। जो यह सोचते हैं कि वे गुरू बन सकते हैं, उन्हें गुरू बनना चाहिए, क्योंकि अब मैं एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा नहीं कर सकती और आपको मेरा कार्य करना होगा, जो कि लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्रदान करना है। किंतु उसके लिए आपको सामूहिक रूप से आत्मसाक्षात्कार प्रदान करने में समर्थ होना होगा, केवल तभी आप गुरू बन सकते हैं। यदि आप सामूहिक रूप से आत्मसाक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं तभी आप एक गुरू बन सकते हैं। आप मेरी फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं, किंतु साक्षात्कार फोटो से नहीं बल्की आपसे होना चाहिए। केवल तभी आप गुरू बन सकते हैं। वे महिला हों अथवा पुरूष, दोनो ही गुरू बन सकते हैं और हर जगह 3 सहजयोग को फैला सकते हैं । मेरे संपूर्ण यात्रा कार्यक्रम में कनाड़ा छूट गया तथा मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि आपमें से कुछ लोग कनाड़ा जाएं क्योंकि यह एक बेहद खूबसूरत जगह है तथा वहाँ पर बहुत सुन्दर सहजयोगी जन हैं। आप लोगों को अब मेरा कार्य करना है। में हर जगह नहीं जा पाऊँगी किंतु आपको दूसरे देशों में जाना होगा तथा नए सहजयोगी बनाने होंगे। आप यह कर सकते हैं । आरंभ में आप मेरी फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं, किंतु बाद में नहीं। आपको केवल फोटोग्राफ को वहाँ रखना हैं। आप | अपनी शक्तियों का प्रयोग करें तथा आत्मसाक्षात्कार प्रदान करें। आप यह कर सकते हैं तथा इस प्रकार हम सहजयोग को पूरे विश्व में फैला सकते हैं। अब तक मैंने इस कार्य में कोई कसर नहीं छोड़ी, किंतु मुझे नहीं लगता कि अब मैं और अधिक यात्रा कर पाऊँगी। अत: मैं आप से कह रही हैूँ कि आपको इसकी जिम्मेदारी ले लेनी चाहिए और ये कार्य करना चाहिए। (आप अवश्य इसे कर सकते हैं।) इसका अर्थ यह नहीं कि आप मुझे हटा दें- नहीं, कदापि नहीं । मैं आपके साथ हूँ। तथा जहाँ भी आप कार्य करें, वहाँ आप मेरी फोटोग्राफ को स्थापित करें। किंतु आत्मसाक्षात्कार आपको ही प्रदान करना होगा तथा सामूहिक साक्षात्कार प्रदान करने का प्रयास करें। अगर ये इस तरह से कार्यान्वित नहीं हो रहा है तो जान लें कि आप गुरू नहीं है। यदि आप सामूहिक आत्मसाक्षात्कार दे सकते हैं, केवल तभी आप गुरू हैं अन्यथा आप नहीं । है मैंने कहा कि आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं, किंतु लोगों को साक्षात्कार आपको ही देना होगा। यह एक गुरू होने का लक्षण है। तब आपको ज्ञात होगा कि कौन से भिन्न केन्द्र हैं तथा लोगों में क्या कमियाँ हैं । मैंने बहुत स्पष्ट रूप से बता दिया है । इसी प्रकार, आप पाएंगे कि जो साक्षात्कार के लिए आते हैं, उनमें कुछ दोष हैं तथा उनमें कौन से चक्र पकड़े हैं। उन चक्रों को 6. शुद्ध करना आपको आता है, अत: आप उन्हें बताएं कि कैसे शुद्ध करना है। अब आप सहजयोग में पारंगत हो गए हैं, इसलिए अब आपको पता होना चाहिए कि क्या (युक्ति) करना है। यदि आप सोचते हैं कि आप पारंगत हो गए हैं, यदि आपको विश्वास है कि आप पारंगत हो गए हैं, तो फिर आप गुरू बन सकते हैं। किंतु सर्वप्रथम आप पता लगाएं तथा स्वयं जाँचे कि क्या आप एक गुरू हैं अथवा नहीं। आपकी यह जिम्मेदारी है कि में | अब आप लोगों को साक्षात्कार प्रदान करें और आप प्रदान कर सकते हैं अगर आपमें लहरियाँ हैं, जैसी एक गुरू होनी चाहिए। अथवा ये महिलायें भी कर सकती है, उन्हें गुरूई कहते हैं, न कि गुरू, अपितु गुरूई । किंतु उन्हें भी गुरू कहा जा सकता है तथा वे भी इस कार्य को बहुत अच्छे ढंग से कर सकती है। फिर लोगों की समस्याओं को दूर करना कोई कठिन कार्य नहीं रहेगा। यह एक बहुत बड़ी शक्ति है जो आपने प्राप्त की है। आप सब को इसे इस्तेमाल करना चाहिए। | सहजयोग किस प्रकार बढ़ेगा सबसे पहले, यदि आप चाहें तो एक समूह का प्रयोग कर सकते हैं तथा बाद में आप इसे व्यक्तिगत रूप से करें। क्या आप अनुमान लगा सकते हैं, आप सभी कि आप गुरू बन जाएं तो संपूर्ण विश्व में कितने सहजयोगी हो जाएंगे? जो कुछ भी आप सिखाएं, आप अवश्य आचरण में लाएं। जो व्यक्ति शराब पीता हो वह कभी भी एक गुरू नहीं बन सकता। जो व्यक्ति इश्कबाज़ है तथा जिसका जीवन लम्पटपूर्ण है वह कभी भी एक गुरू नहीं बन सकता। अत: पहले से स्वयं को परखें, क्या आप शुद्ध हैं या नहीं? यदि बहुत बाधित लोग गुरू बनने का प्रयत्न करें, वे कभी भी नहीं बन सकते। ईमानदारी से फोटोग्राफ के सम्मुख जो कुछ भी आप सिवाएं बाए आप अवश्य आचरण के लाएं। जाँचे 4 कि 'आप बाधित हैं, फिर आप एक गुरू नहीं हो सकते।' अतः अब गुरू बनने के लिए पहले स्वयं की आलोचना करें, स्वयं को पूर्ण रूप से जानें फिर आप एक गुरू बन सकते हैं। में किसी को व्यक्तिगत रूप से नहीं बताना चाहती हूँ, किंतु आप सभी पता लगा | सकते हैं। मान लें, चार-पाँच लोग आपस में मिलें तथा वे एक दूसरे से पता लगाएं कि क्या वे ठीक हैं या नहीं, क्या कोई कमी है, क्या वे पकड़े हुए हैं। किंतु यदि वे कह दें कि आप ठीक हैं, फिर आप गुरू बन सकते हैं तथा आप सहजयोग का प्रचार कर सकते हैं । यह आपकी जिम्मेदारी है। इस प्रकार सहजयोग बढ़ेगा। अन्यथा, मेरे अलग हो जाने के बाद अथवा मेरा कहीं न जाना, इस कारण से सहजयोग व्यर्थ हो जाएगा। अत: यह आप पर है कि आप मशाल, प्रकाश को थामें। अब यह आपकी जिम्मेदारी है। आपने अपने साक्षात्कार को प्राप्त कर लिया है। मैंने जिम्मेदारी के साथ जन्म लिया था। मैंने पूर्ण समझ के साथ अहंकारी जन्म लिया था। तथा इस समय आपको स्वयं को समझना होगा। जब तक कि आप स्वयं का साक्षात्कार प्रारंभ नहीं कर लेते, तब तक स्वयं को मत कोसें। परंतु सतर्क रहें। अहंकारी मत बनें। आपको बहत ही विनम्र होना होगा, सब के साथ बहुत विनम्र। तथा इसे कार्यान्वित करें, क्योंकि यदि वे साक्षात्कारी आत्माएं नहीं हैं, आप उन्हें निकम्मा नहीं ठहराएं अपितु धैर्यपूर्वक तथा मधुरता से उन्हें कहें कि 'आप ठीक नहीं हैं।' उन्हें बताएं कि किस प्रकार ध्यान करें, कैसे सुधार लाएं। यह इस समय एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। वास्तव में, मैंने यह कार्य किया है तथा आप भी इस कार्य को कर सकते हैं। বत बनें। आपको बहुत ही विन् अतः आप सबको गुरू बनना होगा। यह गुरूपूर्णिमा का दिन है तथा मैं आपको आशीष देती हूँ कि आप सभी गुरू बन जाएं। जो भी आपने अब प्राप्त किया है, इसे बर्बाद मत होने दें, इसे गँवा न दें, अपितु इसे लोगों की भलाई के लिए इस्तेमाल करें। यदि आप चाहें, शुरू में, चार-पाँच लोग इकठ्ठा हो जाएं, फिर आप अलग हो जाएं। आपको इसके लिए समय देना होगा। आपने अपना साक्षात्कार प्राप्त किया है, किंतु आपको साक्षात्कार देना होगा अन्यथा आपकी स्थिति ठीक नहीं है, सामान्य नहीं है। होना होगा, अत: आज मैं आपसे कहना चाहती हैँ कि एक गुरू के लिए कौन से गुणों की आवश्यकता है। सर्वप्रथम, उसे एक निर्लिप्त व्यक्ति होना पड़ेगा। इसका अर्थ ये नहीं कि आप अपना परिवार या कोई चीज़ छोड दें, किंतु आपमें एक निर्लिप्त मनोवृत्ति होनी चाहिए, कि आपके परिवार में कोई गलत काम करे तो आप उससे दूर हो जाएं। सब के साथ खुशियाँ फैलाने के लिए :- दूसरी बात, अपने साक्षात्कार के माध्यम से आप समझ सकते हैं कि आप खुशियाँ फैला सकते हैं तथा उनकी समस्याएं सुलझा सकते हैं। जो भी कुछ मैंने किया है वह आपने देखा है-आप यह कर सकते हैं। आपके पास यह करने की शक्ति है, लेकिन आपको जरा भी पाखण्ड नहीं, कोई पाखण्डी नहीं होना बहुत विनग्र। चाहिए, अन्यथा आप सहजयोग का नाम खराब कर देंगे। अत: यदि आप स्वयं के बारे में आश्वस्त हैं, तभी आप गुरू बने तथा सहजयोग का कार्य करें। मैं मानती हूँ मैं आपको अपना सम्पूर्ण आशीष प्रदान करती हूँ तथा मेरा पूरा समर्थन कि आप जिम्मा लें और गुरू बनें। आप सभी पूजाएं भी करवा सकते हैं फिर आप फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं। आपने यह समझा है कि इसे किस प्रकार कार्यान्वित करना है। तथा यदि किसी व्यक्ति में दोष हैं अथवा चक्र पकड़े हैं तो आप उस व्यक्ति को बताएं कि कैसे इसे ठीक करें-फोटोग्राफ के सम्मुख सबसे अच्छा रहेगा | कुछ तथा बहुत विनम्रता से आप उन्हें बताएं कि क्या करना है। तथा आप सभी लोगों को बचा सकते हैं। अतः मैं अब उपलब्ध नहीं हूँ - मेरे हिसाब से मैंने भरपूर कार्य किया है तथा मैं सोचती हूँ कि मैं इसे पुन: नहीं कर सकती। मेरी वृद्ध आयु की वजह से नहीं , परंतु मैं आपको सहजयोग अंत: 5 फैलाने की एक संपूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करना चाहती हूँ। आपने इसे नि:शुल्क प्राप्त किया है तथा आपको भी लोगों को इसे नि:शुल्क प्रदान करना होगा, उनसे पैसा नहीं लेना है, या केवल पूजाओं के दिन ही ले सकते हैं। सतर्क रहें कि जब तक आपकी पुष्टि न हो जाएं तथा आप विश्वस्त न हो जाए कि आपने कम से कम सौ सहजयोगी, अच्छे सहजयोगी बना लिए है, फिर वे आपकी पूजा भी कर सकते हैं। किंतु सबसे अच्छा होगा कि आप प्रतीक्षा करें तथा देखें। जब तक कि आपमें से हर एक ने एक हजार लोग न तैयार कर लिए हों तब तक आप पूजा के चक्कर में न पड़ें। इसके बाद आपको पूजा का अधिकार है। किंतु जब तक आप पूर्णरूप से ठीक नहीं हो जाते आप मेरे फोटोग्राफ के द्वारा पूजा कर सकते हैं। आत्मविश्वास प्राप्त करना ही अब मुख्य बात है। स्वयं को दोष मत दें आप सभी साक्षात्कारी आत्माएं हैं , किंतु जिन्हें लगता है कि वे गुरू बन सकते हैं-वे बन सकते हैं तथा कोशिश करें। आपको साधकों के साथ धीरज से काम लेना होगा। आप क्रोधी एवं गुस्सैल नहीं हो सकते। जब तक वे आपको परेशान नहीं करते, आप अपना आपा न खोएं। आप शांत बने रहें। अधिकतर गुरू गुस्सैल हैं या पूर्व में रहे हैं तथा इसी कारण मैं सोचती हूँ कि वे अपने क्रोध में व्यस्त रहे तथा कोई अच्छी चीज़ नहीं दे पाए। वे कभी भी साक्षात्कार नहीं दे पाए । अतः मुझे आपको सावधान करना है: अपने क्रोध को नियंत्रित करें। स्वयं को देखें क्या आप क्रोधित होते हैं, फिर आप एक गुरु नहीं बन सकते। गुरू को एक प्रेममय व्यक्ति होना चाहिए, बहुत प्रेममय एवं समझदार । फिर आपको विनम्र होना होगा; न लोगों को अपशब्द कहें , न उन पर चिल्लाएं। यदि वे दुर्व्यवहार करें, आप उन्हें बाहर जाने के लिए कह सकते हैं, लेकिन चिल्लाएं नहीं । यदि आपको लगता है कि कोई व्यक्ति दुर्व्यवहार कर रहा है, आप उस व्यक्ति को बाहर जाने के लिए कह दें। लेकिन आपको उस व्यक्ति पर चिल्लाने अथवा गुस्सा करने की कोई जरूरत नहीं है । अतः अब यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। आपने अपना साक्षात्कार प्राप्त किया है , इसलिए लोगों को साक्षात्कार देने के लिए आप चार या पाँच लोग मिलकर एक सहजयोग टोली बनाएं, कोशिश करें । नि:संदेह, मेरा फोटोग्राफ वहाँ होगा लेकिन फिर भी आप अवश्य प्रयास करें। समझने का प्रयत्न करें कि अब आपकी जिम्मेदारी क्या है। यदि एक एक पद दिया गया है तो आपको सदैव उस पद की जिम्मेदारी का वहन करना होता है। ठीक इसी प्रकार यदि आप गुरू बनते हैं तो आपके पास जिम्मेदारी की एक निश्चित मात्रा होती है कि शुरू में आपका खुद का आचरण बहुत अच्छा हो। शुरुआत में आप उनसे नहीं कह सकते कि 'चर्च मत जाओ' या 'यह मत करो, वह मत करो।' आप उन्हें साक्षात्कार दें तथा फिर आप उनसे बात कर सकते हैं। शुरुआत में, आप उन्हें नहीं बताएं अन्यथा वे आपको टालने लगेंगे। उन्हें उसी रूप में स्वीकार कर लें जैसे वह हैं। शुरूआत में, यदि सम्भव हो तो आप लोगों को रोगमुक्त भी नहीं करें। प्रारम्भ करते हुए आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं किन्तु उन्हें रोगमुक्त न करें। बाद में, जब आप आश्वस्त हों, तो चार-पाँच लोग मिलकर उस व्यक्ति का उपचार करें । रोगमुक्ति बहुत आसान नहीं है तथा आप पकड़े जा सकते हैं, अत: किसी पर कार्य करने से पहले आप बन्धन अवश्य लें। बन्धन बहत अच्छा है। आपको यहाँ तक कि, बाहर जाने से पहले भी बन्धन लेना चाहिए। यदि संभव हो सके तो आप एक अच्छा भाषण भी तैयार करें। अब आपको बहुत सारी बातें मालूम हैं तथा आप उनसे बात कर सकते है। यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। ...आप क्रोधित होते हैं, फिर आप एक गुरू नही बज सकते। गुरू को एक प्रेममय व्यॉक होना चाहिए. बहुत प्रेगगय एवं समझदार! शक्ति तथा प्राधिकार अब मैं वर्ष १९७० से कार्य कर रही हूँ तथा आज बहुत 6. कड ह ३ বি म वर्षों तक मैंने बहुत कठिन परिश्रम किया है, किंतु, अब मैं यह नहीं कर सकती। मुझे वापस लौटकर थोडा विश्राम करना है;B जैसा सबने कहा है तथा आप भी मानेंगे। किंतु, यदि यह जरुरी हो तो, आप मेरे बारे में बता सकते हैं। किंतु मेरे फोटोग्राफ का उपयोग करें। वे जिन्हे लगता है कि वे अगुआ हो सकते हैं तथा गुरू के जैसे हो सकते हैं, उन्हें सबसे पहले अपनी चैतन्य लहरियाँ देखनी चाहिए। मेरे फोटोग्राफ पर ध्यान करें तथा पता लगाएं। आपको पूर्ण रूप से ईमानदार होना होगा कि आप शत प्रतिशत ठीक हैं तथा कोई पकड़ नहीं है फिर आप एक गुरू बन सकते हैं। आपको होना होगा। पहले हो सकता है आपको दो लोग मिलें, फिर तीन। मैंने पाँच लोगों से शुरुआत की थी। अत:, आप अनुमान लगा सकते हैं कि व्यक्ति को इसके साथ कैसे चलना है। सबसे पहले दो, तीन, पाँच तथा अधिक से कोशिश करं। इसके बाद आप विज्ञापन भी कर सकते हैं। यदि आपने दस लोगों को साक्षात्कार प्रदान कर दिया है तो आप अपना संगठन या जो भी आप इसे कहना चाहें, भी शुरू कर सकते हैं। तथा इसे कार्यान्वित कर सकते हैं। अब आपके पास शक्ति है, आपके पास अधिकार है, किंतु आपमें एक तबियत भी होनी चाहिए। आरंभ में, आपको बहुत धैर्यवान एवं दयालु-बहुत दयालु होना पड़ेगा। फिर धीरे-धीरे आपको मालूम होगा कि आप लोगों को रोगमुक्त भी कर सकते हैं। प्रारंभ करते हुए आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं तथा बाद में आप देखेंगे कि आप रोगमुक्त कर सकते हैं। सबसे पहले चैतन्य लहरियों पर, आप पाएंगे कि कौन से चक्र पकड़े हैं, कौन से ठीक हैं, कौन से खराब हैं। इसके बाद उन्हें ठीक करें। यदि कुछ गलत है तो आप इसे अवश्य ठीक करें इसके बाद गुरु बनें। यह मान लेने से कि 'मैं गुरू हूँ' आप गुरू नहीं बन जाते, किंतु आपका स्वयं पर बहुत, बहुत अधिकार होना चाहिए। आपको स्वयं को जाँचना होगा। सबसे पहले, आप जाँचे कि, क्या आप गुरू बन सकते हैं? फिर आप मुझे अपनी रिपोर्ट भेजें। मुझे जानने में बहुत खुशी होगी कि आपमें से कितने लोग अब हो गए हैं। तथा इसी प्रकार सहजयोग बढ़ेगा, नि:स्संदेह! यह इस चरण में नहीं रूक सकता क्योंकि में एक ओर हट रही हूँ; किंतु इसलिए कि अब आप बहुत सारे सहजयोगी हैं। यह बढ़ेगा और कार्यान्वित होगा। किंतु मैं सोचती हूँ कि, अब मैं यात्रा नहीं कर सकती तथा मैं वापस जा रही हूँ। मैं पुन: वापस आने में समर्थ नहीं हूँ-संभव नहीं है। इसलिए अच्छा होगा कि, आप स्वयं ही इसे कार्यान्वित करें। आप मुझे अवश्य लिखें यदि कोई कठिनाईयाँ हों, यदि कोई व्यक्ति पकड़ा हो अथवा कुछ बात हो या आपमें कोई समस्या हों। मुझे नहीं लगता कि अब कोई समाचार पत्र आपकी आलोचना करेगा। वे यह मेरे लिए कर चुके हैं, किंतु आपके लिए नहीं । आप सभी मुझे वचन दें कि, आप गुरु बनने का प्रयत्न करेंगे । मैंने आपसे कोई पैसा नहीं लिया, आपसे कुछ नहीं लिया। मैं केवल यह चाहती हूँ कि, आप सहजयोग का प्रचार करें । शुरू में, पूजाओं में भी कोई उपहार अथवा धन न लें। आप उनसे केवल थोड़े पैसे ले सकते हैं यदि आपको एक हॉल अथवा बड़े स्थान की आवश्यकता हो। लेकिन वह काफी बाद में। सबसे पहले, लोगों से शुरू करें। यह बहुत अच्छे ढंग से बढ़ेगा। थोडे अब एक अन्य चीज़ है पूजा। शुरू में आप उन्हें स्वयं की पूजा करने की अनुमति न दें। जब तक कि आपने तीन सौ सहजयोगी न बना लिए हों, आप उन्हें स्वयं की पूजा करने के लिए नहीं कह सकते। शुरू में आप पूजा के लिए मेरे फोटोग्राफ का उपयोग करें, किंतु बहुत सावधान रहें। अब आपके पास शक्तियाँ हैं तथा यह आपके अहंकार को बढ़ा सकती है। हो सकता है आप सोचना शुरू कर दें कि आप महान हैं - बिलकुल नहीं। आपने संसार की रक्षा करनी है। मेरा सारा कार्य वही है। तथा मैं आपसे कहूँगी कि आप मुझे भारत में पत्र लिखें यदि कोई समस्या हो तो। यह भी लिखें कि आप किस प्रकार सहजयोग का प्रचार कर रहे हैं, क्या हो रहा है। मैं जानना चाहूँगी। किंतु मैं सोचती हूँ कि आप समझेंगे कि अब मुझे निवृत्त हो जाना चाहिए। मैं यात्रा नहीं कर सकती। यदि आपका कोई प्रश्न हो, मुझे पूछे। जो विश्वस्त हैं कि वे गुरू बन सकते हैं। अपना हाथ उठाएं। ओह! इतने सारे। और केवल एक हाथ., दो भी नहीं। यदि कोई व्यक्ति पैसा बना रहा है, आप उसे ऐसा करने के लिए मना करें तथा मुझे भी लिखें। प्रारंभ में आप धनार्जन नहीं कर सकते। किंतु जब आपके पास लगभग तीन हजार लोग हों, आप सभी पूजा दिनों को मना सकते हैं तथा पूजा कर सकते हैं। किंतु आपमें से प्रत्येक कम से कम तीन हजार शिष्य आपने संसार अवश्य बनाए। फिर आप पूजा के लिए कह सकते हैं। ऐसे कुछ लोग हैं जो कभी भी गुरू नहीं बन सकते। जो पकड़े हुए हैं तथा जिनमें समस्याएं हैं। यदि की रक्षा करी है। नेरा सारा कार्यवही है। ট भाभ ा ८ आपमें समस्याएं हों तो गुरू न बने अन्यथा यह आपको प्रभावित करेगा । किंतु यदि आप सोचते हैं कि आप निर्मल हैं तथा खुले हुए हैं, फिर आप गुरू बन सकते है। क्या कोई प्रश्न है? मैं अंतर्राष्ट्रीय सहजयोग के लिए एक केन्द्र खोल रही हूँ तथा जब आपने तीन सौ सहजयोगी बना लिए हों, आप उनसे पूजा करने के लिए कह सकते हैं तथा धन ले सकते हैं। उससे पहले, यदि आप कुछ धन प्राप्त करें तो इसे उस केन्द्र पर भेज दें। उस केन्द्र में लगभग ग्यारह सदस्य होंगे तथा मैं यह घोषित करूंगी। यदि आपका कोई प्रश्न है तो अभी मुझसे पूछे । पहले तीन सौ लोगों से आप कोई पैसा न लें। हॉल के सिवाय, लाऊडस्पीकर के सिवाय अथवा अन्य खर्चों के सिवाय । किंतु आप स्वयं के लिए कोई पैसा न लें। क्या अब आप दुबारा हाथ खड़े कर सकते हैं, कितने लोग गुरू होना चाहते हैं? परमात्मा आपको धन्य करें! ८ सद्गुरु तत्व मुंबई, २५ सितम्बर १९७९ नीई ० हॉ ***** हि क ० आ प में से जो लोग पहले सहजयोग के तीन लेक्चर्स से आए हैं, उनके लिए ज्यादा आसान होगा समझने के लिए क्योंकि गुरू का स्थान हमारे अन्दर काफी ऊँची जगह है। गुरू का स्थान हमारे अन्दर स्थित है। कोई उसमें नई चीज़ करने की नहीं है। परमात्मा ने हमारा ये जो साधन बनाया हुआ है, ये इन्स्ट्रमेन्ट है। इसको बहुत सुन्दरता से बनाया है। इसके एक-एक चक्र जो की हमारे लिए अटृश्य ही है लेकिन अन्दर स्थित है। और जिसमें ये दृश्य जगत हमें जान पड़ता है, वहुत सुन्दरता से रचे हैं। किंतु मनुष्य अति में रहता है, हमेशा अति में जाने की वजह से उसने अपने इस साधन को बिगाड़ लिया है। उसी प्रकार गुरू का जो स्थान है उसे भी मनुष्य ने पूरी तरह से बिगाड़ लिया है। अब गुरू का स्थान हमारे अन्दर इस पूरी जगह या प्रांत में है, इस पूरे देश में गुरू का स्थान है। पेट के अन्दर चारों तरफ नाभि चक्र से जुड़ा हुआ। नाभि चक्र पर मैंने एक दिन पहले बात की थी। इसमें मैंने विष्णु की शक्ति का वर्णन किया था। और विष्णु की शक्ति के ही कारण आज आप अमीबा से इन्सान बने हैं। और इसी शक्ति के कारण आप इन्सान से अतिमानव वनने वाले हैं। अब ये जो गुरू की शक्ति हमारे अन्दर परमात्मा ने पहले से ही स्थित की हुई है, इसके लिए अनेक गुरूओं के अपने अन्दर अवतरण हुये है। अब पहले हम लोग देखें कि गुरूतत्व बना कैसे? इसको समझना चाहिए कि, गुरुतत्व अनादि है और वो कैसे बनाया गया? हमारे अन्दर तीन शक्तियाँ अट्ृश्य रूप से काय्यान्वित रहती हैं। प्रथम शक्ति जो है उसको हम कहते हैं महाकाली की शक्ति। आप कहिए कि आपके अस्तित्व की शक्ति, जिससे आपमें अस्तित्व है, इस सृष्टि में अस्तित्व है, इस संसार में अस्तित्व है, वो शक्ति श्री महाकाली की है, जो हमारे अन्दर 'इड़ा' नाड़ी से चलती रहती है। इस नाड़ी का स्थान हमारे बाईं ओर, जिसे कहना चाहिए कि लेफ्ट साइड में रहता है और लेफ्ट साइड की ईड़ा नाड़ी लेफ्ट साइड सिम्पथैटिक नव्वस सिस्टम को चालित रखती है। इसलिए लेफ्ट साइड की जो हमारी ईड़ा नाड़ी है वो हमें इच्छा देती है। इच्छा करने से ही मनुष्य कार्यान्वित होता है। और इसलिए दूसरी जो राइट साइड की जो पिंगला नाड़ी है वो हमें क्रियाशक्ति देती है। इसको हम महासरस्वती की शक्ति कहते हैं। तो हमारे पास एक तो महाकाली की शक्ति है और दूसरी हमारे पास महासरस्वती की शक्ति है। क्योंकि हम इनके नाम अंग्रजी में नहीं कह सकते इसलिए बहुत से लोग सोचते हैं कि ये बड़ा ही अनसाइंटिफिक मामला है। लेकिन इससे बड़ा साइन्स और कोई भी नहीं हो सकता क्योंकि जो चीज़ आपने देखी ही नहीं, जो आपके लिए अलग है, जो परोक्ष में है, जिसे आपने जाना नहीं, जो ऊपर में हैं, उसे आपने देखा लेकिन उसके पीछे की शक्ति को ही आपने नहीं जाना है। तो उसके बारे में बात करने से भी आप विश्वास नहीं कर सकते। लेकिन सहजयोग में जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और जब कुण्डलिनी ऊपर की ओर उठने लगती है तव आप देख सकते हैं कि ये दोनों नाड़ियों (इड़ा और पिंगला) के असन्तुलन आदि अनेक दोषों के कारण कुण्डलिनी किस तरह से रुक जाती है फिर किस तरह से उसे सन्तुलन देना पड़ता है। ये दोनों शक्तियाँ एक और तीसरी शक्ति से प्लावित है, जो कि महत्वपूर्ण है और जो कि हमारी कमाई है। विष्णु की शक्ति के ही १ १ काटण आन | आप अमीबा से इब्सान बने है । आज हमारी मानव चेतना जिस तरह से है, ये हमारी तीसरी शक्ति का द्योतक है। ये महालक्ष्मी की शक्ति है। इस शक्ति से आज हम अमीबा से इन्सान बने । अगर मनुष्य अमीबा रह जाता तो क्या हर्ज था? कौनसी ऐसी आफत आयी हुई थी कि, इतनी योनियों में से गुज़र के आज मनुष्य का सुन्दर स्वरूप परमात्मा ने निर्माण किया। क्या कभी आप सोचते हैं कि क्यों परमात्मा ने हमें मनुष्य ए 11 बनाया। क्या विशेषता हमारे अन्दर हैं? जिसकी कि अभी तक हमें गन्ध ही नहीं। और हम जानते भी नहीं है। उसकी हमें खबर भी नहीं है कि हम किसलिए संसार में आएं हैं? ये साधन जो विशेष तरह का एक मानव वनाया गया है वो किसलिए बनाया गया है? इस मानव को पहले समझ लेना चाहिए कि, ये महालक्ष्मी शक्ति से हमारे अन्दर आज इस स्थिति में पहुँचा है जहाँ मानव चेतना पहुँची है। विस्तारपूर्वक मैंने एक दिन पहले बताया था इसलिए इन तीनों शक्तियों के बारे में मैं अभी चर्चा नहीं करूंगी। लेकिन ये तीनों शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं और इन तीनों शक्तियों का समन्वय जहाँ होता है, ये तीनों शक्तियाँ जव एकत्रित हो जाती हैं और इन तीनों शक्तियों का जब विल्कुल बाल्य स्वरूप पैदा हो जाता है कि जो किसी भी चीज़ से खराब नहीं हो सकता। जिसके अन्दर किसी भी तरह की त्रुटियाँ नहीं आ सकती, जिसके अन्दर किसी तरह का अहंकार नहीं आ सकता, जो बिल्कुल हमेशा नई रहती है, ये तत्व गुरूतत्व है। बालक के अन्दर अहंकार नहीं होता। बालक के अन्दर किसी चीज़ से लगाव नहीं होता, वो पूरी तरह से निर्लि्त रहता है। अब देखिए, छोटे बच्चे खेलते हैं। खूब नाटक बनाते है। क्या-क्या चीजें बनाते हैं। उसके बाद उसको लात मारकर चले जाते हैं। या ज़्यादा देर खेलें, उसके बाद कुछ नाटक किया, उसके बाद सब खत्म हुआ। उनके लिए सभी कुछ नाटक रहता है और वे त्रयस्थ के जैसी बातें करते हैं। जैसे कि किसी छोटे बच्चे से कहो कि 'बेटे १ तुम घर जाओ।' तो कहेगा कि, 'माँ, ये जो मुन्ना है ना वो जाएगा नहीं।' माने वो कोई और है और ये मुन्ना कोई और है। हमेशा त्रयस्थ जैसी बात करते हैं। लेकिन जब मनुष्य बड़ा हो जाता है, धीरे-धीरे उसके अन्दर दो ग्रंथियाँ और दो विशेष तरह की संस्थाएं तैयार होती हैं। जिसको कि हम अंग्रेजी में 'इगो' और 'सुपर इगो' कहते हैं। ये हमारे अन्दर जो इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति है इसके उपयोग से होती है। अगर मनुष्य बहुत ज़्यादा इच्छाशक्ति से भरा हुआ हो और पूरी समय इच्छाएं करता रहे तो उसके अन्दर सुपर इगो नाम की शक्ति तैयार हो जाती है या ये कहना चाहिए कि एक संस्था तैयार हो जाती है। वो संस्था हमारे सर के अन्दर इधर से घूम करके इस तरफ में छा जाती है, जिस तरह से यहाँ दिखाया गया। दूसरी संस्था हमारे अन्दर क्रियाशक्ति से पैदा होती है। जिसे हम लोग अहंकार कहते हैं। और अंग्रेजी में 'इगो' कहते हैं। ये संस्था हर इन्सान में जो इन्सान कौनसा भी कार्य करता है, उसके अन्दर ये पैदा हो जाती है। इस संस्था का मतलब ये है कि मनुष्य सोचता है कि 'मैंने ये काम किया', 'मैंने मकान बनाया', 'मैंने ये घर बनाया| इस चीज़ के प्रति मनुष्य एक तरह का कर्तापन आता है, इस कर्तापन से ही ये अहंकार की संस्था तैयार हो जाती है। ये दोनों संस्थाएं जाकर के जब सिर के मध्य में, यहाँ फॉन्टिनल वोन की एरिया में जाकर के एक के ऊपर एक जम जाते हैं तब यहाँ 'कैल्सीफिकेशन' हो जाता है। और हमारी ये तालू बचपन में, 3-४ 6- में १ १ गुरुतत्व, जो हैं, १ साल की उमर में पूरी तरह से भर जाती है। तब इसका पूरापन असल में हम भाषा अपने बच्चे से बोलने लग जाते हैं और भाषा पर प्रभुत्व पा लेते हैं, तब अच्छे से जम जाता है। उसके भी वो ये इन अनेक कारण है। पर आज हम गुरूतत्व की बात कर रहे हैं। तीन शक्तियाँ अब गुरू तत्व जो है, वो ये इन तीन शक्तियाँ श्री महाकाली, श्री महासरस्वती और श्री महालक्ष्मी इन तीन शक्तियों का समन्वय है। और ये एकदम नूतन स्वरूप हमारे अन्दर श्री महाकाली, परमात्मा ने समाये हैं। आप सब तो जानते ही है कि दत्तात्रेय का जन्म किस तरह से हुआ। उसके बारे में फिर से मुझे बताने का नहीं है । लेकिन ये बात विल्कुल सही है कि जिस तरह से ये तीनों शक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु व महेश जब पावित्र्य के सामने जाकर खड़े हो गये, तो उस पावित्र्य ने उनको वो नूतनता, वो उनका भोलापन दिया, वो भोलापन से भरी हुई तीनों शक्तियाँ जो है वो एक दत्तात्रेय जी के अन्दर समाई हुई है। और वो हमारे पेट में बहना चाहिए, जिसे हम भवसागर कहते हैं, उसमें समाई हुई है। विराट के अन्दर जो भवसागर है उसके अन्दर ये शक्ति समाई हुई है। और ये अनेक बार जन्म लेती है। जैसे आदिकाल से देखा जाए तो श्री आदिनाथ ये भी इसी शक्ति के अवतार थे। एक ही शक्ति है जो अनेक बार जन्म लेती है। आदिनाथजी जो कि अभी भी जैन लोग वगैरा उनकी प्रार्थना करते हैं और उनको मानते हैं। लेकिन वो जानते नहीं कि ये शक्ति का अर्थ क्या है? | श्री महासरस्वती औट श्री महालक्ष्मी १ इन तीन शक्तियों का समन्वय है। 12 सवसे पहली चीज़ शक्ति में ये है कि शक्ति में कोई धर्मांधता नहीं है। सन्यासी की कोई जात नहीं होती। उसका कोई वर्ण नहीं होता है। सन्यासी का मतलब होता है कि वो सभी जाति, सभी धर्म, सबको मानता है। अगर कोई भी गुरू अपने को किसी एक विशेष धर्म का अभिनेता समझें तो समझ लेना चाहिए कि वो गुरू नहीं। गुरुतत्व की पहली शक्ति ये है कि उसके अन्दर सर्व धर्मों का जो निचोड है, जो essence है, उसकी जो नूतनता है, उसका जो भोलापन है वो उसके अन्दर भरा होना चाहिए। कोई भी अपने को किसी धर्मगुरू के नाम से सामने आता है, तो समझ लेना चाहिए कि ये एक झूठा आदमी है और उसके पीछे का जो धर्म है वो भी महाझूठा है। इसका आपको उदाहरण बता सकते हैं, जो सहजयोग में आप आसानी से समझ सकते हैं। १ १ मनुष्य एक महाशय हैं, हमसे मिलने आएं थे, जब हम लंडन में थे। कहने लगे, 'माँ, पेट का कैन्सर है, ठीक कर दीजिए।' वो मुसलमान है, इरान के रहने वाले, डॉक्टर है। मैंने उससे पूछा कि, 'तुम्हारा किस पर विश्वास हैं?' तो कहने लगे, 'मोहम्मद साहब पर।' मैंने कहा कि 'क्या सिर्फ मोहम्मद साहब पर है?' कहने लगे, 'हाँ!' 'किसी और पर नहीं? 'और किसी पे नहीं। तो मैंने कहा कि, 'मैं तुम्हारे पेट का कैन्सर नहीं ठीक कर सकती। मुझे माफ कर दो।' क्योंकि पेट का कैन्सर इस तरह की धर्मान्धता से होता है, कि एक मोहम्मद साहब मात्र है। मोहम्मद साहव हैं ये भी दत्तात्रेय के ही अवतरण हैं, पूर्णतया और कुछ नहीं। मतलब ये कि वे स्वयं साक्षात दत्तात्रेय है इसमें कोई शंका की बात नहीं। लेकिन वही एक अवतरण नहीं हैं। इसलिए मोहम्मद साहब ही उनके पेट में जाकर घुसे हुए हैं। समझ लीजिए आप इस देश के प्रेसीडन्ट है। आप महाराष्ट्र में आएं तो लोग आपका आदर करेंगे क्योंकि आप प्रेसिडन्ट है। पर अगर आप बंगाल में जाएं और आपका आदर नहीं हो तो क्या प्रेसिडन्ट साहब आपसे नाराज नहीं हो जाएंगे। उसी प्रकार ये एक ही शक्ति अनेक वार जन्म में आती है। और जब ये अनेक बार जन्म लेती है, हालांकि उसके नाम अलग होते हैं। उसकी जगह अलग होती है। जिस तरह की जरूरत होती है उसी प्रकार ये शक्ति संसार में जन्म लेती है। लेकिन कभी भी इसका ये अर्थ नहीं करना चाहिए कि वो एक शक्ति आई और उसके बाद कोई शक्ति नहीं आई। इस प्रकार हम लोग हमेशा करते हैं कि एक गुरू को मान लिया फिर और गुरू है ही नहीं। अब इन महाशय को, उनको तकलीफ थी पेट की २-3 दिन बाद फिर आये। कहने लगे, 'इसको तो ठीक करना ही होगा।' मैंने कहा, 'तुम्हें ठीक करना है तो तुम्हें दत्तात्रेय जी को मानना पड़ेगा, नानक जी को मानना पड़ेगा।' 'अच्छा, आप जो भी कहेंगी मानूँगा मैं।' फिर मैंने उनसे कहा कि 'अब तुम प्रार्थना करो नानक जी से कि मुझे क्षमा करें। मोहम्मद साहब से भी प्रार्थना करें कि मुझे क्षमा करें।' और उसके बाद उसका कैन्सर भी ठीक हो गया। आपको आश्चर्य होगा कि आजकल इतनी संस्थाएं-पोलिटिकल भी, राजनीतिक आदि बन जाती हैं। जिसमें लोग ये सिखाते हैं कि इनके धर्मगुरू खराब हैं, उनके धर्मगुरू खराब हैं। वास्तविकता ये है कि इनके जितने भी फॉलोअर्स हैं, और जो disciples हैं वो अपने ढ़ंग से कहते हैं। अरे, मुसलमान उतने ही बुरे हैं जितने हिन्दू, हिन्दू उतने ही बुरे हैं जितने ईसाई और ईसाई उतने ही बुरे हैं जितने और धर्म के लोग। उनके जितने भी डिसाइपल्स हैं, उन्होंने अपने गुरू को पहचाना नहीं। और उनके कहने के अनुसार विल्कुल न चलें। १ सबसे इसका एक उदाहरण मैं आपको दे सकती हूँ। समझ लीजिए कि ईसाई लोग, ईसामसीह ने अगर कोई बात खास कही होगी तो ये कि तुम लोग किसी भी मृत चीज़ के पीछे में मत जाओ और भूत-पिशाच आदि चीज़ों के पीछे तो विल्कुल भी पहली चीज़ शक्ति में नहीं जाना। किसी भी तरह से आपको चाहिए कि, भूत-पिशाच आदि जो भी कुछ मृत है, उससे दूर रहें। इतनी खुलके बात मेरे ख्याल से जितनी इसामसीह ने बताई है, सिर्फ नानक साहब ने बताई। इतनी खुलके बात बताने पर भी आप किसी भी ईसाई धर्म को जानने वाले या धर्म का पालन करने वाले, किसी भी राष्ट्र में जाकर देखो तो आपको आश्चर्य होगा, लंडन में जहाँ मैं रहती हूँ, हर एक चर्च के अन्दर में नीचे म्र्दे गड़े पड़े हैं। आप वहाँ पाँव रखे तो आपके पैर चटके खाएं। हर एक चर्च के अन्दर। मन्दिर के अन्दर उन्होंने मुर्दे गाड़ कर रखे हुए हैं। जिस चीज़ को विल्कुल मना ये हैं कि शक्ति में १ कोई धर्मान्धता नहीं। किया गया था। उसी को ये लोग बराबर करते हैं। 13 अब आप हिन्दुओं की अकल देखिए। हिन्दुओं की अकल उससे भी बढ़ के, हिन्दुओं के लिए ये भी बताया गया था कि सर्वधर्म एक है। इतना नहीं तो ये भी बताया गया था कि तुम्हारे अन्दर सबके अन्दर एक ही आत्मा का वास है। एक ही परमेश्वर का प्रतिविम्ब जो आत्मा है, सबके अन्दर एक ही आत्मा का वास है। अभी जाति-पाति लेकर झगड़ा करने वाले हिन्दूओं से बढ़ के कोई भी नहीं जब सबके ही अन्दर एक ही आत्मा सँवार है और जब ये भी बताया गया कि तुम्हारा पुनर्जन्म होता है, तब आज आप हिन्दू है तो कल आप मुसलमान होंगे। कल मुसलमान हैं तो कल ईसाई होंगे, नहीं तो कल आप चम्हार भी हो सकते हैं और नहीं तो आप निम्नश्रेणी के हो सकते हैं। अपने को बड़े-बड़े कहने वाले लोग सोचते हैं कि, हम बहुत बड़े भारी हिन्दू हैं। उनका व्यवहार ऐसा ही चम्हारों से भी बत्तर, क्षुद्रों से भी क्षुद्र, अतिक्षुद्रों जैसे हैं वो लोग। आप देखते हैं कि मन्दिरों में बैठ कर के वहाँ दक्षिणा वगैरा लेते हैं, उनके बारे में अगर आप देखें तो आपको विश्वास नहीं होगा कि इनका और परमेश्वर का कहीं सम्बन्ध भी है कि ये परमेश्वर के दुष्मन यहाँ बैठे हैं मैं वृंदावन गई थी। और मैंने देखा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि, जितने के जितने वहाँ पण्डे बैठे हुए है सारे राक्षस है राक्षस! और राक्षस ही नहीं सारे कंस के अनुचर हैं। वे कृष्ण के सामने बैठकर कृष्ण की बदनामी कर रहे हैं। इतना ही नहीं जितने भी वहाँ आते हैं उनके अन्दर भूत भरा है। और सबका सर्वनाश हो रहा है। इन मन्दिरों में से और इन सुन्दर जगहों में से कृष्ण स्वयं उठ गये हैं वो वहाँ रहना ही नहीं चाहते। ऐसी गन्दी जगह और आप देखते हैं कि आप रात-दिन लूट रहे हैं। आपके साथ इतनी ज्यादती कर रहे हैं। आपको इतना झूठ बता रहे हैं। गाँजा और क्या-क्या ये चीज़ें होती है वहाँ बेचते हैं। औरतों को वेचते हैं। जेवर चुराते हैं। कोई चीज़ उन्होंने छोडी नहीं। तो भी हम उनको महागुरू समझ के उनके चरणों में चले जाते हैं। आपने ये सब काम किये लेकिन आपके बच्चे ये काम नहीं करने वाले। इसका दुष्परिणाम एक ही होने वाला है। और दुष्परिणाम ये हैं कि, आपके बच्चे कहेंगे ये परमात्मा वगैरे कोई नहीं। ये सब झूठ बात है। ये एक ढ़कोसला है। इसका परिणाम अनेक देशों में हुआ है। जैसे हमारे एक शिष्य है। वो अल्जेरिया के रहने वाले हैं. मुसलमान हैं। वो जब लंडन आएं, लंडन में वो हमारे पास आए और कहने लगे, 'माँ, मेरा तो विश्वास ही नहीं भगवान पर। हमारे जितने भी युवा लोग हैं, पढ़े-लिखे, डॉक्टर्स हैं, आर्किटैक्टस हैं, वकील हैं उनका कोई विश्वास परमात्मा पर नहीं है। वो कहते हैं ये सब फेनटिसिज़म है, सब झूठ हैं, ये पैसा कमाने के धंधे और ये सारी संस्था ही विल्कुल गलत है। उसके | | वाद जैसे कि सहजयोग का एक बड़ा भारी वरदान रहता है, वो एकदम से पार हो गया। पार होने के बाद वो सहजयोग में जम गये। उन्होंने ५०० लड़कों को पार कराया। और उनका परमेश्वर पर का विश्वास विल्कुल दृढ़ है। जब आप एक अति से दूसरे अति तक जाते हैं 14 तभी बीचो-बीच ये गुरुतत्व आपको पकड़ लेता है। गुरू का मतलव वो होता है, जो आपको घसीट लें, खींच लें, आकर्षित करें। लेकिन आजकल के गुरू जो आपको आकर्षित करते हैं वो ऐसी नानाविध ऐसी-ऐसी चीजें करते हैं कि आप लोगों को आश्चर्य होगा कि आप ऐसे गुरू लोगों को क्यों मानें। ये तो कम से कम जानना चाहिए कि उनके अन्दर कुछ न कुछ मूलतम होना चाहिए, मूलत: उसमें कोई विशेषता है। गुरू का मतलब है आपसे ऊँचे उठे हुए आदमी। आपसे एक ऊँची दशा में पहुँचे हुए आदमी। आपसे जो निम्न स्तर से है वो आपके गुरू कैसे हो सकते हैं। जो आदमी पैसा खाता है, आपके पैसे पर जीता है, जो एक पैरासाइट है। आप कभी किसी के यहाँ जाकर मुफ्त रहेंगे? मुफ्त खाना खाएंगे? जो आदमी जिन्दगी भर यही करता आया, वो आदमी आपका गुरू कैसे हो सकता है। जिसने जिन्दगीभर कोई काम-धंधा नहीं किया और सिवाय आपसे पैसा लेकर उस पर जीता रहा। इस तरह के पैरासाइट आप सुबह से शाम तक पालते रहते हो। और उनकी गुरूमान्यता मान कर के दुनियाभर की चीज़े आप वहाँ भेजा करते हैं और उनको पूरी तरह से पूरी करते हैं। यहाँ तक इस चीज़ का पहुँच गया है मामला! कुछ गुरू तो ऐसे है अपने को सोने में, तो कभी हीरे में, तो कभी किसी चीज़ में तौल लेते हैं। और वो सारा तोल अपने पास लेकर के कहते हैं जो कुछ भी तुम मुझे दोगे वो तुम्हे परमात्मा देगा।' इस तरह की झूठी वातें अपने समाज में इतने सुशिक्षित होते हुए भी हम लोग मान लेते हैं। मुझे आश्चर्य आप पर नहीं होता, मुझे ज्यादा आश्चर्य होता है उन परदेसी लोगों पर जो कि अपने को बड़े विद्वान और बड़े डेवलप्ड समझते हैं। इतना गधापन करते हुए मैंने उन्हें देखा हुआ है। मैं अगर आपको उन लोगों की वातें बताऊँ तो आप आश्चर्य में पड़ जाओगे कि इतने हृद तक तो आप जाते ही नहीं गुरूओं के मामले में | गुरू अगर उनसे कहें तो उनकी विष्ठा भी खाने के लिए ये तैयार रहते हैं। इतनी उन लोगों की हालत खराब है। तब विचार बनता है कि ये इतने पढ़े लिखे लोग इस तरह से क्यों करते हैं? गुरूतत्व में क्या खराबी आ गयी? किस तरह से ये इसको मान लेते हैं। और इसका सीधा- सरल विल्कुल बहुत ही सरल उत्तर ये है कि, ये लोग गुरू तो नहीं बल्की हिप्नोटाइज्ड हैं। इनमें हिप्नॉटिज्म की पावर होती है। आदमी को हिप्नोटाइज्ड करते हैं । हिप्नोटाइज्ड करने से आदमी की सारी बुद्धि नष्ट हो के पूरी तरह से उसमें बहुता चला जाता है। ऐसे अनेक अनेक बार देवी ने मारा हुआ है, फिर से वापस आ गए हैं। और ये राक्षस लोग सारी राइसी वृत्तियाँ, सारी अनैतिकता, हर तरह की चीज़ आपको सिखाते हैं और आप भी बाहर देखते रहते हैं कि क्या मेरे लिए प्रचंड पण्डित, प्रकाण्ड बिल्कुल वेदान्त चुना है! गुरू के जो गुण है उसमें से पहला गुण तो ये है कि वो आपके पैसे और आपके धन को ठोकरों पर रखता है। उसे आपकी कोई चीज़ की परवाह नहीं। उसे आप बाँध नहीं सकते। वो अपने लहर से चलता है। उसका मन हो तो वो आपसे बात करेगा। नहीं तो नहीं। आपके आगे-पीछे दौड़ने वाला वो नहीं है। क्योंकि मैं आपकी माँ हूँ, मैं आपको समझाती हूँ और मैं आपको समझाती हूँ कि अपने अन्दर के गुरू को जागृत करके अपने को और उसे पहचानो। लेकिन वो जो मुझे मिले हैं, बड़े पहुँचे हैं, वो तो कहते हैं इन गधों को, इनको पचासो गालियाँ सुनाते हैं, 'माँ तुम क्यों उनको रियलाइजेशन देती हो! उनको मरने दो थोड़े दिन। उनको तो ये होने दो।' उनकी तो मिट्टी ही में पैदा हुए हैं। इसमें से कुछ कुछ तो पहले दर्जे के राक्षस हैं, जिनको गुरू इस कलयुग गुळ का १ मळलब हैं आपसे ऊँचे उठे हुए इतनी अलग है। हाथ में इतना बड़ा-बड़ा इंडा या तो चिमटा लेकर वैठते हैं और या तो पत्थर लेकर वैठते हैं। कोई आदमी इनके पास आए तो पत्थर लेकर वैठते हैं। कोई आदमी इनके पास आए तो उन्हें पत्थरों से मारते हैं कि 'भागो यहाँ से हमें नहीं मिलना आपसे|' माँ की दृष्टि और होती है और गुरू की दृष्टि और होती है। और माँ को गुरू जब बनना पड़ता है तो बड़ा तरस आता है क्योंकि हृदय तो इतना भरा रहता है करुणा से और इतना सांद्र हृदय रहता है कि निर्वाज्य विल्कुल प्यार वहा जा रहा, जो उसे देने के लिए माँ इतना तड़पती रहती है और उधर गुरूता की वजह से आपके साथ थोड़ा सा डिसीप्लीन भी करना पड़ता है। आपको बताना भी पड़ता है कि 'बेटा, ये गलत बात है। वो कहते भी हैं कि थोड़ा सा तकलीफ होता है, पर करना पड़ता है। ये गुरूतत्व आपके अन्दर है, उसका आपने अनेक बार अपमान किया हुआ है। आपके अन्दर बसा हुआ है। अब आपको आश्चर्य होगा कि साधारण मनुष्य में भी ये गुरुतत्व किस तरह से कार्यान्वित होता है। वैसे भी अगर आप किसी के घर खाना खाने के लिए जाए, अगर आप अच्छे आदमी है तो, और अगर वो आदमी दुष्ट प्रवृत्ति का हो या खराब प्रकृति का हो तो आप वो खाना पचा नहीं सकते। आपको एकदम लग जाएगा। आप घर आकर कहेंगे, 'बाबा रे बाबा, ऐसा वहाँ पे क्या था। हालत मचल गयी। कभी-कभी तो ये होता है कि आढमी। 15 किसी को चक्कर आने लगता है कि पता नहीं ये आदमी है क्या? इसी प्रकार हम एक दिन कहीं खाना खाने गये थे। तो बहुत ही वो शरीफ आदमी लग रहे थे। उनकी बीवी थी, तीन बच्चे थे। बड़े शरीफ बनकर घूमा करते थे। जाते ही मेरी हालत खराब हो गयी। मैंने साहब से कहा, 'चलो अब| मेरे बस का नहीं।' साहब ने कहा, 'ऐसा कैसे? तुम तो चीफ गेस्ट हो। 'चाहे जो भी हो मेरा हाल खराब हो गया। घर चलिए आप| मेरे बस का नहीं। यहाँ तो कोई आतंक की बात चल रही है।' तब मैं घर चली आई । उसके बाद आठ दिन में एक छोटी सी लड़की, हमारे लड़की के साथ पढ़ती थी वो आई। तो मैंने पूछा, उसका भी नाम वही था, जो उस महाशय का नाम था। मैंने कहा, 'तुम इन्हें जानती हों।' तो कहने लगी, 'वो तो मेरे पिता हैं।' तुम्हारे पिता हैं? तो तुम्हारी ऐसी दशा क्यों? कहने लगी, 'उन्होंने मेरी माँ को छोड़ दिया। मेरी माँ की सारी प्रॉपर्टी ले ली और अब इस औरत को रखा हुआ है घर में। और ये जो तीन बच्चे हैं वो ऐसे ही उनके है आए।' उसके आँख से एकदम आँसू आने लगे । कहने लगी, 'मेरी माँ बहुत सरल स्वभाव की थी। इतना रोयी, इतना चीखी। पर इन्होंने उसे छोड़ दिया और इस औरत को अपने पास रखा।' अब देखिए उस घर में जो दुःख था। उस घर में जो तकलीफ उस औरत की थी, उससे सारा वातावरण दृषित था। और मैं वहाँ उनकी, जो सारा आमोद- प्रमोद हो रहा था मैं विल्कुल हिस्सा नहीं ले पा रही थी। मेरा जी विल्कुल दुःखी हो रहा था और आँखों से बार -बार आँसू टपक पड़े थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस वातावरण मैं ऐसा कौनसा दुःख है। ऐसा कौनसा दुःखी जीव है जो कि मेरी आत्मा को अन्दर से खींच रही है। और ये बात समझ लीजिए कि आपके भी गुरूतत्व में है। १ १ आप किसी के घर जाते हैं। देखते हैं कि आपको उनका अन्न पसन्द नहीं आया। ये सब गुरुतत्व आपके अन्दर है लेकिन आप उसे जागृत नहीं करते। अब गुरुतत्व को मारने के तरीके क्या हैं वो मैं आपको बताती हूँ। मनुष्य किस तरह से अपने गुरुतत्व को मारते रहते हैं। किसी को बुरा नहीं लगना चाहिए क्योंकि मैंने कहा 'मैं माँ हूँ। जो सही बात है वो मैं आपको बताऊँगी। और मुझे बतानी पड़ेगी। उसमें बुरा मानने की कोई भी बात नहीं। सब लोग समझ से इस बात को समझ लें कि हम अपने को हर समय खराब करते हैं। और किस तरह से हम अपने गुरुतत्व को खराब करते हैं वो देख लें। एक तो गुरुतत्व में हमारे अन्दर जो चेतना है, जिसे हम अवेयरनैस कहते हैं, इसको सम्भालने वाला हमारा लिवर है, इसे यकृत कहते हैं। जब तक हमारा यकृत ठीक रहेगा तब तक हमारी अवेयरनैस, चेतना ठीक रहेगी। और जैसे ही हमारा यकृत खराब हो जाता है तब हमारी चेतना मचलने लगेगी। आपने देखा होगा जिसे पित्त होता है उस आदमी ने देखा होगा जब भी पित्त वाला आदमी ज़रा सी भी तली हुई चीजें खायें उसको फिर से वोमेटिंग शुरू हो जाता है। पेट के अन्दर आपकी अवेयरनैस को पोषित करने वाला ये यकृत है और इसलिए यकृत को ठीक रखना बहुत जरूरी है। गुरुतत्व १ जब ठक अब यकृत क्या करता है? यकृत जो भी कुछ, ये लीवर जो है, जो भी कुछ हम जहर खाते हैं, जो भी हमारे अन्दर गलती से चला जाता है उसको अलग करता है। उसको औनलाइज्ड करता है। जो भी कुछ ज़हर है उसको खून के द्वारा खून में लौटा देता है। इसको कहना 'सॉर्टिंग आऊट ऑफ द पॉइजन'। वो सारा काम लीवर करता है। अब इसका बिगड़ना बहुत देर से पता चलता है। धीरे-धीरे ये काम होते रहता है। कोई कोई चीज़ है जिनके कारण ये यकृत, ये जो लीवर है हमारे पेट के अन्दर, राइट साइड में ये बहुत ही जल्दी खराब होता है। सबसे बड़ी चीज़ जो यकृत के विरोध में है वो है शराब । जितने भी गुरू आज तक संसार में हो गये चाहे वो अब्राहम हो, चाहे वो मोज़ेज हों, चाहे वो लाओत्से हों और चाहे वो सॉक्रेटीस हों ये सारे गुरुतत्व हैं। सारे ही गुरुतत्वों ने संसार में अवतार लिये थे। वो सब गुरू हैं। इसमें से कोई भी गुरू हो, सबने कहा है कि शराब पीना मानव धर्म के विरोध में है क्योंकि अपने पेट में दस धर्मों का स्थान है। उस दस धर्मों पर हमारा यकृत ठीक रहेगा ळब तक १ हमारी अवेअरनैंस, आक्रमण होता है। जब कि हमारी चेतना पर आक्रमण होता है। अगर मनुष्य की चेतना ही कम हो जाए, तब वह चेतना के विरोध में ही वो चीज़ बैठती है। वो हमारे लिएगलत है। अभी कुछ दिन पहले हमारे एक शिष्य है। उन्होंने सहजयोग में ही इस पर बड़ा काम किया। और उनको अभी डॉक्टरेट मिली हुई है लंडन में। वे मॉरेशियस के रहने वाले हैं। चेतना ठीक रहेगी। | 16 उनका नाम है श्री रेजीस| उन्होंने अब ये सिद्ध कर दिया कि किस तरह से शराब हमारे विरोध में पड़ती है। क्या वजह है? अब यह बहुत ही दुष्ट चीज़ हैं आप समझ लें कि हाइड्रोजन, ऑक्सीजन से बना हुआ पानी का एक परमाणू है। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन उसमें से ऑक्सीजन का परमाणु एक है और दो हाइड्रोजन के अणु है। इस प्रकार तीन अणुओं से बना हुआ एक परमाणु है। अब जब न्यूट्रल स्पेस पर रहता है तो ऑक्सीजन बीच में रहता है और दोनो साइड में हाइड्रोजन रहता है। जब रक्त का पानी हमारे लीवर के पास जाता है तब लीवर से ये जो पानी है, ये जो कुछ भी अन्दर बसा हुआ जहर है, पॉइज़न है खींच लेता है। न्यूट्रल स्पेस पर रहा तो बहुत ही आसान है। लेकिन समझ लीजिए लीवर अगर न्यूट्रल स्पेस पर आ जाए तो वो ले सकता है। लेकिन अगर समझ लीजिए इस | तरह से हो जाए तो कुछ भी ले नहीं पाता। जब आप शराब पीते हैं तो शराब की फर्मेंटेशन की प्रेशर की वजह से ऑक्सीजन नीचे आ जाता है और हाइड्रोजन ऐसे आ जाता है और ये कुछ भी नहीं ले पाता, कुछ भी ले नहीं पाता, कुछ भी स्वीकार नहीं कर पाता। इसके कारण उसके अन्दर का जो पॉइज़न है वो वैसे ही बना रहता है। लेकिन आपने देखा होगा कि जिस व्यक्ति ने शराब पी हो उसके शरीर का टैंपरेचर नहीं बढ़ता। अगर शराब पीने से टैंपरेचर नहीं आता, उसके अन्दर की जो शीख है वो सिर्फ लीवर में या किसी न किसी ऑर्गन में जमा होती रहती है। लेकिन जो पानी है, जो कि हमारे खून में बहुत ही जरूरी है, वो पानी इस तरह से हो जाने की वजह से, वो उसको शोषण नहीं कर पाता और हर एक जितने भी हमारे बॉडी के ऑर्गन हैं, पहले तो लीवर चौपट हो जाता है। उसके बाद हर एक जो ऑर्गन है धीरे-धीरे वो सब में गर्मी आने लगती है और ऐसा आदमी गर्मी से झुलस जाता है। लीवर ही यही चीज़ है ऐसा नहीं है। सारे ऑर्गन से थोड़ा-थोड़ा होता है। और यही बात बढ़ कर के बहुत बड़ी हालत में कैन्सर होता है। कैन्सर में भी हाइड्रोजन व ऑक्सीजन दोनों इस तरह से हो जाते हैं, बहुत ही इस तरह से हो जाते हैं इससे रिसेप्शन नहीं होता है । और इसलिए आपने देखा होगा कैन्सर के पेशंट की जब तक बुरी हालत न हो जाए बुखार नहीं आता। उन पर चट्टे आएंगे, काले चट्टे आएंगे, बदन पर चट्टे आएंगे । तरह- तरह की चीजें होंगी। बदन में गर्मी लगेगी । लेकिन उनको टैंपरेचर नहीं होगा। अब ये बात उसने पता लगाई और सोचिए इंग्लैण्ड युनिवर्सिटी ने उसको डॉक्टरेट दे दी। अब ये बात निर्विवाद है चाहे आप बुरा माने, चाहे आप भला माने कि शराब पीने से आपकी चेतना तो कम होती है लेकिन आपके अन्दर का पॉइज़न है, बना रहता है। १ १ और दुसरी बात उससे ये होती है कि आपकी जो आर्टरिज है, आर्टरिज का भी पॉइज़न आप खींच नहीं पाते। और क्योंकि इस तरह से हाइड्रोजन का जो झुकाव है इस तरह से हो जाता है, इसके कारण एक Hardening जिसे कहते हैं वो आर्टरिज में हो जाती है। उस हार्डनिंग की वजह से वो आर्टरिज शराबी आदमी की जो होती है वो फ्लेक्सिवल नहीं होती। इसलिए उसका खून नहीं सरकता इसलिए उसको ऐसी-ऐसी विमारियाँ हो जाती है, जैसे कि हार्ट और हार्ट के अलावा जिसे कहना चाहिए गैंगरिन आदि जिसमें खून जम जाए, ये सड़ जाए, फिर ये सड़ जाए माने इसकी दुर्दशा करने की क्या जरुरत है। वास्तविक शराब चीज़ जो है फर्मेंटेड शराब जिसे कहते हैं। एक तो होता है कि वाइन। वो तो बहुत अच्छी चीज़ है। जिसमें फर्मेंटेशन नहीं होता। वो तो सिर्फ रस है अंगूर का। वो वाइन हुआ। पर हम लोग जिसे वाइन समझते हैं, वो जो अल्कोहोलिक वाइन होता है। वो शराब होती है। उस शराब को परमात्मा ने इसलिए बनाया कि कोई चीज़ को पॉलिश करें। हर चीज़ को पॉलिश करना हो, जैसे आपको डाइमंड पॉलिश करना है तो 'जिन' से करिए। या किसी चीज़ को पॉलिश करना हो तो स्पिरीट से करिए। ये पॉलिश है और यही पॉलिश जब हमारे आर्टरिज पर जम जाता है तो 'हार्डनिंग आफ द आर्टरिज होगी ही। भगवान ने पीने के लिए शराब नहीं बनाई। लेकिन मनुष्य का दिमाग जो है बन्दर के जैसा है। उसको समझ में नहीं आता है कहाँ क्या चीज़ करनी चाहिए। शराब पीने को उसको कहीं जाना नहीं था। पता नहीं उसको कहाँ से अल्कोहोल मिल गया उसने शराब पिना शुरू कर दिया। शराब पर शराब पीना शुरू कर दिया। उसकी जो आर्टरिज थी वो थिक (Thick ) होने लगी और उसमें मजा इसलिए आता है कि आदमी की चेतना जो है वो ही गुम हो जाती है। मनुष्य को सबसे बड़ी १ चीज़ जो यकृत के विटोध में है, वो हैं 'शराब' । 17 इसलिए अच्छा लगता है कि मनुष्य की चेतना गुम हो जाए क्योंकि वो अपने को देख नहीं पाता। वो अपने को समझ नहीं पाता। अपने से भागता है। वो असत्य में रहना चाहता है। सत्य बहुत बड़ा भयंकर है, भयानक है ऐसी बात नहीं। सत्य अत्यन्त सुन्दर है। अत्यन्त मनमोहक है। बहुत ही शान्तिदायक और सारे सुखों का आदर्श है। लेकिन अभी आप उस हालत में है जहाँ ना तो आपने सत्य पाया है और न तो आप असत्य में है। जो आप बीच के हालत में मानव दशा में आ गये हैं इसलिए प्रश्न आया। इसलिए इन गुरुओं का जन्म हुआ कि आपको समझायें ये बीच की हालत में आज आप पैदा हुए हैं। इससे घबराने की बात नहीं। इससे असन्तुलन होता है। अति पे ना जाओ। असन्तुलन पर मत जाओ। आपका जीवन अच्छा बनाओ। अपने जीवन में, वैवाहिक जीवन में नम्रता से रहो। अपने घर में और अपने व्यवहार में, अपने समाज में सबका विचार रखिए। सन्तुलन के साथ रहिए। ये नहीं कि एक आदमी बहुद ज्यादा रईस हो गया, एक आदमी है कि बहुत ज़्यादा बलवान हो गया। आदमी है कि उसने बहुत ज़्यादा यश प्राप्ति कर ली। क्योंकि जो नेचर है, जो निसर्ग है, उसके अन्दर कोई भी चीज़ बहुत ज्यादा नहीं होती। आप कभी नहीं सुनियेगा कि एक आदमी की ऊँचाई साठ फुट हो गई । कभी नहीं सुनियेगा कि एक पेड़ जा कर के दो सौ फीट का हो गया। आम का पेड़ उसकी साधारण जो हाइट होगी वही होगी। उसी तरह मानव की जो कुछ उसकी फ्लाइट है, उसकी उड़ान है एक हद तक होगी। जो आदमी अपने को कॉम्पिटिशन में जाकर इस तरह पागल जैसे दौड़ता है उसका वही हाल होता है जो आज western country का हो गया | एकदम पागल है पागल। उनको तो मैं देखती हूँ मुझे आश्चर्य होता है कि इनमें से आधे तो पागलखाने में जाने के लायक हैं। तो मैंने अभी स्टैटिस्टिक (आंकड़े) देखा तो आधे तो है ही स्किजोफ्रेनी। आधे वहाँ के लोग, ५०% लोग स्किजोफ्रेनी हैं। अब आप उनसे क्या सीखने वाले है? क्या आप सबको पागलखाने जाना है? ये जो कॉम्पिटिशन लगा दिया गया है उससे मनुष्य जो है असमाधानी रहेगा। और असमाधान जो है प्रगति उस ओर कर रहा है जहाँ पूरा सर्वनाश है। सन्तोष से दूसरा १ मनुष्य को अपने अन्दर जागना चाहिए। ये जो गुरू का स्थान है ये धर्म का स्थान है। धर्म माने जिस पर हम धारणा करेंगे। इसलिए हम मनुष्य जाने गये हैं। मैंने कल बताया कि कार्वन का अपना धर्म होता है। सोने का अपना धर्म होता है। शेर का अपना धर्म होता है। भिक्षु का अपना धर्म होता है। ऐसे मानव के भी दस धर्म हैं। जब मनुष्य इन दस धर्ों से अशुद्ध हो जाता है, जब उससे गिर जाता है, जब असन्तुलन में आ जाता है तब उसका जो है आगे का पता नहीं क्या होगा? क्योंकि मनुष्य के बाद अतिमानव हो जाएगा, राक्षस हो जाएगा, जानवर होने की तो कोई स्थिति दिखाई नहीं देती। लेकिन अधिकतर राक्षसी प्रवृत्ति में पड़ेंगे। ये दस धर्म सम्भालने चाहिए। अगर कोई कहें कि दस धर्म में रहो, दस कमाण्डमेंटस् हमारे बाइबल में लिखे हुए हैं। तो जब वो दस कमाण्डमेंटस् की बात लिखी हुई है कि ये नहीं करो, ये नहीं करो तो मनोवैज्ञानिक ने कुछ सत्य 6. अत्यन्त सुन्दर है कहा, इलाज निकाला कि ये सब कंडिशनिंग है। आप जवरदस्ती से किसी को मना करिएगा तो कंडिशनिंग हो जाइयेगा। उसका प्रोग्रेस नहीं होगा। लेकिन अगर आप अपना संस्कार सुसंस्कार लोगों पर न डालें। लोगों को कु-संस्कारित न करें तो आपकी राइट साइड चलने लग जाएगी, लेफ्ट साइड तो आप रोक लेंगे। लेफ्ट साइड जिसको कहते है सुपर इगो, उसको कंडिशनिंग बना लेंगे लेकिन राइट साइड जो कि इगो है आप इगो ओरिएंटेड हो जाएंगे। आप हिटलर भी हो जाएंगे तो भी आपको पता नहीं चलेगा कि आप हिटलर है। आप कहेंगे, 'वाह, वाह, वाह! मैं क्या कार्य कर रहा हूँ। सारे लोग मुझे हार पहना रहे हैं। मेरी आरती उतार रहे हैं। वाह! वाह! वाह! मैं कितना बड़ा आदमी हो गया हूँ। और होंगे आप पक्के गधे। गधे भी नहीं महा राक्षस होंगे । लेकिन आप अपने लिए यही कल्पना करेंगे कि वाह! वाह! वाह! सब तरफ मेरी वाह, वाह हो रही है, लोग मुझे क्या समझ रहे हैं क्योंकि जो इगो ओरिएंटेड आदमी होता है वो वास्तव में महागधा होता है। इसका वर्णन आप अगर वाल्मिकी रामायण पढ़े या हमारे तुलसीदासजी ने भी बहुत ऐसे वर्णन किया हुआ है कि नारद मुनि जी को अहंकार हो गया था तो वो किस तरह से गधे हो गये थे। लेकिन आज इगो ओरिएंटेड आदमी इस कदर वल्गना करता है, इतनी बड़ी बड़ी बाते करता है और लोग उसको इस तरह से सुनकर अभिभूत होकर कि वाह, वाह, वाह|he is so, such a successful man अत्यन्त मनमोहक है। १ 6: १ और अगर आप देखें उस आदमी का जरा सा ये निकाल के तो इतना बेवकूफ और इस कदर छिछलापन उसके अन्दर 18 ০০ होता है, कि आश्चर्य लगता है और यही बात है कि इगो ओरिएंटेड आदमी आप लोगों को ज़्यादा इम्प्रेस करता है। आप पर बहुत असर डालता है और कोई आदमी अगर खड़े होकर तानाशाही करे और कहे कि 'मैं फलाना, ठिकाना।' तो सब लोग खड़े होकर कहेंगे कि 'वाह! वाह! वाह! क्या अच्छा आदमी मिला है!' अगर आप कन्डिशनिंग को हटा देते हैं तो आदमी बेशर्म हो जाता है। वो वेशर्म ही नहीं होता वो बेछूट हो जाता है, जिसको abundant कहते हैं। धर्म बीचोबीच है। न तो बेछूटता ठीक है, न ही धर्मान्धता। न ही बहुत ज़्यादा अन्धेपन की बात है न ही कि ' हम ही सब कुछ है। उस अन्धेपन में दौड़ने की बात है। बीचोबीच परमात्मा का स्थान है, बराबर वीचोबीच धर्मस्थापना होती है। और उस धर्म को सम्भालना ही अपने गुरूतत्व की रक्षा करना है। 6. इस गुरूतत्व की रक्षा करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? बहुत से लोग कहते हैं कि माँ, हम अपनी गुरुतत्व की रक्षा कैसे करें? सर्वप्रथम अपने गुरू कौन हैं इसे समझ लेना चाहिए अब एक महाशय है, वो हमारे गुरू है। 'भाई, वो क्या करते हैं? 'नहीं ऐसे कुछ नहीं। वस, कुछ नहीं। उन्होंने हमें राम का नाम दे दिया। 'नाम दे दिया! बस, हो गया ? अरे भाई नाम देने के लिए कोई गुरू क्यों चाहिए? कोई गधा भी दे सकता है। आपको नाम क्यों दिया? भाई आपके क्या कोई चक्र खराब है या कोई प्रदेश खराब है कि वहाँ के राजा का नाम आपको दे दिया! 'नहीं, उन्होंने राम का नाम दे दिया और कहा, राम का नाम जप लो।' राम कोई आपका नौकर है कि आप राम का नाम ले। आपका गुरू अगर अधिकारी हो तो वो कभी भी आपको इस तरह से कोई नाम नहीं देगा। पहली चीज़ कोई गुरू अगर आपको नाम दे तो आप समझ लीजिए कि सबसे गलत बात है। अब इसका में उदाहरण आपको बताऊँगी। अगर समझ लीजिए आपको कोई बीमारी है, कोई भी तो हम आपसे कहेंगे कि अच्छा भाई आपको ये बीमारी है आप जाकर ये दवाई ले लीजिए। समझ लीजिए आपको पेट की वीमारी है, तो हम कहेंगे कि अच्छा आप interviaform ले लो। लेकिन हम जिसे देखें उसको interviaform लेते देखे तो आप क्या कहियेगा? जब आप डॉक्टर ही नहीं है। जब आपको विधान ही नहीं मालूम, जब आपको तकलीफ ही नहीं मालूम तो आप कौनसी दवा देंगे। क्या आप हमेशा के लिए वही दवा खाते रहियेगा? तकलीफ कहाँ है, कौनसी तकलीफ है? और फिर जब आप डॉक्टर ही नहीं है तो आप प्रिस्क्रिप्शन कैसे दे सकते हो? जो आदमी आत्मसाक्षात्कारी नहीं है वो तो पहले गुरू नहीं होता। या हम तो एक गुरू साहब को मिले हैं, बहुत मजेदार है और बहुत पहुँचे हुए मजेदार आदमी है। वो एक साहब को हमने भेजा उनके पास, 'कहा जरा इनकी तवियत दुरुस्त करो ।' एक महिने बाद वो आये तो बिल्कुल थके हुए बिल्कुल दुबले पतले होकर आए थे। हमने कहा, 'क्या हुआ? गुरूजी ने क्या किया? तो कहा कि 'कुछ नहीं रोज 19 सवेरे मुझसे कहते कि शिवजी का मन्दिर धोओ। मुझे एक मील रोज चलना पड़ता था। मैं रोज सबेरे एक मील पानी ले जाता था, धोता था। रोज सबेरे तीन-तीन, चार-चार वाल्टी पानी ले जाओ और धोओ और उसके बाद कहता कि अब साथ में आओ और फिर से धोओ। सारा महिना शिवजी का मन्दिर मुझसे ही धुलवाया। मैंने गुरूजी से पूछा, 'भाई, ऐसा क्यों किया?' तो कहा कि 'गधे को गधे का काम। वो गधा आदमी है उसको रियलाइजेशन आप दो| मैं तो नहीं देने वाला। आपको देना होगा। इन गुरुओं का स्वभाव इसलिए इतना कड़क हो जाता है क्योंकि उनको मनुष्य की प्रचिति हो गयी है। वो जानते हैं कि, साधारण मनुष्य जो है वो बिल्कुल भी, बहुत ही उथला है और वो करूणा नहीं जो माँ की होती है। उन्होंने खुद अपने मेहनत से ही सब कमाया हुआ है। और वो भी यही चाहते हैं कि ये भी सब मेहनत करें। इनको भी फिट करना है। इनको भी ठीक करना है। खूब धो-पीटकर के जैसे धोवी होता है, मार मारके ठीक करते हैं, ऐसे वो ठीक करना चाहते हैं। माँ की बात और है माँ कहती हैं चलो भाई ठीक हो जाएंगे, माँ की बात और है। माँ कहती 'चलो भाई जैसा भी है वच्चे ैं। इनको दे ही दो। ये एक बड़ा भारी अन्तर पड़ता है १ लेकिन इन में से एक गुरूमहाराज की बात आपको बतायें कि एक गुरूजी बम्बई के पास एक जगह है, हमारी शिष्या रहती थी, वहाँ पर आयें और उससे कहने लगे कि, 'आपकी माताजी कव आने वाली हैं? मैं उनके लिए बारह साल से बैठा हुआ हूँ। तो उन्होंने कहा कि, 'बारह साल से आप उनके लिए क्यों बैठे हुए हैं?' कहने लगे कि, 'मेरे गुरुजी ने कहा कि वो आएंगी और वही तुम्हारा आज्ञा चक्र ठीक करेंगी।' उसको समझ नहीं आया कि आज्ञा चक्र तो माताजी एक मिनट में ठीक कर देती है। तो बारह साल यहाँ मरने के लिए क्यों भेजा।' कहने लगे, 'क्या बताऊँ सरदर्द से पड़ा हुआ था। और जब माताजी आएंगी तब होगा।' जब मैं आई तो वो ले गये, अपनी कुटीर में जहाँ वो रहते थे। वहाँ विठाया और कहा., 'मेरे गुरुजी भी आपसे मिलने आये हैं। वो है अमरनाथ ।' मैंने कहा, 'अच्छा, वो गुरुजी जो एक तरफ मुँह करके बैठे हुए थे। मैं गयी तो पैर वैर छुये और विचारे बैठ गये। मैंने कहा, 'आपने इनका आज्ञा चक्र ठीक क्यों नहीं किया। एक मिनट का काम है। आप तो इतने पहुँचे हुए आदमी हो।' कहने लगे, 'मरने दो इसको।' पचास उन्होंने गालियाँ दी और मेरे सामने उसको दो झापड़ मारे। मैंने कहा, 'वाह भाई, ये क्या कर रहे हो? इतनी जोर से उसको मारा क्यों?' तो कहने लगे, 'ये आपके आने से पहले सिगरेट पी रहा था।' मैंने कहा, 'अच्छा, आपको कैसे पता चला? कहने लगे, 'मैंने देखा उसके मुँह से धुआँ निकलते हुए। इतना ये दुष्ट आदमी है, इसका आज्ञा चक्र आप ही ठीक कर सकते हैं।' मैंने कहा, 'भाई, देखो , चाहे जो भी हो सिगरेट छोड देगा, तुम १ १ १ इसका आज्ञा चक्र तो ठीक करो। मैं नहीं ठीक करने वाला।' उसके बाद मैंने उसका आज्ञा चक्र ठीक किया। उसके बाद वो मेरे कान में कहने लगे, 'माँ इनके सामने कुछ मत कहो। तीन दिन से इन्होंने मुझे कुएं पर बाँध के रखा हुआ था। और तीन दिन मुझे कुएं मे नीचे इबोते थे और ऊपर करते थे। और कहते थे 'तुम्हारा आज्ञा चक्र ठीक हुआ कि नहीं हुआ?' तो मैंने कहा, 'तुम इस आदमी के साथ क्यों टिके हुए हो? ऐसा गुरू तुम्हारा दुष्ट है। कहने लगे, 'माँ क्या कर अब तो आदत हो गयी दुष्टता की। कोई प्यार से मुझे सिखाएगा तो मेरे बस का नहीं रहेगा। इतना इन्होंने मुझे मार पीट कर के ठीक किया। ये दृष्टि बहुत से गुरुओं की हो जाती। उसकी वजह ये है कि जब तक आदमी कठोरता से पेश न आएं वो सोचते हैं कि मनुष्य ठीक से नहीं चल रहा।' लेकिन मेरा विश्वास बहुत ज़्यादा है। मेरी आशाएं बहुत ्यादा है। मैं तो सोचती हूँ मनुष्य पहले ही से बहुत ज़्यादा संतृप्त स्थिति में है। और जब तक इसको देखा ही नहीं वो अलख, परोक्ष है। उसको जब तक देखा नहीं, तब उनके मेरा विश्वास साथ सद्व्यवहार ही करना चाहिए। और उनको बताना चाहिए और उनको उस रास्ते पर ले जाना चाहिए। बहुल अनेक गुरू जो संसार में आएं। जिन्होंने हमारा मार्ग अपनाया। जैसा मेरा मार्ग है । ज्ञानेश्वर जी थे, ये हमारे यहाँ तुकाराम जी हो गये, हमारे यहाँ नामदेव हो गये, वैसे ही नानक जी हो गये, कबीर दास जी हो गये। इन लोगों ने संसार में रह कर के लोगों की सेवा की। लोगों को धर्म सिखाया। उन सबके साथ बहुत ज्यादती की। सबको इस तरह से ज़्यादा है। सताया गया, मारा गया, पीटा गया। उन्हें खाने को भी नहीं दिया। भूखा रखा गया। 20 ज्ञानेश्वरजी की बात सुनती हूँ तो मुझे लगता है कि कैसे इसको कर पाएं? इतनी ज्यादती उनके साथ लोगों ने कैसे की? इतनी क्रूरता उनके साथ करी है और आज उनकी पालकी लेकर घूम रहे हैं। अब ज्ञानेश्वर जी की पालकी चली जा रही है। मैंने कहा कि, 'वो कभी पालकी में बैठे भी थे? उन्होंने कभी पालकी का मुँह भी देखा था? पचास आदमी उनकी पालकी लेकर चले और सब लोग उनको खाना खिला रहे हैं। ये किस तरह का घटिया, किस तरह का झूठापन और किस तरह का अपमान है गुरूतत्व का कि आप जिस आदमी के लिए कभी भी आपने ये भी नहीं सोचा कि उसने खाना खाया कि नहीं खाया। उसकी आप पालकी बनाकर घूमाते हैं और उसके नाम पर आप खाना खाते हैं। मनुष्य इतना विक्षिप्त है। और इतनी विक्षिप्तता इसलिए लिये हुए हैं कि परमात्मा ने उसे पूर्णतया स्वतन्त्रता दी है कि तू चाहे विक्षिप्त हो कि चाहे तु गधा हो, चाहे तुझे जो करना है कर। चाहे तो तु परमात्मा को पा ले। मैं माँ हूँ। माँ हमेशा यही प्रयत्न करेगी। बच्चों से यही कहेगी कि, 'बेटे तुम परमात्मा को ही पा लो।' मेरी गुरूता इसी में है, मैं मानती हूँ मुझे बहुत लोग सताते भी है और परेशान भी करते हैं। चाहे जैसा भी हो। लेकिन मेरे साथ ये भी है कि मेरे पास बहुत ही ज़्यादा पेशन्स है। लोग कहते हैं कि, 'माँ, तुम्हारा निर्वाज्य प्यार है। चाहे जो भी कहें लेकिन वास्तविकता ये है कि मुझे उनकी परेशानी जरा भी नहीं झुलझती, ना मुझे उसकी कुछ तकलीफ होती है। हर समय ऐसा लगता है कि कितने लोग जल्दी से जल्दी पार हो जाए । कितने लोगों को ये अलख जो है मिलना चाहिए आज सहजयोग उस स्थिति पर आ गया है, जिसे आज 'महायोग' कहना चाहिए। जब तक ट्रेन स्टेशन के अन्दर ना पहुँच जाए तब तक हम नहीं मानते कि ट्रेन आ गयी है। या जिस तरह से हम कह सकते हैं कि नदी जब तक समुद्र में न मिल जाए तो हम उसे संगम नहीं कहते। उसी प्रकार जब तक आपके जीव का शिव से सम्बन्ध नहीं जूटता, जब तक कुण्डलिनी उठकर ब्रह्मरन्ध्र को छेद नहीं देती तब तक उसको योग नहीं कहना चाहिए। तब योग के सिर्फ प्रिपरेशन (पूर्वतैयारी) होते हैं। जैसे और जो योग है, अनेक जो योग है, सारे योग उसके प्रिपरेशन्स होते हैं। और जब कुण्डलिनी नीचे से ऊपर उठती है तब ये सारे योग अन्दर घटित होते होते कुण्डलिनी सहस्रार पर आ जाती है। और सहस्रार पर आकर के उसको छेद देती है। ये सबसे बड़ा महायोग है इसलिए सहजयोग जो अनादि काल से चला आ रहा है 'सहज' जो आपके साथ पैदा हुआ है। जो आपके साथ अनेक वर्षों से चला आ रहा है। जिसकी आज परिपूर्ति होने की बात आई हुई है, उस सहजयोग को आज महायोग नाम देना चाहिए। पर मैंने शुरूआत में यही विचार किया कि मनुष्य की बात है, अगर मैंने पहले से महायोग शुरू किया तो ये लोग महाकाल शुरू कर देंगे। और सब मेरे पीछे लग जाएंगे हाथ धो कर के कि ' बड़़े आये महायोग करने वाले? आप कौन होते है महायोग करने वाले?' सब खड़े हो जाएंगे डण्डे ले ले कर। इस वजह से मैंने इसका नाम महायोग नहीं कहा लेकिन सहजयोग की आज स्थिति महायोग तक पहुँच गयी। और आप महायोग के स्थिति पर आ गये हैं। और ये समय आ गया है कि आपके जितने भी १ आज सहजयोग उस स्थिति पर गुरुतत्व आज तक पले हुए हैं, सोचे हुए हैं वो सारे के सारे सब फलीभूत होने वाले हैं। और उस फलस्वरूप आपको आज वो चीज़ मिलनी चाहिए जो अनेक वर्षों से गुरूओं ने आपको देने की कही थी कि आपको मिलेगा। ये समय आने वाला है। होने वाला है। होता था। एक तो पहले गुरु लोग एक या दो शिष्य रखते थे। ज्ञानेश्वरजी के कितने शिष्य - एक। फिर उनके कितने शिष्य थे - एक या दो। इतना समुदाय कोई शिष्य या बच्चे नहीं बनाता था। ना कोई इतना आत्मज्ञान देने की बात करता था। लेकिन जब तक कोई चीज़ सामुदायिक नहीं होती या सर्वसामान्य को नहीं मिलती उसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। अब समय आ गया है कि आप सब सामुदायिक को मिले इसलिए आप सबको ये मिलने का पूरा अधिकार है। क्योंकि आपके अन्दर ये पूरी चीज़ समाई हुई है। आपके अन्दर सारी चीज़ बसी हुई है। और ये आपको मिलना चाहिए। मैंने आपको ये कहा कि एक-एक विषय पर मुझे सात दिन चाहिए। तो आप लोगों ने मुझे एक दिन में तीन-तीन विषय दे दिये। तो बड़ा मुश्किल होता है इसको कैसे छोटा करें। हालांकि इतना ही कहना है और गुरूतत्व के प्रति मेरा नमस्कार। आ गया हैं, जिसे आज 'महायोग कहना चाहिए। आप सवको अनन्त आशीर्वाद! 21 १८ दिसम्बर १९७८, लंडन आ ज्ञा यह आज्ञा ® आ' का अर्थ है पूर्ण चक्र श्री साछ ी क है] चे स चक्र पर निचास कते है। वे छी आक्षतू गविणु अवरित छुछ। चच में क्रिश्चिटान, छके छैा होने के चिषय में एक जी जाते कि कै वै काट बजे और क्टों ইংचर ी प आक ना काम नहीं किया অম श्री छ की औ] डौ अतय गहत्वपूर्ण और ज्ञा' टो छूण है। अण है बैसुष्टि केचJ का अर्थ है जानना। आ ज्ञा - 'आ' का अर्थ है पूर्ण और 'ज्ञा' का अर्थ है जानना। आज्ञा की रचना मानव में उस वक्त हुई जब उसने सोचना प्रारंभ किया। भाषा यदि भाषा नहीं होती तो हम सोच नहीं सकते। इसके पूर्व विचार सिर्फ ईश्वरीय प्रेरणा था। हमारे अन्दर विचार, प्रकाश एवं छाया की तरह आते हैं। आत्मसाक्षात्कार पश्चात् विचार एक प्रकाश स्तम्भ की भाँति केवल प्रकाश और छाया के भिन्न आकार रूप में दृष्यमान होते हैं। यह भाषा ही है जिसके कारण ये विचार हमारे ऊपर हावी हैं। हम एक विचार से दूसरे विचार पर उसी तरह उछलते हैं जैसे कि समुद्र की लहरें किनारे तक जाती हैं और पुन: वापस आ जाती हैं। विचारों का यह तांता पगला देने वाला भी बन जाता है। ये विचार कभी तो अच्छे होते हैं और कभी बरे। अहंकार (इगो) हमारे माथे में वाम भागी है, जब कि प्रतिअंहकार ( सुपर इगो) दायें भागी है। हमारे अन्दर कंडिशनिंग हमारे दाईं भाग में हैं और ये हमारे अन्दर भय एवं खतरे उत्पन्न करते हैं। भूत एवं भविष्य के विषय में कोई विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। जानवर कभी नहीं करते। जब वे जानते हैं कि कोई जानवर आता है तो ठीक है; इसमें सोचने को क्या है? मनुष्य हरेक चीज़ के बारे में सोचता है और यह भी सोचता है कि बैठकर सोचविचार करना बुद्धिमानी है। सोचने की क्रिया स्वत: स्वेच्छानुसार होनी चाहिए- ईश्वरीय प्रेरणा की तरह। सोचना भूतों से खेलना है। यह चक्र श्री ईसामसीह जी का है । वे इस चक्र पर निवास करते हैं । वे ही साक्षात् महाविष्णु रूप में अवतरित हुए। वास्तव में क्रिश्चियन, उनके ऐसा होने के विषय में एकदम नहीं जानते कि, कैसे वे क्राइस्ट बने और क्यों ईश्वर ने धरती पर स्वयं आकर अपना काम नहीं किया बल्कि श्री ईसामसीह को भेजा। ये अत्यन्त महत्वपूर्ण अवतरण हैं। वे सृष्टि के रचनात्मक तत्व हैं। श्री गणेश जी मूलाधार चक्र में निवास करते हैं और क्रमश: श्री गणेश ही आज्ञा-चक्र पर जिजस क्राइस्ट के रूप में उत्परिणत (evolve) हो गये। वे सृष्टि के मूलतत्व हैं। जैसे कि हमारा तत्व श्री कुण्डलिनी है। उसी प्रकार सारी सृष्टि स्वयं तत्व और आश्रय है। इस अवतरण में श्री ईसामसीह सृष्टि रचना के तत्वरूप हैं जैसे कि परिवार में पति-पत्नी एवं बच्चे| पति-पत्नी एवं घर के सारतत्व बच्चे हैं। जब तक पति-पत्नी संतान नहीं पाते तब तक दाम्पत्य जीवन का कोई तात्पर्य ही नहीं। इसी तरह श्री जिजस क्राइस्ट प्रथम ध्वनि 'ओम' के मूलतत्व थे। जब आदिपिता ( परमेश्वर) एवं आदि माँ (आदिशक्ति) एक दूसरे से अलग हुए तब उन्होंने ॐ ध्वनि का निर्माण किया। श्री जिजस क्राइस्ट इस तरह वही ॐ शब्द हैं जो सारी सृष्टि के पालनकर्ता और उससे अधिक आश्रयदाता हैं। क्योंकि वे सारतत्व हैं जिसका कभी नाश नहीं होता। हमारा तत्व हमारी आत्मा है। और आत्मा का कभी नाश नहीं होता। शरीर का नाश हो जाता है पर तत्व (आत्मा) रह जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता। ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवतरण हैं। श्री जिजस क्राइस्ट हमारे आज्ञा चक्र के मध्य में स्थित हैं; जहाँ पर ऑप्टिक नाडी एवं ऑप्टिक थैलेमस एक दूसरे को काटती हैं। यह एक अतिसूक्ष्म बिन्दु है । यह दो तरह की ध्वनियाँ 'हम्' एवं 'क्षम्' उत्पन्न करती हैं। 'हम्' दायीं तरफ-प्रतिअहंकार में तथा 'क्षम्' बायीं तरफ अहंकार में स्थित है। 'हम्' एवं 'क्षम्' दो तरह की सूक्ष्म लहरियाँ उत्पन्न करती हैं। 'हम्' शब्द 'मैं हँ, मैं हँ' की लहरियाँ उत्पन्न करती हैं। हमारी अस्तित्वात्मक शक्ति से 'हम्' शक्ति आती है। जिससे हम जानते हैं कि हमें इस दुनियाँ में रहना है और हम मरने नहीं जा रहे हैं। कोई भी मनुष्य जो अपनी हत्या स्वयं करना चाहता है, वह सामान्य नहीं कहा जा सकता। 'हम' अर्थात् 'मैं हूँ की शक्ति से ही, साधारणतया प्रत्येक जीवधारी चाहे मानव हो या पशु, अपने जीवन को अक्षुण्ण बनाये रखना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। प्रतिअहंकार (सुपर इगो) दाहिनी तरफ हैं। यह प्रति अहंकार बहुत सारी चीज़ों के कारण आप बहुत कंडिशन्ड हो गये हैं; असर के फलस्वरूप आप चिन्ता का अनुभव करते हैं और आप में यह भय उत्पन्न करते हैं। यह आपके पुराने अनुभव व भय आपके अन्दर प्रतिअहंकार में बैठ जाते हैं और यह भय आपकी अमिबा अवस्था से शुरू होकर आजतक प्रतिअहंकार (सुपर इगो) में संचित है जिसके कारण से आप पुलिस आदि से भयभीत हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इनसे भयभीत नहीं होते परन्तु किसी और ही वस्तु से भयभीत होते हैं। आपकी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, आपके सब पुराने अनुभव प्रतिअहंकार में हैं। यह केन्द्र 'हम्, हम्' - 'मैं हूँ-मैं हूँ' आप हैं, घबड़ायें नहीं..... का संदेश भेजते रहता है। आप अहंकार एवं प्रतिअहंकार में अन्तर देख सकते हैं। एक आक्रमक है तो दूसरा अधिनस्थ एवं भय उत्पन्न करने वाला । 'हम्' कहने मात्र से चैतन्य लहरियाँ भय को दूर भगाएंगी। इस तरह से आप 'हम्' का उच्चारण करके परमेश्वर की सहायता पा सकते हैं । के को | भ 24 १ अहंकार एक दीर्घकाय समस्या है। इसका समाधान दूसरों को क्षमा करना है। आपको क्षमा करना सीखना चाहिए। यदि आपके द्वारा किसी को ठेस पहुँची हो तो आपको क्षमा माँगनी चाहिए। अत्याधिक अहंकार का अर्थ है कि, आपने उसे अधिक मात्रा में लाड़ देकर बिगाड़ (पैम्पर्ड) दिया है। आप अपने हृदय में विनम्र होइए। आपका हृदय आपकी आत्मा है। अत्याधिक अहंकार आपकी आत्मा को ढ़क लेता है, आवरण कर लेता है। यह आपको बुद्धिहीन एवं मूर्ख बनाता है। आप अहंकारी व्यक्ति को जान जाएंगे जब वह अपना ही ढिंढोरा पीटने लगता है और फलत: अपने आपही शीघ्र मुर्ख भी बन जाता है। ऐसे मनुष्य को जो समझते नहीं, वो लोग स्वत: आश्चर्य में पड़ जाएंगे, विशेषतया बालक वर्ग कि, उस मनुष्य को क्या हो गया? मनुष्य अहंकार के चक्कर में इतना महान मूर्ख बन जाता है कि वह ईश्वर की सत्ता तथा अपना ईश्वर से सम्बन्ध को भी भूल जाता है। 'अहंकार महोदय' हमें मूर्खतापूर्ण कार्य करने को प्रेरित करते हैं जैसे किसी देश में ऐसे कानून बनाना कि दामाद अपनी सास से शादी करे। यह एक असम्भव चीज़ है क्योंकि सास 'माँ' है। यह कार्य निकृष्टतम है। अहंकार के चक्कर में यह भी जानना कठिन है कि वह (अहंकार) हमें कैसे मूर्ख बनाता है, जबकि वह हमें हमेशा मूर्ख बनाता रहता है। सोचने विचारने से भी अहंकार बढ़ता है। अधिक अहंकार में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। महाअहंकारी का व्यवहार इतना बचकाना होता है कि आयु का कोई लिहाज नहीं होता। बच्चे सोचते हैं हमारे माता-पिता इतने मूर्ख क्यों हैं जबकि हम ईश्वर खोज में तत्पर हैं। हो सकता है कि महायुद्ध के कारण वे क्षुब्ध हो गये हैं। अहंकार एक ऐसी वस्तु है जो प्रत्येक वस्तु के विषय में सोचने को बाध्य करती है जैसे कि यात्रा के पहले ही पहुँचने के बाद की परियोजना, और यात्रा का मजा किरकिरा हो जाता है क्योंकि परियोजना के अनुसार यात्रा नहीं हो सकती। एक बुद्धिमान आदमी हतोत्साहित नहीं होता, जैसे होता जाता है, वो उसके अनुसार चलता है 'अहंकार महोदय' कभी यह नहीं चाहते कि आप सुखी एवं सुविधापूर्वक रहें। ये हमेशा विचार देते रहते हैं कि यह करो, वह करो , जब तक कि आप बर्बाद न हो जाएं। अहंकार से कोई फायदे नहीं। प्रात:काल से संध्या तक क्षमाप्रार्थी बने रहें और अपने दोनों कानों को खीचें और कहें कि 'हे परमात्मा हमें क्षमा करें।' प्रात:काल से सायंकाल तक उनको ( क्राइस्ट) स्मरण करते रहें। सदा याद करने से, जिजस क्राइस्ट आपके अहंकार को नीचे ले आएंगे। उन्होंने आपके लिए हरेक सम्भव प्रयत्न किया ताकि आप अपने अहंकार का विकास न होने दे। वे एक बढ़ई के पुत्र के रूप में वे साधरण रूप से पालपोसकर बड़े हुए थे। उन्होंने अपने को पर्दे के पीछे रखा। वे रोमन सम्राट के रूप में भी जन्म ले सकते थे। परन्तु उन्होंने वहाँ जन्म लिया जहाँ एक सामान्य पुरुष भी जन्म लेने से हिचकिचाते हैं। परन्तु वहाँ प्रकाश भी था और आनन्द भी था। हमने आनन्द को खो दिया है क्योंकि हम ईश्वर को भूल गये हैं। ईश्वर प्रेम और आनन्द हैं। लोगों के पास प्रचुर मात्रा में समृद्धि और धन है फिर भी वे खुश नहीं है। आप उनसे जो कुछ भी कहेंगे वे आप से क्रोधित हो जाएंगे। वे किंचितमात्र भी सामान्य मानव नहीं है, वे रोगी हैं। | | आज्ञा 25 ह ह क्षमा याचना कोई कठिन कार्य नहीं है। हम तो दिन में एक बार भी याचना नहीं करते। एक महीने में एक बार भी नहीं, यहाँ तक कि वर्षभर में एक बार भी नहीं। क्रिसमस दिवस के त्यौहार पर भी आप क्षमा याचना नहीं करते हैं, बल्कि आप तो मदिरा एवं अन्य मादक वस्तुओं का पान करते हैं। कभी-कभी अहंकार, प्रतिअहंकार पर इतना अधिक दबाव ड्रालता है कि अन्य लोगों को आपके क्रूर एवं पीड़ादायक शब्दों से ठेस पहुँचती है। जिस तरह से संसद में सदस्य आपस में बात करते हैं वह बहुत ही बुरा है। वैसा तो जानवर भी नहीं करते। अहंकार एक दूसरे से टकराते रहते हैं। वे आपस में हमेशा कहते रहते हैं, 'मैंने यह किया, वह किया' पर वे आनन्द को खो चुके हैं। तर्क-वितर्क महामूर्खतापूर्ण व्यवहार का संकेत है। यह आपको किसी भी ज्ञानर्जन की ओर नहीं ले जा पाएगा बल्कि केवल अहंकार की पुष्टि करेगा। समस्त पश्चिमी समाज अहं ( इगो) भावना से ओत-प्रोत है। पश्चिमी समाज का अहंकार यह है कि उन्हें अर्द्धविकसित देशों का पथ प्रदर्शन करना है। यह पूर्णरूप से डींग से भरा पड़ा है। लोग अच्छे स्वास्थ्य के लिए पागल संसद सदस्यों की भाँति दौड़ते रहते हैं। अच्छा स्वास्थ्य रखने के लिए पागलों की तरह कार्य करने की आवश्यकता नहीं है । आपको एवं प्रतिभावान व्यक्ति बनना होगा। अच्छे स्वास्थ्य के लिए विवेक की अत्यन्त आवश्यकता है न कि चतुर अहंभाव की तथा उससे प्रभावित अन्य अहंकार प्रभावित वस्तुओं की जैसे आपकी दौलत, आपकी कार, मकान आदि का प्रदर्शन की। वे बिल्कुल जोकर की तरह से हैं। चाहे घर में खाने को न हो परन्तु एक बड़ी कार अवश्य रखेंगे। ये सब वस्तुएं केवल अहंकार को ही फुलाकर पुष्ट बनाती हैं। समस्त विज्ञापन अहंकार को ही परिपुष्ट करते हैं। जब आप प्रकृति के विरुद्ध लड़ाई छेड़ते हैं तो आपके अन्दर अहं का विकास होता है। हम अहंकार के बिना जीवन के सम्बन्ध में कुछ सोचते ही नहीं । 'मैं, मैं, मैं' ऐसे बातचीत करना, अपने विचारों की प्रधानता देना, अशिष्टता है। आप कौन हैं? मैं शाश्वत अमर आत्मा हूँ। हमने ईश्वर में विश्वास खो दिया है, क्योंकि जो ईश्वर के ठेकेदार हैं वे उद्दण्ड हैं और अत्याधिक अहंकारी हैं। और अहंकारी को ईश्वर के बारे में सोचना असम्भव है। अहंकार एक पानी के बुलबुले की भाँति क्षणभंगुर एवं एक फूले हुए गुब्बारे की तरह से अधिक फूलने पर फट पड़ेगा। अहंकार अवश्य नष्ट होगा। अतः अहंकार को तोड़कर ही आप जो साक्षात् आत्मा हैं, अपनी आत्मा में बढ़ सकते हैं। हम लोगों को क्राइस्ट से सहायता मांगनी होगी। क्राइस्ट ने अपने को सूली पर चढ़ा दिया । ऐसा क्यों किया ? उन्होंने क्या किया ? उन्होंने सिर्फ रोमनवासियों एवं यहदियों के अहंकार को चुनौती दी, जो उनसे नाराज़ थे। यही कारण था कि उनको सूली पर चढ़ाया गया था और अब हमें अपनी अहंकार को उनके क्रॉस के माध्यम से सूली पर चढ़ाना पड़ेगा, वरना हम भी वही करने जा रहे हैं। अर्थात् हम अपने अहंकार में श्री क्राइस्ट को ऑप्टिक थैलेमस पर जहाँ वे रहते हैं, सूली पर चढ़ाने जा रहे हैं। आपको श्री क्राइस्ट को जागृत करना होगा अहंकार को सूली पर चढ़ाने के लिए । आपको निर्विचार अवस्था में रहना होगा क्योंकि आप विचारें से परे हैं। आज्ञा एक बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र है। जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र को पार करती है तब आदमी निर्विचार हो जाता है। यहाँ तक कि अहंकार एवं प्रतिअहंकार से भी कोई विचार नहीं आता। हमें अपनी आज्ञा चक्र को सुदृढ़ बनाना है। आज्ञा हमारे ऑप्टिक एवं थैलेमस नाड़ी के संधिस्थल पर स्थित है । यह कहा जाता है कि, यदि आपकी आँखें चंचल एवं चलायमान हैं तो आपका आज्ञा चक्र भी चंचल एवं चलायमान होगा। आपको अपनी आँखों को निर्मल एवं सुखद बनाने के लिए उन्हें स्थिर एवं सुदृढ़ करना होगा। आँखों को सुखद बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ हरी हरी घासों पर दृष्टि डालते हुए रखना है। इसलिए श्री क्राइस्ट ने चंचल, चलायमान एवं अपवित्र आँखों के संबंध में चर्चा की है। अतः प्रत्येक पुरुष एवं स्त्र को ध्यान देना चाहिए कि, कोई अपवित्र आँखे न रखे-ऐसा श्री क्राइस्ट ने कहा। आपको अत्यन्त गहन, गंभीर और प्रेममय होना है। आप अपनी आँखों के द्वारा ही विचारों को पाते हैं। यदि आपकी आँखें बन्द हैं तो आपके विचार भी कम होंगे क्योंकि आपका चित्त सी चीज़ों को नहीं देख पाएगा। यदि आपकी आँखें खुली हुई हैं तो ज़्यादा विचार आएंगे क्योंकि सब जगह आपकी नजर जाएगी और साथ ही आपका चित्त भी। इस तरह आपके खाते में और अधिक विचार संग्रहीत होते जाते हैं और अधिक विचारों की रचना भी होती है। बहुत अपना चित्त हमेशा अपनी आत्मा एवं ईश्वर में लगाना है क्योंकि उसे ईश्वरीय झरोखे से ही चमकना है। जिस तरह से हम अपनी पवित्र आँखों का दुरुपयोग कर रहे हैं और उसका असम्मान कर रहे हैं, उस तरह से हम इस सुन्दर चीज़ (आज्ञा, चित्त) को नष्ट कर रहे हैं। भूमि पर जमी हरी हरी घास के जैसी पवित्र कोई अन्य चीज़ है ही नहीं। अत: हम लोगों को अपनी दृष्टि को हरी घास से भरपूर पृथ्वी माता पर रखनी चाहिए न कि बेकार लोगों की ओर घूरते रहें। जब आपकी अपवित्र आँखें इधर उधर चलायमान रहती हैं, तो कोई भी बाह्यसत्ता जिसे हम सहजयोग में बाधा कहते हैं, आपके अन्दर घुसपैठ कर सकती है। प्रीतिभोज आदि के अवसरों पर जब चित्त बाहर की ओर इधर उधर भागता रहता 26 है, उस काल में बाह्य बाधाएं आसानी से एक दूसरे के अन्दर आदान प्रदान करती हैं। हमेशा हम यह भी नहीं जान पाते कि, हम आकर्षण क्यों महसूस करते हैं। किसी व्यक्ति पर दृष्टिपात करने से कुछ भी प्राप्ति नहीं होती है, बल्कि केवल शक्ति का ही ह्रास होता है। अपवित्र दृष्टि एवं चंचल आँखों वाले मनुष्य का पागल होना अवश्यसम्भावी है । हमारे अस्सी प्रतिशत विचार आँखों के ही माध्यम से आते हैं। अत: व्यर्थ एवं निरर्थक क्रियायें छोड़नी पड़ेंगी। श्री जिजस क्राइस्ट के विचारों को आदर देना होगा। उन्होंने एक वेश्या का उद्धार किया था । एक अच्छी महिला को बुरे विचार देकर आप बर्बाद करते हैं । कुमारी पवित्र छोटी बालिकाएं आपकी गन्दी नज़रों से दूषित हो जाती हैं। श्री क्राइस्ट ने जो करा उससे एकदम आप विपरीत कर रहे हैं। क्या आप वेश्या बनना चाहते हैं, जिससे श्री क्राइस्ट पुन: आकर हमारा उद्धार करें। क्या यह पागलपन नहीं है! जब आप पार हो चुके हैं और फिर आप किसी पर अपना चंचल दृष्टिपात करते हैं तो आपके सिर में अकस्मात ही पीड़ा अनुभव कर सकते हैं। या महसूस कर सकते हैं, कि किसी ने आपके सिर में कंकड़ मारी है। आप ऐसा अनुभव कर सकते हैं या महसूस कर सकते हैं कि, कोई आपको अन्धा बना रहा है। अतः आपको जानना चाहिए कि आपकी आँखें कितनी महत्वपूर्ण हैं। किसी तरह की नाड़ी दुर्बलता संबंधी रोग को ठीक किया जा सकता है, यदि आपकी आँखें पवित्र हैं । यह एक ऐसा विषम चक्र है कि समस्त बुराइयाँ आज्ञा चक्र में एकत्र होती हैं और आपको अपनी आँखों को स्वच्छ रखने के लिए अपनी आज्ञा को साफ करना होगा। हमें क्षमा प्रार्थना करनी होगी। हमें श्री क्राइस्ट को अपनी आज्ञा में लाना होगा। हमें समस्त मादक दवाओं और चीज़ों का परित्याग करना होगा, जो कि सहजयोग में स्वाभाविक रूप से छूट जाता है। आँखें हमारे समस्त व्यक्तित्व, मस्तिष्क, शरीर तथा अन्य अवयवों का प्रदर्शन करती हैं | यदि आपका आज्ञा चक्र सही है तो आपकी आँखें भी बिल्कुल सही हालत में होंगी। ऐसी पवित्र आँखें जहाँ तक जाएंगी, वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं प्रदर्शित करेंगी। ऐसी स्थिति में अपनी आँखों से देखकर ही आप दूसरे की कुण्डलिनी को जगा सकते हैं; लोगों के रोग निवारण कर सकते हैं और बर्बाद हुए व्यक्तियों को आनन्दमय बना सकते हैं। ये आँखें आपके व्यक्तित्व की खिड़की हैं। आपकी आत्मा आपके आँखों के माध्यम से ही देखती है और जब कुण्डलिनी उठती है तो आँखें फैल जाती है। एक पार हुए व्यक्ति की आँखों में जमीन आसमान का अन्तर होता है। एक पार हुए व्यक्ति की आँखें हीरे की तरह चमकती हैं। यदि आपकी आँखें पवित्र नहीं हैं तो आपकी आत्मा आपकी आँखों से नहीं दिखलाई देगी। हमें अपने मन की समस्त अशुद्धियों को निकाल बाहर करना होगा। हमें अपनी आँखों का आदर करना होगा। मनोवैज्ञानिकों का आज्ञा बहुत ही खराब होता है। दो प्रकार की मानसिक यातनाएं होती हैं। मनोवैज्ञानिक न तो किसी की मानसिक बीमारी को ठीक कर सकते हैं और न शांति ही प्रदान कर सकते हैं। एक तो वह जिसमें लोग आपको बहत सताते हैं आपको किसी का भी दास नहीं बनना चाहिए। क्रास धारण करना क्राइस्ट के संबंध में गलत धारणा है। यदि कोई आपको दास बनाने की कोशिश करे तो आपको उसका पूर्णरूप से परित्याग करना चाहिए। आपको कहना चाहिए 'हम्' मैं हूँ। इस सृष्टि में आप किसी पर अधिकार जताने वाले होते ही कौन हैं? ऐसे लोग अपने कर्तव्य से मुख मोड़ने वाले होते हैं। हमें अपने आत्म सम्मान के साथ ऊपर उठना है। जो व्यक्ति जिजस क्राईस्ट के स्तर के होते हैं और वास्तव में क्रास धारण करते हैं वो तो पीड़ित हो ही नहीं सकते, ऐसा मानना बिलकुल गलत है। प्रत्येक मानव अपना आत्म-सम्मान रखता है। और प्रत्येक को अपनी आत्मा का सम्मान करना है जो उसके अन्दर है। चाहे आप किसी देश के रहने वाले हों या किसी मत के मानने वाले हों, किसी का भी अधिपत्य आत्मा पर नहीं होना चाहिए। ये सब ईश्वर के साम्राज्य में टूट जाएंगे। कोई भी किसी की आत्मा पर अधिपत्य जमाने का अधिकार नहीं रखता। आप नहीं जानते कि अपनी स्वतन्त्रता का उपयोग दूसरे पर अधिकार जमाकर नहीं हो सकता। आप दूसरे की आत्मा पर प्रभुत्व दिखा रहे हैं, उनके जमीन, जायदाद और सम्पत्ति पर अधिपत्य जमाकर। आप ऐसे या वैसे दोनों तरह से अपनी ही आत्मा के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। आप अपने को मध्य में खड़े रखकर सिर्फ अपने को देखिए । और आप देखेंगे कि, आप सिर्फ प्रेम की ही वर्षा दूसरों पर कर रहे हैं। यदि आप स्वयं एक दास हैं तो आप कैसे दूसरे से प्रेम कर सकते हैं ? अर्थात् कभी आप प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम अपनी सीमाएँ रखता है जो कि, अत्यन्त मृद्ल और सुन्दर है। आपको प्रेम में उनके साथ रहना होता है। यदि एक नन्हा बालक आपके घर आता है, वह आपके घर को खराब कर देगा। उस बच्चे को वैसा करना चाहिए और आपको उसका आनन्द उठाना चाहिए। यदि आपकी स्वतन्त्रता, बच्चे के चिल्लाने से आघात अनुभव करती है तो आप बुद्धिमान मनुष्य नहीं है। वह आपकी कोरी मनमानी या अकेलापन है। इस तरह आप अपने को उस अपने बड़प्पन से, उस परम पिता परमेश्वर से अलग रखते हैं क्योंकि आप दूसरों की स्वतन्त्रता को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखते। हमें स्वतन्त्र होना है अर्थात् जब एक नन्हा बालक अपने घर में ही नहीं चिल्ला सकता, अपने मन के मुताबिक खा पी नहीं सकता तो यह किस प्रकार की स्वतन्त्रता है। यह भ्रम है। यह दासत्व से उल्टा है। परन्तु दोनों के मध्य में प्रेम है। 27 हरेक क्षण छोटे मोठे बन्धनों से भरपूर है । यदि पति अपनी पत्नी से कुछ खाने की इच्छा प्रकट करता है और पत्नी जी चुराती है जबकि वास्तव में पत्नी को खुश होना चाहिए और उसे चाहिए कि वह उस छोटी माँग की प्रेमपूर्वक पूर्ति करे। आपस में झगड़कर आप क्या पा सकते हैं? इस तरह का सूखापन, अकेलापन एवं शूलता हमारे अन्दर है, उससे तो कोई फायदा नहीं। यदि आप श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो आप कोई बलिदान नहीं कर रहे हैं बल्कि पा ही रहे हैं श्रेष्ठ जीवन बनाकर। सत्य को कहा ही जाता है। यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो आपको वास्तविकता पर आना होगा। दोस्तो हम किस प्रकार की रिश्तेदारी रखते हैं? उदाहरणतया यदि हम क्रिसमस कार्ड नहीं पाते तो हमें बुरा लगता है, अन्य लोगों के बन्धन में आने का प्रयास करें । आप दुसरों से प्यार करना आरम्भ कीजिए, घबराईये नहीं। आप चकित हो जाएंगे कि वे कितना आपको देते हैं। आपकी माँ, इसका जीवित उदाहरण हैं। आपकी प्रज्ञा (विज्ड़म), विवेक-बुद्धि एवं प्रतिभा को उन्मुक्त कीजिए। जो बाहर एवं भीतर को कलुषित करते हैं उन्हें बाहर निकाल फेंकिए। पेड़, पौधों को प्रेमभरी नजरों से देखने का प्रयत्न कीजिए और आप पाएंगे कि वे पेड़-पौधे आपको सृष्टि की रचना का आनन्द देना शुरू कर देते हैं क्योंकि आप निर्विचार हो जाएंगे और सृष्टिकर्ता जिसने उस सुन्दर वृक्ष की रचना की है, उसमें संचित सम्पूर्ण आनन्द को उड़ेलना शुरू कर देता है। प्रत्येक मानव असीम आनन्द का एक भण्डार है। इसे वृथा मत गंवाइये, इसलिए कि या तो वह उचित कपड़ों में सुशोभित नहीं है या जैसा आप चाहते हैं वैसा नहीं है जो कि आपने पब्लिक स्कूल में सीखा है। प्रत्येक दरवाजे पर सर्वत्र सुन्दरता बिखरी पड़ी है, उसे आप खोयें नहीं। पर यदि आपमें प्रत्येक वस्तु पर स्वामित्व की भावना है तो आप इसका आनन्द एकदम नहीं उठा सकते-उस समस्त २ु० ० ० ४ कु गट ८ सुन्दरता का भण्डार जो कि प्रत्येक मानव प्राणी में है, प्रत्येक क्षण हिलोरें ले रहा है। जब मैं आप लोगों को क्रिसमस की शुभकामना देती हूँ तो वह समय आज्ञा चक्र के लिए बहुत अच्छा क्षण है। प्रत्येक को जानना चाहिए कि क्या आज्ञा देनी है और कैसे आज्ञा का पालन करना है। परमेश्वर की आज्ञा का पालन करें। अपने बड़ों की आज्ञा पालन करें, अपनी स्वयं की आज्ञा का पालन करें, पर अपने अहंकार को नहीं। फिर आप दूसरों को आज्ञा दे सकते हैं। सिर्फ मानव को ही नहीं बल्कि सूर्य, चन्द्र एवं वायु तथा संसार की समस्त वस्तुओं को भी। इस आज्ञा चक्र से आप प्रत्येक वस्तु का नियंत्रण कर सकते हैं। यदि आप जानते हैं कि कोई आपको हानि पहुँचाने जा रहा है तो आप उसका नाम अपनी आज्ञा चक्र पर लें, वह वैसा नहीं कर पाएगा। यह पार व्यक्तियों के लिये एक चालाकी है। जो कुछ भी आप अपनी आज्ञा पर कहते हैं उसका आदर किया जाता है पर आपकी आज्ञा को शुद्ध और निर्मल होना होगा। आपकी आज्ञा पर श्री क्राइस्ट को विराजमान होना होगा। क्योंकि आपके अन्दर एक महान आधार का जागरण हुआ है जो समस्त अणुओं, परमाणुओं में व्याप्त है और सर्वत्र, सब जगह बसा है। अत: आप अपनी आज्ञा पर पूर्ण स्वामित्व कर लें जो कि आपका स्वामी है। जिनका आज्ञा चक्र अच्छा है वे किसी भी चीज़ का स्वामित्व प्राप्त कर सकते हैं। आप वास्तव में अपना स्वामी खुद बन सकते हैं। मेरी शुभकामना है कि आपकी आज्ञा बहुत ही शक्तिशाली हो ताकि जब लोग आपकी ओर देखें तो समझ जाएं कि क्राइस्ट का पुनर्नजन्म आपके अन्दर हुआ है। | कुछ परमात्मा आपको सदा सुखी रखे। ॐ माताजी श्री निर्मला माँ नमो नमः न छा ु ॐ ा केी ब्रहण 30 सा गर्भवति महिलाओं ने कभी भी सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण को देखना नहीं चाहिए क्योंकि यदि वे सूर्यग्रहण देखती हैं तो उनमें शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। उनसे जन्मे बच्चों के हाथ-पैर टेढ़े हो सकते हैं, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हो सकते हैं। यदि वे चन्द्रग्रहण देखती हैं तो उनको मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। (Le Raincy, फ्रान्स, १७.८.१९८७) अधिकतर बच्चे अपंग इसलिए होते हैं क्योंकि माताओं को गर्भावस्था में क्या करना है? कैसे रहना है? इसकी जानकारी नहीं होती। यदि आप गर्भावस्था में ग्रहण को देखेंगे तो अपंग बच्चा पैदा हो सकता है। गर्भावस्था में अधिक समय तक डूबते हुए सूरज को देखने से बच्चे की आँखें कमजोर होती है। (सार्वजनिक कार्यक्रम, रोम, इटली, २९.४.१९८२) अब आप लोगों को ये जान लेना चाहिए कि आपको सूक्ष्म बनना है। फिर प्रश्न ये उठता है कि 'कैसे बने?' कैसे बने ये सूक्ष्म एक समस्या है। उदाहरण के लिए आज सुबह में पूजा करने का प्रश्न था। उन्होंने कहा कि आज सूर्यग्रहण है और आज का दिन इतना महान है कि अगर आज पूजा की जाए तो हजार बार किए गये पूजापाठ के समान का पूर्य प्राप्त होगा। अब, अगर इसे देखा जाए तो ये सुनने जानने के लिए बहुत अच्छा लगता है, ये सच भी है। ज्योतिषशास्त्र के पर्यावलोकन में इसके बारे में और ये सब लिखा गया है कि ये बहुत महान चीज़ है और हम इसका आचरण करने लग जाते हैं। आप सहजयोगी होने के नाते बड़ी सूक्ष्मता से इसका हमला करना चाहिए। इसी तरह से आपकी विवेकता में सूक्ष्मता बढ़ सकती है, आपके आचार - विचार में भी सूक्ष्मता आ सकती है। ऐसे सवाल सूक्ष्मता से हमला करने के लिए तो सबसे पहले आपको ये जान लेना चाहिए कि आपको सहजयोगी होना पड़ेगा। इसके लिए कोई तन्त्र की आवश्यकता नहीं है, बस अपने चैतन्य लहरियों को देखिए इस प्रश्न पर, शुरूआत में ये बहुत ही सरल है। सूक्ष्म चीज़ें सरल चीज़े होती हैं। स्थूलकाय चीजें उलझाऊ होती है। ये बहुत ही सरल समीकरण है। सरल चीज़ होती है चैतन्य लहरियों को महसूस करना इस मोड़ पर कि क्या आज की पूजा, सही में योग्य है या नहीं। आपको आश्चर्य होगा कि आपके दायीं बाजू गर्म हो जाएगी इस पर । ("Open your Heart', लोनावला, भारत, २५.१.१९८२) आप ने ग्रहण देखा है क्या? नहीं। अच्छा हुआ। हम जब आ रहे थे तब चॉँद को ग्रहण लगा हुआ था। और मैं उसे बन्धन लगा रही थी। ग्रहण के समाप्ती के बाद ही हम वहाँ पहुँचे थे। धन्य है कि आपने नहीं देखा। मैं बहुत खुश हूँ। (Ramdas Temple, सातारा, भारत, ३०.१२.१९८२) 31 सूजी-बेसन हलवा ए. ुर की री A८F wwwwmAN २ु ह सामग्री : ५ समतल बड़े चम्मच जमा हुआ घी, १०० ग्राम सूजी, ३० ग्राम बेसन, ४०० मि.ली. गर्म दूध, १/४ छोटा चम्मच केसर करीब ५ बड़े चम्मच चीनी या स्वादानुसार, १/२ छोटा चम्मच इलायची पाऊडर, ७० ग्राम खोआ, (पृष्ठ १९८ देखें) १ बड़ा चम्मच बादाम छिलका उतरे व बारीक कटे हुए, १ बड़ा चम्चम कटे हुए काजू, १ बड़ा चम्मच किशमिश विधि :- १) एक बर्तन में १ बड़ा चम्मच घी गर्म करें और सूजी को हल्का सुनहरा होने तक भूनें व अलग रखें। २) एक दूसरे बर्तन में १ बड़ा चम्मच घी गर्म करें और बेसन को हल्का सुनहरा होने तक भूनें। ३) उसमें भूनी हुई सूजी और ३ बड़े चम्मच घी डालें, मिलाएं और एक मिनट और भूनें। ४) गर्म दूध व केसर डालकर हिलाते हुए ५ मिनट तक पकाएं या जब तक सूजी पक जाए। ५ ) चीनी व इलायची पाऊडर डालें, हिलाते हुए कुछ मिनट और पकाएं। बादाम, काजू एवं किशमिश डालें और अच्छी तरह मिलाएं| 32 थल सब लोग यह याद रखिए कि मैं अब आपकी वाणी में मधुरता पाऊं। आपकी बातचीत में मिठास पाऊं, आपके व्यवहार में सुरूचि पाऊं। मैं डस चीज़ को अब माफ नही करूंगी, इसको आप जान लीजिए। किसी को भी किसी चीज़ के लिए दुःख देना बुरी बात है। कृपया एकदसरे का आदर कीजिए। आप सहजयोगी हैं, दूसरे भी सहजयोगी हैं। आज आप किसी पद पर है, दूसरा नही, ये पद आपने पाया हुआ नही, हमने दिया हुआ है। और जब चाहे इस पद से हम आापको हटा सकते हैं। इसलिए मेहरवानी से डसके योज्य वनै । नम्रतापूर्वक डसे करें । श्री माताजी निर्मला देवी प्रकाशक निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा लि. प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हौसिंग सोसायटी , पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ E-mail : sale@nitl.co.in आज हम एत् की ए सकत हैं। सकते हैं। यै किसी ऐरेणेे का काम नहीं । इस मार्ग पर आने वाले लोगों में श्रद्धा का होना जरुरी है । आए सादी, भीलाUन और परमत्मा को जानने की उत्सुकता रहैणी ती आए कहाँ से कहाँ पहुँच सकते हैं ।.... २५ मार्च १९७७ ही ---------------------- 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी जुलाई-अगस्त २००९ १ ० ८ १ ्ु हिन्दी ा 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-1.txt ... jagaddhitaya Krishnaya Govindaya Namo Namah || श्रीकृष्ण शक्ति पं्म लि कथ क श्री. कृष्ण शक्ति जागृत होती है तब आपका सम्बन्ध विराट से होता है। इसमें आपको समष्टि दृष्टि आती है। इसका अर्थ आप मेरी तरफ या मेरी फोटो की तरफ हाथ फैलाकर वैठोगे तो श्रीकृष्ण शक्ति जागृत होकर आप विराट से सम्बन्धित होते हैं और आपके हाथ में ये जो श्रीकृष्ण की विराट शक्ति सर्वत्र फैली हुई है, उससे चैतन्य जा सकता है। (हाथ में जा सकता है) जिस समय आपके हाथ से ये श्रीकृष्ण शक्ति बहने लगती है तब आपमें साक्षी भाव आता है। इसका मतलब आप सभी वातें किसी नाटक की तरह देखते हैं। असल में यह सब नाटक ही है। श्रीकृष्ण जी की उस समय की लीला या प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने उस समय जो कुछ किया वह सभी नाटक ही था। इतने सुन्दर ढंग से उन्होंने वह नाटक प्रस्तुत किया कि वेसम्पूर्णत: उसमें समरस होगये। श्रीकृष्णजी नेअनेकलीलाऐं की। वो पूर्णावतार थे। जब मनुष्य में पूर्णत्व आता है तब वह विश्व की ओर नाटक की तरह देखता है और वह सम्पूर्ण साक्षित्व में उतरता है। उस समय वह भ्रमित भी नहीं होता और दुःखी भी नहीं होता, न सुखी होता। वह आनन्द में समरस रहता है। यह श्रीकृष्ण शक्ति से होता है। २५/९/१९७९ 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-2.txt ा डस अंक में गुरु पूजा - २ सद्गुरु तत्व - १० सत्ी - बेसन हलवा ३२ आजञा - २र ग्रहण - ३0 क পররে 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-3.txt गुरु. पूत्रा एक शिक्षक की रूपांतर के लिए आपको सहतयोग का ज्ञान होना चाहिए। कबेला, २० जुलाई २००८, अनुवादित 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-4.txt स भी सहजयोगियों के लिए आज एक महान दिन है। क्योंकि आपके भीतर सहस्रार खुला, आप सब परमात्मा के अस्तित्व को महसूस कर पाए। केवल यह कहना काफी नहीं था कि परमात्मा है तथा यह कहना कि परमात्मा नहीं है, ये गलत है, बहुत गलत है तथा इस प्रकार की बातें कहने वालों को कष्ट उठाने पड़े। केवल साक्षात्कार लेने पश्चात् ही आपको ज्ञान होता है (जान जाते हैं) कि परमात्मा है तथा चैतन्य लहरियाँ के हैं। संपूर्ण विश्व में यह एक बहुत बड़ी शुरुआत है। आज इसी कारण में आपसे कहती हूैं कि यह आपके लिए महानतम दिनों में से एक दिन है। आप में से बहुत से लोगों ने अपनी हाथों पर तथा मस्तिष्क में से शीतल लहरियों का अनुभव किया है। कुछ लोगों ने सहजयोग में प्रगति लोग अभी भी पीछे ही है । की है और कुछ कुछ लोग अभी तक अपनी पुरानी पकड़ों के साथ चल रहे हैं। किंतु अब मुझे कहना है कि आपमें से से लोग अर्थात शिक्षक बन सकते हैं। तथा आपको एक गुरू बहुत की भाँति आचरण करना होगा। एक शिक्षक की रूपान्तर के लिए आप को गुरु- सहजयोग का ज्ञान होना चाहिए। और उसका अनुभव भी पूर्णतया होना २ि चाहिए और उसके अनुसार बत्ताव भी करना चाहिए, इसके बाद आप महान गुरू बन सकते हैं। यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, एक गुरू के लिए बहुत समझदारी भी। सर्वप्रथम आपमें कोई अहंकार नहीं होना चाहिए । आपके किसी भी चक्र में कोई पकड़ नहीं होनी चाहिए। आपको हर समय पूर्ण रूप से स्वच्छ बने रहना होगा। तथा आपके दोनो हाथों से चैतन्य लहरियाँ बहती रहनी चाहिए। यदि लहरियाँ एक हाथ से आ रही हो तथा दूसरे हाथ से नहीं तो आप एक गुरू नहीं बन सकते । अतः आपको एक परिपूर्ण सहजयोगी बनना होगा, केवल तभी आप एक गुरू बन सकते हैं। और आपमें से कई लोग बन सकते हैं पर आपको पहले पता लगाना होगा, क्या आप गुरू बनने के लायक हैं अथवा नहीं? विनम्रता से आप समझ जाएंगे। जो यह सोचते हैं कि वे गुरू बन सकते हैं, उन्हें गुरू बनना चाहिए, क्योंकि अब मैं एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा नहीं कर सकती और आपको मेरा कार्य करना होगा, जो कि लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्रदान करना है। किंतु उसके लिए आपको सामूहिक रूप से आत्मसाक्षात्कार प्रदान करने में समर्थ होना होगा, केवल तभी आप गुरू बन सकते हैं। यदि आप सामूहिक रूप से आत्मसाक्षात्कार प्रदान कर सकते हैं तभी आप एक गुरू बन सकते हैं। आप मेरी फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं, किंतु साक्षात्कार फोटो से नहीं बल्की आपसे होना चाहिए। केवल तभी आप गुरू बन सकते हैं। वे महिला हों अथवा पुरूष, दोनो ही गुरू बन सकते हैं और हर जगह 3 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-5.txt सहजयोग को फैला सकते हैं । मेरे संपूर्ण यात्रा कार्यक्रम में कनाड़ा छूट गया तथा मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि आपमें से कुछ लोग कनाड़ा जाएं क्योंकि यह एक बेहद खूबसूरत जगह है तथा वहाँ पर बहुत सुन्दर सहजयोगी जन हैं। आप लोगों को अब मेरा कार्य करना है। में हर जगह नहीं जा पाऊँगी किंतु आपको दूसरे देशों में जाना होगा तथा नए सहजयोगी बनाने होंगे। आप यह कर सकते हैं । आरंभ में आप मेरी फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं, किंतु बाद में नहीं। आपको केवल फोटोग्राफ को वहाँ रखना हैं। आप | अपनी शक्तियों का प्रयोग करें तथा आत्मसाक्षात्कार प्रदान करें। आप यह कर सकते हैं तथा इस प्रकार हम सहजयोग को पूरे विश्व में फैला सकते हैं। अब तक मैंने इस कार्य में कोई कसर नहीं छोड़ी, किंतु मुझे नहीं लगता कि अब मैं और अधिक यात्रा कर पाऊँगी। अत: मैं आप से कह रही हैूँ कि आपको इसकी जिम्मेदारी ले लेनी चाहिए और ये कार्य करना चाहिए। (आप अवश्य इसे कर सकते हैं।) इसका अर्थ यह नहीं कि आप मुझे हटा दें- नहीं, कदापि नहीं । मैं आपके साथ हूँ। तथा जहाँ भी आप कार्य करें, वहाँ आप मेरी फोटोग्राफ को स्थापित करें। किंतु आत्मसाक्षात्कार आपको ही प्रदान करना होगा तथा सामूहिक साक्षात्कार प्रदान करने का प्रयास करें। अगर ये इस तरह से कार्यान्वित नहीं हो रहा है तो जान लें कि आप गुरू नहीं है। यदि आप सामूहिक आत्मसाक्षात्कार दे सकते हैं, केवल तभी आप गुरू हैं अन्यथा आप नहीं । है मैंने कहा कि आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं, किंतु लोगों को साक्षात्कार आपको ही देना होगा। यह एक गुरू होने का लक्षण है। तब आपको ज्ञात होगा कि कौन से भिन्न केन्द्र हैं तथा लोगों में क्या कमियाँ हैं । मैंने बहुत स्पष्ट रूप से बता दिया है । इसी प्रकार, आप पाएंगे कि जो साक्षात्कार के लिए आते हैं, उनमें कुछ दोष हैं तथा उनमें कौन से चक्र पकड़े हैं। उन चक्रों को 6. शुद्ध करना आपको आता है, अत: आप उन्हें बताएं कि कैसे शुद्ध करना है। अब आप सहजयोग में पारंगत हो गए हैं, इसलिए अब आपको पता होना चाहिए कि क्या (युक्ति) करना है। यदि आप सोचते हैं कि आप पारंगत हो गए हैं, यदि आपको विश्वास है कि आप पारंगत हो गए हैं, तो फिर आप गुरू बन सकते हैं। किंतु सर्वप्रथम आप पता लगाएं तथा स्वयं जाँचे कि क्या आप एक गुरू हैं अथवा नहीं। आपकी यह जिम्मेदारी है कि में | अब आप लोगों को साक्षात्कार प्रदान करें और आप प्रदान कर सकते हैं अगर आपमें लहरियाँ हैं, जैसी एक गुरू होनी चाहिए। अथवा ये महिलायें भी कर सकती है, उन्हें गुरूई कहते हैं, न कि गुरू, अपितु गुरूई । किंतु उन्हें भी गुरू कहा जा सकता है तथा वे भी इस कार्य को बहुत अच्छे ढंग से कर सकती है। फिर लोगों की समस्याओं को दूर करना कोई कठिन कार्य नहीं रहेगा। यह एक बहुत बड़ी शक्ति है जो आपने प्राप्त की है। आप सब को इसे इस्तेमाल करना चाहिए। | सहजयोग किस प्रकार बढ़ेगा सबसे पहले, यदि आप चाहें तो एक समूह का प्रयोग कर सकते हैं तथा बाद में आप इसे व्यक्तिगत रूप से करें। क्या आप अनुमान लगा सकते हैं, आप सभी कि आप गुरू बन जाएं तो संपूर्ण विश्व में कितने सहजयोगी हो जाएंगे? जो कुछ भी आप सिखाएं, आप अवश्य आचरण में लाएं। जो व्यक्ति शराब पीता हो वह कभी भी एक गुरू नहीं बन सकता। जो व्यक्ति इश्कबाज़ है तथा जिसका जीवन लम्पटपूर्ण है वह कभी भी एक गुरू नहीं बन सकता। अत: पहले से स्वयं को परखें, क्या आप शुद्ध हैं या नहीं? यदि बहुत बाधित लोग गुरू बनने का प्रयत्न करें, वे कभी भी नहीं बन सकते। ईमानदारी से फोटोग्राफ के सम्मुख जो कुछ भी आप सिवाएं बाए आप अवश्य आचरण के लाएं। जाँचे 4 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-6.txt कि 'आप बाधित हैं, फिर आप एक गुरू नहीं हो सकते।' अतः अब गुरू बनने के लिए पहले स्वयं की आलोचना करें, स्वयं को पूर्ण रूप से जानें फिर आप एक गुरू बन सकते हैं। में किसी को व्यक्तिगत रूप से नहीं बताना चाहती हूँ, किंतु आप सभी पता लगा | सकते हैं। मान लें, चार-पाँच लोग आपस में मिलें तथा वे एक दूसरे से पता लगाएं कि क्या वे ठीक हैं या नहीं, क्या कोई कमी है, क्या वे पकड़े हुए हैं। किंतु यदि वे कह दें कि आप ठीक हैं, फिर आप गुरू बन सकते हैं तथा आप सहजयोग का प्रचार कर सकते हैं । यह आपकी जिम्मेदारी है। इस प्रकार सहजयोग बढ़ेगा। अन्यथा, मेरे अलग हो जाने के बाद अथवा मेरा कहीं न जाना, इस कारण से सहजयोग व्यर्थ हो जाएगा। अत: यह आप पर है कि आप मशाल, प्रकाश को थामें। अब यह आपकी जिम्मेदारी है। आपने अपने साक्षात्कार को प्राप्त कर लिया है। मैंने जिम्मेदारी के साथ जन्म लिया था। मैंने पूर्ण समझ के साथ अहंकारी जन्म लिया था। तथा इस समय आपको स्वयं को समझना होगा। जब तक कि आप स्वयं का साक्षात्कार प्रारंभ नहीं कर लेते, तब तक स्वयं को मत कोसें। परंतु सतर्क रहें। अहंकारी मत बनें। आपको बहत ही विनम्र होना होगा, सब के साथ बहुत विनम्र। तथा इसे कार्यान्वित करें, क्योंकि यदि वे साक्षात्कारी आत्माएं नहीं हैं, आप उन्हें निकम्मा नहीं ठहराएं अपितु धैर्यपूर्वक तथा मधुरता से उन्हें कहें कि 'आप ठीक नहीं हैं।' उन्हें बताएं कि किस प्रकार ध्यान करें, कैसे सुधार लाएं। यह इस समय एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। वास्तव में, मैंने यह कार्य किया है तथा आप भी इस कार्य को कर सकते हैं। বत बनें। आपको बहुत ही विन् अतः आप सबको गुरू बनना होगा। यह गुरूपूर्णिमा का दिन है तथा मैं आपको आशीष देती हूँ कि आप सभी गुरू बन जाएं। जो भी आपने अब प्राप्त किया है, इसे बर्बाद मत होने दें, इसे गँवा न दें, अपितु इसे लोगों की भलाई के लिए इस्तेमाल करें। यदि आप चाहें, शुरू में, चार-पाँच लोग इकठ्ठा हो जाएं, फिर आप अलग हो जाएं। आपको इसके लिए समय देना होगा। आपने अपना साक्षात्कार प्राप्त किया है, किंतु आपको साक्षात्कार देना होगा अन्यथा आपकी स्थिति ठीक नहीं है, सामान्य नहीं है। होना होगा, अत: आज मैं आपसे कहना चाहती हैँ कि एक गुरू के लिए कौन से गुणों की आवश्यकता है। सर्वप्रथम, उसे एक निर्लिप्त व्यक्ति होना पड़ेगा। इसका अर्थ ये नहीं कि आप अपना परिवार या कोई चीज़ छोड दें, किंतु आपमें एक निर्लिप्त मनोवृत्ति होनी चाहिए, कि आपके परिवार में कोई गलत काम करे तो आप उससे दूर हो जाएं। सब के साथ खुशियाँ फैलाने के लिए :- दूसरी बात, अपने साक्षात्कार के माध्यम से आप समझ सकते हैं कि आप खुशियाँ फैला सकते हैं तथा उनकी समस्याएं सुलझा सकते हैं। जो भी कुछ मैंने किया है वह आपने देखा है-आप यह कर सकते हैं। आपके पास यह करने की शक्ति है, लेकिन आपको जरा भी पाखण्ड नहीं, कोई पाखण्डी नहीं होना बहुत विनग्र। चाहिए, अन्यथा आप सहजयोग का नाम खराब कर देंगे। अत: यदि आप स्वयं के बारे में आश्वस्त हैं, तभी आप गुरू बने तथा सहजयोग का कार्य करें। मैं मानती हूँ मैं आपको अपना सम्पूर्ण आशीष प्रदान करती हूँ तथा मेरा पूरा समर्थन कि आप जिम्मा लें और गुरू बनें। आप सभी पूजाएं भी करवा सकते हैं फिर आप फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं। आपने यह समझा है कि इसे किस प्रकार कार्यान्वित करना है। तथा यदि किसी व्यक्ति में दोष हैं अथवा चक्र पकड़े हैं तो आप उस व्यक्ति को बताएं कि कैसे इसे ठीक करें-फोटोग्राफ के सम्मुख सबसे अच्छा रहेगा | कुछ तथा बहुत विनम्रता से आप उन्हें बताएं कि क्या करना है। तथा आप सभी लोगों को बचा सकते हैं। अतः मैं अब उपलब्ध नहीं हूँ - मेरे हिसाब से मैंने भरपूर कार्य किया है तथा मैं सोचती हूँ कि मैं इसे पुन: नहीं कर सकती। मेरी वृद्ध आयु की वजह से नहीं , परंतु मैं आपको सहजयोग अंत: 5 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-7.txt फैलाने की एक संपूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करना चाहती हूँ। आपने इसे नि:शुल्क प्राप्त किया है तथा आपको भी लोगों को इसे नि:शुल्क प्रदान करना होगा, उनसे पैसा नहीं लेना है, या केवल पूजाओं के दिन ही ले सकते हैं। सतर्क रहें कि जब तक आपकी पुष्टि न हो जाएं तथा आप विश्वस्त न हो जाए कि आपने कम से कम सौ सहजयोगी, अच्छे सहजयोगी बना लिए है, फिर वे आपकी पूजा भी कर सकते हैं। किंतु सबसे अच्छा होगा कि आप प्रतीक्षा करें तथा देखें। जब तक कि आपमें से हर एक ने एक हजार लोग न तैयार कर लिए हों तब तक आप पूजा के चक्कर में न पड़ें। इसके बाद आपको पूजा का अधिकार है। किंतु जब तक आप पूर्णरूप से ठीक नहीं हो जाते आप मेरे फोटोग्राफ के द्वारा पूजा कर सकते हैं। आत्मविश्वास प्राप्त करना ही अब मुख्य बात है। स्वयं को दोष मत दें आप सभी साक्षात्कारी आत्माएं हैं , किंतु जिन्हें लगता है कि वे गुरू बन सकते हैं-वे बन सकते हैं तथा कोशिश करें। आपको साधकों के साथ धीरज से काम लेना होगा। आप क्रोधी एवं गुस्सैल नहीं हो सकते। जब तक वे आपको परेशान नहीं करते, आप अपना आपा न खोएं। आप शांत बने रहें। अधिकतर गुरू गुस्सैल हैं या पूर्व में रहे हैं तथा इसी कारण मैं सोचती हूँ कि वे अपने क्रोध में व्यस्त रहे तथा कोई अच्छी चीज़ नहीं दे पाए। वे कभी भी साक्षात्कार नहीं दे पाए । अतः मुझे आपको सावधान करना है: अपने क्रोध को नियंत्रित करें। स्वयं को देखें क्या आप क्रोधित होते हैं, फिर आप एक गुरु नहीं बन सकते। गुरू को एक प्रेममय व्यक्ति होना चाहिए, बहुत प्रेममय एवं समझदार । फिर आपको विनम्र होना होगा; न लोगों को अपशब्द कहें , न उन पर चिल्लाएं। यदि वे दुर्व्यवहार करें, आप उन्हें बाहर जाने के लिए कह सकते हैं, लेकिन चिल्लाएं नहीं । यदि आपको लगता है कि कोई व्यक्ति दुर्व्यवहार कर रहा है, आप उस व्यक्ति को बाहर जाने के लिए कह दें। लेकिन आपको उस व्यक्ति पर चिल्लाने अथवा गुस्सा करने की कोई जरूरत नहीं है । अतः अब यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। आपने अपना साक्षात्कार प्राप्त किया है , इसलिए लोगों को साक्षात्कार देने के लिए आप चार या पाँच लोग मिलकर एक सहजयोग टोली बनाएं, कोशिश करें । नि:संदेह, मेरा फोटोग्राफ वहाँ होगा लेकिन फिर भी आप अवश्य प्रयास करें। समझने का प्रयत्न करें कि अब आपकी जिम्मेदारी क्या है। यदि एक एक पद दिया गया है तो आपको सदैव उस पद की जिम्मेदारी का वहन करना होता है। ठीक इसी प्रकार यदि आप गुरू बनते हैं तो आपके पास जिम्मेदारी की एक निश्चित मात्रा होती है कि शुरू में आपका खुद का आचरण बहुत अच्छा हो। शुरुआत में आप उनसे नहीं कह सकते कि 'चर्च मत जाओ' या 'यह मत करो, वह मत करो।' आप उन्हें साक्षात्कार दें तथा फिर आप उनसे बात कर सकते हैं। शुरुआत में, आप उन्हें नहीं बताएं अन्यथा वे आपको टालने लगेंगे। उन्हें उसी रूप में स्वीकार कर लें जैसे वह हैं। शुरूआत में, यदि सम्भव हो तो आप लोगों को रोगमुक्त भी नहीं करें। प्रारम्भ करते हुए आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं किन्तु उन्हें रोगमुक्त न करें। बाद में, जब आप आश्वस्त हों, तो चार-पाँच लोग मिलकर उस व्यक्ति का उपचार करें । रोगमुक्ति बहुत आसान नहीं है तथा आप पकड़े जा सकते हैं, अत: किसी पर कार्य करने से पहले आप बन्धन अवश्य लें। बन्धन बहत अच्छा है। आपको यहाँ तक कि, बाहर जाने से पहले भी बन्धन लेना चाहिए। यदि संभव हो सके तो आप एक अच्छा भाषण भी तैयार करें। अब आपको बहुत सारी बातें मालूम हैं तथा आप उनसे बात कर सकते है। यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। ...आप क्रोधित होते हैं, फिर आप एक गुरू नही बज सकते। गुरू को एक प्रेममय व्यॉक होना चाहिए. बहुत प्रेगगय एवं समझदार! शक्ति तथा प्राधिकार अब मैं वर्ष १९७० से कार्य कर रही हूँ तथा आज बहुत 6. 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-8.txt कड ह ३ বি म वर्षों तक मैंने बहुत कठिन परिश्रम किया है, किंतु, अब मैं यह नहीं कर सकती। मुझे वापस लौटकर थोडा विश्राम करना है;B जैसा सबने कहा है तथा आप भी मानेंगे। किंतु, यदि यह जरुरी हो तो, आप मेरे बारे में बता सकते हैं। किंतु मेरे फोटोग्राफ का उपयोग करें। वे जिन्हे लगता है कि वे अगुआ हो सकते हैं तथा गुरू के जैसे हो सकते हैं, उन्हें सबसे पहले अपनी चैतन्य लहरियाँ देखनी चाहिए। मेरे फोटोग्राफ पर ध्यान करें तथा पता लगाएं। आपको पूर्ण रूप से ईमानदार होना होगा कि आप शत प्रतिशत ठीक हैं तथा कोई पकड़ नहीं है फिर आप एक गुरू बन सकते हैं। आपको होना होगा। पहले हो सकता है आपको दो लोग मिलें, फिर तीन। मैंने पाँच लोगों से शुरुआत की थी। अत:, आप अनुमान लगा सकते हैं कि व्यक्ति को इसके साथ कैसे चलना है। सबसे पहले दो, तीन, पाँच तथा अधिक से कोशिश करं। इसके बाद आप विज्ञापन भी कर सकते हैं। यदि आपने दस लोगों को साक्षात्कार प्रदान कर दिया है तो आप अपना संगठन या जो भी आप इसे कहना चाहें, भी शुरू कर सकते हैं। तथा इसे कार्यान्वित कर सकते हैं। 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-9.txt अब आपके पास शक्ति है, आपके पास अधिकार है, किंतु आपमें एक तबियत भी होनी चाहिए। आरंभ में, आपको बहुत धैर्यवान एवं दयालु-बहुत दयालु होना पड़ेगा। फिर धीरे-धीरे आपको मालूम होगा कि आप लोगों को रोगमुक्त भी कर सकते हैं। प्रारंभ करते हुए आप मेरे फोटोग्राफ का उपयोग कर सकते हैं तथा बाद में आप देखेंगे कि आप रोगमुक्त कर सकते हैं। सबसे पहले चैतन्य लहरियों पर, आप पाएंगे कि कौन से चक्र पकड़े हैं, कौन से ठीक हैं, कौन से खराब हैं। इसके बाद उन्हें ठीक करें। यदि कुछ गलत है तो आप इसे अवश्य ठीक करें इसके बाद गुरु बनें। यह मान लेने से कि 'मैं गुरू हूँ' आप गुरू नहीं बन जाते, किंतु आपका स्वयं पर बहुत, बहुत अधिकार होना चाहिए। आपको स्वयं को जाँचना होगा। सबसे पहले, आप जाँचे कि, क्या आप गुरू बन सकते हैं? फिर आप मुझे अपनी रिपोर्ट भेजें। मुझे जानने में बहुत खुशी होगी कि आपमें से कितने लोग अब हो गए हैं। तथा इसी प्रकार सहजयोग बढ़ेगा, नि:स्संदेह! यह इस चरण में नहीं रूक सकता क्योंकि में एक ओर हट रही हूँ; किंतु इसलिए कि अब आप बहुत सारे सहजयोगी हैं। यह बढ़ेगा और कार्यान्वित होगा। किंतु मैं सोचती हूँ कि, अब मैं यात्रा नहीं कर सकती तथा मैं वापस जा रही हूँ। मैं पुन: वापस आने में समर्थ नहीं हूँ-संभव नहीं है। इसलिए अच्छा होगा कि, आप स्वयं ही इसे कार्यान्वित करें। आप मुझे अवश्य लिखें यदि कोई कठिनाईयाँ हों, यदि कोई व्यक्ति पकड़ा हो अथवा कुछ बात हो या आपमें कोई समस्या हों। मुझे नहीं लगता कि अब कोई समाचार पत्र आपकी आलोचना करेगा। वे यह मेरे लिए कर चुके हैं, किंतु आपके लिए नहीं । आप सभी मुझे वचन दें कि, आप गुरु बनने का प्रयत्न करेंगे । मैंने आपसे कोई पैसा नहीं लिया, आपसे कुछ नहीं लिया। मैं केवल यह चाहती हूँ कि, आप सहजयोग का प्रचार करें । शुरू में, पूजाओं में भी कोई उपहार अथवा धन न लें। आप उनसे केवल थोड़े पैसे ले सकते हैं यदि आपको एक हॉल अथवा बड़े स्थान की आवश्यकता हो। लेकिन वह काफी बाद में। सबसे पहले, लोगों से शुरू करें। यह बहुत अच्छे ढंग से बढ़ेगा। थोडे अब एक अन्य चीज़ है पूजा। शुरू में आप उन्हें स्वयं की पूजा करने की अनुमति न दें। जब तक कि आपने तीन सौ सहजयोगी न बना लिए हों, आप उन्हें स्वयं की पूजा करने के लिए नहीं कह सकते। शुरू में आप पूजा के लिए मेरे फोटोग्राफ का उपयोग करें, किंतु बहुत सावधान रहें। अब आपके पास शक्तियाँ हैं तथा यह आपके अहंकार को बढ़ा सकती है। हो सकता है आप सोचना शुरू कर दें कि आप महान हैं - बिलकुल नहीं। आपने संसार की रक्षा करनी है। मेरा सारा कार्य वही है। तथा मैं आपसे कहूँगी कि आप मुझे भारत में पत्र लिखें यदि कोई समस्या हो तो। यह भी लिखें कि आप किस प्रकार सहजयोग का प्रचार कर रहे हैं, क्या हो रहा है। मैं जानना चाहूँगी। किंतु मैं सोचती हूँ कि आप समझेंगे कि अब मुझे निवृत्त हो जाना चाहिए। मैं यात्रा नहीं कर सकती। यदि आपका कोई प्रश्न हो, मुझे पूछे। जो विश्वस्त हैं कि वे गुरू बन सकते हैं। अपना हाथ उठाएं। ओह! इतने सारे। और केवल एक हाथ., दो भी नहीं। यदि कोई व्यक्ति पैसा बना रहा है, आप उसे ऐसा करने के लिए मना करें तथा मुझे भी लिखें। प्रारंभ में आप धनार्जन नहीं कर सकते। किंतु जब आपके पास लगभग तीन हजार लोग हों, आप सभी पूजा दिनों को मना सकते हैं तथा पूजा कर सकते हैं। किंतु आपमें से प्रत्येक कम से कम तीन हजार शिष्य आपने संसार अवश्य बनाए। फिर आप पूजा के लिए कह सकते हैं। ऐसे कुछ लोग हैं जो कभी भी गुरू नहीं बन सकते। जो पकड़े हुए हैं तथा जिनमें समस्याएं हैं। यदि की रक्षा करी है। नेरा सारा कार्यवही है। 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-10.txt ট भाभ ा ८ आपमें समस्याएं हों तो गुरू न बने अन्यथा यह आपको प्रभावित करेगा । किंतु यदि आप सोचते हैं कि आप निर्मल हैं तथा खुले हुए हैं, फिर आप गुरू बन सकते है। क्या कोई प्रश्न है? मैं अंतर्राष्ट्रीय सहजयोग के लिए एक केन्द्र खोल रही हूँ तथा जब आपने तीन सौ सहजयोगी बना लिए हों, आप उनसे पूजा करने के लिए कह सकते हैं तथा धन ले सकते हैं। उससे पहले, यदि आप कुछ धन प्राप्त करें तो इसे उस केन्द्र पर भेज दें। उस केन्द्र में लगभग ग्यारह सदस्य होंगे तथा मैं यह घोषित करूंगी। यदि आपका कोई प्रश्न है तो अभी मुझसे पूछे । पहले तीन सौ लोगों से आप कोई पैसा न लें। हॉल के सिवाय, लाऊडस्पीकर के सिवाय अथवा अन्य खर्चों के सिवाय । किंतु आप स्वयं के लिए कोई पैसा न लें। क्या अब आप दुबारा हाथ खड़े कर सकते हैं, कितने लोग गुरू होना चाहते हैं? परमात्मा आपको धन्य करें! ८ 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-11.txt सद्गुरु तत्व मुंबई, २५ सितम्बर १९७९ नीई ० हॉ ***** हि क ० 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-12.txt आ प में से जो लोग पहले सहजयोग के तीन लेक्चर्स से आए हैं, उनके लिए ज्यादा आसान होगा समझने के लिए क्योंकि गुरू का स्थान हमारे अन्दर काफी ऊँची जगह है। गुरू का स्थान हमारे अन्दर स्थित है। कोई उसमें नई चीज़ करने की नहीं है। परमात्मा ने हमारा ये जो साधन बनाया हुआ है, ये इन्स्ट्रमेन्ट है। इसको बहुत सुन्दरता से बनाया है। इसके एक-एक चक्र जो की हमारे लिए अटृश्य ही है लेकिन अन्दर स्थित है। और जिसमें ये दृश्य जगत हमें जान पड़ता है, वहुत सुन्दरता से रचे हैं। किंतु मनुष्य अति में रहता है, हमेशा अति में जाने की वजह से उसने अपने इस साधन को बिगाड़ लिया है। उसी प्रकार गुरू का जो स्थान है उसे भी मनुष्य ने पूरी तरह से बिगाड़ लिया है। अब गुरू का स्थान हमारे अन्दर इस पूरी जगह या प्रांत में है, इस पूरे देश में गुरू का स्थान है। पेट के अन्दर चारों तरफ नाभि चक्र से जुड़ा हुआ। नाभि चक्र पर मैंने एक दिन पहले बात की थी। इसमें मैंने विष्णु की शक्ति का वर्णन किया था। और विष्णु की शक्ति के ही कारण आज आप अमीबा से इन्सान बने हैं। और इसी शक्ति के कारण आप इन्सान से अतिमानव वनने वाले हैं। अब ये जो गुरू की शक्ति हमारे अन्दर परमात्मा ने पहले से ही स्थित की हुई है, इसके लिए अनेक गुरूओं के अपने अन्दर अवतरण हुये है। अब पहले हम लोग देखें कि गुरूतत्व बना कैसे? इसको समझना चाहिए कि, गुरुतत्व अनादि है और वो कैसे बनाया गया? हमारे अन्दर तीन शक्तियाँ अट्ृश्य रूप से काय्यान्वित रहती हैं। प्रथम शक्ति जो है उसको हम कहते हैं महाकाली की शक्ति। आप कहिए कि आपके अस्तित्व की शक्ति, जिससे आपमें अस्तित्व है, इस सृष्टि में अस्तित्व है, इस संसार में अस्तित्व है, वो शक्ति श्री महाकाली की है, जो हमारे अन्दर 'इड़ा' नाड़ी से चलती रहती है। इस नाड़ी का स्थान हमारे बाईं ओर, जिसे कहना चाहिए कि लेफ्ट साइड में रहता है और लेफ्ट साइड की ईड़ा नाड़ी लेफ्ट साइड सिम्पथैटिक नव्वस सिस्टम को चालित रखती है। इसलिए लेफ्ट साइड की जो हमारी ईड़ा नाड़ी है वो हमें इच्छा देती है। इच्छा करने से ही मनुष्य कार्यान्वित होता है। और इसलिए दूसरी जो राइट साइड की जो पिंगला नाड़ी है वो हमें क्रियाशक्ति देती है। इसको हम महासरस्वती की शक्ति कहते हैं। तो हमारे पास एक तो महाकाली की शक्ति है और दूसरी हमारे पास महासरस्वती की शक्ति है। क्योंकि हम इनके नाम अंग्रजी में नहीं कह सकते इसलिए बहुत से लोग सोचते हैं कि ये बड़ा ही अनसाइंटिफिक मामला है। लेकिन इससे बड़ा साइन्स और कोई भी नहीं हो सकता क्योंकि जो चीज़ आपने देखी ही नहीं, जो आपके लिए अलग है, जो परोक्ष में है, जिसे आपने जाना नहीं, जो ऊपर में हैं, उसे आपने देखा लेकिन उसके पीछे की शक्ति को ही आपने नहीं जाना है। तो उसके बारे में बात करने से भी आप विश्वास नहीं कर सकते। लेकिन सहजयोग में जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और जब कुण्डलिनी ऊपर की ओर उठने लगती है तव आप देख सकते हैं कि ये दोनों नाड़ियों (इड़ा और पिंगला) के असन्तुलन आदि अनेक दोषों के कारण कुण्डलिनी किस तरह से रुक जाती है फिर किस तरह से उसे सन्तुलन देना पड़ता है। ये दोनों शक्तियाँ एक और तीसरी शक्ति से प्लावित है, जो कि महत्वपूर्ण है और जो कि हमारी कमाई है। विष्णु की शक्ति के ही १ १ काटण आन | आप अमीबा से इब्सान बने है । आज हमारी मानव चेतना जिस तरह से है, ये हमारी तीसरी शक्ति का द्योतक है। ये महालक्ष्मी की शक्ति है। इस शक्ति से आज हम अमीबा से इन्सान बने । अगर मनुष्य अमीबा रह जाता तो क्या हर्ज था? कौनसी ऐसी आफत आयी हुई थी कि, इतनी योनियों में से गुज़र के आज मनुष्य का सुन्दर स्वरूप परमात्मा ने निर्माण किया। क्या कभी आप सोचते हैं कि क्यों परमात्मा ने हमें मनुष्य ए 11 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-13.txt बनाया। क्या विशेषता हमारे अन्दर हैं? जिसकी कि अभी तक हमें गन्ध ही नहीं। और हम जानते भी नहीं है। उसकी हमें खबर भी नहीं है कि हम किसलिए संसार में आएं हैं? ये साधन जो विशेष तरह का एक मानव वनाया गया है वो किसलिए बनाया गया है? इस मानव को पहले समझ लेना चाहिए कि, ये महालक्ष्मी शक्ति से हमारे अन्दर आज इस स्थिति में पहुँचा है जहाँ मानव चेतना पहुँची है। विस्तारपूर्वक मैंने एक दिन पहले बताया था इसलिए इन तीनों शक्तियों के बारे में मैं अभी चर्चा नहीं करूंगी। लेकिन ये तीनों शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं और इन तीनों शक्तियों का समन्वय जहाँ होता है, ये तीनों शक्तियाँ जव एकत्रित हो जाती हैं और इन तीनों शक्तियों का जब विल्कुल बाल्य स्वरूप पैदा हो जाता है कि जो किसी भी चीज़ से खराब नहीं हो सकता। जिसके अन्दर किसी भी तरह की त्रुटियाँ नहीं आ सकती, जिसके अन्दर किसी तरह का अहंकार नहीं आ सकता, जो बिल्कुल हमेशा नई रहती है, ये तत्व गुरूतत्व है। बालक के अन्दर अहंकार नहीं होता। बालक के अन्दर किसी चीज़ से लगाव नहीं होता, वो पूरी तरह से निर्लि्त रहता है। अब देखिए, छोटे बच्चे खेलते हैं। खूब नाटक बनाते है। क्या-क्या चीजें बनाते हैं। उसके बाद उसको लात मारकर चले जाते हैं। या ज़्यादा देर खेलें, उसके बाद कुछ नाटक किया, उसके बाद सब खत्म हुआ। उनके लिए सभी कुछ नाटक रहता है और वे त्रयस्थ के जैसी बातें करते हैं। जैसे कि किसी छोटे बच्चे से कहो कि 'बेटे १ तुम घर जाओ।' तो कहेगा कि, 'माँ, ये जो मुन्ना है ना वो जाएगा नहीं।' माने वो कोई और है और ये मुन्ना कोई और है। हमेशा त्रयस्थ जैसी बात करते हैं। लेकिन जब मनुष्य बड़ा हो जाता है, धीरे-धीरे उसके अन्दर दो ग्रंथियाँ और दो विशेष तरह की संस्थाएं तैयार होती हैं। जिसको कि हम अंग्रेजी में 'इगो' और 'सुपर इगो' कहते हैं। ये हमारे अन्दर जो इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति है इसके उपयोग से होती है। अगर मनुष्य बहुत ज़्यादा इच्छाशक्ति से भरा हुआ हो और पूरी समय इच्छाएं करता रहे तो उसके अन्दर सुपर इगो नाम की शक्ति तैयार हो जाती है या ये कहना चाहिए कि एक संस्था तैयार हो जाती है। वो संस्था हमारे सर के अन्दर इधर से घूम करके इस तरफ में छा जाती है, जिस तरह से यहाँ दिखाया गया। दूसरी संस्था हमारे अन्दर क्रियाशक्ति से पैदा होती है। जिसे हम लोग अहंकार कहते हैं। और अंग्रेजी में 'इगो' कहते हैं। ये संस्था हर इन्सान में जो इन्सान कौनसा भी कार्य करता है, उसके अन्दर ये पैदा हो जाती है। इस संस्था का मतलब ये है कि मनुष्य सोचता है कि 'मैंने ये काम किया', 'मैंने मकान बनाया', 'मैंने ये घर बनाया| इस चीज़ के प्रति मनुष्य एक तरह का कर्तापन आता है, इस कर्तापन से ही ये अहंकार की संस्था तैयार हो जाती है। ये दोनों संस्थाएं जाकर के जब सिर के मध्य में, यहाँ फॉन्टिनल वोन की एरिया में जाकर के एक के ऊपर एक जम जाते हैं तब यहाँ 'कैल्सीफिकेशन' हो जाता है। और हमारी ये तालू बचपन में, 3-४ 6- में १ १ गुरुतत्व, जो हैं, १ साल की उमर में पूरी तरह से भर जाती है। तब इसका पूरापन असल में हम भाषा अपने बच्चे से बोलने लग जाते हैं और भाषा पर प्रभुत्व पा लेते हैं, तब अच्छे से जम जाता है। उसके भी वो ये इन अनेक कारण है। पर आज हम गुरूतत्व की बात कर रहे हैं। तीन शक्तियाँ अब गुरू तत्व जो है, वो ये इन तीन शक्तियाँ श्री महाकाली, श्री महासरस्वती और श्री महालक्ष्मी इन तीन शक्तियों का समन्वय है। और ये एकदम नूतन स्वरूप हमारे अन्दर श्री महाकाली, परमात्मा ने समाये हैं। आप सब तो जानते ही है कि दत्तात्रेय का जन्म किस तरह से हुआ। उसके बारे में फिर से मुझे बताने का नहीं है । लेकिन ये बात विल्कुल सही है कि जिस तरह से ये तीनों शक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु व महेश जब पावित्र्य के सामने जाकर खड़े हो गये, तो उस पावित्र्य ने उनको वो नूतनता, वो उनका भोलापन दिया, वो भोलापन से भरी हुई तीनों शक्तियाँ जो है वो एक दत्तात्रेय जी के अन्दर समाई हुई है। और वो हमारे पेट में बहना चाहिए, जिसे हम भवसागर कहते हैं, उसमें समाई हुई है। विराट के अन्दर जो भवसागर है उसके अन्दर ये शक्ति समाई हुई है। और ये अनेक बार जन्म लेती है। जैसे आदिकाल से देखा जाए तो श्री आदिनाथ ये भी इसी शक्ति के अवतार थे। एक ही शक्ति है जो अनेक बार जन्म लेती है। आदिनाथजी जो कि अभी भी जैन लोग वगैरा उनकी प्रार्थना करते हैं और उनको मानते हैं। लेकिन वो जानते नहीं कि ये शक्ति का अर्थ क्या है? | श्री महासरस्वती औट श्री महालक्ष्मी १ इन तीन शक्तियों का समन्वय है। 12 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-14.txt सवसे पहली चीज़ शक्ति में ये है कि शक्ति में कोई धर्मांधता नहीं है। सन्यासी की कोई जात नहीं होती। उसका कोई वर्ण नहीं होता है। सन्यासी का मतलब होता है कि वो सभी जाति, सभी धर्म, सबको मानता है। अगर कोई भी गुरू अपने को किसी एक विशेष धर्म का अभिनेता समझें तो समझ लेना चाहिए कि वो गुरू नहीं। गुरुतत्व की पहली शक्ति ये है कि उसके अन्दर सर्व धर्मों का जो निचोड है, जो essence है, उसकी जो नूतनता है, उसका जो भोलापन है वो उसके अन्दर भरा होना चाहिए। कोई भी अपने को किसी धर्मगुरू के नाम से सामने आता है, तो समझ लेना चाहिए कि ये एक झूठा आदमी है और उसके पीछे का जो धर्म है वो भी महाझूठा है। इसका आपको उदाहरण बता सकते हैं, जो सहजयोग में आप आसानी से समझ सकते हैं। १ १ मनुष्य एक महाशय हैं, हमसे मिलने आएं थे, जब हम लंडन में थे। कहने लगे, 'माँ, पेट का कैन्सर है, ठीक कर दीजिए।' वो मुसलमान है, इरान के रहने वाले, डॉक्टर है। मैंने उससे पूछा कि, 'तुम्हारा किस पर विश्वास हैं?' तो कहने लगे, 'मोहम्मद साहब पर।' मैंने कहा कि 'क्या सिर्फ मोहम्मद साहब पर है?' कहने लगे, 'हाँ!' 'किसी और पर नहीं? 'और किसी पे नहीं। तो मैंने कहा कि, 'मैं तुम्हारे पेट का कैन्सर नहीं ठीक कर सकती। मुझे माफ कर दो।' क्योंकि पेट का कैन्सर इस तरह की धर्मान्धता से होता है, कि एक मोहम्मद साहब मात्र है। मोहम्मद साहव हैं ये भी दत्तात्रेय के ही अवतरण हैं, पूर्णतया और कुछ नहीं। मतलब ये कि वे स्वयं साक्षात दत्तात्रेय है इसमें कोई शंका की बात नहीं। लेकिन वही एक अवतरण नहीं हैं। इसलिए मोहम्मद साहब ही उनके पेट में जाकर घुसे हुए हैं। समझ लीजिए आप इस देश के प्रेसीडन्ट है। आप महाराष्ट्र में आएं तो लोग आपका आदर करेंगे क्योंकि आप प्रेसिडन्ट है। पर अगर आप बंगाल में जाएं और आपका आदर नहीं हो तो क्या प्रेसिडन्ट साहब आपसे नाराज नहीं हो जाएंगे। उसी प्रकार ये एक ही शक्ति अनेक वार जन्म में आती है। और जब ये अनेक बार जन्म लेती है, हालांकि उसके नाम अलग होते हैं। उसकी जगह अलग होती है। जिस तरह की जरूरत होती है उसी प्रकार ये शक्ति संसार में जन्म लेती है। लेकिन कभी भी इसका ये अर्थ नहीं करना चाहिए कि वो एक शक्ति आई और उसके बाद कोई शक्ति नहीं आई। इस प्रकार हम लोग हमेशा करते हैं कि एक गुरू को मान लिया फिर और गुरू है ही नहीं। अब इन महाशय को, उनको तकलीफ थी पेट की २-3 दिन बाद फिर आये। कहने लगे, 'इसको तो ठीक करना ही होगा।' मैंने कहा, 'तुम्हें ठीक करना है तो तुम्हें दत्तात्रेय जी को मानना पड़ेगा, नानक जी को मानना पड़ेगा।' 'अच्छा, आप जो भी कहेंगी मानूँगा मैं।' फिर मैंने उनसे कहा कि 'अब तुम प्रार्थना करो नानक जी से कि मुझे क्षमा करें। मोहम्मद साहब से भी प्रार्थना करें कि मुझे क्षमा करें।' और उसके बाद उसका कैन्सर भी ठीक हो गया। आपको आश्चर्य होगा कि आजकल इतनी संस्थाएं-पोलिटिकल भी, राजनीतिक आदि बन जाती हैं। जिसमें लोग ये सिखाते हैं कि इनके धर्मगुरू खराब हैं, उनके धर्मगुरू खराब हैं। वास्तविकता ये है कि इनके जितने भी फॉलोअर्स हैं, और जो disciples हैं वो अपने ढ़ंग से कहते हैं। अरे, मुसलमान उतने ही बुरे हैं जितने हिन्दू, हिन्दू उतने ही बुरे हैं जितने ईसाई और ईसाई उतने ही बुरे हैं जितने और धर्म के लोग। उनके जितने भी डिसाइपल्स हैं, उन्होंने अपने गुरू को पहचाना नहीं। और उनके कहने के अनुसार विल्कुल न चलें। १ सबसे इसका एक उदाहरण मैं आपको दे सकती हूँ। समझ लीजिए कि ईसाई लोग, ईसामसीह ने अगर कोई बात खास कही होगी तो ये कि तुम लोग किसी भी मृत चीज़ के पीछे में मत जाओ और भूत-पिशाच आदि चीज़ों के पीछे तो विल्कुल भी पहली चीज़ शक्ति में नहीं जाना। किसी भी तरह से आपको चाहिए कि, भूत-पिशाच आदि जो भी कुछ मृत है, उससे दूर रहें। इतनी खुलके बात मेरे ख्याल से जितनी इसामसीह ने बताई है, सिर्फ नानक साहब ने बताई। इतनी खुलके बात बताने पर भी आप किसी भी ईसाई धर्म को जानने वाले या धर्म का पालन करने वाले, किसी भी राष्ट्र में जाकर देखो तो आपको आश्चर्य होगा, लंडन में जहाँ मैं रहती हूँ, हर एक चर्च के अन्दर में नीचे म्र्दे गड़े पड़े हैं। आप वहाँ पाँव रखे तो आपके पैर चटके खाएं। हर एक चर्च के अन्दर। मन्दिर के अन्दर उन्होंने मुर्दे गाड़ कर रखे हुए हैं। जिस चीज़ को विल्कुल मना ये हैं कि शक्ति में १ कोई धर्मान्धता नहीं। किया गया था। उसी को ये लोग बराबर करते हैं। 13 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-15.txt अब आप हिन्दुओं की अकल देखिए। हिन्दुओं की अकल उससे भी बढ़ के, हिन्दुओं के लिए ये भी बताया गया था कि सर्वधर्म एक है। इतना नहीं तो ये भी बताया गया था कि तुम्हारे अन्दर सबके अन्दर एक ही आत्मा का वास है। एक ही परमेश्वर का प्रतिविम्ब जो आत्मा है, सबके अन्दर एक ही आत्मा का वास है। अभी जाति-पाति लेकर झगड़ा करने वाले हिन्दूओं से बढ़ के कोई भी नहीं जब सबके ही अन्दर एक ही आत्मा सँवार है और जब ये भी बताया गया कि तुम्हारा पुनर्जन्म होता है, तब आज आप हिन्दू है तो कल आप मुसलमान होंगे। कल मुसलमान हैं तो कल ईसाई होंगे, नहीं तो कल आप चम्हार भी हो सकते हैं और नहीं तो आप निम्नश्रेणी के हो सकते हैं। अपने को बड़े-बड़े कहने वाले लोग सोचते हैं कि, हम बहुत बड़े भारी हिन्दू हैं। उनका व्यवहार ऐसा ही चम्हारों से भी बत्तर, क्षुद्रों से भी क्षुद्र, अतिक्षुद्रों जैसे हैं वो लोग। आप देखते हैं कि मन्दिरों में बैठ कर के वहाँ दक्षिणा वगैरा लेते हैं, उनके बारे में अगर आप देखें तो आपको विश्वास नहीं होगा कि इनका और परमेश्वर का कहीं सम्बन्ध भी है कि ये परमेश्वर के दुष्मन यहाँ बैठे हैं मैं वृंदावन गई थी। और मैंने देखा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि, जितने के जितने वहाँ पण्डे बैठे हुए है सारे राक्षस है राक्षस! और राक्षस ही नहीं सारे कंस के अनुचर हैं। वे कृष्ण के सामने बैठकर कृष्ण की बदनामी कर रहे हैं। इतना ही नहीं जितने भी वहाँ आते हैं उनके अन्दर भूत भरा है। और सबका सर्वनाश हो रहा है। इन मन्दिरों में से और इन सुन्दर जगहों में से कृष्ण स्वयं उठ गये हैं वो वहाँ रहना ही नहीं चाहते। ऐसी गन्दी जगह और आप देखते हैं कि आप रात-दिन लूट रहे हैं। आपके साथ इतनी ज्यादती कर रहे हैं। आपको इतना झूठ बता रहे हैं। गाँजा और क्या-क्या ये चीज़ें होती है वहाँ बेचते हैं। औरतों को वेचते हैं। जेवर चुराते हैं। कोई चीज़ उन्होंने छोडी नहीं। तो भी हम उनको महागुरू समझ के उनके चरणों में चले जाते हैं। आपने ये सब काम किये लेकिन आपके बच्चे ये काम नहीं करने वाले। इसका दुष्परिणाम एक ही होने वाला है। और दुष्परिणाम ये हैं कि, आपके बच्चे कहेंगे ये परमात्मा वगैरे कोई नहीं। ये सब झूठ बात है। ये एक ढ़कोसला है। इसका परिणाम अनेक देशों में हुआ है। जैसे हमारे एक शिष्य है। वो अल्जेरिया के रहने वाले हैं. मुसलमान हैं। वो जब लंडन आएं, लंडन में वो हमारे पास आए और कहने लगे, 'माँ, मेरा तो विश्वास ही नहीं भगवान पर। हमारे जितने भी युवा लोग हैं, पढ़े-लिखे, डॉक्टर्स हैं, आर्किटैक्टस हैं, वकील हैं उनका कोई विश्वास परमात्मा पर नहीं है। वो कहते हैं ये सब फेनटिसिज़म है, सब झूठ हैं, ये पैसा कमाने के धंधे और ये सारी संस्था ही विल्कुल गलत है। उसके | | वाद जैसे कि सहजयोग का एक बड़ा भारी वरदान रहता है, वो एकदम से पार हो गया। पार होने के बाद वो सहजयोग में जम गये। उन्होंने ५०० लड़कों को पार कराया। और उनका परमेश्वर पर का विश्वास विल्कुल दृढ़ है। जब आप एक अति से दूसरे अति तक जाते हैं 14 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-16.txt तभी बीचो-बीच ये गुरुतत्व आपको पकड़ लेता है। गुरू का मतलव वो होता है, जो आपको घसीट लें, खींच लें, आकर्षित करें। लेकिन आजकल के गुरू जो आपको आकर्षित करते हैं वो ऐसी नानाविध ऐसी-ऐसी चीजें करते हैं कि आप लोगों को आश्चर्य होगा कि आप ऐसे गुरू लोगों को क्यों मानें। ये तो कम से कम जानना चाहिए कि उनके अन्दर कुछ न कुछ मूलतम होना चाहिए, मूलत: उसमें कोई विशेषता है। गुरू का मतलब है आपसे ऊँचे उठे हुए आदमी। आपसे एक ऊँची दशा में पहुँचे हुए आदमी। आपसे जो निम्न स्तर से है वो आपके गुरू कैसे हो सकते हैं। जो आदमी पैसा खाता है, आपके पैसे पर जीता है, जो एक पैरासाइट है। आप कभी किसी के यहाँ जाकर मुफ्त रहेंगे? मुफ्त खाना खाएंगे? जो आदमी जिन्दगी भर यही करता आया, वो आदमी आपका गुरू कैसे हो सकता है। जिसने जिन्दगीभर कोई काम-धंधा नहीं किया और सिवाय आपसे पैसा लेकर उस पर जीता रहा। इस तरह के पैरासाइट आप सुबह से शाम तक पालते रहते हो। और उनकी गुरूमान्यता मान कर के दुनियाभर की चीज़े आप वहाँ भेजा करते हैं और उनको पूरी तरह से पूरी करते हैं। यहाँ तक इस चीज़ का पहुँच गया है मामला! कुछ गुरू तो ऐसे है अपने को सोने में, तो कभी हीरे में, तो कभी किसी चीज़ में तौल लेते हैं। और वो सारा तोल अपने पास लेकर के कहते हैं जो कुछ भी तुम मुझे दोगे वो तुम्हे परमात्मा देगा।' इस तरह की झूठी वातें अपने समाज में इतने सुशिक्षित होते हुए भी हम लोग मान लेते हैं। मुझे आश्चर्य आप पर नहीं होता, मुझे ज्यादा आश्चर्य होता है उन परदेसी लोगों पर जो कि अपने को बड़े विद्वान और बड़े डेवलप्ड समझते हैं। इतना गधापन करते हुए मैंने उन्हें देखा हुआ है। मैं अगर आपको उन लोगों की वातें बताऊँ तो आप आश्चर्य में पड़ जाओगे कि इतने हृद तक तो आप जाते ही नहीं गुरूओं के मामले में | गुरू अगर उनसे कहें तो उनकी विष्ठा भी खाने के लिए ये तैयार रहते हैं। इतनी उन लोगों की हालत खराब है। तब विचार बनता है कि ये इतने पढ़े लिखे लोग इस तरह से क्यों करते हैं? गुरूतत्व में क्या खराबी आ गयी? किस तरह से ये इसको मान लेते हैं। और इसका सीधा- सरल विल्कुल बहुत ही सरल उत्तर ये है कि, ये लोग गुरू तो नहीं बल्की हिप्नोटाइज्ड हैं। इनमें हिप्नॉटिज्म की पावर होती है। आदमी को हिप्नोटाइज्ड करते हैं । हिप्नोटाइज्ड करने से आदमी की सारी बुद्धि नष्ट हो के पूरी तरह से उसमें बहुता चला जाता है। ऐसे अनेक अनेक बार देवी ने मारा हुआ है, फिर से वापस आ गए हैं। और ये राक्षस लोग सारी राइसी वृत्तियाँ, सारी अनैतिकता, हर तरह की चीज़ आपको सिखाते हैं और आप भी बाहर देखते रहते हैं कि क्या मेरे लिए प्रचंड पण्डित, प्रकाण्ड बिल्कुल वेदान्त चुना है! गुरू के जो गुण है उसमें से पहला गुण तो ये है कि वो आपके पैसे और आपके धन को ठोकरों पर रखता है। उसे आपकी कोई चीज़ की परवाह नहीं। उसे आप बाँध नहीं सकते। वो अपने लहर से चलता है। उसका मन हो तो वो आपसे बात करेगा। नहीं तो नहीं। आपके आगे-पीछे दौड़ने वाला वो नहीं है। क्योंकि मैं आपकी माँ हूँ, मैं आपको समझाती हूँ और मैं आपको समझाती हूँ कि अपने अन्दर के गुरू को जागृत करके अपने को और उसे पहचानो। लेकिन वो जो मुझे मिले हैं, बड़े पहुँचे हैं, वो तो कहते हैं इन गधों को, इनको पचासो गालियाँ सुनाते हैं, 'माँ तुम क्यों उनको रियलाइजेशन देती हो! उनको मरने दो थोड़े दिन। उनको तो ये होने दो।' उनकी तो मिट्टी ही में पैदा हुए हैं। इसमें से कुछ कुछ तो पहले दर्जे के राक्षस हैं, जिनको गुरू इस कलयुग गुळ का १ मळलब हैं आपसे ऊँचे उठे हुए इतनी अलग है। हाथ में इतना बड़ा-बड़ा इंडा या तो चिमटा लेकर वैठते हैं और या तो पत्थर लेकर वैठते हैं। कोई आदमी इनके पास आए तो पत्थर लेकर वैठते हैं। कोई आदमी इनके पास आए तो उन्हें पत्थरों से मारते हैं कि 'भागो यहाँ से हमें नहीं मिलना आपसे|' माँ की दृष्टि और होती है और गुरू की दृष्टि और होती है। और माँ को गुरू जब बनना पड़ता है तो बड़ा तरस आता है क्योंकि हृदय तो इतना भरा रहता है करुणा से और इतना सांद्र हृदय रहता है कि निर्वाज्य विल्कुल प्यार वहा जा रहा, जो उसे देने के लिए माँ इतना तड़पती रहती है और उधर गुरूता की वजह से आपके साथ थोड़ा सा डिसीप्लीन भी करना पड़ता है। आपको बताना भी पड़ता है कि 'बेटा, ये गलत बात है। वो कहते भी हैं कि थोड़ा सा तकलीफ होता है, पर करना पड़ता है। ये गुरूतत्व आपके अन्दर है, उसका आपने अनेक बार अपमान किया हुआ है। आपके अन्दर बसा हुआ है। अब आपको आश्चर्य होगा कि साधारण मनुष्य में भी ये गुरुतत्व किस तरह से कार्यान्वित होता है। वैसे भी अगर आप किसी के घर खाना खाने के लिए जाए, अगर आप अच्छे आदमी है तो, और अगर वो आदमी दुष्ट प्रवृत्ति का हो या खराब प्रकृति का हो तो आप वो खाना पचा नहीं सकते। आपको एकदम लग जाएगा। आप घर आकर कहेंगे, 'बाबा रे बाबा, ऐसा वहाँ पे क्या था। हालत मचल गयी। कभी-कभी तो ये होता है कि आढमी। 15 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-17.txt किसी को चक्कर आने लगता है कि पता नहीं ये आदमी है क्या? इसी प्रकार हम एक दिन कहीं खाना खाने गये थे। तो बहुत ही वो शरीफ आदमी लग रहे थे। उनकी बीवी थी, तीन बच्चे थे। बड़े शरीफ बनकर घूमा करते थे। जाते ही मेरी हालत खराब हो गयी। मैंने साहब से कहा, 'चलो अब| मेरे बस का नहीं।' साहब ने कहा, 'ऐसा कैसे? तुम तो चीफ गेस्ट हो। 'चाहे जो भी हो मेरा हाल खराब हो गया। घर चलिए आप| मेरे बस का नहीं। यहाँ तो कोई आतंक की बात चल रही है।' तब मैं घर चली आई । उसके बाद आठ दिन में एक छोटी सी लड़की, हमारे लड़की के साथ पढ़ती थी वो आई। तो मैंने पूछा, उसका भी नाम वही था, जो उस महाशय का नाम था। मैंने कहा, 'तुम इन्हें जानती हों।' तो कहने लगी, 'वो तो मेरे पिता हैं।' तुम्हारे पिता हैं? तो तुम्हारी ऐसी दशा क्यों? कहने लगी, 'उन्होंने मेरी माँ को छोड़ दिया। मेरी माँ की सारी प्रॉपर्टी ले ली और अब इस औरत को रखा हुआ है घर में। और ये जो तीन बच्चे हैं वो ऐसे ही उनके है आए।' उसके आँख से एकदम आँसू आने लगे । कहने लगी, 'मेरी माँ बहुत सरल स्वभाव की थी। इतना रोयी, इतना चीखी। पर इन्होंने उसे छोड़ दिया और इस औरत को अपने पास रखा।' अब देखिए उस घर में जो दुःख था। उस घर में जो तकलीफ उस औरत की थी, उससे सारा वातावरण दृषित था। और मैं वहाँ उनकी, जो सारा आमोद- प्रमोद हो रहा था मैं विल्कुल हिस्सा नहीं ले पा रही थी। मेरा जी विल्कुल दुःखी हो रहा था और आँखों से बार -बार आँसू टपक पड़े थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस वातावरण मैं ऐसा कौनसा दुःख है। ऐसा कौनसा दुःखी जीव है जो कि मेरी आत्मा को अन्दर से खींच रही है। और ये बात समझ लीजिए कि आपके भी गुरूतत्व में है। १ १ आप किसी के घर जाते हैं। देखते हैं कि आपको उनका अन्न पसन्द नहीं आया। ये सब गुरुतत्व आपके अन्दर है लेकिन आप उसे जागृत नहीं करते। अब गुरुतत्व को मारने के तरीके क्या हैं वो मैं आपको बताती हूँ। मनुष्य किस तरह से अपने गुरुतत्व को मारते रहते हैं। किसी को बुरा नहीं लगना चाहिए क्योंकि मैंने कहा 'मैं माँ हूँ। जो सही बात है वो मैं आपको बताऊँगी। और मुझे बतानी पड़ेगी। उसमें बुरा मानने की कोई भी बात नहीं। सब लोग समझ से इस बात को समझ लें कि हम अपने को हर समय खराब करते हैं। और किस तरह से हम अपने गुरुतत्व को खराब करते हैं वो देख लें। एक तो गुरुतत्व में हमारे अन्दर जो चेतना है, जिसे हम अवेयरनैस कहते हैं, इसको सम्भालने वाला हमारा लिवर है, इसे यकृत कहते हैं। जब तक हमारा यकृत ठीक रहेगा तब तक हमारी अवेयरनैस, चेतना ठीक रहेगी। और जैसे ही हमारा यकृत खराब हो जाता है तब हमारी चेतना मचलने लगेगी। आपने देखा होगा जिसे पित्त होता है उस आदमी ने देखा होगा जब भी पित्त वाला आदमी ज़रा सी भी तली हुई चीजें खायें उसको फिर से वोमेटिंग शुरू हो जाता है। पेट के अन्दर आपकी अवेयरनैस को पोषित करने वाला ये यकृत है और इसलिए यकृत को ठीक रखना बहुत जरूरी है। गुरुतत्व १ जब ठक अब यकृत क्या करता है? यकृत जो भी कुछ, ये लीवर जो है, जो भी कुछ हम जहर खाते हैं, जो भी हमारे अन्दर गलती से चला जाता है उसको अलग करता है। उसको औनलाइज्ड करता है। जो भी कुछ ज़हर है उसको खून के द्वारा खून में लौटा देता है। इसको कहना 'सॉर्टिंग आऊट ऑफ द पॉइजन'। वो सारा काम लीवर करता है। अब इसका बिगड़ना बहुत देर से पता चलता है। धीरे-धीरे ये काम होते रहता है। कोई कोई चीज़ है जिनके कारण ये यकृत, ये जो लीवर है हमारे पेट के अन्दर, राइट साइड में ये बहुत ही जल्दी खराब होता है। सबसे बड़ी चीज़ जो यकृत के विरोध में है वो है शराब । जितने भी गुरू आज तक संसार में हो गये चाहे वो अब्राहम हो, चाहे वो मोज़ेज हों, चाहे वो लाओत्से हों और चाहे वो सॉक्रेटीस हों ये सारे गुरुतत्व हैं। सारे ही गुरुतत्वों ने संसार में अवतार लिये थे। वो सब गुरू हैं। इसमें से कोई भी गुरू हो, सबने कहा है कि शराब पीना मानव धर्म के विरोध में है क्योंकि अपने पेट में दस धर्मों का स्थान है। उस दस धर्मों पर हमारा यकृत ठीक रहेगा ळब तक १ हमारी अवेअरनैंस, आक्रमण होता है। जब कि हमारी चेतना पर आक्रमण होता है। अगर मनुष्य की चेतना ही कम हो जाए, तब वह चेतना के विरोध में ही वो चीज़ बैठती है। वो हमारे लिएगलत है। अभी कुछ दिन पहले हमारे एक शिष्य है। उन्होंने सहजयोग में ही इस पर बड़ा काम किया। और उनको अभी डॉक्टरेट मिली हुई है लंडन में। वे मॉरेशियस के रहने वाले हैं। चेतना ठीक रहेगी। | 16 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-18.txt उनका नाम है श्री रेजीस| उन्होंने अब ये सिद्ध कर दिया कि किस तरह से शराब हमारे विरोध में पड़ती है। क्या वजह है? अब यह बहुत ही दुष्ट चीज़ हैं आप समझ लें कि हाइड्रोजन, ऑक्सीजन से बना हुआ पानी का एक परमाणू है। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन उसमें से ऑक्सीजन का परमाणु एक है और दो हाइड्रोजन के अणु है। इस प्रकार तीन अणुओं से बना हुआ एक परमाणु है। अब जब न्यूट्रल स्पेस पर रहता है तो ऑक्सीजन बीच में रहता है और दोनो साइड में हाइड्रोजन रहता है। जब रक्त का पानी हमारे लीवर के पास जाता है तब लीवर से ये जो पानी है, ये जो कुछ भी अन्दर बसा हुआ जहर है, पॉइज़न है खींच लेता है। न्यूट्रल स्पेस पर रहा तो बहुत ही आसान है। लेकिन समझ लीजिए लीवर अगर न्यूट्रल स्पेस पर आ जाए तो वो ले सकता है। लेकिन अगर समझ लीजिए इस | तरह से हो जाए तो कुछ भी ले नहीं पाता। जब आप शराब पीते हैं तो शराब की फर्मेंटेशन की प्रेशर की वजह से ऑक्सीजन नीचे आ जाता है और हाइड्रोजन ऐसे आ जाता है और ये कुछ भी नहीं ले पाता, कुछ भी ले नहीं पाता, कुछ भी स्वीकार नहीं कर पाता। इसके कारण उसके अन्दर का जो पॉइज़न है वो वैसे ही बना रहता है। लेकिन आपने देखा होगा कि जिस व्यक्ति ने शराब पी हो उसके शरीर का टैंपरेचर नहीं बढ़ता। अगर शराब पीने से टैंपरेचर नहीं आता, उसके अन्दर की जो शीख है वो सिर्फ लीवर में या किसी न किसी ऑर्गन में जमा होती रहती है। लेकिन जो पानी है, जो कि हमारे खून में बहुत ही जरूरी है, वो पानी इस तरह से हो जाने की वजह से, वो उसको शोषण नहीं कर पाता और हर एक जितने भी हमारे बॉडी के ऑर्गन हैं, पहले तो लीवर चौपट हो जाता है। उसके बाद हर एक जो ऑर्गन है धीरे-धीरे वो सब में गर्मी आने लगती है और ऐसा आदमी गर्मी से झुलस जाता है। लीवर ही यही चीज़ है ऐसा नहीं है। सारे ऑर्गन से थोड़ा-थोड़ा होता है। और यही बात बढ़ कर के बहुत बड़ी हालत में कैन्सर होता है। कैन्सर में भी हाइड्रोजन व ऑक्सीजन दोनों इस तरह से हो जाते हैं, बहुत ही इस तरह से हो जाते हैं इससे रिसेप्शन नहीं होता है । और इसलिए आपने देखा होगा कैन्सर के पेशंट की जब तक बुरी हालत न हो जाए बुखार नहीं आता। उन पर चट्टे आएंगे, काले चट्टे आएंगे, बदन पर चट्टे आएंगे । तरह- तरह की चीजें होंगी। बदन में गर्मी लगेगी । लेकिन उनको टैंपरेचर नहीं होगा। अब ये बात उसने पता लगाई और सोचिए इंग्लैण्ड युनिवर्सिटी ने उसको डॉक्टरेट दे दी। अब ये बात निर्विवाद है चाहे आप बुरा माने, चाहे आप भला माने कि शराब पीने से आपकी चेतना तो कम होती है लेकिन आपके अन्दर का पॉइज़न है, बना रहता है। १ १ और दुसरी बात उससे ये होती है कि आपकी जो आर्टरिज है, आर्टरिज का भी पॉइज़न आप खींच नहीं पाते। और क्योंकि इस तरह से हाइड्रोजन का जो झुकाव है इस तरह से हो जाता है, इसके कारण एक Hardening जिसे कहते हैं वो आर्टरिज में हो जाती है। उस हार्डनिंग की वजह से वो आर्टरिज शराबी आदमी की जो होती है वो फ्लेक्सिवल नहीं होती। इसलिए उसका खून नहीं सरकता इसलिए उसको ऐसी-ऐसी विमारियाँ हो जाती है, जैसे कि हार्ट और हार्ट के अलावा जिसे कहना चाहिए गैंगरिन आदि जिसमें खून जम जाए, ये सड़ जाए, फिर ये सड़ जाए माने इसकी दुर्दशा करने की क्या जरुरत है। वास्तविक शराब चीज़ जो है फर्मेंटेड शराब जिसे कहते हैं। एक तो होता है कि वाइन। वो तो बहुत अच्छी चीज़ है। जिसमें फर्मेंटेशन नहीं होता। वो तो सिर्फ रस है अंगूर का। वो वाइन हुआ। पर हम लोग जिसे वाइन समझते हैं, वो जो अल्कोहोलिक वाइन होता है। वो शराब होती है। उस शराब को परमात्मा ने इसलिए बनाया कि कोई चीज़ को पॉलिश करें। हर चीज़ को पॉलिश करना हो, जैसे आपको डाइमंड पॉलिश करना है तो 'जिन' से करिए। या किसी चीज़ को पॉलिश करना हो तो स्पिरीट से करिए। ये पॉलिश है और यही पॉलिश जब हमारे आर्टरिज पर जम जाता है तो 'हार्डनिंग आफ द आर्टरिज होगी ही। भगवान ने पीने के लिए शराब नहीं बनाई। लेकिन मनुष्य का दिमाग जो है बन्दर के जैसा है। उसको समझ में नहीं आता है कहाँ क्या चीज़ करनी चाहिए। शराब पीने को उसको कहीं जाना नहीं था। पता नहीं उसको कहाँ से अल्कोहोल मिल गया उसने शराब पिना शुरू कर दिया। शराब पर शराब पीना शुरू कर दिया। उसकी जो आर्टरिज थी वो थिक (Thick ) होने लगी और उसमें मजा इसलिए आता है कि आदमी की चेतना जो है वो ही गुम हो जाती है। मनुष्य को सबसे बड़ी १ चीज़ जो यकृत के विटोध में है, वो हैं 'शराब' । 17 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-19.txt इसलिए अच्छा लगता है कि मनुष्य की चेतना गुम हो जाए क्योंकि वो अपने को देख नहीं पाता। वो अपने को समझ नहीं पाता। अपने से भागता है। वो असत्य में रहना चाहता है। सत्य बहुत बड़ा भयंकर है, भयानक है ऐसी बात नहीं। सत्य अत्यन्त सुन्दर है। अत्यन्त मनमोहक है। बहुत ही शान्तिदायक और सारे सुखों का आदर्श है। लेकिन अभी आप उस हालत में है जहाँ ना तो आपने सत्य पाया है और न तो आप असत्य में है। जो आप बीच के हालत में मानव दशा में आ गये हैं इसलिए प्रश्न आया। इसलिए इन गुरुओं का जन्म हुआ कि आपको समझायें ये बीच की हालत में आज आप पैदा हुए हैं। इससे घबराने की बात नहीं। इससे असन्तुलन होता है। अति पे ना जाओ। असन्तुलन पर मत जाओ। आपका जीवन अच्छा बनाओ। अपने जीवन में, वैवाहिक जीवन में नम्रता से रहो। अपने घर में और अपने व्यवहार में, अपने समाज में सबका विचार रखिए। सन्तुलन के साथ रहिए। ये नहीं कि एक आदमी बहुद ज्यादा रईस हो गया, एक आदमी है कि बहुत ज़्यादा बलवान हो गया। आदमी है कि उसने बहुत ज़्यादा यश प्राप्ति कर ली। क्योंकि जो नेचर है, जो निसर्ग है, उसके अन्दर कोई भी चीज़ बहुत ज्यादा नहीं होती। आप कभी नहीं सुनियेगा कि एक आदमी की ऊँचाई साठ फुट हो गई । कभी नहीं सुनियेगा कि एक पेड़ जा कर के दो सौ फीट का हो गया। आम का पेड़ उसकी साधारण जो हाइट होगी वही होगी। उसी तरह मानव की जो कुछ उसकी फ्लाइट है, उसकी उड़ान है एक हद तक होगी। जो आदमी अपने को कॉम्पिटिशन में जाकर इस तरह पागल जैसे दौड़ता है उसका वही हाल होता है जो आज western country का हो गया | एकदम पागल है पागल। उनको तो मैं देखती हूँ मुझे आश्चर्य होता है कि इनमें से आधे तो पागलखाने में जाने के लायक हैं। तो मैंने अभी स्टैटिस्टिक (आंकड़े) देखा तो आधे तो है ही स्किजोफ्रेनी। आधे वहाँ के लोग, ५०% लोग स्किजोफ्रेनी हैं। अब आप उनसे क्या सीखने वाले है? क्या आप सबको पागलखाने जाना है? ये जो कॉम्पिटिशन लगा दिया गया है उससे मनुष्य जो है असमाधानी रहेगा। और असमाधान जो है प्रगति उस ओर कर रहा है जहाँ पूरा सर्वनाश है। सन्तोष से दूसरा १ मनुष्य को अपने अन्दर जागना चाहिए। ये जो गुरू का स्थान है ये धर्म का स्थान है। धर्म माने जिस पर हम धारणा करेंगे। इसलिए हम मनुष्य जाने गये हैं। मैंने कल बताया कि कार्वन का अपना धर्म होता है। सोने का अपना धर्म होता है। शेर का अपना धर्म होता है। भिक्षु का अपना धर्म होता है। ऐसे मानव के भी दस धर्म हैं। जब मनुष्य इन दस धर्ों से अशुद्ध हो जाता है, जब उससे गिर जाता है, जब असन्तुलन में आ जाता है तब उसका जो है आगे का पता नहीं क्या होगा? क्योंकि मनुष्य के बाद अतिमानव हो जाएगा, राक्षस हो जाएगा, जानवर होने की तो कोई स्थिति दिखाई नहीं देती। लेकिन अधिकतर राक्षसी प्रवृत्ति में पड़ेंगे। ये दस धर्म सम्भालने चाहिए। अगर कोई कहें कि दस धर्म में रहो, दस कमाण्डमेंटस् हमारे बाइबल में लिखे हुए हैं। तो जब वो दस कमाण्डमेंटस् की बात लिखी हुई है कि ये नहीं करो, ये नहीं करो तो मनोवैज्ञानिक ने कुछ सत्य 6. अत्यन्त सुन्दर है कहा, इलाज निकाला कि ये सब कंडिशनिंग है। आप जवरदस्ती से किसी को मना करिएगा तो कंडिशनिंग हो जाइयेगा। उसका प्रोग्रेस नहीं होगा। लेकिन अगर आप अपना संस्कार सुसंस्कार लोगों पर न डालें। लोगों को कु-संस्कारित न करें तो आपकी राइट साइड चलने लग जाएगी, लेफ्ट साइड तो आप रोक लेंगे। लेफ्ट साइड जिसको कहते है सुपर इगो, उसको कंडिशनिंग बना लेंगे लेकिन राइट साइड जो कि इगो है आप इगो ओरिएंटेड हो जाएंगे। आप हिटलर भी हो जाएंगे तो भी आपको पता नहीं चलेगा कि आप हिटलर है। आप कहेंगे, 'वाह, वाह, वाह! मैं क्या कार्य कर रहा हूँ। सारे लोग मुझे हार पहना रहे हैं। मेरी आरती उतार रहे हैं। वाह! वाह! वाह! मैं कितना बड़ा आदमी हो गया हूँ। और होंगे आप पक्के गधे। गधे भी नहीं महा राक्षस होंगे । लेकिन आप अपने लिए यही कल्पना करेंगे कि वाह! वाह! वाह! सब तरफ मेरी वाह, वाह हो रही है, लोग मुझे क्या समझ रहे हैं क्योंकि जो इगो ओरिएंटेड आदमी होता है वो वास्तव में महागधा होता है। इसका वर्णन आप अगर वाल्मिकी रामायण पढ़े या हमारे तुलसीदासजी ने भी बहुत ऐसे वर्णन किया हुआ है कि नारद मुनि जी को अहंकार हो गया था तो वो किस तरह से गधे हो गये थे। लेकिन आज इगो ओरिएंटेड आदमी इस कदर वल्गना करता है, इतनी बड़ी बड़ी बाते करता है और लोग उसको इस तरह से सुनकर अभिभूत होकर कि वाह, वाह, वाह|he is so, such a successful man अत्यन्त मनमोहक है। १ 6: १ और अगर आप देखें उस आदमी का जरा सा ये निकाल के तो इतना बेवकूफ और इस कदर छिछलापन उसके अन्दर 18 ০০ 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-20.txt होता है, कि आश्चर्य लगता है और यही बात है कि इगो ओरिएंटेड आदमी आप लोगों को ज़्यादा इम्प्रेस करता है। आप पर बहुत असर डालता है और कोई आदमी अगर खड़े होकर तानाशाही करे और कहे कि 'मैं फलाना, ठिकाना।' तो सब लोग खड़े होकर कहेंगे कि 'वाह! वाह! वाह! क्या अच्छा आदमी मिला है!' अगर आप कन्डिशनिंग को हटा देते हैं तो आदमी बेशर्म हो जाता है। वो वेशर्म ही नहीं होता वो बेछूट हो जाता है, जिसको abundant कहते हैं। धर्म बीचोबीच है। न तो बेछूटता ठीक है, न ही धर्मान्धता। न ही बहुत ज़्यादा अन्धेपन की बात है न ही कि ' हम ही सब कुछ है। उस अन्धेपन में दौड़ने की बात है। बीचोबीच परमात्मा का स्थान है, बराबर वीचोबीच धर्मस्थापना होती है। और उस धर्म को सम्भालना ही अपने गुरूतत्व की रक्षा करना है। 6. इस गुरूतत्व की रक्षा करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? बहुत से लोग कहते हैं कि माँ, हम अपनी गुरुतत्व की रक्षा कैसे करें? सर्वप्रथम अपने गुरू कौन हैं इसे समझ लेना चाहिए अब एक महाशय है, वो हमारे गुरू है। 'भाई, वो क्या करते हैं? 'नहीं ऐसे कुछ नहीं। वस, कुछ नहीं। उन्होंने हमें राम का नाम दे दिया। 'नाम दे दिया! बस, हो गया ? अरे भाई नाम देने के लिए कोई गुरू क्यों चाहिए? कोई गधा भी दे सकता है। आपको नाम क्यों दिया? भाई आपके क्या कोई चक्र खराब है या कोई प्रदेश खराब है कि वहाँ के राजा का नाम आपको दे दिया! 'नहीं, उन्होंने राम का नाम दे दिया और कहा, राम का नाम जप लो।' राम कोई आपका नौकर है कि आप राम का नाम ले। आपका गुरू अगर अधिकारी हो तो वो कभी भी आपको इस तरह से कोई नाम नहीं देगा। पहली चीज़ कोई गुरू अगर आपको नाम दे तो आप समझ लीजिए कि सबसे गलत बात है। अब इसका में उदाहरण आपको बताऊँगी। अगर समझ लीजिए आपको कोई बीमारी है, कोई भी तो हम आपसे कहेंगे कि अच्छा भाई आपको ये बीमारी है आप जाकर ये दवाई ले लीजिए। समझ लीजिए आपको पेट की वीमारी है, तो हम कहेंगे कि अच्छा आप interviaform ले लो। लेकिन हम जिसे देखें उसको interviaform लेते देखे तो आप क्या कहियेगा? जब आप डॉक्टर ही नहीं है। जब आपको विधान ही नहीं मालूम, जब आपको तकलीफ ही नहीं मालूम तो आप कौनसी दवा देंगे। क्या आप हमेशा के लिए वही दवा खाते रहियेगा? तकलीफ कहाँ है, कौनसी तकलीफ है? और फिर जब आप डॉक्टर ही नहीं है तो आप प्रिस्क्रिप्शन कैसे दे सकते हो? जो आदमी आत्मसाक्षात्कारी नहीं है वो तो पहले गुरू नहीं होता। या हम तो एक गुरू साहब को मिले हैं, बहुत मजेदार है और बहुत पहुँचे हुए मजेदार आदमी है। वो एक साहब को हमने भेजा उनके पास, 'कहा जरा इनकी तवियत दुरुस्त करो ।' एक महिने बाद वो आये तो बिल्कुल थके हुए बिल्कुल दुबले पतले होकर आए थे। हमने कहा, 'क्या हुआ? गुरूजी ने क्या किया? तो कहा कि 'कुछ नहीं रोज 19 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-21.txt सवेरे मुझसे कहते कि शिवजी का मन्दिर धोओ। मुझे एक मील रोज चलना पड़ता था। मैं रोज सबेरे एक मील पानी ले जाता था, धोता था। रोज सबेरे तीन-तीन, चार-चार वाल्टी पानी ले जाओ और धोओ और उसके बाद कहता कि अब साथ में आओ और फिर से धोओ। सारा महिना शिवजी का मन्दिर मुझसे ही धुलवाया। मैंने गुरूजी से पूछा, 'भाई, ऐसा क्यों किया?' तो कहा कि 'गधे को गधे का काम। वो गधा आदमी है उसको रियलाइजेशन आप दो| मैं तो नहीं देने वाला। आपको देना होगा। इन गुरुओं का स्वभाव इसलिए इतना कड़क हो जाता है क्योंकि उनको मनुष्य की प्रचिति हो गयी है। वो जानते हैं कि, साधारण मनुष्य जो है वो बिल्कुल भी, बहुत ही उथला है और वो करूणा नहीं जो माँ की होती है। उन्होंने खुद अपने मेहनत से ही सब कमाया हुआ है। और वो भी यही चाहते हैं कि ये भी सब मेहनत करें। इनको भी फिट करना है। इनको भी ठीक करना है। खूब धो-पीटकर के जैसे धोवी होता है, मार मारके ठीक करते हैं, ऐसे वो ठीक करना चाहते हैं। माँ की बात और है माँ कहती हैं चलो भाई ठीक हो जाएंगे, माँ की बात और है। माँ कहती 'चलो भाई जैसा भी है वच्चे ैं। इनको दे ही दो। ये एक बड़ा भारी अन्तर पड़ता है १ लेकिन इन में से एक गुरूमहाराज की बात आपको बतायें कि एक गुरूजी बम्बई के पास एक जगह है, हमारी शिष्या रहती थी, वहाँ पर आयें और उससे कहने लगे कि, 'आपकी माताजी कव आने वाली हैं? मैं उनके लिए बारह साल से बैठा हुआ हूँ। तो उन्होंने कहा कि, 'बारह साल से आप उनके लिए क्यों बैठे हुए हैं?' कहने लगे कि, 'मेरे गुरुजी ने कहा कि वो आएंगी और वही तुम्हारा आज्ञा चक्र ठीक करेंगी।' उसको समझ नहीं आया कि आज्ञा चक्र तो माताजी एक मिनट में ठीक कर देती है। तो बारह साल यहाँ मरने के लिए क्यों भेजा।' कहने लगे, 'क्या बताऊँ सरदर्द से पड़ा हुआ था। और जब माताजी आएंगी तब होगा।' जब मैं आई तो वो ले गये, अपनी कुटीर में जहाँ वो रहते थे। वहाँ विठाया और कहा., 'मेरे गुरुजी भी आपसे मिलने आये हैं। वो है अमरनाथ ।' मैंने कहा, 'अच्छा, वो गुरुजी जो एक तरफ मुँह करके बैठे हुए थे। मैं गयी तो पैर वैर छुये और विचारे बैठ गये। मैंने कहा, 'आपने इनका आज्ञा चक्र ठीक क्यों नहीं किया। एक मिनट का काम है। आप तो इतने पहुँचे हुए आदमी हो।' कहने लगे, 'मरने दो इसको।' पचास उन्होंने गालियाँ दी और मेरे सामने उसको दो झापड़ मारे। मैंने कहा, 'वाह भाई, ये क्या कर रहे हो? इतनी जोर से उसको मारा क्यों?' तो कहने लगे, 'ये आपके आने से पहले सिगरेट पी रहा था।' मैंने कहा, 'अच्छा, आपको कैसे पता चला? कहने लगे, 'मैंने देखा उसके मुँह से धुआँ निकलते हुए। इतना ये दुष्ट आदमी है, इसका आज्ञा चक्र आप ही ठीक कर सकते हैं।' मैंने कहा, 'भाई, देखो , चाहे जो भी हो सिगरेट छोड देगा, तुम १ १ १ इसका आज्ञा चक्र तो ठीक करो। मैं नहीं ठीक करने वाला।' उसके बाद मैंने उसका आज्ञा चक्र ठीक किया। उसके बाद वो मेरे कान में कहने लगे, 'माँ इनके सामने कुछ मत कहो। तीन दिन से इन्होंने मुझे कुएं पर बाँध के रखा हुआ था। और तीन दिन मुझे कुएं मे नीचे इबोते थे और ऊपर करते थे। और कहते थे 'तुम्हारा आज्ञा चक्र ठीक हुआ कि नहीं हुआ?' तो मैंने कहा, 'तुम इस आदमी के साथ क्यों टिके हुए हो? ऐसा गुरू तुम्हारा दुष्ट है। कहने लगे, 'माँ क्या कर अब तो आदत हो गयी दुष्टता की। कोई प्यार से मुझे सिखाएगा तो मेरे बस का नहीं रहेगा। इतना इन्होंने मुझे मार पीट कर के ठीक किया। ये दृष्टि बहुत से गुरुओं की हो जाती। उसकी वजह ये है कि जब तक आदमी कठोरता से पेश न आएं वो सोचते हैं कि मनुष्य ठीक से नहीं चल रहा।' लेकिन मेरा विश्वास बहुत ज़्यादा है। मेरी आशाएं बहुत ्यादा है। मैं तो सोचती हूँ मनुष्य पहले ही से बहुत ज़्यादा संतृप्त स्थिति में है। और जब तक इसको देखा ही नहीं वो अलख, परोक्ष है। उसको जब तक देखा नहीं, तब उनके मेरा विश्वास साथ सद्व्यवहार ही करना चाहिए। और उनको बताना चाहिए और उनको उस रास्ते पर ले जाना चाहिए। बहुल अनेक गुरू जो संसार में आएं। जिन्होंने हमारा मार्ग अपनाया। जैसा मेरा मार्ग है । ज्ञानेश्वर जी थे, ये हमारे यहाँ तुकाराम जी हो गये, हमारे यहाँ नामदेव हो गये, वैसे ही नानक जी हो गये, कबीर दास जी हो गये। इन लोगों ने संसार में रह कर के लोगों की सेवा की। लोगों को धर्म सिखाया। उन सबके साथ बहुत ज्यादती की। सबको इस तरह से ज़्यादा है। सताया गया, मारा गया, पीटा गया। उन्हें खाने को भी नहीं दिया। भूखा रखा गया। 20 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-22.txt ज्ञानेश्वरजी की बात सुनती हूँ तो मुझे लगता है कि कैसे इसको कर पाएं? इतनी ज्यादती उनके साथ लोगों ने कैसे की? इतनी क्रूरता उनके साथ करी है और आज उनकी पालकी लेकर घूम रहे हैं। अब ज्ञानेश्वर जी की पालकी चली जा रही है। मैंने कहा कि, 'वो कभी पालकी में बैठे भी थे? उन्होंने कभी पालकी का मुँह भी देखा था? पचास आदमी उनकी पालकी लेकर चले और सब लोग उनको खाना खिला रहे हैं। ये किस तरह का घटिया, किस तरह का झूठापन और किस तरह का अपमान है गुरूतत्व का कि आप जिस आदमी के लिए कभी भी आपने ये भी नहीं सोचा कि उसने खाना खाया कि नहीं खाया। उसकी आप पालकी बनाकर घूमाते हैं और उसके नाम पर आप खाना खाते हैं। मनुष्य इतना विक्षिप्त है। और इतनी विक्षिप्तता इसलिए लिये हुए हैं कि परमात्मा ने उसे पूर्णतया स्वतन्त्रता दी है कि तू चाहे विक्षिप्त हो कि चाहे तु गधा हो, चाहे तुझे जो करना है कर। चाहे तो तु परमात्मा को पा ले। मैं माँ हूँ। माँ हमेशा यही प्रयत्न करेगी। बच्चों से यही कहेगी कि, 'बेटे तुम परमात्मा को ही पा लो।' मेरी गुरूता इसी में है, मैं मानती हूँ मुझे बहुत लोग सताते भी है और परेशान भी करते हैं। चाहे जैसा भी हो। लेकिन मेरे साथ ये भी है कि मेरे पास बहुत ही ज़्यादा पेशन्स है। लोग कहते हैं कि, 'माँ, तुम्हारा निर्वाज्य प्यार है। चाहे जो भी कहें लेकिन वास्तविकता ये है कि मुझे उनकी परेशानी जरा भी नहीं झुलझती, ना मुझे उसकी कुछ तकलीफ होती है। हर समय ऐसा लगता है कि कितने लोग जल्दी से जल्दी पार हो जाए । कितने लोगों को ये अलख जो है मिलना चाहिए आज सहजयोग उस स्थिति पर आ गया है, जिसे आज 'महायोग' कहना चाहिए। जब तक ट्रेन स्टेशन के अन्दर ना पहुँच जाए तब तक हम नहीं मानते कि ट्रेन आ गयी है। या जिस तरह से हम कह सकते हैं कि नदी जब तक समुद्र में न मिल जाए तो हम उसे संगम नहीं कहते। उसी प्रकार जब तक आपके जीव का शिव से सम्बन्ध नहीं जूटता, जब तक कुण्डलिनी उठकर ब्रह्मरन्ध्र को छेद नहीं देती तब तक उसको योग नहीं कहना चाहिए। तब योग के सिर्फ प्रिपरेशन (पूर्वतैयारी) होते हैं। जैसे और जो योग है, अनेक जो योग है, सारे योग उसके प्रिपरेशन्स होते हैं। और जब कुण्डलिनी नीचे से ऊपर उठती है तब ये सारे योग अन्दर घटित होते होते कुण्डलिनी सहस्रार पर आ जाती है। और सहस्रार पर आकर के उसको छेद देती है। ये सबसे बड़ा महायोग है इसलिए सहजयोग जो अनादि काल से चला आ रहा है 'सहज' जो आपके साथ पैदा हुआ है। जो आपके साथ अनेक वर्षों से चला आ रहा है। जिसकी आज परिपूर्ति होने की बात आई हुई है, उस सहजयोग को आज महायोग नाम देना चाहिए। पर मैंने शुरूआत में यही विचार किया कि मनुष्य की बात है, अगर मैंने पहले से महायोग शुरू किया तो ये लोग महाकाल शुरू कर देंगे। और सब मेरे पीछे लग जाएंगे हाथ धो कर के कि ' बड़़े आये महायोग करने वाले? आप कौन होते है महायोग करने वाले?' सब खड़े हो जाएंगे डण्डे ले ले कर। इस वजह से मैंने इसका नाम महायोग नहीं कहा लेकिन सहजयोग की आज स्थिति महायोग तक पहुँच गयी। और आप महायोग के स्थिति पर आ गये हैं। और ये समय आ गया है कि आपके जितने भी १ आज सहजयोग उस स्थिति पर गुरुतत्व आज तक पले हुए हैं, सोचे हुए हैं वो सारे के सारे सब फलीभूत होने वाले हैं। और उस फलस्वरूप आपको आज वो चीज़ मिलनी चाहिए जो अनेक वर्षों से गुरूओं ने आपको देने की कही थी कि आपको मिलेगा। ये समय आने वाला है। होने वाला है। होता था। एक तो पहले गुरु लोग एक या दो शिष्य रखते थे। ज्ञानेश्वरजी के कितने शिष्य - एक। फिर उनके कितने शिष्य थे - एक या दो। इतना समुदाय कोई शिष्य या बच्चे नहीं बनाता था। ना कोई इतना आत्मज्ञान देने की बात करता था। लेकिन जब तक कोई चीज़ सामुदायिक नहीं होती या सर्वसामान्य को नहीं मिलती उसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। अब समय आ गया है कि आप सब सामुदायिक को मिले इसलिए आप सबको ये मिलने का पूरा अधिकार है। क्योंकि आपके अन्दर ये पूरी चीज़ समाई हुई है। आपके अन्दर सारी चीज़ बसी हुई है। और ये आपको मिलना चाहिए। मैंने आपको ये कहा कि एक-एक विषय पर मुझे सात दिन चाहिए। तो आप लोगों ने मुझे एक दिन में तीन-तीन विषय दे दिये। तो बड़ा मुश्किल होता है इसको कैसे छोटा करें। हालांकि इतना ही कहना है और गुरूतत्व के प्रति मेरा नमस्कार। आ गया हैं, जिसे आज 'महायोग कहना चाहिए। आप सवको अनन्त आशीर्वाद! 21 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-24.txt १८ दिसम्बर १९७८, लंडन आ ज्ञा यह आज्ञा ® आ' का अर्थ है पूर्ण चक्र श्री साछ ी क है] चे स चक्र पर निचास कते है। वे छी आक्षतू गविणु अवरित छुछ। चच में क्रिश्चिटान, छके छैा होने के चिषय में एक जी जाते कि कै वै काट बजे और क्टों ইংचर ी प आक ना काम नहीं किया অম श्री छ की औ] डौ अतय गहत्वपूर्ण और ज्ञा' टो छूण है। अण है बैसुष्टि केचJ का अर्थ है जानना। 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-25.txt आ ज्ञा - 'आ' का अर्थ है पूर्ण और 'ज्ञा' का अर्थ है जानना। आज्ञा की रचना मानव में उस वक्त हुई जब उसने सोचना प्रारंभ किया। भाषा यदि भाषा नहीं होती तो हम सोच नहीं सकते। इसके पूर्व विचार सिर्फ ईश्वरीय प्रेरणा था। हमारे अन्दर विचार, प्रकाश एवं छाया की तरह आते हैं। आत्मसाक्षात्कार पश्चात् विचार एक प्रकाश स्तम्भ की भाँति केवल प्रकाश और छाया के भिन्न आकार रूप में दृष्यमान होते हैं। यह भाषा ही है जिसके कारण ये विचार हमारे ऊपर हावी हैं। हम एक विचार से दूसरे विचार पर उसी तरह उछलते हैं जैसे कि समुद्र की लहरें किनारे तक जाती हैं और पुन: वापस आ जाती हैं। विचारों का यह तांता पगला देने वाला भी बन जाता है। ये विचार कभी तो अच्छे होते हैं और कभी बरे। अहंकार (इगो) हमारे माथे में वाम भागी है, जब कि प्रतिअंहकार ( सुपर इगो) दायें भागी है। हमारे अन्दर कंडिशनिंग हमारे दाईं भाग में हैं और ये हमारे अन्दर भय एवं खतरे उत्पन्न करते हैं। भूत एवं भविष्य के विषय में कोई विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। जानवर कभी नहीं करते। जब वे जानते हैं कि कोई जानवर आता है तो ठीक है; इसमें सोचने को क्या है? मनुष्य हरेक चीज़ के बारे में सोचता है और यह भी सोचता है कि बैठकर सोचविचार करना बुद्धिमानी है। सोचने की क्रिया स्वत: स्वेच्छानुसार होनी चाहिए- ईश्वरीय प्रेरणा की तरह। सोचना भूतों से खेलना है। यह चक्र श्री ईसामसीह जी का है । वे इस चक्र पर निवास करते हैं । वे ही साक्षात् महाविष्णु रूप में अवतरित हुए। वास्तव में क्रिश्चियन, उनके ऐसा होने के विषय में एकदम नहीं जानते कि, कैसे वे क्राइस्ट बने और क्यों ईश्वर ने धरती पर स्वयं आकर अपना काम नहीं किया बल्कि श्री ईसामसीह को भेजा। ये अत्यन्त महत्वपूर्ण अवतरण हैं। वे सृष्टि के रचनात्मक तत्व हैं। श्री गणेश जी मूलाधार चक्र में निवास करते हैं और क्रमश: श्री गणेश ही आज्ञा-चक्र पर जिजस क्राइस्ट के रूप में उत्परिणत (evolve) हो गये। वे सृष्टि के मूलतत्व हैं। जैसे कि हमारा तत्व श्री कुण्डलिनी है। उसी प्रकार सारी सृष्टि स्वयं तत्व और आश्रय है। इस अवतरण में श्री ईसामसीह सृष्टि रचना के तत्वरूप हैं जैसे कि परिवार में पति-पत्नी एवं बच्चे| पति-पत्नी एवं घर के सारतत्व बच्चे हैं। जब तक पति-पत्नी संतान नहीं पाते तब तक दाम्पत्य जीवन का कोई तात्पर्य ही नहीं। इसी तरह श्री जिजस क्राइस्ट प्रथम ध्वनि 'ओम' के मूलतत्व थे। जब आदिपिता ( परमेश्वर) एवं आदि माँ (आदिशक्ति) एक दूसरे से अलग हुए तब उन्होंने ॐ ध्वनि का निर्माण किया। श्री जिजस क्राइस्ट इस तरह वही ॐ शब्द हैं जो सारी सृष्टि के पालनकर्ता और उससे अधिक आश्रयदाता हैं। क्योंकि वे सारतत्व हैं जिसका कभी नाश नहीं होता। हमारा तत्व हमारी आत्मा है। और आत्मा का कभी नाश नहीं होता। शरीर का नाश हो जाता है पर तत्व (आत्मा) रह जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता। ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवतरण हैं। श्री जिजस क्राइस्ट हमारे आज्ञा चक्र के मध्य में स्थित हैं; जहाँ पर ऑप्टिक नाडी एवं ऑप्टिक थैलेमस एक दूसरे को काटती हैं। यह एक अतिसूक्ष्म बिन्दु है । यह दो तरह की ध्वनियाँ 'हम्' एवं 'क्षम्' उत्पन्न करती हैं। 'हम्' दायीं तरफ-प्रतिअहंकार में तथा 'क्षम्' बायीं तरफ अहंकार में स्थित है। 'हम्' एवं 'क्षम्' दो तरह की सूक्ष्म लहरियाँ उत्पन्न करती हैं। 'हम्' शब्द 'मैं हँ, मैं हँ' की लहरियाँ उत्पन्न करती हैं। हमारी अस्तित्वात्मक शक्ति से 'हम्' शक्ति आती है। जिससे हम जानते हैं कि हमें इस दुनियाँ में रहना है और हम मरने नहीं जा रहे हैं। कोई भी मनुष्य जो अपनी हत्या स्वयं करना चाहता है, वह सामान्य नहीं कहा जा सकता। 'हम' अर्थात् 'मैं हूँ की शक्ति से ही, साधारणतया प्रत्येक जीवधारी चाहे मानव हो या पशु, अपने जीवन को अक्षुण्ण बनाये रखना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। प्रतिअहंकार (सुपर इगो) दाहिनी तरफ हैं। यह प्रति अहंकार बहुत सारी चीज़ों के कारण आप बहुत कंडिशन्ड हो गये हैं; असर के फलस्वरूप आप चिन्ता का अनुभव करते हैं और आप में यह भय उत्पन्न करते हैं। यह आपके पुराने अनुभव व भय आपके अन्दर प्रतिअहंकार में बैठ जाते हैं और यह भय आपकी अमिबा अवस्था से शुरू होकर आजतक प्रतिअहंकार (सुपर इगो) में संचित है जिसके कारण से आप पुलिस आदि से भयभीत हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इनसे भयभीत नहीं होते परन्तु किसी और ही वस्तु से भयभीत होते हैं। आपकी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, आपके सब पुराने अनुभव प्रतिअहंकार में हैं। यह केन्द्र 'हम्, हम्' - 'मैं हूँ-मैं हूँ' आप हैं, घबड़ायें नहीं..... का संदेश भेजते रहता है। आप अहंकार एवं प्रतिअहंकार में अन्तर देख सकते हैं। एक आक्रमक है तो दूसरा अधिनस्थ एवं भय उत्पन्न करने वाला । 'हम्' कहने मात्र से चैतन्य लहरियाँ भय को दूर भगाएंगी। इस तरह से आप 'हम्' का उच्चारण करके परमेश्वर की सहायता पा सकते हैं । के को | भ 24 १ 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-26.txt अहंकार एक दीर्घकाय समस्या है। इसका समाधान दूसरों को क्षमा करना है। आपको क्षमा करना सीखना चाहिए। यदि आपके द्वारा किसी को ठेस पहुँची हो तो आपको क्षमा माँगनी चाहिए। अत्याधिक अहंकार का अर्थ है कि, आपने उसे अधिक मात्रा में लाड़ देकर बिगाड़ (पैम्पर्ड) दिया है। आप अपने हृदय में विनम्र होइए। आपका हृदय आपकी आत्मा है। अत्याधिक अहंकार आपकी आत्मा को ढ़क लेता है, आवरण कर लेता है। यह आपको बुद्धिहीन एवं मूर्ख बनाता है। आप अहंकारी व्यक्ति को जान जाएंगे जब वह अपना ही ढिंढोरा पीटने लगता है और फलत: अपने आपही शीघ्र मुर्ख भी बन जाता है। ऐसे मनुष्य को जो समझते नहीं, वो लोग स्वत: आश्चर्य में पड़ जाएंगे, विशेषतया बालक वर्ग कि, उस मनुष्य को क्या हो गया? मनुष्य अहंकार के चक्कर में इतना महान मूर्ख बन जाता है कि वह ईश्वर की सत्ता तथा अपना ईश्वर से सम्बन्ध को भी भूल जाता है। 'अहंकार महोदय' हमें मूर्खतापूर्ण कार्य करने को प्रेरित करते हैं जैसे किसी देश में ऐसे कानून बनाना कि दामाद अपनी सास से शादी करे। यह एक असम्भव चीज़ है क्योंकि सास 'माँ' है। यह कार्य निकृष्टतम है। अहंकार के चक्कर में यह भी जानना कठिन है कि वह (अहंकार) हमें कैसे मूर्ख बनाता है, जबकि वह हमें हमेशा मूर्ख बनाता रहता है। सोचने विचारने से भी अहंकार बढ़ता है। अधिक अहंकार में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। महाअहंकारी का व्यवहार इतना बचकाना होता है कि आयु का कोई लिहाज नहीं होता। बच्चे सोचते हैं हमारे माता-पिता इतने मूर्ख क्यों हैं जबकि हम ईश्वर खोज में तत्पर हैं। हो सकता है कि महायुद्ध के कारण वे क्षुब्ध हो गये हैं। अहंकार एक ऐसी वस्तु है जो प्रत्येक वस्तु के विषय में सोचने को बाध्य करती है जैसे कि यात्रा के पहले ही पहुँचने के बाद की परियोजना, और यात्रा का मजा किरकिरा हो जाता है क्योंकि परियोजना के अनुसार यात्रा नहीं हो सकती। एक बुद्धिमान आदमी हतोत्साहित नहीं होता, जैसे होता जाता है, वो उसके अनुसार चलता है 'अहंकार महोदय' कभी यह नहीं चाहते कि आप सुखी एवं सुविधापूर्वक रहें। ये हमेशा विचार देते रहते हैं कि यह करो, वह करो , जब तक कि आप बर्बाद न हो जाएं। अहंकार से कोई फायदे नहीं। प्रात:काल से संध्या तक क्षमाप्रार्थी बने रहें और अपने दोनों कानों को खीचें और कहें कि 'हे परमात्मा हमें क्षमा करें।' प्रात:काल से सायंकाल तक उनको ( क्राइस्ट) स्मरण करते रहें। सदा याद करने से, जिजस क्राइस्ट आपके अहंकार को नीचे ले आएंगे। उन्होंने आपके लिए हरेक सम्भव प्रयत्न किया ताकि आप अपने अहंकार का विकास न होने दे। वे एक बढ़ई के पुत्र के रूप में वे साधरण रूप से पालपोसकर बड़े हुए थे। उन्होंने अपने को पर्दे के पीछे रखा। वे रोमन सम्राट के रूप में भी जन्म ले सकते थे। परन्तु उन्होंने वहाँ जन्म लिया जहाँ एक सामान्य पुरुष भी जन्म लेने से हिचकिचाते हैं। परन्तु वहाँ प्रकाश भी था और आनन्द भी था। हमने आनन्द को खो दिया है क्योंकि हम ईश्वर को भूल गये हैं। ईश्वर प्रेम और आनन्द हैं। लोगों के पास प्रचुर मात्रा में समृद्धि और धन है फिर भी वे खुश नहीं है। आप उनसे जो कुछ भी कहेंगे वे आप से क्रोधित हो जाएंगे। वे किंचितमात्र भी सामान्य मानव नहीं है, वे रोगी हैं। | | आज्ञा 25 ह ह 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-27.txt क्षमा याचना कोई कठिन कार्य नहीं है। हम तो दिन में एक बार भी याचना नहीं करते। एक महीने में एक बार भी नहीं, यहाँ तक कि वर्षभर में एक बार भी नहीं। क्रिसमस दिवस के त्यौहार पर भी आप क्षमा याचना नहीं करते हैं, बल्कि आप तो मदिरा एवं अन्य मादक वस्तुओं का पान करते हैं। कभी-कभी अहंकार, प्रतिअहंकार पर इतना अधिक दबाव ड्रालता है कि अन्य लोगों को आपके क्रूर एवं पीड़ादायक शब्दों से ठेस पहुँचती है। जिस तरह से संसद में सदस्य आपस में बात करते हैं वह बहुत ही बुरा है। वैसा तो जानवर भी नहीं करते। अहंकार एक दूसरे से टकराते रहते हैं। वे आपस में हमेशा कहते रहते हैं, 'मैंने यह किया, वह किया' पर वे आनन्द को खो चुके हैं। तर्क-वितर्क महामूर्खतापूर्ण व्यवहार का संकेत है। यह आपको किसी भी ज्ञानर्जन की ओर नहीं ले जा पाएगा बल्कि केवल अहंकार की पुष्टि करेगा। समस्त पश्चिमी समाज अहं ( इगो) भावना से ओत-प्रोत है। पश्चिमी समाज का अहंकार यह है कि उन्हें अर्द्धविकसित देशों का पथ प्रदर्शन करना है। यह पूर्णरूप से डींग से भरा पड़ा है। लोग अच्छे स्वास्थ्य के लिए पागल संसद सदस्यों की भाँति दौड़ते रहते हैं। अच्छा स्वास्थ्य रखने के लिए पागलों की तरह कार्य करने की आवश्यकता नहीं है । आपको एवं प्रतिभावान व्यक्ति बनना होगा। अच्छे स्वास्थ्य के लिए विवेक की अत्यन्त आवश्यकता है न कि चतुर अहंभाव की तथा उससे प्रभावित अन्य अहंकार प्रभावित वस्तुओं की जैसे आपकी दौलत, आपकी कार, मकान आदि का प्रदर्शन की। वे बिल्कुल जोकर की तरह से हैं। चाहे घर में खाने को न हो परन्तु एक बड़ी कार अवश्य रखेंगे। ये सब वस्तुएं केवल अहंकार को ही फुलाकर पुष्ट बनाती हैं। समस्त विज्ञापन अहंकार को ही परिपुष्ट करते हैं। जब आप प्रकृति के विरुद्ध लड़ाई छेड़ते हैं तो आपके अन्दर अहं का विकास होता है। हम अहंकार के बिना जीवन के सम्बन्ध में कुछ सोचते ही नहीं । 'मैं, मैं, मैं' ऐसे बातचीत करना, अपने विचारों की प्रधानता देना, अशिष्टता है। आप कौन हैं? मैं शाश्वत अमर आत्मा हूँ। हमने ईश्वर में विश्वास खो दिया है, क्योंकि जो ईश्वर के ठेकेदार हैं वे उद्दण्ड हैं और अत्याधिक अहंकारी हैं। और अहंकारी को ईश्वर के बारे में सोचना असम्भव है। अहंकार एक पानी के बुलबुले की भाँति क्षणभंगुर एवं एक फूले हुए गुब्बारे की तरह से अधिक फूलने पर फट पड़ेगा। अहंकार अवश्य नष्ट होगा। अतः अहंकार को तोड़कर ही आप जो साक्षात् आत्मा हैं, अपनी आत्मा में बढ़ सकते हैं। हम लोगों को क्राइस्ट से सहायता मांगनी होगी। क्राइस्ट ने अपने को सूली पर चढ़ा दिया । ऐसा क्यों किया ? उन्होंने क्या किया ? उन्होंने सिर्फ रोमनवासियों एवं यहदियों के अहंकार को चुनौती दी, जो उनसे नाराज़ थे। यही कारण था कि उनको सूली पर चढ़ाया गया था और अब हमें अपनी अहंकार को उनके क्रॉस के माध्यम से सूली पर चढ़ाना पड़ेगा, वरना हम भी वही करने जा रहे हैं। अर्थात् हम अपने अहंकार में श्री क्राइस्ट को ऑप्टिक थैलेमस पर जहाँ वे रहते हैं, सूली पर चढ़ाने जा रहे हैं। आपको श्री क्राइस्ट को जागृत करना होगा अहंकार को सूली पर चढ़ाने के लिए । आपको निर्विचार अवस्था में रहना होगा क्योंकि आप विचारें से परे हैं। आज्ञा एक बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र है। जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र को पार करती है तब आदमी निर्विचार हो जाता है। यहाँ तक कि अहंकार एवं प्रतिअहंकार से भी कोई विचार नहीं आता। हमें अपनी आज्ञा चक्र को सुदृढ़ बनाना है। आज्ञा हमारे ऑप्टिक एवं थैलेमस नाड़ी के संधिस्थल पर स्थित है । यह कहा जाता है कि, यदि आपकी आँखें चंचल एवं चलायमान हैं तो आपका आज्ञा चक्र भी चंचल एवं चलायमान होगा। आपको अपनी आँखों को निर्मल एवं सुखद बनाने के लिए उन्हें स्थिर एवं सुदृढ़ करना होगा। आँखों को सुखद बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ हरी हरी घासों पर दृष्टि डालते हुए रखना है। इसलिए श्री क्राइस्ट ने चंचल, चलायमान एवं अपवित्र आँखों के संबंध में चर्चा की है। अतः प्रत्येक पुरुष एवं स्त्र को ध्यान देना चाहिए कि, कोई अपवित्र आँखे न रखे-ऐसा श्री क्राइस्ट ने कहा। आपको अत्यन्त गहन, गंभीर और प्रेममय होना है। आप अपनी आँखों के द्वारा ही विचारों को पाते हैं। यदि आपकी आँखें बन्द हैं तो आपके विचार भी कम होंगे क्योंकि आपका चित्त सी चीज़ों को नहीं देख पाएगा। यदि आपकी आँखें खुली हुई हैं तो ज़्यादा विचार आएंगे क्योंकि सब जगह आपकी नजर जाएगी और साथ ही आपका चित्त भी। इस तरह आपके खाते में और अधिक विचार संग्रहीत होते जाते हैं और अधिक विचारों की रचना भी होती है। बहुत अपना चित्त हमेशा अपनी आत्मा एवं ईश्वर में लगाना है क्योंकि उसे ईश्वरीय झरोखे से ही चमकना है। जिस तरह से हम अपनी पवित्र आँखों का दुरुपयोग कर रहे हैं और उसका असम्मान कर रहे हैं, उस तरह से हम इस सुन्दर चीज़ (आज्ञा, चित्त) को नष्ट कर रहे हैं। भूमि पर जमी हरी हरी घास के जैसी पवित्र कोई अन्य चीज़ है ही नहीं। अत: हम लोगों को अपनी दृष्टि को हरी घास से भरपूर पृथ्वी माता पर रखनी चाहिए न कि बेकार लोगों की ओर घूरते रहें। जब आपकी अपवित्र आँखें इधर उधर चलायमान रहती हैं, तो कोई भी बाह्यसत्ता जिसे हम सहजयोग में बाधा कहते हैं, आपके अन्दर घुसपैठ कर सकती है। प्रीतिभोज आदि के अवसरों पर जब चित्त बाहर की ओर इधर उधर भागता रहता 26 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-28.txt है, उस काल में बाह्य बाधाएं आसानी से एक दूसरे के अन्दर आदान प्रदान करती हैं। हमेशा हम यह भी नहीं जान पाते कि, हम आकर्षण क्यों महसूस करते हैं। किसी व्यक्ति पर दृष्टिपात करने से कुछ भी प्राप्ति नहीं होती है, बल्कि केवल शक्ति का ही ह्रास होता है। अपवित्र दृष्टि एवं चंचल आँखों वाले मनुष्य का पागल होना अवश्यसम्भावी है । हमारे अस्सी प्रतिशत विचार आँखों के ही माध्यम से आते हैं। अत: व्यर्थ एवं निरर्थक क्रियायें छोड़नी पड़ेंगी। श्री जिजस क्राइस्ट के विचारों को आदर देना होगा। उन्होंने एक वेश्या का उद्धार किया था । एक अच्छी महिला को बुरे विचार देकर आप बर्बाद करते हैं । कुमारी पवित्र छोटी बालिकाएं आपकी गन्दी नज़रों से दूषित हो जाती हैं। श्री क्राइस्ट ने जो करा उससे एकदम आप विपरीत कर रहे हैं। क्या आप वेश्या बनना चाहते हैं, जिससे श्री क्राइस्ट पुन: आकर हमारा उद्धार करें। क्या यह पागलपन नहीं है! जब आप पार हो चुके हैं और फिर आप किसी पर अपना चंचल दृष्टिपात करते हैं तो आपके सिर में अकस्मात ही पीड़ा अनुभव कर सकते हैं। या महसूस कर सकते हैं, कि किसी ने आपके सिर में कंकड़ मारी है। आप ऐसा अनुभव कर सकते हैं या महसूस कर सकते हैं कि, कोई आपको अन्धा बना रहा है। अतः आपको जानना चाहिए कि आपकी आँखें कितनी महत्वपूर्ण हैं। किसी तरह की नाड़ी दुर्बलता संबंधी रोग को ठीक किया जा सकता है, यदि आपकी आँखें पवित्र हैं । यह एक ऐसा विषम चक्र है कि समस्त बुराइयाँ आज्ञा चक्र में एकत्र होती हैं और आपको अपनी आँखों को स्वच्छ रखने के लिए अपनी आज्ञा को साफ करना होगा। हमें क्षमा प्रार्थना करनी होगी। हमें श्री क्राइस्ट को अपनी आज्ञा में लाना होगा। हमें समस्त मादक दवाओं और चीज़ों का परित्याग करना होगा, जो कि सहजयोग में स्वाभाविक रूप से छूट जाता है। आँखें हमारे समस्त व्यक्तित्व, मस्तिष्क, शरीर तथा अन्य अवयवों का प्रदर्शन करती हैं | यदि आपका आज्ञा चक्र सही है तो आपकी आँखें भी बिल्कुल सही हालत में होंगी। ऐसी पवित्र आँखें जहाँ तक जाएंगी, वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं प्रदर्शित करेंगी। ऐसी स्थिति में अपनी आँखों से देखकर ही आप दूसरे की कुण्डलिनी को जगा सकते हैं; लोगों के रोग निवारण कर सकते हैं और बर्बाद हुए व्यक्तियों को आनन्दमय बना सकते हैं। ये आँखें आपके व्यक्तित्व की खिड़की हैं। आपकी आत्मा आपके आँखों के माध्यम से ही देखती है और जब कुण्डलिनी उठती है तो आँखें फैल जाती है। एक पार हुए व्यक्ति की आँखों में जमीन आसमान का अन्तर होता है। एक पार हुए व्यक्ति की आँखें हीरे की तरह चमकती हैं। यदि आपकी आँखें पवित्र नहीं हैं तो आपकी आत्मा आपकी आँखों से नहीं दिखलाई देगी। हमें अपने मन की समस्त अशुद्धियों को निकाल बाहर करना होगा। हमें अपनी आँखों का आदर करना होगा। मनोवैज्ञानिकों का आज्ञा बहुत ही खराब होता है। दो प्रकार की मानसिक यातनाएं होती हैं। मनोवैज्ञानिक न तो किसी की मानसिक बीमारी को ठीक कर सकते हैं और न शांति ही प्रदान कर सकते हैं। एक तो वह जिसमें लोग आपको बहत सताते हैं आपको किसी का भी दास नहीं बनना चाहिए। क्रास धारण करना क्राइस्ट के संबंध में गलत धारणा है। यदि कोई आपको दास बनाने की कोशिश करे तो आपको उसका पूर्णरूप से परित्याग करना चाहिए। आपको कहना चाहिए 'हम्' मैं हूँ। इस सृष्टि में आप किसी पर अधिकार जताने वाले होते ही कौन हैं? ऐसे लोग अपने कर्तव्य से मुख मोड़ने वाले होते हैं। हमें अपने आत्म सम्मान के साथ ऊपर उठना है। जो व्यक्ति जिजस क्राईस्ट के स्तर के होते हैं और वास्तव में क्रास धारण करते हैं वो तो पीड़ित हो ही नहीं सकते, ऐसा मानना बिलकुल गलत है। प्रत्येक मानव अपना आत्म-सम्मान रखता है। और प्रत्येक को अपनी आत्मा का सम्मान करना है जो उसके अन्दर है। चाहे आप किसी देश के रहने वाले हों या किसी मत के मानने वाले हों, किसी का भी अधिपत्य आत्मा पर नहीं होना चाहिए। ये सब ईश्वर के साम्राज्य में टूट जाएंगे। कोई भी किसी की आत्मा पर अधिपत्य जमाने का अधिकार नहीं रखता। आप नहीं जानते कि अपनी स्वतन्त्रता का उपयोग दूसरे पर अधिकार जमाकर नहीं हो सकता। आप दूसरे की आत्मा पर प्रभुत्व दिखा रहे हैं, उनके जमीन, जायदाद और सम्पत्ति पर अधिपत्य जमाकर। आप ऐसे या वैसे दोनों तरह से अपनी ही आत्मा के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। आप अपने को मध्य में खड़े रखकर सिर्फ अपने को देखिए । और आप देखेंगे कि, आप सिर्फ प्रेम की ही वर्षा दूसरों पर कर रहे हैं। यदि आप स्वयं एक दास हैं तो आप कैसे दूसरे से प्रेम कर सकते हैं ? अर्थात् कभी आप प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम अपनी सीमाएँ रखता है जो कि, अत्यन्त मृद्ल और सुन्दर है। आपको प्रेम में उनके साथ रहना होता है। यदि एक नन्हा बालक आपके घर आता है, वह आपके घर को खराब कर देगा। उस बच्चे को वैसा करना चाहिए और आपको उसका आनन्द उठाना चाहिए। यदि आपकी स्वतन्त्रता, बच्चे के चिल्लाने से आघात अनुभव करती है तो आप बुद्धिमान मनुष्य नहीं है। वह आपकी कोरी मनमानी या अकेलापन है। इस तरह आप अपने को उस अपने बड़प्पन से, उस परम पिता परमेश्वर से अलग रखते हैं क्योंकि आप दूसरों की स्वतन्त्रता को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखते। हमें स्वतन्त्र होना है अर्थात् जब एक नन्हा बालक अपने घर में ही नहीं चिल्ला सकता, अपने मन के मुताबिक खा पी नहीं सकता तो यह किस प्रकार की स्वतन्त्रता है। यह भ्रम है। यह दासत्व से उल्टा है। परन्तु दोनों के मध्य में प्रेम है। 27 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-29.txt हरेक क्षण छोटे मोठे बन्धनों से भरपूर है । यदि पति अपनी पत्नी से कुछ खाने की इच्छा प्रकट करता है और पत्नी जी चुराती है जबकि वास्तव में पत्नी को खुश होना चाहिए और उसे चाहिए कि वह उस छोटी माँग की प्रेमपूर्वक पूर्ति करे। आपस में झगड़कर आप क्या पा सकते हैं? इस तरह का सूखापन, अकेलापन एवं शूलता हमारे अन्दर है, उससे तो कोई फायदा नहीं। यदि आप श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो आप कोई बलिदान नहीं कर रहे हैं बल्कि पा ही रहे हैं श्रेष्ठ जीवन बनाकर। सत्य को कहा ही जाता है। यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो आपको वास्तविकता पर आना होगा। दोस्तो हम किस प्रकार की रिश्तेदारी रखते हैं? उदाहरणतया यदि हम क्रिसमस कार्ड नहीं पाते तो हमें बुरा लगता है, अन्य लोगों के बन्धन में आने का प्रयास करें । आप दुसरों से प्यार करना आरम्भ कीजिए, घबराईये नहीं। आप चकित हो जाएंगे कि वे कितना आपको देते हैं। आपकी माँ, इसका जीवित उदाहरण हैं। आपकी प्रज्ञा (विज्ड़म), विवेक-बुद्धि एवं प्रतिभा को उन्मुक्त कीजिए। जो बाहर एवं भीतर को कलुषित करते हैं उन्हें बाहर निकाल फेंकिए। पेड़, पौधों को प्रेमभरी नजरों से देखने का प्रयत्न कीजिए और आप पाएंगे कि वे पेड़-पौधे आपको सृष्टि की रचना का आनन्द देना शुरू कर देते हैं क्योंकि आप निर्विचार हो जाएंगे और सृष्टिकर्ता जिसने उस सुन्दर वृक्ष की रचना की है, उसमें संचित सम्पूर्ण आनन्द को उड़ेलना शुरू कर देता है। प्रत्येक मानव असीम आनन्द का एक भण्डार है। इसे वृथा मत गंवाइये, इसलिए कि या तो वह उचित कपड़ों में सुशोभित नहीं है या जैसा आप चाहते हैं वैसा नहीं है जो कि आपने पब्लिक स्कूल में सीखा है। प्रत्येक दरवाजे पर सर्वत्र सुन्दरता बिखरी पड़ी है, उसे आप खोयें नहीं। पर यदि आपमें प्रत्येक वस्तु पर स्वामित्व की भावना है तो आप इसका आनन्द एकदम नहीं उठा सकते-उस समस्त २ु० ० ० ४ कु गट ८ 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-30.txt सुन्दरता का भण्डार जो कि प्रत्येक मानव प्राणी में है, प्रत्येक क्षण हिलोरें ले रहा है। जब मैं आप लोगों को क्रिसमस की शुभकामना देती हूँ तो वह समय आज्ञा चक्र के लिए बहुत अच्छा क्षण है। प्रत्येक को जानना चाहिए कि क्या आज्ञा देनी है और कैसे आज्ञा का पालन करना है। परमेश्वर की आज्ञा का पालन करें। अपने बड़ों की आज्ञा पालन करें, अपनी स्वयं की आज्ञा का पालन करें, पर अपने अहंकार को नहीं। फिर आप दूसरों को आज्ञा दे सकते हैं। सिर्फ मानव को ही नहीं बल्कि सूर्य, चन्द्र एवं वायु तथा संसार की समस्त वस्तुओं को भी। इस आज्ञा चक्र से आप प्रत्येक वस्तु का नियंत्रण कर सकते हैं। यदि आप जानते हैं कि कोई आपको हानि पहुँचाने जा रहा है तो आप उसका नाम अपनी आज्ञा चक्र पर लें, वह वैसा नहीं कर पाएगा। यह पार व्यक्तियों के लिये एक चालाकी है। जो कुछ भी आप अपनी आज्ञा पर कहते हैं उसका आदर किया जाता है पर आपकी आज्ञा को शुद्ध और निर्मल होना होगा। आपकी आज्ञा पर श्री क्राइस्ट को विराजमान होना होगा। क्योंकि आपके अन्दर एक महान आधार का जागरण हुआ है जो समस्त अणुओं, परमाणुओं में व्याप्त है और सर्वत्र, सब जगह बसा है। अत: आप अपनी आज्ञा पर पूर्ण स्वामित्व कर लें जो कि आपका स्वामी है। जिनका आज्ञा चक्र अच्छा है वे किसी भी चीज़ का स्वामित्व प्राप्त कर सकते हैं। आप वास्तव में अपना स्वामी खुद बन सकते हैं। मेरी शुभकामना है कि आपकी आज्ञा बहुत ही शक्तिशाली हो ताकि जब लोग आपकी ओर देखें तो समझ जाएं कि क्राइस्ट का पुनर्नजन्म आपके अन्दर हुआ है। | कुछ परमात्मा आपको सदा सुखी रखे। ॐ माताजी श्री निर्मला माँ नमो नमः न छा ु ॐ ा केी 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-31.txt ब्रहण 30 सा 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-32.txt गर्भवति महिलाओं ने कभी भी सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण को देखना नहीं चाहिए क्योंकि यदि वे सूर्यग्रहण देखती हैं तो उनमें शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। उनसे जन्मे बच्चों के हाथ-पैर टेढ़े हो सकते हैं, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हो सकते हैं। यदि वे चन्द्रग्रहण देखती हैं तो उनको मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। (Le Raincy, फ्रान्स, १७.८.१९८७) अधिकतर बच्चे अपंग इसलिए होते हैं क्योंकि माताओं को गर्भावस्था में क्या करना है? कैसे रहना है? इसकी जानकारी नहीं होती। यदि आप गर्भावस्था में ग्रहण को देखेंगे तो अपंग बच्चा पैदा हो सकता है। गर्भावस्था में अधिक समय तक डूबते हुए सूरज को देखने से बच्चे की आँखें कमजोर होती है। (सार्वजनिक कार्यक्रम, रोम, इटली, २९.४.१९८२) अब आप लोगों को ये जान लेना चाहिए कि आपको सूक्ष्म बनना है। फिर प्रश्न ये उठता है कि 'कैसे बने?' कैसे बने ये सूक्ष्म एक समस्या है। उदाहरण के लिए आज सुबह में पूजा करने का प्रश्न था। उन्होंने कहा कि आज सूर्यग्रहण है और आज का दिन इतना महान है कि अगर आज पूजा की जाए तो हजार बार किए गये पूजापाठ के समान का पूर्य प्राप्त होगा। अब, अगर इसे देखा जाए तो ये सुनने जानने के लिए बहुत अच्छा लगता है, ये सच भी है। ज्योतिषशास्त्र के पर्यावलोकन में इसके बारे में और ये सब लिखा गया है कि ये बहुत महान चीज़ है और हम इसका आचरण करने लग जाते हैं। आप सहजयोगी होने के नाते बड़ी सूक्ष्मता से इसका हमला करना चाहिए। इसी तरह से आपकी विवेकता में सूक्ष्मता बढ़ सकती है, आपके आचार - विचार में भी सूक्ष्मता आ सकती है। ऐसे सवाल सूक्ष्मता से हमला करने के लिए तो सबसे पहले आपको ये जान लेना चाहिए कि आपको सहजयोगी होना पड़ेगा। इसके लिए कोई तन्त्र की आवश्यकता नहीं है, बस अपने चैतन्य लहरियों को देखिए इस प्रश्न पर, शुरूआत में ये बहुत ही सरल है। सूक्ष्म चीज़ें सरल चीज़े होती हैं। स्थूलकाय चीजें उलझाऊ होती है। ये बहुत ही सरल समीकरण है। सरल चीज़ होती है चैतन्य लहरियों को महसूस करना इस मोड़ पर कि क्या आज की पूजा, सही में योग्य है या नहीं। आपको आश्चर्य होगा कि आपके दायीं बाजू गर्म हो जाएगी इस पर । ("Open your Heart', लोनावला, भारत, २५.१.१९८२) आप ने ग्रहण देखा है क्या? नहीं। अच्छा हुआ। हम जब आ रहे थे तब चॉँद को ग्रहण लगा हुआ था। और मैं उसे बन्धन लगा रही थी। ग्रहण के समाप्ती के बाद ही हम वहाँ पहुँचे थे। धन्य है कि आपने नहीं देखा। मैं बहुत खुश हूँ। (Ramdas Temple, सातारा, भारत, ३०.१२.१९८२) 31 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-33.txt सूजी-बेसन हलवा ए. ुर की री A८F wwwwmAN २ु ह सामग्री : ५ समतल बड़े चम्मच जमा हुआ घी, १०० ग्राम सूजी, ३० ग्राम बेसन, ४०० मि.ली. गर्म दूध, १/४ छोटा चम्मच केसर करीब ५ बड़े चम्मच चीनी या स्वादानुसार, १/२ छोटा चम्मच इलायची पाऊडर, ७० ग्राम खोआ, (पृष्ठ १९८ देखें) १ बड़ा चम्मच बादाम छिलका उतरे व बारीक कटे हुए, १ बड़ा चम्चम कटे हुए काजू, १ बड़ा चम्मच किशमिश विधि :- १) एक बर्तन में १ बड़ा चम्मच घी गर्म करें और सूजी को हल्का सुनहरा होने तक भूनें व अलग रखें। २) एक दूसरे बर्तन में १ बड़ा चम्मच घी गर्म करें और बेसन को हल्का सुनहरा होने तक भूनें। ३) उसमें भूनी हुई सूजी और ३ बड़े चम्मच घी डालें, मिलाएं और एक मिनट और भूनें। ४) गर्म दूध व केसर डालकर हिलाते हुए ५ मिनट तक पकाएं या जब तक सूजी पक जाए। ५ ) चीनी व इलायची पाऊडर डालें, हिलाते हुए कुछ मिनट और पकाएं। बादाम, काजू एवं किशमिश डालें और अच्छी तरह मिलाएं| 32 थल 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-34.txt सब लोग यह याद रखिए कि मैं अब आपकी वाणी में मधुरता पाऊं। आपकी बातचीत में मिठास पाऊं, आपके व्यवहार में सुरूचि पाऊं। मैं डस चीज़ को अब माफ नही करूंगी, इसको आप जान लीजिए। किसी को भी किसी चीज़ के लिए दुःख देना बुरी बात है। कृपया एकदसरे का आदर कीजिए। आप सहजयोगी हैं, दूसरे भी सहजयोगी हैं। आज आप किसी पद पर है, दूसरा नही, ये पद आपने पाया हुआ नही, हमने दिया हुआ है। और जब चाहे इस पद से हम आापको हटा सकते हैं। इसलिए मेहरवानी से डसके योज्य वनै । नम्रतापूर्वक डसे करें । श्री माताजी निर्मला देवी प्रकाशक निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा लि. प्लॉट नं. ८, चंद्रगुप्त हौसिंग सोसायटी , पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२ E-mail : sale@nitl.co.in 2009_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-35.txt आज हम एत् की ए सकत हैं। सकते हैं। यै किसी ऐरेणेे का काम नहीं । इस मार्ग पर आने वाले लोगों में श्रद्धा का होना जरुरी है । आए सादी, भीलाUन और परमत्मा को जानने की उत्सुकता रहैणी ती आए कहाँ से कहाँ पहुँच सकते हैं ।.... २५ मार्च १९७७ ही