चैतन्य लहरी नबुंबर-दिट २००९ ७ जक पाम हिन्दी ४. १० ा सला के v० ० ० ० ० ० बडी । ्। ा ०० ० ० ० ० C० १ ६GC ए०ड चरणीं की तस्वार अहुँकार और प्रतिअहँकार से पीड़ित लोगों के लिए बहुत ही अच्छी है। ९७/५/१९८० छ इस अंक में सहजयोग की शुरुआत - १ डायरी - १३ सहजयोग सबको समग्र करता है - १५ और अन्य श्री माताजी का माता-पिता के लिए सन्देश- २७ अहंकार और महत् अहंकार - २९ पाऊँड केक - ३१ क्र सहजयाग की शुरुआत 2ु दिवाली पूजा ९५, नारगोल ा म ल ें ১৯ पा क ये तो हमने सोचा भी नहीं था, इस नारगोल में २५ साल बाद इतने सहजयोगी एकत्रित होंगे। जब हम यहाँ आये थे तो ये विचार नहीं था कि, इस वक्त सहस्रार खोला जाए। सोच रहे थे कि, अभी देखा जाय कि, मनुष्य की क्या स्थिति है। मनुष्य अभी भी उस स्थिति पर नहीं पहुँचा जहाँ वो आत्मसाक्षात्कार को समझें।| हालांकि इस देश में साक्षात्कार की बात अनेक साधू-संतों ने सिद्ध की है और इसका ज्ञान महाराष्ट्र में तो बहुत ज़्यादा है कारण यहाँ जो मध्यमार्गी थे जिन्हें नाथ पंथी कहते थे उन लोगों ने आत्मकल्याण के लिए एक ही मार्ग बताया था; आत्मबोध का खुद को जाने बगैर आप कोई भी चीज़ प्राप्त नहीं कर सकते हो, ये मैं भी जानती थी। लेकिन उस वक्त जो मैंने मनुष्य की स्थिति देखी वो विचित्रसी थी। वो जिन लोगों के पीछे भागते थे उनमें कोई सत्यता नहीं थी। उनके पास सिवाय पैसे कमाने के और कोई लक्ष्य नहीं था और जब मनुष्य की स्थिति ऐसी होती है कि, जहाँ वो सत्य को बिल्कुल ही नहीं पहचानता उसे सत्य की बात कहना बहुत मुश्किल है और लोग मेरी बात क्यों सुनेंगे ? बार-बार मुझे लगता था कि अभी और भी मानव को भागना चाहिए। किन्तु मैंने देखा कि कलयुग की बड़ी घोर यातनायें लोग भोग रहे हैं। एक तो पूर्वजन्म में जिन लोगों ने अच्छे काम किये थे, उन लोगों को भी वो लोग सता रहे थे। जिन्होंने पूर्वजन्म में बूरे कर्म किये थे । उसमें कुछ ऐसे भी लोग थे जो पूर्वजन्म के कर्मों के कारण बहुत त्रस्त थे, तकलीफ में थे और कुछ लोग ऐसे थे कि जो वही पूर्वजन्म के कर्म लेकर के राक्षसों जैसे संसार में आये और वो किसी को छलने में, सताने में, उसकी दुर्दशा करने में कभी भी नहीं हिचकिचाते थे। तो दो तरह के लोगों को मैंने देखे खास । एक वो जो पीड़ा देते है और दूसरे जो पिड़ीत है। बहुत अब ये सोचना था कि, इसमें से किसकी ओर नज़र करें । जो लोग पीड़ा देते थे वे बहत अपने को सोचते थे कि 'मैं तो बहुत ही सम्पूर्ण इन्सान हूँ।' उनमें तो ये कल्पना ही नहीं थी कि ये दूसरों को तकलीफ दे रहे हैं, परेशान कर रहे हैं। और दूसरे जो लोग पीड़ित थे वो बर्दाश्त कर रहे थे , शायद मजबूरी की वजह से हो, या उनको कभी भी ये मालूम नहीं था कि इस तरह की जो व्यवहार करता है जब तक सन्तुलन नहीं आयेगा तब तक कुण्डलिनी उठेगी कैसे? उसका प्रतिकार करना चाहिए। उसका विरोध करना चाहिए। उस वक्त यही सोच रही थी कि मनुष्य कब ये सोचेगा कि 'हमें बदलना है, हमारे अन्दर एक परिवर्तन लाना हैं।' क्योंकि दोनो ही अपनी तरफ से खुद को समझा बुझा चुके थे। कुछ लोग ज़्यादा तकलीफ देते थे और कुछ लोग कम और कुछ भगवान के नाम पर हो, चाहे वो राष्ट्र के नाम पर हो और चाहे वो राजनैतिक हो या जिसे कहते है इकोनोमिकल। किसी की गरिबी तो किसी की अमिरी। लोग ज़्यादा तकलीफ बर्दाश्त कर रहे थे और कुछ लोग कम। ऐसी समाज की स्थिति थी। चाहे वो बहुत इस प्रकार, इस देश में एक तरह की धलना चल रही थी। जिसको कि मैं समझती थी कि, जब तक मनुष्य बदलेगा नहीं, जब तक वो अपने को पहचानेगा नहीं, जब तक वो अपने गौरव और अपनी महानता को पायेगा नहीं, तब तक वो ऐसे ही काम करता रहेगा। ये सब मेरे दिमाग में था ही, बचपन से ही और मैं ये सोच रही थी कि, इस मनुष्य अभ्यास किया, तटस्थ रहकर, साक्षी रूप रहकर मैंने समझना चाहा कि मनुष्य क्या है, पिछले क्या क्या दोष है। कौनसी-कौनसी खराबी हैं और किसलिए वो ये ऐसे सोचता है। तब उस नतीजे पर मैं पहुँची कि मनुष्य के अन्दर एक तो अहंकार बहुत ज़्यादा है और या तो उसके अन्दर में प्रति अहंकार जिसे हम कहते हैं कि कंडिशनिंग । इन दोनो की वजह से उसके अन्दर में सन्तुलन नहीं, बैलन्स नहीं । को समझना जरूरी है। तो पहले तो मैंने मनुष्यों का बहुत जब तक सन्तुलन नहीं आयेगा तब तक कुण्डलिनी उठेगी कैसे? वो भी एक बड़ी भारी चीज़ है । लेकिन जब मैं यहाँ नारगोल में आयी तो वो कुछ विचित्र कारणों के कारण। एक बहुत दष्ट राक्षस यहाँ पर एक अपना शिविर लगायें बैठा था और हमारे पति को कह कहकर भेजा है कि, 'उनको जरूर भेजिए, जरूर भेजिए ।' मुझे वो आदमी जरा भी ठीक नहीं लगा। फिर भी पति के कहने से मैं आयी और शायद जिस बंगले में अभी रह रही हूँ, शायद उसी में, ...... वास्तव में वहीं रहे थे। उससे पहले दिन की बात है कि, मैं जब एक पेड़ के नीचे बैठे देख रही थी उनका तमाशा।तो मैं हैरान हो गयी थी कि ये महाशय सबको मन्त्रित करके मेस्मराज्ड कर रहा था। कोई लोग चीख रहे थे। कोई लोग चिल्ला रहे थे। तो कोई लोग कुत्ते जैसे भौंक रहे थे। तो कोई जो है शेर जैसे दहाड़ रहे थे। मेरी समझ में आ गया कि, ये इनकी पूर्वयोनी में ले जा रहा था और इनके जो कुछ भी चित्त चेतित है, उसे हम कहते हैं सबकॉन्शस माइंड, उसको जगा रहा था, तब मैं घबरा गयी। मैंने ऐसे झूठे लोगों को भी पहले देखा था कि ये करते क्या है, ये तो पता होना चाहिए न कि ये करते क्या हैं, किस तरह से क्या धंधा करते हैं। और इन में मैंने एक चीज़ देखी कि ये बड़े भयभीत लोग है, इसके साथ बंदके रहती थी, इसके साथ इनके गाड्डस रहते थे। मैंने सोचा कि ये अगर कोई परमात्मा का कार्य कर रहे है तो इन्हे इन सब चीज़ों की जरूरत क्या है। और बेतहाशा पैसा लूट रहे थे। करोड़ों में इन्होंने पैसे लूटे लोगों से झूठ बोलकर। ये तो दो बातें मेरी नज़र में आयी। मैंने सोचा कि, ये तो कलयुग की ही महिमा है कि, ऐसे दुष्ट लोग अभी पनप रहे हैं। पर इसका इलाज यही कि, जब मनुष्य की चेतना जागृत हो, उसके अन्दर सुबुद्धि आये और वो समझ लें कि ये सब गलत चीज़ है और ये सब करने से कोई लाभ नहीं है । तीसरा मैंने ये देखा कि, जिस समाज में मैं रह रही हूँ उस समाज में लोग हर मिनट ऐसा काम करते थे कि, जिससे उनका नाश हो जाए। जैसे शराब पीना, | औरतों के पीछे भागना और तरह-तरह की चीजें। और बहुत ही ज़्यादा पैसे का लगाव इन लोगों को है। और बात करते वक्त लगता नहीं था कि वे नैचुरल बात कर रहे हैं, कुछ अरज़ीब सा, बन -ठन के ड्रामा करके बात करते थे। मैं सोचती थी कि मनुष्य को क्या हो गया है। ऐसे क्यों ड्रामें में फँसा हुआ है और इस तरह के गलत काम करता है। लेकिन मैं किससे कहती। मैं तो बिलकुल अकेली थी। उस वक्त जब हम यहाँ आये तो यही एक उलझन थी कि क्या किया जाय ? यहाँ आने पर जब मैंने देखा कि ये राक्षस लोगों को मेस्मराइज कर रहा था। तब मेरी समझ में आया कि, अब अगर सहस्रार नहीं खोला गया किसी तरह तो न जाने लोग कहाँ से कहाँ पहुँच जाएंगे। और इनके जो असर है, इसके जो साधक है, जो परमात्मा को खोज रहे हैं, सत्य को खोज रहे हैं न जाने कहाँ जा सकते हैं। तब देखने के बाद मैं दूसरे दिन सबेरे, रातभर समुद्र के किनारे रही। अकेली थी बड़ा अच्छा लगा। कोई कुछ कहने वाला नहीं। और तब मैंने 3 ध्यान में जाकर अपने अन्दर और सोचा सहस्रार खोला जाय। और जैसे मैंने ये इच्छा की कि, 'अब सहस्रार का ब्रह्मरंध्र खुल जाए।' ये इच्छा करते ही कुण्डलिनी को मैं अपने अन्दर देखती क्या हूँ कि, जैसे टेलिस्कोप होता है उस तरह से खटखट करके ऊपर तक गयी। उसका रंग ऐसा था कि, जितने भी यहाँ पर आप लोगों ने दिये लगाये हैं, इन सब दियों का रंग मिला लीजिए। जैसे कि लोहा तपता है तो उसका रंग और तब मैंने देखा उस कुण्डलिनी का बाहर का यन्त्र जो था वो इस तरह से उठता गया। हर एक चक्र पे खटखट आवाज आयी और कुण्डलिनी जाकर ब्रह्मरंध्र को छेद गयी। तो मेरे छेदने की तो कोई बात नहीं थी। लेकिन मैंने देखा कि विश्व में अब बहुत आसान हो जाएगा। और उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि ऊपर से जो कुछ भी शक्ति थी वो मेरे अन्दर पूरी तरह से, एक ठण्डी हवा जैसे चारो तरफ से आ गयी। अब मैं समझ गयी कि अब कार्य को शुरू करने में कोई हर्ज नहीं क्योंकि जो उलझन थी वो खत्म हो गयी | अनिश्चिंत, बिलकुल निश्चिंत हो कर के मैंने सोचा कि अब समय आ गया। आखिर होगा क्या? ज़्यादा से ज़्यादा लोग मारेंगे, पिटेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा हसेंगे, मज़ाक करेंगे। और उससे आगे वो सबको मार ड्ालेंगे। इसमें ड्रने की कोई बात नहीं। ये तो करना ही है। इसी कार्य के लिए हम आये हैं इस संसार में। क्योंकि सामूहिक चेतना को, कलेक्टिव कॉन्शस को जगाना, मैंने सोचा कि जब तक लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं करते, अपने को नहीं जानते तब तक ये कार्य असंभव है। और सब दुनियाभर की चीज़ें कर लें इससे कोई फायदा नहीं। इसलिए इस कार्य को मैंने सबसे पहले एक काकी बुढ़ी सी थी जिसे हम बहुत मानते थे, वो पार हो गयी। तब मुझे सन्तोष हुआ। मैंने कहा चलो एक तो पार हुये। इस कलयुग में किसी को पार करना कोई आसान है? जब एक पार हुई तब मुझे लगा, कि हो सकता है कि और बहुत से पार होंगे। और सामूहिक चेतना के लिए तो चेतना देना बहुत आसान था। एक इन्सान को पार कराना बहुत आसान था। एक आदमी को चितु करना बहुत आसान था। पर कलेक्टिवली, सामूहिक के लिए कार्य करने के लिए जो मैंने मनुष्य कि जब मैं रुकूँ कि किस आदमी में दर्गुण है, या कोई तकलीफ है या उसके अन्दर कंडिशनिंग है तो उसको निकालने के लिए क्या करना चाहिए। क्योंकि एक आदमी के लिए एक परेशानी दूसरे को, दूसरी तिसरे को, तीसरी। अगर सामूहिक कार्य करना है तो एक ही जागरण से सबको लाभ होना चाहिए। सबको फायदा होना चाहिए। अभी मैं आपको समझा नहीं सकती क्योंकि कम समय है, कि सामूहिक चेतना का जो कार्य किसी ने आज तक नहीं किया। ये बात सही है। वो मैंने बहुत ध्यान-धारणा से प्राप्त किया। के बारे में अनुभव किया था उस पर थोड़ासा काम था। काम ऐसा | अपनी कुण्डलिनी को चारों तरफ घूमा के, अपने कुण्डलिनी को बार-बार लोगों पर उसका असर डालके और बिल्कुल इस मामले में कोई भी नहीं जानता मेरे अन्दर क्या शक्तियाँ हैं? मैं कौन हूँ? कोई नहीं जानता। हमारे घर में भी कोई नहीं जानता। और मैके में भी कोई नहीं जानता था। और मैंने कभी किसी से बताया नहीं। क्योंकि बताने से ससुराल में भी कोई नहीं जानता था। ... भी खोपडी में जाना तो आसान चीज़ नहीं है। इन्सान की खोपडी ऐसी है, मैंने देखी है। जिसमें तो कोई भी विचार घुसना बहुत मुश्किल है। सब अपने ही घमण्ड में बैठे हुए है, सब अपने को कुछ न कुछ समझ रहे है। अब इनको कौन बतायें? जैसे कबीर ने कहा, समझाऊँ सब जगहन से' मुझे तो लगा अँधा नहीं है पर अज्ञानी है, एकदम अज्ञान का भण्डार। और ये इतना सूक्ष्म ज्ञान इनको कैसे दिया जाए? 'कैसे लेकिन कुण्डलिनी जब उस लेडी की, उस देवी की जब जागृत हुई तो मैंने देखा कि उसके अन्दर एक सूक्ष्म शक्ति आ गयी। और वो उस सूक्ष्म शक्ति से मुझे समझने लगी। उसके बाद बारह आदमी पार हुए। और पार होने के बाद हैरान हो गए क्योंकि उनकी आँखो में एकदम चमक आ गयी। और वो देखने लगे सब चीज़ को। एक अजीबोगरीब सम्वेदना उनके अन्दर आ गयी। जिससे वो महसूस करने लगे। शुरुआत के बारह लोगों के हर एक चक्र पर मैंने अलग-अलग काम किया। क्योंकि जब नींव में जब चीज़ पड़ती है वो मजबूत होती है। उसकी मजबूती करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। क्योंकि हालांकि उनकी कुण्डलिनी जागृत हो गयी थी। आप 4 जानते है कि, कुण्डलिनी के जागृत करने के बाद भी उसको ठीक दशा में ले जाने के लिए ध्यान- धारणा आदि करनी पडती है। और उसको बिठाना पड़ता है। इन बारह आदमीओं पर मैंने बहत मेहनत की। और उस मेहनत के फलस्वरूप ये जरूर मैंने जान लिया कि अगर ये बारह आदमियों की बारह प्रकृतियाँ और उनको साथ में बिठा के किस तरह से कहना चाहिए कि, आत्मा की जो प्रकाश शक्ति है उसको किस तरह से संगठित करना चाहिए, जैसे की हम सुई में फूल पिरोते है वो समग्रता किस तरह से आनी चाहिए? इन बारह आदमियों की अलग-अलग प्रकृतियों को किस तरह से एक सूत्र में बाँधा जाएं? और जब उनकी जागृति हो गयी तब मैंने देखा कि उनके अन्दर, सबके अन्दर एकसूत्रता बँधती जा रही थी। धीरे-धीरे बँधती जा रही थी। थोडी बहुत मेहनत भी करनी पड़ी। लेकिन किसीको बताने के लिए, जनता-जनार्दन को बताने के लिए मैंने सोचा, उसके लिए अभी आसान नहीं है । लोगों को समझने की बात नहीं है। फिर जहाँगीर हॉल में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। वहाँ मैंने बताया कि कितने राषक्षस आए, कितने राक्षसिनी आएं। ये लोग क्या करेंगे? तो सब घबरा गये। कहने लगे कि अगर ऐसे माताजी बात करेंगी तो इनको कोई भी कैसे मदद करेगा। तो सबने बताया कि, 'ऐसी बातें आप मत करिए, नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।' मैंने कहा, 'अभी तक तो मुझे मारने वाला पैदा नहीं हआ और आप लोग निश्चिंत रहिए। धीरे-धीरे ये जो छोटी-छोटी सरिताएं थी सबके अन्दर , छोटी-छोटी नदियाँ थी कुण्डलिनी की उनको मैंने कहा कि, 'आप लोग मेरी कुण्डलिनी पर ध्यान दो।' तो ध्यान करते ही वो निर्विचार हो गये। और निर्विचार होते ही साथ में उनको ये लगा कि, मेरे साथ उनका बड़ा तादात्म है। धीरे-धीरे निर्विचारिता बढ़ने लगी। धीरे-धीरे सामूहिकता का एक नया प्रकाश हुआ। ये पहले मैंने जहाॉँगीर हॉल में देखा। हिन्दुस्तानी लोग जो है, भारतीय लोग जो है, ये इस भूमि में इसलिए पैदा हुएं है कि, ये बड़े ही धार्मिक है। बहुत ही सुन्दर इनका जीवन रहा होगा। क्योंकि हिन्दुस्तान में इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती । बहुत जल्दी लोग पार हो जाते थे। शुरुआत में जरूर थोडा-बहुत समय लगा। लेकिन परदेस में तो हाथ टूट जाते है। किसी की कुण्डलिनी उठाना ऐसा लगता है कि पहाड उठाया जा रहा है। और फिर धड़क से नीचे गिर जाती है। उठाओ और फिर धड़क से गिर जाओ| और फिर जब कलेक्टिवली, सामूहिक में तो बड़ी मुश्किल! और अजीबो-गरीब सवाल पूछना, ये और वो, दुनियाभर की बातें। जब मेैं उसका जवाब देती तो हैरान हो जाते। ये इतना जानती कैसे हैं इनको ये सब मालूम कैसे है? बड़ी मेरी परिक्षा करते हैं। क्योंकि अहंकार बहुत ज़्यादा है । अब धीरे - धीरे ऐसी चीज़़ें, जैसे लण्डन में पहली मर्तबा सात सहजयोगी आएं। वो सातों ही हिप्पी के टाइप और ड्रग्ज लेते थे। उनसे वो सहजयोगी बन गये। इसका मतलब ये तो हुआ कि एक तरह का सहारा मिल गया, निश्चिंती हो गयी कि, सहजयोग से लोग छोड रहे है। ड्रग्ज अॅडिक्ट को ठिकाने लगाना कोई आसान बात नही! उसमें एक अच्छाई क्योंकि उन पर जो हमने मेहनत करी उससे एक अनुभव आ गया कि, कठिन से कठिन भी कोई इन्सान हों, जब उसकी इच्छा होती है तो उसे योग प्राप्त होना चाहिए, उसे आत्मज्ञान होना चाहिए। इच्छा मात्र अगर हो तो वो पार हो जाता है। तब मैं सबसे कहती थी कि, आप हृदय से इच्छा करो कि, आपको आत्मसाक्षात्कार चाहिए, बस। उसी पर लोग झट से पार हो गये। उसमें अनेक देशों के अनुभव है मेरे पास। इससे जैसे रशिया है या युक्रेन है या रुमानिया इन देशों का मेरे ख्याल से हमारे देशों से कभी सम्बन्ध रहा होगा जबरदस्त। और यहाँ से नाथ पंथी जो है, मच्छिंद्रनाथ, गोरखनाथ ये गये होंगे कभी। क्योंकि इनके यहाँ जो चीजें मिली, मुझे उससे पता हुआ कि, ये लोग कुण्डलिनी के बारे में ईसा से भी तीन सौ साल पहले से जानते हैं। तब ये समझ में आया कि, ये लोग इतनी जल्दी पार कैसे हो जाते हैं ! ड्रग्ज | महाराष्ट्र में बहुत काम किया नाथ पंथियों ने और मैंने भी बड़ी मेहनत की। पर दुःख की बात ये है कि, जो चीज़ नॉर्थ इंडिया में हम कर पाएं वो महाराष्ट्र में अभी भी मैं नहीं कर पाई। समझ में नहीं आता जहाँ पर संतों ने अपना खून बहाया और हर एक महाराष्ट्रीयन को मालूम है की नाथपंथीयों ने क्या कार्य किया? और पता नहीं क्यों जो चीज़ मैंने नॉर्थ इंडिया में पाई, पहले तो मैं दिल्ली को बिल्ली ही सहजयोग को बढ़ाने के लिए सबसे पहले आप ध्यान-धारणा करें। कहती थी, सालों मेहनत की वहाँ भी लेकिन उसके बाद जो सहजयोगी वहाँ मिले है। जिस तरह सहजयोग फैल रहा है । इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना प्रवाह देख कर के ये आश्चर्य होता है कि जहाँ पर इतना संत-साधुओं ने काम किया है, इतनी मेहनत की है और बचपन से हम लोग यही सिखते आएं है, पढ़ते आएं है, यहाँ पर सब लोग यही बातें करते हैं उस महाराष्ट्र में सहजयोग उतना गहरा नहीं फैला। जैसा कि नॉर्थ में फैला। इसका क्या कारण हो सकता है? एक ही मुझे लगता है कि जब पहले से ही सब चीज़़ मालूम है तो उसके प्रति जो है अवज्ञा हो जाती है। उधर इनडिफरन्स हो जाता है। संस्कृत में एक श्लोक है 'अति परिचयात अवज्ञा' 'संतत गमना अनादरो भवति, प्रयागवासी कृपे स्नानं समाचरेत' कि जब बार-बार आप कहीं जाते हैं, बार-बार आप किसीसे मिलते हैं तो आपका अनादर होने लगता है, फिर आपका आदर नहीं रह जाता। क्योंकि प्रयाग में रहने वाले लोग, इलाहाबाद में रहने वाले लोग गंगाजी में नहाने की जगह, जो त्रिवेणी का संगम है, वो लोग घर में जो कुँआ है उसमें नहाते है। और लोग दुनियाभर से वहाँ जाते हैं, जाकर के वहाँ नहा लेते हैं। यही बात शायद है कि जो इतनी मान्यता सहजयोग को नॉर्थ इंडिया में है। यहाँ भी, ऐसा नहीं कि यहाँ सहजयोगी नहीं, महाराष्ट्र में भी बहुत सहजयोगी हैं और बहुत कार्यान्वित भी हैं पर सहजयोग के प्रति जो समर्पण चाहिए वो मैंने तो कभी नहीं देखा। पता नहीं शायद बढ़े। समर्पण का मतलब है कि ये हमें सहजयोगी पद जो मिला उस सहजयोगी पद को हम किस तरह से इस्तमाल करें। वो सिर्फ अपने लाभ के लिए, अपनी तकलीफ के लिए, अपने ही परिवार के लिए सोचते हैं या सारे संसार के लिए सोचते हैं ये कुछ समझ में नहीं आता। महाराष्ट्र की जो संस्कृती है और जो महाराष्ट्र के धर्म की इतनी गहन छाप, उस महाराष्ट्र में सहजयोग इतना नहीं फैला है। और गुजरात में जहाँ नारगोल में जहाँ हमने ब्रह्मरन्ध्र खोला वहाँ तो बहुत ही प्रॉब्लेम है। गुजरात के लोग तो मेरी समझ में ही नहीं आते। बहुत मेहनत की गुजरात में पर सबसे ज़्यादा महाराष्ट्र मे मेहनत की है। क्योंकि आज यहाँ महाराष्ट्रीयन लोग बहुत है। मुझे कहना ये है कि सहजयोग को बढ़ाने के लिए सबसे पहले आप ध्यान-धारणा करें। और गहरे, जब गहरे आप उतर जाते हैं तब आपको लगता है कि मैं ही क्यों इसका मज़ा उठाऊँ? और लोग भी इसका मज़ा उठायें । और जब ये भावना अन्दर आती है तो सहजयोग फैलता हैऔर उसके बाद मनुष्य जो है अपने जीवन में यही सोचता है कि दूसरों को सुख देना, दुसरों को आनन्द देना इससे बढ़कर और कुछ नहीं। और सब चीज़ों को भूल जाते हैं। यह जब होता है तब सहजयोग फैलता है। रात -दिन वही चिंतन, रात-दिन वही सोचना । इसमें मज़ा आता है | आज में यह देखकर बहुत खुश हुई कि सारे दुनिया से यहाँ लोग आएं इसके अलावा और भी लोग जो कहना चाहिए कि, परदेस से तो आएं है और दिल्ली वरगैरा से आए हैं कम से कम एक बड़ी मुझे आनन्द की बात लगती है कि, इस कठिन जगह आप सब लोग कैसे पहुँचे? यह तो प्रेम की महति है। और यह सिर्फ प्रेम है आपका । ये बहुत बड़ी चीज़ है। लेकिन इसमें बस फर्क ये है कि जिस तरह से सहजयोग है, अब देखिए, कोल्हापूर में कितनी मेहनत की। कोल्हापूर में बहुत मेहनत करी लेकिन कोल्हापूर में सहजयोग बहुत कम है। आश्चर्य की बात है! ऐसा क्यों होता है ? उन्होंने कहा पंढरपूर में ८०० सहजयोगी है। पर ऐसा वहाँ नहीं। गाजियाबाद में जाओ तो १५,०००, फिर आप फरीदाबाद में जाओ १६, ००० फिर आप हरियाणा में जाओ तो वहाँ २५,००० । वहाँ तो हजारों की बात हैं। और महाराष्ट्र में कि ८०० आदमी यहाँ है, ५०० आदमी वहाँ है, ७०० आदमी वहाँ। इसका कारण क्या है मैं आजतक नहीं समझ पाई। यही अगर सोचना है, यही सोच सकते है कि यहाँ पर आत्मज्ञान, आत्म बोध, महानुभाव पंथ आदि अनेक चीज़ें इतनी ज़्यादा असलियत की हो गयी कि अब इधर ध्यान ही नहीं। ऐसे इन लोगों को महाराष्ट्र में पैसे की ललक नहीं। जैसे आप लोगों को गुजरात में, उत्तर प्रदेश में भी, उत्तर भारत में भी काफी पैसों की ललक है । महाराष्ट्र में ये बात नहीं। सुबह चार बजे से शाम तक भगवान का ध्यान करना, ये वो करना चलेगा। पर उसमें एक तरह निगरानी की बात नहीं। उसमें हृदय से करें, भक्ति से करे। और उस भक्ति को बाँटने की करना, कोशिश करें। ये महाराष्ट्रीयन्स को करना चाहिए। बारह महिने में महाराष्ट्र में ही हमारे गणपतीपूले का प्रोग्राम होता है और महाराष्ट्र ें काफी अच्छे सहजयोगी है। गहरे, बहुत गहरे! यहाँ की युवा शक्तियाँ भी बहुत अच्छी है। लेकिन तो भी मैं कहूँगी कि, जिस तरह से | | 7 सहजयोग नॉर्थ में फैला है। अब जहाँ देखो बारह पक्तीं में है। हमारा ससुराल वहाँ है। हर जगह, हर एक गाँव में, हर एक जगह। जहाँ एक आदमी पहुँच गया, सहजयोगी बन गया, जैसे कोई सूखी लकड़ी रहती उसमें जरासी चिनगारी पड़ जाए तो आग लग जाती है इस तरह से। ये आखिर किस कारण जोरों में बह रहा है। समझ में नहीं आता । और जो हो जाते है तो कोई सवाल नहीं, कुछ नहीं । पर महाराष्ट्र में सवाल बहुत पूछे क्योंकि पोथियाँ सब पढ़ बैठे हैं। घर में रोज एक-एक को, आप देखिए, किसी महाराष्ट्रीयन्स के यहाँ कम से कम दस गुरुओं के फोटो है। उसमें से सच्चे शायद एकाद -दो ही हो। और सब तरह की मूर्तियाँ हैं। गणेशजी का वास है यहाँ । चार यहाँ गणेशजी बैठे है। उसे कहने चाहिए, उसे तो अष्टविनायक कहते है। पर चार मैं इसलिए कह रही हूँ कि एक-एक गणेश के दो-दो अॅसपेक्टस या दो-दो तरिके, विशेष अलग-अलग यहाँ पर है। अब उसके बारे में महाराष्ट्रीयन्स जानते है। वहाँ जाएंगे , गणेश पूजा करेंगे वो। फिर यहाँ आकर तीन देवियों का प्रादर्भाव है। यह सब होते हुए भी वहाँ जाएंगे । वहाँ मंदिरों में जाएंगे। महालक्ष्मी मंदिर में जाएंगे रोज। वो सब करेंगे। और अब जब सहजयोग में आएं है तो अब छुट्टी हो गयी। कुछ भी नहीं करना है। ये बड़े आश्चर्य की बात है! | आज क्योंकि बहुत से महाराष्ट्रीयन यहाँ आएं है। मैं बताना चाहती थी कि देखिए दिल्ली से न जाने कितने लोग, इतने लोग से कभी नहीं जाएंगे। मराठी में इनको 'घरकोंबडे' कहते हैं। माने वो बस अपने ही देश में। बम्बई वाले आपको कभी नहीं महाराष्र दिखाई देंगे पूना में जा कर काम करते हुए। और पूना वाले तो, उनको एक तरह का भूत चिपका हुआ है। मैं इसलिए कह रही हूँ कि, ये सब बात खुले आम कहने से कभी-कभी ठीक हो जाती है। खुले आम कहना है कि, महाराष्ट्र में जो सहजयोग का ठिकाना हुआ है उससे तो इनके जो आठवले जो है वो अच्छे! बकते है सिर्फ लेकिन लाखों लोग आएं। गुजरात का तो क्या कहना । इनको तो ऐसे-ऐसे गुरुओं ने पकड़ें है। पर महाराष्ट्रीयन्स को क्या हुआ। जिसमें रामदासस्वामींने सब गुरुओं की चर्चा की और उसमें बताया है, इतना ही नहीं सबसे तो मैं कहूँगी ध्यान दें, इतना साल सहजयोग समझाया। रोज वही गाते है। और जो नामदेव ने जो लिखा हुआ है जोगवा का गाना वो रोज जहाँ तुम गाते हैं कि 'हमको माँ तुम योग दों।' पर वो योग करने के लिए तुमको कुछ करना है। आप किसी गाँव में जाओ वहाँ भीड़ हो जाएगी जब मैं जाऊँगी। उसके बाद अगर दो आदमी भी मिल जाए तो बड़ी हैरानी। तो मैं ये कहँगी कि महाराष्ट्रीन लोगों को चाहिए कि, कुछ इन लोगों के लिए प्रार्थना करें। हवन करें, कुछ न कुछ ऐसी सामूहिक चीज़ करें जिससे महाराष्ट्र की जागृति वैसी हो जाए जैसे उत्तर भारत में हुई, जैसे कि रशिया में हुई। वैसे समर्पित हम वो अच्छे है। लेकिन सहजयोग क्यों अभी बढ़ता नहीं ये मेरी समझ में नहीं आया। बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है। कोल्हापूर जगह में न जाने कितनी बार पूजाएं हुई। देवी का मन्दिर बहुत सुन्दर है। सब ऊँचा कुछ है। पर वहाँ पर इतनी गहनता नहीं। उसके लिए सामूहिक रूप में सब लोग ध्यान दें क्योंकि महाराष्ट्र बहुत बड़ा देश है। बहुत देश है। और धर्म की दृष्टि से जो है सो है, पर आध्यात्म के दृष्टि से बहुत ऊँचा देश है। इसलिए सबको चाहिए कि वो महाराषट्र के लिए थोडीसी जागृति की बातचीत करें। ऐसे कोई झगड़ा नहीं है। कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जो सहजयोग बढ़ना चाहिए वो न जाने आजतक तो इतना बढ़ा नहीं। हो सकता है आगे ठीक हो जाए। अब जो आप लोग यहाँ आएं, न जाने क्यों एक अजीब तरह की अनुभूति हुई। किस तरह से पच्चीस साल में इस छोटीसी जगह में आप लोग आएं। पच्चीस साल तक हमने मेहनत की ये बात मैं जानती हैँ। मेहनत बहत की । पर पच्चीस साल के बाद इतने लोग इस नारगोल का माहात्म्य समझेंगे और यहाँ आएंगे ये कोई आश्चर्य की बात नहीं। 'नारगोल' हमारे सहजयोग में मतलब होता है सहस्रार। और जब मैं यहाँ आईं । यहाँ की वनश्री देखी वगैरा और तबियत खुश हो गयी और एकदम अन्दर से जैसे लगा कि इस प्रकृति की किसी बड़ी भारी आशीर्वादित जगह हम आयें बहत अच्छा लगा और बहुत वो तो मई का महिना था लेकिन मुझे बिलकुल नहीं गरमी लग रही थी जब सहजयोगी आतेहैं तो ठीक है उनकी गर्मी मैं खिंचती रहती हूँ लेकिन वहाँ; यहाँ कोई सहजयोगी नहीं थे इन दिनों की तरह कुछ गर्मी नहीं लगी और जब सहस्रार खोला तो मैंने देखा कि, जब, 8. ০০ 83 कोई इसके बारे में जानता भी नहीं है। ज्यादातर गुजराती लोग थे उसमें महाराष्ट्रीयन कम थे और महाराष्ट्र में ही जो चीज़ इतनी किताबें लिखी है कितनी ही किताबें लिखी हैं आप देखियेगा, असली किताबे लिखी हैं, झूठ नहीं है, जो सत्य है वही लिखा हुआ है, चक्रों पर लिखा हुआ है कुण्डलिनी पर लिखा हुआ है, सबकुछ इतना लिखने पर भी यहाँ उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद लोग उसका इस्तेमाल करें तो न जाने कितना बढ़ जाएगा, कितना यहाँ सहजयोग बढ़ सकता है। अब हमारी जो सहजयोग की जो प्रणाली है वो इतने लोगों में फैल गयीं इतनी गहरी पहुँची जो आपने ड्रामा देखा है उससे समझ गये होंगे। इस ड्रामा में उन्होंने दिखा दिया अपने दिमाग से सोचकर के कि 'माँ क्यों आईं?' कि सब लोगों ने कहा कि हमने बहत मेहनत करी। हमने पूरी कोशिश करी कि इन्सान जो है वो आध्यात्म में आ जाएं और परमात्मा की उस पर नज़र जाए और उसको किसी तरह से योग प्राप्त हो पर कुछ चीज़ बनी नहीं है इसलिए अब हम देवी से कहते हैं कि तुम ही अवतरण लो, तुम ही अवतरण लेकर के जो तुमने ये संसार बनाया है उसको ठीक करो। बिलकुल पते की बात है। इसमें कोई शक नहीं है और हुआ भी ऐसे है और बना भी ऐसे है। सारा जो कार्य है इस तरह से बड़े सुचारू रूप से बन रहा है और जिस वक्त इस ब्रह्मरन्ध्र को तोड़ा था उस वक्त सोचा भी नहीं था मैंने कि, मेरे जीवित रहते हुए इतना मैं कार्य देख सकूँगी पर ये कुण्डलिनी की महिमा और परम चैतन्य का कार्य है। परम चैतन्य से तो मैं खुद हार गई, पता नहीं क्या करते रहते है, हालांकि ये मेरी शक्ति है, लेकिन ये परम चैतन्य आप देख रहे हैं, ये तरह-तरह के फोटोग्राफ्स मेरे बना रहे हैं, तरह- तरह के चमत्कार मेरे दिखा रहे हैं, पचासो तरह के चमत्कार। वैसे मैक्सिको में एक स्त्री थी, जो काम करती न्यूयॉर्क में। वहाँ मुलाकात हुई उसकी। फिर वो पार भी हो गयी थी और मैक्सिको चली गयी थी, वहाँ नौकरी मिल गयी यु.एन. में। उसने चिट्ठी लिखी कि मेरे लड़के की तबियत खराब हो गयी है। छोटा सा है, उमर में बहुत छोटा है और ये बिमारी हमारे खानदान में होती है। जब लोग बिलकुल बुढ्ढे हो जाते हैं लेकिन इस बच्चे को इतनी छोटी उमर में हो गयी और अब ये बच नहीं सकता इसके लिए माँ मैं क्या करूँ। ऐसे तीन चिट्ठीयाँ उसने लिखी है। ये परम चैतन्य की बात बता रहे हैं और चौथी चिट्ठी में उसने लिखा कि लड़का अपने आप ठीक हो गया है। वो हॉवर्ड युनिवर्सिटी में पढ़ता था । एकदम ठीक हो गया। उसकी बिमारी एकदम ठीक हो गयी। डॉक्टर ने कहा कि 'किया क्या तुमने? वो कैसे ठीक हो गया ?' तो ये परम चैतन्य जो है, इससे काम करते हैं। ये कमाल है तो अब किसी ने पूछा कि 'ये गणेश जी दूध पी रहे हैं, क्या है ये!' मैंने कहा कि भाई, ये परम चैतन्य, कृतयुग में आ गये हैं। अब ये करे सो कम है । गणेशजी को दूध पिलायेंगे, वो शिवजी को दूध कौनसी बात है जो परमचैतन्य नहीं कर सकते हैं? हर तरह का वो काम करते हैं। पिलायेंगे, इसको कुछ कह सकते हैं! एक साहब थे कॅनडा में। ये भी काफी पुरानी बात है, तो उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी कि माँ, मेरे पास पैसे नहीं है और इस कार्य के लिए मुझे इतना रूपया चाहिए। मैंने कहा, 'अच्छा, कोई बात नहीं। ठीक है।' फिर दूसरे दिन उसने मुझे फोन किया कि 'माँ, मुझे रूपये मिल गये।' मैंने कहा कि वो कैसे? तो उसने कहा था कि मुझे जितने पैसे चाहिए थे उतने एक्झॅक्टली मुझे मिल गये। बहुतों को अनेकों आ रहे हैं क्योंकि परम चैतन्य जो है वो आशीर्वाद स्वरूप है। हर जगह आपको आशीर्वाद देगा , अनुभव आयें। अनेक अनुभव प्रेम देगा, हर तरह से आपको सम्भालेगा, सबकुछ है लेकिन उनकी जो चाल है न उसमें स्पीड़ आ गयी है, मुझे खुद ही समझ में नहीं आता है कि ये इतने कार्य कैसे कर लेता है। अमेरिका जैसी जगह जहाँ कि लोगों को बिलकुल भी कहना चाहिए कि सूझबूझ ही नहीं है, अध्यात्म में । इस टाईम अमेरिका में इतना बड़ा कार्यक्रम हुआ, इतने बड़े हॉल में, लोगों को बैठने की जगह नहीं थी और पाँच मिनट में सब लोग पार हो गये, पाँच मिनट में। वही फिर लॉस एंजलिस में भी हुआ। मैं हैरान हो गयी कि ये लोग इतने मूर्ख हैं इनके साथ ऐसे कैसे हो गया है? फिर कॅनडा, वहाँ भी पाँच मिनट में पार हो गये, फिर वहाँ से आगे गये वहाँ भी पाँच मिनट में पार हो गये। कुछ समझ में आया नहीं कि क्यों और क्या है? तो परम चैतन्य की कृतियाँ इतनी बढ़ गयी है। इतने तरह-तरह के हो गये हैं कि कोई समझ नहीं सकता है कि क्या बात है और ये किस तरह से घटित होता है; ये अगर कोई मुझसे पूछे तो मैं नहीं बता पाऊँगी। अब किसी ने मेरा फोटो | 10 लिया कि मैं चाहती हूँ कि जिस तरह से माँ के बारे में कहा जाता है कि उनके चरणों में चाँद है और सिर पर सूरज। वैसा फोटो मुझे चाहिये और वाकई में वैसा फोटो आ गया। आप लोग जिस चीज़ की इच्छा करें वो हो जाता है। इसको क्या कहना चाहिये? इस परम चैतन्य की अपनी शक्ति जो है वो इतनी सुचारू रूप से चलती है और इस कदर जानती है, हर एक की तकलीफ, परेशानियाँ बड़े प्यार से, दुलार से उसको ठीक कर देती है। इस परम चैतन्य की जो महती है आज तक आपने आदिशक्ति की पूजा की है, उसी वक्त आपने इस परमशक्ति की भी, जिसे कि परम चैतन्य कहते हैं, रूह कहते हैं उसकी पूजा की है। यहाँ पर जब मैं आईं तब मैंने उसी वक्त उसी का सब जगह पर प्रादूर्भाव देखा है और सोचा कि यहाँ कुछ न कुछ देवी ने आशीर्वाद दिया हुआ है पहले ही। और वाकई में यहाँ इतनी जल्दी, खट से जो ये कार्य हुआ, इतना बड़ा, | इतना महान, वो मेरी समझ में नहीं आया कि कैसी इतनी जल्दी क्यों हो गया। ये वही परम चैतन्य है। अब कहिये कि मेरी शक्ति है लेकिन मैं ही मेरी शक्ति को नहीं जानती हूँ ऐसा हाल हो गया है। इतने जोरों में दौड़ रही है कि समझ में नहीं आता कि अब क्या करेगी और आगे क्या करना है। मतलब ये है कि ये जो शक्ति है, ये इतनी अब आतुर है, इतनी... है कि संसार में ये जो परिवर्तन है, ग्लोबल ट्रान्सफौर्मेशन है उसको करने में बिलकुल देर नहीं करता है, पर जो इसमें आयेंगे और जो इसके लिए करेंगे वो ही प्राप्त कर सकता है । अब महाराष्ट्र की यही बात मेैं आपको बताने जा रही हैँ कि ये शक्ति कार्यान्वित हो रही है। बड़े जबरदस्त और आप लोगों को सबको चाहिए कि इसको पूरी तरह से आप लोग जान ले, समझ लें इस शक्ति को, जो कार्य करने की जो प्रणाली है उसको समझ लें और उसके माध्यम से आप काम कर सकते हैं। अगर वो आप इस्तेमाल करना शुरू कर दें तो न जाने आप कहाँ से कहाँ पहुँच जाएंगे। पर मनुष्य को पार होने के बाद भी, जब तक इसको, वो चीज़ विशेष न समझे तब तक सहजयोग फैलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। रूमानिया देश जिन्होंने कभी आदिशक्ति नाम की क्या चीज़ है सुना ही नहीं; ऐसा मैं सोचती हूँ। वहाँ सहजयोग इतने जोर से फैला है बड़ा आश्चर्य होता है कि वहाँ ५००० सहजयोगी एक शहर में है। अब तो और भी बढ़ गये। वही चीज़ इस महाराष्ट्र में होनी चाहिए और बार-बार मुझे इसकी चिंता लगी रहती है कि ये चीज़ महाराष्ट्र में क्यों नहीं होती है। क्यों नहीं सहजयोग इस तरह से फैल रहा है जैसा फैलना चाहिए। बड़े-बड़़े शहर है बड़ी-बड़ी जगह है, वहाँ ये कार्य होना है। तो आज के दिन एक बहुत बड़ी बात हुई है कि पचीस साल इस चीज़ से झूँजते -झूँजते इस दशा में हम आ गये हैं कि यहाँ पर इस जगह आप लोग आये हैं इसका गौर बढ़ाने, इसकी महत्ता बढ़ाने और इसको पुनीत करने मेरे लिए कोई शब्द नहीं है। मैं सोचती हूँ तो मेरा जी भर आता है। आप लोगों के लिए कि कहाँ कहाँ से आप लोग यहाँ आये है। अनंत आशीर्वाद! 11 ० र ८ डायरी १७/५/१९८० 13 मैं म आपको बताती आयी हूँ कि सभी सहजयोगियों को डायरी लिखना शुरू कर देना चाहिए। हर एक दिन की अनुभूतियों के बारे में, अगर आपको पता होगा कि आपको डायरी लिखनी है, तो आप अपने दिमाग को सचेत रखेंगे और दूसरा (डायरी) जब भी आपको कोई खास योजना सूझे, भूत या भविष्य काल की तो आप उसे इस डायरी में उतार सकते हैं। तो इस प्रकार से आपको दो डायरी बनाकर रखनी चाहिए । एकाग्र चित्त होने के लिए आपको अपने मन को खास तथ्यों पर बनाये रखना है। पहला तो जैसे मैंने आपको बताया है कि अगर आप डायरी बनाएंगे तो आपको पता चलेगा कि आप को याद रखना है कि, कौन-कौन सी महत्वपूर्ण घटनाएं घटी है। इससे आपका चित्त सचेत रहेगा ह और आप उन चीज़ों पर ध्यान देंगे कि क्या हुआ और कहाँ हुआ है। आपको आश्चर्य होगा जब आप अपने चित्त को सचेत रखेंगे तो आपको पता चलेगा कि, कौनसी नयी चीजे आपके पास आयी हैं जैसे बहुत ही बढ़िया योजनायें, जीवन का चमत्कार, परमात्मा के सौंदर्य के चमत्कार और उनकी मंगलता, उनकी ( परमात्मा की) महानता, उनकी उदारता , उनका आशीर्वाद - किस तरह से कार्य करते हैं, जब आप डायरी लिखना आरम्भ कर दें, चाहे वो सिर्फ दो पक्तियाँ ही क्यों न हो उसके बारे में। इससे आपका मन उसके साथ ही जुड़ा रहेगा। ये एक मानवीय तरीका है चीज़ों को करने का। आप ये भी लिख सकते हैं डायरी में कि, क्या सब घटित हुआ है। क्या आपने अपना मेडिटेशन किया या कर पायें? क्या आपको अपना मेडिटेशन करने के लिए समय मिल पाया या नहीं। थोड़ा बहुत अपने को इस तरह से तैयार करिये जैसे कि, आप कोई परिक्षा देने के लिए तैयारी कर रहे हो। उस तरह से आप एक पच्ची (नोट) बना लीजिए। क्या में सुबह को उठा? उठे थे ? फिर आपको अपने पथ पर भी ध्यान देना है कि, क्या आप मध्य में हैं या दायें या बायें ओर हैं। डायरी बनाना एक बहुत ही अच्छी आदत है। साथ ही आप ये भी देखेंगे कि किस तरह से धीरे-धीरे आपकी योजनाओं में बदलाव आने लगता है, किस तरह से नई प्राथमिकतायें बसने लगती है। किस तरह से आप वास्तविक चीज़ों को अधिक महत्व देने लग जाते हैं और अवास्तविक चीज़ों कों कम महत्व देने लगते हैं। मुझे लगता है कि ये एक बहुत ही उपयोगी चीज़ है मनुष्य के लिए कि उसे एक डायरी रखनी चाहिए। कुछ समय के बाद कुछ डायरियाँ महत्वपूर्ण वस्तु बन जाएंगी और लोग चाहेंगे कि वे देखें कि आपने क्या सब लिखा है- पाखण्डी भी नहीं होना है इसमें , न ही कुछ छिपाना है इसमें, पर बिलकुल सत्य होना चाहिए और समझ में आयें ऐसा होना चाहिए. 14 से सहजयोग सबको समग् करता है .८ मुंबई, २९ मे १९७६ - (अनुवादित) 15 सभी साधक मेरी ओर ऐसे हाथ करके बैठें। आप में से कुछ सहजयोग से पार हुए हैं और कुछ लोग पार होने बैठे हुए हैं। मैंने आप लोगों में से बहुत से लोगों को कुण्डलिनी का अर्थ, कुण्डलिनी योग का अर्थ, हमारे भीतर कार्यान्वित विभिन्न उनके नाम एवं वहाँ विराजित अनेक देवी-देवताओं के सम्बन्ध में बहुत बार बताया है। इतना ही नहीं आप सबने इसका चक्र, अनुभव भी लिया है। तो यह उत्तम होगा कि, नये साधक पुराने साधकों से इस सम्बन्ध में जानकारी लें। अब प्रश्न यह है कि सहजयोग में पार होने के बाद; हैं। यह ऐसा ही हुआ कि 'माताजी हमने इतनी पूँजी जमा कर ली , इसका क्या करें?' कमाई करने के बाद उसे खर्च करो। आप जो पैसा कमाते हों और एकत्रित करते हो अथवा बैंक में जमा कराते हो, मेहनत करके रखते हो-तो उसके बाद उसे उपयोग में 'अब हमें क्या करना चाहिए?' यह प्रश्न बार-बार लोग मुझसे पूछते लेना चाहिए। यह मैं बता सकती हूँ कि, अब उसका उपयोग किस प्रकार करना है। और कुछ साधक तो अपनी जमा कमाई को ही उत्तम ढ़ंग से उपयोग करते हैं। पुन: जो इसे उपयोग नहीं करते हैं-माताजी, फिर उनका क्या होगा ? आज कई लोग यह बहुत कहते हैं। जो उपयोग नहीं करेगा उसका क्या होगा भाई? परमात्मा ने हमें प्रेम से चुना है। यह संसार का बहुत महान कार्य है और उन्होंने हमें चैतन्य लहरियाँ (वाइब्रेशन) दी है तथा इस बहुत महान कार्य के लिए परमात्मा ने हमें चुना है। उसका कोई न कोई तो कारण है, वो कारण हमें पता है। तो हम उस परम चैतन्य के द्वारा दूसरों को भी परमात्मा के साम्राज्य तक लेकर जा सकते हैं। और उन्हें भी इस शान्ति का आनन्द मिल सकता है। इतना कुछ नहीं तो चारो ओर व्याप्त परमात्मा की प्रेम शक्ति से | एकरूप हो सकते हैं। अब प्रश्न यह है कि, यह शक्ति जो हमारे हाथों से बह रही है, यदि उपयोग में नहीं लायी गयी तो उसे नष्ट नहीं होना चाहिए ऐसा लोगों से आग्रह है। परमात्मा के साम्राज्य में इस तरह की बातें नहीं होती कि ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए। परमात्मा का साम्राज्य जो सर्वोच्च है, उसे हम आदेश नहीं दे सकते हैं कि भाई, तुम ऐसा करो, तुम वैसा मत करो। इस संसार में अब तक जितने भी साम्राज्य हुए हैं उन सबसे उँचा उनका ही साम्राज्य है। और उनका साम्राज्य जितना प्रेममय, अतिसूक्ष्म है उतना ही दक्ष भी है। उनके समक्ष हम यदि चैतन्य लहरियों को लेने हेतू आराम से बैठें तो हमें आनन्द आता है। यदि श्री माताजी ने हमें ऐसा अनुभव दिया और ऐसा ही करते-करते तीन -चार माह तक आराम से बैठे रहें; तो श्री माताजी के वापस आने पर हम पुन: माताजी से कहेंगे कि 'माताजी, हमारे वाइब्रेशन्स गए और अब हमारे हाथों से गर्मी आदि निकल रही है। तो क्या गड़बड़ी हो गयी। क्या आपने हमारे वाइब्रेशन्स वापस ले लिये?' इस प्रकार से कई लोग बोलते रहते हैं। तो मैं उन्हें समझाती हूँ कि, परमेश्वर आपको बहुत सूक्ष्मता से रखता है। विशेषकर क्योंकि परमात्मा ने आपको इस कार्य हेतू चुना है। तो यदि आप इन चैतन्य लहरियों का उपयोग नहीं करोगे, उनका उपयोग जनसाधारण के लिए नहीं करोगे, तो परमात्मा इन वाइब्रेशन्स को वापस ले लेगा। वाइब्रेशन्स मिलने के बाद उनका उपयोग करना चाहिए । इसका अर्थ यह नहीं कि लोगों को यह लगे कि, माताजी कहती हैं कि, आप सब सहजयोग को कुछ दें। सहजयोग में देना कुछ नहीं है, बल्कि लेना ही है। तुम्हारे पास है क्या? पत्थर, कंकड, मिट्टी? सहजयोग को आप कुछ भी नहीं दे सकते। क्या दोगे? कुछ भी नहीं। उल्टा देने के बाद वह बढ़ता है (आत्मिक उत्थान) और आपके अन्दर जो प्रचंड शक्ति बह रही है, यह शक्ति एक बार यदि आपके अन्दर से बहना आरम्भ हो गयी तो आपको स्वयं लगेगा कि, आप कितने बड़े हैं और आपको परमेश्वर ने कितना सामर्थ्यवान बनाया है। परन्तु री ू० 17 उसका परमात्मा को कोई अहंकार नहीं है । हमारे पास ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने हजारों लोगों को ठीक किया है। उनके दिमाग में भी यह नहीं आता कि, उन्होंने कुछ ठीक किया है। ठीक किया तो किया, नहीं तो नहीं। उसका उन्हें कुछ नहीं, हो गया तो हो गया। नहीं हो रहा है, नहीं हो रहा है माताजी, हाथों से ये जाता नहीं! कोई ऐसा नहीं कहता कि, ये मैं कर रहा हूँ, कोई भी ऐसा नहीं कहता। जिस किसीको अगर ऐसा लगता है कि, ये सब 'में परन्तु आपके दिमाग में कर रहा हूँ' तो उसका सब नष्ट होगा। फिर बाद में लोग कहते हैं कि, 'माताजी, हमारी वाइब्रेशन्स क्यों चली गयी? हमने तो इतने लोगों को ठीक किया है । हमने ये किया, वो जो किया।' तो इसका कारण ये है कि अब आपको लगने लगा है कि ये सब आप ही कर रहे हैं। आप ही इसके कर्ता हैं। आप के अन्दर अहंभाव उत्पन्न हो गया। आपके दिमाग में जो 'मैं' अहंकार या प्रति अहंकार के रूप में आ गया उसे ही तो हम निकाल रहे हैं। और वो दूर किया 'मैं' अहंकार इसलिए आप परमात्मा के प्रति एकरूप हो गये हैं। अगर वहाँ 'मैं' आ गया तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। या अब ये 'मैं' कितनी सारी चीजें हैं। शुरुआत से ही आपको लगता है आप हैं- अर्थात कैसे? आपका जन्म हुआ। किसी घराने में आपने जन्म लिया। बस, आपके माता-पिता, यहीं से शुरुआत हो गयी। फिर आपका नाम, बाद में आपका देश, ये हमारा घर, ये हमारी बस्ती, ये हमारी जाति, ये और वो जिसे मिस आइडेंटीफिकेशन कहते हैं। तरह-तरह की प्रति अहंकार के बातें। जो आप नहीं वो। आप क्या हैं? आप परमात्मा की परम शक्ति हो ये बात सच है। रूप में आप वही है। पर आप बाहर रहकर 'मैं ये हूँ, वो हूँ' इन बातों को लेकर बैठे रहेंगे तो वो शक्ति प्रकाशित नहीं होगी। इसलिए रिअलाइजेशन के बाद भी 'मैं ये नहीं और मैं वही हूँ', ऐसा आपके मन में बैठ गया तो इन सबका कोई अर्थ ही नहीं क्योंकि आप वो है ही नहीं तो कहने में क्या अर्थ है। जब इस शक्ति को अन्दर से प्राप्त करेंगे और कहेंगे 'मैं सिर्फ यही हँ और कुछ नहीं -तभी ये हो सकता है। और आप स्वयं को परमात्मा का दूत मानेंगे तो आपके अन्दर से वह शक्ति जरूर बहेगी और पूरे ज़ोर से बहेगी। और उसमें बहुत प्रकार की धारायें आ गया उसे ही तो | हम बह कर आपको आपके प्रश्नों के उत्तर देगी। निकाल से लोगों का कहना है कि, 'माताजी, हम आपके पास आये हैं पर देखिए हमारी गरीबी नहीं हटी।' ऐसे बहुत से लोग हैं। अब देखिए, आप मेरे पास आये हो तो मुझ अब बहुत रहे हैं। पर या भगवान पर कोई उपकार नहीं किया। अपनी दृष्टि जरा बदलनी होगी। आप विशेष समय निकाल कर यहाँ आये हैं-ये मुझ पर नहीं परन्तु स्वयं पर उपकार कर रहे हैं। आप यहाँ पर आयें, आपको कितना लाभ हुआ, ये कितनी बड़ी चीज़ आपको मिली है! आपको ारीर क 18 ০০ 19 अन्दर से आनन्द की अनुभूति प्राप्त हुई है। ये जो आपको मिली है वो कितनी बड़ी चीज़ है। इसमें आपने परमात्मा पर कोई उपकार नहीं किया है । पर उसके आप पर बहुत उपकार हैं। अनगिनत उपकार हैं कि, उन्होंने आपको पूरा प्यार दिया है । ऐसा कभी किसी के भी पूर्व जन्म में नहीं हुआ है। आज मेरे सामने वे सभी लोग बैठे हैं। वे भी साधू-संत लोग हैं। ये साधू-सन्त प्रपंच में रहकर भी परमात्मा के प्रति लीन हैं इसलिए ये बात घटित हो रही है। अब लोगों को सहजयोग के बारे में लगता है कि, 'ऐसे | कैसे हो सकता है? माताजी, जन्म-जन्मांतर तक कठिन समस्याओं से गुज़रने के बाद ये हो सकता है? ऐसा क्यों ?' इसका कारण है-हम हैं ना। इस सबके बारे में इन लोगों से पूछिए। इसके बारे में अब मुझे कुछ कहना नहीं है। ये सच है और हुआ है। परमात्मा आपको सब कुछ देने के लिए बैठा ही है। सच है कि, एक प्रकार से उसके उपर उपकार ही कर रहे हैं क्योंकि समझदार होकर आप आये हो । वह द्वार खोलकर बैठा है और आओ, आओ कहता है तो भी लोग आते नहीं है। उसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं है। वो आपको कुछ भी दे सकता है। आप जो कहेंगे वो देने के लिए वो तैयार है। पर वो सब लेने के लिए आपके पास वैसी झोली चाहिए जिसमें इतना समा सके। उसके पास देने के लिए बहुत कुछ है, पर लेने के लिए आपके विचारों में काफी अन्तर है। क्योंकि आपको लगता है कि हम अगर परमात्मा के पास गये तो हमें बहुत सारा सोना मिलेगा। परमात्मा के लिए सोने का क्या महात्म्य! वो आपको सोना मतलब पत्थर-कंकड़ क्या वो देंगे? परमात्मा के पास तो अमृत का भंडार है। वह तो अपने बच्चों को अमृत ही देगा। वो क्या पत्थर-कंकड़ देगा ? जिन पत्थर-कंकड़ों से कभी भी किसी को भी आनन्द नहीं प्राप्त हुआ वो ढ़ेर सारे पत्थर, कंकड़ आपको देकर क्या करना है? इसका मतलब ये नहीं कि, आपको गरीब बनाना है। ऐसा नहीं पर आपके पास जो कुछ है उसका उपभोग आप लेते ही नहीं हो। उसकी जो उपभोग बुद्धि है वो आपमें नहीं है। अब देखिए अमीर आदमी जो है वो भी वही रोना रो रहा है। गरीब भी वही रोना रो रहा है। आपके पास जो एक छोटा सा वस्त्र है उसका उपभोग लेने की, आनन्द लेने की शक्ति है क्या? नहीं है। अगर हम किसी अच्छी चीज़ दूसरे के पास देखते हैं तो लगता है 'उनके पास इतनी अच्छी चीज़़ है और मेरे पास नहीं है।' अपने पास जो है वो दिखाई नहीं देता। दूसरे के पास जो है वो दिखायी देता है। आपने ये क्यों कमाया। इसका अगर आप उपभोग ही नहीं ले सकते तो क्यों कमाया? एक चीज़ मिली तो दूसरी चीज़ कमाने के पीछे पड़े, दूसरी मिली तो तीसरी चीज़ कमाने के पीछे पड़े। वह मिली तो चौथी के पीछे पड़े । अर्थात आनन्द की आपकी जो कल्पना है वो परमात्मा की नहीं। वो आपको ऐसी चीज़ देता है उसके बाद आप कुछ माँगते ही नहीं। आपकी माँग वहीं खत्म होती है, जहाँ पूरे क्षितिज का हिस्सा खत्म हो जाता है। उस पार कुछ दिखायी नहीं देता ऐसे मध्य बिन्दु में वो आपको लाकर छोड़ देता है। स्वयं के मध्य बिन्दु पर खड़े रहकर आपको बाहर का कुछ दिखायी नहीं देता। पर ऐसा दिखता है कि हम गहनता में जा रहे हैं। आनन्द के सागर में डूब रहे हैं। सब कुछ आनन्द के लिए ही तो है। पर क्या आनन्द कहीं मिल रहा है? जिन चीज़ों से आपके अन्दर आनन्द का सागर उमड़ रहा है अगर वही चीज़ मिल जाए तो आप दूसरी चीज़ें क्यों मांगेंगे । हम आनन्द ही तो माँगते हैं। जो भी कुछ हम माँगते हैं उसके पीछे आनन्द मिलना यही उद्देश्य होता है। वो बहूत सूक्ष्म है। दिखायी नहीं देता पर वो है। तो वही आनन्द अगर आपको मिले तो दुसरी चीजें क्यों चाहिए । सहजयोग की कितनी बड़ी बात है। परसो ही मैंने इसके बारे में कहा था कि, सहजयोग ये शक्ति बहुत जबरदस्त है। परमात्मा की इस शक्ति को प्राप्त करने के बाद आप एक नये राज्य में आ जाते हो। एक नया साम्राज्य है और उस साम्राज्य का राजा स्वयं परमात्मा है। अब आपसे ये कहने की आवश्यकता नहीं है कि, आप मराठी में मत बोलो, हिन्दी में मत बोलो। आप एक ही भाषा का उपयोग करें। दस भाषा में मत बोलिए। या आपका एक ही साम्राज्य होना चाहिए, पूरे देश को एक करिए। उसमें यूनाइटेड नेशन्स को भी समाविष्ट कीजिए । सब कुछ एक ही होना चाहिए। ये सब एक ही है क्योंकि आप सब एक ही हैं । इसको सिर्फ परमात्मा ने अलग-अलग रूप दिया है कि हम अलग, आप अलग पर अन्दर से आप सब एक ही है। मतलब जोड़ने की जो शक्ति है वो अन्दर है। इसको 'आपने जोड़ा है' कहना भी गलत है क्योंकि आप अनन्त तक एक ही है। आप सब एक हैं-ये दर्शाने के लिए जो शक्ति है वो आप में जागृत होती है, अर्थात सहजयोग यूनीफायर है। इतना ही नहीं वो सबको समग्र भी करता है। अर्थात जिसे इन्टिग्रेट कहते हैं। आपके अन्दर इन्टिग्रेशन आता है। हर एक में जो अच्छाई है वो दिखने लगती है। इस संस्कृति में ये अच्छा है, उस संस्कृति (culture) में वह अच्छा है। एक दूसरे से अच्छाई लेते हैं। इस तरह जो भी अच्छाई है वो एक होकर आपके अन्दर आ सकती है। मतलब पूरे विश्व की आज जो झगड़ने की समस्या है, ये और वो सब निकल जाती ारीर क 20 ३ है। और मनुष्य ऐसी स्थिति में आ जाता है, जहाँ वो देखता है, में और दूसरा कौन ? अरे, हम सब एक हैं मतलब हैं ही। मेरा कहना है आप इसे सेल्फ एक्चुअलाइजेशन कहें। अर्थात वो एक अनुभूति होती है अर्थात वो कोई लेक्चरबाज़ी नहीं कि देखो, आप सब भाई हैं, बहन हैं | 'ऐसे कैसे? आप ऐसा कैसे कहती हैं माताजी ? ऐसे कैसे?' मेरा ये कहना सही है कि आप भाई- बहन हैं। आप कहेंगे 'माताजी, ये कैसे सम्भव है?' पर वो है। भाई-बहने, सब कुछ जो कुछ भी कहेंगे। मतलब वो रिलेशनशिप ही अलग हो जाती है। क्योंकि आप अब अलग नहीं है। जब वो शक्ति आपके हाथ से बहने लगती है तब आपको दूसरे 'सहज' की अनुभूति होती है कि ये कहाँ है ? वो कहाँ है? वे किधर हैं? इसका कहाँ, क्या अटक गया है और पूरा ध्यान कुण्डलिनी पर आता है। बाहर की ओर सब ध्यान नहीं जाता है कि कौनसी साड़ी पहनी है, कौनसे कपड़े पहने हैं| उनकी कुण्डलिनी कहाँ अटक गयी है ये वो झट से कहते हैं, फिर छोटा बच्चा हो या बड़े लोग। कोई अच्छी तरह से पार आदमी रहेगा तो उसे पहले कुण्डलिनी ही दिखेगी। उसे वो सब कुछ नहीं दिखेगा। पर उसमें भी अब दो और व्यवस्था हैं, उनकी ओर ध्यान देना चाहिए। आपकी बाईं ओर एक और प्रकार की व्यवस्था है और दाईं तरफ दूसरी व्यवस्था है। बाईं तरफ की जो व्यवस्था है उसे कलेक्टिव सबकॉन्शस कहेंगे या सामूहिक सुप्त चेतना कहेंगे। और दाईं तरफ जो व्यवस्था है उसे हम सूप्रा कॉन्शस कहेंगे या अति चेतना कहें । सुप्रा-कॉन्शस मतलब मरी हुई अति चेतना है। और इधर मरी हुई सुप्त चेतना है। अपने अन्दर इस तरह और दो व्यवस्था है। इसका कारण ये है कि, जो लोग संसार में मर जाते हैं उनके लिए भी जगह चाहिए। इसमें से जो लोग ऐसे बने हुए हैं, जो आलसी हैं, कुछ काम के नहीं वो बाईं बाजू में जाते हैं। दाईं बाजू में वो लोग जाते हैं जिन्होंने बहुत ज़्यादा कर्म किये हैं। जो महत्वाकांक्षी हैं वो इस साइड़ में जाते हैं। इसमें से बहुत से लोग परलोक में जाकर धीरे-धीरे छोटे हो जाते हैं और उस दिन की राह देखते रहते हैं जब उनको जन्म लेना होता है । उसमें से ऐसे महान लोग ऐसे ड़रीसीजन लेते हैं। स्वयं निर्णय करते हैं कि कब जन्म लें, कहाँ जन्म लें। मेरे माता-पिता कौन? वगैरे, उसके बारे में आज अब मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूँगी। पर ऐसा है। ऐसे भी लोग हैं। पर जो लोग बहुत अतृप्त होते हैं। ऐसे अतृप्त आत्माओं की तो समझो लाइन लगी है। आजकल तो कलियुग में ऐसे बहुत सारे लोग हैं। वे भी आपके आसपास हैं। और वे आपके बहुत समीप रहते हैं। इसलिए जो मनुष्य इस या उस बाजू में एक सीमा के बाहर गया, आजकल लोग ऐसा कर सकते हैं। गुरु लोग जो करते हैं वो इसी प्रकार के धंधे हैं। इधर धकेलेंगे या उधर धकेल देंगे। अगर वो थोड़ा सा भी अति में गया तो वो उधर तो भी धकेला जाता है या इधर तो भी धकेल दिया जाता है। तो उसमें से एकाध व्यक्ति आपमें आ जाता है। अब ये महेश योगी है, वो ये करते हैं। वो दाईं तरफ धकेल देते हैं। दाईं बाजू में जाने के बाद क्या होता है? अति महत्वाकांक्षी मृत व्यक्ति जो अतृप्त है या आत्मिक है वो आपमें उतर जाता है। वे इनके नाम परमात्मा के नाम पर रख देते हैं। देखी उनकी होशियारी! अब आपसे कहा कि, 'आपको शिवजी का है तो शिवजी का नाम लो। आपको राम जी का है तो श्रीराम का नाम लीजिए।' अब आपको ऐसा लगेगा कि हम परमात्मा का नाम ले रहे हैं। पर ऐसे सोचना चाहिए कि, आपकी पुकार से आने के लिए भगवान आपके नौकर नहीं है। आपको उसे बुलाने का क्या अधिकार है? तब कोई तो नौकर जैसा मनुष्य आएगा या जो आपके नीचे आने के लिए इच्छुक है या आपके ऊपर आने की इच्छा है। तो ये जो सुपरकॉन्शस के लोग हैं उसमें ये लोग आ जाते हैं। आते ही सब कुछ बदल जाता है। आपका ब्लड काऊंट बदल जाएगा। आपका रहन-सहन बदल जाएगा क्योंकि | उन्होंने आपका चार्ज लिया हुआ है। आपके शरीर में ही फर्क पड़ने लगता है। उल्टा आप बहुत डाइनेमिक हो जाते हैं। आप ऐसा सोचने लगेंगे कि आपको आश्चर्य होगा कि कहाँ से विचार आते हैं। समझो, अगर ऐसा कोई मनुष्य रहेगा जिसे संस्कृत का थोड़ा भी ज्ञान नहीं पर उसमें अगर संस्कृत जानने वाले मनुष्य को ला कर बिठा दिया तो वो संस्कृत के श्लोक बोलने लगेगा । हमारे कार्यक्रम में ही एक औरत आई थीं , वो बर्तन धोने वाली औरत थी और वो संस्कृत में बोलने लगी। बहुत लोगों ने सुना है। तो ऐसे घटित हो सकता है। फिर मनुष्य को लगता है, 'वाह! वाह! हम कितने बड़े हो गये। हमारे अन्दर में ये आया, वो आया। ४-५ साल के बाद उन लोगों की स्थिति ऐसी हो जाती है कि हाथ, पैर लटलट कॉपने लगते हैं। ज्यादा से ज्यादा ४-५ सालों तक वे जीवित रह सकते हैं। उसके बाद उन लोगों का जीवित रहना बहुत कठिन हो जाता है। फिर गद्दी पर बैठकर बार-बार हिलते रहते हैं। क्योंकि सब जगह परमात्मा का साम्राज्य रहता है। उसका सामना वे नहीं कर सकते। ये भूत एक बार शरीर में से निकल गये तो सब कुछ खत्म हो जाता है। शरीर में कुछ बच भी जाये तो भी खत्म हो जाता है क्योंकि उनकी शक्ति ही खत्म हो जाती है। और इनकी री ू० 21 22 भी शक्ति खत्म हो जाती है। ऐसी स्थिति हो जाती है और इन लोगों को किसी की परवाह नहीं होती है । बस , अपने पैसे के पीछे पड़े रहते हैं। अब दूसरी तरफ देखिये ऐसे लोग महा आलसी, खराब काम करने वाले ऐसे-तैसे लोग होते हैं। वे आपके बीच में रहते हैं। वो आपको खराब काम सिखाते हैं। जैसे कि स्मगलिंग करने का या वैसे सब काम । आपको लगेगा कि कितना ज्यादा पैसा कमाते हैं वो। (स्मगलिंग करने वालों को लगता है कि) 'भगवान सब तरफ से हमारी मदद करता है, वहाँ गया, इतना स्मरगलिंग किया, इतने रूपये मिले। उधर गया, इतना फरेब किया फिर सब ठीक ही था। गला काटा तो भी किसी को पता नहीं चला।' किसी को भी मारना हो तो मारते हैं। ऐसे हैं ये लोग। जो जी में आया वो (गन्दे) काम करते हैं ये लोग। अब इन गुरु लोगों का क्या, वे कभी आपको डाँटते नहीं, 'वाह! वाह ! ये सभी सन्त हैं।' 'स्मरगलिंग किया तो भी कोई गुनाह नहीं। बस, उसमें से मुझे मेरा हिस्सा लाकर दे दो तो फिर बस हो गया।' एकाध कोई औरत वैश्या होगी तो भी कोई गुनाह नहीं, 'तू इतना ही है कि तू जो भी कमाये उसका कुछ हिस्सा मेरे चरणों में, श्रद्धा के मुताबिक लाकर के ड़ाल दे।' ऐसा किया तो फिर वो गुरु महाराज खुश हो जाएंगे। 'फिर उनके गले में हम हार ड़ालते है बाकी कुछ नहीं। हमारा-तुम्हारा एक ही सम्बन्ध है। हम गुरु हैं। और आप सन्त। बस, सम्बन्ध इतना है कि आप जितना भी कमायें उसका कुछ हिस्सा हमें इन्कम टैक्स के रूप में दे दें। सरकार किस लिए है? सरकार को कुछ भी क्यों देना है!' तो देवी है। पर, बस अब ऐसा करने पर वो मनुष्य पकड़ा गया। फिर वो मेरे पास आया, 'माताजी, मुझे छुडाइये।' मैंने कहा, 'फिर ऐसा किया ही क्यों आपने।' 'हमारे गुरु है न। हमारे गुरु हैं,' इसका मतलब क्या है? फिर उसने रखा ही क्यों? इसे आपने गुरु बनाया ही क्यों? किस काम के लिये रखा है? जो आपकी खुशामद करता है वो कैसा गुरु! उसको आपने बताया नहीं कि ऐसा काम नहीं करना है? जो आपको कभी कुछ बताते नहीं ऐसे लोगों को आप गुरु कैसे बनाते हो?' 'नहीं, हमने बस सोचा कि, सब उसे गुरु बना रहे हैं तो फिर हम भी बना लें। बस, और कुछ नहीं किया हमने। उनके चरणों में गये थे हम तो।' परमात्मा ने तुम्हे मनुष्य का मस्तक दिया है। कितना महान है ये मस्तक-ये पता है आपको? इस मस्तक को जानवर की स्थिति से मनुष्य की स्थिति में कैसे लायें, किस तरह से उत्क्रान्ति स्टेजेस से ये घटित हुआ उसकी तो अब हम चर्चा नहीं करेंगे। ऐसे ऊँचे मस्तक को अगर आप किसी खराब मनुष्य के आगे अगर आप झुकायेंगे तो फिर परमेश्वर आपको कभी भी क्षमा नहीं करेगा । ऐसे खराब गुरु के पीछे अगर आप पड़े होंगे और सर झुकाया होगा तो फिर परमेश्वर कभी भी आपको क्षमा नहीं कर सकेंगे। बाकी सहजयोग में हर गलती को माफ करते हैं वो। ये तो मैंने देखा है। मैं अगर सामने बैठ जाऊँ तो हज़ारो लोग पार हो जाते हैं। ऐसे-ऐसे लोग जिसे लोग कहते हैं; वो ऐसा मनुष्य है, वैसा है, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्षमा किया। सबको क्षमा किया, कितने महान है वो! पर ये (गलत गुरु के चरणों में गिरना) मात्र क्षमा नहीं करते हैं वो। इसलिए अगर कोई गुरु का आदमी आता है तो मैं तो उसी के गुरु के पास जाने को कह देती हूँ। 'मुझे माफ कर दो।' क्योंकि यहाँ तीन-तीन, चार-चार वर्ष सिर फोड़ने के लिए हम तैयार नहीं है। उससे पूछा, 'आपके गुरु ने आपको क्या दिया है?' 'कुछ भी नहीं, मतलब वैसा कुछ भी नहीं। वो ऐसा है कि, हमने अपने गुरु का फोटो- वोटो रखा है।' 'अरे, लेकिन आपको फोटो रखने के बाद कुछ फर्क पड़ा है या नहीं? अब असली गुरु तो लाखो में एक होते हैं। अपने महाराष्ट्र में काफी गुरु जन हो गए हैं। इसका मतलब ये है कि, सही में हम कुछ तो विशेष हैं। ऐसा कह सकते हैं कि महाराष्ट्र भूमि में कुछ तो खासियत है। या तो फिर ये भी कह सकते हैं कि, केवल कीचड़ होने के कारण यहाँ पर कमल खिले हैं। कुछ भी कहें अपने पास तो एक खासियत है। हमारे यहाँ गुरु तो बहुत ही महान रह चुके हैं। वर्ष पहले हम कह सकते हैं कि साईनाथ जैसे महान-गुरु यहाँ होकर गए हैं। इसमें कोई शक नहीं। वे साक्षात दत्तात्रेय के अवतार थे। इसमें कोई शंका ही नहीं है। वे मुसलमान थे या फिर कोई और थे। उन्हें आपने पहचाना है-ये तो विशेष है ही। लेकिन उसके बाद आपने उनके मन्दिर बनवाये, उन्हें खड़ा किया। वहाँ पर देखो मोटे पेट वाले पुजारी को लगा दिया, वो वहाँ कैसे पूजा कर पायेगा, उनका क्या अधिकार है ? कौन है वो पुजारी? फिर उनके सामने जाकर आप धनराशि रखते हो । कुछ उन्होंने क्या कहा है! उसमें का कुछ किया भी है आपने या बस मन्दिर में जाकर बैठकर कहते हो कि, 'साईबाबा ने हमारा काम किया। 'भाई, वो तो करते ही हैं। वो हैं ही बड़े दयालु । उनके शरण में जाने के बाद वो आपका काम करते ही हैं। बस! पर आप क्या करते हो उनके लिये?' उल्टा नाम ले-ले कर वो आपसे चिढ़ गये हैं। मैंने साईनाथ के बहुत से शिष्यों को देखा है। उनको री ू० 23 প मुझे उल्टा कहना पड़ता है 'इन्हें (शिष्यों को) क्षमा कर दो। उनको पता नहीं था। उनका नाम लेने के लायक भी नहीं है हम। 'कितने महान हैं वो।' मेरा काम तो दूसरा है। मैं माँ ही हूँ। मेरा कितना भी नाम लिया तो भी मुझे कोई ऐतराज नहीं। में जल्दी गुस्सा नहीं होती हूँ। पर उनका नाम लेना उसकी ओर आँख उठाकर देखना कितनी बड़ी बात है। किसी ऐसे महान लोग हमारे यहाँ हो गये हैं। जब वो जीवित थे उस वक्त उनको हमने बहत सताया, ये हमें स्वीकार करना चाहिए। चलो, ठीक है, जो हुआ सो हुआ। अब वो लोग भी नहीं रहे। पर अभी भी हम कैसा बत्ताव कर रहें है ? उनके कहे अनुसार हम बर्ताव करते हैं क्या? इस महाराष्ट्र में ही कितने ऐसे साधु-सन्त लोग हो गये हैं। किसी की बुराई करना, किसी के बारे में बुरा सोचना या किसी को अपने से कम समझना या अपने से बड़ा समझना ये भी धर्म की | बुराई सारी बातें साई भक्तों ने नहीं करनी चाहिए। बाकी लोग अगर करते हैं तो करने दें। पर आप साईबाबा का फोटो रखते हुए 'हिन्दु-मुस्लिम में भेद है' ऐसा प्रसार नहीं कर सकते। ठीक है, मुस्लिम बुरे हैं, उन्होंने सताया है। ठीक हैं हिन्दुओं ने सताया है पर जब आप उनका फोटो घर पर लगाते हैं तो आप कहाँ होते हैं? 'आप उनके चरणों के पास हैं।' साईनाथ के शिष्य होने पर करना अगर आपने कुछ किया तो भी चलेगा। लेकिन अगर आप साईनाथ के शिष्य हैं तो फिर आप महापाप सब एक हैं, आप सबको अच्छी तरह से रहना चाहिए। फिर आपका आपस में भेदभाव नहीं होना चाहिए। ये बिल्कुल सीधी सी बात है। उन्होंने स्वयं कहा है कि किसी भी धर्म की बुराई है। करना महापाप है। ऐसे कितने लोग हैं। लेकिन आप कौनसे बड़े धर्म वाले हो गये हो? आपको धर्म की क्या जानकारी है? आपने गणेशजी का बड़ा मन्दिर बनवाया तो क्या आप धार्मिक हो गये हैं? वहाँ तो गणेशजी है ही नहीं, ये आपको पता भी हैं ? तो धर्म का मतलब क्या है? ये भी सहजयोग से ही इसका ज्ञान होता है। धर्म मतलब क्या है? धर्म में मनुष्य को क्या प्राप्त होता है? धर्म से कैसे जानना है ? कहाँ है वो ? साईनाथ महान थे। मैं तो कहूँगी कि, अभी के सारे शंकराचार्यों को मैंने देखा है। एक भी शंकराचार्य नहीं है। आदि शंकराचार्य की बात अलग है। वो और साईनाथ एक है। पर बाकी आजकल के तो एक भी नहीं है। आपके जो पोप है वो भी बिल्कुल पार नहीं है। नहीं मतलब नहीं है। अब हम इसमें क्या करेंगे? अब उन्हें पोप कहें या और कुछ नाम दें पर नहीं मतलब नहीं। इसका कोई इलाज नहीं। क्योंकि हम देखकर बताते हैं और जो वहाँ है वो सब एक है। उनमें कोई | फर्क नहीं है। क्राइस्ट ने कहा है कि, 'Those who are not against me are with me मतलब कितनी बड़ी बात पहले ही उन्होंने कह दी थी । क्रिश्चन लोगों को ये सब बातें कभी भी समझ में आयेगी क्या? उनको अगर मैंने कहा तो वो कहेंगे कि नहीं। मतलब, इसका मतलब ये कि वो क्रिश्चन है। मतलब ये कौन क्रिश्चन करने वाले? उनको क्राइस्ट ने क्या अधिकार दिया है? उल्टा क्राइस्ट उन पर जितना गुस्सा हुयें है उतना आप पर नहीं। ऐसी सब धर्म की गड़बड़ी है। धर्म के नाम पर भी इतनी गड़बड़ हुई है। लोगों को तो धर्म के नाम पर से भी विश्वास उठ गया है। सबकुछ कबूल है । आज अगर सहजधर्म आपमें आया तो आपके समझ में आयेगा कि धर्म शाश्वत है, सनातन है, हर एक में वास है। सबमें वो है। इतना ही नहीं, पूरे संसार में उनका राज्य चलता है। लेकिन उसके लिए धर्म की दूसरी और उतरना है। धर्मातीत होना पड़ता है और वो दशा सहज है बहुत ही सहज है, उसमें आपको कुछ भी नहीं करना है। उसमें आपको कुछ भी नहीं बोलना है। उसे परमेश्वर अपने आप आपके हाथ में देने वाले हैं और ये कितनी बड़ी बात है | ारीर क 24 तप्य और आप अंतर्राष्ट्रीय वगैरे वरगैरे जैसी हम बातें करते हैं। वो 'अन्तर', अंत:करण में हो जाए तो एकदम से फर्क पड़ जाएगा। अभी आप के जैसे बहत से मेरे बच्चे लंदन में भी हैं। अमेरिका में भी बहुत बच्चे हैं। वे आने वाले है अभी आप सब से मिलने के लिए | सभी की भाषा 'वाइब्रेशन्स' की है, दूसरी भाषा को विकसित करने की क्या आवश्यकता है? वाइब्रेशन्स की भाषा आ जाने पर दूसरी भाषा किसलिए? हमारे मोरेश्वर है उन्हें आती है ये भाषा। वहाँ इंग्लैंड में वो अंग्रेजी लड़के है। उसे भी आती है ये भाषा। वहाँ अमेरिका में होते हुए भी उसे ये भाषा आती है। एकदम से बता देते हैं कि 'ये ऊँगली आ रही है' और बराबर वहीं, वहीं पकड़ा जो अपने को इतने हुआ होता है। इस कदर उनकी साइन्स है। बड़े समझते हैं उनके लिए लेकिन अगर आप साइन्स के लोगों को बतायेंगे कि प्रेम क्या है तो उनकी समझ में भी नहीं आयेगा। अच्छाई क्या है ये बताया तो भी उनकी समझ में नहीं आयेगा। 'लज्जा' शब्द का क्या अर्थ है ये भी उनको समझ में नहीं आयेगा। उन्हें तो केवल पत्थर वगैराह समझ में आता है। लोगों को समझना तो बहुत ही कठिन काम है। पर आज जब कैन्सर जैसे रोग सिर पर आ बैठे हैं इसलिए मैं फिर से कहती हैं कि सहजयोग के सिवाय कैन्सर ठीक होने वाला नहीं है। हो ही नहीं सकता इसलिए परमेश्वर ने ये कैन्सर की बिमारी भेज दी है कि 'तू जा, इसके बगैर लोगों को समझेगा नहीं कि वे क्या कर रहे हैं।' नहीं है अभी सहजयोग से आपको क्या क्या लाभ हुआ है ये आप समझ लीजिए, मैं आपको फिर से बताऊँगी, मैंने आपको इसके बारे में बताया भी है। थोड़ेसे ध्यान में जाईये। नये जो लोग आयें है उन्हें आप पार करवा दीजिए और फिर देखें । पर सहजयोग में ऐसा नहीं है कि आज हुआ है, न (आत्मसाक्षात्कार) तो फिर हम जाएंगे नहीं कभी। सहजयोग का मजा उठाना हो तो पहले उसके साम्राज्य में जाना होगा मजे से। ये तो ऐसा हुआ कि जैसे आप मुंबई में आयें तो हैं लेकिन अगर यहाँ आप रहेंगे नहीं तो यहाँ आपको मुंबई का मजा क्या है ये आपको कैसे पता चलेगा। ये भी ऐसे ही है उसमें आपको बसना है। हमारे यहाँ लोगों ने ही प्रगति की है और दूसरे साधारण लोगों ने भी प्रगति की है। हमारा सहजयोग। बहुत आज कुछ ऐसी बातें निकली कि जब लोगों ने पूछा कि आप जैसे सर्वसाधारण लोगों के बीच ये बड़े लोग कैसे आ सकते हैं? मैंने कहा, 'बिल्कुल भी मत आओ! जो अपने को इतने बड़े समझते हैं उनके लिए नहीं है हमारा सहजयोग । इसमें आना है तो यहाँ आकर बैठें। अगर एक कोली हो, एक राजा या मेहतर हो या कोई बड़ा भारी ऑफिसर हों और अगर उन्हें परमेश्वर के सामने होना है तो उन्हें सहजयोग मिलेगा। उन्हें मुफ्त में देने के लिए हम यहाँ बैठे नहीं है। आपको अगर अपना इतना ही घमंड है तो हम आपको देने (सहजयोग ) आपके बंगलों पर आकर देने को तैयार नहीं हैं। हैं घमंड तो बैठे रहो । उन्होंने कहा कि, 'वो लोग (बड़े लोग) आने को तैयार नहीं हैं।' मैंने कहा, 'मत आने दो।' ऐसे लोगों को लेकर मुझे क्या करना है ? जिन लोगों के दिमाग में ऐसे क्षुद्र विचार आते हैं वो खुद भी क्षुद्र होते हैं। ऐसे लोग क्षुद्र होते हैं न कि वो जो जन्म से ही क्षुद्र रहते हैं। आज लोग उनके (श्रीमंत लोगों के) पैरों पर नहीं जाने वाले हैं । आपके पैरों पर आने वाले हैं और उन्हें मैंने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में समझाया है कि ऐसे लोगों को हमारे सहजयोग का कोई फायदा नहीं होने वाला है। उनसे कहिये, 'आप बैठो और अपने मोटर गाड़ी को सम्भालो।' मतलब ये नहीं कि मैं श्रीमंत लोगों के खिलाफ हँ। बहत से श्रीमंत आते हैं वो आकर बैठते हैं और कहते हैं कि, 'माताजी, हमें दीजिए पर ये है कि, हम तो बहुत बड़े (लोग) हैं। री ू० 25 ो भप्य मैंने कहा, 'तो फिर बैठो रहो ।' ऐसी विचित्र कल्पना लेकर के लोग यहाँ आते हैं। ऐसे में आपको अपनी समझदारी से चलना है। समझदारी से कार्य करना है। समझदारी तो बड़ी मुश्किल से आती है मूर्खपना तो बड़ी जल्दी से आ जाता है। ऐसे हालात में आपको अपने समझदारी को लेकर आगे बढ़ना है । मैं माँ हूँ। मैं आपकी मूर्खता और खराबियों के बारे में बताने वाली हूँ। उसे आप मत करिये, इसी में आपकी भलाई है । मैं कोई गुरु नहीं हूँ। मुझे आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। मैं तो केवल आपकी भलाई और कल्याण चाहती हूँ। आपके हित के लिए जो अच्छा है वही में आपसे कहँगी । इसका आप कोई बुरा न माने। अभी कुछ नये लोग आये हुए हैं। उन्हें मैं बता देती हूँ कि अगर किसी को कुछ खराब लग जायेगा तो फिर वो तो गये काम से। वाइब्रेशन्स चले जाएंगे। मैं नहीं निकालती हूँ इसे। (वाइब्रेशन्स को) आप को जो अभी आवाज आयी है वैसी ही आवाज 'ओम' जैसे हम कहते हैं उनकी होती है। समझ में आया क्या। मतलब ये जो एनर्जी बहती है और जब वो बहती है पर पूरी तरह से चैनलाइज्ड़ नहीं हुई होती है तब ऐसी आवाज आती है। जब यह चैनलाइज्ड़ होने लगती है तब ऐसी 'ओम' की आवाजें कभी अपने कानों में या फिर कभी अपने सिर में आने लगती है, तभी ये समझ लेना चाहिए कि एनर्जीपूर्ण तथा एड़जेस्ट और चैनलाइज्ड़ नहीं हुआ है इसलिए ऐसी आवाजें आती हैं । जब ऐसी आवाजें आती है तब आपको समझ लेना चाहिए कि वो एनर्जी अपनी अभी तक व्यवस्थित बैठी नहीं है । उसे ठीक से फिक्स करना पड़ता है। फिक्स करने का मतलब स्क्रू से नहीं। पर मन की स्तक्रू से फिक्स करना पड़ता है। अगर आपको इस मन की स्क्रू को फिराना जो आ जाएगा, हालांकि हमारी तो मशीन ही अलग है, पर फिर भी आप अगर सोचकर के अपने मन के थोड़े भी स्क्रू अगर फिराने लग जाऐँ तो फिर ये जो वेस्टेज है एनर्जी का जो आपको कानों में सुनाई देती है वो पूरी तरह से निकल जाएगा और वो मौन हो जाएगा। स्वर मौन हो जाएगा। अभी तो कोई एनर्जी का स्वर आया नहीं कि हम कहते हैं कि बहुत बेस्ट पोझिशन में आया है। वैसे ही जब ये एनर्जी मौन स्थिति में आ जायें तो समझ लेना चाहिए कि हम अब उस स्थिति में हैं वहाँ हम उसका उपयोग कर सकते हैं, समझे क्या ? ओम का जो अर्थ है, लोग बोलते है कि 'अन्दर से ओम की आवाज आती है, सात तरह की आवाजें आती हैं ।' ऐसा कहना ठीक नहीं है। ऐसी आवाज नहीं आनी चाहिए। इसमें से बहुत सारी आवाजे आती हैं। ऐसे आवाज आना मतलब मशीन बिगड़ा हुआ है। ये बिगड़ा हुआ नहीं है पर इस मशीन में से आने वाली जो शक्ति है वो ठीक तरह से अॅडजस्ट नहीं हो रही है । ये लोग कहते हैं कि 'ओम' का आवाज आना मतलब उन्होंने बहुत कुछ पा लिया है, लेकिन ऐसा उनका मानना ठीक नहीं है, उनका आधा-अधुरा नॉलेज है। इसी वजह से उनकी समझ में नहीं आता है कि वे कितने गलत है। असल में आवाज वगैराह नहीं आनी चाहिए पर अगर शुरूआत में आवाज आयी तो कोई बात नहीं। अभी एनर्जी आने लग गयी हैं, अॅडजस्ट करके लेना है (शक्ति को)। ये क्या है-ये आवाज क्यों आती है? इसे क्यों अॅडजस्ट करना चाहिए? अॅडजस्ट करने पर ही हमें समझ में आता है कि ये अभी ठीक तरह से आने लगी है, इस एनर्जी को अभी पाना चाहिए, लेने के लिए या देने के लिए, दोनो के लिए। अब ये माइक देखिए । अगर इस में से आवाज (कोई और आवाज) आती है तो मेरी आवाज कैसे सुनाई देगी! ऐसे में अगर अॅडजस्टमेंट में जरासा भी फर्क पड़ता है तो परमात्मा की आवाज और उनकी शक्ति अपने अन्दर से कैसे निकलेगी ? ऐसे में मशीन को पूरी तरह से मौन हो जाना चाहिए । उसी तरह आपकी शक्ति को भी अन्दर से मौन हो जाना चाहिए। मौन होना मतलब सर्वश्रेष्ठ को हासिल करना। अभी कुछ दिन पहले हठयोग पर मैं एक पुस्तक पढ़ रही थी। उसमें लिखा हुआ है कि इस तरह की आवाज़ अन्दर से आती है। इसका मतलब क्या है? मशीन बिगड़ा हुआ है। मशीन हमने बनाई है इसलिए हमें मालूम है कि मशीन खराब है, इसलिए इन लोगों का मत सुनो। वो कुछ ठीक नहीं है। आवाज़ आती है मतलब मशीन खराब है और शक्ति अॅडजस्ट नहीं हो रही है। इसका अनुभव आपको भी आएगा । जब आप बिमार होंगे, आपको कुछ तकलीफ होगी तभी आपको इस तरह की आवाज़ें सुनाई देगी। सिर में तकलीफ होने लगेगी। जब आप पूरी तरह से स्वस्थ होंगे तब आपके अन्दर ये 'मौन' रहेगा। मौन और शान्ति ये दोनो ही आपके अन्दर स्थापित होंगे। इस परमेश्वर का आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! ारीर क 26 माताजी का माता- आजजो बात कही है वो समझने की बात है कि, हम लोग अपने बच्चों पर जो जबरदस्ती, जुल्म करते हैं उसे हम जुल्म नहीं समझते हैं| पर ये बच्चे सब साधू-संत आपके घर में आये हैं। तो आपको उनकी इज्जत करनी चाहिए। उनको सम्भालना चाहिए । उनको प्यार देना चाहिए, जिससे वो पनपे, बढ़े। उनको स्वतन्त्रता देनी चाहिए। वो कभी गलत काम कर नहीं सकते क्योंकि वो संत -साधू है। लेकिन आपकी दृष्टि में फर्क है। आप हर जगह अपना ही एक, मराठी में कहते हैं कि 'मनगटशाही' या 'हिटलर शाही' सब 'शाही' लगाते हैं। इस चीज़ में मेरे खयाल से मुझसे बढ़कर कोई नहीं होगा, मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है बच्चों को जरा भी कुछ कहना। मुझे पसन्द नहीं है। अगर कोई ऐसी वैसी बात हो तो उसको समझायें, पर इन बच्चों को पनपना चाहिए । यही इस देश के कल के नागरिक हैं और यही बच्चे आपको करामात करके दिखाएंगे। इन लोगों को, बच्चों को इस कदर स्वतन्त्रता दी तो उस स्वतन्त्रता से आज मैं देखती हूँ कि कितने बढ़िया हो गये हैं । हालांकि खराबी भी बहतों की हुई है। अब आपके पास संस्कृति का आधार है। उस आधार पर इन बच्चों को आप सम्भालें, उनको समझाईये कि हमारी क्या संस्कृति है, तो बहुत सी बातें सीधी-सरल हो जाएंगी। हमारे देश के बारे में, वहाँ जो महान लोग हो गये हैं उनके बारे में किसी को कुछ मालूम ही नहीं । ও कोई कुछ जानता ही नहीं कि कितने त्याग से हमने स्वतन्त्रता को पाया है। इन बच्चों को बताना चाहिए। घर में फोटो लगाने चाहिए जो बड़े-बड़े नेता हो गये हैं। कैसे-कैसे संग्राम हुए हैं वो समझाने चाहिए, स्कूलों में वो समझाना चाहिए, उसी तरह का वहाँ वातावरण होना चाहिए। हम देखते हैं कि बच्चों को सिनेमा एक्टर, एक्ट्रेस सब मालूम है लेकिन अपने यहाँ के लोग जिन्होंने इतना सब त्याग दिया है, इतना सब करके अपने देश को स्वतन्त्रता दिलायी है उनके बारे में तो जानते ही नहीं है। ये बड़ा भारी हमारे यहाँ विरोध है सो बच्चों को बेकार की बातों से तो अच्छा है कि आप उन्हें समझायें, ये बतायें कि तुम जिस देश में पैदा हुए हो उस देश के तुम धरोहर हो कि तुम्हारे लिए क्या-क्या किया गया है, कितना त्याग, किस तरह से किया गया है तब उनके अन्दर देश भक्ति जागेगी और कल के यहाँ जो नागरिक होंगे वो देशभक्त होंगे, वो है तो सहजयोगी, आसान है ऐसे लोगों को देशभक्ति में उतारना, आसान है। आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद! 27 पिता के निए सन्देश ३१ दिसंबर १९९८ २ क ्र २ं ह० ে हुार और हुँट मह अहकार १७/५/१९८० म हत् अहंकार जो है बाईं तरफ का है, अंध:कार है, तमोगुण और भूतकाल से होता है| जिन्हें बायें बाजू की समस्या है उन्हें भविष्य के बारे में सोचना है- इससे इनमें सन्तुलन आता है। उदाहरण के लिए जो व्यक्ति आलसी है उसे काम करने में लग जाना चाहिए। अपने मन को भविष्य की योजना बनाने में व्यस्त कीजिए; क्या करना है? कहाँ जाना है? कैसे करना है। ऐसे करने से आप बाईं तरफ की खिंचाव से बचेंगे और सन्तुलन में रहेंगे। अब अगर किसी व्यक्ति की दाईं बाजू बहुत ही अधिक सक्रिय है तो उसे सन्तुलित करना है। बाईं तरफ से नहीं पर 'मध्यमार्ग' से। याने कि अगर कोई व्यक्ति बहुत ही अधिक मेहनती है तो उसे साक्षी भाव प्रस्तावित करना होगा । अगर आप कोई काम करने लगे, कोई भी कार्य, साक्षी भाव से उसमें आपको उतरना है और करना है। आप जो भी करें, बस ये कहे कि 'मैं इसे नहीं कर रहा हूँ' इस तरह से आप अपना आत्मसाक्षात्कार कर सकते हैं। साक्षी भाव में रह कर के आपको अपना कार्य करना है। तो ये बाईं बाजू की भरपाई दाईं बाजू की तरफ की ओर जाने से होती है और दाईं बाजू का मध्य में जाने से होता है। बायाँ पक्ष तमोगुणी है। दायाँ पक्ष रजोगुणी है। मध्य पक्ष सत्वगुणी है। ये फिर भी तीन गुणी है। ये वो स्थिति नहीं है जिसे हमें हासिल करना है। अपनी स्थिति को जब हम जान लेते हैं कि कौनसा पक्ष कमजोर है तो फिर हमें उसके मृताबिक अपने जीवन की शैली को बना लेना चाहिए। उदाहरण के लिए अगर आप बहुत आलसी हो, आप सुबह को उठ नहीं पाते हो, रात में बहुत ही निद्रा जनक लग रहा हो, अगर बिलकुल भी स्फूर्ति न हो तो फिर आप को सोचने लग जाना चाहिए कि इन सबके लिए आप क्या कर सकते हो। आप किस तरह से उठेंगे? पूजा करने का विचार भी बहुत अच्छा होगा। ऐसा कुछ करें कि, जिसमें कोई क्रिया हो, कार्य हो । कार्य करने में लग जाईये। ऐसी क्रिया जिससे आप सहजयोग में चले जाएं, साथ ही साथ आप अपनी दिनचर्या में अपनी मनोदशा को भी बदल सकें और दाईं पक्ष की ओर आ सकें और फिर आप अपने को सत्वगुण की ओर कर सकें और सब कुछ देखें। अब दूसरी चीज़ ये हो सकती है कि, आप जब उसके दूसरी तरफ आते हो जो क्रिया है तो होता ये है कि आप उसे करने लग जाते हो कि, जिसके वजह से आपका ध्यान उसमें लगा रहता है। इससे आप गलत चीज़ों में उलझने से बचते हो और आप कुछ करने में लग जाते हो। आप जाकर कुछ झाड़ लगा सकते हो, फूल लगा सकते हो या फिर आप चाहे तो खाना बना सकते हो, कुछ काम कर सकते हो। काम में लग जाओ। इससे आपको मदद होगी। कोई भी काम कर लो। पर काम करते वक्त तकलीफ ये होगी कि, आपमें अहंकार उत्पन्न होगा। इसलिए जब आप में अहंकार उत्पन्न होता है तो आपको ये कहना है कि, 'जनाब, आप इसे नहीं कर रहे हो। ये आप नहीं कर रहे हो। ये करना नहीं होता है। आप नहीं कर रहे हो ।' अगर आप इस तरह से अपने को समझाते रहोगे तो ये जितनी भी अहंकार से होने वाली तकलीफें है वो नहीं होती है। इस पक्ष पर इस तरह का स्वभाव आपने अपना लेना चाहिए। सत्वगुण पर आप स्वीकारने लग जाते हो। आप बिलकुल भी नरम पड़ जाते हो। आप नरम किस्म के व्यक्ति बन जाते हो। ऐसे में आप किसी की बुराई नहीं करते बस साक्षी भाव में जाकर सभी चीज़ों का आनन्द लेने लग जाते हो। .. 30 पाउँड केक ३0 क सामग्री :- सारी सामग्री साधारण तापमान पर 250 ग्राम मैदा, » छोटा चम्मच बेकिंग पाऊडर, 250 ग्राम बिना नमका का मक्खन, 250 ग्राम चीनी 250 ग्राम अंडे, » छोटा चम्मच वनीला एसेन्स, करीब 125 मि.ली.दुध विधि :- 1) केक टिन में हल्की चिकनाई लगाकर मैदा छिड़कें (22 सें.मी.केक टिन)। ओवन को 180 डिग्री सें. (350 डिग्री फै.) पर 'प्री -हीट' करें। 2) मैदा व बेकिंग पाऊडर एक साथ छान ले। 3) एक कटोरे में मक्खन को क्रीम के समान फेटें। चीनी डालकर पिघलने तक फेंटते रहें। 4) एक- एक करके अंडे डालें और लगातार फेंटते रहें। जब तक चीनी पूरी तरह पिघल न जाए फेंटते रहें और मिश्रण झाग के समान फूल न जाए। 5) वनीला एसेन्स डालें। मैदा व बेकिंग पाऊडर डालें। अब दूध डालकर धीरे-धीरे मिलाएं। (दध मैदे के हिसाब से कम या ज्यादा डाल सकते हैं।) 6) इस मिश्रण को केक टिन में डालकर 40 मिनट बेक करें। 7) एक पतला तिनका केक के बीचोंबीच डालकर जाँच करें। यदि तिनके के साथ केक चिपकता नहीं है तो इसका अर्थ है कि, केक तैयार है। ठण्डा होने दें, एक जाली पर पलट दें ताकि पूरी तरह ठण्डा हो जाए, फिर परोसें। सुझावः यदि आप चाहें तो 50 ग्राम किशमिश, कुटी हुई खजूर, कुटे हुए मेवे, रवेदार फल डाल सकते हैं। इन सबको एक बड़े चम्मच मैदा के साथ एक प्लास्टिक बैग में डालकर हिलाएं और केक के मिश्रण में डालें। 31 े प्रकाशक जिर्मल ट्रेन्सफोर्मेशन प्रा· लि. प्लॉट न.८, चंद्रगुप्त हौसिंग सोसायटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फौन 8 ०२०० २५२८६५३७, २५२८६०३२ B-mail : sale@nitl.eo.in ৪ प्री लि ১ १ ४ ्र ० २ आपने कभी कमल को खिलते हुए देखा है! ये थीरे से खुलता है। फिर उसमें से सुगन्ध फैलती है, बहुत ही प्रतिडित तरीके से। ऐसे ही पुष्प को आदिशक्ति की चसण कमलों में चढ़ाया जा सकता है। १३/९/१९८४ ---------------------- 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी नबुंबर-दिट २००९ ७ जक पाम हिन्दी ४. १० ा सला के 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-1.txt v० ० ० ० ० ० बडी । ्। ा ०० ० ० ० ० C० १ ६GC ए०ड चरणीं की तस्वार अहुँकार और प्रतिअहँकार से पीड़ित लोगों के लिए बहुत ही अच्छी है। ९७/५/१९८० छ 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-2.txt इस अंक में सहजयोग की शुरुआत - १ डायरी - १३ सहजयोग सबको समग्र करता है - १५ और अन्य श्री माताजी का माता-पिता के लिए सन्देश- २७ अहंकार और महत् अहंकार - २९ पाऊँड केक - ३१ क्र 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-3.txt सहजयाग की शुरुआत 2ु दिवाली पूजा ९५, नारगोल ा 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-4.txt म ल ें ১৯ पा क ये तो हमने सोचा भी नहीं था, इस नारगोल में २५ साल बाद इतने सहजयोगी एकत्रित होंगे। जब हम यहाँ आये थे तो ये विचार नहीं था कि, इस वक्त सहस्रार खोला जाए। सोच रहे थे कि, अभी देखा जाय कि, मनुष्य की क्या स्थिति है। मनुष्य अभी भी उस स्थिति पर नहीं पहुँचा जहाँ वो आत्मसाक्षात्कार को समझें।| हालांकि इस देश में साक्षात्कार की बात अनेक साधू-संतों ने सिद्ध की है और इसका ज्ञान महाराष्ट्र में तो बहुत ज़्यादा है कारण यहाँ जो मध्यमार्गी थे जिन्हें नाथ पंथी कहते थे उन लोगों ने आत्मकल्याण के लिए एक ही मार्ग बताया था; आत्मबोध का खुद को जाने बगैर आप कोई भी चीज़ प्राप्त नहीं कर सकते हो, ये मैं भी जानती थी। लेकिन उस वक्त जो मैंने मनुष्य की स्थिति देखी वो विचित्रसी थी। वो जिन लोगों के पीछे भागते थे उनमें कोई सत्यता नहीं थी। उनके पास सिवाय पैसे कमाने के और कोई लक्ष्य नहीं था और जब मनुष्य की स्थिति ऐसी होती है कि, जहाँ वो सत्य को बिल्कुल ही नहीं पहचानता उसे सत्य की बात कहना बहुत मुश्किल है और लोग मेरी बात क्यों सुनेंगे ? बार-बार मुझे लगता था कि अभी और भी मानव को भागना चाहिए। किन्तु मैंने देखा कि कलयुग की बड़ी घोर यातनायें लोग भोग रहे हैं। एक तो पूर्वजन्म में जिन लोगों ने अच्छे काम किये थे, उन लोगों को भी वो लोग सता रहे थे। जिन्होंने पूर्वजन्म में बूरे कर्म किये थे । उसमें कुछ ऐसे भी लोग थे जो पूर्वजन्म के कर्मों के कारण बहुत त्रस्त थे, तकलीफ में थे और कुछ लोग ऐसे थे कि जो वही पूर्वजन्म के कर्म लेकर के राक्षसों जैसे संसार में आये और वो किसी को छलने में, सताने में, उसकी दुर्दशा करने में कभी भी नहीं हिचकिचाते थे। तो दो तरह के लोगों को मैंने देखे खास । एक वो जो पीड़ा देते है और दूसरे जो पिड़ीत है। बहुत अब ये सोचना था कि, इसमें से किसकी ओर नज़र करें । जो लोग पीड़ा देते थे वे बहत अपने को सोचते थे कि 'मैं तो बहुत ही सम्पूर्ण इन्सान हूँ।' उनमें तो ये कल्पना ही नहीं थी कि ये दूसरों को तकलीफ दे रहे हैं, परेशान कर रहे हैं। और दूसरे जो लोग पीड़ित थे वो बर्दाश्त कर रहे थे , शायद मजबूरी की वजह से हो, या उनको कभी भी ये मालूम नहीं था कि इस तरह की जो व्यवहार करता है 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-5.txt जब तक सन्तुलन नहीं आयेगा तब तक कुण्डलिनी उठेगी कैसे? उसका प्रतिकार करना चाहिए। उसका विरोध करना चाहिए। उस वक्त यही सोच रही थी कि मनुष्य कब ये सोचेगा कि 'हमें बदलना है, हमारे अन्दर एक परिवर्तन लाना हैं।' क्योंकि दोनो ही अपनी तरफ से खुद को समझा बुझा चुके थे। कुछ लोग ज़्यादा तकलीफ देते थे और कुछ लोग कम और कुछ भगवान के नाम पर हो, चाहे वो राष्ट्र के नाम पर हो और चाहे वो राजनैतिक हो या जिसे कहते है इकोनोमिकल। किसी की गरिबी तो किसी की अमिरी। लोग ज़्यादा तकलीफ बर्दाश्त कर रहे थे और कुछ लोग कम। ऐसी समाज की स्थिति थी। चाहे वो बहुत इस प्रकार, इस देश में एक तरह की धलना चल रही थी। जिसको कि मैं समझती थी कि, जब तक मनुष्य बदलेगा नहीं, जब तक वो अपने को पहचानेगा नहीं, जब तक वो अपने गौरव और अपनी महानता को पायेगा नहीं, तब तक वो ऐसे ही काम करता रहेगा। ये सब मेरे दिमाग में था ही, बचपन से ही और मैं ये सोच रही थी कि, इस मनुष्य अभ्यास किया, तटस्थ रहकर, साक्षी रूप रहकर मैंने समझना चाहा कि मनुष्य क्या है, पिछले क्या क्या दोष है। कौनसी-कौनसी खराबी हैं और किसलिए वो ये ऐसे सोचता है। तब उस नतीजे पर मैं पहुँची कि मनुष्य के अन्दर एक तो अहंकार बहुत ज़्यादा है और या तो उसके अन्दर में प्रति अहंकार जिसे हम कहते हैं कि कंडिशनिंग । इन दोनो की वजह से उसके अन्दर में सन्तुलन नहीं, बैलन्स नहीं । को समझना जरूरी है। तो पहले तो मैंने मनुष्यों का बहुत जब तक सन्तुलन नहीं आयेगा तब तक कुण्डलिनी उठेगी कैसे? वो भी एक बड़ी भारी चीज़ है । लेकिन जब मैं यहाँ नारगोल में आयी तो वो कुछ विचित्र कारणों के कारण। एक बहुत दष्ट राक्षस यहाँ पर एक अपना शिविर लगायें बैठा था और हमारे पति को कह कहकर भेजा है कि, 'उनको जरूर भेजिए, जरूर भेजिए ।' मुझे वो आदमी जरा भी ठीक नहीं लगा। फिर भी पति के कहने से मैं आयी और शायद जिस बंगले में अभी रह रही हूँ, शायद उसी में, ...... वास्तव में वहीं रहे थे। उससे पहले दिन की बात है कि, मैं जब एक पेड़ के नीचे बैठे देख रही थी उनका तमाशा।तो मैं हैरान हो गयी थी कि ये महाशय सबको मन्त्रित करके मेस्मराज्ड कर रहा था। कोई लोग चीख रहे थे। कोई लोग चिल्ला रहे थे। तो कोई लोग कुत्ते जैसे भौंक रहे थे। तो कोई जो है शेर जैसे दहाड़ रहे थे। मेरी समझ में आ गया कि, ये इनकी पूर्वयोनी में ले जा रहा था और इनके जो कुछ भी चित्त चेतित है, उसे हम कहते हैं सबकॉन्शस माइंड, उसको जगा रहा था, तब मैं घबरा गयी। मैंने ऐसे झूठे लोगों को भी पहले देखा था कि ये करते क्या है, ये तो पता होना चाहिए न कि ये करते क्या हैं, किस तरह से क्या धंधा करते हैं। और इन में मैंने एक चीज़ देखी कि ये बड़े भयभीत लोग है, इसके साथ बंदके रहती थी, इसके साथ इनके गाड्डस रहते थे। मैंने सोचा कि ये अगर कोई परमात्मा का कार्य कर रहे है तो इन्हे इन सब चीज़ों की जरूरत क्या है। और बेतहाशा पैसा लूट रहे थे। करोड़ों में इन्होंने पैसे लूटे लोगों से झूठ बोलकर। ये तो दो बातें मेरी नज़र में आयी। मैंने सोचा कि, ये तो कलयुग की ही महिमा है कि, ऐसे दुष्ट लोग अभी पनप रहे हैं। पर इसका इलाज यही कि, जब मनुष्य की चेतना जागृत हो, उसके अन्दर सुबुद्धि आये और वो समझ लें कि ये सब गलत चीज़ है और ये सब करने से कोई लाभ नहीं है । तीसरा मैंने ये देखा कि, जिस समाज में मैं रह रही हूँ उस समाज में लोग हर मिनट ऐसा काम करते थे कि, जिससे उनका नाश हो जाए। जैसे शराब पीना, | औरतों के पीछे भागना और तरह-तरह की चीजें। और बहुत ही ज़्यादा पैसे का लगाव इन लोगों को है। और बात करते वक्त लगता नहीं था कि वे नैचुरल बात कर रहे हैं, कुछ अरज़ीब सा, बन -ठन के ड्रामा करके बात करते थे। मैं सोचती थी कि मनुष्य को क्या हो गया है। ऐसे क्यों ड्रामें में फँसा हुआ है और इस तरह के गलत काम करता है। लेकिन मैं किससे कहती। मैं तो बिलकुल अकेली थी। उस वक्त जब हम यहाँ आये तो यही एक उलझन थी कि क्या किया जाय ? यहाँ आने पर जब मैंने देखा कि ये राक्षस लोगों को मेस्मराइज कर रहा था। तब मेरी समझ में आया कि, अब अगर सहस्रार नहीं खोला गया किसी तरह तो न जाने लोग कहाँ से कहाँ पहुँच जाएंगे। और इनके जो असर है, इसके जो साधक है, जो परमात्मा को खोज रहे हैं, सत्य को खोज रहे हैं न जाने कहाँ जा सकते हैं। तब देखने के बाद मैं दूसरे दिन सबेरे, रातभर समुद्र के किनारे रही। अकेली थी बड़ा अच्छा लगा। कोई कुछ कहने वाला नहीं। और तब मैंने 3 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-6.txt ध्यान में जाकर अपने अन्दर और सोचा सहस्रार खोला जाय। और जैसे मैंने ये इच्छा की कि, 'अब सहस्रार का ब्रह्मरंध्र खुल जाए।' ये इच्छा करते ही कुण्डलिनी को मैं अपने अन्दर देखती क्या हूँ कि, जैसे टेलिस्कोप होता है उस तरह से खटखट करके ऊपर तक गयी। उसका रंग ऐसा था कि, जितने भी यहाँ पर आप लोगों ने दिये लगाये हैं, इन सब दियों का रंग मिला लीजिए। जैसे कि लोहा तपता है तो उसका रंग और तब मैंने देखा उस कुण्डलिनी का बाहर का यन्त्र जो था वो इस तरह से उठता गया। हर एक चक्र पे खटखट आवाज आयी और कुण्डलिनी जाकर ब्रह्मरंध्र को छेद गयी। तो मेरे छेदने की तो कोई बात नहीं थी। लेकिन मैंने देखा कि विश्व में अब बहुत आसान हो जाएगा। और उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि ऊपर से जो कुछ भी शक्ति थी वो मेरे अन्दर पूरी तरह से, एक ठण्डी हवा जैसे चारो तरफ से आ गयी। अब मैं समझ गयी कि अब कार्य को शुरू करने में कोई हर्ज नहीं क्योंकि जो उलझन थी वो खत्म हो गयी | अनिश्चिंत, बिलकुल निश्चिंत हो कर के मैंने सोचा कि अब समय आ गया। आखिर होगा क्या? ज़्यादा से ज़्यादा लोग मारेंगे, पिटेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा हसेंगे, मज़ाक करेंगे। और उससे आगे वो सबको मार ड्ालेंगे। इसमें ड्रने की कोई बात नहीं। ये तो करना ही है। इसी कार्य के लिए हम आये हैं इस संसार में। क्योंकि सामूहिक चेतना को, कलेक्टिव कॉन्शस को जगाना, मैंने सोचा कि जब तक लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं करते, अपने को नहीं जानते तब तक ये कार्य असंभव है। और सब दुनियाभर की चीज़ें कर लें इससे कोई फायदा नहीं। इसलिए इस कार्य को मैंने सबसे पहले एक काकी बुढ़ी सी थी जिसे हम बहुत मानते थे, वो पार हो गयी। तब मुझे सन्तोष हुआ। मैंने कहा चलो एक तो पार हुये। इस कलयुग में किसी को पार करना कोई आसान है? जब एक पार हुई तब मुझे लगा, कि हो सकता है कि और बहुत से पार होंगे। और सामूहिक चेतना के लिए तो चेतना देना बहुत आसान था। एक इन्सान को पार कराना बहुत आसान था। एक आदमी को चितु करना बहुत आसान था। पर कलेक्टिवली, सामूहिक के लिए कार्य करने के लिए जो मैंने मनुष्य कि जब मैं रुकूँ कि किस आदमी में दर्गुण है, या कोई तकलीफ है या उसके अन्दर कंडिशनिंग है तो उसको निकालने के लिए क्या करना चाहिए। क्योंकि एक आदमी के लिए एक परेशानी दूसरे को, दूसरी तिसरे को, तीसरी। अगर सामूहिक कार्य करना है तो एक ही जागरण से सबको लाभ होना चाहिए। सबको फायदा होना चाहिए। अभी मैं आपको समझा नहीं सकती क्योंकि कम समय है, कि सामूहिक चेतना का जो कार्य किसी ने आज तक नहीं किया। ये बात सही है। वो मैंने बहुत ध्यान-धारणा से प्राप्त किया। के बारे में अनुभव किया था उस पर थोड़ासा काम था। काम ऐसा | अपनी कुण्डलिनी को चारों तरफ घूमा के, अपने कुण्डलिनी को बार-बार लोगों पर उसका असर डालके और बिल्कुल इस मामले में कोई भी नहीं जानता मेरे अन्दर क्या शक्तियाँ हैं? मैं कौन हूँ? कोई नहीं जानता। हमारे घर में भी कोई नहीं जानता। और मैके में भी कोई नहीं जानता था। और मैंने कभी किसी से बताया नहीं। क्योंकि बताने से ससुराल में भी कोई नहीं जानता था। ... भी खोपडी में जाना तो आसान चीज़ नहीं है। इन्सान की खोपडी ऐसी है, मैंने देखी है। जिसमें तो कोई भी विचार घुसना बहुत मुश्किल है। सब अपने ही घमण्ड में बैठे हुए है, सब अपने को कुछ न कुछ समझ रहे है। अब इनको कौन बतायें? जैसे कबीर ने कहा, समझाऊँ सब जगहन से' मुझे तो लगा अँधा नहीं है पर अज्ञानी है, एकदम अज्ञान का भण्डार। और ये इतना सूक्ष्म ज्ञान इनको कैसे दिया जाए? 'कैसे लेकिन कुण्डलिनी जब उस लेडी की, उस देवी की जब जागृत हुई तो मैंने देखा कि उसके अन्दर एक सूक्ष्म शक्ति आ गयी। और वो उस सूक्ष्म शक्ति से मुझे समझने लगी। उसके बाद बारह आदमी पार हुए। और पार होने के बाद हैरान हो गए क्योंकि उनकी आँखो में एकदम चमक आ गयी। और वो देखने लगे सब चीज़ को। एक अजीबोगरीब सम्वेदना उनके अन्दर आ गयी। जिससे वो महसूस करने लगे। शुरुआत के बारह लोगों के हर एक चक्र पर मैंने अलग-अलग काम किया। क्योंकि जब नींव में जब चीज़ पड़ती है वो मजबूत होती है। उसकी मजबूती करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। क्योंकि हालांकि उनकी कुण्डलिनी जागृत हो गयी थी। आप 4 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-8.txt जानते है कि, कुण्डलिनी के जागृत करने के बाद भी उसको ठीक दशा में ले जाने के लिए ध्यान- धारणा आदि करनी पडती है। और उसको बिठाना पड़ता है। इन बारह आदमीओं पर मैंने बहत मेहनत की। और उस मेहनत के फलस्वरूप ये जरूर मैंने जान लिया कि अगर ये बारह आदमियों की बारह प्रकृतियाँ और उनको साथ में बिठा के किस तरह से कहना चाहिए कि, आत्मा की जो प्रकाश शक्ति है उसको किस तरह से संगठित करना चाहिए, जैसे की हम सुई में फूल पिरोते है वो समग्रता किस तरह से आनी चाहिए? इन बारह आदमियों की अलग-अलग प्रकृतियों को किस तरह से एक सूत्र में बाँधा जाएं? और जब उनकी जागृति हो गयी तब मैंने देखा कि उनके अन्दर, सबके अन्दर एकसूत्रता बँधती जा रही थी। धीरे-धीरे बँधती जा रही थी। थोडी बहुत मेहनत भी करनी पड़ी। लेकिन किसीको बताने के लिए, जनता-जनार्दन को बताने के लिए मैंने सोचा, उसके लिए अभी आसान नहीं है । लोगों को समझने की बात नहीं है। फिर जहाँगीर हॉल में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। वहाँ मैंने बताया कि कितने राषक्षस आए, कितने राक्षसिनी आएं। ये लोग क्या करेंगे? तो सब घबरा गये। कहने लगे कि अगर ऐसे माताजी बात करेंगी तो इनको कोई भी कैसे मदद करेगा। तो सबने बताया कि, 'ऐसी बातें आप मत करिए, नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।' मैंने कहा, 'अभी तक तो मुझे मारने वाला पैदा नहीं हआ और आप लोग निश्चिंत रहिए। धीरे-धीरे ये जो छोटी-छोटी सरिताएं थी सबके अन्दर , छोटी-छोटी नदियाँ थी कुण्डलिनी की उनको मैंने कहा कि, 'आप लोग मेरी कुण्डलिनी पर ध्यान दो।' तो ध्यान करते ही वो निर्विचार हो गये। और निर्विचार होते ही साथ में उनको ये लगा कि, मेरे साथ उनका बड़ा तादात्म है। धीरे-धीरे निर्विचारिता बढ़ने लगी। धीरे-धीरे सामूहिकता का एक नया प्रकाश हुआ। ये पहले मैंने जहाॉँगीर हॉल में देखा। हिन्दुस्तानी लोग जो है, भारतीय लोग जो है, ये इस भूमि में इसलिए पैदा हुएं है कि, ये बड़े ही धार्मिक है। बहुत ही सुन्दर इनका जीवन रहा होगा। क्योंकि हिन्दुस्तान में इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती । बहुत जल्दी लोग पार हो जाते थे। शुरुआत में जरूर थोडा-बहुत समय लगा। लेकिन परदेस में तो हाथ टूट जाते है। किसी की कुण्डलिनी उठाना ऐसा लगता है कि पहाड उठाया जा रहा है। और फिर धड़क से नीचे गिर जाती है। उठाओ और फिर धड़क से गिर जाओ| और फिर जब कलेक्टिवली, सामूहिक में तो बड़ी मुश्किल! और अजीबो-गरीब सवाल पूछना, ये और वो, दुनियाभर की बातें। जब मेैं उसका जवाब देती तो हैरान हो जाते। ये इतना जानती कैसे हैं इनको ये सब मालूम कैसे है? बड़ी मेरी परिक्षा करते हैं। क्योंकि अहंकार बहुत ज़्यादा है । अब धीरे - धीरे ऐसी चीज़़ें, जैसे लण्डन में पहली मर्तबा सात सहजयोगी आएं। वो सातों ही हिप्पी के टाइप और ड्रग्ज लेते थे। उनसे वो सहजयोगी बन गये। इसका मतलब ये तो हुआ कि एक तरह का सहारा मिल गया, निश्चिंती हो गयी कि, सहजयोग से लोग छोड रहे है। ड्रग्ज अॅडिक्ट को ठिकाने लगाना कोई आसान बात नही! उसमें एक अच्छाई क्योंकि उन पर जो हमने मेहनत करी उससे एक अनुभव आ गया कि, कठिन से कठिन भी कोई इन्सान हों, जब उसकी इच्छा होती है तो उसे योग प्राप्त होना चाहिए, उसे आत्मज्ञान होना चाहिए। इच्छा मात्र अगर हो तो वो पार हो जाता है। तब मैं सबसे कहती थी कि, आप हृदय से इच्छा करो कि, आपको आत्मसाक्षात्कार चाहिए, बस। उसी पर लोग झट से पार हो गये। उसमें अनेक देशों के अनुभव है मेरे पास। इससे जैसे रशिया है या युक्रेन है या रुमानिया इन देशों का मेरे ख्याल से हमारे देशों से कभी सम्बन्ध रहा होगा जबरदस्त। और यहाँ से नाथ पंथी जो है, मच्छिंद्रनाथ, गोरखनाथ ये गये होंगे कभी। क्योंकि इनके यहाँ जो चीजें मिली, मुझे उससे पता हुआ कि, ये लोग कुण्डलिनी के बारे में ईसा से भी तीन सौ साल पहले से जानते हैं। तब ये समझ में आया कि, ये लोग इतनी जल्दी पार कैसे हो जाते हैं ! ड्रग्ज | महाराष्ट्र में बहुत काम किया नाथ पंथियों ने और मैंने भी बड़ी मेहनत की। पर दुःख की बात ये है कि, जो चीज़ नॉर्थ इंडिया में हम कर पाएं वो महाराष्ट्र में अभी भी मैं नहीं कर पाई। समझ में नहीं आता जहाँ पर संतों ने अपना खून बहाया और हर एक महाराष्ट्रीयन को मालूम है की नाथपंथीयों ने क्या कार्य किया? और पता नहीं क्यों जो चीज़ मैंने नॉर्थ इंडिया में पाई, पहले तो मैं दिल्ली को बिल्ली ही 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-9.txt सहजयोग को बढ़ाने के लिए सबसे पहले आप ध्यान-धारणा करें। कहती थी, सालों मेहनत की वहाँ भी लेकिन उसके बाद जो सहजयोगी वहाँ मिले है। जिस तरह सहजयोग फैल रहा है । इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना प्रवाह देख कर के ये आश्चर्य होता है कि जहाँ पर इतना संत-साधुओं ने काम किया है, इतनी मेहनत की है और बचपन से हम लोग यही सिखते आएं है, पढ़ते आएं है, यहाँ पर सब लोग यही बातें करते हैं उस महाराष्ट्र में सहजयोग उतना गहरा नहीं फैला। जैसा कि नॉर्थ में फैला। इसका क्या कारण हो सकता है? एक ही मुझे लगता है कि जब पहले से ही सब चीज़़ मालूम है तो उसके प्रति जो है अवज्ञा हो जाती है। उधर इनडिफरन्स हो जाता है। संस्कृत में एक श्लोक है 'अति परिचयात अवज्ञा' 'संतत गमना अनादरो भवति, प्रयागवासी कृपे स्नानं समाचरेत' कि जब बार-बार आप कहीं जाते हैं, बार-बार आप किसीसे मिलते हैं तो आपका अनादर होने लगता है, फिर आपका आदर नहीं रह जाता। क्योंकि प्रयाग में रहने वाले लोग, इलाहाबाद में रहने वाले लोग गंगाजी में नहाने की जगह, जो त्रिवेणी का संगम है, वो लोग घर में जो कुँआ है उसमें नहाते है। और लोग दुनियाभर से वहाँ जाते हैं, जाकर के वहाँ नहा लेते हैं। यही बात शायद है कि जो इतनी मान्यता सहजयोग को नॉर्थ इंडिया में है। यहाँ भी, ऐसा नहीं कि यहाँ सहजयोगी नहीं, महाराष्ट्र में भी बहुत सहजयोगी हैं और बहुत कार्यान्वित भी हैं पर सहजयोग के प्रति जो समर्पण चाहिए वो मैंने तो कभी नहीं देखा। पता नहीं शायद बढ़े। समर्पण का मतलब है कि ये हमें सहजयोगी पद जो मिला उस सहजयोगी पद को हम किस तरह से इस्तमाल करें। वो सिर्फ अपने लाभ के लिए, अपनी तकलीफ के लिए, अपने ही परिवार के लिए सोचते हैं या सारे संसार के लिए सोचते हैं ये कुछ समझ में नहीं आता। महाराष्ट्र की जो संस्कृती है और जो महाराष्ट्र के धर्म की इतनी गहन छाप, उस महाराष्ट्र में सहजयोग इतना नहीं फैला है। और गुजरात में जहाँ नारगोल में जहाँ हमने ब्रह्मरन्ध्र खोला वहाँ तो बहुत ही प्रॉब्लेम है। गुजरात के लोग तो मेरी समझ में ही नहीं आते। बहुत मेहनत की गुजरात में पर सबसे ज़्यादा महाराष्ट्र मे मेहनत की है। क्योंकि आज यहाँ महाराष्ट्रीयन लोग बहुत है। मुझे कहना ये है कि सहजयोग को बढ़ाने के लिए सबसे पहले आप ध्यान-धारणा करें। और गहरे, जब गहरे आप उतर जाते हैं तब आपको लगता है कि मैं ही क्यों इसका मज़ा उठाऊँ? और लोग भी इसका मज़ा उठायें । और जब ये भावना अन्दर आती है तो सहजयोग फैलता हैऔर उसके बाद मनुष्य जो है अपने जीवन में यही सोचता है कि दूसरों को सुख देना, दुसरों को आनन्द देना इससे बढ़कर और कुछ नहीं। और सब चीज़ों को भूल जाते हैं। यह जब होता है तब सहजयोग फैलता है। रात -दिन वही चिंतन, रात-दिन वही सोचना । इसमें मज़ा आता है | आज में यह देखकर बहुत खुश हुई कि सारे दुनिया से यहाँ लोग आएं इसके अलावा और भी लोग जो कहना चाहिए कि, परदेस से तो आएं है और दिल्ली वरगैरा से आए हैं कम से कम एक बड़ी मुझे आनन्द की बात लगती है कि, इस कठिन जगह आप सब लोग कैसे पहुँचे? यह तो प्रेम की महति है। और यह सिर्फ प्रेम है आपका । ये बहुत बड़ी चीज़ है। लेकिन इसमें बस फर्क ये है कि जिस तरह से सहजयोग है, अब देखिए, कोल्हापूर में कितनी मेहनत की। कोल्हापूर में बहुत मेहनत करी लेकिन कोल्हापूर में सहजयोग बहुत कम है। आश्चर्य की बात है! ऐसा क्यों होता है ? उन्होंने कहा पंढरपूर में ८०० सहजयोगी है। पर ऐसा वहाँ नहीं। गाजियाबाद में जाओ तो १५,०००, फिर आप फरीदाबाद में जाओ १६, ००० फिर आप हरियाणा में जाओ तो वहाँ २५,००० । वहाँ तो हजारों की बात हैं। और महाराष्ट्र में कि ८०० आदमी यहाँ है, ५०० आदमी वहाँ है, ७०० आदमी वहाँ। इसका कारण क्या है मैं आजतक नहीं समझ पाई। यही अगर सोचना है, यही सोच सकते है कि यहाँ पर आत्मज्ञान, आत्म बोध, महानुभाव पंथ आदि अनेक चीज़ें इतनी ज़्यादा असलियत की हो गयी कि अब इधर ध्यान ही नहीं। ऐसे इन लोगों को महाराष्ट्र में पैसे की ललक नहीं। जैसे आप लोगों को गुजरात में, उत्तर प्रदेश में भी, उत्तर भारत में भी काफी पैसों की ललक है । महाराष्ट्र में ये बात नहीं। सुबह चार बजे से शाम तक भगवान का ध्यान करना, ये वो करना चलेगा। पर उसमें एक तरह निगरानी की बात नहीं। उसमें हृदय से करें, भक्ति से करे। और उस भक्ति को बाँटने की करना, कोशिश करें। ये महाराष्ट्रीयन्स को करना चाहिए। बारह महिने में महाराष्ट्र में ही हमारे गणपतीपूले का प्रोग्राम होता है और महाराष्ट्र ें काफी अच्छे सहजयोगी है। गहरे, बहुत गहरे! यहाँ की युवा शक्तियाँ भी बहुत अच्छी है। लेकिन तो भी मैं कहूँगी कि, जिस तरह से | | 7 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-10.txt सहजयोग नॉर्थ में फैला है। अब जहाँ देखो बारह पक्तीं में है। हमारा ससुराल वहाँ है। हर जगह, हर एक गाँव में, हर एक जगह। जहाँ एक आदमी पहुँच गया, सहजयोगी बन गया, जैसे कोई सूखी लकड़ी रहती उसमें जरासी चिनगारी पड़ जाए तो आग लग जाती है इस तरह से। ये आखिर किस कारण जोरों में बह रहा है। समझ में नहीं आता । और जो हो जाते है तो कोई सवाल नहीं, कुछ नहीं । पर महाराष्ट्र में सवाल बहुत पूछे क्योंकि पोथियाँ सब पढ़ बैठे हैं। घर में रोज एक-एक को, आप देखिए, किसी महाराष्ट्रीयन्स के यहाँ कम से कम दस गुरुओं के फोटो है। उसमें से सच्चे शायद एकाद -दो ही हो। और सब तरह की मूर्तियाँ हैं। गणेशजी का वास है यहाँ । चार यहाँ गणेशजी बैठे है। उसे कहने चाहिए, उसे तो अष्टविनायक कहते है। पर चार मैं इसलिए कह रही हूँ कि एक-एक गणेश के दो-दो अॅसपेक्टस या दो-दो तरिके, विशेष अलग-अलग यहाँ पर है। अब उसके बारे में महाराष्ट्रीयन्स जानते है। वहाँ जाएंगे , गणेश पूजा करेंगे वो। फिर यहाँ आकर तीन देवियों का प्रादर्भाव है। यह सब होते हुए भी वहाँ जाएंगे । वहाँ मंदिरों में जाएंगे। महालक्ष्मी मंदिर में जाएंगे रोज। वो सब करेंगे। और अब जब सहजयोग में आएं है तो अब छुट्टी हो गयी। कुछ भी नहीं करना है। ये बड़े आश्चर्य की बात है! | आज क्योंकि बहुत से महाराष्ट्रीयन यहाँ आएं है। मैं बताना चाहती थी कि देखिए दिल्ली से न जाने कितने लोग, इतने लोग से कभी नहीं जाएंगे। मराठी में इनको 'घरकोंबडे' कहते हैं। माने वो बस अपने ही देश में। बम्बई वाले आपको कभी नहीं महाराष्र दिखाई देंगे पूना में जा कर काम करते हुए। और पूना वाले तो, उनको एक तरह का भूत चिपका हुआ है। मैं इसलिए कह रही हूँ कि, ये सब बात खुले आम कहने से कभी-कभी ठीक हो जाती है। खुले आम कहना है कि, महाराष्ट्र में जो सहजयोग का ठिकाना हुआ है उससे तो इनके जो आठवले जो है वो अच्छे! बकते है सिर्फ लेकिन लाखों लोग आएं। गुजरात का तो क्या कहना । इनको तो ऐसे-ऐसे गुरुओं ने पकड़ें है। पर महाराष्ट्रीयन्स को क्या हुआ। जिसमें रामदासस्वामींने सब गुरुओं की चर्चा की और उसमें बताया है, इतना ही नहीं सबसे तो मैं कहूँगी ध्यान दें, इतना साल सहजयोग समझाया। रोज वही गाते है। और जो नामदेव ने जो लिखा हुआ है जोगवा का गाना वो रोज जहाँ तुम गाते हैं कि 'हमको माँ तुम योग दों।' पर वो योग करने के लिए तुमको कुछ करना है। आप किसी गाँव में जाओ वहाँ भीड़ हो जाएगी जब मैं जाऊँगी। उसके बाद अगर दो आदमी भी मिल जाए तो बड़ी हैरानी। तो मैं ये कहँगी कि महाराष्ट्रीन लोगों को चाहिए कि, कुछ इन लोगों के लिए प्रार्थना करें। हवन करें, कुछ न कुछ ऐसी सामूहिक चीज़ करें जिससे महाराष्ट्र की जागृति वैसी हो जाए जैसे उत्तर भारत में हुई, जैसे कि रशिया में हुई। वैसे समर्पित हम वो अच्छे है। लेकिन सहजयोग क्यों अभी बढ़ता नहीं ये मेरी समझ में नहीं आया। बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है। कोल्हापूर जगह में न जाने कितनी बार पूजाएं हुई। देवी का मन्दिर बहुत सुन्दर है। सब ऊँचा कुछ है। पर वहाँ पर इतनी गहनता नहीं। उसके लिए सामूहिक रूप में सब लोग ध्यान दें क्योंकि महाराष्ट्र बहुत बड़ा देश है। बहुत देश है। और धर्म की दृष्टि से जो है सो है, पर आध्यात्म के दृष्टि से बहुत ऊँचा देश है। इसलिए सबको चाहिए कि वो महाराषट्र के लिए थोडीसी जागृति की बातचीत करें। ऐसे कोई झगड़ा नहीं है। कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जो सहजयोग बढ़ना चाहिए वो न जाने आजतक तो इतना बढ़ा नहीं। हो सकता है आगे ठीक हो जाए। अब जो आप लोग यहाँ आएं, न जाने क्यों एक अजीब तरह की अनुभूति हुई। किस तरह से पच्चीस साल में इस छोटीसी जगह में आप लोग आएं। पच्चीस साल तक हमने मेहनत की ये बात मैं जानती हैँ। मेहनत बहत की । पर पच्चीस साल के बाद इतने लोग इस नारगोल का माहात्म्य समझेंगे और यहाँ आएंगे ये कोई आश्चर्य की बात नहीं। 'नारगोल' हमारे सहजयोग में मतलब होता है सहस्रार। और जब मैं यहाँ आईं । यहाँ की वनश्री देखी वगैरा और तबियत खुश हो गयी और एकदम अन्दर से जैसे लगा कि इस प्रकृति की किसी बड़ी भारी आशीर्वादित जगह हम आयें बहत अच्छा लगा और बहुत वो तो मई का महिना था लेकिन मुझे बिलकुल नहीं गरमी लग रही थी जब सहजयोगी आतेहैं तो ठीक है उनकी गर्मी मैं खिंचती रहती हूँ लेकिन वहाँ; यहाँ कोई सहजयोगी नहीं थे इन दिनों की तरह कुछ गर्मी नहीं लगी और जब सहस्रार खोला तो मैंने देखा कि, जब, 8. ০০ 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-11.txt 83 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-12.txt कोई इसके बारे में जानता भी नहीं है। ज्यादातर गुजराती लोग थे उसमें महाराष्ट्रीयन कम थे और महाराष्ट्र में ही जो चीज़ इतनी किताबें लिखी है कितनी ही किताबें लिखी हैं आप देखियेगा, असली किताबे लिखी हैं, झूठ नहीं है, जो सत्य है वही लिखा हुआ है, चक्रों पर लिखा हुआ है कुण्डलिनी पर लिखा हुआ है, सबकुछ इतना लिखने पर भी यहाँ उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद लोग उसका इस्तेमाल करें तो न जाने कितना बढ़ जाएगा, कितना यहाँ सहजयोग बढ़ सकता है। अब हमारी जो सहजयोग की जो प्रणाली है वो इतने लोगों में फैल गयीं इतनी गहरी पहुँची जो आपने ड्रामा देखा है उससे समझ गये होंगे। इस ड्रामा में उन्होंने दिखा दिया अपने दिमाग से सोचकर के कि 'माँ क्यों आईं?' कि सब लोगों ने कहा कि हमने बहत मेहनत करी। हमने पूरी कोशिश करी कि इन्सान जो है वो आध्यात्म में आ जाएं और परमात्मा की उस पर नज़र जाए और उसको किसी तरह से योग प्राप्त हो पर कुछ चीज़ बनी नहीं है इसलिए अब हम देवी से कहते हैं कि तुम ही अवतरण लो, तुम ही अवतरण लेकर के जो तुमने ये संसार बनाया है उसको ठीक करो। बिलकुल पते की बात है। इसमें कोई शक नहीं है और हुआ भी ऐसे है और बना भी ऐसे है। सारा जो कार्य है इस तरह से बड़े सुचारू रूप से बन रहा है और जिस वक्त इस ब्रह्मरन्ध्र को तोड़ा था उस वक्त सोचा भी नहीं था मैंने कि, मेरे जीवित रहते हुए इतना मैं कार्य देख सकूँगी पर ये कुण्डलिनी की महिमा और परम चैतन्य का कार्य है। परम चैतन्य से तो मैं खुद हार गई, पता नहीं क्या करते रहते है, हालांकि ये मेरी शक्ति है, लेकिन ये परम चैतन्य आप देख रहे हैं, ये तरह-तरह के फोटोग्राफ्स मेरे बना रहे हैं, तरह- तरह के चमत्कार मेरे दिखा रहे हैं, पचासो तरह के चमत्कार। वैसे मैक्सिको में एक स्त्री थी, जो काम करती न्यूयॉर्क में। वहाँ मुलाकात हुई उसकी। फिर वो पार भी हो गयी थी और मैक्सिको चली गयी थी, वहाँ नौकरी मिल गयी यु.एन. में। उसने चिट्ठी लिखी कि मेरे लड़के की तबियत खराब हो गयी है। छोटा सा है, उमर में बहुत छोटा है और ये बिमारी हमारे खानदान में होती है। जब लोग बिलकुल बुढ्ढे हो जाते हैं लेकिन इस बच्चे को इतनी छोटी उमर में हो गयी और अब ये बच नहीं सकता इसके लिए माँ मैं क्या करूँ। ऐसे तीन चिट्ठीयाँ उसने लिखी है। ये परम चैतन्य की बात बता रहे हैं और चौथी चिट्ठी में उसने लिखा कि लड़का अपने आप ठीक हो गया है। वो हॉवर्ड युनिवर्सिटी में पढ़ता था । एकदम ठीक हो गया। उसकी बिमारी एकदम ठीक हो गयी। डॉक्टर ने कहा कि 'किया क्या तुमने? वो कैसे ठीक हो गया ?' तो ये परम चैतन्य जो है, इससे काम करते हैं। ये कमाल है तो अब किसी ने पूछा कि 'ये गणेश जी दूध पी रहे हैं, क्या है ये!' मैंने कहा कि भाई, ये परम चैतन्य, कृतयुग में आ गये हैं। अब ये करे सो कम है । गणेशजी को दूध पिलायेंगे, वो शिवजी को दूध कौनसी बात है जो परमचैतन्य नहीं कर सकते हैं? हर तरह का वो काम करते हैं। पिलायेंगे, इसको कुछ कह सकते हैं! एक साहब थे कॅनडा में। ये भी काफी पुरानी बात है, तो उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी कि माँ, मेरे पास पैसे नहीं है और इस कार्य के लिए मुझे इतना रूपया चाहिए। मैंने कहा, 'अच्छा, कोई बात नहीं। ठीक है।' फिर दूसरे दिन उसने मुझे फोन किया कि 'माँ, मुझे रूपये मिल गये।' मैंने कहा कि वो कैसे? तो उसने कहा था कि मुझे जितने पैसे चाहिए थे उतने एक्झॅक्टली मुझे मिल गये। बहुतों को अनेकों आ रहे हैं क्योंकि परम चैतन्य जो है वो आशीर्वाद स्वरूप है। हर जगह आपको आशीर्वाद देगा , अनुभव आयें। अनेक अनुभव प्रेम देगा, हर तरह से आपको सम्भालेगा, सबकुछ है लेकिन उनकी जो चाल है न उसमें स्पीड़ आ गयी है, मुझे खुद ही समझ में नहीं आता है कि ये इतने कार्य कैसे कर लेता है। अमेरिका जैसी जगह जहाँ कि लोगों को बिलकुल भी कहना चाहिए कि सूझबूझ ही नहीं है, अध्यात्म में । इस टाईम अमेरिका में इतना बड़ा कार्यक्रम हुआ, इतने बड़े हॉल में, लोगों को बैठने की जगह नहीं थी और पाँच मिनट में सब लोग पार हो गये, पाँच मिनट में। वही फिर लॉस एंजलिस में भी हुआ। मैं हैरान हो गयी कि ये लोग इतने मूर्ख हैं इनके साथ ऐसे कैसे हो गया है? फिर कॅनडा, वहाँ भी पाँच मिनट में पार हो गये, फिर वहाँ से आगे गये वहाँ भी पाँच मिनट में पार हो गये। कुछ समझ में आया नहीं कि क्यों और क्या है? तो परम चैतन्य की कृतियाँ इतनी बढ़ गयी है। इतने तरह-तरह के हो गये हैं कि कोई समझ नहीं सकता है कि क्या बात है और ये किस तरह से घटित होता है; ये अगर कोई मुझसे पूछे तो मैं नहीं बता पाऊँगी। अब किसी ने मेरा फोटो | 10 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-13.txt लिया कि मैं चाहती हूँ कि जिस तरह से माँ के बारे में कहा जाता है कि उनके चरणों में चाँद है और सिर पर सूरज। वैसा फोटो मुझे चाहिये और वाकई में वैसा फोटो आ गया। आप लोग जिस चीज़ की इच्छा करें वो हो जाता है। इसको क्या कहना चाहिये? इस परम चैतन्य की अपनी शक्ति जो है वो इतनी सुचारू रूप से चलती है और इस कदर जानती है, हर एक की तकलीफ, परेशानियाँ बड़े प्यार से, दुलार से उसको ठीक कर देती है। इस परम चैतन्य की जो महती है आज तक आपने आदिशक्ति की पूजा की है, उसी वक्त आपने इस परमशक्ति की भी, जिसे कि परम चैतन्य कहते हैं, रूह कहते हैं उसकी पूजा की है। यहाँ पर जब मैं आईं तब मैंने उसी वक्त उसी का सब जगह पर प्रादूर्भाव देखा है और सोचा कि यहाँ कुछ न कुछ देवी ने आशीर्वाद दिया हुआ है पहले ही। और वाकई में यहाँ इतनी जल्दी, खट से जो ये कार्य हुआ, इतना बड़ा, | इतना महान, वो मेरी समझ में नहीं आया कि कैसी इतनी जल्दी क्यों हो गया। ये वही परम चैतन्य है। अब कहिये कि मेरी शक्ति है लेकिन मैं ही मेरी शक्ति को नहीं जानती हूँ ऐसा हाल हो गया है। इतने जोरों में दौड़ रही है कि समझ में नहीं आता कि अब क्या करेगी और आगे क्या करना है। मतलब ये है कि ये जो शक्ति है, ये इतनी अब आतुर है, इतनी... है कि संसार में ये जो परिवर्तन है, ग्लोबल ट्रान्सफौर्मेशन है उसको करने में बिलकुल देर नहीं करता है, पर जो इसमें आयेंगे और जो इसके लिए करेंगे वो ही प्राप्त कर सकता है । अब महाराष्ट्र की यही बात मेैं आपको बताने जा रही हैँ कि ये शक्ति कार्यान्वित हो रही है। बड़े जबरदस्त और आप लोगों को सबको चाहिए कि इसको पूरी तरह से आप लोग जान ले, समझ लें इस शक्ति को, जो कार्य करने की जो प्रणाली है उसको समझ लें और उसके माध्यम से आप काम कर सकते हैं। अगर वो आप इस्तेमाल करना शुरू कर दें तो न जाने आप कहाँ से कहाँ पहुँच जाएंगे। पर मनुष्य को पार होने के बाद भी, जब तक इसको, वो चीज़ विशेष न समझे तब तक सहजयोग फैलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। रूमानिया देश जिन्होंने कभी आदिशक्ति नाम की क्या चीज़ है सुना ही नहीं; ऐसा मैं सोचती हूँ। वहाँ सहजयोग इतने जोर से फैला है बड़ा आश्चर्य होता है कि वहाँ ५००० सहजयोगी एक शहर में है। अब तो और भी बढ़ गये। वही चीज़ इस महाराष्ट्र में होनी चाहिए और बार-बार मुझे इसकी चिंता लगी रहती है कि ये चीज़ महाराष्ट्र में क्यों नहीं होती है। क्यों नहीं सहजयोग इस तरह से फैल रहा है जैसा फैलना चाहिए। बड़े-बड़़े शहर है बड़ी-बड़ी जगह है, वहाँ ये कार्य होना है। तो आज के दिन एक बहुत बड़ी बात हुई है कि पचीस साल इस चीज़ से झूँजते -झूँजते इस दशा में हम आ गये हैं कि यहाँ पर इस जगह आप लोग आये हैं इसका गौर बढ़ाने, इसकी महत्ता बढ़ाने और इसको पुनीत करने मेरे लिए कोई शब्द नहीं है। मैं सोचती हूँ तो मेरा जी भर आता है। आप लोगों के लिए कि कहाँ कहाँ से आप लोग यहाँ आये है। अनंत आशीर्वाद! 11 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-15.txt ० र ८ डायरी १७/५/१९८० 13 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-16.txt मैं म आपको बताती आयी हूँ कि सभी सहजयोगियों को डायरी लिखना शुरू कर देना चाहिए। हर एक दिन की अनुभूतियों के बारे में, अगर आपको पता होगा कि आपको डायरी लिखनी है, तो आप अपने दिमाग को सचेत रखेंगे और दूसरा (डायरी) जब भी आपको कोई खास योजना सूझे, भूत या भविष्य काल की तो आप उसे इस डायरी में उतार सकते हैं। तो इस प्रकार से आपको दो डायरी बनाकर रखनी चाहिए । एकाग्र चित्त होने के लिए आपको अपने मन को खास तथ्यों पर बनाये रखना है। पहला तो जैसे मैंने आपको बताया है कि अगर आप डायरी बनाएंगे तो आपको पता चलेगा कि आप को याद रखना है कि, कौन-कौन सी महत्वपूर्ण घटनाएं घटी है। इससे आपका चित्त सचेत रहेगा ह और आप उन चीज़ों पर ध्यान देंगे कि क्या हुआ और कहाँ हुआ है। आपको आश्चर्य होगा जब आप अपने चित्त को सचेत रखेंगे तो आपको पता चलेगा कि, कौनसी नयी चीजे आपके पास आयी हैं जैसे बहुत ही बढ़िया योजनायें, जीवन का चमत्कार, परमात्मा के सौंदर्य के चमत्कार और उनकी मंगलता, उनकी ( परमात्मा की) महानता, उनकी उदारता , उनका आशीर्वाद - किस तरह से कार्य करते हैं, जब आप डायरी लिखना आरम्भ कर दें, चाहे वो सिर्फ दो पक्तियाँ ही क्यों न हो उसके बारे में। इससे आपका मन उसके साथ ही जुड़ा रहेगा। ये एक मानवीय तरीका है चीज़ों को करने का। आप ये भी लिख सकते हैं डायरी में कि, क्या सब घटित हुआ है। क्या आपने अपना मेडिटेशन किया या कर पायें? क्या आपको अपना मेडिटेशन करने के लिए समय मिल पाया या नहीं। थोड़ा बहुत अपने को इस तरह से तैयार करिये जैसे कि, आप कोई परिक्षा देने के लिए तैयारी कर रहे हो। उस तरह से आप एक पच्ची (नोट) बना लीजिए। क्या में सुबह को उठा? उठे थे ? फिर आपको अपने पथ पर भी ध्यान देना है कि, क्या आप मध्य में हैं या दायें या बायें ओर हैं। डायरी बनाना एक बहुत ही अच्छी आदत है। साथ ही आप ये भी देखेंगे कि किस तरह से धीरे-धीरे आपकी योजनाओं में बदलाव आने लगता है, किस तरह से नई प्राथमिकतायें बसने लगती है। किस तरह से आप वास्तविक चीज़ों को अधिक महत्व देने लग जाते हैं और अवास्तविक चीज़ों कों कम महत्व देने लगते हैं। मुझे लगता है कि ये एक बहुत ही उपयोगी चीज़ है मनुष्य के लिए कि उसे एक डायरी रखनी चाहिए। कुछ समय के बाद कुछ डायरियाँ महत्वपूर्ण वस्तु बन जाएंगी और लोग चाहेंगे कि वे देखें कि आपने क्या सब लिखा है- पाखण्डी भी नहीं होना है इसमें , न ही कुछ छिपाना है इसमें, पर बिलकुल सत्य होना चाहिए और समझ में आयें ऐसा होना चाहिए. 14 से 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-17.txt सहजयोग सबको समग् करता है .८ मुंबई, २९ मे १९७६ - (अनुवादित) 15 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-19.txt सभी साधक मेरी ओर ऐसे हाथ करके बैठें। आप में से कुछ सहजयोग से पार हुए हैं और कुछ लोग पार होने बैठे हुए हैं। मैंने आप लोगों में से बहुत से लोगों को कुण्डलिनी का अर्थ, कुण्डलिनी योग का अर्थ, हमारे भीतर कार्यान्वित विभिन्न उनके नाम एवं वहाँ विराजित अनेक देवी-देवताओं के सम्बन्ध में बहुत बार बताया है। इतना ही नहीं आप सबने इसका चक्र, अनुभव भी लिया है। तो यह उत्तम होगा कि, नये साधक पुराने साधकों से इस सम्बन्ध में जानकारी लें। अब प्रश्न यह है कि सहजयोग में पार होने के बाद; हैं। यह ऐसा ही हुआ कि 'माताजी हमने इतनी पूँजी जमा कर ली , इसका क्या करें?' कमाई करने के बाद उसे खर्च करो। आप जो पैसा कमाते हों और एकत्रित करते हो अथवा बैंक में जमा कराते हो, मेहनत करके रखते हो-तो उसके बाद उसे उपयोग में 'अब हमें क्या करना चाहिए?' यह प्रश्न बार-बार लोग मुझसे पूछते लेना चाहिए। यह मैं बता सकती हूँ कि, अब उसका उपयोग किस प्रकार करना है। और कुछ साधक तो अपनी जमा कमाई को ही उत्तम ढ़ंग से उपयोग करते हैं। पुन: जो इसे उपयोग नहीं करते हैं-माताजी, फिर उनका क्या होगा ? आज कई लोग यह बहुत कहते हैं। जो उपयोग नहीं करेगा उसका क्या होगा भाई? परमात्मा ने हमें प्रेम से चुना है। यह संसार का बहुत महान कार्य है और उन्होंने हमें चैतन्य लहरियाँ (वाइब्रेशन) दी है तथा इस बहुत महान कार्य के लिए परमात्मा ने हमें चुना है। उसका कोई न कोई तो कारण है, वो कारण हमें पता है। तो हम उस परम चैतन्य के द्वारा दूसरों को भी परमात्मा के साम्राज्य तक लेकर जा सकते हैं। और उन्हें भी इस शान्ति का आनन्द मिल सकता है। इतना कुछ नहीं तो चारो ओर व्याप्त परमात्मा की प्रेम शक्ति से | एकरूप हो सकते हैं। अब प्रश्न यह है कि, यह शक्ति जो हमारे हाथों से बह रही है, यदि उपयोग में नहीं लायी गयी तो उसे नष्ट नहीं होना चाहिए ऐसा लोगों से आग्रह है। परमात्मा के साम्राज्य में इस तरह की बातें नहीं होती कि ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए। परमात्मा का साम्राज्य जो सर्वोच्च है, उसे हम आदेश नहीं दे सकते हैं कि भाई, तुम ऐसा करो, तुम वैसा मत करो। इस संसार में अब तक जितने भी साम्राज्य हुए हैं उन सबसे उँचा उनका ही साम्राज्य है। और उनका साम्राज्य जितना प्रेममय, अतिसूक्ष्म है उतना ही दक्ष भी है। उनके समक्ष हम यदि चैतन्य लहरियों को लेने हेतू आराम से बैठें तो हमें आनन्द आता है। यदि श्री माताजी ने हमें ऐसा अनुभव दिया और ऐसा ही करते-करते तीन -चार माह तक आराम से बैठे रहें; तो श्री माताजी के वापस आने पर हम पुन: माताजी से कहेंगे कि 'माताजी, हमारे वाइब्रेशन्स गए और अब हमारे हाथों से गर्मी आदि निकल रही है। तो क्या गड़बड़ी हो गयी। क्या आपने हमारे वाइब्रेशन्स वापस ले लिये?' इस प्रकार से कई लोग बोलते रहते हैं। तो मैं उन्हें समझाती हूँ कि, परमेश्वर आपको बहुत सूक्ष्मता से रखता है। विशेषकर क्योंकि परमात्मा ने आपको इस कार्य हेतू चुना है। तो यदि आप इन चैतन्य लहरियों का उपयोग नहीं करोगे, उनका उपयोग जनसाधारण के लिए नहीं करोगे, तो परमात्मा इन वाइब्रेशन्स को वापस ले लेगा। वाइब्रेशन्स मिलने के बाद उनका उपयोग करना चाहिए । इसका अर्थ यह नहीं कि लोगों को यह लगे कि, माताजी कहती हैं कि, आप सब सहजयोग को कुछ दें। सहजयोग में देना कुछ नहीं है, बल्कि लेना ही है। तुम्हारे पास है क्या? पत्थर, कंकड, मिट्टी? सहजयोग को आप कुछ भी नहीं दे सकते। क्या दोगे? कुछ भी नहीं। उल्टा देने के बाद वह बढ़ता है (आत्मिक उत्थान) और आपके अन्दर जो प्रचंड शक्ति बह रही है, यह शक्ति एक बार यदि आपके अन्दर से बहना आरम्भ हो गयी तो आपको स्वयं लगेगा कि, आप कितने बड़े हैं और आपको परमेश्वर ने कितना सामर्थ्यवान बनाया है। परन्तु री ू० 17 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-20.txt उसका परमात्मा को कोई अहंकार नहीं है । हमारे पास ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने हजारों लोगों को ठीक किया है। उनके दिमाग में भी यह नहीं आता कि, उन्होंने कुछ ठीक किया है। ठीक किया तो किया, नहीं तो नहीं। उसका उन्हें कुछ नहीं, हो गया तो हो गया। नहीं हो रहा है, नहीं हो रहा है माताजी, हाथों से ये जाता नहीं! कोई ऐसा नहीं कहता कि, ये मैं कर रहा हूँ, कोई भी ऐसा नहीं कहता। जिस किसीको अगर ऐसा लगता है कि, ये सब 'में परन्तु आपके दिमाग में कर रहा हूँ' तो उसका सब नष्ट होगा। फिर बाद में लोग कहते हैं कि, 'माताजी, हमारी वाइब्रेशन्स क्यों चली गयी? हमने तो इतने लोगों को ठीक किया है । हमने ये किया, वो जो किया।' तो इसका कारण ये है कि अब आपको लगने लगा है कि ये सब आप ही कर रहे हैं। आप ही इसके कर्ता हैं। आप के अन्दर अहंभाव उत्पन्न हो गया। आपके दिमाग में जो 'मैं' अहंकार या प्रति अहंकार के रूप में आ गया उसे ही तो हम निकाल रहे हैं। और वो दूर किया 'मैं' अहंकार इसलिए आप परमात्मा के प्रति एकरूप हो गये हैं। अगर वहाँ 'मैं' आ गया तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। या अब ये 'मैं' कितनी सारी चीजें हैं। शुरुआत से ही आपको लगता है आप हैं- अर्थात कैसे? आपका जन्म हुआ। किसी घराने में आपने जन्म लिया। बस, आपके माता-पिता, यहीं से शुरुआत हो गयी। फिर आपका नाम, बाद में आपका देश, ये हमारा घर, ये हमारी बस्ती, ये हमारी जाति, ये और वो जिसे मिस आइडेंटीफिकेशन कहते हैं। तरह-तरह की प्रति अहंकार के बातें। जो आप नहीं वो। आप क्या हैं? आप परमात्मा की परम शक्ति हो ये बात सच है। रूप में आप वही है। पर आप बाहर रहकर 'मैं ये हूँ, वो हूँ' इन बातों को लेकर बैठे रहेंगे तो वो शक्ति प्रकाशित नहीं होगी। इसलिए रिअलाइजेशन के बाद भी 'मैं ये नहीं और मैं वही हूँ', ऐसा आपके मन में बैठ गया तो इन सबका कोई अर्थ ही नहीं क्योंकि आप वो है ही नहीं तो कहने में क्या अर्थ है। जब इस शक्ति को अन्दर से प्राप्त करेंगे और कहेंगे 'मैं सिर्फ यही हँ और कुछ नहीं -तभी ये हो सकता है। और आप स्वयं को परमात्मा का दूत मानेंगे तो आपके अन्दर से वह शक्ति जरूर बहेगी और पूरे ज़ोर से बहेगी। और उसमें बहुत प्रकार की धारायें आ गया उसे ही तो | हम बह कर आपको आपके प्रश्नों के उत्तर देगी। निकाल से लोगों का कहना है कि, 'माताजी, हम आपके पास आये हैं पर देखिए हमारी गरीबी नहीं हटी।' ऐसे बहुत से लोग हैं। अब देखिए, आप मेरे पास आये हो तो मुझ अब बहुत रहे हैं। पर या भगवान पर कोई उपकार नहीं किया। अपनी दृष्टि जरा बदलनी होगी। आप विशेष समय निकाल कर यहाँ आये हैं-ये मुझ पर नहीं परन्तु स्वयं पर उपकार कर रहे हैं। आप यहाँ पर आयें, आपको कितना लाभ हुआ, ये कितनी बड़ी चीज़ आपको मिली है! आपको ारीर क 18 ০০ 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-21.txt 19 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-22.txt अन्दर से आनन्द की अनुभूति प्राप्त हुई है। ये जो आपको मिली है वो कितनी बड़ी चीज़ है। इसमें आपने परमात्मा पर कोई उपकार नहीं किया है । पर उसके आप पर बहुत उपकार हैं। अनगिनत उपकार हैं कि, उन्होंने आपको पूरा प्यार दिया है । ऐसा कभी किसी के भी पूर्व जन्म में नहीं हुआ है। आज मेरे सामने वे सभी लोग बैठे हैं। वे भी साधू-संत लोग हैं। ये साधू-सन्त प्रपंच में रहकर भी परमात्मा के प्रति लीन हैं इसलिए ये बात घटित हो रही है। अब लोगों को सहजयोग के बारे में लगता है कि, 'ऐसे | कैसे हो सकता है? माताजी, जन्म-जन्मांतर तक कठिन समस्याओं से गुज़रने के बाद ये हो सकता है? ऐसा क्यों ?' इसका कारण है-हम हैं ना। इस सबके बारे में इन लोगों से पूछिए। इसके बारे में अब मुझे कुछ कहना नहीं है। ये सच है और हुआ है। परमात्मा आपको सब कुछ देने के लिए बैठा ही है। सच है कि, एक प्रकार से उसके उपर उपकार ही कर रहे हैं क्योंकि समझदार होकर आप आये हो । वह द्वार खोलकर बैठा है और आओ, आओ कहता है तो भी लोग आते नहीं है। उसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं है। वो आपको कुछ भी दे सकता है। आप जो कहेंगे वो देने के लिए वो तैयार है। पर वो सब लेने के लिए आपके पास वैसी झोली चाहिए जिसमें इतना समा सके। उसके पास देने के लिए बहुत कुछ है, पर लेने के लिए आपके विचारों में काफी अन्तर है। क्योंकि आपको लगता है कि हम अगर परमात्मा के पास गये तो हमें बहुत सारा सोना मिलेगा। परमात्मा के लिए सोने का क्या महात्म्य! वो आपको सोना मतलब पत्थर-कंकड़ क्या वो देंगे? परमात्मा के पास तो अमृत का भंडार है। वह तो अपने बच्चों को अमृत ही देगा। वो क्या पत्थर-कंकड़ देगा ? जिन पत्थर-कंकड़ों से कभी भी किसी को भी आनन्द नहीं प्राप्त हुआ वो ढ़ेर सारे पत्थर, कंकड़ आपको देकर क्या करना है? इसका मतलब ये नहीं कि, आपको गरीब बनाना है। ऐसा नहीं पर आपके पास जो कुछ है उसका उपभोग आप लेते ही नहीं हो। उसकी जो उपभोग बुद्धि है वो आपमें नहीं है। अब देखिए अमीर आदमी जो है वो भी वही रोना रो रहा है। गरीब भी वही रोना रो रहा है। आपके पास जो एक छोटा सा वस्त्र है उसका उपभोग लेने की, आनन्द लेने की शक्ति है क्या? नहीं है। अगर हम किसी अच्छी चीज़ दूसरे के पास देखते हैं तो लगता है 'उनके पास इतनी अच्छी चीज़़ है और मेरे पास नहीं है।' अपने पास जो है वो दिखाई नहीं देता। दूसरे के पास जो है वो दिखायी देता है। आपने ये क्यों कमाया। इसका अगर आप उपभोग ही नहीं ले सकते तो क्यों कमाया? एक चीज़ मिली तो दूसरी चीज़ कमाने के पीछे पड़े, दूसरी मिली तो तीसरी चीज़ कमाने के पीछे पड़े। वह मिली तो चौथी के पीछे पड़े । अर्थात आनन्द की आपकी जो कल्पना है वो परमात्मा की नहीं। वो आपको ऐसी चीज़ देता है उसके बाद आप कुछ माँगते ही नहीं। आपकी माँग वहीं खत्म होती है, जहाँ पूरे क्षितिज का हिस्सा खत्म हो जाता है। उस पार कुछ दिखायी नहीं देता ऐसे मध्य बिन्दु में वो आपको लाकर छोड़ देता है। स्वयं के मध्य बिन्दु पर खड़े रहकर आपको बाहर का कुछ दिखायी नहीं देता। पर ऐसा दिखता है कि हम गहनता में जा रहे हैं। आनन्द के सागर में डूब रहे हैं। सब कुछ आनन्द के लिए ही तो है। पर क्या आनन्द कहीं मिल रहा है? जिन चीज़ों से आपके अन्दर आनन्द का सागर उमड़ रहा है अगर वही चीज़ मिल जाए तो आप दूसरी चीज़ें क्यों मांगेंगे । हम आनन्द ही तो माँगते हैं। जो भी कुछ हम माँगते हैं उसके पीछे आनन्द मिलना यही उद्देश्य होता है। वो बहूत सूक्ष्म है। दिखायी नहीं देता पर वो है। तो वही आनन्द अगर आपको मिले तो दुसरी चीजें क्यों चाहिए । सहजयोग की कितनी बड़ी बात है। परसो ही मैंने इसके बारे में कहा था कि, सहजयोग ये शक्ति बहुत जबरदस्त है। परमात्मा की इस शक्ति को प्राप्त करने के बाद आप एक नये राज्य में आ जाते हो। एक नया साम्राज्य है और उस साम्राज्य का राजा स्वयं परमात्मा है। अब आपसे ये कहने की आवश्यकता नहीं है कि, आप मराठी में मत बोलो, हिन्दी में मत बोलो। आप एक ही भाषा का उपयोग करें। दस भाषा में मत बोलिए। या आपका एक ही साम्राज्य होना चाहिए, पूरे देश को एक करिए। उसमें यूनाइटेड नेशन्स को भी समाविष्ट कीजिए । सब कुछ एक ही होना चाहिए। ये सब एक ही है क्योंकि आप सब एक ही हैं । इसको सिर्फ परमात्मा ने अलग-अलग रूप दिया है कि हम अलग, आप अलग पर अन्दर से आप सब एक ही है। मतलब जोड़ने की जो शक्ति है वो अन्दर है। इसको 'आपने जोड़ा है' कहना भी गलत है क्योंकि आप अनन्त तक एक ही है। आप सब एक हैं-ये दर्शाने के लिए जो शक्ति है वो आप में जागृत होती है, अर्थात सहजयोग यूनीफायर है। इतना ही नहीं वो सबको समग्र भी करता है। अर्थात जिसे इन्टिग्रेट कहते हैं। आपके अन्दर इन्टिग्रेशन आता है। हर एक में जो अच्छाई है वो दिखने लगती है। इस संस्कृति में ये अच्छा है, उस संस्कृति (culture) में वह अच्छा है। एक दूसरे से अच्छाई लेते हैं। इस तरह जो भी अच्छाई है वो एक होकर आपके अन्दर आ सकती है। मतलब पूरे विश्व की आज जो झगड़ने की समस्या है, ये और वो सब निकल जाती ारीर क 20 ३ 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-23.txt है। और मनुष्य ऐसी स्थिति में आ जाता है, जहाँ वो देखता है, में और दूसरा कौन ? अरे, हम सब एक हैं मतलब हैं ही। मेरा कहना है आप इसे सेल्फ एक्चुअलाइजेशन कहें। अर्थात वो एक अनुभूति होती है अर्थात वो कोई लेक्चरबाज़ी नहीं कि देखो, आप सब भाई हैं, बहन हैं | 'ऐसे कैसे? आप ऐसा कैसे कहती हैं माताजी ? ऐसे कैसे?' मेरा ये कहना सही है कि आप भाई- बहन हैं। आप कहेंगे 'माताजी, ये कैसे सम्भव है?' पर वो है। भाई-बहने, सब कुछ जो कुछ भी कहेंगे। मतलब वो रिलेशनशिप ही अलग हो जाती है। क्योंकि आप अब अलग नहीं है। जब वो शक्ति आपके हाथ से बहने लगती है तब आपको दूसरे 'सहज' की अनुभूति होती है कि ये कहाँ है ? वो कहाँ है? वे किधर हैं? इसका कहाँ, क्या अटक गया है और पूरा ध्यान कुण्डलिनी पर आता है। बाहर की ओर सब ध्यान नहीं जाता है कि कौनसी साड़ी पहनी है, कौनसे कपड़े पहने हैं| उनकी कुण्डलिनी कहाँ अटक गयी है ये वो झट से कहते हैं, फिर छोटा बच्चा हो या बड़े लोग। कोई अच्छी तरह से पार आदमी रहेगा तो उसे पहले कुण्डलिनी ही दिखेगी। उसे वो सब कुछ नहीं दिखेगा। पर उसमें भी अब दो और व्यवस्था हैं, उनकी ओर ध्यान देना चाहिए। आपकी बाईं ओर एक और प्रकार की व्यवस्था है और दाईं तरफ दूसरी व्यवस्था है। बाईं तरफ की जो व्यवस्था है उसे कलेक्टिव सबकॉन्शस कहेंगे या सामूहिक सुप्त चेतना कहेंगे। और दाईं तरफ जो व्यवस्था है उसे हम सूप्रा कॉन्शस कहेंगे या अति चेतना कहें । सुप्रा-कॉन्शस मतलब मरी हुई अति चेतना है। और इधर मरी हुई सुप्त चेतना है। अपने अन्दर इस तरह और दो व्यवस्था है। इसका कारण ये है कि, जो लोग संसार में मर जाते हैं उनके लिए भी जगह चाहिए। इसमें से जो लोग ऐसे बने हुए हैं, जो आलसी हैं, कुछ काम के नहीं वो बाईं बाजू में जाते हैं। दाईं बाजू में वो लोग जाते हैं जिन्होंने बहुत ज़्यादा कर्म किये हैं। जो महत्वाकांक्षी हैं वो इस साइड़ में जाते हैं। इसमें से बहुत से लोग परलोक में जाकर धीरे-धीरे छोटे हो जाते हैं और उस दिन की राह देखते रहते हैं जब उनको जन्म लेना होता है । उसमें से ऐसे महान लोग ऐसे ड़रीसीजन लेते हैं। स्वयं निर्णय करते हैं कि कब जन्म लें, कहाँ जन्म लें। मेरे माता-पिता कौन? वगैरे, उसके बारे में आज अब मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूँगी। पर ऐसा है। ऐसे भी लोग हैं। पर जो लोग बहुत अतृप्त होते हैं। ऐसे अतृप्त आत्माओं की तो समझो लाइन लगी है। आजकल तो कलियुग में ऐसे बहुत सारे लोग हैं। वे भी आपके आसपास हैं। और वे आपके बहुत समीप रहते हैं। इसलिए जो मनुष्य इस या उस बाजू में एक सीमा के बाहर गया, आजकल लोग ऐसा कर सकते हैं। गुरु लोग जो करते हैं वो इसी प्रकार के धंधे हैं। इधर धकेलेंगे या उधर धकेल देंगे। अगर वो थोड़ा सा भी अति में गया तो वो उधर तो भी धकेला जाता है या इधर तो भी धकेल दिया जाता है। तो उसमें से एकाध व्यक्ति आपमें आ जाता है। अब ये महेश योगी है, वो ये करते हैं। वो दाईं तरफ धकेल देते हैं। दाईं बाजू में जाने के बाद क्या होता है? अति महत्वाकांक्षी मृत व्यक्ति जो अतृप्त है या आत्मिक है वो आपमें उतर जाता है। वे इनके नाम परमात्मा के नाम पर रख देते हैं। देखी उनकी होशियारी! अब आपसे कहा कि, 'आपको शिवजी का है तो शिवजी का नाम लो। आपको राम जी का है तो श्रीराम का नाम लीजिए।' अब आपको ऐसा लगेगा कि हम परमात्मा का नाम ले रहे हैं। पर ऐसे सोचना चाहिए कि, आपकी पुकार से आने के लिए भगवान आपके नौकर नहीं है। आपको उसे बुलाने का क्या अधिकार है? तब कोई तो नौकर जैसा मनुष्य आएगा या जो आपके नीचे आने के लिए इच्छुक है या आपके ऊपर आने की इच्छा है। तो ये जो सुपरकॉन्शस के लोग हैं उसमें ये लोग आ जाते हैं। आते ही सब कुछ बदल जाता है। आपका ब्लड काऊंट बदल जाएगा। आपका रहन-सहन बदल जाएगा क्योंकि | उन्होंने आपका चार्ज लिया हुआ है। आपके शरीर में ही फर्क पड़ने लगता है। उल्टा आप बहुत डाइनेमिक हो जाते हैं। आप ऐसा सोचने लगेंगे कि आपको आश्चर्य होगा कि कहाँ से विचार आते हैं। समझो, अगर ऐसा कोई मनुष्य रहेगा जिसे संस्कृत का थोड़ा भी ज्ञान नहीं पर उसमें अगर संस्कृत जानने वाले मनुष्य को ला कर बिठा दिया तो वो संस्कृत के श्लोक बोलने लगेगा । हमारे कार्यक्रम में ही एक औरत आई थीं , वो बर्तन धोने वाली औरत थी और वो संस्कृत में बोलने लगी। बहुत लोगों ने सुना है। तो ऐसे घटित हो सकता है। फिर मनुष्य को लगता है, 'वाह! वाह! हम कितने बड़े हो गये। हमारे अन्दर में ये आया, वो आया। ४-५ साल के बाद उन लोगों की स्थिति ऐसी हो जाती है कि हाथ, पैर लटलट कॉपने लगते हैं। ज्यादा से ज्यादा ४-५ सालों तक वे जीवित रह सकते हैं। उसके बाद उन लोगों का जीवित रहना बहुत कठिन हो जाता है। फिर गद्दी पर बैठकर बार-बार हिलते रहते हैं। क्योंकि सब जगह परमात्मा का साम्राज्य रहता है। उसका सामना वे नहीं कर सकते। ये भूत एक बार शरीर में से निकल गये तो सब कुछ खत्म हो जाता है। शरीर में कुछ बच भी जाये तो भी खत्म हो जाता है क्योंकि उनकी शक्ति ही खत्म हो जाती है। और इनकी री ू० 21 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-24.txt 22 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-25.txt भी शक्ति खत्म हो जाती है। ऐसी स्थिति हो जाती है और इन लोगों को किसी की परवाह नहीं होती है । बस , अपने पैसे के पीछे पड़े रहते हैं। अब दूसरी तरफ देखिये ऐसे लोग महा आलसी, खराब काम करने वाले ऐसे-तैसे लोग होते हैं। वे आपके बीच में रहते हैं। वो आपको खराब काम सिखाते हैं। जैसे कि स्मगलिंग करने का या वैसे सब काम । आपको लगेगा कि कितना ज्यादा पैसा कमाते हैं वो। (स्मगलिंग करने वालों को लगता है कि) 'भगवान सब तरफ से हमारी मदद करता है, वहाँ गया, इतना स्मरगलिंग किया, इतने रूपये मिले। उधर गया, इतना फरेब किया फिर सब ठीक ही था। गला काटा तो भी किसी को पता नहीं चला।' किसी को भी मारना हो तो मारते हैं। ऐसे हैं ये लोग। जो जी में आया वो (गन्दे) काम करते हैं ये लोग। अब इन गुरु लोगों का क्या, वे कभी आपको डाँटते नहीं, 'वाह! वाह ! ये सभी सन्त हैं।' 'स्मरगलिंग किया तो भी कोई गुनाह नहीं। बस, उसमें से मुझे मेरा हिस्सा लाकर दे दो तो फिर बस हो गया।' एकाध कोई औरत वैश्या होगी तो भी कोई गुनाह नहीं, 'तू इतना ही है कि तू जो भी कमाये उसका कुछ हिस्सा मेरे चरणों में, श्रद्धा के मुताबिक लाकर के ड़ाल दे।' ऐसा किया तो फिर वो गुरु महाराज खुश हो जाएंगे। 'फिर उनके गले में हम हार ड़ालते है बाकी कुछ नहीं। हमारा-तुम्हारा एक ही सम्बन्ध है। हम गुरु हैं। और आप सन्त। बस, सम्बन्ध इतना है कि आप जितना भी कमायें उसका कुछ हिस्सा हमें इन्कम टैक्स के रूप में दे दें। सरकार किस लिए है? सरकार को कुछ भी क्यों देना है!' तो देवी है। पर, बस अब ऐसा करने पर वो मनुष्य पकड़ा गया। फिर वो मेरे पास आया, 'माताजी, मुझे छुडाइये।' मैंने कहा, 'फिर ऐसा किया ही क्यों आपने।' 'हमारे गुरु है न। हमारे गुरु हैं,' इसका मतलब क्या है? फिर उसने रखा ही क्यों? इसे आपने गुरु बनाया ही क्यों? किस काम के लिये रखा है? जो आपकी खुशामद करता है वो कैसा गुरु! उसको आपने बताया नहीं कि ऐसा काम नहीं करना है? जो आपको कभी कुछ बताते नहीं ऐसे लोगों को आप गुरु कैसे बनाते हो?' 'नहीं, हमने बस सोचा कि, सब उसे गुरु बना रहे हैं तो फिर हम भी बना लें। बस, और कुछ नहीं किया हमने। उनके चरणों में गये थे हम तो।' परमात्मा ने तुम्हे मनुष्य का मस्तक दिया है। कितना महान है ये मस्तक-ये पता है आपको? इस मस्तक को जानवर की स्थिति से मनुष्य की स्थिति में कैसे लायें, किस तरह से उत्क्रान्ति स्टेजेस से ये घटित हुआ उसकी तो अब हम चर्चा नहीं करेंगे। ऐसे ऊँचे मस्तक को अगर आप किसी खराब मनुष्य के आगे अगर आप झुकायेंगे तो फिर परमेश्वर आपको कभी भी क्षमा नहीं करेगा । ऐसे खराब गुरु के पीछे अगर आप पड़े होंगे और सर झुकाया होगा तो फिर परमेश्वर कभी भी आपको क्षमा नहीं कर सकेंगे। बाकी सहजयोग में हर गलती को माफ करते हैं वो। ये तो मैंने देखा है। मैं अगर सामने बैठ जाऊँ तो हज़ारो लोग पार हो जाते हैं। ऐसे-ऐसे लोग जिसे लोग कहते हैं; वो ऐसा मनुष्य है, वैसा है, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्षमा किया। सबको क्षमा किया, कितने महान है वो! पर ये (गलत गुरु के चरणों में गिरना) मात्र क्षमा नहीं करते हैं वो। इसलिए अगर कोई गुरु का आदमी आता है तो मैं तो उसी के गुरु के पास जाने को कह देती हूँ। 'मुझे माफ कर दो।' क्योंकि यहाँ तीन-तीन, चार-चार वर्ष सिर फोड़ने के लिए हम तैयार नहीं है। उससे पूछा, 'आपके गुरु ने आपको क्या दिया है?' 'कुछ भी नहीं, मतलब वैसा कुछ भी नहीं। वो ऐसा है कि, हमने अपने गुरु का फोटो- वोटो रखा है।' 'अरे, लेकिन आपको फोटो रखने के बाद कुछ फर्क पड़ा है या नहीं? अब असली गुरु तो लाखो में एक होते हैं। अपने महाराष्ट्र में काफी गुरु जन हो गए हैं। इसका मतलब ये है कि, सही में हम कुछ तो विशेष हैं। ऐसा कह सकते हैं कि महाराष्ट्र भूमि में कुछ तो खासियत है। या तो फिर ये भी कह सकते हैं कि, केवल कीचड़ होने के कारण यहाँ पर कमल खिले हैं। कुछ भी कहें अपने पास तो एक खासियत है। हमारे यहाँ गुरु तो बहुत ही महान रह चुके हैं। वर्ष पहले हम कह सकते हैं कि साईनाथ जैसे महान-गुरु यहाँ होकर गए हैं। इसमें कोई शक नहीं। वे साक्षात दत्तात्रेय के अवतार थे। इसमें कोई शंका ही नहीं है। वे मुसलमान थे या फिर कोई और थे। उन्हें आपने पहचाना है-ये तो विशेष है ही। लेकिन उसके बाद आपने उनके मन्दिर बनवाये, उन्हें खड़ा किया। वहाँ पर देखो मोटे पेट वाले पुजारी को लगा दिया, वो वहाँ कैसे पूजा कर पायेगा, उनका क्या अधिकार है ? कौन है वो पुजारी? फिर उनके सामने जाकर आप धनराशि रखते हो । कुछ उन्होंने क्या कहा है! उसमें का कुछ किया भी है आपने या बस मन्दिर में जाकर बैठकर कहते हो कि, 'साईबाबा ने हमारा काम किया। 'भाई, वो तो करते ही हैं। वो हैं ही बड़े दयालु । उनके शरण में जाने के बाद वो आपका काम करते ही हैं। बस! पर आप क्या करते हो उनके लिये?' उल्टा नाम ले-ले कर वो आपसे चिढ़ गये हैं। मैंने साईनाथ के बहुत से शिष्यों को देखा है। उनको री ू० 23 প 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-26.txt मुझे उल्टा कहना पड़ता है 'इन्हें (शिष्यों को) क्षमा कर दो। उनको पता नहीं था। उनका नाम लेने के लायक भी नहीं है हम। 'कितने महान हैं वो।' मेरा काम तो दूसरा है। मैं माँ ही हूँ। मेरा कितना भी नाम लिया तो भी मुझे कोई ऐतराज नहीं। में जल्दी गुस्सा नहीं होती हूँ। पर उनका नाम लेना उसकी ओर आँख उठाकर देखना कितनी बड़ी बात है। किसी ऐसे महान लोग हमारे यहाँ हो गये हैं। जब वो जीवित थे उस वक्त उनको हमने बहत सताया, ये हमें स्वीकार करना चाहिए। चलो, ठीक है, जो हुआ सो हुआ। अब वो लोग भी नहीं रहे। पर अभी भी हम कैसा बत्ताव कर रहें है ? उनके कहे अनुसार हम बर्ताव करते हैं क्या? इस महाराष्ट्र में ही कितने ऐसे साधु-सन्त लोग हो गये हैं। किसी की बुराई करना, किसी के बारे में बुरा सोचना या किसी को अपने से कम समझना या अपने से बड़ा समझना ये भी धर्म की | बुराई सारी बातें साई भक्तों ने नहीं करनी चाहिए। बाकी लोग अगर करते हैं तो करने दें। पर आप साईबाबा का फोटो रखते हुए 'हिन्दु-मुस्लिम में भेद है' ऐसा प्रसार नहीं कर सकते। ठीक है, मुस्लिम बुरे हैं, उन्होंने सताया है। ठीक हैं हिन्दुओं ने सताया है पर जब आप उनका फोटो घर पर लगाते हैं तो आप कहाँ होते हैं? 'आप उनके चरणों के पास हैं।' साईनाथ के शिष्य होने पर करना अगर आपने कुछ किया तो भी चलेगा। लेकिन अगर आप साईनाथ के शिष्य हैं तो फिर आप महापाप सब एक हैं, आप सबको अच्छी तरह से रहना चाहिए। फिर आपका आपस में भेदभाव नहीं होना चाहिए। ये बिल्कुल सीधी सी बात है। उन्होंने स्वयं कहा है कि किसी भी धर्म की बुराई है। करना महापाप है। ऐसे कितने लोग हैं। लेकिन आप कौनसे बड़े धर्म वाले हो गये हो? आपको धर्म की क्या जानकारी है? आपने गणेशजी का बड़ा मन्दिर बनवाया तो क्या आप धार्मिक हो गये हैं? वहाँ तो गणेशजी है ही नहीं, ये आपको पता भी हैं ? तो धर्म का मतलब क्या है? ये भी सहजयोग से ही इसका ज्ञान होता है। धर्म मतलब क्या है? धर्म में मनुष्य को क्या प्राप्त होता है? धर्म से कैसे जानना है ? कहाँ है वो ? साईनाथ महान थे। मैं तो कहूँगी कि, अभी के सारे शंकराचार्यों को मैंने देखा है। एक भी शंकराचार्य नहीं है। आदि शंकराचार्य की बात अलग है। वो और साईनाथ एक है। पर बाकी आजकल के तो एक भी नहीं है। आपके जो पोप है वो भी बिल्कुल पार नहीं है। नहीं मतलब नहीं है। अब हम इसमें क्या करेंगे? अब उन्हें पोप कहें या और कुछ नाम दें पर नहीं मतलब नहीं। इसका कोई इलाज नहीं। क्योंकि हम देखकर बताते हैं और जो वहाँ है वो सब एक है। उनमें कोई | फर्क नहीं है। क्राइस्ट ने कहा है कि, 'Those who are not against me are with me मतलब कितनी बड़ी बात पहले ही उन्होंने कह दी थी । क्रिश्चन लोगों को ये सब बातें कभी भी समझ में आयेगी क्या? उनको अगर मैंने कहा तो वो कहेंगे कि नहीं। मतलब, इसका मतलब ये कि वो क्रिश्चन है। मतलब ये कौन क्रिश्चन करने वाले? उनको क्राइस्ट ने क्या अधिकार दिया है? उल्टा क्राइस्ट उन पर जितना गुस्सा हुयें है उतना आप पर नहीं। ऐसी सब धर्म की गड़बड़ी है। धर्म के नाम पर भी इतनी गड़बड़ हुई है। लोगों को तो धर्म के नाम पर से भी विश्वास उठ गया है। सबकुछ कबूल है । आज अगर सहजधर्म आपमें आया तो आपके समझ में आयेगा कि धर्म शाश्वत है, सनातन है, हर एक में वास है। सबमें वो है। इतना ही नहीं, पूरे संसार में उनका राज्य चलता है। लेकिन उसके लिए धर्म की दूसरी और उतरना है। धर्मातीत होना पड़ता है और वो दशा सहज है बहुत ही सहज है, उसमें आपको कुछ भी नहीं करना है। उसमें आपको कुछ भी नहीं बोलना है। उसे परमेश्वर अपने आप आपके हाथ में देने वाले हैं और ये कितनी बड़ी बात है | ारीर क 24 तप्य 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-27.txt और आप अंतर्राष्ट्रीय वगैरे वरगैरे जैसी हम बातें करते हैं। वो 'अन्तर', अंत:करण में हो जाए तो एकदम से फर्क पड़ जाएगा। अभी आप के जैसे बहत से मेरे बच्चे लंदन में भी हैं। अमेरिका में भी बहुत बच्चे हैं। वे आने वाले है अभी आप सब से मिलने के लिए | सभी की भाषा 'वाइब्रेशन्स' की है, दूसरी भाषा को विकसित करने की क्या आवश्यकता है? वाइब्रेशन्स की भाषा आ जाने पर दूसरी भाषा किसलिए? हमारे मोरेश्वर है उन्हें आती है ये भाषा। वहाँ इंग्लैंड में वो अंग्रेजी लड़के है। उसे भी आती है ये भाषा। वहाँ अमेरिका में होते हुए भी उसे ये भाषा आती है। एकदम से बता देते हैं कि 'ये ऊँगली आ रही है' और बराबर वहीं, वहीं पकड़ा जो अपने को इतने हुआ होता है। इस कदर उनकी साइन्स है। बड़े समझते हैं उनके लिए लेकिन अगर आप साइन्स के लोगों को बतायेंगे कि प्रेम क्या है तो उनकी समझ में भी नहीं आयेगा। अच्छाई क्या है ये बताया तो भी उनकी समझ में नहीं आयेगा। 'लज्जा' शब्द का क्या अर्थ है ये भी उनको समझ में नहीं आयेगा। उन्हें तो केवल पत्थर वगैराह समझ में आता है। लोगों को समझना तो बहुत ही कठिन काम है। पर आज जब कैन्सर जैसे रोग सिर पर आ बैठे हैं इसलिए मैं फिर से कहती हैं कि सहजयोग के सिवाय कैन्सर ठीक होने वाला नहीं है। हो ही नहीं सकता इसलिए परमेश्वर ने ये कैन्सर की बिमारी भेज दी है कि 'तू जा, इसके बगैर लोगों को समझेगा नहीं कि वे क्या कर रहे हैं।' नहीं है अभी सहजयोग से आपको क्या क्या लाभ हुआ है ये आप समझ लीजिए, मैं आपको फिर से बताऊँगी, मैंने आपको इसके बारे में बताया भी है। थोड़ेसे ध्यान में जाईये। नये जो लोग आयें है उन्हें आप पार करवा दीजिए और फिर देखें । पर सहजयोग में ऐसा नहीं है कि आज हुआ है, न (आत्मसाक्षात्कार) तो फिर हम जाएंगे नहीं कभी। सहजयोग का मजा उठाना हो तो पहले उसके साम्राज्य में जाना होगा मजे से। ये तो ऐसा हुआ कि जैसे आप मुंबई में आयें तो हैं लेकिन अगर यहाँ आप रहेंगे नहीं तो यहाँ आपको मुंबई का मजा क्या है ये आपको कैसे पता चलेगा। ये भी ऐसे ही है उसमें आपको बसना है। हमारे यहाँ लोगों ने ही प्रगति की है और दूसरे साधारण लोगों ने भी प्रगति की है। हमारा सहजयोग। बहुत आज कुछ ऐसी बातें निकली कि जब लोगों ने पूछा कि आप जैसे सर्वसाधारण लोगों के बीच ये बड़े लोग कैसे आ सकते हैं? मैंने कहा, 'बिल्कुल भी मत आओ! जो अपने को इतने बड़े समझते हैं उनके लिए नहीं है हमारा सहजयोग । इसमें आना है तो यहाँ आकर बैठें। अगर एक कोली हो, एक राजा या मेहतर हो या कोई बड़ा भारी ऑफिसर हों और अगर उन्हें परमेश्वर के सामने होना है तो उन्हें सहजयोग मिलेगा। उन्हें मुफ्त में देने के लिए हम यहाँ बैठे नहीं है। आपको अगर अपना इतना ही घमंड है तो हम आपको देने (सहजयोग ) आपके बंगलों पर आकर देने को तैयार नहीं हैं। हैं घमंड तो बैठे रहो । उन्होंने कहा कि, 'वो लोग (बड़े लोग) आने को तैयार नहीं हैं।' मैंने कहा, 'मत आने दो।' ऐसे लोगों को लेकर मुझे क्या करना है ? जिन लोगों के दिमाग में ऐसे क्षुद्र विचार आते हैं वो खुद भी क्षुद्र होते हैं। ऐसे लोग क्षुद्र होते हैं न कि वो जो जन्म से ही क्षुद्र रहते हैं। आज लोग उनके (श्रीमंत लोगों के) पैरों पर नहीं जाने वाले हैं । आपके पैरों पर आने वाले हैं और उन्हें मैंने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में समझाया है कि ऐसे लोगों को हमारे सहजयोग का कोई फायदा नहीं होने वाला है। उनसे कहिये, 'आप बैठो और अपने मोटर गाड़ी को सम्भालो।' मतलब ये नहीं कि मैं श्रीमंत लोगों के खिलाफ हँ। बहत से श्रीमंत आते हैं वो आकर बैठते हैं और कहते हैं कि, 'माताजी, हमें दीजिए पर ये है कि, हम तो बहुत बड़े (लोग) हैं। री ू० 25 ो भप्य 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-28.txt मैंने कहा, 'तो फिर बैठो रहो ।' ऐसी विचित्र कल्पना लेकर के लोग यहाँ आते हैं। ऐसे में आपको अपनी समझदारी से चलना है। समझदारी से कार्य करना है। समझदारी तो बड़ी मुश्किल से आती है मूर्खपना तो बड़ी जल्दी से आ जाता है। ऐसे हालात में आपको अपने समझदारी को लेकर आगे बढ़ना है । मैं माँ हूँ। मैं आपकी मूर्खता और खराबियों के बारे में बताने वाली हूँ। उसे आप मत करिये, इसी में आपकी भलाई है । मैं कोई गुरु नहीं हूँ। मुझे आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। मैं तो केवल आपकी भलाई और कल्याण चाहती हूँ। आपके हित के लिए जो अच्छा है वही में आपसे कहँगी । इसका आप कोई बुरा न माने। अभी कुछ नये लोग आये हुए हैं। उन्हें मैं बता देती हूँ कि अगर किसी को कुछ खराब लग जायेगा तो फिर वो तो गये काम से। वाइब्रेशन्स चले जाएंगे। मैं नहीं निकालती हूँ इसे। (वाइब्रेशन्स को) आप को जो अभी आवाज आयी है वैसी ही आवाज 'ओम' जैसे हम कहते हैं उनकी होती है। समझ में आया क्या। मतलब ये जो एनर्जी बहती है और जब वो बहती है पर पूरी तरह से चैनलाइज्ड़ नहीं हुई होती है तब ऐसी आवाज आती है। जब यह चैनलाइज्ड़ होने लगती है तब ऐसी 'ओम' की आवाजें कभी अपने कानों में या फिर कभी अपने सिर में आने लगती है, तभी ये समझ लेना चाहिए कि एनर्जीपूर्ण तथा एड़जेस्ट और चैनलाइज्ड़ नहीं हुआ है इसलिए ऐसी आवाजें आती हैं । जब ऐसी आवाजें आती है तब आपको समझ लेना चाहिए कि वो एनर्जी अपनी अभी तक व्यवस्थित बैठी नहीं है । उसे ठीक से फिक्स करना पड़ता है। फिक्स करने का मतलब स्क्रू से नहीं। पर मन की स्तक्रू से फिक्स करना पड़ता है। अगर आपको इस मन की स्क्रू को फिराना जो आ जाएगा, हालांकि हमारी तो मशीन ही अलग है, पर फिर भी आप अगर सोचकर के अपने मन के थोड़े भी स्क्रू अगर फिराने लग जाऐँ तो फिर ये जो वेस्टेज है एनर्जी का जो आपको कानों में सुनाई देती है वो पूरी तरह से निकल जाएगा और वो मौन हो जाएगा। स्वर मौन हो जाएगा। अभी तो कोई एनर्जी का स्वर आया नहीं कि हम कहते हैं कि बहुत बेस्ट पोझिशन में आया है। वैसे ही जब ये एनर्जी मौन स्थिति में आ जायें तो समझ लेना चाहिए कि हम अब उस स्थिति में हैं वहाँ हम उसका उपयोग कर सकते हैं, समझे क्या ? ओम का जो अर्थ है, लोग बोलते है कि 'अन्दर से ओम की आवाज आती है, सात तरह की आवाजें आती हैं ।' ऐसा कहना ठीक नहीं है। ऐसी आवाज नहीं आनी चाहिए। इसमें से बहुत सारी आवाजे आती हैं। ऐसे आवाज आना मतलब मशीन बिगड़ा हुआ है। ये बिगड़ा हुआ नहीं है पर इस मशीन में से आने वाली जो शक्ति है वो ठीक तरह से अॅडजस्ट नहीं हो रही है । ये लोग कहते हैं कि 'ओम' का आवाज आना मतलब उन्होंने बहुत कुछ पा लिया है, लेकिन ऐसा उनका मानना ठीक नहीं है, उनका आधा-अधुरा नॉलेज है। इसी वजह से उनकी समझ में नहीं आता है कि वे कितने गलत है। असल में आवाज वगैराह नहीं आनी चाहिए पर अगर शुरूआत में आवाज आयी तो कोई बात नहीं। अभी एनर्जी आने लग गयी हैं, अॅडजस्ट करके लेना है (शक्ति को)। ये क्या है-ये आवाज क्यों आती है? इसे क्यों अॅडजस्ट करना चाहिए? अॅडजस्ट करने पर ही हमें समझ में आता है कि ये अभी ठीक तरह से आने लगी है, इस एनर्जी को अभी पाना चाहिए, लेने के लिए या देने के लिए, दोनो के लिए। अब ये माइक देखिए । अगर इस में से आवाज (कोई और आवाज) आती है तो मेरी आवाज कैसे सुनाई देगी! ऐसे में अगर अॅडजस्टमेंट में जरासा भी फर्क पड़ता है तो परमात्मा की आवाज और उनकी शक्ति अपने अन्दर से कैसे निकलेगी ? ऐसे में मशीन को पूरी तरह से मौन हो जाना चाहिए । उसी तरह आपकी शक्ति को भी अन्दर से मौन हो जाना चाहिए। मौन होना मतलब सर्वश्रेष्ठ को हासिल करना। अभी कुछ दिन पहले हठयोग पर मैं एक पुस्तक पढ़ रही थी। उसमें लिखा हुआ है कि इस तरह की आवाज़ अन्दर से आती है। इसका मतलब क्या है? मशीन बिगड़ा हुआ है। मशीन हमने बनाई है इसलिए हमें मालूम है कि मशीन खराब है, इसलिए इन लोगों का मत सुनो। वो कुछ ठीक नहीं है। आवाज़ आती है मतलब मशीन खराब है और शक्ति अॅडजस्ट नहीं हो रही है। इसका अनुभव आपको भी आएगा । जब आप बिमार होंगे, आपको कुछ तकलीफ होगी तभी आपको इस तरह की आवाज़ें सुनाई देगी। सिर में तकलीफ होने लगेगी। जब आप पूरी तरह से स्वस्थ होंगे तब आपके अन्दर ये 'मौन' रहेगा। मौन और शान्ति ये दोनो ही आपके अन्दर स्थापित होंगे। इस परमेश्वर का आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! ारीर क 26 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-29.txt माताजी का माता- आजजो बात कही है वो समझने की बात है कि, हम लोग अपने बच्चों पर जो जबरदस्ती, जुल्म करते हैं उसे हम जुल्म नहीं समझते हैं| पर ये बच्चे सब साधू-संत आपके घर में आये हैं। तो आपको उनकी इज्जत करनी चाहिए। उनको सम्भालना चाहिए । उनको प्यार देना चाहिए, जिससे वो पनपे, बढ़े। उनको स्वतन्त्रता देनी चाहिए। वो कभी गलत काम कर नहीं सकते क्योंकि वो संत -साधू है। लेकिन आपकी दृष्टि में फर्क है। आप हर जगह अपना ही एक, मराठी में कहते हैं कि 'मनगटशाही' या 'हिटलर शाही' सब 'शाही' लगाते हैं। इस चीज़ में मेरे खयाल से मुझसे बढ़कर कोई नहीं होगा, मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है बच्चों को जरा भी कुछ कहना। मुझे पसन्द नहीं है। अगर कोई ऐसी वैसी बात हो तो उसको समझायें, पर इन बच्चों को पनपना चाहिए । यही इस देश के कल के नागरिक हैं और यही बच्चे आपको करामात करके दिखाएंगे। इन लोगों को, बच्चों को इस कदर स्वतन्त्रता दी तो उस स्वतन्त्रता से आज मैं देखती हूँ कि कितने बढ़िया हो गये हैं । हालांकि खराबी भी बहतों की हुई है। अब आपके पास संस्कृति का आधार है। उस आधार पर इन बच्चों को आप सम्भालें, उनको समझाईये कि हमारी क्या संस्कृति है, तो बहुत सी बातें सीधी-सरल हो जाएंगी। हमारे देश के बारे में, वहाँ जो महान लोग हो गये हैं उनके बारे में किसी को कुछ मालूम ही नहीं । ও कोई कुछ जानता ही नहीं कि कितने त्याग से हमने स्वतन्त्रता को पाया है। इन बच्चों को बताना चाहिए। घर में फोटो लगाने चाहिए जो बड़े-बड़े नेता हो गये हैं। कैसे-कैसे संग्राम हुए हैं वो समझाने चाहिए, स्कूलों में वो समझाना चाहिए, उसी तरह का वहाँ वातावरण होना चाहिए। हम देखते हैं कि बच्चों को सिनेमा एक्टर, एक्ट्रेस सब मालूम है लेकिन अपने यहाँ के लोग जिन्होंने इतना सब त्याग दिया है, इतना सब करके अपने देश को स्वतन्त्रता दिलायी है उनके बारे में तो जानते ही नहीं है। ये बड़ा भारी हमारे यहाँ विरोध है सो बच्चों को बेकार की बातों से तो अच्छा है कि आप उन्हें समझायें, ये बतायें कि तुम जिस देश में पैदा हुए हो उस देश के तुम धरोहर हो कि तुम्हारे लिए क्या-क्या किया गया है, कितना त्याग, किस तरह से किया गया है तब उनके अन्दर देश भक्ति जागेगी और कल के यहाँ जो नागरिक होंगे वो देशभक्त होंगे, वो है तो सहजयोगी, आसान है ऐसे लोगों को देशभक्ति में उतारना, आसान है। आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद! 27 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-30.txt पिता के निए सन्देश ३१ दिसंबर १९९८ २ क ्र २ं ह० ে 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-31.txt हुार और हुँट मह अहकार १७/५/१९८० 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-32.txt म हत् अहंकार जो है बाईं तरफ का है, अंध:कार है, तमोगुण और भूतकाल से होता है| जिन्हें बायें बाजू की समस्या है उन्हें भविष्य के बारे में सोचना है- इससे इनमें सन्तुलन आता है। उदाहरण के लिए जो व्यक्ति आलसी है उसे काम करने में लग जाना चाहिए। अपने मन को भविष्य की योजना बनाने में व्यस्त कीजिए; क्या करना है? कहाँ जाना है? कैसे करना है। ऐसे करने से आप बाईं तरफ की खिंचाव से बचेंगे और सन्तुलन में रहेंगे। अब अगर किसी व्यक्ति की दाईं बाजू बहुत ही अधिक सक्रिय है तो उसे सन्तुलित करना है। बाईं तरफ से नहीं पर 'मध्यमार्ग' से। याने कि अगर कोई व्यक्ति बहुत ही अधिक मेहनती है तो उसे साक्षी भाव प्रस्तावित करना होगा । अगर आप कोई काम करने लगे, कोई भी कार्य, साक्षी भाव से उसमें आपको उतरना है और करना है। आप जो भी करें, बस ये कहे कि 'मैं इसे नहीं कर रहा हूँ' इस तरह से आप अपना आत्मसाक्षात्कार कर सकते हैं। साक्षी भाव में रह कर के आपको अपना कार्य करना है। तो ये बाईं बाजू की भरपाई दाईं बाजू की तरफ की ओर जाने से होती है और दाईं बाजू का मध्य में जाने से होता है। बायाँ पक्ष तमोगुणी है। दायाँ पक्ष रजोगुणी है। मध्य पक्ष सत्वगुणी है। ये फिर भी तीन गुणी है। ये वो स्थिति नहीं है जिसे हमें हासिल करना है। अपनी स्थिति को जब हम जान लेते हैं कि कौनसा पक्ष कमजोर है तो फिर हमें उसके मृताबिक अपने जीवन की शैली को बना लेना चाहिए। उदाहरण के लिए अगर आप बहुत आलसी हो, आप सुबह को उठ नहीं पाते हो, रात में बहुत ही निद्रा जनक लग रहा हो, अगर बिलकुल भी स्फूर्ति न हो तो फिर आप को सोचने लग जाना चाहिए कि इन सबके लिए आप क्या कर सकते हो। आप किस तरह से उठेंगे? पूजा करने का विचार भी बहुत अच्छा होगा। ऐसा कुछ करें कि, जिसमें कोई क्रिया हो, कार्य हो । कार्य करने में लग जाईये। ऐसी क्रिया जिससे आप सहजयोग में चले जाएं, साथ ही साथ आप अपनी दिनचर्या में अपनी मनोदशा को भी बदल सकें और दाईं पक्ष की ओर आ सकें और फिर आप अपने को सत्वगुण की ओर कर सकें और सब कुछ देखें। अब दूसरी चीज़ ये हो सकती है कि, आप जब उसके दूसरी तरफ आते हो जो क्रिया है तो होता ये है कि आप उसे करने लग जाते हो कि, जिसके वजह से आपका ध्यान उसमें लगा रहता है। इससे आप गलत चीज़ों में उलझने से बचते हो और आप कुछ करने में लग जाते हो। आप जाकर कुछ झाड़ लगा सकते हो, फूल लगा सकते हो या फिर आप चाहे तो खाना बना सकते हो, कुछ काम कर सकते हो। काम में लग जाओ। इससे आपको मदद होगी। कोई भी काम कर लो। पर काम करते वक्त तकलीफ ये होगी कि, आपमें अहंकार उत्पन्न होगा। इसलिए जब आप में अहंकार उत्पन्न होता है तो आपको ये कहना है कि, 'जनाब, आप इसे नहीं कर रहे हो। ये आप नहीं कर रहे हो। ये करना नहीं होता है। आप नहीं कर रहे हो ।' अगर आप इस तरह से अपने को समझाते रहोगे तो ये जितनी भी अहंकार से होने वाली तकलीफें है वो नहीं होती है। इस पक्ष पर इस तरह का स्वभाव आपने अपना लेना चाहिए। सत्वगुण पर आप स्वीकारने लग जाते हो। आप बिलकुल भी नरम पड़ जाते हो। आप नरम किस्म के व्यक्ति बन जाते हो। ऐसे में आप किसी की बुराई नहीं करते बस साक्षी भाव में जाकर सभी चीज़ों का आनन्द लेने लग जाते हो। .. 30 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-33.txt पाउँड केक ३0 क सामग्री :- सारी सामग्री साधारण तापमान पर 250 ग्राम मैदा, » छोटा चम्मच बेकिंग पाऊडर, 250 ग्राम बिना नमका का मक्खन, 250 ग्राम चीनी 250 ग्राम अंडे, » छोटा चम्मच वनीला एसेन्स, करीब 125 मि.ली.दुध विधि :- 1) केक टिन में हल्की चिकनाई लगाकर मैदा छिड़कें (22 सें.मी.केक टिन)। ओवन को 180 डिग्री सें. (350 डिग्री फै.) पर 'प्री -हीट' करें। 2) मैदा व बेकिंग पाऊडर एक साथ छान ले। 3) एक कटोरे में मक्खन को क्रीम के समान फेटें। चीनी डालकर पिघलने तक फेंटते रहें। 4) एक- एक करके अंडे डालें और लगातार फेंटते रहें। जब तक चीनी पूरी तरह पिघल न जाए फेंटते रहें और मिश्रण झाग के समान फूल न जाए। 5) वनीला एसेन्स डालें। मैदा व बेकिंग पाऊडर डालें। अब दूध डालकर धीरे-धीरे मिलाएं। (दध मैदे के हिसाब से कम या ज्यादा डाल सकते हैं।) 6) इस मिश्रण को केक टिन में डालकर 40 मिनट बेक करें। 7) एक पतला तिनका केक के बीचोंबीच डालकर जाँच करें। यदि तिनके के साथ केक चिपकता नहीं है तो इसका अर्थ है कि, केक तैयार है। ठण्डा होने दें, एक जाली पर पलट दें ताकि पूरी तरह ठण्डा हो जाए, फिर परोसें। सुझावः यदि आप चाहें तो 50 ग्राम किशमिश, कुटी हुई खजूर, कुटे हुए मेवे, रवेदार फल डाल सकते हैं। इन सबको एक बड़े चम्मच मैदा के साथ एक प्लास्टिक बैग में डालकर हिलाएं और केक के मिश्रण में डालें। 31 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-34.txt े प्रकाशक जिर्मल ट्रेन्सफोर्मेशन प्रा· लि. प्लॉट न.८, चंद्रगुप्त हौसिंग सोसायटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फौन 8 ०२०० २५२८६५३७, २५२८६०३२ B-mail : sale@nitl.eo.in ৪ 2009_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-35.txt प्री लि ১ १ ४ ्र ० २ आपने कभी कमल को खिलते हुए देखा है! ये थीरे से खुलता है। फिर उसमें से सुगन्ध फैलती है, बहुत ही प्रतिडित तरीके से। ऐसे ही पुष्प को आदिशक्ति की चसण कमलों में चढ़ाया जा सकता है। १३/९/१९८४