चैतन्य लहरी हिन्दी सितम्बर-अक्टूबर २०१० हे छ े Happy Vijay ह ca Dasami ८६७ इस अंक में श्री गणेश.....४ श्री गौरी ..... ७ श्री महाकाली पूजा..... ८ महाकाली की शक्तियाँ ...१४ श्री सरस्वती.....१८ श्री माताजी द्वारा दिये गये सलाह .....२२ 31 श्री शक्ति पूजा .....२४ आपका उत्तरदायित्व .....३४ স স म १ ो १ १ सपभ ॐ अब ये चरण देखो.... क्या आपको पूरा विश्व दिख रहा है ? आपका पता नहीं, मूझे तो दिख रहा है । 02১৮/6/১b .......श्री गणेश का कार्य महत्वपूर्ण है क्योंकि वही आपकी प्रगति करते हैं, आपके चक्रों को करते हैं, उनमें प्रकाश डाल देते हैं, और हमेशा प्रकाश की ओर अग्रसर करते हैं। जो सूक्ष्मता आपने सहजयोग में प्राप्त की है, यह गणेश जी का ही काम है। शुद्ध ..जिस तरह से मैंने गणेश को बनाया है , उसी तरह आपको आत्मसाक्षात्कार देकर मैंने बनाया है, उसमें कोई फर्क नहीं है। एक ही तरह से, एक ही ढंग से बनाया है। आपमें यदि भोलापन, सादगी, सरलता और विश्वास हो तो ऐसे निर्मल अंतःकरण से श्री गणेश की जागृति हो सकती है। सहजयोग जो करते हैं उनको याद रखना चाहिए कि हमें निराकार में उतरना है। साकार में रहते हुए आप निराकार के पूरे माध्यम बनने वाले हैं, तो सर्वप्रथम हमें अपने अन्दर गणेश को जगाना है। केवल पूजा मात्र ही नहीं, उसे अगर जगाना है तो सर्वप्रथम हमारे अन्दर शुद्धता आनी चाहिये। श्री गणेश की तरह मनुष्य को अपना चित्त स्वच्छ कर लेना चाहिए। चित्त स्वच्छ करने का तरीका ये है कि चित्त कहाँ है?अगर आपका चित्त परमात्मा में है तो शुद्ध है क्योंकि चैतन्य आप में बहु रहा है। श्री गणेश की शक्ति अगर अपने अन्दर जागृत करनी है तो सबसे प्रथम जानना चाहिए कि हमें निराकार की ओर चित्त देना चाहिए, चैतन्य की ओर चित्त देना चाहिए और जो चैतन्य हमारे अन्दर बह रहा है उसको देखना चाहिए। अपने अन्दर वो गांभीर्य, श्री गणेश की जो शक्ति है वो गांभीर्य , अपने अन्दर वो आनंद का गांभीर्य लायें.....हम गौरी माँ की सहायता से उसकी शक्ति के साथ उस निराकार में उतरें जहाँ हम पूर्णतया आनंद में रहें और हमारे रोम रोम में वो शक्ति ऐसी बहे कि लोग दुनिया में जाने कि सहजयोग ने क्या कमालात किये। प.पू.श्री माताजी, १८-९-८८, बम्बई, चै.ल.खंड ५ अंक ९-१०, १९९३ .. सहजयोगी को पूरी तरह से, हृदय से मानना पड़ेगा। इस बात को आप गाँठ बाँध कर रखिये कि श्री गणेश का स्थान है मूलाधार चक्र पर, पर जब वे आपके हृदय में आ जाते हैं तभी आत्मस्वरूप होकर के वे चैतन्यमय होते हैं। आत्मा जो है वही श्री गणेश है और वही हमारे हृदय में प्रकाश देता है, तो वही चैतन्य है। जिसने श्री गणेश को अपने हृदय में बिठा लिया, वह तो हर समय निरानंद में डूबा रहता है, उसे और चीजों की परवाह नहीं रहती और रिद्धि - सिद्धि सब उसके पैरों के पास .... श्री तो गणेशतत्व आज्ञाचक्र के स्तर पर आकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म हो जाता है। आज्ञा चक्र पर यह जाना जाता है कि अब इसका आध्यात्मिक आयाम है। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, १८-९-१९८८ जैसा मैंने कहा कण-कण में श्री गणेश विद्यमान हैं, परन्तु आपको उन्हें जागृत करना होगा। उदाहरण के रूप में आपने चैतन्यित जल देखा है। चैतन्यित का क्या अर्थ है ? इसका अर्थ है कि जल में गणेशतत्व को जागृत किया जा रहा है। ये जल जब आपके पेट में जाता है, आँखों में जाता है, या कहीं अन्य आप इसे डालते हैं तो यह कार्य करता है। जिस चीज़ में आप इसे डालते हैं वहाँ यह गणेशतत्व को जागृत करता है। गणेशतत्व जागृत होकर चीज़ों को समझता है, इनका आयोजन करता है, इन्हें क्रियान्वित करता है। जब आप बन्धन देते हैं तो चैतन्य को गतिशील करते हैं। प.पू.श्री माताजी, ८.८.१९८९ श्री गणेश हमारे सबसे बड़े सहजयोगी हैं। उन्हें कभी योग अपनाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वे तो सदैव योग में होते ... .... हैं, वे हमारे महानतम योगी हैं। उनमें देवताओं का महानतम पद प्राप्त करने की योग्यता है। मैं तो कहूँगी कि वे हमारे महानतम देव हैं, और वास्तव में उनकी पूजा करनी चाहिये। उनके माध्यम से सभी देवों की पूजा हो जाती है और वे प्रसन्न होकर आशीर्वाद देने लगते हैं। प.पू.श्री माताजी, २५.९.१९९९ इसलिए सर्वप्रथम हर स्थान पर मनुष्य को श्री गणेश को स्थापित करना होता है। प.पू.श्री माताजी, बैंगलोर, १३.२.१९९० प्रत्येक चतुर्थी को, जो कि महीने के चौथे दिन पड़ती है, श्री गणेश का जन्म दिन मनाया जाता है। इस विशेष दिन को अंगार की चतुर्थी अथवा कृष्णपक्ष की चतुर्थी कहते हैं। मंगलवार के दिन आयी इस चतुर्थी का विशेष महत्व होता है। अंगारिका क्या है? श्री गणेश जलते हुए अंगारो को ठंडा कर देते हैं। कुण्डलिनी भी एक ज्वाला है, इसका उत्थान धधकरती ज्वाला सम है। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है और ऊपर की ओर जाने वाली कोई भी चीज़ पृथ्वी की ओर खींचती है, केवल अग्नि ही गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर को जाती है। श्री गणेश दो प्रकार से आपके अन्दर की अग्नि को शान्त करते हैं, वे कुण्डलिनी को शान्त करते हैं, सभी प्रकार के अवगुणों के बावजूद भी व्यक्ति के लिये वे आत्मसाक्षात्कार की प्रार्थना कुण्डलिनी से करते हैं। वे कुण्डलिनी के बालक हैं और आपके अन्दर वे ही शिशु हैं। इस सम्बन्ध के कारण वे कुण्डलिनी को समझा पाते हैं कि आप मेरी माँ हैं और कृपया इच्छापूर्ति में मेरी सहायता कीजिये । तब कुण्डलिनी शांत होकर सोचती है कि मेरे बच्चे की इच्छानुसार मैं ऊपर उठूँ। श्री गणेश कुण्डलिनी को बताते हैं कि आप अपने बालक को जन्म दे रही हैं और इस समय आपको क्रुद्ध नहीं होना है। ये कहकर वे कुण्डलिनी को शांत करते हैं । कुण्डलिनी श्री गणेश की शक्ति द्वारा ही उठती है। कुण्डलिनी में जो शोले उठते हैं उन्हें शीतलता भी श्री गणेश ही प्रदान करते हैं, अतः एक प्रकार से वे आपके क्रोध को भी शान्त करते हैं।..... .......जब कोई राक्षस या दुष्प्रवृति मनुष्य आपको परेशान करता है तो गणों के स्वामी उनका विनाश करते हैं। आपको कुछ कहना या करना नही पड़ता। ये गण आपके साथ हैं। प.पू.श्री माताजी, गणपति पुले, महाराष्ट्र, २१.११.१९९१ सहजयोगियों का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है कि उनका गणेशतत्व ठीक रहे, इसके बिना तो पूरा सहजयोग आन्दोलन लड़खड़ा सकता है। स्त्री एवं पुरुष दोनों को ही अपनी जीवन शैली में श्री गणेश को सम्माननीय स्थान देना है। यही सर्वोपरि है, हर समय हमें याद रखना है कि श्री गणेश के आशीर्वाद से ही हमें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ है। | प.पू.श्री माताजी, २७.७.१९९३ ......अब आप विवेकपूर्ण कार्य करें क्योंकि अब आपके अन्दर श्री गणेश जागृत हैं और वे पूर्णतया विवेकशील हैं, विवेक के करते हैं। दाता हैं। यही कारण है कि वे असुर विनाशक हैं। हमारी चेतना को उन्नत करके वही हमारे सभी कष्टों को दूर .दिशाज्ञान श्री गणेश जी की देन है। श्री गणेश ही सबके अन्दर का चुम्बक हैं। हमारे अन्तःस्थित यह चुम्बक कपटी व्यक्तियों को हमसे दूर भगा कर निष्कपट और अबोध मनुष्यों को हमारी और आकर्षित करता है। निष्कपट बनने का प्रयत्न कीजिए | चातुर्य हमारे लिये आवश्यक नहीं। चातुर्य आपका मानसिक दृष्टिकोण है तथा अबोधिता आपका अन्तर्जात गुण है जो कि सर्वव्यापी | शक्ति से सम्बद्ध हैं। प.पू.श्री माताजी, आस्ट्रेलिया, २६.८.१९९० श्री गणेश की शक्ति आपमें निहित है, आपको उसका उपयोग करना है। अपने हृदय में श्री गणेश से दया, करुणा तथा क्षमा की याचना करते विशेषतया उनकी पूजा कीजिए | आइए हम सब अपने पूर्व पाखण्डों, बंधनों, दुर्विचारों तथा दोषपूर्ण जीवन को ...... अपने अन्तस में प्रवाहित होने दें। आइए हम इन गुणों को उद्घाटित करें। हुए, वायुविलीन हो जाने दें तथा अपनी अबोधिता को, धरा माँ पर बैठकर श्री गणेश अथर्वशीर्ष पढ़ें तथा श्री गणेश का ध्यान करें। आपकी सभी समस्याओं का अन्त हो जायेगा। प.पू.श्री माताजी, २६.०८.१९९० 6. श्री गौरी गौरी श्री गणेश की माँ है और अपनी पवित्रता की रक्षा हेतु उन्होंने श्री गणेश को जन्म दिया। इसी प्रकार कुण्डलिनी ही गौरी हैं और हमारे मूलाधार चक्र पर श्री गणेश विराजमान है। मूलाधार गौरी कुण्डलिनी का निवास है और श्री गणेश कुण्डलिनी की रक्षा करते हैं। वे हमारी पवित्रता (अबोधिता) के देवता हैं। केवल श्री गणेश ही इस अवस्था में रहने के लिए समर्थ हैं क्योंकि (पैल्विक) श्रोणीय-चक्र हमारे मल-मूत्र त्याग क्रियाओं को देखता है और वातावरण की गन्दगी के प्रभाव-मुक्त, केवल श्री गणेश ही वहाँ रह सकते हैं। वे इतने शुद्ध तथा अबोध हैं।......कुण्डलिनी श्री गणेश की कुँआरी माँ हैं। लोग माँ मेरी के विरुद्ध बोलने लगे हैं कि उन्हें कैसे पुत्र हो सका। इसका कारण हमारी नासमझी है कि परमात्मा के साम्राज्य मे सभी कुछ सम्भव है। वे इन बातों से ऊपर हैं। तथा पवित्र हैं। श्री गणेश यदि दुर्बल हों तो कुण्डलिनी को सहारा नहीं दिया जा सकता। कुण्डलिनी के जागृति के समय श्री गणेश अपने सारे कार्य रोक देते हैं। मैं कभी-कभी नौ-दस घंटे एक ही गौरी पूजा, ऑकलैण्ड, ८.४.१९९१ स्थान पर बैठी रहती हूँ, उठती ही नहीं। गौरी की शक्ति का सम्मान होना चाहिए क्योंकि वही हमारी माँ हैं, उन्हीं ने हमें पुनर्जन्म दिया है। वे हमारे विषय में सब कुछ जानती हैं, वे अत्यंत सुहृद तथा करुण हैं। उत्थान का तथा चक्रभेदन का सारा कष्ट स्वयं झेल कर वे हमें पुनर्जन्म देती हैं। क्योंकि वे सब जानती हैं, सब समझती हैं, सारी व्यवस्था करती हैं और आपके अन्तर्निहित सारे सौन्दर्य को वे सामने लाती हैं । होना है साक्षात्कार तथा ज्ञान प्रदान करने के लिए हमें उनके (गौरी) प्रति कृतज्ञ तथा याद रखना है कि हर समय हमें उन्हीं को ही जागृत करना है, उनका विस्तार करना है और उन्हीं की पूजा करनी है जिससे हमारा साक्षात्कार तथा उत्थान अक्षत रह सके। केवल उत्थान ही पुरे विश्व को परिवर्तित करेगा अतः आप गौरी से प्रार्थना करें। शुद्ध करना, आपके हृदय तथा मस्तिष्क को शुद्ध कर आपके योग को अमरत्व प्रदान करना, उन्हीं का कार्य है। ऐसा होने पर ही हम परमात्मा के प्रेम की सुन्दर शक्ति के बहाव का अनुभव अपने अन्दर कर सकते हैं। इसके लिए हर आवश्यक कार्य आप करें, पूर्णतया सामूहिकता में रहें, कुछ भी बलिदान करें और सहजयोग के प्रचार के लिए भी प्रयत्नशील रहें, क्योंकि जब आप सहजयोग को पेड़ की तरह फैलाएंगे तो इसकी गहनता भी बढ़ेगी। यह कार्य उतनी ही सुन्दरता से होना चाहिए जितना कुण्डलिनी का जागरण। कुण्डलिनी ने आपको कोई कष्ट नहीं दिया, आपके लिए कोई समस्या नहीं बनाई, इससे हमें शिक्षा लेनी है। मैं आप सबसे अनुरोध करूंगी कि अपनी कुण्डलिनी पर चित्त को रखें, उसे हर समय रखें और अपनी चैतन्य लहरियों को बनाये रखें। न केवल अपनी लहरियों को ठीक रखें जागृत बल्कि दूसरों के प्रति अपने दृष्टिकोण में भी परिवर्तन लाएं। उनकी कमियों की बात न करें, उनकी अच्छाइयों को देखें तथा यह देखें कि भला कार्य करने की कितनी सामर्थ्य उनमें है। कुंआरी होते हुए भी गौरी कितनी विवेकपूर्ण है। इसी प्रकार हमें भी विवेक तथा संवेदनशील बनना है। 00000000OOO0 000 00000 £0 n0 = 0 ০0 =0০Q =0= 0- ०= 0০0 ০ ০0 =0 =0 = 0= ০ ০০ ० 'महाकाली श्री पूजा पेरिस, ११.७.१९९३ अआः जि हमने देवी की पूजा करने का निर्णय किया है। इस बार हम आदिशक्ति, कुण्डलिनी, सरस्वती या महालक्ष्मी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। हम महाकाली की बात कर रहे हैं। यह देवी सर्वप्रथम आकर गौरी रूप में श्री गणेश की स्थापना करती हैं। वे महासरस्वती और महालक्ष्मी पूर्ण रूप हैं। उन्हीं में से ही यह शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं। अत: वे ही परमात्मा की इच्छा की शक्ति हैं और हमारे अन्दर भी इच्छाओं का सृजन और सभी इच्छाओं के प्रति एक प्रतिक्रिया हममें विकसित होती है। करती हैं। हमारे अन्दर की यह इच्छाएं बाहर प्रसारित होने लगती हैं। स्वयं को भोजन देना सर्वप्रथम सर्वोपरि और सर्व पुरातन इच्छा है, जो हमें इस देवी से प्राप्त होती है। जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन करना अत्यन्त आवश्यक है। हमनें यह भी देखा है कि जब इस प्रकार की इच्छा असामान्य रूप से बढ़ जाती है तो व्यक्ति इसका दास हो जाता है तथा जितना भी वो खा ले, उसकी तृप्ति नहीं होती। परन्तु अहं के माध्यम से कार्य शुरू करके यह व्यक्ति की खाना बनाने वालों की तथा उपलब्ध कराने वालों की सन्तुष्टि करती है। अब इच्छाओं की पूर्ति किस प्रकार करें। किसी तरह से वह भोजन लाते हैं, उसका प्रदर्शन करते हैं, आपके सामने रखते हैं ताकि आप इसे स्वीकृति दें और तब वे इस भोजन को परोसते हैं। वे आपको बेवकूफ बनाना जानते हैं और आपको भी इसमें प्रसनता मिलती है। अत: आपकी इस इच्छा को आपका अहम् प्रचलित करता है। जब यह इच्छा सामूहिक बन जाती है और सामूहिक अहम् की अभिव्यक्ति बन जाती है तब आप सभ्य प्रकार के पेटू बन जाते हैं। परन्तु यदि आपमें अहम् न हो तो लोग दूसरे लोगों को खिलाना पसन्द करना चाहेंगे। यह इच्छा प्रतिक्रिया करती है तब महाकली की कृपा से एक नई इच्छा जागृत होती है, तब दूसरों को भोजन खाते हुए देखकर आपको अच्छा लगता है। आप के द्वारा बनाया गया, परोसा गया व दिया गया भोजन जब लोग करते हैं तो उसमें आपको आनन्द आता है। आप केवल देखना चाहते हैं। और इससे आपको संतोष प्राप्त होता है। परन्तु जितना मर्जी खाना खिला लें आपको पूर्ण संतोष न मिल पाएगा। आज के पाश्चात्य जीवन में बच्चे से यह पूछना आवश्यक हो गया है कि आप क्या खाएंगे? पुराने समय में पूरे परिवार के लिए खाना बनता था पर आज बच्चे से पूछा जाता है कि आप क्या खाएंगे और बच्चा अपनी पसंद बताता है। मान लो वह चीज आपके फ्रिज में नहीं है तो हो गयी आपकी छुट्टी। अहम् में फंसे उस बच्चे को आप किस प्रकार खुश करेंगे। इस तरह शनै: शनै: हम अपने बच्चों के अहम् को बढ़ाते हैं। हमें यह कहना चाहिए, 'यह खाना बना है, बहुत अच्छा है, आप इसे खायें।' माता-पिता को पसन्द पूछकर बच्चों के अहम् को बढ़ने नहीं देना चाहिए। आपको समझ होनी चाहिए कि बच्चों की क्या आवश्यकता है। ০ ০০ =০ =0 = 0 ০ =০০০০০ ০0 =0 ০০। ב 000 D0 D 0०0D DOB 0०0। 0 = ০ D0০ 0০0 0 = 0০ 0০ 0 ০= ০। D০ ০0 =0 0 =0 ০0=0 = 0-0 = 0©0০ 0= 0= )০০০০ ০0 ০0 ০ 0ו इस मामलें में देवी का आशीर्वाद यह है कि वह आपको दूसरों को खिलाने की इच्छा प्रदान करती है तब आप भूख से पीड़ित लोगों की चिन्ता करने लगते हैं और उनकी पीड़ा का कारण जानना चाहते हैं। यह इच्छा इतनी अति तक पहुँच जाती है कि कुछ लोग सोचने लगते हैं कि उन्हें खुद कुछ नहीं खाना चाहिए। एक मूर्खतापूर्ण त्याग भाव आ जाता है। व्यक्ति ने जो भी खाना है, खाये। इस प्रकार के त्याग में कोई बड़ी समझदारी नहीं है। इस प्रकार का त्याग जब लोग करने लग जाते हैं उन पर कई प्रकार के कष्ट आ जाते हैं। और वे अत्यन्त त्यागी और क्रोधी बन जाते हैं। अत: भूखा व्यक्ति भी उतना ही बुरा होता है जितना आवश्यकता से अधिक खाने वाला। मैं सोचती हूँ भूखा रहने वाला व्यक्ति अधिक खराब होता है यह इच्छा आपको अच्छा व्यक्ति बनाने के लिए आती है। आप जानते हैं कि अच्छाई को सब पसन्द करते हैं इसलिए लोग दूसरों के प्रति अच्छा बनने का प्रयत्न करते हैं । दूसरों को पसन्द करने से े सोचते हैं, कि लोग उन्हें बहुत पसन्द करेंगे। परन्तु यह इच्छा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि आप हर समय ही दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयास में लगे रहते हैं और एक प्रकार से इसके दास बन जाते हैं। आप में इतनी बनावट आ जाती है कि लोग समझ जाते हैं कि इस व्यक्ति में कुछ भी स्वाभाविक नहीं है। वह मात्र हमें खुश करने का प्रयत्न कर रहा है। किसी दूसरे व्यक्ति को यदि आप साक्षी भाव से और पूर्ण निस्वार्थ होकर प्रसन्न करें तो ये स्वाभाविक और अच्छी बात है परन्तु किसी से लाभ उठाने के लिए यदि आप उस व्यक्ति को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं तो यह निम्न कोटी का पाखण्ड है जिसमें आप स्वयं फंस जाते हैं। लोग आपका मजाक करते हैं, आप पर हँसते हैं, आपसे प्रसन्न नहीं होते। वे जानते हैं कि आप पाखण्डी हैं और किसी अनुचित लोभ के लिए यह सब कर रहे हैं। अच्छा या भला बनने के लिए नहीं कर रहे हैं। अच्छा व्यक्ति स्वत: ही दूसरों को प्रसन्न करता है, प्रसन्न करने का प्रयत्न नहीं करता । वह प्रकृति से, स्वभाव से ही ऐसा होता है कि वह लोगों को प्रसन्न करता है। अब देवी क्या कार्य करती है? वे लोगों के सम्मुख सत्य को प्रकट करती हैं। वे दर्शाती हैं कि किसी स्वार्थ प्राप्ति के लिए किया गया आपका प्रयत्न सफल नहीं होता। एक हद तक इसमें सफलता मिलती है और तब देवी उनका भांडा फोड़ कर देती है। भांडा फोड जब होने लगता है तो वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं, 'मेरा भांडा फोड़ कैसे हो गया ? मैं कैसे पकड़ा गया? लोग कैसे जान गये?' यह महाकाली की शक्ति का कार्य है। वे सारी बुराई, असत्य और झूठ का पर्दाफाश करते हैं । तीसरी इच्छा जो लोगों में है वह भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की है। और इसी से भौतिकवाद का जन्म होता है। परन्तु यह अन्तहीन है क्योंकि एक वस्तु को प्राप्त करके व्यक्ति को सन्तोष नहीं होता और जो भी चीज़ उसे मिलती है उसका वह आनन्द नहीं ले पाता। यह भी मानवीय असफलता है जो कि अर्थशास्त्र को जन्म देती है। अर्थशास्त्र की सृष्टि इसलिए होती है क्योंकि आवश्यकताएं प्राय: कभी पूर्ण नहीं होती। अतः हम एक चीज़ से दूसरी की ओर बढ़ते चले जाते हैं और अन्ततः उद्यमियों के दास बन जाते हैं। इतना अधिक दासत्व आ जाता है कि व्यक्ति अपना व्यक्तित्व खो बैठता है। विवेकहीनता के कारण लोग ऐसा करते हैं। परन्तु सहजयोगियों के लिए महाकाली शक्ति कार्य करती है और उन्हें शिक्षा देती है, 'ठीक है, यह वस्त्र आपको अच्छे लगते हैं, यह ले लें, और यही आपके लिए सर्वोत्तम है। एक ही बार में आपके पूरे जीवन की समस्या हल हो जाती है। यह इच्छा 10 ।০ ০০ ০0 ০০ = 0=0= 0=০ = ০0 =0 ০০ ০ ০ = ০০ ০০০ on0 D 0০ 00 ০0D०0 ८ 0 = 0০ 0০ 0 = 0 = 0=0 = 0০ ০০ 0000000000000 ০০0 n0 ০0 0০0०0 -0=0 = 0০0 ০০0০০ ০0 =0 ০0=0 सर्वसाधारण में बाह्य वस्तुएं जैसे वस्त्र, बालों का स्टाइल तथा अन्य मूर्खतापूर्ण प्रदर्शनों से दूसरों को प्रभावित करने के लिए आती हैं। जब हम अहं का उपयोग करने लगते हैं तब इस प्रकार की मूर्खता हमारे मस्तिष्क में आ जाती है। अहम् व्यक्ति को पूर्णतया मूर्ख बना देता है। ठीक काम करने के लिए लोगों को समझाना बहुत कठिन कार्य है परन्तु गलत चीजें वे तुरन्त पकड़ लेते हैं। उदाहरणतया मैंने लोगों से कहा कि सिर में तेल डाला करें। यदि प्रतिदिन भी नहीं लगाते तो कम से कम नहाने से पहले खूब तेल मालिश करके सिर को धो लें। अब मैं देखती हूँ बहुत से लोग गंजे हो रहे हैं फिर भी तेल नहीं लगाते। इसके बारे में मैं क्या करूं? इतनी साधारण चीज़ पर भी उन्हें विश्वास नहीं होता- कि आपको पौष्टिक तत्व चाहिए। वे मूर्खतापूर्ण कार्य करेंगे, यह भी नहीं सोचेंगे कि किस चीज़ से उन्हें हानि पहुँचती है। यहाँ महाकाली क्या करती है? वे आपको दण्डित करती है। आपके शरीर को दण्डित करती है। आप यदि बहुत तंग कपड़े पहनते हैं तो आपकी टांगो पर कोई समस्या आ सकती है। यदि आप छिद्रिल (छेदों वाली) पेन्टें पहनते हैं तो आपको जकड़न हो जाती है। कोई भी असाधारण कार्य यदि आप करेंगे तो आपको उसका दण्ड भुगतना होगा। पहले तो इसे करने के लिए आपको धन खर्च करना पड़ेगा और फिर शारीरिक रूप से आप दण्डित होंगे। साधारण जीवन अपना लेने से बहुत सारी चीज़ों को त्यागा जा सकता है। और हमारा महाकाली तत्व हमें अधिकाधिक ऊँचा उठाता है। इसके बावजूद भी हम नीचे आ जाते हैं। तब यह महाकाली आगे आकर हमें दश्शाती है कि हमने कौनसी गलती की, किस प्रकार हम भटक गये और किस प्रकार तत्व की बात को छोड़ दिया। एक अन्य बहुत सुन्दर कार्य जो वह करती है वह है एक भ्रम की सृष्टि करके आपके विवेक और संवेदनशीलता की परीक्षा लेना। भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। आपके मस्तिष्क में वे भ्रान्ति पैदा कर देती हैं और आप दूसरे लोग या स्थिति भ्रान्तिपूर्ण हो जाती है और आप इसमें फंस जाते हैं। तब आपको समझ आता है कि मैंने यह गलती की है। भ्रान्ति पैदा करके यह महाकाली शक्ति हमारे अहम् को ठीक करती है। यह मरीचिका ( मृगतृष्णा) या माया ही हमारे भ्रमों के पीछे भागने के लिए जिम्मेदार है। यदि हम अन्दर से सन्तुष्ट हैं तो हम माया के पीछे नहीं दौड़ते। इस भ्रम की सृष्टि यदि न की जाए तो पूरा विश्व इतना अहम् वादी हो जाएगा कि यह समाप्त हो जाएगा। तो भ्रम की रचना करना हमारे अन्त:स्थित महाकाली शक्ति का महान कार्य है। बहुत से लोग माया की बात करते हैं। यह श्रीमाताजी की माया है। यह माया है, वह माया है। यह महाकाली का कार्य है। वे आपकी परीक्षा लेना चाहती है। परन्तु सहजयोग में यह परीक्षा अधिक कठिन नहीं होती। तो सहजयोगियों की परीक्षा लेने के लिए यह महाकाली सहायता करती है। इस प्रकार भ्रम आपको सुधारते हैं। भ्रम यदि न हो तो सीधे से आप सुधरेंगे नहीं । यदि मैं कहूँ, "ऐसा न करें तो शायद आपको यह बात अच्छी न लगे। नि:सन्देह आपको मेरी बातें अच्छी लगती हैं पर कभी-कभी ऐसा नहीं होता। और | तब भ्रम कार्य करता है और आप समझ जाते हैं कि 'मैं कहाँ था और अब कहाँ हूँ? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था....मैं इस समस्या में कैसे फँस गया? कैसे मैं इतना मूर्ख बन गया?' यह कार्य वे करती हैं। वे ही हमें पूर्ण आराम प्रदान करती है। जब आप थके हुए और परेशान होते हैं, आपकी समझ में नहीं आता कि क्या करूं और क्या न करूं तब वो आपको नींद में सुला देती हैं। आप पूरा दिन कार्य करते हैं, अन्त में महाकाली की शक्ति आप पर कार्य करती है और एक बालक की तरह से आपको निद्रा-मग्न कर देती हैं। उस समय अपने तथा दूसरों के साथ जो भी बुराइयाँ हमने की सब क्षमा कर दी जाती हैं। उनकी गोद में हम शान्ति से अच्छी तरह सोते हैं 11 =0= ০=0০০ ০ ০০ = ০ ০০ = 0 । 0 ০0 ০0 ০০ ০ =০ 0 D 0०0० ० 0०0०0 ०০ = । 0८0०0 1000000O 0000000000000 -000 0০0 n0 ০0 = 0=0=0 = 00 = 00=০০0 ০০ ০0 ০0D0 =0 ० और हमारी सारी समस्याएं हल हो जाती है। जब आप स्वप्न देख रहे होते हैं तो वे आपको समस्याओं के समाधान सूझाती हैं। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि, 'श्रीमाताजी आप मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे फलां दवाई लेने के लिए कहा। आप मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे बताया कि तुम्हारे लिए एक विशेष प्रकार का जीवन हितकर होगा। वे मुझे आते हुए स्पष्ट देखते हैं। परन्तु वह मेरा पूर्ण रूप नहीं होता.... केवल महाकाली की शक्ति कार्य कर रही होती है। आप बहुत गहन निद्रा की स्थिति में होते हैं जिसे सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में वे दिखाई देती हैं और स्वप्नों में वे आपका मार्गदर्शन करती हैं। परन्तु सबसे महान कार्य जो वे करती हैं वह है आपको पावित्र्य एवं सुरक्षा का विवेक प्रदान करना। बच्चों में जन्म से ही पावित्र्य, लज्जा, शालीनता और भद्राचरण का विवेक होता है। परन्तु शनै: शनै: जब वे दूसरे लोगों को अभद्रतापूर्ण व्यवहार करते देखते हैं तो वे भी उसी रास्ते पर चलने लगते हैं। शालीनता उनके लिए एक बन्धन बन जाती है। परन्तु स्वाभाविक रूप से यह बताने के लिए कि यह कार्य अभद्र है और आपको नहीं करना चाहिए, महाकाली शक्ति विद्यमान हैं। ज्यों-ज्यों आपकी आयु बढ़ती है और आप परिपक्व होते हैं, आप अपनी पवित्रता का अपमान करने लगते हैं और अपरिपक्व मूर्ख लोगों की तरह बनने लगते हैं। यह सारी बातें यदि ध्यान-धारणा के माध्म से समझी जाएं तो हम जानते हैं कि महाकाली शक्ति हमारी बहुत अधिक मदद करती हैं क्योंकि वे ही कुण्डलिनी के उत्थान के लिए उचित मार्ग बनाती हैं। महाकाली कुण्डलिनी के समान ही हैं क्योंकि कुण्डलिनी महाकाली शक्ति की अवशिष्ट शक्ति है। वे विद्या से परिपूर्ण हैं। परन्तु उनका कार्य भिन्न है । महाकाली का कार्य आपकी रक्षा करना, मार्गदर्शन करना तथा विवेक प्रदान करना है। और कुण्डलिनी का कार्य आपको शुद्ध करना, बाधाओं को दूर करना, आपके साथ खिलवाड़ न करना, आपको क्षमा करना और ठीक प्रकार से उत्थान के लिए आपकी सहायता करना है। एक सहजयोगी होने के नाते अपने जीवन में आप देखेंगे कि महाकाली शक्ति कैसे हर तरह से आपकी सहायता करती है। उन्हें कार्य करते हुए देखना बहुत ही अच्छा लगता है-किस प्रकार वे आपके लिए सब प्रकार का सन्तोष लाती हैं। लोभ, लालच और गुस्सा चला जाता है। सबसे अधिक सहायता पूर्ण कार्य जो वे करती हैं वह यह है कि महाकाली शक्ति के प्रकाश में स्वत: ही आपकी सारी बुरी आदतें भाग जाती है। आप नहीं चाहते कि कोई विध्वंसक कार्य हो। कोई विध्वंसक कार्य यदि आप पहले कर भी रहे होते हैं तो आप उससे छुटकारा पाने का प्रयास करते हैं । आपके अन्दर जागृत हुई महाकाली शक्ति ही यह कार्य करती है। उसी ने आपको इतना सुन्दर और देव तुल्य बना दिया है। अपने सुधारों तथा भ्रान्ति द्वारा उसने आपको ऐसा बना दिया है। अत: पतन के लिए जिम्मेदार चीज़ों जैसे धन, लालच और कामुकता आदि से लिप्त न हो । बच्चे, पति और पदार्थों के स्वामित्व भाव से भी लिप्त न हों । समझ लें कि बाँटने में ही आनन्द है। आप सभी कुछ दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं और ये बाँटने की भावना तभी शुरू होती है जब ये महाकाली की शक्तियाँ आपको आनन्द, सामूहिक अस्तित्व, पावित्र्य और बाँटने के आनन्द का आशीर्वाद प्रदान करने लगती है। ये सारे आशीर्वाद आपको महाकाली शक्ति से ही प्राप्त होते हैं। आज हम उसी महाकाली शक्ति की पूजा करने वाले हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। 13 = ০ ০0 =0 ০০ = 0 = 0= = 0=০ = ০০০০০ ০0 ০0০০ = ০ =০ ০০০ 0 = 0০ 0০0০ ० ( 0 = 0০ 0০ 0 प्रहाकाला की शक्तियाँ 40000006000000006 फ्रान्स, १२.९.१९९० न पन श्री महाकाली में शुद्धिकरण शोधन] की शक्ति है और वे स्वयं आप में पवित्र सती के रूप में रहती हैं। न श्री महाकाली आनन्द प्रदायनी हैं और अपने भक्तों को आनन्दित देखकर ही वे प्रसन्न होती हैं। 'आनन्द' ही उनका गुण है और शक्ति है। श्री महाकाली की शक्ति ही आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् हमें आनन्द प्रदान करती है। श्री महाकाली की पूजा करते हुए हमें अपने अन्तस से और अन्य सहजयोगियों से आनन्द प्राप्त होना चाहिए। ऐसा अनुभव न कर पाने का अर्थ है कि अभी हम विकसित नहीं हुए। अवश्य न माता-पिता, बच्चों, परिवार, देश या किसी प्रकार के बन्धन की समस्या है जिसके समाधान की उलझने हमें आनन्द का अनुभव नहीं करने देती। सहजयोग में गहरा उतरने के लिए हमें सामूहिकता में आना होगा। यदि हम सामूहिकता में नहीं आते तो हो सकता है हम धीरे-धीरे सहज से बाहर निकाल दिये जाएं। महाकाली शक्ति की सात डोरियाँ आपको सामूहिक अवचेतन क्षेत्र में निकाल फेंकने के लिए हैं। सितार पे आपने देखा होगा कि प्रतिध्वनि के जो लिए भी अलग से तार होते हैं इसी प्रकार ज्यों-ज्यों आप सामूहिकता से हटने लगते हैं तो स्वयं महाकाली की शक्तियाँ आपको पकड़ कर धीरे-धीरे अवचेतन की ओर धकेलने लगती हैं जहाँ आप पूर्णतया खो जाते हैं । जान यदि आप सामूहिक ध्यान में नहीं आते तो आपको हर प्रकार की समस्यायें आ सकती हैं। विकसित न होने वाले लोग सहजयोग से बाहर निकाल दिये जाएंगे। श्री महाकाली दो तरह से कार्य करती हैं-एक तरफ तो वह अति प्रेममयी, आनन्द एवं खुशी से परिपूर्ण हैं और दूसरी ओर वह अति क्रूर, क्रुद्ध (कुपित) और असुरों का वध करने वाली हैं। जजा यदि हम संतुलन खोकर बाईं ओर चले जाते हैं तो हम बाईं ओर के रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं। हमें इससे बचना चाहिए। यदि हम सामूहिकता में नहीं रहते तो नकारात्मक शक्तियाँ हमें निकाल फेंकने के लिए परस्पर गठजोड़ कर सकती हैं। इसलिए हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए कि सामूहिक कार्यक्रमों में हम अनुपस्थित न हों। श्री महाकाली हमें हमारे पति या पत्नी के प्रति भावनाएं भी देती हैं। यदि पति-पत्नी दोनों ठीक जन (सन्तुलन में) हैं तो महाकाली शक्ति भी ठीक रहती है। यदि उनमें से एक ठीक नहीं है तो महाकाली उसे | बाहर धकेल देती हैं और यदि दूसरा भी पहले के मोह में फँसा है तो उसे भी सहज के बाहर धकेला जा सकता है। 'इस प्रकार की प्रेमान्धता' से बचकर रहना आवश्यक है क्योंकि इससे वास्तविक पतन हो जाता है। ऐसे में या तो वह व्यक्ति अपने पति या पत्नी के कारण पूर्णतया खो जाता है या फिर प्रेम / घृणा की भावनाओं में उलझ जाता है। देवी (महाकाली) की इस शक्ति अथवा गुण द्वारा प्रेम भी घृणा में परिवर्तित हो सकता है। 15 नि हमें सामूहिक होना चाहिए और जब हमारे कार्यक्रम हों तो हमें श्री माताजी के भाषण के टेप चलाने चाहिए और उसके बाद आरती करके कार्यक्रम समापन करना चाहिए। प्रोग्राम में हमें भाषण देने की न कि आवश्यकता नहीं। किसी को भी बोलने की आवश्यकता नहीं। अगली सभा या प्रोग्राम के आरंभ में पिछली बार सुनी गई टेप के विषय में चर्चा हो सकती है। हमें याद रहे कि हम यहाँ किसी से विवाह करने के उद्देश्य से नहीं आये। हमारा वैवाहिक जीवन अच्छा होना चाहिए परन्तु सुखी विवाहित जीवन उठाया गया केवल एक कदम मात्र है। यदि हमारा यह कदम हमें हमारे उत्थान से दूर ले जा रहा है तो हमें सावधान हो जाना चाहिए। अबोधिता का अर्थ है शुद्धता, न विचारों की शुद्धता। हममें मानसिक पवित्रता होनी चाहिए। मानसिक पवित्रता के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। पार्चात्य देशों में शारीरिक अपवित्रता की अपेक्षा मानसिक अपवित्रता अधिक है। इसी कारण उनके मस्तिष्क विकृत हो गये हैं क्योंकि कल्पना करना और विचारों से खेलना अति भयंकर है और वास्तविकता से परे भी। 'एक पेड़ का रस पेड़ के हर फूल, पत्ते और डाल में जाता है, उन्हें शुद्ध कर स्वास्थ्य और जीवन देता है और फिर लौट आता है, किसी एक भाग में चिपकता नहीं। इसी प्रकार माता, पिता, की नि बहन-भाई सबका अपना-अपना स्थान है। भाई-बहन के संबंध पति-पत्नी के संबंध नहीं बन सकते ' पारिवारिक जीवन की देखभाल अवश्य होनी चाहिए परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अपने उत्थान को छोड़ दिया जाये। संतों के लिए प्रमुख चीज़ है उनका उत्थान। उनके उत्थान के साथ हर चीज़ का उत्थान हो जाएगा। जब हम अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं तो श्री महाकाली का प्रकटीकरण आरम्भ हो जाता है। श्री महाकाली में शुद्धिकरण (शोधन) की शक्ति है और वे स्वयं आप में पवित्र सती के रूप में रहती हैं। वही कुण्डलिनी है, वही महाकाली शक्ति है। वह स्वयं पूर्ण पवित्रता हैं और उनमें शुद्ध करने की शक्ति है। श्री गणेश का निवास मूलाधार पर है, अपनी माँ के स्थान से भी ऊपर। श्री गणेश एक प्रहरी की भाँति यह बताते हैं कि कुण्डलिनी माँ उठ सकती हैं अथवा नहीं। श्री गणेश की आज्ञा के बिना कुण्डलिनी माँ उत्थित नहीं हो सकती....। हर चक्र पर श्री गणेश आपकी शुद्धता की जाँच करते हैं, और फिर उसके अनुसार ही नि | न कुण्डलिनी शुद्ध करने का प्रयत्न करती है। श्री महाकाली आपको 'स्थिति' प्रदान करती है-दुढ़ीकरण की स्थिति । पवित्रता में, रोमांचक जीवन में बिना हमारा उत्थान नहीं हो सकता। मानसिक पवित्रता के बिना, यदि हमारा हुए नहीं, पूर्णतया स्थित सहस्रार ही खराब है तो सहजयोग कैसे कार्यान्वित हो सकता है? पूरा खेल ही सहस्रार का है। पवित्रता का प्रकटीकरण होना ही चाहिए ताकि सहजयोगी पूरे विश्व को परिवर्तित कर सकें । सभी देवताओं की तरह हमें भी अत्यन्त सामूहिक होना चाहिए, 'ज्योंही आप सामूहिक हो जाते हैं, यह सब निरर्थक बातें स्वयं छूट जाती हैं....आप सामूहिक इसलिए नहीं हो पाते क्योंकि अभी आपने यह सब बुराइयाँ त्यागी नहीं और या फिर आप उनको छोड़ने से डरते हैं। सामूहिकता में हमारी समस्याएं सन्तुलित हो जाती हैं। पुराने सहजयोगियों को बहुत सतर्क रहना चाहिए क्योंकि ईसामसीह ने कहा कि की नि 16 न न 'प्रथम ही अन्तिम होगा।' उनमें अवांछनीय आत्मविश्वास नहीं होना चाहिए और उन्हें सामूहिक कार्यक्रमों में अवश्य जाना चाहिए। पूरे विश्व की सामूहिकता श्री माताजी का स्वप्न है। यदि सहजयोगी ही सामूहिक नहीं हो सकते तो और कौन सामूहिक होकर श्री माताजी का स्वप्न साकार करेगा ? हमें सहजयोग के लिए खर्च करने का उत्तरदायित्व भी लेना चाहिए। आखिरकार अपने धन का इससे अच्छा सद्व्यय और क्या है। पुण्यों से ही हम और अधिक वैभव, स्वास्थ्य और समृद्धि प्राप्त करते हैं बिना पुण्य के हमे ये सब प्राप्त नहीं कर सकते। हमें उदार ( दानशील) भी होना चाहिए। विशेषकर पूर्वी देशों के लोगों के प्रति जिनकी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं हमें यह सोचना चाहिए कि हम उनके लिए क्या कर सकते हैं। महाकाली की शक्ति के प्रताप से ही भौतिक वस्तुओं से प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। न भूतकाल में लोग युद्ध के समय सामूहिक हुए थे । उन्होंने एक दूसरे की सहायता की और दूसरों के लिए खुद को मिट जाने दिया। इन गुणों का उपयोग युद्ध और घृणा के लिए हुआ परन्तु अब इनका उपयोग प्रेम के लिए होना चाहिए। प्रबल इच्छा और श्री महाकाली के गुण जब हममें होंगे तब महासरस्वती हमारे कार्यों में पान सहायक होंगी। हमें पूरे विश्व के उद्धार की इच्छा करनी चाहिए। यदि हम ही आधार हैं तो हमारे पूर्ण व्यक्तित्व का सहजयोग के प्रति पूर्णतया समर्पित होने से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं। यह इच्छा अति प्रबल और अति शुद्ध होनी चाहिए। हमारा चित्त निरानन्द होना चाहिए, केवल आनन्द। 'विभिन्न चक्रों पर आप विभिन्न प्रकार के आनन्द अनुभव करते हैं। वह सब महाकाली द्वारा प्रदान होता है। परन्तु आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आपकी महानतम प्राप्ति है निरानन्द।' आपको उस स्थिति में अवश्य पहुंचना चाहिए। यदि आप निरानन्द की स्थिति जन में हैं तो बाकी सब आनन्द शून्य है। 'मन की शुद्धता के बिना यह निरानन्द आ नहीं सकता.....शुद्धता कैसे लाई जाये? बस निर्विचार समाधि को विकसित करने से और वस्तुओं को बिना विचार के देखने से। इसके लिए आपको सामूहिक होना पड़ेगा। यदि आप सामूहिक हैं तो मैं आपके साथ हूँ।' भूतों में भी एक प्रकार का भाईचारा होता है। चुम्बक की तरह वे एक दूसरे से जुड़े होते हैं। चुम्बक (आकर्षण) श्री महाकाली का गुण है। 'जो लोग सामूहिक नहीं हो पाते, धीरे-धीरे भूतों की पकड़ में चले जाते हैं।' श्री महाकाली भूतों की स्वामिनी हैं और वही उनकी देखरेख और उनका परिचालन करती हैं। सामूहिक, उदार और शुद्ध हो कर यदि हम उच्च व्यक्तित्व बन जाते हैं तो सब कहेंगे, 'देखो, वे कितने सुन्दर लगते हैं।' अब हम पहले ही सुन्दर हैं-चमकते चेहरों के साथ। 'परन्तु यह सब लुप्त हो जायेगा और इस लोप के परिणाम बहुत सीधे - सादे नहीं हैं। इसलिए सावधान रहें। श्रीमाताजी हमें श्री भैरव, जो श्री महाकाली के महानतम शिष्य हैं, के सभी गुणों से आशीर्वादित करती हैं। श्री भैरव सुबह से शाम तक विशेषकर रात्रि में ऊपर नीचे दौड़ते रहते हैं और भयंकर राक्षसों को मारने के लिए, इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। हम सबको भी मिलकर के इस कार्य को करना है। न 17 श्री सरस्वती क० थ। १ १ शु सी श्री सरस्वती का कार्यक्षेत्र शरीर का दायां भाग है। स्वाधिष्ठान पर कार्य करके जब ये बायीं ओर को जाती हैं तो कला-विवेक बढ़ता है। ॐै के र ও ॐ श्री सरस्वती का कार्यक्षेत्र शरीर का दायां भाग है। स्वाधिष्ठान पर कार्य करके जब ये बायीं ओर को जाती हैं तो कला-विवेक बढ़ता है। .....कला परमात्मा की ज्योति है। आप इसे न देख सकें पर इसमें चैतन्य लहरियाँ हैं। सुन्दरतापूर्वक रचित तथा विश्व भर में मान्य सभी कुछ सौन्दर्य की दृष्टि से उत्तम है। यदि आप अपने हाथ इसकी ओर फैलायें तो आपको इसमें से लहरियाँ निकलती हुई महसूस होंगी, विशेषकर यदि इस कला की रचना किसी साक्षात्कारी व्यक्ति ने की हो। .परन्तु हमने स्वाधिष्ठान का एक ही भाग विकसित किया है, दूसरे भाग को हमने अनदेखा कर दिया है। स्वाधिष्ठान का उपयोग हम केवल पढ़ने-लिखने के क्षेत्र में ही करते हैं और इस क्षेत्र में हमने उन्नति की है। पर इससे आगे भी एक अवस्था है जिसके विषय में हम सोचते ही नहीं, और इसी कारण यह असन्तुलन है। आप देखते हैं। कि कला-साहित्य आदि बहुत है फिर भी लोग कहते हैं कि सरस्वती और लक्ष्मी का संगम नहीं है । गहनता में जाने पर हम इस असन्तुलन का कारण जानना चाहते हैं। सहजयोग में सरस्वती और लक्ष्मी आज्ञा चक्र पर मिलती हैं। आप (कलाकार) कार्य करते रहते हैं पर आपको इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलता। आज्ञा पर आकर आप जान पाते हैं कि आपको वह अवस्था क्यों नहीं प्राप्त हुई जो बहुत से कलाकारों को प्राप्त हुई। हम गरीबी में क्यों रह रहे हैं? दोनों तत्वों को उचित दृष्टि से देखे बिना हम उन्नति नहीं कर सकते। कला (सरस्वती) को लक्ष्मी से जोड़ने के लिए हममें शुद्ध दृष्टि होनी चाहिए। जिद्दीपना हमारी (कलाकार की) सबसे बड़ी कमजोरी है। इन्होंने यदि एक हाथी बनाया है तो हाथी ही बनाते चले जायेंगे। किसी एक विशेष तरह से यदि वे गाते हैं तो वैसे ही गाते चले जायेंगे। इसमें परिवर्तन करने के लिए कहें तो वे नाराज़ हो जायेंगे। आज्ञा चक्र पर यदि आप विचार करें तो आपको पता चलेगा कि जिद्दीपना आपको आज्ञा से ऊपर नहीं जाने देता।.....मैं नहीं कहती कि आप कला को बिगाड़ें, पर आप सन्तुलित ढंग से तो कला को देखिए। मैं आपको व्यवहारिकता की बात बताती हूँ कि हममें एक प्रकार का आलस्य है जो हमें जिद्दी बनाता है। कोई नई बात सीखने में हमारे मस्तिष्क थोड़े से शिथिल हैं। इसी शिथिलता के कारण हम कुछ भी ऐसा नहीं सीख पाते हैं जिससे हम लक्ष्मी से जुड़ सकें। .....अतः सूझबूझ होनी चाहिए तभी मस्तिष्क खुलेगा । जिद्दीपने का कुप्रभाव व्यक्ति के पूरे जीवन पर पड़ता है। सहज में आने पर परिवर्तन आता है। तब सहज ही में हम लक्ष्मी से जुड़ जाते हैं। आज्ञा चक्र को ठीक करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने अहं को ठीक करें। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या ब्रह्मसमाजी होने की भावना आधारहीन है। मानव मात्र के अतिरिक्त आप कुछ भी नहीं। .....सत्य सार यह है कि हम सब एक हैं, एक विराट, एक पूर्णता। इसके विपरीत जाने से आप अकेले पड़ जाते हैं तथा सामूहिकता से अलग हो जाते हैं। यह ठीक है कि पेड़ का एक पत्ता दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता फिर भी वे होते तो एक ही पेड़ पर हैं। वे सभी एक विराट के अंग-प्रत्यंग हैं। जब हम एक दूसरे से अलग हो जाते हैं तो हमारा सरस्वती तत्व महासरस्वती तत्व नहीं बन पाता। महासरस्वती तत्व में जब आप रहने लगते हैं तो देख सकते हैं कि आप विराट हैं। ऐसी स्थिति में जब कलाकार कोई सृजन करता है तो लोग इसे हृदय से स्वीकार करते हैं। कला का जो भी कार्य हम करते हैं वह परमात्मा को समर्पित होना चाहिए। इस भाव से की गई सभी रचनाएं शाश्वत होंगी। परमात्मा को समर्पित सभी कविताएं, संगीत और कला कृतियां आज भी जीवित हैं। आज के फिल्म का संगीत आता है और समाप्त हो जाता है परन्तु कबीर और ज्ञानेश्वर जी के भजन शाश्वत हैं। अपने आत्मसाक्षात्कार द्वारा उन्होंने महासरस्वती शक्ति से प्राप्त किया और फिर जो भी रचना उन्होंने की वह बेजोड़ थी। इन रचनाओं ने विश्व को एक सूत्र में बांधा। तो व्यक्ति को सरस्वती तत्व से महासरस्वती तत्व की ओर जाना चाहिए क्योंकि सरस्वती तत्व यदि बीज हैं तो महासरस्वती तत्व पेड़ है। बिना इस बीज को वृक्ष बनाए आप महालक्ष्मी से नहीं जुड़ सकते। आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति भी महालक्ष्मी का वरदान है। महासरस्वती, महाकाली तथा महालक्ष्मी तीनों शक्तियां आज्ञा पर मिलती हैं। वहाँ पर सूक्ष्म रूप में अहं भी है। अतः व्यक्ति को अन्तर्दर्शन कर देखना चाहिए कि सीमित स्तर पर रहते हुए मैं कैसे पूरे विश्व को प्रकाशित कर सकता हूँ। मैंने बहुत बार कहा है कि अपने अन्दर झांकिए। से लोग देवी की तरह मुझे पूजते हैं। पर इसका मुझे क्या लाभ है, मैं तो जो हूँ वो हूँ। मेरे प्रति श्रद्धा से आप ही को बहुत 20 क ु मं ें ेर े लाभ होता है। आप सहजयोग में आए और सरस्वती तत्व से महासरस्वती तत्व को प्राप्त किया। मुझ में विश्वास करने मात्र से ही आपको सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। आपको स्वयं में विश्वास करना होगा तथा अपना उत्थान करना होगा। महासरस्वती में व्यक्ति समर्थ और चुस्त होता है। महाकाली में आप इच्छा करते हैं तथा आत्मसात करते हैं। इन इच्छाओं को कार्यान्वित करना महासरस्वती का कार्य है । कुछ लोग चाहते हैं कि सहजयोग फैले। पर इस दिशा में आपने क्या कार्य किया ? आपने कितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार दिया? कितने लोगों से सहजयोग की बात की ? ........अपनी इच्छाओं को कायान्वित कीजिए । कार्य शुरू होते ही इच्छाएं समाप्त हो जाएंगी। जो पूरी हो सकें ऐसी इच्छाएं आपको करनी चाहिए क्योंकि असम्भव इच्छाएं करना भयंकर है।......यह (सरस्वती) पूजा पूरे भारत के लिए है क्योंकि आलस्य का रोग पूरे देश में है। हम बिल्कुल भी चुस्त नहीं हैं। हमारी इच्छाएं तो बहुत दृढ़ हैं पर उनकी पूर्ति के लिए हम कुछ भी नहीं करते। एकत्रित होकर सोचिए कि सहजयोग फैलाने के लिए आप क्या कर सकते हैं। प.पू.श्री माताजी, कोलकाता, ३.२.१९९२ हमें सरस्वती की भी आराधना करनी चाहिए। सरस्वती का कार्य बड़ा महान है। महासरस्वती ने पहले सारा अंतरिक्ष बनाया। इसमें पृथ्वीतत्व विशेष है। पृथ्वीतत्व को इस तरह से सूर्य और चन्द्रमा के बीच में लाकर खड़ा कर दिया कि वहाँ पर कोई सी भी जीवन्त क्रिया आसानी से हो सकती है। इस जीवन्त क्रिया से धीरे-धीरे मनुष्य भी उत्पन्न हुआ। परन्तु हमें अपनी बहुत बड़ी शक्ति को जान लेना चाहिए। वो शक्ति है जिसे हम सृजन शक्ति कहते हैं, क्रिएटिविटी (Creativity) कहते हैं। यह सृजन सरस्वती का आशीर्वाद है जिसके द्वारा अनेक कलाएं उत्पन्न हुई। कला का प्रादूर्भाव सरस्वती के ही आशीर्वाद से है। बच्चे स्कूलों में विद्यार्जन कर रहें हैं। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि बिना आत्मा को प्राप्त किए हम जो भी विद्या पा रहे हैं वो सारी अविद्या है। बिना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किए आप चाहे साइंस पढ़े या अर्थशास्त्र, उसे न तो आप पूरी तरह समझ सकते हैं और न ही उसको अपनी सृजन शक्ति में ला सकते हैं. शक्ति हमारे बच्चे दो प्रकार के होते हैं एक तो पढ़ने के शौकीन होते हैं और दूसरे जिन्हें पढ़ने का शौक नहीं होता। कुछ बच्चों के पास कम बुद्धि होती है और कुछ के पास अधिक। बुद्धि भी सरस्वती की देन है लेकिन आत्मा से मनुष्य में सुबुद्धि आ जाती है। बुद्धि से पाया हुआ ज्ञान जब तक आप सुबुद्धि पर नहीं तोलिएगा तो वह ज्ञान हानिकारक हो जाता है।.....आत्मसाक्षात्कार को पाकर जो विद्यार्जन होता है उसमें बराबर नीर-क्षीर विवेक आ जाता है। वे समझ लेते हैं कि कौन सी चीज़ अच्छी है और कौन सी बुरी है। कौन सी चीज़ सीखनी चाहिए और कौन सी चीज़ नहीं सीखनी चाहिए। उससे पहले कोई मर्यादाएं नहीं होती। मनुष्य किसी भी रास्ते पर जा सकता है और किसी भी ओर मुड़ सकता है और कोई भी बूरे काम कर सकता है।......इन सब चीज़ों का इलाज एक ही तरीके से हो सकता है कि इनके अंदर आप आत्मा का साक्षात्कार करें। आत्मा का साक्षात्कार मिलने से ही सरस्वती की भी चमक आपकी बुद्धि में आ जाती है और जो बच्चे पढ़ने लिखने में कमजोर होते हैं वो भी बहुत अच्छा कार्य करने लग जाते हैं। इसके बाद कला की उत्पत्ति होती है। अगर आप कला को बगैर आत्मसाक्षात्कार के ही अपनाना चाहें तो वह कला अधूरी रह जाती है या वो बेमर्यादा कहीं ऐसी जगह टकराते हैं कि जहाँ उसकी कला का नामोनिशान नहीं रह जाता। तो पहले आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करके ही सरस्वती का पूजन करना एक बड़ी शुभ बात है। .....आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति की कला अनन्त की शक्ति से प्लावित होती है। तो आप लोग भी आत्मसाक्षात्कारी हो गए हैं। कलात्मक चीज़ हठात आपको निर्विचारिता में उतारेगी और उसका सौन्दर्य देखते ही आपको ऐसा लगेगा कि आप निर्विचार हैं क्योंकि सौन्दर्य देखने से ही चैतन्य एकदम बहने लगता है और उस सौन्दर्य के कारण ही एकदम से आप निर्विचार हो जाते हैं। इसलिए आदिशंकराचार्य ने इसे 'सौन्दर्य लहरी' कहा। .....कला जब पैसे पर उतर आती है तब उसकी आत्मा ही खत्म हो जाती है। कला आनंदमयी होनी चाहिए न कि उससे १ी कितना पैसा मिले। .......शान्तिमय, ध्यानावस्था में रहे बिना कला सृजन अधूरा रह जाता है या मर्यादा विहीन। आपको कला का तंत्र तथा तकनीक मालूम होनी चाहिए । जब आपको आत्मसाक्षात्कार होता है तभी आपकी सृजन कला बढ़ जाती है। प.पू.श्री माताजी, यमुनानगर, ४.४.१९९२ 21 अॉ ६ श्री माताज्जी द्वारा दिये गये सलाह शरीर परमात्मा का मन्दिर है और आपने अपने स्वास्थ्य की देखभाल करनी है हर देश में कुछ विशेषता है जिसके कारण व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं आती हैं। अत: सहजयोगी होने के नाते व्यक्ति को समझना चाहिए कि स्वास्थ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह शरीर परमात्मा का मन्दिर है। अत: आपको अपने स्वास्थ्य की देखभाल करनी होगी। आप यह भी जानते हैं कि जब कुण्डलिनी उठती है तो पहली घटित होने वाली घटना आपके स्वास्थ्य का ठीक हो जाना है। क्योंकि आपका पराअनुकम्पी तंत्र कार्यान्वित हो जाता है। पराअनुकम्पी, व्यक्ति को ज्योति प्रदान करता है जिसका प्रवाह अनुकम्पी तंत्र में होता है तथा व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा हो जाता है। प.पू.श्रीमाताजी, कैक्स्टन हॉल, लन्दन, १०.१२.१९७९ फोटोग्राफ की सहायता से आप लोगों का रोग निवारण कर सकते हैं... परन्तु रोग दूर करना किसी भी प्रकार से आपका कार्य नहीं है, यह बात आपको याद रखनी हैं। कोई भी सहजयोगी लोगों के रोग ठीक करने न लग जाए। रोगी मेरे फोटो का उपयोग कर सकते हैं। परन्तु आपको रोग दूर करने के कार्य में नहीं लग जाना है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि आप स्वयं को बहुत बड़ा परोपकारी मान बैठे हैं। मैंने देखा है कि जो भी सहजयोगी रोग दूर करने के कार्य में लग गए उनके लिए यह कार्य पागलपन बन गया और वो लोग भूल गए कि उन्हें भी कोई पकड़ हो गई है तथा कुछ कष्ट हो गया है। परन्तु वो स्वयं को ठीक नहीं करते और अन्तत: मैं देखती हूँ, कि वो सहज से बाहर चले जाते हैं। परन्तु मेरे फोटो से आप लोगों को ठीक कर सकते हैं। प.पू.श्रीमाताजी, कैक्स्टन हॉल, लन्दन, १०.१२.१९७९ केवल इतना कहें, 'श्रीमाताजी, मुझे मेरे आध्यात्मिक जीवन में बनाए रखिए ।' आप स्वत: ठीक हो जाएंगे। मैं ऐसे लोगों को जानती हूँ जो रोगमूक्त करने की शक्ति के कारण पगला गए और नियमपूर्वक अस्पतालों में जाने लगे तथा अस्पतालों में ही उनका अन्त हो गया। उन्होंने कार्यक्रमों में भी आना छोड़ दिया। वो मुझे मिलने भी नहीं आते। तो यह व्याधियों में से एक है, शारीरिक रोग। शारीरिक रोग के कारण भी आपको इतना नीचे नहीं गिर जाना चाहिए। आपको यदि कोई समस्या है भी तो उसे भूल जाएं, शनै:-शनै: आप ठीक हो जाएंगे । कुछ लोगों को ठीक होने में 22 ०] समय लगता है। मुख्य बात तो अपनी आत्मा को प्राप्त करना है। अत: हमेशा यही न कहते रहें, 'श्रीमाताजी, मुझे ठीक कर दीजिए, मुझे ठीक कर दीजिए ।' आप मात्र इतना कहें, 'श्रीमाताजी, मुझे आध्यात्मिक जीवन में बनाए रखिए ।' आप स्वत: ही ठीक हो जाएंगे। हो सकता है कुछ लोगों को ठीक होने में समय लगे। परन्तु आप तो जीवन भर बीमार रहे, तो ठीक होने में भी यदि कुछ समय लग जाए तो कोई बात नहीं। भिन्न रोगों को ठीक करने की विधियाँ जो हमने बताई हैं उनके अनुसार कार्य करें। प.पू.श्रीमाताजी, कैक्स्टन हॉल, लन्दन, १०.१२.१९७९ स्वयं को स्वच्छ करें ताकि आपके चक्र विकसित हों 'प्रात: किसी से बात न करें। शान्त मुद्रा में रहें। आप ऐसी महान शक्ति के सम्मुख उभरने वाले हैं जो पूरे विश्व की समस्याओं का समाधान करेगी। अत: स्वयं को स्वच्छ करें, स्वयं को धो डालें, स्वयं को स्वच्छ करें ताकि आपके चक्र विकसित हो सकें। लोग इसके विरोध में बातें किया करते थे क्योंकि वे कर्मकाण्डी तथा मशीनवत बन गए हैं। भौतिक पदार्थ जब बहुत महत्वपूर्ण बन जाएं तो ये चीज़ें भी महत्वपूर्ण बन जाती हैं। परन्तु अब ऐसा नहीं है। आप लोग भिन्न हैं, आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। इसका अर्थ ये नहीं है कि आप सन्यासी आदि बन जाएं, मैंने आपको बताया था कि आपको चाहिए... कि सामान्य लोगों की तरह जीवन व्यतीत करें, परन्तु अत्यन्त सम्माननीय लोगों जिनमें तिरस्कार, बचपना, अतिशयता या विदूषकों की तरह अटपटापन न हो। ये सब वस्त्र नहीं पहनने चाहिए। गरिमामय वस्त्र धारण करें जो आपकी उपस्थिति को दर्शाएं। मैं ये बात बच्चों को बता रही हूँ। आपको विकसित सहजयोगियों सम दिखाई देना चाहिए। आप सब सन्त हैं.... प.पू.श्रीमाताजी, लन्दन, २७.०९.१९८० 23 ०४४४४.६६ 1ll ]ob Q2n8 Ik४ 181 अः जि हम लोग यहाँ शक्ति की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। अभी तक अनेक संत साधूओं ने ऋषि मुनियों ने शक्ति के बारे में बहुत कुछ लिखा और बताया। और जो शक्ति का वर्णन वह अपने गद्य में नहीं कर पाये उसे उन्होंने पद्य में किया। और उस पर भी इसके बहुत से अर्थ भी जाने। लेकिन एक बात शायद हम लोग नहीं जानते कि हर मनुष्य के अन्दर ये सारी शक्तियाँ सुप्तावस्था में हैं। और ये सारी शक्तियाँ मनुष्य अपने अन्दर जागृत कर सकता है। ये सुप्तावस्था की जो शक्तियाँ हैं उनका कोई अन्त नहीं, न ही उनका कोई अनुमान कोई दे सकता है क्योंकि ऐसे ही पैंतीस कोटी तो देवता आपके अन्दर विराजमान हैं। उसके अलावा न जाने कितनी शक्तियाँ उनको चला रही हैं, लेकिन इतना हम लोग समझ सकते हैं कि जो हमने आज आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है तो उसमें जरूर कोई न कोई शक्तियों का कार्य हुआ। उस कार्य के बगैर आप आत्मसाक्षात्कार को नहीं प्राप्त कर सकते। ये आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करते वक्त हम लोग सोचते हैं सहज में हो गया। सहज के दो अर्थ हैं। एक तो सहज का अर्थ ये भी है कि आसानी से हो गया, सरलता से हो गया और दूसरा अर्थ ये होता है कि जिस तरह से एक जीवन्त क्रिया अपने आप हो जाती है उसी प्रकार आपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया। लेकिन ये जीवन्त क्रिया जो है इसके बारे में अगर आप सोचने लग जाए तो आपकी बुद्धि कुण्ठित हो जाएगी। समझ लीजिए ये आपने एक पेड़ देखा । इस पेड़ की ओर आप नज़र करिए तो आप ये सोचेंगे कि भाई, ये फलाना पेड़ है। लेकिन इस पेड़ को इसी रूप में, ऐसा ही, इतना ही ऊंचाई पर लाने वाली कौनसी शक्तियाँ हैं ? किस शक्ति ने इसको यहाँ पर इस तरह से बनाया है कि जो वो अपनी सीमा में रहकर के और अपने स्वरूप, रूप, उसी के साथ बढ़ता है। फिर सबसे जो कमाल की चीज़ है वो मानव, मनुष्य जो बनाया गया है वो भी एक विशेष रूप से, एक विशेष विचार से बनाया गया है। और वो मनुष्य का जो भविष्य है वो उसे प्राप्त हो सकता है, उसको मिल सकता है पर उसकी पहली सीढ़ी है आत्मसाक्षात्कार। जैसे कि कोई दीप जलाना हो तो सबसे पहले ये है कि उसके अन्दर ज्योति लानी पड़ती है। उसी प्रकार एक बार आपके अन्दर ज्योति जागृत हो गई तो आप उसको फिर से प्रज्वलित कर सकते हैं या उसको आप बढ़ा सकते हैं। पर प्रथम कार्य है कि ज्योति प्रज्वलित हो । और उसके लिए आत्मसाक्षात्कार नितान्त आवश्यक है। किन्तु आत्मसाक्षात्कार पाते ही सारी ही शक्तियाँ जागृत नहीं हो सकती। इसलिए ये साधु-सन्तों ने और ऋषि-मुनियों ने व्यवस्था की है कि आप देवी की उपासना करें। लेकिन जो आदमी आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, उसको अधिकार नहीं है कि वो देवी की पूजा करे। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि वो यदि सप्तशती का कभी पाठ करे और उनका हवन करते हैं तो उनपे बड़ी आफतें आ जाती हैं और उनको बड़ी तकलीफ हो जाती है और वो बहुत कष्ट उठाते हैं। तो उनसे ये पूछना चाहिए कि आपने किससे करवाया? तो कहेंगे कि हमने सात ब्राह्मणों को बुलाया था। पर वो ब्राह्मण नहीं। जिन्होंने ब्रह्मा को जाना नहीं वो ब्राह्मण नहीं और ऐसे ब्राह्मणों से कराने से ही देवी रूष्ट हो गई और आपको तकलीफ हुई। तो आपके अन्दर एक बड़ा अधिकार है कि आप देवी की पूजा कर सकते हैं और साक्षात् में भी पूजा कर सकते हैं। ये अधिकार सबको नहीं है। अगर कोई कोशिश करे तो उसका उल्टा परिणाम हो सकता है। ० सबसे बड़ी चीज़ है कि शक्ति जो है वो जितनी ही आपको आरमदेही है, जितनी वो आपके सृजन की 25 ३ । । व्यवस्था करती है, जितनी वो आपके प्रति उदार और प्रेममयी है, उतनी ही वो क्रूर और क्रोधमयी है। कोई बीच का मामला नहीं है या तो अति उदार है और या तो अति क्रोधित है। बीच में कोई मामला चलता नहीं। वजह यह है कि जो लोग महादुष्ट हैं, राक्षस हैं और जो संसार को नष्ट करने पे आमादा हैं, जो लोगों को भुलभुलैया में लगाये हुए हैं और कलियुग में अपने को अलग-अलग बता कर के कोई साधु बना है तो कोई पंडित बना हुआ है, कोई मन्दिरों में बैठा है, तो कोई मस्जिदों में बैठा है, कोई मुल्ला बना हुआ है, कोई पोप बना हुआ है, तो कहीं कोई पोलिटिशियन बना हुआ है, ऐसे अनेक-अनेक कपड़े परिधान कर के जो अपने को छिपा रहा है, जो कि राक्षसी वृत्ति का मनुष्य है, उसका नाश होना आवश्यक है। लेकिन ये जो नाश की शक्तियाँ हैं इसकी तरफ आपको नहीं जाना चाहिए। आप सिर्फ इच्छा मात्र करें और ये शक्तियाँ अपने ही आप कार्य कर लेगी । तो सारे संसार में जो ये चैतन्य बह रहा है ये उसी महामाया की शक्ति है। और इस महामाया की शक्ति से ही सारे कार्य होते हैं औय ये शक्ति सब चीज़ सोचती है, जानती है, सबको पूरी तरह से व्यवस्थित रूप से लाती है जिसे कहते हैं कि आयोजित कर लेती है। और सबसे बड़ी चीज़ है कि ये आप से प्रेम करती है। और इसका प्रेम निर्वाज्य है। इस प्रेम में कोई भी माँग नहीं सिर्फ देने की इच्छा है। आपको पनपाने की इच्छा है, आपको बढ़ाने की इच्छा है। आपकी भलाई की इच्छा है, लेकिन इसी के साथ-साथ जो चीज़ें कांटे बन कर के आपके मार्ग में रूकावट डालेंगे, आपके धर्म में खलल डालेंगे, या किसी भी तरह से आपको तंग करेंगे ऐसे लोगों का नाश करना अत्यावश्यक है। लेकिन उसके लिए आप अपनी शक्ति न लगाएं। आपको सिर्फ चाहिए कि आप उस शक्ति के लिए सिर्फ आह्वान करे देवी का और उनसे कहिए कि, 'ये जो अमानुष लोग हैं इनका आप नाश कर दीजिए ।' ये तो पहली चीज़़ हो गई | सो आपको छुट्टी मिल गई कि कोई भी आप पर अगर अत्याचार करे, कोई भी आपसे बुराई से बोले, कोई आपको सताये तो आप में एक और विशेष रूप से एक स्थिति है जिसमें आप निर्विचार हो जायें । तो सारी चीज़ को आप साक्षी रूप से देखना शुरू कर दें। एक नाटक के रूप में। जैसे अजीब पागल आदमी है मेरे पीछे पड़ा हुआ है इसको क्या करने का है? इसका पागलपन देखिए, उसका मनस्ताप देखिए, उसकी तकलीफें देखिए और आप उस पर हँसिये कि अजीब बेवकूफ है। उसके लिए आपको कोई तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं। उसके लिए सिर्फ आपको आपका जो किला है वो निर्विचारिता उसमें जाना चाहिए। और निर्विचारिता में जाते ही आपकी जो कुछ भी संजोने वाली शक्तियाँ हैं, आनन्द देने वाली शक्तियाँ हैं, प्रेम देने वाली शक्तियाँ हैं, वो सब की सब समेट कर के आपके अन्दर आ जाएंगी। लेकिन जब तक आप इन चीज़ों में उलझे रहेंगे और जब तक आप ये सोचते रहेंगे कि मैं कैसे इसका सर्वनाश कर दें, इसको मैं किस तरह से खत्म कर दं, इसमें मैं क्या इलाज कर लूं? और इस तरह से आप षड़्यन्त्र बनाते रहेंगे, तब तक आप सच्ची मानिए कि उसका असर आप पे होगा, उस पर नहीं। रामदास स्वामी ने कहा है कि, 'अल्प धारिष्ट पाये' माने आपका थोड़ासा जो धीरज है उसको परमात्मा देखता है, लेकिन आपके अन्दर इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं, इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं कि उनको पहले आप पूरी तरह प्रफुल्लित करना चाहिए। अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए, उनको जानना चाहिए । अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए। अब ये शक्तियाँ नष्ट होती हैं। सहजयोगियों में भी जागती है फिर नष्ट हो जाती है, जागती हैं फिर नष्ट हो जाती है। उसकी क्या वजह है? एक बार जगी हुई शक्ति क्यों नष्ट होती है? जैसे कि एक मनुष्य में आज शक्ति है कि वो बड़ी भारी कला में निपुण हो गया। सहजयोग में अपने से बहुत लोग कला में निपुण हो गये, कला के बारे में जान गये, उनमें एक तरह की बड़ी चेतना आ गई, उनका सृजन बहुत बढ़ गया। ॐ ३ लोग देख के कहते हैं कि वह एक कलाकार ऐसा है कि समझ में ही नहीं आता। पर फिर वो उसी कला में उलझ जाता है। फिर उसकी शोहरत हो गई, नाम हो गया, उसी में उलझता जाता है। जब वो उलझ जाता है इस चीज़ में तब फिर उसकी शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। क्योंकि उसकी शक्तियाँ भी उसमें उलझ जाती हैं। जैसे कि मैंने पहले भी | बताया था कि किसी पेड़ के अन्दर बहुता हुआ उसका जो प्राण रस है वो घूम-घाम कर के वापस लौट जाता है। उसी प्रकार जो भी आपके अन्दर शक्तियाँ आज प्रवाहित हैं और जिन शक्तियों के कारण आप आज कार्यान्वित हैं वो सारी ही चीजें, आपको जानना चाहिए कि इस शक्ति का ही प्रादर्भाव है और उसमें आपको उलझने की कोई जरूरत नहीं। आप उसमें एक निमित्त मात्र हैं तो यह आपकी शक्तियाँ कभी भी दुर्बल नहीं होंगी और कभी भी नष्ट नहीं होंगी। उसी प्रकार अनेक बार मैंने देखा है कि सहजयोगियों का चित्त जो है वो ऐसी चीज़ों में उलझते जाता है । किसी चीज़ से भी वो बड़प्पन में आ गए, किसी चीज़ से उन्होंने बहुत प्रगति पा ली। आप जानते हैं कि बहुत से विद्यार्थी जो कि कक्षा में कुछ नहीं कर पाते थे प्रथम दर्ज में आने लग गए। सब कुछ बहुत अच्छा हो गया। तो फिर वो कभी सोचने लग जाएं 'वाह, हम तो कितने बड़े हो गए।' जैसे ही ये सोचना शुरू हो गया वैसे ही ये शक्तियाँ आपकी खत्म हो जाएंगी और गिरती जाएंगी। अब सोचना यह है कि हमें क्या करना है? जैसे समझ लीजिए किसी आदमी का एकदम बिजनैस बढ़ गया या उसको खूब रूपया मिलने लग गया या उसके पास कोई विशेष चीज़ आ गई तो उसे क्या करना चाहिए? उसे हर समय सतर्क रहना चाहिए और यही कहना चाहिए कि 'माँ, ये आप ही कर रहे हैं। हम कुछ नहीं कर रहे हैं। ये आप ही की शक्ति कार्यान्वित है। हम कुछ नहीं कर रहे हैं।' बहुत जरूरी है कि आप सतर्क रहें क्योंकि उसके बाद जब आपकी शक्तियाँ खत्म हो जाएगी तो आप खुद ही कहेंगे कि 'माँ, सब डूब गई, सब खत्म हो गया। ये कैसे ?' जो भी शक्ति कार्य कर रही है उसको कार्यान्तिव होने दें। जैसे एक पेड़ है समझ लीजिए उस पेड़ के पत्ते कैसे गिरते हैं । आपने सोचा है? उसमें बीच में एक बुच के जैसी जिसे कोर्क कहते हैं, बीच में आ जाती है। पत्ते और पेड़ के बीच में एक कोर्क आ जाती है। उसके बाद फिर शक्ति आती ही नहीं । तो | चीज़ वो गिर जाता है पत्ता। इसी प्रकार मनुष्य का भी होता है। आज इसकी शक्ति एक महान शक्ति से जुड़ी है और वहाँ से वो उसे प्राप्त कर रहा है। लेकिन जैसे ही वो अपने को कुछ समझने लग जाए या उसके अहंकार में बैठ जाए या उसकी जो अनेक तरह की गतिविधियाँ हैं, जिस तरह की स्पर्धा आदि में उलझता जाए तो उसके बीच में एक दरार पड़ जाएगी और उस दरार के कारण वो मनुष्य फिर उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जो उसने प्राप्त किया हुआ है। क्योंकि वो तो एक निमित्त मात्र था। लेकिन जो शक्ति अन्दर उसके अन्दर बह रही थी वो शक्ति ही बीच में से कट गई। जैसे कि अभी इसकी (माइक) शक्ति कट जाए तो शायद मेरा लेक्चर न बंद हो, पर ऐसे हो सकता है। हमको एक बात को खूब अच्छे से जान लेना चाहिए कि हमारे अन्दर जो शक्तियाँ जागृत हुई हैं और जो कुछ भी हमारे अन्दर की विशेष स्वरूप के व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली जो नई आभा हमें दिखाई दे रही है इस शक्ति को हमें रोकना नहीं चाहिए। इसके ऊपर हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम कुछ बहुत बड़े हो गए या हमने कुछ बहुत बड़ा पा लिया। दूसरी तरफ से ऐसा भी होता है कि जब यह शक्ति आपके अन्दर जागृत हो जाती है उस वक्त आपमें एक तरह का उदासीपन भी आ सकता है। इस तरह का कि अभी दूसरे साहब तो इतने पहुँच गए, हम तो वहाँ पहुँचे नहीं । उन्होंने ये कर लिया, हमने ये किया नहीं। और हर तरह से आदमी उलझते जाता है। और उस में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो छोटी-छोटी बातों पर ही अपने को दुःखी मानते हैं, बहुत छोटी बातों पर, जैसे आप सबको बैग मिला मुझको बैग नहीं मिला। गणपति में पुणे में हमें बड़े अजीब - अजीब अनुभव आये कि लोग आये, कहने लगे, 'माताजी, हमको इस चीज़ का डिब्बा दे दो |' मैंने कहा, 'भाई, ये भी कोई तरीका हुआ?' दूसरे ने कहा कि आपने मुझे इतना दिया लेकिन उसको नहीं दिया।' ये कोई बात हुई? उस मौज में और आनन्द में ये सब सोचने की बात ही नहीं है। छोटी-छोटी बात में वो दुःखी हो जाते हैं। फिर ऐसी जिसको बहुत बड़ी बात समझते हैं कि किसी की, समझ लीजिए पति ने विद्रोह कर दिया या किसी पति का रास्ता ठीक नहीं रहा तो उसकी पत्नी रोते बैठेगी। या किसी की पत्नी ठीक नहीं तो पति रोते बैठेगा। अरे भाई, आपकी कितनी बार शादियाँ हो चुकी पहले जन्म में। और अब इस जन्म में एक शादी हुई, चलो, इसको किसी तरह से खत्म करो । उसीके पीछे में आप लोग रात-दिन परेशान रहो कि मुझको ये दु:ख आ गया, मेरे बच्चे का ऐसा हो गया, मेरी बच्ची का ऐसा हो गया। उसका ऐसा हो गया, उसका वैसा हो गया। इसका कोई अन्त है? इसको कोई पार कर सकता है? क्योंकि इतनी छोटी सी चीज़ है कि वो तो पकड़ में ही नहीं आती। इतनी क्षुद्र बात है कि वो मेरी पकड़ ही में नहीं आती। कोई भी आएगा तो ऐसी छोटी-छोटी बातें मुझे बताते हैं, मुझे बड़ी हंसी आती है। पर मैं चुपचाप सुनती रहती हूँ। देखिए में कहती हूँ कि आप सहजयोगी हैं? सागर के जैसे तो आपका हृदय मेैंने बना दिया और हिमालय के जैसा आपका मैंने मस्तिष्क बना दिया और आप ये क्या छुटर-पुटर बातें कर रहे हो कि जिसका कोई मतलब ही नहीं रहता। इसकी बात, उसकी बात, दुनियाभर की फालतू की बातें करना और जो सहज की बात है वो बहुत कम होती है। उसमें मौन लगता है। क्यों सहज में तो कुछ हमने ध्यान ही नहीं | दिया। सहज में तो मौन हो जाता है। अभी मैंने सुना कि पूना में लोग जरा कम आने लग गए हैं, ध्यान में, क्योंकि महाभारत शुरू हो गया है। वैसे मैंने तो अभी तक देखा ही नहीं है महाभारत। जो एक देखा है वो ही काफी है। अब देखने की क्या जरूरत है? अब अपने को दूसरा महाभारत करने का है ? और वो महाभारत देखने का शौक है तो उसकी वीडियो फिल्म मंगा लेना, देख लेना लेकिन पूजा छोड़ कर के और आपका सेन्टर छोड़ कर के आप महाभारत देखते हैं तो आपकी वो शक्ति कहाँ दिखेगी? वो महाभारत में चली गई। महाभारत हुए तो हजारों वर्ष हो गए उसी के साथ वो भी खत्म हो गई। तो ये जो मनोरंजन पर भी लोगों का बड़ा ध्यान रहता है। किसी चीज़ से हमारा मनोरंजन हो। ऐसा ही हर एक चीज़ में मनुष्य उलझते जाता है। तो कोई भी चीज़ में अति में जाना ही सहज के विरोध में पड़ती है। जैसे अब संगीत का शौक है तो संगीत ही संगीत है । फिर ध्यान भी नहीं करने का। बस, संगीत में पड़े हैं। मनोरंजन है। फिर कविता में पड़ गए तो कविता में ही | उलझ गए। कोई भी चीज़ में अतिशयता में जाना भी सहज के विरोध में जाता है। ये इस बात को आप गाँठ बाँध कर रख लें। और दूसरी चीज़ जो हमारी शक्तियाँ उनको सम्यक होना चाहिए तभी हमें सम्यक ज्ञान मिलेगा, माने संघटित ज्ञान। गर एक ही चीज़ के पीछे में आप पड़े रहे और एक ही चीज़ को आप देखते रहे तो आपको सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता है। आपको एक चीज़ का ज्ञान होगा। अब जैसे मैंने देखा है कि बहुत सी स्त्रियां होती हैं, बड़ी पढ़ी लिखी होती हैं पर कभी अखबार नहीं पढ़ती उनको दुनिया में पता ही नहीं क्या हो रहा है। रहे आदमी लोग तो उनका ऐसा है कि उनको सिर्फ ये मालूम है कि कौनसा खाना अच्छा बनता है, किस के घर में अच्छा खाना बनता है। किसके घर जाना चाहिए अच्छा खाने के लिए। एक खाने के मामले में तो हिन्दुस्तानी बहुत ही ज्यादा उलझे हुए लोग हैं। बहुत ज्यादा। और औरतें भी | 28 ऐसी हैं कि बेवकूफ बनाने के लिए अच्छे-अच्छे खाने खिलाकर के उनको ठिकाने लगाती हैं। इसमें दोनों की शक्तियाँ उलझ जाती हैं, दोनों की। रात-दिन ये खाने के बारे में, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मैं ये टाइम को खाऊंगा, मैं वो टाइम से खाऊंगा। ये करूंगा। उधर औरतें आदमियों को खुश करने के लिए वो ही धन्धे करती रहती हैं। उसमें औरतों की शक्ति भी नष्ट होती है। और आदमियों की भी शक्ति नष्ट होती है। इसलिए, मैंने यह तरीका निकाला है कि सहजयोगियें को सबको खुद खाना बनाना आना चाहिए। अगर किसी ने कहा मुझे ये खाने को चाहिए तो आप ही बनाये । हालांकि उसके बाद सबको भूखा ही रहना पड़ेगा। पर कोई हर्ज नहीं। आपको कहना चाहिए अच्छा आपको ये चीज़ खानी है तो आप ही इसको बना दीजिए। तो बड़ा अच्छा रहेगा। जब आप बनाना शुरू करेंगे तब आप समझेंगे कि ये चीज़ क्या है। क्योंकि किसी भी चीज़ को टीका- टिप्पणी करनी तो बहुत आसान चीज़ है। किसी चीज़ को अच्छा कहना, बुरा कहना बहुत ही आसान चीज़ है। लेकिन वो खुद जब आप करने लगते हैं तो पता चलता है कि ये टीका-टिप्पणी हम जो कर रहे हैं ये बिल्कुल बेवकूफी है। क्योंकि हमें कोई अधिकार ही नहीं । तो इस कदर की छोटी-छोटी चीज़ों में भी लोग मुझे आ कर बताते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। आप अब साधु हो गए हैं। आपके अन्दर सबसे बड़ी जो शक्ति आई है वो ये, आप कोशिश करके देखिए और मैं बात कहती हैं। उसकी प्रचीति आएगी कोशिश करके देखिए आप जमीन पे सो सकते हैं, आप रास्ते पर सो सकते हैं। आप दस-दस दिन भी भूखे रह जाए आपको भूख नहीं लगेगी। आप कैसा भी खाना है उसे खा लेंगे, आप कुछ नहीं कहेंगे। इसमें आप हमारे परदेस के सहजयोगियों ने बताया कि ब्रह्मपुरी में इन्तजाम सब ठीक नहीं रहा । लोगों का दिमाग ही खराब हो गया था। क्योंकि आप नहीं गए, तो बहुत तकलीफ हुई उनको खाने-पीने की और कुछ अच्छा नहीं लगा। ऐसा बताया। तो मैंने उन लोगों से जा कर पूछा कि, 'भाई, सबसे ज्यादा तुमको कहाँ मजा आया?' तो उन्होंने कहा, 'ब्रह्मपुरी में सबसे ज्यादा मजा आया।' तो मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि इतनी शिकायतें हुई, 'क्यों? ब्रह्मपुरी में क्या बात है?' तो कहने लगे कि, 'वहाँ कृष्णा बहती है। उसके किनारे में बैठो तो लगता है कि माँ जैसे आपकी धारा बह रही हो।' वो सब यही बातें करते रहे। यहाँ ये लोग खाने-पीने की सोचते हैं। इसलिए जब कभी-कभी लोग कहते हैं कि हम लोगों का समर्पण कम है तो उसकी वजह यह है कि हम लोग काफी उलझे हुए लोग हैं। हमारे अन्दर बहुत पुरानी परम्परा है। यहाँ अनेक संत हो गए, बड़े-बड़े लोग हो गये, बड़े-बड़े आदर्श हो गये और उन आदर्शों की वजह से हमें मालूम है कि अच्छाई क्या है। लेकिन उसके साथ ही साथ हमारे अन्दर एक तरह की ढोंगी वृत्ति आ गई। हम ढोंग भी कर सकते हैं। कोई भी आदमी अपने को राम कह सकता है। कोई भी आदमी अपने को भगवान कह सकता है, कोई भी आदमी अपने को सीताजी कह सकता है। ये ढोंगीपने की हमारे यहाँ बड़ी भारी शक्ति है। साधु- एक साहब ने मुझे कहा कि, 'देखिए वो तो भगवान हैं।' मैंने कहा, 'कैसे?' 'वो कहते हैं वो भगवान हैं। मैंने कहा, 'उसको कहने में क्या लगता है? ऐसे कैसे कहेगा कोई कि मैं भगवान हैँ।' मैंने कहा, 'कह रहे हैं वो भगवान है लेकिन उसके कुछ तरीके होते हैं। जो आदमी फूल को नहीं सूंघ सकता वो भगवान कैसे हो सकता है?' 'हाँ, ये तो बात है पर वो ऐसा क्यों कह रहे थे ? पर वो ऐसा क्यों कह रहे हैं?' मैंने कहा, 'क्योंकि वो आप नहीं। वो ये ही नहीं समझ सकते कि लोग इतना सफेद झूठ इतने जोर से कह सकते हैं या किसी के लिए कहते हैं। पर वो उसको रूपया ही चाहिए न, ठीक है, वो रूपया लेता है लेकिन हमको तो वो 29 ২३ । ३ आध्यात्मिकता देगा। तो क्या हर्ज है। हमें तो अध्यात्म लेना है, लेने दो रूपया, रूपये में क्या रखा है? रूपया दे दो उसको। रूपयों में क्या रखा हुआ है। अध्यात्म के पाने की बात है। अध्यात्म अगर वो हमको दे रहा है तो हम उसको रूपया दे रहे हैं। रूपये में तो कोई खास चीज़ होती नहीं । ये जो उनकी तैयारी आज हो गई है। वो हमारे अन्दर तैयारी अभी तक हो नहीं पाई। इसके लिए क्योंकि हमारे सामने आदर्श बहुत अच्छे हैं। महाभारत है, राम हैं, ये हैं, वो हैं। और हम उसी कीचड़ में बैठे हुए हैं।। अगर कोई कीड़ा कहे कि मैं कमल हो गया तो हो नहीं सकता और अगर उसको कमल बना भी दिया तो भी ढंग वही चलेगा। इसलिए समझ लेना चाहिए कि हैं और हमारे अन्दर ये जो इतनी ऊंची-ऊंची बातें हो गई और जिससे हम सारी तरफ से पूरी तरह से ढके हुए जिसके कारण हम लोग बहुत ऊंचे भी हैं, समझे कि हमें वो ही होना है जो हम देख रहे हैं, इस मामले में हमारे अन्दर आन्तरिक इच्छा हो, ऊपरी नहीं। अन्दर से लगना चाहिए। क्या हमने इसे प्राप्त किया ? क्या हमने अपने ध्येय को प्राप्त किया ? क्या हमने इसे पाया है? उसे हमें पाना है इस मामले में ईमानदारी अपने साथ रखनी है। और जब तक ईमानदारी नहीं होगी तब तक शक्ति आपके साथ ईमानदारी नहीं कर सकती। ये आपका और अपना निजी सम्बन्ध है। अनेक तरह से आप अपने को पड़तालिये और देखिए हमारे अन्दर ये शक्तियाँ क्यों नहीं जागृत हो रहीं। क्यों नहीं हम इसे पा सकते। कारण हम अपने को, खुद ही अपने को एक तरह से काटे चले जा रहे हैं। तो किसी भी तरह की ढोंगी वृत्ति का सहजयोग में स्थान ही नहीं है । हृदय से आपको महसूस होना चाहिए। हर एक चीज़ को हृदय से पाना चाहिए । अपने अंतरात्मा से उसे जानना चाहिए । उसके लिए कोई भी ऊपरी चीज़ आवश्यक नहीं। कोई हैं कि मुस्करा कर बैठे रहेंगे, कोई जरूरत है मुस्कराने की? कोई है कि बड़े गम्भीर हो के बैठे रहेंगे, ये सब नाटक करने की कोई जरूरत नहीं। जो आपके अन्दर भाव है वो बाहर आ रहा है उसमें कौनसा नाटक करने की जरूरत है ? उसमें कौनसी आफत करने की है? जो हमारे अन्दर भाव है वही हम प्रकटित कर रहे हैं। क्योंकि हमारे अन्दर जो भाव हैं वो इस शक्ति से बहता हुआ बाहर चला आ रहा है और | उसको हम प्रकटित कर रहे हैं और जो लोग इस तरह से एक बात समझ लें कि हमें पूरी तरह से ईमानदारी सहजयोग करना है तो धीरे-धीरे इसमें खिसकते जाएंगे । जिस तरह से वहाँ पर मैं लोगों में देखती हूँ आत्मसमर्पण है उनमें। मैं यह जरूर कहँगी कि उस आत्मसमर्पण के पीछे में एक बड़ी भारी कमाल है। और वो कमाल ये है कि वो सोचते हैं कि हमारा कल्याण सिर्फ आत्मिक ही होना चाहिए। हमारा आत्मिक कल्याण होना चाहिए। और कोई भी बात वो नहीं सोचते। सहजयोग के लाभ अनेक हैं। आप जानते हैं इससे तन्दरुस्ती अच्छी हो जाएगी, आपको पैसे अच्छे मिल जाएंगे, आपकी नौकरी अच्छी हो जाएगी, आप का दिमाग ठीक हो जाएगा और दुनिया भर की चीज़ें जिन्हें कि आप संसारी कहते हैं, हो जाएंगी। और उसपे भी आप का नाम हो जाएगा, शोहरत हो जाएगी। जिनको कोई भी नहीं जानता है उनका भी नाम हो जाएगा । उन्हें लोग जानेंगे, सब कुछ होगा। लेकिन हमें क्या चाहिए? हमें तो अपनी आत्मिक उन्नति के सिवाए और कुछ नहीं चाहिए। हम सिर्फ आत्मिक उन्नति पा लें। जब वो आत्मिक उन्नति मनुष्य में हो जाती है तब मनुष्य सोचता ही नहीं ये सब चीज़ें उसके लिए व्यर्थ है । कोई भी चीज़ उसके लिए ऐसी नहीं है कि जिसके लिए वो लालायित हो या परेशान हो। इस कदर वो समर्थ हो जाता है। अगर है तो है, नहीं है तो नहीं है। मिले तो मिले, नहीं है तो नहीं। ये जब अपने अन्दर ये स्थिति आ जाए, मनुष्य इस स्थिति | ॐ ३ ) । पे आ जाए, तब सोचना चाहिए कि सहजयोगियों ने अपने जीवन में कुछ प्राप्त किया। जब तक ये स्थिति प्राप्त नहीं होती तो आपकी नाव डांवाडोल चलती रहेगी। और आप हमेशा ही कभी इधर तो कभी उधर घूमते रहेंगे। पहली अपने को स्थापित करने की जो महान शक्ति आपके अन्दर है वो है श्रद्धा। उस श्रद्धा को हृदय से जानना चाहिए और उसकी मस्ती में रहना चाहिए, उसके मजे में आना चाहिए, उसके आनन्द में आना चाहिए, तो जो ये श्रद्धा की आल्हाददायिनी शक्ति है उस आह्वाद को लेते रहना चाहिए, उस खुमारी में रहना चाहिए। उस सुख में रहना चाहिए। और जब तक मनुष्य उस आह्वाद में पूरी तरह से घुल नहीं जाएगा उसके सारे जो कुछ भी प्रश्न हैं, समस्याएं हैं वो बने ही रहेंगे, बने ही रहेंगे। क्योंकि समस्याएं वगैरा सब माया है। ये सब चक्कर है। अगर किसी से पूछो कि भाई, तुम्हें क्या समस्या है? तो मुझे सौ रूपया मिलना चाहिए, मुझे पचास रुपये मिलते हैं। जब सौ रुपये मिले तो फिर क्या समस्या है ? मुझे दो सौ रुपये मिलने चाहिए तो मुझे सौ ही रुपये मिले। वो तो खत्म ही नहीं हो रहा। फिर दूसरी क्या समस्या है कि मेरी बिवी ऐसी है। फिर तुम दूसरी बिवी कर लो , वो भी ऐसी है, तीसरी आई वो भी ऐसी है तो आपकी समस्या नहीं खत्म हो रही क्योंकि आप स्वयं इनको खत्म नहीं कर रहे। ये सबको खत्म करने का तरीका यही है कि अपनी श्रद्धा से आप अपने आत्मा में जो आनन्द है उस का रस लें और उसी रस के आनन्द में रहें आखिर सारी चीज़ है ही हमारे आनन्द के लिए, लेकिन जब तक हम उस रस को लेने की शक्ति को ही नहीं प्राप्त करते हैं तो क्या फायदा होगा? ये तो ऐसा ही हुआ कि एक मक्खी जा कर के बैठ गई फूल पर और कहेगी कि साहब मुझे तो कुछ मधु नहीं मिला। उसके लिए तो मधुकर होना चाहिए। जब तक आप मधुकर नहीं होंगे तो आपको मधु कैसे मिलेगा? गर आप मक्खी ही बने रहे तो आप इधर-उधर ही भिनकते रहेंगे। लेकिन जब आप स्वयं मधुकर बन जाएंगे तो आप कायदे की जगह जा करके जो आपको रस लेना है, रस ले कर के मजे में पेट भर कर के और आराम से आनन्द से रहेंगे। यही सबसे बड़ी चीज़ सहजयोग में सीखने की है कि हमारा चित् पूरी तरह से एक चीज़ में डूबा रहना चाहिए। और वो है आत्मिक हमारी उन्नति होनी चाहिए। पर उस का मतलब यह नहीं कि पूरा समय अपने को बन्धन देते रहो या पूरा समय आँखें बंद करें उसकी कोई जरूरत नहीं। सर्वसाधारण तरीके से रोजमर्रा के जीवन को कुछ भी न बदलते हुए जैसे आप हैं वैसे ही उसी दशा में आपको चाहिए कि आप अपने अन्दर जो हृदय में आत्मा है उसके रस को प्राप्त करें। जब उसका रस झरना शुरू हो जाता है तो आप ही में कबीर बैठे हैं और आप ही में नानक बैठे हैं, और आप ही में सारे बड़े-बड़े संत साधु हो गए, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ सब आप ही लोगों में बैठे हैं। और उनको बिचारों को, कोई बताने वाला भी नहीं था, उनके संरक्षण के लिए कोई नहीं था। ये सब आपको प्राप्त है। आप तो अच्छी छत्रछाया में बैठे हुए हैं। तो भी आप उस छत्रछाया में बैठ कर के एक अपनी भी छतरी खोल लेते हैं और उसके बारे में फिर चर्चा करते हैं, तो इससे तो आपकी शक्तियाँ कम हो ही जाएंगी| इस बार हमें गौर करना चाहिए कि हमारी कितनी शक्तियाँ हैं और हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हमने देखी और वो कैसे कार्यान्वित हो रही हैं। आप जो चाहे सो करें। जो आप इच्छा करेंगे वो आपको मिलेगा लेकिन आपकी इच्छा ही बदल जाएगी। आपके तौरतरीके ही बदल जाएंगे जैसे आज अब कोई महाभारत देखने को नहीं रूकेगा। क्या सोचेगा ? अरे बाप रे, आज माँ का इतना अच्छा समय बंधा हुआ है, माँ स्वयं आ रही है, पूजा का मौका है, सारी दुनिया से लोग दौड़े आएंगे। अब बाहर अमेरिका से, अभी मैं जा रही हूँ, उन्होंने कहा, 'एक दिवाली पूजा जरूर करना ।' उसके लिए मेरे ख्याल से सारे ब्रह्माण्ड से लोग वहाँ पहुँच जाएंगे । लेकिन यहाँ कलकत्ते से भी लोगों को आने में मुश्किल हो जाती है। और साक्षात् हम बैठे हुए हैं। ऐसे-ऐसे लोग हैं कि जो बिल्कुल आसानी से आ सकते हैं। अपने काम के लिए दस मर्तबा दौड़ेंगे। लेकिन इसको नहीं समझते कि कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है ? उसका महत्व नहीं समझ पाते क्योंकि श्रद्धा कम है। वो कहते हैं जब हम रिटायर्ड हो जाएंगे तब आएंगे। सुविधा के साथ। रविवार के दिन करिए पर एक दिन उससे पहले छुट्टी होनी चाहिए नहीं तो बाद में छुट्टी होनी चाहिए। अब ऐसी रोनी सूरत लोगों के लिए क्या सहजयोग है? ये घोड़े कहाँ तक जाएंगे? ये तो खच्चर भी नहीं। जो लोग इस तरह की बातें सोचते हैं वो सहजयोग में कहाँ तक पहुँचेंगे ये मेरी समझ में नहीं आता। सब सुविधा होनी चाहिए, शनिवार, इतवार होना चाहिए और उसमें से भी जैसे ही प्रोग्राम खत्म होगा हम भाग जाएंगे क्योंकि | हमको कल दफ्तर में जाना है। तुम जाओगे कल भी सब ठीक हो जाएगा। लेकिन गर आप ऐसी जल्दबाजी करोगे तो खंडाला के घाट में आपको रोक लेंगे हम। लेकिन ये सब चूहल, ये सब शैतानियाँ हम कितनी भी करें लेकिन आपके अक्ल में जब तक ये चीज़ घुसेगी नहीं क्या फायदा ? तो चाह रहे हैं कि किसी तरह से आपको रास्ते पर ले आएं। अब रास्ते पर लाने पर गर बार-बार आप लोग फिसल पड़े तो कितनी हमें मेहनत करनी पड़ेगी। और आपकी जो शक्तियाँ जागृत हो सकती हैं, जो अपने आप पनप सकती हैं बढ़ सकती हैं वो सारी शक्तियाँ कहाँ से कहाँ नष्ट हो जाएंगी? तो अपने को पहले आपको संवारना है। अपनी शक्तियों के गौरव में उतरना है और ये जानना है कि हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हैं और हम कितनी शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं? हम कितने ऊंचे उठ सकते हैं। हम दूसरों को क्या-क्या लाभ दे सकते हैं। इतना भंडार हमारे अन्दर पड़ा हुआ है। सारा कुछ खुल गया, चाबी मिल गई अब खुल जाने पर सिर्फ उसमें से निकाल के लोगों को बाँटना है और उसका मजा उठाना है। आज ये जो शक्ति की पूजा हो रही है वो असल में, मैं चाहती हूँ कि आप जानिए कि आपकी ही शक्ति की पूजा होनी चाहिए। जिस से आप एक बड़े ईमानदार और एक सच्चे तरीके से श्रद्धामय हो जाए। साधु-संतों को कुछ कहना नहीं पड़ता था। वो मार खाएंगे, पीटे जाएंगे, उनको जहर देंगे, चाहे कुछ करिए उनकी लगन नहीं छूटती। अब आप लोगों को तो कनेक्शन लगा दिया लेकिन वो इतना ढीला कनेक्शन है कि बार-बार लगाना पड़ता है। फिर से किसी बात से छूट जाता है। फिर से किसी बात से लगाना पड़ता है, सो अब सोचना यह है आपको कि अपने अन्दर की सारी ही शक्तियाँ हमें जागृत करनी है तो फिर कोई कमी नहीं रह जाएगी। कोई आपके सामने प्रश्न ही नहीं रह जाएंगे। इन शक्तियों का जागृत करना बहत आसान है। एक ही बात है कि आपकी लगन होनी चाहिए । जिसको लगन हो जाएगी, जो पूरी तरह से लगन से सहजयोग में उतरेगा और जिसका जी हमेशा सहजयोग में ही खींचा रहेगा, उधर ही ध्यान रहेगा उसका तो क्षेम हो ही जाएगा। पर पहले योग घटित होना चाहिए और आधा-अधूरा योग किसी काम का नहीं। न इधर के रहे न उधर के रहे। ऐसी हालत हो जाएगी। एक छोटे से बीज में हजारों वृक्ष निर्माण करने की शक्ति है। तो आप तो ऐसे हजारों वृक्षों के मालिक मनुष्य हैं। और उनमें से हजारों लोगों को शक्तिशाली बनाने की शक्ति आपके अन्दर है लेकिन गर इस बीज का अंकुर निकालने के बाद गर आप रास्ते पे फेंक दीजिए और उसकी परवाह न करें और इसका गर पेड़ नहीं हुआ तो इसकी शक्ति कुंठित हो जाएगी। तो अपने लिए पूरी तरह से आप इसका अंदाज करे कि हम क्या हैं और हम क्या कर रहे हैं? और कहाँ तक हम पहुँच सकते हैं? इससे आपस के झगड़े छोटी-छोटी क्षुद्र बातें ऐसी चीज़ें जो कि रास्ते पर के भी लोग न करे, असभ्यता ये तो अपने आप से ही ढह जाएगी। वो तो बचने ही 32 नहीं वाली। लेकिन आपका जो स्वयं सुन्दर स्वरूप है वो निखर आएगा। और लोग कहेंगे कि ये एक शक्तिशाली मनुष्य खड़ा हुआ है। एक विशेष स्वरूप का आदमी खड़ा हुआ है। एक महान कोई व्यक्ति है। ऐसा अनूठा उसका सारा व्यवहार है। वो किसी से डरता नहीं, निर्भय है। जहाँ कहना है, कहता है, जहाँ नहीं कहना नहीं कहता। ये आ जाए, बाबा भी आ जाए फिर बाबा के नाना भी आ जाए सो नहीं हो सकता। जो आप हैं उस लायक वो लोग नहीं। वो नालायक हैं। जो नालायक हैं उन को छोड़ देना चाहिए। उससे क्यों झगड़ा करना? नालायक लोगों से झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं। 'नसीब आपके फूटे जो नालायक से शादी कर ली।' ऐसा सोचना चाहिए और नसीब आपके फूटे जो नालायक आपके माँ-बाप हैं। जो नालायक हैं उनको काहे को जबरदस्ती सहजयोग में लाना और मेरी खोपड़ी पर लादना कि 'माँ, इसको ठीक करो क्योंकि वो मेरी बिवी है, क्योंकि वो मेरा बाप है, क्योंकि मेरा बाबा, मेरा दादा।' मेरा उनसे कोई रिश्ता नहीं बनता। गर वो सहजयोग में नहीं हैं। तो उनको आप नालायकों को बाहर ही रखिए। जो लायक लोग हैं उनसे रोज दोस्ती करिए, उनके मज़े में रहिए। आपको जरूरत क्या है? पर यही बात हम लोग नहीं समझ पाते कि दुनियादारी ये रिश्ते ऐसे चलते रहते हैं। इसमें कुछ रखा नहीं, हाँ गर आपकी जिनके साथ में संगति है वो आपके साथ उठ सकते हैं, आपके साथ चल सकते हैं, आपके साथ बन सके तो ठीक है । और नहीं तो ऐसे नालायक लोगों को कोई जरूरत नहीं सहजयोग में लाने की। मैं देखती हैँ कि ही नालायक लोग सहजयोग में कभी-कभी इस रिश्ते से आ जाते हैं और मेरा बड़ा सिर दर्द हो जाता है। आपकी लियाकत थी इसलिए आप आये और आप सहजयोग को प्राप्त हुए। आपको आशीर्वाद मिला। आपने बहुत कुछ पा लिया और आगे आप पा सकते हैं। और जो भिखारी भी हैं और उसकी झोली में छेद भी है उनको और देने से क्या फायदा? लो करेला नीम चढ़ा। ऐसे लोगों से रिश्ता रखने की आपको कोई जरूरत नहीं है । उनसे कोई ৬ बहुत बात करने की जरूरत नहीं। मतलब रखने की जरूरत नहीं है। उनको बकने दीजिए। गर उनका दिमाग ठीक तो वो आएंगे और सहजयोग में उतरेंगे। और नहीं हुए तो आप अपना दिमाग क्यों खराब करते हैं ? हुआ उससे कोई फायदा नहीं है। ऐसे लोगों के पत्थर के जैसे सर होते हैं। उससे कोई फायदा नहीं होता, वो देख ही नहीं सकते। तो आज से हम लोगों को सोचना है कि हम एक व्यक्ति हैं, स्वयं | और इसे हमने प्राप्त किया है अपने- अपने पूर्वजन्म के कर्मों से। क्योंकि हमने बहुत पुण्य किये थे। इसलिए हम आज इस स्थान पर बैठे और इससे भी ऊँचे स्थान पर हम बैठा सकते हैं और जा सकते हैं। तो अपने पीछे में बड़े-बड़े इस तरह के पत्थर लगा कर के आप समुद्र में मत कूदिए। आपको गर तैरना आता है तो मुक्त हो कर के तैरिए। उसका आनन्द उठाईये। और अपनी सारी शक्तियों से आप प्लावित होईए। आज मेरा अनन्त आशीर्वाद है कि आपके अन्दर की सुप्त सारी ही शक्तियाँ जागृत हों और धीरे-धीरे आप इसको महसूस करें। और उसकी जो अन्दर से प्रवाह की विशेष धारायें बहें उसके अन्दर आप आनन्द लूटें। हुए हैं। यही मेरा आप सबको अनन्त आशीर्वाद है। 33 প 6 आपका उत्तरदायित्व lt आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति के क्षण से ही कुछ लोगों ने सहजयोग के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस कर लिया। बिना किसी अहं के जो लोग सभी कुछ दे सकते थे वे भारतीय सहजयोगी हमारी सहायता के लिए भेजे गये। यदि हम ध्यान नहीं करेंगे तो हमारा अहं बढ़ सकता है, और हमारा चित्त ऐसी घटिया चीज़ों पर जा सकता है जैसे नेता किस प्रकार बनें और इस अवस्था से इसका पतन, क्रोध तथा हिंसा तक हो सकता है। इससे बचने के लिए प्रतिदिन सुबह शाम ध्यान करें तथा बन्धन में रहें। हम यह प्रार्थना भी कर सकते हैं, 'श्री माताजी, यदि मुझ में अहं बाकी है तो कृपया इसे दूर कर दीजिए।' प्रातः काल स्वयं से पूछने का पहला प्रश्न है 'सहजयोगी होने के नाते मेरा क्या उत्तरदायित्व है? इससे हमें आश्चर्यजनक शक्तियाँ तथा अनुभव प्राप्त होंगे। 'अब ध्यान में आओ, ध्यान में आओ' की बौछार हमने स्वयं पर प्रतिदिन करनी है। बहुत सी अवस्थाओं में, तब आप निर्विचार समाधि में आ जाएंगे। प्रतिदिन जब तक हम स्वयं को शुद्ध न करेंगे, हम स्वयं को न जान पाएंगे। अन्तर्मन के माध्यम से हम अन्तस में देखेंगे। प्रश्न कीजिए, 'मैं ऐसा क्यों हूँ? मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ? मैं कौन हूँ?' इन प्रश्नों का उत्तर जब हमें मिल जाएगा तो अपने मूल्य, अपने महत्व को हम जान पाएंगे। श्री माताजी ने कहा कि, 'यदि हम नहाये-धोये होंगे तो किसी भी वस्तु को छूने से पहले हम ध्यान रखेंगे कि हमें पुन: गन्दा नहीं होना है।' गन्दे कपड़ों में दाग छुप जाते हैं। साफ कपड़ों पर धब्बे स्पष्ट दिखाई देते हैं। स्वयं को साफ किये बिना हम अपनी कमियों को न जान पाएंगे। साक्षी रूप से स्वयं को देखकर हमें समझना है कि हमारा दुर्व्यवहार हमारे मस्तिष्क की विकृति की देन है। यह दिमाग ठीक किया जाना चाहिए। दिन की समाप्ति के समय हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि 'सहजयोग के हित में कौन से भले कार्य किए? मैं सहजयोग की गहनता के स्तर तक क्यों नहीं हूँ? इन शक्तियों का प्रयोग मैंने सहजयोग के प्रचार के लिए कहाँ तक किया? किस सीमा तक मैं जा सकता हूँ? ज्यों-ज्यों हम गहनता को प्राप्त करेंगे, प्रदर्शन छोड़ देंगे, केवल उस गहनता को प्रसारित करेंगे। इस प्रकार एक सहजयोगी निर्लिप्त रहेगा तथा उसकी गहनता बच्चों एवं वातावरण को प्रभावित करेगी । किसी व्यक्तिगत रूप से करने की यह बात नहीं, सामूहिक रूप से हमें ध्यान करना है। कौन ध्यान में नहीं आ रहा, इसकी चिन्ता न करें। व्यक्ति को सोचना है, 'मुझे अपनी देखभाल करनी है..... यह अति स्वार्थ परता है, 'स्व' अर्थात् अपना और 'अर्थ' अर्थात लक्ष्य या ध्येय। कौन क्या कहता है, क्या करता है, इसकी चिन्ता तब आपको नहीं रहती। अपनी लक्ष्य प्राप्ति ही आपके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जिन लोगों ने इस प्रकार सोचकर कार्य किया है वे सर्व-बाधातीत हैं। किसी भी प्रकार उनका पतन नहीं हो सकता है। ब्रिसबेन, ६ / ४/१९९१ 34 न ubsesy Steril Slit प০0০০0० COC ००००००००००००००००० व्या देवी सर्व मतय बढि ेग संल्धिता NEW RELEASES On the Occasion of Ganesh Puja 2010 Speech Title Lang. ACD | ACS Date Place VCD DVD सहजयोग्यांशी हितगुज 26th Feb 1979 279 279 Pune M 19th July 1981 | Guru Puja 462 London th 463' 26™ May 1983 Shri Buddha Puja Part-I & II Brighton 311 th 464' 17" July 1983 | Puja At Surbiton Ashram 312 Surbiton/UK 24th July1983 465 Guru Puja - Why in England - Brighton Guru Purnima Seminar 14th July 1984 Guru Puja 466 Leisin 467 5th July 1985 313 Shri Trigunatmika Puja - Part I & II| Den Haag E 468* 314 Public Program 1986 Delhi Е/Н at Malvankar Hall (Delhi) 26h July 1993 315 Shri Pallas Athena Puja 41* Athens E 41 th 10" Sep 1995 San diego 88 316 Shri Ganesh Puja - Part I & II 88 E Guru Puja 26" July2000 th 210 Cabella 210 E 470 4th Sept. 2000 | Public Programme Genoa, Italy E अपनी ओर दृष्टि रखें 21 Dec. 1975 261" st Mumbai 261 Н 14th Oct. 1978 471* London Beej Mantra Bhajan Title ACD Bhajan Details Atmanubhav - Part I Ajit Kadkade 165 Atmanubhav - Part II Ajit Kadkade 166 Shehnai Vadan 167 Pt.Jagannath Mishra Nirmal Dhara Nirmal Sangeet Sarita 168 पुणे म्युझिक ग्रुप आईचा सोन्यावाणी रंग 169 FQ Books Price Code Title B 79 Eternally Inspiring Recollections -Volume 7 - Part - I 200/- B 80 Eternally Inspiring Recollections -Volume 7 - Part - II 200/- Sahajyog Parichaya Pustika - Aasami स्वरांजली B 81 2/- B 82 50/- प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन ०२० - २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in नमा नमः । সमस ात आपने कहा हुआ हर एक शब्द जागृत हीती है to और अब वो 'सिद्ध' मंत्र हैं। प.पू.मातीजी श्री निर्मला देवी इ ---------------------- 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी सितम्बर-अक्टूबर २०१० हे छ े 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-1.txt Happy Vijay 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-2.txt ह ca Dasami ८६७ इस अंक में श्री गणेश.....४ श्री गौरी ..... ७ श्री महाकाली पूजा..... ८ महाकाली की शक्तियाँ ...१४ श्री सरस्वती.....१८ श्री माताजी द्वारा दिये गये सलाह .....२२ 31 श्री शक्ति पूजा .....२४ आपका उत्तरदायित्व .....३४ স স म १ ो १ १ सपभ ॐ अब ये चरण देखो.... क्या आपको पूरा विश्व दिख रहा है ? आपका पता नहीं, मूझे तो दिख रहा है । 02১৮/6/১b 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-4.txt .......श्री गणेश का कार्य महत्वपूर्ण है क्योंकि वही आपकी प्रगति करते हैं, आपके चक्रों को करते हैं, उनमें प्रकाश डाल देते हैं, और हमेशा प्रकाश की ओर अग्रसर करते हैं। जो सूक्ष्मता आपने सहजयोग में प्राप्त की है, यह गणेश जी का ही काम है। शुद्ध ..जिस तरह से मैंने गणेश को बनाया है , उसी तरह आपको आत्मसाक्षात्कार देकर मैंने बनाया है, उसमें कोई फर्क नहीं है। एक ही तरह से, एक ही ढंग से बनाया है। आपमें यदि भोलापन, सादगी, सरलता और विश्वास हो तो ऐसे निर्मल अंतःकरण से श्री गणेश की जागृति हो सकती है। सहजयोग जो करते हैं उनको याद रखना चाहिए कि हमें निराकार में उतरना है। साकार में रहते हुए आप निराकार के पूरे माध्यम बनने वाले हैं, तो सर्वप्रथम हमें अपने अन्दर गणेश को जगाना है। केवल पूजा मात्र ही नहीं, उसे अगर जगाना है तो सर्वप्रथम हमारे अन्दर शुद्धता आनी चाहिये। श्री गणेश की तरह मनुष्य को अपना चित्त स्वच्छ कर लेना चाहिए। चित्त स्वच्छ करने का तरीका ये है कि चित्त कहाँ है?अगर आपका चित्त परमात्मा में है तो शुद्ध है क्योंकि चैतन्य आप में बहु रहा है। श्री गणेश की शक्ति अगर अपने अन्दर जागृत करनी है तो सबसे प्रथम जानना चाहिए कि हमें निराकार की ओर चित्त देना चाहिए, चैतन्य की ओर चित्त देना चाहिए और जो चैतन्य हमारे अन्दर बह रहा है उसको देखना चाहिए। अपने अन्दर वो गांभीर्य, श्री गणेश की जो शक्ति है वो गांभीर्य , अपने अन्दर वो आनंद का गांभीर्य लायें.....हम गौरी माँ की सहायता से उसकी शक्ति के साथ उस निराकार में उतरें जहाँ हम पूर्णतया आनंद में रहें और हमारे रोम रोम में वो शक्ति ऐसी बहे कि लोग दुनिया में जाने कि सहजयोग ने क्या कमालात किये। प.पू.श्री माताजी, १८-९-८८, बम्बई, चै.ल.खंड ५ अंक ९-१०, १९९३ .. सहजयोगी को पूरी तरह से, हृदय से मानना पड़ेगा। इस बात को आप गाँठ बाँध कर रखिये कि श्री गणेश का स्थान है मूलाधार चक्र पर, पर जब वे आपके हृदय में आ जाते हैं तभी आत्मस्वरूप होकर के वे चैतन्यमय होते हैं। आत्मा जो है वही श्री गणेश है और वही हमारे हृदय में प्रकाश देता है, तो वही चैतन्य है। जिसने श्री गणेश को अपने हृदय में बिठा लिया, वह तो हर समय निरानंद में डूबा रहता है, उसे और चीजों की परवाह नहीं रहती और रिद्धि - सिद्धि सब उसके पैरों के पास .... श्री तो गणेशतत्व आज्ञाचक्र के स्तर पर आकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म हो जाता है। आज्ञा चक्र पर यह जाना जाता है कि अब इसका आध्यात्मिक आयाम है। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, १८-९-१९८८ जैसा मैंने कहा कण-कण में श्री गणेश विद्यमान हैं, परन्तु आपको उन्हें जागृत करना होगा। उदाहरण के रूप में आपने चैतन्यित जल देखा है। चैतन्यित का क्या अर्थ है ? इसका अर्थ है कि जल में गणेशतत्व को जागृत किया जा रहा है। ये जल जब आपके पेट में जाता है, आँखों में जाता है, या कहीं अन्य आप इसे डालते हैं तो यह कार्य करता है। जिस चीज़ में आप इसे डालते हैं वहाँ यह गणेशतत्व को जागृत करता है। गणेशतत्व जागृत होकर चीज़ों को समझता है, इनका आयोजन करता है, इन्हें क्रियान्वित करता है। जब आप बन्धन देते हैं तो चैतन्य को गतिशील करते हैं। प.पू.श्री माताजी, ८.८.१९८९ श्री गणेश हमारे सबसे बड़े सहजयोगी हैं। उन्हें कभी योग अपनाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वे तो सदैव योग में होते ... .... हैं, वे हमारे महानतम योगी हैं। उनमें देवताओं का महानतम पद प्राप्त करने की योग्यता है। मैं तो कहूँगी कि वे हमारे महानतम देव हैं, और वास्तव में उनकी पूजा करनी चाहिये। उनके माध्यम से सभी देवों की पूजा हो जाती है और वे प्रसन्न होकर आशीर्वाद देने लगते हैं। प.पू.श्री माताजी, २५.९.१९९९ 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-5.txt इसलिए सर्वप्रथम हर स्थान पर मनुष्य को श्री गणेश को स्थापित करना होता है। प.पू.श्री माताजी, बैंगलोर, १३.२.१९९० प्रत्येक चतुर्थी को, जो कि महीने के चौथे दिन पड़ती है, श्री गणेश का जन्म दिन मनाया जाता है। इस विशेष दिन को अंगार की चतुर्थी अथवा कृष्णपक्ष की चतुर्थी कहते हैं। मंगलवार के दिन आयी इस चतुर्थी का विशेष महत्व होता है। अंगारिका क्या है? श्री गणेश जलते हुए अंगारो को ठंडा कर देते हैं। कुण्डलिनी भी एक ज्वाला है, इसका उत्थान धधकरती ज्वाला सम है। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है और ऊपर की ओर जाने वाली कोई भी चीज़ पृथ्वी की ओर खींचती है, केवल अग्नि ही गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर को जाती है। श्री गणेश दो प्रकार से आपके अन्दर की अग्नि को शान्त करते हैं, वे कुण्डलिनी को शान्त करते हैं, सभी प्रकार के अवगुणों के बावजूद भी व्यक्ति के लिये वे आत्मसाक्षात्कार की प्रार्थना कुण्डलिनी से करते हैं। वे कुण्डलिनी के बालक हैं और आपके अन्दर वे ही शिशु हैं। इस सम्बन्ध के कारण वे कुण्डलिनी को समझा पाते हैं कि आप मेरी माँ हैं और कृपया इच्छापूर्ति में मेरी सहायता कीजिये । तब कुण्डलिनी शांत होकर सोचती है कि मेरे बच्चे की इच्छानुसार मैं ऊपर उठूँ। श्री गणेश कुण्डलिनी को बताते हैं कि आप अपने बालक को जन्म दे रही हैं और इस समय आपको क्रुद्ध नहीं होना है। ये कहकर वे कुण्डलिनी को शांत करते हैं । कुण्डलिनी श्री गणेश की शक्ति द्वारा ही उठती है। कुण्डलिनी में जो शोले उठते हैं उन्हें शीतलता भी श्री गणेश ही प्रदान करते हैं, अतः एक प्रकार से वे आपके क्रोध को भी शान्त करते हैं।..... .......जब कोई राक्षस या दुष्प्रवृति मनुष्य आपको परेशान करता है तो गणों के स्वामी उनका विनाश करते हैं। आपको कुछ कहना या करना नही पड़ता। ये गण आपके साथ हैं। प.पू.श्री माताजी, गणपति पुले, महाराष्ट्र, २१.११.१९९१ सहजयोगियों का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है कि उनका गणेशतत्व ठीक रहे, इसके बिना तो पूरा सहजयोग आन्दोलन लड़खड़ा सकता है। स्त्री एवं पुरुष दोनों को ही अपनी जीवन शैली में श्री गणेश को सम्माननीय स्थान देना है। यही सर्वोपरि है, हर समय हमें याद रखना है कि श्री गणेश के आशीर्वाद से ही हमें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ है। | प.पू.श्री माताजी, २७.७.१९९३ ......अब आप विवेकपूर्ण कार्य करें क्योंकि अब आपके अन्दर श्री गणेश जागृत हैं और वे पूर्णतया विवेकशील हैं, विवेक के करते हैं। दाता हैं। यही कारण है कि वे असुर विनाशक हैं। हमारी चेतना को उन्नत करके वही हमारे सभी कष्टों को दूर .दिशाज्ञान श्री गणेश जी की देन है। श्री गणेश ही सबके अन्दर का चुम्बक हैं। हमारे अन्तःस्थित यह चुम्बक कपटी व्यक्तियों को हमसे दूर भगा कर निष्कपट और अबोध मनुष्यों को हमारी और आकर्षित करता है। निष्कपट बनने का प्रयत्न कीजिए | चातुर्य हमारे लिये आवश्यक नहीं। चातुर्य आपका मानसिक दृष्टिकोण है तथा अबोधिता आपका अन्तर्जात गुण है जो कि सर्वव्यापी | शक्ति से सम्बद्ध हैं। प.पू.श्री माताजी, आस्ट्रेलिया, २६.८.१९९० श्री गणेश की शक्ति आपमें निहित है, आपको उसका उपयोग करना है। अपने हृदय में श्री गणेश से दया, करुणा तथा क्षमा की याचना करते विशेषतया उनकी पूजा कीजिए | आइए हम सब अपने पूर्व पाखण्डों, बंधनों, दुर्विचारों तथा दोषपूर्ण जीवन को ...... अपने अन्तस में प्रवाहित होने दें। आइए हम इन गुणों को उद्घाटित करें। हुए, वायुविलीन हो जाने दें तथा अपनी अबोधिता को, धरा माँ पर बैठकर श्री गणेश अथर्वशीर्ष पढ़ें तथा श्री गणेश का ध्यान करें। आपकी सभी समस्याओं का अन्त हो जायेगा। प.पू.श्री माताजी, २६.०८.१९९० 6. 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-6.txt श्री गौरी गौरी श्री गणेश की माँ है और अपनी पवित्रता की रक्षा हेतु उन्होंने श्री गणेश को जन्म दिया। इसी प्रकार कुण्डलिनी ही गौरी हैं और हमारे मूलाधार चक्र पर श्री गणेश विराजमान है। मूलाधार गौरी कुण्डलिनी का निवास है और श्री गणेश कुण्डलिनी की रक्षा करते हैं। वे हमारी पवित्रता (अबोधिता) के देवता हैं। केवल श्री गणेश ही इस अवस्था में रहने के लिए समर्थ हैं क्योंकि (पैल्विक) श्रोणीय-चक्र हमारे मल-मूत्र त्याग क्रियाओं को देखता है और वातावरण की गन्दगी के प्रभाव-मुक्त, केवल श्री गणेश ही वहाँ रह सकते हैं। वे इतने शुद्ध तथा अबोध हैं।......कुण्डलिनी श्री गणेश की कुँआरी माँ हैं। लोग माँ मेरी के विरुद्ध बोलने लगे हैं कि उन्हें कैसे पुत्र हो सका। इसका कारण हमारी नासमझी है कि परमात्मा के साम्राज्य मे सभी कुछ सम्भव है। वे इन बातों से ऊपर हैं। तथा पवित्र हैं। श्री गणेश यदि दुर्बल हों तो कुण्डलिनी को सहारा नहीं दिया जा सकता। कुण्डलिनी के जागृति के समय श्री गणेश अपने सारे कार्य रोक देते हैं। मैं कभी-कभी नौ-दस घंटे एक ही गौरी पूजा, ऑकलैण्ड, ८.४.१९९१ स्थान पर बैठी रहती हूँ, उठती ही नहीं। गौरी की शक्ति का सम्मान होना चाहिए क्योंकि वही हमारी माँ हैं, उन्हीं ने हमें पुनर्जन्म दिया है। वे हमारे विषय में सब कुछ जानती हैं, वे अत्यंत सुहृद तथा करुण हैं। उत्थान का तथा चक्रभेदन का सारा कष्ट स्वयं झेल कर वे हमें पुनर्जन्म देती हैं। क्योंकि वे सब जानती हैं, सब समझती हैं, सारी व्यवस्था करती हैं और आपके अन्तर्निहित सारे सौन्दर्य को वे सामने लाती हैं । होना है साक्षात्कार तथा ज्ञान प्रदान करने के लिए हमें उनके (गौरी) प्रति कृतज्ञ तथा याद रखना है कि हर समय हमें उन्हीं को ही जागृत करना है, उनका विस्तार करना है और उन्हीं की पूजा करनी है जिससे हमारा साक्षात्कार तथा उत्थान अक्षत रह सके। केवल उत्थान ही पुरे विश्व को परिवर्तित करेगा अतः आप गौरी से प्रार्थना करें। शुद्ध करना, आपके हृदय तथा मस्तिष्क को शुद्ध कर आपके योग को अमरत्व प्रदान करना, उन्हीं का कार्य है। ऐसा होने पर ही हम परमात्मा के प्रेम की सुन्दर शक्ति के बहाव का अनुभव अपने अन्दर कर सकते हैं। इसके लिए हर आवश्यक कार्य आप करें, पूर्णतया सामूहिकता में रहें, कुछ भी बलिदान करें और सहजयोग के प्रचार के लिए भी प्रयत्नशील रहें, क्योंकि जब आप सहजयोग को पेड़ की तरह फैलाएंगे तो इसकी गहनता भी बढ़ेगी। यह कार्य उतनी ही सुन्दरता से होना चाहिए जितना कुण्डलिनी का जागरण। कुण्डलिनी ने आपको कोई कष्ट नहीं दिया, आपके लिए कोई समस्या नहीं बनाई, इससे हमें शिक्षा लेनी है। मैं आप सबसे अनुरोध करूंगी कि अपनी कुण्डलिनी पर चित्त को रखें, उसे हर समय रखें और अपनी चैतन्य लहरियों को बनाये रखें। न केवल अपनी लहरियों को ठीक रखें जागृत बल्कि दूसरों के प्रति अपने दृष्टिकोण में भी परिवर्तन लाएं। उनकी कमियों की बात न करें, उनकी अच्छाइयों को देखें तथा यह देखें कि भला कार्य करने की कितनी सामर्थ्य उनमें है। कुंआरी होते हुए भी गौरी कितनी विवेकपूर्ण है। इसी प्रकार हमें भी विवेक तथा संवेदनशील बनना है। 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-7.txt 00000000OOO0 000 00000 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-8.txt £0 n0 = 0 ০0 =0০Q =0= 0- ०= 0০0 ০ ০0 =0 =0 = 0= ০ ০০ ० 'महाकाली श्री पूजा पेरिस, ११.७.१९९३ अआः जि हमने देवी की पूजा करने का निर्णय किया है। इस बार हम आदिशक्ति, कुण्डलिनी, सरस्वती या महालक्ष्मी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। हम महाकाली की बात कर रहे हैं। यह देवी सर्वप्रथम आकर गौरी रूप में श्री गणेश की स्थापना करती हैं। वे महासरस्वती और महालक्ष्मी पूर्ण रूप हैं। उन्हीं में से ही यह शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं। अत: वे ही परमात्मा की इच्छा की शक्ति हैं और हमारे अन्दर भी इच्छाओं का सृजन और सभी इच्छाओं के प्रति एक प्रतिक्रिया हममें विकसित होती है। करती हैं। हमारे अन्दर की यह इच्छाएं बाहर प्रसारित होने लगती हैं। स्वयं को भोजन देना सर्वप्रथम सर्वोपरि और सर्व पुरातन इच्छा है, जो हमें इस देवी से प्राप्त होती है। जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन करना अत्यन्त आवश्यक है। हमनें यह भी देखा है कि जब इस प्रकार की इच्छा असामान्य रूप से बढ़ जाती है तो व्यक्ति इसका दास हो जाता है तथा जितना भी वो खा ले, उसकी तृप्ति नहीं होती। परन्तु अहं के माध्यम से कार्य शुरू करके यह व्यक्ति की खाना बनाने वालों की तथा उपलब्ध कराने वालों की सन्तुष्टि करती है। अब इच्छाओं की पूर्ति किस प्रकार करें। किसी तरह से वह भोजन लाते हैं, उसका प्रदर्शन करते हैं, आपके सामने रखते हैं ताकि आप इसे स्वीकृति दें और तब वे इस भोजन को परोसते हैं। वे आपको बेवकूफ बनाना जानते हैं और आपको भी इसमें प्रसनता मिलती है। अत: आपकी इस इच्छा को आपका अहम् प्रचलित करता है। जब यह इच्छा सामूहिक बन जाती है और सामूहिक अहम् की अभिव्यक्ति बन जाती है तब आप सभ्य प्रकार के पेटू बन जाते हैं। परन्तु यदि आपमें अहम् न हो तो लोग दूसरे लोगों को खिलाना पसन्द करना चाहेंगे। यह इच्छा प्रतिक्रिया करती है तब महाकली की कृपा से एक नई इच्छा जागृत होती है, तब दूसरों को भोजन खाते हुए देखकर आपको अच्छा लगता है। आप के द्वारा बनाया गया, परोसा गया व दिया गया भोजन जब लोग करते हैं तो उसमें आपको आनन्द आता है। आप केवल देखना चाहते हैं। और इससे आपको संतोष प्राप्त होता है। परन्तु जितना मर्जी खाना खिला लें आपको पूर्ण संतोष न मिल पाएगा। आज के पाश्चात्य जीवन में बच्चे से यह पूछना आवश्यक हो गया है कि आप क्या खाएंगे? पुराने समय में पूरे परिवार के लिए खाना बनता था पर आज बच्चे से पूछा जाता है कि आप क्या खाएंगे और बच्चा अपनी पसंद बताता है। मान लो वह चीज आपके फ्रिज में नहीं है तो हो गयी आपकी छुट्टी। अहम् में फंसे उस बच्चे को आप किस प्रकार खुश करेंगे। इस तरह शनै: शनै: हम अपने बच्चों के अहम् को बढ़ाते हैं। हमें यह कहना चाहिए, 'यह खाना बना है, बहुत अच्छा है, आप इसे खायें।' माता-पिता को पसन्द पूछकर बच्चों के अहम् को बढ़ने नहीं देना चाहिए। आपको समझ होनी चाहिए कि बच्चों की क्या आवश्यकता है। ০ ০০ =০ =0 = 0 ০ =০০০০০ ০0 =0 ০০। ב 000 D0 D 0०0D DOB 0०0। 0 = ০ D0০ 0০0 0 = 0০ 0০ 0 ০= ০। 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-9.txt D০ ০0 =0 0 =0 ০0=0 = 0-0 = 0©0০ 0= 0= )০০০০ ০0 ০0 ০ 0ו इस मामलें में देवी का आशीर्वाद यह है कि वह आपको दूसरों को खिलाने की इच्छा प्रदान करती है तब आप भूख से पीड़ित लोगों की चिन्ता करने लगते हैं और उनकी पीड़ा का कारण जानना चाहते हैं। यह इच्छा इतनी अति तक पहुँच जाती है कि कुछ लोग सोचने लगते हैं कि उन्हें खुद कुछ नहीं खाना चाहिए। एक मूर्खतापूर्ण त्याग भाव आ जाता है। व्यक्ति ने जो भी खाना है, खाये। इस प्रकार के त्याग में कोई बड़ी समझदारी नहीं है। इस प्रकार का त्याग जब लोग करने लग जाते हैं उन पर कई प्रकार के कष्ट आ जाते हैं। और वे अत्यन्त त्यागी और क्रोधी बन जाते हैं। अत: भूखा व्यक्ति भी उतना ही बुरा होता है जितना आवश्यकता से अधिक खाने वाला। मैं सोचती हूँ भूखा रहने वाला व्यक्ति अधिक खराब होता है यह इच्छा आपको अच्छा व्यक्ति बनाने के लिए आती है। आप जानते हैं कि अच्छाई को सब पसन्द करते हैं इसलिए लोग दूसरों के प्रति अच्छा बनने का प्रयत्न करते हैं । दूसरों को पसन्द करने से े सोचते हैं, कि लोग उन्हें बहुत पसन्द करेंगे। परन्तु यह इच्छा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि आप हर समय ही दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयास में लगे रहते हैं और एक प्रकार से इसके दास बन जाते हैं। आप में इतनी बनावट आ जाती है कि लोग समझ जाते हैं कि इस व्यक्ति में कुछ भी स्वाभाविक नहीं है। वह मात्र हमें खुश करने का प्रयत्न कर रहा है। किसी दूसरे व्यक्ति को यदि आप साक्षी भाव से और पूर्ण निस्वार्थ होकर प्रसन्न करें तो ये स्वाभाविक और अच्छी बात है परन्तु किसी से लाभ उठाने के लिए यदि आप उस व्यक्ति को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं तो यह निम्न कोटी का पाखण्ड है जिसमें आप स्वयं फंस जाते हैं। लोग आपका मजाक करते हैं, आप पर हँसते हैं, आपसे प्रसन्न नहीं होते। वे जानते हैं कि आप पाखण्डी हैं और किसी अनुचित लोभ के लिए यह सब कर रहे हैं। अच्छा या भला बनने के लिए नहीं कर रहे हैं। अच्छा व्यक्ति स्वत: ही दूसरों को प्रसन्न करता है, प्रसन्न करने का प्रयत्न नहीं करता । वह प्रकृति से, स्वभाव से ही ऐसा होता है कि वह लोगों को प्रसन्न करता है। अब देवी क्या कार्य करती है? वे लोगों के सम्मुख सत्य को प्रकट करती हैं। वे दर्शाती हैं कि किसी स्वार्थ प्राप्ति के लिए किया गया आपका प्रयत्न सफल नहीं होता। एक हद तक इसमें सफलता मिलती है और तब देवी उनका भांडा फोड़ कर देती है। भांडा फोड जब होने लगता है तो वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं, 'मेरा भांडा फोड़ कैसे हो गया ? मैं कैसे पकड़ा गया? लोग कैसे जान गये?' यह महाकाली की शक्ति का कार्य है। वे सारी बुराई, असत्य और झूठ का पर्दाफाश करते हैं । तीसरी इच्छा जो लोगों में है वह भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की है। और इसी से भौतिकवाद का जन्म होता है। परन्तु यह अन्तहीन है क्योंकि एक वस्तु को प्राप्त करके व्यक्ति को सन्तोष नहीं होता और जो भी चीज़ उसे मिलती है उसका वह आनन्द नहीं ले पाता। यह भी मानवीय असफलता है जो कि अर्थशास्त्र को जन्म देती है। अर्थशास्त्र की सृष्टि इसलिए होती है क्योंकि आवश्यकताएं प्राय: कभी पूर्ण नहीं होती। अतः हम एक चीज़ से दूसरी की ओर बढ़ते चले जाते हैं और अन्ततः उद्यमियों के दास बन जाते हैं। इतना अधिक दासत्व आ जाता है कि व्यक्ति अपना व्यक्तित्व खो बैठता है। विवेकहीनता के कारण लोग ऐसा करते हैं। परन्तु सहजयोगियों के लिए महाकाली शक्ति कार्य करती है और उन्हें शिक्षा देती है, 'ठीक है, यह वस्त्र आपको अच्छे लगते हैं, यह ले लें, और यही आपके लिए सर्वोत्तम है। एक ही बार में आपके पूरे जीवन की समस्या हल हो जाती है। यह इच्छा 10 ।০ ০০ ০0 ০০ = 0=0= 0=০ = ০0 =0 ০০ ০ ০ = ০০ ০০০ on0 D 0০ 00 ০0D०0 ८ 0 = 0০ 0০ 0 = 0 = 0=0 = 0০ ০০ 0000000000000 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-10.txt ০০0 n0 ০0 0০0०0 -0=0 = 0০0 ০০0০০ ০0 =0 ০0=0 सर्वसाधारण में बाह्य वस्तुएं जैसे वस्त्र, बालों का स्टाइल तथा अन्य मूर्खतापूर्ण प्रदर्शनों से दूसरों को प्रभावित करने के लिए आती हैं। जब हम अहं का उपयोग करने लगते हैं तब इस प्रकार की मूर्खता हमारे मस्तिष्क में आ जाती है। अहम् व्यक्ति को पूर्णतया मूर्ख बना देता है। ठीक काम करने के लिए लोगों को समझाना बहुत कठिन कार्य है परन्तु गलत चीजें वे तुरन्त पकड़ लेते हैं। उदाहरणतया मैंने लोगों से कहा कि सिर में तेल डाला करें। यदि प्रतिदिन भी नहीं लगाते तो कम से कम नहाने से पहले खूब तेल मालिश करके सिर को धो लें। अब मैं देखती हूँ बहुत से लोग गंजे हो रहे हैं फिर भी तेल नहीं लगाते। इसके बारे में मैं क्या करूं? इतनी साधारण चीज़ पर भी उन्हें विश्वास नहीं होता- कि आपको पौष्टिक तत्व चाहिए। वे मूर्खतापूर्ण कार्य करेंगे, यह भी नहीं सोचेंगे कि किस चीज़ से उन्हें हानि पहुँचती है। यहाँ महाकाली क्या करती है? वे आपको दण्डित करती है। आपके शरीर को दण्डित करती है। आप यदि बहुत तंग कपड़े पहनते हैं तो आपकी टांगो पर कोई समस्या आ सकती है। यदि आप छिद्रिल (छेदों वाली) पेन्टें पहनते हैं तो आपको जकड़न हो जाती है। कोई भी असाधारण कार्य यदि आप करेंगे तो आपको उसका दण्ड भुगतना होगा। पहले तो इसे करने के लिए आपको धन खर्च करना पड़ेगा और फिर शारीरिक रूप से आप दण्डित होंगे। साधारण जीवन अपना लेने से बहुत सारी चीज़ों को त्यागा जा सकता है। और हमारा महाकाली तत्व हमें अधिकाधिक ऊँचा उठाता है। इसके बावजूद भी हम नीचे आ जाते हैं। तब यह महाकाली आगे आकर हमें दश्शाती है कि हमने कौनसी गलती की, किस प्रकार हम भटक गये और किस प्रकार तत्व की बात को छोड़ दिया। एक अन्य बहुत सुन्दर कार्य जो वह करती है वह है एक भ्रम की सृष्टि करके आपके विवेक और संवेदनशीलता की परीक्षा लेना। भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। आपके मस्तिष्क में वे भ्रान्ति पैदा कर देती हैं और आप दूसरे लोग या स्थिति भ्रान्तिपूर्ण हो जाती है और आप इसमें फंस जाते हैं। तब आपको समझ आता है कि मैंने यह गलती की है। भ्रान्ति पैदा करके यह महाकाली शक्ति हमारे अहम् को ठीक करती है। यह मरीचिका ( मृगतृष्णा) या माया ही हमारे भ्रमों के पीछे भागने के लिए जिम्मेदार है। यदि हम अन्दर से सन्तुष्ट हैं तो हम माया के पीछे नहीं दौड़ते। इस भ्रम की सृष्टि यदि न की जाए तो पूरा विश्व इतना अहम् वादी हो जाएगा कि यह समाप्त हो जाएगा। तो भ्रम की रचना करना हमारे अन्त:स्थित महाकाली शक्ति का महान कार्य है। बहुत से लोग माया की बात करते हैं। यह श्रीमाताजी की माया है। यह माया है, वह माया है। यह महाकाली का कार्य है। वे आपकी परीक्षा लेना चाहती है। परन्तु सहजयोग में यह परीक्षा अधिक कठिन नहीं होती। तो सहजयोगियों की परीक्षा लेने के लिए यह महाकाली सहायता करती है। इस प्रकार भ्रम आपको सुधारते हैं। भ्रम यदि न हो तो सीधे से आप सुधरेंगे नहीं । यदि मैं कहूँ, "ऐसा न करें तो शायद आपको यह बात अच्छी न लगे। नि:सन्देह आपको मेरी बातें अच्छी लगती हैं पर कभी-कभी ऐसा नहीं होता। और | तब भ्रम कार्य करता है और आप समझ जाते हैं कि 'मैं कहाँ था और अब कहाँ हूँ? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था....मैं इस समस्या में कैसे फँस गया? कैसे मैं इतना मूर्ख बन गया?' यह कार्य वे करती हैं। वे ही हमें पूर्ण आराम प्रदान करती है। जब आप थके हुए और परेशान होते हैं, आपकी समझ में नहीं आता कि क्या करूं और क्या न करूं तब वो आपको नींद में सुला देती हैं। आप पूरा दिन कार्य करते हैं, अन्त में महाकाली की शक्ति आप पर कार्य करती है और एक बालक की तरह से आपको निद्रा-मग्न कर देती हैं। उस समय अपने तथा दूसरों के साथ जो भी बुराइयाँ हमने की सब क्षमा कर दी जाती हैं। उनकी गोद में हम शान्ति से अच्छी तरह सोते हैं 11 =0= ০=0০০ ০ ০০ = ০ ০০ = 0 । 0 ০0 ০0 ০০ ০ =০ 0 D 0०0० ० 0०0०0 ०০ = । 0८0०0 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-11.txt 1000000O 0000000000000 -000 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-12.txt 0০0 n0 ০0 = 0=0=0 = 00 = 00=০০0 ০০ ০0 ০0D0 =0 ० और हमारी सारी समस्याएं हल हो जाती है। जब आप स्वप्न देख रहे होते हैं तो वे आपको समस्याओं के समाधान सूझाती हैं। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि, 'श्रीमाताजी आप मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे फलां दवाई लेने के लिए कहा। आप मेरे स्वप्न में आयीं और मुझे बताया कि तुम्हारे लिए एक विशेष प्रकार का जीवन हितकर होगा। वे मुझे आते हुए स्पष्ट देखते हैं। परन्तु वह मेरा पूर्ण रूप नहीं होता.... केवल महाकाली की शक्ति कार्य कर रही होती है। आप बहुत गहन निद्रा की स्थिति में होते हैं जिसे सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में वे दिखाई देती हैं और स्वप्नों में वे आपका मार्गदर्शन करती हैं। परन्तु सबसे महान कार्य जो वे करती हैं वह है आपको पावित्र्य एवं सुरक्षा का विवेक प्रदान करना। बच्चों में जन्म से ही पावित्र्य, लज्जा, शालीनता और भद्राचरण का विवेक होता है। परन्तु शनै: शनै: जब वे दूसरे लोगों को अभद्रतापूर्ण व्यवहार करते देखते हैं तो वे भी उसी रास्ते पर चलने लगते हैं। शालीनता उनके लिए एक बन्धन बन जाती है। परन्तु स्वाभाविक रूप से यह बताने के लिए कि यह कार्य अभद्र है और आपको नहीं करना चाहिए, महाकाली शक्ति विद्यमान हैं। ज्यों-ज्यों आपकी आयु बढ़ती है और आप परिपक्व होते हैं, आप अपनी पवित्रता का अपमान करने लगते हैं और अपरिपक्व मूर्ख लोगों की तरह बनने लगते हैं। यह सारी बातें यदि ध्यान-धारणा के माध्म से समझी जाएं तो हम जानते हैं कि महाकाली शक्ति हमारी बहुत अधिक मदद करती हैं क्योंकि वे ही कुण्डलिनी के उत्थान के लिए उचित मार्ग बनाती हैं। महाकाली कुण्डलिनी के समान ही हैं क्योंकि कुण्डलिनी महाकाली शक्ति की अवशिष्ट शक्ति है। वे विद्या से परिपूर्ण हैं। परन्तु उनका कार्य भिन्न है । महाकाली का कार्य आपकी रक्षा करना, मार्गदर्शन करना तथा विवेक प्रदान करना है। और कुण्डलिनी का कार्य आपको शुद्ध करना, बाधाओं को दूर करना, आपके साथ खिलवाड़ न करना, आपको क्षमा करना और ठीक प्रकार से उत्थान के लिए आपकी सहायता करना है। एक सहजयोगी होने के नाते अपने जीवन में आप देखेंगे कि महाकाली शक्ति कैसे हर तरह से आपकी सहायता करती है। उन्हें कार्य करते हुए देखना बहुत ही अच्छा लगता है-किस प्रकार वे आपके लिए सब प्रकार का सन्तोष लाती हैं। लोभ, लालच और गुस्सा चला जाता है। सबसे अधिक सहायता पूर्ण कार्य जो वे करती हैं वह यह है कि महाकाली शक्ति के प्रकाश में स्वत: ही आपकी सारी बुरी आदतें भाग जाती है। आप नहीं चाहते कि कोई विध्वंसक कार्य हो। कोई विध्वंसक कार्य यदि आप पहले कर भी रहे होते हैं तो आप उससे छुटकारा पाने का प्रयास करते हैं । आपके अन्दर जागृत हुई महाकाली शक्ति ही यह कार्य करती है। उसी ने आपको इतना सुन्दर और देव तुल्य बना दिया है। अपने सुधारों तथा भ्रान्ति द्वारा उसने आपको ऐसा बना दिया है। अत: पतन के लिए जिम्मेदार चीज़ों जैसे धन, लालच और कामुकता आदि से लिप्त न हो । बच्चे, पति और पदार्थों के स्वामित्व भाव से भी लिप्त न हों । समझ लें कि बाँटने में ही आनन्द है। आप सभी कुछ दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं और ये बाँटने की भावना तभी शुरू होती है जब ये महाकाली की शक्तियाँ आपको आनन्द, सामूहिक अस्तित्व, पावित्र्य और बाँटने के आनन्द का आशीर्वाद प्रदान करने लगती है। ये सारे आशीर्वाद आपको महाकाली शक्ति से ही प्राप्त होते हैं। आज हम उसी महाकाली शक्ति की पूजा करने वाले हैं। परमात्मा आपको धन्य करें। 13 = ০ ০0 =0 ০০ = 0 = 0= = 0=০ = ০০০০০ ০0 ০0০০ = ০ =০ ০০০ 0 = 0০ 0০0০ ० ( 0 = 0০ 0০ 0 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-13.txt प्रहाकाला की शक्तियाँ 40000006000000006 फ्रान्स, १२.९.१९९० 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-14.txt न पन श्री महाकाली में शुद्धिकरण शोधन] की शक्ति है और वे स्वयं आप में पवित्र सती के रूप में रहती हैं। न श्री महाकाली आनन्द प्रदायनी हैं और अपने भक्तों को आनन्दित देखकर ही वे प्रसन्न होती हैं। 'आनन्द' ही उनका गुण है और शक्ति है। श्री महाकाली की शक्ति ही आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् हमें आनन्द प्रदान करती है। श्री महाकाली की पूजा करते हुए हमें अपने अन्तस से और अन्य सहजयोगियों से आनन्द प्राप्त होना चाहिए। ऐसा अनुभव न कर पाने का अर्थ है कि अभी हम विकसित नहीं हुए। अवश्य न माता-पिता, बच्चों, परिवार, देश या किसी प्रकार के बन्धन की समस्या है जिसके समाधान की उलझने हमें आनन्द का अनुभव नहीं करने देती। सहजयोग में गहरा उतरने के लिए हमें सामूहिकता में आना होगा। यदि हम सामूहिकता में नहीं आते तो हो सकता है हम धीरे-धीरे सहज से बाहर निकाल दिये जाएं। महाकाली शक्ति की सात डोरियाँ आपको सामूहिक अवचेतन क्षेत्र में निकाल फेंकने के लिए हैं। सितार पे आपने देखा होगा कि प्रतिध्वनि के जो लिए भी अलग से तार होते हैं इसी प्रकार ज्यों-ज्यों आप सामूहिकता से हटने लगते हैं तो स्वयं महाकाली की शक्तियाँ आपको पकड़ कर धीरे-धीरे अवचेतन की ओर धकेलने लगती हैं जहाँ आप पूर्णतया खो जाते हैं । जान यदि आप सामूहिक ध्यान में नहीं आते तो आपको हर प्रकार की समस्यायें आ सकती हैं। विकसित न होने वाले लोग सहजयोग से बाहर निकाल दिये जाएंगे। श्री महाकाली दो तरह से कार्य करती हैं-एक तरफ तो वह अति प्रेममयी, आनन्द एवं खुशी से परिपूर्ण हैं और दूसरी ओर वह अति क्रूर, क्रुद्ध (कुपित) और असुरों का वध करने वाली हैं। जजा यदि हम संतुलन खोकर बाईं ओर चले जाते हैं तो हम बाईं ओर के रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं। हमें इससे बचना चाहिए। यदि हम सामूहिकता में नहीं रहते तो नकारात्मक शक्तियाँ हमें निकाल फेंकने के लिए परस्पर गठजोड़ कर सकती हैं। इसलिए हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए कि सामूहिक कार्यक्रमों में हम अनुपस्थित न हों। श्री महाकाली हमें हमारे पति या पत्नी के प्रति भावनाएं भी देती हैं। यदि पति-पत्नी दोनों ठीक जन (सन्तुलन में) हैं तो महाकाली शक्ति भी ठीक रहती है। यदि उनमें से एक ठीक नहीं है तो महाकाली उसे | बाहर धकेल देती हैं और यदि दूसरा भी पहले के मोह में फँसा है तो उसे भी सहज के बाहर धकेला जा सकता है। 'इस प्रकार की प्रेमान्धता' से बचकर रहना आवश्यक है क्योंकि इससे वास्तविक पतन हो जाता है। ऐसे में या तो वह व्यक्ति अपने पति या पत्नी के कारण पूर्णतया खो जाता है या फिर प्रेम / घृणा की भावनाओं में उलझ जाता है। देवी (महाकाली) की इस शक्ति अथवा गुण द्वारा प्रेम भी घृणा में परिवर्तित हो सकता है। 15 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-15.txt नि हमें सामूहिक होना चाहिए और जब हमारे कार्यक्रम हों तो हमें श्री माताजी के भाषण के टेप चलाने चाहिए और उसके बाद आरती करके कार्यक्रम समापन करना चाहिए। प्रोग्राम में हमें भाषण देने की न कि आवश्यकता नहीं। किसी को भी बोलने की आवश्यकता नहीं। अगली सभा या प्रोग्राम के आरंभ में पिछली बार सुनी गई टेप के विषय में चर्चा हो सकती है। हमें याद रहे कि हम यहाँ किसी से विवाह करने के उद्देश्य से नहीं आये। हमारा वैवाहिक जीवन अच्छा होना चाहिए परन्तु सुखी विवाहित जीवन उठाया गया केवल एक कदम मात्र है। यदि हमारा यह कदम हमें हमारे उत्थान से दूर ले जा रहा है तो हमें सावधान हो जाना चाहिए। अबोधिता का अर्थ है शुद्धता, न विचारों की शुद्धता। हममें मानसिक पवित्रता होनी चाहिए। मानसिक पवित्रता के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। पार्चात्य देशों में शारीरिक अपवित्रता की अपेक्षा मानसिक अपवित्रता अधिक है। इसी कारण उनके मस्तिष्क विकृत हो गये हैं क्योंकि कल्पना करना और विचारों से खेलना अति भयंकर है और वास्तविकता से परे भी। 'एक पेड़ का रस पेड़ के हर फूल, पत्ते और डाल में जाता है, उन्हें शुद्ध कर स्वास्थ्य और जीवन देता है और फिर लौट आता है, किसी एक भाग में चिपकता नहीं। इसी प्रकार माता, पिता, की नि बहन-भाई सबका अपना-अपना स्थान है। भाई-बहन के संबंध पति-पत्नी के संबंध नहीं बन सकते ' पारिवारिक जीवन की देखभाल अवश्य होनी चाहिए परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अपने उत्थान को छोड़ दिया जाये। संतों के लिए प्रमुख चीज़ है उनका उत्थान। उनके उत्थान के साथ हर चीज़ का उत्थान हो जाएगा। जब हम अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं तो श्री महाकाली का प्रकटीकरण आरम्भ हो जाता है। श्री महाकाली में शुद्धिकरण (शोधन) की शक्ति है और वे स्वयं आप में पवित्र सती के रूप में रहती हैं। वही कुण्डलिनी है, वही महाकाली शक्ति है। वह स्वयं पूर्ण पवित्रता हैं और उनमें शुद्ध करने की शक्ति है। श्री गणेश का निवास मूलाधार पर है, अपनी माँ के स्थान से भी ऊपर। श्री गणेश एक प्रहरी की भाँति यह बताते हैं कि कुण्डलिनी माँ उठ सकती हैं अथवा नहीं। श्री गणेश की आज्ञा के बिना कुण्डलिनी माँ उत्थित नहीं हो सकती....। हर चक्र पर श्री गणेश आपकी शुद्धता की जाँच करते हैं, और फिर उसके अनुसार ही नि | न कुण्डलिनी शुद्ध करने का प्रयत्न करती है। श्री महाकाली आपको 'स्थिति' प्रदान करती है-दुढ़ीकरण की स्थिति । पवित्रता में, रोमांचक जीवन में बिना हमारा उत्थान नहीं हो सकता। मानसिक पवित्रता के बिना, यदि हमारा हुए नहीं, पूर्णतया स्थित सहस्रार ही खराब है तो सहजयोग कैसे कार्यान्वित हो सकता है? पूरा खेल ही सहस्रार का है। पवित्रता का प्रकटीकरण होना ही चाहिए ताकि सहजयोगी पूरे विश्व को परिवर्तित कर सकें । सभी देवताओं की तरह हमें भी अत्यन्त सामूहिक होना चाहिए, 'ज्योंही आप सामूहिक हो जाते हैं, यह सब निरर्थक बातें स्वयं छूट जाती हैं....आप सामूहिक इसलिए नहीं हो पाते क्योंकि अभी आपने यह सब बुराइयाँ त्यागी नहीं और या फिर आप उनको छोड़ने से डरते हैं। सामूहिकता में हमारी समस्याएं सन्तुलित हो जाती हैं। पुराने सहजयोगियों को बहुत सतर्क रहना चाहिए क्योंकि ईसामसीह ने कहा कि की नि 16 न 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-16.txt न 'प्रथम ही अन्तिम होगा।' उनमें अवांछनीय आत्मविश्वास नहीं होना चाहिए और उन्हें सामूहिक कार्यक्रमों में अवश्य जाना चाहिए। पूरे विश्व की सामूहिकता श्री माताजी का स्वप्न है। यदि सहजयोगी ही सामूहिक नहीं हो सकते तो और कौन सामूहिक होकर श्री माताजी का स्वप्न साकार करेगा ? हमें सहजयोग के लिए खर्च करने का उत्तरदायित्व भी लेना चाहिए। आखिरकार अपने धन का इससे अच्छा सद्व्यय और क्या है। पुण्यों से ही हम और अधिक वैभव, स्वास्थ्य और समृद्धि प्राप्त करते हैं बिना पुण्य के हमे ये सब प्राप्त नहीं कर सकते। हमें उदार ( दानशील) भी होना चाहिए। विशेषकर पूर्वी देशों के लोगों के प्रति जिनकी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं हमें यह सोचना चाहिए कि हम उनके लिए क्या कर सकते हैं। महाकाली की शक्ति के प्रताप से ही भौतिक वस्तुओं से प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। न भूतकाल में लोग युद्ध के समय सामूहिक हुए थे । उन्होंने एक दूसरे की सहायता की और दूसरों के लिए खुद को मिट जाने दिया। इन गुणों का उपयोग युद्ध और घृणा के लिए हुआ परन्तु अब इनका उपयोग प्रेम के लिए होना चाहिए। प्रबल इच्छा और श्री महाकाली के गुण जब हममें होंगे तब महासरस्वती हमारे कार्यों में पान सहायक होंगी। हमें पूरे विश्व के उद्धार की इच्छा करनी चाहिए। यदि हम ही आधार हैं तो हमारे पूर्ण व्यक्तित्व का सहजयोग के प्रति पूर्णतया समर्पित होने से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं। यह इच्छा अति प्रबल और अति शुद्ध होनी चाहिए। हमारा चित्त निरानन्द होना चाहिए, केवल आनन्द। 'विभिन्न चक्रों पर आप विभिन्न प्रकार के आनन्द अनुभव करते हैं। वह सब महाकाली द्वारा प्रदान होता है। परन्तु आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आपकी महानतम प्राप्ति है निरानन्द।' आपको उस स्थिति में अवश्य पहुंचना चाहिए। यदि आप निरानन्द की स्थिति जन में हैं तो बाकी सब आनन्द शून्य है। 'मन की शुद्धता के बिना यह निरानन्द आ नहीं सकता.....शुद्धता कैसे लाई जाये? बस निर्विचार समाधि को विकसित करने से और वस्तुओं को बिना विचार के देखने से। इसके लिए आपको सामूहिक होना पड़ेगा। यदि आप सामूहिक हैं तो मैं आपके साथ हूँ।' भूतों में भी एक प्रकार का भाईचारा होता है। चुम्बक की तरह वे एक दूसरे से जुड़े होते हैं। चुम्बक (आकर्षण) श्री महाकाली का गुण है। 'जो लोग सामूहिक नहीं हो पाते, धीरे-धीरे भूतों की पकड़ में चले जाते हैं।' श्री महाकाली भूतों की स्वामिनी हैं और वही उनकी देखरेख और उनका परिचालन करती हैं। सामूहिक, उदार और शुद्ध हो कर यदि हम उच्च व्यक्तित्व बन जाते हैं तो सब कहेंगे, 'देखो, वे कितने सुन्दर लगते हैं।' अब हम पहले ही सुन्दर हैं-चमकते चेहरों के साथ। 'परन्तु यह सब लुप्त हो जायेगा और इस लोप के परिणाम बहुत सीधे - सादे नहीं हैं। इसलिए सावधान रहें। श्रीमाताजी हमें श्री भैरव, जो श्री महाकाली के महानतम शिष्य हैं, के सभी गुणों से आशीर्वादित करती हैं। श्री भैरव सुबह से शाम तक विशेषकर रात्रि में ऊपर नीचे दौड़ते रहते हैं और भयंकर राक्षसों को मारने के लिए, इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। हम सबको भी मिलकर के इस कार्य को करना है। न 17 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-17.txt श्री सरस्वती 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-18.txt क० थ। १ १ शु सी श्री सरस्वती का कार्यक्षेत्र शरीर का दायां भाग है। स्वाधिष्ठान पर कार्य करके जब ये बायीं ओर को जाती हैं तो कला-विवेक बढ़ता है। ॐै के र ও ॐ 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-19.txt श्री सरस्वती का कार्यक्षेत्र शरीर का दायां भाग है। स्वाधिष्ठान पर कार्य करके जब ये बायीं ओर को जाती हैं तो कला-विवेक बढ़ता है। .....कला परमात्मा की ज्योति है। आप इसे न देख सकें पर इसमें चैतन्य लहरियाँ हैं। सुन्दरतापूर्वक रचित तथा विश्व भर में मान्य सभी कुछ सौन्दर्य की दृष्टि से उत्तम है। यदि आप अपने हाथ इसकी ओर फैलायें तो आपको इसमें से लहरियाँ निकलती हुई महसूस होंगी, विशेषकर यदि इस कला की रचना किसी साक्षात्कारी व्यक्ति ने की हो। .परन्तु हमने स्वाधिष्ठान का एक ही भाग विकसित किया है, दूसरे भाग को हमने अनदेखा कर दिया है। स्वाधिष्ठान का उपयोग हम केवल पढ़ने-लिखने के क्षेत्र में ही करते हैं और इस क्षेत्र में हमने उन्नति की है। पर इससे आगे भी एक अवस्था है जिसके विषय में हम सोचते ही नहीं, और इसी कारण यह असन्तुलन है। आप देखते हैं। कि कला-साहित्य आदि बहुत है फिर भी लोग कहते हैं कि सरस्वती और लक्ष्मी का संगम नहीं है । गहनता में जाने पर हम इस असन्तुलन का कारण जानना चाहते हैं। सहजयोग में सरस्वती और लक्ष्मी आज्ञा चक्र पर मिलती हैं। आप (कलाकार) कार्य करते रहते हैं पर आपको इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलता। आज्ञा पर आकर आप जान पाते हैं कि आपको वह अवस्था क्यों नहीं प्राप्त हुई जो बहुत से कलाकारों को प्राप्त हुई। हम गरीबी में क्यों रह रहे हैं? दोनों तत्वों को उचित दृष्टि से देखे बिना हम उन्नति नहीं कर सकते। कला (सरस्वती) को लक्ष्मी से जोड़ने के लिए हममें शुद्ध दृष्टि होनी चाहिए। जिद्दीपना हमारी (कलाकार की) सबसे बड़ी कमजोरी है। इन्होंने यदि एक हाथी बनाया है तो हाथी ही बनाते चले जायेंगे। किसी एक विशेष तरह से यदि वे गाते हैं तो वैसे ही गाते चले जायेंगे। इसमें परिवर्तन करने के लिए कहें तो वे नाराज़ हो जायेंगे। आज्ञा चक्र पर यदि आप विचार करें तो आपको पता चलेगा कि जिद्दीपना आपको आज्ञा से ऊपर नहीं जाने देता।.....मैं नहीं कहती कि आप कला को बिगाड़ें, पर आप सन्तुलित ढंग से तो कला को देखिए। मैं आपको व्यवहारिकता की बात बताती हूँ कि हममें एक प्रकार का आलस्य है जो हमें जिद्दी बनाता है। कोई नई बात सीखने में हमारे मस्तिष्क थोड़े से शिथिल हैं। इसी शिथिलता के कारण हम कुछ भी ऐसा नहीं सीख पाते हैं जिससे हम लक्ष्मी से जुड़ सकें। .....अतः सूझबूझ होनी चाहिए तभी मस्तिष्क खुलेगा । जिद्दीपने का कुप्रभाव व्यक्ति के पूरे जीवन पर पड़ता है। सहज में आने पर परिवर्तन आता है। तब सहज ही में हम लक्ष्मी से जुड़ जाते हैं। आज्ञा चक्र को ठीक करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने अहं को ठीक करें। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या ब्रह्मसमाजी होने की भावना आधारहीन है। मानव मात्र के अतिरिक्त आप कुछ भी नहीं। .....सत्य सार यह है कि हम सब एक हैं, एक विराट, एक पूर्णता। इसके विपरीत जाने से आप अकेले पड़ जाते हैं तथा सामूहिकता से अलग हो जाते हैं। यह ठीक है कि पेड़ का एक पत्ता दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता फिर भी वे होते तो एक ही पेड़ पर हैं। वे सभी एक विराट के अंग-प्रत्यंग हैं। जब हम एक दूसरे से अलग हो जाते हैं तो हमारा सरस्वती तत्व महासरस्वती तत्व नहीं बन पाता। महासरस्वती तत्व में जब आप रहने लगते हैं तो देख सकते हैं कि आप विराट हैं। ऐसी स्थिति में जब कलाकार कोई सृजन करता है तो लोग इसे हृदय से स्वीकार करते हैं। कला का जो भी कार्य हम करते हैं वह परमात्मा को समर्पित होना चाहिए। इस भाव से की गई सभी रचनाएं शाश्वत होंगी। परमात्मा को समर्पित सभी कविताएं, संगीत और कला कृतियां आज भी जीवित हैं। आज के फिल्म का संगीत आता है और समाप्त हो जाता है परन्तु कबीर और ज्ञानेश्वर जी के भजन शाश्वत हैं। अपने आत्मसाक्षात्कार द्वारा उन्होंने महासरस्वती शक्ति से प्राप्त किया और फिर जो भी रचना उन्होंने की वह बेजोड़ थी। इन रचनाओं ने विश्व को एक सूत्र में बांधा। तो व्यक्ति को सरस्वती तत्व से महासरस्वती तत्व की ओर जाना चाहिए क्योंकि सरस्वती तत्व यदि बीज हैं तो महासरस्वती तत्व पेड़ है। बिना इस बीज को वृक्ष बनाए आप महालक्ष्मी से नहीं जुड़ सकते। आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति भी महालक्ष्मी का वरदान है। महासरस्वती, महाकाली तथा महालक्ष्मी तीनों शक्तियां आज्ञा पर मिलती हैं। वहाँ पर सूक्ष्म रूप में अहं भी है। अतः व्यक्ति को अन्तर्दर्शन कर देखना चाहिए कि सीमित स्तर पर रहते हुए मैं कैसे पूरे विश्व को प्रकाशित कर सकता हूँ। मैंने बहुत बार कहा है कि अपने अन्दर झांकिए। से लोग देवी की तरह मुझे पूजते हैं। पर इसका मुझे क्या लाभ है, मैं तो जो हूँ वो हूँ। मेरे प्रति श्रद्धा से आप ही को बहुत 20 क ु मं ें ेर 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-20.txt े लाभ होता है। आप सहजयोग में आए और सरस्वती तत्व से महासरस्वती तत्व को प्राप्त किया। मुझ में विश्वास करने मात्र से ही आपको सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। आपको स्वयं में विश्वास करना होगा तथा अपना उत्थान करना होगा। महासरस्वती में व्यक्ति समर्थ और चुस्त होता है। महाकाली में आप इच्छा करते हैं तथा आत्मसात करते हैं। इन इच्छाओं को कार्यान्वित करना महासरस्वती का कार्य है । कुछ लोग चाहते हैं कि सहजयोग फैले। पर इस दिशा में आपने क्या कार्य किया ? आपने कितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार दिया? कितने लोगों से सहजयोग की बात की ? ........अपनी इच्छाओं को कायान्वित कीजिए । कार्य शुरू होते ही इच्छाएं समाप्त हो जाएंगी। जो पूरी हो सकें ऐसी इच्छाएं आपको करनी चाहिए क्योंकि असम्भव इच्छाएं करना भयंकर है।......यह (सरस्वती) पूजा पूरे भारत के लिए है क्योंकि आलस्य का रोग पूरे देश में है। हम बिल्कुल भी चुस्त नहीं हैं। हमारी इच्छाएं तो बहुत दृढ़ हैं पर उनकी पूर्ति के लिए हम कुछ भी नहीं करते। एकत्रित होकर सोचिए कि सहजयोग फैलाने के लिए आप क्या कर सकते हैं। प.पू.श्री माताजी, कोलकाता, ३.२.१९९२ हमें सरस्वती की भी आराधना करनी चाहिए। सरस्वती का कार्य बड़ा महान है। महासरस्वती ने पहले सारा अंतरिक्ष बनाया। इसमें पृथ्वीतत्व विशेष है। पृथ्वीतत्व को इस तरह से सूर्य और चन्द्रमा के बीच में लाकर खड़ा कर दिया कि वहाँ पर कोई सी भी जीवन्त क्रिया आसानी से हो सकती है। इस जीवन्त क्रिया से धीरे-धीरे मनुष्य भी उत्पन्न हुआ। परन्तु हमें अपनी बहुत बड़ी शक्ति को जान लेना चाहिए। वो शक्ति है जिसे हम सृजन शक्ति कहते हैं, क्रिएटिविटी (Creativity) कहते हैं। यह सृजन सरस्वती का आशीर्वाद है जिसके द्वारा अनेक कलाएं उत्पन्न हुई। कला का प्रादूर्भाव सरस्वती के ही आशीर्वाद से है। बच्चे स्कूलों में विद्यार्जन कर रहें हैं। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि बिना आत्मा को प्राप्त किए हम जो भी विद्या पा रहे हैं वो सारी अविद्या है। बिना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किए आप चाहे साइंस पढ़े या अर्थशास्त्र, उसे न तो आप पूरी तरह समझ सकते हैं और न ही उसको अपनी सृजन शक्ति में ला सकते हैं. शक्ति हमारे बच्चे दो प्रकार के होते हैं एक तो पढ़ने के शौकीन होते हैं और दूसरे जिन्हें पढ़ने का शौक नहीं होता। कुछ बच्चों के पास कम बुद्धि होती है और कुछ के पास अधिक। बुद्धि भी सरस्वती की देन है लेकिन आत्मा से मनुष्य में सुबुद्धि आ जाती है। बुद्धि से पाया हुआ ज्ञान जब तक आप सुबुद्धि पर नहीं तोलिएगा तो वह ज्ञान हानिकारक हो जाता है।.....आत्मसाक्षात्कार को पाकर जो विद्यार्जन होता है उसमें बराबर नीर-क्षीर विवेक आ जाता है। वे समझ लेते हैं कि कौन सी चीज़ अच्छी है और कौन सी बुरी है। कौन सी चीज़ सीखनी चाहिए और कौन सी चीज़ नहीं सीखनी चाहिए। उससे पहले कोई मर्यादाएं नहीं होती। मनुष्य किसी भी रास्ते पर जा सकता है और किसी भी ओर मुड़ सकता है और कोई भी बूरे काम कर सकता है।......इन सब चीज़ों का इलाज एक ही तरीके से हो सकता है कि इनके अंदर आप आत्मा का साक्षात्कार करें। आत्मा का साक्षात्कार मिलने से ही सरस्वती की भी चमक आपकी बुद्धि में आ जाती है और जो बच्चे पढ़ने लिखने में कमजोर होते हैं वो भी बहुत अच्छा कार्य करने लग जाते हैं। इसके बाद कला की उत्पत्ति होती है। अगर आप कला को बगैर आत्मसाक्षात्कार के ही अपनाना चाहें तो वह कला अधूरी रह जाती है या वो बेमर्यादा कहीं ऐसी जगह टकराते हैं कि जहाँ उसकी कला का नामोनिशान नहीं रह जाता। तो पहले आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करके ही सरस्वती का पूजन करना एक बड़ी शुभ बात है। .....आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति की कला अनन्त की शक्ति से प्लावित होती है। तो आप लोग भी आत्मसाक्षात्कारी हो गए हैं। कलात्मक चीज़ हठात आपको निर्विचारिता में उतारेगी और उसका सौन्दर्य देखते ही आपको ऐसा लगेगा कि आप निर्विचार हैं क्योंकि सौन्दर्य देखने से ही चैतन्य एकदम बहने लगता है और उस सौन्दर्य के कारण ही एकदम से आप निर्विचार हो जाते हैं। इसलिए आदिशंकराचार्य ने इसे 'सौन्दर्य लहरी' कहा। .....कला जब पैसे पर उतर आती है तब उसकी आत्मा ही खत्म हो जाती है। कला आनंदमयी होनी चाहिए न कि उससे १ी कितना पैसा मिले। .......शान्तिमय, ध्यानावस्था में रहे बिना कला सृजन अधूरा रह जाता है या मर्यादा विहीन। आपको कला का तंत्र तथा तकनीक मालूम होनी चाहिए । जब आपको आत्मसाक्षात्कार होता है तभी आपकी सृजन कला बढ़ जाती है। प.पू.श्री माताजी, यमुनानगर, ४.४.१९९२ 21 अॉ ६ 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-21.txt श्री माताज्जी द्वारा दिये गये सलाह शरीर परमात्मा का मन्दिर है और आपने अपने स्वास्थ्य की देखभाल करनी है हर देश में कुछ विशेषता है जिसके कारण व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं आती हैं। अत: सहजयोगी होने के नाते व्यक्ति को समझना चाहिए कि स्वास्थ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह शरीर परमात्मा का मन्दिर है। अत: आपको अपने स्वास्थ्य की देखभाल करनी होगी। आप यह भी जानते हैं कि जब कुण्डलिनी उठती है तो पहली घटित होने वाली घटना आपके स्वास्थ्य का ठीक हो जाना है। क्योंकि आपका पराअनुकम्पी तंत्र कार्यान्वित हो जाता है। पराअनुकम्पी, व्यक्ति को ज्योति प्रदान करता है जिसका प्रवाह अनुकम्पी तंत्र में होता है तथा व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा हो जाता है। प.पू.श्रीमाताजी, कैक्स्टन हॉल, लन्दन, १०.१२.१९७९ फोटोग्राफ की सहायता से आप लोगों का रोग निवारण कर सकते हैं... परन्तु रोग दूर करना किसी भी प्रकार से आपका कार्य नहीं है, यह बात आपको याद रखनी हैं। कोई भी सहजयोगी लोगों के रोग ठीक करने न लग जाए। रोगी मेरे फोटो का उपयोग कर सकते हैं। परन्तु आपको रोग दूर करने के कार्य में नहीं लग जाना है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि आप स्वयं को बहुत बड़ा परोपकारी मान बैठे हैं। मैंने देखा है कि जो भी सहजयोगी रोग दूर करने के कार्य में लग गए उनके लिए यह कार्य पागलपन बन गया और वो लोग भूल गए कि उन्हें भी कोई पकड़ हो गई है तथा कुछ कष्ट हो गया है। परन्तु वो स्वयं को ठीक नहीं करते और अन्तत: मैं देखती हूँ, कि वो सहज से बाहर चले जाते हैं। परन्तु मेरे फोटो से आप लोगों को ठीक कर सकते हैं। प.पू.श्रीमाताजी, कैक्स्टन हॉल, लन्दन, १०.१२.१९७९ केवल इतना कहें, 'श्रीमाताजी, मुझे मेरे आध्यात्मिक जीवन में बनाए रखिए ।' आप स्वत: ठीक हो जाएंगे। मैं ऐसे लोगों को जानती हूँ जो रोगमूक्त करने की शक्ति के कारण पगला गए और नियमपूर्वक अस्पतालों में जाने लगे तथा अस्पतालों में ही उनका अन्त हो गया। उन्होंने कार्यक्रमों में भी आना छोड़ दिया। वो मुझे मिलने भी नहीं आते। तो यह व्याधियों में से एक है, शारीरिक रोग। शारीरिक रोग के कारण भी आपको इतना नीचे नहीं गिर जाना चाहिए। आपको यदि कोई समस्या है भी तो उसे भूल जाएं, शनै:-शनै: आप ठीक हो जाएंगे । कुछ लोगों को ठीक होने में 22 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-22.txt ०] समय लगता है। मुख्य बात तो अपनी आत्मा को प्राप्त करना है। अत: हमेशा यही न कहते रहें, 'श्रीमाताजी, मुझे ठीक कर दीजिए, मुझे ठीक कर दीजिए ।' आप मात्र इतना कहें, 'श्रीमाताजी, मुझे आध्यात्मिक जीवन में बनाए रखिए ।' आप स्वत: ही ठीक हो जाएंगे। हो सकता है कुछ लोगों को ठीक होने में समय लगे। परन्तु आप तो जीवन भर बीमार रहे, तो ठीक होने में भी यदि कुछ समय लग जाए तो कोई बात नहीं। भिन्न रोगों को ठीक करने की विधियाँ जो हमने बताई हैं उनके अनुसार कार्य करें। प.पू.श्रीमाताजी, कैक्स्टन हॉल, लन्दन, १०.१२.१९७९ स्वयं को स्वच्छ करें ताकि आपके चक्र विकसित हों 'प्रात: किसी से बात न करें। शान्त मुद्रा में रहें। आप ऐसी महान शक्ति के सम्मुख उभरने वाले हैं जो पूरे विश्व की समस्याओं का समाधान करेगी। अत: स्वयं को स्वच्छ करें, स्वयं को धो डालें, स्वयं को स्वच्छ करें ताकि आपके चक्र विकसित हो सकें। लोग इसके विरोध में बातें किया करते थे क्योंकि वे कर्मकाण्डी तथा मशीनवत बन गए हैं। भौतिक पदार्थ जब बहुत महत्वपूर्ण बन जाएं तो ये चीज़ें भी महत्वपूर्ण बन जाती हैं। परन्तु अब ऐसा नहीं है। आप लोग भिन्न हैं, आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। इसका अर्थ ये नहीं है कि आप सन्यासी आदि बन जाएं, मैंने आपको बताया था कि आपको चाहिए... कि सामान्य लोगों की तरह जीवन व्यतीत करें, परन्तु अत्यन्त सम्माननीय लोगों जिनमें तिरस्कार, बचपना, अतिशयता या विदूषकों की तरह अटपटापन न हो। ये सब वस्त्र नहीं पहनने चाहिए। गरिमामय वस्त्र धारण करें जो आपकी उपस्थिति को दर्शाएं। मैं ये बात बच्चों को बता रही हूँ। आपको विकसित सहजयोगियों सम दिखाई देना चाहिए। आप सब सन्त हैं.... प.पू.श्रीमाताजी, लन्दन, २७.०९.१९८० 23 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-23.txt ०४४४४.६६ 1ll ]ob Q2n8 Ik४ 181 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-24.txt अः जि हम लोग यहाँ शक्ति की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। अभी तक अनेक संत साधूओं ने ऋषि मुनियों ने शक्ति के बारे में बहुत कुछ लिखा और बताया। और जो शक्ति का वर्णन वह अपने गद्य में नहीं कर पाये उसे उन्होंने पद्य में किया। और उस पर भी इसके बहुत से अर्थ भी जाने। लेकिन एक बात शायद हम लोग नहीं जानते कि हर मनुष्य के अन्दर ये सारी शक्तियाँ सुप्तावस्था में हैं। और ये सारी शक्तियाँ मनुष्य अपने अन्दर जागृत कर सकता है। ये सुप्तावस्था की जो शक्तियाँ हैं उनका कोई अन्त नहीं, न ही उनका कोई अनुमान कोई दे सकता है क्योंकि ऐसे ही पैंतीस कोटी तो देवता आपके अन्दर विराजमान हैं। उसके अलावा न जाने कितनी शक्तियाँ उनको चला रही हैं, लेकिन इतना हम लोग समझ सकते हैं कि जो हमने आज आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है तो उसमें जरूर कोई न कोई शक्तियों का कार्य हुआ। उस कार्य के बगैर आप आत्मसाक्षात्कार को नहीं प्राप्त कर सकते। ये आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करते वक्त हम लोग सोचते हैं सहज में हो गया। सहज के दो अर्थ हैं। एक तो सहज का अर्थ ये भी है कि आसानी से हो गया, सरलता से हो गया और दूसरा अर्थ ये होता है कि जिस तरह से एक जीवन्त क्रिया अपने आप हो जाती है उसी प्रकार आपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया। लेकिन ये जीवन्त क्रिया जो है इसके बारे में अगर आप सोचने लग जाए तो आपकी बुद्धि कुण्ठित हो जाएगी। समझ लीजिए ये आपने एक पेड़ देखा । इस पेड़ की ओर आप नज़र करिए तो आप ये सोचेंगे कि भाई, ये फलाना पेड़ है। लेकिन इस पेड़ को इसी रूप में, ऐसा ही, इतना ही ऊंचाई पर लाने वाली कौनसी शक्तियाँ हैं ? किस शक्ति ने इसको यहाँ पर इस तरह से बनाया है कि जो वो अपनी सीमा में रहकर के और अपने स्वरूप, रूप, उसी के साथ बढ़ता है। फिर सबसे जो कमाल की चीज़ है वो मानव, मनुष्य जो बनाया गया है वो भी एक विशेष रूप से, एक विशेष विचार से बनाया गया है। और वो मनुष्य का जो भविष्य है वो उसे प्राप्त हो सकता है, उसको मिल सकता है पर उसकी पहली सीढ़ी है आत्मसाक्षात्कार। जैसे कि कोई दीप जलाना हो तो सबसे पहले ये है कि उसके अन्दर ज्योति लानी पड़ती है। उसी प्रकार एक बार आपके अन्दर ज्योति जागृत हो गई तो आप उसको फिर से प्रज्वलित कर सकते हैं या उसको आप बढ़ा सकते हैं। पर प्रथम कार्य है कि ज्योति प्रज्वलित हो । और उसके लिए आत्मसाक्षात्कार नितान्त आवश्यक है। किन्तु आत्मसाक्षात्कार पाते ही सारी ही शक्तियाँ जागृत नहीं हो सकती। इसलिए ये साधु-सन्तों ने और ऋषि-मुनियों ने व्यवस्था की है कि आप देवी की उपासना करें। लेकिन जो आदमी आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, उसको अधिकार नहीं है कि वो देवी की पूजा करे। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि वो यदि सप्तशती का कभी पाठ करे और उनका हवन करते हैं तो उनपे बड़ी आफतें आ जाती हैं और उनको बड़ी तकलीफ हो जाती है और वो बहुत कष्ट उठाते हैं। तो उनसे ये पूछना चाहिए कि आपने किससे करवाया? तो कहेंगे कि हमने सात ब्राह्मणों को बुलाया था। पर वो ब्राह्मण नहीं। जिन्होंने ब्रह्मा को जाना नहीं वो ब्राह्मण नहीं और ऐसे ब्राह्मणों से कराने से ही देवी रूष्ट हो गई और आपको तकलीफ हुई। तो आपके अन्दर एक बड़ा अधिकार है कि आप देवी की पूजा कर सकते हैं और साक्षात् में भी पूजा कर सकते हैं। ये अधिकार सबको नहीं है। अगर कोई कोशिश करे तो उसका उल्टा परिणाम हो सकता है। ० सबसे बड़ी चीज़ है कि शक्ति जो है वो जितनी ही आपको आरमदेही है, जितनी वो आपके सृजन की 25 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-25.txt ३ । । व्यवस्था करती है, जितनी वो आपके प्रति उदार और प्रेममयी है, उतनी ही वो क्रूर और क्रोधमयी है। कोई बीच का मामला नहीं है या तो अति उदार है और या तो अति क्रोधित है। बीच में कोई मामला चलता नहीं। वजह यह है कि जो लोग महादुष्ट हैं, राक्षस हैं और जो संसार को नष्ट करने पे आमादा हैं, जो लोगों को भुलभुलैया में लगाये हुए हैं और कलियुग में अपने को अलग-अलग बता कर के कोई साधु बना है तो कोई पंडित बना हुआ है, कोई मन्दिरों में बैठा है, तो कोई मस्जिदों में बैठा है, कोई मुल्ला बना हुआ है, कोई पोप बना हुआ है, तो कहीं कोई पोलिटिशियन बना हुआ है, ऐसे अनेक-अनेक कपड़े परिधान कर के जो अपने को छिपा रहा है, जो कि राक्षसी वृत्ति का मनुष्य है, उसका नाश होना आवश्यक है। लेकिन ये जो नाश की शक्तियाँ हैं इसकी तरफ आपको नहीं जाना चाहिए। आप सिर्फ इच्छा मात्र करें और ये शक्तियाँ अपने ही आप कार्य कर लेगी । तो सारे संसार में जो ये चैतन्य बह रहा है ये उसी महामाया की शक्ति है। और इस महामाया की शक्ति से ही सारे कार्य होते हैं औय ये शक्ति सब चीज़ सोचती है, जानती है, सबको पूरी तरह से व्यवस्थित रूप से लाती है जिसे कहते हैं कि आयोजित कर लेती है। और सबसे बड़ी चीज़ है कि ये आप से प्रेम करती है। और इसका प्रेम निर्वाज्य है। इस प्रेम में कोई भी माँग नहीं सिर्फ देने की इच्छा है। आपको पनपाने की इच्छा है, आपको बढ़ाने की इच्छा है। आपकी भलाई की इच्छा है, लेकिन इसी के साथ-साथ जो चीज़ें कांटे बन कर के आपके मार्ग में रूकावट डालेंगे, आपके धर्म में खलल डालेंगे, या किसी भी तरह से आपको तंग करेंगे ऐसे लोगों का नाश करना अत्यावश्यक है। लेकिन उसके लिए आप अपनी शक्ति न लगाएं। आपको सिर्फ चाहिए कि आप उस शक्ति के लिए सिर्फ आह्वान करे देवी का और उनसे कहिए कि, 'ये जो अमानुष लोग हैं इनका आप नाश कर दीजिए ।' ये तो पहली चीज़़ हो गई | सो आपको छुट्टी मिल गई कि कोई भी आप पर अगर अत्याचार करे, कोई भी आपसे बुराई से बोले, कोई आपको सताये तो आप में एक और विशेष रूप से एक स्थिति है जिसमें आप निर्विचार हो जायें । तो सारी चीज़ को आप साक्षी रूप से देखना शुरू कर दें। एक नाटक के रूप में। जैसे अजीब पागल आदमी है मेरे पीछे पड़ा हुआ है इसको क्या करने का है? इसका पागलपन देखिए, उसका मनस्ताप देखिए, उसकी तकलीफें देखिए और आप उस पर हँसिये कि अजीब बेवकूफ है। उसके लिए आपको कोई तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं। उसके लिए सिर्फ आपको आपका जो किला है वो निर्विचारिता उसमें जाना चाहिए। और निर्विचारिता में जाते ही आपकी जो कुछ भी संजोने वाली शक्तियाँ हैं, आनन्द देने वाली शक्तियाँ हैं, प्रेम देने वाली शक्तियाँ हैं, वो सब की सब समेट कर के आपके अन्दर आ जाएंगी। लेकिन जब तक आप इन चीज़ों में उलझे रहेंगे और जब तक आप ये सोचते रहेंगे कि मैं कैसे इसका सर्वनाश कर दें, इसको मैं किस तरह से खत्म कर दं, इसमें मैं क्या इलाज कर लूं? और इस तरह से आप षड़्यन्त्र बनाते रहेंगे, तब तक आप सच्ची मानिए कि उसका असर आप पे होगा, उस पर नहीं। रामदास स्वामी ने कहा है कि, 'अल्प धारिष्ट पाये' माने आपका थोड़ासा जो धीरज है उसको परमात्मा देखता है, लेकिन आपके अन्दर इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं, इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं कि उनको पहले आप पूरी तरह प्रफुल्लित करना चाहिए। अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए, उनको जानना चाहिए । अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए। अब ये शक्तियाँ नष्ट होती हैं। सहजयोगियों में भी जागती है फिर नष्ट हो जाती है, जागती हैं फिर नष्ट हो जाती है। उसकी क्या वजह है? एक बार जगी हुई शक्ति क्यों नष्ट होती है? जैसे कि एक मनुष्य में आज शक्ति है कि वो बड़ी भारी कला में निपुण हो गया। सहजयोग में अपने से बहुत लोग कला में निपुण हो गये, कला के बारे में जान गये, उनमें एक तरह की बड़ी चेतना आ गई, उनका सृजन बहुत बढ़ गया। ॐ 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-26.txt ३ लोग देख के कहते हैं कि वह एक कलाकार ऐसा है कि समझ में ही नहीं आता। पर फिर वो उसी कला में उलझ जाता है। फिर उसकी शोहरत हो गई, नाम हो गया, उसी में उलझता जाता है। जब वो उलझ जाता है इस चीज़ में तब फिर उसकी शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। क्योंकि उसकी शक्तियाँ भी उसमें उलझ जाती हैं। जैसे कि मैंने पहले भी | बताया था कि किसी पेड़ के अन्दर बहुता हुआ उसका जो प्राण रस है वो घूम-घाम कर के वापस लौट जाता है। उसी प्रकार जो भी आपके अन्दर शक्तियाँ आज प्रवाहित हैं और जिन शक्तियों के कारण आप आज कार्यान्वित हैं वो सारी ही चीजें, आपको जानना चाहिए कि इस शक्ति का ही प्रादर्भाव है और उसमें आपको उलझने की कोई जरूरत नहीं। आप उसमें एक निमित्त मात्र हैं तो यह आपकी शक्तियाँ कभी भी दुर्बल नहीं होंगी और कभी भी नष्ट नहीं होंगी। उसी प्रकार अनेक बार मैंने देखा है कि सहजयोगियों का चित्त जो है वो ऐसी चीज़ों में उलझते जाता है । किसी चीज़ से भी वो बड़प्पन में आ गए, किसी चीज़ से उन्होंने बहुत प्रगति पा ली। आप जानते हैं कि बहुत से विद्यार्थी जो कि कक्षा में कुछ नहीं कर पाते थे प्रथम दर्ज में आने लग गए। सब कुछ बहुत अच्छा हो गया। तो फिर वो कभी सोचने लग जाएं 'वाह, हम तो कितने बड़े हो गए।' जैसे ही ये सोचना शुरू हो गया वैसे ही ये शक्तियाँ आपकी खत्म हो जाएंगी और गिरती जाएंगी। अब सोचना यह है कि हमें क्या करना है? जैसे समझ लीजिए किसी आदमी का एकदम बिजनैस बढ़ गया या उसको खूब रूपया मिलने लग गया या उसके पास कोई विशेष चीज़ आ गई तो उसे क्या करना चाहिए? उसे हर समय सतर्क रहना चाहिए और यही कहना चाहिए कि 'माँ, ये आप ही कर रहे हैं। हम कुछ नहीं कर रहे हैं। ये आप ही की शक्ति कार्यान्वित है। हम कुछ नहीं कर रहे हैं।' बहुत जरूरी है कि आप सतर्क रहें क्योंकि उसके बाद जब आपकी शक्तियाँ खत्म हो जाएगी तो आप खुद ही कहेंगे कि 'माँ, सब डूब गई, सब खत्म हो गया। ये कैसे ?' जो भी शक्ति कार्य कर रही है उसको कार्यान्तिव होने दें। जैसे एक पेड़ है समझ लीजिए उस पेड़ के पत्ते कैसे गिरते हैं । आपने सोचा है? उसमें बीच में एक बुच के जैसी जिसे कोर्क कहते हैं, बीच में आ जाती है। पत्ते और पेड़ के बीच में एक कोर्क आ जाती है। उसके बाद फिर शक्ति आती ही नहीं । तो | चीज़ वो गिर जाता है पत्ता। इसी प्रकार मनुष्य का भी होता है। आज इसकी शक्ति एक महान शक्ति से जुड़ी है और वहाँ से वो उसे प्राप्त कर रहा है। लेकिन जैसे ही वो अपने को कुछ समझने लग जाए या उसके अहंकार में बैठ जाए या उसकी जो अनेक तरह की गतिविधियाँ हैं, जिस तरह की स्पर्धा आदि में उलझता जाए तो उसके बीच में एक दरार पड़ जाएगी और उस दरार के कारण वो मनुष्य फिर उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जो उसने प्राप्त किया हुआ है। क्योंकि वो तो एक निमित्त मात्र था। लेकिन जो शक्ति अन्दर उसके अन्दर बह रही थी वो शक्ति ही बीच में से कट गई। जैसे कि अभी इसकी (माइक) शक्ति कट जाए तो शायद मेरा लेक्चर न बंद हो, पर ऐसे हो सकता है। हमको एक बात को खूब अच्छे से जान लेना चाहिए कि हमारे अन्दर जो शक्तियाँ जागृत हुई हैं और जो कुछ भी हमारे अन्दर की विशेष स्वरूप के व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली जो नई आभा हमें दिखाई दे रही है इस शक्ति को हमें रोकना नहीं चाहिए। इसके ऊपर हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम कुछ बहुत बड़े हो गए या हमने कुछ बहुत बड़ा पा लिया। दूसरी तरफ से ऐसा भी होता है कि जब यह शक्ति आपके अन्दर जागृत हो जाती है उस वक्त आपमें एक तरह का उदासीपन भी आ सकता है। इस तरह का कि अभी दूसरे साहब तो इतने पहुँच गए, हम तो वहाँ पहुँचे नहीं । उन्होंने ये कर लिया, हमने ये किया नहीं। और हर तरह से आदमी उलझते जाता है। और उस में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो छोटी-छोटी बातों पर ही अपने को दुःखी मानते हैं, बहुत छोटी बातों पर, जैसे आप सबको बैग मिला मुझको बैग नहीं मिला। गणपति में पुणे में हमें बड़े अजीब - 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-27.txt अजीब अनुभव आये कि लोग आये, कहने लगे, 'माताजी, हमको इस चीज़ का डिब्बा दे दो |' मैंने कहा, 'भाई, ये भी कोई तरीका हुआ?' दूसरे ने कहा कि आपने मुझे इतना दिया लेकिन उसको नहीं दिया।' ये कोई बात हुई? उस मौज में और आनन्द में ये सब सोचने की बात ही नहीं है। छोटी-छोटी बात में वो दुःखी हो जाते हैं। फिर ऐसी जिसको बहुत बड़ी बात समझते हैं कि किसी की, समझ लीजिए पति ने विद्रोह कर दिया या किसी पति का रास्ता ठीक नहीं रहा तो उसकी पत्नी रोते बैठेगी। या किसी की पत्नी ठीक नहीं तो पति रोते बैठेगा। अरे भाई, आपकी कितनी बार शादियाँ हो चुकी पहले जन्म में। और अब इस जन्म में एक शादी हुई, चलो, इसको किसी तरह से खत्म करो । उसीके पीछे में आप लोग रात-दिन परेशान रहो कि मुझको ये दु:ख आ गया, मेरे बच्चे का ऐसा हो गया, मेरी बच्ची का ऐसा हो गया। उसका ऐसा हो गया, उसका वैसा हो गया। इसका कोई अन्त है? इसको कोई पार कर सकता है? क्योंकि इतनी छोटी सी चीज़ है कि वो तो पकड़ में ही नहीं आती। इतनी क्षुद्र बात है कि वो मेरी पकड़ ही में नहीं आती। कोई भी आएगा तो ऐसी छोटी-छोटी बातें मुझे बताते हैं, मुझे बड़ी हंसी आती है। पर मैं चुपचाप सुनती रहती हूँ। देखिए में कहती हूँ कि आप सहजयोगी हैं? सागर के जैसे तो आपका हृदय मेैंने बना दिया और हिमालय के जैसा आपका मैंने मस्तिष्क बना दिया और आप ये क्या छुटर-पुटर बातें कर रहे हो कि जिसका कोई मतलब ही नहीं रहता। इसकी बात, उसकी बात, दुनियाभर की फालतू की बातें करना और जो सहज की बात है वो बहुत कम होती है। उसमें मौन लगता है। क्यों सहज में तो कुछ हमने ध्यान ही नहीं | दिया। सहज में तो मौन हो जाता है। अभी मैंने सुना कि पूना में लोग जरा कम आने लग गए हैं, ध्यान में, क्योंकि महाभारत शुरू हो गया है। वैसे मैंने तो अभी तक देखा ही नहीं है महाभारत। जो एक देखा है वो ही काफी है। अब देखने की क्या जरूरत है? अब अपने को दूसरा महाभारत करने का है ? और वो महाभारत देखने का शौक है तो उसकी वीडियो फिल्म मंगा लेना, देख लेना लेकिन पूजा छोड़ कर के और आपका सेन्टर छोड़ कर के आप महाभारत देखते हैं तो आपकी वो शक्ति कहाँ दिखेगी? वो महाभारत में चली गई। महाभारत हुए तो हजारों वर्ष हो गए उसी के साथ वो भी खत्म हो गई। तो ये जो मनोरंजन पर भी लोगों का बड़ा ध्यान रहता है। किसी चीज़ से हमारा मनोरंजन हो। ऐसा ही हर एक चीज़ में मनुष्य उलझते जाता है। तो कोई भी चीज़ में अति में जाना ही सहज के विरोध में पड़ती है। जैसे अब संगीत का शौक है तो संगीत ही संगीत है । फिर ध्यान भी नहीं करने का। बस, संगीत में पड़े हैं। मनोरंजन है। फिर कविता में पड़ गए तो कविता में ही | उलझ गए। कोई भी चीज़ में अतिशयता में जाना भी सहज के विरोध में जाता है। ये इस बात को आप गाँठ बाँध कर रख लें। और दूसरी चीज़ जो हमारी शक्तियाँ उनको सम्यक होना चाहिए तभी हमें सम्यक ज्ञान मिलेगा, माने संघटित ज्ञान। गर एक ही चीज़ के पीछे में आप पड़े रहे और एक ही चीज़ को आप देखते रहे तो आपको सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता है। आपको एक चीज़ का ज्ञान होगा। अब जैसे मैंने देखा है कि बहुत सी स्त्रियां होती हैं, बड़ी पढ़ी लिखी होती हैं पर कभी अखबार नहीं पढ़ती उनको दुनिया में पता ही नहीं क्या हो रहा है। रहे आदमी लोग तो उनका ऐसा है कि उनको सिर्फ ये मालूम है कि कौनसा खाना अच्छा बनता है, किस के घर में अच्छा खाना बनता है। किसके घर जाना चाहिए अच्छा खाने के लिए। एक खाने के मामले में तो हिन्दुस्तानी बहुत ही ज्यादा उलझे हुए लोग हैं। बहुत ज्यादा। और औरतें भी | 28 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-28.txt ऐसी हैं कि बेवकूफ बनाने के लिए अच्छे-अच्छे खाने खिलाकर के उनको ठिकाने लगाती हैं। इसमें दोनों की शक्तियाँ उलझ जाती हैं, दोनों की। रात-दिन ये खाने के बारे में, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मैं ये टाइम को खाऊंगा, मैं वो टाइम से खाऊंगा। ये करूंगा। उधर औरतें आदमियों को खुश करने के लिए वो ही धन्धे करती रहती हैं। उसमें औरतों की शक्ति भी नष्ट होती है। और आदमियों की भी शक्ति नष्ट होती है। इसलिए, मैंने यह तरीका निकाला है कि सहजयोगियें को सबको खुद खाना बनाना आना चाहिए। अगर किसी ने कहा मुझे ये खाने को चाहिए तो आप ही बनाये । हालांकि उसके बाद सबको भूखा ही रहना पड़ेगा। पर कोई हर्ज नहीं। आपको कहना चाहिए अच्छा आपको ये चीज़ खानी है तो आप ही इसको बना दीजिए। तो बड़ा अच्छा रहेगा। जब आप बनाना शुरू करेंगे तब आप समझेंगे कि ये चीज़ क्या है। क्योंकि किसी भी चीज़ को टीका- टिप्पणी करनी तो बहुत आसान चीज़ है। किसी चीज़ को अच्छा कहना, बुरा कहना बहुत ही आसान चीज़ है। लेकिन वो खुद जब आप करने लगते हैं तो पता चलता है कि ये टीका-टिप्पणी हम जो कर रहे हैं ये बिल्कुल बेवकूफी है। क्योंकि हमें कोई अधिकार ही नहीं । तो इस कदर की छोटी-छोटी चीज़ों में भी लोग मुझे आ कर बताते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। आप अब साधु हो गए हैं। आपके अन्दर सबसे बड़ी जो शक्ति आई है वो ये, आप कोशिश करके देखिए और मैं बात कहती हैं। उसकी प्रचीति आएगी कोशिश करके देखिए आप जमीन पे सो सकते हैं, आप रास्ते पर सो सकते हैं। आप दस-दस दिन भी भूखे रह जाए आपको भूख नहीं लगेगी। आप कैसा भी खाना है उसे खा लेंगे, आप कुछ नहीं कहेंगे। इसमें आप हमारे परदेस के सहजयोगियों ने बताया कि ब्रह्मपुरी में इन्तजाम सब ठीक नहीं रहा । लोगों का दिमाग ही खराब हो गया था। क्योंकि आप नहीं गए, तो बहुत तकलीफ हुई उनको खाने-पीने की और कुछ अच्छा नहीं लगा। ऐसा बताया। तो मैंने उन लोगों से जा कर पूछा कि, 'भाई, सबसे ज्यादा तुमको कहाँ मजा आया?' तो उन्होंने कहा, 'ब्रह्मपुरी में सबसे ज्यादा मजा आया।' तो मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि इतनी शिकायतें हुई, 'क्यों? ब्रह्मपुरी में क्या बात है?' तो कहने लगे कि, 'वहाँ कृष्णा बहती है। उसके किनारे में बैठो तो लगता है कि माँ जैसे आपकी धारा बह रही हो।' वो सब यही बातें करते रहे। यहाँ ये लोग खाने-पीने की सोचते हैं। इसलिए जब कभी-कभी लोग कहते हैं कि हम लोगों का समर्पण कम है तो उसकी वजह यह है कि हम लोग काफी उलझे हुए लोग हैं। हमारे अन्दर बहुत पुरानी परम्परा है। यहाँ अनेक संत हो गए, बड़े-बड़े लोग हो गये, बड़े-बड़े आदर्श हो गये और उन आदर्शों की वजह से हमें मालूम है कि अच्छाई क्या है। लेकिन उसके साथ ही साथ हमारे अन्दर एक तरह की ढोंगी वृत्ति आ गई। हम ढोंग भी कर सकते हैं। कोई भी आदमी अपने को राम कह सकता है। कोई भी आदमी अपने को भगवान कह सकता है, कोई भी आदमी अपने को सीताजी कह सकता है। ये ढोंगीपने की हमारे यहाँ बड़ी भारी शक्ति है। साधु- एक साहब ने मुझे कहा कि, 'देखिए वो तो भगवान हैं।' मैंने कहा, 'कैसे?' 'वो कहते हैं वो भगवान हैं। मैंने कहा, 'उसको कहने में क्या लगता है? ऐसे कैसे कहेगा कोई कि मैं भगवान हैँ।' मैंने कहा, 'कह रहे हैं वो भगवान है लेकिन उसके कुछ तरीके होते हैं। जो आदमी फूल को नहीं सूंघ सकता वो भगवान कैसे हो सकता है?' 'हाँ, ये तो बात है पर वो ऐसा क्यों कह रहे थे ? पर वो ऐसा क्यों कह रहे हैं?' मैंने कहा, 'क्योंकि वो आप नहीं। वो ये ही नहीं समझ सकते कि लोग इतना सफेद झूठ इतने जोर से कह सकते हैं या किसी के लिए कहते हैं। पर वो उसको रूपया ही चाहिए न, ठीक है, वो रूपया लेता है लेकिन हमको तो वो 29 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-29.txt ২३ । ३ आध्यात्मिकता देगा। तो क्या हर्ज है। हमें तो अध्यात्म लेना है, लेने दो रूपया, रूपये में क्या रखा है? रूपया दे दो उसको। रूपयों में क्या रखा हुआ है। अध्यात्म के पाने की बात है। अध्यात्म अगर वो हमको दे रहा है तो हम उसको रूपया दे रहे हैं। रूपये में तो कोई खास चीज़ होती नहीं । ये जो उनकी तैयारी आज हो गई है। वो हमारे अन्दर तैयारी अभी तक हो नहीं पाई। इसके लिए क्योंकि हमारे सामने आदर्श बहुत अच्छे हैं। महाभारत है, राम हैं, ये हैं, वो हैं। और हम उसी कीचड़ में बैठे हुए हैं।। अगर कोई कीड़ा कहे कि मैं कमल हो गया तो हो नहीं सकता और अगर उसको कमल बना भी दिया तो भी ढंग वही चलेगा। इसलिए समझ लेना चाहिए कि हैं और हमारे अन्दर ये जो इतनी ऊंची-ऊंची बातें हो गई और जिससे हम सारी तरफ से पूरी तरह से ढके हुए जिसके कारण हम लोग बहुत ऊंचे भी हैं, समझे कि हमें वो ही होना है जो हम देख रहे हैं, इस मामले में हमारे अन्दर आन्तरिक इच्छा हो, ऊपरी नहीं। अन्दर से लगना चाहिए। क्या हमने इसे प्राप्त किया ? क्या हमने अपने ध्येय को प्राप्त किया ? क्या हमने इसे पाया है? उसे हमें पाना है इस मामले में ईमानदारी अपने साथ रखनी है। और जब तक ईमानदारी नहीं होगी तब तक शक्ति आपके साथ ईमानदारी नहीं कर सकती। ये आपका और अपना निजी सम्बन्ध है। अनेक तरह से आप अपने को पड़तालिये और देखिए हमारे अन्दर ये शक्तियाँ क्यों नहीं जागृत हो रहीं। क्यों नहीं हम इसे पा सकते। कारण हम अपने को, खुद ही अपने को एक तरह से काटे चले जा रहे हैं। तो किसी भी तरह की ढोंगी वृत्ति का सहजयोग में स्थान ही नहीं है । हृदय से आपको महसूस होना चाहिए। हर एक चीज़ को हृदय से पाना चाहिए । अपने अंतरात्मा से उसे जानना चाहिए । उसके लिए कोई भी ऊपरी चीज़ आवश्यक नहीं। कोई हैं कि मुस्करा कर बैठे रहेंगे, कोई जरूरत है मुस्कराने की? कोई है कि बड़े गम्भीर हो के बैठे रहेंगे, ये सब नाटक करने की कोई जरूरत नहीं। जो आपके अन्दर भाव है वो बाहर आ रहा है उसमें कौनसा नाटक करने की जरूरत है ? उसमें कौनसी आफत करने की है? जो हमारे अन्दर भाव है वही हम प्रकटित कर रहे हैं। क्योंकि हमारे अन्दर जो भाव हैं वो इस शक्ति से बहता हुआ बाहर चला आ रहा है और | उसको हम प्रकटित कर रहे हैं और जो लोग इस तरह से एक बात समझ लें कि हमें पूरी तरह से ईमानदारी सहजयोग करना है तो धीरे-धीरे इसमें खिसकते जाएंगे । जिस तरह से वहाँ पर मैं लोगों में देखती हूँ आत्मसमर्पण है उनमें। मैं यह जरूर कहँगी कि उस आत्मसमर्पण के पीछे में एक बड़ी भारी कमाल है। और वो कमाल ये है कि वो सोचते हैं कि हमारा कल्याण सिर्फ आत्मिक ही होना चाहिए। हमारा आत्मिक कल्याण होना चाहिए। और कोई भी बात वो नहीं सोचते। सहजयोग के लाभ अनेक हैं। आप जानते हैं इससे तन्दरुस्ती अच्छी हो जाएगी, आपको पैसे अच्छे मिल जाएंगे, आपकी नौकरी अच्छी हो जाएगी, आप का दिमाग ठीक हो जाएगा और दुनिया भर की चीज़ें जिन्हें कि आप संसारी कहते हैं, हो जाएंगी। और उसपे भी आप का नाम हो जाएगा, शोहरत हो जाएगी। जिनको कोई भी नहीं जानता है उनका भी नाम हो जाएगा । उन्हें लोग जानेंगे, सब कुछ होगा। लेकिन हमें क्या चाहिए? हमें तो अपनी आत्मिक उन्नति के सिवाए और कुछ नहीं चाहिए। हम सिर्फ आत्मिक उन्नति पा लें। जब वो आत्मिक उन्नति मनुष्य में हो जाती है तब मनुष्य सोचता ही नहीं ये सब चीज़ें उसके लिए व्यर्थ है । कोई भी चीज़ उसके लिए ऐसी नहीं है कि जिसके लिए वो लालायित हो या परेशान हो। इस कदर वो समर्थ हो जाता है। अगर है तो है, नहीं है तो नहीं है। मिले तो मिले, नहीं है तो नहीं। ये जब अपने अन्दर ये स्थिति आ जाए, मनुष्य इस स्थिति | ॐ 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-30.txt ३ ) । पे आ जाए, तब सोचना चाहिए कि सहजयोगियों ने अपने जीवन में कुछ प्राप्त किया। जब तक ये स्थिति प्राप्त नहीं होती तो आपकी नाव डांवाडोल चलती रहेगी। और आप हमेशा ही कभी इधर तो कभी उधर घूमते रहेंगे। पहली अपने को स्थापित करने की जो महान शक्ति आपके अन्दर है वो है श्रद्धा। उस श्रद्धा को हृदय से जानना चाहिए और उसकी मस्ती में रहना चाहिए, उसके मजे में आना चाहिए, उसके आनन्द में आना चाहिए, तो जो ये श्रद्धा की आल्हाददायिनी शक्ति है उस आह्वाद को लेते रहना चाहिए, उस खुमारी में रहना चाहिए। उस सुख में रहना चाहिए। और जब तक मनुष्य उस आह्वाद में पूरी तरह से घुल नहीं जाएगा उसके सारे जो कुछ भी प्रश्न हैं, समस्याएं हैं वो बने ही रहेंगे, बने ही रहेंगे। क्योंकि समस्याएं वगैरा सब माया है। ये सब चक्कर है। अगर किसी से पूछो कि भाई, तुम्हें क्या समस्या है? तो मुझे सौ रूपया मिलना चाहिए, मुझे पचास रुपये मिलते हैं। जब सौ रुपये मिले तो फिर क्या समस्या है ? मुझे दो सौ रुपये मिलने चाहिए तो मुझे सौ ही रुपये मिले। वो तो खत्म ही नहीं हो रहा। फिर दूसरी क्या समस्या है कि मेरी बिवी ऐसी है। फिर तुम दूसरी बिवी कर लो , वो भी ऐसी है, तीसरी आई वो भी ऐसी है तो आपकी समस्या नहीं खत्म हो रही क्योंकि आप स्वयं इनको खत्म नहीं कर रहे। ये सबको खत्म करने का तरीका यही है कि अपनी श्रद्धा से आप अपने आत्मा में जो आनन्द है उस का रस लें और उसी रस के आनन्द में रहें आखिर सारी चीज़ है ही हमारे आनन्द के लिए, लेकिन जब तक हम उस रस को लेने की शक्ति को ही नहीं प्राप्त करते हैं तो क्या फायदा होगा? ये तो ऐसा ही हुआ कि एक मक्खी जा कर के बैठ गई फूल पर और कहेगी कि साहब मुझे तो कुछ मधु नहीं मिला। उसके लिए तो मधुकर होना चाहिए। जब तक आप मधुकर नहीं होंगे तो आपको मधु कैसे मिलेगा? गर आप मक्खी ही बने रहे तो आप इधर-उधर ही भिनकते रहेंगे। लेकिन जब आप स्वयं मधुकर बन जाएंगे तो आप कायदे की जगह जा करके जो आपको रस लेना है, रस ले कर के मजे में पेट भर कर के और आराम से आनन्द से रहेंगे। यही सबसे बड़ी चीज़ सहजयोग में सीखने की है कि हमारा चित् पूरी तरह से एक चीज़ में डूबा रहना चाहिए। और वो है आत्मिक हमारी उन्नति होनी चाहिए। पर उस का मतलब यह नहीं कि पूरा समय अपने को बन्धन देते रहो या पूरा समय आँखें बंद करें उसकी कोई जरूरत नहीं। सर्वसाधारण तरीके से रोजमर्रा के जीवन को कुछ भी न बदलते हुए जैसे आप हैं वैसे ही उसी दशा में आपको चाहिए कि आप अपने अन्दर जो हृदय में आत्मा है उसके रस को प्राप्त करें। जब उसका रस झरना शुरू हो जाता है तो आप ही में कबीर बैठे हैं और आप ही में नानक बैठे हैं, और आप ही में सारे बड़े-बड़े संत साधु हो गए, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ सब आप ही लोगों में बैठे हैं। और उनको बिचारों को, कोई बताने वाला भी नहीं था, उनके संरक्षण के लिए कोई नहीं था। ये सब आपको प्राप्त है। आप तो अच्छी छत्रछाया में बैठे हुए हैं। तो भी आप उस छत्रछाया में बैठ कर के एक अपनी भी छतरी खोल लेते हैं और उसके बारे में फिर चर्चा करते हैं, तो इससे तो आपकी शक्तियाँ कम हो ही जाएंगी| इस बार हमें गौर करना चाहिए कि हमारी कितनी शक्तियाँ हैं और हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हमने देखी और वो कैसे कार्यान्वित हो रही हैं। आप जो चाहे सो करें। जो आप इच्छा करेंगे वो आपको मिलेगा लेकिन आपकी इच्छा ही बदल जाएगी। आपके तौरतरीके ही बदल जाएंगे जैसे आज अब कोई महाभारत देखने को नहीं रूकेगा। क्या सोचेगा ? अरे बाप रे, आज माँ का इतना अच्छा समय बंधा हुआ है, माँ स्वयं आ रही है, पूजा का मौका है, सारी दुनिया से लोग दौड़े आएंगे। अब बाहर अमेरिका से, अभी मैं जा रही हूँ, उन्होंने कहा, 'एक दिवाली पूजा जरूर करना ।' उसके लिए मेरे ख्याल से सारे ब्रह्माण्ड से लोग वहाँ पहुँच जाएंगे । लेकिन यहाँ कलकत्ते से भी लोगों को आने में मुश्किल हो 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-31.txt जाती है। और साक्षात् हम बैठे हुए हैं। ऐसे-ऐसे लोग हैं कि जो बिल्कुल आसानी से आ सकते हैं। अपने काम के लिए दस मर्तबा दौड़ेंगे। लेकिन इसको नहीं समझते कि कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है ? उसका महत्व नहीं समझ पाते क्योंकि श्रद्धा कम है। वो कहते हैं जब हम रिटायर्ड हो जाएंगे तब आएंगे। सुविधा के साथ। रविवार के दिन करिए पर एक दिन उससे पहले छुट्टी होनी चाहिए नहीं तो बाद में छुट्टी होनी चाहिए। अब ऐसी रोनी सूरत लोगों के लिए क्या सहजयोग है? ये घोड़े कहाँ तक जाएंगे? ये तो खच्चर भी नहीं। जो लोग इस तरह की बातें सोचते हैं वो सहजयोग में कहाँ तक पहुँचेंगे ये मेरी समझ में नहीं आता। सब सुविधा होनी चाहिए, शनिवार, इतवार होना चाहिए और उसमें से भी जैसे ही प्रोग्राम खत्म होगा हम भाग जाएंगे क्योंकि | हमको कल दफ्तर में जाना है। तुम जाओगे कल भी सब ठीक हो जाएगा। लेकिन गर आप ऐसी जल्दबाजी करोगे तो खंडाला के घाट में आपको रोक लेंगे हम। लेकिन ये सब चूहल, ये सब शैतानियाँ हम कितनी भी करें लेकिन आपके अक्ल में जब तक ये चीज़ घुसेगी नहीं क्या फायदा ? तो चाह रहे हैं कि किसी तरह से आपको रास्ते पर ले आएं। अब रास्ते पर लाने पर गर बार-बार आप लोग फिसल पड़े तो कितनी हमें मेहनत करनी पड़ेगी। और आपकी जो शक्तियाँ जागृत हो सकती हैं, जो अपने आप पनप सकती हैं बढ़ सकती हैं वो सारी शक्तियाँ कहाँ से कहाँ नष्ट हो जाएंगी? तो अपने को पहले आपको संवारना है। अपनी शक्तियों के गौरव में उतरना है और ये जानना है कि हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हैं और हम कितनी शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं? हम कितने ऊंचे उठ सकते हैं। हम दूसरों को क्या-क्या लाभ दे सकते हैं। इतना भंडार हमारे अन्दर पड़ा हुआ है। सारा कुछ खुल गया, चाबी मिल गई अब खुल जाने पर सिर्फ उसमें से निकाल के लोगों को बाँटना है और उसका मजा उठाना है। आज ये जो शक्ति की पूजा हो रही है वो असल में, मैं चाहती हूँ कि आप जानिए कि आपकी ही शक्ति की पूजा होनी चाहिए। जिस से आप एक बड़े ईमानदार और एक सच्चे तरीके से श्रद्धामय हो जाए। साधु-संतों को कुछ कहना नहीं पड़ता था। वो मार खाएंगे, पीटे जाएंगे, उनको जहर देंगे, चाहे कुछ करिए उनकी लगन नहीं छूटती। अब आप लोगों को तो कनेक्शन लगा दिया लेकिन वो इतना ढीला कनेक्शन है कि बार-बार लगाना पड़ता है। फिर से किसी बात से छूट जाता है। फिर से किसी बात से लगाना पड़ता है, सो अब सोचना यह है आपको कि अपने अन्दर की सारी ही शक्तियाँ हमें जागृत करनी है तो फिर कोई कमी नहीं रह जाएगी। कोई आपके सामने प्रश्न ही नहीं रह जाएंगे। इन शक्तियों का जागृत करना बहत आसान है। एक ही बात है कि आपकी लगन होनी चाहिए । जिसको लगन हो जाएगी, जो पूरी तरह से लगन से सहजयोग में उतरेगा और जिसका जी हमेशा सहजयोग में ही खींचा रहेगा, उधर ही ध्यान रहेगा उसका तो क्षेम हो ही जाएगा। पर पहले योग घटित होना चाहिए और आधा-अधूरा योग किसी काम का नहीं। न इधर के रहे न उधर के रहे। ऐसी हालत हो जाएगी। एक छोटे से बीज में हजारों वृक्ष निर्माण करने की शक्ति है। तो आप तो ऐसे हजारों वृक्षों के मालिक मनुष्य हैं। और उनमें से हजारों लोगों को शक्तिशाली बनाने की शक्ति आपके अन्दर है लेकिन गर इस बीज का अंकुर निकालने के बाद गर आप रास्ते पे फेंक दीजिए और उसकी परवाह न करें और इसका गर पेड़ नहीं हुआ तो इसकी शक्ति कुंठित हो जाएगी। तो अपने लिए पूरी तरह से आप इसका अंदाज करे कि हम क्या हैं और हम क्या कर रहे हैं? और कहाँ तक हम पहुँच सकते हैं? इससे आपस के झगड़े छोटी-छोटी क्षुद्र बातें ऐसी चीज़ें जो कि रास्ते पर के भी लोग न करे, असभ्यता ये तो अपने आप से ही ढह जाएगी। वो तो बचने ही 32 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-32.txt नहीं वाली। लेकिन आपका जो स्वयं सुन्दर स्वरूप है वो निखर आएगा। और लोग कहेंगे कि ये एक शक्तिशाली मनुष्य खड़ा हुआ है। एक विशेष स्वरूप का आदमी खड़ा हुआ है। एक महान कोई व्यक्ति है। ऐसा अनूठा उसका सारा व्यवहार है। वो किसी से डरता नहीं, निर्भय है। जहाँ कहना है, कहता है, जहाँ नहीं कहना नहीं कहता। ये आ जाए, बाबा भी आ जाए फिर बाबा के नाना भी आ जाए सो नहीं हो सकता। जो आप हैं उस लायक वो लोग नहीं। वो नालायक हैं। जो नालायक हैं उन को छोड़ देना चाहिए। उससे क्यों झगड़ा करना? नालायक लोगों से झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं। 'नसीब आपके फूटे जो नालायक से शादी कर ली।' ऐसा सोचना चाहिए और नसीब आपके फूटे जो नालायक आपके माँ-बाप हैं। जो नालायक हैं उनको काहे को जबरदस्ती सहजयोग में लाना और मेरी खोपड़ी पर लादना कि 'माँ, इसको ठीक करो क्योंकि वो मेरी बिवी है, क्योंकि वो मेरा बाप है, क्योंकि मेरा बाबा, मेरा दादा।' मेरा उनसे कोई रिश्ता नहीं बनता। गर वो सहजयोग में नहीं हैं। तो उनको आप नालायकों को बाहर ही रखिए। जो लायक लोग हैं उनसे रोज दोस्ती करिए, उनके मज़े में रहिए। आपको जरूरत क्या है? पर यही बात हम लोग नहीं समझ पाते कि दुनियादारी ये रिश्ते ऐसे चलते रहते हैं। इसमें कुछ रखा नहीं, हाँ गर आपकी जिनके साथ में संगति है वो आपके साथ उठ सकते हैं, आपके साथ चल सकते हैं, आपके साथ बन सके तो ठीक है । और नहीं तो ऐसे नालायक लोगों को कोई जरूरत नहीं सहजयोग में लाने की। मैं देखती हैँ कि ही नालायक लोग सहजयोग में कभी-कभी इस रिश्ते से आ जाते हैं और मेरा बड़ा सिर दर्द हो जाता है। आपकी लियाकत थी इसलिए आप आये और आप सहजयोग को प्राप्त हुए। आपको आशीर्वाद मिला। आपने बहुत कुछ पा लिया और आगे आप पा सकते हैं। और जो भिखारी भी हैं और उसकी झोली में छेद भी है उनको और देने से क्या फायदा? लो करेला नीम चढ़ा। ऐसे लोगों से रिश्ता रखने की आपको कोई जरूरत नहीं है । उनसे कोई ৬ बहुत बात करने की जरूरत नहीं। मतलब रखने की जरूरत नहीं है। उनको बकने दीजिए। गर उनका दिमाग ठीक तो वो आएंगे और सहजयोग में उतरेंगे। और नहीं हुए तो आप अपना दिमाग क्यों खराब करते हैं ? हुआ उससे कोई फायदा नहीं है। ऐसे लोगों के पत्थर के जैसे सर होते हैं। उससे कोई फायदा नहीं होता, वो देख ही नहीं सकते। तो आज से हम लोगों को सोचना है कि हम एक व्यक्ति हैं, स्वयं | और इसे हमने प्राप्त किया है अपने- अपने पूर्वजन्म के कर्मों से। क्योंकि हमने बहुत पुण्य किये थे। इसलिए हम आज इस स्थान पर बैठे और इससे भी ऊँचे स्थान पर हम बैठा सकते हैं और जा सकते हैं। तो अपने पीछे में बड़े-बड़े इस तरह के पत्थर लगा कर के आप समुद्र में मत कूदिए। आपको गर तैरना आता है तो मुक्त हो कर के तैरिए। उसका आनन्द उठाईये। और अपनी सारी शक्तियों से आप प्लावित होईए। आज मेरा अनन्त आशीर्वाद है कि आपके अन्दर की सुप्त सारी ही शक्तियाँ जागृत हों और धीरे-धीरे आप इसको महसूस करें। और उसकी जो अन्दर से प्रवाह की विशेष धारायें बहें उसके अन्दर आप आनन्द लूटें। हुए हैं। यही मेरा आप सबको अनन्त आशीर्वाद है। 33 প 6 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-33.txt आपका उत्तरदायित्व lt आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति के क्षण से ही कुछ लोगों ने सहजयोग के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस कर लिया। बिना किसी अहं के जो लोग सभी कुछ दे सकते थे वे भारतीय सहजयोगी हमारी सहायता के लिए भेजे गये। यदि हम ध्यान नहीं करेंगे तो हमारा अहं बढ़ सकता है, और हमारा चित्त ऐसी घटिया चीज़ों पर जा सकता है जैसे नेता किस प्रकार बनें और इस अवस्था से इसका पतन, क्रोध तथा हिंसा तक हो सकता है। इससे बचने के लिए प्रतिदिन सुबह शाम ध्यान करें तथा बन्धन में रहें। हम यह प्रार्थना भी कर सकते हैं, 'श्री माताजी, यदि मुझ में अहं बाकी है तो कृपया इसे दूर कर दीजिए।' प्रातः काल स्वयं से पूछने का पहला प्रश्न है 'सहजयोगी होने के नाते मेरा क्या उत्तरदायित्व है? इससे हमें आश्चर्यजनक शक्तियाँ तथा अनुभव प्राप्त होंगे। 'अब ध्यान में आओ, ध्यान में आओ' की बौछार हमने स्वयं पर प्रतिदिन करनी है। बहुत सी अवस्थाओं में, तब आप निर्विचार समाधि में आ जाएंगे। प्रतिदिन जब तक हम स्वयं को शुद्ध न करेंगे, हम स्वयं को न जान पाएंगे। अन्तर्मन के माध्यम से हम अन्तस में देखेंगे। प्रश्न कीजिए, 'मैं ऐसा क्यों हूँ? मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ? मैं कौन हूँ?' इन प्रश्नों का उत्तर जब हमें मिल जाएगा तो अपने मूल्य, अपने महत्व को हम जान पाएंगे। श्री माताजी ने कहा कि, 'यदि हम नहाये-धोये होंगे तो किसी भी वस्तु को छूने से पहले हम ध्यान रखेंगे कि हमें पुन: गन्दा नहीं होना है।' गन्दे कपड़ों में दाग छुप जाते हैं। साफ कपड़ों पर धब्बे स्पष्ट दिखाई देते हैं। स्वयं को साफ किये बिना हम अपनी कमियों को न जान पाएंगे। साक्षी रूप से स्वयं को देखकर हमें समझना है कि हमारा दुर्व्यवहार हमारे मस्तिष्क की विकृति की देन है। यह दिमाग ठीक किया जाना चाहिए। दिन की समाप्ति के समय हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि 'सहजयोग के हित में कौन से भले कार्य किए? मैं सहजयोग की गहनता के स्तर तक क्यों नहीं हूँ? इन शक्तियों का प्रयोग मैंने सहजयोग के प्रचार के लिए कहाँ तक किया? किस सीमा तक मैं जा सकता हूँ? ज्यों-ज्यों हम गहनता को प्राप्त करेंगे, प्रदर्शन छोड़ देंगे, केवल उस गहनता को प्रसारित करेंगे। इस प्रकार एक सहजयोगी निर्लिप्त रहेगा तथा उसकी गहनता बच्चों एवं वातावरण को प्रभावित करेगी । किसी व्यक्तिगत रूप से करने की यह बात नहीं, सामूहिक रूप से हमें ध्यान करना है। कौन ध्यान में नहीं आ रहा, इसकी चिन्ता न करें। व्यक्ति को सोचना है, 'मुझे अपनी देखभाल करनी है..... यह अति स्वार्थ परता है, 'स्व' अर्थात् अपना और 'अर्थ' अर्थात लक्ष्य या ध्येय। कौन क्या कहता है, क्या करता है, इसकी चिन्ता तब आपको नहीं रहती। अपनी लक्ष्य प्राप्ति ही आपके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जिन लोगों ने इस प्रकार सोचकर कार्य किया है वे सर्व-बाधातीत हैं। किसी भी प्रकार उनका पतन नहीं हो सकता है। ब्रिसबेन, ६ / ४/१९९१ 34 न ubsesy Steril Slit प০0০০0० COC ००००००००००००००००० 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-34.txt व्या देवी सर्व मतय बढि ेग संल्धिता NEW RELEASES On the Occasion of Ganesh Puja 2010 Speech Title Lang. ACD | ACS Date Place VCD DVD सहजयोग्यांशी हितगुज 26th Feb 1979 279 279 Pune M 19th July 1981 | Guru Puja 462 London th 463' 26™ May 1983 Shri Buddha Puja Part-I & II Brighton 311 th 464' 17" July 1983 | Puja At Surbiton Ashram 312 Surbiton/UK 24th July1983 465 Guru Puja - Why in England - Brighton Guru Purnima Seminar 14th July 1984 Guru Puja 466 Leisin 467 5th July 1985 313 Shri Trigunatmika Puja - Part I & II| Den Haag E 468* 314 Public Program 1986 Delhi Е/Н at Malvankar Hall (Delhi) 26h July 1993 315 Shri Pallas Athena Puja 41* Athens E 41 th 10" Sep 1995 San diego 88 316 Shri Ganesh Puja - Part I & II 88 E Guru Puja 26" July2000 th 210 Cabella 210 E 470 4th Sept. 2000 | Public Programme Genoa, Italy E अपनी ओर दृष्टि रखें 21 Dec. 1975 261" st Mumbai 261 Н 14th Oct. 1978 471* London Beej Mantra Bhajan Title ACD Bhajan Details Atmanubhav - Part I Ajit Kadkade 165 Atmanubhav - Part II Ajit Kadkade 166 Shehnai Vadan 167 Pt.Jagannath Mishra Nirmal Dhara Nirmal Sangeet Sarita 168 पुणे म्युझिक ग्रुप आईचा सोन्यावाणी रंग 169 FQ Books Price Code Title B 79 Eternally Inspiring Recollections -Volume 7 - Part - I 200/- B 80 Eternally Inspiring Recollections -Volume 7 - Part - II 200/- Sahajyog Parichaya Pustika - Aasami स्वरांजली B 81 2/- B 82 50/- प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन ०२० - २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in नमा नमः । সमस 2010_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-35.txt ात आपने कहा हुआ हर एक शब्द जागृत हीती है to और अब वो 'सिद्ध' मंत्र हैं। प.पू.मातीजी श्री निर्मला देवी इ