चैतन्य लहरी नवम्बर-दिसम्बर २०१० त हिन्दी ु का ू० र] ०] रे ० ा द्ध हमें पूरे विश्व को विनाश से बचाना है और उसके लिए, में सोचती हूँ, पूरी जनसंख्या के कम से कम ४० प्रतिशत लोगों को आत्मसाक्षात्कारी होना आवश्यक है। जो चाहे उनकी राष्ट्रीयता हो, जो चाहे उनका शिक्षा स्तर हो, सभी की आत्मसाक्षात्कार दिया जाना चाहिए। सहस्रार पूजा, इंटली, ६.५.२००१ इस अंक में... बुद्धि भIवना और की एकाकारिता...४ ० may the auspicious त्रिगुणात्मिका ...२२ oCcasion of Diwali breeze into your life laughter, love and contentment. भि ाई ज ০ ा। शॐ 30 गत স भगवान इसामसीह..,२६ मेरे बाल यम के दिये हुए है....२८ 26 दिवासव happy diwali ρυστωαl DEEPOTSAV ा ॐ ए छ ं हमने क्या-क्या पा लिया। एवकदम से ही हमारे अन्दर इतनी शान्ति आ गईं। इतना आनन्द आ गया और इसके अलावा हमारे अन्दर एक अद्भुत शक्ति जागृत हो गई जिसके कारण हम भी दूसरों का भला कर सकते हैं और हम भी सहजयोग को जान सकते हैं। ० का े हि भावना और बुद्धि की एकाकारिता ९/१०/१९९० जब तक हृदय और बुद्धि का सामंजस्य सहजयोग में आपको नहीं होता है तब तक आप बहुत ही आधे-अधूरे सहजयोगी हैं। ....जो परेशानियाँ खड़ी हो रही हैं, अपने देश में ही नहीं, अनेक दूसरे देशों में उस पर विचार करके आप जान सकते हैं कि हम लोग इन गड़बड़ करने वालों से, आतताई लोगों से, जो धर्म के नाम पर धर्मान्धता कर रहे हैं, जो परमात्मा के नाम पर पैसा लूट रहे हैं, जो हर तरह का गलत काम अच्छाई का नाम लेकर कर रहे हैं, उनसे बहुत अलग हैं। एक बहुत बड़ी क्रान्ति हमारे अन्दर हो गई, पता नहीं हम लोगों ने समझा कि नहीं कि कितनी बड़ी क्रान्ति हमारे अन्दर हो गई और हमने क्या-क्या पा लिया। एकदम से ही हमारे अन्दर इतनी शान्ति आ गई। इतना आनन्द आ गया और इसके अलावा हमारे अन्दर एक अद्भुत शक्ति जागृत हो गई जिसके कारण हम भी दूसरों का भला कर सकते हैं और हम भी सहजयोग को जान सकते हैं। यह सब कार्य अति सूक्ष्म हैं। सारा ज्ञान अति सूक्ष्म है पर उसको भी आप लोगों ने बड़ी सहजता से ग्रहण कर लिया है, उसको पा लिया, उसको जान लिया। आपस में आपका प्रेम बढ़ता जा रहा है, घटता नहीं। धीरे-धीरे आपसी मैत्री बढ़ती जा रही है और एक तरह की बड़ी नितान्त श्रद्धा और आनन्द एक दूसरे के सहवास में और प्रेम में आ रहा है। यह तो है कि कुछ लोग बहुत आगे चले जाते हैं अगर उनकी पीठ उस ओर न हो। इस प्रकार की आपसी सद्भावनाएं हमारे अन्दर अकस्मात ही प्रस्फुटित हुई हैं- अकस्मात्! उसके लिए हमने कुछ किया नहीं, उसके लिए हमने कुछ मेहनत नहीं की, अपने आप हमने जान लिया कि सद्भावना रखने में कितना आनन्द है, प्रेम है, कितना मजा आ रहा है जिन्दगी का हमारे अन्दर अनेक तरह की ऐसी प्रकृति थी जिसको हम कह सकते हैं कि बिल्कुल विकारमय, जिसमें बहुत विकार थे। उसके अनेक कारण हैं। हम लोगों ने जब इस भारत वर्ष में जन्म लिया तो इसकी त्रुटियों ने भी हमारे साथ बचपन से ही प्रेम कर लिया और हमने उनसे प्रेम कर लिया। सबसे पहले यह कि हमारे मां-बाप में ही सद्भावना नहीं रहती और फिर भाई बहनों में भी नहीं रहती। घर का वातावरण जिसमें हम एक साथ रहे, एक साथ खाना खाया, एक साथ तकलीफें उठाईं, एक साथ चलते रहे, उसमें भी अलग-अलग तरह के लोग निकल आते हैं। इसको भेद-अभेद कहते हैं। अर्थात हर एक चीज़ में भेद करते जाना कि तुम अलग हो, हम अलग हैं। और करते-करते यह भेद इतना बढ़ जाता है कि उसकी एक पकड़ हमारे अन्दर जैसे कोई पत्थर के किले के अन्दर बन्द हो गये हों, और उस को लेकर के लोग आपस में जमघट बना लेते हैं, झुंड बनाना। यह भी हमारा बड़ा पुराना, जानवरों से लिया हुआ, आनुवंशिक गुण है कि फौरन हम अपना झुंड बना लेंगे।अब जैसे कि दिल्ली के लोग हैं, तो नोएडा का एक ग्रुप हो गया , तो फिर यहाँ उत्तर का, पूर्व का, पश्चिम का हो गया। फिर उसमें भी उस गली के हो गए। इस प्रकार हम लोग अपने ग्रुप बनाते जाते हैं, इससे तो भेद आ गया। अब इस क्रान्ति का सत्य स्वरूप यह है कि इसमें सारा संसार एकाकारिता को प्राप्त करे। तो हमारे अन्दर की यह जो भेद भावनाएं हैं इसकी ओर हमें नजर करना चाहिए और सोचना चाहिए कि हमारे अन्दर ये भेद भावनाएं क्यों आई। अपनी तरफ नजर करने से आप देख सकते हैं। हो सकता है किसी के माँ-बाप ने भी सिखाया हो। बहुत लोग होते हैं वे कहते हैं कि, 'अच्छा, तुम हिन्दू हो, मुसलमानों को मार डालना चाहिए।' तो बचपन से वो भाव आ गया। मुसलमान के बच्चों को सिखाया जाता है कि तुम हिन्दुओं को मार डालो। ईसाइयों को सिखाया जाता है कि दुनिया के सब लोग बेकार हैं, हम ही खास परमात्मा के चुने हुए लोग हैं। पता नहीं कैसे ये लोग ऐसा सोच भी लेते हैं? अपना ही प्रमाण पत्र लगा लेते हैं। जैन धर्म वाले सोच लेते हैं कि हम से बढ़कर कोई है ही नहीं और अपने-अपने प्रांत में भी यही झगड़ा शुरू हो जाता है। जब इसका विशाल स्वरूप शुरू हो जाता है तो लोग सोचते हैं कि हमारे गाँव के लोग अच्छे नहीं हैं और गाँव से जरा निकले तो प्रांत पे आ गए कि हमारा प्रांत बहुत अच्छा है, दूसरा प्रांत अच्छा नहीं। फिर भाषा पर आ गए कि हमारी भाषा बहुत अच्छी है, दूसरों की भाषा बिल्कुल बेकार है। हर बार यही सोचा करते हैं, हम कोई विशेष अच्छे हैं और बाकी लोग बिल्कुल बेकार हैं और इसलिए हमें पूर्ण अधिकार है कि हम दसरों से लड़ें, उनसे बदतमीजी करें या उनको मारें, पीटें, जो भी करना है करें। विशेषकर अपने देश में जातीयता बिल्कुल मानी नहीं जाती थी। आपको याद होगा आज भी किसी से पूछिए तो वे कहेंगे 'हम तो फलाने जात के हैं।' अब आप जानते हैं कि, 'या देवी सर्वभूतेषु जाति रूपेण संस्थिता' देवी 6. अगर किसी के अन्दर बसती है तो वो उसकी जाति, माने उसके अन्दर बसा जो एक विशेष है, उसको हुआ गुण प्रस्फुटित करती है। परमात्मा को खोज रहा है, ब्रह्म तत्व को खोज रहा है, तो उसे ब्राह्मण जाति का माना जाता है और जो शक्ति को खोज रहा है उसको क्षत्रिय कहा जाता था और कोई धन सम्पति खोज रहा है उसको वैश्य कहा जाता था। और जो लोग दूसरों की सेवा करके और किसी तरह उससे पैसा कमाते थे उनको शूद्र माना जाता था। यह तो तबियत की बात है, इसे हम लोग तबियत कहते हैं। तो जो 'जातिरूपेण संस्थिता' कहा है उसका मतलब है इन्सान की जो कुछ भी तबियत है, उसके अनुसार उसकी जाति बनती थी। जन्म के अनुसार तो बेकार में ही बाद में बन गई। क्योंकि आप देखिए रामायण को किसने लिखा? रामायण को जिसने लिखा वह तो एक मछुआरा था और वह एक डाकू भी था। उसकी भी कुण्डलिनी जागृत होते ही वो ब्राह्मण हो गया। मतलब उसने ब्रह्म को जाना, द्विज हो गया। जिसका दूसरी बार जन्म हो गया। उससे रामायण राम ने क्यों लिखाया ? सोचने की बात है कि उनको क्या जरूरत थी? वह किसी बड़े पक्के विद्वान को काशी से बुलाकर उनसे कहते। उनके लिए सब ये जो कुछ ब्राह्मण थे, जो अपने को ब्राह्मण कहलाते थे, उनके लिए उनकी कोई विशेषता नहीं थी। विशेषता थी उसकी, जो एक आत्मा को प्राप्त किया हुआ प्रकाशवान जीव है; उसको वो मानते थे । | कृष्ण के बारे में भी आप जानते हैं कि कृष्ण की जो गीता लिखी गई वो व्यास ने लिखी और व्यास बेटे किसके थे? आप जानते हैं कि झीमरनी के बेटे थे जिसके बाप का भी पता नहीं था। यह सिद्ध करने के लिए है कि जाति जो है यह आपके जन्म से नहीं होती। राम ने एक भीलनी के बेर खाए, जिसमें उसने दांत लगाये थे। और हमारे यहाँ तो झूठा हम किसी का नहीं खाते, ऐसे हम लोग अपने को समझते हैं। एक भीलनी के बेर उन्होंने इतने प्रेम से खाए कि लक्ष्मण को गुस्सा चढ़ रहा था। पर उन्होंने कहा कि, ये बेर हैं कि अमृत फल हैं?' सीताजी समझ गई, उन्होंने कहा कि, 'अच्छा हमें भी दीजिए।' उन्होंने कहा, 'न बाबा, नहीं दूंगा, मुझे ऐसे अमृतफल कब मिलेंगे?' इतना वर्णन है उसका। तो उन्होंने कहा कि, 'अच्छा, थोड़ा सा आप मुझे नहीं दीजिएगा, मैं तो आपकी अर्धांगिनी हँ। आपको मुझे देना होगा।' तो उन्होंने उसको दे दिया जब उनको दे दिया तो उन्होंने बड़े प्रेम से खाया और कहा कि ऐसा अमृत फल मैंने कभी नहीं खाया। एक भीलनी, बुढ़िया जिसके दो-चार दांत बचे थे, उसने दांत मार-मार कर वह बेर इकट्ठे किये थे और श्रीराम से कहा था, 'तुम खा लो तुम खट्टा नहीं खाते हो इसलिए मैंने सब चखे हैं, कोई भी खट्टा नहीं है।' उस प्रेम से उस साधारण बेर में अमृत फल की शक्ति आ गई और उन्होंने उस अमृतफल को उसी स्वाद से खाया जैसे कि कोई बड़ी अलग सी मैं चीज़ मिल गई हो, तब लक्ष्मण जी को भी लगा कि अमृतफल दोनों ही कह रहे हैं तो कोई चीज़ होगी। उन्होंने कहा कि, 'अच्छा भाभी, हमें भी थोड़े से दे दीजिए ।' कहने लगी, 'मैं तो नहीं देने वाली, आप पहले नाराज हो रहे थे, अब काहे को मांग रहे हो।' 'नहीं भाभी, ऐसा नहीं करो, थोड़ा दो।' सो उनको दे दिया तो उनकी भी चित्त वृत्ति बदल गई। वह एकदम ठण्डे हो गए। उन्होंने कहा कि, 'पता नहीं क्या हो रहा है अन्दर से।' इस सब में हम देखते हैं कि मनुष्य का जो यह अन्धकार है, जिससे वह अपने को समझता है कि 'मैं इस जाति का हूं या इस देश का हूं, या मैं इस प्रांत का हूं।' तो वह एक भ्रम में बैठा हुआ है लेकिन श्रीकृष्ण तो भ्रम में नहीं थे। राम तो भ्रम में नहीं थे। विदुर जो कि एक दासी पुत्र था, उसके घर जाकर खाना खाया और श्रीकृष्ण का तो सारा ही जीवन अगर आप देखें तो वो गोपियों के साथ किस तरह से खेला करते थे जैसे कोई बिल्कुल उन्हीं के सतह के, उन्हीं के स्तर के हैं। और उसी प्रेम के साथ उनके साथ रासलीला आदि करते थे और जिस तरह से वहाँ दूध, मक्खन और दही चुराते थे, ये दिखाने के लिए कि हम तुम्हारे ही जैसे एक हैं। जिससे लोग यह न सोचें कि हम कोई विशेष हैं। यह इसका तत्व है। अगर आप अपने को विशेष समझते हैं इसका मतलब यह है कि आप अच्छे नहीं क्योंकि जो अच्छा होता है वह क्यों सोचेगा कि, 'मैं अच्छा हू', वह है ही अच्छा। जैसे आप इन्सान हैं, आप क्या यह सोचते हैं कि 'मैं इन्सान हूं, मैं इन्सान हूं, मैं इन्सान हूँ।' मैं तो इन्सान ही हूं। आपको कोई सोचना नहीं पड़ता क्योंकि आप हैं ही इन्सान, कोई जानवर तो हैं नहीं। लेकिन अपने को कोई विशेष समझ लेना कि 'में दूसरों से बहुत अच्छा हूं, दूसरी जाति से बहुत अच्छा हूं।' जाति तो कुछ है ही नहीं, जैसे मैंने आपसे बताया, एक 7 भ्रम है कि दूसरे लोगों से अच्छा हूं, दूसरे प्रांत के लोगों से अच्छा हूं। किसी न किसी बहाने 'मैं अच्छा हूं।' फिर ऐसे कुछ अच्छे इकट्ठे हो जाते हैं और होने के बाद में साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता आदि चीजें आ जाती हैं। इस अन्धता के कारण, कि 'मैं किसी से अच्छा हूं, कि मेरे से कोई और अच्छा नहीं या दो-चार और भी हैं मेरे जैसे अच्छे।' मनुष्य के अन्दर कभी भी किसी के प्रति सद्भावना नहीं आ सकती क्योंकि सद्भावना का मतलब है सत्य के प्रति भावना होना। अब आपके अन्दर सत्य प्रकट हो गया। आपने जाना कि चारों तरफ परम चैतन्य है और आपने जाना कि आपकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। आपने जाना कि आपके अन्दर यह शक्ति है और आपने पहचाना कि सत्य क्या है। लेकिन सत्य के प्रति भावना होना एक तरह से बड़ा अच्छा विचार है क्योंकि सत्य जो है यह तो अपनी बुद्धि से जाना जाता है या मध्य नाड़ी तन्त्र से। हमें कहना चाहिए कि, सत्य को हम चैतन्य से जानते हैं, जब वह बहने लग जाए। लेकिन भावना जो है ये भाव से आता है माने अपने हृदय से। हम सत्य को जानते हैं, अब तो जान गए, उसका हमें बोध भी हो गया लेकिन अभी तक वो हृदय से भावना आई नहीं। जब तक हृदय और बुद्धि का सामंजस्य सहजयोग में आपको नहीं होता है तब तक आप बहुत ही आधे- अधूरे सहजयोगी हैं। उसके नमूने ऐसे होते हैं कि छोटी-छोटी बात में झगड़े। अब कोई लीडर है, ये सब मैं आपको बेवकूफ बना रही हूं, कोई भी अकलमन्द आदमी समझ सकता है कि लीडर सहजयोग में कैसे हो सकता है? यह सब बेवकूफी है। जिसने सत्य जाना वो जानता है कि मां हमें बेवकूफ बना रही है। हम लीडर कैसे हो सकते हैं क्योंकि कोई विशेष है ही नहीं सहजयोग में। अब क्या मैं कहं कि मेरे हाथ विशेष हैं कि नाक विशेष है कि बाल विशेष हैं। अरे इसमें से जरा सी भी कोई चीज़ को जख्म हो जाता है तो सारे शरीर को पीड़ा हो जाती है । तो विशेष ऐसा कौन हो सकता है! सामूहिक चेतना में आप तो जानते हैं कि किसी सहजयोगी को भी पीड़ा हो जाती है तो उसको आप महसूस करते हैं अपने अन्दर। उसको आप जानते हैं तब फिर आप विशेष हो नहीं सकते। पर हम लीडर हो गए और मुझे कभी-कभी बड़ी हंसी आती है कि या तो लीडर साहब हो जाते हैं, जेलर साहब जैसे होते हैं और बाकी उनके सामने अपराधियों जैसे घूमा करते हैं। अरे भाई , आप सब एक हैं, सिर्फ ये कि मैं सबसे नहीं मिल सकती हूं, एक के जरिये मिलूंगी। फिर लीडरों में आपस में झगड़े। ये तो महान अन्धकार की बात है। मैं आपको बेवकूफ इसलिए बनाती हं क्योंकि गर बेवकूफ नहीं बनाया जाये तो मैं समझ ही नहीं सकूंगी कि कौन कितने गहरे पानी में है। और फिर पता चलता है कि इस तरह की एक दुूर्भावना सबके अन्दर बह रही है। फिर एक लीडर का | एक ग्रुप बन गया, उस लोडर का एक ग्रुप बन गया, उसका वो ग्रुप बन गया और खासकर दिल्ली शहर में क्योंकि यहाँ तो धंधे ही ये हैं इन लोगों के। खारी बावली के कुछ लेग हो गए तो, पंचकुईयां रोड के कुछ हो गये। मानो, कि जैसे इधर-उधर जाने का कोई इन्तजाम ही नहीं । और इस तरह से जब हमारे अन्दर ये दुर्भावनाएं आपस में आ जाती हैं, हम यह भूल भी जाते हैं देखना कि हममें क्या विशेषता है । अभी कोई साहब कहने लग गये कि 'साहब, मैंने तो पांच आदमियों को जागृति दी और इस आदमी ने तो एक को भी नहीं दी।' आप लोगों को तो मेरे सामने हंसी आती है पर कभी -कभी आप लोग भी इस चक्कर में आ जाते हैं कि हम लोग तो ऐसे हैं, इसमें यह विशेषता है, हमने ये कर लिया, इसका मतलब यह है कि अभी आप अकर्म में उतरे नहीं, अभी भी आपको लगता है हम कर्म कर रहे हैं, अहंकार के सहारे आप चल रहे हैं और यह बड़ा ही झूठा अहंकार है जो असत्य से आप प्राप्त किए हुए हैं पर सत्य की क्या विशेषता है। सत्य की विशेषता पहले समझना चाहिए और फिर भावना की। सत्य में आप जानते हैं कि आपने प्राप्त किया है अनेक शक्तियों को। सत्य यह भी है कि आपके जीवन में ऐसे अनेक-अनेक चमत्कार हए हैं जो आप बताते हुए अघाते नहीं हैं। वो ऐसा लगता है कि अभी तो खत्म नहीं हुआ है। हमें तो यह भी हुआ चमत्कार, भी हुआ, माँ आपकी कृपा से ये भी हुआ। ये तो सब आप लोग कहते रहते हैं, सत्य के प्रकाश में सारी चीज़ें सुलझती हैं और आप जानते हैं कि हमारे ऊपर परमात्मा का हाथ है, वो हमें सम्भाल रहे हैं, हमें जैसे हम हाथ पकड़ कर ठिकाने ले जा रहे हैं, वो हर चीज़ का, हमारे सामने आये हर प्रश्न का हल निकाल ये रहे हैं। फिर आप धीरे-धीरे जानते हैं कि किस तरह से हम लोगों ने एक दूसरों को जाना, अंधेरे में बैठे हैं तो हम जानते नहीं कौन कहाँ बैठा है। अगर आप उठकर चलने लग जाएं तो एक इसपे गिरेगा एक उसपे गिरेगा। पर वही प्रकाश आते ही आप जान जाते हैं कि हम यहाँ बैठे हैं, वो वहाँ बैठे हैं। अगर हम उन पर कुदेंगे तो उनको भी चोट लगेगी और हमको भी चोट लगेगी। सत्य से, जो केवल सत्य है, उस सत्य से हम जो अपने पारस्परिक संबंध हैं उनको बहत खूबी से समझ लेते हैं। बड़ी प्यारी-प्यारी बातें लोग कभी -कभी कहते हैं एक दूसरे के मामले में तो बड़ा आनन्द आता है मुझे। मैं जब देखती हूं कि एक सहजयोगी दूसरे की तारीफ कर रहा है, बड़ा ही मुझे आनन्द आता है। एक बार किसी के यहाँ प्रोग्राम हो रहा था और प्रोग्राम होने के बाद मैंने सोचा कि इतनों का खाना कैसे बनायेंगे ये बिचारे लोग, कैसे होगा। तो मैंने सबको कहा, 'अच्छा, नमस्ते, नमस्ते।' सब लोग चले गये, वह मेरी ओर देखते ही रह गया आवाक। मुझसे कहने लगा, 'माँ, आपने सबको क्यों भेज दिया?' मैंने कहा, 'क्यों भाई , तुम इतनों को खाना कैसे देते ? तो मैंने सोचा इन सबकी छुट्टी करें।' 'माँ मैंने तो सबके लिए खाना बनाकर रखा था तो क्यों भेज दिया।' मैंने कहा, 'बुलाओ, बुलाओ, सबको बुलाओ|' तो भागे उनके पीछे में, 'अरे भाई, सबका खाना बनाया है, आओ, आओ ।' अब वो लोग बड़े अचम्भे में पड़ गये। तो मुझसे कहने लगे, 'माँ, आपने नहीं जाना कि इसने खाना बनाया था।' मैंने कहा, 'जाना तो था पर ये सब नाटक होने से कितना अच्छा है।' ये प्रेम के नाटक, ये तभी हो सकते हैं जब आपस में सद्भावना हो, वो चुहल, इसको चुहल कहते हैं हम लोग। ये सूक्ष्मता, ये मृदुता, ये नाजुक-नाजुक तरीके से आपस में प्रेम जताना, ये सब तभी हो सकता है जब आपके अन्दर हृदय की भावना हो। ये हृदय से कार्य हो सकता है, बुद्धि से नहीं हो सकता। बुद्धि से आप जान सकते हैं, आप समझ सकते हैं कि हाँ आपने इसे प्राप्त किया है और जब इस आनन्द को आप उठाते हैं तो उस आनन्द में विभोर होकर के आपमें ऐसी अच्छी-अच्छी भावनाएं आ जाती हैं कि आप समझ ही नहीं पाते कि ये कहाँ से आ गई। ये कैसे हो गया। एक सहजयोगिनी थी, वो एक बार सिसिली गई तो वहाँ वो अकेली पड़ गई। बैठी हुई वो बेचारी, एक रेस्तरां में कुछ खा रही थी अकेले, तो उसे लगा कि कहीं से चैतन्य लहरियाँ आ रही हैं, उसने आँख उठा के देखा तो एक दूसरी वहाँ बैठी हुई कुछ और खा रही थी। इन्होंने उनकी ओर देखा, उन्होंने इनकी ओर देखा। इनसे रहा नहीं गया तो उनके पास जा कर कहती है, 'क्या आप सहजयोगी हैं? कहने लगी, 'हाँ, आप भी हैं क्या?' कहने लगी, 'हाँ!' फिर दोनों इतने गले मिले... और वो थी ग्रीस की और ये थी इटली की। कहने लगी, 'इतना आनन्द आया माँ कि उसके बाद कभी भी वो याद आती है तो ऐसा लगता है कि पता नहीं किस आनन्द के सागर में हम हैं।' तो दूसरों को प्रेम करना, अपना प्रेम दूसरों को जताना और उसकी तरकीबें ढूंढकर निकालना, कि किस तरह से अपना प्रेम दूसरों को जताएं, यह हृदय का काम है, बुद्धि का नहीं। बुद्धि सिर्फ जानती है लेकिन उसका प्रदर्शन, उसकी वाच्यता, माने उसके बारे में कहना, जताना, बताना जिसे अभिव्यक्ति कहते हैं, वो हृदय से ही हो सकता है। आपने बहुत कुछ जान लिया पर आप उसको जता नहीं सकते तो क्या फायदा हुआ ऐसे जानने का? क्या फायदा हुआ? छोटी-छोटी चीज़ों से आप जता सकते हैं और सब लोग जब आपस में इस तरह से बहुत बारीक-बारीक विचार करके एक बड़े सूक्ष्म धागे में बंधते जाते हैं तो बड़ा ही आनन्द आता है । लेकिन उसी वक्त बैठे-बैठे सोचना कि 'भई , मैं तो फलाना हूं, मैं तो ऐसा हूँ', तो मतलब यह कि आप आनन्द के सागर के किनारे खड़े होकर के और बेकार में ही व्यर्थ हुए जा रहे हैं। सर पीट रहे हैं वहाँ खड़े होके। कोई पूछेगा 'सर क्यों पीट रहे हैं? यह तो आनन्द का सागर है।' तो असल में बात यह है कि 'मैं कोई विशेष हूं और वो फलाना था उसने मुझे ऐसा कह दिया, तो अब मुझे उसको सुनाना है। उसने मुझसे ऐसा क्यों किया?' तो सत्य में जो भावना का विशेष अंग है वो ये कि भावना से हम आडोलित हो जाते हैं, जैसे कि समुद्र में कोई लहर चली और आकर के वो किनारे से टकरा जाती है और उसके बाद लौट के जो जाती है तो उसके जो बहुत ही सूक्ष्म तरह के तरंग बनते हैं, ऐसे ही आपके जीवन में विशेष काव्यमय सृष्टि हो जाती है और उस काव्यमय सृष्टि में आप इतने विभोर रहते हैं। क्योंकि, ये नई चीज़ है, एक बहुत ही नवीनतम चीज़ है, इसका अनुभव आपने मनुष्य की स्थिति में नहीं किया क्योंकि मैंने आपसे बताया है कि मनुष्य की स्थिति में हर समय वैमनस्य, हर समय गलत बातें। फिर वो माँ-बाप हो, चाहे कोई हो, क्योंकि पारस्परिक जो सम्बन्ध है । लेकिन इसमें क्या है, आप प्यार क्यों कर रहे हैं? कर रहे हैं भाई, प्यार के लिए प्यार कर रहे हैं तुमसे क्या मतलब, उसका कोई सवाल, कोई जवाब है? मजा आ रहा है, कर रहे हैं। मजा आ रहा है तो कर रहे हैं प्यार। पर यह तभी हो सकता तो है कि जब आपका हृदय इसका तन्त्र जान जाए। अभी तक तो, जब तक हम लोग पार नहीं होते, हमारे अन्दर शूद्रता और इस कदर वैमनस्य, इतनी गन्दगी रहती है वो एकदम प्रकाश में आते ही छूटनी चाहिए। लेकिन किसी-किसी में नहीं छूटती, उसको छोड़ना चाहिए। जब हृदय आपका स्वच्छ हो जाएगा, जैसे अभी डाक्टर साहब ने शब्द कहा कि, 'में हृदय से श्री माताजी का स्वागत करता हूँ', कहते ही मेरी आँखों में आंसू आ गये। हृदय इतनी ऊंची चीज़ परमात्मा ने आपको दी है हृदय और आत्मा का वास भी हृदय में ही है हालांकि उनका पीठ आप जानते हैं यहाँ सहस्रार पर है पर उनके हृदय में तो गर आपको प्रकाश मिला भी वो प्रकाश आपको आनन्ददायी नहीं होता। इसका मतलब है कि आपका हृदय अभी खुला नहीं, अभी आपने जाना नहीं, किसी भी आदमी के प्रति आपकी भावना ठीक न हो उसे ठीक कर लेना चाहिए। आखिर क्यों? किस वजह से हूँ मैं? क्यों मैं ये सोचता हूँ? किसी ने कोई बात कह दी तो आपने बुरा मान लिया। आप किसी के घर गए उन्होंने कहा कि, 'साहब आप बैठ जाइये कुसर्सी पर।' अब वो कुर्सी शायद अच्छी न हो, आप बुरा मान गए। बुरा मानना जो है ये सहजयोगियों का लक्षण नहीं। 10 ॐु सहजयोगियों को तो किसी भी चीज़ का बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि आप बुरे हैं ही नहीं, तो आप बुरा कैसे मान सकते हैं। आप जानेंगे कैसे क्या चीज़ बुरी है, क्या अच्छी है। और आपको अपनी आत्मा का जो आराम है उसको जानना चाहिए क्योंकि आत्मा का हृदय में वास है और आत्मा को किस चीज़ से आराम होता है वो जान लेना चाहिए। ये बात मैं इसलिए कह रही हूँ कि अब तो दिल्ली वालों ने इतनी प्रगति कर ली है सहजयोग में कि अब लोग घबराते नहीं, लेकिन पहले तो सोचते थे कि ये मुहम्मद गजनी आ रहे हैं। ऐसे लोग घबराते थे, बहुत ज्यादा। क्योंकि आते ही झगड़ा ये कि ये कमरा मेरा और वो कमरा तेरा। वहाँ दो दिन के लिए आप आये, हज में जब जाते हैं तो रास्ते में पड़े रहते हैं लोग। पहले जमाने में जाते थे हिमालय तो क्या हालत उनकी होती थी। अब गणपतिपुले आने पर इनको पाँच तारा होटल चाहिए। फिर खाने का कुछ इन्तजाम ठीक नहीं, उन्होंने खाना अच्छा नहीं बनाया। 'अरे भाई, क्या खराबी हो गई?' 'नहीं, वो लखनऊ में बड़े अच्छे कबाब बनते थे, ये क्या कबाब बनाये। तो आप | ले आते लखनऊ वाले। उस पर झगड़ा, जायका ठीक नहीं, ये क्या बना रखा है इन लोगों ने, किस तरह से जमा रखा है ये। कुछ इनको समझ में ही नहीं आता । माने हर समय हर एक चीज़ पे प्रतिक्रिया करना जैसे कि हम कोई विशेष हैं, हमको बड़ा अधिकार है । हर एक चीज़ में ये क्या लगा रखा है? ये रंग लगा रखा है, ये कैसे बना रखा है। करना धरना कुछ नहीं, बैठे बिठाए अपने कु्सी पर सब पर बकते रहना। ये ठीक नहीं है तो वो ठीक नहीं है और आराम तलबी इतनी कि अब बस नहीं है तो चल दो, क्या हर्ज है, लगेगा ही नहीं कि आप चलते हैं गर आप सहजयोगी हैं, मीलों आप चले जाइए आपको पता नहीं चलेगा। लेकिन आप सहजयोगी तो नहीं हैं, अभी भी आप साहब हैं, तो साहब चल नहीं सकते। तो बैठ गए किसी के बस में, खोपड़ी पे उसके जाके। बड़ी ही समस्या होती थी। अब भी आपको विदेशियों से सीखना चाहिए। इनके बड़े-बड़े मकानात हैं, घर हैं, इनके पास में मोटरें हैं, आप इन लोगों को देखिए कैसे ऐशो-आराम में रहते थे। जो लोग हो आए हैं वो बताएं। लेकिन जब आते हैं यहाँ तो मैंने कहा, 'भाई, तुम्हारे लिए लग्जुरी बस करें।' कहने लगे, 'माँ, ये काहे को लग्जुरी बस, हमको तो वही अच्छी लगती है एस.टी.।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने लगे, 'बड़ा मजा आता है उसमें । सब लोग एक दूसरे पर गिरते हैं, फिर वो खड़-खड़ करती है फिर कहीं फेल हो जाती है, फिर सब धकेलते हैं, बड़ा मजा आता है। ये तो आरामदेह बस में कुछ मजा ही नहीं आयेगा। इसमें कोई घटना ही घटित नहीं होगी, कोई नाटक ही नहीं होगा तो हमें क्या मजा आयेगा।' वहाँ है कि बिल्कुल हालत खराब, जैसे ब्रह्मपुरी में है, वहाँ हम भी एक झोपड़ी में रहते हैं। वहाँ बहुत बुरी हालत में रहते हैं ऐसा लोगों का कहना है, पर मुझे कभी नहीं लगता। तो उन लोगों का कहना यह है कि 'भाई, हमारे लिए आप सबसे बड़ा आराम यही है कि आप वहाँ रहें और हमें कुछ याद ही नहीं रहता।' सो एक बार ब्रह्मपुरी कुछ सहजयोगी गए हिन्दुस्तानी अपने बड़े साहब लोग हैं न वो। उन्होंने आ के बताया कि, 'अरे, ब्रह्मपुरी में तो इतना खराब खाना।' क्योंकि महाराष्ट्रियन ने बनाया होगा तो इधर यू.पी. वाले क्यों पसंद करें। पंजाबियों को क्यों अच्छा लगेगा मद्रासी खाना? उनको तो पंजाबी चाहिए । यू.पी. वालों को राजस्थानी नहीं चलने वाला और राजस्थानियों को मराठी नहीं चलने वाला और मराठियों को राजस्थानी नहीं चलने वाला। तो कोई सीमा तो है ही नहीं। उन्होंने कहा कि, 'साहब इतना खराब खाना और कोई इन्तजाम नहीं और कुछ नहीं और ऐसा और वैसा और ब्रह्मपुरी तो मतलब बदुतर चीज़।' इसलिए मैं आप लोगों को किसी को नहीं ले जाती हूँ। 11 दु ६ तो एक आIत्मा का आIनन्द जो है बो सिर्फ दुसरे के आIत्मा के आIनन्द से ह आI सकता है और कोई तरीका नहीं। दूसरे की आत्मा को आप समड़ों और उसके प्रति प्रेम स्खें । 12 क्योंकि कौन आफत उठाए। कल को आप नाराज हो गए तो सबको नदी में, कृष्णा नदी में फेंक देंगे। तो मैंने उन लोगों से पूछा कि, 'भाई सारी यात्रा में तुम लोगों को कहाँ सबसे ज्यादा मजा आया।' कहने लगे, 'गर गणपतिपुले छोड़ दिया जाये तो ब्रह्मपुरी से अच्छी जगह कोई भी नहीं। वहाँ तो बड़ा ही मजा आया।' लो उसके बारे में इतनी शिकायते मेरे पास चिट्ठियों पे चिट्ठियाँ, और फोन पे फोन और सबने मेरा सर खा लिया कि ब्रह्मपुरी का इन्तजाम बहुत खराब था। उन्होंने तो कहा कि, ब्रह्मपुरी तो बस, ये फर्क है । जब आत्मा का आनन्द आप उठाने लगते हैं तो किसी भी जगह आप रहिए आपको आनन्द आता रहता है। बस, यही है कि सब मजेदार लोग हैं, आपस में बस हंसी-खेल हो रहा है, कहीं कुछ हो रहा है। अब उस चीज़ को हमें भी समझना चाहिए। हम लोग कौन बड़े साहब हैं। लेकिन साहबियत से इन लोगों को आराम पहुंचे। पर एक बात तो है कि शरीर का या आँखों का या इन पाँच इन्द्रियों का जो भी आराम है वो कितना भी मिले उससे समाधान नहीं आता है सिर्फ आत्मा के ही आराम से आनन्द आता है। इस बार हमने आप लोगों के लिए गणपतिपुले में ऐसा इन्तजाम किया है कि जिसमें आप लोग चाहें तो एम.टी.डी.सी. में रहें, वातानुकूलित में या यहाँ से दो-चार एयर कन्डीशनर भी ले आइए या एक आध पंखा सर पर रख ले आइए। कोई हर्ज नहीं, जो भी करना चाहें कर सकते हैं। जैसे हैजलेट कहते थे कि सारा मैट्रो पोलिस लेकर आप पिकनिक पर जाइए और या तो ये सोच के कि हम धर्म यात्रा पर जा रहे हैं, और उसमें अपने आत्मा का कितना आराम है उसे देखें, किस हालत में हम रह सकते हैं, कैसे हम रह सकते हैं। वहाँ पर हमने बनाई है कुछ चीज़, देखते हैं कितने लोग आराम से रहते हैं, बगैर लड़ाई झगड़ा किये, क्योंकि गर लड़ाई झगड़ा करना है तो बेहतर है आप एम.टी.डी. सी. में रहें लेकिन गर प्रेम से रहना है तो हमने कुछ ऐसी विशेष चीजें बनाई है जिसको आप कह सकते हैं कि झोपड़ी में गर आपस में प्रेम हो और सत्य को जानने के बाद उसके प्रति जो भावना है कि इसने भी सत्य को जाना और मैंने भी सत्य को जाना तो हमारे अन्दर भावना कैसी होनी चाहिए, किस तरह से हम उसका मज़ा उठा सकते हैं, तो उस नतीजे पे पहुँचना चाहिए कि एक तो आत्मा का आनन्द जो है वो सिर्फ दूसरे के आत्मा के आनन्द से ही आ सकता है और कोई तरीका नहीं। दूसरे की आत्मा को आप समझें और उसके प्रति प्रेम रखें। अब ये भी कोई बुद्धि का काम नहीं है ये भी मैं सोचती हूँ। स्थिति होती है, यह एक स्थिति है और इस स्थिति में आपको उसका आनन्द आ जाता है। अब जैसे ही अपने यहाँ जातीयता की इतनी बीमारी है कि एक साहब थे बिचारे अनुसूचित जाति के बड़े भारी सहजयोगी हैं, हमारे महारा्ट्रियन। वे शादी अब हिन्दुस्तान में तो कहीं कर ही नहीं सकते| कौन करेगा उनकी लड़की से शादी? कोई नहीं कर सकता! वो भी बड़ी अच्छी है, देखने में भी सुन्दर है, कोई नहीं उनसे शादी करना चाहता। और विदेशियों को भगवान की कृपा से जातीयता न होने के कारण, फौरन उनसे शादी कर ली। उनके इन्तजार में बैठे हैं हुए वहाँ पर और वो एक राजदूत के लड़के हैं। वो कहने लगे, 'पता नहीं कब आयेगी। मैं तो इन्तजार कर रहा हूँ और उसकी बहन भी उस पर ही है, उसके पिता भी चाह रहे हैं कि कब आयेगी पता नहीं, उसकी माँ भी चाह रही है कब आयेगी । ' लेकिन हमारे यहाँ कोई कहे कि कोई भी आदमी निम्न जाति के आदमी की लड़की से शादी कर ले तो हो गया , माने अभी भी ये चीजें हमारे अन्दर चिपकी हुई हैं बहुत ज्यादा, बहत ज्यादा हमारे अन्दर चिपकी हुई हैं और हम अब भी सोचते हैं कि हम फलानी जाति के हैं, अलग जाति के हैं, इस जाति के हैं, असल में शर्म आनी चाहिए क्योंकि देखिए, अपनी जाति की ओर देखिए, अब जैसे मैं इसाई धर्म में पैदा हुई, लेकिन हमारा जो कुल है आप जानते हैं न शालीवान का था तो उसमें हम लोगों को छान्नों कुल के कहते थे। यह छान्नों कुल एक बीमारी है। हिन्दुस्तान में मेरे विचार से, और मुझे शर्म आती है कभी कहते कि, 'मैं छान्नों कुल की हूँ' क्योंकि इस कुल में ९६ तो नहीं सौ बुराइयाँ होंगी कम से कम और एक भी अच्छाई नहीं होती, १००% बुराइयाँ होती हैं छान्नों कुल में, अब आप अपनी ओर भी देख लीजिए । माने इनमें एक ही काम करते हैं लोग, लड़कियों की शादी करना, उसके मामले में बहुत- , कहाँ शादी होगी, किससे शादी 13 ৬/A ये जातीयता-वातीयता पाखंड है, हमको विश्वास नहीं, हम तो किसी भी धर्म के नहीं। ३ होगी और किसके घर में होगी और फलाना होगा, ढिकाना होगा। इसके सिवाय और दूसरा काम करते हैं, शराब पीना, तीसरा काम करते हैं औरतों को मारना। और पैसे वाले लोग होते हैं और उससे जो बुराइयाँ कर सकते हैं करते हैं। मैंने आज तक नहीं सुना कि छान्नों कुल के किसी भी आदमी का काम कहीं हुआ, न ही किसी आदमी के बारे में ये कहते हैं कि उन्होंने एक किताब लिख दी। न ही छान्नो कुल के किसी बच्चे ने या लड़के ने वीरता दिखाई। ये छान्नो कुल ऐसा खराब है कि शिवाजी महाराज को भी इन्होंने कहा कि छान्नों कुल के नहीं हैं तो इनका राज्याभिषेक नहीं हो सकता। तो फिर गागा भट्ट जो कि बड़े माने हुए विद्वान थे, पहुँचे हुए पुरुष थे। वो आये और उन्होंने उनका राज्याभिषेक किया, बताइये शिवाजी के पाँव के धूल के बराबर आप नहीं और आप अपने को पता नहीं क्या सोचते हैं? और फिर ब्राह्मणों ने जिस तरह से छला है लोगों को। ज्ञानेश्वरजी को छला और उनको छल करके इतना सताया कि २३ साल में उन्होंने समाधी ले ली। इतनी उंची आत्मा इस संसार में आयी और खत्म हो गयी। ये जातीयता की वजह से। और ये विचार से कि ये काम गलत है, वो काम गलत है और जैसे आप ही बड़े ठेकेदार हैं, हर अच्छा काम करने का। आप अपनी तरफ तो नजर नहीं करते कि हम क्या हैं। तो सहजयोगी को सोचना चाहिए कि क्या मैं जमीन पर सो सकता हूँ, बगैर तकिया लिए, क्या मैं कोई शूद्र हूँ तो उसका विचार न करते हुए विवाहित हो सकता हूँ? क्या मैं किसी भी जगह पूरे आराम से रह सकता हूँ? किसी भी परीस्थिति में मैं सुख उठा सकता हूँ? क्या मैं कोई भी बड़ा अपने को समझ ले तो उसके सामने मैं अपने गौरव में खड़ा हो सकता हूँ? और कोई अपने को कितना ही नीचा समझ ले, तो उसका मैं मान कर सकता हूँ? नहीं तो हम गधे जैसे हो जाएंगे कि हमारे सामने से कोई चले तो उसको कान पकड़वा दिया, कोई पीछे चल रहा है उसको लात मार रहे हैं। गधे में और सहजयोगी में फिर फर्क क्या रह जाएगा। लेकिन गधा है, कहीं भी बैठ सकता है, कहीं भी सो सकता है, कम से कम वो गुण गधे का सीख लें तो बड़ा अच्चा हो जाएगा। और ये एक बात खास हमें सोचनी चाहिए कि हम इन छोटी- छोटी शुद्र चीज़ों के लिए एक दूसरे की भावना क्यों दुखाते हैं। औरतों में भी खास होना चाहिए, मेरे ख्याल से भावनाएं औरतों में ज्यादा हैं और भावना में फिर यही सोचना चाहिए कि हमने किसके प्रति अच्छा विचार किया। अब औरतों को तो आप जानते हैं, अच्छी हुई तो बहुत अच्छी, नहीं तो भूत। उसके बीच में नहीं चलता तो फिर ये कि उनका विवाह हमने किया। तो हमसे कहने लगे, 'माँ, आप ऐसे लड़के से ही मेरा विवाह करिए कि जिसमें बहत चैतन्य हो ।' मैंने कहा, 14 क 'अच्छा!' तो एक लड़के का विवाह जब हमने एक लड़की से तय किया जिसमें वास्तव में चैतन्य बहुत था लेकिन वो बिल्कुल देखने में कहना चाहिए सुन्दर नहीं थी, सुन्दर तो थी मेरी दृष्टि से, लेकिन हो सकता है कि सांसारिक दृष्टि से न हो। लेकिन उससे इतना चैतन्य बहता है तो मुझे उससे प्यार ही चढ़ता था हमेशा और ये महाशय मतलब अंग्रेज हैं, ऊंचे पूरे, दिखने में बहुत खुबसूरत। तो वो आ के मेरे पैर पे गिर गए कि, 'माँ, आपने मुझे कितनी अच्छी बिवी दी, कितनी बिवी दी' और सब लोग कह रहे थे कि, 'माँ, आप ये क्या कर रहे हैं?' मैंने कहा, 'देखो भाई, तुम्ही देख लो सुन्दर साहब।' कहने लगे, 'ये कैसा जोड़ा है, बेज़ोड।' मैंने कहा, 'सबसे अच्छा जोड़ा है ये।' और वो लन्दन में रह नहीं सकते। भाग -भाग कर तीन-चार बार आ चुके हैं। अभी कहते हैं उसके साथ रहो तो ऐसी शान्ति रहती है, कितनी मुझे आपने प्यारी बिवी दे दी, क्योंकि चैतन्य का महात्मय और आत्मा का पारस्परिक संबंध जिसने समझ लिया वो ये सब शुद्र-शुद्र, छोटी-छोटी बातों में उलझ कर रम ही नहीं सकता। उसको अच्छा नहीं लग सकता। तो अभी हमें बदलना है। शरीर की बात मैंने करी-शारीरिक आराम और शरीर का विचार-ठीक है उसी में लगे रहो, पर गति तुम्हारी ठीक नहीं हो सकती। उससे आप कोई प्रश्न हल नहीं कर सकते। आप लोग तो इस भारतवर्ष के लिए आदर्श लोग हैं, ऐसे सभी कहते हैं, पर मैं तो ये सोचती हँ आप सबके लिए एक अगुआ, सबके सामने आप प्रतीक रूप से खड़े हैं। तो इन सबको कैसा होना चाहिए और आपको खुले आम इस बात पे कहना चाहिए कि साहब ये जातीयता-वातीयता पाखंड है, हमको विश्वास नहीं, हम तो किसी भी धर्म के नहीं । हम तो निर्मला धर्म के हैं बस। हम किसी चीज़़ को नहीं मानते, खुले आम। लेकिन अब भी सहजयोगी कहेंगे कि गर पंजाबी लड़की है तो पंजाबी से शादी करें क्योंकि फिर वो बोल सकती है इसको बार-बार पंजाबी में, जो कुछ बुरा बोलना है उसकी सास को। क्योंकि और कोई भाषा वाली आई, समझ लो मराठी आई तो उसको समझ में नहीं आयेगा, वो बोलेगी, 'क्या बोल रही है मुझे समझ नहीं आ रहा तो बहुत तो ये बहुत ही बुरा हो जाएगा। इनका कार्य ही नहीं पूरा हो सकता। तो वो चाहेंगे कि उसी जाति की आये और फिर उसको ये भी कहेंगे कि तुमने भैया दूज पे नहीं भेजा, फलाने में ये नहीं भेजा, दिवाली पे वो नहीं भेजा, फलाने में ये नहीं किया। लेकिन गर आपने परजाति की औरत कर ली तो वह कहेगी , 'भई, हमारे यहाँ तो रिवाज ही नहीं है, तो हम कैसे करें?' पर वो बहुत ही मुश्किल काम है परजाति में शादी करना हिन्दुस्तानियों को बहुत ही मुश्किल काम है क्योंकि जैसे ही परजाति में शादी हो जाती है तो वे एकदम से अकड़ जाते हैं पता नहीं उनको सांप सूंघ जाता है, कहना चाहिए सांप सूघ गया। अभी हमारी एक सहेली है, अच्छी, पढ़ी-लिखी डाक्टर है, बड़ी अच्छी खुश मिजाज औरत थी। इस बार बम्बई में मिली तो एकदम उसको सांप सूंघ गया। मैंने कहा, 'क्या हो गया भई तुमको?' महारा्ट्रियन है वो, कहने लगी, 'अरे 15 400 ्र मं सब फूलों की सुगंध लेने की जिसे एक खूबी मालूम है वही सहजयोगी हैं | २४ जी भाई, क्या बताएं, बहुत आफत आ गई। मैंने कहा, 'क्यों?' ' मेरी लड़की ने एक पंजाबी से शादी कर ली। 'अच्छा, कौन? पंजाबी!' नाम बताया। उनको भी मैं जानती हैँ। उनके माँ- बाप को भी सांप सूंघ गया, इनके भी माँ-बाप को सांप सूंघ गया। अब कब तक मियाँ-बिवी ठीक चल सकते हैं गर इस तरह की भावना हमें एक दूसरे के प्रति हो, 'बहू ने मुझसे ये नहीं पूछा, सबेरे मुझको उसने चाय नहीं पूछी, फिर मुझसे यह नहीं पूछा, फिर मुझसे ये नहीं किया, फिर हम वहाँ गए तो गणपतिपुले में वहाँ कोई हमारे लिए हार लेके नहीं खड़ा हुआ, माताजी की आरती करी, हमारी कोई आरती नहीं करी और माताजी को तो इतना अच्छा कमरा दे दिया और हमको तो इतना अच्छा नहीं दिया।' तो अच्छा बाबा, तुम आकर रहो मेैं बाहर रहती हूँ। ये शारीरिक सुख के झगड़े, फिर मानसिक झगड़े खड़े हो जाते हैं । 'ये जो एक आदमी है न माताजी, इसका मेरा पट ही नहीं सकता। 'अरे भाई, क्यों नहीं?' 'बस, पट नहीं सकता। 'अरे भाई, पट क्यों नहीं सकता? क्या उसने तुम्हारा बिगाड़ा, कौन सा उसने तुम्हारा घोड़ा मार दिया ? तुम क्यों उससे इतना नाराज हो? 'माताजी, बस मत पूछिए। उसको तो तमीज़ ही नहीं।' तमीज़ नहीं तो कोई हर्ज नहीं, तमीज होना कोई बड़ी बात है क्या! नहीं है तो नहीं है भाई। देहात का आदमी होगा या किसी और जगह का होगा। आपके देश का नहीं होगा। अब जैसे हमारे लखनऊ के लोगों को तमीज़ बहुत ज्यादा है। उस तमीज में आप सर पकड़िएगा। लेकिन करेंगे कुछ नहीं। कहेंगे 'आप हमारे घर आइए, खाना खाइए, ये करिये।' बाल की बिल्कुल खाल उतार देंगे, घर पर पहुँचे छा तो पता लगा कि वो तो गायब हैं। घर में हुए तो आपको बस ज्यादा से ज्यादा एक रोटी खिला देंगे। कहेंगे, 'तकल्लुफ मत करिए, तकल्लुफ मत करिए।' तो जब एक-दो बार अनुभव हुआ तो घर से खाना खाकर ही जाते थे हम, या बता देते कि आके खाना खायेंगे। तो अब उनके विचार से अभी लोग बदतमीज हैं। अच्छा, अब आप पंजाबियों के यहाँ जाइए, तो पंजाबियों के यहाँ इतने बड़े गिलास में दूध भर कर पीजिए आप। 'अब भाई इत्ता दूध क्या, मैं थोड़ा भी नहीं पीती। 'दूध तो पीना ही होगा आपको। नहीं तो देखिएगा आप।' अब वो बिल्कुल डंडा लेके खड़े हैं। 'भाई, आप पीते हैं कि नहीं पीते हैं?' 'भाई, मैं कभी दूध नहीं पीती।' तो फिर कहेंगे सबसे, 'अरे वो माताजी, बड़ी अकडूल हैं, वो हमारे घर आयी थीं | दूध भी नहीं पिया।' तो इन सब अपनी-अपनी चीज़ों पर हंसना चाहिए। सोचना चाहिए, जिन्हें हम इतना विशेष समझते हैं, ये सब कितनी बेवकूफी की चीज़ें हैं। हाँ किसी में तमीज़ है, किसी में नहीं है, किसी में प्रेम है, मुझे तो सभी में मजा आता है। कोई कैसा भी हो मुझे तो सभी में मजा आता है क्योंकि सब एक वैचित्र्य लिए हुए है न! वैरायटी से तो मजा आता है। कोई कैसा भी हो मुझे तो सब में मजा आता है। | क अब सब एक ही जैसा हो जाये तो आदमी बिल्कुल परेशान हो जाता है । बोअर हो जाता है। सब एक ही जैसी बात करें-कहीं जाओ एक ही बात है। अब आप जाओ हरियाणा में तो बड़ा मजा आता है-वहाँ के लोग जो बातें करते हैं एकदम सीधी सादी। और ऐसा लगता है जैसे अब एक डंडे से सर ही फोड़ने वाले हैं। फिर आप महाराष्ट्रियन के यहाँ जाओ तो वो दूसरे नमूने होते हैं। उनका भी तरीका यह है जरा कंजूस होते हैं-कंजूस। काफी कंजूस | 18 होते हैं। पैसा भी नहीं है उनके पास। एक अमरूद काटेंगे और आठ आदमियों को खिला कर कहेंगे, 'क्या हमने फल खाये। उस दिन याद है हमने फल खाये थे, जिन्दगी भर याद रहेगा।' फिर आप मद्रासियों के यहाँ जाओ, तो सबेरे इडली, शाम इडली, हर समय इडली, कहेंगे, 'कितना सस्ता है हमारा खाना। दो रूपये पचास पैसे में खाना मिलता है। कितनी बार उसे खाइये।' और मिर्च न खाने वालों की तो हालत खराब है। लेकिन सब में मजा आता है। तभी देखिए आप लोग हंस रहे हैं न? लेकिन यदि कोई मद्रासी आपको कुछ खिला दे तो आप चिल्लाते फिरेंगे, 'गया था, उसने मार डाला' आदि आदि....। | तो सब चीज़ का आनन्द उठाने का एक ढंग होना चाहिए। किस तरह से हम हर आदमी का आनन्द उठा सकते हैं। से लोग नकल करते हैं। वो नकल देखकर आपको बहत हंसी आती है। नकल में वो यही तो दिखाते हैं कि हर बहुत वैचित्र्य को हर आदमी अपनी तरह से कह रहा है, बोल रहा है । हर आदमी एक वैचित्र्य लिए हुए है। मैं सफर बहुत करती हूँ। अब किसी ने कहा कि, 'बंगाल में शुद्ध सोने का कड़ा मिलता है, एक लेते आइए।' 'अच्छा भाई , तो कहाँ मिलता है?' तो उन्होंने बताया कि वहाँ लाखी बाबू का सोने-चांदी का दुकान है वहाँ मिल जाएगा। वहाँ पहुंच कर हमारे माने हुए देवर थे, उनसे कहा कि 'लाखी बाबू के सोने-चांदी की दुकान पर ले जाओ।' तो बहुत जोर से हंसे और कहने लगे, 'अच्छा बैठिए मोटर में, ले चलता हूँ।' तो गये, पहले दुकान पे दुकान लगी थी। लाखी बाबू का सोना- चांदी का दुकान । असली सोना चांदी का असली दोकान । अब वो असली कभी इधर और कभी उधर । मैंने कहा, 'हे भगवान ! पता नहीं कहाँ है ये दुकान और कहाँ मिलने वाला है ये कड़ा?' तो मैंने कहा, 'इस रास्ते का ही नाम बता दो।' 'असली लाखी उससे आगे गये तो वो बोले, 'असली लाखी बाबू का सोने - चांदी का दुकान।' फिर अगली बाबू का बाबू का असली सोना-चांदी का असली दोकान का असली रास्ता।' तो हर जगह मजा आया। पर उस मजे को उठाना आना चाहिए। और जानना चाहिए किस तरह की समाज व्यवस्था है? किस तरह लोग रह रहे हैं? कितनी वरायटी हैं, कभी गुलाब का पफूल है, तो कभी मोगरे का फूल। सब फूलों की सुगंध लेने की जिसे एक खूबी मालूम है वही सहजयोगी है। फिर इतनी सद्भावनाएं उमड़ती हैं कि फिर लोग उन्हें बोलने ही लग जाते हैं। अब पंजाबी लोग जैसे कहते हैं, 'सवाल पैदा ही नहीं होता।' एक अंग्रेज ने पूछा कि, 'इसका क्या मतलब क्या है?' तो मैंने कहा, 'क्वश्चिन इज नॉट टेक बर्थ।' इनकी भाषा ही ऐसी है क्या किया जाये। सवाल कभी पैदा होता है? पर पंजाबी ऐसा बोलते हैं अच्छी बात है। हर तरह की चीज़ का जब मज़ा उठाने लगे, उसका आनन्द लेने लगे तो हर चीज़ में आपको एक बहार सी मिलेगी। जैसे एक बार फ्रान्स गये तो बड़ा कोहरा था। कोहरे में सारे पत्ते झड़े हुए। और पत्तियों की जगह सारी शाखाएं ऐसी आकाश में फैली हुई थी। ऐसा लगा जैसे कोई चित्र सा बना हुआ है आकाश के ऊपर। एक-एक टहनी दिखाई दे रही थी। कोहरा था, बीच-बीच में कोहरा आ जाय फिर खुल जाये, बड़ा ही नाटक चला हुआ था। बाकी जो लोग हमारे साथ आये थे, कहने लगे, 'क्या गंदी जगह आये हो? यहाँ तो बिल्कुल अच्छा नहीं लगा।' मैंने कहा, 'अरे भाई, देखो तो सही ये चीजें आपको कहाँ देखने को मिलेंगी इस तरह। देखिए कितना सुन्दर नाटक हो रहा है, देखिए तो सही।' उनकी समझ में ही नहीं आ रहा। हर आदमी में सुगंध है। आपके पास सुगंध लेने की शक्ति नहीं है। हर आदमी में आनन्द है, हर आदमी से आपको कुछ सीखना है। और संसार में जो भी कुछ भगवान ने बनाया है वो इसलिए है कि आप अपने प्यार को जी भर के आदानप्रदान करें। आपस में समझे | बूझें। परमात्मा ने यह सृष्टि इसलिए सुन्दर बनाई है कि आपमें सद्भावना जागृत हो जाये । किसी सौन्दर्यमय स्थान में जाकर आपमें यह भावना आये कि परमात्मा ने किस प्रेम से बनाया है। इस प्रेम में क्यों न विभोर हो जाऊं। पर प्रेम का मतलब अपने को प्यार करना नहीं है, दूसरों को प्यार करना है। तो सत्य और भावना का जब तक सम्मिश्रण नहीं होता अच्छे से या ये कहना चाहिए कि प्रेम में आपस में ये दशा नहीं आ जाती तब तक यही समझना चाहिए कि हम सहजयोगी नहीं हैं। जैसे कि मर्द है सहजयोगी तो वे चक्र सब जानेंगे, उनके अन्दर शासक देवताओं को जानेंगे , कुण्डलिनी को जानेंगे लेकिन वो ये नहीं जानेंगे कि प्यार क्या है या भावना क्या है। आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे। कभी- 19 कभी तो मैं कहती हैँ मैं दो-चार डंडे लाती हूँ सर वर फोड़कर अन्दर आना। और जो औरतें हैं वो ये जानेंगी कि किसको क्या खिलाना है, पिलाना है। पर अगर आप पूछिए कि कुण्डलिनी इस अंगुली पर पकड़ रही है, ये क्या है? तो कुछ पता नहीं। इन दोनों में यदि समन्वय आ जाये-एकाकारिता आ जाये-यदि कोई स्त्री केवल चक्रों के बारे में जानती है। दायीं ओर झुकी है। यदि कोई पुरूष प्यार में अभिभूत हो रहा है तो वह बाईं ओर को है। जब दोनों एक हो जायें तभी आप मध्य में आते हैं। नहीं तो जैसे कि आप परिधि में घूम रहे हैं। एक तरफ से प्यार और एक तरफ से ज्ञान। और वो जब आयेगा तो आपस में लड़ ही पड़ेगा क्योंकि परिधि में है। और जब लड़ता है तो एक तीसरी शाखा शुरू हो जाती है | जिसमें कि आप कह सकते हैं असहज भावनाएं हैं। असहज लोग-यह सब शुरू हो जाता है। क्योंकि यह जो प्रेम है ये भी केवल प्रेम नहीं है। और यह जो जाना सत्य है ये भी केवल सत्य नहीं है। दोनों में ही त्रुटियाँ हैं। इस कारण ये जब आपस में मेल खाता है जैसे किसी ने किसी को प्रेम किया और दूसरे ने उसको उतना नहीं माना तो नाराज़ हो गये। जैसे एक स्त्री कहने लगी कि, 'मैं इसलिए तलाक लेना चाहती हूँ कि मेरे पति घर में बहुत देर से आते हैं।' मैंने कहा, 'फिर तो वो तुम्हें कभी मिलेंगे ही नहीं, क्या फायदा तलाक लेने का? कम से कम देर से आते हैं तब तो मिलते हैं नं! तलाक काहे को ले रही हो।' उसी तरह जब हम अपना प्रेम किसी को दर्शाते हैं और वो आदमी हमारे प्रेम को नहीं मानता है तो वो हमें बुरा लग जाता है। उसी तरह सत्य की बात है यदि कोई प्रेम जता रहा है और उसे आप जताना चाहें कि ये सत्य है तो उसको बुरा लग जाता है कि ये तो सत्य जानते ही नहीं । बिल्कुल बेवकूफ हैं। अब दोनों का समन्वय परिधि में नहीं हो सकता। मध्य में हो सकता है। मध्य में आने के लिए कुण्डलिनी का पूरी तरह से जागरण ध्यान-धारणा और सतर्कता से सोचते रहना कि हम मध्य में हैं कि एक तरफ तब बायां-दायां दोनों ठीक होकर हम मध्य में आ जाते हैं। मध्य में | आप जानते हैं वर्तमान है और वर्तमान में ही आनन्द उठाया जा सकता है, न तो भूत न भविष्य में। इसलिए आप वर्तमान में आ जाते हैं। तो जिस तरह से एक चक्का अपनी परिधि में घूमता ही रहता है, ये सब चीजें भी घूमती ही रहती हैं परन्तु चक्के का मध्य बिन्दु है। जिसे धुरी कहते हैं, उसे शान्त रहना पड़ता है, नहीं तो कोई मोटर नहीं चल सकती, कोई गाड़ी नहीं चल सकती। इसी प्रकार ये जो मध्य बिन्दु है इस पर जब आप उतरते हैं तभी आप ऊपर उठ सकते हैं। और कोई मार्ग इसका नहीं है। जो लेग पार नहीं हैं उनसे तो यह बात कर ही नहीं सकते क्योंकि उनका तो संघर्ष चलता ही रहेगा। आपस में ही संघर्ष चलता रहेगा। पर जो लोग पार हैं और जानते हैं कि वो मध्य में आ गये हैं, कभी इधर डोल जाते हैं, | कभी उधर डोल जाते हैं। पर अगर आप पूरी तरह से मध्य में हैं तो एक विपरीत अवस्था (एन्टीथीसिज़) बन जाती है और एक दूसरी ही चीज़ उसमें से निकल आती है और आप स्वयं ही ऊपर को उठ जाते हैं। जब आप ऊपर जाएंगे तो सबकी तरफ आपकी दृष्टि भी एक विशाल सी रहेगी। तब आपमें निरपेक्षिता आ जाएगी क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं रह जाएगी। प्यार तो हमने प्यार के लिए किया। हमने सत्य किसी से कहा तो सत्य के लिए कहा। किसी ने माना, नहीं माना, झगड़ा किया, गालियाँ दी, चलो कोई बात नहीं। प्रेम किया, उसने नहीं माना प्रेम, चलो कोई बात नहीं! क्योंकि हम सत्य को जानते हैं और ये जानता नहीं है इसलिए इसने हमारे प्रेम को समझा नहीं, चलो कोई बात नहीं। हम अपने में समाये हुए हैं, खुश हैं । अपने आनन्द में हम रजे हुए हैं । तो जब ऐसे और लोग भी आ जाते हैं तो सामूहिक आनन्द हो जाता है। और आज सामूहिक आनन्द की बहुत जरूरत है। सिर्फ सामूहिक चेतना की ही नहीं किन्तु सामूहिक आनन्द की भी। | गणपतिपुले आप लोग सब आ रहे हैं। मैं नहीं चाहती कि आप वहाँ कोई तकलीफ उठाएं या परेशानी उठाएं। लेकिन कहना ये है कि गणपतिपुले हम अपनी आत्मिक उन्नति के लिए जा रहे हैं। और किसी चीज़ के लिए नहीं। यह सोच कर अगर आप लोग आएं तो आपकी भी बहुत मदद होगी और दूसरे लोगों को भी। और बहुत हुए हैं एकदम से छूट सी जाएंगी, टूट सी जाएंगी और उस निरपेक्षिता को आप पाएंगे जिससे हर चीज़ को आप देखते हैं। देखना मात्र है। बहुत बार मैंने आपसे बताया कि ज्ञानेश्वर जी का यह शब्द मुझे अच्छा लगता है 'निरंजन पाहिं' किसी चीज़ को देखते हैं फिर उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। देखने मात्र से आनन्द की गंगा सी बह सी चीजें जिनसे आप बंधे 20 निकलती है। इसके लिए आपको बहत मेहनत की जरूरत नहीं । सिर्फ ये जान लेना कि हमने जो पाया है उसी में हमने उतरना है और जब आप लोग उठेंगे, ये तो ऐसा है कि नदी के मध्य में आप लोग आये, दोनों किनारों पे, धार्मिक (आन्तरिक श्रद्धा वाले) अधार्मिक जैसे भी लोग हो, मध्य में रहने से ही नदी की लहरें चल-चल कर ० इन तटों पर टूटेंगी, जहाँ पर आज इतने प्रश्न खड़े हुए हैं, और इन प्रश्नों को तोड़ेगी और सभी कुछ कर देंगी। आपसे चैतन्य बह रहा है। वह चैतन्य आपकी जो इच्छा होगी उसे कर देगा। अब जैसे हम आयें तो इन्होंने हमें कहा कि कल भारत बंद है। में मुस्कुराई थी। जब मैं यहाँ बैठी हुई हूँ तो कल भारत बंद कैसे हो सकता है? तो आप में नोंक-झोंक हो गई-भारत बंद खत्म। क्योंकि मध्य में है तो दोनों तट पे उसकी लहर चलती है और जो भी होता है वह ऐसे ही महात्माओं की वजह से घटित हो रहा है। यदि आप देखते हैं कि युद्ध आ रहा है तो उसकी भी वजह है। क्योंकि युद्ध के बिना धर्मान्धता के बारे में अक्ल नहीं आने वाली। और हमें भी ्ष नहीं समझ में आने वाला। अत: युद्ध हमें समझाने के लिए चेतावनी मात्र है। ये क्यों हो रहा है-हम उसे देख-समझ रहे हैं कि ये क्यों हो रहा है। होने दो जो हो रहा है। हम पे उसका कोई असर ही नहीं आया। आप निरपेक्षिता में खड़े हैं हमें कुछ होने वाला नहीं। न भय न डर। जो जरूरी है वह हो रहा है। होने दीजिए। यही हमारी इच्छा है। इसी से सारे प्रश्नों का हल निकलने वाला है। ये जो तटस्थता है-अर्थात आप अपने मध्य में स्थित हैं-वहाँ से आप हर चीज़ को देखिए। अपने पर नज़र होनी चाहिए कि मैं कहाँ कम पड़ता हूँ। जैसे मैं अब आपको भाषण दे रही हूँ तो लेग ये सोच रहे हैं कि अच्छा, तो माताजी उनके बारे में कह रही हैं। वो ऐसा आदमी है, उसके बारे में कह रहे हैं। या किसी दूसरे के लिए कह रहे हैं। यह नहीं सोचते कि मेरे अन्दर ही दोष है इसलिए मेरे ही बारे में कह रहे हैं। इसलिए अपनी ही ओर नज़र होनी चाहिए। अपनी ओर नज़र होते ही आप कहेंगे, 'ये कौन सा भूत अन्दर बैठा है?' ध्यान में जाने से आप अपनी ओर देख सकते हैं। घबराने की बात नहीं क्योंकि आप अपने शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि से अलिप्त होकर आत्मा में स्थित हैं। उसे देखने में कोई घबराने की बात नहीं। तो आज कोई पूजा का अवसर नहीं था। आपने पूजा का इतना बड़ा प्रबन्ध कर दिया है। करो पूजा। मेरी तो समझ में नहीं आता ये पूजा की तो सबको बड़ी बीमारी है। हो सकता है आपको पूजा से लाभ होता हो । जो लाभ को प्राप्त करते हैं वो स्थित हैं। उस स्थिति से गिरना नहीं चाहिए। उससे ऊंचे ही ऊंचे उठते जाना चाहिए। आज जो बात आपसे कही है, आप अपने मन में सोचिए कि 'क्या मैं वाकई में ऐसा हूँ? क्या मैं वाकई में अपनी भावना को अपनी बुद्धि से एकाकारिता कर सकता हूँ?' यह आपको सोचना चाहिए। और जब आपके अन्दर दोनों की एकाकारिता हो जाएगी तो सारी दुनिया देखकर अवाक रह जाएगी कि क्या कमाल के लोग हैं! ह ४. 21 का त्रिगुणाच्मिका रम ं छा महालक्ष्मी तत्व के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने अहं तथा बन्धनों की त्याग, का त्या इसी कारण महालक्ष्मी इतनी महत्वपूर्ण हैं। ती महत्द (०००० ा सा कায । रए अ दिशक्ति की जो तीसरी शक्ति है, त्रिगुणात्मिका वो महालक्ष्मी की शक्ति है। इसी शक्ति से हम धर्म को धारण करते हैं। आज हम महालक्ष्मी की पूजा करेंगे।....इसी तत्व के द्वारा आप उस अवस्था तक पहुँचे हैं। कुण्डलिनी के उत्थान के लिए महालक्ष्मी शक्ति ने आपकी उत्क्रान्ति के मध्यमार्ग का सृजन किया। कोल्हापुर के महालक्ष्मी मन्दिर में लोग हमेशा 'उदे, उदे अम्बे', भजन गाते हैं..... क्योंकि कुण्डलिनी ही 'अम्बा' हैं। महालक्ष्मी के सम्बन्ध में हमें ये समझना होगा कि वे क्या करती हैं और उनकी सहायता क्या है। महालक्ष्मी वाहिका ( सषुम्ना) या महालक्ष्मी की शक्तियों ने हमारे अन्दर आवश्यक सन्तुलन, आवश्यक मार्ग का सृजन किया है ताकि कुण्डलिनी उठ सके। बाएं और दाएं अनुकम्पी को सन्तुलित किया है और कुण्डलिनी के उत्थान के लिए वे ही खुला मार्ग बनातीं हैं। यह प्रेम एवं करुणा का मार्ग है करुणा और प्रेम के माध्यम से वे ये मार्ग बनातीं है क्योंकि वे जानती हैं कि यदि मार्ग खुला न होगा तो कुण्डलिनी न उठ सकेगी। अन्ततः व्यक्ति उस अवस्था तक पहुँच जाता है जहाँ जिज्ञासा का आरम्भ होता है और आप लोगों में जब जिज्ञासा जागृत हुई तो आपका महालक्ष्मी तत्व जागृत हो गया....। एक अन्य कार्य जो ये महालक्ष्मी तत्व करता है वो ये है कि यह कुण्डलिनी शक्ति को भिन्न चक्रों तक जाने का मार्ग बताता है ताकि इन चक्रों के दोष हो सकें। ये अत्यन्त लचीली शक्ति है जो भिन्न चक्रों में कुण्डलिनी का पथप्रदर्शन करती है और समझती है कि किस चक्र को कुण्डलिनी की सहायता की आवश्यकता है। आपने अवश्य देखा होगा कि किसी भी बाधित चक्र पर जाकर, उसे ठीक करने के लिए ये किस प्रकार धड़कती है। यह सारा कार्य इसलिए होता है क्योंकि वे करुणा एवं प्रेम से परिपूर्ण हैं और चाहती हैं दूर कि आप पूर्ण सत्य को प्राप्त करें। पूर्वकर्मों के बहुत से बन्धन एवं समस्याएं हमारे उत्थान में कठिनाई उत्पन्न करते हैं। षड्रिपु हमारा अन्तर्परिवर्तन(उत्थान) असम्भव कर देते हैं। परन्तु महालक्ष्मी तत्व के प्रज्ज्वलित और जागृत हो जाने पर मानव में अन्तर्परिवर्तन होता है और वह एक भिन्न तत्व का बन जाता है-आत्मतत्व। प्रकृति के पाश से मुक्त होकर साधक परमेश्वरी लीला का साक्षी एवं अपना स्वामी (गुरु) बन जाता है। महालक्ष्मी शक्ति जागृत एवं स्थापित होने के पश्चात व्यक्ति बात-बात पर परेशान नहीं होता, प्रेम एवं करुणा का आनन्द उठाता है। साधक को श्री कृष्ण वर्णित 'स्थितप्रज्ञ' स्थिति प्राप्त हो जाती है और उसमें 'सामूहिक चेतना' का एक नया आयाम विकसित हो जाता है। बूँद समुद्र में मिलकर 'पूर्णसमुद्र' -'परमेश्वरी प्रेम की शक्ति' बन जाती है तथा बहुत से दीप प्रज्ज्वलित करती है प.पू.श्री माताजी, १० नवम्बर १९९६ महालक्ष्मी उत्क्रान्ति की सीढ़ी हैं भारतीय शास्त्रों में शक्ति को बहुत महत्व दिया गया है....जिस व्यक्ति को आत्मा बनने की शक्ति प्राप्त नहीं हुई उसे व्यर्थ माना जाता है। अतः ये शक्ति हमारे अन्दर जागृत होनी आवश्यक है.....। सभी शक्तियों में से....महान शक्ति कुण्डलिनी हैं क्योंकि उनके बिना आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं हो सकता। परन्तु हम कह सकते हैं कि उनसे भी ऊँची या उनकी | सम्पूरक महालक्ष्मी शक्ति है। महालक्ष्मी के बिना आप उत्क्रान्ति नहीं प्राप्त कर सकते। यह सीढ़ी है जिसके माध्यम से कुण्डलिनी उठ सकती है। अतः दोनो ही शक्तियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं और परस्पर अत्यन्त सम्बन्धित। लक्ष्मीतत्व सन्तुष्ट होने पर महालक्ष्मी तत्व का आरम्भ होता है जैसे पश्चिम में लोग अधिक वैभव से तंग आ गए हैं, अतः वो सोचने लगे हैं, 'हमने क्या प्राप्त किया?' हम असन्तुलन में चले तो अब हमें क्या करना चाहिए ? हमें स्वयं को सन्तुलित करना होगा। स्वयं को सन्तुलित किस प्रकार करें, हम किस प्रकार आचरण करें? हमें आत्मज्ञान प्राप्त करना होगा।....और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए कुण्डलिनी जागृत होनी....और परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति से जुड़ना आवश्यक है। एक बार यदि ऐसा हो जाए.....तो आपका अन्तर्परिवर्तन हो जाता है.....तब आप अपनी सभी समस्याओं को देख सकते हैं, उन्हें ठीक कर सकते हैं । गए। महालक्ष्मी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। जब आप वैभव से तंग आ जाते है तब आपको लगता है कि अवश्य किसी चीज़ की कमी है और तब आप महालक्ष्मी तत्व की ओर बढ़ते हैं । प.पू.श्री माताजी, कोल्हापुर ( भारत), २१ दिसम्बर १९९० महालक्ष्मी तत्व में प्रवेश आप महालक्ष्मी के महत्व के विषय में जानते हैं कि सुषुम्ना नाड़ी महालक्ष्मी की वाहिका है। परन्तु हमारे अन्दर महालक्ष्मी 23 तत्व की अभिव्यक्ति लक्ष्मी तत्व सन्तुष्ट होने के बाद ही होती है.......अतः परमेश्वरीतत्व महालक्ष्मी के माध्यम से कार्य करता है। बड़ी अजीब बात है कि लक्ष्मीतत्व सन्तुष्ट होने के बाद ही आपमें जिज्ञासा आरम्भ होती है और हमारे अन्दर यह जिज्ञासा महालक्ष्मीतत्व से आती है....। परन्तु किस प्रकार हम अपने लक्ष्मी तत्व को सन्तुष्ट करे?' 'जब हमारे पास जरूरत से ज्यादा धन आ जाता है। '... तो हम सोचने लगते है 'इस धन का मैं क्या करूंगा?' कुछ लोग सोचते हैं, 'ठीक है, मैं एक और कार ले लूगा, एक और घर खरीद लूंगा, एक और ये ले लूंगा, वो ले लूंगा।' परन्तु एक प्रकार का विवेक उदय होने लगता है, सन्तोष आने लगता है:- 'अब और क्या? फिर पैसे के साथ टैक्स आदि की समस्याएं आने लगती हैं। तब लोग सोचते हैं, 'अब बहुत हो गया, और अधिक नहीं, ये सब काफी है। तो इच्छा समाप्त हो जाती है, धन की ललक समाप्त हो जाती है। सहजयोग में आप इतने आशीर्वादित हो जाते हैं कि इच्छानुरूप आपको सब कुछ मिलना शुरु हो जाता है और एक बिन्दू पर पहुँच कर आप सोचते हैं, 'वाह, बहुत हो गया, अब और नहीं चाहिए- मेरे पास सब कुछ है। 'लक्ष्मीतत्व सन्तुष्ट होने से पूर्व यदि आपको आत्मसाक्षात्कार मिल जाए तो भी आप जल्दी से इस स्थिति तक पहुँचने लगते हैं और इस प्रकार यदि आप पहुँच जाएं तो आप महालक्ष्मीतत्व में प्रवेश कर सकते हैं। 'परन्तु यदि आप एकदम से अमीर हो जाएं और वह अमीरी आपके सिर पर बैठने लगे, आपको अपनी कोई सीमा न दिखाई दे, तब भी आपके लिए सहजयोग में आने के अवसर हैं।' मान लो कोई अमीर आदमी बीमार हो जाता है, उसे कैंसर हो जाता है या उसके बचे उससे दुव्यर्वहार करने लगते हैं, या उसके सम्मान को हानि पहुँचती है, दाईं ओर से कोई सद्मा यदि उसे आता है तो यह उसे मध्य में-महालक्ष्मीतत्व में धकेल सकता है। अब लक्ष्मीतत्व -उदारता-गतिशील हो उठती है। ऐसी स्थिति में धनवान लोग अपनी उदारता की अभिव्यक्ति करने लगते हैं। परन्तु यह उदारता भी उनके सिर पर सवार होने लगती है और उससे उत्पन्न असन्तोष उन्हें 'जीवन सत्य' को प्राप्त करने के विषय में सोचने पर मजबूर करता है। सत्यजिज्ञासा, अन्ततः उन्हें अन्तःस्थित महालक्ष्मीतत्व पर ले जाती है। प.पू.श्रीमाताजी, कोल्हापुर ( भारत) २१ दिसम्बर १९९१ .....जब लक्ष्मी जी का पूरी तरह से उपयोग ले लिया और बहुत हो गई लक्ष्मी, जैसे बुद्ध को हुआ था, महावीर को उपरति (विरक्ति) आ गई और उपरति आने के बाद वो परमात्मा को खोजने निकले। ये जो खोजने की शक्ति है ये महालक्ष्मी की शक्ति है। ये महालक्ष्मी का Temple है कोल्हापुर में, स्वयंभु है। तो वहाँ के जोगवा गाते हैं, कि 'हे अम्बे तू जाग, हे अम्बे तू जाग।' ये नामदेव ने लिखा है, १६वीं शताब्दि में। वहाँ के ब्राह्मणों से मैंने कहा कि महालक्ष्मी के मन्दिर में ये क्यों गाते हो भई ? कहने लगे पता नहीं अनादि काल से यहाँ चल रहा है यही गाना। जब से नामदेव हुए हैं। तो अम्बे कौन हैं? कहने लगे देवी है कोई। मैंने कहा आपको इतना भी नहीं मालूम? मैंने कहा आपको तो मैं नहीं समझा पाऊँगी। ये बड़ी मुश्किल है। पर महालक्ष्मी के मन्दिर में भी अम्बे जागती हैं। वो वैसे। मध्यमार्ग में महालक्ष्मी है। उस मार्ग में आपकी सारी खोज लेफ्ट की, राइट की, बुद्धि की सब खत्म हो जातीहै। और आप मध्यमार्ग में आ गए। जब आपने खोजना शुरू कर दिया तब आप पर महालक्ष्मी की कृपा हो जाती है। Bible में इसे Redeemer कहा है। तीन शक्तियाँ बताई उन्होंने। पहली शक्ति को कहा है Comforter, Left side की। Right side की को कहा है Counselor और बीच वाली को Redeemer । ये Holy Ghost की तीन शक्तियाँ हैं। सो जो मध्य मार्ग में आप प्रवेश करने लगते हैं और मध्य मार्ग में आ जाते हैं तब आप एक साधक हो गए और साधक के ऊपर महालक्ष्मी उमड़ पड़ती है। महालक्ष्मी की कृपा उस पर होती है। महालक्ष्मी की शक्ति का चढ़ना बहुत मश्किल है, क्योंकि कभी मन Left को जाता है, कभी Right को जाता है। कभी Left को जाता है, कभी Right को। एक मात्र कुण्डलिनी के जागरण से ही मध्य मार्ग को प्राप्त करते हैं। हुआ था, | पहले तो वो एक सोपान ब्रिज बनाती हैं। Void और उससे गुज़र कर कुण्डलिनी शक्ति, मध्य मार्ग से गुज़रती हुई ब्रह्मरंध्र को छेदती हुई ब्रह्माण्ड से एकाकारिता प्राप्त करती है और जब ये घटना हो जाती है, उसके बाद त्रिगुणात्मिका मिलकर के आपकी आज्ञा चक्र को छेदकर जब आप सहस्रार में आते हैं तो यहाँ आदिशक्ति का स्वरूप महामाया का है। 'सहस्रारे महामाया, सहस्रारे महामाया।' जब सहस्रार को खोलने का काम आता है तो वो महामाया का स्वरूप धारण करती है...... प.पू.श्री माताजी, जयपुर, ११.१२.१९९४ महालक्ष्मी तत्व से तो मनुष्य समाधानी हो जाता है, इस तत्व से वह शक्ति को ढूँढता है और ढूँढते हुए असत्य को छोड़ता है। सांसारिक एवं भौतिक चीज़ों से जब हमारे अन्दर समाधान आ जाता है तभी महालक्ष्मी का तत्व हमारे अन्दर जागृत हो जाता है। 24 .महालक्ष्मी तत्व से परिपूर्ण व्यक्तित्व पनप उठता है। महालक्ष्मी तत्व ही आपको आपकी साधना के लक्ष्य तक ले जाता है, और जब आप वास्तविकता एवं सत्य को प्राप्त कर लेते हैं तब आपकी उन्नति होती है। केवल महालक्ष्मी तत्व के कारण ही आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं। महालक्ष्मी तत्व में आप निर्लिप्त हो जाते हैं, सोचने लगते हैं कि आखिरकार यह संसार क्या है और आपमें एक प्रकार की निर्लिप्सा की भावना आ जाती है। ऐसा व्यक्ति पदार्थों के मोह में नहीं फँसा रहता है। आप सोचने लगते हैं कि संसार से बेहतर भी कुछ होगा, इससे परे भी कोई सत्य होगा। यहाँ आपके अन्दर महालक्ष्मी तत्व प्रवेश करने लगता है। यह उत्थान का दैवीतत्व है, ये देवी आपके मस्तिष्क में एक विचार उत्पन्न करती है कि इससे आगे क्या है ? आपको क्या करना होगा? क्या जीवन का यही लक्ष्य है? जीवन का उद्देश्य क्या है? हम इस पृथ्वी पर क्यों अवतरित हुए हैं? ऐसा क्या विशेष है कि हम पृथ्वी पर जीवित रहें ? ऐसे बहुत से मूल प्रश्न उठते हैं और आप जिज्ञासु बन जाते हैं। आप सोचते हैं, आपकी जिज्ञासा बोधगम्य होनी चाहिये, यह मस्तिष्क के माध्यम से होनी चाहिये या तर्कसंगत होनी चाहिये या वैज्ञानिक, इस प्रकार लोग सत्यसाधना करते हैं, ऐसा होना सम्भव नहीं है। महालक्ष्मी का सिद्धान्त यह है कि आपमें सत्य और केवल सत्य को जानने की महान इच्छा होनी चाहिये। सत्य के सिवाय किसी अन्य चीज़ की नहीं, तभी आपकी महालक्ष्मी शक्ति कार्य करती है। प.पू.श्रीमाताजी, कबेला, १७.१०.१९९९ यह महालक्ष्मी तत्व ही आपको सत्य साधना की ओर ले जाता है, तब आप विशेष श्रेणी के लोग बन जाते हैं महालक्ष्मीतत्व जब आता है तो मनुष्य के अन्दर नवधा- नौ शक्तियों की अभिव्यक्ति होती है। महालक्ष्मी ऐसी देवी हैं जो आपको, जो भी कुछ आपके पास उपलब्ध है उसी से पूर्ण संतोष प्रदान करती है महालक्ष्मी तत्व जब आपमें जागृत होता है तो आपको और अधिक प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती, आप औरों को देना चाहते हैं और अपनी उदारता का आनन्द लेना चाहते हैं। प.पू.श्रीमाताजी, लास एंजलिस, २९.१०.२००० ,महालक्ष्मी तत्व को स्थिर करने के लिए मध्य में जाने का पहला मापदंड यह है कि हमारा शरीर सामान्य होना .... .... चाहिये। हमें स्वस्थ तथा प्रसन्न रहना चाहिये। दूसरे यदि हम मध्य में हैं तो हमारा चित्त अधिकतर प्रकृति तथा इसकी कार्य प्रणाली की ओर होता है। अपने चहूँ ओर की सृष्टि से हमें आनन्द लेना चाहिये। यह आनन्द विस्मयकारी रूप से गहन तथा आनन्ददायी होता है तथा हमें निर्विचार समाधि की ओर ले जाता है। महालक्ष्मी तत्व हमारे अन्दर का तत्व है जो पोषण करने के साथ- साथ हमें संतुलन प्रदान करता है, यह एक पथप्रदर्शक तत्व है जो सभी कार्य करता है, जो विवेक प्रदान करके परमात्मा तथा सत्य के प्रति प्रेम देता है और इस प्रेम से आप उन्नत होते है। महालक्ष्मी तत्व का महान आशीर्वाद पूर्ण आत्मसन्तुष्टि है। अपनी आत्मा में ही आप आनन्दित रहते हैं। महालक्ष्मी तत्व जब हमारे मस्तिष्क में प्रवेश करता है तो विराट की अभिव्यक्ति होती है तथा हम अतिसुन्दर रूप से सामूहिक हो जाते हैं। तब हम यह नहीं सोचते कि हम किस देश के हैं, हमारी चमड़ी का रंग क्या है या हमारा धर्म क्या है। .यह आनन्द भी तभी आता है जब महालक्ष्मी तत्व आपके सहस्रार को प्रकाशित करता है। पूर्णता का भाव आ जाता है- व्यक्ति विशेष का नहीं। विराट से हम जुड़ जाते हैं। विराट का यह भाव कि हम पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं, आपको पूर्ण शान्ति तथा सुरक्षा प्रदान करता है। महालक्ष्मी तत्व के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने अहं तथा बन्धनों का त्याग, इसी कारण महालक्ष्मी इतनी महत्वपूर्ण हं। प.पू.श्रीमाताजी, आस्ट्रेलिया, २०.०२.१९९२ 25 भगवान ईसामसीह श्री ईसा विश्व के आधार है। इस पवित्रता, इस मंगलमयता का सृजन एक अण्डे के रूप में किया गया और फिर इसे दो भागों में तोड़ा गया। पहला भाग श्री गणेश हैं और दूसरा आधा विकसित होकर परिपक्व अवस्था में ईसामसीह बना। ईसा स्वयं ओंकार हैं तथा चैतन्य लहरियाँ भी स्वयं ही हैं। शेष सभी अवतरणों को शरीर धारण करने के लिये पृथ्वीतत्व लेना पड़ा। ईसा का शरीर पूर्णतः ओंकार है तथा श्री गणेश उनका पृथ्वीतत्व हैं। अत: हम कह सकते है कि ईसा श्री गणेश की अवतरित शक्ति हैं। यही कारण है कि वे जल पर चल सकते हैं। वे देवत्व का निर्मलतम रूप हैं। प.पू.श्री माताजी, ३.४.१९९४ आरम्भ में जब श्री गणेश के रूप में उनका (श्री ईसामसीह) का सृजन किया गया......इस शिशु में केवल पृथ्वीतत्व का अंश विद्यमान था.....आज्ञा चक्र पर जिस अन्तिम तत्व में से गुज़रना पड़ा वह था प्रकाशतत्व अर्थात उन्हें दिव्य शक्ति के सचे रूप में आना पड़ा-ओंकार रूप में। आप यह भी कह सकते हैं कि चैतन्य लहरियों के रूप में जिसे आप नाद या शब्द ब्रह्म आदि कुछ कहते हैं। अत: उन्हें ब्रह्मतत्व बनना पड़ा और ब्रह्मतत्व बनने के लिए उन्हें अन्य सभी महातत्वों से अलग होना पड़ा। अंतिम तत्व प्रकाशतत्व था, इन्हें (श्री ईसामसीह) इसको पार करना पड़ा। तो उनके अन्दर पृथ्वीतत्व था क्योंकि उबटन के मल से उनका सृजन हुआ तथा और भी तत्व उनमें थे, परन्तु जब वे आज्ञा चक्र पर आते हैं तो बाकी सभी तत्व उन्हें छोड़ने पड़ते हैं और अपने अन्दर मौजूद इन सभी तत्वों को निकालने के लिए उन्हें (श्री ईसामसीह) मरना पड़ता है- पूर्ण , संपूर्ण पावन आत्मा बनने के लिए जो कार्य उन्होंने सूक्ष्म रूप में किया वह स्थूल रूप में कार्यान्वित होता है, इसी कार्य को करने के लिए उन्हें मरना पड़ा। उनके अन्दर जिस चीज़ की मृत्यु हुई थी वह थी उनके अन्दर का पृथ्वीतत्व तथा अन्य तत्व और उनसे 'पावन आत्मा' का उद्भव हुआ। उनका पुनर्जन्म हुआ, पावन आत्मा का, शुद्ध ब्रह्मतत्व का, जिसने ईसामसीह के शरीर की रचना की....उन्हें रक्षक इसलिए कहा जाता है क्योंकि मानव को शारीरिक संवेदना से ऊपर उठाने के लिए उन्होंने यह द्वार पार किया अर्थात् उन लोगों को जो पंचमहाभूतों पर निर्भर करते हैं उन्हें आत्मा के स्तर पर लाने के लिए। अत: पुनर्जन्म वह है जहाँ आप...अपने चित्त से आत्मा के चित्त पर छलाँग लगा लेते हैं, जहाँ आप अपने चित्त को महसूस कर पाते हैं। यही घटना आपके साथ घटित हुई है, परन्तु जब उनका पुनर्जन्म हुआ तो वे शुद्ध आत्मा, शुद्ध ब्रह्मतत्व बन गए। पुनर्जन्म, मूलाधार चक्र से पृथ्वी तत्व के रूप में आरम्भ हुई, उस दिव्य शक्ति की उत्क्रान्ति की घटना है जिसने वहाँ (मूलाधार चक्र) जन्म लिया और आज्ञा चक्र पर आई। वहाँ पर सभी तत्वों को पार करके अन्तत: सहस्रार में प्रवेश करके पूर्ण ब्रह्मतत्व बनने के लिए ईसामसीह का सृजन किया गया। प.पू.श्री माताजी, ११.४.१९८२ ईसामसीह श्रीकृष्ण के पुत्र थे। वे मानव के चारित्रिक आधार हैं। प.पू.श्री माताजी, २३.४.२००१ .....वे एक आदर्श थे, एक आदर्श सन्त, आदर्श साक्षात्कारी व्यक्ति, एक ऐसे व्यक्ति की प्रतिमूर्ति जो हमारी रक्षा करने के लिये स्वर्ग से आए। ईसामसीह ने मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म लिया था । सहजयोग में हमने भी मृत्यु के पश्चात जीवन में प्रवेश किया है। यह बात समझ लेनी चाहिए कि पुनर्जन्म हम सबके लिये, पूरे विश्व के लिये, ये सन्देश है कि हमें पुनर्जन्म प्राप्त करना है। .ईसामसीह उस समय पर अवतरित हुए जब लोगों को आध्यात्मिकता का बिल्कुल भी ज्ञान न था परन्तु जैसे तैसे सभी कुछ इतनी सुन्दरतापूर्वक कार्यान्वित हुआ कि लोग समझने लगे कि पुनरुत्थान महत्वपूर्ण है। आपका भी जब पुनर्जन्म होता है तो कुण्डलिनी उठती है और आपका सम्बन्ध दिव्य शक्ति से जोड़ती है। 26 ईसामसीह एक अत्यन्त साधारण एवं गरीब व्यक्ति थे, एक बढ़ई के पुत्र । उनके लिये पैसा अधिक महत्वपूर्ण न था। बेकार था। उनके लिये आत्मा सभी कुछ था। वे अत्यन्त ही विवेकशील थे और जिस प्रकार उन्होंने गिरजाघरों में बड़े-बड़े पादरियों से धर्म की बातचीत की, वह अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि किस प्रकार एक नन्हा बालक धर्म को इतनी गहनतापूर्वक समझता है। नि:सन्देह उस समय वे छोटे से बालक थे परन्तु वे परमात्मा के बन्दे थे, परमात्मा द्वारा सृजित। वे श्री गणेश थे, वे ॐ हैं, वे ज्ञान हैं, सभी कुछ हैं। इसके बावजूद भी उन्हें कोई पहचान नहीं सका क्योंकि लोग सत्य को नहीं पहचान सकते। प.पू.श्री माताजी, टर्की, २२.४.२००१ ईसामसीह के जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य ये था कि आपके अन्दर जो आज्ञाचक्र है उसका भेदन करें और इसलिए उन्होंने अपने को क्रॉस पर टंगवा लिया और उसके बाद फिर से जीवित हो गए। यह चमत्कार लगता है, पर परमेश्वरी कार्य कोई चमत्कार नहीं। इस प्रकार उन्होंने दिखाया कि मनुष्य इस आज्ञाचक्र से बाहर जा सकता है। प.पू.श्री माताजी, २५.१२.२००० आज्ञाचक्र को खोलने के लिये फॉँसी चढ़ने की आवश्यकता नहीं है और न ही क्रूसारोपित होने की आवश्यकता है। आवश्यकता है अहम् को क्रूसारोपित करने की। अहं ऐसी चीज़ है जिससे जल्दी से मुक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। ईसामसीह को अत्यन्त युवावस्था में ही क्रूसारोपित कर दिया गया। उनका क्रूसारोपित होना बताता है कि वे मृत्यु से नहीं डरते थे और जानते थे कि वे पुनर्जन्म पा लेंगे। ये कार्य उन्हें आज्ञाचक्र के माध्यम से करना पड़ा। आज्ञाचक्र बहुत ही तग है और उन्हें इस मार्ग में से गुज़रना था और इस पर स्थापित होना था। प.पू.श्री माताजी, २२.४.२००१ आज्ञाचक्र पर उन्होंने दो मन्त्र बताये, इन्हें हम बीजमन्त्र कहते हैं - हूँ और क्षम्। क्षमा का मतलब क्षमा करो। क्षमा करना, यह सबसे बड़ा मन्त्र है, जो आदमी क्षमा करना जानता है उसका ईगो ( अहं) जो है वो नष्ट हो जाता है। ......सो दो चीजें ईसामसीह ने बतायीं, एक तो यह कि आप सबको क्षमा कर दो, दूसरी बात जो कही उन्होंने कि तुम आत्मा हो, इस आत्मा को जानो। आत्मा को तो कोई छू भी नहीं सकता। उसको सता नहीं सकता। प.पू.श्री माताजी, २५.१२.२००० ईसामसीह ने आत्मबलिदान किया। अपने जीवन को बलिदान करने का कार्य स्वीकार करके और फिर स्वयं को पुनर्जीवित किया। आज्ञाचक्र के संकुचित मार्ग से वे गुज़रे ताकि आप लोग केवल इतना कहकर ठीक हो सको कि 'मैं सबको क्षमा करता हूँ।' क्षमा का गुण जब इतना शक्तिशाली है कि आप इसके माध्यम से मृत्यु से भी लड़ सकते हैं तो क्यों न क्षमा कर दी जाये? हमारे आज्ञाचक्र को खोलने के लिये ईसा का पुनर्जन्म हुआ। आज्ञाचक्र अति सूक्ष्म केन्द्र है। अपने बन्धनों तथा अहं से प्राप्त विचारों के कारण लोगों की आज्ञा इतनी अवरोधित हो गयी थी कि इसमें से कुण्डलिनी का पार होना असम्भव था। ईसा क्योंकि चैतन्य का ही रूप थे, अत: पुनर्जन्म का खेल रचा गया। हमें समझना चाहिए कि ईसा की मृत्यु द्वारा ही हमें हमारा पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है और भूतकाल की मृत्यु हो गयी, हमारे पश्चाताप और बन्धन समाप्त हो गए। प.पू.श्री माताजी, इटली, १४.४.१९९२ ईसामसीह ने हमें यह शिक्षा दी कि उनके हृदय में मानव मात्र के लिये प्रेम था और वे सभी लोगों को लिये तैयार करना चाहते थे। वे सहजयोग के आने के पूर्व अवतरित हुए। उन्होंने यदि यह कार्य न किया होता तो मेरे लिये यह पुनरुत्थान के उपलब्धि प्राप्त करना कठिन होता। इस प्रकार उन्होंने सहजयोग के लिये स्थितियाँ बनायीं जिसके कारण आप लोगों के आज्ञाचक्र खुले और आज्ञाचक्र को पार करके कुण्डलिनी को ऊपर ले जाकर आप अपने सहस्रार को, अपने तालूअस्थि क्षेत्र खोल सकते हैं। उन्होंने सोचा कि लोगों के प्रति प्रेम का यही अंग-प्रत्यंग है, इसलिये ईसा ने यह कार्य किया और बहुत से लोगों का हित किया। प.पू.श्री माताजी, २२.४.२००१ अगर ईसामसीह इस संसार में न आते और अपने को आज्ञा चक्र में बिठाकर तारण का मार्ग, पुनर्जीवन का मार्ग न बताते तो सहजयोग साध्य न हो सकता। उनका आना अति आवश्यक था। प.पू.श्री माताजी, २५.१२.१९९० 27 मेरे बाल यम के दिये हुए हैं| र गणपतिपुले, २५/ १२/१९९० 29 आपमें से कुछ लोग मेरी बात इंग्लिश में नहीं समझ पाये होंगे। ईसामसीह का आज जन्म दिन है और मैं समझा रही थी कि ईसामसीह कितने महान हैं। हम लोग गणेश जी की प्रार्थना और स्तुति करते हैं क्योंकि हमें ऐसा करने को बताया गया है। पर यह है क्या? गणेशजी क्या चीज़ हैं? हम कहते हैं कि वो ओंकार हैं, ओंकार क्या है? सारे संसार का कार्य इस ओंकार की शक्ति से होता है। इसे हम लोग चैतन्य कहते हैं, ब्रह्म चैतन्य कहते हैं। ब्रह्म चैतन्य का साकार स्वरूप ही ओंकार है और उसका मूर्त-स्वरूप या विग्रह श्री गणेश हैं। इसी का अवतरण ईसामसीह हैं। इस चीज़ को समझने के बाद जब हम गणेश की स्तुति करते हैं तो बस पागल जैसे गाना शुरू कर देते हैं। एक-एक शब्द में हम क्या कह रहे हैं? उनकी शक्तियों का वर्णन हम कर रहे हैं। पर क्यों? ऐसा करने की क्या जरूरत है? इसलिए कि वो शक्तियाँ हमारे में आ जायें और हम भी शक्तिशाली हो जायें । इसलिए हम गणेश जी की स्तुति करते हैं। 'पवित्रता' उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। पवित्र चीज़ सबसे ज़्यादा शक्तिशाली होती है। उसको कोई छू नहीं सकता। जैसे साबुन से जो मजी धोइए वो गन्दा नहीं हो सकता। एक बार साबुन भी गन्दा हो सकता पर यह ओंकार अति पवित्र और अनन्त का कार्य करने वाली शक्ति है। इस शक्ति की उपासना करते हुए हमें याद रखना है कि इसे हम अपने अन्दर उतार लेना चाहते हैं जिससे हमारे अन्दर पूरी शुद्धता आ जाये। हमारे चक्र शुद्ध हो जायें, हमारा जीवन शुद्ध हो जाये, हमारे समाज, देश और सारे विश्व में शुद्धता आ जाए। इस शुद्धता में ही आनन्द है। शुद्ध होने पर बड़ा अच्छा लगता है। जैसे नहा-धो कर साफ कपड़े पहन लेना । जब आपका पूरा जीवन इस ओंकार से स्वच्छ हो जाता है तब आत्मानन्द मिलता है। आत्मा की शक्ति भी ओंकार ही की शक्ति है। लेकिन हम यह नहीं समझते कि ओंकार क्या चीज़ है, केवल यह कह देने से कि यह ओम है और अर्ध मात्रा है हम इसे समझ नहीं पाते। यह चार शक्तियाँ (चत्वारी) श्री गणेश की है। ईसामसीह के जीवन में उन्हीं का प्रादुर्भाव आप पाते हैं। ईसामसीह कुछ साल तक ही जीवित रहे और पता नहीं उनके बारे में हिन्दुस्तान में बहुत कम जानकारी रही और पाश्चिमात्य देशों में लोग उन्हें मानने लगे। पर अब ये लोग केवल खोपड़ी मात्र है। उनमें हृदय तो है ही नहीं । अर्थात् उसके अन्दर संवेदन शक्ति आनी चाहिए जिससे वह प्रकाश के पुंज बन जाये। आप देखिये कि ये प्रकाश जो आँखों पर पड़ रहा है इससे आँखें धुंधला जाती हैं। परन्तु अन्दर के प्रकाश से सब कुछ दिखाई देने लग जाता है। उस आत्मा के प्रकाश को पाने के लिए आज्ञा चक्र पर ये आप देखिये मेधा है जिसे हम ब्रेन प्लेट कहते हैं। इसपे यहाँ आज्ञा चक्र है। जब मेधा खुलती है, तभी आज्ञा चक्र खुलता है। जब इसके अन्दर से कुण्डलिनी ऊपर आती है तो मेधा के ऊपरी हिस्से में छा जाती है तो मनुष्य की बुद्धि से परे की, एक विलक्षण दैवीय शक्ति प्लावित होती है और इस दैवीय शक्ति से आप समझने लग जाते हैं कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। इस शक्ति का प्रवाह आपके हाथों में आ जाता है और धीरे-धीरे अच्छे-बुरे की पहचान के लिए आपको हाथों की भी आवश्यकता नहीं रहती। आप फौरन से जान जाते हैं कि ये झूठा है या अच्छा है। कुछ लोग बहुत जल्दी इस गहनता में उतर आते हैं, मैं कहती हूँ उनमें ईसामसीह का आशीर्वाद हो गया। पर कुछ लोग अब भी बुद्धि के चक्कर में रहते हैं जैसे बेकार के धर्म-अधर्म, जाति-पांति में फँसना, संकचित विचार तथा अनुदारता की बुराईयाँ । हमारे देश में जैसे कहीं और न मिलने वाले पराश्रयी जीव मच्छर, खटमल आदि मिलते हैं वैसे ही कहीं अन्य न मिलने वाली बहुत सी बुराईयाँ भी हैं। मनुष्य कहाँ तक गड्ढे में जा सकता है। वह यहीं देखा जा सकता है कभी-कभी आश्चर्य होता है कि जिस देश में इतने बड़े-बड़़े अवतरण हुए, जिस देश की संस्कृति परमात्मा को मानने वाली है, वहीं ये मैला-कुचैलापन तथा रूढ़िवादी से लोग सड़ते जा रहे हैं। जाति-पांति आदि बुराईयाँ मानव को कीड़े-मकोड़े सम बनाये जा रही है । 'विश्व निर्मल धर्म' ओंकार का धर्म है, पवित्रता का धर्म है। इसमें ये बुराईयाँ यदि आप चला रहे हैं तो १० 30 ब आप गहराई में नहीं उतर सकते हैं। जितना मर्जी आप कहिये कि हम तो माताजी की पूजा करते हैं, फोटो लगाते हैं, उनको मनाते हैं आदि, इससे न आपको कुछ फायदा हो सकता है न दुनिया को। इस तरह जो हम अपने से ठगी कर रहे हैं । सहजयोगियों को पहले विश्वास कर लेना चाहिए कि हम सब अपने को ठगने वाले नहीं हैं । ठगी छोड़कर सहजयोग में पूरी तरह उतरने से ही आपको इसका लाभ होगा। आधे-अधूरे लोगों को कभी किसी गुरुओं के पास जाने से या गलत लोगों की संगति से तकलीफ हो जाती है क्योंकि आज कृत-युग है। आज ब्रह्म चैतन्य कार्यान्वित है। अब आप न तो खुद को ठग सकते हैं न मुझे ठग सकते हैं। जिसने ठगी का रास्ता लिया उसको उसकी ठगी का फल मिल गया। एक साहब आकर कहने लगे कि, 'माँ, मैं 'ध्यान' करता हूँ। तो मेरा मुँह इतना बड़ा हो जाता है। 'कैसा हो जाता है?' 'हनुमान जी जैसा।' तो मैंने कहा, 'अच्छा है, तुम हनुमान हो गये। तो कहने लगा, 'नहीं माँ, मुझे घबराहट हो रही है। मेरा मुँह फट जाएगा। 'आप तम्बाकू खाते हैं न?' 'यह बात तो है, कहने लगा। मैंने कहा, 'फिर तम्बाकू ही खाओ, काहे का ध्यान करते हो। तम्बाकू भी खायेंगे और ध्यान भी करेंगे तो मुँह तो ऐसे बढ़ेगा ही। एक और साहब आये और कहने लगे, 'माँ, मेरी अंगुली कट गयी। इसमें चोट आ गई।' 'अच्छा, सिगरेट पी रहे थे?' कहने लगा, 'हाँ।' एक और साहब की मोटर की दुर्घटना हुई। उन्होंने आकर बताया कि, 'माँ, सिर्फ यही अंगुली गयी। इसी में चोट आई क्योंकि मैं सिगरेट पीता था। तुम सहजयोग में आकर भी सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं। दुनिया भर के छेद हैं आपमें और सहजयोग का इतना बड़ा बैज आप लगा लेते हैं। तो यह बैज ही आपकी खोपड़ी तोड़ेगा। मैं बता दे रही हूँ कि बैज लगाना इतनी सरल चीज़़ नहीं है । जिस बैज को आपने लगाया है, मर्यादा विहीनता की अवस्था में यही आकर आपकी खोपड़ी तोड़ेगा। मैं न ऐसा चाहती हूँ न करती हूँ पर यह बैज कोई कम चीज़ नहीं है, एक विग्रह है। इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। मतलब यह कि इसमें से चैतन्य बहता है। वही चैतन्य घोल घुमा कर आपका गला अगर धोटे तो कहेंगे, 'माँ, मैं तो बैज लगाये सो रहा था फिर ऐसा कैसे हो गया? वो जो बैज था न वही निकल के आया और खोपड़ी तोड़ दी।' इसलिए बैज मत लगाओ-अगर लगाना है तो उसके योग्य रहो। लौकेट आदि यदि पहनना है तो पहनो पर सम्हाल के-नहीं तो मुझे दोष न लगाना कि, 'माँ मैं यह पहन कर गया था तो भी फिसल पड़ा और पैर टूट गया।' तो उससे कुछ मिला तुमको? इसको यदि पहनना है तो आपमें पात्रता होनी चाहिए। यदि वह योग्यता नहीं है तो ईसामसीह से भगवान बचाए और गणेश जी तो उनसे भी बढ़कर हैं। वो तो सदा अपने बायें हाथ में फरसा लिये होते हैं और इस मामले में मेरी कोई सुनते हैं? बैज, लौकेट, अंगूठी जो भी पहनना हो पहनो, पर बहुत ही सम्भल के रहिये। गुसलखाने आदि जाते हुए इसे उतार कर रखिये। इसे बहुत सम्हालिए, मेरे बालों को भी। मेहरबानी करके जहाँ भी मिलें वापिस कर दीजिए । क्योंकि मेरे बाल यम के दिये हुए हैं और यम इनके पीछे रहता है। मैं नहीं चाहती कि आपको कोई कष्ट हो। अत: बहुत सम्भल के रहिये क्योंकि मैं माँ भी तो हूँ, पर ये लोग तुम्हारे माँ-बाप नहीं हैं, ये तो तुम्हारे भाई लोग हैं और डंडा लिये घूमते हैं आपके पीछे-पीछे। इसलिए सहजयोगी की विशेषता को समझ लीजिए। यह परमात्मा का घर है और परमात्मा माँ नहीं है। माँ तो प्रेममयी है और बच्चों की छोटी - मोटी गलतियों को अनदेखा करती हैं। कितनी मेहनत करके आपकी माँ ने आपको सहजयोग दिया है। आपका पाँव कहाँ डगमगा रहा है? आप कौन सा गलत काम कर रहे हैं? सम्भल के रहना चाहिए। मैं यह जरूर कहँगी कि आदिशक्ति परमात्मा की शक्ति है, उनकी इच्छा है। लेकिन परमात्मा देख रहे हैं कि ये सारी मेहनत जो हो रही है, इतना नाटक जो इन लोगों ने बना रखा है, इसमें सत्य-असत्य कितने लोग हैं और उन्हें किस- किस को ठिकाने लगाना है। वो इसका हिसाब जोड़ रहे हैं। जो अच्छे हैं उनको भी कभी देखना चाहिए न, वैसा नहीं है। जो झूठे हैं उनको पकड़े बैठे हैं और सबको डंडा मारेंगे। इसलिए मेहरबानी से जो भी करना है मन से और दिल खोलकर कीजिए। हमने आपसे जो बातें बताई कि यदि आपके अन्दर अंधश्रद्धा हो, जातिवाद हो, हम हिन्दुस्तानी बहुत उँचे हैं-यह या कोई और झुठी भावना हो-तो इसमें पावित्र्य नहीं है। यह सारी भावनायें निकाल करके कृपया मेरा लौकेट पहनिये क्योंकि हर लौकेट, बैज या अंगूठी के साथ एक-एक गण लगा हुआ है आपके आगे पीछे, उतनी आपकी वो रक्षा करते हैं, उतनी ही रक्षा एक तरह से करते हैं कि आप कोई गलत काम न करें-क्योंकि वो शुद्ध 31 अन्दर-बाहर से जानते हैं। इसलिए आज के दिन ये भी आपके लिए चेतावनी सी हो जाती है । अगर ईसामसीह इस संसार में न आते और अपने को आज्ञा चक्र में बिठा कर तारण का मार्ग, पुनर्जीवन का मार्ग न बनाते तो सहजयोग साध्य न हो सकता। उनका आना अति आवश्यक था। लेकिन इन सब अवतरणों में आपस में कोई झगड़ा नहीं। एक जीवंत पेड़ पर इन और सब लोगों की उत्पत्ति हुई इस पेड़ को पनपाया गया और अन्त में सहस्रार पर आना हुआ इस सहस्रार से कार्य हुआ। यदि पेड़ ही नहीं होता तो सहस्रार कहाँ से आता। इस पेड़ ने ही सहस्रार बनाया है। इस पेड़ की भी जिम्मेदारी है कि सहस्रार को देखें, सम्हाले और इसकी पूरी रक्षा करे और इसके विरोध में जाने वालों को ठिकाने लगाये| तो आज का दिन आप लोगों के लिए समझने का है कि अगर ईसामसीह नहीं आते तो हम लोगों का पुनर्जीवन (रिजरक्शन) न होता। श्री गणेश से प्रार्थना की जाती है कि हमारे मोक्ष के समय हमारा रक्षण करें। मोक्ष के समय वे साक्षात आज्ञा चक्र पर पधारते हैं और आपका रक्षण करते हैं। इसलिए आज का दिन हम सबके लिए बड़ा शुभ है। बहुत प्रसन्नता देने वाला है और इसी तरह चेतावनी भी देता है कि सम्भल के रहिये। यदि आज्ञा चक्र पर आप पिछे रह गये तो पागलखाने में चले जाएंगे या कोई और बीमारी हो जाएगी। आज्ञा चक्र की पवित्रता रखनी चाहिए यानि कि हमारे विचार हमेशा पवित्र होने चाहिए। अपवित्र विचार यदि आ जायें तो उसको क्षमा कर देना चाहिए। जैसे-जैसे आपकी उन्नति होगी आपके अन्दर अपवित्र विचार आयेंगे ही नहीं । सहजयोग सिर्फ आपके आनन्द, आपकी महानता, आपके गौरव और आपकी पूर्ण प्रगति के लिए बना हुआ है। लेकिन इस महान कार्य में पूर्ण हृदय से संलग्न लोगों के साथ जो सहयोग न देंगे उन पर आफत भी आ सकती है। पूर्ण हृदय से आपको कार्य करना चाहिए। कुछ लोगों में कंजूसी की बीमारी भी मैं देखती हूँ। कंजूसीपना कर रहे हैं। किसी तरह चार रूपये यदि बचते हैं तो बचा लो। चार रूपये की बचत आप करेंगे तो आपके कम से कम चार सौ रूपये जाएंगे। सहजयोग में दिया हुआ एक रूपया भी लाख रूपये के बराबर हो सकता है। ये बात मैं आपसे कह रही हूँ। हमें सोचना है कि हम कुछ नहीं दे रहे हैं। सब कुछ माँ का ही है। माँ का माँ को दे रहे हैं। और हम तो कुछ लेते नहीं है। आप तो जानते हैं कि सुबह शाम झगड़ा हो रहा है कि हमको कोई चीज़ नहीं चाहिए, हमें साड़ियाँ मत भी चीज़़ नहीं चाहिए हमको। लेकिन सहजयोग के लिए तो पैसा लगता है। लेकिन यहाँ तो लोग हैं जो में दो। सुबह से शाम तक पाँच साल से झगड़ा चल रहा है कोई सुनता नहीं है। कुछ मुफ्त खाना बड़ी मर्दानगी समझते हैं। बाद में उनके पेट में यदि शिकायत हो जाय तो मैं इसके लिए जिम्मेदार नहीं हूँ। यह जगह भिखारियों के लिए नहीं, रईसों के लिए है। तबीयत- तबीयत 32 चाहिए। राजा की तरह आपकी तबीयत है तो आइए । कोई जरूरी थोड़े है कि आपके पास पैसा होना चाहिए। बहुत से पैसे वाले महाकंजूस होते हैं और बहुत से मेरे जैसे गरीब उनको देते रहने में ही मजा आता है। एक हाथ खुलने पर यदि दूसरा हाथ खुलेगा तभी दूसरे हाथ से आएगा नहीं तो वहीं पर रूक जाएगा। इसलिए कंजूसी की बातें सुनकर मुझे बहुत घिन चढ़ती है। उस दिन का नज़ारा मुझे बहुत अच्छा लगा जब कुछ नहीं रहा तो मेरे फोटो ही लोगों ने बड़े प्रेम से लिए। माँ, हमें फोटो दे रहे हैं। सब आए, बड़ा अच्छा लगा। तो समाधान पहले आना चाहिए। ईसामसीह सा त्याग तो कोई नहीं कर सकता पर समाधान के बाद त्याग को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। थोड़ी सी तकलीफ हो जाएगी। लेकिन बहत बड़े महान कार्य जो पड़े हैं जिन्हें हम अपने लिए ही नहीं सबके लिए कर रहे हैं। अगले साल मैं सबकी लिस्ट मंगाऊंगी। मैं देखना चाहती हूँ, खास कर बम्बई वालों की यह शिकायत है कि वो पैसा देने से बिल्कुल इन्कार कर देते हैं। बम्बई में महालक्ष्मी का मंदिर है। क्या फायदा उस बेचारे मंदिर का जहाँ महालक्ष्मी स्वयं ही जमीन से ऊपर आ गई। वहाँ के लोग इस कदर कंजूस हैं कि वे भी पैसा नहीं देना चाहते, सोचते हैं सब तो माँ कर ही रही है। आराम से रहो, बस मजा आ रहा है। ऐसे तो सब हो ही जाएगा चाहे वो पैसा दें चाहे न दें। लेकिन उनका क्या होगा यह सोच लेना चाहिए। महालक्ष्मी तत्व | कुछ तभी जागृत होता है जब हम अपने अन्दर समाधान प्राप्त कर लेते हैं, लक्ष्मी-तत्व जब पूरा हो जाता है और हम सत्य को खोजने लगते हैं। अगर आपमें समाधान नहीं है तो आप महालक्ष्मी के तत्व में उतर नहीं सकते। देखिये सीता जी का जीवन प्रभु रामचन्द्र जी के साथ कितना दिव्य है, राधा जी का जीवन और उनके बाद ईसामसीह की माँ का जीवन तीनों में कितना त्याग है। बगैर महान समाधान के ये हो ही नहीं सकता। महालक्ष्मी तत्व से तो मनुष्य समाधान हो जाता है, इस तत्व से वो सत्य को ढूंढता है और सत्य को ढूंढते हुए असत्य को छोड़ता जाता है। तो आज के इस महालक्ष्मी पूजन में जहाँ कि ईसामसीह और उनकी माँ मैरी को भी पूज रहे हैं, हमको समाधान में उतरना चाहिए। सांसारिक तथा भौतिक चीज़ों से जब हमारे अन्दर समाधान आ जाता है तभी महालक्ष्मी का तत्व हमारे अन्दर जागृत हो जाता है। फिर महालक्ष्मी तत्व, लक्ष्मी तत्व को संवारता है और लक्ष्मी तत्व अपने आप बनने लग जाता है, अपने आप कार्यान्वित हो जाता है, अपने आप इसका लाभ दे देता है। अपने आप सारी चीज़ें बन कर खड़ी हो जाएंगी। | तो कहना यह है कि अपने दिल को बड़ा करें, दिल बड़ा करें और दिल के अन्दर उस ओंकार को बसायें, उस आत्मतत्व को बसायें, ईसामसीह को, श्री गणेश को बसायें जिनके कारण हमारे बिगड़े काम ठीक हो जाएंगे। आपको मेरे ऊपर अधिकार आ जाए क्योंकि उन लोगों के बगैर मैं आपको अधिकार नहीं दे सकती। कुण्डलिनी के जागरण में भी जब तक मूलाधार से आज्ञा नहीं आती है, जब 6. 33 तक मूलाधार में बैठे गणेश जी हाँ नहीं करते हैं, मैं क्या कोई भी कुण्डलिनी को जगा नहीं सकता। उनके अधिकार अपने हैं। अगर कोई सोचता हो कि हम माँ के बहुत नजदीक हैं तो ये समझ लें कि अगर वो नजदीक हैं और वास्तविकता में नजदीक हैं तो यह भी श्री गणेश जी की ही इजाजत से हो रहा है, ईसामसीह की इजाजत से हो रहा है। उनकी इजाजत के बगैर मैं किसी को नहीं मान सकती। यह एक बन्धन है हम पर। इसलिए मैं बार-बार कहती हूँ कि सम्भल के रहिए, उनके बन्धन को मानना ही पड़ेगा। ये जो भी आपके बारे में सोचते हैं उसकी ओर मुझे जरूर देखना पड़ता है। मैं कितना भी माफ कर दें, माँ की दृष्टि से कुछ भी कह दूं लेकिन इनके आगे मैं हारी हुई हूँ। यह भी जान लेना चाहिए कि ये लोग स्वयं आपकी मदद के लिए हैं, आपको स्वच्छ करने वाले हैं, आपके लिए सबकुछ करने वाले हैं। पर एक चीज़ की इनको उम्मीद नहीं 'मैं निर्वाज्य हूँ।' मैं आपसे कुछ नहीं चाहती हूं, लेकिन अगर आपने मेरे प्रति कोई गलत बात कही या की, या सहजयोग में किसी तरह का ओछापन आपने किया, या किसी तरह की ठगी की तो ये आपके १ पीछे पड़ जाएंगे। इसलिए मैं बार-बार आपसे कह रही हूँ कि आज के शुभ अवसर पर हमें ये जानना चाहिए कि हमारे साथ कितनी बड़ी शक्तियाँ खड़ी हुई हैं। क्यों न हम उस शक्ति को स्वीकार करके शहंशाह जैसे रहें ? क्यों हम छोटे से बन कर रहें? जब हमारे पास इतना बड़ा सिंहासन है तो हम शान से सिंहासन पर बैठे, शान से रहें। अब आप सहजयोगी हो गये हैं। योगीजन हैं, बहुत बड़ी चीज़ है । इतने योगी कभी हुए थे? आरै इतने योगी इस गणपतिपुले में आए हैं जहाँ पर कि महागणेश बैठे हैं। इन महागणेश के परिवार में हम लोग यहाँ आए हुए हैं। इनके इस प्रांगण में हम आ पहुंचे हैं और इनके आशीर्वाद से हमारे अन्दर उन्हीं के जैसी महाशक्तियाँ आ सकती हैं। हुए पर सबसे पहले शक्ति को भी सहन करने के लिए उनकी पवित्रता होनी चाहिए, उनकी भक्ति होनी चाहिए। जिस तरह उनकी भक्ति नि:स्वार्थ है । हमारी भक्ति भी अगर वैसी ही हो जाये तो वे आपके चाकर बन कर आपको सम्भाले रहते हैं। यदि आप उल्टे तरह से चलें तो आपकी हानि भी कर सकते हैं। एक सूझबूझ की बात में समझा रही हूँ क्योंकि एक माँ को ऐसा लगता है कि ये मेरे बड़े प्यारे बेटे हैं और इनसे आप लोगों का लाभ ही होना चाहिए। ये भी लगता है कि कहीं ये तुम लोगों के कान न पकड़ लें। इसलिए आप लोगों को यह भी समझा रही हूँ कि जब इतना सुन्दर समागम हम लोगों ने बिठाया है, इतने सुन्दर परिवार के लोग यहाँ आ गये हैं तो ये जो आपके बड़े भाई लोग हैं इनको आप लोगों को थोड़ा सा मानना पड़ेगा। इनकी पूजा करके यदि आप इन्हें खुश कर लें तो बड़ा अच्छा रहेगा। परन्तु हम जानते हैं कि यह जल्दी खुश नहीं होते। हममें जब तक अन्दर की स्वच्छता नहीं होगी ये खुश नहीं होंगे। इसलिए स्वच्छ हृदय से आज प्रण कीजिए कि सब तरह की क्षुद्रता तथा ओछापन हम त्याग देंगे और इनकी महानता और शुद्धता की ओर नजर करके इन्हें अपना आदर्श मान कर अपनी जिन्दगी बनायेंगे। यह करने से हमारा लाभ ही लाभ है। आपको अनन्त आशीर्वाद हैं हमारे। आप लोग इतने प्यार से यहाँ आये। माँ आपको धन्यवाद तो नहीं कह सकती। पर यही है कि मेरा हृदय भरा हुआ है और इस हृदय में आप सन्त समाये हुए हैं। मैं आपसे अत्यन्त प्यार करती हूँ। नितान्त प्यार से मैं आपको देखती हैँ। हमेशा आपकी रक्षा के विचार में रहती हूँ, आपके प्रति मेरा पूरा चित्त है, तवज्जो है । किसी भी प्रकार की तकलीफ हो आप मुझे लिख सकते हैं। पर आप स्वयं स्वच्छ हो जाएं, शुद्ध हो जाएं और मंगलमय हो करके इस आनन्द को अनन्त तक भोगें। ० 34 NEW RELEASES Title ACD | ACS Date Place Lang. VCD DVD सार्वजनिक प्रवचन 12h Apr.1995 318 Kolkata Н 12-14" Mar.2010 th 319* Shiv Puja - Part I & II Cabella th Virat Viratangana Puja Los Angeles 320 10" Oct.1993 72 E 16 Aspects of Shri Krishna 481 E 3rd Sep.1973 242* आत्मसाक्षात्कार का अर्थ 242 Mumbai Н सार्वजनिक प्रवचन 9th Dec.1973 480° Н 321* Shri Virat Puja st 21* Nov.2010 Noida P + प्रकाशक * निर्मल ट्रांसफॉर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हौसिंग सोसायटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन: ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in ३६ र१ क ১৭ ३ ১ नव वर्ष के इस दिन यह शपथ आपको लेनी हैं कि अब हम सहजयोग को नए, विशाल एवं গুधिक गतिशील तरीके से आरम्म करेंगे। ১ नव वर्ष पूजा, केलवे, ३१.१२.२००० डी ्ाी ॐ वह Wा ---------------------- 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी नवम्बर-दिसम्बर २०१० त हिन्दी ु का ू० र] ०] रे ० 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-1.txt ा द्ध हमें पूरे विश्व को विनाश से बचाना है और उसके लिए, में सोचती हूँ, पूरी जनसंख्या के कम से कम ४० प्रतिशत लोगों को आत्मसाक्षात्कारी होना आवश्यक है। जो चाहे उनकी राष्ट्रीयता हो, जो चाहे उनका शिक्षा स्तर हो, सभी की आत्मसाक्षात्कार दिया जाना चाहिए। सहस्रार पूजा, इंटली, ६.५.२००१ 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-2.txt इस अंक में... बुद्धि भIवना और की एकाकारिता...४ ० may the auspicious त्रिगुणात्मिका ...२२ oCcasion of Diwali breeze into your life laughter, love and contentment. भि ाई ज ০ ा। शॐ 30 गत স भगवान इसामसीह..,२६ मेरे बाल यम के दिये हुए है....२८ 26 दिवासव happy diwali ρυστωαl DEEPOTSAV 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-3.txt ा ॐ ए छ ं हमने क्या-क्या पा लिया। एवकदम से ही हमारे अन्दर इतनी शान्ति आ गईं। इतना आनन्द आ गया और इसके अलावा हमारे अन्दर एक अद्भुत शक्ति जागृत हो गई जिसके कारण हम भी दूसरों का भला कर सकते हैं और हम भी सहजयोग को जान सकते हैं। ० 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-4.txt का े हि भावना और बुद्धि की एकाकारिता ९/१०/१९९० जब तक हृदय और बुद्धि का सामंजस्य सहजयोग में आपको नहीं होता है तब तक आप बहुत ही आधे-अधूरे सहजयोगी हैं। 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-5.txt ....जो परेशानियाँ खड़ी हो रही हैं, अपने देश में ही नहीं, अनेक दूसरे देशों में उस पर विचार करके आप जान सकते हैं कि हम लोग इन गड़बड़ करने वालों से, आतताई लोगों से, जो धर्म के नाम पर धर्मान्धता कर रहे हैं, जो परमात्मा के नाम पर पैसा लूट रहे हैं, जो हर तरह का गलत काम अच्छाई का नाम लेकर कर रहे हैं, उनसे बहुत अलग हैं। एक बहुत बड़ी क्रान्ति हमारे अन्दर हो गई, पता नहीं हम लोगों ने समझा कि नहीं कि कितनी बड़ी क्रान्ति हमारे अन्दर हो गई और हमने क्या-क्या पा लिया। एकदम से ही हमारे अन्दर इतनी शान्ति आ गई। इतना आनन्द आ गया और इसके अलावा हमारे अन्दर एक अद्भुत शक्ति जागृत हो गई जिसके कारण हम भी दूसरों का भला कर सकते हैं और हम भी सहजयोग को जान सकते हैं। यह सब कार्य अति सूक्ष्म हैं। सारा ज्ञान अति सूक्ष्म है पर उसको भी आप लोगों ने बड़ी सहजता से ग्रहण कर लिया है, उसको पा लिया, उसको जान लिया। आपस में आपका प्रेम बढ़ता जा रहा है, घटता नहीं। धीरे-धीरे आपसी मैत्री बढ़ती जा रही है और एक तरह की बड़ी नितान्त श्रद्धा और आनन्द एक दूसरे के सहवास में और प्रेम में आ रहा है। यह तो है कि कुछ लोग बहुत आगे चले जाते हैं अगर उनकी पीठ उस ओर न हो। इस प्रकार की आपसी सद्भावनाएं हमारे अन्दर अकस्मात ही प्रस्फुटित हुई हैं- अकस्मात्! उसके लिए हमने कुछ किया नहीं, उसके लिए हमने कुछ मेहनत नहीं की, अपने आप हमने जान लिया कि सद्भावना रखने में कितना आनन्द है, प्रेम है, कितना मजा आ रहा है जिन्दगी का हमारे अन्दर अनेक तरह की ऐसी प्रकृति थी जिसको हम कह सकते हैं कि बिल्कुल विकारमय, जिसमें बहुत विकार थे। उसके अनेक कारण हैं। हम लोगों ने जब इस भारत वर्ष में जन्म लिया तो इसकी त्रुटियों ने भी हमारे साथ बचपन से ही प्रेम कर लिया और हमने उनसे प्रेम कर लिया। सबसे पहले यह कि हमारे मां-बाप में ही सद्भावना नहीं रहती और फिर भाई बहनों में भी नहीं रहती। घर का वातावरण जिसमें हम एक साथ रहे, एक साथ खाना खाया, एक साथ तकलीफें उठाईं, एक साथ चलते रहे, उसमें भी अलग-अलग तरह के लोग निकल आते हैं। इसको भेद-अभेद कहते हैं। अर्थात हर एक चीज़ में भेद करते जाना कि तुम अलग हो, हम अलग हैं। और करते-करते यह भेद इतना बढ़ जाता है कि उसकी एक पकड़ हमारे अन्दर जैसे कोई पत्थर के किले के अन्दर बन्द हो गये हों, और उस को लेकर के लोग आपस में जमघट बना लेते हैं, झुंड बनाना। यह भी हमारा बड़ा पुराना, जानवरों से लिया हुआ, आनुवंशिक गुण है कि फौरन हम अपना झुंड बना लेंगे।अब जैसे कि दिल्ली के लोग हैं, तो नोएडा का एक ग्रुप हो गया , तो फिर यहाँ उत्तर का, पूर्व का, पश्चिम का हो गया। फिर उसमें भी उस गली के हो गए। इस प्रकार हम लोग अपने ग्रुप बनाते जाते हैं, इससे तो भेद आ गया। अब इस क्रान्ति का सत्य स्वरूप यह है कि इसमें सारा संसार एकाकारिता को प्राप्त करे। तो हमारे अन्दर की यह जो भेद भावनाएं हैं इसकी ओर हमें नजर करना चाहिए और सोचना चाहिए कि हमारे अन्दर ये भेद भावनाएं क्यों आई। अपनी तरफ नजर करने से आप देख सकते हैं। हो सकता है किसी के माँ-बाप ने भी सिखाया हो। बहुत लोग होते हैं वे कहते हैं कि, 'अच्छा, तुम हिन्दू हो, मुसलमानों को मार डालना चाहिए।' तो बचपन से वो भाव आ गया। मुसलमान के बच्चों को सिखाया जाता है कि तुम हिन्दुओं को मार डालो। ईसाइयों को सिखाया जाता है कि दुनिया के सब लोग बेकार हैं, हम ही खास परमात्मा के चुने हुए लोग हैं। पता नहीं कैसे ये लोग ऐसा सोच भी लेते हैं? अपना ही प्रमाण पत्र लगा लेते हैं। जैन धर्म वाले सोच लेते हैं कि हम से बढ़कर कोई है ही नहीं और अपने-अपने प्रांत में भी यही झगड़ा शुरू हो जाता है। जब इसका विशाल स्वरूप शुरू हो जाता है तो लोग सोचते हैं कि हमारे गाँव के लोग अच्छे नहीं हैं और गाँव से जरा निकले तो प्रांत पे आ गए कि हमारा प्रांत बहुत अच्छा है, दूसरा प्रांत अच्छा नहीं। फिर भाषा पर आ गए कि हमारी भाषा बहुत अच्छी है, दूसरों की भाषा बिल्कुल बेकार है। हर बार यही सोचा करते हैं, हम कोई विशेष अच्छे हैं और बाकी लोग बिल्कुल बेकार हैं और इसलिए हमें पूर्ण अधिकार है कि हम दसरों से लड़ें, उनसे बदतमीजी करें या उनको मारें, पीटें, जो भी करना है करें। विशेषकर अपने देश में जातीयता बिल्कुल मानी नहीं जाती थी। आपको याद होगा आज भी किसी से पूछिए तो वे कहेंगे 'हम तो फलाने जात के हैं।' अब आप जानते हैं कि, 'या देवी सर्वभूतेषु जाति रूपेण संस्थिता' देवी 6. 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-6.txt अगर किसी के अन्दर बसती है तो वो उसकी जाति, माने उसके अन्दर बसा जो एक विशेष है, उसको हुआ गुण प्रस्फुटित करती है। परमात्मा को खोज रहा है, ब्रह्म तत्व को खोज रहा है, तो उसे ब्राह्मण जाति का माना जाता है और जो शक्ति को खोज रहा है उसको क्षत्रिय कहा जाता था और कोई धन सम्पति खोज रहा है उसको वैश्य कहा जाता था। और जो लोग दूसरों की सेवा करके और किसी तरह उससे पैसा कमाते थे उनको शूद्र माना जाता था। यह तो तबियत की बात है, इसे हम लोग तबियत कहते हैं। तो जो 'जातिरूपेण संस्थिता' कहा है उसका मतलब है इन्सान की जो कुछ भी तबियत है, उसके अनुसार उसकी जाति बनती थी। जन्म के अनुसार तो बेकार में ही बाद में बन गई। क्योंकि आप देखिए रामायण को किसने लिखा? रामायण को जिसने लिखा वह तो एक मछुआरा था और वह एक डाकू भी था। उसकी भी कुण्डलिनी जागृत होते ही वो ब्राह्मण हो गया। मतलब उसने ब्रह्म को जाना, द्विज हो गया। जिसका दूसरी बार जन्म हो गया। उससे रामायण राम ने क्यों लिखाया ? सोचने की बात है कि उनको क्या जरूरत थी? वह किसी बड़े पक्के विद्वान को काशी से बुलाकर उनसे कहते। उनके लिए सब ये जो कुछ ब्राह्मण थे, जो अपने को ब्राह्मण कहलाते थे, उनके लिए उनकी कोई विशेषता नहीं थी। विशेषता थी उसकी, जो एक आत्मा को प्राप्त किया हुआ प्रकाशवान जीव है; उसको वो मानते थे । | कृष्ण के बारे में भी आप जानते हैं कि कृष्ण की जो गीता लिखी गई वो व्यास ने लिखी और व्यास बेटे किसके थे? आप जानते हैं कि झीमरनी के बेटे थे जिसके बाप का भी पता नहीं था। यह सिद्ध करने के लिए है कि जाति जो है यह आपके जन्म से नहीं होती। राम ने एक भीलनी के बेर खाए, जिसमें उसने दांत लगाये थे। और हमारे यहाँ तो झूठा हम किसी का नहीं खाते, ऐसे हम लोग अपने को समझते हैं। एक भीलनी के बेर उन्होंने इतने प्रेम से खाए कि लक्ष्मण को गुस्सा चढ़ रहा था। पर उन्होंने कहा कि, ये बेर हैं कि अमृत फल हैं?' सीताजी समझ गई, उन्होंने कहा कि, 'अच्छा हमें भी दीजिए।' उन्होंने कहा, 'न बाबा, नहीं दूंगा, मुझे ऐसे अमृतफल कब मिलेंगे?' इतना वर्णन है उसका। तो उन्होंने कहा कि, 'अच्छा, थोड़ा सा आप मुझे नहीं दीजिएगा, मैं तो आपकी अर्धांगिनी हँ। आपको मुझे देना होगा।' तो उन्होंने उसको दे दिया जब उनको दे दिया तो उन्होंने बड़े प्रेम से खाया और कहा कि ऐसा अमृत फल मैंने कभी नहीं खाया। एक भीलनी, बुढ़िया जिसके दो-चार दांत बचे थे, उसने दांत मार-मार कर वह बेर इकट्ठे किये थे और श्रीराम से कहा था, 'तुम खा लो तुम खट्टा नहीं खाते हो इसलिए मैंने सब चखे हैं, कोई भी खट्टा नहीं है।' उस प्रेम से उस साधारण बेर में अमृत फल की शक्ति आ गई और उन्होंने उस अमृतफल को उसी स्वाद से खाया जैसे कि कोई बड़ी अलग सी मैं चीज़ मिल गई हो, तब लक्ष्मण जी को भी लगा कि अमृतफल दोनों ही कह रहे हैं तो कोई चीज़ होगी। उन्होंने कहा कि, 'अच्छा भाभी, हमें भी थोड़े से दे दीजिए ।' कहने लगी, 'मैं तो नहीं देने वाली, आप पहले नाराज हो रहे थे, अब काहे को मांग रहे हो।' 'नहीं भाभी, ऐसा नहीं करो, थोड़ा दो।' सो उनको दे दिया तो उनकी भी चित्त वृत्ति बदल गई। वह एकदम ठण्डे हो गए। उन्होंने कहा कि, 'पता नहीं क्या हो रहा है अन्दर से।' इस सब में हम देखते हैं कि मनुष्य का जो यह अन्धकार है, जिससे वह अपने को समझता है कि 'मैं इस जाति का हूं या इस देश का हूं, या मैं इस प्रांत का हूं।' तो वह एक भ्रम में बैठा हुआ है लेकिन श्रीकृष्ण तो भ्रम में नहीं थे। राम तो भ्रम में नहीं थे। विदुर जो कि एक दासी पुत्र था, उसके घर जाकर खाना खाया और श्रीकृष्ण का तो सारा ही जीवन अगर आप देखें तो वो गोपियों के साथ किस तरह से खेला करते थे जैसे कोई बिल्कुल उन्हीं के सतह के, उन्हीं के स्तर के हैं। और उसी प्रेम के साथ उनके साथ रासलीला आदि करते थे और जिस तरह से वहाँ दूध, मक्खन और दही चुराते थे, ये दिखाने के लिए कि हम तुम्हारे ही जैसे एक हैं। जिससे लोग यह न सोचें कि हम कोई विशेष हैं। यह इसका तत्व है। अगर आप अपने को विशेष समझते हैं इसका मतलब यह है कि आप अच्छे नहीं क्योंकि जो अच्छा होता है वह क्यों सोचेगा कि, 'मैं अच्छा हू', वह है ही अच्छा। जैसे आप इन्सान हैं, आप क्या यह सोचते हैं कि 'मैं इन्सान हूं, मैं इन्सान हूं, मैं इन्सान हूँ।' मैं तो इन्सान ही हूं। आपको कोई सोचना नहीं पड़ता क्योंकि आप हैं ही इन्सान, कोई जानवर तो हैं नहीं। लेकिन अपने को कोई विशेष समझ लेना कि 'में दूसरों से बहुत अच्छा हूं, दूसरी जाति से बहुत अच्छा हूं।' जाति तो कुछ है ही नहीं, जैसे मैंने आपसे बताया, एक 7 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-7.txt भ्रम है कि दूसरे लोगों से अच्छा हूं, दूसरे प्रांत के लोगों से अच्छा हूं। किसी न किसी बहाने 'मैं अच्छा हूं।' फिर ऐसे कुछ अच्छे इकट्ठे हो जाते हैं और होने के बाद में साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता आदि चीजें आ जाती हैं। इस अन्धता के कारण, कि 'मैं किसी से अच्छा हूं, कि मेरे से कोई और अच्छा नहीं या दो-चार और भी हैं मेरे जैसे अच्छे।' मनुष्य के अन्दर कभी भी किसी के प्रति सद्भावना नहीं आ सकती क्योंकि सद्भावना का मतलब है सत्य के प्रति भावना होना। अब आपके अन्दर सत्य प्रकट हो गया। आपने जाना कि चारों तरफ परम चैतन्य है और आपने जाना कि आपकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। आपने जाना कि आपके अन्दर यह शक्ति है और आपने पहचाना कि सत्य क्या है। लेकिन सत्य के प्रति भावना होना एक तरह से बड़ा अच्छा विचार है क्योंकि सत्य जो है यह तो अपनी बुद्धि से जाना जाता है या मध्य नाड़ी तन्त्र से। हमें कहना चाहिए कि, सत्य को हम चैतन्य से जानते हैं, जब वह बहने लग जाए। लेकिन भावना जो है ये भाव से आता है माने अपने हृदय से। हम सत्य को जानते हैं, अब तो जान गए, उसका हमें बोध भी हो गया लेकिन अभी तक वो हृदय से भावना आई नहीं। जब तक हृदय और बुद्धि का सामंजस्य सहजयोग में आपको नहीं होता है तब तक आप बहुत ही आधे- अधूरे सहजयोगी हैं। उसके नमूने ऐसे होते हैं कि छोटी-छोटी बात में झगड़े। अब कोई लीडर है, ये सब मैं आपको बेवकूफ बना रही हूं, कोई भी अकलमन्द आदमी समझ सकता है कि लीडर सहजयोग में कैसे हो सकता है? यह सब बेवकूफी है। जिसने सत्य जाना वो जानता है कि मां हमें बेवकूफ बना रही है। हम लीडर कैसे हो सकते हैं क्योंकि कोई विशेष है ही नहीं सहजयोग में। अब क्या मैं कहं कि मेरे हाथ विशेष हैं कि नाक विशेष है कि बाल विशेष हैं। अरे इसमें से जरा सी भी कोई चीज़ को जख्म हो जाता है तो सारे शरीर को पीड़ा हो जाती है । तो विशेष ऐसा कौन हो सकता है! सामूहिक चेतना में आप तो जानते हैं कि किसी सहजयोगी को भी पीड़ा हो जाती है तो उसको आप महसूस करते हैं अपने अन्दर। उसको आप जानते हैं तब फिर आप विशेष हो नहीं सकते। पर हम लीडर हो गए और मुझे कभी-कभी बड़ी हंसी आती है कि या तो लीडर साहब हो जाते हैं, जेलर साहब जैसे होते हैं और बाकी उनके सामने अपराधियों जैसे घूमा करते हैं। अरे भाई , आप सब एक हैं, सिर्फ ये कि मैं सबसे नहीं मिल सकती हूं, एक के जरिये मिलूंगी। फिर लीडरों में आपस में झगड़े। ये तो महान अन्धकार की बात है। मैं आपको बेवकूफ इसलिए बनाती हं क्योंकि गर बेवकूफ नहीं बनाया जाये तो मैं समझ ही नहीं सकूंगी कि कौन कितने गहरे पानी में है। और फिर पता चलता है कि इस तरह की एक दुूर्भावना सबके अन्दर बह रही है। फिर एक लीडर का | एक ग्रुप बन गया, उस लोडर का एक ग्रुप बन गया, उसका वो ग्रुप बन गया और खासकर दिल्ली शहर में क्योंकि यहाँ तो धंधे ही ये हैं इन लोगों के। खारी बावली के कुछ लेग हो गए तो, पंचकुईयां रोड के कुछ हो गये। मानो, कि जैसे इधर-उधर जाने का कोई इन्तजाम ही नहीं । और इस तरह से जब हमारे अन्दर ये दुर्भावनाएं आपस में आ जाती हैं, हम यह भूल भी जाते हैं देखना कि हममें क्या विशेषता है । 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-8.txt अभी कोई साहब कहने लग गये कि 'साहब, मैंने तो पांच आदमियों को जागृति दी और इस आदमी ने तो एक को भी नहीं दी।' आप लोगों को तो मेरे सामने हंसी आती है पर कभी -कभी आप लोग भी इस चक्कर में आ जाते हैं कि हम लोग तो ऐसे हैं, इसमें यह विशेषता है, हमने ये कर लिया, इसका मतलब यह है कि अभी आप अकर्म में उतरे नहीं, अभी भी आपको लगता है हम कर्म कर रहे हैं, अहंकार के सहारे आप चल रहे हैं और यह बड़ा ही झूठा अहंकार है जो असत्य से आप प्राप्त किए हुए हैं पर सत्य की क्या विशेषता है। सत्य की विशेषता पहले समझना चाहिए और फिर भावना की। सत्य में आप जानते हैं कि आपने प्राप्त किया है अनेक शक्तियों को। सत्य यह भी है कि आपके जीवन में ऐसे अनेक-अनेक चमत्कार हए हैं जो आप बताते हुए अघाते नहीं हैं। वो ऐसा लगता है कि अभी तो खत्म नहीं हुआ है। हमें तो यह भी हुआ चमत्कार, भी हुआ, माँ आपकी कृपा से ये भी हुआ। ये तो सब आप लोग कहते रहते हैं, सत्य के प्रकाश में सारी चीज़ें सुलझती हैं और आप जानते हैं कि हमारे ऊपर परमात्मा का हाथ है, वो हमें सम्भाल रहे हैं, हमें जैसे हम हाथ पकड़ कर ठिकाने ले जा रहे हैं, वो हर चीज़ का, हमारे सामने आये हर प्रश्न का हल निकाल ये रहे हैं। फिर आप धीरे-धीरे जानते हैं कि किस तरह से हम लोगों ने एक दूसरों को जाना, अंधेरे में बैठे हैं तो हम जानते नहीं कौन कहाँ बैठा है। अगर आप उठकर चलने लग जाएं तो एक इसपे गिरेगा एक उसपे गिरेगा। पर वही प्रकाश आते ही आप जान जाते हैं कि हम यहाँ बैठे हैं, वो वहाँ बैठे हैं। अगर हम उन पर कुदेंगे तो उनको भी चोट लगेगी और हमको भी चोट लगेगी। सत्य से, जो केवल सत्य है, उस सत्य से हम जो अपने पारस्परिक संबंध हैं उनको बहत खूबी से समझ लेते हैं। बड़ी प्यारी-प्यारी बातें लोग कभी -कभी कहते हैं एक दूसरे के मामले में तो बड़ा आनन्द आता है मुझे। मैं जब देखती हूं कि एक सहजयोगी दूसरे की तारीफ कर रहा है, बड़ा ही मुझे आनन्द आता है। एक बार किसी के यहाँ प्रोग्राम हो रहा था और प्रोग्राम होने के बाद मैंने सोचा कि इतनों का खाना कैसे बनायेंगे ये बिचारे लोग, कैसे होगा। तो मैंने सबको कहा, 'अच्छा, नमस्ते, नमस्ते।' सब लोग चले गये, वह मेरी ओर देखते ही रह गया आवाक। मुझसे कहने लगा, 'माँ, आपने सबको क्यों भेज दिया?' मैंने कहा, 'क्यों भाई , तुम इतनों को खाना कैसे देते ? तो मैंने सोचा इन सबकी छुट्टी करें।' 'माँ मैंने तो सबके लिए खाना बनाकर रखा था तो क्यों भेज दिया।' मैंने कहा, 'बुलाओ, बुलाओ, सबको बुलाओ|' तो भागे उनके पीछे में, 'अरे भाई, सबका खाना बनाया है, आओ, आओ ।' अब वो लोग बड़े अचम्भे में पड़ गये। तो मुझसे कहने लगे, 'माँ, आपने नहीं जाना कि इसने खाना बनाया था।' मैंने कहा, 'जाना तो था पर ये सब नाटक होने से कितना अच्छा है।' ये प्रेम के नाटक, ये तभी हो सकते हैं जब आपस में सद्भावना हो, वो चुहल, इसको चुहल कहते हैं हम लोग। ये सूक्ष्मता, ये मृदुता, ये नाजुक-नाजुक तरीके से आपस में प्रेम जताना, ये सब तभी हो सकता है जब आपके अन्दर हृदय की भावना हो। ये हृदय से कार्य हो सकता है, बुद्धि से नहीं हो सकता। बुद्धि से आप जान सकते हैं, आप समझ सकते हैं कि हाँ आपने इसे प्राप्त किया है और जब इस आनन्द को आप उठाते हैं तो उस आनन्द में विभोर होकर के आपमें ऐसी अच्छी-अच्छी भावनाएं आ जाती हैं कि आप समझ ही नहीं पाते कि ये कहाँ से आ गई। ये कैसे हो गया। एक सहजयोगिनी थी, वो एक बार सिसिली गई तो वहाँ वो अकेली पड़ गई। बैठी हुई वो बेचारी, एक रेस्तरां में कुछ खा रही थी अकेले, तो उसे लगा कि कहीं से चैतन्य लहरियाँ आ रही हैं, उसने आँख उठा के देखा तो एक दूसरी वहाँ बैठी हुई कुछ और खा रही थी। इन्होंने उनकी ओर देखा, उन्होंने 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-9.txt इनकी ओर देखा। इनसे रहा नहीं गया तो उनके पास जा कर कहती है, 'क्या आप सहजयोगी हैं? कहने लगी, 'हाँ, आप भी हैं क्या?' कहने लगी, 'हाँ!' फिर दोनों इतने गले मिले... और वो थी ग्रीस की और ये थी इटली की। कहने लगी, 'इतना आनन्द आया माँ कि उसके बाद कभी भी वो याद आती है तो ऐसा लगता है कि पता नहीं किस आनन्द के सागर में हम हैं।' तो दूसरों को प्रेम करना, अपना प्रेम दूसरों को जताना और उसकी तरकीबें ढूंढकर निकालना, कि किस तरह से अपना प्रेम दूसरों को जताएं, यह हृदय का काम है, बुद्धि का नहीं। बुद्धि सिर्फ जानती है लेकिन उसका प्रदर्शन, उसकी वाच्यता, माने उसके बारे में कहना, जताना, बताना जिसे अभिव्यक्ति कहते हैं, वो हृदय से ही हो सकता है। आपने बहुत कुछ जान लिया पर आप उसको जता नहीं सकते तो क्या फायदा हुआ ऐसे जानने का? क्या फायदा हुआ? छोटी-छोटी चीज़ों से आप जता सकते हैं और सब लोग जब आपस में इस तरह से बहुत बारीक-बारीक विचार करके एक बड़े सूक्ष्म धागे में बंधते जाते हैं तो बड़ा ही आनन्द आता है । लेकिन उसी वक्त बैठे-बैठे सोचना कि 'भई , मैं तो फलाना हूं, मैं तो ऐसा हूँ', तो मतलब यह कि आप आनन्द के सागर के किनारे खड़े होकर के और बेकार में ही व्यर्थ हुए जा रहे हैं। सर पीट रहे हैं वहाँ खड़े होके। कोई पूछेगा 'सर क्यों पीट रहे हैं? यह तो आनन्द का सागर है।' तो असल में बात यह है कि 'मैं कोई विशेष हूं और वो फलाना था उसने मुझे ऐसा कह दिया, तो अब मुझे उसको सुनाना है। उसने मुझसे ऐसा क्यों किया?' तो सत्य में जो भावना का विशेष अंग है वो ये कि भावना से हम आडोलित हो जाते हैं, जैसे कि समुद्र में कोई लहर चली और आकर के वो किनारे से टकरा जाती है और उसके बाद लौट के जो जाती है तो उसके जो बहुत ही सूक्ष्म तरह के तरंग बनते हैं, ऐसे ही आपके जीवन में विशेष काव्यमय सृष्टि हो जाती है और उस काव्यमय सृष्टि में आप इतने विभोर रहते हैं। क्योंकि, ये नई चीज़ है, एक बहुत ही नवीनतम चीज़ है, इसका अनुभव आपने मनुष्य की स्थिति में नहीं किया क्योंकि मैंने आपसे बताया है कि मनुष्य की स्थिति में हर समय वैमनस्य, हर समय गलत बातें। फिर वो माँ-बाप हो, चाहे कोई हो, क्योंकि पारस्परिक जो सम्बन्ध है । लेकिन इसमें क्या है, आप प्यार क्यों कर रहे हैं? कर रहे हैं भाई, प्यार के लिए प्यार कर रहे हैं तुमसे क्या मतलब, उसका कोई सवाल, कोई जवाब है? मजा आ रहा है, कर रहे हैं। मजा आ रहा है तो कर रहे हैं प्यार। पर यह तभी हो सकता तो है कि जब आपका हृदय इसका तन्त्र जान जाए। अभी तक तो, जब तक हम लोग पार नहीं होते, हमारे अन्दर शूद्रता और इस कदर वैमनस्य, इतनी गन्दगी रहती है वो एकदम प्रकाश में आते ही छूटनी चाहिए। लेकिन किसी-किसी में नहीं छूटती, उसको छोड़ना चाहिए। जब हृदय आपका स्वच्छ हो जाएगा, जैसे अभी डाक्टर साहब ने शब्द कहा कि, 'में हृदय से श्री माताजी का स्वागत करता हूँ', कहते ही मेरी आँखों में आंसू आ गये। हृदय इतनी ऊंची चीज़ परमात्मा ने आपको दी है हृदय और आत्मा का वास भी हृदय में ही है हालांकि उनका पीठ आप जानते हैं यहाँ सहस्रार पर है पर उनके हृदय में तो गर आपको प्रकाश मिला भी वो प्रकाश आपको आनन्ददायी नहीं होता। इसका मतलब है कि आपका हृदय अभी खुला नहीं, अभी आपने जाना नहीं, किसी भी आदमी के प्रति आपकी भावना ठीक न हो उसे ठीक कर लेना चाहिए। आखिर क्यों? किस वजह से हूँ मैं? क्यों मैं ये सोचता हूँ? किसी ने कोई बात कह दी तो आपने बुरा मान लिया। आप किसी के घर गए उन्होंने कहा कि, 'साहब आप बैठ जाइये कुसर्सी पर।' अब वो कुर्सी शायद अच्छी न हो, आप बुरा मान गए। बुरा मानना जो है ये सहजयोगियों का लक्षण नहीं। 10 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-10.txt ॐु सहजयोगियों को तो किसी भी चीज़ का बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि आप बुरे हैं ही नहीं, तो आप बुरा कैसे मान सकते हैं। आप जानेंगे कैसे क्या चीज़ बुरी है, क्या अच्छी है। और आपको अपनी आत्मा का जो आराम है उसको जानना चाहिए क्योंकि आत्मा का हृदय में वास है और आत्मा को किस चीज़ से आराम होता है वो जान लेना चाहिए। ये बात मैं इसलिए कह रही हूँ कि अब तो दिल्ली वालों ने इतनी प्रगति कर ली है सहजयोग में कि अब लोग घबराते नहीं, लेकिन पहले तो सोचते थे कि ये मुहम्मद गजनी आ रहे हैं। ऐसे लोग घबराते थे, बहुत ज्यादा। क्योंकि आते ही झगड़ा ये कि ये कमरा मेरा और वो कमरा तेरा। वहाँ दो दिन के लिए आप आये, हज में जब जाते हैं तो रास्ते में पड़े रहते हैं लोग। पहले जमाने में जाते थे हिमालय तो क्या हालत उनकी होती थी। अब गणपतिपुले आने पर इनको पाँच तारा होटल चाहिए। फिर खाने का कुछ इन्तजाम ठीक नहीं, उन्होंने खाना अच्छा नहीं बनाया। 'अरे भाई, क्या खराबी हो गई?' 'नहीं, वो लखनऊ में बड़े अच्छे कबाब बनते थे, ये क्या कबाब बनाये। तो आप | ले आते लखनऊ वाले। उस पर झगड़ा, जायका ठीक नहीं, ये क्या बना रखा है इन लोगों ने, किस तरह से जमा रखा है ये। कुछ इनको समझ में ही नहीं आता । माने हर समय हर एक चीज़ पे प्रतिक्रिया करना जैसे कि हम कोई विशेष हैं, हमको बड़ा अधिकार है । हर एक चीज़ में ये क्या लगा रखा है? ये रंग लगा रखा है, ये कैसे बना रखा है। करना धरना कुछ नहीं, बैठे बिठाए अपने कु्सी पर सब पर बकते रहना। ये ठीक नहीं है तो वो ठीक नहीं है और आराम तलबी इतनी कि अब बस नहीं है तो चल दो, क्या हर्ज है, लगेगा ही नहीं कि आप चलते हैं गर आप सहजयोगी हैं, मीलों आप चले जाइए आपको पता नहीं चलेगा। लेकिन आप सहजयोगी तो नहीं हैं, अभी भी आप साहब हैं, तो साहब चल नहीं सकते। तो बैठ गए किसी के बस में, खोपड़ी पे उसके जाके। बड़ी ही समस्या होती थी। अब भी आपको विदेशियों से सीखना चाहिए। इनके बड़े-बड़े मकानात हैं, घर हैं, इनके पास में मोटरें हैं, आप इन लोगों को देखिए कैसे ऐशो-आराम में रहते थे। जो लोग हो आए हैं वो बताएं। लेकिन जब आते हैं यहाँ तो मैंने कहा, 'भाई, तुम्हारे लिए लग्जुरी बस करें।' कहने लगे, 'माँ, ये काहे को लग्जुरी बस, हमको तो वही अच्छी लगती है एस.टी.।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने लगे, 'बड़ा मजा आता है उसमें । सब लोग एक दूसरे पर गिरते हैं, फिर वो खड़-खड़ करती है फिर कहीं फेल हो जाती है, फिर सब धकेलते हैं, बड़ा मजा आता है। ये तो आरामदेह बस में कुछ मजा ही नहीं आयेगा। इसमें कोई घटना ही घटित नहीं होगी, कोई नाटक ही नहीं होगा तो हमें क्या मजा आयेगा।' वहाँ है कि बिल्कुल हालत खराब, जैसे ब्रह्मपुरी में है, वहाँ हम भी एक झोपड़ी में रहते हैं। वहाँ बहुत बुरी हालत में रहते हैं ऐसा लोगों का कहना है, पर मुझे कभी नहीं लगता। तो उन लोगों का कहना यह है कि 'भाई, हमारे लिए आप सबसे बड़ा आराम यही है कि आप वहाँ रहें और हमें कुछ याद ही नहीं रहता।' सो एक बार ब्रह्मपुरी कुछ सहजयोगी गए हिन्दुस्तानी अपने बड़े साहब लोग हैं न वो। उन्होंने आ के बताया कि, 'अरे, ब्रह्मपुरी में तो इतना खराब खाना।' क्योंकि महाराष्ट्रियन ने बनाया होगा तो इधर यू.पी. वाले क्यों पसंद करें। पंजाबियों को क्यों अच्छा लगेगा मद्रासी खाना? उनको तो पंजाबी चाहिए । यू.पी. वालों को राजस्थानी नहीं चलने वाला और राजस्थानियों को मराठी नहीं चलने वाला और मराठियों को राजस्थानी नहीं चलने वाला। तो कोई सीमा तो है ही नहीं। उन्होंने कहा कि, 'साहब इतना खराब खाना और कोई इन्तजाम नहीं और कुछ नहीं और ऐसा और वैसा और ब्रह्मपुरी तो मतलब बदुतर चीज़।' इसलिए मैं आप लोगों को किसी को नहीं ले जाती हूँ। 11 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-11.txt दु ६ तो एक आIत्मा का आIनन्द जो है बो सिर्फ दुसरे के आIत्मा के आIनन्द से ह आI सकता है और कोई तरीका नहीं। दूसरे की आत्मा को आप समड़ों और उसके प्रति प्रेम स्खें । 12 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-12.txt क्योंकि कौन आफत उठाए। कल को आप नाराज हो गए तो सबको नदी में, कृष्णा नदी में फेंक देंगे। तो मैंने उन लोगों से पूछा कि, 'भाई सारी यात्रा में तुम लोगों को कहाँ सबसे ज्यादा मजा आया।' कहने लगे, 'गर गणपतिपुले छोड़ दिया जाये तो ब्रह्मपुरी से अच्छी जगह कोई भी नहीं। वहाँ तो बड़ा ही मजा आया।' लो उसके बारे में इतनी शिकायते मेरे पास चिट्ठियों पे चिट्ठियाँ, और फोन पे फोन और सबने मेरा सर खा लिया कि ब्रह्मपुरी का इन्तजाम बहुत खराब था। उन्होंने तो कहा कि, ब्रह्मपुरी तो बस, ये फर्क है । जब आत्मा का आनन्द आप उठाने लगते हैं तो किसी भी जगह आप रहिए आपको आनन्द आता रहता है। बस, यही है कि सब मजेदार लोग हैं, आपस में बस हंसी-खेल हो रहा है, कहीं कुछ हो रहा है। अब उस चीज़ को हमें भी समझना चाहिए। हम लोग कौन बड़े साहब हैं। लेकिन साहबियत से इन लोगों को आराम पहुंचे। पर एक बात तो है कि शरीर का या आँखों का या इन पाँच इन्द्रियों का जो भी आराम है वो कितना भी मिले उससे समाधान नहीं आता है सिर्फ आत्मा के ही आराम से आनन्द आता है। इस बार हमने आप लोगों के लिए गणपतिपुले में ऐसा इन्तजाम किया है कि जिसमें आप लोग चाहें तो एम.टी.डी.सी. में रहें, वातानुकूलित में या यहाँ से दो-चार एयर कन्डीशनर भी ले आइए या एक आध पंखा सर पर रख ले आइए। कोई हर्ज नहीं, जो भी करना चाहें कर सकते हैं। जैसे हैजलेट कहते थे कि सारा मैट्रो पोलिस लेकर आप पिकनिक पर जाइए और या तो ये सोच के कि हम धर्म यात्रा पर जा रहे हैं, और उसमें अपने आत्मा का कितना आराम है उसे देखें, किस हालत में हम रह सकते हैं, कैसे हम रह सकते हैं। वहाँ पर हमने बनाई है कुछ चीज़, देखते हैं कितने लोग आराम से रहते हैं, बगैर लड़ाई झगड़ा किये, क्योंकि गर लड़ाई झगड़ा करना है तो बेहतर है आप एम.टी.डी. सी. में रहें लेकिन गर प्रेम से रहना है तो हमने कुछ ऐसी विशेष चीजें बनाई है जिसको आप कह सकते हैं कि झोपड़ी में गर आपस में प्रेम हो और सत्य को जानने के बाद उसके प्रति जो भावना है कि इसने भी सत्य को जाना और मैंने भी सत्य को जाना तो हमारे अन्दर भावना कैसी होनी चाहिए, किस तरह से हम उसका मज़ा उठा सकते हैं, तो उस नतीजे पे पहुँचना चाहिए कि एक तो आत्मा का आनन्द जो है वो सिर्फ दूसरे के आत्मा के आनन्द से ही आ सकता है और कोई तरीका नहीं। दूसरे की आत्मा को आप समझें और उसके प्रति प्रेम रखें। अब ये भी कोई बुद्धि का काम नहीं है ये भी मैं सोचती हूँ। स्थिति होती है, यह एक स्थिति है और इस स्थिति में आपको उसका आनन्द आ जाता है। अब जैसे ही अपने यहाँ जातीयता की इतनी बीमारी है कि एक साहब थे बिचारे अनुसूचित जाति के बड़े भारी सहजयोगी हैं, हमारे महारा्ट्रियन। वे शादी अब हिन्दुस्तान में तो कहीं कर ही नहीं सकते| कौन करेगा उनकी लड़की से शादी? कोई नहीं कर सकता! वो भी बड़ी अच्छी है, देखने में भी सुन्दर है, कोई नहीं उनसे शादी करना चाहता। और विदेशियों को भगवान की कृपा से जातीयता न होने के कारण, फौरन उनसे शादी कर ली। उनके इन्तजार में बैठे हैं हुए वहाँ पर और वो एक राजदूत के लड़के हैं। वो कहने लगे, 'पता नहीं कब आयेगी। मैं तो इन्तजार कर रहा हूँ और उसकी बहन भी उस पर ही है, उसके पिता भी चाह रहे हैं कि कब आयेगी पता नहीं, उसकी माँ भी चाह रही है कब आयेगी । ' लेकिन हमारे यहाँ कोई कहे कि कोई भी आदमी निम्न जाति के आदमी की लड़की से शादी कर ले तो हो गया , माने अभी भी ये चीजें हमारे अन्दर चिपकी हुई हैं बहुत ज्यादा, बहत ज्यादा हमारे अन्दर चिपकी हुई हैं और हम अब भी सोचते हैं कि हम फलानी जाति के हैं, अलग जाति के हैं, इस जाति के हैं, असल में शर्म आनी चाहिए क्योंकि देखिए, अपनी जाति की ओर देखिए, अब जैसे मैं इसाई धर्म में पैदा हुई, लेकिन हमारा जो कुल है आप जानते हैं न शालीवान का था तो उसमें हम लोगों को छान्नों कुल के कहते थे। यह छान्नों कुल एक बीमारी है। हिन्दुस्तान में मेरे विचार से, और मुझे शर्म आती है कभी कहते कि, 'मैं छान्नों कुल की हूँ' क्योंकि इस कुल में ९६ तो नहीं सौ बुराइयाँ होंगी कम से कम और एक भी अच्छाई नहीं होती, १००% बुराइयाँ होती हैं छान्नों कुल में, अब आप अपनी ओर भी देख लीजिए । माने इनमें एक ही काम करते हैं लोग, लड़कियों की शादी करना, उसके मामले में बहुत- , कहाँ शादी होगी, किससे शादी 13 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-13.txt ৬/A ये जातीयता-वातीयता पाखंड है, हमको विश्वास नहीं, हम तो किसी भी धर्म के नहीं। ३ होगी और किसके घर में होगी और फलाना होगा, ढिकाना होगा। इसके सिवाय और दूसरा काम करते हैं, शराब पीना, तीसरा काम करते हैं औरतों को मारना। और पैसे वाले लोग होते हैं और उससे जो बुराइयाँ कर सकते हैं करते हैं। मैंने आज तक नहीं सुना कि छान्नों कुल के किसी भी आदमी का काम कहीं हुआ, न ही किसी आदमी के बारे में ये कहते हैं कि उन्होंने एक किताब लिख दी। न ही छान्नो कुल के किसी बच्चे ने या लड़के ने वीरता दिखाई। ये छान्नो कुल ऐसा खराब है कि शिवाजी महाराज को भी इन्होंने कहा कि छान्नों कुल के नहीं हैं तो इनका राज्याभिषेक नहीं हो सकता। तो फिर गागा भट्ट जो कि बड़े माने हुए विद्वान थे, पहुँचे हुए पुरुष थे। वो आये और उन्होंने उनका राज्याभिषेक किया, बताइये शिवाजी के पाँव के धूल के बराबर आप नहीं और आप अपने को पता नहीं क्या सोचते हैं? और फिर ब्राह्मणों ने जिस तरह से छला है लोगों को। ज्ञानेश्वरजी को छला और उनको छल करके इतना सताया कि २३ साल में उन्होंने समाधी ले ली। इतनी उंची आत्मा इस संसार में आयी और खत्म हो गयी। ये जातीयता की वजह से। और ये विचार से कि ये काम गलत है, वो काम गलत है और जैसे आप ही बड़े ठेकेदार हैं, हर अच्छा काम करने का। आप अपनी तरफ तो नजर नहीं करते कि हम क्या हैं। तो सहजयोगी को सोचना चाहिए कि क्या मैं जमीन पर सो सकता हूँ, बगैर तकिया लिए, क्या मैं कोई शूद्र हूँ तो उसका विचार न करते हुए विवाहित हो सकता हूँ? क्या मैं किसी भी जगह पूरे आराम से रह सकता हूँ? किसी भी परीस्थिति में मैं सुख उठा सकता हूँ? क्या मैं कोई भी बड़ा अपने को समझ ले तो उसके सामने मैं अपने गौरव में खड़ा हो सकता हूँ? और कोई अपने को कितना ही नीचा समझ ले, तो उसका मैं मान कर सकता हूँ? नहीं तो हम गधे जैसे हो जाएंगे कि हमारे सामने से कोई चले तो उसको कान पकड़वा दिया, कोई पीछे चल रहा है उसको लात मार रहे हैं। गधे में और सहजयोगी में फिर फर्क क्या रह जाएगा। लेकिन गधा है, कहीं भी बैठ सकता है, कहीं भी सो सकता है, कम से कम वो गुण गधे का सीख लें तो बड़ा अच्चा हो जाएगा। और ये एक बात खास हमें सोचनी चाहिए कि हम इन छोटी- छोटी शुद्र चीज़ों के लिए एक दूसरे की भावना क्यों दुखाते हैं। औरतों में भी खास होना चाहिए, मेरे ख्याल से भावनाएं औरतों में ज्यादा हैं और भावना में फिर यही सोचना चाहिए कि हमने किसके प्रति अच्छा विचार किया। अब औरतों को तो आप जानते हैं, अच्छी हुई तो बहुत अच्छी, नहीं तो भूत। उसके बीच में नहीं चलता तो फिर ये कि उनका विवाह हमने किया। तो हमसे कहने लगे, 'माँ, आप ऐसे लड़के से ही मेरा विवाह करिए कि जिसमें बहत चैतन्य हो ।' मैंने कहा, 14 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-14.txt क 'अच्छा!' तो एक लड़के का विवाह जब हमने एक लड़की से तय किया जिसमें वास्तव में चैतन्य बहुत था लेकिन वो बिल्कुल देखने में कहना चाहिए सुन्दर नहीं थी, सुन्दर तो थी मेरी दृष्टि से, लेकिन हो सकता है कि सांसारिक दृष्टि से न हो। लेकिन उससे इतना चैतन्य बहता है तो मुझे उससे प्यार ही चढ़ता था हमेशा और ये महाशय मतलब अंग्रेज हैं, ऊंचे पूरे, दिखने में बहुत खुबसूरत। तो वो आ के मेरे पैर पे गिर गए कि, 'माँ, आपने मुझे कितनी अच्छी बिवी दी, कितनी बिवी दी' और सब लोग कह रहे थे कि, 'माँ, आप ये क्या कर रहे हैं?' मैंने कहा, 'देखो भाई, तुम्ही देख लो सुन्दर साहब।' कहने लगे, 'ये कैसा जोड़ा है, बेज़ोड।' मैंने कहा, 'सबसे अच्छा जोड़ा है ये।' और वो लन्दन में रह नहीं सकते। भाग -भाग कर तीन-चार बार आ चुके हैं। अभी कहते हैं उसके साथ रहो तो ऐसी शान्ति रहती है, कितनी मुझे आपने प्यारी बिवी दे दी, क्योंकि चैतन्य का महात्मय और आत्मा का पारस्परिक संबंध जिसने समझ लिया वो ये सब शुद्र-शुद्र, छोटी-छोटी बातों में उलझ कर रम ही नहीं सकता। उसको अच्छा नहीं लग सकता। तो अभी हमें बदलना है। शरीर की बात मैंने करी-शारीरिक आराम और शरीर का विचार-ठीक है उसी में लगे रहो, पर गति तुम्हारी ठीक नहीं हो सकती। उससे आप कोई प्रश्न हल नहीं कर सकते। आप लोग तो इस भारतवर्ष के लिए आदर्श लोग हैं, ऐसे सभी कहते हैं, पर मैं तो ये सोचती हँ आप सबके लिए एक अगुआ, सबके सामने आप प्रतीक रूप से खड़े हैं। तो इन सबको कैसा होना चाहिए और आपको खुले आम इस बात पे कहना चाहिए कि साहब ये जातीयता-वातीयता पाखंड है, हमको विश्वास नहीं, हम तो किसी भी धर्म के नहीं । हम तो निर्मला धर्म के हैं बस। हम किसी चीज़़ को नहीं मानते, खुले आम। लेकिन अब भी सहजयोगी कहेंगे कि गर पंजाबी लड़की है तो पंजाबी से शादी करें क्योंकि फिर वो बोल सकती है इसको बार-बार पंजाबी में, जो कुछ बुरा बोलना है उसकी सास को। क्योंकि और कोई भाषा वाली आई, समझ लो मराठी आई तो उसको समझ में नहीं आयेगा, वो बोलेगी, 'क्या बोल रही है मुझे समझ नहीं आ रहा तो बहुत तो ये बहुत ही बुरा हो जाएगा। इनका कार्य ही नहीं पूरा हो सकता। तो वो चाहेंगे कि उसी जाति की आये और फिर उसको ये भी कहेंगे कि तुमने भैया दूज पे नहीं भेजा, फलाने में ये नहीं भेजा, दिवाली पे वो नहीं भेजा, फलाने में ये नहीं किया। लेकिन गर आपने परजाति की औरत कर ली तो वह कहेगी , 'भई, हमारे यहाँ तो रिवाज ही नहीं है, तो हम कैसे करें?' पर वो बहुत ही मुश्किल काम है परजाति में शादी करना हिन्दुस्तानियों को बहुत ही मुश्किल काम है क्योंकि जैसे ही परजाति में शादी हो जाती है तो वे एकदम से अकड़ जाते हैं पता नहीं उनको सांप सूंघ जाता है, कहना चाहिए सांप सूघ गया। अभी हमारी एक सहेली है, अच्छी, पढ़ी-लिखी डाक्टर है, बड़ी अच्छी खुश मिजाज औरत थी। इस बार बम्बई में मिली तो एकदम उसको सांप सूंघ गया। मैंने कहा, 'क्या हो गया भई तुमको?' महारा्ट्रियन है वो, कहने लगी, 'अरे 15 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-15.txt 400 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-16.txt ्र मं सब फूलों की सुगंध लेने की जिसे एक खूबी मालूम है वही सहजयोगी हैं | २४ 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-17.txt जी भाई, क्या बताएं, बहुत आफत आ गई। मैंने कहा, 'क्यों?' ' मेरी लड़की ने एक पंजाबी से शादी कर ली। 'अच्छा, कौन? पंजाबी!' नाम बताया। उनको भी मैं जानती हैँ। उनके माँ- बाप को भी सांप सूंघ गया, इनके भी माँ-बाप को सांप सूंघ गया। अब कब तक मियाँ-बिवी ठीक चल सकते हैं गर इस तरह की भावना हमें एक दूसरे के प्रति हो, 'बहू ने मुझसे ये नहीं पूछा, सबेरे मुझको उसने चाय नहीं पूछी, फिर मुझसे यह नहीं पूछा, फिर मुझसे ये नहीं किया, फिर हम वहाँ गए तो गणपतिपुले में वहाँ कोई हमारे लिए हार लेके नहीं खड़ा हुआ, माताजी की आरती करी, हमारी कोई आरती नहीं करी और माताजी को तो इतना अच्छा कमरा दे दिया और हमको तो इतना अच्छा नहीं दिया।' तो अच्छा बाबा, तुम आकर रहो मेैं बाहर रहती हूँ। ये शारीरिक सुख के झगड़े, फिर मानसिक झगड़े खड़े हो जाते हैं । 'ये जो एक आदमी है न माताजी, इसका मेरा पट ही नहीं सकता। 'अरे भाई, क्यों नहीं?' 'बस, पट नहीं सकता। 'अरे भाई, पट क्यों नहीं सकता? क्या उसने तुम्हारा बिगाड़ा, कौन सा उसने तुम्हारा घोड़ा मार दिया ? तुम क्यों उससे इतना नाराज हो? 'माताजी, बस मत पूछिए। उसको तो तमीज़ ही नहीं।' तमीज़ नहीं तो कोई हर्ज नहीं, तमीज होना कोई बड़ी बात है क्या! नहीं है तो नहीं है भाई। देहात का आदमी होगा या किसी और जगह का होगा। आपके देश का नहीं होगा। अब जैसे हमारे लखनऊ के लोगों को तमीज़ बहुत ज्यादा है। उस तमीज में आप सर पकड़िएगा। लेकिन करेंगे कुछ नहीं। कहेंगे 'आप हमारे घर आइए, खाना खाइए, ये करिये।' बाल की बिल्कुल खाल उतार देंगे, घर पर पहुँचे छा तो पता लगा कि वो तो गायब हैं। घर में हुए तो आपको बस ज्यादा से ज्यादा एक रोटी खिला देंगे। कहेंगे, 'तकल्लुफ मत करिए, तकल्लुफ मत करिए।' तो जब एक-दो बार अनुभव हुआ तो घर से खाना खाकर ही जाते थे हम, या बता देते कि आके खाना खायेंगे। तो अब उनके विचार से अभी लोग बदतमीज हैं। अच्छा, अब आप पंजाबियों के यहाँ जाइए, तो पंजाबियों के यहाँ इतने बड़े गिलास में दूध भर कर पीजिए आप। 'अब भाई इत्ता दूध क्या, मैं थोड़ा भी नहीं पीती। 'दूध तो पीना ही होगा आपको। नहीं तो देखिएगा आप।' अब वो बिल्कुल डंडा लेके खड़े हैं। 'भाई, आप पीते हैं कि नहीं पीते हैं?' 'भाई, मैं कभी दूध नहीं पीती।' तो फिर कहेंगे सबसे, 'अरे वो माताजी, बड़ी अकडूल हैं, वो हमारे घर आयी थीं | दूध भी नहीं पिया।' तो इन सब अपनी-अपनी चीज़ों पर हंसना चाहिए। सोचना चाहिए, जिन्हें हम इतना विशेष समझते हैं, ये सब कितनी बेवकूफी की चीज़ें हैं। हाँ किसी में तमीज़ है, किसी में नहीं है, किसी में प्रेम है, मुझे तो सभी में मजा आता है। कोई कैसा भी हो मुझे तो सभी में मजा आता है क्योंकि सब एक वैचित्र्य लिए हुए है न! वैरायटी से तो मजा आता है। कोई कैसा भी हो मुझे तो सब में मजा आता है। | क अब सब एक ही जैसा हो जाये तो आदमी बिल्कुल परेशान हो जाता है । बोअर हो जाता है। सब एक ही जैसी बात करें-कहीं जाओ एक ही बात है। अब आप जाओ हरियाणा में तो बड़ा मजा आता है-वहाँ के लोग जो बातें करते हैं एकदम सीधी सादी। और ऐसा लगता है जैसे अब एक डंडे से सर ही फोड़ने वाले हैं। फिर आप महाराष्ट्रियन के यहाँ जाओ तो वो दूसरे नमूने होते हैं। उनका भी तरीका यह है जरा कंजूस होते हैं-कंजूस। काफी कंजूस | 18 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-18.txt होते हैं। पैसा भी नहीं है उनके पास। एक अमरूद काटेंगे और आठ आदमियों को खिला कर कहेंगे, 'क्या हमने फल खाये। उस दिन याद है हमने फल खाये थे, जिन्दगी भर याद रहेगा।' फिर आप मद्रासियों के यहाँ जाओ, तो सबेरे इडली, शाम इडली, हर समय इडली, कहेंगे, 'कितना सस्ता है हमारा खाना। दो रूपये पचास पैसे में खाना मिलता है। कितनी बार उसे खाइये।' और मिर्च न खाने वालों की तो हालत खराब है। लेकिन सब में मजा आता है। तभी देखिए आप लोग हंस रहे हैं न? लेकिन यदि कोई मद्रासी आपको कुछ खिला दे तो आप चिल्लाते फिरेंगे, 'गया था, उसने मार डाला' आदि आदि....। | तो सब चीज़ का आनन्द उठाने का एक ढंग होना चाहिए। किस तरह से हम हर आदमी का आनन्द उठा सकते हैं। से लोग नकल करते हैं। वो नकल देखकर आपको बहत हंसी आती है। नकल में वो यही तो दिखाते हैं कि हर बहुत वैचित्र्य को हर आदमी अपनी तरह से कह रहा है, बोल रहा है । हर आदमी एक वैचित्र्य लिए हुए है। मैं सफर बहुत करती हूँ। अब किसी ने कहा कि, 'बंगाल में शुद्ध सोने का कड़ा मिलता है, एक लेते आइए।' 'अच्छा भाई , तो कहाँ मिलता है?' तो उन्होंने बताया कि वहाँ लाखी बाबू का सोने-चांदी का दुकान है वहाँ मिल जाएगा। वहाँ पहुंच कर हमारे माने हुए देवर थे, उनसे कहा कि 'लाखी बाबू के सोने-चांदी की दुकान पर ले जाओ।' तो बहुत जोर से हंसे और कहने लगे, 'अच्छा बैठिए मोटर में, ले चलता हूँ।' तो गये, पहले दुकान पे दुकान लगी थी। लाखी बाबू का सोना- चांदी का दुकान । असली सोना चांदी का असली दोकान । अब वो असली कभी इधर और कभी उधर । मैंने कहा, 'हे भगवान ! पता नहीं कहाँ है ये दुकान और कहाँ मिलने वाला है ये कड़ा?' तो मैंने कहा, 'इस रास्ते का ही नाम बता दो।' 'असली लाखी उससे आगे गये तो वो बोले, 'असली लाखी बाबू का सोने - चांदी का दुकान।' फिर अगली बाबू का बाबू का असली सोना-चांदी का असली दोकान का असली रास्ता।' तो हर जगह मजा आया। पर उस मजे को उठाना आना चाहिए। और जानना चाहिए किस तरह की समाज व्यवस्था है? किस तरह लोग रह रहे हैं? कितनी वरायटी हैं, कभी गुलाब का पफूल है, तो कभी मोगरे का फूल। सब फूलों की सुगंध लेने की जिसे एक खूबी मालूम है वही सहजयोगी है। फिर इतनी सद्भावनाएं उमड़ती हैं कि फिर लोग उन्हें बोलने ही लग जाते हैं। अब पंजाबी लोग जैसे कहते हैं, 'सवाल पैदा ही नहीं होता।' एक अंग्रेज ने पूछा कि, 'इसका क्या मतलब क्या है?' तो मैंने कहा, 'क्वश्चिन इज नॉट टेक बर्थ।' इनकी भाषा ही ऐसी है क्या किया जाये। सवाल कभी पैदा होता है? पर पंजाबी ऐसा बोलते हैं अच्छी बात है। हर तरह की चीज़ का जब मज़ा उठाने लगे, उसका आनन्द लेने लगे तो हर चीज़ में आपको एक बहार सी मिलेगी। जैसे एक बार फ्रान्स गये तो बड़ा कोहरा था। कोहरे में सारे पत्ते झड़े हुए। और पत्तियों की जगह सारी शाखाएं ऐसी आकाश में फैली हुई थी। ऐसा लगा जैसे कोई चित्र सा बना हुआ है आकाश के ऊपर। एक-एक टहनी दिखाई दे रही थी। कोहरा था, बीच-बीच में कोहरा आ जाय फिर खुल जाये, बड़ा ही नाटक चला हुआ था। बाकी जो लोग हमारे साथ आये थे, कहने लगे, 'क्या गंदी जगह आये हो? यहाँ तो बिल्कुल अच्छा नहीं लगा।' मैंने कहा, 'अरे भाई, देखो तो सही ये चीजें आपको कहाँ देखने को मिलेंगी इस तरह। देखिए कितना सुन्दर नाटक हो रहा है, देखिए तो सही।' उनकी समझ में ही नहीं आ रहा। हर आदमी में सुगंध है। आपके पास सुगंध लेने की शक्ति नहीं है। हर आदमी में आनन्द है, हर आदमी से आपको कुछ सीखना है। और संसार में जो भी कुछ भगवान ने बनाया है वो इसलिए है कि आप अपने प्यार को जी भर के आदानप्रदान करें। आपस में समझे | बूझें। परमात्मा ने यह सृष्टि इसलिए सुन्दर बनाई है कि आपमें सद्भावना जागृत हो जाये । किसी सौन्दर्यमय स्थान में जाकर आपमें यह भावना आये कि परमात्मा ने किस प्रेम से बनाया है। इस प्रेम में क्यों न विभोर हो जाऊं। पर प्रेम का मतलब अपने को प्यार करना नहीं है, दूसरों को प्यार करना है। तो सत्य और भावना का जब तक सम्मिश्रण नहीं होता अच्छे से या ये कहना चाहिए कि प्रेम में आपस में ये दशा नहीं आ जाती तब तक यही समझना चाहिए कि हम सहजयोगी नहीं हैं। जैसे कि मर्द है सहजयोगी तो वे चक्र सब जानेंगे, उनके अन्दर शासक देवताओं को जानेंगे , कुण्डलिनी को जानेंगे लेकिन वो ये नहीं जानेंगे कि प्यार क्या है या भावना क्या है। आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे। कभी- 19 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-19.txt कभी तो मैं कहती हैँ मैं दो-चार डंडे लाती हूँ सर वर फोड़कर अन्दर आना। और जो औरतें हैं वो ये जानेंगी कि किसको क्या खिलाना है, पिलाना है। पर अगर आप पूछिए कि कुण्डलिनी इस अंगुली पर पकड़ रही है, ये क्या है? तो कुछ पता नहीं। इन दोनों में यदि समन्वय आ जाये-एकाकारिता आ जाये-यदि कोई स्त्री केवल चक्रों के बारे में जानती है। दायीं ओर झुकी है। यदि कोई पुरूष प्यार में अभिभूत हो रहा है तो वह बाईं ओर को है। जब दोनों एक हो जायें तभी आप मध्य में आते हैं। नहीं तो जैसे कि आप परिधि में घूम रहे हैं। एक तरफ से प्यार और एक तरफ से ज्ञान। और वो जब आयेगा तो आपस में लड़ ही पड़ेगा क्योंकि परिधि में है। और जब लड़ता है तो एक तीसरी शाखा शुरू हो जाती है | जिसमें कि आप कह सकते हैं असहज भावनाएं हैं। असहज लोग-यह सब शुरू हो जाता है। क्योंकि यह जो प्रेम है ये भी केवल प्रेम नहीं है। और यह जो जाना सत्य है ये भी केवल सत्य नहीं है। दोनों में ही त्रुटियाँ हैं। इस कारण ये जब आपस में मेल खाता है जैसे किसी ने किसी को प्रेम किया और दूसरे ने उसको उतना नहीं माना तो नाराज़ हो गये। जैसे एक स्त्री कहने लगी कि, 'मैं इसलिए तलाक लेना चाहती हूँ कि मेरे पति घर में बहुत देर से आते हैं।' मैंने कहा, 'फिर तो वो तुम्हें कभी मिलेंगे ही नहीं, क्या फायदा तलाक लेने का? कम से कम देर से आते हैं तब तो मिलते हैं नं! तलाक काहे को ले रही हो।' उसी तरह जब हम अपना प्रेम किसी को दर्शाते हैं और वो आदमी हमारे प्रेम को नहीं मानता है तो वो हमें बुरा लग जाता है। उसी तरह सत्य की बात है यदि कोई प्रेम जता रहा है और उसे आप जताना चाहें कि ये सत्य है तो उसको बुरा लग जाता है कि ये तो सत्य जानते ही नहीं । बिल्कुल बेवकूफ हैं। अब दोनों का समन्वय परिधि में नहीं हो सकता। मध्य में हो सकता है। मध्य में आने के लिए कुण्डलिनी का पूरी तरह से जागरण ध्यान-धारणा और सतर्कता से सोचते रहना कि हम मध्य में हैं कि एक तरफ तब बायां-दायां दोनों ठीक होकर हम मध्य में आ जाते हैं। मध्य में | आप जानते हैं वर्तमान है और वर्तमान में ही आनन्द उठाया जा सकता है, न तो भूत न भविष्य में। इसलिए आप वर्तमान में आ जाते हैं। तो जिस तरह से एक चक्का अपनी परिधि में घूमता ही रहता है, ये सब चीजें भी घूमती ही रहती हैं परन्तु चक्के का मध्य बिन्दु है। जिसे धुरी कहते हैं, उसे शान्त रहना पड़ता है, नहीं तो कोई मोटर नहीं चल सकती, कोई गाड़ी नहीं चल सकती। इसी प्रकार ये जो मध्य बिन्दु है इस पर जब आप उतरते हैं तभी आप ऊपर उठ सकते हैं। और कोई मार्ग इसका नहीं है। जो लेग पार नहीं हैं उनसे तो यह बात कर ही नहीं सकते क्योंकि उनका तो संघर्ष चलता ही रहेगा। आपस में ही संघर्ष चलता रहेगा। पर जो लोग पार हैं और जानते हैं कि वो मध्य में आ गये हैं, कभी इधर डोल जाते हैं, | कभी उधर डोल जाते हैं। पर अगर आप पूरी तरह से मध्य में हैं तो एक विपरीत अवस्था (एन्टीथीसिज़) बन जाती है और एक दूसरी ही चीज़ उसमें से निकल आती है और आप स्वयं ही ऊपर को उठ जाते हैं। जब आप ऊपर जाएंगे तो सबकी तरफ आपकी दृष्टि भी एक विशाल सी रहेगी। तब आपमें निरपेक्षिता आ जाएगी क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं रह जाएगी। प्यार तो हमने प्यार के लिए किया। हमने सत्य किसी से कहा तो सत्य के लिए कहा। किसी ने माना, नहीं माना, झगड़ा किया, गालियाँ दी, चलो कोई बात नहीं। प्रेम किया, उसने नहीं माना प्रेम, चलो कोई बात नहीं! क्योंकि हम सत्य को जानते हैं और ये जानता नहीं है इसलिए इसने हमारे प्रेम को समझा नहीं, चलो कोई बात नहीं। हम अपने में समाये हुए हैं, खुश हैं । अपने आनन्द में हम रजे हुए हैं । तो जब ऐसे और लोग भी आ जाते हैं तो सामूहिक आनन्द हो जाता है। और आज सामूहिक आनन्द की बहुत जरूरत है। सिर्फ सामूहिक चेतना की ही नहीं किन्तु सामूहिक आनन्द की भी। | गणपतिपुले आप लोग सब आ रहे हैं। मैं नहीं चाहती कि आप वहाँ कोई तकलीफ उठाएं या परेशानी उठाएं। लेकिन कहना ये है कि गणपतिपुले हम अपनी आत्मिक उन्नति के लिए जा रहे हैं। और किसी चीज़ के लिए नहीं। यह सोच कर अगर आप लोग आएं तो आपकी भी बहुत मदद होगी और दूसरे लोगों को भी। और बहुत हुए हैं एकदम से छूट सी जाएंगी, टूट सी जाएंगी और उस निरपेक्षिता को आप पाएंगे जिससे हर चीज़ को आप देखते हैं। देखना मात्र है। बहुत बार मैंने आपसे बताया कि ज्ञानेश्वर जी का यह शब्द मुझे अच्छा लगता है 'निरंजन पाहिं' किसी चीज़ को देखते हैं फिर उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। देखने मात्र से आनन्द की गंगा सी बह सी चीजें जिनसे आप बंधे 20 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-20.txt निकलती है। इसके लिए आपको बहत मेहनत की जरूरत नहीं । सिर्फ ये जान लेना कि हमने जो पाया है उसी में हमने उतरना है और जब आप लोग उठेंगे, ये तो ऐसा है कि नदी के मध्य में आप लोग आये, दोनों किनारों पे, धार्मिक (आन्तरिक श्रद्धा वाले) अधार्मिक जैसे भी लोग हो, मध्य में रहने से ही नदी की लहरें चल-चल कर ० इन तटों पर टूटेंगी, जहाँ पर आज इतने प्रश्न खड़े हुए हैं, और इन प्रश्नों को तोड़ेगी और सभी कुछ कर देंगी। आपसे चैतन्य बह रहा है। वह चैतन्य आपकी जो इच्छा होगी उसे कर देगा। अब जैसे हम आयें तो इन्होंने हमें कहा कि कल भारत बंद है। में मुस्कुराई थी। जब मैं यहाँ बैठी हुई हूँ तो कल भारत बंद कैसे हो सकता है? तो आप में नोंक-झोंक हो गई-भारत बंद खत्म। क्योंकि मध्य में है तो दोनों तट पे उसकी लहर चलती है और जो भी होता है वह ऐसे ही महात्माओं की वजह से घटित हो रहा है। यदि आप देखते हैं कि युद्ध आ रहा है तो उसकी भी वजह है। क्योंकि युद्ध के बिना धर्मान्धता के बारे में अक्ल नहीं आने वाली। और हमें भी ्ष नहीं समझ में आने वाला। अत: युद्ध हमें समझाने के लिए चेतावनी मात्र है। ये क्यों हो रहा है-हम उसे देख-समझ रहे हैं कि ये क्यों हो रहा है। होने दो जो हो रहा है। हम पे उसका कोई असर ही नहीं आया। आप निरपेक्षिता में खड़े हैं हमें कुछ होने वाला नहीं। न भय न डर। जो जरूरी है वह हो रहा है। होने दीजिए। यही हमारी इच्छा है। इसी से सारे प्रश्नों का हल निकलने वाला है। ये जो तटस्थता है-अर्थात आप अपने मध्य में स्थित हैं-वहाँ से आप हर चीज़ को देखिए। अपने पर नज़र होनी चाहिए कि मैं कहाँ कम पड़ता हूँ। जैसे मैं अब आपको भाषण दे रही हूँ तो लेग ये सोच रहे हैं कि अच्छा, तो माताजी उनके बारे में कह रही हैं। वो ऐसा आदमी है, उसके बारे में कह रहे हैं। या किसी दूसरे के लिए कह रहे हैं। यह नहीं सोचते कि मेरे अन्दर ही दोष है इसलिए मेरे ही बारे में कह रहे हैं। इसलिए अपनी ही ओर नज़र होनी चाहिए। अपनी ओर नज़र होते ही आप कहेंगे, 'ये कौन सा भूत अन्दर बैठा है?' ध्यान में जाने से आप अपनी ओर देख सकते हैं। घबराने की बात नहीं क्योंकि आप अपने शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि से अलिप्त होकर आत्मा में स्थित हैं। उसे देखने में कोई घबराने की बात नहीं। तो आज कोई पूजा का अवसर नहीं था। आपने पूजा का इतना बड़ा प्रबन्ध कर दिया है। करो पूजा। मेरी तो समझ में नहीं आता ये पूजा की तो सबको बड़ी बीमारी है। हो सकता है आपको पूजा से लाभ होता हो । जो लाभ को प्राप्त करते हैं वो स्थित हैं। उस स्थिति से गिरना नहीं चाहिए। उससे ऊंचे ही ऊंचे उठते जाना चाहिए। आज जो बात आपसे कही है, आप अपने मन में सोचिए कि 'क्या मैं वाकई में ऐसा हूँ? क्या मैं वाकई में अपनी भावना को अपनी बुद्धि से एकाकारिता कर सकता हूँ?' यह आपको सोचना चाहिए। और जब आपके अन्दर दोनों की एकाकारिता हो जाएगी तो सारी दुनिया देखकर अवाक रह जाएगी कि क्या कमाल के लोग हैं! ह ४. 21 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-21.txt का त्रिगुणाच्मिका रम ं छा महालक्ष्मी तत्व के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने अहं तथा बन्धनों की त्याग, का त्या इसी कारण महालक्ष्मी इतनी महत्वपूर्ण हैं। ती महत्द (०००० ा सा कায । रए 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-22.txt अ दिशक्ति की जो तीसरी शक्ति है, त्रिगुणात्मिका वो महालक्ष्मी की शक्ति है। इसी शक्ति से हम धर्म को धारण करते हैं। आज हम महालक्ष्मी की पूजा करेंगे।....इसी तत्व के द्वारा आप उस अवस्था तक पहुँचे हैं। कुण्डलिनी के उत्थान के लिए महालक्ष्मी शक्ति ने आपकी उत्क्रान्ति के मध्यमार्ग का सृजन किया। कोल्हापुर के महालक्ष्मी मन्दिर में लोग हमेशा 'उदे, उदे अम्बे', भजन गाते हैं..... क्योंकि कुण्डलिनी ही 'अम्बा' हैं। महालक्ष्मी के सम्बन्ध में हमें ये समझना होगा कि वे क्या करती हैं और उनकी सहायता क्या है। महालक्ष्मी वाहिका ( सषुम्ना) या महालक्ष्मी की शक्तियों ने हमारे अन्दर आवश्यक सन्तुलन, आवश्यक मार्ग का सृजन किया है ताकि कुण्डलिनी उठ सके। बाएं और दाएं अनुकम्पी को सन्तुलित किया है और कुण्डलिनी के उत्थान के लिए वे ही खुला मार्ग बनातीं हैं। यह प्रेम एवं करुणा का मार्ग है करुणा और प्रेम के माध्यम से वे ये मार्ग बनातीं है क्योंकि वे जानती हैं कि यदि मार्ग खुला न होगा तो कुण्डलिनी न उठ सकेगी। अन्ततः व्यक्ति उस अवस्था तक पहुँच जाता है जहाँ जिज्ञासा का आरम्भ होता है और आप लोगों में जब जिज्ञासा जागृत हुई तो आपका महालक्ष्मी तत्व जागृत हो गया....। एक अन्य कार्य जो ये महालक्ष्मी तत्व करता है वो ये है कि यह कुण्डलिनी शक्ति को भिन्न चक्रों तक जाने का मार्ग बताता है ताकि इन चक्रों के दोष हो सकें। ये अत्यन्त लचीली शक्ति है जो भिन्न चक्रों में कुण्डलिनी का पथप्रदर्शन करती है और समझती है कि किस चक्र को कुण्डलिनी की सहायता की आवश्यकता है। आपने अवश्य देखा होगा कि किसी भी बाधित चक्र पर जाकर, उसे ठीक करने के लिए ये किस प्रकार धड़कती है। यह सारा कार्य इसलिए होता है क्योंकि वे करुणा एवं प्रेम से परिपूर्ण हैं और चाहती हैं दूर कि आप पूर्ण सत्य को प्राप्त करें। पूर्वकर्मों के बहुत से बन्धन एवं समस्याएं हमारे उत्थान में कठिनाई उत्पन्न करते हैं। षड्रिपु हमारा अन्तर्परिवर्तन(उत्थान) असम्भव कर देते हैं। परन्तु महालक्ष्मी तत्व के प्रज्ज्वलित और जागृत हो जाने पर मानव में अन्तर्परिवर्तन होता है और वह एक भिन्न तत्व का बन जाता है-आत्मतत्व। प्रकृति के पाश से मुक्त होकर साधक परमेश्वरी लीला का साक्षी एवं अपना स्वामी (गुरु) बन जाता है। महालक्ष्मी शक्ति जागृत एवं स्थापित होने के पश्चात व्यक्ति बात-बात पर परेशान नहीं होता, प्रेम एवं करुणा का आनन्द उठाता है। साधक को श्री कृष्ण वर्णित 'स्थितप्रज्ञ' स्थिति प्राप्त हो जाती है और उसमें 'सामूहिक चेतना' का एक नया आयाम विकसित हो जाता है। बूँद समुद्र में मिलकर 'पूर्णसमुद्र' -'परमेश्वरी प्रेम की शक्ति' बन जाती है तथा बहुत से दीप प्रज्ज्वलित करती है प.पू.श्री माताजी, १० नवम्बर १९९६ महालक्ष्मी उत्क्रान्ति की सीढ़ी हैं भारतीय शास्त्रों में शक्ति को बहुत महत्व दिया गया है....जिस व्यक्ति को आत्मा बनने की शक्ति प्राप्त नहीं हुई उसे व्यर्थ माना जाता है। अतः ये शक्ति हमारे अन्दर जागृत होनी आवश्यक है.....। सभी शक्तियों में से....महान शक्ति कुण्डलिनी हैं क्योंकि उनके बिना आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं हो सकता। परन्तु हम कह सकते हैं कि उनसे भी ऊँची या उनकी | सम्पूरक महालक्ष्मी शक्ति है। महालक्ष्मी के बिना आप उत्क्रान्ति नहीं प्राप्त कर सकते। यह सीढ़ी है जिसके माध्यम से कुण्डलिनी उठ सकती है। अतः दोनो ही शक्तियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं और परस्पर अत्यन्त सम्बन्धित। लक्ष्मीतत्व सन्तुष्ट होने पर महालक्ष्मी तत्व का आरम्भ होता है जैसे पश्चिम में लोग अधिक वैभव से तंग आ गए हैं, अतः वो सोचने लगे हैं, 'हमने क्या प्राप्त किया?' हम असन्तुलन में चले तो अब हमें क्या करना चाहिए ? हमें स्वयं को सन्तुलित करना होगा। स्वयं को सन्तुलित किस प्रकार करें, हम किस प्रकार आचरण करें? हमें आत्मज्ञान प्राप्त करना होगा।....और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए कुण्डलिनी जागृत होनी....और परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति से जुड़ना आवश्यक है। एक बार यदि ऐसा हो जाए.....तो आपका अन्तर्परिवर्तन हो जाता है.....तब आप अपनी सभी समस्याओं को देख सकते हैं, उन्हें ठीक कर सकते हैं । गए। महालक्ष्मी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। जब आप वैभव से तंग आ जाते है तब आपको लगता है कि अवश्य किसी चीज़ की कमी है और तब आप महालक्ष्मी तत्व की ओर बढ़ते हैं । प.पू.श्री माताजी, कोल्हापुर ( भारत), २१ दिसम्बर १९९० महालक्ष्मी तत्व में प्रवेश आप महालक्ष्मी के महत्व के विषय में जानते हैं कि सुषुम्ना नाड़ी महालक्ष्मी की वाहिका है। परन्तु हमारे अन्दर महालक्ष्मी 23 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-23.txt तत्व की अभिव्यक्ति लक्ष्मी तत्व सन्तुष्ट होने के बाद ही होती है.......अतः परमेश्वरीतत्व महालक्ष्मी के माध्यम से कार्य करता है। बड़ी अजीब बात है कि लक्ष्मीतत्व सन्तुष्ट होने के बाद ही आपमें जिज्ञासा आरम्भ होती है और हमारे अन्दर यह जिज्ञासा महालक्ष्मीतत्व से आती है....। परन्तु किस प्रकार हम अपने लक्ष्मी तत्व को सन्तुष्ट करे?' 'जब हमारे पास जरूरत से ज्यादा धन आ जाता है। '... तो हम सोचने लगते है 'इस धन का मैं क्या करूंगा?' कुछ लोग सोचते हैं, 'ठीक है, मैं एक और कार ले लूगा, एक और घर खरीद लूंगा, एक और ये ले लूंगा, वो ले लूंगा।' परन्तु एक प्रकार का विवेक उदय होने लगता है, सन्तोष आने लगता है:- 'अब और क्या? फिर पैसे के साथ टैक्स आदि की समस्याएं आने लगती हैं। तब लोग सोचते हैं, 'अब बहुत हो गया, और अधिक नहीं, ये सब काफी है। तो इच्छा समाप्त हो जाती है, धन की ललक समाप्त हो जाती है। सहजयोग में आप इतने आशीर्वादित हो जाते हैं कि इच्छानुरूप आपको सब कुछ मिलना शुरु हो जाता है और एक बिन्दू पर पहुँच कर आप सोचते हैं, 'वाह, बहुत हो गया, अब और नहीं चाहिए- मेरे पास सब कुछ है। 'लक्ष्मीतत्व सन्तुष्ट होने से पूर्व यदि आपको आत्मसाक्षात्कार मिल जाए तो भी आप जल्दी से इस स्थिति तक पहुँचने लगते हैं और इस प्रकार यदि आप पहुँच जाएं तो आप महालक्ष्मीतत्व में प्रवेश कर सकते हैं। 'परन्तु यदि आप एकदम से अमीर हो जाएं और वह अमीरी आपके सिर पर बैठने लगे, आपको अपनी कोई सीमा न दिखाई दे, तब भी आपके लिए सहजयोग में आने के अवसर हैं।' मान लो कोई अमीर आदमी बीमार हो जाता है, उसे कैंसर हो जाता है या उसके बचे उससे दुव्यर्वहार करने लगते हैं, या उसके सम्मान को हानि पहुँचती है, दाईं ओर से कोई सद्मा यदि उसे आता है तो यह उसे मध्य में-महालक्ष्मीतत्व में धकेल सकता है। अब लक्ष्मीतत्व -उदारता-गतिशील हो उठती है। ऐसी स्थिति में धनवान लोग अपनी उदारता की अभिव्यक्ति करने लगते हैं। परन्तु यह उदारता भी उनके सिर पर सवार होने लगती है और उससे उत्पन्न असन्तोष उन्हें 'जीवन सत्य' को प्राप्त करने के विषय में सोचने पर मजबूर करता है। सत्यजिज्ञासा, अन्ततः उन्हें अन्तःस्थित महालक्ष्मीतत्व पर ले जाती है। प.पू.श्रीमाताजी, कोल्हापुर ( भारत) २१ दिसम्बर १९९१ .....जब लक्ष्मी जी का पूरी तरह से उपयोग ले लिया और बहुत हो गई लक्ष्मी, जैसे बुद्ध को हुआ था, महावीर को उपरति (विरक्ति) आ गई और उपरति आने के बाद वो परमात्मा को खोजने निकले। ये जो खोजने की शक्ति है ये महालक्ष्मी की शक्ति है। ये महालक्ष्मी का Temple है कोल्हापुर में, स्वयंभु है। तो वहाँ के जोगवा गाते हैं, कि 'हे अम्बे तू जाग, हे अम्बे तू जाग।' ये नामदेव ने लिखा है, १६वीं शताब्दि में। वहाँ के ब्राह्मणों से मैंने कहा कि महालक्ष्मी के मन्दिर में ये क्यों गाते हो भई ? कहने लगे पता नहीं अनादि काल से यहाँ चल रहा है यही गाना। जब से नामदेव हुए हैं। तो अम्बे कौन हैं? कहने लगे देवी है कोई। मैंने कहा आपको इतना भी नहीं मालूम? मैंने कहा आपको तो मैं नहीं समझा पाऊँगी। ये बड़ी मुश्किल है। पर महालक्ष्मी के मन्दिर में भी अम्बे जागती हैं। वो वैसे। मध्यमार्ग में महालक्ष्मी है। उस मार्ग में आपकी सारी खोज लेफ्ट की, राइट की, बुद्धि की सब खत्म हो जातीहै। और आप मध्यमार्ग में आ गए। जब आपने खोजना शुरू कर दिया तब आप पर महालक्ष्मी की कृपा हो जाती है। Bible में इसे Redeemer कहा है। तीन शक्तियाँ बताई उन्होंने। पहली शक्ति को कहा है Comforter, Left side की। Right side की को कहा है Counselor और बीच वाली को Redeemer । ये Holy Ghost की तीन शक्तियाँ हैं। सो जो मध्य मार्ग में आप प्रवेश करने लगते हैं और मध्य मार्ग में आ जाते हैं तब आप एक साधक हो गए और साधक के ऊपर महालक्ष्मी उमड़ पड़ती है। महालक्ष्मी की कृपा उस पर होती है। महालक्ष्मी की शक्ति का चढ़ना बहुत मश्किल है, क्योंकि कभी मन Left को जाता है, कभी Right को जाता है। कभी Left को जाता है, कभी Right को। एक मात्र कुण्डलिनी के जागरण से ही मध्य मार्ग को प्राप्त करते हैं। हुआ था, | पहले तो वो एक सोपान ब्रिज बनाती हैं। Void और उससे गुज़र कर कुण्डलिनी शक्ति, मध्य मार्ग से गुज़रती हुई ब्रह्मरंध्र को छेदती हुई ब्रह्माण्ड से एकाकारिता प्राप्त करती है और जब ये घटना हो जाती है, उसके बाद त्रिगुणात्मिका मिलकर के आपकी आज्ञा चक्र को छेदकर जब आप सहस्रार में आते हैं तो यहाँ आदिशक्ति का स्वरूप महामाया का है। 'सहस्रारे महामाया, सहस्रारे महामाया।' जब सहस्रार को खोलने का काम आता है तो वो महामाया का स्वरूप धारण करती है...... प.पू.श्री माताजी, जयपुर, ११.१२.१९९४ महालक्ष्मी तत्व से तो मनुष्य समाधानी हो जाता है, इस तत्व से वह शक्ति को ढूँढता है और ढूँढते हुए असत्य को छोड़ता है। सांसारिक एवं भौतिक चीज़ों से जब हमारे अन्दर समाधान आ जाता है तभी महालक्ष्मी का तत्व हमारे अन्दर जागृत हो जाता है। 24 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-24.txt .महालक्ष्मी तत्व से परिपूर्ण व्यक्तित्व पनप उठता है। महालक्ष्मी तत्व ही आपको आपकी साधना के लक्ष्य तक ले जाता है, और जब आप वास्तविकता एवं सत्य को प्राप्त कर लेते हैं तब आपकी उन्नति होती है। केवल महालक्ष्मी तत्व के कारण ही आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं। महालक्ष्मी तत्व में आप निर्लिप्त हो जाते हैं, सोचने लगते हैं कि आखिरकार यह संसार क्या है और आपमें एक प्रकार की निर्लिप्सा की भावना आ जाती है। ऐसा व्यक्ति पदार्थों के मोह में नहीं फँसा रहता है। आप सोचने लगते हैं कि संसार से बेहतर भी कुछ होगा, इससे परे भी कोई सत्य होगा। यहाँ आपके अन्दर महालक्ष्मी तत्व प्रवेश करने लगता है। यह उत्थान का दैवीतत्व है, ये देवी आपके मस्तिष्क में एक विचार उत्पन्न करती है कि इससे आगे क्या है ? आपको क्या करना होगा? क्या जीवन का यही लक्ष्य है? जीवन का उद्देश्य क्या है? हम इस पृथ्वी पर क्यों अवतरित हुए हैं? ऐसा क्या विशेष है कि हम पृथ्वी पर जीवित रहें ? ऐसे बहुत से मूल प्रश्न उठते हैं और आप जिज्ञासु बन जाते हैं। आप सोचते हैं, आपकी जिज्ञासा बोधगम्य होनी चाहिये, यह मस्तिष्क के माध्यम से होनी चाहिये या तर्कसंगत होनी चाहिये या वैज्ञानिक, इस प्रकार लोग सत्यसाधना करते हैं, ऐसा होना सम्भव नहीं है। महालक्ष्मी का सिद्धान्त यह है कि आपमें सत्य और केवल सत्य को जानने की महान इच्छा होनी चाहिये। सत्य के सिवाय किसी अन्य चीज़ की नहीं, तभी आपकी महालक्ष्मी शक्ति कार्य करती है। प.पू.श्रीमाताजी, कबेला, १७.१०.१९९९ यह महालक्ष्मी तत्व ही आपको सत्य साधना की ओर ले जाता है, तब आप विशेष श्रेणी के लोग बन जाते हैं महालक्ष्मीतत्व जब आता है तो मनुष्य के अन्दर नवधा- नौ शक्तियों की अभिव्यक्ति होती है। महालक्ष्मी ऐसी देवी हैं जो आपको, जो भी कुछ आपके पास उपलब्ध है उसी से पूर्ण संतोष प्रदान करती है महालक्ष्मी तत्व जब आपमें जागृत होता है तो आपको और अधिक प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती, आप औरों को देना चाहते हैं और अपनी उदारता का आनन्द लेना चाहते हैं। प.पू.श्रीमाताजी, लास एंजलिस, २९.१०.२००० ,महालक्ष्मी तत्व को स्थिर करने के लिए मध्य में जाने का पहला मापदंड यह है कि हमारा शरीर सामान्य होना .... .... चाहिये। हमें स्वस्थ तथा प्रसन्न रहना चाहिये। दूसरे यदि हम मध्य में हैं तो हमारा चित्त अधिकतर प्रकृति तथा इसकी कार्य प्रणाली की ओर होता है। अपने चहूँ ओर की सृष्टि से हमें आनन्द लेना चाहिये। यह आनन्द विस्मयकारी रूप से गहन तथा आनन्ददायी होता है तथा हमें निर्विचार समाधि की ओर ले जाता है। महालक्ष्मी तत्व हमारे अन्दर का तत्व है जो पोषण करने के साथ- साथ हमें संतुलन प्रदान करता है, यह एक पथप्रदर्शक तत्व है जो सभी कार्य करता है, जो विवेक प्रदान करके परमात्मा तथा सत्य के प्रति प्रेम देता है और इस प्रेम से आप उन्नत होते है। महालक्ष्मी तत्व का महान आशीर्वाद पूर्ण आत्मसन्तुष्टि है। अपनी आत्मा में ही आप आनन्दित रहते हैं। महालक्ष्मी तत्व जब हमारे मस्तिष्क में प्रवेश करता है तो विराट की अभिव्यक्ति होती है तथा हम अतिसुन्दर रूप से सामूहिक हो जाते हैं। तब हम यह नहीं सोचते कि हम किस देश के हैं, हमारी चमड़ी का रंग क्या है या हमारा धर्म क्या है। .यह आनन्द भी तभी आता है जब महालक्ष्मी तत्व आपके सहस्रार को प्रकाशित करता है। पूर्णता का भाव आ जाता है- व्यक्ति विशेष का नहीं। विराट से हम जुड़ जाते हैं। विराट का यह भाव कि हम पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं, आपको पूर्ण शान्ति तथा सुरक्षा प्रदान करता है। महालक्ष्मी तत्व के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने अहं तथा बन्धनों का त्याग, इसी कारण महालक्ष्मी इतनी महत्वपूर्ण हं। प.पू.श्रीमाताजी, आस्ट्रेलिया, २०.०२.१९९२ 25 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-25.txt भगवान ईसामसीह श्री ईसा विश्व के आधार है। इस पवित्रता, इस मंगलमयता का सृजन एक अण्डे के रूप में किया गया और फिर इसे दो भागों में तोड़ा गया। पहला भाग श्री गणेश हैं और दूसरा आधा विकसित होकर परिपक्व अवस्था में ईसामसीह बना। ईसा स्वयं ओंकार हैं तथा चैतन्य लहरियाँ भी स्वयं ही हैं। शेष सभी अवतरणों को शरीर धारण करने के लिये पृथ्वीतत्व लेना पड़ा। ईसा का शरीर पूर्णतः ओंकार है तथा श्री गणेश उनका पृथ्वीतत्व हैं। अत: हम कह सकते है कि ईसा श्री गणेश की अवतरित शक्ति हैं। यही कारण है कि वे जल पर चल सकते हैं। वे देवत्व का निर्मलतम रूप हैं। प.पू.श्री माताजी, ३.४.१९९४ आरम्भ में जब श्री गणेश के रूप में उनका (श्री ईसामसीह) का सृजन किया गया......इस शिशु में केवल पृथ्वीतत्व का अंश विद्यमान था.....आज्ञा चक्र पर जिस अन्तिम तत्व में से गुज़रना पड़ा वह था प्रकाशतत्व अर्थात उन्हें दिव्य शक्ति के सचे रूप में आना पड़ा-ओंकार रूप में। आप यह भी कह सकते हैं कि चैतन्य लहरियों के रूप में जिसे आप नाद या शब्द ब्रह्म आदि कुछ कहते हैं। अत: उन्हें ब्रह्मतत्व बनना पड़ा और ब्रह्मतत्व बनने के लिए उन्हें अन्य सभी महातत्वों से अलग होना पड़ा। अंतिम तत्व प्रकाशतत्व था, इन्हें (श्री ईसामसीह) इसको पार करना पड़ा। तो उनके अन्दर पृथ्वीतत्व था क्योंकि उबटन के मल से उनका सृजन हुआ तथा और भी तत्व उनमें थे, परन्तु जब वे आज्ञा चक्र पर आते हैं तो बाकी सभी तत्व उन्हें छोड़ने पड़ते हैं और अपने अन्दर मौजूद इन सभी तत्वों को निकालने के लिए उन्हें (श्री ईसामसीह) मरना पड़ता है- पूर्ण , संपूर्ण पावन आत्मा बनने के लिए जो कार्य उन्होंने सूक्ष्म रूप में किया वह स्थूल रूप में कार्यान्वित होता है, इसी कार्य को करने के लिए उन्हें मरना पड़ा। उनके अन्दर जिस चीज़ की मृत्यु हुई थी वह थी उनके अन्दर का पृथ्वीतत्व तथा अन्य तत्व और उनसे 'पावन आत्मा' का उद्भव हुआ। उनका पुनर्जन्म हुआ, पावन आत्मा का, शुद्ध ब्रह्मतत्व का, जिसने ईसामसीह के शरीर की रचना की....उन्हें रक्षक इसलिए कहा जाता है क्योंकि मानव को शारीरिक संवेदना से ऊपर उठाने के लिए उन्होंने यह द्वार पार किया अर्थात् उन लोगों को जो पंचमहाभूतों पर निर्भर करते हैं उन्हें आत्मा के स्तर पर लाने के लिए। अत: पुनर्जन्म वह है जहाँ आप...अपने चित्त से आत्मा के चित्त पर छलाँग लगा लेते हैं, जहाँ आप अपने चित्त को महसूस कर पाते हैं। यही घटना आपके साथ घटित हुई है, परन्तु जब उनका पुनर्जन्म हुआ तो वे शुद्ध आत्मा, शुद्ध ब्रह्मतत्व बन गए। पुनर्जन्म, मूलाधार चक्र से पृथ्वी तत्व के रूप में आरम्भ हुई, उस दिव्य शक्ति की उत्क्रान्ति की घटना है जिसने वहाँ (मूलाधार चक्र) जन्म लिया और आज्ञा चक्र पर आई। वहाँ पर सभी तत्वों को पार करके अन्तत: सहस्रार में प्रवेश करके पूर्ण ब्रह्मतत्व बनने के लिए ईसामसीह का सृजन किया गया। प.पू.श्री माताजी, ११.४.१९८२ ईसामसीह श्रीकृष्ण के पुत्र थे। वे मानव के चारित्रिक आधार हैं। प.पू.श्री माताजी, २३.४.२००१ .....वे एक आदर्श थे, एक आदर्श सन्त, आदर्श साक्षात्कारी व्यक्ति, एक ऐसे व्यक्ति की प्रतिमूर्ति जो हमारी रक्षा करने के लिये स्वर्ग से आए। ईसामसीह ने मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म लिया था । सहजयोग में हमने भी मृत्यु के पश्चात जीवन में प्रवेश किया है। यह बात समझ लेनी चाहिए कि पुनर्जन्म हम सबके लिये, पूरे विश्व के लिये, ये सन्देश है कि हमें पुनर्जन्म प्राप्त करना है। .ईसामसीह उस समय पर अवतरित हुए जब लोगों को आध्यात्मिकता का बिल्कुल भी ज्ञान न था परन्तु जैसे तैसे सभी कुछ इतनी सुन्दरतापूर्वक कार्यान्वित हुआ कि लोग समझने लगे कि पुनरुत्थान महत्वपूर्ण है। आपका भी जब पुनर्जन्म होता है तो कुण्डलिनी उठती है और आपका सम्बन्ध दिव्य शक्ति से जोड़ती है। 26 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-26.txt ईसामसीह एक अत्यन्त साधारण एवं गरीब व्यक्ति थे, एक बढ़ई के पुत्र । उनके लिये पैसा अधिक महत्वपूर्ण न था। बेकार था। उनके लिये आत्मा सभी कुछ था। वे अत्यन्त ही विवेकशील थे और जिस प्रकार उन्होंने गिरजाघरों में बड़े-बड़े पादरियों से धर्म की बातचीत की, वह अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि किस प्रकार एक नन्हा बालक धर्म को इतनी गहनतापूर्वक समझता है। नि:सन्देह उस समय वे छोटे से बालक थे परन्तु वे परमात्मा के बन्दे थे, परमात्मा द्वारा सृजित। वे श्री गणेश थे, वे ॐ हैं, वे ज्ञान हैं, सभी कुछ हैं। इसके बावजूद भी उन्हें कोई पहचान नहीं सका क्योंकि लोग सत्य को नहीं पहचान सकते। प.पू.श्री माताजी, टर्की, २२.४.२००१ ईसामसीह के जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य ये था कि आपके अन्दर जो आज्ञाचक्र है उसका भेदन करें और इसलिए उन्होंने अपने को क्रॉस पर टंगवा लिया और उसके बाद फिर से जीवित हो गए। यह चमत्कार लगता है, पर परमेश्वरी कार्य कोई चमत्कार नहीं। इस प्रकार उन्होंने दिखाया कि मनुष्य इस आज्ञाचक्र से बाहर जा सकता है। प.पू.श्री माताजी, २५.१२.२००० आज्ञाचक्र को खोलने के लिये फॉँसी चढ़ने की आवश्यकता नहीं है और न ही क्रूसारोपित होने की आवश्यकता है। आवश्यकता है अहम् को क्रूसारोपित करने की। अहं ऐसी चीज़ है जिससे जल्दी से मुक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। ईसामसीह को अत्यन्त युवावस्था में ही क्रूसारोपित कर दिया गया। उनका क्रूसारोपित होना बताता है कि वे मृत्यु से नहीं डरते थे और जानते थे कि वे पुनर्जन्म पा लेंगे। ये कार्य उन्हें आज्ञाचक्र के माध्यम से करना पड़ा। आज्ञाचक्र बहुत ही तग है और उन्हें इस मार्ग में से गुज़रना था और इस पर स्थापित होना था। प.पू.श्री माताजी, २२.४.२००१ आज्ञाचक्र पर उन्होंने दो मन्त्र बताये, इन्हें हम बीजमन्त्र कहते हैं - हूँ और क्षम्। क्षमा का मतलब क्षमा करो। क्षमा करना, यह सबसे बड़ा मन्त्र है, जो आदमी क्षमा करना जानता है उसका ईगो ( अहं) जो है वो नष्ट हो जाता है। ......सो दो चीजें ईसामसीह ने बतायीं, एक तो यह कि आप सबको क्षमा कर दो, दूसरी बात जो कही उन्होंने कि तुम आत्मा हो, इस आत्मा को जानो। आत्मा को तो कोई छू भी नहीं सकता। उसको सता नहीं सकता। प.पू.श्री माताजी, २५.१२.२००० ईसामसीह ने आत्मबलिदान किया। अपने जीवन को बलिदान करने का कार्य स्वीकार करके और फिर स्वयं को पुनर्जीवित किया। आज्ञाचक्र के संकुचित मार्ग से वे गुज़रे ताकि आप लोग केवल इतना कहकर ठीक हो सको कि 'मैं सबको क्षमा करता हूँ।' क्षमा का गुण जब इतना शक्तिशाली है कि आप इसके माध्यम से मृत्यु से भी लड़ सकते हैं तो क्यों न क्षमा कर दी जाये? हमारे आज्ञाचक्र को खोलने के लिये ईसा का पुनर्जन्म हुआ। आज्ञाचक्र अति सूक्ष्म केन्द्र है। अपने बन्धनों तथा अहं से प्राप्त विचारों के कारण लोगों की आज्ञा इतनी अवरोधित हो गयी थी कि इसमें से कुण्डलिनी का पार होना असम्भव था। ईसा क्योंकि चैतन्य का ही रूप थे, अत: पुनर्जन्म का खेल रचा गया। हमें समझना चाहिए कि ईसा की मृत्यु द्वारा ही हमें हमारा पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है और भूतकाल की मृत्यु हो गयी, हमारे पश्चाताप और बन्धन समाप्त हो गए। प.पू.श्री माताजी, इटली, १४.४.१९९२ ईसामसीह ने हमें यह शिक्षा दी कि उनके हृदय में मानव मात्र के लिये प्रेम था और वे सभी लोगों को लिये तैयार करना चाहते थे। वे सहजयोग के आने के पूर्व अवतरित हुए। उन्होंने यदि यह कार्य न किया होता तो मेरे लिये यह पुनरुत्थान के उपलब्धि प्राप्त करना कठिन होता। इस प्रकार उन्होंने सहजयोग के लिये स्थितियाँ बनायीं जिसके कारण आप लोगों के आज्ञाचक्र खुले और आज्ञाचक्र को पार करके कुण्डलिनी को ऊपर ले जाकर आप अपने सहस्रार को, अपने तालूअस्थि क्षेत्र खोल सकते हैं। उन्होंने सोचा कि लोगों के प्रति प्रेम का यही अंग-प्रत्यंग है, इसलिये ईसा ने यह कार्य किया और बहुत से लोगों का हित किया। प.पू.श्री माताजी, २२.४.२००१ अगर ईसामसीह इस संसार में न आते और अपने को आज्ञा चक्र में बिठाकर तारण का मार्ग, पुनर्जीवन का मार्ग न बताते तो सहजयोग साध्य न हो सकता। उनका आना अति आवश्यक था। प.पू.श्री माताजी, २५.१२.१९९० 27 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-28.txt मेरे बाल यम के दिये हुए हैं| र गणपतिपुले, २५/ १२/१९९० 29 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-29.txt आपमें से कुछ लोग मेरी बात इंग्लिश में नहीं समझ पाये होंगे। ईसामसीह का आज जन्म दिन है और मैं समझा रही थी कि ईसामसीह कितने महान हैं। हम लोग गणेश जी की प्रार्थना और स्तुति करते हैं क्योंकि हमें ऐसा करने को बताया गया है। पर यह है क्या? गणेशजी क्या चीज़ हैं? हम कहते हैं कि वो ओंकार हैं, ओंकार क्या है? सारे संसार का कार्य इस ओंकार की शक्ति से होता है। इसे हम लोग चैतन्य कहते हैं, ब्रह्म चैतन्य कहते हैं। ब्रह्म चैतन्य का साकार स्वरूप ही ओंकार है और उसका मूर्त-स्वरूप या विग्रह श्री गणेश हैं। इसी का अवतरण ईसामसीह हैं। इस चीज़ को समझने के बाद जब हम गणेश की स्तुति करते हैं तो बस पागल जैसे गाना शुरू कर देते हैं। एक-एक शब्द में हम क्या कह रहे हैं? उनकी शक्तियों का वर्णन हम कर रहे हैं। पर क्यों? ऐसा करने की क्या जरूरत है? इसलिए कि वो शक्तियाँ हमारे में आ जायें और हम भी शक्तिशाली हो जायें । इसलिए हम गणेश जी की स्तुति करते हैं। 'पवित्रता' उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। पवित्र चीज़ सबसे ज़्यादा शक्तिशाली होती है। उसको कोई छू नहीं सकता। जैसे साबुन से जो मजी धोइए वो गन्दा नहीं हो सकता। एक बार साबुन भी गन्दा हो सकता पर यह ओंकार अति पवित्र और अनन्त का कार्य करने वाली शक्ति है। इस शक्ति की उपासना करते हुए हमें याद रखना है कि इसे हम अपने अन्दर उतार लेना चाहते हैं जिससे हमारे अन्दर पूरी शुद्धता आ जाये। हमारे चक्र शुद्ध हो जायें, हमारा जीवन शुद्ध हो जाये, हमारे समाज, देश और सारे विश्व में शुद्धता आ जाए। इस शुद्धता में ही आनन्द है। शुद्ध होने पर बड़ा अच्छा लगता है। जैसे नहा-धो कर साफ कपड़े पहन लेना । जब आपका पूरा जीवन इस ओंकार से स्वच्छ हो जाता है तब आत्मानन्द मिलता है। आत्मा की शक्ति भी ओंकार ही की शक्ति है। लेकिन हम यह नहीं समझते कि ओंकार क्या चीज़ है, केवल यह कह देने से कि यह ओम है और अर्ध मात्रा है हम इसे समझ नहीं पाते। यह चार शक्तियाँ (चत्वारी) श्री गणेश की है। ईसामसीह के जीवन में उन्हीं का प्रादुर्भाव आप पाते हैं। ईसामसीह कुछ साल तक ही जीवित रहे और पता नहीं उनके बारे में हिन्दुस्तान में बहुत कम जानकारी रही और पाश्चिमात्य देशों में लोग उन्हें मानने लगे। पर अब ये लोग केवल खोपड़ी मात्र है। उनमें हृदय तो है ही नहीं । अर्थात् उसके अन्दर संवेदन शक्ति आनी चाहिए जिससे वह प्रकाश के पुंज बन जाये। आप देखिये कि ये प्रकाश जो आँखों पर पड़ रहा है इससे आँखें धुंधला जाती हैं। परन्तु अन्दर के प्रकाश से सब कुछ दिखाई देने लग जाता है। उस आत्मा के प्रकाश को पाने के लिए आज्ञा चक्र पर ये आप देखिये मेधा है जिसे हम ब्रेन प्लेट कहते हैं। इसपे यहाँ आज्ञा चक्र है। जब मेधा खुलती है, तभी आज्ञा चक्र खुलता है। जब इसके अन्दर से कुण्डलिनी ऊपर आती है तो मेधा के ऊपरी हिस्से में छा जाती है तो मनुष्य की बुद्धि से परे की, एक विलक्षण दैवीय शक्ति प्लावित होती है और इस दैवीय शक्ति से आप समझने लग जाते हैं कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। इस शक्ति का प्रवाह आपके हाथों में आ जाता है और धीरे-धीरे अच्छे-बुरे की पहचान के लिए आपको हाथों की भी आवश्यकता नहीं रहती। आप फौरन से जान जाते हैं कि ये झूठा है या अच्छा है। कुछ लोग बहुत जल्दी इस गहनता में उतर आते हैं, मैं कहती हूँ उनमें ईसामसीह का आशीर्वाद हो गया। पर कुछ लोग अब भी बुद्धि के चक्कर में रहते हैं जैसे बेकार के धर्म-अधर्म, जाति-पांति में फँसना, संकचित विचार तथा अनुदारता की बुराईयाँ । हमारे देश में जैसे कहीं और न मिलने वाले पराश्रयी जीव मच्छर, खटमल आदि मिलते हैं वैसे ही कहीं अन्य न मिलने वाली बहुत सी बुराईयाँ भी हैं। मनुष्य कहाँ तक गड्ढे में जा सकता है। वह यहीं देखा जा सकता है कभी-कभी आश्चर्य होता है कि जिस देश में इतने बड़े-बड़़े अवतरण हुए, जिस देश की संस्कृति परमात्मा को मानने वाली है, वहीं ये मैला-कुचैलापन तथा रूढ़िवादी से लोग सड़ते जा रहे हैं। जाति-पांति आदि बुराईयाँ मानव को कीड़े-मकोड़े सम बनाये जा रही है । 'विश्व निर्मल धर्म' ओंकार का धर्म है, पवित्रता का धर्म है। इसमें ये बुराईयाँ यदि आप चला रहे हैं तो १० 30 ब 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-30.txt आप गहराई में नहीं उतर सकते हैं। जितना मर्जी आप कहिये कि हम तो माताजी की पूजा करते हैं, फोटो लगाते हैं, उनको मनाते हैं आदि, इससे न आपको कुछ फायदा हो सकता है न दुनिया को। इस तरह जो हम अपने से ठगी कर रहे हैं । सहजयोगियों को पहले विश्वास कर लेना चाहिए कि हम सब अपने को ठगने वाले नहीं हैं । ठगी छोड़कर सहजयोग में पूरी तरह उतरने से ही आपको इसका लाभ होगा। आधे-अधूरे लोगों को कभी किसी गुरुओं के पास जाने से या गलत लोगों की संगति से तकलीफ हो जाती है क्योंकि आज कृत-युग है। आज ब्रह्म चैतन्य कार्यान्वित है। अब आप न तो खुद को ठग सकते हैं न मुझे ठग सकते हैं। जिसने ठगी का रास्ता लिया उसको उसकी ठगी का फल मिल गया। एक साहब आकर कहने लगे कि, 'माँ, मैं 'ध्यान' करता हूँ। तो मेरा मुँह इतना बड़ा हो जाता है। 'कैसा हो जाता है?' 'हनुमान जी जैसा।' तो मैंने कहा, 'अच्छा है, तुम हनुमान हो गये। तो कहने लगा, 'नहीं माँ, मुझे घबराहट हो रही है। मेरा मुँह फट जाएगा। 'आप तम्बाकू खाते हैं न?' 'यह बात तो है, कहने लगा। मैंने कहा, 'फिर तम्बाकू ही खाओ, काहे का ध्यान करते हो। तम्बाकू भी खायेंगे और ध्यान भी करेंगे तो मुँह तो ऐसे बढ़ेगा ही। एक और साहब आये और कहने लगे, 'माँ, मेरी अंगुली कट गयी। इसमें चोट आ गई।' 'अच्छा, सिगरेट पी रहे थे?' कहने लगा, 'हाँ।' एक और साहब की मोटर की दुर्घटना हुई। उन्होंने आकर बताया कि, 'माँ, सिर्फ यही अंगुली गयी। इसी में चोट आई क्योंकि मैं सिगरेट पीता था। तुम सहजयोग में आकर भी सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं। दुनिया भर के छेद हैं आपमें और सहजयोग का इतना बड़ा बैज आप लगा लेते हैं। तो यह बैज ही आपकी खोपड़ी तोड़ेगा। मैं बता दे रही हूँ कि बैज लगाना इतनी सरल चीज़़ नहीं है । जिस बैज को आपने लगाया है, मर्यादा विहीनता की अवस्था में यही आकर आपकी खोपड़ी तोड़ेगा। मैं न ऐसा चाहती हूँ न करती हूँ पर यह बैज कोई कम चीज़ नहीं है, एक विग्रह है। इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। मतलब यह कि इसमें से चैतन्य बहता है। वही चैतन्य घोल घुमा कर आपका गला अगर धोटे तो कहेंगे, 'माँ, मैं तो बैज लगाये सो रहा था फिर ऐसा कैसे हो गया? वो जो बैज था न वही निकल के आया और खोपड़ी तोड़ दी।' इसलिए बैज मत लगाओ-अगर लगाना है तो उसके योग्य रहो। लौकेट आदि यदि पहनना है तो पहनो पर सम्हाल के-नहीं तो मुझे दोष न लगाना कि, 'माँ मैं यह पहन कर गया था तो भी फिसल पड़ा और पैर टूट गया।' तो उससे कुछ मिला तुमको? इसको यदि पहनना है तो आपमें पात्रता होनी चाहिए। यदि वह योग्यता नहीं है तो ईसामसीह से भगवान बचाए और गणेश जी तो उनसे भी बढ़कर हैं। वो तो सदा अपने बायें हाथ में फरसा लिये होते हैं और इस मामले में मेरी कोई सुनते हैं? बैज, लौकेट, अंगूठी जो भी पहनना हो पहनो, पर बहुत ही सम्भल के रहिये। गुसलखाने आदि जाते हुए इसे उतार कर रखिये। इसे बहुत सम्हालिए, मेरे बालों को भी। मेहरबानी करके जहाँ भी मिलें वापिस कर दीजिए । क्योंकि मेरे बाल यम के दिये हुए हैं और यम इनके पीछे रहता है। मैं नहीं चाहती कि आपको कोई कष्ट हो। अत: बहुत सम्भल के रहिये क्योंकि मैं माँ भी तो हूँ, पर ये लोग तुम्हारे माँ-बाप नहीं हैं, ये तो तुम्हारे भाई लोग हैं और डंडा लिये घूमते हैं आपके पीछे-पीछे। इसलिए सहजयोगी की विशेषता को समझ लीजिए। यह परमात्मा का घर है और परमात्मा माँ नहीं है। माँ तो प्रेममयी है और बच्चों की छोटी - मोटी गलतियों को अनदेखा करती हैं। कितनी मेहनत करके आपकी माँ ने आपको सहजयोग दिया है। आपका पाँव कहाँ डगमगा रहा है? आप कौन सा गलत काम कर रहे हैं? सम्भल के रहना चाहिए। मैं यह जरूर कहँगी कि आदिशक्ति परमात्मा की शक्ति है, उनकी इच्छा है। लेकिन परमात्मा देख रहे हैं कि ये सारी मेहनत जो हो रही है, इतना नाटक जो इन लोगों ने बना रखा है, इसमें सत्य-असत्य कितने लोग हैं और उन्हें किस- किस को ठिकाने लगाना है। वो इसका हिसाब जोड़ रहे हैं। जो अच्छे हैं उनको भी कभी देखना चाहिए न, वैसा नहीं है। जो झूठे हैं उनको पकड़े बैठे हैं और सबको डंडा मारेंगे। इसलिए मेहरबानी से जो भी करना है मन से और दिल खोलकर कीजिए। हमने आपसे जो बातें बताई कि यदि आपके अन्दर अंधश्रद्धा हो, जातिवाद हो, हम हिन्दुस्तानी बहुत उँचे हैं-यह या कोई और झुठी भावना हो-तो इसमें पावित्र्य नहीं है। यह सारी भावनायें निकाल करके कृपया मेरा लौकेट पहनिये क्योंकि हर लौकेट, बैज या अंगूठी के साथ एक-एक गण लगा हुआ है आपके आगे पीछे, उतनी आपकी वो रक्षा करते हैं, उतनी ही रक्षा एक तरह से करते हैं कि आप कोई गलत काम न करें-क्योंकि वो शुद्ध 31 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-31.txt अन्दर-बाहर से जानते हैं। इसलिए आज के दिन ये भी आपके लिए चेतावनी सी हो जाती है । अगर ईसामसीह इस संसार में न आते और अपने को आज्ञा चक्र में बिठा कर तारण का मार्ग, पुनर्जीवन का मार्ग न बनाते तो सहजयोग साध्य न हो सकता। उनका आना अति आवश्यक था। लेकिन इन सब अवतरणों में आपस में कोई झगड़ा नहीं। एक जीवंत पेड़ पर इन और सब लोगों की उत्पत्ति हुई इस पेड़ को पनपाया गया और अन्त में सहस्रार पर आना हुआ इस सहस्रार से कार्य हुआ। यदि पेड़ ही नहीं होता तो सहस्रार कहाँ से आता। इस पेड़ ने ही सहस्रार बनाया है। इस पेड़ की भी जिम्मेदारी है कि सहस्रार को देखें, सम्हाले और इसकी पूरी रक्षा करे और इसके विरोध में जाने वालों को ठिकाने लगाये| तो आज का दिन आप लोगों के लिए समझने का है कि अगर ईसामसीह नहीं आते तो हम लोगों का पुनर्जीवन (रिजरक्शन) न होता। श्री गणेश से प्रार्थना की जाती है कि हमारे मोक्ष के समय हमारा रक्षण करें। मोक्ष के समय वे साक्षात आज्ञा चक्र पर पधारते हैं और आपका रक्षण करते हैं। इसलिए आज का दिन हम सबके लिए बड़ा शुभ है। बहुत प्रसन्नता देने वाला है और इसी तरह चेतावनी भी देता है कि सम्भल के रहिये। यदि आज्ञा चक्र पर आप पिछे रह गये तो पागलखाने में चले जाएंगे या कोई और बीमारी हो जाएगी। आज्ञा चक्र की पवित्रता रखनी चाहिए यानि कि हमारे विचार हमेशा पवित्र होने चाहिए। अपवित्र विचार यदि आ जायें तो उसको क्षमा कर देना चाहिए। जैसे-जैसे आपकी उन्नति होगी आपके अन्दर अपवित्र विचार आयेंगे ही नहीं । सहजयोग सिर्फ आपके आनन्द, आपकी महानता, आपके गौरव और आपकी पूर्ण प्रगति के लिए बना हुआ है। लेकिन इस महान कार्य में पूर्ण हृदय से संलग्न लोगों के साथ जो सहयोग न देंगे उन पर आफत भी आ सकती है। पूर्ण हृदय से आपको कार्य करना चाहिए। कुछ लोगों में कंजूसी की बीमारी भी मैं देखती हूँ। कंजूसीपना कर रहे हैं। किसी तरह चार रूपये यदि बचते हैं तो बचा लो। चार रूपये की बचत आप करेंगे तो आपके कम से कम चार सौ रूपये जाएंगे। सहजयोग में दिया हुआ एक रूपया भी लाख रूपये के बराबर हो सकता है। ये बात मैं आपसे कह रही हूँ। हमें सोचना है कि हम कुछ नहीं दे रहे हैं। सब कुछ माँ का ही है। माँ का माँ को दे रहे हैं। और हम तो कुछ लेते नहीं है। आप तो जानते हैं कि सुबह शाम झगड़ा हो रहा है कि हमको कोई चीज़ नहीं चाहिए, हमें साड़ियाँ मत भी चीज़़ नहीं चाहिए हमको। लेकिन सहजयोग के लिए तो पैसा लगता है। लेकिन यहाँ तो लोग हैं जो में दो। सुबह से शाम तक पाँच साल से झगड़ा चल रहा है कोई सुनता नहीं है। कुछ मुफ्त खाना बड़ी मर्दानगी समझते हैं। बाद में उनके पेट में यदि शिकायत हो जाय तो मैं इसके लिए जिम्मेदार नहीं हूँ। यह जगह भिखारियों के लिए नहीं, रईसों के लिए है। तबीयत- तबीयत 32 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-32.txt चाहिए। राजा की तरह आपकी तबीयत है तो आइए । कोई जरूरी थोड़े है कि आपके पास पैसा होना चाहिए। बहुत से पैसे वाले महाकंजूस होते हैं और बहुत से मेरे जैसे गरीब उनको देते रहने में ही मजा आता है। एक हाथ खुलने पर यदि दूसरा हाथ खुलेगा तभी दूसरे हाथ से आएगा नहीं तो वहीं पर रूक जाएगा। इसलिए कंजूसी की बातें सुनकर मुझे बहुत घिन चढ़ती है। उस दिन का नज़ारा मुझे बहुत अच्छा लगा जब कुछ नहीं रहा तो मेरे फोटो ही लोगों ने बड़े प्रेम से लिए। माँ, हमें फोटो दे रहे हैं। सब आए, बड़ा अच्छा लगा। तो समाधान पहले आना चाहिए। ईसामसीह सा त्याग तो कोई नहीं कर सकता पर समाधान के बाद त्याग को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। थोड़ी सी तकलीफ हो जाएगी। लेकिन बहत बड़े महान कार्य जो पड़े हैं जिन्हें हम अपने लिए ही नहीं सबके लिए कर रहे हैं। अगले साल मैं सबकी लिस्ट मंगाऊंगी। मैं देखना चाहती हूँ, खास कर बम्बई वालों की यह शिकायत है कि वो पैसा देने से बिल्कुल इन्कार कर देते हैं। बम्बई में महालक्ष्मी का मंदिर है। क्या फायदा उस बेचारे मंदिर का जहाँ महालक्ष्मी स्वयं ही जमीन से ऊपर आ गई। वहाँ के लोग इस कदर कंजूस हैं कि वे भी पैसा नहीं देना चाहते, सोचते हैं सब तो माँ कर ही रही है। आराम से रहो, बस मजा आ रहा है। ऐसे तो सब हो ही जाएगा चाहे वो पैसा दें चाहे न दें। लेकिन उनका क्या होगा यह सोच लेना चाहिए। महालक्ष्मी तत्व | कुछ तभी जागृत होता है जब हम अपने अन्दर समाधान प्राप्त कर लेते हैं, लक्ष्मी-तत्व जब पूरा हो जाता है और हम सत्य को खोजने लगते हैं। अगर आपमें समाधान नहीं है तो आप महालक्ष्मी के तत्व में उतर नहीं सकते। देखिये सीता जी का जीवन प्रभु रामचन्द्र जी के साथ कितना दिव्य है, राधा जी का जीवन और उनके बाद ईसामसीह की माँ का जीवन तीनों में कितना त्याग है। बगैर महान समाधान के ये हो ही नहीं सकता। महालक्ष्मी तत्व से तो मनुष्य समाधान हो जाता है, इस तत्व से वो सत्य को ढूंढता है और सत्य को ढूंढते हुए असत्य को छोड़ता जाता है। तो आज के इस महालक्ष्मी पूजन में जहाँ कि ईसामसीह और उनकी माँ मैरी को भी पूज रहे हैं, हमको समाधान में उतरना चाहिए। सांसारिक तथा भौतिक चीज़ों से जब हमारे अन्दर समाधान आ जाता है तभी महालक्ष्मी का तत्व हमारे अन्दर जागृत हो जाता है। फिर महालक्ष्मी तत्व, लक्ष्मी तत्व को संवारता है और लक्ष्मी तत्व अपने आप बनने लग जाता है, अपने आप कार्यान्वित हो जाता है, अपने आप इसका लाभ दे देता है। अपने आप सारी चीज़ें बन कर खड़ी हो जाएंगी। | तो कहना यह है कि अपने दिल को बड़ा करें, दिल बड़ा करें और दिल के अन्दर उस ओंकार को बसायें, उस आत्मतत्व को बसायें, ईसामसीह को, श्री गणेश को बसायें जिनके कारण हमारे बिगड़े काम ठीक हो जाएंगे। आपको मेरे ऊपर अधिकार आ जाए क्योंकि उन लोगों के बगैर मैं आपको अधिकार नहीं दे सकती। कुण्डलिनी के जागरण में भी जब तक मूलाधार से आज्ञा नहीं आती है, जब 6. 33 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-33.txt तक मूलाधार में बैठे गणेश जी हाँ नहीं करते हैं, मैं क्या कोई भी कुण्डलिनी को जगा नहीं सकता। उनके अधिकार अपने हैं। अगर कोई सोचता हो कि हम माँ के बहुत नजदीक हैं तो ये समझ लें कि अगर वो नजदीक हैं और वास्तविकता में नजदीक हैं तो यह भी श्री गणेश जी की ही इजाजत से हो रहा है, ईसामसीह की इजाजत से हो रहा है। उनकी इजाजत के बगैर मैं किसी को नहीं मान सकती। यह एक बन्धन है हम पर। इसलिए मैं बार-बार कहती हूँ कि सम्भल के रहिए, उनके बन्धन को मानना ही पड़ेगा। ये जो भी आपके बारे में सोचते हैं उसकी ओर मुझे जरूर देखना पड़ता है। मैं कितना भी माफ कर दें, माँ की दृष्टि से कुछ भी कह दूं लेकिन इनके आगे मैं हारी हुई हूँ। यह भी जान लेना चाहिए कि ये लोग स्वयं आपकी मदद के लिए हैं, आपको स्वच्छ करने वाले हैं, आपके लिए सबकुछ करने वाले हैं। पर एक चीज़ की इनको उम्मीद नहीं 'मैं निर्वाज्य हूँ।' मैं आपसे कुछ नहीं चाहती हूं, लेकिन अगर आपने मेरे प्रति कोई गलत बात कही या की, या सहजयोग में किसी तरह का ओछापन आपने किया, या किसी तरह की ठगी की तो ये आपके १ पीछे पड़ जाएंगे। इसलिए मैं बार-बार आपसे कह रही हूँ कि आज के शुभ अवसर पर हमें ये जानना चाहिए कि हमारे साथ कितनी बड़ी शक्तियाँ खड़ी हुई हैं। क्यों न हम उस शक्ति को स्वीकार करके शहंशाह जैसे रहें ? क्यों हम छोटे से बन कर रहें? जब हमारे पास इतना बड़ा सिंहासन है तो हम शान से सिंहासन पर बैठे, शान से रहें। अब आप सहजयोगी हो गये हैं। योगीजन हैं, बहुत बड़ी चीज़ है । इतने योगी कभी हुए थे? आरै इतने योगी इस गणपतिपुले में आए हैं जहाँ पर कि महागणेश बैठे हैं। इन महागणेश के परिवार में हम लोग यहाँ आए हुए हैं। इनके इस प्रांगण में हम आ पहुंचे हैं और इनके आशीर्वाद से हमारे अन्दर उन्हीं के जैसी महाशक्तियाँ आ सकती हैं। हुए पर सबसे पहले शक्ति को भी सहन करने के लिए उनकी पवित्रता होनी चाहिए, उनकी भक्ति होनी चाहिए। जिस तरह उनकी भक्ति नि:स्वार्थ है । हमारी भक्ति भी अगर वैसी ही हो जाये तो वे आपके चाकर बन कर आपको सम्भाले रहते हैं। यदि आप उल्टे तरह से चलें तो आपकी हानि भी कर सकते हैं। एक सूझबूझ की बात में समझा रही हूँ क्योंकि एक माँ को ऐसा लगता है कि ये मेरे बड़े प्यारे बेटे हैं और इनसे आप लोगों का लाभ ही होना चाहिए। ये भी लगता है कि कहीं ये तुम लोगों के कान न पकड़ लें। इसलिए आप लोगों को यह भी समझा रही हूँ कि जब इतना सुन्दर समागम हम लोगों ने बिठाया है, इतने सुन्दर परिवार के लोग यहाँ आ गये हैं तो ये जो आपके बड़े भाई लोग हैं इनको आप लोगों को थोड़ा सा मानना पड़ेगा। इनकी पूजा करके यदि आप इन्हें खुश कर लें तो बड़ा अच्छा रहेगा। परन्तु हम जानते हैं कि यह जल्दी खुश नहीं होते। हममें जब तक अन्दर की स्वच्छता नहीं होगी ये खुश नहीं होंगे। इसलिए स्वच्छ हृदय से आज प्रण कीजिए कि सब तरह की क्षुद्रता तथा ओछापन हम त्याग देंगे और इनकी महानता और शुद्धता की ओर नजर करके इन्हें अपना आदर्श मान कर अपनी जिन्दगी बनायेंगे। यह करने से हमारा लाभ ही लाभ है। आपको अनन्त आशीर्वाद हैं हमारे। आप लोग इतने प्यार से यहाँ आये। माँ आपको धन्यवाद तो नहीं कह सकती। पर यही है कि मेरा हृदय भरा हुआ है और इस हृदय में आप सन्त समाये हुए हैं। मैं आपसे अत्यन्त प्यार करती हूँ। नितान्त प्यार से मैं आपको देखती हैँ। हमेशा आपकी रक्षा के विचार में रहती हूँ, आपके प्रति मेरा पूरा चित्त है, तवज्जो है । किसी भी प्रकार की तकलीफ हो आप मुझे लिख सकते हैं। पर आप स्वयं स्वच्छ हो जाएं, शुद्ध हो जाएं और मंगलमय हो करके इस आनन्द को अनन्त तक भोगें। ० 34 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-34.txt NEW RELEASES Title ACD | ACS Date Place Lang. VCD DVD सार्वजनिक प्रवचन 12h Apr.1995 318 Kolkata Н 12-14" Mar.2010 th 319* Shiv Puja - Part I & II Cabella th Virat Viratangana Puja Los Angeles 320 10" Oct.1993 72 E 16 Aspects of Shri Krishna 481 E 3rd Sep.1973 242* आत्मसाक्षात्कार का अर्थ 242 Mumbai Н सार्वजनिक प्रवचन 9th Dec.1973 480° Н 321* Shri Virat Puja st 21* Nov.2010 Noida P + प्रकाशक * निर्मल ट्रांसफॉर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हौसिंग सोसायटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन: ०२०- २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in 2010_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-35.txt ३६ र१ क ১৭ ३ ১ नव वर्ष के इस दिन यह शपथ आपको लेनी हैं कि अब हम सहजयोग को नए, विशाल एवं গুधिक गतिशील तरीके से आरम्म करेंगे। ১ नव वर्ष पूजा, केलवे, ३१.१२.२००० डी ्ाी ॐ वह Wा