हिन्दी जनवरी-फरवरी २०११ २ र ७ है प का ला ... ती आप मुझे कहीं भी देख पाओीगे। आप किसी रस्ते (गली) से जी रहे होंगे और अचानक से आप पाओगे कि श्री माताजी आपके साथ चल रही हैं। ती ये (सहजयोग का) दूसरा युग शुरू ही चुकी है। और आप लोगों को आचम्भित नहीं होना चाहिए, अगर में आपके बिस्तर पर बैठकर आपके सिर पर हाथ घुमाते हुए दिखूं या फिर आप मुझे ईसी-मसीह के रुूप में आपके कमरे में चलकर आते हुए पी सकते हो। या फिर श्री राम के रूप में पा सकते हो । ये ती अब होना ही है। तो इसके लिए आपको तैयार रहना है । ५ मई १९८४ NNNN ब 0000 Iमिस इस अंक में भारतवर्ष - ऐक योगभूमि ... ४ ल VAVM राN] VNNN ENNN तिलांजली : तिल की अंजली ...२२ बब SVAMM MVN ा दे महाशिवरात्री पूजा ...२८ अन्य.... संगीत एवं सहजयोग...२६ ঢ UUUট হ आज सबेरे मैंने आपसे बताया था अंग्रेजी में कि परमात्मा ने हमें जो बनाया है, आप इसे माने या न माने, उसका अस्तित्व आप समझे या न समझे वो है। और उसने हमें जिस प्रकार बनाया, जिस तरह से बनाया है वो भी एक बड़ी खूबी की चीज़ है। मैंने सबेरे बताया था कि कैसे बहुत थोड़े से समय में एक अमीबा जैसे प्राणी से मनुष्य बनाया गया। और आप को मनुष्य बनाया गया सो क्यों? और आगे इसका क्या होने वाला है या ऐसे ही भटकता रहेगा? मैंने बताया कि आपको भगवान ने स्वतंत्रता दे दी है। चाहे तो आप परमात्मा को पायें और चाहे तो आप शैतान के राज्य में जायें। ये आपकी स्वतंत्रता है। इसके लिए कोई भी आप पर, कोई भी आप पर परमात्मा का बंधन नहीं। अगर आप गलत रास्ते जाएंगे तो आप पर वहाँ के जो कुछ भी कृपायें हैं वो होंगी। और जो आप सही रास्ते जाएंगे तो सही रास्ते का जो भी आशीर्वाद है वो आपको मिलेगा। गलत और सही जानने के लिए भी बहुत बड़ी-बड़ी हस्तियाँ संसार में आयीं, थे। उनको हम 'अवतार' कहते हैं, अवतरित हैं। बड़े-बड़े गुरु इस संसार में आयें जो असली गुरु वो जब भी आये उन्होंने सही रास्ता, धर्म का रास्ता बताया कि आप कायदे से रहिये, बीचो-बीच रहिये, अति न करिये। धर्म के नाम पर जब - जब कोई-कोई संकट आये और जब ये देखा गया कि संसार से मनुष्य नष्ट होने को आया है तब-तब संसार में ये अवतार हये हैं। अब इन अवतारों को संसार में आ कर के जो कार्य करना था वो उन्होंने किया। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो अवतार हये और खत्म हो गये। उनका भी अपने अन्दर निशान बना हुआ है। उनके भी अपने अन्दर माइलस्टोन्स बने हये हैं, उनका भी चित्र हमारे अन्दर बना हुआ है। वो भी हमारे अनेक, जो-जो हमारी प्रगति होती गयी उसके रास्ते पर अलग-अलग जगह अपने-अपने मन्दिर बना कर बैठ गये। हम सोचते हैं कि गुरुनानक आये, आज ही मैं गलती से उस रास्ते से चली गयी थी। उनका प्याऊ देखा तो एकदम इतनी वहाँ चैतन्य की लहरियाँ बह रही थी, इतना आनन्द आया उस जगह को देखकर। तो क्या गुरुनानक संसार में आये और बस वहाँ प्याऊ मात्र किया और चले गये! बिल्कुल भी नहीं। वह इतनी बड़ी हस्ती थी कि वह हमारे अन्दर अपना घर कर गये। हमारे अन्दर सेमिनार, १०/३/१९७९ एक योगभूमि भारतवर्ष उनका एक स्थान है। गुरुओं का हमारे अन्दर जो स्थान है, उसी तरह उन्होंने ये सब कुछ बनाया है। कल मैं आपको सब बारीकी में बताऊंगी कि ये सारे लोग जो अवतरित हये हैं उनका हमारे अन्दर कहाँ-कहाँ स्थान है और किस तरह से वो हमारी चालना करते हैं। अगर परमात्मा ने हमें इतने सुघटिती से बनाया है, जैसे मैंने बताया कि एक आँख को देख लीजिए । क्या कमाल की चीज़ बनायी ! अगर उसके अन्दर वाकई में हमारे ऐसी चीज़ें बना दी हैं कि जिनकी वजह से हम चलते, बोलते, खाते-पीते और संसार की सारी क्रियायें करते हुए भी परमात्मा का चिन्तन करते हैं । तो ये जरूर है कि उसने कोई न कोई ऐसी चीज़ हमारे अन्दर रख दी होगी जिसकी वजह से हम उसको जान सके। उसी तरह की चीज़ हमारे अन्दर है, पूरी तरह से हमारे अन्दर है। लेकिन उसके मामले में जो भी लिखा गया है, जो कुछ भी कहा गया है, लोग उसे या तो सोचते हैं बकवास है, या झूठ है और या उसे इस्तमाल करके उसका दुरूपयोग करते हैं। उससे लोग पैसा बनाते हैं, रुपया बनाते हैं, कहते हैं, 'हम आपको भगवान से मिलायेंगे। ये तरीका भगवान को मिलाने का है, वो तरीका भगवान को मिलाने का है। आपकी जितनी श्रद्धा हो उतना हमें दे दीजिये।' और इस श्रद्धा के नाम पर आपको नोचते- खसोटते रहते हैं। जो धर्म हमारे अन्दर बसा हुआ है, उसको इन्होंने लाकर बाहर बसा दिया। और उस पर रुपया, पैसा बनाने लग गये। तो आज के जो बच्चे हैं, जो पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी बच्चे हैं उनको शंका होने लगती है कि ये धर्म-धर्म होता क्या है? धर्म के नाम पे तो नोच-खसोट, मारा- मारी, और हर तरह की जैसे लूटमार, बड़े से बड़े चोर-डाकू भी जो काम नहीं करेंगे ऐसे काम ये धर्म के नाम पर करते हैं। तो ऐसे धर्म पे विश्वास करना चाहिए या नहीं करना चाहिए? और यही समा सबसे अच्छा है जब कि सहजयोग आपके सामने आ गया है। मैंने कल कहा था कि धर्मान्धता एक तरफ और दूसरी तरफ अविश्वास बीचो-बीच सहजयोग का दर्शन होना जरूरी था। और इसलिए यह समय ऐसा आ गया है कि आप इसे पा लें, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। अपना भारतवर्ष, एक योगभूमि है ऐसे बहत से लोग लेक्चर देते हैं। खास कर के जो राजकारण में हिन्दू धर्म को संस्थापन कहते हैं। मुझे तो हँसी आती है। इनमें से कितने लोगों को हिन्दू धर्म क्या है ये भी मालूम नहीं है । वो ये भी नहीं जानते कि हमारे ऋषि- मुनियों ने मनन कर के कौन सी चीज़ की खोज लगायी थी, कौनसी चीज़ का पता लगाया था, वो भी नहीं मालूम। हमारा देश एक विशेष तरह का देश है। देखिये यहीं पर एक छत मात्र है, चारों तरफ खुला हुआ है। इस वातावरण में बैठ कर के आप हमारा लेक्चर सुन रहे हैं। परदेश में जहाँ हम रहते हैं, लंडन में, ऐसे अगर आप दस मिनट भी कहीं बैठ लें तो शर्त हो जाए। हर समय बरसात, हर समय आफत, हर समय कड़ी सी कड़ी ठण्ड, जिसमें आदमी चल भी नहीं सकता। एक तरह के निसर्ग के कोप में रहने वाले देश हैं। वहाँ चलना-फिरना भी मुश्किल है। अगर आप घर से निकलिये तो आपको आधा घण्टा तो तैयार होने में लगेगा। जूते पहनिये, मोजे पहनिये, उपर से लबादे डालिये, सर ढकिये, अगर आप वैसे ही बाहर चले जायें तो हो गया आपका खात्मा। ऐसे देशों में जो लोग पैदा हये थे उनको पूरी समय नेचर से आवाहन लेना पड़ता था। निसर्ग का उनके उपर चैलेंज है। और उस चैलेंज की वजह से, उस आवाहन की वजह से उनकी दृष्टि बाहर की ओर गयी। उन्होंने सोचा कि 'भाई, घर कैसे बनायें कि जिस में बिल्कुल भी सर्दी न लगे? वाहन कैसे बनायें जिससे इधर -उधर जाते हो जिसमें बारिश की तकलीफ न हो।' नहीं तो उसकी नुकीली चोट खा जाती है इन्सानों को। हम लोग बड़े भाग्यशाली हैं, आपको पता नहीं कि हमारी जो आबो-हवा है, इन्सान अगर संन्तोषी हो तो एक पेड़ के नीचे भी आराम से रह सकता है, जंगलों में भी रह सकता है। खाने-पीने को शस्य-श्यामला भूमि है। हम ये नहीं जानते कि हमें खाने- पीने का इस देश में कितना आराम है। उन देशों में एक भी चीज़ आपको पेड़ की लगी हुई खाने को नहीं मिलेगी। सब टीनों में ड्राली हुई, पता नहीं कहाँ से, कितने वर्ष पहले चली हुई मिलती है। याने यहाँ तक कि मछलियाँ भी आस्ट्रेलिया जैसे देशों से, न्यूजीलैण्ड जैसे देशों से आती है। आप सोच लीजिए कहाँ वो कहाँ ये। और यहाँ पर आपको इतनी चीज़ें उपलब्ध हैं, उन देशों में नहीं है। जैसे कि एक सिल्क का कपड़ा अगर वहाँ पे आप दिखायें तो लोग सोचते हैं कि आपसे रईस और कोई नहीं होगा। अगर कॉटन आप पहनते हैं तो लोग सोचते हैं कि आप इतने रईस हैं कि कॉटन आप कैसे पहन लेते हैं। वहाँ तो हर समय आप नाइलॉन ही पहनिये, उसके सिवा आप कुछ पहन ही नहीं सकते। और कॉटन भी पहनते तो उसमें भी नाइलॉन मिला रहता है। क्योंकि वहाँ इतना महंगा है, कॉटन पहनना कि लोग तरसते रह जाते हैं। वहाँ की वायल अगर आपको बताऊं, अभी भी वायल वहाँ पर मैंने देखी थी, जो करीबन दो सौ रुपये गज थी । इसमें की हम दो 6. सौ रुपये में अच्छी साड़ी यहाँ की वोयल ही लें, दो सौ तो बहत हो गये। ऐसे देश में यहाँ की इस तरह की उपलब्धियाँ नहीं है, यहाँ आदमी आसानी से नहीं रह सकता। ऐसे देश में लोगों का बाहर जाना, और बाहर की निसर्ग की व्यवस्था करना बिल्कुल ही जरुरी है। उसके बगैर वो रह नहीं | सकता। वहाँ कोई रह नहीं सकता इस तरह से कि जैसे आप रहे हो। लेकिन आपका देश ऐसा नहीं है। आपका देश परमात्मा ने विशेष रूप से बनाया होगा। यहाँ | आप रात को चाँद-सितारे देख लेते हैं। सबेरे सूरज देख लेते हैं। वो लोग तो सूरज देखने को तरसते हैं। ऐसे-ऐसे अजीब देश हैं वहाँ छ:-छ: महिने सूरज ही नहीं आता । तो इस बढ़िया देश में, यहाँ के मनुष्य को रोजमर्रा के जीवन के लिए कोई बड़ी तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं है। ऐसे देश में लोगों ने परमात्मा की ओर ध्यान दिया और सोचा कि ये जो सृष्टि बनायी गयी है और जो हम भी बनाये गये हैं इसका बनाने वाला कौन है? किसने बनायी होगी? और वो कौनसी शक्तियाँ हैं जो अंतर्हित है, जो इसके अन्दर, करंट से जो उसको चलाता है। और उन्होंने मनन शक्ति से इसकी खोज की। और उन्होंने पता लगाया कि हमारे अन्दर परमात्मा की प्रचंड शक्तियाँ हैं। हमारे अन्दर परमात्मा का प्रतिबिंब है, जिसे हम 'आत्मा' कहते हैं। और ये जो आत्मा है, इसको जब मनुष्य पा लेता है, जब आत्मा से संबंधित हो जाता है तो उसकी प्रचंड शक्तियों के द्वार खुल जाते हैं। और फिर उसके हाथ से परमात्मा की दैवी शक्ति बहने लग जाती है और वो भी दैवी हो जाता है। पुरुष इस पे जितना काम इस देश में हुआ है और हजारों वर्ष पहले उतना कहीं भी नहीं हुआ है। इसलिए अपने देश को योगभूमि कहते हैं। आपको धन्यवाद देना चाहिए परमात्मा को और सोचना चाहिए कि आपकी भी कोई पूर्व जन्म की सम्पदा होगी जो आप इस भारतवर्ष में पैदा हो गये। अब यहाँ की, जरूर आप कह सकते हैं कि यहाँ की बिजली ठीक तरह से नहीं चल सकती या कह सकते हैं कि यहाँ की बसे ठीक तरह से नहीं चल सकती, यहाँ की ट्रैम ठीक तरह से नहीं चलती। वो मनुष्य की बनायी हुई व्यवस्था है, वो अजीब सी है। हो सकता है कि वहाँ की कुछ अच्छी हो गयी हो। लेकिन जो अन्दर की व्यवस्था, सर्वव्यापी व्यवस्था है, सर्वव्यापी शक्तियाँ हैं वो इतनी ज्यादा तो एफिशियन्ट है कि जब उसको आप पा लेते हैं, यहाँ बैठे-बैठे आप काम कर लीजिए सारे, आपको कहीं जाने की जरूरत ही नहीं , किसी से बातचीत करने की जरूरत ही नहीं। यहीं बैठे - बैठे सबको टेलिफोन कर लीजिए। अब आपको सुनकर आश्चर्य होगा लेकिन जैसे समझ लीजिए कि इस जगह आपको कोई चित्र तो दिखायी नहीं दे रहें हैं। इंग्लैण्ड में क्या हो रहा है वो दिखायी तो नहीं दे रहा है, जपान में क्या हो रहा है कुछ दिखायी नहीं दे रहा है लेकिन यहाँ जो हो रहा है वो सब दिखायी दे रहा है। अगर आप एक टेलीविजन लगा दीजिए तो आप उसमें सब देख सकते हैं। उसी 8. प्रकार जब आप भी एक यन्त्र हो जायें टेलिविजन के जैसे और उस सर्वव्यापी शक्ति से एकाकार हो जायें तो आप भी यहीं बैठे-बैठे कार्यान्वित हो सकते हैं। और बहत इफिशियन्ट कार्य में पड़ सकते हैं। आपसे ऐसे-ऐसे कार्य हो जाएंगे कि आपके समझ में नहीं आयेगा कि आपने ये काम कैसे कर लिया। आप हर एक चीज़ में अपना प्रभुत्व जमा सकते हैं। एक तरीका है कि मशीन से आप सब चीज़ें चला लीजिए। मशीन से, आप सोचते हैं कि आपने पंचमहाभूत तत्वों को जीत लिया है। नहीं जीता है आपने, इतना कि एक मननशील व्यक्ति जीत सकता है। अगर मननशील व्यक्ति चाहे तो आकाश में बादल खड़े कर दे। अगर चाहे तो हवा चला दे। अगर चाहे तो ठण्डक कर दे, चाहे गर्मी कर दे, चाहे सूर्य को बुला दे सब चीज़ कर सकता है। पाँचों तत्वों को वो अपने हाथ में ले सकता है। इन शक्तियों को जब वो जान लेता है और इन शक्तियों को जब जागृत करने की शक्ति उनमें आ जाती है, जब वो अपने सूत्र पर जा कर के और उनके भी सूत्र पर चला जाता है, जब अपने प्रिन्सीपल को भी जान कर के उनके भी प्रिन्सीपल पर चला जाता है तो हर चीज़ को कंट्रोल कर सकता है। वो हर चीज़ को बना सकता है। अब यही जगह है, आप नहीं जानते हम जब पहली मर्तबा आये थे तो एकदम बंजर बस्ती थी, एकदम उजाड, यहाँ आफत मची हुई थी। जब मैं यहाँ आयी तो लोग कहने लगे, 'ये तो भयानक जगह है माँ।' मैंने कहा 'क्यों?' कहने लगे कि, 'यहाँ तो भूत घूमते हैं रात में। कुछ लोग मर गये। यहाँ रात में कोई किसी पे डाका डाल देता है। कुछ समझ में नहीं आता है ये ऐसी बंजर बस्ती है, इसको क्या करें। इसके लिए कोई इलाज आप कर दो। यहाँ इतने गंदे-गंदे लोग अन्दर आते हैं। सब रात में यहाँ परेशान करते हैं मानो जैसे कि यहाँ कोई भूतों का राज हो । आ कर के ये आपको मैं बता बहुत दूँ-पाँच-छः साल पहले की बात होगी ज्यादा से ज्यादा, या सात साल पहले की बात। तो मैंने कहा, 'अच्छा, ठीक है, आप ऐसा करो कि तीन नारियल लेकर आओ।' अब देखिये कितनी सीधी सी चीज़ है। तीन नारियल मँगवायें और कुछ खास काम नहीं किया और उस नारियल को मैंने जागृत किया, बस, कर सकते हैं आप उसके अन्दर वाइब्रेशन्स दे दीजिये। उसके अन्दर वाइब्रेशन्स आ गये तो हो गये जागृत। अब ये वाइब्रेशन्स जो हैं, ये सोचते हैं और ये चलते हैं, आक्रमण करते हैं, ये अंकुश-पाश आदि सब रखते हैं। सारी देवी की शक्तियाँ इनके पास होती है। और इससे जो भी कार्य करना है करते रहे। वाइब्रेट करके हमने कहा, 'अच्छा तीन आप यहाँ पर ये नारियल लगवा दीजिए।' उस दिन से धीरे धीरे यहाँ से भूत लोग भागना शुरु हो गये। आज बता रहे थे भटजी 'यहाँ पर भी एक-दो ऐसे आते हैं, फिर पता नहीं क्यों उल्टे पाँव भागते हैं। अन्दर नहीं घुसते।' उनको पता रहता है क्योंकि जो उनके अन्दर भूत होते हैं उनको पता होता है कि ये क्या 9. चार्य ने न करती है। चीज़ है। अब इसका मैं बहुत ही साइंटिफिक आपको मैं बताऊंगी। जो वाइब्रेशन्स के बारे में आपको मैं कह रही थी, जो आज हाथ से बह रहे थे आपके, इनकी महत्ता बतायें ! राहरी करके एक बड़ा भारी कृषि अनुसंधान संस्थान है यहाँ। जहाँ पर एक बड़ा भारी विद्यापीठ है, बहुत बड़ा, इससे कम से पच्चीस मील के घेरे में बना हुआ, बहुत सुन्दर है वहां पर कम दस गुना बड़ा होगा, बहुत बड़ा। विद्यापीठ। और उस विद्यापीठ में बड़े चुने हुए लोग काम करते हैं। इस राहरी के विद्यापीठ में बड़े- बड़े शोधक, जिनको कहना चाहिए कि सहजयोगी, वहाँ के प्रोफेसर्स थे । वो हमारे पास आयें और हमसे कहने लगे कि, 'माँ, राहुरी में इस कदर दंगा-फसाद होता है, इस कदर मारा-मारी होती है, कुछ समझ में नहीं आता क्या करें। बड़ी आफत है यहाँ पर, पता नहीं कैसी इतनी बड़ी गंदी -गंदी शैतान की जैसी गंदी भूमि हो गयी है और हर तरह का प्रश्न बना हुआ है। कैसे इसको ठीक करें।' मैंने कहा, 'कुछ नहीं, फिर से तुम तीन नारियल ले आओ | उसको हम वाइब्रेट कर देते हैं ।' वाइब्रेट करने का मतलब है कि उसके अन्दर प्यार के वाइब्रेशन्स डाल दें। प्यार की शक्ति को आज तक किसीने आजमाया ही नहीं है। सब जो है हेट्रेड की शक्ति का इस्तेमाल करते हैं । | प्यार की शक्ति जो कि यह चैतन्य की लहरियाँ हैं इसे आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी के नाम से बताया हुआ है, जो कि सारे संसार का चालन करती है। मैंने बताया हुआ है कि सबसे पहले परमात्मा ने पावित्र्य को बनाया है। इस पवित्र प्रेम, जिससे कि सारी सृष्टि का संचालन होता है, उसकी शक्ति को किसीने जाना ही नहीं, ना उसका इस्तमाल किया। हमारी जितनी भी राजकीय संस्थायें हैं, सब जो है नफरत पे बसी हुई है। अगर वो जाने कि हमारे अन्दर कितनी प्रेम की शक्ति है तो सारे युद्ध वरगैरा खत्म हो कर के संसार में सुबत्ता आ जाये। अब आपसे मैं बता रही थी किस्सा 'प्रेम की शक्ति का' । तो वो ये तीन नारियल हमारे पास ले आये और कहने लगे कि, 'माँ, इसको कुछ कर दीजिये। यही हम वहाँ गाड़ देंगे हमारे गार्डन में।' मैंने कहा, 'अच्छा, ठीक है।' उनको वही तीन हमने वाइब्रेट कर के दे दिये। अब देखिये यही चैतन्य की शक्ति उसमें भर दी गयी है और उन्होंने जा कर के ये नारियल वहाँ गाड़ दिये। उसके बाद वहाँ कुछ गलती से उसके उपर एक सीढ़ी भी बन गयी। किसी ने सीमेंट डाल दिया। कुछ दिनों बाद हमने देखा कि वो सीमेंट सब टूट गया 10 और उसके अन्दर से तीन पेड़ निकल आयें। अब वो जगह ऐसी है कि वहाँ पर नारियल का पेड़ उगता ही नहीं । दूसरा ये कि सूखे वाले नारियल थे, बिल्कुल सूखे हुये। वो सूखे नारियल मुझे ला के दिये उन्होंने, जो कि कहीं भी नहीं उगते । वो भी वहाँ उग आये और उसके अन्दर से तीन पेड़ निकल आयें। और जब इन तीन पेड़ों की ओर हाथ कर के देखा गया तो उसमें से वाइब्रेशन्स आ रहे थे। उसके बाद आज वही यूनिवर्सिटी, जिसमें इतने दंगा-फसाद और इतनी आफत मची थी, आज बहुत सुन्दर तरिके से चलने लगी। उन तीन नारियल की वजह से। उन लोगों से आप जा कर पूछ सकते हैं कि ये बात सही है या नहीं। पहली मर्तबा जब आदमी परमात्मा को पाता है, जब उसके अन्दर से आत्मा का स्पन्दन बहता है तो पहली मर्तबा वो निसर्ग को कुछ देता है। हर समय हम निसर्ग से लेते रहते हैं। हम उसको दे नहीं पाते। पहली मर्तबा चैतन्य उसे दे कर के और जागृत कर सकता है। मनुष्य कुछ इसका एक और उदाहरण बतायें हम कि एक साहब थे, उन्होंने बहुत सा गेहूँ मुझ से वाइब्रेट करवा लिया और उसको बोया एक खेती में। वो भी उन्हीं, ये भी एक अनुसंधान संस्था है और गवर्नमेंट की रेकगनाइज्ड मतलब गवर्नमेंट की संस्था है। और जिसमें बड़े-बड़े संशोधक और शास्त्रज्ञ हैं। उन्होंने वो गेहूँ बोये और बो कर के उसका जो गेहूँओं का दाना आया, तो एकदम मोती के दाने जैसा और इतना सुन्दर और इतना चमकता हुआ, एक अजीब तरह की उसकी रौनक थी। उस गेहूँ उन्होंने बोरो में भर कर क्योंकि वो भी दस गुना आया। पहले आता था उससे दस गुना आया। उसके बाद उस गेहूँ को बो कर के उन्होंने जब उसको देखा कि कितना ज्यादा बच गया है। उन्होंने उसमें से सोचा कि कुछ इसमें से गेहूँ बीज के लिए रख दिया जाए। उसके बोरे बना कर के उसको गोडाऊन में रख दिया। और उसमें किसी तरह से चूहों का बड़ा प्रकोप हो गया। बता रहे थे मुझे कि, 'वहाँ पर ये जो खल्ली जिसे कहते हैं वो भी रखी हुई थी वो सब इन चूहों ने खायी, पर ये जो बोरे रखे हुए थे उनको एक छेद भी नहीं किया । वो चूहें तक समझते हैं कि दिव्य क्या चीज़ है! लेकिन आज कल हम इस कदर कृत्रिम हो गये हैं, इतनी कृत्रिमता से हम रहते हैं, इतना आर्टिफिशियल हम लोग हो गये हैं कि आपको दिव्य और दुष्ट में कुछ फर्क नहीं समझता। राक्षस और दैवी प्रवृत्ति दोनों में कुछ समझ में नहीं आता है। आपने पूछा था कल, मैंने कहा था, यहाँ। सब कन्फ्यूजन में हैं। किसीकी समझ में नहीं आता। सब भ्रम में बैठे हैं कि कौन राक्षस है और कौन दिव्य! ये आज 11 ম क ै क ा ह हमारी हालत हो गयी है। इस कदर हम अपनी मनुष्यता से भी गिर गये हैं कि जिसकी वजह से हमें ये संवेदन था कि हम पहचान पाते थे कि राम कौन है? सीता कौन है ? कृष्ण कौन है? आज इस कलयुग में ये भी पहचानना असम्भव हो गया है कि ये राक्षस है, रावण है या ये राम है। उन चुहों को है। इसी प्रकार अनेक आपको मैं बातें बता सकती हूँ, जिससे ये दिखा सकते हैं कि ये जो चैतन्य हमारे अन्दर से बहने लग जाता है इस चैतन्य से हम संसार की सब चीज़़ पर प्रभुत्व करें, राज्य करें लेकिन ये प्यार का और प्रेम का राज्य है। अब बहुत से लोगों का ये हमेशा कहना रहता है कि, 'माँ, अगर आप कहती हैं कि हमारा देश योगभूमि है और यहाँ पर मनन करके सारी चीज़ों का इतना पता लगाया था, तो हमारे देश की आज ये दुर्दशा क्यों है? सभी लोग मुझ से पुछते हैं, 'तो हमें बड़ा शस्य श्यामला होना चाहिए।' अगर हमारे यहाँ इतने बड़े -बड़े ऋषि- मुनि हो गये और ऐसे-ऐसे बड़े-बड़े लोग हो गये जिन्होंने इतनी बड़ी-बड़ी चीज़ों का पता लगाया। तो आज हमारे देश की ये दुर्दशा क्यों है?' ये तो ऐसे ही है कि कीचड़ में अगर कमल खिल गये तो कमल दुःखी, कहे कि 'भाई, कीचड़ तुम भी कमल हो 12 जाओ।' ये तो हम लोग कीचड़ हैं ही ऐसा लगता है मुझे। हम लोगों ने कुछ किया है इसके मामले में ? ये सोचना चाहिए। आज भारत वर्ष में ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने आदि शंकराचार्य ने क्या किताबें लिखीं, ये भी जानते हैं| शेली , कीट्स, ये वो, दुनिया भर के फालतू लोग, बायरन, वायरन वगैरे जिनका नाम सुबह-शाम लीजिए तो गंगाजी स्नान करना पड़ेगा इतने गन्दे चरित्र के लोग हैं। ऐसे गन्दे लोगों के बारे में पढ़-पढ़ के, और हम लोग सोचते हैं कि हमने बड़ी विद्वत्ता करी। ऐसे हिन्दुस्तानियों को और भारतीयों को क्या परमात्मा आशीर्वाद देगा । जो लोग अपने को बहुत भारतीय, भारतीय बना कर घूमते हैं, वो तक नहीं जानते कि हमारे अन्दर कुण्डलिनी नाम की एक बड़ी पवित्र शक्ति विराजित है। आश्चर्य की बात है कि मेकॅलो साहब अंग्रेजी दे गये , उन्होंने ये तक नहीं बताया कि आप अपनी चीज़ों का अध्ययन ना करें, अपने बारे में न जानें, हमारे अन्दर कौनसे-कौनसे शास्त्र और कौनसे-कौनसे गहन कार्य किये रखे हुए हैं उनका संशोधन न करें। यहाँ बैठे साइकोलॉजी पढ़ रहे हैं, यहाँ बैठे सारे विदेशी सब चीज़ें आप पढ़ रहे हैं, इनके पास है क्या ? आज आप देख रहे हैं हमारे साथ में दो बहत बड़े डॉक्टर्स आये हए हैं विलायत से, वो खुद कहते हैं कि, 'आप लोगों को लगता है कि मेड़्सीन इज इरेलेव्हंट'। ये सब चीजें जो मैं बता रही हूँ, ये | सब हमारे यहाँ लिखी हुई हैं। कोई पढ़ता ही नहीं । किसी को समय ही कहाँ है। हम लोग तो सब अंग्रेज हो गये हैं। हम अपने बारे में कुछ जानना ही नहीं चाहते। अगर हम आज जानते होते कि हमारा देश कितना पवित्र है और इस देश की पवित्रता सबसे ऊँची चीज़ है जिस पर आज सारा संसार टिका हुआ है। अगर हम जानते होते कि इसी देश में बड़े-बड़े ऋषि- मुनियों ने इतनी बड़ी साधना से इतनी बड़ी चीज़ का पता लगाया हुआ है। और उसको अगर हम पाते, हमारे यहाँ का लक्ष्मी तत्त्व अगर हम जागृत कर लेते तो क्या मजाल है कि आज हमारी ये दशा हो जाती। हमारे जैसा भिखारी तो कोई है ही नहीं। और इतने अन्धेपन की हद है कि घर में सारी लक्ष्मी सम्पत्ति भरी होते हुये भी हम लोग इन परदेसियों की ओर हाथ अपना बढ़ाते हैं। और वहाँ के कौन से ज्ञान को हमने संपादन किया है। इन लोगों ने अपने कौन से ज्ञान से, कौन सी विशेषता दिखायी हुई है कि जा के देखें कि इनके देशों में क्या-क्या हालात हुए है। सड़- गल गया है इनके देश में। इनकी व्यवस्थायें सारी टूट चुकी है। इनकी सामाजिक व्यवस्थायें सारी चोर- टूट चुकी है। आप रास्ते से शाम को छ: बजे नहीं निकल सकते। इस कदर अराजकता, उचक्के बच्चे पैदा हो रहे हैं वहाँ पर। एकदम राक्षसी प्रवृत्तियाँ वहाँ पर विहार कर रही है। हालाकि हम लोग भी उनका अनुकरण कर रहे हैं। हम कुछ कम थोड़ी ही है। इतनी गधापनकी वो कर रहे हैं कि उससे ज़्यादा हम करके अंग्रेज बनने वाले हैं । इसी में हमारी सारी विशेषता आ गयी है । 13 भी हम बेच रहे हैं और जिसका हम ढिंढोरा पीट रहे हैं उसमें संस्कृति के नाम पर भी जो कुछ कोई तत्व नहीं है। हमारा जो तत्त्व है उसे हम लोग खोजते नहीं है। हमारा जो अन्वेषण हुआ है, जो हमारी मालूमात उस चीज़ को कोई जानना नहीं चाहता है और जो दो-चार आये भी जिन्होंने कहा भी कि हम जानते हैं उनसे बढ़ के तो चोर मैंने देखे नहीं है। कुण्डलिनी के नाम पे दुनियाभर की गन्दगी करना यही काम आज कल तांत्रिकों का हो गया है। कुण्डलिनी आपकी माँ है। आप समझते हैं माँ माने क्या चीज़ है। कितनी पवित्र चीज़़ है, कितना पवित्र रिश्ता है। आपकी माँ है, हर एक इन्सान की अलग-अलग एक-एक कुण्डलिनी माँ है। और उस कुण्डलिनी की जागृति करना है और उसमें आप अवलम्बन करते हैं गन्दी चीज़ों का। अपने माँ के साथ आप गन्दा व्यवहार करें तो ये गाली होती है। कम से कम एक भारतीय को तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी इस तरह से जागृत कैसे होगी अगर वो हमारी माँ है। और जिस परमेश्वर ने हमें बनाया है इतनी खूबी से। आज | एक अमीबा से इन्सान बनाया गया है और आज हमें एक इंच भी पता नहीं चला। ये पृथ्वी इतनी जोर से घूमती है हमें एक इंच भी पता नहीं चलता है। इसने जिस तरह से हमें सम्भाल के रखा है, से भी कोमल उसने हमें बनाया हुआ है। उस परमात्मा ने क्या ऐसी ही चीज़ हमारे फूल गुलाब के अन्दर रखी होगी कि जिसके जागृत होने से हमें नुकसान हो गया। उसके बारे में कुछ भी जानना दकिया-नुसी हो गया। इस तरह की उल-झनऊ हालत है। जब कि एक तरफ धर्मान्धता तो है ही, ने ने ने कबीर ललकारा, नानक ने ललकारा है, तुकाराम ललकारा है, ज्ञानेश्वर कहा हुआ है। किसने नहीं कहा है कि धर्मान्धता परमात्मा नहीं है, तो उनको पकड़-पकड़ के सूली पर चढ़ाये। इसी देश में लोगों को सताया। और आज भी यही हालत है, हमें वो लोग अच्छे लगते हैं जो कि सर्कस दिखाये, थोड़ा बहुत तो बेवकूफ बनाये, और वो लोग बहुत अच्छे लगते हैं जो थोड़ा बहुत आपसे रुपया-पैसा लें। क्योंकि माताजी कहती हैं कि, 'मुझे आप क्या दोगे बेटे। मैं तो तुम्हारी माँ हूँ। ऐसी बात नहीं करना' तो माँ नहीं है पसन्द ! अगर आप किसी को दो-चार पैसे से खरीद सके तो आपका अहंकार भी तृप्त होता है इसलिए आपको ऐसे लोग पसन्द आते हैं। और वो अच्छे, आराम से, आपके अहंकार को कूट कर के तीस-चालीस करोड़ रूपया बना कर के आपको बेवकूफ बना कर के एक दिन गुम हो जाएंगे। और आपको बेवकूफ बनना ही अच्छा लगता है, तो बेवकूफ बने रहिये। पर कम से कम इसका दोष परमात्मा को नहीं देना चाहिए। इसका दोष मनुष्य का है। विशेष कर भारतीय लोगों का है। इनका चित्त गया कहाँ है? आज भारतीय लोगों का चित्त कहाँ अटका हुआ है। पहले तो ठीक था। गुलामी थी, गुलामी की जंजीरें थीं , उसे तोड़ना है। गुलामी भी नहीं है अभी अगर हमारा चित्त इधर रहता तो। हमारा चित्त रहा एक-दो आदमियों पर। 14 क- तो बिचारे मेहनत करते थे , आत्मा को पाते थे और वो जैसे ही उस जगह से आये और करुणा में अगर वो आपके सामने आ कर कुछ कहना शुरु कर दे तो उसका कारण आप लोग हैं। लेकिन | अंग्रेजों के गले में तो आपने हार पहनायें। इतना ही नहीं उनका बाना भी आपने पहन लिया और आज भी उनके झंडे फेहरा रहे हैं। अंग्रेजी से मेरा मतलब इंग्लिश लोगों से ही नहीं है । मेरा मतलब है उस सभ्यता से है जिसे कि हम पाश्चिमात्य कहते हैं, जो खोखली है। उसके अन्दर कोई तत्व या प्रिंसीपल नहीं है। उटपटांग है बिल्कुल। बड़े-बड़े मैंने शास्त्रों वाले देखे वहाँ। मैं उनसे पूछती हूँ, 'आपको मिला क्या? सॉक्रेटिस का जमाना तो कुछ और था। उन्होंने जो बातें कहीं वो वहीं के वहीं रह गयी। उनको ताकते रह गये। सबने कहा, 'चलो परमात्मा नहीं है, यही बात अच्छी है। पीठ कर के बैठ जाओ।' अब आगे बोलो। पहले तो परमात्मा को खत्म करो , फिर आगे की बात करो। तो अब क्या पता लगा रहे हैं आप, पत्थर! बिजली का पता लगा दिया। बहुत कमाल कर दिया। क्या फायदा हुआ बिजली का पता लगा कर के। अपनी तो आँखें आपने अभी तक खोली नहीं। चन्द्रमा पे आप चले गये, तो कौन बड़ा भारी कमाल कर दिया आपने। कैन्सर की बीमारी तो आप ठीक नहीं कर सकते। लेकिन हम लोग कर सकते हैं। सहजयोग से कैन्सर की बीमारी हम ठीक कर सकते हैं । इतना रुपया वो लोग खर्च करके, इतना उपदव्याप करके उन्होंने क्या दिया आपको? शराब! और आज की इनकी सभ्यता उनके घरों कों तोड़ रही है। सबको मिटा रही है। हमारी जो पुरातन चीज़ें हैं उसकी ओर आपको ध्यान ले जाना चाहिए और सोचना चाहिए कि हमारे शरीर के बारे में जो कुछ भी वर्णन किया गया है कि हमारे अन्दर ही जो जो शक्तियाँ हैं इसे हम दैवी शक्ति के नाम से जानते हैं, उसे पहचनना चाहिए । इतना ही नहीं लेकिन जिसे हम आत्मज्ञान के नाम से जानते हैं उस आत्मा को पाना चाहिए। इसकी व्यवस्था जितनी इस देश के लोगों में है उतनी उन देशों में नहीं। वहाँ हजारों लोग मेरे प्रोग्राम में आते हैं यूँ हो जाते हैं (पार) लेकिन पाने वाले कम हैं । यहाँ पर बहुत कम आते हैं लेकिन सबके सब करीबन पा लेते हैं। कहते हैं ना 'दाँत हैं तो चने नहीं, चने हैं तो दाँत नहीं वो हालत है। यहाँ लोग आते ही नहीं, उनको फुर्सत ही नहीं है। बहुत बिजि लोग हैं अपने देश में। लड़ाई-झगड़े करने में, एक-दूसरे के गले काँटने में इस कदर बिजि हैं कि उनके पास फुर्सत नहीं है, आत्मा का ज्ञान लेने का। कौन पड़े ऐसे झगड़ों में! लेकिन जो सारे ज्ञानों का ज्ञान है इसका पाना सारे पाने से ऊँचा होता है। उसको पाना चाहिए और वो टाईम आ गया इसलिए आप लोग पा रहे हैं। कहते हैं जिसे कि 'ब्लॉसम टाईम, बहार का टाईम' आ गया। इसलिए आप इतने मजे से पा 15 उसको हे हैं। रहे हैं, इसको पा लेना चाहिए। मैं आपको बताना चाहती थी कि कुण्डलिनी क्या है और कहाँ स्थित है और उसके चक्र वरगैरे कहाँ हैं लेकिन अब इन लोगों को देखिये कि कोई लाये नहीं उन लोगों को। तो कल मैं बताऊंगी कि सबेरे आपको फिर ये कुण्डलिनी क्या है? कहाँ बसती है ? और किस तरह से उत्थान होता है उसका? और इसके जो अनेक चक्र हैं वो कैसे बसे हैं? और उसमें कौनसे देवता हैं? ये देवता कैसे होते हैं, हैं या नहीं? इसकी क्या सीख है? एक छोटी सी बात आपसे बतायें कि जो मैंने अभी कहा था कि ये भवसागर जो बना हुआ है हमारे पेट में, जो कि हमारे नाभि चक्र के चारों तरफ में है। इसलिए मैंने कहा था कि दस गुरु मुख्यत: आये। ये दस गुरु, अगर आप पुराने जमाने से देखें तो मोजेस, अब्राहम, सॉक्रेटिस आदि करते-करते राजा जनक, उसके बाद में मोहम्मद साहब, गुरु नानक, आखिर में आप अगर आयें तो अपने शिर्डी के साईनाथ; ये सब एक ही तत्व के अवतरण हैं। एक ही तत्व के; दत्तात्रेय के। अगर ये बात कही जाये तो शास्त्रज्ञ घबरा जाएंगे कि, 'माताजी, ये क्या बात कर रहे हैं?' लेकिन उसी शास्त्रज्ञ को जब पेट का कैन्सर हो जाता है तब देखिये क्या होता है! तब ये नक्शा दूसरा है। वो अगर डॉक्टर हो तो उससे भी बढ़िया नक्शा बन जाता है। एक तेहरान के डॉक्टर थे। उनको पेट में कैन्सर की बीमारी हो गयी | वो मेरे पास आये, तो मैंने कहा, 'भाई, देखो तुम जरुरत से ज़्यादा धर्मान्ध हो, क्या ये सही नहीं?' तो कहने लगे, 'हूँ, मैं तो बस इस्लाम को मानता हूँ।' इस्लाम की इतनी सी भी चीज़ जानते नहीं। मोहम्मद साहब को जरासे भी पहचानते नहीं, 'हाँ मैं तो इस्लाम का हूँ।' मैंने कहा, 'अच्छा, इसलिए आपको कैन्सर हो गया। तो कहने लगा कि, 'क्या?' मैंने कहा, 'हाँ!' इस तरह की कर्मठता से ही कैन्सर की बीमारी पेट में हो जाती है बहत बार हमने देखा है। तो कहने लगे, 'अच्छा।' मैंने कहा, 'तुमसे मोहम्मद साहब खुद नाराज़ हैं।' कहने लगे, 'क्यों ?' मैंने कहा, 'उनका जो अवतार हुआ है गुरु नानक का, उनको तुम मानोगे?' कहने लगे, 'कभी भी नहीं । मैं तो नहीं मान सकता हूँ उनको।' मैंने कहा, 'फिर मैं भी तुम्हे ठीक नहीं कर सकती जाओ|' चले गये। एक तो कैन्सर की बीमारी ऊपर से खुद डॉक्टर; तो मालूम है कि ठीक तो नहीं होने वाली, तो फिर आये, 'अच्छा, कहो माँ, मैं मानता हूँ।' मैंने कहा, 'चलो, अब गुरु नानक का नाम लो, दत्तात्रेय का नाम लो। शुरु कर दिया उन्होंने। उनकी तबियत ठीक हो गयी। ऐसे एक ब्राह्मण देवता आये एक बार, अभी पूना में गयी थी। पूना आपको मालूम है कि ये 16 tio हैं। ब्राह्हणों का गढ़ है। ये ब्राह्मण थोड़ी होते हैं क्योंकि जो पार नहीं हुए वो ब्राह्मण नहीं होते हैं। द्विज, जो दूसरी बार पैदा हो गये वही ब्राह्मण हैं। द्विज की कोई जात नहीं होती। वो जाति से परे, गुणातीत हैं। बड़ी उंची चीज़ है ब्राह्मण होना। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता। ये भी अलग-अलग गलतफहमियाँ हमारे अन्दर बैठी हुई है कि 'हम जन्म से ब्राह्मण हैं। हम ब्राह्मण कुल में पैदा हुए तो हम ब्राह्मण हैं।' और काम काहे का करते हैं, तो जूते बनाते हैं, जूते की फैक्टरी में, पर हैं ब्राह्मण! इस पर बहुत बड़ा एक बार वाद-विवाद खड़ा हुआ। कहने लगे कि, 'ये गीता में लिखा हुआ है। मैंने कहा, 'गीता-वीता तो मैंने पढ़ी नहीं। हाँ, मैं जानती सब हूँ। लेकिन लिख ही नहीं सकते ' तो कहने लगे कि, 'क्यों?' मैंने कहा, 'किसने लिखी गीता ?' तो कहने लगे, 'व्यास, व्यास मुनि ने।॥ मैंने कहा, 'व्यास किसका बेटा था। उसकी माँ कौन थी? भिमरीन थी। और उनका विवाह भी नहीं हुआ था पराशर मुनि से और उससे पैदा होते हैं व्यास मुनि! जिसके बाप का ही पता नहीं ऐसे व्यास मुनी, जिन्होंने गीता लिखी थी, वो क्या ऐसा लिखेंगे , कि जन्म से ही ब्राह्मण हो वही ब्राह्मण होता है। आप ही बताइये। कोई अपनी पैर पर कुल्हाडी मारेगा?' वाल्मिकी कौन थे ये आप जानते हैं। हर जगह जहाँ-जहाँ अवतार आये हैं, आपने देखा है, कि कृष्ण जा कर के विद्र के यहाँ साग खाई थी। क्यों खायी थी? ये नहीं कि उनको खाना नहीं मिलता था। जान कर के उन्होंने जा कर, खा के दिखाया था कि जाति-पाति का जो ये ढोंग -ढ़कोसला है वो खत्म होनी चाहिए । राम ने एक भिलनी के मुँह के बेर खाये। आप लोग खा सकते हैं ? एक बुढ़ी भिलनी, गंदी, मैली, कुचैली कपड़े पहनी हुई, जिसके दो ही दाँत बचे हये हैं। उन दाँत को उन बेरों में थोप -थोपकर के लादे। आप खायेंगे ? आप में से कितने लोग हैं जो इस बेरों को खायेंगे? पर श्री राम ने इसे खाया। खाया ही नहीं, उसका वर्णन इतना सुन्दर है कि खा के कहते हैं कि, 'देखो भाई , ये मेरे बेर हैं मैं तो किसी को नहीं देने वाला, ऐसे मैंने कभी खाये नहीं। अमृत-तुल्य बेर हैं।' वो सीताजी को छेड़ के कहते हैं कि, 'तुमको भी नहीं देने वाला मैं।' तो सीताजी कहती हैं, 'कुछ तो दे दीजिए हमको भी प्रसाद, ऐसा भी क्या! हम भी तो कुछ खा ले। क्या आप ही सब खाईयेगा?' पहले तो लक्ष्मण जरा नाराज़ खड़े हुए थे। और सीताजी ने खा के वो बड़े खुशी से बोला, 'हमें भी दे दीजिए भाभीजी थोड़ा सा । हम भी खा ले।' इतना सुन्दर वर्णन है उस प्रेम का, जिस प्रेम से भिलनी ने दिया था। 17 हर जगह इस प्रेम की महत्ता, हर जगह है इस देश में, हर अवतारों में है, हर गानों में गायी गई। और हम लोग हैं कि अभी जातीयता ले कर के उस पे से इलेक्शन लड़ते हैं। मैं तो कहती हूँ कि इन लोगों का दिमाग खराब है क्या? जाति जन्म के अनुसार हो ही नहीं सकती। ये तो हर एक की प्रवृत्ति के अनुसार बनायी गयी थी | जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसे होते थे। जितने भी लोग सत्ता में खोजते थे परमात्मा को या आनन्द को उसको क्षत्रिय कहा जाता था। और इसी प्रकार जो ब्रह्म में परमात्मा को खोजते थे , या ब्रह्म में जो आनन्द को खोजते थे उनको ब्राह्मण कहा जाता था। आप लोग ब्राह्मण है क्योंकि आप परमात्मा को खोजते हैं। इस तरह की जाति-पाति आदि अनेक तरह के विकृत काम करने से ही हमारे देश का आज ये हाल हो चुका है। अतिशयता तक पहुँच गये हैं। कुछ समझ में नहीं आता है कि जब ये किसी के शास्त्र में लिखा नहीं गया। अगर आप हिन्दू धर्म के प्रणेता श्री आदि शंकराचार्य को मानते हैं। तो उनको कभी पढ़ते ही नहीं, मेरे ख्याल से कोई अगर पढ़े तो उन्होंने यहाँ तक कि ये लिखा है कि 'न योगे न साँख्ये' कुछ भी इसमें काम नहीं करता । उन्होंने कहीं भी जाति पर लिखा ही नहीं। मेरी समझ में नहीं आता कि कौन सी किताब पढ़ कर आप जातीयता ला रहे हैं संसार में ? कहीं भी उन्होंने नहीं लिखा। उन्होंने तो सिर्फ माँ की प्रशंसा लिखी है। विवेक चूडामणि जैसा विद्वत और इतना सुन्दर ग्रंथ लिखने के बाद उन्होंने लिखा है 'चैतन्य लहरी' या 'सौंदर्य लहरी' जो अपनी माँ का ही वर्णन उन्होंने कर दिया है। सारा मन्त्र उसने उसमें लिखा हुआ है। एक-एक श्लोक में मन्त्र लिख दिया। उस आदमी को समझने की जगह पता नहीं कहाँ से ढकोसले निकाल के लाये हैं। और इसको 'हम इतने भारतीय हैं।' जिस भारतीय को कुण्डलिनी के बारे में मालूम नहीं और सही से पता नहीं मैं उस को कभी भी भारतीय नहीं कहूँगी। मेरे पति तो आप जानते हैं कि सरकारी नौकर रहे हैं। मुझे एक सरकारी नौकर मिला नहीं जो कुण्डलिनी को नाम से जानते हैं। आश्चर्य की बात है! मैं जापान गयी थी वहाँ लोग कहने लगे कि, 'साहब, ये कुण्डलिनी, इसके बारे में आप कुछ बताईयेगा ।' वो लोग मुझसे पूछ रहे थे। कहने लगे, 'आज तक हमें कोई नहीं मिला हिन्दुस्तानी, जिसने कुण्डलिनी नाम जाना है । वो तो कुण्डली जानते हैं, बस् होरोस्कोप, पर कुण्डलिनी कोई नहीं जानता।' और इसका जो शोध है, इसकी जो खोज है ये आपके सारे संसार के एटमबॉम्ब, दुनियाभर की सब चीज़ों से उंची खोज है । इससे सारा ही ट्रान्सफोर्मेशन इन्सान का हो जाता है। कितनी डाइनैमिक है ये चीज़। कितनी प्रचंड इसकी शक्ति है। लक्ष्मी तत्व को जागृत करने के लिए कुण्डलिनी के सिवाय कोई मार्ग ही नहीं। बाह्य से अब इन देशों ने उन्नति कर ली है लेकिन अन्दर से खोखले हो चुके हैं। हम लोगों ने बाह्य से तो उन्नति नहीं की, और अन्दर की जो चीज़ें हैं उसको भी जाने दिया। अगर हम जागृत हों उन शक्तियों के कुछ 18 प्रति, जिसका पता बहुत सालों पहले लग चुका है इसको सिर्फ नहीं जानना मात्र है। तो वो दिन दूर कि सारा संसार इससे सुख प्राप्ति करे, इससे आनन्द लुटेगा। लेकिन हमको पहले ये जान लेना चाहिए कि हम एक भारतीय हैं और हमारा ये हक है कि इसे हम जानें और इसे हम समझें। अब देखिये कि अमेरिका में और लंदन में डॉक्टर लोग हमें बुलाते हैं कि, 'हमारे यहाँ आईये और आप हमें सब समझाईये।' अभी तक तो मैं इसे किसी तरह से ४ टालती रही। मैंने सोचा इसकी खोज, चाहे जो भी हो हिन्दुस्तान में हुई हो इसकी खोज, पर ये है सारी हिन्दुस्तानी चीज़। गणेश तत्व मैं इन लोगों को क्या समझाऊंगी? और यहाँ मैं डॉक्टरों से कहती हैँ मैं गा तीन बार लेक्चर कर चुकी, बस, उसमें लिखते बैठते हैं, पता नहीं क्या? लेकिन मैं कहती हैँ तनिक पार हो जाओ तो समझ में आयेगा, लेकिन पार नहीं होते। बीमार हो तो पेशंट भेज देते हैं। करें क्या इन लोगों का? और उपर से मुझसे कहते हैं कि, 'आप सब स्टैटिस्टिक बना के लिखो कि किस किस को आपने ठीक किया।' अब मुझे और कोई धंधा नहीं रहा ? मैंने कहा, 'तुम लोग नहीं समझ सकते। तुम मशीन हो।' मैं कोई पैसे के लिए काम नहीं करती। ये प्यार की बातें हैं ये तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी। आपके घर कोई 19 खाना खाने वाले आयें तो क्या आप उनके नाम लिख के भेजते हैं कि कितने लोग मेरे यहाँ खाना खा के गये! इसने इतने निवाले खायें। इसने ये खाना खाया। ये मेरे प्यार का भंडार है, मैं क्या लिखते फिरुंगी कि मेरे दरवाजे कितने लोग आये और मेरे से प्यार कितने ले गये? ये भी कोई तरीका है? ये कोई शराफत है? ये कोई डीसन्सि है? पर ये पैसे कमाने वाले लोग कैसे मुझे समझेंगे? हाँ, अगर उस जमाने के वैद्य होते तो समझ सकते। ये प्यार की बात है। प्यार में हम बाँट रहे हैं जिसको लेना हो ले, जिसको समझना है समझ लो, ये सब चीज़ मुफ्त में है। ये पूरी तरह से मुफ्त चीज़ है। प्यार जो है इतना मूल्यवान है कि इसकी कोई भी कीमत आप लगा नहीं सकते। उसका कोई भी मूल्य आप दे नहीं सकते। उसका सिर्फ आनन्द उठाने की बात है। और मैंने कहा, 'आप मेरा सारा मज़ा किरकिरा कर रहे हैं, मुझे इस तरह की बातें मत सिखाईये कि इसका एक पे ऑडिटर बनाया हुआ है कि आप स्टैटिस्टिक बनाईये।' मैंने कहा, 'कोई नया-नया आपको यहाँ आ कर के हर एक चीज़ का हिसाब-किताब लिखाईये कि कितने लोगों को ठीक किया ? कितनों की बीमारी ठीक करी? क्या-क्या?' मैं तो कभी किसी के पेपर भी नहीं जाँचती । मैं नाम तक नहीं पूछती। अभी आप जानते हैं कि सबेरे वो मल्टिपल स्क्लिअरोसिस की लड़की आयी थी, उसका मैं नाम भी नहीं जानती और वो ठीक हो गयी । बस वो आ के बैठ गयी चरणों में ठीक हो गयी , काम खतम्। इसका नाम जानने की कौनसी बात है। क्या गंगाजी सबके नाम लिखते बैठती है कि कितनों ने उसके आँचल से पानी चुराया! इन लोगों को ये बात समझ में नहीं आ सकती क्योंकि ये बारीकी, ये सुन्दरता इन लोगों में नहीं आ सकती है। ये समझ नहीं सकते। बहरहाल जो भी हो आप में से कितने लोग इसे समझ गये और इसे पा लिये, उतना ही मेरे लिए बहुत है। यही मेरे धन्यभाग है कि इतने लोग बैठ कर के इसे लेने के लिए इस देश में अभी भी मौजूद हैं और आ रहे हैं। पर तो भी एक बड़ी भारी बात मैं आपसे कहूँ कि आज भी मैंने कहा कि महाराष्ट्र में, गाँव में मैं काम करती हूँ और गाँव में काम जोरों में होता है। यहाँ पर भी मैंने देखा है कि जैसे देहरादून मैं गयी थी, देहरादून में लोगों में बड़ी संवेदना है। इसी तरह से यहाँ पर गाँव में जब मैं काम शुरु करुंगी तो मैं जानती हूँ कि बहुत जोरो में काम होगा। शहर के लोग बहुत कृत्रिम हो जाते हैं जैसे सबेरे कहा था। और आप लोगों के लिए चोर भी बहत सारे तैयार हो गये। जैसे डिमांड होता है वैसे सप्लाय होता है, आपकी जेबें भरी हुई है। आपके लिए चोर भी हाजिर हैं। और वो आते हैं, आप पे फीस लगाते हैं, आप उनको फीस देते हैं और उनके लेक्चर सुनते हैं, बहुत धन्यभाग समझते हैं, वाह भाई , वाह ! हम फलाने के शिष्य हैं, हम ठिकाने के शिष्य हैं और बीमारी क्या ? तो पैरेलिसिस। इस प्रकार आपको समझ लेना चाहिए कि अगर आपको ऐसी कोई जीवन्त चीज़ 20 चाहिए हो उसके लिए अपनी आर्टिफिशयालिटीस् को छोड़ना होगा। मेरे सामने आप सब बच्चे हैं और बेटे हैं। आप बड़े आदमी होंगे, राजा साहब होंगे, कुछ होंगे मेरी नज़र में तो बैठता नहीं है। मेरी समझ में नहीं आता। मेरी अकल नहीं है उतनी। बिल्कुल मेरी अकल नहीं। इसलिए आप बिल्कुल नम्रतापूर्वक इस चीज़ को स्वीकार्य करें और इसको माने और इसमें फिर जमें। जो इसमें जमता है वो ही पाता है। और जो जमना नहीं चाहता और जो बहुत सुपरफिशियली रहता है, उसको ये छू जाती, तो खतम हो जाती है। इसमें गहरी चीज़ है और गहरा आदमी चाहिए। और आपमें गहरापन है तो आप बहुत कुछ पा सकते हैं । एक बात जरुर कहूँगी, चाहे जो भी हो, पाश्चिमात्य देशों ने इस तरह से अपनी प्रगति कर ली है इसमें उन्होंने एक चीज़ को पा लिया कि संसार की जो जड़ता है उससे कभी भी आनन्द न ले सके। जड़ता से सिर्फ हम एक फार्म से दूसरा फार्म बनाते रहते हैं। सब मृत्यु की स्थििति बदलते रहते हैं अगर मरा हुआ पेड़ है तो उसकी कुर्सी बना लेते हैं। पर हम कोई भी चीज़ से आनन्द नहीं पाते, उल्टे हमें आदतें लग जाती है। इस चीज़ को इन लोगों ने जान लिया बुद्धि से और इसलिए जब इनको साक्षात हुआ कि सच्चाई क्या है तो मुश्किल से होता है, मैंने आपको बताया कि इन लोगों का जागरण मुश्किल से होता है, लेकिन जब हो जाता है तो जम जाता है। इन लोगों ने सब कुछ | पढ़ डाला है। आदि शंकराचार्य पढ़ डाला। ये आप इनसे सुनिये, आपको आश्चर्य होगा कि ये पंडित कहाँ से आ गये । एक से एक विद्वान लोग, इनमें से थोडे से ही यहाँ आयें, लेकिन ये महा विद्वान लोग हैं। और इनको आप देख के आश्चर्यचकित होंगे कि इन्होंने सब चीज़़ छोड़ कर इस पर कैसी जान लगायी और किस तरह से उसको मास्टर बनाया। आज आश्चर्य की बात ये है कि भारतीय अनुसंधान या भारतीय शास्त्र या भारतीय खोज को करने के लिए मुझे वहाँ जाना पड़ा है। कुछ ऐसा इत्तफाक हुआ कि हमें जाना ही पड़ा। हमारे पति वहाँ इलेक्ट हुए और वहाँ हमें ये लोग मिले हैं कि जिन्हें यहाँ लाना पड़ा कि आप लोगों की जागृति करें। वो दिन कब आयेगा कि इस भारतवर्ष के नौजवान सिनेमा के चक्कर और ऐसी फालतू की चीज़े छोड़ कर के कुछ गहरेपन में उतरें और यहाँ से परदेस में जा कर के अपनी देश की महत्ता बढ़ायें। इतना ही नहीं, ये जीवंत कार्य है, ऐसा दिन कब आयेगा पता नहीं। मैं उसी दिन की राह देख रही हूँ कि ऐसे नौजवान सामने आयें और अपने को इसमें समर्पित करें और इसे स्वीकारें । परमात्मा आपको शांति दें। 21 तिलाजली तिल की अंजल अः ब आपको कहना है, कि इतने लोग हमारे यहाँ मेहमान आए हैं और आप सबने उन्हें इतने प्यार से बुलाया, उनकी अच्छी व्यवस्था की, उसके लिए किसी ने भी मुझे कुछ दिखाया नहीं कि हमें बहुत परिश्रम करना पड़ा, हमें कष्ट हुए और मुंबईवालों ने विशेषतया बहुत ही मेहनत की है। उसके लिए आप सबकी तरफ से व इन सब की तरफ से मुझे कहना होगा कि मुंबईवालों ने प्रशंसनीय कार्य किया है । अब जो इन से (विदेशियों से) अंग्रेजी में कहा वही आपको कहती हैं। आज के दिन हम लोग तिल गुड़ देते हैं क्योंकि सूर्य से जो कष्ट होते हैं वे हमें न हों। सबसे पहला कष्ट यह है कि सूर्य आने पर मनुष्य चिड़चिड़ा होता है। एक- दूसरे को उलटा-सीधा बोलता है। उसमें अहंकार बढ़ता है। सूर्य के निकट सम्पर्क में रहने वाले लोगों में अहंकार होता है। इसलिए ऐसे लोगों को एक बात याद रखनी चाहिए, उनके लिए ये मन्त्र है कि गुड़ जैसा बोलें (मीठा-मीठा बोलो)। तिल गुड़ खाने से अन्दर गरमी आती है, और तुरन्त लगते हैं चिल्लाने। अरे, अभी तो तिल-गुड़ खाया, तो अभी तो कम से कम मीठा बोलो। ये भी नहीं होता। तिल-गुड़ दिया और लगे चिल्लाने, 'काहे का ये तिल-गुड़? फेंको इसे उधर!' तो आज के दिन आप तय कर लीजिए । ये बहुत बड़ा सुसंयोग है कि श्री माताजी आई हैं। उन्होंने हमें कितना भी कहा तो भी हमारे दिमाग में वह नहीं आएगा। अगर हमारे दिमाग में गरमी होगी तो निकलनी चाहिए। और ये गरमी हम में कहाँ से आती है? अहंकार के कारण। बहुत पहले जब मैंने सहजयोग शुरू किया | बहुत | भी नहीं आएगा। ये गरमी कुछ तब सबका लड़ाई-झगड़ा, यहाँ तक के एक दूसरे के सर नहीं फूटे, यही गरनीमत है। बाकी सभी के सर ठीक-ठाक हैं। परन्तु झगड़े बहुत, किसी का किस बात पर, किसी का किसी और बात पर। देखा आधे भाग गए, कुछ बच गए। मैंने सोचा, अब सहजयोग का कुछ नहीं होने वाला। क्योंकि एक आया काम करने, दो दिन बाद भाग गया। दूसरा आया, तीन दिन बाद भाग गया, ये स्थिति थी। ऐसी स्थिति में अब हमने सहजयोग जमाया है। पर उसके लिए आपकी इच्छा चाहिए कि कुछ भी हो हम परमात्मा को पाने आए हैं। हमें परमात्मा का आशीर्वाद चाहिए। हमें परमात्मा का तत्व जानना है। हमें दुनिया की सारी गलत बातें जिनसे कि कष्ट और परेशानियाँ हो रही है, नष्ट करनी है । तो यहाँ झगड़े नहीं करने हैं। इस अहंकार से सारी दुनिया में इतनी परेशानियाँ हुई है। अब सहजयोग में इसे पूर्णतया तिलांजली देनी पड़ेगी। तिलांजली माने तिल की अंजली। मतलब अब तिल- 22 क मुंबई, १४ जनवरी १९८५, अनुवादित (मराठी) गुड़ खाकर इसकी (अहंकार की) अंजली आप दीजिए। मतलब इसके बाद हम कोई क्रोध नहीं करेंगे, गुस्सा नहीं करेंगे। एक बार करके देखिए । देखना चाहिए| गुस्सा न करके कितनी बातों को समेट सकता है। कितनी मनुष्य बातों का सामना कर सकता है। बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें ज़्यादा चित्त न रखने से उनके हल मिले हैं। और जो कुछ समस्याएं हैं वह पूरी तरह से हल हुई हैं। तो किसी बात में आपने बहुत ज़्यादा चित्त रखा तो आप तामसिक स्वभाव के बन गए, ऐसा कहते हैं। तामसिक माने क्या? तो कोई औरत है, अब उसका पति बीमार है, 'मेरा पति बीमार है, मेरा पति बीमार है।' बाबा है, मान लिया! परन्तु तुम तो ठीक हो न! तुम्हारी तबियत तो अच्छी है! उसका कुछ नहीं। पति है ये भी तो बड़ी बात है। परन्तु नहीं, एक छोटी सी बात को लेकर के हल्ला मचाना, दूसरों को हैरान करना। ये जो हमारे यहाँ बात है, उसका कारण है हमारे यहाँ छोटी सी बात को ज़्यादा महत्व देना और बड़ी- बड़ी बातों की तरफ ध्यान नहीं देना। इन लोगों (विदेशियों) के लिए बड़ा क्या, छोटा क्या, सब बराबर है। कुछ नहीं मालूम। पर आप लोगों को समझना चाहिए। क्योंकि हमारा जो वारसा है वह इतना महान है। हम इस योगभूमि भारत में जन्मे हैं। इस योगभूमि में जन्म लेकर हमने क्या प्राप्त किया है? हजारों वर्षों की तपस्या के फलस्वरूप इस भारत में जन्म होता है। और उसमें भी हजारों वर्षों से महाराष्ट्र में होता है। लेकिन रास्ते पर पी कर पड़े हुए लोगों को देखकर मेरी समझ में नहीं आता ये महाराष्ट्र के हैं या और कहीं के? ये कीड़े यहाँ कहाँ से जन्मे हैं? यही नहीं समझ में आता ? अब आप सहजयोगी हैं और आपकी पूर्व जन्मों की तपस्या अब फलित हुई है। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि बाकी की, इस जन्म की, तपस्या माताजी ने करनी है। इस जन्म की पहली तपस्या है आपस में मीठा बोलना, प्यार से रहना। ये पहली बात। इसलिए पहला दिन हमने पूजा का शुरू किया है। उस दिन आप सब को मीठे बोल बोलने चाहिए। और मिठास से रहना चाहिए, क्योंकि मीठा बोलना ये सबसे आसान है। गुस्सा करना बड़ा कठिन काम है, और मारना तो आता ही नहीं है। तो इतने कठिन काम किसलिए करते हैं? तो सीधी-सीधी बात, मीठा बोलो, बस। अब हमारे यहाँ बहुत से लोगों का नाम (सरनेम ) 'गोडबोले' होता है। तो मैंने सोचा इनके परिवार में लोग मीठा बोलते होंगे। तो सचमुच वे लोग बहुत मीठा बोलते थे। पर वे मीठी बातें करके लोगों के गले काटते थे। मैंने कहा, 'ये 23 कहाँ का मीठी बातें करने का तरीका है?' तो बोले, 'हाँ, हमारे यहाँ पहले लोग बड़ा मीठा बोलते थे। उनके मीठा बोलने का लोगों ने बहुत फायदा उठाया। इसलिए अब हम मीठा बोलते हैं और लोगों के गले काटते हैं।' मैंने कहा, 'ऐसा क्यों करते हैं? इससे आपको क्या लाभ हआ है? वही लोग अच्छे थे जो मीठा बोलते थे और आराम से रहते थे । वे सन्तोष में रहते थे । किसी व्यक्ति के साथ आपकी लड़ाई हो गई और उसके आपने गले काटे तो (गले काटना माने 'मुंह में राम, बगल में छुरी) तो आपने क्या पाया?' हमने क्या प्राप्त किया? यह देखना है। तो आज का दिन विशेष त्यौहार का, सभी को अत्यन्त सुशोभित करने वाला है। इस समय मुझे तो बिल्कुल भी कटु नहीं बोलना है। बड़े सम्भालकर में बात करती हूँ। मैं इतना समझकर व्यवहार करती हूँ कि किसी को किसी बात से दु:ख न पहुँचे। अब कुछ लोग आते हैं, वे मुझे झट से हाथ लगाते हैं उससे मुझे बड़ी तकलीफ होती है। वैसा नहीं करना चाहिए। परन्तु यह कैसे बताएं? इसलिए सहती रहती हूँ। जाने दो, क्या करें? अब कैसे बताऊं? उनको दु:ख होगा। ऐसी बहुत सी बातें मैं सहती हूँ। मेरी कोई बात नहीं, मैं सह सकती हूँ। जो सहनशक्ति मुझ में है, वह दूसरों में नहीं है। दूसरों को दु:खी करने से अच्छा वही दुःख में सह लू। यह बात जानने से उसका दु:ख नहीं महसूस होता। प्रेम के बारे में यही बात है। अपने प्रेम की शक्ति ज़्यादा है और दूसरों में कम है। तो हम बड़े कि वे बड़े? इस तरह का एक विचार ले लिया तो आप सहजयोग अच्छी तरह पा सकते हैं। हमें माँ ने प्रेम की शक्ति ज़्यादा दी है, तो वे कुछ भी बोलें उससे | हमारा क्या बिगड़ता है? क्या जरूरत है उनसे लड़ाई-झगड़े करने की ? धेरे-धीरे आपका स्वभाव शान्त हो जाएगा। तब आपका चेहरा तेजस्वी दिखाई देगा। जब लोग आपके निकट आएंगे तो कहेंगे, 'अरे, ये कौन है?' परन्तु 'शान्त स्वभाव' का ये मतलब नहीं कि, कोई आपको जूते मारे तो भी आप चुप रहें, ऐसा बिलकुल नहीं। केवल सहजयोगियों के लिए ख्रिस्त ने कहा है, 'किसी ने आपको एक गाल पे मारा तो आप दूसरा गाल आगे करिए', केवल सहजयोगियों के लिए, ख्रिस्त ने कहा है । औरों ने अगर एक मारा तो आप उसे चार मारिए, ये मैं कहूँगी। क्योंकि उनके जो भूत होंगे वे निकल जाएंगे। परन्तु सहजयोगियों की आपस में शुद्ध बातचीत होनी चाहिए। प्यार से आपस में बातें करनी है। ये बड़ी आवश्यक बात है। औरों के साथ आप कैसे भी रहें, कोई हर्ज नहीं है। परन्तु जो अपने हैं, ये सहजयोगी सारे मेरे शरीर में हैं। एक-एक मनुष्य मेरे शरीर के अन्दर है। आपने अगर एक-दूसरे को लातें मारी, गालियाँ दीं तो मुझे ही गाली दी, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि अब देखिए किसी पेड़ की डालियाँ आपस में लड़ने लगेंगी तो उस पेड़ का क्या होगा ? और उन पत्तों का भी क्या होगा? अब ये एक हाथ अगर दूसरे हाथ से लड़ने लगे, तो क्या होगा? अगर ये चीज़ समझ में आ गई कि हम सब एक हैं, समग्र हैं, हमारे में इतनी एकता है कि हम सब एक शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं, तब आपने किस तरह का व्यवहार करना चाहिए? आपमें कितनी समझदारी होनी चाहिए? कितना प्यार होना चाहिए? आपस में कितना सुख बाँटने की इच्छा होनी चाहिए? इनके लिए क्या करूं? इन्हें क्या अच्छा लगता है? दिवाली के समय हम कुछ उपहार देते हैं या संक्रान्ति के समय क्या 'वाण' (उपहारस्वरूप वितरण की जाने वाली वस्तु) दें उन्हें ? तो जो सस्ते से सस्ता होगा ऐसा कुछ गन्दा सा बाजार से लाकर दे देना इसमें हम माहिर हैं! जो सबसे सस्ती कोई चीज़ है वह लाकर देते हैं। और ये लीजिए 'वाण'! बहुत अच्छे! फिर चाहे वह (जिसे दिया) उसको उठाकर फेंक दे। तो हृदय का बड़प्पन हुए बगैर ये बातें नहीं होने वाली। और उस हृदय के बड़प्पन की आपके लिए कोई कमी नहीं है। वह हृदय के बड़प्पन की आपके लिए कोई कमी नहीं है। वह हृदय आप में है ही क्योंकि उसमें आत्मा का दीप जला है। उसने आपको प्रकाश दिया है। ऐसा स्वच्छ, सुन्दर हदय, उसमें जो कुछ बह रहा है, उसी की तरफ देखते रहना। मुझे यहाँ पर आप सबको देखकर लगा , 'अरे इस हृदय के प्रकाश में क्या-क्या देख रही हूँ? कितना मज़ा आ रहा है?' ऐसा ही आपको होना चाहिए, कि हम सब माताजी के शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं, हमने कोई गलती की तो माताजी को तकलीफ होगी। उन्हें तकलीफ हो इस तरह का हमें व्यवहार नहीं 24 বিং करना चाहिए। हम में एक तरह की सुज्ञता होनी चाहिए, एक तरह की पहचान होनी चाहिए। रोजमर्रा के व्यवहार में शालीनता होनी चाहिए। कहीं किसी व्यक्ति के पीछे पड़ना (तंग करना), कभी कुछ बहककर बड़बड़ाते रहना। बहुतों को गाना गाने की ही आदत होती है । किसी को कविता ही पढ़ते रहने की आदत होती है। वे कविता ही बोलते रहते हैं, तो कोई गाने ही गाते रहते हैं। ऐसा करना ठीक नहीं। जो ठीक है, व्यवहारी है, सौन्दर्यमय है, वही करना चाहिए। रोज के व्यवहार में भी सुन्दरता होनी चाहिए। अब आप माँ के लिए सब जेवर बनाते हो (इस दिन तिल के दानों के जेवर बनाने का रिवाज है।) कितने सुन्दर होते हैं वे ! परन्तु माने वे आप ही मेरे जेवर हो, आप ही से मैंने अपने आपको सजाया है। उन जेवरें में अगर स्वच्छता न हो या अशुद्ध हो, उनका जो मुख्य गुण है, वही अगर उनमें नहीं हो। मान लीजिए सोने की जगह सोना न होकर पीतल है तो उसका क्या अर्थ है? वैसे ही आपका है। आपमें की जो महत्वपूर्ण धातु है वही झूठी होगी तो उसे सजाकर मैं कहाँ जाऊंगी? तो आप ही मेरे जेवर हैं, आप ही मेरे भूषण हैं। मुझे आप ही ने विभूषित किया है। मुझे किसी दूसरे आभूषण की आवश्यकता नहीं है। यही मैं अब आपसे विनती करती हूँ कि बात करते समय, बच्चों से हो या और किसी के साथ हो, अत्यन्त समझदारी से, अत्यन्त नम्रता से और आराम से सब कार्य होना चाहिए। किसी से भी जबरदस्ती, जुल्म या जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है । इसी तरह एक दिन ऐसा आएगा जब सारी दुनिया आपकी तरफ आश्चर्य से देखेगी, 'अरे, ये कहाँ के लोग हैं? ये कौन आए?' तब मालूम होगा कि ये स्वर्गलोक के दूत हैं, सारी दुनिया को सम्भालने के लिए, सारी दुनिया को यशस्वी बनाने के लिए, और सबको परमात्मा के साम्राज्य के दरवाजे तक ले जाने के लिए, ये परमात्मा के भेजे हुए दुत हैं। ऐसे सभी दतों को मेरा नमस्कार! 25 संगीत एवं सहजयोग पुणे, ३० अगस्त १९८७, ङ. पटवर्धन और श्रीमती पटवर्धन इन दोनों ने आज आपको जो इतना मधुर गायन सुनाया है उसमें एक विशेष बात मेरी नज़र में आयी है कि , अत्यंत सोच-समझकर, चुने हुए ऐसे ही सब संगीत के कार्यक्रम हये हैं, मतलब ये कि संगीत का मुझे इतना गहरा ज्ञान तो नहीं है, ये तो सब डॉक्टर्स हैं, पर फिर भी उनकी ये विशेषता है कि चैतन्य जो है वो इन सुरों से बहुता है।' और 'भारतीय संगीत ये सच में ब्रह्माजी से ही उत्पन्न हुआ है, ओंकार के ध्वनी पर निर्माण हुआ है' इस बारे में मुझे बिल्कुल भी शंका नहीं है क्योंकि परदेस में लगभग चौदह देशों में सहजयोग का कार्य है और बिस्मिल्ला खान परसो ही जब आये थे, तब उन्होंने कहा कि, 'माताजी, आपने यह किस चीज़ का निर्माण शुरू किया है! मेरी तो कुछ समझ में आ रहा है। ये लोग किसी स्कूल में नहीं गये, किसी गुरु के पास नहीं सीखे, फिर भी इनको इसका इतना ज्ञान कैसे? ये दाद भी कितनी बराबर देते हैं! ऐसा लगता है कि हम अपने ही देश में बैठ कर गा रहे हैं, बजा रहे हैं। तो इनको ये सब आया कैसे?' मैंने कहा, 'जब आत्मा का प्रकाश पुरी तरह से आता है, तब ये स्वर्गीय संगीत बहुत सुंदर मनोगत हो जाता है। सब कुछ समझने लगता है।' इतने कठिन राग, मालवा जैसे राग इतनी तन्मयता से सुन रहे थे और अपनी जगह से उठने को तैय्यार ही नहीं थे । उसी तरह अपने भारतीय सहजयोगियों में भी ये समझ आनी चाहिए कि, 'संगीत को अत्यंत महत्व देना चाहिए।' भारतीय संगीत यह परमात्मा के तरफ से आया हुआ संगीत है। आज अपने देश में संगीतकारों की एवं संगीत की जो दुर्दशा दिखाई दे रही है उसे देख कर बहुत दुःख होता है। मैं तो काफी पुरानी हूँ, हमने बहुत से लोगों को सुना है और उस समय जो लोग थे, उनको सुनने वाले भी बहुत थे और समझने वाले भी बहुत थे, पर आज भी अपने इन सहजयोगियों में सब लोग बहुत दर्दी हैं। ऐसे में आपको खुशी हुई होगी कि ऐसे लोग आपके सामने बैठे हुए हैं। फिर से कहने का मतलब, कि इतने सुन्दर और इतने मन से भजन गायं कि सभी लोग इसमें रंग गये। ये सभी शब्द उनके हृदय को छू गये हैं क्योंकि हमारे लिये ज्ञानेश्वरजी बहुत बड़े हैं, गोरा कुंभार हैं ये सब हमारे ही हैं और उनके भजनों को इतनी सुंदर तरीके से संगीत में बिठाया है, उनकी अच्छी-अच्छी धुन बनाई है, वो लोगों को इतनी पसंद आती है कि उनकी समझ में आ रहा है कि उनका अभिन्दन कैसे करें, इसलिए वे आपके गाने के बीच- बीच में तालियाँ बजाने लगे इसके लिए आपने उनको माफ करना चाहिए । पटवर्धन साहब की भी मैं प्रशंसा करती हूँ। इनके पिताजी को ग्वालियर में मैंने काफी बार सुना है। उनकी बहुत आवाज़ दूसरी तरह की थी, पर उनकी आवाज़ में एक अलग तरह की मिठास है, काफी मिठी आवाज़ है और ऐसी मिठास काफी कम पुरुषों की आवाज़ में पायी जाती है। मुझे तो बहुत आश्चर्य हुआ, जिस मिठास से वो गा रहे थे ! कितनी तैयारी! इन सब का ज्ञान है उनको। परमात्मा आप दोनों को लम्बी आयु दे! आपके हाथों से संगीत की ऐसी ही सेवा होती रहे, यह हमारा आशीर्वाद है । ने अब राऊत साहब जो तबला बजाया, ये हम सब लोगों को पता ही है कि, 'ताल भी हमें शिवजी से ही मिला हुआ है।' और इस उमर में ऐसे तबलजी हैं, पर आने वाली पीढ़ी को ये पूछना चाहिये कि ऐसे लोग तैयार होने वाले हैं या नहीं? आने वाली पीढ़ी को आपने सिखाया है या नहीं? कुछ दिया है या नहीं? ये एक सवाल ही है आने वाली पीढ़ी के सामने। भी विचित्र प्रकार के, बेताल ऐसे कुछ भी बजाते बैठेंगे, तो अब इसकी जिम्मेदारी आप संगीतकारों पर आने वाली है। हमें ये कला दूसरों को देनी चाहिए। आपने सब लोगों का बहुत मनोरंजन किया है इसके लिए हम सब आप लोगों के वैसे ही ये दोनो लड़के-मुझे बड़ी खुशी हुई कि दीक्षित के लड़के संगीत क्षेत्र में हैं, जवान लड़के हैं, दीक्षितजी ने बहुत अच्छे संस्कार दिये हैं। इसी तरह से आप सभी सहजयोगियों ने अपने बच्चों को संगीत का तज्ञ बनाना चाहिए, संगीत सिखाना ही चाहिए। 'संगीत के बिना सहजयोग सम्भव होने वाला नहीं' ये बात हमें जान लेनी चाहिए। ये हम लोगों को परमात्मा की बहुत बड़ी देन है और फिर ये हमारी परम्परा भी है, महाराष्ट्र की, इसलिए हमने इस परम्परा को, जो हमें मिली हुई एक बहुत बड़ी देन है, इसे व्यर्थ जाने नहीं देना है। और बिना संगीत के आपको सहजयोग जमने वाला नहीं है। कृपा करके सब लोगों ने अपने बच्चों को तो संगीत सिखाना चाहिए। अगर गा नहीं सकते। तो समझना तो चाहिए। इतना आ गया तो भी बहुत है। तो आप संगीत की सेवा करते है इसलिए हम आपके अत्यंत आभारी हैं। आपका संगीत बार-बार सुनने को मिले ऐसी आशा करती हूँ। कुछ आभारी हैं । बहुत म का ू का क ट शम महाशिवरात्री पंढरपुर, २९ फरवरी १९८४, अनुवादित (इंग्लिश) इ. स आधुनिक युग में, एक स्थान जो कि पवित्र होना चाहिए, अत्यधिक अपवित्र हो जाता है। इन दिनों ऐसी अव्यवस्थित दशा है, और जबकि हम एक अत्यन्त महत्वपूर्ण चीज़ स्थापित करने की कोशिश में हैं। जैसा कि एक छोटे अंकुर को पत्थरों में से बाहर आने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए हमें अपने अपने मस्तिष्क को तन्दुरुस्त रखना होगा और हरेक चीज़ की ओर सही दृष्टिकोण रखना होगा। यह देखने का प्रयास करना होगा कि हम अपने धैर्य व बुद्धिमत्ता से क्या क्या प्राप्त कर सकते हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। मेरे विचार से हम सब लोगों के लिए आज का दिन बहुत महान है क्योंकि यह श्री विठ्ठल जी-विराट का स्थान है। यह वही जगह है जहाँ श्री विठ्ठल अपने एक भक्त पुत्र के सामने प्रगट हुए थे और जब उस (भक्त) ने उनको कहा 'अच्छा होगा आप एक ईंट पर खड़े रहें।' वहाँ वे खड़े रहे। कहते हैं कि वे खड़े इंतजार करते रहे। यह मूर्ति जिसे हम देख रहे हैं, कुछ लोग कहते हैं कि यह मूर्ति पृथ्वी माता (के गर्भ ) से उत्पन्न हुई, इसी रेत पर। इसको ले जाते हुए पुण्डरीकाक्ष ने कहा था, 'ये वही (विठ्ठल जी) हैं जो मुझे व मेरे माता-पिता को देखने के लिए आए थे। जब मैं (अपने माता-पिता की सेवा में) व्यस्त था। वे उसी ईंट पर, जिसे मैंने फेंका था, खड़े रहे। अब इस सम्पूर्ण कथानक को एक बहुत ही युक्तिपूर्ण ढंग से देखना चाहिए । ईश्वर स्वयं हर तरह का चमत्कार करने में सक्षम है। हम लोग भी जो ईश्वर द्वारा लाम उत्पन्न किए गए हैं कुछ ऐसे कार्य करते हैं जो चमत्कारपूर्ण लगते हैं। अगर हम १०० वर्ष पूर्व की संसार की दशा को देखें तो हमें बहत सी चीज़ें ऐसी मिलेंगी जो चमत्कारपूर्ण होंगी। एक सौ वर्ष पूर्व कोई ऐसा नहीं सोच सकता था कि ( आज) हम इतने दूर इस स्थान पर ये सब प्रबन्ध कर पाएंगे। लेकिन यह सभी चमत्कार ही परमात्मा की शक्ति से उत्पन्न होते हैं। इस चमत्कार के बहुत सूक्ष्मतम अश के हम भी भागी बन जाते हैं। परमात्मा के चमत्कारों की व्याख्या नहीं की जा सकती और न ही करनी चाहिए। वह हमारे मस्तिष्क से परे है। मनुष्य को भगवान के अस्तित्व का आभास कराने के लिए परमात्मा कुछ भी कर सकता है। २ वह (परमात्मा) तीनों आयाम में विचर सकता है और चौथे आयाम में भी। वह जो कुछ चाहे सब कर सकता है। इसको आप अपनी दिनचर्या में देख चुके हैं कि कितने चमत्कार होते रहते हैं। यह कैसे होता है? इसको आप नहीं समझ सकते। वह उन वस्तुओं में भी कार्य करता है जो निजीव हैं। लोग चकित रह जाते हैं कि यह सब कैसे होता है। अत: यह सब देखकर हमें स्वयं विश्वास करना चाहिए कि वह (ईश्वर ) है और वह जो चाहे सब कुछ कर सकता है। हम उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। इसके विषय में यानि ईश्वर के चमत्कार के बारे में कोई तर्क नहीं होना चाहिए। 'यह कैसे होता है? यह कैसे हो सकता है?' आप इसको समझा नहीं पूजा सकते। इसे (आप तभी समझ सकते हैं) जब आप मस्तिष्क की उस अवस्था को प्राप्त कर चुके हों जब आप अपनी अनुभूति द्वारा विश्वास करें कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ऐसी धारणा होनी अत्यन्त दुष्कर है। यह बहुत कठिन है क्योंकि ा हम सीमित व्यक्ति हैं। हम लोगों की शक्ति सीमित है। हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि ईश्वर सर्वशक्तिमान कैसे हैं? क्योंकि हमारे पास (इसके लिए) क्षमता नहीं है। यह परमात्मा जो हम लोगों के निर्माता हैं, हमारे रक्षक हैं, जिसकी यह इच्छा है कि हमारा अस्तित्व बना रहे, जो स्वयं ही हमारे अस्तित्व हैं वह सर्वशक्तिमान ईश्वर ही है। सर्वशक्तिमान। जो भी चाहे आपके साथ कर सकता है। वह दूसरे विश्व की संरचना कर सकता है तथा इस संसार का विनाश कुछ भी कर सकता है। ऐसा तभी होता है जब उसकी ऐसी इच्छा हो। वह 'शिव पूजा' के लिए पंढरपुर आने का मेरा विचार इसलिए हआ कि 'शिव' आत्मा का प्रतिनिधित्व (represent) करता है तथा 'आत्मा' आप सभी के हृदय में निवास करती है। 'सदाशिव' का स्थान आपके सिर के ऊपर है किन्तु वह आपके हृदय में प्रतिबिम्बित है। आपका मस्तिष्क ही 'विठल' है। अतः 'आत्मा' को आपके मस्तिष्क में लाने का अर्थ होगा आपके मस्तिष्क को आलोकित करना। आपके मस्तिष्क आलोकित होने का अर्थ है आपके सीमित क्षमता वाले मस्तिष्क की क्षमता असीमित होना, परमात्मा की अनुभूति के लिए। मैं इसके लिए 'समझना' शब्द प्रयोग नहीं करूंगी। वह कितना शक्तिशाली है, वह कितना चमत्कारी है, कितना महान है। (आत्मा के मस्तिष्क में आने का) दूसरा अर्थ है, मानव मस्तिष्क निर्जीव वस्तु सृजन कर सकता है। परन्तु जब आत्मा मस्तिष्क में आ जाती है तब आप सजीव वस्तुएं उत्पन्न करने लगते हैं, कुण्डलिनी का सजीव कार्य । यहाँ तक कि निर्जीव भी सजीव की भाँति व्यवहार करने लगता है क्योंकि आप निर्जीव को उनकी आत्मा से स्पर्श करा देते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक अणु या परमाणु के अन्दर न्यूक्लियस में उस परमाणु की 'आत्मा' रहती है। अगर आप आत्मा हो जाएं (यदि आप अपनी तुलना एक परमाणु से करें), तो यह इसी प्रकार होगा जैसे कि परमाणु का मस्तिष्क न्यूक्लियस हो और इस मस्तिष्क (अर्थात न्यूक्लियस) का नियंत्रण , इस न्यूक्लियस में स्थित आत्मा करे। इस प्रकार आपके पास चित्त यानि शरीर है 'अणु' का पूरा शरीर व तब न्यूक्लियस और उस न्यूक्लियस के अन्दर 'आत्मा' है। इसी प्रकार हमारा शरीर है-हमारा चित्त और उसके बाद हमारे पास न्यूक्लियस है यानि मस्तिष्क, तथा 'आत्मा हृदय में है। मस्तिष्क का संचालन 'आत्मा' हृदय में है। मस्तिष्क का संचालन 'आत्मा' के द्वारा होता है। यह कैसे ? इस १६००० प्रकार हृदय के चारों ओर सात 'औरा' तेज मंडल हैं जिसको कितने भी गुणा बढ़ा सकते हैं। ७ (7 raised to power 16,000, ७ पर १६,००० की शक्ति)। 'औरा' सातों चक्रों की निगरानी करते हैं। यह आत्मा इन 'औरा' के द्वारा देखती रहती है। देखती रहती है-मैं पुन: कह रही हँ-आत्मा इन 'औरा' के द्वारा देखती रहती है। ये 'औरा' मस्तिष्क में स्थित सातों चक्रों के व्यवहार पर निगरानी रखते हैं। ये मस्तिष्क में कार्यरत सभी नसों (Nerves) की भी निगरानी करते हैं। 'देखते' रहते हैं। लेकिन जब आप आत्मा को अपने मस्तिष्क में लाते हैं तब आप दो कदम आगे बढ़ जाते हैं। क्योंकि जब आपकी कुण्डलिनी ऊपर उठती है तो वह सदाशिव को स्पर्श करती है और सदाशिव आत्मा को सूचित करते हैं। यहाँ सूचित करने का मतलब है प्रतिबिम्बित होते हैं आत्मा में। अत: वह 'पहली' अवस्था है 'औरा' मस्तिष्क के विभिन्न चक्रों से संचार स्थापित करना शुरू कर देते हैं व एकबद्ध या सम्यक (Integration) करते हैं। लेकिन जब आप आत्मा को अपने मस्तिष्क में लाते हैं यह 'दूसरी' अवस्था है। असल में तब आप पूर्णरूप से 'आत्मसाक्षात्कार' पाते हैं, पूर्ण रूप से। क्योंकि तब आपका 'स्व', जो कि आत्मा है, आपका मस्तिष्क बन जाता है। यह क्रिया अति गतिशील होती है। यह मनुष्य के अन्दर 'पांचवां' आयाम (dimension) खोलती है। पहले जब आप साक्षात्कार पाते हैं व सामूहिक चेतना में आते हैं तथा आप कुण्डलिनी को ऊपर उठाने लगते हैं, तब आप 'चौथे' आयाम को पार कर जाते हैं। परन्तु जब आपकी आत्मा मस्तिष्क में आ जाती है, तब आप 'पांचवां' आयाम बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि आप कर्ता बन जाते हैं। उदाहरण के लिए मान लो मस्तिष्क कहता है 'इस वस्तु को ऊपर उठाओ', आप इसको अपना हाथ लगाते हैं व उसको ऊपर उठा लेते हैं। अत: आप 'कर्ता' हुए। परन्तु जब मस्तिष्क आत्मा बन 30 जाता है, तब आत्मा कर्ता हो जाती है और जब आत्मा कर्ता है तब आप पूर्णतया 'शिव' हो जाते हैं-आत्मसाक्षात्कारी। उस अवस्था में यदि आप नाराज हो तो भी आपको मोह नहीं होता। आपका किसी भी चीज़ से मोह नहीं होता। यदि आपके पास कुछ है, आपको उससे कोई मोह नहीं रहता। आप मोह ग्रस्त नहीं होते क्योंकि आत्मा निर्लिप्त है। पूर्णरूप से निर्लिप्त। जो कुछ भी हो आप किसी तरह के लगाव की चिन्ता नहीं करते। एक क्षण के लिए भी आपका लगाव नहीं होता। मैं तो कहंगी कि अपनी आत्मा की निर्लिप्तता को समझने के लिए हमें अपने आपको अच्छी तरह से अध्ययन करना चाहिए स्पष्ट रूप से कि कैसे हम लोग मोह में फंसे हुए हैं? सबसे पहले हम लोगों का मोह मस्तिष्क के द्वारा है, अधिकांशत: मस्तिष्क से। क्योंकि हमारे सभी संस्कार हमारे दिमाग में भरे पड़े हैं और हम लोगों का अहम् भी मस्तिष्क में है। अत: भावात्मक मोह भी हमारे मस्तिष्क द्वारा होता है और हमारे संस्कार मस्तिष्क में है और हमारा सब अहंकारी मोह भी मस्तिष्क द्वारा होता है। जिसके कारण भावात्मक लगाव मस्तिष्क के द्वारा होता है तथा हमारे अहंकारमय लगाव भी मस्तिष्क के द्वारा होते हैं। इसलिए यह कहा गया है कि साक्षात्कार के पश्चात् अलिप्त भाव के अभ्यास द्वारा 'शिवतत्व' का अभ्यास करना चाहिए। अब आप अलिप्त भाव का अभ्यास कैसे करें? चूंकि किसी भी वस्तु से हमारा लगाव मस्तिष्क के जरिए होता है-परन्तु यह हमारे चित्त (ध्यान) द्वारा होता है । अत: इसके लिए हमें अपना चित्त (ध्यान) नियंत्रित करना चाहिए जिसको हम 'चित्तनिरोध ' कहते हैं। 'यह ( चित्त) कहाँ जा रहा है?' सहजयोग के अभ्यास में यदि आपको ऊपर उठना है तो आपको अपने 'यंत्र' को सुधारना होगा-दूसरे के यंत्र को नहीं। इस बात को आपको निश्चित रूप से जानना चाहिए। अब आप अपने चित्त की केवल निगरानी करें -यह कहाँ जा रहा है? आप स्वयं की निगरानी करें। जैसे ही आप अपने को, अपने ध्यान को देखना शुरू करेंगे आप अपनी आत्मा से एकरूप हो जाएंगे। चूंकि यदि आप को अपने 'ध्यान' की निगरानी करनी है, तो आपको अपनी आत्मा बनना पड़ेगा। अन्यथा आप इसकी निगरानी कैसे करेंगे? अब आप देखें आपका ध्यान किधर जा रहा है? सबसे पहले आपका लगाव अधिक तर अपने शरीर से है। आप देखिए। ! 'शिव' को अपने शरीर से कोई लगाव नहीं। वह कहीं भी सो लेते हैं । वह कब्रिस्तान में जाते हैं और वहीं सो जाते हैं। क्योंकि वह लिप्त नहीं हैं। वह किसी भूत या किसी अन्य चीज़ द्वारा पकड़े नहीं जा सकते। वह विलग हैं। इस विलगाव की निगरानी करनी चाहिए व उसे अपने लगावों के जरिए देखना चाहिए । आप लोग साक्षात्कार प्राप्त जीवात्माएं हैं परन्तु अभी शुद्ध आत्मा नहीं (बने हैं)। क्योंकि वास्तव में अभी वह आत्मा आपके मस्तिष्क में नहीं आयी है। फिर भी आप साक्षात्कारी जीवात्मा हैं। अत: आप कम से कम अपने ध्यान (चित्त) की निगरानी कर सकते हैं। आप यह कर सकते हैं। आप अपने ध्यान (चित्त) की निगरानी स्पष्ट रूप से कर सकते हैं। और तब अपने 'ध्यान' को नियंत्रित भी कर सकते हैं। यह बहुत आसान है। अपने 'ध्यान' को नियंत्रित करने के लिए-इसे केवल इस वस्तु पर से उस अन्य वस्तु पर लगाएं। अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन लायें । यह सब कुछ करना होगा, अभी। साक्षात्कार के पश्चात् पूर्ण निर्लिप्त भाव। शरीर आराम माँगता है। आपका चित्त कहाँ जा रहा है, उस पर हर वक्त ध्यान देने का थोड़ासा कष्ट कीजिए। आपको जो आरामदायक प्रतीत होता है उसको थोड़ा कष्टप्रद बनाइये । इसी वजह से लोग हिमालय पर गये। देखिए ! इस स्थान पर आने में ही हम लेगों को कितनी बाधाओं का सामना करना पड़ा। हिमालय पर पहुँचने की आप कल्पना भी कर सकते हैं क्या? साक्षात्कार के पश्चात् (लोग) अपने शरीर को हिमालय पर ले जाया करते थे। (वे शरीर से कहते थे) 'अच्छा, अब ये सब सहन करो। देखें, अब आप इसमें कैसे उतरते हैं?' जिसे आप तप कहते हैं उसकी अब (आत्मसाक्षात्कार के बाद) शुरूआत होती है। एक तरह से यह एक तपस्या है, जिसको आप बहुत ही आसानी से सहन 31 कर सकते हैं। क्योंकि जब आप साक्षात्कार पाए हुए जीवात्मा हैं। यह सब आनन्द-मग्न स्थिति में इस शरीर को इस योग्य बनाएं। शिवजी के लिये कोई फर्क नहीं कि वे कब्रिस्तान में रहें या अपने कैलाश पर या कहीं भी । आपका ध्यान कहाँ है? आप देखें। मनुष्य का चित्त बहुत ही खराब होता है। बहुत ही उलझा हुआ, मस्तिष्क की इस उलझी स्थिति के लिये स्पष्टीकरण दिया जाता है 'हमने यह इसलिये किया' या दूसरों को स्पष्टीकरण देना पड़ता है। स्पष्टीकरण की कोई जरूरत नहीं, और न ही देना चाहिए, न स्वीकार करना चाहिए और न माँगना चाहिए। कोई स्पष्टीकरण नहीं। बिना किसी स्पष्टीकरण के रहना उत्तम है। सरल हिन्दी में कहा है- 'जैसे राखहु, तैसे ही रहूँ', अर्थात् जिस तरह भी आप मुझे रखें, मैं उसी दशा में रहूँगा, और मैं आनन्द उठाऊंगा। कबीर दास इसके आगे कहते हैं, 'यदि आप मुझे हाथी यानि राजसी सवारी पर जाने को कहें, मैं जाऊंगा। यदि आप पैदल जाने को कहें, मैं पैदल जाऊंगा।' जैसे राखहं, तैसे ही रहं । अतः इस विषय में कोई प्रतिक्रिया नहीं (होनी चाहिए), कोई प्रतिक्रिया नहीं। किसी तरह की सफाई नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं (होनी चाहिए) । निरर्थक। अब दूसरी बात भोजन के विषय में है। पशुओं की तरह मनुष्य की यह सबसे पहली जरूरत है। भोजन पर किसी भी तरह का ध्यान नहीं देना चाहिए। चाहे नमक हो या नहीं, चाहे ये हो या वो है या वह, भोजन पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए। वास्तव में यह याद नहीं रखना चाहिए कि सुबह आपने क्या खाया है? लेकिन हम इस विषय में सोचते रहते हैं कि हम कल क्या खाने जा रहे हैं? हम भोजन का उपभोग इस शरीर को चलाने के लिए नहीं करते, परन्तु इस जिब्हा (जीभ) के आनन्द की अत्याधिक संतुष्टि करते हैं। आप जब यह एक बार समझ लेंगे कि (स्वाद से प्राप्त) आनन्द एक स्थूल ध्यान का प्रतीक है। किसी भी प्रकार का ऐसा आनन्द अति स्थूल होता है, बहुत ही स्थूल होती है। लेकिन जब मैं कहती हूैँ 'कोई आमो-प्रमोद नहीं' इसका यह तात्पर्य नहीं कि आप एक गम्भीर व्यक्ति बन जाएं या ऐसे जैसे कि परिवार में कोई मर गया हो। आपको शिव की तरह होना चाहिए-बिल्कुल अलिप्त। वह (शिवजी) शादी के लिए एक ऐसे बैल पर सवार होकर आए जो बहुत तेज़ दौड़ता था। आप गौर करें, वे बैल पर अपने दोनों पैर इस तरह करके बैठे थे। और बैल तेज़ भागा जा रहा था। वे बैल को पकड़े हुए थे और उनके पैर इस तरह थे। वे अपनी शादी के लिए जा रहे थे। उनकी बारात में कोई आदमी एक आँख का, तो कोई बिना नाक का, हर तरह के हास्यास्पद व्यक्ति जा रहे थे । और उनकी पत्नी ( पार्वती ) लोगों द्वारा शिवजी के प्रति अभद्र बातें करने से अजीब बेचैनी महसूस कर रही थीं। वह ( शिवजी) जरा भी चिन्तित नहीं थे कि उनकी इज्जत का क्या होगा? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आप हिप्पी बन जाएं। अब देखिये, जब आप एक बार ऐसा सोचना शुरू कर देंगे , आप हिप्पी बन जाएंगे। बहुत लोगों की धारणा है कि यदि शिवजी की तरह व्यवहार किया जाय तो आप भी शिव बन जाएंगे। कई लोग इस प्रकार का भी विश्वास रखते हैं कि यदि आप गांजा लें तो आप भी शिव बन जाएंगे क्योंकि शिवजी गांजा लेते थे। (लोग नहीं सोचते कि) वह ( शिवजी ) गांजा इस संसार से खत्म करने के लिए लेते थे । उनके लिए यह क्या मतलब रखता है, चाहे उनके लिए गाजा हो या नहीं। आप उनको कुछ भी दीजिए उनके लिए कोई मतलब नहीं रखता । वह कभी भी 'होश खोये' मालूम नहीं होंगे। इसका तो कोई सवाल नहीं। वह सब कुछ खाते थे। वे (शिवजी) जैसे सभी चीज़ों के प्रति निर्लिप्त थे, लोग वैसे ही रहने का सोचते हैं। वह अपनी दिखावे के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते थे । शिवजी के लिए दिखावा क्या? वह जिस प्रकार भी दिखते हैं, उसी में उनकी सुन्दरता है। उनके लिए किसी भी चीज़ को करने की | आवश्यकता नहीं थी। अत: किसी भी चीज़ में लिप्त होना कुरूपता है, अभद्रता है। लेकिन आप जैसा चाहें वैसा वस्त्र पहन सकते हैं । यदि आप साधारण वस्त्र में भी हैं, तो आप अत्याधिक शानदार व्यक्ति लगेंगे। लेकिन ऐसा नहीं कि आप कहें, 'ठीक है, तो इन हालातों में हम एक चद्दर लपेट कर रहेंगे।' आपके अन्दर, आत्मा के जरिए जिस सुन्दरता की निखार हुई है, वह शक्ति प्रदान करती है ताकि आप जो चाहें वह धारण कर लें! इससे आपकी सुन्दरता में कोई फर्क नहीं पड़ता, आपकी सुन्दरता हर समय बनी रहती है। 32 परन्तु क्या आप उस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं? उस अवस्था को आप तभी प्राप्त कर सकते हैं जब आपकी आत्मा आप के मस्तिष्क में आ जाती है। अहंकारयुक्त व्यक्ति के लिए यह बहुत कठिन है और यही कारण है कि ऐसे लोग आनन्द नहीं उठा पाते हैं। थोड़े से बहाने से ही वे लुढ़क जाते हैं। और आत्मा जो कि आनन्द का स्रोत है प्रकट नहीं होती, दिखलायी नहीं पड़ती है। 'आन्द' ही सुन्दरता है। आनन्द स्वयं सुन्दरता है। परन्तु यह वह अवस्था है जिसको की पाना पड़ता है। लगाव विभिन्न तरीकों से आता है। आप इसके साथ (लगाव के साथ) थोड़ा आगे बढ़े तो आपका अपने परिवार से लगाव हो जाएगा। 'मेरे बच्चे का क्या होगा? मेरे पति का क्या होगा? मेरी माँ का, मेरी पत्नी का क्या होगा ?' और ऐसी सब निरर्थक बातें चलती रहती है। तुम्हारा बाप कौन है और तुम्हारी माँ कौन है? कौन तुम्हारा पति है और कौन तुम्हारी पत्नी है? शिवजी यह सब कुछ नहीं जानते हैं। उनके लिए 'वह' और 'उनकी शक्ति' अपृथक (कभी न अलग होने वाली) वस्तुएं हैं। अत: एक व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। कोई 'द्वैतभाव' नहीं है। द्वैतभाव होता है तभी आप कहते हैं 'मेरी' पत्नी। आप लगातार कहते जाते हैं 'मेरी' नाक, 'मेरा' कान, 'मेरा' हाथ, 'मेरा', मेरा, मेरा, मेरा...... आप नीचे गिरते जाते हैं। जब तक आप 'मेरा' कहेंगे वहाँ कुछ न कुछ द्वैतभाव होगा। लेकिन जब मैं (श्रीमाताजी) कहती हैं, 'नाक', कोई द्वैतभाव नहीं होता है। शिव- शक्ति अर्थात शक्ति-शिव। कोई द्वैतभाव नहीं है। फिर भी हम पूर्णरूप से द्वैतभाव में 'वह' तब | रहते हैं और उसके कारण लगाव होता है। यदि द्वैतभाव नहीं है तो लगाव कैसा? यदि आप ही प्रकाश हैं और आप ही दीपक, तब द्वैतभाव कहाँ? यदि आप ही चन्द्रमा हैं और आप ही चन्द्रिका तो द्वैतभाव कहाँ? यदि आप ही सूर्य हैं और आप ही सूर्य का प्रकाश, आप ही शब्द हैं तथा आप ही उसका अर्थ तब द्वैतभाव कहाँ? परन्तु जब पृथकता होती है, वहाँ द्वैत होता है। और इस पृथकता के कारण आप लगाव महसूस करते हैं। चूंकि जब आप स्वयं 'वह' हैं, तब आप कैसे उससे लिप्त होंगे? क्या आप इस बात को समझ रहे हैं? क्योंकि 'आप' में व आपके 'उस' के बीच अन्तर तथा दूरी है, आप उससे लिप्त हो जाते हैं? परन्तु, यह 'मैं' हूँ, दूसरा कौन है? सम्पूर्ण विश्व मैं हूँ, दूसरा कौन है? सब कुछ 'मैं' हूँ, दूसरा कौन है ? ऐसा नहीं है कि यह मस्तिष्क की तरंग या मस्तिष्क के अहम् (अहंकार) का झोंका है। अतः दूसरा कौन है? कोई नहीं। यह तभी सम्भव है जब आप की आत्मा आपके मस्तिष्क में आ जाए और आप विराट के स्वयं अंग प्रत्यंग बन जाएं। जैसे कि मैं बता चुकी हूँ, विराट ही मस्तिष्क है। तब आप जो कुछ भी करते हैं, चाहे आप अपनी नाराज़गी दिखाते हैं, चाहे स्नेह दिखाते हैं, चाहे अपनी करुणा दिखाते हैं या जो कुछ भी, यह आत्मा है जो ऐसा व्यक्त करती है। क्योंकि मस्तिष्क अपना अस्तित्व खो चुका है। सीमित कहा जाने वाला मस्तिष्क असीमित आत्मा बन चुका है। ऐसे विषय में में कैसे उपमा (समानता) दूं, मुझे नहीं मालूम। सचमुच मुझे मालूम नहीं। परन्तु हम यह कर सकते हैं कि इसको समझने की कोशिश करें। यदि रंग को समुद्र में डाल दिया जाय तो समुद्र रंगीन हो जाएगा यह सम्भव नहीं है। 1. लेकिन आप इसे समझने की कोशिश करें । यदि थोड़ा सा सीमित रंग समुद्र में डाल दिया जाय तो रंग अपना अस्तित्व पूर्णतया खो देगा। अब आप दूसरी तरह से सोचें। यदि समुद्र को रंगीन कर दिया जाय और उसे वातावरण में बिखेर दिया जाय या आंशिक रूप से किसी हिस्से में, या किसी स्थान पर या किसी अणु पर या किसी भी वस्तु पर, तो सब कुछ रंगीन हो जाएगा। आत्मा समुद्र की भांति है जिसके अन्दर रोशनी भरी पड़ी है। और जब इस समुद्र (रूपी 'आत्मा') को आपके मस्तिष्क के छोटे प्याले में उड़ेल दिया जाता है तब प्याला अपना अस्तित्व खो देता है और सब कुछ आध्यात्मिक हो जाता है। सभी कुछ। आप सब कुछ आध्यात्मिक बना सकते हैं । हरेक चीज़। आप जिस चीज़ को भी स्पर्श करें वह आध्यात्मिक हो जाती है। रेत आध्यात्मिक हो जाता है, जमीन आध्यात्मिक हो जाती है, वातावरण आध्यात्मिक बन | 33 जाता है, ग्रह-नक्षत्र इत्यादि भी आध्यात्मिक बन जाते हैं। सब कुछ आध्यात्मिक हो जाता है। यह आत्मा समुद्र (की भांति असीम) है। जबकि आपका मस्तिष्क सीमित है। आपके सीमित मस्तिष्क में निर्लिप्तता लानी होगी। मस्तिष्क की सभी सीमाओं को तोड़ना होगा। ताकि जब यह समुद्र इस मस्तिष्क को प्लावित कर देता है तब यह उस छोटे प्याले को तोड़ दे, और उस प्याले का कण-कण रंग में रंगा जाय। सम्पूर्ण वातावरण, प्रत्येक वस्तु, जिस पर भी आपकी दृष्टि जाय, रंग जानी चाहिए। आत्मा का रंग, आत्मा का प्रकाश है, और ये आत्मा का प्रकाश कार्यान्वित होता है। कार्य करता है, सोचता है, सहयोग प्रदान करता है, सब कुछ करती है। यही कारण है आज मैंने शिवतत्व को मस्तिष्क में लाने का निश्चय किया है। इसका पहला तरीका है कि आप अपने मस्तिष्क को यह कह कर शिव तत्व की ओर लाएं 'ए, मस्तिष्क महाशय! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम इस पर ध्यान दे रहे हो, उस पर ध्यान दे रहे हो, उस पर ध्यान दे रहे हो, लिप्त हो रहे हो। अब अलग हो जाओ। केवल मस्तिष्क बनो। केवल मस्तिष्क। अलग हो जाओ, पृथक हो जाओ। और उसके बाद यह निर्लिप्त मस्तिष्क आत्मा के रंग से पूर्णतया भर जाएगा। यह अपने आप होगा। जब तक आपके चित्त पर ये सीमाएं हैं यह घटित नहीं होगा। अतः इसके लिए निश्चय ही वास्तविक रूप से तपस्या करनी होगी, हरेक व्यक्ति को करनी होगी । मैं आप लोगों के साथ हूँ, अत: उसके लिए आपको उस तरह की करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन पूजा आपको वह अवस्था प्राप्त करनी है, और उस अवस्था को पाने के लिए आपको पूजा करना आवश्यक है। मुझे उम्मीद है कि मेरी इस जिन्दगी में आप में से बहत से लोग 'शिवतत्व' बन जाएंगे। लेकिन आप यह न सोचे कि मैं आप लोगों को पीड़ा उठाने के लिए कह रही हूँ। इस प्रकार के उत्थान में किसी प्रकार का पीड़ा नहीं है। यदि यह समझ लें कि यह पूर्ण आनन्दमय अवस्था है। उस समय आप 'निरानन्द' हो जाते हैं। सहस्रार में इसी आनन्द का नाम 'निरानन्द' है और आपको मालूम है, 'आपकी माँ' का नाम 'निरा' है। अत: आप 'निरानन्द' हो जाते हैं। अत: आज शिव की पूजा विशेष महत्व (अर्थ) रखती है। मुझे आशा है आज की इस पूजा में आप जो कुछ भी बाह्य रूप में, स्थूल-रूप में करेंगे, वह अति सूक्ष्मस्तर रूप में भी घटित होगा। और मैं आपकी आत्मा को आपके मस्तिष्क में पहुँचाने की कोशिश कर रही हैूँ। परन्तु कभी-कभी यह कठिन होता है, क्योंकि आपका मस्तिष्क अभी भी लिप्त अवस्था में है। अपने को पृथक (निर्लिप्त) करने की कोशिश करें। क्रोध, वासना , लालच, सभी वस्तुओं को कम करने की कोशिश करें। आज मैंने डॉ.वारेन से कहा- 'सभी को कम खाने के लिए कहो, पेटू की तरह नहीं' देखिए कभी-कभी किसी बड़ी एक दावत में ज्यादा खा लें, लेकिन हर समय उस तरह नहीं खा सकते । यह एक सहजयोगी की निशानी नहीं है। नियंत्रण करने की कोशिश करें। अपनी बातचीत को भी नियंत्रित करें, चाहे आप अपनी बात में नाराज़गी प्रकट करें या दया भावना दर्शाए या कृत्रिम करुणा। मैं जानती हूँ आप में से कुछ लोग इसमें ज़्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे। ठीक है। मैं आपको यह बात कई बार बतलाने की कोशिश करूंगी, मैं आप लोगों की सहायता करने की कोशिश करूंगी लेकिन आप लोगों में से अधिकांश लोग इसको कर सकते हैं। और आपको इसके लिए प्रयास करना चाहिए । | अत: आज से हम लोग गहरे स्तर पर सहजयोग प्रारम्भ करेंगे, जहाँ आपमें से कुछ लोग पहुँच न सके। परन्तु आप में से अधिकांश लोगों को और भी गहराई में उतरने की कोशिश करनी चाहिए। प्रत्येक को। इसके लिए आपको ज्यादा पढ़े लिखे या उच्च पद वाले व्यक्ति होने की जरूरत नहीं है । नहीं, बिल्कुल नहीं । परमात्मा आपको सुखी रखे ! 34 NEW RELEASES Title Date Place Lang. Type ACD DVD 11th Feb.1983 486 Mahashivratri Puja (Part 1 & 2) 330* Delhi Sp/Pu E 331* 18th Jan.1983 M/E Puja in Nasik (Part 1 & 2) Nasik Sp/Pu श्री भूमीदेवी पूजा 4th Feb.1985 Sp/Pu| 327 M Pune श्री महाशिवरात्री पूजा ( भाग १ व २) 488* 8th Mar.1986 332 Sp/Pu Pune 17th Dec.1989 484° Alibag 323 Alibag Puja : Advice to Sahajayogis Sp E 29th Dec.1991 324' 485* Shri Mahalakshmi Puja Alibag M/E Sp/Pu st 322 21* Mar.2010 Puja Birthday Puja (Part 1 & 2) Cabella Music| 328 20/21-3-2010 Cabella Birthday Puja Evening Pro.(Part 1-2) 5th Nov.2010 Abhay Sapori-Santoor Vadan & Diwali Pujan 334 Noida Music 1st Dec.2010 Music| 325* Bhavarpan Noida 26, 30h Nov. & Jaipur & Noida Visit 2010 (Part 1 & 2) | Jaipur & 326 Pu/Mu 4th Dec.2010 Noida Bhajan Title Artist Song List ACD ACS Bhavarpan 171* Abhijit Ghoshal प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in हमारा मुख्य कार्य विश्व भर के लोगों के सहस्रार को खोलना है। यह कार्य अत्यन्त सरल है। और इसे आप कर सकते हैं तथा सामूहिक रूप से हिड यदि आप इस कार्य को करेंगे तो यह और बेहतर कार्यान्वित होगा । से आप यदि सामूहिक हैं तो इसे बहुत ही अच्छी तरह कार्यान्वित कर सकते हैं। ा ु ---------------------- 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-0.txt हिन्दी जनवरी-फरवरी २०११ २ र ७ है प का ला 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-1.txt ... ती आप मुझे कहीं भी देख पाओीगे। आप किसी रस्ते (गली) से जी रहे होंगे और अचानक से आप पाओगे कि श्री माताजी आपके साथ चल रही हैं। ती ये (सहजयोग का) दूसरा युग शुरू ही चुकी है। और आप लोगों को आचम्भित नहीं होना चाहिए, अगर में आपके बिस्तर पर बैठकर आपके सिर पर हाथ घुमाते हुए दिखूं या फिर आप मुझे ईसी-मसीह के रुूप में आपके कमरे में चलकर आते हुए पी सकते हो। या फिर श्री राम के रूप में पा सकते हो । ये ती अब होना ही है। तो इसके लिए आपको तैयार रहना है । ५ मई १९८४ 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-2.txt NNNN ब 0000 Iमिस इस अंक में भारतवर्ष - ऐक योगभूमि ... ४ ल VAVM राN] VNNN ENNN तिलांजली : तिल की अंजली ...२२ बब SVAMM MVN ा दे महाशिवरात्री पूजा ...२८ अन्य.... संगीत एवं सहजयोग...२६ ঢ UUUট হ 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-3.txt आज सबेरे मैंने आपसे बताया था अंग्रेजी में कि परमात्मा ने हमें जो बनाया है, आप इसे माने या न माने, उसका अस्तित्व आप समझे या न समझे वो है। और उसने हमें जिस प्रकार बनाया, जिस तरह से बनाया है वो भी एक बड़ी खूबी की चीज़ है। मैंने सबेरे बताया था कि कैसे बहुत थोड़े से समय में एक अमीबा जैसे प्राणी से मनुष्य बनाया गया। और आप को मनुष्य बनाया गया सो क्यों? और आगे इसका क्या होने वाला है या ऐसे ही भटकता रहेगा? मैंने बताया कि आपको भगवान ने स्वतंत्रता दे दी है। चाहे तो आप परमात्मा को पायें और चाहे तो आप शैतान के राज्य में जायें। ये आपकी स्वतंत्रता है। इसके लिए कोई भी आप पर, कोई भी आप पर परमात्मा का बंधन नहीं। अगर आप गलत रास्ते जाएंगे तो आप पर वहाँ के जो कुछ भी कृपायें हैं वो होंगी। और जो आप सही रास्ते जाएंगे तो सही रास्ते का जो भी आशीर्वाद है वो आपको मिलेगा। गलत और सही जानने के लिए भी बहुत बड़ी-बड़ी हस्तियाँ संसार में आयीं, थे। उनको हम 'अवतार' कहते हैं, अवतरित हैं। बड़े-बड़े गुरु इस संसार में आयें जो असली गुरु वो जब भी आये उन्होंने सही रास्ता, धर्म का रास्ता बताया कि आप कायदे से रहिये, बीचो-बीच रहिये, अति न करिये। धर्म के नाम पर जब - जब कोई-कोई संकट आये और जब ये देखा गया कि संसार से मनुष्य नष्ट होने को आया है तब-तब संसार में ये अवतार हये हैं। अब इन अवतारों को संसार में आ कर के जो कार्य करना था वो उन्होंने किया। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो अवतार हये और खत्म हो गये। उनका भी अपने अन्दर निशान बना हुआ है। उनके भी अपने अन्दर माइलस्टोन्स बने हये हैं, उनका भी चित्र हमारे अन्दर बना हुआ है। वो भी हमारे अनेक, जो-जो हमारी प्रगति होती गयी उसके रास्ते पर अलग-अलग जगह अपने-अपने मन्दिर बना कर बैठ गये। हम सोचते हैं कि गुरुनानक आये, आज ही मैं गलती से उस रास्ते से चली गयी थी। उनका प्याऊ देखा तो एकदम इतनी वहाँ चैतन्य की लहरियाँ बह रही थी, इतना आनन्द आया उस जगह को देखकर। तो क्या गुरुनानक संसार में आये और बस वहाँ प्याऊ मात्र किया और चले गये! बिल्कुल भी नहीं। वह इतनी बड़ी हस्ती थी कि वह हमारे अन्दर अपना घर कर गये। हमारे अन्दर सेमिनार, १०/३/१९७९ 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-4.txt एक योगभूमि भारतवर्ष उनका एक स्थान है। गुरुओं का हमारे अन्दर जो स्थान है, उसी तरह उन्होंने ये सब कुछ बनाया है। कल मैं आपको सब बारीकी में बताऊंगी कि ये सारे लोग जो अवतरित हये हैं उनका हमारे अन्दर कहाँ-कहाँ स्थान है और किस तरह से वो हमारी चालना करते हैं। अगर परमात्मा ने हमें इतने सुघटिती से बनाया है, जैसे मैंने बताया कि एक आँख को देख लीजिए । क्या कमाल की चीज़ बनायी ! अगर उसके अन्दर वाकई में हमारे ऐसी चीज़ें बना दी हैं कि जिनकी वजह से हम चलते, बोलते, खाते-पीते और संसार की सारी क्रियायें करते हुए भी परमात्मा का चिन्तन करते हैं । तो ये जरूर है कि उसने कोई न कोई ऐसी चीज़ हमारे अन्दर रख दी होगी जिसकी वजह से हम उसको जान सके। उसी तरह की चीज़ हमारे अन्दर है, पूरी तरह से हमारे अन्दर है। लेकिन उसके मामले में जो भी लिखा गया है, जो कुछ भी कहा गया है, लोग उसे या तो सोचते हैं बकवास है, या झूठ है और या उसे इस्तमाल करके उसका दुरूपयोग करते हैं। उससे लोग पैसा बनाते हैं, रुपया बनाते हैं, कहते हैं, 'हम आपको भगवान से मिलायेंगे। ये तरीका भगवान को मिलाने का है, वो तरीका भगवान को मिलाने का है। आपकी जितनी श्रद्धा हो उतना हमें दे दीजिये।' और इस श्रद्धा के नाम पर आपको नोचते- खसोटते रहते हैं। जो धर्म हमारे अन्दर बसा हुआ है, उसको इन्होंने लाकर बाहर बसा दिया। और उस पर रुपया, पैसा बनाने लग गये। तो आज के जो बच्चे हैं, जो पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी बच्चे हैं उनको शंका होने लगती है कि ये धर्म-धर्म होता क्या है? धर्म के नाम पे तो नोच-खसोट, मारा- मारी, और हर तरह की जैसे लूटमार, बड़े से बड़े चोर-डाकू भी जो काम नहीं करेंगे ऐसे काम ये धर्म के नाम पर करते हैं। तो ऐसे धर्म पे विश्वास करना चाहिए या नहीं करना चाहिए? और यही समा सबसे अच्छा है जब कि सहजयोग आपके सामने आ गया है। मैंने कल कहा था कि धर्मान्धता एक तरफ और दूसरी तरफ अविश्वास बीचो-बीच सहजयोग का दर्शन होना जरूरी था। और इसलिए यह समय ऐसा आ गया है कि आप इसे पा 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-5.txt लें, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। अपना भारतवर्ष, एक योगभूमि है ऐसे बहत से लोग लेक्चर देते हैं। खास कर के जो राजकारण में हिन्दू धर्म को संस्थापन कहते हैं। मुझे तो हँसी आती है। इनमें से कितने लोगों को हिन्दू धर्म क्या है ये भी मालूम नहीं है । वो ये भी नहीं जानते कि हमारे ऋषि- मुनियों ने मनन कर के कौन सी चीज़ की खोज लगायी थी, कौनसी चीज़ का पता लगाया था, वो भी नहीं मालूम। हमारा देश एक विशेष तरह का देश है। देखिये यहीं पर एक छत मात्र है, चारों तरफ खुला हुआ है। इस वातावरण में बैठ कर के आप हमारा लेक्चर सुन रहे हैं। परदेश में जहाँ हम रहते हैं, लंडन में, ऐसे अगर आप दस मिनट भी कहीं बैठ लें तो शर्त हो जाए। हर समय बरसात, हर समय आफत, हर समय कड़ी सी कड़ी ठण्ड, जिसमें आदमी चल भी नहीं सकता। एक तरह के निसर्ग के कोप में रहने वाले देश हैं। वहाँ चलना-फिरना भी मुश्किल है। अगर आप घर से निकलिये तो आपको आधा घण्टा तो तैयार होने में लगेगा। जूते पहनिये, मोजे पहनिये, उपर से लबादे डालिये, सर ढकिये, अगर आप वैसे ही बाहर चले जायें तो हो गया आपका खात्मा। ऐसे देशों में जो लोग पैदा हये थे उनको पूरी समय नेचर से आवाहन लेना पड़ता था। निसर्ग का उनके उपर चैलेंज है। और उस चैलेंज की वजह से, उस आवाहन की वजह से उनकी दृष्टि बाहर की ओर गयी। उन्होंने सोचा कि 'भाई, घर कैसे बनायें कि जिस में बिल्कुल भी सर्दी न लगे? वाहन कैसे बनायें जिससे इधर -उधर जाते हो जिसमें बारिश की तकलीफ न हो।' नहीं तो उसकी नुकीली चोट खा जाती है इन्सानों को। हम लोग बड़े भाग्यशाली हैं, आपको पता नहीं कि हमारी जो आबो-हवा है, इन्सान अगर संन्तोषी हो तो एक पेड़ के नीचे भी आराम से रह सकता है, जंगलों में भी रह सकता है। खाने-पीने को शस्य-श्यामला भूमि है। हम ये नहीं जानते कि हमें खाने- पीने का इस देश में कितना आराम है। उन देशों में एक भी चीज़ आपको पेड़ की लगी हुई खाने को नहीं मिलेगी। सब टीनों में ड्राली हुई, पता नहीं कहाँ से, कितने वर्ष पहले चली हुई मिलती है। याने यहाँ तक कि मछलियाँ भी आस्ट्रेलिया जैसे देशों से, न्यूजीलैण्ड जैसे देशों से आती है। आप सोच लीजिए कहाँ वो कहाँ ये। और यहाँ पर आपको इतनी चीज़ें उपलब्ध हैं, उन देशों में नहीं है। जैसे कि एक सिल्क का कपड़ा अगर वहाँ पे आप दिखायें तो लोग सोचते हैं कि आपसे रईस और कोई नहीं होगा। अगर कॉटन आप पहनते हैं तो लोग सोचते हैं कि आप इतने रईस हैं कि कॉटन आप कैसे पहन लेते हैं। वहाँ तो हर समय आप नाइलॉन ही पहनिये, उसके सिवा आप कुछ पहन ही नहीं सकते। और कॉटन भी पहनते तो उसमें भी नाइलॉन मिला रहता है। क्योंकि वहाँ इतना महंगा है, कॉटन पहनना कि लोग तरसते रह जाते हैं। वहाँ की वायल अगर आपको बताऊं, अभी भी वायल वहाँ पर मैंने देखी थी, जो करीबन दो सौ रुपये गज थी । इसमें की हम दो 6. 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-7.txt सौ रुपये में अच्छी साड़ी यहाँ की वोयल ही लें, दो सौ तो बहत हो गये। ऐसे देश में यहाँ की इस तरह की उपलब्धियाँ नहीं है, यहाँ आदमी आसानी से नहीं रह सकता। ऐसे देश में लोगों का बाहर जाना, और बाहर की निसर्ग की व्यवस्था करना बिल्कुल ही जरुरी है। उसके बगैर वो रह नहीं | सकता। वहाँ कोई रह नहीं सकता इस तरह से कि जैसे आप रहे हो। लेकिन आपका देश ऐसा नहीं है। आपका देश परमात्मा ने विशेष रूप से बनाया होगा। यहाँ | आप रात को चाँद-सितारे देख लेते हैं। सबेरे सूरज देख लेते हैं। वो लोग तो सूरज देखने को तरसते हैं। ऐसे-ऐसे अजीब देश हैं वहाँ छ:-छ: महिने सूरज ही नहीं आता । तो इस बढ़िया देश में, यहाँ के मनुष्य को रोजमर्रा के जीवन के लिए कोई बड़ी तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं है। ऐसे देश में लोगों ने परमात्मा की ओर ध्यान दिया और सोचा कि ये जो सृष्टि बनायी गयी है और जो हम भी बनाये गये हैं इसका बनाने वाला कौन है? किसने बनायी होगी? और वो कौनसी शक्तियाँ हैं जो अंतर्हित है, जो इसके अन्दर, करंट से जो उसको चलाता है। और उन्होंने मनन शक्ति से इसकी खोज की। और उन्होंने पता लगाया कि हमारे अन्दर परमात्मा की प्रचंड शक्तियाँ हैं। हमारे अन्दर परमात्मा का प्रतिबिंब है, जिसे हम 'आत्मा' कहते हैं। और ये जो आत्मा है, इसको जब मनुष्य पा लेता है, जब आत्मा से संबंधित हो जाता है तो उसकी प्रचंड शक्तियों के द्वार खुल जाते हैं। और फिर उसके हाथ से परमात्मा की दैवी शक्ति बहने लग जाती है और वो भी दैवी हो जाता है। पुरुष इस पे जितना काम इस देश में हुआ है और हजारों वर्ष पहले उतना कहीं भी नहीं हुआ है। इसलिए अपने देश को योगभूमि कहते हैं। आपको धन्यवाद देना चाहिए परमात्मा को और सोचना चाहिए कि आपकी भी कोई पूर्व जन्म की सम्पदा होगी जो आप इस भारतवर्ष में पैदा हो गये। अब यहाँ की, जरूर आप कह सकते हैं कि यहाँ की बिजली ठीक तरह से नहीं चल सकती या कह सकते हैं कि यहाँ की बसे ठीक तरह से नहीं चल सकती, यहाँ की ट्रैम ठीक तरह से नहीं चलती। वो मनुष्य की बनायी हुई व्यवस्था है, वो अजीब सी है। हो सकता है कि वहाँ की कुछ अच्छी हो गयी हो। लेकिन जो अन्दर की व्यवस्था, सर्वव्यापी व्यवस्था है, सर्वव्यापी शक्तियाँ हैं वो इतनी ज्यादा तो एफिशियन्ट है कि जब उसको आप पा लेते हैं, यहाँ बैठे-बैठे आप काम कर लीजिए सारे, आपको कहीं जाने की जरूरत ही नहीं , किसी से बातचीत करने की जरूरत ही नहीं। यहीं बैठे - बैठे सबको टेलिफोन कर लीजिए। अब आपको सुनकर आश्चर्य होगा लेकिन जैसे समझ लीजिए कि इस जगह आपको कोई चित्र तो दिखायी नहीं दे रहें हैं। इंग्लैण्ड में क्या हो रहा है वो दिखायी तो नहीं दे रहा है, जपान में क्या हो रहा है कुछ दिखायी नहीं दे रहा है लेकिन यहाँ जो हो रहा है वो सब दिखायी दे रहा है। अगर आप एक टेलीविजन लगा दीजिए तो आप उसमें सब देख सकते हैं। उसी 8. 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-8.txt प्रकार जब आप भी एक यन्त्र हो जायें टेलिविजन के जैसे और उस सर्वव्यापी शक्ति से एकाकार हो जायें तो आप भी यहीं बैठे-बैठे कार्यान्वित हो सकते हैं। और बहत इफिशियन्ट कार्य में पड़ सकते हैं। आपसे ऐसे-ऐसे कार्य हो जाएंगे कि आपके समझ में नहीं आयेगा कि आपने ये काम कैसे कर लिया। आप हर एक चीज़ में अपना प्रभुत्व जमा सकते हैं। एक तरीका है कि मशीन से आप सब चीज़ें चला लीजिए। मशीन से, आप सोचते हैं कि आपने पंचमहाभूत तत्वों को जीत लिया है। नहीं जीता है आपने, इतना कि एक मननशील व्यक्ति जीत सकता है। अगर मननशील व्यक्ति चाहे तो आकाश में बादल खड़े कर दे। अगर चाहे तो हवा चला दे। अगर चाहे तो ठण्डक कर दे, चाहे गर्मी कर दे, चाहे सूर्य को बुला दे सब चीज़ कर सकता है। पाँचों तत्वों को वो अपने हाथ में ले सकता है। इन शक्तियों को जब वो जान लेता है और इन शक्तियों को जब जागृत करने की शक्ति उनमें आ जाती है, जब वो अपने सूत्र पर जा कर के और उनके भी सूत्र पर चला जाता है, जब अपने प्रिन्सीपल को भी जान कर के उनके भी प्रिन्सीपल पर चला जाता है तो हर चीज़ को कंट्रोल कर सकता है। वो हर चीज़ को बना सकता है। अब यही जगह है, आप नहीं जानते हम जब पहली मर्तबा आये थे तो एकदम बंजर बस्ती थी, एकदम उजाड, यहाँ आफत मची हुई थी। जब मैं यहाँ आयी तो लोग कहने लगे, 'ये तो भयानक जगह है माँ।' मैंने कहा 'क्यों?' कहने लगे कि, 'यहाँ तो भूत घूमते हैं रात में। कुछ लोग मर गये। यहाँ रात में कोई किसी पे डाका डाल देता है। कुछ समझ में नहीं आता है ये ऐसी बंजर बस्ती है, इसको क्या करें। इसके लिए कोई इलाज आप कर दो। यहाँ इतने गंदे-गंदे लोग अन्दर आते हैं। सब रात में यहाँ परेशान करते हैं मानो जैसे कि यहाँ कोई भूतों का राज हो । आ कर के ये आपको मैं बता बहुत दूँ-पाँच-छः साल पहले की बात होगी ज्यादा से ज्यादा, या सात साल पहले की बात। तो मैंने कहा, 'अच्छा, ठीक है, आप ऐसा करो कि तीन नारियल लेकर आओ।' अब देखिये कितनी सीधी सी चीज़ है। तीन नारियल मँगवायें और कुछ खास काम नहीं किया और उस नारियल को मैंने जागृत किया, बस, कर सकते हैं आप उसके अन्दर वाइब्रेशन्स दे दीजिये। उसके अन्दर वाइब्रेशन्स आ गये तो हो गये जागृत। अब ये वाइब्रेशन्स जो हैं, ये सोचते हैं और ये चलते हैं, आक्रमण करते हैं, ये अंकुश-पाश आदि सब रखते हैं। सारी देवी की शक्तियाँ इनके पास होती है। और इससे जो भी कार्य करना है करते रहे। वाइब्रेट करके हमने कहा, 'अच्छा तीन आप यहाँ पर ये नारियल लगवा दीजिए।' उस दिन से धीरे धीरे यहाँ से भूत लोग भागना शुरु हो गये। आज बता रहे थे भटजी 'यहाँ पर भी एक-दो ऐसे आते हैं, फिर पता नहीं क्यों उल्टे पाँव भागते हैं। अन्दर नहीं घुसते।' उनको पता रहता है क्योंकि जो उनके अन्दर भूत होते हैं उनको पता होता है कि ये क्या 9. 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-9.txt चार्य ने न करती है। चीज़ है। अब इसका मैं बहुत ही साइंटिफिक आपको मैं बताऊंगी। जो वाइब्रेशन्स के बारे में आपको मैं कह रही थी, जो आज हाथ से बह रहे थे आपके, इनकी महत्ता बतायें ! राहरी करके एक बड़ा भारी कृषि अनुसंधान संस्थान है यहाँ। जहाँ पर एक बड़ा भारी विद्यापीठ है, बहुत बड़ा, इससे कम से पच्चीस मील के घेरे में बना हुआ, बहुत सुन्दर है वहां पर कम दस गुना बड़ा होगा, बहुत बड़ा। विद्यापीठ। और उस विद्यापीठ में बड़े चुने हुए लोग काम करते हैं। इस राहरी के विद्यापीठ में बड़े- बड़े शोधक, जिनको कहना चाहिए कि सहजयोगी, वहाँ के प्रोफेसर्स थे । वो हमारे पास आयें और हमसे कहने लगे कि, 'माँ, राहुरी में इस कदर दंगा-फसाद होता है, इस कदर मारा-मारी होती है, कुछ समझ में नहीं आता क्या करें। बड़ी आफत है यहाँ पर, पता नहीं कैसी इतनी बड़ी गंदी -गंदी शैतान की जैसी गंदी भूमि हो गयी है और हर तरह का प्रश्न बना हुआ है। कैसे इसको ठीक करें।' मैंने कहा, 'कुछ नहीं, फिर से तुम तीन नारियल ले आओ | उसको हम वाइब्रेट कर देते हैं ।' वाइब्रेट करने का मतलब है कि उसके अन्दर प्यार के वाइब्रेशन्स डाल दें। प्यार की शक्ति को आज तक किसीने आजमाया ही नहीं है। सब जो है हेट्रेड की शक्ति का इस्तेमाल करते हैं । | प्यार की शक्ति जो कि यह चैतन्य की लहरियाँ हैं इसे आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी के नाम से बताया हुआ है, जो कि सारे संसार का चालन करती है। मैंने बताया हुआ है कि सबसे पहले परमात्मा ने पावित्र्य को बनाया है। इस पवित्र प्रेम, जिससे कि सारी सृष्टि का संचालन होता है, उसकी शक्ति को किसीने जाना ही नहीं, ना उसका इस्तमाल किया। हमारी जितनी भी राजकीय संस्थायें हैं, सब जो है नफरत पे बसी हुई है। अगर वो जाने कि हमारे अन्दर कितनी प्रेम की शक्ति है तो सारे युद्ध वरगैरा खत्म हो कर के संसार में सुबत्ता आ जाये। अब आपसे मैं बता रही थी किस्सा 'प्रेम की शक्ति का' । तो वो ये तीन नारियल हमारे पास ले आये और कहने लगे कि, 'माँ, इसको कुछ कर दीजिये। यही हम वहाँ गाड़ देंगे हमारे गार्डन में।' मैंने कहा, 'अच्छा, ठीक है।' उनको वही तीन हमने वाइब्रेट कर के दे दिये। अब देखिये यही चैतन्य की शक्ति उसमें भर दी गयी है और उन्होंने जा कर के ये नारियल वहाँ गाड़ दिये। उसके बाद वहाँ कुछ गलती से उसके उपर एक सीढ़ी भी बन गयी। किसी ने सीमेंट डाल दिया। कुछ दिनों बाद हमने देखा कि वो सीमेंट सब टूट गया 10 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-10.txt और उसके अन्दर से तीन पेड़ निकल आयें। अब वो जगह ऐसी है कि वहाँ पर नारियल का पेड़ उगता ही नहीं । दूसरा ये कि सूखे वाले नारियल थे, बिल्कुल सूखे हुये। वो सूखे नारियल मुझे ला के दिये उन्होंने, जो कि कहीं भी नहीं उगते । वो भी वहाँ उग आये और उसके अन्दर से तीन पेड़ निकल आयें। और जब इन तीन पेड़ों की ओर हाथ कर के देखा गया तो उसमें से वाइब्रेशन्स आ रहे थे। उसके बाद आज वही यूनिवर्सिटी, जिसमें इतने दंगा-फसाद और इतनी आफत मची थी, आज बहुत सुन्दर तरिके से चलने लगी। उन तीन नारियल की वजह से। उन लोगों से आप जा कर पूछ सकते हैं कि ये बात सही है या नहीं। पहली मर्तबा जब आदमी परमात्मा को पाता है, जब उसके अन्दर से आत्मा का स्पन्दन बहता है तो पहली मर्तबा वो निसर्ग को कुछ देता है। हर समय हम निसर्ग से लेते रहते हैं। हम उसको दे नहीं पाते। पहली मर्तबा चैतन्य उसे दे कर के और जागृत कर सकता है। मनुष्य कुछ इसका एक और उदाहरण बतायें हम कि एक साहब थे, उन्होंने बहुत सा गेहूँ मुझ से वाइब्रेट करवा लिया और उसको बोया एक खेती में। वो भी उन्हीं, ये भी एक अनुसंधान संस्था है और गवर्नमेंट की रेकगनाइज्ड मतलब गवर्नमेंट की संस्था है। और जिसमें बड़े-बड़े संशोधक और शास्त्रज्ञ हैं। उन्होंने वो गेहूँ बोये और बो कर के उसका जो गेहूँओं का दाना आया, तो एकदम मोती के दाने जैसा और इतना सुन्दर और इतना चमकता हुआ, एक अजीब तरह की उसकी रौनक थी। उस गेहूँ उन्होंने बोरो में भर कर क्योंकि वो भी दस गुना आया। पहले आता था उससे दस गुना आया। उसके बाद उस गेहूँ को बो कर के उन्होंने जब उसको देखा कि कितना ज्यादा बच गया है। उन्होंने उसमें से सोचा कि कुछ इसमें से गेहूँ बीज के लिए रख दिया जाए। उसके बोरे बना कर के उसको गोडाऊन में रख दिया। और उसमें किसी तरह से चूहों का बड़ा प्रकोप हो गया। बता रहे थे मुझे कि, 'वहाँ पर ये जो खल्ली जिसे कहते हैं वो भी रखी हुई थी वो सब इन चूहों ने खायी, पर ये जो बोरे रखे हुए थे उनको एक छेद भी नहीं किया । वो चूहें तक समझते हैं कि दिव्य क्या चीज़ है! लेकिन आज कल हम इस कदर कृत्रिम हो गये हैं, इतनी कृत्रिमता से हम रहते हैं, इतना आर्टिफिशियल हम लोग हो गये हैं कि आपको दिव्य और दुष्ट में कुछ फर्क नहीं समझता। राक्षस और दैवी प्रवृत्ति दोनों में कुछ समझ में नहीं आता है। आपने पूछा था कल, मैंने कहा था, यहाँ। सब कन्फ्यूजन में हैं। किसीकी समझ में नहीं आता। सब भ्रम में बैठे हैं कि कौन राक्षस है और कौन दिव्य! ये आज 11 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-11.txt ম क ै क ा ह हमारी हालत हो गयी है। इस कदर हम अपनी मनुष्यता से भी गिर गये हैं कि जिसकी वजह से हमें ये संवेदन था कि हम पहचान पाते थे कि राम कौन है? सीता कौन है ? कृष्ण कौन है? आज इस कलयुग में ये भी पहचानना असम्भव हो गया है कि ये राक्षस है, रावण है या ये राम है। उन चुहों को है। इसी प्रकार अनेक आपको मैं बातें बता सकती हूँ, जिससे ये दिखा सकते हैं कि ये जो चैतन्य हमारे अन्दर से बहने लग जाता है इस चैतन्य से हम संसार की सब चीज़़ पर प्रभुत्व करें, राज्य करें लेकिन ये प्यार का और प्रेम का राज्य है। अब बहुत से लोगों का ये हमेशा कहना रहता है कि, 'माँ, अगर आप कहती हैं कि हमारा देश योगभूमि है और यहाँ पर मनन करके सारी चीज़ों का इतना पता लगाया था, तो हमारे देश की आज ये दुर्दशा क्यों है? सभी लोग मुझ से पुछते हैं, 'तो हमें बड़ा शस्य श्यामला होना चाहिए।' अगर हमारे यहाँ इतने बड़े -बड़े ऋषि- मुनि हो गये और ऐसे-ऐसे बड़े-बड़े लोग हो गये जिन्होंने इतनी बड़ी-बड़ी चीज़ों का पता लगाया। तो आज हमारे देश की ये दुर्दशा क्यों है?' ये तो ऐसे ही है कि कीचड़ में अगर कमल खिल गये तो कमल दुःखी, कहे कि 'भाई, कीचड़ तुम भी कमल हो 12 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-12.txt जाओ।' ये तो हम लोग कीचड़ हैं ही ऐसा लगता है मुझे। हम लोगों ने कुछ किया है इसके मामले में ? ये सोचना चाहिए। आज भारत वर्ष में ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने आदि शंकराचार्य ने क्या किताबें लिखीं, ये भी जानते हैं| शेली , कीट्स, ये वो, दुनिया भर के फालतू लोग, बायरन, वायरन वगैरे जिनका नाम सुबह-शाम लीजिए तो गंगाजी स्नान करना पड़ेगा इतने गन्दे चरित्र के लोग हैं। ऐसे गन्दे लोगों के बारे में पढ़-पढ़ के, और हम लोग सोचते हैं कि हमने बड़ी विद्वत्ता करी। ऐसे हिन्दुस्तानियों को और भारतीयों को क्या परमात्मा आशीर्वाद देगा । जो लोग अपने को बहुत भारतीय, भारतीय बना कर घूमते हैं, वो तक नहीं जानते कि हमारे अन्दर कुण्डलिनी नाम की एक बड़ी पवित्र शक्ति विराजित है। आश्चर्य की बात है कि मेकॅलो साहब अंग्रेजी दे गये , उन्होंने ये तक नहीं बताया कि आप अपनी चीज़ों का अध्ययन ना करें, अपने बारे में न जानें, हमारे अन्दर कौनसे-कौनसे शास्त्र और कौनसे-कौनसे गहन कार्य किये रखे हुए हैं उनका संशोधन न करें। यहाँ बैठे साइकोलॉजी पढ़ रहे हैं, यहाँ बैठे सारे विदेशी सब चीज़ें आप पढ़ रहे हैं, इनके पास है क्या ? आज आप देख रहे हैं हमारे साथ में दो बहत बड़े डॉक्टर्स आये हए हैं विलायत से, वो खुद कहते हैं कि, 'आप लोगों को लगता है कि मेड़्सीन इज इरेलेव्हंट'। ये सब चीजें जो मैं बता रही हूँ, ये | सब हमारे यहाँ लिखी हुई हैं। कोई पढ़ता ही नहीं । किसी को समय ही कहाँ है। हम लोग तो सब अंग्रेज हो गये हैं। हम अपने बारे में कुछ जानना ही नहीं चाहते। अगर हम आज जानते होते कि हमारा देश कितना पवित्र है और इस देश की पवित्रता सबसे ऊँची चीज़ है जिस पर आज सारा संसार टिका हुआ है। अगर हम जानते होते कि इसी देश में बड़े-बड़े ऋषि- मुनियों ने इतनी बड़ी साधना से इतनी बड़ी चीज़ का पता लगाया हुआ है। और उसको अगर हम पाते, हमारे यहाँ का लक्ष्मी तत्त्व अगर हम जागृत कर लेते तो क्या मजाल है कि आज हमारी ये दशा हो जाती। हमारे जैसा भिखारी तो कोई है ही नहीं। और इतने अन्धेपन की हद है कि घर में सारी लक्ष्मी सम्पत्ति भरी होते हुये भी हम लोग इन परदेसियों की ओर हाथ अपना बढ़ाते हैं। और वहाँ के कौन से ज्ञान को हमने संपादन किया है। इन लोगों ने अपने कौन से ज्ञान से, कौन सी विशेषता दिखायी हुई है कि जा के देखें कि इनके देशों में क्या-क्या हालात हुए है। सड़- गल गया है इनके देश में। इनकी व्यवस्थायें सारी टूट चुकी है। इनकी सामाजिक व्यवस्थायें सारी चोर- टूट चुकी है। आप रास्ते से शाम को छ: बजे नहीं निकल सकते। इस कदर अराजकता, उचक्के बच्चे पैदा हो रहे हैं वहाँ पर। एकदम राक्षसी प्रवृत्तियाँ वहाँ पर विहार कर रही है। हालाकि हम लोग भी उनका अनुकरण कर रहे हैं। हम कुछ कम थोड़ी ही है। इतनी गधापनकी वो कर रहे हैं कि उससे ज़्यादा हम करके अंग्रेज बनने वाले हैं । इसी में हमारी सारी विशेषता आ गयी है । 13 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-13.txt भी हम बेच रहे हैं और जिसका हम ढिंढोरा पीट रहे हैं उसमें संस्कृति के नाम पर भी जो कुछ कोई तत्व नहीं है। हमारा जो तत्त्व है उसे हम लोग खोजते नहीं है। हमारा जो अन्वेषण हुआ है, जो हमारी मालूमात उस चीज़ को कोई जानना नहीं चाहता है और जो दो-चार आये भी जिन्होंने कहा भी कि हम जानते हैं उनसे बढ़ के तो चोर मैंने देखे नहीं है। कुण्डलिनी के नाम पे दुनियाभर की गन्दगी करना यही काम आज कल तांत्रिकों का हो गया है। कुण्डलिनी आपकी माँ है। आप समझते हैं माँ माने क्या चीज़ है। कितनी पवित्र चीज़़ है, कितना पवित्र रिश्ता है। आपकी माँ है, हर एक इन्सान की अलग-अलग एक-एक कुण्डलिनी माँ है। और उस कुण्डलिनी की जागृति करना है और उसमें आप अवलम्बन करते हैं गन्दी चीज़ों का। अपने माँ के साथ आप गन्दा व्यवहार करें तो ये गाली होती है। कम से कम एक भारतीय को तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी इस तरह से जागृत कैसे होगी अगर वो हमारी माँ है। और जिस परमेश्वर ने हमें बनाया है इतनी खूबी से। आज | एक अमीबा से इन्सान बनाया गया है और आज हमें एक इंच भी पता नहीं चला। ये पृथ्वी इतनी जोर से घूमती है हमें एक इंच भी पता नहीं चलता है। इसने जिस तरह से हमें सम्भाल के रखा है, से भी कोमल उसने हमें बनाया हुआ है। उस परमात्मा ने क्या ऐसी ही चीज़ हमारे फूल गुलाब के अन्दर रखी होगी कि जिसके जागृत होने से हमें नुकसान हो गया। उसके बारे में कुछ भी जानना दकिया-नुसी हो गया। इस तरह की उल-झनऊ हालत है। जब कि एक तरफ धर्मान्धता तो है ही, ने ने ने कबीर ललकारा, नानक ने ललकारा है, तुकाराम ललकारा है, ज्ञानेश्वर कहा हुआ है। किसने नहीं कहा है कि धर्मान्धता परमात्मा नहीं है, तो उनको पकड़-पकड़ के सूली पर चढ़ाये। इसी देश में लोगों को सताया। और आज भी यही हालत है, हमें वो लोग अच्छे लगते हैं जो कि सर्कस दिखाये, थोड़ा बहुत तो बेवकूफ बनाये, और वो लोग बहुत अच्छे लगते हैं जो थोड़ा बहुत आपसे रुपया-पैसा लें। क्योंकि माताजी कहती हैं कि, 'मुझे आप क्या दोगे बेटे। मैं तो तुम्हारी माँ हूँ। ऐसी बात नहीं करना' तो माँ नहीं है पसन्द ! अगर आप किसी को दो-चार पैसे से खरीद सके तो आपका अहंकार भी तृप्त होता है इसलिए आपको ऐसे लोग पसन्द आते हैं। और वो अच्छे, आराम से, आपके अहंकार को कूट कर के तीस-चालीस करोड़ रूपया बना कर के आपको बेवकूफ बना कर के एक दिन गुम हो जाएंगे। और आपको बेवकूफ बनना ही अच्छा लगता है, तो बेवकूफ बने रहिये। पर कम से कम इसका दोष परमात्मा को नहीं देना चाहिए। इसका दोष मनुष्य का है। विशेष कर भारतीय लोगों का है। इनका चित्त गया कहाँ है? आज भारतीय लोगों का चित्त कहाँ अटका हुआ है। पहले तो ठीक था। गुलामी थी, गुलामी की जंजीरें थीं , उसे तोड़ना है। गुलामी भी नहीं है अभी अगर हमारा चित्त इधर रहता तो। हमारा चित्त रहा एक-दो आदमियों पर। 14 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-14.txt क- तो बिचारे मेहनत करते थे , आत्मा को पाते थे और वो जैसे ही उस जगह से आये और करुणा में अगर वो आपके सामने आ कर कुछ कहना शुरु कर दे तो उसका कारण आप लोग हैं। लेकिन | अंग्रेजों के गले में तो आपने हार पहनायें। इतना ही नहीं उनका बाना भी आपने पहन लिया और आज भी उनके झंडे फेहरा रहे हैं। अंग्रेजी से मेरा मतलब इंग्लिश लोगों से ही नहीं है । मेरा मतलब है उस सभ्यता से है जिसे कि हम पाश्चिमात्य कहते हैं, जो खोखली है। उसके अन्दर कोई तत्व या प्रिंसीपल नहीं है। उटपटांग है बिल्कुल। बड़े-बड़े मैंने शास्त्रों वाले देखे वहाँ। मैं उनसे पूछती हूँ, 'आपको मिला क्या? सॉक्रेटिस का जमाना तो कुछ और था। उन्होंने जो बातें कहीं वो वहीं के वहीं रह गयी। उनको ताकते रह गये। सबने कहा, 'चलो परमात्मा नहीं है, यही बात अच्छी है। पीठ कर के बैठ जाओ।' अब आगे बोलो। पहले तो परमात्मा को खत्म करो , फिर आगे की बात करो। तो अब क्या पता लगा रहे हैं आप, पत्थर! बिजली का पता लगा दिया। बहुत कमाल कर दिया। क्या फायदा हुआ बिजली का पता लगा कर के। अपनी तो आँखें आपने अभी तक खोली नहीं। चन्द्रमा पे आप चले गये, तो कौन बड़ा भारी कमाल कर दिया आपने। कैन्सर की बीमारी तो आप ठीक नहीं कर सकते। लेकिन हम लोग कर सकते हैं। सहजयोग से कैन्सर की बीमारी हम ठीक कर सकते हैं । इतना रुपया वो लोग खर्च करके, इतना उपदव्याप करके उन्होंने क्या दिया आपको? शराब! और आज की इनकी सभ्यता उनके घरों कों तोड़ रही है। सबको मिटा रही है। हमारी जो पुरातन चीज़ें हैं उसकी ओर आपको ध्यान ले जाना चाहिए और सोचना चाहिए कि हमारे शरीर के बारे में जो कुछ भी वर्णन किया गया है कि हमारे अन्दर ही जो जो शक्तियाँ हैं इसे हम दैवी शक्ति के नाम से जानते हैं, उसे पहचनना चाहिए । इतना ही नहीं लेकिन जिसे हम आत्मज्ञान के नाम से जानते हैं उस आत्मा को पाना चाहिए। इसकी व्यवस्था जितनी इस देश के लोगों में है उतनी उन देशों में नहीं। वहाँ हजारों लोग मेरे प्रोग्राम में आते हैं यूँ हो जाते हैं (पार) लेकिन पाने वाले कम हैं । यहाँ पर बहुत कम आते हैं लेकिन सबके सब करीबन पा लेते हैं। कहते हैं ना 'दाँत हैं तो चने नहीं, चने हैं तो दाँत नहीं वो हालत है। यहाँ लोग आते ही नहीं, उनको फुर्सत ही नहीं है। बहुत बिजि लोग हैं अपने देश में। लड़ाई-झगड़े करने में, एक-दूसरे के गले काँटने में इस कदर बिजि हैं कि उनके पास फुर्सत नहीं है, आत्मा का ज्ञान लेने का। कौन पड़े ऐसे झगड़ों में! लेकिन जो सारे ज्ञानों का ज्ञान है इसका पाना सारे पाने से ऊँचा होता है। उसको पाना चाहिए और वो टाईम आ गया इसलिए आप लोग पा रहे हैं। कहते हैं जिसे कि 'ब्लॉसम टाईम, बहार का टाईम' आ गया। इसलिए आप इतने मजे से पा 15 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-15.txt उसको हे हैं। रहे हैं, इसको पा लेना चाहिए। मैं आपको बताना चाहती थी कि कुण्डलिनी क्या है और कहाँ स्थित है और उसके चक्र वरगैरे कहाँ हैं लेकिन अब इन लोगों को देखिये कि कोई लाये नहीं उन लोगों को। तो कल मैं बताऊंगी कि सबेरे आपको फिर ये कुण्डलिनी क्या है? कहाँ बसती है ? और किस तरह से उत्थान होता है उसका? और इसके जो अनेक चक्र हैं वो कैसे बसे हैं? और उसमें कौनसे देवता हैं? ये देवता कैसे होते हैं, हैं या नहीं? इसकी क्या सीख है? एक छोटी सी बात आपसे बतायें कि जो मैंने अभी कहा था कि ये भवसागर जो बना हुआ है हमारे पेट में, जो कि हमारे नाभि चक्र के चारों तरफ में है। इसलिए मैंने कहा था कि दस गुरु मुख्यत: आये। ये दस गुरु, अगर आप पुराने जमाने से देखें तो मोजेस, अब्राहम, सॉक्रेटिस आदि करते-करते राजा जनक, उसके बाद में मोहम्मद साहब, गुरु नानक, आखिर में आप अगर आयें तो अपने शिर्डी के साईनाथ; ये सब एक ही तत्व के अवतरण हैं। एक ही तत्व के; दत्तात्रेय के। अगर ये बात कही जाये तो शास्त्रज्ञ घबरा जाएंगे कि, 'माताजी, ये क्या बात कर रहे हैं?' लेकिन उसी शास्त्रज्ञ को जब पेट का कैन्सर हो जाता है तब देखिये क्या होता है! तब ये नक्शा दूसरा है। वो अगर डॉक्टर हो तो उससे भी बढ़िया नक्शा बन जाता है। एक तेहरान के डॉक्टर थे। उनको पेट में कैन्सर की बीमारी हो गयी | वो मेरे पास आये, तो मैंने कहा, 'भाई, देखो तुम जरुरत से ज़्यादा धर्मान्ध हो, क्या ये सही नहीं?' तो कहने लगे, 'हूँ, मैं तो बस इस्लाम को मानता हूँ।' इस्लाम की इतनी सी भी चीज़ जानते नहीं। मोहम्मद साहब को जरासे भी पहचानते नहीं, 'हाँ मैं तो इस्लाम का हूँ।' मैंने कहा, 'अच्छा, इसलिए आपको कैन्सर हो गया। तो कहने लगा कि, 'क्या?' मैंने कहा, 'हाँ!' इस तरह की कर्मठता से ही कैन्सर की बीमारी पेट में हो जाती है बहत बार हमने देखा है। तो कहने लगे, 'अच्छा।' मैंने कहा, 'तुमसे मोहम्मद साहब खुद नाराज़ हैं।' कहने लगे, 'क्यों ?' मैंने कहा, 'उनका जो अवतार हुआ है गुरु नानक का, उनको तुम मानोगे?' कहने लगे, 'कभी भी नहीं । मैं तो नहीं मान सकता हूँ उनको।' मैंने कहा, 'फिर मैं भी तुम्हे ठीक नहीं कर सकती जाओ|' चले गये। एक तो कैन्सर की बीमारी ऊपर से खुद डॉक्टर; तो मालूम है कि ठीक तो नहीं होने वाली, तो फिर आये, 'अच्छा, कहो माँ, मैं मानता हूँ।' मैंने कहा, 'चलो, अब गुरु नानक का नाम लो, दत्तात्रेय का नाम लो। शुरु कर दिया उन्होंने। उनकी तबियत ठीक हो गयी। ऐसे एक ब्राह्मण देवता आये एक बार, अभी पूना में गयी थी। पूना आपको मालूम है कि ये 16 tio 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-16.txt हैं। ब्राह्हणों का गढ़ है। ये ब्राह्मण थोड़ी होते हैं क्योंकि जो पार नहीं हुए वो ब्राह्मण नहीं होते हैं। द्विज, जो दूसरी बार पैदा हो गये वही ब्राह्मण हैं। द्विज की कोई जात नहीं होती। वो जाति से परे, गुणातीत हैं। बड़ी उंची चीज़ है ब्राह्मण होना। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता। ये भी अलग-अलग गलतफहमियाँ हमारे अन्दर बैठी हुई है कि 'हम जन्म से ब्राह्मण हैं। हम ब्राह्मण कुल में पैदा हुए तो हम ब्राह्मण हैं।' और काम काहे का करते हैं, तो जूते बनाते हैं, जूते की फैक्टरी में, पर हैं ब्राह्मण! इस पर बहुत बड़ा एक बार वाद-विवाद खड़ा हुआ। कहने लगे कि, 'ये गीता में लिखा हुआ है। मैंने कहा, 'गीता-वीता तो मैंने पढ़ी नहीं। हाँ, मैं जानती सब हूँ। लेकिन लिख ही नहीं सकते ' तो कहने लगे कि, 'क्यों?' मैंने कहा, 'किसने लिखी गीता ?' तो कहने लगे, 'व्यास, व्यास मुनि ने।॥ मैंने कहा, 'व्यास किसका बेटा था। उसकी माँ कौन थी? भिमरीन थी। और उनका विवाह भी नहीं हुआ था पराशर मुनि से और उससे पैदा होते हैं व्यास मुनि! जिसके बाप का ही पता नहीं ऐसे व्यास मुनी, जिन्होंने गीता लिखी थी, वो क्या ऐसा लिखेंगे , कि जन्म से ही ब्राह्मण हो वही ब्राह्मण होता है। आप ही बताइये। कोई अपनी पैर पर कुल्हाडी मारेगा?' वाल्मिकी कौन थे ये आप जानते हैं। हर जगह जहाँ-जहाँ अवतार आये हैं, आपने देखा है, कि कृष्ण जा कर के विद्र के यहाँ साग खाई थी। क्यों खायी थी? ये नहीं कि उनको खाना नहीं मिलता था। जान कर के उन्होंने जा कर, खा के दिखाया था कि जाति-पाति का जो ये ढोंग -ढ़कोसला है वो खत्म होनी चाहिए । राम ने एक भिलनी के मुँह के बेर खाये। आप लोग खा सकते हैं ? एक बुढ़ी भिलनी, गंदी, मैली, कुचैली कपड़े पहनी हुई, जिसके दो ही दाँत बचे हये हैं। उन दाँत को उन बेरों में थोप -थोपकर के लादे। आप खायेंगे ? आप में से कितने लोग हैं जो इस बेरों को खायेंगे? पर श्री राम ने इसे खाया। खाया ही नहीं, उसका वर्णन इतना सुन्दर है कि खा के कहते हैं कि, 'देखो भाई , ये मेरे बेर हैं मैं तो किसी को नहीं देने वाला, ऐसे मैंने कभी खाये नहीं। अमृत-तुल्य बेर हैं।' वो सीताजी को छेड़ के कहते हैं कि, 'तुमको भी नहीं देने वाला मैं।' तो सीताजी कहती हैं, 'कुछ तो दे दीजिए हमको भी प्रसाद, ऐसा भी क्या! हम भी तो कुछ खा ले। क्या आप ही सब खाईयेगा?' पहले तो लक्ष्मण जरा नाराज़ खड़े हुए थे। और सीताजी ने खा के वो बड़े खुशी से बोला, 'हमें भी दे दीजिए भाभीजी थोड़ा सा । हम भी खा ले।' इतना सुन्दर वर्णन है उस प्रेम का, जिस प्रेम से भिलनी ने दिया था। 17 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-17.txt हर जगह इस प्रेम की महत्ता, हर जगह है इस देश में, हर अवतारों में है, हर गानों में गायी गई। और हम लोग हैं कि अभी जातीयता ले कर के उस पे से इलेक्शन लड़ते हैं। मैं तो कहती हूँ कि इन लोगों का दिमाग खराब है क्या? जाति जन्म के अनुसार हो ही नहीं सकती। ये तो हर एक की प्रवृत्ति के अनुसार बनायी गयी थी | जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसे होते थे। जितने भी लोग सत्ता में खोजते थे परमात्मा को या आनन्द को उसको क्षत्रिय कहा जाता था। और इसी प्रकार जो ब्रह्म में परमात्मा को खोजते थे , या ब्रह्म में जो आनन्द को खोजते थे उनको ब्राह्मण कहा जाता था। आप लोग ब्राह्मण है क्योंकि आप परमात्मा को खोजते हैं। इस तरह की जाति-पाति आदि अनेक तरह के विकृत काम करने से ही हमारे देश का आज ये हाल हो चुका है। अतिशयता तक पहुँच गये हैं। कुछ समझ में नहीं आता है कि जब ये किसी के शास्त्र में लिखा नहीं गया। अगर आप हिन्दू धर्म के प्रणेता श्री आदि शंकराचार्य को मानते हैं। तो उनको कभी पढ़ते ही नहीं, मेरे ख्याल से कोई अगर पढ़े तो उन्होंने यहाँ तक कि ये लिखा है कि 'न योगे न साँख्ये' कुछ भी इसमें काम नहीं करता । उन्होंने कहीं भी जाति पर लिखा ही नहीं। मेरी समझ में नहीं आता कि कौन सी किताब पढ़ कर आप जातीयता ला रहे हैं संसार में ? कहीं भी उन्होंने नहीं लिखा। उन्होंने तो सिर्फ माँ की प्रशंसा लिखी है। विवेक चूडामणि जैसा विद्वत और इतना सुन्दर ग्रंथ लिखने के बाद उन्होंने लिखा है 'चैतन्य लहरी' या 'सौंदर्य लहरी' जो अपनी माँ का ही वर्णन उन्होंने कर दिया है। सारा मन्त्र उसने उसमें लिखा हुआ है। एक-एक श्लोक में मन्त्र लिख दिया। उस आदमी को समझने की जगह पता नहीं कहाँ से ढकोसले निकाल के लाये हैं। और इसको 'हम इतने भारतीय हैं।' जिस भारतीय को कुण्डलिनी के बारे में मालूम नहीं और सही से पता नहीं मैं उस को कभी भी भारतीय नहीं कहूँगी। मेरे पति तो आप जानते हैं कि सरकारी नौकर रहे हैं। मुझे एक सरकारी नौकर मिला नहीं जो कुण्डलिनी को नाम से जानते हैं। आश्चर्य की बात है! मैं जापान गयी थी वहाँ लोग कहने लगे कि, 'साहब, ये कुण्डलिनी, इसके बारे में आप कुछ बताईयेगा ।' वो लोग मुझसे पूछ रहे थे। कहने लगे, 'आज तक हमें कोई नहीं मिला हिन्दुस्तानी, जिसने कुण्डलिनी नाम जाना है । वो तो कुण्डली जानते हैं, बस् होरोस्कोप, पर कुण्डलिनी कोई नहीं जानता।' और इसका जो शोध है, इसकी जो खोज है ये आपके सारे संसार के एटमबॉम्ब, दुनियाभर की सब चीज़ों से उंची खोज है । इससे सारा ही ट्रान्सफोर्मेशन इन्सान का हो जाता है। कितनी डाइनैमिक है ये चीज़। कितनी प्रचंड इसकी शक्ति है। लक्ष्मी तत्व को जागृत करने के लिए कुण्डलिनी के सिवाय कोई मार्ग ही नहीं। बाह्य से अब इन देशों ने उन्नति कर ली है लेकिन अन्दर से खोखले हो चुके हैं। हम लोगों ने बाह्य से तो उन्नति नहीं की, और अन्दर की जो चीज़ें हैं उसको भी जाने दिया। अगर हम जागृत हों उन शक्तियों के कुछ 18 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-18.txt प्रति, जिसका पता बहुत सालों पहले लग चुका है इसको सिर्फ नहीं जानना मात्र है। तो वो दिन दूर कि सारा संसार इससे सुख प्राप्ति करे, इससे आनन्द लुटेगा। लेकिन हमको पहले ये जान लेना चाहिए कि हम एक भारतीय हैं और हमारा ये हक है कि इसे हम जानें और इसे हम समझें। अब देखिये कि अमेरिका में और लंदन में डॉक्टर लोग हमें बुलाते हैं कि, 'हमारे यहाँ आईये और आप हमें सब समझाईये।' अभी तक तो मैं इसे किसी तरह से ४ टालती रही। मैंने सोचा इसकी खोज, चाहे जो भी हो हिन्दुस्तान में हुई हो इसकी खोज, पर ये है सारी हिन्दुस्तानी चीज़। गणेश तत्व मैं इन लोगों को क्या समझाऊंगी? और यहाँ मैं डॉक्टरों से कहती हैँ मैं गा तीन बार लेक्चर कर चुकी, बस, उसमें लिखते बैठते हैं, पता नहीं क्या? लेकिन मैं कहती हैँ तनिक पार हो जाओ तो समझ में आयेगा, लेकिन पार नहीं होते। बीमार हो तो पेशंट भेज देते हैं। करें क्या इन लोगों का? और उपर से मुझसे कहते हैं कि, 'आप सब स्टैटिस्टिक बना के लिखो कि किस किस को आपने ठीक किया।' अब मुझे और कोई धंधा नहीं रहा ? मैंने कहा, 'तुम लोग नहीं समझ सकते। तुम मशीन हो।' मैं कोई पैसे के लिए काम नहीं करती। ये प्यार की बातें हैं ये तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी। आपके घर कोई 19 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-19.txt खाना खाने वाले आयें तो क्या आप उनके नाम लिख के भेजते हैं कि कितने लोग मेरे यहाँ खाना खा के गये! इसने इतने निवाले खायें। इसने ये खाना खाया। ये मेरे प्यार का भंडार है, मैं क्या लिखते फिरुंगी कि मेरे दरवाजे कितने लोग आये और मेरे से प्यार कितने ले गये? ये भी कोई तरीका है? ये कोई शराफत है? ये कोई डीसन्सि है? पर ये पैसे कमाने वाले लोग कैसे मुझे समझेंगे? हाँ, अगर उस जमाने के वैद्य होते तो समझ सकते। ये प्यार की बात है। प्यार में हम बाँट रहे हैं जिसको लेना हो ले, जिसको समझना है समझ लो, ये सब चीज़ मुफ्त में है। ये पूरी तरह से मुफ्त चीज़ है। प्यार जो है इतना मूल्यवान है कि इसकी कोई भी कीमत आप लगा नहीं सकते। उसका कोई भी मूल्य आप दे नहीं सकते। उसका सिर्फ आनन्द उठाने की बात है। और मैंने कहा, 'आप मेरा सारा मज़ा किरकिरा कर रहे हैं, मुझे इस तरह की बातें मत सिखाईये कि इसका एक पे ऑडिटर बनाया हुआ है कि आप स्टैटिस्टिक बनाईये।' मैंने कहा, 'कोई नया-नया आपको यहाँ आ कर के हर एक चीज़ का हिसाब-किताब लिखाईये कि कितने लोगों को ठीक किया ? कितनों की बीमारी ठीक करी? क्या-क्या?' मैं तो कभी किसी के पेपर भी नहीं जाँचती । मैं नाम तक नहीं पूछती। अभी आप जानते हैं कि सबेरे वो मल्टिपल स्क्लिअरोसिस की लड़की आयी थी, उसका मैं नाम भी नहीं जानती और वो ठीक हो गयी । बस वो आ के बैठ गयी चरणों में ठीक हो गयी , काम खतम्। इसका नाम जानने की कौनसी बात है। क्या गंगाजी सबके नाम लिखते बैठती है कि कितनों ने उसके आँचल से पानी चुराया! इन लोगों को ये बात समझ में नहीं आ सकती क्योंकि ये बारीकी, ये सुन्दरता इन लोगों में नहीं आ सकती है। ये समझ नहीं सकते। बहरहाल जो भी हो आप में से कितने लोग इसे समझ गये और इसे पा लिये, उतना ही मेरे लिए बहुत है। यही मेरे धन्यभाग है कि इतने लोग बैठ कर के इसे लेने के लिए इस देश में अभी भी मौजूद हैं और आ रहे हैं। पर तो भी एक बड़ी भारी बात मैं आपसे कहूँ कि आज भी मैंने कहा कि महाराष्ट्र में, गाँव में मैं काम करती हूँ और गाँव में काम जोरों में होता है। यहाँ पर भी मैंने देखा है कि जैसे देहरादून मैं गयी थी, देहरादून में लोगों में बड़ी संवेदना है। इसी तरह से यहाँ पर गाँव में जब मैं काम शुरु करुंगी तो मैं जानती हूँ कि बहुत जोरो में काम होगा। शहर के लोग बहुत कृत्रिम हो जाते हैं जैसे सबेरे कहा था। और आप लोगों के लिए चोर भी बहत सारे तैयार हो गये। जैसे डिमांड होता है वैसे सप्लाय होता है, आपकी जेबें भरी हुई है। आपके लिए चोर भी हाजिर हैं। और वो आते हैं, आप पे फीस लगाते हैं, आप उनको फीस देते हैं और उनके लेक्चर सुनते हैं, बहुत धन्यभाग समझते हैं, वाह भाई , वाह ! हम फलाने के शिष्य हैं, हम ठिकाने के शिष्य हैं और बीमारी क्या ? तो पैरेलिसिस। इस प्रकार आपको समझ लेना चाहिए कि अगर आपको ऐसी कोई जीवन्त चीज़ 20 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-20.txt चाहिए हो उसके लिए अपनी आर्टिफिशयालिटीस् को छोड़ना होगा। मेरे सामने आप सब बच्चे हैं और बेटे हैं। आप बड़े आदमी होंगे, राजा साहब होंगे, कुछ होंगे मेरी नज़र में तो बैठता नहीं है। मेरी समझ में नहीं आता। मेरी अकल नहीं है उतनी। बिल्कुल मेरी अकल नहीं। इसलिए आप बिल्कुल नम्रतापूर्वक इस चीज़ को स्वीकार्य करें और इसको माने और इसमें फिर जमें। जो इसमें जमता है वो ही पाता है। और जो जमना नहीं चाहता और जो बहुत सुपरफिशियली रहता है, उसको ये छू जाती, तो खतम हो जाती है। इसमें गहरी चीज़ है और गहरा आदमी चाहिए। और आपमें गहरापन है तो आप बहुत कुछ पा सकते हैं । एक बात जरुर कहूँगी, चाहे जो भी हो, पाश्चिमात्य देशों ने इस तरह से अपनी प्रगति कर ली है इसमें उन्होंने एक चीज़ को पा लिया कि संसार की जो जड़ता है उससे कभी भी आनन्द न ले सके। जड़ता से सिर्फ हम एक फार्म से दूसरा फार्म बनाते रहते हैं। सब मृत्यु की स्थििति बदलते रहते हैं अगर मरा हुआ पेड़ है तो उसकी कुर्सी बना लेते हैं। पर हम कोई भी चीज़ से आनन्द नहीं पाते, उल्टे हमें आदतें लग जाती है। इस चीज़ को इन लोगों ने जान लिया बुद्धि से और इसलिए जब इनको साक्षात हुआ कि सच्चाई क्या है तो मुश्किल से होता है, मैंने आपको बताया कि इन लोगों का जागरण मुश्किल से होता है, लेकिन जब हो जाता है तो जम जाता है। इन लोगों ने सब कुछ | पढ़ डाला है। आदि शंकराचार्य पढ़ डाला। ये आप इनसे सुनिये, आपको आश्चर्य होगा कि ये पंडित कहाँ से आ गये । एक से एक विद्वान लोग, इनमें से थोडे से ही यहाँ आयें, लेकिन ये महा विद्वान लोग हैं। और इनको आप देख के आश्चर्यचकित होंगे कि इन्होंने सब चीज़़ छोड़ कर इस पर कैसी जान लगायी और किस तरह से उसको मास्टर बनाया। आज आश्चर्य की बात ये है कि भारतीय अनुसंधान या भारतीय शास्त्र या भारतीय खोज को करने के लिए मुझे वहाँ जाना पड़ा है। कुछ ऐसा इत्तफाक हुआ कि हमें जाना ही पड़ा। हमारे पति वहाँ इलेक्ट हुए और वहाँ हमें ये लोग मिले हैं कि जिन्हें यहाँ लाना पड़ा कि आप लोगों की जागृति करें। वो दिन कब आयेगा कि इस भारतवर्ष के नौजवान सिनेमा के चक्कर और ऐसी फालतू की चीज़े छोड़ कर के कुछ गहरेपन में उतरें और यहाँ से परदेस में जा कर के अपनी देश की महत्ता बढ़ायें। इतना ही नहीं, ये जीवंत कार्य है, ऐसा दिन कब आयेगा पता नहीं। मैं उसी दिन की राह देख रही हूँ कि ऐसे नौजवान सामने आयें और अपने को इसमें समर्पित करें और इसे स्वीकारें । परमात्मा आपको शांति दें। 21 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-21.txt तिलाजली तिल की अंजल अः ब आपको कहना है, कि इतने लोग हमारे यहाँ मेहमान आए हैं और आप सबने उन्हें इतने प्यार से बुलाया, उनकी अच्छी व्यवस्था की, उसके लिए किसी ने भी मुझे कुछ दिखाया नहीं कि हमें बहुत परिश्रम करना पड़ा, हमें कष्ट हुए और मुंबईवालों ने विशेषतया बहुत ही मेहनत की है। उसके लिए आप सबकी तरफ से व इन सब की तरफ से मुझे कहना होगा कि मुंबईवालों ने प्रशंसनीय कार्य किया है । अब जो इन से (विदेशियों से) अंग्रेजी में कहा वही आपको कहती हैं। आज के दिन हम लोग तिल गुड़ देते हैं क्योंकि सूर्य से जो कष्ट होते हैं वे हमें न हों। सबसे पहला कष्ट यह है कि सूर्य आने पर मनुष्य चिड़चिड़ा होता है। एक- दूसरे को उलटा-सीधा बोलता है। उसमें अहंकार बढ़ता है। सूर्य के निकट सम्पर्क में रहने वाले लोगों में अहंकार होता है। इसलिए ऐसे लोगों को एक बात याद रखनी चाहिए, उनके लिए ये मन्त्र है कि गुड़ जैसा बोलें (मीठा-मीठा बोलो)। तिल गुड़ खाने से अन्दर गरमी आती है, और तुरन्त लगते हैं चिल्लाने। अरे, अभी तो तिल-गुड़ खाया, तो अभी तो कम से कम मीठा बोलो। ये भी नहीं होता। तिल-गुड़ दिया और लगे चिल्लाने, 'काहे का ये तिल-गुड़? फेंको इसे उधर!' तो आज के दिन आप तय कर लीजिए । ये बहुत बड़ा सुसंयोग है कि श्री माताजी आई हैं। उन्होंने हमें कितना भी कहा तो भी हमारे दिमाग में वह नहीं आएगा। अगर हमारे दिमाग में गरमी होगी तो निकलनी चाहिए। और ये गरमी हम में कहाँ से आती है? अहंकार के कारण। बहुत पहले जब मैंने सहजयोग शुरू किया | बहुत | भी नहीं आएगा। ये गरमी कुछ तब सबका लड़ाई-झगड़ा, यहाँ तक के एक दूसरे के सर नहीं फूटे, यही गरनीमत है। बाकी सभी के सर ठीक-ठाक हैं। परन्तु झगड़े बहुत, किसी का किस बात पर, किसी का किसी और बात पर। देखा आधे भाग गए, कुछ बच गए। मैंने सोचा, अब सहजयोग का कुछ नहीं होने वाला। क्योंकि एक आया काम करने, दो दिन बाद भाग गया। दूसरा आया, तीन दिन बाद भाग गया, ये स्थिति थी। ऐसी स्थिति में अब हमने सहजयोग जमाया है। पर उसके लिए आपकी इच्छा चाहिए कि कुछ भी हो हम परमात्मा को पाने आए हैं। हमें परमात्मा का आशीर्वाद चाहिए। हमें परमात्मा का तत्व जानना है। हमें दुनिया की सारी गलत बातें जिनसे कि कष्ट और परेशानियाँ हो रही है, नष्ट करनी है । तो यहाँ झगड़े नहीं करने हैं। इस अहंकार से सारी दुनिया में इतनी परेशानियाँ हुई है। अब सहजयोग में इसे पूर्णतया तिलांजली देनी पड़ेगी। तिलांजली माने तिल की अंजली। मतलब अब तिल- 22 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-22.txt क मुंबई, १४ जनवरी १९८५, अनुवादित (मराठी) गुड़ खाकर इसकी (अहंकार की) अंजली आप दीजिए। मतलब इसके बाद हम कोई क्रोध नहीं करेंगे, गुस्सा नहीं करेंगे। एक बार करके देखिए । देखना चाहिए| गुस्सा न करके कितनी बातों को समेट सकता है। कितनी मनुष्य बातों का सामना कर सकता है। बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें ज़्यादा चित्त न रखने से उनके हल मिले हैं। और जो कुछ समस्याएं हैं वह पूरी तरह से हल हुई हैं। तो किसी बात में आपने बहुत ज़्यादा चित्त रखा तो आप तामसिक स्वभाव के बन गए, ऐसा कहते हैं। तामसिक माने क्या? तो कोई औरत है, अब उसका पति बीमार है, 'मेरा पति बीमार है, मेरा पति बीमार है।' बाबा है, मान लिया! परन्तु तुम तो ठीक हो न! तुम्हारी तबियत तो अच्छी है! उसका कुछ नहीं। पति है ये भी तो बड़ी बात है। परन्तु नहीं, एक छोटी सी बात को लेकर के हल्ला मचाना, दूसरों को हैरान करना। ये जो हमारे यहाँ बात है, उसका कारण है हमारे यहाँ छोटी सी बात को ज़्यादा महत्व देना और बड़ी- बड़ी बातों की तरफ ध्यान नहीं देना। इन लोगों (विदेशियों) के लिए बड़ा क्या, छोटा क्या, सब बराबर है। कुछ नहीं मालूम। पर आप लोगों को समझना चाहिए। क्योंकि हमारा जो वारसा है वह इतना महान है। हम इस योगभूमि भारत में जन्मे हैं। इस योगभूमि में जन्म लेकर हमने क्या प्राप्त किया है? हजारों वर्षों की तपस्या के फलस्वरूप इस भारत में जन्म होता है। और उसमें भी हजारों वर्षों से महाराष्ट्र में होता है। लेकिन रास्ते पर पी कर पड़े हुए लोगों को देखकर मेरी समझ में नहीं आता ये महाराष्ट्र के हैं या और कहीं के? ये कीड़े यहाँ कहाँ से जन्मे हैं? यही नहीं समझ में आता ? अब आप सहजयोगी हैं और आपकी पूर्व जन्मों की तपस्या अब फलित हुई है। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि बाकी की, इस जन्म की, तपस्या माताजी ने करनी है। इस जन्म की पहली तपस्या है आपस में मीठा बोलना, प्यार से रहना। ये पहली बात। इसलिए पहला दिन हमने पूजा का शुरू किया है। उस दिन आप सब को मीठे बोल बोलने चाहिए। और मिठास से रहना चाहिए, क्योंकि मीठा बोलना ये सबसे आसान है। गुस्सा करना बड़ा कठिन काम है, और मारना तो आता ही नहीं है। तो इतने कठिन काम किसलिए करते हैं? तो सीधी-सीधी बात, मीठा बोलो, बस। अब हमारे यहाँ बहुत से लोगों का नाम (सरनेम ) 'गोडबोले' होता है। तो मैंने सोचा इनके परिवार में लोग मीठा बोलते होंगे। तो सचमुच वे लोग बहुत मीठा बोलते थे। पर वे मीठी बातें करके लोगों के गले काटते थे। मैंने कहा, 'ये 23 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-23.txt कहाँ का मीठी बातें करने का तरीका है?' तो बोले, 'हाँ, हमारे यहाँ पहले लोग बड़ा मीठा बोलते थे। उनके मीठा बोलने का लोगों ने बहुत फायदा उठाया। इसलिए अब हम मीठा बोलते हैं और लोगों के गले काटते हैं।' मैंने कहा, 'ऐसा क्यों करते हैं? इससे आपको क्या लाभ हआ है? वही लोग अच्छे थे जो मीठा बोलते थे और आराम से रहते थे । वे सन्तोष में रहते थे । किसी व्यक्ति के साथ आपकी लड़ाई हो गई और उसके आपने गले काटे तो (गले काटना माने 'मुंह में राम, बगल में छुरी) तो आपने क्या पाया?' हमने क्या प्राप्त किया? यह देखना है। तो आज का दिन विशेष त्यौहार का, सभी को अत्यन्त सुशोभित करने वाला है। इस समय मुझे तो बिल्कुल भी कटु नहीं बोलना है। बड़े सम्भालकर में बात करती हूँ। मैं इतना समझकर व्यवहार करती हूँ कि किसी को किसी बात से दु:ख न पहुँचे। अब कुछ लोग आते हैं, वे मुझे झट से हाथ लगाते हैं उससे मुझे बड़ी तकलीफ होती है। वैसा नहीं करना चाहिए। परन्तु यह कैसे बताएं? इसलिए सहती रहती हूँ। जाने दो, क्या करें? अब कैसे बताऊं? उनको दु:ख होगा। ऐसी बहुत सी बातें मैं सहती हूँ। मेरी कोई बात नहीं, मैं सह सकती हूँ। जो सहनशक्ति मुझ में है, वह दूसरों में नहीं है। दूसरों को दु:खी करने से अच्छा वही दुःख में सह लू। यह बात जानने से उसका दु:ख नहीं महसूस होता। प्रेम के बारे में यही बात है। अपने प्रेम की शक्ति ज़्यादा है और दूसरों में कम है। तो हम बड़े कि वे बड़े? इस तरह का एक विचार ले लिया तो आप सहजयोग अच्छी तरह पा सकते हैं। हमें माँ ने प्रेम की शक्ति ज़्यादा दी है, तो वे कुछ भी बोलें उससे | हमारा क्या बिगड़ता है? क्या जरूरत है उनसे लड़ाई-झगड़े करने की ? धेरे-धीरे आपका स्वभाव शान्त हो जाएगा। तब आपका चेहरा तेजस्वी दिखाई देगा। जब लोग आपके निकट आएंगे तो कहेंगे, 'अरे, ये कौन है?' परन्तु 'शान्त स्वभाव' का ये मतलब नहीं कि, कोई आपको जूते मारे तो भी आप चुप रहें, ऐसा बिलकुल नहीं। केवल सहजयोगियों के लिए ख्रिस्त ने कहा है, 'किसी ने आपको एक गाल पे मारा तो आप दूसरा गाल आगे करिए', केवल सहजयोगियों के लिए, ख्रिस्त ने कहा है । औरों ने अगर एक मारा तो आप उसे चार मारिए, ये मैं कहूँगी। क्योंकि उनके जो भूत होंगे वे निकल जाएंगे। परन्तु सहजयोगियों की आपस में शुद्ध बातचीत होनी चाहिए। प्यार से आपस में बातें करनी है। ये बड़ी आवश्यक बात है। औरों के साथ आप कैसे भी रहें, कोई हर्ज नहीं है। परन्तु जो अपने हैं, ये सहजयोगी सारे मेरे शरीर में हैं। एक-एक मनुष्य मेरे शरीर के अन्दर है। आपने अगर एक-दूसरे को लातें मारी, गालियाँ दीं तो मुझे ही गाली दी, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि अब देखिए किसी पेड़ की डालियाँ आपस में लड़ने लगेंगी तो उस पेड़ का क्या होगा ? और उन पत्तों का भी क्या होगा? अब ये एक हाथ अगर दूसरे हाथ से लड़ने लगे, तो क्या होगा? अगर ये चीज़ समझ में आ गई कि हम सब एक हैं, समग्र हैं, हमारे में इतनी एकता है कि हम सब एक शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं, तब आपने किस तरह का व्यवहार करना चाहिए? आपमें कितनी समझदारी होनी चाहिए? कितना प्यार होना चाहिए? आपस में कितना सुख बाँटने की इच्छा होनी चाहिए? इनके लिए क्या करूं? इन्हें क्या अच्छा लगता है? दिवाली के समय हम कुछ उपहार देते हैं या संक्रान्ति के समय क्या 'वाण' (उपहारस्वरूप वितरण की जाने वाली वस्तु) दें उन्हें ? तो जो सस्ते से सस्ता होगा ऐसा कुछ गन्दा सा बाजार से लाकर दे देना इसमें हम माहिर हैं! जो सबसे सस्ती कोई चीज़ है वह लाकर देते हैं। और ये लीजिए 'वाण'! बहुत अच्छे! फिर चाहे वह (जिसे दिया) उसको उठाकर फेंक दे। तो हृदय का बड़प्पन हुए बगैर ये बातें नहीं होने वाली। और उस हृदय के बड़प्पन की आपके लिए कोई कमी नहीं है। वह हृदय के बड़प्पन की आपके लिए कोई कमी नहीं है। वह हृदय आप में है ही क्योंकि उसमें आत्मा का दीप जला है। उसने आपको प्रकाश दिया है। ऐसा स्वच्छ, सुन्दर हदय, उसमें जो कुछ बह रहा है, उसी की तरफ देखते रहना। मुझे यहाँ पर आप सबको देखकर लगा , 'अरे इस हृदय के प्रकाश में क्या-क्या देख रही हूँ? कितना मज़ा आ रहा है?' ऐसा ही आपको होना चाहिए, कि हम सब माताजी के शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं, हमने कोई गलती की तो माताजी को तकलीफ होगी। उन्हें तकलीफ हो इस तरह का हमें व्यवहार नहीं 24 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-24.txt বিং करना चाहिए। हम में एक तरह की सुज्ञता होनी चाहिए, एक तरह की पहचान होनी चाहिए। रोजमर्रा के व्यवहार में शालीनता होनी चाहिए। कहीं किसी व्यक्ति के पीछे पड़ना (तंग करना), कभी कुछ बहककर बड़बड़ाते रहना। बहुतों को गाना गाने की ही आदत होती है । किसी को कविता ही पढ़ते रहने की आदत होती है। वे कविता ही बोलते रहते हैं, तो कोई गाने ही गाते रहते हैं। ऐसा करना ठीक नहीं। जो ठीक है, व्यवहारी है, सौन्दर्यमय है, वही करना चाहिए। रोज के व्यवहार में भी सुन्दरता होनी चाहिए। अब आप माँ के लिए सब जेवर बनाते हो (इस दिन तिल के दानों के जेवर बनाने का रिवाज है।) कितने सुन्दर होते हैं वे ! परन्तु माने वे आप ही मेरे जेवर हो, आप ही से मैंने अपने आपको सजाया है। उन जेवरें में अगर स्वच्छता न हो या अशुद्ध हो, उनका जो मुख्य गुण है, वही अगर उनमें नहीं हो। मान लीजिए सोने की जगह सोना न होकर पीतल है तो उसका क्या अर्थ है? वैसे ही आपका है। आपमें की जो महत्वपूर्ण धातु है वही झूठी होगी तो उसे सजाकर मैं कहाँ जाऊंगी? तो आप ही मेरे जेवर हैं, आप ही मेरे भूषण हैं। मुझे आप ही ने विभूषित किया है। मुझे किसी दूसरे आभूषण की आवश्यकता नहीं है। यही मैं अब आपसे विनती करती हूँ कि बात करते समय, बच्चों से हो या और किसी के साथ हो, अत्यन्त समझदारी से, अत्यन्त नम्रता से और आराम से सब कार्य होना चाहिए। किसी से भी जबरदस्ती, जुल्म या जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है । इसी तरह एक दिन ऐसा आएगा जब सारी दुनिया आपकी तरफ आश्चर्य से देखेगी, 'अरे, ये कहाँ के लोग हैं? ये कौन आए?' तब मालूम होगा कि ये स्वर्गलोक के दूत हैं, सारी दुनिया को सम्भालने के लिए, सारी दुनिया को यशस्वी बनाने के लिए, और सबको परमात्मा के साम्राज्य के दरवाजे तक ले जाने के लिए, ये परमात्मा के भेजे हुए दुत हैं। ऐसे सभी दतों को मेरा नमस्कार! 25 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-25.txt संगीत एवं सहजयोग पुणे, ३० अगस्त १९८७, ङ. पटवर्धन और श्रीमती पटवर्धन इन दोनों ने आज आपको जो इतना मधुर गायन सुनाया है उसमें एक विशेष बात मेरी नज़र में आयी है कि , अत्यंत सोच-समझकर, चुने हुए ऐसे ही सब संगीत के कार्यक्रम हये हैं, मतलब ये कि संगीत का मुझे इतना गहरा ज्ञान तो नहीं है, ये तो सब डॉक्टर्स हैं, पर फिर भी उनकी ये विशेषता है कि चैतन्य जो है वो इन सुरों से बहुता है।' और 'भारतीय संगीत ये सच में ब्रह्माजी से ही उत्पन्न हुआ है, ओंकार के ध्वनी पर निर्माण हुआ है' इस बारे में मुझे बिल्कुल भी शंका नहीं है क्योंकि परदेस में लगभग चौदह देशों में सहजयोग का कार्य है और बिस्मिल्ला खान परसो ही जब आये थे, तब उन्होंने कहा कि, 'माताजी, आपने यह किस चीज़ का निर्माण शुरू किया है! मेरी तो कुछ समझ में आ रहा है। ये लोग किसी स्कूल में नहीं गये, किसी गुरु के पास नहीं सीखे, फिर भी इनको इसका इतना ज्ञान कैसे? ये दाद भी कितनी बराबर देते हैं! ऐसा लगता है कि हम अपने ही देश में बैठ कर गा रहे हैं, बजा रहे हैं। तो इनको ये सब आया कैसे?' मैंने कहा, 'जब आत्मा का प्रकाश पुरी तरह से आता है, तब ये स्वर्गीय संगीत बहुत सुंदर मनोगत हो जाता है। सब कुछ समझने लगता है।' इतने कठिन राग, मालवा जैसे राग इतनी तन्मयता से सुन रहे थे और अपनी जगह से उठने को तैय्यार ही नहीं थे । उसी तरह अपने भारतीय सहजयोगियों में भी ये समझ आनी चाहिए कि, 'संगीत को अत्यंत महत्व देना चाहिए।' भारतीय संगीत यह परमात्मा के तरफ से आया हुआ संगीत है। आज अपने देश में संगीतकारों की एवं संगीत की जो दुर्दशा दिखाई दे रही है उसे देख कर बहुत दुःख होता है। मैं तो काफी पुरानी हूँ, हमने बहुत से लोगों को सुना है और उस समय जो लोग थे, उनको सुनने वाले भी बहुत थे और समझने वाले भी बहुत थे, पर आज भी अपने इन सहजयोगियों में सब लोग बहुत दर्दी हैं। ऐसे में आपको खुशी हुई होगी कि ऐसे लोग आपके सामने बैठे हुए हैं। फिर से कहने का मतलब, कि इतने सुन्दर और इतने मन से भजन गायं कि सभी लोग इसमें रंग गये। ये सभी शब्द उनके हृदय को छू गये हैं क्योंकि हमारे लिये ज्ञानेश्वरजी बहुत बड़े हैं, गोरा कुंभार हैं ये सब हमारे ही हैं और उनके भजनों को इतनी सुंदर तरीके से संगीत में बिठाया है, उनकी अच्छी-अच्छी धुन बनाई है, वो लोगों को इतनी पसंद आती है कि उनकी समझ में आ रहा है कि उनका अभिन्दन कैसे करें, इसलिए वे आपके गाने के बीच- बीच में तालियाँ बजाने लगे इसके लिए आपने उनको माफ करना चाहिए । पटवर्धन साहब की भी मैं प्रशंसा करती हूँ। इनके पिताजी को ग्वालियर में मैंने काफी बार सुना है। उनकी बहुत 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-26.txt आवाज़ दूसरी तरह की थी, पर उनकी आवाज़ में एक अलग तरह की मिठास है, काफी मिठी आवाज़ है और ऐसी मिठास काफी कम पुरुषों की आवाज़ में पायी जाती है। मुझे तो बहुत आश्चर्य हुआ, जिस मिठास से वो गा रहे थे ! कितनी तैयारी! इन सब का ज्ञान है उनको। परमात्मा आप दोनों को लम्बी आयु दे! आपके हाथों से संगीत की ऐसी ही सेवा होती रहे, यह हमारा आशीर्वाद है । ने अब राऊत साहब जो तबला बजाया, ये हम सब लोगों को पता ही है कि, 'ताल भी हमें शिवजी से ही मिला हुआ है।' और इस उमर में ऐसे तबलजी हैं, पर आने वाली पीढ़ी को ये पूछना चाहिये कि ऐसे लोग तैयार होने वाले हैं या नहीं? आने वाली पीढ़ी को आपने सिखाया है या नहीं? कुछ दिया है या नहीं? ये एक सवाल ही है आने वाली पीढ़ी के सामने। भी विचित्र प्रकार के, बेताल ऐसे कुछ भी बजाते बैठेंगे, तो अब इसकी जिम्मेदारी आप संगीतकारों पर आने वाली है। हमें ये कला दूसरों को देनी चाहिए। आपने सब लोगों का बहुत मनोरंजन किया है इसके लिए हम सब आप लोगों के वैसे ही ये दोनो लड़के-मुझे बड़ी खुशी हुई कि दीक्षित के लड़के संगीत क्षेत्र में हैं, जवान लड़के हैं, दीक्षितजी ने बहुत अच्छे संस्कार दिये हैं। इसी तरह से आप सभी सहजयोगियों ने अपने बच्चों को संगीत का तज्ञ बनाना चाहिए, संगीत सिखाना ही चाहिए। 'संगीत के बिना सहजयोग सम्भव होने वाला नहीं' ये बात हमें जान लेनी चाहिए। ये हम लोगों को परमात्मा की बहुत बड़ी देन है और फिर ये हमारी परम्परा भी है, महाराष्ट्र की, इसलिए हमने इस परम्परा को, जो हमें मिली हुई एक बहुत बड़ी देन है, इसे व्यर्थ जाने नहीं देना है। और बिना संगीत के आपको सहजयोग जमने वाला नहीं है। कृपा करके सब लोगों ने अपने बच्चों को तो संगीत सिखाना चाहिए। अगर गा नहीं सकते। तो समझना तो चाहिए। इतना आ गया तो भी बहुत है। तो आप संगीत की सेवा करते है इसलिए हम आपके अत्यंत आभारी हैं। आपका संगीत बार-बार सुनने को मिले ऐसी आशा करती हूँ। कुछ आभारी हैं । बहुत म का 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-27.txt ू का क ट शम महाशिवरात्री पंढरपुर, २९ फरवरी १९८४, अनुवादित (इंग्लिश) 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-28.txt इ. स आधुनिक युग में, एक स्थान जो कि पवित्र होना चाहिए, अत्यधिक अपवित्र हो जाता है। इन दिनों ऐसी अव्यवस्थित दशा है, और जबकि हम एक अत्यन्त महत्वपूर्ण चीज़ स्थापित करने की कोशिश में हैं। जैसा कि एक छोटे अंकुर को पत्थरों में से बाहर आने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए हमें अपने अपने मस्तिष्क को तन्दुरुस्त रखना होगा और हरेक चीज़ की ओर सही दृष्टिकोण रखना होगा। यह देखने का प्रयास करना होगा कि हम अपने धैर्य व बुद्धिमत्ता से क्या क्या प्राप्त कर सकते हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। मेरे विचार से हम सब लोगों के लिए आज का दिन बहुत महान है क्योंकि यह श्री विठ्ठल जी-विराट का स्थान है। यह वही जगह है जहाँ श्री विठ्ठल अपने एक भक्त पुत्र के सामने प्रगट हुए थे और जब उस (भक्त) ने उनको कहा 'अच्छा होगा आप एक ईंट पर खड़े रहें।' वहाँ वे खड़े रहे। कहते हैं कि वे खड़े इंतजार करते रहे। यह मूर्ति जिसे हम देख रहे हैं, कुछ लोग कहते हैं कि यह मूर्ति पृथ्वी माता (के गर्भ ) से उत्पन्न हुई, इसी रेत पर। इसको ले जाते हुए पुण्डरीकाक्ष ने कहा था, 'ये वही (विठ्ठल जी) हैं जो मुझे व मेरे माता-पिता को देखने के लिए आए थे। जब मैं (अपने माता-पिता की सेवा में) व्यस्त था। वे उसी ईंट पर, जिसे मैंने फेंका था, खड़े रहे। अब इस सम्पूर्ण कथानक को एक बहुत ही युक्तिपूर्ण ढंग से देखना चाहिए । ईश्वर स्वयं हर तरह का चमत्कार करने में सक्षम है। हम लोग भी जो ईश्वर द्वारा लाम उत्पन्न किए गए हैं कुछ ऐसे कार्य करते हैं जो चमत्कारपूर्ण लगते हैं। अगर हम १०० वर्ष पूर्व की संसार की दशा को देखें तो हमें बहत सी चीज़ें ऐसी मिलेंगी जो चमत्कारपूर्ण होंगी। एक सौ वर्ष पूर्व कोई ऐसा नहीं सोच सकता था कि ( आज) हम इतने दूर इस स्थान पर ये सब प्रबन्ध कर पाएंगे। लेकिन यह सभी चमत्कार ही परमात्मा की शक्ति से उत्पन्न होते हैं। इस चमत्कार के बहुत सूक्ष्मतम अश के हम भी भागी बन जाते हैं। परमात्मा के चमत्कारों की व्याख्या नहीं की जा सकती और न ही करनी चाहिए। वह हमारे मस्तिष्क से परे है। मनुष्य को भगवान के अस्तित्व का आभास कराने के लिए परमात्मा कुछ भी कर सकता है। २ वह (परमात्मा) तीनों आयाम में विचर सकता है और चौथे आयाम में भी। वह जो कुछ चाहे सब कर सकता है। इसको आप अपनी दिनचर्या में देख चुके हैं कि कितने चमत्कार होते रहते हैं। यह कैसे होता है? इसको आप नहीं समझ सकते। वह उन वस्तुओं में भी कार्य करता है जो निजीव हैं। लोग चकित रह जाते हैं कि यह सब कैसे होता है। अत: यह सब देखकर हमें स्वयं विश्वास करना चाहिए कि वह (ईश्वर ) है और वह जो चाहे सब कुछ कर सकता है। हम उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। इसके विषय में यानि ईश्वर के चमत्कार के बारे में कोई तर्क नहीं होना चाहिए। 'यह कैसे होता है? यह कैसे हो सकता है?' आप इसको समझा नहीं पूजा सकते। इसे (आप तभी समझ सकते हैं) जब आप मस्तिष्क की उस अवस्था को प्राप्त कर चुके हों जब आप अपनी अनुभूति द्वारा विश्वास करें कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ऐसी धारणा होनी अत्यन्त दुष्कर है। यह बहुत कठिन है क्योंकि ा 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-29.txt हम सीमित व्यक्ति हैं। हम लोगों की शक्ति सीमित है। हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि ईश्वर सर्वशक्तिमान कैसे हैं? क्योंकि हमारे पास (इसके लिए) क्षमता नहीं है। यह परमात्मा जो हम लोगों के निर्माता हैं, हमारे रक्षक हैं, जिसकी यह इच्छा है कि हमारा अस्तित्व बना रहे, जो स्वयं ही हमारे अस्तित्व हैं वह सर्वशक्तिमान ईश्वर ही है। सर्वशक्तिमान। जो भी चाहे आपके साथ कर सकता है। वह दूसरे विश्व की संरचना कर सकता है तथा इस संसार का विनाश कुछ भी कर सकता है। ऐसा तभी होता है जब उसकी ऐसी इच्छा हो। वह 'शिव पूजा' के लिए पंढरपुर आने का मेरा विचार इसलिए हआ कि 'शिव' आत्मा का प्रतिनिधित्व (represent) करता है तथा 'आत्मा' आप सभी के हृदय में निवास करती है। 'सदाशिव' का स्थान आपके सिर के ऊपर है किन्तु वह आपके हृदय में प्रतिबिम्बित है। आपका मस्तिष्क ही 'विठल' है। अतः 'आत्मा' को आपके मस्तिष्क में लाने का अर्थ होगा आपके मस्तिष्क को आलोकित करना। आपके मस्तिष्क आलोकित होने का अर्थ है आपके सीमित क्षमता वाले मस्तिष्क की क्षमता असीमित होना, परमात्मा की अनुभूति के लिए। मैं इसके लिए 'समझना' शब्द प्रयोग नहीं करूंगी। वह कितना शक्तिशाली है, वह कितना चमत्कारी है, कितना महान है। (आत्मा के मस्तिष्क में आने का) दूसरा अर्थ है, मानव मस्तिष्क निर्जीव वस्तु सृजन कर सकता है। परन्तु जब आत्मा मस्तिष्क में आ जाती है तब आप सजीव वस्तुएं उत्पन्न करने लगते हैं, कुण्डलिनी का सजीव कार्य । यहाँ तक कि निर्जीव भी सजीव की भाँति व्यवहार करने लगता है क्योंकि आप निर्जीव को उनकी आत्मा से स्पर्श करा देते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक अणु या परमाणु के अन्दर न्यूक्लियस में उस परमाणु की 'आत्मा' रहती है। अगर आप आत्मा हो जाएं (यदि आप अपनी तुलना एक परमाणु से करें), तो यह इसी प्रकार होगा जैसे कि परमाणु का मस्तिष्क न्यूक्लियस हो और इस मस्तिष्क (अर्थात न्यूक्लियस) का नियंत्रण , इस न्यूक्लियस में स्थित आत्मा करे। इस प्रकार आपके पास चित्त यानि शरीर है 'अणु' का पूरा शरीर व तब न्यूक्लियस और उस न्यूक्लियस के अन्दर 'आत्मा' है। इसी प्रकार हमारा शरीर है-हमारा चित्त और उसके बाद हमारे पास न्यूक्लियस है यानि मस्तिष्क, तथा 'आत्मा हृदय में है। मस्तिष्क का संचालन 'आत्मा' हृदय में है। मस्तिष्क का संचालन 'आत्मा' के द्वारा होता है। यह कैसे ? इस १६००० प्रकार हृदय के चारों ओर सात 'औरा' तेज मंडल हैं जिसको कितने भी गुणा बढ़ा सकते हैं। ७ (7 raised to power 16,000, ७ पर १६,००० की शक्ति)। 'औरा' सातों चक्रों की निगरानी करते हैं। यह आत्मा इन 'औरा' के द्वारा देखती रहती है। देखती रहती है-मैं पुन: कह रही हँ-आत्मा इन 'औरा' के द्वारा देखती रहती है। ये 'औरा' मस्तिष्क में स्थित सातों चक्रों के व्यवहार पर निगरानी रखते हैं। ये मस्तिष्क में कार्यरत सभी नसों (Nerves) की भी निगरानी करते हैं। 'देखते' रहते हैं। लेकिन जब आप आत्मा को अपने मस्तिष्क में लाते हैं तब आप दो कदम आगे बढ़ जाते हैं। क्योंकि जब आपकी कुण्डलिनी ऊपर उठती है तो वह सदाशिव को स्पर्श करती है और सदाशिव आत्मा को सूचित करते हैं। यहाँ सूचित करने का मतलब है प्रतिबिम्बित होते हैं आत्मा में। अत: वह 'पहली' अवस्था है 'औरा' मस्तिष्क के विभिन्न चक्रों से संचार स्थापित करना शुरू कर देते हैं व एकबद्ध या सम्यक (Integration) करते हैं। लेकिन जब आप आत्मा को अपने मस्तिष्क में लाते हैं यह 'दूसरी' अवस्था है। असल में तब आप पूर्णरूप से 'आत्मसाक्षात्कार' पाते हैं, पूर्ण रूप से। क्योंकि तब आपका 'स्व', जो कि आत्मा है, आपका मस्तिष्क बन जाता है। यह क्रिया अति गतिशील होती है। यह मनुष्य के अन्दर 'पांचवां' आयाम (dimension) खोलती है। पहले जब आप साक्षात्कार पाते हैं व सामूहिक चेतना में आते हैं तथा आप कुण्डलिनी को ऊपर उठाने लगते हैं, तब आप 'चौथे' आयाम को पार कर जाते हैं। परन्तु जब आपकी आत्मा मस्तिष्क में आ जाती है, तब आप 'पांचवां' आयाम बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि आप कर्ता बन जाते हैं। उदाहरण के लिए मान लो मस्तिष्क कहता है 'इस वस्तु को ऊपर उठाओ', आप इसको अपना हाथ लगाते हैं व उसको ऊपर उठा लेते हैं। अत: आप 'कर्ता' हुए। परन्तु जब मस्तिष्क आत्मा बन 30 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-30.txt जाता है, तब आत्मा कर्ता हो जाती है और जब आत्मा कर्ता है तब आप पूर्णतया 'शिव' हो जाते हैं-आत्मसाक्षात्कारी। उस अवस्था में यदि आप नाराज हो तो भी आपको मोह नहीं होता। आपका किसी भी चीज़ से मोह नहीं होता। यदि आपके पास कुछ है, आपको उससे कोई मोह नहीं रहता। आप मोह ग्रस्त नहीं होते क्योंकि आत्मा निर्लिप्त है। पूर्णरूप से निर्लिप्त। जो कुछ भी हो आप किसी तरह के लगाव की चिन्ता नहीं करते। एक क्षण के लिए भी आपका लगाव नहीं होता। मैं तो कहंगी कि अपनी आत्मा की निर्लिप्तता को समझने के लिए हमें अपने आपको अच्छी तरह से अध्ययन करना चाहिए स्पष्ट रूप से कि कैसे हम लोग मोह में फंसे हुए हैं? सबसे पहले हम लोगों का मोह मस्तिष्क के द्वारा है, अधिकांशत: मस्तिष्क से। क्योंकि हमारे सभी संस्कार हमारे दिमाग में भरे पड़े हैं और हम लोगों का अहम् भी मस्तिष्क में है। अत: भावात्मक मोह भी हमारे मस्तिष्क द्वारा होता है और हमारे संस्कार मस्तिष्क में है और हमारा सब अहंकारी मोह भी मस्तिष्क द्वारा होता है। जिसके कारण भावात्मक लगाव मस्तिष्क के द्वारा होता है तथा हमारे अहंकारमय लगाव भी मस्तिष्क के द्वारा होते हैं। इसलिए यह कहा गया है कि साक्षात्कार के पश्चात् अलिप्त भाव के अभ्यास द्वारा 'शिवतत्व' का अभ्यास करना चाहिए। अब आप अलिप्त भाव का अभ्यास कैसे करें? चूंकि किसी भी वस्तु से हमारा लगाव मस्तिष्क के जरिए होता है-परन्तु यह हमारे चित्त (ध्यान) द्वारा होता है । अत: इसके लिए हमें अपना चित्त (ध्यान) नियंत्रित करना चाहिए जिसको हम 'चित्तनिरोध ' कहते हैं। 'यह ( चित्त) कहाँ जा रहा है?' सहजयोग के अभ्यास में यदि आपको ऊपर उठना है तो आपको अपने 'यंत्र' को सुधारना होगा-दूसरे के यंत्र को नहीं। इस बात को आपको निश्चित रूप से जानना चाहिए। अब आप अपने चित्त की केवल निगरानी करें -यह कहाँ जा रहा है? आप स्वयं की निगरानी करें। जैसे ही आप अपने को, अपने ध्यान को देखना शुरू करेंगे आप अपनी आत्मा से एकरूप हो जाएंगे। चूंकि यदि आप को अपने 'ध्यान' की निगरानी करनी है, तो आपको अपनी आत्मा बनना पड़ेगा। अन्यथा आप इसकी निगरानी कैसे करेंगे? अब आप देखें आपका ध्यान किधर जा रहा है? सबसे पहले आपका लगाव अधिक तर अपने शरीर से है। आप देखिए। ! 'शिव' को अपने शरीर से कोई लगाव नहीं। वह कहीं भी सो लेते हैं । वह कब्रिस्तान में जाते हैं और वहीं सो जाते हैं। क्योंकि वह लिप्त नहीं हैं। वह किसी भूत या किसी अन्य चीज़ द्वारा पकड़े नहीं जा सकते। वह विलग हैं। इस विलगाव की निगरानी करनी चाहिए व उसे अपने लगावों के जरिए देखना चाहिए । आप लोग साक्षात्कार प्राप्त जीवात्माएं हैं परन्तु अभी शुद्ध आत्मा नहीं (बने हैं)। क्योंकि वास्तव में अभी वह आत्मा आपके मस्तिष्क में नहीं आयी है। फिर भी आप साक्षात्कारी जीवात्मा हैं। अत: आप कम से कम अपने ध्यान (चित्त) की निगरानी कर सकते हैं। आप यह कर सकते हैं। आप अपने ध्यान (चित्त) की निगरानी स्पष्ट रूप से कर सकते हैं। और तब अपने 'ध्यान' को नियंत्रित भी कर सकते हैं। यह बहुत आसान है। अपने 'ध्यान' को नियंत्रित करने के लिए-इसे केवल इस वस्तु पर से उस अन्य वस्तु पर लगाएं। अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन लायें । यह सब कुछ करना होगा, अभी। साक्षात्कार के पश्चात् पूर्ण निर्लिप्त भाव। शरीर आराम माँगता है। आपका चित्त कहाँ जा रहा है, उस पर हर वक्त ध्यान देने का थोड़ासा कष्ट कीजिए। आपको जो आरामदायक प्रतीत होता है उसको थोड़ा कष्टप्रद बनाइये । इसी वजह से लोग हिमालय पर गये। देखिए ! इस स्थान पर आने में ही हम लेगों को कितनी बाधाओं का सामना करना पड़ा। हिमालय पर पहुँचने की आप कल्पना भी कर सकते हैं क्या? साक्षात्कार के पश्चात् (लोग) अपने शरीर को हिमालय पर ले जाया करते थे। (वे शरीर से कहते थे) 'अच्छा, अब ये सब सहन करो। देखें, अब आप इसमें कैसे उतरते हैं?' जिसे आप तप कहते हैं उसकी अब (आत्मसाक्षात्कार के बाद) शुरूआत होती है। एक तरह से यह एक तपस्या है, जिसको आप बहुत ही आसानी से सहन 31 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-31.txt कर सकते हैं। क्योंकि जब आप साक्षात्कार पाए हुए जीवात्मा हैं। यह सब आनन्द-मग्न स्थिति में इस शरीर को इस योग्य बनाएं। शिवजी के लिये कोई फर्क नहीं कि वे कब्रिस्तान में रहें या अपने कैलाश पर या कहीं भी । आपका ध्यान कहाँ है? आप देखें। मनुष्य का चित्त बहुत ही खराब होता है। बहुत ही उलझा हुआ, मस्तिष्क की इस उलझी स्थिति के लिये स्पष्टीकरण दिया जाता है 'हमने यह इसलिये किया' या दूसरों को स्पष्टीकरण देना पड़ता है। स्पष्टीकरण की कोई जरूरत नहीं, और न ही देना चाहिए, न स्वीकार करना चाहिए और न माँगना चाहिए। कोई स्पष्टीकरण नहीं। बिना किसी स्पष्टीकरण के रहना उत्तम है। सरल हिन्दी में कहा है- 'जैसे राखहु, तैसे ही रहूँ', अर्थात् जिस तरह भी आप मुझे रखें, मैं उसी दशा में रहूँगा, और मैं आनन्द उठाऊंगा। कबीर दास इसके आगे कहते हैं, 'यदि आप मुझे हाथी यानि राजसी सवारी पर जाने को कहें, मैं जाऊंगा। यदि आप पैदल जाने को कहें, मैं पैदल जाऊंगा।' जैसे राखहं, तैसे ही रहं । अतः इस विषय में कोई प्रतिक्रिया नहीं (होनी चाहिए), कोई प्रतिक्रिया नहीं। किसी तरह की सफाई नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं (होनी चाहिए) । निरर्थक। अब दूसरी बात भोजन के विषय में है। पशुओं की तरह मनुष्य की यह सबसे पहली जरूरत है। भोजन पर किसी भी तरह का ध्यान नहीं देना चाहिए। चाहे नमक हो या नहीं, चाहे ये हो या वो है या वह, भोजन पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए। वास्तव में यह याद नहीं रखना चाहिए कि सुबह आपने क्या खाया है? लेकिन हम इस विषय में सोचते रहते हैं कि हम कल क्या खाने जा रहे हैं? हम भोजन का उपभोग इस शरीर को चलाने के लिए नहीं करते, परन्तु इस जिब्हा (जीभ) के आनन्द की अत्याधिक संतुष्टि करते हैं। आप जब यह एक बार समझ लेंगे कि (स्वाद से प्राप्त) आनन्द एक स्थूल ध्यान का प्रतीक है। किसी भी प्रकार का ऐसा आनन्द अति स्थूल होता है, बहुत ही स्थूल होती है। लेकिन जब मैं कहती हूैँ 'कोई आमो-प्रमोद नहीं' इसका यह तात्पर्य नहीं कि आप एक गम्भीर व्यक्ति बन जाएं या ऐसे जैसे कि परिवार में कोई मर गया हो। आपको शिव की तरह होना चाहिए-बिल्कुल अलिप्त। वह (शिवजी) शादी के लिए एक ऐसे बैल पर सवार होकर आए जो बहुत तेज़ दौड़ता था। आप गौर करें, वे बैल पर अपने दोनों पैर इस तरह करके बैठे थे। और बैल तेज़ भागा जा रहा था। वे बैल को पकड़े हुए थे और उनके पैर इस तरह थे। वे अपनी शादी के लिए जा रहे थे। उनकी बारात में कोई आदमी एक आँख का, तो कोई बिना नाक का, हर तरह के हास्यास्पद व्यक्ति जा रहे थे । और उनकी पत्नी ( पार्वती ) लोगों द्वारा शिवजी के प्रति अभद्र बातें करने से अजीब बेचैनी महसूस कर रही थीं। वह ( शिवजी) जरा भी चिन्तित नहीं थे कि उनकी इज्जत का क्या होगा? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आप हिप्पी बन जाएं। अब देखिये, जब आप एक बार ऐसा सोचना शुरू कर देंगे , आप हिप्पी बन जाएंगे। बहुत लोगों की धारणा है कि यदि शिवजी की तरह व्यवहार किया जाय तो आप भी शिव बन जाएंगे। कई लोग इस प्रकार का भी विश्वास रखते हैं कि यदि आप गांजा लें तो आप भी शिव बन जाएंगे क्योंकि शिवजी गांजा लेते थे। (लोग नहीं सोचते कि) वह ( शिवजी ) गांजा इस संसार से खत्म करने के लिए लेते थे । उनके लिए यह क्या मतलब रखता है, चाहे उनके लिए गाजा हो या नहीं। आप उनको कुछ भी दीजिए उनके लिए कोई मतलब नहीं रखता । वह कभी भी 'होश खोये' मालूम नहीं होंगे। इसका तो कोई सवाल नहीं। वह सब कुछ खाते थे। वे (शिवजी) जैसे सभी चीज़ों के प्रति निर्लिप्त थे, लोग वैसे ही रहने का सोचते हैं। वह अपनी दिखावे के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते थे । शिवजी के लिए दिखावा क्या? वह जिस प्रकार भी दिखते हैं, उसी में उनकी सुन्दरता है। उनके लिए किसी भी चीज़ को करने की | आवश्यकता नहीं थी। अत: किसी भी चीज़ में लिप्त होना कुरूपता है, अभद्रता है। लेकिन आप जैसा चाहें वैसा वस्त्र पहन सकते हैं । यदि आप साधारण वस्त्र में भी हैं, तो आप अत्याधिक शानदार व्यक्ति लगेंगे। लेकिन ऐसा नहीं कि आप कहें, 'ठीक है, तो इन हालातों में हम एक चद्दर लपेट कर रहेंगे।' आपके अन्दर, आत्मा के जरिए जिस सुन्दरता की निखार हुई है, वह शक्ति प्रदान करती है ताकि आप जो चाहें वह धारण कर लें! इससे आपकी सुन्दरता में कोई फर्क नहीं पड़ता, आपकी सुन्दरता हर समय बनी रहती है। 32 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-32.txt परन्तु क्या आप उस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं? उस अवस्था को आप तभी प्राप्त कर सकते हैं जब आपकी आत्मा आप के मस्तिष्क में आ जाती है। अहंकारयुक्त व्यक्ति के लिए यह बहुत कठिन है और यही कारण है कि ऐसे लोग आनन्द नहीं उठा पाते हैं। थोड़े से बहाने से ही वे लुढ़क जाते हैं। और आत्मा जो कि आनन्द का स्रोत है प्रकट नहीं होती, दिखलायी नहीं पड़ती है। 'आन्द' ही सुन्दरता है। आनन्द स्वयं सुन्दरता है। परन्तु यह वह अवस्था है जिसको की पाना पड़ता है। लगाव विभिन्न तरीकों से आता है। आप इसके साथ (लगाव के साथ) थोड़ा आगे बढ़े तो आपका अपने परिवार से लगाव हो जाएगा। 'मेरे बच्चे का क्या होगा? मेरे पति का क्या होगा? मेरी माँ का, मेरी पत्नी का क्या होगा ?' और ऐसी सब निरर्थक बातें चलती रहती है। तुम्हारा बाप कौन है और तुम्हारी माँ कौन है? कौन तुम्हारा पति है और कौन तुम्हारी पत्नी है? शिवजी यह सब कुछ नहीं जानते हैं। उनके लिए 'वह' और 'उनकी शक्ति' अपृथक (कभी न अलग होने वाली) वस्तुएं हैं। अत: एक व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। कोई 'द्वैतभाव' नहीं है। द्वैतभाव होता है तभी आप कहते हैं 'मेरी' पत्नी। आप लगातार कहते जाते हैं 'मेरी' नाक, 'मेरा' कान, 'मेरा' हाथ, 'मेरा', मेरा, मेरा, मेरा...... आप नीचे गिरते जाते हैं। जब तक आप 'मेरा' कहेंगे वहाँ कुछ न कुछ द्वैतभाव होगा। लेकिन जब मैं (श्रीमाताजी) कहती हैं, 'नाक', कोई द्वैतभाव नहीं होता है। शिव- शक्ति अर्थात शक्ति-शिव। कोई द्वैतभाव नहीं है। फिर भी हम पूर्णरूप से द्वैतभाव में 'वह' तब | रहते हैं और उसके कारण लगाव होता है। यदि द्वैतभाव नहीं है तो लगाव कैसा? यदि आप ही प्रकाश हैं और आप ही दीपक, तब द्वैतभाव कहाँ? यदि आप ही चन्द्रमा हैं और आप ही चन्द्रिका तो द्वैतभाव कहाँ? यदि आप ही सूर्य हैं और आप ही सूर्य का प्रकाश, आप ही शब्द हैं तथा आप ही उसका अर्थ तब द्वैतभाव कहाँ? परन्तु जब पृथकता होती है, वहाँ द्वैत होता है। और इस पृथकता के कारण आप लगाव महसूस करते हैं। चूंकि जब आप स्वयं 'वह' हैं, तब आप कैसे उससे लिप्त होंगे? क्या आप इस बात को समझ रहे हैं? क्योंकि 'आप' में व आपके 'उस' के बीच अन्तर तथा दूरी है, आप उससे लिप्त हो जाते हैं? परन्तु, यह 'मैं' हूँ, दूसरा कौन है? सम्पूर्ण विश्व मैं हूँ, दूसरा कौन है? सब कुछ 'मैं' हूँ, दूसरा कौन है ? ऐसा नहीं है कि यह मस्तिष्क की तरंग या मस्तिष्क के अहम् (अहंकार) का झोंका है। अतः दूसरा कौन है? कोई नहीं। यह तभी सम्भव है जब आप की आत्मा आपके मस्तिष्क में आ जाए और आप विराट के स्वयं अंग प्रत्यंग बन जाएं। जैसे कि मैं बता चुकी हूँ, विराट ही मस्तिष्क है। तब आप जो कुछ भी करते हैं, चाहे आप अपनी नाराज़गी दिखाते हैं, चाहे स्नेह दिखाते हैं, चाहे अपनी करुणा दिखाते हैं या जो कुछ भी, यह आत्मा है जो ऐसा व्यक्त करती है। क्योंकि मस्तिष्क अपना अस्तित्व खो चुका है। सीमित कहा जाने वाला मस्तिष्क असीमित आत्मा बन चुका है। ऐसे विषय में में कैसे उपमा (समानता) दूं, मुझे नहीं मालूम। सचमुच मुझे मालूम नहीं। परन्तु हम यह कर सकते हैं कि इसको समझने की कोशिश करें। यदि रंग को समुद्र में डाल दिया जाय तो समुद्र रंगीन हो जाएगा यह सम्भव नहीं है। 1. लेकिन आप इसे समझने की कोशिश करें । यदि थोड़ा सा सीमित रंग समुद्र में डाल दिया जाय तो रंग अपना अस्तित्व पूर्णतया खो देगा। अब आप दूसरी तरह से सोचें। यदि समुद्र को रंगीन कर दिया जाय और उसे वातावरण में बिखेर दिया जाय या आंशिक रूप से किसी हिस्से में, या किसी स्थान पर या किसी अणु पर या किसी भी वस्तु पर, तो सब कुछ रंगीन हो जाएगा। आत्मा समुद्र की भांति है जिसके अन्दर रोशनी भरी पड़ी है। और जब इस समुद्र (रूपी 'आत्मा') को आपके मस्तिष्क के छोटे प्याले में उड़ेल दिया जाता है तब प्याला अपना अस्तित्व खो देता है और सब कुछ आध्यात्मिक हो जाता है। सभी कुछ। आप सब कुछ आध्यात्मिक बना सकते हैं । हरेक चीज़। आप जिस चीज़ को भी स्पर्श करें वह आध्यात्मिक हो जाती है। रेत आध्यात्मिक हो जाता है, जमीन आध्यात्मिक हो जाती है, वातावरण आध्यात्मिक बन | 33 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-33.txt जाता है, ग्रह-नक्षत्र इत्यादि भी आध्यात्मिक बन जाते हैं। सब कुछ आध्यात्मिक हो जाता है। यह आत्मा समुद्र (की भांति असीम) है। जबकि आपका मस्तिष्क सीमित है। आपके सीमित मस्तिष्क में निर्लिप्तता लानी होगी। मस्तिष्क की सभी सीमाओं को तोड़ना होगा। ताकि जब यह समुद्र इस मस्तिष्क को प्लावित कर देता है तब यह उस छोटे प्याले को तोड़ दे, और उस प्याले का कण-कण रंग में रंगा जाय। सम्पूर्ण वातावरण, प्रत्येक वस्तु, जिस पर भी आपकी दृष्टि जाय, रंग जानी चाहिए। आत्मा का रंग, आत्मा का प्रकाश है, और ये आत्मा का प्रकाश कार्यान्वित होता है। कार्य करता है, सोचता है, सहयोग प्रदान करता है, सब कुछ करती है। यही कारण है आज मैंने शिवतत्व को मस्तिष्क में लाने का निश्चय किया है। इसका पहला तरीका है कि आप अपने मस्तिष्क को यह कह कर शिव तत्व की ओर लाएं 'ए, मस्तिष्क महाशय! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम इस पर ध्यान दे रहे हो, उस पर ध्यान दे रहे हो, उस पर ध्यान दे रहे हो, लिप्त हो रहे हो। अब अलग हो जाओ। केवल मस्तिष्क बनो। केवल मस्तिष्क। अलग हो जाओ, पृथक हो जाओ। और उसके बाद यह निर्लिप्त मस्तिष्क आत्मा के रंग से पूर्णतया भर जाएगा। यह अपने आप होगा। जब तक आपके चित्त पर ये सीमाएं हैं यह घटित नहीं होगा। अतः इसके लिए निश्चय ही वास्तविक रूप से तपस्या करनी होगी, हरेक व्यक्ति को करनी होगी । मैं आप लोगों के साथ हूँ, अत: उसके लिए आपको उस तरह की करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन पूजा आपको वह अवस्था प्राप्त करनी है, और उस अवस्था को पाने के लिए आपको पूजा करना आवश्यक है। मुझे उम्मीद है कि मेरी इस जिन्दगी में आप में से बहत से लोग 'शिवतत्व' बन जाएंगे। लेकिन आप यह न सोचे कि मैं आप लोगों को पीड़ा उठाने के लिए कह रही हूँ। इस प्रकार के उत्थान में किसी प्रकार का पीड़ा नहीं है। यदि यह समझ लें कि यह पूर्ण आनन्दमय अवस्था है। उस समय आप 'निरानन्द' हो जाते हैं। सहस्रार में इसी आनन्द का नाम 'निरानन्द' है और आपको मालूम है, 'आपकी माँ' का नाम 'निरा' है। अत: आप 'निरानन्द' हो जाते हैं। अत: आज शिव की पूजा विशेष महत्व (अर्थ) रखती है। मुझे आशा है आज की इस पूजा में आप जो कुछ भी बाह्य रूप में, स्थूल-रूप में करेंगे, वह अति सूक्ष्मस्तर रूप में भी घटित होगा। और मैं आपकी आत्मा को आपके मस्तिष्क में पहुँचाने की कोशिश कर रही हैूँ। परन्तु कभी-कभी यह कठिन होता है, क्योंकि आपका मस्तिष्क अभी भी लिप्त अवस्था में है। अपने को पृथक (निर्लिप्त) करने की कोशिश करें। क्रोध, वासना , लालच, सभी वस्तुओं को कम करने की कोशिश करें। आज मैंने डॉ.वारेन से कहा- 'सभी को कम खाने के लिए कहो, पेटू की तरह नहीं' देखिए कभी-कभी किसी बड़ी एक दावत में ज्यादा खा लें, लेकिन हर समय उस तरह नहीं खा सकते । यह एक सहजयोगी की निशानी नहीं है। नियंत्रण करने की कोशिश करें। अपनी बातचीत को भी नियंत्रित करें, चाहे आप अपनी बात में नाराज़गी प्रकट करें या दया भावना दर्शाए या कृत्रिम करुणा। मैं जानती हूँ आप में से कुछ लोग इसमें ज़्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे। ठीक है। मैं आपको यह बात कई बार बतलाने की कोशिश करूंगी, मैं आप लोगों की सहायता करने की कोशिश करूंगी लेकिन आप लोगों में से अधिकांश लोग इसको कर सकते हैं। और आपको इसके लिए प्रयास करना चाहिए । | अत: आज से हम लोग गहरे स्तर पर सहजयोग प्रारम्भ करेंगे, जहाँ आपमें से कुछ लोग पहुँच न सके। परन्तु आप में से अधिकांश लोगों को और भी गहराई में उतरने की कोशिश करनी चाहिए। प्रत्येक को। इसके लिए आपको ज्यादा पढ़े लिखे या उच्च पद वाले व्यक्ति होने की जरूरत नहीं है । नहीं, बिल्कुल नहीं । परमात्मा आपको सुखी रखे ! 34 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-34.txt NEW RELEASES Title Date Place Lang. Type ACD DVD 11th Feb.1983 486 Mahashivratri Puja (Part 1 & 2) 330* Delhi Sp/Pu E 331* 18th Jan.1983 M/E Puja in Nasik (Part 1 & 2) Nasik Sp/Pu श्री भूमीदेवी पूजा 4th Feb.1985 Sp/Pu| 327 M Pune श्री महाशिवरात्री पूजा ( भाग १ व २) 488* 8th Mar.1986 332 Sp/Pu Pune 17th Dec.1989 484° Alibag 323 Alibag Puja : Advice to Sahajayogis Sp E 29th Dec.1991 324' 485* Shri Mahalakshmi Puja Alibag M/E Sp/Pu st 322 21* Mar.2010 Puja Birthday Puja (Part 1 & 2) Cabella Music| 328 20/21-3-2010 Cabella Birthday Puja Evening Pro.(Part 1-2) 5th Nov.2010 Abhay Sapori-Santoor Vadan & Diwali Pujan 334 Noida Music 1st Dec.2010 Music| 325* Bhavarpan Noida 26, 30h Nov. & Jaipur & Noida Visit 2010 (Part 1 & 2) | Jaipur & 326 Pu/Mu 4th Dec.2010 Noida Bhajan Title Artist Song List ACD ACS Bhavarpan 171* Abhijit Ghoshal प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in 2011_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-35.txt हमारा मुख्य कार्य विश्व भर के लोगों के सहस्रार को खोलना है। यह कार्य अत्यन्त सरल है। और इसे आप कर सकते हैं तथा सामूहिक रूप से हिड यदि आप इस कार्य को करेंगे तो यह और बेहतर कार्यान्वित होगा । से आप यदि सामूहिक हैं तो इसे बहुत ही अच्छी तरह कार्यान्वित कर सकते हैं। ा ु