हिन्दी मार्च-अप्रैल २०११ ्र ICCCCCCCCCCCCCCCCCCCCI 21 मार्च ...अपमानजनक तरीके और भावनात्मक धमकी तथा ये सारी व्यवस्था इस देश की परम्परा नहीं है । ऐसा करने वाले लीगों को बाहर फेंक दिया जाएगा] आपकी ऐसा नहीं करना चाहिए। में आपको बताती हैूँ कि सहजयोग में आप ऐसा नहीं कर सकते| जन्मदिवस पूजा, मुंबई, २२.३.२९८४ इस अंक में तीन युक्तियाँ ...४ होली तत्व ...१७ उत्थान (ईस्टर पूजा) ...२४ परमपूज्य माती जी श्री निर्मला देवी द्वारा दी गयी शिक्षा ...३४ ॐ. ० ी दिल्ली, दि.३० मार्च १९९० तीन ी युक्तियाँ हृढय का सबसे बड़ा विका२ है क्रोध। क्रोध आ जाता है तो जो पाकित्र्य है वौ न्ट हो जाती है क्योकि पावित्र्य का ढू२ नीम निव्याज्य प्रेम है । ३० अः ज नवरात्रि की चतुर्थी है और नवरात्रि को आप जानते हैं रात्रि को पूजा होनी चाहिए। अन्ध:कार को दूर करने के लिए अत्यावश्यक है कि प्रकाश को हम रात्रि में ही ले आएं। आज के दिन का एक ओऔर संयोग है कि आप लोग हमारा जन्मदिन मना रहे हैं। आज के दिन गौरी जी ने अपने विवाह के उपरान्त श्री गणेश की स्थापना की। श्री गणेश पवित्रता का स्रोत हैं। सबसे पहले इस संसार में पवित्रता फैलाई गई जिससे कि संसार में आए मनुष्य पावित्र्य से सुरक्षित रहें और अपवित्र चीज़़ों से दूर रहें। इसलिए सारी सृष्टि को गौरी जी ने पवित्रता से नहला दिया। और उसके बाद ही सारी सृष्टि की रचना हुई। तो जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि हम अपने अन्दर पावित्र्य को सबसे ऊंची चीज़ समझें। लेकिन पवित्र्य का मतलब यह नहीं कि हम नहाएँ, धोएं, सफाई करें, अपने शरीर को ठीक करें किन्तु अपने हृदय को स्वच्छ न कर सकें। हृदय का सबसे बड़ा विकार है क्रोध । क्रोध आ जाता है तो जो पावित्र्य है वो नष्ट हो जाता है क्योंकि पावित्र्य का दूसरा नाम निव््याज्य प्रेम है। वो प्रेम जो सतत बहुता है और कुछ भी नहीं चाहता। उसकी तृप्ति उसी में है कि वो बह रहा है और जब नहीं बह पाता तो वह परेशान होता है। सो पावित्र्य का मतलब यह है कि आप अपने हदय में प्रेम को भरें, क्रोध को नहीं। क्रोध हमारा तो शत्रु है ही लेकिन वो सारे संसार का शत्रु है। दुनिया में जितने युद्ध हुए, जो भी हानियाँ हुई हैं ये सामूहिक क्रोध के कारण हुई। क्रोध के लिए बहाने बहुत होते हैं। मैं इसलिए नाराज हो गया क्योंकि ऐसा था, मैं इसलिए नाराज हो गया क्योंकि वैसा था। हर क्रोध का कोई न कोई बहाना मनुष्य ढूंढ सकता है लेकिन युद्ध जैसी भयंकर चीजें भी इसी क्रोध से ही आती हैं। उसके मूल में क्रोध ही होता है। अगर हृदय में प्रेम हो तो क्रोध नहीं आ सकता और अगर क्रोध का दिखावा भी होगा तो भी वो प्रेम के लिए। किसी दुष्ट राक्षस का जब संहार किया जाता है तो वो भी उस पर प्रेम करने से ही होता है क्योंकि वो इसी योग्य है कि उसका संहार हो जाए जिससे वो और पाप कर्म न करे। लेकिन ये मनुष्य का कार्य नहीं। ये तो देवी का कार्य है जो इन्होंने नवरात्रि में किया। तो, हृदय को विशाल करके हृदय में ये सोचें कि हम किससे ऐसा प्रेम करते हैं जो निव्याज्य, निर्मम है, जिसके प्रति हमें ये नहीं कि 'ये मेरा बेटा है, ये मेरी बहन है, मेरा घर है।' ऐसा प्रेम हम किससे करते हैं? किसके प्रति हमें ऐसा प्रेम है। मनुष्य की जो स्थिति है उससे बहुत ऊंची स्थिति में आप आ गये हैं क्योंकि आप सहजयोगी हैं। आपका योग परमेश्वर की इस सूक्ष्म शक्ति से हो गया है। वो शक्ति आपके अन्दर बह रही है। आपको प्लावित कर रही है, आपको सम्भाल रही है, आपको उठा रही है। बार -बार आपको प्रेरित करती है, आपका संरक्षण करती है और आपको 6. आह्लाद, मधुमय प्रेम से भर देती है। ऐसी सुन्दर शक्ति से आपका योग हो गया किन्तु अभी भी हमारे हृदय में उसके लिए कितना स्थान है ? ये देखना होगा। हमारे हृदय में माँ के प्रति तो प्रेम है ये तो बात सही है। माँ से तो सबको प्यार है और उस प्यार के कारण आप लोग आनन्दित हैं, बहुत आनन्द में हैं। किन्तु दो प्रकार का प्रेम और होना चाहिए। तभी माँ का प्रेम हो सकता है। एक तो प्यार अपने से हो कि हम सहजयोगी हैं, हमने सहज में शक्ति प्राप्त की लेकिन अब हमें किस तरह से बढ़ना चाहिए। बहुत से लोग सहजयोग के प्रसार के लिए बहत कार्य करते हैं जिसे हम कहें क्षितिजीय प्रसार। पृथ्वी से समानान्तर, चारों तरफ फैलता हुआ। वो लोग अपनी तरफ नजर नहीं करते तो उत्थान की गति को नहीं प्राप्त होते। बाह्य में बहुत कुछ कर सकते हैं। बाह्य में दौड़ेंगे, बाह्य में काम करेंगे, कार्यान्वित होंगे। सबसे मिलेंगे-जुलेंगे। नहीं बढ़ाते। लेकिन अन्दर की शक्ति को बहुत से लोग हैं अन्दर की शक्ति की ओर ज़्यादा ध्यान देते हैं और बाह्य की शक्ति की तरफ नहीं। तो उनमें सन्तुलन नहीं आ पाता और जब लोग बाह्य की ओर बढ़ने लग जाते हैं तो उनकी अन्दर की शक्ति क्षीण होने लग जाती है, और क्षीण होते-होते ऐसे कगार पर पहुँच जाते हैं कि फौरन अहंकार में ही डूबने लगते हैं। सोचते हैं कि देखिये हमने कितना सहजयोग का कार्य किया । हम सहजयोग के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं और फिर ऐसे लोगों का नया जीवन शुरू हो जाता है जो कि सहजयोग के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं। और वो अपने को सोचने लगते हैं कि हम बहुत भारी एक अगुआ हैं और हमारा बहुत महत्व होना चाहिए। जैसे कि जिसे स्व-महत्व कहते हैं। हर जगह देखते हैं कि हमारा महत्व होना चाहिए, हर चीज़ में वो कोशिश करेंगे कि अपना महत्व दिखाएं, अपनी विशेषता दिखाएं, अपने को सामने करें लेकिन अन्दर से खोखलापन आता है। उसके बाद हठात देखते हैं कि उनको कोई बीमारी हो गयी, पगला गये वो। कुछ बड़ी भारी आफत आ गयी, तो फिर कहते हैं कि, 'माँ, हमने तो आपको पूरी तरह समर्पित किया हआ है, तो फिर ये कैसे हो गया, हमने कैसे पाया, ये गड़बड़ कैसे हो गयी।' इसकी जिम्मेदारी आप ही के ऊपर है कि आप बहकते चले गये। फिर ऐसे आादमी एकतरफा हो जाते हैं। वो दूसरों से सम्बन्ध नहीं रख पाते। उनका सम्बन्ध इतना ही होता है कि हम किस तरह से रौब झाड़ें लोगों पर और किस तरह से दिखाएं कि हम कितने ऊँचे इन्सान हैं। और वो दिखाने में ही उनको महत्व नहीं दिया तो गलती हो | गयी। यहाँ तक हो जाएगा कि उसमें ये भूल ही जाएंगे कि माँ का भी कुछ करने का है। माँ के लिए भी कुछ दान देना है। इसी प्रकार मैं देखती हूँ कि राहरी जैसी जगह, बम्बई में हर जगह इस तरह के कुछ लोग एकदम से उभर कर ऊपर आ गये और वो अपने को बहुत महत्वपूर्ण समझने लगे। वहाँ 7 तो आरती भी नहीं होती थी और नसीब हमारा, वहाँ फोटो तो रहता था लेकिन फोटो पोछने की भी किसी को इच्छा नहीं थी। नसीब अपने कि स्वयं का फोटो नहीं लगाया। अपना ही महत्व, अपनी ही डींग मारना और वो डींग मार-मार के अपने को ऊँचा समझने लगे दूसरों से। बहुत अलग किसी से कुछ पूछना नहीं। कुछ नहीं हम ही करेंगे। फिर झगड़े शुरू हो गये। झगड़े शुरू होने पर ग्रुप बन गये। क्योंकि जिस सूत्र में आप बंधे हुए हैं वो आपके माँ का सूत्र है और उसी सूत्र में अगर आप बंधे रहे और पूरे समय ये जानते रहे कि हम एक ही माँ के बच्चे हैं, न हममें कोई ऊँचा है न कोई नीचा, न ही हम कोई कार्य को करते हैं। ये चैतन्य ही सारा कार्य करता है, हम कुछ करते ही नहीं है। ये भावना ही जब छूट गयी और ये कि हम इतने बड़े हैं 'हम ने ये किया, हम ये करेंगे, वो करेंगे,' तब फिर चैतन्य कहता है कि तुझे जो कुछ करना है वो कर, 6. जहाँ जाना है जा। जाना है तुझे नर्क में तो नर्क में जा। तुझे अपने को मिटा लेना है मिटा ले। कर। वो फिर आपको रोकेगा अपना सर्वनाश करना है, वो भी कर ले। जो तुझे करना है वो तू नहीं क्योंकि आपकी स्वतन्त्रता वो मानता है। आप नर्क में जाना चाहें तो उसकी भी व्यवस्था है। पर सहजयोग में एक और बड़ा दोष है। एक बहुत बड़ा दोष है कि हम एक सामूहिक, विराट शक्ति हैं। हम अकेले नहीं है । सब एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। उसमें अगर एक इन्सान ऐसा हो जाए या दो-चार ऐसे हो जाएं जो अपना-अपना समूह बना लें तो जैसे कैन्सर के जहर का एक कीटाणु ही बढ़ने लग जाता है वैसे ही एक आदमी बढ़ कर के और सारे सहजयोग को ग्रस्त कर सकता है। और हमारी सारी मेहनत व्यर्थ जा सकती है। हमको तो चाहिए कि समुद्र से सीखें कि जो सबसे नीचे रहकर के ही सब चीज़ को, सब नदियों को अपने अन्दर समाता है बगैर समुद्र के तो ये सृष्टि चल नहीं सकती। अपने को तपा कर के बाष्प बना कर के दुनिया में बरसात की सौगात भेजता है। उसकी जो नम्रता है, वही उसकी गहराई का लक्षण है और उस नम्रता में कोई ऊपरी नम्रता नहीं कि 'नमस्ते भाईसाहब ! नमस्ते' कुछ नहीं सबसे नीचे, सबको ग्रहण करके, सबको अपने अन्दर लेकर, सबको शुद्ध करके और फिर भाप बना कर बरसात करना। और फिर वही बरसात नदियों में पड़कर दौड़ती हुई समुद्र की ओर दौड़ेगी और इस समुद्र की पहचान, अगर आप किसी समुद्र के किनारे गए हों तो देखिए कि वहाँ जितने भी नारियल के पेड़ हैं वो सब समुद्र की ओर ही झुके हुए हैं। इतनी जोर की आँधी चलती है, कुछ भी हो जाए लेकिन वो कभी भी समुद्र से दूसरी ओर मुडते नहीं क्योंकि वो जानते हैं कि ये समुद्र है। इस समुद्र के समान ही अपना हृदय विशाल तब होगा जब हमारे अन्दर अत्यन्त नम्रता और प्रेम आ जाएगा। लेकिन अपना ही 8. ल महत्व करना, अपने को ही विशेष समझना, ये जो चीज़ है इसमें सबसे बड़ी खराबी यह है कि परम चैतन्य आपको काट देगा। तुमको तुम्हारा महत्व है, तुम जाओ। और फिर जैसे कोई नाखून काट कर फैंक देता है इस तरह से आप एक तरफ फेके जाएंगे। जो मेरे लिए तो बड़ी दु:खदायी बात होगी। और दो-चार लोग और ऐसे निकल आए जो सोचें कि हम बहुत काम करते हैं, हमने ये कार्य किया हमने वो कार्य किया, उनको फौरन ठण्डा हो जाना चाहिए। पीछे हटकर देखना चाहिए कि क्या हम ध्यान करते हैं? हमारा ध्यान लगता है? हम कितने गहरे हैं? और फिर हम किसको प्यार करते हैं? किस-किस को प्यार करते हैं? कितनों को प्यार करते हैं? कितनों से दुश्मनी लेते हैं। सहजयोग में कुछ लोग बड़े गहरे बैठ गये हैं, बहत गहरे आ गये हैं इसमें कोई शंका नहीं। और बहुत से अभी भी किनारे पर ड़ोल रहे हैं। और फिर वो कब फेकें जाएंगे कह नहीं सकते । मैंने आपसे पहले ही बताया है कि १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला है। और एक छलांग आपको मारनी होगी जो आप इस स्थिति से निकल कर उस नयी चीज़ को पकड़ लेंगे। जैसे कि चक्का है जब घूमता है तो एक बिन्दू पर आकर आगे सरक जाता है इसी प्रकार सहजयोग की प्रगति भी सामूहिक होने वाली है और इसमें टिकने के लिए पहली चीज़़ हमारे अन्दर पावित्र्य होना चाहिए जो नम्रता से भरा हो। वैसे तो आपने दुनिया में बहत से लोग देखे हैं जो अपने को बड़ा पवित्र समझते हैं। सुबह-शाम सन्ध्या करते हैं और किसी को छूने नहीं देते। ये खाना नहीं खाएंगे, वो आयेगा तो कहेंगे कि, 'तुम दर बैठो,' उनको छू लिया तो ये पागलपन है अगर आप एकदम स्वच्छ हैं, पवित्र हैं तो आपको किसी उनकी हालत खराब। को छूने में, बात करने में, अपवित्रता आनी ही नहीं चाहिए क्योंकि आपका स्वभाव ही शुद्ध करने का है। आप हर चीज़ को ही शुद्ध करते हैं तो आप जिससे मिलेंगे आप उसी को शुद्ध करते जाएंगे। उसमें डरने की कौनसी बात है ? उसमें किसी को ताड़ने की कौन सी बात है? उसमें कानाफूंसी करने की कौन सी बात है ? तो ये तो लक्षण एक ही है कि आपकी स्वयं की पवित्रता कम है। अगर आपकी पवित्रता सम्पूर्ण है तो उस पवित्रता में भी शक्ति और तप है और वो इतना शक्तिशाली है कि वो कोई सी अपवित्रता को भी खींच सकता है। जैसे मैंने कहा कि हर तरह की चीज़ समुद्र में एकाकार हो जाती है। अब दूसरे लोग हैं जो सिर्फ अपनी ही प्रगति की सोचते हैं | वो ये सोचते हैं कि हमें दूसरे से क्या मतलब? हम अपने कमरे में बैठ कर माँ की पूजा करते हैं, उनकी आरती करते हैं। ऐसे लोग भी बढ़ नहीं सकते क्योंकि आप एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। समझ लीजिए कि एक अंगुली ने अपने को बाँध लिया और कहेगी कि मुझे किसी और से कोई मतलब नहीं। अलग से रहूँगी। ये तो अंगुली मर जाएगी। क्योंकि इसमें रक्त कहाँ से आएगा ? इसमें नस कैसे चलेगी ? इसमें चेतना का संचार कैसे होगा? ये तो कटी हुई रहेगी। आप एक बार इसे बाँध कर देखिए और पाँच दिन बाँधे रखिये। आप पाएंगे कि अंगुली काम ही नहीं करेगी। किसी काम की नहीं रह जाएगी। फिर आप कहेंगे कि, 'माँ, मैं तो इतनी पूजा करता हूँ इतने मन्त्र बोलता हूँ, मैं तो इतना कार्य करता हूँ, फिर मेरा हाल ऐसा क्यों है।' क्योंकि आप विचलित हैं। आप हट गए हैं, उस सामूहिक शक्ति से आप हट गए हैं। सहजयोग सामूहिक शक्ति है। इस सामूहिकता से 10 जहाँ आप हट गए वहीं पर आप अलग हो गए उस सामूहिक शक्ति से। तो दोनों ही चीज़ की तरफ आपको ध्यान देना है कि हम अपनी शक्ति को भी सम्भालें और सामूहिकता में रचते जाएं। तभी आपके अन्दर पूरा सन्तुलन आ जाएगा। लेकिन बाह्य में आप बहुत कार्य करते हैं। मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो सहजयोग के लिए बहुत कार्य करते हैं और काफी अच्छे भाषण देते थे। उनके भाषणों की उन्होंने फिर टेप बना ली। फिर लोगों से कहने लगे कि आप हमारे टेप सुनो। तो लोग हमारे टेप छोड़कर उन्हीं की टेप सुनते थे। और उनका यह हाल था कि जैसे आज के दिन हम यहाँ बैठे हैं, हमारे फोटों को तो नमस्कार करते थे , हमें नहीं करेंगे क्योंकि उनको फोटो की आदत पड़ी हुई है। हमसे उन्हें कोई मतलब नहीं। उन्हें फोटो से मतलब है। ऐसे-ऐसे विक्षिप्त लोग हमने देखे हैं। फिर उन्होंने अपने फोटो छपवाए और फोटो सबको दिखा रहे हैं कि हम वैसे हैं, कैसे हैं। इस तरह वे अनेक तरीकों से अपने ही महत्व को बढ़ाते हैं। करते-करते ऐसे खड्डे में गिर गए । गये। कहीं भी अनायास उनके समझ में नहीं आया और एकदम पता चला कि सहजयोग से छूट नहीं है। लोग मुझे कहते हैं कि माँ वो तो बड़े अगुआ थे, ये थे। हाँ, थे तो सही लेकिन वे गये कहाँ सहजयोग से। क्या करें! एकदम काफूर हो गए। कहाँ? पता ही नहीं। तो ऐसे लोग क्यों निकल गए क्योंकि सन्तुलन नहीं और जब सन्तुलन नहीं रहता है तो आदमी या तो बायें में चला जाएगा या दायें में चला जाएगा। और जैसा मैंने कहा कि दो तरह की शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं जिससे हम सहजयोग की ओर खिंचते भी हैं और फैंक भी दिए जाते हैं। एक रस्सी में अगर आप पत्थर बाँध कर घुमायें तो पत्थर घूमता रहेगा, जब तक रस्सी से बंधा है। जैसे ही रस्सी से छूट जाएगा, दूर फैंका जाएगा। इसी प्रकार बहुत से लोग सहजयोग से निकल गए। और फिर लोग कहते हैं 'देखिये माँ, सहजयोग में बहुत से लोग कम हो गए हैं।' मैं क्या करूं? और अगर कम हो गये हैं तो उसमें सहजयोग का कोई नुकसान नहीं हुआ है। इसमें उनका ही नुकसान हुआ है। सहजयेग का बिल्कुल भी नुकसान नहीं हुआ है। क्योंकि जिसको नुकसान या फायदे से कोई मतलब ही नहीं , ऐसी जो चीज़ है उसका क्या नुकसान हो सकता है? हाँ अगर आपको अपना फायदा करा लेना है तो आप इस चीज़ को जान लीजिए कि सहजयोग को आपकी जरूरत नहीं है, आपको सहजयोग की जरूरत है। 'योग' का दसरा अर्थ होता है युक्ति। एक तो है कि सम्बन्ध जुड़ जाना, दूसरा है युक्ति। ये युक्ति समझ लेनी चाहिए। ये युक्ति क्या है? इसमें तीन तरह से समझाया जा सकता है। पहली तो ये है कि हमें इसका ज्ञान आ जाना चाहिए। ज्ञान का मतलब बुद्धि से नहीं। किन्तु हमें अंगुलियों में, हाथ में, और अन्दर से कुण्डलिनी का पूरी तरह जागरण होना ये ज्ञान है और जब ये ज्ञान हो जाता 11 है तब और भी ज्ञान होने लग जाता है। बहुत सी बातें जो आप नहीं समझ पाते थे वह आप समझ पा रहे हैं। और आप समझने लग जाते हैं कि कौन सत्य है कौन असत्य। इस ज्ञान के द्वारा आप लोगों की कुण्डलिनी भी जागृत कर सकते हैं और उनको समझा सकते हैं। उनसे आप पूरी तरह से एकाग्र हो सकते हैं। उनके साथ आप वार्तालाप कर सकते हैं इस ज्ञान के कारण। तो आपको बौद्धिक ज्ञान भी आ जाता है। आप सहजयोग समझते हैं। कोई समझता था पहले ? 'ईड़ा, पिंगला, सुखमन नाड़ी रे, एक ही डोर उडाऊ रे' पहले नानक की कोई बात समझता था? या ज्ञानेश्वर की कोई बात समझता था पहले? कोई रहस्यमय चीज़ या गोपनीय बात कह रहे हैं। ऐसे समझ कर लोग रख देते थे। लेकिन सहजयोग के बाद आप सब समझने लगे । तो आपका बुद्धि चातुर्य भी बढ़ गया। उसकी भी चतुरता आ गयी। आप उसको समझने लग गये। ये तो बात ठीक है कि आप उसे समझने लग गये। और ऐसी बातें जो अगम्य थी गम्य हो गईं और सब बातों को आप जानने लग गये। सो तो एक युक्ति हो गयी कि आपने अपना ज्ञान बढ़ा लिया। अब दूसरी युक्ति क्या है? वो है जो कि आप हमारे प्रति भक्ति करें । उस भक्ति को भी जब आप करते हैं तब आपको अनन्य भक्ति करनी चाहिए। आप हमसे तदाकारिता प्राप्त करें। जैसे सोचते हैं वैसा ही आप सोचने लग जायें। आज देर हो गयी समझ लीजिए तो हम कह हम सकते थे कि आज बहुत देर हो गयी थी, हम थक गये हैं। लेकिन हमने ये सोचा कि नवरात्रि है, पूजा होनी चाहिए। और ये होना ही चाहिए, होना ही है और बड़े आनन्द से हम कर रहे हैं। क्योंकि शुभमूहर्त यही है। और हमें सहज होना चाहिए। उसके बारे में सोचते भी नहीं । थक गये या आराम भी नहीं किया, कुछ भी नहीं। यही मूहर्त है। जैसे एक योद्धा अगर लड़ाई में गया है और रात में ही करना है और यही मुहूरत हमें मिलना था, यही मूहर्त है, इसी वक्त ये देखा कि दुश्मन खड़ा है, यही समय उसको मारने का है, उसी वक्त उसे मारना चाहिए। तो हम बैठे हैं और आपको भी यही सोचना चाहिए कि यही समय माँ ने बाँधा है। यही समय हमारे लिए उचित है, दूसरा नहीं। इसी वक्त पूजा करनी चाहिए । लेकिन जो आधेअधूरे लोग हैं वो सोचते हैं कि, 'हम सबेरे से आकर बैठे हैं, हमने ये किया, हमें भूख लग गयी, खाना नहीं खाया, बच्चे रो रहे होंगे' तो वो अनन्य भक्ति नहीं हई क्योंकि मेरा जो सोच-विचार है आपके सोच-विचार में नहीं आया। मैं जैसे सोचती हूँ वैसा वो नहीं सोचते। किसी के लिए भी मैं सोचती हूँ। कभी-कभी 'माँ ये आदमी इतना खराब है।' मैं कहती हैँ कि, 'नहीं, बिल्कुल अच्छा है, बढ़िया आदमी है।' कैसे कहा आपने ? सोचती हूँ कि जो मैं देख रही हूँ ये क्यों नहीं 12 देखते ? अगर ये वैसे ही हो जाते हैं तो इन्हें वो ही देखना चाहिए, जो मैं देखती हूँ। वैसी तो बात नहीं, ये तो कुछ और ही देख रहे हैं। तो अनन्य नहीं हुए, अन्य हो गये। उसी प्रकार हमारा प्यार आपके प्रति है। और एक ही चीज़ से हम तृप्त होते हैं कि आप सबके प्रति एक जैसा प्यार रखें। अगर वो बात आपके अन्दर नहीं है तो फिर लगता है अन्य है, अनन्य नहीं। अगर हमारे ही शरीर के ये अंग-प्रत्यंग हैं तो जो हम हैं वैसे ही इनको होना चाहिए, जैसे हम सोचते हैं वैसा ही उनको सोचना चाहिए, जैसा हम करते हैं वैसा ही उनको करना चाहिए। तो ये दूसरा क्यों करते हैं? ये उल्टी बात क्यों सोचते हैं? इनके दिमाग में ये सब अजीब - अजीब बाते कहाँ से आती है? सो अनन्य भक्ति नहीं हुई ये, अन्य हुई। तो आपका सोच-विचार और कार्य और आपका प्रेम वैसा ही होना चाहिए जैसा आप मुझसे प्रेम करते हैं। यही अगर प्रेम का स्रोत है जो कुएं में है वही घट में आना चाहिए। दूसरे चीज़ कैसे आ सकती है आरै जब कोई दूसरी चीज़ आती है तब मैं सोचती हूँ कि उन्होंने किसी दूसरे घट कुएं से पानी भरा। ये घट मेरा नहीं है। अब तीसरी बात जो युक्ति है कि जब मैंने दूसरी बात आपको बताई कि आप अपने अन्दर एक अनन्य भक्ति रखें। 'माँ, हम आपकी शरणागत हैं' और जब शरणागत हैं तो जब हम कोई बात कह भी दें, या हम आपको कोई चीज़ समझा दें या कोई आपके सामने प्रस्ताव रखें, कुछ रखे तो उसका मना करने का सवाल ही कैसे उठेगा? अगर आप और हम एक हो गए तो उसका सवाल ही कैसे उठना चाहिए! माँ ने कह दिया तो ठीक है। हम तो माँ ही हो गए हैं तो हम नहीं कैसे कर दें । जैसे कि मेरी आँख आपको देख रही है तो मेरी आँख जाने कि आप लोग बैठे हैं सामने क्योंकि मेरी आँख मेरी अपनी है। तो मैं जो जान रही हूँ उसमें और मेरी आँख के जानने में कोई भी अन्तर नहीं। एक ही चीज़ है । जो मैं बुद्धि से जान रही हूँ वही मैं अपनी आँख से भी जान रही हूँ। तब फिर आपमें तदाकारिता नहीं आती सो ये दूसरी युक्ति है कि, 'माँ, मेरे हृदय में आप आओ, मेरे दिमाग, विचार, जीवन के हर कण में आप आओ।' आप जहाँ भी कहोगे हम हाजिर हैं, हाथ जोड़कर। पर आपको कहना तो पड़ेगा न और पूर्ण हृदय से कहना होगा। किसी मतलब से अगर आप मुझसे सम्बन्ध जोड़ें तो भी वो ठीक नहीं। लेकिन अगर सम्बन्ध जुड़ गया तो सारे मतलब अपने आप ही पूरे हो जाएंगे। आपको कुछ करना ही नहीं पड़ेगा। अपने आप ही जब आपके सारे मतलब पूरे हो गये तो आपका चित्त उसी में लग जाएगा। अब तीसरी जो बात है कि हम ये काम कर रहे हैं। हमने सहजयोग का ये काम किया, हमने ये सजावट की, ये ठीक-ठाक किया मैंने, तो सहजयोगी आप नहीं है। सहजयोग में आपके सारे कर्म अकर्म हो जाने चाहिए। मैं कुछ कर रहा हूँ, मैंने ये कविता लिखी, मैंने ये किया। ये जहाँ तक 13 बारीक, सूक्ष्म में देखते जायें कि मैं सच में ऐसा सोचता हूँ क्या मैं ऐसा सोचता हूँ? कय ा इस क T मतलब यह है कि जा मेरा योग पूरा नहीं हुआ? जब योग पूरा हो जाता है तो फिर आप ऐसा नहीं सोचते। सोच ही नहीं सकते। अकर्ममय हो जाते ये हैं आप। हो रहा है, वो हो रहा है, ३ं घटित हो रहा है। वो सब हो रहा है, ऐसा बोलने लग जाते हैं और तब कहना चाहिए कि पूरी तरह से तदाकारिता आ गयी। अब मेरा हाथ है वो कुछ कार्य कर रहा है, वो थोड़े ही कहता है कि मैं कर रहा हूँ, उसको तो पता भी नहीं कि वो कर रहा है। वो तो हो ही रहा है। उसकी जितनी भी गति है, हम ही तो कर रहे हैं। तो समझ ले कि ये हाथ कट गया, इससे जुड़ा नहीं। अगर जुड़ा है तो उसे कभी लगेगा नहीं कि मैं कर रहा हूँ, पकड़ रहा हूँ कभी भी नहीं लगता। और जब आप ऐसा सोचते हैं कि 'मैं कर रहा हूँ,' तभी चैतन्य कहता है 'तू कर' और तब सबसे ज़्यादा गड़बड़ी शुरू होती है। ये तीसरी युक्ति है, उस युक्ति को सीखना चाहिए कि क्या मैं कुछ कर रहा हूँ? एक क्षण विचार करें कि मैं कर रहा हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ? जब तक आप प्रकाश ढूंढ रहे थे तब तक आप कुछ कर रहे थे क्योंकि आपके अन्दर अहम् भाव था। आप अकेले एक व्यक्ति थे, एक व्यष्टि में थे, अब आप समष्टि में, सामूहिकता में आ गये हैं। तब आप कुछ भी नहीं कर रहे थे। आप अंग -प्रत्यंग हैं और वह कार्य हो रहा है। ये तीसरी युक्ति है 14 इसे समझें। मैं इसलिए यह युक्तियाँ बता रही हूँ कि अब छलांगे जो लगानी है! इस तरह से अआप अपना विवेचन हमेशा करते रहें। और अपनी ओर नजर रखें । इस वक्त भलाई इसमें है कि हम अपनी ओर नजर करें और अपनी ओर देखें कि क्या मैं ये सोचता हूँ कि वो मुझसे काफी श्रेष्ठ है और मुझे उनसे कुछ सीखना चाहिए। उसके कुछ अच्छे गुण मुझे दिखाई देते हैं कि बुरे गुण ही मुझे दिखाई देते हैं। दूसरों के अगर अच्छे गुण दिखाई दें और अपने बुरे गुण तो बहुत अच्छी बात है क्योंकि दूसरों के तो दुर्गुण आप हटा नहीं सकते । तो दूसरों ने क्या किया? दूसरे ऐसे हैं ऐसे सोचने वाले पूरी तरह योग में उतरे नहीं है। मेरे में क्या त्रुटि है? यह देखने से ही आप ठीक हो सकते हैं दूसरों को कहें कि तुम्हें अपना दोष ऐसा ठीक करना चाहिए और वहाँ के प्रधानमंत्री को जाकर कुछ अक्ल सिखायें तो वो हमें बन्दी कर लेंगे क्योंकि हमारे देश में तो हम कह सकते हैं क्योंकि ये हमारा देश है। इसी प्रकार हमें जानना चाहिए, इस युक्ति को समझ लेना चाहिए कि इसमें जो हम डावांडोल हैं वो हम अपनी ही वजह से हैं। सहजयोग तो एक बहुत बड़ी चीज़ है, बड़ी अभिन्न चीज़ है। लेकिन इसका जो हम पूरी तरह मजा नहीं ले पा रहे इसका मतलब हममें कोई खराबी है। और इस सबको इस यूक्ति को अगर आपने सीख लिया तो मिलेगा क्या? सिर्फ आनन्द, निरानन्द और कुछ नहीं। और फिर चाहिए क्या आपकी शक्ल ही बदल जाएगी। आप आनन्द में ही बहने लग जाएंगे। हमारे जन्मदिवस पर मैं चाहँगी कि आज आपका भी जन्मदिवस मनाया जाए कि आज से हम इस युक्ति को समझें और अपने को इस पवित्रता से भर दें, जैसे श्री गणेश | और पवित्रता से ही मनुष्य में सुबुद्धि आती है क्योंकि पवित्रता प्रेम ही का नाम है। उसी से सुबुद्धि का मतलब भी प्रेम ही है। सब चीज़ का मतलब प्रेम है। और अगर आप सुबुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते, अगर आप प्रेम को अपना नहीं सकते तो सहजयोग में आने से आपका समय बर्बाद हो रहा है। इस वक्त ऐसा कुछ समां बंध रहा है कि सबको इसमें एकदम एकाकार हो जाना चाहिए। अपने को परिवर्तन में डालना है, परिवर्तित हमें होना ही है। हम में खराबियाँ हैं, हमें अपने को पवित्र बना देना है। ये आप अपने साथ कितना प्रेम कर रहे हैं। आप का बच्चा से जरासा गन्दा हो जाता है तो आप दौड़ कर उसे साफ कर देते हैं क्योंकि आपको उससे प्रेम है। उसी प्रकार जब आपको अपने से प्रेम हो जाएगा तो आप भी अपने को परिवर्तन की ओर लगायेंगे कि मेरा परिवर्तन कहाँ तक है। मेरे अन्दर अब भी यही खराबी रह गयी अब भी मैं ऐसा हूँ और इस परिवर्तन के फलस्वरूप जो आशीर्वाद हैं, उस जीवन का वर्णन नहीं किया जा सकता। जो कबीर ने कहा कि अब मस्त हुए फिर क्या बोलें। तो आप सब उस मस्ती में आ जाइये, उस मस्ती को प्राप्त करें और उस आनन्द में आप आनन्दित हो जायें । ये हमारा आशीर्वाद है ! 15 to १३ मार्च १९९५ अ जि होली है। आज की होली पहले से बहुत भिन्न है। होली का तत्त्व जानना चाहिए। होली में अपने अन्दर की गन्दगी और दोष जलाकर हृदय शुद्ध करते ही जो प्रेम उमड़ आता है, उसके चैतन्य से सब तरफ चैतन्य के रंगों की बौछार होने से सब लोग मस्त हो जाते हैं। इसलिए सर्वप्रथम होली में अपने अन्दर की बाधायें जलानी चाहिये। सहजयोग में राजनीति नहीं होनी चाहिए। पूरे समाज के लोगों में राजनीति की जो जबरदस्त पकड़ है उसके कारण सहजयोगी भी इसकी लपेट में आ जाते हैं। एक व्यक्ति जो पूरी तरह सहजयोग न जानता हो, दूसरों को अपने इस दोषी स्वभाव से कुछ कह देता है और फिर दूसरों में इसका असर आ जाता है और वो भी इसे किसी और तक पहुँचा देता है। जैसे कुछ हवा सी चलती है, फ्लू की तरह। यह एक बीमारी है। यह फैलती जाती है। पहले जमाने में औरतें राजनीति करती थीं और आदमी लोग लड़ते थे, लेकिन अब उल्टा हो रहा है। कोई भी आदमी जो ऊँचा उठना चाहता है उसे ऐसी हरकतों में नहीं उलझना चाहिए । यह एक बड़ा भारी प्रेम है। मैं देखती हूँ, मैं बोलती नहीं लेकिन सब जानती हूँ। सहजयोगियों में आपस में बैर नहीं होना चाहिए। यह मोह के कारण होता है। नारद मुनि की तरह सहजयोगी एक दूसरे को उलट पुलट चीज़ें बताकर आपसी बैर बढ़ाते जाते हैं। इस आपसी बैर के बढ़ने से प्यार का जाल टूट जाता है। हमें सहजयोग से प्यार होना चाहिए और माँ से प्यार होना चाहिए। फिर भी यह चीज़ पहले से अभी कम है। लेकिन अब लोग दूसरी तरफ जा रहे हैं। कोई कहते हैं हम दिल्ली के सहजयोगी हैं, कोई नोएडा के, फिर कोई और अपने को कहीं और का सहजयोगी कहता है। हम सब एक हैं। हम में, कोई दिल्ली का, बम्बई का, ऐसा फर्क नहीं होना चाहिए। हम सब एक हैं। हम सहजयोगी हैं। समुद्र की बात करो, बूँद की नहीं। कोई आपको कुछ बोल के परेशान करता है कोई बात नहीं, उन्हें कहने दीजिए। वह सब सामने आता है, धीरे-धीरे। हमारी शादी हुई तब हमारे यहाँ सौ से भी ज़्यादा आदमी थे। हमने कभी किसी चीज़ की परवाह नहीं की। साधु-संत जैसे रहें, सब की सेवा की। सबको खुश रखा। अब भी हमारे दोस्त हैं लेकिन हमारे पति के नहीं हैं। जब भी हम लखनऊ जाते हैं तो सबके सब सिर्फ हमें मिलने आते हैं। हमसे उन लोगों को बहुत लगाव है। हमारे पति को मिलने कोई भी नहीं आता, सब हमें मिलने आते हैं। निर्वाज्य प्रेम होना चाहिए। कोई कुछ कहे, बके, हमें उससे कोई मतलब नहीं। अगला जन्म तो हम सहजयोगियों को है नहीं और अगर हो भी तो संत का जन्म रहेगा। इस जन्म का इसी जन्म में धोइये, स्वच्छ हो जाइए। अगले जन्म में धोने का अवसर नहीं मिलेगा। जो भी कुछ धोना है अभी धोना है, इसी जन्म में ताकि अगला जन्म हो भी तो वो दोषरहित हो। संत का जन्म रहेगा। आक्रामकता हममें है आक्रामक स्वभाव है। दूसरा, लोगों में बाधा भी है। इन दोनों को हम निकाल सकते हैं। सहजयोग में हमारे पास इसके लिए उपाय हैं। यहाँ सब निकाल देना चाहिए । तीसरा, (हिप्पोक्रसी) पाखण्ड। अपने आप को बढ़ावा देकर लोगों के सामने पेश होना। अन्दर है कुछ और, लोगों को बढ़ा चढ़ाकर बताना कुछ और। इससे हमें क्या फायदा? हम अपने आपको धोखा दे रहे हैं। अन्दर से काट रहे हैं। अन्दर और बाहर एक चीज़ होनी चाहिए। बगैर इन दोषों को होली में जलाए कोई फायदा नहीं। फिर वह कृष्ण की होली नहीं रहेगी। बदला, दोष, बाधा सब होली में जलाइए। ग्रुपबाज़ी, राजनीति सब जला दीजिए। एक ग्रुप, एक जाति नहीं होनी चाहिए। यह हमारे लिए ठीक नहीं है। एक ग्रुप बनाकर रहना ठीक नहीं। एक जाति के लोग अपना ग्रुप बना लेते हैं, यह ठीक नहीं है। अब हम सहजयोगी बन गए हैं। हम किसी ग्रुप या किसी जाति के नहीं रहे। अपने ही लोगों को महत्व देना बेकार बात है। अपने ही जाति के लोगों को, अपने ही इलाके के चाहिए, इस ओर दृष्टि करनी चाहिए। उन्हें देखकर बाकी लोग भी वैसा ही बर्ताव करते हैं। यह सब होली में जलायें । लोगों को आगे करना ठीक नहीं। जो अगुआ हैं उन्हें इस तरफ ध्यान देना इसके लिए एक मंत्र है; बहुत बड़ा मंत्र 'सबको माफ करो'। इसके बगैर उन्नति नहीं। हमें माँ से मतलब है, सहजयोग से मतलब है। कोई अगर कुछ गलत कहे तो उसे सुबुद्धि से जानो, उनको बकवास करने दो। हमारा ख्याल इस तरफ होना चाहिए किइस गलत बात को सुनकर हमारे अन्दर कोई गलत बात तो नहीं जा रही है? | हम बुद्ध को जानते हैं और सबको मानते हैं, यह छोड़ दो। वैमनस्य से कोई लाभ नहीं । अपने अन्दर के षटरिपुओं को जलाओ| हमें व्यक्तिगत तौर पर उन्नति हासिल करनी चाहिए। व्यक्तिगत तौर पर। इसी से सम्पूर्ण समष्टि में बदलाव आएगा। एक सेब यदि खराब हो तो पचास सेबों को खराब कर देता है। लेकिन सहजयोग में एक व्यक्ति बाकियों को ठीक करता है-पचासों को। खराब स्वभाव का औरों पर असर पड़ता है। परिवार में भी यह चीज़ हम देखते हैं। यदि परिवार में एक व्यक्ति भी खराब स्वभाव का हो तो सब पर असर पड़ता है । लेकिन सहजयोग में ऐसा नहीं है । एक भी अच्छा सहजयोगी हो तो वह सबको ठीक करता है। यदि कोई गलत व्यक्ति हो तो वह अपने आप निकल जाएगा। हमें उसमें अपना चित्त डालने की जरुरत नहीं। वह चीज़ आप मुझ पर छोड़ दीजिए । होली में जलाने के लिए सब लोग अपने अपने घर की लकड़ी देते हैं ताकि उस लकड़ी के जलने से उनका घर बाधारहित हो जाए। सहजयोग में यह लकड़ी हमारा शरीर है। अपने शरीर की लकड़ी जलाकर स्वयं को सोना बनाओ। अपनी क्षमा की शक्ति को बढ़ाओ। राईट साईड (आक्रामक स्वभाव) को कम करें। 'हम' और 'क्षम' आज्ञा के दो मंत्र हैं। जो भूत बाधाओं से पीड़ित है वह बाधा निकालने के लिए औरों का सहारा लेते हैं। इससे कोई फायदा नहीं। इसे हम खुद निकालें। हमें अब औरों की सहायता की जरुरत नहीं। यह कहना चाहिए कि मैं सहजयोगी हूँ या मैं सहजयोगिनी हूँ, बाधा दूर हो जाएगी। दूसरों को मत ढूँढो। बाधित लोगों को मत ढूँढो। इससे बाधा बढ़ जाती है। वह शारीरिक हो या मानसिक हो उनका एक ग्रुप बन जाता है। एक और बात मैंने देखी है कि लोग मुझपर अपना अधिकार जताते हैं। चर्चा, विवाद शुरु कर देते हैं। में देखती हूँ। तुरन्त स्वाधिष्ठान पूरी तरह जकड़ जाता है। और वाद-विवाद का कोई अन्त ही नज़र नहीं आता। तीन - तीन बजे तक बैठे रहते हैं। अरे भाई, हमने आपको समझाया आप बाधा ग्रसित हो, आपका घर शमशान के पास है उसे छोड़ दो। किराये का घर है उसे छोड़ने में क्या हर्ज है? लेकिन नहीं। उस तरफ उनका ध्यान नहीं, और अधिकार जताते जा रहे हैं। हमने देखा है बाधा वाले सबसे आगे रहते हैं। बाधा चिपकती है। प्रोटोकॉल (नियम-आचरण) होना चाहिए। माँ के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। सहजयोग में नितान्त श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा के बिना चर्चा करने से दाहिनी विशुद्धि तुरन्त पकड़ी जाती है। प्रोटोकॉल का ख्याल करना चाहिए। जब भी गलत बात होती है तो प्रोटोकॉल की तरफ ध्यान देना चाहिए। सबसे ज़्यादा श्रीकृष्ण ने राक्षसों को मारा। श्री राम ने राक्षसों को मारा। लेकिन लोग मुझे कहते हैं, 'माँ जैसा अवतरण आज तक नहीं हुआ है। आपका कार्य महान है। आप में लोगों के अन्दर स्थित राक्षसी प्रवृत्तियों को नष्ट करने की शक्ति है।' प्रतीकात्मकता से होली जलाओ। स्वच्छ हो जाओ। मुक्ति में जो आनन्द आ रहा है इसमें नाचो, गाओ और सबको आनन्दित करो । सहजयोग की होली कृष्ण की होली है । आजकल तो लोग होली में भांग पीते 18 हैं, श्रीकृष्ण क्या भांग पीते थे ? भांग तो सिर्फ शिवशंकर पीते हैं। जिनको भी सहजयोग में रहना है उन्हें व्यभिचार त्यागना होगा। यही होली का महत्त्व है। खाने-पीने को हम बहुत महत्त्व देते हैं किसी को चाट कहाँ अच्छी मिलती है, मिठाई यहाँ अच्छी मिलती है, यहाँ ये, सारा चित्त इन्हीं चीज़ों में लगा रहता है। अस्वाद होना चाहिए। ये या वो। कहते हैं- श्रीकृष्ण को लड्डु ज़्यादा पसन्द है और देवी को पूरणपोली। अब आप लोग भी मेरे लिए कुछ-कुछ बनाकर लाते हो लेकिन मुझे इन सब चीज़ों से कोई मतलब नहीं। अस्वाद होना चाहिए। अस्वाद में उतरना चाहिए। अब आप लोग इतने प्यार से मेरे लिए चीजें बनाकर लाते हो इसलिए मैं वो खा लेती हूँ। वो बात अलग है। हाँ दूसरों को बनवाकर खिलाओ| ज्यादातर उत्तरी भारत में लोगों का खाने में ध्यान ज़्यादा है, फिर महाराष्ट्र में भी है और दक्षिण भारत में भी है। वैसे सभी जगह है । हमें लोग पूछते हैं, आपको क्या पसन्द है? हमें तो याद भी नहीं आता कि हमें क्या अच्छा लगता है। ईसामसीह ने कहा था, "Hate sin and love the sinner". (बुराई से घृणा और बुरे से प्यार करो।) गुण देखिए, अवगुण बढ़ाइए । इस मामले में विदेशी हिन्दुस्तानियों से कहीं अच्छे हैं। वो कभी आपस में झगड़ते नहीं। जो उन्हें मिले उसी में खुश रहते हैं। लेकिन हम हिन्दुस्तानियों का ऐसा नहीं है। यहाँ पर तो चार लोग एक बाथरूम इस्तेमाल करते हैं लेकिन जब गणपतिपुले जाते हैं तब संलग्न गुसलखाना (अटैच्ड बाथ) चाहिए। विदेशियों का ऐसा नहीं है। वो लोग अपने देश में खुद की मोटर रखते हैं, हवाई जहाज से सफर करते हैं । हमारे जैसा खाना वे लोग खाते नहीं। उनका खाना अलग होता है। लेकिन जब वो यहाँ आते हैं हमारा खाना तक वो बड़े प्यार से खाते हैं और इतना ही नहीं उसकी प्रशंसा भी करते हैं। वैसे वो लोग तो हमें भगवान ही समझते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शरीर का आराम, आराम नहीं है, ध्यान आत्मा की तरफ रहना चाहिए। उन लोगों की आपसे बहुत अपेक्षायें है। हमें उन अपेक्षाओं की तरफ ध्यान देना चाहिए। देखिए। सहजयोग प्यार से ही बढ़ने वाला है। आप अपने प्यार को और भी कई चीजे हैं जैसे कोई भी काम बगैर पूछे करने लगते हैं। मुझे पूछे बगैर काफी चीजें की जाती है। इससे अंत मे नुकसान हो जाता है। पूछना चाहिए | इसी में सबकी भलाई है । ऐसा क्यों होता है, इसकी तरफ ध्यान देना चाहिए। असल में होली का तत्त्व यही है कि अपने आपको अन्दर से साफ करना चाहिए। येशु बहुत पहले कश्मीर आए थे तब उनकी मुलाकात हमारे पूर्वज राजा शालीवाहन से हुई थी। तब उनको पूछने पर येशु ख्रिस्त ने बताया, 'मुझे ईसा मसीह कहते हैं और जिस देश से मैं आया हूँ वहाँ के लोगों को म्लेच्छ कहते हैं (जो मल की इच्छा रखते हैं) इसलिए मैं आपके देश में आया हूँ। तब राजा शालीवाहन ने उनसे कहा कि, 'वे अपने ही देश में वापस जाकर उन लोगों से कहें कि वे 'निर्मलम्तत्वम्' अपनाए। सहजयोग का जो काम है यदि मेरे अकेले से हो सकता तो आप लोगों की जरुरत ही नहीं रहती । लेकिन यह कार्य आपके माध्यम से होना है। आप सब लोग सहजयोग के माध्यम हैं। आप सब जितने स्वच्छ रहेंगे उतना आप सहजयोग के लिए उपयुक्त साबित होंगे यह आपकी गहराई पर निर्भर करता है। और गहराई आयेगी कैसे? गहराई श्रद्धा से प्राप्त होगी। समर्पण से। अगर हमें मोती हासिल करना है तो समुद्र की गहराई में उतरना होगा। इसलिए गहराई में उतरना चाहिए। अब देखिए जो विदेशी यहाँ आ रहे थे उन्हें आधे पैसे में टिकट प्राप्त हुआ और उन्होंने श्रद्धा से बैंकॉक जाने की इच्छा करते ही उन्हें उसी टिकट पर बैंकॉक जाने की स्वीकृति मिली। गहराई में उतरने से सब चीज अनायास प्राप्त हो जाती है। इसलिए गहराई में उतरना चाहिए उसके बिना कोई फायदा नहीं। 19 रहजयोग ख ल THE डिक भ তল ी २ ० - मेंने तय किया था कि उस रात को समुद्र किनारे ही रुक जाऊं| में बिलकुल अकेली थी और १९७ बहुत अच्छी लग रही था और फिर ध्यान में मुझे ऐसा लगा कि अब वह समय आ चुकी है जबकि सहसार को खोलना चाहिए। १९८० - में आज आपको यह सब बता रही हूँ क्योंकि आप इसके काबिल हो। उस हिसाब से आपको समझ लेना चाहिए कि ये बहत ही सौभाग्य की बात है किमें आपको यह सब बता रही हूँ। आपको इसकी चाबी देरही है। १९९० - इन सब वर्षों से, इसी दिन का इंतजार था । अब इस बार का इक्कीसवा सहसार दिवस हें, इसी वजह से महत्वपूर्ण बदलाव वाला मोड़ है। आयको पता होगा कि हर इक्कीसवे दिन को हम अपने कैलेंडर को बदलते हैं, जहाँ तक कि जन्मपत्नी का साल है । तो अभी एक नया बदलाव आना है और आप उसकी सूचना को देख सकोगे-एक नयी समझदारी, एक जानकारी बहुत ही नये आयाम की २००० - मेरी दृष्टि बहत ही महान है एक जिन्दगी के लिए| में चाहती हूँ कि जगभर की जागृति हो में चाहती हूँ कि दुनियाभर के लोगों की जागृति हो। २००८ - मैने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है और मुझे लगता है कि इसे में फिर से दोबारा नहीं कर पाऊंगी। ये इसलिए नहीं कि मेरी वृद्धावस्था है, पर इसलिए कि में आपको सहजयोग कैलाने की पूर्ण स्वतंत्रता देना चाहती हूँ..... लोगों की भलाई के लिए इसका उपयोग करें। गब उत्थान ४ ै कोलकाता, १४/४/१९९६ भ क०- ० ( ईस्टर२ पूजा) आज हम लोग ईस्टर की पूजा कर रहे हैं। सहजयोगियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण दिन है क्योंकि ईसामसीह ने दिखा दिया कि मानव का उत्थान हो सकता है और उस उत्थान के लिए हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो उनको क्रूस पर चढ़ाया गया उसमें भी एक बहुत बड़ा अर्थ है। क्रूस पर टांग कर उनकी हत्या की गई और क्रूस आज्ञा चक्र पर एक स्वस्तिक का ही स्वरूप है। उसी पर टांग कर के और ईसा मसीह वहीं पे गत-प्राण हुए। उस वक्त उन्होंने जो बातें कहीं, उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी कि उन्होंने कहा कि, 'माँ का इन्तजार करो। माँ की ओर नजर करो। इसका अर्थ कोई कुछ भी लगाए पर दिखाई देता है कि उन्होंने ये बात कही कि मैं तुम्हारे लिए एक ऐसी शक्ति भेजूंगा जिसके तीन अंग होंगे, जो त्रिगुणात्मिका होगी। और उस का वर्णन बहुत सुन्दरता से किया है कि एक शक्ति होगी जो आपको आराम देगी। आराम देने वाली शक्ति जो हमारे अन्दर है, वह है महाकाली की शक्ति, जिससे हमें आराम मिलता है, जिससे हमारी बिमारियाँ ठीक होती है, जिससे हमारे अनेक प्रश्न, जो भूतकाल के हैं , ठीक हो जाते हैं। दूसरी शक्ति जो उन्होंने भेजी, वह थी, महासरस्वती की शक्ति। महासरस्वती की शक्ति को उन्होंने कौंसलर कहा। यह आपको समझायेगी, आपको उपदेश देगी, योग निरुपण करेगी । इस दूसरी शक्ति से हम ज्ञान-सूक्ष्म ज्ञान को प्राप्त करेंगे और तीसरी शक्ति महालक्ष्मी की, जिससे कि हम अपने उत्थान को प्राप्त होंगे। इस प्रकार तीन शक्तियों की उन्होंने बात की थी। बुद्ध ने कहा था कि, 'मैं तुम्हें 'मात्रेया' दूंगा,' यानि तीन तरह की माता या मातायें। लोगों को समझ ही नहीं आया कि 'मात्रेया' क्या होता है, इसलिए उन्होंने ' मैत्रया' कर दिया । यह जो 'मात्रेया' थी, यह एक साथ आदिशक्ति में ही हो सकती थी और आदिशक्ति को उन्होंने कहा तो जरूर होगा 'Primordial Mother' पर जिन्होंने बाईबल को ठीक किया, उन्होंने उसे 'होली घोस्ट' बना दिया और उसकी जगह कबूतर बना दिया। क्योंकि जिन्होंने बाईबल को ठीक किया उन्हें स्तरी जाति से बहुत नफरत थी और वे विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि एक स्त्री भी ऐसा ऊँचा कार्य कर सकती है। उस नफरत के कारण उन्होंने उस का रुप अजीब सा बना दिया-होली घोस्ट यानि कि एक कबूतर। कबूतर का अर्थ है कि वह एक 'शान्ति का दुत' होता है। स्त्री की बात ही नहीं की। अपने शास्त्रों में कहा गया है 'सहस्रारे महामाया'। तो वो महामाया स्वरूप होंगी। लोग उन्हें पहचान नहीं पायेंगे। पहचानने के लिए भी आपको आत्मसाक्षात्कार लेना पड़ेगा। यदि आप ने आत्मसाक्षात्कार नहीं लिया तो आप पहचान ही नहीं सकते। अपने जीवन ही में उन्होंने जितना खुलकर कह सकते थे, कहा। पर न जाने इन्होंने कितनी बातें बताई और कितनी नहीं बताई और छिपाई। सहजयोग के लिए ईसामसीह का आना बहुत जरुरी था। वो स्वयं एक चिर बालक हैं। यह तो अब सिद्ध हो गया है कि वे गणेश का अवतरण हैं। गणेश का अवतरण संसार में एक ही बार हुआ और वह है ईसामसीह के रूप में। इन तीनों का कार्य, जिसे हम कह सकते हैं बुद्ध, महावीर और ईसा-मसीह, जिस स्तर पर हुआ वह स्तर तपस्या का है। इसलिए विराट पर इन्होंने कार्य किया। तीनों के कार्य में तपस्या का महत्त्व है, कि मनुष्य को तपस्या करनी चाहिए। तपस्या करके ही वह आज्ञा चक्र को भेद सकता और बाहर जा सकता है। आज्ञा चक्र का भेदन होना अति आवश्यक था क्योंकि उसके बिना आपकी कुण्डलिनी ऊपर उठ ही नहीं सकती थी। आज्ञा चक्र का भेदन ईसा मसीह के पुनर्जन्म से हुआ। उनकी मृत्यु हुई और फिर उनका पुनर्जन्म हुआ। अत: हम लोगों के लिए एक बड़ा भारी संदेश है ईस्टर में, कि ईसा मसीह के उत्थान से ही हम लोगों ने इस उत्थान को प्राप्त किया। सबसे कठिन चक्र है इन्सान में, मनुष्य में-आज्ञा चक्र क्योंकि मनुष्य हर समय सोचता ही रहता है और सोच-सोच कर उसके सिर की एक मन के बुलबुले की सी स्थिति बन जाती है। वह विचारों से परे नहीं जा सकता। जब आज्ञा का भेदन होता है तभी आप विचारों से दूर जा पाते हैं। इसलिए यह कहना चाहिए कि यदि ईसा मसीह ने अपने प्राण देकर के आज्ञा से उत्थान नहीं किया होता तो सहजयोग मुश्किल हो जाता। कार्य तो सभी अवतरणों ने किया अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने समय, अपने-अपने स्थान पर। परन्तु जो कार्य ईसा मसीह के उत्थान से हुआ वह बहुत ही कमाल की चीज़ थी। इसलिए आज्ञा का भेदन बहुत मुश्किल कार्य था । आज्ञा से ऊपर उठाना कोई मुश्किल कार्य नहीं। जितने भी गुरु हो गए बड़े-बड़े, उन्होंने बहुत कार्य किये। उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें करीं कि जिसके कारण लोगों में जागृति हुई, धर्म के प्रति रुचि हुई व आत्मसाक्षात्कार की ओर ध्यान आकर्षित हुआ। ईसा इस देश में आये क्योंकि वहाँ के लोगों, जहाँ से वो आये थे, उनकी दृष्टि में सूक्ष्मता नहीं थी। अध्यात्म नहीं था इसलिए वे हिन्दुस्तान में आए और काश्मीर में वे शालीवाहन राजा से मिले। शालीवाहन ने उनसे पूछा, 'तुम्हारा क्या नाम है?' उन्होंने कहा, 'मेरा नाम ईसा मसीह है।' मसीह यानि जो सन्देश 26 लेकर आता है। और मैं उस देश से आ रहा हँ जहाँ सभी मलेच्छ रहते हैं। मलेच्छ यानि जिन्हें मल की इच्छा होती है। आप देखते हैं कि जितने भी ये विदेशी होते हैं उन्हें मल की ही इच्छा रहती है, सिर्फ पागलपन ही अच्छा लगता है। आप उनकी फिल्में देखिये तो सोचेंगे, क्या ये लोग पागल हैं? हमारे देश में इन लोगों को पहले मलेच्छ कहते थे यानि मल की इच्छा करने वाले मलेच्छ। ईसा ने कहा कि, 'उनको तो मल की इच्छा है और मैं वहाँ कहाँ जाऊँ, मुझे तो अध्यात्म को जानना है।' तो शालीवाहन ने कहा, 'आप तो पहुँचे हुए हैं। आप अपने ही देश में लोगों को 'निर्मल तत्त्वम्' यानि प्रिन्सीपल आफ प्युरिटी लोगों को सिखायें । बहत जरुरी है, यदि आपने लोगों को निर्मल तत्वम् सिखा दिया तो लोग मलेच्छपन से छुटकारा पा जाएंगे । ' ईसा वापिस गये और किसी तरह साढ़े तीन वर्ष तक रहे और फिर उन्हें क्रूसारोपित कर दिया गया। जिस शान से उन्होंने प्राण त्यागे, उससे जाहिर होता है कि उनका अदभूत व्यक्तित्व था और मात्र साढ़े तीन साल के थोड़े से समय में उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किए हैं वह बहुत महान थे। हालांकि उन्होंने किसी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दिया, क्योंकि उस समय सत्य को खोजने वाले लोग नहीं थे जैसे आज हैं, मेरे नसीब अच्छे हैं। इसलिए जो कार्य हुआ वह आत्मसाक्षात्कार से पहले का कार्य था। यानि लोगों ने जाना कि इस मनुष्य जीवन से परे भी कोई और जीवन है। उन्होंने कहा कि 'तुम्हें फिर से जन्म लेना होगा।' उनका उत्थान फिर से जन्म लेना ही है। और अपने यहाँ भी कहते हैं कि जिस प्रकार अंडे से पक्षी जन्म लेता है, उसी प्रकार जब दूसरा जन्म होता है तो उसे द्विज कहना चाहिए, जिसका अर्थ दसरी बार है। और जब उसका परिवर्तन हो जाता है पूरी तरह से तो उसमें पूर्णतया शक्ति आ जाती है। उस के पास सारी संचार शक्ति आ जाती है। आपको तो मालूम है कि साईबेरिया से उड़कर के कैसे पक्षी हिन्दुस्तान में आ जाते हैं। जाड़े में यहाँ आते हैं और गर्मियों में वहाँ चले जाते हैं। न उनके पास कोई रड़ार है न एरोप्लेन है। वह हर साल उसी तालाब पर आते हैं जहाँ पहले आते थे। एक बार एक प्रयोग किया। पक्षियों के कुछ बच्चों को छिपा दिया, तो उन्होंने खोज निकाला अपने बच्चों को । कुछ बच्चों को जिन्हें खोज नहीं निकाला था खुद ही उड़ कर चले आए। उनका कोई अगुआ नहीं था, उन्हें कोई बताने वाला नहीं था फिर भी वे उड़कर ठीक से आ गये। इसे कहते हैं कि परमात्मा ने संसार में सारी व्यवस्था सुन्दरता से की है ताकि हम अपने उत्थान को प्राप्त करें। मैं तो इसे बसन्त ऋतु कहती हूँ। आप इतने लोग आज यहाँ बैठे हैं, ऐसा ईसा मसीह के सामने कहाँ थे ? और इससे हजारों गुणा संसार में फैले हैं। देख करके बड़ा आश्चर्य होता है कि ईसा मसीह के सामने ये सब लोग नहीं थे, और न ही कोई जानता था कि आत्मसाक्षात्कार क्या है? 27 आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना क्यों आवश्यक है? आज भी हमारे देश में भी हैं ऐसे अन्धे लोग जो इस बात को नहीं समझते। पर हमारे यहाँ जो महान गुरु हो गए हैं उन के कारण एक बहुत बड़ी समस्या दूर हो गई है कि लोगों में इसके बारे में ज्ञान हो गया है। सब जानते हैं कि हमें दूसरा जन्म लेना है, अपने को पहचानना है। जो कुछ भी शास्त्र लिखे गए हैं किसी भी धर्म में उनमें भी यही बात लिखी है। आज का दिन इसलिए भी मुबारक है कि आज बंगाल का नया साल का दिन है और इसलिए इसके पुनरुत्थान की भी बात हो सकती है। यह पुनरुत्थान जो आज हमने मनाया है इसका लाभ अवश्य बंगाल को होगा। यहाँ की संस्कृति और यहाँ की कला, बंगाल देश के महान देशप्रेमी लोग, जिन्होंने सारे देश में सबको एक बड़े ऊँचे स्तर पर पहुँचाया था आज वही कहाँ से कहाँ चले जा रहे हैं। विदेशी, व्यवस्था को छोड़कर चले गए, पर अब कहीं अधिक हम लोगों ने विदेशी संस्कृति को स्वीकार्य किया है। उसको लेकर हम लोग यह भी नहीं सोचते कि वे लोग कहाँ चले गये। हम लोग यह जानते हैं कि इन लोगों की क्या दशा है? वे कहाँ पहुँच गए। इन लोगों ने क्या पाया हुआ है। बहुत से ईसाई लोग तो यह सोचते हैं कि ईसा मसीह इंग्लैण्ड में पैदा हुए थे और उनके लिए धोती पहनने का अर्थ हिन्दू बनना है । इस प्रकार की विचित्र कल्पनायें हमारे सिर में बैठ गई हैं और हम सोचते हैं कि अंग्रेजीयत लेने से हम लोग ईसा मसीह को बहुत नज़दीक से देख सकेंगे । जिनको उन्होंने मलेच्छ कहा, उन्ही को हम आदर से देखते हैं। वो लोग अब जान गए हैं कि हमारी संस्कृति, हमारी विचारधारायें, हमारी धर्म की ओर दष्टि अत्यन्त सूक्ष्म है और यहाँ के लोग बहुत जल्दी सहजयोग प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन सहजयोगियों को चाहिए कि आपस में पूर्ण रूप से मेल-मिलाप से रहें। और यह जो उत्थान का संदेश है हर जगह पहुँचाये क्योंकि आज आपका देश जिस दशा में है, उसकी दशा परिवर्तन के अलावा ठीक हो ही नहीं सकती, अध्यात्म के सिवा ठीक हो नहीं सकती है। आप कुछ भी करिये। किसी प्रकार कोशिश यह कीजिए कि एक-एक आदमी को सूचना दें, कि हम कितने आदमियों को सहजयोग के बारे में बताते हैं और कितने लोगों को सहजयोग सिखाते हैं। ईसा मसीह अकेले थे। उनके साथ कोई भी नहीं था। उनके साथ सिर्फ उनके १२ शिष्य थे। उसमें से भी कुछ और एक बड़ा भारी संदेश अपने उत्थान से, अपने जीवन से दिया। और वह जो संदेश हमें दिखाई आधे-अधूरे और कुछ ऐसे वैसे। उन्होंने बहुत मेहनत की देता है वह वास्तव में हमारी आज्ञा पर काम करता है। और आज्ञा पर काम करके ही हमने स्थिति प्राप्त की है कि हम ब्रह्मरंध्र तक पहुंच पाते हैं । उन्होंने हमेशा क्षमा की बात की। उन्होंने हमेशा 28 करुणा की बात की। उन्होंने कहा कि, आप सबको क्षमा कर दें। क्रूस पर चढ़ कर भी उन्होंने कहा कि, 'हे प्रभु, इन सबको क्षमा कर दीजिए। ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। इन सबको माफ कर दो, ये सब अन्धे हैं।' जिस समय उन्हें क्रूस पर चढ़ाया और कीलों से ठोका और कांटों का ताज पहनाया उस समय भी उन्होंने बड़े प्रेम से कहा, 'प्रभु, इन सबको क्षमा कर दीजिए क्योंकि ये जानते नहीं कि ये लोग क्या कर रहे हैं।' यह आज्ञा चक्र की करामात है। इसलिए आज्ञा चक्र पर हमेशा कहते हैं कि आप लोग सबको माफ कर दो। आधे विचार तो हमारे अन्दर यह चलते हैं कि 'इसने हमें सताया, उसने हमें सताया। यह सब यदि हम परम चैतन्य पर छोड़ दें तो सब समाधान हो जाता है। कई बार तो मैं आपको बताते हुए बहुत डरती हूँ कि यदि कोई सहजयोगी गलत कार्य करता है तो मुझे बहुत घबराहट होती है कि देखो, अब आई शामत! यहाँ ईसा मसीह बैठे हैं, इधर गणेश जी बैठे हैं, हनुमान और भैरवनाथ बैठे हैं। इन चारों के चक्कर से छूट नहीं पायेंगे। कोई जरा सी गड़बड़ करे, पैसे में गड़बड़ करे, काम में गड़बड़ करे, मैं बस सोचती रहती हूँ कि कैसे सब संवर जाए। क्योंकि जब आप पवित्र चीज़़ में आ गए, जैसे एक सफेद चादर में कोई भी धब्बा पड़ जाए, तो ये दिखाई देता है, इसी प्रकार आपके अन्दर कोई दाग है तो वे फौरन पकड़ लेंगे। न जाने क्या सजा दें। यह बड़ी कठिनाई है। हालांकि अपने समय तो उन्होंने प्राण दे दिये। परन्तु हमारे बारे में उन्होंने ये कहा कि हमारे बारे में तो आप ने जो भी कह दिया, सो कह दिया। परन्तु यदि आदिशक्ति के बारे में कुछ भी कहा तो बहुत बुरा होगा। और मैं देख रही हूँ। कि वे बिल्कुल भी सहन नहीं करते। यदि आपने मुझे माँ माना है, तो मैं उसका मान करती हूँ और जब वो सताते भी हैं तो मैं कहती हैँ इन्होंने मुझे माँ कहा, इसलिए इन्हें क्षमा कर दीजिए । पर ये लोग भी इसको समझते हैं। आपको यह समझना चाहिए कि आप लोगों का जो उत्थान हुआ है वह आपकी पूर्व जन्म की मेहनत, श्रद्धा के फलस्वरूप हुआ है। इस जन्म में आपको यह बहुत बड़ा आशीर्वाद मिला हुआ है। लोग तो समझते थे कि यह हो ही नहीं सकता। यह आशीर्वाद जो आपने प्राप्त किया है। आपको ध्यान रखना चाहिए कि आप कोई भी गलत काम न करें। क्योंकि गलत कार्य करने से आपकी जो निर्मलता है, पकड़ में आ जाएगी। मैं आपको डरा नहीं रही हूँ बल्कि यह वास्तविकता बता रही हूँ। आप जो भी करें, अत्यन्त प्रेम से, उसका आनन्द उठाते हुए। हो सकता है आपको कोई परेशान करे। कोई बात नहीं। कितनी देर परेशान करेगा, जो परेशान करेगा, उसका ठिकाना हो जाता है। किसी भी स्तर पर भूलना नहीं कि आप एक सहजयोगी हैं। पहले जमाने में कितने सहजयोगी थे। एक थे सूफी निजामुद्दीन, तो उनकी गर्दन काटने को शाह निकल आये । उन्होंने कहा 29 कि, 'अगर तुम मेरे आगे सिर नहीं झुकाओगे तो तुम्हारी गर्दन काट लेंगे ।' और दूसरे दिन उसकी गर्दन काट ली। सो अगर कभी ऐसा हो भी तो डरना नहीं क्योंकि आप लोग अब परमात्मा के साम्राज्य में हैं। और इस बात को मद्देनजर रखते हुए आपको समझना चाहिए कि अब आप लोग अकेले नहीं हैं। आप पूर्णतया सुरक्षित हैं और इस सुरक्षा में आप क्यों परेशान होते हैं। बहुत से लोग आते हैं, 'माँ, मुझे ये प्राब्लम है, मुझे वो प्राब्लम है।' इसका अर्थ यह है कि आप सहजयोगी नहीं हैं। क्योंकि आप एक ऊँची जगह पर बैठे हैं। और प्राब्लम नीचे खींचते रहते हैं। यदि आप हर समय प्राब्लम, प्राब्लम करते रहे तो सोच लेना चाहिए कि कुछ कमी है आपमें। इसके लिए ध्यान करें, धारणा करें। अपने अन्दर धारणा करें कि आप सहजयोगी हैं। इससे आपके अन्दर एक आत्मविश्वास पूर्णतया प्रतीत होता है, लोग भी समझते हैं । आप केवल शांत हो जाएं। आपने चुप्पी लगा ली तो परम चैतन्य पूर्णतया संभाल लेगा । एक से एक धुरंधर बैठे हैं। परन्तु यदि आपमें ही दोष होगा तो कहेंगे, 'इसको डुबकियाँ लगाओ दो-चार ।' इस प्रकार ईसा मसीह का एक छोटा सा जीवन था केवल ३५ वर्ष का। उसमें भी वे भटकते रहे। और भटकते हुए भारत भी आए। जितना जीवन में उन्होंने कार्य किया उनका नाम लेकर के न जाने लोगों ने कितनी तरह-तरह की संस्थायें बनाई। ये करना है, वो करना है। झूठ है सब, गड़बड़ है। पर कितना उन्होंने काम किया। उनके मुँह में भी न जाने कैसी - कैसी गलत वस्तुयें डाली गईं। एक झूठी संस्था भी बना ली। जिस हीरे को इन्होंने ढक लिया वो आपके अन्दर में है। आपकी आज्ञा में कार्यान्वित है। आपकी क्षमा शक्ति जितनी बढ़ जाएगी आप उतने ही सहस्रार पर रहेंगे। ईसाई लोगों का तो यह है कि वे पैदा ही हुए ईसाई। उन्हें बस इतना ही मालूम है इसलिए हम उन्हें ईसाई स्वीकार करते हैं। हिन्दुओं को बस कृष्ण ही मालूम है, शिव मालूम है। इसी में खुश रहते हैं। और भाई, आप इससे परे उठ गए, पार हो गए, अब आप स्वयं सूफी हो गए। इन सब चीज़ों में जो सार है उसको आप ग्रहण कीजिए और प्रत्येक चीज़ में सत्य को खोजिए। सी बहुत चीज़ों में असत्य है। इन सब धर्मों में बहत सी बातें असत्य भी हैं। जैसे ईसाई धर्म में आप देखिए, वही बात ईसाईयों में भी है और वही बात मुसलमानों में भी है कि जब आप मर जायेंगे तो आप अपने को गाड़ लीजिए। अपना शरीर गाड़ लीजिए। जलाईये मत, और जब आपका पुनरुत्थान होगा तो आपका यही शरीर पुन: बाहर आ जाएगा, यदि आप परमात्मा के नाम पर मरे हैं और आपने अपना जीवन उसके लिए त्यागा है। अब सोचो ५०० साल बाद क्या चीज़ बाहर आयेगी, यदि आपको गाढ़ दिया जाए? उनसे पूछना चाहिए कि जो हड्डियाँ बच कर आयेंगी उनकी क्या 30 स्थिति होगी। यह विश्वास बहुत लोग करते हैं। यह विश्वास बहुत इतना गहरा है कि मेरे पास कुछ लोग आये थे। मैंने कहा, 'क्यों मरे जा रहे हो । तुम्हारा तो निराकार में विश्वास है, तुम क्यों जमीन के लिए लड़ रहे हो ?' तो उन्होंने मुझे कहा कि, 'हमारे तो शास्त्र में यह लिखा है कि यदि तुम भगवान के नाम के लिए मरे तो ऐसा-ऐसा होगा।' मैंने कहा, 'पहले तो मुझे बताओ कि इसमें भगवान का नाम कहाँ लिखा है। दूसरी बात यह बताओ कि तुम यदि मर गए और तुम्हारा पुनरुत्थान ५०० वर्ष बाद हुआ, तो अन्दर से क्या निकलेगा? तुम तो कब्रों में जाकर के सारी जमीन ले लेते हो और भूत बनते रहते हो।' इस सम्बन्ध में मैं यह कहती हूँ कि अपने शास्त्र ठीक हैं, कि मरने के बाद आत्मा जो है वो निकल जाती है। और जो जीवात्मा है वह फिर से जन्म लेता है | क्योंकि जीवात्मा मरता नहीं। शरीर का ५०० वर्ष बाद पुनरुत्थान होगा ऐसी बात का विश्वास करना महामूरख्खता है। कभी- रहे हैं। कभी मैं सोचती हूँ कि ऐसी महामूर्खता को लेकर ये लोग जगह-जगह आपस में लड़ रहे है। आज इज़राईल में मारा-मारी हो रही है तो कल दूसरे स्थान पर होगी। यह मारा-मारी हो रही है। मात्र धर्म को लेकर। मैंने कल भी बताया था कि सभी धर्म आपस में गुंथे हुए हैं। कोई धर्म अलग नहीं है। सभी ने यह वर्णन किया है, फिर यह लड़ाई क्यों, झगड़ा क्यों? यह सब कुछ उन लोगों का किया हुआ है जो अपने को धर्म मार्तण्ड कहते हैं । अब सोचिए कि ईसा मसीह ने एक बहुत बड़ी बात कही कि, 'तुम्हारी दृष्टि स्वच्छ होनी चाहिए।' यानि चित्त में भी अस्वच्छता नहीं होनी चाहिए। पर हमने तो विदेश में देखा कि हरेक की आँखे इधर से उधर चलती रहती है । किसी को देखा ही नहीं कि जिसकी आँखे न चल रही हो । केवल सहजयोगियों को छोड़कर। इस प्रकार उनकी (ईसा की) जो विशेष वाणी थी उसका कौन पालन कर रहा है? कौन मान रहा है? कोई नहीं! क्यों ? क्योंकि उन्हें आत्मबोध नहीं है । यदि उनको आत्मबोध हो जाता तो उनकी आँखें स्थिर हो जाती। उनसे प्यार झलकता है। शान्ति और आनन्द झरता। यह केसे हुआ? कि उनकी आँख शुद्ध हो गई । जैसे कि ईसा मसीह ने कहा वैसी आँख हो गई। उन्होंने जो कहा था, वह मात्र कहने से थोड़े ही हो सकता है। विदेश में तो यह बिमारी आवश्यकता से अधिक है। तो हमें समझ में आता है कि जो कुछ ईसा मसीह ने कहा हम कर नहीं पाते। कोई सा भी ऐसा धर्म नहीं है जिसमें लोग जो कहते हैं वही करते हैं। कारण वे समर्थ हैं यानि जो हैं उसका अर्थ नहीं है। कोई कहेगा 'मैं ईसाई हूँ' परन्तु उसकी आँखों में गन्दगी भरी रहेगी। कोई कहेगा, 'मैं जैन हँ' और वह कपड़े की दुकान करेगा। अर्थात जो नहीं करना वही करेंगे। इसका कारण है 32 और सहजयोग में यह जागृत हो जाता है। कि हमारे अन्दर वह धर्म जागृत नहीं हुआ। के बाद, जागृत होने के बाद यदि आप उसका मान नहीं करेंगे और उसमें आत्मसाक्षात्कार होने आप अपनी प्रगति नहीं करेंगे तो न जाने आपको क्या-क्या कष्ट झेलने पड़ सकते हैं। इससे पहले आपको जो कष्ट थे, तकलीफें थीं वह महसूस नहीं होंगी। परन्तु अब आप संवेदनशील हो गए हैं। इसलिए समझ लेना चाहिए कि हमने जो इतनी बड़ी चीज़ पाई है उससे हम अलंकृत हो गये , उससे हम सज गये। अब हमें अपने वैभव में और गौरव में होना चाहिए। जैसे ईसा मसीह का पुनरुत्थान हुआ था। वे कब्र से उठे थे, उनका चेहरा बहुत ही खिल गया था, उनकी बातें और भी सुन्दर हो गई थीं ; इसी प्रकार ईसा मसीह सहजयोगी थे | लेकिन उन्होंने उसे प्राप्त किया था और आपके लिए उन्होंने प्राण त्यागे कि आपका आज्ञा चक्र खुले। सो अहंकार आदि जो व्याधियाँ हैं उनसे दूर रहना चाहिए। अहंकार जब चढ़ जाता है तो आप कुछ भी हो सकते हैं, हिटलर भी हो सकते हैं। न जाने आप अपने आपको क्या समझ रहे हैं। जिसने हमें इस आज्ञा चक्र से ऊपर उठाया है, उस ईसा मसीह के जीवन को यदि आप देखेंगे कि वे बिल्कुल निर्मल है। इसी प्रकार हमारा जीवन भी पूर्णतया निर्मल होना चाहिए। सहजयोग में विवाह की पूर्ण रुप से व्यवस्था है। हालांकि ईसा मसीह ने विवाह नहीं किया था। उनको कोई जरुरत ही नहीं थी । आपके लिए सभी प्रकार की व्यवस्था है। इस व्यवस्था परन्तु से आप पूर्ण रुप से सर्वसामान्य लोगों की तरह रह सकते हैं और अपनी विशेषता को समझते हुए रहें। ईसा मसीह और सूफी लोग अपनी विशेषता समझते थे । अकेले ही उन्होंने सारे विश्व में कार्य किया। आपके तो सारे विश्व में इतने सारे भाई -बहन हैं। कितना आपमें आत्मविश्वास होना चाहिए। आप अकेले नहीं हैं। सभी लोग एक ही बात कहते हैं, सबको एक ही चीज़ प्राप्त है। और जब आप इस चीज़ को पाते हैं तो इसका महत्व समझना चाहिए। इससे अमूल्य और कुछ भी नहीं है। यद्यपि मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि कोलकता में इतना कार्य हो गया। इतने सहजयोगी हो गये, आपस में बहुत प्रेम है, कोई फूट नहीं, कोई झगड़ा नहीं। यह बहुत बड़ी बात है। मैं सोचती हूँ कि यह देवी की कृपा है कि लोग सहज में उतरते हैं। जैसे पुरुष कार्य कर रहे हैं वैसे स्त्रियों को भी करना चाहिए । जब सब ओर सहजयोग फैल जाएगा तो बंगाल देश बहुत सुन्दर स्वरुप में उतरेगा । आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद ! 33 ९ ॐ७ ॐे ० ॐ] lolelelar जा परमपूज्य माती जी श्री निर्मला देवी द्वारा दी गयी शिक्षा आज सत्य युग का पहला दिन है। प्रकृति आप को बताएगी कि सत्य युग आरम्भ हो गया है। सहजयोग सत्ययुग ले आया है। आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, आपको स्वयं में श्रद्धा तथा विश्वास होना चाहिये। सहजयोग की कार्य शैली में आपकी श्रद्धा होनी चाहिये। आपकी ज्योतिर्मय श्रद्धा में क्या कार्य करता है? पूर्ण विश्वास होना चाहिये । मेरी ओर देखिये । मैनें अकेले सहजयोग को फैला दिया है। बस परम चैतन्य में विश्वास रखें। यदि आपको कोई सन्देह है, तो मुझसे पूछ लें। परमात्मा तो नहीं है पर मैं तो आप से बातचीत करने के लिये यहाँ हूँ। अत:अब सहजयोगियों को सन्देहमुक्त होना चाहिये । | । १. अगुआगणों को बहुत सावधान रहना चाहिये। उन्हें अहंकार विहीन होना चाहिये । वे संदेश के माध्यम मात्र हैं जैसे पोस्ट करने के लिये मुझे पत्र को लिफाफे में ड्रालना पड़ता है। स्वामित्व भाव से वे सावधान रहें । २. किसी भी चीज़ की योजना बनाते समय हमारा चित्त सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज़ पर होना चाहिये। आपकी प्राथमिकताएं स्पष्ट होनी चाहियें । ३. यदि कोई नकारात्मकता हो तो मुझे बतायें, मैं इसे ठीक करुंगी । ४. प्राय: आयोजक धन की चिन्ता करने लगते हैं। सहजयोग में आपको सदा धन प्राप्त हो जायेगा। परन्तु यदि आप चिन्ता करेंगे तो धन नहीं मिलेगा। धन इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है । ५. एक दूसरे के लिये हम में विवेक होना चाहिये । ६. आपको कोई भय नहीं होना चाहिये। यह तो केवल एक नाटक चल रहा है। चिन्ता की कोई बात नहीं है। आप यदि कहते हैं कि मुझे डर है तो मैं क्या कहूँ? आप यदि कोई गलती कर दें तो भी कोई बात नहीं। मैं आपको कह सकती हूँ कि यह गलती है, आप इसका बुरा न मानें । यदि सुधारने को कुछ हुआ तो मैं सुधार दूँगी। यदि आप भयभीत है तो आपका अहंकार आड़े आयेगा और मैं बस इसे भेद दूंगी। कम से कम आप को तो मुझसे नहीं डरना चाहिये। अपनी गलतियों से हम सीखते हैं । गलतियाँ करने से हमें डरना नहीं चाहिये । गुडी पाडवा, दिल्ली २४-०३-९३ 34 ु ত र हे का अ जब आप सभी कुछ अपने बुद्धि से व्यक्त नहीं कर सकते, तब आप कली की सहायती लेते हैं, अपने आप को व्यक्त करने के लिए] और आप कुछ चिन्हीं की भी उपयोग करते हैं, उन सभी चीज़ों को व्यक्त करने के लिए जिन्हें आप शब्दों में व्यक्त नहीं करे सकते] यही है वी जिसे एक कलाकार करती है। दिवाली १९९३ प्रकाशक निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०२५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in ै ार ১ आप उच्चतंम से भी उतच हैं। उत् २२.३.१९८४ 2ा ्ी ---------------------- 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-0.txt हिन्दी मार्च-अप्रैल २०११ ्र 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-1.txt ICCCCCCCCCCCCCCCCCCCCI 21 मार्च ...अपमानजनक तरीके और भावनात्मक धमकी तथा ये सारी व्यवस्था इस देश की परम्परा नहीं है । ऐसा करने वाले लीगों को बाहर फेंक दिया जाएगा] आपकी ऐसा नहीं करना चाहिए। में आपको बताती हैूँ कि सहजयोग में आप ऐसा नहीं कर सकते| जन्मदिवस पूजा, मुंबई, २२.३.२९८४ 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-2.txt इस अंक में तीन युक्तियाँ ...४ होली तत्व ...१७ उत्थान (ईस्टर पूजा) ...२४ परमपूज्य माती जी श्री निर्मला देवी द्वारा दी गयी शिक्षा ...३४ ॐ. 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-3.txt ० ी दिल्ली, दि.३० मार्च १९९० 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-4.txt तीन ी युक्तियाँ हृढय का सबसे बड़ा विका२ है क्रोध। क्रोध आ जाता है तो जो पाकित्र्य है वौ न्ट हो जाती है क्योकि पावित्र्य का ढू२ नीम निव्याज्य प्रेम है । ३० 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-5.txt अः ज नवरात्रि की चतुर्थी है और नवरात्रि को आप जानते हैं रात्रि को पूजा होनी चाहिए। अन्ध:कार को दूर करने के लिए अत्यावश्यक है कि प्रकाश को हम रात्रि में ही ले आएं। आज के दिन का एक ओऔर संयोग है कि आप लोग हमारा जन्मदिन मना रहे हैं। आज के दिन गौरी जी ने अपने विवाह के उपरान्त श्री गणेश की स्थापना की। श्री गणेश पवित्रता का स्रोत हैं। सबसे पहले इस संसार में पवित्रता फैलाई गई जिससे कि संसार में आए मनुष्य पावित्र्य से सुरक्षित रहें और अपवित्र चीज़़ों से दूर रहें। इसलिए सारी सृष्टि को गौरी जी ने पवित्रता से नहला दिया। और उसके बाद ही सारी सृष्टि की रचना हुई। तो जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि हम अपने अन्दर पावित्र्य को सबसे ऊंची चीज़ समझें। लेकिन पवित्र्य का मतलब यह नहीं कि हम नहाएँ, धोएं, सफाई करें, अपने शरीर को ठीक करें किन्तु अपने हृदय को स्वच्छ न कर सकें। हृदय का सबसे बड़ा विकार है क्रोध । क्रोध आ जाता है तो जो पावित्र्य है वो नष्ट हो जाता है क्योंकि पावित्र्य का दूसरा नाम निव््याज्य प्रेम है। वो प्रेम जो सतत बहुता है और कुछ भी नहीं चाहता। उसकी तृप्ति उसी में है कि वो बह रहा है और जब नहीं बह पाता तो वह परेशान होता है। सो पावित्र्य का मतलब यह है कि आप अपने हदय में प्रेम को भरें, क्रोध को नहीं। क्रोध हमारा तो शत्रु है ही लेकिन वो सारे संसार का शत्रु है। दुनिया में जितने युद्ध हुए, जो भी हानियाँ हुई हैं ये सामूहिक क्रोध के कारण हुई। क्रोध के लिए बहाने बहुत होते हैं। मैं इसलिए नाराज हो गया क्योंकि ऐसा था, मैं इसलिए नाराज हो गया क्योंकि वैसा था। हर क्रोध का कोई न कोई बहाना मनुष्य ढूंढ सकता है लेकिन युद्ध जैसी भयंकर चीजें भी इसी क्रोध से ही आती हैं। उसके मूल में क्रोध ही होता है। अगर हृदय में प्रेम हो तो क्रोध नहीं आ सकता और अगर क्रोध का दिखावा भी होगा तो भी वो प्रेम के लिए। किसी दुष्ट राक्षस का जब संहार किया जाता है तो वो भी उस पर प्रेम करने से ही होता है क्योंकि वो इसी योग्य है कि उसका संहार हो जाए जिससे वो और पाप कर्म न करे। लेकिन ये मनुष्य का कार्य नहीं। ये तो देवी का कार्य है जो इन्होंने नवरात्रि में किया। तो, हृदय को विशाल करके हृदय में ये सोचें कि हम किससे ऐसा प्रेम करते हैं जो निव्याज्य, निर्मम है, जिसके प्रति हमें ये नहीं कि 'ये मेरा बेटा है, ये मेरी बहन है, मेरा घर है।' ऐसा प्रेम हम किससे करते हैं? किसके प्रति हमें ऐसा प्रेम है। मनुष्य की जो स्थिति है उससे बहुत ऊंची स्थिति में आप आ गये हैं क्योंकि आप सहजयोगी हैं। आपका योग परमेश्वर की इस सूक्ष्म शक्ति से हो गया है। वो शक्ति आपके अन्दर बह रही है। आपको प्लावित कर रही है, आपको सम्भाल रही है, आपको उठा रही है। बार -बार आपको प्रेरित करती है, आपका संरक्षण करती है और आपको 6. 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-6.txt आह्लाद, मधुमय प्रेम से भर देती है। ऐसी सुन्दर शक्ति से आपका योग हो गया किन्तु अभी भी हमारे हृदय में उसके लिए कितना स्थान है ? ये देखना होगा। हमारे हृदय में माँ के प्रति तो प्रेम है ये तो बात सही है। माँ से तो सबको प्यार है और उस प्यार के कारण आप लोग आनन्दित हैं, बहुत आनन्द में हैं। किन्तु दो प्रकार का प्रेम और होना चाहिए। तभी माँ का प्रेम हो सकता है। एक तो प्यार अपने से हो कि हम सहजयोगी हैं, हमने सहज में शक्ति प्राप्त की लेकिन अब हमें किस तरह से बढ़ना चाहिए। बहुत से लोग सहजयोग के प्रसार के लिए बहत कार्य करते हैं जिसे हम कहें क्षितिजीय प्रसार। पृथ्वी से समानान्तर, चारों तरफ फैलता हुआ। वो लोग अपनी तरफ नजर नहीं करते तो उत्थान की गति को नहीं प्राप्त होते। बाह्य में बहुत कुछ कर सकते हैं। बाह्य में दौड़ेंगे, बाह्य में काम करेंगे, कार्यान्वित होंगे। सबसे मिलेंगे-जुलेंगे। नहीं बढ़ाते। लेकिन अन्दर की शक्ति को बहुत से लोग हैं अन्दर की शक्ति की ओर ज़्यादा ध्यान देते हैं और बाह्य की शक्ति की तरफ नहीं। तो उनमें सन्तुलन नहीं आ पाता और जब लोग बाह्य की ओर बढ़ने लग जाते हैं तो उनकी अन्दर की शक्ति क्षीण होने लग जाती है, और क्षीण होते-होते ऐसे कगार पर पहुँच जाते हैं कि फौरन अहंकार में ही डूबने लगते हैं। सोचते हैं कि देखिये हमने कितना सहजयोग का कार्य किया । हम सहजयोग के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं और फिर ऐसे लोगों का नया जीवन शुरू हो जाता है जो कि सहजयोग के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं। और वो अपने को सोचने लगते हैं कि हम बहुत भारी एक अगुआ हैं और हमारा बहुत महत्व होना चाहिए। जैसे कि जिसे स्व-महत्व कहते हैं। हर जगह देखते हैं कि हमारा महत्व होना चाहिए, हर चीज़ में वो कोशिश करेंगे कि अपना महत्व दिखाएं, अपनी विशेषता दिखाएं, अपने को सामने करें लेकिन अन्दर से खोखलापन आता है। उसके बाद हठात देखते हैं कि उनको कोई बीमारी हो गयी, पगला गये वो। कुछ बड़ी भारी आफत आ गयी, तो फिर कहते हैं कि, 'माँ, हमने तो आपको पूरी तरह समर्पित किया हआ है, तो फिर ये कैसे हो गया, हमने कैसे पाया, ये गड़बड़ कैसे हो गयी।' इसकी जिम्मेदारी आप ही के ऊपर है कि आप बहकते चले गये। फिर ऐसे आादमी एकतरफा हो जाते हैं। वो दूसरों से सम्बन्ध नहीं रख पाते। उनका सम्बन्ध इतना ही होता है कि हम किस तरह से रौब झाड़ें लोगों पर और किस तरह से दिखाएं कि हम कितने ऊँचे इन्सान हैं। और वो दिखाने में ही उनको महत्व नहीं दिया तो गलती हो | गयी। यहाँ तक हो जाएगा कि उसमें ये भूल ही जाएंगे कि माँ का भी कुछ करने का है। माँ के लिए भी कुछ दान देना है। इसी प्रकार मैं देखती हूँ कि राहरी जैसी जगह, बम्बई में हर जगह इस तरह के कुछ लोग एकदम से उभर कर ऊपर आ गये और वो अपने को बहुत महत्वपूर्ण समझने लगे। वहाँ 7 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-7.txt तो आरती भी नहीं होती थी और नसीब हमारा, वहाँ फोटो तो रहता था लेकिन फोटो पोछने की भी किसी को इच्छा नहीं थी। नसीब अपने कि स्वयं का फोटो नहीं लगाया। अपना ही महत्व, अपनी ही डींग मारना और वो डींग मार-मार के अपने को ऊँचा समझने लगे दूसरों से। बहुत अलग किसी से कुछ पूछना नहीं। कुछ नहीं हम ही करेंगे। फिर झगड़े शुरू हो गये। झगड़े शुरू होने पर ग्रुप बन गये। क्योंकि जिस सूत्र में आप बंधे हुए हैं वो आपके माँ का सूत्र है और उसी सूत्र में अगर आप बंधे रहे और पूरे समय ये जानते रहे कि हम एक ही माँ के बच्चे हैं, न हममें कोई ऊँचा है न कोई नीचा, न ही हम कोई कार्य को करते हैं। ये चैतन्य ही सारा कार्य करता है, हम कुछ करते ही नहीं है। ये भावना ही जब छूट गयी और ये कि हम इतने बड़े हैं 'हम ने ये किया, हम ये करेंगे, वो करेंगे,' तब फिर चैतन्य कहता है कि तुझे जो कुछ करना है वो कर, 6. जहाँ जाना है जा। जाना है तुझे नर्क में तो नर्क में जा। तुझे अपने को मिटा लेना है मिटा ले। कर। वो फिर आपको रोकेगा अपना सर्वनाश करना है, वो भी कर ले। जो तुझे करना है वो तू नहीं क्योंकि आपकी स्वतन्त्रता वो मानता है। आप नर्क में जाना चाहें तो उसकी भी व्यवस्था है। पर सहजयोग में एक और बड़ा दोष है। एक बहुत बड़ा दोष है कि हम एक सामूहिक, विराट शक्ति हैं। हम अकेले नहीं है । सब एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। उसमें अगर एक इन्सान ऐसा हो जाए या दो-चार ऐसे हो जाएं जो अपना-अपना समूह बना लें तो जैसे कैन्सर के जहर का एक कीटाणु ही बढ़ने लग जाता है वैसे ही एक आदमी बढ़ कर के और सारे सहजयोग को ग्रस्त कर सकता है। और हमारी सारी मेहनत व्यर्थ जा सकती है। हमको तो चाहिए कि समुद्र से सीखें कि जो सबसे नीचे रहकर के ही सब चीज़ को, सब नदियों को अपने अन्दर समाता है बगैर समुद्र के तो ये सृष्टि चल नहीं सकती। अपने को तपा कर के बाष्प बना कर के दुनिया में बरसात की सौगात भेजता है। उसकी जो नम्रता है, वही उसकी गहराई का लक्षण है और उस नम्रता में कोई ऊपरी नम्रता नहीं कि 'नमस्ते भाईसाहब ! नमस्ते' कुछ नहीं सबसे नीचे, सबको ग्रहण करके, सबको अपने अन्दर लेकर, सबको शुद्ध करके और फिर भाप बना कर बरसात करना। और फिर वही बरसात नदियों में पड़कर दौड़ती हुई समुद्र की ओर दौड़ेगी और इस समुद्र की पहचान, अगर आप किसी समुद्र के किनारे गए हों तो देखिए कि वहाँ जितने भी नारियल के पेड़ हैं वो सब समुद्र की ओर ही झुके हुए हैं। इतनी जोर की आँधी चलती है, कुछ भी हो जाए लेकिन वो कभी भी समुद्र से दूसरी ओर मुडते नहीं क्योंकि वो जानते हैं कि ये समुद्र है। इस समुद्र के समान ही अपना हृदय विशाल तब होगा जब हमारे अन्दर अत्यन्त नम्रता और प्रेम आ जाएगा। लेकिन अपना ही 8. 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-8.txt ल महत्व करना, अपने को ही विशेष समझना, ये जो चीज़ है इसमें सबसे बड़ी खराबी यह है कि परम चैतन्य आपको काट देगा। तुमको तुम्हारा महत्व है, तुम जाओ। और फिर जैसे कोई नाखून काट कर फैंक देता है इस तरह से आप एक तरफ फेके जाएंगे। जो मेरे लिए तो बड़ी दु:खदायी बात होगी। और दो-चार लोग और ऐसे निकल आए जो सोचें कि हम बहुत काम करते हैं, हमने ये कार्य किया हमने वो कार्य किया, उनको फौरन ठण्डा हो जाना चाहिए। पीछे हटकर देखना चाहिए कि क्या हम ध्यान करते हैं? हमारा ध्यान लगता है? हम कितने गहरे हैं? और फिर हम किसको प्यार 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-9.txt करते हैं? किस-किस को प्यार करते हैं? कितनों को प्यार करते हैं? कितनों से दुश्मनी लेते हैं। सहजयोग में कुछ लोग बड़े गहरे बैठ गये हैं, बहत गहरे आ गये हैं इसमें कोई शंका नहीं। और बहुत से अभी भी किनारे पर ड़ोल रहे हैं। और फिर वो कब फेकें जाएंगे कह नहीं सकते । मैंने आपसे पहले ही बताया है कि १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला है। और एक छलांग आपको मारनी होगी जो आप इस स्थिति से निकल कर उस नयी चीज़ को पकड़ लेंगे। जैसे कि चक्का है जब घूमता है तो एक बिन्दू पर आकर आगे सरक जाता है इसी प्रकार सहजयोग की प्रगति भी सामूहिक होने वाली है और इसमें टिकने के लिए पहली चीज़़ हमारे अन्दर पावित्र्य होना चाहिए जो नम्रता से भरा हो। वैसे तो आपने दुनिया में बहत से लोग देखे हैं जो अपने को बड़ा पवित्र समझते हैं। सुबह-शाम सन्ध्या करते हैं और किसी को छूने नहीं देते। ये खाना नहीं खाएंगे, वो आयेगा तो कहेंगे कि, 'तुम दर बैठो,' उनको छू लिया तो ये पागलपन है अगर आप एकदम स्वच्छ हैं, पवित्र हैं तो आपको किसी उनकी हालत खराब। को छूने में, बात करने में, अपवित्रता आनी ही नहीं चाहिए क्योंकि आपका स्वभाव ही शुद्ध करने का है। आप हर चीज़ को ही शुद्ध करते हैं तो आप जिससे मिलेंगे आप उसी को शुद्ध करते जाएंगे। उसमें डरने की कौनसी बात है ? उसमें किसी को ताड़ने की कौन सी बात है? उसमें कानाफूंसी करने की कौन सी बात है ? तो ये तो लक्षण एक ही है कि आपकी स्वयं की पवित्रता कम है। अगर आपकी पवित्रता सम्पूर्ण है तो उस पवित्रता में भी शक्ति और तप है और वो इतना शक्तिशाली है कि वो कोई सी अपवित्रता को भी खींच सकता है। जैसे मैंने कहा कि हर तरह की चीज़ समुद्र में एकाकार हो जाती है। अब दूसरे लोग हैं जो सिर्फ अपनी ही प्रगति की सोचते हैं | वो ये सोचते हैं कि हमें दूसरे से क्या मतलब? हम अपने कमरे में बैठ कर माँ की पूजा करते हैं, उनकी आरती करते हैं। ऐसे लोग भी बढ़ नहीं सकते क्योंकि आप एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। समझ लीजिए कि एक अंगुली ने अपने को बाँध लिया और कहेगी कि मुझे किसी और से कोई मतलब नहीं। अलग से रहूँगी। ये तो अंगुली मर जाएगी। क्योंकि इसमें रक्त कहाँ से आएगा ? इसमें नस कैसे चलेगी ? इसमें चेतना का संचार कैसे होगा? ये तो कटी हुई रहेगी। आप एक बार इसे बाँध कर देखिए और पाँच दिन बाँधे रखिये। आप पाएंगे कि अंगुली काम ही नहीं करेगी। किसी काम की नहीं रह जाएगी। फिर आप कहेंगे कि, 'माँ, मैं तो इतनी पूजा करता हूँ इतने मन्त्र बोलता हूँ, मैं तो इतना कार्य करता हूँ, फिर मेरा हाल ऐसा क्यों है।' क्योंकि आप विचलित हैं। आप हट गए हैं, उस सामूहिक शक्ति से आप हट गए हैं। सहजयोग सामूहिक शक्ति है। इस सामूहिकता से 10 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-10.txt जहाँ आप हट गए वहीं पर आप अलग हो गए उस सामूहिक शक्ति से। तो दोनों ही चीज़ की तरफ आपको ध्यान देना है कि हम अपनी शक्ति को भी सम्भालें और सामूहिकता में रचते जाएं। तभी आपके अन्दर पूरा सन्तुलन आ जाएगा। लेकिन बाह्य में आप बहुत कार्य करते हैं। मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो सहजयोग के लिए बहुत कार्य करते हैं और काफी अच्छे भाषण देते थे। उनके भाषणों की उन्होंने फिर टेप बना ली। फिर लोगों से कहने लगे कि आप हमारे टेप सुनो। तो लोग हमारे टेप छोड़कर उन्हीं की टेप सुनते थे। और उनका यह हाल था कि जैसे आज के दिन हम यहाँ बैठे हैं, हमारे फोटों को तो नमस्कार करते थे , हमें नहीं करेंगे क्योंकि उनको फोटो की आदत पड़ी हुई है। हमसे उन्हें कोई मतलब नहीं। उन्हें फोटो से मतलब है। ऐसे-ऐसे विक्षिप्त लोग हमने देखे हैं। फिर उन्होंने अपने फोटो छपवाए और फोटो सबको दिखा रहे हैं कि हम वैसे हैं, कैसे हैं। इस तरह वे अनेक तरीकों से अपने ही महत्व को बढ़ाते हैं। करते-करते ऐसे खड्डे में गिर गए । गये। कहीं भी अनायास उनके समझ में नहीं आया और एकदम पता चला कि सहजयोग से छूट नहीं है। लोग मुझे कहते हैं कि माँ वो तो बड़े अगुआ थे, ये थे। हाँ, थे तो सही लेकिन वे गये कहाँ सहजयोग से। क्या करें! एकदम काफूर हो गए। कहाँ? पता ही नहीं। तो ऐसे लोग क्यों निकल गए क्योंकि सन्तुलन नहीं और जब सन्तुलन नहीं रहता है तो आदमी या तो बायें में चला जाएगा या दायें में चला जाएगा। और जैसा मैंने कहा कि दो तरह की शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं जिससे हम सहजयोग की ओर खिंचते भी हैं और फैंक भी दिए जाते हैं। एक रस्सी में अगर आप पत्थर बाँध कर घुमायें तो पत्थर घूमता रहेगा, जब तक रस्सी से बंधा है। जैसे ही रस्सी से छूट जाएगा, दूर फैंका जाएगा। इसी प्रकार बहुत से लोग सहजयोग से निकल गए। और फिर लोग कहते हैं 'देखिये माँ, सहजयोग में बहुत से लोग कम हो गए हैं।' मैं क्या करूं? और अगर कम हो गये हैं तो उसमें सहजयोग का कोई नुकसान नहीं हुआ है। इसमें उनका ही नुकसान हुआ है। सहजयेग का बिल्कुल भी नुकसान नहीं हुआ है। क्योंकि जिसको नुकसान या फायदे से कोई मतलब ही नहीं , ऐसी जो चीज़ है उसका क्या नुकसान हो सकता है? हाँ अगर आपको अपना फायदा करा लेना है तो आप इस चीज़ को जान लीजिए कि सहजयोग को आपकी जरूरत नहीं है, आपको सहजयोग की जरूरत है। 'योग' का दसरा अर्थ होता है युक्ति। एक तो है कि सम्बन्ध जुड़ जाना, दूसरा है युक्ति। ये युक्ति समझ लेनी चाहिए। ये युक्ति क्या है? इसमें तीन तरह से समझाया जा सकता है। पहली तो ये है कि हमें इसका ज्ञान आ जाना चाहिए। ज्ञान का मतलब बुद्धि से नहीं। किन्तु हमें अंगुलियों में, हाथ में, और अन्दर से कुण्डलिनी का पूरी तरह जागरण होना ये ज्ञान है और जब ये ज्ञान हो जाता 11 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-11.txt है तब और भी ज्ञान होने लग जाता है। बहुत सी बातें जो आप नहीं समझ पाते थे वह आप समझ पा रहे हैं। और आप समझने लग जाते हैं कि कौन सत्य है कौन असत्य। इस ज्ञान के द्वारा आप लोगों की कुण्डलिनी भी जागृत कर सकते हैं और उनको समझा सकते हैं। उनसे आप पूरी तरह से एकाग्र हो सकते हैं। उनके साथ आप वार्तालाप कर सकते हैं इस ज्ञान के कारण। तो आपको बौद्धिक ज्ञान भी आ जाता है। आप सहजयोग समझते हैं। कोई समझता था पहले ? 'ईड़ा, पिंगला, सुखमन नाड़ी रे, एक ही डोर उडाऊ रे' पहले नानक की कोई बात समझता था? या ज्ञानेश्वर की कोई बात समझता था पहले? कोई रहस्यमय चीज़ या गोपनीय बात कह रहे हैं। ऐसे समझ कर लोग रख देते थे। लेकिन सहजयोग के बाद आप सब समझने लगे । तो आपका बुद्धि चातुर्य भी बढ़ गया। उसकी भी चतुरता आ गयी। आप उसको समझने लग गये। ये तो बात ठीक है कि आप उसे समझने लग गये। और ऐसी बातें जो अगम्य थी गम्य हो गईं और सब बातों को आप जानने लग गये। सो तो एक युक्ति हो गयी कि आपने अपना ज्ञान बढ़ा लिया। अब दूसरी युक्ति क्या है? वो है जो कि आप हमारे प्रति भक्ति करें । उस भक्ति को भी जब आप करते हैं तब आपको अनन्य भक्ति करनी चाहिए। आप हमसे तदाकारिता प्राप्त करें। जैसे सोचते हैं वैसा ही आप सोचने लग जायें। आज देर हो गयी समझ लीजिए तो हम कह हम सकते थे कि आज बहुत देर हो गयी थी, हम थक गये हैं। लेकिन हमने ये सोचा कि नवरात्रि है, पूजा होनी चाहिए। और ये होना ही चाहिए, होना ही है और बड़े आनन्द से हम कर रहे हैं। क्योंकि शुभमूहर्त यही है। और हमें सहज होना चाहिए। उसके बारे में सोचते भी नहीं । थक गये या आराम भी नहीं किया, कुछ भी नहीं। यही मूहर्त है। जैसे एक योद्धा अगर लड़ाई में गया है और रात में ही करना है और यही मुहूरत हमें मिलना था, यही मूहर्त है, इसी वक्त ये देखा कि दुश्मन खड़ा है, यही समय उसको मारने का है, उसी वक्त उसे मारना चाहिए। तो हम बैठे हैं और आपको भी यही सोचना चाहिए कि यही समय माँ ने बाँधा है। यही समय हमारे लिए उचित है, दूसरा नहीं। इसी वक्त पूजा करनी चाहिए । लेकिन जो आधेअधूरे लोग हैं वो सोचते हैं कि, 'हम सबेरे से आकर बैठे हैं, हमने ये किया, हमें भूख लग गयी, खाना नहीं खाया, बच्चे रो रहे होंगे' तो वो अनन्य भक्ति नहीं हई क्योंकि मेरा जो सोच-विचार है आपके सोच-विचार में नहीं आया। मैं जैसे सोचती हूँ वैसा वो नहीं सोचते। किसी के लिए भी मैं सोचती हूँ। कभी-कभी 'माँ ये आदमी इतना खराब है।' मैं कहती हैँ कि, 'नहीं, बिल्कुल अच्छा है, बढ़िया आदमी है।' कैसे कहा आपने ? सोचती हूँ कि जो मैं देख रही हूँ ये क्यों नहीं 12 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-12.txt देखते ? अगर ये वैसे ही हो जाते हैं तो इन्हें वो ही देखना चाहिए, जो मैं देखती हूँ। वैसी तो बात नहीं, ये तो कुछ और ही देख रहे हैं। तो अनन्य नहीं हुए, अन्य हो गये। उसी प्रकार हमारा प्यार आपके प्रति है। और एक ही चीज़ से हम तृप्त होते हैं कि आप सबके प्रति एक जैसा प्यार रखें। अगर वो बात आपके अन्दर नहीं है तो फिर लगता है अन्य है, अनन्य नहीं। अगर हमारे ही शरीर के ये अंग-प्रत्यंग हैं तो जो हम हैं वैसे ही इनको होना चाहिए, जैसे हम सोचते हैं वैसा ही उनको सोचना चाहिए, जैसा हम करते हैं वैसा ही उनको करना चाहिए। तो ये दूसरा क्यों करते हैं? ये उल्टी बात क्यों सोचते हैं? इनके दिमाग में ये सब अजीब - अजीब बाते कहाँ से आती है? सो अनन्य भक्ति नहीं हुई ये, अन्य हुई। तो आपका सोच-विचार और कार्य और आपका प्रेम वैसा ही होना चाहिए जैसा आप मुझसे प्रेम करते हैं। यही अगर प्रेम का स्रोत है जो कुएं में है वही घट में आना चाहिए। दूसरे चीज़ कैसे आ सकती है आरै जब कोई दूसरी चीज़ आती है तब मैं सोचती हूँ कि उन्होंने किसी दूसरे घट कुएं से पानी भरा। ये घट मेरा नहीं है। अब तीसरी बात जो युक्ति है कि जब मैंने दूसरी बात आपको बताई कि आप अपने अन्दर एक अनन्य भक्ति रखें। 'माँ, हम आपकी शरणागत हैं' और जब शरणागत हैं तो जब हम कोई बात कह भी दें, या हम आपको कोई चीज़ समझा दें या कोई आपके सामने प्रस्ताव रखें, कुछ रखे तो उसका मना करने का सवाल ही कैसे उठेगा? अगर आप और हम एक हो गए तो उसका सवाल ही कैसे उठना चाहिए! माँ ने कह दिया तो ठीक है। हम तो माँ ही हो गए हैं तो हम नहीं कैसे कर दें । जैसे कि मेरी आँख आपको देख रही है तो मेरी आँख जाने कि आप लोग बैठे हैं सामने क्योंकि मेरी आँख मेरी अपनी है। तो मैं जो जान रही हूँ उसमें और मेरी आँख के जानने में कोई भी अन्तर नहीं। एक ही चीज़ है । जो मैं बुद्धि से जान रही हूँ वही मैं अपनी आँख से भी जान रही हूँ। तब फिर आपमें तदाकारिता नहीं आती सो ये दूसरी युक्ति है कि, 'माँ, मेरे हृदय में आप आओ, मेरे दिमाग, विचार, जीवन के हर कण में आप आओ।' आप जहाँ भी कहोगे हम हाजिर हैं, हाथ जोड़कर। पर आपको कहना तो पड़ेगा न और पूर्ण हृदय से कहना होगा। किसी मतलब से अगर आप मुझसे सम्बन्ध जोड़ें तो भी वो ठीक नहीं। लेकिन अगर सम्बन्ध जुड़ गया तो सारे मतलब अपने आप ही पूरे हो जाएंगे। आपको कुछ करना ही नहीं पड़ेगा। अपने आप ही जब आपके सारे मतलब पूरे हो गये तो आपका चित्त उसी में लग जाएगा। अब तीसरी जो बात है कि हम ये काम कर रहे हैं। हमने सहजयोग का ये काम किया, हमने ये सजावट की, ये ठीक-ठाक किया मैंने, तो सहजयोगी आप नहीं है। सहजयोग में आपके सारे कर्म अकर्म हो जाने चाहिए। मैं कुछ कर रहा हूँ, मैंने ये कविता लिखी, मैंने ये किया। ये जहाँ तक 13 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-13.txt बारीक, सूक्ष्म में देखते जायें कि मैं सच में ऐसा सोचता हूँ क्या मैं ऐसा सोचता हूँ? कय ा इस क T मतलब यह है कि जा मेरा योग पूरा नहीं हुआ? जब योग पूरा हो जाता है तो फिर आप ऐसा नहीं सोचते। सोच ही नहीं सकते। अकर्ममय हो जाते ये हैं आप। हो रहा है, वो हो रहा है, ३ं घटित हो रहा है। वो सब हो रहा है, ऐसा बोलने लग जाते हैं और तब कहना चाहिए कि पूरी तरह से तदाकारिता आ गयी। अब मेरा हाथ है वो कुछ कार्य कर रहा है, वो थोड़े ही कहता है कि मैं कर रहा हूँ, उसको तो पता भी नहीं कि वो कर रहा है। वो तो हो ही रहा है। उसकी जितनी भी गति है, हम ही तो कर रहे हैं। तो समझ ले कि ये हाथ कट गया, इससे जुड़ा नहीं। अगर जुड़ा है तो उसे कभी लगेगा नहीं कि मैं कर रहा हूँ, पकड़ रहा हूँ कभी भी नहीं लगता। और जब आप ऐसा सोचते हैं कि 'मैं कर रहा हूँ,' तभी चैतन्य कहता है 'तू कर' और तब सबसे ज़्यादा गड़बड़ी शुरू होती है। ये तीसरी युक्ति है, उस युक्ति को सीखना चाहिए कि क्या मैं कुछ कर रहा हूँ? एक क्षण विचार करें कि मैं कर रहा हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ? जब तक आप प्रकाश ढूंढ रहे थे तब तक आप कुछ कर रहे थे क्योंकि आपके अन्दर अहम् भाव था। आप अकेले एक व्यक्ति थे, एक व्यष्टि में थे, अब आप समष्टि में, सामूहिकता में आ गये हैं। तब आप कुछ भी नहीं कर रहे थे। आप अंग -प्रत्यंग हैं और वह कार्य हो रहा है। ये तीसरी युक्ति है 14 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-14.txt इसे समझें। मैं इसलिए यह युक्तियाँ बता रही हूँ कि अब छलांगे जो लगानी है! इस तरह से अआप अपना विवेचन हमेशा करते रहें। और अपनी ओर नजर रखें । इस वक्त भलाई इसमें है कि हम अपनी ओर नजर करें और अपनी ओर देखें कि क्या मैं ये सोचता हूँ कि वो मुझसे काफी श्रेष्ठ है और मुझे उनसे कुछ सीखना चाहिए। उसके कुछ अच्छे गुण मुझे दिखाई देते हैं कि बुरे गुण ही मुझे दिखाई देते हैं। दूसरों के अगर अच्छे गुण दिखाई दें और अपने बुरे गुण तो बहुत अच्छी बात है क्योंकि दूसरों के तो दुर्गुण आप हटा नहीं सकते । तो दूसरों ने क्या किया? दूसरे ऐसे हैं ऐसे सोचने वाले पूरी तरह योग में उतरे नहीं है। मेरे में क्या त्रुटि है? यह देखने से ही आप ठीक हो सकते हैं दूसरों को कहें कि तुम्हें अपना दोष ऐसा ठीक करना चाहिए और वहाँ के प्रधानमंत्री को जाकर कुछ अक्ल सिखायें तो वो हमें बन्दी कर लेंगे क्योंकि हमारे देश में तो हम कह सकते हैं क्योंकि ये हमारा देश है। इसी प्रकार हमें जानना चाहिए, इस युक्ति को समझ लेना चाहिए कि इसमें जो हम डावांडोल हैं वो हम अपनी ही वजह से हैं। सहजयोग तो एक बहुत बड़ी चीज़ है, बड़ी अभिन्न चीज़ है। लेकिन इसका जो हम पूरी तरह मजा नहीं ले पा रहे इसका मतलब हममें कोई खराबी है। और इस सबको इस यूक्ति को अगर आपने सीख लिया तो मिलेगा क्या? सिर्फ आनन्द, निरानन्द और कुछ नहीं। और फिर चाहिए क्या आपकी शक्ल ही बदल जाएगी। आप आनन्द में ही बहने लग जाएंगे। हमारे जन्मदिवस पर मैं चाहँगी कि आज आपका भी जन्मदिवस मनाया जाए कि आज से हम इस युक्ति को समझें और अपने को इस पवित्रता से भर दें, जैसे श्री गणेश | और पवित्रता से ही मनुष्य में सुबुद्धि आती है क्योंकि पवित्रता प्रेम ही का नाम है। उसी से सुबुद्धि का मतलब भी प्रेम ही है। सब चीज़ का मतलब प्रेम है। और अगर आप सुबुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते, अगर आप प्रेम को अपना नहीं सकते तो सहजयोग में आने से आपका समय बर्बाद हो रहा है। इस वक्त ऐसा कुछ समां बंध रहा है कि सबको इसमें एकदम एकाकार हो जाना चाहिए। अपने को परिवर्तन में डालना है, परिवर्तित हमें होना ही है। हम में खराबियाँ हैं, हमें अपने को पवित्र बना देना है। ये आप अपने साथ कितना प्रेम कर रहे हैं। आप का बच्चा से जरासा गन्दा हो जाता है तो आप दौड़ कर उसे साफ कर देते हैं क्योंकि आपको उससे प्रेम है। उसी प्रकार जब आपको अपने से प्रेम हो जाएगा तो आप भी अपने को परिवर्तन की ओर लगायेंगे कि मेरा परिवर्तन कहाँ तक है। मेरे अन्दर अब भी यही खराबी रह गयी अब भी मैं ऐसा हूँ और इस परिवर्तन के फलस्वरूप जो आशीर्वाद हैं, उस जीवन का वर्णन नहीं किया जा सकता। जो कबीर ने कहा कि अब मस्त हुए फिर क्या बोलें। तो आप सब उस मस्ती में आ जाइये, उस मस्ती को प्राप्त करें और उस आनन्द में आप आनन्दित हो जायें । ये हमारा आशीर्वाद है ! 15 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-15.txt to १३ मार्च १९९५ 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-16.txt अ जि होली है। आज की होली पहले से बहुत भिन्न है। होली का तत्त्व जानना चाहिए। होली में अपने अन्दर की गन्दगी और दोष जलाकर हृदय शुद्ध करते ही जो प्रेम उमड़ आता है, उसके चैतन्य से सब तरफ चैतन्य के रंगों की बौछार होने से सब लोग मस्त हो जाते हैं। इसलिए सर्वप्रथम होली में अपने अन्दर की बाधायें जलानी चाहिये। सहजयोग में राजनीति नहीं होनी चाहिए। पूरे समाज के लोगों में राजनीति की जो जबरदस्त पकड़ है उसके कारण सहजयोगी भी इसकी लपेट में आ जाते हैं। एक व्यक्ति जो पूरी तरह सहजयोग न जानता हो, दूसरों को अपने इस दोषी स्वभाव से कुछ कह देता है और फिर दूसरों में इसका असर आ जाता है और वो भी इसे किसी और तक पहुँचा देता है। जैसे कुछ हवा सी चलती है, फ्लू की तरह। यह एक बीमारी है। यह फैलती जाती है। पहले जमाने में औरतें राजनीति करती थीं और आदमी लोग लड़ते थे, लेकिन अब उल्टा हो रहा है। कोई भी आदमी जो ऊँचा उठना चाहता है उसे ऐसी हरकतों में नहीं उलझना चाहिए । यह एक बड़ा भारी प्रेम है। मैं देखती हूँ, मैं बोलती नहीं लेकिन सब जानती हूँ। सहजयोगियों में आपस में बैर नहीं होना चाहिए। यह मोह के कारण होता है। नारद मुनि की तरह सहजयोगी एक दूसरे को उलट पुलट चीज़ें बताकर आपसी बैर बढ़ाते जाते हैं। इस आपसी बैर के बढ़ने से प्यार का जाल टूट जाता है। हमें सहजयोग से प्यार होना चाहिए और माँ से प्यार होना चाहिए। फिर भी यह चीज़ पहले से अभी कम है। लेकिन अब लोग दूसरी तरफ जा रहे हैं। कोई कहते हैं हम दिल्ली के सहजयोगी हैं, कोई नोएडा के, फिर कोई और अपने को कहीं और का सहजयोगी कहता है। हम सब एक हैं। हम में, कोई दिल्ली का, बम्बई का, ऐसा फर्क नहीं होना चाहिए। हम सब एक हैं। हम सहजयोगी हैं। समुद्र की बात करो, बूँद की नहीं। कोई आपको कुछ बोल के परेशान करता है कोई बात नहीं, उन्हें कहने दीजिए। वह सब सामने आता है, धीरे-धीरे। हमारी शादी हुई तब हमारे यहाँ सौ से भी ज़्यादा आदमी थे। हमने कभी किसी चीज़ की परवाह नहीं की। साधु-संत जैसे रहें, सब की सेवा की। सबको खुश रखा। अब भी हमारे दोस्त हैं लेकिन हमारे पति के नहीं हैं। जब भी हम लखनऊ जाते हैं तो सबके सब सिर्फ हमें मिलने आते हैं। हमसे उन लोगों को बहुत लगाव है। हमारे पति को मिलने कोई भी नहीं आता, सब हमें मिलने आते हैं। निर्वाज्य प्रेम होना चाहिए। कोई कुछ कहे, बके, हमें उससे कोई मतलब नहीं। अगला जन्म तो हम सहजयोगियों को है नहीं और अगर हो भी तो संत का जन्म रहेगा। इस जन्म का इसी जन्म में धोइये, स्वच्छ हो जाइए। अगले जन्म में धोने का अवसर नहीं मिलेगा। जो भी कुछ धोना है अभी धोना है, इसी जन्म में ताकि अगला जन्म हो भी तो वो दोषरहित हो। संत का जन्म रहेगा। आक्रामकता हममें है आक्रामक स्वभाव है। दूसरा, लोगों में बाधा भी है। इन दोनों को हम निकाल सकते हैं। सहजयोग में हमारे पास इसके लिए उपाय हैं। यहाँ सब निकाल देना चाहिए । तीसरा, (हिप्पोक्रसी) पाखण्ड। अपने आप को बढ़ावा देकर लोगों के सामने पेश होना। अन्दर है कुछ और, लोगों को बढ़ा चढ़ाकर बताना कुछ और। इससे हमें क्या फायदा? हम अपने आपको धोखा दे रहे हैं। अन्दर से काट रहे हैं। अन्दर और बाहर एक चीज़ होनी चाहिए। बगैर इन दोषों को होली में जलाए कोई फायदा नहीं। फिर वह कृष्ण की होली नहीं रहेगी। बदला, दोष, बाधा सब होली में जलाइए। ग्रुपबाज़ी, राजनीति सब जला दीजिए। एक ग्रुप, एक जाति नहीं होनी चाहिए। यह हमारे लिए ठीक नहीं है। एक ग्रुप बनाकर रहना ठीक नहीं। एक जाति के लोग अपना ग्रुप बना लेते हैं, यह ठीक नहीं है। अब हम सहजयोगी बन गए 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-17.txt हैं। हम किसी ग्रुप या किसी जाति के नहीं रहे। अपने ही लोगों को महत्व देना बेकार बात है। अपने ही जाति के लोगों को, अपने ही इलाके के चाहिए, इस ओर दृष्टि करनी चाहिए। उन्हें देखकर बाकी लोग भी वैसा ही बर्ताव करते हैं। यह सब होली में जलायें । लोगों को आगे करना ठीक नहीं। जो अगुआ हैं उन्हें इस तरफ ध्यान देना इसके लिए एक मंत्र है; बहुत बड़ा मंत्र 'सबको माफ करो'। इसके बगैर उन्नति नहीं। हमें माँ से मतलब है, सहजयोग से मतलब है। कोई अगर कुछ गलत कहे तो उसे सुबुद्धि से जानो, उनको बकवास करने दो। हमारा ख्याल इस तरफ होना चाहिए किइस गलत बात को सुनकर हमारे अन्दर कोई गलत बात तो नहीं जा रही है? | हम बुद्ध को जानते हैं और सबको मानते हैं, यह छोड़ दो। वैमनस्य से कोई लाभ नहीं । अपने अन्दर के षटरिपुओं को जलाओ| हमें व्यक्तिगत तौर पर उन्नति हासिल करनी चाहिए। व्यक्तिगत तौर पर। इसी से सम्पूर्ण समष्टि में बदलाव आएगा। एक सेब यदि खराब हो तो पचास सेबों को खराब कर देता है। लेकिन सहजयोग में एक व्यक्ति बाकियों को ठीक करता है-पचासों को। खराब स्वभाव का औरों पर असर पड़ता है। परिवार में भी यह चीज़ हम देखते हैं। यदि परिवार में एक व्यक्ति भी खराब स्वभाव का हो तो सब पर असर पड़ता है । लेकिन सहजयोग में ऐसा नहीं है । एक भी अच्छा सहजयोगी हो तो वह सबको ठीक करता है। यदि कोई गलत व्यक्ति हो तो वह अपने आप निकल जाएगा। हमें उसमें अपना चित्त डालने की जरुरत नहीं। वह चीज़ आप मुझ पर छोड़ दीजिए । होली में जलाने के लिए सब लोग अपने अपने घर की लकड़ी देते हैं ताकि उस लकड़ी के जलने से उनका घर बाधारहित हो जाए। सहजयोग में यह लकड़ी हमारा शरीर है। अपने शरीर की लकड़ी जलाकर स्वयं को सोना बनाओ। अपनी क्षमा की शक्ति को बढ़ाओ। राईट साईड (आक्रामक स्वभाव) को कम करें। 'हम' और 'क्षम' आज्ञा के दो मंत्र हैं। जो भूत बाधाओं से पीड़ित है वह बाधा निकालने के लिए औरों का सहारा लेते हैं। इससे कोई फायदा नहीं। इसे हम खुद निकालें। हमें अब औरों की सहायता की जरुरत नहीं। यह कहना चाहिए कि मैं सहजयोगी हूँ या मैं सहजयोगिनी हूँ, बाधा दूर हो जाएगी। दूसरों को मत ढूँढो। बाधित लोगों को मत ढूँढो। इससे बाधा बढ़ जाती है। वह शारीरिक हो या मानसिक हो उनका एक ग्रुप बन जाता है। एक और बात मैंने देखी है कि लोग मुझपर अपना अधिकार जताते हैं। चर्चा, विवाद शुरु कर देते हैं। में देखती हूँ। तुरन्त स्वाधिष्ठान पूरी तरह जकड़ जाता है। और वाद-विवाद का कोई अन्त ही नज़र नहीं आता। तीन - तीन बजे तक बैठे रहते हैं। अरे भाई, हमने आपको समझाया आप बाधा ग्रसित हो, आपका घर शमशान के पास है उसे छोड़ दो। किराये का घर है उसे छोड़ने में क्या हर्ज है? लेकिन नहीं। उस तरफ उनका ध्यान नहीं, और अधिकार जताते जा रहे हैं। हमने देखा है बाधा वाले सबसे आगे रहते हैं। बाधा चिपकती है। प्रोटोकॉल (नियम-आचरण) होना चाहिए। माँ के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। सहजयोग में नितान्त श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा के बिना चर्चा करने से दाहिनी विशुद्धि तुरन्त पकड़ी जाती है। प्रोटोकॉल का ख्याल करना चाहिए। जब भी गलत बात होती है तो प्रोटोकॉल की तरफ ध्यान देना चाहिए। सबसे ज़्यादा श्रीकृष्ण ने राक्षसों को मारा। श्री राम ने राक्षसों को मारा। लेकिन लोग मुझे कहते हैं, 'माँ जैसा अवतरण आज तक नहीं हुआ है। आपका कार्य महान है। आप में लोगों के अन्दर स्थित राक्षसी प्रवृत्तियों को नष्ट करने की शक्ति है।' प्रतीकात्मकता से होली जलाओ। स्वच्छ हो जाओ। मुक्ति में जो आनन्द आ रहा है इसमें नाचो, गाओ और सबको आनन्दित करो । सहजयोग की होली कृष्ण की होली है । आजकल तो लोग होली में भांग पीते 18 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-18.txt हैं, श्रीकृष्ण क्या भांग पीते थे ? भांग तो सिर्फ शिवशंकर पीते हैं। जिनको भी सहजयोग में रहना है उन्हें व्यभिचार त्यागना होगा। यही होली का महत्त्व है। खाने-पीने को हम बहुत महत्त्व देते हैं किसी को चाट कहाँ अच्छी मिलती है, मिठाई यहाँ अच्छी मिलती है, यहाँ ये, सारा चित्त इन्हीं चीज़ों में लगा रहता है। अस्वाद होना चाहिए। ये या वो। कहते हैं- श्रीकृष्ण को लड्डु ज़्यादा पसन्द है और देवी को पूरणपोली। अब आप लोग भी मेरे लिए कुछ-कुछ बनाकर लाते हो लेकिन मुझे इन सब चीज़ों से कोई मतलब नहीं। अस्वाद होना चाहिए। अस्वाद में उतरना चाहिए। अब आप लोग इतने प्यार से मेरे लिए चीजें बनाकर लाते हो इसलिए मैं वो खा लेती हूँ। वो बात अलग है। हाँ दूसरों को बनवाकर खिलाओ| ज्यादातर उत्तरी भारत में लोगों का खाने में ध्यान ज़्यादा है, फिर महाराष्ट्र में भी है और दक्षिण भारत में भी है। वैसे सभी जगह है । हमें लोग पूछते हैं, आपको क्या पसन्द है? हमें तो याद भी नहीं आता कि हमें क्या अच्छा लगता है। ईसामसीह ने कहा था, "Hate sin and love the sinner". (बुराई से घृणा और बुरे से प्यार करो।) गुण देखिए, अवगुण बढ़ाइए । इस मामले में विदेशी हिन्दुस्तानियों से कहीं अच्छे हैं। वो कभी आपस में झगड़ते नहीं। जो उन्हें मिले उसी में खुश रहते हैं। लेकिन हम हिन्दुस्तानियों का ऐसा नहीं है। यहाँ पर तो चार लोग एक बाथरूम इस्तेमाल करते हैं लेकिन जब गणपतिपुले जाते हैं तब संलग्न गुसलखाना (अटैच्ड बाथ) चाहिए। विदेशियों का ऐसा नहीं है। वो लोग अपने देश में खुद की मोटर रखते हैं, हवाई जहाज से सफर करते हैं । हमारे जैसा खाना वे लोग खाते नहीं। उनका खाना अलग होता है। लेकिन जब वो यहाँ आते हैं हमारा खाना तक वो बड़े प्यार से खाते हैं और इतना ही नहीं उसकी प्रशंसा भी करते हैं। वैसे वो लोग तो हमें भगवान ही समझते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शरीर का आराम, आराम नहीं है, ध्यान आत्मा की तरफ रहना चाहिए। उन लोगों की आपसे बहुत अपेक्षायें है। हमें उन अपेक्षाओं की तरफ ध्यान देना चाहिए। देखिए। सहजयोग प्यार से ही बढ़ने वाला है। आप अपने प्यार को और भी कई चीजे हैं जैसे कोई भी काम बगैर पूछे करने लगते हैं। मुझे पूछे बगैर काफी चीजें की जाती है। इससे अंत मे नुकसान हो जाता है। पूछना चाहिए | इसी में सबकी भलाई है । ऐसा क्यों होता है, इसकी तरफ ध्यान देना चाहिए। असल में होली का तत्त्व यही है कि अपने आपको अन्दर से साफ करना चाहिए। येशु बहुत पहले कश्मीर आए थे तब उनकी मुलाकात हमारे पूर्वज राजा शालीवाहन से हुई थी। तब उनको पूछने पर येशु ख्रिस्त ने बताया, 'मुझे ईसा मसीह कहते हैं और जिस देश से मैं आया हूँ वहाँ के लोगों को म्लेच्छ कहते हैं (जो मल की इच्छा रखते हैं) इसलिए मैं आपके देश में आया हूँ। तब राजा शालीवाहन ने उनसे कहा कि, 'वे अपने ही देश में वापस जाकर उन लोगों से कहें कि वे 'निर्मलम्तत्वम्' अपनाए। सहजयोग का जो काम है यदि मेरे अकेले से हो सकता तो आप लोगों की जरुरत ही नहीं रहती । लेकिन यह कार्य आपके माध्यम से होना है। आप सब लोग सहजयोग के माध्यम हैं। आप सब जितने स्वच्छ रहेंगे उतना आप सहजयोग के लिए उपयुक्त साबित होंगे यह आपकी गहराई पर निर्भर करता है। और गहराई आयेगी कैसे? गहराई श्रद्धा से प्राप्त होगी। समर्पण से। अगर हमें मोती हासिल करना है तो समुद्र की गहराई में उतरना होगा। इसलिए गहराई में उतरना चाहिए। अब देखिए जो विदेशी यहाँ आ रहे थे उन्हें आधे पैसे में टिकट प्राप्त हुआ और उन्होंने श्रद्धा से बैंकॉक जाने की इच्छा करते ही उन्हें उसी टिकट पर बैंकॉक जाने की स्वीकृति मिली। गहराई में उतरने से सब चीज अनायास प्राप्त हो जाती है। इसलिए गहराई में उतरना चाहिए उसके बिना कोई फायदा नहीं। 19 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-19.txt रहजयोग ख ल 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-20.txt THE 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-22.txt डिक भ তল ी २ ० - मेंने तय किया था कि उस रात को समुद्र किनारे ही रुक जाऊं| में बिलकुल अकेली थी और १९७ बहुत अच्छी लग रही था और फिर ध्यान में मुझे ऐसा लगा कि अब वह समय आ चुकी है जबकि सहसार को खोलना चाहिए। १९८० - में आज आपको यह सब बता रही हूँ क्योंकि आप इसके काबिल हो। उस हिसाब से आपको समझ लेना चाहिए कि ये बहत ही सौभाग्य की बात है किमें आपको यह सब बता रही हूँ। आपको इसकी चाबी देरही है। १९९० - इन सब वर्षों से, इसी दिन का इंतजार था । अब इस बार का इक्कीसवा सहसार दिवस हें, इसी वजह से महत्वपूर्ण बदलाव वाला मोड़ है। आयको पता होगा कि हर इक्कीसवे दिन को हम अपने कैलेंडर को बदलते हैं, जहाँ तक कि जन्मपत्नी का साल है । तो अभी एक नया बदलाव आना है और आप उसकी सूचना को देख सकोगे-एक नयी समझदारी, एक जानकारी बहुत ही नये आयाम की २००० - मेरी दृष्टि बहत ही महान है एक जिन्दगी के लिए| में चाहती हूँ कि जगभर की जागृति हो में चाहती हूँ कि दुनियाभर के लोगों की जागृति हो। २००८ - मैने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है और मुझे लगता है कि इसे में फिर से दोबारा नहीं कर पाऊंगी। ये इसलिए नहीं कि मेरी वृद्धावस्था है, पर इसलिए कि में आपको सहजयोग कैलाने की पूर्ण स्वतंत्रता देना चाहती हूँ..... लोगों की भलाई के लिए इसका उपयोग करें। गब 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-23.txt उत्थान ४ ै कोलकाता, १४/४/१९९६ भ क०- ० 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-24.txt ( ईस्टर२ पूजा) आज हम लोग ईस्टर की पूजा कर रहे हैं। सहजयोगियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण दिन है क्योंकि ईसामसीह ने दिखा दिया कि मानव का उत्थान हो सकता है और उस उत्थान के लिए हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो उनको क्रूस पर चढ़ाया गया उसमें भी एक बहुत बड़ा अर्थ है। क्रूस पर टांग कर उनकी हत्या की गई और क्रूस आज्ञा चक्र पर एक स्वस्तिक का ही स्वरूप है। उसी पर टांग कर के और ईसा मसीह वहीं पे गत-प्राण हुए। उस वक्त उन्होंने जो बातें कहीं, उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी कि उन्होंने कहा कि, 'माँ का इन्तजार करो। माँ की ओर नजर करो। इसका अर्थ कोई कुछ भी लगाए पर दिखाई देता है कि उन्होंने ये बात कही कि मैं तुम्हारे लिए एक ऐसी शक्ति भेजूंगा जिसके तीन अंग होंगे, जो त्रिगुणात्मिका होगी। और उस का वर्णन बहुत सुन्दरता से किया है कि एक शक्ति होगी जो आपको आराम देगी। आराम देने वाली शक्ति जो हमारे अन्दर है, वह है महाकाली की शक्ति, जिससे हमें आराम मिलता है, जिससे हमारी बिमारियाँ ठीक होती है, जिससे हमारे अनेक प्रश्न, जो भूतकाल के हैं , ठीक हो जाते हैं। दूसरी शक्ति जो उन्होंने भेजी, वह थी, महासरस्वती की शक्ति। महासरस्वती की शक्ति को उन्होंने कौंसलर कहा। यह आपको समझायेगी, आपको उपदेश देगी, योग निरुपण करेगी । इस दूसरी शक्ति से हम ज्ञान-सूक्ष्म ज्ञान को प्राप्त करेंगे और तीसरी शक्ति महालक्ष्मी की, जिससे कि हम अपने उत्थान को प्राप्त होंगे। इस प्रकार तीन शक्तियों की उन्होंने बात की थी। बुद्ध ने कहा था कि, 'मैं तुम्हें 'मात्रेया' दूंगा,' यानि तीन तरह की माता या मातायें। लोगों को समझ ही नहीं आया कि 'मात्रेया' क्या होता है, इसलिए उन्होंने ' मैत्रया' कर दिया । यह जो 'मात्रेया' थी, यह एक साथ आदिशक्ति में ही हो सकती थी और आदिशक्ति को उन्होंने कहा तो जरूर होगा 'Primordial Mother' पर जिन्होंने बाईबल को ठीक किया, उन्होंने उसे 'होली घोस्ट' बना दिया और उसकी जगह कबूतर बना दिया। क्योंकि जिन्होंने बाईबल को ठीक किया उन्हें स्तरी जाति से बहुत नफरत थी और वे विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि एक स्त्री भी ऐसा ऊँचा कार्य कर सकती है। उस नफरत के कारण उन्होंने उस का रुप अजीब सा बना दिया-होली घोस्ट यानि कि एक कबूतर। कबूतर का अर्थ है कि वह एक 'शान्ति का दुत' होता है। स्त्री की बात ही नहीं की। 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-25.txt अपने शास्त्रों में कहा गया है 'सहस्रारे महामाया'। तो वो महामाया स्वरूप होंगी। लोग उन्हें पहचान नहीं पायेंगे। पहचानने के लिए भी आपको आत्मसाक्षात्कार लेना पड़ेगा। यदि आप ने आत्मसाक्षात्कार नहीं लिया तो आप पहचान ही नहीं सकते। अपने जीवन ही में उन्होंने जितना खुलकर कह सकते थे, कहा। पर न जाने इन्होंने कितनी बातें बताई और कितनी नहीं बताई और छिपाई। सहजयोग के लिए ईसामसीह का आना बहुत जरुरी था। वो स्वयं एक चिर बालक हैं। यह तो अब सिद्ध हो गया है कि वे गणेश का अवतरण हैं। गणेश का अवतरण संसार में एक ही बार हुआ और वह है ईसामसीह के रूप में। इन तीनों का कार्य, जिसे हम कह सकते हैं बुद्ध, महावीर और ईसा-मसीह, जिस स्तर पर हुआ वह स्तर तपस्या का है। इसलिए विराट पर इन्होंने कार्य किया। तीनों के कार्य में तपस्या का महत्त्व है, कि मनुष्य को तपस्या करनी चाहिए। तपस्या करके ही वह आज्ञा चक्र को भेद सकता और बाहर जा सकता है। आज्ञा चक्र का भेदन होना अति आवश्यक था क्योंकि उसके बिना आपकी कुण्डलिनी ऊपर उठ ही नहीं सकती थी। आज्ञा चक्र का भेदन ईसा मसीह के पुनर्जन्म से हुआ। उनकी मृत्यु हुई और फिर उनका पुनर्जन्म हुआ। अत: हम लोगों के लिए एक बड़ा भारी संदेश है ईस्टर में, कि ईसा मसीह के उत्थान से ही हम लोगों ने इस उत्थान को प्राप्त किया। सबसे कठिन चक्र है इन्सान में, मनुष्य में-आज्ञा चक्र क्योंकि मनुष्य हर समय सोचता ही रहता है और सोच-सोच कर उसके सिर की एक मन के बुलबुले की सी स्थिति बन जाती है। वह विचारों से परे नहीं जा सकता। जब आज्ञा का भेदन होता है तभी आप विचारों से दूर जा पाते हैं। इसलिए यह कहना चाहिए कि यदि ईसा मसीह ने अपने प्राण देकर के आज्ञा से उत्थान नहीं किया होता तो सहजयोग मुश्किल हो जाता। कार्य तो सभी अवतरणों ने किया अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने समय, अपने-अपने स्थान पर। परन्तु जो कार्य ईसा मसीह के उत्थान से हुआ वह बहुत ही कमाल की चीज़ थी। इसलिए आज्ञा का भेदन बहुत मुश्किल कार्य था । आज्ञा से ऊपर उठाना कोई मुश्किल कार्य नहीं। जितने भी गुरु हो गए बड़े-बड़े, उन्होंने बहुत कार्य किये। उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें करीं कि जिसके कारण लोगों में जागृति हुई, धर्म के प्रति रुचि हुई व आत्मसाक्षात्कार की ओर ध्यान आकर्षित हुआ। ईसा इस देश में आये क्योंकि वहाँ के लोगों, जहाँ से वो आये थे, उनकी दृष्टि में सूक्ष्मता नहीं थी। अध्यात्म नहीं था इसलिए वे हिन्दुस्तान में आए और काश्मीर में वे शालीवाहन राजा से मिले। शालीवाहन ने उनसे पूछा, 'तुम्हारा क्या नाम है?' उन्होंने कहा, 'मेरा नाम ईसा मसीह है।' मसीह यानि जो सन्देश 26 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-26.txt लेकर आता है। और मैं उस देश से आ रहा हँ जहाँ सभी मलेच्छ रहते हैं। मलेच्छ यानि जिन्हें मल की इच्छा होती है। आप देखते हैं कि जितने भी ये विदेशी होते हैं उन्हें मल की ही इच्छा रहती है, सिर्फ पागलपन ही अच्छा लगता है। आप उनकी फिल्में देखिये तो सोचेंगे, क्या ये लोग पागल हैं? हमारे देश में इन लोगों को पहले मलेच्छ कहते थे यानि मल की इच्छा करने वाले मलेच्छ। ईसा ने कहा कि, 'उनको तो मल की इच्छा है और मैं वहाँ कहाँ जाऊँ, मुझे तो अध्यात्म को जानना है।' तो शालीवाहन ने कहा, 'आप तो पहुँचे हुए हैं। आप अपने ही देश में लोगों को 'निर्मल तत्त्वम्' यानि प्रिन्सीपल आफ प्युरिटी लोगों को सिखायें । बहत जरुरी है, यदि आपने लोगों को निर्मल तत्वम् सिखा दिया तो लोग मलेच्छपन से छुटकारा पा जाएंगे । ' ईसा वापिस गये और किसी तरह साढ़े तीन वर्ष तक रहे और फिर उन्हें क्रूसारोपित कर दिया गया। जिस शान से उन्होंने प्राण त्यागे, उससे जाहिर होता है कि उनका अदभूत व्यक्तित्व था और मात्र साढ़े तीन साल के थोड़े से समय में उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किए हैं वह बहुत महान थे। हालांकि उन्होंने किसी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दिया, क्योंकि उस समय सत्य को खोजने वाले लोग नहीं थे जैसे आज हैं, मेरे नसीब अच्छे हैं। इसलिए जो कार्य हुआ वह आत्मसाक्षात्कार से पहले का कार्य था। यानि लोगों ने जाना कि इस मनुष्य जीवन से परे भी कोई और जीवन है। उन्होंने कहा कि 'तुम्हें फिर से जन्म लेना होगा।' उनका उत्थान फिर से जन्म लेना ही है। और अपने यहाँ भी कहते हैं कि जिस प्रकार अंडे से पक्षी जन्म लेता है, उसी प्रकार जब दूसरा जन्म होता है तो उसे द्विज कहना चाहिए, जिसका अर्थ दसरी बार है। और जब उसका परिवर्तन हो जाता है पूरी तरह से तो उसमें पूर्णतया शक्ति आ जाती है। उस के पास सारी संचार शक्ति आ जाती है। आपको तो मालूम है कि साईबेरिया से उड़कर के कैसे पक्षी हिन्दुस्तान में आ जाते हैं। जाड़े में यहाँ आते हैं और गर्मियों में वहाँ चले जाते हैं। न उनके पास कोई रड़ार है न एरोप्लेन है। वह हर साल उसी तालाब पर आते हैं जहाँ पहले आते थे। एक बार एक प्रयोग किया। पक्षियों के कुछ बच्चों को छिपा दिया, तो उन्होंने खोज निकाला अपने बच्चों को । कुछ बच्चों को जिन्हें खोज नहीं निकाला था खुद ही उड़ कर चले आए। उनका कोई अगुआ नहीं था, उन्हें कोई बताने वाला नहीं था फिर भी वे उड़कर ठीक से आ गये। इसे कहते हैं कि परमात्मा ने संसार में सारी व्यवस्था सुन्दरता से की है ताकि हम अपने उत्थान को प्राप्त करें। मैं तो इसे बसन्त ऋतु कहती हूँ। आप इतने लोग आज यहाँ बैठे हैं, ऐसा ईसा मसीह के सामने कहाँ थे ? और इससे हजारों गुणा संसार में फैले हैं। देख करके बड़ा आश्चर्य होता है कि ईसा मसीह के सामने ये सब लोग नहीं थे, और न ही कोई जानता था कि आत्मसाक्षात्कार क्या है? 27 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-27.txt आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना क्यों आवश्यक है? आज भी हमारे देश में भी हैं ऐसे अन्धे लोग जो इस बात को नहीं समझते। पर हमारे यहाँ जो महान गुरु हो गए हैं उन के कारण एक बहुत बड़ी समस्या दूर हो गई है कि लोगों में इसके बारे में ज्ञान हो गया है। सब जानते हैं कि हमें दूसरा जन्म लेना है, अपने को पहचानना है। जो कुछ भी शास्त्र लिखे गए हैं किसी भी धर्म में उनमें भी यही बात लिखी है। आज का दिन इसलिए भी मुबारक है कि आज बंगाल का नया साल का दिन है और इसलिए इसके पुनरुत्थान की भी बात हो सकती है। यह पुनरुत्थान जो आज हमने मनाया है इसका लाभ अवश्य बंगाल को होगा। यहाँ की संस्कृति और यहाँ की कला, बंगाल देश के महान देशप्रेमी लोग, जिन्होंने सारे देश में सबको एक बड़े ऊँचे स्तर पर पहुँचाया था आज वही कहाँ से कहाँ चले जा रहे हैं। विदेशी, व्यवस्था को छोड़कर चले गए, पर अब कहीं अधिक हम लोगों ने विदेशी संस्कृति को स्वीकार्य किया है। उसको लेकर हम लोग यह भी नहीं सोचते कि वे लोग कहाँ चले गये। हम लोग यह जानते हैं कि इन लोगों की क्या दशा है? वे कहाँ पहुँच गए। इन लोगों ने क्या पाया हुआ है। बहुत से ईसाई लोग तो यह सोचते हैं कि ईसा मसीह इंग्लैण्ड में पैदा हुए थे और उनके लिए धोती पहनने का अर्थ हिन्दू बनना है । इस प्रकार की विचित्र कल्पनायें हमारे सिर में बैठ गई हैं और हम सोचते हैं कि अंग्रेजीयत लेने से हम लोग ईसा मसीह को बहुत नज़दीक से देख सकेंगे । जिनको उन्होंने मलेच्छ कहा, उन्ही को हम आदर से देखते हैं। वो लोग अब जान गए हैं कि हमारी संस्कृति, हमारी विचारधारायें, हमारी धर्म की ओर दष्टि अत्यन्त सूक्ष्म है और यहाँ के लोग बहुत जल्दी सहजयोग प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन सहजयोगियों को चाहिए कि आपस में पूर्ण रूप से मेल-मिलाप से रहें। और यह जो उत्थान का संदेश है हर जगह पहुँचाये क्योंकि आज आपका देश जिस दशा में है, उसकी दशा परिवर्तन के अलावा ठीक हो ही नहीं सकती, अध्यात्म के सिवा ठीक हो नहीं सकती है। आप कुछ भी करिये। किसी प्रकार कोशिश यह कीजिए कि एक-एक आदमी को सूचना दें, कि हम कितने आदमियों को सहजयोग के बारे में बताते हैं और कितने लोगों को सहजयोग सिखाते हैं। ईसा मसीह अकेले थे। उनके साथ कोई भी नहीं था। उनके साथ सिर्फ उनके १२ शिष्य थे। उसमें से भी कुछ और एक बड़ा भारी संदेश अपने उत्थान से, अपने जीवन से दिया। और वह जो संदेश हमें दिखाई आधे-अधूरे और कुछ ऐसे वैसे। उन्होंने बहुत मेहनत की देता है वह वास्तव में हमारी आज्ञा पर काम करता है। और आज्ञा पर काम करके ही हमने स्थिति प्राप्त की है कि हम ब्रह्मरंध्र तक पहुंच पाते हैं । उन्होंने हमेशा क्षमा की बात की। उन्होंने हमेशा 28 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-28.txt करुणा की बात की। उन्होंने कहा कि, आप सबको क्षमा कर दें। क्रूस पर चढ़ कर भी उन्होंने कहा कि, 'हे प्रभु, इन सबको क्षमा कर दीजिए। ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। इन सबको माफ कर दो, ये सब अन्धे हैं।' जिस समय उन्हें क्रूस पर चढ़ाया और कीलों से ठोका और कांटों का ताज पहनाया उस समय भी उन्होंने बड़े प्रेम से कहा, 'प्रभु, इन सबको क्षमा कर दीजिए क्योंकि ये जानते नहीं कि ये लोग क्या कर रहे हैं।' यह आज्ञा चक्र की करामात है। इसलिए आज्ञा चक्र पर हमेशा कहते हैं कि आप लोग सबको माफ कर दो। आधे विचार तो हमारे अन्दर यह चलते हैं कि 'इसने हमें सताया, उसने हमें सताया। यह सब यदि हम परम चैतन्य पर छोड़ दें तो सब समाधान हो जाता है। कई बार तो मैं आपको बताते हुए बहुत डरती हूँ कि यदि कोई सहजयोगी गलत कार्य करता है तो मुझे बहुत घबराहट होती है कि देखो, अब आई शामत! यहाँ ईसा मसीह बैठे हैं, इधर गणेश जी बैठे हैं, हनुमान और भैरवनाथ बैठे हैं। इन चारों के चक्कर से छूट नहीं पायेंगे। कोई जरा सी गड़बड़ करे, पैसे में गड़बड़ करे, काम में गड़बड़ करे, मैं बस सोचती रहती हूँ कि कैसे सब संवर जाए। क्योंकि जब आप पवित्र चीज़़ में आ गए, जैसे एक सफेद चादर में कोई भी धब्बा पड़ जाए, तो ये दिखाई देता है, इसी प्रकार आपके अन्दर कोई दाग है तो वे फौरन पकड़ लेंगे। न जाने क्या सजा दें। यह बड़ी कठिनाई है। हालांकि अपने समय तो उन्होंने प्राण दे दिये। परन्तु हमारे बारे में उन्होंने ये कहा कि हमारे बारे में तो आप ने जो भी कह दिया, सो कह दिया। परन्तु यदि आदिशक्ति के बारे में कुछ भी कहा तो बहुत बुरा होगा। और मैं देख रही हूँ। कि वे बिल्कुल भी सहन नहीं करते। यदि आपने मुझे माँ माना है, तो मैं उसका मान करती हूँ और जब वो सताते भी हैं तो मैं कहती हैँ इन्होंने मुझे माँ कहा, इसलिए इन्हें क्षमा कर दीजिए । पर ये लोग भी इसको समझते हैं। आपको यह समझना चाहिए कि आप लोगों का जो उत्थान हुआ है वह आपकी पूर्व जन्म की मेहनत, श्रद्धा के फलस्वरूप हुआ है। इस जन्म में आपको यह बहुत बड़ा आशीर्वाद मिला हुआ है। लोग तो समझते थे कि यह हो ही नहीं सकता। यह आशीर्वाद जो आपने प्राप्त किया है। आपको ध्यान रखना चाहिए कि आप कोई भी गलत काम न करें। क्योंकि गलत कार्य करने से आपकी जो निर्मलता है, पकड़ में आ जाएगी। मैं आपको डरा नहीं रही हूँ बल्कि यह वास्तविकता बता रही हूँ। आप जो भी करें, अत्यन्त प्रेम से, उसका आनन्द उठाते हुए। हो सकता है आपको कोई परेशान करे। कोई बात नहीं। कितनी देर परेशान करेगा, जो परेशान करेगा, उसका ठिकाना हो जाता है। किसी भी स्तर पर भूलना नहीं कि आप एक सहजयोगी हैं। पहले जमाने में कितने सहजयोगी थे। एक थे सूफी निजामुद्दीन, तो उनकी गर्दन काटने को शाह निकल आये । उन्होंने कहा 29 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-29.txt कि, 'अगर तुम मेरे आगे सिर नहीं झुकाओगे तो तुम्हारी गर्दन काट लेंगे ।' और दूसरे दिन उसकी गर्दन काट ली। सो अगर कभी ऐसा हो भी तो डरना नहीं क्योंकि आप लोग अब परमात्मा के साम्राज्य में हैं। और इस बात को मद्देनजर रखते हुए आपको समझना चाहिए कि अब आप लोग अकेले नहीं हैं। आप पूर्णतया सुरक्षित हैं और इस सुरक्षा में आप क्यों परेशान होते हैं। बहुत से लोग आते हैं, 'माँ, मुझे ये प्राब्लम है, मुझे वो प्राब्लम है।' इसका अर्थ यह है कि आप सहजयोगी नहीं हैं। क्योंकि आप एक ऊँची जगह पर बैठे हैं। और प्राब्लम नीचे खींचते रहते हैं। यदि आप हर समय प्राब्लम, प्राब्लम करते रहे तो सोच लेना चाहिए कि कुछ कमी है आपमें। इसके लिए ध्यान करें, धारणा करें। अपने अन्दर धारणा करें कि आप सहजयोगी हैं। इससे आपके अन्दर एक आत्मविश्वास पूर्णतया प्रतीत होता है, लोग भी समझते हैं । आप केवल शांत हो जाएं। आपने चुप्पी लगा ली तो परम चैतन्य पूर्णतया संभाल लेगा । एक से एक धुरंधर बैठे हैं। परन्तु यदि आपमें ही दोष होगा तो कहेंगे, 'इसको डुबकियाँ लगाओ दो-चार ।' इस प्रकार ईसा मसीह का एक छोटा सा जीवन था केवल ३५ वर्ष का। उसमें भी वे भटकते रहे। और भटकते हुए भारत भी आए। जितना जीवन में उन्होंने कार्य किया उनका नाम लेकर के न जाने लोगों ने कितनी तरह-तरह की संस्थायें बनाई। ये करना है, वो करना है। झूठ है सब, गड़बड़ है। पर कितना उन्होंने काम किया। उनके मुँह में भी न जाने कैसी - कैसी गलत वस्तुयें डाली गईं। एक झूठी संस्था भी बना ली। जिस हीरे को इन्होंने ढक लिया वो आपके अन्दर में है। आपकी आज्ञा में कार्यान्वित है। आपकी क्षमा शक्ति जितनी बढ़ जाएगी आप उतने ही सहस्रार पर रहेंगे। ईसाई लोगों का तो यह है कि वे पैदा ही हुए ईसाई। उन्हें बस इतना ही मालूम है इसलिए हम उन्हें ईसाई स्वीकार करते हैं। हिन्दुओं को बस कृष्ण ही मालूम है, शिव मालूम है। इसी में खुश रहते हैं। और भाई, आप इससे परे उठ गए, पार हो गए, अब आप स्वयं सूफी हो गए। इन सब चीज़ों में जो सार है उसको आप ग्रहण कीजिए और प्रत्येक चीज़ में सत्य को खोजिए। सी बहुत चीज़ों में असत्य है। इन सब धर्मों में बहत सी बातें असत्य भी हैं। जैसे ईसाई धर्म में आप देखिए, वही बात ईसाईयों में भी है और वही बात मुसलमानों में भी है कि जब आप मर जायेंगे तो आप अपने को गाड़ लीजिए। अपना शरीर गाड़ लीजिए। जलाईये मत, और जब आपका पुनरुत्थान होगा तो आपका यही शरीर पुन: बाहर आ जाएगा, यदि आप परमात्मा के नाम पर मरे हैं और आपने अपना जीवन उसके लिए त्यागा है। अब सोचो ५०० साल बाद क्या चीज़ बाहर आयेगी, यदि आपको गाढ़ दिया जाए? उनसे पूछना चाहिए कि जो हड्डियाँ बच कर आयेंगी उनकी क्या 30 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-31.txt स्थिति होगी। यह विश्वास बहुत लोग करते हैं। यह विश्वास बहुत इतना गहरा है कि मेरे पास कुछ लोग आये थे। मैंने कहा, 'क्यों मरे जा रहे हो । तुम्हारा तो निराकार में विश्वास है, तुम क्यों जमीन के लिए लड़ रहे हो ?' तो उन्होंने मुझे कहा कि, 'हमारे तो शास्त्र में यह लिखा है कि यदि तुम भगवान के नाम के लिए मरे तो ऐसा-ऐसा होगा।' मैंने कहा, 'पहले तो मुझे बताओ कि इसमें भगवान का नाम कहाँ लिखा है। दूसरी बात यह बताओ कि तुम यदि मर गए और तुम्हारा पुनरुत्थान ५०० वर्ष बाद हुआ, तो अन्दर से क्या निकलेगा? तुम तो कब्रों में जाकर के सारी जमीन ले लेते हो और भूत बनते रहते हो।' इस सम्बन्ध में मैं यह कहती हूँ कि अपने शास्त्र ठीक हैं, कि मरने के बाद आत्मा जो है वो निकल जाती है। और जो जीवात्मा है वह फिर से जन्म लेता है | क्योंकि जीवात्मा मरता नहीं। शरीर का ५०० वर्ष बाद पुनरुत्थान होगा ऐसी बात का विश्वास करना महामूरख्खता है। कभी- रहे हैं। कभी मैं सोचती हूँ कि ऐसी महामूर्खता को लेकर ये लोग जगह-जगह आपस में लड़ रहे है। आज इज़राईल में मारा-मारी हो रही है तो कल दूसरे स्थान पर होगी। यह मारा-मारी हो रही है। मात्र धर्म को लेकर। मैंने कल भी बताया था कि सभी धर्म आपस में गुंथे हुए हैं। कोई धर्म अलग नहीं है। सभी ने यह वर्णन किया है, फिर यह लड़ाई क्यों, झगड़ा क्यों? यह सब कुछ उन लोगों का किया हुआ है जो अपने को धर्म मार्तण्ड कहते हैं । अब सोचिए कि ईसा मसीह ने एक बहुत बड़ी बात कही कि, 'तुम्हारी दृष्टि स्वच्छ होनी चाहिए।' यानि चित्त में भी अस्वच्छता नहीं होनी चाहिए। पर हमने तो विदेश में देखा कि हरेक की आँखे इधर से उधर चलती रहती है । किसी को देखा ही नहीं कि जिसकी आँखे न चल रही हो । केवल सहजयोगियों को छोड़कर। इस प्रकार उनकी (ईसा की) जो विशेष वाणी थी उसका कौन पालन कर रहा है? कौन मान रहा है? कोई नहीं! क्यों ? क्योंकि उन्हें आत्मबोध नहीं है । यदि उनको आत्मबोध हो जाता तो उनकी आँखें स्थिर हो जाती। उनसे प्यार झलकता है। शान्ति और आनन्द झरता। यह केसे हुआ? कि उनकी आँख शुद्ध हो गई । जैसे कि ईसा मसीह ने कहा वैसी आँख हो गई। उन्होंने जो कहा था, वह मात्र कहने से थोड़े ही हो सकता है। विदेश में तो यह बिमारी आवश्यकता से अधिक है। तो हमें समझ में आता है कि जो कुछ ईसा मसीह ने कहा हम कर नहीं पाते। कोई सा भी ऐसा धर्म नहीं है जिसमें लोग जो कहते हैं वही करते हैं। कारण वे समर्थ हैं यानि जो हैं उसका अर्थ नहीं है। कोई कहेगा 'मैं ईसाई हूँ' परन्तु उसकी आँखों में गन्दगी भरी रहेगी। कोई कहेगा, 'मैं जैन हँ' और वह कपड़े की दुकान करेगा। अर्थात जो नहीं करना वही करेंगे। इसका कारण है 32 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-32.txt और सहजयोग में यह जागृत हो जाता है। कि हमारे अन्दर वह धर्म जागृत नहीं हुआ। के बाद, जागृत होने के बाद यदि आप उसका मान नहीं करेंगे और उसमें आत्मसाक्षात्कार होने आप अपनी प्रगति नहीं करेंगे तो न जाने आपको क्या-क्या कष्ट झेलने पड़ सकते हैं। इससे पहले आपको जो कष्ट थे, तकलीफें थीं वह महसूस नहीं होंगी। परन्तु अब आप संवेदनशील हो गए हैं। इसलिए समझ लेना चाहिए कि हमने जो इतनी बड़ी चीज़ पाई है उससे हम अलंकृत हो गये , उससे हम सज गये। अब हमें अपने वैभव में और गौरव में होना चाहिए। जैसे ईसा मसीह का पुनरुत्थान हुआ था। वे कब्र से उठे थे, उनका चेहरा बहुत ही खिल गया था, उनकी बातें और भी सुन्दर हो गई थीं ; इसी प्रकार ईसा मसीह सहजयोगी थे | लेकिन उन्होंने उसे प्राप्त किया था और आपके लिए उन्होंने प्राण त्यागे कि आपका आज्ञा चक्र खुले। सो अहंकार आदि जो व्याधियाँ हैं उनसे दूर रहना चाहिए। अहंकार जब चढ़ जाता है तो आप कुछ भी हो सकते हैं, हिटलर भी हो सकते हैं। न जाने आप अपने आपको क्या समझ रहे हैं। जिसने हमें इस आज्ञा चक्र से ऊपर उठाया है, उस ईसा मसीह के जीवन को यदि आप देखेंगे कि वे बिल्कुल निर्मल है। इसी प्रकार हमारा जीवन भी पूर्णतया निर्मल होना चाहिए। सहजयोग में विवाह की पूर्ण रुप से व्यवस्था है। हालांकि ईसा मसीह ने विवाह नहीं किया था। उनको कोई जरुरत ही नहीं थी । आपके लिए सभी प्रकार की व्यवस्था है। इस व्यवस्था परन्तु से आप पूर्ण रुप से सर्वसामान्य लोगों की तरह रह सकते हैं और अपनी विशेषता को समझते हुए रहें। ईसा मसीह और सूफी लोग अपनी विशेषता समझते थे । अकेले ही उन्होंने सारे विश्व में कार्य किया। आपके तो सारे विश्व में इतने सारे भाई -बहन हैं। कितना आपमें आत्मविश्वास होना चाहिए। आप अकेले नहीं हैं। सभी लोग एक ही बात कहते हैं, सबको एक ही चीज़ प्राप्त है। और जब आप इस चीज़ को पाते हैं तो इसका महत्व समझना चाहिए। इससे अमूल्य और कुछ भी नहीं है। यद्यपि मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि कोलकता में इतना कार्य हो गया। इतने सहजयोगी हो गये, आपस में बहुत प्रेम है, कोई फूट नहीं, कोई झगड़ा नहीं। यह बहुत बड़ी बात है। मैं सोचती हूँ कि यह देवी की कृपा है कि लोग सहज में उतरते हैं। जैसे पुरुष कार्य कर रहे हैं वैसे स्त्रियों को भी करना चाहिए । जब सब ओर सहजयोग फैल जाएगा तो बंगाल देश बहुत सुन्दर स्वरुप में उतरेगा । आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद ! 33 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-33.txt ९ ॐ७ ॐे ० ॐ] lolelelar जा परमपूज्य माती जी श्री निर्मला देवी द्वारा दी गयी शिक्षा आज सत्य युग का पहला दिन है। प्रकृति आप को बताएगी कि सत्य युग आरम्भ हो गया है। सहजयोग सत्ययुग ले आया है। आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, आपको स्वयं में श्रद्धा तथा विश्वास होना चाहिये। सहजयोग की कार्य शैली में आपकी श्रद्धा होनी चाहिये। आपकी ज्योतिर्मय श्रद्धा में क्या कार्य करता है? पूर्ण विश्वास होना चाहिये । मेरी ओर देखिये । मैनें अकेले सहजयोग को फैला दिया है। बस परम चैतन्य में विश्वास रखें। यदि आपको कोई सन्देह है, तो मुझसे पूछ लें। परमात्मा तो नहीं है पर मैं तो आप से बातचीत करने के लिये यहाँ हूँ। अत:अब सहजयोगियों को सन्देहमुक्त होना चाहिये । | । १. अगुआगणों को बहुत सावधान रहना चाहिये। उन्हें अहंकार विहीन होना चाहिये । वे संदेश के माध्यम मात्र हैं जैसे पोस्ट करने के लिये मुझे पत्र को लिफाफे में ड्रालना पड़ता है। स्वामित्व भाव से वे सावधान रहें । २. किसी भी चीज़ की योजना बनाते समय हमारा चित्त सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज़ पर होना चाहिये। आपकी प्राथमिकताएं स्पष्ट होनी चाहियें । ३. यदि कोई नकारात्मकता हो तो मुझे बतायें, मैं इसे ठीक करुंगी । ४. प्राय: आयोजक धन की चिन्ता करने लगते हैं। सहजयोग में आपको सदा धन प्राप्त हो जायेगा। परन्तु यदि आप चिन्ता करेंगे तो धन नहीं मिलेगा। धन इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है । ५. एक दूसरे के लिये हम में विवेक होना चाहिये । ६. आपको कोई भय नहीं होना चाहिये। यह तो केवल एक नाटक चल रहा है। चिन्ता की कोई बात नहीं है। आप यदि कहते हैं कि मुझे डर है तो मैं क्या कहूँ? आप यदि कोई गलती कर दें तो भी कोई बात नहीं। मैं आपको कह सकती हूँ कि यह गलती है, आप इसका बुरा न मानें । यदि सुधारने को कुछ हुआ तो मैं सुधार दूँगी। यदि आप भयभीत है तो आपका अहंकार आड़े आयेगा और मैं बस इसे भेद दूंगी। कम से कम आप को तो मुझसे नहीं डरना चाहिये। अपनी गलतियों से हम सीखते हैं । गलतियाँ करने से हमें डरना नहीं चाहिये । गुडी पाडवा, दिल्ली २४-०३-९३ 34 ु ত र 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-34.txt हे का अ जब आप सभी कुछ अपने बुद्धि से व्यक्त नहीं कर सकते, तब आप कली की सहायती लेते हैं, अपने आप को व्यक्त करने के लिए] और आप कुछ चिन्हीं की भी उपयोग करते हैं, उन सभी चीज़ों को व्यक्त करने के लिए जिन्हें आप शब्दों में व्यक्त नहीं करे सकते] यही है वी जिसे एक कलाकार करती है। दिवाली १९९३ प्रकाशक निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०२५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in 2011_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-35.txt ै ार ১ आप उच्चतंम से भी उतच हैं। उत् २२.३.१९८४ 2ा ्ी