हिन्दी मई-जून २०११ प क ] परमात्मी की इच्छी सबकी देखभाल कर सकती है। आपको किसी चीज़ की चिन्ता करने की जरूरत नहीं] समझने की प्रयत्न कीजिए कि आपकी समस्याओं की कारण यह है कि आप उन्हें परमात्मी पर नहीं छीड़ना चाहते। कुछ लोग कहते हैं कि उनमें इतनी योग्यता ही नहीं कि वे ऐसा कर सकें। यह मूर्खतापूर्ण वतक्तव्य है। स्वयं की परखिए। कबेला, इटली, १० मे १९९२, अनुवादित इस अंक में प२मात्मा की इच्छा ही सभी कार्य कर रही है .." ही सभी कष्टों के कारण हैं १४ सृजन शक्ति सरस्वती का आशीर्वाद ,२० अन्य विषय सहसा२ स्वामिनी रामनवमी संदेश ...२६ ..३० दुल्हीं की उपदेश ...२८ दुं the कबेला, इटली, १० मई १९९२, अनुवादित ही सभी कार्य कर रही है अ जि हम सहस्रार दिवस मना रहे हैं। शायद आप लोगों ने महसूस नहीं किया है कि यह दिन कैसा था। सहस्रार को खोले बिना परमात्मा, धर्म और देवत्व की बातें केवल कल्पना मात्र थी। लोग परमात्मा में विश्वास करते थे पर यह मात्र विश्वास ही था। और विज्ञान जीवन के मूल्यों तथा सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रमाण को मिटाने ही वाला था। इतिहास में जब जब भी विज्ञान ने स्वयं को स्थापित किया सभी धर्माधिकारियों ने विज्ञान की खोजों का साथ दिया। अगस्टीन ने इसे बाइबल में दर्शाने का प्रयास किया। सभी धर्म ग्रन्थ मूर्खतापूर्ण कल्पना मात्र लगने लगे। कुरान में बहुत सी बातें थी जो आज के शरीर विज्ञान का वर्णन करती थी। वे विश्वास न कर सके कि परमात्मा ने किसी विशेष कारण से मानव की रचना की। उन्होंने सोचा कि विकास प्रक्रिया में पशु ही मनुष्य बन गए। इस प्रकार हर समय परमात्मा को चुनौती दी गयी और बाइबल, कुरान, गीता, उपनिषदों में कही बातों का कोई प्रमाण न था क्योंकि यह केवल विश्वास मात्र ही था। बहुत कम लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ और जब भी उन्होंने इसकी बात की, लोगों को इन पर विश्वास न हुआ। लोगों ने सोचा कि वे अपने ही सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे हैं। इस तरह यह निज्जीव-विज्ञान बन गया। लोग सोचने लगे कि इन दस धर्मादेशों को मानने से या कठोर नियमों को मानने का क्या लाभ है? मनुष्य को पुण्य क्यों प्राप्त करने चाहिए? मानवीय मूल्यों से लोग भटक गए। निरंकुश रूप से संस्थापित धर्म भी धन तथा सत्ता का मार्ग अपनाने लगे क्योंकि लोगों को वश में करने का उन्हें यही मार्ग सूझा । बाइबल में वर्णित सत्य को बताने की उन्हें कोई चिन्ता न थी। बाइबल को ही बदल दिया गया। पीटर और पाल ने इसे बिगाड़ने का पूरा प्रयत्न किया। कुराण को अधिक नहीं छेड़ा गया परन्तु यह अधिकतर दायीं ओर को ही बताती है और इसमें बहुत सी बातें अस्पष्ट हैं। दो घटनाएं साथ-साथ घटीं। एक नए सूक्ष्म जीवविज्ञान द्वारा हमने खोज निकाला कि हर कोषाणु का एक टेप होता है। कम्प्यूटर की तरह हर कोषाणु का एक कार्यक्रम होता है। इसी कार्यक्रम के अनुसार विकास होता है । बहुत से कम्प्यूटर की तरह के कोषाणु पहले से कार्यक्रम में हैं और इस तरह एक अति अनोखी चीज़ वैज्ञानिकों के सामने आयी है। वे इसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। सहजयोग ने प्रमाणित कर दिया है कि परमात्मा की इच्छा ही सभी कार्य कर रही है। यह सारा चैतन्य और आदिशक्ति परमात्मा की ही इच्छा है। परमात्मा की इच्छा ही बड़े सुव्यवस्थित रूप से चला रही है। एक शान्तिमय नाद के साथ पृथ्वी की रचना की गयी। हर कार्य परमात्मा की इच्छा से हुआ। अब आप लोग परमात्मा की इच्छा को अपनी अंगुलियों के सिरों पर अनुभव कर रहे हैं। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आपने पूर्ण विज्ञान को खोज निकाला, यह पूर्ण विज्ञान परमात्मा की इच्छा ही है। आप जानते हैं सहजयोग द्वारा हमने लोगों को रोगमुक्त किया। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आपने पूर्ण विज्ञान को खोज निकाला, यह पूर्ण विज्ञान परमात्मा की इच्छा ही है। आप जानते हैं कि सहजयोग द्वारा हमने लोगों को रोगमुक्त किया। आत्मसाक्षात्कार के बाद बहुत सी बातें स्वत: ही बन जाती हैं। पर लोग विश्वास नहीं करना चाहते। प्रारम्भिक वैज्ञानिकों की बताई बातों पर भी वे यकीन नहीं करते थे। पर आज हर क्षण विज्ञान में परिवर्तन आ रहा है। सिद्धांतों को चुनौती दी जा रही है। सहजयोग ने मनुष्य के सम्मुख विज्ञान का वह सत्य प्रकट किया है जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती। हम प्रमाणित कर सकते हैं कि परमात्मा है। सारी सृष्टि की रचना अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप से परमात्मा की इच्छा ने की। जब परमात्मा की इच्छा ने 6. ही सभी कुछ किया है तो मनुष्यों को परमात्मा द्वारा रचित चीज़ों को खोज निकालने का श्रेय नहीं लेना चाहिए। उदाहरण के रूप में यह कालीन किसी अन्य ने बनाया और आपने इसके रंग खोज निकाले तो इसमें कौन सी बड़ी बात है क्योंकि ये रंग तो पहले से ही हैं। आप इन्हें नहीं बना सकते। देशाचार भी परमात्मा की इच्छा ने ही बनाया। यदि परमात्मा की इच्छा इतनी महत्वपूर्ण है तो इसे प्रमाणित भी किया जाना चाहिए। सहस्रार खुलने पर अब आपने इसे महसूस किया है। इतनी सहज यह हमें प्राप्त हो गई है कि हम समझते ही नहीं। हमारे एक बंधन देने से कार्य हो जाता है । यह इससे भी कहीं अधिक है। अब हम उस विशाल कम्प्यूटर के अंग बन गये हैं। परमात्मा की उस इच्छा के हम माध्यम बन गये हैं और पूरे ब्रह्माण्ड की रचना करने वाली इस शक्ति से जुड़ गये हैं। अत: हम सभी कुछ चला सकते हैं क्योंकि पूर्ण विज्ञान हमारे हाथों में है, यह विज्ञान पूरे विश्व का हित करेगा । हम एक वैज्ञानिक को प्रमाणित करके बता सकते हैं कि परमात्मा की एक शक्ति है जिसने सारी सृष्टि का सृजन किया है । विकास प्रक्रिया भी परमात्मा की ही इच्छा है। उनकी इच्छा बिना कुछ भी न हो पाता। अब आपने देखा है कि परमात्मा की इस इच्छा को हमने अपनी शक्ति के रूप में पा लिया है। हम इसका उपयोग कर सकते हैं। अत: सहजयोग का होना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सहजयोग यह कहने मात्र के लिए नहीं कि 'श्री माताजी में पूर्ण आनन्द में हूँ, या मैं पवित्र हो गया हूँ, सभी कुछ बढ़िया है।' तो यह किसलिए है? आपको यह सारे आशीर्वाद किसलिए प्राप्त हुए? आपका शुद्धिकरण क्यों किया गया? ताकि परमात्मा की यह इच्छा शक्ति आपसे झलके और आपका अंग-प्रत्यंग बन जाए। हमें अपने स्तर को ऊंचा उठाना होगा । हमें ऊपर उठना ही होगा। साधारण और मध्यमस्तर के लोगों को सहजयोग देने का कोई लाभ नहीं क्योंकि ऐसे लोग किसी काम के नहीं होते। किसी भी प्रकार वे हमारी सहायता नहीं कर सकते, आज उन लोगों की आवश्यकता है जो वास्तव में परमात्मा की इच्छा को प्रकट कर सकें, प्रतिबिम्बित कर सकें। इसके लिए हमें अति सुदृढ़ व्यक्तियों की आवश्यकता है। परमात्मा की इस इच्छा ने पूरे विश्व, पूरे ब्रह्माण्ड की, पृथ्वी माँ की तथा हर चीज़ की रचना की। अब एक नए आयाम के सम्मुख हम अनावृत्त हुए है कि परमात्मा की इच्छा के माध्यम हम ही लोग हैं। तो अब हमारा कर्तव्य क्या है और इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? सहस्र खुलने के परिणामत: हमारे भ्रम समाप्त हो गए हैं। सर्व शक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व, उसकी इच्छा की शक्ती और सहजयोग के सत्य के विषय में आपको कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। आपको बिल्कुल कोई संदेह नहीं होना चाहिए। परमात्मा की शक्ति का उपयोग करते हुए आपको पता होना चाहिए कि इसे संचालन करने की आपकी योग्यता के कारण ही यह शक्ति आपको दी गई है। सोची जा सकने वाली शक्तियों में यह सर्वोच्च है। किसी गवर्नर या मंत्री को लीजिए, उन्हें कल पद से हटाया जा सकता है। वे भ्रष्ट हो सकते हैं, हो सकता है उन्हें अपनी शक्तियों का कोई ज्ञान न हो। बहुत से लोगों को अपने कार्य का पता तक नहीं होता फिर भी वे लोगों द्वारा चुने जाते हैं। सहजयोग लोगों का धर्म परिवर्तन मात्र नहीं । यह व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तन मात्र भी नहीं। यह तो एक नयी रचना है आगे बढ़ते हुए उस नए मानव की जिसमें परमात्मा की इच्छा को आगे ले जाने की योग्यता है। आत्मसाक्षात्कार के परिणामत: आपके भ्रम समाप्त हो गये। परमात्मा सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी है और सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ अर्थात् सभी कुछ देखते 7 तथा जानते हैं। उस शक्ति का एक भाग आप में भी है । उनकी सर्वज्ञता को प्रमाणित करने के लिए आपको हर समय याद रखना है कि आप सहजयोगी हैं। अब भी मैं सहजयोगियों को अपनी पत्नियों, बच्चों, घर, परिवार, नौकरियों आदि के विषय में बातें करते हुए पाती हूँ। मैं हैरान हो जाती हँ कि उनका स्तर क्या है? वे हैं कहाँ? उन्हें दिया गया दायित्व वे कब सम्भालेंगे ? सर्वशक्तिमान परमात्मा जो सर्वत्र विद्यमान हैं, जिन्होंने सभी कुछ किया है और परमात्मा की इच्छा ने, जिसने सब कुछ संचालित किया है, आपके माध्यम से कार्य करना है । अत: आपको अति सशक्त विवेकशील, बुद्धिमान और अति प्रभावशाली होना है। जितने अधिक प्रभावशाली आप होंगे उतनी अधिक शक्ति आपको प्राप्त होगी। अब भी मुझे लगता है कि सहजयोगी यह समझने का दायित्व नहीं ले रहे हैं कि उन्हें सर्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिनिधि बनना है, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञ परमात्मा का प्रतिनिधि। आपको समझना है कि सहस्रार खुलने के बाद आपमें वह शक्ति आ गई है जिसमें ये तीनों गुण हैं। यह महान शक्ति आपको प्राप्त हो गयी है। इसके लिए हमें बहुत सफल, धनी या विख्यात लोगों की आवश्यकता नहीं। हमें चरित्र, सूझबूझ और दृढ़ता वाले लोगों की आवश्यकता है जो ये कहें कि चाहे कुछ भी हो मैं इसे अपनाऊंगा, इसका साथ दूंगा और इसे सहयोग दंगा। मैं स्वयं को परिवर्तित करूंगा और सुधारूंगा। मुझे आशा है कि आप सबने भ्रमों से छुटकारा पा लिया है। अपने बारे में भी आपमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। यदि आपमें कोई भ्रम है तो आप सहजयोग छोड़ दें। समझिए कि परमात्मा की इच्छा ने इस कार्य के लिए आपको चुना है, इसी कारण आप यहाँ हैं और आपने इस पूर्ण विज्ञान को समझने का दायित्व लेना है । इसे अपने तथा अन्य लोगों के लिए कार्यान्वित करें । आपने मेरे प्रेम को महसूस किया है आपका प्रेम भी महसूस किया जाना चाहिए क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है। दूसरे लोगों को अनुभव होना ही चाहिए कि आप करुणामय, प्रेममय तथा सूझबूझ वाले हैं। हर समय यह परमात्मा की इच्छा आपमें से प्रवाहित होती रहती है। आपको इसे इस प्रकार से संचालित करना है कि लोग समझ जायें कि आप संत हैं और यह शक्ति आपमें से प्रवाहित हो रही है। दूसरी बात जो हुई है वह यह है कि आपने एकीकरण को समझ लिया है, कि पूरे विश्व में एकीकरण का ही अस्तित्व है। बच्चों में अपनी अन्तर्जात, स्वाभाविक सूझबूझ है। साधारणतया एक अच्छा बच्चा सदा अपनी चीज़ों को बांटकर लेना चाहता है, दूसरे बच्चे से प्रेम करना तथा छोटे बच्चे की रक्षा करना पसन्द करता है। यह स्वाभाविक है। बच्चा यह नहीं सोचता कि दसरे बच्चे के बालों या चमड़ी का रंग काला है या लाल। छोटे बच्चों को ज्ञान होता है कि शरीर का प्रदर्शन नहीं किया जाता। दूसरों के सामने बच्चे निर्वस्त्र नहीं होना चाहते। उनमें यह गुण अन्तर्जात है । यह सभी अन्तज्जात गुण आप में हैं। बच्चे कुछ भी चुराना नहीं चाहते। मैंने बच्चों को सुन्दर स्थानों तथा घरों में जाते देखा है, वे सदा उस स्थान की सुन्दरता को बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। अविकसित माने जाने वाले बहुत से देशों में यह गुण है। अबोधिता की सृष्टि हम में अन्तर्जात है। परमात्मा की इच्छा ने अबोधिता तथा मंगलमयता की रचना की। सर्वप्रथम उन्होंने श्री गणेश की रचना की। यह रचना आदिशक्ति ने ही की 9. क्योंकि वही परमात्मा की इच्छा है। पूरे विश्व को अति सुन्दर बनाने के लिए यह सब रचा गया। ये सब देवता तथा ये सारे अन्तर्जात आपके अन्दर स्थापित किए गए। इन्हें विशेषत: बनाया गया ताकि गुण मनुष्य संत स्वभाव बन सके और संत सम अन्तर्जात अपने विवेक को अपना सकें । विकसित देशों में दूरदर्शन तथा अन्य मार्गों से हमारे मस्तिष्क को दूषित किया गया और हम में असुरक्षा की भावना आ गई। हम दूसरों के विचारों से चलने लगे। कोई भी प्रबल व्यक्ति हम पर प्रभुत्व जमा सकता था। केवल हिटलर ने ही लोगों पर प्रभुत्व नहीं जमाया, फैशन भी लोगों पर छा गया। फैशन के कारण किसी भी विवेकपूर्ण बात को अपनाना नहीं चाहते। आजकल छोटे स्कर्ट पहनने का फैशन है। लम्बा स्कर्ट आपको कहीं नहीं मिलेगा। सभी को यही वेशभूषा पहननी पड़ती है अन्यथा आप पिछड़ जाते हैं। हर समय इस प्रकार की बातें हमारे मस्तिष्क में भरी जाती हैं परिणामत: सर्वप्रथम हम उद्यमियों के दास बन जाते हैं। मैंने है कि बैल्जियम में आपको कोई भी ताज़ा चीज़ नहीं मिलती, सभी कुछ डिब्बों में बंद सुपर बाजार से लेना पड़ता है। शनै: शनै: हम पूर्णतया बनावटी होते चले जाते हैं। भोजन, वस्त्र और दृष्टिकोण बनावटी हैं। विज्ञापनों तथा बाह्य प्रभावों में हम खो जाते हैं। इन आधुनिक वस्तुओं के प्रभाव में हम अपने अन्तर्जात विवेक को भूल बैठते हैं। विज्ञान के बाद धन बहुत महत्वपूर्ण हो गया। ऐसा होते ही सभी उद्यमी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि आपको मूर्ख बनाकर धनार्जन की कला वे जानते हैं। परन्तु अन्दर से दृढ़ व्यक्ति इन चीज़ों से प्रभावित नहीं होते। फैशन उन्हें प्रभावित नहीं कर पाता। इसके विपरीत अपनी परम्परागत उपलब्धियों से दूर हो पाना उनके लिए कठिन होता है। सुना सहजयोगियों के लिए आवश्यक है कि वे ध्यान रखें कि कहीं उद्यमियों के दास तो नहीं बन रहे । विचारों पर भी प्रभाव पड़ता है। हम बहुत सी पुस्तकें पढ़ते हैं जिनमें से कुछ फ्रायड जैसे पागलों की लिखी बेसिरपैर की होती है। पश्चिम पर फ्रायड का प्रभाव कैसे पड़ा? क्योंकि अपने अन्तर्जात विवेक को छोड़ कर आपने उसे स्वीकार किया। इस प्रकार फ्रायड भी लोगों के लिए ईसा सम बन बैठा। यौन संबंध अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गए। थोड़ी सी साधारण बुद्धि से हम समझ सकते हैं कि हर क्षण कुछ प्रबल व्यक्ति , जिनके पास कुछ विचार भी हैं, हमें दासत्व की ओर ढ़केलते हैं। उनके विचार महान बन जाते हैं। 'उसने ऐसा कहा।' वह है कौन ? उसका जीवन कैसा है? स्वयं देखिए कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है। परमात्मा की इच्छा, जिसने पूरे विश्व को तथा आपके कण-कण को बनाया है, के प्रतिनिधि होते हुए आप उद्यमियों के हाथों में खेल रहे हैं। ये उद्यमी इन द्र्बल व्यक्तियों को मूर्ख बनाकर उनसे पैसा ऐंठ रहे हैं। एक ओर तो आपके पास इतनी महान शक्तियाँ हैं, इतने महान कार्य के लिए आपको चुना गया है और दूसरी ओर आप इस प्रकार से दास हैं। आपके अन्तर्जात गुण खो गए थे। सौभाग्यवश कुण्डलिनी की जागृति और सहस्रार के भेदन से आपके अन्तर्जात गुण, जो कि खो से गए थे, जाग उठे हैं। आपकी अबोधिता, सृजनात्मकता, अन्दर का धर्म, करुणा, मानव प्रेम, निर्णयात्मक शक्ति और विवेक आदि गुण आपमें सुप्तावस्था में थे। वे सभी जागृत हो गए। मुझे ये नहीं बताना पड़ता कि ये कार्य करो और ये मत करो। आपको स्वयं महसूस होता है 10 कि यह अनुचित है। आप स्वयं जानते हैं कि आपके लिए ठीक क्या है। कुछ अनुचित यदि आप करना चाहें तो आप कर सकते हैं परन्तु आपके अन्दर का प्रकाश आपको बताएगा कि क्या ठीक है और क्या गलत। ज्ञान के इस आयाम के प्रति सहस्रार के खुलने के कारण ही यह हो सका है। यह नया नहीं है, आपके अन्दर रचित है। अब यही अन्तर्जात गुण प्रकट हो रहे हैं और आप इनका आनन्द ले रहे हैं। विचारों तथा आचरणों से आपको बाहर आना है । मैंने सुना है कि सहजयोगी वस्तुओं अपने तुच्छ को इधर-उधर फैला देते हैं। आप इस तरह का बर्ताव कैसे कर सकते हैं ? जीवन में बिना अपेक्षित अनुशासन के आप परमात्मा की इच्छा को संचालित नहीं कर सकते। मैं आपकी स्वतंत्रता का स्वागत करती हूँ और चाहती हूँ कि आपकी अपनी कुण्डलिनी ही आपमें विवेक, महानता तथा गरिमा को जागृत करे। तब आप अपने पद के मूल्य को समझने लगेंगे। अग्नि में तपा कर शुद्ध किए स्वर्ण की तरह कुण्डलिनी भी आपका पूर्ण शुद्धिकरण करेगी। आप अपनी गरिमा, स्वभाव तथा महानता को देखने लगते हैं। अत: सहज ही आपका एकीकरण हो जाता है। सबसे पहले इंग्लैंड, स्पेन, इटली आदि के सहजयोगी होते थे जो सदा अलग-अलग समूह में रहते थे। वे कभी साथ न बैठते। पर अब ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि अब उन सबका एकीकरण हो रहा है। मानव का एकीकरण सहजयोग के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह एकीकरण बुद्धि से नहीं आता । यह अन्तर्जात विवेक कि सभी मनुष्य परमात्मा ने बनाएं हैं और किसी से घृणा करने का हमें कोई अधिकार नहीं-से आता है। दूसरा एकीकरण जो आपमें आया है वह है कि सभी धर्म एक की अध्यात्म वृक्ष पर उपजे हैं कि सभी धरमों की पूजा होनी चाहिए । सभी अवतरणों, पैगंबरों और धर्मग्रन्थों की पूजा होनी चाहिए। उन धर्मग्रन्थों की त्रुटियों को सुधारा जा सकता है। शनै: शनै: आप दैवत्व की सूक्ष्मता में प्रवेश करते हैं और समझ लेते हैं कि सहजयोग के लिए वातावरण बनाने को इन लोगों ने बहुत परिश्रम किया है । किसी धर्म की न तो निन्दा होनी चाहिए और न ही उस पर आक्रमण होना चाहिए। इसी प्रकार हम सभी धर्मान्धों को समाप्त कर पायेंगे। बहुत सावधान रहिए। कभी-कभी आप सहजयोग को कट्टर बनाने लगते हैं। 'माँ ने ऐसा कहा' कहकर आप दूसरों पर प्रभुत्व जमाना चाहते हैं। मेरा कहीं भी उपयोग मत कीजिए । आप स्वयं कहिए क्योंकि अब आपको अधिकार है, सहजयोग में आपका एक व्यक्तित्व है। आपको जो भी कहना है स्वयं कहिए। मेरी कही बात के बन्धन में आप नहीं। अब उठकर आपने स्वयं देखना है कि क्या कहें। अब आपने अपनी इच्छा का उपयोग करना है और इसके लिए आपको स्वयं को विकसित करना होगा। अतः अपनी इच्छा पवित्र होनी चाहिए, सर्वशक्तिमान परमात्मा की शुद्ध इच्छा। एकीकरण केवल बाह्य ही नहीं यह आंतरिक भी है। अब से पहले हम जो करते थे उसमें हमारा मन कुछ कहता था, हृदय कुछ और कहता था और मस्तिष्क कुछ और। अब ये तीनों चीजें एक हो गई हैं। अब आपके मस्तिष्क की बात आपके हृदय और चित्त को पूर्णतया स्वीकार होती है। अब आप स्वयं एकीकृत हो गए हैं। बहुत से लोग कहते हैं, 'में ऐसा करना चाहता हूँ पर कर नहीं सकता।' अब ऐसा नहीं 11 है क्योंकि अब आपका पूर्ण एकीकरण हो चुका है। अपना निरीक्षण करके देखिए कि आपका एकीकरण हो गया है या नहीं। जो भी कार्य मैं करता हूँ क्या मैं उसे पूरे चित्त और हृदय के साथ करता हूँ? मैं देखती हूँ कि आप हृदय से कार्य करते हो परन्तु आपका पूरा चित्त वहाँ नहीं होता। सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाले चित्त का पूरा उपयोग नहीं है या फिर एकीकरण अधूरा है । सारे चक्रों का भी एकीकरण हो जाता है। जो भी कुछ आप करते हैं वह शुभ होना चाहिए तथा पूरे चित्त के साथ। यह धार्मिक होना चाहिए। ये पूरे चक्र पूर्णतया एक हैं-संघटित शक्ति, जो आप स्वयं हैं। पूरा जीवन ही संघटित होना चाहिए। किसी का पति या पत्नि यदि उस स्तर के नहीं तो चिन्ता नहीं करनी चाहिए । आप केवल अपनी चिन्ता कीजिए। किसी से भी कोई आशा न रखिए। आपका अपना कर्तव्य ही महत्वपूर्ण है। अपना कर्तव्य कीजिए । आपको स्वयं ही यह करना है, जब तक आप समझ नहीं जाते कि व्यक्तिगत रूप से आपने इसे पूरा प्राप्त किया है। आपने अपने लाभ देखने हैं। 'मुझे आर्थिक, शारीरिक, मानसिक लाभ हुआ। मुझे प्रसन्नता और आनन्द प्राप्त हुआ। केवल इतना नहीं है। केवल यही मापदंड नहीं होना चाहिए। अपने व्यक्तित्व की समझ आपको होनी चाहिए। बहुत से जीवनोपरान्त इस जीवन में इस व्यक्तित्व की रचना विशेष रूप से आपके लिए की जा रही है ताकि इस जीवन में आत्मसाक्षात्कार पाकर परमात्मा की इच्छा के कार्य को आप आगे बढ़ायें । क्षण-क्षण चमत्कार होते देख आप महसूस करते हैं कि परम चैतन्य ही इन्हें कर रहा है। परमचैतन्य आदिशक्ति की इच्छा है और आदिशक्ति परमात्मा की इच्छा है। यह लहरियाँ डी.एन.ए. की तरह हैं। वे जानती हैं कि किस प्रकार कार्य करना है। जैसे आज बहुत धूप है। सभी हैरान हैं। दो दिन पहले हमने हवन किया और धूप निकल आयी। पूरा ब्रह्माण्ड आपके लिए कार्यरत है। अब आप मंच पर हैं और आपने ही इसका ध्यान रखना है। यदि आपमें आत्मविश्वास नहीं है तो आप कैसे सहायता कर सकते हैं? मनुष्य रचित समस्याओं का समाधान तथा अपना संचालन आप कैसे कर सकते हैं ? अत: हम पर पड़े दासत्व को हमें उखाड़ फेंकना है। हिन्दू, मुस्लिम, कैथोलिक, प्रोटेस्टैंट होने के विचारों को हमने खदेड़ देना है। हमें एक नया व्यक्तित्व बनना है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आप कीचड़ में पैदा हुए कमल के समान हो जाते हैं। अब आप कमल बन गए हैं। इस मृत कीचड़ को दूर हटाना होगा अन्यथा इसके अंश रह जाएंगे। आपकी हत्या करने वाले, व्यर्थ के बंधनों को तोड़ दीजिए । सारी रचना अत्यन्त सावधानी, प्रेम और कोमलता से कर दी गई है। अत: हमें अपना सम्मान करना चाहिए । हममें दूसरों के प्रति स्नेह एवं प्रेम होना चाहिए और अनुशासन का होना हमारे लिए सबसे आवश्यक है। मेरे जीवन के विषय में आप सब जानते हैं कि मैं कठिन परिश्रम करती हूँ और आप सबसे कहीं अधिक सफर करती हूँ। इसका कारण यह है कि मुझे परम इच्छा है कि मुझे इस विश्व को आनन्द, प्रसन्नता और देवत्व की उस अवस्था तक लाना है जहाँ मनुष्य जान सके कि उसका लक्ष्य क्या है और उनके पिता (परमात्मा) की क्या गरिमा है। मैं कभी नहीं सोचती कि मुझे कोई कष्ट हो जाएगा या मेरा क्या होगा। मैंने आप लोगों को अपने पारिवारिक जीवन, अपने बच्चों या किसी अन्य के विषय में कभी कष्ट नहीं दिया। अपनी समस्याओं को मैं स्वयं सुलझा रही हूँ। परन्तु सहजयोगी मुझे पारिवारिक समस्याओं के विषय में लम्बे पत्र लिखते हैं। पारिवारिक मोह 12 हमारे सिर पर सबसे बड़ा बोझ है। परिवार आपकी जिम्मेवारी नहीं। यह सर्वशक्तिमान परमात्मा का दायित्व है | क्या आप परमात्मा से अच्छा कर सकते हैं? जब आप दायित्व लेने लगते हैं तभी समस्याएं शुरु होती हैं। निर्लिप्सा को समझना चाहिए। अपनी चीज़ों से, बच्चों से आप चिपके रहते हैं । मोहग्रस्त लोगों को संत कैसे कहा जा सकता है। संत केवल अपनों के लिए ही जिम्मेवार नहीं होते, वे सबके लिए जिम्मेवार होते हैं। सहजयोग में आने से पूर्व आप किसी से लिप्त नहीं । आप स्व-केंद्री थे। अपने को थोड़ा सा विस्तृत कर अब आप अपनी पत्नी और बच्चों से लिप्त हो गए हैं। यह भी स्वार्थ है। वे आपके नहीं परमात्मा के बच्चे हैं | एक महत्वपूर्ण बात जो आपके साथ हुई वह है सहस्रार का खुलना। अब आप पूरे विश्व के सम्मुख परमात्मा का अस्तित्व उसकी इच्छा तथा सभी कुछ प्रमाणित कर सकते हैं। कोई भी सहजयोग को चुनौती नहीं दे सकता। चुनौती देने वाले को समझाया जा सकता है। आपको चाहिए कि सहजयोग को गंभीरता से लें। लोग ध्यान तक नहीं करते। ध्यान के बिना आप कैसे उन्नत होंगे? निर्विचार समाधि में आए बिना आपकी प्रगति नहीं हो सकती। कम से कम सुबह-शाम तो आपको ध्यान करना ही है। बहुत से लोग स्वभाव से ही सामूहिक नहीं हैं। उन्हें आश्रम का जीवन पसन्द नहीं। ऐसे लोगों को सहजयोग से चले जाना चाहिए। सामूहिकता के बिना आप कैसे बढ़ेंगे और कैसे अपनी शक्तियों को एकत्रित करेंगे? सामूहिकता से ही दृढ़ होंगे। एक तिनके को तोड़ा नहीं जा सकता। एक हजार निकम्मे लोगों की अपेक्षा अच्छी प्रकार के दस व्यक्तियों का होना अधिक अच्छा है। आज हमें शपथ लेनी है कि 'मैं अपना जीवन परमात्मा की इच्छानुसार ढालूंगा। पारिवारिक एवं अन्य बंधन न रखूंगा।' परमात्मा की इच्छा सबकी देखभाल कर सकती है। आपको किसी चीज़ की चिन्ता करने की जरूरत नहीं । समझने का प्रयत्न कीजिए कि आपकी समस्याओं का कारण यह है कि आप उन्हें परमात्मा पर नहीं छोड़ना चाहते। कुछ लोग कहते हैं कि उनमें इतनी योग्यता ही नहीं कि वे ऐसा कर सकें। यह मूर्खतापूर्ण वक्तव्य है। स्वयं को परखिए। हम ऐसी बात क्यों कहते हैं? हो सकता है आप धन-लोलुप हों। सहजयोग में कुछ लोग व्यापार की बात करते हैं। हो सकता है भौतिकता से मोह हो । दूसरे यह ममत्व भी हो सकता है-मेरा परिवार, बच्चे आदि। तीसरा, हो सकता है कि आप अभी तक अपनी पुरानी आदतों से चिपके हुए हों और सद्गुणों के बिना ही इनका आनन्द ले रहे हों। आप में सभी कुछ करने की क्षमता है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि आप परमात्मा की इच्छा के उचित, करुणामय और सशक्त वाहन बन जायें। ठीक है कि आप मेरी पूजा करते हैं क्योंकि इससे आपको बहुत लाभ मिलता है। मुख्य बात तो आपका अधिकाधिक गहनता में उतरना है। उच्चावस्था को पाने में एक दूसरे से मुकाबला कीजिए । मुझे विश्वास है कि यह पूर्ण-विज्ञान एक दिन अन्य सब प्रकार के विज्ञान को आच्छादित कर लेगी और अपनी वास्तविकता प्रकट करेगी। यह आपके हाथ में है। आज के दिन का उत्सव हम इसलिए मनाते हैं कि हमने इस दिन परमात्मा के प्रमाण का एक नया महान दैवी आयाम पूर्णतया खोला। यह इतना महत्वपूर्ण है कि हम सारे भ्रमों का अन्त कर सकते हैं। आप सबको अनन्त आशीर्वाद! 13 ही सभी कष्टीं हैं का कारण क्ट शुडी कैम्प, इंग्लैंड, ३१ मई १९९२, अनुवादित (इंग्लिश) स भी धर्म किसी न किसी प्रकार की धर्मान्धता में विलय हो गए क्योंकि किसी को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त न होने के कारण सभी ने अपने ढंग से धर्म की स्थापना कर ली। ताओ और झेन भी इसी की शाखाएं हैं। श्री बुद्ध को लगा कि व्यक्ति को जीवन से आगे कुछ खोजना चाहिए। वे एक राजकुमार थे, उनकी अच्छी पत्नी तथा पुत्र थे और उनकी स्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति अति सन्तुष्ट होता। एक दिन उन्होंने एक रोगी, एक भिखारी तथा एक मृतक को देखा। वे समझ न पाए कि ये सारे कष्ट किस प्रकार | आए। आप में से बहुत लोगों की तरह से वे भी आपने परिवार और सुखमय जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में चल पड़े। सत्य प्राप्ति के लिए उन्होंने सभी उपनिषद तथा अन्य ग्रन्थ पढ़ डाले पर कुछ प्राप्त न कर सके। उन्होंने भोजन त्याग दिया। सभी कुछ त्याग कर जब वे एक बरगद के पेड़ के नीचे रह रहे थे तो आदिशक्ति ने उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया। वे विराट के विशिष्ट अंश बनने वालों में से एक थे इसलिए उन्हें आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हुई। उन्होंने खोज निकाला कि आशा ही सभी कष्टों का कारण है। वे जानते थे कि शुद्ध इच्छा क्या है। इसी | कारण वे लोगों को न बता पाए कि कुण्डलिनी की जागृति के द्वारा ही साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। क्योंकि उन्होंने तपस्वी जीवन बिताया था। अत: बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए तपस्या एक नियम बन गई। बिना भोजन तथा निवास का प्रबन्ध किए श्री बुद्ध अपने साथ कम से कम नंगे पांव चलने वाले एक हजार शिष्य रखा करते थे। उन्हें अपने सिर के बाल मुंडवाने पड़ते थे । सर्दी हो या गर्मी एक ही वस्त्र ओढ़ते थे । उन्हें नाचने गाने या किसी भी प्रकार के मनोरंजन की आज्ञा न थी। जिन गांवो में वे जाते थे वहाँ से भिक्षा मांगकर भोजन एकत्र किया जाता था। वह भिक्षा भोजन अपने गुरु को खिलाने के बाद वे स्वयं खाते थे। चिलचिलाती गर्मी, कीचड़ या वर्षा में वे नंगे पांव चलते थे। परिवार का वे त्याग कर देते थे। यदि पति-पत्नी भी संघ में सम्मिलित हो जाते तो भी पति-पत्नी की तरह रहने की आज्ञा उन्हें न होती थी। व्यक्ति को सभी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक आवश्यकताएं त्यागनी होती थी। बुद्ध धर्मी, चाहे वह सम्राट ही क्यों न हो, यह सबकुछ करता है। सम्राट अशोक भी बुद्ध धर्मी थे। उन्होंने पूर्ण त्यागमय जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न किया। यह अति कठिन जीवन था पर उन्होंने सोचा कि ऐसा जीवनयापन करके वे आत्मसाक्षात्कार को पा लेंगे। श्री बुद्ध के दो शिष्यों को साक्षात्कार मिल सका। पर उनका पूरा जीवन कठोर एवं नीरस था। इसमें कोई मनोरंजन न था। सन्तान तथा परिवार की आज्ञा न थी। यह संघ था पर इस सामूहिकता में कोई तारतम्य न था क्योंकि अधिक बोलने की आज्ञा उन्हें न थी। वे केवल ध्यान धारणा तथा उच्च जीवन प्राप्ति के बारे में बात कर सकते थे। यह प्रथा बहुत से धर्मों में प्रचलित रही। बाद में त्याग के नाम पर गृहस्थों से धन बटोरने लगे। श्री के बुद्ध তি समय भी साधकों को त्याग करना पड़ता था। पर यह उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने का श्री बुद्ध का वास्तविक प्रयत्न था। उन्हें पूर्ण सत्य का ज्ञान दिलाने চি का प्रयत्न था। पर ऐसा न हुआ। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध के अनुयायी भिन्न प्रकार के हास्यास्पद धर्म बनाकर बैठ गए। उदाहरणार्थ जापान में पशुवध की आज्ञा न थी पर मांस खाना निषेध न था। मनुष्य का वध किया जा सकता था। मनुष्य का वध करने में जापानी विशेषज्ञ बन गए। किस प्रकार से लोग बहाने ढूंढ लेते हैं। जब लाओत्से ने ताओ के विषय में उपदेश दिए तो दूसरे प्रकार के बुद्ध धर्म का उदय हुआ। ताओ कुण्डलिनी हैं। लोग न समझ पाए कि वे क्या कह रहे हैं। कठोरता से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने चित्रकला में अपनी अभिव्यक्ति की । इसके 10 बावजूद भी गहनता में न जा सके। यंगत्जे नाम की एक नदी है जहाँ सुन्दर पर्वत तथा झरनों के कारण हर पांच मिनट में दृश्य परिवर्तित हो जाता है। कहा गया है कि इन बाह्य आकर्षणों की ओर अपने चित्त को न भटकने दें। उन्हें देखकर हमें चल देना चाहिए। ताओ के साथ भी ऐसा ही है । वे कला की ओर झुक गए। मूलत: बुद्ध ने कभी भी कला के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने कहा कि अन्तर्दर्शन द्वारा अपने अन्तस की गहराईयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। अत: सभी कुछ पथ भ्रष्ट हो जाएगा। তি झेन प्रणाली, जो जापान में शुरू हुई, ये भी कुण्डलिनी मिश्रित है । इस प्रणाली में वे पीठ पर रीढ़ की हड्डी तथा चक्रों पर चोट मार कर कुण्डलिनी जागृत कुण्डलिनी जागृति की कठोर विधियाँ खोज निकाली गई। यह कठोरता इस सीमा तक गई कि लोगों की रीढ़ की हड्डी तक टूट जाती है। टूटी रीढ़ में कुण्डलिनी कभी नहीं उठेगी। मैं विदित्म झेन प्रणाली के मुखिया से मिली। वह बहुत करने का प्रयत्न करते हैं। झेन प्रणाली में बीमार था तथा उसे रोग मुक्त करने के लिए मुझे बुलाया गया। मैंने पाया कि চি वह तो आत्मसाक्षात्कारी था ही नहीं और न ही उसे कुण्डलिनी के बारे में कुछ पता था। मैंने उससे पूछा कि, 'झेन क्या है?' इसका अर्थ है ध्यान । झेन के बारे में वह इतना भ्रमित था । कई शताब्दियों में उनमें कोई साक्षात्कारी न हुआ। आप कल्पना कीजिए कि कितने सहज में, बिना किसी बलिदान, तपस्या या त्याग के आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ! बुद्ध, ईसा और महावीर आज्ञा चक्र पर विराजित हैं। आज्ञा चक्र पर तप है। तप का अर्थ है तपस्या। सहजयोग में तपस्या का अर्थ है ध्यान 16 -अन्तशन द्वार 8पने न्तस की गहराईयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। धारणा। आपको पता होना चाहिए कि ध्यान धारणा के लिए कब उठना है। सहजयोगी के लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है। बाकी सभी कार्य स्वतः हो जाते हैं। गहनता में उतरने के लिए आपको ध्यान धारणा करनी होगी। आपको सिर नहीं मुंडवाना, नंगे पांव नहीं चलना, भूखे नहीं रहना और न ही गृहस्थ जीवन का त्याग करना है। आप नाच, गा और मनोरंजन कर सकते हैं। बुद्ध का अर्थ है 'बोध' अर्थात सत्य को अपने मध्य नाड़ी तंत्र पर जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए बुद्ध बन गए हैं क्योंकि उनका त्याग करना तो मूर्खता थी। यह सब मिथ्या था। संगीत से या नृत्य से क्या अन्तर पड़ता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु ये विचार उनमें इतने गहन हो गए कि आपको उन पर दया आती है। वे खाना नहीं खाते थे , भूखे रहकर वे तपेदिक के रोगियों से भी बुरे प्रतीत होते हैं। जबकि आप लोग सुन्दरतापूर्वक जीवन का आनन्द ले रहे हैं तथा गुलाब की तरह खिले हुए हैं। फिर भी श्री बुद्ध का वह तत्व हमारे अन्दर होना चाहिए अर्थात् हमें तप करना चाहिए। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप भूखे रहें। परन्तु यदि आपको अधिक खाना अच्छा लगता हो तो कम खाना खाने लगें। मोक्ष, जागृति एवं उत्थान के लिए बने संगीत का आनन्द लें। हम बंधनों में इतना जकड़े हैं कि लोग ये भी नहीं समझ पाते कि आत्मा क्या है। परमात्मा के असीम प्रेम की हुए अभिव्यक्ति ही आत्मा है। अब भी हममें से बन्धन कार्यरत हैं। आपमें से को अपनी बहुत कुछ राष्ट्रीयता पर बहुत गर्व है। दूसरे लोगों के साथ हम घुल-मिल नहीं सकते। दूसरे लोगों के मुकाबले स्वयं को बहुत ऊंचा समझते हैं। अब आप सर्वव्यापक व्यक्ति हैं। अत: आपमें यह मूर्खतापूर्ण मिथ्या सीमाएं कैसे हो सकती हैं। आपके अन्दर ज्योति है और आप जानते हैं कि इस प्रकाश को बाहर फैलाने की आवश्यकता है। यदि अब भी आप इसे फैलाने में असमर्थ हैं तो जान लीजिए कि आपको अभी और शक्ति की आवश्यकता है। यह सीखना आपके लिए आवश्यक है कि किस प्रकार अपनी कुण्डलिनी चढ़ाकर हर समय परमात्मा की शक्ति से जुड़े रहें ताकि निर्विचार समाधि में रहते हुए आप अपने अन्दर गहनता में बढ़े। 'मेरा' शब्द का शक्तिशाली बन्धन मुझे अब भी सहजयोगियों में मिलता है। पहले पश्चिमी देशों के लोग अपने परिवार, पत्नियों तथा बच्चों की चिन्ता न किया करते थे। अब मुझे लगता है कि वे गोंद की तरह इनसे चिपक जाते हैं। पति, बच्चे और घर बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। बच्चे संघ के | (सामूहिकता के) हैं। आप मत सोचे कि यह आपका बच्चा है। ऐसा सोचकर आप अपने को सीमित करते हैं और समस्याओं में फंसते हैं। हर देश की समस्याएं कम हो रही हैं। हमें जातीयता पसन्द नहीं है। भारतीय सहजयोगी चाहते हैं कि जाति प्रथा समाप्त हो जाए। क्योंकि यह प्रथा आत्मविनाशक है। अत: हम अपने अन्दर ही देखने लगते हैं कि मेरे लिए, मेरे परिवार के लिए, देश के लिए तथा पूरे विश्व के लिए घातक क्या है। आपके रचनात्मक जीवन के ठीक विपरीत इन सब दुःस्साहसिक कार्यों को आप समझने लगते हैं और इन्हें रोक सकते हैं। यह तभी संभव है जब आप अन्तर्दर्शन तथा समर्पण करने का प्रयत्न करें और देखें कि क्या आपमें वह गुण हैं? अब कुण्डलिनी ने आपके सभी सुन्दर गुणों को जागृत कर दिया है। ये सारे गुण आपमें सही- सलामत थे । जागृत होते हुए कुण्डलिनी 17 ने इन सभी गुणों को भी जागृत कर दिया है। सहजयोग इतना बहुमुल्य है कि मानव को बहुत पहले से इसका ज्ञान हो जाना चाहिए था। यह केवल परमात्मा के बारे में बात करना या मात्र यह कहना ही नहीं कि आपके अन्दर देवत्व निहित है। यह तो इनकी प्रभावकारिता है। आपको किसी विज्ञान की आवश्यकता नहीं। जब भी आपको कोई समस्या हो तो एक बन्धन दे दीजिए। यह इतना सुगम है। विज्ञान से होने वाले हर कार्य को आप सहजयोग से कर सकते हैं। हम कम्प्यूटर भी हैं। आपको मात्र अपनी गहनता को विकसित करना होगा। आप सब ठीक रास्ते पर हैं। हमें इस विनाशकारी आधुनिक विज्ञान की आवश्यकता नहीं। आपमें आत्मसम्मान का होना आवश्यक है। आपको समझना है कि आप एक सहजयोगी हैं और आपको वह अवस्था प्राप्त करनी है जहाँ आपमें वह सबकुछ करने का सामर्थ्य हो जो विज्ञान कर सकता है। आप सब शक्तियों के अवतार बन जाइए। कुछ लोग आकर कहते हैं, 'श्री माताजी, हम अपना हृदय नहीं खोल सकते।' क्या आप करुणा का अनुभव नहीं कर सकते ? मैंने देखा है कि लोगों का हदय कुत्ते-बिल्लियों के लिए तो खुला होता है पर अपने बच्चों के लिए नहीं । यही वह स्थान है जहाँ आत्मा का निवास है और जहाँ से यह अपना प्रकाश फैलाती है। यही वह प्रथम स्थान है जहाँ प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति का प्रकाश आप देख पाते हैं। हो सकता है आपमें केवल अहं हो, आत्मसम्मान न हो और इसी कारण आप हृदय को न खोल पाते हों। श्री बुद्ध अहं का नाश करने वाले हैं । हमारी पिंगला नाड़ी पर विचरण करते वे हमारे बायीं ओर बस जाते हैं। हमारे अहं को वे सम्भालते हैं और हुए हमारी दायीं ओर की पूर्ति करते हैं। दायीं ओर को झुका व्यक्ति न कभी हंसता है ति न मुस्कुराता है। परन्तु बुद्ध को मांसल (मोटा) तथा हंसता हुआ दिखाया गया है। हंसने मात्र से वे दायीं ओर को सम्भालते हैं। वे अपना मजाक उड़ाते हैं और सारा ड्रामा देखते हैं। अपनी ज्योतिर्मय चेतना से सारी मूर्खता को देखिए तथा इसका आनन्द लीजिए। जैसे एलिजाबैथ टेलर को विवाह करके हनिमून पर जाते देखकर ऐसे अशुभ व्यक्ति पर, मोहित होने के स्थान पर उसकी मूर्खता को देखें। वस्तुओं के प्रति आपकी प्रक्रिया आपके चित्त की अवस्था पर निर्भर তि करती है। यदि यह कोई दैवी वस्तु है तो आपका चित्त भाव-विभोर होना चाहिए। परन्तु यदि यह कोई मूर्खतापूर्ण या हास्यास्पद चीज़ है तो आप इसके तत्व को देख सकते हैं। अपने चित्त से आप सत्य से संबंधित हर चीज़ के तत्व 18 -छप एक अहजयोी है र पको वह 8वस्था प्राप्त करनी है जहाँ आपमे वह सबकछ कने का आम्य हो जो विज्ञान कर अकता है। को देखें। सत्य की तुलना में यह मूर्खतापूर्ण या मिथ्या या पाखण्ड हो सकती है। पर यदि आप सहजयोगी हैं तो आपमें यह बात देखकर उसका आनन्द लेने की योग्यता होनी चाहिए। एक आयु तक बच्चे ऐसा करते हैं। आपकी प्रक्रिया आपके प्रकाशित चित्त पर निर्भर करती है। एक प्रकाशित चित्त किसी मूर्ख, भ्रमित तथा नकारात्मक चित्त से भिन्न प्रक्रिया करता है। जो हम हैं उसे स्वीकार करना चाहिए और हम, आत्मा है। श्री बुद्ध की चार बातें आप सबको प्रात:काल कहनी चाहिए। प्रथम - 'बुद्धं शरणम् गच्छामि: अर्थात मैं स्वयं को अपने प्रकाशित चित्त के प्रति समर्पित करता हूँ। फिर उन्होंने कहा, 'धम्मं शरणम् गच्छामिः' अर्थात् मैं स्वयं को धर्म के प्रति समर्पित करता हूँ। यह कोई मिथ्या धर्म नहीं जो विकृत हो गए। इसका अर्थ है कि मैं स्वयं को अपने अन्तर्जात धर्म (धर्मपरायणता) के प्रति समर्पित करता हूँ। तीसरी बात जो उन्होंने कही, 'संघं शरणम् गच्छामि:' अर्थात् मैं स्वयं को सामूहिकता के प्रति समर्पित करता हूँ। पिकनिक आदि के बहाने आप कम से कम महीने में एक बार मिलें आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। लघु-ब्रह्माण्ड विशाल ब्रह्माण्ड बन गया है। आप विराट के अंग-प्रत्यंग हैं। इस बात का ज्ञान आपको होना चाहिए इस प्रकार कार्य होते हैं तथा हम नकारात्मक तथा सकारात्मक, अहंकारी तथा नम्र व्यक्तियों को पहचान सकते हैं। हम वास्तविक सहजयोगियों को तथा सहजयोगी कहलाने वाले व्यक्तियों को पहचान सकते हैं तथा मिथ्या लोगों को त्याग देते हैं। सामूहिक हुए बिना आप सामूहिकता के महत्व को कभी नहीं समज सकते । सामूहिकता आपको इतनी शक्तियाँ, इतनी सन्तुष्टि और आनन्द प्रदान करती है कि व्यक्ति को सहजयोग में सामूहिकता पर सर्वप्रथम ध्यान देना चाहिए। किसी चीज़ की कमी हो, तो भी आप बस, सामूहिक हो जाइए। सामूहिकता में आपको अन्य किसी की भी आलोचना नहीं करनी चाहिए, न उनको गाली देनी चाहिए और न उनके दोष देखने चाहिए। अन्तर्दर्शन कीजिए कि जब सभी लोग आनन्द ले रहे हैं तो मैं ही क्यों बैठकर दूसरों के दोष खोज रहा हूँ। यदि आप दूसरों के स्थान पर अपने दोष खोजने पर चित्त लगा दें तो मुझे विश्वास है कि आप कहीं अधिक सामूहिक हो जाएंगे। सहजयोग अति व्यावहारिक है क्योंकि यह पूर्ण सत्य है। अत: अपनी सारी शक्तियाँ सूझ -बूझ और करुणामय प्रेम के साथ आपको अपने विषय में आश्वस्त होना है और जानना है कि हर समय परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति उन्नत होने में आपकी सहायता, रक्षा, मार्गदर्शन, पोषण तथा देखभाल कर रही है। परमात्मा आप पर कृपा करें। 19 टर यमुनानगर, ४ अप्रैल १९९२ ह में सरस्वती की भी आराधना करनी चाहिए। सरस्वती का कार्य बड़ा महान है। महासरस्वती ने पहले सारा अंतरिक्ष बनाया। इसमें पृथ्वी तत्व विशेष है। पृथ्वी तत्व को इस तरह से सूर्य और चन्द्रमा के बीच में लाकर खड़ा कर दिया कि वहाँ पर कोई सी भी जीवन्त क्रिया आसानी से हो सकती है। इस जीवन्त क्रिया से धीरे-धीरे मनुष्य भी उत्पन्न हुआ। परन्तु हमें अपनी बहुत बड़ी शक्ति को जान लेना चाहिए। वो शक्ति है जिसे हम सृजन शक्ति कहते हैं, क्रिएटिविटी कहते हैं। यह सृजन शक्ति सरस्वती का आशीर्वाद है जिसके द्वारा अनेक कलाएं उत्पन्न हुई। कला का प्राद््भाव सरस्वती के ही आशीर्वाद से है। मुझे बड़ा आनन्द हुआ कि आज सरस्वती का पूजन एक कॉलेज में हा रहा है। इसके आसपास भी कई स्कूल-कॉलेज हैं। मानो जैसे यह जगह विशेषकर सरस्वती की पूजा के लिए ही बनी है। हमारे बच्चे स्कूलों में विद्यार्जन कर रहे हैं। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि बिना आत्मा को प्राप्त किए हम जो भी विद्या पा रहे हैं वो सारी अविद्या है । बिना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किए आप चाहे साइंस पढ़े या अर्थशास्त्र, उसे न तो आप पूरी तरह समझ सकते हैं और न ही उसको अपनी सृजन शक्ति में ला सकते हैं। बच्चे दो प्रकार के होते हैं एक तो पढ़ने के शौकीन होते हैं और दूसरे जिन्हें पढ़ने का शौक नहीं होता। कुछ बच्चों के पास कम बुद्धि होती है और कुछ के पास अधिक। बुद्धि भी सरस्वती की देन है लेकिन आत्मा से मनुष्य में सुबुद्धि आ जाती है। बुद्धि से पाया हुआ ज्ञान जब तक आप सुबुद्धि पर नहीं तोलिएगा तो वह ज्ञान हानिकारक हो जाता है। इसलिए बहुत से लोग सोचते हैं कि पढ़ाने लिखाने से बच्चे बेकार हो जाएंगे, सफेदपोश होकर फिर खेती नहीं करेंगे। बस अपने को कुछ विशेष समझकर के और इसी बहकावे में रहेंगे। किन्तु आत्मसाक्षात्कार को पाकर जो विद्यार्जन होता है उसमें बराबर नीर-क्षीर विवेक आ जाता है। वे समझ लेते हैं कि कौनसी चीज़ अच्छी है और कौनसी बुरी है। कौनसी चीज़ सीखनी चाहिए और कौनसी चीज़ नहीं सीखनी चाहिए। उससे पहले कोई मर्यादाएं नहीं होती। मनुष्य किसी भी रास्ते पर जा सकता है और किसी भी ओर मुड़ सकता है और कोई भी बुरे काम कर सकता है। आजकल आप जानते हैं कि छोटे बच्चों में बहुत सारी बुराइयाँ आने की संभावना है और बड़ों में तो हो ही रहा है कि ड्रग्स आ गए और दुनिया भर की गंदी बातें बच्चे सीख रहे हैं और परेशानी में फंस गए हैं। ये सब चीज़ों का इलाज एक ही तरीके से हो सकता है कि इनके अन्दर आप आत्मा का साक्षात्कार करें। आत्मा का साक्षात्कार मिलने से ही सरस्वती की भी चमक आपकी बुद्धि में आ जाती है और जो बच्चे पढ़ने लिखने में कमजोर होते हैं वो भी बहुत अच्छा कार्य करने लग जाते हैं। इसके बाद कला की उत्पत्ति होती है अगर आप कला को बगैर आत्मसाक्षात्कार के ही अपनाना चाहें तो वह कला अधूरी रह जाती है या वो बेमर्यादा कहीं ऐसी जगह टकराती है कि जहाँ उसकी कला का 22 नामोनिशान नहीं रह जाता। तो पहले आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करके ही सरस्वती का पूजन है। करना एक बड़ी शुभ बात ह आज का दिन, आप जानते हैं, नवरात्रि का पहला दिन है और इस दिन भी जो शालीवाहन का शक है उसका भी आज पहला दिन है। मतलब बहुत ही शुभ दिवस पर ये कार्य हो रहा है। तो हमें सरस्वती के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए। मैं देखती हूँ कि जहाँ-जहाँ लोग खेती करते हैं वहाँ-वहाँ धीरे-धीरे उनका संबंध प्रकृति से होता है और प्रकृति की जो खुबसूरती है उसे वो प्रकट करना चाहते हैं । जो कलाकार होता है वो भी प्रकृति की खूबसूरती को देखकर हुबहू उस तरह से न बना उसमें अपनी भावना डालकर उसे एक नया रूप दे देता है। आपने ये जो सब बनाया हुआ है कितना कलात्मक है। कितनी सुन्दरता से चक्र बनाए फिर श्री गणेश को बनाया है-सबकुछ देखते ही बनता है। जब आप कला को पाने लग जाएंगे और जब आप कला की संवेदना समझ शुभ लेंगे तब आप कलात्मक चीज़ों की ही ओर रहेंगे। बहुत सी चीजें लोग बनाते हैं, पर कुछ चीज़ें | ऐसी बनती है जिसमें स्वयं चैतन्य बहता है। ऐसे तो पृथ्वी तत्व से ही बहुत से स्वयंभू निकल आए हैं लेकिन अगर आत्मसाक्षात्कारी मनुष्य कोई पुतला बनाता है या कोई कलात्मक चीज़ बनाता है में तो उसमें से भी चैतन्य आने लग जाता है। सुन्दर होने के साथ-साथ ऐसी कृति एक तरह की अनन्त शक्ति होती है । किसी साधारण कलाकार की बनाई कला शीघ्र समाप्त हो जाती है। उसके | प्रति न तो लोगों की आस्था होती है और न ही श्रद्धा लेकिन अगर कोई कलाकार आत्मसाक्षात्कारी हो तो उसकी कला अनन्त तक चलती है क्योंकि उसके अन्दर अनन्त की शक्ति निहित होती है क्योंकि उसने जो कुछ भी बनाया वो आत्मा की अनुभूति से बनाया है, जो आत्मा को रुचिकर है जो आत्मा पसंद करे ऐसी चीज़ वह बनाता है। कलात्मकता इस तरह से मनुष्य में बहुत सुन्दरता से पनपती है और ऐसी जितनी भी कला की चीज़ें बनती हैं वो हमेशा के लिए संसार में मानी जाती हैं। हिन्दुस्तान से बाहर भी मैंने देखा कि जो कलाकार आत्मसाक्षात्कारी थे उनकी कला आज तक लोग मानते हैं। एक माइकल एन्जेलो नाम के बड़े भारी कलाकार थे। बहुत सुन्दर उन्होंने रचना की। बहुत सुन्दर सब कुछ बनाया। आज तक लोग उसे एक बड़े ही गौरव के साथ समझते हैं। आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति की कला अनन्त की शक्ति से प्लावित होती है। तो आप लोग भी आत्मसाक्षात्कारी हो गए हैं। हरियाणा में इतने लोग आत्मसाक्षात्कारी हो गए और अब और भी बहुत सारे लोग आएंगे, वो भी आपके ही जैसे एक दिन सहजयोगी हो जाएंगे और समझ जाएंगे कि सहजयोग क्या है। किन्तु जब लोग सहजयोग में तो आ गए तो अब आप कला की ओर अपनी दृष्टि बढ़ायें। कला की ओर दृष्टि बढ़ाने से एक जीवन में सौन्दर्य आ जाता है और जीवन का रहन-सहन सुन्दर हो जाता है। उसके लिए जरुरी 23 चीज़ों में चैतन्य बहती है। मशीनों का हाथ से बनी हुई ईसकी इलाज ही यह है कि जब लोग कलात्मक चीज़ों की ओर बढ़ेंगे नहीं कि आप बहुत रुपया-पैसा खर्च करें। मिट्टी में भी कला भरी है। आप मिट्टी की भी कोई चीज़ बनायें तो भी वह कलात्मक हो सकती है। हमारे उबड़-खाबड़ जीवन में यदि थोड़ी सी कला की झलक आ जाए तो बड़ा सुख और आनन्द मिलता है। इसलिए आप लोगों की दृष्टि अब कला की ओर जाए तो बड़ा अच्छा हो जाए सभी लोगों के लिए। यहाँ के लोग भी कुछ कलात्मक चीजे बनाने का प्रयत्न करें । हाथ से बनी हुई चीज़ों में चैतन्य बहुता है। मशीनों का अत्याधिक प्रयोग करने से ही वातावरण दृषित हो गया है। इसका इलाज ही यह है कि आप कलात्मक चीज़ों की ओर बढ़ें। जब लोग कलात्मक चीज़ों की ओर बढ़ेंगे तो एक तरह की श्रद्धा कला के प्रति हो जाएगी। सबसे बड़ी बात तो है कि हम हजारों चीजें जो बेकार की खरीदते हैं वो बंद हो जाएंगी। हाथ से बनी चीज़ों के द्वारा अपने हृदय का आनन्द हम दसरों को समर्पित करते हैं। ये फूल आपने इतने कलात्मक ढंग से लगाए हैं। इनकी ओर देखते ही हठात मैं निर्विचार हो जाती हूँ। मुझे अन्दर कोई विचार नहीं आता निव्व्याज्य निर्विचार होकर के सच में इसे देख रही हूँ। इसको बनाने में जिसने जो कुछ भी आनन्द इसमें डाला है वो पूरा का पूरा मेरे सर से ऐसे बह रहा है जैसे गंगा जी बह रही हैं। उससे एकदम बहुत शान्त और आनन्दमयी भावना आ जाती है। जब तक कलात्मक चीज़ें नहीं होंगी तब तक आपका विचार चलता रहेगा। कलात्मक चीज़ हठात आपको निर्विचारिता में उतारेगी और उसका सौन्दर्य देखते ही आपको ऐसा लगेगा कि आप निर्विचार हैं क्योंकि सौन्दर्य देखने से ही चैतन्य एकदम बहने लगता है और उस सौन्दर्य के कारण ही एकदम से आप निर्विचार हो जाते हैं। इसलिए आदिशंकराचार्य ने इसे सौन्दर्य लहरी कहा । अब यह सोचना है कि किस तरह से यह सौन्दर्य स्थापित हो। सबसे पहले सौन्दर्य में हमेशा वैचित्र्य होना चाहिए, वैराइटी होनी चाहिए। परमात्मा ने यदि सबकी शक्ल एक सी बनायी होती तो कैसे लगते हम लोग? सभी लोग अलग-अलग प्रकार के कपड़े पहनते हैं। हमारे देश की सभी स्त्रियां अलग ढंग, रंगों की साडियां पहनती हैं। यह वैचित्र्य केवल हमारे देश में ही मिलता है। विकसित देशों की औरतें तो गुलामों की तरह एक ही प्रकार के फैशन करती हैं। एक ही प्रकार के बाल बनवाती हैं। उनमें कोई फर्क ही नहीं प्रतीत होता। उनके अन्दर जो आत्मा है वह दबी हुई है। उनमें न वैचित्र्य है और न ही सृजन शक्ति। अब कला का भी यही हाल हो गया है। विदेशों में अच्छी कला कृतियां अधिक नहीं निकलतीं। केवल आलोचक ही रह गए हैं। आलोचक दूसरे आलोचकों की आलोचना में लगा है। अब कलाकार भी डरते हैं क्योंकि कोई सी भी कला बनाओ तो वह क्रिटिक बैठे हुए उनको पहले पड़तालेंगे कि यह ठीक है या नहीं। और दूसरी बात यह बताएंगे कि इसका पैसा कितना मिल सकता है। जब कला पैसे पर उतर आती है तब उसकी आत्मा ही खत्म हो जाती है। कला आनंदमयी होनी चाहिए न कि उससे कितना पैसा मिले। 24 अत्याधिक प्रयोग करने से ही वातावरण दषित हो गया हैं । आप कलात्मक चीजों की ओर बढें| ती एक तरहे की श्रद्धी केला के प्रति हो जाएगी। जब आपकी यह धारणा और लक्ष्य हो जाएगा तो स्वयं आत्मा ही आपको ऐसी प्रेरणा देगा कि आप ऐसी- ऐसी सुन्दर चीज़ें बनायेंगे जो भूतो न भविष्याति, पहले कभी बनी नहीं और न बनेगी। एक से एक कलात्मक चीज़ लोग बनायेंगे और शांत प्रकृति गांवों के लोग इस प्रकार की रचना कर सकते हैं। शान्तिमय, ध्यानावस्था में रहे होनी बिना कला सृजन अधूरा रह जाता है या मर्यादा विहीन। आपको कला का तंत्र तथा तकनीक मालूम चाहिए। जब आपको आत्मसाक्षात्कार होता है तभी आपकी सृजन कला बढ़ जाती है। हमने देखा है सहजयोग में आने के बाद बहुत सारे संगीतकार जगप्रसिद्ध हो गए । गणित जानने वाले चार्टेड अर्कौंटंट कवि हो गए। उन्होंने पहले कभी कविता नहीं लिखी। इसी प्रकार जो कभी स्टेज पर नहीं आए वो बड़े-बड़े भाषण दे रहे हैं, जिन्होंने गाना कभी गाया नहीं था वो बहुत सुन्दर गाना गाने लग गए। आस्ट्रेलिया में एक सहजयोगिनी बहुत सर्वसाधारण एक कलाकार थी लेकिन आज उसका सारी दुनिया में नाम फैल गया है। इस प्रकार जब आप पर सरस्वती जी की कृपा होती है तो आप कलाकार बन जाते हैं लेकिन आप आत्साक्षात्कारी कलाकार हो जाते हैं। जब आप आत्मसाक्षात्कारी कलाकार हो जाते हैं तब आपका सारा ही व्यक्तित्व बदल जाता है और जो भी सृजन आप करते हैं उसमें वो शक्ति, जिसे मैं अनन्त की शक्ति कहती हैं, वह समाहित होती है और ऐसी बनाई हुई चीजें, ऐसी क्रिया से जिसने कोई सा भी कार्य सम्पन्न किया हो, उसकी कीमत आंगी ही नहीं जा सकती और अनन्त तक उसकी सौन्दर्य शक्ति प्रदर्शित होती रहती है। चाहे वह कलाकार की मृत्यु को हजारों वर्ष हो जाए तो भी लोग उस कला को देखकर के कहते हैं कितनी सुन्दर चीज़ है। सहजयोगियों के लिए बहुत जरुरी है कि वह कला में उतरें और कला को समझें। आपके साथ सरस्वती की कृपा हमेशा बनी रहे। विशेषकर के आज जो आप आत्मसाक्षात्कारी हुए हैं ये तो और भी अच्छी बात है कि आत्मसाक्षात्कार के बाद अगर कला ली जाए तो बहुत ही सुघड़ और बहुत ही सहज हाथ में लग जाती है। जैसे हमारे स्कूलों में परदेश से बच्चे आए इन्होंने कभी कुछ सीखा नहीं था, इन्हें कुछ पता नहीं था। एकदम सीधे- सीधे चले आए और अब जबसे इनको आत्मसाक्षात्कार मिला है एकदम से ही वो इस कदर बढ़िया सीख गए। एक तो हिन्दी भाषा सीख गए, फिर अब बहुत सुन्दर चित्रकारी करते हैं, फिर अब मिट्टी के बर्तन बनाना शुरू किया। अब उनको लगता है अब क्या बनायें। फिर इन्होंने एक घर बनाया फिर उसके ऊपर माड़ी बनायी और तरह-तरह की चीज़ें वो बनाने में लगे हैं। ऐसी जो अन्दर से प्रेरणा आती है वह भी सहजयोग की वजह से हुए और इस प्रेरणा को पूरित करने वाली शक्ति भी सहजयोग से आ जाती है| आप सबको अनन्त आशीर्वाद! 25 ढ। ै ् स २ শশা त्ণ सदा याद रखें कि प्रेम की दिव्य शक्ति के सम्मूख सारा असत्य लड़खड़ी जाती हैं। आसुरी शक्ति कुछ समय के लिए रह सकती है परन्तु अन्ततः उनकी पतन ही जीएगी| काठमण्डु, ९-०४-९५ 26 ७ सं. चार बनाये रखने के लक्ष्य से मैं लीडर बनाती हूँ, अन्यथा अगुआगणों में कोई विशेष बात नहीं है। परन्तु कोई भी मुझसे उनके विषय में शिकायत नहीं करे। उनके बारे में मैं सब कुछ जानती हूँ और उन्हें सुधारना भी मुझे आता है। अगुआओं को चाहिए कि केंद्रों में भाषण न दें। वे केवल मेरे टेप चला दें और इस बात का ध्यान रखें कि लोगों को चैतन्य लहरियां मिल रही हैं कि नहीं। अपना प्रभाव जमाने का वे प्रयत्न न करें, अत्यन्त नम्रता से पीछे रहते हुए अन्य लोगों की शान्तिपूर्वक सहायता करते रहें। आपको देख कर ही लोग सहजयोग में आयेंगे। सहजयोगियों को मेरे साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहिए, अगुआओं के साथ नहीं। आपकी सारी समस्यायें चक्र-विकारों के कारण आती हैं। चक्रों के ठीक होते ही समस्यायें समाप्त हो जाती हैं। नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियों में सदा युद्ध चलता रहता है। आन्तरिक नम्रता का होना आवश्यक है, इसके बिना आप सहजयोग समुद्र में खो जाएंगे । परन्तु यह नम्रता अन्दर से आनी चाहिए। आत्म निरीक्षण करें कि, 'मुझमें क्या कमी है। अपने देश का यदि आप हित चाहते हैं तो देश, जाति आदि से लिप्त न हों। लोगों का संवेदनशील हुए बिना सहजयोग बढ़ नहीं सकता। नये लोगों के प्रति करुणामय बनें। उन्हें ये न बतायें कि वे पकड़े हुए हैं। अपनी करुणा को दर्शायें। उन्हें बतायें कि 'मैं भी इन्हीं समस्याओं में से निकला हूँ, मैं भी आप ही जैसा था।' तभी वे आपके साथ में तादात्म्य स्थापित कर सकेंगे। यदि उन्होंने गहनता प्राप्त कर ली है तो ६ महिनों के बाद वे पूजा सम्मलित हो सकते हैं। उन्हें पूजा के नियमाचरणों के विषय में बताएं। केंद्र में शान्ति और व्यवस्था करने वालों में मेल-मिलाप का वातावरण होना चाहिए। लोग आपसे शान्ति प्राप्त करें। धन सम्बन्धी मामलों की बातचीत न करें। सदा याद रखें कि प्रेम की दिव्य शक्ति के सम्मुख सारा असत्य लड़खड़ा जाता है। आसुरी शक्ति कुछ समय के लिए रह सकती है परन्तु अन्तत: उनका पतन हो जाएगा। यह सब मेरा कार्य है, मुझे पर छोड़ दें। 27 ढूल्हों. को यहाँ एक प्रकार का पावन सम्बन्ध है जिसमें आपको अपनी पत्नी के साथ अत्यन्त सहज जीवन गुजारना होता है और उसे समझना होता है। उपदेश अ प सबको यहाँ देखकर मैं बहत प्रसन्न हूँ। आप सबको विदित होना चाहिए कि सहजयोग में विवाह करने के पश्चात् आपको एक भिन्न प्रकार का जीवन व्यतीत करना होगा। अन्य विवाहों तथा सहजयोग विवाहों में काफी अन्तर है। सहज विवाह में हमें समझना होता है कि यहाँ एक प्रकार का पावन सम्बन्ध है जिसमें आपको अपनी पत्नी के साथ अत्यन्त सहज जीवन गुजारना होता है और उसे समझना होता है। वह भी सहजयोगिनी है इसलिए आवश्यक है कि आप उसका सम्मान करें और उसे प्रेम करें। वह समझ सके कि आप उसके हितचिन्तक, प्रेममय एवं भद्र पति हैं। उसके प्रति आपको अपना पूर्ण प्रेम दर्शाना होगा क्योंकि वह सहजयोगिनी है, सर्वसाधारण महिला नहीं । इस सम्मान के साथ मुझे आशा है कि आप लोग अत्यन्त सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत करेंगे । सहजयोग में जैसा होता है, हम परस्पर आलोचना नहीं करते। अत: क्षमा करना या किसी को बर्दाश्त करना उससे कष्ट सहना नहीं होता। आप क्षमा इसलिए करते हैं क्योंकि आप सहजयोगी हैं, श्रेष्ठ मानव हैं। अत: अपनी पत्नी में दोष निकालने का प्रयत्न न करें और न ही हर समय उसे आदेश देते रहें-ऐसा करो, वैसा करो, उसका हाथ बटाएं। सहजयोग में हम नहीं मानते कि किसी को दूसरे व्यक्ति पर रौब जमाने का अधिकार है। अतः आपको चाहिए उसकी सहायता करें, उसको समझें और समस्याओं में उसके सहभागी बनें। उसके लिए कठिनाइयाँ खड़ी करने के स्थान पर उसकी सहायता करें। वह आपकी साथी है, दास नहीं, न वो आपकी नौकर है और न ही आप उसके स्वामी। अत: सहजयोगियों में ये दुर्गुण नहीं होने चाहिए। एक दूसरे को समझना सर्वोत्तम है। उसके हृदय को भी समझने का प्रयत्न करें। कभी - कभी महिलाएं भिन्न संस्कृतियों और देशों से होती हैं इसलिए समझने का प्रयत्न करें । इसी प्रकार उसके देश की संस्कृति को आप समझ पाएंगे। पत्नी का सम्मान किया जाना बच्चों के लिए भी हितकर है। पत्नी के विषय में आपकी कुछ विशेष धारणाएं नहीं होनी चाहिए जो भी धारणाएं (बन्धन) अब तक आपने बनाए हुए थे या जो आपने समाज में देखे थे उन्हें भूल जाएं। आप बिल्कुल भिन्न लोग हैं। सहजयोग के कार्य के लिए आप चुने गए हैं। यह बात भली-भांति समझ लें कि जिस लड़की से आपका विवाह होने वाला है और जो आपकी देखभाल करेगी वह सहजयोगिनी है । मैं उन्हें भी बताऊंगी कि उन्हें क्या करना है। पत्नी को परेशान करने के लिए पौरुषिक रौब अपने अन्दर न रखें और स्वयं को परिवार का मुखिया मानकर पत्नी को परेशान न करें। उसके सहभागी बनें, सहभागी बन जाने पर उसे समझने और उसकी सहायता करने में आपको आनन्द मिलेगा । मुझे आशा है आपके विवाह अत्यन्त सफल होंगे और आपको अत्यन्त सुन्दर, मधुर और जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी सन्तानें प्राप्त होंगी। मुझे विश्वास है, कि आपका आने वाला जीवन अत्यन्त सुखमय होगा। अत: अपनी पत्नी को प्रसन्न करते हुए सभी लोगों को सुख देते हुए हर चीज़ को सहज ढंग से देखते हुए आनन्दमय जीवन के लिए प्रस्थान करें। परमात्मा आपको धन्य करें। दिल्ली , २३ मार्च २००० 29 संहसार स्वामिनी नि रम सहसार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह ने केवल सात चक्रों की बल्कि बहत से अन्य चक्रों की भी पीठ है । सहसार पर आप कुछ भी कर सकते हैं 30 सहस्रार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह न केवल सात चक्रों की बल्कि से अन्य चक्रों बहुत की भी पीठ है। सहस्रार पर आप कुछ भी कर सकते हैं ..... .परन्तु महामाया के माध्यम से चीजे सामान्य रूप से कार्यान्वित होती हैं और ऐसा ही होना चाहिए। उदाहरणार्थ आप कह सकते हैं कि श्री माताजी, वातावरण, पर्यावरण की समस्याओं से भरा हुआ है, आप इसे शुद्ध क्यों नहीं करतीं ? यदि शुद्ध हो गया तो लोग समस्यायें ही बनाते रहेंगे। यह मानव की समस्या है और यदि मैं इसे ठीक कर देती हूँ तो वे इसे अपना अधिकार मान बैठेंगे । उन्हें इन समस्याओं का सामना करना होगा और अपनी आदतें बदलनी होंगी। उन्हें समझना होगा कि वे स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं अन्यथा यदि कोई अन्य व्यक्ति शुद्धिकरण के लिए होगा तो वे कभी भी परिवर्तित नहीं ........उनकी समस्याओं को सुलझा देने से ही मेरा कार्य समाप्त नहीं हो जाता और न यह लक्ष्य है। मेरा लक्ष्य तो उन्हें समर्थ बनाने का है ताकि वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा सकें। आपको अपना डॉक्टर या अपना गुरु बनना होगा परन्तु महामाया के बिना आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वही जानती हैं कि स्वतन्त्र मानव के शुद्धिकरण और नियन्त्रण में किस सीमा तक जाना है। इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण स्वतन्त्रता सहजयोगियों की नहीं होती। उन्हें तो आत्मा की स्वतन्त्रता हो सकें। जो लोग बिना प्राप्त है, अत: उनकी समस्याओं को सुलझाना बिल्कुल ठीक है ताकि वे पूर्ण स्वतन्त्र सोचे-समझे पूरे विश्व को हानि पहुँचाने जा रहे हैं उन्हें स्वतन्त्र बनाने का क्या लाभ है? उनके लिए आवश्यक है कि सहजयोग में आएं-इसी कारण यह महामाया स्वरूप है। यदि मैं, माँ मेरी, राधा या ऐसे ही किसी अन्य रूप में आई होती तो हो सकता है सभी लोग यहाँ होते और सुन्दर भजन गा रहे होते, पर ऐसा नहीं है। अब आपको परिपक्व होना है, कुछ बनाना है बनना और विकसित होना है और इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम आप सहजयोग में आएं तब आपको सहजयोग में विकसित होना होगा, नहीं तो महामाया लीला करती रहेंगी और आपको भ्रमित करती रहेंगी। सहस्रार विराट का क्षेत्र है, विराट विष्णु हैं जो राम बने फिर कृष्ण बनें। तो यह लीला है। उसकी लीला, नाटक है और नाटक को ठीक करने के लिए उसे महामाया रूप में होना होगा। बचाव के बहुत से मार्ग हैं। कभी-कभी लोग चीज़ों को सुगमता से खोज लेते हैं, उनमें से एक परम .जो पहले कभी नहीं हुआ। मैं स्वयं चैतन्य है। परम चैतन्य कार्य करता है मेरे चित्र दिखाता है आश्चर्यचकित हूँ। .......आपको महामाया के विषय में समझाने के लिए परम चैतन्य महामाया को प्रगट करने का प्रयत्न कर रहा है। यह स्वयं की अभिव्यक्ति कर रहा है। मैंने तो परम चैतन्य को ऐसा कोई कार्य करने को नहीं कहा। परन्तु यह सत्य है क्योंकि यह सोचता है कि अब भी जो लोग श्री माताजी का अनुसरण कर रहे हैं उनका स्तर उतना ऊँचा नहीं जितना होना चाहिए था। ..... (परम चैतन्य यह चाहता है कि) अपने विश्वास को आप दृढ़ कर लें, यह विश्वास अंधविश्वास नहीं है। सहजयोगी समझने का प्रयत्न करें कि उन्हें विकसित होना है। यह 31 विकास भी द्विपक्षीय होना चाहिए। पहला आपका पक्ष है कि मैं कितना समय सहजयोग के विषय में सोचने पर लगाता हूँ और कितना अपने व्यक्तिगत जीवन पर ? सहजयोग में हमें परमात्मा की ओर झुकना पड़ेगा । आप देखें कि आपके सभी विचार सहजयोग की ओर जा रहे हैं, पूरी सोच ही सहज है। सहज में सबसे मनोरंजक बात यह है कि जो भी कार्य आप करते हैं उसे देखते हैं। सहज मार्ग के विषय में आप सोचते हैं। इस महामाया में आप मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं ? सहज के विषय सोचते हुए आप कहाँ तक जा सकते हैं? इस व्यापार से मैं कितना धन कमा सकता हूँ? मैं कितना आनन्द ले सकता हूँ? कितनी शारीरिक समस्यायें सुलझ सकती हैं? आदि सभी लाभ सहजयोग में आपकी परिपक्वता के सम्मुख कुछ भी नहीं। मस्तिष्क के हाथ में बागडोर आते ही यह अत्यन्त सोच में पड़ जाता है । तुम्हारी पत्नी, बच्चे, घर आदि बहुत सी चीज़ों पर यह मँडराया रहता है पर यदि आप सहज ढंग से सोचेंगे तो कहेंगे कि मुझे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे मेरे बच्चे सहज बनें। मुझे एक | ऐसा घर चाहिए जो सहज के लिए उपयोग में आ सके। मेरा आचरण ऐसा हो जिससे लगे कि मैं सहजयोगी हूँ। आप में परिपक्वता इस प्रकार बढ़े कि आप इसे महसूस कर पायें। सर्वप्रथम शांति। अशांत व्यक्ति का मस्तिष्क अस्थिर यन्त्र के सम होता है। वह ठीक प्रकार से न तो देख सकता है, न सोच सकता है और न ही समझ सकता है। . विश्व में जिस इस महामाया के माध्यम से हर चीज़ उलट-पुलट हो रही है। ....... प्रकार संघर्ष चल रहा है यह युद्ध नहीं है, यह शीत युद्ध नहीं है यह तो एक अजीब किस्म का युद्ध- यश है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। ... ........परमात्मा तथा आध्यात्मिकता का व्यापार हो रहा है। आज के इस पतित विश्व के लिए महामाया का होना आवश्यक है जिसके द्वारा दर्शा सकें कि इस जीवन में आप जो कर रहे हैं उसके लिए आपको नाकों चने चबाने पड़ेंगे। .इस महामाया को हम रोकड़ा देवी कहते हैं अर्थात हाथों हाथ फल देने वाली, नग़द भुगतान करने वाली देवी, आपने ऐसा किया, ठीक है आप ये ले लें। आपने यह कार्य किया ठीक है, आप इसका आनन्द ले। वास्तव में ये महामाया विशेष रूप से गतिशील हैं। जिस तरह से यह लोगों को दण्डित कर रही हैं, कभी-कभी तो मुझे भय प्रतीत होता है। पर वास्तविकता यही है। यदि आप कहें कि मुझे अन्धाधुन्ध गाड़ी चलानी अच्छी लगती है तो ठीक है, समाप्त। लँगड़ाती टाँग या टूटा हाथ आपका अंत है। महामाया के माध्यम से दैवी कानून कार्यरत है। आज की तरह यह कभी इतना तेज न ह था। ......मानव की स्वतन्त्र इच्छा पर अंकुश रखने के लिए महामाया अपनी स्वतन्त्र इच्छा का उपयोग कर रही हैं। ......यह कथित स्वतन्त्रता जिसका आनन्द लेने का हम प्रयत्न कर रहे हैं हमें हमारे अन्त तक ले आई है। लोग अपने ही शिकंजे में फँस रहे हैं। यह शिकंजा ही महामाया है। आपसे ही वे इसकी रचना करती हैं क्योंकि आप अपना सामना नहीं करना चाहते, सत्य को जानना नहीं चाहते, सत्य से आप जी चुराना चाहते हैं। यह महामाया का ही एक पक्ष है कि तुरन्त आप अपना सामना करने को विवश हो जाते हैं।...... कितनी सारी घटनायें घटीं इनका विचार कीजिए। बड़े-बड़े पूँजीपति जेल में हैं। बड़े प्रसिद्ध लोग जेल में हैं। इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं क्यों? क्योंकि यह महामाया सबक देना चाहती हैं। एक व्यक्ति को दण्डित करने से यह हज़ारों लोगों को रास्ते पर ले आती हैं । है। इतना डरा हुआ विश्व है, इतनी असुरक्षा ......आज हर व्यक्ति व्यंग्र है और अपना जीवन बचाने की सोच रहा है। ......आप सहजयोग में आ जाएं तो आप कष्ट से बच सकते हैं क्योंकि महामाया का एक पक्ष यह है कि वे रक्षा करती हैं। जब तक स्वयं न चाहे कोई सहजयोगी को मार नहीं सकता। उनकी अपनी इच्छा है, उन्हें कोई छू नहीं सकता। किस प्रकार यह महामाया सहजयोगियों की रक्षा करती हैं इसकी बहुत सी यह चेतन मस्तिष्क है परन्तु अत्यन्त गहन सुषुप्ति की कहानियाँ हैं। स्वप्न में भी वे रक्षा करती हैं। अवस्था में आप जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत? किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत। किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं। यही ज्ञान अन्तज्ञ्ञान है जो कि महामाया के माध्यम से आता है। केवल वे ही आपको अन्तज्ञान देती हैं कि क्या करना आवश्यक है? किस प्रकार समस्या से छुटकारा पाना है? और आप छुटकारा पा लेते हैं। कोई यदि सहजयोगियों को परेशान करने का प्रयत्न करता है तो महामाया एक सीमा तक उसे ऐसा करने देती हैं और फिर अचानक गतिशील हो उठती हैं। लोग आश्चर्यचकित हो उठते हैं, सहजयोगी हैरान हो जाते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा किस प्रकार बन गया? यह महामाया मेरी साड़ी की तरह हैं और रक्षा कर रही हैं। वह अत्यन्त सुन्दर, दयालु, ध्यान रखने वाली, करुणामय, स्नेहमय तथा कोमल हैं। वह आपकी देख-रेख करती हैं और राक्षस तथा असुर प्रवृत्ति के लोगों, जो परमात्मा के कार्य को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं, पर क्रुद्ध होकर उनका संहार करती हैं। .....महामाया का एक अन्य पक्ष यह है कि वे आपको परिवर्तित करती हैं। मानव के लिए सभी कुछ मस्तिष्क है। आप यदि कुटिल हैं तो कुटिल हैं। आप यदि दूसरों से घृणा करते हैं तो यह भी मस्तिष्क में है। आपको यदि कोई व्यसन है तो वह भी मस्तिष्क में है। मस्तिष्क के बन्धन अतिजटिल हैं। अत: नि:सन्देह सहस्रार अत्यन्त महत्वपूर्ण है परन्तु विराट तथा विराटांगना की शक्ति तभी प्रभावशाली हो सकती है जब महामाया का शासन हो और वे अपने मधुर तरीकों से सहस्रार को खोलें और आपको कुरूप, भयंकर तथा क्रोधी ट बनाने वाले सभी बन्धनों का निवारण करें। .महामाया पृथ्वी माँ की तरह हैं, यह सभी कुछ मिलने पर आपको वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न तथा आनन्दमय बना देती हैं ताकि आप 'निरानन्द' 'केवल आनन्द' का रसपान कर सकें। आनन्द के सिवाय कुछ भी नहीं-यही सहस्त्रार है परन्तु यह तभी सम्भव है जब आपका ब्रह्मरंध्र खुल जाए। उसके बिना आप परमात्मा के प्रेम की सूक्ष्मता में और सदा संग रहने वाली महामाया की करुणा में प्रवेश नहीं कर सकते। बाह्य रूप से मैंने बता दिया कि महामाया कैसी हैं परन्तु अन्दर से आप इन्हें तभी जान सकते हैं जब अपने ब्रह्मरंध्र से इसमें प्रवेश करें। तब सर्वव्यापक शक्ति की अवतरण यह महामाया एक प्रकार से बिल्कुल भिन्न हो जाती हैं। वे एक ओर तो आपको सबक सिखाने का प्रयत्न करती हैं, विनाशकारी शक्तियों को समाप्त करती हैं और दूसरी ओर आपको प्रेम करती हैं, कोमलतापूर्वक आपकी रक्षा करती हैं और मार्गदर्शन करती हैं। उसका प्रेम निर्वाज्य है। वे प्रेम करती हैं क्योंकि इसके बिना उनसे नहीं रहा जाता, तो उस प्रेम में आप सराबोर हैं और आनन्द ले रहे हैं। हर व्यक्ति जानता है कि वह उनके बहत करीब है, बिल्कुल करीब, जहाँ भी वो हों और जब भी वो चाहें उनसे सहायता माँग सकते हैं। सहस्रार अति महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल इसी के माध्यम से हम प्रतिक्रिया करते हैं। जिस विश्व में हम रह रहे हैं यहाँ हमें अब उन कमलों की तरह होना है जिन पर दाग़़ नहीं लगाया जा सकता और प्रचलित कोई बुराई जिन्हें प्रभावित से नहीं कर सकती। यही परीक्षा है कि इस कठिन समय पर हम खिल सकें और सुगन्ध फैला कर बहुत अन्य लोगो को इस सुन्दर वातावरण में ला सके। नकारात्मकता के विरुद्ध यह एक प्रकार से सुन्दर और लीलामय युद्ध है। उनकी मूर्खता ... क्या है? इसे कोई भी देख सकता है। अत: अपने मन को, अपनी दृष्टि को विकसित करें ताकि स्पष्ट रूप से आप सब यह समझ सकें कि आप ही लोग ज़िम्मेदार हैं। इस मस्तिष्क के सहस्रार के आप ही कोशाणु हैं और सबको ही कार्य करना है। सहजयोग में आना केवल आपके निजी सीमित व्यक्तित्वों और उनकी समस्याओं के लिए ही नहीं है । एक ओर तो आपने स्वयं विकसित होना है और दूसरी ओर सबको आपके माध्यम से विकसित होना है। इस दूसरे पक्ष की देखभाल आपको करनी चाहिए- -यह सुन्दर बात है कि परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करने और स्वर्गीय आशीर्वाद का आनन्द लेने के लिए यह द्वार अब आपके लिए खुला है। मुझे विश्वास है कि बहुत बड़े स्तर पर यह कार्यान्वित होगा। पूर्ण समर्पण तथा विश्वास यदि आप पा लेंगे तो ---यह बहुत ही अच्छी तरह कार्यान्वित होगा। प.पू.श्री माताजी, ८.५.१९९४ 34 NEW RELEASES Lang, Type | D Title Date Place VCD DVD ACD 489* 23rd Dec.1981 Christmas Puja 199 London Sp/Pu th 4" Jul.1982 Guru Puja : A mother for Guru 490 Sp/Pu 200 London 2nd Feb.1983 Delhi 267 Talk about Vishudhi 491 PP सार्वजनिक प्रवचन 26th Feb.1983 492 Nasik M PP 100 th 079* 4" Aug.1985 Shri Ganesh Puja:Your Power is Chastity Brighton 493* Sp/Pu -th Mahalakshmi Puja 205° M/E | Sp/Pu 6™ Jan.1986 494 Sangli th 495* 20"Jan.1986 064 Mumbai 1st Public Program : Attention should be on God PP 19th Feb.1986 साधक वही होता है जो साध लेता हैं। 496 Jaipur Н PP 009 संक्रान्ति पूजा / Sankranti Puja M/E | Sp/Pu 14th Jan.1987 497 089 Rahuri 8th Mar.1989 सार्वजनिक प्रवचन : इंसान का परिवर्तन 498* Delhi PP 130 Н इडा पिंगला सुषुम्ना, भाग-१, २ th- 15"Mar. 1989 499* 109 Delhi Н PP 23th Sep.1990 Navaratri Puja : Deities are watching you, Geneva Part I & II 500 068 E Sp/Pu द्वितीय सार्वजनिक प्रवचन - न्यू इंग्लिश स्कूल 6"Dec.1990 th- 501" 213 Pune PP सरस्वती पूजा:सहजयोगी को कार्यशील होना चाहिए Kolkata 3"Feb.1992 rd 502 049 Sp/Pu H सार्वजनिक प्रवचन 23"Mar.1992 503* Delhi 134 H PP सार्वजनिक प्रवचन 22nºMar.1993 504 Delhi PP 275 Н आनन्द की प्राप्ति बिना अंहकार से मिलती है 2n Dec.1993 Noida 050 505 Н PP सार्वजनिक प्रवचन 20hJan.1994 506 Hyderabad H 057 PP आप इस मनुष्य धारणा में सत्य को जान नहीं सकते सार्वजनिक प्रवचन |Pune 27" Jan.1994 th 507* 077 PP H th 12"Apr.1995 508 Kolkata Н 318 PP st 509* 21* Mar. 1995 Birthday Puja : Love & Be Loved Delhi Sp/Pu 015 th 14 Dec.1995 510 सत्य की पहचान चैतन्य से है Lucknow PP 052 Н th 26™Mar.2001 कलयुग में सहजयोग का महत्व Delhi 062 PP 511 22™d Aug.2002 You are the spirit 512 New York 055 PP 513 PP Unknown Establish your Self Realization Unknown 095 E 6"Feb.2001 Italy Experiment with “Vega Machine" E Doc 086* You Sahasrara Day Puja 5th May.1984 335 Sp/Pu 289 France The Start of a new Era : Part I & II 18 Sep.1982 th It is eternal life 336° 514* Sp UK Bhajan ACD | ACS Song List Title Artist JAI NIRMAL |Ajit Singh 172* ΜΑΙΥΑ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०२५२८६५३७, २५२८६०३२ , e-mail : sale@nitl.co.in करं समुद्र से सीखे कि जो सबसे नीचे ंब ताख्र रहकर के ही सव त्रीज को. सब नदियों को अपने अन्दम माता हैं बग समुद्र के ও तो ये सृष्टि चल नहीं सकती। जन्मदिन पूजा, दिल्ली, दि. ३० मार्च १९९० न र रवन ० ---------------------- 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-0.txt हिन्दी मई-जून २०११ प 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-1.txt क ] परमात्मी की इच्छी सबकी देखभाल कर सकती है। आपको किसी चीज़ की चिन्ता करने की जरूरत नहीं] समझने की प्रयत्न कीजिए कि आपकी समस्याओं की कारण यह है कि आप उन्हें परमात्मी पर नहीं छीड़ना चाहते। कुछ लोग कहते हैं कि उनमें इतनी योग्यता ही नहीं कि वे ऐसा कर सकें। यह मूर्खतापूर्ण वतक्तव्य है। स्वयं की परखिए। कबेला, इटली, १० मे १९९२, अनुवादित 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-2.txt इस अंक में प२मात्मा की इच्छा ही सभी कार्य कर रही है .." ही सभी कष्टों के कारण हैं १४ सृजन शक्ति सरस्वती का आशीर्वाद ,२० अन्य विषय सहसा२ स्वामिनी रामनवमी संदेश ...२६ ..३० दुल्हीं की उपदेश ...२८ दुं 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-4.txt the कबेला, इटली, १० मई १९९२, अनुवादित ही सभी कार्य कर रही है 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-5.txt अ जि हम सहस्रार दिवस मना रहे हैं। शायद आप लोगों ने महसूस नहीं किया है कि यह दिन कैसा था। सहस्रार को खोले बिना परमात्मा, धर्म और देवत्व की बातें केवल कल्पना मात्र थी। लोग परमात्मा में विश्वास करते थे पर यह मात्र विश्वास ही था। और विज्ञान जीवन के मूल्यों तथा सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रमाण को मिटाने ही वाला था। इतिहास में जब जब भी विज्ञान ने स्वयं को स्थापित किया सभी धर्माधिकारियों ने विज्ञान की खोजों का साथ दिया। अगस्टीन ने इसे बाइबल में दर्शाने का प्रयास किया। सभी धर्म ग्रन्थ मूर्खतापूर्ण कल्पना मात्र लगने लगे। कुरान में बहुत सी बातें थी जो आज के शरीर विज्ञान का वर्णन करती थी। वे विश्वास न कर सके कि परमात्मा ने किसी विशेष कारण से मानव की रचना की। उन्होंने सोचा कि विकास प्रक्रिया में पशु ही मनुष्य बन गए। इस प्रकार हर समय परमात्मा को चुनौती दी गयी और बाइबल, कुरान, गीता, उपनिषदों में कही बातों का कोई प्रमाण न था क्योंकि यह केवल विश्वास मात्र ही था। बहुत कम लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ और जब भी उन्होंने इसकी बात की, लोगों को इन पर विश्वास न हुआ। लोगों ने सोचा कि वे अपने ही सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे हैं। इस तरह यह निज्जीव-विज्ञान बन गया। लोग सोचने लगे कि इन दस धर्मादेशों को मानने से या कठोर नियमों को मानने का क्या लाभ है? मनुष्य को पुण्य क्यों प्राप्त करने चाहिए? मानवीय मूल्यों से लोग भटक गए। निरंकुश रूप से संस्थापित धर्म भी धन तथा सत्ता का मार्ग अपनाने लगे क्योंकि लोगों को वश में करने का उन्हें यही मार्ग सूझा । बाइबल में वर्णित सत्य को बताने की उन्हें कोई चिन्ता न थी। बाइबल को ही बदल दिया गया। पीटर और पाल ने इसे बिगाड़ने का पूरा प्रयत्न किया। कुराण को अधिक नहीं छेड़ा गया परन्तु यह अधिकतर दायीं ओर को ही बताती है और इसमें बहुत सी बातें अस्पष्ट हैं। दो घटनाएं साथ-साथ घटीं। एक नए सूक्ष्म जीवविज्ञान द्वारा हमने खोज निकाला कि हर कोषाणु का एक टेप होता है। कम्प्यूटर की तरह हर कोषाणु का एक कार्यक्रम होता है। इसी कार्यक्रम के अनुसार विकास होता है । बहुत से कम्प्यूटर की तरह के कोषाणु पहले से कार्यक्रम में हैं और इस तरह एक अति अनोखी चीज़ वैज्ञानिकों के सामने आयी है। वे इसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। सहजयोग ने प्रमाणित कर दिया है कि परमात्मा की इच्छा ही सभी कार्य कर रही है। यह सारा चैतन्य और आदिशक्ति परमात्मा की ही इच्छा है। परमात्मा की इच्छा ही बड़े सुव्यवस्थित रूप से चला रही है। एक शान्तिमय नाद के साथ पृथ्वी की रचना की गयी। हर कार्य परमात्मा की इच्छा से हुआ। अब आप लोग परमात्मा की इच्छा को अपनी अंगुलियों के सिरों पर अनुभव कर रहे हैं। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आपने पूर्ण विज्ञान को खोज निकाला, यह पूर्ण विज्ञान परमात्मा की इच्छा ही है। आप जानते हैं सहजयोग द्वारा हमने लोगों को रोगमुक्त किया। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आपने पूर्ण विज्ञान को खोज निकाला, यह पूर्ण विज्ञान परमात्मा की इच्छा ही है। आप जानते हैं कि सहजयोग द्वारा हमने लोगों को रोगमुक्त किया। आत्मसाक्षात्कार के बाद बहुत सी बातें स्वत: ही बन जाती हैं। पर लोग विश्वास नहीं करना चाहते। प्रारम्भिक वैज्ञानिकों की बताई बातों पर भी वे यकीन नहीं करते थे। पर आज हर क्षण विज्ञान में परिवर्तन आ रहा है। सिद्धांतों को चुनौती दी जा रही है। सहजयोग ने मनुष्य के सम्मुख विज्ञान का वह सत्य प्रकट किया है जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती। हम प्रमाणित कर सकते हैं कि परमात्मा है। सारी सृष्टि की रचना अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप से परमात्मा की इच्छा ने की। जब परमात्मा की इच्छा ने 6. 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-6.txt ही सभी कुछ किया है तो मनुष्यों को परमात्मा द्वारा रचित चीज़ों को खोज निकालने का श्रेय नहीं लेना चाहिए। उदाहरण के रूप में यह कालीन किसी अन्य ने बनाया और आपने इसके रंग खोज निकाले तो इसमें कौन सी बड़ी बात है क्योंकि ये रंग तो पहले से ही हैं। आप इन्हें नहीं बना सकते। देशाचार भी परमात्मा की इच्छा ने ही बनाया। यदि परमात्मा की इच्छा इतनी महत्वपूर्ण है तो इसे प्रमाणित भी किया जाना चाहिए। सहस्रार खुलने पर अब आपने इसे महसूस किया है। इतनी सहज यह हमें प्राप्त हो गई है कि हम समझते ही नहीं। हमारे एक बंधन देने से कार्य हो जाता है । यह इससे भी कहीं अधिक है। अब हम उस विशाल कम्प्यूटर के अंग बन गये हैं। परमात्मा की उस इच्छा के हम माध्यम बन गये हैं और पूरे ब्रह्माण्ड की रचना करने वाली इस शक्ति से जुड़ गये हैं। अत: हम सभी कुछ चला सकते हैं क्योंकि पूर्ण विज्ञान हमारे हाथों में है, यह विज्ञान पूरे विश्व का हित करेगा । हम एक वैज्ञानिक को प्रमाणित करके बता सकते हैं कि परमात्मा की एक शक्ति है जिसने सारी सृष्टि का सृजन किया है । विकास प्रक्रिया भी परमात्मा की ही इच्छा है। उनकी इच्छा बिना कुछ भी न हो पाता। अब आपने देखा है कि परमात्मा की इस इच्छा को हमने अपनी शक्ति के रूप में पा लिया है। हम इसका उपयोग कर सकते हैं। अत: सहजयोग का होना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सहजयोग यह कहने मात्र के लिए नहीं कि 'श्री माताजी में पूर्ण आनन्द में हूँ, या मैं पवित्र हो गया हूँ, सभी कुछ बढ़िया है।' तो यह किसलिए है? आपको यह सारे आशीर्वाद किसलिए प्राप्त हुए? आपका शुद्धिकरण क्यों किया गया? ताकि परमात्मा की यह इच्छा शक्ति आपसे झलके और आपका अंग-प्रत्यंग बन जाए। हमें अपने स्तर को ऊंचा उठाना होगा । हमें ऊपर उठना ही होगा। साधारण और मध्यमस्तर के लोगों को सहजयोग देने का कोई लाभ नहीं क्योंकि ऐसे लोग किसी काम के नहीं होते। किसी भी प्रकार वे हमारी सहायता नहीं कर सकते, आज उन लोगों की आवश्यकता है जो वास्तव में परमात्मा की इच्छा को प्रकट कर सकें, प्रतिबिम्बित कर सकें। इसके लिए हमें अति सुदृढ़ व्यक्तियों की आवश्यकता है। परमात्मा की इस इच्छा ने पूरे विश्व, पूरे ब्रह्माण्ड की, पृथ्वी माँ की तथा हर चीज़ की रचना की। अब एक नए आयाम के सम्मुख हम अनावृत्त हुए है कि परमात्मा की इच्छा के माध्यम हम ही लोग हैं। तो अब हमारा कर्तव्य क्या है और इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? सहस्र खुलने के परिणामत: हमारे भ्रम समाप्त हो गए हैं। सर्व शक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व, उसकी इच्छा की शक्ती और सहजयोग के सत्य के विषय में आपको कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। आपको बिल्कुल कोई संदेह नहीं होना चाहिए। परमात्मा की शक्ति का उपयोग करते हुए आपको पता होना चाहिए कि इसे संचालन करने की आपकी योग्यता के कारण ही यह शक्ति आपको दी गई है। सोची जा सकने वाली शक्तियों में यह सर्वोच्च है। किसी गवर्नर या मंत्री को लीजिए, उन्हें कल पद से हटाया जा सकता है। वे भ्रष्ट हो सकते हैं, हो सकता है उन्हें अपनी शक्तियों का कोई ज्ञान न हो। बहुत से लोगों को अपने कार्य का पता तक नहीं होता फिर भी वे लोगों द्वारा चुने जाते हैं। सहजयोग लोगों का धर्म परिवर्तन मात्र नहीं । यह व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तन मात्र भी नहीं। यह तो एक नयी रचना है आगे बढ़ते हुए उस नए मानव की जिसमें परमात्मा की इच्छा को आगे ले जाने की योग्यता है। आत्मसाक्षात्कार के परिणामत: आपके भ्रम समाप्त हो गये। परमात्मा सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी है और सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ अर्थात् सभी कुछ देखते 7 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-7.txt तथा जानते हैं। उस शक्ति का एक भाग आप में भी है । उनकी सर्वज्ञता को प्रमाणित करने के लिए आपको हर समय याद रखना है कि आप सहजयोगी हैं। अब भी मैं सहजयोगियों को अपनी पत्नियों, बच्चों, घर, परिवार, नौकरियों आदि के विषय में बातें करते हुए पाती हूँ। मैं हैरान हो जाती हँ कि उनका स्तर क्या है? वे हैं कहाँ? उन्हें दिया गया दायित्व वे कब सम्भालेंगे ? सर्वशक्तिमान परमात्मा जो सर्वत्र विद्यमान हैं, जिन्होंने सभी कुछ किया है और परमात्मा की इच्छा ने, जिसने सब कुछ संचालित किया है, आपके माध्यम से कार्य करना है । अत: आपको अति सशक्त विवेकशील, बुद्धिमान और अति प्रभावशाली होना है। जितने अधिक प्रभावशाली आप होंगे उतनी अधिक शक्ति आपको प्राप्त होगी। अब भी मुझे लगता है कि सहजयोगी यह समझने का दायित्व नहीं ले रहे हैं कि उन्हें सर्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिनिधि बनना है, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञ परमात्मा का प्रतिनिधि। आपको समझना है कि सहस्रार खुलने के बाद आपमें वह शक्ति आ गई है जिसमें ये तीनों गुण हैं। यह महान शक्ति आपको प्राप्त हो गयी है। इसके लिए हमें बहुत सफल, धनी या विख्यात लोगों की आवश्यकता नहीं। हमें चरित्र, सूझबूझ और दृढ़ता वाले लोगों की आवश्यकता है जो ये कहें कि चाहे कुछ भी हो मैं इसे अपनाऊंगा, इसका साथ दूंगा और इसे सहयोग दंगा। मैं स्वयं को परिवर्तित करूंगा और सुधारूंगा। मुझे आशा है कि आप सबने भ्रमों से छुटकारा पा लिया है। अपने बारे में भी आपमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। यदि आपमें कोई भ्रम है तो आप सहजयोग छोड़ दें। समझिए कि परमात्मा की इच्छा ने इस कार्य के लिए आपको चुना है, इसी कारण आप यहाँ हैं और आपने इस पूर्ण विज्ञान को समझने का दायित्व लेना है । इसे अपने तथा अन्य लोगों के लिए कार्यान्वित करें । आपने मेरे प्रेम को महसूस किया है आपका प्रेम भी महसूस किया जाना चाहिए क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है। दूसरे लोगों को अनुभव होना ही चाहिए कि आप करुणामय, प्रेममय तथा सूझबूझ वाले हैं। हर समय यह परमात्मा की इच्छा आपमें से प्रवाहित होती रहती है। आपको इसे इस प्रकार से संचालित करना है कि लोग समझ जायें कि आप संत हैं और यह शक्ति आपमें से प्रवाहित हो रही है। दूसरी बात जो हुई है वह यह है कि आपने एकीकरण को समझ लिया है, कि पूरे विश्व में एकीकरण का ही अस्तित्व है। बच्चों में अपनी अन्तर्जात, स्वाभाविक सूझबूझ है। साधारणतया एक अच्छा बच्चा सदा अपनी चीज़ों को बांटकर लेना चाहता है, दूसरे बच्चे से प्रेम करना तथा छोटे बच्चे की रक्षा करना पसन्द करता है। यह स्वाभाविक है। बच्चा यह नहीं सोचता कि दसरे बच्चे के बालों या चमड़ी का रंग काला है या लाल। छोटे बच्चों को ज्ञान होता है कि शरीर का प्रदर्शन नहीं किया जाता। दूसरों के सामने बच्चे निर्वस्त्र नहीं होना चाहते। उनमें यह गुण अन्तर्जात है । यह सभी अन्तज्जात गुण आप में हैं। बच्चे कुछ भी चुराना नहीं चाहते। मैंने बच्चों को सुन्दर स्थानों तथा घरों में जाते देखा है, वे सदा उस स्थान की सुन्दरता को बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। अविकसित माने जाने वाले बहुत से देशों में यह गुण है। अबोधिता की सृष्टि हम में अन्तर्जात है। परमात्मा की इच्छा ने अबोधिता तथा मंगलमयता की रचना की। सर्वप्रथम उन्होंने श्री गणेश की रचना की। यह रचना आदिशक्ति ने ही की 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-8.txt 9. 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-9.txt क्योंकि वही परमात्मा की इच्छा है। पूरे विश्व को अति सुन्दर बनाने के लिए यह सब रचा गया। ये सब देवता तथा ये सारे अन्तर्जात आपके अन्दर स्थापित किए गए। इन्हें विशेषत: बनाया गया ताकि गुण मनुष्य संत स्वभाव बन सके और संत सम अन्तर्जात अपने विवेक को अपना सकें । विकसित देशों में दूरदर्शन तथा अन्य मार्गों से हमारे मस्तिष्क को दूषित किया गया और हम में असुरक्षा की भावना आ गई। हम दूसरों के विचारों से चलने लगे। कोई भी प्रबल व्यक्ति हम पर प्रभुत्व जमा सकता था। केवल हिटलर ने ही लोगों पर प्रभुत्व नहीं जमाया, फैशन भी लोगों पर छा गया। फैशन के कारण किसी भी विवेकपूर्ण बात को अपनाना नहीं चाहते। आजकल छोटे स्कर्ट पहनने का फैशन है। लम्बा स्कर्ट आपको कहीं नहीं मिलेगा। सभी को यही वेशभूषा पहननी पड़ती है अन्यथा आप पिछड़ जाते हैं। हर समय इस प्रकार की बातें हमारे मस्तिष्क में भरी जाती हैं परिणामत: सर्वप्रथम हम उद्यमियों के दास बन जाते हैं। मैंने है कि बैल्जियम में आपको कोई भी ताज़ा चीज़ नहीं मिलती, सभी कुछ डिब्बों में बंद सुपर बाजार से लेना पड़ता है। शनै: शनै: हम पूर्णतया बनावटी होते चले जाते हैं। भोजन, वस्त्र और दृष्टिकोण बनावटी हैं। विज्ञापनों तथा बाह्य प्रभावों में हम खो जाते हैं। इन आधुनिक वस्तुओं के प्रभाव में हम अपने अन्तर्जात विवेक को भूल बैठते हैं। विज्ञान के बाद धन बहुत महत्वपूर्ण हो गया। ऐसा होते ही सभी उद्यमी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि आपको मूर्ख बनाकर धनार्जन की कला वे जानते हैं। परन्तु अन्दर से दृढ़ व्यक्ति इन चीज़ों से प्रभावित नहीं होते। फैशन उन्हें प्रभावित नहीं कर पाता। इसके विपरीत अपनी परम्परागत उपलब्धियों से दूर हो पाना उनके लिए कठिन होता है। सुना सहजयोगियों के लिए आवश्यक है कि वे ध्यान रखें कि कहीं उद्यमियों के दास तो नहीं बन रहे । विचारों पर भी प्रभाव पड़ता है। हम बहुत सी पुस्तकें पढ़ते हैं जिनमें से कुछ फ्रायड जैसे पागलों की लिखी बेसिरपैर की होती है। पश्चिम पर फ्रायड का प्रभाव कैसे पड़ा? क्योंकि अपने अन्तर्जात विवेक को छोड़ कर आपने उसे स्वीकार किया। इस प्रकार फ्रायड भी लोगों के लिए ईसा सम बन बैठा। यौन संबंध अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गए। थोड़ी सी साधारण बुद्धि से हम समझ सकते हैं कि हर क्षण कुछ प्रबल व्यक्ति , जिनके पास कुछ विचार भी हैं, हमें दासत्व की ओर ढ़केलते हैं। उनके विचार महान बन जाते हैं। 'उसने ऐसा कहा।' वह है कौन ? उसका जीवन कैसा है? स्वयं देखिए कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है। परमात्मा की इच्छा, जिसने पूरे विश्व को तथा आपके कण-कण को बनाया है, के प्रतिनिधि होते हुए आप उद्यमियों के हाथों में खेल रहे हैं। ये उद्यमी इन द्र्बल व्यक्तियों को मूर्ख बनाकर उनसे पैसा ऐंठ रहे हैं। एक ओर तो आपके पास इतनी महान शक्तियाँ हैं, इतने महान कार्य के लिए आपको चुना गया है और दूसरी ओर आप इस प्रकार से दास हैं। आपके अन्तर्जात गुण खो गए थे। सौभाग्यवश कुण्डलिनी की जागृति और सहस्रार के भेदन से आपके अन्तर्जात गुण, जो कि खो से गए थे, जाग उठे हैं। आपकी अबोधिता, सृजनात्मकता, अन्दर का धर्म, करुणा, मानव प्रेम, निर्णयात्मक शक्ति और विवेक आदि गुण आपमें सुप्तावस्था में थे। वे सभी जागृत हो गए। मुझे ये नहीं बताना पड़ता कि ये कार्य करो और ये मत करो। आपको स्वयं महसूस होता है 10 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-10.txt कि यह अनुचित है। आप स्वयं जानते हैं कि आपके लिए ठीक क्या है। कुछ अनुचित यदि आप करना चाहें तो आप कर सकते हैं परन्तु आपके अन्दर का प्रकाश आपको बताएगा कि क्या ठीक है और क्या गलत। ज्ञान के इस आयाम के प्रति सहस्रार के खुलने के कारण ही यह हो सका है। यह नया नहीं है, आपके अन्दर रचित है। अब यही अन्तर्जात गुण प्रकट हो रहे हैं और आप इनका आनन्द ले रहे हैं। विचारों तथा आचरणों से आपको बाहर आना है । मैंने सुना है कि सहजयोगी वस्तुओं अपने तुच्छ को इधर-उधर फैला देते हैं। आप इस तरह का बर्ताव कैसे कर सकते हैं ? जीवन में बिना अपेक्षित अनुशासन के आप परमात्मा की इच्छा को संचालित नहीं कर सकते। मैं आपकी स्वतंत्रता का स्वागत करती हूँ और चाहती हूँ कि आपकी अपनी कुण्डलिनी ही आपमें विवेक, महानता तथा गरिमा को जागृत करे। तब आप अपने पद के मूल्य को समझने लगेंगे। अग्नि में तपा कर शुद्ध किए स्वर्ण की तरह कुण्डलिनी भी आपका पूर्ण शुद्धिकरण करेगी। आप अपनी गरिमा, स्वभाव तथा महानता को देखने लगते हैं। अत: सहज ही आपका एकीकरण हो जाता है। सबसे पहले इंग्लैंड, स्पेन, इटली आदि के सहजयोगी होते थे जो सदा अलग-अलग समूह में रहते थे। वे कभी साथ न बैठते। पर अब ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि अब उन सबका एकीकरण हो रहा है। मानव का एकीकरण सहजयोग के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह एकीकरण बुद्धि से नहीं आता । यह अन्तर्जात विवेक कि सभी मनुष्य परमात्मा ने बनाएं हैं और किसी से घृणा करने का हमें कोई अधिकार नहीं-से आता है। दूसरा एकीकरण जो आपमें आया है वह है कि सभी धर्म एक की अध्यात्म वृक्ष पर उपजे हैं कि सभी धरमों की पूजा होनी चाहिए । सभी अवतरणों, पैगंबरों और धर्मग्रन्थों की पूजा होनी चाहिए। उन धर्मग्रन्थों की त्रुटियों को सुधारा जा सकता है। शनै: शनै: आप दैवत्व की सूक्ष्मता में प्रवेश करते हैं और समझ लेते हैं कि सहजयोग के लिए वातावरण बनाने को इन लोगों ने बहुत परिश्रम किया है । किसी धर्म की न तो निन्दा होनी चाहिए और न ही उस पर आक्रमण होना चाहिए। इसी प्रकार हम सभी धर्मान्धों को समाप्त कर पायेंगे। बहुत सावधान रहिए। कभी-कभी आप सहजयोग को कट्टर बनाने लगते हैं। 'माँ ने ऐसा कहा' कहकर आप दूसरों पर प्रभुत्व जमाना चाहते हैं। मेरा कहीं भी उपयोग मत कीजिए । आप स्वयं कहिए क्योंकि अब आपको अधिकार है, सहजयोग में आपका एक व्यक्तित्व है। आपको जो भी कहना है स्वयं कहिए। मेरी कही बात के बन्धन में आप नहीं। अब उठकर आपने स्वयं देखना है कि क्या कहें। अब आपने अपनी इच्छा का उपयोग करना है और इसके लिए आपको स्वयं को विकसित करना होगा। अतः अपनी इच्छा पवित्र होनी चाहिए, सर्वशक्तिमान परमात्मा की शुद्ध इच्छा। एकीकरण केवल बाह्य ही नहीं यह आंतरिक भी है। अब से पहले हम जो करते थे उसमें हमारा मन कुछ कहता था, हृदय कुछ और कहता था और मस्तिष्क कुछ और। अब ये तीनों चीजें एक हो गई हैं। अब आपके मस्तिष्क की बात आपके हृदय और चित्त को पूर्णतया स्वीकार होती है। अब आप स्वयं एकीकृत हो गए हैं। बहुत से लोग कहते हैं, 'में ऐसा करना चाहता हूँ पर कर नहीं सकता।' अब ऐसा नहीं 11 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-11.txt है क्योंकि अब आपका पूर्ण एकीकरण हो चुका है। अपना निरीक्षण करके देखिए कि आपका एकीकरण हो गया है या नहीं। जो भी कार्य मैं करता हूँ क्या मैं उसे पूरे चित्त और हृदय के साथ करता हूँ? मैं देखती हूँ कि आप हृदय से कार्य करते हो परन्तु आपका पूरा चित्त वहाँ नहीं होता। सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाले चित्त का पूरा उपयोग नहीं है या फिर एकीकरण अधूरा है । सारे चक्रों का भी एकीकरण हो जाता है। जो भी कुछ आप करते हैं वह शुभ होना चाहिए तथा पूरे चित्त के साथ। यह धार्मिक होना चाहिए। ये पूरे चक्र पूर्णतया एक हैं-संघटित शक्ति, जो आप स्वयं हैं। पूरा जीवन ही संघटित होना चाहिए। किसी का पति या पत्नि यदि उस स्तर के नहीं तो चिन्ता नहीं करनी चाहिए । आप केवल अपनी चिन्ता कीजिए। किसी से भी कोई आशा न रखिए। आपका अपना कर्तव्य ही महत्वपूर्ण है। अपना कर्तव्य कीजिए । आपको स्वयं ही यह करना है, जब तक आप समझ नहीं जाते कि व्यक्तिगत रूप से आपने इसे पूरा प्राप्त किया है। आपने अपने लाभ देखने हैं। 'मुझे आर्थिक, शारीरिक, मानसिक लाभ हुआ। मुझे प्रसन्नता और आनन्द प्राप्त हुआ। केवल इतना नहीं है। केवल यही मापदंड नहीं होना चाहिए। अपने व्यक्तित्व की समझ आपको होनी चाहिए। बहुत से जीवनोपरान्त इस जीवन में इस व्यक्तित्व की रचना विशेष रूप से आपके लिए की जा रही है ताकि इस जीवन में आत्मसाक्षात्कार पाकर परमात्मा की इच्छा के कार्य को आप आगे बढ़ायें । क्षण-क्षण चमत्कार होते देख आप महसूस करते हैं कि परम चैतन्य ही इन्हें कर रहा है। परमचैतन्य आदिशक्ति की इच्छा है और आदिशक्ति परमात्मा की इच्छा है। यह लहरियाँ डी.एन.ए. की तरह हैं। वे जानती हैं कि किस प्रकार कार्य करना है। जैसे आज बहुत धूप है। सभी हैरान हैं। दो दिन पहले हमने हवन किया और धूप निकल आयी। पूरा ब्रह्माण्ड आपके लिए कार्यरत है। अब आप मंच पर हैं और आपने ही इसका ध्यान रखना है। यदि आपमें आत्मविश्वास नहीं है तो आप कैसे सहायता कर सकते हैं? मनुष्य रचित समस्याओं का समाधान तथा अपना संचालन आप कैसे कर सकते हैं ? अत: हम पर पड़े दासत्व को हमें उखाड़ फेंकना है। हिन्दू, मुस्लिम, कैथोलिक, प्रोटेस्टैंट होने के विचारों को हमने खदेड़ देना है। हमें एक नया व्यक्तित्व बनना है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आप कीचड़ में पैदा हुए कमल के समान हो जाते हैं। अब आप कमल बन गए हैं। इस मृत कीचड़ को दूर हटाना होगा अन्यथा इसके अंश रह जाएंगे। आपकी हत्या करने वाले, व्यर्थ के बंधनों को तोड़ दीजिए । सारी रचना अत्यन्त सावधानी, प्रेम और कोमलता से कर दी गई है। अत: हमें अपना सम्मान करना चाहिए । हममें दूसरों के प्रति स्नेह एवं प्रेम होना चाहिए और अनुशासन का होना हमारे लिए सबसे आवश्यक है। मेरे जीवन के विषय में आप सब जानते हैं कि मैं कठिन परिश्रम करती हूँ और आप सबसे कहीं अधिक सफर करती हूँ। इसका कारण यह है कि मुझे परम इच्छा है कि मुझे इस विश्व को आनन्द, प्रसन्नता और देवत्व की उस अवस्था तक लाना है जहाँ मनुष्य जान सके कि उसका लक्ष्य क्या है और उनके पिता (परमात्मा) की क्या गरिमा है। मैं कभी नहीं सोचती कि मुझे कोई कष्ट हो जाएगा या मेरा क्या होगा। मैंने आप लोगों को अपने पारिवारिक जीवन, अपने बच्चों या किसी अन्य के विषय में कभी कष्ट नहीं दिया। अपनी समस्याओं को मैं स्वयं सुलझा रही हूँ। परन्तु सहजयोगी मुझे पारिवारिक समस्याओं के विषय में लम्बे पत्र लिखते हैं। पारिवारिक मोह 12 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-12.txt हमारे सिर पर सबसे बड़ा बोझ है। परिवार आपकी जिम्मेवारी नहीं। यह सर्वशक्तिमान परमात्मा का दायित्व है | क्या आप परमात्मा से अच्छा कर सकते हैं? जब आप दायित्व लेने लगते हैं तभी समस्याएं शुरु होती हैं। निर्लिप्सा को समझना चाहिए। अपनी चीज़ों से, बच्चों से आप चिपके रहते हैं । मोहग्रस्त लोगों को संत कैसे कहा जा सकता है। संत केवल अपनों के लिए ही जिम्मेवार नहीं होते, वे सबके लिए जिम्मेवार होते हैं। सहजयोग में आने से पूर्व आप किसी से लिप्त नहीं । आप स्व-केंद्री थे। अपने को थोड़ा सा विस्तृत कर अब आप अपनी पत्नी और बच्चों से लिप्त हो गए हैं। यह भी स्वार्थ है। वे आपके नहीं परमात्मा के बच्चे हैं | एक महत्वपूर्ण बात जो आपके साथ हुई वह है सहस्रार का खुलना। अब आप पूरे विश्व के सम्मुख परमात्मा का अस्तित्व उसकी इच्छा तथा सभी कुछ प्रमाणित कर सकते हैं। कोई भी सहजयोग को चुनौती नहीं दे सकता। चुनौती देने वाले को समझाया जा सकता है। आपको चाहिए कि सहजयोग को गंभीरता से लें। लोग ध्यान तक नहीं करते। ध्यान के बिना आप कैसे उन्नत होंगे? निर्विचार समाधि में आए बिना आपकी प्रगति नहीं हो सकती। कम से कम सुबह-शाम तो आपको ध्यान करना ही है। बहुत से लोग स्वभाव से ही सामूहिक नहीं हैं। उन्हें आश्रम का जीवन पसन्द नहीं। ऐसे लोगों को सहजयोग से चले जाना चाहिए। सामूहिकता के बिना आप कैसे बढ़ेंगे और कैसे अपनी शक्तियों को एकत्रित करेंगे? सामूहिकता से ही दृढ़ होंगे। एक तिनके को तोड़ा नहीं जा सकता। एक हजार निकम्मे लोगों की अपेक्षा अच्छी प्रकार के दस व्यक्तियों का होना अधिक अच्छा है। आज हमें शपथ लेनी है कि 'मैं अपना जीवन परमात्मा की इच्छानुसार ढालूंगा। पारिवारिक एवं अन्य बंधन न रखूंगा।' परमात्मा की इच्छा सबकी देखभाल कर सकती है। आपको किसी चीज़ की चिन्ता करने की जरूरत नहीं । समझने का प्रयत्न कीजिए कि आपकी समस्याओं का कारण यह है कि आप उन्हें परमात्मा पर नहीं छोड़ना चाहते। कुछ लोग कहते हैं कि उनमें इतनी योग्यता ही नहीं कि वे ऐसा कर सकें। यह मूर्खतापूर्ण वक्तव्य है। स्वयं को परखिए। हम ऐसी बात क्यों कहते हैं? हो सकता है आप धन-लोलुप हों। सहजयोग में कुछ लोग व्यापार की बात करते हैं। हो सकता है भौतिकता से मोह हो । दूसरे यह ममत्व भी हो सकता है-मेरा परिवार, बच्चे आदि। तीसरा, हो सकता है कि आप अभी तक अपनी पुरानी आदतों से चिपके हुए हों और सद्गुणों के बिना ही इनका आनन्द ले रहे हों। आप में सभी कुछ करने की क्षमता है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि आप परमात्मा की इच्छा के उचित, करुणामय और सशक्त वाहन बन जायें। ठीक है कि आप मेरी पूजा करते हैं क्योंकि इससे आपको बहुत लाभ मिलता है। मुख्य बात तो आपका अधिकाधिक गहनता में उतरना है। उच्चावस्था को पाने में एक दूसरे से मुकाबला कीजिए । मुझे विश्वास है कि यह पूर्ण-विज्ञान एक दिन अन्य सब प्रकार के विज्ञान को आच्छादित कर लेगी और अपनी वास्तविकता प्रकट करेगी। यह आपके हाथ में है। आज के दिन का उत्सव हम इसलिए मनाते हैं कि हमने इस दिन परमात्मा के प्रमाण का एक नया महान दैवी आयाम पूर्णतया खोला। यह इतना महत्वपूर्ण है कि हम सारे भ्रमों का अन्त कर सकते हैं। आप सबको अनन्त आशीर्वाद! 13 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-13.txt ही सभी कष्टीं हैं का कारण क्ट 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-14.txt शुडी कैम्प, इंग्लैंड, ३१ मई १९९२, अनुवादित (इंग्लिश) स भी धर्म किसी न किसी प्रकार की धर्मान्धता में विलय हो गए क्योंकि किसी को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त न होने के कारण सभी ने अपने ढंग से धर्म की स्थापना कर ली। ताओ और झेन भी इसी की शाखाएं हैं। श्री बुद्ध को लगा कि व्यक्ति को जीवन से आगे कुछ खोजना चाहिए। वे एक राजकुमार थे, उनकी अच्छी पत्नी तथा पुत्र थे और उनकी स्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति अति सन्तुष्ट होता। एक दिन उन्होंने एक रोगी, एक भिखारी तथा एक मृतक को देखा। वे समझ न पाए कि ये सारे कष्ट किस प्रकार | आए। आप में से बहुत लोगों की तरह से वे भी आपने परिवार और सुखमय जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में चल पड़े। सत्य प्राप्ति के लिए उन्होंने सभी उपनिषद तथा अन्य ग्रन्थ पढ़ डाले पर कुछ प्राप्त न कर सके। उन्होंने भोजन त्याग दिया। सभी कुछ त्याग कर जब वे एक बरगद के पेड़ के नीचे रह रहे थे तो आदिशक्ति ने उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया। वे विराट के विशिष्ट अंश बनने वालों में से एक थे इसलिए उन्हें आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हुई। उन्होंने खोज निकाला कि आशा ही सभी कष्टों का कारण है। वे जानते थे कि शुद्ध इच्छा क्या है। इसी | कारण वे लोगों को न बता पाए कि कुण्डलिनी की जागृति के द्वारा ही साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। क्योंकि उन्होंने तपस्वी जीवन बिताया था। अत: बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए तपस्या एक नियम बन गई। बिना भोजन तथा निवास का प्रबन्ध किए श्री बुद्ध अपने साथ कम से कम नंगे पांव चलने वाले एक हजार शिष्य रखा करते थे। उन्हें अपने सिर के बाल मुंडवाने पड़ते थे । सर्दी हो या गर्मी एक ही वस्त्र ओढ़ते थे । उन्हें नाचने गाने या किसी भी प्रकार के मनोरंजन की आज्ञा न थी। जिन गांवो में वे जाते थे वहाँ से भिक्षा मांगकर भोजन एकत्र किया जाता था। वह भिक्षा भोजन अपने गुरु को खिलाने के बाद वे स्वयं खाते थे। चिलचिलाती गर्मी, कीचड़ या वर्षा में वे नंगे पांव चलते थे। परिवार का वे त्याग कर देते थे। यदि पति-पत्नी भी संघ में सम्मिलित हो जाते तो भी पति-पत्नी की तरह रहने की आज्ञा उन्हें न होती थी। व्यक्ति को सभी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक आवश्यकताएं त्यागनी होती थी। बुद्ध धर्मी, चाहे वह सम्राट ही क्यों न हो, यह सबकुछ करता है। सम्राट अशोक भी बुद्ध धर्मी थे। उन्होंने पूर्ण त्यागमय जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न किया। यह अति कठिन जीवन था पर उन्होंने सोचा कि ऐसा जीवनयापन करके वे आत्मसाक्षात्कार को पा लेंगे। श्री बुद्ध के दो शिष्यों को साक्षात्कार मिल सका। पर उनका पूरा जीवन कठोर एवं नीरस था। इसमें कोई मनोरंजन न था। सन्तान तथा परिवार की आज्ञा न थी। यह संघ था पर इस सामूहिकता में कोई तारतम्य न था क्योंकि अधिक बोलने की आज्ञा उन्हें न थी। वे केवल ध्यान धारणा तथा उच्च जीवन प्राप्ति के बारे में बात कर सकते थे। यह प्रथा बहुत से धर्मों में प्रचलित 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-15.txt रही। बाद में त्याग के नाम पर गृहस्थों से धन बटोरने लगे। श्री के बुद्ध তি समय भी साधकों को त्याग करना पड़ता था। पर यह उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने का श्री बुद्ध का वास्तविक प्रयत्न था। उन्हें पूर्ण सत्य का ज्ञान दिलाने চি का प्रयत्न था। पर ऐसा न हुआ। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध के अनुयायी भिन्न प्रकार के हास्यास्पद धर्म बनाकर बैठ गए। उदाहरणार्थ जापान में पशुवध की आज्ञा न थी पर मांस खाना निषेध न था। मनुष्य का वध किया जा सकता था। मनुष्य का वध करने में जापानी विशेषज्ञ बन गए। किस प्रकार से लोग बहाने ढूंढ लेते हैं। जब लाओत्से ने ताओ के विषय में उपदेश दिए तो दूसरे प्रकार के बुद्ध धर्म का उदय हुआ। ताओ कुण्डलिनी हैं। लोग न समझ पाए कि वे क्या कह रहे हैं। कठोरता से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने चित्रकला में अपनी अभिव्यक्ति की । इसके 10 बावजूद भी गहनता में न जा सके। यंगत्जे नाम की एक नदी है जहाँ सुन्दर पर्वत तथा झरनों के कारण हर पांच मिनट में दृश्य परिवर्तित हो जाता है। कहा गया है कि इन बाह्य आकर्षणों की ओर अपने चित्त को न भटकने दें। उन्हें देखकर हमें चल देना चाहिए। ताओ के साथ भी ऐसा ही है । वे कला की ओर झुक गए। मूलत: बुद्ध ने कभी भी कला के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने कहा कि अन्तर्दर्शन द्वारा अपने अन्तस की गहराईयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। अत: सभी कुछ पथ भ्रष्ट हो जाएगा। তি झेन प्रणाली, जो जापान में शुरू हुई, ये भी कुण्डलिनी मिश्रित है । इस प्रणाली में वे पीठ पर रीढ़ की हड्डी तथा चक्रों पर चोट मार कर कुण्डलिनी जागृत कुण्डलिनी जागृति की कठोर विधियाँ खोज निकाली गई। यह कठोरता इस सीमा तक गई कि लोगों की रीढ़ की हड्डी तक टूट जाती है। टूटी रीढ़ में कुण्डलिनी कभी नहीं उठेगी। मैं विदित्म झेन प्रणाली के मुखिया से मिली। वह बहुत करने का प्रयत्न करते हैं। झेन प्रणाली में बीमार था तथा उसे रोग मुक्त करने के लिए मुझे बुलाया गया। मैंने पाया कि চি वह तो आत्मसाक्षात्कारी था ही नहीं और न ही उसे कुण्डलिनी के बारे में कुछ पता था। मैंने उससे पूछा कि, 'झेन क्या है?' इसका अर्थ है ध्यान । झेन के बारे में वह इतना भ्रमित था । कई शताब्दियों में उनमें कोई साक्षात्कारी न हुआ। आप कल्पना कीजिए कि कितने सहज में, बिना किसी बलिदान, तपस्या या त्याग के आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ! बुद्ध, ईसा और महावीर आज्ञा चक्र पर विराजित हैं। आज्ञा चक्र पर तप है। तप का अर्थ है तपस्या। सहजयोग में तपस्या का अर्थ है ध्यान 16 -अन्तशन द्वार 8पने न्तस की गहराईयों में जा कर आपको पूर्ण को खोज निकालना है। 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-16.txt धारणा। आपको पता होना चाहिए कि ध्यान धारणा के लिए कब उठना है। सहजयोगी के लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है। बाकी सभी कार्य स्वतः हो जाते हैं। गहनता में उतरने के लिए आपको ध्यान धारणा करनी होगी। आपको सिर नहीं मुंडवाना, नंगे पांव नहीं चलना, भूखे नहीं रहना और न ही गृहस्थ जीवन का त्याग करना है। आप नाच, गा और मनोरंजन कर सकते हैं। बुद्ध का अर्थ है 'बोध' अर्थात सत्य को अपने मध्य नाड़ी तंत्र पर जानना। अब आप सब बिना कोई त्याग किए बुद्ध बन गए हैं क्योंकि उनका त्याग करना तो मूर्खता थी। यह सब मिथ्या था। संगीत से या नृत्य से क्या अन्तर पड़ता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु ये विचार उनमें इतने गहन हो गए कि आपको उन पर दया आती है। वे खाना नहीं खाते थे , भूखे रहकर वे तपेदिक के रोगियों से भी बुरे प्रतीत होते हैं। जबकि आप लोग सुन्दरतापूर्वक जीवन का आनन्द ले रहे हैं तथा गुलाब की तरह खिले हुए हैं। फिर भी श्री बुद्ध का वह तत्व हमारे अन्दर होना चाहिए अर्थात् हमें तप करना चाहिए। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप भूखे रहें। परन्तु यदि आपको अधिक खाना अच्छा लगता हो तो कम खाना खाने लगें। मोक्ष, जागृति एवं उत्थान के लिए बने संगीत का आनन्द लें। हम बंधनों में इतना जकड़े हैं कि लोग ये भी नहीं समझ पाते कि आत्मा क्या है। परमात्मा के असीम प्रेम की हुए अभिव्यक्ति ही आत्मा है। अब भी हममें से बन्धन कार्यरत हैं। आपमें से को अपनी बहुत कुछ राष्ट्रीयता पर बहुत गर्व है। दूसरे लोगों के साथ हम घुल-मिल नहीं सकते। दूसरे लोगों के मुकाबले स्वयं को बहुत ऊंचा समझते हैं। अब आप सर्वव्यापक व्यक्ति हैं। अत: आपमें यह मूर्खतापूर्ण मिथ्या सीमाएं कैसे हो सकती हैं। आपके अन्दर ज्योति है और आप जानते हैं कि इस प्रकाश को बाहर फैलाने की आवश्यकता है। यदि अब भी आप इसे फैलाने में असमर्थ हैं तो जान लीजिए कि आपको अभी और शक्ति की आवश्यकता है। यह सीखना आपके लिए आवश्यक है कि किस प्रकार अपनी कुण्डलिनी चढ़ाकर हर समय परमात्मा की शक्ति से जुड़े रहें ताकि निर्विचार समाधि में रहते हुए आप अपने अन्दर गहनता में बढ़े। 'मेरा' शब्द का शक्तिशाली बन्धन मुझे अब भी सहजयोगियों में मिलता है। पहले पश्चिमी देशों के लोग अपने परिवार, पत्नियों तथा बच्चों की चिन्ता न किया करते थे। अब मुझे लगता है कि वे गोंद की तरह इनसे चिपक जाते हैं। पति, बच्चे और घर बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। बच्चे संघ के | (सामूहिकता के) हैं। आप मत सोचे कि यह आपका बच्चा है। ऐसा सोचकर आप अपने को सीमित करते हैं और समस्याओं में फंसते हैं। हर देश की समस्याएं कम हो रही हैं। हमें जातीयता पसन्द नहीं है। भारतीय सहजयोगी चाहते हैं कि जाति प्रथा समाप्त हो जाए। क्योंकि यह प्रथा आत्मविनाशक है। अत: हम अपने अन्दर ही देखने लगते हैं कि मेरे लिए, मेरे परिवार के लिए, देश के लिए तथा पूरे विश्व के लिए घातक क्या है। आपके रचनात्मक जीवन के ठीक विपरीत इन सब दुःस्साहसिक कार्यों को आप समझने लगते हैं और इन्हें रोक सकते हैं। यह तभी संभव है जब आप अन्तर्दर्शन तथा समर्पण करने का प्रयत्न करें और देखें कि क्या आपमें वह गुण हैं? अब कुण्डलिनी ने आपके सभी सुन्दर गुणों को जागृत कर दिया है। ये सारे गुण आपमें सही- सलामत थे । जागृत होते हुए कुण्डलिनी 17 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-17.txt ने इन सभी गुणों को भी जागृत कर दिया है। सहजयोग इतना बहुमुल्य है कि मानव को बहुत पहले से इसका ज्ञान हो जाना चाहिए था। यह केवल परमात्मा के बारे में बात करना या मात्र यह कहना ही नहीं कि आपके अन्दर देवत्व निहित है। यह तो इनकी प्रभावकारिता है। आपको किसी विज्ञान की आवश्यकता नहीं। जब भी आपको कोई समस्या हो तो एक बन्धन दे दीजिए। यह इतना सुगम है। विज्ञान से होने वाले हर कार्य को आप सहजयोग से कर सकते हैं। हम कम्प्यूटर भी हैं। आपको मात्र अपनी गहनता को विकसित करना होगा। आप सब ठीक रास्ते पर हैं। हमें इस विनाशकारी आधुनिक विज्ञान की आवश्यकता नहीं। आपमें आत्मसम्मान का होना आवश्यक है। आपको समझना है कि आप एक सहजयोगी हैं और आपको वह अवस्था प्राप्त करनी है जहाँ आपमें वह सबकुछ करने का सामर्थ्य हो जो विज्ञान कर सकता है। आप सब शक्तियों के अवतार बन जाइए। कुछ लोग आकर कहते हैं, 'श्री माताजी, हम अपना हृदय नहीं खोल सकते।' क्या आप करुणा का अनुभव नहीं कर सकते ? मैंने देखा है कि लोगों का हदय कुत्ते-बिल्लियों के लिए तो खुला होता है पर अपने बच्चों के लिए नहीं । यही वह स्थान है जहाँ आत्मा का निवास है और जहाँ से यह अपना प्रकाश फैलाती है। यही वह प्रथम स्थान है जहाँ प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति का प्रकाश आप देख पाते हैं। हो सकता है आपमें केवल अहं हो, आत्मसम्मान न हो और इसी कारण आप हृदय को न खोल पाते हों। श्री बुद्ध अहं का नाश करने वाले हैं । हमारी पिंगला नाड़ी पर विचरण करते वे हमारे बायीं ओर बस जाते हैं। हमारे अहं को वे सम्भालते हैं और हुए हमारी दायीं ओर की पूर्ति करते हैं। दायीं ओर को झुका व्यक्ति न कभी हंसता है ति न मुस्कुराता है। परन्तु बुद्ध को मांसल (मोटा) तथा हंसता हुआ दिखाया गया है। हंसने मात्र से वे दायीं ओर को सम्भालते हैं। वे अपना मजाक उड़ाते हैं और सारा ड्रामा देखते हैं। अपनी ज्योतिर्मय चेतना से सारी मूर्खता को देखिए तथा इसका आनन्द लीजिए। जैसे एलिजाबैथ टेलर को विवाह करके हनिमून पर जाते देखकर ऐसे अशुभ व्यक्ति पर, मोहित होने के स्थान पर उसकी मूर्खता को देखें। वस्तुओं के प्रति आपकी प्रक्रिया आपके चित्त की अवस्था पर निर्भर তि करती है। यदि यह कोई दैवी वस्तु है तो आपका चित्त भाव-विभोर होना चाहिए। परन्तु यदि यह कोई मूर्खतापूर्ण या हास्यास्पद चीज़ है तो आप इसके तत्व को देख सकते हैं। अपने चित्त से आप सत्य से संबंधित हर चीज़ के तत्व 18 -छप एक अहजयोी है र पको वह 8वस्था प्राप्त करनी है जहाँ आपमे वह सबकछ कने का आम्य हो जो विज्ञान कर अकता है। 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-18.txt को देखें। सत्य की तुलना में यह मूर्खतापूर्ण या मिथ्या या पाखण्ड हो सकती है। पर यदि आप सहजयोगी हैं तो आपमें यह बात देखकर उसका आनन्द लेने की योग्यता होनी चाहिए। एक आयु तक बच्चे ऐसा करते हैं। आपकी प्रक्रिया आपके प्रकाशित चित्त पर निर्भर करती है। एक प्रकाशित चित्त किसी मूर्ख, भ्रमित तथा नकारात्मक चित्त से भिन्न प्रक्रिया करता है। जो हम हैं उसे स्वीकार करना चाहिए और हम, आत्मा है। श्री बुद्ध की चार बातें आप सबको प्रात:काल कहनी चाहिए। प्रथम - 'बुद्धं शरणम् गच्छामि: अर्थात मैं स्वयं को अपने प्रकाशित चित्त के प्रति समर्पित करता हूँ। फिर उन्होंने कहा, 'धम्मं शरणम् गच्छामिः' अर्थात् मैं स्वयं को धर्म के प्रति समर्पित करता हूँ। यह कोई मिथ्या धर्म नहीं जो विकृत हो गए। इसका अर्थ है कि मैं स्वयं को अपने अन्तर्जात धर्म (धर्मपरायणता) के प्रति समर्पित करता हूँ। तीसरी बात जो उन्होंने कही, 'संघं शरणम् गच्छामि:' अर्थात् मैं स्वयं को सामूहिकता के प्रति समर्पित करता हूँ। पिकनिक आदि के बहाने आप कम से कम महीने में एक बार मिलें आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हैं। लघु-ब्रह्माण्ड विशाल ब्रह्माण्ड बन गया है। आप विराट के अंग-प्रत्यंग हैं। इस बात का ज्ञान आपको होना चाहिए इस प्रकार कार्य होते हैं तथा हम नकारात्मक तथा सकारात्मक, अहंकारी तथा नम्र व्यक्तियों को पहचान सकते हैं। हम वास्तविक सहजयोगियों को तथा सहजयोगी कहलाने वाले व्यक्तियों को पहचान सकते हैं तथा मिथ्या लोगों को त्याग देते हैं। सामूहिक हुए बिना आप सामूहिकता के महत्व को कभी नहीं समज सकते । सामूहिकता आपको इतनी शक्तियाँ, इतनी सन्तुष्टि और आनन्द प्रदान करती है कि व्यक्ति को सहजयोग में सामूहिकता पर सर्वप्रथम ध्यान देना चाहिए। किसी चीज़ की कमी हो, तो भी आप बस, सामूहिक हो जाइए। सामूहिकता में आपको अन्य किसी की भी आलोचना नहीं करनी चाहिए, न उनको गाली देनी चाहिए और न उनके दोष देखने चाहिए। अन्तर्दर्शन कीजिए कि जब सभी लोग आनन्द ले रहे हैं तो मैं ही क्यों बैठकर दूसरों के दोष खोज रहा हूँ। यदि आप दूसरों के स्थान पर अपने दोष खोजने पर चित्त लगा दें तो मुझे विश्वास है कि आप कहीं अधिक सामूहिक हो जाएंगे। सहजयोग अति व्यावहारिक है क्योंकि यह पूर्ण सत्य है। अत: अपनी सारी शक्तियाँ सूझ -बूझ और करुणामय प्रेम के साथ आपको अपने विषय में आश्वस्त होना है और जानना है कि हर समय परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति उन्नत होने में आपकी सहायता, रक्षा, मार्गदर्शन, पोषण तथा देखभाल कर रही है। परमात्मा आप पर कृपा करें। 19 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-20.txt टर यमुनानगर, ४ अप्रैल १९९२ 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-21.txt ह में सरस्वती की भी आराधना करनी चाहिए। सरस्वती का कार्य बड़ा महान है। महासरस्वती ने पहले सारा अंतरिक्ष बनाया। इसमें पृथ्वी तत्व विशेष है। पृथ्वी तत्व को इस तरह से सूर्य और चन्द्रमा के बीच में लाकर खड़ा कर दिया कि वहाँ पर कोई सी भी जीवन्त क्रिया आसानी से हो सकती है। इस जीवन्त क्रिया से धीरे-धीरे मनुष्य भी उत्पन्न हुआ। परन्तु हमें अपनी बहुत बड़ी शक्ति को जान लेना चाहिए। वो शक्ति है जिसे हम सृजन शक्ति कहते हैं, क्रिएटिविटी कहते हैं। यह सृजन शक्ति सरस्वती का आशीर्वाद है जिसके द्वारा अनेक कलाएं उत्पन्न हुई। कला का प्राद््भाव सरस्वती के ही आशीर्वाद से है। मुझे बड़ा आनन्द हुआ कि आज सरस्वती का पूजन एक कॉलेज में हा रहा है। इसके आसपास भी कई स्कूल-कॉलेज हैं। मानो जैसे यह जगह विशेषकर सरस्वती की पूजा के लिए ही बनी है। हमारे बच्चे स्कूलों में विद्यार्जन कर रहे हैं। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि बिना आत्मा को प्राप्त किए हम जो भी विद्या पा रहे हैं वो सारी अविद्या है । बिना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किए आप चाहे साइंस पढ़े या अर्थशास्त्र, उसे न तो आप पूरी तरह समझ सकते हैं और न ही उसको अपनी सृजन शक्ति में ला सकते हैं। बच्चे दो प्रकार के होते हैं एक तो पढ़ने के शौकीन होते हैं और दूसरे जिन्हें पढ़ने का शौक नहीं होता। कुछ बच्चों के पास कम बुद्धि होती है और कुछ के पास अधिक। बुद्धि भी सरस्वती की देन है लेकिन आत्मा से मनुष्य में सुबुद्धि आ जाती है। बुद्धि से पाया हुआ ज्ञान जब तक आप सुबुद्धि पर नहीं तोलिएगा तो वह ज्ञान हानिकारक हो जाता है। इसलिए बहुत से लोग सोचते हैं कि पढ़ाने लिखाने से बच्चे बेकार हो जाएंगे, सफेदपोश होकर फिर खेती नहीं करेंगे। बस अपने को कुछ विशेष समझकर के और इसी बहकावे में रहेंगे। किन्तु आत्मसाक्षात्कार को पाकर जो विद्यार्जन होता है उसमें बराबर नीर-क्षीर विवेक आ जाता है। वे समझ लेते हैं कि कौनसी चीज़ अच्छी है और कौनसी बुरी है। कौनसी चीज़ सीखनी चाहिए और कौनसी चीज़ नहीं सीखनी चाहिए। उससे पहले कोई मर्यादाएं नहीं होती। मनुष्य किसी भी रास्ते पर जा सकता है और किसी भी ओर मुड़ सकता है और कोई भी बुरे काम कर सकता है। आजकल आप जानते हैं कि छोटे बच्चों में बहुत सारी बुराइयाँ आने की संभावना है और बड़ों में तो हो ही रहा है कि ड्रग्स आ गए और दुनिया भर की गंदी बातें बच्चे सीख रहे हैं और परेशानी में फंस गए हैं। ये सब चीज़ों का इलाज एक ही तरीके से हो सकता है कि इनके अन्दर आप आत्मा का साक्षात्कार करें। आत्मा का साक्षात्कार मिलने से ही सरस्वती की भी चमक आपकी बुद्धि में आ जाती है और जो बच्चे पढ़ने लिखने में कमजोर होते हैं वो भी बहुत अच्छा कार्य करने लग जाते हैं। इसके बाद कला की उत्पत्ति होती है अगर आप कला को बगैर आत्मसाक्षात्कार के ही अपनाना चाहें तो वह कला अधूरी रह जाती है या वो बेमर्यादा कहीं ऐसी जगह टकराती है कि जहाँ उसकी कला का 22 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-22.txt नामोनिशान नहीं रह जाता। तो पहले आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करके ही सरस्वती का पूजन है। करना एक बड़ी शुभ बात ह आज का दिन, आप जानते हैं, नवरात्रि का पहला दिन है और इस दिन भी जो शालीवाहन का शक है उसका भी आज पहला दिन है। मतलब बहुत ही शुभ दिवस पर ये कार्य हो रहा है। तो हमें सरस्वती के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए। मैं देखती हूँ कि जहाँ-जहाँ लोग खेती करते हैं वहाँ-वहाँ धीरे-धीरे उनका संबंध प्रकृति से होता है और प्रकृति की जो खुबसूरती है उसे वो प्रकट करना चाहते हैं । जो कलाकार होता है वो भी प्रकृति की खूबसूरती को देखकर हुबहू उस तरह से न बना उसमें अपनी भावना डालकर उसे एक नया रूप दे देता है। आपने ये जो सब बनाया हुआ है कितना कलात्मक है। कितनी सुन्दरता से चक्र बनाए फिर श्री गणेश को बनाया है-सबकुछ देखते ही बनता है। जब आप कला को पाने लग जाएंगे और जब आप कला की संवेदना समझ शुभ लेंगे तब आप कलात्मक चीज़ों की ही ओर रहेंगे। बहुत सी चीजें लोग बनाते हैं, पर कुछ चीज़ें | ऐसी बनती है जिसमें स्वयं चैतन्य बहता है। ऐसे तो पृथ्वी तत्व से ही बहुत से स्वयंभू निकल आए हैं लेकिन अगर आत्मसाक्षात्कारी मनुष्य कोई पुतला बनाता है या कोई कलात्मक चीज़ बनाता है में तो उसमें से भी चैतन्य आने लग जाता है। सुन्दर होने के साथ-साथ ऐसी कृति एक तरह की अनन्त शक्ति होती है । किसी साधारण कलाकार की बनाई कला शीघ्र समाप्त हो जाती है। उसके | प्रति न तो लोगों की आस्था होती है और न ही श्रद्धा लेकिन अगर कोई कलाकार आत्मसाक्षात्कारी हो तो उसकी कला अनन्त तक चलती है क्योंकि उसके अन्दर अनन्त की शक्ति निहित होती है क्योंकि उसने जो कुछ भी बनाया वो आत्मा की अनुभूति से बनाया है, जो आत्मा को रुचिकर है जो आत्मा पसंद करे ऐसी चीज़ वह बनाता है। कलात्मकता इस तरह से मनुष्य में बहुत सुन्दरता से पनपती है और ऐसी जितनी भी कला की चीज़ें बनती हैं वो हमेशा के लिए संसार में मानी जाती हैं। हिन्दुस्तान से बाहर भी मैंने देखा कि जो कलाकार आत्मसाक्षात्कारी थे उनकी कला आज तक लोग मानते हैं। एक माइकल एन्जेलो नाम के बड़े भारी कलाकार थे। बहुत सुन्दर उन्होंने रचना की। बहुत सुन्दर सब कुछ बनाया। आज तक लोग उसे एक बड़े ही गौरव के साथ समझते हैं। आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति की कला अनन्त की शक्ति से प्लावित होती है। तो आप लोग भी आत्मसाक्षात्कारी हो गए हैं। हरियाणा में इतने लोग आत्मसाक्षात्कारी हो गए और अब और भी बहुत सारे लोग आएंगे, वो भी आपके ही जैसे एक दिन सहजयोगी हो जाएंगे और समझ जाएंगे कि सहजयोग क्या है। किन्तु जब लोग सहजयोग में तो आ गए तो अब आप कला की ओर अपनी दृष्टि बढ़ायें। कला की ओर दृष्टि बढ़ाने से एक जीवन में सौन्दर्य आ जाता है और जीवन का रहन-सहन सुन्दर हो जाता है। उसके लिए जरुरी 23 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-23.txt चीज़ों में चैतन्य बहती है। मशीनों का हाथ से बनी हुई ईसकी इलाज ही यह है कि जब लोग कलात्मक चीज़ों की ओर बढ़ेंगे नहीं कि आप बहुत रुपया-पैसा खर्च करें। मिट्टी में भी कला भरी है। आप मिट्टी की भी कोई चीज़ बनायें तो भी वह कलात्मक हो सकती है। हमारे उबड़-खाबड़ जीवन में यदि थोड़ी सी कला की झलक आ जाए तो बड़ा सुख और आनन्द मिलता है। इसलिए आप लोगों की दृष्टि अब कला की ओर जाए तो बड़ा अच्छा हो जाए सभी लोगों के लिए। यहाँ के लोग भी कुछ कलात्मक चीजे बनाने का प्रयत्न करें । हाथ से बनी हुई चीज़ों में चैतन्य बहुता है। मशीनों का अत्याधिक प्रयोग करने से ही वातावरण दृषित हो गया है। इसका इलाज ही यह है कि आप कलात्मक चीज़ों की ओर बढ़ें। जब लोग कलात्मक चीज़ों की ओर बढ़ेंगे तो एक तरह की श्रद्धा कला के प्रति हो जाएगी। सबसे बड़ी बात तो है कि हम हजारों चीजें जो बेकार की खरीदते हैं वो बंद हो जाएंगी। हाथ से बनी चीज़ों के द्वारा अपने हृदय का आनन्द हम दसरों को समर्पित करते हैं। ये फूल आपने इतने कलात्मक ढंग से लगाए हैं। इनकी ओर देखते ही हठात मैं निर्विचार हो जाती हूँ। मुझे अन्दर कोई विचार नहीं आता निव्व्याज्य निर्विचार होकर के सच में इसे देख रही हूँ। इसको बनाने में जिसने जो कुछ भी आनन्द इसमें डाला है वो पूरा का पूरा मेरे सर से ऐसे बह रहा है जैसे गंगा जी बह रही हैं। उससे एकदम बहुत शान्त और आनन्दमयी भावना आ जाती है। जब तक कलात्मक चीज़ें नहीं होंगी तब तक आपका विचार चलता रहेगा। कलात्मक चीज़ हठात आपको निर्विचारिता में उतारेगी और उसका सौन्दर्य देखते ही आपको ऐसा लगेगा कि आप निर्विचार हैं क्योंकि सौन्दर्य देखने से ही चैतन्य एकदम बहने लगता है और उस सौन्दर्य के कारण ही एकदम से आप निर्विचार हो जाते हैं। इसलिए आदिशंकराचार्य ने इसे सौन्दर्य लहरी कहा । अब यह सोचना है कि किस तरह से यह सौन्दर्य स्थापित हो। सबसे पहले सौन्दर्य में हमेशा वैचित्र्य होना चाहिए, वैराइटी होनी चाहिए। परमात्मा ने यदि सबकी शक्ल एक सी बनायी होती तो कैसे लगते हम लोग? सभी लोग अलग-अलग प्रकार के कपड़े पहनते हैं। हमारे देश की सभी स्त्रियां अलग ढंग, रंगों की साडियां पहनती हैं। यह वैचित्र्य केवल हमारे देश में ही मिलता है। विकसित देशों की औरतें तो गुलामों की तरह एक ही प्रकार के फैशन करती हैं। एक ही प्रकार के बाल बनवाती हैं। उनमें कोई फर्क ही नहीं प्रतीत होता। उनके अन्दर जो आत्मा है वह दबी हुई है। उनमें न वैचित्र्य है और न ही सृजन शक्ति। अब कला का भी यही हाल हो गया है। विदेशों में अच्छी कला कृतियां अधिक नहीं निकलतीं। केवल आलोचक ही रह गए हैं। आलोचक दूसरे आलोचकों की आलोचना में लगा है। अब कलाकार भी डरते हैं क्योंकि कोई सी भी कला बनाओ तो वह क्रिटिक बैठे हुए उनको पहले पड़तालेंगे कि यह ठीक है या नहीं। और दूसरी बात यह बताएंगे कि इसका पैसा कितना मिल सकता है। जब कला पैसे पर उतर आती है तब उसकी आत्मा ही खत्म हो जाती है। कला आनंदमयी होनी चाहिए न कि उससे कितना पैसा मिले। 24 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-24.txt अत्याधिक प्रयोग करने से ही वातावरण दषित हो गया हैं । आप कलात्मक चीजों की ओर बढें| ती एक तरहे की श्रद्धी केला के प्रति हो जाएगी। जब आपकी यह धारणा और लक्ष्य हो जाएगा तो स्वयं आत्मा ही आपको ऐसी प्रेरणा देगा कि आप ऐसी- ऐसी सुन्दर चीज़ें बनायेंगे जो भूतो न भविष्याति, पहले कभी बनी नहीं और न बनेगी। एक से एक कलात्मक चीज़ लोग बनायेंगे और शांत प्रकृति गांवों के लोग इस प्रकार की रचना कर सकते हैं। शान्तिमय, ध्यानावस्था में रहे होनी बिना कला सृजन अधूरा रह जाता है या मर्यादा विहीन। आपको कला का तंत्र तथा तकनीक मालूम चाहिए। जब आपको आत्मसाक्षात्कार होता है तभी आपकी सृजन कला बढ़ जाती है। हमने देखा है सहजयोग में आने के बाद बहुत सारे संगीतकार जगप्रसिद्ध हो गए । गणित जानने वाले चार्टेड अर्कौंटंट कवि हो गए। उन्होंने पहले कभी कविता नहीं लिखी। इसी प्रकार जो कभी स्टेज पर नहीं आए वो बड़े-बड़े भाषण दे रहे हैं, जिन्होंने गाना कभी गाया नहीं था वो बहुत सुन्दर गाना गाने लग गए। आस्ट्रेलिया में एक सहजयोगिनी बहुत सर्वसाधारण एक कलाकार थी लेकिन आज उसका सारी दुनिया में नाम फैल गया है। इस प्रकार जब आप पर सरस्वती जी की कृपा होती है तो आप कलाकार बन जाते हैं लेकिन आप आत्साक्षात्कारी कलाकार हो जाते हैं। जब आप आत्मसाक्षात्कारी कलाकार हो जाते हैं तब आपका सारा ही व्यक्तित्व बदल जाता है और जो भी सृजन आप करते हैं उसमें वो शक्ति, जिसे मैं अनन्त की शक्ति कहती हैं, वह समाहित होती है और ऐसी बनाई हुई चीजें, ऐसी क्रिया से जिसने कोई सा भी कार्य सम्पन्न किया हो, उसकी कीमत आंगी ही नहीं जा सकती और अनन्त तक उसकी सौन्दर्य शक्ति प्रदर्शित होती रहती है। चाहे वह कलाकार की मृत्यु को हजारों वर्ष हो जाए तो भी लोग उस कला को देखकर के कहते हैं कितनी सुन्दर चीज़ है। सहजयोगियों के लिए बहुत जरुरी है कि वह कला में उतरें और कला को समझें। आपके साथ सरस्वती की कृपा हमेशा बनी रहे। विशेषकर के आज जो आप आत्मसाक्षात्कारी हुए हैं ये तो और भी अच्छी बात है कि आत्मसाक्षात्कार के बाद अगर कला ली जाए तो बहुत ही सुघड़ और बहुत ही सहज हाथ में लग जाती है। जैसे हमारे स्कूलों में परदेश से बच्चे आए इन्होंने कभी कुछ सीखा नहीं था, इन्हें कुछ पता नहीं था। एकदम सीधे- सीधे चले आए और अब जबसे इनको आत्मसाक्षात्कार मिला है एकदम से ही वो इस कदर बढ़िया सीख गए। एक तो हिन्दी भाषा सीख गए, फिर अब बहुत सुन्दर चित्रकारी करते हैं, फिर अब मिट्टी के बर्तन बनाना शुरू किया। अब उनको लगता है अब क्या बनायें। फिर इन्होंने एक घर बनाया फिर उसके ऊपर माड़ी बनायी और तरह-तरह की चीज़ें वो बनाने में लगे हैं। ऐसी जो अन्दर से प्रेरणा आती है वह भी सहजयोग की वजह से हुए और इस प्रेरणा को पूरित करने वाली शक्ति भी सहजयोग से आ जाती है| आप सबको अनन्त आशीर्वाद! 25 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-25.txt ढ। ै ् स २ শশা त्ণ सदा याद रखें कि प्रेम की दिव्य शक्ति के सम्मूख सारा असत्य लड़खड़ी जाती हैं। आसुरी शक्ति कुछ समय के लिए रह सकती है परन्तु अन्ततः उनकी पतन ही जीएगी| काठमण्डु, ९-०४-९५ 26 ७ 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-26.txt सं. चार बनाये रखने के लक्ष्य से मैं लीडर बनाती हूँ, अन्यथा अगुआगणों में कोई विशेष बात नहीं है। परन्तु कोई भी मुझसे उनके विषय में शिकायत नहीं करे। उनके बारे में मैं सब कुछ जानती हूँ और उन्हें सुधारना भी मुझे आता है। अगुआओं को चाहिए कि केंद्रों में भाषण न दें। वे केवल मेरे टेप चला दें और इस बात का ध्यान रखें कि लोगों को चैतन्य लहरियां मिल रही हैं कि नहीं। अपना प्रभाव जमाने का वे प्रयत्न न करें, अत्यन्त नम्रता से पीछे रहते हुए अन्य लोगों की शान्तिपूर्वक सहायता करते रहें। आपको देख कर ही लोग सहजयोग में आयेंगे। सहजयोगियों को मेरे साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहिए, अगुआओं के साथ नहीं। आपकी सारी समस्यायें चक्र-विकारों के कारण आती हैं। चक्रों के ठीक होते ही समस्यायें समाप्त हो जाती हैं। नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियों में सदा युद्ध चलता रहता है। आन्तरिक नम्रता का होना आवश्यक है, इसके बिना आप सहजयोग समुद्र में खो जाएंगे । परन्तु यह नम्रता अन्दर से आनी चाहिए। आत्म निरीक्षण करें कि, 'मुझमें क्या कमी है। अपने देश का यदि आप हित चाहते हैं तो देश, जाति आदि से लिप्त न हों। लोगों का संवेदनशील हुए बिना सहजयोग बढ़ नहीं सकता। नये लोगों के प्रति करुणामय बनें। उन्हें ये न बतायें कि वे पकड़े हुए हैं। अपनी करुणा को दर्शायें। उन्हें बतायें कि 'मैं भी इन्हीं समस्याओं में से निकला हूँ, मैं भी आप ही जैसा था।' तभी वे आपके साथ में तादात्म्य स्थापित कर सकेंगे। यदि उन्होंने गहनता प्राप्त कर ली है तो ६ महिनों के बाद वे पूजा सम्मलित हो सकते हैं। उन्हें पूजा के नियमाचरणों के विषय में बताएं। केंद्र में शान्ति और व्यवस्था करने वालों में मेल-मिलाप का वातावरण होना चाहिए। लोग आपसे शान्ति प्राप्त करें। धन सम्बन्धी मामलों की बातचीत न करें। सदा याद रखें कि प्रेम की दिव्य शक्ति के सम्मुख सारा असत्य लड़खड़ा जाता है। आसुरी शक्ति कुछ समय के लिए रह सकती है परन्तु अन्तत: उनका पतन हो जाएगा। यह सब मेरा कार्य है, मुझे पर छोड़ दें। 27 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-27.txt ढूल्हों. को यहाँ एक प्रकार का पावन सम्बन्ध है जिसमें आपको अपनी पत्नी के साथ अत्यन्त सहज जीवन गुजारना होता है और उसे समझना होता है। उपदेश 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-28.txt अ प सबको यहाँ देखकर मैं बहत प्रसन्न हूँ। आप सबको विदित होना चाहिए कि सहजयोग में विवाह करने के पश्चात् आपको एक भिन्न प्रकार का जीवन व्यतीत करना होगा। अन्य विवाहों तथा सहजयोग विवाहों में काफी अन्तर है। सहज विवाह में हमें समझना होता है कि यहाँ एक प्रकार का पावन सम्बन्ध है जिसमें आपको अपनी पत्नी के साथ अत्यन्त सहज जीवन गुजारना होता है और उसे समझना होता है। वह भी सहजयोगिनी है इसलिए आवश्यक है कि आप उसका सम्मान करें और उसे प्रेम करें। वह समझ सके कि आप उसके हितचिन्तक, प्रेममय एवं भद्र पति हैं। उसके प्रति आपको अपना पूर्ण प्रेम दर्शाना होगा क्योंकि वह सहजयोगिनी है, सर्वसाधारण महिला नहीं । इस सम्मान के साथ मुझे आशा है कि आप लोग अत्यन्त सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत करेंगे । सहजयोग में जैसा होता है, हम परस्पर आलोचना नहीं करते। अत: क्षमा करना या किसी को बर्दाश्त करना उससे कष्ट सहना नहीं होता। आप क्षमा इसलिए करते हैं क्योंकि आप सहजयोगी हैं, श्रेष्ठ मानव हैं। अत: अपनी पत्नी में दोष निकालने का प्रयत्न न करें और न ही हर समय उसे आदेश देते रहें-ऐसा करो, वैसा करो, उसका हाथ बटाएं। सहजयोग में हम नहीं मानते कि किसी को दूसरे व्यक्ति पर रौब जमाने का अधिकार है। अतः आपको चाहिए उसकी सहायता करें, उसको समझें और समस्याओं में उसके सहभागी बनें। उसके लिए कठिनाइयाँ खड़ी करने के स्थान पर उसकी सहायता करें। वह आपकी साथी है, दास नहीं, न वो आपकी नौकर है और न ही आप उसके स्वामी। अत: सहजयोगियों में ये दुर्गुण नहीं होने चाहिए। एक दूसरे को समझना सर्वोत्तम है। उसके हृदय को भी समझने का प्रयत्न करें। कभी - कभी महिलाएं भिन्न संस्कृतियों और देशों से होती हैं इसलिए समझने का प्रयत्न करें । इसी प्रकार उसके देश की संस्कृति को आप समझ पाएंगे। पत्नी का सम्मान किया जाना बच्चों के लिए भी हितकर है। पत्नी के विषय में आपकी कुछ विशेष धारणाएं नहीं होनी चाहिए जो भी धारणाएं (बन्धन) अब तक आपने बनाए हुए थे या जो आपने समाज में देखे थे उन्हें भूल जाएं। आप बिल्कुल भिन्न लोग हैं। सहजयोग के कार्य के लिए आप चुने गए हैं। यह बात भली-भांति समझ लें कि जिस लड़की से आपका विवाह होने वाला है और जो आपकी देखभाल करेगी वह सहजयोगिनी है । मैं उन्हें भी बताऊंगी कि उन्हें क्या करना है। पत्नी को परेशान करने के लिए पौरुषिक रौब अपने अन्दर न रखें और स्वयं को परिवार का मुखिया मानकर पत्नी को परेशान न करें। उसके सहभागी बनें, सहभागी बन जाने पर उसे समझने और उसकी सहायता करने में आपको आनन्द मिलेगा । मुझे आशा है आपके विवाह अत्यन्त सफल होंगे और आपको अत्यन्त सुन्दर, मधुर और जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी सन्तानें प्राप्त होंगी। मुझे विश्वास है, कि आपका आने वाला जीवन अत्यन्त सुखमय होगा। अत: अपनी पत्नी को प्रसन्न करते हुए सभी लोगों को सुख देते हुए हर चीज़ को सहज ढंग से देखते हुए आनन्दमय जीवन के लिए प्रस्थान करें। परमात्मा आपको धन्य करें। दिल्ली , २३ मार्च २००० 29 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-29.txt संहसार स्वामिनी नि रम सहसार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह ने केवल सात चक्रों की बल्कि बहत से अन्य चक्रों की भी पीठ है । सहसार पर आप कुछ भी कर सकते हैं 30 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-30.txt सहस्रार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह न केवल सात चक्रों की बल्कि से अन्य चक्रों बहुत की भी पीठ है। सहस्रार पर आप कुछ भी कर सकते हैं ..... .परन्तु महामाया के माध्यम से चीजे सामान्य रूप से कार्यान्वित होती हैं और ऐसा ही होना चाहिए। उदाहरणार्थ आप कह सकते हैं कि श्री माताजी, वातावरण, पर्यावरण की समस्याओं से भरा हुआ है, आप इसे शुद्ध क्यों नहीं करतीं ? यदि शुद्ध हो गया तो लोग समस्यायें ही बनाते रहेंगे। यह मानव की समस्या है और यदि मैं इसे ठीक कर देती हूँ तो वे इसे अपना अधिकार मान बैठेंगे । उन्हें इन समस्याओं का सामना करना होगा और अपनी आदतें बदलनी होंगी। उन्हें समझना होगा कि वे स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं अन्यथा यदि कोई अन्य व्यक्ति शुद्धिकरण के लिए होगा तो वे कभी भी परिवर्तित नहीं ........उनकी समस्याओं को सुलझा देने से ही मेरा कार्य समाप्त नहीं हो जाता और न यह लक्ष्य है। मेरा लक्ष्य तो उन्हें समर्थ बनाने का है ताकि वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा सकें। आपको अपना डॉक्टर या अपना गुरु बनना होगा परन्तु महामाया के बिना आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वही जानती हैं कि स्वतन्त्र मानव के शुद्धिकरण और नियन्त्रण में किस सीमा तक जाना है। इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण स्वतन्त्रता सहजयोगियों की नहीं होती। उन्हें तो आत्मा की स्वतन्त्रता हो सकें। जो लोग बिना प्राप्त है, अत: उनकी समस्याओं को सुलझाना बिल्कुल ठीक है ताकि वे पूर्ण स्वतन्त्र सोचे-समझे पूरे विश्व को हानि पहुँचाने जा रहे हैं उन्हें स्वतन्त्र बनाने का क्या लाभ है? उनके लिए आवश्यक है कि सहजयोग में आएं-इसी कारण यह महामाया स्वरूप है। यदि मैं, माँ मेरी, राधा या ऐसे ही किसी अन्य रूप में आई होती तो हो सकता है सभी लोग यहाँ होते और सुन्दर भजन गा रहे होते, पर ऐसा नहीं है। अब आपको परिपक्व होना है, कुछ बनाना है बनना और विकसित होना है और इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम आप सहजयोग में आएं तब आपको सहजयोग में विकसित होना होगा, नहीं तो महामाया लीला करती रहेंगी और आपको भ्रमित करती रहेंगी। सहस्रार विराट का क्षेत्र है, विराट विष्णु हैं जो राम बने फिर कृष्ण बनें। तो यह लीला है। उसकी लीला, नाटक है और नाटक को ठीक करने के लिए उसे महामाया रूप में होना होगा। बचाव के बहुत से मार्ग हैं। कभी-कभी लोग चीज़ों को सुगमता से खोज लेते हैं, उनमें से एक परम .जो पहले कभी नहीं हुआ। मैं स्वयं चैतन्य है। परम चैतन्य कार्य करता है मेरे चित्र दिखाता है आश्चर्यचकित हूँ। .......आपको महामाया के विषय में समझाने के लिए परम चैतन्य महामाया को प्रगट करने का प्रयत्न कर रहा है। यह स्वयं की अभिव्यक्ति कर रहा है। मैंने तो परम चैतन्य को ऐसा कोई कार्य करने को नहीं कहा। परन्तु यह सत्य है क्योंकि यह सोचता है कि अब भी जो लोग श्री माताजी का अनुसरण कर रहे हैं उनका स्तर उतना ऊँचा नहीं जितना होना चाहिए था। ..... (परम चैतन्य यह चाहता है कि) अपने विश्वास को आप दृढ़ कर लें, यह विश्वास अंधविश्वास नहीं है। सहजयोगी समझने का प्रयत्न करें कि उन्हें विकसित होना है। यह 31 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-31.txt विकास भी द्विपक्षीय होना चाहिए। पहला आपका पक्ष है कि मैं कितना समय सहजयोग के विषय में सोचने पर लगाता हूँ और कितना अपने व्यक्तिगत जीवन पर ? सहजयोग में हमें परमात्मा की ओर झुकना पड़ेगा । आप देखें कि आपके सभी विचार सहजयोग की ओर जा रहे हैं, पूरी सोच ही सहज है। सहज में सबसे मनोरंजक बात यह है कि जो भी कार्य आप करते हैं उसे देखते हैं। सहज मार्ग के विषय में आप सोचते हैं। इस महामाया में आप मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं ? सहज के विषय सोचते हुए आप कहाँ तक जा सकते हैं? इस व्यापार से मैं कितना धन कमा सकता हूँ? मैं कितना आनन्द ले सकता हूँ? कितनी शारीरिक समस्यायें सुलझ सकती हैं? आदि सभी लाभ सहजयोग में आपकी परिपक्वता के सम्मुख कुछ भी नहीं। मस्तिष्क के हाथ में बागडोर आते ही यह अत्यन्त सोच में पड़ जाता है । तुम्हारी पत्नी, बच्चे, घर आदि बहुत सी चीज़ों पर यह मँडराया रहता है पर यदि आप सहज ढंग से सोचेंगे तो कहेंगे कि मुझे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे मेरे बच्चे सहज बनें। मुझे एक | ऐसा घर चाहिए जो सहज के लिए उपयोग में आ सके। मेरा आचरण ऐसा हो जिससे लगे कि मैं सहजयोगी हूँ। आप में परिपक्वता इस प्रकार बढ़े कि आप इसे महसूस कर पायें। सर्वप्रथम शांति। अशांत व्यक्ति का मस्तिष्क अस्थिर यन्त्र के सम होता है। वह ठीक प्रकार से न तो देख सकता है, न सोच सकता है और न ही समझ सकता है। . विश्व में जिस इस महामाया के माध्यम से हर चीज़ उलट-पुलट हो रही है। ....... प्रकार संघर्ष चल रहा है यह युद्ध नहीं है, यह शीत युद्ध नहीं है यह तो एक अजीब किस्म का युद्ध- यश है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। ... ........परमात्मा तथा आध्यात्मिकता का व्यापार हो रहा है। आज के इस पतित विश्व के लिए महामाया का होना आवश्यक है जिसके द्वारा दर्शा सकें कि इस जीवन में आप जो कर रहे हैं उसके लिए आपको नाकों चने चबाने पड़ेंगे। .इस महामाया को हम रोकड़ा देवी कहते हैं अर्थात हाथों हाथ फल देने वाली, नग़द भुगतान करने वाली देवी, आपने ऐसा किया, ठीक है आप ये ले लें। आपने यह कार्य किया ठीक है, आप इसका आनन्द ले। वास्तव में ये महामाया विशेष रूप से गतिशील हैं। जिस तरह से यह लोगों को दण्डित कर रही हैं, कभी-कभी तो मुझे भय प्रतीत होता है। पर वास्तविकता यही है। यदि आप कहें कि मुझे अन्धाधुन्ध गाड़ी चलानी अच्छी लगती है तो ठीक है, समाप्त। लँगड़ाती टाँग या टूटा हाथ आपका अंत है। महामाया के माध्यम से दैवी कानून कार्यरत है। आज की तरह यह कभी इतना तेज न 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-32.txt ह था। ......मानव की स्वतन्त्र इच्छा पर अंकुश रखने के लिए महामाया अपनी स्वतन्त्र इच्छा का उपयोग कर रही हैं। ......यह कथित स्वतन्त्रता जिसका आनन्द लेने का हम प्रयत्न कर रहे हैं हमें हमारे अन्त तक ले आई है। लोग अपने ही शिकंजे में फँस रहे हैं। यह शिकंजा ही महामाया है। आपसे ही वे इसकी रचना करती हैं क्योंकि आप अपना सामना नहीं करना चाहते, सत्य को जानना नहीं चाहते, सत्य से आप जी चुराना चाहते हैं। यह महामाया का ही एक पक्ष है कि तुरन्त आप अपना सामना करने को विवश हो जाते हैं।...... कितनी सारी घटनायें घटीं इनका विचार कीजिए। बड़े-बड़े पूँजीपति जेल में हैं। बड़े प्रसिद्ध लोग जेल में हैं। इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं क्यों? क्योंकि यह महामाया सबक देना चाहती हैं। एक व्यक्ति को दण्डित करने से यह हज़ारों लोगों को रास्ते पर ले आती हैं । है। इतना डरा हुआ विश्व है, इतनी असुरक्षा ......आज हर व्यक्ति व्यंग्र है और अपना जीवन बचाने की सोच रहा है। ......आप सहजयोग में आ जाएं तो आप कष्ट से बच सकते हैं क्योंकि महामाया का एक पक्ष यह है कि वे रक्षा करती हैं। जब तक स्वयं न चाहे कोई सहजयोगी को मार नहीं सकता। उनकी अपनी इच्छा है, उन्हें कोई छू नहीं सकता। किस प्रकार यह महामाया सहजयोगियों की रक्षा करती हैं इसकी बहुत सी यह चेतन मस्तिष्क है परन्तु अत्यन्त गहन सुषुप्ति की कहानियाँ हैं। स्वप्न में भी वे रक्षा करती हैं। अवस्था में आप जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत? किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत। किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं। यही ज्ञान अन्तज्ञ्ञान है जो कि महामाया के माध्यम से आता है। केवल वे ही आपको अन्तज्ञान देती हैं कि क्या करना आवश्यक है? किस प्रकार समस्या से छुटकारा पाना है? और आप छुटकारा पा लेते हैं। कोई यदि सहजयोगियों को परेशान करने का प्रयत्न करता है तो महामाया एक सीमा तक उसे ऐसा करने देती हैं और फिर अचानक गतिशील हो उठती हैं। लोग आश्चर्यचकित हो उठते हैं, सहजयोगी हैरान हो जाते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा किस प्रकार बन गया? यह महामाया मेरी साड़ी की तरह हैं और रक्षा कर रही हैं। वह अत्यन्त सुन्दर, दयालु, ध्यान रखने वाली, करुणामय, स्नेहमय तथा कोमल हैं। वह आपकी देख-रेख करती हैं और राक्षस तथा असुर प्रवृत्ति के लोगों, जो परमात्मा के कार्य को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं, पर क्रुद्ध होकर उनका संहार करती हैं। .....महामाया का एक अन्य पक्ष यह है कि वे आपको परिवर्तित करती हैं। मानव के लिए सभी कुछ मस्तिष्क है। आप यदि कुटिल हैं तो कुटिल हैं। आप यदि दूसरों से घृणा करते हैं तो यह भी मस्तिष्क में है। आपको यदि कोई व्यसन है तो वह भी मस्तिष्क में है। मस्तिष्क के बन्धन अतिजटिल हैं। अत: नि:सन्देह सहस्रार अत्यन्त महत्वपूर्ण है परन्तु विराट तथा विराटांगना की शक्ति तभी प्रभावशाली हो सकती है जब महामाया का शासन हो और वे अपने मधुर तरीकों से सहस्रार को खोलें और आपको कुरूप, भयंकर तथा क्रोधी ट 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-33.txt बनाने वाले सभी बन्धनों का निवारण करें। .महामाया पृथ्वी माँ की तरह हैं, यह सभी कुछ मिलने पर आपको वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न तथा आनन्दमय बना देती हैं ताकि आप 'निरानन्द' 'केवल आनन्द' का रसपान कर सकें। आनन्द के सिवाय कुछ भी नहीं-यही सहस्त्रार है परन्तु यह तभी सम्भव है जब आपका ब्रह्मरंध्र खुल जाए। उसके बिना आप परमात्मा के प्रेम की सूक्ष्मता में और सदा संग रहने वाली महामाया की करुणा में प्रवेश नहीं कर सकते। बाह्य रूप से मैंने बता दिया कि महामाया कैसी हैं परन्तु अन्दर से आप इन्हें तभी जान सकते हैं जब अपने ब्रह्मरंध्र से इसमें प्रवेश करें। तब सर्वव्यापक शक्ति की अवतरण यह महामाया एक प्रकार से बिल्कुल भिन्न हो जाती हैं। वे एक ओर तो आपको सबक सिखाने का प्रयत्न करती हैं, विनाशकारी शक्तियों को समाप्त करती हैं और दूसरी ओर आपको प्रेम करती हैं, कोमलतापूर्वक आपकी रक्षा करती हैं और मार्गदर्शन करती हैं। उसका प्रेम निर्वाज्य है। वे प्रेम करती हैं क्योंकि इसके बिना उनसे नहीं रहा जाता, तो उस प्रेम में आप सराबोर हैं और आनन्द ले रहे हैं। हर व्यक्ति जानता है कि वह उनके बहत करीब है, बिल्कुल करीब, जहाँ भी वो हों और जब भी वो चाहें उनसे सहायता माँग सकते हैं। सहस्रार अति महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल इसी के माध्यम से हम प्रतिक्रिया करते हैं। जिस विश्व में हम रह रहे हैं यहाँ हमें अब उन कमलों की तरह होना है जिन पर दाग़़ नहीं लगाया जा सकता और प्रचलित कोई बुराई जिन्हें प्रभावित से नहीं कर सकती। यही परीक्षा है कि इस कठिन समय पर हम खिल सकें और सुगन्ध फैला कर बहुत अन्य लोगो को इस सुन्दर वातावरण में ला सके। नकारात्मकता के विरुद्ध यह एक प्रकार से सुन्दर और लीलामय युद्ध है। उनकी मूर्खता ... क्या है? इसे कोई भी देख सकता है। अत: अपने मन को, अपनी दृष्टि को विकसित करें ताकि स्पष्ट रूप से आप सब यह समझ सकें कि आप ही लोग ज़िम्मेदार हैं। इस मस्तिष्क के सहस्रार के आप ही कोशाणु हैं और सबको ही कार्य करना है। सहजयोग में आना केवल आपके निजी सीमित व्यक्तित्वों और उनकी समस्याओं के लिए ही नहीं है । एक ओर तो आपने स्वयं विकसित होना है और दूसरी ओर सबको आपके माध्यम से विकसित होना है। इस दूसरे पक्ष की देखभाल आपको करनी चाहिए- -यह सुन्दर बात है कि परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करने और स्वर्गीय आशीर्वाद का आनन्द लेने के लिए यह द्वार अब आपके लिए खुला है। मुझे विश्वास है कि बहुत बड़े स्तर पर यह कार्यान्वित होगा। पूर्ण समर्पण तथा विश्वास यदि आप पा लेंगे तो ---यह बहुत ही अच्छी तरह कार्यान्वित होगा। प.पू.श्री माताजी, ८.५.१९९४ 34 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-34.txt NEW RELEASES Lang, Type | D Title Date Place VCD DVD ACD 489* 23rd Dec.1981 Christmas Puja 199 London Sp/Pu th 4" Jul.1982 Guru Puja : A mother for Guru 490 Sp/Pu 200 London 2nd Feb.1983 Delhi 267 Talk about Vishudhi 491 PP सार्वजनिक प्रवचन 26th Feb.1983 492 Nasik M PP 100 th 079* 4" Aug.1985 Shri Ganesh Puja:Your Power is Chastity Brighton 493* Sp/Pu -th Mahalakshmi Puja 205° M/E | Sp/Pu 6™ Jan.1986 494 Sangli th 495* 20"Jan.1986 064 Mumbai 1st Public Program : Attention should be on God PP 19th Feb.1986 साधक वही होता है जो साध लेता हैं। 496 Jaipur Н PP 009 संक्रान्ति पूजा / Sankranti Puja M/E | Sp/Pu 14th Jan.1987 497 089 Rahuri 8th Mar.1989 सार्वजनिक प्रवचन : इंसान का परिवर्तन 498* Delhi PP 130 Н इडा पिंगला सुषुम्ना, भाग-१, २ th- 15"Mar. 1989 499* 109 Delhi Н PP 23th Sep.1990 Navaratri Puja : Deities are watching you, Geneva Part I & II 500 068 E Sp/Pu द्वितीय सार्वजनिक प्रवचन - न्यू इंग्लिश स्कूल 6"Dec.1990 th- 501" 213 Pune PP सरस्वती पूजा:सहजयोगी को कार्यशील होना चाहिए Kolkata 3"Feb.1992 rd 502 049 Sp/Pu H सार्वजनिक प्रवचन 23"Mar.1992 503* Delhi 134 H PP सार्वजनिक प्रवचन 22nºMar.1993 504 Delhi PP 275 Н आनन्द की प्राप्ति बिना अंहकार से मिलती है 2n Dec.1993 Noida 050 505 Н PP सार्वजनिक प्रवचन 20hJan.1994 506 Hyderabad H 057 PP आप इस मनुष्य धारणा में सत्य को जान नहीं सकते सार्वजनिक प्रवचन |Pune 27" Jan.1994 th 507* 077 PP H th 12"Apr.1995 508 Kolkata Н 318 PP st 509* 21* Mar. 1995 Birthday Puja : Love & Be Loved Delhi Sp/Pu 015 th 14 Dec.1995 510 सत्य की पहचान चैतन्य से है Lucknow PP 052 Н th 26™Mar.2001 कलयुग में सहजयोग का महत्व Delhi 062 PP 511 22™d Aug.2002 You are the spirit 512 New York 055 PP 513 PP Unknown Establish your Self Realization Unknown 095 E 6"Feb.2001 Italy Experiment with “Vega Machine" E Doc 086* You Sahasrara Day Puja 5th May.1984 335 Sp/Pu 289 France The Start of a new Era : Part I & II 18 Sep.1982 th It is eternal life 336° 514* Sp UK Bhajan ACD | ACS Song List Title Artist JAI NIRMAL |Ajit Singh 172* ΜΑΙΥΑ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०२५२८६५३७, २५२८६०३२ , e-mail : sale@nitl.co.in 2011_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-35.txt करं समुद्र से सीखे कि जो सबसे नीचे ंब ताख्र रहकर के ही सव त्रीज को. सब नदियों को अपने अन्दम माता हैं बग समुद्र के ও तो ये सृष्टि चल नहीं सकती। जन्मदिन पूजा, दिल्ली, दि. ३० मार्च १९९० न र रवन ०