हिन्दी जुलाई-अगस्त २०११ १ न की 10 ा ० कुर राव ३ गं र ना कर ब सा जि मनुष्य में सहजयोग का कार्य करने की इच्छा है, जिस मनुष्य में दीप बनने का समर्थ्य है, ऐसे ही लोगों की परमात्मा मढढ करेंगे और ऐसे ही दीप जलाएंगे जिनसे इ पुरे विश्व में प्रकाश फैलेगा। अमृतवाणी, निर्मला यौग 4 न इस अंक में मुरु पूजा ...४ * * आत्मसाक्षात्कार की स्थिरती .२१ * विशुद्धि चक्र ...२२ भविष्य का ज्ञान .३० प्र भा कृपया ध्यान दें : २०१२ के सभी अंकों की नोंदणी सप्टेंबर २०११ को शुरू होकर ३० नवंबर २०११ की समाप्त हो जाएगी] गृरू पूजा प्रट २ ू १ ब शा लन्दन, २ दिसम्बर १९७९ ए क मास पूर्व ही वन्दनीय माताजी ने श्री रुस्तम से कहा कि आगामी रविवार को पूर्णिमा है । अत: पूजा- अर्चना का आयोजन होना चाहिए । श्री रुस्तम ने माताजी से कि "आप इस | पूछा अर्चना को क्या संज्ञा देंगी। क्या यह गुरू पूजा है अथवा महालक्ष्मी पूजा या श्री गणेश पूजा?" परम पूज्य माताजी ने समझाया माताजी भारत जाने के लिए उद्युक्त हुईं तो श्री रुस्तमजी ने पूछा कि ख्रिसमस पूजा का "आयोजन यहीं क्यों न हों?'" कि "यह गुरु पूजा है।" काफी समय व्यतीत होने के पश्चात जब वन्दनीय आज का दिन बहुत की महत्त्वपूर्ण है। बहुत समय हुआ जब ईसामसीह बाल्यावस्था में ही थे तो उन्होंने धर्मशास्त्र में पढ़ा और घोषणा की कि वे अवतार हैं और उनका अवतरण संसार के कल्याण, संरक्षण एवं मंगल के लिए हुआ है। उनका विश्वास था कि संरक्षक अवश्य अवतरित होगा । बहुत दिन व्यतीत हुए, आज के ही दिन अर्थात् रविवार को 'उन्होंने' घोषणा की कि वे उद्धारक के रूप में अवतरित हुए हैं। अत: इस दिन को "अवतरण रविवार" की संज्ञा प्रदान की गई। उनको इस संसार में अल्प समय १) ही बिताना था, अत: अल्पायु में ही 'उन्हें' घोषणा करनी पड़ी कि उनका अवतरण हुआ है यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि इससे पूर्व किसी भी अवतार ने सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया था कि वे अवतार हैं। श्री रामचन्द्रजी ने तो अपने आपको भुला ही दिया था कि वे अवतारी पुरुष | एक तरीके से अपनी माया के व्यामोह में आबद्ध होकर सम्पूर्ण मानव बनकर मर्यादा पुरुषोत्तम प्रख्यात हुए। श्री कृष्णजी ने श्री अर्जुन को केवल महाभारत युद्ध के अवसर पर अपने अवतरण के सम्बन्ध में बताया। हज़रत अब्राहम ने कभी भी उद्घोषित नहीं किया कि वे अवतार हैं। यद्यपि वे उस सर्व शक्तिमान के ही अवतार थे। भगवान दत्तात्रेय ने अपने अवतरण के विषय में किसी से भी नहीं कहा कि वे ईश्वर के अवतार हैं। सरलता से त्रिगुणात्मक शक्ति सम्पन्न होकर संसार के पथ प्रदर्शन हेतु मानव शरीर धारण किया। श्री मोजेज ने कभी नहीं कहा यद्यपि उनकी महत्ता का सबको भली प्रकार ज्ञान था । उन्होंने प्रकृति पर विजय प्राप्त की फिर भी उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे अवतार हैं। ईसा के समय में घोषणा की आवश्यकता प्रतीत हुई, नहीं तो जनता अंध:कार में ही रहती । किसी को भी भान नहीं होता । यदि उस समय ईसा प्रभु को पहचान लिया गया होता तो कोई समस्या ही नहीं होती परन्तु मानव प्राणी का और अधिक कल्याण एवं उत्थान आवश्यक था। किसी न किसी को तो विराट में आज्ञाचक्र को पार करना था, यही कारण था कि इस धरा पर महान ईसा का अवतरण हुआ । यह एक विस्मयकारी बात है कि जीवनरूपी वृक्ष में जड़े तना उभारती हैं, शाखाओं को जन्म देकर आगे बढ़ाता है, शाखाओं में पल्लव कुसुम प्रस्फुटित होते हैं । जिनको जड़ों का ज्ञान है उनको तना जानने की इच्छा नहीं होती । जो तना जानते हैं उन्हें कुसुम पल्लव आदि को पहचानने की आवश्यकता नहीं होती यही विचित्र मानव तना स्वभाव है। मैंने स्वयं अपने सम्बन्ध में कभी ऐसा कुछ नहीं कहा क्योंकि मानव समाज ने अपने अन्दर ईसा के समय से भी अधिक अहंकार को समेट कर भर लिया है । आप किसी पर भी दोषारोपण कर सकते हैं। आप इसे औद्योगिक क्रांति का नाम भी दे सकते हैं क्योंकि आप प्रकृति से बिछड कर दूर हो गए हैं। आप इसे भी कह सकते हैं । मानव समाज ने कुछ वास्तविकता के सारे सम्पर्क खो दिये हैं वे बनावटी रूप से परिचित (identified) होते ैं और उन्हें बृहत वास्तविकता को मान्यता देना असम्भव प्रतीत होता है। यही कारण है कि मैंने अपने विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा जब तक कि कतिपय ज्ञानी, मानी सन्त जनों ने मेरे सम्बन्ध में घोषित नहीं किया । लोग कौतूहल से स्तम्भित रह गए कि कुण्डलिनी जागरण जैसे जटिल एवं दुष्कर कार्य को द्रतगति से किस प्रकार संचालित किया गया और अपनी उपस्थिति में ही औरों से भी कराया। कुसुम पल्लव आढि को पहचानने की भारतवर्ष में एक अति प्राचीन अनजाना मंदिर है । लोगों को विदित हुआ कि जलपोत में समुद्र एक विशिष्ट स्थान पर आते ही बरबस तट की ओर खिंचे चले आते और उस आकर्षण बिंदु पर रुक जाते थे । दुगनी शक्ति लगाकर खींचने से भी वे अपने उस स्थान से टस से मस न होते थे । इसका कारण नाविकों को अज्ञात ही रहा । समद्र की गहराई आवश्यकता नहीं होती थे सम्बन्धी कुछ त्रुटि का ही अनुमान लगा कर छोड़ देते । परन्तु जब सब के सब पोत उस विशिष्ट बिंदू से तट की ओर आकर्षित होकर खिंचे चले आने लगे तो वे सब विस्मित हुए और सोचने को बाध्य हुए कि कुछ न कुछ रहस्य अवश्य है। तब उस रहस्य का उद्घाटन करने की लालसा उनके मन में उत्पन्न हुई कि जलपोत को होता क्या है कि पोत तट की ओर आकर्षित होते हैं । इस गुत्थी को सुलझाने हेतु तटवर्ती सघन वन की खोजबीन की गई तो उन्हें एक विशाल मंदिर दृष्टि गोचर हुआ , जिसके शिखर कलश पर एक चुम्बक का विशाल खण्ड रखा था जो जलयानों को अपनी आकर्षण परिधि में आने पर अपनी ओर खिंच लेता था। अत: कुछ निरंतर चिंतनशील व्यक्ति अपने अनुभवी ज्ञान की कसौटी द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि माताजी अवश्य कुछ विशिष्ट उपलब्ध शक्ति सम्पन्न हैं, परन्तु शास्त्रों एवं अन्य धार्मिक ग्रन्थों में तद्विषयक अवतरण के सम्बंध में कुछ भी संकेत उन्हें लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुआ कि ऐसी प्रभूति आत्मा इस पुण्य धरा पर अवतरण कर धन्य करेंगी जो अपनी दृष्टिपात मात्र से एवं संकल्प शक्ति द्वारा ही कुण्डलिनी जागरण एवं पूज्य उत्थान की प्रक्रिया सम्पन्न करेगी तथा अपने शिष्य गण से भी कराएँगी। हिमालय स्थित 6. सघन वनवासी, निष्क्लांत, निष्णात सन्त महात्मा समुदाय इस अवतरण से पूर्णरूप से अवगत हैं। वे जन साधारण से कहीं अधिक प्रज्ञावान हैं जिनके सम्मुख हम सब अबोध शिशु की तरह हैं। वे वास्तव में महान हैं । परन्तु आज का दिन महान है जब 'मैं' घोषणा कर रही हूँ कि 'मै' ही वह हँ जिसे मानवता का उद्धार करना है। उसे बचाना है। 'मैं' ही आदिशक्ति हूँ, जो सब माताओं की जननी होने के नाते जगत् जननी एवं शक्ति भी हूँ। 'मैं' ईश्वर की पावनतम इच्छाशक्ति हूँ, पृथ्वी पर मानव मात्र के उद्धार हेतु अवतार लिया है । 'मुझे' पूर्ण विश्वास है कि 'मैं' अपने प्यार, धेर्य और अद्भुत शक्ति से मानव मात्र का कल्याण करने में सक्षम रहूँगी। 'मैं' ही वह हूँ जिसने बार बार जगत के उद्धार के लिए जन्म लिया है किन्तु इस समय 'मैं' अपने पूर्ण रूप में एवं सभी शक्तियों के साथ आई हूँ । अब की मेरा अवतरण केवल मोक्ष देने के लिए ही नहीं अपितु उद्धार के साथ ही स्वर्गादिक राज्य भी देना है जिसमें आनन्द, वात्सल्य एवं आशीष ही है। जिसे परम पिता परमेश्वर देने के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं । मे अवित२ण उपरोक्त शब्द वर्तमान में सहजयोगियों तक ही सीमित रहना चाहिए । केवल आज गुरुपूजा है मेरी पूजा नहीं। यह गुरुओं के रूप में आपकी पूजा है क्योंकि मैं आप सब को गुरुतत्व प्रदान कर रही हैँ। और आज ही मैं बताऊँगी कि मैंने आप पर क्या न्योछावर किया है तथा आपके आभ्यन्तर में कितनी शक्ति उडेल कर भर दी है । मोक्ष देने के लिए ही नहीं आप में से कितने ऐसे भी महानुभाव हैं जिन्होंने अभी तक भी मुझे पूर्ण रूप से नहीं पहचाना है। यह 'मेरी' घोषणा उनके अन्दर मान्यता की जागृति उत्पन्न करने में समर्थ होगी। बिना मान्यता प्राप्त किये आप क्रीड़ा कौतूक नहीं देख सकते । बिना क्रीड़ा के आप अपने अन्दर विश्वास नहीं पैदा कर सकते । विश्वास के अभाव में आप नहीं बन गुरु सकते। गुरुपद प्राप्त किये बिना आप परोपकार नहीं कर सकते। बिना दूसरों की सहायता किये आप किसी प्रकार भी आनन्द, प्रसन्नता, प्रफुल्लता प्राप्त नहीं कर सकते । श्रृंखला तोड़ना सरल है परन्तु आपको एक के पश्चात दूसरी कड़ी जोड़कर श्रृंखला का निर्माण करना है। यही आपका इष्ट है। आप सुदृढ़ विश्वासी, प्रसन्न एवं प्रफुल्ल चित्तयुक्त और आनन्दित रहें । मेरी अपूर्व शक्ति आपकी हर अनिष्ट से रक्षा करेगी । मेरा दिव्य प्रेम आपका परिपोषण करेगा । मेरी सौजन्य प्रकृति आपके अभ्यन्तर को शान्ति और आनन्द से परिपूरित कर देगी । .ईश्वर आपको सदैव सुखी समृद्ध रखे। (पूज्य माताजी के सान्निध्य में आकर ) आपने क्या पाया ((क्या उपलब्धि की) और आप कितने शक्ति संपन्न हैं अर्थात कितनी 7 शक्तियाँ बटोर कर रख छोड़ी हैं ? पिछले दिन मैंने सम्भावोपाय और शाक्तोपाय के विषय पर चर्चा की थी । यही दो उपाय ऐसे हैं कि जिनके द्वारा मानव समाज का शुद्धिकरण किया जा सकता है। एक वह है जिसके द्वारा आप इनेगिने ही मनुष्यों को शुद्ध कर सकते हैं। आप उनमें से कुछ का चयन कीजिए और उनका शुद्धिकरण करते जाईये जब तक कि उनका चित्त पूर्ण रूप से शुद्ध न हो जाए। पंचतत्त्वों का शुद्धिकरण होते ही कुण्डलिनी का उत्थान होगा और लोग 'पार' हो जाएंगे-यह सम्भावोपाय कहलाता है जिसमें आपका व्यक्तित्त्व पूर्णतया निखर जाता है। | दूसरा शाक्तोपाय जिसमें आप की कुण्डलिनी उत्थान की शक्ति विद्यमान है। चाहे परिस्थिती जैसी भी हो अपनी प्रक्रिया सम्पन्न करेगी और फिर शुद्धिकरण की प्रक्रिया की देखरेख में तत्पर होगी । सहजयोग में दूसरे उपाय को ही अपनाया गया है क्योंकि अब सम्भोवोपाय की प्रक्रिया को उपयोग में लाने का समय ही नहीं रह गया है। यह असंभव सा प्रतीत होता है। शाक्तोपाय में साधारणतया शक्तिपात किया जाता है। शक्तिपात की प्रक्रिया में दूसरे के ऊपर अपनी शक्ति प्रतिबिम्ब के रूप में आरोपित | की जाती है। अथवा जैसा कि हम कहते हैं कि हम पर प्रकाश निर्झर हो रहा है। अपनी कुण्डलिनी की शक्ति दूसरे की कुण्डलिनी की शक्ति पर आरोपित करते हैं और क्रमानुसार कुण्डलिनी को ऊपर की ओर अग्रसर करते हैं । मानव प्रकृति की विचित्रता के कारण श्रमसाध्य उपाय अपना लिए गए हैं। प्रथम तो कुण्डलिनी की समस्याओं का चयन किया जाएगा । अतः आपके इतिहास की जानकारी करेंगे। यथा आपके माता पिता के संस्कार कैसे हैं तथा आप किस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। वे आपका पूर्ण रुपेण खोजपूर्ण विश्लेषण करेंगे फिर वे आपसे यह जानकारी लेंगे कि आप किस किस प्रकार के रोगों से आक्रान्त हुए हैं। यदि किसी की आँख में कोई रोग हो अथवा नासिका, कान, पेट में पीड़ा हो तो वे इसके निदान एवं बचाव का उपक्रम करेंगे। सो आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि हम में से कितने इस श्रेणी (Category) में फिट बैठेंगे और फिर वे पूछेंगे कि आपने किस भाँति का जीवन व्यतीत किया है और किस प्रकार के स्वभाव के आपके माता पिता हैं । अधिकतर ये सब बातें उन जिज्ञासुओं के लिए है जो अल्पायु में ही गुरु के सान्निध्य में जाकर शक्तिपात की प्राप्ति करना चाहते थे । अब मेरी उपस्थिती से यह बहुत ही सरल हो गया है । यह सत्य तो आप सब को भलीभाँति विदित हो ही गया है । शक्तिपात में आपको शक्ति का पात करना है अर्थात आपको अपना प्रकाश दूसरों पर ड्रालना है। शक्ति का अर्थ है बल और पात मतलब गिराना । अब आपकी शक्ति जिसके कुण्डलिनी के ऊपर गिरेगी वह उठेगी । पहिले यह एक महान कठिन कार्य था । उनकी धारणा थी कि केवल वीतरागी वह महात्मा है जिसने राग पर | 9. विजय प्राप्त ली है। जो संसार की मोह, माया से परिवर्जित है अर्थात जो राग, द्वेषादि दोषों से मुक्त है, वही वीतरागी है और कुण्डलिनी जागरण करा सकता है । अत: सर्व प्रथम दीक्षा दी जानी आवश्यक है। यह आपको सब से पहिले दी जा चुकी है, जब कि आप माताजी की शरण में आए। अब आप विचार कीजिए यह सब कैसे घटित हुआ । इतनी सारी घटनाऐँ प्रचुर मात्रा में टेलिस्कोपिकली घटित हुई जिसका कि आप को मान-गुमान भी नहीं हुआ। दीक्षा प्राप्ती हेतु इच्छुक व्यक्ति को बहुत सारा कष्ट वहन करना पड़ता है । गुरु की सेवा तन, मन, धन से करनी पड़ती है । उनकी प्रसन्नता के लिए पत्र, पुष्प, फल आदि से अर्चन, पूजन करना आवश्यक है । गुरुजी की देखभाल (सेवा) करना शिष्य का परम कर्तव्य है। सद्गुरुओं का आपके धन-दौलत आदि अन्य वस्तुओं से, जिन्हें आप उन्हें अर्पण करते हैं कोई लगाव नहीं होता, नि:स्पृहता का भाव रहता है। इसी कारण से सामर्थ्यानुसार कुछ अन्य धन राशि गुरुजी को अर्पण करनी आवश्यक प्रतीत होती है । बहत से पाखण्डी गुरुजनों के दक्षिणा का दुरुपयोग अपवाद स्वरूप है। परन्तु यह तो सर्वमान्य सत्य है कि को गृहस्थ जीवन व्यतीत करना होता है। अत: जीवन यापन हेतु दक्षिणा के रूप में कुछ न कुछ धन राशी वांछनीय ही नहीं श्लाघनीय है। परन्तु में दक्षिणा एक अपवादस्वरूप है और चरम सीमा का उल्लंघन कर गई है। | | गुरुजन गुरुजन को आज के युग लोगों ने इसे धंधा बना लिया है। गृहस्थ जीवन व्यतीत गुरुजन इस स्तर के होने चाहिए कि वह शिष्यगण की कुण्डलिनी जागृत कर सके तथा वीतरागी, विशुद्ध स्थिर चित्त अर्थात जिसका चित्त सांसारिक भोग पदार्थों से कोई लगाव नहीं रखता और लोभ, मोह आदि द्वंद्वों का अंशमात्र भी शेष नहीं रह जाता, जिनमें केवल क्षमा प्रदान करने के और कोई प्रलोभन नहीं रहता । ऐसे ही सन्त पुरुष को वीतरागी कहा जाता है और वही कुण्डलिनी उत्थान में समर्थ हैं । ऐसे भद्र सत्पुरुषों द्वारा ही कुण्डलिनी पर करी होता है। अधिकार (अधिकृत आदेश) किया जा सकता है। अन्यथा नहीं। प्रथम तो आपने गुरुजी से बिना परिचय प्राप्त किए दीक्षा ली। तदुनन्तर महादीक्षा भी प्राप्त कर ली । प्रथम दीक्षा है, वह तो ठीक है परन्तु यह दूसरी महादीक्षा क्या है? महादीक्षा वह है जिसमें आपको नाम मन्त्र दिया जाता है (साधारणतया इसके अन्तर्गत एक ही 'नाम' दिया जाता है)। अब यह मन्त्र भी, यदि गुरुजी जानते हों तो निकाल बाहर कर विस्मृति के गर्भ में धकेल दिया जाता है। इस का मतलब है बहुत से गुरु भी नहीं जानते कि शिष्य का कौन सा चक्र बाधाग्रस्त है अथवा पकड़ में है। इसकी कल्पना कीजिए । वे आपकी जन्मपत्री का अवलोकन करेंगे और आपसे प्रश्न करेंगे कि आप उनके पास में आए। आज आप गुरु के पास किस समय आयें? आपकी जन्मपत्री क्या है? किस घड़ी आपकी क्या क्या कठिनाईयाँ होनी चाहिएँ ? आपका जन्म किस नक्षत्र में हुआ? आपके माता-पिता के नाम क्या क्या हैं ? इसका भी एक प्रशस्त विज्ञान था। उनकी गणना का | 10 गुणक के ख ग से प्रारम्भ होता था और एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच जाते थे जहाँ पर उनको शब्द मिल जाते थे। प्रथम, द्वितीय, तृतीय उसी वर्ण के, तद्नन्तर वे मनन अध्ययन में तल्लीन हो जाते थे। यह एक महान एवं गहन शास्त्र है, जिसको अध्ययन द्वारा ज्ञात करते थे कि शिष्य का कौनसा चक्र पकड़ा गया है, तत्पश्चात वे आपको 'नाम ' देते थे । उदाहरणार्थ | आपको 'राम' नाम प्राप्त हुआ जब आप को राम नाम का निरन्तर जप करना पड़ेगा जब तक कि आपका हृदय शुद्ध न हो जाए । परन्तु यह अब उपरोक्त झंझटों में पड़ने के पश्चात ही प्राप्त होता था । इसमें दो वर्ष, तीन वर्ष, दो जीवन अथवा सैकड़ों जीवन भर आप केवल राम नाम मन्त्र का ही जप करते जाईये। परन्तु किया जाना चाहिए सुचारु रूप से तथा ग्रह दशा का विचार विमर्श अवश्य होना चाहिए । इसमें आपका घर, कुट्म्ब आदि के बारे में भी विचारविमर्श के पश्चात एक इष्ट बिंदू पर आते थे कि चक्र कहाँ पकड़ में है। अब आप कल्पना कीजिए कि आपके चार चक्र पकड़े गये हैं। क्योंकि आप वही देखते हैं जो आपकी जन्मपत्री में लिखा है । अर्थात आपको क्या शारीरिक कष्ट हैं तथा भविष्य में क्या प्रथम दीक्ष क्या आपत्तियाँ आनेवाली है। इन सब शारीरिक व्याधियों का पता वे जन्मपत्री अथवा जन्म कुण्डली देखभाल कर लगा लेते थे कि आपको क्या क्या व्याधियाँ हैं । मान लो आपके पेट में वेदना है, तो वे चक्कर पर चक्कर लगाते रहेंगे और अंत में इस पेट वेदना के लिए मन्त्र खोज निकालेंगे वे वैज्ञानिकों की तरह प्रत्यक्ष रूप से तो खोज नहीं कर पाते। वैज्ञानिक किस प्रकार से अनुसंधान करते हैं इसका नमूना देखिए । कल्पना करो कि आप किसी डॉक्टर के पास जाते हैं। वह आपकी आँख को निकाल कर धोयेगा और फिर वापस लगा देगा और कहेगा आपकी आँख ठीक है। आपके दाँत निकालेगा, बनावटी दाँत वह है जि दिन आपकी कुण्डलिंनी लगाएगा फिर कहेगा आपके दाँत ठीक हैं, फिर आपके कान की बारी है। वह उसे निकालेगा उसमें कुछ बनावटी नया यन्त्र लगाएगा और कहेगा कि यह बिल्कुल ठीक है । जीगृत होकर... आपका हृदय निकाल लेगा उसका परीक्षण करेगा और दूसरा वहाँ लगा देगा-यह इस प्रकार से है । इसी प्रकार वे भी किया करते थे क्योंकि वे अंध:कार में विचरण करते थे । जैसा कि आपको समस्त चक्रों के सम्बंध में मान है और आपको इस तथ्य की भी जानकारी है कि कौन सा चक्र पकड़ में आ गया है। अब आप कल्पना कीजिए कि आपने कितनी महा, महा, महा दीक्षा प्राप्त की है। प्रथम दीक्षा वह है जिस दिन आपकी कुण्डलिनी जागृत होकर ऊपर अग्रसर हुई तथा आप 'पार' हो गए। यह उनके वश के बाहर की बात है। वे एक श्वास से बात नहीं कर सकते। आप को सारे समय हवा में उल्टा लटका दिया जाता है जैसे रात्रि में चमगादड़ ऊपर टांग तो नीचे सिर किये रहता है। फिर वे अन्य तथ्यों का अध्ययन एवं विश्लेषण करेंगे कि आपके मित्रगण अथवा संगति कैसी है । आप किस प्रकृति के मनुष्यों की ओर आकर्षित होते हैं। आपका स्वभाव परखा जाएगा, जिससे वे निर्णय लेंगे तदुनन्तर आपको दूसरा मन्त्र प्रदान करेंगे। आप इन मन्त्रों का लगातार सामूहिक रूप से उच्चारण करते रहेंगे। आप 11 अपनी अन्य अनिवार्य आवश्यकताओं का निराकरण कर उन मन्त्रों का निरन्तर जाप करते रहेंगे जब तक कि उनमें सफलता न प्राप्त हो जाए तब वे कहेंगे कि आपका मन्त्र सिद्ध हो गया है। इसका अर्थ यह है कि इस सिद्ध मन्त्र का प्रयोग आप दूसरों पर कर सकते हैं। उदाहरणार्थ आप केवल राम नाम मन्त्र का ही ( जो आपको दीक्षा द्वारा प्राप्त हुआ है) प्रयोग कर सकेंगे- कल्पना कीजिए। आपकी उपलब्धियाँ क्या हैं ? क्या आप 'पार' हो गए। 'पार' होने का मतलब है कि आप सब चक्रों के ज्ञाता हैं कि कौनसा मन्त्र किस चक्र को ठीक करेगा। आप स्वयं भी तत्सम मन्त्र रचना कर सकते हैं। आपके अन्दर इतनी शक्ति भी है कि आप समस्त चक्रों का ज्ञान प्राप्त कर लें कि उनको किस सहायता की आवश्यकता है। आप में दूसरे मनुष्यों की कुण्डलिनी करने की शक्ति विद्यमान है। यदि किसी की कुण्डलिनी सहस्रार से जागृत नीचे की ओर फिसलने लगती है तो आप में इतनी शक्ति है कि आप उसे पुन: स्थित कर दें। आप में दूसरे व्यक्तियों के चक्र ठीक करने की शक्ति भी है। आप बन्धन द्वारा चक्रों को स्थित (fix) भी कर सकते हैं। आप 'बन्धन द्वारा ही अपनी स्वयं की बाधाओं से त्राण (संरक्षण) भी पा सकते हैं। आप में यह भी शक्ति है कि आप अपने चित्त को किसी विशेष स्थान की ओर लगा सकते हैं जहाँ पर आप समझें कि किसी व्यक्ति विशेष को आपकी सहायता की आवश्यकता है। आप में सामूहिक रूप से समस्या निदान एवं निवारण करने की शक्ति भी है। यहाँ लन्दन में क्या गड़बड़ है (आप अपने हाथ लन्दन की ओर फैलाकर मालूम कर सकते हैं) हृदय का वाम भाग एवं दक्षिण भाग-दक्षिण स्वाधिष्ठान आदि। अब आपके पास भाषा है इसकी | व्याख्या करने की। आपने हृदय का वाम भाग कहकर किसीको भी हानि | नहीं पहुँचाई। लन्दनवासियों के वाम हृदय के पकड़ में आने का क्या मतलब है इसका अर्थ हुआ कि लन्दनवासी अपनी आत्मा के विपरीत जा रहे हैं। आप का अपनी आत्मा से कोई लगाव ही नहीं है। आप भौतिकवादी हैं। अहंकारयुक्त हैं। आप अपनी आत्मा के प्रति सजग नहीं हैं। आप अपनी आत्मा को हानि पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। आप मदोन्मत्त हैं। मदिरापान कर आप अपनी आत्मा को कलुषित कर रहे हैं । | यह तथ्य आप स्वीकारते भी नहीं आप यह भी नहीं कहेंगे कि इस कृत्य के लिए क्षमा याचना करनी है वरना आप अपना हाथ फैलाकर लन्दनवासियों के लिए हृदय वाम भाग की बाधा निवारण हेतु क्षमा याचना करेंगे - उन्हें तत्काल ही क्षमा प्राप्त हो गई। वे अधिकाधिक मदिरा का प्रयोग करेंगे और अपने हृदय का सर्वनाश कर लेंगे। 12 ा मैं आपने सब शक्तियाँ एकत्र कर ली हैं। कुण्डलिनी जागृत करने की तथा उसके मार्ग में आनेवाली विघ्न बाधाओं पर विजय प्राप्त करने की कला जान ली है। यदि किसी व्यक्ति का आज्ञा चक्र बाधायुक्त है तो गुरु महाराज उसे ठीक करने में हिचकिचारेंगे क्योंकि उनको भय है कि कहीं उनका आज्ञा चक्र भी पकड़ में न आ जाये। अत: उन्हें मन्त्र सिद्धि की आवश्यकता पड़ती है । सिद्ध होने का अर्थ है फलित यानी प्रभावशाली है। 13 का आपका प्रत्येक मन्त्र तात्कालिक प्रभाव रखता है। आप अमुक देवता का स्मरण कीजिए आपका मन्त्र तत्काल फल देगा। क्योंकि वह स्वयंसिद्ध मन्त्र है। एक बन्डल की भाँति इसके अन्दर सभी कुछ तो भरा है। इसे अनावृत्त कर प्राप्त कीजिए। यदि किसी का कोई चक्र पकड़ में आ गया है, आप मन्त्रोच्चार कीजिए- सबकुछ ठीक हो जाएगा क्योंकि आपको सब मन्त्रों का ज्ञान है। आप यह भी जानते हैं कि यह क्या है? और उस विषय का आपको पूर्ण ज्ञान है। यह गुप्त ज्ञान भी है क्योंकि इसे दूसरा नहीं जान सकता। यदि आप नामोच्चार भी नहीं करते तो भी संकेत मात्र से काम चल सकता है। इस तथ्य की सबको जानकारी है कि मामला क्या है? कहाँ जाना है? क्या करना है? यह इतना गोपनीय होने पर भी परस्पर ज्ञान सुलभ है। हमारी विचार साम्य की एकरूपकता का अवलोकन कीजिए जो हम सब के मध्य वर्तमान है । हम जानते हैं कि क्या, क्या है, परन्तु हम अपने आप को बुरा महसूस नहीं करते ना ही दूसरों को बुरा कहते हैं। यदि कहा जाये कि आप में बड़ा भारी अहंकार है तो कोई बुरा नहीं करेगा । वह सहजयोग में के समय अहंकार का नाम लेना भी असम्भव था। अब आप कह सकते हैं। क्राइस्ट और आप अपनी इगो एवं सुपर इगो को देख भी सकते हैं । यही नहीं बहत सी व्यर्थ अनर्गल प्रत्येक वस्तु दिखाई देती है । का आ्रय लिए बिनी कुण्डलिनी आप यह भी देख सकते हैं कि अमुक व्यक्ति सम्पन्न है। यथा जन्मजात पार व्यक्ति। परन्तु वह शक्ति सम्पन्न होते हुए भी कुण्डलिनी उत्थान के सम्बंध में एक शब्द भी नहीं जानता इसलिये कुण्डलिनी जागृत नहीं कर सकता। वह सहजयोग का आश्रय लिए जीग२ण प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया सम्पन्न नहीं कर सकता। ये जन्मजात पार व्यक्ति को जो अपने आप को सनातन समझते हैं, इस तथ्य से अवगत होना चाहिए कि उन्हें सहजयोगी बनना है। अन्यथा वे क्रियावादी नहीं हो सकते । क्रियाशील ही रहेंगे। बिना संपन्र नहीं क२ सकती यह सब वस्तुएं (तथ्य) आपके पास आभ्यन्तर में विद्यमान हैं । सब देवताओं का आपको पूर्ण ज्ञान है। आप यह भी जानते हैं कि वे कब रुष्ट हो जाते हैं। यदि कहा जाए कि पाप मत करो, तो आप पूछेगे कि पाप क्या है तब आप कहेंगे यह मत करो। आप कोई प्रपंच रचने का प्रयत्न कीजिए आप सफल होंगे। क्योंकि आप की 'माँ' का आप पर अनिवार्य 'बन्धन' है | यदि आप मदिरा पान करेंगे तो आप को वमन होगा। यदि आप अकरणीय कार्य करेंगे तो आपका आमाशय खराब हो जाएगा। यदि आप सहजयोग से अपने आपको वंचित करना चाहेंगे तो आप ऐसा नहीं कर सकते । हालांकि आप को इसका आभास मात्र भी नहीं है, फिर भी आप के आभ्यन्तर में सहजयोग का आकर्षण (ललक) विद्यमान है । ऐसे लोगों का समूह अभी भी विद्यमान है कि जो पार तो हो गये हैं परन्तु वहाँ है नही। इन दोनों में क्या अन्तर है। अत्यन्त साधारणसा अन्तर है। मान्यता एवं श्रद्धा का 14 अभाव। जिन्होंने मुझे नहीं पहचाना है अथवा मान्यता नहीं प्रदान की वे मुक्ति प्राप्त न कर सकेंगे (वे चक्कर ही काटते रहेंगे) सो मान्यता देनी आवश्यक है। एक बड़ा सुन्दर उदारहरण शिरडी के सांईनाथ के शिष्यों का है यद्यपि वे विद्यमान (सशरीर) नहीं परन्तु वे उनमें अटूट श्रद्धा एवं विश्वास रखते हैं। अब वह कहाँ हैं। वे वर्तमान के अवतार में श्रद्धा विश्वास नहीं रखते। वे मेरे में ही निष्ठा रखते हैं । वे राम के प्रति निष्ठा रखते हैं । उनकी श्रद्धा क्राइस्ट में है। बहुत से ईसाई बन्धुओं की समस्या यही है कि वे मेरा तुलनात्मक सम्बंध ईसा से जोड़ते हैं तो वे सहजयोग में नहीं आते। आपको वर्तमान में रहना है। आप मेरे सम्बंध में अपने मानसिक उद्वेग के अनुरूप धारणा नहीं बना सकते। क्योंकि आपकी धारणा सीमाबद्ध है। कल्पना करो कि आपका जन्म यहाँ हुआ तो आप ईसाई होंगे। यदि आप भारत में जन्मे हैं तो आप हिन्दु होंगे। यदि आपका जन्म चीन में हुआ है तो आप चीनी होंगे। आप कुछ भी हो सकते हैं। अत: आपकी त्रुटिपूर्ण परिचय प्रणाली क्रियाशील हो जाती है और आप इस त्रुटि का तत्काल ही ...ऐसे पुरुष आभास पा लेंगे कि आपकी चैतन्य लहरियाँ (vibrations) स्वत: बन्द हो जाएगी। मानव समुदाय का वह वर्ग जो मध्यवर्ती है तथा जिन्होंने सहजयोग में पूर्ण स्थायित्व एवं स्थिरता प्राप्त नहीं की है और उनके पास पूर्ण शक्ति का भी अभाव है, ऐसे पुरुष मान्यता, श्रद्धा एव निष्ठा प्राप्त नहीं कर सकते । वे इस निष्ठा को प्राप्त न करने में अपना दम्भ प्रकट करते हैं। मान्यती, श्रद्धा वं निष्ठा यह महान मूर्खता है। जैसे ही आप श्रद्धायुक्त मान्यता देंगे आपकी चैतन्य लहरियाँ स्वत: बहने लगेंगी-ऐसे मनुष्यों का वर्ग दूसरे गुरुओं के पास से भटक कर आता है । जब ऐसे पुरुष सहजयोग में पदार्पण करते हैं तो एक समस्या उत्पन्न हो जाती है। वे मेरी अहेतुकि कृपा से पार तो हो जाते हैं (चाहे केस कैसा भी हो सब पार हो जाते हैं) । अभी पिछले दिनों यहाँ एक वेश्या आई और 'पार' हो गई । सहजयोग अपनी रस्सी ढीली छोड़ देता है । आप अपनी आनन्द लहरियों को सहजता से विनष्ट नहीं कर सकते यदि आपने सुचारु रूप से नियमानुसार प्राप्त किया हो तो सहजयोग में, प्रकाश में प्रवेश के पश्चात आप अपने अवगुण एवं त्रुटियों का स्वत: अवलोकन करने लगते हैं । यदि आप सहजयोग को नकारना चाहते हैं तो ऐसी दशा में कुछ व्यक्तियों को तो चुभन, जलन महसूस होने लगती है। साधारणतया कुछ ही ऐसे होते हैं जो प्रकृतिस्थ रहते हैं । कुछ में मेरे सम्मुख आते ही कम्पन आरम्भ हो जाती है। कुछ में विशेष प्रकार की टेढ़ी मेढ़ी ऐठन (contortions) प्रारम्भ हो जाती है। आप में से बहुतों ने देखा होगा कि कुछ मेरे दर्शन करते ही बहती उष्णता का प्राप्त नहीं क२ कते। अनुभव करने लगते हैं। अथवा उनके आमाशय में भयंकर पीड़ा उठती है। जब आप प्रकाश के सम्मुख उपस्थित होते हैं तो आप अपने स्वयं के सम्मुख प्रस्तुत हो जाते हैं । परन्तु आप अपने स्वयं का सामना करना पसन्द नहीं करते । तत्त्व की बात यह है कि जिन्होंने सहजयोग में स्थायित्व प्राप्त नहीं किया है वे अपने स्वयं के सामने आने से ही कतराते हैं । यदि वे स्वयं का स्वयं ही सामना करें तो वे शीघ्र ही अपने अन्दर सुधार ला सकेंगे क्योंकि प्रकाश 15 वहाँ विद्यमान है। आप अपने अवगुण एवं त्रुटियों के साथ परिचय (identify) मत कीजिए। आप डॉक्टर हैं, आप में प्रकाश है, आप शल्यक्रिया (operation) जानते हैं शल्य क्रिया कीजिए क्योंकि आप इस शल्य प्रक्रिया में सिद्धहस्त हो गए हैं। यदि आप यह दृढ़ निश्चय कर लें कि हमें अपने स्वयं का सामना करना ही है कि हम देखें कि हम कौन हैं (में कौन हूँ? क्या हूँ?) तो तत्काल ही यह सब दुर्गुण एवं त्रुटियाँ दूर भाग जाएँगी परन्तु आप तो ० सामना करना ही नहीं चाहते । यही कारण है कि पार हुए व्यक्ति भी सहजयोग में आना पसन्द नहीं करते। जिनको शीतल, मन्द सुगन्धित बयार का अनुभव रहता है वे इस सम्बन्ध में अधिक सोच विचार नहीं करते। यदि वे अधिक सोच विचार करें तो उन्हें अपने अहंकार (ego) को त्यागना पड़ता है, जिसे उन्होंने विगत कई वर्षों से संजोया हुआ है। उन्हें आत्मनिरीक्षण करना ही पड़ेगा । अर्थात उन्हें अपने स्वयं को स्वयं ही देखना पड़ेगा। वे कहते सुने जाते हैं कि मेरे अन्दर कुछ भी सुधार नहीं हुआ है। चुभन सी हो रही है। सारे शरीर में सुइयों की सी चुभन का अनुभव हो रहा है। यह कैसे हो सकता है। यह मुझे सहायता नहीं कर रहा है। सहजयोग मुझे पीछे की ओर धकेल रहा है। इन सब बाधाओं के लिए वे सहजयोग पर दोषारोपण करेंगे उन लोगों को नहीं देखेंगे जिन्होंने उन्नत अवस्था प्राप्त कर ली है। आप किस पर दोषारोपण कर रहे हैं। आप उसी पर दोष मढ रहे हैं जो आपकी रक्षा करेगा । आप अपने रक्षक को ही दोषी ठहरा रहे हैं। यह बेहतर है कि आप अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोज लें और अपनी कमजोरियों का निराकरण करें। आप अपने स्वयं पर कृपा करें जिससे आप इन भयानक साँप, बिच्छू (डंक मारनेवाले जन्तुओं से) जो आपके इर्दगिर्द मंडरा रहे हैं, छुटकारा पा सरकें। अपने को विशुद्ध कर लें। प्रकाश का | शुभागमन हो गया है। इस प्रकाश द्वारा आप सत्यान्वेषण का प्रयास करें। तब आपकी अपिरिचितता (Misidentification) का निवारण होगा और वास्तविक परिचय (identification) प्राप्त होगा और स्थापित होगा। किसी अन्य प्रकार से नहीं होगा। अत: आप को अपने स्वयं का सामना करने की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । कभी भी औचित्य सिद्ध न करें । | कुछ व्यक्तियों की अपने पुत्र, भ्राता, स्त्री अथवा पति की अनर्गल सराहना करने की आदत होती है और उसका औचित्य (justification) भी सिद्ध करते हैं। इस भाँति आप उनकी कोई सहायता नहीं 16 ०े पं pি कर रहे हैं । बाधायुक्त व्यक्तियों की एकजुट होकर (मिलजुल कर) कार्य करने की प्रकृति भी होती है । सदैव दो बाधायुक्त पुरुष, दिखावे के लिए एकजुट होकर कार्य प्रवृत्त हो जाऐँगे। महान आश्चर्य तो इस बात का है कि इन लोगों ने अपना संघ यहाँ संगठित नहीं किया है नहीं तो मेरे विरोध में इन बाधायुक्त पुरुषों का एक अलग से संघ बन जाता। भविष्य में ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि इनमें संयुक्त भाईचारे की प्रणाली 17 विद्यमान होती है । जैसा कि आपने देखा होगा कि डाकू सदैव संयुक्त हो जायें तो सारा विश्व ही परिवर्तित हो जाए । आपको यह बात हृदयगम करनी चाहिए । आपको भद्र पुरुषों (positive) से ही सम्पर्क करना चाहिए, नहीं तो आप सहजयोग का विकास नही कर सकेंगे। जो कोई भी नकारात्मक बातें करें उसके सम्पर्क में नहीं आना चाहिए । | परन्तु इस देश में दूसरे ही ग्रुप के आदमी वर्तमान हैं। आप कल के आधुनिक गुरु बनने वाले हैं। अत: आपको भिन्न भिन्न टाइप (प्रकृति) के पुरुषों का ब्योरा दे रही हूँ अर्थात हर प्रकार के व्यक्तियों के बारे में जता रही हूँ। वे स्वयं का सामना करना नहीं चाहते परन्तु इससे बच निकलने के कितने ही मार्ग उन्हें मालूम हैं। उनमें से कुछ ऐसे हैं कि ज्योंही वे पार हुए उसका विश्लेषण प्रारम्भ कर देते हैं। आप उन्हें कुछ भी दीजिए वे विश्लेषण आरम्भ कर देंगे। इस देश में वे प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण कर सकते हैं। भगवान ही जानता है कि उन्होंने यह विचार (idea) कहाँ से पाया, कदाचित तथाकथित वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों अथवा प्रभृति विद्वानों ने उन्हें यह विचार प्रदान किया है। वे सोचते हैं कि हम कह देंगे कि ये ब दोष अमुक बात तर्क सम्मत है । परन्तु अपने चक्षुओं का उन्मूलन नहीं किया है। आप अभी केवल अबोध शिशु मात्र हैं। आप पूर्ण ज्ञान बिना इन सबका विश्लेषण प्रारम्भ कर देते हैं कि यह वस्तु ऐसे क्यों हुई। वह वस्तु वैसे क्यों हुई आदि आदि। एक बार आपने विश्लेषण प्रारम्भ किया तत्सम्बंधी वार्तालाप किया उसका भी विश्लेषण किया। आपने २हज प्रेम द्वार ही ठीक दश | इस प्रकार सबकुछ गवाँ दिया। में परिवर्तित आपको जो कुछ भी करना है वह यह कि आप 'इसे' ग्रहण कीजिए तदुनुरूप अपने को ढालने की चेष्टा कीजिए। अधिकाधिक इसे पाने की चेष्टा कीजिए और औरों के लिए ग्राह्य बनाइयें। इसके सामने अपने स्वयं को नग्नावस्था में लाईये । सहजयोग में त्रुटियाँ न खोजिए हैं हो सकते | है क्योंकि जो कुछ परिवर्तित हो सकते हैं । भी त्रुटियाँ हैं वे आप में हैं। ये सब दोष सहज प्रेम द्वारा ही ठीक दशा में ऐसे भी पुरुष हैं जो मुझसे कहते हैं कि माताजी आप इस प्रकार क्यों नहीं करतीं, आप उस प्रकार से क्यों नहीं करती हैं आदि आदि । मैं अपने कार्यकलाप में सिद्धहस्त हूँ फिर भी वे मुझे शिक्षा देने की चेष्टा करते हैं कि माताजी ने ऐसा किया, उनको ऐसा करना था आदि आदि। आप चाहे जिस प्रणाली से कार्य करें मानव प्रकृति नीचे से ऊपर (ijack in the box की तरह) जाने की होती है । सो आपको अपनी प्रकृति में मूल परिवर्तन लाना है। उस उछलकूद वाले स्प्रिंग्स को जरा सा सरकारइये आपकी स्थिति दृढ़ होगी । ये स्प्रिंग्स कुछ भी नहीं बल्कि बारीक विश्लेषण व्यवहार है। आपका ऐसे बहुत से (विपुल मात्रा में) मनुष्यों के साथ सम्पर्क होगा । अब प्रश्न यह है कि उनसे किस प्रकार से संपर्क एवं व्यवहार स्थापित किया जाए। मानते हैं और जो व्यक्ति इस बारे में निर्विचारिता को वे एक निम्न कोटि की वस्तु 18 वार्तालाप करें वह उन्मादी हैं। देखिए जब आप निर्विचारिता से जागरुकता के संबंध में वार्तालाप करेंगे तो वे आप को पुरातनपंथी कहेंगे, क्योंकि आप सोच विचार नहीं करते । यह वास्तव में घटित हुआ है ऐसी शक्ति द्वारा जो सोच-विचार से परे, बहत उच्च श्रेणी की है । सोचविचार करने से आपको क्या उपलब्धि हुई अर्थात क्या कर लिया। सोच-विचार से आपने नाक, कान, हाथ यहाँ तक कि प्रत्येक वस्तु काट ली। अब आप एक महायुद्ध छेड़ने को उद्युक्त हैं। क्या आश्चर्यजनक विचार हैं। सो आप उन्हें जता दें कि सोचविचार से कुछ भी बनने वाला नहीं है अर्थात आप उसे नहीं पा सकते । वह उच्चतर श्रेणी की शक्ति है । उच्चतर वस्तु की बातचीत ने आपको यह प्रदान किया है। यदि आप उस निम्नतम सोच विचारने की शक्ति से उच्चतर शक्ति में आना चाहते हैं तो आपको केवल सोचविचार को निम्नस्तर पर रखना पड़ेगा। वे इस तरीके से ही परिधि में आएंगे। यदि आप यह कहने की कोशिश करें कि कृपया सोचिए मत। क्या नहीं सोचविचार करें । यह तो विचारणीय ही नहीं है। यह तो व्यर्थ है । ऐसे अहंवादी व्यक्तियों से इसी प्रकार व्यवहार करना चाहिए। सोच-विचार करते हैं पर मान्यता नहीं देते यद्यपि उन्हें शीतल समीर का अनुभव प्राप्त है। | आपको तो आप ऐसे पुरुषों की क्रमश: सहायता करें। श्री गणेशजी अब गुरुजनों के लिए जैसे कि आप हैं। आप सर्वगुणसम्पन्न ज्ञानवान हैं। सब शक्तियाँ यहाँ तक कि प्रत्येक वस्तु आपके अधिकार में है । आप में केवल आत्मविश्वास की और ईसामीह न्यूनता है। आप में निष्क्रियता (inertia) है। मालूम नहीं यह निष्क्रियता किस प्रकार से पलायन करेगी। कभी कभी ऐसे निष्क्रिय लोग भी उपयोग में आ सकते हैं। सरकस में उन्हें तोप के मुँह में पलीते के साथ रखकर उड़ा (blast) दिया जाता है। इस प्रकार वे अपने करतबों का प्रदर्शन करते हैं। वे इतने आलसग्रस्त हैं कि उनको कोई भी विघ्न बाधा विचलित नहीं कर सकती। की छवि के पश्चात बनीया है। आप मेरे सुपुत्र हैं। आपको श्री गणेशजी व ईसामसीह की छवि के पश्चात बनाया है । उनकी सब शक्तियाँ आप में विद्यमान है। एक पॉइंट है, जहाँ मैं स्तब्ध रह जाती हूँ कि किस प्रकार आपकी निष्क्रियता दूर भगायें। आपने सहजयोग का अभ्यास (practice) नहीं किया है। आप कोई भी अभ्यास नहीं कर पाये हैं। आपने (इन विभूतियों को) सहज में आसानी से सस्ते में पा लिया है। आप को इसका मूल्य ज्ञात नहीं, अंत: आप इसे गौण (sidetrack) रखना चाहते हैं। आपको स्वयं अनुशासन में अनुशासित होना है। जब तक आप अपने आपको अनुशासन बद्ध नहीं करेंगे, मैं इसका, आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर छोड़ती हूँ। क्योंकि मैं आपकी स्वतंत्रता में विश्वास रखती हूं । मेरे विचार से आप इतनी निम्न कोटि के नहीं हैं कि मैं आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर पाबन्दी लगाऊँ। अर्थात आप अपनी स्वतंत्रता को व्यवहार में लाएँ । आप पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं यदि आप नर्क में जाना पसन्द करते हैं तो 'मैं' आप को रथ 19 में बैठा कर सीधे गन्तव्य स्थान पर भेज दूँगी यदि आप स्वर्ग में जाना चाहते हैं तो 'मैं' आपके लिए विमान का प्रबंध कर दूँगी। यह आप पर निर्भर करता है कि आप त्वरित (dynamic) बन जायें और अपने अन्दर आत्मविश्वास लायें। आपको प्रत्येक चक्र का ज्ञान है। आप कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया भी जानते हैं। आप प्रत्येक प्रक्रिया जानते हैं । प्रत्येक कार्य अपने ऊपर लेकर स्वयं कीजिए । मैं कभी-कभी आप सब लोगों से रुष्ट भी हो सकती हूँ, अत्यन्त साधारण बात है । परन्तु नहीं, मुझे अपना कार्य सिद्ध करना है । आप से मृदुल संभाषण करना है। कभी कभी भला-बुरा कहकर अथवा डाँट डपट कर काम चलाना पड़ता है। भिन्नभिन्न प्रकार से कुछ न कुछ पुछना पड़ता है। कभी स्निग्धता का प्रयोग तो कभी उष्णता का प्रकोप तो कभी शीतलता को काम में लाना पड़ता है। कभी इस तरह से तो कभी उस प्रकार से उन्हें सहजयोग में स्थिरता प्राप्त करने का प्रबन्ध करना पड़ता है। कभी कभी प्रलोभन आदि से भी उन्हें घेर घार कर रखना पड़ता है कि वे यहाँ जमे रहें। इसी भाँति आपको भी उनसे व्यवहार करना है। उनसे रुष्ट होना सबसे आसान है तब तो फिर कोई समस्या ही नहीं रहेगी। यदि में आप सबसे एक बार भी रुष्ट हो जाती हूँ तो मुझे अपनी शान्ति प्राप्त होती और समस्याएँ भी नहीं रह जाती हैं। परन्तु आप सब को उन सबके साथ वास्तव में बहुत धीरज के साथ व्यवहार करना है। अत्याधिक धैर्य रखें । आप की भाषा भी सुसंस्कृत होनी चाहिए। 'कृपया', 'मुझे खेद है' आदि बहुत से ऐसे शब्द हैं। परन्तु मैं सोचती हूँ ये सब अपना मूल्य खो चुके हैं। अत: हम एक निर्णय पर आते हैं कि हमें हृदय से पढ़ना चाहिए, हमें अपने हृदय से संवेदना प्रकट करनी चाहिए। हमें उसे हृदय से संवेदना प्रकट करनी चाहिए। हमें उसे हृदय से बचाना चाहिए। हमें उसकी सहायता करनी है। परन्तु कभी कभी उन्हें डाँट डपट से कर भी रखना पड़ सकता है क्योंकि जैसे कि आपको विदित ही होगा कि बहुत बाधायुक्त जन जन्मजात कौतुकी, कौतुहल पूर्ण प्रकृति के होते हैं। वे कौतुक एवं कोलाहल पूर्ण दृश्य उपस्थित करने में पारंगत होते हैं । वे अधिकतम प्रदर्शन के धनी हैं। इस कोटि के मनुष्यों की रक्षा करनी है। तथा अत्यंत धैर्य के साथ व्यवहार करना है। ईश्वर आपको सदा सुखी रखें ! 20 आत्मसाक्षात्कार की स्थिरता सहजयोगी वह प्रबुद्ध व्यक्ति होते हैं जिन्हें कुण्डलिनी जागृति (स्वत: सहज विधि ) द्वारा आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो जाता है। वे उन अंकुरित बीजों के समान है जिनकी आध्यात्म में जीवन्त क्रिया आरम्भ हो चुकी है। सारे जीवन्त कार्यों को करने वाली सर्वव्यापक शक्ति (ब्रह्मचैतन्य) की लहरियों का | अनुभव जिन्होंने नहीं किया, वे सहजयोगी नहीं हैं । .....अपने अन्त:स्थित सूक्ष्म तन्त्र तथा कुण्डलिनी की अवशिष्ट शक्ति के पूर्णज्ञान के बिना वे सहजयोगी नहीं हैं। अपने मध्य - नाड़ी-तन्त्र, कम से कम अपनी उंगलियों के छोरों पर (जो कि दोनों अनुकम्पी नाड़ी तन्त्रों, (सिम्पॅथेटिक) के अन्तिम सिरे होते हैं) उन्हें परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापक शक्ति का अनुभव करना चाहिये, तथा अपने अनुभव के कूटानुवाद (डिकोरडिंग) का ज्ञान भी उन्हें होना चाहिये। .....सर्वव्यापक शक्ति की यह दिव्य लहरियाँ हर समय उनमें बहनी चाहिएं, परन्तु यदि यह लहरियाँ रुक जाएं तो उन्हें पुन: चालू करने और अपनी कुण्डलिनी को उठाने का उन्हें ज्ञान होना चाहिए । सर्वव्यापक शक्ति से जुड़े रहने की यही विधि है। ....इस शक्ति के अनुभव के बाद भी व्यक्ति को समझना चाहिये कि अभी भी कुण्डलिनी पूरी तरह स्थापित नहीं हुई, सर्वसाधारण भाषा में हम कह सकते हैं कि सम्बन्ध स्थापित नहीं हुआ। इसे स्थापित करना होगा । यद्यपि बीज का अंकुरण स्वाभाविक है, पर माली को अब इस कोमल पौधे की देखभाल करनी होगी । इसी प्रकार साधक को आरम्भ में अपने आत्मसाक्षात्कार को सम्भालना होता है। कुछ लोग अत्यन्त आसानी से गहनता पा लेते हैं, पर कुछ छ: | सात महीने कार्य करने पर भी पूरी तरह ठीक नहीं होते। ऐसी अवस्था में आवश्यक है कि सहजयोग की ज्ञान विधियों तथा इनके अभ्यास द्वारा व्यक्ति यह जान ले कि समस्या कहाँ पर है। प.पू.श्री माताजी, सहजयोग सहजयोग में प्राप्त करने के बाद आप लोग अपनी इज्ज़त करें, आप योगीजन हो, उसके प्रति अग्रसर हों, पूरा चित्त लगायें, बैठक करें। बैठक किये बिना यह कार्य आगे नहीं हो सकता। जागृति ... ... आसान है, लेकिन इसका पेड़ बनाना आपके हाथ में है। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८५ सहजयोग में एक ही दोष है। ऐसे तो सहज है। सहज में प्राप्ति हो जाती है, प्राप्ति सहज में हो जाने पर भी उसका सम्भालना बहुत कठिन है, क्योंकि हम हिमालय में तो रह नहीं रहे हैं जहाँ आध्यात्मिक वातावरण हो। हर तरह के वातावरण में हम रह रहे हैं, उसी के साथ हमारी भी उपाधियाँ बहुत हैं जो हमें चिपकी हुई सी हैं। तो सहजयोग में शुद्ध बनना, शुद्धता अन्दर लाना, यह कार्य हमें करना पड़ता है। तो जैसे कि अगर पानी के नल में कोई भी चीज भरी हुई है तो उसमें से पानी नहीं गुज़र सकता, इसी प्रकार यह चैतन्य भी जिन नसों में बहुता है वह शुद्ध होनी चाहिए।.......तो नसों की इसके लिये ध्यान करना आवश्यक है। शुद्धता हमें करनी चाहिये..... प.पू.श्री माताजी, २७.११.१९९१ 21 विश्द्धि चक श्री कृष्ण शक्ति के दो अंग हैं एक विशुद्धि के दाँयी और बाँयी ओर और एक बीचो- बीच में। इसमें जो शक्ति बीच में है वह विराट की ओर ले जाती है। १) .....मनुष्य ने कोई गलत या झूठे काम करने के बाद उसके मन में जो भावनायें निर्माण होती हैं उससे बाँयी ओर की शक्ति खराब होती है। जिस समय मनुष्य को लगता है कि मैंने बहुत पाप किया है और गलती की है तब उसका विशुद्धि चक्र बॉयी तरफ खराब हो जाता है। मनुष्य की यही पाप या गलती की धारणा उससे उसे दूर भगाने के लिये नशीली वस्तुओं के पास ले जाती है। अगर किसी मनुष्य की नज़र अपनी बहन के प्रति या अन्य महिलाओं के प्रति ठीक या पवित्र नहीं होती तो यह चक्र तुरन्त खराब हो जाता है। अपवित्रता के बर्ताव से विशुद्धि चक्र के बाँयी तरफ शक्ति के विरोध में है ......इन | तकलीफ होती है। ....ये आँखे इधर-उधर घुमाना भी श्री कृष्ण आँखों को घूमाने से आँखों की बीमारी फैलती है, नज़र कमजोर होती है। २) ..... दाँयी बाजू श्रीकृष्ण और श्री राधा की शक्ति से बना है (श्री रुक्मिणी विठ्ठल) इस मैं शक्ति के विरोध में जब मनुष्य जाता है तब कहता है बहुत बड़ा आदमी हैँ...... में ही सब कुछ हूँ .ऐसी वृत्ति में उस मनुष्य में कंस रुपी अहंकार बढ़ता है .....उसे लगता है कि किसी भी प्रकार मुझे सभी लोगों पर अपना अधिकार जमाना चाहिए ....उसे दाँयी तरफ की विशुद्धि चक्र की पकड़ होती है। ( प.पू. श्रीमाताजी, मुंबई, २५.९.१९७९) अब जिनकी आदत बहुत ज्यादा चिल्लाने की, चीखने की, दसरों को अपने शब्दों में रखने की और अपने शब्दों से दूसरों को दु:ख देने की, होती है उसकी दाँयी विशुद्धि पकड़ी जाती है और उससे अनेक रोग हो जाते हैं। ....दाँयी बाजू पकड़ने से स्पान्डीलाइटिस होता है ....दुनिया भर की दसरी बीमारी हो सकती है जैसे लकवा और दिल का दौरा, हाथ उसका जकड़ जाता है। .इससे जुकाम-सर्दी होती है, इतना ही नहीं जिसे हम कहते हैं अस्थमा, उसका प्रादूर्भाव हो सकता है। .....जो आदमी अपने को बड़ा विद्वान समझते हैं उनकी तो ये हालत हो सकती है कि वे इतने अति विद्वान हो जाते हैं कि उनकी अपनी ही बुद्धि वही आपको चलाने लगती है, आपके खिलाफ चलती है। ....इसमें आदमी हठात हो, तो वो कोई भी काम करते हैं हठात् पर लेकिन आप अगर कहें अब आप पैर हटाइये तो नहीं हो सकता क्योंकि उनकी खुद की बुद्धि ही परास्त हो गयी है। ( प.पू.श्रीमाताजी, १६.३.१९८४) 24 .विशुद्धि चक्र खराब होने से दिमाग के दोनो ओर संवेदना ले जाने वाली नाड़ियाँ खराब होती है (प.पू.श्रीमाताजी, २५.९.१९७९) जब आप पार भी हो जाते हैं तो भी आपको हाथों में वाइब्रेशन नहीं आते। आपकी जितनी हाथ की नव्व्हस हैं वो मर जाती हैं, तो आपको हाथ पर महसूस नहीं होता और लोग कहते हैं कि माँ हमको अन्दर तो महसूस हो रहा है पर हाथ पर महसूस नहीं होता और इसलिये उनको परेशानी हो जाती है। (प.पू.श्रीमाताजी, १६.२.१९८१) ...जैसे-जैसे विशुद्धि चक्र जागृत होता है वैसे-वैसे संवेदन क्षमता में वृद्धि होती है। विशुद्धि चक्र जागृत करने के कुछ मंत्र हैं, अपने अंगूठे की बगल वाली उंगलियाँ दोनों कान में डालकर गर्दन पीछे करके और नज़र आकाश की ओर रखकर जोर से व आदर से सोलह बार 'अल्लाह-हो- अकबर' मंत्र कहने से विशुद्धि चक्र साफ होता है। तब आपको जानना होगा अकबर माने विराट पुरुष परमेश्वर है । (प.पू.श्रीमाताजी, २५.९.१९७९) ...आप सब अपनी बाँयी विशुद्धि पर नियंत्रण कर मृदुल वाणी द्वारा मंजुल शब्दों का प्रयोग करें, आपकी भाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिये मृद होनी अनिवार्य है। यह मधुरता आपकी बाँयी विशुद्धि को शुद्ध कर देगी। मृदुल प्रक्रिया से संबोधन ही अपनी अपराध भावना को सुधारने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। ( प.पू. श्रीमाताजी, राहुरी, २१.१२.१९८०) 25 जब बाँयी खराब हो जाती है.... व्यक्ति अपराधी महसूस करता है, इसलिये सहजयोग में इसका मंत्र है ... 'माँ, हमने कोई ऐसी गलती नहीं की जो आप माफ न करो। . जिसका विशुद्धि चक्र ठीक होगा उसका मुखड़ा ठीक होगा, सुंदर होगा, उसकी आँखे तेजस्वी होगी, नाक-नक्श तेजस्वी होंगे। ( प.पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, १२.२.१९८१) ३) मध्य विशुद्धि चक्र के बीचो-बीच जो शक्ति है वह विराट की शक्ति है। इस शक्ति से मनुष्य परमेश्वर की खोज में रहता है।..... अपने 'स्व' को पहचानिये। अपने 'स्व' को पहचानने से ही मनुष्य अपनी सुबुद्धि पाता है। जब तक दुर्बुद्धि है उसकी विशुद्धि जागृत नहीं होती। ( प. पू. श्रीमाताजी, मुंबई, २५.७.१९७९) जो बीच में श्रीकृष्ण हैं उनके लिये सारी सृष्टि एक लीला है, उनके लिये यह लीला है, और जब सहजयोगी पार हो जाते हैं तब उनके लिये भी सारी सृष्टि जो दिखायी देती है, वो एक साक्षी है, उसकी ओर वे साक्षी के स्वरुप से देखते हैं। वो जो कुछ भी, पहले उनको हरेक चीज़ से लगाव था, वो छूट करके वो देखता है, 'अरे! यह सब तो एक नाटक था। ( प.पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, १६.३.१९८४) अन्तर्जात गुण १. सामूहिक चेतना - सामूहिकता - संतुलन - जब मनुष्य अपने विशुद्धि चक्र में जागृत होता है तब उसे सुबुद्धि आती है व संतुलन आता है। आपकी सामूहिक चेतना जागृत होती है, आप अपने तरफ अंतर्मुख होकर देख सकते हैं व आपकी दृष्टि परम की ओर मुड़ती है। .....आप औरों की भावनायें, संवेदना वे सब अपने आप में जान सकते हैं । ( प.पू.श्रीमाताजी, २५.७.१९७९) सामूहिकता मतलब हमेशा आपको उस परमेश्वरी शक्ति के साथ सामूहिक चेतना में जुड़े रहना, .विशुद्धि चक्र की जागृति के बाद यह अवस्था मिलती है। ( प. पू. श्रीमाताजी, निर्मला योग १९८४) सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। .....जो व्यक्ति सामूहिकता के साथ कार्य करता है और सामूहिकता में रहता है, उसमें नयी प्रकार की शक्तियाँ जागृत हो जाती है। गुरुपूजा, कबैला, (प.पू. श्रीमाताजी, १९९७) 26 27 सामूहिकता हमारे उत्थान का मूलाधार है। ...अन्दर-बाहर सामूहिकता स्थापित होनी चाहिये। ( प. पू. श्रीमाताजी, मेलबोर्न, १०.४.१९९१ ) २. माधुर्य-मिठास-नम्रता .....श्रीकृष्ण की सुमत्ता, उनकी मधुरता, उनकी मोहकता हमारे जीवन में आनी चाहिये। श्रीमाताजी, १६.३.१९८४) (प.पू. .....आवाज़ में मिठास होनी चाहिये. उसमें माधुर्य होना चाहिये, उसमें एक मोहित करने की शक्ति होनी चाहिये, जिससे मनुष्यों को लगे कि जो बोल रहे हैं, इसमें खिंचाव है । (प.पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, ७.५.१९८३) .....आपको विनम्र होना है, यही आपकी सजा है और यही गुण। .....स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही श्रेष्ठ माने। स्वयं को यदि आप श्रेष्ठ मानते हैं तो आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग नहीं रहते .....सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो है वो है विनम्रता । ( प. पू. श्रीमाताजी, कबैला, ७.५.२०००) नम्रता का मतलब होता है कि अपने आपको खोल देना । आप कोई नयी विचारधारा को स्वीकार करें, देखें परखें और इसमें उतरें। नम्रता का यह मतलब नहीं होता कि आप किसी के आगे झुक जायें। यह बहुत बड़ा गुण है नम्रता। (प.पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, ७.२.१९८३) ३. व्यवहार कुशलता - व्यवहार में पूरे हृदय से दोस्ती करो, कोई कार्य हो तो पूरे हृदय से करो। उपरी-उपरी नहीं, अन्दरूनी रखो। एक छोटा सा फूल भी यदि कोई शुद्ध हृदय से दे तो उसका बहुत असर हो सकता है। ....जो भी आपको कहना है हृदय से कहो। (प.पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, २८.२.१९९१) 28 तो हमारे विशुद्धि चक्र में बसे हुए श्री कृष्ण जो हैं इनको आपको जागृत करना पड़ेगा। जब तक ये जागृत नहीं होंगे तब तक आपको विशुद्धि चक्र की तकलीफ रहेगी। ( प . पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, १६.३.१९८४) ४. साक्षी अवस्था - हमारे लिए यह समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हमारी विशुद्धि साफ होनी चाहिये। सर्वप्रथम हमारा हृदय सुन्दर और स्वच्छ होना चाहिये जहाँ से श्री कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी विशुद्धि को सुधारें । विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारो क्योंकि आपके अतिरिक्त कोई अन्य इन्हें नहीं सुधार सकता। देखो कि तुम्हें पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी विशुद्धि के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धि पर आकर आप साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली है तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कमियों को जान सकेंगे। श्रीकृष्ण की पूजा करते समय हमें यह जानना है कि अंत में वे बुद्धि तत्व बन जाते हैं। पेट की चर्बी सूक्ष्म रुप में बुद्धि को पहुँचती है तथा श्री नारायण बुद्धि में प्रवेश कर 'विराट' रुप हो जाते हैं और अकबर बन जाते हैं और जब वे अकबर बन जाते हैं तभी पदार्थ के अन्दर बुद्धि (ज्ञान) बन जाते हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण को पूजने वाले लोग अहंकार रहित बुद्धिमान बन जाते हैं। उनकी बुद्धि विकसित होती है परन्तु यह अहंग्रसित नहीं होती। बिना अहं की बुद्धि जिसे मैं शुद्ध बुद्धि कहती हूँ, प्रकट होने लगती है। ( प. पू. श्रीमाताजी, चैतन्य लहरी २००८) के .एक बार सहस्रार खुल जाने बाद आपको वापस अपनी विशुद्धि चक्र पर आना पड़ता है, अर्थात् अपनी सामूहिकता के स्तर पर। विशुद्धि चक्र यदि ज्योतिर्मय नहीं हो तो आप चैतन्य लहरी महसूस नहीं कर सकते। .एक बार कुण्डलिनी का सहस्रार में से नीचे की ओर चैतन्य प्रवाहित करना जो आपके चक्रों से प्रवाहित होकर भिन्न चक्र का पोषण करे, आवश्यक है। विशुद्धि पर जब यह रुकती है तो वास्तव में आपको विक्षोभ की अवस्था में ले जाने का प्रयत्न करती है। .... यह वह समय है जब आपको तटस्थ | यानी साक्षी हो जाना चाहिये। यदि आप साक्षी हो जायें तो सभी कुछ सुधर जाता है। 'साक्षी स्वरूपत्व' अवस्था आपको तब प्राप्त होती है जब कुण्डलिनी ऊपर आती है और योग स्थापित होता है और दिव्य लहरियाँ ऊपर आती है और आपके विशुद्धि चक्र को समृद्ध बनाती है। (प.पू.श्रीमाताजी, मिलान आश्रम, ६.८.१९८८) 29 कह ह भविष्य की ज्ञान 30 यह तो असन्तुलन है। हम मानव हैं और हमें वर्तमान को जानना है, भविष्य को नहीं। .व्यक्ति की जब वास्तव में उत्क्रांति होती है, वर्तमान में, तो वह पराचेतन के उस बिन्दु तक पहुँचता है जहाँ से वह अतिचेतन दाँयी ओर को और अवचेतन बाँयी ओर को देख सकता है, परन्तु इनमें उसकी कोई रूचि नहीं होती। वह वर्तमान में उन्नत होना चाहता है और वास्तव में यही कुण्डलिनी की जागृति है। वे सभी लोग जो ये कहते हैं कि कुण्डलिनी की जागृति बहुत कठिन है और बहुत हानिकारक है ये वे लोग हैं जिन्हें कुण्डलिनी जागृत करने का कोई अधिकार नहीं है । ये लोग जब चालाकियाँ करने लगते हैं तो उनका अनुकम्पी नाड़ी तंत्र बहुत ज्यादा उत्तेजित हो जाता है तथा बाँयी और दाँयी ओर से ये मध्यमार्ग से बहुत अधिक ऊर्जा खींचने लगती है। यह इतनी अधिक ऊर्जा खींचती है कि परानुकम्पी (मध्य मार्ग) की ऊर्जा समाप्त होने लगती है और ऐसा व्यक्ति वास्तव में विक्षिप्त हो जाता है। अतः बहुत से लोग जो ये कहते हैं कि हम इस विधि से या उस विधि से कुण्डलिनी जागृत कर रहे हैं वे साधकों के जीवन नष्ट करते हैं और अन्ततः साधक बिना कुछ प्राप्त किये निस्सहाय छोड़ दिया जाता है। साधक नहीं जानते हैं कि प्राप्त क्या करना है और पाना क्या है, इस प्रकार वे पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। ये सब अनुभव जिनमें लोग सोचते हैं कि वे हवा में उड़ रहे हैं या लौकिक गतिविधियों से ऊपर पहुँच गए हैं, हवा में जाकर चीजें देख रहे हैं, तो ये सब बहुत भयानक चीज़ें हैं। .....आप इसलिये हवा में उछल रहे हैं कि कोई अन्य आपको उछाल रहा है, आप नहीं उछल रहे हैं, इसका अर्थ ये है कि आपकी अपनी चेतना, अपना चित्त किसी अन्य के नियंत्रण में है। आप अपना नियंत्रण नहीं कर सकते। .ऐसा व्यक्ति अंततः पागल हो सकता है, पूर्णत: पागल क्योंकि वह स्वयं पर नियंत्रण पूरी तरह खो देता है। इन सब अनुभवों को 'परामनोवैज्ञानिक' अनुभव कहा जाता है। इसे और बड़ा नाम देने के लिये अमरीका में 'परामनोविज्ञान' कहा जाता है। नि:सन्देह यह 'परा' है क्योंकि यह मनुष्य के मन से परे है, परन्तु यह बहुत भयानक है। आपको इन जंजालों में नहीं फँसना जहाँ मृत आत्मायें आपको पकड़ लें और आप इस प्रकार से आचरण करने लगे जिनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। परामनोविज्ञान में प्रयोग करने वाले लोग सब भूतबाधित होकर समाप्त हो जाएंगे यह तो स्वयं मृतात्माओं का गुलाम बनना है।.....एक व्यक्ति था वह भी इसी रोग का शिकार था। वह अपना शरीर छोड़कर दूसरे विश्व में चला जाता, वहाँ की चीज़ों को देखता, उसने बहुत कष्ट उठाये और स्वयं पर उसका नियंत्रण समाप्त होने लगा, पर मैंने उसे रोग मुक्त किया। 31 .....अमेरिका में लोग परामनोविज्ञान व्यापार चला रहे हैं जो कि अत्यन्त भयानक कार्य है। .....चाहे व्यक्ति अवचेतन में जाए या अतिचेतन में, इसके प्रभाव भिन्न हो सकते हैं परन्तु सहजयोग में ये समान हैं। जो लोग अवचेतन क्षेत्र में चले जाते हैं वो मुझे भिन्न रूपों में देखने लगते हैं जैसे अवचेतन भी अत्यन्त भयानक है एल.एस.डी. का नशा करने वाले लोग मुझे नहीं देख पाते हैं वे केवल मेरे अन्दर से निकल पाने वाले प्रकाश को देख पाते हैं और जो लोग अतिचेतन में जाते हैं वो इस प्रकार से चीज़ें और उनके रूप देखने लगते हैं कि वो सोचते हैं कि वो स्वर्ग में पहुँच गए हैं परन्तु वे उत्क्रान्ति से पूर्वकाल, हर चीज़ में भूतकाल को देख रहे होते हैं। अत: यह अतिचेतना क्षेत्र में जाना बहुत ही भयानक है। .....अवचेतन भी अत्यन्त भयानक है क्योंकि सभी लाइलाज बीमारियों जैसे कैंसर और मेलाइटिस आदि चित्त के बाँयी ओर चले जाने से होती है। भूत या भविष्य के बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है। क्या आवश्यकता है? .....यह मानव की दुर्बलता है कि वह अपने व्यक्तित्व में कुछ अत्यन्त बनावटी, अस्तित्वहीन और मूल्यहीन चीजें जोड़ना चाहता है। भारत में लोग इस 'आज्ञा' के कारण प्राय: बायें को चले जाते हैं। .....वे परमात्मा से योग प्राप्त किये बिना वे परमात्मा की करने लगते हैं, वे भिन्न प्रकार की अारतियाँ करते हैं, उपवास पूजा करते हैं, ये वो और स्वयं को सताते हैं। ये बाँयी ओर के लोग हैं। लोग हर समय राम-राम-राम ही करते हैं। .....चाहे कुछ कोई भी नाम आप लें, आप परमात्मा तक नहीं पहुँच सकते, तब आप कहाँ जाते हैं? कहीं तो आप जाते हैं। हो सकता है कि राम नाम का कोई नौकर (भूत) हो जो आपको पकड़ ले और लोग इस प्रकार अटपटे ढंग से बर्ताव करने लगते हैं कि वो पागल और जड़ सम लगते हैं। अतिचेतन के बारे में भी ऐसा ही है, जो लोग बहुत अधिक 32 महत्वाकांक्षी होते हैं वो भी इस प्रकार की पागल अवस्था में जा सकते हैं। समझिये कि किस तरह गलत धारणायें आपको अति की सीमा तक ले जाती है।.....पर अब किसी को कष्ट नहीं उठाने। आपको अपनी कुण्डलिनी जागृति कार्यान्वित करनी है तथा स्वयं को अच्छी तरह से सहजयोग में स्थापित करना है। आपके सभी कष्ट दूर कर लिये जाएंगे। देवी का एक नाम 'पापविमोचिनी' है, वे आपके पापों को हर लेती हैं। श्री गणेश को हम 'संकट विमोचन' कहते हैं, वे जीवन की सभी बाधायें करते हैं। आशीर्वादित होने के पश्चात ही आप वास्तव में जान पाते हैं कि दूर परमात्मा के आशीर्वाद देने के बहुत से तरीके हैं। ये चमत्कारिक है, पूर्णत: चमत्कार। .....तो आपके ये अटपटे विचार कि आपने कष्ट उठाने हैं, तपस्या करनी है या आपको ब्रह्मचारी बनना चाहिये, ये सभी हास्यास्पद धारणायें त्याग देनी चाहिये। आपको पूर्णतः सामान्य और प्रसन्नचित्त व्यक्ति बनना है। परमात्मा ने आपके लिये इतना कुछ किया है, इतना कुछ बनाया है इसके बावजूद कि यदि आप दयनीय बनना चाहते हैं तो कोई क्या कर सकता है? .....अब वह समय आ गया है कि हम सबको वो सब चीज़ें त्याग देनी चाहिये जो हमारे स्वास्थ्य के लिये, हमारी आध्यात्मिक उत्क्रांति के लिये ठीक न हों। आप यदि इस बात को स्वीकार नहीं करते तो माँ होने के नाते मैं कह सकती हूँ कि मुझे तुम्हारी चिन्ता है यह इससे भी अधिक है, आप अत्यन्त भयानक समय से गुज़र रहे हैं - .व्यक्ति आप आत्मसाक्षात्कारी हो। ......एक बार आत्मसाक्षात्कार पा लेने के पश्चात .... ..... के लिये कोई बन्धन नहीं रह जाता क्योंकि बूँद समुद्र में मिल गयी है अब वह समुद्र बन गयी है और सागर की कोई सीमा नहीं होती। आत्मसाक्षात्कारी आत्मायें भी सर्वत्र हैं और आपकी सहायता कर रही है। ये किसी व्यक्ति में प्रवेश नहीं करते, आपको परेशान नहीं करते, टठीक मार्ग पर आपका पथ प्रदर्शन करते हैं । ....अब आप आत्मसाक्षात्कारी हैं तो भलीभाँति समझना होगा आपको कि सच्चाई क्या है। समझते चले जायें, आत्मसात करने का प्रयत्न करें। .... सहजयोग एक जीवित संस्था है। यहाँ कुछ भी घटित होता है तो पूरे शरीर को इसका पता चलता है। इस शरीर के लिये आपको कोई लिखित आयोजन करने की आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार से सहजयोग भी कार्यान्वित होता है। (प.पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, ३.२.१९८३) 33 आप स्वयं मंगवा सकते है भारत के किसी भी कोने से !!! आप अपने सहज साहित्य को उदा. किताबे, ऑडिओ, विडीओ कैसेट और सीडीज (प्रवचन और संगीत ), मैगज़िन्स, पेंडंट इ. नीचे दिये किसी भी तरिके से मंगवा सकते हैं। हुए १ ) आदेश (ऑर्डर) का पहला विधि + आप अपने ऑडिओ-विडीओ मटेरियल या किताबें फोटोग्राफ्स इ. का चयन एनआयटीएल कैटलॉगद्वारा कर सकते हैं, जो www.nitl.co.in इस वेबसाइट पर हैं। ये एनआयटीएल के सभी प्रतिनिधींओं के पास भी उपलब्ध हैं। | आप इस कैटलॉग को ई-मेल : sale@nitl.co.in द्वारा भी मंगवा सकते हैं। * * आप अपना ऑर्डर एनआयटीएल तक फोन, ई -मेल, फैक्स द्वारा पहुँचा सकते हैं या एनआयटीएल के अधिकृत प्रतिनिधींओं से संपर्क कर सकते हैं। संपर्क : निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा.लि., प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरूड, पुणे ४११०३८. फोन नं. ०२०-२५२८६५३७, २५२८६०३२. फैक्स : +९१-२०-२५२८६७२२, ई-मेल:sale@nitl.co.in , मोबाईल नं. ९७६३७४१०२७, ९७६७५८३८०८ २) आदेश (ऑर्डर) का दूसरा विधि आप हमारी वेबसाइट www.nitl.co.in पर ऑन-लाइन रजिस्ट्रेशन कर के भी ऑर्डर दे सकते हैं। इस साईट के शॉपिंग डेमो के लिंक पर आपको अधिक जानकारी मिल सकती है। आप अपनी रकम क्रेडिट कार्ड द्वारा ऑन-लाइन भर सकते हैं या एनआयटीएल के ऑन-लाइन शॉपिंग के माध्यम से मटेरियल का चयन कर के एनआयटीएल में उस रकम के डीडी या चेक नं. के बारे में सूचित कर के रकम अदा कर सकते हैं। (जानकारी के लिए शॉपिंग डेमो पर देखें) आप अपनी रकम चेक या कॅश द्वारा आपके नजदिकी एक्सिस बैंक में भर सकते हैं। आपका ऑर्डर मिलने के बाद उस आपको ई-मेलद्वारा सूचित किया जाएगा। पैसे कैसे अदा करें? आप अपनी रकम को एनआयटीएल के एक्सिस बँक के सेविंग अकाऊंट नं. १०४०१०१००१८५५४ पर एक्सिस बैंक के किसी भी ब्रैंच द्वारा भेज सकते हैं या उस रकम का डी.डी. (Payable at Pune) बनाकर ऊपर दिये हुए पते पर भेज सकते हैं। सेविंग अरकौंट में रकम जमा करने के बाद हमें इ-मेल या ऊपर दिये हुए फोन नंबर्स पर सुचित करें। + रकम बैंक में भरने के बाद आपने आदेश (ऑर्डर) की गयी चीज़ों को सीधे अपने घर पाईये। डिलीव्हरी चार्जेस डिलीव्हरी चार्जेस वजन और दूरी (कि.मी.) पर आधारित होंगे। + जिस ऑर्डर की किमत रु.१०,००० या उससे अधिक होगी तो उस पर कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लगाया जाएगा। ३. वर्ष २०११ में उपलब्ध मैगज़िन्स की जानकारी कीमत (रु.) मैगज़िन्स पूरे साल की मैगज़िन्स की संख्या चैतन्य लहरी (हिंदी) ६ अंक ३६० चैतन्य लहरी (मराठी) ६ अंक ३०० डिव्हाईन कूल ब्रीज (इंग्लिश) युवादृष्टी (मिक्स) (इन सभी मैगज़िन्स की माँग आप ऊपर दी गई किसी भी विधि से कर सकते हैं ।) * आपसे विनती है कि उपरोक्त मटैरियल को आप एनआयटीएल या उनके अधिकृत प्रतिनिधींओं द्वारा मँगवायें । ६ अंक ३६० ४ अंक २०० एनआयटीएल में पब्लिश हुए किसी भी किताब या रेकॉर्डिंग की पुनर्निर्मिती या किसी भी प्रकार से रूपांतरण करने के लिए एनआयटीएल की परमिशन लेनी पडेगी। कोई भी व्यक्ति पब्लिशिंग या रेकॉर्डिंग के बारे में अनधिकृत कृत्य करते हुए पाये जाने पर सजा के या नुकसानभरपाई के हकदार होंगे। NEW RELEASES Lang, Type D ACD Title Place Date VCD DVD 25" Nov.1973 | 'पाने के बाद' - सातों चक्रों व उनके देवताओं का वर्णन Mumbai th 243* Sp Н 20th Jan.1975 'क्षमा की शक्ति का महत्व' धर्म व अधर्म 244 Mumbai Sp हर श्वास में सहजयोग को प्रस्थापित करना होगा 245 25h Jan.1975 SP Mumbai Н 2nd Feb.1975 ध्यान और प्रार्थना Mumbai Н SP 091 247 29" May1976 | ध्यान कैसे करें व प्रेममय सहज जीवन Sp Mumbai th 515 26 Jan.1977 Bordi Sp How The Chakras come in Human beings & Q & A सहजयोग, कुण्डलिनी और चक्र, मूलाधार व नाभि चक्र, गुरु तत्व th 30*Jan.1978 266 Mumbai SP Н 'परमात्मा सबसे शक्तिशाली है'; सब चक्रों के बारे में |Dheradun 4th Mar.1986 249 PP Н 16th Feb.1981 013* तत्व की बात Delhi H PP २ 22n Aug.1982| Ganesha Puja-Innocence and Joy-Part 1, 2 516 Geneva SP/Pu 201 E th H/M Sp 238 सहस्रार के ऊपर चार चक्र एवम श्री फल 5" May 1983 Mumbai San Diago E th 337° 517' 25" Sep.1983 Shri Mataji's Talk Sp 26™ Sep.1983 -th 518' Los Angeles E How to Save Attention (PP) 338 SP 339' 25" Sep.1983 | Picnic at San Diago San Diago | E Sp All Chakras Explened Los Angeles E 520° 27th Sep.1983 340* Sp 3rd Jan.1984 नव वर्ष पूजा : सहजयोगी की पहचान 019 Delhi Sp Н सार्वजनिक कार्यक्रम th 8™ Feb.1984 M/H| Sp भाग-१, २ 521' Pune - th 341* 522 Advice after Sahastrar Day 6“ May 1984 France Sp 21*Sep.1985 | English are Scholars 342 523" London Sp 026* st 21 Jan. 1986 Mumbai PP H सत्य का स्वरुप महाशिवरात्री पूजा 048' 6th Mar.1989 Delhi Sp th 7" May 1995 343 111* Sahastrar Puja : Complete Freedom & Cabella Sp/Pu a Beautiful Heart - Part I & II संक्रान्ती पूजा : संक्रान्ति और सूर्यदेव का महत्व 14th Jan.1996 140* H/E Sp/Pu 030 Pune 25"Dec.2000 | ख्रिसमस पूजा th 216 344° Ganapatipule H/E Sp 26th Mar.2001 345* 525* Public Programe Delhi НЕ Sp 14h Jul.2001 526* Public Program Sp London st Nirmal Arts Academy - Part I & II 31" Jul.2007 346 Cabella Mu Bhajan Title Artist Song List ACD ACS Nirmal Shradhanjali - I Pune Sahaj Music Group 173 Nirmal Shradhanjali - II Pune Sahaj Music Group 174* To Order : You can even place your order through our website : www.nitl.co.in You can even place your order with NITL through telephone, e-mail, Fax. (Numbers given below) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड , कोथरुड, पुणे - ४११ ७३८. फोन : ०२०२५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in रुम श० शर को ुि २ती मतलब २६ा करने वीली शक्ति। इस शक्ति का बंधन बड़ा जबरढस्त है और कोमल भीक्योंकि वो बहन के पवित्र प्रेम का दौतक है। जिसक क बार शी बाँध दी तो वहीं निर्भल २क्षा की स्थापनी का स्थान हो जाती है। १७ अगस्त १९७८ आरे ---------------------- 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-0.txt हिन्दी जुलाई-अगस्त २०११ १ न की 10 ा ० कुर राव ३ गं र ना कर ब सा 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-1.txt जि मनुष्य में सहजयोग का कार्य करने की इच्छा है, जिस मनुष्य में दीप बनने का समर्थ्य है, ऐसे ही लोगों की परमात्मा मढढ करेंगे और ऐसे ही दीप जलाएंगे जिनसे इ पुरे विश्व में प्रकाश फैलेगा। अमृतवाणी, निर्मला यौग 4 न 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-2.txt इस अंक में मुरु पूजा ...४ * * आत्मसाक्षात्कार की स्थिरती .२१ * विशुद्धि चक्र ...२२ भविष्य का ज्ञान .३० प्र भा कृपया ध्यान दें : २०१२ के सभी अंकों की नोंदणी सप्टेंबर २०११ को शुरू होकर ३० नवंबर २०११ की समाप्त हो जाएगी] 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-3.txt गृरू पूजा प्रट २ ू १ ब शा 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-4.txt लन्दन, २ दिसम्बर १९७९ ए क मास पूर्व ही वन्दनीय माताजी ने श्री रुस्तम से कहा कि आगामी रविवार को पूर्णिमा है । अत: पूजा- अर्चना का आयोजन होना चाहिए । श्री रुस्तम ने माताजी से कि "आप इस | पूछा अर्चना को क्या संज्ञा देंगी। क्या यह गुरू पूजा है अथवा महालक्ष्मी पूजा या श्री गणेश पूजा?" परम पूज्य माताजी ने समझाया माताजी भारत जाने के लिए उद्युक्त हुईं तो श्री रुस्तमजी ने पूछा कि ख्रिसमस पूजा का "आयोजन यहीं क्यों न हों?'" कि "यह गुरु पूजा है।" काफी समय व्यतीत होने के पश्चात जब वन्दनीय आज का दिन बहुत की महत्त्वपूर्ण है। बहुत समय हुआ जब ईसामसीह बाल्यावस्था में ही थे तो उन्होंने धर्मशास्त्र में पढ़ा और घोषणा की कि वे अवतार हैं और उनका अवतरण संसार के कल्याण, संरक्षण एवं मंगल के लिए हुआ है। उनका विश्वास था कि संरक्षक अवश्य अवतरित होगा । बहुत दिन व्यतीत हुए, आज के ही दिन अर्थात् रविवार को 'उन्होंने' घोषणा की कि वे उद्धारक के रूप में अवतरित हुए हैं। अत: इस दिन को "अवतरण रविवार" की संज्ञा प्रदान की गई। उनको इस संसार में अल्प समय १) ही बिताना था, अत: अल्पायु में ही 'उन्हें' घोषणा करनी पड़ी कि उनका अवतरण हुआ है यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि इससे पूर्व किसी भी अवतार ने सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया था कि वे अवतार हैं। श्री रामचन्द्रजी ने तो अपने आपको भुला ही दिया था कि वे अवतारी पुरुष | एक तरीके से अपनी माया के व्यामोह में आबद्ध होकर सम्पूर्ण मानव बनकर मर्यादा पुरुषोत्तम प्रख्यात हुए। श्री कृष्णजी ने श्री अर्जुन को केवल महाभारत युद्ध के अवसर पर अपने अवतरण के सम्बन्ध में बताया। हज़रत अब्राहम ने कभी भी उद्घोषित नहीं किया कि वे अवतार हैं। यद्यपि वे उस सर्व शक्तिमान के ही अवतार थे। भगवान दत्तात्रेय ने अपने अवतरण के विषय में किसी से भी नहीं कहा कि वे ईश्वर के अवतार हैं। सरलता से त्रिगुणात्मक शक्ति सम्पन्न होकर संसार के पथ प्रदर्शन हेतु मानव शरीर धारण किया। श्री मोजेज ने कभी नहीं कहा यद्यपि उनकी महत्ता का सबको भली प्रकार ज्ञान था । उन्होंने प्रकृति पर विजय प्राप्त की फिर भी उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे अवतार हैं। ईसा के समय में घोषणा की आवश्यकता प्रतीत हुई, नहीं तो जनता अंध:कार में ही रहती । किसी को भी भान नहीं होता । यदि उस समय ईसा प्रभु को पहचान लिया गया होता तो कोई समस्या ही नहीं होती परन्तु मानव प्राणी का और अधिक कल्याण एवं उत्थान आवश्यक था। किसी न किसी को तो विराट में आज्ञाचक्र को पार करना था, यही कारण था कि इस धरा पर महान ईसा का अवतरण हुआ । 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-5.txt यह एक विस्मयकारी बात है कि जीवनरूपी वृक्ष में जड़े तना उभारती हैं, शाखाओं को जन्म देकर आगे बढ़ाता है, शाखाओं में पल्लव कुसुम प्रस्फुटित होते हैं । जिनको जड़ों का ज्ञान है उनको तना जानने की इच्छा नहीं होती । जो तना जानते हैं उन्हें कुसुम पल्लव आदि को पहचानने की आवश्यकता नहीं होती यही विचित्र मानव तना स्वभाव है। मैंने स्वयं अपने सम्बन्ध में कभी ऐसा कुछ नहीं कहा क्योंकि मानव समाज ने अपने अन्दर ईसा के समय से भी अधिक अहंकार को समेट कर भर लिया है । आप किसी पर भी दोषारोपण कर सकते हैं। आप इसे औद्योगिक क्रांति का नाम भी दे सकते हैं क्योंकि आप प्रकृति से बिछड कर दूर हो गए हैं। आप इसे भी कह सकते हैं । मानव समाज ने कुछ वास्तविकता के सारे सम्पर्क खो दिये हैं वे बनावटी रूप से परिचित (identified) होते ैं और उन्हें बृहत वास्तविकता को मान्यता देना असम्भव प्रतीत होता है। यही कारण है कि मैंने अपने विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा जब तक कि कतिपय ज्ञानी, मानी सन्त जनों ने मेरे सम्बन्ध में घोषित नहीं किया । लोग कौतूहल से स्तम्भित रह गए कि कुण्डलिनी जागरण जैसे जटिल एवं दुष्कर कार्य को द्रतगति से किस प्रकार संचालित किया गया और अपनी उपस्थिति में ही औरों से भी कराया। कुसुम पल्लव आढि को पहचानने की भारतवर्ष में एक अति प्राचीन अनजाना मंदिर है । लोगों को विदित हुआ कि जलपोत में समुद्र एक विशिष्ट स्थान पर आते ही बरबस तट की ओर खिंचे चले आते और उस आकर्षण बिंदु पर रुक जाते थे । दुगनी शक्ति लगाकर खींचने से भी वे अपने उस स्थान से टस से मस न होते थे । इसका कारण नाविकों को अज्ञात ही रहा । समद्र की गहराई आवश्यकता नहीं होती थे सम्बन्धी कुछ त्रुटि का ही अनुमान लगा कर छोड़ देते । परन्तु जब सब के सब पोत उस विशिष्ट बिंदू से तट की ओर आकर्षित होकर खिंचे चले आने लगे तो वे सब विस्मित हुए और सोचने को बाध्य हुए कि कुछ न कुछ रहस्य अवश्य है। तब उस रहस्य का उद्घाटन करने की लालसा उनके मन में उत्पन्न हुई कि जलपोत को होता क्या है कि पोत तट की ओर आकर्षित होते हैं । इस गुत्थी को सुलझाने हेतु तटवर्ती सघन वन की खोजबीन की गई तो उन्हें एक विशाल मंदिर दृष्टि गोचर हुआ , जिसके शिखर कलश पर एक चुम्बक का विशाल खण्ड रखा था जो जलयानों को अपनी आकर्षण परिधि में आने पर अपनी ओर खिंच लेता था। अत: कुछ निरंतर चिंतनशील व्यक्ति अपने अनुभवी ज्ञान की कसौटी द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि माताजी अवश्य कुछ विशिष्ट उपलब्ध शक्ति सम्पन्न हैं, परन्तु शास्त्रों एवं अन्य धार्मिक ग्रन्थों में तद्विषयक अवतरण के सम्बंध में कुछ भी संकेत उन्हें लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुआ कि ऐसी प्रभूति आत्मा इस पुण्य धरा पर अवतरण कर धन्य करेंगी जो अपनी दृष्टिपात मात्र से एवं संकल्प शक्ति द्वारा ही कुण्डलिनी जागरण एवं पूज्य उत्थान की प्रक्रिया सम्पन्न करेगी तथा अपने शिष्य गण से भी कराएँगी। हिमालय स्थित 6. 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-6.txt सघन वनवासी, निष्क्लांत, निष्णात सन्त महात्मा समुदाय इस अवतरण से पूर्णरूप से अवगत हैं। वे जन साधारण से कहीं अधिक प्रज्ञावान हैं जिनके सम्मुख हम सब अबोध शिशु की तरह हैं। वे वास्तव में महान हैं । परन्तु आज का दिन महान है जब 'मैं' घोषणा कर रही हूँ कि 'मै' ही वह हँ जिसे मानवता का उद्धार करना है। उसे बचाना है। 'मैं' ही आदिशक्ति हूँ, जो सब माताओं की जननी होने के नाते जगत् जननी एवं शक्ति भी हूँ। 'मैं' ईश्वर की पावनतम इच्छाशक्ति हूँ, पृथ्वी पर मानव मात्र के उद्धार हेतु अवतार लिया है । 'मुझे' पूर्ण विश्वास है कि 'मैं' अपने प्यार, धेर्य और अद्भुत शक्ति से मानव मात्र का कल्याण करने में सक्षम रहूँगी। 'मैं' ही वह हूँ जिसने बार बार जगत के उद्धार के लिए जन्म लिया है किन्तु इस समय 'मैं' अपने पूर्ण रूप में एवं सभी शक्तियों के साथ आई हूँ । अब की मेरा अवतरण केवल मोक्ष देने के लिए ही नहीं अपितु उद्धार के साथ ही स्वर्गादिक राज्य भी देना है जिसमें आनन्द, वात्सल्य एवं आशीष ही है। जिसे परम पिता परमेश्वर देने के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं । मे अवित२ण उपरोक्त शब्द वर्तमान में सहजयोगियों तक ही सीमित रहना चाहिए । केवल आज गुरुपूजा है मेरी पूजा नहीं। यह गुरुओं के रूप में आपकी पूजा है क्योंकि मैं आप सब को गुरुतत्व प्रदान कर रही हैँ। और आज ही मैं बताऊँगी कि मैंने आप पर क्या न्योछावर किया है तथा आपके आभ्यन्तर में कितनी शक्ति उडेल कर भर दी है । मोक्ष देने के लिए ही नहीं आप में से कितने ऐसे भी महानुभाव हैं जिन्होंने अभी तक भी मुझे पूर्ण रूप से नहीं पहचाना है। यह 'मेरी' घोषणा उनके अन्दर मान्यता की जागृति उत्पन्न करने में समर्थ होगी। बिना मान्यता प्राप्त किये आप क्रीड़ा कौतूक नहीं देख सकते । बिना क्रीड़ा के आप अपने अन्दर विश्वास नहीं पैदा कर सकते । विश्वास के अभाव में आप नहीं बन गुरु सकते। गुरुपद प्राप्त किये बिना आप परोपकार नहीं कर सकते। बिना दूसरों की सहायता किये आप किसी प्रकार भी आनन्द, प्रसन्नता, प्रफुल्लता प्राप्त नहीं कर सकते । श्रृंखला तोड़ना सरल है परन्तु आपको एक के पश्चात दूसरी कड़ी जोड़कर श्रृंखला का निर्माण करना है। यही आपका इष्ट है। आप सुदृढ़ विश्वासी, प्रसन्न एवं प्रफुल्ल चित्तयुक्त और आनन्दित रहें । मेरी अपूर्व शक्ति आपकी हर अनिष्ट से रक्षा करेगी । मेरा दिव्य प्रेम आपका परिपोषण करेगा । मेरी सौजन्य प्रकृति आपके अभ्यन्तर को शान्ति और आनन्द से परिपूरित कर देगी । .ईश्वर आपको सदैव सुखी समृद्ध रखे। (पूज्य माताजी के सान्निध्य में आकर ) आपने क्या पाया ((क्या उपलब्धि की) और आप कितने शक्ति संपन्न हैं अर्थात कितनी 7 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-7.txt शक्तियाँ बटोर कर रख छोड़ी हैं ? पिछले दिन मैंने सम्भावोपाय और शाक्तोपाय के विषय पर चर्चा की थी । यही दो उपाय ऐसे हैं कि जिनके द्वारा मानव समाज का शुद्धिकरण किया जा सकता है। एक वह है जिसके द्वारा आप इनेगिने ही मनुष्यों को शुद्ध कर सकते हैं। आप उनमें से कुछ का चयन कीजिए और उनका शुद्धिकरण करते जाईये जब तक कि उनका चित्त पूर्ण रूप से शुद्ध न हो जाए। पंचतत्त्वों का शुद्धिकरण होते ही कुण्डलिनी का उत्थान होगा और लोग 'पार' हो जाएंगे-यह सम्भावोपाय कहलाता है जिसमें आपका व्यक्तित्त्व पूर्णतया निखर जाता है। | दूसरा शाक्तोपाय जिसमें आप की कुण्डलिनी उत्थान की शक्ति विद्यमान है। चाहे परिस्थिती जैसी भी हो अपनी प्रक्रिया सम्पन्न करेगी और फिर शुद्धिकरण की प्रक्रिया की देखरेख में तत्पर होगी । सहजयोग में दूसरे उपाय को ही अपनाया गया है क्योंकि अब सम्भोवोपाय की प्रक्रिया को उपयोग में लाने का समय ही नहीं रह गया है। यह असंभव सा प्रतीत होता है। शाक्तोपाय में साधारणतया शक्तिपात किया जाता है। शक्तिपात की प्रक्रिया में दूसरे के ऊपर अपनी शक्ति प्रतिबिम्ब के रूप में आरोपित | की जाती है। अथवा जैसा कि हम कहते हैं कि हम पर प्रकाश निर्झर हो रहा है। अपनी कुण्डलिनी की शक्ति दूसरे की कुण्डलिनी की शक्ति पर आरोपित करते हैं और क्रमानुसार कुण्डलिनी को ऊपर की ओर अग्रसर करते हैं । मानव प्रकृति की विचित्रता के कारण श्रमसाध्य उपाय अपना लिए गए हैं। प्रथम तो कुण्डलिनी की समस्याओं का चयन किया जाएगा । अतः आपके इतिहास की जानकारी करेंगे। यथा आपके माता पिता के संस्कार कैसे हैं तथा आप किस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। वे आपका पूर्ण रुपेण खोजपूर्ण विश्लेषण करेंगे फिर वे आपसे यह जानकारी लेंगे कि आप किस किस प्रकार के रोगों से आक्रान्त हुए हैं। यदि किसी की आँख में कोई रोग हो अथवा नासिका, कान, पेट में पीड़ा हो तो वे इसके निदान एवं बचाव का उपक्रम करेंगे। सो आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि हम में से कितने इस श्रेणी (Category) में फिट बैठेंगे और फिर वे पूछेंगे कि आपने किस भाँति का जीवन व्यतीत किया है और किस प्रकार के स्वभाव के आपके माता पिता हैं । अधिकतर ये सब बातें उन जिज्ञासुओं के लिए है जो अल्पायु में ही गुरु के सान्निध्य में जाकर शक्तिपात की प्राप्ति करना चाहते थे । 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-8.txt अब मेरी उपस्थिती से यह बहुत ही सरल हो गया है । यह सत्य तो आप सब को भलीभाँति विदित हो ही गया है । शक्तिपात में आपको शक्ति का पात करना है अर्थात आपको अपना प्रकाश दूसरों पर ड्रालना है। शक्ति का अर्थ है बल और पात मतलब गिराना । अब आपकी शक्ति जिसके कुण्डलिनी के ऊपर गिरेगी वह उठेगी । पहिले यह एक महान कठिन कार्य था । उनकी धारणा थी कि केवल वीतरागी वह महात्मा है जिसने राग पर | 9. 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-9.txt विजय प्राप्त ली है। जो संसार की मोह, माया से परिवर्जित है अर्थात जो राग, द्वेषादि दोषों से मुक्त है, वही वीतरागी है और कुण्डलिनी जागरण करा सकता है । अत: सर्व प्रथम दीक्षा दी जानी आवश्यक है। यह आपको सब से पहिले दी जा चुकी है, जब कि आप माताजी की शरण में आए। अब आप विचार कीजिए यह सब कैसे घटित हुआ । इतनी सारी घटनाऐँ प्रचुर मात्रा में टेलिस्कोपिकली घटित हुई जिसका कि आप को मान-गुमान भी नहीं हुआ। दीक्षा प्राप्ती हेतु इच्छुक व्यक्ति को बहुत सारा कष्ट वहन करना पड़ता है । गुरु की सेवा तन, मन, धन से करनी पड़ती है । उनकी प्रसन्नता के लिए पत्र, पुष्प, फल आदि से अर्चन, पूजन करना आवश्यक है । गुरुजी की देखभाल (सेवा) करना शिष्य का परम कर्तव्य है। सद्गुरुओं का आपके धन-दौलत आदि अन्य वस्तुओं से, जिन्हें आप उन्हें अर्पण करते हैं कोई लगाव नहीं होता, नि:स्पृहता का भाव रहता है। इसी कारण से सामर्थ्यानुसार कुछ अन्य धन राशि गुरुजी को अर्पण करनी आवश्यक प्रतीत होती है । बहत से पाखण्डी गुरुजनों के दक्षिणा का दुरुपयोग अपवाद स्वरूप है। परन्तु यह तो सर्वमान्य सत्य है कि को गृहस्थ जीवन व्यतीत करना होता है। अत: जीवन यापन हेतु दक्षिणा के रूप में कुछ न कुछ धन राशी वांछनीय ही नहीं श्लाघनीय है। परन्तु में दक्षिणा एक अपवादस्वरूप है और चरम सीमा का उल्लंघन कर गई है। | | गुरुजन गुरुजन को आज के युग लोगों ने इसे धंधा बना लिया है। गृहस्थ जीवन व्यतीत गुरुजन इस स्तर के होने चाहिए कि वह शिष्यगण की कुण्डलिनी जागृत कर सके तथा वीतरागी, विशुद्ध स्थिर चित्त अर्थात जिसका चित्त सांसारिक भोग पदार्थों से कोई लगाव नहीं रखता और लोभ, मोह आदि द्वंद्वों का अंशमात्र भी शेष नहीं रह जाता, जिनमें केवल क्षमा प्रदान करने के और कोई प्रलोभन नहीं रहता । ऐसे ही सन्त पुरुष को वीतरागी कहा जाता है और वही कुण्डलिनी उत्थान में समर्थ हैं । ऐसे भद्र सत्पुरुषों द्वारा ही कुण्डलिनी पर करी होता है। अधिकार (अधिकृत आदेश) किया जा सकता है। अन्यथा नहीं। प्रथम तो आपने गुरुजी से बिना परिचय प्राप्त किए दीक्षा ली। तदुनन्तर महादीक्षा भी प्राप्त कर ली । प्रथम दीक्षा है, वह तो ठीक है परन्तु यह दूसरी महादीक्षा क्या है? महादीक्षा वह है जिसमें आपको नाम मन्त्र दिया जाता है (साधारणतया इसके अन्तर्गत एक ही 'नाम' दिया जाता है)। अब यह मन्त्र भी, यदि गुरुजी जानते हों तो निकाल बाहर कर विस्मृति के गर्भ में धकेल दिया जाता है। इस का मतलब है बहुत से गुरु भी नहीं जानते कि शिष्य का कौन सा चक्र बाधाग्रस्त है अथवा पकड़ में है। इसकी कल्पना कीजिए । वे आपकी जन्मपत्री का अवलोकन करेंगे और आपसे प्रश्न करेंगे कि आप उनके पास में आए। आज आप गुरु के पास किस समय आयें? आपकी जन्मपत्री क्या है? किस घड़ी आपकी क्या क्या कठिनाईयाँ होनी चाहिएँ ? आपका जन्म किस नक्षत्र में हुआ? आपके माता-पिता के नाम क्या क्या हैं ? इसका भी एक प्रशस्त विज्ञान था। उनकी गणना का | 10 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-10.txt गुणक के ख ग से प्रारम्भ होता था और एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच जाते थे जहाँ पर उनको शब्द मिल जाते थे। प्रथम, द्वितीय, तृतीय उसी वर्ण के, तद्नन्तर वे मनन अध्ययन में तल्लीन हो जाते थे। यह एक महान एवं गहन शास्त्र है, जिसको अध्ययन द्वारा ज्ञात करते थे कि शिष्य का कौनसा चक्र पकड़ा गया है, तत्पश्चात वे आपको 'नाम ' देते थे । उदाहरणार्थ | आपको 'राम' नाम प्राप्त हुआ जब आप को राम नाम का निरन्तर जप करना पड़ेगा जब तक कि आपका हृदय शुद्ध न हो जाए । परन्तु यह अब उपरोक्त झंझटों में पड़ने के पश्चात ही प्राप्त होता था । इसमें दो वर्ष, तीन वर्ष, दो जीवन अथवा सैकड़ों जीवन भर आप केवल राम नाम मन्त्र का ही जप करते जाईये। परन्तु किया जाना चाहिए सुचारु रूप से तथा ग्रह दशा का विचार विमर्श अवश्य होना चाहिए । इसमें आपका घर, कुट्म्ब आदि के बारे में भी विचारविमर्श के पश्चात एक इष्ट बिंदू पर आते थे कि चक्र कहाँ पकड़ में है। अब आप कल्पना कीजिए कि आपके चार चक्र पकड़े गये हैं। क्योंकि आप वही देखते हैं जो आपकी जन्मपत्री में लिखा है । अर्थात आपको क्या शारीरिक कष्ट हैं तथा भविष्य में क्या प्रथम दीक्ष क्या आपत्तियाँ आनेवाली है। इन सब शारीरिक व्याधियों का पता वे जन्मपत्री अथवा जन्म कुण्डली देखभाल कर लगा लेते थे कि आपको क्या क्या व्याधियाँ हैं । मान लो आपके पेट में वेदना है, तो वे चक्कर पर चक्कर लगाते रहेंगे और अंत में इस पेट वेदना के लिए मन्त्र खोज निकालेंगे वे वैज्ञानिकों की तरह प्रत्यक्ष रूप से तो खोज नहीं कर पाते। वैज्ञानिक किस प्रकार से अनुसंधान करते हैं इसका नमूना देखिए । कल्पना करो कि आप किसी डॉक्टर के पास जाते हैं। वह आपकी आँख को निकाल कर धोयेगा और फिर वापस लगा देगा और कहेगा आपकी आँख ठीक है। आपके दाँत निकालेगा, बनावटी दाँत वह है जि दिन आपकी कुण्डलिंनी लगाएगा फिर कहेगा आपके दाँत ठीक हैं, फिर आपके कान की बारी है। वह उसे निकालेगा उसमें कुछ बनावटी नया यन्त्र लगाएगा और कहेगा कि यह बिल्कुल ठीक है । जीगृत होकर... आपका हृदय निकाल लेगा उसका परीक्षण करेगा और दूसरा वहाँ लगा देगा-यह इस प्रकार से है । इसी प्रकार वे भी किया करते थे क्योंकि वे अंध:कार में विचरण करते थे । जैसा कि आपको समस्त चक्रों के सम्बंध में मान है और आपको इस तथ्य की भी जानकारी है कि कौन सा चक्र पकड़ में आ गया है। अब आप कल्पना कीजिए कि आपने कितनी महा, महा, महा दीक्षा प्राप्त की है। प्रथम दीक्षा वह है जिस दिन आपकी कुण्डलिनी जागृत होकर ऊपर अग्रसर हुई तथा आप 'पार' हो गए। यह उनके वश के बाहर की बात है। वे एक श्वास से बात नहीं कर सकते। आप को सारे समय हवा में उल्टा लटका दिया जाता है जैसे रात्रि में चमगादड़ ऊपर टांग तो नीचे सिर किये रहता है। फिर वे अन्य तथ्यों का अध्ययन एवं विश्लेषण करेंगे कि आपके मित्रगण अथवा संगति कैसी है । आप किस प्रकृति के मनुष्यों की ओर आकर्षित होते हैं। आपका स्वभाव परखा जाएगा, जिससे वे निर्णय लेंगे तदुनन्तर आपको दूसरा मन्त्र प्रदान करेंगे। आप इन मन्त्रों का लगातार सामूहिक रूप से उच्चारण करते रहेंगे। आप 11 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-11.txt अपनी अन्य अनिवार्य आवश्यकताओं का निराकरण कर उन मन्त्रों का निरन्तर जाप करते रहेंगे जब तक कि उनमें सफलता न प्राप्त हो जाए तब वे कहेंगे कि आपका मन्त्र सिद्ध हो गया है। इसका अर्थ यह है कि इस सिद्ध मन्त्र का प्रयोग आप दूसरों पर कर सकते हैं। उदाहरणार्थ आप केवल राम नाम मन्त्र का ही ( जो आपको दीक्षा द्वारा प्राप्त हुआ है) प्रयोग कर सकेंगे- कल्पना कीजिए। आपकी उपलब्धियाँ क्या हैं ? क्या आप 'पार' हो गए। 'पार' होने का मतलब है कि आप सब चक्रों के ज्ञाता हैं कि कौनसा मन्त्र किस चक्र को ठीक करेगा। आप स्वयं भी तत्सम मन्त्र रचना कर सकते हैं। आपके अन्दर इतनी शक्ति भी है कि आप समस्त चक्रों का ज्ञान प्राप्त कर लें कि उनको किस सहायता की आवश्यकता है। आप में दूसरे मनुष्यों की कुण्डलिनी करने की शक्ति विद्यमान है। यदि किसी की कुण्डलिनी सहस्रार से जागृत नीचे की ओर फिसलने लगती है तो आप में इतनी शक्ति है कि आप उसे पुन: स्थित कर दें। आप में दूसरे व्यक्तियों के चक्र ठीक करने की शक्ति भी है। आप बन्धन द्वारा चक्रों को स्थित (fix) भी कर सकते हैं। आप 'बन्धन द्वारा ही अपनी स्वयं की बाधाओं से त्राण (संरक्षण) भी पा सकते हैं। आप में यह भी शक्ति है कि आप अपने चित्त को किसी विशेष स्थान की ओर लगा सकते हैं जहाँ पर आप समझें कि किसी व्यक्ति विशेष को आपकी सहायता की आवश्यकता है। आप में सामूहिक रूप से समस्या निदान एवं निवारण करने की शक्ति भी है। यहाँ लन्दन में क्या गड़बड़ है (आप अपने हाथ लन्दन की ओर फैलाकर मालूम कर सकते हैं) हृदय का वाम भाग एवं दक्षिण भाग-दक्षिण स्वाधिष्ठान आदि। अब आपके पास भाषा है इसकी | व्याख्या करने की। आपने हृदय का वाम भाग कहकर किसीको भी हानि | नहीं पहुँचाई। लन्दनवासियों के वाम हृदय के पकड़ में आने का क्या मतलब है इसका अर्थ हुआ कि लन्दनवासी अपनी आत्मा के विपरीत जा रहे हैं। आप का अपनी आत्मा से कोई लगाव ही नहीं है। आप भौतिकवादी हैं। अहंकारयुक्त हैं। आप अपनी आत्मा के प्रति सजग नहीं हैं। आप अपनी आत्मा को हानि पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। आप मदोन्मत्त हैं। मदिरापान कर आप अपनी आत्मा को कलुषित कर रहे हैं । | यह तथ्य आप स्वीकारते भी नहीं आप यह भी नहीं कहेंगे कि इस कृत्य के लिए क्षमा याचना करनी है वरना आप अपना हाथ फैलाकर लन्दनवासियों के लिए हृदय वाम भाग की बाधा निवारण हेतु क्षमा याचना करेंगे - उन्हें तत्काल ही क्षमा प्राप्त हो गई। वे अधिकाधिक मदिरा का प्रयोग करेंगे और अपने हृदय का सर्वनाश कर लेंगे। 12 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-12.txt ा मैं आपने सब शक्तियाँ एकत्र कर ली हैं। कुण्डलिनी जागृत करने की तथा उसके मार्ग में आनेवाली विघ्न बाधाओं पर विजय प्राप्त करने की कला जान ली है। यदि किसी व्यक्ति का आज्ञा चक्र बाधायुक्त है तो गुरु महाराज उसे ठीक करने में हिचकिचारेंगे क्योंकि उनको भय है कि कहीं उनका आज्ञा चक्र भी पकड़ में न आ जाये। अत: उन्हें मन्त्र सिद्धि की आवश्यकता पड़ती है । सिद्ध होने का अर्थ है फलित यानी प्रभावशाली है। 13 का 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-13.txt आपका प्रत्येक मन्त्र तात्कालिक प्रभाव रखता है। आप अमुक देवता का स्मरण कीजिए आपका मन्त्र तत्काल फल देगा। क्योंकि वह स्वयंसिद्ध मन्त्र है। एक बन्डल की भाँति इसके अन्दर सभी कुछ तो भरा है। इसे अनावृत्त कर प्राप्त कीजिए। यदि किसी का कोई चक्र पकड़ में आ गया है, आप मन्त्रोच्चार कीजिए- सबकुछ ठीक हो जाएगा क्योंकि आपको सब मन्त्रों का ज्ञान है। आप यह भी जानते हैं कि यह क्या है? और उस विषय का आपको पूर्ण ज्ञान है। यह गुप्त ज्ञान भी है क्योंकि इसे दूसरा नहीं जान सकता। यदि आप नामोच्चार भी नहीं करते तो भी संकेत मात्र से काम चल सकता है। इस तथ्य की सबको जानकारी है कि मामला क्या है? कहाँ जाना है? क्या करना है? यह इतना गोपनीय होने पर भी परस्पर ज्ञान सुलभ है। हमारी विचार साम्य की एकरूपकता का अवलोकन कीजिए जो हम सब के मध्य वर्तमान है । हम जानते हैं कि क्या, क्या है, परन्तु हम अपने आप को बुरा महसूस नहीं करते ना ही दूसरों को बुरा कहते हैं। यदि कहा जाये कि आप में बड़ा भारी अहंकार है तो कोई बुरा नहीं करेगा । वह सहजयोग में के समय अहंकार का नाम लेना भी असम्भव था। अब आप कह सकते हैं। क्राइस्ट और आप अपनी इगो एवं सुपर इगो को देख भी सकते हैं । यही नहीं बहत सी व्यर्थ अनर्गल प्रत्येक वस्तु दिखाई देती है । का आ्रय लिए बिनी कुण्डलिनी आप यह भी देख सकते हैं कि अमुक व्यक्ति सम्पन्न है। यथा जन्मजात पार व्यक्ति। परन्तु वह शक्ति सम्पन्न होते हुए भी कुण्डलिनी उत्थान के सम्बंध में एक शब्द भी नहीं जानता इसलिये कुण्डलिनी जागृत नहीं कर सकता। वह सहजयोग का आश्रय लिए जीग२ण प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया सम्पन्न नहीं कर सकता। ये जन्मजात पार व्यक्ति को जो अपने आप को सनातन समझते हैं, इस तथ्य से अवगत होना चाहिए कि उन्हें सहजयोगी बनना है। अन्यथा वे क्रियावादी नहीं हो सकते । क्रियाशील ही रहेंगे। बिना संपन्र नहीं क२ सकती यह सब वस्तुएं (तथ्य) आपके पास आभ्यन्तर में विद्यमान हैं । सब देवताओं का आपको पूर्ण ज्ञान है। आप यह भी जानते हैं कि वे कब रुष्ट हो जाते हैं। यदि कहा जाए कि पाप मत करो, तो आप पूछेगे कि पाप क्या है तब आप कहेंगे यह मत करो। आप कोई प्रपंच रचने का प्रयत्न कीजिए आप सफल होंगे। क्योंकि आप की 'माँ' का आप पर अनिवार्य 'बन्धन' है | यदि आप मदिरा पान करेंगे तो आप को वमन होगा। यदि आप अकरणीय कार्य करेंगे तो आपका आमाशय खराब हो जाएगा। यदि आप सहजयोग से अपने आपको वंचित करना चाहेंगे तो आप ऐसा नहीं कर सकते । हालांकि आप को इसका आभास मात्र भी नहीं है, फिर भी आप के आभ्यन्तर में सहजयोग का आकर्षण (ललक) विद्यमान है । ऐसे लोगों का समूह अभी भी विद्यमान है कि जो पार तो हो गये हैं परन्तु वहाँ है नही। इन दोनों में क्या अन्तर है। अत्यन्त साधारणसा अन्तर है। मान्यता एवं श्रद्धा का 14 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-14.txt अभाव। जिन्होंने मुझे नहीं पहचाना है अथवा मान्यता नहीं प्रदान की वे मुक्ति प्राप्त न कर सकेंगे (वे चक्कर ही काटते रहेंगे) सो मान्यता देनी आवश्यक है। एक बड़ा सुन्दर उदारहरण शिरडी के सांईनाथ के शिष्यों का है यद्यपि वे विद्यमान (सशरीर) नहीं परन्तु वे उनमें अटूट श्रद्धा एवं विश्वास रखते हैं। अब वह कहाँ हैं। वे वर्तमान के अवतार में श्रद्धा विश्वास नहीं रखते। वे मेरे में ही निष्ठा रखते हैं । वे राम के प्रति निष्ठा रखते हैं । उनकी श्रद्धा क्राइस्ट में है। बहुत से ईसाई बन्धुओं की समस्या यही है कि वे मेरा तुलनात्मक सम्बंध ईसा से जोड़ते हैं तो वे सहजयोग में नहीं आते। आपको वर्तमान में रहना है। आप मेरे सम्बंध में अपने मानसिक उद्वेग के अनुरूप धारणा नहीं बना सकते। क्योंकि आपकी धारणा सीमाबद्ध है। कल्पना करो कि आपका जन्म यहाँ हुआ तो आप ईसाई होंगे। यदि आप भारत में जन्मे हैं तो आप हिन्दु होंगे। यदि आपका जन्म चीन में हुआ है तो आप चीनी होंगे। आप कुछ भी हो सकते हैं। अत: आपकी त्रुटिपूर्ण परिचय प्रणाली क्रियाशील हो जाती है और आप इस त्रुटि का तत्काल ही ...ऐसे पुरुष आभास पा लेंगे कि आपकी चैतन्य लहरियाँ (vibrations) स्वत: बन्द हो जाएगी। मानव समुदाय का वह वर्ग जो मध्यवर्ती है तथा जिन्होंने सहजयोग में पूर्ण स्थायित्व एवं स्थिरता प्राप्त नहीं की है और उनके पास पूर्ण शक्ति का भी अभाव है, ऐसे पुरुष मान्यता, श्रद्धा एव निष्ठा प्राप्त नहीं कर सकते । वे इस निष्ठा को प्राप्त न करने में अपना दम्भ प्रकट करते हैं। मान्यती, श्रद्धा वं निष्ठा यह महान मूर्खता है। जैसे ही आप श्रद्धायुक्त मान्यता देंगे आपकी चैतन्य लहरियाँ स्वत: बहने लगेंगी-ऐसे मनुष्यों का वर्ग दूसरे गुरुओं के पास से भटक कर आता है । जब ऐसे पुरुष सहजयोग में पदार्पण करते हैं तो एक समस्या उत्पन्न हो जाती है। वे मेरी अहेतुकि कृपा से पार तो हो जाते हैं (चाहे केस कैसा भी हो सब पार हो जाते हैं) । अभी पिछले दिनों यहाँ एक वेश्या आई और 'पार' हो गई । सहजयोग अपनी रस्सी ढीली छोड़ देता है । आप अपनी आनन्द लहरियों को सहजता से विनष्ट नहीं कर सकते यदि आपने सुचारु रूप से नियमानुसार प्राप्त किया हो तो सहजयोग में, प्रकाश में प्रवेश के पश्चात आप अपने अवगुण एवं त्रुटियों का स्वत: अवलोकन करने लगते हैं । यदि आप सहजयोग को नकारना चाहते हैं तो ऐसी दशा में कुछ व्यक्तियों को तो चुभन, जलन महसूस होने लगती है। साधारणतया कुछ ही ऐसे होते हैं जो प्रकृतिस्थ रहते हैं । कुछ में मेरे सम्मुख आते ही कम्पन आरम्भ हो जाती है। कुछ में विशेष प्रकार की टेढ़ी मेढ़ी ऐठन (contortions) प्रारम्भ हो जाती है। आप में से बहुतों ने देखा होगा कि कुछ मेरे दर्शन करते ही बहती उष्णता का प्राप्त नहीं क२ कते। अनुभव करने लगते हैं। अथवा उनके आमाशय में भयंकर पीड़ा उठती है। जब आप प्रकाश के सम्मुख उपस्थित होते हैं तो आप अपने स्वयं के सम्मुख प्रस्तुत हो जाते हैं । परन्तु आप अपने स्वयं का सामना करना पसन्द नहीं करते । तत्त्व की बात यह है कि जिन्होंने सहजयोग में स्थायित्व प्राप्त नहीं किया है वे अपने स्वयं के सामने आने से ही कतराते हैं । यदि वे स्वयं का स्वयं ही सामना करें तो वे शीघ्र ही अपने अन्दर सुधार ला सकेंगे क्योंकि प्रकाश 15 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-15.txt वहाँ विद्यमान है। आप अपने अवगुण एवं त्रुटियों के साथ परिचय (identify) मत कीजिए। आप डॉक्टर हैं, आप में प्रकाश है, आप शल्यक्रिया (operation) जानते हैं शल्य क्रिया कीजिए क्योंकि आप इस शल्य प्रक्रिया में सिद्धहस्त हो गए हैं। यदि आप यह दृढ़ निश्चय कर लें कि हमें अपने स्वयं का सामना करना ही है कि हम देखें कि हम कौन हैं (में कौन हूँ? क्या हूँ?) तो तत्काल ही यह सब दुर्गुण एवं त्रुटियाँ दूर भाग जाएँगी परन्तु आप तो ० सामना करना ही नहीं चाहते । यही कारण है कि पार हुए व्यक्ति भी सहजयोग में आना पसन्द नहीं करते। जिनको शीतल, मन्द सुगन्धित बयार का अनुभव रहता है वे इस सम्बन्ध में अधिक सोच विचार नहीं करते। यदि वे अधिक सोच विचार करें तो उन्हें अपने अहंकार (ego) को त्यागना पड़ता है, जिसे उन्होंने विगत कई वर्षों से संजोया हुआ है। उन्हें आत्मनिरीक्षण करना ही पड़ेगा । अर्थात उन्हें अपने स्वयं को स्वयं ही देखना पड़ेगा। वे कहते सुने जाते हैं कि मेरे अन्दर कुछ भी सुधार नहीं हुआ है। चुभन सी हो रही है। सारे शरीर में सुइयों की सी चुभन का अनुभव हो रहा है। यह कैसे हो सकता है। यह मुझे सहायता नहीं कर रहा है। सहजयोग मुझे पीछे की ओर धकेल रहा है। इन सब बाधाओं के लिए वे सहजयोग पर दोषारोपण करेंगे उन लोगों को नहीं देखेंगे जिन्होंने उन्नत अवस्था प्राप्त कर ली है। आप किस पर दोषारोपण कर रहे हैं। आप उसी पर दोष मढ रहे हैं जो आपकी रक्षा करेगा । आप अपने रक्षक को ही दोषी ठहरा रहे हैं। यह बेहतर है कि आप अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोज लें और अपनी कमजोरियों का निराकरण करें। आप अपने स्वयं पर कृपा करें जिससे आप इन भयानक साँप, बिच्छू (डंक मारनेवाले जन्तुओं से) जो आपके इर्दगिर्द मंडरा रहे हैं, छुटकारा पा सरकें। अपने को विशुद्ध कर लें। प्रकाश का | शुभागमन हो गया है। इस प्रकाश द्वारा आप सत्यान्वेषण का प्रयास करें। तब आपकी अपिरिचितता (Misidentification) का निवारण होगा और वास्तविक परिचय (identification) प्राप्त होगा और स्थापित होगा। किसी अन्य प्रकार से नहीं होगा। अत: आप को अपने स्वयं का सामना करने की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । कभी भी औचित्य सिद्ध न करें । | कुछ व्यक्तियों की अपने पुत्र, भ्राता, स्त्री अथवा पति की अनर्गल सराहना करने की आदत होती है और उसका औचित्य (justification) भी सिद्ध करते हैं। इस भाँति आप उनकी कोई सहायता नहीं 16 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-16.txt ०े पं pি कर रहे हैं । बाधायुक्त व्यक्तियों की एकजुट होकर (मिलजुल कर) कार्य करने की प्रकृति भी होती है । सदैव दो बाधायुक्त पुरुष, दिखावे के लिए एकजुट होकर कार्य प्रवृत्त हो जाऐँगे। महान आश्चर्य तो इस बात का है कि इन लोगों ने अपना संघ यहाँ संगठित नहीं किया है नहीं तो मेरे विरोध में इन बाधायुक्त पुरुषों का एक अलग से संघ बन जाता। भविष्य में ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि इनमें संयुक्त भाईचारे की प्रणाली 17 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-17.txt विद्यमान होती है । जैसा कि आपने देखा होगा कि डाकू सदैव संयुक्त हो जायें तो सारा विश्व ही परिवर्तित हो जाए । आपको यह बात हृदयगम करनी चाहिए । आपको भद्र पुरुषों (positive) से ही सम्पर्क करना चाहिए, नहीं तो आप सहजयोग का विकास नही कर सकेंगे। जो कोई भी नकारात्मक बातें करें उसके सम्पर्क में नहीं आना चाहिए । | परन्तु इस देश में दूसरे ही ग्रुप के आदमी वर्तमान हैं। आप कल के आधुनिक गुरु बनने वाले हैं। अत: आपको भिन्न भिन्न टाइप (प्रकृति) के पुरुषों का ब्योरा दे रही हूँ अर्थात हर प्रकार के व्यक्तियों के बारे में जता रही हूँ। वे स्वयं का सामना करना नहीं चाहते परन्तु इससे बच निकलने के कितने ही मार्ग उन्हें मालूम हैं। उनमें से कुछ ऐसे हैं कि ज्योंही वे पार हुए उसका विश्लेषण प्रारम्भ कर देते हैं। आप उन्हें कुछ भी दीजिए वे विश्लेषण आरम्भ कर देंगे। इस देश में वे प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण कर सकते हैं। भगवान ही जानता है कि उन्होंने यह विचार (idea) कहाँ से पाया, कदाचित तथाकथित वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों अथवा प्रभृति विद्वानों ने उन्हें यह विचार प्रदान किया है। वे सोचते हैं कि हम कह देंगे कि ये ब दोष अमुक बात तर्क सम्मत है । परन्तु अपने चक्षुओं का उन्मूलन नहीं किया है। आप अभी केवल अबोध शिशु मात्र हैं। आप पूर्ण ज्ञान बिना इन सबका विश्लेषण प्रारम्भ कर देते हैं कि यह वस्तु ऐसे क्यों हुई। वह वस्तु वैसे क्यों हुई आदि आदि। एक बार आपने विश्लेषण प्रारम्भ किया तत्सम्बंधी वार्तालाप किया उसका भी विश्लेषण किया। आपने २हज प्रेम द्वार ही ठीक दश | इस प्रकार सबकुछ गवाँ दिया। में परिवर्तित आपको जो कुछ भी करना है वह यह कि आप 'इसे' ग्रहण कीजिए तदुनुरूप अपने को ढालने की चेष्टा कीजिए। अधिकाधिक इसे पाने की चेष्टा कीजिए और औरों के लिए ग्राह्य बनाइयें। इसके सामने अपने स्वयं को नग्नावस्था में लाईये । सहजयोग में त्रुटियाँ न खोजिए हैं हो सकते | है क्योंकि जो कुछ परिवर्तित हो सकते हैं । भी त्रुटियाँ हैं वे आप में हैं। ये सब दोष सहज प्रेम द्वारा ही ठीक दशा में ऐसे भी पुरुष हैं जो मुझसे कहते हैं कि माताजी आप इस प्रकार क्यों नहीं करतीं, आप उस प्रकार से क्यों नहीं करती हैं आदि आदि । मैं अपने कार्यकलाप में सिद्धहस्त हूँ फिर भी वे मुझे शिक्षा देने की चेष्टा करते हैं कि माताजी ने ऐसा किया, उनको ऐसा करना था आदि आदि। आप चाहे जिस प्रणाली से कार्य करें मानव प्रकृति नीचे से ऊपर (ijack in the box की तरह) जाने की होती है । सो आपको अपनी प्रकृति में मूल परिवर्तन लाना है। उस उछलकूद वाले स्प्रिंग्स को जरा सा सरकारइये आपकी स्थिति दृढ़ होगी । ये स्प्रिंग्स कुछ भी नहीं बल्कि बारीक विश्लेषण व्यवहार है। आपका ऐसे बहुत से (विपुल मात्रा में) मनुष्यों के साथ सम्पर्क होगा । अब प्रश्न यह है कि उनसे किस प्रकार से संपर्क एवं व्यवहार स्थापित किया जाए। मानते हैं और जो व्यक्ति इस बारे में निर्विचारिता को वे एक निम्न कोटि की वस्तु 18 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-18.txt वार्तालाप करें वह उन्मादी हैं। देखिए जब आप निर्विचारिता से जागरुकता के संबंध में वार्तालाप करेंगे तो वे आप को पुरातनपंथी कहेंगे, क्योंकि आप सोच विचार नहीं करते । यह वास्तव में घटित हुआ है ऐसी शक्ति द्वारा जो सोच-विचार से परे, बहत उच्च श्रेणी की है । सोचविचार करने से आपको क्या उपलब्धि हुई अर्थात क्या कर लिया। सोच-विचार से आपने नाक, कान, हाथ यहाँ तक कि प्रत्येक वस्तु काट ली। अब आप एक महायुद्ध छेड़ने को उद्युक्त हैं। क्या आश्चर्यजनक विचार हैं। सो आप उन्हें जता दें कि सोचविचार से कुछ भी बनने वाला नहीं है अर्थात आप उसे नहीं पा सकते । वह उच्चतर श्रेणी की शक्ति है । उच्चतर वस्तु की बातचीत ने आपको यह प्रदान किया है। यदि आप उस निम्नतम सोच विचारने की शक्ति से उच्चतर शक्ति में आना चाहते हैं तो आपको केवल सोचविचार को निम्नस्तर पर रखना पड़ेगा। वे इस तरीके से ही परिधि में आएंगे। यदि आप यह कहने की कोशिश करें कि कृपया सोचिए मत। क्या नहीं सोचविचार करें । यह तो विचारणीय ही नहीं है। यह तो व्यर्थ है । ऐसे अहंवादी व्यक्तियों से इसी प्रकार व्यवहार करना चाहिए। सोच-विचार करते हैं पर मान्यता नहीं देते यद्यपि उन्हें शीतल समीर का अनुभव प्राप्त है। | आपको तो आप ऐसे पुरुषों की क्रमश: सहायता करें। श्री गणेशजी अब गुरुजनों के लिए जैसे कि आप हैं। आप सर्वगुणसम्पन्न ज्ञानवान हैं। सब शक्तियाँ यहाँ तक कि प्रत्येक वस्तु आपके अधिकार में है । आप में केवल आत्मविश्वास की और ईसामीह न्यूनता है। आप में निष्क्रियता (inertia) है। मालूम नहीं यह निष्क्रियता किस प्रकार से पलायन करेगी। कभी कभी ऐसे निष्क्रिय लोग भी उपयोग में आ सकते हैं। सरकस में उन्हें तोप के मुँह में पलीते के साथ रखकर उड़ा (blast) दिया जाता है। इस प्रकार वे अपने करतबों का प्रदर्शन करते हैं। वे इतने आलसग्रस्त हैं कि उनको कोई भी विघ्न बाधा विचलित नहीं कर सकती। की छवि के पश्चात बनीया है। आप मेरे सुपुत्र हैं। आपको श्री गणेशजी व ईसामसीह की छवि के पश्चात बनाया है । उनकी सब शक्तियाँ आप में विद्यमान है। एक पॉइंट है, जहाँ मैं स्तब्ध रह जाती हूँ कि किस प्रकार आपकी निष्क्रियता दूर भगायें। आपने सहजयोग का अभ्यास (practice) नहीं किया है। आप कोई भी अभ्यास नहीं कर पाये हैं। आपने (इन विभूतियों को) सहज में आसानी से सस्ते में पा लिया है। आप को इसका मूल्य ज्ञात नहीं, अंत: आप इसे गौण (sidetrack) रखना चाहते हैं। आपको स्वयं अनुशासन में अनुशासित होना है। जब तक आप अपने आपको अनुशासन बद्ध नहीं करेंगे, मैं इसका, आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर छोड़ती हूँ। क्योंकि मैं आपकी स्वतंत्रता में विश्वास रखती हूं । मेरे विचार से आप इतनी निम्न कोटि के नहीं हैं कि मैं आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर पाबन्दी लगाऊँ। अर्थात आप अपनी स्वतंत्रता को व्यवहार में लाएँ । आप पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं यदि आप नर्क में जाना पसन्द करते हैं तो 'मैं' आप को रथ 19 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-19.txt में बैठा कर सीधे गन्तव्य स्थान पर भेज दूँगी यदि आप स्वर्ग में जाना चाहते हैं तो 'मैं' आपके लिए विमान का प्रबंध कर दूँगी। यह आप पर निर्भर करता है कि आप त्वरित (dynamic) बन जायें और अपने अन्दर आत्मविश्वास लायें। आपको प्रत्येक चक्र का ज्ञान है। आप कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया भी जानते हैं। आप प्रत्येक प्रक्रिया जानते हैं । प्रत्येक कार्य अपने ऊपर लेकर स्वयं कीजिए । मैं कभी-कभी आप सब लोगों से रुष्ट भी हो सकती हूँ, अत्यन्त साधारण बात है । परन्तु नहीं, मुझे अपना कार्य सिद्ध करना है । आप से मृदुल संभाषण करना है। कभी कभी भला-बुरा कहकर अथवा डाँट डपट कर काम चलाना पड़ता है। भिन्नभिन्न प्रकार से कुछ न कुछ पुछना पड़ता है। कभी स्निग्धता का प्रयोग तो कभी उष्णता का प्रकोप तो कभी शीतलता को काम में लाना पड़ता है। कभी इस तरह से तो कभी उस प्रकार से उन्हें सहजयोग में स्थिरता प्राप्त करने का प्रबन्ध करना पड़ता है। कभी कभी प्रलोभन आदि से भी उन्हें घेर घार कर रखना पड़ता है कि वे यहाँ जमे रहें। इसी भाँति आपको भी उनसे व्यवहार करना है। उनसे रुष्ट होना सबसे आसान है तब तो फिर कोई समस्या ही नहीं रहेगी। यदि में आप सबसे एक बार भी रुष्ट हो जाती हूँ तो मुझे अपनी शान्ति प्राप्त होती और समस्याएँ भी नहीं रह जाती हैं। परन्तु आप सब को उन सबके साथ वास्तव में बहुत धीरज के साथ व्यवहार करना है। अत्याधिक धैर्य रखें । आप की भाषा भी सुसंस्कृत होनी चाहिए। 'कृपया', 'मुझे खेद है' आदि बहुत से ऐसे शब्द हैं। परन्तु मैं सोचती हूँ ये सब अपना मूल्य खो चुके हैं। अत: हम एक निर्णय पर आते हैं कि हमें हृदय से पढ़ना चाहिए, हमें अपने हृदय से संवेदना प्रकट करनी चाहिए। हमें उसे हृदय से संवेदना प्रकट करनी चाहिए। हमें उसे हृदय से बचाना चाहिए। हमें उसकी सहायता करनी है। परन्तु कभी कभी उन्हें डाँट डपट से कर भी रखना पड़ सकता है क्योंकि जैसे कि आपको विदित ही होगा कि बहुत बाधायुक्त जन जन्मजात कौतुकी, कौतुहल पूर्ण प्रकृति के होते हैं। वे कौतुक एवं कोलाहल पूर्ण दृश्य उपस्थित करने में पारंगत होते हैं । वे अधिकतम प्रदर्शन के धनी हैं। इस कोटि के मनुष्यों की रक्षा करनी है। तथा अत्यंत धैर्य के साथ व्यवहार करना है। ईश्वर आपको सदा सुखी रखें ! 20 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-20.txt आत्मसाक्षात्कार की स्थिरता सहजयोगी वह प्रबुद्ध व्यक्ति होते हैं जिन्हें कुण्डलिनी जागृति (स्वत: सहज विधि ) द्वारा आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो जाता है। वे उन अंकुरित बीजों के समान है जिनकी आध्यात्म में जीवन्त क्रिया आरम्भ हो चुकी है। सारे जीवन्त कार्यों को करने वाली सर्वव्यापक शक्ति (ब्रह्मचैतन्य) की लहरियों का | अनुभव जिन्होंने नहीं किया, वे सहजयोगी नहीं हैं । .....अपने अन्त:स्थित सूक्ष्म तन्त्र तथा कुण्डलिनी की अवशिष्ट शक्ति के पूर्णज्ञान के बिना वे सहजयोगी नहीं हैं। अपने मध्य - नाड़ी-तन्त्र, कम से कम अपनी उंगलियों के छोरों पर (जो कि दोनों अनुकम्पी नाड़ी तन्त्रों, (सिम्पॅथेटिक) के अन्तिम सिरे होते हैं) उन्हें परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापक शक्ति का अनुभव करना चाहिये, तथा अपने अनुभव के कूटानुवाद (डिकोरडिंग) का ज्ञान भी उन्हें होना चाहिये। .....सर्वव्यापक शक्ति की यह दिव्य लहरियाँ हर समय उनमें बहनी चाहिएं, परन्तु यदि यह लहरियाँ रुक जाएं तो उन्हें पुन: चालू करने और अपनी कुण्डलिनी को उठाने का उन्हें ज्ञान होना चाहिए । सर्वव्यापक शक्ति से जुड़े रहने की यही विधि है। ....इस शक्ति के अनुभव के बाद भी व्यक्ति को समझना चाहिये कि अभी भी कुण्डलिनी पूरी तरह स्थापित नहीं हुई, सर्वसाधारण भाषा में हम कह सकते हैं कि सम्बन्ध स्थापित नहीं हुआ। इसे स्थापित करना होगा । यद्यपि बीज का अंकुरण स्वाभाविक है, पर माली को अब इस कोमल पौधे की देखभाल करनी होगी । इसी प्रकार साधक को आरम्भ में अपने आत्मसाक्षात्कार को सम्भालना होता है। कुछ लोग अत्यन्त आसानी से गहनता पा लेते हैं, पर कुछ छ: | सात महीने कार्य करने पर भी पूरी तरह ठीक नहीं होते। ऐसी अवस्था में आवश्यक है कि सहजयोग की ज्ञान विधियों तथा इनके अभ्यास द्वारा व्यक्ति यह जान ले कि समस्या कहाँ पर है। प.पू.श्री माताजी, सहजयोग सहजयोग में प्राप्त करने के बाद आप लोग अपनी इज्ज़त करें, आप योगीजन हो, उसके प्रति अग्रसर हों, पूरा चित्त लगायें, बैठक करें। बैठक किये बिना यह कार्य आगे नहीं हो सकता। जागृति ... ... आसान है, लेकिन इसका पेड़ बनाना आपके हाथ में है। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८५ सहजयोग में एक ही दोष है। ऐसे तो सहज है। सहज में प्राप्ति हो जाती है, प्राप्ति सहज में हो जाने पर भी उसका सम्भालना बहुत कठिन है, क्योंकि हम हिमालय में तो रह नहीं रहे हैं जहाँ आध्यात्मिक वातावरण हो। हर तरह के वातावरण में हम रह रहे हैं, उसी के साथ हमारी भी उपाधियाँ बहुत हैं जो हमें चिपकी हुई सी हैं। तो सहजयोग में शुद्ध बनना, शुद्धता अन्दर लाना, यह कार्य हमें करना पड़ता है। तो जैसे कि अगर पानी के नल में कोई भी चीज भरी हुई है तो उसमें से पानी नहीं गुज़र सकता, इसी प्रकार यह चैतन्य भी जिन नसों में बहुता है वह शुद्ध होनी चाहिए।.......तो नसों की इसके लिये ध्यान करना आवश्यक है। शुद्धता हमें करनी चाहिये..... प.पू.श्री माताजी, २७.११.१९९१ 21 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-21.txt विश्द्धि चक 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-23.txt श्री कृष्ण शक्ति के दो अंग हैं एक विशुद्धि के दाँयी और बाँयी ओर और एक बीचो- बीच में। इसमें जो शक्ति बीच में है वह विराट की ओर ले जाती है। १) .....मनुष्य ने कोई गलत या झूठे काम करने के बाद उसके मन में जो भावनायें निर्माण होती हैं उससे बाँयी ओर की शक्ति खराब होती है। जिस समय मनुष्य को लगता है कि मैंने बहुत पाप किया है और गलती की है तब उसका विशुद्धि चक्र बॉयी तरफ खराब हो जाता है। मनुष्य की यही पाप या गलती की धारणा उससे उसे दूर भगाने के लिये नशीली वस्तुओं के पास ले जाती है। अगर किसी मनुष्य की नज़र अपनी बहन के प्रति या अन्य महिलाओं के प्रति ठीक या पवित्र नहीं होती तो यह चक्र तुरन्त खराब हो जाता है। अपवित्रता के बर्ताव से विशुद्धि चक्र के बाँयी तरफ शक्ति के विरोध में है ......इन | तकलीफ होती है। ....ये आँखे इधर-उधर घुमाना भी श्री कृष्ण आँखों को घूमाने से आँखों की बीमारी फैलती है, नज़र कमजोर होती है। २) ..... दाँयी बाजू श्रीकृष्ण और श्री राधा की शक्ति से बना है (श्री रुक्मिणी विठ्ठल) इस मैं शक्ति के विरोध में जब मनुष्य जाता है तब कहता है बहुत बड़ा आदमी हैँ...... में ही सब कुछ हूँ .ऐसी वृत्ति में उस मनुष्य में कंस रुपी अहंकार बढ़ता है .....उसे लगता है कि किसी भी प्रकार मुझे सभी लोगों पर अपना अधिकार जमाना चाहिए ....उसे दाँयी तरफ की विशुद्धि चक्र की पकड़ होती है। ( प.पू. श्रीमाताजी, मुंबई, २५.९.१९७९) अब जिनकी आदत बहुत ज्यादा चिल्लाने की, चीखने की, दसरों को अपने शब्दों में रखने की और अपने शब्दों से दूसरों को दु:ख देने की, होती है उसकी दाँयी विशुद्धि पकड़ी जाती है और उससे अनेक रोग हो जाते हैं। ....दाँयी बाजू पकड़ने से स्पान्डीलाइटिस होता है ....दुनिया भर की दसरी बीमारी हो सकती है जैसे लकवा और दिल का दौरा, हाथ उसका जकड़ जाता है। .इससे जुकाम-सर्दी होती है, इतना ही नहीं जिसे हम कहते हैं अस्थमा, उसका प्रादूर्भाव हो सकता है। .....जो आदमी अपने को बड़ा विद्वान समझते हैं उनकी तो ये हालत हो सकती है कि वे इतने अति विद्वान हो जाते हैं कि उनकी अपनी ही बुद्धि वही आपको चलाने लगती है, आपके खिलाफ चलती है। ....इसमें आदमी हठात हो, तो वो कोई भी काम करते हैं हठात् पर लेकिन आप अगर कहें अब आप पैर हटाइये तो नहीं हो सकता क्योंकि उनकी खुद की बुद्धि ही परास्त हो गयी है। ( प.पू.श्रीमाताजी, १६.३.१९८४) 24 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-24.txt .विशुद्धि चक्र खराब होने से दिमाग के दोनो ओर संवेदना ले जाने वाली नाड़ियाँ खराब होती है (प.पू.श्रीमाताजी, २५.९.१९७९) जब आप पार भी हो जाते हैं तो भी आपको हाथों में वाइब्रेशन नहीं आते। आपकी जितनी हाथ की नव्व्हस हैं वो मर जाती हैं, तो आपको हाथ पर महसूस नहीं होता और लोग कहते हैं कि माँ हमको अन्दर तो महसूस हो रहा है पर हाथ पर महसूस नहीं होता और इसलिये उनको परेशानी हो जाती है। (प.पू.श्रीमाताजी, १६.२.१९८१) ...जैसे-जैसे विशुद्धि चक्र जागृत होता है वैसे-वैसे संवेदन क्षमता में वृद्धि होती है। विशुद्धि चक्र जागृत करने के कुछ मंत्र हैं, अपने अंगूठे की बगल वाली उंगलियाँ दोनों कान में डालकर गर्दन पीछे करके और नज़र आकाश की ओर रखकर जोर से व आदर से सोलह बार 'अल्लाह-हो- अकबर' मंत्र कहने से विशुद्धि चक्र साफ होता है। तब आपको जानना होगा अकबर माने विराट पुरुष परमेश्वर है । (प.पू.श्रीमाताजी, २५.९.१९७९) ...आप सब अपनी बाँयी विशुद्धि पर नियंत्रण कर मृदुल वाणी द्वारा मंजुल शब्दों का प्रयोग करें, आपकी भाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिये मृद होनी अनिवार्य है। यह मधुरता आपकी बाँयी विशुद्धि को शुद्ध कर देगी। मृदुल प्रक्रिया से संबोधन ही अपनी अपराध भावना को सुधारने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। ( प.पू. श्रीमाताजी, राहुरी, २१.१२.१९८०) 25 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-25.txt जब बाँयी खराब हो जाती है.... व्यक्ति अपराधी महसूस करता है, इसलिये सहजयोग में इसका मंत्र है ... 'माँ, हमने कोई ऐसी गलती नहीं की जो आप माफ न करो। . जिसका विशुद्धि चक्र ठीक होगा उसका मुखड़ा ठीक होगा, सुंदर होगा, उसकी आँखे तेजस्वी होगी, नाक-नक्श तेजस्वी होंगे। ( प.पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, १२.२.१९८१) ३) मध्य विशुद्धि चक्र के बीचो-बीच जो शक्ति है वह विराट की शक्ति है। इस शक्ति से मनुष्य परमेश्वर की खोज में रहता है।..... अपने 'स्व' को पहचानिये। अपने 'स्व' को पहचानने से ही मनुष्य अपनी सुबुद्धि पाता है। जब तक दुर्बुद्धि है उसकी विशुद्धि जागृत नहीं होती। ( प. पू. श्रीमाताजी, मुंबई, २५.७.१९७९) जो बीच में श्रीकृष्ण हैं उनके लिये सारी सृष्टि एक लीला है, उनके लिये यह लीला है, और जब सहजयोगी पार हो जाते हैं तब उनके लिये भी सारी सृष्टि जो दिखायी देती है, वो एक साक्षी है, उसकी ओर वे साक्षी के स्वरुप से देखते हैं। वो जो कुछ भी, पहले उनको हरेक चीज़ से लगाव था, वो छूट करके वो देखता है, 'अरे! यह सब तो एक नाटक था। ( प.पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, १६.३.१९८४) अन्तर्जात गुण १. सामूहिक चेतना - सामूहिकता - संतुलन - जब मनुष्य अपने विशुद्धि चक्र में जागृत होता है तब उसे सुबुद्धि आती है व संतुलन आता है। आपकी सामूहिक चेतना जागृत होती है, आप अपने तरफ अंतर्मुख होकर देख सकते हैं व आपकी दृष्टि परम की ओर मुड़ती है। .....आप औरों की भावनायें, संवेदना वे सब अपने आप में जान सकते हैं । ( प.पू.श्रीमाताजी, २५.७.१९७९) सामूहिकता मतलब हमेशा आपको उस परमेश्वरी शक्ति के साथ सामूहिक चेतना में जुड़े रहना, .विशुद्धि चक्र की जागृति के बाद यह अवस्था मिलती है। ( प. पू. श्रीमाताजी, निर्मला योग १९८४) सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। .....जो व्यक्ति सामूहिकता के साथ कार्य करता है और सामूहिकता में रहता है, उसमें नयी प्रकार की शक्तियाँ जागृत हो जाती है। गुरुपूजा, कबैला, (प.पू. श्रीमाताजी, १९९७) 26 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-26.txt 27 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-27.txt सामूहिकता हमारे उत्थान का मूलाधार है। ...अन्दर-बाहर सामूहिकता स्थापित होनी चाहिये। ( प. पू. श्रीमाताजी, मेलबोर्न, १०.४.१९९१ ) २. माधुर्य-मिठास-नम्रता .....श्रीकृष्ण की सुमत्ता, उनकी मधुरता, उनकी मोहकता हमारे जीवन में आनी चाहिये। श्रीमाताजी, १६.३.१९८४) (प.पू. .....आवाज़ में मिठास होनी चाहिये. उसमें माधुर्य होना चाहिये, उसमें एक मोहित करने की शक्ति होनी चाहिये, जिससे मनुष्यों को लगे कि जो बोल रहे हैं, इसमें खिंचाव है । (प.पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, ७.५.१९८३) .....आपको विनम्र होना है, यही आपकी सजा है और यही गुण। .....स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही श्रेष्ठ माने। स्वयं को यदि आप श्रेष्ठ मानते हैं तो आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग नहीं रहते .....सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो है वो है विनम्रता । ( प. पू. श्रीमाताजी, कबैला, ७.५.२०००) नम्रता का मतलब होता है कि अपने आपको खोल देना । आप कोई नयी विचारधारा को स्वीकार करें, देखें परखें और इसमें उतरें। नम्रता का यह मतलब नहीं होता कि आप किसी के आगे झुक जायें। यह बहुत बड़ा गुण है नम्रता। (प.पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, ७.२.१९८३) ३. व्यवहार कुशलता - व्यवहार में पूरे हृदय से दोस्ती करो, कोई कार्य हो तो पूरे हृदय से करो। उपरी-उपरी नहीं, अन्दरूनी रखो। एक छोटा सा फूल भी यदि कोई शुद्ध हृदय से दे तो उसका बहुत असर हो सकता है। ....जो भी आपको कहना है हृदय से कहो। (प.पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, २८.२.१९९१) 28 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-28.txt तो हमारे विशुद्धि चक्र में बसे हुए श्री कृष्ण जो हैं इनको आपको जागृत करना पड़ेगा। जब तक ये जागृत नहीं होंगे तब तक आपको विशुद्धि चक्र की तकलीफ रहेगी। ( प . पू. श्रीमाताजी, दिल्ली, १६.३.१९८४) ४. साक्षी अवस्था - हमारे लिए यह समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हमारी विशुद्धि साफ होनी चाहिये। सर्वप्रथम हमारा हृदय सुन्दर और स्वच्छ होना चाहिये जहाँ से श्री कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी विशुद्धि को सुधारें । विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारो क्योंकि आपके अतिरिक्त कोई अन्य इन्हें नहीं सुधार सकता। देखो कि तुम्हें पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी विशुद्धि के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धि पर आकर आप साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली है तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कमियों को जान सकेंगे। श्रीकृष्ण की पूजा करते समय हमें यह जानना है कि अंत में वे बुद्धि तत्व बन जाते हैं। पेट की चर्बी सूक्ष्म रुप में बुद्धि को पहुँचती है तथा श्री नारायण बुद्धि में प्रवेश कर 'विराट' रुप हो जाते हैं और अकबर बन जाते हैं और जब वे अकबर बन जाते हैं तभी पदार्थ के अन्दर बुद्धि (ज्ञान) बन जाते हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण को पूजने वाले लोग अहंकार रहित बुद्धिमान बन जाते हैं। उनकी बुद्धि विकसित होती है परन्तु यह अहंग्रसित नहीं होती। बिना अहं की बुद्धि जिसे मैं शुद्ध बुद्धि कहती हूँ, प्रकट होने लगती है। ( प. पू. श्रीमाताजी, चैतन्य लहरी २००८) के .एक बार सहस्रार खुल जाने बाद आपको वापस अपनी विशुद्धि चक्र पर आना पड़ता है, अर्थात् अपनी सामूहिकता के स्तर पर। विशुद्धि चक्र यदि ज्योतिर्मय नहीं हो तो आप चैतन्य लहरी महसूस नहीं कर सकते। .एक बार कुण्डलिनी का सहस्रार में से नीचे की ओर चैतन्य प्रवाहित करना जो आपके चक्रों से प्रवाहित होकर भिन्न चक्र का पोषण करे, आवश्यक है। विशुद्धि पर जब यह रुकती है तो वास्तव में आपको विक्षोभ की अवस्था में ले जाने का प्रयत्न करती है। .... यह वह समय है जब आपको तटस्थ | यानी साक्षी हो जाना चाहिये। यदि आप साक्षी हो जायें तो सभी कुछ सुधर जाता है। 'साक्षी स्वरूपत्व' अवस्था आपको तब प्राप्त होती है जब कुण्डलिनी ऊपर आती है और योग स्थापित होता है और दिव्य लहरियाँ ऊपर आती है और आपके विशुद्धि चक्र को समृद्ध बनाती है। (प.पू.श्रीमाताजी, मिलान आश्रम, ६.८.१९८८) 29 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-29.txt कह ह भविष्य की ज्ञान 30 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-30.txt यह तो असन्तुलन है। हम मानव हैं और हमें वर्तमान को जानना है, भविष्य को नहीं। .व्यक्ति की जब वास्तव में उत्क्रांति होती है, वर्तमान में, तो वह पराचेतन के उस बिन्दु तक पहुँचता है जहाँ से वह अतिचेतन दाँयी ओर को और अवचेतन बाँयी ओर को देख सकता है, परन्तु इनमें उसकी कोई रूचि नहीं होती। वह वर्तमान में उन्नत होना चाहता है और वास्तव में यही कुण्डलिनी की जागृति है। वे सभी लोग जो ये कहते हैं कि कुण्डलिनी की जागृति बहुत कठिन है और बहुत हानिकारक है ये वे लोग हैं जिन्हें कुण्डलिनी जागृत करने का कोई अधिकार नहीं है । ये लोग जब चालाकियाँ करने लगते हैं तो उनका अनुकम्पी नाड़ी तंत्र बहुत ज्यादा उत्तेजित हो जाता है तथा बाँयी और दाँयी ओर से ये मध्यमार्ग से बहुत अधिक ऊर्जा खींचने लगती है। यह इतनी अधिक ऊर्जा खींचती है कि परानुकम्पी (मध्य मार्ग) की ऊर्जा समाप्त होने लगती है और ऐसा व्यक्ति वास्तव में विक्षिप्त हो जाता है। अतः बहुत से लोग जो ये कहते हैं कि हम इस विधि से या उस विधि से कुण्डलिनी जागृत कर रहे हैं वे साधकों के जीवन नष्ट करते हैं और अन्ततः साधक बिना कुछ प्राप्त किये निस्सहाय छोड़ दिया जाता है। साधक नहीं जानते हैं कि प्राप्त क्या करना है और पाना क्या है, इस प्रकार वे पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। ये सब अनुभव जिनमें लोग सोचते हैं कि वे हवा में उड़ रहे हैं या लौकिक गतिविधियों से ऊपर पहुँच गए हैं, हवा में जाकर चीजें देख रहे हैं, तो ये सब बहुत भयानक चीज़ें हैं। .....आप इसलिये हवा में उछल रहे हैं कि कोई अन्य आपको उछाल रहा है, आप नहीं उछल रहे हैं, इसका अर्थ ये है कि आपकी अपनी चेतना, अपना चित्त किसी अन्य के नियंत्रण में है। आप अपना नियंत्रण नहीं कर सकते। .ऐसा व्यक्ति अंततः पागल हो सकता है, पूर्णत: पागल क्योंकि वह स्वयं पर नियंत्रण पूरी तरह खो देता है। इन सब अनुभवों को 'परामनोवैज्ञानिक' अनुभव कहा जाता है। इसे और बड़ा नाम देने के लिये अमरीका में 'परामनोविज्ञान' कहा जाता है। नि:सन्देह यह 'परा' है क्योंकि यह मनुष्य के मन से परे है, परन्तु यह बहुत भयानक है। आपको इन जंजालों में नहीं फँसना जहाँ मृत आत्मायें आपको पकड़ लें और आप इस प्रकार से आचरण करने लगे जिनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। परामनोविज्ञान में प्रयोग करने वाले लोग सब भूतबाधित होकर समाप्त हो जाएंगे यह तो स्वयं मृतात्माओं का गुलाम बनना है।.....एक व्यक्ति था वह भी इसी रोग का शिकार था। वह अपना शरीर छोड़कर दूसरे विश्व में चला जाता, वहाँ की चीज़ों को देखता, उसने बहुत कष्ट उठाये और स्वयं पर उसका नियंत्रण समाप्त होने लगा, पर मैंने उसे रोग मुक्त किया। 31 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-31.txt .....अमेरिका में लोग परामनोविज्ञान व्यापार चला रहे हैं जो कि अत्यन्त भयानक कार्य है। .....चाहे व्यक्ति अवचेतन में जाए या अतिचेतन में, इसके प्रभाव भिन्न हो सकते हैं परन्तु सहजयोग में ये समान हैं। जो लोग अवचेतन क्षेत्र में चले जाते हैं वो मुझे भिन्न रूपों में देखने लगते हैं जैसे अवचेतन भी अत्यन्त भयानक है एल.एस.डी. का नशा करने वाले लोग मुझे नहीं देख पाते हैं वे केवल मेरे अन्दर से निकल पाने वाले प्रकाश को देख पाते हैं और जो लोग अतिचेतन में जाते हैं वो इस प्रकार से चीज़ें और उनके रूप देखने लगते हैं कि वो सोचते हैं कि वो स्वर्ग में पहुँच गए हैं परन्तु वे उत्क्रान्ति से पूर्वकाल, हर चीज़ में भूतकाल को देख रहे होते हैं। अत: यह अतिचेतना क्षेत्र में जाना बहुत ही भयानक है। .....अवचेतन भी अत्यन्त भयानक है क्योंकि सभी लाइलाज बीमारियों जैसे कैंसर और मेलाइटिस आदि चित्त के बाँयी ओर चले जाने से होती है। भूत या भविष्य के बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है। क्या आवश्यकता है? .....यह मानव की दुर्बलता है कि वह अपने व्यक्तित्व में कुछ अत्यन्त बनावटी, अस्तित्वहीन और मूल्यहीन चीजें जोड़ना चाहता है। भारत में लोग इस 'आज्ञा' के कारण प्राय: बायें को चले जाते हैं। .....वे परमात्मा से योग प्राप्त किये बिना वे परमात्मा की करने लगते हैं, वे भिन्न प्रकार की अारतियाँ करते हैं, उपवास पूजा करते हैं, ये वो और स्वयं को सताते हैं। ये बाँयी ओर के लोग हैं। लोग हर समय राम-राम-राम ही करते हैं। .....चाहे कुछ कोई भी नाम आप लें, आप परमात्मा तक नहीं पहुँच सकते, तब आप कहाँ जाते हैं? कहीं तो आप जाते हैं। हो सकता है कि राम नाम का कोई नौकर (भूत) हो जो आपको पकड़ ले और लोग इस प्रकार अटपटे ढंग से बर्ताव करने लगते हैं कि वो पागल और जड़ सम लगते हैं। अतिचेतन के बारे में भी ऐसा ही है, जो लोग बहुत अधिक 32 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-32.txt महत्वाकांक्षी होते हैं वो भी इस प्रकार की पागल अवस्था में जा सकते हैं। समझिये कि किस तरह गलत धारणायें आपको अति की सीमा तक ले जाती है।.....पर अब किसी को कष्ट नहीं उठाने। आपको अपनी कुण्डलिनी जागृति कार्यान्वित करनी है तथा स्वयं को अच्छी तरह से सहजयोग में स्थापित करना है। आपके सभी कष्ट दूर कर लिये जाएंगे। देवी का एक नाम 'पापविमोचिनी' है, वे आपके पापों को हर लेती हैं। श्री गणेश को हम 'संकट विमोचन' कहते हैं, वे जीवन की सभी बाधायें करते हैं। आशीर्वादित होने के पश्चात ही आप वास्तव में जान पाते हैं कि दूर परमात्मा के आशीर्वाद देने के बहुत से तरीके हैं। ये चमत्कारिक है, पूर्णत: चमत्कार। .....तो आपके ये अटपटे विचार कि आपने कष्ट उठाने हैं, तपस्या करनी है या आपको ब्रह्मचारी बनना चाहिये, ये सभी हास्यास्पद धारणायें त्याग देनी चाहिये। आपको पूर्णतः सामान्य और प्रसन्नचित्त व्यक्ति बनना है। परमात्मा ने आपके लिये इतना कुछ किया है, इतना कुछ बनाया है इसके बावजूद कि यदि आप दयनीय बनना चाहते हैं तो कोई क्या कर सकता है? .....अब वह समय आ गया है कि हम सबको वो सब चीज़ें त्याग देनी चाहिये जो हमारे स्वास्थ्य के लिये, हमारी आध्यात्मिक उत्क्रांति के लिये ठीक न हों। आप यदि इस बात को स्वीकार नहीं करते तो माँ होने के नाते मैं कह सकती हूँ कि मुझे तुम्हारी चिन्ता है यह इससे भी अधिक है, आप अत्यन्त भयानक समय से गुज़र रहे हैं - .व्यक्ति आप आत्मसाक्षात्कारी हो। ......एक बार आत्मसाक्षात्कार पा लेने के पश्चात .... ..... के लिये कोई बन्धन नहीं रह जाता क्योंकि बूँद समुद्र में मिल गयी है अब वह समुद्र बन गयी है और सागर की कोई सीमा नहीं होती। आत्मसाक्षात्कारी आत्मायें भी सर्वत्र हैं और आपकी सहायता कर रही है। ये किसी व्यक्ति में प्रवेश नहीं करते, आपको परेशान नहीं करते, टठीक मार्ग पर आपका पथ प्रदर्शन करते हैं । ....अब आप आत्मसाक्षात्कारी हैं तो भलीभाँति समझना होगा आपको कि सच्चाई क्या है। समझते चले जायें, आत्मसात करने का प्रयत्न करें। .... सहजयोग एक जीवित संस्था है। यहाँ कुछ भी घटित होता है तो पूरे शरीर को इसका पता चलता है। इस शरीर के लिये आपको कोई लिखित आयोजन करने की आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार से सहजयोग भी कार्यान्वित होता है। (प.पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, ३.२.१९८३) 33 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-33.txt आप स्वयं मंगवा सकते है भारत के किसी भी कोने से !!! आप अपने सहज साहित्य को उदा. किताबे, ऑडिओ, विडीओ कैसेट और सीडीज (प्रवचन और संगीत ), मैगज़िन्स, पेंडंट इ. नीचे दिये किसी भी तरिके से मंगवा सकते हैं। हुए १ ) आदेश (ऑर्डर) का पहला विधि + आप अपने ऑडिओ-विडीओ मटेरियल या किताबें फोटोग्राफ्स इ. का चयन एनआयटीएल कैटलॉगद्वारा कर सकते हैं, जो www.nitl.co.in इस वेबसाइट पर हैं। ये एनआयटीएल के सभी प्रतिनिधींओं के पास भी उपलब्ध हैं। | आप इस कैटलॉग को ई-मेल : sale@nitl.co.in द्वारा भी मंगवा सकते हैं। * * आप अपना ऑर्डर एनआयटीएल तक फोन, ई -मेल, फैक्स द्वारा पहुँचा सकते हैं या एनआयटीएल के अधिकृत प्रतिनिधींओं से संपर्क कर सकते हैं। संपर्क : निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा.लि., प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरूड, पुणे ४११०३८. फोन नं. ०२०-२५२८६५३७, २५२८६०३२. फैक्स : +९१-२०-२५२८६७२२, ई-मेल:sale@nitl.co.in , मोबाईल नं. ९७६३७४१०२७, ९७६७५८३८०८ २) आदेश (ऑर्डर) का दूसरा विधि आप हमारी वेबसाइट www.nitl.co.in पर ऑन-लाइन रजिस्ट्रेशन कर के भी ऑर्डर दे सकते हैं। इस साईट के शॉपिंग डेमो के लिंक पर आपको अधिक जानकारी मिल सकती है। आप अपनी रकम क्रेडिट कार्ड द्वारा ऑन-लाइन भर सकते हैं या एनआयटीएल के ऑन-लाइन शॉपिंग के माध्यम से मटेरियल का चयन कर के एनआयटीएल में उस रकम के डीडी या चेक नं. के बारे में सूचित कर के रकम अदा कर सकते हैं। (जानकारी के लिए शॉपिंग डेमो पर देखें) आप अपनी रकम चेक या कॅश द्वारा आपके नजदिकी एक्सिस बैंक में भर सकते हैं। आपका ऑर्डर मिलने के बाद उस आपको ई-मेलद्वारा सूचित किया जाएगा। पैसे कैसे अदा करें? आप अपनी रकम को एनआयटीएल के एक्सिस बँक के सेविंग अकाऊंट नं. १०४०१०१००१८५५४ पर एक्सिस बैंक के किसी भी ब्रैंच द्वारा भेज सकते हैं या उस रकम का डी.डी. (Payable at Pune) बनाकर ऊपर दिये हुए पते पर भेज सकते हैं। सेविंग अरकौंट में रकम जमा करने के बाद हमें इ-मेल या ऊपर दिये हुए फोन नंबर्स पर सुचित करें। + रकम बैंक में भरने के बाद आपने आदेश (ऑर्डर) की गयी चीज़ों को सीधे अपने घर पाईये। डिलीव्हरी चार्जेस डिलीव्हरी चार्जेस वजन और दूरी (कि.मी.) पर आधारित होंगे। + जिस ऑर्डर की किमत रु.१०,००० या उससे अधिक होगी तो उस पर कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लगाया जाएगा। ३. वर्ष २०११ में उपलब्ध मैगज़िन्स की जानकारी कीमत (रु.) मैगज़िन्स पूरे साल की मैगज़िन्स की संख्या चैतन्य लहरी (हिंदी) ६ अंक ३६० चैतन्य लहरी (मराठी) ६ अंक ३०० डिव्हाईन कूल ब्रीज (इंग्लिश) युवादृष्टी (मिक्स) (इन सभी मैगज़िन्स की माँग आप ऊपर दी गई किसी भी विधि से कर सकते हैं ।) * आपसे विनती है कि उपरोक्त मटैरियल को आप एनआयटीएल या उनके अधिकृत प्रतिनिधींओं द्वारा मँगवायें । ६ अंक ३६० ४ अंक २०० एनआयटीएल में पब्लिश हुए किसी भी किताब या रेकॉर्डिंग की पुनर्निर्मिती या किसी भी प्रकार से रूपांतरण करने के लिए एनआयटीएल की परमिशन लेनी पडेगी। कोई भी व्यक्ति पब्लिशिंग या रेकॉर्डिंग के बारे में अनधिकृत कृत्य करते हुए पाये जाने पर सजा के या नुकसानभरपाई के हकदार होंगे। 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-34.txt NEW RELEASES Lang, Type D ACD Title Place Date VCD DVD 25" Nov.1973 | 'पाने के बाद' - सातों चक्रों व उनके देवताओं का वर्णन Mumbai th 243* Sp Н 20th Jan.1975 'क्षमा की शक्ति का महत्व' धर्म व अधर्म 244 Mumbai Sp हर श्वास में सहजयोग को प्रस्थापित करना होगा 245 25h Jan.1975 SP Mumbai Н 2nd Feb.1975 ध्यान और प्रार्थना Mumbai Н SP 091 247 29" May1976 | ध्यान कैसे करें व प्रेममय सहज जीवन Sp Mumbai th 515 26 Jan.1977 Bordi Sp How The Chakras come in Human beings & Q & A सहजयोग, कुण्डलिनी और चक्र, मूलाधार व नाभि चक्र, गुरु तत्व th 30*Jan.1978 266 Mumbai SP Н 'परमात्मा सबसे शक्तिशाली है'; सब चक्रों के बारे में |Dheradun 4th Mar.1986 249 PP Н 16th Feb.1981 013* तत्व की बात Delhi H PP २ 22n Aug.1982| Ganesha Puja-Innocence and Joy-Part 1, 2 516 Geneva SP/Pu 201 E th H/M Sp 238 सहस्रार के ऊपर चार चक्र एवम श्री फल 5" May 1983 Mumbai San Diago E th 337° 517' 25" Sep.1983 Shri Mataji's Talk Sp 26™ Sep.1983 -th 518' Los Angeles E How to Save Attention (PP) 338 SP 339' 25" Sep.1983 | Picnic at San Diago San Diago | E Sp All Chakras Explened Los Angeles E 520° 27th Sep.1983 340* Sp 3rd Jan.1984 नव वर्ष पूजा : सहजयोगी की पहचान 019 Delhi Sp Н सार्वजनिक कार्यक्रम th 8™ Feb.1984 M/H| Sp भाग-१, २ 521' Pune - th 341* 522 Advice after Sahastrar Day 6“ May 1984 France Sp 21*Sep.1985 | English are Scholars 342 523" London Sp 026* st 21 Jan. 1986 Mumbai PP H सत्य का स्वरुप महाशिवरात्री पूजा 048' 6th Mar.1989 Delhi Sp th 7" May 1995 343 111* Sahastrar Puja : Complete Freedom & Cabella Sp/Pu a Beautiful Heart - Part I & II संक्रान्ती पूजा : संक्रान्ति और सूर्यदेव का महत्व 14th Jan.1996 140* H/E Sp/Pu 030 Pune 25"Dec.2000 | ख्रिसमस पूजा th 216 344° Ganapatipule H/E Sp 26th Mar.2001 345* 525* Public Programe Delhi НЕ Sp 14h Jul.2001 526* Public Program Sp London st Nirmal Arts Academy - Part I & II 31" Jul.2007 346 Cabella Mu Bhajan Title Artist Song List ACD ACS Nirmal Shradhanjali - I Pune Sahaj Music Group 173 Nirmal Shradhanjali - II Pune Sahaj Music Group 174* To Order : You can even place your order through our website : www.nitl.co.in You can even place your order with NITL through telephone, e-mail, Fax. (Numbers given below) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड , कोथरुड, पुणे - ४११ ७३८. फोन : ०२०२५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in 2011_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-35.txt रुम श० शर को ुि २ती मतलब २६ा करने वीली शक्ति। इस शक्ति का बंधन बड़ा जबरढस्त है और कोमल भीक्योंकि वो बहन के पवित्र प्रेम का दौतक है। जिसक क बार शी बाँध दी तो वहीं निर्भल २क्षा की स्थापनी का स्थान हो जाती है। १७ अगस्त १९७८ आरे