हिन्दी नवंबर-दिसम्बर २०११ ी शी * धर्म की आवश्यकता ...४ * व ...२८ पूजा की महत्त्व वर] पूजा करने से आदिशक्ति के समस्त (सतों) चक्र जीगृत हो उठते है तथा इन चक्रों द्वारा वे अपनी कार्य शुरु कर देती है। साष्टि में पहली बार ऐस अवत२ण हुआ है। कृपया ध्यान दें : २०१२ के सभी अंकों की नोंदणी सितंबर २०११ की शुरू होकर ३० नवंबर २०११ को समाप्त हो जाएगी] धर्म की आवश्यकता आत्मा को खोजने वाले सभी साधकों को हमारा प्रणिपात ! आज का स्वर्गीय संगीत सुनने के बाद क्या बोलें और क्या न बोलें! विशेषकर श्री.देवदत्त चौधरी और उनके साथ तबले पर साथ करने वाले श्री.गोविंद चक्रवर्ती, इन्होंने इतना आत्मा का आनन्द लुटाया है कि बगैर कुछ बताये हये ही मेरे ख्याल से आपके अन्दर कुण्डलिनी जागृत हो गई है। सहज भाव में एक और बात जाननी चाहिए कि भारतीय संगीत ओंकार से निकला है। ये बात इतनी सही है, इसकी प्रचिती, इसका पड़ताला इस हुआ प्रकार है कि विदेशों में जिन्होंने कभी भी कोई रागदारी नहीं सुनी, जो ये भी नहीं जानते कि हिन्दुस्तानी म्युझिक क्या चीज़ है या किस तरह से बनायी गयी है। जिनके बजाने का ढंग और संगीत को समझने का ढंग बिल्कुल फर्क है। ऐसे दिल्ली, लोग भी जब पार हो जाते हैं और गहन उतरते हैं, तो आपको आश्चर्य होगा कि बगैर किसी राग को जाने बगैर, ताल को जाने बगैर, कुछ भी जानकारी इसके २३.२.१९८६, मामले में न होते हुए, बस, खो जाते हैं। और जैसे आपके सामने आज चौधरी साहब ने बजाया, जब लंदन में बजा रहे थे, तो घण्टों लोग अभिभूत उसमें बिल्कुल पूरी तरह से बह गये। मैं देखकर आश्चर्य कर रही थी कि इन्होंने कोई राग जाना नहीं, इधर इनका कभी रुझान रहा नहीं, कभी कान पर वे उनके ये स्वर आये नहीं, आज अकस्मात इस तरह का संगीत सुन कर के इनको हो क्या गया है! उसके बाद अमजद अली साहब आये। जो भी शास्त्रीय संगीत का कोई भी गाने वाला या बजाने वाला आता है तो ये बिल्कुल उसमें खो जाते हैं। दूसरी बात ये कि कव्वाली जैसी चीज़ जो कि समझनी चाहिए। एक बड़े भारी, मशहूर कव्वाल पाकिस्तान से आये थे। पता नहीं उन्हें क्या हो गया, मुझे 4 र देखते ही साथ उन्होंने कहा, माँ, आप सामने आकर बैठिये। देखते ही साथ उँचे आदमी थे। अवलिया, निजामुद्दीन और चिश्ती शरीफ के दर्गाह पे लिखी हुई इतनी सुन्दर कव्वाली उन्होंने कही कि हम तो समझ रहे थे लेकिन ये अंग्रेज, जो कि कभी भी इन्होंने कव्वाली नाम की चीज़ कान में नहीं सुनी थी, इनको कुछ मालूम भी नहीं हो रहा था कि क्या ये गा रहे हैं। उसके शब्द भी नहीं समझ रहे थे। और उसमें एकदम से मगन हो रहे थे। इसमें मैं कहूँगी कि गुरुनानक साहब ने बहुत काम किया हुआ है। क्योंकि गुरुद्वारे में, अब तो मुझे पता नहीं क्या हाल है, पर हम जब कभी भी जाते थे तो रागी लोग इतने सुन्दर रागदारी में गाते थे। अब मुझे पता नहीं था आ ई क्या हाल है। क्योंकि उन्होंने भी इस बात को पहचान लिया था कि हिन्दूुस्तानी संगीत पद्धति में वो विशेषता है। इसी तरह से दक्षिण हिन्दुस्तानी संगीत भी बड़ा ही मनोरम है। लेकिन उसके लिए मैं सोचती हैँ कि हम हिन्दुस्तानी थोडे अडियल ट्ट हैं। कोई सी भी नयी चीज़ सीखना बड़ी मुश्किल हो जाती है। खास करके जिसने कभी शास्त्रीय संगीत सुना नहीं, वो कहता है मुझे नहीं पसन्द आता है ये गाना। बड़ा आश्चर्य है। पार होने के बाद तो ये गाना पसन्द आना ही चाहिए । मैंने भी कभी संगीत सीखा नहीं । हालांकि मेरे घर में बहुत ज्यादा संगीतमय वातावरण रहा, ये तो मैं मानती हूँ। सभी गाने वाले और सभी एक से एक मशहूर लोग हैं। लेकिन एक मैं हूँ कि मैंने कभी गाना सीखा नहीं, कभी बैठ कर के कभी गाना गाया नहीं। तो भी कहूँगी कि ये नहीं कह सकती कि मैंने गाने सुने नहीं क्योंकि बड़े-बड़े लोगों को मेरे पिताजी बुलाते थे और उनके गाने कराते थे। हमने तो ऐसे लोगों को सुना है कि शायद आप लोगों ने सुना नहीं होगा। लेकिन इसका कोई न कोई बड़ा गहरा सम्बन्ध आत्मा से है। | ये तो बजा रहे थे लेकिन जो गाने वाले हैं उनको, उनको भी इसी प्रकार और उनका इतना मान होता है वहाँ, सहजयोगियों में। लेकिन अपने युवा हिन्दुस्तानी लोग जब कोई सा भी म्युज़िक प्रोग्राम अरेंज करते हैं, तो मुझे पता ये हुआ कि वो इन बिचारे आर्टिस्ट लोगों का रुपया मार लेते हैं। माने, उनके अन्दर जरा भी संगीत के प्रति कोई भी आदर नहीं। कुछ हिंदी भाषी लोगों में ये भी जिद होती है कि दूसरे किसी की भाषा ही नहीं सीखनी है। जैसे अंग्रेज का हाल। एक बार आप अंग्रेजी सीख लेते हैं, फिर आप कोई भाषा सीख नहीं सकते। पर अंग्रेज कभी भी दुसरों की भाषा सीख नहीं पाते क्योंकि सब अंग्रेजी बोलते हैं। और अगर बोले भी बड़ी मुश्किल से तो ऐसा लगता है अंग्रेजी ही बोल रहे हैं। ये हिंदी भाषी लोग, अब अगर उन्होंने रागदारी को सुना नहीं तो उन्हें रागदारी पसन्द नहीं आयी। लेकिन इनको देखिये ना ! आपसे भी ज्यादा तादात में लोग वहाँ सुनते हैं इनका संगीत। आशा है आपके भी हृदय के द्वार खुल जाएंगे और आप भी आत्मा के इस झंकार को सुने! मुझे तो ऐसा लगता है कि ये सारा संगीत मेरे आत्मा को झंकारता है। और उसमें झंकार कर, उसकी प्रतिध्वनी आप लोगों तक पहुँच रही है। ये संगीत अपने अन्दर चैतन्य भर के सबमें बहता है । इसमें से चैतन्य बहता है। हमारे पास कितनी गहरी चीज़ है इस देश में। इस गहरी चीज़ को पाना चाहिए। उसको जानना चाहिए। तब आप समझ पाएंगे कि आत्मा की गहराई आपके अन्दर जम गयी है। अहंकार के कारण ही मनुष्य कभी-कभी ऐसी बात कर देता है कि उसके अन्दर आत्मा का जागरण कठिण हो जाता है। कल मैंने आपसे बताया था कि धर्म का महात्म्य क्या है। और आज सबेरे मैंने आश्रम में बताया कि ' सहज धर्म क्या है'। सहज धर्म क्या है? आज आपसे मैं बताने वाली हूँ कि धर्म 6. की क्या आवश्यकता है और किस प्रकार हम आत्मा को प्राप्त करते हैं। धर्म की आवश्यकता संतुलन के लिए है। आज आपने देखा कि तबले पर वजन, इसे कहते हैं वजन, कितना संतुलित था। हाथ का वजन सितार पर कितना संतुलित था। कहाँ वजन देना है, कहाँ नहीं देना है, कितना उसका अंदाज बराबर है । इसी प्रकार जीवन का भी वजन संतुलित रखना चाहिए। संतुलित रखने के लिए मनुष्य को किसी भी अती पे नहीं उतरना त्व देते हैं, कि उसके लिए कोई चाहिए। कोई है कि अपनी इच्छाओं को इस कदर ज्यादा म सा भी कर्म नहीं करते हैं और कुछ लोग अपने कर्म को इतना ज्यादा मानते हैं कि इच्छाओं की तरफ ध्यान ही नहीं देते हैं। लेकिन जो मनुष्य अपना जीवन संतुलित रखता है, उसके अन्दर इच्छायें भी संतुलित रहती हैं और उसका कर्म भी। जैसे एक उदाहरण के लिए समझ लीजिए कि मैंने ये सोचा कि मैं भी इतना बड़ा हॉल खड़ा करुंगी। समझ लीजिए। अब इतना मेरे पास पैसा वैसा है नहीं और ना जमीन है। तो मैं इतना बड़ा कैसे खड़ा कर सकती हूँ। जौ आढभी पर मैं अगर सोचने लग जाऊं कि नहीं मैं करुंगी ही। अब उसी जिद में मैं पड़ जाऊं, मेरे मन में तुलित होती है, ये इच्छा हो जाए कि मैं जा कर के और गवर्नर साहब के घर में रह जाऊं। तो क्या वो इच्छा पूरी हो जाएगी? लेकिन जब मैं उस कर्म में लग जाऊंगा, तो पता होगा कि ये इच्छा जो मैंने वी काम भी की वो संतुलित नहीं है। क्योंकि जो कर्म में नहीं उतरती है वो इच्छा बेकार है। अच्छा अब दूसरे लोग जो होते हैं अती कर्मी। जैसे कि इस दिल्ली में बहुत सारे हैं। कारण ये | कर सकती है, सरकारी नौकरी जो करने निकले। तो सुबह के गये हुए रात को ग्यारह बजे तक जब तक नहीं आएंगे, तो सोचते ही नहीं कि उन्होंने अफसर को दिखाया कि हम काम करते हैं और अफसर बढ़िया काम लोग सोचते हैं कि जब तक वो एक बजे तक रात में दफ्तर में नहीं बैठेंगे तब तक मिनिस्टर कर सकती है साहब मानेंगे ही नहीं कि वो काम करते हैं। पागल जैसे बिल्कुल काम में लगे रहे, काम में लगे रहे, काम में लगे रहे। और अपनी दूसरी जो इच्छायें है, जिम्मेदारियाँ हैं, जैसे अपनी बिवी है, बच्चे हैं और पहचान वाले दोस्त आदी हैं। अरे, 'हमारा किसीसे मतलब नहीं। हम तो शहीद आदमी, हम तो काम करेंगे।' ऐसे लोग, मैंने देखा कि चालीस साल भी जी ले तो नसीब की बात समझ लीजिए। पर पैंतालीस के बाद कोई नज़र नहीं आने वाला। लेकिन जो आदमी संतुलित होता है, वो काम भी अच्छा कर सकता है, बढ़िया काम कर सकता है, एफिशिअन्ट भी होता है और उसका बुढ़ापा भी अच्छा कटता है। लेकिन आप ऐसे अनेक लोग पाइयेगा कि जो पागलों की तरह काम पर लगे रहते हैं। और काम जितना हो रहा है अपने देश में, उसके बारे में जितना कहा जाए उतना ठीक है। और सब | लोग काम बहुत करते हैं। मुझे तो कोई काम दिखाई नहीं देता। जो जहाँ खुदा पड़ा है वहाँ व 7 खुदा पड़ा है। जो बिगड़ा पड़ा है, बिगड़ा पड़ा है। एक हम बचपन में खेलते थे खेल, उसका नाम था 'जहाँ पड़ी वहाँ सड़ी', वो चीज़ अपने देश की है। लेकिन अपने यहाँ जितने लोग काम करते हैं, उतने तो कोई भी देश में लोग नहीं काम करते। और सबसे इनएफिशिअन्ट देश है अपना। उसकी वजह ये है कि एक हद तक पहुँचने पर ये कर्म करने वाला भी थक जाता है। उसको दूसरी साइड भी देखना चाहिए, तब फिर इसे झाँकना चाहिए अपने इच्छाओं में। अगर मुझे संगीत सुनने की इच्छा है और मेरे पास टाइम नहीं तो मैं नीरस हो जाऊंगी! मेरा यह जीवन एकदम नीरस हो जाएगा। 8. जैसे आजकल आपने देखा होगा पागलों की तरह लोग रास्ते में दौड़ते हैं। जॉगिंग करते हैं। ऐसे बहुत से लोग इनमें से मैंने देखे, वो आ के मुझे बताते हैं कि, 'माँ, हम तो स्थितप्रज्ञ हो गये।' मैंने कहा, 'कैसे ?' 'मेरी माँ मर गयी, तो भी आँसू नहीं आयें । बहुत मेरे बच्चे मर गये मुझे कुछ परवाह नहीं। मेरी बिवी मर गयी मुझे परवाह नहीं। 'वा, े!' ये स्थितप्रज्ञ की भाषा कहाँ से आ गयी। इतने नीरस हो जाते हैं, फिर अपने यहाँ हटयोगी होते हैं जो सिर के बल खड़े होते हैं। और बहुत ज्यादा राइट साइडेड। आज सर के बल खड़े हये, तो पता नहीं कल क्या आंतडी निकाल देते हैं पेट में से। मुझे तो घबराहट हो जाती है, इसको देखते हुये कि बाप रे बाप, अब क्या होने वाला है? अब उसमें जो लग गये तो इतने ज़्यादा इसमें घुस जाएंगे कि ये नहीं सोचेंगे कि ये हम किसलिए कर रहे हैं ये। पागलों की तरह उसमें भी लग गये। और उसमें संतुलन न होने की वजह से ऐसे लोगों को हार्ट अटैक बहुत जल्दी आ सकता है। और सबसे बड़ी बात तो ये होती है कि इनका हार्ट ही पत्थर हो जाता है। ऐसे घरों में हमेशा डिवोर्स होंगे, बिवी से झगड़े होएंगे। उनकी कोई भी चीज़ अच्छी नहीं रहती, वो बिल्कुल हुनुमानजी का अवतार हो जाते हैं । उनको दूर ही से बात करना ठीक है, अगर सो रहे हो, जगाना हो तो एक लकड़ी से जगाईये उसे नहीं तो वो आपको ठिकाने लगायेंगे। और जो दफ्तर में इतना ज़्यादा काम करते हैं, वो भी क्रोधी होते हैं। कारण ये कि दफ्तर में तो साहब हमेशा बिगड़ते रहता है। वो सारा बहुत आ कर के बिवी पर बिगड़ना, उसपे चीखना- चिल्लाना शुरू हो जाता है। क्योंकि 'मैं काम कर रहा हू। ये एक सर्वसाधारण बात मैंने आपसे कही। लेकिन धर्माचरण जो है उसमें भी हम अतिशयता जब करते हैं और लेफ्ट में बहत चले जाते हैं तो, अब भक्ति में लग गये तो क्या कि वो ६५ मर्तबा हाथ धोएंगे और ८० मर्तबा पैर धोएंगे । सहजयोग में भी कुछ- कुछ लोग ऐसे पागलों की तरह करते हैं। मैं देखती हूँ कि मैं भाषण दे रही हूँ और अपने | चक्र चला रहे हैं पागलों की तरह। सर पे वो दे रहे हैं, बन्धन दे रहे हैं। अरे, इसकी कोई जरूरत है? हम बैठे हैं न सामने! इसको ठीक कर रहे हैं, उसको ठीक कर रहे हैं। ये | अतिशयता जो है इसे छोड़ देना, बीचो-बीच रहना। अब कोई अगर बहुत ज़्यादा ये सोचे कि, 'मैं तो साहब, किसी काम का नहीं हूँ।' खास कर शराब पीने वाले लोग। शराब पीने वाले हमेशा रोते रहेंगे और कहेंगे कि, 'साहब, मुझसे दुःखी कोई नहीं।' सब दुनिया इनको देख-देख के दुःखी होती है। अब ऐसे लोग लेफ्ट में चले गयें । ऐसे लोगों को भूत पकड़ लेते हैं, भूत। जो अपने को कहता है कि, 'मैं बड़ा बूरा हूँ।' मैंने बूरे काम किये तो सारे बूरे काम वाले आपके खोपड़ी पर आ के बैठ जाएंगे। और जो राइट साइड में बहुत | 9. जाते हैं इनको भी एक तरह के भूत ही पकड़ते हैं। और उनको राक्षस कहिए । जैसे कि हिटलर ने राक्षस बिठाये थे जर्मन लोगों के लिए। वो राइट साइड़ेड (मूवमेंट?), कि हमसे बढ़ के कोई नहीं। हम सबसे महान है और हम चाहे सबकी गर्दन काटे। इस तरह से आँखों पे खून चढ़ जाता है और फिर वो जिसको चाहे उसको मारते फिरते हैं। उनको लगता है, 'ठीक है, हमको मारना ही चाहिए।' इस प्रकार के दो तरह के विक्षिप्त लोग अतिशय में आते हैं और जो अतिशयता अगर ज़्यादा हो जाये तो मनुष्य के लिए बड़ी हानिकारक है। तो मनुष्य को बीचो-बीच रहना चाहिए, संतुलन में रहना चाहिए। ये धर्म है। अब इस धर्म का आलंबन क्यों? क्योंकि जो चीज़ आकाश में उड़ना चाहती है, उसमें अगर संतुलन नहीं हो, किसी अगर एरोप्लेन में संतुलन न हों । एक ही उसमें विंग हो, तो वो दो मिनट में ठिकाने लग जाता है, जब उड़ने लगता है। इसलिए जब मनुष्य में संतुलन होता है, तो कुण्डलिनी बहुत आसानी से उठ जाती है। हमारे सर में जैसे मैंने बताया था कि दो संस्थायें हैं । जिसे हम मन और अहंकार कहेंगे, लेकिन अंग्रेजी में इसे इगो और सुपर इगो कहते हैं। ये दोनों की दोनों जा कर के हमारे सर में इस तरह से एक के ऊपर एक चढ़ जाती है, तब हमारी तालू जो है एकदम से कैल्सिफाइड हो जाती है। ये दोनों ही चीजें, दो प्रकृतियों में से निकलती है, एक तो जड़ प्रकृति और एक अॅक्टिव, कार्यशील प्रकृति। और ऐसा कहिये आप कि जिसे हम तमोगुणी कहते हैं और एक रजोगुणी। इन दोनों की वजह से ये दो संस्थायें इन तैय्यार हो जाती हैं और जब ये एक के ऊपर एक कोई सी भी ज़्यादा चढ़ जाती है तो आप समझ सकते हैं कि कुण्डलिनी का बाहर निकलना और भी कठिन हो जाता है । अब जब कुण्डलिनी का जागरण होता है, जो कि शुद्ध इच्छा है। तो कुण्डलिनी इन चक्रों से गुजरती हुई हर एक चक्र को पूरी तरह से आलोकित करती हुईं आखिर ब्रह्मरन्ध्र में आती है और यहाँ पे भेद करके और यहाँ से बाहर निकलती है। जैसे ही आज्ञा चक्र पे कुण्डलिनी जाती है, शुद्धि से शुरू होता है पर आज्ञा पर पहुँचने के ही साथ हमारी ये जो दोनों संस्थायें हैं अन्दर की तरफ खींच जाती है। इन दोनों चक्रों में विशेष शक्ति है कि ये इन दो संस्थाओं को अन्दर की तरफ खींच लें, उसका शोषण कर ले , उसको सुखा दे। उसके कारण तालू के यहाँ जगह हो जाती है और उसमें से कुण्डलिनी बाहर निकलती है। अब आत्मा के बारे में हमने सुना है कि आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप है। सत्, चित् और आनन्द। अभी भी अहंकार बहुत ज़्यादा है यहाँ बैठा हुआ। सतु, चित् और आनन्द ये आत्मा का स्वरूप माना जाता है। सत्य है, वो सत्य नहीं, जिसे हम सोचते हैं कि ये सत्य है। सोच कर के जो जाना गया सो सत्य नहीं। क्योंकि विचार एक भ्रामकता है। हम उसमें छिपाव कर सकते हैं। उसमें हम कुछ तो भी ऐसी चीज़ रख सकते हैं कि आप समझ ही नहीं पाएंगे कि यह सच्चा है कि झूठा है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों फिर इस तरह के झूठे गुरू लोग इतने पनपते हैं! दुनिया में कितने झूठे लोग संसार में कितना ज़्यादा 10 आक्रमण कर रहे हैं। कितनी बड़ी जगह पे लेकर बैठे हैं। ये कैसे घटित होता है ? ये क्यों घटित होता है? वजह ये है कि हमको केवल सत्य मालूम नहीं। हम जानते नहीं कि सत्य क्या है? अब समझ लीजिए कि हम आपके सामने कुछ भी कह रहे हैं, भी कह रहे हैं। क्या ये हम सत्य कह रहे हैं या असत्य कह रहे हैं। क्या आप कह कुछ सकते हैं कि हम बिल्कुल सत्य कह रहे हैं? सत्य के सिवा हम कुछ नहीं कह रहे हैं। और यही केवल सत्य है। नहीं कह सकते! हो सकता है कि हम भी कोई झुठला रहे हों। हो सकता है! ये भ्रम बना ही रहेगा। कब तक? जब तक आप अपनी आत्मा को प्राप्त नहीं करते। जब आपकी आत्मा आपके अन्दर जागृत होती है तो नस- नस में वो शक्ति बहती है, जिसे चैतन्य कहते हैं। जिसके द्वारा आप जान सकते हैं कि ये सत्य है कि असत्य है। जैसे अभी आपको डॉक्टर साहब ने बताया कि उन्होंने सत्य को किस तरह से जाना। आप भी सत्य को तभी जान सकते हैं जब कुण्डलिनी का जागरण हो कर के आप निर्विकल्प में समा जाते हैं। उससे पहले आपको हाथ इस्तेमाल करने पड़ते हैं। जहाँ आप देखते हैं कि इस ऊँगली में आ रहा है और इसमें नहीं आ रहा है। तो क्या हो गया ये तो आज्ञा की उँगली है। आज्ञा की उँगली है? तो इसका मतलब ये कि मुझे अहंकार हो गया है। अब आ के साफ कहेंगे कि, 'माँ , मेरा आज्ञा ठीक कर दो। मेरा अहंकार ठीक कर दो।' और आप सोचे कि किसी आदमी से अगर कह दीजिए, काफी दूर खड़े हो कर के भी कि, 'तुझे अहंकार हो गया।' तो हो गया फिर आपका कल्याण! पर स्वयं ही मनुष्य आ कर के आपसे कहेगा कि, 'अरे बाप रे! ऐसा मेरा आज्ञा पकड़ रहा है।' क्योंकि जो अहंकार एक बार सुखावह लगता है, आनन्ददायी लगता है, 'हा, हा, क्या कहने, हमको हार पहनाया है। बड़ी हमारी सबने, बड़ी वाह-वाह करी। हमारा जय जयकार हुआ।' इससे जो आदमी बहुत खुश हो जाता है, वो पार होने के बाद उसका सर दुखने लग जाता है। जैसा ही उसका अहंकार चढ़ जाएगा, 'अरे बापरे! इतना सर में दर्द हो रहा है माँ, मेरा तो आज्ञा चढ़ गया। तो वो भागता है ऐसी चीज़ों से जो उसे अहंकार देता है। वो फिर प्रयत्न करता है कि 'किस तरह से मैं अपने अहंकार को न बढ़़ने दूँ। ये मेरे अन्दर जैसे गये घोड़े कोई एक बलून बैठ गया है। जरासा कोई अच्छा शब्द कहता है फट् से चढ़ जाता है। 'अहा! चढ़ पर, चलो, उतरो।' उससे पहले आदमी ये नहीं जानता कि वो अहंकार में बैठे हैं। जब उसका अहंकार उसे दुःख देगा तभी वो समझेगा। इस अहंकार की पीड़ा सिर्फ आप आत्मसाक्षात्कार के बाद ही जानियेगा। अब देखिये, कि अगर मनुष्य का अहंकार टूट जाए इसी तरह से तो दुनिया में अमन और चैन हो जाएगा और शान्ति आ जायेगी। दुनिया में बहुत लोग हाथ जोड़ के बात करेंगे कि, 'साहब, मैं क्या कहूँ। मैं तो आपके चरणों की धूल ही हूँ। और अहंकार का इतना बड़ा बोझा सर पर ले कर के और ऐसे इससे बात करेंगे कि मनुष्य सोचेगा कि, 'अहाहा, क्या नम्र मनुष्य है। लेकिन एक आत्मसाक्षात्कारी ही जानता है कि कौन असल में नम्र है, फिर चाहे वो चिल्ला-चिल्ला कर डाँट भी रहा हो। तो भी वो जानेगा कि ये नम्रता से ही डाँट रहा है। अहंकार का काम दसरों का नाश करना है। लेकिन वो अपने को भी नाश करता है। तो सत्य को मनुष्य जानता है अपने आत्मा के प्रकाश में और वो देखता है कि मेरे अन्दर यह अहंकार है जिसे वो त्याग दे। 11 इसलिए कहा जाता है कि सत्य स्वरूप आत्मा है। आत्मा का ये प्रकाश है जिसमें मनुष्य सत्य को देखता है। किसी ने पूछा, 'साहब आपने कैसे जाना हमें ये बीमारी है?' कैसे जाना? हमारे आत्मा के प्रकाश में। हमारे आत्मा के प्रकाश में आप आ गये और हम जान गये कि आपको क्या शिकायत है। यहाँ बैठे-बैठे आप किसी के बारे में भी जान सकते हैं, अगर आप आत्मासाक्षात्कारी हैं तो, कि उनका क्या हाल है। एक दिन निक्सन साहब के बारे में मैंने कहा कि, 'जरा निक्सन का हाल तो देखो क्या हो रहा है।' सहजयोगी ने हाथ किया, 'माँ, ये क्या हो रहा है। हमारे तो सारे हाथ झपझप हुए। मैंने कहा, 'मैं समझ गयी थी इसलिए मैंने कहा कि पता कर लूं, तो बाद में तुम्हें समझ आयेगा।' मुझे तो समझ आ गया था लेकिन मैंने कहा ये भी देखें। सारी दुनिया का पता लग सकता है, सत्य का भी, अगर आप आत्मा के प्रकाश में जागृत है तो। अब हमारे यहाँ भारतीय भूमी पर बहुत सारे स्वयंभू स्थान हैं। आप आत्मा के प्रकाश के बगैर कैसे जानियेगा कि ये स्वयंभू है या झूठी? क्योंकि जो स्वयंभू स्थान होगा वहाँ से जैसे इन्होंने कहा वहाँ से कूल ब्रीज आने लग जाती है। और जब आपको कुछ हुआ ही नहीं है, आपकी आँखे ही नहीं है, आप कैसे जानियेगा हाथ में कूल ब्रीज आ रही है। केवल सत्य जानने के लिए, केवल आत्मा होना चाहिए। आज का सहजयोग इस प्रकार हमने बाँधा है कि किसी तरह से थोड़ी सी तो भी रोशनी इनके अन्दर आ जाए। थोड़ी सी, धूंधली सी भी आ जाए। कुछ सफाई की जरूरत नहीं। कंदील को पहले सफाई करने की जरूरत नहीं। उसको करते- करते जनम बीत जायेंगे। अब पहले इनके कंदील में दीप जलाओ फिर ये खुद ही देखेंगे कि इस कंदील में यहाँ से दाग है, वहाँ से दाग है, खुद साफ कर लेंगे। जब आत्मा का प्रकाश आता है और मनुष्य जब आत्मा से निगडीत हो जाता है, आइडेंटिफाइड हो जाता है, तो वो देखता है कि मेरी आत्मा का प्रकाश इसलिए नहीं जा रहा है क्योंकि मेरा कंदील जरा खराब है, इसको जरा साफ करो और उस कंदील 12 13 के प्रकाश में ही उसका शरीर, उसका मन, उसकी बुद्धि, अहंकारादि जितने भी दोष हैं सब एक साथ साफ हो सकते हैं। कोई कहे कि अंधेरे में आप कपड़ा धोईये, तो कोई नहीं धो सकता। तो सर्वप्रथम ये जानना चाहिए कि अभी तक तुमने सत्य को जाना नहीं है इसलिए आत्मासाक्षात्कार के बगैर हम सत्य को जान नहीं सकते। आजकल लोग लड़ते हैं, इश्यूज के लिए कि चलिए अब यहाँ पे न्यूक्लिअर वॉर होने वाला है। उसके लिए आप झगड़ा करें कि न्यूक्लिअर वॉर नहीं होना चाहिए। फिर और कुछ उठा लेंगे। इस तरह से एक-एक, एक-एक चीज़ बना के उसको ले कर के लोग झगड़ते हैं। लेकिन ये बनाया किसने है न्युक्लिअर वॉर, मनुष्य ने.... अगर मनुष्य ही परिवर्तित हो जाएगा तो न्युक्लिअर वॉर कहाँ से रह जाएगा ? और अगर मनुष्य परिवर्तित नहीं होगा तो परमात्मा भी उसको बचाने के लिए क्यों सोचेंगे ? बेकार की अगर घरे में ऐसे दीप आप जानते हैं, जो हम जलाते हैं दिवाली के रोज, वो मिट्टी के दीप टूटे-फूटे होते हैं, उनको फेंक देते हैं। उनको कौन जी से लगा के रखेगा? लेकिन अगर ऐसे दीप तैयार हों कि जो निरंतर जलते रहें तो सारा संसार बच सकता है। कहते हैं कि अगर साड़ी का एक छोर भी बच गया तो सारी साड़ी बच सकती है। इसी प्रकार थोड़े से सहजयोगी भी इस संसार को बचा सकते हैं। न्युक्लिअर वॉर को खत्म कर सकते हैं। सारे वातावरण को वो सम्भाल सकते हैं। पर वो एक दशा आनी पड़ती है, जब तक वो दशा नहीं आती, जब तक इतने लोग यहाँ नहीं होते तो ये कार्य बढ़ नहीं सकता। जो लोग सहजयोग में आते हैं सिर्फ लेक्चर सुनने और चले जाते हैं उनको पता होना चाहिए कि उनको खबर हो गयी है.... थोड़ासा सुन भी लिया और थोड़ेसे पार भी हो गये लेकिन वो अगर उसमें उतरे नहीं तो इस संसार में जो कुछ भी होगा उसके वो जिम्मेदार है । अभी मैं किसी के घर खाना खाने गयी थी, वहाँ एक प्रोफेसर साहब आये, कहने लगे कि, 'अगर माताजी आये तो मैं दर्शन के लिए आता हूँ।' दर्शन के लिए पहुँच गये। और मैंने देखा कि बस वो दर्शन कर के बहुत खुश हो गये। अब हो गया दर्शन। हिंदी के प्रोफेसर हैं वो। मैंने कहा कि, 'साहब, क्या आप कबीर पढ़ाती हैं क्या यहाँ?' 'अधिकतम कबीर पढ़ाती हूं।' 'कैसे पढ़ाती हैं आप कबीर ?' 'अब जो लिखा है वो पढ़ाती हूं।' 'अरे', मैंने कहा, 'उस कबीर को समझाने के लिए आपको अभी सात जनम लेना होगा। ये तो बात है कहीं। मैंने कहा, 'आत्मसाक्षात्कार ले लो इसी जनम में समझा दो।' लेकिन वो नहीं। उनको टाइम नहीं है नं! तब उस जमाने में टाइम तो होना चाहिए था? क्योंकि वो लोग सब स्ट्राइक पे थे। एक स्ट्राईक से इतना फायदा तो हो ही जाना है कि कोई लेक्चर-वेक्चर में तो आ ही जाते हैं ये लोग। लेकिन उनको टाइम नहीं। क्योंकि एक इश्यु ले लिया और उसके पीछे हम लड़ रहे हैं। ये आत्मा का जागरण मनुष्य को अत्यंत शान्ति प्रदान करता है। क्योंकि सर में कोई विकल्प नहीं रह जाता। अन्दर से मनुष्य एकदम शान्त हो जाता है। जैसे कि आपने एक रथ का चक्का देखा होगा कि रथ का चक्का परिधि पे, सर्कम्फरन्स पे घूमते रहता है। लेकिन इसका जो बीचोबीच का मध्यबिन्दु है 14 उसको तो पूरी तरह से स्थित होना पड़ता है। Steady होना पड़ता है, नहीं तो चल ही नहीं सकता है। जब आप पार हो जाते हैं तो उस मध्यबिन्दु में आप उतर जाते हैं जहाँ खड़े होकर आप देखते हैं सारी परिधि घूम रही है और आप शान्त हो जाते हैं। आप किसी भी चीज़ से विचलित नहीं होते। आप देखते हैं सारा नाटक और आप विचलित नहीं होते हैं, आपमें साक्षीस्वरूपत्व आ जाता है। जैसे कि उठते हुए पानी में और गिरती हुई लहरों में मनुष्य घबड़ा जाता है, लेकिन नांव में बैठने के बाद वो देखता है गौर से उसे? इसी प्रकार मनुष्य जब आत्मा की नांव में बैठ जाता है, तो वो किसी चीज़ से विचलित नहीं होता। उसमें शान्ति की स्थापना होती है। अन्दर की शान्ति से ही बाह्य की शान्ति आने वाली है और बाह्य की शान्ति से ही अन्दर की शान्ति है क्योंकि बाह्य में जो शान्ति बनायी गयी है ये सब कृत्रिम है, आर्टिफिशिअल है। हम लोग कहते हैं चीनी-हिन्दी भाई - भाई । है क्या भाई आज ! आज एक मनुष्य जब दूसरे का मुँह नहीं देखते। पहले सीख लो और जो दुनिया में आयें वो हिन्दुओं के रक्षण के आत्मा की लिए आयें। अब एक-दूसरे का मुँह नहीं देखते। सब दोस्ती कैसे खत्म हो गयी ? क्या हो गया है हमको? क्या भूल गये? वजह ये है कि सबको जोडने वाला जो एक सूत्र है वो ये आत्मा जांव में है। या कहना चाहिए कि वो सूत्र ये कुण्डलिनी है। और आत्मा उसके अन्दर एक मणिस्वरूप बैठ जाती है, है। इस सूत्र को इस मणि में पिरोया गया। और जब सभी एक है तब लड़ाई किससे होने की हैं? तौ वो तो दूसरी जो हमारे अन्दर स्थिति आती है, जो सत्य है, वो ये है कि हम सामूहिक चेतना किसी चीज़ से में जागृत हो जाते हैं। सामूहिक चेतना का मतलब कलेक्टिव कॉन्शसनेस। माने हमारी जो....., मनुष्य की जो चेतना है वो उसी में है । ये असीम की चेतना अन्दर आ जाती है कि विचलित आप अपने उंगलियों पे जान सकते हैं कि दूसरे आदमी को क्या परेशानी है और आपको क्या नहीं होता। परेशानी है। यहाँ बैठे-बैठे, जैसे मैंने कहा आप निक्सन का हाल जान सकते हैं। उसी प्रकार आप हर एक के बारे में जान सकते हैं और हर एक को ठिकाना लगा सकते हैं। माने बुरे मार्ग नहीं, अच्छे मार्ग है। ये जो आपके अन्दर नवीन चेतना का आयाम, डाइमेन्शन आ जाता है, उस आयाम को पाना ही हमारे उत्क्रान्ति माने इव्होल्युशन का चरम लक्ष्य है। अमीबा से जो आज आप इन्सान बने हुये हैं, वो इसलिए कि इस आखरी चरम लक्ष्य को आप पा सके। इसलिए आत्मसाक्षात्कार होना, ये हमारा हक ही है और ये हमारा चरम लक्ष्य भी है। तिसरी चीज़ की जो चित्त होता है ऐसे आदमी का या ऐसे इन्सान का जिसमें आत्मा का जागरण होता है, वो चित्त समय पर, उसी क्षण पे ठहरा रहता है। ये नहीं अगली, पिछली बात कुछ नहीं सोचता, उस क्षण खड़ा है। जैसे अब आप मेरे सामने बैठे हैं, आप मेरे सामने 15 चित्रवत खड़े हैं। अब मैं सब आपको देख रही हूँ, मुझे मालूम है कि आप कौन है, कहाँ बैठे हैं, क्या हैं? कभी भी मैं आपको देखूंगी तो जान जाऊंगी कि आप कहाँ बैठे थे, कौनसी साड़ी पहनी थी, कौनसे कपड़े पहने थे, किस ढंग से बैठे थे, क्या है? जैसे कि कोई कैमेरा नहीं होता है, ऐसे चित्र सा मन में खींच जाता है। और जिसे देखना नहीं चाहिए वो बिल्कुल ही नहीं देखता है। तो आपका जो चित्त है वो जागृत हो जाने की वजह से अपने आप धर्म जागृत हो जाता है। ये धर्म है, ये चित्त स्वरूप हमारे उदर में पेट में फैला है। क्योंकि चित्त की जागरणा होती है, मनुष्य जो चीज़ देखता है वो चाहें दूसरा न देखें। लेकिन वो देखता भी है, जानता भी है और समझता भी है, इसके अलावा वो करामाती भी है। उसका इलाज भी कर सकते हैं। जब आपके अन्दर ये सारी शक्तियाँ हो सकती हैं विराजमान, तो क्यों न अपने चित्त को आलोकित कर ले । जब कि दिप भी है, दिया भी है और ये चित्त की फैली हुई आभा भी है। इस चित्त के बारे में न जाने हमने कितने लेक्चर दिये होंगे। हो सकता है आप लोग जब मन्दिर पर आईयेगा तो इन टेप्स को सुनियेगा और जानियेगा। सहजयोग में शुरुआत में जब लोग आते हैं, उनको सब कुछ एक साथ नहीं बतानी है। हालांकि सारा के सारा आपको बताने का है मुझे और पूरे पूरा अधिकार आपको देने का है । जितनी भी हमारी शक्तियाँ हैं वो सारी की सारी के आपको देनी है । लेकिन सर्वप्रथम धीरे-धीरे कदम रखिये । बहुत से बातों का बोझा आप से पहले आपको परिपूर्ण किया जाएगा और आप उठा नहीं पाएंगे। इसलिए सूझबूझ धीरे-धीरे जब अपने कदम बढायेंगे तब आपके सामने सारा सत्य प्रकट होगा। और उसको फिर, आप उसकी प्रचिति आप कर सकते हैं। उसका पड़ताला ले सकते हैं कि बात ठीक है। आप उसकी जाँच कर सकते हैं। पर सबसे महान चीज़ जो आत्मा की है वो आनन्द। वो भी केवल आनन्द है। सुख और दु:ख दो चीज़ एक ही रुपया के दो चेहरे हैं। कभी सुख तो कभी दु:ख, दु:ख तो कभी सुख। मनुष्य सोचता है ये क्या तमाशा है! जब आत्मा की बात होती है तो केवल आनन्द होता है। लेकिन जब आपका अहंकार तृप्त होता है तो सुख लगता है और जब अहंकार दुखता है और या तो प्रति अहंकार, मन तो में दुःख लगता है। सीधि बात है, चाहे इस घड़े में पानी कुछ दु:ख हो जाता है डालिये, चाहे इस घड़े में पानी डालिये, जिस घड़े में पानी है वहीं उसका असर दिखाई देगा। लेकिन केवल आनन्द की ये दशा होती है कि जहाँ सुख और दु:ख दोनों की ओर देखा जाता है। जैसे कोई नाटक होता है नं! नाटक को देखते-देखते कभी-कभी लोग सोचते हैं कि हम ही शिवाजी महाराज हैं। तलवार निकालने लग जाते हैं। बाद में होता 'ये तो नाटक था। हम तो नाटक देख रहे थे।' इसी प्रकार आपके नाटक टूट जाते हैं। 16 - ह পic और फिर सिर्फ आनन्द रहता है। आनन्द में मनुष्य विभोर रहता है। उसमें सुख और दु:ख की भावना नहीं। आनन्द एक तिसरी दशा है, जिसके लिये मैंने आपसे कहा कि, जिन्होंने कभी भी संगीत को सुना नहीं । जो जानते नहीं कि रागदारी क्या है! वो कहते हैं कि माँ ये आनन्ददायी चीज़ है। किसी खूबसूरत चीज़़ को देखिये । तो हो सकता है आपको ऐसा लगेगा कि मैं खरीद लूं। ये कितने पैसे की आयी है? कितने को खरीदी ें े 17 गयी? कोई न कोई विचार मनुष्य करेगा। किसी भी वस्तु पर पड़े, किसी भी मनुष्य पे पडे। कहीं अपना जहाँ चित्त गया उसका लौटना होता है विचारों में। लेकिन ये तो निर्विचार स्थिति है। अभिभूत हो के आप देखे जा रहे हैं। जैसे आप समझ लीजिए एक सुन्दर सी चीज़ रखी हुई है यहाँ पे मिट्टी की बनी हुई। इसको मैं बस देख रही हूँ। इसको बनाने वाले ने जो भी इसमें आनन्द डाला है, वो मेरे अन्दर ऊपर से नीचे तक झरझर बह रहा है। संगीत को भी मैं निर्विचार सुन रही हूँ। इसमें जो कलाकार आनन्द भरने का प्रयत्न कर रहे हैं, वो पूरा का पूरा, सारा निराकार स्वरूप आनन्द मेरे अन्दर झरझर-झरझर बह रहा है। जैसे गंगा में नहा रही हूँ। तब मनुष्य आनन्द में विभोर रहता है। लेकिन वो पागल नहीं हो जाता। बहत से लोग सोचते हैं कि जब आदमी पार हो जाता है तो पागल जैसे रस्ते में....... बिल्कुल पूरे होश में रहता है। जितना होश आत्मसाक्षात्कारी को होता है, उतना किसी को हो ही नहीं सकता। वो पूरे होश में सतर्क, उसको हर चीज़ मालूम है। वो ये जानता है कि कौन सी चीज़ शुभदायी है और कौनसी अशुभ क्योंकि फौरन उसको परेशानी हो जाएगी। किसी जगह जा कर लगेगा कि कुछ अशुभ हो रहा है यहाँ पर, छोड़ दीजिए। शुभ- अशुभ का विचार ही हमारे अन्दर नहीं है। ऐसा आदमी किसी भी घर में चला जाए, घर में शुभ होता है। से लोग कहते हैं कि, 'माँ, जबसे मैं सहजयोगी हो गया, मेरे घर में सब अच्छा ही हो रहा है। बहुत सब अच्छा ही हो रहा है। क्योंकि आप स्वयं शुभ हो गये। शुभ एक ऐसा वातावरण है जो एक आत्मसाक्षात्कारी मनुष्य के कारण वातावरण का आया हुआ सारा कुशुभ बह निकलता है और अशुभ छूट जाता है। ये एक आनन्द की लहर हाथों में बड़ी जल्दी आ जाती है। क्योंकि वो सोचते नहीं हमारे यहाँ जब सहजयोग शुरू होता है तो पहले सवाल होगा कि पहले जो थे उन्होंने क्यों नहीं किया ? आप क्यों कर रहे हैं? आप ही इसे क्यों कर रहे हैं? ऐसे नानाविध विचार दिमाग में आते हैं। वो नहीं तो बैठे - बैठे ये सोचेंगे कि भाई, माताजी कह तो रहे हैं, पर पता नहीं ये है क्या चीज़। इसको पता हुआ लगाना चाहिए कि माताजी के बाप कौन थे ? उनकी माँ कौन थीं ? उनके भाई कौन थे ? तिसरे लोग आयें, घड़ियाँ देखेंगे। कितना बज रहा है? अब कब जाएंगे घर ? अरे, घर तो रोज ही जाते हो बेटे। आज अगर यही रहेगा तो क्या हर्ज हैं? हम तो चार महीने से घर नहीं गये वापस| आप ही लोगों के सेवा में घूम हैं। तो वो इतमिनान जिसे कहते हैं जिन्दगी का, बैठे हुए हैं आप आराम से। अब एरोप्लेन पकड़ना है। अभी एअरोप्लेन आया नहीं, घर में भगदड़ मच गयी। जाना है, जाना है, जाना है। सब लोग आफत में है। पर एक आत्मसाक्षात्कारी देखता रहेगा कि ये क्या पागलपन हो रहा है साहब। प्लेन तो देर से आने वाला है। यहाँ से भागते-भागते वहाँ पहुँचे, पता हुआ कि प्लेन तीन घण्टे लेट है, बैठे रहे। लेकिन एक आत्मसाक्षात्कारी जानता है कि प्लेन लेट है। हँसता है और 'चलो, यहाँ बैठे हैं, ऐसे ही वहाँ जा के बैठ जाएंगे। पागल लोगों को कौन कहेंगे? अपना सुनेगा थोडी ही, छोडो।' 18 इस तरह से मनुष्य की जो अनेक विशेष शक्तियाँ बह निकलती हैं क्योंकि उसकी कुंठा, उसका सप्रेशन खतम हो जाता है। विचारों की वजह से हमारी शक्तियों का जो चलन है वो रुक गया है। नहीं तो इतने आप शक्तिशाली हैं कि यहाँ खड़े-खड़े आप कह दें कि जो भी चाहे कह सकते हैं । हमारे एक शिष्य या बेटे कहिए, बम्बई में है। वो एक मछली पकड़ने वाले के खानदान के हैं। पढ़े-लिखे आदमी है। एक दिन उनकी इच्छा हुई कि दूसरे टापू में जा करके सहजयोग पे भाषण दें। उन्होंने खबर भेज दी कि मैं आने वाला हूँ। जब समुद्र पे पहुँचे तो देखते क्या हैं कि सब तरफ से तुफान खड़ा हुआ है। और अभी बरसात होने वाली है। और बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है। पता नहीं उनको क्या हो गया, खड़े हो के कह दिया, 'खबरदार, मेरे जाने तक बरसायें तो।' वो लोग जो उनके साथ थे, बताने लग गये कि उन्होंने खड़े होकर कह दिया। ये बोट में बैठे। जब दूसरी जगह देखा तो सारे बादल झट कर विचारों गये। एकदम वहीं रुक गये। ये सही बात है। मैं तो कुछ कहती भी नहीं हूँ, अपने बारे में। ये की व्जह से कैमेरा जरुर कह देता हैं मेरे बारे में। ये दगाबाज़ है। अभी ये गणपतिपुळे का फोटो आया। भाई, मैं अपने बारे में कुछ कहती हूँ क्या आपसे, 'कोई मैं हूँ करके।' ये लोग, बोलने दीजिए। तो इतना बड़ा सूरज यहाँ मेरे हृदय पे है। अब मैं हमारी शक्तियों का क्या करु? सबके पास फोटो है। हाथ ऐसा किया , तो इसपे इतना बड़ा सूरज । ऐसे हाथ किया जौ चलन तो यहाँ से रोशनी निकल कर के ऐसी धारायें निकल जा कर के ॐ लिख रही है । वहाँ जेर्मेट में एक गणपति है, मातर हॉण्ड करके, माँ का श्रृंग करके। उस जगह कुछ लोग गये थे, है के पूजा के दिन। रुकते आकाश में एक बादल आ गये। वो बादल, उनको अजीब विष्णुमाया वी रक सा लगा इतना प्रकाश में और उसमें से ऐसी धागे निकल कर के दूसरे दो बादल आ गये। मैंने कहा, 'चलो, इसके फोटो ले लें। ऐसे तो हमने बादल देखे नहीं। कोई बादलों का फोटो तो लेता नहीं।' वो बादलों के फोटे लिये उसके अन्दर मेरा पूरा फोटो, यहाँ तक मेरे नाक की गयी है चीज़, दात में ये जगह, वो से लेकर पूरा मेरा फोटो है। अब अगर किसी अकलमंद को दिखाया, तो वो कहेगा, 'इसमें आपने कुछ गड़बड़ी करके फोटो बनाया है।' इसलिए ये बताना ही ठीक नहीं है । शक्की , झक्की , भक्कीओं से कभी भी भिड़ना नहीं चाहिए। तीन जाति ऐसी हैं उनसे ही रहें । वो आदत से लाचार हैं। इस प्रकार अनेक तरह के फोटो, जैसे दूर अभी एक फोटो आया । उसमें मेरे अनेक हाथ दिखाई दिये। मैंने कहा ये कैमेरा है कि तमाशा है, हर चीज़ में मुझे झुठला देता है। मैं तो कहती हूँ कि मैं सर्वसामान्य आप ही के जैसी हूँ। एक जगह एक छोटे से स्कूल में बैठ कर भाषण दे रहे थे। वहाँ 'मियाँ की टाकरी', उसका नाम है। मैंने कहा, 'यहाँ कोई बड़ा भारी संत हो गया। तो कहने लगे कि, 'उनका नाम 19 मियाँ था। हो गया है।' मैंने कहा, 'ठीक है।' भाषण देते-देते मेरे ऊपर सात बार लाइट की वो आयी, पर मैंने किसी से बताया नहीं कि लाइट आ रही है। मैंने कहा, 'अच्छा, अब बस करो, बस करो।' ऐसा मैंने कहा। वो सारा का सारा इस कैमेरे ने पकड़ लिया। एक महाशय बैठे ह्ये थे। शायद पूजा हो रही थी। वो हमारे सामने से गुजर गये। उनके थ्रू हम कैमरे में आये, ये बात सही है। इस तरह की अनेक बाते होती रहती है। ये तो रही कैमरे की बात। लेकिन जो दूसरे आश्चर्यजनक बातें हमारे जीवन में होती रहती हैं, उससे मनुष्य फिर सोचता है कि कुछ तो सच्चाई है। झूठा नहीं है ये। ये कुछ गलत बात नहीं है। चलो, फिर ठीक है। अब इसपे चलते चलो। फिर धीरे-धीरे चलता है। आनन्द के सागर तक पहुँचने में कुछ-कुछ लोगों को पाँच से दस साल तक, बारह साल तक, किसी-किसी को तो चौदह साल लग गये। लेकिन एक देहात का सहृदय आदमी उठता है और चला, कूद पड़ा उसपे। 'अरे माँ, हम तो खो गये अब हम हैं कहाँ जो कुछ कहें!' ये बड़े भाग्यशाली लोग अपने देश में, करोड़ों ऐसे बैठे हुए हैं। अब दिल्ली में कोशिश कर रहे हैं। देखो, कितनों की अकल ठीक बैठती है। हाथ जोड़ के सबसे यही कहना है कि अपने आत्मा का प्रकाश पाओ। कहाँ समय बर्बाद कर रहे हो । ये समय फिर आने वाला नहीं। ये घड़ियाँ लगा कर के आप जो टाइम देख रहे हो वो इसलिए कि ये समय बचाने का है। इसलिए नहीं कि बॉल रूप में जा कर डान्स करो और सिनेमाओ में बैठकर, आज सबने कहा , 'माँ, देर से प्रोग्राम करना लोग टी. व्ही. देखते हैं।' सच बात है मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। परमात्मा को खोजने वाले लोग हिमालय पे जाते थे। और आज आपके घर ही गंगा बहके आई हैं। अगर आप इसका स्वीकार नहीं करेंगे तो इसका दोष मुझपे तो नहीं आ सकता! इस आनन्द की राशि को, इस सम्पत्ति को, सम्पदा को आप अगर नहीं स्वीकार करना चाहते हैं तो कोई जबरदस्ती तो ठूस नहीं सकते लेकिन सबूरी शब्द इस्तेमाल किया है, हमारे शिर्डी के साईनाथ ने। सब्र चाहिए। हमें सब्र है, आपको भी अपने लिए सब्र चाहिए। वही सबूरी नहीं। हर आदमी बहुत बिज्ञी है। क्या कर रहे हैं साहब ? एक दूसरे का सर फोड़ रहे हैं। यहाँ आप क्या कर रहे हैं? शराब खाने में बैठे हुए हैं। इससे भी कोई भला काम कर रहे होंगे। पता नहीं उससे भी और भी भला होंगे ही काम? जो आदमी इस तरह से, इन चीज़ों में लूटा लेता है। ये समय बहुत ही महत्वपूर्ण है।अपना समय बर्बाद होगा। और जब मेरे ऊपर बात आती है तो हर आदमी पहुँच गया मेरे घर पे। मैंने कहा, 'घर पे आओ, मैं होशियार औरत हूँ। मैंने कहा घर पे आईये। मैंने ये नहीं कहा था आपसे मिलुंगी।' घर पे आईये माने ये कि वहाँ आप बैठ के ध्यान करिये। वहाँ चार और सहजयोगी होंगे , वो आपको देखेंगे । तो, 'माताजी हमसे क्यों नहीं मिले?' अरे, मिल के बहुत क्या करना है? क्या मिलने वाला है आपको मेरे से। ये तो अंतरयोग है ना! उससे मिल के क्या होने वाला है ? मैं कोई मिनिस्टर हूँ कि मुझसे मिलना चाहते हैं। मुझसे मिलना है तो अपने सहस्रार पे मिलो। बाहर में मिलना है, ऐसा तो बहुतों से हुआ। सब बेकार ही लोग हैं । लेकिन जो मुझे सहस्रार पे मिलेगा 20 वही कहेगा कि, 'माँ ने कुछ दिया मुझे।'... डॉ.वॉरन साहब भी नाराज हो गये| कहने लगे, 'मैं दिल्ली में नहीं कुछ काम करता।' कहने लगे कि, 'महाराष्ट्र में सब लोग आते हैं, बस, एक फूल रख दिये और चल दिये। पता ही नहीं चलता कि कौन सहजयोगी कहाँ बैठे हैं।' यहाँ तो आये और हमारा हक तो दो। मैंने सोचा कल युनियन बनाके ना आ जायें कि, 'माँ, तुमने हमें हक दिया नहीं। क्या भाई, हम सबसे आप मिली नहीं।' संसार में हम आपसे मिलेंगे । लेकिन चोटी पर। चोटी पर मिलेंगे आपसे| वहाँ पा लीजिएगा व्यर्थ की बातों में और व्यर्थ के झगड़ों में मत फँसिए। ये सब चक्करबाजियाँ हम ही चलाते हैं। इसलिए इन चक्करों में आप मत आईयेगा। माँ आज मिली नहीं तो रुठ के बैठ गये। जो बेकार लोग हैं उनको बाहर फेंकने का एक बड़ा अच्छा तरीका है हमारे पास में। जो आयें उसे न मिलो, वो दूसरे दिन आता ही नहीं भगवान की कृपा से। ये भी चक्कर चलाते हैं, ये मैं आपसे फिर बताती हूँ। क्योंकि बेकार लोगों पे मुझे सर नहीं खपाने का है । तो किस तरह से उनको भगाया जाए। सच्ची बात मैं आपसे बता दूँ, मैं माँ हूँ, झूठ क्यों बोलू! तो जो आये उनको मिलो नहीं । उनमें से जो सच्चा होगा वो कल आयेगा, नहीं तो नहीं आयेगा । तुझे मुझे आपसे वोट नहीं लेना, कुछ नहीं लेना। सिर्फ मुझे आपको परखना है। परखने का और तरीका बता दीजिये आप मुझे कोई है क्या? बगैर परखे तो गुरु लोग तो कुछ नहीं देते थे। वो तो उल्टा टाँगते थे, फिर कुएं में उतारते थे, चार-पाँच मर्तबा नहलाते थे। दो-चार झापड़ लगाते थे । फिर गधे पे बिठाते थे। पता नहीं क्या-क्या करते थे। पढ़ियेगा तो आश्चर्य हो जाएगा। एक साहब को एक गुरु मिला तो उसको खड्े में गिरा दिया, उसकी दोनो टाँगे तोड़ डाली। उसकी टंगड़ियाँ गले में डाल के मेरे पास आया। मैंने कहा, 'ये क्या भाई?' कहने लगा, 'माँ, थोड़ी तुम्हारी निंदा करी।' मैंने कहा, 'मेरी क्या निंदा करी तुमने उनसे?' तो मैंने उनसे कहा कि, 'माँ तो जिसको देखो उसको, हर नत्थु-खैरे को भी पार करा देती हैं। ये मैंने आपकी निंदा करी। तो ये गुरु ने मेरी टाँगे तोड़ दी।' तो मैंने कहा, 'अब क्या और कहा?' कहने लगे, 'जाव वो माँ के पास वही तुम्हारी टाँगे ठीक करेगी, मैं नहीं करने वाला।' मैंने कहा, अच्छा भाई , मैं ठीक कर देती तेरी टांगे, अब मत जाना वहाँ।' तो गुरु लोग तो, जो असल गुरु होते हैं, पहले से ही उधर से पत्थर फैंकते हैं। जब आप पच्चीस पत्थर खा लेंगे तब कहेंगे, 'अच्छा आ जा बेटा, एखाद आ जाय तो अच्छा है।' अब माँ क्या करेगी? असल रुप को पकड़ने के लिए तरीका यही अच्छा होता है कि भाई, माँ मिलती नहीं है। जिसको आना है आये। और जो असल होता है बस वो आ के बैठ जाता है ध्यान में, आनन्द में डूब जाता है। जिसको गरज नहीं है उसके पीछे दौडने वाला सहजयोग नहीं है। परमात्मा कोई आपके चरण छू के नहीं कहेगा कि आप सहजयोग में आ जाईये। आपको हम पार करा देते हैं। अब तो ये भी सोचा है कि मंदिरो में जब लोग आये तो चाय-पानी कुछ न कुछ खर्चा करना चाहिए। नहीं तो लोग आते ही नहीं। हे भगवान! नहीं तो लोग यहाँ आयेंगे ही नहीं जब तक भोजन नहीं होगा तब तक भजन भी नहीं होगा। पर ऐसे लोगों को भोजन देके भी, भजन सुनाने से भी कोई लाभ तो नहीं होने वाला है, कोई पार तो नहीं होने वाला है, कोई सहजयोगी तो नहीं 21 होने वाला है। अपने यहाँ युद्ध में बहुत से बजार वाले भी जाते थे । लेकिन सहजयोग के में बजार वाले नहीं चलने वाले। जैसे कि कहा है रामदास स्वामी ने, 'त्याला युद्ध पाहिजेत जातीचे।' इसको चाहिए जिसमें जान है। वीरों का काम है। मूरखों का, बूढों का, अहंकारिओं का ये कार्य नहीं है सहजयोग। ये समझ लेना चाहिए। आप लोग आये हैं सर आँखों पर। पार हो जाईये और अपने गौरव में और अपने शक्तियों में। बेकार समय बर्बाद किया। पहले १-२ महीने जरा मेहनत करने पे आप बहुत आसानी से मात कर सकते हैं। कोई इसमें बहुत तकलीफ नहीं है। कोई पैसा नहीं है। कोई ऐसी चीज़ नहीं है। अपने आप आपका जीवन सुरघटित हो जाएगा। आपकी बीमारियाँ भाग जाएंगी। लेकिन सबुरी चाहिए । जैसे कल एक साहब, 'मेरी बिवी की तो तबियत भी ठीक नहीं हुई। एक दिन वो आयें हो गया। आज कह रहे थे कि तबियत ठीक हो गयी। हाँ, भाई, किसी में एक-दो दिन लग भी जाय तो क्या है? थोडी सबूरी चाहिए। और वर्तमान में रहने का प्रयत्न करें । वर्तमान में रहने का प्रयत्न करिये। निर्विचार में रहने का प्रयत्न करें। बस बहुत आसान तरीके हैं। और इन आसान तरीकों से अगले वक्त जितने आज आप यहाँ बैठे हये हैं सबके सब एक महान वृक्ष की तरह गुरु बनके आप बैठे। मैं आप सबको वंदना करुंगी। एक माँ की यही इच्छा है कि जो कुछ हमारा सब है आप लोग ले लीजिए। हमारे लिए हमारा सब व्यर्थ है। अगर आपके अन्दर ये चीज़ नहीं आये तो हमारा भी जीवन व्यर्थ है। आज कोई प्रश्न-वश्न पूछना नहीं है शायद? मैंने आपसे पहले भी कहा था कि जिस आदमी को जो चीज़ माफिक होती है वो खाना चाहिए। लेकिन अपने से जो बड़े जानवर हैं उनको मारके खाने से आपके भी मसल्स वैसे हो जाते हैं। आपसे जो छोटे जानवर हैं उनको तभी खाना है जबकि आपको उसकी जरूरत है। और उनको खाने में कोई भी दोष नहीं है। हमारे यहाँ राम खाते थे, कृष्ण खाते थे और बुद्ध भी खाते थे। बुद्ध मरे कैसे आप जानते होंगे कि एक जंगली सुअर को मारके किरात लाये थे, वो उनके शिष्य थे और बुद्ध उनके यहाँ गये और कहने लगे कि, 'मुझे ये जल्दी से खाना बना दो।' उनका कि अभी तक जब तक ये थोडी देर नहीं बीत जाती तो ये गोश्त बनाना ठीक नहीं और इससे नुकसान हो जाएगा। लेकिन उनको जाने का था। जल्दी में कहा, 'भाई जैसा भी है दे दो।' उसीसे वो मर गये। तो बुद्ध ने गोश्त नहीं खाया ऐसा जो लोग कहते हैं ये गलत बात है। ये नहीं मैं कहती कि सहजयोग में सबने गोश्त खाना ही है। लेकिन नानक साहब खाते थे। तो क्या वो इन पाखण्डी लोगों से बत्तर थे, जो कि गोश्त नहीं खाते मनुष्य की जान खाते हैं? और ये भी सोचो कि ये जो मूर्तियाँ हैं उनको मैं क्या रिअलाइझेशन देने वाली हूँ। लोग तो ऐसे भी हैं कि जो कीड़े- 22 मकोडों को बचाते हैं और ब्राह्मणों को पैसा दे देते हैं कि उसको खटमल खायें ! वो ब्राह्मणों को पैसा दे देते हैं कि अच्छा चल भाई कि तेरा खून खा लिया तुमने खटमल बचा लिया। भैय्या खटमलों को बिठाऊंगी मैं यहाँ? कुछ अकल से काम लीजिए। मैंने गीता पर कह दिया है कि कृष्ण ने कोई ऐसी अहिंसा कही नहीं है । उन्होंने तो कहा है कि तु मार। अपने गुरु को भी मार, अगर वो अधर्मी है तो । तो इस तरह के जो अपने दिमागी जमा -खर्च 23 बना रखे हैं कि साहब, अहिंसा माने खटमलों को बचाना। तो एक साहब कहने लगे कि, 'माँ, जब तक आप लोगों को ये नहीं कहेंगी कि आप शुद्ध शाकाहारी हो जाईये तब तक सहजयोग नहीं चलेगा ।' मैंने कहा, 'कल लोग आ के कहेंगे कि खटमल को बचाईये। तो भी मैं करुं?' और देवी के लिए अगर आप कहे कि वेजिटेरियन हो जाये तो रक्तबीज का रक्त कौन पियेगा? आप लोग? और उस महिषासुर को कौन मारेगा? आप लोग? अहिंसा का झंडा लेने वाले सबसे बड़े अहिंसक होते हैं। मैंने तो अधिकतर ऐसे ही देखे हैं। गांधी आश्रम में मैं भी बहुत साल रह चुकी हूँ। और मैं जानती हैँ कि वहाँ के लोग तो ऐसे कि उनको आप उंगली भी नहीं लगा सकते, एकदम आग! आग की तरह गुस्से ले लो। इस तरह की भ्रामक कल्पनायें न रखें। और बहुत से लोग ये सोचते हैं कि बहुत सी बीमारियाँ इसलिये हो जाती है कि आप ये जानवर खाते हैं, वो जानवर खाते हैं। उल्टी बात है। अपने देश में कुछ लोगों को जरूरी है कि प्रोटीन खायें, प्रोटीन फूड कमजोर हो गये हैं। जिससे अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं, अगर आप प्रोटीन नहीं खायेंगे तो। आपने खायें। उनके मसल्स जो हैं देखा है वो सफेद दाग आ जाते हैं बदन पर, ये ज्यादा तर वेजिटेरियन लोगों को होता है। क्या वजह है ? उनके अन्दर प्रोटीन नहीं है। तो उनका लिवर जो है लिथार्जिक हो गया| और जरा सी उनके अन्दर बाधा आ जाएगी या पोस्टमैन तेल वरगैरा ऐसा कोई तेल उसका खायेंगे, मूँगफली का तो उनको वो सफेद दाग आ जाएंगे । ऐसे लोगों का इलाज ही है कि वो प्रोटीन खायें, तो फिर सोयाबीन खायें, खाईये । हाँ क्योंकि कोई-कोई लोगों में ये है कि बचपन से कभी खाया नहीं है इसे, तो छोड़िये इसे लेकिन अंग्रेजों से मैं कहती हूँ कि तुम लोग वेजिटेरियन हो जाओ क्योंकि वो बड़े आततायी लोग हैं। सब पे जबरदस्ती करते हैं। ये थोड़े वेजिटेरियन हो जाये तो अच्छा है। ऐसा भी हो जाए तो बहुत ही अच्छा है। लेकिन क्या हो जाएंगे वेजिटेरियन? यहाँ बैंगन आपको पचास रूपये सेर मिलता है, वहाँ क्या करियेगा ? और ये सोचना चाहिए कुछ-कुछ ऐसे देश हैं कि जहाँ बिल्कुल भी सब्जी नहीं है| जैसे कि ग्रीन-लैण्ड है वहाँ बिल्कुल सब्जी का एक पत्ता भी नहीं आता। तो क्या परमात्मा ने ऐसा अन्याय किया हुआ है कि इनसे पाप ही करा रहे हैं। अगर सबसे बड़ा पाप ये है कि आप गोश्त खायें । ये किसने धारणा दी आपको? इसमें इसामसीह साहब चले गये, महम्मद साहब चले गये, नानक साहब चले गये। अधिकतर लोग ऐसे चले गये और जितने गुरुघंटाल आपको बताती हूँ जिन जिन्होंने रुपया लिया, रजनीश, वो दूसरे कौन, ये जो ट्रान्सिडेन्टल सिखाते हैं। ये सब पक्के वेजिटेरियन हैं। पक्के। लहसुन-प्याज भी नहीं खाते। और ये महेश योगी के जो शिष्य हैं उनको अगर लहसुन दिखा दिया तो नाचने लग जाते हैं ऐसे-ऐसे। वो ड्रते हैं साहब। नीम्बू दिखा दिये तो गये। जो सब्जी से डरते हैं ऐसी सब्जी खाने की क्या जरूरत है । वीरों से लहसुन | का काम है। अपने मसल्स बनाने चाहिए। इसका मतलब नहीं कि सब पहलवान हो जाए। फिर वही संतुलन की बात है। संतुलन पे रहिए। आपने देखा होएगा, कहना नहीं चाहिए लेकिन आर्य समाज को, बिल्कुल शाकाहारी लोग होते हैं लेकिन क्या गुस्सा तेज़ होता है, बाप रे! और उनमें से, आर्य समाजिओं 24 में से कोई अगर बुढढा हो गया, वो इतने बोलते हैं कि समझ में ही नहीं आता है कि क्या बोले जा रहे हैं। बोलते जाएंगे, बोलते जाएंगे, बोलते जाएंगे। इतनी एनर्जी ज्यादा हो जाती है उनके अन्दर। ये कहाँ से एनर्जी आती है। ये घास खा-खा करके कहाँ से इतनी एनर्जी आ जाती है। पर इसका ये मतलब नहीं कि कल से आप गोश्त नहीं खाईये, ये मेरा मतलब नहीं। संतुलन होना चाहिए। खान-पीन विचार में हमारा पूरा समय चला जाता है। कुछ न कुछ तरीके से हमने ये बना रखा है। ब्राह्मणों का तरीका है कि, 'भाई, तुम ये नहीं खाओ, वो नहीं खाओ, मैं सब खाऊंगा।' जो गोश्त खाने वाला है, 'तू गोश्त मत खा। तेरा पैसा बचेगा ना! वो मुझको दे।' सीधा हिसाब है। 'तू ऐसा कर हप्ते में चार दिन का उपवास कर, भगवान के नाम पे, एक दिन शिवजी का, एक दिन विष्णु जी का, एक दिन गुरू जी का, एक दिन देवी का, चार दिन उपवास हो गये। पैसे बच गये, चल मुझे चढ़ा। खाना-पीना ऐसा खाना चाहिए कि जो हमारे आत्मा के लिए जो शरीर है उसका पोषण हो। सहजयोग में किसी चीज़़ की जबरदस्ती नहीं खानी-पीना ऐसा है। पर हाँ अपने से बड़े-बड़़े जानवरों को नहीं खाना चाहिए, नहीं तो कल आप घोड़े नज़र खानी चाहिए आईयेगा। कि जो अब दूसरी बात ये कि जो हम कहते हैं कि हिंसक पशु को मारने से हम हिंसा करते हैं । तो फिर कृष्ण की बात आयी कि किसको मारते हैं, इनको तो कभी का मार डाला है हमने । पर इससे भी बढ़ के बात मैं सायन्स की करने वाली हूँ। वो उस खोपड़ी में जल्दी आती है , हमारे आत्मा के लिए कृष्ण की बात समझ में नहीं आयेंगी। वो ये है कि जब आप छोटे प्राणियों का माँस खाते हैं तो उनके शरीर में जो माँस है, उसकी, कहना चाहिए, उसके जो मसल्स है वो हमारे मसल्स के जौ स्नायु के संबंध में आने से उनकी उत्क्रांति हो जाती है। अब ये एक सोच लीजिए कि एक शरी२ है मछली, उसको 'हायर लाईफ' कैसे आयेगी? उसके लिए मसल्स चाहिए वो कहाँ से उसका आएंगे ? एक ये संक्रमण है। जैसे हमारे शरीर में, आपसे बताया था मैंने कि हमारे ब्रेन में सेल्स हैं। अब ये ग्रे सेल्स बदलने के लिए हमको सेल्स चाहिए दूसरे, वो कैसे आएंगे? तो पेट में जो आपकी मेद है याने कि फैट्स है उसको कन्व्हर्ट करके ब्रेन में जाता है। तो आप पोषण हो। कहियेगा, पेट को मार रहे हैं आप ब्रेन के लिए। उसी प्रकार जब किसी जानवर की मसल्स अपने संबंध में आते हैं तो सारी सृष्टि को अगर आप एक सृष्टि समझें और सारे विराट के शरीर को एक शरीर समझें, उसी शरीर में संक्रमण होता है और उनको हायर लाईफ मिलती है। मैं इसलिए कभी-कभी कहती थी कि कितने जानवर इन्सान हो गये कि अब ये न हो तो | अच्छा है! अब क्योंकि रात-दिन हमारी खोपड़ी में यही भरा गया है कि वेजिटेरियन रहने से आप धर्मात्मा हो जाते हैं। मुझे तो एक नहीं मिला। कोई वेजिटेरियन होने से धर्मात्मा हुआ आपको कोई मिला हो तो मुझे दिखा दीजिए। जो-जो जाति हमारे यहाँ वेजिटेरियन हैं वो 25 अत्यंत कृपण, कंजूस नंबर एक और दूसरा पैसे के लिए किसी की भी जान ले ले। नाम नहीं लूंगी मैं, आप जानते हैं। पैसे को ऐसे चिपकते हैं वो, ये कहाँ से आता है? क्योंकि मसल्स कमजोर हैं। किसी - किसी का तो चिपकना ही चाहिए। जो शक्तिशाली होता है वो अपने गौरव में प्राप्त है। हमारे यहाँ कहीं भी ऐसा नहीं लिखा हुआ। ये तो पता नहीं कैसे नई -नई बाते सबने सीखा दी है और मनुष्य उसी रस्ते पे चल दिया। गांधीजी जब कहते हैं कि निर्मलों की क्या हिंसा है? निर्मल क्या हिंसा करेगा ? यही वो कहते थे सबसे पहले अहिंसा करो मनुष्य के साथ| और फिर करो जानवरों के साथ | पहले मनुष्यों के साथ अहिंसा तुम्हारी बंद हो गयी कि नहीं? मतलब ये है कि ये तो होने ही नहीं वाली। तो उधर आप जायेंगे ही नहीं। साफ कहते हैं। उनके साथ में सालों रही हूँ। और हो सकता है उस वख्त जरा गुस्सैल लोगों की जरूरत थी। गुस्सा दिलाने की जरूरत थी। अंग्रेजों को भगाना था इसलिए वेजिटेरियनिझम चला दिया होगा। वेजिटेरियन लोग बड़े क्रोधी होते हैं। ये जो कहा जाता है कि वो बड़े शांत चित्त होते हैं। ऐसा नहीं। क्योंकि जिनके मसल्स ही गड़बड़-शड़बड़ हो उसको तो क्रोध ही चढ़ता रहेगा। किसी ने एक झापड़ मारी तो उधर जा के गिर गये। अब उसको क्रोध चढ़ा कि इसको दो लगाओ तो लगा ही नहीं सकते। हाथ में ताकत नहीं ना ! वो अपने अन्दर ही कुबलता रहेगा कि इसको कैसे खाऊं? और जिसको मारना था, गुस्सा चढ़े तो दो झापड़ मार दो तो गुस्सा निकल जाता काटे है। लेकिन जो झापड़ ही नहीं मार सकता वो गुस्सा खाता ही जाएगा, गुस्सा भरता हो जाएगा, गा जा के कहीं से। आपको कोई मिल जाए वेजिटेरियन शांत चित्त तो उसे लाईये मैं देखना चाहती हूँ। शांत चित्त होना चाहिए। मैं ये नहीं कहती कि नॉन-वेजिटेरियन नहीं होते। वो भी बड़े गुस्सैले हो सकते हैं। पर वेजिटेरियन जो कहते हैं कि वेजिटेबल खाने से हम बहुत गाय जैसे हो जाते हैं तो वो सिंग वाली भैंस जैसी दिखायी देते हैं। कभी भी नहीं दिखते। ये चालीस साल से मैं देख रही हूँ। और उमर तो मेरी बहुत ज्यादा है, मुझे कही नहीं दिखायी दिया। इसलिये इसमें कोई फर्क नहीं खान-पीन पर ज्यादा चित्त नहीं देना चाहिये। दूसरी जो नशिली चीज़ है वो हमारे चेतना के विरोध में बैठती है। वो नशीली चीज़ नहीं लेनी चाहिए। पर ये मैं नहीं कहूँगी नहीं तो आधे लोग उठ के चले जाएंगे। और मैं ये कहँगी कि सहजयोग के बाद आप छोड दें। सब चीज़ का प्रत्यक्ष करना चाहिए, फिर मैं कहती हूं। अपने दिमागी जमा-खर्च से मत सोचो। प्रत्येक चीज़ का प्रत्यक्ष लो। आज सिर्फ ऐसा ही हाथ करने से आपके अन्दर ठण्डी-ठण्डी हवा आती है। और आपको आश्चर्य होगा कि जो नॉन-वेजिटेरियन होते हैं उनके भी कुछ चक्र ऐसे विचित्र पकड़ते हैं, पर जो वेजिटेरियन होते हैं उनका लेफ्ट नाभि जोर से पकड़ता है। जिनकी कोई हद नहीं। नॉन-वेजिटेरियन के भी पकड़ते हैं, पर वेजिटेरियन के भी पकड़ते हैं। ये तो गुरुओं का तरीका ही है। अब ये फौरेनर्स आयेंगे , उनको कहेंगे कि वेजिटेरियन हो जाओ । ये हमें बताया गया कि तुम 26 स्वित्झरलैंड में छ: हजार पाऊँड लिये गये और सब लोग हॉटल में रहे और उनसे कहा गया कि देखो भाई , तुमको एकदम वेजिटेरियन होना है। और तुम्हारे मसल्स ज़रासे ढ़ीले पड़ने चाहिए। तभी तुम हवा में उड़ सकते हो। हवा में उड़ा रहे हैं! और ये गधे लोग छ:-छ: हजार रुपये खर्च कर के गये। छ:-छः हजार पाऊँड, एक पाऊँड माने करीब पंधरह-सोलह रुपये। वहाँ पहुँचे, बता रहे हैं कि उन्होंने ऐसा मेनू बनाया था कि छः दिन तक आलू उबालकर जो पानी होता है वो पानी पीने का। पानी प्राशन! उसके बाद में आलू का छिलका खाने का एक और आखिरी दिन, अगर आप में थोड़ी जान बची रही तो आप आलू खा लीजिये, बगैर नमक के। उसके बाद ऐसे ही हवा में आप उड़ने लग जाएंगे ! और सिर्फ छ: हजार पाऊँड इसकी किमत है। उस पर उनके गुरुजी जो हैं ऊपर बैठकर के उनको हंसी छूटती है कि क्या बेवकूफ बनाया है, क्या बेवकूफ बनाया है। ऐसी बेवकुफी की बाते मैं आपको नहीं बता रही हूँ। 27 पूजा महत्त्व का "पूजा एक बाह्य भेट है, परन्तु पूजा का प्रसाद और आशिष फल किस प्रकार प्राप्त करना है, इस का ज्ञान आपको होना चाहिए। पूजा या प्रार्थना का उदय आपके हृदय से होता है । मन्त्र आपकी कुण्डलिनी के शब्द हैं। परन्तु यदि पूजा हृदय से नहीं की गई और मंत्रोच्चारणा के साथ यदि कुण्डलिनी का सम्बन्ध नहीं जुड़ा तो पूजा केवल कर्मकाण्ड बन कर रह जाती है।' पूजा में निर्विचार हो जाना, पूजा के साथ हृदय का पूर्णतया जुड़ा होना आवश्यक है। पूर्ण निष्कपटता से हृदय के साथ पूजा सामग्री को एकत्रित करें तथा भेंट करें। पूजा में भेट चढ़ाने के विषय में कोई दिखावा या बंधन नहीं होना चाहिए । हाथ धोना ठीक है, परन्तु क्या आपका हृदय १) | भी स्वच्छ है? चित्त जब हृदय पर होता है तो यह अन्यत्र नही भटकता। यद्यपि आप बाहर से शांत होते हैं, आपके अन्तस में द्वन्द चल रहा होता है, अत: अधिक देर तक आपको मौन नहीं रहना है। यदि मनुष्य का हृदय स्वच्छ नहीं है तो मौन अति हानिकारक बन जाता है। परन्तु अवांछित वार्तालाप भी महाविपत्ति का कारण बन सकता है। | पूजा में पूर्ण श्रद्धा से आप मंत्रोच्चारण कीजिए । श्रद्धा का कोई विकल्प नहीं है । गहन श्रद्धा उत्पन्न हो जाने पर ही आप पूजा करें ताकि स्वयं आपका हृदय सारी पूजा को करे । उस समय आशिष लहरियाँ बहने लगती हैं, क्योंकि आत्मा कहती है, "इस समय कोई विचार कैसे आ सकता है?" लोग अपने गिलास में मदिरा उड़ेलते हैं। आपकी पूजा भी उसी प्रकार की है। आपकी श्रद्धा भी मदिरा है, जिसे आप पूजा तथा मंत्रोच्चारण में उड़ेलते हैं। सब कुछ भूल कर जब वह सुरापान आप कर रहे होते हैं, तो किस प्रकार कोई विचार आपको आ सकता है और तब आनन्द का वर्णन शब्दों में कैसे किया जा सकता है ? उस दैवी सुरा को विचाररूपी तुच्छ प्रकार के गिलास में पुन: कौन उड़ेलना चाहेगा? इस दैवी सुरा पान करने का आनन्द सर्वदा विद्यमान रहने वाला तथा शाश्वत है। यही आपका वैभव बन जाता है। मेरी उपस्थिति में ऐसी बहुत सी पूजाएं हो चुकी हैं। हर बार एक महान लहर आकर आपको एक नये साम्राज्य में ले जाती है। ऐसे बहुत साम्राज्यों का अनुभव आपका अपना हो जाता है । यह अनुभव आपके व्यक्तित्व को विशालता प्रदान कर आपके लिये आनन्द के नये द्वार खोल देते हैं । हृदय में करना सर्वोत्तम है। मेरी जिस तस्वीर को आप देख रहे हैं, उसे यदि हृदय- से पूजा 28 गम्य कर सकें या, पूजा के पश्चात इसकी झलक हृदय की गहराईयों में उतार सकें तो वह आनन्द जो आप उस समय प्राप्त करते हैं, शाश्वत तथा अनन्त बन सकता है। योग के विषय में आज मैंने आपको सहज कुछ रहस्य बताने हैं- एक रहस्य यह है कि पूजा के लिए आपको मध्यम प्रकार के लोगों को नहीं लाना चाहिए क्योंकि पूजा को सहन करना अति कठिन है । मेरे अस्तित्व, चरणों तथा कर -कमलों का मूल्य अभी तक लोगों ने नहीं समझा है । वे यहां आने के योग्य नहीं हैं। अत: भाई, बहन या मित्र होने के नाते किसी व्यक्ति को न लाएं । यह अनुचित है। असह्य देकर आप उस व्यक्ति के उत्थान के अवसर बिगाड़ रहे हैं। वह इसे सहन नहीं कर सकता । पूजा बहुत ही कम लोगों के लिए है। अत: याद रखें कि पूजा अधिक लोगों के लिए नहीं है। पूजा वास्तव में प्रोत्साहन देने वाली क्रिया है । यह आपको एक नये साम्राज्य में ले जाती है । वास्तव में यह चमत्कार है । एक बार जब आप पूजा कर लेते हैं तो अपने मौन से भी बहुत सी अभिव्यक्ति कर सकते 29 हैं। आपका मौन भी अत्यन्त शक्तिशाली बन जाता है । पश्चिमी देश के लोगों को विशेषतया अपनी अबोधिता को स्थापित करना है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सबसे पहले इसी पर आक्रमण होता है । बहुत सी दुष्ट शक्तियाँ इस पर आक्रमण करती हैं । अत: हमें अपनी अबोधिता को दृढ़ करना है। यह अत्यन्त शक्तिशाली गुण है। यह कोई बुराई नहीं देखता। अबोधिता कुछ नहीं देखती, केवल प्रेम करती है । बचपन में बच्चा नहीं जानता कि माता-पिता या कोई अन्य बच्चे से घृणा करता है। निष्कपटता पूर्वक बच्चा रहता है । परन्तु अचानक जब उन्हें पता चलता है कि लोग परस्पर प्रेम नहीं करते तो उन्हें सदमा पहुंचता है । अत: पश्चिमी देशों के लिए श्री गणेश अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे ही हर चीज़ के सार हैं। यही कारण है कि सर्वप्रथम हम श्री गणेश की पूजा करते हैं। परमात्मा ने सर्वप्रथम श्री गणेश की रचना की क्योंकि वही उनके सबसे बड़े पुत्र हैं, उनके पहले बेटे हैं। आपके भाईयों में से वे सबसे बड़े भाई हैं और यद्यपि कार्तिकेय को सदा बड़े भाई का स्थान दिया जाता है और गणेश जो स्वयं को छोटा भाई कहते हैं, फिर भी उनका सृजन पहले किया गया था। क्योंकि श्री गणेश सदा शिशुसम हैं इसलिए वे आप सबसे छोटे हैं। समझने की यह अत्यन्त सूक्ष्म बात है कि छोटा होते हुए भी वे इतने विवेकशील हैं । वे साक्षात विवेक हैं। क्या आप इतने बुद्धिमान बच्चे की कल्पना कर सकते हैं? आयु में आप सदा श्री गणेश से बड़े हैं परन्तु विवेक में वे ही सबसे बड़े हैं। इसी तरह से आपको समझना चाहिए कि छोटी -छोटी क्रियाओं से, मंत्रोच्चारण से किस प्रकार हम अपने अन्दर के देवताओं का आह्वान करते हैं क्योंकि आप जागृत हैं, आपका हर शब्द जागृत है, अत: अब आपके मंत्र भी सिद्ध हैं। इस गुरु पूजा पर मैं आपको सिद्ध करने व सिद्धि स्थापना की विधि बताने वाली हूँ । हर चक्र और उसके शासक देवता की सिद्धि प्राप्त करने की विधि । निसंदेह इस गुरु पूजा पर यह कार्य होगा । परन्तु यह पूजा पूरी सूझबूझ तथा पूर्ण मान्यता के साथ इसे परम सौभाग्य मानते हुए होनी चाहिए। सभी देवता और ऋषिगण इस पर ईष्ष्या कर रहे हैं। आपके लिए महान लाभ तथा सौभाग्य है, अत: इसका पूरा लाभ उठायें। बहुत ही छोटी-छोटी चीजें मुझे प्रसन्न कर सकती हैं-आप जानते हैं कि आपकी माँ बहुत ही साधारण चीजों से प्रसन्न हो जाती हैं। कितने हृदय से आपने पूजा की- बस इसी का महत्व है । प.पू.श्री माताजी, १९.७.१९८० आज में आपको पूजा का महत्व बताऊंगी। प्राचीन ईसाई भी "मैरी" की प्रतिमा, तस्वीर या सम्भवत: येशु की माँ की रंगीन शीशे पर बनी आकृति की पूजा - आराधना किया करते थे । परन्तु बाद में जब लोग अधिक तार्किक बनने लगे, और पूजा के के ज्ञानाभाव में महत्व इस महत्व का वर्णन न कर पाये, तो उन्होंने नियमित रूप से की जानी वाली पूजा का महिमा गान त्याग दिया। ईसा के पूर्व भी लोग एक विशेष प्रकार का मण्डप बनाते थे जिसमें जिहोवा की पूजा के लिए भी स्थान बनाया जाता था । अब सहजयोग में जिहोवा सदाशिव हैं तथा माँ मैरी महालक्ष्मी हैं । वे पहले भी अवतरित हुईं। सीता, राधा तथा फिर माँ मैरी के रूप में वे अवतरित हुईं 'देवी महात्म्य' नामक पुस्तक में ईसा के जन्म के विषय में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है। ईसा राधा के पुत्र थे, राधा महालक्ष्मी हैं। अत: डिम्ब (अण्डा) के रूप में एक अन्य अवस्था में उनका जन्म हुआ और आधे 30 अण्ड ने श्री गणेश के रूप में पुन: अवतरण लिया और शेष आधा भाग महाविष्णु, जो कि हमारे भगवान ईसा हैं, के रूप में अवतरित हुआ। महाविष्णु का वर्णन पूर्णतया ज़ीज़स क्राइस्ट का चित्रण है। महालक्ष्मी अवतरित हईं और निर्मल परिकल्पना (इच्छा) से अपने शिशु को जन्म दिया। ऐसा उन्होंने राधा रूप में भी किया था। अत: ईसा महान ईश्वर के (विराट के) पुत्र हैं। वास्तव में विष्णु ही महाविष्णु तथा विराट बनते हैं। अब यह विष्णु-तत्व विराट का रूप धारण करता है और राम, कृष्ण तथा विराट अर्थात अकबर भी बनता है। अत: ईसा स्वयं ओंकार हैं। तथा चैतन्य लहरियाँ भी स्वयं ही हैं। शेष सभी अवतरणों को शरीर धारण करने के लिए धरा माँ का तत्व (पृथ्वी तत्व) लेना पड़ा। ईसा का शरीर पूर्णत: ओंकार है तथा श्री गणेश उनका पृथ्वीतत्व हैं अत: हम कह सकते हैं कि ईसा श्री गणेश की अवतरित शक्ति हैं। यही कारण है कि वे जल पर चल सकते थे। वे देवत्व का निर्मलतम रूप हैं क्योंकि वे केवल चैतन्य लहरियाँ मात्र ही हैं। अत: मेरे साक्षात्-रूप की पूजा जब आप करते हैं तो इसमें अवास्तविक कुछ भी नहीं। ईसा और माँ मैरी के जीवन काल में ही लोगों को उनकी पूजा करनी चाहिए थी। ईसाईयों के दस धर्माचरणों में यह कहा गया है कि जिस का सृजन पृथ्वी तथा आकाश ने किया है उसका पुन: सृजन, पुनरुत्पत्ति और पूजा नहीं की जानी चाहिए । अवतारों का सृजन 31 परमात्मा ही करते हैं। केवल आधुनिक काल में ही अवतरणों का चित्र लेना सम्भव है, पहले इसकी सम्भावना नहीं थी। पृथ्वी माँ द्वारा सृजित का अभिप्राय स्वयम्भु रचनाओं से है। अब स्वयम्भु रचनाएं बहुत स्थानों पर पायी जा सकती हैं। कुछ साक्षात्कारी आत्माओं ने भी सुन्दर प्रतिमाओं की संरचना की है। मैं जब पुर्तगाल गयी तो वहाँ लेडी ऑफ राक्स, चट्टान देवी का उत्सव था। जब मैं उत्सव स्थान पर गयी तो वहाँ पर माँ मैरी की पाँच इंच आकार की, बहुत छोटी सी , प्रतिमा थी जिसका चेहरा ठीक मेरे जैसा था। वहाँ के लोगों ने मुझे बताया कि दो छोटे बच्चों ने खरगोश का पीछा करते हुए इस प्रतिमा को पाया। उन्हें चट्टानों के नीचे खोह में से प्रकाश का आभास हुआ। वे प्रकाश के स्रोत की खोज में लगे रहे और अन्तत: उन्हें प्रकाश का स्रोत यह मूर्ति प्राप्त हुई। उन्होंने इसे बाहर निकाला और इसी के प्रकाश वे गुफा में चलते रहे। बाहर एकत्रित बहुत से लोग यह देख आश्चर्यचकित रह गये। लोग अब उस मूर्ति की पूजा उसी स्थान पर करते हैं। यह प्रतिमा उन्हें ठीक उसी प्रकार चैतन्य लहरियाँ प्रदान करती है जैसे मैं आपको, परन्तु जिस मात्रा में लहरियाँ मैं देती हूँ उतनी यह नहीं दे सकती। हो सकता है कि वहाँ कुछ अन्य प्रतिमाएं भी आपको चैतन्य लहरियाँ प्रदान करें। भारत में भी, आप में से कुछ लोग गणपतिपुले गये। वहाँ महागणेश अर्थात् ईसा स्वयम्भु रूप में पृथ्वी माँ के गर्भ से प्रकटित हुए। महागणेश के शरीर के नीचे का भाग तथा उनका शिरोभाग समूचा पहाड़ है। वहाँ पर समुद्र का पानी भी मीठा है तथा मीठे पानी के कई कुएं भी वहीं विद्यमान हैं। यदि आपको याद हो तो वहाँ कई लोगों ने मेरे चित्र लिए और उनमें से कुछ चित्रों में मेरे हृदय में से प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा है। कुछ लोगों ने मुझे बताया कि कुछ चित्रों में प्रकाश नहीं था लेकिन जब उन्होंने नैगेटिव से पुन: चित्र बनाए तो उन चित्रों में भी प्रकाश पाया गया। में आपको यह अवश्य जानना चाहिए कि दैवी शक्ति के साम्राज्य में विभिन्न प्रकार के चमत्कार होते हैं। ठीक यही बात पूजा में है। जब हम पूजा करते हैं तो सर्वप्रथम श्री गणेश की आराधना करते हैं और इस प्रकार आप अपने अन्दर श्री गणेश को जागृत तथा स्थापित करते हैं। उनके रूप में मेरी पूजा करके आप में अबोधिता प्रतिष्ठित होती है। पर आप देखेंगे कि चैतन्य लहरियाँ बढ़ती हैं, आप अपने अन्दर शान्ति का अनुभव करते हैं। | जब आप श्री गणेश के नामों का उच्चारण करते हैं तो आप उनके गुणों से परिचित होते हैं, जब आप उनके गुणों की आराधना करते हैं तो वे आपके द्वारा अपने गुणों व शक्तियों को प्रस्फुटित करते हैं। इस प्रकार से यह दैवी शक्ति कार्य करती है मानों आपको उन गुणों से प्लावित कर देती है। तब आप आदिशक्ति की आराधना करते हैं। पूजा करने से आदिशक्ति के समस्त (सातों) चक्र जागृत हो उठते हैं तथा इन चक्रों द्वारा वे अपना कार्य कर देते हैं। सृष्टि में पहली बार ऐसा अवतरण हुआ है। यह ठीक उसी प्रकार से है जैसे आप शुरु पहले एक कमरा बनाते हैं फिर दूसरा और फिर तीसरा। इस प्रकार सात कमरे बना कर गृह का निर्माण कार्य पूरा होता है। आपको गृह की कुंजियाँ मिल जाती हैं और आप अपने गृह को खोलते हैं। इसी प्रकार से मैं सामूहिक रूप से आत्मसाक्षात्कार प्रदान करती हूँ। ऐसा होना पहले सम्भव नहीं था लेकिन अब सातों चक्रों के समन्वय से यह सम्भव हो पाया है । और अब आप आदिशक्ति की आराधना कर रहे हैं । मेरा आपके समान मानव-रूप, मेरा महामाया रूप है। मैं आप जैसा व्यवहार करती हूँ और स्वयं को ठीक आप जैसा बना लिया है, यद्यपि यह कार्य बहत कठिन था। आपको सहजयोग समझाने की प्रक्रिया में और आपको आपमें निहित आपकी शक्ति बतलाने में मेरे शरीर को बहुत कुछ सहन करना पड़ता है । अब हम इस समय यहाँ पूजा कर रहे हैं और विश्व भर में सहजयोगियों को इस पूजा का ज्ञान है. 32 পic वे ध्यान मग्न बैठे हैं और इस तरह वे भी आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। इसीलिए हम उन्हें पूजा प्रारंभ होने का समय बता देते हैं। अत: समय पर हमें पूजा में बैठ जाना चाहिए ताकि ध्यान-मग्न हो कर अन्यत्र बैठे सहजयोगी भी आप ही की तरह लाभान्वित हो सकें | यदि अभी तक भी पूजा के महत्व की इन थोड़ी सी बातों के ज्ञान के योग्य आप नहीं हैं तो भी चिन्ता की कोई बात नहीं। आपकी अनभिज्ञता तथा निर्दोष भाव को परमात्मा जानते हैं तथा आपको क्षमा प्रदान करते हैं। विनम्र हृदय नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे आप सब जान जायेंगे । लेकिन यदि आप जान बुझ कर गलती करते हैं तो यह अच्छा नहीं हैं। जैसे हम अपने बच्चों को क्षमा करते हैं वैसे ही परमात्मा भी अपने अबोध बच्चों को क्षमा कर देते हैं। अत: आप इस विषय में निश्चिन्त हो जाइये और हृदय में आनन्द की अनुभूति के लिए पूजा को सहज रूप से कीजिए | से पूजा करते हुए यदि आपसे अनजाने में कोई भूल हो जाती हैं तो आपको दोष - भाव- ग्रस्त | परमात्मा आप पर कृपा करें। प.पू.श्री माताजी, २४.५.१९८६ ाम ी भ 33 NEW RELEASES Lang. Type DVD VCD | ACD Title Place Date ACS 15" Nov.1973 | कुंडलिनी आणि सहजयोग th Sp 272 272 Pune th 18" Dec.1977 | सत्याचा प्रकाश सुरु झाला 558 Mumbai M Sp 20th Mar.1978 | We are all seeking 572 Sp London E 22"" Feb.1979 | सेमिनार nd 573 Rahuri Sp M th 24" Feb.1979 | विज्ञान म्हणजे स्वत:ला शोधून काढणे Rahuri Sp 277 277 rd 23" Mar.1979 | मनुष्य का सूक्ष्म तन्त्र और परम की प्राप्ति Bordi 250 Sp 250 rd 23“ Apr.1979 | Agnya and Lord Christ 559 London Sp 11th Jun.1979 How aspects of God are expressed 560 London E Sp 15h Jun.1979 ||S.Y.Introduction-Higher life 574 London Sp 15h Oct.1979 How Realisation should be allowed to develop London Sp 052 052 08™ Mar.1980 || The Meaning of Sahajyoga 575 London E Sp 21 Jul.1980 st Auspiciousness London E Sp 053 053 27h Sep.1980 | Lethargy, Most Anti-God London 051 Sp 051 19th Oct.1980 | Spreading Sahajyoga in Europe 588 London E Sp 27 Oct.1980 589 What do we expect from realisation London SP 13th Nov.1980 What makes people happy 561* Stanford Sp 20 Nov.1980 | The Myth of Ego 576 London Sp 07 Feb.1981 577 Mainly Nabhi & Void Delhi E SP 07hOct.1981 578* Houston, USA E Sp The Spirit of America 8th Oct.1981 The Beauty that you are 579* Техas E Sp 385 Diwali Puja-The Mahalakshmi Power & the power of water London 580* 1s*Nov.1981 E Sp 581' 31 Dec. 1981 New Year's Eve Talk London Sp 30 Jan.1982 th 582 Solapur Predictions about Shri Mataji's Advent Sp E 29" Mar. 1982 | Reality is what it is 583 London Sp E 07™ Apr.1982 | Mother's wedding anniversary 593" Sp London E 13" May1982 | Left side - Problems of subconscious 584 Brighton E Sp st 21* Jan.1983 Vaitarna Sahajyoga works by keeping mother pleased Sp 591 28h Aug.1983 Krishna Puja:Shri Krishna is the ultimate of fatherhood Switzerland 562* 369* Sp 17" Feb.1985 | महाशिवरात्री पूजा th Delhi Sp 63 Н 63 26"Mar.1985 | जन्मदिन पूजा 585' -th Delhi Sp H th 586* 17"Nov.1985 | Diwali Puja : Lighting the lamps of human hearts Tivoli, Italy Sp/Pu 386 17h Dec.1985 M/H | Sp 268 587 Saptashrungi Puja-Part I & II Nashik 22""Dec.1985 | सार्वजनिक कार्यक्रम : स्व चा धर्म (आत्म्याचा धर्म ओळखावा) Pune 387 391 PP 7" Sep.1986 th San Diago Shri Ganesh Puja Sp/Pu 370° 088 088 14h Aug.1988 | Fatima Bi Puja 038 038 Geneva E Sp th 8™ Aug.1989 Shri Ganesh Puja:Motherly love & vatsalya Les Diablere E Sp/Pu 371* 035 035 19h Aug. 1990 | Shri Krishna Puja 557 Sp/Pu 368' Ipswich E 25" Mar.1991 | राम-नवमी पूजा th 027 Kolkata 070 Sp 070 Н th Innate Maryadas 14" Apr.1991 563 Canbera Sp th 564 17" Apr.1991 Sp/Pu 372' You should not be fundamentalist Sydney 15h Sep.1991 |Ganesh Puja:Shree Ganesha & His qualities 565 Cabella E Sp 09h Feb.1992 Ganesh Puja : Gravity and Balance 566 Perth Sp th 13" Feb.1992 373 Canberra Wear Natural Goods E Sp 14t Feb.1992 You become divine personality 567 374 Melbourne Sp 15th Feb.1992 568 375 Enter the kingdom of God Melbourne Sp E 02nd Mar.1992 569 |You have to come to the collectivity Sp | 376 Sydney 03rd Mar.1992 |Universal understanding 570 377° Sydney Sp 31* May1992| Shri Buddha Puja:The search for the absolute 591* Cambridge Sp E 16th Aug.1992 | Shri Krishna Puja : Collective conditioning 571* Sp/Pu| 378 Cabella th 11" Jul.1993 Paris 033 Devi Puja : Desires, Illusion E Sp 033 th 15" Aug.1993 |Shri Krishna Puja Cabella Sp 059 059 10h Oct.1993 Virat Viratangana Puja Los Angeles E 072 072 Sp 12h Nov.1993 |Diwali Puja 058 Sp Moscow E 058 th Navaratri Puja (innocenceand Enlightened Faith) Cabella 09 Oct.1994 Sp/Pu| 383 479 E th 20“ Aug.1995 Krishna Puja : America & False freedom Sp/Pu| 379' Cabella 122 E 122 Navaratri Puja (Don't reflect but project your depth) Cabella 01*Oct.1995 Sp/Pu| 384 128 128 14" Apr.1996 |ईस्टर पूजा th Kolkata Sp 137 137 Н st 01* Sep.1996 Cabella Sp/Pu 380" Krishna Puja : Shri Krishna and Sahaj Culture 145 145 th 15" Sep.1996 Ganesh Puja : You must fight for innocence Cabella Sp/Pu| 381 146 E th 08™ Jun.1997 168 168 191 191 Krishna Puja : Freedom and lack of wisdom Sp/Pu| 382 New York 25" Mar.1999 |वेळेची हाक -th Sp Pune 25th Mar.00 हमारी आत्मा क्या चीज़ है 388 593* Delhi PP Н List of New Release Subtitle for 1st Oct.2011 Cowley st 31* Jul.1982 Dedication Through Meditation Sp 146 032 E (Eng., Hin., Mar., Guj., Tel., Kan.) Manor Bhajan ACD Sanjay Talwar Samadhaan 175 To Order : You can even place your order through our website : www.nitl.co.in You can even place your order with NITL through telephone, e-mail, Fax. (Numbers given below) प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन ०२० - २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in ॐ रजा Menmas! मापी जलुक २हजयोग में ई-मसीह हमारे अंत्यन्त २हायक ३० हैं। ....ई-मीह हमें इ बात का ज्ञान करवाते हैंकि हम अपने आज़ी चक्रखोलें, इससे ऊपर उठें। यहाँ हम इसे तीसरी आँख कहते हैं। तीरी आँख खुलने का अर्थ यह है कि आपके आज्ञा चक्र पर ईसा-मीह जीगृत हो गये हैं। ---------------------- 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-0.txt हिन्दी नवंबर-दिसम्बर २०११ ी शी 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-1.txt * धर्म की आवश्यकता ...४ * व ...२८ पूजा की महत्त्व वर] 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-2.txt पूजा करने से आदिशक्ति के समस्त (सतों) चक्र जीगृत हो उठते है तथा इन चक्रों द्वारा वे अपनी कार्य शुरु कर देती है। साष्टि में पहली बार ऐस अवत२ण हुआ है। कृपया ध्यान दें : २०१२ के सभी अंकों की नोंदणी सितंबर २०११ की शुरू होकर ३० नवंबर २०११ को समाप्त हो जाएगी] 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-3.txt धर्म की आवश्यकता आत्मा को खोजने वाले सभी साधकों को हमारा प्रणिपात ! आज का स्वर्गीय संगीत सुनने के बाद क्या बोलें और क्या न बोलें! विशेषकर श्री.देवदत्त चौधरी और उनके साथ तबले पर साथ करने वाले श्री.गोविंद चक्रवर्ती, इन्होंने इतना आत्मा का आनन्द लुटाया है कि बगैर कुछ बताये हये ही मेरे ख्याल से आपके अन्दर कुण्डलिनी जागृत हो गई है। सहज भाव में एक और बात जाननी चाहिए कि भारतीय संगीत ओंकार से निकला है। ये बात इतनी सही है, इसकी प्रचिती, इसका पड़ताला इस हुआ प्रकार है कि विदेशों में जिन्होंने कभी भी कोई रागदारी नहीं सुनी, जो ये भी नहीं जानते कि हिन्दुस्तानी म्युझिक क्या चीज़ है या किस तरह से बनायी गयी है। जिनके बजाने का ढंग और संगीत को समझने का ढंग बिल्कुल फर्क है। ऐसे दिल्ली, लोग भी जब पार हो जाते हैं और गहन उतरते हैं, तो आपको आश्चर्य होगा कि बगैर किसी राग को जाने बगैर, ताल को जाने बगैर, कुछ भी जानकारी इसके २३.२.१९८६, मामले में न होते हुए, बस, खो जाते हैं। और जैसे आपके सामने आज चौधरी साहब ने बजाया, जब लंदन में बजा रहे थे, तो घण्टों लोग अभिभूत उसमें बिल्कुल पूरी तरह से बह गये। मैं देखकर आश्चर्य कर रही थी कि इन्होंने कोई राग जाना नहीं, इधर इनका कभी रुझान रहा नहीं, कभी कान पर वे उनके ये स्वर आये नहीं, आज अकस्मात इस तरह का संगीत सुन कर के इनको हो क्या गया है! उसके बाद अमजद अली साहब आये। जो भी शास्त्रीय संगीत का कोई भी गाने वाला या बजाने वाला आता है तो ये बिल्कुल उसमें खो जाते हैं। दूसरी बात ये कि कव्वाली जैसी चीज़ जो कि समझनी चाहिए। एक बड़े भारी, मशहूर कव्वाल पाकिस्तान से आये थे। पता नहीं उन्हें क्या हो गया, मुझे 4 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-4.txt र देखते ही साथ उन्होंने कहा, माँ, आप सामने आकर बैठिये। देखते ही साथ उँचे आदमी थे। अवलिया, निजामुद्दीन और चिश्ती शरीफ के दर्गाह पे लिखी हुई इतनी सुन्दर कव्वाली उन्होंने कही कि हम तो समझ रहे थे लेकिन ये अंग्रेज, जो कि कभी भी इन्होंने कव्वाली नाम की चीज़ कान में नहीं सुनी थी, इनको कुछ मालूम भी नहीं हो रहा था कि क्या ये गा रहे हैं। उसके शब्द भी नहीं समझ रहे थे। और उसमें एकदम से मगन हो रहे थे। इसमें मैं कहूँगी कि गुरुनानक साहब ने बहुत काम किया हुआ है। क्योंकि गुरुद्वारे में, अब तो मुझे पता नहीं क्या हाल है, पर हम जब कभी भी जाते थे तो रागी लोग इतने सुन्दर रागदारी में गाते थे। अब मुझे पता नहीं था आ ई 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-5.txt क्या हाल है। क्योंकि उन्होंने भी इस बात को पहचान लिया था कि हिन्दूुस्तानी संगीत पद्धति में वो विशेषता है। इसी तरह से दक्षिण हिन्दुस्तानी संगीत भी बड़ा ही मनोरम है। लेकिन उसके लिए मैं सोचती हैँ कि हम हिन्दुस्तानी थोडे अडियल ट्ट हैं। कोई सी भी नयी चीज़ सीखना बड़ी मुश्किल हो जाती है। खास करके जिसने कभी शास्त्रीय संगीत सुना नहीं, वो कहता है मुझे नहीं पसन्द आता है ये गाना। बड़ा आश्चर्य है। पार होने के बाद तो ये गाना पसन्द आना ही चाहिए । मैंने भी कभी संगीत सीखा नहीं । हालांकि मेरे घर में बहुत ज्यादा संगीतमय वातावरण रहा, ये तो मैं मानती हूँ। सभी गाने वाले और सभी एक से एक मशहूर लोग हैं। लेकिन एक मैं हूँ कि मैंने कभी गाना सीखा नहीं, कभी बैठ कर के कभी गाना गाया नहीं। तो भी कहूँगी कि ये नहीं कह सकती कि मैंने गाने सुने नहीं क्योंकि बड़े-बड़े लोगों को मेरे पिताजी बुलाते थे और उनके गाने कराते थे। हमने तो ऐसे लोगों को सुना है कि शायद आप लोगों ने सुना नहीं होगा। लेकिन इसका कोई न कोई बड़ा गहरा सम्बन्ध आत्मा से है। | ये तो बजा रहे थे लेकिन जो गाने वाले हैं उनको, उनको भी इसी प्रकार और उनका इतना मान होता है वहाँ, सहजयोगियों में। लेकिन अपने युवा हिन्दुस्तानी लोग जब कोई सा भी म्युज़िक प्रोग्राम अरेंज करते हैं, तो मुझे पता ये हुआ कि वो इन बिचारे आर्टिस्ट लोगों का रुपया मार लेते हैं। माने, उनके अन्दर जरा भी संगीत के प्रति कोई भी आदर नहीं। कुछ हिंदी भाषी लोगों में ये भी जिद होती है कि दूसरे किसी की भाषा ही नहीं सीखनी है। जैसे अंग्रेज का हाल। एक बार आप अंग्रेजी सीख लेते हैं, फिर आप कोई भाषा सीख नहीं सकते। पर अंग्रेज कभी भी दुसरों की भाषा सीख नहीं पाते क्योंकि सब अंग्रेजी बोलते हैं। और अगर बोले भी बड़ी मुश्किल से तो ऐसा लगता है अंग्रेजी ही बोल रहे हैं। ये हिंदी भाषी लोग, अब अगर उन्होंने रागदारी को सुना नहीं तो उन्हें रागदारी पसन्द नहीं आयी। लेकिन इनको देखिये ना ! आपसे भी ज्यादा तादात में लोग वहाँ सुनते हैं इनका संगीत। आशा है आपके भी हृदय के द्वार खुल जाएंगे और आप भी आत्मा के इस झंकार को सुने! मुझे तो ऐसा लगता है कि ये सारा संगीत मेरे आत्मा को झंकारता है। और उसमें झंकार कर, उसकी प्रतिध्वनी आप लोगों तक पहुँच रही है। ये संगीत अपने अन्दर चैतन्य भर के सबमें बहता है । इसमें से चैतन्य बहता है। हमारे पास कितनी गहरी चीज़ है इस देश में। इस गहरी चीज़ को पाना चाहिए। उसको जानना चाहिए। तब आप समझ पाएंगे कि आत्मा की गहराई आपके अन्दर जम गयी है। अहंकार के कारण ही मनुष्य कभी-कभी ऐसी बात कर देता है कि उसके अन्दर आत्मा का जागरण कठिण हो जाता है। कल मैंने आपसे बताया था कि धर्म का महात्म्य क्या है। और आज सबेरे मैंने आश्रम में बताया कि ' सहज धर्म क्या है'। सहज धर्म क्या है? आज आपसे मैं बताने वाली हूँ कि धर्म 6. 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-6.txt की क्या आवश्यकता है और किस प्रकार हम आत्मा को प्राप्त करते हैं। धर्म की आवश्यकता संतुलन के लिए है। आज आपने देखा कि तबले पर वजन, इसे कहते हैं वजन, कितना संतुलित था। हाथ का वजन सितार पर कितना संतुलित था। कहाँ वजन देना है, कहाँ नहीं देना है, कितना उसका अंदाज बराबर है । इसी प्रकार जीवन का भी वजन संतुलित रखना चाहिए। संतुलित रखने के लिए मनुष्य को किसी भी अती पे नहीं उतरना त्व देते हैं, कि उसके लिए कोई चाहिए। कोई है कि अपनी इच्छाओं को इस कदर ज्यादा म सा भी कर्म नहीं करते हैं और कुछ लोग अपने कर्म को इतना ज्यादा मानते हैं कि इच्छाओं की तरफ ध्यान ही नहीं देते हैं। लेकिन जो मनुष्य अपना जीवन संतुलित रखता है, उसके अन्दर इच्छायें भी संतुलित रहती हैं और उसका कर्म भी। जैसे एक उदाहरण के लिए समझ लीजिए कि मैंने ये सोचा कि मैं भी इतना बड़ा हॉल खड़ा करुंगी। समझ लीजिए। अब इतना मेरे पास पैसा वैसा है नहीं और ना जमीन है। तो मैं इतना बड़ा कैसे खड़ा कर सकती हूँ। जौ आढभी पर मैं अगर सोचने लग जाऊं कि नहीं मैं करुंगी ही। अब उसी जिद में मैं पड़ जाऊं, मेरे मन में तुलित होती है, ये इच्छा हो जाए कि मैं जा कर के और गवर्नर साहब के घर में रह जाऊं। तो क्या वो इच्छा पूरी हो जाएगी? लेकिन जब मैं उस कर्म में लग जाऊंगा, तो पता होगा कि ये इच्छा जो मैंने वी काम भी की वो संतुलित नहीं है। क्योंकि जो कर्म में नहीं उतरती है वो इच्छा बेकार है। अच्छा अब दूसरे लोग जो होते हैं अती कर्मी। जैसे कि इस दिल्ली में बहुत सारे हैं। कारण ये | कर सकती है, सरकारी नौकरी जो करने निकले। तो सुबह के गये हुए रात को ग्यारह बजे तक जब तक नहीं आएंगे, तो सोचते ही नहीं कि उन्होंने अफसर को दिखाया कि हम काम करते हैं और अफसर बढ़िया काम लोग सोचते हैं कि जब तक वो एक बजे तक रात में दफ्तर में नहीं बैठेंगे तब तक मिनिस्टर कर सकती है साहब मानेंगे ही नहीं कि वो काम करते हैं। पागल जैसे बिल्कुल काम में लगे रहे, काम में लगे रहे, काम में लगे रहे। और अपनी दूसरी जो इच्छायें है, जिम्मेदारियाँ हैं, जैसे अपनी बिवी है, बच्चे हैं और पहचान वाले दोस्त आदी हैं। अरे, 'हमारा किसीसे मतलब नहीं। हम तो शहीद आदमी, हम तो काम करेंगे।' ऐसे लोग, मैंने देखा कि चालीस साल भी जी ले तो नसीब की बात समझ लीजिए। पर पैंतालीस के बाद कोई नज़र नहीं आने वाला। लेकिन जो आदमी संतुलित होता है, वो काम भी अच्छा कर सकता है, बढ़िया काम कर सकता है, एफिशिअन्ट भी होता है और उसका बुढ़ापा भी अच्छा कटता है। लेकिन आप ऐसे अनेक लोग पाइयेगा कि जो पागलों की तरह काम पर लगे रहते हैं। और काम जितना हो रहा है अपने देश में, उसके बारे में जितना कहा जाए उतना ठीक है। और सब | लोग काम बहुत करते हैं। मुझे तो कोई काम दिखाई नहीं देता। जो जहाँ खुदा पड़ा है वहाँ व 7 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-7.txt खुदा पड़ा है। जो बिगड़ा पड़ा है, बिगड़ा पड़ा है। एक हम बचपन में खेलते थे खेल, उसका नाम था 'जहाँ पड़ी वहाँ सड़ी', वो चीज़ अपने देश की है। लेकिन अपने यहाँ जितने लोग काम करते हैं, उतने तो कोई भी देश में लोग नहीं काम करते। और सबसे इनएफिशिअन्ट देश है अपना। उसकी वजह ये है कि एक हद तक पहुँचने पर ये कर्म करने वाला भी थक जाता है। उसको दूसरी साइड भी देखना चाहिए, तब फिर इसे झाँकना चाहिए अपने इच्छाओं में। अगर मुझे संगीत सुनने की इच्छा है और मेरे पास टाइम नहीं तो मैं नीरस हो जाऊंगी! मेरा यह जीवन एकदम नीरस हो जाएगा। 8. 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-8.txt जैसे आजकल आपने देखा होगा पागलों की तरह लोग रास्ते में दौड़ते हैं। जॉगिंग करते हैं। ऐसे बहुत से लोग इनमें से मैंने देखे, वो आ के मुझे बताते हैं कि, 'माँ, हम तो स्थितप्रज्ञ हो गये।' मैंने कहा, 'कैसे ?' 'मेरी माँ मर गयी, तो भी आँसू नहीं आयें । बहुत मेरे बच्चे मर गये मुझे कुछ परवाह नहीं। मेरी बिवी मर गयी मुझे परवाह नहीं। 'वा, े!' ये स्थितप्रज्ञ की भाषा कहाँ से आ गयी। इतने नीरस हो जाते हैं, फिर अपने यहाँ हटयोगी होते हैं जो सिर के बल खड़े होते हैं। और बहुत ज्यादा राइट साइडेड। आज सर के बल खड़े हये, तो पता नहीं कल क्या आंतडी निकाल देते हैं पेट में से। मुझे तो घबराहट हो जाती है, इसको देखते हुये कि बाप रे बाप, अब क्या होने वाला है? अब उसमें जो लग गये तो इतने ज़्यादा इसमें घुस जाएंगे कि ये नहीं सोचेंगे कि ये हम किसलिए कर रहे हैं ये। पागलों की तरह उसमें भी लग गये। और उसमें संतुलन न होने की वजह से ऐसे लोगों को हार्ट अटैक बहुत जल्दी आ सकता है। और सबसे बड़ी बात तो ये होती है कि इनका हार्ट ही पत्थर हो जाता है। ऐसे घरों में हमेशा डिवोर्स होंगे, बिवी से झगड़े होएंगे। उनकी कोई भी चीज़ अच्छी नहीं रहती, वो बिल्कुल हुनुमानजी का अवतार हो जाते हैं । उनको दूर ही से बात करना ठीक है, अगर सो रहे हो, जगाना हो तो एक लकड़ी से जगाईये उसे नहीं तो वो आपको ठिकाने लगायेंगे। और जो दफ्तर में इतना ज़्यादा काम करते हैं, वो भी क्रोधी होते हैं। कारण ये कि दफ्तर में तो साहब हमेशा बिगड़ते रहता है। वो सारा बहुत आ कर के बिवी पर बिगड़ना, उसपे चीखना- चिल्लाना शुरू हो जाता है। क्योंकि 'मैं काम कर रहा हू। ये एक सर्वसाधारण बात मैंने आपसे कही। लेकिन धर्माचरण जो है उसमें भी हम अतिशयता जब करते हैं और लेफ्ट में बहत चले जाते हैं तो, अब भक्ति में लग गये तो क्या कि वो ६५ मर्तबा हाथ धोएंगे और ८० मर्तबा पैर धोएंगे । सहजयोग में भी कुछ- कुछ लोग ऐसे पागलों की तरह करते हैं। मैं देखती हूँ कि मैं भाषण दे रही हूँ और अपने | चक्र चला रहे हैं पागलों की तरह। सर पे वो दे रहे हैं, बन्धन दे रहे हैं। अरे, इसकी कोई जरूरत है? हम बैठे हैं न सामने! इसको ठीक कर रहे हैं, उसको ठीक कर रहे हैं। ये | अतिशयता जो है इसे छोड़ देना, बीचो-बीच रहना। अब कोई अगर बहुत ज़्यादा ये सोचे कि, 'मैं तो साहब, किसी काम का नहीं हूँ।' खास कर शराब पीने वाले लोग। शराब पीने वाले हमेशा रोते रहेंगे और कहेंगे कि, 'साहब, मुझसे दुःखी कोई नहीं।' सब दुनिया इनको देख-देख के दुःखी होती है। अब ऐसे लोग लेफ्ट में चले गयें । ऐसे लोगों को भूत पकड़ लेते हैं, भूत। जो अपने को कहता है कि, 'मैं बड़ा बूरा हूँ।' मैंने बूरे काम किये तो सारे बूरे काम वाले आपके खोपड़ी पर आ के बैठ जाएंगे। और जो राइट साइड में बहुत | 9. 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-9.txt जाते हैं इनको भी एक तरह के भूत ही पकड़ते हैं। और उनको राक्षस कहिए । जैसे कि हिटलर ने राक्षस बिठाये थे जर्मन लोगों के लिए। वो राइट साइड़ेड (मूवमेंट?), कि हमसे बढ़ के कोई नहीं। हम सबसे महान है और हम चाहे सबकी गर्दन काटे। इस तरह से आँखों पे खून चढ़ जाता है और फिर वो जिसको चाहे उसको मारते फिरते हैं। उनको लगता है, 'ठीक है, हमको मारना ही चाहिए।' इस प्रकार के दो तरह के विक्षिप्त लोग अतिशय में आते हैं और जो अतिशयता अगर ज़्यादा हो जाये तो मनुष्य के लिए बड़ी हानिकारक है। तो मनुष्य को बीचो-बीच रहना चाहिए, संतुलन में रहना चाहिए। ये धर्म है। अब इस धर्म का आलंबन क्यों? क्योंकि जो चीज़ आकाश में उड़ना चाहती है, उसमें अगर संतुलन नहीं हो, किसी अगर एरोप्लेन में संतुलन न हों । एक ही उसमें विंग हो, तो वो दो मिनट में ठिकाने लग जाता है, जब उड़ने लगता है। इसलिए जब मनुष्य में संतुलन होता है, तो कुण्डलिनी बहुत आसानी से उठ जाती है। हमारे सर में जैसे मैंने बताया था कि दो संस्थायें हैं । जिसे हम मन और अहंकार कहेंगे, लेकिन अंग्रेजी में इसे इगो और सुपर इगो कहते हैं। ये दोनों की दोनों जा कर के हमारे सर में इस तरह से एक के ऊपर एक चढ़ जाती है, तब हमारी तालू जो है एकदम से कैल्सिफाइड हो जाती है। ये दोनों ही चीजें, दो प्रकृतियों में से निकलती है, एक तो जड़ प्रकृति और एक अॅक्टिव, कार्यशील प्रकृति। और ऐसा कहिये आप कि जिसे हम तमोगुणी कहते हैं और एक रजोगुणी। इन दोनों की वजह से ये दो संस्थायें इन तैय्यार हो जाती हैं और जब ये एक के ऊपर एक कोई सी भी ज़्यादा चढ़ जाती है तो आप समझ सकते हैं कि कुण्डलिनी का बाहर निकलना और भी कठिन हो जाता है । अब जब कुण्डलिनी का जागरण होता है, जो कि शुद्ध इच्छा है। तो कुण्डलिनी इन चक्रों से गुजरती हुई हर एक चक्र को पूरी तरह से आलोकित करती हुईं आखिर ब्रह्मरन्ध्र में आती है और यहाँ पे भेद करके और यहाँ से बाहर निकलती है। जैसे ही आज्ञा चक्र पे कुण्डलिनी जाती है, शुद्धि से शुरू होता है पर आज्ञा पर पहुँचने के ही साथ हमारी ये जो दोनों संस्थायें हैं अन्दर की तरफ खींच जाती है। इन दोनों चक्रों में विशेष शक्ति है कि ये इन दो संस्थाओं को अन्दर की तरफ खींच लें, उसका शोषण कर ले , उसको सुखा दे। उसके कारण तालू के यहाँ जगह हो जाती है और उसमें से कुण्डलिनी बाहर निकलती है। अब आत्मा के बारे में हमने सुना है कि आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप है। सत्, चित् और आनन्द। अभी भी अहंकार बहुत ज़्यादा है यहाँ बैठा हुआ। सतु, चित् और आनन्द ये आत्मा का स्वरूप माना जाता है। सत्य है, वो सत्य नहीं, जिसे हम सोचते हैं कि ये सत्य है। सोच कर के जो जाना गया सो सत्य नहीं। क्योंकि विचार एक भ्रामकता है। हम उसमें छिपाव कर सकते हैं। उसमें हम कुछ तो भी ऐसी चीज़ रख सकते हैं कि आप समझ ही नहीं पाएंगे कि यह सच्चा है कि झूठा है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों फिर इस तरह के झूठे गुरू लोग इतने पनपते हैं! दुनिया में कितने झूठे लोग संसार में कितना ज़्यादा 10 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-10.txt आक्रमण कर रहे हैं। कितनी बड़ी जगह पे लेकर बैठे हैं। ये कैसे घटित होता है ? ये क्यों घटित होता है? वजह ये है कि हमको केवल सत्य मालूम नहीं। हम जानते नहीं कि सत्य क्या है? अब समझ लीजिए कि हम आपके सामने कुछ भी कह रहे हैं, भी कह रहे हैं। क्या ये हम सत्य कह रहे हैं या असत्य कह रहे हैं। क्या आप कह कुछ सकते हैं कि हम बिल्कुल सत्य कह रहे हैं? सत्य के सिवा हम कुछ नहीं कह रहे हैं। और यही केवल सत्य है। नहीं कह सकते! हो सकता है कि हम भी कोई झुठला रहे हों। हो सकता है! ये भ्रम बना ही रहेगा। कब तक? जब तक आप अपनी आत्मा को प्राप्त नहीं करते। जब आपकी आत्मा आपके अन्दर जागृत होती है तो नस- नस में वो शक्ति बहती है, जिसे चैतन्य कहते हैं। जिसके द्वारा आप जान सकते हैं कि ये सत्य है कि असत्य है। जैसे अभी आपको डॉक्टर साहब ने बताया कि उन्होंने सत्य को किस तरह से जाना। आप भी सत्य को तभी जान सकते हैं जब कुण्डलिनी का जागरण हो कर के आप निर्विकल्प में समा जाते हैं। उससे पहले आपको हाथ इस्तेमाल करने पड़ते हैं। जहाँ आप देखते हैं कि इस ऊँगली में आ रहा है और इसमें नहीं आ रहा है। तो क्या हो गया ये तो आज्ञा की उँगली है। आज्ञा की उँगली है? तो इसका मतलब ये कि मुझे अहंकार हो गया है। अब आ के साफ कहेंगे कि, 'माँ , मेरा आज्ञा ठीक कर दो। मेरा अहंकार ठीक कर दो।' और आप सोचे कि किसी आदमी से अगर कह दीजिए, काफी दूर खड़े हो कर के भी कि, 'तुझे अहंकार हो गया।' तो हो गया फिर आपका कल्याण! पर स्वयं ही मनुष्य आ कर के आपसे कहेगा कि, 'अरे बाप रे! ऐसा मेरा आज्ञा पकड़ रहा है।' क्योंकि जो अहंकार एक बार सुखावह लगता है, आनन्ददायी लगता है, 'हा, हा, क्या कहने, हमको हार पहनाया है। बड़ी हमारी सबने, बड़ी वाह-वाह करी। हमारा जय जयकार हुआ।' इससे जो आदमी बहुत खुश हो जाता है, वो पार होने के बाद उसका सर दुखने लग जाता है। जैसा ही उसका अहंकार चढ़ जाएगा, 'अरे बापरे! इतना सर में दर्द हो रहा है माँ, मेरा तो आज्ञा चढ़ गया। तो वो भागता है ऐसी चीज़ों से जो उसे अहंकार देता है। वो फिर प्रयत्न करता है कि 'किस तरह से मैं अपने अहंकार को न बढ़़ने दूँ। ये मेरे अन्दर जैसे गये घोड़े कोई एक बलून बैठ गया है। जरासा कोई अच्छा शब्द कहता है फट् से चढ़ जाता है। 'अहा! चढ़ पर, चलो, उतरो।' उससे पहले आदमी ये नहीं जानता कि वो अहंकार में बैठे हैं। जब उसका अहंकार उसे दुःख देगा तभी वो समझेगा। इस अहंकार की पीड़ा सिर्फ आप आत्मसाक्षात्कार के बाद ही जानियेगा। अब देखिये, कि अगर मनुष्य का अहंकार टूट जाए इसी तरह से तो दुनिया में अमन और चैन हो जाएगा और शान्ति आ जायेगी। दुनिया में बहुत लोग हाथ जोड़ के बात करेंगे कि, 'साहब, मैं क्या कहूँ। मैं तो आपके चरणों की धूल ही हूँ। और अहंकार का इतना बड़ा बोझा सर पर ले कर के और ऐसे इससे बात करेंगे कि मनुष्य सोचेगा कि, 'अहाहा, क्या नम्र मनुष्य है। लेकिन एक आत्मसाक्षात्कारी ही जानता है कि कौन असल में नम्र है, फिर चाहे वो चिल्ला-चिल्ला कर डाँट भी रहा हो। तो भी वो जानेगा कि ये नम्रता से ही डाँट रहा है। अहंकार का काम दसरों का नाश करना है। लेकिन वो अपने को भी नाश करता है। तो सत्य को मनुष्य जानता है अपने आत्मा के प्रकाश में और वो देखता है कि मेरे अन्दर यह अहंकार है जिसे वो त्याग दे। 11 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-11.txt इसलिए कहा जाता है कि सत्य स्वरूप आत्मा है। आत्मा का ये प्रकाश है जिसमें मनुष्य सत्य को देखता है। किसी ने पूछा, 'साहब आपने कैसे जाना हमें ये बीमारी है?' कैसे जाना? हमारे आत्मा के प्रकाश में। हमारे आत्मा के प्रकाश में आप आ गये और हम जान गये कि आपको क्या शिकायत है। यहाँ बैठे-बैठे आप किसी के बारे में भी जान सकते हैं, अगर आप आत्मासाक्षात्कारी हैं तो, कि उनका क्या हाल है। एक दिन निक्सन साहब के बारे में मैंने कहा कि, 'जरा निक्सन का हाल तो देखो क्या हो रहा है।' सहजयोगी ने हाथ किया, 'माँ, ये क्या हो रहा है। हमारे तो सारे हाथ झपझप हुए। मैंने कहा, 'मैं समझ गयी थी इसलिए मैंने कहा कि पता कर लूं, तो बाद में तुम्हें समझ आयेगा।' मुझे तो समझ आ गया था लेकिन मैंने कहा ये भी देखें। सारी दुनिया का पता लग सकता है, सत्य का भी, अगर आप आत्मा के प्रकाश में जागृत है तो। अब हमारे यहाँ भारतीय भूमी पर बहुत सारे स्वयंभू स्थान हैं। आप आत्मा के प्रकाश के बगैर कैसे जानियेगा कि ये स्वयंभू है या झूठी? क्योंकि जो स्वयंभू स्थान होगा वहाँ से जैसे इन्होंने कहा वहाँ से कूल ब्रीज आने लग जाती है। और जब आपको कुछ हुआ ही नहीं है, आपकी आँखे ही नहीं है, आप कैसे जानियेगा हाथ में कूल ब्रीज आ रही है। केवल सत्य जानने के लिए, केवल आत्मा होना चाहिए। आज का सहजयोग इस प्रकार हमने बाँधा है कि किसी तरह से थोड़ी सी तो भी रोशनी इनके अन्दर आ जाए। थोड़ी सी, धूंधली सी भी आ जाए। कुछ सफाई की जरूरत नहीं। कंदील को पहले सफाई करने की जरूरत नहीं। उसको करते- करते जनम बीत जायेंगे। अब पहले इनके कंदील में दीप जलाओ फिर ये खुद ही देखेंगे कि इस कंदील में यहाँ से दाग है, वहाँ से दाग है, खुद साफ कर लेंगे। जब आत्मा का प्रकाश आता है और मनुष्य जब आत्मा से निगडीत हो जाता है, आइडेंटिफाइड हो जाता है, तो वो देखता है कि मेरी आत्मा का प्रकाश इसलिए नहीं जा रहा है क्योंकि मेरा कंदील जरा खराब है, इसको जरा साफ करो और उस कंदील 12 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-12.txt 13 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-13.txt के प्रकाश में ही उसका शरीर, उसका मन, उसकी बुद्धि, अहंकारादि जितने भी दोष हैं सब एक साथ साफ हो सकते हैं। कोई कहे कि अंधेरे में आप कपड़ा धोईये, तो कोई नहीं धो सकता। तो सर्वप्रथम ये जानना चाहिए कि अभी तक तुमने सत्य को जाना नहीं है इसलिए आत्मासाक्षात्कार के बगैर हम सत्य को जान नहीं सकते। आजकल लोग लड़ते हैं, इश्यूज के लिए कि चलिए अब यहाँ पे न्यूक्लिअर वॉर होने वाला है। उसके लिए आप झगड़ा करें कि न्यूक्लिअर वॉर नहीं होना चाहिए। फिर और कुछ उठा लेंगे। इस तरह से एक-एक, एक-एक चीज़ बना के उसको ले कर के लोग झगड़ते हैं। लेकिन ये बनाया किसने है न्युक्लिअर वॉर, मनुष्य ने.... अगर मनुष्य ही परिवर्तित हो जाएगा तो न्युक्लिअर वॉर कहाँ से रह जाएगा ? और अगर मनुष्य परिवर्तित नहीं होगा तो परमात्मा भी उसको बचाने के लिए क्यों सोचेंगे ? बेकार की अगर घरे में ऐसे दीप आप जानते हैं, जो हम जलाते हैं दिवाली के रोज, वो मिट्टी के दीप टूटे-फूटे होते हैं, उनको फेंक देते हैं। उनको कौन जी से लगा के रखेगा? लेकिन अगर ऐसे दीप तैयार हों कि जो निरंतर जलते रहें तो सारा संसार बच सकता है। कहते हैं कि अगर साड़ी का एक छोर भी बच गया तो सारी साड़ी बच सकती है। इसी प्रकार थोड़े से सहजयोगी भी इस संसार को बचा सकते हैं। न्युक्लिअर वॉर को खत्म कर सकते हैं। सारे वातावरण को वो सम्भाल सकते हैं। पर वो एक दशा आनी पड़ती है, जब तक वो दशा नहीं आती, जब तक इतने लोग यहाँ नहीं होते तो ये कार्य बढ़ नहीं सकता। जो लोग सहजयोग में आते हैं सिर्फ लेक्चर सुनने और चले जाते हैं उनको पता होना चाहिए कि उनको खबर हो गयी है.... थोड़ासा सुन भी लिया और थोड़ेसे पार भी हो गये लेकिन वो अगर उसमें उतरे नहीं तो इस संसार में जो कुछ भी होगा उसके वो जिम्मेदार है । अभी मैं किसी के घर खाना खाने गयी थी, वहाँ एक प्रोफेसर साहब आये, कहने लगे कि, 'अगर माताजी आये तो मैं दर्शन के लिए आता हूँ।' दर्शन के लिए पहुँच गये। और मैंने देखा कि बस वो दर्शन कर के बहुत खुश हो गये। अब हो गया दर्शन। हिंदी के प्रोफेसर हैं वो। मैंने कहा कि, 'साहब, क्या आप कबीर पढ़ाती हैं क्या यहाँ?' 'अधिकतम कबीर पढ़ाती हूं।' 'कैसे पढ़ाती हैं आप कबीर ?' 'अब जो लिखा है वो पढ़ाती हूं।' 'अरे', मैंने कहा, 'उस कबीर को समझाने के लिए आपको अभी सात जनम लेना होगा। ये तो बात है कहीं। मैंने कहा, 'आत्मसाक्षात्कार ले लो इसी जनम में समझा दो।' लेकिन वो नहीं। उनको टाइम नहीं है नं! तब उस जमाने में टाइम तो होना चाहिए था? क्योंकि वो लोग सब स्ट्राइक पे थे। एक स्ट्राईक से इतना फायदा तो हो ही जाना है कि कोई लेक्चर-वेक्चर में तो आ ही जाते हैं ये लोग। लेकिन उनको टाइम नहीं। क्योंकि एक इश्यु ले लिया और उसके पीछे हम लड़ रहे हैं। ये आत्मा का जागरण मनुष्य को अत्यंत शान्ति प्रदान करता है। क्योंकि सर में कोई विकल्प नहीं रह जाता। अन्दर से मनुष्य एकदम शान्त हो जाता है। जैसे कि आपने एक रथ का चक्का देखा होगा कि रथ का चक्का परिधि पे, सर्कम्फरन्स पे घूमते रहता है। लेकिन इसका जो बीचोबीच का मध्यबिन्दु है 14 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-14.txt उसको तो पूरी तरह से स्थित होना पड़ता है। Steady होना पड़ता है, नहीं तो चल ही नहीं सकता है। जब आप पार हो जाते हैं तो उस मध्यबिन्दु में आप उतर जाते हैं जहाँ खड़े होकर आप देखते हैं सारी परिधि घूम रही है और आप शान्त हो जाते हैं। आप किसी भी चीज़ से विचलित नहीं होते। आप देखते हैं सारा नाटक और आप विचलित नहीं होते हैं, आपमें साक्षीस्वरूपत्व आ जाता है। जैसे कि उठते हुए पानी में और गिरती हुई लहरों में मनुष्य घबड़ा जाता है, लेकिन नांव में बैठने के बाद वो देखता है गौर से उसे? इसी प्रकार मनुष्य जब आत्मा की नांव में बैठ जाता है, तो वो किसी चीज़ से विचलित नहीं होता। उसमें शान्ति की स्थापना होती है। अन्दर की शान्ति से ही बाह्य की शान्ति आने वाली है और बाह्य की शान्ति से ही अन्दर की शान्ति है क्योंकि बाह्य में जो शान्ति बनायी गयी है ये सब कृत्रिम है, आर्टिफिशिअल है। हम लोग कहते हैं चीनी-हिन्दी भाई - भाई । है क्या भाई आज ! आज एक मनुष्य जब दूसरे का मुँह नहीं देखते। पहले सीख लो और जो दुनिया में आयें वो हिन्दुओं के रक्षण के आत्मा की लिए आयें। अब एक-दूसरे का मुँह नहीं देखते। सब दोस्ती कैसे खत्म हो गयी ? क्या हो गया है हमको? क्या भूल गये? वजह ये है कि सबको जोडने वाला जो एक सूत्र है वो ये आत्मा जांव में है। या कहना चाहिए कि वो सूत्र ये कुण्डलिनी है। और आत्मा उसके अन्दर एक मणिस्वरूप बैठ जाती है, है। इस सूत्र को इस मणि में पिरोया गया। और जब सभी एक है तब लड़ाई किससे होने की हैं? तौ वो तो दूसरी जो हमारे अन्दर स्थिति आती है, जो सत्य है, वो ये है कि हम सामूहिक चेतना किसी चीज़ से में जागृत हो जाते हैं। सामूहिक चेतना का मतलब कलेक्टिव कॉन्शसनेस। माने हमारी जो....., मनुष्य की जो चेतना है वो उसी में है । ये असीम की चेतना अन्दर आ जाती है कि विचलित आप अपने उंगलियों पे जान सकते हैं कि दूसरे आदमी को क्या परेशानी है और आपको क्या नहीं होता। परेशानी है। यहाँ बैठे-बैठे, जैसे मैंने कहा आप निक्सन का हाल जान सकते हैं। उसी प्रकार आप हर एक के बारे में जान सकते हैं और हर एक को ठिकाना लगा सकते हैं। माने बुरे मार्ग नहीं, अच्छे मार्ग है। ये जो आपके अन्दर नवीन चेतना का आयाम, डाइमेन्शन आ जाता है, उस आयाम को पाना ही हमारे उत्क्रान्ति माने इव्होल्युशन का चरम लक्ष्य है। अमीबा से जो आज आप इन्सान बने हुये हैं, वो इसलिए कि इस आखरी चरम लक्ष्य को आप पा सके। इसलिए आत्मसाक्षात्कार होना, ये हमारा हक ही है और ये हमारा चरम लक्ष्य भी है। तिसरी चीज़ की जो चित्त होता है ऐसे आदमी का या ऐसे इन्सान का जिसमें आत्मा का जागरण होता है, वो चित्त समय पर, उसी क्षण पे ठहरा रहता है। ये नहीं अगली, पिछली बात कुछ नहीं सोचता, उस क्षण खड़ा है। जैसे अब आप मेरे सामने बैठे हैं, आप मेरे सामने 15 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-15.txt चित्रवत खड़े हैं। अब मैं सब आपको देख रही हूँ, मुझे मालूम है कि आप कौन है, कहाँ बैठे हैं, क्या हैं? कभी भी मैं आपको देखूंगी तो जान जाऊंगी कि आप कहाँ बैठे थे, कौनसी साड़ी पहनी थी, कौनसे कपड़े पहने थे, किस ढंग से बैठे थे, क्या है? जैसे कि कोई कैमेरा नहीं होता है, ऐसे चित्र सा मन में खींच जाता है। और जिसे देखना नहीं चाहिए वो बिल्कुल ही नहीं देखता है। तो आपका जो चित्त है वो जागृत हो जाने की वजह से अपने आप धर्म जागृत हो जाता है। ये धर्म है, ये चित्त स्वरूप हमारे उदर में पेट में फैला है। क्योंकि चित्त की जागरणा होती है, मनुष्य जो चीज़ देखता है वो चाहें दूसरा न देखें। लेकिन वो देखता भी है, जानता भी है और समझता भी है, इसके अलावा वो करामाती भी है। उसका इलाज भी कर सकते हैं। जब आपके अन्दर ये सारी शक्तियाँ हो सकती हैं विराजमान, तो क्यों न अपने चित्त को आलोकित कर ले । जब कि दिप भी है, दिया भी है और ये चित्त की फैली हुई आभा भी है। इस चित्त के बारे में न जाने हमने कितने लेक्चर दिये होंगे। हो सकता है आप लोग जब मन्दिर पर आईयेगा तो इन टेप्स को सुनियेगा और जानियेगा। सहजयोग में शुरुआत में जब लोग आते हैं, उनको सब कुछ एक साथ नहीं बतानी है। हालांकि सारा के सारा आपको बताने का है मुझे और पूरे पूरा अधिकार आपको देने का है । जितनी भी हमारी शक्तियाँ हैं वो सारी की सारी के आपको देनी है । लेकिन सर्वप्रथम धीरे-धीरे कदम रखिये । बहुत से बातों का बोझा आप से पहले आपको परिपूर्ण किया जाएगा और आप उठा नहीं पाएंगे। इसलिए सूझबूझ धीरे-धीरे जब अपने कदम बढायेंगे तब आपके सामने सारा सत्य प्रकट होगा। और उसको फिर, आप उसकी प्रचिति आप कर सकते हैं। उसका पड़ताला ले सकते हैं कि बात ठीक है। आप उसकी जाँच कर सकते हैं। पर सबसे महान चीज़ जो आत्मा की है वो आनन्द। वो भी केवल आनन्द है। सुख और दु:ख दो चीज़ एक ही रुपया के दो चेहरे हैं। कभी सुख तो कभी दु:ख, दु:ख तो कभी सुख। मनुष्य सोचता है ये क्या तमाशा है! जब आत्मा की बात होती है तो केवल आनन्द होता है। लेकिन जब आपका अहंकार तृप्त होता है तो सुख लगता है और जब अहंकार दुखता है और या तो प्रति अहंकार, मन तो में दुःख लगता है। सीधि बात है, चाहे इस घड़े में पानी कुछ दु:ख हो जाता है डालिये, चाहे इस घड़े में पानी डालिये, जिस घड़े में पानी है वहीं उसका असर दिखाई देगा। लेकिन केवल आनन्द की ये दशा होती है कि जहाँ सुख और दु:ख दोनों की ओर देखा जाता है। जैसे कोई नाटक होता है नं! नाटक को देखते-देखते कभी-कभी लोग सोचते हैं कि हम ही शिवाजी महाराज हैं। तलवार निकालने लग जाते हैं। बाद में होता 'ये तो नाटक था। हम तो नाटक देख रहे थे।' इसी प्रकार आपके नाटक टूट जाते हैं। 16 - ह পic 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-16.txt और फिर सिर्फ आनन्द रहता है। आनन्द में मनुष्य विभोर रहता है। उसमें सुख और दु:ख की भावना नहीं। आनन्द एक तिसरी दशा है, जिसके लिये मैंने आपसे कहा कि, जिन्होंने कभी भी संगीत को सुना नहीं । जो जानते नहीं कि रागदारी क्या है! वो कहते हैं कि माँ ये आनन्ददायी चीज़ है। किसी खूबसूरत चीज़़ को देखिये । तो हो सकता है आपको ऐसा लगेगा कि मैं खरीद लूं। ये कितने पैसे की आयी है? कितने को खरीदी ें े 17 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-17.txt गयी? कोई न कोई विचार मनुष्य करेगा। किसी भी वस्तु पर पड़े, किसी भी मनुष्य पे पडे। कहीं अपना जहाँ चित्त गया उसका लौटना होता है विचारों में। लेकिन ये तो निर्विचार स्थिति है। अभिभूत हो के आप देखे जा रहे हैं। जैसे आप समझ लीजिए एक सुन्दर सी चीज़ रखी हुई है यहाँ पे मिट्टी की बनी हुई। इसको मैं बस देख रही हूँ। इसको बनाने वाले ने जो भी इसमें आनन्द डाला है, वो मेरे अन्दर ऊपर से नीचे तक झरझर बह रहा है। संगीत को भी मैं निर्विचार सुन रही हूँ। इसमें जो कलाकार आनन्द भरने का प्रयत्न कर रहे हैं, वो पूरा का पूरा, सारा निराकार स्वरूप आनन्द मेरे अन्दर झरझर-झरझर बह रहा है। जैसे गंगा में नहा रही हूँ। तब मनुष्य आनन्द में विभोर रहता है। लेकिन वो पागल नहीं हो जाता। बहत से लोग सोचते हैं कि जब आदमी पार हो जाता है तो पागल जैसे रस्ते में....... बिल्कुल पूरे होश में रहता है। जितना होश आत्मसाक्षात्कारी को होता है, उतना किसी को हो ही नहीं सकता। वो पूरे होश में सतर्क, उसको हर चीज़ मालूम है। वो ये जानता है कि कौन सी चीज़ शुभदायी है और कौनसी अशुभ क्योंकि फौरन उसको परेशानी हो जाएगी। किसी जगह जा कर लगेगा कि कुछ अशुभ हो रहा है यहाँ पर, छोड़ दीजिए। शुभ- अशुभ का विचार ही हमारे अन्दर नहीं है। ऐसा आदमी किसी भी घर में चला जाए, घर में शुभ होता है। से लोग कहते हैं कि, 'माँ, जबसे मैं सहजयोगी हो गया, मेरे घर में सब अच्छा ही हो रहा है। बहुत सब अच्छा ही हो रहा है। क्योंकि आप स्वयं शुभ हो गये। शुभ एक ऐसा वातावरण है जो एक आत्मसाक्षात्कारी मनुष्य के कारण वातावरण का आया हुआ सारा कुशुभ बह निकलता है और अशुभ छूट जाता है। ये एक आनन्द की लहर हाथों में बड़ी जल्दी आ जाती है। क्योंकि वो सोचते नहीं हमारे यहाँ जब सहजयोग शुरू होता है तो पहले सवाल होगा कि पहले जो थे उन्होंने क्यों नहीं किया ? आप क्यों कर रहे हैं? आप ही इसे क्यों कर रहे हैं? ऐसे नानाविध विचार दिमाग में आते हैं। वो नहीं तो बैठे - बैठे ये सोचेंगे कि भाई, माताजी कह तो रहे हैं, पर पता नहीं ये है क्या चीज़। इसको पता हुआ लगाना चाहिए कि माताजी के बाप कौन थे ? उनकी माँ कौन थीं ? उनके भाई कौन थे ? तिसरे लोग आयें, घड़ियाँ देखेंगे। कितना बज रहा है? अब कब जाएंगे घर ? अरे, घर तो रोज ही जाते हो बेटे। आज अगर यही रहेगा तो क्या हर्ज हैं? हम तो चार महीने से घर नहीं गये वापस| आप ही लोगों के सेवा में घूम हैं। तो वो इतमिनान जिसे कहते हैं जिन्दगी का, बैठे हुए हैं आप आराम से। अब एरोप्लेन पकड़ना है। अभी एअरोप्लेन आया नहीं, घर में भगदड़ मच गयी। जाना है, जाना है, जाना है। सब लोग आफत में है। पर एक आत्मसाक्षात्कारी देखता रहेगा कि ये क्या पागलपन हो रहा है साहब। प्लेन तो देर से आने वाला है। यहाँ से भागते-भागते वहाँ पहुँचे, पता हुआ कि प्लेन तीन घण्टे लेट है, बैठे रहे। लेकिन एक आत्मसाक्षात्कारी जानता है कि प्लेन लेट है। हँसता है और 'चलो, यहाँ बैठे हैं, ऐसे ही वहाँ जा के बैठ जाएंगे। पागल लोगों को कौन कहेंगे? अपना सुनेगा थोडी ही, छोडो।' 18 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-18.txt इस तरह से मनुष्य की जो अनेक विशेष शक्तियाँ बह निकलती हैं क्योंकि उसकी कुंठा, उसका सप्रेशन खतम हो जाता है। विचारों की वजह से हमारी शक्तियों का जो चलन है वो रुक गया है। नहीं तो इतने आप शक्तिशाली हैं कि यहाँ खड़े-खड़े आप कह दें कि जो भी चाहे कह सकते हैं । हमारे एक शिष्य या बेटे कहिए, बम्बई में है। वो एक मछली पकड़ने वाले के खानदान के हैं। पढ़े-लिखे आदमी है। एक दिन उनकी इच्छा हुई कि दूसरे टापू में जा करके सहजयोग पे भाषण दें। उन्होंने खबर भेज दी कि मैं आने वाला हूँ। जब समुद्र पे पहुँचे तो देखते क्या हैं कि सब तरफ से तुफान खड़ा हुआ है। और अभी बरसात होने वाली है। और बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है। पता नहीं उनको क्या हो गया, खड़े हो के कह दिया, 'खबरदार, मेरे जाने तक बरसायें तो।' वो लोग जो उनके साथ थे, बताने लग गये कि उन्होंने खड़े होकर कह दिया। ये बोट में बैठे। जब दूसरी जगह देखा तो सारे बादल झट कर विचारों गये। एकदम वहीं रुक गये। ये सही बात है। मैं तो कुछ कहती भी नहीं हूँ, अपने बारे में। ये की व्जह से कैमेरा जरुर कह देता हैं मेरे बारे में। ये दगाबाज़ है। अभी ये गणपतिपुळे का फोटो आया। भाई, मैं अपने बारे में कुछ कहती हूँ क्या आपसे, 'कोई मैं हूँ करके।' ये लोग, बोलने दीजिए। तो इतना बड़ा सूरज यहाँ मेरे हृदय पे है। अब मैं हमारी शक्तियों का क्या करु? सबके पास फोटो है। हाथ ऐसा किया , तो इसपे इतना बड़ा सूरज । ऐसे हाथ किया जौ चलन तो यहाँ से रोशनी निकल कर के ऐसी धारायें निकल जा कर के ॐ लिख रही है । वहाँ जेर्मेट में एक गणपति है, मातर हॉण्ड करके, माँ का श्रृंग करके। उस जगह कुछ लोग गये थे, है के पूजा के दिन। रुकते आकाश में एक बादल आ गये। वो बादल, उनको अजीब विष्णुमाया वी रक सा लगा इतना प्रकाश में और उसमें से ऐसी धागे निकल कर के दूसरे दो बादल आ गये। मैंने कहा, 'चलो, इसके फोटो ले लें। ऐसे तो हमने बादल देखे नहीं। कोई बादलों का फोटो तो लेता नहीं।' वो बादलों के फोटे लिये उसके अन्दर मेरा पूरा फोटो, यहाँ तक मेरे नाक की गयी है चीज़, दात में ये जगह, वो से लेकर पूरा मेरा फोटो है। अब अगर किसी अकलमंद को दिखाया, तो वो कहेगा, 'इसमें आपने कुछ गड़बड़ी करके फोटो बनाया है।' इसलिए ये बताना ही ठीक नहीं है । शक्की , झक्की , भक्कीओं से कभी भी भिड़ना नहीं चाहिए। तीन जाति ऐसी हैं उनसे ही रहें । वो आदत से लाचार हैं। इस प्रकार अनेक तरह के फोटो, जैसे दूर अभी एक फोटो आया । उसमें मेरे अनेक हाथ दिखाई दिये। मैंने कहा ये कैमेरा है कि तमाशा है, हर चीज़ में मुझे झुठला देता है। मैं तो कहती हूँ कि मैं सर्वसामान्य आप ही के जैसी हूँ। एक जगह एक छोटे से स्कूल में बैठ कर भाषण दे रहे थे। वहाँ 'मियाँ की टाकरी', उसका नाम है। मैंने कहा, 'यहाँ कोई बड़ा भारी संत हो गया। तो कहने लगे कि, 'उनका नाम 19 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-19.txt मियाँ था। हो गया है।' मैंने कहा, 'ठीक है।' भाषण देते-देते मेरे ऊपर सात बार लाइट की वो आयी, पर मैंने किसी से बताया नहीं कि लाइट आ रही है। मैंने कहा, 'अच्छा, अब बस करो, बस करो।' ऐसा मैंने कहा। वो सारा का सारा इस कैमेरे ने पकड़ लिया। एक महाशय बैठे ह्ये थे। शायद पूजा हो रही थी। वो हमारे सामने से गुजर गये। उनके थ्रू हम कैमरे में आये, ये बात सही है। इस तरह की अनेक बाते होती रहती है। ये तो रही कैमरे की बात। लेकिन जो दूसरे आश्चर्यजनक बातें हमारे जीवन में होती रहती हैं, उससे मनुष्य फिर सोचता है कि कुछ तो सच्चाई है। झूठा नहीं है ये। ये कुछ गलत बात नहीं है। चलो, फिर ठीक है। अब इसपे चलते चलो। फिर धीरे-धीरे चलता है। आनन्द के सागर तक पहुँचने में कुछ-कुछ लोगों को पाँच से दस साल तक, बारह साल तक, किसी-किसी को तो चौदह साल लग गये। लेकिन एक देहात का सहृदय आदमी उठता है और चला, कूद पड़ा उसपे। 'अरे माँ, हम तो खो गये अब हम हैं कहाँ जो कुछ कहें!' ये बड़े भाग्यशाली लोग अपने देश में, करोड़ों ऐसे बैठे हुए हैं। अब दिल्ली में कोशिश कर रहे हैं। देखो, कितनों की अकल ठीक बैठती है। हाथ जोड़ के सबसे यही कहना है कि अपने आत्मा का प्रकाश पाओ। कहाँ समय बर्बाद कर रहे हो । ये समय फिर आने वाला नहीं। ये घड़ियाँ लगा कर के आप जो टाइम देख रहे हो वो इसलिए कि ये समय बचाने का है। इसलिए नहीं कि बॉल रूप में जा कर डान्स करो और सिनेमाओ में बैठकर, आज सबने कहा , 'माँ, देर से प्रोग्राम करना लोग टी. व्ही. देखते हैं।' सच बात है मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। परमात्मा को खोजने वाले लोग हिमालय पे जाते थे। और आज आपके घर ही गंगा बहके आई हैं। अगर आप इसका स्वीकार नहीं करेंगे तो इसका दोष मुझपे तो नहीं आ सकता! इस आनन्द की राशि को, इस सम्पत्ति को, सम्पदा को आप अगर नहीं स्वीकार करना चाहते हैं तो कोई जबरदस्ती तो ठूस नहीं सकते लेकिन सबूरी शब्द इस्तेमाल किया है, हमारे शिर्डी के साईनाथ ने। सब्र चाहिए। हमें सब्र है, आपको भी अपने लिए सब्र चाहिए। वही सबूरी नहीं। हर आदमी बहुत बिज्ञी है। क्या कर रहे हैं साहब ? एक दूसरे का सर फोड़ रहे हैं। यहाँ आप क्या कर रहे हैं? शराब खाने में बैठे हुए हैं। इससे भी कोई भला काम कर रहे होंगे। पता नहीं उससे भी और भी भला होंगे ही काम? जो आदमी इस तरह से, इन चीज़ों में लूटा लेता है। ये समय बहुत ही महत्वपूर्ण है।अपना समय बर्बाद होगा। और जब मेरे ऊपर बात आती है तो हर आदमी पहुँच गया मेरे घर पे। मैंने कहा, 'घर पे आओ, मैं होशियार औरत हूँ। मैंने कहा घर पे आईये। मैंने ये नहीं कहा था आपसे मिलुंगी।' घर पे आईये माने ये कि वहाँ आप बैठ के ध्यान करिये। वहाँ चार और सहजयोगी होंगे , वो आपको देखेंगे । तो, 'माताजी हमसे क्यों नहीं मिले?' अरे, मिल के बहुत क्या करना है? क्या मिलने वाला है आपको मेरे से। ये तो अंतरयोग है ना! उससे मिल के क्या होने वाला है ? मैं कोई मिनिस्टर हूँ कि मुझसे मिलना चाहते हैं। मुझसे मिलना है तो अपने सहस्रार पे मिलो। बाहर में मिलना है, ऐसा तो बहुतों से हुआ। सब बेकार ही लोग हैं । लेकिन जो मुझे सहस्रार पे मिलेगा 20 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-20.txt वही कहेगा कि, 'माँ ने कुछ दिया मुझे।'... डॉ.वॉरन साहब भी नाराज हो गये| कहने लगे, 'मैं दिल्ली में नहीं कुछ काम करता।' कहने लगे कि, 'महाराष्ट्र में सब लोग आते हैं, बस, एक फूल रख दिये और चल दिये। पता ही नहीं चलता कि कौन सहजयोगी कहाँ बैठे हैं।' यहाँ तो आये और हमारा हक तो दो। मैंने सोचा कल युनियन बनाके ना आ जायें कि, 'माँ, तुमने हमें हक दिया नहीं। क्या भाई, हम सबसे आप मिली नहीं।' संसार में हम आपसे मिलेंगे । लेकिन चोटी पर। चोटी पर मिलेंगे आपसे| वहाँ पा लीजिएगा व्यर्थ की बातों में और व्यर्थ के झगड़ों में मत फँसिए। ये सब चक्करबाजियाँ हम ही चलाते हैं। इसलिए इन चक्करों में आप मत आईयेगा। माँ आज मिली नहीं तो रुठ के बैठ गये। जो बेकार लोग हैं उनको बाहर फेंकने का एक बड़ा अच्छा तरीका है हमारे पास में। जो आयें उसे न मिलो, वो दूसरे दिन आता ही नहीं भगवान की कृपा से। ये भी चक्कर चलाते हैं, ये मैं आपसे फिर बताती हूँ। क्योंकि बेकार लोगों पे मुझे सर नहीं खपाने का है । तो किस तरह से उनको भगाया जाए। सच्ची बात मैं आपसे बता दूँ, मैं माँ हूँ, झूठ क्यों बोलू! तो जो आये उनको मिलो नहीं । उनमें से जो सच्चा होगा वो कल आयेगा, नहीं तो नहीं आयेगा । तुझे मुझे आपसे वोट नहीं लेना, कुछ नहीं लेना। सिर्फ मुझे आपको परखना है। परखने का और तरीका बता दीजिये आप मुझे कोई है क्या? बगैर परखे तो गुरु लोग तो कुछ नहीं देते थे। वो तो उल्टा टाँगते थे, फिर कुएं में उतारते थे, चार-पाँच मर्तबा नहलाते थे। दो-चार झापड़ लगाते थे । फिर गधे पे बिठाते थे। पता नहीं क्या-क्या करते थे। पढ़ियेगा तो आश्चर्य हो जाएगा। एक साहब को एक गुरु मिला तो उसको खड्े में गिरा दिया, उसकी दोनो टाँगे तोड़ डाली। उसकी टंगड़ियाँ गले में डाल के मेरे पास आया। मैंने कहा, 'ये क्या भाई?' कहने लगा, 'माँ, थोड़ी तुम्हारी निंदा करी।' मैंने कहा, 'मेरी क्या निंदा करी तुमने उनसे?' तो मैंने उनसे कहा कि, 'माँ तो जिसको देखो उसको, हर नत्थु-खैरे को भी पार करा देती हैं। ये मैंने आपकी निंदा करी। तो ये गुरु ने मेरी टाँगे तोड़ दी।' तो मैंने कहा, 'अब क्या और कहा?' कहने लगे, 'जाव वो माँ के पास वही तुम्हारी टाँगे ठीक करेगी, मैं नहीं करने वाला।' मैंने कहा, अच्छा भाई , मैं ठीक कर देती तेरी टांगे, अब मत जाना वहाँ।' तो गुरु लोग तो, जो असल गुरु होते हैं, पहले से ही उधर से पत्थर फैंकते हैं। जब आप पच्चीस पत्थर खा लेंगे तब कहेंगे, 'अच्छा आ जा बेटा, एखाद आ जाय तो अच्छा है।' अब माँ क्या करेगी? असल रुप को पकड़ने के लिए तरीका यही अच्छा होता है कि भाई, माँ मिलती नहीं है। जिसको आना है आये। और जो असल होता है बस वो आ के बैठ जाता है ध्यान में, आनन्द में डूब जाता है। जिसको गरज नहीं है उसके पीछे दौडने वाला सहजयोग नहीं है। परमात्मा कोई आपके चरण छू के नहीं कहेगा कि आप सहजयोग में आ जाईये। आपको हम पार करा देते हैं। अब तो ये भी सोचा है कि मंदिरो में जब लोग आये तो चाय-पानी कुछ न कुछ खर्चा करना चाहिए। नहीं तो लोग आते ही नहीं। हे भगवान! नहीं तो लोग यहाँ आयेंगे ही नहीं जब तक भोजन नहीं होगा तब तक भजन भी नहीं होगा। पर ऐसे लोगों को भोजन देके भी, भजन सुनाने से भी कोई लाभ तो नहीं होने वाला है, कोई पार तो नहीं होने वाला है, कोई सहजयोगी तो नहीं 21 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-21.txt होने वाला है। अपने यहाँ युद्ध में बहुत से बजार वाले भी जाते थे । लेकिन सहजयोग के में बजार वाले नहीं चलने वाले। जैसे कि कहा है रामदास स्वामी ने, 'त्याला युद्ध पाहिजेत जातीचे।' इसको चाहिए जिसमें जान है। वीरों का काम है। मूरखों का, बूढों का, अहंकारिओं का ये कार्य नहीं है सहजयोग। ये समझ लेना चाहिए। आप लोग आये हैं सर आँखों पर। पार हो जाईये और अपने गौरव में और अपने शक्तियों में। बेकार समय बर्बाद किया। पहले १-२ महीने जरा मेहनत करने पे आप बहुत आसानी से मात कर सकते हैं। कोई इसमें बहुत तकलीफ नहीं है। कोई पैसा नहीं है। कोई ऐसी चीज़ नहीं है। अपने आप आपका जीवन सुरघटित हो जाएगा। आपकी बीमारियाँ भाग जाएंगी। लेकिन सबुरी चाहिए । जैसे कल एक साहब, 'मेरी बिवी की तो तबियत भी ठीक नहीं हुई। एक दिन वो आयें हो गया। आज कह रहे थे कि तबियत ठीक हो गयी। हाँ, भाई, किसी में एक-दो दिन लग भी जाय तो क्या है? थोडी सबूरी चाहिए। और वर्तमान में रहने का प्रयत्न करें । वर्तमान में रहने का प्रयत्न करिये। निर्विचार में रहने का प्रयत्न करें। बस बहुत आसान तरीके हैं। और इन आसान तरीकों से अगले वक्त जितने आज आप यहाँ बैठे हये हैं सबके सब एक महान वृक्ष की तरह गुरु बनके आप बैठे। मैं आप सबको वंदना करुंगी। एक माँ की यही इच्छा है कि जो कुछ हमारा सब है आप लोग ले लीजिए। हमारे लिए हमारा सब व्यर्थ है। अगर आपके अन्दर ये चीज़ नहीं आये तो हमारा भी जीवन व्यर्थ है। आज कोई प्रश्न-वश्न पूछना नहीं है शायद? मैंने आपसे पहले भी कहा था कि जिस आदमी को जो चीज़ माफिक होती है वो खाना चाहिए। लेकिन अपने से जो बड़े जानवर हैं उनको मारके खाने से आपके भी मसल्स वैसे हो जाते हैं। आपसे जो छोटे जानवर हैं उनको तभी खाना है जबकि आपको उसकी जरूरत है। और उनको खाने में कोई भी दोष नहीं है। हमारे यहाँ राम खाते थे, कृष्ण खाते थे और बुद्ध भी खाते थे। बुद्ध मरे कैसे आप जानते होंगे कि एक जंगली सुअर को मारके किरात लाये थे, वो उनके शिष्य थे और बुद्ध उनके यहाँ गये और कहने लगे कि, 'मुझे ये जल्दी से खाना बना दो।' उनका कि अभी तक जब तक ये थोडी देर नहीं बीत जाती तो ये गोश्त बनाना ठीक नहीं और इससे नुकसान हो जाएगा। लेकिन उनको जाने का था। जल्दी में कहा, 'भाई जैसा भी है दे दो।' उसीसे वो मर गये। तो बुद्ध ने गोश्त नहीं खाया ऐसा जो लोग कहते हैं ये गलत बात है। ये नहीं मैं कहती कि सहजयोग में सबने गोश्त खाना ही है। लेकिन नानक साहब खाते थे। तो क्या वो इन पाखण्डी लोगों से बत्तर थे, जो कि गोश्त नहीं खाते मनुष्य की जान खाते हैं? और ये भी सोचो कि ये जो मूर्तियाँ हैं उनको मैं क्या रिअलाइझेशन देने वाली हूँ। लोग तो ऐसे भी हैं कि जो कीड़े- 22 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-22.txt मकोडों को बचाते हैं और ब्राह्मणों को पैसा दे देते हैं कि उसको खटमल खायें ! वो ब्राह्मणों को पैसा दे देते हैं कि अच्छा चल भाई कि तेरा खून खा लिया तुमने खटमल बचा लिया। भैय्या खटमलों को बिठाऊंगी मैं यहाँ? कुछ अकल से काम लीजिए। मैंने गीता पर कह दिया है कि कृष्ण ने कोई ऐसी अहिंसा कही नहीं है । उन्होंने तो कहा है कि तु मार। अपने गुरु को भी मार, अगर वो अधर्मी है तो । तो इस तरह के जो अपने दिमागी जमा -खर्च 23 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-23.txt बना रखे हैं कि साहब, अहिंसा माने खटमलों को बचाना। तो एक साहब कहने लगे कि, 'माँ, जब तक आप लोगों को ये नहीं कहेंगी कि आप शुद्ध शाकाहारी हो जाईये तब तक सहजयोग नहीं चलेगा ।' मैंने कहा, 'कल लोग आ के कहेंगे कि खटमल को बचाईये। तो भी मैं करुं?' और देवी के लिए अगर आप कहे कि वेजिटेरियन हो जाये तो रक्तबीज का रक्त कौन पियेगा? आप लोग? और उस महिषासुर को कौन मारेगा? आप लोग? अहिंसा का झंडा लेने वाले सबसे बड़े अहिंसक होते हैं। मैंने तो अधिकतर ऐसे ही देखे हैं। गांधी आश्रम में मैं भी बहुत साल रह चुकी हूँ। और मैं जानती हैँ कि वहाँ के लोग तो ऐसे कि उनको आप उंगली भी नहीं लगा सकते, एकदम आग! आग की तरह गुस्से ले लो। इस तरह की भ्रामक कल्पनायें न रखें। और बहुत से लोग ये सोचते हैं कि बहुत सी बीमारियाँ इसलिये हो जाती है कि आप ये जानवर खाते हैं, वो जानवर खाते हैं। उल्टी बात है। अपने देश में कुछ लोगों को जरूरी है कि प्रोटीन खायें, प्रोटीन फूड कमजोर हो गये हैं। जिससे अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं, अगर आप प्रोटीन नहीं खायेंगे तो। आपने खायें। उनके मसल्स जो हैं देखा है वो सफेद दाग आ जाते हैं बदन पर, ये ज्यादा तर वेजिटेरियन लोगों को होता है। क्या वजह है ? उनके अन्दर प्रोटीन नहीं है। तो उनका लिवर जो है लिथार्जिक हो गया| और जरा सी उनके अन्दर बाधा आ जाएगी या पोस्टमैन तेल वरगैरा ऐसा कोई तेल उसका खायेंगे, मूँगफली का तो उनको वो सफेद दाग आ जाएंगे । ऐसे लोगों का इलाज ही है कि वो प्रोटीन खायें, तो फिर सोयाबीन खायें, खाईये । हाँ क्योंकि कोई-कोई लोगों में ये है कि बचपन से कभी खाया नहीं है इसे, तो छोड़िये इसे लेकिन अंग्रेजों से मैं कहती हूँ कि तुम लोग वेजिटेरियन हो जाओ क्योंकि वो बड़े आततायी लोग हैं। सब पे जबरदस्ती करते हैं। ये थोड़े वेजिटेरियन हो जाये तो अच्छा है। ऐसा भी हो जाए तो बहुत ही अच्छा है। लेकिन क्या हो जाएंगे वेजिटेरियन? यहाँ बैंगन आपको पचास रूपये सेर मिलता है, वहाँ क्या करियेगा ? और ये सोचना चाहिए कुछ-कुछ ऐसे देश हैं कि जहाँ बिल्कुल भी सब्जी नहीं है| जैसे कि ग्रीन-लैण्ड है वहाँ बिल्कुल सब्जी का एक पत्ता भी नहीं आता। तो क्या परमात्मा ने ऐसा अन्याय किया हुआ है कि इनसे पाप ही करा रहे हैं। अगर सबसे बड़ा पाप ये है कि आप गोश्त खायें । ये किसने धारणा दी आपको? इसमें इसामसीह साहब चले गये, महम्मद साहब चले गये, नानक साहब चले गये। अधिकतर लोग ऐसे चले गये और जितने गुरुघंटाल आपको बताती हूँ जिन जिन्होंने रुपया लिया, रजनीश, वो दूसरे कौन, ये जो ट्रान्सिडेन्टल सिखाते हैं। ये सब पक्के वेजिटेरियन हैं। पक्के। लहसुन-प्याज भी नहीं खाते। और ये महेश योगी के जो शिष्य हैं उनको अगर लहसुन दिखा दिया तो नाचने लग जाते हैं ऐसे-ऐसे। वो ड्रते हैं साहब। नीम्बू दिखा दिये तो गये। जो सब्जी से डरते हैं ऐसी सब्जी खाने की क्या जरूरत है । वीरों से लहसुन | का काम है। अपने मसल्स बनाने चाहिए। इसका मतलब नहीं कि सब पहलवान हो जाए। फिर वही संतुलन की बात है। संतुलन पे रहिए। आपने देखा होएगा, कहना नहीं चाहिए लेकिन आर्य समाज को, बिल्कुल शाकाहारी लोग होते हैं लेकिन क्या गुस्सा तेज़ होता है, बाप रे! और उनमें से, आर्य समाजिओं 24 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-24.txt में से कोई अगर बुढढा हो गया, वो इतने बोलते हैं कि समझ में ही नहीं आता है कि क्या बोले जा रहे हैं। बोलते जाएंगे, बोलते जाएंगे, बोलते जाएंगे। इतनी एनर्जी ज्यादा हो जाती है उनके अन्दर। ये कहाँ से एनर्जी आती है। ये घास खा-खा करके कहाँ से इतनी एनर्जी आ जाती है। पर इसका ये मतलब नहीं कि कल से आप गोश्त नहीं खाईये, ये मेरा मतलब नहीं। संतुलन होना चाहिए। खान-पीन विचार में हमारा पूरा समय चला जाता है। कुछ न कुछ तरीके से हमने ये बना रखा है। ब्राह्मणों का तरीका है कि, 'भाई, तुम ये नहीं खाओ, वो नहीं खाओ, मैं सब खाऊंगा।' जो गोश्त खाने वाला है, 'तू गोश्त मत खा। तेरा पैसा बचेगा ना! वो मुझको दे।' सीधा हिसाब है। 'तू ऐसा कर हप्ते में चार दिन का उपवास कर, भगवान के नाम पे, एक दिन शिवजी का, एक दिन विष्णु जी का, एक दिन गुरू जी का, एक दिन देवी का, चार दिन उपवास हो गये। पैसे बच गये, चल मुझे चढ़ा। खाना-पीना ऐसा खाना चाहिए कि जो हमारे आत्मा के लिए जो शरीर है उसका पोषण हो। सहजयोग में किसी चीज़़ की जबरदस्ती नहीं खानी-पीना ऐसा है। पर हाँ अपने से बड़े-बड़़े जानवरों को नहीं खाना चाहिए, नहीं तो कल आप घोड़े नज़र खानी चाहिए आईयेगा। कि जो अब दूसरी बात ये कि जो हम कहते हैं कि हिंसक पशु को मारने से हम हिंसा करते हैं । तो फिर कृष्ण की बात आयी कि किसको मारते हैं, इनको तो कभी का मार डाला है हमने । पर इससे भी बढ़ के बात मैं सायन्स की करने वाली हूँ। वो उस खोपड़ी में जल्दी आती है , हमारे आत्मा के लिए कृष्ण की बात समझ में नहीं आयेंगी। वो ये है कि जब आप छोटे प्राणियों का माँस खाते हैं तो उनके शरीर में जो माँस है, उसकी, कहना चाहिए, उसके जो मसल्स है वो हमारे मसल्स के जौ स्नायु के संबंध में आने से उनकी उत्क्रांति हो जाती है। अब ये एक सोच लीजिए कि एक शरी२ है मछली, उसको 'हायर लाईफ' कैसे आयेगी? उसके लिए मसल्स चाहिए वो कहाँ से उसका आएंगे ? एक ये संक्रमण है। जैसे हमारे शरीर में, आपसे बताया था मैंने कि हमारे ब्रेन में सेल्स हैं। अब ये ग्रे सेल्स बदलने के लिए हमको सेल्स चाहिए दूसरे, वो कैसे आएंगे? तो पेट में जो आपकी मेद है याने कि फैट्स है उसको कन्व्हर्ट करके ब्रेन में जाता है। तो आप पोषण हो। कहियेगा, पेट को मार रहे हैं आप ब्रेन के लिए। उसी प्रकार जब किसी जानवर की मसल्स अपने संबंध में आते हैं तो सारी सृष्टि को अगर आप एक सृष्टि समझें और सारे विराट के शरीर को एक शरीर समझें, उसी शरीर में संक्रमण होता है और उनको हायर लाईफ मिलती है। मैं इसलिए कभी-कभी कहती थी कि कितने जानवर इन्सान हो गये कि अब ये न हो तो | अच्छा है! अब क्योंकि रात-दिन हमारी खोपड़ी में यही भरा गया है कि वेजिटेरियन रहने से आप धर्मात्मा हो जाते हैं। मुझे तो एक नहीं मिला। कोई वेजिटेरियन होने से धर्मात्मा हुआ आपको कोई मिला हो तो मुझे दिखा दीजिए। जो-जो जाति हमारे यहाँ वेजिटेरियन हैं वो 25 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-25.txt अत्यंत कृपण, कंजूस नंबर एक और दूसरा पैसे के लिए किसी की भी जान ले ले। नाम नहीं लूंगी मैं, आप जानते हैं। पैसे को ऐसे चिपकते हैं वो, ये कहाँ से आता है? क्योंकि मसल्स कमजोर हैं। किसी - किसी का तो चिपकना ही चाहिए। जो शक्तिशाली होता है वो अपने गौरव में प्राप्त है। हमारे यहाँ कहीं भी ऐसा नहीं लिखा हुआ। ये तो पता नहीं कैसे नई -नई बाते सबने सीखा दी है और मनुष्य उसी रस्ते पे चल दिया। गांधीजी जब कहते हैं कि निर्मलों की क्या हिंसा है? निर्मल क्या हिंसा करेगा ? यही वो कहते थे सबसे पहले अहिंसा करो मनुष्य के साथ| और फिर करो जानवरों के साथ | पहले मनुष्यों के साथ अहिंसा तुम्हारी बंद हो गयी कि नहीं? मतलब ये है कि ये तो होने ही नहीं वाली। तो उधर आप जायेंगे ही नहीं। साफ कहते हैं। उनके साथ में सालों रही हूँ। और हो सकता है उस वख्त जरा गुस्सैल लोगों की जरूरत थी। गुस्सा दिलाने की जरूरत थी। अंग्रेजों को भगाना था इसलिए वेजिटेरियनिझम चला दिया होगा। वेजिटेरियन लोग बड़े क्रोधी होते हैं। ये जो कहा जाता है कि वो बड़े शांत चित्त होते हैं। ऐसा नहीं। क्योंकि जिनके मसल्स ही गड़बड़-शड़बड़ हो उसको तो क्रोध ही चढ़ता रहेगा। किसी ने एक झापड़ मारी तो उधर जा के गिर गये। अब उसको क्रोध चढ़ा कि इसको दो लगाओ तो लगा ही नहीं सकते। हाथ में ताकत नहीं ना ! वो अपने अन्दर ही कुबलता रहेगा कि इसको कैसे खाऊं? और जिसको मारना था, गुस्सा चढ़े तो दो झापड़ मार दो तो गुस्सा निकल जाता काटे है। लेकिन जो झापड़ ही नहीं मार सकता वो गुस्सा खाता ही जाएगा, गुस्सा भरता हो जाएगा, गा जा के कहीं से। आपको कोई मिल जाए वेजिटेरियन शांत चित्त तो उसे लाईये मैं देखना चाहती हूँ। शांत चित्त होना चाहिए। मैं ये नहीं कहती कि नॉन-वेजिटेरियन नहीं होते। वो भी बड़े गुस्सैले हो सकते हैं। पर वेजिटेरियन जो कहते हैं कि वेजिटेबल खाने से हम बहुत गाय जैसे हो जाते हैं तो वो सिंग वाली भैंस जैसी दिखायी देते हैं। कभी भी नहीं दिखते। ये चालीस साल से मैं देख रही हूँ। और उमर तो मेरी बहुत ज्यादा है, मुझे कही नहीं दिखायी दिया। इसलिये इसमें कोई फर्क नहीं खान-पीन पर ज्यादा चित्त नहीं देना चाहिये। दूसरी जो नशिली चीज़ है वो हमारे चेतना के विरोध में बैठती है। वो नशीली चीज़ नहीं लेनी चाहिए। पर ये मैं नहीं कहूँगी नहीं तो आधे लोग उठ के चले जाएंगे। और मैं ये कहँगी कि सहजयोग के बाद आप छोड दें। सब चीज़ का प्रत्यक्ष करना चाहिए, फिर मैं कहती हूं। अपने दिमागी जमा-खर्च से मत सोचो। प्रत्येक चीज़ का प्रत्यक्ष लो। आज सिर्फ ऐसा ही हाथ करने से आपके अन्दर ठण्डी-ठण्डी हवा आती है। और आपको आश्चर्य होगा कि जो नॉन-वेजिटेरियन होते हैं उनके भी कुछ चक्र ऐसे विचित्र पकड़ते हैं, पर जो वेजिटेरियन होते हैं उनका लेफ्ट नाभि जोर से पकड़ता है। जिनकी कोई हद नहीं। नॉन-वेजिटेरियन के भी पकड़ते हैं, पर वेजिटेरियन के भी पकड़ते हैं। ये तो गुरुओं का तरीका ही है। अब ये फौरेनर्स आयेंगे , उनको कहेंगे कि वेजिटेरियन हो जाओ । ये हमें बताया गया कि तुम 26 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-26.txt स्वित्झरलैंड में छ: हजार पाऊँड लिये गये और सब लोग हॉटल में रहे और उनसे कहा गया कि देखो भाई , तुमको एकदम वेजिटेरियन होना है। और तुम्हारे मसल्स ज़रासे ढ़ीले पड़ने चाहिए। तभी तुम हवा में उड़ सकते हो। हवा में उड़ा रहे हैं! और ये गधे लोग छ:-छ: हजार रुपये खर्च कर के गये। छ:-छः हजार पाऊँड, एक पाऊँड माने करीब पंधरह-सोलह रुपये। वहाँ पहुँचे, बता रहे हैं कि उन्होंने ऐसा मेनू बनाया था कि छः दिन तक आलू उबालकर जो पानी होता है वो पानी पीने का। पानी प्राशन! उसके बाद में आलू का छिलका खाने का एक और आखिरी दिन, अगर आप में थोड़ी जान बची रही तो आप आलू खा लीजिये, बगैर नमक के। उसके बाद ऐसे ही हवा में आप उड़ने लग जाएंगे ! और सिर्फ छ: हजार पाऊँड इसकी किमत है। उस पर उनके गुरुजी जो हैं ऊपर बैठकर के उनको हंसी छूटती है कि क्या बेवकूफ बनाया है, क्या बेवकूफ बनाया है। ऐसी बेवकुफी की बाते मैं आपको नहीं बता रही हूँ। 27 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-27.txt पूजा महत्त्व का "पूजा एक बाह्य भेट है, परन्तु पूजा का प्रसाद और आशिष फल किस प्रकार प्राप्त करना है, इस का ज्ञान आपको होना चाहिए। पूजा या प्रार्थना का उदय आपके हृदय से होता है । मन्त्र आपकी कुण्डलिनी के शब्द हैं। परन्तु यदि पूजा हृदय से नहीं की गई और मंत्रोच्चारणा के साथ यदि कुण्डलिनी का सम्बन्ध नहीं जुड़ा तो पूजा केवल कर्मकाण्ड बन कर रह जाती है।' पूजा में निर्विचार हो जाना, पूजा के साथ हृदय का पूर्णतया जुड़ा होना आवश्यक है। पूर्ण निष्कपटता से हृदय के साथ पूजा सामग्री को एकत्रित करें तथा भेंट करें। पूजा में भेट चढ़ाने के विषय में कोई दिखावा या बंधन नहीं होना चाहिए । हाथ धोना ठीक है, परन्तु क्या आपका हृदय १) | भी स्वच्छ है? चित्त जब हृदय पर होता है तो यह अन्यत्र नही भटकता। यद्यपि आप बाहर से शांत होते हैं, आपके अन्तस में द्वन्द चल रहा होता है, अत: अधिक देर तक आपको मौन नहीं रहना है। यदि मनुष्य का हृदय स्वच्छ नहीं है तो मौन अति हानिकारक बन जाता है। परन्तु अवांछित वार्तालाप भी महाविपत्ति का कारण बन सकता है। | पूजा में पूर्ण श्रद्धा से आप मंत्रोच्चारण कीजिए । श्रद्धा का कोई विकल्प नहीं है । गहन श्रद्धा उत्पन्न हो जाने पर ही आप पूजा करें ताकि स्वयं आपका हृदय सारी पूजा को करे । उस समय आशिष लहरियाँ बहने लगती हैं, क्योंकि आत्मा कहती है, "इस समय कोई विचार कैसे आ सकता है?" लोग अपने गिलास में मदिरा उड़ेलते हैं। आपकी पूजा भी उसी प्रकार की है। आपकी श्रद्धा भी मदिरा है, जिसे आप पूजा तथा मंत्रोच्चारण में उड़ेलते हैं। सब कुछ भूल कर जब वह सुरापान आप कर रहे होते हैं, तो किस प्रकार कोई विचार आपको आ सकता है और तब आनन्द का वर्णन शब्दों में कैसे किया जा सकता है ? उस दैवी सुरा को विचाररूपी तुच्छ प्रकार के गिलास में पुन: कौन उड़ेलना चाहेगा? इस दैवी सुरा पान करने का आनन्द सर्वदा विद्यमान रहने वाला तथा शाश्वत है। यही आपका वैभव बन जाता है। मेरी उपस्थिति में ऐसी बहुत सी पूजाएं हो चुकी हैं। हर बार एक महान लहर आकर आपको एक नये साम्राज्य में ले जाती है। ऐसे बहुत साम्राज्यों का अनुभव आपका अपना हो जाता है । यह अनुभव आपके व्यक्तित्व को विशालता प्रदान कर आपके लिये आनन्द के नये द्वार खोल देते हैं । हृदय में करना सर्वोत्तम है। मेरी जिस तस्वीर को आप देख रहे हैं, उसे यदि हृदय- से पूजा 28 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-28.txt गम्य कर सकें या, पूजा के पश्चात इसकी झलक हृदय की गहराईयों में उतार सकें तो वह आनन्द जो आप उस समय प्राप्त करते हैं, शाश्वत तथा अनन्त बन सकता है। योग के विषय में आज मैंने आपको सहज कुछ रहस्य बताने हैं- एक रहस्य यह है कि पूजा के लिए आपको मध्यम प्रकार के लोगों को नहीं लाना चाहिए क्योंकि पूजा को सहन करना अति कठिन है । मेरे अस्तित्व, चरणों तथा कर -कमलों का मूल्य अभी तक लोगों ने नहीं समझा है । वे यहां आने के योग्य नहीं हैं। अत: भाई, बहन या मित्र होने के नाते किसी व्यक्ति को न लाएं । यह अनुचित है। असह्य देकर आप उस व्यक्ति के उत्थान के अवसर बिगाड़ रहे हैं। वह इसे सहन नहीं कर सकता । पूजा बहुत ही कम लोगों के लिए है। अत: याद रखें कि पूजा अधिक लोगों के लिए नहीं है। पूजा वास्तव में प्रोत्साहन देने वाली क्रिया है । यह आपको एक नये साम्राज्य में ले जाती है । वास्तव में यह चमत्कार है । एक बार जब आप पूजा कर लेते हैं तो अपने मौन से भी बहुत सी अभिव्यक्ति कर सकते 29 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-29.txt हैं। आपका मौन भी अत्यन्त शक्तिशाली बन जाता है । पश्चिमी देश के लोगों को विशेषतया अपनी अबोधिता को स्थापित करना है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सबसे पहले इसी पर आक्रमण होता है । बहुत सी दुष्ट शक्तियाँ इस पर आक्रमण करती हैं । अत: हमें अपनी अबोधिता को दृढ़ करना है। यह अत्यन्त शक्तिशाली गुण है। यह कोई बुराई नहीं देखता। अबोधिता कुछ नहीं देखती, केवल प्रेम करती है । बचपन में बच्चा नहीं जानता कि माता-पिता या कोई अन्य बच्चे से घृणा करता है। निष्कपटता पूर्वक बच्चा रहता है । परन्तु अचानक जब उन्हें पता चलता है कि लोग परस्पर प्रेम नहीं करते तो उन्हें सदमा पहुंचता है । अत: पश्चिमी देशों के लिए श्री गणेश अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे ही हर चीज़ के सार हैं। यही कारण है कि सर्वप्रथम हम श्री गणेश की पूजा करते हैं। परमात्मा ने सर्वप्रथम श्री गणेश की रचना की क्योंकि वही उनके सबसे बड़े पुत्र हैं, उनके पहले बेटे हैं। आपके भाईयों में से वे सबसे बड़े भाई हैं और यद्यपि कार्तिकेय को सदा बड़े भाई का स्थान दिया जाता है और गणेश जो स्वयं को छोटा भाई कहते हैं, फिर भी उनका सृजन पहले किया गया था। क्योंकि श्री गणेश सदा शिशुसम हैं इसलिए वे आप सबसे छोटे हैं। समझने की यह अत्यन्त सूक्ष्म बात है कि छोटा होते हुए भी वे इतने विवेकशील हैं । वे साक्षात विवेक हैं। क्या आप इतने बुद्धिमान बच्चे की कल्पना कर सकते हैं? आयु में आप सदा श्री गणेश से बड़े हैं परन्तु विवेक में वे ही सबसे बड़े हैं। इसी तरह से आपको समझना चाहिए कि छोटी -छोटी क्रियाओं से, मंत्रोच्चारण से किस प्रकार हम अपने अन्दर के देवताओं का आह्वान करते हैं क्योंकि आप जागृत हैं, आपका हर शब्द जागृत है, अत: अब आपके मंत्र भी सिद्ध हैं। इस गुरु पूजा पर मैं आपको सिद्ध करने व सिद्धि स्थापना की विधि बताने वाली हूँ । हर चक्र और उसके शासक देवता की सिद्धि प्राप्त करने की विधि । निसंदेह इस गुरु पूजा पर यह कार्य होगा । परन्तु यह पूजा पूरी सूझबूझ तथा पूर्ण मान्यता के साथ इसे परम सौभाग्य मानते हुए होनी चाहिए। सभी देवता और ऋषिगण इस पर ईष्ष्या कर रहे हैं। आपके लिए महान लाभ तथा सौभाग्य है, अत: इसका पूरा लाभ उठायें। बहुत ही छोटी-छोटी चीजें मुझे प्रसन्न कर सकती हैं-आप जानते हैं कि आपकी माँ बहुत ही साधारण चीजों से प्रसन्न हो जाती हैं। कितने हृदय से आपने पूजा की- बस इसी का महत्व है । प.पू.श्री माताजी, १९.७.१९८० आज में आपको पूजा का महत्व बताऊंगी। प्राचीन ईसाई भी "मैरी" की प्रतिमा, तस्वीर या सम्भवत: येशु की माँ की रंगीन शीशे पर बनी आकृति की पूजा - आराधना किया करते थे । परन्तु बाद में जब लोग अधिक तार्किक बनने लगे, और पूजा के के ज्ञानाभाव में महत्व इस महत्व का वर्णन न कर पाये, तो उन्होंने नियमित रूप से की जानी वाली पूजा का महिमा गान त्याग दिया। ईसा के पूर्व भी लोग एक विशेष प्रकार का मण्डप बनाते थे जिसमें जिहोवा की पूजा के लिए भी स्थान बनाया जाता था । अब सहजयोग में जिहोवा सदाशिव हैं तथा माँ मैरी महालक्ष्मी हैं । वे पहले भी अवतरित हुईं। सीता, राधा तथा फिर माँ मैरी के रूप में वे अवतरित हुईं 'देवी महात्म्य' नामक पुस्तक में ईसा के जन्म के विषय में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है। ईसा राधा के पुत्र थे, राधा महालक्ष्मी हैं। अत: डिम्ब (अण्डा) के रूप में एक अन्य अवस्था में उनका जन्म हुआ और आधे 30 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-30.txt अण्ड ने श्री गणेश के रूप में पुन: अवतरण लिया और शेष आधा भाग महाविष्णु, जो कि हमारे भगवान ईसा हैं, के रूप में अवतरित हुआ। महाविष्णु का वर्णन पूर्णतया ज़ीज़स क्राइस्ट का चित्रण है। महालक्ष्मी अवतरित हईं और निर्मल परिकल्पना (इच्छा) से अपने शिशु को जन्म दिया। ऐसा उन्होंने राधा रूप में भी किया था। अत: ईसा महान ईश्वर के (विराट के) पुत्र हैं। वास्तव में विष्णु ही महाविष्णु तथा विराट बनते हैं। अब यह विष्णु-तत्व विराट का रूप धारण करता है और राम, कृष्ण तथा विराट अर्थात अकबर भी बनता है। अत: ईसा स्वयं ओंकार हैं। तथा चैतन्य लहरियाँ भी स्वयं ही हैं। शेष सभी अवतरणों को शरीर धारण करने के लिए धरा माँ का तत्व (पृथ्वी तत्व) लेना पड़ा। ईसा का शरीर पूर्णत: ओंकार है तथा श्री गणेश उनका पृथ्वीतत्व हैं अत: हम कह सकते हैं कि ईसा श्री गणेश की अवतरित शक्ति हैं। यही कारण है कि वे जल पर चल सकते थे। वे देवत्व का निर्मलतम रूप हैं क्योंकि वे केवल चैतन्य लहरियाँ मात्र ही हैं। अत: मेरे साक्षात्-रूप की पूजा जब आप करते हैं तो इसमें अवास्तविक कुछ भी नहीं। ईसा और माँ मैरी के जीवन काल में ही लोगों को उनकी पूजा करनी चाहिए थी। ईसाईयों के दस धर्माचरणों में यह कहा गया है कि जिस का सृजन पृथ्वी तथा आकाश ने किया है उसका पुन: सृजन, पुनरुत्पत्ति और पूजा नहीं की जानी चाहिए । अवतारों का सृजन 31 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-31.txt परमात्मा ही करते हैं। केवल आधुनिक काल में ही अवतरणों का चित्र लेना सम्भव है, पहले इसकी सम्भावना नहीं थी। पृथ्वी माँ द्वारा सृजित का अभिप्राय स्वयम्भु रचनाओं से है। अब स्वयम्भु रचनाएं बहुत स्थानों पर पायी जा सकती हैं। कुछ साक्षात्कारी आत्माओं ने भी सुन्दर प्रतिमाओं की संरचना की है। मैं जब पुर्तगाल गयी तो वहाँ लेडी ऑफ राक्स, चट्टान देवी का उत्सव था। जब मैं उत्सव स्थान पर गयी तो वहाँ पर माँ मैरी की पाँच इंच आकार की, बहुत छोटी सी , प्रतिमा थी जिसका चेहरा ठीक मेरे जैसा था। वहाँ के लोगों ने मुझे बताया कि दो छोटे बच्चों ने खरगोश का पीछा करते हुए इस प्रतिमा को पाया। उन्हें चट्टानों के नीचे खोह में से प्रकाश का आभास हुआ। वे प्रकाश के स्रोत की खोज में लगे रहे और अन्तत: उन्हें प्रकाश का स्रोत यह मूर्ति प्राप्त हुई। उन्होंने इसे बाहर निकाला और इसी के प्रकाश वे गुफा में चलते रहे। बाहर एकत्रित बहुत से लोग यह देख आश्चर्यचकित रह गये। लोग अब उस मूर्ति की पूजा उसी स्थान पर करते हैं। यह प्रतिमा उन्हें ठीक उसी प्रकार चैतन्य लहरियाँ प्रदान करती है जैसे मैं आपको, परन्तु जिस मात्रा में लहरियाँ मैं देती हूँ उतनी यह नहीं दे सकती। हो सकता है कि वहाँ कुछ अन्य प्रतिमाएं भी आपको चैतन्य लहरियाँ प्रदान करें। भारत में भी, आप में से कुछ लोग गणपतिपुले गये। वहाँ महागणेश अर्थात् ईसा स्वयम्भु रूप में पृथ्वी माँ के गर्भ से प्रकटित हुए। महागणेश के शरीर के नीचे का भाग तथा उनका शिरोभाग समूचा पहाड़ है। वहाँ पर समुद्र का पानी भी मीठा है तथा मीठे पानी के कई कुएं भी वहीं विद्यमान हैं। यदि आपको याद हो तो वहाँ कई लोगों ने मेरे चित्र लिए और उनमें से कुछ चित्रों में मेरे हृदय में से प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा है। कुछ लोगों ने मुझे बताया कि कुछ चित्रों में प्रकाश नहीं था लेकिन जब उन्होंने नैगेटिव से पुन: चित्र बनाए तो उन चित्रों में भी प्रकाश पाया गया। में आपको यह अवश्य जानना चाहिए कि दैवी शक्ति के साम्राज्य में विभिन्न प्रकार के चमत्कार होते हैं। ठीक यही बात पूजा में है। जब हम पूजा करते हैं तो सर्वप्रथम श्री गणेश की आराधना करते हैं और इस प्रकार आप अपने अन्दर श्री गणेश को जागृत तथा स्थापित करते हैं। उनके रूप में मेरी पूजा करके आप में अबोधिता प्रतिष्ठित होती है। पर आप देखेंगे कि चैतन्य लहरियाँ बढ़ती हैं, आप अपने अन्दर शान्ति का अनुभव करते हैं। | जब आप श्री गणेश के नामों का उच्चारण करते हैं तो आप उनके गुणों से परिचित होते हैं, जब आप उनके गुणों की आराधना करते हैं तो वे आपके द्वारा अपने गुणों व शक्तियों को प्रस्फुटित करते हैं। इस प्रकार से यह दैवी शक्ति कार्य करती है मानों आपको उन गुणों से प्लावित कर देती है। तब आप आदिशक्ति की आराधना करते हैं। पूजा करने से आदिशक्ति के समस्त (सातों) चक्र जागृत हो उठते हैं तथा इन चक्रों द्वारा वे अपना कार्य कर देते हैं। सृष्टि में पहली बार ऐसा अवतरण हुआ है। यह ठीक उसी प्रकार से है जैसे आप शुरु पहले एक कमरा बनाते हैं फिर दूसरा और फिर तीसरा। इस प्रकार सात कमरे बना कर गृह का निर्माण कार्य पूरा होता है। आपको गृह की कुंजियाँ मिल जाती हैं और आप अपने गृह को खोलते हैं। इसी प्रकार से मैं सामूहिक रूप से आत्मसाक्षात्कार प्रदान करती हूँ। ऐसा होना पहले सम्भव नहीं था लेकिन अब सातों चक्रों के समन्वय से यह सम्भव हो पाया है । और अब आप आदिशक्ति की आराधना कर रहे हैं । मेरा आपके समान मानव-रूप, मेरा महामाया रूप है। मैं आप जैसा व्यवहार करती हूँ और स्वयं को ठीक आप जैसा बना लिया है, यद्यपि यह कार्य बहत कठिन था। आपको सहजयोग समझाने की प्रक्रिया में और आपको आपमें निहित आपकी शक्ति बतलाने में मेरे शरीर को बहुत कुछ सहन करना पड़ता है । अब हम इस समय यहाँ पूजा कर रहे हैं और विश्व भर में सहजयोगियों को इस पूजा का ज्ञान है. 32 পic 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-32.txt वे ध्यान मग्न बैठे हैं और इस तरह वे भी आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। इसीलिए हम उन्हें पूजा प्रारंभ होने का समय बता देते हैं। अत: समय पर हमें पूजा में बैठ जाना चाहिए ताकि ध्यान-मग्न हो कर अन्यत्र बैठे सहजयोगी भी आप ही की तरह लाभान्वित हो सकें | यदि अभी तक भी पूजा के महत्व की इन थोड़ी सी बातों के ज्ञान के योग्य आप नहीं हैं तो भी चिन्ता की कोई बात नहीं। आपकी अनभिज्ञता तथा निर्दोष भाव को परमात्मा जानते हैं तथा आपको क्षमा प्रदान करते हैं। विनम्र हृदय नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे आप सब जान जायेंगे । लेकिन यदि आप जान बुझ कर गलती करते हैं तो यह अच्छा नहीं हैं। जैसे हम अपने बच्चों को क्षमा करते हैं वैसे ही परमात्मा भी अपने अबोध बच्चों को क्षमा कर देते हैं। अत: आप इस विषय में निश्चिन्त हो जाइये और हृदय में आनन्द की अनुभूति के लिए पूजा को सहज रूप से कीजिए | से पूजा करते हुए यदि आपसे अनजाने में कोई भूल हो जाती हैं तो आपको दोष - भाव- ग्रस्त | परमात्मा आप पर कृपा करें। प.पू.श्री माताजी, २४.५.१९८६ ाम ी भ 33 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-33.txt NEW RELEASES Lang. Type DVD VCD | ACD Title Place Date ACS 15" Nov.1973 | कुंडलिनी आणि सहजयोग th Sp 272 272 Pune th 18" Dec.1977 | सत्याचा प्रकाश सुरु झाला 558 Mumbai M Sp 20th Mar.1978 | We are all seeking 572 Sp London E 22"" Feb.1979 | सेमिनार nd 573 Rahuri Sp M th 24" Feb.1979 | विज्ञान म्हणजे स्वत:ला शोधून काढणे Rahuri Sp 277 277 rd 23" Mar.1979 | मनुष्य का सूक्ष्म तन्त्र और परम की प्राप्ति Bordi 250 Sp 250 rd 23“ Apr.1979 | Agnya and Lord Christ 559 London Sp 11th Jun.1979 How aspects of God are expressed 560 London E Sp 15h Jun.1979 ||S.Y.Introduction-Higher life 574 London Sp 15h Oct.1979 How Realisation should be allowed to develop London Sp 052 052 08™ Mar.1980 || The Meaning of Sahajyoga 575 London E Sp 21 Jul.1980 st Auspiciousness London E Sp 053 053 27h Sep.1980 | Lethargy, Most Anti-God London 051 Sp 051 19th Oct.1980 | Spreading Sahajyoga in Europe 588 London E Sp 27 Oct.1980 589 What do we expect from realisation London SP 13th Nov.1980 What makes people happy 561* Stanford Sp 20 Nov.1980 | The Myth of Ego 576 London Sp 07 Feb.1981 577 Mainly Nabhi & Void Delhi E SP 07hOct.1981 578* Houston, USA E Sp The Spirit of America 8th Oct.1981 The Beauty that you are 579* Техas E Sp 385 Diwali Puja-The Mahalakshmi Power & the power of water London 580* 1s*Nov.1981 E Sp 581' 31 Dec. 1981 New Year's Eve Talk London Sp 30 Jan.1982 th 582 Solapur Predictions about Shri Mataji's Advent Sp E 29" Mar. 1982 | Reality is what it is 583 London Sp E 07™ Apr.1982 | Mother's wedding anniversary 593" Sp London E 13" May1982 | Left side - Problems of subconscious 584 Brighton E Sp st 21* Jan.1983 Vaitarna Sahajyoga works by keeping mother pleased Sp 591 28h Aug.1983 Krishna Puja:Shri Krishna is the ultimate of fatherhood Switzerland 562* 369* Sp 17" Feb.1985 | महाशिवरात्री पूजा th Delhi Sp 63 Н 63 26"Mar.1985 | जन्मदिन पूजा 585' -th Delhi Sp H th 586* 17"Nov.1985 | Diwali Puja : Lighting the lamps of human hearts Tivoli, Italy Sp/Pu 386 17h Dec.1985 M/H | Sp 268 587 Saptashrungi Puja-Part I & II Nashik 22""Dec.1985 | सार्वजनिक कार्यक्रम : स्व चा धर्म (आत्म्याचा धर्म ओळखावा) Pune 387 391 PP 7" Sep.1986 th San Diago Shri Ganesh Puja Sp/Pu 370° 088 088 14h Aug.1988 | Fatima Bi Puja 038 038 Geneva E Sp th 8™ Aug.1989 Shri Ganesh Puja:Motherly love & vatsalya Les Diablere E Sp/Pu 371* 035 035 19h Aug. 1990 | Shri Krishna Puja 557 Sp/Pu 368' Ipswich E 25" Mar.1991 | राम-नवमी पूजा th 027 Kolkata 070 Sp 070 Н th Innate Maryadas 14" Apr.1991 563 Canbera Sp th 564 17" Apr.1991 Sp/Pu 372' You should not be fundamentalist Sydney 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-34.txt 15h Sep.1991 |Ganesh Puja:Shree Ganesha & His qualities 565 Cabella E Sp 09h Feb.1992 Ganesh Puja : Gravity and Balance 566 Perth Sp th 13" Feb.1992 373 Canberra Wear Natural Goods E Sp 14t Feb.1992 You become divine personality 567 374 Melbourne Sp 15th Feb.1992 568 375 Enter the kingdom of God Melbourne Sp E 02nd Mar.1992 569 |You have to come to the collectivity Sp | 376 Sydney 03rd Mar.1992 |Universal understanding 570 377° Sydney Sp 31* May1992| Shri Buddha Puja:The search for the absolute 591* Cambridge Sp E 16th Aug.1992 | Shri Krishna Puja : Collective conditioning 571* Sp/Pu| 378 Cabella th 11" Jul.1993 Paris 033 Devi Puja : Desires, Illusion E Sp 033 th 15" Aug.1993 |Shri Krishna Puja Cabella Sp 059 059 10h Oct.1993 Virat Viratangana Puja Los Angeles E 072 072 Sp 12h Nov.1993 |Diwali Puja 058 Sp Moscow E 058 th Navaratri Puja (innocenceand Enlightened Faith) Cabella 09 Oct.1994 Sp/Pu| 383 479 E th 20“ Aug.1995 Krishna Puja : America & False freedom Sp/Pu| 379' Cabella 122 E 122 Navaratri Puja (Don't reflect but project your depth) Cabella 01*Oct.1995 Sp/Pu| 384 128 128 14" Apr.1996 |ईस्टर पूजा th Kolkata Sp 137 137 Н st 01* Sep.1996 Cabella Sp/Pu 380" Krishna Puja : Shri Krishna and Sahaj Culture 145 145 th 15" Sep.1996 Ganesh Puja : You must fight for innocence Cabella Sp/Pu| 381 146 E th 08™ Jun.1997 168 168 191 191 Krishna Puja : Freedom and lack of wisdom Sp/Pu| 382 New York 25" Mar.1999 |वेळेची हाक -th Sp Pune 25th Mar.00 हमारी आत्मा क्या चीज़ है 388 593* Delhi PP Н List of New Release Subtitle for 1st Oct.2011 Cowley st 31* Jul.1982 Dedication Through Meditation Sp 146 032 E (Eng., Hin., Mar., Guj., Tel., Kan.) Manor Bhajan ACD Sanjay Talwar Samadhaan 175 To Order : You can even place your order through our website : www.nitl.co.in You can even place your order with NITL through telephone, e-mail, Fax. (Numbers given below) प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन ०२० - २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in 2011_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-35.txt ॐ रजा Menmas! मापी जलुक २हजयोग में ई-मसीह हमारे अंत्यन्त २हायक ३० हैं। ....ई-मीह हमें इ बात का ज्ञान करवाते हैंकि हम अपने आज़ी चक्रखोलें, इससे ऊपर उठें। यहाँ हम इसे तीसरी आँख कहते हैं। तीरी आँख खुलने का अर्थ यह है कि आपके आज्ञा चक्र पर ईसा-मीह जीगृत हो गये हैं।