चैतन्य लहरा जनवरी-फरवरी २०१२ हिन्दी वलिक थ ुू बा ाट रट यद्यपि सहजयोग की गंगा बह रही है परन्तु आप के घड़ें (शरीर, मन, बुद्धि) में गहई होनी चाहिए। रा o६ अप्रिल १९९१ के अंनुभक सहजयोग ...8 ४ २हजयोगियों से बातचीत ...२० अन्तिम निर्णय ...३४ सहजयोग रहर के अनुभक मव कोलकाता, १९८६ सत्य को खोजने वाले सभी साधकों को हमारा प्रणिपात! सत्य क्या है, ये कहना बहुत आसान है। सत्य है, केवल सत्य है कि आप आत्मा हैं। ये मन, बुद्धि, शरीर अहंकारादि जो उपाधियाँ हैं उससे परे आप आत्मा हैं। किंतु अभी तक उस आत्मा का प्रकाश आपके चित्त पर आया नहीं या कहें कि आपके चित्त में उस प्रकाश की आभा दृष्टिगोचर नहीं हुई। पर जब हम सत्य की ओर नज़र करते हैं तो सोचते हैं कि सत्य एक निष्ठर चीज़ है। एक बड़ी कठिन चीज़ है । जैसे कि एक जमाने में कहा जाता था कि 'सत्यं वदेत, प्रियं वदेत।' तो लोग कहते थे कि जब सत्य बोलेंगे तो वो प्रिय नहीं होगा। और जो प्रिय होगा वो शायद सत्य भी ना हो। तो इनका मेल कैसे बैठाना चाहिए? श्रीकृष्ण ने इसका उत्तर बड़ा सुंदर दिया है। 'सत्यं वदेत, हितं वदेत, प्रियं वदेत'। जो हितकारी होगा वो बोलना चाहिए। हितकारी आपकी आत्मा के लिए, वो आज शायद 1. दुःखदायी हो, लेकिन कल जा कर के वो प्रियकर हो जाएगा। ये सब होते हुए भी हम लोग एक बात पे कभी-कभी चूक जाते हैं कि परमात्मा प्रेम है और सत्य भी प्रेम ही है। जैसे कि एक माँ अपने बच्चे को प्यार करती है तो उसके बारे में हर चीज़ को वो जानती है। उस प्यार ही से उदुघाटन होता है, उस सत्य को जो कि उसका बच्चा है। और प्रेम की भी व्याख्यायें जो हमारे अन्दर हैं वो भी सीमित, मानव की जो चेतना है उससे उपस्थित हुई है। वास्तविक में प्रेम किसी चीज़ से चिपक ही नहीं सकता है। प्रेम तो उसी तरह की चीज़़ है जैसे कि एक में उसका जो प्राण रस है वो चढ़ता है और जड़ों को, उसके पत्तियों को, उसके फूलों को, फलों वृक्ष को पूर्णतया आशीर्वादित करता हुआ फिर लौट जाता है। लेकिन अगर सोचे कि वो कहीं जा कर के एक फूल में अटक जाए और कहें कि ये फूल मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है। तो उस पेड़ की तो मृत्यू होगी ही और उस फूल की भी हो जाएगी। ये जो चिपकने वाला प्रेम है ये मृत्यू को प्राप्त होता है। इसलिए आप जब देखते हैं कि जब दो इन्सान में प्यार होता है, थोड़े दिन बाद वो प्यार बैर भी हो सकता है। इसी प्रकार दो देशों में प्यार हो, कल वो भी बैर हो सकता है। दो जाति में प्यार हो, वो बैर हो सकता है। ये प्रेम बैर कैसे हो जाता है? ये बड़ी सोचने की बात है। इसलिए कि प्रेम का सत्य स्वरूप हमने जाना नहीं। परमात्मा का प्रेम बहता है, देता है, करता है और उसके बाद कहीं चिपकता नहीं। किसी में अटक नहीं जाता। लेकिन हम लोग इन दोनो का मेल बिठा नहीं पाते कि सत्य और प्रेम एक ही चीज़ है । जैसे चाँद और उसकी चाँदनी और सूर्य और उसकी किरण। जैसे अर्थ और शब्द, दोनो एकसाथ मेल खाते हैं। उसी प्रकार सत्य और प्रेम दोनो एक साथ हैं। इसलिए बहुत से लोग सत्य के खोज में न जाने क्या-क्या विपदायें उठाते हैं। क्या-क्या तकलीफें उठाते हैं। वो सोचते हैं कि जब शरीर को दुःख दिया जाएगा तो हमें सत्य मिल जाएगा। शरीर को दुःख देने का आपको कोई अधिकार नहीं क्योंकि शरीर परमात्मा ने बनाया है। और वो एक मन्दिर है। उसमें एक दीप 6. जलाना है। जैसे आजकल विदेशों में एक पागलपन सवार है कि हर इन्सान जो है वो बिल्कुल मच्छरों जैसा पतला-दुबला हो जाए। उसके लिए सब आदमी इस तरह से मेहनत करते हैं कि मच्छरों जैसे होने के लिए उसकी वजह से अनेक बीमारियाँ वहाँ लोगों में आ गयी। और इन मच्छरों को कोई सुख मिला है ऐसा दिखाई नहीं देता। ना उस देश में कोई आनन्द है। तो दृष्टि कहाँ गयी? एक बहुत ही स्थूल चीज़ की ओर, जिसका कोई भी अर्थ नहीं लगता है। जिसकी दृष्टि स्थूल होगी वो स्थूल ही चीज़ों को देखता है। लेकिन सूक्ष्मता से आप विचार करें कि इस तरह के पागलपन से क्या परमात्मा किसी को भी मिला? क्या परमात्मा को इससे सुख होगा कि आप अपने को दुःख दे। ईसाई लोगों ने तो हद कर दी, कि ईसा-मसीह की हड्डियाँ निकाल के और टाँग देते हैं और कहते हैं ये ईसा-मसीह है। देख कर मेरा जी, ऐसा लगता है कि इनसे पूछा जाए कि जिस इन्सान ने एक इतने बड़े क्रॉस को अपने कंधे पर उठाया था क्या वो उन हड्डियों के बूते पर! लेकिन इसमें एक समाधान उन लोगों के पास है कि हम किसी जालिम तरीके से कोई दुष्ट, क्रूर प्रकृती से इसा-मसीह की ओर देख रहे हैं । यही चीज़ आपको आगे हम सुनाते हैं कि जब आप जाईये पोप के सिस्टिन चॅपल में, तो ये जो प्रेम की शक्ति है, इस प्रेम की शक्ति को समझने के लिए बड़ा भारी हृदय चाहिए। जिस इन्सान के पास हृदय नहीं होगा वो इसे समझ नहीं पायेगा। जैसे कि सिस्टिन चॅपल, जो कि आप रोम में जायें व्हॅटिकन में देखें तो वहाँ माइकेल एंजेलो नाम के एक बहुत बड़े कलाकार ने सारा कुण्डलिनी का चित्र बनाकर रखा हुआ है। और आज्ञा चक्र पे ईसा-मसीह को खड़ा किया है , वो भी गणेशजी जैसे लंबोदर खड़े हुए हैं और इधर से उधर लोगों को फेंक रहे हैं। उसका नाम उन्होंने 'लास्ट जजमेंट' कहा हुआ है। लेकिन पूरी कुण्डलिनी खड़ी है। अगर आपको कुण्डलिनी का ज्ञान हो तो आप अवाक् रह जायें कि इस आदमी ने कौनसी दृष्टि से ये सब चित्र देखा और इस तरह से ये सब चित्र बनाया । लेकिन उसी के नीचे वो हड्डी वाला ईसा-मसीह रखा हुआ है। देख कर ग्लानी होती है। कम से कम हमारे भारत वर्ष में किसी भी अवतारों को हड्डी मारका नहीं दिखाते हैं। और न ही ये माना जाता है कि 'हड्डी मारका' परमात्मा हो सकता है। वजह ये है कि हमारे अन्दर प्रेम की दृष्टि नहीं, या तो हमारे अन्दर वासना है और दुष्टता है। जिसके अन्दर प्रेम की दृष्टि होती है वही गहन उतर सकता है। जैसे मैंने कहा कि हृदय का बड़ा होना बहुत जरूरी है। लेकिन इसका अर्थ ऐसा नहीं कि आप अपने हृदय को बड़ा करने के लिए अवास्तव तरीके से दान-पुण्य करें। चोरों को भी दान करें और जो से बहुत गुंड बनके घूमते हैं उनको आप दान करते फिरें । धन की व्याख्या कृष्ण ने जितनी सुंदरता से की है, मेरे ख्याल से, कोई भी नहीं कर पाया होगा 7 कारण वो एक बड़े भारी होशियार, डिप्लोमैट थे। उन्होंने कर्ण के जीवन में बताया कि कर्ण बहुत दानशूर थे, बहुत दानी थे। अत्यंत धार्मिक। हर समय पूजा-पाठ आदि में व्यस्त रहते थे। और वो पाण्डवों के सबसे बड़े भाई , में में क्षत्रिय थे। लेकिन जिस वक्त उनका पॉव युद्ध फँस गया उस वक्त चक्र अर्जुन ने अपना गांडीव उनके उपर उठाया। उस वक्त उन्होंने चुनौती दी। कर्ण ने कहा कि, 'अर्जुन तु भी वीर है और मैं भी वीर हूँ और हम क्षत्रिय हैं। और एक निहत्थे वीर पर दूसरे वीर का हथियार उठाना धर्म में मना है।' कृष्ण ने तब अपनी उंगली आगे करके कहा कि, 'इसे तु मार।' अहिंसा की बात नहीं भारतीय करी। 'इसे तू मार। जिस वक्त द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी, तब इनकी संस्कृति वीरता कहाँ गयी थी ? तब ये कहाँ थे ?' इतनी धर्म की सुन्दर व्याख्या! आपकी वीरता, आपकी दानशूरता, आपका धर्म सबकुछ एक तरफ, पर एक का स्त्री की लाज बहुत बड़ी चीज़ है। उसी कृष्ण के भारत वर्ष में अगर हम देखें २बसे महान तो धर्म के नाम पर ही इतने सारे अत्याचार हम लोग कर रहे है वो क्या हम तत्व अपने को भारतीय कहलाने के लायक हैं। भारतीय संस्कृति की हम डिंगे पीटते रहते हैं। लेकिन हम क्या वाकई में इस योग्य हैं, जब बाहर जा कर के एक ही है लोग बताते हैं कि बहुओं को जला दिया। घर में आयी हुई लक्ष्मी को मार डाला। तो दूसरे लोग पूछते हैं कि आपके देश में बहुत बड़ी योग भूमि है, कि बहुत कुछ शास्त्र हुआ, बहुत कुछ लोग धार्मिकता की बात करते हैं, बड़े ही वहाँ पर बड़े-बड़े व्याख्यान लोग देते हैं, तो ऐसे देश में ऐसी दुर्धर बातें, ऐसी आत्मक्षात्कार को भीषण हत्यायें कैसे हो सकती हैं? क्या जवाब है हमारे पास इसका? एक ही प्राप्त होना। जवाब मैं देती हूँ कि श्रीकृष्ण ने कहा था कि, 'योगक्षेमं वहाम्यहम्'। इसमें भी पकड़ है। 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' पहले योग होना चाहिए फिर में इनका क्षेम देखूंगा। उन्होंने 'क्षेमयोग ' क्यों नहीं कहा? पहले योग होगा तब मैं इनका क्षेम करूंगा। ये धर्म की व्याख्या है कि प्रथम आप योग को प्राप्त हो। अगर आप भारतीय संस्कृति की इतनी बढ़ाई करते हैं तो सबसे बड़ी चीज़ भारतीय संस्कृति का सबसे महान तत्व एक ही है कि आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होना। अपने चित्त का निरोध बताया गया है। अष्टांग योग बताये गये हैं। अनेक विधियाँ बताई गयी हैं। किसलिए? कि आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो। लेकिन देखिये कितने लोग इधर नज़र करते हैं। ईसा-मसीह ने यही 8 कहा कि आपका फिर से जन्म होना चाहिए, पर कितने ईसाई इस बात को सोचते हैं? बाप्तिस्मा , कोई भी आ कर के, सिर पे हाथ रख के कह देता है कि 'तू ईसाई हो गया।' ऐसे ही हमारे यहाँ, किसी भी आदमी के गले में यज्ञोपवित किसी भी ब्राह्मण ने ला कर डाल दिया, हो गये आप ब्राह्मण। कौन है ब्राह्मण? जिसने ब्रह्म को जाना वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है। द्वि जायते द्विज। जो दूसरी मर्तबा पैदा हुआ है। माने जिसका दूसरा जन्म हुआ है, उसको द्विज कहते हैं। पक्षी को भी कहते हैं और मनुष्य को भी कहते हैं। पक्षी पहले अंडरूप से आता है और उसके बाद उसका जब दूसरा जन्म होता तो पक्षी हो जाता है। जब तक मनुष्य का दूसरा जन्म नहीं होता माने उसका आत्मसाक्षात्कार नहीं होता है तब तक वो ब्रह्म तत्व को नहीं जान सकता। और जब तक उसने ब्रह्म तत्व को नहीं जाना उसको अपने को ब्राह्मण कहने का कोई भी अधिकार नहीं। इसके शास्त्रों में अनेक आधार हैं। गीता पर बहुत लोग कहते हैं। मैंने तो कभी गीता पढ़ी भी नहीं । गीता में लोग कहते हैं कि जो जन्म से जिस जाति में पैदा हुआ वही उसकी जाति हो ही नहीं सकती। कारण जिसने गीता लिखी वो व्यास, किसके बेटे थे? एक धिमरनी के, वो भी जिनका पता नहीं था बाप का। जिन्होंने वाल्मिकी रामायण लिखी, वो कौन थे? एक फिर वही धिमर, मछली पकड़ने वाले। वो भी डाकू। उनसे रामायण लिखवायी परमात्मा ने। जिन्होंने शबरी के बेर खाये झूठे, जिन्होंने विदूर के घर जा कर साग खाया। इन सब अवतारों को समझने के लिए पहले ये समझ लेना चाहिए कि ये जो बाह्य के हम लोगों ने तरीके बनाये हैं कि तुम इस जाति के, तुम इस पंथ के, ये सब मनुष्य ने बनाये हुये हैं। बेकार के कारनामे हैं। यही हमारे जेल हैं। जिनमें हम रहते हैं और बहुत संतुष्ट हैं कि हम इस धर्म, इस संप्रदाय के हैं। सारे संप्रदाय एक बुद्धि का ही खेल है। जिसे कि 'मेंटल प्रोजेक्शन' कहिये। जो कि सब तरफ नहीं फैलता है सिर्फ एक दिशा में जाता है और फिर लौट के चला आ जाता है। जितनी भी इस तरह की धारणाये हैं ये अधर्म की हैं, धर्म की हो ही नहीं सकती! जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से हटाता है या किसी भी बात से ये कहता है कि हम उनसे ऊँचे और वो हमसे नीचे हैं। वो धर्म नहीं हो सकता। आज अपने देश में एक क्रान्ति की जरूरत है। बहुत बड़ी क्रान्ति की जरूरत है जहाँ कि हम आत्मिक को प्राप्त करे। इस शस्य श्यामला, भारत भूमि पर, जहाँ हमारा जन्म हुआ है। ये वास्तविक में ही ज्ञान योगभूमि है इसमें कोई शंका की बात ही नहीं है ! लेकिन जब हमने अपने आत्मा को ही नहीं पाया, तो सिर्फ ये योगभूमि , योगभूमि कहने से आप इस योगभूमि के पूत्र नहीं हो सकते! योग को आपने जब प्राप्त नहीं किया तो आप इस योगभूमि को क्या, ये तो ऐसे ही आप रास्ते पे घूमते फिरते रहते हैं, इसपे तो कुत्ते-बिल्ली सभी घूमते फिरते हैं। लेकिन अगर आप इसके वास्तविक में ही एक गौरवशाली हैं, तो आपमें योग स्थापित होना चाहिए। बातें करना, और धर्म के नाम पे इसको त्यागना, उसको त्यागना या किसी से कुछ लूट मार पुत्र करना ये किसी भी तरह से धर्म नहीं है। और एक बड़ी ग्लानि की बात है कि बाह्य के देशों में हम लोगों के बारे में जो चित्रण दिया जाता है, वो अत्यंत कलुषित है। बाहर के लोगों के बारे में मुझे कोई भी आस्था नहीं, ना 9. ही मैं ऐसा सोचती हूँ कि ये लोग किसी काम के हैं। परमात्मा के साम्राज्य में जाने के लिए काफी लोग बेकार हैं, इसमें कोई शक नहीं है। दो-चार कहीं- कहीं मिल जाते हैं तो लगता है, 'चलो भाई, मिल गये। लेकिन जब वो मिलते हैं, तो वो आप लोगों से कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं, उसका उदाहरण आपने डॉ वॉरन को देखा। और ऐसे अभी हजारों हैं। हजारों में हैं। वजह ये है कि इनमें शुद्ध बुद्धि आ गयी। बुद्धि की टकरे लेते-लेते इनमें शुद्ध बुद्धि आ गयी है। और ये अब समझते हैं कि इस शुद्ध बुद्धि से ये देखा जा रहा है कि सत्य क्या है और सत्य को पकड़ना है और असत्य जो है उसे छोड़ना ही होगा। ये कहिए कि इनकी विल-पावर; आत्मशक्ति इतनी जबरदस्त होती है कि एक बार जब इन्हें सत्य मिल जाता है तो, तो उसे इस तरह से पकड़ लेते हैं। आप लोग गणेशजी के बारे में मैं कहती हैँ भी नहीं जानते हैं, जो ये लोग जानते हैं। हांलाकि मैंने उन्हें बताया है ये दूसरी बात है। पर तो भी कुछ वो जानने के लिए भी तो लोग चाहिए। यहाँ तो जब आईये हिन्दूस्तान में, तो 'मेरे बाप को बीमारी है, मेरे माँ को बीमारी है, तो मेरे फलाने को बीमारी है। माँ इनको ठीक कर दीजिए या तो कुछ पैसा दे दीजिए या तो कुछ नौकरी दे दीजिए। इसीसे कोई प्रथा से उपर उठा तो वो धर्ममार्तंड बन के मुझसे वाद-विवाद करने के लिए खड़े हो जाते हैं। ऐसे धर्ममार्तण्डों से कहने की बात ये है कि जिन्होंने आदि शंकराचार्य को परास्त करने पर उन्होंने फिर सिर्फ माँ की ही स्तुति लिखी। उसे कुछ अकल नहीं? आखिर उन्होंने पाया ही क्या है ? जिसके बूते पर वो इतनी बड़ी-बड़ी बातें और लेक्चर देते रहते हैं बगैर पाये हुये। ठूठ जैसा शरीर और बड़ी-बड़ी बातें। इसमें अर्थ क्या है? 'कुछ तुमने पाया नहीं इस एक बात को मान लेने से ही बहुत कुछ काम हो सकता है। क्योंकि जब आदमी असत्य पे खड़ा होता है तो उसमें बड़ा अहंकार होता है। आपने देखा है महिषासुर को? आपने देखा है रावण को? उनकी बात -चीत सुनी? उस अहंकार में मनुष्य यही सोचता है, 'ये क्या जाने ? हम तो सब भगवान के बारे में जानते हैं।' और कुछ-कुछ लोगों का तो ये भी विश्वास है कि, 'अरे, भगवान तो हमने बनाये हये हैं। इनको तो बेवकूफ बनाने के लिए भगवान एक चीज़ है।' अब उसमें से कोई अति-अकलमंद निकल आयें हैं, वो फर्माते हैं 6. कि, 'हाँ भगवान-वगवान तो हम मानते नहीं, हम तो बहुत सत्यवचनी हैं। भगवान नाम की कोई चीज़ ही नहीं। क्या कहें? एक से एक बढ़ के विद्वान इस देश में पले ह्ये हैं। तो जब ऐसे बाहर से लोग आ के कुछ समझाएंगे हो सकता है कुछ खोपड़ी में बात जाये। लेकिन उससे पहले ही सर्वनाश की तैय्यारी हो रही है। ये समझ लीजिए कि सर्वनाश पूरी तरह से इस देश को खाने के लिए तैय्यार हो रहा है। उसका कारण ये नहीं है कि हम लोग पापी हैं या बूरे हैं किंतु ये है कि हम अज्ञान को ही ज्ञान समझ के बैठे हये हैं। अगर आपने अज्ञान को ज्ञान समझ लिया, तो क्या होगा! अंधेरे में अगर आप लोग सब बैठे हो और चलना-फिरना शुरू कर दिया, तो कोई किसी के उपर कूदेगा, कोई किसी को 10 मारेगा, कोई दौडेगा, अंधाधुंध जो चीज़ें हो रही है। ये जो भ्रान्ति आ रही है इसका कारण एक है कि हमें ज्ञान नहीं। अब ज्ञान हमें होना चाहिए। इसके प्रति किसकी रुचि होनी चाहिए? कौन जानेगा ? यहाँ तो बड़े-बड़े विद्वान बैठे हुये हैं। वो अपने पठनों में लगे हुये हैं। बड़े-बड़े यज्ञ कर रहे हैं, ये कर रहे हैं, वो कर रहे हैं। परमात्मा का पता ही नहीं वहाँ कहाँ है? परमात्मा को, लोग सोचते हैं कि उनको अगर पैसा-वैसा चढ़ाया जाए तो वो खुश हो जाएंगे। वो तो पैसा क्या चीज़ है, वो जानते ही नहीं है । मेरी ये उमर हो गयी है अभी अगर आप मुझसे कहें कि 'चेक लिखो।' तो मैं कहूँगी कि, 'तुम लिख दो, मैं सही करती हूँ। मेरे को, मेरे बस का नहीं।' उधर बुद्धि नहीं चलती है नं! 'भगवान के उपर पैसा चढ़ा दिया, बस, वहाँ हमारा टिकट कट गया है।' ये तो पोप का जमाना आ गया। यहाँ के पोप कहते हैं, 'चलो, टिकट कटा लो। तुमको हम स्वर्ग भेज देंगे।' वो स्वयं नर्क में जा रहे हैं वहीं आप उनके पीछे -पीछे चले जाईये | इस तरह की हमारी जो प्रवृत्तियाँ बनी जा रही है, उसका कारण कि हम अपने अज्ञान में संतुष्ट हैं। जैसे भी हैं 'वाह! मस्त है।' लेकिन नीचे से धरती खिसकती जा रही है। उससे सम्भलना चाहिए। ये धरती नीचे से खिसकती जा रही है। इस खिसकती हुई धरती पर आप खड़े हुये हैं। ये धरती, जो शस्य श्यामला, पुण्य भूमि है, इसको अपुण्य से भरने से ही आपने कुछ भी नहीं पाया हुआ है। आज आपके सामने कुण्डलिनी के बारे में बताया गया है। अब ये जो बताना है, ये तो सब कुछ विद्या है। हम बतायेंगे ही। आप जानेंगे ही कि आपके अन्दर कुण्डलिनी नाम की शक्ति है । वो शुद्ध और आप व्रत भी लें तो आप सब पाठांतर कर लीजियेगा। और सब भाषण हमारे जैसे देने भी लग जाएंगे। लेकिन उससे फायदा क्या होने वाला है? जब तक आपको उसका अनुभव न हो, तो इस | अनुभव शून्य, ऐसे अज्ञान में क्या मिलने वाला है? आप अपने को कुछ भी समझ लें लेकिन आप अनुभव शून्य हैं। और अनुभव प्राप्त करना यही हमारा एक ही परम कर्तव्य है। क्योंकि इस भारत वर्ष में ही ये जड़ों की विद्या है । ये मूल की विद्या यहीं पर है। इसी देश से सारे संसार को प्रेरित करने के लिए जो प्रकृति ने और अवतारों ने व्यवस्था की है वो सब हमारे जिम्मेदारी पर है। हम हिन्दुस्थानियों के जिम्मेदारी पर है। इस भारतीय लोगों के जिम्मेदारी पर है जहाँ कि हमें ये कहना है कि, 'हाँ हम इस ज्ञान को प्राप्त करेंगे। इस ज्ञान में उतरेंगे।' लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप किताबे पढ़िये। बिल्कुल भी नहीं होता। किताबे पढ़ने से मेरा मतलब नहीं है। अगर ये डॉ वॉरेन सिर्फ किताबें पढ़े होते तो ये कुछ भी न कह पाते। लेकिन जो अनुभव से जाना हुआ है, अनुभव से जो इन्होंने पहचाना हुआ है तभी तो न ये इन्होंने तीन विषय में क्या पता नहीं पीएचडी किये हैं, फलाना किये हैं, ठिकाना किये हैं । 11 अब एक छोटी सी बात साइन्स की आपको बताऊं| एक बड़े भारी साइंटिस्ट हैं, जिनका नोबल प्राइज थोडे इससे चूक गया। तो उन्होंने कहा कि, 'माँ, आप कहती हैं कि मूलाधार चक्र पे श्रीगणेश का स्थान है और एक तरफ से वो ॐकार हैं और दूसरी तरफ से वो स्वस्तिक हैं। ये क्या है?' मैंने कहा कि, 'भाई तुम तो मॉडर्न आदमी हो, तुम्हें कोई मुश्किल नहीं है पता लगाना। तुम ऐसा करो एक अॅटम का चित्र बनाओ| एक बार लेफ्ट से बनाओ और एक राइट से बनाओ। कार्बन अॅटम को ले कर के तुम चित्र बनाओ।' उन्होंने मुझे खबर की कि, 'माँ, आश्चर्य की बात है कि जब लेफ्ट साइड से देखते हैं तो ओंकार दिखाई देता है क्योंकि राइट साइड दिखाई देती है। जब राइट साइड से देखते हैं तो लेफ्ट साइड में क्या दिखायी देता है, स्वस्तिक! और ये कार्बन का अॅटम है। आपने कैसे ये बात कही है?' मैंने कहा, 'लिखा हुआ है चत्वारी। इसमें चार वेलन्सीस हैं वही कार्बन है। इसमें कौनसी ऐसी नयी बात मैंने बतायी। लेकिन ये कि तुम लोग विश्वास क्यों नहीं करोगे। ' घर में गणपति का चित्र रखा हुआ है उसको नमस्कार कर लिया। पर किसी डॉक्टर से में कहूँ कि भाई, इस गणपति की वजह से तुम्हारा पेल्विक प्लेक्सस चलता है।' तो कहेंगे कि, 'रहने दीजिए, रहने दीजिए माताजी। अब इसके उदाहरणार्थ मैं आपको बताती हूँ कि हमारे एक सहजयोगी थे, काफी उमर के, उनका नाम था अग्निहोत्री साहब। और उनके यहाँ बहुत अग्निहोत्र ह्ये। और बड़े खानदानी ब्राह्मण थे। वो पूना से हमारे पास आयें और मुझे कहने लगे कि, 'माँ, आश्चर्य की बात है कि मुझे तकलीफ हो रही है वो मूलाधार चक्र से!' मैंने कहा, 'ये कैसे हो रही तुमको मूलाधार चक्र से।' माने ये कि एक वहाँ ग्लैण्ड होता है, वो ग्लैण्ड अब काम नहीं कर रहा है। मैंने कहा, 'ये कैसे हो सकता है? हो ही नहीं सकता। क्योंकि तुम तो गणेश के भक्त हो और सहजयोगी हो।' तो उस वक्त जब वो जाने लगे तो जो प्रसाद है चने, मैंने कहा, 'अच्छा, अब चना खाओ।' मैंने उनके हाथ में चना दिया। तो हमारा इधर-उधर आना-कानी करने लगे। मैंने कहा, 'तुम्हें अपनी प्रोस्टैट ग्लैण्ड ठीक करनी है या नहीं। मैंने कहा, 'आना-कानी क्यों करते हो?' कहने लगे, 'माँ, कल खा लूंगा।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने है प्रोस्टैट लगे, 'आज संकष्ट है। आज में चना वरगैरे नहीं खाता। मैंने कहा, 'यही कारण तुम्हारा खराब होने का। कहने लगे, 'ये क्यों कारण?' मैंने कहा, 'जिस दिन गणेश का जन्म हुआ वो संकष्टी तुम मनाते हो! जिस दिन किसी का जन्म होता है उस दिन तुम उपास करते हो? क्या तुमसे गणेशजी खुश होंगे? खाओ अभी।' चना खा कर के, आप विश्वास नहीं करेंगे कि लेकिन आप पूछ सकते हैं, वो जब पूना पहुँचे तो देखते हैं कि उनकी प्रोस्टैट एकदम ठीक चलने लग गयी। इस प्रकार की हम अनेक गलतियाँ करते रहते हैं। जब कभी भी कोई भगवान का जन्म होना है तो सूतक बना के बैठ गये। सूतक कर रहे हैं। माने ये कि जो हमारी पूजा - अर्चना है उसे भी हम नहीं समझते। वही हाल अंग्रेजों का है। जब कोई मरा तो शॅम्पेन पिएंगे। ईसा-मसीह का जिस दिन जन्म 12 हुआ उस दिन शॅम्पेन पिएंगे। उनसे कहा, 'भाई, शॅम्पेन तुम क्यों पीते हो ? शराब तो निषिद्ध है। कैसे आप शराब पी सकते हैं क्योंकि ये चेतना के विरोध में है।' वो कहेंगे कि, 'होगा आपके धर्म में, हमारे धर्म में नहीं। 'कैसे?' 'ईसा-मसीह ने एक शादी में शराब बनाई।' मैंने कहा, 'हो ही नहीं सकता। उन्होंने पानी को द्राक्षासव, द्राक्ष का रस बना दिया। आप बताईये शराब को सड़ाये बगैर बनती है क्या शराब? एक क्षण में कोई बना सकता है शराब?' लेकिन इस बात को पकड़ के अब शराब पीना ही ईसाई धर्म हो गया है। इसी प्रकार उपास करना ही हमारे यहाँ हिन्दू धर्म हो गया। ठीक है, परमात्मा कहते हैं कि, 'तुमको उपास करना है, तो उपास कर लो ।' करो उपास। जिस जिस की आप इच्छा करेंगे वो वो इच्छा परमात्मा आपकी पूरी करते हैं। उलटी खोपडी से परमात्मा नहीं समझा जा सकता है। जो वो हैं वो हैं। उनके आगे आप अगर कहें कि, 'हम आपको बनायें और आपकी हर व्यवस्था खुद करेंगे, तो ये बड़ी गलतफहमी हम लोगों को है आप स्वतंत्र हैं, ऐसा आप कहते हैं। स्वतंत्रता के लिए हमने भी बहुत आफतें उठायीं। आज हम लोग स्वतंत्र हो गये। लेकिन मैं नहीं सोचती आप स्वतंत्र हैं। आपको स्वातंत्र्य मिला है, लेकिन 'स्व' का तंत्र जानना चाहिए। शिवाजी महाराज जो थे वो आत्मसाक्षात्कारी थे। उनको मैं कहती हैँ पूरे भारतीय थे। उन्होंने कहा कि 'स्व' का तंत्र जानना चाहिए। उनके गुरू रामदास स्वामी थे। उन्होंने उनसे बताया कि, 'देखो, जब तक स्वधर्म नहीं बनने वाला, 'स्व' का धर्म, स्वधर्म, तब तक इस देश का कल्याण नहीं होगा। अब उनके नाम से ही लोग आफत मचाये हये हैं। पर जिस स्वधर्म की बात की थी, उस 'स्व' को जानने के लिए कोई भी प्रयत्नशील नहीं है | सारे धर्मों में यही रोना है। मोहम्मद साहब की तो बात क्या कहने। उन्होंने तो साफ कहा है कि 'जब उत्थान का समय आयेगा तब आपके हाथ बोलेंगे।' इसको 'कयामा' कहते हैं। उत्थान का समय, रिझरेक्शन का समय, जिसे कहना चाहिए उत्क्रान्ति का समय आयेगा तब आपके हाथ बोलेंगे। उन्होंने इतना कुछ कुराण में लिखा है। मेरे पिता ने खुद इसका ट्रान्सलैशन किया है, मैं जानती हँ। उन्होंने साफ लिखा है कि उस वक्त आपके हाथ बोलेंगे। इसका मतलब क्या है? सारे नमाज जो हैं कुण्डलिनी का जागरण है। और उन्होंने जो 'अल्लाह-हो-अकबर' कहा हुआ है वो अकबर भी विराट श्रीकृष्ण की बात थी । लेकिन ये बात कहने से मुसलमान कल मुझे मारने दौडेंगे। और इससे भी अगर आगे बातें करने लग जाऊं तो हिन्दू भी मुझे मारने दौडेंगे। क्योंकि सत्य का विपरीत रूप करने से ही आज हम हर तरह से धर्म में, अधर्म में हर तरह से एक भ्रान्ति में हैं। इस भ्रआान्ति को हटाने के लिए सबसे पहले जैसे डॉ. वॉरेन ने बताया है और जैसे आप सब सहजयोगी कहेंगे कि पहले आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हो। ये खेल-खिलवाड की बात नहीं है कि आप जिससे चाहें उससे खेल-खिलवाड कर लें। आप अपने से खेल-खिलवाड कर रहे हैं। लेकिन ये टाइम, ये समय ऐसा है इस वक्त चूकना नहीं चाहिये। अगर 13 आप इमानदार हैं और अगर आप अपने जीवन को पूर्णतया समझते हैं, तो एक बात तो माननी होगी तो कि अब आप में कुछ कमी तो जरूर है। आप केवल सत्य तो नहीं हैं, आप ऐब्सेल्यूट तो हैं नहीं, उसके लिए अगर ऊर्ध्वगामी जाने के लिए कुण्डलिनी ही की व्यवस्था की हुई है, तो क्यों न उसे किया जाए। हर शास्त्र में, लाओत्से की ही किताब आप पढ़ लीजिए या आप कन्फ्यूशिअस को लीजिए या आप सॉक्रेटिस को पढ़ लीजिए, दुनिया के जितने भी बड़े-बड़े महान लोग हो गये हैं सबने यही कहा हुआ है कि आपको अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होना चाहिए। लोग आते हैं, 'हम पढ़ साहब ज़ेन कर रहे हैं।' ज़ेन माने क्या? ज़ेन माने ध्यान, पर ध्यान किया नहीं जाता, होता है। एक ज़ेन के बड़े भारी प्राचार्य यहाँ आये थे, जो कि वहाँ के हेड ऑफ ज़ेन सोसायटी और उनको कोई बड़ी शिकायत थी, तो मुझे लोग ले गये कि, 'माँ, इनको ठीक करो।' तो मैंने कहा, 'भाई, ज़ेन कैसे हो? तुम्हारी तो वैसी दशा नहीं है।' 'माँ हूँ ना' तो सच कह दिया । 'तुम्हें तो तुम आत्मसाक्षात्कार हुआ नहीं। तो आपने इतनी बड़ी अपने उपर जिम्मेदारी कैसे ले ली। कहने लगे कि, 'छठी शताब्दी से ले कर के बारहवीं शताब्दी तक जरूर छब्बीस ज़ेन ह्ये थे | जिसको वो काश्यप कहते हैं। देखिये, अपने कश्यप मुनि के पुत्र काश्यप का नाम रखा है। वो काश्यप , रिअलाइज्ड सोल थे। और उसके बाद फिर हये ही नहीं । तो मैंने कहा, 'फिर तुम ज़ेन- वेन मत करो । तुम समझ ही नहीं पाओगे कि ज़ेन क्या है? जब तक तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं होता है, तब तक तुम्हें ज़ेन करना व्यर्थ है।' आत्मसाक्षात्कार के बाद जो सामाजिक कार्य होता है उसमें मनुष्य जानता है कि आनन्द और सुख क्या है। उसमें मनुष्य जानता है कि दूसरे आदमी की क्या विशेषता है ? यहाँ पर आपके कलकत्ते में एक बार जब शुरू में हम आये थे, एक होटल में ठहरे थे, वहाँ कोई ऐसे अजनबी ने हमारा नाम सुना और वो हमसे मिलने आये और कहने लगे कि, 'माँ, हमें आप आत्मसाक्षात्कार दीजिए|।' हमने कहा, 'अच्छा, कोई बात नहीं।' और जब वो मेरे पैर पे आयें, उनकी कुण्डलिनी इतनी जोर से उपर में आयी। जो दूसरे सहजयोगी, दूसरे कमरों में बैठे हुये थे उनको ऐसा लगा कि पता नहीं कहाँ से इतना आनन्द बरस आ रहा है । वो दौड़ते-दौड़ते मेरे कमरे में आ के पूछते हैं, 'माँ, किसको आपने आत्मसाक्षात्कार दिया?' मैंने कहा, 'देखो!' जब उसपे हाथ रखा, तो आनन्द विभोर हो गया 'ओ... हो... हो माँ क्या है! ऐसे-ऐसे अनुभव, अनेक अनुभव सहजयोग में आते हैं। जहाँ जिस आदमी को हम सोचते हैं कि बहुत उँचा आदमी है, जब उसके पास जाईये तो लगता है कि बिल्कुल घास-फूस और कचरा है। और कोई आदमी के लिए सोचते हैं कि अरे, ये बिल्कुल बेकार आदमी है, किसी काम का नहीं, उसको देखते हैं तो पता नहीं कब का आत्मपिंड हैं, कब का ये बड़ा महान पुरुष रहा, इस संसार में 14 आया है। लेकिन इसको पहचानने के लिए भी तो आपके पास में वही, केवल सत्य होना चाहिए कि उसकी ओर हाथ करके आप जान लेते हैं कि क्या है! कुंभ के मेले में जाने की आज-कल बड़ी आफ़त मची हुई है, कुंभ के मेले में। क्यों जाना कुंभ के मेले में? क्या आप गंगाजी को पहचान सकते हैं? क्या आप जमनाजी को पहचान सकते हैं? अगर आपके पास गंगाजल ला के रखा तो क्या आप पहचान लेंगे कि ये गंगाजल है? नहीं पहचान सकते। कारण आपके पास में केवल सत्य नहीं है। जब गंगाजल सामने रखियेगा तो कोई भी सहजयोगी बता देगा कि ये गंगाजल है क्योंकि उसमें से चैतन्य की लहरियाँ आ रही है। जो शिवजी के से बह रही गंगा है, तो उसमें तो चैतन्य आना ही हुआ। अब गंगाजी को हम पूजते हैं, सहस्त्रार लेकिन गंगाजी जो सूक्ष्म है उसको तो जानते ही नहीं कि चीज़़ क्या है ये गंगाजी ? सालों से चला आ रहा है, 'गंगाजी में नहाओ, गंगाजी में नहाओ |' ये तो ऐसा है जैसे पत्थर उसमें पड़े हये हैं, ऐसे ही लोग नहाते हैं और बाहर आते हैं। और फिर उनमें कोई भी ऐसा दिखता नहीं कि गंगाजी हो के आये तो कोई विशेष बात की। ऐसे ही जो लोग हज में जाते हैं, वहाँ से लौट के आते हैं तो फिर वही स्मगलिंग करते हैं। जब हज हो के आयें, हाजी हो गये, दाढ़ी बढ़ा ली, अपने को हाजी बनके घूम रहे हो तो भाई, कुछ तो असर दिखाई देना चाहिए । कोई नहीं! सब एक ही साथ एक जैसे ही रह जाते हैं जैसे गये थे वैसे ही बिल्कुल नीरे, कोरे जैसे गये थे वैसे आया। क्या वजह है कि जो गंगाजी की सूक्ष्म चीज़़ है उसको आपने पकड़ा नहीं। और पकड़ेंगे भी ही कोरे वापस चले आये। कुछ असर नहीं 6. कैसे? अब यहाँ पर हमारे यहाँ जागृत स्थान है। हम तो कहते हैं कि हैं। हर जगह हमारे यहाँ जागृत स्थान है, और ये बायबल में भी लिखा हुआ है कि जो पृथ्वी तत्व ने और आकाश ने बनाया हुआ है। उसको फिर से बना कर उसकी पूजा न करें। इसका मतलब वो नहीं कि जो पृथ्वी तत्व ने बनाया है उसकी हम पूजा न करें। अब ये तत्व हमारे यहाँ पृथ्वी तत्व से निकले हुये जो जागृत स्थान हैं.... आप कैसे जानियेगा कि ये जागृत है या नहीं? कहीं पत्थर रख दिया, 'हाँ, ये जागृत स्थान है।' अब राम की भूमि है कि नहीं है ? ये जानने के लिए मुसलमान और हिन्दू दोनों को अगर पार कराईये तो कहेंगे कि ये श्रीराम की भूमि है इसमें शंका नहीं । लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सब हिन्दू जा के वहाँ लड़े और लड़ के राम की भूमि भी मिल गयी तो भी क्या फर्क आने वाला है हमारे अन्दर! ये बाह्य की चीज़ों से अंतर्योग घटित नहीं होता है। जब अंतर्योग हो जाएगा तो समझ में आ जायेगा मुसलमानों को भी और हिन्दुओं को भी कि श्रीराम की भूमि है और श्रीराम ये मुसलमानों के लिए कोई दूसरे नहीं है। और हमारे लिए भी मोहम्मद साहब कोई दूसरे नहीं हैं। ये लोग सब रिश्तेदार हैं, बड़े पक्के, आपस में। इनका कभी भी झगड़ा नहीं होता। एक-दूसरे के सहायक हैं आपको पता नहीं। 15 लेकिन हम ही लोग बेवकूफ जैसे एक का नाम ये लिया, एक का नाम ये लिया, लड़ते रहते हैं। जैसे कि एक पेड़ पे अलग-अलग समय पर निकले हुये महासुन्दर फूल हैं। उनको अलग हटा लिया, उनको तोड़ लिया, जब वो मर गये तो ये मेरा फूल, ये मेरा फूल, पर अरे भाई, तुममे क्या विशेषता आयी है? कौनसी विशेष तुमने बात करी? जब खराबी पर आते हैं हो तो सब एक साथी ही हैं। तब तो कुछ दिखायी नहीं देता। इस तरह से पंथ, जातियाँ बना-बना कर के हम लोगों ने एक तमाशा बेवकूफी का खड़ा किया है। कितने बेवकूफ इन्सान हैं आप ही सोचिये। ये बेवकूफी के लक्षण हैं या नहीं कि हम इस तरह से 'ये मेरा धर्म, ये मेरा धर्म' । अरे, धर्म तो है ही नहीं तुम्हारे अन्दर | जिस वक्त कुण्डलिनी का जागरण होता है, तो जिसे हम लोग वॉइड कहते हैं, जिसको भवसागर कहते हैं, उस भवसागर में जब प्रकाश आता है तो धर्म अपने आप जागृत हो जाता है। ऐसे आदमी धर्मातीत होते हैं। माने आप ही सोचिए कि तुकाराम, जो बड़े संत हो गये। अगर कभी उनसे कहना पड़ता था कि 'आप शराब मत पिओ या दूसरों का पैसा मत खाओ?' कहना पड़ता था क्या? उन संतों से कहना तो नहीं पड़ता था ना! नानक साहब से ये तो नहीं कहना पड़ता था कि, 'भाई, तुम चोरी-चकारी मत करो ।' उनको ये बात मालूम ही नहीं थी । माने वो धर्मातीत लोग थे। और ऐसे लोग हमारे देश में हो गये हैं। और उन्होंने जो बता दिया है अगर उनकी तरफ जरा सी भी नज़र करें तो समझना चाहिए कि वो कोई झूठ बोलने वाले तो लोग नहीं थे । उन्होंने जो बता दिया उसे हमने क्यों न करना चाहिए । इन लोगों की बातें भी और तरह की हैं मैं आपसे बताऊं। ये जाति-पाति को लेने वाले जो लोग हैं, खास कर के सारी ही जाति में बड़े-बड़े संत हैं। महाराष्ट्र में तो इसकी आप पुष्पमालिका बना लीजिए । यहाँ पर एक, हमारे यहाँ एक दर्जी जो कि नामदेव के नाम से मशहर हैं। कभी नामदेव कहते हैं, संत नामदेव, वो गये मिलने.... किसे तो कुम्हार एक था, जो गोरा कुम्हार था। हम लोग उँची जाति और निची जाति ये सारा कुछ अपना दिमागी जमा-खर्च चलाते रहते हैं। वो जब उनसे मिलने गये तो उन्होंने मराठी में काव्य किया हुआ है। नामदेव बहुत बड़े कवी थे। 'निर्गुणाच्या भेटी, सगुणाशी।' निर्गुण को मिलने आया तो सगुण मेरे सामने खड़ा हो गया। कितनी बड़ी बात है। इसको समझने के लिए भी आपको आत्मसाक्षात्कार चाहिए कि वो तो चैतन्य देखने आये थे तो सगुण हो गया चैतन्य। ये बातें हम लोग नहीं कर सकते। वो एक कुम्हार था, मिट्टी से खेलने वाला और ये एक दर्जी था। अब हमारे यहाँ के बड़े बुद्धिमान लोग हैं, वो कहते हैं कि, 'साहब, ये जो नामदेव, जिनको आलो गुरू नानक ने पाचारण किया था, जिनका इतना आदर किया था, जिन्होंने हिन्दी और पंजाबी में इतने सुंदर काव्य लिखे और जो इनके ग्रंथसाहब में नामदेव जी का नाम है वो दूसरे थे और ये दर्जी दूसरा था।' ये अकल निकाली और दूसरी अकल की बात ऐसी निकाली है कि आदि शंकराचार्य, जिन्होंने 16 विवेक चुडामणी आदि ग्रंथ लिखे थे उन्होंने सौंदर्य लहरी नाम की चीज़ लिखी ही नहीं। क्योंकि सौंदर्य लहरी इनकी खोपड़ी में जाती ही नहीं है। इसलिए सौंदर्य लहरी नाम की चीज़, जिसमें माँ की स्तुति कर दी ये क्या ये बेवकुफी की बात है इनके साथ। ऐसे विद्वानों के चक्कर में रह-रह कर के और ऐसे लोगों के लेक्चर सुन-सुन के हम लोग भी 'पढ़ी पढ़ी पंडित मूरख भये' । जब कबीरदासजी को मैं पढ़ती थी। मैं कहती कि ऐसी कैसी बात कबीरदासजी कहते हैं कि पंडित कैसे मूरख हये ? अब ऐसे बहुत मुझे मिलते हैं। और जब ऐसे मिलते हैं तो मैं चुप्पी लगा जाती हूँ और कबीरदासजी से | कहती हूँ कि, 'अच्छे दर्शन दिये आपने इन लोगों के।' कबीरदासजी के साथ कितने अन्याय हये। कबीरदासजी ने कुण्डलिनी को सुरति कहा। साफ- साफ बात लिख दी थी कि ये सूरति है। उस पर हमारा आक्रमण इतना बूरा और भद्दा है कि बिहार में और हमारे उत्तर प्रदेश में जहाँ मेरा ससुराल है, वहाँ पर लोग तम्बाकू को सूरति कहते हैं। और पता नहीं कौनसे-कौनसे उल्टे देशों में कहते हैं। पर बहरहाल इन दोनों को मैं जानती हूँ। कहाँ तो कुण्डलिनी और कहाँ ये राक्षसी तम्बाकू। कैसे इसका मेल बिठाया और कबीरदासजी को भी सारे बड़े-बड़े विद्वान, हमारे हिन्दी के साहित्यिक हैं उन्होंने कहा कि साहब, इनकी भाषा तो सब भुक्खड़ ही है। और इसमें कोई सौष्ठव ही नहीं है। क्या कहा जाए? मैं तो कहती हैँ कि जब आप जनसाधारण से बातचीत करिये तो रोजमर्रा की ही भाषा में बोलना चाहिए, नहीं तो लोग समझेंगे कैसे ? हम तो महाराष्ट्र के रहने वाले हैं और आप जानते हैं कि महाराष्ट्र की भाषा बहुत ही, जब हिन्दी बोलते हैं तो अत्यन्त क्लिष्ट भाषा होती है। उस क्लिष्ट भाषा को कोई समझ नहीं पाता है। मुझे तो सोच-सोच कर के ये देखना पड़ता है कि रोजमर्रा की भाषा में किस तरह से बोलूं। और उन्होंने रोजमर्रा की भाषा में इतना सुन्दर और इतना गहन विषय लिखा है और सभी संतो ने ऐसे किया है । एक सजन कसाई थे। कसाई थे वो कसाई। उनका किस्सा है कि एक बार एक बड़े भारी साधु बाबा पहुँचे और उनके किसी पेड़ के नीचे बैठे थे। तो उनपे एक चिड़िया ने गन्दगी कर दी। तो उसकी ओर देखा तो चिड़िया टप से मर गयी और नीचे गिरी। आगे गये, देखते हैं एक औरत, वहाँ जा के दरवाजा खटखटाया। उसने कहा, 'अभी ठहरिये में आती हूँ। उसने फिर कहा, 'चलो भिक्षा दो।' तो चावल ले के आयी। कहती हैं, 'बिगड़ने की कौनसी बात है। जिस चिड़िया को उपर से नीचे टपकाया है वैसी मैं नहीं हूँ। आप कोशिश कर लीजिए ।' तो उसने कहा, 'तुमने कैसे जाना ?' कहने लगी, 'जाना, कुछ न कुछ बात तो है ही जानने की।' कहने लगी कि, 'देखिये, आप यहाँ से आगे जाईये, एक गाँव है वहाँ जा के पूछो कोई सजन है क्या ? उस सजन ने मुझे सिखाया है।' तो ये उस गाँव में गये। उन्होंने कहा, 'यहाँ पर कोई सजन नाम का आदमी रहता है।' कहने लगे, 'कोई नहीं। एक कसाई रहता है।' कहने लगे, 'उसको भगवान-वरगवान का कुछ है?' 'बाप रे! बहुत है।' जब वहाँ 17 पहुँचे तो उन्होंने कहा कि, 'आपके बारे में मैंने सुना है।' कहने लगे, 'मालूम है। तुमने चिड़िया को मारा था। और उस गाँव में गये थे वहाँ उस लड़की ने तुमसे बताया। ठीक है। अब तुम यहाँ पहुँच गये हो। हैरान हो गये 'इन्होंने मेरे बारे में इतना कैसे जान लिया ?' वो एक कसाई था, कसाई। लेकिन हम कसाईयों पर विश्वास नहीं करने वाले जो कि संत शिरोमणी हैं! हमारे लिये तो संत तो ये हैं जो जेल से छूट कर आया हो पहली बात। कुछ न कुछ फ्रॉड किया हो। पहला, कम से कम फ्रॉड करने लायक हो। उसके बाद वो टीला-वीला लगा कर के, गेरूआ वस्त्र पहन कर के चौक में बैठ सकता है और लम्बे-लम्बे भाषण दे सकता है। हो सकता है किसी पोलिटिकल लीड्र रहा हो। अब उधर चली नहीं तो उसने ये धंधा शुरू कर दिया। ऐसे ही धंधे हम लोग शुरू करते हैं और लोग, ऐसे लोगों को, वाह ! वाह! ऐसे चक्करों में घूम-घूम कर के आप लोग कहाँ पहुँचे? सर्वनाश का समय आ गया है। बड़ा चक्र चल रहा है। आपको नहीं पता है कि कालचक्र कितनी जोर से हमारे उपर दौड़ा आ रहा है। सारे संसार में ये फैलने वाला है। और इसको रोकने का पूरा उत्तरदायित्व, इसकी पूरी जिम्मेदारी, रिस्पॉन्सिबिलिटी आप लोगों पर है जो हिन्दुस्थानी बनते हैं और विशेष कर बंग देश में रहते हैं। जो कि माँ के पूजारी हैं। और आजकल सिर्फ महिषासुर की पूजा करते हैं। आज आपसे मैंने जो बात कही वो उस तरीके से कहना ठीक है कि प्रेम की ओजस्विता है। एक माँ की पहचान इसमें होती है कि वो सही बात अपने बच्चों से निर्भिक कह दें। शिवाजी महाराज के माँ के बारे में आपने सुना होगा जिजाई, जिसने कि अपने बच्चे को हमेशा तलवार की धार पे खिलाया है। ईसा- मसीह की माँ साक्षात लक्ष्मी थीं। लेकिन अपने बच्चे को सूली पर चढ़ता हुआ उस औरत ने देखा होगा। हमारे देश में ऐसी अनेक स्त्रियाँ हो गयी। जिनके एक एक के नाम लीजिए तो रौंगटे खड़े हो जायें । लेकिन आज हम ये देखते हैं कि अंधकार में बढ़ते-बढ़ते पाश्चिमात्यों का हाथ पकड़ लिया अब तो पूरी तरह से बेड़ा गर्क है। कृपया कम से कम ये न कर के थोड़ी नज़र अपनी ओर करें और इस आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हो। आज आशा है आप लोग सब आत्मसाक्षात्कारी बनेंगे। लेकिन आज एक क्रान्ति का दिन है, जब कि घर में बैठ के घंटा बजा के पूजा करने वाले नहीं है। आज सामूहिक तरीके से सहजयोग करना होगा। सामूहिकता में ही आप सहजयोग में बढ़ पाएंगे नहीं तो आप बढ़ नहीं पाएंगे। इसलिय जान लीजिए कि जो लोग, बहुत लोग कहने लगे कि, 'हम तो माँ आपसे दीक्षित हो गये' और फिर यहाँ दीक्षित कहते हैं। दीक्षित हो गये। और आगे क्या? 'हम घर में बैठ कर आपकी पूजा करेंगे।' उससे कोई फायदा नहीं होने वाला। आपको सामूहिकता में उतरना चाहिए। परमात्मा आप सबको सुबुद्धि दें और उस सुबुद्धि में आप परमात्मा को प्राप्त करें। आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! 18 19 79 सहजयोगियों से बातचीत ग्लैनरॉक, आस्ट्रेलिया, १ मार्च १९९२ आज मैं आपसे कुछ ऐसे मामलों पर बात करना चाहती हूँ जहाँ लोग उलझ जाते हैं। सहजयोग में कुछ बातें समझ लेना आवश्यक है। पहली बात - सहजयोग में धर्मान्धता का कोई स्थान नहीं है । कोई भी मेरे शब्दों का प्रयोग न करे, न ही ये कहे कि श्रीमाताजी ने ऐसा कहा था। इसी प्रकार चर्च में और अन्य स्थानों पर धर्माधिकारी वर्ग की रचना हुई। हर व्यक्ति पढ़ सकता है तथा पता लगा सकता है। यह कहना, कि श्री माताजी ने ऐसा कहा था, आप लोगों को वश में करने का तरीका है। यह दर्शाता है कि आप लोगों को अलग हटने के लिए कह रहे हैं। आप कार्य-भारी नहीं हैं। यदि मैं सहजयोगियों के कार्यक्रम में कोई बात कहती हूँ तो इसलिए कि यह मेरे तथा मेरे बच्चों के बीच दिल की बात होती है। बिना अगुआ से सम्पर्क किए, अनियन्त्रित रूप से, आपके कम्प्यूटरों द्वारा इसे चहूं और फैलाया नहीं जाना चाहिए । सहजयोग में कोई उतावली नहीं है। अतः उतावलापन नहीं होना चाहिए। यह बात में स्पष्ट रूप से कह रही हूँ। मैंने जो भी कहा उसे कोई याद नहीं रखता। वे केवल मेरा नाम प्रयोग करते हैं। माँ ने १९७० में ऐसा कहा था। १९७० में मैं कभी अंग्रेजी नहीं बोली। अत: ये सब ऐतिहासिक कथन प्रयोग नहीं किए जाने चाहिए। हम वर्तमान में रहते हैं। हो सकता है उस समय स्थिति कुछ भिन्न रही हो। हो सकता है तब सहजयोगी नए-नए सहजयोग में आ रहे थे, हो सकता है उन्हें किसी प्रकार के पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता रही हो। यह एक यात्रा है। उतराई या चढ़ाई पर चलते समय आपको भिन्न विधियाँ अपनानी पड़ती है। अब आप समतल पृथ्वी पर चल रहे हैं। आपका व्यवहार ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे ये लगे कि आप पर्वत पर चढ़ रहे हैं। अत: यह सहजयोग की पर्वत पर यात्रा है। सहजयोगी की हमारे लक्ष्य तक यात्रा है और सहजयोग में अधिकाधिक लोगों को मुक्ति देना ही हमारा लक्ष्य है। पर इस पर कब्जा नहीं किया जाना चाहिए। मैं पुन: आपको बताती हैँ कि किसी को भी नेता (अगुआ) से इसे नहीं छीनना चाहिए। मैंने आप लोगों से मिलकर कार्य करने के लिए नेताओं की नियुक्ति की है। पर सदा आपका सीधा संबंध मुझसे है। अभी तक परमात्मा को मानने वाले लोगों का सीधा सम्पर्क परमात्मा से न था। पर अब आपका है। तो क्यों न आप मेरा उपयोग करें? और यदि नेता हैं तो आपको उनसे पूछना होगा। कोई भी अपने हिसाब से लोगों को उपदेश देना शुरू न कर दे। हमें उपदेश पसन्द नहीं है। काफी उपदेश दे चुके। अन्य लोगों को उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आपको उपदेश देने ही हैं तो स्वयं को दीजिए, दूसरे लोगों को नहीं। व्यक्ति को समझ लेना है कि यह एक जीवन्त प्रक्रिया है। किसी जड़ के छोर पर स्थित अणु द्वारा हम यह समझ सकते हैं। इसमें विवेक होता है और अपने पर इसका पूर्ण अधिकार होता है। इसका 22 सीधा संबंध दैवी शक्ति से होता है। अत: स्वत: ही यह चलता है, पर वृक्ष की जड़ की तरह इसका चित्त सामूहिकता पर होता है। यह ऐसे दिशा में चलता है कि न कोई वाद-विवाद होता है न झगड़ा, अर्थात् कोई बाधा ही नहीं होती। मान लीजिए कि यदि चट्टान सी कोई बड़ी बाधा आ जाए तो यह इसके गिर्द से निकल जाता है। वृक्ष के हित में यह चट्टान के कई चक्कर लगाता है। से आप यह जान सकते हैं कि आप कहाँ तक पहुँचे हैं। तथा भविष्य से आप जान अंत: भूतकाल पाते हैं कि लक्ष्य कितनी दूर है। यह समझना अतिमहत्वपूर्ण है क्योंकि पार्चात्य बुद्धि में ये बातें बड़ी सुगमता से घुसती हैं। वे मुझ से सीधा संबंध नहीं रखना चाहते। ऐसा न करके आप समूह (ग्रुप) बनाने लगेंगे, एक व्यक्ति उठकर कहेगा , 'श्रीमाताजी ऐसा कहती हैं'। कोई अन्य मेरे टेप आदि का उपयोग करेगा। ऐसा करने की आपको कोई आवश्यकता नहीं है । यदि वे किसी चीज़ की रचना करना चाहते हैं तो सीधे मुझसे बात करें, अपनी मनमानी न करें क्योंकि यह तो सहजयोग के प्रति अति अनुचित दृष्टिकोण है। अत: सर्वप्रथम हमें समझना है कि यह एक जीवन्त प्रक्रिया है। केवल आप ही इसका सारा श्रेय नहीं ले सकते। इस पर आप बनावटी बातें नहीं थोप सकते जो सहजयोग की बढ़ोतरी में बाधक हों। आप इसे किसी विशेष नमूने में नहीं परिवर्तित कर सकते । यह स्वयं ही परिवर्तित होता है तथा कार्य करता है। अत: सहजयोग में पुरोहित तन्त्र के लिए कोई स्थान नहीं है, अभी नहीं। ये धर्माधिकारी अन्ततः आपमें और मुझमें दीवार बन जाते हैं। सभी नेताओं को बता दिया गया है कि कोई भी पत्र या वस्तु आपको मिले तो वह मुझे भेज दें । मैं स्वयं उसे देखना चाहूँगी। कभी-कभी वे ऐसा करते हैं, पर आस्ट्रेलिया में कुछ नेताओं का मुझे बहुत बुरा अनुभव है। पर अब यहाँ पर आपका नेता एक अत्यन्त बुद्धिमान एवं विवेकशील व्यक्ति है। मेरे विचार में उसमें कोई कमी नहीं। केवल एक बात है कि कभी- कभी वह लोगों से कुछ अधिक ही कोमल होता है। दो स्त्रियों के कारण कल मुझे परेशान होना पड़ा। इसका कारण केवल एक था कि उसने उन्हें यह नहीं बताया कि वे कितनी भयानक थीं। अत: मुझे उनकी बकवास झेलनी पड़ी। एक नेता यदि अधिक नरम है तो लोग उसके सिर चढ़ जाएंगे तथा यदि वह सख्त है तो उसके पीछे पड़ जाएंगे। महसूस करने की बात केवल यह है कि सारी ही जीवन्त प्रक्रिया है और किसी एक व्यक्ति को माध्यम बनाकर माँ इस कार्य को अधिक सहज ढंग से कर रही है। मान लीजिए कि हर व्यक्ति छोटी- छोटी चीज़ के लिए मुझे लिखे तो बड़ा कठिन होगा। व्यर्थ की चीज़़ों के लिए मुझे लिखने का कोई लाभ नहीं। दूसरी बात पतियों या पत्नियों की है। आप ऐसी फिल्में या दूरदर्शन न देखें जिनमे पति -पलि को 23 झगड़ते दिखाया हो। ऐसा करने पर तोते की तरह, आप कुछ कठोर शब्द सीख लेंगे तथा पति-पत्नि से वैसा ही व्यवहार करेंगे। बहुत प्रश्न सुगमता से सुलझाए जा सकते थे। मेरे विचार में विवाह का निर्वाह करना जितना स्त्रियों का कार्य है उतना पुरुषों का नहीं । प्राय: पुरुष विवाह नहीं करना चाहते। चाहे उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं - बच्चे पैदा करने इत्यादि की। फिर भी वे विवाह नहीं करना चाहते। वे थोड़ा सा डरते से हैं - विशेषकर पश्चिमी देशों में-भारत में नहीं। भारत में लोग विवाह करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें प्रेम करने वाला, सामने न बोलने वाला, नम्र तथा उनकी बात को सुनने वाला, कोई साथी मिलेगा। पर पश्चिम में मैंने देखा है कि पुरुष विवाह ही नहीं करना चाहते। एक व्यक्ति से मैंने विवाह करने को कहा तो वह तीन दिन तक ओझल ही हो गया। आपको विवाह करने होंगे। पर मैं आपको बता दूँ कि इन विवाह संबंधी समस्याओं का कारण स्त्रियों का समझौता न कर पाना है। पहली बात यह है कि आपको अपने पतियों को बहुत प्रेम करना होगा। वास्तव में हर चीज़ के लिए वे आपके आश्रित हो जाएं। फिर वे क्या करेंगे? ऐसा आपको प्रेमपूर्वक करना है, कष्टदायी ढंग से नहीं। किसी चीज़ की माँग मत कीजिए, कुछ आशा मत कीजिए । मात्र स्नेहमय और करुण बनकर अपना प्रेम प्रकट कीजिए। तब उन्हें आदत पड़ जाती है। इसके बिना वे रह नहीं पाते। ये सब युक्तियाँ तो आपके माता-पिता को बतानी चाहिएं थी। शायद वे भी आपसे ही रहे हों। तो आपको व्यवहार की युक्तियाँ नहीं पता। विवाह के बाद हमें कहना चाहिए 'हम' । 'मैं' नहीं कहना चाहिए। और समझना चाहिए कि पुरुष स्त्रियों से भिन्न होते हैं। आप (स्त्रियाँ) समाज की सुरक्षा करती हैं और पुरुष उसका सृजन। आपमें कहीं अधिक धैर्य एवं करुणा होनी चाहिए। नि:सन्देह यह गुण आपमें हैं। अपने स्त्री-सुलभ गुणों को अपनाइए, आप आश्चर्यचकित होंगी कि आप पुरुषों के लिए शक्ति बन गई हैं। आप ही पुरुषों की शक्ति हैं। इसी कारण पुरुषों को आपका सम्मान करना चाहिए। यदि पुरुष स्त्रियों का सम्मान नहीं करते तो उन्हें हर प्रकार के कष्ट होते हैं - विशेष तौर पर भौतिक, वैभव तथा मान संबंधी कष्ट। कुछ स्त्रियाँ अत्यन्त अधिक अपेक्षा तथा आशा करती हैं। शायद रोमियो-जूलिएट सम रोमांचकारी फिल्में देखने का प्रभाव हो । पर उन्हें समझना चाहिए कि शेक्सपीयर तो अवधूत थे। वे इस तरह के जीवन की सारहीनता पर प्रकाश डालना चाहते थे। रोमियो-जूलिएट, दोनों की मृत्यु हो गई। एक-दूसरे की सहचारिता का आनन्द वे न ले सके। इंग्लैंड में भी हमारे सामने बहुत सी समस्याएं थीं | मुझे पता चला कि विवाह से पूर्व ही रोमांस की पुस्तकें वे पढ़ते हैं। विवाह से पूर्व रोमांस और विवाह के बाद झगड़ा। तो विवाह की आवश्यकता ही क्या है? 24 जब मैं कहती हैँ पुरुष ही परिवार का मुखिया है तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि पुरुष, स्त्रियों पर रोब जमाने लगें। मान लीजिए कि मैं कहूँ कि अमुक व्यक्ति आपका नेता है तो मेरा मतलब यह नहीं होता कि वह आप पर प्रभुत्व जमाए। यदि मस्तिष्क शरीर पर प्रभुत्व जमाने लगे तो शरीर का क्या होगा? इस तरह के परिणाम निकालना मूर्खता है। पर आप परिवार के हृदय हैं। मस्तिष्क की मृत्यु पहले हो सकती है पर हृदय तो अन्त में ही मृत होता है। अतः समझने का प्रयत्न कीजिए कि दिल और दिमाग में पूर्ण एकाकारिता होनी चाहिए। बच्चे सहजयोग समाज का चित्त हैं। तो यहाँ पर जब मैं किसी को सिर कहती हैँ तो सिर किस प्रकार हृदय पर रोब जमा सकता है? यह नहीं हो सकता। तो लोग यहाँ कहाँ से मेरे कुछ शब्द ले लेते हैं तथा सहजयोग में अपनी दुर्बलताओं को न्याय संगत ठहराने के लिए इनका प्रयोग करते हैं। पर इस तरह का पलायन आपकी उन्नति में सहायक न होगा। आप अपने ही विरुद्ध चल रहे हैं। यह आपके हित में नहीं। मेरा कहने का अभिप्राय यह है कि यदि आप इन घिसे-पिटे विचारों को सहजयोग में स्वीकार करेंगे तो आपका पतन होगा, आप सड़ जाएंगे । हम नए और ताजा हैं। हम जीवित हैं। स्त्री-पुरुषों के बारे में इस प्रकार के विचार हम स्वीकार नहीं करते। पूुरुष को परिवार का मुखिया कहने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि आप अपनी पत्नी पर रोब जमाएं या उसे तंग करें। न ही इसका अर्थ यह है कि नेता रोब जमाए। उन्हें अपना विवेक, प्रेम, करुणा के उपयोग से लोगों का उचित प्रकार मार्गदर्शन करना चाहिए। मुझे एक हास्यास्प्रद पत्र मिला जिससे पता चला कि किसी नेता की पत्नी ने सहजयोगिनियों को घर तथा कार्यक्रमों पर आने से रोका क्योंकि 'मैं' उनके घर नहीं जा पाई। क्या आप ऐसा सोच सकते हैं? यह मूर्खता है। वह नहीं जानती कि ऐसा करने से सहजयोग में उसका कितना पतन हो रहा है। मैं जहाँ चाहूँ जा सकती हूँ। पर उसे दोष अपने पर लेना चाहिए था। यह 'मेरा' घर है, ऐसा कहना मूर्खता की पराकाष्ठा है। माँ को मेरे घर आना चाहिए । भारतीय विशेषकर ऐसा कहते हैं, 'श्रीमाताजी कृपया मेरे घर आइए और मेरे साथ खाना खाइए।' आप हैं कौन? आप एक सहजयोगी हैं। तो आपका घर मेरा है, आप मेरे हैं, सभी कुछ मेरा है। आपके घर आने में क्या है? क्या आप अलग हैं? आपके सभी घर मेरे हैं । मैं यदि जाती हूँ तो भी इसका अर्थ ये नहीं कि मैं आपको किसी अन्य व्यक्ति से अधिक प्रेम करती हूँ। किसी ने मुझसे पूछा कि, 'आपने ईसाई धर्म में क्यों जन्म लिया ? ' मैंने कहा कि, 'कहीं तो मुझे जन्म लेना ही था। अच्छा हुआ कि ईसाईयों के यहाँ जन्म लिया क्योंकि वे मानसिक रूप से पक्के धर्मान्ध होते हैं। यह अधिक भयानक है। मुसलमानों को आप समझ सकते हैं क्योंकि उनमें वह 25 चालाकी नहीं है। वे स्पष्ट रूप से धर्मान्ध हैं। पर ईसाई तो बहत ही अधिक धर्मान्ध हैं। किसी के घर जाना अब मेरे लिए समस्या बन रही है। क्योंकि जिसके यहाँ मैं जाती हूँ उस व्यक्ति को अहंकार हो जाता है कि श्री माताजी मेरे घर आई थीं। अत: फिर कभी आप न कहें कि श्रीमाताजी यह मेरा घर है। श्रीमाताजी यह आपका घर है । मैं वहाँ जाऊं तो भी ठीक, न जाऊं तो भी ठीक। इससे क्या फर्क पड़ता है? में तुम्हें एक बार फिर से बताती हूँ कि बिना नेता से सम्पर्क किए और बिना उसकी जाँच के कम्प्यूटर के माध्यम से कोई बात नहीं फैलानी। ऐसा करना मुझे कठिनाई में डाल सकता है और मुझे जेल भी भिजवा सकता है। आप समझते क्यों नहीं? आप जो भी इच्छा करते हैं लिख देते हैं। इस प्रकार का गैर जिम्मेदारी भरा आचरण मेरी समज में नहीं आता। मैंने जो कभी नहीं कही वे बातें भी कही जाती हैं। इसे अपरिपक्वता तथा उतावली झलकती है। ऐसी बातों को पूछा जाना चाहिए। अपनी विवेक बुद्धि का उपयोग कीजिए । अपने अगुआ से सम्पर्क करना अत्यन्त आवश्यक है। छपने वाली तथा वितरीत होने वाली चीजें तो अगुआ द्वारा देखी जानी चाहिएं| इसमें कोई जल्दबाजी नहीं है। लिखी हुई कोई पुस्तक, टेप आदि सब अगुआ की आज्ञा तथा सूझ-बूझ से ही निकलने चाहिएं। मैं कहूँगी कि अगुआ अवश्य उन कागजात पर हस्ताक्षर करें। तब मैं उसे उत्तरदायी ठहराऊंगी। परन्तु निरंकुशता पूर्वक यदि आप कार्य करेंगे तो परिणाम भयानक हो सकते हैं । छोटी-छोटी चीजें भी मैं आपको बताऊंगी? मुझ से मैलबोर्न में 'विश्व निर्मल धर्म' शुरू करने को पूछा गया। मैंने कहा ठीक है। मैं नहीं जानती थी यह एक एसोसिएशन होगी, जिसके चुनाव होंगे। 'विश्व निर्मल धर्म' तो हर जगह है। पर कोई एसोसिएशन आदि नहीं। एक प्रकार का समाज विश्व निर्मल धर्म का प्रचार कर रहा है। इसकी कोई संस्था नहीं है। हमें कोई चुनाव नहीं चाहिए। यदि कुछ गलत लोग घुस गए तो सहजयोग को पूरी तरह निकाल देंगे। अत: आप केवल न्यास (ट्रस्ट) बना सकते हैं। यदि आप कुछ और करना चाहते हैं तो अलग से करें। यह विश्व निर्मला धर्म या सहजयोग के नाम पर नहीं होना चाहिए। मेरे 'हाँ' कहने का अर्थ यह नहीं कि आप एसोसिएशन आदि कुछ भी बना लें। अब तक जो गलती हुई है उसे ठीक करें। इन पर काम किया जाए। केवल उन्हीं लोगों को चुना जाए जो सहजयोग में बहुत अच्छे हैं और जो अभी तक विवेकपूर्वक तथा सीधे-सच्चे ढंग से कार्य करते रहे हैं। एक और सलाह दी गई थी कि हम अपना प्रक्षेपण बाहर की दुनिया के सम्मुख करें। यदि इसका अर्थ यह है कि हम दूसरी संस्थाओं तक जाएं तो यह गलत है। ये सारी संस्थाएं मृत हैं। ये जीवन्त संस्थाएं नहीं हैं। परन्तु यदि ये हमारे पास आना चाहें तो ठीक है। हमें अपना सिर फोड़ने के लिए उनके 26 27 फ्सेंगे बल्कि उनसे आप नकारात्मकता पास नहीं जाना चाहिए। वहाँ जाकर न केवल विरोधियों में भी ले लेंगे। समझने का प्रयत्न करें। हमें अति सावधान रहना है। आप केवल ऐसे सहजयोगी ले सकते हैं जो जिज्ञासु हैं, ईमानदार हैं, नम्र हैं और जिन्हें सहजयोग से धन तथा सत्ता की आवश्यकता न हो। आस्ट्रेलिया से दो व्यक्ति आए थे और अब देखिए कितने सारे हैं। नि:सन्देह सहजयोग बढ़ेगा , पर इसे आयोजित मत कीजिए । आयोजन शुरू करते ही बढ़ोतरी रुक जाएगी। जैसे आपने देखा होगा कि काटकर सुव्यवस्थित (आयोजित) करने से पेड़ छोटा हो जाता है (बौना ) । मैंने ऐसा कोई वृक्ष नहीं देखा जो आयोजन से बढ़ता हो। ज्यादा से ज्यादा आप इसका पोषण कर सकते हैं, पानी दे सकते हैं। पर आप इसके विकास की गति नहीं बढ़ा सकते। सभी संस्थाएं विकास की गति को कम करती है। आरम्भ में चाहे यह प्रतीत हो कि आयोजित करने से गति बढ़ गई है। ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और हिन्दु आदि धर्म भी आयोजन के बाद बनावटी रूप से बढ़े और खोखले से हो गए। हमें ठोस व्यक्तियों तथा ठोस अन्तर्जात धर्म की आवश्यकता है। इन बनावटी चीज़ों को हमने नहीं अपनाना। आजकल हम बहत सी बनावटी खाद उपयोग कर रहे हैं । लोगों को समझ आने लगी है कि यह हमारे लिए हानिकारक है। अत: सहजयोग को स्वाभाविक ढंग से, बिना बनावटी संस्थाएं बनाए, परमात्मा की कृपा से कार्य करने दीजिए। बनावट तो पतन ही लाती है। अब आपके बच्चों के बारे में। पश्चिमी बच्चों के स्वभाव का अध्ययन करती रही हूँ। उनका चित्त कभी ठीक चीज़ों पर नहीं होता। पढ़ाई पर तो बिल्कुल नहीं होता। खाने पर उनका चित्त होता है। पश्चिमी देशों के लोगों को भारत में दस्त हो जाते हैं। आप न गर्मी सहन कर सकते हैं न सदी। आप अन्तर्दर्शन करें। थोड़ा सा काम करने से आप थक जाते हैं। क्या कारण है? कारण यह है कि आप सोचते बहुत अधिक हैं। ऐसा ही आप विवाह होने पर करते हैं। आप सोचने लगते हैं कि मेरी प्राथमिकताएं क्या हैं, मैं क्या करूं, विश्लेषण करने लगते हैं। जो भी करना है कर डालिए । बहत अधिक सोचना आपको रोगों के प्रति दुर्बल बनाता है। मूलाधार चक्र, नि:सन्देह, अति महत्वपूर्ण है। यदि मूलाधार दुर्बल है तो आप पकड़ जाते हैं। आपको कोई रोग हो सकता है। पश्चिम में तो रोग भी बहुत आम हैं। पर भारत में शक्तिशाली मूलाधार के कारण ऐसा नहीं है। अत: अब पहली गुप्त समस्या यह है कि अपने मूलाधार को किस प्रकार दृढ़ करें। जो खाना आप खाते हैं वह ताज़ा नहीं होता। ताज़ा खाना खाने का प्रयत्न कीजिए। दूसरा, आस्ट्रेलिया में तो आपको ताज़ा खाना उपलब्ध हो सकता है। जहाँ तक हो सके कार्बोहाइड्रेट अधिक 28 लीजिए। पतले होने की अधिक चिन्ता न कीजिए । थोड़े से मोटे व्यक्ति लहरियों को अच्छी तरह सोखते हैं । क्या आप जानते हैं कि चैतन्य लहरियाँ चर्बी पर बैठती हैं। इस तरह वे स्नायुतंत्र में जाती हैं। क्योंकि आपके स्नायु चर्बी से बने हैं और आपका मस्तिष्क भी चर्बी से बना है । आपके मस्तिष्क में जो भरा जाता है आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। यही कारण है कि उद्यमियों ने आपको वश में कर लिया है । विवेकहीनता के कारण हम यह समझ नहीं पाते। उन्होंने आपको सिर में तेल लगाने से रोका और आप रुक गए। परिणामत: आप गंजे हो जाते हैं। वे विग बेच सकते हैं। बालों को ठीक से बढ़ने के लिए पोषण चाहिए। इन्हें भूखा क्यों मारते हैं? आप अपने शरीर की भी मालिश कीजिए। सिर की मालिश कीजिए। अपनी देखभाल कीजिए । बिना तेल के बिखरे बाल तो भूतों को बुलावा देना है। आप साक्षात्कारी लोग हैं, लहरियाँ आप से बह रही हैं, अपने सिर की अच्छी तरह मालिश कीजिए। शनिवार को एक घंटा लगाइए। यह शनि का दिन है, कृष्ण का दिन है। उन्हें मक्खन- तेल बहुत पसन्द है। छोटी-छोटी बातों को समझना चाहिए। मैं समझ सकती हूँ कि आपको धूप बहुत पसन्द है। पर आस्ट्रेलिया में तो बहुत धूप है फिर भी न जाने क्यों यह आपको पसन्द है। फैशन के कारण आप बिगड़ते हैं। आपकी चमड़ी में चमक नहीं आ सकती। उपचार के रूप में आप सूर्य स्नान | कर सकते हैं। भारतीय लोग अंग्रेजों के इस तरह के अवांछित सूर्य-स्नान पर हैरान होते थे। व्यक्तिगत शुद्धि का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। बहत सा पानी का उपयोग कर हाथ धोइए। चालय जाने पर हर बार पानी इस्तेमाल कीजिए । ऐसा न करने पर आपका मूलाधार कभी ठीक न होगा। आपके बच्चे अपने दांत भी नहीं साफ करना चाहते। दांत साफ करने या स्नान करने को यदि उनसे कहें तो वे रोने लगते हैं। भारत की चिलचिलाती गर्मी में भी वे स्नान नहीं करना चाहते। उनसे दुर्गन्ध आती है। पर यदि आप उनसे कहें तो वे कहते हैं, 'हमारे माता-पिता से भी ऐसी ही गंध आती है। उनके मुंह से भी दुर्गन्ध आती है। भारत में तो हमें सुबह-शाम दांत साफ करने चाहिए। यह अति आवश्यक है। भारतीय संस्कृति ने ये सब बातें हमें बहुत पहले से सिखाई खेल-खेल में ही बच्चों को हम यह सब सिखा देते हैं। सफाई, स्नान आदि आपके तथा आपके बच्चों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। व्यक्तिगत सफाई आप लोगों की बहुत कम है। घर तो आपके पूरी तरह साफ होंगे। कालीन पर यदि कुछ गिर जाए जो आप इसे तुरन्त साफ करेंगे क्योंकि आपने इसे बेचना है। बेचने योग्य हर चीज़ की आप देखभाल करते हैं। अन्य चीज़ों की नहीं। सहजयोग में हमें समझना चाहिए कि हमारी कोई भी वस्तु बिकाऊ नहीं है। हमारे पास जो भी कुछ है इसे हम स्वयं रखेंगे, अपने बच्चों को देंगे या दूसरे लोगों को भेट कर देंगे। कोई चीज़ बेचेंगे नहीं। आपके बच्चे भी अपने शरीर की सफाई से अधिक ध्यान बिकने योग्य वस्तुओं का रखते हैं। हमें अपने विचार बदलने होंगे और कहना होगा कि हम अपनी 29 किसी भी वस्तु को बेचेंगे नहीं। कभी आपको अपना घर बेचना भी पड़ता है तो हर हाल में उसके एक ही दाम मिलेंगे चाहे आप इसे सजाइए या नहीं। लोग तो अनसजे घर खरीदना पसन्द करते हैं। तो यही भौतिकवाद है कि हम बेचने के लिए चीज़ें खरीदने का प्रयत्न करते हैं । इसके विपरीत हमें चाहिए कि हस्तकला की सुन्दर-सुन्दर वस्तुएं खोजें, इनमें से कुछ खरीदें तथा ये अपने बच्चों को तथा उनकी सन्तानों को दी जाएं। मेरे कार्यक्रम में बच्चे के रोने का कारण जरूर खोजें अवश्य ही कोई परेशानी या बाधा होगी। यदि बच्चा मेरी उपस्थिति में रोता है या डरता है तो कोई बाधा अवश्य है। आप इस बाधा को दूर करें। तो अब हमें अपने प्रति दृष्टिकोण बदलना होगा। हम आशीर्वादित लोग हैं। हमें अपने शरीर, बच्चों तथा भौतिकता से अधिक महत्वशील वस्तुओं की देखभाल करनी होगी। यह आत्मा है। अपने तो आखिरकार हम इस परिणाम तक पहुँचते हैं कि जिस आत्मा ने हमें यह सारा सौन्दर्य, सुन्दर चांदनी, हमारे कार्यों के लिए सुन्दर धूप प्रदान की है तथा हमें इतना मधुर बनाया है, उसकी सन्तुष्टि के लिए और उसका आनन्द लेने के लिए हमने क्या किया। अत: आत्मा ही हमारे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। हमें आत्म - आनन्द खोजना चाहिए। जितना अधिक आप आत्मा के विषय में सोचेंगे उतना ही अधिक गहनता में उतरेंगे। अत्यन्त गहन आनन्द आपको प्राप्त होगा। आध्यात्मिकता में स्थापित हो सामूहिकता का आनन्द लेते हुए अति सुन्दर रूप से आप स्थिर हो जाएंगे। अगआओं से आज्ञा लीजिए। सामान्य बातों में-कोई भी विशेष कार्य करने से पहले अपने इसके बाद आपकी अपनी समझदारी है। अन्त में - सभी अगुआओं को शिकायत है कि सहजयोग के लिए कोई भी धन नहीं देना चाहता। अब आप देखिए कि जो पैसा आप पूजा के लिए देते हैं उसकी तो मैं आपके लिए चांदी खरीद लेती हूँ। आपको यूरोपियन लोगों के बराबर चांदी दे दी जाती है जब कि आपका पैसा उनसे कम होता है। पहले वे पूजा के लिए एक डॉलर दिया करते थे जो सिक्कों के रूप में होता था और जिसे मैं वापिस ले आती थी। मैं उसका उपयोग अपने लिए नहीं करती, मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। यद्यपि ये मुझे दिया जाता है और सामान्यत: मुझे इसका उपयोग करना चाहिए। पर मैंने सोचा कि इसे खर्चने के स्थान पर आपको चांदी दे दें क्योंकि चांदी के बर्तन पूजा के लिए आति आवश्यक हैं और अति शुभ हैं। पर लोग बड़ी हिचकिचाहट पूर्वक पैसा देते हैं। मैं जानती हूँ कि आपको पैसे की कठिनाई है। पर इस कठिनाई का एक कारण यह भी हो सकता है कि पूरे विश्व में आप सबसे कम पैसा सहजयोग के लिए देते हैं। इतना कम और कोई भी नहीं देता। भारत में कम 30 करेंगे, मैं कुछ नहीं कहूँगी। और चांदी कम २१ रु. और ११ रु. देते हैं। तो जो भी कुछ आप इकठ्ठा आपको दे दूंगी। आप इतने सारे लोग हैं। मुझे ऐसा करना पड़ता है, आपको तथा यूरोप को अधिकतर पैसा देना पड़ता है। आप भी यूरोप की तरह ही एक महाद्वीप हैं। परन्तु व्यक्ति को समझना चाहिए कि उसे सहजयोग के लिए कुछ करने के बारे में सोचना चाहिए। हम सहजयोग के लिए क्या कर सकते हैं ? आप अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने अपने पति का बहुत साधन खर्च दिया है। मैं आस्ट्रेलिया में एक बार फिर कुछ करने वाली हूँ जो यहाँ के लोगों के लिए बहुत हितकर होगा। इसके लिए मैं अपना पैसा भी लगा सकती हूँ। इसके बावजूद भी लोग नहीं समझते कि मेरे पति मुझे यह सब करने की आज्ञा क्यों देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि इस प्रकार उन्हें पूरे आशीर्वाद मिलते हैं । उन्होंने सहजयोगियों को बताया है कि सहजयोग के कारण ही मुझे ये सब इनाम मिले हैं। परन्तु वे (श्रीमाताजी) तो परमात्मा के लिए कार्य कर रही हैं। मैं यह भी कहना चाहती हूँ कि आपने बहुत सा धन दिया। यह उदारता है। पर यदि आप सहजयोग के लिए धन देते हैं तो किसी अन्य रास्ते से आपको धन मिल जाता है। अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए मुझे पैसा नहीं चाहिए । यह आपकी उदारता का द्योतक है। सभी अगुआओं की यह सामान्य बात है। मैलबोर्न का अगुआ कहता है कि कोई पैसा नहीं देना चाहता। वे केवल सहजयोग से लाभ उठाना चाहते हैं। लक्ष्मी जी के दृष्टिकोण | से यह ठीक बात नहीं है। व्यक्ति को यह भी समझना है कि एक बार सहजयोग में आने के बाद, चाहे आप कुछ सहजयोग के लिए खर्चते हैं या नहीं, आप स्वयं को सहजयोग की जिम्मेवारी समझने लगते हैं। यह अति अनचित है। हर छोटी-छोटी बात में उन्हें सहायता चाहिए। नि:सन्देह उनकी सहायता होनी चाहिए । जिनके पास धन नहीं है हम उनकी सहायता करने का प्रयत्न करते हैं। पर वे एक प्रकार के बोझ बन जाते हैं और अन्य सहजयोगियों तथा मुझ से भी वे बहुत अधिक आशा करते हैं। किसी का विवाह कर दो तो वह सिरदर्द बन जाता है, पत्र पर पत्र, टेलीफोन पर टेलीफोन उचित नहीं। यदि कोई बच्चा बीमार है तो बेशक आप मुझे सूचित करें। पर क्रोधी और दुर्व्यवहार करने वाला बच्चा मेरे लिए सिरदर्द है। हो सकता है आप क्रुद्ध स्वभाव हों और पति-पत्नि परस्पर झगड़ते हों। तो इस दोष को आप क्यों नहीं दूर करते ? वे चाहते हैं कि उनका हर छोटा-छोटा कार्य भी सहजयोग करे। व्यक्ति को समझना चाहिए कि सहजयोग आपकी जिम्मेवारी है, आप सहजयोग की जिम्मेवारी नहीं है। यह सर्वोत्तम दष्टिकोण है नि:सन्देह एक प्रकार आप सहजयोग की जिम्मेवारी हैं। पर दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए? अब आप काफी परिपक्व हैं। बेटा जब बड़ा होकर परिपक्व हो जाता है तो वह माता-पिता की देखभाल करता 31 है। इसी प्रकार आपको सहजयोग की देखभाल करनी चाहिए, न कि सहजयोग आपकी देखभाल करे और आप सदा सहजयोगियों को परेशान करते रहें । अच्छी तरह समझ लीजिए कि आपके लिए सहजयोग उत्तरदायी नहीं है। आप सहजयोग के लिए उत्तरदायी हैं। सहजयोग ने आपको इतना कुछ दिया है। आपने परमात्मा के लिए क्या किया है, सदा इस प्रकार सोचें। यदि आप इस प्रकार सोचने लगेंगे तो जितना अधिक कार्य आप सहजयोग के लिए करेंगे, उचित, जीवन्त और सन्तुलित ढंग से जितना अधिक आप सहजयोग के लिए अपनी बुद्धि लगाएंगे, उतना ही अधिक आपकी सहायता होगी, उतने ही अधिक आप बढ़ेंगे और उतना ही अधिक आनन्द आप लेंगे। आज का प्रवचन आप सब के लिए है क्योंकि मैं नहीं जानती कि किस पर क्या लागू होता है। दूसरों के लिए हम इस बात को न समझें, अपने लिए जाने कि हम सहजयोग पर बोझ न बन कर सहजयोग का सहारा होंगे। हमें सहजयोग की देखभाल करनी है। यह अति सुन्दर दृष्टिकोण है। मुझे (श्रीमाताजी को) सहजयोग की आवश्यकता नहीं है। पर मैं सहजयोग तथा सहजयोगियों के लिए चिन्तित हूँ। मेरे लिए भी वे सभी मेरी जिम्मेवारी हैं। मुजे उनकी देखभाल करनी है, उनकी चिन्ता करनी है। मुझे उनकी बात सुननी है। मुझे उनके पत्र आदि मिलते हैं। मेरा अभिप्राय है कि इस | तरह का कार्य यदि किसी को करना पड़े तो कोई इसे स्वीकार न करेगा। हर हाल में मुझे सहारा देना है। क्योंकि मेरी आत्मा सन्तुष्ट होती है। यह सन्तुष्टि के लिए है, मेरी अपनी सन्तुष्टि के लिए। यह स्वार्थ है। जब आप उस आत्मत्व तक पहुँच जाएंगे तो समझ सकेंगे कि आत्मा की आवश्यकता क्या है। तब इस पर अपनी बुद्धि लगाएंगे। आप हैरान होंगे कि दूसरों के लिए जब आप कुछ करने लगेंगे तो यह सहजयोग के लिए अति लाभकारी होगा। एक प्रार्थना की तरह। सभी कुछ प्रार्थना है। सहजयोग में जो भी कुछ आप सहजयोग के लिए करते हैं यह एक प्रार्थना है, परमात्मा से घनिष्टता है, परमात्मा से एकाकारिता है। इसे हम पूजा भी कह सकते हैं। एक बार जब आप ऐसा करने लगेंगे तो आप चिन्ता करना छोड़ देंगे कि कौन आपकी आलोचना करता है, लोग आपको क्या कहते हैं आदि। पर सुन्दर संबंधों तथा सूझ-बूझ का अनुभव आप करेंगे। मुझे विश्वास है कि निश्चित ही यह शिव पूजा बहुत ही उँचे स्तर पर आपको स्थापित करेगी। और स्थापित होने पर आप इसे जान सकेंगे। यहाँ हमारा सम्पर्क सीधे अपनी आत्मा से है। हम आत्मा के विषय में जानते हैं तथा उसके प्रति कृतज्ञ हैं। आत्मा ने जो हमारे लिए किया उसके लिए हम इसका सम्मान करते हैं । इस तरह से मैंने (श्रीमाताजी ने) परिवर्तन देखा है। एक महान ऊँचाई को अचानक ही आप पा लेते हैं। मुझे विश्वास है कि आस्ट्रेलिया के लोगों के साथ भी ऐसा ही घटित 32 होगा। अपने क्षुद्र भेदभावों को प्रयत्न कीजिए। मैलबोर्न में इसी मूर्खता के कारण कुछ लोग पकड़ जाते हैं। उन्हें चाहिए कि स्वयं को भूल जाइए। धन एवं सत्ता के लिए लड़ना मूर्खता है। ठीक होने का साफ करें, ठीक करें तथा अपनी देखभाल करें । मेरा आशीर्वाद आपके साथ है। परमात्मा आप पर कृपा करें। सा का म 33 अन्तिम निर्णय στ आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति जब अपने आत्मसाक्षात्कार का मूल्य समझता है, इसमें उन्नत होता है, तब .... .. उसकी रक्षा होती है। आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, आप सहजयोगी हैं, पूरी तरह से आपकी रक्षा की जाती है। कौन करता है यह रक्षा ? आप कह सकते हैं "आदिशक्ति" । ठीक है। पर इस विश्व में एक विध्वंसक शक्ति भी कार्यरत है। आसुरी नहीं परन्तु शिव की दिव्य विनाशात्मक शक्ति । जब वे देखते हैं कि आदिशक्ति का कार्य भली-भाँति चल रहा है तो वे प्रसन्न होते हैं, परन्तु दूर बैठकर हर व्यक्ति को वे देख रहे हैं, सहजयोगियों के सभी कार्यों को वे देख रहे हैं। यदि उन्हें लगता है कि वास्तव में कुछ गड़बड़ है तो मैं उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकती। वे नष्ट कर देते हैं। वे केवल एक नहीं हज़ारों को नष्ट कर सकते हैं। ......कहीं भी यदि कोई प्राकृतिक विपत्तियाँ, विपदाएँ हैं जैसे भूचाल, भूकम्प या तूफान आदि, तो हम कह सकते हैं कि यह श्री महादेव का कार्य है। ऐसी स्थिति में मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकती, परन्तु आप यदि वास्तव में लोगों कों आत्मसाक्षात्कार दें तो ये चीज़ टाली जा सकती है । | प.पू.श्री माताजी, कबेला, ३.६.२००१ ....मैं आपको बता रही हूँ कि यह अन्तिम निर्णय है, और यह अन्तिम निर्णय वास्तव में इस बात का फैसला करेगा कि किनकी रक्षा की जानी चाहिये और किनको पूर्णतया नष्ट हो जाना चाहिये । यह अत्यन्त गम्भीर चीज़ है। जिन लोगों को इसके बारे में ज्ञान है उन्हें इसके विषय में सोचना चाहिये। यहाँ-वहाँ थोड़ी बहुत | जोड़ा-जाड़ी से काम न होगा। जब तक आप मानव का हृदय परिवर्तन नही करते, इसे बचाया नही जा सकता। ये आपात स्थितियाँ हैं, आप आपात स्थितियों में रह रहे हैं। इस बात को समझने का प्रयत्न करें और मैं आपको चेतावनी देना चाहती हूँ-यदि आप अपने अन्तस में गहन नहीं उतरते और ये नहीं देखते कि आप क्या हैं और आप अपने परिवर्तन को नहीं अपनाते तो कुछ भी घटित हो सकता है । प.पू.श्री माताजी, लन्दन, १४.७.२००१ हम अभी तक भी नहीं जानते कि मानव के इतिहास में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा भयानक समय है। अन्तिम निर्णय आरम्भ हो चुका है। आज हम अन्तिम निर्णय का सामना कर रहे हैं। इस बात का हमे ज्ञान नहीं है कि सभी शैतानी शक्तियाँ, भेड़ की खाल पहने भेड़िये आपको भ्रमित करने के आपको चाहिये कि बैठकर केवल सच्चाई को पहचाने। लिये अवतरित हो गए हैं। परमात्मा अत्यंत करुणामय हैं, प्रेममय हैं और दयालू हैं-उन्होंने हमें स्वयं का ज्ञान प्राप्त करने की स्वतन्त्रता दी है।.......परमात्मा ने हमें अमीबा से इस मानव स्थिति तक विकसित किया है, चहूँ ओर इतने सुन्दर विश्व का सृजन किया है, ये सभी कार्य किये हैं। परन्तु उनके निर्णय का अब हमें सामना करना होगा। परमात्मा का निर्णय ऐसा नहीं जिस प्रकार हम समझते हैं कि वह एक न्यायाधीश की तरह से बैठा हुआ है, बारी-बारी आपको बुलाता है, वहाँ पर आपका एक वकील है। परमात्मा ने तो आपके अन्दर निर्णायक शक्तियाँ स्थापित कर दी हैं। मानव की विकास प्रक्रिया में उन्होंने यह सब कार्यान्वित किया है। कितनी सुन्दरता से मानव को अमीबा से मानव अवस्था तक विकसित करते हुए उन्होंने यह कार्य किया। बहुत से पशुओं को विकास प्रक्रिया से निकाल फेंका गया। बहुत ज़्यादा आक्रामक मनुष्यों की नस्लें भी समाप्त होती चली गयीं। इतिहास को आप देख सकते हैं।......हिटलर जैसा व्यक्ति आया, वह समाप्त हो गया, जो भी दूसरों पर सत्ता जमाने या नियंत्रित करने के लिये आया वह समाप्त हो गया। प.पू.श्री माताजी, ११.६.१९८० 34 NEW RELEASES ऑडिओ- विडिओ Lang. Type Title Date Place VCD ACD DVD rd H/M| Sp 594" 23" Jan.1975 | तीन शक्तियाँ Mumbai 19# Feb.1977 | नये सहजयोगियों से बात-चीत th New Delhi E/H 595* Sp 15" Mar.1979 | हर जगह के अपने-अपने वाइब्रेशन्स होते हैं th 596 Delhi Sp Н th महालक्ष्मी आणि त्यांचे महत्त्व 597 4 Mar.1984 Kolhapur Sp परमात्मा को जानने के लिए आपको उँचे स्तर पर उतरना चाहिए 6th Feb.1990 Hyderabad H/E 598* 389* Pp साक्षी स्वरुप 7th Feb.1990 Hyderabad H 390 599 Pp 20" Mar.1993 | ये भूमि अत्यंत पवित्र भूमि हैं th 391* New Delhi H Pp किताबें Code No. Title Author परम पावनी माँ की शाश्वत प्रेरक अनुस्मृतियाँ - भाग ४ B87 परम पावनी माँ की शाश्वत प्रेरक अनुस्मृतियाँ - भाग ५ B90 B25 Great Women of India Yogi Mahajan Shri Kalki Yogi Mahajan B88 The Last Judgement Yogi Mahajan B89 प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in की की ही अग२ आप अपने सथ गणों को विकसित करें तो आपको कोई कष्ट नहीं देै सकती । प.पू.श्रीमाताजी, ०९ जुलाई १९८८ ---------------------- 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरा जनवरी-फरवरी २०१२ हिन्दी वलिक थ ुू बा ाट रट 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-1.txt यद्यपि सहजयोग की गंगा बह रही है परन्तु आप के घड़ें (शरीर, मन, बुद्धि) में गहई होनी चाहिए। रा o६ अप्रिल १९९१ 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-2.txt के अंनुभक सहजयोग ...8 ४ २हजयोगियों से बातचीत ...२० अन्तिम निर्णय ...३४ 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-4.txt सहजयोग रहर के अनुभक मव कोलकाता, १९८६ 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-5.txt सत्य को खोजने वाले सभी साधकों को हमारा प्रणिपात! सत्य क्या है, ये कहना बहुत आसान है। सत्य है, केवल सत्य है कि आप आत्मा हैं। ये मन, बुद्धि, शरीर अहंकारादि जो उपाधियाँ हैं उससे परे आप आत्मा हैं। किंतु अभी तक उस आत्मा का प्रकाश आपके चित्त पर आया नहीं या कहें कि आपके चित्त में उस प्रकाश की आभा दृष्टिगोचर नहीं हुई। पर जब हम सत्य की ओर नज़र करते हैं तो सोचते हैं कि सत्य एक निष्ठर चीज़ है। एक बड़ी कठिन चीज़ है । जैसे कि एक जमाने में कहा जाता था कि 'सत्यं वदेत, प्रियं वदेत।' तो लोग कहते थे कि जब सत्य बोलेंगे तो वो प्रिय नहीं होगा। और जो प्रिय होगा वो शायद सत्य भी ना हो। तो इनका मेल कैसे बैठाना चाहिए? श्रीकृष्ण ने इसका उत्तर बड़ा सुंदर दिया है। 'सत्यं वदेत, हितं वदेत, प्रियं वदेत'। जो हितकारी होगा वो बोलना चाहिए। हितकारी आपकी आत्मा के लिए, वो आज शायद 1. दुःखदायी हो, लेकिन कल जा कर के वो प्रियकर हो जाएगा। ये सब होते हुए भी हम लोग एक बात पे कभी-कभी चूक जाते हैं कि परमात्मा प्रेम है और सत्य भी प्रेम ही है। जैसे कि एक माँ अपने बच्चे को प्यार करती है तो उसके बारे में हर चीज़ को वो जानती है। उस प्यार ही से उदुघाटन होता है, उस सत्य को जो कि उसका बच्चा है। और प्रेम की भी व्याख्यायें जो हमारे अन्दर हैं वो भी सीमित, मानव की जो चेतना है उससे उपस्थित हुई है। वास्तविक में प्रेम किसी चीज़ से चिपक ही नहीं सकता है। प्रेम तो उसी तरह की चीज़़ है जैसे कि एक में उसका जो प्राण रस है वो चढ़ता है और जड़ों को, उसके पत्तियों को, उसके फूलों को, फलों वृक्ष को पूर्णतया आशीर्वादित करता हुआ फिर लौट जाता है। लेकिन अगर सोचे कि वो कहीं जा कर के एक फूल में अटक जाए और कहें कि ये फूल मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है। तो उस पेड़ की तो मृत्यू होगी ही और उस फूल की भी हो जाएगी। ये जो चिपकने वाला प्रेम है ये मृत्यू को प्राप्त होता है। इसलिए आप जब देखते हैं कि जब दो इन्सान में प्यार होता है, थोड़े दिन बाद वो प्यार बैर भी हो सकता है। इसी प्रकार दो देशों में प्यार हो, कल वो भी बैर हो सकता है। दो जाति में प्यार हो, वो बैर हो सकता है। ये प्रेम बैर कैसे हो जाता है? ये बड़ी सोचने की बात है। इसलिए कि प्रेम का सत्य स्वरूप हमने जाना नहीं। परमात्मा का प्रेम बहता है, देता है, करता है और उसके बाद कहीं चिपकता नहीं। किसी में अटक नहीं जाता। लेकिन हम लोग इन दोनो का मेल बिठा नहीं पाते कि सत्य और प्रेम एक ही चीज़ है । जैसे चाँद और उसकी चाँदनी और सूर्य और उसकी किरण। जैसे अर्थ और शब्द, दोनो एकसाथ मेल खाते हैं। उसी प्रकार सत्य और प्रेम दोनो एक साथ हैं। इसलिए बहुत से लोग सत्य के खोज में न जाने क्या-क्या विपदायें उठाते हैं। क्या-क्या तकलीफें उठाते हैं। वो सोचते हैं कि जब शरीर को दुःख दिया जाएगा तो हमें सत्य मिल जाएगा। शरीर को दुःख देने का आपको कोई अधिकार नहीं क्योंकि शरीर परमात्मा ने बनाया है। और वो एक मन्दिर है। उसमें एक दीप 6. 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-6.txt जलाना है। जैसे आजकल विदेशों में एक पागलपन सवार है कि हर इन्सान जो है वो बिल्कुल मच्छरों जैसा पतला-दुबला हो जाए। उसके लिए सब आदमी इस तरह से मेहनत करते हैं कि मच्छरों जैसे होने के लिए उसकी वजह से अनेक बीमारियाँ वहाँ लोगों में आ गयी। और इन मच्छरों को कोई सुख मिला है ऐसा दिखाई नहीं देता। ना उस देश में कोई आनन्द है। तो दृष्टि कहाँ गयी? एक बहुत ही स्थूल चीज़ की ओर, जिसका कोई भी अर्थ नहीं लगता है। जिसकी दृष्टि स्थूल होगी वो स्थूल ही चीज़ों को देखता है। लेकिन सूक्ष्मता से आप विचार करें कि इस तरह के पागलपन से क्या परमात्मा किसी को भी मिला? क्या परमात्मा को इससे सुख होगा कि आप अपने को दुःख दे। ईसाई लोगों ने तो हद कर दी, कि ईसा-मसीह की हड्डियाँ निकाल के और टाँग देते हैं और कहते हैं ये ईसा-मसीह है। देख कर मेरा जी, ऐसा लगता है कि इनसे पूछा जाए कि जिस इन्सान ने एक इतने बड़े क्रॉस को अपने कंधे पर उठाया था क्या वो उन हड्डियों के बूते पर! लेकिन इसमें एक समाधान उन लोगों के पास है कि हम किसी जालिम तरीके से कोई दुष्ट, क्रूर प्रकृती से इसा-मसीह की ओर देख रहे हैं । यही चीज़ आपको आगे हम सुनाते हैं कि जब आप जाईये पोप के सिस्टिन चॅपल में, तो ये जो प्रेम की शक्ति है, इस प्रेम की शक्ति को समझने के लिए बड़ा भारी हृदय चाहिए। जिस इन्सान के पास हृदय नहीं होगा वो इसे समझ नहीं पायेगा। जैसे कि सिस्टिन चॅपल, जो कि आप रोम में जायें व्हॅटिकन में देखें तो वहाँ माइकेल एंजेलो नाम के एक बहुत बड़े कलाकार ने सारा कुण्डलिनी का चित्र बनाकर रखा हुआ है। और आज्ञा चक्र पे ईसा-मसीह को खड़ा किया है , वो भी गणेशजी जैसे लंबोदर खड़े हुए हैं और इधर से उधर लोगों को फेंक रहे हैं। उसका नाम उन्होंने 'लास्ट जजमेंट' कहा हुआ है। लेकिन पूरी कुण्डलिनी खड़ी है। अगर आपको कुण्डलिनी का ज्ञान हो तो आप अवाक् रह जायें कि इस आदमी ने कौनसी दृष्टि से ये सब चित्र देखा और इस तरह से ये सब चित्र बनाया । लेकिन उसी के नीचे वो हड्डी वाला ईसा-मसीह रखा हुआ है। देख कर ग्लानी होती है। कम से कम हमारे भारत वर्ष में किसी भी अवतारों को हड्डी मारका नहीं दिखाते हैं। और न ही ये माना जाता है कि 'हड्डी मारका' परमात्मा हो सकता है। वजह ये है कि हमारे अन्दर प्रेम की दृष्टि नहीं, या तो हमारे अन्दर वासना है और दुष्टता है। जिसके अन्दर प्रेम की दृष्टि होती है वही गहन उतर सकता है। जैसे मैंने कहा कि हृदय का बड़ा होना बहुत जरूरी है। लेकिन इसका अर्थ ऐसा नहीं कि आप अपने हृदय को बड़ा करने के लिए अवास्तव तरीके से दान-पुण्य करें। चोरों को भी दान करें और जो से बहुत गुंड बनके घूमते हैं उनको आप दान करते फिरें । धन की व्याख्या कृष्ण ने जितनी सुंदरता से की है, मेरे ख्याल से, कोई भी नहीं कर पाया होगा 7 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-7.txt कारण वो एक बड़े भारी होशियार, डिप्लोमैट थे। उन्होंने कर्ण के जीवन में बताया कि कर्ण बहुत दानशूर थे, बहुत दानी थे। अत्यंत धार्मिक। हर समय पूजा-पाठ आदि में व्यस्त रहते थे। और वो पाण्डवों के सबसे बड़े भाई , में में क्षत्रिय थे। लेकिन जिस वक्त उनका पॉव युद्ध फँस गया उस वक्त चक्र अर्जुन ने अपना गांडीव उनके उपर उठाया। उस वक्त उन्होंने चुनौती दी। कर्ण ने कहा कि, 'अर्जुन तु भी वीर है और मैं भी वीर हूँ और हम क्षत्रिय हैं। और एक निहत्थे वीर पर दूसरे वीर का हथियार उठाना धर्म में मना है।' कृष्ण ने तब अपनी उंगली आगे करके कहा कि, 'इसे तु मार।' अहिंसा की बात नहीं भारतीय करी। 'इसे तू मार। जिस वक्त द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी, तब इनकी संस्कृति वीरता कहाँ गयी थी ? तब ये कहाँ थे ?' इतनी धर्म की सुन्दर व्याख्या! आपकी वीरता, आपकी दानशूरता, आपका धर्म सबकुछ एक तरफ, पर एक का स्त्री की लाज बहुत बड़ी चीज़ है। उसी कृष्ण के भारत वर्ष में अगर हम देखें २बसे महान तो धर्म के नाम पर ही इतने सारे अत्याचार हम लोग कर रहे है वो क्या हम तत्व अपने को भारतीय कहलाने के लायक हैं। भारतीय संस्कृति की हम डिंगे पीटते रहते हैं। लेकिन हम क्या वाकई में इस योग्य हैं, जब बाहर जा कर के एक ही है लोग बताते हैं कि बहुओं को जला दिया। घर में आयी हुई लक्ष्मी को मार डाला। तो दूसरे लोग पूछते हैं कि आपके देश में बहुत बड़ी योग भूमि है, कि बहुत कुछ शास्त्र हुआ, बहुत कुछ लोग धार्मिकता की बात करते हैं, बड़े ही वहाँ पर बड़े-बड़े व्याख्यान लोग देते हैं, तो ऐसे देश में ऐसी दुर्धर बातें, ऐसी आत्मक्षात्कार को भीषण हत्यायें कैसे हो सकती हैं? क्या जवाब है हमारे पास इसका? एक ही प्राप्त होना। जवाब मैं देती हूँ कि श्रीकृष्ण ने कहा था कि, 'योगक्षेमं वहाम्यहम्'। इसमें भी पकड़ है। 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' पहले योग होना चाहिए फिर में इनका क्षेम देखूंगा। उन्होंने 'क्षेमयोग ' क्यों नहीं कहा? पहले योग होगा तब मैं इनका क्षेम करूंगा। ये धर्म की व्याख्या है कि प्रथम आप योग को प्राप्त हो। अगर आप भारतीय संस्कृति की इतनी बढ़ाई करते हैं तो सबसे बड़ी चीज़ भारतीय संस्कृति का सबसे महान तत्व एक ही है कि आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होना। अपने चित्त का निरोध बताया गया है। अष्टांग योग बताये गये हैं। अनेक विधियाँ बताई गयी हैं। किसलिए? कि आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो। लेकिन देखिये कितने लोग इधर नज़र करते हैं। ईसा-मसीह ने यही 8 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-8.txt कहा कि आपका फिर से जन्म होना चाहिए, पर कितने ईसाई इस बात को सोचते हैं? बाप्तिस्मा , कोई भी आ कर के, सिर पे हाथ रख के कह देता है कि 'तू ईसाई हो गया।' ऐसे ही हमारे यहाँ, किसी भी आदमी के गले में यज्ञोपवित किसी भी ब्राह्मण ने ला कर डाल दिया, हो गये आप ब्राह्मण। कौन है ब्राह्मण? जिसने ब्रह्म को जाना वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है। द्वि जायते द्विज। जो दूसरी मर्तबा पैदा हुआ है। माने जिसका दूसरा जन्म हुआ है, उसको द्विज कहते हैं। पक्षी को भी कहते हैं और मनुष्य को भी कहते हैं। पक्षी पहले अंडरूप से आता है और उसके बाद उसका जब दूसरा जन्म होता तो पक्षी हो जाता है। जब तक मनुष्य का दूसरा जन्म नहीं होता माने उसका आत्मसाक्षात्कार नहीं होता है तब तक वो ब्रह्म तत्व को नहीं जान सकता। और जब तक उसने ब्रह्म तत्व को नहीं जाना उसको अपने को ब्राह्मण कहने का कोई भी अधिकार नहीं। इसके शास्त्रों में अनेक आधार हैं। गीता पर बहुत लोग कहते हैं। मैंने तो कभी गीता पढ़ी भी नहीं । गीता में लोग कहते हैं कि जो जन्म से जिस जाति में पैदा हुआ वही उसकी जाति हो ही नहीं सकती। कारण जिसने गीता लिखी वो व्यास, किसके बेटे थे? एक धिमरनी के, वो भी जिनका पता नहीं था बाप का। जिन्होंने वाल्मिकी रामायण लिखी, वो कौन थे? एक फिर वही धिमर, मछली पकड़ने वाले। वो भी डाकू। उनसे रामायण लिखवायी परमात्मा ने। जिन्होंने शबरी के बेर खाये झूठे, जिन्होंने विदूर के घर जा कर साग खाया। इन सब अवतारों को समझने के लिए पहले ये समझ लेना चाहिए कि ये जो बाह्य के हम लोगों ने तरीके बनाये हैं कि तुम इस जाति के, तुम इस पंथ के, ये सब मनुष्य ने बनाये हुये हैं। बेकार के कारनामे हैं। यही हमारे जेल हैं। जिनमें हम रहते हैं और बहुत संतुष्ट हैं कि हम इस धर्म, इस संप्रदाय के हैं। सारे संप्रदाय एक बुद्धि का ही खेल है। जिसे कि 'मेंटल प्रोजेक्शन' कहिये। जो कि सब तरफ नहीं फैलता है सिर्फ एक दिशा में जाता है और फिर लौट के चला आ जाता है। जितनी भी इस तरह की धारणाये हैं ये अधर्म की हैं, धर्म की हो ही नहीं सकती! जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से हटाता है या किसी भी बात से ये कहता है कि हम उनसे ऊँचे और वो हमसे नीचे हैं। वो धर्म नहीं हो सकता। आज अपने देश में एक क्रान्ति की जरूरत है। बहुत बड़ी क्रान्ति की जरूरत है जहाँ कि हम आत्मिक को प्राप्त करे। इस शस्य श्यामला, भारत भूमि पर, जहाँ हमारा जन्म हुआ है। ये वास्तविक में ही ज्ञान योगभूमि है इसमें कोई शंका की बात ही नहीं है ! लेकिन जब हमने अपने आत्मा को ही नहीं पाया, तो सिर्फ ये योगभूमि , योगभूमि कहने से आप इस योगभूमि के पूत्र नहीं हो सकते! योग को आपने जब प्राप्त नहीं किया तो आप इस योगभूमि को क्या, ये तो ऐसे ही आप रास्ते पे घूमते फिरते रहते हैं, इसपे तो कुत्ते-बिल्ली सभी घूमते फिरते हैं। लेकिन अगर आप इसके वास्तविक में ही एक गौरवशाली हैं, तो आपमें योग स्थापित होना चाहिए। बातें करना, और धर्म के नाम पे इसको त्यागना, उसको त्यागना या किसी से कुछ लूट मार पुत्र करना ये किसी भी तरह से धर्म नहीं है। और एक बड़ी ग्लानि की बात है कि बाह्य के देशों में हम लोगों के बारे में जो चित्रण दिया जाता है, वो अत्यंत कलुषित है। बाहर के लोगों के बारे में मुझे कोई भी आस्था नहीं, ना 9. 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-9.txt ही मैं ऐसा सोचती हूँ कि ये लोग किसी काम के हैं। परमात्मा के साम्राज्य में जाने के लिए काफी लोग बेकार हैं, इसमें कोई शक नहीं है। दो-चार कहीं- कहीं मिल जाते हैं तो लगता है, 'चलो भाई, मिल गये। लेकिन जब वो मिलते हैं, तो वो आप लोगों से कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं, उसका उदाहरण आपने डॉ वॉरन को देखा। और ऐसे अभी हजारों हैं। हजारों में हैं। वजह ये है कि इनमें शुद्ध बुद्धि आ गयी। बुद्धि की टकरे लेते-लेते इनमें शुद्ध बुद्धि आ गयी है। और ये अब समझते हैं कि इस शुद्ध बुद्धि से ये देखा जा रहा है कि सत्य क्या है और सत्य को पकड़ना है और असत्य जो है उसे छोड़ना ही होगा। ये कहिए कि इनकी विल-पावर; आत्मशक्ति इतनी जबरदस्त होती है कि एक बार जब इन्हें सत्य मिल जाता है तो, तो उसे इस तरह से पकड़ लेते हैं। आप लोग गणेशजी के बारे में मैं कहती हैँ भी नहीं जानते हैं, जो ये लोग जानते हैं। हांलाकि मैंने उन्हें बताया है ये दूसरी बात है। पर तो भी कुछ वो जानने के लिए भी तो लोग चाहिए। यहाँ तो जब आईये हिन्दूस्तान में, तो 'मेरे बाप को बीमारी है, मेरे माँ को बीमारी है, तो मेरे फलाने को बीमारी है। माँ इनको ठीक कर दीजिए या तो कुछ पैसा दे दीजिए या तो कुछ नौकरी दे दीजिए। इसीसे कोई प्रथा से उपर उठा तो वो धर्ममार्तंड बन के मुझसे वाद-विवाद करने के लिए खड़े हो जाते हैं। ऐसे धर्ममार्तण्डों से कहने की बात ये है कि जिन्होंने आदि शंकराचार्य को परास्त करने पर उन्होंने फिर सिर्फ माँ की ही स्तुति लिखी। उसे कुछ अकल नहीं? आखिर उन्होंने पाया ही क्या है ? जिसके बूते पर वो इतनी बड़ी-बड़ी बातें और लेक्चर देते रहते हैं बगैर पाये हुये। ठूठ जैसा शरीर और बड़ी-बड़ी बातें। इसमें अर्थ क्या है? 'कुछ तुमने पाया नहीं इस एक बात को मान लेने से ही बहुत कुछ काम हो सकता है। क्योंकि जब आदमी असत्य पे खड़ा होता है तो उसमें बड़ा अहंकार होता है। आपने देखा है महिषासुर को? आपने देखा है रावण को? उनकी बात -चीत सुनी? उस अहंकार में मनुष्य यही सोचता है, 'ये क्या जाने ? हम तो सब भगवान के बारे में जानते हैं।' और कुछ-कुछ लोगों का तो ये भी विश्वास है कि, 'अरे, भगवान तो हमने बनाये हये हैं। इनको तो बेवकूफ बनाने के लिए भगवान एक चीज़ है।' अब उसमें से कोई अति-अकलमंद निकल आयें हैं, वो फर्माते हैं 6. कि, 'हाँ भगवान-वगवान तो हम मानते नहीं, हम तो बहुत सत्यवचनी हैं। भगवान नाम की कोई चीज़ ही नहीं। क्या कहें? एक से एक बढ़ के विद्वान इस देश में पले ह्ये हैं। तो जब ऐसे बाहर से लोग आ के कुछ समझाएंगे हो सकता है कुछ खोपड़ी में बात जाये। लेकिन उससे पहले ही सर्वनाश की तैय्यारी हो रही है। ये समझ लीजिए कि सर्वनाश पूरी तरह से इस देश को खाने के लिए तैय्यार हो रहा है। उसका कारण ये नहीं है कि हम लोग पापी हैं या बूरे हैं किंतु ये है कि हम अज्ञान को ही ज्ञान समझ के बैठे हये हैं। अगर आपने अज्ञान को ज्ञान समझ लिया, तो क्या होगा! अंधेरे में अगर आप लोग सब बैठे हो और चलना-फिरना शुरू कर दिया, तो कोई किसी के उपर कूदेगा, कोई किसी को 10 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-10.txt मारेगा, कोई दौडेगा, अंधाधुंध जो चीज़ें हो रही है। ये जो भ्रान्ति आ रही है इसका कारण एक है कि हमें ज्ञान नहीं। अब ज्ञान हमें होना चाहिए। इसके प्रति किसकी रुचि होनी चाहिए? कौन जानेगा ? यहाँ तो बड़े-बड़े विद्वान बैठे हुये हैं। वो अपने पठनों में लगे हुये हैं। बड़े-बड़े यज्ञ कर रहे हैं, ये कर रहे हैं, वो कर रहे हैं। परमात्मा का पता ही नहीं वहाँ कहाँ है? परमात्मा को, लोग सोचते हैं कि उनको अगर पैसा-वैसा चढ़ाया जाए तो वो खुश हो जाएंगे। वो तो पैसा क्या चीज़ है, वो जानते ही नहीं है । मेरी ये उमर हो गयी है अभी अगर आप मुझसे कहें कि 'चेक लिखो।' तो मैं कहूँगी कि, 'तुम लिख दो, मैं सही करती हूँ। मेरे को, मेरे बस का नहीं।' उधर बुद्धि नहीं चलती है नं! 'भगवान के उपर पैसा चढ़ा दिया, बस, वहाँ हमारा टिकट कट गया है।' ये तो पोप का जमाना आ गया। यहाँ के पोप कहते हैं, 'चलो, टिकट कटा लो। तुमको हम स्वर्ग भेज देंगे।' वो स्वयं नर्क में जा रहे हैं वहीं आप उनके पीछे -पीछे चले जाईये | इस तरह की हमारी जो प्रवृत्तियाँ बनी जा रही है, उसका कारण कि हम अपने अज्ञान में संतुष्ट हैं। जैसे भी हैं 'वाह! मस्त है।' लेकिन नीचे से धरती खिसकती जा रही है। उससे सम्भलना चाहिए। ये धरती नीचे से खिसकती जा रही है। इस खिसकती हुई धरती पर आप खड़े हुये हैं। ये धरती, जो शस्य श्यामला, पुण्य भूमि है, इसको अपुण्य से भरने से ही आपने कुछ भी नहीं पाया हुआ है। आज आपके सामने कुण्डलिनी के बारे में बताया गया है। अब ये जो बताना है, ये तो सब कुछ विद्या है। हम बतायेंगे ही। आप जानेंगे ही कि आपके अन्दर कुण्डलिनी नाम की शक्ति है । वो शुद्ध और आप व्रत भी लें तो आप सब पाठांतर कर लीजियेगा। और सब भाषण हमारे जैसे देने भी लग जाएंगे। लेकिन उससे फायदा क्या होने वाला है? जब तक आपको उसका अनुभव न हो, तो इस | अनुभव शून्य, ऐसे अज्ञान में क्या मिलने वाला है? आप अपने को कुछ भी समझ लें लेकिन आप अनुभव शून्य हैं। और अनुभव प्राप्त करना यही हमारा एक ही परम कर्तव्य है। क्योंकि इस भारत वर्ष में ही ये जड़ों की विद्या है । ये मूल की विद्या यहीं पर है। इसी देश से सारे संसार को प्रेरित करने के लिए जो प्रकृति ने और अवतारों ने व्यवस्था की है वो सब हमारे जिम्मेदारी पर है। हम हिन्दुस्थानियों के जिम्मेदारी पर है। इस भारतीय लोगों के जिम्मेदारी पर है जहाँ कि हमें ये कहना है कि, 'हाँ हम इस ज्ञान को प्राप्त करेंगे। इस ज्ञान में उतरेंगे।' लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप किताबे पढ़िये। बिल्कुल भी नहीं होता। किताबे पढ़ने से मेरा मतलब नहीं है। अगर ये डॉ वॉरेन सिर्फ किताबें पढ़े होते तो ये कुछ भी न कह पाते। लेकिन जो अनुभव से जाना हुआ है, अनुभव से जो इन्होंने पहचाना हुआ है तभी तो न ये इन्होंने तीन विषय में क्या पता नहीं पीएचडी किये हैं, फलाना किये हैं, ठिकाना किये हैं । 11 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-11.txt अब एक छोटी सी बात साइन्स की आपको बताऊं| एक बड़े भारी साइंटिस्ट हैं, जिनका नोबल प्राइज थोडे इससे चूक गया। तो उन्होंने कहा कि, 'माँ, आप कहती हैं कि मूलाधार चक्र पे श्रीगणेश का स्थान है और एक तरफ से वो ॐकार हैं और दूसरी तरफ से वो स्वस्तिक हैं। ये क्या है?' मैंने कहा कि, 'भाई तुम तो मॉडर्न आदमी हो, तुम्हें कोई मुश्किल नहीं है पता लगाना। तुम ऐसा करो एक अॅटम का चित्र बनाओ| एक बार लेफ्ट से बनाओ और एक राइट से बनाओ। कार्बन अॅटम को ले कर के तुम चित्र बनाओ।' उन्होंने मुझे खबर की कि, 'माँ, आश्चर्य की बात है कि जब लेफ्ट साइड से देखते हैं तो ओंकार दिखाई देता है क्योंकि राइट साइड दिखाई देती है। जब राइट साइड से देखते हैं तो लेफ्ट साइड में क्या दिखायी देता है, स्वस्तिक! और ये कार्बन का अॅटम है। आपने कैसे ये बात कही है?' मैंने कहा, 'लिखा हुआ है चत्वारी। इसमें चार वेलन्सीस हैं वही कार्बन है। इसमें कौनसी ऐसी नयी बात मैंने बतायी। लेकिन ये कि तुम लोग विश्वास क्यों नहीं करोगे। ' घर में गणपति का चित्र रखा हुआ है उसको नमस्कार कर लिया। पर किसी डॉक्टर से में कहूँ कि भाई, इस गणपति की वजह से तुम्हारा पेल्विक प्लेक्सस चलता है।' तो कहेंगे कि, 'रहने दीजिए, रहने दीजिए माताजी। अब इसके उदाहरणार्थ मैं आपको बताती हूँ कि हमारे एक सहजयोगी थे, काफी उमर के, उनका नाम था अग्निहोत्री साहब। और उनके यहाँ बहुत अग्निहोत्र ह्ये। और बड़े खानदानी ब्राह्मण थे। वो पूना से हमारे पास आयें और मुझे कहने लगे कि, 'माँ, आश्चर्य की बात है कि मुझे तकलीफ हो रही है वो मूलाधार चक्र से!' मैंने कहा, 'ये कैसे हो रही तुमको मूलाधार चक्र से।' माने ये कि एक वहाँ ग्लैण्ड होता है, वो ग्लैण्ड अब काम नहीं कर रहा है। मैंने कहा, 'ये कैसे हो सकता है? हो ही नहीं सकता। क्योंकि तुम तो गणेश के भक्त हो और सहजयोगी हो।' तो उस वक्त जब वो जाने लगे तो जो प्रसाद है चने, मैंने कहा, 'अच्छा, अब चना खाओ।' मैंने उनके हाथ में चना दिया। तो हमारा इधर-उधर आना-कानी करने लगे। मैंने कहा, 'तुम्हें अपनी प्रोस्टैट ग्लैण्ड ठीक करनी है या नहीं। मैंने कहा, 'आना-कानी क्यों करते हो?' कहने लगे, 'माँ, कल खा लूंगा।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने है प्रोस्टैट लगे, 'आज संकष्ट है। आज में चना वरगैरे नहीं खाता। मैंने कहा, 'यही कारण तुम्हारा खराब होने का। कहने लगे, 'ये क्यों कारण?' मैंने कहा, 'जिस दिन गणेश का जन्म हुआ वो संकष्टी तुम मनाते हो! जिस दिन किसी का जन्म होता है उस दिन तुम उपास करते हो? क्या तुमसे गणेशजी खुश होंगे? खाओ अभी।' चना खा कर के, आप विश्वास नहीं करेंगे कि लेकिन आप पूछ सकते हैं, वो जब पूना पहुँचे तो देखते हैं कि उनकी प्रोस्टैट एकदम ठीक चलने लग गयी। इस प्रकार की हम अनेक गलतियाँ करते रहते हैं। जब कभी भी कोई भगवान का जन्म होना है तो सूतक बना के बैठ गये। सूतक कर रहे हैं। माने ये कि जो हमारी पूजा - अर्चना है उसे भी हम नहीं समझते। वही हाल अंग्रेजों का है। जब कोई मरा तो शॅम्पेन पिएंगे। ईसा-मसीह का जिस दिन जन्म 12 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-12.txt हुआ उस दिन शॅम्पेन पिएंगे। उनसे कहा, 'भाई, शॅम्पेन तुम क्यों पीते हो ? शराब तो निषिद्ध है। कैसे आप शराब पी सकते हैं क्योंकि ये चेतना के विरोध में है।' वो कहेंगे कि, 'होगा आपके धर्म में, हमारे धर्म में नहीं। 'कैसे?' 'ईसा-मसीह ने एक शादी में शराब बनाई।' मैंने कहा, 'हो ही नहीं सकता। उन्होंने पानी को द्राक्षासव, द्राक्ष का रस बना दिया। आप बताईये शराब को सड़ाये बगैर बनती है क्या शराब? एक क्षण में कोई बना सकता है शराब?' लेकिन इस बात को पकड़ के अब शराब पीना ही ईसाई धर्म हो गया है। इसी प्रकार उपास करना ही हमारे यहाँ हिन्दू धर्म हो गया। ठीक है, परमात्मा कहते हैं कि, 'तुमको उपास करना है, तो उपास कर लो ।' करो उपास। जिस जिस की आप इच्छा करेंगे वो वो इच्छा परमात्मा आपकी पूरी करते हैं। उलटी खोपडी से परमात्मा नहीं समझा जा सकता है। जो वो हैं वो हैं। उनके आगे आप अगर कहें कि, 'हम आपको बनायें और आपकी हर व्यवस्था खुद करेंगे, तो ये बड़ी गलतफहमी हम लोगों को है आप स्वतंत्र हैं, ऐसा आप कहते हैं। स्वतंत्रता के लिए हमने भी बहुत आफतें उठायीं। आज हम लोग स्वतंत्र हो गये। लेकिन मैं नहीं सोचती आप स्वतंत्र हैं। आपको स्वातंत्र्य मिला है, लेकिन 'स्व' का तंत्र जानना चाहिए। शिवाजी महाराज जो थे वो आत्मसाक्षात्कारी थे। उनको मैं कहती हैँ पूरे भारतीय थे। उन्होंने कहा कि 'स्व' का तंत्र जानना चाहिए। उनके गुरू रामदास स्वामी थे। उन्होंने उनसे बताया कि, 'देखो, जब तक स्वधर्म नहीं बनने वाला, 'स्व' का धर्म, स्वधर्म, तब तक इस देश का कल्याण नहीं होगा। अब उनके नाम से ही लोग आफत मचाये हये हैं। पर जिस स्वधर्म की बात की थी, उस 'स्व' को जानने के लिए कोई भी प्रयत्नशील नहीं है | सारे धर्मों में यही रोना है। मोहम्मद साहब की तो बात क्या कहने। उन्होंने तो साफ कहा है कि 'जब उत्थान का समय आयेगा तब आपके हाथ बोलेंगे।' इसको 'कयामा' कहते हैं। उत्थान का समय, रिझरेक्शन का समय, जिसे कहना चाहिए उत्क्रान्ति का समय आयेगा तब आपके हाथ बोलेंगे। उन्होंने इतना कुछ कुराण में लिखा है। मेरे पिता ने खुद इसका ट्रान्सलैशन किया है, मैं जानती हँ। उन्होंने साफ लिखा है कि उस वक्त आपके हाथ बोलेंगे। इसका मतलब क्या है? सारे नमाज जो हैं कुण्डलिनी का जागरण है। और उन्होंने जो 'अल्लाह-हो-अकबर' कहा हुआ है वो अकबर भी विराट श्रीकृष्ण की बात थी । लेकिन ये बात कहने से मुसलमान कल मुझे मारने दौडेंगे। और इससे भी अगर आगे बातें करने लग जाऊं तो हिन्दू भी मुझे मारने दौडेंगे। क्योंकि सत्य का विपरीत रूप करने से ही आज हम हर तरह से धर्म में, अधर्म में हर तरह से एक भ्रान्ति में हैं। इस भ्रआान्ति को हटाने के लिए सबसे पहले जैसे डॉ. वॉरेन ने बताया है और जैसे आप सब सहजयोगी कहेंगे कि पहले आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हो। ये खेल-खिलवाड की बात नहीं है कि आप जिससे चाहें उससे खेल-खिलवाड कर लें। आप अपने से खेल-खिलवाड कर रहे हैं। लेकिन ये टाइम, ये समय ऐसा है इस वक्त चूकना नहीं चाहिये। अगर 13 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-13.txt आप इमानदार हैं और अगर आप अपने जीवन को पूर्णतया समझते हैं, तो एक बात तो माननी होगी तो कि अब आप में कुछ कमी तो जरूर है। आप केवल सत्य तो नहीं हैं, आप ऐब्सेल्यूट तो हैं नहीं, उसके लिए अगर ऊर्ध्वगामी जाने के लिए कुण्डलिनी ही की व्यवस्था की हुई है, तो क्यों न उसे किया जाए। हर शास्त्र में, लाओत्से की ही किताब आप पढ़ लीजिए या आप कन्फ्यूशिअस को लीजिए या आप सॉक्रेटिस को पढ़ लीजिए, दुनिया के जितने भी बड़े-बड़े महान लोग हो गये हैं सबने यही कहा हुआ है कि आपको अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होना चाहिए। लोग आते हैं, 'हम पढ़ साहब ज़ेन कर रहे हैं।' ज़ेन माने क्या? ज़ेन माने ध्यान, पर ध्यान किया नहीं जाता, होता है। एक ज़ेन के बड़े भारी प्राचार्य यहाँ आये थे, जो कि वहाँ के हेड ऑफ ज़ेन सोसायटी और उनको कोई बड़ी शिकायत थी, तो मुझे लोग ले गये कि, 'माँ, इनको ठीक करो।' तो मैंने कहा, 'भाई, ज़ेन कैसे हो? तुम्हारी तो वैसी दशा नहीं है।' 'माँ हूँ ना' तो सच कह दिया । 'तुम्हें तो तुम आत्मसाक्षात्कार हुआ नहीं। तो आपने इतनी बड़ी अपने उपर जिम्मेदारी कैसे ले ली। कहने लगे कि, 'छठी शताब्दी से ले कर के बारहवीं शताब्दी तक जरूर छब्बीस ज़ेन ह्ये थे | जिसको वो काश्यप कहते हैं। देखिये, अपने कश्यप मुनि के पुत्र काश्यप का नाम रखा है। वो काश्यप , रिअलाइज्ड सोल थे। और उसके बाद फिर हये ही नहीं । तो मैंने कहा, 'फिर तुम ज़ेन- वेन मत करो । तुम समझ ही नहीं पाओगे कि ज़ेन क्या है? जब तक तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं होता है, तब तक तुम्हें ज़ेन करना व्यर्थ है।' आत्मसाक्षात्कार के बाद जो सामाजिक कार्य होता है उसमें मनुष्य जानता है कि आनन्द और सुख क्या है। उसमें मनुष्य जानता है कि दूसरे आदमी की क्या विशेषता है ? यहाँ पर आपके कलकत्ते में एक बार जब शुरू में हम आये थे, एक होटल में ठहरे थे, वहाँ कोई ऐसे अजनबी ने हमारा नाम सुना और वो हमसे मिलने आये और कहने लगे कि, 'माँ, हमें आप आत्मसाक्षात्कार दीजिए|।' हमने कहा, 'अच्छा, कोई बात नहीं।' और जब वो मेरे पैर पे आयें, उनकी कुण्डलिनी इतनी जोर से उपर में आयी। जो दूसरे सहजयोगी, दूसरे कमरों में बैठे हुये थे उनको ऐसा लगा कि पता नहीं कहाँ से इतना आनन्द बरस आ रहा है । वो दौड़ते-दौड़ते मेरे कमरे में आ के पूछते हैं, 'माँ, किसको आपने आत्मसाक्षात्कार दिया?' मैंने कहा, 'देखो!' जब उसपे हाथ रखा, तो आनन्द विभोर हो गया 'ओ... हो... हो माँ क्या है! ऐसे-ऐसे अनुभव, अनेक अनुभव सहजयोग में आते हैं। जहाँ जिस आदमी को हम सोचते हैं कि बहुत उँचा आदमी है, जब उसके पास जाईये तो लगता है कि बिल्कुल घास-फूस और कचरा है। और कोई आदमी के लिए सोचते हैं कि अरे, ये बिल्कुल बेकार आदमी है, किसी काम का नहीं, उसको देखते हैं तो पता नहीं कब का आत्मपिंड हैं, कब का ये बड़ा महान पुरुष रहा, इस संसार में 14 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-14.txt आया है। लेकिन इसको पहचानने के लिए भी तो आपके पास में वही, केवल सत्य होना चाहिए कि उसकी ओर हाथ करके आप जान लेते हैं कि क्या है! कुंभ के मेले में जाने की आज-कल बड़ी आफ़त मची हुई है, कुंभ के मेले में। क्यों जाना कुंभ के मेले में? क्या आप गंगाजी को पहचान सकते हैं? क्या आप जमनाजी को पहचान सकते हैं? अगर आपके पास गंगाजल ला के रखा तो क्या आप पहचान लेंगे कि ये गंगाजल है? नहीं पहचान सकते। कारण आपके पास में केवल सत्य नहीं है। जब गंगाजल सामने रखियेगा तो कोई भी सहजयोगी बता देगा कि ये गंगाजल है क्योंकि उसमें से चैतन्य की लहरियाँ आ रही है। जो शिवजी के से बह रही गंगा है, तो उसमें तो चैतन्य आना ही हुआ। अब गंगाजी को हम पूजते हैं, सहस्त्रार लेकिन गंगाजी जो सूक्ष्म है उसको तो जानते ही नहीं कि चीज़़ क्या है ये गंगाजी ? सालों से चला आ रहा है, 'गंगाजी में नहाओ, गंगाजी में नहाओ |' ये तो ऐसा है जैसे पत्थर उसमें पड़े हये हैं, ऐसे ही लोग नहाते हैं और बाहर आते हैं। और फिर उनमें कोई भी ऐसा दिखता नहीं कि गंगाजी हो के आये तो कोई विशेष बात की। ऐसे ही जो लोग हज में जाते हैं, वहाँ से लौट के आते हैं तो फिर वही स्मगलिंग करते हैं। जब हज हो के आयें, हाजी हो गये, दाढ़ी बढ़ा ली, अपने को हाजी बनके घूम रहे हो तो भाई, कुछ तो असर दिखाई देना चाहिए । कोई नहीं! सब एक ही साथ एक जैसे ही रह जाते हैं जैसे गये थे वैसे ही बिल्कुल नीरे, कोरे जैसे गये थे वैसे आया। क्या वजह है कि जो गंगाजी की सूक्ष्म चीज़़ है उसको आपने पकड़ा नहीं। और पकड़ेंगे भी ही कोरे वापस चले आये। कुछ असर नहीं 6. कैसे? अब यहाँ पर हमारे यहाँ जागृत स्थान है। हम तो कहते हैं कि हैं। हर जगह हमारे यहाँ जागृत स्थान है, और ये बायबल में भी लिखा हुआ है कि जो पृथ्वी तत्व ने और आकाश ने बनाया हुआ है। उसको फिर से बना कर उसकी पूजा न करें। इसका मतलब वो नहीं कि जो पृथ्वी तत्व ने बनाया है उसकी हम पूजा न करें। अब ये तत्व हमारे यहाँ पृथ्वी तत्व से निकले हुये जो जागृत स्थान हैं.... आप कैसे जानियेगा कि ये जागृत है या नहीं? कहीं पत्थर रख दिया, 'हाँ, ये जागृत स्थान है।' अब राम की भूमि है कि नहीं है ? ये जानने के लिए मुसलमान और हिन्दू दोनों को अगर पार कराईये तो कहेंगे कि ये श्रीराम की भूमि है इसमें शंका नहीं । लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सब हिन्दू जा के वहाँ लड़े और लड़ के राम की भूमि भी मिल गयी तो भी क्या फर्क आने वाला है हमारे अन्दर! ये बाह्य की चीज़ों से अंतर्योग घटित नहीं होता है। जब अंतर्योग हो जाएगा तो समझ में आ जायेगा मुसलमानों को भी और हिन्दुओं को भी कि श्रीराम की भूमि है और श्रीराम ये मुसलमानों के लिए कोई दूसरे नहीं है। और हमारे लिए भी मोहम्मद साहब कोई दूसरे नहीं हैं। ये लोग सब रिश्तेदार हैं, बड़े पक्के, आपस में। इनका कभी भी झगड़ा नहीं होता। एक-दूसरे के सहायक हैं आपको पता नहीं। 15 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-15.txt लेकिन हम ही लोग बेवकूफ जैसे एक का नाम ये लिया, एक का नाम ये लिया, लड़ते रहते हैं। जैसे कि एक पेड़ पे अलग-अलग समय पर निकले हुये महासुन्दर फूल हैं। उनको अलग हटा लिया, उनको तोड़ लिया, जब वो मर गये तो ये मेरा फूल, ये मेरा फूल, पर अरे भाई, तुममे क्या विशेषता आयी है? कौनसी विशेष तुमने बात करी? जब खराबी पर आते हैं हो तो सब एक साथी ही हैं। तब तो कुछ दिखायी नहीं देता। इस तरह से पंथ, जातियाँ बना-बना कर के हम लोगों ने एक तमाशा बेवकूफी का खड़ा किया है। कितने बेवकूफ इन्सान हैं आप ही सोचिये। ये बेवकूफी के लक्षण हैं या नहीं कि हम इस तरह से 'ये मेरा धर्म, ये मेरा धर्म' । अरे, धर्म तो है ही नहीं तुम्हारे अन्दर | जिस वक्त कुण्डलिनी का जागरण होता है, तो जिसे हम लोग वॉइड कहते हैं, जिसको भवसागर कहते हैं, उस भवसागर में जब प्रकाश आता है तो धर्म अपने आप जागृत हो जाता है। ऐसे आदमी धर्मातीत होते हैं। माने आप ही सोचिए कि तुकाराम, जो बड़े संत हो गये। अगर कभी उनसे कहना पड़ता था कि 'आप शराब मत पिओ या दूसरों का पैसा मत खाओ?' कहना पड़ता था क्या? उन संतों से कहना तो नहीं पड़ता था ना! नानक साहब से ये तो नहीं कहना पड़ता था कि, 'भाई, तुम चोरी-चकारी मत करो ।' उनको ये बात मालूम ही नहीं थी । माने वो धर्मातीत लोग थे। और ऐसे लोग हमारे देश में हो गये हैं। और उन्होंने जो बता दिया है अगर उनकी तरफ जरा सी भी नज़र करें तो समझना चाहिए कि वो कोई झूठ बोलने वाले तो लोग नहीं थे । उन्होंने जो बता दिया उसे हमने क्यों न करना चाहिए । इन लोगों की बातें भी और तरह की हैं मैं आपसे बताऊं। ये जाति-पाति को लेने वाले जो लोग हैं, खास कर के सारी ही जाति में बड़े-बड़े संत हैं। महाराष्ट्र में तो इसकी आप पुष्पमालिका बना लीजिए । यहाँ पर एक, हमारे यहाँ एक दर्जी जो कि नामदेव के नाम से मशहर हैं। कभी नामदेव कहते हैं, संत नामदेव, वो गये मिलने.... किसे तो कुम्हार एक था, जो गोरा कुम्हार था। हम लोग उँची जाति और निची जाति ये सारा कुछ अपना दिमागी जमा-खर्च चलाते रहते हैं। वो जब उनसे मिलने गये तो उन्होंने मराठी में काव्य किया हुआ है। नामदेव बहुत बड़े कवी थे। 'निर्गुणाच्या भेटी, सगुणाशी।' निर्गुण को मिलने आया तो सगुण मेरे सामने खड़ा हो गया। कितनी बड़ी बात है। इसको समझने के लिए भी आपको आत्मसाक्षात्कार चाहिए कि वो तो चैतन्य देखने आये थे तो सगुण हो गया चैतन्य। ये बातें हम लोग नहीं कर सकते। वो एक कुम्हार था, मिट्टी से खेलने वाला और ये एक दर्जी था। अब हमारे यहाँ के बड़े बुद्धिमान लोग हैं, वो कहते हैं कि, 'साहब, ये जो नामदेव, जिनको आलो गुरू नानक ने पाचारण किया था, जिनका इतना आदर किया था, जिन्होंने हिन्दी और पंजाबी में इतने सुंदर काव्य लिखे और जो इनके ग्रंथसाहब में नामदेव जी का नाम है वो दूसरे थे और ये दर्जी दूसरा था।' ये अकल निकाली और दूसरी अकल की बात ऐसी निकाली है कि आदि शंकराचार्य, जिन्होंने 16 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-16.txt विवेक चुडामणी आदि ग्रंथ लिखे थे उन्होंने सौंदर्य लहरी नाम की चीज़ लिखी ही नहीं। क्योंकि सौंदर्य लहरी इनकी खोपड़ी में जाती ही नहीं है। इसलिए सौंदर्य लहरी नाम की चीज़, जिसमें माँ की स्तुति कर दी ये क्या ये बेवकुफी की बात है इनके साथ। ऐसे विद्वानों के चक्कर में रह-रह कर के और ऐसे लोगों के लेक्चर सुन-सुन के हम लोग भी 'पढ़ी पढ़ी पंडित मूरख भये' । जब कबीरदासजी को मैं पढ़ती थी। मैं कहती कि ऐसी कैसी बात कबीरदासजी कहते हैं कि पंडित कैसे मूरख हये ? अब ऐसे बहुत मुझे मिलते हैं। और जब ऐसे मिलते हैं तो मैं चुप्पी लगा जाती हूँ और कबीरदासजी से | कहती हूँ कि, 'अच्छे दर्शन दिये आपने इन लोगों के।' कबीरदासजी के साथ कितने अन्याय हये। कबीरदासजी ने कुण्डलिनी को सुरति कहा। साफ- साफ बात लिख दी थी कि ये सूरति है। उस पर हमारा आक्रमण इतना बूरा और भद्दा है कि बिहार में और हमारे उत्तर प्रदेश में जहाँ मेरा ससुराल है, वहाँ पर लोग तम्बाकू को सूरति कहते हैं। और पता नहीं कौनसे-कौनसे उल्टे देशों में कहते हैं। पर बहरहाल इन दोनों को मैं जानती हूँ। कहाँ तो कुण्डलिनी और कहाँ ये राक्षसी तम्बाकू। कैसे इसका मेल बिठाया और कबीरदासजी को भी सारे बड़े-बड़े विद्वान, हमारे हिन्दी के साहित्यिक हैं उन्होंने कहा कि साहब, इनकी भाषा तो सब भुक्खड़ ही है। और इसमें कोई सौष्ठव ही नहीं है। क्या कहा जाए? मैं तो कहती हैँ कि जब आप जनसाधारण से बातचीत करिये तो रोजमर्रा की ही भाषा में बोलना चाहिए, नहीं तो लोग समझेंगे कैसे ? हम तो महाराष्ट्र के रहने वाले हैं और आप जानते हैं कि महाराष्ट्र की भाषा बहुत ही, जब हिन्दी बोलते हैं तो अत्यन्त क्लिष्ट भाषा होती है। उस क्लिष्ट भाषा को कोई समझ नहीं पाता है। मुझे तो सोच-सोच कर के ये देखना पड़ता है कि रोजमर्रा की भाषा में किस तरह से बोलूं। और उन्होंने रोजमर्रा की भाषा में इतना सुन्दर और इतना गहन विषय लिखा है और सभी संतो ने ऐसे किया है । एक सजन कसाई थे। कसाई थे वो कसाई। उनका किस्सा है कि एक बार एक बड़े भारी साधु बाबा पहुँचे और उनके किसी पेड़ के नीचे बैठे थे। तो उनपे एक चिड़िया ने गन्दगी कर दी। तो उसकी ओर देखा तो चिड़िया टप से मर गयी और नीचे गिरी। आगे गये, देखते हैं एक औरत, वहाँ जा के दरवाजा खटखटाया। उसने कहा, 'अभी ठहरिये में आती हूँ। उसने फिर कहा, 'चलो भिक्षा दो।' तो चावल ले के आयी। कहती हैं, 'बिगड़ने की कौनसी बात है। जिस चिड़िया को उपर से नीचे टपकाया है वैसी मैं नहीं हूँ। आप कोशिश कर लीजिए ।' तो उसने कहा, 'तुमने कैसे जाना ?' कहने लगी, 'जाना, कुछ न कुछ बात तो है ही जानने की।' कहने लगी कि, 'देखिये, आप यहाँ से आगे जाईये, एक गाँव है वहाँ जा के पूछो कोई सजन है क्या ? उस सजन ने मुझे सिखाया है।' तो ये उस गाँव में गये। उन्होंने कहा, 'यहाँ पर कोई सजन नाम का आदमी रहता है।' कहने लगे, 'कोई नहीं। एक कसाई रहता है।' कहने लगे, 'उसको भगवान-वरगवान का कुछ है?' 'बाप रे! बहुत है।' जब वहाँ 17 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-17.txt पहुँचे तो उन्होंने कहा कि, 'आपके बारे में मैंने सुना है।' कहने लगे, 'मालूम है। तुमने चिड़िया को मारा था। और उस गाँव में गये थे वहाँ उस लड़की ने तुमसे बताया। ठीक है। अब तुम यहाँ पहुँच गये हो। हैरान हो गये 'इन्होंने मेरे बारे में इतना कैसे जान लिया ?' वो एक कसाई था, कसाई। लेकिन हम कसाईयों पर विश्वास नहीं करने वाले जो कि संत शिरोमणी हैं! हमारे लिये तो संत तो ये हैं जो जेल से छूट कर आया हो पहली बात। कुछ न कुछ फ्रॉड किया हो। पहला, कम से कम फ्रॉड करने लायक हो। उसके बाद वो टीला-वीला लगा कर के, गेरूआ वस्त्र पहन कर के चौक में बैठ सकता है और लम्बे-लम्बे भाषण दे सकता है। हो सकता है किसी पोलिटिकल लीड्र रहा हो। अब उधर चली नहीं तो उसने ये धंधा शुरू कर दिया। ऐसे ही धंधे हम लोग शुरू करते हैं और लोग, ऐसे लोगों को, वाह ! वाह! ऐसे चक्करों में घूम-घूम कर के आप लोग कहाँ पहुँचे? सर्वनाश का समय आ गया है। बड़ा चक्र चल रहा है। आपको नहीं पता है कि कालचक्र कितनी जोर से हमारे उपर दौड़ा आ रहा है। सारे संसार में ये फैलने वाला है। और इसको रोकने का पूरा उत्तरदायित्व, इसकी पूरी जिम्मेदारी, रिस्पॉन्सिबिलिटी आप लोगों पर है जो हिन्दुस्थानी बनते हैं और विशेष कर बंग देश में रहते हैं। जो कि माँ के पूजारी हैं। और आजकल सिर्फ महिषासुर की पूजा करते हैं। आज आपसे मैंने जो बात कही वो उस तरीके से कहना ठीक है कि प्रेम की ओजस्विता है। एक माँ की पहचान इसमें होती है कि वो सही बात अपने बच्चों से निर्भिक कह दें। शिवाजी महाराज के माँ के बारे में आपने सुना होगा जिजाई, जिसने कि अपने बच्चे को हमेशा तलवार की धार पे खिलाया है। ईसा- मसीह की माँ साक्षात लक्ष्मी थीं। लेकिन अपने बच्चे को सूली पर चढ़ता हुआ उस औरत ने देखा होगा। हमारे देश में ऐसी अनेक स्त्रियाँ हो गयी। जिनके एक एक के नाम लीजिए तो रौंगटे खड़े हो जायें । लेकिन आज हम ये देखते हैं कि अंधकार में बढ़ते-बढ़ते पाश्चिमात्यों का हाथ पकड़ लिया अब तो पूरी तरह से बेड़ा गर्क है। कृपया कम से कम ये न कर के थोड़ी नज़र अपनी ओर करें और इस आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हो। आज आशा है आप लोग सब आत्मसाक्षात्कारी बनेंगे। लेकिन आज एक क्रान्ति का दिन है, जब कि घर में बैठ के घंटा बजा के पूजा करने वाले नहीं है। आज सामूहिक तरीके से सहजयोग करना होगा। सामूहिकता में ही आप सहजयोग में बढ़ पाएंगे नहीं तो आप बढ़ नहीं पाएंगे। इसलिय जान लीजिए कि जो लोग, बहुत लोग कहने लगे कि, 'हम तो माँ आपसे दीक्षित हो गये' और फिर यहाँ दीक्षित कहते हैं। दीक्षित हो गये। और आगे क्या? 'हम घर में बैठ कर आपकी पूजा करेंगे।' उससे कोई फायदा नहीं होने वाला। आपको सामूहिकता में उतरना चाहिए। परमात्मा आप सबको सुबुद्धि दें और उस सुबुद्धि में आप परमात्मा को प्राप्त करें। आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! 18 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-18.txt 19 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-19.txt 79 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-20.txt सहजयोगियों से बातचीत ग्लैनरॉक, आस्ट्रेलिया, १ मार्च १९९२ 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-21.txt आज मैं आपसे कुछ ऐसे मामलों पर बात करना चाहती हूँ जहाँ लोग उलझ जाते हैं। सहजयोग में कुछ बातें समझ लेना आवश्यक है। पहली बात - सहजयोग में धर्मान्धता का कोई स्थान नहीं है । कोई भी मेरे शब्दों का प्रयोग न करे, न ही ये कहे कि श्रीमाताजी ने ऐसा कहा था। इसी प्रकार चर्च में और अन्य स्थानों पर धर्माधिकारी वर्ग की रचना हुई। हर व्यक्ति पढ़ सकता है तथा पता लगा सकता है। यह कहना, कि श्री माताजी ने ऐसा कहा था, आप लोगों को वश में करने का तरीका है। यह दर्शाता है कि आप लोगों को अलग हटने के लिए कह रहे हैं। आप कार्य-भारी नहीं हैं। यदि मैं सहजयोगियों के कार्यक्रम में कोई बात कहती हूँ तो इसलिए कि यह मेरे तथा मेरे बच्चों के बीच दिल की बात होती है। बिना अगुआ से सम्पर्क किए, अनियन्त्रित रूप से, आपके कम्प्यूटरों द्वारा इसे चहूं और फैलाया नहीं जाना चाहिए । सहजयोग में कोई उतावली नहीं है। अतः उतावलापन नहीं होना चाहिए। यह बात में स्पष्ट रूप से कह रही हूँ। मैंने जो भी कहा उसे कोई याद नहीं रखता। वे केवल मेरा नाम प्रयोग करते हैं। माँ ने १९७० में ऐसा कहा था। १९७० में मैं कभी अंग्रेजी नहीं बोली। अत: ये सब ऐतिहासिक कथन प्रयोग नहीं किए जाने चाहिए। हम वर्तमान में रहते हैं। हो सकता है उस समय स्थिति कुछ भिन्न रही हो। हो सकता है तब सहजयोगी नए-नए सहजयोग में आ रहे थे, हो सकता है उन्हें किसी प्रकार के पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता रही हो। यह एक यात्रा है। उतराई या चढ़ाई पर चलते समय आपको भिन्न विधियाँ अपनानी पड़ती है। अब आप समतल पृथ्वी पर चल रहे हैं। आपका व्यवहार ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे ये लगे कि आप पर्वत पर चढ़ रहे हैं। अत: यह सहजयोग की पर्वत पर यात्रा है। सहजयोगी की हमारे लक्ष्य तक यात्रा है और सहजयोग में अधिकाधिक लोगों को मुक्ति देना ही हमारा लक्ष्य है। पर इस पर कब्जा नहीं किया जाना चाहिए। मैं पुन: आपको बताती हैँ कि किसी को भी नेता (अगुआ) से इसे नहीं छीनना चाहिए। मैंने आप लोगों से मिलकर कार्य करने के लिए नेताओं की नियुक्ति की है। पर सदा आपका सीधा संबंध मुझसे है। अभी तक परमात्मा को मानने वाले लोगों का सीधा सम्पर्क परमात्मा से न था। पर अब आपका है। तो क्यों न आप मेरा उपयोग करें? और यदि नेता हैं तो आपको उनसे पूछना होगा। कोई भी अपने हिसाब से लोगों को उपदेश देना शुरू न कर दे। हमें उपदेश पसन्द नहीं है। काफी उपदेश दे चुके। अन्य लोगों को उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आपको उपदेश देने ही हैं तो स्वयं को दीजिए, दूसरे लोगों को नहीं। व्यक्ति को समझ लेना है कि यह एक जीवन्त प्रक्रिया है। किसी जड़ के छोर पर स्थित अणु द्वारा हम यह समझ सकते हैं। इसमें विवेक होता है और अपने पर इसका पूर्ण अधिकार होता है। इसका 22 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-22.txt सीधा संबंध दैवी शक्ति से होता है। अत: स्वत: ही यह चलता है, पर वृक्ष की जड़ की तरह इसका चित्त सामूहिकता पर होता है। यह ऐसे दिशा में चलता है कि न कोई वाद-विवाद होता है न झगड़ा, अर्थात् कोई बाधा ही नहीं होती। मान लीजिए कि यदि चट्टान सी कोई बड़ी बाधा आ जाए तो यह इसके गिर्द से निकल जाता है। वृक्ष के हित में यह चट्टान के कई चक्कर लगाता है। से आप यह जान सकते हैं कि आप कहाँ तक पहुँचे हैं। तथा भविष्य से आप जान अंत: भूतकाल पाते हैं कि लक्ष्य कितनी दूर है। यह समझना अतिमहत्वपूर्ण है क्योंकि पार्चात्य बुद्धि में ये बातें बड़ी सुगमता से घुसती हैं। वे मुझ से सीधा संबंध नहीं रखना चाहते। ऐसा न करके आप समूह (ग्रुप) बनाने लगेंगे, एक व्यक्ति उठकर कहेगा , 'श्रीमाताजी ऐसा कहती हैं'। कोई अन्य मेरे टेप आदि का उपयोग करेगा। ऐसा करने की आपको कोई आवश्यकता नहीं है । यदि वे किसी चीज़ की रचना करना चाहते हैं तो सीधे मुझसे बात करें, अपनी मनमानी न करें क्योंकि यह तो सहजयोग के प्रति अति अनुचित दृष्टिकोण है। अत: सर्वप्रथम हमें समझना है कि यह एक जीवन्त प्रक्रिया है। केवल आप ही इसका सारा श्रेय नहीं ले सकते। इस पर आप बनावटी बातें नहीं थोप सकते जो सहजयोग की बढ़ोतरी में बाधक हों। आप इसे किसी विशेष नमूने में नहीं परिवर्तित कर सकते । यह स्वयं ही परिवर्तित होता है तथा कार्य करता है। अत: सहजयोग में पुरोहित तन्त्र के लिए कोई स्थान नहीं है, अभी नहीं। ये धर्माधिकारी अन्ततः आपमें और मुझमें दीवार बन जाते हैं। सभी नेताओं को बता दिया गया है कि कोई भी पत्र या वस्तु आपको मिले तो वह मुझे भेज दें । मैं स्वयं उसे देखना चाहूँगी। कभी-कभी वे ऐसा करते हैं, पर आस्ट्रेलिया में कुछ नेताओं का मुझे बहुत बुरा अनुभव है। पर अब यहाँ पर आपका नेता एक अत्यन्त बुद्धिमान एवं विवेकशील व्यक्ति है। मेरे विचार में उसमें कोई कमी नहीं। केवल एक बात है कि कभी- कभी वह लोगों से कुछ अधिक ही कोमल होता है। दो स्त्रियों के कारण कल मुझे परेशान होना पड़ा। इसका कारण केवल एक था कि उसने उन्हें यह नहीं बताया कि वे कितनी भयानक थीं। अत: मुझे उनकी बकवास झेलनी पड़ी। एक नेता यदि अधिक नरम है तो लोग उसके सिर चढ़ जाएंगे तथा यदि वह सख्त है तो उसके पीछे पड़ जाएंगे। महसूस करने की बात केवल यह है कि सारी ही जीवन्त प्रक्रिया है और किसी एक व्यक्ति को माध्यम बनाकर माँ इस कार्य को अधिक सहज ढंग से कर रही है। मान लीजिए कि हर व्यक्ति छोटी- छोटी चीज़ के लिए मुझे लिखे तो बड़ा कठिन होगा। व्यर्थ की चीज़़ों के लिए मुझे लिखने का कोई लाभ नहीं। दूसरी बात पतियों या पत्नियों की है। आप ऐसी फिल्में या दूरदर्शन न देखें जिनमे पति -पलि को 23 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-23.txt झगड़ते दिखाया हो। ऐसा करने पर तोते की तरह, आप कुछ कठोर शब्द सीख लेंगे तथा पति-पत्नि से वैसा ही व्यवहार करेंगे। बहुत प्रश्न सुगमता से सुलझाए जा सकते थे। मेरे विचार में विवाह का निर्वाह करना जितना स्त्रियों का कार्य है उतना पुरुषों का नहीं । प्राय: पुरुष विवाह नहीं करना चाहते। चाहे उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं - बच्चे पैदा करने इत्यादि की। फिर भी वे विवाह नहीं करना चाहते। वे थोड़ा सा डरते से हैं - विशेषकर पश्चिमी देशों में-भारत में नहीं। भारत में लोग विवाह करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें प्रेम करने वाला, सामने न बोलने वाला, नम्र तथा उनकी बात को सुनने वाला, कोई साथी मिलेगा। पर पश्चिम में मैंने देखा है कि पुरुष विवाह ही नहीं करना चाहते। एक व्यक्ति से मैंने विवाह करने को कहा तो वह तीन दिन तक ओझल ही हो गया। आपको विवाह करने होंगे। पर मैं आपको बता दूँ कि इन विवाह संबंधी समस्याओं का कारण स्त्रियों का समझौता न कर पाना है। पहली बात यह है कि आपको अपने पतियों को बहुत प्रेम करना होगा। वास्तव में हर चीज़ के लिए वे आपके आश्रित हो जाएं। फिर वे क्या करेंगे? ऐसा आपको प्रेमपूर्वक करना है, कष्टदायी ढंग से नहीं। किसी चीज़ की माँग मत कीजिए, कुछ आशा मत कीजिए । मात्र स्नेहमय और करुण बनकर अपना प्रेम प्रकट कीजिए। तब उन्हें आदत पड़ जाती है। इसके बिना वे रह नहीं पाते। ये सब युक्तियाँ तो आपके माता-पिता को बतानी चाहिएं थी। शायद वे भी आपसे ही रहे हों। तो आपको व्यवहार की युक्तियाँ नहीं पता। विवाह के बाद हमें कहना चाहिए 'हम' । 'मैं' नहीं कहना चाहिए। और समझना चाहिए कि पुरुष स्त्रियों से भिन्न होते हैं। आप (स्त्रियाँ) समाज की सुरक्षा करती हैं और पुरुष उसका सृजन। आपमें कहीं अधिक धैर्य एवं करुणा होनी चाहिए। नि:सन्देह यह गुण आपमें हैं। अपने स्त्री-सुलभ गुणों को अपनाइए, आप आश्चर्यचकित होंगी कि आप पुरुषों के लिए शक्ति बन गई हैं। आप ही पुरुषों की शक्ति हैं। इसी कारण पुरुषों को आपका सम्मान करना चाहिए। यदि पुरुष स्त्रियों का सम्मान नहीं करते तो उन्हें हर प्रकार के कष्ट होते हैं - विशेष तौर पर भौतिक, वैभव तथा मान संबंधी कष्ट। कुछ स्त्रियाँ अत्यन्त अधिक अपेक्षा तथा आशा करती हैं। शायद रोमियो-जूलिएट सम रोमांचकारी फिल्में देखने का प्रभाव हो । पर उन्हें समझना चाहिए कि शेक्सपीयर तो अवधूत थे। वे इस तरह के जीवन की सारहीनता पर प्रकाश डालना चाहते थे। रोमियो-जूलिएट, दोनों की मृत्यु हो गई। एक-दूसरे की सहचारिता का आनन्द वे न ले सके। इंग्लैंड में भी हमारे सामने बहुत सी समस्याएं थीं | मुझे पता चला कि विवाह से पूर्व ही रोमांस की पुस्तकें वे पढ़ते हैं। विवाह से पूर्व रोमांस और विवाह के बाद झगड़ा। तो विवाह की आवश्यकता ही क्या है? 24 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-24.txt जब मैं कहती हैँ पुरुष ही परिवार का मुखिया है तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि पुरुष, स्त्रियों पर रोब जमाने लगें। मान लीजिए कि मैं कहूँ कि अमुक व्यक्ति आपका नेता है तो मेरा मतलब यह नहीं होता कि वह आप पर प्रभुत्व जमाए। यदि मस्तिष्क शरीर पर प्रभुत्व जमाने लगे तो शरीर का क्या होगा? इस तरह के परिणाम निकालना मूर्खता है। पर आप परिवार के हृदय हैं। मस्तिष्क की मृत्यु पहले हो सकती है पर हृदय तो अन्त में ही मृत होता है। अतः समझने का प्रयत्न कीजिए कि दिल और दिमाग में पूर्ण एकाकारिता होनी चाहिए। बच्चे सहजयोग समाज का चित्त हैं। तो यहाँ पर जब मैं किसी को सिर कहती हैँ तो सिर किस प्रकार हृदय पर रोब जमा सकता है? यह नहीं हो सकता। तो लोग यहाँ कहाँ से मेरे कुछ शब्द ले लेते हैं तथा सहजयोग में अपनी दुर्बलताओं को न्याय संगत ठहराने के लिए इनका प्रयोग करते हैं। पर इस तरह का पलायन आपकी उन्नति में सहायक न होगा। आप अपने ही विरुद्ध चल रहे हैं। यह आपके हित में नहीं। मेरा कहने का अभिप्राय यह है कि यदि आप इन घिसे-पिटे विचारों को सहजयोग में स्वीकार करेंगे तो आपका पतन होगा, आप सड़ जाएंगे । हम नए और ताजा हैं। हम जीवित हैं। स्त्री-पुरुषों के बारे में इस प्रकार के विचार हम स्वीकार नहीं करते। पूुरुष को परिवार का मुखिया कहने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि आप अपनी पत्नी पर रोब जमाएं या उसे तंग करें। न ही इसका अर्थ यह है कि नेता रोब जमाए। उन्हें अपना विवेक, प्रेम, करुणा के उपयोग से लोगों का उचित प्रकार मार्गदर्शन करना चाहिए। मुझे एक हास्यास्प्रद पत्र मिला जिससे पता चला कि किसी नेता की पत्नी ने सहजयोगिनियों को घर तथा कार्यक्रमों पर आने से रोका क्योंकि 'मैं' उनके घर नहीं जा पाई। क्या आप ऐसा सोच सकते हैं? यह मूर्खता है। वह नहीं जानती कि ऐसा करने से सहजयोग में उसका कितना पतन हो रहा है। मैं जहाँ चाहूँ जा सकती हूँ। पर उसे दोष अपने पर लेना चाहिए था। यह 'मेरा' घर है, ऐसा कहना मूर्खता की पराकाष्ठा है। माँ को मेरे घर आना चाहिए । भारतीय विशेषकर ऐसा कहते हैं, 'श्रीमाताजी कृपया मेरे घर आइए और मेरे साथ खाना खाइए।' आप हैं कौन? आप एक सहजयोगी हैं। तो आपका घर मेरा है, आप मेरे हैं, सभी कुछ मेरा है। आपके घर आने में क्या है? क्या आप अलग हैं? आपके सभी घर मेरे हैं । मैं यदि जाती हूँ तो भी इसका अर्थ ये नहीं कि मैं आपको किसी अन्य व्यक्ति से अधिक प्रेम करती हूँ। किसी ने मुझसे पूछा कि, 'आपने ईसाई धर्म में क्यों जन्म लिया ? ' मैंने कहा कि, 'कहीं तो मुझे जन्म लेना ही था। अच्छा हुआ कि ईसाईयों के यहाँ जन्म लिया क्योंकि वे मानसिक रूप से पक्के धर्मान्ध होते हैं। यह अधिक भयानक है। मुसलमानों को आप समझ सकते हैं क्योंकि उनमें वह 25 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-25.txt चालाकी नहीं है। वे स्पष्ट रूप से धर्मान्ध हैं। पर ईसाई तो बहत ही अधिक धर्मान्ध हैं। किसी के घर जाना अब मेरे लिए समस्या बन रही है। क्योंकि जिसके यहाँ मैं जाती हूँ उस व्यक्ति को अहंकार हो जाता है कि श्री माताजी मेरे घर आई थीं। अत: फिर कभी आप न कहें कि श्रीमाताजी यह मेरा घर है। श्रीमाताजी यह आपका घर है । मैं वहाँ जाऊं तो भी ठीक, न जाऊं तो भी ठीक। इससे क्या फर्क पड़ता है? में तुम्हें एक बार फिर से बताती हूँ कि बिना नेता से सम्पर्क किए और बिना उसकी जाँच के कम्प्यूटर के माध्यम से कोई बात नहीं फैलानी। ऐसा करना मुझे कठिनाई में डाल सकता है और मुझे जेल भी भिजवा सकता है। आप समझते क्यों नहीं? आप जो भी इच्छा करते हैं लिख देते हैं। इस प्रकार का गैर जिम्मेदारी भरा आचरण मेरी समज में नहीं आता। मैंने जो कभी नहीं कही वे बातें भी कही जाती हैं। इसे अपरिपक्वता तथा उतावली झलकती है। ऐसी बातों को पूछा जाना चाहिए। अपनी विवेक बुद्धि का उपयोग कीजिए । अपने अगुआ से सम्पर्क करना अत्यन्त आवश्यक है। छपने वाली तथा वितरीत होने वाली चीजें तो अगुआ द्वारा देखी जानी चाहिएं| इसमें कोई जल्दबाजी नहीं है। लिखी हुई कोई पुस्तक, टेप आदि सब अगुआ की आज्ञा तथा सूझ-बूझ से ही निकलने चाहिएं। मैं कहूँगी कि अगुआ अवश्य उन कागजात पर हस्ताक्षर करें। तब मैं उसे उत्तरदायी ठहराऊंगी। परन्तु निरंकुशता पूर्वक यदि आप कार्य करेंगे तो परिणाम भयानक हो सकते हैं । छोटी-छोटी चीजें भी मैं आपको बताऊंगी? मुझ से मैलबोर्न में 'विश्व निर्मल धर्म' शुरू करने को पूछा गया। मैंने कहा ठीक है। मैं नहीं जानती थी यह एक एसोसिएशन होगी, जिसके चुनाव होंगे। 'विश्व निर्मल धर्म' तो हर जगह है। पर कोई एसोसिएशन आदि नहीं। एक प्रकार का समाज विश्व निर्मल धर्म का प्रचार कर रहा है। इसकी कोई संस्था नहीं है। हमें कोई चुनाव नहीं चाहिए। यदि कुछ गलत लोग घुस गए तो सहजयोग को पूरी तरह निकाल देंगे। अत: आप केवल न्यास (ट्रस्ट) बना सकते हैं। यदि आप कुछ और करना चाहते हैं तो अलग से करें। यह विश्व निर्मला धर्म या सहजयोग के नाम पर नहीं होना चाहिए। मेरे 'हाँ' कहने का अर्थ यह नहीं कि आप एसोसिएशन आदि कुछ भी बना लें। अब तक जो गलती हुई है उसे ठीक करें। इन पर काम किया जाए। केवल उन्हीं लोगों को चुना जाए जो सहजयोग में बहुत अच्छे हैं और जो अभी तक विवेकपूर्वक तथा सीधे-सच्चे ढंग से कार्य करते रहे हैं। एक और सलाह दी गई थी कि हम अपना प्रक्षेपण बाहर की दुनिया के सम्मुख करें। यदि इसका अर्थ यह है कि हम दूसरी संस्थाओं तक जाएं तो यह गलत है। ये सारी संस्थाएं मृत हैं। ये जीवन्त संस्थाएं नहीं हैं। परन्तु यदि ये हमारे पास आना चाहें तो ठीक है। हमें अपना सिर फोड़ने के लिए उनके 26 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-26.txt 27 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-27.txt फ्सेंगे बल्कि उनसे आप नकारात्मकता पास नहीं जाना चाहिए। वहाँ जाकर न केवल विरोधियों में भी ले लेंगे। समझने का प्रयत्न करें। हमें अति सावधान रहना है। आप केवल ऐसे सहजयोगी ले सकते हैं जो जिज्ञासु हैं, ईमानदार हैं, नम्र हैं और जिन्हें सहजयोग से धन तथा सत्ता की आवश्यकता न हो। आस्ट्रेलिया से दो व्यक्ति आए थे और अब देखिए कितने सारे हैं। नि:सन्देह सहजयोग बढ़ेगा , पर इसे आयोजित मत कीजिए । आयोजन शुरू करते ही बढ़ोतरी रुक जाएगी। जैसे आपने देखा होगा कि काटकर सुव्यवस्थित (आयोजित) करने से पेड़ छोटा हो जाता है (बौना ) । मैंने ऐसा कोई वृक्ष नहीं देखा जो आयोजन से बढ़ता हो। ज्यादा से ज्यादा आप इसका पोषण कर सकते हैं, पानी दे सकते हैं। पर आप इसके विकास की गति नहीं बढ़ा सकते। सभी संस्थाएं विकास की गति को कम करती है। आरम्भ में चाहे यह प्रतीत हो कि आयोजित करने से गति बढ़ गई है। ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और हिन्दु आदि धर्म भी आयोजन के बाद बनावटी रूप से बढ़े और खोखले से हो गए। हमें ठोस व्यक्तियों तथा ठोस अन्तर्जात धर्म की आवश्यकता है। इन बनावटी चीज़ों को हमने नहीं अपनाना। आजकल हम बहत सी बनावटी खाद उपयोग कर रहे हैं । लोगों को समझ आने लगी है कि यह हमारे लिए हानिकारक है। अत: सहजयोग को स्वाभाविक ढंग से, बिना बनावटी संस्थाएं बनाए, परमात्मा की कृपा से कार्य करने दीजिए। बनावट तो पतन ही लाती है। अब आपके बच्चों के बारे में। पश्चिमी बच्चों के स्वभाव का अध्ययन करती रही हूँ। उनका चित्त कभी ठीक चीज़ों पर नहीं होता। पढ़ाई पर तो बिल्कुल नहीं होता। खाने पर उनका चित्त होता है। पश्चिमी देशों के लोगों को भारत में दस्त हो जाते हैं। आप न गर्मी सहन कर सकते हैं न सदी। आप अन्तर्दर्शन करें। थोड़ा सा काम करने से आप थक जाते हैं। क्या कारण है? कारण यह है कि आप सोचते बहुत अधिक हैं। ऐसा ही आप विवाह होने पर करते हैं। आप सोचने लगते हैं कि मेरी प्राथमिकताएं क्या हैं, मैं क्या करूं, विश्लेषण करने लगते हैं। जो भी करना है कर डालिए । बहत अधिक सोचना आपको रोगों के प्रति दुर्बल बनाता है। मूलाधार चक्र, नि:सन्देह, अति महत्वपूर्ण है। यदि मूलाधार दुर्बल है तो आप पकड़ जाते हैं। आपको कोई रोग हो सकता है। पश्चिम में तो रोग भी बहुत आम हैं। पर भारत में शक्तिशाली मूलाधार के कारण ऐसा नहीं है। अत: अब पहली गुप्त समस्या यह है कि अपने मूलाधार को किस प्रकार दृढ़ करें। जो खाना आप खाते हैं वह ताज़ा नहीं होता। ताज़ा खाना खाने का प्रयत्न कीजिए। दूसरा, आस्ट्रेलिया में तो आपको ताज़ा खाना उपलब्ध हो सकता है। जहाँ तक हो सके कार्बोहाइड्रेट अधिक 28 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-28.txt लीजिए। पतले होने की अधिक चिन्ता न कीजिए । थोड़े से मोटे व्यक्ति लहरियों को अच्छी तरह सोखते हैं । क्या आप जानते हैं कि चैतन्य लहरियाँ चर्बी पर बैठती हैं। इस तरह वे स्नायुतंत्र में जाती हैं। क्योंकि आपके स्नायु चर्बी से बने हैं और आपका मस्तिष्क भी चर्बी से बना है । आपके मस्तिष्क में जो भरा जाता है आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। यही कारण है कि उद्यमियों ने आपको वश में कर लिया है । विवेकहीनता के कारण हम यह समझ नहीं पाते। उन्होंने आपको सिर में तेल लगाने से रोका और आप रुक गए। परिणामत: आप गंजे हो जाते हैं। वे विग बेच सकते हैं। बालों को ठीक से बढ़ने के लिए पोषण चाहिए। इन्हें भूखा क्यों मारते हैं? आप अपने शरीर की भी मालिश कीजिए। सिर की मालिश कीजिए। अपनी देखभाल कीजिए । बिना तेल के बिखरे बाल तो भूतों को बुलावा देना है। आप साक्षात्कारी लोग हैं, लहरियाँ आप से बह रही हैं, अपने सिर की अच्छी तरह मालिश कीजिए। शनिवार को एक घंटा लगाइए। यह शनि का दिन है, कृष्ण का दिन है। उन्हें मक्खन- तेल बहुत पसन्द है। छोटी-छोटी बातों को समझना चाहिए। मैं समझ सकती हूँ कि आपको धूप बहुत पसन्द है। पर आस्ट्रेलिया में तो बहुत धूप है फिर भी न जाने क्यों यह आपको पसन्द है। फैशन के कारण आप बिगड़ते हैं। आपकी चमड़ी में चमक नहीं आ सकती। उपचार के रूप में आप सूर्य स्नान | कर सकते हैं। भारतीय लोग अंग्रेजों के इस तरह के अवांछित सूर्य-स्नान पर हैरान होते थे। व्यक्तिगत शुद्धि का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। बहत सा पानी का उपयोग कर हाथ धोइए। चालय जाने पर हर बार पानी इस्तेमाल कीजिए । ऐसा न करने पर आपका मूलाधार कभी ठीक न होगा। आपके बच्चे अपने दांत भी नहीं साफ करना चाहते। दांत साफ करने या स्नान करने को यदि उनसे कहें तो वे रोने लगते हैं। भारत की चिलचिलाती गर्मी में भी वे स्नान नहीं करना चाहते। उनसे दुर्गन्ध आती है। पर यदि आप उनसे कहें तो वे कहते हैं, 'हमारे माता-पिता से भी ऐसी ही गंध आती है। उनके मुंह से भी दुर्गन्ध आती है। भारत में तो हमें सुबह-शाम दांत साफ करने चाहिए। यह अति आवश्यक है। भारतीय संस्कृति ने ये सब बातें हमें बहुत पहले से सिखाई खेल-खेल में ही बच्चों को हम यह सब सिखा देते हैं। सफाई, स्नान आदि आपके तथा आपके बच्चों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। व्यक्तिगत सफाई आप लोगों की बहुत कम है। घर तो आपके पूरी तरह साफ होंगे। कालीन पर यदि कुछ गिर जाए जो आप इसे तुरन्त साफ करेंगे क्योंकि आपने इसे बेचना है। बेचने योग्य हर चीज़ की आप देखभाल करते हैं। अन्य चीज़ों की नहीं। सहजयोग में हमें समझना चाहिए कि हमारी कोई भी वस्तु बिकाऊ नहीं है। हमारे पास जो भी कुछ है इसे हम स्वयं रखेंगे, अपने बच्चों को देंगे या दूसरे लोगों को भेट कर देंगे। कोई चीज़ बेचेंगे नहीं। आपके बच्चे भी अपने शरीर की सफाई से अधिक ध्यान बिकने योग्य वस्तुओं का रखते हैं। हमें अपने विचार बदलने होंगे और कहना होगा कि हम अपनी 29 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-29.txt किसी भी वस्तु को बेचेंगे नहीं। कभी आपको अपना घर बेचना भी पड़ता है तो हर हाल में उसके एक ही दाम मिलेंगे चाहे आप इसे सजाइए या नहीं। लोग तो अनसजे घर खरीदना पसन्द करते हैं। तो यही भौतिकवाद है कि हम बेचने के लिए चीज़ें खरीदने का प्रयत्न करते हैं । इसके विपरीत हमें चाहिए कि हस्तकला की सुन्दर-सुन्दर वस्तुएं खोजें, इनमें से कुछ खरीदें तथा ये अपने बच्चों को तथा उनकी सन्तानों को दी जाएं। मेरे कार्यक्रम में बच्चे के रोने का कारण जरूर खोजें अवश्य ही कोई परेशानी या बाधा होगी। यदि बच्चा मेरी उपस्थिति में रोता है या डरता है तो कोई बाधा अवश्य है। आप इस बाधा को दूर करें। तो अब हमें अपने प्रति दृष्टिकोण बदलना होगा। हम आशीर्वादित लोग हैं। हमें अपने शरीर, बच्चों तथा भौतिकता से अधिक महत्वशील वस्तुओं की देखभाल करनी होगी। यह आत्मा है। अपने तो आखिरकार हम इस परिणाम तक पहुँचते हैं कि जिस आत्मा ने हमें यह सारा सौन्दर्य, सुन्दर चांदनी, हमारे कार्यों के लिए सुन्दर धूप प्रदान की है तथा हमें इतना मधुर बनाया है, उसकी सन्तुष्टि के लिए और उसका आनन्द लेने के लिए हमने क्या किया। अत: आत्मा ही हमारे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। हमें आत्म - आनन्द खोजना चाहिए। जितना अधिक आप आत्मा के विषय में सोचेंगे उतना ही अधिक गहनता में उतरेंगे। अत्यन्त गहन आनन्द आपको प्राप्त होगा। आध्यात्मिकता में स्थापित हो सामूहिकता का आनन्द लेते हुए अति सुन्दर रूप से आप स्थिर हो जाएंगे। अगआओं से आज्ञा लीजिए। सामान्य बातों में-कोई भी विशेष कार्य करने से पहले अपने इसके बाद आपकी अपनी समझदारी है। अन्त में - सभी अगुआओं को शिकायत है कि सहजयोग के लिए कोई भी धन नहीं देना चाहता। अब आप देखिए कि जो पैसा आप पूजा के लिए देते हैं उसकी तो मैं आपके लिए चांदी खरीद लेती हूँ। आपको यूरोपियन लोगों के बराबर चांदी दे दी जाती है जब कि आपका पैसा उनसे कम होता है। पहले वे पूजा के लिए एक डॉलर दिया करते थे जो सिक्कों के रूप में होता था और जिसे मैं वापिस ले आती थी। मैं उसका उपयोग अपने लिए नहीं करती, मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। यद्यपि ये मुझे दिया जाता है और सामान्यत: मुझे इसका उपयोग करना चाहिए। पर मैंने सोचा कि इसे खर्चने के स्थान पर आपको चांदी दे दें क्योंकि चांदी के बर्तन पूजा के लिए आति आवश्यक हैं और अति शुभ हैं। पर लोग बड़ी हिचकिचाहट पूर्वक पैसा देते हैं। मैं जानती हूँ कि आपको पैसे की कठिनाई है। पर इस कठिनाई का एक कारण यह भी हो सकता है कि पूरे विश्व में आप सबसे कम पैसा सहजयोग के लिए देते हैं। इतना कम और कोई भी नहीं देता। भारत में कम 30 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-30.txt करेंगे, मैं कुछ नहीं कहूँगी। और चांदी कम २१ रु. और ११ रु. देते हैं। तो जो भी कुछ आप इकठ्ठा आपको दे दूंगी। आप इतने सारे लोग हैं। मुझे ऐसा करना पड़ता है, आपको तथा यूरोप को अधिकतर पैसा देना पड़ता है। आप भी यूरोप की तरह ही एक महाद्वीप हैं। परन्तु व्यक्ति को समझना चाहिए कि उसे सहजयोग के लिए कुछ करने के बारे में सोचना चाहिए। हम सहजयोग के लिए क्या कर सकते हैं ? आप अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने अपने पति का बहुत साधन खर्च दिया है। मैं आस्ट्रेलिया में एक बार फिर कुछ करने वाली हूँ जो यहाँ के लोगों के लिए बहुत हितकर होगा। इसके लिए मैं अपना पैसा भी लगा सकती हूँ। इसके बावजूद भी लोग नहीं समझते कि मेरे पति मुझे यह सब करने की आज्ञा क्यों देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि इस प्रकार उन्हें पूरे आशीर्वाद मिलते हैं । उन्होंने सहजयोगियों को बताया है कि सहजयोग के कारण ही मुझे ये सब इनाम मिले हैं। परन्तु वे (श्रीमाताजी) तो परमात्मा के लिए कार्य कर रही हैं। मैं यह भी कहना चाहती हूँ कि आपने बहुत सा धन दिया। यह उदारता है। पर यदि आप सहजयोग के लिए धन देते हैं तो किसी अन्य रास्ते से आपको धन मिल जाता है। अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए मुझे पैसा नहीं चाहिए । यह आपकी उदारता का द्योतक है। सभी अगुआओं की यह सामान्य बात है। मैलबोर्न का अगुआ कहता है कि कोई पैसा नहीं देना चाहता। वे केवल सहजयोग से लाभ उठाना चाहते हैं। लक्ष्मी जी के दृष्टिकोण | से यह ठीक बात नहीं है। व्यक्ति को यह भी समझना है कि एक बार सहजयोग में आने के बाद, चाहे आप कुछ सहजयोग के लिए खर्चते हैं या नहीं, आप स्वयं को सहजयोग की जिम्मेवारी समझने लगते हैं। यह अति अनचित है। हर छोटी-छोटी बात में उन्हें सहायता चाहिए। नि:सन्देह उनकी सहायता होनी चाहिए । जिनके पास धन नहीं है हम उनकी सहायता करने का प्रयत्न करते हैं। पर वे एक प्रकार के बोझ बन जाते हैं और अन्य सहजयोगियों तथा मुझ से भी वे बहुत अधिक आशा करते हैं। किसी का विवाह कर दो तो वह सिरदर्द बन जाता है, पत्र पर पत्र, टेलीफोन पर टेलीफोन उचित नहीं। यदि कोई बच्चा बीमार है तो बेशक आप मुझे सूचित करें। पर क्रोधी और दुर्व्यवहार करने वाला बच्चा मेरे लिए सिरदर्द है। हो सकता है आप क्रुद्ध स्वभाव हों और पति-पत्नि परस्पर झगड़ते हों। तो इस दोष को आप क्यों नहीं दूर करते ? वे चाहते हैं कि उनका हर छोटा-छोटा कार्य भी सहजयोग करे। व्यक्ति को समझना चाहिए कि सहजयोग आपकी जिम्मेवारी है, आप सहजयोग की जिम्मेवारी नहीं है। यह सर्वोत्तम दष्टिकोण है नि:सन्देह एक प्रकार आप सहजयोग की जिम्मेवारी हैं। पर दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए? अब आप काफी परिपक्व हैं। बेटा जब बड़ा होकर परिपक्व हो जाता है तो वह माता-पिता की देखभाल करता 31 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-31.txt है। इसी प्रकार आपको सहजयोग की देखभाल करनी चाहिए, न कि सहजयोग आपकी देखभाल करे और आप सदा सहजयोगियों को परेशान करते रहें । अच्छी तरह समझ लीजिए कि आपके लिए सहजयोग उत्तरदायी नहीं है। आप सहजयोग के लिए उत्तरदायी हैं। सहजयोग ने आपको इतना कुछ दिया है। आपने परमात्मा के लिए क्या किया है, सदा इस प्रकार सोचें। यदि आप इस प्रकार सोचने लगेंगे तो जितना अधिक कार्य आप सहजयोग के लिए करेंगे, उचित, जीवन्त और सन्तुलित ढंग से जितना अधिक आप सहजयोग के लिए अपनी बुद्धि लगाएंगे, उतना ही अधिक आपकी सहायता होगी, उतने ही अधिक आप बढ़ेंगे और उतना ही अधिक आनन्द आप लेंगे। आज का प्रवचन आप सब के लिए है क्योंकि मैं नहीं जानती कि किस पर क्या लागू होता है। दूसरों के लिए हम इस बात को न समझें, अपने लिए जाने कि हम सहजयोग पर बोझ न बन कर सहजयोग का सहारा होंगे। हमें सहजयोग की देखभाल करनी है। यह अति सुन्दर दृष्टिकोण है। मुझे (श्रीमाताजी को) सहजयोग की आवश्यकता नहीं है। पर मैं सहजयोग तथा सहजयोगियों के लिए चिन्तित हूँ। मेरे लिए भी वे सभी मेरी जिम्मेवारी हैं। मुजे उनकी देखभाल करनी है, उनकी चिन्ता करनी है। मुझे उनकी बात सुननी है। मुझे उनके पत्र आदि मिलते हैं। मेरा अभिप्राय है कि इस | तरह का कार्य यदि किसी को करना पड़े तो कोई इसे स्वीकार न करेगा। हर हाल में मुझे सहारा देना है। क्योंकि मेरी आत्मा सन्तुष्ट होती है। यह सन्तुष्टि के लिए है, मेरी अपनी सन्तुष्टि के लिए। यह स्वार्थ है। जब आप उस आत्मत्व तक पहुँच जाएंगे तो समझ सकेंगे कि आत्मा की आवश्यकता क्या है। तब इस पर अपनी बुद्धि लगाएंगे। आप हैरान होंगे कि दूसरों के लिए जब आप कुछ करने लगेंगे तो यह सहजयोग के लिए अति लाभकारी होगा। एक प्रार्थना की तरह। सभी कुछ प्रार्थना है। सहजयोग में जो भी कुछ आप सहजयोग के लिए करते हैं यह एक प्रार्थना है, परमात्मा से घनिष्टता है, परमात्मा से एकाकारिता है। इसे हम पूजा भी कह सकते हैं। एक बार जब आप ऐसा करने लगेंगे तो आप चिन्ता करना छोड़ देंगे कि कौन आपकी आलोचना करता है, लोग आपको क्या कहते हैं आदि। पर सुन्दर संबंधों तथा सूझ-बूझ का अनुभव आप करेंगे। मुझे विश्वास है कि निश्चित ही यह शिव पूजा बहुत ही उँचे स्तर पर आपको स्थापित करेगी। और स्थापित होने पर आप इसे जान सकेंगे। यहाँ हमारा सम्पर्क सीधे अपनी आत्मा से है। हम आत्मा के विषय में जानते हैं तथा उसके प्रति कृतज्ञ हैं। आत्मा ने जो हमारे लिए किया उसके लिए हम इसका सम्मान करते हैं । इस तरह से मैंने (श्रीमाताजी ने) परिवर्तन देखा है। एक महान ऊँचाई को अचानक ही आप पा लेते हैं। मुझे विश्वास है कि आस्ट्रेलिया के लोगों के साथ भी ऐसा ही घटित 32 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-32.txt होगा। अपने क्षुद्र भेदभावों को प्रयत्न कीजिए। मैलबोर्न में इसी मूर्खता के कारण कुछ लोग पकड़ जाते हैं। उन्हें चाहिए कि स्वयं को भूल जाइए। धन एवं सत्ता के लिए लड़ना मूर्खता है। ठीक होने का साफ करें, ठीक करें तथा अपनी देखभाल करें । मेरा आशीर्वाद आपके साथ है। परमात्मा आप पर कृपा करें। सा का म 33 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-33.txt अन्तिम निर्णय στ आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति जब अपने आत्मसाक्षात्कार का मूल्य समझता है, इसमें उन्नत होता है, तब .... .. उसकी रक्षा होती है। आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, आप सहजयोगी हैं, पूरी तरह से आपकी रक्षा की जाती है। कौन करता है यह रक्षा ? आप कह सकते हैं "आदिशक्ति" । ठीक है। पर इस विश्व में एक विध्वंसक शक्ति भी कार्यरत है। आसुरी नहीं परन्तु शिव की दिव्य विनाशात्मक शक्ति । जब वे देखते हैं कि आदिशक्ति का कार्य भली-भाँति चल रहा है तो वे प्रसन्न होते हैं, परन्तु दूर बैठकर हर व्यक्ति को वे देख रहे हैं, सहजयोगियों के सभी कार्यों को वे देख रहे हैं। यदि उन्हें लगता है कि वास्तव में कुछ गड़बड़ है तो मैं उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकती। वे नष्ट कर देते हैं। वे केवल एक नहीं हज़ारों को नष्ट कर सकते हैं। ......कहीं भी यदि कोई प्राकृतिक विपत्तियाँ, विपदाएँ हैं जैसे भूचाल, भूकम्प या तूफान आदि, तो हम कह सकते हैं कि यह श्री महादेव का कार्य है। ऐसी स्थिति में मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकती, परन्तु आप यदि वास्तव में लोगों कों आत्मसाक्षात्कार दें तो ये चीज़ टाली जा सकती है । | प.पू.श्री माताजी, कबेला, ३.६.२००१ ....मैं आपको बता रही हूँ कि यह अन्तिम निर्णय है, और यह अन्तिम निर्णय वास्तव में इस बात का फैसला करेगा कि किनकी रक्षा की जानी चाहिये और किनको पूर्णतया नष्ट हो जाना चाहिये । यह अत्यन्त गम्भीर चीज़ है। जिन लोगों को इसके बारे में ज्ञान है उन्हें इसके विषय में सोचना चाहिये। यहाँ-वहाँ थोड़ी बहुत | जोड़ा-जाड़ी से काम न होगा। जब तक आप मानव का हृदय परिवर्तन नही करते, इसे बचाया नही जा सकता। ये आपात स्थितियाँ हैं, आप आपात स्थितियों में रह रहे हैं। इस बात को समझने का प्रयत्न करें और मैं आपको चेतावनी देना चाहती हूँ-यदि आप अपने अन्तस में गहन नहीं उतरते और ये नहीं देखते कि आप क्या हैं और आप अपने परिवर्तन को नहीं अपनाते तो कुछ भी घटित हो सकता है । प.पू.श्री माताजी, लन्दन, १४.७.२००१ हम अभी तक भी नहीं जानते कि मानव के इतिहास में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा भयानक समय है। अन्तिम निर्णय आरम्भ हो चुका है। आज हम अन्तिम निर्णय का सामना कर रहे हैं। इस बात का हमे ज्ञान नहीं है कि सभी शैतानी शक्तियाँ, भेड़ की खाल पहने भेड़िये आपको भ्रमित करने के आपको चाहिये कि बैठकर केवल सच्चाई को पहचाने। लिये अवतरित हो गए हैं। परमात्मा अत्यंत करुणामय हैं, प्रेममय हैं और दयालू हैं-उन्होंने हमें स्वयं का ज्ञान प्राप्त करने की स्वतन्त्रता दी है।.......परमात्मा ने हमें अमीबा से इस मानव स्थिति तक विकसित किया है, चहूँ ओर इतने सुन्दर विश्व का सृजन किया है, ये सभी कार्य किये हैं। परन्तु उनके निर्णय का अब हमें सामना करना होगा। परमात्मा का निर्णय ऐसा नहीं जिस प्रकार हम समझते हैं कि वह एक न्यायाधीश की तरह से बैठा हुआ है, बारी-बारी आपको बुलाता है, वहाँ पर आपका एक वकील है। परमात्मा ने तो आपके अन्दर निर्णायक शक्तियाँ स्थापित कर दी हैं। मानव की विकास प्रक्रिया में उन्होंने यह सब कार्यान्वित किया है। कितनी सुन्दरता से मानव को अमीबा से मानव अवस्था तक विकसित करते हुए उन्होंने यह कार्य किया। बहुत से पशुओं को विकास प्रक्रिया से निकाल फेंका गया। बहुत ज़्यादा आक्रामक मनुष्यों की नस्लें भी समाप्त होती चली गयीं। इतिहास को आप देख सकते हैं।......हिटलर जैसा व्यक्ति आया, वह समाप्त हो गया, जो भी दूसरों पर सत्ता जमाने या नियंत्रित करने के लिये आया वह समाप्त हो गया। प.पू.श्री माताजी, ११.६.१९८० 34 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-34.txt NEW RELEASES ऑडिओ- विडिओ Lang. Type Title Date Place VCD ACD DVD rd H/M| Sp 594" 23" Jan.1975 | तीन शक्तियाँ Mumbai 19# Feb.1977 | नये सहजयोगियों से बात-चीत th New Delhi E/H 595* Sp 15" Mar.1979 | हर जगह के अपने-अपने वाइब्रेशन्स होते हैं th 596 Delhi Sp Н th महालक्ष्मी आणि त्यांचे महत्त्व 597 4 Mar.1984 Kolhapur Sp परमात्मा को जानने के लिए आपको उँचे स्तर पर उतरना चाहिए 6th Feb.1990 Hyderabad H/E 598* 389* Pp साक्षी स्वरुप 7th Feb.1990 Hyderabad H 390 599 Pp 20" Mar.1993 | ये भूमि अत्यंत पवित्र भूमि हैं th 391* New Delhi H Pp किताबें Code No. Title Author परम पावनी माँ की शाश्वत प्रेरक अनुस्मृतियाँ - भाग ४ B87 परम पावनी माँ की शाश्वत प्रेरक अनुस्मृतियाँ - भाग ५ B90 B25 Great Women of India Yogi Mahajan Shri Kalki Yogi Mahajan B88 The Last Judgement Yogi Mahajan B89 प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० २५२८६५३७, २५२८६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in की की ही 2012_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-35.txt अग२ आप अपने सथ गणों को विकसित करें तो आपको कोई कष्ट नहीं देै सकती । प.पू.श्रीमाताजी, ०९ जुलाई १९८८