चेतन्य लहरी हिन्दी मई-जून २०१२ ा भर का ला ता फिंगली नाड़ी प२ श्री हनुमान जी की शक्ति का्यान्वित होती है। जिस समय अपनी पिंगला नाड़ी पर अवरोध नि्माण होती है उस २मय श्री हनुमान जी के मंत्र से तुरन्त अन्तर२ पड़ती है। सेंट मारयकल का मंत्र लेने से भी पिंगली नाडी में अनत२ आएगी। प.पू.श्री मातीजी, बंबई, २७.९.१९७९ ड इस अंक में २हजयोग में आप विनम्र हो जाते हैं...४ आप क्या हैं! ...१८ २ह२ सवामिनी ...३० तौस वर्ष पूर्व जब सहस्रार खोला गया तो मुझे चहुँ ओर अंधेरा दिखाई दिया। लोग अत्यन्त अज्ञानी थे। उन्हें क्या खोजना है इस बात की बिल्कुल भी चेतना न थी। नि:सन्देह मुझे लगा कि वे किसी अज्ञात चौज़ को पाना चाहते थे। परन्तु ये नहीं जानते थे कि वह अज्ञात तत्व क्या है जिसे उन्हें खोजना है। कबेला, इटली, कजी ७.५.२००० 4 सहजयोग में आप विनम्र हो जाते हैं आज सहजयोग में आप विनम्र होते हैं और प्रतिक्रिया नहीं करते। तीस वर्ष पूर्व जब सहस्रार खोला गया तो मुझे चहूँ ओर अंधेरा दिखाई दिया। लोग अत्यन्त अज्ञानी थे। उन्हें क्या खोजना है इस बात की बिल्कुल भी चेतना न थी। नि:सन्देह मुझे लगा कि वे किसी अज्ञात चीज़ को पाना चाहते थे । परन्तु वे नहीं जानते थे कि वह अज्ञात तत्व क्या है जिसे उन्हें खोजना है । अपने विषय में, अपने वातावरण के विषय में और जीवन के लक्ष्य के विषय में वे कुछ नहीं जानते थे। मेरे समझ में नहीं आता था कि किस प्रकार उस विषय को आरम्भ किया जाए। सहस्रार खोलने के बाद मैंने केवल एक महिला पर आत्मसाक्षात्कार का प्रयोग करना चाहा। वह एक वृद्ध महिला थी। उनके साथ एक अन्य महिला भी आने लगी। इस महिला को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया और तत्पश्चात् एक अन्य महिला, जो कि आयु में बहुत छोटी थी, ने मुझे बताया कि उसे दौरे पड़ते हैं और वह भूत बाधित हो जाती है। हे परमात्मा! मैंने कहा, 'किस प्रकार मैं इसकी जागृति करूंगी। ' परन्तु वह भी शीघ्र ही ठीक हो गई और उसे भी आत्मसाक्षात्कार मिल गया। यह अत्यन्त अज्ञात ज्ञान है। परन्तु मानव अपने अहंकार में यह स्वीकार करने के लिए नहीं रुकता कि वह अभी अपूर्ण है और उसे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। उनकी जीवन शैली भी ऐसी है कि उनके पास अपने लिए समय नहीं है । आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति के लिए लोगों को समझाना मुझे बहुत कठिन लगा क्योंकि आत्मसाक्षात्कार को वे कल्पना मात्र मानते थे। वे समझते थे कि यह बहुत दूर की बात है और गुरुओं में विश्वास करते थे जो उनसे सीधे से कहें, 'इतने कर्मकाण्ड प्रतिदिन करो।' अपने गुरुओं की देख-रेख में वे ये सभी कर्मकाण्ड कर रहे थे, उन्हें इस बात का भी ज्ञान न था कि सर्वप्रथम आपको स्वयं को जानना होगा जैसा कि सभी महान अवतरणों और सन्तों ने कहा है। यह केवल मेरी ही धारणा न थी कि लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें, इन सब लोगों का भी यही विचार था। सदियों तक एक के बाद एक सन्त तथा अवतरण ने कहा कि स्वयं को पहचानो, मोहम्मद 5 साहब ने भी वही बात कही और नानक साहब ने भी। परन्तु किसी मनुष्य ने भी यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि यह कर्मकाण्ड जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है, इससे कुछ प्राप्त न होगा तथा व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना ही होगा। तो केवल उन दोनों महिलाओं ने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। इसके पश्चात् मैंने सोचा कि समुद्र तट पर चलें। तीस लोग मेरे साथ आए और वो भी बड़े ही अटपटे ढंग से बातचीत कर रहे थे कि किस प्रकार उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो सकता है? वे तो इसके अधिकारी भी नहीं हैं। इतने भले तो वे कभी भी न थे । सभी प्रकार की बातें कर रहे थे। अपनी भर्तस्सना कर रहे थे। में परन्तु उस समूह से भी मुझे बारह लोग ऐसे मिल गए जिन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ। वो दो महिलाएं भी इन्हीं में से थीं। इससे पता चलता है कि स्वयं को पहचानने की गति कम होती है बहुत क्योंकि लोग यही नहीं समझते कि क्यों वे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करें। मुझे अत्यन्त निराशा हुई क्योंकि मेरी बात कोई समझता ही न था। एक दिन ऐसा हुआ कि मेरे कार्यक्रम में एक महिला आई। वह भूत बाधित थी और उसने संस्कृत बोलनी शुरु कर दी। वह मात्र नौकरानी थी। सभी लोग हैरान हो गए, परन्तु वह कहने लगी कि, 'तुम नहीं जानते ये कौन हैं ?' और तब उसने सौन्दर्य लहरी, के अनुरूप मेरा वर्णन करना आरम्भ कर दिया। मैं भी हैरान थी कि इस महिला को क्या हुआ! पुरुष की आवाज में वह बोल रही थी। लोग इस बात पर विश्वास करें या न करें परन्तु वह भयानक भूत बाधित थी। तब लोग मेरे पास आए और पूछने लगे कि जो यह महिला कह रही है क्या यह सत्य है?' मैंने कहा आप स्वयं इसका पता लगाओ। उन दिनों लोग ऐसे होते थे कि उनसे अगर इस प्रकार की कोई बात कह दी जाए तो वो अपना मुँह मोड़ लेते थे। वे केवल ऐसे कुगुरुओं से ही प्रसन्न रहते थे जो उनसे पैसे ऐंठता रहे। वो सोचते थे कि गुरु को तो अब हमने खरीद ही लिया अब किस बात की चिन्ता है। तुम्हें कुछ नहीं करना। तो इस प्रकार शनै: शनै: यह कार्य कार्यान्वित होने लगा और मुझे याद है कि जिन लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ वे मुझसे कहने लगे, 'श्रीमाताजी, आप हमें दुर्गा पूजा करने की आज्ञा दें। दुर्गा पूजा को बहुत कठिन पूजा माना जाता था और ब्राह्मण को करने के लिए तैयार न होते थे क्योंकि वे आत्मसाक्षात्कारी न थे। लोग प्राय: इस पूजा दुर्गा पूजा कराने वाले पण्डितों को मूर्छ्छा आदि की समस्या हो जाया करती थी। तो उन ने सात ब्राह्मण बुलवाए और उनसे कहा कि तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता करने की लोगों आवश्यकता नहीं। तुम्हें कुछ नहीं होगा क्योंकि आप साकार दुर्गा के सम्मुख बैठे हुए हो। ये कोई मूर्ति नहीं है। यह साकार की पूजा है। वे काफी घबरा गए थे और स्थान से उतरना चाह रहे थे। अचानक उनके अन्दर कुछ हुआ और बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उन्होंने मन्त्र आदि का उच्चारण प्रारम्भ कर दिया। चहूँ ओर चैतन्य लहरियाँ फैल गई। हम लोग समुद्र के 6. बहुत नज़दीक थे और समुद्र भी दहाड़ रहा था। परन्तु इन सात पण्डितों के अतिरिक्त किसी को कुछ समझ नहीं आया। ये कहने लगे हमें कुछ नहीं हुआ, हमने सभी कुछ भली भाँति किया है। मेरे विचार से यह घटना प्रथम चमत्कार ही थी। मानव मस्तिष्क की इस स्तर पर और ऐसे समय में स्थिति देखो। वह स्वयं को बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हैं और अपना कोई अन्त उन्हें दिखाई नहीं देता। उन पण्डितों ने भी यही समझा कि वे बहुत महान हैं। स्वयं को समझने के लिए क्या है? हम स्वयं को पहचानते हैं। तो विनम्रता साधना की प्रथम आवश्यकता है। आप यदि सोचते हैं कि आप सब कुछ जानते हैं तो आप विनम्र नहीं हो सकते और न ही कुछ प्राप्त कर सकते हैं। साधना करते हुए भी ऐसा व्यक्ति किसी के बताए हुए मार्ग पर नहीं चल सकता और कहता है कि मैं अपने ही मार्ग पर चलूंगा। हमारा अपना ही एक मार्ग है जिसके अनुसार हम चलेंगे। जो भी हम चाहते हैं करते हैं। भिन्न देशों में भिन्न प्रकार के लोगों से मेरा पाला पड़ा जो केवल मेरा भाषण सुनने के लिए आते हैं। बस, | समाप्त। वो आत्मसाक्षात्कार भी न लेंगे। उनमें से कुछ ने आत्मसाक्षात्कार लिया भी परन्तु पाकर भी इसे खो दिया। मेरे लिए यह अत्यन्त अजीब कहानी थी कि मैं उन्हें आत्मसाक्षात्कार दे रही हूँ। बेकार ही मैं ऐसे लोगों को साथ ले चल रही हूँ। अपने खर्चे से मैं यात्रा किया करती थी। इसके बावजूद भी क्यों नहीं ये लोग आत्मसाक्षात्कार का मूल्य समझते? तब एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति ने मुझे बताया कि आज का समाज उपभोक्ता समाज है। जब तक आप इनसे पैसा नहीं लेगे, इन्हें इसका मूल्य समझ नहीं आएगा। उन्हें महसूस करवाएं कि उन्होंने अपने आत्मसाक्षात्कार के लिए धन खर्च किया है। दरवाजे पर ही किसी व्यक्ति को पैसा लेने के लिए बिठा दें अन्यथा ये लोग आत्मसाक्षात्कार नहीं लेंगे। मैंने कहा, 'परन्तु इसे बेचा नहीं जा सकता, ऐसा करना तो अनुचित होगा। लागों को आत्मसाक्षात्कार बेचा नहीं जा सकता। कहने लगा, 'तब आप सफल नहीं हो सकतीं और न ही अन्य गुरुओं से मुकाबला कर सकती हैं ।' अन्य गुरुओं की विशेषता ये है कि वे धन स्वीकार करते हैं और लोगों से कहते हैं कि इतना पैसा लेकर आओ, ऐसा करो, ये फीस है। इस प्रकार लोगों का अहं शान्त होता है और वे असत्य को स्वीकार कर लेते हैं। इस असत्य का अहसास बाद में उन्हें हो जाएगा क्योंकि इसके कारण उन्हें बहत सी शारीरिक और मानसिक समस्याएं हो जाएंगी परन्तु तब तक वे पतन के कगार पर होंगे। 7 सहस्रार का वर्णन किसी भी धर्म ग्रन्थ में नहीं किया गया यद्यपि इसके विषय में भारतीय प्राचीन पुस्तकों में बताया गया है। सहस्रार की बातचीत तो की परन्तु किसी ने इसका वर्णन नहीं किया। केवल इतना बताया कि इसकी एक हजार पंखुड़ियाँ होती हैं। यदि उन्होंने इसका थोड़ासा वर्णन किया होता तो मेरे लिए लोगों को ये समझाना सुगम हो गया होता कि इस ग्रन्थ में ऐसा लिखा है। लोग इस बात को पसन्द करते हैं कि हर बात किसी ग्रन्थ में लिखी होनी चाहिए । तभी वो इसे स्वीकार करते हैं । स्थिति काफी कठिन इस थी क्योंकि किसी ने भी आज तक सामूहिक आत्मसाक्षात्कार न दिया था। एक दो लोगों के अतिरिक्त किसी ने भी इसके विषय में नहीं लिखा और इन लेखकों ने कुण्डलिनी के विषय में स्पष्ट लिखा। परन्तु मेरे विचार से पद् (कविता) में लिखा होने के कारण यह भी समय लोगों स्पष्ट न था। लोग इसके विषय में भजन गाते परन्तु समझते कुछ भी नहीं। मैं सोचती कि साधना में यहाँ-वहाँ भटके इन लोगों का क्या होगा और किस प्रकार मैं इन्हें को मैं आत्मसाक्षात्कार दे पाऊंगी? मेरे अनुभव बहुत ही कष्टकर थे। परन्तु कोई बात नहीं। निर्णय आगे बढ़ती गई, बढ़ती गई और इसे कार्यान्वित किया । नि :सन्देह बहुत से क्रूर और अप्रिय लोगों का सामना मुझे करना पड़ा जिन्होंने मुझे भी बहुत कष्ट पहुँचाया और सहजयोगियों को भी। ये सारी चीज़ें मेरे उत्साह को दुर्बल कर सकती थीं परन्तु इसके करना विपरीत मैंने सोचना आरम्भ कर दिया कि लोग ऐसे क्यों हैं? और तब मुझे महसूस हुआ होगा कि पूरे विश्व को तो हम आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। यह अन्तिम निर्णय है। इस कि समय लोगों को निर्णय करना होगा कि सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? उन्हें स्वयं को पहचानना होगा कि वे क्या कर रहे हैं? लम्बी सी 'नहीं कर देने से बात नहीं बनेगी । सबसे केवल सहजयोगी ही इस कार्य में सहायता कर सकते हैं। तब मैंने देखा कि लाइलाज दृढ़ रोगों से मुक्त हुए लोग भी गायब हो गए। नशे, शराब और धूम्रपान के आदी लोगों ने ये महत्वपूर्ण चौज़ सब छोड़ दिया। मैंने कभी भी कुछ छोड़ने के लिए नहीं कहा। मैं जानती हूँ कि जब कुण्डलिनी उठती है तो वे स्वत: ही लोग बहुत शुद्ध और सुन्दर बन जाते हैं और अपने जीवन का आनन्द लेने लगते हैं। परन्तु उन पर कोई विश्वास ही नहीं करता था। वो लोग क्या है? जाकर जब अन्य लोगों से बताते तो वे कहते ये पागल हो गए हैं। लोगों की समझ में न आता कि किस प्रकार उन्होंने शराब पीनी छोड़ दी, किस प्रकार धूम्रपान त्याग दिया ? जब हम पीना चाहते हैं तो ये जागृति क्या है? ऐसे लोगों की पहचान करने पर मैंने जाना कि ये लोग अत्यन्त घटिया चीज़ों का आनन्द लेने वाले थे । ऐसा आनन्द जिसका आत्मा से कोई लेना देना नहीं। परन्तु शनै: शनै: ये कार्यान्वित होने लगा। फिर भी मैं कहूँगी कि इस घोर कलियुग में हम ये आशा नहीं कर सकते कि खरबों की संख्या में लोग सहजयोग ि करें। यद्यपि ये मेरी भी कामना है आरै आप लोगों की भी और आप चाहते हैं कि सभी लोग आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करें जिससे बहुत सी अच्छी चीज़ें घटित हों। बहुत से लोग रोग मुक्त हुए। ईसामसीह ने केवल २१ लोगों को ही स्वस्थ किया था । मैं नहीं जानती कि कितने हजारों लोग सहजयोग से ठीक हुए हैं? मनुष्य के साथ एक अन्य समस्या भी है कि वे सभी प्रकार की उल्टी-सीधी पुस्तकें पढते हैं। उनके विचार स्पष्ट नहीं हैं कि वे क्या खोजें । वे नहीं जानते कि उनकी खोज क्या है। ये बहुत बड़ी समस्या है। और जो भी कहीं कुछ उपलब्ध है वे उसका अनुसरण करने लगते हैं। ये अस्थिर प्रवृत्ति लोग हैं, एक मार्ग से दूसरा मार्ग ये अपनाते रहते हैं और सहजयोग में इनकी उन्नति बहुत कठिन है। क्योंकि एक मार्ग पर चलते-चलते लेते हैं तो हो सकता है वहीं पहुँच जाएं जहाँ से चले थे वे सोचते हैं उन्हें ऐसा यदि आप दूसरा मार्ग पकड़ करने की स्वतन्त्रता है। वास्तव में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किए बिना आपको कोई भी स्वतन्त्रता नहीं है। स्वतन्त्रता वह होती है जिसमें आप जानते हों कि आप क्या हैं और आपमें क्या योग्यता है। स्वतन्त्रता में आप ही सारे आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। आशीर्वाद यदि नहीं मिलते तो आप स्वतन्त्र नहीं हैं। आपके जीवन में 9. कहीं न कहीं कुछ कमी है। एक बार आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लेने के पश्चात् आप पूर्णत: स्वतन्त्र मानव बन जाते हैं। स्वतन्त्र, माने आपकी आत्मा आपका पथ प्रदर्शन करती है। जैसा आप जानते हैं आत्मा परमेश्वर का, सर्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। सभी लोगों में यदि एक ही सा प्रतिबिम्ब है और यदि | सभी लोग जागृत हैं तो चेतना में ये कार्य करता है। मानो ये जानते हों कि ठीक क्या है, गलत क्या है? सृजनात्मक क्या है और विध्वंसक क्या है? ये कोई झूठा संतोष नहीं है। वास्तविकता है। वास्तविकता को आप अनुभव करते हैं और यही घटित होना होता है। अनुभव सहजयोग में पहली चीज़़ है । अनुभव जो आप अपने अन्दर करते हैं-स्पन्द, अपनी अंगुलियों के सिरों पर शीतल लहरियों का अनुभव। अनुभव के बिना आपको इसका विश्वास नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ ये है कि अब आपके नाड़ी तन्त्र पर एक नया आयाम आ गया है कि अब आप एक नई प्रणाली को महसूस कर सकते हैं जो अब तक आप नहीं जानते थे। अनुकम्पी नाड़ी तन्त्र तो पहले से था परन्तु इसकी कार्यशैली का ज्ञान आपको न था। आपका आत्मज्ञान अत्यन्त दुर्बल था। परन्तु आत्मासाक्षात्कार के बाद अचानक हर चीज़ ज्योतिर्मय हो उठी। अचानक आपको है अपने अन्दर एक नयापन महसूस होने लगता है परन्तु अब भी कभी-कभी आपको अहं से लड़ना पड़ता और चीज़ो के विषय में अपनी अज्ञानता पर नियंत्रण करना पड़ता है क्योंकि आत्मसाक्षात्कार आपको पूर्ण ज्ञान देता है। पूर्ण ज्ञान। इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके संकेतों को जाँचा जा सकता है और पता लगाया जा सकता है कि ये ठीक है कि गलत है। ये घटना आप सबके साथ घटित हो चुकी है और आप सब वो चैतन्य लहरियाँ पा चुके हैं जिनसे आप चीज़ों को महसूस कर सकें। उदाहरण के रूप में हो सकता है सहजयोग में कुछ असन्तुष्ट लोग हों। परन्तु इसके विषय में आप चैतन्य लहरियों के माध्यम से पता लगा सकते हैं। ये कौन लोग हैं? ये क्या कर रहे हैं? चैतन्य लहरियों द्वारा आप | जान सकते हैं कि उनमें से कौन लोग सत्य की उस अवस्था तक पहुँचे हैं। आप समझ सकते हैं कि आपका विरोध करने वाले ये लोग आपको क्या बताने का प्रयत्न कर रहे हैं और इनकी गहनता कितनी है । अपनी अंगुलियों के सिरों पर आप इसे जान सकते हैं। यही कयामा है, जिसके विषय में मोहम्मद साहब ने बताया। मैं आपको अपना उस दिन का अनुभव बताऊंगी। एक व्यक्ति आया और स्वयं को दूरदर्शन का अधिकारी बताकर मुझसे उल्टे सीधे सवाल करने लगा, जिनका कोई सिर पैर ही न था। उसका नाम अब्बास था। मैंने उससे कहा, 'अब्बास मियाँ आप अपना और मेरा दोनों का समय बर्बाद कर रहे हैं। क्या आप सही प्रश्न पूछेंगे?' कहने लगा, 'मैं सारी धर्मान्धता के विरूद्ध हूँ।' मैंने कहा, 'मैं तो धर्मान्ध नहीं हूँ। आप कैसे जानते हैं, मैं धर्मान्ध हूँ या नहीं?' कहने लगा, 'मैं ये जानने का प्रयत्न कर रहा हूँ।' 'ठीक है।' मैंने कहा, 'आप अपने दोनों हाथों को मेरी तरफ करें।' मोहम्मद साहब ने कहा है कियामा के वक्त आपके हाथ बोलेंगे और आप हैरान हो जाएंगे। तुरन्त उसके दोनों हाथों में शीतल लहरियाँ महसूस होने लगी। कहने लगा,' कि ये क्या है?' मैंने कहा, 'यही वास्तविकता है।' वाद विवाद करने का या इसके विषय में बातचीत करने का तथा पूछताछ करने का कोई लाभ नहीं। स्वयं इसे देखो, इसका अनुभव करो। वह स्तब्ध था और इसके पश्चात् जो भी बातें 10 उसने मुझसे पहले की थीं वो उसने नहीं छापीं। मेरा कहने का अभिप्राय ये है कि लोग यदि सत्य तक पहुँच जाएं, सत्य को जान जाएं तो कुछ भी न बिगड़ेगा। महान लोगों के जीवन में, आप देखते हैं, कि केवल पुस्तकों में पढ़कर या अन्धविश्वास द्वारा वे सत्य को स्वीकार नहीं करते। परन्तु अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर वे सत्य का अनुभव करते और तब कोई उन्हें परिवर्तित नहीं कर सकता। बीज तो बीज है। यह जब पेड़ बन जाता है तो कोई भी इसे अपनी पूर्व स्थिति में नहीं ला सकता। इसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करके जब आप परमात्मा से एकरूप हो जाते हैं तो आपके पतन का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। बड़ी ही प्रशंसनीय बात है कि किस प्रकार आपने अपनी योग्यता को पहचाना और फिर भी आप इसका उपयोग नहीं करते ? नि:संदेह इसके लिए आपको ध्यान धारणा करनी होगी। जब आप ध्यान धारणा में उतर जाते हैं तो आपका अस्तित्व ज्योतिर्मय होकर इतना सुन्दर हो जाता है कि फिर आप उसे बदलना नहीं चाहते। उसी स्थिति में रहकर आप | सदैव उसका आनन्द लेते हैं। आप ये आनन्द अन्य लोगों में भी बाँटना चाहते हैं क्योंकि आपको लगता है कि आप जब ये आनन्द उठा रहे हैं तो क्यों न अन्य लोग भी इसे पा लें। वैसे ही जैसे आपके पास पर्याप्त भोजन हो और सड़क पर कोई भूखा आपको दिखाई दे जाए तो आप वह खाना उस भूखे व्यक्ति को देना चाहेंगे। इस विश्व में भी आप लोगों को पागलों की तरह से परमात्मा की खोज में इधर-उधर दौड़ते हुए पाते हैं। आप देखते हैं कि वे सभी प्रकार के कर्मकाण्ड कर रहे हैं और आप उन्हें बताना चाहते हैं कि वे इन सब चीज़ों पर विश्वास करें या न करें। हो सकता है कि वे इस बात से पूरी तरह इन्कार करें, इसका विरोध करें या इसके विषय में कुछ न जान सकें। परंतु आप निश्चित रूप से जानते हैं कि आप ठीक मार्ग पर हैं और आपकी मन:स्थिति बिल्कुल ठीक अवस्था में है। संस्कृत में इसे सहजावस्था कहते हैं। सहजावस्था में आप प्रतिक्रिया नहीं करते, केवल देखते हैं और आनन्द उठाते हैं। अब आप देखें कि मैं आई और देखा कि सहस्रार और सभी चक्रों का कितना सुन्दर रूप बनाया गया है। इन्हें इतने सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। कोई अन्य व्यक्ति होता तो कहता, 'ओहो !' रंगों का सम्मिश्रण ठीक नहीं है। क्यों? इनको इन्होंने क्यों उपयोग किया? इसकी जगह इन्होंने कोई और रंग क्यों नहीं लगाए? इस प्रकार से दूसरों में दोष ढूंढते हैं। दूसरों में दोष ढूँढना उस मस्तिष्क की देन होता है जो अभी तक ज्योतित नहीं हुआ। प्रतिक्रिया के संस्कार के कारण आप किसी चीज़ का आनन्द नहीं ले सकते। सदैव प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। कोई यदि अच्छी बात बताए तो भी आप प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। बुरी बात पर तो आप प्रतिक्रिया करते ही हैं। अत: हमें समझ लेना चाहिए कि हमें प्रतिक्रिया करने की स्वतन्त्रता नहीं है । हम इतने हल्के नहीं हैं कि प्रतिक्रिया करें। बहुत उंचे स्थान पर हम बैठे हैं। केवल आनन्द उठाना ही हमारा कार्य है। हर चीज़ का आनन्द उठाएं क्योंकि वह हुए आनन्द परमात्मा का आशीर्वाद है। जीवन के उथल पुथल और कष्टों का भी आप आनन्द उठा सकते हैं। यदि आप यह बात अच्छी तरह जान लें कि आपकी आत्मा को कुछ भी हानि नहीं हो सकती, क्योंकि यही सच्ची ज्योति है, तो आप हर चीज़ का आनन्द उठा सकते हैं। जो भी तकलीफें आपको हों, चाहे जो भी चीज़ आपको कष्ट दे रही हो परन्तु आत्मा का मौन प्रकाश आपको वास्तव में पूर्णतया आनन्दमय बनाता है और 11 अन्य लोगों को भी आनन्द प्रदान करता है। न तो आप इसकी रूपरेखा बनाते हैं न योजना कि किस प्रकार आनन्द लिया जाए, यह तो स्वत: ही आनन्द प्रदान करता है। आनन्द देने की यह क्रिया बिना किसी प्रयत्न के स्वत: और सहज है क्योंकि आप में है। सहजावस्था में आप चीज़ों को केवल देखते भर हैं। आपको लगता सहजावस्था है कि ये तो मात्र एक नाटक है। जिसकी भिन्न शैलियाँ हैं, भिन्न प्रकार हैं। साक्षी रूप में आप इसे देखते भर हैं और इसका आनन्द उठाते हैं। ऐसा कहना आवश्यक नहीं है कि भात्म- मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है, बिल्कुल नहीं। यह 'मैं' जो पसन्द करता है वह अहं साक्षात्कारी ट्यक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यह आपको उस आनन्द से, जो वास्तविकता है, जो सत्य है, दूर रखता है। दूसरे कोण से यदि आप देखें, सहजस्थिति से, तो आपको कष्ट महसूस ही न होंगे। परन्तु इसके लिए आपके अन्दर उच्च मापदण्ड बनने आवश्यक हैं। उस दिन मेरी भेंट कुछ सरकारी अधिकारियों से हुई मैंने उन्हें बताया कि मैं जानती हूँ जो भी कि वेतन बहुत कम है। आप सोच सकते हैं कि अन्य लोगों को अधिक वेतन बहुत मिलता है और बहुत अधिक सुविधाएं। परन्तु एक तरह से आपको वास्तव में आनन्द कुछ प्राप्त हो सकता है, अपने कार्य से। अपने देश के लिए यदि आपमें भक्ति है तो कोई भी सृजन बलिदान आपके लिए अधिक न होगा। किसी को यदि आप कुछ देना चाहते हैं तो कोई भी कष्ट, कष्ट न मानते हुए आप किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। ऐसा करने से आपकी करता भावनाएं बहुत गहन हो जाती हैं। मान लो आप यात्रा कर रहे हैं और अचानक कोई सहयात्री बहुत बीमार हो जाता है। चैतन्य लहरियों द्वारा आप महसूस कर सकते हैं कि यह व्यक्ति बीमार है। तुरन्त उसके प्रति सहानुभूति और प्रेम उमड़ पड़ता है और आप है वह तुरन्त उसकी सहायता को तत्पर हो उठते हैं। और सम्भव हो तो आप उसे ठीक करने का प्रयत्न भी करते हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि समुद्र सारी नदियों को और सभी शाश्वत प्रकार के जल का अपने पेट में समाह लेता है। सभी कुछ अपने में समा लेता है, न तो ये किसी को कष्ट देता है न दुख। यह प्रेम से किसी को वश में करने वाली बात है। होता समुद्र अपनी शक्ति नहीं दर्शाता, अपने महत्व की चिन्ता नहीं करता। कोई यदि आपका है। अपमान करता है तो ठीक है, अपमान को भी सहन कर लें। ऐसे व्यक्ति जो सहजावस्था से के को प्राप्त हो चुके हैं शाश्वत कला, संगीत तथा महान विचारों सृष्टा होते हैं। बहुत लोग लिखते हैं जो कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता है। बहुत से लोग सृजन करते हैं। परन्तु कोई उनकी चिन्ता नहीं करता। परन्तु आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति जो भी कुछ सृजन करता है वह शाश्वत होता है। क्योंकि अब वो अनन्तता के सागर में है। अब वे पावित्र्य के सागर में है जहाँ किसी को कष्ट पहँचाने का, किसी को दु:ख देने का विचार 12 ८ १ा तक नहीं है। उस स्थिति में सभी को ऐसी सुरक्षा प्राप्त है। कोई उन्हें हानि नहीं पहुँचा सकता क्योंकि आखिरकार आप लोग अब परमात्मा के साम्राज्य में हैं। कौन आपको हानि पहुँचा सकता है या कष्ट दे सकता है? सहजयोगियों में मैंने ऐसी ही सम्पदा, ऐसी ही उदारता और ऐसी ही सूझ-बूझ देखी है। मुझे भाषण नहीं देने पड़ते कि ऐसा करो, ऐसा मत करो और न, इसकी कोई आवश्यकता पड़ी। जो लोग अभी तक सहजयोग में परिपक्व नहीं हुए हैं उन्हें चाहिए कि परिपक्वता को प्राप्त करें और अन्य लोगों को चाहिए कि यदि ये लोग कष्टकर हैं तो भी इनका बुरा न मानें। इन पर करुणा करें ताकि ये परिपक्व हो सकें। आज बहुत महान दिन है। पिछले तीस वर्ष मैं एक स्थान से दूसरे स्थान तक दौड़ती रही और इतने सारे सहजयोगी एकत्र कर पाई। विश्वभर में से सहजयोगी हैं। यहाँ उपस्थित सहजयोगी तो उनका मात्र एक अंश ही है यह घटित होना ही था। इसका वर्णन किया जा चुका है। इसके विषय में अब बहुत भविष्यवाणियाँ की गई थी कि ऐसी घटना होगी, और असंख्य लोग आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करेंगे । नि:संदेह यह अविश्वसनीय प्रतीत होता है। परन्तु आप अब देखें कि ये एहसास कितना मधुर है। हम सब एक है, न कोई झगड़ा है 13 न लड़ाई है न कुविचार। कोई भी घटिया चीज़ों को पसन्द नहीं करता, सभी आनन्दकर चीजें चाहते हैं और सबमें सूझ-बूझ का यह गुण है। मैंने लोगों को कवि बनकर सुन्दर कविताऐं लिखते हुए देखा है। उन्हें सृजन करते हुए देखा है तथा बहुत अच्छे आयोजक बनते हुए भी देखा है। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो है वह है विनम्रता। आरम्भ में भी मैंने कहा था और अब फिर कहँगी कि लोगों को आपकी विनम्रता ही आकर्षित करेगी। आपको विनम्र व्यक्ति बनना चाहिए। स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही स्वयं को श्रेष्ठ मानें। स्वयं को यदि आप महत्वपूर्ण समझते हैं तो आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग नहीं रहते । मेरा एक हाथ यदि स्वयं को महत्वपूर्ण मानने लगे तो ये इसकी मूर्खता होगी ! अकेला हाथ किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है? सभी हाथों की आवश्यकता होती है, चीज़ों की आवश्यकता होती है, टाँगों की आवश्यकता होती है? एक अंग किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है। अपनी सहजयोग यात्रा में कभी भी आप यदि इस प्रकार सोचने लगें तो मैं कहँगी कि आप सहजावस्था में नहीं हैं। मेरा ये प्रयत्न था कि आप लोगों को सहज के सुन्दर क्षेत्रों में ले जाएं जहाँ आप आत्मा से पूर्णत: एकरूप होंगे, प्रकृति से एकरूप होंगे, अपने आस-पास के सभी लोगों से, अपने देश तथा अन्य देशों से एकरूप होंगे। सर्वत्र पूर्ण वातावरण में ब्रह्मानन्द आपका अंग-प्रत्यंग बन जाएगा और आप कभी इससे भिन्न न होंगे। तब आप कह सकते हैं कि गुँजन या निनाद जो कि आपके जीवन का सारतत्व है वह आपकी भौतिक उन्नति में या किसी अन्य चीज़ में न दिखाई पड़कर आपके आध्यात्मिक क्षेत्र में दिखाई पड़ेगा और यही क्षेत्र सर्वोच्च है। सर्वत्र सभी देशों में उच्च गुणों के लोग होते हैं और उन सबको याद किया जाता है। इसी प्रकार आप भी अपने जीवन की वास्तविकता तथा सच्चाई के महान ज्ञान का प्रतिनिधित्व करेंगे। और यह सब आपके जीवन और आपके कार्यों में छलकेगा इस तरह से आप इस कार्य को कर सकते हैं। केवल यह निर्णय करना है कि कितने लोगों को हमने आत्मसाक्षात्कार देना है । आत्मसाक्षात्कार देने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता में आप यदि इस कार्य को करते चलें तो आप हैरान होंगे कि यह पहाड़ की चोटी पर चढ़ने जैसा कार्य है। परन्तु जब आप चोटी पर चढ़ जाते हैं तो नीचे की सभी चीज़ों को भलीभांति देख सकते हैं और आपको सन्तोष होता है कि आप चोटी पर हैं। लेकिन चोटी की चढ़ाई तो आपको करनी होगी। इसमें कोई समस्या नहीं है । आप सब इस कार्य को कर सकते हैं। आपके अन्दर आपके प्रति सम्मान, प्रेम एवं सूझ-बूझ होनी चाहिए कि हमें पर्वत की इस चोटी पर पहुँचना है। एक बार जब आप इस शिखर पर पहुँच जाएं तो समझ लें कि आप वहाँ पर हैं और अपने प्रेम, अपने स्नेह की वर्षा करनी शुरू कर दें, और उन सब आशीर्वादों की जो शिखर से पहले हैं। यदि यही आपका जीवन है तो यह महानतम है। महान कहलाने वाले बाकी सब लोगों को, राजनीतिज्ञों को भूल जाएं। उन्हें भूल जाएं। आप उनसे कहीं महान हैं क्योंकि आप जीवन की सहज शैली के साथ एक हीरे की तरह से हैं। यह सहज-जीवन शैली अत्यन्त सन्तोष एवं पूर्ण शान्ति प्रदायक है। यह आपको आन्द, शान्ति, क्षेम तथा अन्य इतने वरदान देती है कि आप इनके वर्णन नहीं कर सकते हैं। आपके सहस्र दल सहस्रार की तरह से ज्योतिर्मय | हैं। परमात्मा ही जानता है कि आप इससे क्या-क्या प्राप्त कर सकते हैं। आप इतने महान क्षेत्र में हैं। एक हजार 14 पंखुड़ियाँ जहाँ से लोगों ने विज्ञान का सारा ज्ञान प्राप्त किया है तथा सभी महान आविष्कार वहीं से प्राप्त हुए हैं। अत: यही चीज़ है जो व्यक्ति को महसूस करनी है-आत्मसम्मान। आत्मसम्मान स्वमहत्व से भिन्न होता है। आपमें आत्मसम्मान होना चाहिए। यह आपको विनम्र बनाता है। प्रेम करने के योग्य होने के कारण आप अत्यन्त प्रेममय बन जाएंगे। कोई इसे आप पर थोपेगा नहीं। मैं मानती हूँ कि सागर में से बादल उठते हैं और वर्षा करते हैं। जीवन चक्र की तरह से ये कार्य हो रहे हैं। इस बात के प्रति वे जागरूक नहीं हैं। वे ये नहीं सोचते कि वे कुछ महान कार्य कर रहे हैं क्योंकि वे इस चक्र में हैं। परन्तु आप इस चक्र से मुक्त हैं और फिर भी बिना किसी स्वमहत्व की भावना के इस कार्य को कर रहे हैं। आप इस कार्य को कर रहे हैं क्योंकि आपने ही इसे करना है। दूसरा चक्र, जो कि स्वाभाविक चक्र नहीं है यह चेतना का चक्र है। चेतना के चक्र में आप जो भी कार्य करते हैं उसके प्रति चेतन होते हैं। परन्तु सब कुछ करते हुए भी आप विनम्र, प्रेममय एवं सुहृदय होते हैं। अत्यन्त ही प्रेममय एवं सुहृदय। न आप किसी पर चीखते चिल्लाते हैं न किसी को पीटते हैं। बिना किसी को कोई कठोर शब्द कहे आप कठिन से कठिन व्यक्ति को भी संभाल सकते हैं । कोई यदि आपके आड़े आने लगे तो आप उसकी कुण्डलिनी उठाकर सन्तुष्ट हो सकते हैं। बिना बताए यदि आप किसी की कुण्डलिनी उठाते हैं तो वह व्यक्ति नियंत्रित हो जाता है और यदि उसकी कृण्डलिनी आप नहीं उठा सकते तो उसे भूल जाएं क्योंकि वह व्यक्ति अत्यन्त दुष्कर है। हो सकता है वह पत्थर सम हो। आप क्या कर सकते हैं? आप उसमें प्रेम और गरिमा आदि गुण नहीं बहा सकते। पत्थर हृदय लोगों के लिए यह कार्य असम्भव है। उन्हें भूल जाएं। ये आपका कार्य नहीं है, ये आपका कार्य बिल्कुल भी नहीं है। मेरी प्रार्थना है कि सर्वप्रथम आप देखें कि आप कितने विनम्र हैं । आपको विनम्र होना है, यही आपकी सज्जा है और यही आपका गुण। अत: अपने अन्दर प्रेम उत्पन्न करें जो शुद्ध हो, जो वासना और लोभरहित हो । आप अन्य लोगों को सिर्फ इसलिए प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम आपके हृदय से बह रहा है और शान्ति का वरदान आपको प्राप्त है। अपने अन्दर आप पूर्णतया शान्त हैं और यह जानकर आप हैरान होंगे कि विवेक का उद्भव शान्ति से होता है। आपको अत्यन्त विवेकशील पुरुष या महिला समझा जाएगा क्योंकि आपको अन्तर्शान्ति प्राप्त है। शान्ति की इस स्थिति में ही आप सत्य खोज सकते हैं और सभी वांछित समाधान खोज सकते हैं। आन्तरिक शान्ति द्वारा ही आप अत्यन्त विवेकशील एवं बुद्धिमान व्यक्ति बनते हैं। अन्य लोगों से कहीं अधिक महान। सामान्य लोगों जैसे आप नहीं होते। तत्पश्चात् आप आनन्द प्राप्त करें। किसी चीज़ में आनन्द का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। आनन्द तो आनन्द होता है, न ये प्रसन्नता है न अप्रसन्नता। ये तो मात्र आनन्द है। आप केवल आनन्द में रहे। हर चीज़ का आनन्द ले, सबकी संगति का आनन्द लें, हर घटना का, हर दृश्य का, अपने जीवन की हर घटना का आनन्द लेना सीख लें। देखें, कि केवल आनन्द में ही महान क्षमता है। मुझे याद है कि एक बार मैं अपनी बेटी और दामाद के साथ एक ऐतिहासिक स्थान देखने गई, जिसके लिए हमें काफी सारी चढ़ाई चढ़नी पड़ी। 15 तीन घण्टे तक हम चढ़ाई चढ़ते रहे। जब हम सब थक गए तो तभी संगमरमर से बना हुआ आराम करने का स्थान हमें दिखाई दिया। तो हमने सोचा कि यहाँ पर लेटकर विश्राम कर लें। जब हम वहाँ लेटे हुए थे तो ये सब कहने लगे कि हम लोग यहाँ आए ही क्यों? और इस प्रकार शिकवा करने लगे। और अचानक वहाँ एक आनन्द बिन्दु दिखाई पड़ा। मेरी नज़र संगमरमर में खुदे हुए हाथियों पर पड़ी। मैंने कहा, 'क्या आप इन हाथियों को देख सकते हैं? सबकी पूँछ अलग- अलग ढंग से बनाई गई है।' कहने लगे, 'मम्मी, हम इतने थके हुए हैं आप किस प्रकार इन हाथियों की पूँछ को देख पा रही हैं?' मैंने कहा, 'आप भी इसे देखो।' केवल आनन्द ही आपके मस्तिष्क को व्यर्थ की चीज़ों से हटा सकता है। केवल अपना मस्तिष्क वहाँ से हटा लें। ये विधि आप आज़मा सकते हैं। किसी भी आनन्ददायी चीज़ पर अपना मस्तिष्क ले जाएं। मान लो कोई व्यक्ति अत्यन्त उबाऊ है तो इसके पीछे छिपी हुई विनोदशीलता को आप देखें कि कोई भी व्यक्ति उबाता किस प्रकार है । इससे आपको शिक्षा मिलती है कि कभी किसी को उबाना नहीं है। इसी प्रकार आनन्द की भी विशेषता यही है कि यह आपको हर चीज़ का आनन्द, हर चीज़ का सारतत्व सिखाता है। यदि कोई व्यक्ति या वस्तु बुरी है तो भी | आप इसका आनन्द लें, कहें कि यह कितना बुरा है? मान लो कोई अच्छा दोस्त है तो आप हमेशा उसकी अच्छाई को देख सकते हैं। परन्तु कभी किसी की बुराई की आलोचना करने की न सोचें। आलोचनात्मक रवैया आपके मस्तिष्क से निकल जाता है। इस स्थिति में किसी भी अटपटी चीज़ को आप देखते हैं तो एकदम आपका मस्तिष्क इससे हटकर किसी अच्छी चीज़ पर चला जाता है। अत: न तो आलोचना करें और न ही इसका बुरा माने। कभी-कभी तो लोग हैरान होते हैं कि मैं किस प्रकार लोगों को सहन करती हूँ। मैं सहन नहीं करती। कोई व्यक्ति भी करता रहे मैं उसकी ओर ध्यान ही नहीं देती। आपका स्वभाव तथा संस्कार यदि कुछ ऐसे हो जाते हैं जहाँ आप पूर्ण तुर्या स्थिति में हों, जिसके विषय में कबीर साहब ने कहा है, 'जब मस्त हूँ, तो फिर क्या बोले। मस्ती के आलम में बोलने को कुछ रह ही नहीं जाता। आनन्द की स्थिति भी ऐसी ही है। एक | ऐसा स्वभाव जिसे आपको समझना है और जिसका आपको सम्मान करना है। यह अन्तःस्थित है। इसका सम्मान करें। इसकी तुलना दूसरे लोगों से न करें। अन्य लोग आपके स्तर पर नहीं हैं। आप भिन्न स्तर पर हैं। अत: आनन्द लेने का प्रयत्न करें। कभी ये न सोचें आप कुछ महान हैं, कुछ ऊँचे हैं, नहीं, कभी ऐसा न सोचें। केवल आभार मानें कि आप जीवन के इन अटपटे विचार एवं शैलियों से बचे हुए हैं। ऐसी शैली एवं विचारों से जहाँ व्यक्ति सदैव आलोचना ही करता रहता है कि, 'यह अच्छा नहीं है, मुझे ये पसन्द नहीं है' ये कहने वाले आप कौन होते हैं कि मुझे पसन्द नहीं है? आप तो स्वयं को भी नहीं पहचानते। जब आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है तो मतलब ये कि आप स्वयं को नहीं पहचानते। किस प्रकार आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है। बहुत कम ज्ञान वाले लोगों को मैंने दूसरों की आलोचना करते हुए देखा है। मेरी समझ में इसका कारण नही आता। ऐसा क्यों है? सम्भवत: वह अपने आपको बहुत कुछ समझते हैं। यह बात आम है। परन्तु जब आप पूर्ण ज्ञान को जान जाएंगे तो वास्तव में विनम्र हो जाएंगे। पूर्णतः विनम्र, भद्र या सुहृदय। 16 आज वैसे भी मेरे लिए बहुत ही महान दिन है। मैं नहीं जानती कि इस सुन्दर विश्व को देखने के लिए मैं और कितने वर्ष तक जीवित रहूँगी। मानवीय स्तर पर यदि देखा जाए तो मेरा जीवन बहुत संघर्षमय एवं कठोर रहा। परन्तु सहजयोगियों का सृजन, उनकी बातों को सुनना और उनसे बातचीत करना मेरे लिए आनन्ददायी था। वे कितने मधुर, करुणा एवं सम्मानमय हैं? आपके इन गुणों ने मेरी बहुत सहायता की और इसके लिए मैं आपके प्रति आभार प्रकट से मैं ये करती हूँ। आपके प्रोत्साहन, आपकी सहायता और आपकी सूझ-बूझ सब कार्य सम्पन्न कर सकी। मैं स्वयं यदि इस कार्य को कर सकती तो कभी भी आपकी सहायता न माँगती। परन्तु आप लोग तो मेरे चक्षुओं और बाजुओं जैसे हैं। मुझे आप सबकी बहुत जरुरत है क्योंकि मैं आपके बिना यह कार्य नहीं कर सकती। ये तो माध्यम बनाने जैसा है, आपके यदि माध्यम ही नहीं हैं, आपकी यदि धाराएं ही नहीं हैं तो आदिशक्ति होने का क्या लाभ है ? किस प्रकार से आप शक्ति प्रवाह करेंगे? विद्युत शक्ति यदि है तो इसको प्रसारित करने के लिए तार भी होने चाहिए। बिना इनके तो यह निश्चल है। इसी प्रकार मुझे भी लगा कि मेरे भी अधिक से अधिक माध्यम होने चाहिएं और ये बात ठीक साबित हुई। मैं वास्तव में बहुत प्रसन्न हूँ। आज के इस शुभ दिवस तक पहुँचने के लिए आप सबकी बहुत धन्यवादी हूँ और आप सबको हृदय से आशीर्वाद देती हूँ कि आप इसकी जिम्मेदारी सम्भाल लें। आप सहजयोगी हैं तथा अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार देना आपकी जिम्मेदारी है। अन्य लोगों को भी यह दिया जाना आवश्यक है। सहजयोग का वर्णन आप उनके सम्मुख कर सकते हैं । उनसे इनकी बातचीत कर सकते हैं और उन्हें समझ सकते हैं । अन्य लागों को समझने का प्रयत्न करें और उनसे बातचीत करें। लोगों को आत्मसाक्षात्कार अवश्य दें अन्यथा आप स्वयं को भी अपूर्ण महससू करेंगे। स्वयं को पूर्ण करने के लिए ये कार्य आप करं। परमात्मा आपको धन्य करें। 17 कबेला, इटली, २३ जुलाई २००० आप क्या हैं! आज हम यहाँ गुरु तत्व को समझने के लिए आये हैं। गुरु क्या करता है? आपके अन्दर जो भी कुछ है, आपके अन्तर्निहित बहुमूल्य गुण, आपके ज्ञान के लिए वह इन्हें खोजता है। वास्तव में सारा ज्ञान, सारी अन्दर विद्यमान है। गुरु तो केवल आध्यात्मिकता, सारा आनन्द आपके अन्तर्निहित है। यह सब आपके आपको आपके ज्ञान और आपकी आत्मा के प्रति चेतन करते हैं। सभी के अन्दर आत्मा है और सभी के अन्दर आध्यात्मिकता भी है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको बाहर से मिलता हो। परन्तु ये ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व आप इससे कटे हुए होते हैं या अन्धकार में होते हैं और उस अज्ञानता में आप नहीं जानते कि आपके अन्दर कौन सी सम्पदा निहित है। अत: गुरु का कार्य यह है कि वह आपको इस बात का ज्ञान करवाए कि आप क्या हैं। ये पहला कदम है कि वह आपके अन्दर वह जागृति आरम्भ करता है जिसके द्वारा आप जान जाते हैं कि बाह्य विश्व मात्र एक भ्रम है तथा आप अपने अन्तस में ज्योतित होने लगते हैं। कुछ लोग तत्क्षण | पूर्ण प्रकाश प्राप्त कर लेते हैं और कुछ इसे शनै: शनै: प्राप्त करते हैं। सभी धर्मों का सार यही है कि आप स्वयं को पहचानो। जो लोग धर्म के नाम पर लड़-झगड़ रहे हैं उनसे आपने पूछा है कि क्या आपके धर्म ने आपको अपनी पहचान करवा दी है? सब धर्मों ने यदि एक ही बात कही है तो आपके सभी धर्मों का केवल लक्ष्य, स्वयं को जानना है परन्तु लोग कर्मकाण्डों में फँस जाते हैं। वे सोचते हैं कि ये कर्मकाण्ड करके वे परमात्मा के बहुत समीप हैं। अपने विषय में वे पूर्ण अन्धकार में रहते हैं और दिन रात कुछ न कुछ ऐसा करते रहते हैं जिसका आत्मा से कोई मतलब नहीं। अज्ञानता के कारण भिन्न प्रकार के व्यायाम, प्रार्थनाएँ, पूजाएँ आदि करते रहते हैं । ऐसे लोगों को लोग पैसे देते रहते हैं, वे लोग धनवान हो जाते हैं। इनकी दिलचस्पी केवल धन में होती है। आपका सारा धन लूटकर वे आपको मूर्ख बनाते हैं। वे आपके अहंकार को भी बढ़ावा देते हैं और इसके कारण आप भ्रम के की ओर बहने लगते हैं और समुद्र बहुत ही धार्मिक तथा परमात्मा से जुड़े हुए मानते हुए आप इसी भ्रम सागर में डूब जाते हैं। अन्ततः स्वयं को जबकि वास्तव में आप परमात्मा से जुड़े ही न थे। परमात्मा को जानने के लिए पहले आपको स्वयं को जानना चाहिए। स्वयं को जाने बिना परमात्मा को नहीं जाना जा सकता। स्वयं का ज्ञान प्राप्त करना बहुत आवश्यक है। परन्तु जब आपको स्वयं का ज्ञान प्राप्त होता है तो वह भी अधूरा होता है। आपका अनुभव अधूरा होता है। यह ज्ञान आवश्यक है और केवल गुरु ही आपको आत्मा का ज्ञान देता है। अब आपने इसे जाँचना है और परखना है कि आपके गुरु ने जो कुछ बताया वह सत्य है या नहीं। गुरु की बताई हुई बातें ठीक हैं भी सही या नहीं। कहीं ये बातें भी एक अन्य प्रकार का भ्रम जाल तो नहीं है? उत्थान मार्ग पर लोग बहुत सी समस्याओं में फँस जाते हैं। जिनमें से सर्वोपरि अहं की समस्या है विशेष रूप से पश्चिम में। अहं बढ़ जाता है और आप सोचने लगते हैं कि आप बहत महान हैं और अन्य लोगों से अच्छे हैं और आपमें कुछ बहुत ही विशेष है। यह अज्ञानता सांसारिक अज्ञानता से कहीं अधिक भयानक है क्योंकि सांसारिक अज्ञानता में आप गलत कार्य के परिणाम भी महसूस करते हैं। उत्थान मार्ग पर जाते हुए जब आप आधे रास्ते पर होते हैं, जब आपकी अज्ञानता अपने विषय में होती है तब व्यक्ति को समझना चाहिए कि 20 उसमें अहं न हो। इस स्थिति में आत्मनिरीक्षण आरम्भ होता है। आप स्वयं को देखने लगते हैं कि आपमें क्या त्रुटि है जब आप समझ जाते हैं कि आपमें अहं है, जब आपको पता चलता है कि आपमें कोई कमी है या दोष है तभी आप आत्मनिरीक्षण करने लगते हैं। यह प्रयत्न अत्यन्त ईमानदारी से किया जाना चाहिए। सहजयोग में आरम्भिक स्थिति में लोग सोचने लगते हैं कि वे बहत महान हैं उन्हें आत्मदर्शन की आवश्यकता नहीं बहुत है। ऐसे लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किए बिना ही पुन: अज्ञानता के बादलों में फँस जाते हैं। अत: आपको आत्मदर्शन करना होगा और स्वयं देखना होगा कि आप क्या करते रहे हैं, आप क्या हैं? आप कहाँ तक उन्नत हुए हैं। ऐसे व्यक्ति की शैली शनै: शनै: परिवर्तित होती है कैसे? सर्वप्रथम अत्यन्त उग्र स्वभाव, क्रोधी तथा अहंकार से पूर्ण व्यक्ति अत्यन्त भद्र एवं विनम्र होने लगता है। दूसरी तरह के भयग्रस्त और अत्यन्त सावधान रहने वाले व्यक्ति निर्भय हो जाते हैं, उस स्थिति में व्यक्ति को भय बिल्कुल नहीं रहता । वह विश्वस्त होता है कि वह ठीक मार्ग पर है और ठीक रास्ते पर चल रहा है। आसानी से ऐसा व्यक्ति उत्तेजित नहीं होता । फिर भी आपको और अधिक ऊँचाई तक उन्नत होना है, उस स्तर तक जहाँ ध्यान-धारणा करते हुए आप जान सकें कि आपमें क्या दोष है। आपने अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लिया है, आत्मसाक्षात्कार का आशीर्वाद आपको प्राप्त हो गया है, आपका स्वास्थ्य अच्छा हो गया है, आपको सभी प्रकार के इतने सारे आशीर्वाद प्राप्त हो गए हैं कि आप गणना भी नहीं कर सकते। सभी कुछ है परन्तु अभी आपको और आगे जाना है अर्थात् सहजयोग के पूर्णज्ञान को समझना है। अपनी बौद्धिक योग्यता से सर्वप्रथम आपने इसे समझना है और तत्पश्चात् जाँचना है कि यह कहाँ तक सत्य है, किस स्तर तक आपने इसे समझा है, कहाँ तक इसे जाना है? अन्तर्द्शन द्वारा जब आप स्वयं को देखने लगते हैं तो भक्ति के सम्राज्य में प्रवेश करने लगते हैं तब न तो आप बहुत अधिक बोलते हैं और न किसी को परेशान करने का प्रयत्न करते हैं। अत्यन्त मधुर, भद्र और विवेकशील व्यक्ति आप बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को स्वयं परखना चाहिए कि वह अन्य लोगों से किस प्रकार व्यवहार कर रहा है। अब चित्त एक व्यक्ति से दूसरे पर जाने लगता है और आप देखने लगते हैं कि आप किस प्रकार आचरण कर रहे हैं, किस प्रकार आप प्रेम कर रहे हैं, आपकी सुहृदयता के क्या गुण हैं? किसी व्यक्ति से जब आप निर्वाज्य प्रेम करते हैं तब उसके प्रति पूर्णत: समर्पित होते हैं पूर्णतः। उसकी आज्ञा आप मानते हैं और यदि यह प्रेम विद्यमान है जिसे आप समर्पण भी कहते हैं, तो आप उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं। यह मात्र प्रेम है। समर्पण प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं और वह प्रेम अत्यन्त आन्ददायी है। यह भक्ति, यह समर्पण आरम्भ हो जाता है और भक्ति आपका शुद्धिकरण कर देती है। आपके सभी दुर्गुण, जिन्हें मैं कमियाँ कहती हैं तथा अपने अन्दर की समस्याओं को आप समझते हैं और इन पर काबू पाते हैं। किसी को यदि इन दुर्गुणों, समस्याओं से परिपूर्ण आप पाते हैं तो निर्वाज्य प्रेम के कारण आप उस व्यक्ति को सहन करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा व्यक्ति सब कुछ सहन करता है। उसमें किसी भी प्रकार की आक्रामकता नहीं होती। ऐसे लोग केवल क्षमा करते हैं। आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति बढ़ते ही चले जाते हैं। उनकी क्षमा करने की शक्ति अथाह होती है। 21 उनके मन में किसी के भी प्रति दुर्भावना नहीं होती। किसी के भी प्रति क्रोध नहीं होता वे सहन करते चले जाते हैं। और क्षमा करते जाते हैं। क्षमा का यह गुण संगीत सम है-आपकी भक्ति का संगीत। क्षमा का यह धन इन गुरुओं ने ईसा-मसीह के जीवन से प्राप्त किया होगा। सभी सन्तों को सताया गया और परेशान किया गया। अधिकतर सन्तों को सताया गया परन्तु इन लोगों ने कभी इनका विरोध नहीं किया, कभी बदला नहीं लिया और कोई क्रूर कार्य नहीं किया । परेशान करने वाले लोगों के लिए इनके मन में केवल करुणा भाव थे। 'हे परमात्मा, कृपा करके इन्हें क्षमा कर दें, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। ये लोग इतने करुणामय थे, करुणा ही इनका स्वभाव बन गई थी। करुणा जब स्वभाव बन जाती है तो ऐसे लोग पूर्णत: शान्त हो जाते हैं। वे कभी उत्तेजित नहीं होते, किसी भी घटना से वे उत्तेजित नहीं होते। सोचते हैं कि यही परमात्मा की मर्जी है उन्हें कुछ भी उत्तेजित नहीं कर सकता, कुछ भी अशान्त नहीं कर सकता। वे अपनी भक्ति का आनन्द लेते हैं, गुरु तथा परमात्मा के प्रति अपनी भक्ति का। भक्ति के इसी आलम में वे चाहे कविता लिखें, चाहे नृत्य करें, चाहे भजन गाएं, क्योंकि शान्ति उनके अन्तःस्थित है और वे आनन्दमग्न हैं। अकेलेपन में भी वे अकेले नहीं होते। अपना ही आनन्द लेते हैं। वे जानते हैं कि वे परमात्मा के साथ एक रूप हैं तथा परमात्मा के आशीर्वादों का वे आनन्द लेते हैं। कृत्रिमता वे कभी नहीं अपनाते, कभी चिन्तित नहीं होते, कभी उत्तेजित नहीं होते। न वे भविष्यवादी होते हैं न वे भूतकाल की बातें सोचते हैं, सदैव वर्तमान में रहते हैं। वर्तमान में रहते वे पूर्णत: शान्त होते हैं। कोई भी समस्या या हुए दुर्घटना यदि हो तो वे तुरन्त निर्विचार समाधि में चले जाते हैं। उनके अन्दर इस स्थिति में चले जाने की योग्यता होती है। गुरु बनने के लिए आपको ऐसा व्यक्तित्व विकसित करना होगा कि आप किसी भी बन्धन में न फँसे। मैं आपको अपना उदाहरण दूँगी। मैं कभी जल्दबाजी नहीं करती। न ही कभी मैं समय की चिन्ता करती हूँ। एक बार मैं अमेरिका जा रही थी। आपको यदि इस बात पर विश्वास है कि परमात्मा ने आपके लिए सारी योजना बना रखी है तो आप निश्चिंत हो जाते हैं। परमात्मा आपकी देखभाल कर रहे हैं तो चिन्ता क्यों करनी है? मुझे अमेरिका जाना था परन्तु एक बच्चा गिर गया। जाने के लिए मैं उठने ही वाली थी कि बच्चा गिरा और उसकी बाजू टूट गई। जब मैंने बच्चे को देखा तो कहा ठीक है पहले मैं बच्चे को ठीक करूँगी। सब लोग कहने लगे कि आप अमेरिका जा रही हैं। मैंने कहा, 'मैं निश्चित रूप से जाऊंगी।' मैंने बच्चे को ठीक किया और इस कार्य में लगभग आधा घण्टा लगा। बाहर आकर मैने कहा कि अब वायुपत्तन पर चलें। कहने लगे, 'श्रीमाताजी आपने बहुत देर कर दी है।' मैंने कहा, 'मुझे कभी देर नहीं होती, चलो चलें।' हम वायुपत्तन पहुँचे और पाया कि जिस वायुयान से मुझे जाना था वह खराब था, उसके स्थान पर एक अन्य यान आया था जो न्यूयोर्क के स्थान पर वॉशिंगटन जा रहा था। वास्तव में मैं भी वॉशिंगटन ही जाना चाहती थी। अब आप कल्पना कीजिए कि किस प्रकार चीज़ें घटित होती हैं! इसे हम सहज कहते हैं, यह सहज कार्यान्वयन है। अर्थात् यह सब प्रयत्नविहीन है, स्वत: घटित होना है। परन्तु सर्वप्रथम आपका व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए, आपकी भक्ति इतनी दृढ़ होनी 22 चाहिए कि परमात्मा आपकी देखभाल करने के लिए विवश हो जाएं, पूर्णतः विवश। परमेश्वरी शक्ति आपके आपको समझना चाहिए कि परमेश्वरी शक्ति आपके आस-पास है और यह आपकी सुरक्षा तथा आपकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का पूर्ण आश्वासन है। आप कह सकते हैं कि, 'श्री माताजी, आप बहुत शक्तिशाली हैं।' परन्तु यदि आप परमेश्वरी कार्य के प्रति पूर्णत: समर्पित हो जाएं तो आप भी अत्यन्त शक्तिशाली बन सकते हैं। आपको शक्तियाँ भी प्राप्त हो जाएंगी और परमेश्वरी कार्य भी । शक्तियों के साथ-साथ आस-पास परमात्मा आपको आवश्यक कार्य भी देंगे तथा उसे करने के लिए आवश्यक समय भी प्रदान करेंगे। सभी कुछ परमात्मा आपको प्रदान करेंगे। अन्य लोगों से बह कर करुणा है और जब परमात्मा की ओर दिव्य व्यक्ति की ओर या आपके गुरु की ओर आने लगती है तो जीवन बहुत ही सहज हो जाता है, बहत ही सहज। सभी जटिलताएं समाप्त हो जाती हैं और आपको किसी भी चीज़ की चिन्ता नहीं रहती। आँखें बन्द करिए और आपके सभी यह कार्य हो जाते हैं। कार्य इस प्रकार होते हैं मानो आपको यही इच्छा रही हो । न तो आपको आपकी इसकी इच्छा करनी पड़ती है, न इसके विषय में सोचना पड़ता है। परमात्मा सभी कार्ों को देखते हैं आपकी सुख-सुविधा, आपके स्वास्थ्य और सभी चीज़़ों को। यह रा सुरक्षा परमेश्वरी सहायता आपको खोजनी नहीं पड़ती, माँगनी नहीं पड़ती, आप तो ऐसे व्यक्तित्व होते हैं जिसके लिए परमात्मा जिम्मेदार है। आप परमात्मा की विशेष तथा जिम्मेदारी बन जाते हैं और वे जानते हैं कि आपके लिए क्या अच्छा है और क्या नहीं। आपकी सभी राए मैं दे सकती हूै, मान लो मैंने सोचा से उदाहरण मैं एक उदाहरण देती हूँ, ऐसे बहुत कि कोई व्यक्ति मुझसे मिलने आ रही है और सहजयोगियों ने कहा कि श्रीमाताजी वो तो बहुत बुरा है, तो वह आएगा ही नहीं, मेरे पास पहुँचेगा ही नहीं । सभी अच्छी घटनायं घटेंगी और यदि कोई बुरी घटना घटित होती है तो आप अपनी करुणा का उपयोग करें। आवश्यकताओं की पूर्त घटित होने की स्थिति में आप अपनी करुणा का उपयोग करके समस्या का कुछ बुरा समाधान करें। आप अपनी समस्याओं, अपने आस-पास की समस्याओं तथा अपने समुदाय की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं । का तो अब आपको आत्मसाक्षात्कार मिल है। मैं नहीं जानती कि इसमें आप पूर्ण चुका कितनी गहनता तक पहुँचेंगे? मेरे पास बहुत सी महिलाओं के बारे में शिकायत है, न ही आश्वासन वे ध्यान धारणा करती हैं और न अपनी देखभाल करती हैं। वे आत्मसाक्षात्कारी नहीं है, यही कारण है कि उनके पति उन्हें तलाक देना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि ये औरतें बेकार है| है। कुछ पुरुष भी ऐसे ही है। इस समस्या का समाधान करने के लिए आपमें करुणा का होना आवश्यक है। और किसी भी तरह से अपनी करुणा द्वारा अपने जीवन साथी को 23 मho ठीक मार्ग पर लाना आवश्यक है। आखिरकार पुरुष महिलाओं की अपेक्षा बहुत व्यस्त होते हैं, परन्तु महिलाओं के पास भी अन्य बहुत से कार्य होते हैं। उन्हें अपने परिवार की, अपने बच्चों की देखभाल करनी होती है और उनका मस्तिष्क ऐसी सभी सांसारिक चीज़ों में फँसा होता है और उनके पास ध्यान- धारणा लिए समय ही नहीं होता। बिना ध्यान-धारणा के आपका उत्थान नहीं हो सकता। आपको ध्यान-धारणा तो करनी ही होगी। लोग सोचते हैं हमें आत्मसाक्षात्कार तो मिल ही गया है। सभी कुछ ठीक है। नहीं। आपको प्रतिदिन ध्यान-धारणा तो करनी ही होगी। तभी शुद्धिकरण होता है। आन्तरिक शुद्धि के पश्चात् आप समझ पाते हैं क्या चीज़ आवश्यक है और क्या अनावश्यक है तथा ये भी कि आपके चक्र साफ हो गए हैं। परमात्मा ही इस कार्य को करते हैं, परन्तु आपको नियमपूर्वक ध्यान- धारणा करनी आवश्यक है। शनै: शनै: आपको लगेगा कि आपकी ध्यान-धारणा बहुत गहन हो गई है। आप बहुत गहन हो जाएंगे और आपकी शक्तियाँ प्रकट होने लगेंगी। जहाँ भी आप होंगे नकारात्मकता वहाँ से भाग जाएगी और सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। जो भी कुछ आपको चाहिए होगा वह मिल जाएगा। दूसरों की सहायता करने की इच्छा दूसरों को कुछ देने की इच्छा पूर्ण हो जाएगी। ये मेरा अपना अनुभव है जो मैं आपको बता रही हूँ। सायंकाल कम से कम दस मिनट और प्रात: काल कम से कम पाँच मिनट पूर्ण श्रद्धा तथा लगन से ध्यान करें। मैंने यहाँ उपस्थित कुछ लोगों में गहन भक्ति और श्रद्धा देखी है। श्रद्धा भक्ति से कहीं ऊँची है। यह आपके अस्तित्व का अंग-प्रत्यंग बन जाती है और पूर्णत ः आपके रोम-रोम में समा जाती है। ये श्रद्धा जब आपको प्राप्त हो जाएगी तो ये बहुत चमत्कारिक है। ये बहुत से चमत्कार करती है। ये बात सत्य है कि मेरे सोचने मात्र से बहुत से लोग | -मुक्त हो गए। ये वास्तविकता है परन्तु इसका अर्थ ये नहीं है कि उन लोगों में उस उच्च स्तर की श्रद्धा थी। कहने से मेरा अभिप्राय ये है कि उनमें वह श्रद्धा स्वयं में विकसित करनी चाहिए। श्रद्धा आत्मा का नैसर्गिक प्रकाश है। इसे अपने अन्दर विकसित कैसे किया जाए? अपने अन्दर विकसित करने की लोग जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। परन्तु श्रद्धा मानसिक गतिविधियों से नहीं विकसित की जा सकती। आत्मा के ध्यान-धारणा के अतिरिक्त किसी भी अन्य विधि से श्रद्धा विकसित नहीं हो सकती। मैं सदा आपसे ध्यान-धारणा के लिए कहती हूँ। कौन व्यक्ति ध्यान-धारणा करता है और कौन नहीं करता इसका मुझे तुरन्त पता चल जाता है। लोग मेरी पूजा करेंगे, सहजयोग के बारे में बातचीत करेंगे। लोकप्रियता के लिए बाहर जाकर सहज प्रचार करेंगे, परन्तु अपने अन्तस में उन्होंने अभी तक स्वयं को नहीं खोजा। तो विकास की इस अवस्था में आपको पूर्ण उत्साह के साथ ये समझ लेना चाहिए कि ध्यान-धारणा तथा अन्तर्दर्शन के साथ आप यह स्थिति सुगमता से प्राप्त कर सकते हैं। अन्तर्दर्शन द्वारा सूझ-बूझ का नया गुण आपमें विकसित हो जाएगा और आप समस्याओं का समाधान कर सकेंगे। किसी भी आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति के अन्दर यह गुण होता है। वह आपकी सभी समस्याओं का समाधान खोज सकता है। वह सुझा सकता है किस प्रकार आपकी सहायता हो सकती है। श्रद्धा से एक प्रकार के भाईचारे का भी उद्भव होता है। चाहे आप सहजयोग पर भाषण देते हों और सभी प्रकार के कार्य करते हो, जब तक आपमें श्रद्धा नहीं है आपका उत्थान नहीं हो सकता। मैं 24 कहना चाहूँगी कि यह श्रद्धा एक प्रकार का प्रेम है जो मन्द-मन्द अग्नि की तरह से फैलता है। ऐसी अग्नि की तरह से जो जलाती नहीं है, गर्मी नहीं देती, सुन्दर शीतल लहरियों का अनुभव आपके अन्तस में भर देती है और इस अनुभव को आप समझ भी जाते हैं। कभी किसी सहजयोगी की निन्दा न करें, कभी नहीं। कुछ सीमा तक मैं किसी ऐसे व्यक्ति की बात नहीं सुनती जो किसी सहजयोगी की शिकायत करता है। परन्तु यदि यह शिकायत सामूहिक हो तो मुझे थोड़ी सी चिन्ता होती है और इसके विषय में मैं सम्बन्धित अगुआ से पूछती हूँ। कोई व्यक्ति आकर यदि मुझसे शिकायतें करें तो प्रायः मैं उससे कहती हूँ कि आप स्वयं अन्तर्दर्शन करो, वास्तविकता यह नहीं है। दूसरों के दोष ढूंढना मानव की एक आम कमजोरी है। मानव अपने दोषों को नहीं देखता। अन्य लोगों में दोष खोजने से आपको कोई लाभ न होगा। अपने दोष ढूंढने का प्रयत्न करें जिन्हें आप ठीक भी कर सकते हैं। ये आपकी जिम्मेदारी है। स्वयं को जानना आपके लिए आवश्यक है। अत: अच्छा होगा कि आप अपने दोष खोजें और उन्हें ठीक करें। परन्तु कुछ लोग दूसरों के दोष खोजने की अपनी आदत पर गर्व करते हैं। बात-बात में वे कहते हैं कि मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है। आत्मा के विषय में आपके क्या विचार हैं? आपको ये पसन्द है, आपको वो पसन्द है परन्तु आत्मा के विषय में आपके क्या विचार हैं? क्या आपको वो पसन्द हैं? क्या आपको आत्मा का आनन्द आता है? लोग कहे चले जाएंगे मुझे ये पसन्द नहीं है, मुझे वो पसन्द नहीं है। ये कहना पश्चिमी देशों की आम बात है। 25 अब आप देखिए, कुछ महिलाओं ने सुन्दर कालीन बनाए हैं। ये इतने मोटे हैं कि मैं जब इन पर चलती हूँ। तो कभी-कभी डोल जाती है परन्तु जिस प्रेम के साथ ये बनाए गए हैं वह मुझे इतना आनन्द से भर देता है, इतनी खुशी प्रदान करता है कि आप कल्पना नहीं कर सकते कि मैं उनके विषय में क्या महसूस करती हूँ। यह आनन्द, आनन्द का ये सागर आपके अन्दर निहित है और जब यह उमड़ने लगता है तो आपको कष्ट नहीं देता। यह आपको इतने सुन्दर आनन्द से भर देता है कि इसका वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आपके अस्तित्व पर यह एक फुहार की तरह से है। यह कृपा वर्षा है। अन्य लोगों द्वारा दिया गया प्रेम आपको रोमांचित कर देता है। यह प्रेम आप किसी से माँगते नहीं परन्तु जब भी किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो अत्यन्त प्रेममय, अत्यन्त सुहृदय है तो ऐसे सम्बन्ध में सच्ची मित्रता होती है। परन्तु सहजयोगियें की बुराई करना अत्यन्त गलत है और फिर लोगों से बताते फिरना कि उसमें ये कमी है, उसने ऐसा किया है तथा उसकी सहायता करने के स्थान पर उसके विरूद्ध इस प्रकार सामूहिक भावना बनाना तो अत्यन्त गलत है। कोई भी सहजयोगी जब कठिनाई में होता है तो आपको चाहिए सामूहिक रूप से उसकी सहायता करें। चाहे उसमें कुछ कमियाँ ही क्यों न हों उसकी निन्दा न करें। अगर आप ये कहते हैं उसमें ये कमी है, उसमें वो कमी है और उस व्यक्ति की निन्दा करने लगते हैं तो आप सहजयोगी नहीं हैं। आप तभी तक सहजयोगी हैं जब तक अन्तर्दर्शन के माध्यम से आप अपने दोष देख सकते हैं। अब आपमें से अधिकतर लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो चुका है। इसका अनुभव आपको है। परन्तु आपमें से कुछ लोगों को इसका ज्ञान नहीं है। आपको चाहिए कि वह ज्ञान प्राप्त करें और परखें, ये ज्ञान वास्तव में है या नहीं। जैसे अमेरिका में 'निह' नामक स्वास्थ्य संस्थान में उन्होंने सहजयोगियों पर परीक्षण करने चाहे, ये लोग डाक्टर थे और उनमें से एक ने आगे बढ़कर कहा, 'ठीक है, अपनी चैतन्य लहरियों द्वारा मुझे बताइये कि मुझमें क्या कमी है।' तो वहाँ गई सहजयोगिनियों ने बताया कि, 'श्रीमन आपके हृदय में कुछ खराबी है।' उसने कहा, 'यह बात ठीक है,' क्योंकि एक महीना पूर्व ही वह हृदय की बाह्यपथ शल्य चिकित्सा (बायपास सर्जरी) करवा चुका था। अस्पताल से वह ठीक ठाक बाहर आया था। वे लोग हैरान हो गए क्योंकि रोग निदान करने में ही रोगी अधमरा हो जाता है। तो चैतन्य लहरियाँ अनुभव करके व्यक्ति के रोग का पता लगाना अत्यन्त ही सुगम तरीका है। उन्होंने हमारी ओर बहुत ध्यान दिया है। अस्पताल में वह सहजयोग विकसित करना चाहते हैं। अत: आपको चाहिए स्वयं को जाँचें, परखें और देखें कि आप क्या हैं। मान लो एक पति-पत्नी हैं, पत्नी ध्यान-धारणा करती है, सभी कुछ जानती है, वो जानती है कि उसके पति में क्या दोष हैं परन्तु उसे बताती नहीं। वह सहन करती रहती है, उसकी शिकायत नहीं करती और न ही उसे कुछ कहती है। उसकी ये सहनशीलता पति को विश्वस्त करती है कि उसकी पत्नी का व्यक्तित्व उससे कहीं ऊँचा है। वो चाहे जो कुछ हो, समझ जाता है कि उसकी पत्नी ने यह महान व्यक्तित्व प्राप्त कर लिया है । पश्चिम के देशों में विशेष रूप | से बहुत चारित्रिक खामियाँ हैं। वास्तव में ऐसे लगता है जैसे उन्हें साँप ने ही काट लिया हो। पश्चिम के लोग 26 कुकृत्य करते हैं उनके विषय में अविकसित देश के लोग तो सोच भी नहीं सकते विकास ने उन्हें सभी प्रकार की स्वच्छंदता दी है तथा आवारागर्दी का स्वभाव दिया है। जो वो सोचते हैं कि वे स्वतन्त्र हैं और कहीं भी जाकर किसी भी प्रकार से मज़े ले सकते हैं। यह एक आम शैली है परन्तु आप अपने को जाँचे। क्या आप इन्हीं लोगों में से हैं या उन लोगों में से हैं जो उत्थान मार्ग में आपसे कहीं ऊँचे हैं? यह एक प्रक्रिया है। एक दम से आप उत्थान के उस बिन्दू तक नहीं पहुँच सकते। कभी-कभी तो नए सहजयोगी पुराने सहजयोगियों से बहुत अच्छे होते हैं क्योंकि उनमें बहुत दृढ़ इच्छा होती है। आपको गुरु के बताने समझना चाहिए कि हम क्या खोज रहे हैं। हम इसलिए खोज रहे हैं कि हम स्वयं को पहचानना चाहते हैं। किसी तरह से हम जान गए हैं कि हमें स्वयं को पहचानना है इसलिए हम खोज रहे हैं। इसके लिए हम सभी प्रकार के कार्य कर रहे हैं। मेरे अभिप्राय ये से भी हैं कि इस खोज के नाम पर हम सभी प्रकार के गलत कार्य कर रहे हैं। परन्तु यही खोज आपको सहजयोग तक ले आती है तब आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना होता है आपका जो कि कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से सहज है। कुण्डलिनी अधिकतर कार्य कर देती है। किसी ने मुझे बताया कि कुण्डलिनी जागरण के बाद उसने रातोंरात शराब और धूम्रपान त्याग दिया। मैं ऐसा करने के लिए कभी नहीं कहती परन्तु रातोंरात उसने ये सब त्याग दिया और कहने लगी कि, 'पहले मैं अपने बालों की शैली के विषय में बहुत पथ-प्रदर्शन होता है। तुनकमिज़ाज थी। बाल-सज्जा विशेषज्ञ के पास जाकर मैं बाल बनाती थी। सौन्दर्य गुरु का कार्य प्रसाधक के पास में बहुत सा समय लगाती थी। कहने लगी, 'मैंने ये सब भी त्याग दिया है। पहले मैं बेढंगे वस्त्र पहनती थी परन्तु अब मैं अपने शरीर का सम्मान करने लगी हूँ और गरिमामय वस्त्र पहनती हूँ।' ये सारा ज्ञान आपको स्वत: ही आ जाता है, ये आपके अन्तर्निहित है क्योंकि ये आपका अपना ज्ञान है। गुरु के बताने से भी आपका पथ- आपका प्रदर्शन होता है। गुरु का कार्य आपका पथ-प्रदर्शन करना है। पथ-प्रदर्शन तो इस स्थिति में क्या कमी है? सहजयोग में जो कमी है वह मुझे आपको बतानी है। विश्व में हमारे सम्मुख बहुत से सामूहिक विध्वंस हुए, बहुत प्रकार की विपदाएं, करना है। भूकम्प, बाढ़ तथा चक्रवात आए। परन्तु सहजयोगी सदैव सुरक्षित रहे। नि:सन्देह इन प्राकृतिक विपत्तियों से सहजयोगी सदैव सुरक्षित रहे। परन्तु यह सुरक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भी आपने क्या समझा? आपने क्या जाना ? क्यों ये विपदाएं आ रही हैं? क्योंकि सहजयोग सामूहिक नहीं है। सहजयोग को अत्यन्त सामूहिक होना है, इसे सर्वत्र फैलना है। सहजयोग को बहत अधिक लोगों तक पहुँचना चाहिए। परन्तु हम इसके लिए नहीं करते या कभी थोड़ा बहुत कर लेते हैं। आपको बाहर निकलना होगा। कुछ 27 ईसामसीह के बारह शिष्यों की ओर देखो। उन्होंने बहत सी गलतियाँ भी की फिर भी किस प्रकार उन्होंने ईसाई-धर्म को फैलाया और कितनी प्रबलता से इस कार्य को किया? वह प्रबलता, वह गहनता यदि आपमें नहीं है और यदि आप सहजयोग प्रसार के लिए स्वयं को पूर्णतः समर्पित नहीं कर देते तो सामूहिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। आप तो केवल अपनी सांसारिक चीज़ों में, अपनी नौकरियों आदि में ही व्यस्त हैं। सहजयोग में ये भी मान्य है, कोई एतराज नहीं है। परन्तु आपको अपना चित्त जीवन के दूसरे पक्ष पर भी डालना चाहिए कि हम सामूहिकता के लिए क्या कर रहे हैं? क्या हम सहजयोग प्रचार कर रहे हैं? क्या हम लोगों को इसके विषय में अवगत करा रहे हैं? मैं हैरान थी कि एक बार वायुयान से यात्रा करते हुए एक महिला मेरी साथ वाली कुर्सी पर बैठी थी और उसकी चैतन्य लहरियाँ बहुत खराब थीं । मैंने स्वयं को बन्धन दिया और उससे पूछा कि वह अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए क्या करती है? उसने 'बहाई मत' का नाम लिया। हे परमात्मा, मैंने कहा, अगर ये लोग इसी प्रकार फैलते गए और इनकी संख्या इतनी बढ़ गई तो क्या होगा? विनाश! वे तो इतने नकारात्मक लोग हैं कि विश्व का हित तो करना उनके लिए असम्भव है। इसी प्रकार से आप देखें कि कुगुरुओं की तरफ लोग किस प्रकार खिंचे चले जाते हैं? किस प्रकार उनसे जुड़ जाते हैं और उनके सन्देश को फैलाते हैं? मैंने लोगों को सड़कों पर गाते हुए देखा है। अटपटे वस्त्र पहनकर अपने गुरु की स्तुति गाते हुए! हमें इस तरह की चीज़ों की कोई आवश्यकता नहीं है। आप लोगों को ज्ञान प्राप्त हो गया है और नि:सन्देह आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। परन्तु महत्वपूर्ण बात ये है कि आपने सहजयोग के लिए क्या किया ? सहजयोग आपको सर्वत्र फैलाना होगा। उदाहरण के लिए आप मेरा एक बिल्ला (बँज) पहना करें, तो लोग आपसे पूछेंगे कि ये क्या है? तब आप उन्हें सहजयोग के विषय में बताएं? आप सहजयोग के विषय में बातचीत करना शुरू कर दें, इसके अतिरिक्त कुछ न करें। केवल सहजयोग की बातचीत करें और सहजयोग को फैलाते जाएं। जब तक आप ये कार्य नहीं करते तब तक ये सामूहिक न होगा और सामूहिक गलतियों के कारण जो प्राकृतिक विनाश होने वाला है वो होकर रहेगा। आपकी सुरक्षा बहुत सी विपदाओं से की जाती है। प्रदूषण होते हुए भी सहजयोगियों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। चाहे भूकम्प और विनाश हो, सहजयोगी की सुरक्षा होगी। तो क्यों न हम पूरे विश्व की रक्षा करें । विपत्ति के बाद विपत्ति आ रही है। यदि आपमें करुणा है तो उन सब लोगों के विषय में सोचें जो इन विपदाओं के शिकार होने वाले हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं बहुत से लोगों को रोगमुक्त कर सकती हूँ। नि:सन्देह मैं नहीं जानती कि सहजयोग को सामूहिक किस प्रकार बनाएं। अब आप बहुत बड़ी संख्या में हैं। आप सब लोग आत्मसाक्षात्कार देना प्रारम्भ कर सकते हैं। आप लोगों को चाहिए कि कम से कम सौ लोगों को आत्मसाक्षात्कार दे। जगह-जगह जाकर आत्मसाक्षात्कार के विषय में बातचीत करें। परमेश्वर (परमेश्वरी माँ) की स्तुति गाएं और आप पूरे विश्व को बचा लेंगे। थोड़े से लोगों को बचा लेने से आप सतयुग नहीं ला सकते। इसके लिए पूरी पृथ्वी माँ को बचाना होगा। इस पर रहने वाले सभी लोगों को बचाना होगा, चाहे जैसे भी ये लोग हैं। दूरदर्शन पर मैंने देखा है कि किस प्रकार निर्लज्जतापूर्वक ये लोग उन चीज़ों की बातें करते हैं जिनके विषय में इन्हें बिल्कुल ज्ञान नहीं है और हजारों 28 लोग इनके पीछे-पीछे घूमते हैं! ये बात नहीं है कि लोग मूर्ख हैं या वे किसी गलत मार्ग पर चलना चाहते हैं, परन्तु ये कुगुरु उन्हें फँसाने की कला में सिद्धहस्त है । ये जानते हैं कि किस तरह से उन्हें अपने शिकंजे में लेना है, किस तरह से उनसे बातचीत करनी है। परन्तु सहजयोगी यदि किसी खराब चैतन्य लहरियों वाले व्यक्ति को देखता है तो वह भाग खड़ा होता है। ऐसे व्यक्ति से बचने का प्रयत्न करता है। उनके पास जाकर ये नहीं कहता कि आपकी चैतन्य लहरियाँ खराब हैं! अत: आप लोगों को साहसिक होना होगा और उन स्थानों पर जाकर उनसे बातचीत करके उन्हें सामूहिक बनाना होगा, अन्यथा आप इस विश्व को परमात्मा के प्रकोप से नहीं बचा सकेंगे। नि:सन्देह परमात्मा अत्यन्त क्रोधमय हैं। आप लोगों की तो वे रक्षा करेंगे परन्तु उसका क्या लाभ होगा? हमें तो पूरी पृथ्वी माँ को बचाना होगा और इस कार्य के लिए आपको तैयार रहना है। आपको यह सब कार्यान्वित करना होगा। जहाँ भी अवसर मिले सहजयोग का प्रचार करें । कुछ लोगों ने मुझे बताया कि श्रीमाताजी, यदि आप आ जाएं तो अच्छा होगा।' क्यों? ऐसा क्यों है? आप लोग भी तो मेरे जैसे बन सकते हैं। इसके विषय में लोगों को बता सकते हैं। मैंने केवल एक व्यक्ति से सहजयोग आरम्भ किया था और उस समय तो सर्वत्र पूर्ण अंधेरा था। कोई साधक न था केवल भयानक लोग थे, फिर भी यह कार्यान्वित हुआ। अतः हर व्यक्ति बहुत से सहजयोगी बना सकता है। आप सब लोग भी ऐसा ही क्यों नहीं करते और इसके विषय में लोगों को क्यों नहीं बताते ? आपका आचरण, आपकी शैली निश्चित रूप से लोगों को प्रभावित करेगी। आपको इस प्रकार इसे कार्यान्वित करना है कि सामूहिक चेतना प्राप्ति का अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकें। सहजयोग केवल सहजयोगियों के लिए ही नहीं है । ये सबके लिए है, ताकि प्राकृतिक विपदाएं तथा भयानक घटनाएं जो घट रही हैं रूक जाएं, पूर्णत: रुक जाएं। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि इन्हें रोका जा सकता है। जिस प्रकार आपकी सदा रक्षा की गई है वैसे ही उन सभी लोगों की रक्षा की जाएगी जो आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त कर लेंगे। क्यों न खुलकर बातचीत की जाए और लोगों को बताया जाए कि यदि हम इस प्रकार अपराध करते रहे, यदि हम इसी प्रकार चरित्रहीनता, धोखाधडी और शोषण करते रहे और स्वयं को यदि हमने विनाशशक्ति बनाए रखा तो इस दैवी प्रकोप से बचा नहीं जा सकेगा और, मैं सोचती हूँ कि हम इसके लिए जिम्मेदार होंगे। हर कार्य करने के लिए या किसी भी बुराई से बचने के लिए आपको संस्थाएं बनाने की आवश्यकता नहीं है । उन्हें विश्वास दिलाने और सहजयोग में लाने की आपकी शक्ति से ही सब कार्य हो जाएगा। मुझे आशा है कि, गुरु के रूप में आप लोग समझेंगे कि आपने क्या करना है। गुरु के रूप में आपके सम्मुख बहुत सी चीज़ें हैं, उनमें आपका चरित्र भी है। कल इन्होंने मुझे बताया कि किस प्रकार लाओत्से ने गुरुओं के विषय में लिखा कि किस प्रकार वे सभी चीज़़ों से ऊपर थे-अशांति, ईष्ष्या तथा व्यर्थ की बातचीत से ऊपर वे अत्यन्त महान हैं। वे हैं और गुरु रहेंगे और आप लोग यदि ऐसा ही करने का प्रयत्न करेंगे तो गुरु लोग यह स्थिति प्राप्त आप भी गुरु होंगे। आपने यही प्राप्त करना है। मैं जानती हूँ कि आप लोगों में से कुछ कर चुके हैं परन्तु अधिकतर ने अपनी करुणा एवं प्रेम से उस स्थिति को प्राप्त करना है। परमात्मा आपको धन्य करे ! 29 २हसा२ स्वामिनी श रूणल कहा गया है कि सहस्रार पर जब देवी प्रगट होंगी तो वे महामाया होंगी। आज के विश्व में इसके अतिरिक्त किसी अन्य रूप में पृथ्वी पर आना क्या सम्भव है? किसी भी अन्य प्रकार का अवतार भयंकर कठिनाइयों में फँस जाता क्योंकि इस कलियुग में अहं पर सवार मानव ही सर्वोच्च है । वे बिल्कुल मूर्ख हैं और किसी भी दैवी व्यक्तित्व को सब प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं या हिंसा पर उतर सकते हैं। महामाया के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में विश्व में अस्तित्व को बनाए रखना असम्भव है। परन्तु इनके बहुत से पक्ष हैं और यह साधकों पर भी कार्य करती हैं। .एक पहलू द्वारा यह आपके सहस्रार को आच्छादित करके रखती हैं और साधक की परीक्षा होती है। यदि आप उल्टे-सीधे लोगों से, उल्टी सीधी वेशभूषा धारण करने वालों से जो झूठ-मूठ चीज़ें दिखाते हैं, जैसा कि बहुत से कुगुरुओं ने किया है, या घटिया किस्म के लोगों से आकर्षित हैं तो आपका यह आकर्षण भी महामाया के कारण है क्योंकि महामाया ही इस प्रकार व्यक्ति की परीक्षा लेती हैं। महामाया दर्पण की तरह से हैं। आप जो कुछ भी हैं अपनी असलियत को दर्पण में देखते हैं दर्पण की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। यदि आप बन्दर की तरह हैं तो शीशे में बन्दर की तरह लगेंगे। यदि आप रानी जैसी हैं तो रानी जैसी ही लगेंगी। आपको गलत विचार या झूठा दिखावा देने की न तो दर्पण में शक्ति है और न ही ऐसी भावना। | 30 सत्य, जो कुछ भी हो, को यह दर्शाएगा। अत: यह कहना कि महामाया भ्रमित करती हैं, एक प्रकार से अनुचित है। इसके विपरीत शीशे में आपको अपनी वास्तविकता दिखाई पड़ती है। मान लो कि आप क्रूर व्यक्ति हों तो शीशे में भी आपका चेहरा क्रूर ही दिखाई देगा। परन्तु जब महामाया गतिशील होती हैं तब समस्या खड़ी होती है। तब आप शीशे में अपनी सूरत नहीं देखते, आप अपना मुँह घुमा लेते हैं-न तो आप देखना चाहते हैं न जानना। दर्पण में जब आपको कुछ भयंकर दिखाई पड़ता है तो मुँह घुमाकर आप सत्य को नकारते हैं। 'मैं ऐसा किस प्रकार हो सकता हूँ? मैं बहुत अच्छा हूँ, मुझमें कोई कमी नहीं, कुछ भी नहीं, मैं पूर्णतया ठीक हूँ। महामाया का तीसरा पक्ष यह है कि एक बार फिर आप इसकी ओर आकर्षित होते हैं और फिर दर्पण को देखते हैं। शीशे में आप पूरे विश्व को देखते हैं, परिणामतः आप सोचने लगते हैं कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैं कौन हूँ? यह संसार क्या है? मैं कहाँ जन्मा हँ? आपकी खोज की यह शुरुआत है पर इससे आपको संतुष्टि नहीं होती। अंत: यह महामाया की महान सहायता है। पहली बार जब लोग मेरे पास आते हैं और यदि वे मुझे पानी पीता देख लें तो कहते हैं कि ये कैसे कोई अवतरण हो सकती है? इन्हें भी पानी की आवश्यकता पडती है और अगर वे मुझे कोका-कोला पीते देख लें तो कहेंगे - वाह! ये किस प्रकार कोका-कोला पी सकती हैं, इन्हें तो बस अमृत पीना चाहिए। महामाया का एक और पक्ष भी है । लोग मुझे मिलने आते हैं उनमें से कुछ काँपने लगते हैं। वे समझते हैं कि उनमें महान शक्ति है जिसके कारण वे हिल रहे हैं। अत: अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण उन्हें गलतफहमी हो जाती है कि वाह! हम वहाँ गए, हममें इतनी शक्ति आ गई, हम कुछ महान चीज़ हैं। ......परन्तु जब उन्हें पता चलता है कि इस प्रकार कांपने वाले लोग पागल हैं तो धीरे-धीरे वे अपेक्षाकृत रूप से चीज़ों को देखने लगते हैं। प्रासंगिक सूझ बूझ आप पर पड़े उस पर्दे को हटाने में सहायक होती है जिसके कारण आप सत्य का सामना नहीं करना चाहते। | महामाया अतिमहत्वपूर्ण हैं, उसके बिना आप मेरा सामना नहीं कर सकते , आप यहाँ बैठ नहीं सकते, मुझसे बात नहीं कर सकते। जिस गाड़ी में मैं बैठती हूँ, उसमें आप प्रवेश नहीं कर सकते और मेरी गाड़ी चला भी नहीं सकते। सभी कुछ असम्भव होता, मैं कहीं हवा में उड़ रही होती और आप सब यहाँ होते और सभी कुछ गड़बड़ होता। मेरा आपके सम्मुख होना आवश्यक नहीं। निराकार रूप में भी मैं यहाँ हो सकती हूँ, पर सम्पर्क कैसे बनाया जाए और सौहार्द्र किस प्रकार बने ? इसी कारण मुझे महामाया रूप में आना पड़ा ताकि न कोई भय हो, के न दूरी। समीप आकर एक दूसरे को समझ सकें क्योंकि यह ज्ञान यदि देना है तो लोगों को कम से कम महामाया सम्मुख बैठना तो पड़ेगा ही। यदि वे सब दौड़ जाएं तो सहस्रार पर इस अत्यन्त मानवीय व्यक्तित्व की सृष्टि करने का क्या लाभ? वे महामाया रूप में आयी हैं। सहस्रार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह न केवल सात चक्रों की बल्कि बहुत से अन्य चक्रों की भी पीठ है। सहस्रार पर आप कुछ भी कर सकते हैं . होती हैं और ऐसा ही होना चाहिए। उदाहरणार्थ आप कह सकते हैं कि श्री माताजी, वातावरण, पर्यावरण की समस्याओं से भरा हुआ है, आप इसे शुद्ध क्यों नहीं करतीं? यदि शुद्ध हो गया तो लोग समस्यायें ही बनाते रहेंगे। यह मानव की समस्या है और यदि मैं इसे ठीक कर देती हूँ तो वे इसे अपना अधिकार मान बैठेंगे। उन्हें इन समस्याओं का सामना करना होगा और अपनी आदतें बदलनी होंगी। उन्हें समझना होगा कि वे स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं परन्तु महामाया के माध्यम से चीजें सामान्य रूप से कार्यान्वित 31 अन्यथा यदि कोई अन्य व्यक्ति शुद्धिकरण के लिए होगा तो वे कभी भी परिवर्तित नहीं होंगे। ... उनकी समस्याओं को सुलझा देने से ही मेरा कार्य समाप्त नहीं हो जाता और न यह लक्ष्य है। मेरा लक्ष्य तो उन्हें समर्थ बनाने का है ताकि वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा सकें। आपको अपना डॉक्टर या अपना गुरु बनना होगा परन्तु महामाया के बिना आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वही जानती हैं कि स्वतन्त्र मानव के शुद्धिकरण और नियन्त्रण में किस सीमा तक जाना है। इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण स्वतन्त्रता सहजयोगियों की नहीं होती। उन्हें तो आत्मा की स्वतन्त्रता प्राप्त है, अत: उनकी समस्याओं को सुलझाना बिल्कुल ठीक है ताकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हो सकें। जो लोग बिना सोचे-समझे पूरे विश्व को हानि पहुँचाने जा रहे हैं उन्हें स्वतन्त्र बनाने का क्या लाभ है? उनके लिए आवश्यक है कि सहजयोग में आएं-इसी कारण यह महामाया स्वरूप है। यदि मैं, माँ मेरी, राधा या ऐसे ही किसी अन्य रूप में आई होती तो हो सकता है सभी लोग यहाँ होते और सुन्दर भजन गा रहे होते, पर ऐसा नहीं है। अब आपको परिपक्व होना है, कुछ बनाना है बनना और विकसित होना है और इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम आप सहजयोग में आएं तब आपको सहजयोग में विकसित होना होगा, नहीं तो महामाया लीला करती रहेंगी और आपको भ्रमित करती रहेंगी। सहस्रार विराट का क्षेत्र है, विराट विष्णु हैं जो राम बने फिर कृष्ण बनें। तो यह लीला है। उसकी लीला, नाटक है और नाटक को ठीक करने के लिए उसे महामाया रूप में होना होगा। बचाव के बहुत से मार्ग हैं। कभी-कभी लोग चीज़ों को सुगमता से खोज लेते हैं, उनमें से एक ......जो पहले कभी नहीं हुआ। मैं स्वयं .......आपको महामाया के विषय में समझाने के लिए परम चैतन्य महामाया को प्रगट करने का प्रयत्न कर रहा है। यह स्वयं की अभिव्यक्ति कर रहा है। मैंने तो परम चैतन्य को ऐसा कोई कार्य करने परम चैतन्य है। परम चैतन्य कार्य करता है, मेरे चित्र दिखाता है। आश्चर्यचकित हूँ। को नहीं कहा। परन्तु यह सत्य है क्योंकि यह सोचता है कि अब भी जो लोग श्री माताजी का अनुसरण कर रहे हैं उनका स्तर उतना ऊँचा नहीं जितना होना चाहिए था। .....(परम चैतन्य यह चाहता है कि) अपने विश्वास को आप दृढ़ कर लें, यह विश्वास अंधविश्वास नहीं है । सहजयोगी समझने का प्रयत्न करें कि उन्हें विकसित होना है। यह विकास भी द्विपक्षीय होना चाहिए । .....पहला आपका पक्ष है कि मैं कितना समय सहजयोग के विषय में सोचने पर लगाता हूँ और कितना अपने व्यक्तिगत जीवन पर ? सहजयोग में हमें परमात्मा की ओर झुकना पड़ेगा। ...आप देखें कि आपके सभी विचार सहजयोग की ओर जा रहे हैं, पूरी सोच ही सहज है। सहज में सबसे मनोरंजक बात यह है कि जो भी कार्य आप करते हैं उसे देखते हैं। सहज मार्ग के विषय में आप सोचते हैं । इस महामाया में आप मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं ? सहज के विषय सोचते हुए आप कहाँ तक जा सकते हैं? इस व्यापार से मैं कितना धन कमा सकता हूँ? में कितना आनन्द ले सकता हूँ? कितनी शारीरिक समस्यायें सुलझ सकती हैं? आदि सभी लाभ सहजयोग में आपकी परिपक्वता के सम्मुख कुछ भी नहीं। मस्तिष्क के हाथ में बागडोर आते ही यह अत्यन्त सोच में पड़ जाता है । तुम्हारी पत्नी, बच्चे, 32 घर आदि बहत सी चीज़ों पर यह मँडराया रहता है पर यदि आप सहज ढंग से सोचेंगे तो कहेंगे कि मुझे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे मेरे बच्चे सहज बनें। मुझे एक ऐसा घर चाहिए जो सहज के लिए उपयोग में आ सके। मेरा आचरण ऐसा हो जिससे लगे कि मैं सहजयोगी हूँ। आप में परिपक्वता इस प्रकार बढ़े कि आप इसे महसूस कर पायें । सर्वप्रथम शांति । अशांत व्यक्ति का मस्तिष्क अस्थिर यन्त्र के सम होता है। वह ठीकप्रकार से न तो देख सकता है, न सोच सकता है और न ही समझ सकता है| इस महामाया के माध्यम से हर चीज़ उलट-पुलट हो रही है। ........विश्व में जिस प्रकार संघर्ष चल रहा है यह युद्ध नहीं है, यह शीत युद्ध नहीं है यह तो एक अजीब किस्म का युद्ध-यश है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। .... परमात्मा तथा आध्यात्मिकता का व्यापार हो रहा है। आज के इस पतित विश्व के लिए महामाया का होना आवश्यक है जिसके द्वारा दर्शा सकें कि इस जीवन में आप जो कर रहे हैं उसके लिए आपको नाकों चने चबाने पड़ेंगे। भुगतान करने वाली देवी, आपने ऐसा किया, ठीक है आप ये ले लें। आपने यह कार्य किया ठीक है, आप इसका आनन्द लें। वास्तव में ये महामाया विशेष रूप से गतिशील हैं। जिस तरह से यह लोगों को दण्डित कर रही हैं, कभी- कभी तो मुझे भय प्रतीत होता है। पर वास्तविकता यही है। यदि आप कहें कि मुझे अन्धाधुन्ध गाड़ी चलानी अच्छी .इस महामाया को हम रोकड़ा देवी कहते हैं अर्थात हाथों हाथ फल देने वाली, नग़द लगती है तो ठीक है, समाप्त। लँगड़ाती टॉँग या टूटा हाथ आपका अंत है। महामाया के माध्यम से देवी कानून कार्यरत है। आज की तरह यह कभी इतना तेज न था। .मानव की स्वतन्त्र इच्छा पर अंकुश रखने के लिए महामाया अपनी स्वतन्त्र इच्छा का उपयोग कर रही हैं। ......यह कथित स्वतन्त्रता जिसका आनन्द लेने का हम प्रयत्न कर रहे हैं हमें हमारे अन्त तक ले आई है। लोग अपने ही शिकंजे में फँस रहे हैं। यह शिकंजा ही महामाया है। आपसे ही वे इसकी रचना करती हैं क्योंकि आप अपना सामना नहीं करना चाहते, सत्य को जानना नहीं चाहते, सत्य से आप जी चुराना चाहते हैं। यह महामाया का ही एक पक्ष है कि तुरन्त आप अपना सामना करने को विवश हो जाते हैं।........ कितनी सारी घटनायें घटीं इनका विचार कीजिए । बड़े-बड़े पूँजीपति जेल में हैं । बड़े प्रसिद्ध लोग जेल में हैं । इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं क्यों? क्योंकि यह महामाया सबक देना चाहती हैं। एक व्यक्ति को दण्डित करने से यह हज़ारों लोगों को रास्ते पर ले आती हैं। इतना डरा हुआ विश्व है, इतनी असुरक्षा है। ......आज हर व्यक्ति व्यग्र है और अपना जीवन बचाने की सोच रहा है।......आप सहजयोग में आ जाएं तो आप कष्ट से बच सकते हैं क्योंकि महामाया का एक पक्ष यह है कि वे रक्षा करती हैं। जब तक स्वयं न चाहे कोई सहजयोगी को मार नहीं सकता। उनकी अपनी इच्छा है, उन्हें कोई छू नहीं सकता। किस प्रकार यह महामाया सहजयोगियों की रक्षा करती हैं इसकी बहुत सी कहानियाँ हैं। स्वप्न में भी वे यह चेतन मस्तिष्क है परन्तु अत्यन्त गहन सुषुप्ति की अवस्था में आप जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत ? किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत। रक्षा करती हैं।.. किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं। यही ज्ञान अन्तज्ञ्ञान है जो कि महामाया के माध्यम से आता है। केवल वे ही आपको अन्तर्ज्ञान देती हैं कि क्या करना आवश्यक है? किस प्रकार समस्या से छुटकारा पाना है? और आप 33 छुटकारा पा लेते हैं। कोई यदि सहजयोगियों को परेशान करने का प्रयत्न करता है तो महामाया एक सीमा तक उसे ऐसा करने देती हैं और फिर अचानक गतिशील हो उठती हैं। लोग आश्चर्यचकित हो उठते हैं, सहजयोगी हैरान हो जाते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा किस प्रकार बन गया ? यह महामाया मेरी साड़ी की तरह हैं और रक्षा कर रही हैं। वह अत्यन्त सुन्दर, दयालु, ध्यान रखने वाली, करुणामय, स्नेहमय तथा कोमल हैं। वह आपकी देख-रेख करती हैं और राक्षस तथा असुर प्रवृत्ति के लोगों, जो परमात्मा के कार्य को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं, पर क्रुद्ध होकर उनका संहार करती हैं । .महामाया का एक अन्य पक्ष यह है कि वे आपको परिवर्तित करती हैं। मानव के लिए सभी कुछ मस्तिष्क है। आप यदि कुटिल हैं तो कुटिल हैं। आप यदि दूसरों से घृणा करते हैं तो यह भी मस्तिष्क में है। आपको यदि कोई व्यसन है तो वह भी मस्तिष्क में है। मस्तिष्क के बन्धन अतिजटिल हैं। अत: नि:सन्देह सहस्रार अत्यन्त महत्वपूर्ण है परन्तु विराट तथा विराटांगना की शक्ति तभी प्रभावशाली हो सकती है जब महामाया का शासन हो और वे अपने मधुर तरीकों से सहस्त्रार को खोलें और आपको कुरूप, भयंकर तथा क्रोधी बनाने वाले सभी बन्धनों का निवारण करें। .महामाया पृथ्वी माँ की तरह हैं, यह सभी कुछ मिलने पर आपको वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न तथा आनन्दमय बना देती हैं ताकि आप 'निरानन्द' 'केवल आनन्द' का रसपान कर सकें। आनन्द के सिवाय कुछ भी नहीं-यही सहस्रार है परन्तु यह तभी सम्भव है जब आपका ब्रह्मरंध्र खुल जाए। उसके बिना आप परमात्मा के प्रेम की सूक्ष्मता में और सदा संग रहने वाली महामाया की करुणा में प्रवेश नहीं कर सकते। बाह्य रूप से मैंने बता दिया कि महामाया कैसी हैं परन्तु अन्दर से आप इन्हें तभी जान सकते हैं जब अपने ब्रह्मरंध्र से इसमें प्रवेश करें। तब सर्वव्यापक शक्ति की अवतरण यह महामाया एक प्रकार से बिल्कुल भिन्न हो जाती हैं । वे एक ओर तो आपको सबक सिखाने का प्रयत्न करती हैं, विनाशकारी शक्तियों को समाप्त करती हैं और दूसरी ओर आपको प्रेम करती हैं, कोमलतापूर्वक आपकी रक्षा करती हैं और मार्गदर्शन करती हैं। उसका प्रेम निर्वाज्य है। वे प्रेम करती हैं क्योंकि इसके बिना उनसे नहीं रहा जाता, तो उस प्रेम में आप सराबोर हैं और आनन्द ले रहे हैं। हर व्यक्ति जानता है कि वह उनके बहुत करीब है , बिल्कुल करीब, जहाँ भी वो हों और जब भी वो चाहें उनसे सहायता माँग सकते हैं। सहस्रार अति महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल इसी के माध्यम से हम प्रतिक्रिया करते हैं। जिस विश्व में हम रह रहे हैं यहाँ हमें अब उन कमलों की तरह होना है जिन पर दाग़ नहीं लगाया जा सकता और प्रचलित कोई बुराई जिन्हें प्रभावित नहीं कर सकती। यही परीक्षा है कि इस कठिन समय पर हम खिल सकें और सुगन्ध फैला कर बहुत से अन्य लोगों को इस सुन्दर वातावरण में ला सकें। प.पू.श्री माताजी, ८. ५.१९९४ 34 तलनन २ ১६. ...रइट डडेड लोगों को भक्ति-भाव से मूड़े अपने हृढय में बैठानी चाहिये अरथात बाई औ२को आनी चाहिए। आपका चित्त पहले भक्ति भाव में आनी चाहिये और फिर२ भक्ति भाव से श्रद्धा भाव में चला जीनी आविश्यक है। ...... मंत्र बोलते समय चिंत्त मध्य चंक्रों पर२२खें। महाकाली और महास२स्वती दोनों औ२से मध्य नाड़ी प२ ही कार्य करती हैं औ२ इस प्रकार अंत: संबंधित होती हैं। डॉ.तलवा२ से वाती प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in १ रा ।ां ० हमारे उत्थान मा्ग में सत स६षम ऊर्जी चक्र हैं। कुछ सहायक चंक्र भी हैं। हमारी विकास प्रक्रिया के दौरान इन सूक्ष्म चक्रों हुआ। शरी२ के बाँये हिससे में ये चक्र हमें सृजन भावनीत्मक पौषण प्रदान करते हैं और ढायें हिस्से प२ का शारीरिक एवं मानसिक पोषण । - प. पू. ्री माताजी, परा आधुनिक युग ास ाम ---------------------- 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-0.txt चेतन्य लहरी हिन्दी मई-जून २०१२ ा 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-1.txt भर का ला ता फिंगली नाड़ी प२ श्री हनुमान जी की शक्ति का्यान्वित होती है। जिस समय अपनी पिंगला नाड़ी पर अवरोध नि्माण होती है उस २मय श्री हनुमान जी के मंत्र से तुरन्त अन्तर२ पड़ती है। सेंट मारयकल का मंत्र लेने से भी पिंगली नाडी में अनत२ आएगी। प.पू.श्री मातीजी, बंबई, २७.९.१९७९ ड 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-2.txt इस अंक में २हजयोग में आप विनम्र हो जाते हैं...४ आप क्या हैं! ...१८ २ह२ सवामिनी ...३० 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-3.txt तौस वर्ष पूर्व जब सहस्रार खोला गया तो मुझे चहुँ ओर अंधेरा दिखाई दिया। लोग अत्यन्त अज्ञानी थे। उन्हें क्या खोजना है इस बात की बिल्कुल भी चेतना न थी। नि:सन्देह मुझे लगा कि वे किसी अज्ञात चौज़ को पाना चाहते थे। परन्तु ये नहीं जानते थे कि वह अज्ञात तत्व क्या है जिसे उन्हें खोजना है। कबेला, इटली, कजी ७.५.२००० 4 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-4.txt सहजयोग में आप विनम्र हो जाते हैं आज सहजयोग में आप विनम्र होते हैं और प्रतिक्रिया नहीं करते। तीस वर्ष पूर्व जब सहस्रार खोला गया तो मुझे चहूँ ओर अंधेरा दिखाई दिया। लोग अत्यन्त अज्ञानी थे। उन्हें क्या खोजना है इस बात की बिल्कुल भी चेतना न थी। नि:सन्देह मुझे लगा कि वे किसी अज्ञात चीज़ को पाना चाहते थे । परन्तु वे नहीं जानते थे कि वह अज्ञात तत्व क्या है जिसे उन्हें खोजना है । अपने विषय में, अपने वातावरण के विषय में और जीवन के लक्ष्य के विषय में वे कुछ नहीं जानते थे। मेरे समझ में नहीं आता था कि किस प्रकार उस विषय को आरम्भ किया जाए। सहस्रार खोलने के बाद मैंने केवल एक महिला पर आत्मसाक्षात्कार का प्रयोग करना चाहा। वह एक वृद्ध महिला थी। उनके साथ एक अन्य महिला भी आने लगी। इस महिला को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया और तत्पश्चात् एक अन्य महिला, जो कि आयु में बहुत छोटी थी, ने मुझे बताया कि उसे दौरे पड़ते हैं और वह भूत बाधित हो जाती है। हे परमात्मा! मैंने कहा, 'किस प्रकार मैं इसकी जागृति करूंगी। ' परन्तु वह भी शीघ्र ही ठीक हो गई और उसे भी आत्मसाक्षात्कार मिल गया। यह अत्यन्त अज्ञात ज्ञान है। परन्तु मानव अपने अहंकार में यह स्वीकार करने के लिए नहीं रुकता कि वह अभी अपूर्ण है और उसे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। उनकी जीवन शैली भी ऐसी है कि उनके पास अपने लिए समय नहीं है । आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति के लिए लोगों को समझाना मुझे बहुत कठिन लगा क्योंकि आत्मसाक्षात्कार को वे कल्पना मात्र मानते थे। वे समझते थे कि यह बहुत दूर की बात है और गुरुओं में विश्वास करते थे जो उनसे सीधे से कहें, 'इतने कर्मकाण्ड प्रतिदिन करो।' अपने गुरुओं की देख-रेख में वे ये सभी कर्मकाण्ड कर रहे थे, उन्हें इस बात का भी ज्ञान न था कि सर्वप्रथम आपको स्वयं को जानना होगा जैसा कि सभी महान अवतरणों और सन्तों ने कहा है। यह केवल मेरी ही धारणा न थी कि लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें, इन सब लोगों का भी यही विचार था। सदियों तक एक के बाद एक सन्त तथा अवतरण ने कहा कि स्वयं को पहचानो, मोहम्मद 5 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-5.txt साहब ने भी वही बात कही और नानक साहब ने भी। परन्तु किसी मनुष्य ने भी यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि यह कर्मकाण्ड जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है, इससे कुछ प्राप्त न होगा तथा व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना ही होगा। तो केवल उन दोनों महिलाओं ने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। इसके पश्चात् मैंने सोचा कि समुद्र तट पर चलें। तीस लोग मेरे साथ आए और वो भी बड़े ही अटपटे ढंग से बातचीत कर रहे थे कि किस प्रकार उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो सकता है? वे तो इसके अधिकारी भी नहीं हैं। इतने भले तो वे कभी भी न थे । सभी प्रकार की बातें कर रहे थे। अपनी भर्तस्सना कर रहे थे। में परन्तु उस समूह से भी मुझे बारह लोग ऐसे मिल गए जिन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ। वो दो महिलाएं भी इन्हीं में से थीं। इससे पता चलता है कि स्वयं को पहचानने की गति कम होती है बहुत क्योंकि लोग यही नहीं समझते कि क्यों वे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करें। मुझे अत्यन्त निराशा हुई क्योंकि मेरी बात कोई समझता ही न था। एक दिन ऐसा हुआ कि मेरे कार्यक्रम में एक महिला आई। वह भूत बाधित थी और उसने संस्कृत बोलनी शुरु कर दी। वह मात्र नौकरानी थी। सभी लोग हैरान हो गए, परन्तु वह कहने लगी कि, 'तुम नहीं जानते ये कौन हैं ?' और तब उसने सौन्दर्य लहरी, के अनुरूप मेरा वर्णन करना आरम्भ कर दिया। मैं भी हैरान थी कि इस महिला को क्या हुआ! पुरुष की आवाज में वह बोल रही थी। लोग इस बात पर विश्वास करें या न करें परन्तु वह भयानक भूत बाधित थी। तब लोग मेरे पास आए और पूछने लगे कि जो यह महिला कह रही है क्या यह सत्य है?' मैंने कहा आप स्वयं इसका पता लगाओ। उन दिनों लोग ऐसे होते थे कि उनसे अगर इस प्रकार की कोई बात कह दी जाए तो वो अपना मुँह मोड़ लेते थे। वे केवल ऐसे कुगुरुओं से ही प्रसन्न रहते थे जो उनसे पैसे ऐंठता रहे। वो सोचते थे कि गुरु को तो अब हमने खरीद ही लिया अब किस बात की चिन्ता है। तुम्हें कुछ नहीं करना। तो इस प्रकार शनै: शनै: यह कार्य कार्यान्वित होने लगा और मुझे याद है कि जिन लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ वे मुझसे कहने लगे, 'श्रीमाताजी, आप हमें दुर्गा पूजा करने की आज्ञा दें। दुर्गा पूजा को बहुत कठिन पूजा माना जाता था और ब्राह्मण को करने के लिए तैयार न होते थे क्योंकि वे आत्मसाक्षात्कारी न थे। लोग प्राय: इस पूजा दुर्गा पूजा कराने वाले पण्डितों को मूर्छ्छा आदि की समस्या हो जाया करती थी। तो उन ने सात ब्राह्मण बुलवाए और उनसे कहा कि तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता करने की लोगों आवश्यकता नहीं। तुम्हें कुछ नहीं होगा क्योंकि आप साकार दुर्गा के सम्मुख बैठे हुए हो। ये कोई मूर्ति नहीं है। यह साकार की पूजा है। वे काफी घबरा गए थे और स्थान से उतरना चाह रहे थे। अचानक उनके अन्दर कुछ हुआ और बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उन्होंने मन्त्र आदि का उच्चारण प्रारम्भ कर दिया। चहूँ ओर चैतन्य लहरियाँ फैल गई। हम लोग समुद्र के 6. 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-6.txt बहुत नज़दीक थे और समुद्र भी दहाड़ रहा था। परन्तु इन सात पण्डितों के अतिरिक्त किसी को कुछ समझ नहीं आया। ये कहने लगे हमें कुछ नहीं हुआ, हमने सभी कुछ भली भाँति किया है। मेरे विचार से यह घटना प्रथम चमत्कार ही थी। मानव मस्तिष्क की इस स्तर पर और ऐसे समय में स्थिति देखो। वह स्वयं को बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हैं और अपना कोई अन्त उन्हें दिखाई नहीं देता। उन पण्डितों ने भी यही समझा कि वे बहुत महान हैं। स्वयं को समझने के लिए क्या है? हम स्वयं को पहचानते हैं। तो विनम्रता साधना की प्रथम आवश्यकता है। आप यदि सोचते हैं कि आप सब कुछ जानते हैं तो आप विनम्र नहीं हो सकते और न ही कुछ प्राप्त कर सकते हैं। साधना करते हुए भी ऐसा व्यक्ति किसी के बताए हुए मार्ग पर नहीं चल सकता और कहता है कि मैं अपने ही मार्ग पर चलूंगा। हमारा अपना ही एक मार्ग है जिसके अनुसार हम चलेंगे। जो भी हम चाहते हैं करते हैं। भिन्न देशों में भिन्न प्रकार के लोगों से मेरा पाला पड़ा जो केवल मेरा भाषण सुनने के लिए आते हैं। बस, | समाप्त। वो आत्मसाक्षात्कार भी न लेंगे। उनमें से कुछ ने आत्मसाक्षात्कार लिया भी परन्तु पाकर भी इसे खो दिया। मेरे लिए यह अत्यन्त अजीब कहानी थी कि मैं उन्हें आत्मसाक्षात्कार दे रही हूँ। बेकार ही मैं ऐसे लोगों को साथ ले चल रही हूँ। अपने खर्चे से मैं यात्रा किया करती थी। इसके बावजूद भी क्यों नहीं ये लोग आत्मसाक्षात्कार का मूल्य समझते? तब एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति ने मुझे बताया कि आज का समाज उपभोक्ता समाज है। जब तक आप इनसे पैसा नहीं लेगे, इन्हें इसका मूल्य समझ नहीं आएगा। उन्हें महसूस करवाएं कि उन्होंने अपने आत्मसाक्षात्कार के लिए धन खर्च किया है। दरवाजे पर ही किसी व्यक्ति को पैसा लेने के लिए बिठा दें अन्यथा ये लोग आत्मसाक्षात्कार नहीं लेंगे। मैंने कहा, 'परन्तु इसे बेचा नहीं जा सकता, ऐसा करना तो अनुचित होगा। लागों को आत्मसाक्षात्कार बेचा नहीं जा सकता। कहने लगा, 'तब आप सफल नहीं हो सकतीं और न ही अन्य गुरुओं से मुकाबला कर सकती हैं ।' अन्य गुरुओं की विशेषता ये है कि वे धन स्वीकार करते हैं और लोगों से कहते हैं कि इतना पैसा लेकर आओ, ऐसा करो, ये फीस है। इस प्रकार लोगों का अहं शान्त होता है और वे असत्य को स्वीकार कर लेते हैं। इस असत्य का अहसास बाद में उन्हें हो जाएगा क्योंकि इसके कारण उन्हें बहत सी शारीरिक और मानसिक समस्याएं हो जाएंगी परन्तु तब तक वे पतन के कगार पर होंगे। 7 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-7.txt सहस्रार का वर्णन किसी भी धर्म ग्रन्थ में नहीं किया गया यद्यपि इसके विषय में भारतीय प्राचीन पुस्तकों में बताया गया है। सहस्रार की बातचीत तो की परन्तु किसी ने इसका वर्णन नहीं किया। केवल इतना बताया कि इसकी एक हजार पंखुड़ियाँ होती हैं। यदि उन्होंने इसका थोड़ासा वर्णन किया होता तो मेरे लिए लोगों को ये समझाना सुगम हो गया होता कि इस ग्रन्थ में ऐसा लिखा है। लोग इस बात को पसन्द करते हैं कि हर बात किसी ग्रन्थ में लिखी होनी चाहिए । तभी वो इसे स्वीकार करते हैं । स्थिति काफी कठिन इस थी क्योंकि किसी ने भी आज तक सामूहिक आत्मसाक्षात्कार न दिया था। एक दो लोगों के अतिरिक्त किसी ने भी इसके विषय में नहीं लिखा और इन लेखकों ने कुण्डलिनी के विषय में स्पष्ट लिखा। परन्तु मेरे विचार से पद् (कविता) में लिखा होने के कारण यह भी समय लोगों स्पष्ट न था। लोग इसके विषय में भजन गाते परन्तु समझते कुछ भी नहीं। मैं सोचती कि साधना में यहाँ-वहाँ भटके इन लोगों का क्या होगा और किस प्रकार मैं इन्हें को मैं आत्मसाक्षात्कार दे पाऊंगी? मेरे अनुभव बहुत ही कष्टकर थे। परन्तु कोई बात नहीं। निर्णय आगे बढ़ती गई, बढ़ती गई और इसे कार्यान्वित किया । नि :सन्देह बहुत से क्रूर और अप्रिय लोगों का सामना मुझे करना पड़ा जिन्होंने मुझे भी बहुत कष्ट पहुँचाया और सहजयोगियों को भी। ये सारी चीज़ें मेरे उत्साह को दुर्बल कर सकती थीं परन्तु इसके करना विपरीत मैंने सोचना आरम्भ कर दिया कि लोग ऐसे क्यों हैं? और तब मुझे महसूस हुआ होगा कि पूरे विश्व को तो हम आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। यह अन्तिम निर्णय है। इस कि समय लोगों को निर्णय करना होगा कि सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? उन्हें स्वयं को पहचानना होगा कि वे क्या कर रहे हैं? लम्बी सी 'नहीं कर देने से बात नहीं बनेगी । सबसे केवल सहजयोगी ही इस कार्य में सहायता कर सकते हैं। तब मैंने देखा कि लाइलाज दृढ़ रोगों से मुक्त हुए लोग भी गायब हो गए। नशे, शराब और धूम्रपान के आदी लोगों ने ये महत्वपूर्ण चौज़ सब छोड़ दिया। मैंने कभी भी कुछ छोड़ने के लिए नहीं कहा। मैं जानती हूँ कि जब कुण्डलिनी उठती है तो वे स्वत: ही लोग बहुत शुद्ध और सुन्दर बन जाते हैं और अपने जीवन का आनन्द लेने लगते हैं। परन्तु उन पर कोई विश्वास ही नहीं करता था। वो लोग क्या है? जाकर जब अन्य लोगों से बताते तो वे कहते ये पागल हो गए हैं। लोगों की समझ में न आता कि किस प्रकार उन्होंने शराब पीनी छोड़ दी, किस प्रकार धूम्रपान त्याग दिया ? जब हम पीना चाहते हैं तो ये जागृति क्या है? ऐसे लोगों की पहचान करने पर मैंने जाना कि ये लोग अत्यन्त घटिया चीज़ों का आनन्द लेने वाले थे । ऐसा आनन्द जिसका आत्मा से कोई लेना देना नहीं। परन्तु शनै: शनै: ये कार्यान्वित होने लगा। फिर भी मैं कहूँगी कि इस घोर कलियुग में हम ये आशा नहीं कर सकते कि खरबों की संख्या में लोग सहजयोग 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-8.txt ि करें। यद्यपि ये मेरी भी कामना है आरै आप लोगों की भी और आप चाहते हैं कि सभी लोग आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करें जिससे बहुत सी अच्छी चीज़ें घटित हों। बहुत से लोग रोग मुक्त हुए। ईसामसीह ने केवल २१ लोगों को ही स्वस्थ किया था । मैं नहीं जानती कि कितने हजारों लोग सहजयोग से ठीक हुए हैं? मनुष्य के साथ एक अन्य समस्या भी है कि वे सभी प्रकार की उल्टी-सीधी पुस्तकें पढते हैं। उनके विचार स्पष्ट नहीं हैं कि वे क्या खोजें । वे नहीं जानते कि उनकी खोज क्या है। ये बहुत बड़ी समस्या है। और जो भी कहीं कुछ उपलब्ध है वे उसका अनुसरण करने लगते हैं। ये अस्थिर प्रवृत्ति लोग हैं, एक मार्ग से दूसरा मार्ग ये अपनाते रहते हैं और सहजयोग में इनकी उन्नति बहुत कठिन है। क्योंकि एक मार्ग पर चलते-चलते लेते हैं तो हो सकता है वहीं पहुँच जाएं जहाँ से चले थे वे सोचते हैं उन्हें ऐसा यदि आप दूसरा मार्ग पकड़ करने की स्वतन्त्रता है। वास्तव में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किए बिना आपको कोई भी स्वतन्त्रता नहीं है। स्वतन्त्रता वह होती है जिसमें आप जानते हों कि आप क्या हैं और आपमें क्या योग्यता है। स्वतन्त्रता में आप ही सारे आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। आशीर्वाद यदि नहीं मिलते तो आप स्वतन्त्र नहीं हैं। आपके जीवन में 9. 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-9.txt कहीं न कहीं कुछ कमी है। एक बार आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लेने के पश्चात् आप पूर्णत: स्वतन्त्र मानव बन जाते हैं। स्वतन्त्र, माने आपकी आत्मा आपका पथ प्रदर्शन करती है। जैसा आप जानते हैं आत्मा परमेश्वर का, सर्वशक्तिमान परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। सभी लोगों में यदि एक ही सा प्रतिबिम्ब है और यदि | सभी लोग जागृत हैं तो चेतना में ये कार्य करता है। मानो ये जानते हों कि ठीक क्या है, गलत क्या है? सृजनात्मक क्या है और विध्वंसक क्या है? ये कोई झूठा संतोष नहीं है। वास्तविकता है। वास्तविकता को आप अनुभव करते हैं और यही घटित होना होता है। अनुभव सहजयोग में पहली चीज़़ है । अनुभव जो आप अपने अन्दर करते हैं-स्पन्द, अपनी अंगुलियों के सिरों पर शीतल लहरियों का अनुभव। अनुभव के बिना आपको इसका विश्वास नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ ये है कि अब आपके नाड़ी तन्त्र पर एक नया आयाम आ गया है कि अब आप एक नई प्रणाली को महसूस कर सकते हैं जो अब तक आप नहीं जानते थे। अनुकम्पी नाड़ी तन्त्र तो पहले से था परन्तु इसकी कार्यशैली का ज्ञान आपको न था। आपका आत्मज्ञान अत्यन्त दुर्बल था। परन्तु आत्मासाक्षात्कार के बाद अचानक हर चीज़ ज्योतिर्मय हो उठी। अचानक आपको है अपने अन्दर एक नयापन महसूस होने लगता है परन्तु अब भी कभी-कभी आपको अहं से लड़ना पड़ता और चीज़ो के विषय में अपनी अज्ञानता पर नियंत्रण करना पड़ता है क्योंकि आत्मसाक्षात्कार आपको पूर्ण ज्ञान देता है। पूर्ण ज्ञान। इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके संकेतों को जाँचा जा सकता है और पता लगाया जा सकता है कि ये ठीक है कि गलत है। ये घटना आप सबके साथ घटित हो चुकी है और आप सब वो चैतन्य लहरियाँ पा चुके हैं जिनसे आप चीज़ों को महसूस कर सकें। उदाहरण के रूप में हो सकता है सहजयोग में कुछ असन्तुष्ट लोग हों। परन्तु इसके विषय में आप चैतन्य लहरियों के माध्यम से पता लगा सकते हैं। ये कौन लोग हैं? ये क्या कर रहे हैं? चैतन्य लहरियों द्वारा आप | जान सकते हैं कि उनमें से कौन लोग सत्य की उस अवस्था तक पहुँचे हैं। आप समझ सकते हैं कि आपका विरोध करने वाले ये लोग आपको क्या बताने का प्रयत्न कर रहे हैं और इनकी गहनता कितनी है । अपनी अंगुलियों के सिरों पर आप इसे जान सकते हैं। यही कयामा है, जिसके विषय में मोहम्मद साहब ने बताया। मैं आपको अपना उस दिन का अनुभव बताऊंगी। एक व्यक्ति आया और स्वयं को दूरदर्शन का अधिकारी बताकर मुझसे उल्टे सीधे सवाल करने लगा, जिनका कोई सिर पैर ही न था। उसका नाम अब्बास था। मैंने उससे कहा, 'अब्बास मियाँ आप अपना और मेरा दोनों का समय बर्बाद कर रहे हैं। क्या आप सही प्रश्न पूछेंगे?' कहने लगा, 'मैं सारी धर्मान्धता के विरूद्ध हूँ।' मैंने कहा, 'मैं तो धर्मान्ध नहीं हूँ। आप कैसे जानते हैं, मैं धर्मान्ध हूँ या नहीं?' कहने लगा, 'मैं ये जानने का प्रयत्न कर रहा हूँ।' 'ठीक है।' मैंने कहा, 'आप अपने दोनों हाथों को मेरी तरफ करें।' मोहम्मद साहब ने कहा है कियामा के वक्त आपके हाथ बोलेंगे और आप हैरान हो जाएंगे। तुरन्त उसके दोनों हाथों में शीतल लहरियाँ महसूस होने लगी। कहने लगा,' कि ये क्या है?' मैंने कहा, 'यही वास्तविकता है।' वाद विवाद करने का या इसके विषय में बातचीत करने का तथा पूछताछ करने का कोई लाभ नहीं। स्वयं इसे देखो, इसका अनुभव करो। वह स्तब्ध था और इसके पश्चात् जो भी बातें 10 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-10.txt उसने मुझसे पहले की थीं वो उसने नहीं छापीं। मेरा कहने का अभिप्राय ये है कि लोग यदि सत्य तक पहुँच जाएं, सत्य को जान जाएं तो कुछ भी न बिगड़ेगा। महान लोगों के जीवन में, आप देखते हैं, कि केवल पुस्तकों में पढ़कर या अन्धविश्वास द्वारा वे सत्य को स्वीकार नहीं करते। परन्तु अपने मध्य नाड़ी तन्त्र पर वे सत्य का अनुभव करते और तब कोई उन्हें परिवर्तित नहीं कर सकता। बीज तो बीज है। यह जब पेड़ बन जाता है तो कोई भी इसे अपनी पूर्व स्थिति में नहीं ला सकता। इसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करके जब आप परमात्मा से एकरूप हो जाते हैं तो आपके पतन का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। बड़ी ही प्रशंसनीय बात है कि किस प्रकार आपने अपनी योग्यता को पहचाना और फिर भी आप इसका उपयोग नहीं करते ? नि:संदेह इसके लिए आपको ध्यान धारणा करनी होगी। जब आप ध्यान धारणा में उतर जाते हैं तो आपका अस्तित्व ज्योतिर्मय होकर इतना सुन्दर हो जाता है कि फिर आप उसे बदलना नहीं चाहते। उसी स्थिति में रहकर आप | सदैव उसका आनन्द लेते हैं। आप ये आनन्द अन्य लोगों में भी बाँटना चाहते हैं क्योंकि आपको लगता है कि आप जब ये आनन्द उठा रहे हैं तो क्यों न अन्य लोग भी इसे पा लें। वैसे ही जैसे आपके पास पर्याप्त भोजन हो और सड़क पर कोई भूखा आपको दिखाई दे जाए तो आप वह खाना उस भूखे व्यक्ति को देना चाहेंगे। इस विश्व में भी आप लोगों को पागलों की तरह से परमात्मा की खोज में इधर-उधर दौड़ते हुए पाते हैं। आप देखते हैं कि वे सभी प्रकार के कर्मकाण्ड कर रहे हैं और आप उन्हें बताना चाहते हैं कि वे इन सब चीज़ों पर विश्वास करें या न करें। हो सकता है कि वे इस बात से पूरी तरह इन्कार करें, इसका विरोध करें या इसके विषय में कुछ न जान सकें। परंतु आप निश्चित रूप से जानते हैं कि आप ठीक मार्ग पर हैं और आपकी मन:स्थिति बिल्कुल ठीक अवस्था में है। संस्कृत में इसे सहजावस्था कहते हैं। सहजावस्था में आप प्रतिक्रिया नहीं करते, केवल देखते हैं और आनन्द उठाते हैं। अब आप देखें कि मैं आई और देखा कि सहस्रार और सभी चक्रों का कितना सुन्दर रूप बनाया गया है। इन्हें इतने सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। कोई अन्य व्यक्ति होता तो कहता, 'ओहो !' रंगों का सम्मिश्रण ठीक नहीं है। क्यों? इनको इन्होंने क्यों उपयोग किया? इसकी जगह इन्होंने कोई और रंग क्यों नहीं लगाए? इस प्रकार से दूसरों में दोष ढूंढते हैं। दूसरों में दोष ढूँढना उस मस्तिष्क की देन होता है जो अभी तक ज्योतित नहीं हुआ। प्रतिक्रिया के संस्कार के कारण आप किसी चीज़ का आनन्द नहीं ले सकते। सदैव प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। कोई यदि अच्छी बात बताए तो भी आप प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। बुरी बात पर तो आप प्रतिक्रिया करते ही हैं। अत: हमें समझ लेना चाहिए कि हमें प्रतिक्रिया करने की स्वतन्त्रता नहीं है । हम इतने हल्के नहीं हैं कि प्रतिक्रिया करें। बहुत उंचे स्थान पर हम बैठे हैं। केवल आनन्द उठाना ही हमारा कार्य है। हर चीज़ का आनन्द उठाएं क्योंकि वह हुए आनन्द परमात्मा का आशीर्वाद है। जीवन के उथल पुथल और कष्टों का भी आप आनन्द उठा सकते हैं। यदि आप यह बात अच्छी तरह जान लें कि आपकी आत्मा को कुछ भी हानि नहीं हो सकती, क्योंकि यही सच्ची ज्योति है, तो आप हर चीज़ का आनन्द उठा सकते हैं। जो भी तकलीफें आपको हों, चाहे जो भी चीज़ आपको कष्ट दे रही हो परन्तु आत्मा का मौन प्रकाश आपको वास्तव में पूर्णतया आनन्दमय बनाता है और 11 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-11.txt अन्य लोगों को भी आनन्द प्रदान करता है। न तो आप इसकी रूपरेखा बनाते हैं न योजना कि किस प्रकार आनन्द लिया जाए, यह तो स्वत: ही आनन्द प्रदान करता है। आनन्द देने की यह क्रिया बिना किसी प्रयत्न के स्वत: और सहज है क्योंकि आप में है। सहजावस्था में आप चीज़ों को केवल देखते भर हैं। आपको लगता सहजावस्था है कि ये तो मात्र एक नाटक है। जिसकी भिन्न शैलियाँ हैं, भिन्न प्रकार हैं। साक्षी रूप में आप इसे देखते भर हैं और इसका आनन्द उठाते हैं। ऐसा कहना आवश्यक नहीं है कि भात्म- मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है, बिल्कुल नहीं। यह 'मैं' जो पसन्द करता है वह अहं साक्षात्कारी ट्यक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यह आपको उस आनन्द से, जो वास्तविकता है, जो सत्य है, दूर रखता है। दूसरे कोण से यदि आप देखें, सहजस्थिति से, तो आपको कष्ट महसूस ही न होंगे। परन्तु इसके लिए आपके अन्दर उच्च मापदण्ड बनने आवश्यक हैं। उस दिन मेरी भेंट कुछ सरकारी अधिकारियों से हुई मैंने उन्हें बताया कि मैं जानती हूँ जो भी कि वेतन बहुत कम है। आप सोच सकते हैं कि अन्य लोगों को अधिक वेतन बहुत मिलता है और बहुत अधिक सुविधाएं। परन्तु एक तरह से आपको वास्तव में आनन्द कुछ प्राप्त हो सकता है, अपने कार्य से। अपने देश के लिए यदि आपमें भक्ति है तो कोई भी सृजन बलिदान आपके लिए अधिक न होगा। किसी को यदि आप कुछ देना चाहते हैं तो कोई भी कष्ट, कष्ट न मानते हुए आप किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। ऐसा करने से आपकी करता भावनाएं बहुत गहन हो जाती हैं। मान लो आप यात्रा कर रहे हैं और अचानक कोई सहयात्री बहुत बीमार हो जाता है। चैतन्य लहरियों द्वारा आप महसूस कर सकते हैं कि यह व्यक्ति बीमार है। तुरन्त उसके प्रति सहानुभूति और प्रेम उमड़ पड़ता है और आप है वह तुरन्त उसकी सहायता को तत्पर हो उठते हैं। और सम्भव हो तो आप उसे ठीक करने का प्रयत्न भी करते हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि समुद्र सारी नदियों को और सभी शाश्वत प्रकार के जल का अपने पेट में समाह लेता है। सभी कुछ अपने में समा लेता है, न तो ये किसी को कष्ट देता है न दुख। यह प्रेम से किसी को वश में करने वाली बात है। होता समुद्र अपनी शक्ति नहीं दर्शाता, अपने महत्व की चिन्ता नहीं करता। कोई यदि आपका है। अपमान करता है तो ठीक है, अपमान को भी सहन कर लें। ऐसे व्यक्ति जो सहजावस्था से के को प्राप्त हो चुके हैं शाश्वत कला, संगीत तथा महान विचारों सृष्टा होते हैं। बहुत लोग लिखते हैं जो कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता है। बहुत से लोग सृजन करते हैं। परन्तु कोई उनकी चिन्ता नहीं करता। परन्तु आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति जो भी कुछ सृजन करता है वह शाश्वत होता है। क्योंकि अब वो अनन्तता के सागर में है। अब वे पावित्र्य के सागर में है जहाँ किसी को कष्ट पहँचाने का, किसी को दु:ख देने का विचार 12 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-12.txt ८ १ा तक नहीं है। उस स्थिति में सभी को ऐसी सुरक्षा प्राप्त है। कोई उन्हें हानि नहीं पहुँचा सकता क्योंकि आखिरकार आप लोग अब परमात्मा के साम्राज्य में हैं। कौन आपको हानि पहुँचा सकता है या कष्ट दे सकता है? सहजयोगियों में मैंने ऐसी ही सम्पदा, ऐसी ही उदारता और ऐसी ही सूझ-बूझ देखी है। मुझे भाषण नहीं देने पड़ते कि ऐसा करो, ऐसा मत करो और न, इसकी कोई आवश्यकता पड़ी। जो लोग अभी तक सहजयोग में परिपक्व नहीं हुए हैं उन्हें चाहिए कि परिपक्वता को प्राप्त करें और अन्य लोगों को चाहिए कि यदि ये लोग कष्टकर हैं तो भी इनका बुरा न मानें। इन पर करुणा करें ताकि ये परिपक्व हो सकें। आज बहुत महान दिन है। पिछले तीस वर्ष मैं एक स्थान से दूसरे स्थान तक दौड़ती रही और इतने सारे सहजयोगी एकत्र कर पाई। विश्वभर में से सहजयोगी हैं। यहाँ उपस्थित सहजयोगी तो उनका मात्र एक अंश ही है यह घटित होना ही था। इसका वर्णन किया जा चुका है। इसके विषय में अब बहुत भविष्यवाणियाँ की गई थी कि ऐसी घटना होगी, और असंख्य लोग आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करेंगे । नि:संदेह यह अविश्वसनीय प्रतीत होता है। परन्तु आप अब देखें कि ये एहसास कितना मधुर है। हम सब एक है, न कोई झगड़ा है 13 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-13.txt न लड़ाई है न कुविचार। कोई भी घटिया चीज़ों को पसन्द नहीं करता, सभी आनन्दकर चीजें चाहते हैं और सबमें सूझ-बूझ का यह गुण है। मैंने लोगों को कवि बनकर सुन्दर कविताऐं लिखते हुए देखा है। उन्हें सृजन करते हुए देखा है तथा बहुत अच्छे आयोजक बनते हुए भी देखा है। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो है वह है विनम्रता। आरम्भ में भी मैंने कहा था और अब फिर कहँगी कि लोगों को आपकी विनम्रता ही आकर्षित करेगी। आपको विनम्र व्यक्ति बनना चाहिए। स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही स्वयं को श्रेष्ठ मानें। स्वयं को यदि आप महत्वपूर्ण समझते हैं तो आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग नहीं रहते । मेरा एक हाथ यदि स्वयं को महत्वपूर्ण मानने लगे तो ये इसकी मूर्खता होगी ! अकेला हाथ किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है? सभी हाथों की आवश्यकता होती है, चीज़ों की आवश्यकता होती है, टाँगों की आवश्यकता होती है? एक अंग किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है। अपनी सहजयोग यात्रा में कभी भी आप यदि इस प्रकार सोचने लगें तो मैं कहँगी कि आप सहजावस्था में नहीं हैं। मेरा ये प्रयत्न था कि आप लोगों को सहज के सुन्दर क्षेत्रों में ले जाएं जहाँ आप आत्मा से पूर्णत: एकरूप होंगे, प्रकृति से एकरूप होंगे, अपने आस-पास के सभी लोगों से, अपने देश तथा अन्य देशों से एकरूप होंगे। सर्वत्र पूर्ण वातावरण में ब्रह्मानन्द आपका अंग-प्रत्यंग बन जाएगा और आप कभी इससे भिन्न न होंगे। तब आप कह सकते हैं कि गुँजन या निनाद जो कि आपके जीवन का सारतत्व है वह आपकी भौतिक उन्नति में या किसी अन्य चीज़ में न दिखाई पड़कर आपके आध्यात्मिक क्षेत्र में दिखाई पड़ेगा और यही क्षेत्र सर्वोच्च है। सर्वत्र सभी देशों में उच्च गुणों के लोग होते हैं और उन सबको याद किया जाता है। इसी प्रकार आप भी अपने जीवन की वास्तविकता तथा सच्चाई के महान ज्ञान का प्रतिनिधित्व करेंगे। और यह सब आपके जीवन और आपके कार्यों में छलकेगा इस तरह से आप इस कार्य को कर सकते हैं। केवल यह निर्णय करना है कि कितने लोगों को हमने आत्मसाक्षात्कार देना है । आत्मसाक्षात्कार देने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता में आप यदि इस कार्य को करते चलें तो आप हैरान होंगे कि यह पहाड़ की चोटी पर चढ़ने जैसा कार्य है। परन्तु जब आप चोटी पर चढ़ जाते हैं तो नीचे की सभी चीज़ों को भलीभांति देख सकते हैं और आपको सन्तोष होता है कि आप चोटी पर हैं। लेकिन चोटी की चढ़ाई तो आपको करनी होगी। इसमें कोई समस्या नहीं है । आप सब इस कार्य को कर सकते हैं। आपके अन्दर आपके प्रति सम्मान, प्रेम एवं सूझ-बूझ होनी चाहिए कि हमें पर्वत की इस चोटी पर पहुँचना है। एक बार जब आप इस शिखर पर पहुँच जाएं तो समझ लें कि आप वहाँ पर हैं और अपने प्रेम, अपने स्नेह की वर्षा करनी शुरू कर दें, और उन सब आशीर्वादों की जो शिखर से पहले हैं। यदि यही आपका जीवन है तो यह महानतम है। महान कहलाने वाले बाकी सब लोगों को, राजनीतिज्ञों को भूल जाएं। उन्हें भूल जाएं। आप उनसे कहीं महान हैं क्योंकि आप जीवन की सहज शैली के साथ एक हीरे की तरह से हैं। यह सहज-जीवन शैली अत्यन्त सन्तोष एवं पूर्ण शान्ति प्रदायक है। यह आपको आन्द, शान्ति, क्षेम तथा अन्य इतने वरदान देती है कि आप इनके वर्णन नहीं कर सकते हैं। आपके सहस्र दल सहस्रार की तरह से ज्योतिर्मय | हैं। परमात्मा ही जानता है कि आप इससे क्या-क्या प्राप्त कर सकते हैं। आप इतने महान क्षेत्र में हैं। एक हजार 14 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-14.txt पंखुड़ियाँ जहाँ से लोगों ने विज्ञान का सारा ज्ञान प्राप्त किया है तथा सभी महान आविष्कार वहीं से प्राप्त हुए हैं। अत: यही चीज़ है जो व्यक्ति को महसूस करनी है-आत्मसम्मान। आत्मसम्मान स्वमहत्व से भिन्न होता है। आपमें आत्मसम्मान होना चाहिए। यह आपको विनम्र बनाता है। प्रेम करने के योग्य होने के कारण आप अत्यन्त प्रेममय बन जाएंगे। कोई इसे आप पर थोपेगा नहीं। मैं मानती हूँ कि सागर में से बादल उठते हैं और वर्षा करते हैं। जीवन चक्र की तरह से ये कार्य हो रहे हैं। इस बात के प्रति वे जागरूक नहीं हैं। वे ये नहीं सोचते कि वे कुछ महान कार्य कर रहे हैं क्योंकि वे इस चक्र में हैं। परन्तु आप इस चक्र से मुक्त हैं और फिर भी बिना किसी स्वमहत्व की भावना के इस कार्य को कर रहे हैं। आप इस कार्य को कर रहे हैं क्योंकि आपने ही इसे करना है। दूसरा चक्र, जो कि स्वाभाविक चक्र नहीं है यह चेतना का चक्र है। चेतना के चक्र में आप जो भी कार्य करते हैं उसके प्रति चेतन होते हैं। परन्तु सब कुछ करते हुए भी आप विनम्र, प्रेममय एवं सुहृदय होते हैं। अत्यन्त ही प्रेममय एवं सुहृदय। न आप किसी पर चीखते चिल्लाते हैं न किसी को पीटते हैं। बिना किसी को कोई कठोर शब्द कहे आप कठिन से कठिन व्यक्ति को भी संभाल सकते हैं । कोई यदि आपके आड़े आने लगे तो आप उसकी कुण्डलिनी उठाकर सन्तुष्ट हो सकते हैं। बिना बताए यदि आप किसी की कुण्डलिनी उठाते हैं तो वह व्यक्ति नियंत्रित हो जाता है और यदि उसकी कृण्डलिनी आप नहीं उठा सकते तो उसे भूल जाएं क्योंकि वह व्यक्ति अत्यन्त दुष्कर है। हो सकता है वह पत्थर सम हो। आप क्या कर सकते हैं? आप उसमें प्रेम और गरिमा आदि गुण नहीं बहा सकते। पत्थर हृदय लोगों के लिए यह कार्य असम्भव है। उन्हें भूल जाएं। ये आपका कार्य नहीं है, ये आपका कार्य बिल्कुल भी नहीं है। मेरी प्रार्थना है कि सर्वप्रथम आप देखें कि आप कितने विनम्र हैं । आपको विनम्र होना है, यही आपकी सज्जा है और यही आपका गुण। अत: अपने अन्दर प्रेम उत्पन्न करें जो शुद्ध हो, जो वासना और लोभरहित हो । आप अन्य लोगों को सिर्फ इसलिए प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम आपके हृदय से बह रहा है और शान्ति का वरदान आपको प्राप्त है। अपने अन्दर आप पूर्णतया शान्त हैं और यह जानकर आप हैरान होंगे कि विवेक का उद्भव शान्ति से होता है। आपको अत्यन्त विवेकशील पुरुष या महिला समझा जाएगा क्योंकि आपको अन्तर्शान्ति प्राप्त है। शान्ति की इस स्थिति में ही आप सत्य खोज सकते हैं और सभी वांछित समाधान खोज सकते हैं। आन्तरिक शान्ति द्वारा ही आप अत्यन्त विवेकशील एवं बुद्धिमान व्यक्ति बनते हैं। अन्य लोगों से कहीं अधिक महान। सामान्य लोगों जैसे आप नहीं होते। तत्पश्चात् आप आनन्द प्राप्त करें। किसी चीज़ में आनन्द का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। आनन्द तो आनन्द होता है, न ये प्रसन्नता है न अप्रसन्नता। ये तो मात्र आनन्द है। आप केवल आनन्द में रहे। हर चीज़ का आनन्द ले, सबकी संगति का आनन्द लें, हर घटना का, हर दृश्य का, अपने जीवन की हर घटना का आनन्द लेना सीख लें। देखें, कि केवल आनन्द में ही महान क्षमता है। मुझे याद है कि एक बार मैं अपनी बेटी और दामाद के साथ एक ऐतिहासिक स्थान देखने गई, जिसके लिए हमें काफी सारी चढ़ाई चढ़नी पड़ी। 15 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-15.txt तीन घण्टे तक हम चढ़ाई चढ़ते रहे। जब हम सब थक गए तो तभी संगमरमर से बना हुआ आराम करने का स्थान हमें दिखाई दिया। तो हमने सोचा कि यहाँ पर लेटकर विश्राम कर लें। जब हम वहाँ लेटे हुए थे तो ये सब कहने लगे कि हम लोग यहाँ आए ही क्यों? और इस प्रकार शिकवा करने लगे। और अचानक वहाँ एक आनन्द बिन्दु दिखाई पड़ा। मेरी नज़र संगमरमर में खुदे हुए हाथियों पर पड़ी। मैंने कहा, 'क्या आप इन हाथियों को देख सकते हैं? सबकी पूँछ अलग- अलग ढंग से बनाई गई है।' कहने लगे, 'मम्मी, हम इतने थके हुए हैं आप किस प्रकार इन हाथियों की पूँछ को देख पा रही हैं?' मैंने कहा, 'आप भी इसे देखो।' केवल आनन्द ही आपके मस्तिष्क को व्यर्थ की चीज़ों से हटा सकता है। केवल अपना मस्तिष्क वहाँ से हटा लें। ये विधि आप आज़मा सकते हैं। किसी भी आनन्ददायी चीज़ पर अपना मस्तिष्क ले जाएं। मान लो कोई व्यक्ति अत्यन्त उबाऊ है तो इसके पीछे छिपी हुई विनोदशीलता को आप देखें कि कोई भी व्यक्ति उबाता किस प्रकार है । इससे आपको शिक्षा मिलती है कि कभी किसी को उबाना नहीं है। इसी प्रकार आनन्द की भी विशेषता यही है कि यह आपको हर चीज़ का आनन्द, हर चीज़ का सारतत्व सिखाता है। यदि कोई व्यक्ति या वस्तु बुरी है तो भी | आप इसका आनन्द लें, कहें कि यह कितना बुरा है? मान लो कोई अच्छा दोस्त है तो आप हमेशा उसकी अच्छाई को देख सकते हैं। परन्तु कभी किसी की बुराई की आलोचना करने की न सोचें। आलोचनात्मक रवैया आपके मस्तिष्क से निकल जाता है। इस स्थिति में किसी भी अटपटी चीज़ को आप देखते हैं तो एकदम आपका मस्तिष्क इससे हटकर किसी अच्छी चीज़ पर चला जाता है। अत: न तो आलोचना करें और न ही इसका बुरा माने। कभी-कभी तो लोग हैरान होते हैं कि मैं किस प्रकार लोगों को सहन करती हूँ। मैं सहन नहीं करती। कोई व्यक्ति भी करता रहे मैं उसकी ओर ध्यान ही नहीं देती। आपका स्वभाव तथा संस्कार यदि कुछ ऐसे हो जाते हैं जहाँ आप पूर्ण तुर्या स्थिति में हों, जिसके विषय में कबीर साहब ने कहा है, 'जब मस्त हूँ, तो फिर क्या बोले। मस्ती के आलम में बोलने को कुछ रह ही नहीं जाता। आनन्द की स्थिति भी ऐसी ही है। एक | ऐसा स्वभाव जिसे आपको समझना है और जिसका आपको सम्मान करना है। यह अन्तःस्थित है। इसका सम्मान करें। इसकी तुलना दूसरे लोगों से न करें। अन्य लोग आपके स्तर पर नहीं हैं। आप भिन्न स्तर पर हैं। अत: आनन्द लेने का प्रयत्न करें। कभी ये न सोचें आप कुछ महान हैं, कुछ ऊँचे हैं, नहीं, कभी ऐसा न सोचें। केवल आभार मानें कि आप जीवन के इन अटपटे विचार एवं शैलियों से बचे हुए हैं। ऐसी शैली एवं विचारों से जहाँ व्यक्ति सदैव आलोचना ही करता रहता है कि, 'यह अच्छा नहीं है, मुझे ये पसन्द नहीं है' ये कहने वाले आप कौन होते हैं कि मुझे पसन्द नहीं है? आप तो स्वयं को भी नहीं पहचानते। जब आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है तो मतलब ये कि आप स्वयं को नहीं पहचानते। किस प्रकार आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है। बहुत कम ज्ञान वाले लोगों को मैंने दूसरों की आलोचना करते हुए देखा है। मेरी समझ में इसका कारण नही आता। ऐसा क्यों है? सम्भवत: वह अपने आपको बहुत कुछ समझते हैं। यह बात आम है। परन्तु जब आप पूर्ण ज्ञान को जान जाएंगे तो वास्तव में विनम्र हो जाएंगे। पूर्णतः विनम्र, भद्र या सुहृदय। 16 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-16.txt आज वैसे भी मेरे लिए बहुत ही महान दिन है। मैं नहीं जानती कि इस सुन्दर विश्व को देखने के लिए मैं और कितने वर्ष तक जीवित रहूँगी। मानवीय स्तर पर यदि देखा जाए तो मेरा जीवन बहुत संघर्षमय एवं कठोर रहा। परन्तु सहजयोगियों का सृजन, उनकी बातों को सुनना और उनसे बातचीत करना मेरे लिए आनन्ददायी था। वे कितने मधुर, करुणा एवं सम्मानमय हैं? आपके इन गुणों ने मेरी बहुत सहायता की और इसके लिए मैं आपके प्रति आभार प्रकट से मैं ये करती हूँ। आपके प्रोत्साहन, आपकी सहायता और आपकी सूझ-बूझ सब कार्य सम्पन्न कर सकी। मैं स्वयं यदि इस कार्य को कर सकती तो कभी भी आपकी सहायता न माँगती। परन्तु आप लोग तो मेरे चक्षुओं और बाजुओं जैसे हैं। मुझे आप सबकी बहुत जरुरत है क्योंकि मैं आपके बिना यह कार्य नहीं कर सकती। ये तो माध्यम बनाने जैसा है, आपके यदि माध्यम ही नहीं हैं, आपकी यदि धाराएं ही नहीं हैं तो आदिशक्ति होने का क्या लाभ है ? किस प्रकार से आप शक्ति प्रवाह करेंगे? विद्युत शक्ति यदि है तो इसको प्रसारित करने के लिए तार भी होने चाहिए। बिना इनके तो यह निश्चल है। इसी प्रकार मुझे भी लगा कि मेरे भी अधिक से अधिक माध्यम होने चाहिएं और ये बात ठीक साबित हुई। मैं वास्तव में बहुत प्रसन्न हूँ। आज के इस शुभ दिवस तक पहुँचने के लिए आप सबकी बहुत धन्यवादी हूँ और आप सबको हृदय से आशीर्वाद देती हूँ कि आप इसकी जिम्मेदारी सम्भाल लें। आप सहजयोगी हैं तथा अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार देना आपकी जिम्मेदारी है। अन्य लोगों को भी यह दिया जाना आवश्यक है। सहजयोग का वर्णन आप उनके सम्मुख कर सकते हैं । उनसे इनकी बातचीत कर सकते हैं और उन्हें समझ सकते हैं । अन्य लागों को समझने का प्रयत्न करें और उनसे बातचीत करें। लोगों को आत्मसाक्षात्कार अवश्य दें अन्यथा आप स्वयं को भी अपूर्ण महससू करेंगे। स्वयं को पूर्ण करने के लिए ये कार्य आप करं। परमात्मा आपको धन्य करें। 17 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-17.txt कबेला, इटली, २३ जुलाई २००० आप क्या हैं! 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-19.txt आज हम यहाँ गुरु तत्व को समझने के लिए आये हैं। गुरु क्या करता है? आपके अन्दर जो भी कुछ है, आपके अन्तर्निहित बहुमूल्य गुण, आपके ज्ञान के लिए वह इन्हें खोजता है। वास्तव में सारा ज्ञान, सारी अन्दर विद्यमान है। गुरु तो केवल आध्यात्मिकता, सारा आनन्द आपके अन्तर्निहित है। यह सब आपके आपको आपके ज्ञान और आपकी आत्मा के प्रति चेतन करते हैं। सभी के अन्दर आत्मा है और सभी के अन्दर आध्यात्मिकता भी है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको बाहर से मिलता हो। परन्तु ये ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व आप इससे कटे हुए होते हैं या अन्धकार में होते हैं और उस अज्ञानता में आप नहीं जानते कि आपके अन्दर कौन सी सम्पदा निहित है। अत: गुरु का कार्य यह है कि वह आपको इस बात का ज्ञान करवाए कि आप क्या हैं। ये पहला कदम है कि वह आपके अन्दर वह जागृति आरम्भ करता है जिसके द्वारा आप जान जाते हैं कि बाह्य विश्व मात्र एक भ्रम है तथा आप अपने अन्तस में ज्योतित होने लगते हैं। कुछ लोग तत्क्षण | पूर्ण प्रकाश प्राप्त कर लेते हैं और कुछ इसे शनै: शनै: प्राप्त करते हैं। सभी धर्मों का सार यही है कि आप स्वयं को पहचानो। जो लोग धर्म के नाम पर लड़-झगड़ रहे हैं उनसे आपने पूछा है कि क्या आपके धर्म ने आपको अपनी पहचान करवा दी है? सब धर्मों ने यदि एक ही बात कही है तो आपके सभी धर्मों का केवल लक्ष्य, स्वयं को जानना है परन्तु लोग कर्मकाण्डों में फँस जाते हैं। वे सोचते हैं कि ये कर्मकाण्ड करके वे परमात्मा के बहुत समीप हैं। अपने विषय में वे पूर्ण अन्धकार में रहते हैं और दिन रात कुछ न कुछ ऐसा करते रहते हैं जिसका आत्मा से कोई मतलब नहीं। अज्ञानता के कारण भिन्न प्रकार के व्यायाम, प्रार्थनाएँ, पूजाएँ आदि करते रहते हैं । ऐसे लोगों को लोग पैसे देते रहते हैं, वे लोग धनवान हो जाते हैं। इनकी दिलचस्पी केवल धन में होती है। आपका सारा धन लूटकर वे आपको मूर्ख बनाते हैं। वे आपके अहंकार को भी बढ़ावा देते हैं और इसके कारण आप भ्रम के की ओर बहने लगते हैं और समुद्र बहुत ही धार्मिक तथा परमात्मा से जुड़े हुए मानते हुए आप इसी भ्रम सागर में डूब जाते हैं। अन्ततः स्वयं को जबकि वास्तव में आप परमात्मा से जुड़े ही न थे। परमात्मा को जानने के लिए पहले आपको स्वयं को जानना चाहिए। स्वयं को जाने बिना परमात्मा को नहीं जाना जा सकता। स्वयं का ज्ञान प्राप्त करना बहुत आवश्यक है। परन्तु जब आपको स्वयं का ज्ञान प्राप्त होता है तो वह भी अधूरा होता है। आपका अनुभव अधूरा होता है। यह ज्ञान आवश्यक है और केवल गुरु ही आपको आत्मा का ज्ञान देता है। अब आपने इसे जाँचना है और परखना है कि आपके गुरु ने जो कुछ बताया वह सत्य है या नहीं। गुरु की बताई हुई बातें ठीक हैं भी सही या नहीं। कहीं ये बातें भी एक अन्य प्रकार का भ्रम जाल तो नहीं है? उत्थान मार्ग पर लोग बहुत सी समस्याओं में फँस जाते हैं। जिनमें से सर्वोपरि अहं की समस्या है विशेष रूप से पश्चिम में। अहं बढ़ जाता है और आप सोचने लगते हैं कि आप बहत महान हैं और अन्य लोगों से अच्छे हैं और आपमें कुछ बहुत ही विशेष है। यह अज्ञानता सांसारिक अज्ञानता से कहीं अधिक भयानक है क्योंकि सांसारिक अज्ञानता में आप गलत कार्य के परिणाम भी महसूस करते हैं। उत्थान मार्ग पर जाते हुए जब आप आधे रास्ते पर होते हैं, जब आपकी अज्ञानता अपने विषय में होती है तब व्यक्ति को समझना चाहिए कि 20 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-20.txt उसमें अहं न हो। इस स्थिति में आत्मनिरीक्षण आरम्भ होता है। आप स्वयं को देखने लगते हैं कि आपमें क्या त्रुटि है जब आप समझ जाते हैं कि आपमें अहं है, जब आपको पता चलता है कि आपमें कोई कमी है या दोष है तभी आप आत्मनिरीक्षण करने लगते हैं। यह प्रयत्न अत्यन्त ईमानदारी से किया जाना चाहिए। सहजयोग में आरम्भिक स्थिति में लोग सोचने लगते हैं कि वे बहत महान हैं उन्हें आत्मदर्शन की आवश्यकता नहीं बहुत है। ऐसे लोग आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किए बिना ही पुन: अज्ञानता के बादलों में फँस जाते हैं। अत: आपको आत्मदर्शन करना होगा और स्वयं देखना होगा कि आप क्या करते रहे हैं, आप क्या हैं? आप कहाँ तक उन्नत हुए हैं। ऐसे व्यक्ति की शैली शनै: शनै: परिवर्तित होती है कैसे? सर्वप्रथम अत्यन्त उग्र स्वभाव, क्रोधी तथा अहंकार से पूर्ण व्यक्ति अत्यन्त भद्र एवं विनम्र होने लगता है। दूसरी तरह के भयग्रस्त और अत्यन्त सावधान रहने वाले व्यक्ति निर्भय हो जाते हैं, उस स्थिति में व्यक्ति को भय बिल्कुल नहीं रहता । वह विश्वस्त होता है कि वह ठीक मार्ग पर है और ठीक रास्ते पर चल रहा है। आसानी से ऐसा व्यक्ति उत्तेजित नहीं होता । फिर भी आपको और अधिक ऊँचाई तक उन्नत होना है, उस स्तर तक जहाँ ध्यान-धारणा करते हुए आप जान सकें कि आपमें क्या दोष है। आपने अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लिया है, आत्मसाक्षात्कार का आशीर्वाद आपको प्राप्त हो गया है, आपका स्वास्थ्य अच्छा हो गया है, आपको सभी प्रकार के इतने सारे आशीर्वाद प्राप्त हो गए हैं कि आप गणना भी नहीं कर सकते। सभी कुछ है परन्तु अभी आपको और आगे जाना है अर्थात् सहजयोग के पूर्णज्ञान को समझना है। अपनी बौद्धिक योग्यता से सर्वप्रथम आपने इसे समझना है और तत्पश्चात् जाँचना है कि यह कहाँ तक सत्य है, किस स्तर तक आपने इसे समझा है, कहाँ तक इसे जाना है? अन्तर्द्शन द्वारा जब आप स्वयं को देखने लगते हैं तो भक्ति के सम्राज्य में प्रवेश करने लगते हैं तब न तो आप बहुत अधिक बोलते हैं और न किसी को परेशान करने का प्रयत्न करते हैं। अत्यन्त मधुर, भद्र और विवेकशील व्यक्ति आप बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को स्वयं परखना चाहिए कि वह अन्य लोगों से किस प्रकार व्यवहार कर रहा है। अब चित्त एक व्यक्ति से दूसरे पर जाने लगता है और आप देखने लगते हैं कि आप किस प्रकार आचरण कर रहे हैं, किस प्रकार आप प्रेम कर रहे हैं, आपकी सुहृदयता के क्या गुण हैं? किसी व्यक्ति से जब आप निर्वाज्य प्रेम करते हैं तब उसके प्रति पूर्णत: समर्पित होते हैं पूर्णतः। उसकी आज्ञा आप मानते हैं और यदि यह प्रेम विद्यमान है जिसे आप समर्पण भी कहते हैं, तो आप उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं। यह मात्र प्रेम है। समर्पण प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं और वह प्रेम अत्यन्त आन्ददायी है। यह भक्ति, यह समर्पण आरम्भ हो जाता है और भक्ति आपका शुद्धिकरण कर देती है। आपके सभी दुर्गुण, जिन्हें मैं कमियाँ कहती हैं तथा अपने अन्दर की समस्याओं को आप समझते हैं और इन पर काबू पाते हैं। किसी को यदि इन दुर्गुणों, समस्याओं से परिपूर्ण आप पाते हैं तो निर्वाज्य प्रेम के कारण आप उस व्यक्ति को सहन करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा व्यक्ति सब कुछ सहन करता है। उसमें किसी भी प्रकार की आक्रामकता नहीं होती। ऐसे लोग केवल क्षमा करते हैं। आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति बढ़ते ही चले जाते हैं। उनकी क्षमा करने की शक्ति अथाह होती है। 21 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-21.txt उनके मन में किसी के भी प्रति दुर्भावना नहीं होती। किसी के भी प्रति क्रोध नहीं होता वे सहन करते चले जाते हैं। और क्षमा करते जाते हैं। क्षमा का यह गुण संगीत सम है-आपकी भक्ति का संगीत। क्षमा का यह धन इन गुरुओं ने ईसा-मसीह के जीवन से प्राप्त किया होगा। सभी सन्तों को सताया गया और परेशान किया गया। अधिकतर सन्तों को सताया गया परन्तु इन लोगों ने कभी इनका विरोध नहीं किया, कभी बदला नहीं लिया और कोई क्रूर कार्य नहीं किया । परेशान करने वाले लोगों के लिए इनके मन में केवल करुणा भाव थे। 'हे परमात्मा, कृपा करके इन्हें क्षमा कर दें, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। ये लोग इतने करुणामय थे, करुणा ही इनका स्वभाव बन गई थी। करुणा जब स्वभाव बन जाती है तो ऐसे लोग पूर्णत: शान्त हो जाते हैं। वे कभी उत्तेजित नहीं होते, किसी भी घटना से वे उत्तेजित नहीं होते। सोचते हैं कि यही परमात्मा की मर्जी है उन्हें कुछ भी उत्तेजित नहीं कर सकता, कुछ भी अशान्त नहीं कर सकता। वे अपनी भक्ति का आनन्द लेते हैं, गुरु तथा परमात्मा के प्रति अपनी भक्ति का। भक्ति के इसी आलम में वे चाहे कविता लिखें, चाहे नृत्य करें, चाहे भजन गाएं, क्योंकि शान्ति उनके अन्तःस्थित है और वे आनन्दमग्न हैं। अकेलेपन में भी वे अकेले नहीं होते। अपना ही आनन्द लेते हैं। वे जानते हैं कि वे परमात्मा के साथ एक रूप हैं तथा परमात्मा के आशीर्वादों का वे आनन्द लेते हैं। कृत्रिमता वे कभी नहीं अपनाते, कभी चिन्तित नहीं होते, कभी उत्तेजित नहीं होते। न वे भविष्यवादी होते हैं न वे भूतकाल की बातें सोचते हैं, सदैव वर्तमान में रहते हैं। वर्तमान में रहते वे पूर्णत: शान्त होते हैं। कोई भी समस्या या हुए दुर्घटना यदि हो तो वे तुरन्त निर्विचार समाधि में चले जाते हैं। उनके अन्दर इस स्थिति में चले जाने की योग्यता होती है। गुरु बनने के लिए आपको ऐसा व्यक्तित्व विकसित करना होगा कि आप किसी भी बन्धन में न फँसे। मैं आपको अपना उदाहरण दूँगी। मैं कभी जल्दबाजी नहीं करती। न ही कभी मैं समय की चिन्ता करती हूँ। एक बार मैं अमेरिका जा रही थी। आपको यदि इस बात पर विश्वास है कि परमात्मा ने आपके लिए सारी योजना बना रखी है तो आप निश्चिंत हो जाते हैं। परमात्मा आपकी देखभाल कर रहे हैं तो चिन्ता क्यों करनी है? मुझे अमेरिका जाना था परन्तु एक बच्चा गिर गया। जाने के लिए मैं उठने ही वाली थी कि बच्चा गिरा और उसकी बाजू टूट गई। जब मैंने बच्चे को देखा तो कहा ठीक है पहले मैं बच्चे को ठीक करूँगी। सब लोग कहने लगे कि आप अमेरिका जा रही हैं। मैंने कहा, 'मैं निश्चित रूप से जाऊंगी।' मैंने बच्चे को ठीक किया और इस कार्य में लगभग आधा घण्टा लगा। बाहर आकर मैने कहा कि अब वायुपत्तन पर चलें। कहने लगे, 'श्रीमाताजी आपने बहुत देर कर दी है।' मैंने कहा, 'मुझे कभी देर नहीं होती, चलो चलें।' हम वायुपत्तन पहुँचे और पाया कि जिस वायुयान से मुझे जाना था वह खराब था, उसके स्थान पर एक अन्य यान आया था जो न्यूयोर्क के स्थान पर वॉशिंगटन जा रहा था। वास्तव में मैं भी वॉशिंगटन ही जाना चाहती थी। अब आप कल्पना कीजिए कि किस प्रकार चीज़ें घटित होती हैं! इसे हम सहज कहते हैं, यह सहज कार्यान्वयन है। अर्थात् यह सब प्रयत्नविहीन है, स्वत: घटित होना है। परन्तु सर्वप्रथम आपका व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए, आपकी भक्ति इतनी दृढ़ होनी 22 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-22.txt चाहिए कि परमात्मा आपकी देखभाल करने के लिए विवश हो जाएं, पूर्णतः विवश। परमेश्वरी शक्ति आपके आपको समझना चाहिए कि परमेश्वरी शक्ति आपके आस-पास है और यह आपकी सुरक्षा तथा आपकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का पूर्ण आश्वासन है। आप कह सकते हैं कि, 'श्री माताजी, आप बहुत शक्तिशाली हैं।' परन्तु यदि आप परमेश्वरी कार्य के प्रति पूर्णत: समर्पित हो जाएं तो आप भी अत्यन्त शक्तिशाली बन सकते हैं। आपको शक्तियाँ भी प्राप्त हो जाएंगी और परमेश्वरी कार्य भी । शक्तियों के साथ-साथ आस-पास परमात्मा आपको आवश्यक कार्य भी देंगे तथा उसे करने के लिए आवश्यक समय भी प्रदान करेंगे। सभी कुछ परमात्मा आपको प्रदान करेंगे। अन्य लोगों से बह कर करुणा है और जब परमात्मा की ओर दिव्य व्यक्ति की ओर या आपके गुरु की ओर आने लगती है तो जीवन बहुत ही सहज हो जाता है, बहत ही सहज। सभी जटिलताएं समाप्त हो जाती हैं और आपको किसी भी चीज़ की चिन्ता नहीं रहती। आँखें बन्द करिए और आपके सभी यह कार्य हो जाते हैं। कार्य इस प्रकार होते हैं मानो आपको यही इच्छा रही हो । न तो आपको आपकी इसकी इच्छा करनी पड़ती है, न इसके विषय में सोचना पड़ता है। परमात्मा सभी कार्ों को देखते हैं आपकी सुख-सुविधा, आपके स्वास्थ्य और सभी चीज़़ों को। यह रा सुरक्षा परमेश्वरी सहायता आपको खोजनी नहीं पड़ती, माँगनी नहीं पड़ती, आप तो ऐसे व्यक्तित्व होते हैं जिसके लिए परमात्मा जिम्मेदार है। आप परमात्मा की विशेष तथा जिम्मेदारी बन जाते हैं और वे जानते हैं कि आपके लिए क्या अच्छा है और क्या नहीं। आपकी सभी राए मैं दे सकती हूै, मान लो मैंने सोचा से उदाहरण मैं एक उदाहरण देती हूँ, ऐसे बहुत कि कोई व्यक्ति मुझसे मिलने आ रही है और सहजयोगियों ने कहा कि श्रीमाताजी वो तो बहुत बुरा है, तो वह आएगा ही नहीं, मेरे पास पहुँचेगा ही नहीं । सभी अच्छी घटनायं घटेंगी और यदि कोई बुरी घटना घटित होती है तो आप अपनी करुणा का उपयोग करें। आवश्यकताओं की पूर्त घटित होने की स्थिति में आप अपनी करुणा का उपयोग करके समस्या का कुछ बुरा समाधान करें। आप अपनी समस्याओं, अपने आस-पास की समस्याओं तथा अपने समुदाय की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं । का तो अब आपको आत्मसाक्षात्कार मिल है। मैं नहीं जानती कि इसमें आप पूर्ण चुका कितनी गहनता तक पहुँचेंगे? मेरे पास बहुत सी महिलाओं के बारे में शिकायत है, न ही आश्वासन वे ध्यान धारणा करती हैं और न अपनी देखभाल करती हैं। वे आत्मसाक्षात्कारी नहीं है, यही कारण है कि उनके पति उन्हें तलाक देना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि ये औरतें बेकार है| है। कुछ पुरुष भी ऐसे ही है। इस समस्या का समाधान करने के लिए आपमें करुणा का होना आवश्यक है। और किसी भी तरह से अपनी करुणा द्वारा अपने जीवन साथी को 23 मho 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-23.txt ठीक मार्ग पर लाना आवश्यक है। आखिरकार पुरुष महिलाओं की अपेक्षा बहुत व्यस्त होते हैं, परन्तु महिलाओं के पास भी अन्य बहुत से कार्य होते हैं। उन्हें अपने परिवार की, अपने बच्चों की देखभाल करनी होती है और उनका मस्तिष्क ऐसी सभी सांसारिक चीज़ों में फँसा होता है और उनके पास ध्यान- धारणा लिए समय ही नहीं होता। बिना ध्यान-धारणा के आपका उत्थान नहीं हो सकता। आपको ध्यान-धारणा तो करनी ही होगी। लोग सोचते हैं हमें आत्मसाक्षात्कार तो मिल ही गया है। सभी कुछ ठीक है। नहीं। आपको प्रतिदिन ध्यान-धारणा तो करनी ही होगी। तभी शुद्धिकरण होता है। आन्तरिक शुद्धि के पश्चात् आप समझ पाते हैं क्या चीज़ आवश्यक है और क्या अनावश्यक है तथा ये भी कि आपके चक्र साफ हो गए हैं। परमात्मा ही इस कार्य को करते हैं, परन्तु आपको नियमपूर्वक ध्यान- धारणा करनी आवश्यक है। शनै: शनै: आपको लगेगा कि आपकी ध्यान-धारणा बहुत गहन हो गई है। आप बहुत गहन हो जाएंगे और आपकी शक्तियाँ प्रकट होने लगेंगी। जहाँ भी आप होंगे नकारात्मकता वहाँ से भाग जाएगी और सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। जो भी कुछ आपको चाहिए होगा वह मिल जाएगा। दूसरों की सहायता करने की इच्छा दूसरों को कुछ देने की इच्छा पूर्ण हो जाएगी। ये मेरा अपना अनुभव है जो मैं आपको बता रही हूँ। सायंकाल कम से कम दस मिनट और प्रात: काल कम से कम पाँच मिनट पूर्ण श्रद्धा तथा लगन से ध्यान करें। मैंने यहाँ उपस्थित कुछ लोगों में गहन भक्ति और श्रद्धा देखी है। श्रद्धा भक्ति से कहीं ऊँची है। यह आपके अस्तित्व का अंग-प्रत्यंग बन जाती है और पूर्णत ः आपके रोम-रोम में समा जाती है। ये श्रद्धा जब आपको प्राप्त हो जाएगी तो ये बहुत चमत्कारिक है। ये बहुत से चमत्कार करती है। ये बात सत्य है कि मेरे सोचने मात्र से बहुत से लोग | -मुक्त हो गए। ये वास्तविकता है परन्तु इसका अर्थ ये नहीं है कि उन लोगों में उस उच्च स्तर की श्रद्धा थी। कहने से मेरा अभिप्राय ये है कि उनमें वह श्रद्धा स्वयं में विकसित करनी चाहिए। श्रद्धा आत्मा का नैसर्गिक प्रकाश है। इसे अपने अन्दर विकसित कैसे किया जाए? अपने अन्दर विकसित करने की लोग जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। परन्तु श्रद्धा मानसिक गतिविधियों से नहीं विकसित की जा सकती। आत्मा के ध्यान-धारणा के अतिरिक्त किसी भी अन्य विधि से श्रद्धा विकसित नहीं हो सकती। मैं सदा आपसे ध्यान-धारणा के लिए कहती हूँ। कौन व्यक्ति ध्यान-धारणा करता है और कौन नहीं करता इसका मुझे तुरन्त पता चल जाता है। लोग मेरी पूजा करेंगे, सहजयोग के बारे में बातचीत करेंगे। लोकप्रियता के लिए बाहर जाकर सहज प्रचार करेंगे, परन्तु अपने अन्तस में उन्होंने अभी तक स्वयं को नहीं खोजा। तो विकास की इस अवस्था में आपको पूर्ण उत्साह के साथ ये समझ लेना चाहिए कि ध्यान-धारणा तथा अन्तर्दर्शन के साथ आप यह स्थिति सुगमता से प्राप्त कर सकते हैं। अन्तर्दर्शन द्वारा सूझ-बूझ का नया गुण आपमें विकसित हो जाएगा और आप समस्याओं का समाधान कर सकेंगे। किसी भी आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति के अन्दर यह गुण होता है। वह आपकी सभी समस्याओं का समाधान खोज सकता है। वह सुझा सकता है किस प्रकार आपकी सहायता हो सकती है। श्रद्धा से एक प्रकार के भाईचारे का भी उद्भव होता है। चाहे आप सहजयोग पर भाषण देते हों और सभी प्रकार के कार्य करते हो, जब तक आपमें श्रद्धा नहीं है आपका उत्थान नहीं हो सकता। मैं 24 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-24.txt कहना चाहूँगी कि यह श्रद्धा एक प्रकार का प्रेम है जो मन्द-मन्द अग्नि की तरह से फैलता है। ऐसी अग्नि की तरह से जो जलाती नहीं है, गर्मी नहीं देती, सुन्दर शीतल लहरियों का अनुभव आपके अन्तस में भर देती है और इस अनुभव को आप समझ भी जाते हैं। कभी किसी सहजयोगी की निन्दा न करें, कभी नहीं। कुछ सीमा तक मैं किसी ऐसे व्यक्ति की बात नहीं सुनती जो किसी सहजयोगी की शिकायत करता है। परन्तु यदि यह शिकायत सामूहिक हो तो मुझे थोड़ी सी चिन्ता होती है और इसके विषय में मैं सम्बन्धित अगुआ से पूछती हूँ। कोई व्यक्ति आकर यदि मुझसे शिकायतें करें तो प्रायः मैं उससे कहती हूँ कि आप स्वयं अन्तर्दर्शन करो, वास्तविकता यह नहीं है। दूसरों के दोष ढूंढना मानव की एक आम कमजोरी है। मानव अपने दोषों को नहीं देखता। अन्य लोगों में दोष खोजने से आपको कोई लाभ न होगा। अपने दोष ढूंढने का प्रयत्न करें जिन्हें आप ठीक भी कर सकते हैं। ये आपकी जिम्मेदारी है। स्वयं को जानना आपके लिए आवश्यक है। अत: अच्छा होगा कि आप अपने दोष खोजें और उन्हें ठीक करें। परन्तु कुछ लोग दूसरों के दोष खोजने की अपनी आदत पर गर्व करते हैं। बात-बात में वे कहते हैं कि मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है। आत्मा के विषय में आपके क्या विचार हैं? आपको ये पसन्द है, आपको वो पसन्द है परन्तु आत्मा के विषय में आपके क्या विचार हैं? क्या आपको वो पसन्द हैं? क्या आपको आत्मा का आनन्द आता है? लोग कहे चले जाएंगे मुझे ये पसन्द नहीं है, मुझे वो पसन्द नहीं है। ये कहना पश्चिमी देशों की आम बात है। 25 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-25.txt अब आप देखिए, कुछ महिलाओं ने सुन्दर कालीन बनाए हैं। ये इतने मोटे हैं कि मैं जब इन पर चलती हूँ। तो कभी-कभी डोल जाती है परन्तु जिस प्रेम के साथ ये बनाए गए हैं वह मुझे इतना आनन्द से भर देता है, इतनी खुशी प्रदान करता है कि आप कल्पना नहीं कर सकते कि मैं उनके विषय में क्या महसूस करती हूँ। यह आनन्द, आनन्द का ये सागर आपके अन्दर निहित है और जब यह उमड़ने लगता है तो आपको कष्ट नहीं देता। यह आपको इतने सुन्दर आनन्द से भर देता है कि इसका वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आपके अस्तित्व पर यह एक फुहार की तरह से है। यह कृपा वर्षा है। अन्य लोगों द्वारा दिया गया प्रेम आपको रोमांचित कर देता है। यह प्रेम आप किसी से माँगते नहीं परन्तु जब भी किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो अत्यन्त प्रेममय, अत्यन्त सुहृदय है तो ऐसे सम्बन्ध में सच्ची मित्रता होती है। परन्तु सहजयोगियें की बुराई करना अत्यन्त गलत है और फिर लोगों से बताते फिरना कि उसमें ये कमी है, उसने ऐसा किया है तथा उसकी सहायता करने के स्थान पर उसके विरूद्ध इस प्रकार सामूहिक भावना बनाना तो अत्यन्त गलत है। कोई भी सहजयोगी जब कठिनाई में होता है तो आपको चाहिए सामूहिक रूप से उसकी सहायता करें। चाहे उसमें कुछ कमियाँ ही क्यों न हों उसकी निन्दा न करें। अगर आप ये कहते हैं उसमें ये कमी है, उसमें वो कमी है और उस व्यक्ति की निन्दा करने लगते हैं तो आप सहजयोगी नहीं हैं। आप तभी तक सहजयोगी हैं जब तक अन्तर्दर्शन के माध्यम से आप अपने दोष देख सकते हैं। अब आपमें से अधिकतर लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो चुका है। इसका अनुभव आपको है। परन्तु आपमें से कुछ लोगों को इसका ज्ञान नहीं है। आपको चाहिए कि वह ज्ञान प्राप्त करें और परखें, ये ज्ञान वास्तव में है या नहीं। जैसे अमेरिका में 'निह' नामक स्वास्थ्य संस्थान में उन्होंने सहजयोगियों पर परीक्षण करने चाहे, ये लोग डाक्टर थे और उनमें से एक ने आगे बढ़कर कहा, 'ठीक है, अपनी चैतन्य लहरियों द्वारा मुझे बताइये कि मुझमें क्या कमी है।' तो वहाँ गई सहजयोगिनियों ने बताया कि, 'श्रीमन आपके हृदय में कुछ खराबी है।' उसने कहा, 'यह बात ठीक है,' क्योंकि एक महीना पूर्व ही वह हृदय की बाह्यपथ शल्य चिकित्सा (बायपास सर्जरी) करवा चुका था। अस्पताल से वह ठीक ठाक बाहर आया था। वे लोग हैरान हो गए क्योंकि रोग निदान करने में ही रोगी अधमरा हो जाता है। तो चैतन्य लहरियाँ अनुभव करके व्यक्ति के रोग का पता लगाना अत्यन्त ही सुगम तरीका है। उन्होंने हमारी ओर बहुत ध्यान दिया है। अस्पताल में वह सहजयोग विकसित करना चाहते हैं। अत: आपको चाहिए स्वयं को जाँचें, परखें और देखें कि आप क्या हैं। मान लो एक पति-पत्नी हैं, पत्नी ध्यान-धारणा करती है, सभी कुछ जानती है, वो जानती है कि उसके पति में क्या दोष हैं परन्तु उसे बताती नहीं। वह सहन करती रहती है, उसकी शिकायत नहीं करती और न ही उसे कुछ कहती है। उसकी ये सहनशीलता पति को विश्वस्त करती है कि उसकी पत्नी का व्यक्तित्व उससे कहीं ऊँचा है। वो चाहे जो कुछ हो, समझ जाता है कि उसकी पत्नी ने यह महान व्यक्तित्व प्राप्त कर लिया है । पश्चिम के देशों में विशेष रूप | से बहुत चारित्रिक खामियाँ हैं। वास्तव में ऐसे लगता है जैसे उन्हें साँप ने ही काट लिया हो। पश्चिम के लोग 26 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-26.txt कुकृत्य करते हैं उनके विषय में अविकसित देश के लोग तो सोच भी नहीं सकते विकास ने उन्हें सभी प्रकार की स्वच्छंदता दी है तथा आवारागर्दी का स्वभाव दिया है। जो वो सोचते हैं कि वे स्वतन्त्र हैं और कहीं भी जाकर किसी भी प्रकार से मज़े ले सकते हैं। यह एक आम शैली है परन्तु आप अपने को जाँचे। क्या आप इन्हीं लोगों में से हैं या उन लोगों में से हैं जो उत्थान मार्ग में आपसे कहीं ऊँचे हैं? यह एक प्रक्रिया है। एक दम से आप उत्थान के उस बिन्दू तक नहीं पहुँच सकते। कभी-कभी तो नए सहजयोगी पुराने सहजयोगियों से बहुत अच्छे होते हैं क्योंकि उनमें बहुत दृढ़ इच्छा होती है। आपको गुरु के बताने समझना चाहिए कि हम क्या खोज रहे हैं। हम इसलिए खोज रहे हैं कि हम स्वयं को पहचानना चाहते हैं। किसी तरह से हम जान गए हैं कि हमें स्वयं को पहचानना है इसलिए हम खोज रहे हैं। इसके लिए हम सभी प्रकार के कार्य कर रहे हैं। मेरे अभिप्राय ये से भी हैं कि इस खोज के नाम पर हम सभी प्रकार के गलत कार्य कर रहे हैं। परन्तु यही खोज आपको सहजयोग तक ले आती है तब आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना होता है आपका जो कि कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से सहज है। कुण्डलिनी अधिकतर कार्य कर देती है। किसी ने मुझे बताया कि कुण्डलिनी जागरण के बाद उसने रातोंरात शराब और धूम्रपान त्याग दिया। मैं ऐसा करने के लिए कभी नहीं कहती परन्तु रातोंरात उसने ये सब त्याग दिया और कहने लगी कि, 'पहले मैं अपने बालों की शैली के विषय में बहुत पथ-प्रदर्शन होता है। तुनकमिज़ाज थी। बाल-सज्जा विशेषज्ञ के पास जाकर मैं बाल बनाती थी। सौन्दर्य गुरु का कार्य प्रसाधक के पास में बहुत सा समय लगाती थी। कहने लगी, 'मैंने ये सब भी त्याग दिया है। पहले मैं बेढंगे वस्त्र पहनती थी परन्तु अब मैं अपने शरीर का सम्मान करने लगी हूँ और गरिमामय वस्त्र पहनती हूँ।' ये सारा ज्ञान आपको स्वत: ही आ जाता है, ये आपके अन्तर्निहित है क्योंकि ये आपका अपना ज्ञान है। गुरु के बताने से भी आपका पथ- आपका प्रदर्शन होता है। गुरु का कार्य आपका पथ-प्रदर्शन करना है। पथ-प्रदर्शन तो इस स्थिति में क्या कमी है? सहजयोग में जो कमी है वह मुझे आपको बतानी है। विश्व में हमारे सम्मुख बहुत से सामूहिक विध्वंस हुए, बहुत प्रकार की विपदाएं, करना है। भूकम्प, बाढ़ तथा चक्रवात आए। परन्तु सहजयोगी सदैव सुरक्षित रहे। नि:सन्देह इन प्राकृतिक विपत्तियों से सहजयोगी सदैव सुरक्षित रहे। परन्तु यह सुरक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भी आपने क्या समझा? आपने क्या जाना ? क्यों ये विपदाएं आ रही हैं? क्योंकि सहजयोग सामूहिक नहीं है। सहजयोग को अत्यन्त सामूहिक होना है, इसे सर्वत्र फैलना है। सहजयोग को बहत अधिक लोगों तक पहुँचना चाहिए। परन्तु हम इसके लिए नहीं करते या कभी थोड़ा बहुत कर लेते हैं। आपको बाहर निकलना होगा। कुछ 27 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-27.txt ईसामसीह के बारह शिष्यों की ओर देखो। उन्होंने बहत सी गलतियाँ भी की फिर भी किस प्रकार उन्होंने ईसाई-धर्म को फैलाया और कितनी प्रबलता से इस कार्य को किया? वह प्रबलता, वह गहनता यदि आपमें नहीं है और यदि आप सहजयोग प्रसार के लिए स्वयं को पूर्णतः समर्पित नहीं कर देते तो सामूहिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। आप तो केवल अपनी सांसारिक चीज़ों में, अपनी नौकरियों आदि में ही व्यस्त हैं। सहजयोग में ये भी मान्य है, कोई एतराज नहीं है। परन्तु आपको अपना चित्त जीवन के दूसरे पक्ष पर भी डालना चाहिए कि हम सामूहिकता के लिए क्या कर रहे हैं? क्या हम सहजयोग प्रचार कर रहे हैं? क्या हम लोगों को इसके विषय में अवगत करा रहे हैं? मैं हैरान थी कि एक बार वायुयान से यात्रा करते हुए एक महिला मेरी साथ वाली कुर्सी पर बैठी थी और उसकी चैतन्य लहरियाँ बहुत खराब थीं । मैंने स्वयं को बन्धन दिया और उससे पूछा कि वह अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए क्या करती है? उसने 'बहाई मत' का नाम लिया। हे परमात्मा, मैंने कहा, अगर ये लोग इसी प्रकार फैलते गए और इनकी संख्या इतनी बढ़ गई तो क्या होगा? विनाश! वे तो इतने नकारात्मक लोग हैं कि विश्व का हित तो करना उनके लिए असम्भव है। इसी प्रकार से आप देखें कि कुगुरुओं की तरफ लोग किस प्रकार खिंचे चले जाते हैं? किस प्रकार उनसे जुड़ जाते हैं और उनके सन्देश को फैलाते हैं? मैंने लोगों को सड़कों पर गाते हुए देखा है। अटपटे वस्त्र पहनकर अपने गुरु की स्तुति गाते हुए! हमें इस तरह की चीज़ों की कोई आवश्यकता नहीं है। आप लोगों को ज्ञान प्राप्त हो गया है और नि:सन्देह आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। परन्तु महत्वपूर्ण बात ये है कि आपने सहजयोग के लिए क्या किया ? सहजयोग आपको सर्वत्र फैलाना होगा। उदाहरण के लिए आप मेरा एक बिल्ला (बँज) पहना करें, तो लोग आपसे पूछेंगे कि ये क्या है? तब आप उन्हें सहजयोग के विषय में बताएं? आप सहजयोग के विषय में बातचीत करना शुरू कर दें, इसके अतिरिक्त कुछ न करें। केवल सहजयोग की बातचीत करें और सहजयोग को फैलाते जाएं। जब तक आप ये कार्य नहीं करते तब तक ये सामूहिक न होगा और सामूहिक गलतियों के कारण जो प्राकृतिक विनाश होने वाला है वो होकर रहेगा। आपकी सुरक्षा बहुत सी विपदाओं से की जाती है। प्रदूषण होते हुए भी सहजयोगियों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। चाहे भूकम्प और विनाश हो, सहजयोगी की सुरक्षा होगी। तो क्यों न हम पूरे विश्व की रक्षा करें । विपत्ति के बाद विपत्ति आ रही है। यदि आपमें करुणा है तो उन सब लोगों के विषय में सोचें जो इन विपदाओं के शिकार होने वाले हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं बहुत से लोगों को रोगमुक्त कर सकती हूँ। नि:सन्देह मैं नहीं जानती कि सहजयोग को सामूहिक किस प्रकार बनाएं। अब आप बहुत बड़ी संख्या में हैं। आप सब लोग आत्मसाक्षात्कार देना प्रारम्भ कर सकते हैं। आप लोगों को चाहिए कि कम से कम सौ लोगों को आत्मसाक्षात्कार दे। जगह-जगह जाकर आत्मसाक्षात्कार के विषय में बातचीत करें। परमेश्वर (परमेश्वरी माँ) की स्तुति गाएं और आप पूरे विश्व को बचा लेंगे। थोड़े से लोगों को बचा लेने से आप सतयुग नहीं ला सकते। इसके लिए पूरी पृथ्वी माँ को बचाना होगा। इस पर रहने वाले सभी लोगों को बचाना होगा, चाहे जैसे भी ये लोग हैं। दूरदर्शन पर मैंने देखा है कि किस प्रकार निर्लज्जतापूर्वक ये लोग उन चीज़ों की बातें करते हैं जिनके विषय में इन्हें बिल्कुल ज्ञान नहीं है और हजारों 28 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-28.txt लोग इनके पीछे-पीछे घूमते हैं! ये बात नहीं है कि लोग मूर्ख हैं या वे किसी गलत मार्ग पर चलना चाहते हैं, परन्तु ये कुगुरु उन्हें फँसाने की कला में सिद्धहस्त है । ये जानते हैं कि किस तरह से उन्हें अपने शिकंजे में लेना है, किस तरह से उनसे बातचीत करनी है। परन्तु सहजयोगी यदि किसी खराब चैतन्य लहरियों वाले व्यक्ति को देखता है तो वह भाग खड़ा होता है। ऐसे व्यक्ति से बचने का प्रयत्न करता है। उनके पास जाकर ये नहीं कहता कि आपकी चैतन्य लहरियाँ खराब हैं! अत: आप लोगों को साहसिक होना होगा और उन स्थानों पर जाकर उनसे बातचीत करके उन्हें सामूहिक बनाना होगा, अन्यथा आप इस विश्व को परमात्मा के प्रकोप से नहीं बचा सकेंगे। नि:सन्देह परमात्मा अत्यन्त क्रोधमय हैं। आप लोगों की तो वे रक्षा करेंगे परन्तु उसका क्या लाभ होगा? हमें तो पूरी पृथ्वी माँ को बचाना होगा और इस कार्य के लिए आपको तैयार रहना है। आपको यह सब कार्यान्वित करना होगा। जहाँ भी अवसर मिले सहजयोग का प्रचार करें । कुछ लोगों ने मुझे बताया कि श्रीमाताजी, यदि आप आ जाएं तो अच्छा होगा।' क्यों? ऐसा क्यों है? आप लोग भी तो मेरे जैसे बन सकते हैं। इसके विषय में लोगों को बता सकते हैं। मैंने केवल एक व्यक्ति से सहजयोग आरम्भ किया था और उस समय तो सर्वत्र पूर्ण अंधेरा था। कोई साधक न था केवल भयानक लोग थे, फिर भी यह कार्यान्वित हुआ। अतः हर व्यक्ति बहुत से सहजयोगी बना सकता है। आप सब लोग भी ऐसा ही क्यों नहीं करते और इसके विषय में लोगों को क्यों नहीं बताते ? आपका आचरण, आपकी शैली निश्चित रूप से लोगों को प्रभावित करेगी। आपको इस प्रकार इसे कार्यान्वित करना है कि सामूहिक चेतना प्राप्ति का अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकें। सहजयोग केवल सहजयोगियों के लिए ही नहीं है । ये सबके लिए है, ताकि प्राकृतिक विपदाएं तथा भयानक घटनाएं जो घट रही हैं रूक जाएं, पूर्णत: रुक जाएं। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि इन्हें रोका जा सकता है। जिस प्रकार आपकी सदा रक्षा की गई है वैसे ही उन सभी लोगों की रक्षा की जाएगी जो आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त कर लेंगे। क्यों न खुलकर बातचीत की जाए और लोगों को बताया जाए कि यदि हम इस प्रकार अपराध करते रहे, यदि हम इसी प्रकार चरित्रहीनता, धोखाधडी और शोषण करते रहे और स्वयं को यदि हमने विनाशशक्ति बनाए रखा तो इस दैवी प्रकोप से बचा नहीं जा सकेगा और, मैं सोचती हूँ कि हम इसके लिए जिम्मेदार होंगे। हर कार्य करने के लिए या किसी भी बुराई से बचने के लिए आपको संस्थाएं बनाने की आवश्यकता नहीं है । उन्हें विश्वास दिलाने और सहजयोग में लाने की आपकी शक्ति से ही सब कार्य हो जाएगा। मुझे आशा है कि, गुरु के रूप में आप लोग समझेंगे कि आपने क्या करना है। गुरु के रूप में आपके सम्मुख बहुत सी चीज़ें हैं, उनमें आपका चरित्र भी है। कल इन्होंने मुझे बताया कि किस प्रकार लाओत्से ने गुरुओं के विषय में लिखा कि किस प्रकार वे सभी चीज़़ों से ऊपर थे-अशांति, ईष्ष्या तथा व्यर्थ की बातचीत से ऊपर वे अत्यन्त महान हैं। वे हैं और गुरु रहेंगे और आप लोग यदि ऐसा ही करने का प्रयत्न करेंगे तो गुरु लोग यह स्थिति प्राप्त आप भी गुरु होंगे। आपने यही प्राप्त करना है। मैं जानती हूँ कि आप लोगों में से कुछ कर चुके हैं परन्तु अधिकतर ने अपनी करुणा एवं प्रेम से उस स्थिति को प्राप्त करना है। परमात्मा आपको धन्य करे ! 29 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-29.txt २हसा२ स्वामिनी श रूणल कहा गया है कि सहस्रार पर जब देवी प्रगट होंगी तो वे महामाया होंगी। आज के विश्व में इसके अतिरिक्त किसी अन्य रूप में पृथ्वी पर आना क्या सम्भव है? किसी भी अन्य प्रकार का अवतार भयंकर कठिनाइयों में फँस जाता क्योंकि इस कलियुग में अहं पर सवार मानव ही सर्वोच्च है । वे बिल्कुल मूर्ख हैं और किसी भी दैवी व्यक्तित्व को सब प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं या हिंसा पर उतर सकते हैं। महामाया के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में विश्व में अस्तित्व को बनाए रखना असम्भव है। परन्तु इनके बहुत से पक्ष हैं और यह साधकों पर भी कार्य करती हैं। .एक पहलू द्वारा यह आपके सहस्रार को आच्छादित करके रखती हैं और साधक की परीक्षा होती है। यदि आप उल्टे-सीधे लोगों से, उल्टी सीधी वेशभूषा धारण करने वालों से जो झूठ-मूठ चीज़ें दिखाते हैं, जैसा कि बहुत से कुगुरुओं ने किया है, या घटिया किस्म के लोगों से आकर्षित हैं तो आपका यह आकर्षण भी महामाया के कारण है क्योंकि महामाया ही इस प्रकार व्यक्ति की परीक्षा लेती हैं। महामाया दर्पण की तरह से हैं। आप जो कुछ भी हैं अपनी असलियत को दर्पण में देखते हैं दर्पण की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। यदि आप बन्दर की तरह हैं तो शीशे में बन्दर की तरह लगेंगे। यदि आप रानी जैसी हैं तो रानी जैसी ही लगेंगी। आपको गलत विचार या झूठा दिखावा देने की न तो दर्पण में शक्ति है और न ही ऐसी भावना। | 30 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-30.txt सत्य, जो कुछ भी हो, को यह दर्शाएगा। अत: यह कहना कि महामाया भ्रमित करती हैं, एक प्रकार से अनुचित है। इसके विपरीत शीशे में आपको अपनी वास्तविकता दिखाई पड़ती है। मान लो कि आप क्रूर व्यक्ति हों तो शीशे में भी आपका चेहरा क्रूर ही दिखाई देगा। परन्तु जब महामाया गतिशील होती हैं तब समस्या खड़ी होती है। तब आप शीशे में अपनी सूरत नहीं देखते, आप अपना मुँह घुमा लेते हैं-न तो आप देखना चाहते हैं न जानना। दर्पण में जब आपको कुछ भयंकर दिखाई पड़ता है तो मुँह घुमाकर आप सत्य को नकारते हैं। 'मैं ऐसा किस प्रकार हो सकता हूँ? मैं बहुत अच्छा हूँ, मुझमें कोई कमी नहीं, कुछ भी नहीं, मैं पूर्णतया ठीक हूँ। महामाया का तीसरा पक्ष यह है कि एक बार फिर आप इसकी ओर आकर्षित होते हैं और फिर दर्पण को देखते हैं। शीशे में आप पूरे विश्व को देखते हैं, परिणामतः आप सोचने लगते हैं कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैं कौन हूँ? यह संसार क्या है? मैं कहाँ जन्मा हँ? आपकी खोज की यह शुरुआत है पर इससे आपको संतुष्टि नहीं होती। अंत: यह महामाया की महान सहायता है। पहली बार जब लोग मेरे पास आते हैं और यदि वे मुझे पानी पीता देख लें तो कहते हैं कि ये कैसे कोई अवतरण हो सकती है? इन्हें भी पानी की आवश्यकता पडती है और अगर वे मुझे कोका-कोला पीते देख लें तो कहेंगे - वाह! ये किस प्रकार कोका-कोला पी सकती हैं, इन्हें तो बस अमृत पीना चाहिए। महामाया का एक और पक्ष भी है । लोग मुझे मिलने आते हैं उनमें से कुछ काँपने लगते हैं। वे समझते हैं कि उनमें महान शक्ति है जिसके कारण वे हिल रहे हैं। अत: अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण उन्हें गलतफहमी हो जाती है कि वाह! हम वहाँ गए, हममें इतनी शक्ति आ गई, हम कुछ महान चीज़ हैं। ......परन्तु जब उन्हें पता चलता है कि इस प्रकार कांपने वाले लोग पागल हैं तो धीरे-धीरे वे अपेक्षाकृत रूप से चीज़ों को देखने लगते हैं। प्रासंगिक सूझ बूझ आप पर पड़े उस पर्दे को हटाने में सहायक होती है जिसके कारण आप सत्य का सामना नहीं करना चाहते। | महामाया अतिमहत्वपूर्ण हैं, उसके बिना आप मेरा सामना नहीं कर सकते , आप यहाँ बैठ नहीं सकते, मुझसे बात नहीं कर सकते। जिस गाड़ी में मैं बैठती हूँ, उसमें आप प्रवेश नहीं कर सकते और मेरी गाड़ी चला भी नहीं सकते। सभी कुछ असम्भव होता, मैं कहीं हवा में उड़ रही होती और आप सब यहाँ होते और सभी कुछ गड़बड़ होता। मेरा आपके सम्मुख होना आवश्यक नहीं। निराकार रूप में भी मैं यहाँ हो सकती हूँ, पर सम्पर्क कैसे बनाया जाए और सौहार्द्र किस प्रकार बने ? इसी कारण मुझे महामाया रूप में आना पड़ा ताकि न कोई भय हो, के न दूरी। समीप आकर एक दूसरे को समझ सकें क्योंकि यह ज्ञान यदि देना है तो लोगों को कम से कम महामाया सम्मुख बैठना तो पड़ेगा ही। यदि वे सब दौड़ जाएं तो सहस्रार पर इस अत्यन्त मानवीय व्यक्तित्व की सृष्टि करने का क्या लाभ? वे महामाया रूप में आयी हैं। सहस्रार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह न केवल सात चक्रों की बल्कि बहुत से अन्य चक्रों की भी पीठ है। सहस्रार पर आप कुछ भी कर सकते हैं . होती हैं और ऐसा ही होना चाहिए। उदाहरणार्थ आप कह सकते हैं कि श्री माताजी, वातावरण, पर्यावरण की समस्याओं से भरा हुआ है, आप इसे शुद्ध क्यों नहीं करतीं? यदि शुद्ध हो गया तो लोग समस्यायें ही बनाते रहेंगे। यह मानव की समस्या है और यदि मैं इसे ठीक कर देती हूँ तो वे इसे अपना अधिकार मान बैठेंगे। उन्हें इन समस्याओं का सामना करना होगा और अपनी आदतें बदलनी होंगी। उन्हें समझना होगा कि वे स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं परन्तु महामाया के माध्यम से चीजें सामान्य रूप से कार्यान्वित 31 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-31.txt अन्यथा यदि कोई अन्य व्यक्ति शुद्धिकरण के लिए होगा तो वे कभी भी परिवर्तित नहीं होंगे। ... उनकी समस्याओं को सुलझा देने से ही मेरा कार्य समाप्त नहीं हो जाता और न यह लक्ष्य है। मेरा लक्ष्य तो उन्हें समर्थ बनाने का है ताकि वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा सकें। आपको अपना डॉक्टर या अपना गुरु बनना होगा परन्तु महामाया के बिना आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वही जानती हैं कि स्वतन्त्र मानव के शुद्धिकरण और नियन्त्रण में किस सीमा तक जाना है। इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण स्वतन्त्रता सहजयोगियों की नहीं होती। उन्हें तो आत्मा की स्वतन्त्रता प्राप्त है, अत: उनकी समस्याओं को सुलझाना बिल्कुल ठीक है ताकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हो सकें। जो लोग बिना सोचे-समझे पूरे विश्व को हानि पहुँचाने जा रहे हैं उन्हें स्वतन्त्र बनाने का क्या लाभ है? उनके लिए आवश्यक है कि सहजयोग में आएं-इसी कारण यह महामाया स्वरूप है। यदि मैं, माँ मेरी, राधा या ऐसे ही किसी अन्य रूप में आई होती तो हो सकता है सभी लोग यहाँ होते और सुन्दर भजन गा रहे होते, पर ऐसा नहीं है। अब आपको परिपक्व होना है, कुछ बनाना है बनना और विकसित होना है और इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम आप सहजयोग में आएं तब आपको सहजयोग में विकसित होना होगा, नहीं तो महामाया लीला करती रहेंगी और आपको भ्रमित करती रहेंगी। सहस्रार विराट का क्षेत्र है, विराट विष्णु हैं जो राम बने फिर कृष्ण बनें। तो यह लीला है। उसकी लीला, नाटक है और नाटक को ठीक करने के लिए उसे महामाया रूप में होना होगा। बचाव के बहुत से मार्ग हैं। कभी-कभी लोग चीज़ों को सुगमता से खोज लेते हैं, उनमें से एक ......जो पहले कभी नहीं हुआ। मैं स्वयं .......आपको महामाया के विषय में समझाने के लिए परम चैतन्य महामाया को प्रगट करने का प्रयत्न कर रहा है। यह स्वयं की अभिव्यक्ति कर रहा है। मैंने तो परम चैतन्य को ऐसा कोई कार्य करने परम चैतन्य है। परम चैतन्य कार्य करता है, मेरे चित्र दिखाता है। आश्चर्यचकित हूँ। को नहीं कहा। परन्तु यह सत्य है क्योंकि यह सोचता है कि अब भी जो लोग श्री माताजी का अनुसरण कर रहे हैं उनका स्तर उतना ऊँचा नहीं जितना होना चाहिए था। .....(परम चैतन्य यह चाहता है कि) अपने विश्वास को आप दृढ़ कर लें, यह विश्वास अंधविश्वास नहीं है । सहजयोगी समझने का प्रयत्न करें कि उन्हें विकसित होना है। यह विकास भी द्विपक्षीय होना चाहिए । .....पहला आपका पक्ष है कि मैं कितना समय सहजयोग के विषय में सोचने पर लगाता हूँ और कितना अपने व्यक्तिगत जीवन पर ? सहजयोग में हमें परमात्मा की ओर झुकना पड़ेगा। ...आप देखें कि आपके सभी विचार सहजयोग की ओर जा रहे हैं, पूरी सोच ही सहज है। सहज में सबसे मनोरंजक बात यह है कि जो भी कार्य आप करते हैं उसे देखते हैं। सहज मार्ग के विषय में आप सोचते हैं । इस महामाया में आप मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं ? सहज के विषय सोचते हुए आप कहाँ तक जा सकते हैं? इस व्यापार से मैं कितना धन कमा सकता हूँ? में कितना आनन्द ले सकता हूँ? कितनी शारीरिक समस्यायें सुलझ सकती हैं? आदि सभी लाभ सहजयोग में आपकी परिपक्वता के सम्मुख कुछ भी नहीं। मस्तिष्क के हाथ में बागडोर आते ही यह अत्यन्त सोच में पड़ जाता है । तुम्हारी पत्नी, बच्चे, 32 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-32.txt घर आदि बहत सी चीज़ों पर यह मँडराया रहता है पर यदि आप सहज ढंग से सोचेंगे तो कहेंगे कि मुझे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे मेरे बच्चे सहज बनें। मुझे एक ऐसा घर चाहिए जो सहज के लिए उपयोग में आ सके। मेरा आचरण ऐसा हो जिससे लगे कि मैं सहजयोगी हूँ। आप में परिपक्वता इस प्रकार बढ़े कि आप इसे महसूस कर पायें । सर्वप्रथम शांति । अशांत व्यक्ति का मस्तिष्क अस्थिर यन्त्र के सम होता है। वह ठीकप्रकार से न तो देख सकता है, न सोच सकता है और न ही समझ सकता है| इस महामाया के माध्यम से हर चीज़ उलट-पुलट हो रही है। ........विश्व में जिस प्रकार संघर्ष चल रहा है यह युद्ध नहीं है, यह शीत युद्ध नहीं है यह तो एक अजीब किस्म का युद्ध-यश है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। .... परमात्मा तथा आध्यात्मिकता का व्यापार हो रहा है। आज के इस पतित विश्व के लिए महामाया का होना आवश्यक है जिसके द्वारा दर्शा सकें कि इस जीवन में आप जो कर रहे हैं उसके लिए आपको नाकों चने चबाने पड़ेंगे। भुगतान करने वाली देवी, आपने ऐसा किया, ठीक है आप ये ले लें। आपने यह कार्य किया ठीक है, आप इसका आनन्द लें। वास्तव में ये महामाया विशेष रूप से गतिशील हैं। जिस तरह से यह लोगों को दण्डित कर रही हैं, कभी- कभी तो मुझे भय प्रतीत होता है। पर वास्तविकता यही है। यदि आप कहें कि मुझे अन्धाधुन्ध गाड़ी चलानी अच्छी .इस महामाया को हम रोकड़ा देवी कहते हैं अर्थात हाथों हाथ फल देने वाली, नग़द लगती है तो ठीक है, समाप्त। लँगड़ाती टॉँग या टूटा हाथ आपका अंत है। महामाया के माध्यम से देवी कानून कार्यरत है। आज की तरह यह कभी इतना तेज न था। .मानव की स्वतन्त्र इच्छा पर अंकुश रखने के लिए महामाया अपनी स्वतन्त्र इच्छा का उपयोग कर रही हैं। ......यह कथित स्वतन्त्रता जिसका आनन्द लेने का हम प्रयत्न कर रहे हैं हमें हमारे अन्त तक ले आई है। लोग अपने ही शिकंजे में फँस रहे हैं। यह शिकंजा ही महामाया है। आपसे ही वे इसकी रचना करती हैं क्योंकि आप अपना सामना नहीं करना चाहते, सत्य को जानना नहीं चाहते, सत्य से आप जी चुराना चाहते हैं। यह महामाया का ही एक पक्ष है कि तुरन्त आप अपना सामना करने को विवश हो जाते हैं।........ कितनी सारी घटनायें घटीं इनका विचार कीजिए । बड़े-बड़े पूँजीपति जेल में हैं । बड़े प्रसिद्ध लोग जेल में हैं । इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं क्यों? क्योंकि यह महामाया सबक देना चाहती हैं। एक व्यक्ति को दण्डित करने से यह हज़ारों लोगों को रास्ते पर ले आती हैं। इतना डरा हुआ विश्व है, इतनी असुरक्षा है। ......आज हर व्यक्ति व्यग्र है और अपना जीवन बचाने की सोच रहा है।......आप सहजयोग में आ जाएं तो आप कष्ट से बच सकते हैं क्योंकि महामाया का एक पक्ष यह है कि वे रक्षा करती हैं। जब तक स्वयं न चाहे कोई सहजयोगी को मार नहीं सकता। उनकी अपनी इच्छा है, उन्हें कोई छू नहीं सकता। किस प्रकार यह महामाया सहजयोगियों की रक्षा करती हैं इसकी बहुत सी कहानियाँ हैं। स्वप्न में भी वे यह चेतन मस्तिष्क है परन्तु अत्यन्त गहन सुषुप्ति की अवस्था में आप जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत ? किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत। रक्षा करती हैं।.. किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं। यही ज्ञान अन्तज्ञ्ञान है जो कि महामाया के माध्यम से आता है। केवल वे ही आपको अन्तर्ज्ञान देती हैं कि क्या करना आवश्यक है? किस प्रकार समस्या से छुटकारा पाना है? और आप 33 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-33.txt छुटकारा पा लेते हैं। कोई यदि सहजयोगियों को परेशान करने का प्रयत्न करता है तो महामाया एक सीमा तक उसे ऐसा करने देती हैं और फिर अचानक गतिशील हो उठती हैं। लोग आश्चर्यचकित हो उठते हैं, सहजयोगी हैरान हो जाते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा किस प्रकार बन गया ? यह महामाया मेरी साड़ी की तरह हैं और रक्षा कर रही हैं। वह अत्यन्त सुन्दर, दयालु, ध्यान रखने वाली, करुणामय, स्नेहमय तथा कोमल हैं। वह आपकी देख-रेख करती हैं और राक्षस तथा असुर प्रवृत्ति के लोगों, जो परमात्मा के कार्य को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं, पर क्रुद्ध होकर उनका संहार करती हैं । .महामाया का एक अन्य पक्ष यह है कि वे आपको परिवर्तित करती हैं। मानव के लिए सभी कुछ मस्तिष्क है। आप यदि कुटिल हैं तो कुटिल हैं। आप यदि दूसरों से घृणा करते हैं तो यह भी मस्तिष्क में है। आपको यदि कोई व्यसन है तो वह भी मस्तिष्क में है। मस्तिष्क के बन्धन अतिजटिल हैं। अत: नि:सन्देह सहस्रार अत्यन्त महत्वपूर्ण है परन्तु विराट तथा विराटांगना की शक्ति तभी प्रभावशाली हो सकती है जब महामाया का शासन हो और वे अपने मधुर तरीकों से सहस्त्रार को खोलें और आपको कुरूप, भयंकर तथा क्रोधी बनाने वाले सभी बन्धनों का निवारण करें। .महामाया पृथ्वी माँ की तरह हैं, यह सभी कुछ मिलने पर आपको वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न तथा आनन्दमय बना देती हैं ताकि आप 'निरानन्द' 'केवल आनन्द' का रसपान कर सकें। आनन्द के सिवाय कुछ भी नहीं-यही सहस्रार है परन्तु यह तभी सम्भव है जब आपका ब्रह्मरंध्र खुल जाए। उसके बिना आप परमात्मा के प्रेम की सूक्ष्मता में और सदा संग रहने वाली महामाया की करुणा में प्रवेश नहीं कर सकते। बाह्य रूप से मैंने बता दिया कि महामाया कैसी हैं परन्तु अन्दर से आप इन्हें तभी जान सकते हैं जब अपने ब्रह्मरंध्र से इसमें प्रवेश करें। तब सर्वव्यापक शक्ति की अवतरण यह महामाया एक प्रकार से बिल्कुल भिन्न हो जाती हैं । वे एक ओर तो आपको सबक सिखाने का प्रयत्न करती हैं, विनाशकारी शक्तियों को समाप्त करती हैं और दूसरी ओर आपको प्रेम करती हैं, कोमलतापूर्वक आपकी रक्षा करती हैं और मार्गदर्शन करती हैं। उसका प्रेम निर्वाज्य है। वे प्रेम करती हैं क्योंकि इसके बिना उनसे नहीं रहा जाता, तो उस प्रेम में आप सराबोर हैं और आनन्द ले रहे हैं। हर व्यक्ति जानता है कि वह उनके बहुत करीब है , बिल्कुल करीब, जहाँ भी वो हों और जब भी वो चाहें उनसे सहायता माँग सकते हैं। सहस्रार अति महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल इसी के माध्यम से हम प्रतिक्रिया करते हैं। जिस विश्व में हम रह रहे हैं यहाँ हमें अब उन कमलों की तरह होना है जिन पर दाग़ नहीं लगाया जा सकता और प्रचलित कोई बुराई जिन्हें प्रभावित नहीं कर सकती। यही परीक्षा है कि इस कठिन समय पर हम खिल सकें और सुगन्ध फैला कर बहुत से अन्य लोगों को इस सुन्दर वातावरण में ला सकें। प.पू.श्री माताजी, ८. ५.१९९४ 34 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-34.txt तलनन २ ১६. ...रइट डडेड लोगों को भक्ति-भाव से मूड़े अपने हृढय में बैठानी चाहिये अरथात बाई औ२को आनी चाहिए। आपका चित्त पहले भक्ति भाव में आनी चाहिये और फिर२ भक्ति भाव से श्रद्धा भाव में चला जीनी आविश्यक है। ...... मंत्र बोलते समय चिंत्त मध्य चंक्रों पर२२खें। महाकाली और महास२स्वती दोनों औ२से मध्य नाड़ी प२ ही कार्य करती हैं औ२ इस प्रकार अंत: संबंधित होती हैं। डॉ.तलवा२ से वाती प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in 2012_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-35.txt १ रा ।ां ० हमारे उत्थान मा्ग में सत स६षम ऊर्जी चक्र हैं। कुछ सहायक चंक्र भी हैं। हमारी विकास प्रक्रिया के दौरान इन सूक्ष्म चक्रों हुआ। शरी२ के बाँये हिससे में ये चक्र हमें सृजन भावनीत्मक पौषण प्रदान करते हैं और ढायें हिस्से प२ का शारीरिक एवं मानसिक पोषण । - प. पू. ्री माताजी, परा आधुनिक युग ास ाम