चैतन्य लह हिन्दी जुलाई-अगस्त २०१२ इस अंक में इस्ट२ फूजा ...४ प्रकाश को बढ़ाना है ...६ स्थिति प्रज्ञा स्थिति ...८ आत्मा का सख ...१७ की स्व२०ूप ...१८ लक्ष्य प्राप्ति में मंत्रों एवं प्रार्थनीओं का महत्व ... ३० मैं लौगों में अन्तपरिवर्तन करने का फ्रयत्न कर २ही हूँ। दैवी समूहिकता में इसका निर्णयि लिया गया था। सरे देवी- देवताओं ने इसे कार्य की ज़िम्मेदारी किसी समर्थवान को देने का निर्णय किया तो उन्होंने कहा कि हम सब और हमारी सेारी शक्तियाँ आपके २थ होंगी, प२ आप कलियुग में मानव को परिवर्तित करने का कार्यभा२ ले लें । प.पू.श्री मातीजी, कबेली, २६.४.१९९४ इस्ट२ पूजा संदेश आस्ट्रेलिया पुनरुत्थान मानव जौवन का मुख्य लक्ष्य है। जौवन के प्रलोभनों से मानव को ऊपर उठना है। ान ३.४.१९९४ इस्टर पूजा के विषय में बताते हुए श्री माताजी ने कहा कि आस्ट्रेलिया और पूरे विश्व के लिए यह पूजा महत्वपूर्ण है । क्योंकि इसमें एक महान संदेश है, जिसका वास्तविकरण हम कर चुके हैं। हमें ईसा के संदेश को ने समझना है। श्रीमाताजी बताया कि समाचार-पत्र में वह पढ़ रहीं थी कि किस प्रकार लोग ईसा के संदेशों को अस्वीकार कर देते हैं। ऐसा करने वाले वे कौन हैं? मात्र लेखक होने के कारण उन्हें ऐसी बातें करने का क्या अधिकार है। जो लोग आत्मसाक्षात्कारी नहीं है उन्हें आध्यात्मिकता के विषय पर लिखने का कोई अधिकार नहीं है । आध्यात्मिकता उनके मस्तिष्क से परे की बात है। श्रीमाताजी ने कहा कि यह कितने आश्चर्य की बात है कि वे इस पूजा का आयोजन आस्ट्रेलिया में कर रही हैं । मूलाधार की धरती पर। मूलाधार, जहाँ मूलाधार स्थापित किया गया और बाद में वह ईसा के जीवन में आज्ञा चक्र पर प्रकट हुआ। सभी अभारतीय देशों में सहजयोग की सबसे अधिक उन्नति आस्ट्रेलिया में हुई है। अब सबसे अधिक उन्नति रूस में हुई है जो कि पूर्वी खण्ड के देशों की दायीं आज्ञा है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में अधिकतर चीनी जाति के लोग हैं। वे बुद्ध की पूजा करते हैं जिनका स्थान बाईं आज्ञा पर है। बुद्ध से प्रभावित थाईलैण्ड, हांगकांग, तैवान आदि देशों की देखभाल में आस्ट्रेलिया सहायता कर रहा है। यह सब एक योजना की तरह कार्यान्वित हो रहा है। एक बहुत बड़े सन्त हुए हैं जिन्होंने कोई घोर पाप किया। परिणाम स्वरूप परमात्मा ने अभिशप्त करके उन्हें भारत और अफ्रीका के बीच की पृथ्वी पर भेज दिया। तब इस पृथ्वी का पतन इस स्तर कर दिया गया और उस सन्त को कहा गया कि इसके लिए कुछ करे। उस सन्त का नाम त्रिशंकर था जो कि अब दक्षिणी क्षेत्र के सितारे हैं और जिनका वर्णन पुराणों में है। परमात्मा ने दण्ड के फलस्वरूप उस संत को पृथ्वी के इस क्षेत्र के ऊपर लटकता हुआ सितारा बना दिया और उससे कहा गया कि जा कर वहाँ के मानव के लिए स्वर्ग की रचना करे। आस्ट्रेलिया में बहुत एक तो यह कि हम बहुसांस्कृतिक समाज से सम्बन्धित हैं जहाँ दूसरी संस्कृति की रक्षा की जाती है और जहाँ न्याय प्रणाली द्वारा लोगों की रक्षा की जाती है। बहसांस्कृतिक समाज का विकास करने के लिए यह बहुत अच्छी बात है और यह राजनीतिक विचारों के पुनरुत्थान द्वारा आता है। लोगों को अपने आस-पास की संस्कृति के बारे में जिज्ञासा और ज्ञान है। इससे प्रकट होता है कि हमारे जीन्स में सामूहिकता की भावना है तथा हमारा देश अभी भी बहसांस्कृतिक समाज में विश्वास करता है। यह सब चीजें श्री गणेश के गुणों को अभिव्यक्त करती है। सी अच्छी बातें हैं। यदि १० ऐसे लोगों का समूह है जिनमें श्री गणेश की पवित्रता नहीं है तो वे इकट्ठे नहीं रह सकते क्योंकि उनमें हमेशा झगड़ा होगा, लोग बहुत ही उथले बन जाएंगे । पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध श्री गणेश द्वारा स्थापित किया जाता है। वे हमेशा वैवाहिक जीवन का आनन्द लेने का ज्ञान प्रदान करते हैं। पुनरुत्थान मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य है। जीवन के प्रलोभनों से मानव को ऊपर उठना है। ईसा मानव के रूप में आये पर वे मानव न थे, क्योंकि उनमें भौतिकता नहीं थी। वे ओंकार थे, इसलिए वे पानी पर चल सके| क्राइस्ट का संदेश पुनरुत्थान था जो कि बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ पर आपको तीन दिन का अवकाश मिलता है। पर जो लोगों को करना चाहिए वे उसके विपरीत करते हैं। ईसा हमारे आदर्श होने चाहिए। पवित्र दृष्टि किस प्रकार सम्भव है? पश्चिमी देशों के लोगों की आँखे तो कामुकता और लालच से परिपूर्ण हैं। ईसाई राष्ट्रों के साथ मुख्य समस्या यह है कि वे अत्याधिक भौतिकतावादी बन गये हैं, लोगों को आँखें देखती हैं और प्रतिक्रिया करती हैं, वे साक्षी नहीं हो सकते। विचार और प्रतिक्रिया व्यक्ति को पशुत्व के निम्नतम स्तर तक ले जा सकते हैं। सहजयोग में श्रीमाताजी के जीवनकाल में ही, पृथ्वी पर निश्छल लोगों के एक नये विश्व की सृष्टि कर दी गयी है। 5 प्रकाश को बढ़ाना है रामपुर, २१ दिसंबर १९८९ आपको मुझे बहुत सारी वस्तुयें देना या अर्पण प्रस्ताव करना बहुत महत्वपूर्ण नहीं, आपने कितने लोगों को साक्षात्कार दिया, इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात है। आपकी क्या अवस्था है? क्या आप विकसित हो गये हैं? क्या आप स्वतंत्र हो गये हैं? क्या आप बंधनमुक्त और अहं मुक्त हो सकते हैं? क्या आप अति विनम्र, सुन्दर, करुणामय और सामूहिक व्यक्तित्व बन गये हैं? अन्तर दर्शन स्वयं को देखने का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। कार जब तक ठीक अवस्था में न हो हम उसे चला नहीं सकते। इसी प्रकार आपका अस्तित्व यदि हास्यास्पद स्थिति में है तो आपका उत्थान नहीं हो सकता। यह वास्तविकता है। हर चीज़ में से आनन्द की प्राप्ति हमारी उपलब्धि का चिन्ह है। यदि हमारा बर्तन छोटा है तो इसमें बहुत कम आनन्द समा सकता है। परन्तु यदि यह सागर समविशाल है तो आनन्दरूपी सभी नदियाँ इसमें आ गिरेंगी। अत: आनन्द की मात्रा मनोरंजन की नहीं, महत्वपूर्ण है। मैं छिछोरे या सस्तेपन की बात नहीं कर रही हूँं, मैं उस गहन ध्यान- आनन्द की बात कर रही हैूँ जो आप अपने अन्दर पाते हैं। यह आपके अन्दर उमड़ उठता है, आपको आनन्दित करता है और आप यह समझ भी नहीं पाते कि आप प्रसन्न क्यों हैं। केवल अपने आनन्द का मज़ा लेते हैं। जब ऐसा हो तो व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि वह जपने-योगी हैं। इस अवस्था में आप यह आनन्द बाँटना चाहते हैं। इसे अपने तक सीमित रखना नहीं चाहते। आप इसे फैलाना चाहते हैं। इस आनन्द को दूसरों को देना चाहते हैं। इसे दूसरों तक पहुँचाये बिना आप खुश नहीं हो सकते। अत: पहले आप पूंजीवादी बनिये और फिर साम्यवादी। 6. तेप पहली बात है कि हमने कितना आनन्द पाया और दूसरी कि हमारे मस्तिष्क में अब क्या है? सहजयोग को हम बाहर की ओर कैसे फैलायेंगे। सर्वप्रथम प्रकाश को बढ़ाना है, तब स्वत: प्रकाश | फैलेगा। हमारा स्वयं से क्या संबंध है? झुंड न बनाने के लिए मैं पहले कह ही चुकी हूँ। कुछ लोगों की बहुत अधिक गर्दन हिलाने की आदत बन गयी है। गाते हुए वे अपने शरीर और गर्दन को हिलाते हैं। आप अपने शरीर को हिला सकते हैं, परन्तु गर्दन शरीर के साथ ही हिलनी चाहिए। ध्यान में जाने से पहले स्वयं को देखिये, अपनी कमियों को देखिये, तब मेरे फोटोग्राफ के सामने ध्यान में जाइये । जब हम आ रहे थे, मैंने कहा, 'यह रास्ता गलत है। उन्होंने कहा, 'माँ, आप कैसे जानते हैं?' बस, मैं जानती हूँ। किसी चीज़ को जानने के लिए यह आवश्यक नहीं कि आप इसके विषय में हर बात को जानें। यह आपके चैतन्य बनने का चिन्ह है। हर चीज़ की चेतना होने का यह मतलब बिल्कुल नहीं कि आप बैठ जायें और कहें, 'यह बहुत सुन्दर है या यह बहुत उत्तम है।' यह कोई बात नहीं। प्रमाणित करने या आलोचना करने के लिये नहीं परन्तु जो भी आप जानते हैं उसे वातावरण में अनुभव कीजिए | हमारे पास एक बहुत बड़ा मस्तिष्क है और सिर के अन्दर दो खंड। यह केवल एक मस्तिष्क नहीं है, परन्तु दो खण्ड हैं और जब चेतना आपको प्रकाश देने लगती है तो आप अपने अन्दर हर चीज़ को जानना शुरू कर देते हैं और शान्त रहते हैं। आप न तो कोई दावा करते हैं और न ही अपना दबाव डालने के लिए कोई चालाकी करते हैं। आप केवल जानते हैं और यही सुन्दर कार्य व्यक्ति को करना है। एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण बात मैं आपको बतलाऊंगी। भारत में आप अच्छी तरह अपने बालों को संवार कर रखिये, नहीं तो लोग समझेंगे कि आप भिखारी हैं। केवल भिखारियों के बाल इस तरह के होते हैं। बालो में तेल डालिये और इन्हे कायदे से संवारिये। आपके अपने ललाट (माथे) पर गर्व होना चाहिए। यह एकादश है। अपने इस एकादश से आपको पूरे विश्व से युद्ध करना है। रात्रि के समय बालों में तेल डालिये । यह आपको | बहुत आराम पहुँचायेगा। आपको बहुत अच्छा लगेगा। विशेषतया जिगर के ( लीवर) के रोगियों के लिए यह बहुत आवश्यक है। उन्हें अपने सिर पर तेल अवश्य लगाना चाहिए, क्योंकि वे बड़े खुश्क लोग होते हैं। उनके बालों में तेल न होने के कारण बाल बढ़ते नहीं और वे जल्दी ही गंजे हो जाते है। आपको मेरे बताये बिना ही सहज -संस्कृति को व्यक्त करना है, इसे स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करना है। निर्णय करने का प्रयत्न कीजिए कि आपका चित्त कहाँ है। हर समय अपने चित्त पर चित्त को रखिये। मेरा चित्त कहाँ है? श्रीमान् चित्त जी आप कहाँ खोये हैं? और यह आपके लिए कार्य करेगा | ईश्वर आपको आशीर्वादित करें। 7 स्थित प्रज्ञा स्थिति सर्वप्रथम उन्हें सोचना पड़ा कि 'हमारी आध्यात्मिक स्थिति क्या है? हमारी आध्यात्मिक भूमि कैसी है ? श्री राम के समय में उन्होंने बहुत सी मर्यादाएं बनाई थी और लोग इन मर्यादाओं के विषय में सोचने लगे थे कि मझे यह कार्य नहीं करना चाहिए, मुझे वैसा नही करना चाहिए। ५/९/१९९९, कबैला, इटली २० द द ऊ ह ार हि ॐी ० ० मानवौय प्रकृति के कारण आपको कर्म तो करना होगा परन्तु इस कर्म का फल परमात्मा के चरण कमलों में या दिव्य शक्ति पर छोड़ देना चाहिए। ॐ आज हम श्री कृष्ण की पूजा विराट रूप में करेंगे। सर्वप्रथम श्री कृष्ण अवतार को समझ लेना आवश्यक है। 'कृष्ण' शब्द का उद्भव 'कृषि' शब्द से है-कृषि अर्थात् खेती। उन्होंने आध्यात्मिकता के बीज बोए और इसके लिए सर्वप्रथम उन्हें सोचना पड़ा कि 'हमारी आध्यात्मिक स्थिति क्या है? हमारी आध्यात्मिक भूमि कैसी है? श्री राम के समय में उन्होंने बहुत सी मर्यादाएं बनाई थीं और लोग इन मर्यादाओं के विषय में सोचने लगे थे कि मुझे यह कार्य नहीं करना चाहिए, मुझे वैसा नहीं करना चाहिए।' यह सब मात्र मानसिक बन्धन थे, ऐसा करना न तो वे स्वाभाविक था और न सहज। परिणाम स्वरूप लोग अत्यन्त गरम्भीर हो गए। न तो ज्यादा बातचीत करते थे, न हँसते थे और न ही किसी चीज़ का आनन्द लेते थे। अत: सर्वप्रथम श्री कृष्ण ने निर्णय किया कि वे लोगों को इन बन्धनों से मुक्त करेंगे और इस तरह से ये बन्धन समाप्त करेगे कि लोग परस्पर आनन्द प्राप्त कर सकें। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के तीन मार्ग थे सर्वप्रथम उन्होंने कहा कि आत्मानुभव (आत्मसाक्षात्कार ) प्राप्त करके स्थितप्रज्ञ बन जाओ-सभी प्रलोभनों, अहं, सभी बन्धनों से मुक्त होकर स्थित प्रज्ञ बन जाओ । स्थित प्रज्ञ स्थिति में व्यक्ति सर्व साधारण लोगों की तरह से नहीं सोचता और न ही सामान्य व्यक्ति की तरह भौतिक पदार्थों की तरफ आकर्षित होता है। ऐसा व्यक्ति पूर्णत: निर्लिप्त होता है उसे न तो कोई शिकायत होती है और न ही कोई ईर्ष्या । श्री कृष्ण ने यह सब बताया परन्तु उन्होंने इस स्थिति को प्राप्त करने की विधि कभी नहीं बताईं। दूसरी चीज़ जो उन्होंने बताई कि मानवीय प्रकृति के कारण आपको कर्म तो करना होगा परन्तु इस क्म का फल परमात्मा के चरण कमलों में या दिव्य शक्ति पर छोड़ देना चाहिए। यह उनकी एक अन्य चाल थी क्योंकि वे जानते थे को कि मानव में कितना अहं है और मानव को किस प्रकार चलाना है। मनुष्य यदि आप कोई बात सीधे से बताएं तो वे किस प्रकार इसका गलत अर्थ लगाता है। अत: श्री कृष्ण ने जटिल मार्ग अपनाया कि लोगों को कुछ अटपटी चीज़ बताई जाएं। कोई भी कार्य जब आप करते हैं तो अहं के कारण उसे परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित नहीं कर सकते। ऐसा करना असम्भव है। अत: उन्होंने एक असम्भव स्थिति की सृष्टि की ताकि कुछ समय पश्चात् लोग यह महसूस कर सकें कि ऐसा नहीं हो सकता और परमात्मा के चरण कमलों में किसी चीज़ को छोड़ने का विचार त्याग दें। इस प्रकार इन्होंने भूमि तैयार की। एक अन्य चीज़ जो उन्होंने कही, 'पुष्पम फलम तोयम्।' फूल, फल या जल जो भी कुछ आप 10 मुझे अर्पण करेंगे मैं इसे स्वीकार करूंगा। परन्तु ऐसा करते आपके हृदय में मेरे प्रति अनन्य भक्ति होनी हुए चाहिए। अनन्य अर्थात् जिसमें कोई अन्य न हो-पूर्ण। यह स्थिति तो केवल आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही आप अपने कर्मफल परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित कर सकते हैं और केवल आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही आप अनन्य भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मानव के जटिल स्वभाव के कारण उन्होंने यह अटपटी शर्त मानव के लिए बना दी। बहुत से लोग मुझे बताते हैं कि श्रीमाताजी हम अनन्य भक्ति कर रहे हैं। कैसे? क्योंकि हम गलियों में गाते फिरते हैं; हर समय परमात्मा का नाम लेते हैं, फटे पुराने कपड़े पहनकर पंढरपूर जाते हैं और एक महीना पैदल चलते हैं और गाते रहते हैं। भक्ति के विषय में उन्होंने इस प्रकार मूर्खतापूर्ण विचार कभी नहीं बताए। वे तो भक्ति के विषय में मानव के मूर्खतापूर्ण विचारों को दूर करना चाहते थे। अनन्य भक्ति तो केवल आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है, केवल उस स्थिति में जब आपके और परमात्मा के अतिरिक्त कोई न हो। इस प्रकार उन्होंने मनुष्य और उसकी मूर्खताओं पर तीन ओर से आक्रमण किया क्योंकि उन्होंने सोचा कि मानव को यदि सीधे से कहा गया कि ऐसा करो , ऐसा मत करो तो वे कहेंगे कि हमने ऐसा किया परन्तु हमें कुछ प्राप्त नहीं हुआ। भारत में एक पंथ है जो पंढरपूर जाते हैं; फटे पुराने कपड़े पहनकर एक महीने तक चलते रहते हैं, भजन गाते हुए मार्ग पर जहाँ भी जैसा मिलता है खा लेते हैं। वे सोचते हैं कि यह अनन्य भक्ति है, परन्तु उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। ऐसे लोग अस्वस्थ एवं दुर्बल हो जाते हैं और उनकी वृद्धावस्था दयनीय हो जाती है। परन्तु उन्हें कौन समझ सकता है? वो तो इसमें खो चुके हैं। अत: लोगों को मार्ग पर लाने का यह उनका तरीका था। बहुत से लोग मेरे पास आकर बताते हैं कि श्री माताजी हम श्री कृष्ण की इतनी भक्ति करते हैं परन्तु हमें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। तो श्री कृष्ण ने कृषि के लिए भूमि तैयार की, हम कह सकते हैं कि वह एक महान कृषक थे इसलिए 'कृषि' से उनका नाम कृष्ण पड़ गया। उनके विषय में मैंने आपको बहुत सी बातें बताई हैं कि उनका नाम कृष्ण कैसे पड़ा, राधा कौन थी, कृष्ण कौन थे आदि आदि। परन्तु जब उन्होंने ये सब बातें बताई तो उन्होंने कहा कि आप स्थित प्रज्ञ बनें। इसे ज्ञान योग कहा गया। ज्ञान योग-अर्थात् पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना। परन्तु उन्होंने ये नहीं बताया कि इसे किस प्रकार प्राप्त करें। यह बात तो आप जानते हैं कि पूर्ण ज्ञान क्या है। सहजयोग में इसे आप अपनी अंगुलियों के सिरों पर महसूस कर सकते हैं। श्री कृष्ण की एक अन्य विशेषता ये थी कि उन्होंने लोगों में विवेक की सृष्टि की। उन्होंने सोचा कि मूर्खतापूर्ण ढंग से कार्य करते हुए लोगों में विवेक उत्पन्न हो सकता है कि इस प्रकार कुछ प्राप्त न होगा; कुछ प्राप्त करने के लिए तो आत्मसाक्षात्कार आवश्यक है। आज जब हमारे सामने एक चुनौती की नई सहस्राब्दि में यह विश्व नष्ट हो जाएगा तथा ऐसी और बहुत सी बातें जो लोग कह रहे हैं, तो अच्छा क्या है और बुरा क्या है इसे विवेक द्वारा समझ लेना बहुत आवश्यक है। किसी चीज़ को हम बहुत अच्छा कहते हैं और किसी चीज़ को बुरा। परन्तु दिव्य विवेक भिन्न है और स्वयं कार्य करता है एक बार जब आप दिव्य विवेक के साम्राज्य में आ जाएंगे तब आप चाहते हुए भी गलतियाँ न कर बहुत सकेंगे। मैं आपको अपना उदाहरण दंगी। हम एक घर खरीदने के लिए गए और उसे बेचने वाला एक भिखारी 11 की तरह से था। वह आया और कहने लगा हमारे पास कुछ नहीं है, खाना तक भी नहीं है। हमारी सारी चीज़े छीन ली गई हैं और भूखे मरने के लिए छोड़ दिया गया है। उसने जब ये बात कही तो मुझे उस पर दया आई और मैंने कहा कि ठीक है इसकी कीमत कुछ और बढ़ा दीजिए। हमने कीमत बढ़ा दी फिर भी वह कहे जा रहा था नहीं नहीं इसे और बढ़ाइए । न चाहते हुए भी मेरे पति ने दो बार कीमत बढ़ाई तीसरी बार फिर बढ़ाई, परन्तु उसकी सन्तुष्टि नहीं हुई। तुरन्त विवेक ने कार्य किया और मैंने बताया, 'ये पाखण्डी है।' मैं आकर कार में बैठ गई। मुझे लगा कि खरीदने के लिए यह कोई इतना अच्छा स्थान भी नहीं है केवल करुणा के कारण मेैं इसे खरीद रही हूँ। परन्तु करुणा से भी ऊपर यह दिव्य विवेक है जिसने मुझे बताया कि इस सौदे को छोड़ दो । तो यह दिव्य विवेक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हमें देखना चाहिए कि यह किस प्रकार कार्य करता है और इससे सन्तुष्ट होना चाहिए। अवसर खो देने का दु:ख हमें नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत हमें प्रसन्न होना चाहिए कि ऐसा घटित हुआ और हमारे दिव्य विवेक ने सब सम्भाल लिया । कई बार ऐसा लगता है, आपने कोई गलती कर दी है। परन्तु यदि ये दिव्य विवेक में किया गया है तो यह अच्छा साबित होगा। दिव्य विवेक हमारे जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह हमें जीवन का, सहजयोग का वास्तविक आनन्द प्रदान करता है। अत: तीसरी बात जो श्री कृष्ण ने की वह थी लोगों को प्रसन्न एवं आनन्दमय बनाना। परन्तु उनकी समझ में यह नहीं आया कि श्री राम की मर्यादाओं के रहते किस प्रकार ऐसा किया जाए। तो लोगों को आनन्द देने के लिए उन्होंने कहा आओ नृत्य करें, गीत गाएं, होली खेलें आदि-आदि। इन चीज़ों से उन्होंने ऐसी प्रथाओं का आरम्भ किया जो बहुत गम्भीर न थी और देखने में उथली प्रतीत होती थी परन्तु इनके माध्यम से आनन्द की अभिव्यक्ति होती थी। उन्होंने यह बताने का प्रयत्न किया कि स्थित प्रज्ञ, सहजयोगी या आत्मसाक्षात्कारी का चीज़़ों के प्रति क्या दृष्टिकोण होना चाहिए। आप लोगों में स्वत: यह दृष्टिकोण बन जाता है। सहज अवस्था में आप हर चीज़ का आनन्द लेते हैं। वे लोगों में आनन्द की यही संवेदना उत्पन्न करना चाहते थे । उनके जीवन की इन गतिविधियों की बहुत से आलोचकों ने आलोचना की है। आलोचकों के धर्म का अर्थ यह है कि बीस साल की आयु में ही आप अस्सी साल के वृद्ध की तरह से व्यवहार अनुसार करने लगे। कितनी बेवकूफी है। श्री कृष्ण ने सदैव आनन्द की बात की, त्याग और विरक्ति की नहीं । उन्होंने कभी नहीं कहा कि अपना परिवार, बच्चे, सभी कुछ त्याग दो। उन्होंने सदैव यह कहा कि साक्षी भाव से आनन्द लो। निर्लिप्सा पूर्वक आनन्द लेने की बात लोगों की समज में नहीं आती। लिप्त होकर आप कभी आनन्द नहीं ले सकते। किसी चीज़ से लिप्त होकर आप उसका पूर्ण आनन्द नहीं ले सकते। मान लो आप अपने बच्चे से लिप्त हैं तो हर वक्त आप उसके विषय में चिन्तित रहेंगे। तो बच्चा आनन्द न पा सकेगा। आप उसे घर से बाहर न जाने देंगे, लोगों से बातचीत न करने देंगे, सभी प्रकार के बन्धन उस पर लगाए रखेंगे। परन्तु यदि आपमें दिव्य विवेक हैं तो आप जान पाएंगे कि बच्चे को किससे बात करनी चाहिए, कहाँ जाना चाहिए, किस चीज़ का आनन्द लेना चाहिए और देखेंगे कि बच्चा अपने जीवन का आनन्द ले सके। किसी चीज़ के प्रति लिप्सा आपको उसकी पूरी समझ नहीं दे सकतीं। आप यदि निर्लिप्त हैं तो उससे ऊपर उठकर आप उसे 12 २ मा र २० र २० देखते हैं साक्षी भाव में आप निर्विचार समाधि में चले जाते हैं। जैसा मैंने कहा यहाँ पर बहुत सुन्दर कालीन है। ये कालीन यदि मेरे होते तो लिप्त होने के कारण सम्भवत: मैं इन के प्रति चिन्तित होती। परन्तु यदि मैं लिप्त नहीं हूँ तो मैं इन्हें देखकर इनका आनन्द लूंगी। इन्हें बनाने वाले दस्तकारों की कारीगरी का मैं आनन्द लूंगी। बनाने वालों का आनन्द इनके माध्यम से मुझमें प्रतिबिम्बित होगा। अत: किसी चीज़ से लगाव प्रसन्नता तो हो सकती है परन्तु आनन्द नहीं क्योंकि आनन्द अद्वैत है और प्रसन्नता-अप्रसन्नता की जोड़ी है। प्रसन्नता में यदि हम आनन्द खोजें तो उसमें खामियाँ नज़र आएंगी परन्तु आनन्द सर्वव्यापी है, यह असीम है और व्यक्ति आनन्द के सागर में विलीन हो जाता है। यही कारण था कि श्री कृष्ण ने मर्यादाओं को सीमित कर दिया। आजकल हम देखते हैं कि बहुत सी मर्यादाएं व्यर्थ हैं उदाहरण के रूप में धर्म की मर्यादाएं। जब लोग इन मर्यादाओं में रहते हैं तो वे सीमित होकर एक ही से बन जाते हैं। मानो किसी खड़े हुए पानी के तालाब में पनपे हों। इन मर्यादाओं के कारण उनके मस्तिष्क बन्द हो जाते हैं। व्यक्ति सोचने लगता है कि मैं यह कार्य करूं या से न करू? मैं इसका आनन्द उठा पाऊंगा या नहीं? इन मर्यादाओं से आप आनन्द का वध करते हैं। बहुत लोग सहजयोग में आना चाहते हैं। परन्तु अपने धर्म की रुग्ण मर्यादाओं के कारण वे नहीं आ सकते। वे सोचते हैं कि हमारा यही धर्म है, ये नहीं समझ पातें कि धर्म द्वारा बनाई गई मर्यादाएं वास्तव में क्या हैं? इस्लाम में, आप देख सकते हैं कि धर्म की मर्यादाओं के कारण वे अन्य देशों पर राज्य करना चाहते हैं, इसाई धर्म में भी 13 ाय ऐसा ही हो रहा है, हिन्दू धर्म के लोग भी अपनी सड़ी हुई मर्यादाओं के कारण पिस रहे हैं। उनमें विवेक बुद्धि का पूर्ण अभाव है। वे मर्यादाओं का पालन इसलिए किए चले जा रहे हैं क्योंकि ऐसा करने के लिए कहा गया था। इनके विषय में वे इतने धर्मान्ध हैं कि उचित अनुचित को भी नहीं देख पाते। परन्तु सहजयोग में आने के पश्चात् आप उन्हें देख सकते हैं उन पर हँस सकते हैं और अपने विवेक का उपयोग कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त सामाजिक मर्यादाएं हैं। कई बार इन्हें छोड़ने पर बहुत भयानक स्थिति हो जाती है। पश्चिमी देशों की महिलाएं सोचती हैं कि जितने कम कपड़े वे पहनेगी उतनी ही वे सुन्दर लगेंगी। ये एक नई चीज़ उन्होंने आरम्भ कर दी है। ये मुर्खता है। इसके पीछे छिपे कारण को यदि हम खोजे तो ये अत्यन्त साधारण है कि हम पूर्व जन्मों में पशु थे और उन पाशविक संस्कारों के कारण अब भी हम सी वस्त्र नहीं पहनना चाहते। यह पाशविक परम्परा है जिसके कारण बहुत महिलाएं पूरे वस्त्र नहीं पहनना चाहतीं। यह पशु सम आचरण है। तो अच्छी मर्यादाओं को भी लोग त्याग देते हैं। वे कहते हैं कि हम स्वच्छन्द हैं और जो चाहे कर सकते हैं। परन्तु इस स्वच्छन्दता से आपको क्या मिलता है? इस स्वच्छन्दता में आपकी पशू वृत्ति कार्य करती है और आप स्वयं को स्वतन्त्र व्यक्तित्व मान लेते हैं । इसके अतिरिक्त राष्ट्र की मर्यादाएं हैं। परमात्मा ने भिन्न- भिन्न देश नहीं बनाए। यहाँ तो वैचित्र्य हैं। बहुत प्रकार के लोग हैं, भिन्न प्रकार के स्थान हैं। इस वैचित्र्य को कलात्मकता के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। हमें ऐसे विचारों से भ्रमित और नष्ट नहीं होना चाहिए कि हम अमरीकन हैं, हम भारतीय हैं, हम ये हैं, हम वो हैं। सहजयोग में आकर आप देख सकते हैं कि आप सब सहजयोगी हैं, किसी देश विशेष के नहीं हैं। कहने से मेरा अभिप्राय ये है कि आप लोग ये समझें कि यदि वास्तव में आप सभी राष्ट्रों का हित चाहते हैं तो कुछ कार्य करें- सहजयोग का कुछ कार्य। ताकि लोग भूमि आदि के लिए युद्ध करने के विचारों से मुक्त हो जाएं। भूमि तो परमात्मा की है। मनुष्यों की नहीं इसके लिए युद्ध करना मेरी समझ में नहीं आता। परन्तु लोग इस भ्रम में फँसकर अपने और अपने बच्चों से लोग नष्ट हो गए हैं और बहुत से के जीवन को नष्ट कर लेते हैं। बहुत पागलखानों में हैं। आपके पास अच्छे खासे घर होते हैं, भली भाँति आप रह रहे होते हैं और फिर शरणार्थी बन जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे अपनी भूमि के 14 स्वामी बन सकते हैं। ये विचार उन्हें मूर्ख नेताओं से मिलते हैं, जो भूमि विजय करने के लिए उन्हें युद्ध के लिए उकसाते हैं। भूमि आदि के लिए युद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं परन्तु स्थिति ऐसी है आप युद्ध किए बिना सत्य तक नहीं पहुँच सकते। आप यदि श्री कृष्ण का स्मरण करें तो उन्होंने अर्जुन से कहा था कि तुम्हें युद्ध करना होगा क्योंकि ये लोग अधर्मी हैं। युद्ध करके पाण्डवों ने कौरवों से अपना सब कुछ वापिस लिया। कौरवों ने क्योंकि धोखे से पाण्डवों से सब कुछ छीन लिया था इसलिए श्री कृष्ण ने पाण्डवों को युद्ध करने के लिए कहा। अत: दिव्य विवेक यदि आज्ञा दे तो युद्ध उचित है। दासत्व के विरुद्ध भी युद्ध का औचित्य है। भिन्न राष्ट्र या क्षेत्र बनाने के लिए युद्ध करना अनुचित है। किसी देश से कुछ हिस्से को अलग कर के परन्तु अलग राज्य बना लेना गलत है। इससे बहुत सी समस्याएं पैदा होती हैं। अब हम तो विश्व धर्म और विश्व साम्राज्य में विश्वास करते हैं। हमें कुछ माँगना नहीं पड़ता। जहाँ भी आप जाते हैं आप वहाँ के नागरिक हैं। आप यदि रूस जाएंगे तो सभी रूसी सहजयोगी आपके साथ होंगे और यदि अमेरिका जाएंगे तो अमेरिका के सहजयोगी। भिन्न राज्यों और धर्मों के विचार मानव की देन हैं और यदि मानव परिवर्तित हो जाएगा तो न तो युद्ध की समस्या रहेगी न भूमि हथियाने की। श्री कृष्ण का दिव्य विवेक अब भी हमारे अन्दर है। यह हमारे विशुद्धि चक्र का अंग-प्रत्यंग है, विशुद्धि चक्र में ही श्रीकृष्ण का निवास है। जब श्री कृष्ण आपके सहस्रार तक पहुँचते हैं तब वे विराट बन जाते हैं। अत: विराट का चक्र सिर में बनाया गया है-अगन्य चक्र के ऊपर। यह विराट श्री कृष्ण का ही रूप है जो अगन्य चक्र से ऊपर आए हैं। अगन्य चक्र से ऊपर उठकर आप विराट के अंगप्रत्यंग बन जाते हैं क्योंकि अहम् से ऊपर उठे बिना आप अपने स्वार्थों में और मर्यादाओं में फँसे रहते हैं। परन्तु आज्ञा से ऊपर उठकर विराट बनकर आप विराट की भूमि पर आ जाते हैं। विराट की शक्तियाँ महान होती हैं। विराट के दर्शन जैसे अर्जुन ने किए थे, विराट की शक्ति पूरे ब्रह्माण्ड में कार्य करती है। चाहे आप यहाँ बैठे हो यह शक्ति कहीं भी कार्य कर सकती हैं। आपने देखा होगा कि बहुत से लोग कहते हैं कि श्री माताजी यह चमत्कार है । मेरी माँ बीमार थी, | वो यहाँ नहीं थी, मैंने प्रार्थना की और वो ठीक हो गई। ये सब विराट की शक्ति है। विराट की शक्ति मानव की सूक्ष्मता में भी इस प्रकार प्रवेश कर सकती हैं कि सभी कुछ इससे जुड़ जाता है हम अलग नहीं होते। जैसे पानी की बूंद समुद्र से जुड़ी होती है इसी प्रकार हम ब्रह्माण्ड से जुड़े हुए हैं। और जब आप विराट के नागरिक बन जाते हैं तब जिन भी चीज़़ों से आप जुड़े हुए हैं उन्हें आपकी चैतन्य लहरियाँ प्राप्त होती हैं। आपके विचार, आपकी आकांक्षाएं, सभी कुछ इनमें से गुजरते हैं और यह कार्यान्वित होती है। आपने देखा है कि आपके जीवन में किस प्रकार चमत्कार हुए हैं। विराट शक्ति ही यह कार्य करती है। अब आपको ये जानना होगा कि विराट की पूजा किस प्रकार करें। सर्वप्रथम आपको अहं से ऊपर उठना होगा। ये बहुत महत्वपूर्ण है इसके बिना कैसे आप पूजा कर सकते हैं ? अहं यदि विराट और आपके बीच खड़ा होगा तो किस प्रकार आप विराट के स्तर तक पहुँच सकते हैं। अहं के बीच से आपको निकलना होगा और अहं से ऊपर उठते ही आप विराट के साम्राज्य में पहुँच जाएंगे। वहाँ विराट ही महाराज है और आप उनकी प्रजा हैं। 15 जिसकी पूरी देखभाल विराट शक्ति कर रही है। उस स्थिति में आप सार्वभौमिक व्यक्ति बन जाते हैं। विश्व स्तर पर जो भी हमारी समस्याएं हैं वो अब आपसे जुड़ जाती हैं। मान लो कोई व्यक्ति उस बुलन्दी तक पहुँच गया है तो वह किसी अन्य देश में होने वाले युद्ध को भी रोक सकता है। किसी पर यदि जुल्म हो रहे हैं तो उसे भी बचा सकता है। आपका करुणामय चित्त जहाँ भी जाएगा ये कार्य करेगा। कभी-कभी तो आप हैरान हो जाएंगे कि श्रीमाताजी यह किस प्रकार कार्य करता है। किस प्रकार सारी चीज़ें घटित होती हैं? यह संयोग बहुत बार हो चुके हैं। आवश्यकता बस इतनी है कि अहं से ऊपर उठकर आप विराट की अवस्था तक पहुँच जाएं। विराट में प्रवेश करना अत्यन्त आवश्यक है। तब आप यह नहीं सोचते कि 'यह मेरा देश है, यह किसी और का। 'मेरा तेरा' समाप्त हो जाता है, आप विराट के अंग - प्रत्यंग बन जाते हैं और विराट आपको अपने उद्देश्य के लिए उपयोग करता है। जब आपके पूर्ण विचार भिन्न हो जाते हैं, आपकी विचार धारा विश्वस्तरीय हो जाती है, तब यह कार्य करता है। इसकी शक्तियाँ असंख्य हैं। जैसे श्री कृष्ण लोगों को बुलाने के लिए शंख का उपयोग करते हैं इसी प्रकार मैंने अगुआओं को चेतना दी है। अब हमें घोष नाद करके लोगों को बुलाना है। परन्तु विराट के स्तर पर जब आप होंगे तो लोग आपको देखेंगे और जान जाएंगे। वे सोचेंगे कि आप इतने मधुर मानव हैं, रत्नों की तरह से अच्छे, हर समय देदिप्यमान। वे आपसे प्रभावित होंगे। ऐसा विराट के आशीर्वाद से होता है। जब आप वह स्थिति प्राप्त कर लेते हैं तो अपने उच्च पद, सम्पन्न परिवार तथा जीवन की अन्य मूर्खतापूर्ण चीज़ों को भूल जाते हैं और ये सब चीजें समाप्त हो जाती हैं । लोगों को अपने वैभव का प्रदर्शन करना अच्छा लगता है। कुछ लोग प्रदर्शन को अच्छा समझते हैं। परन्तु जो व्यक्ति अहं से ऊपर उठकर विराट शक्ति का अंग प्रत्यंग बन गया है वह विराट के साम्राज्य में प्रवेश कर जाता है। वह जानता है कि वह अत्यन्त क्षुद्र है। विराट के सामने वह अत्यन्त तुच्छ हैं और उस शक्ति में वह विलीन हो जाता है । हम सबके साथ ऐसा होना चाहिए। हमें विनम्र होकर अपनी शक्तियों को जानना चाहिए। अपने अहं से हमें मुक्ति पा लेनी चाहिए। अहं से पूर्ण मुक्ति पाकर हमें वास्तव में वह स्थिति प्राप्त करनी चाहिए जिसमें हमें विराट शक्ति के नागरिक हो जा सके। परमात्मा आपको धन्य करें। 16 आत्मा का सुख औरंगाबाद, १९ दिसंबर १९८९ मेरे जीवन में औरंगाबाद का विशेष महत्व है क्योंकि यहाँ से बहत नज़दीक में जो स्थान था, जो कि मूलत: प्रतिष्ठान के नाम से जाना जाता था, से मेरे पूर्वज संबंधित हैं। महाकाव्य रामायण के लेखक वाल्मिकी ऋषि यहाँ रहते थे। वाल्मिकी ऋषि के आश्रम बहुत से स्थानों पर थे, इस कारण से बहुत से झगड़े भी उठ खड़े हुए हैं। वास्तव में वाल्मिकी इस क्षेत्र में यहाँ रहते थे। गोदावरी नदी, जो कि प्रतिष्ठान की ओर जा रही थी, के दूसरी ओर शालिवाहनों का राज्य था । सीता जी यहाँ रही। उनका एक पुत्र रूस चला गया और दूसरा चीन। चीन जाने वाले पुत्र का नाम कुश और रुस जाने वाले का लव था। रूस के लोगों को स्लाव का लेब कहा जाता है। जो चीन को गये थे वे कुशाण कहलाते हैं। यही समीप ही विशालकाय तथा चुस्त चालाक और बुद्धिमान पशुओं में विकास के लिए एक बहुत बड़ा संघर्ष हुआ। चुस्त पशुओं ने बहुत से विशालकाय पशुओं को समाप्त कर दिया। नदी में बहुत से मगरमच्छ थे। जब हाथियों का राजा गजेन्द्र पानी पीने के लिये आया तो एक बड़े मगरमच्छ ने उस पर आक्रमण कर दिया। हाथियों का वंश समाप्त करने के लिए उसने ऐसा किया। श्री विष्णु वहाँ प्रकट हुए और मगरमच्छ को मार कर गजेन्द्र की रक्षा की। इन विशालकाय पशुओं में से आज केवल हाथी ही बचे हैं, यही कारण है कि इस स्थान को गजेन्द्र मोक्ष कहा जाता है। वाल्मिकी लोगों को लूटा करते थे। वे मछुआरों की जाति के थे। जब नारद नामक संत वहाँ आये तो उसने उन्हें भी लूटा। नारद जी ने उससे पूछा कि, 'वह ऐसा क्यों कर रहा है?' 'अपनी पत्नी, बच्चों तथा परिवार के पोषण के लिए,' वाल्मिकी ने उत्तर दिया और कहा कि, 'मैं अकेला कमाने वाला हूँ।' नारद जी ने फिर पूछा कि, 'क्या तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारे लिए इतना बलिदान कर सकेंगे?' वाल्मिकी को इसका पूरा विश्वास था। बच्चों तथा परिवार की परीक्षा के लिए चार साधुओं ने वाल्मिकी को मृतक के समान उठाया और उनके घर ले गये। वहाँ उनके परिवार के सदस्यों ने संतों से कहा कि लूटते हुए वह व्यक्ति मर गया है। यदि इसके परिवार का कोई सदस्य इसकी जगह जान देने को तैयार हो जाये तो वह बच सकता है। पर कोई भी इसके लिए तैयार न हुआ। वाल्मिकी उठकर खड़ा हो गया और उसे अपनी गलती का आभास हुआ। नारद ने उसे 'राम-राम' जपने को कहा । परन्तु वह केवल 'मरा-मरा' ही कह सका, जो कि ' राम - राम' ही बन गया । नारद ने उसे प्रायश्चित करने को कहा । वाल्मिकी एक पर्वत पर इस कार्य के लिए बैठ गया। यह पर्वत वाल्मिकी पर्वत के नाम से जाना जाता है। दीमक ने उसके शरीर को गर्दन के सिवाय पूरा खा डाला। तब विष्णु जी प्रकट हुए उसके शरीर से दीमक को हटाया और उसे साक्षात्कार दिया। संस्कृत भाषा में दीमक को वाल्मी कहते हैं। इस प्रकार उसका वाल्मिकी नाम पड़ा। इसके बाद की कहानी में सीता जी यहाँ आयी| इस प्रकार रामायण का एक महत्वपूर्ण भाग यहाँ घटित हुआ। शालिवाहनों ने वाल्मिकी मंदिर बनाने में बड़ी मदद की और वाल्मिकी जी को सम्मानपूर्वक अपना गुरू माना। वास्तव में बहुत समय पूर्व उनका गुरु चांडिल्य था। नीरा नदी के समीप हमने यहीं कुछ जमीन भी ली है। | यहाँ के लोगों के मन में ईश्वर का भय है और वह संतों का सम्मान करते हैं। उन्हें पता है कि सच्चा संत कौन है। जब हम आत्मा के सुख के विषय में सोचते हैं तो आत्मप्रकाश से जीवन भर जाता है और इस प्रकाश के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगता है। मुझे आशा है कि आप इस बात को समझेंगे। यही नहीं अपने सद्गुणों के प्रति हमें पूर्ण विश्वास हो जाता है और हम इनका आनन्द लेते हैं। हम कह सकते हैं कि इस संस्कृति में कोई धूर्तता या बनावट नहीं है। यहाँ न तो लोग बार-बार आपको धन्यवाद कहेंगे और न ही खेद प्रकट करेंगे। प्राय: वे हाथ भी नहीं जोड़ेंगे। विशेषतया स्त्रियां पुरुषों के सामने हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं कहेंगी । वे केवल ईश्वर के सम्मुख ही हाथ जोड़ते हैं। ईश्वर आपको आशीर्वादित करें । 17 ो क्षी स्व छु ఇద २ प हैद्राबाद, ७.२.१९९० भ ब्रय सः त्य के बारे में बताया था कि सत्य अपनी जगह अटूट, अनंत है और उसे हम अपने बुद्धि से, मन से, किसी भी तरह से बदल नहीं सकते। और सत्य क्या है? सत्य ये है कि हम, जो आज मानव स्वरूप हैं वो वास्तविक में आत्मास्वरूप है। एक आज ऐसी स्थिति पर हम खड़े हैं जहाँ हम स्वयं को एक मानव रूप में देख रहे हैं। और इससे एक सीढ़ी चढ़ने से ही हम जान लेंगे कि हम इस मानव स्वरूप से भी | एक ऊँचे स्वरूप में उतर सकते हैं जहाँ हम आत्मास्वरूप हो जाते हैं। ये एक महान सत्य है। लेकिन परम सत्य ये है कि ये सारी चराचर सृष्टि, सारी दुनिया, मनुष्य, प्राणीमात्र, जड़ चेतन सब जीव है । एक ब्रह्मचैतन्य के सहारे जी रही है, पनप रही है, बढ़ रही है। और ये परम चैतन्य चारों तरफ सूक्ष्मता से फैला हुआ है जो कि सब चीज़ों को बनाता है, सब चीज़ों को सृजन करता है, बढ़ाता है और जो कुछ भी आज हम इन्सान बने हैं वो भी इस परम चैतन्य के कृपा से ही बने हैं। इस परम चैतन्य में ऐसी शक्ति है कि जिससे वो हमें ज्ञान दे सकता है, ऐसा ज्ञान कि जो एकमेव ज्ञान है। जिसे कि हम ये जान सकेंगे कि हम क्या है? हमारे अन्दर क्या स्थिति है? हम कहाँ हैं? और हमारा लक्ष्य क्या है? वो ज्ञान देता है कि जिससे हम अन्दर से ही महसूस करते हैं, अन्दर से ये हमें ज्ञात होता है कि हम एक विराट के अंग -प्रत्यंग हैं। इसे हम अंग्रेजी में कलेक्टिव कॉन्शसनेस कहते हैं और हिन्दी भाषा में सामूहिक चेतना कहते हैं। ये सामूहिक चेतना का प्रादुर्भाव उसका मैन्यूफस्टेशन हमारे अन्दर सहज में हो सकता है जिससे हम आत्मास्वरूप हो जाते हैं क्योंकि आत्मा जो है वो हमारे अन्दर एक सामूहिक वस्तु है। जिस दिन ये घटित होता है, ये घटना हो जाती है उस दिन हम उस परम सत्य को भी जान जाते हैं कि हमारे चारो ओर ये सूक्ष्म सृष्टि फैली हुई है और इस सूक्ष्म सृष्टि से हमारा जो योग हो जाता है, जब हम उससे एकाकारिता पा लेते हैं तब हम ये जान जाते हैं कि हमारा चित्त भी आलोकित हो गया और इस चित्त के साथ हम बहुत कुछ जान सकते हैं जो हमने कभी भी पहले जाना नहीं। ऐसी दशा में हमें ये सोच लेना चाहिए कि आज का जो संसार है, आज जिसे हम बहुत बड़ा सत्य समझे बैठे हैं इसके पीछे एक बहुत बड़ा सत्य छिपा हुआ है जिसे हमें प्राप्त करना है। और इसे प्राप्त करना बहुत सहज है। सहज का मतलब दो होता है एक तो सहज माने आपके साथ पैदा हुआ और सहज माने आसान। होना ही चाहिए। अगर ये उत्क्रान्ति, ये इव्होल्युशन अत्यावश्यक है, तो वो सहज ही होना चाहिए। जैसे कि हमारा श्वास लेना। ये अत्यावश्यक है हमारे लिए। वो हम सहज में लेते हैं। इसके लिए अगर कहीं जाना पड़े और किसी गुरु को बनाना पड़े और कुछ चुकाना पड़े तो बहुत कठिन हो जाए। इसी प्रकार ये घटना भी सहज में ही घटित होनी चाहिए । कारण ये एक जीवंत शक्ति है। जिसे आज हमने मानव का रूप दे दिया अमिबा से, और यही जीवन शक्ति जो है वो जीवन्त है वो ही हमारे अन्दर कार्यान्वित होती है, काम करती है और जिसके कारण हम इस ऊँची दशा में पहुँचते हैं। कल आपको मैंने कुण्डलिनी के बारे में बताया था कि कुण्डलिनी शक्ति हमारे अन्दर इस त्रिकोणाकार अस्थि में बैठी है। इस त्रिकोणाकार अस्थि में ये कुण्डलिनी शक्ति बैठी है और ये साढ़ेतीन कुण्डलों में हैं। 20 कषी स्व२०प उसका भी एक गणित है। और इसके अनेक शक्ति के तंतु हैं जैसे कि एक डोर में अनेक छोटे-छोटे डोर होते हैं। | अब इस कुण्डलिनी के नीचे में जो आप देख रहे हैं लाल रंग का चक्र है ये हमारा मूलाधार चक्र है और जिससे कुण्डलिनी बटी हुई है उसे हम मूलाधार कहते हैं माने वो उसका घर है। नीचे जो लाल रंग का आप देख रहे हैं वो मूलाधार चक्र है और ये बहुत महत्वपूर्ण चक्र है। इस चक्र के ही कारण कुण्डलिनी को सबकुछ ज्ञात होता है। और ये चक्र हमारे अबोधिता का, हमारे भोलेपन का, हमारे इनोसेन्स का कर्ता-धर्ता है । जब हम बच्चे होते हैं। बचपन में जब हम बहुत ही अबोध होते हैं उस वक्त हमारे अन्दर ये चक्र बहुत ही कार्यान्वित होता है। धीरे-धीरे जैसे उमर बढ़ने लग जाती है इस चक्र पे आघात आते हैं और हमारा इनोसेन्स जो है, हमारी जो अबोधिता है, हमारा जो भोलापन है वो कम होने लग जाता है। इस चक्र के उपर आप देख रहे हैं यही कुण्डलिनी है। ये चक्र जो है ये हमारे अन्दर जो पेल्व्हिक प्लेक्सस है उसे प्लावित करता है और उसका पोषण करती है। और ये जो पेल्व्हिक प्लेक्सस है ये हमारे जितने भी मलोत्सर्जन वगैरा के जितने भी कार्य हैं वो करता है। इसलिए अब ये जान लेना चाहिए कि कुण्डलिनी के जागरण के समय आपके सारे ये व्यवहार बंद हो जाते हैं। और जो लोग ये बता रहे हैं, कि सैक्स करने से कुण्डलिनी का जागरण होता है ये महापाप है क्योंकि ये तो उसके नीचे है, जो सारा पवित्र और उत्तम है वो ये मूलाधार चक्र है। और जैसे कि कमल एक गन्दे, मैले, सड़े हुए एक पानी के छोटे से जगह में से जन्म लेता है और उसका सुगन्ध सारी ओर फैलता है। इसी प्रकार, उसी प्रकार ये चक्र कमल की भाँति हमारे अन्दर जन्म लेता है। जैसे कि कमल के पत्तों पर कोई पानी नहीं छिड़कता इसी तरह इस चक्र पे कोई सा भी गन्दा ठहर नहीं सकता और ये कभी भी नष्ट नहीं होता है। हलांकि अगर हम लोग गलत काम करते हैं तो जैसे बादल सूर्य को भी ढक लेते हैं उसी प्रकार ये ढक सकता है। तो जो लोग इस तरह की गलत बातें सिखाते हैं तो समझ लेना चाहिए कि आपको पतन की ओर ले जा रहे हैं और आपकी कमजोरियों को बढ़ा रहे हैं। अधिकतर ये लोग आपकी कमजोरियों को ही बढाते हैं और उस कमजोरी का पूरा फायदा उठाते हैं, जिसे कि आप इस गर्द के अन्दर और भी घुस जायें और इनको रुपया-पैसा दें। आज-कल, जो मैं आपको बता रही थी कल कि अमेरिका में जो उपद्रव शुरू हुआ है उसका कारण ये है कि अवनीति के कारण इस चक्र को उन्होंने बहुत बुरी तरह से ढ़क लिया है। इसकी शक्ति ही नष्ट होने की वजह से वहाँ इतनी गन्दी-गन्दी बीमारियाँ जैसे कि एड्स वो इस चक्र की खराबी हो जाने से हो जाती है, और इस चक्र की खराबी हो जाने से अगर आपकी पत्नी या पति को कोई इस तरह की बाधायें हों तभी ये चक्र खराब हो जाता है और उस वक्त मनुष्य की मस्तिष्क के अन्दर इसका असर आ सकता है और से रोग, जिन्हे बहुत कि हम साइकोसोमेटिक कहते हैं, उनमें से खास कर जिससे कि मसल्स कमजोर होते जाते हैं वो इसी चक्र के 21 बिगड़ जाने से होते हैं। अब इस चक्र का सम्बन्ध आपके पेल्व्हिक प्लेक्सस के साथ सिर्फ शारीरिक स्तर पे हैं, फिजीकल, और मानसिक से भी है। क्योंकि आप देख रहे हैं कि इसी चक्र से एक पूरी नाड़ी उपर की तरफ जा रही है और यही आपकी इड़ा नाड़ी है और चंद्र नाड़ी। तीनों नाड़ी उपर में जा करके जो नीले रंग की एक संस्था तैयार करती है यही हमारा एक तरह का मन है। और ये जो मन के अन्दर हर तरह के कुसंस्कार भर जाने पर वो इस तरह के गुब्बारे के जैसे, लाइक अ बलून, अपने शहर में इस स्तर में इस तरह से फैल जाता है, जिसे कि हम कह सकते हैं कि जो कुसंस्कार होते हैं, उसको लोग कहते हैं कि वो सुपर ईगो बन जाता है। कुसंस्कारों में ऐसे संस्कार कि हम अगर किसी गलत गुरु के पास जायें, हमने कोई गलत धर्म ले लिये, हम लोग गलत लोगों के पीछे भागते रहे, इसके अलावा हम तांत्रिकों के पीछे भागते रहे हैं या हम ऐसे लोगों के पास गये कि इनका धरम से कोई सरोकार नहीं, मतलब नहीं और जो धर्म के नाम से बड़े ही दष्ट गुरु लोग हैं जिनके पास जाने से दूसरे बहुत से दोष आ जाते हैं। इस नाड़ी को हम लोग चंद्र नाड़ी भी कहते हैं। और आप जानते होंगे लुनार अंग्रेजी में कहते हैं चंद्र को, और लुनसी कहते हैं पागलपन को। जब ये चंद्र नाड़ी खराब हो जाती है तो मनुष्य में सारे | मानसिक विकार आ जाते हैं। दूसरी तरफ आप देख रहे हैं कि दूसरा जो चक्र है वो है स्वाधिष्ठान चक्र। ये चक्र पीले रंग का दिखाया है जो कि ये सूर्य की गति से चलता है। और इस चक्र से हमारी जो राइट साइड की नाड़ी है जिसे हम पिंगला नाड़ी कहते हैं वो चलती है। पिंगला नाड़ी जो है वो हमें कार्य करने की शक्ति देती है। तो पहली वाली जो नाड़ी है उसे इच्छा शक्ति की नाड़ी कहते हैं। और जो दूसरी नाड़ी है उसे हम क्रिया शक्ति की नाड़ी कहते हैं। क्रिया शक्ति के नाड़ी में भी दो अन्तर हैं कि एक जो हम अपने शारीरिक क्रिया को करते हैं और दूसरे जो हम अपने बौद्धिक क्रिया को करते हैं। दोनों ही इस नाड़ी से कार्य करते हैं। अब ये स्वाधिष्ठान चक्र बहुत महत्वपूर्ण है। खास कर मैंने कल देखा कि बहुत से लोगों को स्वाधिष्ठान चक्र की तकलीफ थी। इसका कारण ये है कि आप लोग बहुत पढ़े-लिखे हैं और दूसरा ये कि आप लोग बहुत ज़्यादा सोचते हैं। अति सोचने से ये चक्र ज़्यादा चलने लग जाता है। कारण ये है कि जब आप बहुत सोचते हैं तो आपके अन्दर, जो मस्तिष्क में, आपके ब्रेन में जो ग्रे-सेल्स हैं उसको आप बहुत इस्तमाल करते हैं। जब 6. उनको आप बहुत ज़्यादा इस्तमाल करने लग जाते हैं तो उसकी जगह दूसरे भी आने चाहिए तो वो कहाँ से आएंगे? तो उसकी क्रिया, ये जो चक्र है ये अपने पेट को जो चाहिए, उसको मेंद से बनाता है ग्रे- सेल्स के लिए क्योंकि अपना ब्रेन जो है वो भी मेंद याने फैट से बना है । तो फैट सेल्स से वो ग्रे सेल्स बनाता है यही चक्र और इसको इस तरह से ये हमारे ब्रेन में सेल्स चले जाते हैं। जब हम इस तरह से बहुत ज़्यादा सोचते हैं और 22 993 हम बहुत ही ज़्यादा सुपरइस्टिक हो , या हम हमेशा भविष्य की ही बात सोच रहे हो तब ये नाड़ी ज़्यादा चलती है। और जब हम अपने भूतकाल की, अपने गये बिते दिनों की ज़्यादा सोचते हैं तब हमारी दूसरी नाड़ी ज़्यादा चलती है। तो समझ लेना चाहिए कि इस तरफ से सबकॉन्शस माइंड है तो इस तरफ से आपका सुप्रा-कॉन्शस माइंड है। और ये दोनों माइंड आपके जब तक संतुलन में नहीं आते हैं तब तक आप बीचोबीच रह जाते हैं। अब तीसरी जो बीच में नाड़ी है, उसका नाम है सुषुम्ना नाड़ी। ये नाड़ी हमारे अन्दर जो बनी हुई है ये जब हमने पहले तो लक्ष्मी को खोजा, इसको खोजा, उसको खोजा और जब उससे हम पूरी तरह से उब जाते कि, 'अब बहुत खोजा अब नहीं चाहिए।' जब आप परमात्मा को खोजना सीख जाते हैं, तब ये नाड़ी, महालक्ष्मी जी हम जिसे कहते हैं, ये नाड़ी का काम शुरु हो जाता है। यही नाड़ी ऐसी है कि जिसके अन्दर एक बड़ी सूक्ष्म सी नाड़ी है ये भी एक जैसे कि एक कॉइल हो, उसके साइज की कॉइल्स बनी हो । उसकी जो सूक्ष्मतम अन्दर की नाड़ी, जिसे ब्रह्मनाड़ी कहते हैं, उसी में से पहले कुण्डलिनी का, पहले दो -चार धागा किसी के दस धागे इसी तरह से धीरे-धीरे कुण्डलिनी उठती है। उसके उठने से ये और भी खुलता जाता है और उसके खुल जाने से और भी आपके अन्दर जो शक्ति के धागे हैं वो उपर उठने लग जाते हैं। इस प्रकार ये तीन नाड़ी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ हमारे अन्दर हैं। ये तीनों नाड़ियाँ हमारे आज्ञा चक्र से मिलती हैं, जो आप देख सकते हैं। ऐसे तो अब यहाँ पर किताबें हैं, उसमें आप पढ़ सकते हैं हर एक चक्र के बारे में और ये चक्र किस तरह से गतिमान रहते हैं और किस तरह से कार्य करते हैं। अब लोग कहेंगे कि 'माँ, कैन्सर कैसे ठीक हो जाता है ?' आपको थोड़ा समझाऊं कि हमारे अन्दर लेफ्ट और राइट, ऐसे दोनों साइड हैं। माने और पिंगला नाड़ी से बनी हुई ये हमारे दोनों तरफ काम कर रही है और बीचोबीच जो आपको दिखाई दे समझ लीजिए ये लेफ्ट और राइट की जो सिम्परथैटिक नव्वस सिस्टम, इड़ा रहा है ये एक चक्र है। अब जब कोई एक साइड ज़्यादा बढ़ जाती है तो यहाँ इस तरह से ये चक्र बहुत छोटा होते जाता है और एनर्जी उसकी कम होती जाती है और इस तरह से बीमारी बढ़ने लगती है। पर जब ये बिल्कुल ही टूट जाता है तब हमारे मेरुदंड का जो सम्बन्ध हमारे ब्रेन के साथ होता है। वही ट्ूट जाता है। और उस जगह पर ऐसी कुछ व्यवस्था हो जाती है कि ये अपने ही आप ........अपने ही आप बनना शुरु हो जाते हैं। इसके जो सेल्स हैं उनको किसी और की परवाह ही नहीं। जैसे अब हमारा नाक है, या आँख है, कान है हर चीज़ बराबर उसी प्रपोर्शन में, उसी प्रमाण में बढ़ती है जैसे कि बढ़ना चाहिए। ये नहीं कि नाक ही बड़ी हो गयी, आँख ही बड़ी हो गयी कि कान ही बड़ा हो गया। लेकिन जब ऐसा घटित हो जाता है जब उसका सम्बन्ध मस्तिष्क के साथ नहीं रहता है तब वो चीज़ अपने आप से खूब जोरो में बढ़ना शुरू हो जाती है और कभी अगर कैन्सर आपके अगर उंगली का हो गया तो एक उंगली बढ़ जाएगी, अगर आपके नाक पे होगा तो 24 कषी स्व२०प नाक ही बढ़ जाएगी, कान पे होगा तो कान ही बढ़ जाएगा तो वो चीज़ जा कर के दसरी जो सेल्स हैं उनको दबाती है और इसी तरह से कैन्सर का रोग घटित होता है। अब कुण्डलिनी का जब जागरण होता है तो वो जैसे ये टूटी हुई चीज़ है उसमें से जोड़ते-जोड़ते इस तरह से उसके जैसे कि आप उसी मणी के अन्दर के जोड़ को पिरो लीजिए, उस तरह से ये झुक जाता है। ये झुकते ही साथ ये जो चक्र हैं जो कि अब क्लांत हैं और जो कि बीमार है और कमजोर है और जिसमें शक्तिहीनता आ गयी है उसे शक्ति कहते हैं। उस शक्ति के कारण आपका कैन्सर ठीक होता है। वो बहुत ही सहज, सरल एक गती है जिससे कि ये रोग ठीक हो जाता है। और ऐसे लोगों में जिनकी कुण्डलिनी जागरण हो जाती है इसी प्रकार अनेक रोग ठीक हो सकते हैं। क्योंकि इन चक्रों की ही खराबी के कारण जो बीमारी आ जाती है और जब ये चक्र ठीक हो जाते हैं और उन चक्रों में जब शक्ति आ जाती है तो वो बीमारी भी आदमी की नष्ट हो जाती है और वो सुदृढ़ हो जाता है। अब सब चक्रों के बारे में आज नहीं कहँगी। लेकिन इतना ही बताऊंगी कि वे सब आप किताब में पढ़ सकते हैं और बारीकी से समझ सकते हैं। और जब आप हमारे सेंटर में आएंगे तो आप जान जाएंगे कि ये चक्र क्या हैं। जब आपके कुण्डलिनी यहाँ से ब्रह्मरन्ध्र से छेदती है, तो आप इसमें जो जगह देखते हैं उसे मेडिकल टर्म में लिम्बिक एरिया ऐसा कहते हैं। इस लिम्बिक एरिया को ही हम कहते हैं सहस्रार। लेकिन इस वक्त कुण्डलिनी जो है आज्ञा चक्र से होते हुए गुजरती है, तो ये आज्ञा चक्र जागृत होने के कारण ये दोनों संस्थायें से एक तरह से इगो बना हुआ है और एक तरफ सुपर इगो या एक तरह से अहंकार और दूसरी तरफ महत् अहंकार, इन दोनों को अपने अन्दर खींच लेती है। इसको खींच लेने से बीच में जगह हो जाती है । जगह हो जाने से उसी के अन्दर से कुण्डलिनी बाहर निकल आ जाती है। इसलिए आपने अपने सर में ठण्डी-ठण्डी हवा आते देखी। आप ही के अपने हाथ से आपने इसको महसूस किया। इस प्रकार आपको आत्मसाक्षात्कार होता है । आत्मा तो आपके हृदय में है। आत्मा आपके हृदय में है। लेकिन ये जो है ये हृदय का चक्र है यहाँ पे। ये हृदय का चक्र है और अपने सर में भी जैसे सात चक्र हैं उसी प्रकार सात इन चक्रों के बीच जिस वख्त यहाँ याने ब्रह्मरन्ध्र में आ कर के कुण्डलिनी भेदन कर देती है तो हृदय में ही इसका प्रकाश चला जाता है और आत्मा का सम्बन्ध हमारे चित्त से हो जाता है। और हमारे चित्त के अन्दर कुण्डलिनी का असर ये आ जाता है कि हम आलोकित पाते हैं अपने चित्त को। जैसे कि आप देख रहे हैं कि ये मेरी साड़ी है इसी प्रकार समझ लीजिए कि चित्त यहाँ फैला हुआ है। जब कुण्डलिनी इस तरफ से यूं ऐसे जाती है तो चित्त अन्दर की ओर फिसला जाता है। अन्दर की ओर जब यहाँ पर आ कर उपर में जब ये कुण्डलिनी इसको छेद देती है तब इस 25 कुण्डलिनी की आभा उसकी शक्ति इस चित्त में चली जाती है। और तब आपका चित्त जो है वो आलोकित हो जाता है। ये बहुत ही सहज, सरल चीज़ है। लेकिन इसको करने के लिए ऐसे ही लोग चाहिए कि जो इसमें अधिकारित हैं । मैं सोचती हूँ कि वो सहजयोगी हैं, जिन्होंने सहजयोग में आ कर के और पूरी तरह से जान लिया है कि कुण्डलिनी क्या है और वो इस वक्त अब वो एक ऐसी दशा में आ गये हैं कि वो सामूहिक चेतना में समझ सकते हैं कि आपके अन्दर क्या दोष हैं? और उसको किस तरह से ठीक करना है? वो आपकी कुण्डलिनी सहज में ही जागृत कर सकते हैं। इतना ही नहीं ये लोग आपकी बीमारियाँ भी ठीक कर सकते हैं। अब कल ही आपने देखा कि पटेल साहब जो यहाँ खड़े हुए थे, उन्होंने तो मुझे कभी देखा ही नहीं था और पैरेलिसिस में पड़े थे। डॉक्टर ने कहा, 'ये तो ठीक नहीं हो सकते। ' रोज कुछ न कुछ इंजक्शन दे रहे थे। क्या-क्या हो रहा था और इसके बाद फिर वो एकदम ठीक हो गये। आज भी एक महाशय आये थे। वो भी एकदम से ठीक हो गये थे। इस प्रकार कोई लोग एकदम ठीक हो जाते हैं, कोई लोगों को थोड़ा और टाइम लगता है। पर आपका जो शारीरिक है वो कम से कम ठीक हो जाना चाहिए। अब अगर आप किसी गुरु के पास जाते हैं, किसी के पास जाते हैं और आपकी अगर तबियत नहीं ठीक रहती, तो मैं आपसे एक माँ की तरह ये कहूँगी कि बेटे, जो आदमी तुम्हारी तबियत भी नहीं ठीक रख सकता है ऐसे को गुरु क्यों मानना? ऐसे गुरु को रख के क्या फायदा! कम से कम तुम्हारी तंदुरुस्ती तो ठीक हो। वो भी अगर ठीक नहीं रख सकता तो उसकी क्या जरुरत है। फिर आप स्वयं ही अपने गुरु हो जाते हैं। क्योंकि आपका आत्मा ही आपको प्रकाश देता है। और आप ये चैतन्य लहरियों से जान सकते हैं कि आप क्या कर रहे हैं? आपमें क्या दोष हैं? आपमें कौनसी चीज़ गलत है? जैसे आज ही एक साहब ने मुझसे कहा कि, 'माँ, मेरा आज्ञा बहुत पकड़ रहा है, इसे ठीक कर दो।' इसका मतलब है मुझे अहंकार आ गया है। और आप किसी से कहेंगे कि ' हाँ, अहंकार आ गया है।' तो मारने बैठेंगे। कोई करेगा ऐसी बात और वो स्वयं ही आ के कहता है कि, 'माँ मेरा आज्ञा बहुत पकड़ रहा है। इसे आप साफ कर दीजिए। इससे बड़ी तकलीफ हो रही है। मेरा सरदर्द हो रहा है।' इस प्रकार आप खुद ही जान जाते हैं कि आपमें कौनसे चक्र पकड़े हैं और अब अगर ये जान जायें कि जो चक्र आपमें पकड़े हुए हैं वो चक्र इस तरह से आप ठीक कर सकते हैं। आप तो स्वयं ठीक हो ही जाएंगे। लेकिन आप दुसरों के बारे में भी जान सकते हैं। कुण्डलिनी के बारे में मैंने कम से कम हिन्दी भाषा में ३ - ४ हजार तो भी लेक्चर्स दिये होंगे। और ये ज्ञान बहुत कगार और विशाल और गहन है। इसको एक दिन में सारा समझाना तो बहुत कठिन है। कल आप लोगों ने बड़े अच्छे प्रश्न पूछे । इसके मैंने अधिकतर उत्तर दिये हैं। और मैं चाहूँगी कि फिर से आप आज कुछ सवाल पूछें और उसके मैं उत्तर दें, वही अच्छा रहेगा बजाय इसके कि कुण्डलिनी के बारे में मैं और विस्तारपूर्वक आपको बताती रहं। 26 कषी स्व२०प ये कुण्डलिनी जो है ये हमारी शुद्ध इच्छा है। बाकी जितनी भी हमारे अन्दर इच्छायें हैं वो शुद्ध नहीं। क्योंकि अगर शुद्ध होती तो आज लगा कि आज हमारे पास घर होना चाहिए। घर आया, तो मोटर होनी चाहिए। मोटर होनी चाहिए तो अगली बार और कुछ होना चाहिए। माने कि आप जानते हैं कि इकोनोमिक्स में कहा जाता है कि, 'इन जनरल वाँटस आर नॉट सॅटिसफायबल।' माने पूर्णतया कौन सी भी इच्छा होती है उससे मनुष्य को समाधान नहीं प्राप्त होता। इसका मतलब है कोई ऐसी भी इच्छा हो सकती है कि जिससे मनुष्य समाधान प्राप्त करें। और वही ये कुण्डलिनी शक्ति है। जो कि हमारे अन्दर पूर्णतया एक शुद्ध इच्छा और जब ये शुद्ध इच्छा हमारे अन्दर जागृत हो जाती है तब हम सारी इच्छाओं को एक साक्षी स्वरूप में बदलते हैं। सहजयोग से अनेक लाभ हैं । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और सबसे बड़ी चीज़ ये आध्यात्मिक। बड़ी उन्नति हो जाती है। और सबसे बड़ा लाभ मैं कहूँ कि ये है कि आप आनन्द के सागर में रहते हैं। और सब चीज़ की ओर एक बहुत ही साक्षी स्वरूप से आप देखने लग जाते हैं। जैसे कि ये सब पानी में है। एक विचार आता है, चला जाता है। दूसरा विचार आता है और चला जाता है। आप उसी के उपर नाच रहे हैं। इन दोनों के बीच में एक जगह है जिसे विलम्ब कहते हैं। कुण्डलिनी उस जगह को बढ़ा देती है। और इन विचारों को इस तरह से छोटा कर देती है। फिर आप चाहे निर्विचारिता में उतर जाते हैं। माने क्या है कि आप उस पानी से ड्र रहे हैं और उसके लहरों से आप डर रहे हैं। उस पानी से उठ कर के आप नांव में बैठ गये। नांव में बैठ कर के आप देख सकते हैं कि ये क्या हो रहा है? नांव में बैठ कर के आप समझ सकते हैं कि ये क्या हो रहा है? जब आप देख रहे हैं तब आपको तकलीफ नहीं होती। पर समझ लीजिए कि आप तैराक हो, आपने तैरना सीख लिया तो आप पानी में कूद सकते हैं और जो लोग डूब रहे हैं उन्हें भी बचा सकते हैं। या इस तरह से आज कल के आधुनिक मोटर के आप लोगों को उदाहरण देती हूँ। जैसे कि मोटर। इस मोटर में दो चीजें होती हैं, एक तो ब्रेक होता है, एक एक्सिलेटर। इसी प्रकार हमारा लेफ्ट साइड 'ब्रेक' है और राइट साइड एक्सिलेटर। पहले जब हम मोटर सीखते हैं तो हम उसको बैलन्स करते हैं कि लेफ्ट और राइट दोनों किस तरह से सम्भालें माने एक्सिलेटर और ब्रेक को हम किस तरह से सम्भालें, समझें इस तरह से। एक चीज़ अगर छोड़ दीजिए, अगर ब्रेक लगा दीजिए तो गाड़ी चलेगी नहीं और अगर एक्सिलेटर चढ़ा दीजिए तो गाड़ी जा के पता नहीं कहाँ लगेगी। तो दोनों का इस्तमाल जब आ जाता है तब लोग कहते है कि, 'हाँ, तुम्हें ड्राइविंग आ गयी है।' लेकिन ड्राइविंग आने पर फिर आप निष्णात हो जाते हैं। आप होशियार हो जाते हैं | और फिर आप आटोमैटिकली चलाते हैं। आपका हाथ बराबर चलता है। आपको ये नहीं हर बार कहना पड़ता कि, 'हाँ ब्रैक लगाओ, अब ये करो।' अपने आप हो जाता है। पर उसके बाद भी जो, उसका मालिक, मोटर का जो मालिक है वो पीछे बैठता है। वो आपको बता रहा है कि ऐसे चलाओ, वैसे चलाओ। उसके बाद आप ही मालिक हो जाते हैं। आप जब मालिक हो गये तो आप अपने अन्दर का ड्राइवर, अपने अन्दर का ब्रैक और 27 अपने अन्दर का एक्सिलेटर तीनों की चालना करते हैं पूरी तरह से और आप अपने मास्टर हो जाते हैं। और इसी कारण जिस वक्त आपकी लेफ्ट साइड ढिली हो जाती है तो आपमें जो कुछ भी ऐसी आदतें हैं जिससे आप छुट्टी करना चाहते हैं एकदम छोड़ कर भाग जाती है क्योंकि आप समर्थ हो गये। सम +अर्थ हो जाते हैं । आपका जो अर्थ है वो पूरा हो जाता है। और उस समर्थता में आप इस तरह से बहादूर हो जाते हैं कि कुछ कहे बगैर ही वो सब चीजें चली जाती हैं। दूसरी चीज़ ये है कि जब आपका लेफ्ट साइड ठीक हो जाती है तब आपको सही तरीके से अपने इमोशनल बैलन्स करना पड़ता है। आप समझ लेते हैं कि आप कहाँ बहक रहे हैं, कहीं आप ज़्यादा चले जा रहे हैं कि कम आ रहे हैं। तो इस संतुलन के कारण ही मनुष्य जो है वो एक ऐसी दशा में आ जाता है कि उसके चक्र, जो मैंने आपको अभी दिखाये थे , पूरी तरह से खुलना शुरु हो जाते हैं। ये प्रणाली धीरे-धीरे से चैतन्य का काम करती है, किसी -किसी में बड़ी ही जोरों में बहुत ही जल्द हो जाती है। किसी - किसी में तो इतने जोरों में चलती है कि कुछ लोग हैं, मैं देखती हूँ कि दो-दो साल तक सहजयोग करते हैं उनको इतना लाभ नहीं होता। और कोई है कि कल आये और आज बैठ गये। इस तरह के भी लोग हैं। तो ये उनकी क्वालिटी कहना चाहिए | या कहिए अन्तरिक इच्छा। ये इच्छा, उसको प्राप्त करने की शुद्ध इच्छा, बहुत जबरदस्त है। जिसकी शुद्ध इच्छा बहुत जबरदस्त है वो कार्य बहुत जल्दी करता है। इसमें उम्र आपकी कोई भी हो आपकी कोई भी जाति हो, आपका कोई सा भी धर्म हो , आपके रंग कोई सा भी हो, आप किसी भी देश के हो इससे कोई भी मतलब | नहीं है। हर आदमी में कुण्डलिनी है लेकिन उसकी जागृति और उसकी गतिविधियाँ ये उस आदमी की क्वालिटीज पर, उसके अपने एक कहना चाहिए कि मनुष्यत्व पर निर्भर है। उसके मनुष्यत्व पे निर्भर है माने उसकी तंदरुस्ती कैसी है ? उसकी मानसिक स्थिति कैसी है ? उसकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है ? ये सब चीज़ें ध्यान में लेते हुए ये कुण्डलिनी का जागरण होता है। और सबसे तो बड़ी चीज़ है कि जब आपमें आ जाती है तो कम से कम दस साल तो आपकी उमर बैठ ही जाए। मुँह पर शान्ति आ जाएगी, चमक आ जाएगी। और स्वभाव में एक तरह की दया, प्रेम और अन्दर से बड़ा आनन्द स्थापित होगा। अपने जो सद्गुण मैं उसको आनन्द से उपभोगता है। पहले तो अगर कोई इमानदार आदमी होगा तो वो कहेगा कि, 'देखो, बेवकुफ हूँ। मैं इमानदार हूँ। इसलिए में Suffer कर रहा हूँ।' फिर वो कहता है कि, 'नहीं, मैं इमानदार हूँ इसकी वजह से मैं खुश हूँ। और सब लोग हो जाए तो बड़ा अच्छा है। इससे एकदम जो जीवन चक्र, उसकी जो दृष्टि है, उसका जो एटिटयूड है वो एकदम बदल जाता है और उसकी जो प्रायोरिटीज हैं, उसके जो मूल्यांकन हैं वो बदल जाते हैं। और वो एक विशेष तरह का आदमी हो जाता है। सबसे इस में सबसी बड़ी लाभदायक बात ये है कि आपका सम्बन्ध उस परम चैतन्य से हो जाता है। और वो आपकी सारी गतिविधियों को सम्भालता है और आपको पूरी तरह से आशीवादित करता है। और 28 প कषी स्व२०प इसके अनुभव तुरन्त आना शुरू हो जाते हैं। आप स्वयं आश्चर्यचकित होंगे कि किस तरह से हर एक चीज़ अपने आप घटित हो जाती है। किस तरह से हर एक चीज़ बनती जाती है। और आपको लगता है कि 'मैं, मुझे' ये कैसे हो गया? इसलिए कि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। इसलिए कि परमात्मा ने आपको अपने साम्राज्य में विराजित किया है । वो साम्राज्य ऐसा है कि मोस्ट एफिशियन्ट अपने ये गवर्न्मेंट ऑरगनाइझेशन हैं, ऐसे नहीं, मोस्ट एफिशियन्ट। इतना ही नहीं वो बहुत प्रेममय है और आपकी हर एक गतिविधियों को देखता है और आपको इतने प्यार से रखता है, आपको इतना सम्भालता है कि आप आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि इतना मेरा गौरव और इतनी मेरी शक्ति कहाँ से आ गयी! ये सब आपके अन्दर विहित है। आपके अन्दर है। इसको आपको प्राप्त करना चाहिए, यही मैं आपसे कहना चाहती हूँ और उसके लिए कुछ मेरा, आपका लेना-देना नहीं है। आपकी अपनी शक्ति है एक दीप जला हुआ दूसरे दीप को जला दे उसमें कौनसा उपकार है। फिर उस दीप को चाहे कि वो भी दूसरे दीप को जला दें । यही उनका कार्य है और इसी से उसको भी एक तरह का बड़ा भारी आशीर्वाद है। इस तरह से आज हैद्राबाद में मेरा आखरी दिन है। और मैं चाहती हूँ कि आप लोग इतने बड़े तादाद में यहाँ आयें हैं और आप उसी तादाद में फिर से हमारे सेंटर पे आइये । हमारे सेंटर बहुत सीधे, सरल हैं क्योंकि हम पैसा-वैसा लेते नहीं किसी से और सादगी से रहते हैं। उसकी कोई जरूरत नहीं कि कोई बड़ी इमारत में ही स्थित हों, वहाँ आ कर के परम चीज़ को आप प्राप्त करें। और इससे अपने जीवन को और सबके जीवन को खुशहाल करें। ये हुए बगैर संसार बदल नहीं सकता। संसार के लोग उपर से बहत अच्छे बनते हैं और अन्दर से उनके अन्दर बहुत विरोधी बाते हैं, बहत ज़्यादा स्वार्थ, और यही नहीं समझ पाते कि हम सब एक ही परमात्मा के बनाये हुए हैं और हम सारे इस परमात्मा के अंग-प्रत्यंग हैं। अगर ये घटित हो जाता है तो उसका साक्षात ही हो जाता है कि दूसरा कोई है ही नहीं । और सारी चीज़ जो है एकदम बदल जाती है। हमें अपने बच्चों के बारे में भी सोचना चाहिए। और हमें सारे दुनिया के बारे में सोचना चाहिए। और ये हमारे भारतवर्ष का एक बड़ा भारी धरोहर है। हेरिटेज है हमारा। और इसीसे सारी दुनिया को हम प्लावित कर सकते हैं। तो हमारे उपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि हम इसे प्राप्त करें। जिन्होंने गणपती का 'ग' भी नहीं सुना, जिन्होंने इसा मसीह को नहीं समझा, जिन्होंने मोहम्मद साहब को नहीं समझा ऐसे लोग आज कहाँ से कहाँ पहुँच गये। जब आप लोग इतने ज़्यादा इस चीज़ को जानते हैं, आपको क्या कें, और आप विशेष लोग हैं कि इस योगभूमि में पैदा हुए हैं और इस योग को आप प्राप्त कर सकते हैं। हजारों वर्षों से संत-साधूओं ने योग का महत्व सीखाया है कि इस योग को प्राप्त करों। योग का मतलब सर के बल खड़ा होना नहीं। 29 लक्ष्य प्राप्ति में मंत्रों एवं प्रार्थनाओं का महत्व T3 प३ कु का जु के.0 परमात्मा के ज्ञान की खोज हमारी संस्कृति रही है। संस्कृत भाषा के माध्यम से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति हुई है, क्योंकि संस्कृत वस्तुत: देववाणी है । इसके अतिरिक्त जब कुण्डलिनी उठती है तो यह चैतन्य लहरियाँ छोड़ती है, उनसे एक विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है जो कि भिन्न चक्रों पर देवनागरी के रूप में प्रतिष्ठित होती है। संस्कृत भाषा या देवनागरी में उच्चारण किये शब्द चक्रों को अधिक प्रभावित करते हैं। ध्वनि युक्त भाषा होने के कारण हिन्दी चैतन्य स्पन्दित करती है। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, १५.२.१९७७ ...... हिन्दी भाषा में कहिये आप या संस्कृत में, हर एक शब्द का अर्थ है । उसके व्याकरण की विशेषता यह है कि उसके जो कुछ भी वर्ण हैं जैसे, क, ख, ग, घ, ङ वगैरह होते हैं, और ये सब जो व्यंजन कहलाते हैं, इन सब में अर्थ है। एक-एक चीज़ में अर्थ है, निरर्थक कोई चीज़ नहीं है। एक - एक अक्षर आप ले लीजिये तो इसमें बड़ा भारी व्याकरण हुआ है। ये पाँच तत्वों को बताने वाले अपने अन्दर पाँच तरह के व्यंजन बने हुए हैं, इसलिये व्यंजन को भी शक्ति कहते हैं, और जब व्यंजन में शक्ति आ जाती है तो वो ही व्यंजन का अर्थ निकल आता है। हर एक चीज़ का अलग-अलग शब्द होता है। हर एक वर्ण में, हर एक चीज़ में, हमारे यहाँ शब्द अलग-अलग होते हैं। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, १६.१२.१९९८ मंत्र हमारी कुण्डलिनी के शब्द हैं संस्कृत भाषा की विशेषता ये है कि एक-एक अक्षर मंत्र है। देवनागरी लिपि में एक-एक जो हम ई जो कुछ है वो सारा ही अक्षर अ+क्ष जो क्षर नहीं है (जो नष्ट नहीं होता)। जितना हमने अ, आ, इ, कुण्डलिनी में घूमने वाला शब्द है। वहाँ शब्द निकलता है। मनन में हमने इन शब्दों को सीखा है तब लिखा है। जब कुण्डलिनी ऐसे घूमती है तो आवाज़ यूँ करती है श....श....श... यहाँ पर। ठीक है न! हर जगह उसके अलग-अलग शब्द है जैसे यहाँ (आज्ञा चक्र पर) ह, क्ष दो शब्द आते हैं। वो जो हम 'ओम' करके लिखते हैं, अजैसे जो लिखते हैं वो यहाँ आप देख सकते हैं कि यहाँ पर ओम ही रहता है। जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो यहाँ जब उस पर लाइट पड़ती है तो ये जो जो भी चक्र हैं यहाँ पर ओम (ॐ) ऐसा ही लिखा होता है जैसा आप लिखते हैं और जो 'अ, आ, इ, ई' जो भी लिखा है, आप 31 लिखते हैं देवनागरी में, वो भी हमारे अन्दर कुण्डलिनी वहाँ पर आघात करती है, जिस वक्त उसके निनाद होते हैं तब वह निनाद और उसका लिखना भी वहाँ घटित होता है। कितनी बारीक चीज़ है। क्या आपकी संस्कृति है और कहाँ से आयी है, जो सारी मननों से उतरी हुई है, कोई हमने बाहर से सीखी हुई आर्टिफिशियल चीजें नहीं है। ये भाषा हमारे अन्दर उत्पन्न होती है और लिखित होती है। एक-एक अक्षर लिखने में अर्थ होता लिखा है। मैं ऐसे ऊँगली घुमा रही हूँ है। ओम कैसे बना? इस तरह ॐ की रचना होती है, बिल्कुल ॐ ही आपका आज्ञा घुम रहा है। इतनी साइन्टिफिक चीज़ है क्योंकि इसका सम्बन्ध रिएल्टी से है। जब तक आप संस्कृत में श्लोक नहीं कहते, मेरे चक्र चलते ही नहीं आश्चर्य की बात है। पर आप अगर अंग्रेज़ी में कहें तो चलते हैं पर सिर्फ आज्ञा चक्र पर ईसा मसीह की जो उन्होंने अपनी लिखी है क्योंकि यहाँ पर ईसा मसीह का स्थान है, उस पर उनका जो हिब्रू भाषा में लिखा हुआ है 'लार्डस प्रेयर' चलता है, पर इंग्लिश में कहें तो चल जाता है। पर यहाँ पर तो क्षमा स्वरूपिणी 'क्षमा' ही शब्द कहना पड़ता है क्योंकि यहाँ 'क्ष' शब्द है, इसलिये 'क्षमा' कहना चाहिये। सब कहने पर भी क्षमा कहना पड़ता है।...... 'र' यह एन्जी का शब्द है जैसे राधा 'र ' माने शक्ति 'ध' माने धारने वाली। राधा-कृष्ण का अर्थ मैंने आपसे बताया था कृषि से आता है। अब 'कृ' शब्द कृष्ण कहने के साथ विशुद्धि चक्र एकदम असर कर जाता है। 'कृष्ण' ही कहना पड़ेगा क्योंकि कृष्ण जो हैं इसका यहीं से सम्बन्ध है। विशुद्धि चक्र से सम्बन्ध है तो कृष्ण ही उनका नाम हो सकता है। कितनी साइन्टिफिक चीज़ है और ये बताईये कितनी सुक्ष्म चीज़ है । मंत्र की योजना आनी चाहिये।...... मंत्र विद्या का बड़ा भारी शास्त्र है कि कौनसा आपका चक्र पकड़ा हुआ है? गर आपकी लेफ्ट साइड पकड़ी है तो आपको लेफ्ट साइड का मंत्र देना चाहिये और आपकी राइट साइड़ पकड़ी है तो राइट साइड़ का देना चाहिये, बीच की पकड़ी हयी है तो बीच का मंत्र देना चाहिये। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ३.२.१९७८ मंत्र आपके चक्रों का कार्य करते हैं, आपके उस भाग को खोलते हैं और मंत्र के गुणों के आशीर्वाद की वर्षा आप पर होती है। अत: मंत्र तेज़ी से अथवा सतही रूप से नहीं गाये जाने चाहिये, मंत्र गहन भावना और सूझ-बूझ पूर्वक बोले जाने चाहिये। प.पू.श्री माताजी, कोमो, २५.१०.१९८७ सारे देवता आपके बड़े भाई हैं। कुण्डलिनी के पथ पर भिन्न रूपों में वे विद्यमान हैं। आपको चाहिये कि उन्हें पहचाने और उन्हें प्राप्त करें। ........देवी- देवता को जाग्रत करने के लिये मंत्रों का उच्चारण पूर्णत: शुद्ध होना चाहिये और पूरे हृदय से किया जाना चाहिये, केवल तभी जाग्रति घटित हो पायेगी 32 लक्ष्य प्राप्ति में मंत्रों एवं प्रार्थनाओं का महत्व .....तेल में यदि पानी हो तो दीपक की बाती किस प्रकार जलेगी? प.पू.श्री माताजी के एक पत्र से, १९.१२.१९८२ मंत्रोच्चार द्वारा समस्त देवता जाग्रत हो जाते हैं और प्रसन्न होकर हमारी नसों में चेतना एवं सद्गुणों का प्रवाह करने लगते हैं । जिस प्रकार की तकलीफ होगी, उस समय उसके देवता का नाम लेते हैं। सबके लिये एक ही देवता का नाम लेने से प्रभाव नहीं होता है। हमें बुख़ार है तो एक दवाई हम खाते हैं, पर वही दवाई दूसरी बीमारियों में कैसे काम आएगी? यही बात अलग-अलग देवताओं के बारे में कही जाएगी। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ४.२.१९८३ चक्र कुप्रभावित होने से तत्सम्बन्धी देवता वहाँ से अपना स्थान त्याग देते हैं। उस चक्र का मंत्र उच्चारण करके पूज्य श्री माताजी के नाम की शक्ति से उन देवता का आवाहन किया जाता है। उपचार के लिये विपरीत पार्श्व का हाथ प्रभावित चक्र पर रखें और प्रभावित पाश्र्व का हाथ फोटो के सामने फैलायें। प.पू.श्री माताजी, निर्मला योग, जुलाई -अगस्त १९८३ से आपको समझना चाहिये कि छोटी-छोटी क्रियाओं से एवं मंत्रों के उच्चारण से किस प्रकार हम अपने अन्दर के देवताओं का आवाहन करते हैं, क्योंकि आप जाग्रत हैं। आपका हर शब्द जाग्रत है। अत: आपके मंत्र भी सिद्ध हैं। प.पू.श्री माताजी, ५.५.१९८० परन्तु यदि आप परमात्मा की शक्ति से सम्बन्ध बनाये बिना ही मन्त्रोच्चारण किए जा रहे हैं तो आपको उस शक्ति से जोड़ने वाले तार जल सकते हैं तथा आपको गले की समस्यायें हो सकती है। प.पू.श्री माताजी, पेन्सिवेनिया, अमेरिका, १९.०९.. सहजयोग में आज ऐसे हज़ारों लोग हैं जिन्होंने मंत्र को सिद्ध कर लिया है। इतने मंत्र सिद्ध हैं उनके कि अगर वो अपनी जगह में बैठ कर मंत्र कह दें तो जो काम करना है, करा सकते हैं। सिद्धता के लिये मंत्र पर मेहनत करनी पड़ती है, उस पर बोलना पड़ता है, अपने चक्रों पर ध्यान करना पड़ता है, और उसकी सिद्धता हासिल हो जाती है। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, १६.२.१९८१ सहजयोग में किसी भी चीज़ की अति न करें। अगर आप किसी को बतायें कि आपके लिये ये मंत्र 33 है तो इसे तभी तक प्रयोग करना चाहिये जब तक आप उस चक्र की बाधा से छुटकारा न पा लें। उसके बाद | नहीं। प.पू.श्री माताजी, ४.२.१९८३ ..... मंत्र का स्थायी भाव पवित्रता है। मंत्रोच्चार के समय मंत्र की ओर ही चित्त का होना आवश्यक है। प.पू.श्री माताजी, १२.६.१९८८ जब मैं बोलती हूँ तो मेरा हर शब्द मंत्र है। मैं जब बोलना आरम्भ करती हूँ तो लोग ठीक होने लगते हैं। प.पू.श्री माताजी की डॉ.तलवार से वाता ॐ बीज मंत्र है - ओंकार शब्द है, यह प्रथम शब्द है जब सदाशिव और आदिशक्ति सृष्टि रचना हेतु अलग हये, इस ध्वनि को ओंकार रुप में प्रयोग किया गया| ओंकार अर्थात् प्रकाश पूर्ण चैतन्य लहरियाँ .इनके दायें भाग में सभी तत्वों के अणु हैं आदिशक्ति माँ ओंकार से श्री गणेश की रचना करती हैं और बायें भाग में मनोभाव। इसके मध्य में आपके उत्थान की शक्ति निहित है। प.पू.श्री माताजी, आस्ट्रिया, २६.८.१९९० सारे संसार का कार्य इसी ओंकार की शक्ति से होता है, इसे हम चैतन्य कहते हैं, ब्रह्म चैतन्य कहते हैं। ब्रह्म चैतन्य का साकार स्वरुप ही ओंकार है। इसका मूर्तस्वरूप या विग्रह श्री गणेश हैं। ..... यह ओंकार अति पवित्र है और अनन्त का कार्य करने वाली शक्ति है । आत्मा की शक्ति भी ओंकार की ही शक्ति है। प.पू.श्री माताजी, आस्ट्रिया, २५.१२.१९९० महामंत्र ।।ॐ त्वमेव साक्षात श्री महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली त्रिगुणात्मिका कुण्डलिनी साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः ।। ।।3ॐ त्वमेव साक्षात श्री कल्की साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः । । । । ॐ त्वमेव साक्षात श्री कल्की साक्षात श्री सहस्रार स्वामिनी मोक्ष प्रदायनी माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः। ॥ श्रीगणेश मंत्र - |13ॐ त्वमेव साक्षात श्री गणेश साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः।। 34 री प्रकृति का नियंत्रण करने के लिये परमात्मा ने ग्रह स्थापित कर दिये हैं। मुख्यत: नौ ग्रह है। पूरे ब्रहाण्ड तथा ह२ चीज़ को नियंत्रित करने के लिये नवग्रह स्थापित क२ दिये। इन बिन्दूओं से सब कुछ नियंत्रित होता है। इनका प्रभाव हमारे शारीरिक एवं भौतिक जीवन पर भी पड़ती है। पं.पू.शरीमाताजी, २२.३.१९७७ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० - २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in कु স ॐ शु ०. के श्रीकृष्ण के जीवन में यह दिखाया गया कि एक छोटे लंड़के, जैसे वो थे, बिल्कुल जैस शिशु होता है, बिल्कुल अजञानी, वैसे वो थे। वो अपने को कुछ समझते नहीं थे। अपनी माँ के सहारे वो बढ़ना चाहते थे इसी प्रकार आप लोगों को भी अपने अन्द२ देखते वक्त ये सोचना चाहिए अा कि हम एक बालक हैं। - प.पू. श्री माताजी, पुणे, १०.८.२००३ ॐ e০ ---------------------- 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-0.txt चैतन्य लह हिन्दी जुलाई-अगस्त २०१२ 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-1.txt इस अंक में इस्ट२ फूजा ...४ प्रकाश को बढ़ाना है ...६ स्थिति प्रज्ञा स्थिति ...८ आत्मा का सख ...१७ की स्व२०ूप ...१८ लक्ष्य प्राप्ति में मंत्रों एवं प्रार्थनीओं का महत्व ... ३० मैं लौगों में अन्तपरिवर्तन करने का फ्रयत्न कर २ही हूँ। दैवी समूहिकता में इसका निर्णयि लिया गया था। सरे देवी- देवताओं ने इसे कार्य की ज़िम्मेदारी किसी समर्थवान को देने का निर्णय किया तो उन्होंने कहा कि हम सब और हमारी सेारी शक्तियाँ आपके २थ होंगी, प२ आप कलियुग में मानव को परिवर्तित करने का कार्यभा२ ले लें । प.पू.श्री मातीजी, कबेली, २६.४.१९९४ 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-3.txt इस्ट२ पूजा संदेश आस्ट्रेलिया पुनरुत्थान मानव जौवन का मुख्य लक्ष्य है। जौवन के प्रलोभनों से मानव को ऊपर उठना है। ान ३.४.१९९४ 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-4.txt इस्टर पूजा के विषय में बताते हुए श्री माताजी ने कहा कि आस्ट्रेलिया और पूरे विश्व के लिए यह पूजा महत्वपूर्ण है । क्योंकि इसमें एक महान संदेश है, जिसका वास्तविकरण हम कर चुके हैं। हमें ईसा के संदेश को ने समझना है। श्रीमाताजी बताया कि समाचार-पत्र में वह पढ़ रहीं थी कि किस प्रकार लोग ईसा के संदेशों को अस्वीकार कर देते हैं। ऐसा करने वाले वे कौन हैं? मात्र लेखक होने के कारण उन्हें ऐसी बातें करने का क्या अधिकार है। जो लोग आत्मसाक्षात्कारी नहीं है उन्हें आध्यात्मिकता के विषय पर लिखने का कोई अधिकार नहीं है । आध्यात्मिकता उनके मस्तिष्क से परे की बात है। श्रीमाताजी ने कहा कि यह कितने आश्चर्य की बात है कि वे इस पूजा का आयोजन आस्ट्रेलिया में कर रही हैं । मूलाधार की धरती पर। मूलाधार, जहाँ मूलाधार स्थापित किया गया और बाद में वह ईसा के जीवन में आज्ञा चक्र पर प्रकट हुआ। सभी अभारतीय देशों में सहजयोग की सबसे अधिक उन्नति आस्ट्रेलिया में हुई है। अब सबसे अधिक उन्नति रूस में हुई है जो कि पूर्वी खण्ड के देशों की दायीं आज्ञा है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में अधिकतर चीनी जाति के लोग हैं। वे बुद्ध की पूजा करते हैं जिनका स्थान बाईं आज्ञा पर है। बुद्ध से प्रभावित थाईलैण्ड, हांगकांग, तैवान आदि देशों की देखभाल में आस्ट्रेलिया सहायता कर रहा है। यह सब एक योजना की तरह कार्यान्वित हो रहा है। एक बहुत बड़े सन्त हुए हैं जिन्होंने कोई घोर पाप किया। परिणाम स्वरूप परमात्मा ने अभिशप्त करके उन्हें भारत और अफ्रीका के बीच की पृथ्वी पर भेज दिया। तब इस पृथ्वी का पतन इस स्तर कर दिया गया और उस सन्त को कहा गया कि इसके लिए कुछ करे। उस सन्त का नाम त्रिशंकर था जो कि अब दक्षिणी क्षेत्र के सितारे हैं और जिनका वर्णन पुराणों में है। परमात्मा ने दण्ड के फलस्वरूप उस संत को पृथ्वी के इस क्षेत्र के ऊपर लटकता हुआ सितारा बना दिया और उससे कहा गया कि जा कर वहाँ के मानव के लिए स्वर्ग की रचना करे। आस्ट्रेलिया में बहुत एक तो यह कि हम बहुसांस्कृतिक समाज से सम्बन्धित हैं जहाँ दूसरी संस्कृति की रक्षा की जाती है और जहाँ न्याय प्रणाली द्वारा लोगों की रक्षा की जाती है। बहसांस्कृतिक समाज का विकास करने के लिए यह बहुत अच्छी बात है और यह राजनीतिक विचारों के पुनरुत्थान द्वारा आता है। लोगों को अपने आस-पास की संस्कृति के बारे में जिज्ञासा और ज्ञान है। इससे प्रकट होता है कि हमारे जीन्स में सामूहिकता की भावना है तथा हमारा देश अभी भी बहसांस्कृतिक समाज में विश्वास करता है। यह सब चीजें श्री गणेश के गुणों को अभिव्यक्त करती है। सी अच्छी बातें हैं। यदि १० ऐसे लोगों का समूह है जिनमें श्री गणेश की पवित्रता नहीं है तो वे इकट्ठे नहीं रह सकते क्योंकि उनमें हमेशा झगड़ा होगा, लोग बहुत ही उथले बन जाएंगे । पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध श्री गणेश द्वारा स्थापित किया जाता है। वे हमेशा वैवाहिक जीवन का आनन्द लेने का ज्ञान प्रदान करते हैं। पुनरुत्थान मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य है। जीवन के प्रलोभनों से मानव को ऊपर उठना है। ईसा मानव के रूप में आये पर वे मानव न थे, क्योंकि उनमें भौतिकता नहीं थी। वे ओंकार थे, इसलिए वे पानी पर चल सके| क्राइस्ट का संदेश पुनरुत्थान था जो कि बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ पर आपको तीन दिन का अवकाश मिलता है। पर जो लोगों को करना चाहिए वे उसके विपरीत करते हैं। ईसा हमारे आदर्श होने चाहिए। पवित्र दृष्टि किस प्रकार सम्भव है? पश्चिमी देशों के लोगों की आँखे तो कामुकता और लालच से परिपूर्ण हैं। ईसाई राष्ट्रों के साथ मुख्य समस्या यह है कि वे अत्याधिक भौतिकतावादी बन गये हैं, लोगों को आँखें देखती हैं और प्रतिक्रिया करती हैं, वे साक्षी नहीं हो सकते। विचार और प्रतिक्रिया व्यक्ति को पशुत्व के निम्नतम स्तर तक ले जा सकते हैं। सहजयोग में श्रीमाताजी के जीवनकाल में ही, पृथ्वी पर निश्छल लोगों के एक नये विश्व की सृष्टि कर दी गयी है। 5 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-5.txt प्रकाश को बढ़ाना है रामपुर, २१ दिसंबर १९८९ आपको मुझे बहुत सारी वस्तुयें देना या अर्पण प्रस्ताव करना बहुत महत्वपूर्ण नहीं, आपने कितने लोगों को साक्षात्कार दिया, इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात है। आपकी क्या अवस्था है? क्या आप विकसित हो गये हैं? क्या आप स्वतंत्र हो गये हैं? क्या आप बंधनमुक्त और अहं मुक्त हो सकते हैं? क्या आप अति विनम्र, सुन्दर, करुणामय और सामूहिक व्यक्तित्व बन गये हैं? अन्तर दर्शन स्वयं को देखने का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। कार जब तक ठीक अवस्था में न हो हम उसे चला नहीं सकते। इसी प्रकार आपका अस्तित्व यदि हास्यास्पद स्थिति में है तो आपका उत्थान नहीं हो सकता। यह वास्तविकता है। हर चीज़ में से आनन्द की प्राप्ति हमारी उपलब्धि का चिन्ह है। यदि हमारा बर्तन छोटा है तो इसमें बहुत कम आनन्द समा सकता है। परन्तु यदि यह सागर समविशाल है तो आनन्दरूपी सभी नदियाँ इसमें आ गिरेंगी। अत: आनन्द की मात्रा मनोरंजन की नहीं, महत्वपूर्ण है। मैं छिछोरे या सस्तेपन की बात नहीं कर रही हूँं, मैं उस गहन ध्यान- आनन्द की बात कर रही हैूँ जो आप अपने अन्दर पाते हैं। यह आपके अन्दर उमड़ उठता है, आपको आनन्दित करता है और आप यह समझ भी नहीं पाते कि आप प्रसन्न क्यों हैं। केवल अपने आनन्द का मज़ा लेते हैं। जब ऐसा हो तो व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि वह जपने-योगी हैं। इस अवस्था में आप यह आनन्द बाँटना चाहते हैं। इसे अपने तक सीमित रखना नहीं चाहते। आप इसे फैलाना चाहते हैं। इस आनन्द को दूसरों को देना चाहते हैं। इसे दूसरों तक पहुँचाये बिना आप खुश नहीं हो सकते। अत: पहले आप पूंजीवादी बनिये और फिर साम्यवादी। 6. तेप 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-6.txt पहली बात है कि हमने कितना आनन्द पाया और दूसरी कि हमारे मस्तिष्क में अब क्या है? सहजयोग को हम बाहर की ओर कैसे फैलायेंगे। सर्वप्रथम प्रकाश को बढ़ाना है, तब स्वत: प्रकाश | फैलेगा। हमारा स्वयं से क्या संबंध है? झुंड न बनाने के लिए मैं पहले कह ही चुकी हूँ। कुछ लोगों की बहुत अधिक गर्दन हिलाने की आदत बन गयी है। गाते हुए वे अपने शरीर और गर्दन को हिलाते हैं। आप अपने शरीर को हिला सकते हैं, परन्तु गर्दन शरीर के साथ ही हिलनी चाहिए। ध्यान में जाने से पहले स्वयं को देखिये, अपनी कमियों को देखिये, तब मेरे फोटोग्राफ के सामने ध्यान में जाइये । जब हम आ रहे थे, मैंने कहा, 'यह रास्ता गलत है। उन्होंने कहा, 'माँ, आप कैसे जानते हैं?' बस, मैं जानती हूँ। किसी चीज़ को जानने के लिए यह आवश्यक नहीं कि आप इसके विषय में हर बात को जानें। यह आपके चैतन्य बनने का चिन्ह है। हर चीज़ की चेतना होने का यह मतलब बिल्कुल नहीं कि आप बैठ जायें और कहें, 'यह बहुत सुन्दर है या यह बहुत उत्तम है।' यह कोई बात नहीं। प्रमाणित करने या आलोचना करने के लिये नहीं परन्तु जो भी आप जानते हैं उसे वातावरण में अनुभव कीजिए | हमारे पास एक बहुत बड़ा मस्तिष्क है और सिर के अन्दर दो खंड। यह केवल एक मस्तिष्क नहीं है, परन्तु दो खण्ड हैं और जब चेतना आपको प्रकाश देने लगती है तो आप अपने अन्दर हर चीज़ को जानना शुरू कर देते हैं और शान्त रहते हैं। आप न तो कोई दावा करते हैं और न ही अपना दबाव डालने के लिए कोई चालाकी करते हैं। आप केवल जानते हैं और यही सुन्दर कार्य व्यक्ति को करना है। एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण बात मैं आपको बतलाऊंगी। भारत में आप अच्छी तरह अपने बालों को संवार कर रखिये, नहीं तो लोग समझेंगे कि आप भिखारी हैं। केवल भिखारियों के बाल इस तरह के होते हैं। बालो में तेल डालिये और इन्हे कायदे से संवारिये। आपके अपने ललाट (माथे) पर गर्व होना चाहिए। यह एकादश है। अपने इस एकादश से आपको पूरे विश्व से युद्ध करना है। रात्रि के समय बालों में तेल डालिये । यह आपको | बहुत आराम पहुँचायेगा। आपको बहुत अच्छा लगेगा। विशेषतया जिगर के ( लीवर) के रोगियों के लिए यह बहुत आवश्यक है। उन्हें अपने सिर पर तेल अवश्य लगाना चाहिए, क्योंकि वे बड़े खुश्क लोग होते हैं। उनके बालों में तेल न होने के कारण बाल बढ़ते नहीं और वे जल्दी ही गंजे हो जाते है। आपको मेरे बताये बिना ही सहज -संस्कृति को व्यक्त करना है, इसे स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करना है। निर्णय करने का प्रयत्न कीजिए कि आपका चित्त कहाँ है। हर समय अपने चित्त पर चित्त को रखिये। मेरा चित्त कहाँ है? श्रीमान् चित्त जी आप कहाँ खोये हैं? और यह आपके लिए कार्य करेगा | ईश्वर आपको आशीर्वादित करें। 7 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-7.txt स्थित प्रज्ञा स्थिति सर्वप्रथम उन्हें सोचना पड़ा कि 'हमारी आध्यात्मिक स्थिति क्या है? हमारी आध्यात्मिक भूमि कैसी है ? श्री राम के समय में उन्होंने बहुत सी मर्यादाएं बनाई थी और लोग इन मर्यादाओं के विषय में सोचने लगे थे कि मझे यह कार्य नहीं करना चाहिए, मुझे वैसा नही करना चाहिए। ५/९/१९९९, कबैला, इटली 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-8.txt २० द द ऊ ह ार हि ॐी ० ० मानवौय प्रकृति के कारण आपको कर्म तो करना होगा परन्तु इस कर्म का फल परमात्मा के चरण कमलों में या दिव्य शक्ति पर छोड़ देना चाहिए। ॐ 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-9.txt आज हम श्री कृष्ण की पूजा विराट रूप में करेंगे। सर्वप्रथम श्री कृष्ण अवतार को समझ लेना आवश्यक है। 'कृष्ण' शब्द का उद्भव 'कृषि' शब्द से है-कृषि अर्थात् खेती। उन्होंने आध्यात्मिकता के बीज बोए और इसके लिए सर्वप्रथम उन्हें सोचना पड़ा कि 'हमारी आध्यात्मिक स्थिति क्या है? हमारी आध्यात्मिक भूमि कैसी है? श्री राम के समय में उन्होंने बहुत सी मर्यादाएं बनाई थीं और लोग इन मर्यादाओं के विषय में सोचने लगे थे कि मुझे यह कार्य नहीं करना चाहिए, मुझे वैसा नहीं करना चाहिए।' यह सब मात्र मानसिक बन्धन थे, ऐसा करना न तो वे स्वाभाविक था और न सहज। परिणाम स्वरूप लोग अत्यन्त गरम्भीर हो गए। न तो ज्यादा बातचीत करते थे, न हँसते थे और न ही किसी चीज़ का आनन्द लेते थे। अत: सर्वप्रथम श्री कृष्ण ने निर्णय किया कि वे लोगों को इन बन्धनों से मुक्त करेंगे और इस तरह से ये बन्धन समाप्त करेगे कि लोग परस्पर आनन्द प्राप्त कर सकें। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के तीन मार्ग थे सर्वप्रथम उन्होंने कहा कि आत्मानुभव (आत्मसाक्षात्कार ) प्राप्त करके स्थितप्रज्ञ बन जाओ-सभी प्रलोभनों, अहं, सभी बन्धनों से मुक्त होकर स्थित प्रज्ञ बन जाओ । स्थित प्रज्ञ स्थिति में व्यक्ति सर्व साधारण लोगों की तरह से नहीं सोचता और न ही सामान्य व्यक्ति की तरह भौतिक पदार्थों की तरफ आकर्षित होता है। ऐसा व्यक्ति पूर्णत: निर्लिप्त होता है उसे न तो कोई शिकायत होती है और न ही कोई ईर्ष्या । श्री कृष्ण ने यह सब बताया परन्तु उन्होंने इस स्थिति को प्राप्त करने की विधि कभी नहीं बताईं। दूसरी चीज़ जो उन्होंने बताई कि मानवीय प्रकृति के कारण आपको कर्म तो करना होगा परन्तु इस क्म का फल परमात्मा के चरण कमलों में या दिव्य शक्ति पर छोड़ देना चाहिए। यह उनकी एक अन्य चाल थी क्योंकि वे जानते थे को कि मानव में कितना अहं है और मानव को किस प्रकार चलाना है। मनुष्य यदि आप कोई बात सीधे से बताएं तो वे किस प्रकार इसका गलत अर्थ लगाता है। अत: श्री कृष्ण ने जटिल मार्ग अपनाया कि लोगों को कुछ अटपटी चीज़ बताई जाएं। कोई भी कार्य जब आप करते हैं तो अहं के कारण उसे परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित नहीं कर सकते। ऐसा करना असम्भव है। अत: उन्होंने एक असम्भव स्थिति की सृष्टि की ताकि कुछ समय पश्चात् लोग यह महसूस कर सकें कि ऐसा नहीं हो सकता और परमात्मा के चरण कमलों में किसी चीज़ को छोड़ने का विचार त्याग दें। इस प्रकार इन्होंने भूमि तैयार की। एक अन्य चीज़ जो उन्होंने कही, 'पुष्पम फलम तोयम्।' फूल, फल या जल जो भी कुछ आप 10 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-10.txt मुझे अर्पण करेंगे मैं इसे स्वीकार करूंगा। परन्तु ऐसा करते आपके हृदय में मेरे प्रति अनन्य भक्ति होनी हुए चाहिए। अनन्य अर्थात् जिसमें कोई अन्य न हो-पूर्ण। यह स्थिति तो केवल आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही आप अपने कर्मफल परमात्मा के चरण कमलों में समर्पित कर सकते हैं और केवल आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही आप अनन्य भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मानव के जटिल स्वभाव के कारण उन्होंने यह अटपटी शर्त मानव के लिए बना दी। बहुत से लोग मुझे बताते हैं कि श्रीमाताजी हम अनन्य भक्ति कर रहे हैं। कैसे? क्योंकि हम गलियों में गाते फिरते हैं; हर समय परमात्मा का नाम लेते हैं, फटे पुराने कपड़े पहनकर पंढरपूर जाते हैं और एक महीना पैदल चलते हैं और गाते रहते हैं। भक्ति के विषय में उन्होंने इस प्रकार मूर्खतापूर्ण विचार कभी नहीं बताए। वे तो भक्ति के विषय में मानव के मूर्खतापूर्ण विचारों को दूर करना चाहते थे। अनन्य भक्ति तो केवल आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है, केवल उस स्थिति में जब आपके और परमात्मा के अतिरिक्त कोई न हो। इस प्रकार उन्होंने मनुष्य और उसकी मूर्खताओं पर तीन ओर से आक्रमण किया क्योंकि उन्होंने सोचा कि मानव को यदि सीधे से कहा गया कि ऐसा करो , ऐसा मत करो तो वे कहेंगे कि हमने ऐसा किया परन्तु हमें कुछ प्राप्त नहीं हुआ। भारत में एक पंथ है जो पंढरपूर जाते हैं; फटे पुराने कपड़े पहनकर एक महीने तक चलते रहते हैं, भजन गाते हुए मार्ग पर जहाँ भी जैसा मिलता है खा लेते हैं। वे सोचते हैं कि यह अनन्य भक्ति है, परन्तु उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। ऐसे लोग अस्वस्थ एवं दुर्बल हो जाते हैं और उनकी वृद्धावस्था दयनीय हो जाती है। परन्तु उन्हें कौन समझ सकता है? वो तो इसमें खो चुके हैं। अत: लोगों को मार्ग पर लाने का यह उनका तरीका था। बहुत से लोग मेरे पास आकर बताते हैं कि श्री माताजी हम श्री कृष्ण की इतनी भक्ति करते हैं परन्तु हमें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। तो श्री कृष्ण ने कृषि के लिए भूमि तैयार की, हम कह सकते हैं कि वह एक महान कृषक थे इसलिए 'कृषि' से उनका नाम कृष्ण पड़ गया। उनके विषय में मैंने आपको बहुत सी बातें बताई हैं कि उनका नाम कृष्ण कैसे पड़ा, राधा कौन थी, कृष्ण कौन थे आदि आदि। परन्तु जब उन्होंने ये सब बातें बताई तो उन्होंने कहा कि आप स्थित प्रज्ञ बनें। इसे ज्ञान योग कहा गया। ज्ञान योग-अर्थात् पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना। परन्तु उन्होंने ये नहीं बताया कि इसे किस प्रकार प्राप्त करें। यह बात तो आप जानते हैं कि पूर्ण ज्ञान क्या है। सहजयोग में इसे आप अपनी अंगुलियों के सिरों पर महसूस कर सकते हैं। श्री कृष्ण की एक अन्य विशेषता ये थी कि उन्होंने लोगों में विवेक की सृष्टि की। उन्होंने सोचा कि मूर्खतापूर्ण ढंग से कार्य करते हुए लोगों में विवेक उत्पन्न हो सकता है कि इस प्रकार कुछ प्राप्त न होगा; कुछ प्राप्त करने के लिए तो आत्मसाक्षात्कार आवश्यक है। आज जब हमारे सामने एक चुनौती की नई सहस्राब्दि में यह विश्व नष्ट हो जाएगा तथा ऐसी और बहुत सी बातें जो लोग कह रहे हैं, तो अच्छा क्या है और बुरा क्या है इसे विवेक द्वारा समझ लेना बहुत आवश्यक है। किसी चीज़ को हम बहुत अच्छा कहते हैं और किसी चीज़ को बुरा। परन्तु दिव्य विवेक भिन्न है और स्वयं कार्य करता है एक बार जब आप दिव्य विवेक के साम्राज्य में आ जाएंगे तब आप चाहते हुए भी गलतियाँ न कर बहुत सकेंगे। मैं आपको अपना उदाहरण दंगी। हम एक घर खरीदने के लिए गए और उसे बेचने वाला एक भिखारी 11 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-11.txt की तरह से था। वह आया और कहने लगा हमारे पास कुछ नहीं है, खाना तक भी नहीं है। हमारी सारी चीज़े छीन ली गई हैं और भूखे मरने के लिए छोड़ दिया गया है। उसने जब ये बात कही तो मुझे उस पर दया आई और मैंने कहा कि ठीक है इसकी कीमत कुछ और बढ़ा दीजिए। हमने कीमत बढ़ा दी फिर भी वह कहे जा रहा था नहीं नहीं इसे और बढ़ाइए । न चाहते हुए भी मेरे पति ने दो बार कीमत बढ़ाई तीसरी बार फिर बढ़ाई, परन्तु उसकी सन्तुष्टि नहीं हुई। तुरन्त विवेक ने कार्य किया और मैंने बताया, 'ये पाखण्डी है।' मैं आकर कार में बैठ गई। मुझे लगा कि खरीदने के लिए यह कोई इतना अच्छा स्थान भी नहीं है केवल करुणा के कारण मेैं इसे खरीद रही हूँ। परन्तु करुणा से भी ऊपर यह दिव्य विवेक है जिसने मुझे बताया कि इस सौदे को छोड़ दो । तो यह दिव्य विवेक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हमें देखना चाहिए कि यह किस प्रकार कार्य करता है और इससे सन्तुष्ट होना चाहिए। अवसर खो देने का दु:ख हमें नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत हमें प्रसन्न होना चाहिए कि ऐसा घटित हुआ और हमारे दिव्य विवेक ने सब सम्भाल लिया । कई बार ऐसा लगता है, आपने कोई गलती कर दी है। परन्तु यदि ये दिव्य विवेक में किया गया है तो यह अच्छा साबित होगा। दिव्य विवेक हमारे जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह हमें जीवन का, सहजयोग का वास्तविक आनन्द प्रदान करता है। अत: तीसरी बात जो श्री कृष्ण ने की वह थी लोगों को प्रसन्न एवं आनन्दमय बनाना। परन्तु उनकी समझ में यह नहीं आया कि श्री राम की मर्यादाओं के रहते किस प्रकार ऐसा किया जाए। तो लोगों को आनन्द देने के लिए उन्होंने कहा आओ नृत्य करें, गीत गाएं, होली खेलें आदि-आदि। इन चीज़ों से उन्होंने ऐसी प्रथाओं का आरम्भ किया जो बहुत गम्भीर न थी और देखने में उथली प्रतीत होती थी परन्तु इनके माध्यम से आनन्द की अभिव्यक्ति होती थी। उन्होंने यह बताने का प्रयत्न किया कि स्थित प्रज्ञ, सहजयोगी या आत्मसाक्षात्कारी का चीज़़ों के प्रति क्या दृष्टिकोण होना चाहिए। आप लोगों में स्वत: यह दृष्टिकोण बन जाता है। सहज अवस्था में आप हर चीज़ का आनन्द लेते हैं। वे लोगों में आनन्द की यही संवेदना उत्पन्न करना चाहते थे । उनके जीवन की इन गतिविधियों की बहुत से आलोचकों ने आलोचना की है। आलोचकों के धर्म का अर्थ यह है कि बीस साल की आयु में ही आप अस्सी साल के वृद्ध की तरह से व्यवहार अनुसार करने लगे। कितनी बेवकूफी है। श्री कृष्ण ने सदैव आनन्द की बात की, त्याग और विरक्ति की नहीं । उन्होंने कभी नहीं कहा कि अपना परिवार, बच्चे, सभी कुछ त्याग दो। उन्होंने सदैव यह कहा कि साक्षी भाव से आनन्द लो। निर्लिप्सा पूर्वक आनन्द लेने की बात लोगों की समज में नहीं आती। लिप्त होकर आप कभी आनन्द नहीं ले सकते। किसी चीज़ से लिप्त होकर आप उसका पूर्ण आनन्द नहीं ले सकते। मान लो आप अपने बच्चे से लिप्त हैं तो हर वक्त आप उसके विषय में चिन्तित रहेंगे। तो बच्चा आनन्द न पा सकेगा। आप उसे घर से बाहर न जाने देंगे, लोगों से बातचीत न करने देंगे, सभी प्रकार के बन्धन उस पर लगाए रखेंगे। परन्तु यदि आपमें दिव्य विवेक हैं तो आप जान पाएंगे कि बच्चे को किससे बात करनी चाहिए, कहाँ जाना चाहिए, किस चीज़ का आनन्द लेना चाहिए और देखेंगे कि बच्चा अपने जीवन का आनन्द ले सके। किसी चीज़ के प्रति लिप्सा आपको उसकी पूरी समझ नहीं दे सकतीं। आप यदि निर्लिप्त हैं तो उससे ऊपर उठकर आप उसे 12 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-12.txt २ मा र २० र २० देखते हैं साक्षी भाव में आप निर्विचार समाधि में चले जाते हैं। जैसा मैंने कहा यहाँ पर बहुत सुन्दर कालीन है। ये कालीन यदि मेरे होते तो लिप्त होने के कारण सम्भवत: मैं इन के प्रति चिन्तित होती। परन्तु यदि मैं लिप्त नहीं हूँ तो मैं इन्हें देखकर इनका आनन्द लूंगी। इन्हें बनाने वाले दस्तकारों की कारीगरी का मैं आनन्द लूंगी। बनाने वालों का आनन्द इनके माध्यम से मुझमें प्रतिबिम्बित होगा। अत: किसी चीज़ से लगाव प्रसन्नता तो हो सकती है परन्तु आनन्द नहीं क्योंकि आनन्द अद्वैत है और प्रसन्नता-अप्रसन्नता की जोड़ी है। प्रसन्नता में यदि हम आनन्द खोजें तो उसमें खामियाँ नज़र आएंगी परन्तु आनन्द सर्वव्यापी है, यह असीम है और व्यक्ति आनन्द के सागर में विलीन हो जाता है। यही कारण था कि श्री कृष्ण ने मर्यादाओं को सीमित कर दिया। आजकल हम देखते हैं कि बहुत सी मर्यादाएं व्यर्थ हैं उदाहरण के रूप में धर्म की मर्यादाएं। जब लोग इन मर्यादाओं में रहते हैं तो वे सीमित होकर एक ही से बन जाते हैं। मानो किसी खड़े हुए पानी के तालाब में पनपे हों। इन मर्यादाओं के कारण उनके मस्तिष्क बन्द हो जाते हैं। व्यक्ति सोचने लगता है कि मैं यह कार्य करूं या से न करू? मैं इसका आनन्द उठा पाऊंगा या नहीं? इन मर्यादाओं से आप आनन्द का वध करते हैं। बहुत लोग सहजयोग में आना चाहते हैं। परन्तु अपने धर्म की रुग्ण मर्यादाओं के कारण वे नहीं आ सकते। वे सोचते हैं कि हमारा यही धर्म है, ये नहीं समझ पातें कि धर्म द्वारा बनाई गई मर्यादाएं वास्तव में क्या हैं? इस्लाम में, आप देख सकते हैं कि धर्म की मर्यादाओं के कारण वे अन्य देशों पर राज्य करना चाहते हैं, इसाई धर्म में भी 13 ाय 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-13.txt ऐसा ही हो रहा है, हिन्दू धर्म के लोग भी अपनी सड़ी हुई मर्यादाओं के कारण पिस रहे हैं। उनमें विवेक बुद्धि का पूर्ण अभाव है। वे मर्यादाओं का पालन इसलिए किए चले जा रहे हैं क्योंकि ऐसा करने के लिए कहा गया था। इनके विषय में वे इतने धर्मान्ध हैं कि उचित अनुचित को भी नहीं देख पाते। परन्तु सहजयोग में आने के पश्चात् आप उन्हें देख सकते हैं उन पर हँस सकते हैं और अपने विवेक का उपयोग कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त सामाजिक मर्यादाएं हैं। कई बार इन्हें छोड़ने पर बहुत भयानक स्थिति हो जाती है। पश्चिमी देशों की महिलाएं सोचती हैं कि जितने कम कपड़े वे पहनेगी उतनी ही वे सुन्दर लगेंगी। ये एक नई चीज़ उन्होंने आरम्भ कर दी है। ये मुर्खता है। इसके पीछे छिपे कारण को यदि हम खोजे तो ये अत्यन्त साधारण है कि हम पूर्व जन्मों में पशु थे और उन पाशविक संस्कारों के कारण अब भी हम सी वस्त्र नहीं पहनना चाहते। यह पाशविक परम्परा है जिसके कारण बहुत महिलाएं पूरे वस्त्र नहीं पहनना चाहतीं। यह पशु सम आचरण है। तो अच्छी मर्यादाओं को भी लोग त्याग देते हैं। वे कहते हैं कि हम स्वच्छन्द हैं और जो चाहे कर सकते हैं। परन्तु इस स्वच्छन्दता से आपको क्या मिलता है? इस स्वच्छन्दता में आपकी पशू वृत्ति कार्य करती है और आप स्वयं को स्वतन्त्र व्यक्तित्व मान लेते हैं । इसके अतिरिक्त राष्ट्र की मर्यादाएं हैं। परमात्मा ने भिन्न- भिन्न देश नहीं बनाए। यहाँ तो वैचित्र्य हैं। बहुत प्रकार के लोग हैं, भिन्न प्रकार के स्थान हैं। इस वैचित्र्य को कलात्मकता के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। हमें ऐसे विचारों से भ्रमित और नष्ट नहीं होना चाहिए कि हम अमरीकन हैं, हम भारतीय हैं, हम ये हैं, हम वो हैं। सहजयोग में आकर आप देख सकते हैं कि आप सब सहजयोगी हैं, किसी देश विशेष के नहीं हैं। कहने से मेरा अभिप्राय ये है कि आप लोग ये समझें कि यदि वास्तव में आप सभी राष्ट्रों का हित चाहते हैं तो कुछ कार्य करें- सहजयोग का कुछ कार्य। ताकि लोग भूमि आदि के लिए युद्ध करने के विचारों से मुक्त हो जाएं। भूमि तो परमात्मा की है। मनुष्यों की नहीं इसके लिए युद्ध करना मेरी समझ में नहीं आता। परन्तु लोग इस भ्रम में फँसकर अपने और अपने बच्चों से लोग नष्ट हो गए हैं और बहुत से के जीवन को नष्ट कर लेते हैं। बहुत पागलखानों में हैं। आपके पास अच्छे खासे घर होते हैं, भली भाँति आप रह रहे होते हैं और फिर शरणार्थी बन जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे अपनी भूमि के 14 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-14.txt स्वामी बन सकते हैं। ये विचार उन्हें मूर्ख नेताओं से मिलते हैं, जो भूमि विजय करने के लिए उन्हें युद्ध के लिए उकसाते हैं। भूमि आदि के लिए युद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं परन्तु स्थिति ऐसी है आप युद्ध किए बिना सत्य तक नहीं पहुँच सकते। आप यदि श्री कृष्ण का स्मरण करें तो उन्होंने अर्जुन से कहा था कि तुम्हें युद्ध करना होगा क्योंकि ये लोग अधर्मी हैं। युद्ध करके पाण्डवों ने कौरवों से अपना सब कुछ वापिस लिया। कौरवों ने क्योंकि धोखे से पाण्डवों से सब कुछ छीन लिया था इसलिए श्री कृष्ण ने पाण्डवों को युद्ध करने के लिए कहा। अत: दिव्य विवेक यदि आज्ञा दे तो युद्ध उचित है। दासत्व के विरुद्ध भी युद्ध का औचित्य है। भिन्न राष्ट्र या क्षेत्र बनाने के लिए युद्ध करना अनुचित है। किसी देश से कुछ हिस्से को अलग कर के परन्तु अलग राज्य बना लेना गलत है। इससे बहुत सी समस्याएं पैदा होती हैं। अब हम तो विश्व धर्म और विश्व साम्राज्य में विश्वास करते हैं। हमें कुछ माँगना नहीं पड़ता। जहाँ भी आप जाते हैं आप वहाँ के नागरिक हैं। आप यदि रूस जाएंगे तो सभी रूसी सहजयोगी आपके साथ होंगे और यदि अमेरिका जाएंगे तो अमेरिका के सहजयोगी। भिन्न राज्यों और धर्मों के विचार मानव की देन हैं और यदि मानव परिवर्तित हो जाएगा तो न तो युद्ध की समस्या रहेगी न भूमि हथियाने की। श्री कृष्ण का दिव्य विवेक अब भी हमारे अन्दर है। यह हमारे विशुद्धि चक्र का अंग-प्रत्यंग है, विशुद्धि चक्र में ही श्रीकृष्ण का निवास है। जब श्री कृष्ण आपके सहस्रार तक पहुँचते हैं तब वे विराट बन जाते हैं। अत: विराट का चक्र सिर में बनाया गया है-अगन्य चक्र के ऊपर। यह विराट श्री कृष्ण का ही रूप है जो अगन्य चक्र से ऊपर आए हैं। अगन्य चक्र से ऊपर उठकर आप विराट के अंगप्रत्यंग बन जाते हैं क्योंकि अहम् से ऊपर उठे बिना आप अपने स्वार्थों में और मर्यादाओं में फँसे रहते हैं। परन्तु आज्ञा से ऊपर उठकर विराट बनकर आप विराट की भूमि पर आ जाते हैं। विराट की शक्तियाँ महान होती हैं। विराट के दर्शन जैसे अर्जुन ने किए थे, विराट की शक्ति पूरे ब्रह्माण्ड में कार्य करती है। चाहे आप यहाँ बैठे हो यह शक्ति कहीं भी कार्य कर सकती हैं। आपने देखा होगा कि बहुत से लोग कहते हैं कि श्री माताजी यह चमत्कार है । मेरी माँ बीमार थी, | वो यहाँ नहीं थी, मैंने प्रार्थना की और वो ठीक हो गई। ये सब विराट की शक्ति है। विराट की शक्ति मानव की सूक्ष्मता में भी इस प्रकार प्रवेश कर सकती हैं कि सभी कुछ इससे जुड़ जाता है हम अलग नहीं होते। जैसे पानी की बूंद समुद्र से जुड़ी होती है इसी प्रकार हम ब्रह्माण्ड से जुड़े हुए हैं। और जब आप विराट के नागरिक बन जाते हैं तब जिन भी चीज़़ों से आप जुड़े हुए हैं उन्हें आपकी चैतन्य लहरियाँ प्राप्त होती हैं। आपके विचार, आपकी आकांक्षाएं, सभी कुछ इनमें से गुजरते हैं और यह कार्यान्वित होती है। आपने देखा है कि आपके जीवन में किस प्रकार चमत्कार हुए हैं। विराट शक्ति ही यह कार्य करती है। अब आपको ये जानना होगा कि विराट की पूजा किस प्रकार करें। सर्वप्रथम आपको अहं से ऊपर उठना होगा। ये बहुत महत्वपूर्ण है इसके बिना कैसे आप पूजा कर सकते हैं ? अहं यदि विराट और आपके बीच खड़ा होगा तो किस प्रकार आप विराट के स्तर तक पहुँच सकते हैं। अहं के बीच से आपको निकलना होगा और अहं से ऊपर उठते ही आप विराट के साम्राज्य में पहुँच जाएंगे। वहाँ विराट ही महाराज है और आप उनकी प्रजा हैं। 15 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-15.txt जिसकी पूरी देखभाल विराट शक्ति कर रही है। उस स्थिति में आप सार्वभौमिक व्यक्ति बन जाते हैं। विश्व स्तर पर जो भी हमारी समस्याएं हैं वो अब आपसे जुड़ जाती हैं। मान लो कोई व्यक्ति उस बुलन्दी तक पहुँच गया है तो वह किसी अन्य देश में होने वाले युद्ध को भी रोक सकता है। किसी पर यदि जुल्म हो रहे हैं तो उसे भी बचा सकता है। आपका करुणामय चित्त जहाँ भी जाएगा ये कार्य करेगा। कभी-कभी तो आप हैरान हो जाएंगे कि श्रीमाताजी यह किस प्रकार कार्य करता है। किस प्रकार सारी चीज़ें घटित होती हैं? यह संयोग बहुत बार हो चुके हैं। आवश्यकता बस इतनी है कि अहं से ऊपर उठकर आप विराट की अवस्था तक पहुँच जाएं। विराट में प्रवेश करना अत्यन्त आवश्यक है। तब आप यह नहीं सोचते कि 'यह मेरा देश है, यह किसी और का। 'मेरा तेरा' समाप्त हो जाता है, आप विराट के अंग - प्रत्यंग बन जाते हैं और विराट आपको अपने उद्देश्य के लिए उपयोग करता है। जब आपके पूर्ण विचार भिन्न हो जाते हैं, आपकी विचार धारा विश्वस्तरीय हो जाती है, तब यह कार्य करता है। इसकी शक्तियाँ असंख्य हैं। जैसे श्री कृष्ण लोगों को बुलाने के लिए शंख का उपयोग करते हैं इसी प्रकार मैंने अगुआओं को चेतना दी है। अब हमें घोष नाद करके लोगों को बुलाना है। परन्तु विराट के स्तर पर जब आप होंगे तो लोग आपको देखेंगे और जान जाएंगे। वे सोचेंगे कि आप इतने मधुर मानव हैं, रत्नों की तरह से अच्छे, हर समय देदिप्यमान। वे आपसे प्रभावित होंगे। ऐसा विराट के आशीर्वाद से होता है। जब आप वह स्थिति प्राप्त कर लेते हैं तो अपने उच्च पद, सम्पन्न परिवार तथा जीवन की अन्य मूर्खतापूर्ण चीज़ों को भूल जाते हैं और ये सब चीजें समाप्त हो जाती हैं । लोगों को अपने वैभव का प्रदर्शन करना अच्छा लगता है। कुछ लोग प्रदर्शन को अच्छा समझते हैं। परन्तु जो व्यक्ति अहं से ऊपर उठकर विराट शक्ति का अंग प्रत्यंग बन गया है वह विराट के साम्राज्य में प्रवेश कर जाता है। वह जानता है कि वह अत्यन्त क्षुद्र है। विराट के सामने वह अत्यन्त तुच्छ हैं और उस शक्ति में वह विलीन हो जाता है । हम सबके साथ ऐसा होना चाहिए। हमें विनम्र होकर अपनी शक्तियों को जानना चाहिए। अपने अहं से हमें मुक्ति पा लेनी चाहिए। अहं से पूर्ण मुक्ति पाकर हमें वास्तव में वह स्थिति प्राप्त करनी चाहिए जिसमें हमें विराट शक्ति के नागरिक हो जा सके। परमात्मा आपको धन्य करें। 16 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-16.txt आत्मा का सुख औरंगाबाद, १९ दिसंबर १९८९ मेरे जीवन में औरंगाबाद का विशेष महत्व है क्योंकि यहाँ से बहत नज़दीक में जो स्थान था, जो कि मूलत: प्रतिष्ठान के नाम से जाना जाता था, से मेरे पूर्वज संबंधित हैं। महाकाव्य रामायण के लेखक वाल्मिकी ऋषि यहाँ रहते थे। वाल्मिकी ऋषि के आश्रम बहुत से स्थानों पर थे, इस कारण से बहुत से झगड़े भी उठ खड़े हुए हैं। वास्तव में वाल्मिकी इस क्षेत्र में यहाँ रहते थे। गोदावरी नदी, जो कि प्रतिष्ठान की ओर जा रही थी, के दूसरी ओर शालिवाहनों का राज्य था । सीता जी यहाँ रही। उनका एक पुत्र रूस चला गया और दूसरा चीन। चीन जाने वाले पुत्र का नाम कुश और रुस जाने वाले का लव था। रूस के लोगों को स्लाव का लेब कहा जाता है। जो चीन को गये थे वे कुशाण कहलाते हैं। यही समीप ही विशालकाय तथा चुस्त चालाक और बुद्धिमान पशुओं में विकास के लिए एक बहुत बड़ा संघर्ष हुआ। चुस्त पशुओं ने बहुत से विशालकाय पशुओं को समाप्त कर दिया। नदी में बहुत से मगरमच्छ थे। जब हाथियों का राजा गजेन्द्र पानी पीने के लिये आया तो एक बड़े मगरमच्छ ने उस पर आक्रमण कर दिया। हाथियों का वंश समाप्त करने के लिए उसने ऐसा किया। श्री विष्णु वहाँ प्रकट हुए और मगरमच्छ को मार कर गजेन्द्र की रक्षा की। इन विशालकाय पशुओं में से आज केवल हाथी ही बचे हैं, यही कारण है कि इस स्थान को गजेन्द्र मोक्ष कहा जाता है। वाल्मिकी लोगों को लूटा करते थे। वे मछुआरों की जाति के थे। जब नारद नामक संत वहाँ आये तो उसने उन्हें भी लूटा। नारद जी ने उससे पूछा कि, 'वह ऐसा क्यों कर रहा है?' 'अपनी पत्नी, बच्चों तथा परिवार के पोषण के लिए,' वाल्मिकी ने उत्तर दिया और कहा कि, 'मैं अकेला कमाने वाला हूँ।' नारद जी ने फिर पूछा कि, 'क्या तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारे लिए इतना बलिदान कर सकेंगे?' वाल्मिकी को इसका पूरा विश्वास था। बच्चों तथा परिवार की परीक्षा के लिए चार साधुओं ने वाल्मिकी को मृतक के समान उठाया और उनके घर ले गये। वहाँ उनके परिवार के सदस्यों ने संतों से कहा कि लूटते हुए वह व्यक्ति मर गया है। यदि इसके परिवार का कोई सदस्य इसकी जगह जान देने को तैयार हो जाये तो वह बच सकता है। पर कोई भी इसके लिए तैयार न हुआ। वाल्मिकी उठकर खड़ा हो गया और उसे अपनी गलती का आभास हुआ। नारद ने उसे 'राम-राम' जपने को कहा । परन्तु वह केवल 'मरा-मरा' ही कह सका, जो कि ' राम - राम' ही बन गया । नारद ने उसे प्रायश्चित करने को कहा । वाल्मिकी एक पर्वत पर इस कार्य के लिए बैठ गया। यह पर्वत वाल्मिकी पर्वत के नाम से जाना जाता है। दीमक ने उसके शरीर को गर्दन के सिवाय पूरा खा डाला। तब विष्णु जी प्रकट हुए उसके शरीर से दीमक को हटाया और उसे साक्षात्कार दिया। संस्कृत भाषा में दीमक को वाल्मी कहते हैं। इस प्रकार उसका वाल्मिकी नाम पड़ा। इसके बाद की कहानी में सीता जी यहाँ आयी| इस प्रकार रामायण का एक महत्वपूर्ण भाग यहाँ घटित हुआ। शालिवाहनों ने वाल्मिकी मंदिर बनाने में बड़ी मदद की और वाल्मिकी जी को सम्मानपूर्वक अपना गुरू माना। वास्तव में बहुत समय पूर्व उनका गुरु चांडिल्य था। नीरा नदी के समीप हमने यहीं कुछ जमीन भी ली है। | यहाँ के लोगों के मन में ईश्वर का भय है और वह संतों का सम्मान करते हैं। उन्हें पता है कि सच्चा संत कौन है। जब हम आत्मा के सुख के विषय में सोचते हैं तो आत्मप्रकाश से जीवन भर जाता है और इस प्रकाश के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगता है। मुझे आशा है कि आप इस बात को समझेंगे। यही नहीं अपने सद्गुणों के प्रति हमें पूर्ण विश्वास हो जाता है और हम इनका आनन्द लेते हैं। हम कह सकते हैं कि इस संस्कृति में कोई धूर्तता या बनावट नहीं है। यहाँ न तो लोग बार-बार आपको धन्यवाद कहेंगे और न ही खेद प्रकट करेंगे। प्राय: वे हाथ भी नहीं जोड़ेंगे। विशेषतया स्त्रियां पुरुषों के सामने हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं कहेंगी । वे केवल ईश्वर के सम्मुख ही हाथ जोड़ते हैं। ईश्वर आपको आशीर्वादित करें । 17 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-18.txt ो क्षी स्व छु ఇద २ प हैद्राबाद, ७.२.१९९० भ ब्रय 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-19.txt सः त्य के बारे में बताया था कि सत्य अपनी जगह अटूट, अनंत है और उसे हम अपने बुद्धि से, मन से, किसी भी तरह से बदल नहीं सकते। और सत्य क्या है? सत्य ये है कि हम, जो आज मानव स्वरूप हैं वो वास्तविक में आत्मास्वरूप है। एक आज ऐसी स्थिति पर हम खड़े हैं जहाँ हम स्वयं को एक मानव रूप में देख रहे हैं। और इससे एक सीढ़ी चढ़ने से ही हम जान लेंगे कि हम इस मानव स्वरूप से भी | एक ऊँचे स्वरूप में उतर सकते हैं जहाँ हम आत्मास्वरूप हो जाते हैं। ये एक महान सत्य है। लेकिन परम सत्य ये है कि ये सारी चराचर सृष्टि, सारी दुनिया, मनुष्य, प्राणीमात्र, जड़ चेतन सब जीव है । एक ब्रह्मचैतन्य के सहारे जी रही है, पनप रही है, बढ़ रही है। और ये परम चैतन्य चारों तरफ सूक्ष्मता से फैला हुआ है जो कि सब चीज़ों को बनाता है, सब चीज़ों को सृजन करता है, बढ़ाता है और जो कुछ भी आज हम इन्सान बने हैं वो भी इस परम चैतन्य के कृपा से ही बने हैं। इस परम चैतन्य में ऐसी शक्ति है कि जिससे वो हमें ज्ञान दे सकता है, ऐसा ज्ञान कि जो एकमेव ज्ञान है। जिसे कि हम ये जान सकेंगे कि हम क्या है? हमारे अन्दर क्या स्थिति है? हम कहाँ हैं? और हमारा लक्ष्य क्या है? वो ज्ञान देता है कि जिससे हम अन्दर से ही महसूस करते हैं, अन्दर से ये हमें ज्ञात होता है कि हम एक विराट के अंग -प्रत्यंग हैं। इसे हम अंग्रेजी में कलेक्टिव कॉन्शसनेस कहते हैं और हिन्दी भाषा में सामूहिक चेतना कहते हैं। ये सामूहिक चेतना का प्रादुर्भाव उसका मैन्यूफस्टेशन हमारे अन्दर सहज में हो सकता है जिससे हम आत्मास्वरूप हो जाते हैं क्योंकि आत्मा जो है वो हमारे अन्दर एक सामूहिक वस्तु है। जिस दिन ये घटित होता है, ये घटना हो जाती है उस दिन हम उस परम सत्य को भी जान जाते हैं कि हमारे चारो ओर ये सूक्ष्म सृष्टि फैली हुई है और इस सूक्ष्म सृष्टि से हमारा जो योग हो जाता है, जब हम उससे एकाकारिता पा लेते हैं तब हम ये जान जाते हैं कि हमारा चित्त भी आलोकित हो गया और इस चित्त के साथ हम बहुत कुछ जान सकते हैं जो हमने कभी भी पहले जाना नहीं। ऐसी दशा में हमें ये सोच लेना चाहिए कि आज का जो संसार है, आज जिसे हम बहुत बड़ा सत्य समझे बैठे हैं इसके पीछे एक बहुत बड़ा सत्य छिपा हुआ है जिसे हमें प्राप्त करना है। और इसे प्राप्त करना बहुत सहज है। सहज का मतलब दो होता है एक तो सहज माने आपके साथ पैदा हुआ और सहज माने आसान। होना ही चाहिए। अगर ये उत्क्रान्ति, ये इव्होल्युशन अत्यावश्यक है, तो वो सहज ही होना चाहिए। जैसे कि हमारा श्वास लेना। ये अत्यावश्यक है हमारे लिए। वो हम सहज में लेते हैं। इसके लिए अगर कहीं जाना पड़े और किसी गुरु को बनाना पड़े और कुछ चुकाना पड़े तो बहुत कठिन हो जाए। इसी प्रकार ये घटना भी सहज में ही घटित होनी चाहिए । कारण ये एक जीवंत शक्ति है। जिसे आज हमने मानव का रूप दे दिया अमिबा से, और यही जीवन शक्ति जो है वो जीवन्त है वो ही हमारे अन्दर कार्यान्वित होती है, काम करती है और जिसके कारण हम इस ऊँची दशा में पहुँचते हैं। कल आपको मैंने कुण्डलिनी के बारे में बताया था कि कुण्डलिनी शक्ति हमारे अन्दर इस त्रिकोणाकार अस्थि में बैठी है। इस त्रिकोणाकार अस्थि में ये कुण्डलिनी शक्ति बैठी है और ये साढ़ेतीन कुण्डलों में हैं। 20 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-20.txt कषी स्व२०प उसका भी एक गणित है। और इसके अनेक शक्ति के तंतु हैं जैसे कि एक डोर में अनेक छोटे-छोटे डोर होते हैं। | अब इस कुण्डलिनी के नीचे में जो आप देख रहे हैं लाल रंग का चक्र है ये हमारा मूलाधार चक्र है और जिससे कुण्डलिनी बटी हुई है उसे हम मूलाधार कहते हैं माने वो उसका घर है। नीचे जो लाल रंग का आप देख रहे हैं वो मूलाधार चक्र है और ये बहुत महत्वपूर्ण चक्र है। इस चक्र के ही कारण कुण्डलिनी को सबकुछ ज्ञात होता है। और ये चक्र हमारे अबोधिता का, हमारे भोलेपन का, हमारे इनोसेन्स का कर्ता-धर्ता है । जब हम बच्चे होते हैं। बचपन में जब हम बहुत ही अबोध होते हैं उस वक्त हमारे अन्दर ये चक्र बहुत ही कार्यान्वित होता है। धीरे-धीरे जैसे उमर बढ़ने लग जाती है इस चक्र पे आघात आते हैं और हमारा इनोसेन्स जो है, हमारी जो अबोधिता है, हमारा जो भोलापन है वो कम होने लग जाता है। इस चक्र के उपर आप देख रहे हैं यही कुण्डलिनी है। ये चक्र जो है ये हमारे अन्दर जो पेल्व्हिक प्लेक्सस है उसे प्लावित करता है और उसका पोषण करती है। और ये जो पेल्व्हिक प्लेक्सस है ये हमारे जितने भी मलोत्सर्जन वगैरा के जितने भी कार्य हैं वो करता है। इसलिए अब ये जान लेना चाहिए कि कुण्डलिनी के जागरण के समय आपके सारे ये व्यवहार बंद हो जाते हैं। और जो लोग ये बता रहे हैं, कि सैक्स करने से कुण्डलिनी का जागरण होता है ये महापाप है क्योंकि ये तो उसके नीचे है, जो सारा पवित्र और उत्तम है वो ये मूलाधार चक्र है। और जैसे कि कमल एक गन्दे, मैले, सड़े हुए एक पानी के छोटे से जगह में से जन्म लेता है और उसका सुगन्ध सारी ओर फैलता है। इसी प्रकार, उसी प्रकार ये चक्र कमल की भाँति हमारे अन्दर जन्म लेता है। जैसे कि कमल के पत्तों पर कोई पानी नहीं छिड़कता इसी तरह इस चक्र पे कोई सा भी गन्दा ठहर नहीं सकता और ये कभी भी नष्ट नहीं होता है। हलांकि अगर हम लोग गलत काम करते हैं तो जैसे बादल सूर्य को भी ढक लेते हैं उसी प्रकार ये ढक सकता है। तो जो लोग इस तरह की गलत बातें सिखाते हैं तो समझ लेना चाहिए कि आपको पतन की ओर ले जा रहे हैं और आपकी कमजोरियों को बढ़ा रहे हैं। अधिकतर ये लोग आपकी कमजोरियों को ही बढाते हैं और उस कमजोरी का पूरा फायदा उठाते हैं, जिसे कि आप इस गर्द के अन्दर और भी घुस जायें और इनको रुपया-पैसा दें। आज-कल, जो मैं आपको बता रही थी कल कि अमेरिका में जो उपद्रव शुरू हुआ है उसका कारण ये है कि अवनीति के कारण इस चक्र को उन्होंने बहुत बुरी तरह से ढ़क लिया है। इसकी शक्ति ही नष्ट होने की वजह से वहाँ इतनी गन्दी-गन्दी बीमारियाँ जैसे कि एड्स वो इस चक्र की खराबी हो जाने से हो जाती है, और इस चक्र की खराबी हो जाने से अगर आपकी पत्नी या पति को कोई इस तरह की बाधायें हों तभी ये चक्र खराब हो जाता है और उस वक्त मनुष्य की मस्तिष्क के अन्दर इसका असर आ सकता है और से रोग, जिन्हे बहुत कि हम साइकोसोमेटिक कहते हैं, उनमें से खास कर जिससे कि मसल्स कमजोर होते जाते हैं वो इसी चक्र के 21 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-21.txt बिगड़ जाने से होते हैं। अब इस चक्र का सम्बन्ध आपके पेल्व्हिक प्लेक्सस के साथ सिर्फ शारीरिक स्तर पे हैं, फिजीकल, और मानसिक से भी है। क्योंकि आप देख रहे हैं कि इसी चक्र से एक पूरी नाड़ी उपर की तरफ जा रही है और यही आपकी इड़ा नाड़ी है और चंद्र नाड़ी। तीनों नाड़ी उपर में जा करके जो नीले रंग की एक संस्था तैयार करती है यही हमारा एक तरह का मन है। और ये जो मन के अन्दर हर तरह के कुसंस्कार भर जाने पर वो इस तरह के गुब्बारे के जैसे, लाइक अ बलून, अपने शहर में इस स्तर में इस तरह से फैल जाता है, जिसे कि हम कह सकते हैं कि जो कुसंस्कार होते हैं, उसको लोग कहते हैं कि वो सुपर ईगो बन जाता है। कुसंस्कारों में ऐसे संस्कार कि हम अगर किसी गलत गुरु के पास जायें, हमने कोई गलत धर्म ले लिये, हम लोग गलत लोगों के पीछे भागते रहे, इसके अलावा हम तांत्रिकों के पीछे भागते रहे हैं या हम ऐसे लोगों के पास गये कि इनका धरम से कोई सरोकार नहीं, मतलब नहीं और जो धर्म के नाम से बड़े ही दष्ट गुरु लोग हैं जिनके पास जाने से दूसरे बहुत से दोष आ जाते हैं। इस नाड़ी को हम लोग चंद्र नाड़ी भी कहते हैं। और आप जानते होंगे लुनार अंग्रेजी में कहते हैं चंद्र को, और लुनसी कहते हैं पागलपन को। जब ये चंद्र नाड़ी खराब हो जाती है तो मनुष्य में सारे | मानसिक विकार आ जाते हैं। दूसरी तरफ आप देख रहे हैं कि दूसरा जो चक्र है वो है स्वाधिष्ठान चक्र। ये चक्र पीले रंग का दिखाया है जो कि ये सूर्य की गति से चलता है। और इस चक्र से हमारी जो राइट साइड की नाड़ी है जिसे हम पिंगला नाड़ी कहते हैं वो चलती है। पिंगला नाड़ी जो है वो हमें कार्य करने की शक्ति देती है। तो पहली वाली जो नाड़ी है उसे इच्छा शक्ति की नाड़ी कहते हैं। और जो दूसरी नाड़ी है उसे हम क्रिया शक्ति की नाड़ी कहते हैं। क्रिया शक्ति के नाड़ी में भी दो अन्तर हैं कि एक जो हम अपने शारीरिक क्रिया को करते हैं और दूसरे जो हम अपने बौद्धिक क्रिया को करते हैं। दोनों ही इस नाड़ी से कार्य करते हैं। अब ये स्वाधिष्ठान चक्र बहुत महत्वपूर्ण है। खास कर मैंने कल देखा कि बहुत से लोगों को स्वाधिष्ठान चक्र की तकलीफ थी। इसका कारण ये है कि आप लोग बहुत पढ़े-लिखे हैं और दूसरा ये कि आप लोग बहुत ज़्यादा सोचते हैं। अति सोचने से ये चक्र ज़्यादा चलने लग जाता है। कारण ये है कि जब आप बहुत सोचते हैं तो आपके अन्दर, जो मस्तिष्क में, आपके ब्रेन में जो ग्रे-सेल्स हैं उसको आप बहुत इस्तमाल करते हैं। जब 6. उनको आप बहुत ज़्यादा इस्तमाल करने लग जाते हैं तो उसकी जगह दूसरे भी आने चाहिए तो वो कहाँ से आएंगे? तो उसकी क्रिया, ये जो चक्र है ये अपने पेट को जो चाहिए, उसको मेंद से बनाता है ग्रे- सेल्स के लिए क्योंकि अपना ब्रेन जो है वो भी मेंद याने फैट से बना है । तो फैट सेल्स से वो ग्रे सेल्स बनाता है यही चक्र और इसको इस तरह से ये हमारे ब्रेन में सेल्स चले जाते हैं। जब हम इस तरह से बहुत ज़्यादा सोचते हैं और 22 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-22.txt 993 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-23.txt हम बहुत ही ज़्यादा सुपरइस्टिक हो , या हम हमेशा भविष्य की ही बात सोच रहे हो तब ये नाड़ी ज़्यादा चलती है। और जब हम अपने भूतकाल की, अपने गये बिते दिनों की ज़्यादा सोचते हैं तब हमारी दूसरी नाड़ी ज़्यादा चलती है। तो समझ लेना चाहिए कि इस तरफ से सबकॉन्शस माइंड है तो इस तरफ से आपका सुप्रा-कॉन्शस माइंड है। और ये दोनों माइंड आपके जब तक संतुलन में नहीं आते हैं तब तक आप बीचोबीच रह जाते हैं। अब तीसरी जो बीच में नाड़ी है, उसका नाम है सुषुम्ना नाड़ी। ये नाड़ी हमारे अन्दर जो बनी हुई है ये जब हमने पहले तो लक्ष्मी को खोजा, इसको खोजा, उसको खोजा और जब उससे हम पूरी तरह से उब जाते कि, 'अब बहुत खोजा अब नहीं चाहिए।' जब आप परमात्मा को खोजना सीख जाते हैं, तब ये नाड़ी, महालक्ष्मी जी हम जिसे कहते हैं, ये नाड़ी का काम शुरु हो जाता है। यही नाड़ी ऐसी है कि जिसके अन्दर एक बड़ी सूक्ष्म सी नाड़ी है ये भी एक जैसे कि एक कॉइल हो, उसके साइज की कॉइल्स बनी हो । उसकी जो सूक्ष्मतम अन्दर की नाड़ी, जिसे ब्रह्मनाड़ी कहते हैं, उसी में से पहले कुण्डलिनी का, पहले दो -चार धागा किसी के दस धागे इसी तरह से धीरे-धीरे कुण्डलिनी उठती है। उसके उठने से ये और भी खुलता जाता है और उसके खुल जाने से और भी आपके अन्दर जो शक्ति के धागे हैं वो उपर उठने लग जाते हैं। इस प्रकार ये तीन नाड़ी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ हमारे अन्दर हैं। ये तीनों नाड़ियाँ हमारे आज्ञा चक्र से मिलती हैं, जो आप देख सकते हैं। ऐसे तो अब यहाँ पर किताबें हैं, उसमें आप पढ़ सकते हैं हर एक चक्र के बारे में और ये चक्र किस तरह से गतिमान रहते हैं और किस तरह से कार्य करते हैं। अब लोग कहेंगे कि 'माँ, कैन्सर कैसे ठीक हो जाता है ?' आपको थोड़ा समझाऊं कि हमारे अन्दर लेफ्ट और राइट, ऐसे दोनों साइड हैं। माने और पिंगला नाड़ी से बनी हुई ये हमारे दोनों तरफ काम कर रही है और बीचोबीच जो आपको दिखाई दे समझ लीजिए ये लेफ्ट और राइट की जो सिम्परथैटिक नव्वस सिस्टम, इड़ा रहा है ये एक चक्र है। अब जब कोई एक साइड ज़्यादा बढ़ जाती है तो यहाँ इस तरह से ये चक्र बहुत छोटा होते जाता है और एनर्जी उसकी कम होती जाती है और इस तरह से बीमारी बढ़ने लगती है। पर जब ये बिल्कुल ही टूट जाता है तब हमारे मेरुदंड का जो सम्बन्ध हमारे ब्रेन के साथ होता है। वही ट्ूट जाता है। और उस जगह पर ऐसी कुछ व्यवस्था हो जाती है कि ये अपने ही आप ........अपने ही आप बनना शुरु हो जाते हैं। इसके जो सेल्स हैं उनको किसी और की परवाह ही नहीं। जैसे अब हमारा नाक है, या आँख है, कान है हर चीज़ बराबर उसी प्रपोर्शन में, उसी प्रमाण में बढ़ती है जैसे कि बढ़ना चाहिए। ये नहीं कि नाक ही बड़ी हो गयी, आँख ही बड़ी हो गयी कि कान ही बड़ा हो गया। लेकिन जब ऐसा घटित हो जाता है जब उसका सम्बन्ध मस्तिष्क के साथ नहीं रहता है तब वो चीज़ अपने आप से खूब जोरो में बढ़ना शुरू हो जाती है और कभी अगर कैन्सर आपके अगर उंगली का हो गया तो एक उंगली बढ़ जाएगी, अगर आपके नाक पे होगा तो 24 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-24.txt कषी स्व२०प नाक ही बढ़ जाएगी, कान पे होगा तो कान ही बढ़ जाएगा तो वो चीज़ जा कर के दसरी जो सेल्स हैं उनको दबाती है और इसी तरह से कैन्सर का रोग घटित होता है। अब कुण्डलिनी का जब जागरण होता है तो वो जैसे ये टूटी हुई चीज़ है उसमें से जोड़ते-जोड़ते इस तरह से उसके जैसे कि आप उसी मणी के अन्दर के जोड़ को पिरो लीजिए, उस तरह से ये झुक जाता है। ये झुकते ही साथ ये जो चक्र हैं जो कि अब क्लांत हैं और जो कि बीमार है और कमजोर है और जिसमें शक्तिहीनता आ गयी है उसे शक्ति कहते हैं। उस शक्ति के कारण आपका कैन्सर ठीक होता है। वो बहुत ही सहज, सरल एक गती है जिससे कि ये रोग ठीक हो जाता है। और ऐसे लोगों में जिनकी कुण्डलिनी जागरण हो जाती है इसी प्रकार अनेक रोग ठीक हो सकते हैं। क्योंकि इन चक्रों की ही खराबी के कारण जो बीमारी आ जाती है और जब ये चक्र ठीक हो जाते हैं और उन चक्रों में जब शक्ति आ जाती है तो वो बीमारी भी आदमी की नष्ट हो जाती है और वो सुदृढ़ हो जाता है। अब सब चक्रों के बारे में आज नहीं कहँगी। लेकिन इतना ही बताऊंगी कि वे सब आप किताब में पढ़ सकते हैं और बारीकी से समझ सकते हैं। और जब आप हमारे सेंटर में आएंगे तो आप जान जाएंगे कि ये चक्र क्या हैं। जब आपके कुण्डलिनी यहाँ से ब्रह्मरन्ध्र से छेदती है, तो आप इसमें जो जगह देखते हैं उसे मेडिकल टर्म में लिम्बिक एरिया ऐसा कहते हैं। इस लिम्बिक एरिया को ही हम कहते हैं सहस्रार। लेकिन इस वक्त कुण्डलिनी जो है आज्ञा चक्र से होते हुए गुजरती है, तो ये आज्ञा चक्र जागृत होने के कारण ये दोनों संस्थायें से एक तरह से इगो बना हुआ है और एक तरफ सुपर इगो या एक तरह से अहंकार और दूसरी तरफ महत् अहंकार, इन दोनों को अपने अन्दर खींच लेती है। इसको खींच लेने से बीच में जगह हो जाती है । जगह हो जाने से उसी के अन्दर से कुण्डलिनी बाहर निकल आ जाती है। इसलिए आपने अपने सर में ठण्डी-ठण्डी हवा आते देखी। आप ही के अपने हाथ से आपने इसको महसूस किया। इस प्रकार आपको आत्मसाक्षात्कार होता है । आत्मा तो आपके हृदय में है। आत्मा आपके हृदय में है। लेकिन ये जो है ये हृदय का चक्र है यहाँ पे। ये हृदय का चक्र है और अपने सर में भी जैसे सात चक्र हैं उसी प्रकार सात इन चक्रों के बीच जिस वख्त यहाँ याने ब्रह्मरन्ध्र में आ कर के कुण्डलिनी भेदन कर देती है तो हृदय में ही इसका प्रकाश चला जाता है और आत्मा का सम्बन्ध हमारे चित्त से हो जाता है। और हमारे चित्त के अन्दर कुण्डलिनी का असर ये आ जाता है कि हम आलोकित पाते हैं अपने चित्त को। जैसे कि आप देख रहे हैं कि ये मेरी साड़ी है इसी प्रकार समझ लीजिए कि चित्त यहाँ फैला हुआ है। जब कुण्डलिनी इस तरफ से यूं ऐसे जाती है तो चित्त अन्दर की ओर फिसला जाता है। अन्दर की ओर जब यहाँ पर आ कर उपर में जब ये कुण्डलिनी इसको छेद देती है तब इस 25 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-25.txt कुण्डलिनी की आभा उसकी शक्ति इस चित्त में चली जाती है। और तब आपका चित्त जो है वो आलोकित हो जाता है। ये बहुत ही सहज, सरल चीज़ है। लेकिन इसको करने के लिए ऐसे ही लोग चाहिए कि जो इसमें अधिकारित हैं । मैं सोचती हूँ कि वो सहजयोगी हैं, जिन्होंने सहजयोग में आ कर के और पूरी तरह से जान लिया है कि कुण्डलिनी क्या है और वो इस वक्त अब वो एक ऐसी दशा में आ गये हैं कि वो सामूहिक चेतना में समझ सकते हैं कि आपके अन्दर क्या दोष हैं? और उसको किस तरह से ठीक करना है? वो आपकी कुण्डलिनी सहज में ही जागृत कर सकते हैं। इतना ही नहीं ये लोग आपकी बीमारियाँ भी ठीक कर सकते हैं। अब कल ही आपने देखा कि पटेल साहब जो यहाँ खड़े हुए थे, उन्होंने तो मुझे कभी देखा ही नहीं था और पैरेलिसिस में पड़े थे। डॉक्टर ने कहा, 'ये तो ठीक नहीं हो सकते। ' रोज कुछ न कुछ इंजक्शन दे रहे थे। क्या-क्या हो रहा था और इसके बाद फिर वो एकदम ठीक हो गये। आज भी एक महाशय आये थे। वो भी एकदम से ठीक हो गये थे। इस प्रकार कोई लोग एकदम ठीक हो जाते हैं, कोई लोगों को थोड़ा और टाइम लगता है। पर आपका जो शारीरिक है वो कम से कम ठीक हो जाना चाहिए। अब अगर आप किसी गुरु के पास जाते हैं, किसी के पास जाते हैं और आपकी अगर तबियत नहीं ठीक रहती, तो मैं आपसे एक माँ की तरह ये कहूँगी कि बेटे, जो आदमी तुम्हारी तबियत भी नहीं ठीक रख सकता है ऐसे को गुरु क्यों मानना? ऐसे गुरु को रख के क्या फायदा! कम से कम तुम्हारी तंदुरुस्ती तो ठीक हो। वो भी अगर ठीक नहीं रख सकता तो उसकी क्या जरुरत है। फिर आप स्वयं ही अपने गुरु हो जाते हैं। क्योंकि आपका आत्मा ही आपको प्रकाश देता है। और आप ये चैतन्य लहरियों से जान सकते हैं कि आप क्या कर रहे हैं? आपमें क्या दोष हैं? आपमें कौनसी चीज़ गलत है? जैसे आज ही एक साहब ने मुझसे कहा कि, 'माँ, मेरा आज्ञा बहुत पकड़ रहा है, इसे ठीक कर दो।' इसका मतलब है मुझे अहंकार आ गया है। और आप किसी से कहेंगे कि ' हाँ, अहंकार आ गया है।' तो मारने बैठेंगे। कोई करेगा ऐसी बात और वो स्वयं ही आ के कहता है कि, 'माँ मेरा आज्ञा बहुत पकड़ रहा है। इसे आप साफ कर दीजिए। इससे बड़ी तकलीफ हो रही है। मेरा सरदर्द हो रहा है।' इस प्रकार आप खुद ही जान जाते हैं कि आपमें कौनसे चक्र पकड़े हैं और अब अगर ये जान जायें कि जो चक्र आपमें पकड़े हुए हैं वो चक्र इस तरह से आप ठीक कर सकते हैं। आप तो स्वयं ठीक हो ही जाएंगे। लेकिन आप दुसरों के बारे में भी जान सकते हैं। कुण्डलिनी के बारे में मैंने कम से कम हिन्दी भाषा में ३ - ४ हजार तो भी लेक्चर्स दिये होंगे। और ये ज्ञान बहुत कगार और विशाल और गहन है। इसको एक दिन में सारा समझाना तो बहुत कठिन है। कल आप लोगों ने बड़े अच्छे प्रश्न पूछे । इसके मैंने अधिकतर उत्तर दिये हैं। और मैं चाहूँगी कि फिर से आप आज कुछ सवाल पूछें और उसके मैं उत्तर दें, वही अच्छा रहेगा बजाय इसके कि कुण्डलिनी के बारे में मैं और विस्तारपूर्वक आपको बताती रहं। 26 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-26.txt कषी स्व२०प ये कुण्डलिनी जो है ये हमारी शुद्ध इच्छा है। बाकी जितनी भी हमारे अन्दर इच्छायें हैं वो शुद्ध नहीं। क्योंकि अगर शुद्ध होती तो आज लगा कि आज हमारे पास घर होना चाहिए। घर आया, तो मोटर होनी चाहिए। मोटर होनी चाहिए तो अगली बार और कुछ होना चाहिए। माने कि आप जानते हैं कि इकोनोमिक्स में कहा जाता है कि, 'इन जनरल वाँटस आर नॉट सॅटिसफायबल।' माने पूर्णतया कौन सी भी इच्छा होती है उससे मनुष्य को समाधान नहीं प्राप्त होता। इसका मतलब है कोई ऐसी भी इच्छा हो सकती है कि जिससे मनुष्य समाधान प्राप्त करें। और वही ये कुण्डलिनी शक्ति है। जो कि हमारे अन्दर पूर्णतया एक शुद्ध इच्छा और जब ये शुद्ध इच्छा हमारे अन्दर जागृत हो जाती है तब हम सारी इच्छाओं को एक साक्षी स्वरूप में बदलते हैं। सहजयोग से अनेक लाभ हैं । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और सबसे बड़ी चीज़ ये आध्यात्मिक। बड़ी उन्नति हो जाती है। और सबसे बड़ा लाभ मैं कहूँ कि ये है कि आप आनन्द के सागर में रहते हैं। और सब चीज़ की ओर एक बहुत ही साक्षी स्वरूप से आप देखने लग जाते हैं। जैसे कि ये सब पानी में है। एक विचार आता है, चला जाता है। दूसरा विचार आता है और चला जाता है। आप उसी के उपर नाच रहे हैं। इन दोनों के बीच में एक जगह है जिसे विलम्ब कहते हैं। कुण्डलिनी उस जगह को बढ़ा देती है। और इन विचारों को इस तरह से छोटा कर देती है। फिर आप चाहे निर्विचारिता में उतर जाते हैं। माने क्या है कि आप उस पानी से ड्र रहे हैं और उसके लहरों से आप डर रहे हैं। उस पानी से उठ कर के आप नांव में बैठ गये। नांव में बैठ कर के आप देख सकते हैं कि ये क्या हो रहा है? नांव में बैठ कर के आप समझ सकते हैं कि ये क्या हो रहा है? जब आप देख रहे हैं तब आपको तकलीफ नहीं होती। पर समझ लीजिए कि आप तैराक हो, आपने तैरना सीख लिया तो आप पानी में कूद सकते हैं और जो लोग डूब रहे हैं उन्हें भी बचा सकते हैं। या इस तरह से आज कल के आधुनिक मोटर के आप लोगों को उदाहरण देती हूँ। जैसे कि मोटर। इस मोटर में दो चीजें होती हैं, एक तो ब्रेक होता है, एक एक्सिलेटर। इसी प्रकार हमारा लेफ्ट साइड 'ब्रेक' है और राइट साइड एक्सिलेटर। पहले जब हम मोटर सीखते हैं तो हम उसको बैलन्स करते हैं कि लेफ्ट और राइट दोनों किस तरह से सम्भालें माने एक्सिलेटर और ब्रेक को हम किस तरह से सम्भालें, समझें इस तरह से। एक चीज़ अगर छोड़ दीजिए, अगर ब्रेक लगा दीजिए तो गाड़ी चलेगी नहीं और अगर एक्सिलेटर चढ़ा दीजिए तो गाड़ी जा के पता नहीं कहाँ लगेगी। तो दोनों का इस्तमाल जब आ जाता है तब लोग कहते है कि, 'हाँ, तुम्हें ड्राइविंग आ गयी है।' लेकिन ड्राइविंग आने पर फिर आप निष्णात हो जाते हैं। आप होशियार हो जाते हैं | और फिर आप आटोमैटिकली चलाते हैं। आपका हाथ बराबर चलता है। आपको ये नहीं हर बार कहना पड़ता कि, 'हाँ ब्रैक लगाओ, अब ये करो।' अपने आप हो जाता है। पर उसके बाद भी जो, उसका मालिक, मोटर का जो मालिक है वो पीछे बैठता है। वो आपको बता रहा है कि ऐसे चलाओ, वैसे चलाओ। उसके बाद आप ही मालिक हो जाते हैं। आप जब मालिक हो गये तो आप अपने अन्दर का ड्राइवर, अपने अन्दर का ब्रैक और 27 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-27.txt अपने अन्दर का एक्सिलेटर तीनों की चालना करते हैं पूरी तरह से और आप अपने मास्टर हो जाते हैं। और इसी कारण जिस वक्त आपकी लेफ्ट साइड ढिली हो जाती है तो आपमें जो कुछ भी ऐसी आदतें हैं जिससे आप छुट्टी करना चाहते हैं एकदम छोड़ कर भाग जाती है क्योंकि आप समर्थ हो गये। सम +अर्थ हो जाते हैं । आपका जो अर्थ है वो पूरा हो जाता है। और उस समर्थता में आप इस तरह से बहादूर हो जाते हैं कि कुछ कहे बगैर ही वो सब चीजें चली जाती हैं। दूसरी चीज़ ये है कि जब आपका लेफ्ट साइड ठीक हो जाती है तब आपको सही तरीके से अपने इमोशनल बैलन्स करना पड़ता है। आप समझ लेते हैं कि आप कहाँ बहक रहे हैं, कहीं आप ज़्यादा चले जा रहे हैं कि कम आ रहे हैं। तो इस संतुलन के कारण ही मनुष्य जो है वो एक ऐसी दशा में आ जाता है कि उसके चक्र, जो मैंने आपको अभी दिखाये थे , पूरी तरह से खुलना शुरु हो जाते हैं। ये प्रणाली धीरे-धीरे से चैतन्य का काम करती है, किसी -किसी में बड़ी ही जोरों में बहुत ही जल्द हो जाती है। किसी - किसी में तो इतने जोरों में चलती है कि कुछ लोग हैं, मैं देखती हूँ कि दो-दो साल तक सहजयोग करते हैं उनको इतना लाभ नहीं होता। और कोई है कि कल आये और आज बैठ गये। इस तरह के भी लोग हैं। तो ये उनकी क्वालिटी कहना चाहिए | या कहिए अन्तरिक इच्छा। ये इच्छा, उसको प्राप्त करने की शुद्ध इच्छा, बहुत जबरदस्त है। जिसकी शुद्ध इच्छा बहुत जबरदस्त है वो कार्य बहुत जल्दी करता है। इसमें उम्र आपकी कोई भी हो आपकी कोई भी जाति हो, आपका कोई सा भी धर्म हो , आपके रंग कोई सा भी हो, आप किसी भी देश के हो इससे कोई भी मतलब | नहीं है। हर आदमी में कुण्डलिनी है लेकिन उसकी जागृति और उसकी गतिविधियाँ ये उस आदमी की क्वालिटीज पर, उसके अपने एक कहना चाहिए कि मनुष्यत्व पर निर्भर है। उसके मनुष्यत्व पे निर्भर है माने उसकी तंदरुस्ती कैसी है ? उसकी मानसिक स्थिति कैसी है ? उसकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है ? ये सब चीज़ें ध्यान में लेते हुए ये कुण्डलिनी का जागरण होता है। और सबसे तो बड़ी चीज़ है कि जब आपमें आ जाती है तो कम से कम दस साल तो आपकी उमर बैठ ही जाए। मुँह पर शान्ति आ जाएगी, चमक आ जाएगी। और स्वभाव में एक तरह की दया, प्रेम और अन्दर से बड़ा आनन्द स्थापित होगा। अपने जो सद्गुण मैं उसको आनन्द से उपभोगता है। पहले तो अगर कोई इमानदार आदमी होगा तो वो कहेगा कि, 'देखो, बेवकुफ हूँ। मैं इमानदार हूँ। इसलिए में Suffer कर रहा हूँ।' फिर वो कहता है कि, 'नहीं, मैं इमानदार हूँ इसकी वजह से मैं खुश हूँ। और सब लोग हो जाए तो बड़ा अच्छा है। इससे एकदम जो जीवन चक्र, उसकी जो दृष्टि है, उसका जो एटिटयूड है वो एकदम बदल जाता है और उसकी जो प्रायोरिटीज हैं, उसके जो मूल्यांकन हैं वो बदल जाते हैं। और वो एक विशेष तरह का आदमी हो जाता है। सबसे इस में सबसी बड़ी लाभदायक बात ये है कि आपका सम्बन्ध उस परम चैतन्य से हो जाता है। और वो आपकी सारी गतिविधियों को सम्भालता है और आपको पूरी तरह से आशीवादित करता है। और 28 প 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-28.txt कषी स्व२०प इसके अनुभव तुरन्त आना शुरू हो जाते हैं। आप स्वयं आश्चर्यचकित होंगे कि किस तरह से हर एक चीज़ अपने आप घटित हो जाती है। किस तरह से हर एक चीज़ बनती जाती है। और आपको लगता है कि 'मैं, मुझे' ये कैसे हो गया? इसलिए कि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं। इसलिए कि परमात्मा ने आपको अपने साम्राज्य में विराजित किया है । वो साम्राज्य ऐसा है कि मोस्ट एफिशियन्ट अपने ये गवर्न्मेंट ऑरगनाइझेशन हैं, ऐसे नहीं, मोस्ट एफिशियन्ट। इतना ही नहीं वो बहुत प्रेममय है और आपकी हर एक गतिविधियों को देखता है और आपको इतने प्यार से रखता है, आपको इतना सम्भालता है कि आप आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि इतना मेरा गौरव और इतनी मेरी शक्ति कहाँ से आ गयी! ये सब आपके अन्दर विहित है। आपके अन्दर है। इसको आपको प्राप्त करना चाहिए, यही मैं आपसे कहना चाहती हूँ और उसके लिए कुछ मेरा, आपका लेना-देना नहीं है। आपकी अपनी शक्ति है एक दीप जला हुआ दूसरे दीप को जला दे उसमें कौनसा उपकार है। फिर उस दीप को चाहे कि वो भी दूसरे दीप को जला दें । यही उनका कार्य है और इसी से उसको भी एक तरह का बड़ा भारी आशीर्वाद है। इस तरह से आज हैद्राबाद में मेरा आखरी दिन है। और मैं चाहती हूँ कि आप लोग इतने बड़े तादाद में यहाँ आयें हैं और आप उसी तादाद में फिर से हमारे सेंटर पे आइये । हमारे सेंटर बहुत सीधे, सरल हैं क्योंकि हम पैसा-वैसा लेते नहीं किसी से और सादगी से रहते हैं। उसकी कोई जरूरत नहीं कि कोई बड़ी इमारत में ही स्थित हों, वहाँ आ कर के परम चीज़ को आप प्राप्त करें। और इससे अपने जीवन को और सबके जीवन को खुशहाल करें। ये हुए बगैर संसार बदल नहीं सकता। संसार के लोग उपर से बहत अच्छे बनते हैं और अन्दर से उनके अन्दर बहुत विरोधी बाते हैं, बहत ज़्यादा स्वार्थ, और यही नहीं समझ पाते कि हम सब एक ही परमात्मा के बनाये हुए हैं और हम सारे इस परमात्मा के अंग-प्रत्यंग हैं। अगर ये घटित हो जाता है तो उसका साक्षात ही हो जाता है कि दूसरा कोई है ही नहीं । और सारी चीज़ जो है एकदम बदल जाती है। हमें अपने बच्चों के बारे में भी सोचना चाहिए। और हमें सारे दुनिया के बारे में सोचना चाहिए। और ये हमारे भारतवर्ष का एक बड़ा भारी धरोहर है। हेरिटेज है हमारा। और इसीसे सारी दुनिया को हम प्लावित कर सकते हैं। तो हमारे उपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि हम इसे प्राप्त करें। जिन्होंने गणपती का 'ग' भी नहीं सुना, जिन्होंने इसा मसीह को नहीं समझा, जिन्होंने मोहम्मद साहब को नहीं समझा ऐसे लोग आज कहाँ से कहाँ पहुँच गये। जब आप लोग इतने ज़्यादा इस चीज़ को जानते हैं, आपको क्या कें, और आप विशेष लोग हैं कि इस योगभूमि में पैदा हुए हैं और इस योग को आप प्राप्त कर सकते हैं। हजारों वर्षों से संत-साधूओं ने योग का महत्व सीखाया है कि इस योग को प्राप्त करों। योग का मतलब सर के बल खड़ा होना नहीं। 29 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-29.txt लक्ष्य प्राप्ति में मंत्रों एवं प्रार्थनाओं का महत्व T3 प३ कु का जु के.0 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-30.txt परमात्मा के ज्ञान की खोज हमारी संस्कृति रही है। संस्कृत भाषा के माध्यम से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति हुई है, क्योंकि संस्कृत वस्तुत: देववाणी है । इसके अतिरिक्त जब कुण्डलिनी उठती है तो यह चैतन्य लहरियाँ छोड़ती है, उनसे एक विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है जो कि भिन्न चक्रों पर देवनागरी के रूप में प्रतिष्ठित होती है। संस्कृत भाषा या देवनागरी में उच्चारण किये शब्द चक्रों को अधिक प्रभावित करते हैं। ध्वनि युक्त भाषा होने के कारण हिन्दी चैतन्य स्पन्दित करती है। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, १५.२.१९७७ ...... हिन्दी भाषा में कहिये आप या संस्कृत में, हर एक शब्द का अर्थ है । उसके व्याकरण की विशेषता यह है कि उसके जो कुछ भी वर्ण हैं जैसे, क, ख, ग, घ, ङ वगैरह होते हैं, और ये सब जो व्यंजन कहलाते हैं, इन सब में अर्थ है। एक-एक चीज़ में अर्थ है, निरर्थक कोई चीज़ नहीं है। एक - एक अक्षर आप ले लीजिये तो इसमें बड़ा भारी व्याकरण हुआ है। ये पाँच तत्वों को बताने वाले अपने अन्दर पाँच तरह के व्यंजन बने हुए हैं, इसलिये व्यंजन को भी शक्ति कहते हैं, और जब व्यंजन में शक्ति आ जाती है तो वो ही व्यंजन का अर्थ निकल आता है। हर एक चीज़ का अलग-अलग शब्द होता है। हर एक वर्ण में, हर एक चीज़ में, हमारे यहाँ शब्द अलग-अलग होते हैं। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, १६.१२.१९९८ मंत्र हमारी कुण्डलिनी के शब्द हैं संस्कृत भाषा की विशेषता ये है कि एक-एक अक्षर मंत्र है। देवनागरी लिपि में एक-एक जो हम ई जो कुछ है वो सारा ही अक्षर अ+क्ष जो क्षर नहीं है (जो नष्ट नहीं होता)। जितना हमने अ, आ, इ, कुण्डलिनी में घूमने वाला शब्द है। वहाँ शब्द निकलता है। मनन में हमने इन शब्दों को सीखा है तब लिखा है। जब कुण्डलिनी ऐसे घूमती है तो आवाज़ यूँ करती है श....श....श... यहाँ पर। ठीक है न! हर जगह उसके अलग-अलग शब्द है जैसे यहाँ (आज्ञा चक्र पर) ह, क्ष दो शब्द आते हैं। वो जो हम 'ओम' करके लिखते हैं, अजैसे जो लिखते हैं वो यहाँ आप देख सकते हैं कि यहाँ पर ओम ही रहता है। जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो यहाँ जब उस पर लाइट पड़ती है तो ये जो जो भी चक्र हैं यहाँ पर ओम (ॐ) ऐसा ही लिखा होता है जैसा आप लिखते हैं और जो 'अ, आ, इ, ई' जो भी लिखा है, आप 31 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-31.txt लिखते हैं देवनागरी में, वो भी हमारे अन्दर कुण्डलिनी वहाँ पर आघात करती है, जिस वक्त उसके निनाद होते हैं तब वह निनाद और उसका लिखना भी वहाँ घटित होता है। कितनी बारीक चीज़ है। क्या आपकी संस्कृति है और कहाँ से आयी है, जो सारी मननों से उतरी हुई है, कोई हमने बाहर से सीखी हुई आर्टिफिशियल चीजें नहीं है। ये भाषा हमारे अन्दर उत्पन्न होती है और लिखित होती है। एक-एक अक्षर लिखने में अर्थ होता लिखा है। मैं ऐसे ऊँगली घुमा रही हूँ है। ओम कैसे बना? इस तरह ॐ की रचना होती है, बिल्कुल ॐ ही आपका आज्ञा घुम रहा है। इतनी साइन्टिफिक चीज़ है क्योंकि इसका सम्बन्ध रिएल्टी से है। जब तक आप संस्कृत में श्लोक नहीं कहते, मेरे चक्र चलते ही नहीं आश्चर्य की बात है। पर आप अगर अंग्रेज़ी में कहें तो चलते हैं पर सिर्फ आज्ञा चक्र पर ईसा मसीह की जो उन्होंने अपनी लिखी है क्योंकि यहाँ पर ईसा मसीह का स्थान है, उस पर उनका जो हिब्रू भाषा में लिखा हुआ है 'लार्डस प्रेयर' चलता है, पर इंग्लिश में कहें तो चल जाता है। पर यहाँ पर तो क्षमा स्वरूपिणी 'क्षमा' ही शब्द कहना पड़ता है क्योंकि यहाँ 'क्ष' शब्द है, इसलिये 'क्षमा' कहना चाहिये। सब कहने पर भी क्षमा कहना पड़ता है।...... 'र' यह एन्जी का शब्द है जैसे राधा 'र ' माने शक्ति 'ध' माने धारने वाली। राधा-कृष्ण का अर्थ मैंने आपसे बताया था कृषि से आता है। अब 'कृ' शब्द कृष्ण कहने के साथ विशुद्धि चक्र एकदम असर कर जाता है। 'कृष्ण' ही कहना पड़ेगा क्योंकि कृष्ण जो हैं इसका यहीं से सम्बन्ध है। विशुद्धि चक्र से सम्बन्ध है तो कृष्ण ही उनका नाम हो सकता है। कितनी साइन्टिफिक चीज़ है और ये बताईये कितनी सुक्ष्म चीज़ है । मंत्र की योजना आनी चाहिये।...... मंत्र विद्या का बड़ा भारी शास्त्र है कि कौनसा आपका चक्र पकड़ा हुआ है? गर आपकी लेफ्ट साइड पकड़ी है तो आपको लेफ्ट साइड का मंत्र देना चाहिये और आपकी राइट साइड़ पकड़ी है तो राइट साइड़ का देना चाहिये, बीच की पकड़ी हयी है तो बीच का मंत्र देना चाहिये। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ३.२.१९७८ मंत्र आपके चक्रों का कार्य करते हैं, आपके उस भाग को खोलते हैं और मंत्र के गुणों के आशीर्वाद की वर्षा आप पर होती है। अत: मंत्र तेज़ी से अथवा सतही रूप से नहीं गाये जाने चाहिये, मंत्र गहन भावना और सूझ-बूझ पूर्वक बोले जाने चाहिये। प.पू.श्री माताजी, कोमो, २५.१०.१९८७ सारे देवता आपके बड़े भाई हैं। कुण्डलिनी के पथ पर भिन्न रूपों में वे विद्यमान हैं। आपको चाहिये कि उन्हें पहचाने और उन्हें प्राप्त करें। ........देवी- देवता को जाग्रत करने के लिये मंत्रों का उच्चारण पूर्णत: शुद्ध होना चाहिये और पूरे हृदय से किया जाना चाहिये, केवल तभी जाग्रति घटित हो पायेगी 32 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-32.txt लक्ष्य प्राप्ति में मंत्रों एवं प्रार्थनाओं का महत्व .....तेल में यदि पानी हो तो दीपक की बाती किस प्रकार जलेगी? प.पू.श्री माताजी के एक पत्र से, १९.१२.१९८२ मंत्रोच्चार द्वारा समस्त देवता जाग्रत हो जाते हैं और प्रसन्न होकर हमारी नसों में चेतना एवं सद्गुणों का प्रवाह करने लगते हैं । जिस प्रकार की तकलीफ होगी, उस समय उसके देवता का नाम लेते हैं। सबके लिये एक ही देवता का नाम लेने से प्रभाव नहीं होता है। हमें बुख़ार है तो एक दवाई हम खाते हैं, पर वही दवाई दूसरी बीमारियों में कैसे काम आएगी? यही बात अलग-अलग देवताओं के बारे में कही जाएगी। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ४.२.१९८३ चक्र कुप्रभावित होने से तत्सम्बन्धी देवता वहाँ से अपना स्थान त्याग देते हैं। उस चक्र का मंत्र उच्चारण करके पूज्य श्री माताजी के नाम की शक्ति से उन देवता का आवाहन किया जाता है। उपचार के लिये विपरीत पार्श्व का हाथ प्रभावित चक्र पर रखें और प्रभावित पाश्र्व का हाथ फोटो के सामने फैलायें। प.पू.श्री माताजी, निर्मला योग, जुलाई -अगस्त १९८३ से आपको समझना चाहिये कि छोटी-छोटी क्रियाओं से एवं मंत्रों के उच्चारण से किस प्रकार हम अपने अन्दर के देवताओं का आवाहन करते हैं, क्योंकि आप जाग्रत हैं। आपका हर शब्द जाग्रत है। अत: आपके मंत्र भी सिद्ध हैं। प.पू.श्री माताजी, ५.५.१९८० परन्तु यदि आप परमात्मा की शक्ति से सम्बन्ध बनाये बिना ही मन्त्रोच्चारण किए जा रहे हैं तो आपको उस शक्ति से जोड़ने वाले तार जल सकते हैं तथा आपको गले की समस्यायें हो सकती है। प.पू.श्री माताजी, पेन्सिवेनिया, अमेरिका, १९.०९.. सहजयोग में आज ऐसे हज़ारों लोग हैं जिन्होंने मंत्र को सिद्ध कर लिया है। इतने मंत्र सिद्ध हैं उनके कि अगर वो अपनी जगह में बैठ कर मंत्र कह दें तो जो काम करना है, करा सकते हैं। सिद्धता के लिये मंत्र पर मेहनत करनी पड़ती है, उस पर बोलना पड़ता है, अपने चक्रों पर ध्यान करना पड़ता है, और उसकी सिद्धता हासिल हो जाती है। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, १६.२.१९८१ सहजयोग में किसी भी चीज़ की अति न करें। अगर आप किसी को बतायें कि आपके लिये ये मंत्र 33 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-33.txt है तो इसे तभी तक प्रयोग करना चाहिये जब तक आप उस चक्र की बाधा से छुटकारा न पा लें। उसके बाद | नहीं। प.पू.श्री माताजी, ४.२.१९८३ ..... मंत्र का स्थायी भाव पवित्रता है। मंत्रोच्चार के समय मंत्र की ओर ही चित्त का होना आवश्यक है। प.पू.श्री माताजी, १२.६.१९८८ जब मैं बोलती हूँ तो मेरा हर शब्द मंत्र है। मैं जब बोलना आरम्भ करती हूँ तो लोग ठीक होने लगते हैं। प.पू.श्री माताजी की डॉ.तलवार से वाता ॐ बीज मंत्र है - ओंकार शब्द है, यह प्रथम शब्द है जब सदाशिव और आदिशक्ति सृष्टि रचना हेतु अलग हये, इस ध्वनि को ओंकार रुप में प्रयोग किया गया| ओंकार अर्थात् प्रकाश पूर्ण चैतन्य लहरियाँ .इनके दायें भाग में सभी तत्वों के अणु हैं आदिशक्ति माँ ओंकार से श्री गणेश की रचना करती हैं और बायें भाग में मनोभाव। इसके मध्य में आपके उत्थान की शक्ति निहित है। प.पू.श्री माताजी, आस्ट्रिया, २६.८.१९९० सारे संसार का कार्य इसी ओंकार की शक्ति से होता है, इसे हम चैतन्य कहते हैं, ब्रह्म चैतन्य कहते हैं। ब्रह्म चैतन्य का साकार स्वरुप ही ओंकार है। इसका मूर्तस्वरूप या विग्रह श्री गणेश हैं। ..... यह ओंकार अति पवित्र है और अनन्त का कार्य करने वाली शक्ति है । आत्मा की शक्ति भी ओंकार की ही शक्ति है। प.पू.श्री माताजी, आस्ट्रिया, २५.१२.१९९० महामंत्र ।।ॐ त्वमेव साक्षात श्री महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली त्रिगुणात्मिका कुण्डलिनी साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः ।। ।।3ॐ त्वमेव साक्षात श्री कल्की साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः । । । । ॐ त्वमेव साक्षात श्री कल्की साक्षात श्री सहस्रार स्वामिनी मोक्ष प्रदायनी माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः। ॥ श्रीगणेश मंत्र - |13ॐ त्वमेव साक्षात श्री गणेश साक्षात श्री आदिशक्ति माताजी श्री निर्मला देव्यै नमो नमः।। 34 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-34.txt री प्रकृति का नियंत्रण करने के लिये परमात्मा ने ग्रह स्थापित कर दिये हैं। मुख्यत: नौ ग्रह है। पूरे ब्रहाण्ड तथा ह२ चीज़ को नियंत्रित करने के लिये नवग्रह स्थापित क२ दिये। इन बिन्दूओं से सब कुछ नियंत्रित होता है। इनका प्रभाव हमारे शारीरिक एवं भौतिक जीवन पर भी पड़ती है। पं.पू.शरीमाताजी, २२.३.१९७७ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० - २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in 2012_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-35.txt कु স ॐ शु ०. के श्रीकृष्ण के जीवन में यह दिखाया गया कि एक छोटे लंड़के, जैसे वो थे, बिल्कुल जैस शिशु होता है, बिल्कुल अजञानी, वैसे वो थे। वो अपने को कुछ समझते नहीं थे। अपनी माँ के सहारे वो बढ़ना चाहते थे इसी प्रकार आप लोगों को भी अपने अन्द२ देखते वक्त ये सोचना चाहिए अा कि हम एक बालक हैं। - प.पू. श्री माताजी, पुणे, १०.८.२००३ ॐ e০