चैतन्य लहरी हिन्दी नवंबर-दिसंबर २०१२ १० कै २हजयोग पहले आपको लक्षमी की इलिक देती है और फिर अपको धन प्रदान करती है। आपको आशीर्वाद (धन ) प्राप्त हो जाती है । यह पहली प्रलौभन है जिस२से आप जीचे गि२ सकते हैं, आपका पतन हो सकती है। इसके बाढ़ दो अन्य प्रतीक हैं। अपने हाथों से वे देती हैं। आप यदि एक दरवाजी खोलेंगे तौ हवी नहीं आएगी, दूसर द२काजी उन्हें तो देनी ही है । खोलना होगा । पं.पू.श्री मातीजी, २१.१०.१९९० पी इस अंक में की सथ प२मात्मा से यौग घटित हो ...8 १०० मानव जीवन का लक्य ब्रहा तंत्व की प्राप्ति े ः ...२८ क ॐ* सहजयोग कोई दुकान नहीं है। इसमें किसी प्रकार का भी वैसा काम नही होता है जैसे और आश्रमों में या और गुरुओं के यहाँ पर होता है के आप इतना रुपया दौजिए और सदस्य हो जाइए। यहाँ पर आप ही को खोजना पड़ता है, आप ही को पाना पड़ता है और आप ही को आत्मसात करना पड़ता है। जैसे कि गंगाजी बह रही हैं। आप गंगाजी में जायें, इसका आदर करें, उसमें नहाएं-धोएं और घर चले आएं। अगर आपको गंगा जी को धन्यवाद देना हो तो दें, न दें तो गंगाजी कोई आपसे नाराज नहीं होती। नई दिल्ली, १० फरवरी १९८१ परमात्मा से योग घटेत हो र र य हाँ कुछ दिनों से अपना जो कार्यक्रम होता रहा है उसमें मैंने आपसे बताया था कि कुण्डलिनी और उसके साथ और भी क्या-क्या हमारे अन्दर स्थित है। जो भी मैं बात कह रही हूँ ये आप लोगों को माननी नहीं चाहिए लेकिन इसका धिक्कार भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये अन्तरज्ञान आपको अभी नहीं है । और अगर मैं कहती हैँ कि मुझे है, तो उसे खुले दिमाग से देखना चाहिए, सोचना चाहिए और पाना चाहिए। दिमाग जरूर अपना खुला रखें। पहली तो बात ये है कि सहजयोग कोई दुकान नहीं है । इसमें किसी प्रकार का भी वैसा काम नहीं होता है जैसे और आश्रमों में या और गुरुओं के यहाँ पर होता है कि आप इतना रुपया दीजिए और सदस्य हो जाइए। यहाँ पर आप ही को खोजना पड़ता है, आप ही को पाना पड़ता है और आप ही को आत्मसात करना पड़ता है। जैसे कि गंगाजी बह रही हैं। आप गंगाजी में जायें, इसका आदर करें, उसमें नहाएं- धोएं और घर चले आएं। अगर आपको गंगा जी को धन्यवाद देना हो तो दें, न दें तो गंगाजी कोई आपसे नाराज नहीं होती। एक बार इस बात को अगर मनुष्य समझ ले, कि यहाँ कुछ भी देना नहीं है सिर्फ लेना ही है, तो सहजयोग की ओर देखने की जो दृष्टि है उसमें एक तरह की गहनता आ जाएगी। जब लेना होता है, जैसे कि प्याला है, उसमें तभी आप डाल सकते हैं जब उसमें गहराई हो। और जब लेने की वृत्ति होती है तब मनुष्य उसे पा सकता है। दूसरी बात ये है कि आप लोग अनेक जगह जा चुके हैं क्योंकि आप परमात्मा को खोज रहे हैं। आप साधक हैं। साधक होना भी एक श्रेणी है, एक कैटगरी है। सब लोग साधक नहीं होते। हमारे ही घर में हम तो किसी से नहीं कहते कि आप सहजयोग करो या सहजयोग में आओ किसी से भी नहीं कहते। सिवा हमारे और हमारे नाती-पोतियों के कोई भी सहजयोगी नहीं है। लेकिन जो नहीं है वो नहीं है, जो हैं सो हैं। अगर कोई खोज रहा है, उसके लिए सहजयोग है, जो साधक है उसके लिए सहजयोग है। हरेक आदमी के लिए नहीं। आप तो जानते हैं कि दिल्ली में सालों से हम रह रहे हैं और हमारे पति भी यहाँ रह चुके हैं । लेकिन हमने अभी तक किसी भी हमारे पति के दोस्त या उनके पहचान वाले या रिश्तेदार से बातचीत भी नहीं करी और बहुत लोग हैरान हैं कि 'हमको मालूम नहीं था कि यही माताजी निर्मलादेवी हैं जिनको हम दूसरी तरह से जानते हैं। तो सहजयोग जो चीज़ है, इससे आपको लाभ उठाना है। पहली बात। इस बात को अगर पहले आप लें कि आपको कुछ पाना है। परमात्मा को भी आप कुछ नहीं दे सकते और सहजयोग को भी आप कुछ नहीं दे सकते। उनसे लेना ही मात्र है। लेकिन माँ की दृष्टि से मुझे ये कहना है कि अगर लेना है तो उसके प्रति नम्रता रखें। अपने में गहनता रखें और इसे स्वीकार करें। समझ माँ जो होती है वो समझ के बताती है। ये नहीं कि आपकी हर समय परीक्षा लँ और आपको मैं परेशान करूँ और फिर देखूं कि आप इस योग्य हैं या नहीं, या पात्र हैं या नहीं। दूसरी ये भी बात है कि माँ बच्चों को जानती अच्छे से है। जानती है कि इनमें क्या दोष है, क्या बात है, किस वजह से रुक गये। उसको इसकी मालूमात गहरी होती है बहुत और वो समझती है कि किस तरह से बच्चे को भी ठीक किया जाए। कहीं डाँटना पड़ता है, तो डॉट भी देगी। जहाँ दुलार से समझाना पड़ता है, समझा भी देती है। और ये सिर्फ़ माँ का ही काम है और कोई कर भी नहीं सकता। मुश्किल काम है और किसी के लिए करना। क्योंकि ये सारा काम प्यार का 6. है। आज मनुष्य विप्लव में और इतनी आफ़त में है%; इतने दुःख में और आतंक में बैठा हुआ है। इस क़दर उस पर परेशानियाँ छाई हुई हैं कि इस वक्त और भी किसी तरह की परीक्षा इन पर दी जाए, ऐसा समय नहीं है । और ये माँ ही समझ सकती है कि बच्चे कितनी आफतें उठा रहे हैं, उनको कितनी परेशानियाँ हैं और किस तरह से उनका भार उठाना चाहिए और उनके अन्दर किस तरह से प्रभु का अस्तित्व जागृत करना चाहिए। ये माँ ही कर सकती है। कुण्डलिनी के बारे में जो कहा गया है कि 'कुण्डलिनी आपके अन्दर स्थित आपकी माँ है, जो हजारों वर्षों से आपके जन्म होते ही आप में प्रवेश करती है और वो आपका साथ छोड़ती नहीं, जब तक आप पार न हो जाएं, वो प्रतीक रूप आपकी माँ ही है।' यानी ये कि समझ लीजिए 'प्रतीक रूप आपकी महा- माँ' की एक छाया है, छवि है। एक प्रश्न यह जो किया था किसी ने कि, 'माँ, आपने कहा था कि पूरी रचना हमारी करने के बाद, पिण्ड की पूरी रचना करने के बाद भी वो वैसी की वैसी ही बनी रहती है, इसको किसी तरह से समझाया जाए।' वो आज मैं बात आपको समझाऊँगी कि किस तरह से होता है। कुण्डलिनी शक्ति हमारी जो महाकाली की इच्छा शक्ति है उसका शुद्ध स्वरूप है। मतलब ये कि एक ही इच्छा मनुष्य को होती है संसार में जब वो आता है। उसका शुद्ध स्वरूप है कि परमात्मा से मिलन हो और दूसरी उसे इच्छा नहीं होती। ये उसका शुद्ध स्वरूप है। और जब तो इच्छा कुण्डलिनी स्वरूप होकर के बैठती है तो वो मनुष्य का पूरा पिण्ड बनाती है-पर अभी इच्छा ही है। इसलिए पूरा बनाने पर भी वो इच्छा ही बनी रहती है क्योंकि उसकी जो इच्छा है वो जागृत नहीं है। इसलिए इच्छा पूरी की पूरी वैसी ही बनी रहती है और वो अपनी इच्छा छाया की तरह आपको संभालती रहती है कि देखो, इस रास्ते पर गए हो तो यहाँ वो इच्छा पूरी नहीं होगी जो सम्पूर्ण शुद्ध आपके अन्दर से इच्छा है वो पूरी नहीं होगी। उस इच्छा को पूरी किए बगैर आप कभी भी नहीं पा सकते। सारा आपका पिण्ड जो है वो इसलिए बनाया गया कि वो इच्छा पूर्ण हो सुख जिससे आप परमात्मा को पायें। पर महाकाली शक्ति को जब आप इस्तेमाल करने लगते हैं तो आपकी महाकाली की शक्ति में जो उसका कार्य है वो बाहर की ओर होने लग जाता है। माने, आपकी इच्छायें जो हैं वो बाहर की ओर जाने लग जाती हैं। आप ये सोचते हैं कि मैं ये चीज़ पा लँ। जब आपका चित्त बाहर जाता है उसका भी एक कारण है जिसके कारण आपका चित्त बाहर जाता है। जो मैंने कहा था कि वो जरा विस्तारपूर्वक बताना होगा। जब, क्योंकि आपका चित्त बाहर की ओर जाने लगता है और जैसे-जैसे आप बड़े होने लग जाते हैं और भी वो बाहर की ओर जाने लग जाता है। इसकी वजह से जो शुद्ध इच्छा आपके अन्दर है जिसको कि शुद्ध विद्या कहते हैं और आपके शुद्ध अन्दर जो अन्तरतम इच्छा है वो एक ही है कि, 'परमात्मा से योग घटित हो।' वो कार्यान्वित नहीं हो पाती। सिर्फ आप ये ही सोचते रहते हैं कि हम इसे पायें, उसे पायें, उसे पायें। इसलिए वो जैसी की तैसी बनी रहती है। इसलिए इसे अवशिष्ट ऊर्जा कहते हैं। अब ये जो आपकी शुद्ध इच्छा है ये ही आपको खींच कर इधर से उधर ले जाती है और आप दर -दर के ठोकरे खाते हैं, कर्मकाण्ड करते हैं, इधर ढूँढ़ते हैं, किताबें पढ़ते हैं और आप अपने अन्दर धारणा सी बना लेते हैं कि परमेश्वर का पाना ये होता है, परमेश्वर का पाना ये होता है। जब तक आप उसे पाते नहीं आप 7 इच्छा को सोचते हैं कि हमें इस चीज़ से पूरा हो जाएगा। किसी चीज़ से पूरा हो जाएगा। सो नहीं होता। पर बहुत बार ऐसा भी होता है कि महाकाली शक्ति जो है जब हमारी बहुत बार और जगह दौड़ने लग जाती है तब कभी-कभी कोई गुरु लोग भी या ऐसे लोग कि जो बहुत पहुँचे हुए लोग हैं वो भी इस मामले में ये बता देते हैं कि ये इच्छा किस तरह से पूर्ण हो जाती है। लेकिन बहुत से अगुरु भी इस संसार में हैं। बहत से दष्ट लोगों ने भी गुरु रूप धारण कर लिया है। और इसी वजह से वो आपकी इस इच्छा को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। माने कुण्डलिनी को तो कोई छू नहीं सकता, किन्तु आपकी जो महाकाली की जो शक्ति है उसको मंत्रमुग्ध कर देते हैं। वो मंत्रमुग्ध होने के कारण आपकी जो वास्तविक इच्छा परमात्मा से योग पाने की है वो छूट करके आप सोचते हैं कि ये जो अगुरु हैं जिसने हमको मंत्रमुग्ध किया है, ये ही उस इच्छा को पूरा कर देगा। इसको पूर्ण कर देगा । और इसलिए आप उस चीज़ से चिपक जाते हैं और इसलिए आप उस चीज़ से चिपक जाते हैं। और जब आप मंत्रमुग्ध की तरह उससे चिपक जाते हैं तब आपके ध्यान में ही नहीं आता है कि आपकी वास्तविक इच्छा पूरी नहीं हुई है और आप गलत रास्ते पर चल रहे हैं। जब तक आप बहुत ठोकरे नहीं खाते हैं, जब तक आपका सारा पैसा नहीं लुट जाता, जब तक आप पूरी तरह से बर्बाद नही हो जाते, आपके ध्यान में ये बात नहीं आती। बहुत बार लोगों ने मुझे कहा कि माँ, आप किसी भी गुरु के बारे में कुछ भी मत कहिए। मैंने कहा कि ऐसा ही हुआ कि कोई मेरे बच्चों की गर्दनें काटे और मैं न कहूँ कि ये गर्दन काट रहे हैं। ये कहे बगैर कैसे होगा, आप ही बताइये , आप माँ-बाप भी हैं। आप बताइये कि अगर आप जानते हैं कि कोई आदमी आपकी ये इच्छा हमेशा के लिए मंत्रमुग्ध कर देगा और आपको विचलित कर देगा, आपकी कुण्डलिनी को एकदम से ही वो जकड़ देगा या उसको ऐसा कर देगा कि वो फ्रिज हो जाए एकदम। तो क्या कोई माँ ऐसी होगी जो नहीं बताएगी? इस मामले में बहुतों ने मुझे डराया भी, धमकाया भी। कहा कि आपको कोई गोली झाड़ देगा। मैंने कहा झाड़ने वाला अभी पैदा नहीं हुआ। मुझे देखने का है। ऐसा आसान नहीं है मेरे ऊपर गोली झाड़ना। वो तो ईसा मसीह ने एक नाटक खेला था इसलिए उस पर चढ़ गए, नहीं तो ऐसा वो सबको मार डालते कि सबको पता चल जाता। लेकिन वो एक नाटक खेलने का था, इसलिए उस वक्त ये काम हुआ। अब, हमको ये सोचना चाहिए कि जब हमारी ये शुद्ध इच्छा है कि परमात्मा से योग होना है, तो कुण्डलिनी जागृत करने के लिए क्या करना चाहिए? ऐसा बहुत बार लोगों ने कहा है। हालांकि हर लेक्चर में मैं कहती हैँ कि ये जीवन्त क्रिया है, इसके लिए आप कुछ नहीं कर सकते । 'आप' नहीं कर सकते इसका मतलब नहीं कि मैं नहीं कर सकती। इसका मतलब यह नहीं कि सहजयोगी नहीं कर सकते। अधिकारी होना चाहिए। जैसे एक डॉक्टर है जो कि ऑपरेशन करना जानता है, वो ही ऑपरेशन कर सकता है । पर कोई दूसरा आदमी अगर इस तरह का काम करे तो लोग कहेंगे कि 'ये खूनी है' और इतना ही नहीं वो खून ही कर डालेगा, क्योंकि उसको मालूमात ही नहीं उस चीज़ की। जिसको इसकी जानकारी नहीं है, जो इस बारे में समझता नहीं है उसको कुण्डलिनी में पड़ना नहीं चाहिए । जब आप सहजयोग में पार हो जाते हैं उसके बाद इसके नियम शुरू हो जाते हैं, जो परमात्मा के दरबार के नियम है- जैसे आप हिन्दुस्तान में आए तो आपको हिन्दुस्तान सरकार के नियम पालने पड़़ते है । उसी | 8. प्रकार जब आप परमात्मा के साम्राज्य में आए तो उसके नियम आपको पालने पड़ते हैं। और अगर आप वो नियम न पालें तो आपके वाइब्रेशन हाथ से छूट जाएंगे। बार-बार वो वाइब्रेशन छूट जाएंगे, बार - बार आप पहले जैसे होते रहेंगे, जब तक आप पूरी तरह से इसको अपने ऊपर पूरा प्रभुत्व न पा जाए। जब तक आपने अपनी आत्मा को पूरी तरह से नहीं पाया, आप पाइएगा वाइब्रेशन आपके छूटते जाएंगे । क्योंकि ये वाइब्रेशन आपकी आत्मा से आ रहे हैं। आत्मा जो है उसको सत् चित आनन्द कहते हैं। माने वो सत्य है। सत्य का मतलब ये है कि वो ही एक सत्य है, बाकी सब असत्य है। बाकी सब ब्रह्म है। ब्रह्म जो है वो भी उन्हीं की शक्ति है और जो कुछ अलावा है-आत्मा, ब्रह्म इसके अलावा जो कुछ भी है वो असत्य है। असत्य माने ये है कि एक आदमी है समझ लीजिए सोचता है कि 'हमने बहुत बड़ा काम किया', 'आपने क्या काम किया ?' उनसे पूछिए, तो बतायेगा कि, 'साहब, मैंने मकान बनाया, घर बनाया और बच्चों की शादियाँ कर दी' या कोई बड़ा भारी उसको तमगा मिल गया। 'मैंने हवाई जहाज बना दिया और कोई चीज़ बना दी, मैं बड़ा भारी प्रधानमंत्री हो गया। ये सब भी एक मिथ्याचरण है। मिथ्या बात है। क्योंकि ये शाश्वत नहीं है, सनातन नहीं है, शाश्वत नहीं है। ये कोई आदमी, आज बड़े-बड़े अफ़सर हो जाते हैं। हम भी अफ़सरी काफ़ी देख चुके हैं और जैसे ही अफ़सरी खत्म हो गयी तो कोई पूछता भी नहीं। बड़ा आश्चर्य है अगर आपका तबादला हो गया तो कोई नहीं पूछता। आपने मकान बना लिया, आपने देखे हैं कितने बड़े- बड़े खण्डहर पड़े हुए हैं। और न कोई जानता है कि ये है क्या बला? कहाँ से आई, क्या हुआ? बड़े-बड़े ऐसी चीजें खत्म हो चुकी हैं। एक बार मैं गयी थी आपके आगरा के किले में। तो रात बहुत बीत गयी वहाँ और कुछ खास हमें दिखाने का इन्तजाम था, तो बहुत रात हो गयी। और वो कहने लगे, 'जब भीड़ जाएगी तब आपको ठीक से दिखायेंगे।' बहुत कुछ चीजें दिखाईं। जब लोग लौट रहे थे, तो मैंने देखा कि बिल्कुल सब दूर अंधेरा है। सब जितनी भी उस वक्त में चहल-पहल रही होगी। रानियों ने क्या-क्या काम किये होंगे और परेशान किया होगा अपने नौकरों को कि, 'ये मरे कपड़े नहीं ठीक हैं।' राजाओं ने परेशान किया होगा। बड़े-बड़े वहाँ पर दावतें हुई होंगी। उसके लिए झगड़े हुए होंगे। पता नहीं क्या-क्या किया होगा इन लोगों ने उस जमाने में। सब एकदम फ़िजुल। कुछ नहीं सुनाई दे रहा था। अब वो आवाज खत्म हो चुकी थी वहाँ। कुछ भी नहीं था। एकदम अंधेरा चारों तरफ़ छाया हुआ। और जब हम बाहर आ रहे थे बिल्कुल बाहर आये तो रोशनी थी नहीं खास। एक साहब के पास जरा सी टॉर्च थी, उससे सभी लोग देखकर बाहर आ रहे थे। बाहर आते वक्त देखा कि एक चिराग की रोशनी जल रही थी। उस चिराग की रोशनी में हम बाहर आए, तो पूछा कि, 'भाई चिराग यहाँ किसने जलाया?' कहने लगे कि, 'यहाँ पर एक मज़ार है, एक पीर की मज़ार है और ये पीर बहुत पुराने है। 'कितने पुराने?' कहने लगे कि, 'जब ये किला भी नहीं बना था , उससे पुराने।' 'अच्छा तब से इस पर दिया जलता रहता है। सब लोग यहाँ टेकने जाते हैं। ये सनातन है। पीर होना, जाना सनातन है। ये शाश्वत है। बाकी सब असत्य है, सब गुम हो गया है, खत्म हो गया, शून्य हो गया, लीन हो गया। आज कोई आकाश में उछल रहा है, कल देखा तो वो गर्द में पड़ा हुआ है। आप रोज़मर्रा ही देखते हैं अपने ही आँखों के सामने आपने देखा है कितनी बार ऐसे होता हुआ। इतना पचास साल में इस भारतवर्ष में हुआ है, कभी नहीं हुआ था। सबसे ज़्यादा उथल-पुथल इसी पचाल साल में हुई है। इससे आप समझ सकते हैं कि ये सनातन नहीं है। ये कोई-सी भी चीज़ सनातन नहीं, जिसके पीछे आप दौड़ रहे हैं। दौड़-धूप कर रहे हैं। आज बड़े भारी आदमी बन कर घूम रहे हैं; आपका ठिकाना नहीं। कल आप रास्ते के भिखारी बने होंगे। जो चीज़ सनातन है उसे पाना चाहिए। जब आदमी साक्षात्कार पा लेता है, तो वह खोता नहीं। जब उसका जन्म होता है तो साक्षात्कार के साथ वो दूसरी चीज़ मोक्ष, मोक्ष लेकर वो आता है। वो करुणा में फिर से जन्म लेता है। सिर्फ़ करुणा में जन्म लेता है। लेकिन वो मोक्ष अपने साथ लेकर के आता है। उस सनातन को पाना चाहिए। और जब हम इस बात को जान लेते हैं कि हमें सनातन को पाना चाहिए, तब हमारा जो व्यवहार है, सहजयोग के प्रति, बदल जाता है। जो लोग पार हो गये हैं उनको पता होना चाहिए कि हमें स्थित होना पड़ता है। मैंने कल बताया था कि पार होने के बाद क्या करना चाहिए । 'स्थित' होने के लिए उसके नियम हैं। जैसे आप जानते हैं अगर हवाईजहाज़ है, इसको पहले जब आप परीक्षण करते हैं तो उड़ाते हैं, देखते हैं कि इसका संतुलन कैसा है। ये ठीक से चल रहा है या नहीं चल रहा है। उसको बार-बार ग्राऊंडिंग कराते हैं, फिर उसको उड़ाते हैं, फिर देखते हैं। उसी प्रकार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत भी हो गई और आप पार भी हो गए और माना कि आप पार हो गए और आपके अन्दर से वाइब्रेशन शुरु होने लगे। तो फिर आपको जरूरी है कि आप देखने को जरा सा देखें और समझें क्या है। अब, सबसे जो बड़ी गलती हम लोग करते हैं, पार होने के बाद, पहली गलती ये है, कि हम इस के बारे में सोचना शुरु कर देते हैं। तो उसमें कभी-कभी शंकायें भी बहुत लोगों को आती है। कहते हैं, 'भाई, कैसे हो सकता है, माँ ने हमको सम्मोहित भी कर दिया होगा तो क्या पता? हो सकता है कि गड़बड़ ही हो गया होगा! हम कैसे ऐसे हो सकते हैं? हमने तो सुना था इसमें बड़ी-बड़ी दिक्कतें होती हैं, हम ऐसे आसानी से कैसे पार हो गए? ठण्डी हवा आ गयी तो क्या समझना चाहिए कि क्या बड़े भारी हम पार हो गए? ये कैसे हुआ?' पहली गलती ये है कि इसके बारे में आप सोच नहीं सकते। सोचने से आपके वाइब्रेशन खट से खत्म हो जाएंगे। आपको अगर हम हीरा दें और आपको कहें ये आपके पास हीरा है, आप उस पर क्या करेंगे? आप जौहरी के पास जाकर पूछेंगे कि, 'भाई ये हीरा क्या है?' कम से कम इतना तो आप करेंगे। क्या घर में बैठे- बैठे सोचकर हीरे को कोई फेंक देगा ? जब रोज़मर्रा के जीवन में हम लोग इस तरह से अपना ध्यान लगाते हैं, तब जो हमारे परम की बात है, उसमें ये ध्यान रखना चाहिए कि अगर हमने परम पाया है तो आखिर ये कैसे जानें कि ये परम है या नहीं? और इसमें शंका करने की कौनसी बात है? बहुत से गुरु लोग हैं, आपसे कहेंगे कि इसमें आप नाच सकते हैं, कूद सकते हैं। ऐसा होता है कुण्डलिनी में, वैसा होता है, ये होता है। ये सब चीजें आप वैसे भी कर सकते हैं। माने नाचना कोई मुश्किल काम नहीं, कूदना कोई मुश्किल नहीं, मेंढक जैसे चलना भी कोई मुश्किल नहीं है। और आजकल एक गुरुजी हैं वो उड़ना सिखा रहे हैं, तो लोग अपने फोम में बैठकर ऐसे उड़ते हैं, सोच रहे हैं कि वो हवा में उड़ रहे हैं। ऐसा 10 ा परा र सोचना भी मुश्किल नहीं है। घोड़े पर भी लोग कूद करके बैठ जाते हैं। जरा कोशिश करने से आ जाता है वो भी। ये भी कोई मुश्किल नहीं है। वो भी आप कोशिश करें तो कर सकते हैं। और आप एक तार पर भी चल सकते हैं, सर्कस में जैसे चलते हैं। या आप कलाबाज़ी कर सकते हैं । ये भी आपने करते देखा है और कर सकते हैं। अगर आप कोशिश करें तो सब धन्धे आप कर सकते हैं। सिर्फ आप क्या नहीं कर सकते ? कि ये एक त्रिकोणाकार अस्थि में अगर आप स्पन्दन देखें तो मानना चाहिए कि कुण्डलिनी है। स्पन्दन आप नहीं कर सकते कहीं भी। फिर उसका उठता हुआ स्पन्दन आप देख सकते हैं। सब में नहीं, क्योंकि कोई अगर बढ़िया लोग हों तो उनमे तो जरा भी पता नहीं चलता, खट से कुण्डलिनी उठ जाती है। पर बहुत से लेगों में इसका स्पन्दन दिखाई देता है। उसका अनहत् पर बजना सुनाई देता है। तो कबीरदास जी ने बहुत अच्छा कहा है कि, 'शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे' । शून्य शिखर पर, सकते हैं। 'शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे।' तो उसको आप यहाँ सहस्रार पर अनहत् का बजना आप सुन 11 ॐ देख सकते हैं, बज रहा है क्या? कोई गुरु हैं, कहते हैं हम नाच रहे हैं, भगवान का नाम लेकर के 'नाचि रे- नाचि रे'..... भाई, ये क्या तरीका है? सीधा हिसाब बताइये कि नाचना, गाना, ये आनन्द में मनुष्य करता है, लेकिन वो करना परमात्मा को पाना नहीं है। वो हो सकता है कि मनुष्य पाकर के गा रहा हो या नाच रहा हो। लेकिन पाया तो नहीं अभी तक। पाना तो कुण्डलिनी के ही जागृति से होता है । उसके बगैर हो नहीं सकता। और कुण्डलिनी सहज ही में जागृत होती है। माने ये कि सहज है, याने ये जीवन्त क्रिया है। आपकी उत्क्रान्ति प्रक्रिया है। और आप आज उस उत्क्रान्ति प्रक्रिया के अन्तर्गत ऊपर उठ जाते हैं। आपकी उत्क्रान्ति जो है, वो चल रही है। अभी आप इन्सान हैं। इन्सान से आप अतिमानव हो जाते हैं। जब इस तरह से बात आपने समझ ली कि जो काम हम ऐसे कर सकते हैं वो परमात्मा क्यों करेंगे, वो तो हम कर ही सकते हैं। वो तो अब वो काम करेंगे कि जो हम नहीं कर सकते। तब फिर इसमें सोचने की बात क्या है? हाथ में ठण्डी - ठण्डी हवा आनी शुरू हो गयी। इसके बारे में भी सब शा्त्रों में लिखा हुआ है। कोई नयी बात नहीं है। चैतन्य की लहरियाँ, ये ब्रह्म की शक्ति है। लेकिन इस पर आप सोच करके क्या करने वाले हैं? आप सोच करके भी कौनसा प्रकाश डालने वाले हैं? क्योंकि आपकी बुद्धि तो सीमित है, और मैं तो असीम की बात कर रही हूँ। अगर आप समझ लीजिए यहाँ से, चन्द्रमा में चले गए तो वहाँ जाकर के देखना ही है न कि आप सोचकर बैठे कि भाई, चन्द्रमा पर जायें तो ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। उससे फ़ायदा क्या? आप जाइये और देखिये। जो चीज़ है उसका साक्षात करना चाहिए। अब, जब आपके अन्दर में ये शुरु हो गया, तब दूसरा बड़ा भारी नियम सहजयोग का है। पहला नियम ये कि इसके बारे में आप सोच नहीं सकते ये सोच-विचार के परे हैं, निर्विचार में है, असीम की बात है। दूसरी जो बात इसकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि, 'सहजयोग की क्रिया आज महायोग बन गई है।' पहले एक ही दो फूल आते थे पेड़ पर। एक ही फूल। वो ज़माना और था। उस ज़माने में इतना ज़्यादा कोई ज्ञान देता भी नहीं था। कहीं किताबों में भी लिखा नहीं है, किसी को कोई बताता भी नहीं था । समझ लीजिए, कबीरदास जी ने भी कहा है तो उन्होंने सिर्फ अपना ही वर्णन किया है कि भाई मेरे 'शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे' और मेरे ऐसे-ऐसे 'इड़ा पिंगला सुषुम्ना नाड़ी' वगैरा है। पर इतना गहराई से बताया नहीं, क्योंकि उन्होंने ये काम किया नहीं था, उसके बारे में निवेदन किया था, उसके बारे में भविष्यवाणी की थी कि ये मेरा काम है। विशेष कर ज्ञानेश्वरजी ने साफ़ कहा था कि महायोग होने वाला है। विलियम ब्लैक नाम के एक बड़े भारी कवि ने बहुत सहजयोग के बारे में बताया है जो ये घटना घटने वाली है। तो, जो चीज़ घटने वाली है, होने वाली है उस के बारे में उन्होंने कहा था। और आज जब वो घट गई तो उसके बारे में अगर हम बता रहे हैं तो बहत से लोग ये भी सोचते हैं कि ये तो कहीं लिखा नहीं गया किताबों में। ये बहुत गलत धारणा है। क्योंकि समझ लीजिए कोई कहे कि आप चन्द्रमा पर गये। किसी ने लिखा था कि चन्द्रमा पे कैसे जाया जाएगा? जिस वक्त आप उसको करें तभी तो आप लिखेंगे। इसलिए इस तरह की धारणायें लेकर के मनुष्य अपने को रोक लेता है। पर जो महत्वपूर्ण, जो बड़ा, वो ये है, उसको समझना चाहिए कि आज का सहजयोग एक-दो 12 आदमियों का नहीं है। यह सामूहिक चेतना का कार्य है। इसको लोग समझ नहीं पाते। यह पॉइंट क्या है, इसको समझना चाहिए। जैसे हम कहें आप भाई - बहन हैं और अपने एक-दूसरे को भाई-बहन समझें। यह तो ऊपरी बात कहनी हुई। जब यह हैं ही नहीं, तो कैसे समझेंगे। लेकिन पार होने पर ये पता होता है कि एक ही माँ ने हमको जन्म दिया है। अब जैसे जो लोग पार हैं, अगर हम अपने हाथ में फूँकें तो आपको भी फूँक आएगी । अगर हम कोई सुगन्ध, ये लोग इत्र वगैरेह लगायें तो आपको सुगन्ध आएगी चाहे आप यहाँ हों चाहे इंग्लैण्ड में हों। पर सहजयोग में पूरी तरह से हमसे जुड़े हों तो। आधे अधूरे लोगों को नहीं होता। लोग कहते हैं, 'माँ, अचानक कभी एकदम से खुशबू आने लग जाती है।' क्योंकि सब एक ही अंग के प्रत्यंग हैं। ये जब तक आप समझ नहीं लेंगे पूरी तरह से, तब तक आपको मुश्किल रहेगी। अब बहुत से लोगों को मैं देखती हूँ कि, 'मैं घर में ले जाऊँगा माँ और वहाँ मैं करूँगा।' बहुत से लोग तो यहाँ आने पर भी सोचते हैं कि हम बड़े भारी अफ़सर हैं। हम यहाँ कैसे? बहुत से लोग यहाँ इसलिये नहीं आते हैं कि हम बड़े भारी अफ़सर हैं। पर जहाँ लोग सम्मोहित करते हैं और गन्दे काम करते हैं, वहाँ सब मोटरे लेकर पहुँच जाते हैं। तब कोई शर्म नहीं। घोड़े का नम्बर पूछना हो तो वहाँ पहुँच जायेंगे सब, लेकिन ऐसी जगह जहाँ परम का कार्य हो रहा है, वहाँ मैं देखती हैँ कि लोगों को शर्म आती है आते हुए। या मोटरें लेकर। तो कुछ लोग डरते भी हैं। डरने की कोई बात नहीं। अपनी माँ है। हम तो सबकी माया जानते हैं, किसी भी तरह का मामला हो, हम ठीक कर सकते हैं। तो डरने की कौनसी बात है? इसलिए माँ का स्वरूप है न हमारा। उसको ऐसा समझना चाहिए कि प्रेम स्वरूप है और उसमें डरने की कोई बात नहीं है। ये सामूहिक कार्य को मनुष्य समझ नहीं पाता है, कभी भी। जब तक वो पार नहीं होता। यानि ये कि जब दूसरा आदमी है वो, कोई रह ही नहीं जाता है। 'दूसरा है कौन ?' ये इस तरह से महसूस होता है कि आपके हाथ से ठण्डी- ठण्डी हवा तो चलनी शुरू हुई, और आप जैसे ही दूसरे आदमी के पास में जाएंगे तो शुरु-शुरु में ऐसा लगेगा कि एक उँगली ज़रा हरकत कर रही है, पता नहीं क्या? आप उनसे पूछिये कि आपको बहुत जुकाम होता है, आपको कोई शिकायत है, ऐसी तकलीफ़ है ? कहने लगे, 'हाँ भाई, क्या बतायें, तुमको कैसे पता ?' कहने लगे, 'मेरी ये उँगली पता नहीं क्यों काट सा रही थी? ये सबजेक्टिव नॉलेज है, सबजेक्टिव नॉलेज माने आत्मा का ज्ञान। सबजेक्टिव ऐसा अगर शब्द इस्तेमाल करें तो इसका मतलब होता है कि दिमागी जमा -खर्च। मतलब एक आदमी है- 'साहब मैं इसे मैं उसे जानता हूँ, जानता हूँ। ये शुद्ध सत्य विद्या है, आत्मा शुद्ध सत्य है। ये अॅबसल्यूट नॉलेज है। लो, एक आदमी एक बात कहेगा वही दस आदमी कहेंगे, अगर वो सहजयोगी है तो। दस छोटे बच्चे अगर साक्षात्कारी आत्मायें हैं, ये प्रयोग लोग कर चुके हैं, उनकी आँख आप बाँध कर रखिये और किसी आदमी को सामने बैठा दीजिये। 'बताइये', कहने लगे, 'इनके वाइब्रेशन्स, कहाँ पकड़ आ रही है ।' सबके सब उसके लिए बतायेंगे, ये उँगली में पकड़ आ रही है। इसमें जलन हो रहा है। माने ये कि उसके नाभि चक्र की तकलीफ़ है या उसका लीवर खराब है, वो थोड़ा सीखना पड़ता है। आप यहाँ बैठे हैं, किसी भी आदमी के बारे में, कहीं पर है, उसके बारे में भी जान 13 सकते हैं कि इस आदमी को क्या शिकायत है। बैठे-बैठे। ये सामूहिक चेतना में आप जानते हैं। आप कोई मृत आदमी के लिए भी जान सकते हैं। आप कहीं पर जायें और कहें कि यह जागरूक स्थान है, आप जान सकते हैं कि जागृत है या नहीं। जागृत होगा तो उसमें वाइब्रेशन आयेंगे। जागृत नहीं होगा तो नहीं आयेंगे । जो सच्ची बात है, जो सत्य है वह आत्मा बताता है। इसलिये उसे 'सत्य स्वरूप' कहते हैं। और क्योंकि जब आत्मा हमारे अन्दर जागृत हो जाता है, तो हमारा जो चित्त है, माने हमारा अटेंशन है, वो जहाँ भी जाता है, वो काम करता है अब ये चीज़ भी मनुष्य के समझ में नहीं आती। माने कि यहाँ बैठे-बैठे किसी सहजयोगी का चित्त अगर गया कहीं पर, तो वो आदमी ठीक हो सकता है। हमारे एक रिश्तेदार हैं। उनकी माँ बहुत बीमार रहती थीं बिचारी। और बहुत ही बूढ़ी हो गयी हैं। तो वो हम से बताते हैं कि, 'अब हम आप से नहीं बतायेंगे क्योंकि बहुत बूढ़ी हो गयी हैं, अब उन्हें छुट्टी कराइये आप। जब भी हम बताते हैं वह ठीक हो जाती हैं। ये हमारा अनुभव है कि जब भी हम बताते है ठीक हो जाते हैं। अस्सी साल की हो गयी हैं अब भी फिर वैसे ही हाल हो जाता है। फिर बीमार पड़ जाती हैं फिर आपको बताते हैं, वो ठीक हो जाती हैं।' मतलब चित्त जो है, वो जागरूक हो जाता है। जहाँ भी आपका चित्त जाएगा वो कार्यान्वित होता है। जहाँ भी आप चित्त डालें। लेकिन इसके लिये पहले अपनी आत्मा में स्थिरता आनी चाहिए। योग पूरा आना चाहिए। समझ लीजिए इसका कनेक्शन ठीक न हो तो मैं थोड़ी देर बात करूँगी, सुनाई देगा, बाकी बात गुल हो जाएगी। यही बात है, इस वजह से आप वाइब्रेशन भी खो देते हैं, आपका जरा कनेक्शन ढीला हो गया। पहले अपना कनेक्शन ठीक करना पड़ेगा। लेकिन सामूहिकता की और भी गहनता अपने को समझनी चाहिए कि सारा एक ही है। हम सब अंग- प्रत्यंग हैं। और जब हम अंग-प्रत्यंग हैं, तो एक आदमी ज़्यादा नहीं बढ़ सकता और एक आदमी कम नहीं हो सकता। कभी-कभी सहजयोगियों में भी ये धारणा आ जाती है कि हम सहजयोग में बड़े भारी बन गए। बहुतों में ये आती है। हम तो बड़े ऊँचे आदमी हैं जब ऐसी भावना आ जाए तो सोचना चाहिए कि बहुत ही पतन की ओर हम जा रहे हैं। जिसने ये सोच लिया कि हम ऊँचे हो गये, वो सोचना कि हम पतन की ओर जा रहे हैं । क्योंकि जैसे आदमी सच में ही ऊँचा होता है, वैसे-वैसे वो नम्र ही होता जाता है। उसकी आवाज़ बदलती जाती है। उसका स्वभाव बदलता जाता है। उसमें बहुत ही नम्रता, उसमें प्रेम बहते रहता है। ये पहचान है। अगर कोई सहजयोगी सहजयोग में आने के बाद भी बुलन्द पर आ जाए और कहे, 'साहब, तुम ये क्या हो, वो क्या?' तो उसको खुद सोचना चाहिए कि मैं गिरता जा रहा हूँ। लेकिन इसका दूसरा भी अर्थ नहीं लगाना चाहिए, बहत से लोगों को ये है। मैंने देखा, एक साहब थे, अमरीका में और उन्होंने सहजयोग नाम से केन्द्र चलाए। जब आए तो सबने बताया, 'माँ, ये तो पता नहीं क्या तमाशा है, हम लोग इस पर हाथ रखते हैं और चक्कर खाकर गिर जाते हैं। 'तो बड़े चक्कर वाला आदमी है, मैंने कहा, 'अच्छा, मैं तो समझ रही हूँ।' फिर मैंने उससे कहा, 'अच्छा, ज़रा अपनी पुस्तिका दिखाओगे ?' पुस्तिका में उसने लिखा था कि 'वाइब्रेशन्स - साधारण वाइब्रेशन्स के लिए सौ डॉलर और विशेष वाइब्रेशन्स के लिए २५० डॉलर।' मैंने 14 कहा, 'गये काम से ये।' तो मैंने उनसे कहा कि, 'ये क्या बदतमीज़ी है आपकी ? आपने कितना पैसा दिया था मुझे? कितने डॉलर दिये थे आपने वाइब्रेशन लेने के लिए, जो तुमने ऐसा लिखा?' तो कहने लगे कि, 'माँ, ऐसा है कि मैं पैसे कैसे कमाऊँ फिर? मैं खाऊँ क्या?' मैंने कहा, 'भूखे मरो। क्या तुम सहजयोग से पहले कुछ करते थे?' कहने लगे, 'हाँ, मैं स्कूल में पढ़ाता था|' मैंने कहा, 'स्कूल में पढ़ाओ। जो करते थे सो करो । लेकिन तुम सहजयोग को बेच नहीं सकते हो। तुम वाइब्रेशन बेच नहीं सकते।' कहने लगा, 'मेरा केन्द्र है, उसमें लोग आते हैं, खाना खाते हैं।' मैंने कहा, 'ठीक है, खाने का पैसा लो। वाइब्रेशन का क्यों लिखा ? लिखो, खाने का इतना पैसा, कमरे का इतना पैसा। उसमें भी आप लाभ नहीं बना सकते। ठीक है, जितना लगा उतना खर्चा लो। उसके दम पर तुम अपने महल नहीं खड़े कर सकते। ' और वाइब्रेशन उसके ऐसे थे कि जैसे जल रहा है। बहुत नाराज़ हो गये मेरे साथ। और नाराज़ होकर के वो चले गये। उन्होंने कहा, 'ये तो हो ही नहीं सकता ऐसा।' लेकिन सबसे बड़ी बात उस वक्त ये हुई कि उन्होंने बहुत बकना शुरु कर दिया। जब बहुत बकना शुरु किया तो एक साहब, हमारे सहजयोगी हैं, उठकर खड़े हो कर कहने लगे, 'ज़्यादा बका तो ऊपर से नीचे फेंक देंगे।' तो कहने लगे, 'वाह रे वाह, देखिये ये सहजयोगी हुए हैं। इनमें कोई नम्रता नहीं है।' मैंने कहा, 'खबरदार, जो सहजयोगियों को कुछ कहा या मुझे कुछ कहा अब! मैंने सुन लिया बहुत।' मैंने कहा, 'ये दिन गये कि सब साधु-सन्तों को तुमने सताया था। अगर किसी ने भी एक शब्द कहा है तो देख लेना उनका ठीक नहीं होगा। बहुत लोगों को ये है कि कोई अगर साधु-सन्त है उसको जूते मारो , तो भी साधु- सन्त को कहना चाहिए और दस मारो। ये कुछ नहीं होने वाला। आप अगर एक जूता मारियेगा तो हज़ार आप खाइयेगा। तब वो घबड़ा करके भागे वहाँ से। ये भी लोगों में है कि 'आपको गुस्सा कैसे आ गया ?' दूसरी ओर अभी एक साहब मिले । मुझसे बकवास करने लगे। मैंने कहा, 'चुप रहिए, आप बेवकुफ़ आदमी हैं, बहुत बकवास कर रहे हैं बेकार में।' कहने लगे, 'मैंने ये पुराण पढ़ा, मैंने वो पुराण पढ़ा।' मैंने कहा, 'आपने कुछ नहीं पढ़ा। बेकार बातें कर रहे हैं। आपको कुछ पता नहीं है। अभी पता हो कि नम्बर दो को चलाते हैं कि नम्बर चार, पता नहीं क्या-क्या होता है।' तो मैंने कहा कि, 'देखिये, आप बेवकुफ़ी की बातें मत करिये। दूसरे जो है उनको समझने दीजिये। आप बीच में बकवास मत करिये, आप चुप रहिए।' तो कहने लगे, 'देखिये आपको आ गया। आपकी अगर कुण्डलिनी जागृत है तो आपको गुस्सा नहीं आता!' मैंने कहा, 'मेरा गुस्सा मत पूछो तुम। बड़ा जबरदस्त होता है जब आए तो।' तो फिर जरा सहमे महाशय। लेकिन बात ये है कि इस तरह की धारणा लोग बहुत ১১ गुस्सा कर लेते हैं। आप कोई बिलबिले आदमी नहीं हो जाते हैं । आप वीरश्रीपूर्ण, आप तेजस्वी लोग हो जाते हैं, आपके हाथ में तो तलवारें देने की बात है। ये थो़े कि आप उस वक्त में जितना भी कोई चाँटा मारे आप खायेंगे। वो येशू ने कहा कि माफ़ कर दो। वो दूसरी बात थी, उसका अर्थ ही दूसरा था। क्योंकि उस वक्त लोगों का ये ही हाल था कि एक ही चाँटा कोई नहीं खा सकता था। लेकिन पार होने के बाद तत्क्षण आपमें शक्ति आ जाती है। तत्क्षण। सामूहिकता को इस तरह से समझना चाहिए कि एक आदमी उठकर के कोई कहे कि मैं विशेष कर 15 रहा हूँ, एक आदमी सोचे कि मुझे करने का है। एक आदमी सोच ले कि मैं माँ के बहत नज़दीक हूँ, तो इतना वो दूर चला जाएगा। क्योंकि मंथन हो रहा है। बड़े जोर का मंथन हो रहा है। शायद आप इसको महसूस कर रहे हैं कि नहीं कर रहे, पता नहीं। जब हम दही को मथते हैं, तो उसका सब मक्खन ऊपर आ जाता है। फिर हम थोड़ा सा मक्खन उसमें डाल देते हैं यही समझ लीजिए अवतार है, समझ लीजिए, यही समझ लीजिये और कि परमात्मा की कृपा है। उस मक्खन से बाक़ी सारा लिपट जाता है और सब साथ ही साथ एक ही जैसा चलता है। अब उसमें से कोई सोचे मैं अलग हूँ। एकाध-दो, चार मक्खन के कण इधर-उधर रह जाते हैं तो लोग फेंक देते हैं। उसके पीछे में कौन दौड़ने चला है? 'सब एक हैं और एक ही दशा में हैं। कोई ये न सोच लें कि मैं ऊँची दशा में हूँ। मैं नीची दशा में हूँ, वो ऊँची दशा में है, कभी नहीं सोचना। इस तरह से सोचने से बड़ा नुकसान हो जाता है। यानी आप सोच लीजिये कि जब हम एक ही अंग हैं। अगर एक उँगली सोच ले कि 'मैं बड़ी हो जाऊँ', नाक मेरी सोच ले कि 'मैं बड़ी हो जाऊँ। कैसी दिखेगी शक्ल? ये तो दोष है। यही तो कैन्सर होता है। कैन्सर में एक अपने को बड़ा समझकर के बाक़ी सेल्स को खाने लग जाता है। ये हो गया कैन्सर। ऐसा जो इन्सान होता है वो अपने को अनोखा बनाना चाहता है कि सब मेरे ही पास हो जाए, मैं कोई तो भी विशेष हो जाऊँ। मेरा ही कुछ विशेष हो जाये, वो आदमी कैन्सरियस हो गया समाज के लिये| सहजयोग की ऐसी स्थिति है, जैसे कि एक मैं कहानी बताती हूँ कि जैसे एक बहुत सी चिड़ियाँ थीं और उनको एक जाल में फँसा दिया गया। तो चिड़ियों ने आपस में ये सलाह मशवरा किया कि, 'अगर हम लोग सब मिलकर इस जाल को उठा लें तो जाल हमारे साथ उठ जायेगा, फिर जाकर इस को तुड़वा देंगे, बाद में फड़वा देंगे, किसी तरह से निकाल देंगे। तो कहा, 'हाँ ठीक है।' सब मिलकर के एक, दो, तीन कहकर के उठें। और सबके सब उठे और जाल को तोड़ दिया उन्होंने । वही चीज़ सहजयोग है। सहजयोग की सामूहिकता लोग समझ नहीं पाते हैं, इसलिए बहुत गड़बड़ होता है। माने, 'माँ, मैं घर में बैठ करके ध्यान करता हूँ। रोज़ पूजा करता हूँ। मेरे वाइब्रेशन्स बन्द हो गये। होंगे ही! आपको सामूहिकता में आना पड़ेगा। आपको सेंटर पर आना पड़ेगा। एक दिन हफ़्ते में कम से कम सेंटर में आ करके आपको देखना पड़ेगा कि आपके वाइब्रेशन ठीक हैं या नहीं। दूसरों पर मेहनत करनी पड़ेगी। आप दीप इसलिये बनाये गये हैं कि आपको दूसरों को देना होगा। इसलिये नहीं बनाए गए कि आप अपने ही घर बनाते रहिये। फिर वही दीप हो सकता है बिल्कुल बुझ जाएगा। ये दीप सामूहिकता में ही जल सकता है, नहीं तो जल नहीं सकता। ये महायोग का विशेष कारण है कि हम अपने को अलग न समझें। आयें नम्रतापूर्वक, आप ध्यान में आयें, हो सकता है कि सेंटर में एकाध आदमी आपसे कहे भी कि, 'भाई , ये छोड़ दो , ये नहीं करो।' तो बुरा नहीं मानना है। क्योंकि उन्होंने अनुभव किया है। उन्होंने जाना है, कि ये बात गलत है, इसको छोड़ना चाहिए, इसे निकालना चाहिए। और जो कुछ भी सेंटर में कहा जाये उसे करें क्योंकि सेंटर पर हमारा ध्यान रहता है। कृष्ण ने भी कहा है कि जहाँ दस लोग हमारे नाम पर बैठते हैं वही हम रहते हैं न कि कहीं एक बैठा हुआ वहाँ जगल में और कृष्ण-कृष्ण कह रहा है। उनको समय नहीं है। कबीर ने कहा कि, 'पाँचों पच्चीसों पकड़ 16 १० की बुलाओ।' मतलब उनकी भाषा में इतना अधिकार भी देखिये। कितने अधिकार से बातें करते थे । कोई ग़्िला नहीं था उनमें। वो कहते हैं, 'पाँचो पच्चीसों पकड़ बुलाऊँ, एक ही डोर उड़ाऊँ।' ये कबीर जैसे लोग बोल सकते हैं। और आप भी कह सकते हैं इसको बाद में। जब आप पार हो जायें तो आप भी देखेंगे कि जब तक पाँचों पच्चीसों नहीं आयेंगे तब तक सहजयोग मुकम्मल (पूर्ण) नहीं होता है। से लोग आते हैं, पार हो जाते हैं। उसके बाद जब में आती हूँ तभी आते हैं। उनकी हालत कोई बहुत ठीक नहीं रहती। सहजयोग में वो बढ़ते नहीं, वृद्धिंगत नहीं होते। आप पेड़ों के बारे में भी ये अनुभव करके देखें, कि अगर कुछ पेड़ मरगिल्ले हो जाएं तो उनको और पेड़ों के साथ आप लगा दीजिए, वो पनप जाते हैं। एक दूसरों को शक्ति देते हैं। मानो, जैसे कोई एक दूसरे को देखकर के बढ़ते हैं । और यही सामूहिकता ही सर्व राष्ट्रों में और सर्व देशों में फैलने वाली है। और उस दिन आप जानियेगा कि आप चाहे यहाँ रहें, चाहे इंग्लैण्ड में, चाहे अमेरिका में, या चाहे किसी भी मुसलमान देशों में या चीनी देशों में, कहीं भी रहें आप सब एक हैं। 17 यही शुरुआत हो गई है, और सहजयोग एक बड़ी संक्रान्ति है। 'सं' माने अच्छी और 'क्रान्ति' माने आप जानते हैं। ये एक बड़ी भारी क्रान्ति है, जो प्रेम से होती है, जो अन्दर से होती है। उसमें सबसे पहले जानना चाहिये कि हम उस विराट के अंग -प्रत्यंग हैं। हम अलग नहीं । और आप हैरान होइयेगा। इसके कितने फ़ायदे होते हैं। एक हमारे शिष्य थे, प्रोफ़ेसर साहब राहुरी में। वो ज़रा अपने को अफ़लातून समझते थे, बहुत ज़्यादा। एक बार उन्होंने मुझे बताना शुरु किया कि ये साहब जो हैं ये सहजयोग तो अच्छा करते हैं, बहुतों को पार तो किया लेकिन ज़रा गुस्सा इनको ज़्यादा आता है। और इनकी बीवी से इनकी पटती नहीं है। दुनिया भर की मुझे और शिकायतें करने लग गये। तो भी मैं चुप थी। मैंने कुछ नहीं कहा। फिर उन्होंने एक ग्रुप बनाया आपस में, कहने लगे हम लोग अलग से काम करेंगे । तो भी मैं चुप थी। तीसरे मर्तबा जब गये तो देखा कि वो कह रहे थे कि कुछ हर्ज नहीं थोड़ा सा तम्बाकू भी खा लें तो कोई बात नहीं, मैं तो खाता हूँ। माताजी को तो कुछ पता ही नहीं है। मैं तो खाता हूँ। कोई हर्ज नहीं। तो वो सब तम्बाकू खाने वालों ने एक ग्रुप बना लिया। माताजी के, मतलब, हैं तो सहजयोग, लेकिन तम्बाकू खाने वाले सहजयोगी, शराब पीने वाले सहजयोगी, रिश्वत लेने वाले सहजयोगी, झूठ बोलने वाले सहजयोगी । ऐसे ग्रुप बन गये। तो मैंने उनसे कहा, 'वहाँ पर सिर्फ तम्बाकू खाने वालों का था, तम्बाकू बड़ी मुश्किल से छूटती है, बहुत मुश्किल से ।' तो, उसके बाद जनाबेआली से मैंने फ़रमाया कि, 'देखिये, जरा आप सम्भल के रहिये। बहुत ज़्यादतियाँ आपने कर लीं हैं। जब ये ग्रुप बन जाता है, मैंने तभी कहा, तब विष बहुत ज़ोर करता है। अगर एक ही सेल हो तो कोई बात नहीं। लेकिन अगर दस सेल्स हो गये और सब मैलिग्नंट हो गये तो गया आदमी काम से।' उसके बाद जब मैं मोटर से आ रही थी तो मैंने रास्तें में जो वहाँ के संचालक थे उनसे कहा कि, इन पर नज़र रखिये। मुझे डर लगता है कि ये कहीं गड़बड़ में न फँस जायें। और आपको आश्चर्य होगा कि उनको ब्लड कैन्सर हो गया । अब जब ब्लड कैन्सर हो गया तो उनकी हालत ख़राब हो गयी। तो वो साहब बम्बई पहुँचे। और बम्बई में सब सहजयोगियों ने अपनी जान लगा दी । बिल्कुल जान लगा दी उनके लिये। जितने भी डॉक्टर थे सहजयोगी और जो लोग थे उन्होंने अस्पताल में उनको भर्ती करना, उनका सब डाइग्नोसिस करना, उनके लिए दौड़ना, धूपना सब शुरु। अब जो रिश्तेदार उनके चिपके हुए थे वो तो सब छूट गए, वो कोई उनको जानने वाला नहीं। उनके पास तो न इतना रुपया था न पैसा था। सब कुछ सहजयागियों ने तैयार करके-मुझे जो लोग कभी भी ट्रंककॉल नहीं करते थे, वो लन्दन में ट्रंककॉल पर ट्रंककॉल, 'माँ, वो हमारे एक सहजयोगी हैं, उनको ब्लड कैन्सर कैसे हो गया ? आप ठीक कर दीजिये।' मैंने कहा, 'इन्होंने कभी न चिट्ठी लिखी न कुछ किया।' आज ट्रंककॉल लन्दन करना कोई आसान चीज़ नहीं । और जब देखो तब ट्रंककॉल, 'माँ इनको ठीक कर दो, माँ वो हमारे.........'। माने जैसे इन्हीं के प्राण निकले जा रहे हैं, सबके। बहरहाल वो अब ठीक हो गये, बिल्कुल ठीक हो गये डॉक्टर ने कह दिया कि दस दिन में खत्म हो जाएंगे लेकिन अब बिल्कुल ठीक हो गये। अब वो समझ गये बात। उनके सगे कौन हैं, वह अब पहचान गये हैं। उससे पहले नहीं । उन लोगों के पीछे में दौड़ते थे, दूसरे रिश्तेदारों के पीछे में, उनको खाना खिलाना, पिलाना। उनसे कभी सहजयोग की बात नहीं करना। और जब सहजयोग में आना तो तम्बाकू वालों का एक ग्रुप बना लेना। 18 लेकिन ऐसा आपका सगा-सोयरा कहीं दुनिया में नहीं मिलेगा। ज़्यादातर सगे ऐसे होते हैं कि आपकी खुशियों पर पानी डालते हैं। और कहते हैं कि ऊपर से दिखायेगे आपके बड़े दोस्त हैं लेकिन चाहेंगे कि आप खुश न हों। देखिए, आपको आश्चर्य होगा कि अगर कोई मर जाता है तो हज़ारों लोग पहुँच जाते हैं रोने के लिए। खुश होते होंगे, शायद घर पर आफ़त आयी, मन में। और जब कुछ प्रमोशन हो जाये, कुछ अच्छाई हो जाये, तो कहने लगे- 'पता है इसका कैसे प्रमोशन हो गया है ! इसने बड़ी लल्लोचप्पी की होगी।' कभी खुश नहीं होते। लेकिन सहजयोग दूसरी चीज़ है। सहजयोग में लोग खुश होते हैं, जब देखते हैं, 'अरे ये सहजयोगी प्रथम आ गया। इस सहजयोगी के ऐसे हो गया।' सहजयोगी के घर में किसी को बच्चा हो गया तो मार तूफ़ान हो जाता है। अभी एक साहब की शादी हुई राहुरी में। वो स्वित्झरलैण्ड के थे। वहाँ आकर उन्होंने शादी करी। कहने लगे मेरे सगे भाई - बहन तो यहाँ रहते हैं। मुझे क्या करना है स्वित्झरलैण्ड में शादी कर के। वो स्वित्झरलैण्ड से आये, राहुरी-एक गाँव में। वहाँ आकर के उन्होंने शादी करी, अपनी बीवी को भी लाये, और वहाँ उन्होंने शादी करायी। वहीं घोड़े पर गये और सब कुछ किया उन्होंने। कहने लगे, 'भईया, मेरा वहाँ कोई नहीं रहता । मेरे सगे-सोयरे सब यहाँ पर हैं।' और ऐसे आनन्द से सबने उनकी शादी मनाई। और अब उसको बच्चा होने वाला है तो सब सहजयोगी ऐसे खुश हो गये, आपस में पेड़े बाँटने लग गये। और उनके जो रिश्तेदार थे, उनको समझ में ही नहीं आया कि ये कैसे सब हो गया। अब आपके रिश्तेदार सहजयोगी हो जाते हैं। आपके मित्र हो जाते हैं। आपके 'अपने' हो जाते हैं, 'आत्मज ' । 'आत्मज' शब्द बहुत सुन्दर है। शायद कभी इस का मतलब किसी ने नहीं सोचा। 'आत्मज' जो आत्मा से पैदा हुए हैं,वो आत्मज होते हैं। कहा जाता है कोई बहुत नज़दीकी आदमी को 'ये मेरे आत्मज हैं। जिस का आत्मा से सम्बन्ध हो गया उसका नितान्त सम्बन्ध होता है। मैं और खुद आश्चर्य में पड़ती हूँ कि मेरे जान को लग जाएंगे अगर किसी के इतनी सी तकलीफ हो जाए और बार-बार माफ़ी मांगेगे, 'माँ तुम माफ़ कर दो। तुम तो माफ़ कर दो। उस पर कुछ नाराज़ हो गई हो। नहीं तो......'। मैंने कहा कि, 'भई, तुम क्यों माफ़ी माँग रहे हो उसकी?' 'अब वो भूल रहा है माफ़ी माँगना तो हम ही माँग रहे हैं, उसको माफ़ कर दो ।' इतना प्रेम चढ़ता है सब देख - देखकर। इतना मोह लगता है कि, कितनी मोहब्बत , कितना खयाल ! कितनी किसी पर कोई परेशानी आ जाए, पैसे की परेशानी आ जाए, कोई तकलीफ़ हो जाए, तो सबके सब चुपके से उसको कर लेते हैं, मेरे को पता ही नहीं चलता है। सब आपस में ऐसे खड़े हो जाते हैं, और सारी दुनिया की दुनिया ऐसे सहजयोगियों की जब खड़ी होगी 'तब सोचिये क्या होगा?' अभी तो हम लोग वैमनस्य, द्वेष और हर तरह की प्रतियोगिता और दो पागल रैट रेस के पीछे में दौड़ रहे हैं। ये सब खत्म हो जाएगा। और इतनी सुरक्षा की भावना हमारे अन्दर आ जाएगी कि सब हमारे भाई बहन हैं। पर जो लोग, जन- सामूहिक नहीं होते वो निकलते जाते हैं, सहजयोग से। ये तो ऐसा है, जैसे कि अपकेन्द्रीय बल है वो घूमता है, घूमता है और अगर उसने ज़रा सा छोड़ा कि गया वो स्पर्रेखा से बाहर । वो 19 रहता नहीं, फिर टिकता नहीं। इसलिये उसे चिपक कर रहना चाहिये। इसके जो नियम हैं, उसको समझना चाहिए, उसको जानना चाहिये। दूसरों से पूछना चाहिये । उसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं। जो कल आये थे वो ज़्यादा जान गये। आज आप आये हैं आप जान जाइये। और जो कल आयेंगे वो आप से जानेंगे। इसमें बुरा मानने की और इसकी कोई बात नहीं। पर जब आदमी सहजयोग में पहले आता है तो वह यही भावना लेकर आता है कि अब हम इसमें आये हैं और ये देखिये, हमें बड़ी शान दिखा रहे हैं। ये दूसरे हो गये। इनकी श्रेणी बदल गयी है, ये दूसरे हैं। ये दिखने में आप जैसे ही हैं लेकिन ये दूसरे हो गये हैं। जैसे समझ लीजिये कि आपके कॉलेज में लड़के पढ़ते हैं। कोई बी. ए. है, कोई प्रथम वर्ष है। फिर कोई एम.ए. में है। एम.ए. लड़का पास होकर प्रोफ़ेसर होकर आ जाता है, तो हम यह थोड़े ही कहते हैं कि कल हमारे ही साथ में पढ़ता था और आज आ गया बड़ा हमारे ऊपर। उसी तरह की चीज़ है-इनकी श्रेणी बदल गयी। आप की भी श्रेणी बदल सकती है। कुछ-कुछ लोगों को मैंने देखा है कि सालों से रगड़ रहे हैं सहजयेग में। कुछ प्रोगेस नहीं होता, वो ऐसे ही चलते रहते हैं, डावाँडोल-डावाँडोल। कभी गुरुओं के चक्करों में घुसे। आज ही एक महाशय आये थे, आये होंगे अभी भी। पार हो गये थे, उसके बाद में वो गये; कोई शंकराचार्य के पास गये, कहीं किसी के पास गये, कहीं कुछ गये। बिचारे बिल्कुल पागल हो गये, पागल। मुझे आकर बतलाने लगे कि माँ, मेरे अन्दर पिशाच भर दिये इन्होंने। सबने पिशाच भरें। आए अभी बिचारे; काफ़ी उनको साफ़-सूफ़ किया हमने। पर उससे प्रगति उनका कम हुआ। अगर उसी वक्त जम जाते तो आज कहाँ से कहाँ होते। और बड़ी तकलीफ़ उठाई बिचारों ने। बड़ी परेशानी उठाई। सामूहिकता को आप समजें कि बहुत महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ा आशीर्वाद सामूहिकता में आता है। और जहाँ इस सामूहिकता को तोड़ने की कोशिश की, यानि लोगों की आदत है, क्लब करने की, कोई न कोई बहाना लेकर के। आप सफेद बाल वाले हैं तो मैं भी सफ़ेद बाल वाला हूँ। चलो, हो गये एक। आप लम्बे आदमी हैं तो हम भी लम्बे आदमी हैं, हो गये क्लब। आप सरकारी नौकरी हैं, मैं भी सरकारी नौकर हूँ, चलो हो गए एक। सहजयोग में सब छूट जाता है। आप कौन देश के हैं? परमात्मा के देश के। आप किसके साम्राज्य के है? परमात्मा के। परमात्मा ने थोड़ी ऐसी बनाया था कि आप यहाँ के, आप वहाँ के। भई परमात्मा तो हर एक जगह विविधता बनाते ही हैं। ये त्रिगुण के विविध मिश्रण के साथ में उन्होंने ये सारा बनाया और जिस लिये कि जैसे वैविधता से खूबसूरती आती है। आप सोचिये कि सबकी एक जैसी शक्ल हो जाती तो नीरस नहीं हो जाते सब लोग? कम से कम हिन्दुस्तानी औरतों को इतनी अक्ल है कि साड़ियाँ पहनती हैं अब भी , और अब अलग- अलग तरह की पहनती हैं। पर आदमी तो बोर करते हैं-उनके कपड़ों से। सब एक जैसे। औरतें जो हैं अभी भी अपना मेंटेन किए हैं। अगर एक औरत ने देखा कि दसरी मेरे जैसी साडी पहन कर आयी है तो बदल के आ जाएगी। और साड़ी वाले भी इतने होशियार होते हैं बिचारे। वो जानते हैं उनको आदत पड़ी रहती है। पचासों साड़ियाँ दिखायेंगे। वो थकते नहीं बिचारे। मैं कहती हूँ कौन जीव हैं, ये भी पता नहीं। और कभी उनको पता | 20 हो गया कि ये साड़ी मेरे पड़ोस के उसके रिश्तेदार के उसके पास है तो लेंगी नहीं। ये विविधता की भावना सौंदर्य का लक्षण है। इसलिये परमात्मा ने बनाया है। उसने सारी सृष्टि सुन्दर से बनायी, कहीं पहाड़ बनाये, कहीं पर नदियाँ बनायीं, कहीं कुछ बनाया। इसलिये कि आप लोग उसमें मस्त रहें, मज़े में रहें। लेकिन आपने तो इसको ये देश बना लिया, उसको वो देश बना लिया, उसने वो देश बना लिया और लड़ रहे हैं आपस में। अजीब हालत है। हमारे जैसे अजनबी को तो बड़ा ही आश्चर्य लगता है, 'भाई, इसमें लड़ने की कौनसी बात है?' और फिर घुटते-घुटते हर एक देश में अपनी- अपनी समस्या, अपना अपने ढंग बनता गया। सहजयोग में ये चीज़ टूट जाती है। आपको देखना चाहिए था कि परदेश के आये हुए लोग किस तरह से अपने देहातियों के साथ गले मिल- मिलकर के कूद रहे थे। और वहाँ पर नृत्य सीख रहे थे, कैसे अपने देहाती लोग नृत्य करते हैं। अगर ये पंजाब जाएंगे तो वहाँ जाकर भांगडा करेंगे, उनके साथ कूद - कूदकर । देखने लायक चीज़ है। ये भूल गए कि हम किस देश के हैं। प्रेम, उसका मज़ा, प्रेम का मजा आता है। फिर आदमी यह नहीं सोचता कि कपड़े क्या पनहे हैं, ये कहाँ रह रहा है कि क्या; बस मज़े में। ये सब विचार ही नहीं आता है-कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन कितनी पोजिशन में है। कुछ खयाल नहीं आता। ये सब बाह्य की चीज़ें हैं, सनातन नहीं है। क्योंकि सनातन को पा लिया है। पर सबसे बड़ी बात आपको याद रखनी चाहिए, हर समय, कि हमें सामूहिक होना चाहिए और सामूहिकता में ही सहजयोग के आशीर्वाद हैं । अकेले -अकेले बिल्कुल नहीं। बिल्कुल भी नहीं। आप खो दीजियेगा सब कुछ। मैंने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं। लोग ज़्यादातर जो बीमारी ठीक करने आते हैं, वो ज़्यादातर इसी तरह से होते हैं। आये, बीमारी ठीक हो गई, उसके बाद बैठ गये। एक साहब आये थे हमारे पास , बहुत चिल्ला-चिल्ला कर 'माँ, मेरा ये जल रहा है , मुझे बचाओ, बचाओ, बचाओ।' मैंने कहा, 'बैठे रहो अभी थोड़ी देर।' उसके बाद जब पहुँची तो पाँच मिनट में ठीक भी हो गये। उसके बाद एक दिन बाज़ार में मुझे मिले, तो मेरा फोटो वोटो रखा हुआ है अपने मोटर में। कहने लगे मैंने घर में भी फोटो रखा है, मेरे दिल में भी फोटो है। मैंने कहा, 'बेटे क्या बात है, वाइब्रेशन तो हैं नहीं। कहने लगे, 'हाँ नहीं है।' और अब एक कोई नई बीमारी हो रही है। मैंने कहा, 'ये सब फोटो बेकार गये न तुम्हारे लिये। तुम सहजयोग करने के लिए केन्द्र पर आओ।' आप सोचिये, दिल्ली शहर में हमारे पास कोई केन्द्र नहीं। हर तरह के चोरों के पास यहाँ इतने बड़े-बड़े आश्रम बन गये। हमारे पास अभी कोई जगह नहीं। किसी के घर में ही हम कर रहे हैं। कोई बात नहीं। हमारे पास जो धन है, वो सबसे बड़ी चीज़ है। उसके लिये कोई जरूरी नहीं कि अब महल खड़े हों , बड़े वातानुकूलित आश्रम हों। वह तो कभी होंगे ही नहीं हमारे। और अभी तक हमें, कहीं भी हम लोग ज़मीन नहीं खरीद पाये, क्योंकि हमने यह कहा था कि हम काला बाज़ार का पैसा नहीं देंगे । तो आज तक इस दिल्ली शहर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा है कि, 'अच्छा माँ हम आपको ऐसी ज़मीन देंगे जिसमें सीधा- सीधा पैसा हो।' एक आदमी नहीं मिला इस दिल्ली शहर में और उस बड़े भारी बम्बई शहर में आपके! ये हालत है। सरकार से कहा, तो वहाँ भी जो नीचे के लोग हैं वो रिश्वत लेते हैं। उनको क्या मालूम ये सब | 21 चीज़, कि ऐसा- ऐसा होता है। लेकिन होता है। और उसके बाद उन्होंने ज़मीन दी भी, मतलब रिश्वत तो हमने दी नहीं, तो उन्होंने हमें सब्ज़ी मंडी के अन्दर जगह दी। बताइये अब ! सब्ज़ी मंडी के अन्दर जहाँ बैल बाँधते हैं, वहाँ उन्होंने सहजयोगियों के लिए जगह दी। हमने कहा, 'भाई, जिसने दी है, उसने कभी देखा भी कि बैलों के साथ क्या सहजयोगी वहाँ बैठने वाले हैं?' बहरहाल अब तो उस बात को लोग समझ गये हमें बहुत दौड़ना पड़ा, सालों तक। अब दस वर्ष से कोशिश करने के बाद उन्होंने कहा, कि हम इस पर सोचेंगे। इसका अर्थ आप सरकारी नौकर जानते हैं। अभी वो सोच ही रहे हैं। तो बहरहाल जब भी जगह होगी, जैसे भी जगह, आप उसको देखें वहाँ करें, जो भी अभी सुब्रमनियम साहब ने अपना घर दिया हुआ है वहीं होता है। और कोई जगह अगर आपको मिल जाये तो ऐसी कोई जगह कर लीजिए । कोई ज़रुरत नहीं कि बहुत बड़ी जगह हो। सर्वसाधारण लोग जहाँ आ सकें। इस तरह से सब अपना ही कार्य है। हमारे बच्चों के लिए हम कर रहे हैं। हमारे सारे मानव जाति के लिये हम कर रहे हैं। इसके लिये बहुत बड़ा आडम्बर करने की जरुरत नहीं है। सादगी से ही, सरलता से ही सबको बैठकर करना चाहिए । सहजयोग इतनी आशीर्वाद देने वाली चीज़ है कि सहजयोग में आये हुए लेग आज बड़े-बड़े मिनिस्टर हो गये हैं। ये भी बात देखिये कितनी आश्चर्य की है। लेकिन मिनिस्टर होने के बाद वो गये कि वो सहजयोगी हैं। जब मिनिस्टरी छूटेगी फिर आयेंगे। जरुर आयेंगे। फिर आप पहचानियेगा कि, 'ये फलाने मिनिस्टर थे, माताजी।' अब उनको फुरसत नहीं। भूल फुरसत सहजयोग के लिये जरूर निकालनी पड़ेगी आपको। ये आपका परम कर्तव्य है। जो कहता है, 'मेरे पास समय नहीं है। कब करुँ?' वो सहजयोग नहीं कर सकता। रोज शाम को और रोज सबेरे थोड़ा देर निकालना पडता है। सहजयोग में अनेक नियम हैं। अपने आचार-व्यवहार, बर्ताव, रहन-सहन, आसन आदि क्या-क्या करने के वरगैरह सबके नियम हैं। मैं सब नहीं बता सकती। एक साहब ने प्रश्न किया कि , 'माताजी, आपने कहा था उसके आसन बताओ।' तो मैं सब चक्रों के आसन आज नहीं बता सकती। लेकिन इसके मामले में बहुत लोग जानते हैं। कौनसे आसन करने चाहिए, कौनसे चक्र पर कौनसी तकलीफ़ है। आपको कौनसी तकलीफ़ है, वो बता सकते हैं, पता लगा सकते हैं। आपस में आप विचार विमर्श कर सकते हैं और आप उन्नति कर सकते हैं। लेकिन आपको एक दूसरे से बातचीत करनी होगी और कहना होगा कि, 'मुझे तकलीफ़ है'। सबमें घुल-मिल जाना चाहिए। अधिकतर लोग क्या है, कि आये वहाँ देखा कि वो साहब थे। वह सब ऐसा कर रहे थे, तो हम वहाँ से भाग खड़े हुए, ऐसे लोगों के लिये सहजयोग नहीं है। आपको घुसना पड़़ेगा, उसमें रहना पड़ेगा, उन लोगों के साथ बातचीत करनी पड़ेगी। क्योंकि ये ऐसी कला है कि ये बार -बार माँगने पर मिलती | कोई सी भी कला, आप जानते हैं, गुरु लोग आपकी हालत खराब कर देते हैं तब देते हैं। तो आप का भी परीक्षण होता है कि आप कितने योग्य हैं। यह नहीं कि आप आए और आप छुई-मुई के बुधवा बनकर आपने न कह दिया कि 'साहब वो ऐसे-ऐसे थे। उन्होंने हमसे बदतमीजी की तो हम भाग आये।' नहीं। कुछ सहजययोग में जमना पड़ता है और उसमें आना पड़ता है। हालांकि कोई आपका अपमान नहीं करता। लेकिन आप में बहुत अहंकार होगा तो बात-बात में आपको ऐसा लगेगा। जैसे एक साहब आये, मुझे कहने लगे, 22 'हम तो आये थे आपसे मिलने लेकिन वहाँ एक साहब थे बड़े बदमाश थे।' हमने कहा, 'क्या हुआ?' कहने लगे कि, 'हम दिन में आये थे आपके पास ।' मैंने कहा कि, 'कितने बजे ?' '३.३० बजे' | मैंने कहा, 'उस वक्त तो मैं आराम करती हैँ।' तो कहने लगे, ' हमने सोचा माँ का दरबार है, कभी भी आ जाओ।' मैंन कहा, 'ठीक है, आपके लिये तो माँ का दरबार है, लेकिन आपकी अक्ल का दरबार कहाँ रह गया ? जो रात-दिन माँ मेहनत कर रही है क्या उसको थोड़ा आराम नहीं करना चाहिए? अगर उन्होंने कह दिया कि इस वक्त माँ आराम कर रही है, 'आप नहीं आयें ।' तो आपको खुद सोचना चाहिए कि बात सही है ?' लेकिन जब वो उस जगह खड़े होंगे तो क्या करेंगे? इस प्रकार लोग बहुत बार सहजयोग से बेकार में भागते हैं, और इसकी सबसे बड़ी वजह मैं तो ये ही सोचती हूँ कि अभी वह पात्र नहीं है। जो आदमी पात्र होता है, घुसता चला जाता है। थोड़े दिन नाराज़ हो रहे हैं, कुछ हो रहे हैं। चले, घुसते चले जाओ। और गहन उतरता है। जो सॉफ्ट लाइन है, वो हमेशा लेती है, जीवन्त चीज़ । जैसे एक बीज़ है , जब वो अंकुरित होता है, तो उसका जो रुट-कैप होता है, बड़ा छोटा सा होता है, इतना सा। लेकिन बड़ा समझदार, होशियार होता है। वो जाकर चट्टानों से नहीं टकराता है। किसी पत्थरों से नहीं टकराता है, पत्थर के किनारे पर थोड़ीसी नर्म जगह मिल जाए, उसमें से घुसता चला जाता है। और जाकर जम जाता है पर उन पत्थरों पर, इस तरह से जकड़ जाता है कि सारा पेड़ का पेड़ उसीके सहारे खड़ा हो जाता है। यह अक्लमंदी की बात है जब इतना सा एक सेल है, उसको इतनी अक्ल है, तो क्या सहजयोगियों को नहीं होनी चाहिए कि किस तरह से हम गहन उतरे चलें। कुछ न कुछ बहाना बनाकर सहजयोग से भागने से आपकी प्रगति नहीं होगी। आपका ही नुकसान होगा। ये सब बहानेबाज़ियाँ आपको बन्द करनी चाहिये। ये आपके मन का खेल है। इसको आप छोड़िये। ये अहंकार है और कुछ नहीं है। ये बड़ा सूक्ष्म अहंकार है। कोई आपके पैर पर नहीं गिरने वाला। यह तो जरुरी है कि सबसे अच्छी तरह बातचीत की जाए, कहा जाए। पर अगर कोई बिगड़ भी गया उस पर, तो सहजयोग से भागने की क्या जरूरत है अब? जब तक आप केन्द्र पर नहीं आयेंगे तब तक आपका कोई भी काम नहीं बन सकता है। एक तो सब से बड़ी बात यह है कि बहुत से लोग यह भी सोचते हैं कि अगर हम सहजयोगी हैं तो हमारे बाप-दादे के दादे के, बहन के बहन के और भाई के भाई के, कोई न कोई रिश्तेदार, कहीं अगर उसको कुछ हो जाये तो बस वो माता जी उसको ठीक करें। एक साहब बहुत बड़े सहजयोगी हैं और हमारे यहाँ ट्रस्टी रह चुके हैं। सालों से ट्रस्टी हैं। उनकी बीवी भी। दोनों को बहुत बीमारी थी। ठीक हो गये। काफ़ी गहरे उतर चुके। सब कुछ हुआ। उनके लड़के का लड़का ऊपर से गिरकर मर गया। सामान्यत: सहजयोग के लोग दर्घटना से मरते नहीं कभी, अभी तक तो हमने नहीं किसी को मरते और वो इस तरह से मर गया। जवान हुए। सुना लड़का था। लेकिन उन्होंने कहा कि, 'ठीक है, ये तो कुछ न कुछ होना था और हो गया। लेकिन दुर्घटना से तो माँ ने मुझे बहुत बार बचाया है। मैंने इतनी बार अपने लड़के से कहा कि माँ के पास चलो। आया नहीं।' तो मैं क्या उसकी जिम्मेदारी ले सकती हैँ? अगर वो माँ के पास आता, अपने बच्चे को लेकर आता, भी ऐसा नहीं होता। उन्होंने वही बात मुझसे कही और इतना उस बच्चे को प्यार करते थे, सब कुछ, | तो कभी लेकिन 23 उन्होंने कहा कि, 'जब बाप ही नहीं आ रहा तो लड़का क्या आएगा?' आपके जितने रिश्तेदार हैं, उनका ठेका हमने नहीं लिया हुआ न आप लीजिए। आप उन से कहिये कि सहजयोग में आप उतरे। सहजयोग को आप पायें। और इसकी रिश्तेदारी आप अगर उठा लें तो सारी दुनिया ही आपकी रिश्तेदार है। पर यह सोचना कि, 'मेरी बहन बीमार रहती है और मेरे फ़लाने बीमार रहते हैं' और इस तरह से जो लोग करते हैं उससे कोई लाभ नहीं होता। पहले आपको पार हो जाना चाहिए। पार हो जाने के बाद आपका अधिकार बनता है। उस अधिकार के स्वरूप आप चाहें जो भी माँगे। आप का पूरा अधिकार है। सर आँखों पर हैं आप। अगर समझ लीजिये आप इंग्लैण्ड जायें और इंग्लैण्ड से जाकर आप कहें कि, 'हमें ये चीज़ चाहिए।' अरे रहने दीजिये, उस लन्दन में आपके लोग पैर नहीं ठहरने देंगे, जब तक आपके पास सत्ता न हो वहाँ जाने की। जब आपके पास सत्ता नहीं है, तब आपका सहजयोग से कोई भी आशीर्वाद माँगना गलत है। जैसे एक साहब थे, बहुत बीमार थे। इन लोगों ने टेलीफोन किया, ट्रंककॉल किया, 'माँ उनको ठीक करो।' वे पार नहीं थे, कुछ नहीं थे। तो मैंने कहा, 'अच्छा हम कोशिश करते हैं।' उनके साहबजादे पार थे। कोशिश की, मैंने कहा कि, 'देखो, इसको छोड़ दो।' अहंकार इतना था कि वो ठीक ही नहीं हये| तब आने पर वो ठीक हो गये। थोड़े दिन उनकी जिन्दगी चली। लेकिन जब मरना है तब तो आदमी मरता ही है, वो थोड़े ही न हम रोकने वाले हैं। सिर्फ यह है कि सहजयोग से मनुष्य शान्ति को प्राप्त करता है, मरने से पहले और जो चीज़ बहुत आकस्मिक हो जाती है, उससे बच जाता है। इसलिये मैंने कहा कि, 'दुर्घटना से नहीं मरता है। अचानक कोई चीज़ वो होकर नहीं मरता है।' वास्तविक जब मरना है तब मरता है। तो उनको जब मरना था वो मर ही गये बिचारे। वो पार भी नहीं हये थे और बड़ी मुश्किल से उनको किसी तरह से ठीक किया था। वो मर गये तो उनके सब रिश्तेदार कहने लगे कि, 'माता जी इनको बचाया नहीं।' मैंने कहा, 'उनसे एक सवाल पूछो कि आपने माताजी के लिए क्या किया?' पहला सवाल। लोग ऐसा हक़ सहजयोग से लगाने लगते हैं। क्योंकि ये सहज है । वो सोचते हैं कि माँ ने हमारे लिए क्या किया? अब भाई आपने क्या किया माँ के लिए ? आपने अपने ही लिए क्या किया? पहले तो सवाल ये पूछना चाहिए कि हमने अपना ही क्या भला किया हुआ है? सहजयोग में हमने ही क्या पाया हुआ है? क्या हमने अपने वाइब्रेशन्स ठीक रखे हैं? या क्या हमने एक आदमी को भी पार कराया है ? र में आप आश्चर्य करेंगे, इतने लोग पार होते हैं कि हज़ारों तादाद में। महाराष्ट्र की महत्ता मैं इसलिये नहीं कहना चाहती हूँ कि आप जाकर खुद ही देखिये , मैं तो खुद ही आश्चर्य में हूँ कि इतने हज़ारों लोग कैसे पार हो जाते हैं? और फिर जमते भी बहुत हैं। यह भी बात उन लोगों में है। और इस तरह की बात महाराषट्र वहाँ नहीं होती है। अब वहाँ ये नियम बनाया था पहले हमने कि किसी ने अगर ग्यारह आदमियों को पार किया है वो ही मेरे पैर छू सकता है। वहाँ पैर छूने की लोगों को बीमारी है। अगर किसी से कहो कि पैर नहीं छूना, तो बस उसके लिए फिर आफ़त हो जाती है। छः हज़ार भी आदमी होंगे तो भी चाहेंगे कि माँ के पैर छूयें। यहाँ किसी से कहो कि पैर छूओ तो वो बिगड़ जाये कि, 'क्यों पैर छूयें साहब इनके हम?' लेकिन उनको मैंने अगर कहा कि, 'आपको पैर छूना है तो आप कम से कम ग्यारह आदमी होने 24 चाहियें। वही लोग छू सकते हैं जिन्होंने ग्यारह आदमी पार किये।' तो कुछ लोग खड़े हो गये, कहने लगे, 'माँ, हमने तो ग्यारह नहीं दस ही किये हैं छू लें पैर ?' देखिये भोलापन। अब उन्होंने कहा कि, 'भाई अब इक्कीस बनाओ।' कम से कम इक्कीस पार किये हों तो माँ के पैर सकते हैं, नहीं तो अधिकार नहीं जमता। और ये काम बन गया, इक्कीस वाले बहत निकल आये। इतने निकले, कि मुझे तो कहना पड़ा, 'भाईयों, अब जाने दों, अब नम्बर बढ़ाओ।' ५१ कर दीजिये, तो भी बहुत निकल आयेंगे। वहाँ तो ऐसे-ऐसे लोग हैं, छू 'दस-दस हज़ार' पार किये हैं। इसलिये शायद उसका नाम 'महाराष्ट्र' रखा है। दस-दस हज़ार लोग पार करने वाले वहाँ लोग हैं। और यहाँ खुद ही नहीं जमते हैं, दूसरों को क्या करेंगे। जिसको कहना चाहिए बिल्कुल उथल वृत्ति है। अपने तरफ़ भी सेल्फ एस्टीम नहीं है। अपने बारे में भी विचार नहीं है, न दसरों के बारे में। जानते नहीं हैं हम क्या हैं। हम आत्मा स्वरूप हैं, कितनी बड़ी चीज़ है! हम कितने शक्तिशाली हैं! इस शक्ति को हमें बढ़ाना चाहिए। अपने बारे में कोई विचार ही नहीं है। एक रौनक़ लगा ली, बस हो गया। इससे काम नहीं होता। अपने अन्दर जो है रौनक़ करनी पड़ती है और सबके साथ में इसको बाँटना पड़ता है। मराठी में एक कवि हो गये हैं, उन्होंने कहा है, 'मला पाहिजे जातीचे, येरा गबाळ्याचे काम नोहे' । कहने लगे इसके लिए जिसमें जान हो वो आये। ऐसे वैसे नन्दी - फन्दी लोगों का ये काम नहीं है । येरा गबाळ्याचे' माने बेवकूफ़ों का ये काम नहीं है। इसलिये आपसे मुझे अनुरोध करना है, बताना है, बहुत - बहुत विनती करके, कि आपको जो भी दिया है उसका संजोना बहुत जरूरी है। इस को और बढ़ना बहुत जरूरी है। आप ही देहली के नींव के पहले पत्थर हैं। और आज सात साल से मैं यहाँ मेहनत कर रही हैं दिल्ली में और अभी इन गिन के दो सौ पत्थर भी नहीं जोड़ पायी। ये कठिनाई है। आप सोचिये। और जो आते भी हैं ज़्यादातर दल-बदल और दल बाँधने में नम्बर एक। यह शायद हो सकता है कि राजनीजि का असर हो। चाहे जो भी हो। इतनी राजनीति करते हैं कि जिसकी कोई हद नहीं। इसमें राजनीति नहीं है, कुछ नहीं है। इसमें सिर्फ़ अपने को पाना और परमात्मा को पाना और सारे संसार को एक नई सुन्दर, प्रेमपूर्ण क्रान्ति में बदल देना ही एक काम है। बड़ा भारी काम है। बहुत महान काम है। इसमें हज़ारो लोग चाहिये और अगर आप नहीं करियेगा तो ये भी आप जान लें कि ये लास्ट जजमेंट है। जजमेंट कुण्डलिनी से ही होने वाला है। और क्या भगवान आपको तराजू में डाल कर नहीं देखने वाला। कुण्डलिनी को जागृत करके ही आपका जजमेंट होना है। वो लास्ट जजमेंट जो बताया गया है वह शुरू हो गया है। और जो इसमें से रुक जायेंगे उसके लिए कलकी अवतरण में कि आप जानियेगा कि काट-छाँट होगी। कोई आपको भाषण नहीं देगा, कोई बात नहीं करेगा। बस एक टुकड़ा इधर या एक टुकड़ा उधर। यह आप समझ लीजिए और ये चीज़ अपने गाँठ में बाँध लें कि अब जितना भी सन्त-साधुओं ने यहाँ मेहनत की है, जो भी बड़े-बड़े अवतरण यहाँ हो गये, जो भी कार्य परमात्मा के दरबार के लिए हुआ है, वह सब पूरा हो गया है और आप मंच पर हैं। आप मंच पर रहना चाहें तो मंच पर रहें, या नीचे उतर जायें। यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप ही न रहें लेकिन सबको ऊपर खींचे। आप लोग दुसरी तरह के हैं। आपकी 25 श्रेणी और है। आप साधक हैं, और आपको समझ लेना चाहिए कि इसके लिये एकव्रत निश्चय होना चाहिए । आर्मी में इसको कहते हैं कि 'बाना' पहन लिया आपने। तभी ये चीज़ कम हो सकती है। और ऐसे वैसे, ऐरे-गैरे नत्थू खैरों से यह काम नहीं हो सकता। आप ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे नहीं है, मैं जानती हूँ। लेकिन अभी आपने अपने को पहचाना नहीं। उसे जान लेने पर आश्चर्य होगा कि क्या यह शक्ति, प्रचण्ड शक्ति, ब्रह्म शक्ति माँ ने हमें दी है! और जैसे ही शक्ति बहने लग जाती है, आदमी सोचता है कि, 'मैं भी इस काबिल हो जाऊँ।' जब इस प्याले से ये चीज़ छलक रही है तो ये प्याला भी इस योग्य हो जाये कि इस महफ़िल में आ यह सके। इस तरह से आदमी अपने आप ही अपना व्यवहार, अपना तरीक़ा 'सब' कुछ बदलता जाता है। 26 का सबसे बड़ी बात तो यह है कि बड़े-बड़े जीव इस संसार में जन्म लेना चाहते हैं। अगर आपका दिल्ली में वातावरण ठीक नहीं हुआ, तो यहाँ सिर्फ राक्षस जन्म लेंगे। या तो बहुत ही पहुँचे हुए लोग जन्म लें, जो डण्डे लेकर आपको मारेंगे। और या तो राक्षस पैदा होंगे और राक्षसों की ही यह नगरी हो जायेगी । इसलिये मुझे बड़ा डर लगता है। कभी-कभी सोचती हूँ कि इनकी समझ में अभी बात आ नहीं रही। आप लोगों की बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि देहली जो है वह दहलीज़ है इस देश की ओर। इस दहलीज़ को लाँघ कर अगर राक्षस आ जायें तो आप लोग कहीं के नहीं रहेंगे। आपको दहलीज़ पर उसी तरह से पहरा देना चाहिये जैसे कि बड़े-बड़़े देवदूत और बड़े-बड़़े चिरजींव खड़े हुये आपके जीवन को सम्भाल रहे हैं। अपनी आप रक्षा करें और औरों की भी रक्षा करें। अपना कल्याण करें, औरों का भी कल्याण करें, और सारे संसार को मंगलमय बनायें, यही मेरी इच्छा है। इसके बाद मैं मद्रास जा रही हूँ, लेकिन उसके बाद आऊँगी। और उसके बाद भी मेरा प्रोग्राम दिल्ली में रहेगा तीन-चार दिन। आप लोग सब वहाँ आइये, जहाँ भी प्रोग्राम होता है। जहाँ-जहाँ सहजयोगी आते हैं वहाँ-वहाँ कार्य ज़्यादा होता है। सब लोग वहाँ आइये | ये लोग तो आपकी भाषा भी नहीं समझते हैं और जहाँ-जहाँ मैं गई गाँव वगैरा में वहाँ तो हिन्दी या मराठी भाषा बोलती रही। लेकिन ये लोग सब लोग वहाँ आते रहे और हर तरह की आफ़त, आप जानते हैं इन लोगों को तो गाँव में रहने की बिल्कुल आदत नहीं है। वहाँ पर रहकर के ये समझते हैं कि हमारे रहने से माँ के लिए बड़ा आसान हो जाता है। क्योंकि आप ही पथ है। आपके पथ में इस्तेमाल करती हूँ। अगर समझ लीजिये इतना बड़ा ये जो आपका बिजली घर है, इसमें अगर चैनल नहीं हुए तो बिजली कैसे प्रवाहित होगी। वह चैनल आप हैं, इसलिये आपको चाहिए कि जहाँ भी मैं करूँ, जब तक मैं हूँ, इसको निश्चय से, धर्म समझ कर आप वहाँ आयें और इस कार्य को आप अपने लिए भी अपनाइये और दूसरों के लिए भी अपनायें। धन्यवाद! 27 मानव जीवन का लक्ष्य ब्रह्म तत्व की प्राप्ति जब आप अपने को जान लेते हैं तो आपके अन्दर से ही ब्रह्म बहना शुरू हो जाता है। मैं यहाँ (पूथ्वी पर) आपको वही चीज़ देने आयी हूँ जिसे आप हज़ारों वर्षों से खोज रहे थे। यह आपकी अपनी ही है। आपकी अपनी ही है, सिर्फ मुझे उसकी कुंजी रही हूँ, आपका जो है उसे ही आपको सौंपने आयी हूँ। आप अपने को मालूम है। मैं कुछ अपना नहीं दे जान लौजिए और इस ब्रह्म तत्व को पा लौजिए। जो सनातन है, जो अनादि है, वो कभी नष्ट नहीं हो सकता; नष्ट नहीं हो सकता क्योंकि वो अनन्त है। उसका स्वरूप कोई कुछ बना ले, .....कुछ उसका रूप बना लीजिए लेकिन जो तत्व है उसका नाम है 'ब्रह्म तत्व'। इसी ब्रह्म तत्व से सारी सृष्टि की रचना हुई। इस ब्रह्म तत्व को पाना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसी ब्रह्म तत्व को जानने के लिए वेद लिखे गये। 'वेद' जो है विदु से होता है। 'विदू' शब्द का मतलब है जानना, और अगर सारे वेद पढ़कर भी आपने अपने को नहीं जाना तो वेद व्यर्थ हैं। वेद का अर्थ ही खत्म हो गया, यदि आपने अपने को नहीं जाना। जब आप अपने को जान लेते हैं तो आपके अन्दर से ही ब्रह्म बहना शुरू हो जाता है। मैं यहाँ (पृथ्वी 28 पर) आपको वही चीज़ देने आयी हूँ, जिसे आप हज़ारों वर्षों से खोज रहे थे। यह आपकी अपनी ही है। आपकी अपनी ही है, सिर्फ मुझे उसकी कुंजी मालूम है। मैं कुछ अपना नहीं दे रही हूँ, आपका जो है उसे ही आपको सौंपने आयी हूं। आप अपने को जान लीजिए और इस ब्रह्म तत्व को पा लीजिए। यही आत्मसाक्षात्कार है, क्योंकि आत्मा का प्रकाश ही ब्रह्म तत्व है, जब तक आपने आत्मा को जाना नहीं आप परमात्मा को नहीं जान सकते। यही परमात्मा का साक्षात्कार है। सबसे बड़ी सनातन बात यह है कि हम ब्रह्म-शक्ति से बने हैं और हमें उसको पाना है और अगर आपने उसे जाना नहीं तो आपने शक्ति को पाया नहीं। ... ब्रह्म को पाना है और उसके बाद इस सारी ब्रह्म- विद्या को आपको पूरी तरह से जान लेना है। सारी ब्रह्म-विद्या आप जान जाएंगे-यही सहजयोग है। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, १७.२.१९८१ 29 मानव को सर्वप्रथम ब्रह्म अर्थात् सत्य का ज्ञान होना चाहिए - सबसे पहले हमें यह जान लेना चाहिये कि 'सत्य' अपनी जगह है, उसको हम अपनी बुद्धि से नहीं समझ सकते हैं। वो जैसा है वैसा ही है। मनुष्य अपने अहंकार में सोचता है कि वह परमात्मा है कि वह परमात्मा का नाम लेकर जैसा चाहे उसे बनाये या बिगाड़े, पर मनुष्य के अन्दर अभी वो स्थिति नहीं आयी है जिसने इस चारो ओर फैली हुई ब्रह्म की शक्ति को जाना है। इस शक्ति को महसूस करना सबसे बड़ा सत्य है। यह शक्ति संसार का सारा कार्य, सारा जीवित कार्य करती है और संसार को हर तरह से व्यवस्थित रूप में रखने में कार्यान्वित रहती है और इसका संतुलन, इसकी परवरिश करती है। इसी को चैतन्य कहा जाता है। ये शक्ति स्थित है - यह पहला सत्य है। दूसरा सत्य यह है कि आप स्वयं ये शरीर, अहंकार, बुद्धि आदि ये कुछ नहीं है। आप सिर्फ शुद्ध आत्मा हैं जो कि इस शक्ति को जान सकता है और पूर्णतया अपने अन्दर समा ले सकता है। इस शक्ति को प्राप्त करना ही मनुष्य के उत्थान का अंतिम चरण है। और उसमें एकाकारिता मिल जाना - यही एक योग है। आज आप अमीबा से एक इन्सान बन गये, अब इन्सान के बाद जो उसकी दूसरी दशा है उसमें मनुष्य को अब संत बनना है। माने उसको 'केवल सत्य' को नहीं जान सकते । आत्मसाक्षात्कार चाहिये, इसके सिवाय आप प.पू.श्री माताजी, ४. ४.१९९० तीसरा सत्य यह है कि हमारे अन्दर एक शक्ति है जो त्रिकोणाकार अस्थि में स्थित है और यह शक्ति जब जागृत हो जाती है तो हमारा सम्बन्ध उस परम चैतन्य से प्रस्थापित करती है और इसी से हमारा आत्म दर्शन हो जाता है। प.पू.श्री माताजी, कलकत्ता, ९/१०.४.१९९० ब्रह्म- ज्ञान के लिए जिज्ञासा एवं खोज आवश्यक है - अब सत्य को खोजने की आवश्यकता हमारे अन्दर पैदा हुई है, उसका क्या कारण है? ....कलियुग में मनुष्य भ्रांति में पड़ गया है, उसे समझ नहीं आ रहा है कि ऐसा क्यों हो रहा है? तब एक नये मानव की उत्पत्ति हुई है, एक सृजन हुआ है। उसे 'साधक' कहते हैं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, २.३.१९९१ देखो! कोई भी चीज़ जब अमीबा की तरह जीवन्त बनती है, तब आप एक कोषीय (Unicellular) कार्य कर सकते हैं। जिज्ञासा अभिव्यक्त होने लगती है क्योंकि जीवन्त ही खोज कर सकता है मृत नहीं। अत: जो लोग कहते हैं कि हम कुछ नहीं खोजते वो मृत सम हैं तथा जो कहते हैं हम खोज में लगे हुए हैं वो जीवित हैं, जिज्ञासु हैं। 30 প यदि आप छोटी सी बात को समझें तो अमीबा जैसे छोटे से जीव में भी भूख के रूप में इच्छा का सृजन किया जाता है, इस बारे में सोचें। अमीबा में मस्तिष्क नहीं होता है; केवल एक छोटा सा केन्द्रक ( nucleus) होता है, फिर भी उसे भूख महसूस होती है। बढ़ने के लिए उसे कुछ न कुछ खाना पड़ता है। इस अमीबा को इस बात का ज्ञान होता है कि खाना किस प्रकार खाना होता है, परन्तु वो यह नहीं जानता कि खाना पचता कैसे है? खाना पाचन की जानकारी प्राप्त करना इसका कार्य नहीं है। हमारे साथ भी ऐसा ही है। तो ननहें से अमीबा में खोज की शुरूआत होती है और पूरी विकास-प्रणाली इसी खोज पर आधारित है। शनै: शनै: खोज के तरीके सुधरते जाते हैं, जबकि इच्छा केवल भोजन की होती है छोटे से छोटे अमीबा में एक अन्य इच्छा भी, कह सकते हैं भावना होती है, यह है स्वयं को सुरक्षित रखने का विवेक। अमीबा जानता है कि इसके अस्तित्व को कौन से खतरे हैं। यही छोटा सा अमीबा हज़ारों वर्षों की उत्क्रान्ति बाद जब मानव बनता है तब उसकी खोज परिवर्तित हो जाती है। निस्सन्देह भोजन की खोज बनी रहती है, क्योंकि यह तो मूल चीज़ है। व्यक्ति को भोजन तो करना ही है, यद्यपि भोजन की खोज करने के तरीके सुधर जाते हैं। खोज करने के तरीके परिवर्तित हो जाते हैं, विकसित हो जाते हैं। व्यक्ति को स्वयं को कबीले में सुरक्षित रखने की गहन सूझ-बूझ भी आ जाती है। सामूहिकता की ये भावना होती है । वो समझता है कि हम सबको सामूहिक होना है, एकत्र होना है और यदि स्वयं को सुरक्षित रखना है तो हमें संगठित होना है। यही सामूहिकता की भावना धीरे-धीरे मनुष्यों में भी विकसित होती है और इसकी अभिव्यक्ति आप सुरक्षित रहने के लिए सामूहिक बने रहने के अपने प्रयत्नों को देख सकते हैं । मनुष्यों में एक अन्य प्रकार की खोज शुरू हो जाती है, यह है दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की जिज्ञासा। इस प्रकार मानव का चित्त भोजन से धन पर गया और धन से सत्ता पर। मौलिक रूप से पैसे के पीछे दौड़ना और फिर सत्ता के पीछे दौड़ना अत्यन्त स्वाभाविक है । परन्तु इससे परे एक अन्य खोज आरम्भ होती है और यह खोज यह जानने की है कि हम यहाँ पर क्यों आये हैं, हम यहाँ क्या कर रहे हैं? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? परमात्मा ने हमारा सृजन क्यों किया है? अब यह चौथी जिज्ञासा ही आपके जीवन का, चौथे आयाम का, आरम्भ है। यह आपके अन्दर के स्थूल जिज्ञासा अर्थात भूख का पुष्टिकरण है। आध्यात्मिकता की भूख, परमात्मा प्राप्ति की भूख, जीवन के उच्च वस्तुओं को प्राप्त करने की भूख यह हमारे अन्दर आरम्भ हो जाती है। ...... जीवन के भिन्न अनुभवों से उत्क्रान्ति पाकर मानव को यदि इस बात का अहसास हो जाए कि जीवन के अनुभवों ने न उसे तुष्टि प्रदान की है और न ही इस प्रश्न का उत्तर दिया कि हम यहाँ क्यों हैं तो उनके जीवन में परिवर्तन घटित होने लगता है। और वह साधक बन जाता है, इससे पूर्व नहीं। 31 मानव बन कर भी हज़ारो वर्षों तक आपने साधना की है और आज आप अपने लक्ष्य के समीप पहुँच गए हैं। प.पू.श्री माताजी, लंदन, २४.७.१९७९ अब आत्मसाक्षात्कार के बाद ही आप 'सत्य' को जान पाएंगे - सत्य को जानना मतलब अपनी आत्मा को जानना है। उसको जानते ही चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की शक्ति को भी जानना है। अब 'जानना' शब्द जो है, उस पर हम लोग गड़बड़ कर जाते हैं। जानने का मतलब बुद्धि से नहीं। बुद्धि से तो बहुत लोग जानते हैं, सुबह से शाम तक पाठ चलते रहते हैं-मैं आत्मा हूँ, 'अहम् ब्रह्मास्मि ' और फिर भ्रम में लड़ने भी लग जाते हैं। जानने का मतलब है अपनी नसों पर, अपने केन्द्रीय स्नायु-तंत्र पर आपको जानना है। इसी को 'बोध' कहते हैं, 'विदु' कहते हैं जिससे वेद हुआ। इसी 'न' शब्द से ज्ञान बना उसी से वली हुए, कश्यप हुए। हरेक धर्म में माने गये लोग होते हैं जो कि आत्मसाक्षात्कारी हैं लेकिन एक-दो, केवल एक- दो ज़्यादा नहीं। यह कार्य कलियुग में ही होना था। एक तरफ तो कलियुग का गहन अंधकार, अज्ञान और पहाड़ों जैसा अहंकार और ये पहाड़ों जैसा जो अहंकार है वो रोकता है इंसान को। इंसान कभी सोच भी नहीं सकता कि इस कलियुग में हम इस ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं । आज जो बात मैं आपके सामने रखना चाहती हूैँ वो ये है कि आप अपने को ये समझें कि हम मानव स्थिति में तो आये हैं लेकिन उससे भी एक ऊँची स्थिति है जिसको हम आत्मसाक्षात्कारी कहते हैं, जिसको हम साक्षात्कारी मानव कहते हैं, जिसको द्विज कहते हैं। ये वास्तविक स्थिति है। जब आप आत्मसाक्षात्कारी हो जाते हैं उसके अधिकार, उसकी सारी शक्तियाँ आपको मिल जाती हैं क्योंकि ये सब निहित है, अन्दर ही है। बँधा हुआ है तो मिलना ही हुआ। आपको जानना चाहिए कि क्रांति में, विकास में आप चरम शिखर पर हैं। जहाँ आप बैठे हैं वहाँ से साढ़े तीन फुट से ज़्यादा आपको चलना नहीं है। और ये कार्य घटित हो जाता है क्योंकि आप साधक हैं। अनेक जन्मों के आपके पुण्य हैं और उन पुण्यों के फलस्वरूप ये आप सहज में प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्य को समझना चाहिए कि जो सत्य है, वह हमें पैसे से नहीं मिल सकता। सत्य को आप ख़रीद नहीं सकते और सत्य जो भी हमें मिला है, हमने समझा है, आज तक, वो इंसान होने के नाते हमारे मस्तिष्क में, हमारे केन्द्रीय स्नायु तंत्र पर यह हमारे शरीर में नसों की तरह से बह रहा है, उसी से जाना है। किसी की लेक्चर-बाज़ी से कुछ नहीं होता। ये अन्दर की जागृति से ही होता है और जब इसकी जागृति हो जाती है तो मनुष्य समझता है कि मैं कितना गौरवशाली हूँ, मैं कितना विशेष हूँ। मेरी क्या व्यवस्था परमात्मा ने कर रखी है, और हर क्षण आपको ऐसा लगता है कि किसी नयी दुनिया में आप मग्न हैं। जीवन चमत्कारों से भर जाता है। ...... हम जानते नहीं उस परमात्मा के प्यार को, उसकी शक्ति को जो वो हमें देना चाहता है। प.पू.श्री माताजी, २.३.१९९१ 32 ..... चारों तरफ यह ब्रह्म चैतन्य रूप परमात्मा का प्रेम, उनकी शुद्ध इच्छा-शक्ति कार्य कर रही है, लेकिन यह ब्रह्म चैतन्य अभी तक कृत नहीं था, इसलिए जब कलियुग घोर स्थिति में पहुँच गया तो उसी के साथ-साथ एक नया युग शुरू हुआ है जिसे हम 'कृतयुग' कहते हैं और इस कृतयुग के बाद ही सत्ययुग आ सकता है। इस कृतयुग में यह ब्रह्म-चैतन्य कार्यान्वित हो गया है, इसलिए सहजयोग में हज़ारो लोग पार होने लगे हैं । सहस्रार खोलना बहत ज़रूरी था। जब से सहस्रार खुला है, कृतयुग शुरू हो गया है। अब इस कृतयुग का अनुभव आप आत्मसाक्षात्कार के बाद कर रहे हैं। प.पू.श्री माताजी, ३.३.१९९१ उत्थान का समय आ गया है, इस उत्थान को आप प्राप्त करे और पूर्णतया अपने आत्मसाक्षात्कार में जियें। ..... सारा ही सहजयोग का कार्य प्रेम का है। प्रेम की यह शक्ति मानसिक नहीं है, यह परमात्मा की शक्ति है और वह समर्थ परमात्मा है। 33 बहुत बड़ी सम्पदा है आपके पास। ...... हम पूरी तरह से इस ज्ञान को प्राप्त करें। प.पू.श्री माताजी, ३.३.१९९१ जब आपके अन्दर आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है, तब यह शक्ति आपके अन्दर से बहती है और कार्यान्वित होती है, अब इस कार्यान्वित शब्द पर नज़र करें, यह शक्ति बोलती नहीं, सोचती नहीं, ये कार्य करती है- कार्यान्वित है। बोलने और सोचने का कार्य तो बुद्धि का है, निरर्थक इससे कोई कार्य थोड़े ही होता है। जैसे मोटर में बैठ जाइये और सोचने लग जाइये, क्या मोटर चलेगी आपकी ? कुछ करना होता है। लेकिन यह शक्ति ऐसी है, जब आपके अन्दर से बहने लगती है तो कार्यान्वित होती है। जब उसमें से प्रकाश आ रहा है, तो प्रकाश दिख रहा है, कार्य कर रहा है ऑटोमेटिक (स्वत:), न कुछ करते भी प्रकाश दे रहा है। हुए उसी प्रकार आत्मासाक्षात्कारी इंसान कुछ न करते हुए भी प्रकाश देता है और कार्यान्वित है। प.पू.श्री माताजी, गांधी भवन, ७.२.१९८३ की शुरूआत हो गयी है और इस वातावरण के कारण शक्ति का रूप भी प्रखर हो गया है। शक्ति सत्ययुग का पहला स्वरूप है कि वह प्रकाशवान है, तेजस्वी है, तेज पुंज है। ......इस सत्य के प्रकाश में आप शक्ति की विशेष आकृति देखियेगा। ...... कारण कि अब कृतयुग शुरू हो गया है और इसके बाद सतयुग आयेगा। सतयुग का सूर्य क्षितिज पर आ गया है। तो इस सतयुग में शक्ति का जो स्वरूप है वो है प्रकाश और दूसरा सत्य, तीसरा प्रेम और चौथा मन की शान्ति। आप मन की शान्ति प्राप्त कर लेते हैं। प.पू.श्री माताजी के इस महान अवसर के लिए स्वयं को जगाओ। यह प्रगल्भ शक्ति आपसे प्रसारित हे मानव! सूझ-बूझ होने का प्रयत्न कर रही है। हमें इस विश्व को परिवर्तित करके सुंदर बनाना है क्योंकि सृजनकर्ता अपनी सृष्टि को कभी नष्ट नहीं होने देंगे। प.पू.श्री माताजी, मुंबई, २१.३.१९७७ आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से सीधे ही स्वयं को अभिव्यक्त करने वाला परमात्मा का पावन ज्ञान नए के लिए एक नई प्रजाति की सृष्टि करने में सशक्त रूप से सहायक होगा, यानी प्राचीन काल की तरह से यह ज्ञान युग थोड़े से विशिष्ट व्यक्तियों के लिए न होकर पूरे विश्व के हित के लिए है। इस प्रकार सामूहिक स्तर पर हमारे विकास का अंतिम लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा| पूर्ण मानव जाति का नवीनीकरण एवं परिवर्तन किया जा सकेगा। धर्म एवं धर्मपरायणता का एक बार फिर से सर्वत्र सम्मान होगा और मानव परस्पर एवं प्रकृति के साथ शांति एवं समरसता पूर्वक रह सकेगा। प.पू.श्री माताजी, परा आधुनिक युग 34 डा बव के गुरु के प्रति व्यक्ति के २मर्पण की शक्ति श्री हनुमान जी की है। किस प्रकार से आप गुरु को प्रसन्न कर सकते हैं और उसका समीप्य प्राप्त कर २कते हैं? मीप्य का अर्थ शारीरिक सामीप्य नहीं। इसका अर्थ है एक प्रका२ का तीढात्म्य, एक प्रकार की २मड़। मूड़से ढु२ २हकर भी सहजयोगी अपने हृढय में मेर अनुभव करसकते हैं। यह शक्ति हमें हरनुमान जी से प्राप्त करनी है। प पं.पू.श्रीमाताीजी, जर्मनी, ३१.८.१९९० + प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in टि २हज धर्म में क्षमा पहली आवश्यक चीज़ है, आपमें जितनी क्षमा की शक्ति होगी उतने ही आप शक्तिशाली होंगे। ....कलियुग में भी बेड़ा सबको क्षमा कर दें। क्षमा के सिवाय कोई आधन नहीं है। प. पू.श्रीमाताजी, २०.११.१९७५ ২ ॐे र० ---------------------- 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी नवंबर-दिसंबर २०१२ १० कै 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-1.txt २हजयोग पहले आपको लक्षमी की इलिक देती है और फिर अपको धन प्रदान करती है। आपको आशीर्वाद (धन ) प्राप्त हो जाती है । यह पहली प्रलौभन है जिस२से आप जीचे गि२ सकते हैं, आपका पतन हो सकती है। इसके बाढ़ दो अन्य प्रतीक हैं। अपने हाथों से वे देती हैं। आप यदि एक दरवाजी खोलेंगे तौ हवी नहीं आएगी, दूसर द२काजी उन्हें तो देनी ही है । खोलना होगा । पं.पू.श्री मातीजी, २१.१०.१९९० 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-2.txt पी इस अंक में की सथ प२मात्मा से यौग घटित हो ...8 १०० मानव जीवन का लक्य ब्रहा तंत्व की प्राप्ति े ः ...२८ क ॐ* 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-4.txt सहजयोग कोई दुकान नहीं है। इसमें किसी प्रकार का भी वैसा काम नही होता है जैसे और आश्रमों में या और गुरुओं के यहाँ पर होता है के आप इतना रुपया दौजिए और सदस्य हो जाइए। यहाँ पर आप ही को खोजना पड़ता है, आप ही को पाना पड़ता है और आप ही को आत्मसात करना पड़ता है। जैसे कि गंगाजी बह रही हैं। आप गंगाजी में जायें, इसका आदर करें, उसमें नहाएं-धोएं और घर चले आएं। अगर आपको गंगा जी को धन्यवाद देना हो तो दें, न दें तो गंगाजी कोई आपसे नाराज नहीं होती। नई दिल्ली, १० फरवरी १९८१ परमात्मा से योग घटेत हो र र 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-5.txt य हाँ कुछ दिनों से अपना जो कार्यक्रम होता रहा है उसमें मैंने आपसे बताया था कि कुण्डलिनी और उसके साथ और भी क्या-क्या हमारे अन्दर स्थित है। जो भी मैं बात कह रही हूँ ये आप लोगों को माननी नहीं चाहिए लेकिन इसका धिक्कार भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये अन्तरज्ञान आपको अभी नहीं है । और अगर मैं कहती हैँ कि मुझे है, तो उसे खुले दिमाग से देखना चाहिए, सोचना चाहिए और पाना चाहिए। दिमाग जरूर अपना खुला रखें। पहली तो बात ये है कि सहजयोग कोई दुकान नहीं है । इसमें किसी प्रकार का भी वैसा काम नहीं होता है जैसे और आश्रमों में या और गुरुओं के यहाँ पर होता है कि आप इतना रुपया दीजिए और सदस्य हो जाइए। यहाँ पर आप ही को खोजना पड़ता है, आप ही को पाना पड़ता है और आप ही को आत्मसात करना पड़ता है। जैसे कि गंगाजी बह रही हैं। आप गंगाजी में जायें, इसका आदर करें, उसमें नहाएं- धोएं और घर चले आएं। अगर आपको गंगा जी को धन्यवाद देना हो तो दें, न दें तो गंगाजी कोई आपसे नाराज नहीं होती। एक बार इस बात को अगर मनुष्य समझ ले, कि यहाँ कुछ भी देना नहीं है सिर्फ लेना ही है, तो सहजयोग की ओर देखने की जो दृष्टि है उसमें एक तरह की गहनता आ जाएगी। जब लेना होता है, जैसे कि प्याला है, उसमें तभी आप डाल सकते हैं जब उसमें गहराई हो। और जब लेने की वृत्ति होती है तब मनुष्य उसे पा सकता है। दूसरी बात ये है कि आप लोग अनेक जगह जा चुके हैं क्योंकि आप परमात्मा को खोज रहे हैं। आप साधक हैं। साधक होना भी एक श्रेणी है, एक कैटगरी है। सब लोग साधक नहीं होते। हमारे ही घर में हम तो किसी से नहीं कहते कि आप सहजयोग करो या सहजयोग में आओ किसी से भी नहीं कहते। सिवा हमारे और हमारे नाती-पोतियों के कोई भी सहजयोगी नहीं है। लेकिन जो नहीं है वो नहीं है, जो हैं सो हैं। अगर कोई खोज रहा है, उसके लिए सहजयोग है, जो साधक है उसके लिए सहजयोग है। हरेक आदमी के लिए नहीं। आप तो जानते हैं कि दिल्ली में सालों से हम रह रहे हैं और हमारे पति भी यहाँ रह चुके हैं । लेकिन हमने अभी तक किसी भी हमारे पति के दोस्त या उनके पहचान वाले या रिश्तेदार से बातचीत भी नहीं करी और बहुत लोग हैरान हैं कि 'हमको मालूम नहीं था कि यही माताजी निर्मलादेवी हैं जिनको हम दूसरी तरह से जानते हैं। तो सहजयोग जो चीज़ है, इससे आपको लाभ उठाना है। पहली बात। इस बात को अगर पहले आप लें कि आपको कुछ पाना है। परमात्मा को भी आप कुछ नहीं दे सकते और सहजयोग को भी आप कुछ नहीं दे सकते। उनसे लेना ही मात्र है। लेकिन माँ की दृष्टि से मुझे ये कहना है कि अगर लेना है तो उसके प्रति नम्रता रखें। अपने में गहनता रखें और इसे स्वीकार करें। समझ माँ जो होती है वो समझ के बताती है। ये नहीं कि आपकी हर समय परीक्षा लँ और आपको मैं परेशान करूँ और फिर देखूं कि आप इस योग्य हैं या नहीं, या पात्र हैं या नहीं। दूसरी ये भी बात है कि माँ बच्चों को जानती अच्छे से है। जानती है कि इनमें क्या दोष है, क्या बात है, किस वजह से रुक गये। उसको इसकी मालूमात गहरी होती है बहुत और वो समझती है कि किस तरह से बच्चे को भी ठीक किया जाए। कहीं डाँटना पड़ता है, तो डॉट भी देगी। जहाँ दुलार से समझाना पड़ता है, समझा भी देती है। और ये सिर्फ़ माँ का ही काम है और कोई कर भी नहीं सकता। मुश्किल काम है और किसी के लिए करना। क्योंकि ये सारा काम प्यार का 6. 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-6.txt है। आज मनुष्य विप्लव में और इतनी आफ़त में है%; इतने दुःख में और आतंक में बैठा हुआ है। इस क़दर उस पर परेशानियाँ छाई हुई हैं कि इस वक्त और भी किसी तरह की परीक्षा इन पर दी जाए, ऐसा समय नहीं है । और ये माँ ही समझ सकती है कि बच्चे कितनी आफतें उठा रहे हैं, उनको कितनी परेशानियाँ हैं और किस तरह से उनका भार उठाना चाहिए और उनके अन्दर किस तरह से प्रभु का अस्तित्व जागृत करना चाहिए। ये माँ ही कर सकती है। कुण्डलिनी के बारे में जो कहा गया है कि 'कुण्डलिनी आपके अन्दर स्थित आपकी माँ है, जो हजारों वर्षों से आपके जन्म होते ही आप में प्रवेश करती है और वो आपका साथ छोड़ती नहीं, जब तक आप पार न हो जाएं, वो प्रतीक रूप आपकी माँ ही है।' यानी ये कि समझ लीजिए 'प्रतीक रूप आपकी महा- माँ' की एक छाया है, छवि है। एक प्रश्न यह जो किया था किसी ने कि, 'माँ, आपने कहा था कि पूरी रचना हमारी करने के बाद, पिण्ड की पूरी रचना करने के बाद भी वो वैसी की वैसी ही बनी रहती है, इसको किसी तरह से समझाया जाए।' वो आज मैं बात आपको समझाऊँगी कि किस तरह से होता है। कुण्डलिनी शक्ति हमारी जो महाकाली की इच्छा शक्ति है उसका शुद्ध स्वरूप है। मतलब ये कि एक ही इच्छा मनुष्य को होती है संसार में जब वो आता है। उसका शुद्ध स्वरूप है कि परमात्मा से मिलन हो और दूसरी उसे इच्छा नहीं होती। ये उसका शुद्ध स्वरूप है। और जब तो इच्छा कुण्डलिनी स्वरूप होकर के बैठती है तो वो मनुष्य का पूरा पिण्ड बनाती है-पर अभी इच्छा ही है। इसलिए पूरा बनाने पर भी वो इच्छा ही बनी रहती है क्योंकि उसकी जो इच्छा है वो जागृत नहीं है। इसलिए इच्छा पूरी की पूरी वैसी ही बनी रहती है और वो अपनी इच्छा छाया की तरह आपको संभालती रहती है कि देखो, इस रास्ते पर गए हो तो यहाँ वो इच्छा पूरी नहीं होगी जो सम्पूर्ण शुद्ध आपके अन्दर से इच्छा है वो पूरी नहीं होगी। उस इच्छा को पूरी किए बगैर आप कभी भी नहीं पा सकते। सारा आपका पिण्ड जो है वो इसलिए बनाया गया कि वो इच्छा पूर्ण हो सुख जिससे आप परमात्मा को पायें। पर महाकाली शक्ति को जब आप इस्तेमाल करने लगते हैं तो आपकी महाकाली की शक्ति में जो उसका कार्य है वो बाहर की ओर होने लग जाता है। माने, आपकी इच्छायें जो हैं वो बाहर की ओर जाने लग जाती हैं। आप ये सोचते हैं कि मैं ये चीज़ पा लँ। जब आपका चित्त बाहर जाता है उसका भी एक कारण है जिसके कारण आपका चित्त बाहर जाता है। जो मैंने कहा था कि वो जरा विस्तारपूर्वक बताना होगा। जब, क्योंकि आपका चित्त बाहर की ओर जाने लगता है और जैसे-जैसे आप बड़े होने लग जाते हैं और भी वो बाहर की ओर जाने लग जाता है। इसकी वजह से जो शुद्ध इच्छा आपके अन्दर है जिसको कि शुद्ध विद्या कहते हैं और आपके शुद्ध अन्दर जो अन्तरतम इच्छा है वो एक ही है कि, 'परमात्मा से योग घटित हो।' वो कार्यान्वित नहीं हो पाती। सिर्फ आप ये ही सोचते रहते हैं कि हम इसे पायें, उसे पायें, उसे पायें। इसलिए वो जैसी की तैसी बनी रहती है। इसलिए इसे अवशिष्ट ऊर्जा कहते हैं। अब ये जो आपकी शुद्ध इच्छा है ये ही आपको खींच कर इधर से उधर ले जाती है और आप दर -दर के ठोकरे खाते हैं, कर्मकाण्ड करते हैं, इधर ढूँढ़ते हैं, किताबें पढ़ते हैं और आप अपने अन्दर धारणा सी बना लेते हैं कि परमेश्वर का पाना ये होता है, परमेश्वर का पाना ये होता है। जब तक आप उसे पाते नहीं आप 7 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-7.txt इच्छा को सोचते हैं कि हमें इस चीज़ से पूरा हो जाएगा। किसी चीज़ से पूरा हो जाएगा। सो नहीं होता। पर बहुत बार ऐसा भी होता है कि महाकाली शक्ति जो है जब हमारी बहुत बार और जगह दौड़ने लग जाती है तब कभी-कभी कोई गुरु लोग भी या ऐसे लोग कि जो बहुत पहुँचे हुए लोग हैं वो भी इस मामले में ये बता देते हैं कि ये इच्छा किस तरह से पूर्ण हो जाती है। लेकिन बहुत से अगुरु भी इस संसार में हैं। बहत से दष्ट लोगों ने भी गुरु रूप धारण कर लिया है। और इसी वजह से वो आपकी इस इच्छा को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। माने कुण्डलिनी को तो कोई छू नहीं सकता, किन्तु आपकी जो महाकाली की जो शक्ति है उसको मंत्रमुग्ध कर देते हैं। वो मंत्रमुग्ध होने के कारण आपकी जो वास्तविक इच्छा परमात्मा से योग पाने की है वो छूट करके आप सोचते हैं कि ये जो अगुरु हैं जिसने हमको मंत्रमुग्ध किया है, ये ही उस इच्छा को पूरा कर देगा। इसको पूर्ण कर देगा । और इसलिए आप उस चीज़ से चिपक जाते हैं और इसलिए आप उस चीज़ से चिपक जाते हैं। और जब आप मंत्रमुग्ध की तरह उससे चिपक जाते हैं तब आपके ध्यान में ही नहीं आता है कि आपकी वास्तविक इच्छा पूरी नहीं हुई है और आप गलत रास्ते पर चल रहे हैं। जब तक आप बहुत ठोकरे नहीं खाते हैं, जब तक आपका सारा पैसा नहीं लुट जाता, जब तक आप पूरी तरह से बर्बाद नही हो जाते, आपके ध्यान में ये बात नहीं आती। बहुत बार लोगों ने मुझे कहा कि माँ, आप किसी भी गुरु के बारे में कुछ भी मत कहिए। मैंने कहा कि ऐसा ही हुआ कि कोई मेरे बच्चों की गर्दनें काटे और मैं न कहूँ कि ये गर्दन काट रहे हैं। ये कहे बगैर कैसे होगा, आप ही बताइये , आप माँ-बाप भी हैं। आप बताइये कि अगर आप जानते हैं कि कोई आदमी आपकी ये इच्छा हमेशा के लिए मंत्रमुग्ध कर देगा और आपको विचलित कर देगा, आपकी कुण्डलिनी को एकदम से ही वो जकड़ देगा या उसको ऐसा कर देगा कि वो फ्रिज हो जाए एकदम। तो क्या कोई माँ ऐसी होगी जो नहीं बताएगी? इस मामले में बहुतों ने मुझे डराया भी, धमकाया भी। कहा कि आपको कोई गोली झाड़ देगा। मैंने कहा झाड़ने वाला अभी पैदा नहीं हुआ। मुझे देखने का है। ऐसा आसान नहीं है मेरे ऊपर गोली झाड़ना। वो तो ईसा मसीह ने एक नाटक खेला था इसलिए उस पर चढ़ गए, नहीं तो ऐसा वो सबको मार डालते कि सबको पता चल जाता। लेकिन वो एक नाटक खेलने का था, इसलिए उस वक्त ये काम हुआ। अब, हमको ये सोचना चाहिए कि जब हमारी ये शुद्ध इच्छा है कि परमात्मा से योग होना है, तो कुण्डलिनी जागृत करने के लिए क्या करना चाहिए? ऐसा बहुत बार लोगों ने कहा है। हालांकि हर लेक्चर में मैं कहती हैँ कि ये जीवन्त क्रिया है, इसके लिए आप कुछ नहीं कर सकते । 'आप' नहीं कर सकते इसका मतलब नहीं कि मैं नहीं कर सकती। इसका मतलब यह नहीं कि सहजयोगी नहीं कर सकते। अधिकारी होना चाहिए। जैसे एक डॉक्टर है जो कि ऑपरेशन करना जानता है, वो ही ऑपरेशन कर सकता है । पर कोई दूसरा आदमी अगर इस तरह का काम करे तो लोग कहेंगे कि 'ये खूनी है' और इतना ही नहीं वो खून ही कर डालेगा, क्योंकि उसको मालूमात ही नहीं उस चीज़ की। जिसको इसकी जानकारी नहीं है, जो इस बारे में समझता नहीं है उसको कुण्डलिनी में पड़ना नहीं चाहिए । जब आप सहजयोग में पार हो जाते हैं उसके बाद इसके नियम शुरू हो जाते हैं, जो परमात्मा के दरबार के नियम है- जैसे आप हिन्दुस्तान में आए तो आपको हिन्दुस्तान सरकार के नियम पालने पड़़ते है । उसी | 8. 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-8.txt प्रकार जब आप परमात्मा के साम्राज्य में आए तो उसके नियम आपको पालने पड़ते हैं। और अगर आप वो नियम न पालें तो आपके वाइब्रेशन हाथ से छूट जाएंगे। बार-बार वो वाइब्रेशन छूट जाएंगे, बार - बार आप पहले जैसे होते रहेंगे, जब तक आप पूरी तरह से इसको अपने ऊपर पूरा प्रभुत्व न पा जाए। जब तक आपने अपनी आत्मा को पूरी तरह से नहीं पाया, आप पाइएगा वाइब्रेशन आपके छूटते जाएंगे । क्योंकि ये वाइब्रेशन आपकी आत्मा से आ रहे हैं। आत्मा जो है उसको सत् चित आनन्द कहते हैं। माने वो सत्य है। सत्य का मतलब ये है कि वो ही एक सत्य है, बाकी सब असत्य है। बाकी सब ब्रह्म है। ब्रह्म जो है वो भी उन्हीं की शक्ति है और जो कुछ अलावा है-आत्मा, ब्रह्म इसके अलावा जो कुछ भी है वो असत्य है। असत्य माने ये है कि एक आदमी है समझ लीजिए सोचता है कि 'हमने बहुत बड़ा काम किया', 'आपने क्या काम किया ?' उनसे पूछिए, तो बतायेगा कि, 'साहब, मैंने मकान बनाया, घर बनाया और बच्चों की शादियाँ कर दी' या कोई बड़ा भारी उसको तमगा मिल गया। 'मैंने हवाई जहाज बना दिया और कोई चीज़ बना दी, मैं बड़ा भारी प्रधानमंत्री हो गया। ये सब भी एक मिथ्याचरण है। मिथ्या बात है। क्योंकि ये शाश्वत नहीं है, सनातन नहीं है, शाश्वत नहीं है। ये कोई आदमी, आज बड़े-बड़े अफ़सर हो जाते हैं। हम भी अफ़सरी काफ़ी देख चुके हैं और जैसे ही अफ़सरी खत्म हो गयी तो कोई पूछता भी नहीं। बड़ा आश्चर्य है अगर आपका तबादला हो गया तो कोई नहीं पूछता। आपने मकान बना लिया, आपने देखे हैं कितने बड़े- बड़े खण्डहर पड़े हुए हैं। और न कोई जानता है कि ये है क्या बला? कहाँ से आई, क्या हुआ? बड़े-बड़े ऐसी चीजें खत्म हो चुकी हैं। एक बार मैं गयी थी आपके आगरा के किले में। तो रात बहुत बीत गयी वहाँ और कुछ खास हमें दिखाने का इन्तजाम था, तो बहुत रात हो गयी। और वो कहने लगे, 'जब भीड़ जाएगी तब आपको ठीक से दिखायेंगे।' बहुत कुछ चीजें दिखाईं। जब लोग लौट रहे थे, तो मैंने देखा कि बिल्कुल सब दूर अंधेरा है। सब जितनी भी उस वक्त में चहल-पहल रही होगी। रानियों ने क्या-क्या काम किये होंगे और परेशान किया होगा अपने नौकरों को कि, 'ये मरे कपड़े नहीं ठीक हैं।' राजाओं ने परेशान किया होगा। बड़े-बड़े वहाँ पर दावतें हुई होंगी। उसके लिए झगड़े हुए होंगे। पता नहीं क्या-क्या किया होगा इन लोगों ने उस जमाने में। सब एकदम फ़िजुल। कुछ नहीं सुनाई दे रहा था। अब वो आवाज खत्म हो चुकी थी वहाँ। कुछ भी नहीं था। एकदम अंधेरा चारों तरफ़ छाया हुआ। और जब हम बाहर आ रहे थे बिल्कुल बाहर आये तो रोशनी थी नहीं खास। एक साहब के पास जरा सी टॉर्च थी, उससे सभी लोग देखकर बाहर आ रहे थे। बाहर आते वक्त देखा कि एक चिराग की रोशनी जल रही थी। उस चिराग की रोशनी में हम बाहर आए, तो पूछा कि, 'भाई चिराग यहाँ किसने जलाया?' कहने लगे कि, 'यहाँ पर एक मज़ार है, एक पीर की मज़ार है और ये पीर बहुत पुराने है। 'कितने पुराने?' कहने लगे कि, 'जब ये किला भी नहीं बना था , उससे पुराने।' 'अच्छा तब से इस पर दिया जलता रहता है। सब लोग यहाँ टेकने जाते हैं। ये सनातन है। पीर होना, जाना सनातन है। ये शाश्वत है। बाकी सब असत्य है, सब गुम हो गया है, खत्म हो गया, शून्य हो गया, लीन हो गया। आज कोई आकाश में उछल रहा है, कल देखा तो वो गर्द में पड़ा 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-9.txt हुआ है। आप रोज़मर्रा ही देखते हैं अपने ही आँखों के सामने आपने देखा है कितनी बार ऐसे होता हुआ। इतना पचास साल में इस भारतवर्ष में हुआ है, कभी नहीं हुआ था। सबसे ज़्यादा उथल-पुथल इसी पचाल साल में हुई है। इससे आप समझ सकते हैं कि ये सनातन नहीं है। ये कोई-सी भी चीज़ सनातन नहीं, जिसके पीछे आप दौड़ रहे हैं। दौड़-धूप कर रहे हैं। आज बड़े भारी आदमी बन कर घूम रहे हैं; आपका ठिकाना नहीं। कल आप रास्ते के भिखारी बने होंगे। जो चीज़ सनातन है उसे पाना चाहिए। जब आदमी साक्षात्कार पा लेता है, तो वह खोता नहीं। जब उसका जन्म होता है तो साक्षात्कार के साथ वो दूसरी चीज़ मोक्ष, मोक्ष लेकर वो आता है। वो करुणा में फिर से जन्म लेता है। सिर्फ़ करुणा में जन्म लेता है। लेकिन वो मोक्ष अपने साथ लेकर के आता है। उस सनातन को पाना चाहिए। और जब हम इस बात को जान लेते हैं कि हमें सनातन को पाना चाहिए, तब हमारा जो व्यवहार है, सहजयोग के प्रति, बदल जाता है। जो लोग पार हो गये हैं उनको पता होना चाहिए कि हमें स्थित होना पड़ता है। मैंने कल बताया था कि पार होने के बाद क्या करना चाहिए । 'स्थित' होने के लिए उसके नियम हैं। जैसे आप जानते हैं अगर हवाईजहाज़ है, इसको पहले जब आप परीक्षण करते हैं तो उड़ाते हैं, देखते हैं कि इसका संतुलन कैसा है। ये ठीक से चल रहा है या नहीं चल रहा है। उसको बार-बार ग्राऊंडिंग कराते हैं, फिर उसको उड़ाते हैं, फिर देखते हैं। उसी प्रकार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत भी हो गई और आप पार भी हो गए और माना कि आप पार हो गए और आपके अन्दर से वाइब्रेशन शुरु होने लगे। तो फिर आपको जरूरी है कि आप देखने को जरा सा देखें और समझें क्या है। अब, सबसे जो बड़ी गलती हम लोग करते हैं, पार होने के बाद, पहली गलती ये है, कि हम इस के बारे में सोचना शुरु कर देते हैं। तो उसमें कभी-कभी शंकायें भी बहुत लोगों को आती है। कहते हैं, 'भाई, कैसे हो सकता है, माँ ने हमको सम्मोहित भी कर दिया होगा तो क्या पता? हो सकता है कि गड़बड़ ही हो गया होगा! हम कैसे ऐसे हो सकते हैं? हमने तो सुना था इसमें बड़ी-बड़ी दिक्कतें होती हैं, हम ऐसे आसानी से कैसे पार हो गए? ठण्डी हवा आ गयी तो क्या समझना चाहिए कि क्या बड़े भारी हम पार हो गए? ये कैसे हुआ?' पहली गलती ये है कि इसके बारे में आप सोच नहीं सकते। सोचने से आपके वाइब्रेशन खट से खत्म हो जाएंगे। आपको अगर हम हीरा दें और आपको कहें ये आपके पास हीरा है, आप उस पर क्या करेंगे? आप जौहरी के पास जाकर पूछेंगे कि, 'भाई ये हीरा क्या है?' कम से कम इतना तो आप करेंगे। क्या घर में बैठे- बैठे सोचकर हीरे को कोई फेंक देगा ? जब रोज़मर्रा के जीवन में हम लोग इस तरह से अपना ध्यान लगाते हैं, तब जो हमारे परम की बात है, उसमें ये ध्यान रखना चाहिए कि अगर हमने परम पाया है तो आखिर ये कैसे जानें कि ये परम है या नहीं? और इसमें शंका करने की कौनसी बात है? बहुत से गुरु लोग हैं, आपसे कहेंगे कि इसमें आप नाच सकते हैं, कूद सकते हैं। ऐसा होता है कुण्डलिनी में, वैसा होता है, ये होता है। ये सब चीजें आप वैसे भी कर सकते हैं। माने नाचना कोई मुश्किल काम नहीं, कूदना कोई मुश्किल नहीं, मेंढक जैसे चलना भी कोई मुश्किल नहीं है। और आजकल एक गुरुजी हैं वो उड़ना सिखा रहे हैं, तो लोग अपने फोम में बैठकर ऐसे उड़ते हैं, सोच रहे हैं कि वो हवा में उड़ रहे हैं। ऐसा 10 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-10.txt ा परा र सोचना भी मुश्किल नहीं है। घोड़े पर भी लोग कूद करके बैठ जाते हैं। जरा कोशिश करने से आ जाता है वो भी। ये भी कोई मुश्किल नहीं है। वो भी आप कोशिश करें तो कर सकते हैं। और आप एक तार पर भी चल सकते हैं, सर्कस में जैसे चलते हैं। या आप कलाबाज़ी कर सकते हैं । ये भी आपने करते देखा है और कर सकते हैं। अगर आप कोशिश करें तो सब धन्धे आप कर सकते हैं। सिर्फ आप क्या नहीं कर सकते ? कि ये एक त्रिकोणाकार अस्थि में अगर आप स्पन्दन देखें तो मानना चाहिए कि कुण्डलिनी है। स्पन्दन आप नहीं कर सकते कहीं भी। फिर उसका उठता हुआ स्पन्दन आप देख सकते हैं। सब में नहीं, क्योंकि कोई अगर बढ़िया लोग हों तो उनमे तो जरा भी पता नहीं चलता, खट से कुण्डलिनी उठ जाती है। पर बहुत से लेगों में इसका स्पन्दन दिखाई देता है। उसका अनहत् पर बजना सुनाई देता है। तो कबीरदास जी ने बहुत अच्छा कहा है कि, 'शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे' । शून्य शिखर पर, सकते हैं। 'शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे।' तो उसको आप यहाँ सहस्रार पर अनहत् का बजना आप सुन 11 ॐ 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-11.txt देख सकते हैं, बज रहा है क्या? कोई गुरु हैं, कहते हैं हम नाच रहे हैं, भगवान का नाम लेकर के 'नाचि रे- नाचि रे'..... भाई, ये क्या तरीका है? सीधा हिसाब बताइये कि नाचना, गाना, ये आनन्द में मनुष्य करता है, लेकिन वो करना परमात्मा को पाना नहीं है। वो हो सकता है कि मनुष्य पाकर के गा रहा हो या नाच रहा हो। लेकिन पाया तो नहीं अभी तक। पाना तो कुण्डलिनी के ही जागृति से होता है । उसके बगैर हो नहीं सकता। और कुण्डलिनी सहज ही में जागृत होती है। माने ये कि सहज है, याने ये जीवन्त क्रिया है। आपकी उत्क्रान्ति प्रक्रिया है। और आप आज उस उत्क्रान्ति प्रक्रिया के अन्तर्गत ऊपर उठ जाते हैं। आपकी उत्क्रान्ति जो है, वो चल रही है। अभी आप इन्सान हैं। इन्सान से आप अतिमानव हो जाते हैं। जब इस तरह से बात आपने समझ ली कि जो काम हम ऐसे कर सकते हैं वो परमात्मा क्यों करेंगे, वो तो हम कर ही सकते हैं। वो तो अब वो काम करेंगे कि जो हम नहीं कर सकते। तब फिर इसमें सोचने की बात क्या है? हाथ में ठण्डी - ठण्डी हवा आनी शुरू हो गयी। इसके बारे में भी सब शा्त्रों में लिखा हुआ है। कोई नयी बात नहीं है। चैतन्य की लहरियाँ, ये ब्रह्म की शक्ति है। लेकिन इस पर आप सोच करके क्या करने वाले हैं? आप सोच करके भी कौनसा प्रकाश डालने वाले हैं? क्योंकि आपकी बुद्धि तो सीमित है, और मैं तो असीम की बात कर रही हूँ। अगर आप समझ लीजिए यहाँ से, चन्द्रमा में चले गए तो वहाँ जाकर के देखना ही है न कि आप सोचकर बैठे कि भाई, चन्द्रमा पर जायें तो ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। उससे फ़ायदा क्या? आप जाइये और देखिये। जो चीज़ है उसका साक्षात करना चाहिए। अब, जब आपके अन्दर में ये शुरु हो गया, तब दूसरा बड़ा भारी नियम सहजयोग का है। पहला नियम ये कि इसके बारे में आप सोच नहीं सकते ये सोच-विचार के परे हैं, निर्विचार में है, असीम की बात है। दूसरी जो बात इसकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि, 'सहजयोग की क्रिया आज महायोग बन गई है।' पहले एक ही दो फूल आते थे पेड़ पर। एक ही फूल। वो ज़माना और था। उस ज़माने में इतना ज़्यादा कोई ज्ञान देता भी नहीं था। कहीं किताबों में भी लिखा नहीं है, किसी को कोई बताता भी नहीं था । समझ लीजिए, कबीरदास जी ने भी कहा है तो उन्होंने सिर्फ अपना ही वर्णन किया है कि भाई मेरे 'शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे' और मेरे ऐसे-ऐसे 'इड़ा पिंगला सुषुम्ना नाड़ी' वगैरा है। पर इतना गहराई से बताया नहीं, क्योंकि उन्होंने ये काम किया नहीं था, उसके बारे में निवेदन किया था, उसके बारे में भविष्यवाणी की थी कि ये मेरा काम है। विशेष कर ज्ञानेश्वरजी ने साफ़ कहा था कि महायोग होने वाला है। विलियम ब्लैक नाम के एक बड़े भारी कवि ने बहुत सहजयोग के बारे में बताया है जो ये घटना घटने वाली है। तो, जो चीज़ घटने वाली है, होने वाली है उस के बारे में उन्होंने कहा था। और आज जब वो घट गई तो उसके बारे में अगर हम बता रहे हैं तो बहत से लोग ये भी सोचते हैं कि ये तो कहीं लिखा नहीं गया किताबों में। ये बहुत गलत धारणा है। क्योंकि समझ लीजिए कोई कहे कि आप चन्द्रमा पर गये। किसी ने लिखा था कि चन्द्रमा पे कैसे जाया जाएगा? जिस वक्त आप उसको करें तभी तो आप लिखेंगे। इसलिए इस तरह की धारणायें लेकर के मनुष्य अपने को रोक लेता है। पर जो महत्वपूर्ण, जो बड़ा, वो ये है, उसको समझना चाहिए कि आज का सहजयोग एक-दो 12 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-12.txt आदमियों का नहीं है। यह सामूहिक चेतना का कार्य है। इसको लोग समझ नहीं पाते। यह पॉइंट क्या है, इसको समझना चाहिए। जैसे हम कहें आप भाई - बहन हैं और अपने एक-दूसरे को भाई-बहन समझें। यह तो ऊपरी बात कहनी हुई। जब यह हैं ही नहीं, तो कैसे समझेंगे। लेकिन पार होने पर ये पता होता है कि एक ही माँ ने हमको जन्म दिया है। अब जैसे जो लोग पार हैं, अगर हम अपने हाथ में फूँकें तो आपको भी फूँक आएगी । अगर हम कोई सुगन्ध, ये लोग इत्र वगैरेह लगायें तो आपको सुगन्ध आएगी चाहे आप यहाँ हों चाहे इंग्लैण्ड में हों। पर सहजयोग में पूरी तरह से हमसे जुड़े हों तो। आधे अधूरे लोगों को नहीं होता। लोग कहते हैं, 'माँ, अचानक कभी एकदम से खुशबू आने लग जाती है।' क्योंकि सब एक ही अंग के प्रत्यंग हैं। ये जब तक आप समझ नहीं लेंगे पूरी तरह से, तब तक आपको मुश्किल रहेगी। अब बहुत से लोगों को मैं देखती हूँ कि, 'मैं घर में ले जाऊँगा माँ और वहाँ मैं करूँगा।' बहुत से लोग तो यहाँ आने पर भी सोचते हैं कि हम बड़े भारी अफ़सर हैं। हम यहाँ कैसे? बहुत से लोग यहाँ इसलिये नहीं आते हैं कि हम बड़े भारी अफ़सर हैं। पर जहाँ लोग सम्मोहित करते हैं और गन्दे काम करते हैं, वहाँ सब मोटरे लेकर पहुँच जाते हैं। तब कोई शर्म नहीं। घोड़े का नम्बर पूछना हो तो वहाँ पहुँच जायेंगे सब, लेकिन ऐसी जगह जहाँ परम का कार्य हो रहा है, वहाँ मैं देखती हैँ कि लोगों को शर्म आती है आते हुए। या मोटरें लेकर। तो कुछ लोग डरते भी हैं। डरने की कोई बात नहीं। अपनी माँ है। हम तो सबकी माया जानते हैं, किसी भी तरह का मामला हो, हम ठीक कर सकते हैं। तो डरने की कौनसी बात है? इसलिए माँ का स्वरूप है न हमारा। उसको ऐसा समझना चाहिए कि प्रेम स्वरूप है और उसमें डरने की कोई बात नहीं है। ये सामूहिक कार्य को मनुष्य समझ नहीं पाता है, कभी भी। जब तक वो पार नहीं होता। यानि ये कि जब दूसरा आदमी है वो, कोई रह ही नहीं जाता है। 'दूसरा है कौन ?' ये इस तरह से महसूस होता है कि आपके हाथ से ठण्डी- ठण्डी हवा तो चलनी शुरू हुई, और आप जैसे ही दूसरे आदमी के पास में जाएंगे तो शुरु-शुरु में ऐसा लगेगा कि एक उँगली ज़रा हरकत कर रही है, पता नहीं क्या? आप उनसे पूछिये कि आपको बहुत जुकाम होता है, आपको कोई शिकायत है, ऐसी तकलीफ़ है ? कहने लगे, 'हाँ भाई, क्या बतायें, तुमको कैसे पता ?' कहने लगे, 'मेरी ये उँगली पता नहीं क्यों काट सा रही थी? ये सबजेक्टिव नॉलेज है, सबजेक्टिव नॉलेज माने आत्मा का ज्ञान। सबजेक्टिव ऐसा अगर शब्द इस्तेमाल करें तो इसका मतलब होता है कि दिमागी जमा -खर्च। मतलब एक आदमी है- 'साहब मैं इसे मैं उसे जानता हूँ, जानता हूँ। ये शुद्ध सत्य विद्या है, आत्मा शुद्ध सत्य है। ये अॅबसल्यूट नॉलेज है। लो, एक आदमी एक बात कहेगा वही दस आदमी कहेंगे, अगर वो सहजयोगी है तो। दस छोटे बच्चे अगर साक्षात्कारी आत्मायें हैं, ये प्रयोग लोग कर चुके हैं, उनकी आँख आप बाँध कर रखिये और किसी आदमी को सामने बैठा दीजिये। 'बताइये', कहने लगे, 'इनके वाइब्रेशन्स, कहाँ पकड़ आ रही है ।' सबके सब उसके लिए बतायेंगे, ये उँगली में पकड़ आ रही है। इसमें जलन हो रहा है। माने ये कि उसके नाभि चक्र की तकलीफ़ है या उसका लीवर खराब है, वो थोड़ा सीखना पड़ता है। आप यहाँ बैठे हैं, किसी भी आदमी के बारे में, कहीं पर है, उसके बारे में भी जान 13 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-13.txt सकते हैं कि इस आदमी को क्या शिकायत है। बैठे-बैठे। ये सामूहिक चेतना में आप जानते हैं। आप कोई मृत आदमी के लिए भी जान सकते हैं। आप कहीं पर जायें और कहें कि यह जागरूक स्थान है, आप जान सकते हैं कि जागृत है या नहीं। जागृत होगा तो उसमें वाइब्रेशन आयेंगे। जागृत नहीं होगा तो नहीं आयेंगे । जो सच्ची बात है, जो सत्य है वह आत्मा बताता है। इसलिये उसे 'सत्य स्वरूप' कहते हैं। और क्योंकि जब आत्मा हमारे अन्दर जागृत हो जाता है, तो हमारा जो चित्त है, माने हमारा अटेंशन है, वो जहाँ भी जाता है, वो काम करता है अब ये चीज़ भी मनुष्य के समझ में नहीं आती। माने कि यहाँ बैठे-बैठे किसी सहजयोगी का चित्त अगर गया कहीं पर, तो वो आदमी ठीक हो सकता है। हमारे एक रिश्तेदार हैं। उनकी माँ बहुत बीमार रहती थीं बिचारी। और बहुत ही बूढ़ी हो गयी हैं। तो वो हम से बताते हैं कि, 'अब हम आप से नहीं बतायेंगे क्योंकि बहुत बूढ़ी हो गयी हैं, अब उन्हें छुट्टी कराइये आप। जब भी हम बताते हैं वह ठीक हो जाती हैं। ये हमारा अनुभव है कि जब भी हम बताते है ठीक हो जाते हैं। अस्सी साल की हो गयी हैं अब भी फिर वैसे ही हाल हो जाता है। फिर बीमार पड़ जाती हैं फिर आपको बताते हैं, वो ठीक हो जाती हैं।' मतलब चित्त जो है, वो जागरूक हो जाता है। जहाँ भी आपका चित्त जाएगा वो कार्यान्वित होता है। जहाँ भी आप चित्त डालें। लेकिन इसके लिये पहले अपनी आत्मा में स्थिरता आनी चाहिए। योग पूरा आना चाहिए। समझ लीजिए इसका कनेक्शन ठीक न हो तो मैं थोड़ी देर बात करूँगी, सुनाई देगा, बाकी बात गुल हो जाएगी। यही बात है, इस वजह से आप वाइब्रेशन भी खो देते हैं, आपका जरा कनेक्शन ढीला हो गया। पहले अपना कनेक्शन ठीक करना पड़ेगा। लेकिन सामूहिकता की और भी गहनता अपने को समझनी चाहिए कि सारा एक ही है। हम सब अंग- प्रत्यंग हैं। और जब हम अंग-प्रत्यंग हैं, तो एक आदमी ज़्यादा नहीं बढ़ सकता और एक आदमी कम नहीं हो सकता। कभी-कभी सहजयोगियों में भी ये धारणा आ जाती है कि हम सहजयोग में बड़े भारी बन गए। बहुतों में ये आती है। हम तो बड़े ऊँचे आदमी हैं जब ऐसी भावना आ जाए तो सोचना चाहिए कि बहुत ही पतन की ओर हम जा रहे हैं। जिसने ये सोच लिया कि हम ऊँचे हो गये, वो सोचना कि हम पतन की ओर जा रहे हैं । क्योंकि जैसे आदमी सच में ही ऊँचा होता है, वैसे-वैसे वो नम्र ही होता जाता है। उसकी आवाज़ बदलती जाती है। उसका स्वभाव बदलता जाता है। उसमें बहुत ही नम्रता, उसमें प्रेम बहते रहता है। ये पहचान है। अगर कोई सहजयोगी सहजयोग में आने के बाद भी बुलन्द पर आ जाए और कहे, 'साहब, तुम ये क्या हो, वो क्या?' तो उसको खुद सोचना चाहिए कि मैं गिरता जा रहा हूँ। लेकिन इसका दूसरा भी अर्थ नहीं लगाना चाहिए, बहत से लोगों को ये है। मैंने देखा, एक साहब थे, अमरीका में और उन्होंने सहजयोग नाम से केन्द्र चलाए। जब आए तो सबने बताया, 'माँ, ये तो पता नहीं क्या तमाशा है, हम लोग इस पर हाथ रखते हैं और चक्कर खाकर गिर जाते हैं। 'तो बड़े चक्कर वाला आदमी है, मैंने कहा, 'अच्छा, मैं तो समझ रही हूँ।' फिर मैंने उससे कहा, 'अच्छा, ज़रा अपनी पुस्तिका दिखाओगे ?' पुस्तिका में उसने लिखा था कि 'वाइब्रेशन्स - साधारण वाइब्रेशन्स के लिए सौ डॉलर और विशेष वाइब्रेशन्स के लिए २५० डॉलर।' मैंने 14 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-14.txt कहा, 'गये काम से ये।' तो मैंने उनसे कहा कि, 'ये क्या बदतमीज़ी है आपकी ? आपने कितना पैसा दिया था मुझे? कितने डॉलर दिये थे आपने वाइब्रेशन लेने के लिए, जो तुमने ऐसा लिखा?' तो कहने लगे कि, 'माँ, ऐसा है कि मैं पैसे कैसे कमाऊँ फिर? मैं खाऊँ क्या?' मैंने कहा, 'भूखे मरो। क्या तुम सहजयोग से पहले कुछ करते थे?' कहने लगे, 'हाँ, मैं स्कूल में पढ़ाता था|' मैंने कहा, 'स्कूल में पढ़ाओ। जो करते थे सो करो । लेकिन तुम सहजयोग को बेच नहीं सकते हो। तुम वाइब्रेशन बेच नहीं सकते।' कहने लगा, 'मेरा केन्द्र है, उसमें लोग आते हैं, खाना खाते हैं।' मैंने कहा, 'ठीक है, खाने का पैसा लो। वाइब्रेशन का क्यों लिखा ? लिखो, खाने का इतना पैसा, कमरे का इतना पैसा। उसमें भी आप लाभ नहीं बना सकते। ठीक है, जितना लगा उतना खर्चा लो। उसके दम पर तुम अपने महल नहीं खड़े कर सकते। ' और वाइब्रेशन उसके ऐसे थे कि जैसे जल रहा है। बहुत नाराज़ हो गये मेरे साथ। और नाराज़ होकर के वो चले गये। उन्होंने कहा, 'ये तो हो ही नहीं सकता ऐसा।' लेकिन सबसे बड़ी बात उस वक्त ये हुई कि उन्होंने बहुत बकना शुरु कर दिया। जब बहुत बकना शुरु किया तो एक साहब, हमारे सहजयोगी हैं, उठकर खड़े हो कर कहने लगे, 'ज़्यादा बका तो ऊपर से नीचे फेंक देंगे।' तो कहने लगे, 'वाह रे वाह, देखिये ये सहजयोगी हुए हैं। इनमें कोई नम्रता नहीं है।' मैंने कहा, 'खबरदार, जो सहजयोगियों को कुछ कहा या मुझे कुछ कहा अब! मैंने सुन लिया बहुत।' मैंने कहा, 'ये दिन गये कि सब साधु-सन्तों को तुमने सताया था। अगर किसी ने भी एक शब्द कहा है तो देख लेना उनका ठीक नहीं होगा। बहुत लोगों को ये है कि कोई अगर साधु-सन्त है उसको जूते मारो , तो भी साधु- सन्त को कहना चाहिए और दस मारो। ये कुछ नहीं होने वाला। आप अगर एक जूता मारियेगा तो हज़ार आप खाइयेगा। तब वो घबड़ा करके भागे वहाँ से। ये भी लोगों में है कि 'आपको गुस्सा कैसे आ गया ?' दूसरी ओर अभी एक साहब मिले । मुझसे बकवास करने लगे। मैंने कहा, 'चुप रहिए, आप बेवकुफ़ आदमी हैं, बहुत बकवास कर रहे हैं बेकार में।' कहने लगे, 'मैंने ये पुराण पढ़ा, मैंने वो पुराण पढ़ा।' मैंने कहा, 'आपने कुछ नहीं पढ़ा। बेकार बातें कर रहे हैं। आपको कुछ पता नहीं है। अभी पता हो कि नम्बर दो को चलाते हैं कि नम्बर चार, पता नहीं क्या-क्या होता है।' तो मैंने कहा कि, 'देखिये, आप बेवकुफ़ी की बातें मत करिये। दूसरे जो है उनको समझने दीजिये। आप बीच में बकवास मत करिये, आप चुप रहिए।' तो कहने लगे, 'देखिये आपको आ गया। आपकी अगर कुण्डलिनी जागृत है तो आपको गुस्सा नहीं आता!' मैंने कहा, 'मेरा गुस्सा मत पूछो तुम। बड़ा जबरदस्त होता है जब आए तो।' तो फिर जरा सहमे महाशय। लेकिन बात ये है कि इस तरह की धारणा लोग बहुत ১১ गुस्सा कर लेते हैं। आप कोई बिलबिले आदमी नहीं हो जाते हैं । आप वीरश्रीपूर्ण, आप तेजस्वी लोग हो जाते हैं, आपके हाथ में तो तलवारें देने की बात है। ये थो़े कि आप उस वक्त में जितना भी कोई चाँटा मारे आप खायेंगे। वो येशू ने कहा कि माफ़ कर दो। वो दूसरी बात थी, उसका अर्थ ही दूसरा था। क्योंकि उस वक्त लोगों का ये ही हाल था कि एक ही चाँटा कोई नहीं खा सकता था। लेकिन पार होने के बाद तत्क्षण आपमें शक्ति आ जाती है। तत्क्षण। सामूहिकता को इस तरह से समझना चाहिए कि एक आदमी उठकर के कोई कहे कि मैं विशेष कर 15 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-15.txt रहा हूँ, एक आदमी सोचे कि मुझे करने का है। एक आदमी सोच ले कि मैं माँ के बहत नज़दीक हूँ, तो इतना वो दूर चला जाएगा। क्योंकि मंथन हो रहा है। बड़े जोर का मंथन हो रहा है। शायद आप इसको महसूस कर रहे हैं कि नहीं कर रहे, पता नहीं। जब हम दही को मथते हैं, तो उसका सब मक्खन ऊपर आ जाता है। फिर हम थोड़ा सा मक्खन उसमें डाल देते हैं यही समझ लीजिए अवतार है, समझ लीजिए, यही समझ लीजिये और कि परमात्मा की कृपा है। उस मक्खन से बाक़ी सारा लिपट जाता है और सब साथ ही साथ एक ही जैसा चलता है। अब उसमें से कोई सोचे मैं अलग हूँ। एकाध-दो, चार मक्खन के कण इधर-उधर रह जाते हैं तो लोग फेंक देते हैं। उसके पीछे में कौन दौड़ने चला है? 'सब एक हैं और एक ही दशा में हैं। कोई ये न सोच लें कि मैं ऊँची दशा में हूँ। मैं नीची दशा में हूँ, वो ऊँची दशा में है, कभी नहीं सोचना। इस तरह से सोचने से बड़ा नुकसान हो जाता है। यानी आप सोच लीजिये कि जब हम एक ही अंग हैं। अगर एक उँगली सोच ले कि 'मैं बड़ी हो जाऊँ', नाक मेरी सोच ले कि 'मैं बड़ी हो जाऊँ। कैसी दिखेगी शक्ल? ये तो दोष है। यही तो कैन्सर होता है। कैन्सर में एक अपने को बड़ा समझकर के बाक़ी सेल्स को खाने लग जाता है। ये हो गया कैन्सर। ऐसा जो इन्सान होता है वो अपने को अनोखा बनाना चाहता है कि सब मेरे ही पास हो जाए, मैं कोई तो भी विशेष हो जाऊँ। मेरा ही कुछ विशेष हो जाये, वो आदमी कैन्सरियस हो गया समाज के लिये| सहजयोग की ऐसी स्थिति है, जैसे कि एक मैं कहानी बताती हूँ कि जैसे एक बहुत सी चिड़ियाँ थीं और उनको एक जाल में फँसा दिया गया। तो चिड़ियों ने आपस में ये सलाह मशवरा किया कि, 'अगर हम लोग सब मिलकर इस जाल को उठा लें तो जाल हमारे साथ उठ जायेगा, फिर जाकर इस को तुड़वा देंगे, बाद में फड़वा देंगे, किसी तरह से निकाल देंगे। तो कहा, 'हाँ ठीक है।' सब मिलकर के एक, दो, तीन कहकर के उठें। और सबके सब उठे और जाल को तोड़ दिया उन्होंने । वही चीज़ सहजयोग है। सहजयोग की सामूहिकता लोग समझ नहीं पाते हैं, इसलिए बहुत गड़बड़ होता है। माने, 'माँ, मैं घर में बैठ करके ध्यान करता हूँ। रोज़ पूजा करता हूँ। मेरे वाइब्रेशन्स बन्द हो गये। होंगे ही! आपको सामूहिकता में आना पड़ेगा। आपको सेंटर पर आना पड़ेगा। एक दिन हफ़्ते में कम से कम सेंटर में आ करके आपको देखना पड़ेगा कि आपके वाइब्रेशन ठीक हैं या नहीं। दूसरों पर मेहनत करनी पड़ेगी। आप दीप इसलिये बनाये गये हैं कि आपको दूसरों को देना होगा। इसलिये नहीं बनाए गए कि आप अपने ही घर बनाते रहिये। फिर वही दीप हो सकता है बिल्कुल बुझ जाएगा। ये दीप सामूहिकता में ही जल सकता है, नहीं तो जल नहीं सकता। ये महायोग का विशेष कारण है कि हम अपने को अलग न समझें। आयें नम्रतापूर्वक, आप ध्यान में आयें, हो सकता है कि सेंटर में एकाध आदमी आपसे कहे भी कि, 'भाई , ये छोड़ दो , ये नहीं करो।' तो बुरा नहीं मानना है। क्योंकि उन्होंने अनुभव किया है। उन्होंने जाना है, कि ये बात गलत है, इसको छोड़ना चाहिए, इसे निकालना चाहिए। और जो कुछ भी सेंटर में कहा जाये उसे करें क्योंकि सेंटर पर हमारा ध्यान रहता है। कृष्ण ने भी कहा है कि जहाँ दस लोग हमारे नाम पर बैठते हैं वही हम रहते हैं न कि कहीं एक बैठा हुआ वहाँ जगल में और कृष्ण-कृष्ण कह रहा है। उनको समय नहीं है। कबीर ने कहा कि, 'पाँचों पच्चीसों पकड़ 16 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-16.txt १० की बुलाओ।' मतलब उनकी भाषा में इतना अधिकार भी देखिये। कितने अधिकार से बातें करते थे । कोई ग़्िला नहीं था उनमें। वो कहते हैं, 'पाँचो पच्चीसों पकड़ बुलाऊँ, एक ही डोर उड़ाऊँ।' ये कबीर जैसे लोग बोल सकते हैं। और आप भी कह सकते हैं इसको बाद में। जब आप पार हो जायें तो आप भी देखेंगे कि जब तक पाँचों पच्चीसों नहीं आयेंगे तब तक सहजयोग मुकम्मल (पूर्ण) नहीं होता है। से लोग आते हैं, पार हो जाते हैं। उसके बाद जब में आती हूँ तभी आते हैं। उनकी हालत कोई बहुत ठीक नहीं रहती। सहजयोग में वो बढ़ते नहीं, वृद्धिंगत नहीं होते। आप पेड़ों के बारे में भी ये अनुभव करके देखें, कि अगर कुछ पेड़ मरगिल्ले हो जाएं तो उनको और पेड़ों के साथ आप लगा दीजिए, वो पनप जाते हैं। एक दूसरों को शक्ति देते हैं। मानो, जैसे कोई एक दूसरे को देखकर के बढ़ते हैं । और यही सामूहिकता ही सर्व राष्ट्रों में और सर्व देशों में फैलने वाली है। और उस दिन आप जानियेगा कि आप चाहे यहाँ रहें, चाहे इंग्लैण्ड में, चाहे अमेरिका में, या चाहे किसी भी मुसलमान देशों में या चीनी देशों में, कहीं भी रहें आप सब एक हैं। 17 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-17.txt यही शुरुआत हो गई है, और सहजयोग एक बड़ी संक्रान्ति है। 'सं' माने अच्छी और 'क्रान्ति' माने आप जानते हैं। ये एक बड़ी भारी क्रान्ति है, जो प्रेम से होती है, जो अन्दर से होती है। उसमें सबसे पहले जानना चाहिये कि हम उस विराट के अंग -प्रत्यंग हैं। हम अलग नहीं । और आप हैरान होइयेगा। इसके कितने फ़ायदे होते हैं। एक हमारे शिष्य थे, प्रोफ़ेसर साहब राहुरी में। वो ज़रा अपने को अफ़लातून समझते थे, बहुत ज़्यादा। एक बार उन्होंने मुझे बताना शुरु किया कि ये साहब जो हैं ये सहजयोग तो अच्छा करते हैं, बहुतों को पार तो किया लेकिन ज़रा गुस्सा इनको ज़्यादा आता है। और इनकी बीवी से इनकी पटती नहीं है। दुनिया भर की मुझे और शिकायतें करने लग गये। तो भी मैं चुप थी। मैंने कुछ नहीं कहा। फिर उन्होंने एक ग्रुप बनाया आपस में, कहने लगे हम लोग अलग से काम करेंगे । तो भी मैं चुप थी। तीसरे मर्तबा जब गये तो देखा कि वो कह रहे थे कि कुछ हर्ज नहीं थोड़ा सा तम्बाकू भी खा लें तो कोई बात नहीं, मैं तो खाता हूँ। माताजी को तो कुछ पता ही नहीं है। मैं तो खाता हूँ। कोई हर्ज नहीं। तो वो सब तम्बाकू खाने वालों ने एक ग्रुप बना लिया। माताजी के, मतलब, हैं तो सहजयोग, लेकिन तम्बाकू खाने वाले सहजयोगी, शराब पीने वाले सहजयोगी, रिश्वत लेने वाले सहजयोगी, झूठ बोलने वाले सहजयोगी । ऐसे ग्रुप बन गये। तो मैंने उनसे कहा, 'वहाँ पर सिर्फ तम्बाकू खाने वालों का था, तम्बाकू बड़ी मुश्किल से छूटती है, बहुत मुश्किल से ।' तो, उसके बाद जनाबेआली से मैंने फ़रमाया कि, 'देखिये, जरा आप सम्भल के रहिये। बहुत ज़्यादतियाँ आपने कर लीं हैं। जब ये ग्रुप बन जाता है, मैंने तभी कहा, तब विष बहुत ज़ोर करता है। अगर एक ही सेल हो तो कोई बात नहीं। लेकिन अगर दस सेल्स हो गये और सब मैलिग्नंट हो गये तो गया आदमी काम से।' उसके बाद जब मैं मोटर से आ रही थी तो मैंने रास्तें में जो वहाँ के संचालक थे उनसे कहा कि, इन पर नज़र रखिये। मुझे डर लगता है कि ये कहीं गड़बड़ में न फँस जायें। और आपको आश्चर्य होगा कि उनको ब्लड कैन्सर हो गया । अब जब ब्लड कैन्सर हो गया तो उनकी हालत ख़राब हो गयी। तो वो साहब बम्बई पहुँचे। और बम्बई में सब सहजयोगियों ने अपनी जान लगा दी । बिल्कुल जान लगा दी उनके लिये। जितने भी डॉक्टर थे सहजयोगी और जो लोग थे उन्होंने अस्पताल में उनको भर्ती करना, उनका सब डाइग्नोसिस करना, उनके लिए दौड़ना, धूपना सब शुरु। अब जो रिश्तेदार उनके चिपके हुए थे वो तो सब छूट गए, वो कोई उनको जानने वाला नहीं। उनके पास तो न इतना रुपया था न पैसा था। सब कुछ सहजयागियों ने तैयार करके-मुझे जो लोग कभी भी ट्रंककॉल नहीं करते थे, वो लन्दन में ट्रंककॉल पर ट्रंककॉल, 'माँ, वो हमारे एक सहजयोगी हैं, उनको ब्लड कैन्सर कैसे हो गया ? आप ठीक कर दीजिये।' मैंने कहा, 'इन्होंने कभी न चिट्ठी लिखी न कुछ किया।' आज ट्रंककॉल लन्दन करना कोई आसान चीज़ नहीं । और जब देखो तब ट्रंककॉल, 'माँ इनको ठीक कर दो, माँ वो हमारे.........'। माने जैसे इन्हीं के प्राण निकले जा रहे हैं, सबके। बहरहाल वो अब ठीक हो गये, बिल्कुल ठीक हो गये डॉक्टर ने कह दिया कि दस दिन में खत्म हो जाएंगे लेकिन अब बिल्कुल ठीक हो गये। अब वो समझ गये बात। उनके सगे कौन हैं, वह अब पहचान गये हैं। उससे पहले नहीं । उन लोगों के पीछे में दौड़ते थे, दूसरे रिश्तेदारों के पीछे में, उनको खाना खिलाना, पिलाना। उनसे कभी सहजयोग की बात नहीं करना। और जब सहजयोग में आना तो तम्बाकू वालों का एक ग्रुप बना लेना। 18 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-18.txt लेकिन ऐसा आपका सगा-सोयरा कहीं दुनिया में नहीं मिलेगा। ज़्यादातर सगे ऐसे होते हैं कि आपकी खुशियों पर पानी डालते हैं। और कहते हैं कि ऊपर से दिखायेगे आपके बड़े दोस्त हैं लेकिन चाहेंगे कि आप खुश न हों। देखिए, आपको आश्चर्य होगा कि अगर कोई मर जाता है तो हज़ारों लोग पहुँच जाते हैं रोने के लिए। खुश होते होंगे, शायद घर पर आफ़त आयी, मन में। और जब कुछ प्रमोशन हो जाये, कुछ अच्छाई हो जाये, तो कहने लगे- 'पता है इसका कैसे प्रमोशन हो गया है ! इसने बड़ी लल्लोचप्पी की होगी।' कभी खुश नहीं होते। लेकिन सहजयोग दूसरी चीज़ है। सहजयोग में लोग खुश होते हैं, जब देखते हैं, 'अरे ये सहजयोगी प्रथम आ गया। इस सहजयोगी के ऐसे हो गया।' सहजयोगी के घर में किसी को बच्चा हो गया तो मार तूफ़ान हो जाता है। अभी एक साहब की शादी हुई राहुरी में। वो स्वित्झरलैण्ड के थे। वहाँ आकर उन्होंने शादी करी। कहने लगे मेरे सगे भाई - बहन तो यहाँ रहते हैं। मुझे क्या करना है स्वित्झरलैण्ड में शादी कर के। वो स्वित्झरलैण्ड से आये, राहुरी-एक गाँव में। वहाँ आकर के उन्होंने शादी करी, अपनी बीवी को भी लाये, और वहाँ उन्होंने शादी करायी। वहीं घोड़े पर गये और सब कुछ किया उन्होंने। कहने लगे, 'भईया, मेरा वहाँ कोई नहीं रहता । मेरे सगे-सोयरे सब यहाँ पर हैं।' और ऐसे आनन्द से सबने उनकी शादी मनाई। और अब उसको बच्चा होने वाला है तो सब सहजयोगी ऐसे खुश हो गये, आपस में पेड़े बाँटने लग गये। और उनके जो रिश्तेदार थे, उनको समझ में ही नहीं आया कि ये कैसे सब हो गया। अब आपके रिश्तेदार सहजयोगी हो जाते हैं। आपके मित्र हो जाते हैं। आपके 'अपने' हो जाते हैं, 'आत्मज ' । 'आत्मज' शब्द बहुत सुन्दर है। शायद कभी इस का मतलब किसी ने नहीं सोचा। 'आत्मज' जो आत्मा से पैदा हुए हैं,वो आत्मज होते हैं। कहा जाता है कोई बहुत नज़दीकी आदमी को 'ये मेरे आत्मज हैं। जिस का आत्मा से सम्बन्ध हो गया उसका नितान्त सम्बन्ध होता है। मैं और खुद आश्चर्य में पड़ती हूँ कि मेरे जान को लग जाएंगे अगर किसी के इतनी सी तकलीफ हो जाए और बार-बार माफ़ी मांगेगे, 'माँ तुम माफ़ कर दो। तुम तो माफ़ कर दो। उस पर कुछ नाराज़ हो गई हो। नहीं तो......'। मैंने कहा कि, 'भई, तुम क्यों माफ़ी माँग रहे हो उसकी?' 'अब वो भूल रहा है माफ़ी माँगना तो हम ही माँग रहे हैं, उसको माफ़ कर दो ।' इतना प्रेम चढ़ता है सब देख - देखकर। इतना मोह लगता है कि, कितनी मोहब्बत , कितना खयाल ! कितनी किसी पर कोई परेशानी आ जाए, पैसे की परेशानी आ जाए, कोई तकलीफ़ हो जाए, तो सबके सब चुपके से उसको कर लेते हैं, मेरे को पता ही नहीं चलता है। सब आपस में ऐसे खड़े हो जाते हैं, और सारी दुनिया की दुनिया ऐसे सहजयोगियों की जब खड़ी होगी 'तब सोचिये क्या होगा?' अभी तो हम लोग वैमनस्य, द्वेष और हर तरह की प्रतियोगिता और दो पागल रैट रेस के पीछे में दौड़ रहे हैं। ये सब खत्म हो जाएगा। और इतनी सुरक्षा की भावना हमारे अन्दर आ जाएगी कि सब हमारे भाई बहन हैं। पर जो लोग, जन- सामूहिक नहीं होते वो निकलते जाते हैं, सहजयोग से। ये तो ऐसा है, जैसे कि अपकेन्द्रीय बल है वो घूमता है, घूमता है और अगर उसने ज़रा सा छोड़ा कि गया वो स्पर्रेखा से बाहर । वो 19 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-19.txt रहता नहीं, फिर टिकता नहीं। इसलिये उसे चिपक कर रहना चाहिये। इसके जो नियम हैं, उसको समझना चाहिए, उसको जानना चाहिये। दूसरों से पूछना चाहिये । उसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं। जो कल आये थे वो ज़्यादा जान गये। आज आप आये हैं आप जान जाइये। और जो कल आयेंगे वो आप से जानेंगे। इसमें बुरा मानने की और इसकी कोई बात नहीं। पर जब आदमी सहजयोग में पहले आता है तो वह यही भावना लेकर आता है कि अब हम इसमें आये हैं और ये देखिये, हमें बड़ी शान दिखा रहे हैं। ये दूसरे हो गये। इनकी श्रेणी बदल गयी है, ये दूसरे हैं। ये दिखने में आप जैसे ही हैं लेकिन ये दूसरे हो गये हैं। जैसे समझ लीजिये कि आपके कॉलेज में लड़के पढ़ते हैं। कोई बी. ए. है, कोई प्रथम वर्ष है। फिर कोई एम.ए. में है। एम.ए. लड़का पास होकर प्रोफ़ेसर होकर आ जाता है, तो हम यह थोड़े ही कहते हैं कि कल हमारे ही साथ में पढ़ता था और आज आ गया बड़ा हमारे ऊपर। उसी तरह की चीज़ है-इनकी श्रेणी बदल गयी। आप की भी श्रेणी बदल सकती है। कुछ-कुछ लोगों को मैंने देखा है कि सालों से रगड़ रहे हैं सहजयेग में। कुछ प्रोगेस नहीं होता, वो ऐसे ही चलते रहते हैं, डावाँडोल-डावाँडोल। कभी गुरुओं के चक्करों में घुसे। आज ही एक महाशय आये थे, आये होंगे अभी भी। पार हो गये थे, उसके बाद में वो गये; कोई शंकराचार्य के पास गये, कहीं किसी के पास गये, कहीं कुछ गये। बिचारे बिल्कुल पागल हो गये, पागल। मुझे आकर बतलाने लगे कि माँ, मेरे अन्दर पिशाच भर दिये इन्होंने। सबने पिशाच भरें। आए अभी बिचारे; काफ़ी उनको साफ़-सूफ़ किया हमने। पर उससे प्रगति उनका कम हुआ। अगर उसी वक्त जम जाते तो आज कहाँ से कहाँ होते। और बड़ी तकलीफ़ उठाई बिचारों ने। बड़ी परेशानी उठाई। सामूहिकता को आप समजें कि बहुत महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ा आशीर्वाद सामूहिकता में आता है। और जहाँ इस सामूहिकता को तोड़ने की कोशिश की, यानि लोगों की आदत है, क्लब करने की, कोई न कोई बहाना लेकर के। आप सफेद बाल वाले हैं तो मैं भी सफ़ेद बाल वाला हूँ। चलो, हो गये एक। आप लम्बे आदमी हैं तो हम भी लम्बे आदमी हैं, हो गये क्लब। आप सरकारी नौकरी हैं, मैं भी सरकारी नौकर हूँ, चलो हो गए एक। सहजयोग में सब छूट जाता है। आप कौन देश के हैं? परमात्मा के देश के। आप किसके साम्राज्य के है? परमात्मा के। परमात्मा ने थोड़ी ऐसी बनाया था कि आप यहाँ के, आप वहाँ के। भई परमात्मा तो हर एक जगह विविधता बनाते ही हैं। ये त्रिगुण के विविध मिश्रण के साथ में उन्होंने ये सारा बनाया और जिस लिये कि जैसे वैविधता से खूबसूरती आती है। आप सोचिये कि सबकी एक जैसी शक्ल हो जाती तो नीरस नहीं हो जाते सब लोग? कम से कम हिन्दुस्तानी औरतों को इतनी अक्ल है कि साड़ियाँ पहनती हैं अब भी , और अब अलग- अलग तरह की पहनती हैं। पर आदमी तो बोर करते हैं-उनके कपड़ों से। सब एक जैसे। औरतें जो हैं अभी भी अपना मेंटेन किए हैं। अगर एक औरत ने देखा कि दसरी मेरे जैसी साडी पहन कर आयी है तो बदल के आ जाएगी। और साड़ी वाले भी इतने होशियार होते हैं बिचारे। वो जानते हैं उनको आदत पड़ी रहती है। पचासों साड़ियाँ दिखायेंगे। वो थकते नहीं बिचारे। मैं कहती हूँ कौन जीव हैं, ये भी पता नहीं। और कभी उनको पता | 20 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-20.txt हो गया कि ये साड़ी मेरे पड़ोस के उसके रिश्तेदार के उसके पास है तो लेंगी नहीं। ये विविधता की भावना सौंदर्य का लक्षण है। इसलिये परमात्मा ने बनाया है। उसने सारी सृष्टि सुन्दर से बनायी, कहीं पहाड़ बनाये, कहीं पर नदियाँ बनायीं, कहीं कुछ बनाया। इसलिये कि आप लोग उसमें मस्त रहें, मज़े में रहें। लेकिन आपने तो इसको ये देश बना लिया, उसको वो देश बना लिया, उसने वो देश बना लिया और लड़ रहे हैं आपस में। अजीब हालत है। हमारे जैसे अजनबी को तो बड़ा ही आश्चर्य लगता है, 'भाई, इसमें लड़ने की कौनसी बात है?' और फिर घुटते-घुटते हर एक देश में अपनी- अपनी समस्या, अपना अपने ढंग बनता गया। सहजयोग में ये चीज़ टूट जाती है। आपको देखना चाहिए था कि परदेश के आये हुए लोग किस तरह से अपने देहातियों के साथ गले मिल- मिलकर के कूद रहे थे। और वहाँ पर नृत्य सीख रहे थे, कैसे अपने देहाती लोग नृत्य करते हैं। अगर ये पंजाब जाएंगे तो वहाँ जाकर भांगडा करेंगे, उनके साथ कूद - कूदकर । देखने लायक चीज़ है। ये भूल गए कि हम किस देश के हैं। प्रेम, उसका मज़ा, प्रेम का मजा आता है। फिर आदमी यह नहीं सोचता कि कपड़े क्या पनहे हैं, ये कहाँ रह रहा है कि क्या; बस मज़े में। ये सब विचार ही नहीं आता है-कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन कितनी पोजिशन में है। कुछ खयाल नहीं आता। ये सब बाह्य की चीज़ें हैं, सनातन नहीं है। क्योंकि सनातन को पा लिया है। पर सबसे बड़ी बात आपको याद रखनी चाहिए, हर समय, कि हमें सामूहिक होना चाहिए और सामूहिकता में ही सहजयोग के आशीर्वाद हैं । अकेले -अकेले बिल्कुल नहीं। बिल्कुल भी नहीं। आप खो दीजियेगा सब कुछ। मैंने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं। लोग ज़्यादातर जो बीमारी ठीक करने आते हैं, वो ज़्यादातर इसी तरह से होते हैं। आये, बीमारी ठीक हो गई, उसके बाद बैठ गये। एक साहब आये थे हमारे पास , बहुत चिल्ला-चिल्ला कर 'माँ, मेरा ये जल रहा है , मुझे बचाओ, बचाओ, बचाओ।' मैंने कहा, 'बैठे रहो अभी थोड़ी देर।' उसके बाद जब पहुँची तो पाँच मिनट में ठीक भी हो गये। उसके बाद एक दिन बाज़ार में मुझे मिले, तो मेरा फोटो वोटो रखा हुआ है अपने मोटर में। कहने लगे मैंने घर में भी फोटो रखा है, मेरे दिल में भी फोटो है। मैंने कहा, 'बेटे क्या बात है, वाइब्रेशन तो हैं नहीं। कहने लगे, 'हाँ नहीं है।' और अब एक कोई नई बीमारी हो रही है। मैंने कहा, 'ये सब फोटो बेकार गये न तुम्हारे लिये। तुम सहजयोग करने के लिए केन्द्र पर आओ।' आप सोचिये, दिल्ली शहर में हमारे पास कोई केन्द्र नहीं। हर तरह के चोरों के पास यहाँ इतने बड़े-बड़े आश्रम बन गये। हमारे पास अभी कोई जगह नहीं। किसी के घर में ही हम कर रहे हैं। कोई बात नहीं। हमारे पास जो धन है, वो सबसे बड़ी चीज़ है। उसके लिये कोई जरूरी नहीं कि अब महल खड़े हों , बड़े वातानुकूलित आश्रम हों। वह तो कभी होंगे ही नहीं हमारे। और अभी तक हमें, कहीं भी हम लोग ज़मीन नहीं खरीद पाये, क्योंकि हमने यह कहा था कि हम काला बाज़ार का पैसा नहीं देंगे । तो आज तक इस दिल्ली शहर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा है कि, 'अच्छा माँ हम आपको ऐसी ज़मीन देंगे जिसमें सीधा- सीधा पैसा हो।' एक आदमी नहीं मिला इस दिल्ली शहर में और उस बड़े भारी बम्बई शहर में आपके! ये हालत है। सरकार से कहा, तो वहाँ भी जो नीचे के लोग हैं वो रिश्वत लेते हैं। उनको क्या मालूम ये सब | 21 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-21.txt चीज़, कि ऐसा- ऐसा होता है। लेकिन होता है। और उसके बाद उन्होंने ज़मीन दी भी, मतलब रिश्वत तो हमने दी नहीं, तो उन्होंने हमें सब्ज़ी मंडी के अन्दर जगह दी। बताइये अब ! सब्ज़ी मंडी के अन्दर जहाँ बैल बाँधते हैं, वहाँ उन्होंने सहजयोगियों के लिए जगह दी। हमने कहा, 'भाई, जिसने दी है, उसने कभी देखा भी कि बैलों के साथ क्या सहजयोगी वहाँ बैठने वाले हैं?' बहरहाल अब तो उस बात को लोग समझ गये हमें बहुत दौड़ना पड़ा, सालों तक। अब दस वर्ष से कोशिश करने के बाद उन्होंने कहा, कि हम इस पर सोचेंगे। इसका अर्थ आप सरकारी नौकर जानते हैं। अभी वो सोच ही रहे हैं। तो बहरहाल जब भी जगह होगी, जैसे भी जगह, आप उसको देखें वहाँ करें, जो भी अभी सुब्रमनियम साहब ने अपना घर दिया हुआ है वहीं होता है। और कोई जगह अगर आपको मिल जाये तो ऐसी कोई जगह कर लीजिए । कोई ज़रुरत नहीं कि बहुत बड़ी जगह हो। सर्वसाधारण लोग जहाँ आ सकें। इस तरह से सब अपना ही कार्य है। हमारे बच्चों के लिए हम कर रहे हैं। हमारे सारे मानव जाति के लिये हम कर रहे हैं। इसके लिये बहुत बड़ा आडम्बर करने की जरुरत नहीं है। सादगी से ही, सरलता से ही सबको बैठकर करना चाहिए । सहजयोग इतनी आशीर्वाद देने वाली चीज़ है कि सहजयोग में आये हुए लेग आज बड़े-बड़े मिनिस्टर हो गये हैं। ये भी बात देखिये कितनी आश्चर्य की है। लेकिन मिनिस्टर होने के बाद वो गये कि वो सहजयोगी हैं। जब मिनिस्टरी छूटेगी फिर आयेंगे। जरुर आयेंगे। फिर आप पहचानियेगा कि, 'ये फलाने मिनिस्टर थे, माताजी।' अब उनको फुरसत नहीं। भूल फुरसत सहजयोग के लिये जरूर निकालनी पड़ेगी आपको। ये आपका परम कर्तव्य है। जो कहता है, 'मेरे पास समय नहीं है। कब करुँ?' वो सहजयोग नहीं कर सकता। रोज शाम को और रोज सबेरे थोड़ा देर निकालना पडता है। सहजयोग में अनेक नियम हैं। अपने आचार-व्यवहार, बर्ताव, रहन-सहन, आसन आदि क्या-क्या करने के वरगैरह सबके नियम हैं। मैं सब नहीं बता सकती। एक साहब ने प्रश्न किया कि , 'माताजी, आपने कहा था उसके आसन बताओ।' तो मैं सब चक्रों के आसन आज नहीं बता सकती। लेकिन इसके मामले में बहुत लोग जानते हैं। कौनसे आसन करने चाहिए, कौनसे चक्र पर कौनसी तकलीफ़ है। आपको कौनसी तकलीफ़ है, वो बता सकते हैं, पता लगा सकते हैं। आपस में आप विचार विमर्श कर सकते हैं और आप उन्नति कर सकते हैं। लेकिन आपको एक दूसरे से बातचीत करनी होगी और कहना होगा कि, 'मुझे तकलीफ़ है'। सबमें घुल-मिल जाना चाहिए। अधिकतर लोग क्या है, कि आये वहाँ देखा कि वो साहब थे। वह सब ऐसा कर रहे थे, तो हम वहाँ से भाग खड़े हुए, ऐसे लोगों के लिये सहजयोग नहीं है। आपको घुसना पड़़ेगा, उसमें रहना पड़ेगा, उन लोगों के साथ बातचीत करनी पड़ेगी। क्योंकि ये ऐसी कला है कि ये बार -बार माँगने पर मिलती | कोई सी भी कला, आप जानते हैं, गुरु लोग आपकी हालत खराब कर देते हैं तब देते हैं। तो आप का भी परीक्षण होता है कि आप कितने योग्य हैं। यह नहीं कि आप आए और आप छुई-मुई के बुधवा बनकर आपने न कह दिया कि 'साहब वो ऐसे-ऐसे थे। उन्होंने हमसे बदतमीजी की तो हम भाग आये।' नहीं। कुछ सहजययोग में जमना पड़ता है और उसमें आना पड़ता है। हालांकि कोई आपका अपमान नहीं करता। लेकिन आप में बहुत अहंकार होगा तो बात-बात में आपको ऐसा लगेगा। जैसे एक साहब आये, मुझे कहने लगे, 22 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-22.txt 'हम तो आये थे आपसे मिलने लेकिन वहाँ एक साहब थे बड़े बदमाश थे।' हमने कहा, 'क्या हुआ?' कहने लगे कि, 'हम दिन में आये थे आपके पास ।' मैंने कहा कि, 'कितने बजे ?' '३.३० बजे' | मैंने कहा, 'उस वक्त तो मैं आराम करती हैँ।' तो कहने लगे, ' हमने सोचा माँ का दरबार है, कभी भी आ जाओ।' मैंन कहा, 'ठीक है, आपके लिये तो माँ का दरबार है, लेकिन आपकी अक्ल का दरबार कहाँ रह गया ? जो रात-दिन माँ मेहनत कर रही है क्या उसको थोड़ा आराम नहीं करना चाहिए? अगर उन्होंने कह दिया कि इस वक्त माँ आराम कर रही है, 'आप नहीं आयें ।' तो आपको खुद सोचना चाहिए कि बात सही है ?' लेकिन जब वो उस जगह खड़े होंगे तो क्या करेंगे? इस प्रकार लोग बहुत बार सहजयोग से बेकार में भागते हैं, और इसकी सबसे बड़ी वजह मैं तो ये ही सोचती हूँ कि अभी वह पात्र नहीं है। जो आदमी पात्र होता है, घुसता चला जाता है। थोड़े दिन नाराज़ हो रहे हैं, कुछ हो रहे हैं। चले, घुसते चले जाओ। और गहन उतरता है। जो सॉफ्ट लाइन है, वो हमेशा लेती है, जीवन्त चीज़ । जैसे एक बीज़ है , जब वो अंकुरित होता है, तो उसका जो रुट-कैप होता है, बड़ा छोटा सा होता है, इतना सा। लेकिन बड़ा समझदार, होशियार होता है। वो जाकर चट्टानों से नहीं टकराता है। किसी पत्थरों से नहीं टकराता है, पत्थर के किनारे पर थोड़ीसी नर्म जगह मिल जाए, उसमें से घुसता चला जाता है। और जाकर जम जाता है पर उन पत्थरों पर, इस तरह से जकड़ जाता है कि सारा पेड़ का पेड़ उसीके सहारे खड़ा हो जाता है। यह अक्लमंदी की बात है जब इतना सा एक सेल है, उसको इतनी अक्ल है, तो क्या सहजयोगियों को नहीं होनी चाहिए कि किस तरह से हम गहन उतरे चलें। कुछ न कुछ बहाना बनाकर सहजयोग से भागने से आपकी प्रगति नहीं होगी। आपका ही नुकसान होगा। ये सब बहानेबाज़ियाँ आपको बन्द करनी चाहिये। ये आपके मन का खेल है। इसको आप छोड़िये। ये अहंकार है और कुछ नहीं है। ये बड़ा सूक्ष्म अहंकार है। कोई आपके पैर पर नहीं गिरने वाला। यह तो जरुरी है कि सबसे अच्छी तरह बातचीत की जाए, कहा जाए। पर अगर कोई बिगड़ भी गया उस पर, तो सहजयोग से भागने की क्या जरूरत है अब? जब तक आप केन्द्र पर नहीं आयेंगे तब तक आपका कोई भी काम नहीं बन सकता है। एक तो सब से बड़ी बात यह है कि बहुत से लोग यह भी सोचते हैं कि अगर हम सहजयोगी हैं तो हमारे बाप-दादे के दादे के, बहन के बहन के और भाई के भाई के, कोई न कोई रिश्तेदार, कहीं अगर उसको कुछ हो जाये तो बस वो माता जी उसको ठीक करें। एक साहब बहुत बड़े सहजयोगी हैं और हमारे यहाँ ट्रस्टी रह चुके हैं। सालों से ट्रस्टी हैं। उनकी बीवी भी। दोनों को बहुत बीमारी थी। ठीक हो गये। काफ़ी गहरे उतर चुके। सब कुछ हुआ। उनके लड़के का लड़का ऊपर से गिरकर मर गया। सामान्यत: सहजयोग के लोग दर्घटना से मरते नहीं कभी, अभी तक तो हमने नहीं किसी को मरते और वो इस तरह से मर गया। जवान हुए। सुना लड़का था। लेकिन उन्होंने कहा कि, 'ठीक है, ये तो कुछ न कुछ होना था और हो गया। लेकिन दुर्घटना से तो माँ ने मुझे बहुत बार बचाया है। मैंने इतनी बार अपने लड़के से कहा कि माँ के पास चलो। आया नहीं।' तो मैं क्या उसकी जिम्मेदारी ले सकती हैँ? अगर वो माँ के पास आता, अपने बच्चे को लेकर आता, भी ऐसा नहीं होता। उन्होंने वही बात मुझसे कही और इतना उस बच्चे को प्यार करते थे, सब कुछ, | तो कभी लेकिन 23 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-23.txt उन्होंने कहा कि, 'जब बाप ही नहीं आ रहा तो लड़का क्या आएगा?' आपके जितने रिश्तेदार हैं, उनका ठेका हमने नहीं लिया हुआ न आप लीजिए। आप उन से कहिये कि सहजयोग में आप उतरे। सहजयोग को आप पायें। और इसकी रिश्तेदारी आप अगर उठा लें तो सारी दुनिया ही आपकी रिश्तेदार है। पर यह सोचना कि, 'मेरी बहन बीमार रहती है और मेरे फ़लाने बीमार रहते हैं' और इस तरह से जो लोग करते हैं उससे कोई लाभ नहीं होता। पहले आपको पार हो जाना चाहिए। पार हो जाने के बाद आपका अधिकार बनता है। उस अधिकार के स्वरूप आप चाहें जो भी माँगे। आप का पूरा अधिकार है। सर आँखों पर हैं आप। अगर समझ लीजिये आप इंग्लैण्ड जायें और इंग्लैण्ड से जाकर आप कहें कि, 'हमें ये चीज़ चाहिए।' अरे रहने दीजिये, उस लन्दन में आपके लोग पैर नहीं ठहरने देंगे, जब तक आपके पास सत्ता न हो वहाँ जाने की। जब आपके पास सत्ता नहीं है, तब आपका सहजयोग से कोई भी आशीर्वाद माँगना गलत है। जैसे एक साहब थे, बहुत बीमार थे। इन लोगों ने टेलीफोन किया, ट्रंककॉल किया, 'माँ उनको ठीक करो।' वे पार नहीं थे, कुछ नहीं थे। तो मैंने कहा, 'अच्छा हम कोशिश करते हैं।' उनके साहबजादे पार थे। कोशिश की, मैंने कहा कि, 'देखो, इसको छोड़ दो।' अहंकार इतना था कि वो ठीक ही नहीं हये| तब आने पर वो ठीक हो गये। थोड़े दिन उनकी जिन्दगी चली। लेकिन जब मरना है तब तो आदमी मरता ही है, वो थोड़े ही न हम रोकने वाले हैं। सिर्फ यह है कि सहजयोग से मनुष्य शान्ति को प्राप्त करता है, मरने से पहले और जो चीज़ बहुत आकस्मिक हो जाती है, उससे बच जाता है। इसलिये मैंने कहा कि, 'दुर्घटना से नहीं मरता है। अचानक कोई चीज़ वो होकर नहीं मरता है।' वास्तविक जब मरना है तब मरता है। तो उनको जब मरना था वो मर ही गये बिचारे। वो पार भी नहीं हये थे और बड़ी मुश्किल से उनको किसी तरह से ठीक किया था। वो मर गये तो उनके सब रिश्तेदार कहने लगे कि, 'माता जी इनको बचाया नहीं।' मैंने कहा, 'उनसे एक सवाल पूछो कि आपने माताजी के लिए क्या किया?' पहला सवाल। लोग ऐसा हक़ सहजयोग से लगाने लगते हैं। क्योंकि ये सहज है । वो सोचते हैं कि माँ ने हमारे लिए क्या किया? अब भाई आपने क्या किया माँ के लिए ? आपने अपने ही लिए क्या किया? पहले तो सवाल ये पूछना चाहिए कि हमने अपना ही क्या भला किया हुआ है? सहजयोग में हमने ही क्या पाया हुआ है? क्या हमने अपने वाइब्रेशन्स ठीक रखे हैं? या क्या हमने एक आदमी को भी पार कराया है ? र में आप आश्चर्य करेंगे, इतने लोग पार होते हैं कि हज़ारों तादाद में। महाराष्ट्र की महत्ता मैं इसलिये नहीं कहना चाहती हूँ कि आप जाकर खुद ही देखिये , मैं तो खुद ही आश्चर्य में हूँ कि इतने हज़ारों लोग कैसे पार हो जाते हैं? और फिर जमते भी बहुत हैं। यह भी बात उन लोगों में है। और इस तरह की बात महाराषट्र वहाँ नहीं होती है। अब वहाँ ये नियम बनाया था पहले हमने कि किसी ने अगर ग्यारह आदमियों को पार किया है वो ही मेरे पैर छू सकता है। वहाँ पैर छूने की लोगों को बीमारी है। अगर किसी से कहो कि पैर नहीं छूना, तो बस उसके लिए फिर आफ़त हो जाती है। छः हज़ार भी आदमी होंगे तो भी चाहेंगे कि माँ के पैर छूयें। यहाँ किसी से कहो कि पैर छूओ तो वो बिगड़ जाये कि, 'क्यों पैर छूयें साहब इनके हम?' लेकिन उनको मैंने अगर कहा कि, 'आपको पैर छूना है तो आप कम से कम ग्यारह आदमी होने 24 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-24.txt चाहियें। वही लोग छू सकते हैं जिन्होंने ग्यारह आदमी पार किये।' तो कुछ लोग खड़े हो गये, कहने लगे, 'माँ, हमने तो ग्यारह नहीं दस ही किये हैं छू लें पैर ?' देखिये भोलापन। अब उन्होंने कहा कि, 'भाई अब इक्कीस बनाओ।' कम से कम इक्कीस पार किये हों तो माँ के पैर सकते हैं, नहीं तो अधिकार नहीं जमता। और ये काम बन गया, इक्कीस वाले बहत निकल आये। इतने निकले, कि मुझे तो कहना पड़ा, 'भाईयों, अब जाने दों, अब नम्बर बढ़ाओ।' ५१ कर दीजिये, तो भी बहुत निकल आयेंगे। वहाँ तो ऐसे-ऐसे लोग हैं, छू 'दस-दस हज़ार' पार किये हैं। इसलिये शायद उसका नाम 'महाराष्ट्र' रखा है। दस-दस हज़ार लोग पार करने वाले वहाँ लोग हैं। और यहाँ खुद ही नहीं जमते हैं, दूसरों को क्या करेंगे। जिसको कहना चाहिए बिल्कुल उथल वृत्ति है। अपने तरफ़ भी सेल्फ एस्टीम नहीं है। अपने बारे में भी विचार नहीं है, न दसरों के बारे में। जानते नहीं हैं हम क्या हैं। हम आत्मा स्वरूप हैं, कितनी बड़ी चीज़ है! हम कितने शक्तिशाली हैं! इस शक्ति को हमें बढ़ाना चाहिए। अपने बारे में कोई विचार ही नहीं है। एक रौनक़ लगा ली, बस हो गया। इससे काम नहीं होता। अपने अन्दर जो है रौनक़ करनी पड़ती है और सबके साथ में इसको बाँटना पड़ता है। मराठी में एक कवि हो गये हैं, उन्होंने कहा है, 'मला पाहिजे जातीचे, येरा गबाळ्याचे काम नोहे' । कहने लगे इसके लिए जिसमें जान हो वो आये। ऐसे वैसे नन्दी - फन्दी लोगों का ये काम नहीं है । येरा गबाळ्याचे' माने बेवकूफ़ों का ये काम नहीं है। इसलिये आपसे मुझे अनुरोध करना है, बताना है, बहुत - बहुत विनती करके, कि आपको जो भी दिया है उसका संजोना बहुत जरूरी है। इस को और बढ़ना बहुत जरूरी है। आप ही देहली के नींव के पहले पत्थर हैं। और आज सात साल से मैं यहाँ मेहनत कर रही हैं दिल्ली में और अभी इन गिन के दो सौ पत्थर भी नहीं जोड़ पायी। ये कठिनाई है। आप सोचिये। और जो आते भी हैं ज़्यादातर दल-बदल और दल बाँधने में नम्बर एक। यह शायद हो सकता है कि राजनीजि का असर हो। चाहे जो भी हो। इतनी राजनीति करते हैं कि जिसकी कोई हद नहीं। इसमें राजनीति नहीं है, कुछ नहीं है। इसमें सिर्फ़ अपने को पाना और परमात्मा को पाना और सारे संसार को एक नई सुन्दर, प्रेमपूर्ण क्रान्ति में बदल देना ही एक काम है। बड़ा भारी काम है। बहुत महान काम है। इसमें हज़ारो लोग चाहिये और अगर आप नहीं करियेगा तो ये भी आप जान लें कि ये लास्ट जजमेंट है। जजमेंट कुण्डलिनी से ही होने वाला है। और क्या भगवान आपको तराजू में डाल कर नहीं देखने वाला। कुण्डलिनी को जागृत करके ही आपका जजमेंट होना है। वो लास्ट जजमेंट जो बताया गया है वह शुरू हो गया है। और जो इसमें से रुक जायेंगे उसके लिए कलकी अवतरण में कि आप जानियेगा कि काट-छाँट होगी। कोई आपको भाषण नहीं देगा, कोई बात नहीं करेगा। बस एक टुकड़ा इधर या एक टुकड़ा उधर। यह आप समझ लीजिए और ये चीज़ अपने गाँठ में बाँध लें कि अब जितना भी सन्त-साधुओं ने यहाँ मेहनत की है, जो भी बड़े-बड़े अवतरण यहाँ हो गये, जो भी कार्य परमात्मा के दरबार के लिए हुआ है, वह सब पूरा हो गया है और आप मंच पर हैं। आप मंच पर रहना चाहें तो मंच पर रहें, या नीचे उतर जायें। यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप ही न रहें लेकिन सबको ऊपर खींचे। आप लोग दुसरी तरह के हैं। आपकी 25 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-25.txt श्रेणी और है। आप साधक हैं, और आपको समझ लेना चाहिए कि इसके लिये एकव्रत निश्चय होना चाहिए । आर्मी में इसको कहते हैं कि 'बाना' पहन लिया आपने। तभी ये चीज़ कम हो सकती है। और ऐसे वैसे, ऐरे-गैरे नत्थू खैरों से यह काम नहीं हो सकता। आप ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे नहीं है, मैं जानती हूँ। लेकिन अभी आपने अपने को पहचाना नहीं। उसे जान लेने पर आश्चर्य होगा कि क्या यह शक्ति, प्रचण्ड शक्ति, ब्रह्म शक्ति माँ ने हमें दी है! और जैसे ही शक्ति बहने लग जाती है, आदमी सोचता है कि, 'मैं भी इस काबिल हो जाऊँ।' जब इस प्याले से ये चीज़ छलक रही है तो ये प्याला भी इस योग्य हो जाये कि इस महफ़िल में आ यह सके। इस तरह से आदमी अपने आप ही अपना व्यवहार, अपना तरीक़ा 'सब' कुछ बदलता जाता है। 26 का 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-26.txt सबसे बड़ी बात तो यह है कि बड़े-बड़े जीव इस संसार में जन्म लेना चाहते हैं। अगर आपका दिल्ली में वातावरण ठीक नहीं हुआ, तो यहाँ सिर्फ राक्षस जन्म लेंगे। या तो बहुत ही पहुँचे हुए लोग जन्म लें, जो डण्डे लेकर आपको मारेंगे। और या तो राक्षस पैदा होंगे और राक्षसों की ही यह नगरी हो जायेगी । इसलिये मुझे बड़ा डर लगता है। कभी-कभी सोचती हूँ कि इनकी समझ में अभी बात आ नहीं रही। आप लोगों की बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि देहली जो है वह दहलीज़ है इस देश की ओर। इस दहलीज़ को लाँघ कर अगर राक्षस आ जायें तो आप लोग कहीं के नहीं रहेंगे। आपको दहलीज़ पर उसी तरह से पहरा देना चाहिये जैसे कि बड़े-बड़़े देवदूत और बड़े-बड़़े चिरजींव खड़े हुये आपके जीवन को सम्भाल रहे हैं। अपनी आप रक्षा करें और औरों की भी रक्षा करें। अपना कल्याण करें, औरों का भी कल्याण करें, और सारे संसार को मंगलमय बनायें, यही मेरी इच्छा है। इसके बाद मैं मद्रास जा रही हूँ, लेकिन उसके बाद आऊँगी। और उसके बाद भी मेरा प्रोग्राम दिल्ली में रहेगा तीन-चार दिन। आप लोग सब वहाँ आइये, जहाँ भी प्रोग्राम होता है। जहाँ-जहाँ सहजयोगी आते हैं वहाँ-वहाँ कार्य ज़्यादा होता है। सब लोग वहाँ आइये | ये लोग तो आपकी भाषा भी नहीं समझते हैं और जहाँ-जहाँ मैं गई गाँव वगैरा में वहाँ तो हिन्दी या मराठी भाषा बोलती रही। लेकिन ये लोग सब लोग वहाँ आते रहे और हर तरह की आफ़त, आप जानते हैं इन लोगों को तो गाँव में रहने की बिल्कुल आदत नहीं है। वहाँ पर रहकर के ये समझते हैं कि हमारे रहने से माँ के लिए बड़ा आसान हो जाता है। क्योंकि आप ही पथ है। आपके पथ में इस्तेमाल करती हूँ। अगर समझ लीजिये इतना बड़ा ये जो आपका बिजली घर है, इसमें अगर चैनल नहीं हुए तो बिजली कैसे प्रवाहित होगी। वह चैनल आप हैं, इसलिये आपको चाहिए कि जहाँ भी मैं करूँ, जब तक मैं हूँ, इसको निश्चय से, धर्म समझ कर आप वहाँ आयें और इस कार्य को आप अपने लिए भी अपनाइये और दूसरों के लिए भी अपनायें। धन्यवाद! 27 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-27.txt मानव जीवन का लक्ष्य ब्रह्म तत्व की प्राप्ति जब आप अपने को जान लेते हैं तो आपके अन्दर से ही ब्रह्म बहना शुरू हो जाता है। मैं यहाँ (पूथ्वी पर) आपको वही चीज़ देने आयी हूँ जिसे आप हज़ारों वर्षों से खोज रहे थे। यह आपकी अपनी ही है। आपकी अपनी ही है, सिर्फ मुझे उसकी कुंजी रही हूँ, आपका जो है उसे ही आपको सौंपने आयी हूँ। आप अपने को मालूम है। मैं कुछ अपना नहीं दे जान लौजिए और इस ब्रह्म तत्व को पा लौजिए। जो सनातन है, जो अनादि है, वो कभी नष्ट नहीं हो सकता; नष्ट नहीं हो सकता क्योंकि वो अनन्त है। उसका स्वरूप कोई कुछ बना ले, .....कुछ उसका रूप बना लीजिए लेकिन जो तत्व है उसका नाम है 'ब्रह्म तत्व'। इसी ब्रह्म तत्व से सारी सृष्टि की रचना हुई। इस ब्रह्म तत्व को पाना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसी ब्रह्म तत्व को जानने के लिए वेद लिखे गये। 'वेद' जो है विदु से होता है। 'विदू' शब्द का मतलब है जानना, और अगर सारे वेद पढ़कर भी आपने अपने को नहीं जाना तो वेद व्यर्थ हैं। वेद का अर्थ ही खत्म हो गया, यदि आपने अपने को नहीं जाना। जब आप अपने को जान लेते हैं तो आपके अन्दर से ही ब्रह्म बहना शुरू हो जाता है। मैं यहाँ (पृथ्वी 28 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-28.txt पर) आपको वही चीज़ देने आयी हूँ, जिसे आप हज़ारों वर्षों से खोज रहे थे। यह आपकी अपनी ही है। आपकी अपनी ही है, सिर्फ मुझे उसकी कुंजी मालूम है। मैं कुछ अपना नहीं दे रही हूँ, आपका जो है उसे ही आपको सौंपने आयी हूं। आप अपने को जान लीजिए और इस ब्रह्म तत्व को पा लीजिए। यही आत्मसाक्षात्कार है, क्योंकि आत्मा का प्रकाश ही ब्रह्म तत्व है, जब तक आपने आत्मा को जाना नहीं आप परमात्मा को नहीं जान सकते। यही परमात्मा का साक्षात्कार है। सबसे बड़ी सनातन बात यह है कि हम ब्रह्म-शक्ति से बने हैं और हमें उसको पाना है और अगर आपने उसे जाना नहीं तो आपने शक्ति को पाया नहीं। ... ब्रह्म को पाना है और उसके बाद इस सारी ब्रह्म- विद्या को आपको पूरी तरह से जान लेना है। सारी ब्रह्म-विद्या आप जान जाएंगे-यही सहजयोग है। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, १७.२.१९८१ 29 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-29.txt मानव को सर्वप्रथम ब्रह्म अर्थात् सत्य का ज्ञान होना चाहिए - सबसे पहले हमें यह जान लेना चाहिये कि 'सत्य' अपनी जगह है, उसको हम अपनी बुद्धि से नहीं समझ सकते हैं। वो जैसा है वैसा ही है। मनुष्य अपने अहंकार में सोचता है कि वह परमात्मा है कि वह परमात्मा का नाम लेकर जैसा चाहे उसे बनाये या बिगाड़े, पर मनुष्य के अन्दर अभी वो स्थिति नहीं आयी है जिसने इस चारो ओर फैली हुई ब्रह्म की शक्ति को जाना है। इस शक्ति को महसूस करना सबसे बड़ा सत्य है। यह शक्ति संसार का सारा कार्य, सारा जीवित कार्य करती है और संसार को हर तरह से व्यवस्थित रूप में रखने में कार्यान्वित रहती है और इसका संतुलन, इसकी परवरिश करती है। इसी को चैतन्य कहा जाता है। ये शक्ति स्थित है - यह पहला सत्य है। दूसरा सत्य यह है कि आप स्वयं ये शरीर, अहंकार, बुद्धि आदि ये कुछ नहीं है। आप सिर्फ शुद्ध आत्मा हैं जो कि इस शक्ति को जान सकता है और पूर्णतया अपने अन्दर समा ले सकता है। इस शक्ति को प्राप्त करना ही मनुष्य के उत्थान का अंतिम चरण है। और उसमें एकाकारिता मिल जाना - यही एक योग है। आज आप अमीबा से एक इन्सान बन गये, अब इन्सान के बाद जो उसकी दूसरी दशा है उसमें मनुष्य को अब संत बनना है। माने उसको 'केवल सत्य' को नहीं जान सकते । आत्मसाक्षात्कार चाहिये, इसके सिवाय आप प.पू.श्री माताजी, ४. ४.१९९० तीसरा सत्य यह है कि हमारे अन्दर एक शक्ति है जो त्रिकोणाकार अस्थि में स्थित है और यह शक्ति जब जागृत हो जाती है तो हमारा सम्बन्ध उस परम चैतन्य से प्रस्थापित करती है और इसी से हमारा आत्म दर्शन हो जाता है। प.पू.श्री माताजी, कलकत्ता, ९/१०.४.१९९० ब्रह्म- ज्ञान के लिए जिज्ञासा एवं खोज आवश्यक है - अब सत्य को खोजने की आवश्यकता हमारे अन्दर पैदा हुई है, उसका क्या कारण है? ....कलियुग में मनुष्य भ्रांति में पड़ गया है, उसे समझ नहीं आ रहा है कि ऐसा क्यों हो रहा है? तब एक नये मानव की उत्पत्ति हुई है, एक सृजन हुआ है। उसे 'साधक' कहते हैं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, २.३.१९९१ देखो! कोई भी चीज़ जब अमीबा की तरह जीवन्त बनती है, तब आप एक कोषीय (Unicellular) कार्य कर सकते हैं। जिज्ञासा अभिव्यक्त होने लगती है क्योंकि जीवन्त ही खोज कर सकता है मृत नहीं। अत: जो लोग कहते हैं कि हम कुछ नहीं खोजते वो मृत सम हैं तथा जो कहते हैं हम खोज में लगे हुए हैं वो जीवित हैं, जिज्ञासु हैं। 30 প 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-30.txt यदि आप छोटी सी बात को समझें तो अमीबा जैसे छोटे से जीव में भी भूख के रूप में इच्छा का सृजन किया जाता है, इस बारे में सोचें। अमीबा में मस्तिष्क नहीं होता है; केवल एक छोटा सा केन्द्रक ( nucleus) होता है, फिर भी उसे भूख महसूस होती है। बढ़ने के लिए उसे कुछ न कुछ खाना पड़ता है। इस अमीबा को इस बात का ज्ञान होता है कि खाना किस प्रकार खाना होता है, परन्तु वो यह नहीं जानता कि खाना पचता कैसे है? खाना पाचन की जानकारी प्राप्त करना इसका कार्य नहीं है। हमारे साथ भी ऐसा ही है। तो ननहें से अमीबा में खोज की शुरूआत होती है और पूरी विकास-प्रणाली इसी खोज पर आधारित है। शनै: शनै: खोज के तरीके सुधरते जाते हैं, जबकि इच्छा केवल भोजन की होती है छोटे से छोटे अमीबा में एक अन्य इच्छा भी, कह सकते हैं भावना होती है, यह है स्वयं को सुरक्षित रखने का विवेक। अमीबा जानता है कि इसके अस्तित्व को कौन से खतरे हैं। यही छोटा सा अमीबा हज़ारों वर्षों की उत्क्रान्ति बाद जब मानव बनता है तब उसकी खोज परिवर्तित हो जाती है। निस्सन्देह भोजन की खोज बनी रहती है, क्योंकि यह तो मूल चीज़ है। व्यक्ति को भोजन तो करना ही है, यद्यपि भोजन की खोज करने के तरीके सुधर जाते हैं। खोज करने के तरीके परिवर्तित हो जाते हैं, विकसित हो जाते हैं। व्यक्ति को स्वयं को कबीले में सुरक्षित रखने की गहन सूझ-बूझ भी आ जाती है। सामूहिकता की ये भावना होती है । वो समझता है कि हम सबको सामूहिक होना है, एकत्र होना है और यदि स्वयं को सुरक्षित रखना है तो हमें संगठित होना है। यही सामूहिकता की भावना धीरे-धीरे मनुष्यों में भी विकसित होती है और इसकी अभिव्यक्ति आप सुरक्षित रहने के लिए सामूहिक बने रहने के अपने प्रयत्नों को देख सकते हैं । मनुष्यों में एक अन्य प्रकार की खोज शुरू हो जाती है, यह है दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की जिज्ञासा। इस प्रकार मानव का चित्त भोजन से धन पर गया और धन से सत्ता पर। मौलिक रूप से पैसे के पीछे दौड़ना और फिर सत्ता के पीछे दौड़ना अत्यन्त स्वाभाविक है । परन्तु इससे परे एक अन्य खोज आरम्भ होती है और यह खोज यह जानने की है कि हम यहाँ पर क्यों आये हैं, हम यहाँ क्या कर रहे हैं? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? परमात्मा ने हमारा सृजन क्यों किया है? अब यह चौथी जिज्ञासा ही आपके जीवन का, चौथे आयाम का, आरम्भ है। यह आपके अन्दर के स्थूल जिज्ञासा अर्थात भूख का पुष्टिकरण है। आध्यात्मिकता की भूख, परमात्मा प्राप्ति की भूख, जीवन के उच्च वस्तुओं को प्राप्त करने की भूख यह हमारे अन्दर आरम्भ हो जाती है। ...... जीवन के भिन्न अनुभवों से उत्क्रान्ति पाकर मानव को यदि इस बात का अहसास हो जाए कि जीवन के अनुभवों ने न उसे तुष्टि प्रदान की है और न ही इस प्रश्न का उत्तर दिया कि हम यहाँ क्यों हैं तो उनके जीवन में परिवर्तन घटित होने लगता है। और वह साधक बन जाता है, इससे पूर्व नहीं। 31 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-31.txt मानव बन कर भी हज़ारो वर्षों तक आपने साधना की है और आज आप अपने लक्ष्य के समीप पहुँच गए हैं। प.पू.श्री माताजी, लंदन, २४.७.१९७९ अब आत्मसाक्षात्कार के बाद ही आप 'सत्य' को जान पाएंगे - सत्य को जानना मतलब अपनी आत्मा को जानना है। उसको जानते ही चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की शक्ति को भी जानना है। अब 'जानना' शब्द जो है, उस पर हम लोग गड़बड़ कर जाते हैं। जानने का मतलब बुद्धि से नहीं। बुद्धि से तो बहुत लोग जानते हैं, सुबह से शाम तक पाठ चलते रहते हैं-मैं आत्मा हूँ, 'अहम् ब्रह्मास्मि ' और फिर भ्रम में लड़ने भी लग जाते हैं। जानने का मतलब है अपनी नसों पर, अपने केन्द्रीय स्नायु-तंत्र पर आपको जानना है। इसी को 'बोध' कहते हैं, 'विदु' कहते हैं जिससे वेद हुआ। इसी 'न' शब्द से ज्ञान बना उसी से वली हुए, कश्यप हुए। हरेक धर्म में माने गये लोग होते हैं जो कि आत्मसाक्षात्कारी हैं लेकिन एक-दो, केवल एक- दो ज़्यादा नहीं। यह कार्य कलियुग में ही होना था। एक तरफ तो कलियुग का गहन अंधकार, अज्ञान और पहाड़ों जैसा अहंकार और ये पहाड़ों जैसा जो अहंकार है वो रोकता है इंसान को। इंसान कभी सोच भी नहीं सकता कि इस कलियुग में हम इस ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं । आज जो बात मैं आपके सामने रखना चाहती हूैँ वो ये है कि आप अपने को ये समझें कि हम मानव स्थिति में तो आये हैं लेकिन उससे भी एक ऊँची स्थिति है जिसको हम आत्मसाक्षात्कारी कहते हैं, जिसको हम साक्षात्कारी मानव कहते हैं, जिसको द्विज कहते हैं। ये वास्तविक स्थिति है। जब आप आत्मसाक्षात्कारी हो जाते हैं उसके अधिकार, उसकी सारी शक्तियाँ आपको मिल जाती हैं क्योंकि ये सब निहित है, अन्दर ही है। बँधा हुआ है तो मिलना ही हुआ। आपको जानना चाहिए कि क्रांति में, विकास में आप चरम शिखर पर हैं। जहाँ आप बैठे हैं वहाँ से साढ़े तीन फुट से ज़्यादा आपको चलना नहीं है। और ये कार्य घटित हो जाता है क्योंकि आप साधक हैं। अनेक जन्मों के आपके पुण्य हैं और उन पुण्यों के फलस्वरूप ये आप सहज में प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्य को समझना चाहिए कि जो सत्य है, वह हमें पैसे से नहीं मिल सकता। सत्य को आप ख़रीद नहीं सकते और सत्य जो भी हमें मिला है, हमने समझा है, आज तक, वो इंसान होने के नाते हमारे मस्तिष्क में, हमारे केन्द्रीय स्नायु तंत्र पर यह हमारे शरीर में नसों की तरह से बह रहा है, उसी से जाना है। किसी की लेक्चर-बाज़ी से कुछ नहीं होता। ये अन्दर की जागृति से ही होता है और जब इसकी जागृति हो जाती है तो मनुष्य समझता है कि मैं कितना गौरवशाली हूँ, मैं कितना विशेष हूँ। मेरी क्या व्यवस्था परमात्मा ने कर रखी है, और हर क्षण आपको ऐसा लगता है कि किसी नयी दुनिया में आप मग्न हैं। जीवन चमत्कारों से भर जाता है। ...... हम जानते नहीं उस परमात्मा के प्यार को, उसकी शक्ति को जो वो हमें देना चाहता है। प.पू.श्री माताजी, २.३.१९९१ 32 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-32.txt ..... चारों तरफ यह ब्रह्म चैतन्य रूप परमात्मा का प्रेम, उनकी शुद्ध इच्छा-शक्ति कार्य कर रही है, लेकिन यह ब्रह्म चैतन्य अभी तक कृत नहीं था, इसलिए जब कलियुग घोर स्थिति में पहुँच गया तो उसी के साथ-साथ एक नया युग शुरू हुआ है जिसे हम 'कृतयुग' कहते हैं और इस कृतयुग के बाद ही सत्ययुग आ सकता है। इस कृतयुग में यह ब्रह्म-चैतन्य कार्यान्वित हो गया है, इसलिए सहजयोग में हज़ारो लोग पार होने लगे हैं । सहस्रार खोलना बहत ज़रूरी था। जब से सहस्रार खुला है, कृतयुग शुरू हो गया है। अब इस कृतयुग का अनुभव आप आत्मसाक्षात्कार के बाद कर रहे हैं। प.पू.श्री माताजी, ३.३.१९९१ उत्थान का समय आ गया है, इस उत्थान को आप प्राप्त करे और पूर्णतया अपने आत्मसाक्षात्कार में जियें। ..... सारा ही सहजयोग का कार्य प्रेम का है। प्रेम की यह शक्ति मानसिक नहीं है, यह परमात्मा की शक्ति है और वह समर्थ परमात्मा है। 33 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-33.txt बहुत बड़ी सम्पदा है आपके पास। ...... हम पूरी तरह से इस ज्ञान को प्राप्त करें। प.पू.श्री माताजी, ३.३.१९९१ जब आपके अन्दर आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है, तब यह शक्ति आपके अन्दर से बहती है और कार्यान्वित होती है, अब इस कार्यान्वित शब्द पर नज़र करें, यह शक्ति बोलती नहीं, सोचती नहीं, ये कार्य करती है- कार्यान्वित है। बोलने और सोचने का कार्य तो बुद्धि का है, निरर्थक इससे कोई कार्य थोड़े ही होता है। जैसे मोटर में बैठ जाइये और सोचने लग जाइये, क्या मोटर चलेगी आपकी ? कुछ करना होता है। लेकिन यह शक्ति ऐसी है, जब आपके अन्दर से बहने लगती है तो कार्यान्वित होती है। जब उसमें से प्रकाश आ रहा है, तो प्रकाश दिख रहा है, कार्य कर रहा है ऑटोमेटिक (स्वत:), न कुछ करते भी प्रकाश दे रहा है। हुए उसी प्रकार आत्मासाक्षात्कारी इंसान कुछ न करते हुए भी प्रकाश देता है और कार्यान्वित है। प.पू.श्री माताजी, गांधी भवन, ७.२.१९८३ की शुरूआत हो गयी है और इस वातावरण के कारण शक्ति का रूप भी प्रखर हो गया है। शक्ति सत्ययुग का पहला स्वरूप है कि वह प्रकाशवान है, तेजस्वी है, तेज पुंज है। ......इस सत्य के प्रकाश में आप शक्ति की विशेष आकृति देखियेगा। ...... कारण कि अब कृतयुग शुरू हो गया है और इसके बाद सतयुग आयेगा। सतयुग का सूर्य क्षितिज पर आ गया है। तो इस सतयुग में शक्ति का जो स्वरूप है वो है प्रकाश और दूसरा सत्य, तीसरा प्रेम और चौथा मन की शान्ति। आप मन की शान्ति प्राप्त कर लेते हैं। प.पू.श्री माताजी के इस महान अवसर के लिए स्वयं को जगाओ। यह प्रगल्भ शक्ति आपसे प्रसारित हे मानव! सूझ-बूझ होने का प्रयत्न कर रही है। हमें इस विश्व को परिवर्तित करके सुंदर बनाना है क्योंकि सृजनकर्ता अपनी सृष्टि को कभी नष्ट नहीं होने देंगे। प.पू.श्री माताजी, मुंबई, २१.३.१९७७ आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से सीधे ही स्वयं को अभिव्यक्त करने वाला परमात्मा का पावन ज्ञान नए के लिए एक नई प्रजाति की सृष्टि करने में सशक्त रूप से सहायक होगा, यानी प्राचीन काल की तरह से यह ज्ञान युग थोड़े से विशिष्ट व्यक्तियों के लिए न होकर पूरे विश्व के हित के लिए है। इस प्रकार सामूहिक स्तर पर हमारे विकास का अंतिम लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा| पूर्ण मानव जाति का नवीनीकरण एवं परिवर्तन किया जा सकेगा। धर्म एवं धर्मपरायणता का एक बार फिर से सर्वत्र सम्मान होगा और मानव परस्पर एवं प्रकृति के साथ शांति एवं समरसता पूर्वक रह सकेगा। प.पू.श्री माताजी, परा आधुनिक युग 34 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-34.txt डा बव के गुरु के प्रति व्यक्ति के २मर्पण की शक्ति श्री हनुमान जी की है। किस प्रकार से आप गुरु को प्रसन्न कर सकते हैं और उसका समीप्य प्राप्त कर २कते हैं? मीप्य का अर्थ शारीरिक सामीप्य नहीं। इसका अर्थ है एक प्रका२ का तीढात्म्य, एक प्रकार की २मड़। मूड़से ढु२ २हकर भी सहजयोगी अपने हृढय में मेर अनुभव करसकते हैं। यह शक्ति हमें हरनुमान जी से प्राप्त करनी है। प पं.पू.श्रीमाताीजी, जर्मनी, ३१.८.१९९० + प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in टि 2012_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-35.txt २हज धर्म में क्षमा पहली आवश्यक चीज़ है, आपमें जितनी क्षमा की शक्ति होगी उतने ही आप शक्तिशाली होंगे। ....कलियुग में भी बेड़ा सबको क्षमा कर दें। क्षमा के सिवाय कोई आधन नहीं है। प. पू.श्रीमाताजी, २०.११.१९७५ ২ ॐे र०