वैतन्य लहरी हिन्दी जनवरी-फरवरी २०१३ ह44 ४ मुभ या इस अंक में समस्त चक्र ...4 ईड़ा नाड़ी श्री महाकालौ ...22 श्री भैरवनाथ ....25 पिंगला नाड़ी श्री महासरस्वती ...27 श्री हनुमान .... 31 समस्त चेक्र सहजयोग की शुरुआत एक तिनके से हुई थी जो बढ़कर आज सागर स्वरूप हो गया है। लेकिन इससे अभी महासागर होना है। इसी महानगर में ये महासागर हो सकता है ऐसा अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है। आज आपको मैं सहजयोग की कार्यता तथा कुण्डलिनी के जागरण से मनुष्य को क्या लाभ होता है वो बताना चाहती हूँ। माँ का स्वरूप ऐसा ही होता है कि अगर आपको कोई कड़वी चीज़ देनी हो तो उसपे मिठाई का लेपन कर देना पड़ता है । किंतु सहजयोग ऐसी चीज़ नहीं है। सहजयोग पे लेपन भी मिठाई का है और उसका अंतरभाग तो बहुत ही सुंदर है। सहजयोग, जैसे आपने जाना है, 'सह' माने जो आपके साथ पैदा हुआ हो। ऐसा जो योग का आपका जन्मसिद्ध हक्क है। वो आपको प्राप्त होना चाहिये। जैसे तिलक ने कहा था, बाल गंगाधर तिलक साहब ने भरी कोर्ट में कहा था कि जनम सिद्ध हक्क हमारा स्वतंत्र है। उसी तरह हमारा जनम सिद्ध हक्क 'स्व' के तंत्र को जानना है। ये 'स्व' का तंत्र परमात्मा ने हमारे अन्दर हजारो वर्ष संजोग कर प्रेम से अत्यंत सुंदर बना कर रखा हुआ है। इसलिये इसमें कुछ करना नहीं पड़ता है। सिर्फ कुण्डलिनी का जागरण होकर आपका जब सम्बन्ध इस चराचर में फैली हुई परमात्मा की प्रेम की सृष्टि से, उनके प्रेम की शक्ति से एकाकार हो जाती है तब योग साध्य होता है और उसी से जो कुछ भी आज तक वर्णित किया गया है। वो जो सन्तों ने वर्णित किया हुआ है, जो मार्कस् ने कहा है, उस परमात्मा का साम्राज्य आपको प्राप्त हो जाता है। यह सब कुछ जो आप ही के अन्दर जो सुन्दर रचना है, उसीसे घटित हो जाती है। आज आपसे मैं जैसा कि इन लोगों ने बताया था; कुण्डलिनी के माध्यम से हम कैसे नानाविध लाभ उठाते हैं उसके बारे में बताऊंगी और दूसरी बात; एक बिनती भी है कि जिससे हमारा आजतक कभी हित हुआ ही नहीं है और अगर हित ही हमारे अन्दर उत्तमोत्तम चीज़ है तो सब कुछ छोड़कर के हमें अपने स्वार्थ में उतरना चाहिये। स्वार्थ का अर्थ भी हमारे पूर्वजों ने बड़ा ही सुंदर बताया है। 'स्व' का अर्थ पाना ही स्वार्थ है। लेकिन हम स्वार्थ को उलटी तरह से समझते हैं; जिसने 'स्व' का अर्थ पा लिया वो स्वार्थ हो गया और स्वार्थ पाते ही जो कुछ स्वयं के लिये हितकरी है वो तो होता ही है और स्वयं से निगडित जो सब कुछ है, उसका भी हित हो जाता है। सर्वप्रथम कुण्डलिनी का जागरण होना जब शुरू होता है तो श्री गणेश मूलाधार चक्र में इसकी व्यवस्था करते हैं। जिस मनुष्य के अन्दर श्री गणेश की शक्ति बलवत्तर है उसकी कुण्डलिनी बहुत जल्दी ऊपर चढ़ती है और वहीं प्रतीक्षा में रहती है । जैसे कि छोटे बच्चे हैं. 4 कोलकाता, २०/४/१९८६ जिनके दिमाग में और कोई बातें नहीं है। जिनके हृदय में और कोई किल्मिष नहीं है। जिनके बातचीत में कोई कठोरता नहीं है। ऐसे अबोध बच्चों को कुण्डलिनी का जागरण बहुत लाभदायक होता है। और ऐसे लाभप्रद चीज़ को पाने के बाद ये बच्चे दुनिया के बहुत सी गंदी चीजों से अपने आप अछूते हो जाते हैं। वो गलत रास्ते पर जा ही नहीं सकते। वो अपने को दुःख देने वाली या समाज को दु:ख देने वाली कोई सी भी क्रिया कर ही नहीं सकते। उनका उधर मन ही नहीं जाता। वो सबके प्रति अत्यंत विनम्र और आदर्युक्त होते हैं। किसी का भी वो अपमान नहीं करते, किसी को वो दुःख नहीं देते। किसी को वो तकलीफ नहीं देते। सारी चीज़ों के प्रति उनकी दृष्टि अत्यन्त शुद्ध और निर्मल होती है। किसी की चीज़ छू लेना, किसी को दुषण देना, किसी पर अपने गलतियों का बोझ डाल देना इन सब चीज़ों से परे होकर के वो एक समर्थ जीव तैयार होते हैं। और वो समर्थता ऐसी है कि उसमें वो अगर कोई गलत चीज़ देखते हैं तभी एकदम पूरा सीना तान कर ये बात कहीं पर भी कह देते हैं। इसका उदाहरण में हमारी जो नातीन है, छोटी सी थी, एक पाँच वर्ष की, तब उनके माता-पिता उन्हें लद्दाख ले गये थे। तो वहाँ पर उन्होंने देखा कि एक लामा साहब बड़ा सा एक चोगा पहन कर के बाल मुंडा-वुंडा के बैठे हुए थे। वो बिहार के रहने वाले हैं लोग। जब उन्होंने देखा कि सब लोग जाकर के ये महात्मा जी के पैर छू रहे हैं और उनके माँ और बाबुजी भी संकोच में आकर उनके पैर छूने लग गये, तब उनसे रहा नहीं गया, हालांकि बहुत छोटी सी थी, जाकर के उसने अपने हाथ ऐसे किये और वो एक टीले में बैठी हई थी और उनकी ओर ऐसे गरदन करके कहती है कि, 'सर मुंडा कर और ये चोगा पहन कर आप सबसे पैर छूवा रहे हैं, आप पार तो नहीं हैं ।' पाँच साल की उमर में उन्होंने उनको सुनाया। ऐसे मुझे याद है कि एक बार हमारे यहाँ पर जो बड़े महान महर्षि रमण हो गये हैं, उनके सौ साल की वर्ष गाँठ पर मुझे लोगों ने अपने यहाँ अतिथि बुलाया था। उस वक्त मेैं बैठी हुई थी मंच पर। और वहाँ से मेरे पास में मेरी दूसरी नातिन बैठी हुई थी। तो वहाँ मेरे पास एक साहब बैठे हुए थे, एक बड़ा सा चोगा पहन करके और वो वहाँ के बड़े पण्डित माने जाते थे। मुम्बई के बड़े भारी पण्डित और बड़े आचार्य माने जाते थे| वहाँ से वो खड़े होकर के कहती है कि, 'नानी, ये जो मैक्सी पहन कर के बैठा है उनको भगाओ । इनसे इतनी गरमी आ रही है कि हम लोग यहाँ बैठ नहीं पायेंगे।' और वहाँ उस हॉल में बहुत से सहजयोगी बैठे हुए थे वो भी कहें, तो उन्होंने भी यूँ यूँ हाथ हिलाया कि, 'हाँ भाई, बड़ी गर्मी आ रही है इसको यहाँ से हटाओ । ' इसमें ये समझना चाहिए कि वो बच्चे जो कि अत्यंत विनम्र हैं इतने सत्यप्रिय होते हैं कि जब देखते हैं कि असत्य को मंच पर बिठा दिया गया है और सबके ऊपर उनका असर आ रहा है तो वो खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार उनमें धर्म की दृष्टि आ जाती है। जहाँ भी अधर्म होता है वहाँ वो खड़े हो जाते हैं। ये तो गणेश तत्व में जब आप भी जागते हैं तब आप भी एक बालक जैसे हो जाते हैं। ईसा मसीह ने कहा था, कि परमात्मा के साम्राज्य में आने के लिए आपको बालक जैसा होना चाहिये, अबोधिता आनी चाहिये । सारी चालाकी, ये होशियारी ये सब एक क्षण में विलीन हो जाते हैं। ये कुण्डलिनी तभी आपके अन्दर जागृत होती है जब आपके अन्दर गणेश जागृत होते हैं और जब गणेश जागृत होकर के अपनी माँ की लज्जा रक्षा करते हैं और तब कुण्डलिनी उनके आदेश पे ही जागृत हो जाती है। अब जब कुण्डलिनी उठकर के आपके स्वाधिष्ठान चक्र में आती है तो आपके अन्दर एक नया संसार बसने लग जाता है। सौंदर्य दृष्टि आपकी बड़ी सूक्ष्म हो जाती है। एक साहब मेरे पास आये और बोले कि, 'मेरे पास कोई नौकरी 5 नहीं है।' तो मैंने कहा कि, 'आप कोई इंटिरिअर डेकोरेशन का काम क्यों नहीं करते ?' तो उन्होंने कहा कि, 'मुझे तो कौन सी लकड़ी क्या है ये भी नहीं मालूम तो मैं इंटिरिअर डेकोरेशन क्या करूँगा?' मैंने कहा कि, 'तुम करो तो सही ! तो उन्होंने इंटिरियर डेकोरेशन किया। उसमें वो लाखोपति हो गये। मैंने कहा कि, सिर्फ जिस वक्त आप किसी भी चीज़़ को सौंदर्यवान बनाने जाते हैं तो आप सिर्फ उस की चैतन्य लहरियाँ देखें। अगर उसमें से चैतन्य की लहरियाँ आ रही है तो समझ लिजीए कि वो चीज़ बन गयी है। अगर नहीं आ रही है तो उसको मत बनाना। पर मुझको तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि वो बनाने गये, बनाते गये, बहुत ही सुन्दर बनती गयी, कहीं भी वाइब्रेशन्स ने उन्हें रोका नहीं, कहीं उन्हें ऐसा नहीं लगा कि यहाँ गर्मी आ रही है, या यहाँ तकलीफ हो रही है। वो सौंदर्य दृष्टि कभी-कभी इस तरह से विकसित होती है कि जो लोग कभी भी कविता नहीं लिखते थे, गणितज्ञ हैं, कभी जनम में कविता क्या है उनको मालूम नहीं है। वो ऐसी सुंदर काव्य रचना करते हैं कि देखते ही बनता है। जिन्होंने कभी हाथ में कुछ भी नहीं लिया। कुछ भी जिन्होंने चित्रित नहीं किया वो ऐसी सुन्दर आकृतियाँ और ऐसे सुन्दर विषय पर इतने शुभदायी चित्र बनाते हैं कि वो सोचता है कि ये कहाँ से, रवि वर्मा फिर से आ गये हैं क्या इस संसार में ! क्योंकि मनुष्य उसके तत्व में उतर जाता है और वो तत्व है सौंदर्य दृष्टि। सौंदर्य दृष्टि जो मनुष्य की होती है वो बहियाँ होती है। लेकिन जब वो पार हो जाता है उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है। उसको कोई अश्लिल, भद्दी, सस्ती चीज़ अच्छी ही नहीं लगती है। वो जो भी चीज़ बनाता है एकदम गहन बनाकर रख देता है। उसको समझने वाला भी आत्मसाक्षात्कारी होना चाहिए। जैसे विलियम ब्लैक के नाम का एक बड़ा भारी कवि, सौ वर्ष पहले इंग्लैंड में हुआ। और इस कवि ने सहजयोग के बारे में इतनी बारीकि से लिखा है कि में जिस घर में रह रही हूँ उस घर का भी पता पूरा उस बारीकि से दे रखा है। इस विलियम ब्लैक की जो कुंचली है उसमें ऐसी चीज़े बनाकर रखी है कि सिर्फ इसे सहजयोगी ही समझ पायेगा या कोई आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष ही इसे समझ पायेगा। उन्होंने आज्ञा चक्र इतना सुन्दर बनाया, परमात्मा को बनाया जो दबा रहे हैं आज्ञा चक्र को, कि ऊपर से किसी तरह खुल जाये ये चीज़। लेकिन वो कौन समझ पायेगा। उसमें तो यही देख रहे हैं लोग कि मसल्स कैसे बनाया है, जो परमात्मा को दिखाया है उसका नाक कैसे बनाया है, उसका मुँह कैसे बनाया है। उसकी पूर्ण आकृति का जो coefficience है उससे कितना शुभ आ रहा है। जब मैं लंडन पहुँची तब सर्वप्रथम मैंने कहा था कि विलियम ब्लैक की सौ वर्षगाँठ हैं, उसमें मुझे जाना है। तो सब लड़के कहने लग गये कि माँ, आप तो कोई ऐसी वैसी जगह जाती नहीं। मैंने कहा कि, इसमें तो जाना है हमें। तो वहाँ पहुँचे तो सारा वातावरण इतना सुंदर लग रहा था कि हर तरफ से बहुत सुंदर चैतन्य की लहरियाँ बह रही थी और जैसे कि संगीत सा मुझे लग रहा था। लेकिन वहाँ लोग दूरबीन लगा कर के देख रहे थे कि कौन नग्न दिखाया गया, कौन बीभत्स दिखाया गया है, कौन कितने भद्दे ढंग से खड़ा हुआ है। ये उनकी दृष्टि में वो सौंदर्य था ही नहीं जिसको कि हम वहाँ उपभोग ले सके। अब आप जानते हैं कि परदेश में लोगों की दृष्टि बहुत खराब हो चुकी है। वो तो किसी भी चीज़़ में अश्लिलता के सिवाय और कुछ देख ही नहीं सकते हैं। उनकी दृष्टि इतनी अधोगति से चली आ रही है, लेकिन आज मैं सहजयोग में देखती हूँ कि सहजयोगियों के तरीके, उनको वृद्ध स्त्री है बैठी हुई, उनको उसमें तक इतना सौंदर्य नज़र आता है। हृदय का सौंदर्य देखने की जो महानता है वो उन लोगों में बड़ी ही कुशलता से पता नहीं कैसे 6. बाहर प्रदर्शित होती है और मुझे आश्चर्य होता है कि ये लोग जो इतनी तुच्छित नज़र से संसार की ओर देखते थे, आज एक गौरव से देख रहे हैं कि देखिये संसार क्या है ! आपने सुना होगा कि 'मोनालिसा' नाम का एक पेंटिंग है जो कि लिओनार्दो-दा-विंसी ने बनाया है और जो कि पैरिस के बड़े वाले लुई के प्रदर्शनी में रखा गया है, जहाँ अनेक लोग जाते हैं उसे देखने के लिये| मैंने एक दिन कहा कि आप जा कर देखना कि, 'मोनालिसा' जो है उससे वाइब्रेशन्स आते हैं। इतने सालों से बनी हुई चीज़ है। उसे देखने के लिए हजारो लोग आते हैं। उसकी वो आज कल के मॉडर्न सिनेमा की स्टार जैसी है, और काफ़ी भरभकम शरीर है और उनके मुख पर एक हँसी है, एक सादगी है और हज़ारों लोग इतने दिन से उसे देखने आ रहे हैं कि, मैंने कहा कि, 'आप भी जा कर के देखिये कि उसमें से चैतन्य की लहरें आती है या नहीं। तो वो लोग जब पैरिस गये तो कहने लगे कि माँ हमें तो अन्दर जाते ही इतने वाइब्रेशन्स आ रहे थे कि हम तो अभिभूत होकर के उसे देखते रहे कि हमने कितनी बार इसका चित्र देखा पर कभी ऐसा लगा नहीं।' फ्रान्स से लोग जो कि माहिर है उत्सुकता में, जो कि बहुत ही गंदी बातों में उलझे हुए हैं, उनके साहित्य और उनके तौर तरीके इतने गंदे हैं कि उनसे कुछ सीखने का ही नहीं है। मैं तो उनको कहती थी कि आपका तो बाथरूम कल्चर है पूरा। आप तो पूरे बाथरूम कल्चर के लोग हो, आपको दूसरी कोई बात नहीं आती है। लेकिन आज जो स्वर्ग में बैठे हुए हैं और इतने सुन्दर लोग हैं, इतने सुन्दर हो गये हैं कि मुझे तो आश्चर्य लगता है कि जैसे ही उनके अन्दर आत्मा का दीप जल गया तो इनके इतने प्रेम के शुद्ध स्वरूप हैं, शुभ - अशुभ के विचार से प्लावित वो इतने कीचड़ में बैठे हुए ये कमल पता नहीं किस तरह से खिल कर सुरभित हो गये हैं। ये तो आपके स्वाधिष्ठान चक्र पर कुण्डलिनी के आने से होता है। जिसको संगीत नहीं सुनाई देता, अब जानते हैं आप कि बहुत से लोग क्लासिकल म्यूझिक ही पसंद करते हैं। अब ये तो ओंकार से आया हुआ हमारा भारतीय संगीत है। हम लोग बहुत लड़ते हैं कि हम भारतीय हैं, हम भारतीय हैं करके। जिसको अगर हमारे यहाँ का संगीत समझ में नहीं आता, मैं तो उसको कभी भी भारतीय किसी भी प्रकार से नहीं मानूंगी। इस मामले हम लाग हमेशा विदेशों की ओर दौड़ते हैं। उनसे हम उनका संगीत सीखने का प्रयत्न करते हैं। इस घराने, इस महान | योगभूमि ने इतना ऊँचा संगीत हमें दिया है, उसको हम समझ नहीं पाते हैं। हमारा लेक्चर हो रहा था देलही में, अमजद अली साहब भी सहजयोगी हैं, उनके साथ के भी सभी लोग सहजयोगी हो गये हैं और उनके सारे बजाने में भी फर्क आ गया। लेकिन जैसे ही उन्होंने बजाना शुरू किया , आधे लोग उठ कर चले गये। कहने लगे कि, 'हम तो माँ को सुनने आये हैं।' मैंने कहा, 'मैं ही तो बोल रही हूँ, ये अमजद अली क्या बजा रहे हैं, मैं ही इसमें बोल रही हूँ। बैठो तो सही!' जिसको संगीत का जरा भी शौक नहीं है उसको सोचना चाहिए कि एक दिन ऐसा आयेगा कि ऐसा आपको शौक लगेगा कि चाहे संगीतकार उठ जाये पर आप नहीं उठेंगे। ये हाल हमारे सहजयोगियों का है। आज देश-विदेशों में जहाँ-जहाँ सहजयोग पहुँचा है, हज़ारों के तादाद में, जहाँ भी होंगे । पण्डित भीमसेन जोशी, आप जानते हैं, महाराष्ट्र के बड़े भारी गवय्ये हैं जो कि श्री और मारवा जैसे राग कि जो बड़े-बड़े जानने वाले भी तंग आ जाते हैं। वो श्री मारवा मध्यम बजाते हैं और उसके स्थायी पर बैठे हुए आराम से पूरा मारवा का बांधना देखते हैं, जैसे कि कोई इमारत अन्दर बन्द रही हो। ये असली भारतीय है। इनको मैं असली भारतीय समझती हूँ कि जिनका कि ओंकार से सम्बन्ध है । ये ओंकार से भरा हुआ संगीत है जिसे भारतीय समझते हैं। अभी चिट्टी बाबू आये थे दक्षिण से। उनका संगीत सुनते हुए 7 तो सारे विभोर हो गये। हालांकि महाराष्ट्र से कोई जानता भी नहीं है कि साऊथ इंडियन म्यूझिक क्या है। थोड़ा बहुत थिअरी में जानते हैं लेकिन सारे महाराष्ट्रियन और सारे परदेस के लोग; और सब बस बैठे ही रहे उनका कांड सुनते हुए, उनका बजाना देखते हुए वो खुद हैरान हो गये कि इतने तो मद्रास में नहीं मिलते माँ, जितने यहाँ बैठकर आपको में मनुष्य उतर जाता है, जहाँ संगीत का, कला का, किसी भी सृजन का, क्रियेटिविटी का जो सुन रहे हैं। उस सूक्ष्मता गाभा है, जो उसका अंतरंग है, उसे पकड़ लेता है, जहाँ आनन्द टिका हो। वो कैसे होता है। क्योंकि जब आप कोई भी राग सुनते हैं, कोई सा भी गाना सुनते हैं, कौन सा भी संगीत सुनते हैं या आप कोई नाटक देखते हैं या कोई नृत्य देखते हैं, कोई सी भी चीज़ तब आपके अन्दर विचार की श्रृंखला शुरू हो जाती है। जैसे आप 'माँ आप कब बोलेगे?' अब ये नृत्य चला है। मतलब आप अगली बात सोचने लग गये हैं। या आप फिर ये सोचते हैं कि इन्होंने नृत्य किया, अब इनका कहीं और क्यों ना नृत्य किया जाये, बड़ा अच्छा नृत्य किया। ये किसने नृत्य किया। हर तरह के विचार आपके दिमाग में घूमने लग जाते हैं कि आप सोचतें हैं कि इस नृत्य की छान-बीन होनी चाहिए और वो भी इस बुद्धि से। तो तो सारा आनन्द इसका खत्म हो जाता है। जब आप किसी चीज़ की ओर सोचने लग गये तो उस चीज़ को बनाने वाला जो कलाकार है जिसने जो कुछ बनाया और उसमें जो आनन्द उंडेला है वो खत्म हो गया। आपके विचार ही चलते गये, एक के बाद एक। कोई सी भी सुंदर वस्तु है, जैसे कोई सुन्दर सा बना हुआ कालीन। तो अगर हम उस कालीन की ओर नज़र करें और अगर हम देखते रहे और बस देखते रहें और ये न सोचें कि कितने का है ? कहाँ से आया हुआ है? तो उसका जो आनन्द है उस कलाकार ने जिस आनन्द से उसे बनाया था वो पूरा का पूरा उपर से गंगा जैसे उपर से बहने लग जाती है। गंगा जैसे उपर से बहने लगता है। ये सिर्फ आत्मसाक्षात्कार के बाद घटित होता है। क्योंकि आप निर्विचार में समाधिन होने से आप उसको पा सकते हैं । आगे चल कर के हम नाभी चक्र पर आते हैं। नाभि चक्र से ही कमल जैसे ब्रह्मा निकल कर के ये सृष्टि करते हैं जिनसे कि हम सौंदर्य दृष्टि को प्राप्त करते हैं। लेकिन जब हम नाभि चक्र पर आते हैं तो नाभि चक्र ये हमारे खोज का चक्र है। नाभि चक्र से हमने खोज शुरु किया। माने ये कि जानवर से ही सोच लीजिये कि इसने खोजना शुरू कर दिया में वो खाना पीना ही खोजता रहा जब वो मस्त्यावतार बन कर के, किसी ने एक कदम आगे बढाया कि है। शुरू आओ, जमीन पर आकर देखो, तब उसने जमीन पर कुछुवे जैसे चलने वाले, जमीन पर रेंगने वाले जानवर को बनाया। इस तरह से जानवर तैयार हुए। ये खोज बढ़ते-बढ़ते मनुष्य स्थिति में जब आ गयी तब उसके अन्दर धर्म की जागृती हुई। धर्म की जागृति ऐसी हुई कि हमारे लिए कोई चीज़ धर्म है और कोई चीज़ अधर्म है। ये बाते सिर्फ इन्सान सोच सकता है। जानवर कभी नहीं सोचता। हमारा जो एक छोटा सा सहजयोगी एक दिन मुझसे पूछता है कि, 'माँ, अच्छा बताईये कि शेर के बच्चों का क्या होता होगा ?' मैंने कहा, 'क्यों?' 'क्योंकि शेर के बच्चों को शेर कहता होगा कि तुम ये गाय को खा लो, तो वो तो खाते ही होंगे। तो इनसे तो पाप हो जायेगा ना ?' मैंने कहा, 'बेटा, उनके लिए | कोई पाप नहीं क्योंकि वो तो पार्य पशु है, उनके लिए कोई पाप नहीं है। मनुष्य को ही पाप की भावना होती है।' अब की ये अच्छे-बुरे की भावना अन्दर से ही प्रकाशित हुई है। और यही धर्म जो है वो जिस वक्त हमारे अन्दर मनुष्य जागता है तभी हम कहते हैं कि नाभि चक्र का धर्म, दस धर्मों में आ गये हैं और वो दस धर्मों पर, जो बड़े-बड़े दस महान आदिगुरु स्थापित किये गये हैं। उनको जगा देने से कुण्डलिनी हमारे अन्दर धर्म की स्थापना कर देती है। माने ये कि हमें कहना नहीं पड़ता है कि आप ये काम मत करिये। यहाँ पर जो कुछ सहजयोगी आये हैं उनसे भी अधिक परदेस में भी हैं और भी कहीं अधिक कोई और जगह। हमने कभी उनसे नहीं कहा कि आप शराब मत पीजिए। अगर इंग्लैंड में आप कहें कि आप शराब मत पीजिए तो आधे से ज़्यादा लोग तो उठकर चले जाएंगे । यहाँ भी कुछ ऐसा ही हाल होगा। लेकिन मैंने कभी नहीं कहा। मैंने ये भी नहीं कहा कि, आप तम्बाकू मत खाओ। मैंने ये भी नहीं कहा, कि आप ड्रग मत लो। मैंने तो बस यही कहा, कि बस आ जाओ | और जैसे ही सहजयोग को उन्होंने प्राप्त किया दूसरे दिन से ही ड्रग छोड़ दिया। दूसरे दिन ही छोड़ दिया है । ये साँप है, इसको छोड़ो। अपने आप हटा, मैंने कुछ नहीं कहा उनसे। नाभि चक्र के जो कुछ भी दोष हैं, जैसे कि हम गलत गुरुओं के पास जाते हैं। एक गुरु के पास गये, जिसको देखो उसको हम नमस्कार करते बैठते हैं । तो गुरु तत्व जो है वो नाभि के चारों तरफ स्वाधिष्ठान के माध्यम से फैला हुआ है। स्वाधिष्ठान उसके चारों तरफ घूमता है और उसकी जो परिधि बनती है उसमें हमारा गुरु धर्म बनता है। तो खोज में आदमी फिर गुरु के पास पहुँचता है, पहले तो और जगह खोजता है। पैसे में खोजता है, सत्ता में खोजता है, इसमें खोजता हैं, उसमें खोजता है, पर जब वहाँ भी नहीं मिला, तो चलो भाई, किसी को गुरु बना लेते हैं। तो वो गुरु बनाने की जगह जैसे वो हम हमारे घर में एक नौकर रख लेते हैं, उसी तरह से वो गुरु रख लेते हैं। उनके यहाँ सब रुपये जाते रहते हैं। इसको इतना रुपया दो, उसको उतना रुपया दो, उसके खान-पान को दो। उनका खान-पान देखो तो आश्चर्य होता है, कि इतना कैसे खा लेते हैं। उनकी ये व्यवस्था करो, इनकी वो व्यवस्था करो और वो आराम से अपने बैंक में रूपये भेजते रहते हैं। उनको भी एक इतना सा भी विचार नहीं आता कि जो मैं व्यवहार कर रहा हूँ वो क्या गुरु का व्यवहार है। और जो उनके शिष्य हैं, जो उनके आगे नतमस्तक होकर उनके आगे-पीछे नतमस्तक होकर घूमते हैं, उनको भी ये विचार नहीं आता है कि इसका चरित्र एक गुरु जैसा है? इसका तो पूरा समय लक्ष्य हमारे जेब पर ही है। तो भी हम इसी की ओर क्यों जा रहे हैं? कहीं से वो चमत्कार दिखा दें। कहीं से कुछ ला दे तो उसी के पीछे लोग चले जाते हैं। तब आपका गुरु धर्म टूटता है। तब अधोगति शुरु हो जाती है। तो जिस वक्त मनुष्य खोजने के बजाय इधर - उधर भटकता है जिसे मैं राईट साईड और लेफ्ट साईड़ कहती हैं, जब वह लेफ्ट साईड की ओर मुड़ने लग जाता है तो वो अपने सबकॉन्शस, और उसके बाद कलेक्टिव सबकॉन्शस माने सुप्त चेतन और सामूहिक सुप्त चेतन में उतरता हुआ वो उस लोक में जाता है जहाँ सब कुछ पहले मरा है, गत है, को रखा हुआ है, पास्ट पूरा। और जो मनुष्य भविष्य की बात करता है, प्लानिंग करता है, आगे की सोचता है और उसमें खोजता है, या सत्ता में खोज़ता है या वैराग्य में और अपने शरीर को तंग करके सोचता है कि मैं तो बड़ा भारी सिद्ध ले लँगा, इस तरह की बातें सोचता है वो राईट साईड को चला जाता है। अब गुरु लोग राईट साईड़़ वाले भी हैं, लेफ्ट साईड वाले भी हैं। इसी प्रकार में कुछ ड्रग्ज हैं जो कि कुछ राईट साईड में डाल देती हैं, कुछ लेफ्ट साईड़ में डाल देती हैं। अब आपको आश्चर्य होगा कि कैन्सर जैसी जो बिमारी है ये साइकोसोमाटिक कही जाती है। बहुत से लोग जो हैं वो सोचते हैं, कि कैन्सर जो है ये सिर्फ शारीरिक बिमारी है, बिल्कुल भी नहीं, ये साईकोसोमाटिक है। आपके राईट साईड़ में आप अपना शारीरिक और बौद्धिक कार्य करते हैं । और आपके लेफ्ट साईड़ में आप मानसिक कार्य करते हैं। अंग्रेजी भाषा तो ऐसी कमाल की है कि सबके लिए एक ही शब्द माहिर है । चाहे वो बुद्धि हो या चाहे वो मन हो। तो आप जो मन का काम करते हैं वो आप की लेफ्ट साईड़ है और जो आप बुद्धि और शरीर का काम करते हैं वो आपका राईट साईड है। अगर आप राईट साईड से बहुत ज़्यादा काम करते हैं, बहुत ज़्यादा परेशानियाँ उठाते हैं, जिसे कि मैं कहूँगी कि नाभि चक्र में लेफ्ट नाभि है, लेफ्ट साईड में आपकी जो विशेष संस्था है, जिसे स्प्लीन कहा जाता है, प्लीहा कहते हैं शायद हिन्दी में। जिसे आप अति, इस तरह से इस्तेमाल करते हैं, माने कि जैसे आप सबेरे उठते हैं, उठते ही साथ अखबार पढ़ते हैं, अखबार पढ़ते ही साथ वो गड़-गड़ होने लग गया, स्पिडोमीटर जो है वो हिलने लग गया, इसको मारा, उसको मारा, ये दुर्घटना हुई है, ये वो अखबार, विश्वमित्र जी के वो ........क्षमा करें, इनका sensationalization जो शुरु हुआ है। सन-सनी खेज, सनसनीखेज की जो चक्र आपके पेट में जो बैठा हुआ है, ये जो स्पीडोमीटर है उसपे असर कर जाता है। उसके बाद उठे जल्दी जल्दी भागे , से जायें तो मोटर के सामने बहत सारे चलाते-चलाते जेम हो रहें हैं गाड़ियाँ। उसमें आप परेशान ही परेशान, पहुँचते पहुँचते दफ्तर में पहुँचे और फिर वहाँ से फिर परेशानियाँ। फिर खाना न ठीक से अपनी..., आपने कभी सोचा कि मोटर खाया न ब्रश किया। बिवि ने जो खाना दिया, बस उसी को मुँह में ठुसते जा रहे हैं। इसमें नुकसान ही है, इससे ब्लड | कैन्सर होता है। पहले जमाने में भी इस बंग देश में भी पति बैठता था आराम से, खाना खाने के लिये, नहा धो कर के इत्मिनान से बैठते थे। और पत्नी पंखा झरती थी। धीरे-धीरे खाना परोसती थी, उस पंखे की झलने में जो स्पीड़ थी वो स्पीड़ खाने की होनी चाहिये और वो धीरे-धीरे चबा चबा कर खाते थे । इत्मिनान से खा करके और फिर वहाँ जहाँ जाना है जाते थे। लेकिन अब तो वो चीज़ रह नहीं गये। अब तो वो चीज़ चलती नहीं। अब तो इतने कि जिसको कहते हैं हेक्टिक लाईफ कि अभी दौड़े यहाँ, वहाँ से दौड़े वहाँ, वहाँ से दौड़े वहाँ, इससे आपका स्पिडोमीटर खराब हो जाता है, जिसको कि आपके रेड ब्लड कॉर्पिसेलुस हैं जो रक्त की पेशियों को बनाना पड़ता है, वो पगला जाता है। उस पागलपन में, जिसे कहते हैं गोक्रेझी, और उस पागलपन में उसको समझ में नहीं आता कि उस पागल आदमी को किस तरह से मैं ब्लड सप्लाय करू। अब ये व्हलरेनिबिलिटी, जिसको कहते हैं कि अब तैयारी हो गयी आपकी कैन्सर की। इस से कोई सी भी काली विद्या से कहिये, भूत विद्या से कहिये या गुरू प्रसाद से कहिये या और किसी ऐसी तरह की चीज़ों से कहिये, कोई सी भी चीज़ आपके अन्दर आ जाए, आपके अन्दर ब्लड कैन्सर स्थापित हो जाता है। अगर कोई माँ इस तरह की हो, कि जो रात दिन आफत में मची हुई है कि आज पापड़ बेलना है, फिर कल और कुछ बनाना है, पती को वश में रखने के लिये औरतें यहाँ बड़ी होशियारी से काम करती है। तरह तरह के खाद्यान्न बनाने हैं। इसका प्लैनिंग करना है, उसका प्लैनिंग करना है, उनके बच्चों को भी हो सकती है अगर वो उस समय गर्भवती हो तो बच्चों को भी सकता है। अगर कोई बच्चा हो भी गया ठीक-ठाक पैदा, उसके पीछे लगे कि, 'उठो भाई, सबेरे उठो, जल्दी, जल्दी करो, चलो जाने का है स्कूल में, बड़ी मुश्किल से औडमिशन मिला, वहाँ इतना रुपया भर्ती किया।' ये सारा समाज ही ऐसा बना हुआ है कि सब लोग उथलपुथल में चल रहे हैं। इस उथलपुथल से ब्लड कैन्सर के होने की बड़ी सम्भावना है। हम तो इत्मिनान में बैठे रहते हैं और इत्मिनान में बैठने से भी कोई चीज़ कम नहीं होती। सब चीज़ 10 প প ठीक-ठाक चलती रहती है। हमारे विचार से तो ऐसी कोई बात नहीं कि जिसके लिये मनुष्य इतनी जल्दी मचाये या हड़बड़ी करें। अब इसका इलाज कैसे होता है? इलाज ये होता है कि जैसे ही कुण्डलिनी आपके नाभि चक्र में आ जाती है तो शान्ति प्रस्थापित हो जाती है। मनुष्य शान्त हो जाता है । शान्तिपूर्वक सब देखते रहता है। देखते रहता है और वो शान्ति उससे कहती है कि, 'शान्त हो जाओ , शान्त हो जाओ |' देखिये अब हमें तो जाना है प्लेन में और बाकी सब परेशान हैं कि, 'आपको जाना है, चलिये, चलिये। आखरी मिनट, ये छोड़ो, वो छोड़ो।' भाई, मैंने कहा, 'जाना मुझिको है या आपको है?' मुझे जाना है। आप क्यों परेशान होते हैं! तो छोडिये आप। मुझे जाने दीजिये। मैं आराम से जाऊंगी। अब कभी- कभी मज़ाक भी हो जाता है कि बड़े जल्दी पहँचे वहाँ, और देखा क्या कि प्लेन अभी आठ घंटे लेट है। मैंने पहले ही कहा था कि, 'क्यों इतने जल्दी जा रहे हो ? घर से आराम से चलो। पहले पूछ ही लिया होता।' लेकिन वो जो हड़बड़ी का स्वभाव है, जो हड़बड़ हमारे अन्दर है एक उसका उदाहरण मैंने दिया कि आजकल के वातावरण में किस तरह से कैन्सर के आप एक, उसके आमन्त्रण के आँगन बन जाते हैं। जिससे कैन्सर आप पर असर कर जाता है। अब लन्दन में हमने तीन-चार लोगों का ब्लड कैन्सर ठीक किया। तो मैं ये नहीं कहूँगी कि मैंने किया। उनकी कुण्डलिनी का जागरण करके वो ठीक हो गये। मैंने कुछ किया नहीं। जिसकी कुण्डलिनी जागृत हुई वो ठीक हो गये। | लेकिन इस हड़बड़ के सिवाय अनेक प्रकार के हम दोष करते हैं। जैसे कि अब डॉक्टर लोग तो यहाँ एक से एक आप जानते हैं कि कितने बड़े बड़े डॉक्टर लोग हमारे साथ लगे हुये हैं। और उनको अगर हम समझाते हैं तो वो ऐसे मुँह फाड़ कर देखते हैं बात को कि माँ कैसे कह रही हैं? क्योंकि हम इसे सूक्ष्मता से जानते हैं। आपके अन्दर जो सूक्ष्म चीज़ है वो ये समझना चाहिये कि आपके शरीर में शान्ति होनी चाहिये। आपके मन में शान्ति होनी चाहिये । आपके सारे अंग जो है जो शान्ति से बने होने चाहिये । हड़बड़ी करने से इस तरह का रोग हो जाता है । पर इससे भी बढ़ती, गहन बात एक ऐसी बताऊं कि सूक्ष्मता की, आपके यहाँ भी कुछ ऐसे डॉक्टर्स बैठे होंगे जो नहीं जानते हैं और न मानते भी शायद न हों कि जिस वक्त ये स्वाधिष्ठान चक्र चलता है इसको एक तो पेट के जितने भी ऑर्गन्स हैं उनको सम्भालना पड़ता है। माने लिवर हुआ, आपके पैन्क्रियाज हुआ और स्प्लिन और कड़नी आदी सबको सम्भालना तो पड़ता ही है । इसके अलावा ये जो सर में जिसे मेंदू कहते हैं, जो मेद से बनता है, ये जो ब्रेन हमारे सर में है, इस ब्रेन के लिये इसको ग्रे मैटर, पेट की जो फैट है उसको परिवर्तित करके, ट्रान्सफॉर्म करके अपने ब्रेन में भेजना पड़ता है । ये उसका मुख्य काम नहीं है। एक और काम है। लेकिन जब आदमी बहुत सोचता है, आगे की सोचता है, प्लैनिंग करता है, ये करता है, वो करता है, हर समय उसकी खोपड़ी सोचती रहती है तब ये कार्य एकमात्र उसे करना पड़ता है। और बाकी सब काम बिल्कुल ठप्प हो जाते हैं। इसलिये लोगों को लिवर का ट्रबल हो जाता है। खास कर मैं देखती हूँ कि आपके कलकत्ते में लोगों को लिवर की बीमारी बहुत ज़्यादा है । क्योंकि ये सूर्य नाड़ी है और सूर्य नाड़ी बहुत चल जाने से मनुष्य को सूर्य की जहाँ बहत अधिक ताप हो और उपर से सूर्य नाड़ी बहुत चल जाये तो जरूरी है कि बेचारे इस स्वाधिष्ठान चक्र को इतनी मेहनत करनी पड़ती है कि वो जो एक लिवर है उसे देख नहीं पाता। इसलिये यहाँ लोगों को लिवर की बीमारी 11 हो जाती है। डॉक्टर ने उसका नाम बनाया माइग्रेन। माइग्रेन वाइग्रेन कोई चीज़ है नहीं। सब बेकार की बातें हैं। इसमें सिर्फ आपका लिवर खराब होने से माइग्रेन होता है। या आप किसी भूत से पिड़ीत हो तो भी हो सकता है। ये तो लेफ्ट साईड की बात हो गयी लेकिन राईट साईड की बात मैं कर रही हूँ। तो इस तरह से आपकी शारीरिक तकलीफें इसलिये ठीक हो जाती हैं कि आप निर्विचार हो जाते हैं। सहजयोग में आप विचार बहुत कम करते हैं। विचारों से परे आप रहते हैं तब प्रेरणा तक, प्रेरणात्मक जो विचार आता है उस विचार से ही आप बोलते हैं और उसी विचार से आप चलते हैं। विचार एकदम जैसे कि रुक जाते हैं। एक विचार उठता है, गिर जाता है। दूसरा विचार उठता है, गिर जाता है। इसके बीच में जो जगह है इसे विलम्ब कहते हैं । ये विलम्ब जो है ये वर्तमान है। आज, अभी, इस वक्त, इस क्षण, ये जगह। हम या तो आगे की सोचते हैं या पीछे की सोचते हैं| तो इसी के कमांड पर, इसी के कक्ष से हम कूदते रहते हैं। हमारा मस्तिष्क पूरी समय चलते रहता है। खोपड़ी हमेशा घूमती रहती हैं। और उस वक्त बेचारा स्वाधिष्ठान मेहनत करके और इस मेद की पूर्ती करने के लिये हर समय तत्पर हो जाता है। फिर आपको डाइबेटिस होता है। डाइबेटिस भी इसीसे होता है कि आप अपनी पूरी शक्ति जो है स्वाधिष्ठान की, अपने सोचने में लगा देते हैं। देहात में, मुझे पता नहीं यहाँ है या नहीं, पर हमारे महाराष्ट्र में तो लोग इतनी चीनी खाते हैं देहात में कि कहते हैं कि चम्मच खड़ा हो जाना चाहिये चीनी में तब कहीं चीनी पड़ी। वो तो क्या पी रहे थे चाय या दूध है? इतनी चीनी खाते हैं, किसी को डाइबेटिस नहीं होता। देहात में किसी को डाइबेटिस होता ही नहीं। शहर वालों को ही क्यों होता है? और जो टेबल पे बैठ कर के रोज प्लैनिंग बनाते हैं और सबका कबाड़ा करते हैं। उनको क्यों होता है? उन्हीं को ये बीमारी क्यों होती है? वजह ये कि आप जरूरत से ज़्यादा सोचते हैं। इतनी सोचने की जरूरत ही नही । पर अगर कोई कहें कि, मत सोचो, तो हो ही नहीं सकता। एक साहब स्वीत्झर्लेंड में आये हमारे पास , बैरिस्टर थे। अब तो वो सहजयोग में आ गये । वो एक अल्जेरिया के बहुत बड़े बैरिस्टर हैं। वो स्वीत्झर्लंड में आयें और मुझे कहते हैं कि, 'माँ, चाहे मेरी गर्दन काट दो चाहे मेरा सर फोड़ दो पर ये विचार ठहराओ। मैं पागल हो जाऊंगा।' आज पार हो कर के बहुत बड़े आादमी हो गये हैं। अब उनका सारा कुछ डाइबेटिस वगैरा सब खत्म हो गया। उसके बाद आपको हाइब्लडप्रेशर भी इसीसे होता है। क्योंकि किडनी (की अनदेखी ) निग्लट हो गयी । किडनी को आपने देखा नहीं । उसको आपने सम्भाला नहीं। तो वो भी आपको बीमारी हो गयी। अनेक बीमारियाँ इसलिये होती है और सहजयोग में जब कुण्डलिनी आपके नाभि चक्र को प्लावित करती है तो एकदम सारी ये बीमारियाँ भाग जाती हैं। और आपका चित्त बीच में स्थिर हो जाता है। जब आपके अन्दर धर्मशक्ति जागृत हो जाती है तभी फिर हम कहते हैं कि लक्ष्मी तत्व से आप महालक्ष्मी तत्व में उतर गये। जैसे कि जहाँ-जहाँ लोग पैसे वाले हो जाते हैं, अॅश्युरन्स आ जाता है, वहाँ-वहाँ वो अजीब पागलपन में घूमते हैं। जैसे कि, आप अमेरिका में जाइये, तो जितने अमीर लोग हैं या तो वो बिल्कुल इग्नोर हो जाते हैं, इडियट, या वो नहीं है तो ऐसे-ऐसे बातें करते हैं जैसे कि किसी ने आत्महत्या कर ली, उपर से नीचे कुद मरें। और किसी ने अपने 12 चार-पाँच बच्चे ही मार डालें। तो समझ में नहीं आता है कि पैसा हो जाने से अगर इतनी आदतें आती तो बेहतर हैं कि हम गरिबी में ही रहें। उन लोगों की अगर आप बातें सुनें तो आप आश्चर्य करेंगे कि ऐसी तो भूतो न भविष्यति, कभी लोग संसार में आये ही नहीं जैसे हम देखते हैं। अमेरिका की ही बात नहीं है, आप फ्रान्स जाईये, कहीं भी जाईये। और यहाँ तक जहाँ कि लोग कहते हैं कि कम्युनिज्म बड़ा फैला हुआ है। ऐसे रशिया में भी एक-एक आफत हैं। आये दिन बिवी को छोड़ना, कल दूसरी शादी करना और बुढ़ापे में जाकर कहीं सब लोग कहीं ऑर्फनेज में बैठे हैं। दस हजबंड किये , दस बिवियाँ करीं सब ऑर्फनेज में जा के बैठे हैं। ऐसे समाज तैयार हो जाता है। ऐसे धर्म को पाने से वो लक्ष्मी स्वरूप नहीं होता। अब लक्ष्मी की व्याख्या कितनी सुन्दर बनायी हुई है हमारे पूर्वजों ने हमारे लिये कि लक्ष्मी जो है वो एक कमल दल पे खड़ी हुई हैं। माने किसी पे अपना असर नहीं डालती। वो बड़ी सी अपनी मुट्ठी ले जाकर के किसी को दिखाती नहीं है, लक्ष्मी स्वयं हो कर के भी और एक हाथ उनका दान और एक हाथ उनका आश्रय में होता है। जिससे वो लोगों को दान देती हैं और एक हाथ से आश्रय देती हैं। और दो हाथ उपर में जिसमें हैं जिसमें कि दो हाथ में कमल हैं, गुलाबी रंग के। गुलाबी रंग का लक्षण होता है कि उनके हृदय में प्रेम है सबके लिये| इस कमल का ये अर्थ होता है कि ये कमल में अगर भँवरा, जिसके अन्दर इतने काँटे होते हैं! वो काला, कभी वो आकर के भी उसमें बैठ जाए तो भी वो अपने अन्दर उसे समा लेता है। अपनी सुंदर शैय्या पे उसे सुला लेता है। वही लक्ष्मीपति हो सकता है जिसमें ये गुण हैं। लेकिन पैसे वाला, मैं उसको लक्ष्मीपति नहीं मानती। अगर किसी गधे के उपर आप रूपया टाँग दीजिये तो क्या वो लक्ष्मीपति हो सकता है? लक्ष्मीपति होने के लिये कम से कम ये चार गुण मनुष्य में होने चाहिये। इस तरह से लक्ष्मी जो है फिर जागते-जागते महालक्ष्मी तत्व को आती है। तब मनुष्य खोजने लग जाता है। और जब वो खोजने लग जाता है तब वो ऊपर की ओर उठता है। जिस वक्त वो ऊठता है तब श्री जगदम्बा जो है वो हमारे हृदय चक्र में रहकर के अकेली सब दुष्टों से जो जो ऐसे साधकों को सताता है उन सबका खण्डन करती है। मार डालती है। उनका नि:पात कर देती है। खत्म कर देती है। उनको किसी से डर नहीं लगता। और खड़े हो करके, आपको आश्चर्य होगा कि कल परसो तो मैंने तांत्रिको पे ही कहा था, १९७३ में हमारे यहाँ 6. एक बड़ा कावसजी जहाँगीर हॉल है, मैंने खड़े होकर एक से एक-एक दुष्ट गुरुओं का नाम, कौनसे राक्षस पड़े थे, कौन नरकासूर था, कौन रक्तबीज था, कौन दूसरे असूर था, ऐसे सबके नाम लेकर के कहा। तो हमारे पति के पास खबर गयी कि, 'इनको तो कल मार देंगे लोग पकड़ के।' मैंने कहा, 'मारे तो सही। हाथ तो उठाये मेरे ऊपर में।' लेकिन किसी ने भी अखबार में या किसी ने भी किसी कोर्ट में जा कर के कुछ दाखिल नहीं किया। क्योंकि ये सत्य की बात है। तो यहाँ जगदम्बा खड़ी होकर के अकेली और सारे दष्टों का सामना करती हैं कि मेरे ये बच्चे परमात्मा को खोज रहे हैं वो पूर्ण आरक्षित ऊपर आ जायें। उनको कोई तकलीफ न हो। उनको कोई परेशानी नहीं। उनके आँचल में छिपे हये ऊपर की ओर उठते चले। वो जगदम्बा का चक्र यहाँ पर बना हुआ है। इसके बारे में मेडिकली इस तरह से समझाया जा सकता है कि हमारा जो यहाँ पर स्टर्नम नाम की हड्डी है, यहाँ (हृदय में) इसको स्टर्नम बोन कहते हैं, और इस हड्डी में जगदम्बा जो है जिसको कि भ्रमरंभा कहते हैं वो भ्रमर बनाती है। जिसको कि मेडिकल साइन्स में 13 अँटीबॉडीज कहते हैं, यहाँ पैदा हो जाती है। और ये जो होती है, ये हमारे अन्दर अगर कहीं से भी आक्रमण हों तो उस आक्रमण को पूरी तरह परास्त कर सकती हैं और उनसे लड़ती हैं। ये हमारे स्टर्नम बोन में बारह वर्ष की उमर तक बनती हैं। और उसके बाद सारे शरीर में फैल जाती है। और जैसे कि कोई आफत सामने से आयें तो एकदम ये हड्डी जोर से ऊपर-नीचे होने लग जाती है। और उसका जो संदेश हैं, उसका जो मेसेज है वो उन अँटी बॉडीज में पहुँच जाता है, वो तैयार हो जाते हैं। और तैयार होने के बाद वो लड़ते हैं और परास्त कर देते हैं। लड़ते रहते हैं। जब तक कोई भी परेशानी मनुष्य को रहेगी ये देवी के भ्रमर लड़ते रहते हैं। ये तो देवी की व्यवस्था है हमारे लिये। लेकिन जब मनुष्य दैवी स्थिति में आता है तो उसके अन्दर माँ का प्यार उमड़ पड़ता है। अपने माँ को भी पहचानता है। हमारे पति भी, लोगों को बहुत प्यार हो जाता है। और वही प्यार अब वो दुनिया को बाँटना चाहता है। उससे रहा नहीं जाता। कोई आदमी परेशान है, दु:खी है, हर इन्सान जहाँ भी बैठा होगा, 'भाई तुम्हें क्या तकलीफ है, तुम्हें क्या है?' उसके लिये दौड़ता है और मेहनत करता है। एक जिसे हम करुणा कहते हैं, कम्पॅशन कहते हैं, वो मिशनरीओं जैसे लोगों को घर में ला कर के, मरते हुये लोगों को ईसाई धर्म नहीं सिखाते। और फिर उसके बाद नोबल प्राईज मिलता है ऐसे लोगों को। ऐसा नहीं करता। वो जो उसके अन्दर कम्पॅशन है, वो करुणा है, उस करुणा की शक्ति से लोगों को उनकी बीमारी, उनकी तकलीफें उनसे बचाता है। उनको ठीक करता है। ये नहीं कि उनके ऊपर लगा दिया कि तुम हिन्दू हो, तुम मुसलमान हों, तुम ख्रिश्चन हो... ये कुछ नहीं। इसका क्या मतलब है। गधे के ऊपर कुछ भी लगा दीजिये तो गधा तो गधा ही रहता है। लेकिन उसको वो महामानव बना देते हैं। बहुत से लोग हमारे पास बीमारी के लिये आते हैं। और आज वो बड़े-बड़े सहजयोगी बने बैठे हैं। उसकी करुणा इतनी शक्तिशाली होती है कि कहा जाता है देवी के लिये 'कटाक्ष कटाक्ष निरीक्ष' एक कटाक्ष ही ऐसे आदमी का किसी पर पड़ जाए तो वो एकदम स्वस्थ हो जाता है। स्व...स्थ, स्व में जो स्थित है स्वस्थ है। हमारे यहाँ जितने भी शब्द हैं उनको आप देखें तो सब स्व पे ही आते हैं। स्वस्थ। वो आदमी स्व में स्थित हो जाता है। और आप उसकी शकल से पहचान सकते हैं, 'अरे अभी तो आप बीमार थे और ये क्या हो गया ? इसमें कोई चमत्कार-वमत्कार कुछ नहीं। जो बात आप जानते नहीं वो बात आपके लिये जरूर चमत्कार ही लगेगा, वो दूसरी बात है। लेकिन ऐसा कोई चमत्कार नहीं है। आपके अन्दर ये सब चीजें हैं । जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो आपके अन्दर अपने आप ही स्वस्थता आ जाती है। अब बहुत से औरतों को आपने सुना है कि ब्रेस्ट कैन्सर की बीमारी हो जाती है। ये क्यों होती है? वजह ये है कि पती जात किसी तरह से स्त्री को रक्षित भावना नहीं देता सेन्स ऑफ सिक्युरिटी नहीं देता है। या उसका पिता या किसी तरह से स्त्र हर समय इनसिक्युअर अरक्षित महसूस करें तो उसको ये बीमारी हो जाती है क्योंकि उसका जो मातृत्व है वो ही हिल जाता है। मातृत्व के ऊपर का विश्वास चला जाता है। जैसे एक कवी ने कहा है, 'हाय अबला, तेरी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।' ऐसी बात है कि स्त्री के जब आरक्षित स्वभाव को आप हिला देते हैं तो उसको ये बीमारी हो जाती है। वो शायद इसको जानती न हों । अब राइट साइड़ में जो हमारे, जिसे हम कहते हैं कि राइट हार्ट, हालांकि हार्ट राइट में नहीं होता है। लेकिन इसका जो हार्ट चक्र का, हृदय चक्र का, जिसे अनहत भी कहते हैं वो राइट हिस्सा है उसमें अगर त्रुटियाँ आ जायें तो अस्थमा की बीमारी हो जाती है। अब ये श्रीरामचंद्र जी का चक्र है । हम श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम तो बहुत करते रहते हैं लेकिन ये 14 श्रीराम हमारे अन्दर राइट हार्ट में है और जो लोग श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम ज़्यादा करते हैं उनको ये बीमारी ज़्यादा होती है। इसका और एक कारण है श्रीराम हमारे पिता हैं। हमारे अगर पिता का स्थान किसी तरह से खराब हो गया हो, अगर हमने अपने पिता को बचपन में ही खो दिया हो या हम भी एक बूरेसे पिता हो या हम अपने बच्चों को छोड़-छाड़ के दूसरे की चीज़़ों में व्यस्त रहते हैं और पती होकर के भी पत्नी की ओर हमारी दृष्टि ठीक नहीं, उसको हम तंग करते हैं । पत्नी की तरफ से हम परेशान हैं तो भी जैसे कि श्रीराम वन में भटकते रहें ऐसे अब जो मनुष्य अपनी पत्नी के लिये वन में भटक रहा हो या पत्नी की तरफ से तकलीफ पा रहा हो या तकलीफ दे रहा हो, तो पती और पिता का स्थान श्रीराम का जो चक्र है, जिसे हम राइट हार्ट कहते हैं उसके कारण ये बीमारियाँ हो सकती हैं। हमारे अन्दर अनेक सी बीमारियाँ ऐसी हैं जो सहज में ठीक हो सकती हैं। अगर हमने श्रीराम को खड़ा कर दिया | तो फिर आपको अस्थमा कैसे हो सकता है। लेकिन सबसे ज़्यादा ये बीमारी जो सरकारी नौकर हैं, ब्यूरोक्रॅट्स या जो सत्ताधीश हैं या सत्ता से गिर गये पर अभी सत्ता के पीछे लगे हये हैं या जिसे हम लोग कहते हैं पोलिटिशिअन्स इनको ज़्यादा होती है। श्रीराम जो हैं वो सॉक्रेटिस के वर्णित बेनोवेलंट किंग हैं। बेनोवेलंट किंग, जो बेनोवेलंट पे विश्वास करते हैं। लोगों का हित ही जिनका एक लक्ष्य है ऐसे श्रीराम सॉक्रेटिस ने वर्णित कर रखे हुे हैं। लेकिन ऐसे कितने हैं। इन ब्यूरोक्रॅट्स में ऐसे कितने लोग हैं कि जो ये सोचते हैं कि हम इनके बेनोवेलन्स के लिये हैं, हम इनके हित के लिये हैं। हिन्दूस्थान में तो जैसे, भगवान ही बचाये रखे, मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि इस ब्यूरोक्रॅट्स का क्या हाल होने वाला है। और इन पॉलिटिशिअन्स का भी क्या हाल होने वाला है। बड़ी घबड़ाहट होती है एक माँ की दृष्टि से। क्योंकि एक छोटीसी चीज़ है, एक जमीन खरीदनी है। तो उन्होंने कहा, 'माँ, ये तो मिल नहीं सकती जमीन।' मैंने कहा, 'भाई, पैसे दे रहे हैं तो जमीन क्यों नहीं मिलेगी?' 'ना, उसमें तो वो पैसे खाते हैं।' 'पैसे क्या खाते हैं। उनको खाना-वाना भेज दो। पैसा क्यों? वो पैसा खाते हैं, वो पैसा खाते हैं, वो... सब पैसा ही खा रहे हैं !' में नहीं हैं। श्रीराम का भजन करने से आप हितकारी राजा नहीं हो सकते हैं ! हितकारी जो राज्य करेगा , श्रीराम तुम वही इन्सान श्रीराम के साम्राज्य में भी उनका सेवक हो सकता है। इनमें से कोई लोग हैं उनको इस कदर भूत सवार होता है कि इस चोर को पकड़ो, उस चोर को पकड़ो, उस चोर को पकड़ो, एकदम पागल के जैसे हो जाते हैं। इस पकड़ धकड़ में खुद करके ही उनके अन्दर श्रीराम लुप्त हो जाते हैं। श्रीराम ने ये जो सबका उद्धार किया था। उनकी जो उद्धारक शक्ति है वो आपके अन्दर जागृत हो जाती है। जैसे कि वाल्मिकी का उद्धार हुआ। अहिल्या का उद्धार हुआ। और वो प्रेम की शक्ति जहाँ की शबरी के बेर इतने प्रेम से खायें, इतने चाँव से खायें । वो सादगी जहाँ पैर से चप्पल उतार कर के, जूते उतार कर के और जमीन पर चल कर के घूमते रहे। सारे महाराष्ट्र में हमारे उन्होंने अपने चरण के जो सुन्दर चैतन्य थे वो छोड़े हैं। वो श्रीराम अगर हमारे अन्दर जागृत हो जायें तो ये बीमारियाँ हमारे अन्दर आ नहीं सकती। अब लेफ्ट हार्ट माँ का स्थान है। अगर आपकी माँ बचपन में मर गयी हो, आपने अपनी माँ को देखा ही नहीं । जिसने माँ का प्यार जाना ही नहीं वो अच्छा पती नहीं हो सकता अगर किसी की माँ दष्ट होगी तो उसका पती भी बड़ा ही दष्टता का ही होगा। जिसकी माँ ने उसे प्यार दिया, दुलार दिया, प्रेम से रखा वही पती अपनी पत्नी को भी प्यार कर 15 सकता है। पर लेफ्ट हार्ट जो है बहुत ही नितान्त गहन चीज़ है। क्योंकि इसका सम्बन्ध माँ से है। जैसे आप जानते हैं कि भारतीय संस्कृति माँ पर आधारित है। मातृत्व भाव से भरी हुई है संस्कृति। गणेशजी भी सिवाय अपने माँ के किसी को भी नहीं मानते थे। क्योंकि माँ से ही बाप को जाना जा सकता है। इसलिये माँ की धारणा अपने देश में विशेष मानी जाती है। लेकिन जब आपका हार्ट पकड़ जाता है, लेफ्ट हार्ट, तो सबसे पहले आप पर जो आघात आता है वो ये कि जिसकी आप शुष्क स्वभाव के हो जाते हैं। आपमें शुष्कता आ जाती है। वो आ्द्रता नहीं जो देवी का सांद्र करुणा, कोना में आर्द्रता है। वो आर्द्रता आपमें नहीं रहती। आप शुष्क इन्सान हो जाते हैं। ऐसे कि अगर आपको जगाना भी हो एक लकड़ी से जगाये तो अच्छा है नहीं तो उठ के मारने को दौड़ेंगे। बात करने जाये तो खाने को दौड़ेंगे। एक शुष्क | व्यक्ति आप हो जाते हैं। और इस शुष्कता को भरने के लिये आपको अपने माँ का स्मरण करना चाहिये कि जिसने कितना आपको प्यार दिया और कितने दुलार से आपको बड़ा किया। एक साहब थे। जिनका नाम था धर्मदास और वो बहुत गलत काम करते थे। शास्त्रीजी की बात मुझे याद है। वो जब आये तो उनसे कहने लगे कि, 'धरमदास जी आपके माँ ने क्या सोच के आपका नाम धरमदास रखा ?' हम लोगों के नाम ऐसे हैं, करुणासागर, और हाथ में लकड़ी लेकर करूणासागरजी खड़े हये हैं। तड़ातड़ मार रहे हैं। तो इस तरह के विपर्यास जो जीवन में हम देखते हैं इसका कारण ये है कि मातृत्व के प्रति आदर नहीं। खास कर के मुसलमानों ने जो हमारे ऊपर अपकार किया वो ये है, मैं तो मानती हूँ कि उनकी भी बड़ी तपस्या थी जिन्होंने इस धर्म को बनाया थे, उन्होंने , और पनपाया है। लेकिन उनके जो अनुचर जैसे हम लोगों ने भी बहुत गलतियाँ की, उन्होंने बड़ी भारी गलती की कि स्त्री का मान नहीं किया। स्त्री का मान नहीं है, माँ का मान नहीं है। माँ कोई चीज़ ही नहीं होती। हाँ, अगर माँ दुष्ट हो, खराब हो , उसके अन्दर गन्दगी हो, वो बूरी चीजें करती हों तो ठीक है, उस माँ को भी, जैसे भरत ने अपने माँ को सुनाया था और उसको दूर रखा था। उसको छोड़ करके और राम के पादुकायें ले कर के रामराज्य किया था। वो बात दूसरी है। पर इस देश की माँ ऐसी नहीं है। और इस देश में कुछ एकाद ऐसी हो भी जाए तो भी बाकी सब लोगों को देखते हुये समझ लेना चाहिये कि जिसने माँ के चक्र को दुखाया हो या जो माँ से वंचित रहा हो, जिसे प्यार नहीं मिला हो और इससे बहुत ही नज़दीक हृदय का ही ऑर्गन है, हृदय ही है। अब हृदय की पकड़ जब आदमी या मनुष्य को क्यों होती है। क्योंकि जब वो अति कर्मी हो जाता है। अति कर्म में जब बाह्य, बाह्य की तरफ जाते जाता है, अपनी आत्मा को भूल जाता है। या किसी गलत इन्सान के सामने इस सर को झूकाता है । इसलिये आप देखिये, कि कहा गया है कि, किसी के सामने सर को झूकाना नहीं चाहिये। मैं आपसे भी यही कहती हैँ कि मेरे सामने सर मत झुकाईये । मेरे पैरों को आप मत छुईये। अभी कोई छूने की जरूरत नहीं। क्योंकि ये जो मस्तिष्क है, ये जिसके सामने झुक गया, गलत लोगों के सामने, तो हार्ट में पकड़ आ जायेगी लेफ्ट साइड से और राईट साइड की पकड़ उसमें आती है जो अतिकर्मी होता है। जिसका चित्त बाहर की ओर होता है। और आत्मा की ओर चित्त नहीं होता है। आत्मा की ओर चित्त करने के लिये आपको कुण्डलिनी का ही जागरण करना पड़ेगा । जब तक कुण्डलिनी का जागरण नहीं होगा आत्मा एक हवाई चीज़ हो जाती है। ये समझ नहीं पाते कि आत्मा क्या चीज़ 16 है? ये परमात्मा का हमारे अन्दर प्रतिबिंब है। और जब हमारा चित्त बाहर की ओर दौड़ता है तब हम अपनी आत्मा की ओर दृष्टि नहीं दे पाते। जब हम अपनी आत्मा की ओर दृष्टि नहीं दे पाते तो आत्मा रूष्ट हो जाता है और जब वो रूष्ट हो जाता है तो हृदय का स्पंदन भी गड़बड़ हो कर के कभी-कभी तकलीफ हो जाती है। या हम गलत तरिके से आत्मा की ओर दृष्टि देते हैं। किसी गलत अनधिकार किसी आदमी के पास जाते हैं। जो आदमी अनधिकार चेष्टा करता है ऐसे आदमी के पास जाकर के हम दीक्षायें लेते हैं, उनके पाँव पर गिरते हैं तब ये आत्मा रूष्ट हो जाता है कि क्यों ये देखता नहीं है कि ये किसके पैर छू रहा है? तू मानव है। तुम्हारे अन्दर मेरा वास है। जब तक तू ऐसे लोगों के पैर छूता रहेगा मैं तुझसे रूष्ट रहँगा।' इसलिये आत्मसाक्षात्कार के बाद ही ये सब व्याधियाँ छूट सकती हैं। नहीं तो नहीं छूट सकती। एक महाशय हमारे पास आये थे। वो कहीं रोटरी क्लब के प्रोग्राम में मिल गये। बड़े पीछे लग गये। 'माँ, हमारे हार्ट की हमें तकलीफ है अन्जायना की और हम जा रहे हैं बोस्टन। तो बहुत रूपया-पैसा खर्च होगा। अगर आप मेहरबानी करें।' मैंने कहा, 'अच्छा, आ जाईये।' पूना में हमारे पास आयें। पूना में आ कर के और उन्होंने हमसे कहा कि, 'आप हमारा कुछ इलाज करिये।' मैंने कहा, 'अच्छा!' उनकी जब हमने कुण्डलिनी जागृत कर दी। तो एकदम से उनको थोड़ा सा दर्द हुआ। और फिर से हार्ट अटैक आ गया। और मैं उठ के चल दी। मुझे दूसरी जगह जाना था। जैसे कहते हैं ना 'रमते राम', वैसे ही। जब में बाहर जाने लग गयी। तो एकदम डरे, दु:ख में मुझे देखने लगे कि, 'माँ ऐसे कैसे छोड़ के जा रही हैं।' मैं वापस आयी। मैंने कहा, 'भाई तुम ठीक हो गये हो। जाकर के डॉक्टर को दिखाओ। 'ठीक हो गये हैं', मैंने कहा, 'जाओ दिखाओ!' जब डॉक्टर के पास गये, तो डॉक्टर कहने लगे कि, 'भाई, ये तुम्हारे ही एक्सरे थे क्या ?' और अच्छे घूम रहे हैं आजकल। ऐसे बहुत से लोग ठीक हो गये। लेकिन मैंने उसमें कुछ नहीं किया। सिर्फ आपका चित्त जो है आत्मा की ओर आकर्षित किया। पर इन महाशय को तो दूसरी बीमारियाँ थी। वो सब गलत-सलत लोगों के पीछे दौड़ते थे। और उन्होंने मंत्र भी गलत लिये थे। जब मंत्र आप गलत करें तब लेफ्ट विशुद्धि और हार्ट इसकी जब पकड़ हो जाती है तो अन्जाइना की बीमारी हो जाती है। लेकिन अगर आपका हृदय ऐसी चीज़ों की ओर नहीं खिंचता है, परमात्मा की कृपा से कहिये, पूर्वजनम के सुकृत से, किसी भी तरह से ऐसी जगह आपका दिल नहीं जाता है। ये तो पाखण्डी है, ये तो झूठा है, ये तो ढोंगी है इसके पास में नहीं जाने का मुझे। तब हृदय सचेत रहता है 'दास कबीर जतन से ओढी, जैसी की तैसी रख दी नीचे दरिया।' जब ऐसे घटित होता है तब हार्ट अटैक आने की कौनसी बात है। आत्मा संतुष्ट है आपसे| आप सब यहाँ में बैठे हैं, जब मौका आयेगा कुण्डलिनी जागृत होगी ही। और आप फटाक् से पा लेंगे। इसे आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। विशुद्धि चक्र जो है श्रीकृष्ण का चक्र है । इसमें सोलह कलायें हैं। इसी प्रकार सोलह सब प्लेक्सेस, जिसको कि हम पंखुडियाँ कहते हैं, हमारे अन्दर हैं। और जो कुछ भी हमारे अन्दर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, आदि जितने भी हमारे अन्दर, जिसे वॉवेल्स कहते हैं वो हैं। वो सारे इसके बीज मंत्र हैं। जिस वक्त आप कोई गलत मंत्र कहते हैं तो वो मंत्र की वजह से कोई गलत इन्सान की प्रेतात्मा यहाँ आ के बैठ जाती है। जब आप गलत पूजन करते हैं गलत तरीके से आप किसी भी मेडिटेशन को या किसी भी गलत गुरू के पास जा कर के और दिक्षा लेते हैं तो ये आपका चक्र पकड़ 17 जाता है। ये चक्र पकड़ जाने से आपको अनेक बीमारियाँ होती हैं। उसमें से विशेष करके बीमारी होती है, जिसे हम थ्रोट कैन्सर कहते हैं । जो आपके कंठ के पास शुरू होता है और धीरे-धीरे, बढ़ते-बढ़ते नीचे की ओर बढ़ता हुआ सारे आपके लंग्ज को पकड़ लेता है। पागल जैसे कुछ बाँध लिया सिर पे, भगवान के नाम पर गले में कुछ लटका लिया, चिल्लाना शुरू कर दिया, हरे राम, हरे राम'। ये सब नाटक करने की क्या जरूरत है! परमात्मा अन्दर है, सबकुछ अन्दर में ही होगा, बाह्य में इस तरह के अनेक नाटक करना, कभी कुछ करना, कभी दूसरा तमाशा करना। अन्दर ही में जान पड़ता है कि कोई गलत काम कर रहे हैं और इसलिये मनुष्य कभी-कभी दोषी महसूस करता है। और कभी-कभी तो लोग सभ्यता की दृष्टि से सोचते हैं कि हमेशा दोषी रहना ही अच्छा है। जैसे सवेरे उठकर उनसे बात करो तो, 'माफ करो, माफ करो, माफ करो, माफ करो'। 'भाई, ऐसा क्या हो गया ? क्यों ऐसे बात कर रहे हो? ठीक से तो बात करो।' सबेरे से उठते ही लगता है कि मैंने कुछ गलती कर दी है। अंग्रेजी भाषा भी ऐसी है कि बोलते वक्त 'I am afraid' मैंने कहा कि, 'भाई, किस के लिये अफ्रेड? आप से तो दुनिया अफ्रेड है।' सतरह मतेबा 'Iam sorry, I am sorry, I am sorry, I am sorry', sorry है तो क्यों ऐसा काम करते हो। तो जिस आदमी में इस तरह की न्यूनता की भावना आ जाती है वो भी लेफ्ट विशुद्धि जब साफ होती है तो आश्चर्य होता है लोगों को कि लेफ्ट विशुद्धि पकड़ लेती है। सहजयोग में लेफ्ट विशुद्धि जब साफ होती है तो आश्चर्य होता है लोगों को कि, 'माँ, सब तरह की स्पॉन्डिलाइटिस, सब तरह की परेशानियाँ, माँ, पता नहीं कहाँ भाग जाती है!' और ये विष्णुमाया का स्थान है। जो कृष्ण की बहन है। जिनसे बहन और भाई का विचार नहीं होता, जो दुसरी औरतों की तरफ गन्दी निगाहों से देखते हैं, उनका ये चक्र पकड़ जाता है, जिनमें वो पवित्रता की भावना नहीं होती है उनका भी ये चक्र पकड़ जाता है। क्योंकि अन्दर से वे जानते हैं कि वो गलत काम कर रहे हैं तो वो जो गलत काम कर रहे हैं अन्दर से वो भावना बन जाती है। कभी-कभी झूठ-मूट में ही बनती है और कभी-कभी सचमुच में, चाहे जो भी हो वो बनती है, चाहे जो भी हो उसे निकालना आसान है। सब से तो बुरी बात ये है कि सुबह से शाम तक बताया जायेगा कि तु बड़ा पतित है और मेरे लिये अगर पाँच सौ रूपये ला दीजिये तो मैं तुम्हारा पाप मोचन कर दूँगा। माने आपका पैसा मोरचन होते ही आपका पाप मोचन हो जायेगा ? और फिर रात-दिन यही खोपड़ी में ड्राला जाता है कि, 'तुम पापी हो, तुम पापी हों, तुम पापी हो, तुम पापी हो...' तो मनुष्य सोचने लगता है कि, 'मैं पापी हँ।' इसमें भी मैं देखती हूँ कि कैथलिक धर्म में तो कितनों की तो लेफ्ट विशुद्धि हमेशा पकड़ी रहती है। जैसे, इनको तो जाकर के कन्फेशन करना पड़ता है कि, 'मैंने पाप किया' और अगर नहीं भी किया होगा तो भी कहना ही पड़ता है क्योंकि जिस दिन चर्च जाओ, तो ये कहना ही पड़ता है। अजीब - अजीब परम्परा से भी मनुष्य इसे पाता है। गलत मंत्र कहने से होता है। अनेक चीज़ों से लेफ्ट विशुद्धि पकड़ी जाती है और कहना चाहिये कि आज भी सबकी वही ज़्यादा पकड़ी हुई है। सिगारेट पीने से, तम्बाकु खाने से सब से लेफ्ट विशुद्धि पकड़ी जाती है। अब राईट विशुद्धि तो ऐसे लोगों की पकड़ती है जो कि बहुत जोर जोर से डाँट कर बोलते हैं, चिल्लाते हैं और बिगड़ते हैं। और जिनका गुस्सा बड़ा तेज़ होता है। और जो प्रेम से बात करना जानता ही नहीं है। और जो बहत ज़्यादा 18 भाषण देते हैं, जिनको कोई ज्ञान नहीं, जिन्होंने आत्मा को पाया नहीं, तो भी लेक्चर झाड़ते हैं, उनकी भी राईट विशुद्धि पकड़ती है। और राईट विशुद्धि जो है वो विटठ्ठल का स्थान है, श्री विठ्ठल का स्थान है । इसको विठ्ठल के मंत्र से ठीक किया जा सकता है। इससे लोगों को अनेक तरह की बीमारियाँ हो जाती है। इस तरह गले से सम्बन्ध है। बीच में श्रीकृष्ण का स्थान है। जिस वक्त कुण्डलिनी श्रीकृष्ण के स्थान पर स्थिर होती है तब मनुष्य साक्षी हो कर के उस योगेश्वर की लीला देखता है। यह सारा संसार लीलामय है। इसमें इतनी हड़बड़ाहट, इतनी परेशानी की कौनसी बात है। ये तो बस नाटक, सब नाटक देखते जाओ। इस नाटक को देखते ही बन जाता है। जब आप देखते हैं कि नाटक है, थोड़ी देर तो गड़बड़ाते हैं, उसके बाद जब स्थिर हो जाते हैं, जब आप स्थापित हो जाते हैं तब आप जानते हैं कि ये नाटक है और इस नाटक को प्राय: ही जान लेना आपके लिये बड़ा ही सुखदायी होता है। क्योंकि फिर जो स्थितप्रज्ञा की भाषा है जिसे श्रीकृष्ण ने बताया है वो सिद्ध हो जाती है। कहना नहीं पड़ता है कि अब आप परेशान मत होना। ऐसा आदमी कोई परेशान नहीं होता है। हमें तो आश्चर्य ही होता है कि क्यों सब परेशान हो रहे हैं । परेशान होने से तो कोई बात होने वाली नहीं। तो क्यों बेकार में परेशान हों और बर्बाद करे अपने एनर्जी को लेकिन वो कहने से नहीं होता, जिसको आदत है वो परेशान होगा ही और हमें तो कोई कोई लेग कहते हैं कि क्योंकि आप अपने लिये परेशान नहीं होते इसलिये हम आपके लिये परेशान होते हैं। तो मैंने कहा कि, 'ठीक है, अगर आपको परेशान होना है तो होते रहिये, ऐसी तो कोई परेशानी की बात ही नहीं है। अब ये मैं बताऊंगी कि आज्ञा चक्र जो है वो यहाँ पर है। और ये महाविष्णु का स्थान है। आज्ञा चक्र आपका बहुत जोर से चलना शुरु हो जाता है, जिस वक्त आप बहुत ज़्यादा सोचते हैं। आगे में, यहाँ पर जब बहुत ज़्यादा सोच शुरू हो जाती है तब आज्ञा चक्र चलता है। आज्ञा चक्र तब भी चलता है जब मनुष्य बहुत ज़्यादा अहंकारी होता है। जब उसमें अहंकार आ जाता है तो उसका आज्ञा चक्र बहुत चलता है। और ऐसा आदमी जब अहंकार के दमन का प्रयत्न करता है तो वो अपने ही छाया के साथ लड़ते रहता है। अहंकार भी अपनी छाया मात्र मिथ्या है। वो कोई और चीज़ है नहीं। तो वो अपनी ही छाया के साथ लड़ते रहता है और वो उससे लड़ते -लड़ते, झूझते-झूझते वो और भी थक जाता है और तब वो दूसरे मार्ग ढूंढता है, जैसे कि वो शराब पीने लग जाता है या किसी और औरतों के घर जाना शुरू कर देता है, भागने के लिये, अपने से पलायन करने के लिये क्योंकि वो देख नहीं पाता है अपने अहंकार को और ये स्थिति बहुत लोगों की हो जाती है, वो तंग आ जाता है। अपने अहंकार से कि बाप रे ये कितना खाया जा रहा है हमें। ये एक बड़ी बीमारी अब आने वाली है जो कि मैंने अमेरिका में बतायी है, एड्स के बारे में बताया था। और इसके बाद में एक नयी बीमारी अल्झाइमर, अब जो शुरु हुई है। उसके बारे में बताया था और अब तीसरी बीमारी के बारे में बता रही हूँ कि ऐसे लेगों को पैरेलिसीस हो जाएगा, जिसका आज्ञा चक्र बहुत जबरदस्त चलेगा और जिनमें अहंकार बढ़ेगा उन्हें पैरेलिसीस होने के बाद वो इस तरह को पैरेलिसीस हो जायेगा कि वो चेतन बुद्धि से कॉन्शस माइंड से अगर कोई काम करना चाहेगा तो कर नहीं पायेगा । ऐसे तो चलते-फिरते रहेंगे औ फिर जब सोचेंगे कि मैं चल रहा हूँ तो एकदम से गिर जायेंगे। और वो बीमारी अब शुरू ही हो गयी है और अब दो-चार पेशंट अब देखना भी शुरू कर 19 दिया है। सो अहंकार से लड़ने से नहीं होगा। अहंकार से झुंझने से नहीं होता है। ये गलतफहमी है कि हम अहंकार से लड़ सकते हैं। अहंकार तो हमारे ही बनायी हुई मिथ्या बात है कि हम दुनिया भर की आफत उठाये जा रहे हैं । मैं कभी-कभी एक कार्य बताती हूँ कि कुछ लोग प्लेन से जा रहे थे, देहाती थे उनसे कहा कि,'इतना सामान नहीं ले जाना।' तो कहा कि, 'अच्छा, ठीक है।' और फिर वो प्लेन पर बैठे और सामान अपने सर पर रख लिया और कहने लगे कि, 'हम तो अपने सामान का बोझ ढो रहे हैं। अरे, जिस प्लेन ने आपका बोझ उठाया है वो ही इस प्लेन का बोझ उठा रहा है। जिसने आपको बनाया है, जो करता-भोगता सबकुछ है। वही सब कुछ करता है। सिर्फ कहने से कुछ नहीं होता है। ये तो आपकी स्थिति है, जब ये स्थापित हो जाती है। जब कुण्डलिनी का जागरण होता है और आज्ञा को लाँघ जाती है तो निर्विचारिता आपमें स्थापित हो जाती है। उसके उलटे अगर आपके पिछले हिस्से में ये चक्र गर आपमें पकड़ा जाये तो डाइबिटीस की वजह से यहाँ पर जब वो पकड़ा जाता है (पीछे की आज्ञा) तो आज्ञा चक्र के चारों ओर फैला हुआ स्वाधिष्ठान जब पकड़ा जाता है तो आँखों का नुकसान हो जाता है। तो उससे भी ज़्यादा आपको अगर आप गलत गुरुओं के पास गये तो आपकी आँख अंधी हो सकती है। आँख में अंधापन आ सकता है। आँख की कमजोरी सी आ सकती है। आपके बच्चे अंधे हो सकते हैं इससे क्योंकि आप अंधेपन से वहाँ गये थे। तो पक्का अंधापन आपके अन्दर आ सकता है। लेफ्ट आज्ञा, जिसे हम कहते हैं पिछला आज्ञा है । इसके पकड़ने से अनेक अनेक बीमारियाँ हो सकती है। अब इस वक्त समय नहीं है इसलिये मैं बताती नहीं हूँ लेकिन इसके साफ होते ही मनुष्य की दृष्टि में एक चमक आ जाती है। एक ज्योत आँख में आ जाती है। और जिसके आज्ञा की चमक आ गयी ऐसे आदमी की दृष्टि भी अत्यंत शुद्ध होती है । ये इतनी शुभदायी होती है कि ये जिस पर पड़ जाये उसका शुभ हो जाये । ऐसी व्यक्ति की सारी आकृति ही शुभदायी होती है। उस आकृति को काँटजाँच करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि वो आकृति ही ऐसी बनी रहती है। उसके खड़े होते ही उसमें वो व्यक्तित्व होता है कि मनुष्य एकदम से ही उसको पा करके उसका शुभ का लाभ उठा सकता है। अरे आप शुभ की बात बहुत करते हैं लेकिन आप ये तक नहीं जानते हैं कि शुभ और अशुभ क्या होता है। जब कोई चीज़ शुभ होती है तो उसमें से चैतन्य बहना शुरु हो जाता है । उसमें से चैतन्य जब बहे तो सोच लेना कि ये चीज़ शुभ है और नहीं तो नहीं। तो ये पहली चीज़ है जो हमारे अन्दर आती है, जिसे कि निर्विचार समाधि कहते हैं। जिसे कि पहले के जमाने में बहुत लोग पाते थे वो आप को एकदम स्थापित होता है और आप निर्विचार समाधि में जाते हैं। और इसको पाने के लिये कोई सा भी विचार मन में आया तो 'उसको क्षमा कर दिया, क्षमा, क्षमा' ये ईसामसीह ने हमको सिखाया है। ईसामसीह दूसरे तीसरे कोई नहीं हैं, ये श्रीगणेश का अवतरण इस संसार में हुआ है। सारे उनका वर्णन गर आप पढ़ें महाविष्णु का, देवी महात्म्य का तो आप जान जायेंगे कि, ये साक्षात वही है। न तो वो ईसाईयों के हैं न तो वो हिन्दुओं के हैं न मुसलमानों के हैं, लेकिन वो सहजयोगियों के हैं। उनके सबसे बड़े भाई हैं और वही जिस तरह श्री गणेश सब से पहले सहजयोगी हैं, उसी प्रकार ईसामसीह भी हैं। इसा मसीह का नाम भी सुन्दर लिखा गया है। क्योंकि उनका नाम क्रिस्त है। क्रिस्त; हिब्रू में इन्हे क्रिस्त कहते हैं। क्रिस्त: श्रीकृष्ण से आया । राधाजी का भी स्वरूप महालक्ष्मी का था और राधाजी का स्वयं महालक्ष्मी का रूप था और राधाजी ने ही मेरी के नाम से ही जन्म इस संसार में लिया और 20 उन्होंने ही, ये जान लीजियेगा कि ये उस राधा के ही पुत्र हैं जो श्रीकृष्ण से पैदा हुआ और जब वो बाप की बाप करते हैं। तो वे सिर्फ श्रीकृष्ण की बात करते हैं। ईसामसीह की सिर्फ दो उंगलियाँ ऐसी रहती है (अनामिका और मध्यमा वाली उंगली) ये उंगली (अनामिका) श्रीकृष्ण की है और ये (मध्यमा) नारायण की है। दूसरा नाम उनका जो जेसू है उसको हिब्रु में येशु कहते हैं। आप जानते हैं यशोदाजी का नाम येश ही होगा, उनको येशु पुकारते थे, इसलिए राधाजी ने सोचा | कि इनका नाम येशु लिखें। अभी ईसाईयों को कौन जाकर बताये और हिन्दुओं को कौन जाकर बताये? अगर मैं वहाँ ईसामसीह की बात निकालती हूँ तो लोग कहते हैं कि माँ आप तो सब लोगों को ईसाई बना रहे हैं। और जब मैं वहाँ श्रीकृष्ण की बात निकालती हूँ तो लोग कहते हैं कि मैं उनको हिन्दू बना रही हूँ। मुझे किसी को कुछ बनाने का नहीं है। मुझे सिर्फ आप जो हैं, आप की जो चीज़ खोयी है वो आपको देने की है, बस! इन सब झगड़े बाजी में मैं हूँ नहीं। आपकी जो अन्दर सुंदर स्थिति है उसको आपके लिये उसकी कुँजी जो है वो मुझे आप तक पहुँचानी है। अब सबसे आखिर में सहस्रार आया, सहस्रार माने ये कि हजार पंखूड़ियों से बना हुआ सहस्रार है, जिसको कि अगर हम ब्रेन को अगर transuersection में काटे तो आप देख सकते हैं कि जैसे, पंखुड़ियाँ जैसे उसके हजार इस तरह से अलग-अलग खंड दिखाई देते हैं साफ तौर पर। अब डॉक्टरों का झगड़ा है कि नौ हजार अठानवे ही उसमें ये हैं, नाड़ियाँ और दो कम है इसलिये झगड़ा करेंगे। नौसो अठानवे, इससे पहले तो आपको छ: सौ ही मिली हुई थी। उसमें क्या रखा हुआ है। जिस वक्त यह सहस्रार खुलता है तो जैसे कोई बड़ी सुन्दर दीपशिखायें जो कि शान्त, तापहीन हैं और जो कि अनेक रंगो से प्लावित है, सात ही रंग जिस में चमक रहे हैं, इस तरह से दिखाई देता है। कमल, सहस्रार का कमल इस तरह से खिलता है। और उसके अन्दर कुण्डलिनी जैसे कोई टेलिस्कोप खुलता है, उस तरह से खट्, खट्, खट् ऊपर आकर के और सोने के ढ़क्कन जैसा जो ये आज्ञा चक्र है जो कि सूर्य का बिम्ब उसमें है उसको छेद करके यहाँ पर जो कि लिम्बिक एरिया है जो कि बीच में इस तरह से खोखली जगह है, जिसे लिम्बिक एरिया कहते हैं, उसमें से निकल करके और सहस्रार यूँ खुल जाता है। उसकी वजह ये है कि जैसे ही आज्ञा चक्र को भेदती है कुण्डलिनी, वैसे ही हमारे अन्दर जो इगो और सुपर इगो इस तरह की जो स्थायें बनी हुई है वो खिंच जाती है इसलिये कर्म आपके सब खाली हैं। कुण्डलिनी ने और आपके अन्दर जितने भी कुसंस्कार थे सब खा लिये। और दोनो के दोनो इस तरह से पीछे हट जाते हैं और इस तरह से सहस्रार खुल के और आपके ब्रह्मरंध्र से आपको कुण्डलिनी की ठण्डी - ठण्ही हवा मिलने लग जाती है। कभी-कभी विशुद्धि चक्र खराब होने से हाथ में ठण्डी - ठण्डी लहरें महसूस नहीं होती है। विशुद्धि को ठीक करते ही आप इसे महसूस करते हैं। इनको कैसे ठीक करना है वरगैरे वरगैरे। ये सब आपको ये लोग यहाँ बतायेंगे। अब आखिर में मैं बहुत आभारी हूँ आप सब के कि आपने इतने देर तक बैठकर सुना मुझे। ये ज्ञान हमारे मूल का है जिसकी सारे संसार को आज जरूरत है। वो हमें उन्हें देना है। उनको गणेश सिखाते सिखाते तो सात साल बीत गये हैं और उसके बाद उनका विष्णु जी सिखाते-सिखाते और सात साल बीत गये। बारह वर्ष का वनवास मैंने कर लिया और पता नहीं अब और कितना वनवास करना पड़ेगा। लेकिन अगर आप लोग सुसज्ज हो जाये तो आप इनको ये सारी बातें बहुत सुन्दरता से समझा सकते हैं। 21 ईड़ा न डी सर्वप्रथम आदिशक्ति की अभिव्यक्ति बायीं ओर को होती है। यह महाकाली की अभिव्यक्ति है। महाकाली की शक्ति हमारे (मानव शरीर) बायीं ओर ईडा नाड़ी से प्रवाहित होती है । हमें सम्भवत: इस बात का ज्ञान नहीं है कि महाकाली क्या करती हैं। पहला कार्य जो वे करती हैं वह है हमारी रक्षा करना। आप जहाँ भी हों, आप जो भी कर रहे हों, किसी भी खतरे में आप फँसे हुए हों, महाकाली आपकी करती हैं। वे आपके अन्दर विद्यमान हैं। वे आपके जीवन की सुरक्षा करती हैं, आपके शरीर के सभी सुरक्षा अवयवों की सुरक्षा करती हैं। उनके साम्राज्य में आप स्वयं को सुरक्षित पाते हैं। वास्तव में वे पथ प्रदर्शक शक्ति हैं, वे ही हमें हमारा अस्तित्व प्रदान करती हैं। वे हमें आराम, निद्रा और सत्य प्रदान करती हैं, वे आपको बताती हैं कि क्या सत्य है और क्या असत्य। कभी-कभी अपने अहंकार वश लोग समझ बैठते हैं कि जो मैं सोचता हूँ वही सत्य है, तब माया की सृष्टि करके वे इस बात को रोशनी में लाती हैं। एक प्रकार से ऐसे भ्रम की सृष्टि करती हैं कि आप सोचने लगते हैं कि यह क्या है, इसलिए उन्हें भ्रान्ति नाम दिया गया है। वे आपको भ्रम में फँसा देती हैं और अन्त में इस भ्रम से आपको मुक्त भी करती हैं। .....आप यदि अपनी सारी समस्याओं को उन पर छोड़ दे तों सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इतना ही नहीं आप स्वयं को वास्तव में आशीर्वादित भी महसूस करते हैं। ये आशीर्वाद केवल शारीरिक ही नहीं, वे आपके मस्तिष्क को पूरी तरह से चिन्ताओं से मुक्त कर देती हैं। वे ही आपको जटिल रोगों से मुक्त करती हैं, वे रोग मुक्त कर सकती हैं। आपका अहं उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे चाहती हैं कि आप अहं विहीन हों । आपके अन्तर्निहित शिशु की देखभाल करना, आपकी अबोधिता एवं सौहार्द्रता की देखभाल करना महाकाली की शक्ति का कार्य है। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०,१९९९ जब तक महाकाली प्रकट नहीं होती आपके अन्दर बसी बायीं ओर की पकड़ जा नहीं सकती। बायीं ओर की पकड़ का क्या मतलब है? सबसे पहले तो आप अपने भूतकाल के विषय में सोचते रहते हैं, दूसरी बात यह कि मेरे बाप ये थे, मेरे बाप के बाप ये थे, ये सोचते रहते हैं, ऐसे लोगों को ठीक करने के लिये श्री महाकाली स्वरूप आवश्यक है। महाकाली स्वरूप के बिना ऐसा पागलपन छूट नहीं सकता। महाकाली का एक स्वरूप बड़ा भयंकर है। जो लोग भूतग्रसित हैं, जो हमेशा बुरे कार्य करते हैं और जो लोग गुरुघंटाल हैं वे लोग मुझे (महाकाली रूप में) 22 4१ र पहचानते हैं। भूतग्रस्त आदमी तो मेरे सामने थर-थर काँपने लगता है। ये जो भूतग्रस्त लोग हैं इनके भूतों को महाकाली दिखायी देती हैं, वही रूप दिखायी देता है और वे थर-थर काँपते हैं। अहं का भूत भी यदि लग जाए तो उनको महाकाली का रूप दिखायी देता है। झूठे गुरुओं की पकड़ से लोगों को मुक्त करने के लिये भी महाकाली की जरूरत है। महाकाली अति रौद्रा हैं..... रुद्रस्वरूप और वो रुद्रस्वरूप बहुत जरूरी है नहीं तो बाधायें भागने वाली नहीं । वो सिर्फ रुद्रस्वरूप से ही भागती हैं। एकादश रुद्र में जो ग्यारह रुद्र हैं वो ग्यारह ही रुद्रों में महाकाली की ही शक्ति विराजमान है। महाकाली का स्वरूप अगर कलियुग में इस्तेमाल न किया जाए तो सहजयोग का कार्य न हो सकेगा क्योंकि आसुरी शक्तियों के कारण सारे चक्र पकड़ में आ जाते हैं और चक्र ठीक किये बिना कुण्डलिनी चढ़ेगी नहीं, इसलिए महाकाली का स्वरूप बहुत वन्दनीय है और सराहनीय है। यह किसी को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचातीं। उनके स्वरूप से सभी बुराइयाँ भाग जाती हैं। प.पू.श्री माताजी, जयपुर, ११.१२.१९९४ श्री महाकाली आनन्द प्रदायिनी हैं और अपने भक्तों को आनन्दित देखकर वे प्रसन्न होती हैं। आनन्द ही उनका गुण है और शक्ति है। विभिन्न चक्रों पर आप विभिन्न प्रकार के आनन्द अनुभव करते हैं, वह सब महाकाली की देन होती है। प.पू.श्री माताजी, फ्रान्स, १२.९.१९९० श्री महाकाली दो तरह से कार्य करती हैं - एक तरफ तो वे अति प्रेममयी, आनन्द एवं खुशी से परिपूर्ण हैं, दूसरी ओर वे अति क्रूर, क्रुद्ध और असुरों का वध करने वाली हैं। जैसा कि हम जानते हैं, श्री महाकाली ने बहुत से असुरों और राक्षसों का वध किया है, लेकिन अभी बहत से राक्षस विद्यमान हैं। अभी भी वे जीवित हैं, परन्तु मुझे विश्वास है कि वो भी समाप्त हो जाएंगे, उनमें से एक भी न बचेगा। आपको इस प्रकार से परिपक्व होना है ताकि इन आसुरी लोगों के विषय में आपको पूरी जानकारी हो। आप अपने ज्योतित चित्त से जान सकते हैं कि किस संस्था में क्या दोष है? ध्यान-धारणा करने का यह सर्वोत्तम मार्ग होगा। केवल ध्यान-धारणा करनी है और श्री महाकाली से प्रार्थना करनी है कि उन लोगों को नष्ट करें जो विश्व को नष्ट कर रहे हैं। 'हे महाकाली, कृपा करके दुष्ट लोगों का वध करो ।' ये उनका कार्य है, ऐसा करने में उन्हें प्रसन्नता होगी, पर किसी व्यक्ति को तो उनसे प्रार्थना करनी होगी। ऐसा करना बहुत अच्छा होगा क्योंकि जब तक आप उन्हें कहेंगे नहीं ऐसे बहुत से लोगों दुष्ट पर सम्भवत: उनका चित्त न जा पाएगा। अत: सर्वोत्तम तरीका ये होगा कि सदैव उनसे व्यक्तिगत रूप से, सामूहिक या विश्व स्तर पर सहायता की याचना करें। वे सर्वव्यापी हैं। पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक हैं। उनकी पूजा करना, उन्हें जागृत करना, यही एकमात्र आपका कर्तव्य है। .वे सर्वत्र मौजूद हैं, आपके जीवन में हर स्थान पर, विशेष रूप से सहजयोगियों के तो वे हमेशा साथ 23 ईड़ा नाड़ी होती हैं चाहे जो भी आप कर रहे हों। आपकी यदि कोई दुर्घटना होती है तो वहाँ भी आपकी देखभाल करने के लिये वे मौजूद होती हैं, देवदूत की तरह सदैव आपके पीछे होती हैं। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०.९९ जब महाकाली अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तो वे गृहलक्ष्मी हो जाती हैं । महाकाली की शक्ति स्त्री में उसकी शालीनता होती है। जब तक शालीनता स्त्री में कार्यान्वित नहीं होती तब तक गृहलक्ष्मी की शक्ति उसके अन्दर प्रकटित नहीं होती है। हम फातिमा बी को मानते हैं, वो गृहलक्ष्मी के सिंहासन को सुशोभित करती हैं। महाकाली की इस शक्ति से स्त्री अपने बच्चों को ठीक रास्ते पर रखती है और अपने चरित्र को उज्ज्वल रखती है। शालीन स्त्री में हास्य रस प्रस्फुटित होना चाहिए, किस चीज़ को वो हँस कर टाल दे, और हँस कर के हजारों प्रश्न वो ठीक कर सकती है। प.पू.श्री माताजी, जयपुर, ११.१२.१९९४ श्री महाकाली को प्रकाश पसन्द है । उनकी पूजा रात्रि में होती है, क्योंकि रात्रि में हम दीप जला सकते हैं। वे व्यक्ति को ज्योतिर्मय करना पसन्द करती हैं, उन्हें सूर्य पसन्द है, हर ऐसी चीज़ पसन्द है जो चमकती हो । आप उनकी साक्षात मूर्ति का ध्यान कर सकते हैं, उनकी प्रार्थना कर सकते हैं। उनके बच्चे उनकी पूजा करें यह उन्हें अच्छा लगता है, इसी स्तर पर वे उनसे एक हो सकती हैं और उन्हें अपनी करुणा एवं प्रेम प्रदान कर सकती हैं। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०.१९९९ आपको ऐसे ढंग से सहजयोग करना होगा जो अत्यन्त पवित्र हो, मानों एक नन्हें शिशु की तरह आप अपनी माँ की पूजा कर रहे हों। जैसे एक नन्हा शिशु अपनी माँ से प्रेम करता है। यह अत्यन्त सहज सम्बन्ध है जिसे हम सब भुला चुके हैं। किस प्रकार हम अपनी माँ से प्रेम करें, किस प्रकार उनके पथ प्रदर्शन में रहें और किस प्रकार उनकी सुरक्षा में सुरक्षित रहें? यह इतनी सीधी बात है और मैंने अपने बचपन में ही यह बात जान ली थी। आप यदि वास्तव में माँ की पूजा करना चाहते हैं तो एक बार आपमें उसी बचपन का लौट आना आवश्यक है। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०.१९९९ श्री महाकाली आपको स्थिति प्रदान करती हैं, दृढ़ीकरण की स्थिति। जब हम अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं तो श्री महाकाली का प्रकटीकरण आरम्भ हो जाता है । महाकाली में शुद्धिकरण की शक्ति है और वे स्वयं आपमें पवित्र सती के रूप में रहती हैं, वही कुण्डलिनी है, वही श्री महाकाली शक्ति हैं। प.पू.श्री माताजी, फ्रान्स, १२.९.१९९० 24 श्री भैरवनाथ मेरे विचार से हमने श्री भैरवनाथ जी, जो कि ईड़ा नाड़ी पर हैं और ऊपर नीचे की ओर विचरण करते हैं, का महत्व नहीं समझा है। ईडा नाड़ी चंद्र नाड़ी है, अतः यह स्वयं को शांत करने का मार्ग है। उदाहरणतया अहं और जिगर की गर्मी ही हमारे क्रोध का कारण है। जब मनुष्य अत्यधिक क्रोध में होता है, तो श्री भैरवनाथ उसे दर्बल बनाने के लिए चाल चलते हैं। वे श्री हनुमानजी की सहायता से उस क्रुद्ध मनुष्य को इस सत्य की अनुभूति कराते हैं कि क्रोध की मूर्खता में कोई अच्छाई नहीं है वाम प्रवृत्ति व्यक्ति सामूहिक नहीं हो सकता। उदास, अप्रसन्न तथा चिंतित व्यक्ति के लिए सामूहिकता का आनन्द ले पाना अति कठिन है जबकि क्रोधी राजसिक व्यक्ति दूसरों को सामूहिकता का आनन्द नहीं लेने देता, परन्तु स्वयं सामूहिकता में रहने का प्रयत्न करता है जिससे उसका उत्थान हो सके। ऐसा व्यक्ति केवल अपनी श्रेष्ठता को ही दिखाना चाहता है, अतः वह सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इसके विपरीत जो व्यक्ति हर समय खिन्न है और सोचता है कि मुझे कोई प्यार नहीं करता, मेरी कोई चिंता नहीं करता और जो हर समय दूसरों से आशा रखता है, वह भी सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इस प्रकार के वाम प्रवृत्ति व्यक्ति को हर चीज़ से उदासी ही प्राप्त होगी। हर चीज़ को अशुभ समझने की नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण हम अपने बायें पक्ष को हानि पहुँचाते हैं। श्री भैरवनाथ अपने हाथों में प्रकाश-दीप लिए ईड़ा- नाड़़ी में ऊपर-नीचे को दौड़ते हुए आपके लिए मार्ग प्रकाशित करते हैं जिससे कि आप देख सकें कि नकारात्मकता कुछ भी नहीं । नकारात्मकता हममें कई प्रकार से आ जाती हैं । एक नकारात्मक तत्व है कि 'यह मेरा है', 'मेरा बच्चा', 'मेरा पति', 'मेरी सम्पत्ति' । इस प्रकार जब आप लिप्त हो जाते हैं तो आपके बच्चों में भी नकारात्मक तत्व आ जाते हैं, परन्तु यदि आप सकारात्मक होना चाहते है तो यह सुगम है। इसके लिए आपको देखना है कि आपका चित्त कहाँ है? हर नकारात्मकता में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहजयोगी की विशेषता है। नकारात्मकता का कोई अस्तित्व नहीं, यह केवल अज्ञानता है। अज्ञानता का भी कोई अस्तित्व नहीं। जब हर चीज़ केवल सर्वत्रव्याप्त शक्ति मात्र है, तो अज्ञानता का अस्तित्व कैसे हो सकता है? परन्तु यदि आप इस शक्ति की तहों में छुप जाओ और इससे दूर दौड़ जाओ तो आप कहेंगे कि नकारात्मकता है, उसी प्रकार से जैसे आप यदि अपने आपको एक गुफा में छिपा लें और को अच्छी तरह बंद गुफा करके कहें कि 'सूर्य नहीं है। वो लोग सामूहिक नहीं रह पाते, या तो बायीं ओर के होते हैं या दायीं ओर के। बायीं ओर 25 के लोग नकारात्मकता में सामूहिक हो सकते हैं जैसे कि शराबियों का बंधुत्व, ये लोग अन्त में पागलपन तक पहुँच जाते हैं, जबकि दायीं ओर के लोग मूर्ख हो जाते हैं। यदि एक सहजयोगी सामूहिक नहीं हो सकता तो उसे जान लेना चाहिए कि वह सहजयोगी नहीं है । श्री भैरवनाथ हमें अंधेरे में भी प्रकाश प्रदान करते हैं, क्योंकि वे हमारे अन्दर के भूतों और भूतही विचारों का विनाश करते हैं। श्री भैरवनाथ श्री गणेश से भी सम्बन्धित हैं। श्री गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं और श्री भैरवनाथ बायीं तरफ से दायीं तरफ चले जाते हैं। अतः हर प्रकार के बन्धन और आदतों पर श्री भैरवनाथ की सहायता से विजय पाई जा सकती है। नेपाल में श्री भैरव की एक बहुत बड़ी स्वयंभु मूर्ति है। वहाँ लोग बहुत बारीं ओर हैं, अत: वे श्री भैरव से डरते हैं। यदि किसी को चोरी करने की बुरी आदत हो तो उसे छोड़ने के लिए वह श्री भैरवनाथ के सामने दिया जलाकर उनके सम्मुख अपना अपराध स्वीकार करे तथा इस बुरी आदत से बचने में उनकी मदद ले। अनुचित तथा धूर्ततापूर्ण कार्यों से भी श्री भैरवनाथ हमारी रक्षा करते हैं। जिस कार्य को हम बहुत ही गुप्त रूप से करते हैं वह भी श्री भैरव से छिपाया नहीं जा सकता। यदि आप अपने में परिवर्तन नहीं लाते तो वे आपकी बुराइयों का भाँडा फोड़ देते हैं, इसी तरह उन्होंने सब भयानक गुरुओं का भाँडा फोड़ दिया है । बाद में श्री भैरव का अवतरण इस पृथ्वी पर श्री महावीर के रूप में हुआ। वे नर्क के द्वार पर खड़े रहते हैं ताकि लोगों को नर्क में पड़ने से बचा सके, परन्तु यदि आप नर्क में जाना ही चाहें तो वे आपको रोकते नहीं। अच्छा हो यदि हम अपनी नकारात्मकता से लड़ने का प्रयत्न करे तथा दूसरों का संग पसन्द करने वाले, दूसरों से प्रेम करने वाले तथा चुहल पसन्द लोग बन जाएं। दूसरे आपके लिए क्या कर रहे हैं, इसकी चिन्ता किए बिना आप केवल ये सोचें कि आप दूसरों का क्या भला कर सकते हैं। आओ, हम श्री भैरवनाथ से प्रार्थना करें कि वे हमें हँसी, आनन्द तथा चुहल की चेतना प्रदान करें। प.पू.श्री माताजी, कारलेट इटली, ६.८.१९८९ े कर फिंग ली नीडी श्री महास२स्वती प्रेम से सभी प्रकार की सृजनात्मक गतिविधि घटित होती हैं। .......ज्यों-ज्यों प्रेम बढेगा आपकी सृजनात्मकता विकसित होगी। तो प्रेम ही श्री सरस्वती की सृजनात्मकता का आधार है। यदि प्रेम न होता तो सृजनात्मकता न होती। तो दाईं ओर की, सरस्वती की, सारी गतिविधि मूलत: प्रेम में समाप्त होनी हैं। प्रेम से ही इसका आरम्भ होता है और प्रेम में ही समाप्ति। जिस भी चीज़ का अन्त प्रेम में नहीं होता वह एकत्र होकर समाप्त हो जाती है। बस लुप्त हो जाती है। .....अब जिस प्रेम की हम बात करते है, हम परमात्मा के प्रेम की बात करते हैं, निश्चित रूप से इसे हम चैतन्य लहरियों के माध्यम से जानते हैं। लोगों में चैतन्य लहरियाँ नहीं हैं, फिर भी वे अत्यन्त अचेतनता में चैतन्य लहरियाँ महसूस कर सकते हैं। विश्व की सभी महान चित्रकृतियों में चैतन्य है। विश्व के सभी महान सृजनात्मक कार्यों में चैतन्य है। जिन कृतियों में चैतन्य है केवल वही बनी रह पाईं, उनके अतिरिक्त बाकी सब नष्ट हो गईं। अत: वह सभी कुछ जो दीर्घायु है, पोषक है और श्रेष्ठ है, वह इस प्रेम विवेक के परिणाम स्वरूप है जो हमारे अन्दर अत्यन्त विकसित है। परन्तु यह कुछ अन्य लोगों में भी है जो अभी तक आत्मसाक्षात्कारी नहीं है। अन्ततः पूरे विश्व को यह महसूस करना होगा कि व्यक्ति को परमात्मा के परम प्रेम तक पहुँचना है अन्यथा इसका (विश्व का) कोई अर्थ नहीं। ...... पश्चिम ने, में कहना चाहूँगी, विशेष रूप से सरस्वती की बहत पूजा की है - उससे भी कहीं अधिक जितनी भारत में हुई है क्योंकि वे सीखने के लिए गए और बहुत सी चीज़ें खोजने का प्रयत्न किया। परन्तु वे केवल इस बात को भूल गए कि वे देवी हैं, परमात्मा देने वाले (giver) हैं। हर चीज़ देवी से आती है। ये बात वो भूल गए और इसी कारण से सभी समस्याएं खड़ी हो गईं। आपकी शिक्षा में यदि आत्मा न हो, शिक्षा में यदि देवी का कोई स्रोत न हो तो शिक्षा पूर्णत: व्यर्थ है। उन्हें यदि इस बात का एहसास हो गया होता कि आत्मा कार्य कर रही है तो वे इतनी दर न जाते। भारतीयों को भी मैं इसी चीज़ की चेतावनी दे रही थी कि आप लोग भी अब औद्योगिक क्रान्ति को अपना लक्ष्य बना रहे हैं परन्तु आपने औद्योगिक क्रान्ति की जटिलताओं से बचना है। आत्मा को जानने का प्रयत्न अवश्य करें। आत्मज्ञान प्राप्त किए बगैर आपको भी वही समस्याएं होंगी जो इन लोगों को हैं। क्योंकि वे भी 27 फिंग ड़ी नाड़़ी मानव हैं और आप भी। आप भी उसी मार्ग पर चलेंगे। अचानक आप दौड़ पड़ेंगे और समस्याएं होंगी, बिल्कुल वैसी ही समस्याएं जैसी पश्चिमी लोगों को हैं। सरस्वती जी के इतने आशीर्वाद हैं कि इतने थोड़े समय में इनका वर्णन नहीं किया जा सकता और सूर्य ने हमें इतनी शक्तियाँ प्रदान की हैं कि इनके विषय में एक क्या दस प्रवचनों में भी बता पाना असम्भव है। परन्तु किस प्रकार हम सूर्य के विरोध में जाते हैं और किस प्रकार सरस्वती के विरोध में जाते हैं! सरस्वती की पूजा करते हुए अपने अन्दर यह बात हमने स्पष्ट देखनी है। उदाहरण के रूप में पश्चिमी लोग सूर्य को बहुत पसन्द करते हैं क्योंकि वहाँ पर सूर्य नहीं होता। जैसा आप जानते हैं इस दिशा में वे अपनी सीमाएं लाँघ जाते हैं और अपने साथ सूर्य की जटिलताएं परन्तु उत्पन्न कर लेते हैं। मुख्य चीज़ जो व्यक्ति ने सूर्य के माध्यम से प्राप्त करनी होती है, वह है प्रकाशविवेक-अन्तर्प्रकाश। और यदि आज्ञा पर स्थित सूर्यचक्र पर भगवान ईसामसीह विराजमान हैं तो जीवन की पावनता, जिसे आप 'नीति' कहते हैं, और भी अधिक आवश्यक है, यही जीवन की नैतिकता है। अब पश्चिम में तो नैतिकता भी बहस का बहुत बड़ा मुद्दा बन गई है। लोगों में पूर्ण नैतिकता का विवेक ही नहीं है। नि:सन्देह चैतन्य-लहरियों पर आप इस बात को जान सकते हैं परन्तु वे सब इसके विरुद्ध चले गए। जो लोग भगवान ईसामसीह के पुजारी हैं, जो सूर्य के पुजारी हैं, सरस्वती के पुजारी हैं, वे सभी विरोध में चले गए। सूर्य की शक्तियों के विरोध में, उसकी अवज्ञा करते हुए। क्योंकि आपमें यदि नैतिकता व पावनता का विवेक नहीं है तो आप सूर्य नहीं बन सकते। सभी कुछ स्पष्ट देखने के लिए सूर्य स्वयं प्रकाश प्रदान करते हैं। सूर्य में बहुत से गुण हैं। वे सभी गीली, गन्दी और मैली चीज़़ों को सुखाते हैं। परजीवी जन्तु उत्पन्न करने वाले स्थानों को वे सुखाते हैं। परन्तु पश्चिम में बहुत बहत से से परजीवी जन्म लेते हैं। केवल परजीवी ही नहीं भयानक पंथ और भयानक चीजें भी पश्चिम में आ गई हैं, उन देशों में जिन्हें प्रकाश से परिपूर्ण होना चाहिए था परन्तु वे उसी अन्धकार में बने हुए हैं। आत्मा के विषय में अन्धकार, अपने ज्ञान के विषय में अन्धकार और प्रेम के विषय में अन्धकार । जहाँ प्रेम का प्रकाश होना चाहिए था वहाँ इन तीनों चीज़ों का साम्राज्य है। प्रकाश का अर्थ वह नहीं है जो आप अपनी स्थूल दृष्टि से देखते हैं। प्रकाश का अर्थ है - अन्न्तप्रकाश-प्रेम का प्रकाश। यह इतना सुखकर है, इतना मधुर है, इतना सुन्दर है, इतना आकर्षक है और इतना विपुल है कि जब तक आप इस प्रकाश को अपने अन्दर महसूस नहीं कर लेते-वह प्रकाश जो पावन प्रेम है, पावनता है, पावन सम्बन्ध है, पावन सूझ-बूझ है, आपको चैन नहीं आ सकता है। इस प्रकार का प्रकाश यदि आप अपने अन्दर विकसित कर लें तो सभी कुछ स्वच्छ हो जाएगा। 'मुझे धो दो और मैं बर्फ से भी श्वेत हो जाऊंगा।' पूर्णत: स्वच्छ हो जाने पर आपके साथ भी ऐसा ही होता है । प्रकृति का पावनतम रूप हमारे अन्दर निहित है-प्रकृति का पावनतम रूप। प्रकृति के पावनतम रूप से ही 28 हमारे चक्र बनाए गए हैं। मानसिक विचारों द्वारा हमीं लोग इसे बिगाड़ रहे हैं। उसी सरस्वती शक्ति के विरुद्ध, आप साक्षात सरस्वती के विरुद्ध जा रहे हैं । प्रकृति की सारी अशुद्धियों को सरस्वती शुद्ध करती हैं, परन्तु अपनी मानसिक गतिविधियों से हम इसे बिगाड़ रहे हैं। हमारी सारी मानसिक गतिविधि पावन विवेक के विरुद्ध जाती है और यही बात व्यक्ति ने समझनी है कि अपने विचारों द्वारा हमने इस शुद्ध विवेक को नहीं बिगाड़ना। हमारे विचार हमें इतना अहंकारी, इतना अहंवादी, इतना अस्वच्छ बना देते हैं कि हम वास्तव में विषपान करते हैं और कहते हैं, 'इसमें क्या बुराई है?' सरस्वती के बिल्कुल विरुद्ध। सरस्वती यदि हमारे अन्दर हैं तो वे हमें सुबुद्धि देती हैं, विवेक देती हैं। इसी कारण से सरस्वती पूजन के लिए, सूर्य पूजन के लिए हमारे अन्दर स्पष्ट दृष्टि होनी चाहिए कि हमें क्या बनना है, हम क्या कर रहे हैं, कैसी गन्दगी में हम रह रहे हैं, हमारा मस्तिष्क कहाँ जा रहा है। आखिरकार हम यहाँ पर मोक्ष प्राप्ति के लिए हैं, अपने अहं को बढ़ावा देने तथा अपने अन्तःस्थित गर्दगी के साथ जीवनयापन करने के लिए नहीं। में आपसे मिलूं या न मिलूं कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु मैं आप सबमें व्याप्त हूँ, छोटी-छोटी चीज़ों के द्वारा भी मैं आपके साथ हूँ। अत: इस प्रकार से एक दूसरे में व्याप्त होने का प्रयत्न करें और अपने अन्दर के सौन्दर्य को देखें । अपना भरपूर आनन्द उठाएं क्योंकि यही सबसे बड़ी चीज़ है और यही सबसे बड़ी चीज़ प्राप्त करनी है । ये अहं आपको छिलके (Nutshell) की तरह से बना देता है जो व्याप्त होने के सौन्दर्य के साथ तालमेल नहीं रख सकता। देखें कि स्वर किस प्रकार एक दूसरे में घुलमिल जाते हैं। ये व्याप्तिकरण केवल तभी सम्भव है जब आपका अहं चहं ओर व्याप्त होने लगेगा और दाईं ओर की समस्याओं पर काबू पाने का भी यही उपाय है और सरस्वती की पूजा भी इसी प्रकार से करनी है। सरस्वती के हाथ में वीणा है और वीणा आदि वाद्ययन्त्र है जिसका संगीत वे बजाती हैं। वह संगीत हृदय में प्रवेश कर जाता है। आपको पता भी नहीं चलता कि किस प्रकार आपके अन्दर ये संगीत प्रवेश करता है और किस प्रकार कार्य करता है। इसी प्रकार से सहजयोगी को भी व्याप्त हो जाना चाहिए-संगीत की तरह से। जैसे मैंने आपको बताया, बहुत से हैं गुण जिनका वर्णन एक प्रवचन में नहीं किया जा सकता है, परन्तु सरस्वती जी का एक गुण ये है कि वे सूक्ष्म चीज़ों में प्रवेश कर जाती हैं। जैसे पृथ्वी माँ सुगन्ध में परिवर्तित हो जाती हैं, इसी प्रकार से संगीत लय में परिवर्तित हो जाता है और जिस भी चीज़ का सृजन वे करती हैं वह और अधिक महान हो जाती है। जिस भी पदार्थ को वे उत्पन्न करती हैं वह सौन्दर्य सम्पन्न हो जाता है। सौन्दर्यविहीन पदार्थ तो स्थूल है और इसी प्रकार सभी कुछ है। अब आप कहेंगे कि जल क्या है ? जल गंगा नदी बन जाता है। ये सब सूक्ष्म चीज़े हैं । अत: पदार्थ सूक्ष्म बन जाते हैं क्योंकि इन्हें होना होता है- सर्वत्र प्रवेश करना होता है। अतः हर चीज़़, चाहे जो हो- और वायु सर्वोत्तम है-वह वायु भी चैतन्य लहरियों में परिवर्तित हो जाती है। अत: आप देख सकते हैं कि किस प्रकार पदार्थ से बनी चीजें-इन पाँच तत्वों से बनी हुई चीजें-सूक्ष्म बन 29 फिंगली नाड़ी जाती हैं। नि:सन्देह बायां और दायां-दोनों पक्ष इसे कार्यान्वित करते हैं। क्योंकि 'प्रेम' ने इस पर कार्य करना होता है और प्रेम जब पदार्थ पर कार्य करता है तो पदार्थ भी प्रेम बन जाता है। और इसी दृष्टि से व्यक्ति को अपने जीवन को भी देखना चाहिए-इसे प्रेम और पदार्थ का सुन्दर संयोजन बनाने के लिए । परमात्मा आपको धन्य करें। प.पू.श्री माताजी, धुलिया, १४.१.१९८३ सन्यासी वृत्ति पिंगला नाड़ी की जागृति से होती है, परन्तु ये नाड़ी सहजयोग में आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद जागृत होनी चाहिये, उससे पहले की जागृति ठीक नहीं है, वह अधूरी, मतलब एकांगी होती है, इसलिये ग़लत है। कभी-कभी मुझे लगता है कि आधे पहुँचे लोग केवल सन्यासीपन का पाखंड रचा कर घूमते रहते हैं। प.पू.श्री माताजी, २३.९.१९७९ सरस्वती का कार्य बड़ा महान है। महासरस्वती ने पहले सारा अंतरिक्ष बनाया। इसमें पृथ्वी तत्व विशेष है । पृथ्वी तत्व को इस प्रकार से सूर्य और चन्द्रमा के बीच में लाकर स्थिर कर दिया कि वहाँ पर कोई सी भी जीवन्त क्रिया आसानी से हो सकती है। इस जीवन्त क्रिया से धीरे-धीरे मनुष्य भी उत्पन्न हुआ। परन्तु हमें अपनी बहुत बड़ी शक्ति जान लेनी चाहिये, वो शक्ति है जिसे हम सृजन शक्ति कहते हैं यह शक्ति उन सरस्वतीजी का आशीर्वाद है जिनके द्वारा अनेक कलाएँ उत्पन्न हुई। कला का प्रादर्भाव श्री सरस्वती के आशीर्वाद से ही है । प.पू.श्री माताजी, ४.४.१९९२ सरस्वती का कार्यक्षेत्र शरीर का दायां भाग है। स्वाधिष्ठान पर कार्य करके जब ये बायीं ओर को जाती हैं तो कला-विवेक बढ़ता है। व्यक्ति को सरस्वती तत्व से महासरस्वती तत्व की ओर जाना चाहिये। क्योंकि सरस्वती तत्व यदि बीज है तो महासरस्वती तत्व पेड़ है। बिना इस बीज को वृक्ष बनाये आप महालक्ष्मी से नहीं जुड़ सकते। सहजयोग में सरस्वती और लक्ष्मी आज्ञा चक्र पर मिलती हैं। दोनों तत्वों को उचित दृष्टि से देखे बिना हम उन्नति नहीं कर सकते। कला को लक्ष्मी से जोड़ने के लिए हममें शुद्ध दृष्टि होनी चाहिये। आप जितना अपनी शक्तियों का उपयोग करेंगे उतना ही अधिक वे बढ़ेंगी। अब आपको सहजयोग देना है, जब आप इस कार्य में लग जाएँगे तो महासरस्वती तत्व जागृत हो जाएगा और देश की उन्नति देख आप आश्चर्य चकित रह जाएंगे । प.पू.श्री माताजी, ३.२.१९९२ 30 श्र हनुमान मानव अस्तित्व में श्री हनुमान जी की महत्वपूर्ण भूमिका है। निरन्तर हमारे स्वाधिष्ठान से मस्तिष्क (पिंगला नाड़ी) तक चलते हुए वे हमारी भविष्य की योजनाओं या मानसिक गतिविधियों के लिये आवश्यक मार्गदर्शन तथा सुरक्षा प्रदान करते हैं। श्री हनुमान जी जैसे देवता का, जो कि बन्दर सम उन्नत शिशु हैं, निरन्तर मानव के दायें पक्ष में दौड़ते रहना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। मानव के अंत:स्थित सूर्यतत्व को शान्त तथा कोमल बनाए रखने के लिए उनसे कहा गया। जन्म के समय ही उनसे सूर्य को नियंत्रित करने के लिये कहा गया, अतः शिशु सुलभ स्वभाव से उन्होंने सोचा कि सूर्य को खा ही क्यों न लिया जाय। यह सोचते हुए कि पेट के अन्दर सूर्य को अधिक नियंत्रित किया जा सकता है उन्होंने विराट रूप धारण करके सूर्य को निगल लिया मानव की दाँयी तरफ को नियंत्रित रखने के लिये उनका बालसुलभ आचरण उनके चरित्र की सुन्दरता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम को अपनी सहायता के लिए किसी सचिव की आवश्यकता थी और इस कार्य के लिए श्री हनुमान का सृजन हुआ। श्री हनुमान जी श्री राम के ऐसे सहायक और दास थे और उनके प्रति इतने समर्पित थे कि कोई अन्य सेवक अपने स्वामी के प्रति इतना समर्पित नहीं हो सकता। उनके समर्पण के फलस्वरूप ही | शारीरिक रूप से विकसित होने के पूर्व ही उन्हें नवधा सिद्धियाँ प्राप्त हो गईं। इन सिद्धियों के फलस्वरूप उन्हें सूक्ष्म या पर्वतसम विशालकाय शरीर धारण करने की क्षमता प्राप्त हो गई। अत्यन्त उग्र स्वभाव के व्यक्तियों को श्री हनुमान इन सिद्धियों से नियन्त्रित करते हैं । अपनी पूँछ को किसी भी हद तक बढ़ा कर लोगों को नियन्त्रित करना उनकी एक और सिद्धि है । वे हवा में उड़ सकते हैं----हवा में उड़ने की सामर्थ्य के कारण वे संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचा सकते हैं। आकाश की सूक्ष्मता श्री हनुमान के नियन्त्रण में है। वे इस सूक्ष्मता के स्वामी हैं और इसी के माध्यम से वे संदेश भेजते हैं। दूरदर्शन, आकाशवाणी तथा ध्वनिवर्धन उनकी इसी शक्ति की देन है। बिना किसी संयोजक के आकाशमार्ग से वायवीय (Ethnic) सम्बन्ध स्थापित करना इस महान अभियन्ता का ही कार्य है। यह कार्य इतना पूर्ण 31 फिंग ड़ी ली नं है कि आप इसमें कोई त्रुटि नहीं निकाल सकते। आपके यन्त्रों में त्रुटि हो सकती है, श्री हनुमान जी की कार्य कुशलता में नहीं--- -यहाँ तक कि हमारे अन्दर की सूक्ष्म लहरियों का हमारी नस-नाड़ियों पर, हमारे रोम-रोम पर अनुभव होना भी श्री हनुमान जी की कृपा से है। श्री हनुमान को 'अणिमा' नामक एक अन्य सिद्धि भी प्राप्त है जो उन्हें अणुओं तथा परमाणूओं में प्रवेश करने की शक्ति प्रदान करती है। हनुमान जी की कृपा से ही होता है । श्री गणेश ने उनके विद्युत-चुम्बकीय शक्तियों का गतिशील होना श्री अन्दर चुम्बकीय शक्ति भर दी है। वे स्वयं चुम्बक हैं। भौतिक सतह पर विद्युत चुम्बकीय शक्ति श्री हनुमान जी की शक्ति है परन्तु भौतिकता से वे मस्तिष्क तक जाते हैं, स्वाधिष्ठान से उठ कर मस्तिष्क तक जाते हैं। मस्तिष्क के अन्दर वे इसके भिन्न पक्षों के सह-सम्बन्धों का सजन करते हैं। यदि श्री गणेश हमें विवेक प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सोचने की शक्ति देते हैं । बुरे विचारों से बचाने के लिए वे हमारी रक्षा करते हैं। श्री गणेश जी हमें विवेक देते हैं तो श्री हनुमान जी सद्- सद्-विवेक। सद्-सद्-विवेक उनकी दी गई सूक्ष्म शक्ति है और यह हमें सत्य असत्य में भेद जानने का विवेक प्रदान करती है। सहजयोग में हम कहते हैं कि श्री गणेश अध्यक्ष हैं या इस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। वे हमें उपाधियाँ देते हैं और हमें अपनी अवस्था की गहराई जानने में सहायता करते हैं। वे हमें निर्विचार तथा निर्विकल्प समाधि और आनन्द प्रदान करते हैं। बौद्धिक सूझ-बूझ जैसे यह अच्छा है यह हमारे हित में है, श्री हनुमान जी की देन है और बुद्धिवादी होने के कारण वे पार्चात्य लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं - - -- मार्गदर्शन तथा सुरक्षा हमें श्री हनुमान जी की देन है । श्री राम का कार्य करने के लिए श्री हनुमान सदैव उत्सुक रहते हैं। विवेक यह है कि जो कुछ भी श्री राम कहते | हैं उसे कर देते हैं---- श्री राम की सहायता जब आप लेते हैं तो श्री हनुमान जी ही आपको बताते हैं कि हनुमान सर्वशक्तिमान परमात्मा या श्री राम जैसे के अतिरिक्त आपको किसी के प्रति समर्पित नहीं होना। तब आप एक गुरु स्वतन्त्र पक्षी होते हैं और पूरी नौ शक्तियाँ आपमें जागृत हो जाती हैं। आपके अहं के साथ-साथ बहुत सी अन्य बुराइयों का भी श्री हनुमान प्रतिकार करते हैं। यह तथ्य लंकादहन कर रावण की खिल्ली उड़ाने में अत्यन्त मधुरता से प्रकट हो जाता है। अहंकारी लोगों से आपकी रक्षा करना---श्री हनुमान का कार्य है। श्री हनुमान का एक अन्य गुण यह है कि वे लोगों को स्वेच्छाचारी बना देते हैं। दो अहंकारी व्यक्तियों को 32 मिलाकर वे उनसे ऐसे हालात पैदा करवा देते हैं कि दोनों नम्र होकर मित्र बन जाते हैं। हमारे अन्तस का हनुमान तत्व हमारे अहं का ध्यान रखने तथा हमें बाल सुलभ, विनोदशील और प्रसन्न बनाने में कार्यरत है। वे सदा नृत्य-भाव में होते हैं। यदि श्री गणेश मेरे पीछे बैठते हैं तो श्री हनुमान मेरे चरणों में। श्री हनुमान जी अहंकारी लोगों तक को समर्पण करना सिखाते हैं, समर्पण के लिए विवश करते हैं, भिन्न प्रकार की बाधाओं, चमत्कारों या विधियों द्वारा वे शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण करवाते हैं। के प्रति व्यक्ति के समर्पण की शक्ति श्री हनुमान जी की है। किस प्रकार से आप गुरु को प्रसन्न कर सकते हैं गुरु और उसका सामीप्य प्राप्त कर सकते हैं? सामीप्य का अर्थ शारीरिक सामीप्य नहीं। इसका अर्थ है एक प्रकार का तदात्म्य, एक प्रकार की समझ । मुझसे दूर रहकर भी सहजयोगी अपने हृदय में मेरा अनुभव कर सकते हैं। यह शक्ति हमें श्री हनुमान जी से प्राप्त करनी है। सभी देवताओं की रक्षा श्री हनुमान जी वैसे ही करते हैं जैसे वे आपकी रक्षा करते हैं। श्री गणेश जी शक्ति प्रदान करते हैं पर रक्षा क्षी हनुमान जी करते हैं। श्री हनुमान (देवदूत 'गैब्रील') रक्षक थे। संदेशवाहक गैब्रील और उन्होंने 'इमैक्यूलेट साल्वे' अर्थात 'निर्मल साल्वे' शब्द का प्रयोग किया जो कि मेरा नाम है। जीवन पर्यन्त मारिया को श्री हनुमान की सेवा स्वीकार करनी पड़ी । मारिया महालक्ष्मी हैं। जो भी योजना मेरे मस्तिष्क में बनती है श्री हनुमान जी उसे कर डालते हैं क्योंकि पूरी संस्था भली - भाँति संयोजित है-----कई घटनायें जिन्हें आप चमत्कार कहते हैं श्री हनुमान जी द्वारा की हुई होती हैं। चमत्कार करने वाले वे ही हैं। श्री हनुमान जी हमारी उतावली, जल्दबाजी तथा आक्रमणशीलता को ठीक करते हैं । श्री हनुमान मूसलाधार बारिश और वेगवान तूफान की तरह जाकर विनाश कर देते हैं। अपनी विद्युत चुम्बकीय शक्ति द्वारा वे ये सारे कार्य करते हैं। भौतिक तत्व उनके नियन्त्रण में हैं, वे वर्षा, धूप और हवा की सृजन आपके लिए करते हैं। पूजा या मिलन के लिए वे उचित प्रबन्ध करते हैं। बिना किसी के जाने वे सारे कार्य कर डालते हैं। हमें हर समय उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए । ..श्री हनुमान एक तेजस्वी देवद्त हैं, वे सन्यासी या त्यागी नहीं हैं। सुन्दरता तथा सज्जा उन्हें बहुत प्रिय है। . वे एक सनातन शिशू हैं और वो भी एक बन्दर बालक। प.पू.श्री माताजी, फ्रैंकफर्ट, जर्मनी, ३१.८.१९९० 33 जी के बारे में क्या कहें, वे जितने शक्तिवान थे, जितने थे .श्री हनुमान गुणवान उतने ही वे श्रद्धामय और भक्तिमय थे। .....श्री हनुमान जी एक विशेष देवता हैं, एक विशेष गुणधारी देवता, जितने वे बलवान थे उतना ही उनकी शक्ति भक्ति थी। ये सन्तुलन उन्होंने किस प्रकार पाया और उसमें कैसे रहे, एक यही समझने की बात है। उनके अन्दर नवधा दैवी शक्तियाँ थीं। गरिमा-चाहे जितने बड़े हो सकते थे , अणिमा- छोटे बिल्कुल सूक्ष्म हो सकते थे । उनके शरीर का अंग अंग उसी से ( शक्ति और भक्ति से) भरा रहता है। उनकी इसी विशेषता के कारण आज हम बजरंग बली की देश विदेश में भी अर्चना करते हैं । भक्ति और शक्ति दो अलग चीज़े नहीं हैं। एक ही हैं। हम ये कहेंगे कि गर Right Hand में शक्ति है तो Left Hand में भक्ति। ये शक्ति-भक्ति का संगम, ये हनुमान जी में बहुत है। दूसरी उनकी विशेष बात ये है कि वे अर्ध-मनुष्य थे, अर्ध-बन्दर, माने पशु और मानव का बड़ा अच्छा मिश्रण था। तो हमारे अन्दर जो कुछ भी हमने अपनी उत्क्रान्ति में अपने Evolution में पीछे छोड़ा है उसमें भी जो प्रेम और उसमें जो भी आसक्ति थी वो उन्होंने अपने साथ ले ली थी। हो, जो दूसरों को सताता है, जो श्री हनुमान जी प्रेम के सागर हैं और उसी वक्त जो दुष्ट दूसरों को नष्ट करता हो, उसका वध करने में उनको बिल्कुल किसी तरह का संकोच नहीं होता था। श्री हनुमान पूजा - १९९९ 34 २० म] .....आप सब मेरे बच्चे हैं, मेरे बेटे-बेटियाँ हैं। यह सब श्री गणेश की तरह से हैं । हमसब पैगम्बरों की तरहसे हैं। "क्या हमारे अन्द२ पैगम्बरों की शक्तियाँ हैं ?" " श्री माताजी, क्या हम वास्तव में २साक्षात्कारी लोग हैं?" 66 क्या हम मानव सयती का२सारतत्व है?" क्या हम लोग परमात्मा की कृपी का निष्कर्ष हैं?" 66 ये प्रश्न पूछे और यह शक्तियाँ अपने अन्दर विकसित करें । पं.पू.श्री माताजी, १४.१.१९८३ प्रकाशक * निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in ाम २प्तमी और नवमी दो दिन विशेषकर आपके ऊपर हमारा आशीर्वाद २हती है। स्मी और नवमी के दिन ज़र०२ ऐस आयोजन करनी जिसमें pं पूरा ध्यान मूहिक ध्यान उसी जगह करना जहाँ मेर पै२ पड़ हुआ है , जौ चीज़ करें। आप अपनी शुद्ध हो चुकी है। प.पू.श्रीमाताजी, २७.९.१९७६ प्. এय श० प ० ---------------------- 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-0.txt वैतन्य लहरी हिन्दी जनवरी-फरवरी २०१३ ह44 ४ मुभ या 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-2.txt इस अंक में समस्त चक्र ...4 ईड़ा नाड़ी श्री महाकालौ ...22 श्री भैरवनाथ ....25 पिंगला नाड़ी श्री महासरस्वती ...27 श्री हनुमान .... 31 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-3.txt समस्त चेक्र सहजयोग की शुरुआत एक तिनके से हुई थी जो बढ़कर आज सागर स्वरूप हो गया है। लेकिन इससे अभी महासागर होना है। इसी महानगर में ये महासागर हो सकता है ऐसा अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है। आज आपको मैं सहजयोग की कार्यता तथा कुण्डलिनी के जागरण से मनुष्य को क्या लाभ होता है वो बताना चाहती हूँ। माँ का स्वरूप ऐसा ही होता है कि अगर आपको कोई कड़वी चीज़ देनी हो तो उसपे मिठाई का लेपन कर देना पड़ता है । किंतु सहजयोग ऐसी चीज़ नहीं है। सहजयोग पे लेपन भी मिठाई का है और उसका अंतरभाग तो बहुत ही सुंदर है। सहजयोग, जैसे आपने जाना है, 'सह' माने जो आपके साथ पैदा हुआ हो। ऐसा जो योग का आपका जन्मसिद्ध हक्क है। वो आपको प्राप्त होना चाहिये। जैसे तिलक ने कहा था, बाल गंगाधर तिलक साहब ने भरी कोर्ट में कहा था कि जनम सिद्ध हक्क हमारा स्वतंत्र है। उसी तरह हमारा जनम सिद्ध हक्क 'स्व' के तंत्र को जानना है। ये 'स्व' का तंत्र परमात्मा ने हमारे अन्दर हजारो वर्ष संजोग कर प्रेम से अत्यंत सुंदर बना कर रखा हुआ है। इसलिये इसमें कुछ करना नहीं पड़ता है। सिर्फ कुण्डलिनी का जागरण होकर आपका जब सम्बन्ध इस चराचर में फैली हुई परमात्मा की प्रेम की सृष्टि से, उनके प्रेम की शक्ति से एकाकार हो जाती है तब योग साध्य होता है और उसी से जो कुछ भी आज तक वर्णित किया गया है। वो जो सन्तों ने वर्णित किया हुआ है, जो मार्कस् ने कहा है, उस परमात्मा का साम्राज्य आपको प्राप्त हो जाता है। यह सब कुछ जो आप ही के अन्दर जो सुन्दर रचना है, उसीसे घटित हो जाती है। आज आपसे मैं जैसा कि इन लोगों ने बताया था; कुण्डलिनी के माध्यम से हम कैसे नानाविध लाभ उठाते हैं उसके बारे में बताऊंगी और दूसरी बात; एक बिनती भी है कि जिससे हमारा आजतक कभी हित हुआ ही नहीं है और अगर हित ही हमारे अन्दर उत्तमोत्तम चीज़ है तो सब कुछ छोड़कर के हमें अपने स्वार्थ में उतरना चाहिये। स्वार्थ का अर्थ भी हमारे पूर्वजों ने बड़ा ही सुंदर बताया है। 'स्व' का अर्थ पाना ही स्वार्थ है। लेकिन हम स्वार्थ को उलटी तरह से समझते हैं; जिसने 'स्व' का अर्थ पा लिया वो स्वार्थ हो गया और स्वार्थ पाते ही जो कुछ स्वयं के लिये हितकरी है वो तो होता ही है और स्वयं से निगडित जो सब कुछ है, उसका भी हित हो जाता है। सर्वप्रथम कुण्डलिनी का जागरण होना जब शुरू होता है तो श्री गणेश मूलाधार चक्र में इसकी व्यवस्था करते हैं। जिस मनुष्य के अन्दर श्री गणेश की शक्ति बलवत्तर है उसकी कुण्डलिनी बहुत जल्दी ऊपर चढ़ती है और वहीं प्रतीक्षा में रहती है । जैसे कि छोटे बच्चे हैं. 4 कोलकाता, २०/४/१९८६ 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-4.txt जिनके दिमाग में और कोई बातें नहीं है। जिनके हृदय में और कोई किल्मिष नहीं है। जिनके बातचीत में कोई कठोरता नहीं है। ऐसे अबोध बच्चों को कुण्डलिनी का जागरण बहुत लाभदायक होता है। और ऐसे लाभप्रद चीज़ को पाने के बाद ये बच्चे दुनिया के बहुत सी गंदी चीजों से अपने आप अछूते हो जाते हैं। वो गलत रास्ते पर जा ही नहीं सकते। वो अपने को दुःख देने वाली या समाज को दु:ख देने वाली कोई सी भी क्रिया कर ही नहीं सकते। उनका उधर मन ही नहीं जाता। वो सबके प्रति अत्यंत विनम्र और आदर्युक्त होते हैं। किसी का भी वो अपमान नहीं करते, किसी को वो दुःख नहीं देते। किसी को वो तकलीफ नहीं देते। सारी चीज़ों के प्रति उनकी दृष्टि अत्यन्त शुद्ध और निर्मल होती है। किसी की चीज़ छू लेना, किसी को दुषण देना, किसी पर अपने गलतियों का बोझ डाल देना इन सब चीज़ों से परे होकर के वो एक समर्थ जीव तैयार होते हैं। और वो समर्थता ऐसी है कि उसमें वो अगर कोई गलत चीज़ देखते हैं तभी एकदम पूरा सीना तान कर ये बात कहीं पर भी कह देते हैं। इसका उदाहरण में हमारी जो नातीन है, छोटी सी थी, एक पाँच वर्ष की, तब उनके माता-पिता उन्हें लद्दाख ले गये थे। तो वहाँ पर उन्होंने देखा कि एक लामा साहब बड़ा सा एक चोगा पहन कर के बाल मुंडा-वुंडा के बैठे हुए थे। वो बिहार के रहने वाले हैं लोग। जब उन्होंने देखा कि सब लोग जाकर के ये महात्मा जी के पैर छू रहे हैं और उनके माँ और बाबुजी भी संकोच में आकर उनके पैर छूने लग गये, तब उनसे रहा नहीं गया, हालांकि बहुत छोटी सी थी, जाकर के उसने अपने हाथ ऐसे किये और वो एक टीले में बैठी हई थी और उनकी ओर ऐसे गरदन करके कहती है कि, 'सर मुंडा कर और ये चोगा पहन कर आप सबसे पैर छूवा रहे हैं, आप पार तो नहीं हैं ।' पाँच साल की उमर में उन्होंने उनको सुनाया। ऐसे मुझे याद है कि एक बार हमारे यहाँ पर जो बड़े महान महर्षि रमण हो गये हैं, उनके सौ साल की वर्ष गाँठ पर मुझे लोगों ने अपने यहाँ अतिथि बुलाया था। उस वक्त मेैं बैठी हुई थी मंच पर। और वहाँ से मेरे पास में मेरी दूसरी नातिन बैठी हुई थी। तो वहाँ मेरे पास एक साहब बैठे हुए थे, एक बड़ा सा चोगा पहन करके और वो वहाँ के बड़े पण्डित माने जाते थे। मुम्बई के बड़े भारी पण्डित और बड़े आचार्य माने जाते थे| वहाँ से वो खड़े होकर के कहती है कि, 'नानी, ये जो मैक्सी पहन कर के बैठा है उनको भगाओ । इनसे इतनी गरमी आ रही है कि हम लोग यहाँ बैठ नहीं पायेंगे।' और वहाँ उस हॉल में बहुत से सहजयोगी बैठे हुए थे वो भी कहें, तो उन्होंने भी यूँ यूँ हाथ हिलाया कि, 'हाँ भाई, बड़ी गर्मी आ रही है इसको यहाँ से हटाओ । ' इसमें ये समझना चाहिए कि वो बच्चे जो कि अत्यंत विनम्र हैं इतने सत्यप्रिय होते हैं कि जब देखते हैं कि असत्य को मंच पर बिठा दिया गया है और सबके ऊपर उनका असर आ रहा है तो वो खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार उनमें धर्म की दृष्टि आ जाती है। जहाँ भी अधर्म होता है वहाँ वो खड़े हो जाते हैं। ये तो गणेश तत्व में जब आप भी जागते हैं तब आप भी एक बालक जैसे हो जाते हैं। ईसा मसीह ने कहा था, कि परमात्मा के साम्राज्य में आने के लिए आपको बालक जैसा होना चाहिये, अबोधिता आनी चाहिये । सारी चालाकी, ये होशियारी ये सब एक क्षण में विलीन हो जाते हैं। ये कुण्डलिनी तभी आपके अन्दर जागृत होती है जब आपके अन्दर गणेश जागृत होते हैं और जब गणेश जागृत होकर के अपनी माँ की लज्जा रक्षा करते हैं और तब कुण्डलिनी उनके आदेश पे ही जागृत हो जाती है। अब जब कुण्डलिनी उठकर के आपके स्वाधिष्ठान चक्र में आती है तो आपके अन्दर एक नया संसार बसने लग जाता है। सौंदर्य दृष्टि आपकी बड़ी सूक्ष्म हो जाती है। एक साहब मेरे पास आये और बोले कि, 'मेरे पास कोई नौकरी 5 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-5.txt नहीं है।' तो मैंने कहा कि, 'आप कोई इंटिरिअर डेकोरेशन का काम क्यों नहीं करते ?' तो उन्होंने कहा कि, 'मुझे तो कौन सी लकड़ी क्या है ये भी नहीं मालूम तो मैं इंटिरिअर डेकोरेशन क्या करूँगा?' मैंने कहा कि, 'तुम करो तो सही ! तो उन्होंने इंटिरियर डेकोरेशन किया। उसमें वो लाखोपति हो गये। मैंने कहा कि, सिर्फ जिस वक्त आप किसी भी चीज़़ को सौंदर्यवान बनाने जाते हैं तो आप सिर्फ उस की चैतन्य लहरियाँ देखें। अगर उसमें से चैतन्य की लहरियाँ आ रही है तो समझ लिजीए कि वो चीज़ बन गयी है। अगर नहीं आ रही है तो उसको मत बनाना। पर मुझको तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि वो बनाने गये, बनाते गये, बहुत ही सुन्दर बनती गयी, कहीं भी वाइब्रेशन्स ने उन्हें रोका नहीं, कहीं उन्हें ऐसा नहीं लगा कि यहाँ गर्मी आ रही है, या यहाँ तकलीफ हो रही है। वो सौंदर्य दृष्टि कभी-कभी इस तरह से विकसित होती है कि जो लोग कभी भी कविता नहीं लिखते थे, गणितज्ञ हैं, कभी जनम में कविता क्या है उनको मालूम नहीं है। वो ऐसी सुंदर काव्य रचना करते हैं कि देखते ही बनता है। जिन्होंने कभी हाथ में कुछ भी नहीं लिया। कुछ भी जिन्होंने चित्रित नहीं किया वो ऐसी सुन्दर आकृतियाँ और ऐसे सुन्दर विषय पर इतने शुभदायी चित्र बनाते हैं कि वो सोचता है कि ये कहाँ से, रवि वर्मा फिर से आ गये हैं क्या इस संसार में ! क्योंकि मनुष्य उसके तत्व में उतर जाता है और वो तत्व है सौंदर्य दृष्टि। सौंदर्य दृष्टि जो मनुष्य की होती है वो बहियाँ होती है। लेकिन जब वो पार हो जाता है उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है। उसको कोई अश्लिल, भद्दी, सस्ती चीज़ अच्छी ही नहीं लगती है। वो जो भी चीज़ बनाता है एकदम गहन बनाकर रख देता है। उसको समझने वाला भी आत्मसाक्षात्कारी होना चाहिए। जैसे विलियम ब्लैक के नाम का एक बड़ा भारी कवि, सौ वर्ष पहले इंग्लैंड में हुआ। और इस कवि ने सहजयोग के बारे में इतनी बारीकि से लिखा है कि में जिस घर में रह रही हूँ उस घर का भी पता पूरा उस बारीकि से दे रखा है। इस विलियम ब्लैक की जो कुंचली है उसमें ऐसी चीज़े बनाकर रखी है कि सिर्फ इसे सहजयोगी ही समझ पायेगा या कोई आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष ही इसे समझ पायेगा। उन्होंने आज्ञा चक्र इतना सुन्दर बनाया, परमात्मा को बनाया जो दबा रहे हैं आज्ञा चक्र को, कि ऊपर से किसी तरह खुल जाये ये चीज़। लेकिन वो कौन समझ पायेगा। उसमें तो यही देख रहे हैं लोग कि मसल्स कैसे बनाया है, जो परमात्मा को दिखाया है उसका नाक कैसे बनाया है, उसका मुँह कैसे बनाया है। उसकी पूर्ण आकृति का जो coefficience है उससे कितना शुभ आ रहा है। जब मैं लंडन पहुँची तब सर्वप्रथम मैंने कहा था कि विलियम ब्लैक की सौ वर्षगाँठ हैं, उसमें मुझे जाना है। तो सब लड़के कहने लग गये कि माँ, आप तो कोई ऐसी वैसी जगह जाती नहीं। मैंने कहा कि, इसमें तो जाना है हमें। तो वहाँ पहुँचे तो सारा वातावरण इतना सुंदर लग रहा था कि हर तरफ से बहुत सुंदर चैतन्य की लहरियाँ बह रही थी और जैसे कि संगीत सा मुझे लग रहा था। लेकिन वहाँ लोग दूरबीन लगा कर के देख रहे थे कि कौन नग्न दिखाया गया, कौन बीभत्स दिखाया गया है, कौन कितने भद्दे ढंग से खड़ा हुआ है। ये उनकी दृष्टि में वो सौंदर्य था ही नहीं जिसको कि हम वहाँ उपभोग ले सके। अब आप जानते हैं कि परदेश में लोगों की दृष्टि बहुत खराब हो चुकी है। वो तो किसी भी चीज़़ में अश्लिलता के सिवाय और कुछ देख ही नहीं सकते हैं। उनकी दृष्टि इतनी अधोगति से चली आ रही है, लेकिन आज मैं सहजयोग में देखती हूँ कि सहजयोगियों के तरीके, उनको वृद्ध स्त्री है बैठी हुई, उनको उसमें तक इतना सौंदर्य नज़र आता है। हृदय का सौंदर्य देखने की जो महानता है वो उन लोगों में बड़ी ही कुशलता से पता नहीं कैसे 6. 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-6.txt बाहर प्रदर्शित होती है और मुझे आश्चर्य होता है कि ये लोग जो इतनी तुच्छित नज़र से संसार की ओर देखते थे, आज एक गौरव से देख रहे हैं कि देखिये संसार क्या है ! आपने सुना होगा कि 'मोनालिसा' नाम का एक पेंटिंग है जो कि लिओनार्दो-दा-विंसी ने बनाया है और जो कि पैरिस के बड़े वाले लुई के प्रदर्शनी में रखा गया है, जहाँ अनेक लोग जाते हैं उसे देखने के लिये| मैंने एक दिन कहा कि आप जा कर देखना कि, 'मोनालिसा' जो है उससे वाइब्रेशन्स आते हैं। इतने सालों से बनी हुई चीज़ है। उसे देखने के लिए हजारो लोग आते हैं। उसकी वो आज कल के मॉडर्न सिनेमा की स्टार जैसी है, और काफ़ी भरभकम शरीर है और उनके मुख पर एक हँसी है, एक सादगी है और हज़ारों लोग इतने दिन से उसे देखने आ रहे हैं कि, मैंने कहा कि, 'आप भी जा कर के देखिये कि उसमें से चैतन्य की लहरें आती है या नहीं। तो वो लोग जब पैरिस गये तो कहने लगे कि माँ हमें तो अन्दर जाते ही इतने वाइब्रेशन्स आ रहे थे कि हम तो अभिभूत होकर के उसे देखते रहे कि हमने कितनी बार इसका चित्र देखा पर कभी ऐसा लगा नहीं।' फ्रान्स से लोग जो कि माहिर है उत्सुकता में, जो कि बहुत ही गंदी बातों में उलझे हुए हैं, उनके साहित्य और उनके तौर तरीके इतने गंदे हैं कि उनसे कुछ सीखने का ही नहीं है। मैं तो उनको कहती थी कि आपका तो बाथरूम कल्चर है पूरा। आप तो पूरे बाथरूम कल्चर के लोग हो, आपको दूसरी कोई बात नहीं आती है। लेकिन आज जो स्वर्ग में बैठे हुए हैं और इतने सुन्दर लोग हैं, इतने सुन्दर हो गये हैं कि मुझे तो आश्चर्य लगता है कि जैसे ही उनके अन्दर आत्मा का दीप जल गया तो इनके इतने प्रेम के शुद्ध स्वरूप हैं, शुभ - अशुभ के विचार से प्लावित वो इतने कीचड़ में बैठे हुए ये कमल पता नहीं किस तरह से खिल कर सुरभित हो गये हैं। ये तो आपके स्वाधिष्ठान चक्र पर कुण्डलिनी के आने से होता है। जिसको संगीत नहीं सुनाई देता, अब जानते हैं आप कि बहुत से लोग क्लासिकल म्यूझिक ही पसंद करते हैं। अब ये तो ओंकार से आया हुआ हमारा भारतीय संगीत है। हम लोग बहुत लड़ते हैं कि हम भारतीय हैं, हम भारतीय हैं करके। जिसको अगर हमारे यहाँ का संगीत समझ में नहीं आता, मैं तो उसको कभी भी भारतीय किसी भी प्रकार से नहीं मानूंगी। इस मामले हम लाग हमेशा विदेशों की ओर दौड़ते हैं। उनसे हम उनका संगीत सीखने का प्रयत्न करते हैं। इस घराने, इस महान | योगभूमि ने इतना ऊँचा संगीत हमें दिया है, उसको हम समझ नहीं पाते हैं। हमारा लेक्चर हो रहा था देलही में, अमजद अली साहब भी सहजयोगी हैं, उनके साथ के भी सभी लोग सहजयोगी हो गये हैं और उनके सारे बजाने में भी फर्क आ गया। लेकिन जैसे ही उन्होंने बजाना शुरू किया , आधे लोग उठ कर चले गये। कहने लगे कि, 'हम तो माँ को सुनने आये हैं।' मैंने कहा, 'मैं ही तो बोल रही हूँ, ये अमजद अली क्या बजा रहे हैं, मैं ही इसमें बोल रही हूँ। बैठो तो सही!' जिसको संगीत का जरा भी शौक नहीं है उसको सोचना चाहिए कि एक दिन ऐसा आयेगा कि ऐसा आपको शौक लगेगा कि चाहे संगीतकार उठ जाये पर आप नहीं उठेंगे। ये हाल हमारे सहजयोगियों का है। आज देश-विदेशों में जहाँ-जहाँ सहजयोग पहुँचा है, हज़ारों के तादाद में, जहाँ भी होंगे । पण्डित भीमसेन जोशी, आप जानते हैं, महाराष्ट्र के बड़े भारी गवय्ये हैं जो कि श्री और मारवा जैसे राग कि जो बड़े-बड़े जानने वाले भी तंग आ जाते हैं। वो श्री मारवा मध्यम बजाते हैं और उसके स्थायी पर बैठे हुए आराम से पूरा मारवा का बांधना देखते हैं, जैसे कि कोई इमारत अन्दर बन्द रही हो। ये असली भारतीय है। इनको मैं असली भारतीय समझती हूँ कि जिनका कि ओंकार से सम्बन्ध है । ये ओंकार से भरा हुआ संगीत है जिसे भारतीय समझते हैं। अभी चिट्टी बाबू आये थे दक्षिण से। उनका संगीत सुनते हुए 7 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-7.txt तो सारे विभोर हो गये। हालांकि महाराष्ट्र से कोई जानता भी नहीं है कि साऊथ इंडियन म्यूझिक क्या है। थोड़ा बहुत थिअरी में जानते हैं लेकिन सारे महाराष्ट्रियन और सारे परदेस के लोग; और सब बस बैठे ही रहे उनका कांड सुनते हुए, उनका बजाना देखते हुए वो खुद हैरान हो गये कि इतने तो मद्रास में नहीं मिलते माँ, जितने यहाँ बैठकर आपको में मनुष्य उतर जाता है, जहाँ संगीत का, कला का, किसी भी सृजन का, क्रियेटिविटी का जो सुन रहे हैं। उस सूक्ष्मता गाभा है, जो उसका अंतरंग है, उसे पकड़ लेता है, जहाँ आनन्द टिका हो। वो कैसे होता है। क्योंकि जब आप कोई भी राग सुनते हैं, कोई सा भी गाना सुनते हैं, कौन सा भी संगीत सुनते हैं या आप कोई नाटक देखते हैं या कोई नृत्य देखते हैं, कोई सी भी चीज़ तब आपके अन्दर विचार की श्रृंखला शुरू हो जाती है। जैसे आप 'माँ आप कब बोलेगे?' अब ये नृत्य चला है। मतलब आप अगली बात सोचने लग गये हैं। या आप फिर ये सोचते हैं कि इन्होंने नृत्य किया, अब इनका कहीं और क्यों ना नृत्य किया जाये, बड़ा अच्छा नृत्य किया। ये किसने नृत्य किया। हर तरह के विचार आपके दिमाग में घूमने लग जाते हैं कि आप सोचतें हैं कि इस नृत्य की छान-बीन होनी चाहिए और वो भी इस बुद्धि से। तो तो सारा आनन्द इसका खत्म हो जाता है। जब आप किसी चीज़ की ओर सोचने लग गये तो उस चीज़ को बनाने वाला जो कलाकार है जिसने जो कुछ बनाया और उसमें जो आनन्द उंडेला है वो खत्म हो गया। आपके विचार ही चलते गये, एक के बाद एक। कोई सी भी सुंदर वस्तु है, जैसे कोई सुन्दर सा बना हुआ कालीन। तो अगर हम उस कालीन की ओर नज़र करें और अगर हम देखते रहे और बस देखते रहें और ये न सोचें कि कितने का है ? कहाँ से आया हुआ है? तो उसका जो आनन्द है उस कलाकार ने जिस आनन्द से उसे बनाया था वो पूरा का पूरा उपर से गंगा जैसे उपर से बहने लग जाती है। गंगा जैसे उपर से बहने लगता है। ये सिर्फ आत्मसाक्षात्कार के बाद घटित होता है। क्योंकि आप निर्विचार में समाधिन होने से आप उसको पा सकते हैं । आगे चल कर के हम नाभी चक्र पर आते हैं। नाभि चक्र से ही कमल जैसे ब्रह्मा निकल कर के ये सृष्टि करते हैं जिनसे कि हम सौंदर्य दृष्टि को प्राप्त करते हैं। लेकिन जब हम नाभि चक्र पर आते हैं तो नाभि चक्र ये हमारे खोज का चक्र है। नाभि चक्र से हमने खोज शुरु किया। माने ये कि जानवर से ही सोच लीजिये कि इसने खोजना शुरू कर दिया में वो खाना पीना ही खोजता रहा जब वो मस्त्यावतार बन कर के, किसी ने एक कदम आगे बढाया कि है। शुरू आओ, जमीन पर आकर देखो, तब उसने जमीन पर कुछुवे जैसे चलने वाले, जमीन पर रेंगने वाले जानवर को बनाया। इस तरह से जानवर तैयार हुए। ये खोज बढ़ते-बढ़ते मनुष्य स्थिति में जब आ गयी तब उसके अन्दर धर्म की जागृती हुई। धर्म की जागृति ऐसी हुई कि हमारे लिए कोई चीज़ धर्म है और कोई चीज़ अधर्म है। ये बाते सिर्फ इन्सान सोच सकता है। जानवर कभी नहीं सोचता। हमारा जो एक छोटा सा सहजयोगी एक दिन मुझसे पूछता है कि, 'माँ, अच्छा बताईये कि शेर के बच्चों का क्या होता होगा ?' मैंने कहा, 'क्यों?' 'क्योंकि शेर के बच्चों को शेर कहता होगा कि तुम ये गाय को खा लो, तो वो तो खाते ही होंगे। तो इनसे तो पाप हो जायेगा ना ?' मैंने कहा, 'बेटा, उनके लिए | कोई पाप नहीं क्योंकि वो तो पार्य पशु है, उनके लिए कोई पाप नहीं है। मनुष्य को ही पाप की भावना होती है।' अब की ये अच्छे-बुरे की भावना अन्दर से ही प्रकाशित हुई है। और यही धर्म जो है वो जिस वक्त हमारे अन्दर मनुष्य जागता है तभी हम कहते हैं कि नाभि चक्र का धर्म, दस धर्मों में आ गये हैं और वो दस धर्मों पर, जो बड़े-बड़े दस 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-8.txt महान आदिगुरु स्थापित किये गये हैं। उनको जगा देने से कुण्डलिनी हमारे अन्दर धर्म की स्थापना कर देती है। माने ये कि हमें कहना नहीं पड़ता है कि आप ये काम मत करिये। यहाँ पर जो कुछ सहजयोगी आये हैं उनसे भी अधिक परदेस में भी हैं और भी कहीं अधिक कोई और जगह। हमने कभी उनसे नहीं कहा कि आप शराब मत पीजिए। अगर इंग्लैंड में आप कहें कि आप शराब मत पीजिए तो आधे से ज़्यादा लोग तो उठकर चले जाएंगे । यहाँ भी कुछ ऐसा ही हाल होगा। लेकिन मैंने कभी नहीं कहा। मैंने ये भी नहीं कहा कि, आप तम्बाकू मत खाओ। मैंने ये भी नहीं कहा, कि आप ड्रग मत लो। मैंने तो बस यही कहा, कि बस आ जाओ | और जैसे ही सहजयोग को उन्होंने प्राप्त किया दूसरे दिन से ही ड्रग छोड़ दिया। दूसरे दिन ही छोड़ दिया है । ये साँप है, इसको छोड़ो। अपने आप हटा, मैंने कुछ नहीं कहा उनसे। नाभि चक्र के जो कुछ भी दोष हैं, जैसे कि हम गलत गुरुओं के पास जाते हैं। एक गुरु के पास गये, जिसको देखो उसको हम नमस्कार करते बैठते हैं । तो गुरु तत्व जो है वो नाभि के चारों तरफ स्वाधिष्ठान के माध्यम से फैला हुआ है। स्वाधिष्ठान उसके चारों तरफ घूमता है और उसकी जो परिधि बनती है उसमें हमारा गुरु धर्म बनता है। तो खोज में आदमी फिर गुरु के पास पहुँचता है, पहले तो और जगह खोजता है। पैसे में खोजता है, सत्ता में खोजता है, इसमें खोजता हैं, उसमें खोजता है, पर जब वहाँ भी नहीं मिला, तो चलो भाई, किसी को गुरु बना लेते हैं। तो वो गुरु बनाने की जगह जैसे वो हम हमारे घर में एक नौकर रख लेते हैं, उसी तरह से वो गुरु रख लेते हैं। उनके यहाँ सब रुपये जाते रहते हैं। इसको इतना रुपया दो, उसको उतना रुपया दो, उसके खान-पान को दो। उनका खान-पान देखो तो आश्चर्य होता है, कि इतना कैसे खा लेते हैं। उनकी ये व्यवस्था करो, इनकी वो व्यवस्था करो और वो आराम से अपने बैंक में रूपये भेजते रहते हैं। उनको भी एक इतना सा भी विचार नहीं आता कि जो मैं व्यवहार कर रहा हूँ वो क्या गुरु का व्यवहार है। और जो उनके शिष्य हैं, जो उनके आगे नतमस्तक होकर उनके आगे-पीछे नतमस्तक होकर घूमते हैं, उनको भी ये विचार नहीं आता है कि इसका चरित्र एक गुरु जैसा है? इसका तो पूरा समय लक्ष्य हमारे जेब पर ही है। तो भी हम इसी की ओर क्यों जा रहे हैं? कहीं से वो चमत्कार दिखा दें। कहीं से कुछ ला दे तो उसी के पीछे लोग चले जाते हैं। तब आपका गुरु धर्म टूटता है। तब अधोगति शुरु हो जाती है। तो जिस वक्त मनुष्य खोजने के बजाय इधर - उधर भटकता है जिसे मैं राईट साईड और लेफ्ट साईड़ कहती हैं, जब वह लेफ्ट साईड की ओर मुड़ने लग जाता है तो वो अपने सबकॉन्शस, और उसके बाद कलेक्टिव सबकॉन्शस माने सुप्त चेतन और सामूहिक सुप्त चेतन में उतरता हुआ वो उस लोक में जाता है जहाँ सब कुछ पहले मरा है, गत है, को रखा हुआ है, पास्ट पूरा। और जो मनुष्य भविष्य की बात करता है, प्लानिंग करता है, आगे की सोचता है और उसमें खोजता है, या सत्ता में खोज़ता है या वैराग्य में और अपने शरीर को तंग करके सोचता है कि मैं तो बड़ा भारी सिद्ध ले लँगा, इस तरह की बातें सोचता है वो राईट साईड को चला जाता है। अब गुरु लोग राईट साईड़़ वाले भी हैं, लेफ्ट साईड वाले भी हैं। इसी प्रकार में कुछ ड्रग्ज हैं जो कि कुछ राईट साईड में डाल देती हैं, कुछ लेफ्ट साईड़ में डाल देती हैं। अब आपको आश्चर्य होगा कि कैन्सर जैसी जो बिमारी है ये साइकोसोमाटिक कही जाती है। बहुत से लोग जो हैं वो सोचते हैं, कि कैन्सर जो है ये सिर्फ शारीरिक बिमारी है, बिल्कुल भी नहीं, ये 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-9.txt साईकोसोमाटिक है। आपके राईट साईड़ में आप अपना शारीरिक और बौद्धिक कार्य करते हैं । और आपके लेफ्ट साईड़ में आप मानसिक कार्य करते हैं। अंग्रेजी भाषा तो ऐसी कमाल की है कि सबके लिए एक ही शब्द माहिर है । चाहे वो बुद्धि हो या चाहे वो मन हो। तो आप जो मन का काम करते हैं वो आप की लेफ्ट साईड़ है और जो आप बुद्धि और शरीर का काम करते हैं वो आपका राईट साईड है। अगर आप राईट साईड से बहुत ज़्यादा काम करते हैं, बहुत ज़्यादा परेशानियाँ उठाते हैं, जिसे कि मैं कहूँगी कि नाभि चक्र में लेफ्ट नाभि है, लेफ्ट साईड में आपकी जो विशेष संस्था है, जिसे स्प्लीन कहा जाता है, प्लीहा कहते हैं शायद हिन्दी में। जिसे आप अति, इस तरह से इस्तेमाल करते हैं, माने कि जैसे आप सबेरे उठते हैं, उठते ही साथ अखबार पढ़ते हैं, अखबार पढ़ते ही साथ वो गड़-गड़ होने लग गया, स्पिडोमीटर जो है वो हिलने लग गया, इसको मारा, उसको मारा, ये दुर्घटना हुई है, ये वो अखबार, विश्वमित्र जी के वो ........क्षमा करें, इनका sensationalization जो शुरु हुआ है। सन-सनी खेज, सनसनीखेज की जो चक्र आपके पेट में जो बैठा हुआ है, ये जो स्पीडोमीटर है उसपे असर कर जाता है। उसके बाद उठे जल्दी जल्दी भागे , से जायें तो मोटर के सामने बहत सारे चलाते-चलाते जेम हो रहें हैं गाड़ियाँ। उसमें आप परेशान ही परेशान, पहुँचते पहुँचते दफ्तर में पहुँचे और फिर वहाँ से फिर परेशानियाँ। फिर खाना न ठीक से अपनी..., आपने कभी सोचा कि मोटर खाया न ब्रश किया। बिवि ने जो खाना दिया, बस उसी को मुँह में ठुसते जा रहे हैं। इसमें नुकसान ही है, इससे ब्लड | कैन्सर होता है। पहले जमाने में भी इस बंग देश में भी पति बैठता था आराम से, खाना खाने के लिये, नहा धो कर के इत्मिनान से बैठते थे। और पत्नी पंखा झरती थी। धीरे-धीरे खाना परोसती थी, उस पंखे की झलने में जो स्पीड़ थी वो स्पीड़ खाने की होनी चाहिये और वो धीरे-धीरे चबा चबा कर खाते थे । इत्मिनान से खा करके और फिर वहाँ जहाँ जाना है जाते थे। लेकिन अब तो वो चीज़ रह नहीं गये। अब तो वो चीज़ चलती नहीं। अब तो इतने कि जिसको कहते हैं हेक्टिक लाईफ कि अभी दौड़े यहाँ, वहाँ से दौड़े वहाँ, वहाँ से दौड़े वहाँ, इससे आपका स्पिडोमीटर खराब हो जाता है, जिसको कि आपके रेड ब्लड कॉर्पिसेलुस हैं जो रक्त की पेशियों को बनाना पड़ता है, वो पगला जाता है। उस पागलपन में, जिसे कहते हैं गोक्रेझी, और उस पागलपन में उसको समझ में नहीं आता कि उस पागल आदमी को किस तरह से मैं ब्लड सप्लाय करू। अब ये व्हलरेनिबिलिटी, जिसको कहते हैं कि अब तैयारी हो गयी आपकी कैन्सर की। इस से कोई सी भी काली विद्या से कहिये, भूत विद्या से कहिये या गुरू प्रसाद से कहिये या और किसी ऐसी तरह की चीज़ों से कहिये, कोई सी भी चीज़ आपके अन्दर आ जाए, आपके अन्दर ब्लड कैन्सर स्थापित हो जाता है। अगर कोई माँ इस तरह की हो, कि जो रात दिन आफत में मची हुई है कि आज पापड़ बेलना है, फिर कल और कुछ बनाना है, पती को वश में रखने के लिये औरतें यहाँ बड़ी होशियारी से काम करती है। तरह तरह के खाद्यान्न बनाने हैं। इसका प्लैनिंग करना है, उसका प्लैनिंग करना है, उनके बच्चों को भी हो सकती है अगर वो उस समय गर्भवती हो तो बच्चों को भी सकता है। अगर कोई बच्चा हो भी गया ठीक-ठाक पैदा, उसके पीछे लगे कि, 'उठो भाई, सबेरे उठो, जल्दी, जल्दी करो, चलो जाने का है स्कूल में, बड़ी मुश्किल से औडमिशन मिला, वहाँ इतना रुपया भर्ती किया।' ये सारा समाज ही ऐसा बना हुआ है कि सब लोग उथलपुथल में चल रहे हैं। इस उथलपुथल से ब्लड कैन्सर के होने की बड़ी सम्भावना है। हम तो इत्मिनान में बैठे रहते हैं और इत्मिनान में बैठने से भी कोई चीज़ कम नहीं होती। सब चीज़ 10 প প 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-10.txt ठीक-ठाक चलती रहती है। हमारे विचार से तो ऐसी कोई बात नहीं कि जिसके लिये मनुष्य इतनी जल्दी मचाये या हड़बड़ी करें। अब इसका इलाज कैसे होता है? इलाज ये होता है कि जैसे ही कुण्डलिनी आपके नाभि चक्र में आ जाती है तो शान्ति प्रस्थापित हो जाती है। मनुष्य शान्त हो जाता है । शान्तिपूर्वक सब देखते रहता है। देखते रहता है और वो शान्ति उससे कहती है कि, 'शान्त हो जाओ , शान्त हो जाओ |' देखिये अब हमें तो जाना है प्लेन में और बाकी सब परेशान हैं कि, 'आपको जाना है, चलिये, चलिये। आखरी मिनट, ये छोड़ो, वो छोड़ो।' भाई, मैंने कहा, 'जाना मुझिको है या आपको है?' मुझे जाना है। आप क्यों परेशान होते हैं! तो छोडिये आप। मुझे जाने दीजिये। मैं आराम से जाऊंगी। अब कभी- कभी मज़ाक भी हो जाता है कि बड़े जल्दी पहँचे वहाँ, और देखा क्या कि प्लेन अभी आठ घंटे लेट है। मैंने पहले ही कहा था कि, 'क्यों इतने जल्दी जा रहे हो ? घर से आराम से चलो। पहले पूछ ही लिया होता।' लेकिन वो जो हड़बड़ी का स्वभाव है, जो हड़बड़ हमारे अन्दर है एक उसका उदाहरण मैंने दिया कि आजकल के वातावरण में किस तरह से कैन्सर के आप एक, उसके आमन्त्रण के आँगन बन जाते हैं। जिससे कैन्सर आप पर असर कर जाता है। अब लन्दन में हमने तीन-चार लोगों का ब्लड कैन्सर ठीक किया। तो मैं ये नहीं कहूँगी कि मैंने किया। उनकी कुण्डलिनी का जागरण करके वो ठीक हो गये। मैंने कुछ किया नहीं। जिसकी कुण्डलिनी जागृत हुई वो ठीक हो गये। | लेकिन इस हड़बड़ के सिवाय अनेक प्रकार के हम दोष करते हैं। जैसे कि अब डॉक्टर लोग तो यहाँ एक से एक आप जानते हैं कि कितने बड़े बड़े डॉक्टर लोग हमारे साथ लगे हुये हैं। और उनको अगर हम समझाते हैं तो वो ऐसे मुँह फाड़ कर देखते हैं बात को कि माँ कैसे कह रही हैं? क्योंकि हम इसे सूक्ष्मता से जानते हैं। आपके अन्दर जो सूक्ष्म चीज़ है वो ये समझना चाहिये कि आपके शरीर में शान्ति होनी चाहिये। आपके मन में शान्ति होनी चाहिये । आपके सारे अंग जो है जो शान्ति से बने होने चाहिये । हड़बड़ी करने से इस तरह का रोग हो जाता है । पर इससे भी बढ़ती, गहन बात एक ऐसी बताऊं कि सूक्ष्मता की, आपके यहाँ भी कुछ ऐसे डॉक्टर्स बैठे होंगे जो नहीं जानते हैं और न मानते भी शायद न हों कि जिस वक्त ये स्वाधिष्ठान चक्र चलता है इसको एक तो पेट के जितने भी ऑर्गन्स हैं उनको सम्भालना पड़ता है। माने लिवर हुआ, आपके पैन्क्रियाज हुआ और स्प्लिन और कड़नी आदी सबको सम्भालना तो पड़ता ही है । इसके अलावा ये जो सर में जिसे मेंदू कहते हैं, जो मेद से बनता है, ये जो ब्रेन हमारे सर में है, इस ब्रेन के लिये इसको ग्रे मैटर, पेट की जो फैट है उसको परिवर्तित करके, ट्रान्सफॉर्म करके अपने ब्रेन में भेजना पड़ता है । ये उसका मुख्य काम नहीं है। एक और काम है। लेकिन जब आदमी बहुत सोचता है, आगे की सोचता है, प्लैनिंग करता है, ये करता है, वो करता है, हर समय उसकी खोपड़ी सोचती रहती है तब ये कार्य एकमात्र उसे करना पड़ता है। और बाकी सब काम बिल्कुल ठप्प हो जाते हैं। इसलिये लोगों को लिवर का ट्रबल हो जाता है। खास कर मैं देखती हूँ कि आपके कलकत्ते में लोगों को लिवर की बीमारी बहुत ज़्यादा है । क्योंकि ये सूर्य नाड़ी है और सूर्य नाड़ी बहुत चल जाने से मनुष्य को सूर्य की जहाँ बहत अधिक ताप हो और उपर से सूर्य नाड़ी बहुत चल जाये तो जरूरी है कि बेचारे इस स्वाधिष्ठान चक्र को इतनी मेहनत करनी पड़ती है कि वो जो एक लिवर है उसे देख नहीं पाता। इसलिये यहाँ लोगों को लिवर की बीमारी 11 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-11.txt हो जाती है। डॉक्टर ने उसका नाम बनाया माइग्रेन। माइग्रेन वाइग्रेन कोई चीज़ है नहीं। सब बेकार की बातें हैं। इसमें सिर्फ आपका लिवर खराब होने से माइग्रेन होता है। या आप किसी भूत से पिड़ीत हो तो भी हो सकता है। ये तो लेफ्ट साईड की बात हो गयी लेकिन राईट साईड की बात मैं कर रही हूँ। तो इस तरह से आपकी शारीरिक तकलीफें इसलिये ठीक हो जाती हैं कि आप निर्विचार हो जाते हैं। सहजयोग में आप विचार बहुत कम करते हैं। विचारों से परे आप रहते हैं तब प्रेरणा तक, प्रेरणात्मक जो विचार आता है उस विचार से ही आप बोलते हैं और उसी विचार से आप चलते हैं। विचार एकदम जैसे कि रुक जाते हैं। एक विचार उठता है, गिर जाता है। दूसरा विचार उठता है, गिर जाता है। इसके बीच में जो जगह है इसे विलम्ब कहते हैं । ये विलम्ब जो है ये वर्तमान है। आज, अभी, इस वक्त, इस क्षण, ये जगह। हम या तो आगे की सोचते हैं या पीछे की सोचते हैं| तो इसी के कमांड पर, इसी के कक्ष से हम कूदते रहते हैं। हमारा मस्तिष्क पूरी समय चलते रहता है। खोपड़ी हमेशा घूमती रहती हैं। और उस वक्त बेचारा स्वाधिष्ठान मेहनत करके और इस मेद की पूर्ती करने के लिये हर समय तत्पर हो जाता है। फिर आपको डाइबेटिस होता है। डाइबेटिस भी इसीसे होता है कि आप अपनी पूरी शक्ति जो है स्वाधिष्ठान की, अपने सोचने में लगा देते हैं। देहात में, मुझे पता नहीं यहाँ है या नहीं, पर हमारे महाराष्ट्र में तो लोग इतनी चीनी खाते हैं देहात में कि कहते हैं कि चम्मच खड़ा हो जाना चाहिये चीनी में तब कहीं चीनी पड़ी। वो तो क्या पी रहे थे चाय या दूध है? इतनी चीनी खाते हैं, किसी को डाइबेटिस नहीं होता। देहात में किसी को डाइबेटिस होता ही नहीं। शहर वालों को ही क्यों होता है? और जो टेबल पे बैठ कर के रोज प्लैनिंग बनाते हैं और सबका कबाड़ा करते हैं। उनको क्यों होता है? उन्हीं को ये बीमारी क्यों होती है? वजह ये कि आप जरूरत से ज़्यादा सोचते हैं। इतनी सोचने की जरूरत ही नही । पर अगर कोई कहें कि, मत सोचो, तो हो ही नहीं सकता। एक साहब स्वीत्झर्लेंड में आये हमारे पास , बैरिस्टर थे। अब तो वो सहजयोग में आ गये । वो एक अल्जेरिया के बहुत बड़े बैरिस्टर हैं। वो स्वीत्झर्लंड में आयें और मुझे कहते हैं कि, 'माँ, चाहे मेरी गर्दन काट दो चाहे मेरा सर फोड़ दो पर ये विचार ठहराओ। मैं पागल हो जाऊंगा।' आज पार हो कर के बहुत बड़े आादमी हो गये हैं। अब उनका सारा कुछ डाइबेटिस वगैरा सब खत्म हो गया। उसके बाद आपको हाइब्लडप्रेशर भी इसीसे होता है। क्योंकि किडनी (की अनदेखी ) निग्लट हो गयी । किडनी को आपने देखा नहीं । उसको आपने सम्भाला नहीं। तो वो भी आपको बीमारी हो गयी। अनेक बीमारियाँ इसलिये होती है और सहजयोग में जब कुण्डलिनी आपके नाभि चक्र को प्लावित करती है तो एकदम सारी ये बीमारियाँ भाग जाती हैं। और आपका चित्त बीच में स्थिर हो जाता है। जब आपके अन्दर धर्मशक्ति जागृत हो जाती है तभी फिर हम कहते हैं कि लक्ष्मी तत्व से आप महालक्ष्मी तत्व में उतर गये। जैसे कि जहाँ-जहाँ लोग पैसे वाले हो जाते हैं, अॅश्युरन्स आ जाता है, वहाँ-वहाँ वो अजीब पागलपन में घूमते हैं। जैसे कि, आप अमेरिका में जाइये, तो जितने अमीर लोग हैं या तो वो बिल्कुल इग्नोर हो जाते हैं, इडियट, या वो नहीं है तो ऐसे-ऐसे बातें करते हैं जैसे कि किसी ने आत्महत्या कर ली, उपर से नीचे कुद मरें। और किसी ने अपने 12 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-12.txt चार-पाँच बच्चे ही मार डालें। तो समझ में नहीं आता है कि पैसा हो जाने से अगर इतनी आदतें आती तो बेहतर हैं कि हम गरिबी में ही रहें। उन लोगों की अगर आप बातें सुनें तो आप आश्चर्य करेंगे कि ऐसी तो भूतो न भविष्यति, कभी लोग संसार में आये ही नहीं जैसे हम देखते हैं। अमेरिका की ही बात नहीं है, आप फ्रान्स जाईये, कहीं भी जाईये। और यहाँ तक जहाँ कि लोग कहते हैं कि कम्युनिज्म बड़ा फैला हुआ है। ऐसे रशिया में भी एक-एक आफत हैं। आये दिन बिवी को छोड़ना, कल दूसरी शादी करना और बुढ़ापे में जाकर कहीं सब लोग कहीं ऑर्फनेज में बैठे हैं। दस हजबंड किये , दस बिवियाँ करीं सब ऑर्फनेज में जा के बैठे हैं। ऐसे समाज तैयार हो जाता है। ऐसे धर्म को पाने से वो लक्ष्मी स्वरूप नहीं होता। अब लक्ष्मी की व्याख्या कितनी सुन्दर बनायी हुई है हमारे पूर्वजों ने हमारे लिये कि लक्ष्मी जो है वो एक कमल दल पे खड़ी हुई हैं। माने किसी पे अपना असर नहीं डालती। वो बड़ी सी अपनी मुट्ठी ले जाकर के किसी को दिखाती नहीं है, लक्ष्मी स्वयं हो कर के भी और एक हाथ उनका दान और एक हाथ उनका आश्रय में होता है। जिससे वो लोगों को दान देती हैं और एक हाथ से आश्रय देती हैं। और दो हाथ उपर में जिसमें हैं जिसमें कि दो हाथ में कमल हैं, गुलाबी रंग के। गुलाबी रंग का लक्षण होता है कि उनके हृदय में प्रेम है सबके लिये| इस कमल का ये अर्थ होता है कि ये कमल में अगर भँवरा, जिसके अन्दर इतने काँटे होते हैं! वो काला, कभी वो आकर के भी उसमें बैठ जाए तो भी वो अपने अन्दर उसे समा लेता है। अपनी सुंदर शैय्या पे उसे सुला लेता है। वही लक्ष्मीपति हो सकता है जिसमें ये गुण हैं। लेकिन पैसे वाला, मैं उसको लक्ष्मीपति नहीं मानती। अगर किसी गधे के उपर आप रूपया टाँग दीजिये तो क्या वो लक्ष्मीपति हो सकता है? लक्ष्मीपति होने के लिये कम से कम ये चार गुण मनुष्य में होने चाहिये। इस तरह से लक्ष्मी जो है फिर जागते-जागते महालक्ष्मी तत्व को आती है। तब मनुष्य खोजने लग जाता है। और जब वो खोजने लग जाता है तब वो ऊपर की ओर उठता है। जिस वक्त वो ऊठता है तब श्री जगदम्बा जो है वो हमारे हृदय चक्र में रहकर के अकेली सब दुष्टों से जो जो ऐसे साधकों को सताता है उन सबका खण्डन करती है। मार डालती है। उनका नि:पात कर देती है। खत्म कर देती है। उनको किसी से डर नहीं लगता। और खड़े हो करके, आपको आश्चर्य होगा कि कल परसो तो मैंने तांत्रिको पे ही कहा था, १९७३ में हमारे यहाँ 6. एक बड़ा कावसजी जहाँगीर हॉल है, मैंने खड़े होकर एक से एक-एक दुष्ट गुरुओं का नाम, कौनसे राक्षस पड़े थे, कौन नरकासूर था, कौन रक्तबीज था, कौन दूसरे असूर था, ऐसे सबके नाम लेकर के कहा। तो हमारे पति के पास खबर गयी कि, 'इनको तो कल मार देंगे लोग पकड़ के।' मैंने कहा, 'मारे तो सही। हाथ तो उठाये मेरे ऊपर में।' लेकिन किसी ने भी अखबार में या किसी ने भी किसी कोर्ट में जा कर के कुछ दाखिल नहीं किया। क्योंकि ये सत्य की बात है। तो यहाँ जगदम्बा खड़ी होकर के अकेली और सारे दष्टों का सामना करती हैं कि मेरे ये बच्चे परमात्मा को खोज रहे हैं वो पूर्ण आरक्षित ऊपर आ जायें। उनको कोई तकलीफ न हो। उनको कोई परेशानी नहीं। उनके आँचल में छिपे हये ऊपर की ओर उठते चले। वो जगदम्बा का चक्र यहाँ पर बना हुआ है। इसके बारे में मेडिकली इस तरह से समझाया जा सकता है कि हमारा जो यहाँ पर स्टर्नम नाम की हड्डी है, यहाँ (हृदय में) इसको स्टर्नम बोन कहते हैं, और इस हड्डी में जगदम्बा जो है जिसको कि भ्रमरंभा कहते हैं वो भ्रमर बनाती है। जिसको कि मेडिकल साइन्स में 13 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-13.txt अँटीबॉडीज कहते हैं, यहाँ पैदा हो जाती है। और ये जो होती है, ये हमारे अन्दर अगर कहीं से भी आक्रमण हों तो उस आक्रमण को पूरी तरह परास्त कर सकती हैं और उनसे लड़ती हैं। ये हमारे स्टर्नम बोन में बारह वर्ष की उमर तक बनती हैं। और उसके बाद सारे शरीर में फैल जाती है। और जैसे कि कोई आफत सामने से आयें तो एकदम ये हड्डी जोर से ऊपर-नीचे होने लग जाती है। और उसका जो संदेश हैं, उसका जो मेसेज है वो उन अँटी बॉडीज में पहुँच जाता है, वो तैयार हो जाते हैं। और तैयार होने के बाद वो लड़ते हैं और परास्त कर देते हैं। लड़ते रहते हैं। जब तक कोई भी परेशानी मनुष्य को रहेगी ये देवी के भ्रमर लड़ते रहते हैं। ये तो देवी की व्यवस्था है हमारे लिये। लेकिन जब मनुष्य दैवी स्थिति में आता है तो उसके अन्दर माँ का प्यार उमड़ पड़ता है। अपने माँ को भी पहचानता है। हमारे पति भी, लोगों को बहुत प्यार हो जाता है। और वही प्यार अब वो दुनिया को बाँटना चाहता है। उससे रहा नहीं जाता। कोई आदमी परेशान है, दु:खी है, हर इन्सान जहाँ भी बैठा होगा, 'भाई तुम्हें क्या तकलीफ है, तुम्हें क्या है?' उसके लिये दौड़ता है और मेहनत करता है। एक जिसे हम करुणा कहते हैं, कम्पॅशन कहते हैं, वो मिशनरीओं जैसे लोगों को घर में ला कर के, मरते हुये लोगों को ईसाई धर्म नहीं सिखाते। और फिर उसके बाद नोबल प्राईज मिलता है ऐसे लोगों को। ऐसा नहीं करता। वो जो उसके अन्दर कम्पॅशन है, वो करुणा है, उस करुणा की शक्ति से लोगों को उनकी बीमारी, उनकी तकलीफें उनसे बचाता है। उनको ठीक करता है। ये नहीं कि उनके ऊपर लगा दिया कि तुम हिन्दू हो, तुम मुसलमान हों, तुम ख्रिश्चन हो... ये कुछ नहीं। इसका क्या मतलब है। गधे के ऊपर कुछ भी लगा दीजिये तो गधा तो गधा ही रहता है। लेकिन उसको वो महामानव बना देते हैं। बहुत से लोग हमारे पास बीमारी के लिये आते हैं। और आज वो बड़े-बड़े सहजयोगी बने बैठे हैं। उसकी करुणा इतनी शक्तिशाली होती है कि कहा जाता है देवी के लिये 'कटाक्ष कटाक्ष निरीक्ष' एक कटाक्ष ही ऐसे आदमी का किसी पर पड़ जाए तो वो एकदम स्वस्थ हो जाता है। स्व...स्थ, स्व में जो स्थित है स्वस्थ है। हमारे यहाँ जितने भी शब्द हैं उनको आप देखें तो सब स्व पे ही आते हैं। स्वस्थ। वो आदमी स्व में स्थित हो जाता है। और आप उसकी शकल से पहचान सकते हैं, 'अरे अभी तो आप बीमार थे और ये क्या हो गया ? इसमें कोई चमत्कार-वमत्कार कुछ नहीं। जो बात आप जानते नहीं वो बात आपके लिये जरूर चमत्कार ही लगेगा, वो दूसरी बात है। लेकिन ऐसा कोई चमत्कार नहीं है। आपके अन्दर ये सब चीजें हैं । जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो आपके अन्दर अपने आप ही स्वस्थता आ जाती है। अब बहुत से औरतों को आपने सुना है कि ब्रेस्ट कैन्सर की बीमारी हो जाती है। ये क्यों होती है? वजह ये है कि पती जात किसी तरह से स्त्री को रक्षित भावना नहीं देता सेन्स ऑफ सिक्युरिटी नहीं देता है। या उसका पिता या किसी तरह से स्त्र हर समय इनसिक्युअर अरक्षित महसूस करें तो उसको ये बीमारी हो जाती है क्योंकि उसका जो मातृत्व है वो ही हिल जाता है। मातृत्व के ऊपर का विश्वास चला जाता है। जैसे एक कवी ने कहा है, 'हाय अबला, तेरी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।' ऐसी बात है कि स्त्री के जब आरक्षित स्वभाव को आप हिला देते हैं तो उसको ये बीमारी हो जाती है। वो शायद इसको जानती न हों । अब राइट साइड़ में जो हमारे, जिसे हम कहते हैं कि राइट हार्ट, हालांकि हार्ट राइट में नहीं होता है। लेकिन इसका जो हार्ट चक्र का, हृदय चक्र का, जिसे अनहत भी कहते हैं वो राइट हिस्सा है उसमें अगर त्रुटियाँ आ जायें तो अस्थमा की बीमारी हो जाती है। अब ये श्रीरामचंद्र जी का चक्र है । हम श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम तो बहुत करते रहते हैं लेकिन ये 14 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-14.txt श्रीराम हमारे अन्दर राइट हार्ट में है और जो लोग श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम ज़्यादा करते हैं उनको ये बीमारी ज़्यादा होती है। इसका और एक कारण है श्रीराम हमारे पिता हैं। हमारे अगर पिता का स्थान किसी तरह से खराब हो गया हो, अगर हमने अपने पिता को बचपन में ही खो दिया हो या हम भी एक बूरेसे पिता हो या हम अपने बच्चों को छोड़-छाड़ के दूसरे की चीज़़ों में व्यस्त रहते हैं और पती होकर के भी पत्नी की ओर हमारी दृष्टि ठीक नहीं, उसको हम तंग करते हैं । पत्नी की तरफ से हम परेशान हैं तो भी जैसे कि श्रीराम वन में भटकते रहें ऐसे अब जो मनुष्य अपनी पत्नी के लिये वन में भटक रहा हो या पत्नी की तरफ से तकलीफ पा रहा हो या तकलीफ दे रहा हो, तो पती और पिता का स्थान श्रीराम का जो चक्र है, जिसे हम राइट हार्ट कहते हैं उसके कारण ये बीमारियाँ हो सकती हैं। हमारे अन्दर अनेक सी बीमारियाँ ऐसी हैं जो सहज में ठीक हो सकती हैं। अगर हमने श्रीराम को खड़ा कर दिया | तो फिर आपको अस्थमा कैसे हो सकता है। लेकिन सबसे ज़्यादा ये बीमारी जो सरकारी नौकर हैं, ब्यूरोक्रॅट्स या जो सत्ताधीश हैं या सत्ता से गिर गये पर अभी सत्ता के पीछे लगे हये हैं या जिसे हम लोग कहते हैं पोलिटिशिअन्स इनको ज़्यादा होती है। श्रीराम जो हैं वो सॉक्रेटिस के वर्णित बेनोवेलंट किंग हैं। बेनोवेलंट किंग, जो बेनोवेलंट पे विश्वास करते हैं। लोगों का हित ही जिनका एक लक्ष्य है ऐसे श्रीराम सॉक्रेटिस ने वर्णित कर रखे हुे हैं। लेकिन ऐसे कितने हैं। इन ब्यूरोक्रॅट्स में ऐसे कितने लोग हैं कि जो ये सोचते हैं कि हम इनके बेनोवेलन्स के लिये हैं, हम इनके हित के लिये हैं। हिन्दूस्थान में तो जैसे, भगवान ही बचाये रखे, मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि इस ब्यूरोक्रॅट्स का क्या हाल होने वाला है। और इन पॉलिटिशिअन्स का भी क्या हाल होने वाला है। बड़ी घबड़ाहट होती है एक माँ की दृष्टि से। क्योंकि एक छोटीसी चीज़ है, एक जमीन खरीदनी है। तो उन्होंने कहा, 'माँ, ये तो मिल नहीं सकती जमीन।' मैंने कहा, 'भाई, पैसे दे रहे हैं तो जमीन क्यों नहीं मिलेगी?' 'ना, उसमें तो वो पैसे खाते हैं।' 'पैसे क्या खाते हैं। उनको खाना-वाना भेज दो। पैसा क्यों? वो पैसा खाते हैं, वो पैसा खाते हैं, वो... सब पैसा ही खा रहे हैं !' में नहीं हैं। श्रीराम का भजन करने से आप हितकारी राजा नहीं हो सकते हैं ! हितकारी जो राज्य करेगा , श्रीराम तुम वही इन्सान श्रीराम के साम्राज्य में भी उनका सेवक हो सकता है। इनमें से कोई लोग हैं उनको इस कदर भूत सवार होता है कि इस चोर को पकड़ो, उस चोर को पकड़ो, उस चोर को पकड़ो, एकदम पागल के जैसे हो जाते हैं। इस पकड़ धकड़ में खुद करके ही उनके अन्दर श्रीराम लुप्त हो जाते हैं। श्रीराम ने ये जो सबका उद्धार किया था। उनकी जो उद्धारक शक्ति है वो आपके अन्दर जागृत हो जाती है। जैसे कि वाल्मिकी का उद्धार हुआ। अहिल्या का उद्धार हुआ। और वो प्रेम की शक्ति जहाँ की शबरी के बेर इतने प्रेम से खायें, इतने चाँव से खायें । वो सादगी जहाँ पैर से चप्पल उतार कर के, जूते उतार कर के और जमीन पर चल कर के घूमते रहे। सारे महाराष्ट्र में हमारे उन्होंने अपने चरण के जो सुन्दर चैतन्य थे वो छोड़े हैं। वो श्रीराम अगर हमारे अन्दर जागृत हो जायें तो ये बीमारियाँ हमारे अन्दर आ नहीं सकती। अब लेफ्ट हार्ट माँ का स्थान है। अगर आपकी माँ बचपन में मर गयी हो, आपने अपनी माँ को देखा ही नहीं । जिसने माँ का प्यार जाना ही नहीं वो अच्छा पती नहीं हो सकता अगर किसी की माँ दष्ट होगी तो उसका पती भी बड़ा ही दष्टता का ही होगा। जिसकी माँ ने उसे प्यार दिया, दुलार दिया, प्रेम से रखा वही पती अपनी पत्नी को भी प्यार कर 15 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-15.txt सकता है। पर लेफ्ट हार्ट जो है बहुत ही नितान्त गहन चीज़ है। क्योंकि इसका सम्बन्ध माँ से है। जैसे आप जानते हैं कि भारतीय संस्कृति माँ पर आधारित है। मातृत्व भाव से भरी हुई है संस्कृति। गणेशजी भी सिवाय अपने माँ के किसी को भी नहीं मानते थे। क्योंकि माँ से ही बाप को जाना जा सकता है। इसलिये माँ की धारणा अपने देश में विशेष मानी जाती है। लेकिन जब आपका हार्ट पकड़ जाता है, लेफ्ट हार्ट, तो सबसे पहले आप पर जो आघात आता है वो ये कि जिसकी आप शुष्क स्वभाव के हो जाते हैं। आपमें शुष्कता आ जाती है। वो आ्द्रता नहीं जो देवी का सांद्र करुणा, कोना में आर्द्रता है। वो आर्द्रता आपमें नहीं रहती। आप शुष्क इन्सान हो जाते हैं। ऐसे कि अगर आपको जगाना भी हो एक लकड़ी से जगाये तो अच्छा है नहीं तो उठ के मारने को दौड़ेंगे। बात करने जाये तो खाने को दौड़ेंगे। एक शुष्क | व्यक्ति आप हो जाते हैं। और इस शुष्कता को भरने के लिये आपको अपने माँ का स्मरण करना चाहिये कि जिसने कितना आपको प्यार दिया और कितने दुलार से आपको बड़ा किया। एक साहब थे। जिनका नाम था धर्मदास और वो बहुत गलत काम करते थे। शास्त्रीजी की बात मुझे याद है। वो जब आये तो उनसे कहने लगे कि, 'धरमदास जी आपके माँ ने क्या सोच के आपका नाम धरमदास रखा ?' हम लोगों के नाम ऐसे हैं, करुणासागर, और हाथ में लकड़ी लेकर करूणासागरजी खड़े हये हैं। तड़ातड़ मार रहे हैं। तो इस तरह के विपर्यास जो जीवन में हम देखते हैं इसका कारण ये है कि मातृत्व के प्रति आदर नहीं। खास कर के मुसलमानों ने जो हमारे ऊपर अपकार किया वो ये है, मैं तो मानती हूँ कि उनकी भी बड़ी तपस्या थी जिन्होंने इस धर्म को बनाया थे, उन्होंने , और पनपाया है। लेकिन उनके जो अनुचर जैसे हम लोगों ने भी बहुत गलतियाँ की, उन्होंने बड़ी भारी गलती की कि स्त्री का मान नहीं किया। स्त्री का मान नहीं है, माँ का मान नहीं है। माँ कोई चीज़ ही नहीं होती। हाँ, अगर माँ दुष्ट हो, खराब हो , उसके अन्दर गन्दगी हो, वो बूरी चीजें करती हों तो ठीक है, उस माँ को भी, जैसे भरत ने अपने माँ को सुनाया था और उसको दूर रखा था। उसको छोड़ करके और राम के पादुकायें ले कर के रामराज्य किया था। वो बात दूसरी है। पर इस देश की माँ ऐसी नहीं है। और इस देश में कुछ एकाद ऐसी हो भी जाए तो भी बाकी सब लोगों को देखते हुये समझ लेना चाहिये कि जिसने माँ के चक्र को दुखाया हो या जो माँ से वंचित रहा हो, जिसे प्यार नहीं मिला हो और इससे बहुत ही नज़दीक हृदय का ही ऑर्गन है, हृदय ही है। अब हृदय की पकड़ जब आदमी या मनुष्य को क्यों होती है। क्योंकि जब वो अति कर्मी हो जाता है। अति कर्म में जब बाह्य, बाह्य की तरफ जाते जाता है, अपनी आत्मा को भूल जाता है। या किसी गलत इन्सान के सामने इस सर को झूकाता है । इसलिये आप देखिये, कि कहा गया है कि, किसी के सामने सर को झूकाना नहीं चाहिये। मैं आपसे भी यही कहती हैँ कि मेरे सामने सर मत झुकाईये । मेरे पैरों को आप मत छुईये। अभी कोई छूने की जरूरत नहीं। क्योंकि ये जो मस्तिष्क है, ये जिसके सामने झुक गया, गलत लोगों के सामने, तो हार्ट में पकड़ आ जायेगी लेफ्ट साइड से और राईट साइड की पकड़ उसमें आती है जो अतिकर्मी होता है। जिसका चित्त बाहर की ओर होता है। और आत्मा की ओर चित्त नहीं होता है। आत्मा की ओर चित्त करने के लिये आपको कुण्डलिनी का ही जागरण करना पड़ेगा । जब तक कुण्डलिनी का जागरण नहीं होगा आत्मा एक हवाई चीज़ हो जाती है। ये समझ नहीं पाते कि आत्मा क्या चीज़ 16 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-16.txt है? ये परमात्मा का हमारे अन्दर प्रतिबिंब है। और जब हमारा चित्त बाहर की ओर दौड़ता है तब हम अपनी आत्मा की ओर दृष्टि नहीं दे पाते। जब हम अपनी आत्मा की ओर दृष्टि नहीं दे पाते तो आत्मा रूष्ट हो जाता है और जब वो रूष्ट हो जाता है तो हृदय का स्पंदन भी गड़बड़ हो कर के कभी-कभी तकलीफ हो जाती है। या हम गलत तरिके से आत्मा की ओर दृष्टि देते हैं। किसी गलत अनधिकार किसी आदमी के पास जाते हैं। जो आदमी अनधिकार चेष्टा करता है ऐसे आदमी के पास जाकर के हम दीक्षायें लेते हैं, उनके पाँव पर गिरते हैं तब ये आत्मा रूष्ट हो जाता है कि क्यों ये देखता नहीं है कि ये किसके पैर छू रहा है? तू मानव है। तुम्हारे अन्दर मेरा वास है। जब तक तू ऐसे लोगों के पैर छूता रहेगा मैं तुझसे रूष्ट रहँगा।' इसलिये आत्मसाक्षात्कार के बाद ही ये सब व्याधियाँ छूट सकती हैं। नहीं तो नहीं छूट सकती। एक महाशय हमारे पास आये थे। वो कहीं रोटरी क्लब के प्रोग्राम में मिल गये। बड़े पीछे लग गये। 'माँ, हमारे हार्ट की हमें तकलीफ है अन्जायना की और हम जा रहे हैं बोस्टन। तो बहुत रूपया-पैसा खर्च होगा। अगर आप मेहरबानी करें।' मैंने कहा, 'अच्छा, आ जाईये।' पूना में हमारे पास आयें। पूना में आ कर के और उन्होंने हमसे कहा कि, 'आप हमारा कुछ इलाज करिये।' मैंने कहा, 'अच्छा!' उनकी जब हमने कुण्डलिनी जागृत कर दी। तो एकदम से उनको थोड़ा सा दर्द हुआ। और फिर से हार्ट अटैक आ गया। और मैं उठ के चल दी। मुझे दूसरी जगह जाना था। जैसे कहते हैं ना 'रमते राम', वैसे ही। जब में बाहर जाने लग गयी। तो एकदम डरे, दु:ख में मुझे देखने लगे कि, 'माँ ऐसे कैसे छोड़ के जा रही हैं।' मैं वापस आयी। मैंने कहा, 'भाई तुम ठीक हो गये हो। जाकर के डॉक्टर को दिखाओ। 'ठीक हो गये हैं', मैंने कहा, 'जाओ दिखाओ!' जब डॉक्टर के पास गये, तो डॉक्टर कहने लगे कि, 'भाई, ये तुम्हारे ही एक्सरे थे क्या ?' और अच्छे घूम रहे हैं आजकल। ऐसे बहुत से लोग ठीक हो गये। लेकिन मैंने उसमें कुछ नहीं किया। सिर्फ आपका चित्त जो है आत्मा की ओर आकर्षित किया। पर इन महाशय को तो दूसरी बीमारियाँ थी। वो सब गलत-सलत लोगों के पीछे दौड़ते थे। और उन्होंने मंत्र भी गलत लिये थे। जब मंत्र आप गलत करें तब लेफ्ट विशुद्धि और हार्ट इसकी जब पकड़ हो जाती है तो अन्जाइना की बीमारी हो जाती है। लेकिन अगर आपका हृदय ऐसी चीज़ों की ओर नहीं खिंचता है, परमात्मा की कृपा से कहिये, पूर्वजनम के सुकृत से, किसी भी तरह से ऐसी जगह आपका दिल नहीं जाता है। ये तो पाखण्डी है, ये तो झूठा है, ये तो ढोंगी है इसके पास में नहीं जाने का मुझे। तब हृदय सचेत रहता है 'दास कबीर जतन से ओढी, जैसी की तैसी रख दी नीचे दरिया।' जब ऐसे घटित होता है तब हार्ट अटैक आने की कौनसी बात है। आत्मा संतुष्ट है आपसे| आप सब यहाँ में बैठे हैं, जब मौका आयेगा कुण्डलिनी जागृत होगी ही। और आप फटाक् से पा लेंगे। इसे आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। विशुद्धि चक्र जो है श्रीकृष्ण का चक्र है । इसमें सोलह कलायें हैं। इसी प्रकार सोलह सब प्लेक्सेस, जिसको कि हम पंखुडियाँ कहते हैं, हमारे अन्दर हैं। और जो कुछ भी हमारे अन्दर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, आदि जितने भी हमारे अन्दर, जिसे वॉवेल्स कहते हैं वो हैं। वो सारे इसके बीज मंत्र हैं। जिस वक्त आप कोई गलत मंत्र कहते हैं तो वो मंत्र की वजह से कोई गलत इन्सान की प्रेतात्मा यहाँ आ के बैठ जाती है। जब आप गलत पूजन करते हैं गलत तरीके से आप किसी भी मेडिटेशन को या किसी भी गलत गुरू के पास जा कर के और दिक्षा लेते हैं तो ये आपका चक्र पकड़ 17 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-17.txt जाता है। ये चक्र पकड़ जाने से आपको अनेक बीमारियाँ होती हैं। उसमें से विशेष करके बीमारी होती है, जिसे हम थ्रोट कैन्सर कहते हैं । जो आपके कंठ के पास शुरू होता है और धीरे-धीरे, बढ़ते-बढ़ते नीचे की ओर बढ़ता हुआ सारे आपके लंग्ज को पकड़ लेता है। पागल जैसे कुछ बाँध लिया सिर पे, भगवान के नाम पर गले में कुछ लटका लिया, चिल्लाना शुरू कर दिया, हरे राम, हरे राम'। ये सब नाटक करने की क्या जरूरत है! परमात्मा अन्दर है, सबकुछ अन्दर में ही होगा, बाह्य में इस तरह के अनेक नाटक करना, कभी कुछ करना, कभी दूसरा तमाशा करना। अन्दर ही में जान पड़ता है कि कोई गलत काम कर रहे हैं और इसलिये मनुष्य कभी-कभी दोषी महसूस करता है। और कभी-कभी तो लोग सभ्यता की दृष्टि से सोचते हैं कि हमेशा दोषी रहना ही अच्छा है। जैसे सवेरे उठकर उनसे बात करो तो, 'माफ करो, माफ करो, माफ करो, माफ करो'। 'भाई, ऐसा क्या हो गया ? क्यों ऐसे बात कर रहे हो? ठीक से तो बात करो।' सबेरे से उठते ही लगता है कि मैंने कुछ गलती कर दी है। अंग्रेजी भाषा भी ऐसी है कि बोलते वक्त 'I am afraid' मैंने कहा कि, 'भाई, किस के लिये अफ्रेड? आप से तो दुनिया अफ्रेड है।' सतरह मतेबा 'Iam sorry, I am sorry, I am sorry, I am sorry', sorry है तो क्यों ऐसा काम करते हो। तो जिस आदमी में इस तरह की न्यूनता की भावना आ जाती है वो भी लेफ्ट विशुद्धि जब साफ होती है तो आश्चर्य होता है लोगों को कि लेफ्ट विशुद्धि पकड़ लेती है। सहजयोग में लेफ्ट विशुद्धि जब साफ होती है तो आश्चर्य होता है लोगों को कि, 'माँ, सब तरह की स्पॉन्डिलाइटिस, सब तरह की परेशानियाँ, माँ, पता नहीं कहाँ भाग जाती है!' और ये विष्णुमाया का स्थान है। जो कृष्ण की बहन है। जिनसे बहन और भाई का विचार नहीं होता, जो दुसरी औरतों की तरफ गन्दी निगाहों से देखते हैं, उनका ये चक्र पकड़ जाता है, जिनमें वो पवित्रता की भावना नहीं होती है उनका भी ये चक्र पकड़ जाता है। क्योंकि अन्दर से वे जानते हैं कि वो गलत काम कर रहे हैं तो वो जो गलत काम कर रहे हैं अन्दर से वो भावना बन जाती है। कभी-कभी झूठ-मूट में ही बनती है और कभी-कभी सचमुच में, चाहे जो भी हो वो बनती है, चाहे जो भी हो उसे निकालना आसान है। सब से तो बुरी बात ये है कि सुबह से शाम तक बताया जायेगा कि तु बड़ा पतित है और मेरे लिये अगर पाँच सौ रूपये ला दीजिये तो मैं तुम्हारा पाप मोचन कर दूँगा। माने आपका पैसा मोरचन होते ही आपका पाप मोचन हो जायेगा ? और फिर रात-दिन यही खोपड़ी में ड्राला जाता है कि, 'तुम पापी हो, तुम पापी हों, तुम पापी हो, तुम पापी हो...' तो मनुष्य सोचने लगता है कि, 'मैं पापी हँ।' इसमें भी मैं देखती हूँ कि कैथलिक धर्म में तो कितनों की तो लेफ्ट विशुद्धि हमेशा पकड़ी रहती है। जैसे, इनको तो जाकर के कन्फेशन करना पड़ता है कि, 'मैंने पाप किया' और अगर नहीं भी किया होगा तो भी कहना ही पड़ता है क्योंकि जिस दिन चर्च जाओ, तो ये कहना ही पड़ता है। अजीब - अजीब परम्परा से भी मनुष्य इसे पाता है। गलत मंत्र कहने से होता है। अनेक चीज़ों से लेफ्ट विशुद्धि पकड़ी जाती है और कहना चाहिये कि आज भी सबकी वही ज़्यादा पकड़ी हुई है। सिगारेट पीने से, तम्बाकु खाने से सब से लेफ्ट विशुद्धि पकड़ी जाती है। अब राईट विशुद्धि तो ऐसे लोगों की पकड़ती है जो कि बहुत जोर जोर से डाँट कर बोलते हैं, चिल्लाते हैं और बिगड़ते हैं। और जिनका गुस्सा बड़ा तेज़ होता है। और जो प्रेम से बात करना जानता ही नहीं है। और जो बहत ज़्यादा 18 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-18.txt भाषण देते हैं, जिनको कोई ज्ञान नहीं, जिन्होंने आत्मा को पाया नहीं, तो भी लेक्चर झाड़ते हैं, उनकी भी राईट विशुद्धि पकड़ती है। और राईट विशुद्धि जो है वो विटठ्ठल का स्थान है, श्री विठ्ठल का स्थान है । इसको विठ्ठल के मंत्र से ठीक किया जा सकता है। इससे लोगों को अनेक तरह की बीमारियाँ हो जाती है। इस तरह गले से सम्बन्ध है। बीच में श्रीकृष्ण का स्थान है। जिस वक्त कुण्डलिनी श्रीकृष्ण के स्थान पर स्थिर होती है तब मनुष्य साक्षी हो कर के उस योगेश्वर की लीला देखता है। यह सारा संसार लीलामय है। इसमें इतनी हड़बड़ाहट, इतनी परेशानी की कौनसी बात है। ये तो बस नाटक, सब नाटक देखते जाओ। इस नाटक को देखते ही बन जाता है। जब आप देखते हैं कि नाटक है, थोड़ी देर तो गड़बड़ाते हैं, उसके बाद जब स्थिर हो जाते हैं, जब आप स्थापित हो जाते हैं तब आप जानते हैं कि ये नाटक है और इस नाटक को प्राय: ही जान लेना आपके लिये बड़ा ही सुखदायी होता है। क्योंकि फिर जो स्थितप्रज्ञा की भाषा है जिसे श्रीकृष्ण ने बताया है वो सिद्ध हो जाती है। कहना नहीं पड़ता है कि अब आप परेशान मत होना। ऐसा आदमी कोई परेशान नहीं होता है। हमें तो आश्चर्य ही होता है कि क्यों सब परेशान हो रहे हैं । परेशान होने से तो कोई बात होने वाली नहीं। तो क्यों बेकार में परेशान हों और बर्बाद करे अपने एनर्जी को लेकिन वो कहने से नहीं होता, जिसको आदत है वो परेशान होगा ही और हमें तो कोई कोई लेग कहते हैं कि क्योंकि आप अपने लिये परेशान नहीं होते इसलिये हम आपके लिये परेशान होते हैं। तो मैंने कहा कि, 'ठीक है, अगर आपको परेशान होना है तो होते रहिये, ऐसी तो कोई परेशानी की बात ही नहीं है। अब ये मैं बताऊंगी कि आज्ञा चक्र जो है वो यहाँ पर है। और ये महाविष्णु का स्थान है। आज्ञा चक्र आपका बहुत जोर से चलना शुरु हो जाता है, जिस वक्त आप बहुत ज़्यादा सोचते हैं। आगे में, यहाँ पर जब बहुत ज़्यादा सोच शुरू हो जाती है तब आज्ञा चक्र चलता है। आज्ञा चक्र तब भी चलता है जब मनुष्य बहुत ज़्यादा अहंकारी होता है। जब उसमें अहंकार आ जाता है तो उसका आज्ञा चक्र बहुत चलता है। और ऐसा आदमी जब अहंकार के दमन का प्रयत्न करता है तो वो अपने ही छाया के साथ लड़ते रहता है। अहंकार भी अपनी छाया मात्र मिथ्या है। वो कोई और चीज़ है नहीं। तो वो अपनी ही छाया के साथ लड़ते रहता है और वो उससे लड़ते -लड़ते, झूझते-झूझते वो और भी थक जाता है और तब वो दूसरे मार्ग ढूंढता है, जैसे कि वो शराब पीने लग जाता है या किसी और औरतों के घर जाना शुरू कर देता है, भागने के लिये, अपने से पलायन करने के लिये क्योंकि वो देख नहीं पाता है अपने अहंकार को और ये स्थिति बहुत लोगों की हो जाती है, वो तंग आ जाता है। अपने अहंकार से कि बाप रे ये कितना खाया जा रहा है हमें। ये एक बड़ी बीमारी अब आने वाली है जो कि मैंने अमेरिका में बतायी है, एड्स के बारे में बताया था। और इसके बाद में एक नयी बीमारी अल्झाइमर, अब जो शुरु हुई है। उसके बारे में बताया था और अब तीसरी बीमारी के बारे में बता रही हूँ कि ऐसे लेगों को पैरेलिसीस हो जाएगा, जिसका आज्ञा चक्र बहुत जबरदस्त चलेगा और जिनमें अहंकार बढ़ेगा उन्हें पैरेलिसीस होने के बाद वो इस तरह को पैरेलिसीस हो जायेगा कि वो चेतन बुद्धि से कॉन्शस माइंड से अगर कोई काम करना चाहेगा तो कर नहीं पायेगा । ऐसे तो चलते-फिरते रहेंगे औ फिर जब सोचेंगे कि मैं चल रहा हूँ तो एकदम से गिर जायेंगे। और वो बीमारी अब शुरू ही हो गयी है और अब दो-चार पेशंट अब देखना भी शुरू कर 19 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-19.txt दिया है। सो अहंकार से लड़ने से नहीं होगा। अहंकार से झुंझने से नहीं होता है। ये गलतफहमी है कि हम अहंकार से लड़ सकते हैं। अहंकार तो हमारे ही बनायी हुई मिथ्या बात है कि हम दुनिया भर की आफत उठाये जा रहे हैं । मैं कभी-कभी एक कार्य बताती हूँ कि कुछ लोग प्लेन से जा रहे थे, देहाती थे उनसे कहा कि,'इतना सामान नहीं ले जाना।' तो कहा कि, 'अच्छा, ठीक है।' और फिर वो प्लेन पर बैठे और सामान अपने सर पर रख लिया और कहने लगे कि, 'हम तो अपने सामान का बोझ ढो रहे हैं। अरे, जिस प्लेन ने आपका बोझ उठाया है वो ही इस प्लेन का बोझ उठा रहा है। जिसने आपको बनाया है, जो करता-भोगता सबकुछ है। वही सब कुछ करता है। सिर्फ कहने से कुछ नहीं होता है। ये तो आपकी स्थिति है, जब ये स्थापित हो जाती है। जब कुण्डलिनी का जागरण होता है और आज्ञा को लाँघ जाती है तो निर्विचारिता आपमें स्थापित हो जाती है। उसके उलटे अगर आपके पिछले हिस्से में ये चक्र गर आपमें पकड़ा जाये तो डाइबिटीस की वजह से यहाँ पर जब वो पकड़ा जाता है (पीछे की आज्ञा) तो आज्ञा चक्र के चारों ओर फैला हुआ स्वाधिष्ठान जब पकड़ा जाता है तो आँखों का नुकसान हो जाता है। तो उससे भी ज़्यादा आपको अगर आप गलत गुरुओं के पास गये तो आपकी आँख अंधी हो सकती है। आँख में अंधापन आ सकता है। आँख की कमजोरी सी आ सकती है। आपके बच्चे अंधे हो सकते हैं इससे क्योंकि आप अंधेपन से वहाँ गये थे। तो पक्का अंधापन आपके अन्दर आ सकता है। लेफ्ट आज्ञा, जिसे हम कहते हैं पिछला आज्ञा है । इसके पकड़ने से अनेक अनेक बीमारियाँ हो सकती है। अब इस वक्त समय नहीं है इसलिये मैं बताती नहीं हूँ लेकिन इसके साफ होते ही मनुष्य की दृष्टि में एक चमक आ जाती है। एक ज्योत आँख में आ जाती है। और जिसके आज्ञा की चमक आ गयी ऐसे आदमी की दृष्टि भी अत्यंत शुद्ध होती है । ये इतनी शुभदायी होती है कि ये जिस पर पड़ जाये उसका शुभ हो जाये । ऐसी व्यक्ति की सारी आकृति ही शुभदायी होती है। उस आकृति को काँटजाँच करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि वो आकृति ही ऐसी बनी रहती है। उसके खड़े होते ही उसमें वो व्यक्तित्व होता है कि मनुष्य एकदम से ही उसको पा करके उसका शुभ का लाभ उठा सकता है। अरे आप शुभ की बात बहुत करते हैं लेकिन आप ये तक नहीं जानते हैं कि शुभ और अशुभ क्या होता है। जब कोई चीज़ शुभ होती है तो उसमें से चैतन्य बहना शुरु हो जाता है । उसमें से चैतन्य जब बहे तो सोच लेना कि ये चीज़ शुभ है और नहीं तो नहीं। तो ये पहली चीज़ है जो हमारे अन्दर आती है, जिसे कि निर्विचार समाधि कहते हैं। जिसे कि पहले के जमाने में बहुत लोग पाते थे वो आप को एकदम स्थापित होता है और आप निर्विचार समाधि में जाते हैं। और इसको पाने के लिये कोई सा भी विचार मन में आया तो 'उसको क्षमा कर दिया, क्षमा, क्षमा' ये ईसामसीह ने हमको सिखाया है। ईसामसीह दूसरे तीसरे कोई नहीं हैं, ये श्रीगणेश का अवतरण इस संसार में हुआ है। सारे उनका वर्णन गर आप पढ़ें महाविष्णु का, देवी महात्म्य का तो आप जान जायेंगे कि, ये साक्षात वही है। न तो वो ईसाईयों के हैं न तो वो हिन्दुओं के हैं न मुसलमानों के हैं, लेकिन वो सहजयोगियों के हैं। उनके सबसे बड़े भाई हैं और वही जिस तरह श्री गणेश सब से पहले सहजयोगी हैं, उसी प्रकार ईसामसीह भी हैं। इसा मसीह का नाम भी सुन्दर लिखा गया है। क्योंकि उनका नाम क्रिस्त है। क्रिस्त; हिब्रू में इन्हे क्रिस्त कहते हैं। क्रिस्त: श्रीकृष्ण से आया । राधाजी का भी स्वरूप महालक्ष्मी का था और राधाजी का स्वयं महालक्ष्मी का रूप था और राधाजी ने ही मेरी के नाम से ही जन्म इस संसार में लिया और 20 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-20.txt उन्होंने ही, ये जान लीजियेगा कि ये उस राधा के ही पुत्र हैं जो श्रीकृष्ण से पैदा हुआ और जब वो बाप की बाप करते हैं। तो वे सिर्फ श्रीकृष्ण की बात करते हैं। ईसामसीह की सिर्फ दो उंगलियाँ ऐसी रहती है (अनामिका और मध्यमा वाली उंगली) ये उंगली (अनामिका) श्रीकृष्ण की है और ये (मध्यमा) नारायण की है। दूसरा नाम उनका जो जेसू है उसको हिब्रु में येशु कहते हैं। आप जानते हैं यशोदाजी का नाम येश ही होगा, उनको येशु पुकारते थे, इसलिए राधाजी ने सोचा | कि इनका नाम येशु लिखें। अभी ईसाईयों को कौन जाकर बताये और हिन्दुओं को कौन जाकर बताये? अगर मैं वहाँ ईसामसीह की बात निकालती हूँ तो लोग कहते हैं कि माँ आप तो सब लोगों को ईसाई बना रहे हैं। और जब मैं वहाँ श्रीकृष्ण की बात निकालती हूँ तो लोग कहते हैं कि मैं उनको हिन्दू बना रही हूँ। मुझे किसी को कुछ बनाने का नहीं है। मुझे सिर्फ आप जो हैं, आप की जो चीज़ खोयी है वो आपको देने की है, बस! इन सब झगड़े बाजी में मैं हूँ नहीं। आपकी जो अन्दर सुंदर स्थिति है उसको आपके लिये उसकी कुँजी जो है वो मुझे आप तक पहुँचानी है। अब सबसे आखिर में सहस्रार आया, सहस्रार माने ये कि हजार पंखूड़ियों से बना हुआ सहस्रार है, जिसको कि अगर हम ब्रेन को अगर transuersection में काटे तो आप देख सकते हैं कि जैसे, पंखुड़ियाँ जैसे उसके हजार इस तरह से अलग-अलग खंड दिखाई देते हैं साफ तौर पर। अब डॉक्टरों का झगड़ा है कि नौ हजार अठानवे ही उसमें ये हैं, नाड़ियाँ और दो कम है इसलिये झगड़ा करेंगे। नौसो अठानवे, इससे पहले तो आपको छ: सौ ही मिली हुई थी। उसमें क्या रखा हुआ है। जिस वक्त यह सहस्रार खुलता है तो जैसे कोई बड़ी सुन्दर दीपशिखायें जो कि शान्त, तापहीन हैं और जो कि अनेक रंगो से प्लावित है, सात ही रंग जिस में चमक रहे हैं, इस तरह से दिखाई देता है। कमल, सहस्रार का कमल इस तरह से खिलता है। और उसके अन्दर कुण्डलिनी जैसे कोई टेलिस्कोप खुलता है, उस तरह से खट्, खट्, खट् ऊपर आकर के और सोने के ढ़क्कन जैसा जो ये आज्ञा चक्र है जो कि सूर्य का बिम्ब उसमें है उसको छेद करके यहाँ पर जो कि लिम्बिक एरिया है जो कि बीच में इस तरह से खोखली जगह है, जिसे लिम्बिक एरिया कहते हैं, उसमें से निकल करके और सहस्रार यूँ खुल जाता है। उसकी वजह ये है कि जैसे ही आज्ञा चक्र को भेदती है कुण्डलिनी, वैसे ही हमारे अन्दर जो इगो और सुपर इगो इस तरह की जो स्थायें बनी हुई है वो खिंच जाती है इसलिये कर्म आपके सब खाली हैं। कुण्डलिनी ने और आपके अन्दर जितने भी कुसंस्कार थे सब खा लिये। और दोनो के दोनो इस तरह से पीछे हट जाते हैं और इस तरह से सहस्रार खुल के और आपके ब्रह्मरंध्र से आपको कुण्डलिनी की ठण्डी - ठण्ही हवा मिलने लग जाती है। कभी-कभी विशुद्धि चक्र खराब होने से हाथ में ठण्डी - ठण्डी लहरें महसूस नहीं होती है। विशुद्धि को ठीक करते ही आप इसे महसूस करते हैं। इनको कैसे ठीक करना है वरगैरे वरगैरे। ये सब आपको ये लोग यहाँ बतायेंगे। अब आखिर में मैं बहुत आभारी हूँ आप सब के कि आपने इतने देर तक बैठकर सुना मुझे। ये ज्ञान हमारे मूल का है जिसकी सारे संसार को आज जरूरत है। वो हमें उन्हें देना है। उनको गणेश सिखाते सिखाते तो सात साल बीत गये हैं और उसके बाद उनका विष्णु जी सिखाते-सिखाते और सात साल बीत गये। बारह वर्ष का वनवास मैंने कर लिया और पता नहीं अब और कितना वनवास करना पड़ेगा। लेकिन अगर आप लोग सुसज्ज हो जाये तो आप इनको ये सारी बातें बहुत सुन्दरता से समझा सकते हैं। 21 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-21.txt ईड़ा न डी सर्वप्रथम आदिशक्ति की अभिव्यक्ति बायीं ओर को होती है। यह महाकाली की अभिव्यक्ति है। महाकाली की शक्ति हमारे (मानव शरीर) बायीं ओर ईडा नाड़ी से प्रवाहित होती है । हमें सम्भवत: इस बात का ज्ञान नहीं है कि महाकाली क्या करती हैं। पहला कार्य जो वे करती हैं वह है हमारी रक्षा करना। आप जहाँ भी हों, आप जो भी कर रहे हों, किसी भी खतरे में आप फँसे हुए हों, महाकाली आपकी करती हैं। वे आपके अन्दर विद्यमान हैं। वे आपके जीवन की सुरक्षा करती हैं, आपके शरीर के सभी सुरक्षा अवयवों की सुरक्षा करती हैं। उनके साम्राज्य में आप स्वयं को सुरक्षित पाते हैं। वास्तव में वे पथ प्रदर्शक शक्ति हैं, वे ही हमें हमारा अस्तित्व प्रदान करती हैं। वे हमें आराम, निद्रा और सत्य प्रदान करती हैं, वे आपको बताती हैं कि क्या सत्य है और क्या असत्य। कभी-कभी अपने अहंकार वश लोग समझ बैठते हैं कि जो मैं सोचता हूँ वही सत्य है, तब माया की सृष्टि करके वे इस बात को रोशनी में लाती हैं। एक प्रकार से ऐसे भ्रम की सृष्टि करती हैं कि आप सोचने लगते हैं कि यह क्या है, इसलिए उन्हें भ्रान्ति नाम दिया गया है। वे आपको भ्रम में फँसा देती हैं और अन्त में इस भ्रम से आपको मुक्त भी करती हैं। .....आप यदि अपनी सारी समस्याओं को उन पर छोड़ दे तों सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इतना ही नहीं आप स्वयं को वास्तव में आशीर्वादित भी महसूस करते हैं। ये आशीर्वाद केवल शारीरिक ही नहीं, वे आपके मस्तिष्क को पूरी तरह से चिन्ताओं से मुक्त कर देती हैं। वे ही आपको जटिल रोगों से मुक्त करती हैं, वे रोग मुक्त कर सकती हैं। आपका अहं उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे चाहती हैं कि आप अहं विहीन हों । आपके अन्तर्निहित शिशु की देखभाल करना, आपकी अबोधिता एवं सौहार्द्रता की देखभाल करना महाकाली की शक्ति का कार्य है। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०,१९९९ जब तक महाकाली प्रकट नहीं होती आपके अन्दर बसी बायीं ओर की पकड़ जा नहीं सकती। बायीं ओर की पकड़ का क्या मतलब है? सबसे पहले तो आप अपने भूतकाल के विषय में सोचते रहते हैं, दूसरी बात यह कि मेरे बाप ये थे, मेरे बाप के बाप ये थे, ये सोचते रहते हैं, ऐसे लोगों को ठीक करने के लिये श्री महाकाली स्वरूप आवश्यक है। महाकाली स्वरूप के बिना ऐसा पागलपन छूट नहीं सकता। महाकाली का एक स्वरूप बड़ा भयंकर है। जो लोग भूतग्रसित हैं, जो हमेशा बुरे कार्य करते हैं और जो लोग गुरुघंटाल हैं वे लोग मुझे (महाकाली रूप में) 22 4१ र 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-22.txt पहचानते हैं। भूतग्रस्त आदमी तो मेरे सामने थर-थर काँपने लगता है। ये जो भूतग्रस्त लोग हैं इनके भूतों को महाकाली दिखायी देती हैं, वही रूप दिखायी देता है और वे थर-थर काँपते हैं। अहं का भूत भी यदि लग जाए तो उनको महाकाली का रूप दिखायी देता है। झूठे गुरुओं की पकड़ से लोगों को मुक्त करने के लिये भी महाकाली की जरूरत है। महाकाली अति रौद्रा हैं..... रुद्रस्वरूप और वो रुद्रस्वरूप बहुत जरूरी है नहीं तो बाधायें भागने वाली नहीं । वो सिर्फ रुद्रस्वरूप से ही भागती हैं। एकादश रुद्र में जो ग्यारह रुद्र हैं वो ग्यारह ही रुद्रों में महाकाली की ही शक्ति विराजमान है। महाकाली का स्वरूप अगर कलियुग में इस्तेमाल न किया जाए तो सहजयोग का कार्य न हो सकेगा क्योंकि आसुरी शक्तियों के कारण सारे चक्र पकड़ में आ जाते हैं और चक्र ठीक किये बिना कुण्डलिनी चढ़ेगी नहीं, इसलिए महाकाली का स्वरूप बहुत वन्दनीय है और सराहनीय है। यह किसी को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचातीं। उनके स्वरूप से सभी बुराइयाँ भाग जाती हैं। प.पू.श्री माताजी, जयपुर, ११.१२.१९९४ श्री महाकाली आनन्द प्रदायिनी हैं और अपने भक्तों को आनन्दित देखकर वे प्रसन्न होती हैं। आनन्द ही उनका गुण है और शक्ति है। विभिन्न चक्रों पर आप विभिन्न प्रकार के आनन्द अनुभव करते हैं, वह सब महाकाली की देन होती है। प.पू.श्री माताजी, फ्रान्स, १२.९.१९९० श्री महाकाली दो तरह से कार्य करती हैं - एक तरफ तो वे अति प्रेममयी, आनन्द एवं खुशी से परिपूर्ण हैं, दूसरी ओर वे अति क्रूर, क्रुद्ध और असुरों का वध करने वाली हैं। जैसा कि हम जानते हैं, श्री महाकाली ने बहुत से असुरों और राक्षसों का वध किया है, लेकिन अभी बहत से राक्षस विद्यमान हैं। अभी भी वे जीवित हैं, परन्तु मुझे विश्वास है कि वो भी समाप्त हो जाएंगे, उनमें से एक भी न बचेगा। आपको इस प्रकार से परिपक्व होना है ताकि इन आसुरी लोगों के विषय में आपको पूरी जानकारी हो। आप अपने ज्योतित चित्त से जान सकते हैं कि किस संस्था में क्या दोष है? ध्यान-धारणा करने का यह सर्वोत्तम मार्ग होगा। केवल ध्यान-धारणा करनी है और श्री महाकाली से प्रार्थना करनी है कि उन लोगों को नष्ट करें जो विश्व को नष्ट कर रहे हैं। 'हे महाकाली, कृपा करके दुष्ट लोगों का वध करो ।' ये उनका कार्य है, ऐसा करने में उन्हें प्रसन्नता होगी, पर किसी व्यक्ति को तो उनसे प्रार्थना करनी होगी। ऐसा करना बहुत अच्छा होगा क्योंकि जब तक आप उन्हें कहेंगे नहीं ऐसे बहुत से लोगों दुष्ट पर सम्भवत: उनका चित्त न जा पाएगा। अत: सर्वोत्तम तरीका ये होगा कि सदैव उनसे व्यक्तिगत रूप से, सामूहिक या विश्व स्तर पर सहायता की याचना करें। वे सर्वव्यापी हैं। पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक हैं। उनकी पूजा करना, उन्हें जागृत करना, यही एकमात्र आपका कर्तव्य है। .वे सर्वत्र मौजूद हैं, आपके जीवन में हर स्थान पर, विशेष रूप से सहजयोगियों के तो वे हमेशा साथ 23 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-23.txt ईड़ा नाड़ी होती हैं चाहे जो भी आप कर रहे हों। आपकी यदि कोई दुर्घटना होती है तो वहाँ भी आपकी देखभाल करने के लिये वे मौजूद होती हैं, देवदूत की तरह सदैव आपके पीछे होती हैं। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०.९९ जब महाकाली अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तो वे गृहलक्ष्मी हो जाती हैं । महाकाली की शक्ति स्त्री में उसकी शालीनता होती है। जब तक शालीनता स्त्री में कार्यान्वित नहीं होती तब तक गृहलक्ष्मी की शक्ति उसके अन्दर प्रकटित नहीं होती है। हम फातिमा बी को मानते हैं, वो गृहलक्ष्मी के सिंहासन को सुशोभित करती हैं। महाकाली की इस शक्ति से स्त्री अपने बच्चों को ठीक रास्ते पर रखती है और अपने चरित्र को उज्ज्वल रखती है। शालीन स्त्री में हास्य रस प्रस्फुटित होना चाहिए, किस चीज़ को वो हँस कर टाल दे, और हँस कर के हजारों प्रश्न वो ठीक कर सकती है। प.पू.श्री माताजी, जयपुर, ११.१२.१९९४ श्री महाकाली को प्रकाश पसन्द है । उनकी पूजा रात्रि में होती है, क्योंकि रात्रि में हम दीप जला सकते हैं। वे व्यक्ति को ज्योतिर्मय करना पसन्द करती हैं, उन्हें सूर्य पसन्द है, हर ऐसी चीज़ पसन्द है जो चमकती हो । आप उनकी साक्षात मूर्ति का ध्यान कर सकते हैं, उनकी प्रार्थना कर सकते हैं। उनके बच्चे उनकी पूजा करें यह उन्हें अच्छा लगता है, इसी स्तर पर वे उनसे एक हो सकती हैं और उन्हें अपनी करुणा एवं प्रेम प्रदान कर सकती हैं। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०.१९९९ आपको ऐसे ढंग से सहजयोग करना होगा जो अत्यन्त पवित्र हो, मानों एक नन्हें शिशु की तरह आप अपनी माँ की पूजा कर रहे हों। जैसे एक नन्हा शिशु अपनी माँ से प्रेम करता है। यह अत्यन्त सहज सम्बन्ध है जिसे हम सब भुला चुके हैं। किस प्रकार हम अपनी माँ से प्रेम करें, किस प्रकार उनके पथ प्रदर्शन में रहें और किस प्रकार उनकी सुरक्षा में सुरक्षित रहें? यह इतनी सीधी बात है और मैंने अपने बचपन में ही यह बात जान ली थी। आप यदि वास्तव में माँ की पूजा करना चाहते हैं तो एक बार आपमें उसी बचपन का लौट आना आवश्यक है। प.पू.श्री माताजी, कबेला, १७.१०.१९९९ श्री महाकाली आपको स्थिति प्रदान करती हैं, दृढ़ीकरण की स्थिति। जब हम अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं तो श्री महाकाली का प्रकटीकरण आरम्भ हो जाता है । महाकाली में शुद्धिकरण की शक्ति है और वे स्वयं आपमें पवित्र सती के रूप में रहती हैं, वही कुण्डलिनी है, वही श्री महाकाली शक्ति हैं। प.पू.श्री माताजी, फ्रान्स, १२.९.१९९० 24 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-24.txt श्री भैरवनाथ मेरे विचार से हमने श्री भैरवनाथ जी, जो कि ईड़ा नाड़ी पर हैं और ऊपर नीचे की ओर विचरण करते हैं, का महत्व नहीं समझा है। ईडा नाड़ी चंद्र नाड़ी है, अतः यह स्वयं को शांत करने का मार्ग है। उदाहरणतया अहं और जिगर की गर्मी ही हमारे क्रोध का कारण है। जब मनुष्य अत्यधिक क्रोध में होता है, तो श्री भैरवनाथ उसे दर्बल बनाने के लिए चाल चलते हैं। वे श्री हनुमानजी की सहायता से उस क्रुद्ध मनुष्य को इस सत्य की अनुभूति कराते हैं कि क्रोध की मूर्खता में कोई अच्छाई नहीं है वाम प्रवृत्ति व्यक्ति सामूहिक नहीं हो सकता। उदास, अप्रसन्न तथा चिंतित व्यक्ति के लिए सामूहिकता का आनन्द ले पाना अति कठिन है जबकि क्रोधी राजसिक व्यक्ति दूसरों को सामूहिकता का आनन्द नहीं लेने देता, परन्तु स्वयं सामूहिकता में रहने का प्रयत्न करता है जिससे उसका उत्थान हो सके। ऐसा व्यक्ति केवल अपनी श्रेष्ठता को ही दिखाना चाहता है, अतः वह सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इसके विपरीत जो व्यक्ति हर समय खिन्न है और सोचता है कि मुझे कोई प्यार नहीं करता, मेरी कोई चिंता नहीं करता और जो हर समय दूसरों से आशा रखता है, वह भी सामूहिकता का आनन्द नहीं ले सकता। इस प्रकार के वाम प्रवृत्ति व्यक्ति को हर चीज़ से उदासी ही प्राप्त होगी। हर चीज़ को अशुभ समझने की नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण हम अपने बायें पक्ष को हानि पहुँचाते हैं। श्री भैरवनाथ अपने हाथों में प्रकाश-दीप लिए ईड़ा- नाड़़ी में ऊपर-नीचे को दौड़ते हुए आपके लिए मार्ग प्रकाशित करते हैं जिससे कि आप देख सकें कि नकारात्मकता कुछ भी नहीं । नकारात्मकता हममें कई प्रकार से आ जाती हैं । एक नकारात्मक तत्व है कि 'यह मेरा है', 'मेरा बच्चा', 'मेरा पति', 'मेरी सम्पत्ति' । इस प्रकार जब आप लिप्त हो जाते हैं तो आपके बच्चों में भी नकारात्मक तत्व आ जाते हैं, परन्तु यदि आप सकारात्मक होना चाहते है तो यह सुगम है। इसके लिए आपको देखना है कि आपका चित्त कहाँ है? हर नकारात्मकता में से सकारात्मकता का आनन्द लेना ही एक सहजयोगी की विशेषता है। नकारात्मकता का कोई अस्तित्व नहीं, यह केवल अज्ञानता है। अज्ञानता का भी कोई अस्तित्व नहीं। जब हर चीज़ केवल सर्वत्रव्याप्त शक्ति मात्र है, तो अज्ञानता का अस्तित्व कैसे हो सकता है? परन्तु यदि आप इस शक्ति की तहों में छुप जाओ और इससे दूर दौड़ जाओ तो आप कहेंगे कि नकारात्मकता है, उसी प्रकार से जैसे आप यदि अपने आपको एक गुफा में छिपा लें और को अच्छी तरह बंद गुफा करके कहें कि 'सूर्य नहीं है। वो लोग सामूहिक नहीं रह पाते, या तो बायीं ओर के होते हैं या दायीं ओर के। बायीं ओर 25 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-25.txt के लोग नकारात्मकता में सामूहिक हो सकते हैं जैसे कि शराबियों का बंधुत्व, ये लोग अन्त में पागलपन तक पहुँच जाते हैं, जबकि दायीं ओर के लोग मूर्ख हो जाते हैं। यदि एक सहजयोगी सामूहिक नहीं हो सकता तो उसे जान लेना चाहिए कि वह सहजयोगी नहीं है । श्री भैरवनाथ हमें अंधेरे में भी प्रकाश प्रदान करते हैं, क्योंकि वे हमारे अन्दर के भूतों और भूतही विचारों का विनाश करते हैं। श्री भैरवनाथ श्री गणेश से भी सम्बन्धित हैं। श्री गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं और श्री भैरवनाथ बायीं तरफ से दायीं तरफ चले जाते हैं। अतः हर प्रकार के बन्धन और आदतों पर श्री भैरवनाथ की सहायता से विजय पाई जा सकती है। नेपाल में श्री भैरव की एक बहुत बड़ी स्वयंभु मूर्ति है। वहाँ लोग बहुत बारीं ओर हैं, अत: वे श्री भैरव से डरते हैं। यदि किसी को चोरी करने की बुरी आदत हो तो उसे छोड़ने के लिए वह श्री भैरवनाथ के सामने दिया जलाकर उनके सम्मुख अपना अपराध स्वीकार करे तथा इस बुरी आदत से बचने में उनकी मदद ले। अनुचित तथा धूर्ततापूर्ण कार्यों से भी श्री भैरवनाथ हमारी रक्षा करते हैं। जिस कार्य को हम बहुत ही गुप्त रूप से करते हैं वह भी श्री भैरव से छिपाया नहीं जा सकता। यदि आप अपने में परिवर्तन नहीं लाते तो वे आपकी बुराइयों का भाँडा फोड़ देते हैं, इसी तरह उन्होंने सब भयानक गुरुओं का भाँडा फोड़ दिया है । बाद में श्री भैरव का अवतरण इस पृथ्वी पर श्री महावीर के रूप में हुआ। वे नर्क के द्वार पर खड़े रहते हैं ताकि लोगों को नर्क में पड़ने से बचा सके, परन्तु यदि आप नर्क में जाना ही चाहें तो वे आपको रोकते नहीं। अच्छा हो यदि हम अपनी नकारात्मकता से लड़ने का प्रयत्न करे तथा दूसरों का संग पसन्द करने वाले, दूसरों से प्रेम करने वाले तथा चुहल पसन्द लोग बन जाएं। दूसरे आपके लिए क्या कर रहे हैं, इसकी चिन्ता किए बिना आप केवल ये सोचें कि आप दूसरों का क्या भला कर सकते हैं। आओ, हम श्री भैरवनाथ से प्रार्थना करें कि वे हमें हँसी, आनन्द तथा चुहल की चेतना प्रदान करें। प.पू.श्री माताजी, कारलेट इटली, ६.८.१९८९ े कर 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-26.txt फिंग ली नीडी श्री महास२स्वती प्रेम से सभी प्रकार की सृजनात्मक गतिविधि घटित होती हैं। .......ज्यों-ज्यों प्रेम बढेगा आपकी सृजनात्मकता विकसित होगी। तो प्रेम ही श्री सरस्वती की सृजनात्मकता का आधार है। यदि प्रेम न होता तो सृजनात्मकता न होती। तो दाईं ओर की, सरस्वती की, सारी गतिविधि मूलत: प्रेम में समाप्त होनी हैं। प्रेम से ही इसका आरम्भ होता है और प्रेम में ही समाप्ति। जिस भी चीज़ का अन्त प्रेम में नहीं होता वह एकत्र होकर समाप्त हो जाती है। बस लुप्त हो जाती है। .....अब जिस प्रेम की हम बात करते है, हम परमात्मा के प्रेम की बात करते हैं, निश्चित रूप से इसे हम चैतन्य लहरियों के माध्यम से जानते हैं। लोगों में चैतन्य लहरियाँ नहीं हैं, फिर भी वे अत्यन्त अचेतनता में चैतन्य लहरियाँ महसूस कर सकते हैं। विश्व की सभी महान चित्रकृतियों में चैतन्य है। विश्व के सभी महान सृजनात्मक कार्यों में चैतन्य है। जिन कृतियों में चैतन्य है केवल वही बनी रह पाईं, उनके अतिरिक्त बाकी सब नष्ट हो गईं। अत: वह सभी कुछ जो दीर्घायु है, पोषक है और श्रेष्ठ है, वह इस प्रेम विवेक के परिणाम स्वरूप है जो हमारे अन्दर अत्यन्त विकसित है। परन्तु यह कुछ अन्य लोगों में भी है जो अभी तक आत्मसाक्षात्कारी नहीं है। अन्ततः पूरे विश्व को यह महसूस करना होगा कि व्यक्ति को परमात्मा के परम प्रेम तक पहुँचना है अन्यथा इसका (विश्व का) कोई अर्थ नहीं। ...... पश्चिम ने, में कहना चाहूँगी, विशेष रूप से सरस्वती की बहत पूजा की है - उससे भी कहीं अधिक जितनी भारत में हुई है क्योंकि वे सीखने के लिए गए और बहुत सी चीज़ें खोजने का प्रयत्न किया। परन्तु वे केवल इस बात को भूल गए कि वे देवी हैं, परमात्मा देने वाले (giver) हैं। हर चीज़ देवी से आती है। ये बात वो भूल गए और इसी कारण से सभी समस्याएं खड़ी हो गईं। आपकी शिक्षा में यदि आत्मा न हो, शिक्षा में यदि देवी का कोई स्रोत न हो तो शिक्षा पूर्णत: व्यर्थ है। उन्हें यदि इस बात का एहसास हो गया होता कि आत्मा कार्य कर रही है तो वे इतनी दर न जाते। भारतीयों को भी मैं इसी चीज़ की चेतावनी दे रही थी कि आप लोग भी अब औद्योगिक क्रान्ति को अपना लक्ष्य बना रहे हैं परन्तु आपने औद्योगिक क्रान्ति की जटिलताओं से बचना है। आत्मा को जानने का प्रयत्न अवश्य करें। आत्मज्ञान प्राप्त किए बगैर आपको भी वही समस्याएं होंगी जो इन लोगों को हैं। क्योंकि वे भी 27 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-27.txt फिंग ड़ी नाड़़ी मानव हैं और आप भी। आप भी उसी मार्ग पर चलेंगे। अचानक आप दौड़ पड़ेंगे और समस्याएं होंगी, बिल्कुल वैसी ही समस्याएं जैसी पश्चिमी लोगों को हैं। सरस्वती जी के इतने आशीर्वाद हैं कि इतने थोड़े समय में इनका वर्णन नहीं किया जा सकता और सूर्य ने हमें इतनी शक्तियाँ प्रदान की हैं कि इनके विषय में एक क्या दस प्रवचनों में भी बता पाना असम्भव है। परन्तु किस प्रकार हम सूर्य के विरोध में जाते हैं और किस प्रकार सरस्वती के विरोध में जाते हैं! सरस्वती की पूजा करते हुए अपने अन्दर यह बात हमने स्पष्ट देखनी है। उदाहरण के रूप में पश्चिमी लोग सूर्य को बहुत पसन्द करते हैं क्योंकि वहाँ पर सूर्य नहीं होता। जैसा आप जानते हैं इस दिशा में वे अपनी सीमाएं लाँघ जाते हैं और अपने साथ सूर्य की जटिलताएं परन्तु उत्पन्न कर लेते हैं। मुख्य चीज़ जो व्यक्ति ने सूर्य के माध्यम से प्राप्त करनी होती है, वह है प्रकाशविवेक-अन्तर्प्रकाश। और यदि आज्ञा पर स्थित सूर्यचक्र पर भगवान ईसामसीह विराजमान हैं तो जीवन की पावनता, जिसे आप 'नीति' कहते हैं, और भी अधिक आवश्यक है, यही जीवन की नैतिकता है। अब पश्चिम में तो नैतिकता भी बहस का बहुत बड़ा मुद्दा बन गई है। लोगों में पूर्ण नैतिकता का विवेक ही नहीं है। नि:सन्देह चैतन्य-लहरियों पर आप इस बात को जान सकते हैं परन्तु वे सब इसके विरुद्ध चले गए। जो लोग भगवान ईसामसीह के पुजारी हैं, जो सूर्य के पुजारी हैं, सरस्वती के पुजारी हैं, वे सभी विरोध में चले गए। सूर्य की शक्तियों के विरोध में, उसकी अवज्ञा करते हुए। क्योंकि आपमें यदि नैतिकता व पावनता का विवेक नहीं है तो आप सूर्य नहीं बन सकते। सभी कुछ स्पष्ट देखने के लिए सूर्य स्वयं प्रकाश प्रदान करते हैं। सूर्य में बहुत से गुण हैं। वे सभी गीली, गन्दी और मैली चीज़़ों को सुखाते हैं। परजीवी जन्तु उत्पन्न करने वाले स्थानों को वे सुखाते हैं। परन्तु पश्चिम में बहुत बहत से से परजीवी जन्म लेते हैं। केवल परजीवी ही नहीं भयानक पंथ और भयानक चीजें भी पश्चिम में आ गई हैं, उन देशों में जिन्हें प्रकाश से परिपूर्ण होना चाहिए था परन्तु वे उसी अन्धकार में बने हुए हैं। आत्मा के विषय में अन्धकार, अपने ज्ञान के विषय में अन्धकार और प्रेम के विषय में अन्धकार । जहाँ प्रेम का प्रकाश होना चाहिए था वहाँ इन तीनों चीज़ों का साम्राज्य है। प्रकाश का अर्थ वह नहीं है जो आप अपनी स्थूल दृष्टि से देखते हैं। प्रकाश का अर्थ है - अन्न्तप्रकाश-प्रेम का प्रकाश। यह इतना सुखकर है, इतना मधुर है, इतना सुन्दर है, इतना आकर्षक है और इतना विपुल है कि जब तक आप इस प्रकाश को अपने अन्दर महसूस नहीं कर लेते-वह प्रकाश जो पावन प्रेम है, पावनता है, पावन सम्बन्ध है, पावन सूझ-बूझ है, आपको चैन नहीं आ सकता है। इस प्रकार का प्रकाश यदि आप अपने अन्दर विकसित कर लें तो सभी कुछ स्वच्छ हो जाएगा। 'मुझे धो दो और मैं बर्फ से भी श्वेत हो जाऊंगा।' पूर्णत: स्वच्छ हो जाने पर आपके साथ भी ऐसा ही होता है । प्रकृति का पावनतम रूप हमारे अन्दर निहित है-प्रकृति का पावनतम रूप। प्रकृति के पावनतम रूप से ही 28 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-28.txt हमारे चक्र बनाए गए हैं। मानसिक विचारों द्वारा हमीं लोग इसे बिगाड़ रहे हैं। उसी सरस्वती शक्ति के विरुद्ध, आप साक्षात सरस्वती के विरुद्ध जा रहे हैं । प्रकृति की सारी अशुद्धियों को सरस्वती शुद्ध करती हैं, परन्तु अपनी मानसिक गतिविधियों से हम इसे बिगाड़ रहे हैं। हमारी सारी मानसिक गतिविधि पावन विवेक के विरुद्ध जाती है और यही बात व्यक्ति ने समझनी है कि अपने विचारों द्वारा हमने इस शुद्ध विवेक को नहीं बिगाड़ना। हमारे विचार हमें इतना अहंकारी, इतना अहंवादी, इतना अस्वच्छ बना देते हैं कि हम वास्तव में विषपान करते हैं और कहते हैं, 'इसमें क्या बुराई है?' सरस्वती के बिल्कुल विरुद्ध। सरस्वती यदि हमारे अन्दर हैं तो वे हमें सुबुद्धि देती हैं, विवेक देती हैं। इसी कारण से सरस्वती पूजन के लिए, सूर्य पूजन के लिए हमारे अन्दर स्पष्ट दृष्टि होनी चाहिए कि हमें क्या बनना है, हम क्या कर रहे हैं, कैसी गन्दगी में हम रह रहे हैं, हमारा मस्तिष्क कहाँ जा रहा है। आखिरकार हम यहाँ पर मोक्ष प्राप्ति के लिए हैं, अपने अहं को बढ़ावा देने तथा अपने अन्तःस्थित गर्दगी के साथ जीवनयापन करने के लिए नहीं। में आपसे मिलूं या न मिलूं कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु मैं आप सबमें व्याप्त हूँ, छोटी-छोटी चीज़ों के द्वारा भी मैं आपके साथ हूँ। अत: इस प्रकार से एक दूसरे में व्याप्त होने का प्रयत्न करें और अपने अन्दर के सौन्दर्य को देखें । अपना भरपूर आनन्द उठाएं क्योंकि यही सबसे बड़ी चीज़ है और यही सबसे बड़ी चीज़ प्राप्त करनी है । ये अहं आपको छिलके (Nutshell) की तरह से बना देता है जो व्याप्त होने के सौन्दर्य के साथ तालमेल नहीं रख सकता। देखें कि स्वर किस प्रकार एक दूसरे में घुलमिल जाते हैं। ये व्याप्तिकरण केवल तभी सम्भव है जब आपका अहं चहं ओर व्याप्त होने लगेगा और दाईं ओर की समस्याओं पर काबू पाने का भी यही उपाय है और सरस्वती की पूजा भी इसी प्रकार से करनी है। सरस्वती के हाथ में वीणा है और वीणा आदि वाद्ययन्त्र है जिसका संगीत वे बजाती हैं। वह संगीत हृदय में प्रवेश कर जाता है। आपको पता भी नहीं चलता कि किस प्रकार आपके अन्दर ये संगीत प्रवेश करता है और किस प्रकार कार्य करता है। इसी प्रकार से सहजयोगी को भी व्याप्त हो जाना चाहिए-संगीत की तरह से। जैसे मैंने आपको बताया, बहुत से हैं गुण जिनका वर्णन एक प्रवचन में नहीं किया जा सकता है, परन्तु सरस्वती जी का एक गुण ये है कि वे सूक्ष्म चीज़ों में प्रवेश कर जाती हैं। जैसे पृथ्वी माँ सुगन्ध में परिवर्तित हो जाती हैं, इसी प्रकार से संगीत लय में परिवर्तित हो जाता है और जिस भी चीज़ का सृजन वे करती हैं वह और अधिक महान हो जाती है। जिस भी पदार्थ को वे उत्पन्न करती हैं वह सौन्दर्य सम्पन्न हो जाता है। सौन्दर्यविहीन पदार्थ तो स्थूल है और इसी प्रकार सभी कुछ है। अब आप कहेंगे कि जल क्या है ? जल गंगा नदी बन जाता है। ये सब सूक्ष्म चीज़े हैं । अत: पदार्थ सूक्ष्म बन जाते हैं क्योंकि इन्हें होना होता है- सर्वत्र प्रवेश करना होता है। अतः हर चीज़़, चाहे जो हो- और वायु सर्वोत्तम है-वह वायु भी चैतन्य लहरियों में परिवर्तित हो जाती है। अत: आप देख सकते हैं कि किस प्रकार पदार्थ से बनी चीजें-इन पाँच तत्वों से बनी हुई चीजें-सूक्ष्म बन 29 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-29.txt फिंगली नाड़ी जाती हैं। नि:सन्देह बायां और दायां-दोनों पक्ष इसे कार्यान्वित करते हैं। क्योंकि 'प्रेम' ने इस पर कार्य करना होता है और प्रेम जब पदार्थ पर कार्य करता है तो पदार्थ भी प्रेम बन जाता है। और इसी दृष्टि से व्यक्ति को अपने जीवन को भी देखना चाहिए-इसे प्रेम और पदार्थ का सुन्दर संयोजन बनाने के लिए । परमात्मा आपको धन्य करें। प.पू.श्री माताजी, धुलिया, १४.१.१९८३ सन्यासी वृत्ति पिंगला नाड़ी की जागृति से होती है, परन्तु ये नाड़ी सहजयोग में आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद जागृत होनी चाहिये, उससे पहले की जागृति ठीक नहीं है, वह अधूरी, मतलब एकांगी होती है, इसलिये ग़लत है। कभी-कभी मुझे लगता है कि आधे पहुँचे लोग केवल सन्यासीपन का पाखंड रचा कर घूमते रहते हैं। प.पू.श्री माताजी, २३.९.१९७९ सरस्वती का कार्य बड़ा महान है। महासरस्वती ने पहले सारा अंतरिक्ष बनाया। इसमें पृथ्वी तत्व विशेष है । पृथ्वी तत्व को इस प्रकार से सूर्य और चन्द्रमा के बीच में लाकर स्थिर कर दिया कि वहाँ पर कोई सी भी जीवन्त क्रिया आसानी से हो सकती है। इस जीवन्त क्रिया से धीरे-धीरे मनुष्य भी उत्पन्न हुआ। परन्तु हमें अपनी बहुत बड़ी शक्ति जान लेनी चाहिये, वो शक्ति है जिसे हम सृजन शक्ति कहते हैं यह शक्ति उन सरस्वतीजी का आशीर्वाद है जिनके द्वारा अनेक कलाएँ उत्पन्न हुई। कला का प्रादर्भाव श्री सरस्वती के आशीर्वाद से ही है । प.पू.श्री माताजी, ४.४.१९९२ सरस्वती का कार्यक्षेत्र शरीर का दायां भाग है। स्वाधिष्ठान पर कार्य करके जब ये बायीं ओर को जाती हैं तो कला-विवेक बढ़ता है। व्यक्ति को सरस्वती तत्व से महासरस्वती तत्व की ओर जाना चाहिये। क्योंकि सरस्वती तत्व यदि बीज है तो महासरस्वती तत्व पेड़ है। बिना इस बीज को वृक्ष बनाये आप महालक्ष्मी से नहीं जुड़ सकते। सहजयोग में सरस्वती और लक्ष्मी आज्ञा चक्र पर मिलती हैं। दोनों तत्वों को उचित दृष्टि से देखे बिना हम उन्नति नहीं कर सकते। कला को लक्ष्मी से जोड़ने के लिए हममें शुद्ध दृष्टि होनी चाहिये। आप जितना अपनी शक्तियों का उपयोग करेंगे उतना ही अधिक वे बढ़ेंगी। अब आपको सहजयोग देना है, जब आप इस कार्य में लग जाएँगे तो महासरस्वती तत्व जागृत हो जाएगा और देश की उन्नति देख आप आश्चर्य चकित रह जाएंगे । प.पू.श्री माताजी, ३.२.१९९२ 30 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-30.txt श्र हनुमान मानव अस्तित्व में श्री हनुमान जी की महत्वपूर्ण भूमिका है। निरन्तर हमारे स्वाधिष्ठान से मस्तिष्क (पिंगला नाड़ी) तक चलते हुए वे हमारी भविष्य की योजनाओं या मानसिक गतिविधियों के लिये आवश्यक मार्गदर्शन तथा सुरक्षा प्रदान करते हैं। श्री हनुमान जी जैसे देवता का, जो कि बन्दर सम उन्नत शिशु हैं, निरन्तर मानव के दायें पक्ष में दौड़ते रहना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। मानव के अंत:स्थित सूर्यतत्व को शान्त तथा कोमल बनाए रखने के लिए उनसे कहा गया। जन्म के समय ही उनसे सूर्य को नियंत्रित करने के लिये कहा गया, अतः शिशु सुलभ स्वभाव से उन्होंने सोचा कि सूर्य को खा ही क्यों न लिया जाय। यह सोचते हुए कि पेट के अन्दर सूर्य को अधिक नियंत्रित किया जा सकता है उन्होंने विराट रूप धारण करके सूर्य को निगल लिया मानव की दाँयी तरफ को नियंत्रित रखने के लिये उनका बालसुलभ आचरण उनके चरित्र की सुन्दरता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम को अपनी सहायता के लिए किसी सचिव की आवश्यकता थी और इस कार्य के लिए श्री हनुमान का सृजन हुआ। श्री हनुमान जी श्री राम के ऐसे सहायक और दास थे और उनके प्रति इतने समर्पित थे कि कोई अन्य सेवक अपने स्वामी के प्रति इतना समर्पित नहीं हो सकता। उनके समर्पण के फलस्वरूप ही | शारीरिक रूप से विकसित होने के पूर्व ही उन्हें नवधा सिद्धियाँ प्राप्त हो गईं। इन सिद्धियों के फलस्वरूप उन्हें सूक्ष्म या पर्वतसम विशालकाय शरीर धारण करने की क्षमता प्राप्त हो गई। अत्यन्त उग्र स्वभाव के व्यक्तियों को श्री हनुमान इन सिद्धियों से नियन्त्रित करते हैं । अपनी पूँछ को किसी भी हद तक बढ़ा कर लोगों को नियन्त्रित करना उनकी एक और सिद्धि है । वे हवा में उड़ सकते हैं----हवा में उड़ने की सामर्थ्य के कारण वे संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचा सकते हैं। आकाश की सूक्ष्मता श्री हनुमान के नियन्त्रण में है। वे इस सूक्ष्मता के स्वामी हैं और इसी के माध्यम से वे संदेश भेजते हैं। दूरदर्शन, आकाशवाणी तथा ध्वनिवर्धन उनकी इसी शक्ति की देन है। बिना किसी संयोजक के आकाशमार्ग से वायवीय (Ethnic) सम्बन्ध स्थापित करना इस महान अभियन्ता का ही कार्य है। यह कार्य इतना पूर्ण 31 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-31.txt फिंग ड़ी ली नं है कि आप इसमें कोई त्रुटि नहीं निकाल सकते। आपके यन्त्रों में त्रुटि हो सकती है, श्री हनुमान जी की कार्य कुशलता में नहीं--- -यहाँ तक कि हमारे अन्दर की सूक्ष्म लहरियों का हमारी नस-नाड़ियों पर, हमारे रोम-रोम पर अनुभव होना भी श्री हनुमान जी की कृपा से है। श्री हनुमान को 'अणिमा' नामक एक अन्य सिद्धि भी प्राप्त है जो उन्हें अणुओं तथा परमाणूओं में प्रवेश करने की शक्ति प्रदान करती है। हनुमान जी की कृपा से ही होता है । श्री गणेश ने उनके विद्युत-चुम्बकीय शक्तियों का गतिशील होना श्री अन्दर चुम्बकीय शक्ति भर दी है। वे स्वयं चुम्बक हैं। भौतिक सतह पर विद्युत चुम्बकीय शक्ति श्री हनुमान जी की शक्ति है परन्तु भौतिकता से वे मस्तिष्क तक जाते हैं, स्वाधिष्ठान से उठ कर मस्तिष्क तक जाते हैं। मस्तिष्क के अन्दर वे इसके भिन्न पक्षों के सह-सम्बन्धों का सजन करते हैं। यदि श्री गणेश हमें विवेक प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सोचने की शक्ति देते हैं । बुरे विचारों से बचाने के लिए वे हमारी रक्षा करते हैं। श्री गणेश जी हमें विवेक देते हैं तो श्री हनुमान जी सद्- सद्-विवेक। सद्-सद्-विवेक उनकी दी गई सूक्ष्म शक्ति है और यह हमें सत्य असत्य में भेद जानने का विवेक प्रदान करती है। सहजयोग में हम कहते हैं कि श्री गणेश अध्यक्ष हैं या इस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। वे हमें उपाधियाँ देते हैं और हमें अपनी अवस्था की गहराई जानने में सहायता करते हैं। वे हमें निर्विचार तथा निर्विकल्प समाधि और आनन्द प्रदान करते हैं। बौद्धिक सूझ-बूझ जैसे यह अच्छा है यह हमारे हित में है, श्री हनुमान जी की देन है और बुद्धिवादी होने के कारण वे पार्चात्य लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं - - -- मार्गदर्शन तथा सुरक्षा हमें श्री हनुमान जी की देन है । श्री राम का कार्य करने के लिए श्री हनुमान सदैव उत्सुक रहते हैं। विवेक यह है कि जो कुछ भी श्री राम कहते | हैं उसे कर देते हैं---- श्री राम की सहायता जब आप लेते हैं तो श्री हनुमान जी ही आपको बताते हैं कि हनुमान सर्वशक्तिमान परमात्मा या श्री राम जैसे के अतिरिक्त आपको किसी के प्रति समर्पित नहीं होना। तब आप एक गुरु स्वतन्त्र पक्षी होते हैं और पूरी नौ शक्तियाँ आपमें जागृत हो जाती हैं। आपके अहं के साथ-साथ बहुत सी अन्य बुराइयों का भी श्री हनुमान प्रतिकार करते हैं। यह तथ्य लंकादहन कर रावण की खिल्ली उड़ाने में अत्यन्त मधुरता से प्रकट हो जाता है। अहंकारी लोगों से आपकी रक्षा करना---श्री हनुमान का कार्य है। श्री हनुमान का एक अन्य गुण यह है कि वे लोगों को स्वेच्छाचारी बना देते हैं। दो अहंकारी व्यक्तियों को 32 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-32.txt मिलाकर वे उनसे ऐसे हालात पैदा करवा देते हैं कि दोनों नम्र होकर मित्र बन जाते हैं। हमारे अन्तस का हनुमान तत्व हमारे अहं का ध्यान रखने तथा हमें बाल सुलभ, विनोदशील और प्रसन्न बनाने में कार्यरत है। वे सदा नृत्य-भाव में होते हैं। यदि श्री गणेश मेरे पीछे बैठते हैं तो श्री हनुमान मेरे चरणों में। श्री हनुमान जी अहंकारी लोगों तक को समर्पण करना सिखाते हैं, समर्पण के लिए विवश करते हैं, भिन्न प्रकार की बाधाओं, चमत्कारों या विधियों द्वारा वे शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण करवाते हैं। के प्रति व्यक्ति के समर्पण की शक्ति श्री हनुमान जी की है। किस प्रकार से आप गुरु को प्रसन्न कर सकते हैं गुरु और उसका सामीप्य प्राप्त कर सकते हैं? सामीप्य का अर्थ शारीरिक सामीप्य नहीं। इसका अर्थ है एक प्रकार का तदात्म्य, एक प्रकार की समझ । मुझसे दूर रहकर भी सहजयोगी अपने हृदय में मेरा अनुभव कर सकते हैं। यह शक्ति हमें श्री हनुमान जी से प्राप्त करनी है। सभी देवताओं की रक्षा श्री हनुमान जी वैसे ही करते हैं जैसे वे आपकी रक्षा करते हैं। श्री गणेश जी शक्ति प्रदान करते हैं पर रक्षा क्षी हनुमान जी करते हैं। श्री हनुमान (देवदूत 'गैब्रील') रक्षक थे। संदेशवाहक गैब्रील और उन्होंने 'इमैक्यूलेट साल्वे' अर्थात 'निर्मल साल्वे' शब्द का प्रयोग किया जो कि मेरा नाम है। जीवन पर्यन्त मारिया को श्री हनुमान की सेवा स्वीकार करनी पड़ी । मारिया महालक्ष्मी हैं। जो भी योजना मेरे मस्तिष्क में बनती है श्री हनुमान जी उसे कर डालते हैं क्योंकि पूरी संस्था भली - भाँति संयोजित है-----कई घटनायें जिन्हें आप चमत्कार कहते हैं श्री हनुमान जी द्वारा की हुई होती हैं। चमत्कार करने वाले वे ही हैं। श्री हनुमान जी हमारी उतावली, जल्दबाजी तथा आक्रमणशीलता को ठीक करते हैं । श्री हनुमान मूसलाधार बारिश और वेगवान तूफान की तरह जाकर विनाश कर देते हैं। अपनी विद्युत चुम्बकीय शक्ति द्वारा वे ये सारे कार्य करते हैं। भौतिक तत्व उनके नियन्त्रण में हैं, वे वर्षा, धूप और हवा की सृजन आपके लिए करते हैं। पूजा या मिलन के लिए वे उचित प्रबन्ध करते हैं। बिना किसी के जाने वे सारे कार्य कर डालते हैं। हमें हर समय उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए । ..श्री हनुमान एक तेजस्वी देवद्त हैं, वे सन्यासी या त्यागी नहीं हैं। सुन्दरता तथा सज्जा उन्हें बहुत प्रिय है। . वे एक सनातन शिशू हैं और वो भी एक बन्दर बालक। प.पू.श्री माताजी, फ्रैंकफर्ट, जर्मनी, ३१.८.१९९० 33 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-33.txt जी के बारे में क्या कहें, वे जितने शक्तिवान थे, जितने थे .श्री हनुमान गुणवान उतने ही वे श्रद्धामय और भक्तिमय थे। .....श्री हनुमान जी एक विशेष देवता हैं, एक विशेष गुणधारी देवता, जितने वे बलवान थे उतना ही उनकी शक्ति भक्ति थी। ये सन्तुलन उन्होंने किस प्रकार पाया और उसमें कैसे रहे, एक यही समझने की बात है। उनके अन्दर नवधा दैवी शक्तियाँ थीं। गरिमा-चाहे जितने बड़े हो सकते थे , अणिमा- छोटे बिल्कुल सूक्ष्म हो सकते थे । उनके शरीर का अंग अंग उसी से ( शक्ति और भक्ति से) भरा रहता है। उनकी इसी विशेषता के कारण आज हम बजरंग बली की देश विदेश में भी अर्चना करते हैं । भक्ति और शक्ति दो अलग चीज़े नहीं हैं। एक ही हैं। हम ये कहेंगे कि गर Right Hand में शक्ति है तो Left Hand में भक्ति। ये शक्ति-भक्ति का संगम, ये हनुमान जी में बहुत है। दूसरी उनकी विशेष बात ये है कि वे अर्ध-मनुष्य थे, अर्ध-बन्दर, माने पशु और मानव का बड़ा अच्छा मिश्रण था। तो हमारे अन्दर जो कुछ भी हमने अपनी उत्क्रान्ति में अपने Evolution में पीछे छोड़ा है उसमें भी जो प्रेम और उसमें जो भी आसक्ति थी वो उन्होंने अपने साथ ले ली थी। हो, जो दूसरों को सताता है, जो श्री हनुमान जी प्रेम के सागर हैं और उसी वक्त जो दुष्ट दूसरों को नष्ट करता हो, उसका वध करने में उनको बिल्कुल किसी तरह का संकोच नहीं होता था। श्री हनुमान पूजा - १९९९ 34 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-34.txt २० म] .....आप सब मेरे बच्चे हैं, मेरे बेटे-बेटियाँ हैं। यह सब श्री गणेश की तरह से हैं । हमसब पैगम्बरों की तरहसे हैं। "क्या हमारे अन्द२ पैगम्बरों की शक्तियाँ हैं ?" " श्री माताजी, क्या हम वास्तव में २साक्षात्कारी लोग हैं?" 66 क्या हम मानव सयती का२सारतत्व है?" क्या हम लोग परमात्मा की कृपी का निष्कर्ष हैं?" 66 ये प्रश्न पूछे और यह शक्तियाँ अपने अन्दर विकसित करें । पं.पू.श्री माताजी, १४.१.१९८३ प्रकाशक * निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in 2013_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-35.txt ाम २प्तमी और नवमी दो दिन विशेषकर आपके ऊपर हमारा आशीर्वाद २हती है। स्मी और नवमी के दिन ज़र०२ ऐस आयोजन करनी जिसमें pं पूरा ध्यान मूहिक ध्यान उसी जगह करना जहाँ मेर पै२ पड़ हुआ है , जौ चीज़ करें। आप अपनी शुद्ध हो चुकी है। प.पू.श्रीमाताजी, २७.९.१९७६ प्. এय श० प ०