चैतन्य लहरी हिन्दी जुलाई-अगस्त २०१३ पर 2० इस अंक में साकार निराकार का भेद ...४ विशुद्धि चक्र ... २२ या सकार निरका२ का भेद दिल्ली, ३०.०१.१९८३ GoraDA परमात्मा के बारे में अगर कोई भी बात करता है इस आज कल की दुनिया में तो लोग सोचते हैं कि एक मनोरंजन का साधन है। इससे सिर्फ मनोरंजन हो सकता है। परमात्मा के नाम की कोई चीज़ तो हो ही नहीं सकती है सिर्फ मनोरंजन मात्र के लिए ठीक है। अब बूढ़़े हो गये हमारे दादा-दादी तो ठीक है, मंदिर में जाकर के बैठते हैं और अपना समय बिताने का एक अच्छा तरीका है, घर में बैठ कर बह को सताने से अच्छा है कि मंदिरो में बैठे। इससे ज़्यादा मंदिर का कोई अर्थ अपने यहाँ आजकल के जमाने में नहीं लगाये। ये जो मंदिर में भगवान बैठे हैं इनका भी उपयोग यही लोग समझते हैं कि इनको जा कर अपना दुखड़ा बतायें, ये तकलीफ है, वो तकलीफ है और वो सब ठीक हो जाना चाहिए। लेकिन ये मंदिर क्या हैं? इसके अन्दर बैठे भगवान क्या हैं? उनका हमारा क्या संबंध है और उनसे कैसे जोड़ना चाहिए संबंध? आदि चीज़ों के बारे में अभी भी बहुत काफी गुप्त हैं। अब ये बातें अनादि काल से होती आयीं हैं। आपको मालूम है कि इंद्र तक को आत्मसाक्षात्कार देना पड़ा, जो अनादि है। करते-करते ये बातें जब छठी सदी में, सबसे बड़े हिंदू धर्म के प्रवर्तक, आदि शंकराचार्य संसार में आयें तब उन्होंने खुली तौर से बातचीत शुरू कर दी । नहीं तो अपने यहाँ एक भक्तिमार्ग था और एक वेदों का तरीका था, जैसे कि गायत्री मंत्र आदि। जब जब कभी भक्ति में लोग बिल्कुल बेकार चले जाते थे तो चित्त खींचने के लिए ऐसे लोग आते थे कि जो कहते थे कि, 'छोड़िये मत' और अपना चित्त हटा कर के और निराकार में ले जाते थे क्योंकि साकार बहकते थे तो उनसे कहते थे कि बाबा निराकार में में तो कुछ बचा ही नहीं था और जब निराकार में बहुत कुछ फायदा नहीं होता है तो चलो साकार में चलें। लेकिन वो इधर से उधर, जैसे कोई पेंड्युलम चलता है वैसे था उनका हाल और इसीलिये इन दोनो चीज़ों से आदमी ये समझ गया कि इसमें भक्ति भी है और निराकार भी। ॐ कार भी है और कृष्ण भी है । उसके बगैर हिसाब-किताब बन नहीं सकता। सहजयोग में आप दोनों के दर्शन पाओगे। ब्रह्म के भी दर्शन पाते हैं। और इन सब देवताओं के भी दर्शन पाते हैं। ब्रह्म की शक्ति जो है ये परमात्मा के प्रेम की शक्ति है जो चारों तरफ विचरण करती है। और जितने भी जीवित कार्य इस संसार के हैं जैसे कि उनको सफल बनाना आदि । जितने भी जीवित कार्य है वो करती है। हमारे अन्दर भी वो कार्य करती है, जिसे हम पैरासिम्पथेटिक नव्वस सिस्टम कहते हैं। उसमें वो विचरण कर के और सधक करती है। ये तो ब्रह्म की शक्ति है और इस शक्ति को जानने के लिए हमारे अन्दर जो यंत्रणा परमात्मा ने की है, जो व्यवस्था परमात्मा ने की है वो बहुत कमाल की है और इस यंत्रणा को करने के लिए उन्होंने हमारे उत्क्रान्ति में हमारे शरीर ही के अन्दर अलग-अलग देवतायें बिठाये हैं। सबसे पहले तो श्रीगणेश बना है। श्रीगणेश पवित्रता हैं। सारे संसार को पहले पवित्रता से भर दिया। निराकार में गये तो वो पवित्रता से भर दिये और साकार में गये तो वो श्रीगणेश का है। जैसे ये अब आप देख रहें हैं जो जल रही है, इसका प्रकाश चारों तरफ है लेकिन इसकी ज्योत भी है और प्रकाश भी है। इसी प्रकार जो सबसे पहले चीज़ बनी है वो श्रीगणेश बना है। जिनका प्रकाश चारों तरफ फैला हुआ है। अब किसीने अगर श्री 6. गणेश जी को पकड़ लिया तो भी गलत हो गया और प्रकाश को पकड़ लिया तो वो भी गलत हो गया। क्योंकि जैसे मैंने पहले मर्तबा बताया था कि पहले तो उन्होंने बात की कि कौनसे कौनसे फूल हैं और फूल के अन्दर शहद है। तो लोग फूलों को चिपक गये कि 'फूलों को खोजो, फूलों को खोजो' बकना शुरू हो गया सब का। मतलब जबानी जमा करते थे शब्द जालम। बस बातें करना शुरू कर दी। तो उन्होंने कहा | कि भाई, देखो ये फूल खोजने वाले जो हैं वो सब पगला गये हैं। फूलों की पूजा, फूलों के पीछे दौड़ना। और शहद की बात ही नहीं करते। तो फिर उन्होंने कहा कि चलो भाई , शहद की बात शुरू करें। सब कितने बड़े-बड़े हो गये हैं वो हमारी भलाई के लिए ही एक में से निकाल के दूसरे में, दूसरे में से निकाल के इसमें ऐसा करके किसी तरह से अकल डाल दी। कभी निराकार की बात करो अलख निरंजन की बात हुई। वो बातें उन्होंने शुरू कर दी। पर वो भी बातचीत हो गयी। शहद की भी बात करो, प्रभु की भी बात करो, तो मधु पाईयेगा कैसे? तो क्या होना चाहिए? आपको मधुकर होना चाहिए। आपको स्वयं बदलना पड़ेगा। आपमें आत्मसाक्षात्कार होना चाहिए। ये सब धर्मों में कहा गया है। जो कि अदल-बदल करने से थोड़ा दिमाग आदमी का ठनकता है। सोचता है कि चलो ये गलत चीज़ थी दूसरी चीज़ पकड़ लें। लेकिन सबने एक ही बात कही चाहे कितना भी अदलो-बदलो लेकिन एक चीज़ है कि आपका आत्मसाक्षात्कार होना चाहिए। किसने नहीं कहा! इसामसीह ने कहा, कि तुम्हारा फिर से जनम होना चाहिए । हिंदू धर्म में तो बिल्कुल ही मानी हुई चीज़ है कि द्विज, जिसका दूसरा जनम होता है वही ब्राह्मण होता है, वही ब्रह्म को जानता है, यही साफ-साफ कहा हुआ है। ठीक है कि उसके तौर-तरिके गलत लगाने से तो नहीं, पर सही बात में तो यही कहा गया है। नानक साहब ने कहा कि, अपने में खोजो। अपने को पहचाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। 'आत्मा को पाओ' उन्होंने यही कहा। अब सबने यही रट लगा के रखी है। कि भाई, आत्मा को पाओ, दूसरी जनम करो । ईसामसीह ने कही वही बात। मोहम्मद साहब ने कहा है कि आपको 'फील' होना पड़ेगा। सबने जब एक ही बात कही है तो उधर ध्यान देना चाहिए कि सबने इसका अंतिम लक्ष्य एक ही बताया कि कितने भी चक्कर काटो लेकिन पहुँचना वहाँ। और उसका दिमागी जमा- खर्च बना रखा है सबने । उससे नहीं मिलने वाला। आदि शंकराचार्य जी ने भी यही कहा कि बाबा, दिमागी जमा-खर्च मत करो। अब सहजयोग में तो हम ये मानते हैं कि बुद्धदेव, जिन्होंने निराकार की बात की थी जिन्होंने ईश्वर की बात ही नहीं करी क्योंकि उन्होंने सोचा कि ईश्वर की बात करो तो यूँ ऊपर टंग जाती है। ये फिर अपनी सोचते नहीं है। ईश्वर की बात करो तो समझ लो कि सब अपने को ईश्वर समझने लग जाते हैं। बहुत लोग, जो सोचते हैं कि हम बिल्कुल निराकार हो गये। बहत से लोग सोचते हैं कि हम ईश्वर हो गये। इन्सान का दिमाग ऐसा है कि किसीसे चिपका तो वही हो जाये । और जो असल में जो अंतस में है, आत्मा से वो नहीं होता। तो इस तरह से जब चलने लगता है, इन्सान का स्वभाव अगर इससे चिपक जाए, उससे 7 चिपक जाए, तो बुद्ध ने भी क्या कहा कि ईश्वर की बात ही नहीं करो तो अच्छा है। नहीं तो ये ईश्वर को जेब में डाल लेते हैं। और जब जरूरत है तो जेब से निकाला, 'ईश्वर , देख ये मेरा काम करना पड़ेगा !' अब वो कौन सा ईश्वर है भगवान जाने ! जब अपने एक जनम में उन्होंने ईश्वर की बात नहीं की और उन्होंने कहा कि बस, चलो निराकार हो जाओ, छोड़ दो, बस आत्मसाक्षात्कार हो जाओ, उसका अब एक तमाशा बुद्धओं ने बना डाला। तो वही आदि शंकराचार्य करके फिर इस संसार में आयें। उन्होंने कहा कि, 'भाई, अब माँ की सेवा करो। इसके सिवाय कोई इलाज नहीं है। माँ की सेवा से ही पाओगे।' क्योंकि बोलना तो था कहीं आधे ही रह गया हो फिछली बार, पता नहीं। जितनी उन्होंने ईश्वर की बात शुरू कर दी, भी उनको भी लोगों ने सता दिया। यहाँ तक कि उनकी माँ मर गयी तो उनसे कहने लगे कि, 'तुम जला नहीं सकते।' तो केले के पत्ते से उन्होंने जलाया अपनी माँ को। इस तरह एक से एक अकलमंदी लोगों ने उनको सताया। अब तो दुनिया बदली नजर आती है कि मेरे साथ ऐसी ज़्यादती कोई नहीं की। एक दो जरूर बिगड़ते हैं। लेकिन इतनी ज़्यादती किसी ने नहीं की कि मुझे मारने को दौड़े। ऐसा नहीं है। क्योंकि यही उन सब महानुभावों का उपकार मैं मानती हूँ, जिन्होंने आपको अदल-बदल कराके समझा दिया कि ये नहीं, ये नहीं, ये नहीं। ये नहीं, ये नहीं तो फिर क्या? जब नहीं, नहीं करने पे आ जाएंगे तब बराबर आप चीज़ को पकड़ लेंगे। इसीलिये उन्होंने आपको बताया कि पहले साकार से निराकार, निराकार से साकार चले जायें । जब आदमी थक जाएगा इससे लड़ते-लड़ते तब वो रूक जाएगा और सोचेगा कि इन सब में है क्या? तो निराकार में आपसे मैंने बताया कि सारी ये ब्रह्मशक्ति के चारों तरफ फैली हुई है और साकार में आप और आपके अंदर हर उत्थान के समय पर एक-एक देवता बिठाये हुये हैं। जब आप कार्बन बन के इस संसार में आयें तब श्रीगणेश बिठाये गये। कार्बन की भी चार वेलेन्सी होती है, बीचोबीच बैठे रहते हैं । कार्बन के बगैर प्राण-संसार में प्राण ही नहीं बनता। ये पहली चीज़ कार्बन बनायी गयी। और श्रीगणेश, पहले इन्होंने यही बात कही। इसीलिये कहते हैं कि श्रीगणेश भूमी तत्त्व से बने हैं। और ये पहले बिठाये थे जो पवित्रता के लक्षण है। कौनसे भी धर्म में ये नहीं कहा है कि तुम अपवित्र रहने से धार्मिक हो जाओगे । आज कल के गुरुओं की बात छोड़ दीजिए। इनसे तो भगवान ही बचायें! सब उल्टी बाते समझाते हैं। कोई से भी धर्म में ऐसा नहीं बताया है कि गन्दे कर्म कर के आप परमात्मा को पाईये। लेकिन हम लोग जो हैं कभी इस चीज़ को देखें कि सब धर्म में एक ही बात कही गयी है और सब ने माना कि पवित्रता जीवन का सबसे बड़ा स्थिर भाव है। उसको पकड़ना चाहिए। तब के लिए मानना पड़ता है कि श्रीगणेश को परमात्मा ने सबसे पहले स्थापित किया। वो क्यों कर रहे हैं? ये उसका , आप समझ सकते हैं, जिसे कि हमारे यहाँ कहा जाता है कि इंडिकेशन, उसका इंडिकेशन है और उसके प्रतीक रूप, उसका प्रतीक, प्रतीक, गणेश जी जो आयें, वो पवित्रता के प्रतीक स्वरूप हैं। इनोसेन्स! अबोधिता ! भोलापन! जो शंकर जी का भोलापन है वो उन्होंने अपने बेटे में खूब डाला। और भोला जो आदमी होता है वो सबसे ज़्यादा शक्तिशाली, सबसे शक्तिशाली भगवान जो है वो श्रीगणेश माने जाते हैं। माने सबसे ज़्यादा शक्तिशाली इन्सान वो होता है जो सबसे भोला होता है। और आज कल तो लोग मानते भी नहीं कि भोलापन कोई चीज़ भी होती है । तो पहले चक्र पे उन्होंने श्रीगणेश जी को बिठाया। अब नानक साहब ने या कबीर दास ने सबने ही गुरू ग्रंथसाहब में भी नामदेव आदि ये माना है कि अपने अन्दर कुंडलिनी नाम की शक्ति होती है। और लोगों के बहुत से अंदाजे हैं, ये लोग तो विठ्ूल को माना करते थे | तो ये समझ लेना चाहिए कि उन सब लोगों ने परमात्मा को दो स्वरूप में देखा था, साकार और निराकार। किसीने निराकार की ज्यादा बात की और किसीने साकार की, जैसा समय था। तो पहले चक्र पे श्रीगणेश को बिठा दिया। जिसका मतलब, अपना जो पहला चक्र जो है वो पवित्रता का चक्र है। अगर आप समझना चाहे निराकार से तो आप समझ लीजिए पवित्रता और अगर साकार से समझना चाहे तो श्रीगणेश । इस चक्र से ऊपर कुंडलिनी का स्थान है ये समझने की बात है, ये बहुत बड़ी बात है। इसके ऊपर में कुंडलिनी रहती है नीचे में नहीं रहती है, इस चक्र में । क्योंकि पवित्रता- श्रीगणेश जो हैं ये अपनी माँ-कुंडलिनी, जो गौरी है, जो कन्या स्वरूपिणी पवित्र है उसको सम्भालते हैं | उनकी लज्जा-रक्षा करते हैं। और नीचे बैठे हये सबको देखते रहते हैं। और जो कुछ हम करते हैं उसका सारा इन्फर्मेशन, उसकी सारी मालूमात अपने कुंडलिनी तक पहुँचा देते हैं। जो कि ऐसी बैठी हुई हैं कि जैसे कोई टेपरिकार्डर हो और वो सब चीज़ टेप करता हो । अब ये कुंडलिनी क्या चीज़ है? ये आदिइच्छा हैं। परमात्मा की आदिइच्छा! परमात्मा की सर्वप्रथम इच्छा ये हुई कि 'मैंने सृष्टि बनायी और ये सृष्टि मुझे जानें। ये मुझे पहचानें। मुझसे एकाकार हो। ये उनकी आदिइच्छा है। और वही इच्छा जो थी जिसे हम लोग आदिशक्ति के नाम से जानते हैं। जिसे कि अंग्रेजी लोग होली घोस्ट कहते हैं और जिसे कि वेदों में भी ने कहा गया है और जिसे नानक साहब भी दैवी माँ कहकर बतलाया है। ये जो प्रथम इच्छा थी यही साकार रूप होकर उन्होंने सृष्टि की रचना की और श्रीगणेश को बना कर बिठा दिया, जो गौरी स्वरूपा, हमारे अन्दर कुंडलिनी, जिसको कि वर्जिन, जिसको कहते हैं; कन्या स्वरूपिणी हैं, अत्यंत पवित्र। और एक ही शुद्ध इच्छा है मनुष्य के अन्दर बाकी सब विकृति। एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी सब अशुद्ध है। माने एक ही वर्जिन इच्छा है। वर्जिन माने, जिसने, जैसे वर्जिन लैण्ड का मतलब जिसने अभी इस्तमाल ही नहीं किया। जिस जमीन को अभी तक हमने खोदा भी नहीं उसे वर्जिन लैण्ड कहते हैं । तो ये जो कन्या स्वरूपिणी, अत्यंत पवित्र इच्छा हमारे अन्दर है वो एक ही है और वो ये कि हम उस परमात्मा | ये को जानें जिसने हमें बनाया है। आत्मसाक्षात्कार हो कर हम उस परमात्मा को जान लें, शुद्ध इच्छा हमारे अन्दर, कुंडलिनी स्वरूपिणी बैठी है। क्योंकि वो अभी तक कार्यान्वित नहीं हुई है इसीलिये इस | 9. कुंडलिनी की अवस्था को सुप्तावस्था कहते हैं। माने सोई हई है। जिस वख्त ये कार्यान्वित हो जाएगी तब कह सकते हैं कि इसका उत्थान हो गया या इसका अंकुर खुल गया। जैसे कि बी के अन्दर का अंकुर। अब बहुत सारे लोगों ने बड़ी ज़्यादती करी। और उल्टी बातें शुरू कर दी। ये छठी शताब्दी के बाद ही हमारे देश में बहुत गन्दे लोग पैदा हये हैं। और जिनको हम तांत्रिकों के नाम से जानते हैं। एक माँ के हृदय के कारण हम पूरी तरह से किसी को बूरा नहीं कह सकते। थोड़ा सा हिस्सा खींच ही जाता है । और इसीलिये कि उससे ये है कि जब वो शायद ही इस सबसे सर्वप्रथम चक्र जिससे कि हमारी सब उत्सर्जन या जो भी होती है, excretion होता है, उसकी ओर नज़र कर रहे थे तो उन्होंने सिर्फ गणेशजी की सूँड देखी होगी और सोच लिया हो कि कुंडलिनी इस मूलाधार चक्र में है । पर कुंडलिनी तो मूलाधार में बैठी है । वो मूलाधार में है और ये मूलाधार चक्र है। ये अंतर है। और यही चक्र बाहर है। बाकी सब चक्र जो है रीढ़ के हड्डी के अंदर या तो मस्तिष्क में, इस हड्डिओं के खोखले में है। और यही एक चक्र बाहर है और ये चक्र जो है ये हमारे अंदर जिसे हम पेल्विक प्लेक्सेस कहते हैं उसको चलायमान होता है। और इससे ये जान लेना चाहिए कि कुंडलिनी के भेदन में से छ: चक्र आते हैं सात नहीं आते। ये बहत जरूरी बात है। इसका मतलब ये है कि जो उत्सर्ग की क्रियायें हैं, माने जिसमें सेक्स आदि जितना भी आता है, उत्सर्ग होता है, ये सब हमारे उत्थान में कार्यभूत नहीं होते। इनका कोई भी असर नहीं आता। किंतु धर्म का आता है। अधर्म से कियी हुई बाते जो भी हैं वो गलत बैठती हैं। धर्म से उत्सर्जित किई हुई बाते गलत नहीं बैठती। और इसीलिये ये चक्र जो है हमारी पवित्रता को देखता है। और गणेश जी जो हैं वो एक अनंत के बालक हैं, क्योंकि वो अबोध, इनोसन्ट हैं इसीलिये उनको इसका घिनौनापन, या गंदगी और इसकी जो बुराईयाँ हैं वो छूती नहीं, अछूती हैं। वो साक्षात ॐ कार हैं। हीरा किसी जगह भी फैंक दीजिये वो हीरा ही बना रहेगा। वह साक्षात ॐ कार स्वरूप हैं। उसको कोई छू नहीं सकता। और इसीलिये वो वहाँ बैठे हुए हैं। पूर्णतया अपने अंदर बसी हुई जो पवित्रता है उसमें समाये हैं। मनुष्य सोचता है कि , 'माँ, आप ऐसा कहते हैं पर इस दुनिया में इतने अपवित्र लोग हैं उनको कुछ नहीं होता, उनको कोई बीमारी नहीं होती। उनको कोई तकलीफ नहीं होती। और बड़ी शैतानी करते रहते हैं और बड़े सुखी हैं।' ये बात नहीं। हर एक चक्र का अपना-अपना दोष होता है। अब ये चक्र इतना महत्त्वपूर्ण है। जिस आदमी का ये चक्र खराब हो जाता है उसको दूसरे किसी भी चक्र के खराब हो जाने से मलायटिस जैसी गंदी गंदी बीमारी हो सकती हैं। बहत सी कैन्सर की बीमारियाँ भी इसी चक्र के खराब होने से हो सकती है। आपकी शिकायतें भी इससे हो सकती है। बुद्धि की खराबियाँ इसी से आ सकती हैं और नाना प्रकार के विकार इस चक्र के खराब होने से होते हैं। इसीलिये जो लोग कहते हैं कि आदमी की अपवित्रता 10 से कोई फर्क नहीं पड़ता, वो दोनों का कनेक्शन ही नहीं बना, वो जोड़ ही नहीं पाते कि इस वजह से हैं। ये तो जब आप पार हो जाएंगे, जब आप संत जन हो जाएंगे, जब आप में चैतन्य लहरियाँ बहना शुरू हो जाएंगी तब ये निराकार आप से बोलेगा, हाथों में बोलेगा कि देखो, इस आदमी में क्या खराबी है और इसे क्या ठीक करना चाहिए। और आपको आश्चर्य होगा कि जो चक्र ये दिखायेगा वही खराबी उस आदमी में होगी । मोहम्मद साहब ने कहा है कि, जब उत्थान का समय आयेगा, याने ये आज का समय उस समय आपके हाथ बोलेंगे। आपके हाथों पे आप चक्रों को जान कर बता सकेंगे कि इस आदमी में कौन सा दोष है। ये यहाँ पर, यहाँ पर मूलाधार का स्थान है। परमात्मा की असीम कृपा से आप ये योगभूमी में बैठे हैं। बड़े-बड़े संत यहाँ हो गये। उनके चरण इस भूमी को छू चुके हैं। ये बड़ी भारी योग भूमी है । इसका वर्णन कितना भी करे सो कम है। कल मैंने न जाने अपने को कितनी बार रोका कि इसका वर्णन मैं कैसे करूँ! सारे विश्व की कुंडलिनी यहाँ पर बैठी हुई है, महाराष्ट्र में। साढ़ेतीन पीठ हैं। सब लोग कहते हैं कि साढ़े तीन पीठ हैं। अरे साढ़े तीन पीठ हैं माने क्या ? सारे विश्व के ही कुंडलिनी के साढ़े तीन पीठ महाराष्ट्र में हैं। अष्टविनायक महाराष्ट्र में हैं। आठों तरफ से घेर लिया। पवित्रता के इंतजामात कर लिये हैं । अष्टविनायक और साढ़े तीन पीठ। अठाईस देवी के स्थान बनाये हैं। सब पृथ्वी ने इंतजाम यहाँ किये हुये हैं। जो कुंडलिनी में हैं। सारे प्रकार इस देश में जितना है कहीं भी नहीं । हालांकि इंग्लैंड में भी मैंने देखा कि जमीन के अंदर से ऐसे पत्थर आ गये जिनमें से वाइब्रेशन्स आते हैं। स्टोनहेंज कहते हैं उसको। लेकिन उनको कुछ भी समझ में नहीं आता। इनके यहाँ कोई ऐसे पीर हुये नहीं। कोई ऐसे महात्मा, संत हये नहीं जो ये सब कहे। मक्का में भी जो शिव है, मक्का में भी जो पत्थर है उसका भी वर्णन अपने पुराणों में है उसका नाम मक्केश्वर शिव है। आप देख लीजिये पंजा साहब को उन्होंने जो निकाला था वो भी वही चीज़ है । उस जगह से, उस जगह में चैतन्य आता है। अब ये देखिये, अभी हम यहाँ बैठे हुये हैं। ये यहाँ पर चौबीस पच्चीस बिछाईये, ये यहाँ कितने भी सालों पड़ी रहें किसी भी संत को आप बिठाईये तो वो समझ जाएंगे कि इस पर कोई संत-साधु बैठे थे। जो चीज़ जाती है उसी में चैतन्य बहुता है। आपको पिछली मर्तबा छू मैंने बताया था कि मैं काश्मीर गयी थी। यहाँ नहीं कहीं और। तो खटाक मुझे लगा यहाँ कोई बड़ी चैतन्यमय चीज़ है। तो हमने ड्राइवर से कहा कि, 'भाई, गाड़ी रोको यहाँ । पता करो कि यहाँ कोई मंदिर तो नहीं है।' उसने कहा, 'हाँ, माताजी, यहाँ कहाँ मंदिर है? ये तो बिल्कुल आप जंगल में घूम रहे हैं।' तो मैंने 'हो सकता है चार-पाँच मील की दरम्यान कोई न कोई चीज़ होनी चाहिए। अच्छा, मैंने कहा कि कहा, उसी रास्ते से चलते रहो।' तो चलते गये, चलते गये। एक जगह पहुँचे तो कहने लगे कि, 'ये तो सारी मुसलमानों की बस्ती है। यहाँ पर क्या मिलने वाला?' मैंने कहा, 'यहाँ पूछो तो सही।' तो उन्होंने बताया कि यहाँ हजरत इकबाल हैं। एक बाल महम्मद साहब का रखा हुआ है और मैं पाँच मिनट में उसको पकड़ 11 गयी। अब उनको आप कुछ भी कहिये। भला-बुरा कहिये। आपका जो मनचाहे कह सकते हैं। वो भी अपने ही हैं। बिल्कुल अपने। ये समझ लेना चाहिए उनमें और नानक साहब में कोई फर्क नहीं है। चाहे हिंदु- मुसलमान लड़ें, चाहे कुछ करें, गर्दन काटे, उससे फर्क नहीं पड़ने वाला। जो बात सही है, सत्य मैं आपको बता रही हूँ। हम लोग आपस में बेकार ही में लड़ रहे हैं। ये सब बेकार चीज़ है। लड़ने की कोई बात ही नहीं । 6. आज हजारों मुसलमान सहजयोग में आ रहे हैं। क्योंकि उनके आगे ही खड़े हो गये कि अब नहीं चाहिये मुसलमान। और इतना बदल उनमें आ गया कि बाबा, सहजयोग से अच्छा हो गया है, गणेश जी की पूजा कर रहे हैं। और आपको गणेशजी सिखायेंगे कि कैसे गणेशजी का क्या मतलब है। तो सहजयोग में आप समझ सकते हैं कि जो कुछ वास्तविकता है, वो हमारे अंदर है, यथार्थ हमारे अंदर है। इसे समझ लें और दिमागी जमा-खर्च इकठ्ठा कर के, लड़ाई-झगड़ा मत करो बाबा। सब एक ही परमात्मा के अंग-प्रत्यंग हो आप। इस विराट के आप अंग-प्रत्यंग हो। और मोहम्मद साहब ने भी बता दिया कि कान में उँगली डाल कर के जब कहते हैं 'अल्लाह हो अकबर', ये तो मंत्र सहजयोग में हम भी कहते हैं क्योंकि ये उँगलियाँ जो हैं विशुद्धि चक्र की हैं। और कान में उँगली डाल कर आप क्या कह रहे हैं। 'अल्लाह-हो-अकबर', माने क्या ? अल्लाह जो है, परमात्मा जो है, विराट हैं। अकबर माने विराट! अरे भाषा बदल जाने से मतलब थोड़ी बदल जाता है! और इस तरह से आप समझियेगा कि जो चीजें प्रस्थापित, अनेक वर्षों से हुई है, अनादि से हुई हैं वो आज पूर्ण रूप से, सत्य रूप से जब तक प्रकाशित नहीं होंगी तो आपके बच्चे भाग खड़े होंगे और कहेंगे कि 'ऐसे भगवान से बचाओ! हमें नहीं चाहिए।' ये सब दिमागी जमा-खर्च है। आप लोग यूँही कुछ धंधा नहीं तो दिमागी जमा-खर्च जमाओ। इसको आप सिद्ध कर सकते हैं । सो, कुंडलिनी का जागरण जब होता है तो पूरी की पूरी कुंडलिनी नहीं उसका कुछ हिस्सा उठता है बहुत से डोरियाँ बाँध कर के, जैसे समझ लीजिये ऐसी ये कुंडलिनी है, उसकी कुछ ही डोरियाँ सुषुम्ना नाड़ी से बंधी हैं। मध्यभाग, जो बीच में है। और इस नाड़ी से उठते वक्त जो कुछ भी उस में शक्ति भरी जाती है या शक्ति लगती है वो गणेशजी की है। माने आपकी पवित्रता बहुत जरूरी चीज़़ होती है । अगर आदमी कोई पवित्र हो तो एक क्षण में वहाँ से वहाँ पहुँच कर कहाँ से कहाँ चला जाता है। एक साहब को मैं जानती हूँ, बहुत बड़े आदमी हैं वो, वो दो मिनट के अन्दर में पार हो गये। दो मिनट के अन्दर में! मैं हैरान हो गयी कि उनकी कुंडलिनी कैसे जाग्रत हो गयी धड़ाम से! अत्यंत पवित्र आदमी हैं। वो, इसमें कोई शंका नहीं। उनकी तंदरुस्ती वैसे भी अच्छी रहती थी। उनकी कोई रूकावटें और नहीं थी । कोई कॉम्प्लिकेशन नहीं था । एकदम उनकी कुंडलिनी खुल कर के चारों तरफ फैल गयी और उनके हाथ से झरझर, झरझर बहने लगी। ऐसे अनेक लोग हैं। अपने देहातों में, मतलब यहाँ तो मैंने इधर काम नहीं किया 12 देहातों में इतना, लेकिन महाराष्ट्र में देहातों में हज़ारों लोग पार ह्ये हैं, हज़ारों लोग और उनके हाथ से झर- झर-झर कुंडलिनी, चैतन्य लहरियाँ बहने लग गयी। और उनकी सारी गंदी आदतें अपने आप छूट गयी| क्योंकि उनके अन्दर बसा हुआ जो धर्म है वो जागृत हो गयी। अब ये दिन नहीं है कि हम आप से कहें कि ये न करो, वो न करो। और बाह्य को आदमी ज़्यादा पकड़ेगा। अन्दर को नहीं पकड़ता। कुछ न कुछ ऐसा बना दिया बाह्य का कि उसको पकड़ लेंगे। हर एक धर्म में ये देखा मैंने कि बाह्य की चीज़ पकड़ता है, अन्दर की चीज़ जो है उसको नहीं पकड़ता। अब जैसे मुसलमान धर्म में शराब पीना मना है। शराब जरूर पिएंगे और नमाज पाँच मर्तबा जरूर करेंगे। से धर्मों में एकदम से शराब पीना मना है और सही बात है! इस वजह से मना किया गया था बहुत कि ये चीज़ चेतना के विरोध में जाती है। जो चीज़़ चेतना के विरोध में जाती है वो चीज़ को नहीं लेना चाहिए क्योंकि चेतना में ही परमात्मा को पाना चाहिए। मगर किसीसे कहिए कि शराब मत पीजिए तो आधे लोग उठ के चले जाते हैं। इसीलिये मैं कहती हूँ कि नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। बैठे रहो, रहो। पार होने के बाद अपने आप धर्म जागृत हो जाएगा , सब चीज़़ छूट जाएगी मेरे बच्चों की। क्यों उनको अभी से भगाऊं? सब चीज़ छूट छाट जाती है क्योंकि ये जो धर्म हैं हमारे अन्दर, जो ये बैठे बीचोबीच बना है। । इस जगह दस गुरु है। दस गुरुओ के तत्त्व है। वो तत्व-सार वैसे भी हैं और साकार स्वरूप भी। और ये सारे गुरु हमारे अन्दर जागृत हो जाते हैं और इनकी जागृति की वजह से और धर्म हमारे अन्दर जागृत होने से हम अधर्म का काम कर ही नहीं सकते। कर ही नहीं सकते। पचता ही नहीं, हज़म ही नहीं होगा। परेशान हो जाएंगे आप, कोई भी अधर्म की बात होगी तो आप भाग जाएंगे वहाँ से कि बाबा रे बाबा, यहाँ से भाग जाओ। और ये चीज़ अपने आप घटित हो जाती है। थोडी सी, ज़रा सी मेहनत करनी पडती है अपने को जमाने की। लेकिन अपने आप घटित हो जाने से मनुष्य का धर्म जागृत हो जाता है। किसी को कहना नहीं पड़ता कि, 'बेटे तु ये नहीं कर।' क्योंकि ये कहने में आजकल के जमाने में कोई सुनने भी नहीं वाला और एक आफ़त खड़ी हो जाएगी। सबको दादा-पोता कहके कि 'भाई , बैठ जाओ, कोई बात नहीं, ठीक है। शराब पीते हो ना , ठीक है! और भी धंधे हैं , कोई बात नहीं बैठ जाओ । जो भी करते हो कोई हर्ज नहीं बेटे, सब लोग बैठो। पहले पार हो जाओ | फिर बाद में देखते हैं।' तो कोई भी नहीं मानेगा । लेकिन पहले ही शुरू कर दे कि, 'भाई, शराब पीना मना है और फलाना मना है। सिगरेट नहीं पिओ।' तो बुरा लोग बिगड़ेंगे। अब मुसलमान लोगों का ये कहना है कि उनको सिगरेट मना नहीं है। तब सिगरेट थी ही नहीं तो मना क्या करते ? फिर नानक साहब बन कर के आये और कहा, 'भाई, सिगरेट मत पिओ क्योंकि सिगरेट भी निकाली इन्होंने।' अब कल आप लोग अगर गांजा-वांजा पिते हैं तो लोग कहेंगे कि, 'साहब, नानक साहब ने तो नहीं कहा था कि गांजा मत पिओ। तो अभी हम लोग पी सकते हैं गांजा।' तो इस तरह से जो भगेड़ लोग होते हैं उनसे तो भगवान ही बचायें। 13 याने कबीर दासजी, जो इतने पहुँचे हुए थे वो नहीं सोचते होंगे कि लोग कितने गँवार हैं! बिहार में उन्होंने सारा अपना जीवन बिताया। वहाँ इतना उत्थान का कार्य किया और उन्होंने कुंडलिनी को 'सुरति' कहा हुआ है। हर जगह 'सुरति' कुंडलिनी को कहा हुआ है। बिहार में, आपको आश्चर्य होगा कि तम्बाकू को वो सुरति कहते हैं। अकल है या नहीं लोगों के पास एक से एक बढ़िया हैं और क्या कबीरदास जी सोचते होंगे कि, 'किस बेवकूफों से पाला पड़ा कि जिस कुंडलिनी की मैंने बात करी और किसको ये लोग आज कल सुरति कहते हैं।' 14 ॐ३] और हमारे महाराष्ट्र में भी श्रीकृष्ण, जो कि विशुद्धि चक्र पे वास करते हैं। उनका जो मंदिर विठ्ठल का बना हुआ है, जहाँ साक्षात कहते हैं कि विठ्ठल विराजित थे, उस जगह में एक महीने के लिये लोग, साथ में टुकुर-टुकुर बजाते, चलते हैं 'विठ्ठल-विठ्ठल' करते हुए और मुँह में तम्बाकू दबायें और जिससे कि नफरत है बिल्कुल, श्रीकृष्ण को नफरत है, नफरत है बिलकुल। अब वो कैन्सर जब होने लग जाए तब तो वो अपने आप छूट जाती है। और आश्चर्य उससे भी बढ़ के मुझे तब होता है, मैं बचपन से सोचती थी कि इन्सान की खोपड़ी कैसे बैठी है। जब ये देखता है कि कोई शराब खाने में जाकर, वहाँ से लौट रहा है और खूब चढ़ाया हुआ भूत है, तो फिर उसी शराब खाने में क्यों जाता है जब वो होश में है? लेकिन ये आश्चर्य की सब चीजें तो मनुष्य ही में है। परमात्मा का मुझे कोई आश्चर्य नहीं रहता। क्योंकि वो बिल्कुल जो कहते हैं वही करते हैं और जो हैं सो हैं। पर मनुष्य करता एक है, बोलता एक है और कहता दूसरा है। इंटिग्रेशन इसकी वजह ये है कि इन सब चक्रों का समग्रता है, चक्रों में जो समग्रता, चाहिए वो नहीं है। एक चक्र दूसरों से अलग है। धर्म, धर्म के बारे में एखाद आदमी से कहें तो भाषण देने के लिए आ जायेंगे| अभी एक साहब मुझे मिले थे, सोलापूर में । भाषण हुआ, तो कहने लगे, 'माताजी, एक साहब आये थे, बड़े बाबाजी तो वो हमसे कहने लगे कि भाई, अपने देश में इतनी गरीबी है कि लोग भालू भी खाते हैं ।' मैंने कहा कि, 'ऐसा तो मैंने कहीं ० पैसा देखा नहीं कि भालु-वालु खाते होंगे।' 'और ये है, वो है। और तुम अमीर लोग कुछ नहीं देते हो। हमको कुछ पैसा दो तो हम इनका भला करें।' उन्होंने अपना हिसाब बनाया। और कहने लगे कि वो जाते वख्त इंपोर्टेड गाड़ी में गये। कुछ समझ में नहीं आया । तो मैंने कहा, 'यही तो खासियत है। तुम लोग पैसा भी ऐसे आदमी को दोगे जो ऐसे किस्से सुनायेगा ००१ तुम्हारे सामने कि आहाहा.. जैसे कि बड़े परमात्मा बन बैठे। और उसको कुछ है परवाह ? वो तो अपने रूपये बनाने के लिए आया है। अरे, इस देश में ऐसे-ऐसे महादुष्ट हैं। एक साहब ने तो छ: हजार कोट रूपया कमाया हुआ है। छः हजार कोटि! ये धंधे! तो हम लोग उसको किसलिये दिये थे । बेवकूफ लोग होंगे तभी तो ना! लेकिन इतने बेवकूफ एकसाथ पैदा हो जाए तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दो-चार हो तो ठीक है। और इसी प्रकार के लोग, लोग को भाते हैं । जब तक आपके अंदर सहजयोग जागृत नहीं होगा तब तक आप कैसे जानियेगा कि कौन असल और कौन नकल। किस में असलियत है और किस में नकलियत ! जब तक हाथ 15 में चैतन्य लहरियाँ नहीं बहेंगी तब तक आप कैसे कहेंगे कि कौन सच्चा और कौन झूठा! आपकी अपनी ही शक्ति अभी तक जागृत नहीं है। आपके अन्दर अभी अपना ही दीपक नहीं है। इस अंधेरे में आप किस चीज़ से लड़खड़ा रहे हैं आप जानते ही नहीं। इसीलिये आत्मा का साक्षात्कार सबसे पहले होना चाहिए। फिर सब के बातें होंगी। पहले उसका साक्षात्कार ले लो। इस अंधेरे से पहले जागो। फिर सब अंधेरे अपने अन्दर दिखायी देंगे। अपने अन्दर की ठोकरें दिखायी देंगी। अपने अन्दर की गलतियाँ दिखायी देंगी। और तुम्हारा आत्मा ही तुम्हारा गुरु है। वो ही गुरु, जिसको कि अनंत काल से गुरुओं ने पाला-पोसा, बड़ा किया, जिसकी बात की थी, वही गुरु तुम्हारे अन्दर है। वही तुमको सिखायेगा कि, 'देखिये, ये आप नहीं हैं। ये कुछ और चीज़ है। इसको छोड़ो, उसको छोड़ो।' उस आत्मा को जागृत करना चाहिए, किसी भी धर्म को आप अभी मानते हैं, ये तो मानना सिर्फ एक दिमागी जमा-खर्च है। आत्मा के धन को फिर आप मानिये। वही असल धर्म है। बाकी सारे धर्म एक प्रकार से झुठला गये, झुठला गये। उसकी शुरूआत सच्चाई की थी। बड़े-बड़े महान लोग संसार में आयें। जैसे कि एक पेड़ पर अनेक फूल अनेक बार खिलते हैं। बाद में आप लोगों ने उनको तोड़-ताड़ के अपना, मेरा बना कर के उनका सारा सत्व ही खत्म कर दिया। इसीलिये उनका कोई दोष नहीं और धर्म का भी कोई दोष नहीं। ये तो आप लोगों की हरकतें हैं। जिससे ये सब खराब हो जा रहा है। अब आपको जगाने का एक ही तरीका मेंने सोचा है कि पहले आपका आत्मा ही जगा दें, फिर उसके बाद दूसरी बातचीत। कैसा भी हो, कैसा भी आदमी कुछ भी हो। 'चलिये, आईये, पहले पार हो जाईये। पहले पार हो जाईये।' पार होने के बाद फिर हम देखेंगे। पुनर्जन्म के बगैर आदमी समझ ही नहीं सकता इस बात को। सारी बात जो है जबानी जमा-खर्च हो जाती है और धर्म भी एक जबानी जमा-खर्च होता है। जब ये धर्म जागृत हो जाता है तो ये जो लोग यहाँ बैठे हये विदेशी हैं, इन्होंने जितने भी धंधे किये हैं, इसे हम लोगों के, कितनी भी कोशिश करने से भी हम लोग तो कर ही नहीं सकते, क्योंकि ये लोग तो धर्म को सोचते हैं कि, ये गलत चीज़ है, इसको वो मानते ही नहीं इसलिये उसे छोड़ना ही नहीं पड़ा। इनके फ्रॉइड साहब एक गुरु थे, उन्होंने ऐसे ही सिखाया। माँ, बहन मानना पाप है, ऐसे ही इनको सिखाया गया और ये उसको ही सत्य मान के उस पे चले ह्ये लोग हैं बिचारे! और ये सब को छोड़-छाड़ कर के कमल के जैसे ऊपर खिल उठे। एकदम बदल गये। इनकी जिंदगी बदल गयी। इतने खूबसूरत हो गये हैं ये। लेकिन हिंदुस्तानी बड़ी मुश्किल से छोड़ता है। उससे चिपक जाता है। क्योंकि अनादि काल से ये चीज़ चली आयी है। अच्छी चीज़ चिपकी रह जाये, ये बहत सुंदर होता है, लेकिन बूरी चीजें ज़्यादा चिपक जाती हैं। इससे छूटती कम है। पर धीरे-धीरे छोड़ना ही पड़ता है क्योंकि गर आपने नहीं छोड़ा तो आपके वाइब्रेशन्स छूट जाएंगे। आप स्थापित नहीं हो सकते। अब आपके अन्दर एक और तीसरा चक्र है , जो कि वास्तव में दूसरा माना जाता है। इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। ये चक्र जो है ये आपको ब्रह्मदेव की शक्ति देता है। जिसकी वजह से मनुष्य विचार करता है। 16 आगे की सोचता है। कोई चीज़ बनाता है। जैसे कि एक आपने फर्निचर बना लिया। एक पेड़ टूट गया। तुमने सोचा, चलो, फर्निचर बना लें। तो पहले मेरे ख्याल से बहुत बूढ़े लोगों के लिये बनाये होंगे फर्निचर जो जमीन पर नहीं बैठ सकते थे, करते-करते जवानों ने कहा कि हम भी फर्निचर बनवाये। करते-करते फर्निचर बैठ गया सर पे, अब वे जमीन पे नहीं बैठ सकते। कुर्सी ले के चलना पड़ता है। ये जो शक्ति है इसे मनुष्य क्रिएट करता है। सर्जन करता है। और इस सर्जन शक्ति को हम जब बहुत ज़्यादा इस्तमाल करते हैं, जरूरत से ज़्यादा तब एक ही शक्ति को इस्तमाल करने की वजह से और जितने भी चक्र हैं उनसे हमारा संबंध टूट जाता है। एकाकी जीवन जिसका होता है उसके साथ ऐसी ज़्यादती होती है। और जब ये संबंध उस संपूर्णता से टूट जाता है तब हम अपने तरीके से चलने लग जाते हैं। ऑन माय ओन! और इसी को हम कह सकते हैं कि इन्सान जो है वो कैन्सर की बीमारी का शिकार हो सकता है। उसको शरीर का कैन्सर नहीं होगा तो मन का भी हो सकता है। जितने भी अहंकारी लोग होते हैं उनको मन का कैन्सर होता है। वो सोचते हैं कि 'मुझसे बढ़ कर दुनिया में कोई नहीं।' और वो जिसको छूते हैं वो भी यही सोचने लगता है। वो किसी के घर में पाँव रखें तो बच्चे भी सोचने लग जाएंगे। उनकी ऐसी कृपा होगी कि जहाँ उन्होंने बात की तो घोड़े, बैल सब उनके जैसे हो जाएंगे । जो अहंकारी मनुष्य होता है वो अहंकार करने लग जाता है। उसको देखते-देखते सब लोग अहंकार करने लग जाते हैं। अब हिटलर इसका एक उदाहरण है जो अहंकार में इतना भर गया। इसने सोचा कि, 'मैं कोई विशेष जीव हूँ।' और वो जिसको भी छूता था वो भी ये ही सोचता था। यहाँ तक कि उन लोगों को मार डाला था । हालत खराब कर दी। किसी के समझ में ही नहीं आया। इतने लाखों लोगों को उसने बेवकूफ बनाया और सब बेवकूफों की तरह उसकी बातें सुनने लग गये। और छोटे-छोटे बच्चों को और औरतों को गैस चैम्बर में मार दिया। उनकी अकल ही नहीं। तो 'मैं बहुत अकलमंद हूँ' ऐसे समझ के जो आदमी चलते हैं उनके लिये हिटलर हैं सामने , दूसरे खोमिनी साहब हैं, ईडयामीन हैं, ऐसे बहुत सारे हैं आपको देखने के लिए । और अहंकार जिस आदमी में होता है, जो कि यहाँ पर दिखाया गया है। आप देखिए, ऊपर में, पीले रंग में जो कि अहंकार है। ये स्वाधिष्ठान चक्र के चलने से होता है। और उसकी शक्ति जो है, उसको ये राइट साइड की सरस्वती की शक्ति जो है उससे मिलता है। अब जिस आदमी के पास सरस्वती की शक्ति आ गयी वो अपने को दुनिया में सबसे होशियार समझता है। और इतना इस्तमाल करता है कि उस इस्तमाल के, जैसे बाय प्रॉडक्ट की तरह से हमारे अन्दर यह अहंकार तैय्यार हो जाता है। जैसे कि एक फैक्टरी खूब चलायी, जिसमें धुआँ होता है उस तरह से हमारे अन्दर अहंकार होता है। और अहंकार का लक्षण क्या है? आपको आश्चर्य होगा बेवकूफी। जो अहंकारी मनुष्य होता है वो अत्यंत बेवकूफ होता है। जिसकी बातें, जिसको कहते हैं 17 एकदम स्टुपिड जैसी होती है। इडिओटिक। बड़ा इडियट होता है। कोई आदमी आपसे कहे, 'मैं फसर्स्ट आया। फर्स्ट से फस्स्ट आ गया। और मैं फलाना हूँ। और मैं यहाँ का राजा हूँ। और ये मंत्रियों से कहना कि भैय्या मैं गरीब हूँ, मुझे माफ करो।' तुम यहाँ क्यों आ गये? हमारे यहाँ आपने पढ़ा होगा कि नारदजी को एक बार अहंकार हो गया। और उन्होंने कितनी बेवकूफी की। और मायानगरी में चले गये और वहाँ बेवकूफ जैसे बंदर बन के और वो दुनिया भर की चीजें करने लगे। ऐसे बेवकूफ लोगों को देख सब दुनिया हँसती है पीठ पिछे। आप देख लीजिये ऐसे अहंकारी लोगों की पीठ पीछे आप तारीफ सुनिये। तो लोग एक बड़ा जोक बना के हँसते हैं कि, 'साहब ये बेवकूफ जो हैं अहंकारी हैं। ये अपने को समझते तो अफलातून हैं। लेकिन है ये अहंकारी' और ये अहंकार जो हैं मनुष्य को बेवकूफी की ओर ले जाता है। और वो बेवकूफ होते जाता है और उसको समझता ही नहीं कि वो बेवकूफ है। अंत में उसका हृदय भी जो है एकदम दब जाता है। उसका हृदय एकदम बद हो जाता है। क्योंकि अहंकार जो है, यहाँ से हृदय चक्र, ब्रह्म चक्र, यहाँ से जो ब्रह्मरंध्र हैं, ये हृदय का पीठ और उसको वो ढ़क लेता है। और जब अहंकार उसको ढ़क लेता है तो हमारा हृदय एकदम ऐसा, और जब ऐसा हृदय हो जाता है मनुष्य का तो वो इस कदर दुष्ट प्रकृति का हो जाता है कि आश्चर्य होता है कि ये कैसे हो गया ! अब परदेश में आप जाईये। पता नहीं हमारे हिंदुस्तानी वहाँ जा कर कैसे रहते हैं। मेरा तो वनवास ही हुआ। लंडन शहर में कहते हैं कि हर हप्ते में दो इन्सान मारे जाते हैं। और वो कौन है, छोटे बच्चे और उनको मारने वाले उनके माँ-बाप हैं। सोचिये, यहाँ कोई सुन भी सकता है ऐसी बात! ये अहंकारी लोगों ने कार्य किया। इनका अहंकार है कि उनको कोई, किसी के प्रति भावना नहीं, न बच्चों के प्रति, न माँ के प्रति, न बाप के प्रति। इस तरह के अहंकार में जब आदमी डूब जाता है तब उनकी बेवकूफियाँ प्रतीत होती हैं उनके भाव से। अपने यहाँ एक से एक राजा- महाराजा हो गये। बड़े -बड़े लोग हो गये, लेकिन कितने नम्र । | शिवाजी महाराज का किस्सा है। ऐसे अपने यहाँ हो गये शिवाजी महाराज जैसे लोग। अब तो ऐसा लगता है कि वो जमाना ही कुछ और था। उनके यहाँ गर रामदास स्वामी आयें, उनके जो गुरु थे, तो उन्होंने आ कर के और बाहर से आवाज लगायी। तो शिवाजी गये। उनके पैर छूोे। उनके पैर पे अपना सर का ताज़ | उतार के रख दिया और कहा कि, 'गुरु महाराज कैसी कृपा हुई!' तो वे कहने लगे कि, 'मैं तो भिक्षा लेने आया।' तो अन्दर जा के चिठ्ठी लिखी। उसमें लिखा कि, 'गुरु महाराज, हमारा जितना भी राज्य है, वो आपके चरणों में है।' और ला कर के एक क्षण में दे दिया। 'ये आप ही का स्वराज्य है। सारा का सारा। आज कल कोई राजा- महाराजा तो संत-साधुओं को तो दरवाजे के बाहर ही खड़ा करते हैं। कोई कहेगा कि, 'भाई, अंदर भी आओ । ?' | 18 एक अगर कोई काम करवाना हो, सरकारी नौकर से, किसी के पास जाईये तो वो दफ्तर में आपको बिठा के रखेगा, के साथ में घंटो तक। 'अरे भाई, एक छोटासा हमारा काम ही है। क्या करियेगा प्यून आप? आप सरकारी अफसर हैं यहाँ। हमारा एक इसका काम है, सहजयोग का। हम तो कुछ पैसा नहीं लेते। आप हमसे इतना सा ले लीजिये।' तो वो कहेंगे, 'चलिये आप, बैठिये वहाँ।' कोई पूछेगा भी नहीं। और यहाँ तो वो साक्षात राजा थे, वो जा कर के उन्होंने अपने सारे राज्य को प्रदान कर दिया। और राज्य को प्रदान कर के और उन्होंने कहा कि, 'अब मैं सब कुछ त्याग चुका हूँ।' तो उन्होंने कहा कि, 'भाई, हम तो साधु आदमी हैं, हम क्या राज्य करेंगे। राज्य तो तुम्ही को करना है सब पर। लेकिन इतनी बात है कि तुमने हमें प्रदान कर दिया है तो प्रतीक रूप से, जो ये हम छाटी पहनते हैं इसका तुम झंडा बना दो।' वही झंडा बना लिया। अब मैं देखती हूँ कि वो झंडा राजकारण में लोग लगा रहे हैं। अरे भाई, वो झंडा तो सन्यासियों का लक्षण है। उसको काहे को छूते हो आप लोग ? छोड़ दो। उसको तो छोडो कम से कम ! इस प्रकार हम लोग सब चीज़ में गड़बड़ी कर रहे हैं। किसी का दिमाग कहीं नहीं चल रहा है। और हम लोग जब इस बेवकूफी में बहते जाते हैं, इस अहंकार में तो ये समझ में ही नहीं आता कि हम कहाँ बह रहे हैं लेकिन अब जो देश में बहुत ज़्यादा बढ़ गया है। और इन्होंने अॅटम बॉम्ब और दुनिया भर के बॉम्ब बना कर के अपने विध्वंस की पूरी व्यवस्था कर दी है। कोई समझता भी नहीं कि, बाप रे बाप! कौनसे राक्षस हमने इकट्ठे कर रखें हैं। और ये हमको खत्म कर देंगे। अगर अमेरिका ने एक बटन दबा दिया तो रशिया खत्म हो गया और रशिया ने दबाया तो ये खतम हो गया। जब मुकाबले पे आ जाता है मामला तब लोगों के खोपड़ी में बात आती है कि भाई, ये क्या हमने ऐसा अॅडव्हान्समेंट कर दिया। क्योंकि हृदय तो रहा नहीं। आत्मा जिस चीज़ में नहीं रहती है, उसका यही हाल होने वाला है। कोई भी चीज़ बगैर आत्मा के आप करिये, चाहे आपका राजकारण हो, चाहे आपका कुछ भी। आत्मा के बगैर कियी हुई सब चीज़ जा के नश्वर ही होगी। और नष्ट होगी और नाशकारी होगी, कभी भी। अब आप लोग भी डेवलपिंग हो गये। मतलब आज- कल आप लोग डेवलपिंग हो रहे हैं, कल आप लोग डेवलप हो जाएंगे तो वही नमना हो जाएगा कि आपके बच्चे इतने नीचे घिर जाएंगे कि आप परेशान हो जाएंगे और बिवि निभायेगी हजबंड का रोल और फिर हो जाएगा झगड़ा और फिर डाइवर्स होंगे और फिर जा कर रहिये ऑर्फनेज और अनाथ आश्रमों में और फिर शराब पीयेगा। बस, यही सब, और कोई धंधा नहीं रहेगा। यही सब का इंतजाम आप लोग सब कर रहे हैं तो आप सबको मुझे बता देना चाहिये कि ये बहुत भयानक है इससे बचना चाहिये। बहुत भयानक है और इससे बचने के लिए आप पहले आत्मा को प्राप्त करिये। फिर चाहे आप अपने को डेवलपिंग करिये या चाहे करिये लेकिन पहले आप अपने आत्मा को पा लीजिए वरना आप यही कुछ सत्यानाशी में फँस जाएंगे। इसलिये जो गलत रस्ता है उसपे मत जाईये, कोई भी वजह हो। अब एक जर्नलिस्ट साहब थे, वो आ गये और बैठ गये और लग गये मुझसे लड़ने। मैंने कहा कि, 'भैय्या, आप 19 क्यों मुझसे लड़ रहे हो? मैंने क्या बिगाड़ा है आपका?' तो कहने लगे कि, 'नहीं माताजी, बात ये है कि आप तो कह रहे हैं कि अब सब ठीक हो जाएगा।' तो मैंने कहा कि, 'हाँ, ये तो बिल्कुल हो जाएगा, अगर 'हम आत्मा जागृत है और अगर धर्म जागृत हो जाये तो सब ठीक होने वाला है।' तो फिर कहने लगे कि, अखबार में क्या लिखेंगे ?' अखबार में तो आप ऐसी बाते छापते हैं कि जब कोई खराबी हो। एरोप्लेन कहीं गिर गया, कहीं पचासों लोग मर गये, पचासो लोगों की हालत, आना-जानी सब छापते हैं तो हम अब और क्या छापें। सारी दूनिया ही इसमें घूम रही है। तो मैंने कहा कि, 'भाई, कभी-कभी आप मनुष्य भी तो होते होंगे, इन्सान भी तो होते होंगे या हमेशा ही जर्नलिस्ट ही रहे ? और जब आप इन्सान होकर सोचने लगेंगे तो समझोगे कि क्या चल रहा है आस-पास, आपके भाई-बहनों के साथ क्या हो रहा है और तुम्हारे मानव की क्या दशा हो रही है इसको खोजो तुम और इधर तुम आओ।' तो कहने लगे कि, 'माँ, ये तो बात है, मेरे घर में ही बड़ी दुर्दशा है। और तुम्हारे समाज में और भी दुर्दशा है, तुम्हारे देश में और भी दुर्दशा है और सारे संसार में दर्दशा है उसको बस ठीक करना है तो अपने आत्मा को पाना है। सबसे कहना है कि अपने आत्मा को पाओ। आत्मा को पाते ही परमात्मा की जो शक्ति हम लोगों से अगोचर है, अलख, निरंजन है वो हमारे अंदर से बहना शुरू हो जाएगी। हम उसके प्रेम और आनंद में बहने लग जाते हैं। बस उसको पाओ। उसको पाये बगैर कुछ भी सुलझने नहीं वाला है। आज अगर ये सारे चक्रों के बारे में बताऊंगी तो मुश्किल हो जाएगी लेकिन आज मैंने ये स्वाधिष्ठान और मूलाधार के बारे में थोड़ासा बताया हुआ है। अब ये गुरु तत्त्व की बात करनी है। अपने अंदर ये गुरु तत्त्व को जागृत कर लेना, ये हमारा प्रथम कर्तव्य है। उस गुरु तत्त्व को जागृत करके और आप अपने ही को प्राप्त करते हैं। आज संसार ऐसे कगार पर खड़ा है कि विध्वंस बाहर से तो है ही लेकिन अंदर से भी बहत है। हर तरह की बीमारियाँ आज सामने आने लगी है, इन बीमारियों का कोई भी इलाज नहीं है। ये जो विध्वंस हमारे अंदर से हो रहा है उधर हमारा कोई भी ध्यान नहीं है। हमारे बाल-बच्चे सारे, जो भी हमारे अपने हैं वो सब सारे खत्म हो रहे हैं। उनको कुछ सबको जोड़ने का एक ही तरीका है कि जो सर्वव्यापी परमात्मा की ब्रह्मशक्ति है उसको प्राप्त करें, परमात्मा के साम्राज्य में जायें, उसमें रम जायें, और ये सिर्फ आत्मसाक्षात्कार से ही घटित हो सकता है। जो कि आप बेच नहीं सकते, खरीद नहीं सकते। ये तो बिल्कुल गलत बात है कि यहाँ के लोग कहते हैं कि बगैर पैसे के कैसे काम हो सकता है। अभी आप ये जो इन्सान बने हुए हैं इस बात का कितना पैसा चढ़ाया है आपने भगवान को? जितने भी मूल्यवान और जरूरी चीज़ें हैं, जीवन के लिये वो सब मुफ्त हैं, इसीलिये हम जीवित हैं। लेकिन जिस तरह से हम लोग हैं, कभी-कभी तो लगता है कि जीवित रहने का भी हमको अधिकार नहीं हैं। लेकिन परमात्मा ने सब मुफ्त ही दे दिया है। उनकी परम करुणा, बड़ा ही अपरंपार है उनका प्यार ! सारे संसार में गहराई है इसीलिये हम लोग, आप चल रहे हैं। सिर्फ उस प्यार को हमारे अंदर बसा कर, उनका प्रकाश सारे संसार में फैलाना है। 20 कुण्डलिनी के बारे में और हमारे प्रोग्राम दस दिन तक हैं। आप लोग जरूर वहाँ उपस्थित हों और मैं बताने वाली हूँ कि कुण्डलिनी चीज़ क्या है? उसका कितना हमारे साथ सनातन सम्बन्ध हैं। और सनातन धर्म की जो विशेषतायें हैं उनको उभारना अत्यंत आवश्यक है और अगर आप सोचते हैं कि एक तरफा चलने से आप कामयाब होंगे तो फिर ये गलत बात है। सब चीज़ परमात्मा की बनाई हुई है और परमात्मा ने ही इन बनी हुई चीज़ों को ठीक रखने के लिये अपने ही स्वरूपों को इस संसार में भेजा हुआ है, उस चीज़ को आप लोग भी मान्य कर लीजिये। अब उसकी मान्यता को ले करके और आत्मसाक्षात्कार को आपको प्राप्त करना है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आपको इस में स्थापित भी होना पडेगा। ये नहीं कि आपने आत्मसाक्षात्कार कर लिया और आप बैठ गये कि, 'हाँ माँ, मैं तो पार हो गया हूँ।' ये पहली चीज़ है कि योग होना और फिर योग की कुशलता प्राप्त करना। और इसकी कुशलता सीखने पर आप प्रवीण हो जाएंगे, आप एकदम इसके मास्टर हो जाएंगे। वो कैसे और क्या इसके लिए आपको यहाँ पर इस मोहल्ले में ही एक सेंटर है, जहाँ आप ये सब जान सकते हैं, समझ सकते हैं और उसमें प्रवेश हो सकते हैं। बहुत आसान है, इसमें छोटे-छोटे बच्चे तक इसमें निष्णात् हो गये हैं। और आज मैं देखती हूँ कि अनेक पहुँचे हुए पुरुष पैदा हो गये हैं, लेकिन आप जानते नहीं हैं कि वे पहुँचे हुए पुरुष हैं। उनको समझने के लिये भी जरुरी है कि आप अपने आत्मा को जान लें, जिसकी वजह से आप उनको भी समझ सकेंगे। सब के लिए अति आवश्यक है कि वो परमात्मा को जानने से पहले अपने आत्मा को जान ले। और आत्मा को जानते ही आप परमात्मा को जान पाएंगे, उससे पहले नहीं जान जाएंगे। इसलिये पहले आप अपने आत्मा को पायें और यही एक इच्छा शुरुआत में रखें। उसी के साथ-साथ परमात्मा क्या चीज़ है ये भी आप समझ जाएंगे। परमात्मा का आप सब को अनन्त आशीर्वाद! 21 वि शु ाव द्ि यह सारी सृष्टि एक लीला है, उनके लिये ये लीला है और जब सहजयोगी पार हो जाते हैं तब उनके लिये भी सारी सृष्टि जो दिखायी देती है, वो एक साक्षी है, इसकी ओर वो साक्षी के स्वरूप से देखते हैं। प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ च क्र এএ विशुद्धि चक्र १. योगेश्वर श्रीकृष्ण श्री विष्णु शक्ति का पूर्ण प्रादुर्भावयुक्त अवतरण श्री कृष्ण रूप में हुआ, इसलिए उन्हें पूर्णावतार कहते हैं। इतना ही नहीं , वे विराट हैं। विराट का अर्थ है महान ; महान भगवान जिसे हम अकबर भी कहते हैं। मुसलमान भी इसे स्वीकार करके कहते हैं 'अल्लाह- हो-अकबर। श्रीकृष्ण का अवतरण सम्पूर्ण रूप में हुआ। जैसे चन्द्रमा की सोलह कलायें हैं, उनकी भी सोलह पंखुड़ियाँ हैं। अत: वह सम्पूर्ण हैं, वह पूर्णिमा हैं - पूर्ण चन्द्रमा। विष्णु के अवतरण के साथ वे पूर्ण थे और यह पूर्णिमा अभिव्यक्ति हुई। राम के अवतरण में जो कुछ भी कमी रह गयी थी इन्होंने उसे किया । दायें हृदय में बारह ही दूर पंखुड़ियाँ हैं, विशुद्धि में सोलह। जिन बातों की ओर लोगों का ध्यान ही नहीं जाता, इन्होंने वह सब दर्शायीं। प.पू.श्री माताजी, २८.४.१९९४ श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जो सत्य पर अडिग थे , वे सत्य में स्थापित थे और जो कुछ भी उन्होंने किया वह सत्य के सिद्धातों के अनुरूप था। हर असत्य चीज को उन्होंने समाप्त करने का प्रयत्न किया और सत्य के माध्यम से स्वयं को स्थापित किया। वे सत्य की प्रतिमूर्ति थे, और उन्होंने इस बात को सिद्ध किया कि किस प्रकार हर चीज़ में सत्य व्यापक हो सकता है। कृष्ण शब्द का उद्भव कृषि शब्द से है। कृषि अर्थात खेती-उन्होंने आध्यात्मिकता के बीज बोए और उसके लिये उन्हें सोचना पड़ा कि हमारी आध्यात्मिक स्थिति क्या है? हमारी आध्यात्मिक भूमि कैसी है ? श्री राम के समय उन्होंने बहुत सारी मर्यादाएं बनायी थीं, पर वे सब मात्र मानसिक बन्धन थे, वैसा करना न तो स्वाभाविक था और न सहज; परिणामस्वरूप लोग अत्यन्त गम्भीर हो गये, वे न तो ज्यादा बातचीत करते थे , न ही हँसते थे और न ही किसी चीज़ का आनन्द लेते थे। अतः श्री कृष्ण ने निर्णय किया कि सर्वप्रथम वो लोगों को बन्धनों से मुक्त करेंगे । प.पू.श्री माताजी, कबेला, ५.९.१९९९ लोगों की गलत धारणाओं को तोड़ने और उनकी शक्ति जागरण की बात बताने के लिये श्रीकृष्ण आए, उन्होंने लीला रची और लोगों को जागृत करने का प्रयास किया। लोगों को सामूहिकता में लाने का प्रयास किया। राधा जी साक्षात महालक्ष्मी थीं, महालक्ष्मी तत्व से ही उत्थान होता है। वे गोपियों की नग्न पीठ पर दृष्टिपात करते कि उनकी कुण्डलिनी जागृत हो जाए, घड़ा फोड़ते थे ताकि जमुना जी का चैतन्यित जल पीठ पर बहे तो जागृति हो जाए। रास सबको नचाकर वे राधा की शक्ति को सबमें संचारित करते थे । मुरली बजाते थे , यह भी एक तरह की कुण्डलिनी है- छ: चक्रों की भाँति बाँसुरी में भी छ: छेद होते हैं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, २८.२.१९९१ श्रीकृष्ण इतने चतुर और ज्ञानगम्य हैं क्योंकि वो बुद्धिरूप हैं, वो विराट हैं। उनका समस्त प्रेम करुणा और सुन्दरता सभी गोप-गोपियों मात्र के लिये थी। राजा के रूप में उनका जीवन समझ से परे और रहस्यपूर्ण रहा 24 लेकिन सहजयोगी समझ सकते हैं। जब वे राजा बने, उन्हें विवाह करना पड़ा। उन्होंने पाँच विवाह किये , वे पाँच विवाह वास्तव में पंचतत्वों के परिणामस्वरूप थे। श्रीकृष्ण के पास सोलह हजार शक्तियाँ थीं, शक्तियों को स्त्रीरूप में अवतरित होना पड़ा, वे सोलह हज़ार राजकुमारियाँ बन गयीं और एक राजा ने उनका हरण कर लिया और जब राजा उन नारियों को दूषित करना चाहता था, श्री कृष्ण ने आक्रमण करके सोलह हजार राजकुमारियों को मुक्त करा दिया , उन्हें अपने साथ ले आए, उनसे नियमानुसार विवाह किया। वास्तव में ये विवाह तो उनका अपनी शक्तियों का वरण करना था। श्रीकृष्ण ने उन शक्तियों का प्रयोग विभिन्न वस्तुओं के सृजन में किया। यदि श्रीकृष्ण अवतरित न हुए होते तो हमें आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान न हुआ होता । पहली बार श्रीकृष्ण ने केवल अर्जुन को आध्यात्मिक जीवन के विषय में बताया। उन दिनों लोग आध्यात्मिकता को जानने की अवस्था में न थे। प.पू.श्री माताजी, १९.८.१९९० गीता समझने के लिये आपको सहजयोग में आना पड़ेगा, सिर्फ गीता पढ़ -पढ़ कर कुछ भी गीता समझ में नहीं आएगी । गीता जिसने सुनायी वो श्रीकृष्ण थे, पहले उनके विषय में जान लेना चाहिए | वे बड़़े होशियार ही नहीं, वो उस वक्त के राजदूत थे और डिप्लोमेसी का बिल्कुल जो अर्थ है, उसको जानते essence, थे। अब डिप्लोमेसी का essence क्या है? कि कोई ऐसी absurd बात करो जिसको करने से आदमी मुँह के बल गिरे। कृष्ण का खेल जो है उसको समझने के लिये पहले आपको सहजयोग में उतरना चाहिए। अच्छा मैं समझाने की कोशिश करती हूँ, लेकिन आप भी समझने की कोशिश करें- श्रीकृष्ण ने कहा कि आपको 'ज्ञान' होना चाहिए। ज्ञान माने क्या? ज्ञान माने आपके सेंट्रल नर्वस सिस्टम में आपको जानना चाहिए कि परम क्या है, बुद्धि से नहीं, . जिससे आप स्थितप्रज्ञ होते हैं, साफ साफ उन्होंने गीता के दूसरे ही चैप्टर में यह कह दिया, व्याख्या दे दी कि सहजयोगी कैसा होना चाहिए। .....सर्वप्रथम उन्होंने दूसरी चीज़ उन्होंने बतायी , वो बतायी बहुत कहा कि आत्मानुभव प्राप्त करके स्थितप्रज्ञ हो जाओ | मज़ेदार तरीके से कर्म की, कि बेटे तुम कार्य करते रहो और सब कार्य परमात्मा के चरणों में डाल दो; .मतलब पहले आत्मा को प्राप्त करो फिर आगे की बात करो । आप जब पार हो जाते हैं तो क्या कहते हैं- आ रहा है, जा रहा है, हो रहा है, आप यह नहीं कहते कि 'मैं आ रहा हूँ', 'मैं ये हूँ', 'मैं कर रहा हूँ' ऐसे तो कोई नहीं कहता .....तृतीय पुरुष (थर्ड पर्सन) में आप बात करने लगते हैं-अकर्म।.... सीधे तीन बातें आप समझ सकते हैं इसमें। उनका कर्मयोग, उनका ज्ञानयोग और उनका भक्तियोग - कि अगर परमात्मा को पाना है तो पहले उसका अंग-प्रत्यंग बनना चाहिए, अनन्य होना चाहिए। जब तक आप अनन्य नहीं हैं, योग नहीं पा सकते। अनन्य भक्ति जो है उसको प्राप्त होना चाहिए, ये कृष्ण ने साफ-साफ कह दिया है। कृष्ण को समझने के लिये तो तीक्ष्ण दृष्टि चाहिए, क्योंकि वे बुद्धि की बिल्कुल पराकाष्ठा हैं। आप उनके सामने ठहर नहीं सकते, उनकी बुद्धि के सामने , इतने प्रकाशवान बुद्धिमान वो हैं, और वो चाहते हैं आपको जरा 25 विशुद्धि चक्र नचायें जिससे आप ठीक रास्ते पर आएं। तो हमारे विशुद्धि चक्र में बसे हुए श्रीकृष्ण जो हैं इनको आपको जागृत करना पड़ेगा। जब तक ये जागृत नहीं होंगे तब तक आपको विशुद्धि चक्र की तकलीफ रहेगी। श्रीकृष्ण हमारे अन्तःस्थित सोलह उपकेन्द्रों का नियन्त्रण करते हैं। वे हर चीज़ का नियन्त्रण करते हैं, आपके गला, नाक, आँखे और कानों का वे नियन्त्रण करते हैं। अब विशुद्धि चक्र के भी तीन भाग हैं-दायाँ, बायाँ और बीच का। जब उनका जन्म हुआ, जब उनकी बहन विष्णुमाया थी, तब उनके बायें साइड में प्रादुर्भाव था, बालकृष्ण की तरह, और जब वो बड़े होकर राजा हो गये तो उनका दायीं साइड पर विठ्ठल वो राजा बन करके और द्वारिका में राज्य करने गए और बीचोंबीच साक्षात श्रीकृष्ण जो कि हर हालत में श्रीकृष्ण हैं। जो बीच में श्रीकृष्ण हैं वो लीलामय हैं। उनके लिये सब सृष्टि एक लीला है । होली भी एक लीला है। उस वक्त उन्होंने संसार में आकर जितनी भी विधि थीं जिसने लोगों को ग्रसित कर दिया था, उसको अच्छे से तोड़- फोड़ के ठीक किया था। किसी भी विधि को नहीं छोड़ा। सुदामा को सिर पर चढ़ा लिया, उन्होंने जाकर के विदुर के घर साग खा लिया। उन्होंने जितनी भी विधियाँ और जितनी भी पारम्परिक बुराइयाँ थीं उन पर ऐसी तलवार उठायी कि सब चीजों को तोड़ताड़ के नष्ट कर दिया। यह सारी सृष्टि एक लीला है, उनके लिये ये लीला है और जब सहजयोगी पार हो जाते हैं तब उनके लिये भी सारी सृष्टि जो दिखायी देती है, वो एक साक्षी है, इसकी ओर वो साक्षी के स्वरूप से देखते हैं। वो जो कुछ भी उनको पहले हरेक चीज़ से लगाव था वो छूट करके, वो देखता है, अरे! ये तो नाटक था । ये तो नाटक टूट गया। ये श्रीकृष्ण की देन है। ये इन्होंने हमारी चेतना में विशेष रूप दिया है कि जब वो जागृत हो जाते हैं तो हम साक्षी स्वरूप हो जाते हैं। श्रीकृष्ण दूसरा एक महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, क्योंकि लीलामय हैं, कि हमारे अन्दर जो अहंकार जिससे कि हम हमेशा डरते हैं और दूसरों से दबते हैं, दोनों को वो अपने अन्दर खींच सकते हैं, दोनों को अपने अन्दर समा सकते हैं। इसलिए किसी भी अहंकारी आदमी को आप देख लीजिए-जैसा कि आपने देखा कि दुर्योधन को बहुत अहंकार था, उसको उन्होंने ठिकाने लगा दिया। साड़ी द्रौपदी की बढ़ती गयी, दुःशासन थक गया , उसका अहंकार चकनाचूर हो गया। जो भी अहंकारी आदमी होता है, उस पर उनकी गदा अगर चल पड़े तो वो खेल में ऐसा गच्चा देते हैं कि वो आदमी परास्त हो जाए। उसी प्रकार दब्बू आदमी है या कोई आदमी जो समाज से दबा हुआ है, जो दरिद्र है, जैसे कि सुदामा, उसका मान करना, उसके मित्रत्व को इतना बढ़ावा देना और उसके लिये इस कदर दिल भर के, दिल खोल के सब कुछ देना, ये भी काम श्री कृष्ण का है।........ - उनकी राधा क्या थी? आह्लाद; आदिशक्ति जो दुनिया को आह्लाद दे, जिससे मन प्रसन्न हो। ये कृष्ण की मुख्य इच्छा थी कि सबसे अपना प्रेम बाँटिए, इसलिए उन्होंने होली का पर्व प्रारम्भ किया था । चाहे जो हो, 26 आपका जमादार हो, सबसे गले मिलिए और हम लोग जो हैं उस वक्त सबको गाली गलौच करते हैं, गन्दगी करते हैं, अपनी ज़़बान खराब करते हैं। जो ज़बान श्रीकृष्ण की वजह से चल रही है, वहाँ हम लोग गाली गलौच करते हैं। श्रीकृष्ण की मंगलमयता, उनकी मधुरता, उनकी मोहकता, वो हमारे जीवन में आनी चाहिए । हमको बहत ही माधुर्य से एक दूसरे से बात करनी चाहिए । प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ श्रीकृष्ण एक ईश्वरीय राजनीतिज्ञ थे। ईश्वरीय राजनीति क्या है? आपको चिल्लाना नहीं है। यदि आप किसी को परिणाम विशेष तक ले जाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको विषय परिवर्तन करना होगा। यह बड़ा चतुराई का कार्य है। किसी व्यक्ति के साथ पूर्ण तादात्म्य करना उसके साथ खेलने जैसा है। व्यक्ति को जान | लेना चाहिए कि राजनीति का निष्कर्ष परोपकारिता है। मानव मात्र के हित का लक्ष्य तुम्हें प्राप्त करना है, यदि आप यह कार्य कर रहे हैं तो अपने या किसी व्यक्ति विशेष के स्वार्थ के लिए नहीं कर रहे हैं, अत: चीखने की कोई आवश्यकता नहीं, इसके साथ खेल करते रहें और इसे परोपकारिता तक ले जाएं। प.पू.श्री माताजी, सफरौन, यू.के, १४.८.१९८९ श्रीकृष्ण (कुबेर) अत्यन्त चालाक हैं, अत्यन्त छली व्यक्तित्व। हर कार्य के पीछे उनकी चालाकी होती है। धन सम्बन्धी मामलों में भी वे पहले आपको मूर्ख बनाते हैं कि धन के पीछे दौड़ो और तब आपको पता चलता है कि ऐसा करना अत्यन्त मूर्खता थी। ..... वे वैभव के देवता, महान देवता थे, वे जानते थे कि धन- दौलत का किस प्रकार उपयोग करना है और धर्मपूर्वक, अधर्म द्वारा नहीं, किस प्रकार धनार्जन करना है। प.पू.श्री माताजी, काना जोहारी, १८.८.२००२ श्रीकृष्ण का एक अन्य गुण है कि वे गोचर हैं अर्थात आकाश तत्व से बने हैं तथा सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। अणु, रेणु, परमाणु में, सभी में वे पेंठ सकते हैं। तीनों प्रकार के अणुओं को वे आन्दोलित करते हैं क्योंकि श्रीकृष्ण हर चीज़ में प्रवेश कर सकते हैं, इसी कारण वे पदार्थ, पशु, मानव, आत्मसाक्षात्कारी व्यक्तियों में व्याप्त हो जाते हैं। पदार्थों में मात्र चैतन्य लहरियों के रूप में, पशुओं में मार्गदर्शक के रूप में होते हैं। प.पू.श्री माताजी, न्यू जसी, अमरीका, २.१०.१९९४ श्रीकृष्ण खाकर भी नहीं खाते, सोकर भी नहीं सोते, पत्नियाँ होते हुये भी वे ब्रह्मचारी थे। इसी कारण वे योगेश्वर हैं। प.पू.श्री माताजी, २.१०.१९९४ योगेश्वर की पहचान है सदा मुस्कराते हुए, बिना व्यंगात्मक हुए हर चीज़ के ज्ञान से परिपूर्ण और अत्यन्त स्नेहमय। ..... यही श्रीकृष्ण का चरित्र है कि हम अपने अन्दर झाँके और देखें कि हमारे अन्दर खुद कौन -कौन सी चीज़े हैं, जो हमें दुविधा में डाल देती हैं। -श्रीकृष्ण के जीवन में यह दिखाया गया कि एक छोटे लड़के जैसे 27 विशुद्धि चक्र वो थे, बिल्कुल जैसा शिशु होता है, बिल्कुल अज्ञानी (अबोध) वैसे वो थे। वो अपने को कुछ समझते नहीं थे । अपनी माँ के सहारे वो बढ़ना चाहते थे। इसी प्रकार आप लोगों को भी अपने अन्दर देखते वक्त ये सोचना चाहिए कि हम एक बालक हैं। बालक यानी अबोधिता- भोलापन और उस भोलेपन से हमें अपने अन्दर देखना चाहिए और उसी से अपने को .........अब श्रीकृष्ण जी को जो बात है वो यही है कि बचपन में तो वो एकदम भोले थे और बड़े होने पर उन्होंने ढकना है। गीता समझायी जो बहुत गहन है। ये कैसे हुआ कि मनुष्य उसमें बढ़ गया। इसी प्रकार हम भी सहज में बढ़ सकते हैं। .श्रीकृष्ण से बढकर कोई योगी मैं मानती नहीं हूँ, क्योंकि उन्होंने यह रास्ता बताया कि अपने अन्दर तुम की गलतियाँ देखी, अपने अन्दर के दोष देखो। अपने दोषों से परिचित होना चाहिए। बजाय इसके कि हम और लोगों के दोष देखें अपने ही दोषों को देखकर हम हैरान हो जाएं कि कितने सारे राक्षस पाल रखें हैं अपने अन्दर, कितनी गन्दी बातें हम सोचते रहते हैं। दोष देखने से हम अपनी सफाई करते हैं और उन दोषों को छोड़ देते हैं। श्रीकृष्ण का जो सन्देश है वह यह है कि अपने अन्दर झाँको और देखो। प.पू.श्री माताजी, पुणे, १०.८.२००३ योगेश्वर का एक अन्य महान गुण उनकी पूर्ण सद्-सद् विवेक शक्ति थीं। वो जानते थे कि कौन राक्षस है और कौन नहीं है? कौन अच्छा है और कौन बुरा, कौन भूत बाधित है और कौन नहीं, कौन अबोध है और कौन नहीं? यह गुण उनके अन्तर्रचित था-सद्सद् विवेक की पूर्ण शक्ति। प.पू.श्री माताजी, जिनेवा, २८.८.१९८३ श्रीकृष्ण संहार शक्ति हैं। वे विनाशकारी शक्ति हैं। यह अच्छी बात है कि अपने सारे आयुधों के साथ वे हमारी रक्षा के लिए आते हैं परन्तु उनके पास सुदर्शन चक्र भी है । सुदर्शन-सु अर्थात शुभ, दर्शन अर्थात देखना । वे हमें शुभ दर्शन देते हैं। आप उनके साथ चालाकियाँ करें तो वे सब आपकी गर्दन पर आती हैं और तब आपको अपने शुभ दर्शन होते हैं कि अब आप कहीं हवा में लटक रहे हैं। प.पू.श्री माताजी, लंदन, १५.८.१९८२ धर्म और कर्तव्य - इसमें जो कशमकश होती है, उस वक्त यह सोचना चाहिए कि धर्म कर्तव्य से ऊँचा है और उससे भी ऊँची चीज़ है 'आत्मा'। यानि जो छोटा परिधि बँधा हुआ निमित्त, जो कुछ भी हमारा वलय है, goal है उससे जो ऊँचा goal है उसको पाना अगर है तो इस छोटे को छोड़ना पड़ेगा। और यही श्रीकृष्ण ने शिक्षा दी | श्रीकृष्ण ने कहा कि गर आपको हित के लिये झूठ बोलना पडे तो झूठ बोलिये। चीज़ें हैं, उनको छोड़ना पड़ेगा | यही श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में आकर बताया| .-बड़े ध्येय के लिये ये छोटी प.पू.श्री माताजी, नई दिल्ली, २९.३.१९८३ श्रीकृष्ण का यह कथन आधुनिक संदर्भ में पूर्ण रूप से सत्य उतरता है कि जब -जब धर्म का ह्रास होता है और जब-जब संतो को सताया जाता है, मैं संतो को बचाने, राक्षसों तथा नकारात्मक शक्तियों को समाप्त करने के लिये इस पृथ्वी पर आता हूँ। श्रीकृष्ण तत्व की यह जागृति हमारे अन्तस में होनी अत्यन्त आवश्यक है, अर्थात हमें 28 उनके गुणों की जागृति एवं अनुगमन अपने अन्तस में करना है, तभी हमारी शक्तियाँ उचित प्रयोजन के प्रति कार्यरत होंगी। यही श्रीकृष्ण की पूजा है। प.पू.श्री माताजी, १०.८.२००३ २. कृष्णशक्ति श्री विष्णुमाया विष्णुमाया अवतरणों तथा घटनाओं की घोषणा करने वाली शक्ति हैं। आध्यात्मिक दष्टि से वो अपवित्र चीज़ों को जला भी सकती हैं । जब आप अपनी गलतियों का सामना नहीं करना चाहते तो बायां विशुद्धि चक्र पकडा जाता है। मैंने गलतियाँ कीं, ठीक है - पर अब मैं उन्हें नहीं दोहराऊंगा। बस, सामना कीजिए , पर वे सामना करना ही नहीं चाहते। वे स्वयं को दोषी मानेंगे-दोषभाव को बायीं विशुद्धि पर डाल कर दोषभाव के काले बादल वे एकत्र कर लेंगे। तब मेघ-गर्जन, काले बादलों के मामूली घर्षण से फट पड़ने वाला विद्युत प्रवाह तथा वर्षा उत्प्रेरक विष्णुमाया ऐसे लोगों पर प्रकोप करती हैं। अचानक उन्हें सदमा लगता है। वे अति सम्वेदनशील और व्यग्र हो उठते हैं, यह अधीरता उन्हें सोचने को विवश कर देती है कि हम अधीर क्यों हैं? क्या समस्या है ? उनके अपराध भाव का अनावरण विष्णुमाया शक्ति द्वारा होता है। .महाभारत के समय वे द्रौपदी के रूप में अवतरित हुईं। विष्णुमाया पंचतत्वों में रहने वाली पवित्रता है। यही पवित्रता विवाह के समय पाँचों पांडवों को दिखाई गई थी। उनकी कौमा्यता ( पवित्रता) की शक्ति का उपयोग धर्मनाश करने के कौरवों का भंडाफोड़ करने के लिये किया गया। द्रौपदी ने पांडवों से आग्रह इच्छुक किया कि धर्म की रक्षा के लिये तुम्हें युद्ध करना ही होगा, परिणाम चाहे जो भी हो। भाई के रूप में श्रीकृष्ण ने सदा उनकी सहायता की। अत: भारत में भाई-बहन सम्बन्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सहजयोगियों में भी ऐसा ही होना चाहिए। हमारे यहाँ रक्षाबन्धन तथा भाई-दूज होता है जिसमें दीवाली, रक्षाबन्धन के दिन हम भाई को राखी बाँधते हैं। यह सभी विष्णुमाया की शक्ति है जो भाई की रक्षा करती है। सम आयु, एक ही सूझ-बूझ, सुरक्षा, प्रेम और पवित्रता के कारण भाई -बहन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इस सम्बन्ध को विष्णुमाया चलाती हैं। जब हम इसकी गहनता में जाते हैं तो स्वयं ही विशुद्धि की समस्यायें देख सकते हैं । पश्चिमी देशों के लोग स्वयं को दोषी मानते हैं तथा गलतियों से छूटकारा पाने का प्रयत्न करते हैं। सहजयोग में लेने का अर्थ है कि आपकी पूरी बायीं तरफ पकड़ी हुई है, आप ठीक तरह से चैतन्य लहरियों का अनुभव भी नहीं कर सकते क्योंकि आपकी ग्रीवा-नाड़ी पर तो आपका दोष बैठा है। दोष-भाव ने इसे जकड़ रखा है। आप बायीं ओर को महसूस ही नहीं कर सकते। कोई भयानक बीमारी होने तक आपकी बायीं तरफ की पकड़ बनी रहती है। विष्णुमाया की सूक्ष्म बात यह है कि वह सच्चाई जानती हैं, वह चमकती हैं और सब कुछ देख सकती हैं। 29 विशुद्धि चक्र इसी प्रकार जब विष्णुमाया आप पर कार्य करने लगती हैं तो वह सत्य को अनावृत करती हैं, पर यदि आपकी बायीं विशुद्धि की पकड़ बनी रहती है तो विष्णुमाया चली जाती हैं। तब आप कुछ भी महसूस नहीं करते, आपका बायाँ पक्ष जड़वत हो जाता है। अत: स्वयं को दोषी मानना अनुचित है। यह केवल मनगढ़ंत बात है। स्वयं को दोषी मानने का क्या लाभ है? ऐसा करना व्यर्थ है। आपने यदि कोई अपराध किया भी है तो इसका सामना कीजिए और निश्चय कीजिए कि इसे दुबारा नहीं करूँगा। अपराध को स्वीकार मात्र करते रहने से तो आप यह अपराध बार बार करेंगे और फिर आपको इसकी आदत हो जाएगी। यह विष्णुमाया अपनी शक्ति दिखाती हैं, वह ऐसे बहुत से कार्य करती हैं जिससे लोग डर जाएं, किसी भी तत्व में वे प्रवेश कर जाती हैं। यदि वे जल तत्व में प्रवेश कर जाएं तो प्रचंड तूफान की रचना कर देती हैं। वे कुछ भी कर सकती हैं। किसी भी तत्व में जब वे प्रवेश करती हैं तो उत्प्रेरक बन जाती हैं। आप सहजयोगियों में इन विष्णुमाया की शक्तियों का संचालन करने की योग्यता होनी चाहिए। उनकी पूजा करने की योग्यता भी आपमें होनी चाहिए ताकि वे आपको देख सकें, आपकी देखभाल कर सके, आपके जीवन का संचालन करें । जब आप विष्णुमाया की पवित्रता का अपमान करते हैं तो माया अपना खेल दिखाती है और आपको एड्स जैसे रोग हो जाते हैं, और भी बहुत से रोग हो जाते हैं जो असाध्य हैं, जिन्हें गुप्त रोग कहते हैं। वे कुमारी 'निर्मल' हैं तथा कौमार्य का सम्मान करती हैं। कौमार्य केवल स्त्रियों के लिये ही नहीं होता, यदि भी अपने पतिव्रत और पवित्रता का सम्मान नहीं करते तो उन पर भी विष्णुमाया का आक्रमण होता है पुरुष विष्णुमाया अत्यन्त शक्तिशाली हैं और वे माया की रचना करती हैं और माया रूप में लीला करती हैं। वे माया को तोड़ती भी हैं तथा किसी भी चीज़ को जला सकती हैं। विष्णुमाया सुधारक हैं। जब हम अपने अपराधों को दोष स्वीकृति के नाम पर छिपाते हैं, इन अपराधों को कोई अन्य रंग या नाम देने का प्रयत्न करते हैं तो यह शक्ति व्यक्तिगत, सामूहिक, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उन अपराधों का भंडाफोड़ करती हैं क्योंकि इनमें किसी भी चीज़ के अन्दर प्रवेश कर जाने की शक्ति है। सारे प्राकृतिक विध्वंस विष्णुमाया ही लाती हैं। पर लोगों को चाहिए कि इन प्रकोपों का कारण अपने अपराधों को समझें जिन्हें करने के बाद वे अपनी बायीं विशुद्धि में छिपाये रहते हैं, उनका सामना नहीं करते। एक बार बायीं विशुद्धि जड़ हो जाए तो हँसा चक्र का विवेक भी आपमें समाप्त हो जाता है, तब आपको ... समझ में नहीं आता कि विध्वंसक क्या है तथा रचनात्मक क्या है। यदि आपकी बायीं विशुद्धि खराब है तो आप विध्वंसक चीज़ों को स्वीकारने लगते हैं। इसी के कारण हिंसा, धोखाधड़ी और भ्रष्टता प्रचलित हुई। इस भयानक अवस्था से बचने का एकमात्र उपाय सहजयोग को भली -भाँति अपनाना है। आत्मविश्वास द्वारा आप बायीं विशुद्धि 30 छुटकारा पा सकते हैं, पर समस्या यह है कि मैं जब आपको कुछ बताती हूँ तो आपमें दोष-भाव आ जाता है। जो भी कुछ आपने किया है, वह पूर्णतया समाप्त हो गया है और उसके लिए आपको क्षमा कर दिया गया है नहीं तो विष्णुमाया आपको दण्डित करतीं। दायीं ओर के लोग (राजसिक) जो क्रोधित हो जाते हैं, दूसरों पर प्रभुता जमाते हैं तथा अन्य लोगों को वश में करते हैं, उनमें अपने दोषों को सुधारने के स्थान पर बायीं विशुद्धि में रखे रहने की विशेष शक्ति होती है। इसी कारण मैं कहती हैँ कि बायीं विशुद्धि की समस्या अहं का ही उपफल है। दोषग्रस्त होकर आप केवल अपनी ही हानि नहीं करते, दूसरों को भी नुकसान पहुँचाते हं। दो अन्य चीजें भी विष्णुमाया को परेशान करती हैं, इनमें से एक हैं धूम्रपान और दूसरी चीज़ जिसे लोग नहीं जानते वह हैं मन्त्र। श्री विष्णुमाया ही मन्त्रों को शक्ति देती हैं। यदि आप परमात्मा से योग बनाए बिना ही मन्त्रोच्चारण किए जा रहे हैं तो आपको उस शक्ति से जोड़ने वाले तार जल सकते हैं तथा आपको गले की समस्यायें हो सकती हैं क्योंकि कृष्ण तथा विष्णु में कोई अन्तर नहीं। आपको विराट की समस्या भी हो सकती है। ..कुछ लोग उदारता दर्शाकर अपने अपराधों पर पर्दा डालना चाहते हैं। इस प्रकार का आचरण अत्यन्त छलमय है। यह विष्णुमाया पर नहीं चलता। वह आपको अच्छी तरह जानती हैं और यदि आपने उनसे चालाकी करने का प्रयत्न किया तो वे अपनी शक्तियाँ दिखायेंगी। हमारी बायीं ओर की सारी समस्यायें विष्णुमाया के क्रोधित होने के कारण होती हैं। वे आपको दण्डित करती हैं, आपके अपराधों का भंडाफोड़ करती हैं, आपको ज्योति प्रदान करती हैं तथा आपके दोष भी करती दूर हैं। हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि इतनी शक्तियों से परिपूर्ण विष्णुमाया की यह विशेष पूजा हम आज कर रहे हैं। श्री माताजी, मैं पूर्णतया निर्दोष हूँ ऐसा यदि आप कहेंगे तो विष्णुमाया अति प्रसन्न होंगी। एक बार जब आप स्वयं को दोषी मानना छोड़ देते हैं तो गलतियाँ करेंगे ही नहीं क्योंकि आप स्वयं में दोष-भाव रख ही नहीं सकते - --- स्वयं को अपराधी ठहराने, अपमानित करने तथा घटिया मानने की कोई आवश्यकता नहीं। स्वयं को स्वयं से पृथक करो। आप शीशे में बात कर सकते हैं। नदी पर----समुद्र पर जा कर कह सकते है देखो मैंने यह अपराध किया है पर अब मैं ऐसा नहीं करूँगा। सभी तत्वों से आप वायदा कर सकते हैं, विष्णुमाया पाँचों तत्वों में हैं, उन्हें आपका संदेश मिल जाएगा। प.पू.श्री माताजी, १९.९.१९९२ श्रीकृष्ण शक्ति के दो अंग हैं, एक विशुद्धि के दायें और बायीं ओर और एक बीचोबीच में। इसमें जो शक्ति बीच में है वह विराट की ओर ले जाती है। १.... बायीं ओर की शक्ति मनुष्य के मन को कोई गलती या झूठे काम करने के बाद बनने वाली भावनाओं से खराब होती है। जिस समय मनुष्य को लगता है कि मैंने बहुत पाप किया है और गलती की है तब उसका 31 विशुद्धि चक्र विशुद्धि चक्र बायीं तरफ खराब हो जाता है। मनुष्य की यही पाप या गलती की धारणा उससे उसे दर भगाने के लिये नशीली वस्तुओं के पास ले जाती है। ... सिगरेट या बीड़ी पीना, सुरति (तम्बाकू) खाना श्रीकृष्ण शक्ति के विरोध में है। अगर किसी मनुष्य की नज़र अपनी बहन के प्रति या अन्य महिलाओं के प्रति ठीक या पवित्र नहीं होती तो ये यह चक्र तुरन्त खराब हो जाता है। अपवित्रता के बर्ताव से विशुदि चक्र के बाईं तरफ तकलीफ होती है। इन आँखों में घूमाने से आँखों की बीमारी फैलती आँखें इधर-उधर घुमाना भी श्री कृष्ण शक्ति के विरोध में है है, नज़र कमज़ोर होती है। मनुष्य में पाप पुण्य का विचार विशुद्धि चक्र से आता है। २. ... दायीं ओर श्रीकृष्ण और श्री राधा की शक्ति से बना है ( श्री रुक्मिणी- विठ्ठल) इस शक्ति के विरोध में जब मनुष्य जाता है तब कहता है मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ .....मैं ही सब कुछ हूँ .....ऐसी वृत्ति में उस मनुष्य में कंस रूपी अहंकार बढ़ता है। ......उसे लगता है कि किसी भी प्रकार मुझे सभी लोगों पर अपना अधिकार जमाना चाहिये उसे दायीं तरफ की विशुद्धि चक्र की पकड़ होती है। प.पू.श्री माताजी, मुंबई, २५.९.१९७९ अब जिनकी आदत बहत ज्यादा चिल्लाने की, चीखने की, दसरों को अपने शब्दों में रखने की ..... और अपने शब्दों से दूसरों को दु:ख देने की, आदत होती है, उसकी राइट विशुद्धि पकड़ी जाती है और उससे अनेक रोग उसे हो जाते हैं। ... .राइट साइड पकड़ने से स्पान्डिलायटिस होता है .... दुनिया भर की दूसरी बीमारी हो सकती है जैसे लकवा और दिल का दौरा, हाथ उसका जकड़ जाता है। .....इससे जुकाम-सर्दी होती है, इतना ही नहीं जिसे हम कहते हैं अस्थमा, उसका प्रादर्भाव हो सकता है। जो आदमी अपने को बड़ा विद्वान समझते हैं उनकी तो ये हालत हो सकती है कि वे इतने अति विद्वान हो जाते हैं कि उनकी अपनी ही बुद्धि वही आपको चलाने लगती है, आपके खिलाफ चलती है। .......इससे आदमी हठात, तो वो कोई भी काम करते हैं हठात्, पर लेकिन आप अगर कहें अब आप पैर हटाइये तो नहीं हो सकता क्योंकि उनकी खुद की बुद्धि ही परास्त हो गयी है। प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ ... विशुद्धि चक्र खराब होने से मेंदू के दोनों ओर संवेदना ले जाने वाली नाड़ियाँ खराब होती है (इनकी संवेदन क्षमता कम हो जाती है) प.पू.श्री माताजी, २५.९.१९७९ 32 जब आप पार भी हो जाते हैं तो भी आपको हाथों में वाइब्रेशन नहीं आते। आपकी जितनी nerves हैं हाथ की वो मर जाती हैं तो आपको हाथ पर महसूस नहीं होता और लोग कहते हैं कि माँ हमको अन्दर तो महसूस हो रहा है पर हाथ पर महसूस नहीं होता और इसलिये उनको परेशानी हो जाती है। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८१ जैसे-जैसे विशुद्धि चक्र जाग्रत होता है वैसे-वैसे संवेदन क्षमता में वृद्धि होती है। विशुद्धि चक्र जाग्रत करने के कुछ मंत्र हैं - अपने अंगूठे की बगल वाली उंगलियाँ दोनों कान में डालकर गर्दन पीछे करके और नज़र आकाश की ओर रखकर ज़ोर से व आदर से सोलह बार 'अल्लाह हो अकबर' मंत्र कहने से विशुद्धि चक्र साफ होता है । तब आपको जानना होगा अकबर माने विराट पुरुष परमेश्वर है । प.पू.श्री माताजी, २५.९.१९७९ आप सब अपनी बाईं विशुद्धि पर नियंत्रण कर मृदुल वाणी द्वारा मंजुल शब्दों का प्रयोग करें, आपकी भाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिये मृद् होनी अनिवार्य है। यह मधुरता आपकी बाईं विशुद्धि को शुद्ध कर देगी। मृदुल प्रक्रिया से संबोधन ही अपनी अपराध भावना को सुधारने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। प.पू.श्री माताजी, राहुरी, २१.१२.१९८०, निर्मला योग, १९८५ जब लेफ्ट विशुद्धि खराब हो जाती है, .....व्यक्ति गिल्टी महसूस करता है, इसलिये सहजयोग में इसका मंत्र है I am not guilty और हिन्दी में कहते हैं 'माँ हमने कोई गलती नहीं की जो तुम माफ न करो।' ...... जिसका विशुद्धि चक्र ठीक होगा उसका मुखड़ा ठीक होगा, सुंदर होगा, उसकी आँखे तेजस्वी होगी. नाक-नक्श तेजस्वी होंगे। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, १६.२.१९८१ ३. ... मध्य विशुद्धि चक्र के बीचो बीच जो शक्ति है वह विराट की शक्ति है। इस शक्ति से मनुष्य परमेश्वर की खोज में रहता है।.....अपने 'स्व' को पहचानिये। अपने 'स्व' को पहचानने से ही मनुष्य अपनी सुबुद्धि पाता है। जब तक दुर्बुद्धि है उसकी विशुद्धि जाग्रत नहीं होती। प.पू.श्री माताजी, मुम्बई, २५.७.१९७९ अन्तर्जात गुण १. सामूहिक चेतना-सामूहिकता- संतुलन - जब मनुष्य अपने विशुद्धि चक्र में जाग्रत होता है तब उसे सुबुद्धि आती है व संतुलन आता है। आपकी सामूहिक चेतना जाग्रत होती है, आप अपने तरफ अंतर्मुख होकर देख सकते हैं व आपकी 33 विशुद्धि चक्र दृष्टि परम् की ओर मुड़ती है। ......आप औरों की भावनायें, संवेदना वे सब अपने आप में जान सकते हैं । प.पू.श्री माताजी, २५.७.१९७९ सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। ...... जो व्यक्ति सामूहिकता के साथ कार्य करता है और सामूहिकता में रहता है, उसमें नयी प्रकार की शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं। प.पू.श्री माताजी, गुरुपूजा, कबैला, १९९७ सामूहिकता हमारे उत्थान का मूलाधार है।... . अन्दर बाहर सामूहिकता स्थापित होनी चाहिये। प.पू.श्री माताजी, मेलबोर्न, १०.४.१९९१ २. माधुर्य-मिठास-नम्रता - ... श्रीकृष्ण की सुमत्ता, मधुरता, मोहकता, वो हमारे जीवन में आनी चाहिये। प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ आवाज़ में मिठास होनी चाहिये, उसमें माधुर्य होना चाहिये, उसमें एक मोहित करने की शक्ति होनी चाहिये, जिससे मनुष्यों को लगे कि जो बोल रहे हैं, इसमें खिंचाव है । प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ७.५.१९८३ आपको विनम्र होना है, यही आपकी सज्जा है और यही गुण। ...... स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही श्रेष्ठ माने। स्वयं को यदि आप श्रेष्ठ मानते हैं तो आप पूर्ण के अंग -प्रत्यंग नहीं रहते .सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो है वो है विनम्रता । प.पू.श्री माताजी, कबैला, ७.५.२००० ३ व्यवहार कुशलता - व्यवहार में पूरे हृदय से दोस्ती करो, कोई कार्य हो तो पूरे हृदय से करो। उपरी- उपरी नहीं, अन्दरूनी रखो। .. गहराई में जब आप विशुद्धि को प्राप्त करेंगे तब आपका जनहित, जन सम्बन्ध और विश्व बंधुत्व है, उससे पहले नहीं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, २८.२.१९९१ ४. साक्षी अवस्था - हमारे लिये यह समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हमारी विशुद्धि साफ होनी चाहिये। सर्वप्रथम हमारा हृदय सुंदर और स्वच्छ होना चाहिये जहाँ से श्री कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी विशुद्धि को सुधारें। विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारो क्योंकि आपके अतिरिक्त कोई अन्य इन्हें नहीं सुधार सकता। देखो कि तुम्हें पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी विशुद्धि के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धि पर आकर आप साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली है तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कमियों को जान सकेंगे। प.पू.श्री माताजी, १४.८.१९८९, चैतन्य लहरी जुलाई- अगस्त, २००८ 34 राम एस ा आवाज मधुर होना चाहिए और भाषा नियंत्रित की जानी चाहिए। अगर हम अपने जबान को नियंत्रित कर पायेंगे तो हम ८०% सामूहिकता को हासिल कर पायेंगे। प.पू. श्रीमातीजी, ०२.०५.१९८५ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन ०२०-२५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in अबोधिता के द्वारा ही आप आनन्द की प्रकटे करे सकते हैं और अबोधिती ही एक ऐसा मार्ग है कि जिससे आप आनन्द की स्कंदन कर सकते हैं। बिना आनन्द के इस सृष्टि की कल्पना कीजिए, क्या होगा? प.पू.श्रीमाताजी, २२.०८.१९८२ ---------------------- 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी जुलाई-अगस्त २०१३ पर 2० 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-1.txt इस अंक में साकार निराकार का भेद ...४ विशुद्धि चक्र ... २२ या 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-3.txt सकार निरका२ का भेद दिल्ली, ३०.०१.१९८३ 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-4.txt GoraDA 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-5.txt परमात्मा के बारे में अगर कोई भी बात करता है इस आज कल की दुनिया में तो लोग सोचते हैं कि एक मनोरंजन का साधन है। इससे सिर्फ मनोरंजन हो सकता है। परमात्मा के नाम की कोई चीज़ तो हो ही नहीं सकती है सिर्फ मनोरंजन मात्र के लिए ठीक है। अब बूढ़़े हो गये हमारे दादा-दादी तो ठीक है, मंदिर में जाकर के बैठते हैं और अपना समय बिताने का एक अच्छा तरीका है, घर में बैठ कर बह को सताने से अच्छा है कि मंदिरो में बैठे। इससे ज़्यादा मंदिर का कोई अर्थ अपने यहाँ आजकल के जमाने में नहीं लगाये। ये जो मंदिर में भगवान बैठे हैं इनका भी उपयोग यही लोग समझते हैं कि इनको जा कर अपना दुखड़ा बतायें, ये तकलीफ है, वो तकलीफ है और वो सब ठीक हो जाना चाहिए। लेकिन ये मंदिर क्या हैं? इसके अन्दर बैठे भगवान क्या हैं? उनका हमारा क्या संबंध है और उनसे कैसे जोड़ना चाहिए संबंध? आदि चीज़ों के बारे में अभी भी बहुत काफी गुप्त हैं। अब ये बातें अनादि काल से होती आयीं हैं। आपको मालूम है कि इंद्र तक को आत्मसाक्षात्कार देना पड़ा, जो अनादि है। करते-करते ये बातें जब छठी सदी में, सबसे बड़े हिंदू धर्म के प्रवर्तक, आदि शंकराचार्य संसार में आयें तब उन्होंने खुली तौर से बातचीत शुरू कर दी । नहीं तो अपने यहाँ एक भक्तिमार्ग था और एक वेदों का तरीका था, जैसे कि गायत्री मंत्र आदि। जब जब कभी भक्ति में लोग बिल्कुल बेकार चले जाते थे तो चित्त खींचने के लिए ऐसे लोग आते थे कि जो कहते थे कि, 'छोड़िये मत' और अपना चित्त हटा कर के और निराकार में ले जाते थे क्योंकि साकार बहकते थे तो उनसे कहते थे कि बाबा निराकार में में तो कुछ बचा ही नहीं था और जब निराकार में बहुत कुछ फायदा नहीं होता है तो चलो साकार में चलें। लेकिन वो इधर से उधर, जैसे कोई पेंड्युलम चलता है वैसे था उनका हाल और इसीलिये इन दोनो चीज़ों से आदमी ये समझ गया कि इसमें भक्ति भी है और निराकार भी। ॐ कार भी है और कृष्ण भी है । उसके बगैर हिसाब-किताब बन नहीं सकता। सहजयोग में आप दोनों के दर्शन पाओगे। ब्रह्म के भी दर्शन पाते हैं। और इन सब देवताओं के भी दर्शन पाते हैं। ब्रह्म की शक्ति जो है ये परमात्मा के प्रेम की शक्ति है जो चारों तरफ विचरण करती है। और जितने भी जीवित कार्य इस संसार के हैं जैसे कि उनको सफल बनाना आदि । जितने भी जीवित कार्य है वो करती है। हमारे अन्दर भी वो कार्य करती है, जिसे हम पैरासिम्पथेटिक नव्वस सिस्टम कहते हैं। उसमें वो विचरण कर के और सधक करती है। ये तो ब्रह्म की शक्ति है और इस शक्ति को जानने के लिए हमारे अन्दर जो यंत्रणा परमात्मा ने की है, जो व्यवस्था परमात्मा ने की है वो बहुत कमाल की है और इस यंत्रणा को करने के लिए उन्होंने हमारे उत्क्रान्ति में हमारे शरीर ही के अन्दर अलग-अलग देवतायें बिठाये हैं। सबसे पहले तो श्रीगणेश बना है। श्रीगणेश पवित्रता हैं। सारे संसार को पहले पवित्रता से भर दिया। निराकार में गये तो वो पवित्रता से भर दिये और साकार में गये तो वो श्रीगणेश का है। जैसे ये अब आप देख रहें हैं जो जल रही है, इसका प्रकाश चारों तरफ है लेकिन इसकी ज्योत भी है और प्रकाश भी है। इसी प्रकार जो सबसे पहले चीज़ बनी है वो श्रीगणेश बना है। जिनका प्रकाश चारों तरफ फैला हुआ है। अब किसीने अगर श्री 6. 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-6.txt गणेश जी को पकड़ लिया तो भी गलत हो गया और प्रकाश को पकड़ लिया तो वो भी गलत हो गया। क्योंकि जैसे मैंने पहले मर्तबा बताया था कि पहले तो उन्होंने बात की कि कौनसे कौनसे फूल हैं और फूल के अन्दर शहद है। तो लोग फूलों को चिपक गये कि 'फूलों को खोजो, फूलों को खोजो' बकना शुरू हो गया सब का। मतलब जबानी जमा करते थे शब्द जालम। बस बातें करना शुरू कर दी। तो उन्होंने कहा | कि भाई, देखो ये फूल खोजने वाले जो हैं वो सब पगला गये हैं। फूलों की पूजा, फूलों के पीछे दौड़ना। और शहद की बात ही नहीं करते। तो फिर उन्होंने कहा कि चलो भाई , शहद की बात शुरू करें। सब कितने बड़े-बड़े हो गये हैं वो हमारी भलाई के लिए ही एक में से निकाल के दूसरे में, दूसरे में से निकाल के इसमें ऐसा करके किसी तरह से अकल डाल दी। कभी निराकार की बात करो अलख निरंजन की बात हुई। वो बातें उन्होंने शुरू कर दी। पर वो भी बातचीत हो गयी। शहद की भी बात करो, प्रभु की भी बात करो, तो मधु पाईयेगा कैसे? तो क्या होना चाहिए? आपको मधुकर होना चाहिए। आपको स्वयं बदलना पड़ेगा। आपमें आत्मसाक्षात्कार होना चाहिए। ये सब धर्मों में कहा गया है। जो कि अदल-बदल करने से थोड़ा दिमाग आदमी का ठनकता है। सोचता है कि चलो ये गलत चीज़ थी दूसरी चीज़ पकड़ लें। लेकिन सबने एक ही बात कही चाहे कितना भी अदलो-बदलो लेकिन एक चीज़ है कि आपका आत्मसाक्षात्कार होना चाहिए। किसने नहीं कहा! इसामसीह ने कहा, कि तुम्हारा फिर से जनम होना चाहिए । हिंदू धर्म में तो बिल्कुल ही मानी हुई चीज़ है कि द्विज, जिसका दूसरा जनम होता है वही ब्राह्मण होता है, वही ब्रह्म को जानता है, यही साफ-साफ कहा हुआ है। ठीक है कि उसके तौर-तरिके गलत लगाने से तो नहीं, पर सही बात में तो यही कहा गया है। नानक साहब ने कहा कि, अपने में खोजो। अपने को पहचाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। 'आत्मा को पाओ' उन्होंने यही कहा। अब सबने यही रट लगा के रखी है। कि भाई, आत्मा को पाओ, दूसरी जनम करो । ईसामसीह ने कही वही बात। मोहम्मद साहब ने कहा है कि आपको 'फील' होना पड़ेगा। सबने जब एक ही बात कही है तो उधर ध्यान देना चाहिए कि सबने इसका अंतिम लक्ष्य एक ही बताया कि कितने भी चक्कर काटो लेकिन पहुँचना वहाँ। और उसका दिमागी जमा- खर्च बना रखा है सबने । उससे नहीं मिलने वाला। आदि शंकराचार्य जी ने भी यही कहा कि बाबा, दिमागी जमा-खर्च मत करो। अब सहजयोग में तो हम ये मानते हैं कि बुद्धदेव, जिन्होंने निराकार की बात की थी जिन्होंने ईश्वर की बात ही नहीं करी क्योंकि उन्होंने सोचा कि ईश्वर की बात करो तो यूँ ऊपर टंग जाती है। ये फिर अपनी सोचते नहीं है। ईश्वर की बात करो तो समझ लो कि सब अपने को ईश्वर समझने लग जाते हैं। बहुत लोग, जो सोचते हैं कि हम बिल्कुल निराकार हो गये। बहत से लोग सोचते हैं कि हम ईश्वर हो गये। इन्सान का दिमाग ऐसा है कि किसीसे चिपका तो वही हो जाये । और जो असल में जो अंतस में है, आत्मा से वो नहीं होता। तो इस तरह से जब चलने लगता है, इन्सान का स्वभाव अगर इससे चिपक जाए, उससे 7 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-7.txt चिपक जाए, तो बुद्ध ने भी क्या कहा कि ईश्वर की बात ही नहीं करो तो अच्छा है। नहीं तो ये ईश्वर को जेब में डाल लेते हैं। और जब जरूरत है तो जेब से निकाला, 'ईश्वर , देख ये मेरा काम करना पड़ेगा !' अब वो कौन सा ईश्वर है भगवान जाने ! जब अपने एक जनम में उन्होंने ईश्वर की बात नहीं की और उन्होंने कहा कि बस, चलो निराकार हो जाओ, छोड़ दो, बस आत्मसाक्षात्कार हो जाओ, उसका अब एक तमाशा बुद्धओं ने बना डाला। तो वही आदि शंकराचार्य करके फिर इस संसार में आयें। उन्होंने कहा कि, 'भाई, अब माँ की सेवा करो। इसके सिवाय कोई इलाज नहीं है। माँ की सेवा से ही पाओगे।' क्योंकि बोलना तो था कहीं आधे ही रह गया हो फिछली बार, पता नहीं। जितनी उन्होंने ईश्वर की बात शुरू कर दी, भी उनको भी लोगों ने सता दिया। यहाँ तक कि उनकी माँ मर गयी तो उनसे कहने लगे कि, 'तुम जला नहीं सकते।' तो केले के पत्ते से उन्होंने जलाया अपनी माँ को। इस तरह एक से एक अकलमंदी लोगों ने उनको सताया। अब तो दुनिया बदली नजर आती है कि मेरे साथ ऐसी ज़्यादती कोई नहीं की। एक दो जरूर बिगड़ते हैं। लेकिन इतनी ज़्यादती किसी ने नहीं की कि मुझे मारने को दौड़े। ऐसा नहीं है। क्योंकि यही उन सब महानुभावों का उपकार मैं मानती हूँ, जिन्होंने आपको अदल-बदल कराके समझा दिया कि ये नहीं, ये नहीं, ये नहीं। ये नहीं, ये नहीं तो फिर क्या? जब नहीं, नहीं करने पे आ जाएंगे तब बराबर आप चीज़ को पकड़ लेंगे। इसीलिये उन्होंने आपको बताया कि पहले साकार से निराकार, निराकार से साकार चले जायें । जब आदमी थक जाएगा इससे लड़ते-लड़ते तब वो रूक जाएगा और सोचेगा कि इन सब में है क्या? तो निराकार में आपसे मैंने बताया कि सारी ये ब्रह्मशक्ति के चारों तरफ फैली हुई है और साकार में आप और आपके अंदर हर उत्थान के समय पर एक-एक देवता बिठाये हुये हैं। जब आप कार्बन बन के इस संसार में आयें तब श्रीगणेश बिठाये गये। कार्बन की भी चार वेलेन्सी होती है, बीचोबीच बैठे रहते हैं । कार्बन के बगैर प्राण-संसार में प्राण ही नहीं बनता। ये पहली चीज़ कार्बन बनायी गयी। और श्रीगणेश, पहले इन्होंने यही बात कही। इसीलिये कहते हैं कि श्रीगणेश भूमी तत्त्व से बने हैं। और ये पहले बिठाये थे जो पवित्रता के लक्षण है। कौनसे भी धर्म में ये नहीं कहा है कि तुम अपवित्र रहने से धार्मिक हो जाओगे । आज कल के गुरुओं की बात छोड़ दीजिए। इनसे तो भगवान ही बचायें! सब उल्टी बाते समझाते हैं। कोई से भी धर्म में ऐसा नहीं बताया है कि गन्दे कर्म कर के आप परमात्मा को पाईये। लेकिन हम लोग जो हैं कभी इस चीज़ को देखें कि सब धर्म में एक ही बात कही गयी है और सब ने माना कि पवित्रता जीवन का सबसे बड़ा स्थिर भाव है। उसको पकड़ना चाहिए। तब के लिए मानना पड़ता है कि श्रीगणेश को परमात्मा ने सबसे पहले स्थापित किया। वो क्यों कर रहे हैं? ये उसका , आप समझ सकते हैं, जिसे कि हमारे यहाँ कहा जाता है कि इंडिकेशन, उसका इंडिकेशन है और उसके प्रतीक रूप, उसका प्रतीक, प्रतीक, गणेश जी जो आयें, वो पवित्रता के प्रतीक स्वरूप हैं। इनोसेन्स! अबोधिता ! भोलापन! जो शंकर जी का भोलापन है वो उन्होंने अपने बेटे में खूब डाला। और भोला जो आदमी होता है 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-8.txt वो सबसे ज़्यादा शक्तिशाली, सबसे शक्तिशाली भगवान जो है वो श्रीगणेश माने जाते हैं। माने सबसे ज़्यादा शक्तिशाली इन्सान वो होता है जो सबसे भोला होता है। और आज कल तो लोग मानते भी नहीं कि भोलापन कोई चीज़ भी होती है । तो पहले चक्र पे उन्होंने श्रीगणेश जी को बिठाया। अब नानक साहब ने या कबीर दास ने सबने ही गुरू ग्रंथसाहब में भी नामदेव आदि ये माना है कि अपने अन्दर कुंडलिनी नाम की शक्ति होती है। और लोगों के बहुत से अंदाजे हैं, ये लोग तो विठ्ूल को माना करते थे | तो ये समझ लेना चाहिए कि उन सब लोगों ने परमात्मा को दो स्वरूप में देखा था, साकार और निराकार। किसीने निराकार की ज्यादा बात की और किसीने साकार की, जैसा समय था। तो पहले चक्र पे श्रीगणेश को बिठा दिया। जिसका मतलब, अपना जो पहला चक्र जो है वो पवित्रता का चक्र है। अगर आप समझना चाहे निराकार से तो आप समझ लीजिए पवित्रता और अगर साकार से समझना चाहे तो श्रीगणेश । इस चक्र से ऊपर कुंडलिनी का स्थान है ये समझने की बात है, ये बहुत बड़ी बात है। इसके ऊपर में कुंडलिनी रहती है नीचे में नहीं रहती है, इस चक्र में । क्योंकि पवित्रता- श्रीगणेश जो हैं ये अपनी माँ-कुंडलिनी, जो गौरी है, जो कन्या स्वरूपिणी पवित्र है उसको सम्भालते हैं | उनकी लज्जा-रक्षा करते हैं। और नीचे बैठे हये सबको देखते रहते हैं। और जो कुछ हम करते हैं उसका सारा इन्फर्मेशन, उसकी सारी मालूमात अपने कुंडलिनी तक पहुँचा देते हैं। जो कि ऐसी बैठी हुई हैं कि जैसे कोई टेपरिकार्डर हो और वो सब चीज़ टेप करता हो । अब ये कुंडलिनी क्या चीज़ है? ये आदिइच्छा हैं। परमात्मा की आदिइच्छा! परमात्मा की सर्वप्रथम इच्छा ये हुई कि 'मैंने सृष्टि बनायी और ये सृष्टि मुझे जानें। ये मुझे पहचानें। मुझसे एकाकार हो। ये उनकी आदिइच्छा है। और वही इच्छा जो थी जिसे हम लोग आदिशक्ति के नाम से जानते हैं। जिसे कि अंग्रेजी लोग होली घोस्ट कहते हैं और जिसे कि वेदों में भी ने कहा गया है और जिसे नानक साहब भी दैवी माँ कहकर बतलाया है। ये जो प्रथम इच्छा थी यही साकार रूप होकर उन्होंने सृष्टि की रचना की और श्रीगणेश को बना कर बिठा दिया, जो गौरी स्वरूपा, हमारे अन्दर कुंडलिनी, जिसको कि वर्जिन, जिसको कहते हैं; कन्या स्वरूपिणी हैं, अत्यंत पवित्र। और एक ही शुद्ध इच्छा है मनुष्य के अन्दर बाकी सब विकृति। एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी सब अशुद्ध है। माने एक ही वर्जिन इच्छा है। वर्जिन माने, जिसने, जैसे वर्जिन लैण्ड का मतलब जिसने अभी इस्तमाल ही नहीं किया। जिस जमीन को अभी तक हमने खोदा भी नहीं उसे वर्जिन लैण्ड कहते हैं । तो ये जो कन्या स्वरूपिणी, अत्यंत पवित्र इच्छा हमारे अन्दर है वो एक ही है और वो ये कि हम उस परमात्मा | ये को जानें जिसने हमें बनाया है। आत्मसाक्षात्कार हो कर हम उस परमात्मा को जान लें, शुद्ध इच्छा हमारे अन्दर, कुंडलिनी स्वरूपिणी बैठी है। क्योंकि वो अभी तक कार्यान्वित नहीं हुई है इसीलिये इस | 9. 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-9.txt कुंडलिनी की अवस्था को सुप्तावस्था कहते हैं। माने सोई हई है। जिस वख्त ये कार्यान्वित हो जाएगी तब कह सकते हैं कि इसका उत्थान हो गया या इसका अंकुर खुल गया। जैसे कि बी के अन्दर का अंकुर। अब बहुत सारे लोगों ने बड़ी ज़्यादती करी। और उल्टी बातें शुरू कर दी। ये छठी शताब्दी के बाद ही हमारे देश में बहुत गन्दे लोग पैदा हये हैं। और जिनको हम तांत्रिकों के नाम से जानते हैं। एक माँ के हृदय के कारण हम पूरी तरह से किसी को बूरा नहीं कह सकते। थोड़ा सा हिस्सा खींच ही जाता है । और इसीलिये कि उससे ये है कि जब वो शायद ही इस सबसे सर्वप्रथम चक्र जिससे कि हमारी सब उत्सर्जन या जो भी होती है, excretion होता है, उसकी ओर नज़र कर रहे थे तो उन्होंने सिर्फ गणेशजी की सूँड देखी होगी और सोच लिया हो कि कुंडलिनी इस मूलाधार चक्र में है । पर कुंडलिनी तो मूलाधार में बैठी है । वो मूलाधार में है और ये मूलाधार चक्र है। ये अंतर है। और यही चक्र बाहर है। बाकी सब चक्र जो है रीढ़ के हड्डी के अंदर या तो मस्तिष्क में, इस हड्डिओं के खोखले में है। और यही एक चक्र बाहर है और ये चक्र जो है ये हमारे अंदर जिसे हम पेल्विक प्लेक्सेस कहते हैं उसको चलायमान होता है। और इससे ये जान लेना चाहिए कि कुंडलिनी के भेदन में से छ: चक्र आते हैं सात नहीं आते। ये बहत जरूरी बात है। इसका मतलब ये है कि जो उत्सर्ग की क्रियायें हैं, माने जिसमें सेक्स आदि जितना भी आता है, उत्सर्ग होता है, ये सब हमारे उत्थान में कार्यभूत नहीं होते। इनका कोई भी असर नहीं आता। किंतु धर्म का आता है। अधर्म से कियी हुई बाते जो भी हैं वो गलत बैठती हैं। धर्म से उत्सर्जित किई हुई बाते गलत नहीं बैठती। और इसीलिये ये चक्र जो है हमारी पवित्रता को देखता है। और गणेश जी जो हैं वो एक अनंत के बालक हैं, क्योंकि वो अबोध, इनोसन्ट हैं इसीलिये उनको इसका घिनौनापन, या गंदगी और इसकी जो बुराईयाँ हैं वो छूती नहीं, अछूती हैं। वो साक्षात ॐ कार हैं। हीरा किसी जगह भी फैंक दीजिये वो हीरा ही बना रहेगा। वह साक्षात ॐ कार स्वरूप हैं। उसको कोई छू नहीं सकता। और इसीलिये वो वहाँ बैठे हुए हैं। पूर्णतया अपने अंदर बसी हुई जो पवित्रता है उसमें समाये हैं। मनुष्य सोचता है कि , 'माँ, आप ऐसा कहते हैं पर इस दुनिया में इतने अपवित्र लोग हैं उनको कुछ नहीं होता, उनको कोई बीमारी नहीं होती। उनको कोई तकलीफ नहीं होती। और बड़ी शैतानी करते रहते हैं और बड़े सुखी हैं।' ये बात नहीं। हर एक चक्र का अपना-अपना दोष होता है। अब ये चक्र इतना महत्त्वपूर्ण है। जिस आदमी का ये चक्र खराब हो जाता है उसको दूसरे किसी भी चक्र के खराब हो जाने से मलायटिस जैसी गंदी गंदी बीमारी हो सकती हैं। बहत सी कैन्सर की बीमारियाँ भी इसी चक्र के खराब होने से हो सकती है। आपकी शिकायतें भी इससे हो सकती है। बुद्धि की खराबियाँ इसी से आ सकती हैं और नाना प्रकार के विकार इस चक्र के खराब होने से होते हैं। इसीलिये जो लोग कहते हैं कि आदमी की अपवित्रता 10 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-10.txt से कोई फर्क नहीं पड़ता, वो दोनों का कनेक्शन ही नहीं बना, वो जोड़ ही नहीं पाते कि इस वजह से हैं। ये तो जब आप पार हो जाएंगे, जब आप संत जन हो जाएंगे, जब आप में चैतन्य लहरियाँ बहना शुरू हो जाएंगी तब ये निराकार आप से बोलेगा, हाथों में बोलेगा कि देखो, इस आदमी में क्या खराबी है और इसे क्या ठीक करना चाहिए। और आपको आश्चर्य होगा कि जो चक्र ये दिखायेगा वही खराबी उस आदमी में होगी । मोहम्मद साहब ने कहा है कि, जब उत्थान का समय आयेगा, याने ये आज का समय उस समय आपके हाथ बोलेंगे। आपके हाथों पे आप चक्रों को जान कर बता सकेंगे कि इस आदमी में कौन सा दोष है। ये यहाँ पर, यहाँ पर मूलाधार का स्थान है। परमात्मा की असीम कृपा से आप ये योगभूमी में बैठे हैं। बड़े-बड़े संत यहाँ हो गये। उनके चरण इस भूमी को छू चुके हैं। ये बड़ी भारी योग भूमी है । इसका वर्णन कितना भी करे सो कम है। कल मैंने न जाने अपने को कितनी बार रोका कि इसका वर्णन मैं कैसे करूँ! सारे विश्व की कुंडलिनी यहाँ पर बैठी हुई है, महाराष्ट्र में। साढ़ेतीन पीठ हैं। सब लोग कहते हैं कि साढ़े तीन पीठ हैं। अरे साढ़े तीन पीठ हैं माने क्या ? सारे विश्व के ही कुंडलिनी के साढ़े तीन पीठ महाराष्ट्र में हैं। अष्टविनायक महाराष्ट्र में हैं। आठों तरफ से घेर लिया। पवित्रता के इंतजामात कर लिये हैं । अष्टविनायक और साढ़े तीन पीठ। अठाईस देवी के स्थान बनाये हैं। सब पृथ्वी ने इंतजाम यहाँ किये हुये हैं। जो कुंडलिनी में हैं। सारे प्रकार इस देश में जितना है कहीं भी नहीं । हालांकि इंग्लैंड में भी मैंने देखा कि जमीन के अंदर से ऐसे पत्थर आ गये जिनमें से वाइब्रेशन्स आते हैं। स्टोनहेंज कहते हैं उसको। लेकिन उनको कुछ भी समझ में नहीं आता। इनके यहाँ कोई ऐसे पीर हुये नहीं। कोई ऐसे महात्मा, संत हये नहीं जो ये सब कहे। मक्का में भी जो शिव है, मक्का में भी जो पत्थर है उसका भी वर्णन अपने पुराणों में है उसका नाम मक्केश्वर शिव है। आप देख लीजिये पंजा साहब को उन्होंने जो निकाला था वो भी वही चीज़ है । उस जगह से, उस जगह में चैतन्य आता है। अब ये देखिये, अभी हम यहाँ बैठे हुये हैं। ये यहाँ पर चौबीस पच्चीस बिछाईये, ये यहाँ कितने भी सालों पड़ी रहें किसी भी संत को आप बिठाईये तो वो समझ जाएंगे कि इस पर कोई संत-साधु बैठे थे। जो चीज़ जाती है उसी में चैतन्य बहुता है। आपको पिछली मर्तबा छू मैंने बताया था कि मैं काश्मीर गयी थी। यहाँ नहीं कहीं और। तो खटाक मुझे लगा यहाँ कोई बड़ी चैतन्यमय चीज़ है। तो हमने ड्राइवर से कहा कि, 'भाई, गाड़ी रोको यहाँ । पता करो कि यहाँ कोई मंदिर तो नहीं है।' उसने कहा, 'हाँ, माताजी, यहाँ कहाँ मंदिर है? ये तो बिल्कुल आप जंगल में घूम रहे हैं।' तो मैंने 'हो सकता है चार-पाँच मील की दरम्यान कोई न कोई चीज़ होनी चाहिए। अच्छा, मैंने कहा कि कहा, उसी रास्ते से चलते रहो।' तो चलते गये, चलते गये। एक जगह पहुँचे तो कहने लगे कि, 'ये तो सारी मुसलमानों की बस्ती है। यहाँ पर क्या मिलने वाला?' मैंने कहा, 'यहाँ पूछो तो सही।' तो उन्होंने बताया कि यहाँ हजरत इकबाल हैं। एक बाल महम्मद साहब का रखा हुआ है और मैं पाँच मिनट में उसको पकड़ 11 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-11.txt गयी। अब उनको आप कुछ भी कहिये। भला-बुरा कहिये। आपका जो मनचाहे कह सकते हैं। वो भी अपने ही हैं। बिल्कुल अपने। ये समझ लेना चाहिए उनमें और नानक साहब में कोई फर्क नहीं है। चाहे हिंदु- मुसलमान लड़ें, चाहे कुछ करें, गर्दन काटे, उससे फर्क नहीं पड़ने वाला। जो बात सही है, सत्य मैं आपको बता रही हूँ। हम लोग आपस में बेकार ही में लड़ रहे हैं। ये सब बेकार चीज़ है। लड़ने की कोई बात ही नहीं । 6. आज हजारों मुसलमान सहजयोग में आ रहे हैं। क्योंकि उनके आगे ही खड़े हो गये कि अब नहीं चाहिये मुसलमान। और इतना बदल उनमें आ गया कि बाबा, सहजयोग से अच्छा हो गया है, गणेश जी की पूजा कर रहे हैं। और आपको गणेशजी सिखायेंगे कि कैसे गणेशजी का क्या मतलब है। तो सहजयोग में आप समझ सकते हैं कि जो कुछ वास्तविकता है, वो हमारे अंदर है, यथार्थ हमारे अंदर है। इसे समझ लें और दिमागी जमा-खर्च इकठ्ठा कर के, लड़ाई-झगड़ा मत करो बाबा। सब एक ही परमात्मा के अंग-प्रत्यंग हो आप। इस विराट के आप अंग-प्रत्यंग हो। और मोहम्मद साहब ने भी बता दिया कि कान में उँगली डाल कर के जब कहते हैं 'अल्लाह हो अकबर', ये तो मंत्र सहजयोग में हम भी कहते हैं क्योंकि ये उँगलियाँ जो हैं विशुद्धि चक्र की हैं। और कान में उँगली डाल कर आप क्या कह रहे हैं। 'अल्लाह-हो-अकबर', माने क्या ? अल्लाह जो है, परमात्मा जो है, विराट हैं। अकबर माने विराट! अरे भाषा बदल जाने से मतलब थोड़ी बदल जाता है! और इस तरह से आप समझियेगा कि जो चीजें प्रस्थापित, अनेक वर्षों से हुई है, अनादि से हुई हैं वो आज पूर्ण रूप से, सत्य रूप से जब तक प्रकाशित नहीं होंगी तो आपके बच्चे भाग खड़े होंगे और कहेंगे कि 'ऐसे भगवान से बचाओ! हमें नहीं चाहिए।' ये सब दिमागी जमा-खर्च है। आप लोग यूँही कुछ धंधा नहीं तो दिमागी जमा-खर्च जमाओ। इसको आप सिद्ध कर सकते हैं । सो, कुंडलिनी का जागरण जब होता है तो पूरी की पूरी कुंडलिनी नहीं उसका कुछ हिस्सा उठता है बहुत से डोरियाँ बाँध कर के, जैसे समझ लीजिये ऐसी ये कुंडलिनी है, उसकी कुछ ही डोरियाँ सुषुम्ना नाड़ी से बंधी हैं। मध्यभाग, जो बीच में है। और इस नाड़ी से उठते वक्त जो कुछ भी उस में शक्ति भरी जाती है या शक्ति लगती है वो गणेशजी की है। माने आपकी पवित्रता बहुत जरूरी चीज़़ होती है । अगर आदमी कोई पवित्र हो तो एक क्षण में वहाँ से वहाँ पहुँच कर कहाँ से कहाँ चला जाता है। एक साहब को मैं जानती हूँ, बहुत बड़े आदमी हैं वो, वो दो मिनट के अन्दर में पार हो गये। दो मिनट के अन्दर में! मैं हैरान हो गयी कि उनकी कुंडलिनी कैसे जाग्रत हो गयी धड़ाम से! अत्यंत पवित्र आदमी हैं। वो, इसमें कोई शंका नहीं। उनकी तंदरुस्ती वैसे भी अच्छी रहती थी। उनकी कोई रूकावटें और नहीं थी । कोई कॉम्प्लिकेशन नहीं था । एकदम उनकी कुंडलिनी खुल कर के चारों तरफ फैल गयी और उनके हाथ से झरझर, झरझर बहने लगी। ऐसे अनेक लोग हैं। अपने देहातों में, मतलब यहाँ तो मैंने इधर काम नहीं किया 12 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-12.txt देहातों में इतना, लेकिन महाराष्ट्र में देहातों में हज़ारों लोग पार ह्ये हैं, हज़ारों लोग और उनके हाथ से झर- झर-झर कुंडलिनी, चैतन्य लहरियाँ बहने लग गयी। और उनकी सारी गंदी आदतें अपने आप छूट गयी| क्योंकि उनके अन्दर बसा हुआ जो धर्म है वो जागृत हो गयी। अब ये दिन नहीं है कि हम आप से कहें कि ये न करो, वो न करो। और बाह्य को आदमी ज़्यादा पकड़ेगा। अन्दर को नहीं पकड़ता। कुछ न कुछ ऐसा बना दिया बाह्य का कि उसको पकड़ लेंगे। हर एक धर्म में ये देखा मैंने कि बाह्य की चीज़ पकड़ता है, अन्दर की चीज़ जो है उसको नहीं पकड़ता। अब जैसे मुसलमान धर्म में शराब पीना मना है। शराब जरूर पिएंगे और नमाज पाँच मर्तबा जरूर करेंगे। से धर्मों में एकदम से शराब पीना मना है और सही बात है! इस वजह से मना किया गया था बहुत कि ये चीज़ चेतना के विरोध में जाती है। जो चीज़़ चेतना के विरोध में जाती है वो चीज़ को नहीं लेना चाहिए क्योंकि चेतना में ही परमात्मा को पाना चाहिए। मगर किसीसे कहिए कि शराब मत पीजिए तो आधे लोग उठ के चले जाते हैं। इसीलिये मैं कहती हूँ कि नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। बैठे रहो, रहो। पार होने के बाद अपने आप धर्म जागृत हो जाएगा , सब चीज़़ छूट जाएगी मेरे बच्चों की। क्यों उनको अभी से भगाऊं? सब चीज़ छूट छाट जाती है क्योंकि ये जो धर्म हैं हमारे अन्दर, जो ये बैठे बीचोबीच बना है। । इस जगह दस गुरु है। दस गुरुओ के तत्त्व है। वो तत्व-सार वैसे भी हैं और साकार स्वरूप भी। और ये सारे गुरु हमारे अन्दर जागृत हो जाते हैं और इनकी जागृति की वजह से और धर्म हमारे अन्दर जागृत होने से हम अधर्म का काम कर ही नहीं सकते। कर ही नहीं सकते। पचता ही नहीं, हज़म ही नहीं होगा। परेशान हो जाएंगे आप, कोई भी अधर्म की बात होगी तो आप भाग जाएंगे वहाँ से कि बाबा रे बाबा, यहाँ से भाग जाओ। और ये चीज़ अपने आप घटित हो जाती है। थोडी सी, ज़रा सी मेहनत करनी पडती है अपने को जमाने की। लेकिन अपने आप घटित हो जाने से मनुष्य का धर्म जागृत हो जाता है। किसी को कहना नहीं पड़ता कि, 'बेटे तु ये नहीं कर।' क्योंकि ये कहने में आजकल के जमाने में कोई सुनने भी नहीं वाला और एक आफ़त खड़ी हो जाएगी। सबको दादा-पोता कहके कि 'भाई , बैठ जाओ, कोई बात नहीं, ठीक है। शराब पीते हो ना , ठीक है! और भी धंधे हैं , कोई बात नहीं बैठ जाओ । जो भी करते हो कोई हर्ज नहीं बेटे, सब लोग बैठो। पहले पार हो जाओ | फिर बाद में देखते हैं।' तो कोई भी नहीं मानेगा । लेकिन पहले ही शुरू कर दे कि, 'भाई, शराब पीना मना है और फलाना मना है। सिगरेट नहीं पिओ।' तो बुरा लोग बिगड़ेंगे। अब मुसलमान लोगों का ये कहना है कि उनको सिगरेट मना नहीं है। तब सिगरेट थी ही नहीं तो मना क्या करते ? फिर नानक साहब बन कर के आये और कहा, 'भाई, सिगरेट मत पिओ क्योंकि सिगरेट भी निकाली इन्होंने।' अब कल आप लोग अगर गांजा-वांजा पिते हैं तो लोग कहेंगे कि, 'साहब, नानक साहब ने तो नहीं कहा था कि गांजा मत पिओ। तो अभी हम लोग पी सकते हैं गांजा।' तो इस तरह से जो भगेड़ लोग होते हैं उनसे तो भगवान ही बचायें। 13 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-13.txt याने कबीर दासजी, जो इतने पहुँचे हुए थे वो नहीं सोचते होंगे कि लोग कितने गँवार हैं! बिहार में उन्होंने सारा अपना जीवन बिताया। वहाँ इतना उत्थान का कार्य किया और उन्होंने कुंडलिनी को 'सुरति' कहा हुआ है। हर जगह 'सुरति' कुंडलिनी को कहा हुआ है। बिहार में, आपको आश्चर्य होगा कि तम्बाकू को वो सुरति कहते हैं। अकल है या नहीं लोगों के पास एक से एक बढ़िया हैं और क्या कबीरदास जी सोचते होंगे कि, 'किस बेवकूफों से पाला पड़ा कि जिस कुंडलिनी की मैंने बात करी और किसको ये लोग आज कल सुरति कहते हैं।' 14 ॐ३] 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-14.txt और हमारे महाराष्ट्र में भी श्रीकृष्ण, जो कि विशुद्धि चक्र पे वास करते हैं। उनका जो मंदिर विठ्ठल का बना हुआ है, जहाँ साक्षात कहते हैं कि विठ्ठल विराजित थे, उस जगह में एक महीने के लिये लोग, साथ में टुकुर-टुकुर बजाते, चलते हैं 'विठ्ठल-विठ्ठल' करते हुए और मुँह में तम्बाकू दबायें और जिससे कि नफरत है बिल्कुल, श्रीकृष्ण को नफरत है, नफरत है बिलकुल। अब वो कैन्सर जब होने लग जाए तब तो वो अपने आप छूट जाती है। और आश्चर्य उससे भी बढ़ के मुझे तब होता है, मैं बचपन से सोचती थी कि इन्सान की खोपड़ी कैसे बैठी है। जब ये देखता है कि कोई शराब खाने में जाकर, वहाँ से लौट रहा है और खूब चढ़ाया हुआ भूत है, तो फिर उसी शराब खाने में क्यों जाता है जब वो होश में है? लेकिन ये आश्चर्य की सब चीजें तो मनुष्य ही में है। परमात्मा का मुझे कोई आश्चर्य नहीं रहता। क्योंकि वो बिल्कुल जो कहते हैं वही करते हैं और जो हैं सो हैं। पर मनुष्य करता एक है, बोलता एक है और कहता दूसरा है। इंटिग्रेशन इसकी वजह ये है कि इन सब चक्रों का समग्रता है, चक्रों में जो समग्रता, चाहिए वो नहीं है। एक चक्र दूसरों से अलग है। धर्म, धर्म के बारे में एखाद आदमी से कहें तो भाषण देने के लिए आ जायेंगे| अभी एक साहब मुझे मिले थे, सोलापूर में । भाषण हुआ, तो कहने लगे, 'माताजी, एक साहब आये थे, बड़े बाबाजी तो वो हमसे कहने लगे कि भाई, अपने देश में इतनी गरीबी है कि लोग भालू भी खाते हैं ।' मैंने कहा कि, 'ऐसा तो मैंने कहीं ० पैसा देखा नहीं कि भालु-वालु खाते होंगे।' 'और ये है, वो है। और तुम अमीर लोग कुछ नहीं देते हो। हमको कुछ पैसा दो तो हम इनका भला करें।' उन्होंने अपना हिसाब बनाया। और कहने लगे कि वो जाते वख्त इंपोर्टेड गाड़ी में गये। कुछ समझ में नहीं आया । तो मैंने कहा, 'यही तो खासियत है। तुम लोग पैसा भी ऐसे आदमी को दोगे जो ऐसे किस्से सुनायेगा ००१ तुम्हारे सामने कि आहाहा.. जैसे कि बड़े परमात्मा बन बैठे। और उसको कुछ है परवाह ? वो तो अपने रूपये बनाने के लिए आया है। अरे, इस देश में ऐसे-ऐसे महादुष्ट हैं। एक साहब ने तो छ: हजार कोट रूपया कमाया हुआ है। छः हजार कोटि! ये धंधे! तो हम लोग उसको किसलिये दिये थे । बेवकूफ लोग होंगे तभी तो ना! लेकिन इतने बेवकूफ एकसाथ पैदा हो जाए तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दो-चार हो तो ठीक है। और इसी प्रकार के लोग, लोग को भाते हैं । जब तक आपके अंदर सहजयोग जागृत नहीं होगा तब तक आप कैसे जानियेगा कि कौन असल और कौन नकल। किस में असलियत है और किस में नकलियत ! जब तक हाथ 15 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-15.txt में चैतन्य लहरियाँ नहीं बहेंगी तब तक आप कैसे कहेंगे कि कौन सच्चा और कौन झूठा! आपकी अपनी ही शक्ति अभी तक जागृत नहीं है। आपके अन्दर अभी अपना ही दीपक नहीं है। इस अंधेरे में आप किस चीज़ से लड़खड़ा रहे हैं आप जानते ही नहीं। इसीलिये आत्मा का साक्षात्कार सबसे पहले होना चाहिए। फिर सब के बातें होंगी। पहले उसका साक्षात्कार ले लो। इस अंधेरे से पहले जागो। फिर सब अंधेरे अपने अन्दर दिखायी देंगे। अपने अन्दर की ठोकरें दिखायी देंगी। अपने अन्दर की गलतियाँ दिखायी देंगी। और तुम्हारा आत्मा ही तुम्हारा गुरु है। वो ही गुरु, जिसको कि अनंत काल से गुरुओं ने पाला-पोसा, बड़ा किया, जिसकी बात की थी, वही गुरु तुम्हारे अन्दर है। वही तुमको सिखायेगा कि, 'देखिये, ये आप नहीं हैं। ये कुछ और चीज़ है। इसको छोड़ो, उसको छोड़ो।' उस आत्मा को जागृत करना चाहिए, किसी भी धर्म को आप अभी मानते हैं, ये तो मानना सिर्फ एक दिमागी जमा-खर्च है। आत्मा के धन को फिर आप मानिये। वही असल धर्म है। बाकी सारे धर्म एक प्रकार से झुठला गये, झुठला गये। उसकी शुरूआत सच्चाई की थी। बड़े-बड़े महान लोग संसार में आयें। जैसे कि एक पेड़ पर अनेक फूल अनेक बार खिलते हैं। बाद में आप लोगों ने उनको तोड़-ताड़ के अपना, मेरा बना कर के उनका सारा सत्व ही खत्म कर दिया। इसीलिये उनका कोई दोष नहीं और धर्म का भी कोई दोष नहीं। ये तो आप लोगों की हरकतें हैं। जिससे ये सब खराब हो जा रहा है। अब आपको जगाने का एक ही तरीका मेंने सोचा है कि पहले आपका आत्मा ही जगा दें, फिर उसके बाद दूसरी बातचीत। कैसा भी हो, कैसा भी आदमी कुछ भी हो। 'चलिये, आईये, पहले पार हो जाईये। पहले पार हो जाईये।' पार होने के बाद फिर हम देखेंगे। पुनर्जन्म के बगैर आदमी समझ ही नहीं सकता इस बात को। सारी बात जो है जबानी जमा-खर्च हो जाती है और धर्म भी एक जबानी जमा-खर्च होता है। जब ये धर्म जागृत हो जाता है तो ये जो लोग यहाँ बैठे हये विदेशी हैं, इन्होंने जितने भी धंधे किये हैं, इसे हम लोगों के, कितनी भी कोशिश करने से भी हम लोग तो कर ही नहीं सकते, क्योंकि ये लोग तो धर्म को सोचते हैं कि, ये गलत चीज़ है, इसको वो मानते ही नहीं इसलिये उसे छोड़ना ही नहीं पड़ा। इनके फ्रॉइड साहब एक गुरु थे, उन्होंने ऐसे ही सिखाया। माँ, बहन मानना पाप है, ऐसे ही इनको सिखाया गया और ये उसको ही सत्य मान के उस पे चले ह्ये लोग हैं बिचारे! और ये सब को छोड़-छाड़ कर के कमल के जैसे ऊपर खिल उठे। एकदम बदल गये। इनकी जिंदगी बदल गयी। इतने खूबसूरत हो गये हैं ये। लेकिन हिंदुस्तानी बड़ी मुश्किल से छोड़ता है। उससे चिपक जाता है। क्योंकि अनादि काल से ये चीज़ चली आयी है। अच्छी चीज़ चिपकी रह जाये, ये बहत सुंदर होता है, लेकिन बूरी चीजें ज़्यादा चिपक जाती हैं। इससे छूटती कम है। पर धीरे-धीरे छोड़ना ही पड़ता है क्योंकि गर आपने नहीं छोड़ा तो आपके वाइब्रेशन्स छूट जाएंगे। आप स्थापित नहीं हो सकते। अब आपके अन्दर एक और तीसरा चक्र है , जो कि वास्तव में दूसरा माना जाता है। इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। ये चक्र जो है ये आपको ब्रह्मदेव की शक्ति देता है। जिसकी वजह से मनुष्य विचार करता है। 16 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-16.txt आगे की सोचता है। कोई चीज़ बनाता है। जैसे कि एक आपने फर्निचर बना लिया। एक पेड़ टूट गया। तुमने सोचा, चलो, फर्निचर बना लें। तो पहले मेरे ख्याल से बहुत बूढ़े लोगों के लिये बनाये होंगे फर्निचर जो जमीन पर नहीं बैठ सकते थे, करते-करते जवानों ने कहा कि हम भी फर्निचर बनवाये। करते-करते फर्निचर बैठ गया सर पे, अब वे जमीन पे नहीं बैठ सकते। कुर्सी ले के चलना पड़ता है। ये जो शक्ति है इसे मनुष्य क्रिएट करता है। सर्जन करता है। और इस सर्जन शक्ति को हम जब बहुत ज़्यादा इस्तमाल करते हैं, जरूरत से ज़्यादा तब एक ही शक्ति को इस्तमाल करने की वजह से और जितने भी चक्र हैं उनसे हमारा संबंध टूट जाता है। एकाकी जीवन जिसका होता है उसके साथ ऐसी ज़्यादती होती है। और जब ये संबंध उस संपूर्णता से टूट जाता है तब हम अपने तरीके से चलने लग जाते हैं। ऑन माय ओन! और इसी को हम कह सकते हैं कि इन्सान जो है वो कैन्सर की बीमारी का शिकार हो सकता है। उसको शरीर का कैन्सर नहीं होगा तो मन का भी हो सकता है। जितने भी अहंकारी लोग होते हैं उनको मन का कैन्सर होता है। वो सोचते हैं कि 'मुझसे बढ़ कर दुनिया में कोई नहीं।' और वो जिसको छूते हैं वो भी यही सोचने लगता है। वो किसी के घर में पाँव रखें तो बच्चे भी सोचने लग जाएंगे। उनकी ऐसी कृपा होगी कि जहाँ उन्होंने बात की तो घोड़े, बैल सब उनके जैसे हो जाएंगे । जो अहंकारी मनुष्य होता है वो अहंकार करने लग जाता है। उसको देखते-देखते सब लोग अहंकार करने लग जाते हैं। अब हिटलर इसका एक उदाहरण है जो अहंकार में इतना भर गया। इसने सोचा कि, 'मैं कोई विशेष जीव हूँ।' और वो जिसको भी छूता था वो भी ये ही सोचता था। यहाँ तक कि उन लोगों को मार डाला था । हालत खराब कर दी। किसी के समझ में ही नहीं आया। इतने लाखों लोगों को उसने बेवकूफ बनाया और सब बेवकूफों की तरह उसकी बातें सुनने लग गये। और छोटे-छोटे बच्चों को और औरतों को गैस चैम्बर में मार दिया। उनकी अकल ही नहीं। तो 'मैं बहुत अकलमंद हूँ' ऐसे समझ के जो आदमी चलते हैं उनके लिये हिटलर हैं सामने , दूसरे खोमिनी साहब हैं, ईडयामीन हैं, ऐसे बहुत सारे हैं आपको देखने के लिए । और अहंकार जिस आदमी में होता है, जो कि यहाँ पर दिखाया गया है। आप देखिए, ऊपर में, पीले रंग में जो कि अहंकार है। ये स्वाधिष्ठान चक्र के चलने से होता है। और उसकी शक्ति जो है, उसको ये राइट साइड की सरस्वती की शक्ति जो है उससे मिलता है। अब जिस आदमी के पास सरस्वती की शक्ति आ गयी वो अपने को दुनिया में सबसे होशियार समझता है। और इतना इस्तमाल करता है कि उस इस्तमाल के, जैसे बाय प्रॉडक्ट की तरह से हमारे अन्दर यह अहंकार तैय्यार हो जाता है। जैसे कि एक फैक्टरी खूब चलायी, जिसमें धुआँ होता है उस तरह से हमारे अन्दर अहंकार होता है। और अहंकार का लक्षण क्या है? आपको आश्चर्य होगा बेवकूफी। जो अहंकारी मनुष्य होता है वो अत्यंत बेवकूफ होता है। जिसकी बातें, जिसको कहते हैं 17 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-17.txt एकदम स्टुपिड जैसी होती है। इडिओटिक। बड़ा इडियट होता है। कोई आदमी आपसे कहे, 'मैं फसर्स्ट आया। फर्स्ट से फस्स्ट आ गया। और मैं फलाना हूँ। और मैं यहाँ का राजा हूँ। और ये मंत्रियों से कहना कि भैय्या मैं गरीब हूँ, मुझे माफ करो।' तुम यहाँ क्यों आ गये? हमारे यहाँ आपने पढ़ा होगा कि नारदजी को एक बार अहंकार हो गया। और उन्होंने कितनी बेवकूफी की। और मायानगरी में चले गये और वहाँ बेवकूफ जैसे बंदर बन के और वो दुनिया भर की चीजें करने लगे। ऐसे बेवकूफ लोगों को देख सब दुनिया हँसती है पीठ पिछे। आप देख लीजिये ऐसे अहंकारी लोगों की पीठ पीछे आप तारीफ सुनिये। तो लोग एक बड़ा जोक बना के हँसते हैं कि, 'साहब ये बेवकूफ जो हैं अहंकारी हैं। ये अपने को समझते तो अफलातून हैं। लेकिन है ये अहंकारी' और ये अहंकार जो हैं मनुष्य को बेवकूफी की ओर ले जाता है। और वो बेवकूफ होते जाता है और उसको समझता ही नहीं कि वो बेवकूफ है। अंत में उसका हृदय भी जो है एकदम दब जाता है। उसका हृदय एकदम बद हो जाता है। क्योंकि अहंकार जो है, यहाँ से हृदय चक्र, ब्रह्म चक्र, यहाँ से जो ब्रह्मरंध्र हैं, ये हृदय का पीठ और उसको वो ढ़क लेता है। और जब अहंकार उसको ढ़क लेता है तो हमारा हृदय एकदम ऐसा, और जब ऐसा हृदय हो जाता है मनुष्य का तो वो इस कदर दुष्ट प्रकृति का हो जाता है कि आश्चर्य होता है कि ये कैसे हो गया ! अब परदेश में आप जाईये। पता नहीं हमारे हिंदुस्तानी वहाँ जा कर कैसे रहते हैं। मेरा तो वनवास ही हुआ। लंडन शहर में कहते हैं कि हर हप्ते में दो इन्सान मारे जाते हैं। और वो कौन है, छोटे बच्चे और उनको मारने वाले उनके माँ-बाप हैं। सोचिये, यहाँ कोई सुन भी सकता है ऐसी बात! ये अहंकारी लोगों ने कार्य किया। इनका अहंकार है कि उनको कोई, किसी के प्रति भावना नहीं, न बच्चों के प्रति, न माँ के प्रति, न बाप के प्रति। इस तरह के अहंकार में जब आदमी डूब जाता है तब उनकी बेवकूफियाँ प्रतीत होती हैं उनके भाव से। अपने यहाँ एक से एक राजा- महाराजा हो गये। बड़े -बड़े लोग हो गये, लेकिन कितने नम्र । | शिवाजी महाराज का किस्सा है। ऐसे अपने यहाँ हो गये शिवाजी महाराज जैसे लोग। अब तो ऐसा लगता है कि वो जमाना ही कुछ और था। उनके यहाँ गर रामदास स्वामी आयें, उनके जो गुरु थे, तो उन्होंने आ कर के और बाहर से आवाज लगायी। तो शिवाजी गये। उनके पैर छूोे। उनके पैर पे अपना सर का ताज़ | उतार के रख दिया और कहा कि, 'गुरु महाराज कैसी कृपा हुई!' तो वे कहने लगे कि, 'मैं तो भिक्षा लेने आया।' तो अन्दर जा के चिठ्ठी लिखी। उसमें लिखा कि, 'गुरु महाराज, हमारा जितना भी राज्य है, वो आपके चरणों में है।' और ला कर के एक क्षण में दे दिया। 'ये आप ही का स्वराज्य है। सारा का सारा। आज कल कोई राजा- महाराजा तो संत-साधुओं को तो दरवाजे के बाहर ही खड़ा करते हैं। कोई कहेगा कि, 'भाई, अंदर भी आओ । ?' | 18 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-18.txt एक अगर कोई काम करवाना हो, सरकारी नौकर से, किसी के पास जाईये तो वो दफ्तर में आपको बिठा के रखेगा, के साथ में घंटो तक। 'अरे भाई, एक छोटासा हमारा काम ही है। क्या करियेगा प्यून आप? आप सरकारी अफसर हैं यहाँ। हमारा एक इसका काम है, सहजयोग का। हम तो कुछ पैसा नहीं लेते। आप हमसे इतना सा ले लीजिये।' तो वो कहेंगे, 'चलिये आप, बैठिये वहाँ।' कोई पूछेगा भी नहीं। और यहाँ तो वो साक्षात राजा थे, वो जा कर के उन्होंने अपने सारे राज्य को प्रदान कर दिया। और राज्य को प्रदान कर के और उन्होंने कहा कि, 'अब मैं सब कुछ त्याग चुका हूँ।' तो उन्होंने कहा कि, 'भाई, हम तो साधु आदमी हैं, हम क्या राज्य करेंगे। राज्य तो तुम्ही को करना है सब पर। लेकिन इतनी बात है कि तुमने हमें प्रदान कर दिया है तो प्रतीक रूप से, जो ये हम छाटी पहनते हैं इसका तुम झंडा बना दो।' वही झंडा बना लिया। अब मैं देखती हूँ कि वो झंडा राजकारण में लोग लगा रहे हैं। अरे भाई, वो झंडा तो सन्यासियों का लक्षण है। उसको काहे को छूते हो आप लोग ? छोड़ दो। उसको तो छोडो कम से कम ! इस प्रकार हम लोग सब चीज़ में गड़बड़ी कर रहे हैं। किसी का दिमाग कहीं नहीं चल रहा है। और हम लोग जब इस बेवकूफी में बहते जाते हैं, इस अहंकार में तो ये समझ में ही नहीं आता कि हम कहाँ बह रहे हैं लेकिन अब जो देश में बहुत ज़्यादा बढ़ गया है। और इन्होंने अॅटम बॉम्ब और दुनिया भर के बॉम्ब बना कर के अपने विध्वंस की पूरी व्यवस्था कर दी है। कोई समझता भी नहीं कि, बाप रे बाप! कौनसे राक्षस हमने इकट्ठे कर रखें हैं। और ये हमको खत्म कर देंगे। अगर अमेरिका ने एक बटन दबा दिया तो रशिया खत्म हो गया और रशिया ने दबाया तो ये खतम हो गया। जब मुकाबले पे आ जाता है मामला तब लोगों के खोपड़ी में बात आती है कि भाई, ये क्या हमने ऐसा अॅडव्हान्समेंट कर दिया। क्योंकि हृदय तो रहा नहीं। आत्मा जिस चीज़ में नहीं रहती है, उसका यही हाल होने वाला है। कोई भी चीज़ बगैर आत्मा के आप करिये, चाहे आपका राजकारण हो, चाहे आपका कुछ भी। आत्मा के बगैर कियी हुई सब चीज़ जा के नश्वर ही होगी। और नष्ट होगी और नाशकारी होगी, कभी भी। अब आप लोग भी डेवलपिंग हो गये। मतलब आज- कल आप लोग डेवलपिंग हो रहे हैं, कल आप लोग डेवलप हो जाएंगे तो वही नमना हो जाएगा कि आपके बच्चे इतने नीचे घिर जाएंगे कि आप परेशान हो जाएंगे और बिवि निभायेगी हजबंड का रोल और फिर हो जाएगा झगड़ा और फिर डाइवर्स होंगे और फिर जा कर रहिये ऑर्फनेज और अनाथ आश्रमों में और फिर शराब पीयेगा। बस, यही सब, और कोई धंधा नहीं रहेगा। यही सब का इंतजाम आप लोग सब कर रहे हैं तो आप सबको मुझे बता देना चाहिये कि ये बहुत भयानक है इससे बचना चाहिये। बहुत भयानक है और इससे बचने के लिए आप पहले आत्मा को प्राप्त करिये। फिर चाहे आप अपने को डेवलपिंग करिये या चाहे करिये लेकिन पहले आप अपने आत्मा को पा लीजिए वरना आप यही कुछ सत्यानाशी में फँस जाएंगे। इसलिये जो गलत रस्ता है उसपे मत जाईये, कोई भी वजह हो। अब एक जर्नलिस्ट साहब थे, वो आ गये और बैठ गये और लग गये मुझसे लड़ने। मैंने कहा कि, 'भैय्या, आप 19 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-19.txt क्यों मुझसे लड़ रहे हो? मैंने क्या बिगाड़ा है आपका?' तो कहने लगे कि, 'नहीं माताजी, बात ये है कि आप तो कह रहे हैं कि अब सब ठीक हो जाएगा।' तो मैंने कहा कि, 'हाँ, ये तो बिल्कुल हो जाएगा, अगर 'हम आत्मा जागृत है और अगर धर्म जागृत हो जाये तो सब ठीक होने वाला है।' तो फिर कहने लगे कि, अखबार में क्या लिखेंगे ?' अखबार में तो आप ऐसी बाते छापते हैं कि जब कोई खराबी हो। एरोप्लेन कहीं गिर गया, कहीं पचासों लोग मर गये, पचासो लोगों की हालत, आना-जानी सब छापते हैं तो हम अब और क्या छापें। सारी दूनिया ही इसमें घूम रही है। तो मैंने कहा कि, 'भाई, कभी-कभी आप मनुष्य भी तो होते होंगे, इन्सान भी तो होते होंगे या हमेशा ही जर्नलिस्ट ही रहे ? और जब आप इन्सान होकर सोचने लगेंगे तो समझोगे कि क्या चल रहा है आस-पास, आपके भाई-बहनों के साथ क्या हो रहा है और तुम्हारे मानव की क्या दशा हो रही है इसको खोजो तुम और इधर तुम आओ।' तो कहने लगे कि, 'माँ, ये तो बात है, मेरे घर में ही बड़ी दुर्दशा है। और तुम्हारे समाज में और भी दुर्दशा है, तुम्हारे देश में और भी दुर्दशा है और सारे संसार में दर्दशा है उसको बस ठीक करना है तो अपने आत्मा को पाना है। सबसे कहना है कि अपने आत्मा को पाओ। आत्मा को पाते ही परमात्मा की जो शक्ति हम लोगों से अगोचर है, अलख, निरंजन है वो हमारे अंदर से बहना शुरू हो जाएगी। हम उसके प्रेम और आनंद में बहने लग जाते हैं। बस उसको पाओ। उसको पाये बगैर कुछ भी सुलझने नहीं वाला है। आज अगर ये सारे चक्रों के बारे में बताऊंगी तो मुश्किल हो जाएगी लेकिन आज मैंने ये स्वाधिष्ठान और मूलाधार के बारे में थोड़ासा बताया हुआ है। अब ये गुरु तत्त्व की बात करनी है। अपने अंदर ये गुरु तत्त्व को जागृत कर लेना, ये हमारा प्रथम कर्तव्य है। उस गुरु तत्त्व को जागृत करके और आप अपने ही को प्राप्त करते हैं। आज संसार ऐसे कगार पर खड़ा है कि विध्वंस बाहर से तो है ही लेकिन अंदर से भी बहत है। हर तरह की बीमारियाँ आज सामने आने लगी है, इन बीमारियों का कोई भी इलाज नहीं है। ये जो विध्वंस हमारे अंदर से हो रहा है उधर हमारा कोई भी ध्यान नहीं है। हमारे बाल-बच्चे सारे, जो भी हमारे अपने हैं वो सब सारे खत्म हो रहे हैं। उनको कुछ सबको जोड़ने का एक ही तरीका है कि जो सर्वव्यापी परमात्मा की ब्रह्मशक्ति है उसको प्राप्त करें, परमात्मा के साम्राज्य में जायें, उसमें रम जायें, और ये सिर्फ आत्मसाक्षात्कार से ही घटित हो सकता है। जो कि आप बेच नहीं सकते, खरीद नहीं सकते। ये तो बिल्कुल गलत बात है कि यहाँ के लोग कहते हैं कि बगैर पैसे के कैसे काम हो सकता है। अभी आप ये जो इन्सान बने हुए हैं इस बात का कितना पैसा चढ़ाया है आपने भगवान को? जितने भी मूल्यवान और जरूरी चीज़ें हैं, जीवन के लिये वो सब मुफ्त हैं, इसीलिये हम जीवित हैं। लेकिन जिस तरह से हम लोग हैं, कभी-कभी तो लगता है कि जीवित रहने का भी हमको अधिकार नहीं हैं। लेकिन परमात्मा ने सब मुफ्त ही दे दिया है। उनकी परम करुणा, बड़ा ही अपरंपार है उनका प्यार ! सारे संसार में गहराई है इसीलिये हम लोग, आप चल रहे हैं। सिर्फ उस प्यार को हमारे अंदर बसा कर, उनका प्रकाश सारे संसार में फैलाना है। 20 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-20.txt कुण्डलिनी के बारे में और हमारे प्रोग्राम दस दिन तक हैं। आप लोग जरूर वहाँ उपस्थित हों और मैं बताने वाली हूँ कि कुण्डलिनी चीज़ क्या है? उसका कितना हमारे साथ सनातन सम्बन्ध हैं। और सनातन धर्म की जो विशेषतायें हैं उनको उभारना अत्यंत आवश्यक है और अगर आप सोचते हैं कि एक तरफा चलने से आप कामयाब होंगे तो फिर ये गलत बात है। सब चीज़ परमात्मा की बनाई हुई है और परमात्मा ने ही इन बनी हुई चीज़ों को ठीक रखने के लिये अपने ही स्वरूपों को इस संसार में भेजा हुआ है, उस चीज़ को आप लोग भी मान्य कर लीजिये। अब उसकी मान्यता को ले करके और आत्मसाक्षात्कार को आपको प्राप्त करना है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आपको इस में स्थापित भी होना पडेगा। ये नहीं कि आपने आत्मसाक्षात्कार कर लिया और आप बैठ गये कि, 'हाँ माँ, मैं तो पार हो गया हूँ।' ये पहली चीज़ है कि योग होना और फिर योग की कुशलता प्राप्त करना। और इसकी कुशलता सीखने पर आप प्रवीण हो जाएंगे, आप एकदम इसके मास्टर हो जाएंगे। वो कैसे और क्या इसके लिए आपको यहाँ पर इस मोहल्ले में ही एक सेंटर है, जहाँ आप ये सब जान सकते हैं, समझ सकते हैं और उसमें प्रवेश हो सकते हैं। बहुत आसान है, इसमें छोटे-छोटे बच्चे तक इसमें निष्णात् हो गये हैं। और आज मैं देखती हूँ कि अनेक पहुँचे हुए पुरुष पैदा हो गये हैं, लेकिन आप जानते नहीं हैं कि वे पहुँचे हुए पुरुष हैं। उनको समझने के लिये भी जरुरी है कि आप अपने आत्मा को जान लें, जिसकी वजह से आप उनको भी समझ सकेंगे। सब के लिए अति आवश्यक है कि वो परमात्मा को जानने से पहले अपने आत्मा को जान ले। और आत्मा को जानते ही आप परमात्मा को जान पाएंगे, उससे पहले नहीं जान जाएंगे। इसलिये पहले आप अपने आत्मा को पायें और यही एक इच्छा शुरुआत में रखें। उसी के साथ-साथ परमात्मा क्या चीज़ है ये भी आप समझ जाएंगे। परमात्मा का आप सब को अनन्त आशीर्वाद! 21 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-22.txt वि शु ाव द्ि यह सारी सृष्टि एक लीला है, उनके लिये ये लीला है और जब सहजयोगी पार हो जाते हैं तब उनके लिये भी सारी सृष्टि जो दिखायी देती है, वो एक साक्षी है, इसकी ओर वो साक्षी के स्वरूप से देखते हैं। प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ च क्र এএ 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-23.txt विशुद्धि चक्र १. योगेश्वर श्रीकृष्ण श्री विष्णु शक्ति का पूर्ण प्रादुर्भावयुक्त अवतरण श्री कृष्ण रूप में हुआ, इसलिए उन्हें पूर्णावतार कहते हैं। इतना ही नहीं , वे विराट हैं। विराट का अर्थ है महान ; महान भगवान जिसे हम अकबर भी कहते हैं। मुसलमान भी इसे स्वीकार करके कहते हैं 'अल्लाह- हो-अकबर। श्रीकृष्ण का अवतरण सम्पूर्ण रूप में हुआ। जैसे चन्द्रमा की सोलह कलायें हैं, उनकी भी सोलह पंखुड़ियाँ हैं। अत: वह सम्पूर्ण हैं, वह पूर्णिमा हैं - पूर्ण चन्द्रमा। विष्णु के अवतरण के साथ वे पूर्ण थे और यह पूर्णिमा अभिव्यक्ति हुई। राम के अवतरण में जो कुछ भी कमी रह गयी थी इन्होंने उसे किया । दायें हृदय में बारह ही दूर पंखुड़ियाँ हैं, विशुद्धि में सोलह। जिन बातों की ओर लोगों का ध्यान ही नहीं जाता, इन्होंने वह सब दर्शायीं। प.पू.श्री माताजी, २८.४.१९९४ श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जो सत्य पर अडिग थे , वे सत्य में स्थापित थे और जो कुछ भी उन्होंने किया वह सत्य के सिद्धातों के अनुरूप था। हर असत्य चीज को उन्होंने समाप्त करने का प्रयत्न किया और सत्य के माध्यम से स्वयं को स्थापित किया। वे सत्य की प्रतिमूर्ति थे, और उन्होंने इस बात को सिद्ध किया कि किस प्रकार हर चीज़ में सत्य व्यापक हो सकता है। कृष्ण शब्द का उद्भव कृषि शब्द से है। कृषि अर्थात खेती-उन्होंने आध्यात्मिकता के बीज बोए और उसके लिये उन्हें सोचना पड़ा कि हमारी आध्यात्मिक स्थिति क्या है? हमारी आध्यात्मिक भूमि कैसी है ? श्री राम के समय उन्होंने बहुत सारी मर्यादाएं बनायी थीं, पर वे सब मात्र मानसिक बन्धन थे, वैसा करना न तो स्वाभाविक था और न सहज; परिणामस्वरूप लोग अत्यन्त गम्भीर हो गये, वे न तो ज्यादा बातचीत करते थे , न ही हँसते थे और न ही किसी चीज़ का आनन्द लेते थे। अतः श्री कृष्ण ने निर्णय किया कि सर्वप्रथम वो लोगों को बन्धनों से मुक्त करेंगे । प.पू.श्री माताजी, कबेला, ५.९.१९९९ लोगों की गलत धारणाओं को तोड़ने और उनकी शक्ति जागरण की बात बताने के लिये श्रीकृष्ण आए, उन्होंने लीला रची और लोगों को जागृत करने का प्रयास किया। लोगों को सामूहिकता में लाने का प्रयास किया। राधा जी साक्षात महालक्ष्मी थीं, महालक्ष्मी तत्व से ही उत्थान होता है। वे गोपियों की नग्न पीठ पर दृष्टिपात करते कि उनकी कुण्डलिनी जागृत हो जाए, घड़ा फोड़ते थे ताकि जमुना जी का चैतन्यित जल पीठ पर बहे तो जागृति हो जाए। रास सबको नचाकर वे राधा की शक्ति को सबमें संचारित करते थे । मुरली बजाते थे , यह भी एक तरह की कुण्डलिनी है- छ: चक्रों की भाँति बाँसुरी में भी छ: छेद होते हैं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, २८.२.१९९१ श्रीकृष्ण इतने चतुर और ज्ञानगम्य हैं क्योंकि वो बुद्धिरूप हैं, वो विराट हैं। उनका समस्त प्रेम करुणा और सुन्दरता सभी गोप-गोपियों मात्र के लिये थी। राजा के रूप में उनका जीवन समझ से परे और रहस्यपूर्ण रहा 24 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-24.txt लेकिन सहजयोगी समझ सकते हैं। जब वे राजा बने, उन्हें विवाह करना पड़ा। उन्होंने पाँच विवाह किये , वे पाँच विवाह वास्तव में पंचतत्वों के परिणामस्वरूप थे। श्रीकृष्ण के पास सोलह हजार शक्तियाँ थीं, शक्तियों को स्त्रीरूप में अवतरित होना पड़ा, वे सोलह हज़ार राजकुमारियाँ बन गयीं और एक राजा ने उनका हरण कर लिया और जब राजा उन नारियों को दूषित करना चाहता था, श्री कृष्ण ने आक्रमण करके सोलह हजार राजकुमारियों को मुक्त करा दिया , उन्हें अपने साथ ले आए, उनसे नियमानुसार विवाह किया। वास्तव में ये विवाह तो उनका अपनी शक्तियों का वरण करना था। श्रीकृष्ण ने उन शक्तियों का प्रयोग विभिन्न वस्तुओं के सृजन में किया। यदि श्रीकृष्ण अवतरित न हुए होते तो हमें आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान न हुआ होता । पहली बार श्रीकृष्ण ने केवल अर्जुन को आध्यात्मिक जीवन के विषय में बताया। उन दिनों लोग आध्यात्मिकता को जानने की अवस्था में न थे। प.पू.श्री माताजी, १९.८.१९९० गीता समझने के लिये आपको सहजयोग में आना पड़ेगा, सिर्फ गीता पढ़ -पढ़ कर कुछ भी गीता समझ में नहीं आएगी । गीता जिसने सुनायी वो श्रीकृष्ण थे, पहले उनके विषय में जान लेना चाहिए | वे बड़़े होशियार ही नहीं, वो उस वक्त के राजदूत थे और डिप्लोमेसी का बिल्कुल जो अर्थ है, उसको जानते essence, थे। अब डिप्लोमेसी का essence क्या है? कि कोई ऐसी absurd बात करो जिसको करने से आदमी मुँह के बल गिरे। कृष्ण का खेल जो है उसको समझने के लिये पहले आपको सहजयोग में उतरना चाहिए। अच्छा मैं समझाने की कोशिश करती हूँ, लेकिन आप भी समझने की कोशिश करें- श्रीकृष्ण ने कहा कि आपको 'ज्ञान' होना चाहिए। ज्ञान माने क्या? ज्ञान माने आपके सेंट्रल नर्वस सिस्टम में आपको जानना चाहिए कि परम क्या है, बुद्धि से नहीं, . जिससे आप स्थितप्रज्ञ होते हैं, साफ साफ उन्होंने गीता के दूसरे ही चैप्टर में यह कह दिया, व्याख्या दे दी कि सहजयोगी कैसा होना चाहिए। .....सर्वप्रथम उन्होंने दूसरी चीज़ उन्होंने बतायी , वो बतायी बहुत कहा कि आत्मानुभव प्राप्त करके स्थितप्रज्ञ हो जाओ | मज़ेदार तरीके से कर्म की, कि बेटे तुम कार्य करते रहो और सब कार्य परमात्मा के चरणों में डाल दो; .मतलब पहले आत्मा को प्राप्त करो फिर आगे की बात करो । आप जब पार हो जाते हैं तो क्या कहते हैं- आ रहा है, जा रहा है, हो रहा है, आप यह नहीं कहते कि 'मैं आ रहा हूँ', 'मैं ये हूँ', 'मैं कर रहा हूँ' ऐसे तो कोई नहीं कहता .....तृतीय पुरुष (थर्ड पर्सन) में आप बात करने लगते हैं-अकर्म।.... सीधे तीन बातें आप समझ सकते हैं इसमें। उनका कर्मयोग, उनका ज्ञानयोग और उनका भक्तियोग - कि अगर परमात्मा को पाना है तो पहले उसका अंग-प्रत्यंग बनना चाहिए, अनन्य होना चाहिए। जब तक आप अनन्य नहीं हैं, योग नहीं पा सकते। अनन्य भक्ति जो है उसको प्राप्त होना चाहिए, ये कृष्ण ने साफ-साफ कह दिया है। कृष्ण को समझने के लिये तो तीक्ष्ण दृष्टि चाहिए, क्योंकि वे बुद्धि की बिल्कुल पराकाष्ठा हैं। आप उनके सामने ठहर नहीं सकते, उनकी बुद्धि के सामने , इतने प्रकाशवान बुद्धिमान वो हैं, और वो चाहते हैं आपको जरा 25 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-25.txt विशुद्धि चक्र नचायें जिससे आप ठीक रास्ते पर आएं। तो हमारे विशुद्धि चक्र में बसे हुए श्रीकृष्ण जो हैं इनको आपको जागृत करना पड़ेगा। जब तक ये जागृत नहीं होंगे तब तक आपको विशुद्धि चक्र की तकलीफ रहेगी। श्रीकृष्ण हमारे अन्तःस्थित सोलह उपकेन्द्रों का नियन्त्रण करते हैं। वे हर चीज़ का नियन्त्रण करते हैं, आपके गला, नाक, आँखे और कानों का वे नियन्त्रण करते हैं। अब विशुद्धि चक्र के भी तीन भाग हैं-दायाँ, बायाँ और बीच का। जब उनका जन्म हुआ, जब उनकी बहन विष्णुमाया थी, तब उनके बायें साइड में प्रादुर्भाव था, बालकृष्ण की तरह, और जब वो बड़े होकर राजा हो गये तो उनका दायीं साइड पर विठ्ठल वो राजा बन करके और द्वारिका में राज्य करने गए और बीचोंबीच साक्षात श्रीकृष्ण जो कि हर हालत में श्रीकृष्ण हैं। जो बीच में श्रीकृष्ण हैं वो लीलामय हैं। उनके लिये सब सृष्टि एक लीला है । होली भी एक लीला है। उस वक्त उन्होंने संसार में आकर जितनी भी विधि थीं जिसने लोगों को ग्रसित कर दिया था, उसको अच्छे से तोड़- फोड़ के ठीक किया था। किसी भी विधि को नहीं छोड़ा। सुदामा को सिर पर चढ़ा लिया, उन्होंने जाकर के विदुर के घर साग खा लिया। उन्होंने जितनी भी विधियाँ और जितनी भी पारम्परिक बुराइयाँ थीं उन पर ऐसी तलवार उठायी कि सब चीजों को तोड़ताड़ के नष्ट कर दिया। यह सारी सृष्टि एक लीला है, उनके लिये ये लीला है और जब सहजयोगी पार हो जाते हैं तब उनके लिये भी सारी सृष्टि जो दिखायी देती है, वो एक साक्षी है, इसकी ओर वो साक्षी के स्वरूप से देखते हैं। वो जो कुछ भी उनको पहले हरेक चीज़ से लगाव था वो छूट करके, वो देखता है, अरे! ये तो नाटक था । ये तो नाटक टूट गया। ये श्रीकृष्ण की देन है। ये इन्होंने हमारी चेतना में विशेष रूप दिया है कि जब वो जागृत हो जाते हैं तो हम साक्षी स्वरूप हो जाते हैं। श्रीकृष्ण दूसरा एक महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, क्योंकि लीलामय हैं, कि हमारे अन्दर जो अहंकार जिससे कि हम हमेशा डरते हैं और दूसरों से दबते हैं, दोनों को वो अपने अन्दर खींच सकते हैं, दोनों को अपने अन्दर समा सकते हैं। इसलिए किसी भी अहंकारी आदमी को आप देख लीजिए-जैसा कि आपने देखा कि दुर्योधन को बहुत अहंकार था, उसको उन्होंने ठिकाने लगा दिया। साड़ी द्रौपदी की बढ़ती गयी, दुःशासन थक गया , उसका अहंकार चकनाचूर हो गया। जो भी अहंकारी आदमी होता है, उस पर उनकी गदा अगर चल पड़े तो वो खेल में ऐसा गच्चा देते हैं कि वो आदमी परास्त हो जाए। उसी प्रकार दब्बू आदमी है या कोई आदमी जो समाज से दबा हुआ है, जो दरिद्र है, जैसे कि सुदामा, उसका मान करना, उसके मित्रत्व को इतना बढ़ावा देना और उसके लिये इस कदर दिल भर के, दिल खोल के सब कुछ देना, ये भी काम श्री कृष्ण का है।........ - उनकी राधा क्या थी? आह्लाद; आदिशक्ति जो दुनिया को आह्लाद दे, जिससे मन प्रसन्न हो। ये कृष्ण की मुख्य इच्छा थी कि सबसे अपना प्रेम बाँटिए, इसलिए उन्होंने होली का पर्व प्रारम्भ किया था । चाहे जो हो, 26 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-26.txt आपका जमादार हो, सबसे गले मिलिए और हम लोग जो हैं उस वक्त सबको गाली गलौच करते हैं, गन्दगी करते हैं, अपनी ज़़बान खराब करते हैं। जो ज़बान श्रीकृष्ण की वजह से चल रही है, वहाँ हम लोग गाली गलौच करते हैं। श्रीकृष्ण की मंगलमयता, उनकी मधुरता, उनकी मोहकता, वो हमारे जीवन में आनी चाहिए । हमको बहत ही माधुर्य से एक दूसरे से बात करनी चाहिए । प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ श्रीकृष्ण एक ईश्वरीय राजनीतिज्ञ थे। ईश्वरीय राजनीति क्या है? आपको चिल्लाना नहीं है। यदि आप किसी को परिणाम विशेष तक ले जाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको विषय परिवर्तन करना होगा। यह बड़ा चतुराई का कार्य है। किसी व्यक्ति के साथ पूर्ण तादात्म्य करना उसके साथ खेलने जैसा है। व्यक्ति को जान | लेना चाहिए कि राजनीति का निष्कर्ष परोपकारिता है। मानव मात्र के हित का लक्ष्य तुम्हें प्राप्त करना है, यदि आप यह कार्य कर रहे हैं तो अपने या किसी व्यक्ति विशेष के स्वार्थ के लिए नहीं कर रहे हैं, अत: चीखने की कोई आवश्यकता नहीं, इसके साथ खेल करते रहें और इसे परोपकारिता तक ले जाएं। प.पू.श्री माताजी, सफरौन, यू.के, १४.८.१९८९ श्रीकृष्ण (कुबेर) अत्यन्त चालाक हैं, अत्यन्त छली व्यक्तित्व। हर कार्य के पीछे उनकी चालाकी होती है। धन सम्बन्धी मामलों में भी वे पहले आपको मूर्ख बनाते हैं कि धन के पीछे दौड़ो और तब आपको पता चलता है कि ऐसा करना अत्यन्त मूर्खता थी। ..... वे वैभव के देवता, महान देवता थे, वे जानते थे कि धन- दौलत का किस प्रकार उपयोग करना है और धर्मपूर्वक, अधर्म द्वारा नहीं, किस प्रकार धनार्जन करना है। प.पू.श्री माताजी, काना जोहारी, १८.८.२००२ श्रीकृष्ण का एक अन्य गुण है कि वे गोचर हैं अर्थात आकाश तत्व से बने हैं तथा सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। अणु, रेणु, परमाणु में, सभी में वे पेंठ सकते हैं। तीनों प्रकार के अणुओं को वे आन्दोलित करते हैं क्योंकि श्रीकृष्ण हर चीज़ में प्रवेश कर सकते हैं, इसी कारण वे पदार्थ, पशु, मानव, आत्मसाक्षात्कारी व्यक्तियों में व्याप्त हो जाते हैं। पदार्थों में मात्र चैतन्य लहरियों के रूप में, पशुओं में मार्गदर्शक के रूप में होते हैं। प.पू.श्री माताजी, न्यू जसी, अमरीका, २.१०.१९९४ श्रीकृष्ण खाकर भी नहीं खाते, सोकर भी नहीं सोते, पत्नियाँ होते हुये भी वे ब्रह्मचारी थे। इसी कारण वे योगेश्वर हैं। प.पू.श्री माताजी, २.१०.१९९४ योगेश्वर की पहचान है सदा मुस्कराते हुए, बिना व्यंगात्मक हुए हर चीज़ के ज्ञान से परिपूर्ण और अत्यन्त स्नेहमय। ..... यही श्रीकृष्ण का चरित्र है कि हम अपने अन्दर झाँके और देखें कि हमारे अन्दर खुद कौन -कौन सी चीज़े हैं, जो हमें दुविधा में डाल देती हैं। -श्रीकृष्ण के जीवन में यह दिखाया गया कि एक छोटे लड़के जैसे 27 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-27.txt विशुद्धि चक्र वो थे, बिल्कुल जैसा शिशु होता है, बिल्कुल अज्ञानी (अबोध) वैसे वो थे। वो अपने को कुछ समझते नहीं थे । अपनी माँ के सहारे वो बढ़ना चाहते थे। इसी प्रकार आप लोगों को भी अपने अन्दर देखते वक्त ये सोचना चाहिए कि हम एक बालक हैं। बालक यानी अबोधिता- भोलापन और उस भोलेपन से हमें अपने अन्दर देखना चाहिए और उसी से अपने को .........अब श्रीकृष्ण जी को जो बात है वो यही है कि बचपन में तो वो एकदम भोले थे और बड़े होने पर उन्होंने ढकना है। गीता समझायी जो बहुत गहन है। ये कैसे हुआ कि मनुष्य उसमें बढ़ गया। इसी प्रकार हम भी सहज में बढ़ सकते हैं। .श्रीकृष्ण से बढकर कोई योगी मैं मानती नहीं हूँ, क्योंकि उन्होंने यह रास्ता बताया कि अपने अन्दर तुम की गलतियाँ देखी, अपने अन्दर के दोष देखो। अपने दोषों से परिचित होना चाहिए। बजाय इसके कि हम और लोगों के दोष देखें अपने ही दोषों को देखकर हम हैरान हो जाएं कि कितने सारे राक्षस पाल रखें हैं अपने अन्दर, कितनी गन्दी बातें हम सोचते रहते हैं। दोष देखने से हम अपनी सफाई करते हैं और उन दोषों को छोड़ देते हैं। श्रीकृष्ण का जो सन्देश है वह यह है कि अपने अन्दर झाँको और देखो। प.पू.श्री माताजी, पुणे, १०.८.२००३ योगेश्वर का एक अन्य महान गुण उनकी पूर्ण सद्-सद् विवेक शक्ति थीं। वो जानते थे कि कौन राक्षस है और कौन नहीं है? कौन अच्छा है और कौन बुरा, कौन भूत बाधित है और कौन नहीं, कौन अबोध है और कौन नहीं? यह गुण उनके अन्तर्रचित था-सद्सद् विवेक की पूर्ण शक्ति। प.पू.श्री माताजी, जिनेवा, २८.८.१९८३ श्रीकृष्ण संहार शक्ति हैं। वे विनाशकारी शक्ति हैं। यह अच्छी बात है कि अपने सारे आयुधों के साथ वे हमारी रक्षा के लिए आते हैं परन्तु उनके पास सुदर्शन चक्र भी है । सुदर्शन-सु अर्थात शुभ, दर्शन अर्थात देखना । वे हमें शुभ दर्शन देते हैं। आप उनके साथ चालाकियाँ करें तो वे सब आपकी गर्दन पर आती हैं और तब आपको अपने शुभ दर्शन होते हैं कि अब आप कहीं हवा में लटक रहे हैं। प.पू.श्री माताजी, लंदन, १५.८.१९८२ धर्म और कर्तव्य - इसमें जो कशमकश होती है, उस वक्त यह सोचना चाहिए कि धर्म कर्तव्य से ऊँचा है और उससे भी ऊँची चीज़ है 'आत्मा'। यानि जो छोटा परिधि बँधा हुआ निमित्त, जो कुछ भी हमारा वलय है, goal है उससे जो ऊँचा goal है उसको पाना अगर है तो इस छोटे को छोड़ना पड़ेगा। और यही श्रीकृष्ण ने शिक्षा दी | श्रीकृष्ण ने कहा कि गर आपको हित के लिये झूठ बोलना पडे तो झूठ बोलिये। चीज़ें हैं, उनको छोड़ना पड़ेगा | यही श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में आकर बताया| .-बड़े ध्येय के लिये ये छोटी प.पू.श्री माताजी, नई दिल्ली, २९.३.१९८३ श्रीकृष्ण का यह कथन आधुनिक संदर्भ में पूर्ण रूप से सत्य उतरता है कि जब -जब धर्म का ह्रास होता है और जब-जब संतो को सताया जाता है, मैं संतो को बचाने, राक्षसों तथा नकारात्मक शक्तियों को समाप्त करने के लिये इस पृथ्वी पर आता हूँ। श्रीकृष्ण तत्व की यह जागृति हमारे अन्तस में होनी अत्यन्त आवश्यक है, अर्थात हमें 28 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-28.txt उनके गुणों की जागृति एवं अनुगमन अपने अन्तस में करना है, तभी हमारी शक्तियाँ उचित प्रयोजन के प्रति कार्यरत होंगी। यही श्रीकृष्ण की पूजा है। प.पू.श्री माताजी, १०.८.२००३ २. कृष्णशक्ति श्री विष्णुमाया विष्णुमाया अवतरणों तथा घटनाओं की घोषणा करने वाली शक्ति हैं। आध्यात्मिक दष्टि से वो अपवित्र चीज़ों को जला भी सकती हैं । जब आप अपनी गलतियों का सामना नहीं करना चाहते तो बायां विशुद्धि चक्र पकडा जाता है। मैंने गलतियाँ कीं, ठीक है - पर अब मैं उन्हें नहीं दोहराऊंगा। बस, सामना कीजिए , पर वे सामना करना ही नहीं चाहते। वे स्वयं को दोषी मानेंगे-दोषभाव को बायीं विशुद्धि पर डाल कर दोषभाव के काले बादल वे एकत्र कर लेंगे। तब मेघ-गर्जन, काले बादलों के मामूली घर्षण से फट पड़ने वाला विद्युत प्रवाह तथा वर्षा उत्प्रेरक विष्णुमाया ऐसे लोगों पर प्रकोप करती हैं। अचानक उन्हें सदमा लगता है। वे अति सम्वेदनशील और व्यग्र हो उठते हैं, यह अधीरता उन्हें सोचने को विवश कर देती है कि हम अधीर क्यों हैं? क्या समस्या है ? उनके अपराध भाव का अनावरण विष्णुमाया शक्ति द्वारा होता है। .महाभारत के समय वे द्रौपदी के रूप में अवतरित हुईं। विष्णुमाया पंचतत्वों में रहने वाली पवित्रता है। यही पवित्रता विवाह के समय पाँचों पांडवों को दिखाई गई थी। उनकी कौमा्यता ( पवित्रता) की शक्ति का उपयोग धर्मनाश करने के कौरवों का भंडाफोड़ करने के लिये किया गया। द्रौपदी ने पांडवों से आग्रह इच्छुक किया कि धर्म की रक्षा के लिये तुम्हें युद्ध करना ही होगा, परिणाम चाहे जो भी हो। भाई के रूप में श्रीकृष्ण ने सदा उनकी सहायता की। अत: भारत में भाई-बहन सम्बन्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सहजयोगियों में भी ऐसा ही होना चाहिए। हमारे यहाँ रक्षाबन्धन तथा भाई-दूज होता है जिसमें दीवाली, रक्षाबन्धन के दिन हम भाई को राखी बाँधते हैं। यह सभी विष्णुमाया की शक्ति है जो भाई की रक्षा करती है। सम आयु, एक ही सूझ-बूझ, सुरक्षा, प्रेम और पवित्रता के कारण भाई -बहन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इस सम्बन्ध को विष्णुमाया चलाती हैं। जब हम इसकी गहनता में जाते हैं तो स्वयं ही विशुद्धि की समस्यायें देख सकते हैं । पश्चिमी देशों के लोग स्वयं को दोषी मानते हैं तथा गलतियों से छूटकारा पाने का प्रयत्न करते हैं। सहजयोग में लेने का अर्थ है कि आपकी पूरी बायीं तरफ पकड़ी हुई है, आप ठीक तरह से चैतन्य लहरियों का अनुभव भी नहीं कर सकते क्योंकि आपकी ग्रीवा-नाड़ी पर तो आपका दोष बैठा है। दोष-भाव ने इसे जकड़ रखा है। आप बायीं ओर को महसूस ही नहीं कर सकते। कोई भयानक बीमारी होने तक आपकी बायीं तरफ की पकड़ बनी रहती है। विष्णुमाया की सूक्ष्म बात यह है कि वह सच्चाई जानती हैं, वह चमकती हैं और सब कुछ देख सकती हैं। 29 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-29.txt विशुद्धि चक्र इसी प्रकार जब विष्णुमाया आप पर कार्य करने लगती हैं तो वह सत्य को अनावृत करती हैं, पर यदि आपकी बायीं विशुद्धि की पकड़ बनी रहती है तो विष्णुमाया चली जाती हैं। तब आप कुछ भी महसूस नहीं करते, आपका बायाँ पक्ष जड़वत हो जाता है। अत: स्वयं को दोषी मानना अनुचित है। यह केवल मनगढ़ंत बात है। स्वयं को दोषी मानने का क्या लाभ है? ऐसा करना व्यर्थ है। आपने यदि कोई अपराध किया भी है तो इसका सामना कीजिए और निश्चय कीजिए कि इसे दुबारा नहीं करूँगा। अपराध को स्वीकार मात्र करते रहने से तो आप यह अपराध बार बार करेंगे और फिर आपको इसकी आदत हो जाएगी। यह विष्णुमाया अपनी शक्ति दिखाती हैं, वह ऐसे बहुत से कार्य करती हैं जिससे लोग डर जाएं, किसी भी तत्व में वे प्रवेश कर जाती हैं। यदि वे जल तत्व में प्रवेश कर जाएं तो प्रचंड तूफान की रचना कर देती हैं। वे कुछ भी कर सकती हैं। किसी भी तत्व में जब वे प्रवेश करती हैं तो उत्प्रेरक बन जाती हैं। आप सहजयोगियों में इन विष्णुमाया की शक्तियों का संचालन करने की योग्यता होनी चाहिए। उनकी पूजा करने की योग्यता भी आपमें होनी चाहिए ताकि वे आपको देख सकें, आपकी देखभाल कर सके, आपके जीवन का संचालन करें । जब आप विष्णुमाया की पवित्रता का अपमान करते हैं तो माया अपना खेल दिखाती है और आपको एड्स जैसे रोग हो जाते हैं, और भी बहुत से रोग हो जाते हैं जो असाध्य हैं, जिन्हें गुप्त रोग कहते हैं। वे कुमारी 'निर्मल' हैं तथा कौमार्य का सम्मान करती हैं। कौमार्य केवल स्त्रियों के लिये ही नहीं होता, यदि भी अपने पतिव्रत और पवित्रता का सम्मान नहीं करते तो उन पर भी विष्णुमाया का आक्रमण होता है पुरुष विष्णुमाया अत्यन्त शक्तिशाली हैं और वे माया की रचना करती हैं और माया रूप में लीला करती हैं। वे माया को तोड़ती भी हैं तथा किसी भी चीज़ को जला सकती हैं। विष्णुमाया सुधारक हैं। जब हम अपने अपराधों को दोष स्वीकृति के नाम पर छिपाते हैं, इन अपराधों को कोई अन्य रंग या नाम देने का प्रयत्न करते हैं तो यह शक्ति व्यक्तिगत, सामूहिक, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उन अपराधों का भंडाफोड़ करती हैं क्योंकि इनमें किसी भी चीज़ के अन्दर प्रवेश कर जाने की शक्ति है। सारे प्राकृतिक विध्वंस विष्णुमाया ही लाती हैं। पर लोगों को चाहिए कि इन प्रकोपों का कारण अपने अपराधों को समझें जिन्हें करने के बाद वे अपनी बायीं विशुद्धि में छिपाये रहते हैं, उनका सामना नहीं करते। एक बार बायीं विशुद्धि जड़ हो जाए तो हँसा चक्र का विवेक भी आपमें समाप्त हो जाता है, तब आपको ... समझ में नहीं आता कि विध्वंसक क्या है तथा रचनात्मक क्या है। यदि आपकी बायीं विशुद्धि खराब है तो आप विध्वंसक चीज़ों को स्वीकारने लगते हैं। इसी के कारण हिंसा, धोखाधड़ी और भ्रष्टता प्रचलित हुई। इस भयानक अवस्था से बचने का एकमात्र उपाय सहजयोग को भली -भाँति अपनाना है। आत्मविश्वास द्वारा आप बायीं विशुद्धि 30 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-30.txt छुटकारा पा सकते हैं, पर समस्या यह है कि मैं जब आपको कुछ बताती हूँ तो आपमें दोष-भाव आ जाता है। जो भी कुछ आपने किया है, वह पूर्णतया समाप्त हो गया है और उसके लिए आपको क्षमा कर दिया गया है नहीं तो विष्णुमाया आपको दण्डित करतीं। दायीं ओर के लोग (राजसिक) जो क्रोधित हो जाते हैं, दूसरों पर प्रभुता जमाते हैं तथा अन्य लोगों को वश में करते हैं, उनमें अपने दोषों को सुधारने के स्थान पर बायीं विशुद्धि में रखे रहने की विशेष शक्ति होती है। इसी कारण मैं कहती हैँ कि बायीं विशुद्धि की समस्या अहं का ही उपफल है। दोषग्रस्त होकर आप केवल अपनी ही हानि नहीं करते, दूसरों को भी नुकसान पहुँचाते हं। दो अन्य चीजें भी विष्णुमाया को परेशान करती हैं, इनमें से एक हैं धूम्रपान और दूसरी चीज़ जिसे लोग नहीं जानते वह हैं मन्त्र। श्री विष्णुमाया ही मन्त्रों को शक्ति देती हैं। यदि आप परमात्मा से योग बनाए बिना ही मन्त्रोच्चारण किए जा रहे हैं तो आपको उस शक्ति से जोड़ने वाले तार जल सकते हैं तथा आपको गले की समस्यायें हो सकती हैं क्योंकि कृष्ण तथा विष्णु में कोई अन्तर नहीं। आपको विराट की समस्या भी हो सकती है। ..कुछ लोग उदारता दर्शाकर अपने अपराधों पर पर्दा डालना चाहते हैं। इस प्रकार का आचरण अत्यन्त छलमय है। यह विष्णुमाया पर नहीं चलता। वह आपको अच्छी तरह जानती हैं और यदि आपने उनसे चालाकी करने का प्रयत्न किया तो वे अपनी शक्तियाँ दिखायेंगी। हमारी बायीं ओर की सारी समस्यायें विष्णुमाया के क्रोधित होने के कारण होती हैं। वे आपको दण्डित करती हैं, आपके अपराधों का भंडाफोड़ करती हैं, आपको ज्योति प्रदान करती हैं तथा आपके दोष भी करती दूर हैं। हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि इतनी शक्तियों से परिपूर्ण विष्णुमाया की यह विशेष पूजा हम आज कर रहे हैं। श्री माताजी, मैं पूर्णतया निर्दोष हूँ ऐसा यदि आप कहेंगे तो विष्णुमाया अति प्रसन्न होंगी। एक बार जब आप स्वयं को दोषी मानना छोड़ देते हैं तो गलतियाँ करेंगे ही नहीं क्योंकि आप स्वयं में दोष-भाव रख ही नहीं सकते - --- स्वयं को अपराधी ठहराने, अपमानित करने तथा घटिया मानने की कोई आवश्यकता नहीं। स्वयं को स्वयं से पृथक करो। आप शीशे में बात कर सकते हैं। नदी पर----समुद्र पर जा कर कह सकते है देखो मैंने यह अपराध किया है पर अब मैं ऐसा नहीं करूँगा। सभी तत्वों से आप वायदा कर सकते हैं, विष्णुमाया पाँचों तत्वों में हैं, उन्हें आपका संदेश मिल जाएगा। प.पू.श्री माताजी, १९.९.१९९२ श्रीकृष्ण शक्ति के दो अंग हैं, एक विशुद्धि के दायें और बायीं ओर और एक बीचोबीच में। इसमें जो शक्ति बीच में है वह विराट की ओर ले जाती है। १.... बायीं ओर की शक्ति मनुष्य के मन को कोई गलती या झूठे काम करने के बाद बनने वाली भावनाओं से खराब होती है। जिस समय मनुष्य को लगता है कि मैंने बहुत पाप किया है और गलती की है तब उसका 31 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-31.txt विशुद्धि चक्र विशुद्धि चक्र बायीं तरफ खराब हो जाता है। मनुष्य की यही पाप या गलती की धारणा उससे उसे दर भगाने के लिये नशीली वस्तुओं के पास ले जाती है। ... सिगरेट या बीड़ी पीना, सुरति (तम्बाकू) खाना श्रीकृष्ण शक्ति के विरोध में है। अगर किसी मनुष्य की नज़र अपनी बहन के प्रति या अन्य महिलाओं के प्रति ठीक या पवित्र नहीं होती तो ये यह चक्र तुरन्त खराब हो जाता है। अपवित्रता के बर्ताव से विशुदि चक्र के बाईं तरफ तकलीफ होती है। इन आँखों में घूमाने से आँखों की बीमारी फैलती आँखें इधर-उधर घुमाना भी श्री कृष्ण शक्ति के विरोध में है है, नज़र कमज़ोर होती है। मनुष्य में पाप पुण्य का विचार विशुद्धि चक्र से आता है। २. ... दायीं ओर श्रीकृष्ण और श्री राधा की शक्ति से बना है ( श्री रुक्मिणी- विठ्ठल) इस शक्ति के विरोध में जब मनुष्य जाता है तब कहता है मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ .....मैं ही सब कुछ हूँ .....ऐसी वृत्ति में उस मनुष्य में कंस रूपी अहंकार बढ़ता है। ......उसे लगता है कि किसी भी प्रकार मुझे सभी लोगों पर अपना अधिकार जमाना चाहिये उसे दायीं तरफ की विशुद्धि चक्र की पकड़ होती है। प.पू.श्री माताजी, मुंबई, २५.९.१९७९ अब जिनकी आदत बहत ज्यादा चिल्लाने की, चीखने की, दसरों को अपने शब्दों में रखने की ..... और अपने शब्दों से दूसरों को दु:ख देने की, आदत होती है, उसकी राइट विशुद्धि पकड़ी जाती है और उससे अनेक रोग उसे हो जाते हैं। ... .राइट साइड पकड़ने से स्पान्डिलायटिस होता है .... दुनिया भर की दूसरी बीमारी हो सकती है जैसे लकवा और दिल का दौरा, हाथ उसका जकड़ जाता है। .....इससे जुकाम-सर्दी होती है, इतना ही नहीं जिसे हम कहते हैं अस्थमा, उसका प्रादर्भाव हो सकता है। जो आदमी अपने को बड़ा विद्वान समझते हैं उनकी तो ये हालत हो सकती है कि वे इतने अति विद्वान हो जाते हैं कि उनकी अपनी ही बुद्धि वही आपको चलाने लगती है, आपके खिलाफ चलती है। .......इससे आदमी हठात, तो वो कोई भी काम करते हैं हठात्, पर लेकिन आप अगर कहें अब आप पैर हटाइये तो नहीं हो सकता क्योंकि उनकी खुद की बुद्धि ही परास्त हो गयी है। प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ ... विशुद्धि चक्र खराब होने से मेंदू के दोनों ओर संवेदना ले जाने वाली नाड़ियाँ खराब होती है (इनकी संवेदन क्षमता कम हो जाती है) प.पू.श्री माताजी, २५.९.१९७९ 32 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-32.txt जब आप पार भी हो जाते हैं तो भी आपको हाथों में वाइब्रेशन नहीं आते। आपकी जितनी nerves हैं हाथ की वो मर जाती हैं तो आपको हाथ पर महसूस नहीं होता और लोग कहते हैं कि माँ हमको अन्दर तो महसूस हो रहा है पर हाथ पर महसूस नहीं होता और इसलिये उनको परेशानी हो जाती है। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८१ जैसे-जैसे विशुद्धि चक्र जाग्रत होता है वैसे-वैसे संवेदन क्षमता में वृद्धि होती है। विशुद्धि चक्र जाग्रत करने के कुछ मंत्र हैं - अपने अंगूठे की बगल वाली उंगलियाँ दोनों कान में डालकर गर्दन पीछे करके और नज़र आकाश की ओर रखकर ज़ोर से व आदर से सोलह बार 'अल्लाह हो अकबर' मंत्र कहने से विशुद्धि चक्र साफ होता है । तब आपको जानना होगा अकबर माने विराट पुरुष परमेश्वर है । प.पू.श्री माताजी, २५.९.१९७९ आप सब अपनी बाईं विशुद्धि पर नियंत्रण कर मृदुल वाणी द्वारा मंजुल शब्दों का प्रयोग करें, आपकी भाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिये मृद् होनी अनिवार्य है। यह मधुरता आपकी बाईं विशुद्धि को शुद्ध कर देगी। मृदुल प्रक्रिया से संबोधन ही अपनी अपराध भावना को सुधारने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। प.पू.श्री माताजी, राहुरी, २१.१२.१९८०, निर्मला योग, १९८५ जब लेफ्ट विशुद्धि खराब हो जाती है, .....व्यक्ति गिल्टी महसूस करता है, इसलिये सहजयोग में इसका मंत्र है I am not guilty और हिन्दी में कहते हैं 'माँ हमने कोई गलती नहीं की जो तुम माफ न करो।' ...... जिसका विशुद्धि चक्र ठीक होगा उसका मुखड़ा ठीक होगा, सुंदर होगा, उसकी आँखे तेजस्वी होगी. नाक-नक्श तेजस्वी होंगे। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, १६.२.१९८१ ३. ... मध्य विशुद्धि चक्र के बीचो बीच जो शक्ति है वह विराट की शक्ति है। इस शक्ति से मनुष्य परमेश्वर की खोज में रहता है।.....अपने 'स्व' को पहचानिये। अपने 'स्व' को पहचानने से ही मनुष्य अपनी सुबुद्धि पाता है। जब तक दुर्बुद्धि है उसकी विशुद्धि जाग्रत नहीं होती। प.पू.श्री माताजी, मुम्बई, २५.७.१९७९ अन्तर्जात गुण १. सामूहिक चेतना-सामूहिकता- संतुलन - जब मनुष्य अपने विशुद्धि चक्र में जाग्रत होता है तब उसे सुबुद्धि आती है व संतुलन आता है। आपकी सामूहिक चेतना जाग्रत होती है, आप अपने तरफ अंतर्मुख होकर देख सकते हैं व आपकी 33 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-33.txt विशुद्धि चक्र दृष्टि परम् की ओर मुड़ती है। ......आप औरों की भावनायें, संवेदना वे सब अपने आप में जान सकते हैं । प.पू.श्री माताजी, २५.७.१९७९ सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। ...... जो व्यक्ति सामूहिकता के साथ कार्य करता है और सामूहिकता में रहता है, उसमें नयी प्रकार की शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं। प.पू.श्री माताजी, गुरुपूजा, कबैला, १९९७ सामूहिकता हमारे उत्थान का मूलाधार है।... . अन्दर बाहर सामूहिकता स्थापित होनी चाहिये। प.पू.श्री माताजी, मेलबोर्न, १०.४.१९९१ २. माधुर्य-मिठास-नम्रता - ... श्रीकृष्ण की सुमत्ता, मधुरता, मोहकता, वो हमारे जीवन में आनी चाहिये। प.पू.श्री माताजी, १६.३.१९८४ आवाज़ में मिठास होनी चाहिये, उसमें माधुर्य होना चाहिये, उसमें एक मोहित करने की शक्ति होनी चाहिये, जिससे मनुष्यों को लगे कि जो बोल रहे हैं, इसमें खिंचाव है । प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ७.५.१९८३ आपको विनम्र होना है, यही आपकी सज्जा है और यही गुण। ...... स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही श्रेष्ठ माने। स्वयं को यदि आप श्रेष्ठ मानते हैं तो आप पूर्ण के अंग -प्रत्यंग नहीं रहते .सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो है वो है विनम्रता । प.पू.श्री माताजी, कबैला, ७.५.२००० ३ व्यवहार कुशलता - व्यवहार में पूरे हृदय से दोस्ती करो, कोई कार्य हो तो पूरे हृदय से करो। उपरी- उपरी नहीं, अन्दरूनी रखो। .. गहराई में जब आप विशुद्धि को प्राप्त करेंगे तब आपका जनहित, जन सम्बन्ध और विश्व बंधुत्व है, उससे पहले नहीं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, २८.२.१९९१ ४. साक्षी अवस्था - हमारे लिये यह समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हमारी विशुद्धि साफ होनी चाहिये। सर्वप्रथम हमारा हृदय सुंदर और स्वच्छ होना चाहिये जहाँ से श्री कृष्ण के मधुर संगीत की सुगंध आती हो। अपनी विशुद्धि को सुधारें। विराट को देखते हुए अपनी त्रुटियों का पता लगाओ और इन्हें सुधारो क्योंकि आपके अतिरिक्त कोई अन्य इन्हें नहीं सुधार सकता। देखो कि तुम्हें पूर्ण ज्ञान है। एक अच्छी विशुद्धि के बिना आप यह ज्ञान नहीं पा सकते क्योंकि विशुद्धि पर आकर आप साक्षी बनते हैं। यदि आपने साक्षी अवस्था प्राप्त कर ली है तो आप अपनी त्रुटियों, समस्याओं तथा वातावरण की कमियों को जान सकेंगे। प.पू.श्री माताजी, १४.८.१९८९, चैतन्य लहरी जुलाई- अगस्त, २००८ 34 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-34.txt राम एस ा आवाज मधुर होना चाहिए और भाषा नियंत्रित की जानी चाहिए। अगर हम अपने जबान को नियंत्रित कर पायेंगे तो हम ८०% सामूहिकता को हासिल कर पायेंगे। प.पू. श्रीमातीजी, ०२.०५.१९८५ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन ०२०-२५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in 2013_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-35.txt अबोधिता के द्वारा ही आप आनन्द की प्रकटे करे सकते हैं और अबोधिती ही एक ऐसा मार्ग है कि जिससे आप आनन्द की स्कंदन कर सकते हैं। बिना आनन्द के इस सृष्टि की कल्पना कीजिए, क्या होगा? प.पू.श्रीमाताजी, २२.०८.१९८२