वैतन्य लहरी हिन्दी सितंबर-अक्तूबर २०१३ इस अंक में ु सहजयोग में स्त्री-पुरुष संतुलन रखना ...६ स्त्रियों और पुरुषों में अन्तर ...८ सहस्रार चक्र ...१६ श्री कल्कि ...२८ श्री ललिता एवं श्री चक्र ...३४ कে कृपया ध्यान दें : २०१४ के सभी अंकों की रेजिस्ट्रेशन सितंबर २०१३ से शुरू होकर MEELD सहरजयोग में स्त्री-पुरुष ेि संतुलन २२खना यह संतुलन बहुत समय पूर्व से बनाया गया है : बहुत समय पूर्व, राधा और कृष्ण के अस्तित्व के समय से। राधा शक्ति थी और कृष्ण वे थे कि जो व्यक्त करते थे। यह स्थितिज और गतिज हैं। और लोग केवल कृष्ण के बारे में जानते हैं, पर राधा शक्ति थी। जब कृष्ण को कंस का वध करना था तब उन्हें राधा से कहना पड़ा ऐसा करने के लिए। वे राधा ही थी जो सब करती थीं। उन्हें नृत्य करना पड़ता था और वे उनके पाँव दबाते थे। उन्होंने कहा कि, 'अब तुम इससे थक गई होगी' । उन्होंने नृत्य क्यों किया ? क्योंकि उनके नृत्य किए बिना कार्य गतिशील नहीं हो पाते। सो, यह इतना पारस्परिक आश्रित है। यह इतना पारस्परिक आश्रित है, जितना कि बत्ती और प्रकाश- इन दो चीज़ों को आप अलग नहीं कर सकते। यदि इस बात को आप समझ सकते हैं तब यह संतुलन सम्पूर्णतया सुसंगत है। यह ईश्वर और उनकी शक्ति के बीच है। बिल्कुल एक है। आप सोच ही नहीं सकते | कि यह कैसे ईश्वर से एकरूप हैं और उनकी शक्ति। उनकी शक्ति, उनकी इच्छा एक ही है। उनमें कोई अन्तर नहीं है। पर मानव जाति में आप विघटित लोग हैं। आपकी इच्छा भिन्न है, आपकी सोच भिन्न है, आपकी माँग भिन्न है, सब कुछ ही विघटित है। इसलिये आप समझ नहीं सकते हैं। इसलिये शादियाँ भी विघटित हैं ...I" (१९८०, विवाह का महत्त्व, यू.के) आप पूरे विश्व में असंतुलन करते हैं : परन्तु आप वह सब मत करिये जो पुरुष करना चाहते हैं या आप वह सब नहीं करिये जो स्त्रियाँ करना चाहती हैं। जैसे कि पुरुष खाना बनाये और स्त्रियाँ गाड़ी चलाएं। यह गलत बात है। पुरुषों को, सब पुरुषों वाले कार्य आने चाहिए और स्त्रियों को स्त्रियों वाले कार्य। उन्होंने जरूर सीखना है। उन्हें अपना हृदय उसमें लगा देना चाहिए। मेरा कहने का अर्थ है कि स्त्रियों में भी समान रूप से बुद्धिमत्ता हो सकती है। पुरुषों में भी समान रूप से बुद्धिमत्ता हो सकती है। स्त्रियाँ दायीं ओर को जा सकती हैं और पुरुष बायीं ओर जा सकते हैं, इसमें कोई शक नहीं, परन्तु इससे आप सारे विश्व में असन्तुलन पैदा कर देते हैं, यही मुख्य विषय है । ऐसा नहीं है कि, ऐसा करने से आप किसी से कम या ज़्यादा हो जाते हैं। यह सोच आपके मस्तिष्क से पूर्णतया निकल जानी चाहिए। पुरुष सोचते हैं कि, 'मैं आदमी हूँ, जो पैन्ट पहनता है। 'ठीक है, आप पैंट पहनिये, पर हम सुन्दर स्कर्ट पहनते हैं।' ठीक है, इस तरह से लेना चाहिए... १) यू.के) (१९८०, शादी का महत्त्व, एक दूसरे के साथ स्पर्धा करना गलत है : और उस सिलसिले में स्त्रियाँ भी पुरुषों के साथ मुकाबला करने लगती हैं कि क्या गलत है, वे पुरुषों की नकल करने लगती हैं, और ऐसा करने से, जब वे एक दूसरे के साथ स्पर्धा करने लगती हैं, तो पारिवारिक जीवन में बाधा आ जाती है, घर की स्त्री असन्तुष्ट हो जाती है, उसका अहंकार सन्तुष्ट नहीं होता। पूराने समय में, पुरुष जंगल में जाता था और लकड़ी काटता था, घर लाता था और र्त्री को देता था और स्त्री खाना पकाती थी। कोई समस्या नहीं थी , वस्तु विनिमय व्यवस्था थी। वह पत्नी | को गृह कार्य करते देख पाता था। आजकल पति पैसे कमाता है और स्त्री खर्चती है, मेरा तात्पर्य है कि खर्चना भी एक कार्य है, परन्तु पुरुष को लगता है कि मैं कमाने वाला सदस्य हूँ और वह खर्च करने वाली। इसलिये उसने कहा, 'ठीक है, मैं भी कमाऊंगी।' परन्तु इसमें दोनों के बीच बहुत अधिक प्रतियोगिता होती है। क्या होता है कि परिवार पीड़ित होता है, बच्चे पीड़ित होते हैं और ऐसे में, पति को पत्नी से समस्या होती है और पत्नी को पति से। इसे आप बायीं नाभि की उंगली के सैन्टर पर महसूस कर सकते हैं। यदि उस उंगली में पकड़ आ रही है तो उसका अर्थ है, कि आपके पारिवारिक सम्बन्ध में कुछ खराबी है, तो आपको समाधान करना है या पति को समाधान करना है। यह एक महत्वपूर्ण बात है...' १) (१९८१, सार्वजनिक कार्यक्रम, सिडनी) %23 स्त्रियों और पुरुषों में अन्ति२ भि थॉट म स्त्रियाँ, स्त्रियाँ हैं और पुरुष, पुरुष हैं : उत्तम रिश्ते के लिए, पवित्र सम्बन्ध होना चाहिए और वह समझदारी से होना चाहिए, माँ, माँ हैं, पिता, पिता हैं, बहन, बहन है, भाई , भाई है, यह सब अलग हैं, भिन्न- भिन्न प्रकार के सम्बन्धों को समझना चाहिए। स्त्रियों को जरूरी है कि वे समझें कि वे स्त्रियाँ हैं और पुरुषों को समझना चाहिए कि वे पुरुष हैं। अपने स्वयं के प्रति सम्बन्ध भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। स्त्रियों को पुरुष नहीं बनना चाहिए-बन भी नहीं सकते। पुरुषों को स्त्रियाँ बनने की जरूरत नहीं है। यह गलत है। क्योंकि मूलत: वे अलग हैं। उनका जन्म अलग रूपों में हुआ है। क्या अन्तर है ? पुरुष अधिक सतर्क होते हैं, उसे मशीनों की अधिक जानकारी होती है, विस्तृत रूप से। स्त्री नमुना देखेगी। स्त्री धुन को अधिक सुनती है और पुरुष की नज़र वाद्यों की ओर अधिक होती है। इस प्रकार की प्रकृति से ईश्वर ने आपको बनाया है। आखिरकार किसी को यह देखना है और किसी को वह। दोनो ही सुन्दर हैं। कोई भी कम या ज़्यादा नहीं हैं, पर हर स्त्री को स्त्री होने का आनन्द उठाना चाहिए और हर पुरुष को पुरुष होने का आनन्द। परन्तु पुरुष होने का अर्थ यह नहीं है कि आप बेवकूफी से सोचें कि उत्क्रान्ति में आप स्त्री से ऊँचे हैं और उस पर आक्रमण करें। या स्त्रियाँ पुरुषों पर रोब जमायें , यह सोच कर कि रोब जमा कर वे उन्हें ठीक कर सकती हैं। इस तरह से वे उन्हें कभी भी ठीक नहीं कर पायीं । पुरुष एकदम बन्द गोभी के समान हो गये हैं। जहाँ भी स्त्रियाँ रोब जमाती हैं, पुरुष बन्द गोभी बन जाते हैं। उन्होंने उन्हें ठीक नहीं किया है...।' (१९८३, दिवाली पूजा, यू.के.) विशेषताओं के अन्तर को समझने की ज़रूरत है : हम एक ही पथ पर जा रहे हैं, परन्तु हमें जानना चाहिए कि कोई बायीं ओर हैं और दूसरा दायीं ओर। बाएं को बाएं में ही रहना है। यदि बायाँ, दायीं ओर जाना शुरू कर दे, तो हमारे पास एक ही पहिया बचेगा। हम इस बारे में क्या करने वाले हैं? हम सब एक ही मार्ग पर जा रहे हैं, कोई दो मार्ग नहीं हैं। संतुलन देने के लिए दो पहिये चाहिए। लोग इस बात को नहीं समझते कि हम सब एक ही पथ पर जा रहे हैं। वे सोचते हैं कि एक पहिया दायें को जाएगा और दूसरे को बायें को मुड़ना है। तो सोचिए कि ऐसे परिवार की क्या स्थिति होगी। हम एक ही पथ पर चल रहे हैं। केवल इस बात की समझ की आवश्यकता है। एक को हृदय की शक्तियों के साथ रहना है और दूसरे को विवेक बुद्धि और समझदारी से रहना है। जब विवेक बुद्धि की स्थिति होती है तो उसे हृदय की ओर झुकना पड़ता है, क्योंकि वह ऐसी स्थिति में पहुँचता है कि जिसे वह जानता नहीं है। तब, वह हृदय की ओर आता है, जब इस बात को स्त्रियाँ समझ जाती हैं कि यह उनके स्वयं के भीतर ही है। पर, आपको हृदय की शक्ति का पोषण करना चाहिए । पर आप उनके साथ हर बात में स्पर्धा करती हैं। यदि वह घोड़े पर बैठता है तो, 'मैं क्यों नहीं। यदि वह गाड़ी चला सकता है तो, 'मैं भी चला सकती हूँ। आप देखिये कि इसी में बुद्धिमत्ता है कि कई कार्य आप परित्याग करें..." (१९८०, विवाह का महत्त्व, यू.के.) रथ के दो पहिये, एक बायीं ओर व एक दायीं ओर : इसी कारण इतने तलाक हो रहे हैं और समस्यायें हैं, स्त्रियाँ अपने अधिकार की माँग करती हैं। वे अपनी हद से बाहर चली जाती हैं, वे भी रोब जमाती हैं और पुरुष भी रोब जमाते हैं, इस प्रकार से हम इसका हल नहीं ढूंढ पाते। हमें यह जानना है कि , हम एक रथ के दो पहिये हैं, एक बायीं ओर व एक दायीं ओर। वे एक सम नहीं हैं, वे दो प्रकार के हैं, एक बायीं ओर व एक दायीं ओर, परन्तु वे समान हैं। वे जो भी करते हैं, वो एक सम है। उनका एक सम सम्मान करना चाहिए..." (१९८१, सार्वजनिक कार्यक्रम, सिडनी) दोनों पहिये बराबर हैं पर एक समान नहीं : सो, एक दूसरे पर कोई रोब नहीं है, परन्तु हमें समझना चाहिये कि हम एक रथ के दो पहिये हैं और दोनों पहिये बराबर के हैं पर समान नही। उदाहरणतया दायाँ, बायीं तरफ़ नहीं जोड़ा जा सकता है और बायाँ दायीं ओर नहीं जोड़ा जा सकता है। वे बराबर हैं, यदि वे बराबर नहीं हैं तो वे हिल नहीं सकते, वे केवल गोल-गोल घूमते रहेंगे, झगड़ते हुए। परन्तु एक समान नहीं हैं, सो, यदि बायाँ, दायीं ओर आने लगे तो वह कभी भी उचित तरीके से नहीं जुड़ेगा। प्रकृति ने हमें दो टाँगें दी हैं, एक नहीं। सो, हम अपनी टाँगे उस प्रकार से बदल नहीं सकते...' १) (१९८६, बैल्जियम और हौलेण्ड की भूमिका, बैल्जियम) एक स्त्री को एक स्त्री के समान ही कार्य करना चाहिए : अब श्रीराम जी के सम्बन्ध में, उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़ा। सीताजी ने भी उन्हें छोड़ दिया। पर उन्होंने उन्हें इस प्रकार छोड़ा जैसे कि एक स्त्री करती है और रामजी ने उन्हें ऐसा छोड़ा जैसे कि एक पुरुष करता है। सीताजी ने भी उन्हें ऐसे छोड़ा कि जो एक स्त्री के लिए उपयुक्त हो। रामजी ने इसे इस प्रकार से किया कि जो एक राजा के लिए उपयुक्त हो। इसी प्रकार, जब एक स्त्री कार्य करती है तो उसे एक स्त्री के समान कार्य करना चाहिए। जो एक पुरुष करता है, वही काम वह करे तो भी उसे एक स्त्री के समान होना है या पुरुष को एक पुरुष के समान होना है... (१९८७, श्रीराम पूजा, स्वित्झर्लेंड ) जो दूसरे के पास हो उसकी माँग नहीं करनी चाहिए : अब आता है प्रश्न रोब जमाने का-स्त्री पुरुष पर रोब जमा रही है या पुरुष स्त्री पर रोब जमा रहा है। 10 सहजयोग में इसका प्रश्न ही नहीं उठता। इसमें किसी भी प्रकार का कोई रोब नहीं होता है, पर इस बात का ख्याल रखना है कि बायीं ओर में बायीं ओर ही होना चाहिए और दायीं ओर में दायीं ओर होना चाहिए। जो दूसरों के पास है, उसकी माँग नहीं करनी चाहिए। जैसे कि यदि पुरुष कहना शुरू करे कि, 'क्यों न हमें बच्चे हों, हमें भी बच्चे होने चाहिए, स्त्रियों को ही क्यों बच्चे हों?' ऐसा नहीं हो सकता और यदि स्त्रियाँ कहने लगे कि, 'चलो, हम भी दाढ़ी रखते हैं। कल को वे कह सकती हैं, 'हमें दाढ़ी होनी चाहिए और हमें मूछें भी होनी चाहिए।' तो यदि इस प्रकार की माँग की जाए तो, ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता। यह तरीका नहीं है। इन्सान के स्तर पर ये पूर्णतया दो अलग-अलग व्यक्तित्व हैं। निम्न जानवर के स्तर पर, यदि आप हरमाफ्रोडाइट के स्तर पर जाये, तब आप देख सकते हैं कि उनमें दोनों प्रकार के लिंग मौजूद होते हैं । जिसे कि तकनीकी भाषा में कहते हैं हरमाफ्रोडाइट... (१९८७, विवाह, कोल्हापूर, भारत) स्त्रियों और पुरुषों को अपनी अपनी भूमिका सराहनी चाहिए : आप कल्पना कर सकते हैं कि जब आप को केंचुआ बनना हो, तो आपमें दोनों लिंग आ जाते हैं, आप या पुलिंग के समान कार्य कर सकते हैं या फिर स्त्रीलिंग के समान। पर जब आप अपने उत्क्रांती के मार्ग पर बढ़ने लगते हैं धीरे-धीरे, तो आप जानने लगते हैं कि मनुष्य के स्तर पर दो अलग-अलग समूह है। जब आप मनुष्य के स्तर पर आते हैं तब स्त्रियाँ स्त्रियाँ होती हैं और पुरुष पुरुष होते हैं। जितना अधिक वे स्त्रियाँ स्त्रियों के समान और पुरुष पुरुषों के समान होते हैं, तब वे प्रशंसनीय बन जाते हैं। नहीं तो ये आधे रास्ते के व्यक्ति ही रह जाते हैं, न तो वे अच्छे पति बन सकते हैं और न ही अच्छी पत्नियाँ। न ही वे अच्छा वैवाहिक जीवन पाते हैं और न ही वे किसी चीज़ का आनन्द ले पाते हैं। यह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है कि आप एक दूसरे के प्रशंसा-सूचक बनें, सहजयोग के लिए। जैसा कि मैंने कहा कि रौब जमाने का प्रश्न ही नहीं उठता, स्त्री अपना स्वयं का कर्तव्य निभाती है, को इस पुरुष बात की सराहना करनी चाहिए और पुरुष अपना स्वयं का कर्तव्य निभाता है, यह स्त्री को भी सराहना चाहिए..." १) (१९८७, विवाह, कोल्हापूर, भारत) सूर्य पृथ्वी नहीं बनना चाहता और पृथ्वी सूर्य नहीं बनना चाहती मुझे इस बात से गर्व है कि मैं एक स्त्री हूँ क्योंकि स्त्रियाँ अनेक कार्य कर सकती हैं, जो पुरुष नहीं कर सकते। स्त्री भूमि माँ के समान हैं, सो हम कह सकते हैं कि पुरुष सूर्य के समान हैं। दोनों को जुड़ना है। सूर्य को हटाया जा सकता है, पर पृथ्वी को नहीं। रात के समय सूर्य नहीं होता फिर भी हम रहते हैं। 11 परन्तु भूमि माता को देखिए, उसे कितना सहना पड़ता है। देखिये , वह कितनी समझदार है। वह बिना किसी शिकायत के सुन्दर फूल, सुन्दर पेड़ और सब कुछ हमारे लिये बनाती है और तो और, वह हमारा पोषण करती है, जबकि हम उसके विरोध में कितने सारे पाप करते हैं। पर सूर्य पृथ्वी नहीं बनना चाहता और पृथ्वी सूर्य नहीं बनना चाहती। वे जानते हैं कि वे विशेष कार्य के लिये स्थित हैं... (१९८८, इन्ट्यूशन अँड वीमेन, पैरिस) पुरुष राजनैतिक और आर्थिक स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं और स्त्रियाँ समाज के लिए जिम्मेदार हैं : परन्तु आजकल नये प्रकार के विचार उभर आये हैं। पुरुष भी स्त्रियों के प्रति बड़े क्रूर और आक्रामक हो गये हैं। उसके परिणाम स्वरूप हम देखते हैं कि पुरुषों के प्रति बड़ा विरोध आ गया है। एक प्रकार की बड़ी दरार स्त्री और पुरुषों के बीच में बन गई है। और जिस प्रकार पुरुष लम्पट, दुषित हो गये हैं, दूसरी खराब स्त्रियों के पास जाते हैं। अच्छी औरतों ने भी सोचा, 'हम भी क्यों न वैसे बन जाए ?' और उन्होंने भी गलत कार्य करने शुरू कर दिए, जो उन्हें नहीं करने चाहिए थे। इस प्रकार पूरा समाज बिखर गया है। अब पुरुष राजनीतिक व आर्थिक स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं और देश के प्रशासक भी, पर स्त्रियाँ समाज के लिए जिम्मेदार हैं। चाहे वह घर में हैं या बाहर, चाहे वह घर में कार्य करती हैं या बाहर कार्य करती है, वह समाज को सँभालने के लिए जिम्मेदार हैं। कभी ऐसा लगता है कि स्त्री को दबाया जा रहा है या पति पत्नी को दबा रहा है, या पति का परिवार उसे दबा रहा है, पर यह स्त्री की गुणवत्ता ही है जो समाज के स्तर को ऊपर उठाती है, न केवल स्तर, पर परिवार में भी उसकी इज्जत होती है। गृहलक्ष्मी के रूप में बड़ा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है । शायद हम कभी इसे जान नहीं पाते। अब हम देखें कि यहाँ कितनी लाईटें हैं। बिजली भी चल रही है पर इस बिजली का स्रोत क्या है? सो हम कह सकते हैं कि केवल गतिसंबंधी ऊर्जा हैं, पर शक्ति क्या है, वह घर की स्त्री है... पुरुष (१९९३, श्री फातिमा पूजा, टर्की) आपको पता होना चाहिए कि पति और बच्चों को कैसे खुश रखना चाहिए : . पुरूष का कार्य है, राजनीति, आर्थिक, पैसा कमाना। उन्होंने इन सब को बूरी तरह से चौपट कर दिया है, मैं आपके साथ सहमत हूँ, पर आपका कार्य है समाज को बनाना और समाज को बनाने के लिये, पहले आपको मालूम होना चाहिए कि बच्चों को कैसे खुश रखना है, पति को कैसे खुश रखना है, लोगों की कैसे मदद की जाए... १) (१९९७, नवरात्रि पूजा की पूर्व संध्या, कबैला) ईश्वर ने स्त्रियों को ख्त्रियों के समान और पुरुषों को पुरुषों के समान बनाया है : स्त्रियों की अपनी आदतें होती हैं, वे स्त्रिाँ हैं। स्त्रियाँ, स्त्रियाँ ही रहेगी और पुरुष, पुरुष ही रहेंगे। पुरुष अपनी घड़ियाँ दस बार देखेंगे। स्त्रियाँ शायद एक बार, या उनकी घड़ियाँ गुम गई होती हैं या फिर खराब। यदि वे असल में स्त्रियाँ हैं तो वे पुरुषों के समान उछलती नहीं रहती। वे अलग हैं, पर वे स्त्रियाँ हैं और आप पुरुष हैं और 12 ईश्वर ने ही पुरुष और स्त्रियाँ बनाए हैं। यदि उन्हें एकलिंग बनाना होता तो वे एकलिंग बनाते। उन्होंने ऐसा नहीं किया। आप जिस लिंग में पैदा हुए हैं, उसे श्रद्धा, इज्जत व मान के साथ स्वीकार करें, दोनों ने... (१९८८, श्री फातिमा पूजा, स्वित्झर्लंड) हमें दूसरों से उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे आपके जैसे हों : हम पति-पत्नी हैं क्योंकि हम एक दूसरे से प्रेम करते हैं, हम एक- दूसरे के प्रशंसा-सूचक हैं, स्त्री, स्त्री है व पुरुष, पुरुष है। पुरुषों ने स्त्री से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे भी उनके समान बहुत ही तेज़ हो और स्त्रियों को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि पुरुष उनके समान हों- अति उदार। स्त्रियों की कुछ विशेषतायें होती हैं व पुरुषों की कुछ अपनी...' (१९९३, श्री फातिमा पूजा, टर्की) स्त्री पृथ्वी माँ के समान है व पुरुष सूर्य के समान : आप बहुत संवेदनशील और समझदार हैं और मैंने जो भी आपसे कहा है, उसका आप बुरा नहीं मानें। मैं माँ हूँ और मुझे आप को सच्चाई बतानी है और आपको बुरा नहीं मानना चाहिए, यदि आप समझती हैं कि मैं आपकी माँ हूँ। यह माँ का कार्य है : उसे धैर्य रखना होता है, प्यार व स्नेह और बुद्धिमानी। शायद हम स्त्रियाँ यह नहीं समझ पातीं कि हम कितनी महत्त्वपूर्ण हैं। पुरुष राजनीति, आर्थिक कार्य कर सकते हैं और उन सब का चौपट भी कर सकते हैं, पर स्त्रियाँ समाज के प्रति जिम्मेदार हैं। वे समाज बना सकती हैं और समाज बिगाड़ भी सकती हैं। जब भी कहीं अच्छा समाज होता है, बच्चे जहाँ अच्छे होते हैं, परिवार अच्छे होते हैं और जहाँ शान्ति होती है, वहाँ स्त्रियाँ इनकी जिम्मेदार होती हैं। स्त्री, जिस का कार्य बच्चों को संभालना होता है, विश्व पर शासन कर सकती है । स्त्र को कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार पुरुष से कम है। स्त्री इस भूमि माता के समान है और पुरुष सूर्य के समान। भूमि माँ को देखें कि कैसे वह हमें संभालती है, हम कैसे उसे द:ख देते हैं और वह कैसे हमारा ध्यान रखती है, सो, स्त्री का सब से बड़ा गुण है, उसका धैर्य उसका प्रेम और उसकी बुद्धि। मैं आपको एक अखबार दिखाना चाहती थी, वह लाना भूल गयी। अंग्रेजी का अखबार जिसमें एक स्त्री को दिखाया गया है, जो पुरुष के समान दिख रही थी और जिसके चेहरे से पुरुष के समान बाल उग रहे हैं। मैं कभी भी पुरुष बनना पसन्द नहीं करूंगी क्योंकि पुरुष को इतने सारे मालिकों ( बौस) को प्रसन्न करना पड़ता है व जीवन में संघर्ष करना पड़ता है, जब कि स्त्री को केवल एक को ही प्रसन्न करना पड़ता है और वह है, उसका पति। अतः, समाज को स्त्रियों द्वारा ही ठीक किया जा सकता है, न कि पुरुषों १) द्वारा... (१९९४, लेडीज़ पब्लिक प्रोग्राम, ट्यूनिस) 13 बच्चों के विकास एवं पति की सुरक्षा के प्रति स्त्रियों की जिम्मेदारी पुरुष, पूर्ण रूप से अलग प्रकार के होते हैं, इस बात को आप समझ ले। वे दिल में कुछ नहीं रखते और जिन चीज़ों की स्त्रियाँ देख-रेख करती हैं, वे नहीं करते। कोई बात नहीं। क्योंकि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के प्रशंसा-सूचक हैं। जैसे कि अलिसाहब घर के बाहर का सब संभालते थे , जब कि फ़ातिमा घर में रहती थीं, कभी बाहर नहीं गईं पर अलि साहब को पता था कि उनकी शक्ति का स्रोत कहाँ से आ रहा था। शक्ति के रूप में माननीय नहीं थीं, वे पाश्चात्य आधुनिक विचारों की ओर झुक गईं, 'हमें पुरुषों से लड़ना है, वे समस्याओं का कारण हैं, वे हमें सता रहे हैं और हमें बदला लेना है। इस प्रकार समाज नहीं बन सकता। स्त्रियों की जिम्मेदारी पुरुषों से कई अधिक है। पुरुषों को केवल दफ़्तर क्योंकि स्त्रियाँ कभी भी जाना है, काम करना है, घर लौट आना है। स्त्रियों को जीवन भर बच्चों के विकास के लिए, पति की सुरक्षा के लिए और अन्य समझदारी के कार्यों के लिए जीवन भर ऊर्जा खर्चनी पड़ती है। इसलिये भारतवर्ष में हम कहते हैं कि, 'हमें एक स्त्री को पूर्ण रूप से सम्मान देना चाहिए और उसे भी सम्माननीय होना चाहिए। अधिकांश मैंने देखा है कि न केवल भारतवर्ष में, सब जगह ही स्त्रियाँ सदा सम्मानित की जाती हैं, अगर वे गृहलक्ष्मी होती हैं तो । उदाहरण के लिये जब मैं किसी कार्यक्रम में अपने पति के साथ जाती हूँ तो मेरा भी उतना ही सम्मान होता है, जितना कि मेरे पति का। उदाहरण के लिए, उनके डिप्टी का इतना सम्मान नहीं होता जितना कि मेरा, सेक्रेटरी भी इतना सम्मानित नहीं होता, कोई भी नहीं, मैं, एक पत्नी के रूप में सम्मानित होती हैं क्योंकि मैं उनकी पत्नी हूँ। कोई भी मुझे नीचा नहीं देखता क्योंकि मैं किसी की पत्नी हूँ। सब जगह ऐसा ही है... १) (१९९३, श्रीफ़ातिमा पूजा, टर्की) स्त्री का आदर्श स्वरूप है, "मैं दूसरों को कैसे शक्तिशाली बना सकती हूँ" : मैं यह कहूँगी, एक पुरुष सूर्य के समान होता है, पर एक स्त्री भूमि माता के समान होती है। अन्तर इस प्रकार है। सूर्य चमकता है, प्रकाश देता है और एक प्रकार से भूमि माँ को पोषण देता है और भूमि माँ सब कुछ देती है। वह बहुत सहन करती है। वह हमारे सब पापों को सहती है, सो घर की पत्नी एक भूमि माता के समान होती है, वह सब को अानन्द देती है, अपने पति को, अपने बच्चे को। वह अपने बारे में नहीं सोचती। वह यह नहीं सोचती, 'मैं अपनी सुन्दरता से, अपनी शरीर से, अपनी पढ़ाई, अपनी शक्तियों द्वारा बड़ी चीजें कैसे प्राप्त करू?' नहीं वह ऐसा नहीं करती। वह सोचती है, 'मैं दूसरों को कैसे शक्तिशाली बनाऊँ? मैं उन्हें कैसे शक्ति दूं, मैं कैसे सहायता करूँ?' यह स्त्री का आदर्श स्वरूप है। यदि ऐसा नहीं है तो वह स्त्री नहीं है। जब कोई कहता है, 'मैं आपके घर आना चाहता हूँ।' तो वह अत्यन्त प्रसन्न हो जाती है। 'अब मैं क्या पकाऊँ, मैं क्या करूँ?' यह स्त्री का तरीका होता है... (१९९३, श्रीफ़ातिमा पूजा, टर्की) 14 किसी को उसके कुछ अधिकारों से वंचित करना, क्योंकि वे स्त्री या पुरुष है, एकदम निरर्थक है : क्राइस्ट ने भी यही कहा है। उन्होंने यह नहीं कहा कि स्त्रियों की आत्मा नहीं होती या पुरुषों की आत्मा होती है । देखिए, ये लोग कैसी बातें करते हैं कि ये संघ-दीक्षा नहीं ले सकती हैं। वैसे संघ दीक्षा केवल एक गलत बात है, पर फिर भी मैं कहूँगी कि किसी को भी कुछ विशेष अधिकारों से वंचित करना, इसलिये कि वे स्त्री या पुरुष हैं, निरर्थक है, गलत है। इसकी धर्म से कोई सम्बद्धता नहीं है। क्योंकि धर्म का अर्थ है सन्तुलन.. (१९९२, श्रीगणेश पूजा, पर्थ) स्त्रियाँ भी एक मुख्य कार्य में हिस्सा ले सकती हैं, पर यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि वे यह न भूलें कि वे स्त्रियाँ हैं, जिन्हें माँ के प्रेम की अभिव्यक्ति करनी है। : मेरे अपने देश में एक संस्कृत की कहावत है, 'यत्र नाय्या पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवता'। इसका अर्थ है, 'जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है और खुद भी वे सम्माननीय हैं, वहाँ हमारे क्षेमकारी ईश्वर निवास करते हैं । अब हमारे लिये, इस समय, जो महान शक्ति रचयिता ने हमें दी है, उसका मूल्य जानें। पर हम क्या ढूँढते हैं? चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम, स्त्रिों ने अपनी महानता की पूरी अभिव्यक्ति नहीं की है। मैं यह नहीं बता रही हूँ कि स्त्री का कार्य समाज में केवल माँ का है, बच्चों को जन्म देना व पालना है, या पत्नी या बहन का है। स्त्रियों को पूरा अधिकार है कि वे जीवन के हर पहलु में भाग लें-सामाजिक, सांस्कृतिक, शिक्षा विभाग, राजनैतिक, आर्थिक, प्रशासन और बाकी सब । हर प्रकार के विभाग में भाग लेने के लिए उन्हें स्वयं को तैयार करना होगा, उन्हें ज्ञान के हर क्षेत्र में शिक्षा पाने का अधिकार होना चाहिए। परन्तु यदि वे माँ हैं तो उनकी बहुत अधिक जिम्मेदारी है, बच्चों के प्रति और समाज के प्रति । देश की आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं, परन्तु स्त्रियाँ समाज के प्रति जिम्मेदार हैं। स्त्रियाँ, पुरुषों को पुरुष, सहायता कर सकती हैं, किसी भी पद पर अग्रगामी भाग ले सकती हैं, पर यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि वे यह नहीं भूलें कि वे स्त्रियाँ हैं, जिन्होंने गहरा मातृत्व अभिव्यक्त करना है। यदि वे पुरुषत्वमयी व आक्रमक हो जाए, तो समाज का सन्तुलन नहीं बनाया जा सकता... (१९९५, वर्ल्ड कांनफ्रेंस ऑन वीमेन, बीजिंग) 15 सहसार चक्र सहस्रार स्वामिनी - महामाया-माताजी श्री निर्मला देवी ..कहा गया है कि सहस्रार पर जब देवी प्रगट होंगी तो वे महामाया होंगी। आज के विश्व में इसके अतिरिक्त किसी अन्य रूप में पृथ्वी पर आना क्या सम्भव है? किसी भी अन्य प्रकार का अवतार भयंकर कठिनाइयों में फँस जाता क्योंकि इस कलियुग में अहं पर सवार मानव ही सर्वोच्च है । वे बिल्कुल मूर्ख हैं और किसी भी दैवी व्यक्तित्व को सब प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं या हिंसा पर उतर सकते हैं। महामाया के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में विश्व में अस्तित्व को बनाए रखना असम्भव है। परन्तु इनके बहुत से पक्ष हैं और यह साधकों पर भी कार्य करती हैं। .एक पहलु द्वारा यह आपके सहस्रार को आच्छादित करके रखती हैं और साधक की परीक्षा होती है। यदि आप उल्टे-सीधे लोगों से, उल्टी सीधी वेशभूषा धारण करने वालों से जो झूठ-मूठ चीज़ें दिखाते हैं, जैसा कि बहुत से कुगुरुओं ने किया है, या घटिया किस्म के लोगों से आकर्षित हैं तो आपका यह आकर्षण भी महामाया के कारण है क्योंकि महामाया ही इस प्रकार व्यक्ति की परीक्षा लेती हैं। भी हैं अपनी असलियत को दर्पण में देखते हैं .....महामाया दर्पण की तरह से हैं। आप जो दर्पण की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। यदि आप बन्दर की तरह हैं तो शीशे में बन्दर की तरह लगेंगे। यदि आप रानी जैसी हैं तो रानी जैसी ही लगेंगी। आपको गलत विचार या झूठा दिखावा देने की न तो दर्पण में कुछ शक्ति है और न ही ऐसी भावना। सत्य, जो कुछ भी हो, को यह दर्शाएगा। अत: यह कहना कि महामाया भ्रमित करती हैं, एक प्रकार से अनुचित है। इसके विपरीत शीशे में आपको अपनी वास्तविकता दिखाई पड़ती है। मान लो कि आप क्रूर व्यक्ति हों तो शीशे में भी आपका चेहरा क्रूर ही दिखाई देगा। परन्तु जब महामाया गतिशील होती हैं तब समस्या खड़ी होती है। तब आप शीशे में अपनी सूरत नहीं देखते, अपना मुँह घुमा लेते हैं-न तो आप देखना चाहते हैं न जानना। दर्पण में जब आपको कुछ भयंकर दिखाई आप पड़ता है तो मुँह घुमाकर आप सत्य को नकारते हैं। 'मैं ऐसा किस प्रकार हो सकता हूँ? मैं बहुत अच्छा हूँ, मुझमें कोई कमी नहीं, कुछ भी नहीं, मैं पूर्णतया ठीक हूँ। महामाया का तीसरा पक्ष यह है कि एक बार फिर आप इसकी ओर आकर्षित होते हैं और फिर दर्पण को देखते हैं। शीशे में आप पूरे विश्व को देखते हैं, परिणामतः आप सोचने लगते हैं कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैं कौन हूँ? यह संसार क्या है? में कहाँ जन्मा हूँ? आपकी खोज की यह शुरुआत है पर इससे आपको संतुष्टि नहीं होती। अत: यह महामाया की महान सहायता है। पहली बार जब लोग मेरे पास आते हैं और यदि वे मुझे पानी पीता देख लें तो कहते हैं कि ये कैसे कोई अवतरण हो सकती हैं? इन्हें भी पानी की आवश्यकता पडती है और अगर वे मुझे कोका-कोला वाह! ये किस प्रकार कोका-कोला पी सकती हैं, इन्हें तो बस अमृत पीना चाहिए। महामाया का एक और पक्ष भी है। लोग मुझे मिलने आते हैं उनमें से कुछ काँपने लगते हैं। वे समझते हैं कि उनमें महान शक्ति है जिसके कारण वे हिल रहे हैं। अत: अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण उन्हें गलतफहमी हो पीते देख लें तो कहेंगे - जाती है कि वाह! हम वहाँ गए, हममें इतनी शक्ति आ गई, हम कुछ महान चीज़ हैं।...... परन्तु जब उन्हें 17 पता चलता है कि इस प्रकार काँपने वाले लोग पागल हैं तो धीरे-धीरे वे अपेक्षाकृत रूप से चीजों को देखने लगते हैं। प्रासंगिक सूझ-बूझ आप पर पड़े उस पर्द को हटाने में सहायक होती है जिसके कारण आप सत्य का सामना नहीं करना चाहते। एक बार जब आपके साथ घटित हो जाता है तो आप दूसरे लोगों के साथ अपनी तुलना करने लगते हैं, जब आप ऐसा करने लगते हैं तो आपका उत्थान होता है तथा आप सहजयोग में स्थिर होने लगते हैं । महामाया अतिमहत्वपूर्ण हैं, उसके बिना आप मेरा सामना नहीं कर सकते, आप यहाँ बैठ नहीं सकते, मुझसे बात नहीं कर सकते। जिस गाड़ी में मैं बैठती हूँ, उसमें आप प्रवेश नहीं कर सकते और मेरी गाड़ी चला भी नहीं सकते। सभी कुछ असम्भव होता, मैं कहीं हवा में उड़ रही होती और आप सब यहाँ होते और सभी कुछ गड़बड़ होता। ..... मेरा आपके सम्मुख होना आवश्यक नहीं। निराकार रूप में भी मैं यहाँ हो सकती हूँ, पर सम्पर्क कैसे बनाया जाए और सौहार्द्र किस प्रकार बने? इसी कारण मुझे महामाया रूप में आना पड़ा ताकि न कोई भय हो, न दूरी। समीप आकर एक दूसरे को समझ सकें क्योंकि यह ज्ञान यदि देना है तो लोगों को कम से कम महामाया के सम्मुख बैठना तो पड़ेगा ही। यदि वे सब दौड़ जाएं तो सहस्रार पर इस अत्यन्त मानवीय व्यक्तित्व की सृष्टि करने का क्या लाभ? वे महामाया रूप में आयी हैं। सहस्रार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह न केवल सात चक्रों की बल्कि बहत से अन्य चक्रों की भी कर सकते हैं भी पीठ है। सहस्त्रार पर आप कुछ परन्तु महामाया के माध्यम से चीजे सामान्य रूप से कार्यान्वित होती हैं और ऐसा ही होना चाहिए| उदाहरणार्थ आप कह सकते हैं कि श्री माताजी, वातावरण, पर्यावरण की समस्याओं से भरा हुआ है, आप इसे शुद्ध क्यों नहीं करतीं? यदि शुद्ध हो गया तो लोग समस्यायें ही .. बनाते रहेंगे। यह मानव की समस्या है और यदि मैं इसे ठीक कर देती हूँ तो वे इसे अपना अधिकार मान बैठेंगे। उन्हें इन समस्याओं का सामना करना होगा और अपनी आदतें बदलनी होंगी। उन्हें समझना होगा कि वे स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं अन्यथा यदि कोई अन्य व्यक्ति शुद्धिकरण के लिए होगा तो वे कभी भी परिवर्तित नहीं होंगे । . उनकी समस्याओं को सुलझा देने से ही मेरा कार्य समाप्त नहीं हो जाता और न यह लक्ष्य है। मेरा लक्ष्य तो उन्हें समर्थ बनाने का है ताकि वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा सकें। आपको अपना डॉक्टर या अपना गुरु बनना होगा परन्तु महामाया के बिना आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वही जानती हैं कि स्वतन्त्र मानव के शुद्धिकरण और नियन्त्रण में किस सीमा तक जाना है। इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण स्वतन्त्रता सहजयोगियों की नहीं होती। उन्हें तो आत्मा की स्वतन्त्रता प्राप्त है, अत: उनकी समस्याओं को सुलझाना बिल्कुल ठीक है ताकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हो सकें। जो लोग बिना सोचे-समझे पूरे विश्व को हानि पहुँचाने जा रहे हैं उन्हें स्वतन्त्र बनाने का क्या लाभ है? उनके लिए आवश्यक है कि सहजयोग में आएं-इसी कारण यह महामाया स्वरूप है। यदि मैं, माँ मेरी, राधा या ऐसे ही किसी अन्य रूप में आई होती तो हो सकता है सभी लोग यहाँ होते और सुन्दर भजन गा रहे होते, पर ऐसा नहीं है । 18 अब आपको परिपक्व होना है, कुछ बनाना है बनना और विकसित होना है और इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम आप सहजयोग में आएं तब आपको सहजयोग में विकसित होना होगा, नहीं तो महामाया लीला करती रहेंगी और आपको भ्रमित करती रहेंगी। सहस्रार विराट का क्षेत्र है, विराट विष्णु हैं जो राम बने फिर कृष्ण बनें। तो यह लीला है। उसकी लीला, नाटक है और नाटक को ठीक करने के लिए उसे महामाया रूप में होना होगा। बचाव के बहुत से मार्ग हैं। कभी-कभी लोग चीज़ों को सुगमता से खोज लेते हैं, उनमें से एक परम चैतन्य है। परम चैतन्य कार्य करता है, मेरे चित्र दिखाता है। आश्चर्यचकित हूँ। करने का प्रयत्न कर रहा है। यह स्वयं की अभिव्यक्ति कर रहा है। मैंने तो परम चैतन्य को ऐसा कोई कार्य ......जो पहले कभी नहीं हुआ। मैं स्वयं .......आपको महामाया के विषय में समझाने के लिए परम चैतन्य महामाया को प्रगट करने को नहीं कहा। परन्तु यह सत्य है क्योंकि यह सोचता है कि अब भी जो लोग श्री माताजी का अनुसरण कर रहे हैं उनका स्तर उतना ऊँचा नहीं जितना होना चाहिए था। .....(परम चैतन्य यह चाहता है कि) अपने विश्वास को आप दृढ़ कर लें, यह विश्वास अंधविश्वास नहीं है। सहजयोगी समझने का प्रयत्न करें कि उन्हें विकसित होना है। यह विकास भी द्विपक्षीय होना चाहिए। .....पहला आपका पक्ष है कि मैं कितना समय सहजयोग के विषय में सोचने पर लगाता हूँ और कितना अपने व्यक्तिगत जीवन पर ? सहजयोग में हमें परमात्मा की ओर झुकना पड़ेगा। कि आपके सभी विचार सहजयोग की ओर जा रहे हैं, पूरी सोच ही सहज है । सहज में सबसे मनोरंजक बात यह है कि जो भी कार्य आप करते हैं उसे देखते हैं। सहज मार्ग के विषय में आप सोचते हैं । ..आप देखें इस महामाया में आप मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं? सहज के विषय सोचते हुए आप कहाँ तक जा सकते हैं? इस व्यापार से मैं कितना धन कमा सकता हूँ? मैं कितना आनन्द ले सकता हूँ? कितनी शारीरिक समस्यायें सुलझ सकती हैं? आदि सभी लाभ सहजयोग में आपकी परिपक्वता के भी नहीं। मस्तिष्क के हाथ में बागडोर आते ही यह अत्यन्त सोच में पड़ जाता है । तुम्हारी सम्मुख कुछ पत्नी, बच्चे, घर आदि बहत सी चीज़जों पर यह मँडराया रहता है पर यदि आप सहज ढंग से सोचेंगे तो कहेंगे कि मुझे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे मेरे बच्चे सहज बनें। मुझे एक ऐसा घर चाहिए जो सहज के लिए उपयोग में आ सके। मेरा आचरण ऐसा हो जिससे लगे कि मैं सहजयोगी हूँ। आप में परिपक्वता इस प्रकार बढ़े कि आप इसे महसूस कर पायें । सर्वप्रथम शांति। अशांत व्यक्ति का मस्तिष्क अस्थिर यन्त्र के सम होता है। वह ठीक प्रकार से न तो देख सकता है, न सोच सकता है और न ही समझ सकता है। .विश्व में जिस प्रकार इस महामाया के माध्यम से हर चीज़ उलट-पुलट हो रही है। संघर्ष चल रहा है यह युद्ध नहीं है, यह शीत युद्ध नहीं है यह तो एक अजीब किस्म का युद्ध-यश है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। परमात्मा तथा आध्यात्मिकता का व्यापार हो रहा है। आज के इस पतित विश्व के लिए महामाया का होना आवश्यक है जिसके द्वारा दर्शा सकें कि इस जीवन में 19 आप जो कर रहे हैं उसके लिए आपको नाकों चने चबाने पड़ेंगे।........इस महामाया को हम रोकड़ा देवी कहते हैं। अर्थात हाथों हाथ फल देने वाली, नग़द भुगतान करने वाली देवी , आपने ऐसा किया, ठीक है आप ये ले लें। आपने यह कार्य किया ठीक है, आप इसका आनन्द लें। वास्तव में ये महामाया विशेष रूप से गतिशील हैं। जिस तरह से यह लोगों को दण्डित कर रही हैं, कभी - कभी तो मुझे भय प्रतीत होता है। पर वास्तविकता यही है। यदि आप कहें कि मुझे अन्धाधुन्ध गाड़ी चलानी अच्छी लगती है तो ठीक है, समाप्त। लँगड़ाती टाँग या टूटा हाथ आपका अंत है। महामाया के माध्यम से दैवी कानून कार्यरत है। आज की तरह यह कभी इतना तेज न था। मानव की स्वतन्त्र इच्छा पर अंकुश रखने के लिए महामाया अपनी स्वतन्त्र इच्छा का उपयोग कर रही हैं। यह कथित स्वतन्त्रता जिसका आनन्द लेने का हम प्रयत्न कर रहे हैं हमें हमारे अन्त तक ले आई है। ..... लोग अपने ही शिकंजे में फँस रहे हैं। यह शिकंजा ही महामाया है। आपसे ही वे इसकी रचना करती क्योंकि आप अपना सामना नहीं करना चाहते, सत्य को जानना नहीं चाहते, सत्य से आप जी चुराना चाहते हैं। यह महामाया का ही एक पक्ष है कि तुरन्त आप अपना सामना करने को विवश हो जाते हैं।........ कितनी सारी घटनायें घटीं इनका विचार कीजिए। बड़े-बड़़े पूँजीपति जेल में हैं। बड़े प्रसिद्ध लोग जेल में हैं। इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं क्यों? क्योंकि यह महामाया सबक देना चाहती हैं। एक व्यक्ति को दण्डित करने से यह हज़ारों लोगों को रास्ते पर ले आती हैं। इतना डरा हुआ विश्व है, इतनी असुरक्षा है। ......आज हर व्यक्ति व्यग्र है और अपना जीवन बचाने की सोच रहा है। ......आप सहजयोग में आ जाएं तो आप कष्ट से बच सकते हैं क्योंकि महामाया का एक पक्ष यह है कि वे रक्षा करती हैं। जब तक स्वयं न चाहे कोई सहजयोगी को मार नहीं सकता। उनकी अपनी इच्छा है, उन्हें कोई छू नहीं सकता। किस प्रकार यह महामाया सहजयोगियों की रक्षा करती हैं इसकी बहुत सी कहानियाँ .यह चेतन मस्तिष्क है परन्तु अत्यन्त गहन सुषुप्ति की अवस्था में आप हैं। स्वप्न में भी वे रक्षा करती हैं। जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत? किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत। किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं। यही ज्ञान अन्तज्ज्ञान है जो कि महामाया के माध्यम से से आता है। केवल वे ही आपको अन्तज्ज्ञान देती हैं कि क्या करना आवश्यक है? किस प्रकार समस्या छुटकारा पाना है? और आप छुटकारा पा लेते है। ..... कोई यदि सहजयोगियों को परेशान करने का प्रयत्न करता है तो महामाया एक सीमा तक उसे ऐसा करने देती हैं और फिर अचानक गतिशील हो उठती हैं। लोग आश्चर्यचकित हो उठते हैं, सहजयोगी हैरान हो जाते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा किस प्रकार बन गया? यह महामाया मेरी साड़ी की तरह हैं और रक्षा कर रही हैं। वह अत्यन्त सुन्दर, दयालु, ध्यान रखने वाली, करुणामय, स्नेहमय तथा कोमल हैं। वह आपकी देख-रेख करती हैं और राक्षस तथा असुर प्रवृत्ति के लोगों, जो परमात्मा के कार्य को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं, पर क्रुद्ध होकर उनका संहार करती हैं। .महामाया का एक अन्य पक्ष यह है कि वे आपको परिवर्तित करती हैं। मानव के लिए सभी कुछ मस्तिष्क है । आप यदि कुटिल हैं तो कुटिल हैं। आप यदि दूसरों से घृणा करते हैं तो यह भी मस्तिष्क में है। आपको 20 প WE EIN यदि कोई व्यसन है तो वह भी मस्तिष्क में है। मस्तिष्क के बन्धन अतिजटिल हैं। अत: नि:सन्देह सहस्रार अत्यन्त महत्वपूर्ण है परन्तु विराट तथा विराटांगना की शक्ति तभी प्रभावशाली हो सकती है जब महामाया का शासन हो और वे अपने मधुर तरीकों से सहस्रार को खोलें और आपको कुरूप, भयंकर तथा क्रोधी बनाने वाले सभी बन्धनों का निवारण करें। .महामाया पृथ्वी माँ की तरह हैं, यह सभी कुछ मिलने पर आपको वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न तथा आनन्दमय बना देती हैं ताकि आप 'निरानन्द' 'केवल आनन्द' का रसपान कर सकें। आनन्द के सिवाय कुछ भी नहीं-यही सहस्रार है परन्तु यह तभी सम्भव है जब आपका ब्रह्मरंध्र खुल जाए। उसके बिना आप परमात्मा के प्रेम की सूक्ष्मता में और सदा संग रहने वाली महामाया की करुणा में प्रवेश नहीं कर सकते। बाह्य रूप से मैंने बता दिया कि महामाया कैसी हैं परन्तु अन्दर से आप इन्हें तभी जान सकते हैं जब अपने ब्रह्मरंध्र से इसमें प्रवेश करें। तब सर्वव्यापक शक्ति की अवतरण यह महामाया एक प्रकार से बिल्कुल भिन्न हो जाती हैं। वे एक ओर तो आपको सबक सिखाने का प्रयत्न करती हैं, विनाशकारी शक्तियों को समाप्त करती हैं और दूसरी ओर आपको प्रेम करती हैं, कोमलतापूर्वक आपकी रक्षा करती हैं और मार्गदर्शन करती हैं । | उसका प्रेम निर्वाज्य है। वे प्रेम करती हैं क्योंकि इसके बिना उनसे नहीं रहा जाता, तो उस प्रेम में आप सराबोर हैं और आनन्द ले रहे हैं। हर व्यक्ति जानता है कि वह उनके बहुत करीब है, बिल्कुल करीब, जहाँ भी वो हों और जब भी वो चाहें उनसे सहायता माँग सकते हैं। सहस्रार अति महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल इसी के माध्यम से हम प्रतिक्रिया करते हैं। जिस विश्व में हम रह रहे हैं यहाँ हमें अब उन कमलों की तरह होना है जिन पर दाग़ नहीं लगाया जा सकता और प्रचलित कोई बुराई जिन्हें प्रभावित नहीं कर सकती। यही परीक्षा है कि इस कठिन समय पर हम खिल सके और सुगन्ध फैला कर बहुत से अन्य लोगों को इस सुन्दर वातावरण में ला सके। नकारात्मकता के विरुद्ध यह एक प्रकार से सुन्दर और लीलामय युद्ध है। उनकी मूर्खता क्या है? इसे कोई भी देख सकता है। अत: अपने मन को, अपनी दृष्टि को विकसित करें ताकि स्पष्ट रूप से आप सब यह समझ सकें कि आप ही लोग ज़िम्मेदार हैं। इस मस्तिष्क के सहस्रार के आप ही कोशाणु हैं और सबको ही कार्य करना है। सहजयोग में आना केवल आपके निजी सीमित व्यक्तित्वों और उनकी समस्याओं के लिए ही नहीं है। एक ओर तो आपने स्वयं विकसित होना है और दूसरी ओर सबको आपके माध्यम से विकसित होना है। इस दूसरे पक्ष की देखभाल आपको करनी चाहिए-----यह सुन्दर बात है कि परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करने और स्वर्गीय आशीर्वाद का आनन्द लेने के लिए यह द्वार अब आपके लिए खुला है। मुझे विश्वास है कि बहुत बड़े स्तर पर यह कार्यान्वित होगा। पूर्ण समर्पण तथा विश्वास यदि आप पा लेंगे तो कार्यान्वित होगा । ---यह बहुत ही अच्छी तरह प.पू.श्री माताजी, ८.५.१९९४ सहस्रार चक्र सातवाँ अंतिम चक्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण चक्र है, इसे सहस्रार चक्र कहते हैं । सहजयोग के अनुसार इसके 22 सहस्त्र दल होते हैं। वास्तव में मस्तिष्क में एक हज़ार नाड़ियाँ हैं और यदि आप मस्तिष्क को आड़े खण्डों में कार्टें तो मस्तिष्क की ये पंखुड़ियाँ सम खण्ड सहस्र दल कमल की रचना करते हैं। आत्मसाक्षात्कार के पहले एक हज़ार पंखुड़ियों वाला यह केन्द्र मस्तिष्क के तालु भाग को कमल की बंद कली की भाँति ढके रखता है। इस चक्र को ऊपर से अहं तथा प्रति अहं के गुब्बारों सम आकारों ने ढका हुआ है। जब ये दोनों संस्थायें मिलती हैं तो सिर के तालु भाग में कठोर हड्डी बन जाती है और हम अंडे की तरह बंद एक व्यक्तित्व बन जाते हैं। हमारी जाग्रति के समय सिर के तालु भाग में यह अंडे सम व्यक्तित्व टूटता है। यही कारण है कि ईसा के पुनर्जन्म दिवस पर ईसाई लोग अंडे भेंट करते हैं । सहजयोग पुस्तक से यह सहस्रार चक्र मस्तिष्क के तालु क्षेत्र आंगिक क्षेत्र (लिम्बिक एरिया) के अन्दर होता है । हमारा सिर एक नारियल जैसा है। नारियल के ऊपर जटायें होती हैं, फिर उसका एक सख्त खोल होता है, फिर एक काला खोल और उसके अन्दर सफेद गिरी, उसके अन्दर रिक्त स्थान और पानी होता है। हमारा मस्तिष्क भी इसी प्रकार बना होता है। कुण्डलिनी नीचे सभी चक्रों को भेदकर लिम्बिक एरिया में प्रवेश करती है और मस्तिष्क में स्थित सात पीठों को, जो लिम्बिक एरिया के मध्य रेखा पर रखे गये हैं, प्रकाशित करता है। तो अगर हम पीछे से शुरू करें तो सबसे पीछे मूलाधार चक्र है, उसके चारो तरफ स्वाधिष्ठान फिर नाभि फिर अनहद् फिर विशुद्धि और उसके बाद आज्ञा चक्र होता है। इस तरह से छ: चक्र मिलकर सातवाँ चक्र सहस्रार बनता है। ये बहुत ही महत्वपूर्ण बात है जो हमें पता होती चाहिये । प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ४.२.१९८३ सहस्रार चक्र की एक हज़ार नाड़ियाँ विशुद्धि चक्र की सोलह महत्वपूर्ण नाड़ियों से जुड़ी हैं। इसी कारण कहा जाता है कि श्री कृष्ण की सोलह हज़ार (16x1000=16000) पत्नियाँ थीं। उनकी सारी शक्तियाँ पत्नियों के रूप में थीं और मेरी (सहस्रार स्वामिनी श्री माताजी की) सारी शक्तियाँ सहजयोगी बच्चों के रूप में है। उत्थान की ओर विकसित होते हुये हमें अपने सहस्रार पर जाना पड़ता है। आज के सहजयोग से सामूहिकता इतनी जुड़ गयी है, इसके पूर्व यह केवल अगन्य चक्र के स्तर तक थी। सहस्रार पर पहुँचकर कुण्डलिनी सारी नाड़ियों को प्रकाशित करती है और नाड़ियाँ शांत एवं सुंदर दीपों सम दिखायी पड़ती हैं। प.पू.श्री माताजी, मेलबो्न, १६.४.१९९१ को इस चक्र का खुलना बहुत जरुरी है। जब तक यह चक्र नहीं खुलता, जब तक सहस्रार 23 कुण्डलिनी नहीं भेदती तब तक आप पार नहीं हो सकते, लेकिन जब ये कुण्डलिनी इसे भेद देती है तब वह अति सूक्ष्म सर्वव्यापी शक्ति में एकाकार होती है। प.पू.श्री माताजी, न्यूयार्क, २२.३.१९७९ ब्रह्मरन्ध्र का छेदन उस जगह है जहाँ हमारा हृदय है। इसका मतलब यह है कि हमारे हृदय में जब तक परमात्मा को पाने की इच्छा नहीं होगी तब तक यह भेदन ठीक नहीं होगा। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८५ आत्मा हृदय में अभिव्यक्त होती है, हृदय में प्रतिबिम्बित होती है, या ऐसा कह सकते हैं कि आत्मा का केन्द्र हृदय में होता है लेकिन वास्तव में आत्मा का स्थान ऊपर (सहस्रार पर) है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा की आत्मा है जिसे आप, 'परवरदिगार' कहते हैं, या 'सदाशिव' या आप इसे 'रहीम' कह सकते हैं, आप इसे अनेक नाम से पुकार सकते हैं, निरंजन ......निराकार। ......सहस्रार में ब्रह्मरन्ध्र एक ऐसे बिन्दु पर है जहाँ हृदय चक्र है, अत: यह जानना आवश्यक है कि ब्रह्मरन्ध्र का आपके हृदय से सीधा सम्बन्ध है। अगर आप सहजयोग को हृदय से न करके बाहरी रूप में ही करेंगे तो आप बहुत ऊँचे नहीं उठ सकते। मुख्य बात तो यह है कि आपको इसमें पूर्ण हृदय देना है। कुण्डलिनी के सहस्रार में प्रवेश पाने के विरुद्ध में जो सबसे बड़ी रुकावट आती है वह ' एकादश रुद्र'है जो भवसागर से आता है और जो मेधा यानी मस्तिष्क की प्लेट को ढकता है, इससे कुण्डलिनी लिम्बिक क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती। जो लोग अन्धाधुन्ध गलत मार्ग पर चलते जाते हैं, उन्हें अजीब तरह के हृदय रोग, दिल धड़कना, अनिद्रा, उल्टियाँ, चक्कर आना, उल्टा-सीधा बकना आदि हो जाते हैं। गलत गुरु के पास जाना, उनके आगे सिर झुकाना बहुत ही गंभीर बात है। इस प्रकार के आदमी के लिये सहस्रार में प्रवेश निषिद्ध हो जाता है । जो लोग सहजयोग के विरुद्ध है, उनका सहस्त्रार बहुत ही कठोर होता है, एक बादाम या अखरोट के बाहरी खोल की भाँति जो तोड़ा नहीं जा सकता। सहस्रार की देखभाल करने के लिये यह बहुत आवश्यक है कि आप सर्दियों में अपना सिर ढकें ताकि मस्तिष्क ठंडक से न जमे क्योंकि मस्तिष्क भी मेधा (फैट) का बना होता है और फिर मस्तिष्क को बहुत ज़्यादा गर्मी से भी बचाना चाहिये। .....हर समय धूप में नहीं बैठे रहना चाहिये .....उससे आपका मस्तिष्क पिघल जाता है और आप एक सनकी मनुष्य बन जाते हैं जो इस बात का संकेत है कि आपके कुछ समय बाद पागल होने की संभावना है। प.पू.श्री माताजी, ४.२.१९८३ सभी चक्रों की पीठ सहस्रार में है। सातों चक्र आपके मस्तिष्क में भली - भाँति स्थापित हैं और उसी स्थान से आवश्यकता पड़ने पर चक्रों पर वे कार्य करते हैं। ये सातों चक्र एक हो जाते हैं, मैं कहँगी कि एक ताल हो जाते हैं, इनमें पूर्ण एकाकारिता घटित हो जाती है, क्योंकि इन सात मुख्य चक्रों द्वारा प्रशासित होते हैं और अन्य सभी चक्रों को चलाते हैं। ये पूर्णतः एक ताल होते हैं, इनमें पूर्ण एकाकारिता होती है इसलिये आपके सभी चक्र 24 सुगठित होते हैं। कुण्डलिनी द्वारा प्रकाशित तथा परमेश्वरी शक्ति द्वारा आशीर्वादित चक्र अविलम्ब सुगठित हो जाते हैं मानो एक सूत्र में पिरोये मोती हों, यह उससे भी अधिक होता है। मान लो आपका एक चक्र ठीक नहीं है, इसमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक कोई कमी है, तो अन्य चक्र इस रोगी चक्र की सहायता का प्रयत्न करते हैं और सहयोगी के रुप में मानव के व्यक्तित्व का इस प्रकार विकास करने का प्रयत्न करते हैं कि वह सुगठित हो जायें । व्यक्ति यदि अन्दर से संगठित नहीं होगा तो वह बाहर से भी संगठित नहीं हो सकता। आपके अन्दर यह संगठन सहजयोग का ऐसा आशीर्वाद है कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व साधारण व्यक्तियों से कहीं ऊँचा हो जाता है। हमारे अन्तःस्थित सातों चक्रों का पथ प्रदर्शन एक ताल बद्ध पीठ करते है, एक तालबद्धता से जो सहायता मिलती है ये सभी चक्रों को संगठित होने में सहायक होती है। साधारण स्थिति में हम संगठित नहीं होते क्योंकि हमारा मस्तिष्क एक ओर जाता है, शरीर दूसरी ओर जाता है तथा हृदय, भावनायें अन्यत्र। हम समझ नहीं पाते कि करने के लिये कौनसा कार्य ठीक है और कौनसा कार्य सर्वोत्तम परन्तु आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आत्मा के प्रकाश में आप सत्य को पा लेते हैं और जान जाते हैं कि क्या करना चाहिये। .......आपमें आत्मज्ञान आ जाता है। तो पूर्ण सत्य यह है कि सहस्रार एक विश्वव्यापी क्षेत्र है जिसमें हम प्रवेश करते हैं। इस विश्वव्यापी क्षेत्र में प्रवेश करके जब हम इसमें होते हैं तो हम विश्वव्यापी व्यक्तित्व बन जाते हैं तब आपकी जाति, देश, धर्म तथा मानव के बीच बनावटी अवरोधों जैसी छोटी-छोटी चीजें स्वत: ही समाप्त हो जाती हैं और आप एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति बन जाते हैं। प.पू.श्री माताजी, कबैला, १०.५.१९९८ से अगर आपका सहस्रार पूरी तरह खुला है तो यदि आप कान में उंगली डाले, पूरी तरह से आँख, कान बंद कर लें, तो भी आप सुन सकते हैं, ये पहचान है कि आपका सहस्रार खुला है। ......अगर आपका सहस्रार खुल जाये तो लिम्बिक एरिया में जो subtle points हैं उनको excite करने से वही काम होता है जो नाक, कान, मुँह आदि जितने भी शारीरिक अंग हैं, उससे होता है। उसी सहस्रार को हम जाग्रत कर लेते हैं जो सारे शरीर को यहाँ संभाले हये है। ..... आप श्वास भी यहाँ से ले सकते हैं। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, फरवरी १९७५ अन्तर्जात गुण सहस्रार का सार समग्रीकरण हैं। सहस्रार में सारे चक्र अत: सब देवी-देवताओं का १. समग्रता समग्रीकरण है और आप इनके समग्रीकरण की अनुभूति कर सकते हैं, अर्थात् जब आपकी कुण्डलिनी सहस्रार में पहुँच जाती है तो आपका मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व भी इसी में विलय हो जाता है, आपकी कोई भी समस्या नहीं रहती। 25 आपके व्यक्तित्व का पूर्ण समग्रीकरण आवश्यक है। ......इसके लिये सामर्थ्य अन्दर से आती है, आपकी आत्मा आपको बल प्रदान करती है, आप बस अपनी संकल्प शक्ति लगाते हैं कि 'हाँ मेरी आत्मा काम करे' और आप अपनी आत्मा के कार्य करने लगते हैं, तो आप देखने लगते हैं कि आप किसी चीज़ के दास नहीं हैं, आप समर्थ हो जाते हैं, अर्थात् सम +अर्थ, अपने अर्थ के समतुल्य। समर्थ का अर्थ शक्तिशाली व्यक्तित्व भी है, तो आप एक शक्तिशाली व्यक्तित्व बन जाते हैं जिसमें कोई भी प्रलोभन नहीं होता, कोई भी असत्य विचार नहीं होता, कोई पकड़ नहीं होती और कोई समस्या नहीं होती। अनुसार २ निरानन्द - आप ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ आप 'निरानन्द को पाते हैं, और यह निरानन्द आपको मिलता है जब आप पूर्णतया 'आत्मस्वरूप' बन जाते हैं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ४.२.१९८३ ३. शान्ति - योग होने के बाद मनुष्य का मन सब चीज़ों से हटकर परमात्मा की ओर लग जाता है, सारी प्राथमिकतायें आपकी बदलकर आप दूसरे ही आदमी हो जाते हैं, उसी शान्ति में समाये रहते हैं जो आत्मा की देन है। ... आत्मा का जो स्वरुप है उस 'सत्य' को आप जान जाते हैं। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८५ सहस्रार स्वामिनी 'श्री निर्मल माँ' की भूमिका मैं घोषणा करती हूँ कि मैं ही मानवता की रक्षा के लिये अवतरित हुई हूँ। मैं न केवल मानव जाति को मोक्ष प्रदान करने के लिये अपितु परमात्मा का साम्राज्य, आनन्द तथा आशीष जिनसे परमात्मा आपको धन्य करना चाहते हैं-वो सब प्रदान करने के लिये मैं इस पृथ्वी पर आयी हूँ। प.पू.श्री माताजी, लंदन, २.१२.१९७९ आप अपने लिये आनन्द खोज रहे हैं, अपनी ही संपदा को आप खोज रहे हैं, आपकी अपनी ही छिपी हयी सम्पदा को आप युगों से खोज रहे हैं। इसी संपदा को मैंने आपके सामने अनावृत्त करना है। प.पू.श्री माताजी, डालिस हिल, १८.११.१९७९ एक नव निर्माण (सामूहिक कुंडलिनी जागरण) की बात मैं आपसे करने वाली हूँ, सिर्फ बात ही नहीं , ये इसका अविष्कार जो खोज निकाला है। ......यह सामूहिक खोज है। .. .यही सहजयोग है। सत्य है .......ये एक तथ्य है, सहजयोग में सिर्फ कुण्डलिनी की जाग्रति और परमात्मा को पाने की ही बात है और कोई नहीं। प.पू.श्री माताजी, गुरु पूर्णिमा, १.६.१९७२ 26 आपको 'सत्य' प्रदान करना मेरा कार्य है ......आपको आत्मसाक्षात्कार देना मेरा कार्य है, मुझे ये कार्य करना है। प.पू.श्री माताजी, यू.के., १९७९ भारत में ब्रह्माण्ड के सहस्रार खोलने का 'श्री माँ' का अद्भुत अनुभव को खोलने का अपना अनुभव में आपको बताना चाहती हूँ। ज्योंही सहस्रार खुला, पूरा सहस्त्रार वातावरण अद्भुत चैतन्य से भर गया और आकाश में तेज़ रोशनी हुई तथा सभी कुछ मूसलाधार वर्षा सा झरने की तरह पूरी शक्ति से पृथ्वी की ओर आया, मानों मैं इनके प्रति चेतन ही नहीं थी , संवेदन शून्य हो गयी। ये घटना इतनी अद्भुत थी और इतनी अनपेक्षित थी कि मैं स्तब्ध रह गयी और इसकी भव्यता ने मुझे एकदम से मौन कर दिया। आदि कुण्डलिनी को मैंने एक बहुत बड़ी भट्टी की तरह से ऊपर उठते देखा। ये भट्टी एकदम शांत थी परन्तु ये अग्नि की तरह से लाल थी मानो किसी धातु को तपाकर लाल कर लिया हो और उसमें से नाना प्रकार के रंग विकिर्णित हो रहे हों। इसी प्रकार से कुण्डलिनी भी सुरंग के आकार की भट्टी सम दिखायी दी , जैसे आप कोयला जलाकर बिजली बनाने वाले संयंत्रों में देखते हैं और यह दुर्बीन से दिखायी देने वाले दृश्य की तरह से फैलती चली गयी, एक के बाद एक विकीर्णन होता चला गया Shoot-Shoot-Shoot इस प्रकार से। देवी-देवता आए और अपने सिंहासनों पर बैठते चले गये, स्वर्णिम सिंहासनों पर और फिर उन्होंने पूरे सिर को इस तरह उठाया मानो गुम्बद हो और इसे खोल दिया। तत्पश्चात् चैतन्य की इस मूसलाधार वर्षा ने मुझे पूरी तरह से सराबोर कर दिया। यह सब देखने लगी और आनन्द मग्न हो गयी। यह सब ऐसा था मानों कोई कलाकार अपनी ही कृति को निहार रहा हो और मैंने महान सन्तुष्टि के आनन्द का अहसास किया। इस सुन्दर अनुभव के आनन्द को प्राप्त करने के बाद मैंने अपने चहूँ ओर देखा और पाया कि मानव कितने अंधकार में है, और मैं एकदम मौन हो गयी। मेरे मन में इच्छा हुयी कि मुझे कुछ ऐसे प्याले (पात्र) मिलने चाहिये जिनमें मैं यह अमृत भर सकूं, केवल पत्थरों पर इसे न डालूं। प.पू.श्री माताजी, सहस्त्रार पूजा, फ्रान्स, ५.५.१९८२ 27 श्री कल्कि टरी म 28 आज कल्कि देवता व कुण्डलिनी शक्ति इनका क्या सम्बन्ध है ये कहने का प्रयास किया है। कल्कि शब्द निष्कलंक से निर्मित हुआ है। निष्कलंक माने जिस पर कलंक या दाग़ न हो, इसका मतलब अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल है। श्री कल्कि पुराण में श्री कल्कि अवतरण के विषय में बहुत कुछ लिखा है। उसमें यह कहा जाता है कि श्री | कल्कि का अवतरण इस भूतल पर सम्भालपुर गाँव में होगा। संभाल शब्द का मतलब भाल 'कपाल' और संभाल माने भाल प्रदेश पर स्थित । अर्थात कल्कि देवता का स्थान हमारे कपाल पर है। इस शक्ति को श्री महाविष्णु (पुर ) की हनन शक्ति भी कहते हैं। श्री येशू का अवतरण व श्री कल्कि शक्ति का अवतरण, इस बीच की अवधि में को स्वयं का परिवर्तन करके परमेश्वर के साम्राज्य में प्रवेश करने का मौक़ा है। इसी को बाइबल में अन्तिम निर्णय (The last मनुष्य judgement) कहा है। इस पृथ्वी पर हर एक मनुष्य का यह अन्तिम निर्णय होने वाला है। कौन परमेश्वर के राज्य में प्रवेश के योग्य है और कौन नहीं, इसकी छँटनी होने का समय अब आया है। सहजयोग से सभी का अन्तिम निर्णय होने वाला है। हो सकता है बहुत से लोगों को ये बात अजीब लगे परन्तु यह अजीब होकर भी सत्य है। माँ के प्यार से कोई भी सहज में पार होता है और इसलिये ऊपर कही गयी बात इतनी सुन्दर नाज़ुक व सूक्ष्म बनायी गई है। उसमें किसी को भी विचलित नहीं होना है । मैं आपको कहना चाहती हूँ कि सहजयोग से ही आपका आख़िरी निर्णय होने वाला है। आप परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लायक हैं कि है। नहीं इसका निर्णय सहजयोग द्वारा ही होने वाला बहुत से लोग अलग-अलग कारणों से सहजयोग में बढ़ते हैं, इसकी ओर आते हैं। समाज में कई लोग बहुत ही साहसी वृत्ति के, कुछ जड़ वृत्ति के या सुस्त वृत्ति के होते हैं। ये लोग ईड़ा नाड़ी पर कार्यान्वित होते हैं। इसमें कुछ लोग मदिरापान अथवा इसी तरह का कुछ पीते हैं जिसके कारण ऐसे लोग सत्य से दूर भागते हैं। दूसरी तरह के कुछ लोग पिंगला नाड़ी पर कार्यान्वित होते हैं और बहुत ही महत्वाकांक्षी होते हैं। वो स्वतंत्रता चाहते हैं और उनकी अपेक्षाएं इतनी विशेष होती हैं कि उससे उनकी दूसरी साईड (ईड़ा नाड़ी) पूर्णतः खराब हो जाती है, उससे उनको अनेक दुष्कर रोग हो जाते हैं। परमेश्वर से जुड़े रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता। इस तरह दोनों प्रकार के लोग आपको समाज में मिलेंगे। लोग एक तो बहुत ही तामसी वृत्ति में रहेंगे, नहीं तो बहुत ही राजसी वृत्ति में । इसमें तामसी वृत्ति के लोग तो शराब ही पिएंगे, मतलब स्वयं को जागृत स्थिति से, सच्चाई से परे हटाकर रखेंगे । दूसरे प्रकार के लोग जो कुछ सच्चाई है, सुन्दर है उसे नकारते ही रहते हैं । ऐसे लोग अहंकार से भरे हुए होते हैं। उसी प्रकार प्रति अहंकार से भरे हुए सुस्त , जड़ व लड़ाकू प्रवृत्ति के लोग दिखायी देते हैं । सहजयोग में बड़ी कठिनाई से आ सकते हैं । .....दोनों तरह के लोग परन्तु जो लोग सात्विक वृत्ति के हैं या मध्यम वृत्ति के हैं, ऐसे लोग सहजयोग में जल्दी आ सकते हैं। इसी तरह जो लोग बहुत ही सीधे हैं वे भी सहजयोग को बिना मेहनत के प्राप्त होते हैं। वे पार भी सहज में होते हैं। इस संदर्भ में मुझे यह बात कहना जरूरी है कि सहजयोग आपको सही रास्ते पर ले जा सकता है व परमेश्वरी ज्ञान मूलतः खोलकर बता सकता है। सारे परमेश्वर को खोजने वालों को सहज ही परमेश्वरी ज्ञान 29 खुलकर बताया जा रहा है। ये सारा सहज में ही होता है, आपको अपना आत्मसाक्षात्कार बिना कष्ट उठाये मिलता है और बिना कोई पैसा खर्च किए। परन्तु एक बात पक्की ध्यान रखनी चाहिये। आत्मसाक्षात्कार के बाद परमेश्वर के राज्य में प्रस्थापित होने तक बहुत बाधाएँ हैं और श्री कल्की शक्ति का सम्बन्ध इसी से जुड़ा है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के बाद भी जो लोग अपनी पुरानी आदतों और प्रवृत्तियों में मग्न होते हैं उनकी स्थिति को योगभ्रष्ट स्थिति कहते हैं उदाहरण - कोई व्यक्ति पार होने के बाद भी अहंकार वृत्ति में फँसा है या पैसे कमाने में ही मग्न है, या अपनी तानाशाही प्रस्थापित करने में अतिमग्न है, तो वह व्यक्ति कोई ग्रुप बना सकता है और ऐसे ग्रुप पर वह व्यक्ति अपना बड़प्पन स्थापित कर सकता है। परन्तु इसमें थोड़े दिनों बाद ऐसा मालूम होगा कि वह व्यक्ति परमेश्वर से, सच्चाई से वंचित हो गया , और अन्त में उसका सर्वनाश हो गया। हर एक चीज़ का इस संसार में बिल्कुल सही ढंग से नियमन होता है, उसी प्रकार सहजयोग में भी है। सहजयोग में आकर आप दिखावा नहीं कर सकते। किसी बात के लिये ग्रुपबाज़ी नहीं कर सकते। सहजयोग में आने के बाद इस प्रकार के लोगों का बहत जल्दी भांडा फूटता है क्योंकि ऐसा कृत्य करने वाले लोगों के सारे चक्रों पर ज़ोरों की पकड़ आती है और उसकी जानकारी उन व्यक्तियों को नहीं रहती है। ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें चैतन्य लहरियों की सम्वेदना रह सकती है, परन्तु थोड़े समय में ही ऐसे लोगों का नाश होता है ......योग भ्रष्ट लोग, श्री कृष्ण जी के अनुसार, राक्षसयोनि में जाते हैं । जो लोग सहजयोग मे आते हैं उनको इसमें जमकर टिकना पड़ेगा नहीं तो वे योग पाए बिना किसी और योनि में जा गिरेंगे। .....श्री कल्कि देवता की शक्ति सहजयोगियों के साथ गुरुकृपा से प्रत्येक क्षण कार्यान्वित रहती है। श्री कल्कि देवता सहजयोगी की पवित्रता की रक्षा अपनी एकादश शक्ति से करते हैं। जो कोई सहजयोग के विरोध में कार्य करेगा उन सभी को बहुत परेशानी होगी । इतिहास को देखा जाए तो लोगों ने अनेक संत पुरुषों को बहुत परेशान किया। परन्तु अब आप संतो को, साधुओं को कोई परेशान नहीं कर सकता, क्योंकि श्री कल्कि देवता की शक्ति पूर्णरूप से कार्यान्वित है। जो मनुष्य सीधा- सादा है, संत है, उसे परेशान किया तो कल्कि शक्ति उन्हें कहीं का नहीं रखेगी और उस समय आपको भागने के लिये पृथ्वी भी कम पड़ेगी। | .......औरों को मत सताओ, उनकी अच्छाईयों का फायदा मत उठाओ और अपना रुतबा बड़प्पन जताकर व्यर्थ बातें मत बनाओ क्योंकि कल्कि देवता ने आपके जीवन में संहार कार्य की शुरुआत की तो आप क्या करें, क्या न करें की स्थिति में आ सकते हैं। इसी प्रकार जब आप अज्ञानता से या अनजाने में किसी दुष्ट व्यक्ति को भजते हैं या उसके सम्पर्क में होते हैं तब भी आपको इससे परेशानी उठानी पड़ती है। कितना पागलपन या अघोरीपन है? उसमें आपको लगता है कि पुजारियों को पैसा देकर आपने बहुत पुण्य कमाया। इस तरह सत्य क्या है, ये न समझकर हम अंधविश्वास से जिंदगी जीते हैं।...... परमेश्वर के नाम पर एक के पीछे एक ऐसे अनेक पाप हम करते रहते हैं । पाप क्षालन (धोना) करने के बदले पापों में वृद्धि करते हैं। ऐसे ......परमेश्वर के नाम से आपसे कोई पैसा निकालता है तो 30 लोगों को मैं तामसी कहती हैँ। आपके पास जो कुछ समय मिला है, वह सब आपात्काल की तरह और महत्वपूर्ण है और इसलिये आपको स्वयं आत्मसाक्षात्कार के लिये सावधान रहना चाहिये। इसमें किसी को भी दूसरों पर निर्भर नहीं रहना है। अपने आप स्वयं साधना करके परमेश्वर के हृदय में ऊँचा स्थान प्राप्त करना चाहिए, अर्थात इसके लिये सहजयोग में आकर स्वयं पार होना जरूरी है, क्योंकि पार होने के बाद ही साधना करनी है। जिस समय कल्कि शक्ति का अवतरण होगा, उस समय जिन लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति अनुकम्पा व प्रेम नहीं होगा या जिन्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं चाहिए होगा, ऐसे सभी लोगों का हनन होगा। उस समय श्री कल्कि किसी पर दया नहीं करेंगे। वे ग्यारह रुद्र शक्तियों से सिद्ध हैं। उनके पास ग्यारह अति बलशाली विनाश शक्तियाँ हैं। इसलिये व्यर्थ की बातों में अपना समय नष्ट मत करिए। चमत्कार दिखाने वाले अगुरुओं के पीछे 'भगवान - भगवान' करते मत दौड़िये। जो सही है उसी को अपनाइये नहीं तो श्री कल्कि शक्ति का अपनी सारी शक्तियों के साथ संहार करने के लिये अवतार लेकर आने का समय बहुत नज़दीक आया है। कुछ दूसरी तरह के लोग होते हैं, वे हमेशा अपनी चालाकी और बुद्धिमानी पर विचार करते हैं। उन्होंने हमेशा परमेश्वर को नकारा है । ऐसे लोग कहते हैं, परमेश्वर कहाँ है ? परमेश्वर वगैरह कुछ भी नहीं। जो कुछ गलत है वह गलत ही है। जो कुछ हमारे धर्म के विरोध में है वह सब ग़लत ही है फिर वह कल हो या आज हो या १००० साल पहले हो, कभी भी हो वह ग़लत है , ......गलत मार्ग का अवलम्बन मत कीजिए। जो आप की उत्क्रान्ति के विरोध में है वह मत करिए । ऐसा करोगे तो एक समय ऐसा आएगा जब आपके पास किये हुए कृत्यों का पछतावा करने के लिये भी समय नहीं रहेगा..... .उस समय सारा काम प्रचंड होगा। हर एक व्यक्ति अलग अलग छांटा जाएगा। कोई भी कुछ नहीं कह सकेगा। आपके कर्मों के अनुसार कार्य होगा। आपको समझना चाहिये कि आपकी माँ ये सारी बातें समझती है। अगर आपकी माँ ने कोई बात आपसे कही तो वह माननी चाहिये, इसमें वाद - विवाद नहीं करना चाहिये। क्या आपके वादविवाद से चैतन्य लहरियाँ प्राप्त होने वाली हैं ? .. जो विशेष बात मुझे आपसे कहनी है वह है श्री कल्कि देवता की विनाश शक्ति के बारे में। श्री कल्कि अवतरण बहुत कठोर है। पहले श्री कृष्ण जी का अवतरण हुआ, उनके पास हनन शक्ति थी। उन्होंने कंस और राक्षसों को मारा। बहुत छोटे से थे वे, तभी उन्होंने पूतना राक्षसी को कैसे मारा, ये आपको मालूम है। परन्तु श्री कृष्ण 'लीला' भी करते थे। वे करुणामय थे। उन्होंने लोगों को बहत बार छोड़ दिया. क्षमा किया। श्री कृष्ण क्षमाशक्ति से परिपूर्ण थे | क्षमा करना श्री कृष्णस्थित गुण-धर्म है। परन्तु उस परमेश्वर की करुणा को समझने के लिये अगर हम असमर्थ साबित हुए तो इस कल्कि शक्ति का विस्फोट होगा और पूरी क्षमाशीलता आप पर संकटों की तरह आएगी। श्री कृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि किसी समय अपने विरोध में कुछ चला लेंगे लेकिन आदिशक्ति के विरोध में एक शब्द नहीं चलेगा । 31 ऊपर निर्दिष्ट किया हुआ एक बहुत बड़ा अवतरण होने वाला है, ये पक्की बात है। ऐसी अवतारी शक्ति के पास श्री कृष्ण की सारी हनन शक्तियाँ, जो केवल हनन शक्ति, श्री शिव की हनन शक्ति अथ्थात ताण्डव का एक हिस्सा, ऐसी सर्वप्रकार की हनन शक्तियाँ होंगी। उस अवतारी पुरुष के पास श्री भैरव का खड़ग होगा, श्री गणेश का फरसा होगा, श्री हनुमान की गदा और विनाश की सिद्धियाँ होंगी। श्री बुद्ध की क्षमाशीलता व श्री महावीर की अहिंसा शक्ति भी उलटकर गिरेंगी, ऐसी ग्यारह शक्तियुक्त श्री कल्कि देवता का अवतरण होने वाला है। उस वक्त सर्वत्र हाहाकार मचेगा और उसी समय सबका चयन होने वाला है। उस समय सहजयोगी भी किसी को नहीं बचा सकता क्योंकि उस समय सहजयोग भी समाप्त हुआ होगा। आप सहजयोग से भी अलग किये जाओगे और प्रत्येक मनुष्य परमेश्वर को सही लगने वाला बच जाएगा बाकी के लोगों को मारा जाएगा और ये हनन ऐसा वैसा न होकर सम्पूर्ण जड़ का ही नाश होगा। पहले देवी के अनेक अवतारों ने अनेक राक्षसों का नाश किया, पर राक्षसों ने फिर जन्म ले लिया, परन्तु अब पूर्णतः सम्पूर्णतः नाश होने वाला है जिससे पुनः जन्म की भी आशा नहीं रह सकती। अभी जो स्थिति है वह भिन्न है और उसे समझने की आप कोशिश कीजिए ।..... केवल सहजयोग से ही मनुष्य की सफाई होगी और उसी से व्यक्ति परमेश्वर प्राप्ति के योग्य बनाया जा सकता है। ......इसीलिये आप अपना समय नष्ट न करके तुरन्त पूर्ण श्रद्धा से सहजयोग को स्वीकार कीजिये । यह अत्यन्त आवश्यक है। इससे भूतकाल में हुई गलतियाँ, पाप इन सबसे आपको मुक्ति मिलेगी।......आप बहुत सावधान और सजग रहिये। अपने आप से मत खेलिये। स्वयं का नाश मत करिये। तुरन्त उठिये, जागृत हो जाइये। मेरे पास आइये मैं आपकी मदद ......अपने जीवन का ज़्यादा से ज़्यादा समय सहजयोग में व्यतीत करना चाहिए। आपके लिये यह सहजयोग बहुत ही क़ीमती है, बहुत महान है। इसे प्राप्त करने के लिये और प्राप्त होने के बाद आत्मसात करने के लिये आप अपना समय उसे दीजिए।.....जिस समय नये लोगों का सहजयोग की तरफ बढ़ना बिल्कुल खत्म हो जाएगा करूंगी।.... उस समय कल्कि शक्ति का अवतरण होगा। कल्कि शक्ति का स्थान आपके कपाल के भाल प्रदेश पर है। जिस समय कल्कि चक्र पकड़ा जाता है उस समय ऐसे लोगों का पूरा सिर भारी होता है। कुण्डलिनी को अपने उस चक्र के आगे नहीं ले जा सकते। ऐसे मनुष्य कुण्डलिनी ज़्यादा से ज़्यादा आज्ञा चक्र तक आ सकती है। परन्तु फिर से कुण्डलिनी नीचे जा गिरती है। अगर आपने अपना सिर ग़लत लोगों या अगुरुओं के पाँव पर रखा होगा ते आपकी स्थिति भी ऐसी हो सकती है। में कपाल पर अगर एक दो उठाव हों तो समझना चाहिये कि कल्कि चक्र खराब है। जिस समय कल्कि चक्र की पकड़ होगी उस समय अपने हाथ की हथेली और सभी उँगलियों पर और पूरे बदन पर साधारण से ज़्यादा गर्मी लगती है। किसी व्यक्ति के श्री कल्कि शक्ति के चक्र में पकड़ होगी तो ऐसा व्यक्ति कर्करोग (कैंसर) या महारोग इस तरह की बीमारियों से पीडित होगा। .इसलिये कल्कि चक्र को साफ रखना होगा। इस चक्र में ग्यारह और चक्र हैं। यह चक्र साफ़ रखने लिये इस चक्र के ग्यारह चक्रों में ज़्यादा से ज़्यादा चक्र साफ रखना बहुत ज़रूरी है। उनकी वजह से और छोटे-छोटे 32 चक्र चालित कर पाते हैं। अगर पूरे के पूरे ग्यारह चक्रों की पकड होगी तो ऐसे व्यक्तियों को आत्मसाक्षात्कार देना बहुत ही कठिन होता है। अब श्री कल्कि चक्र को साफ़ करने के लिये क्या करना है वह देखते हैं। सर्वप्रथम हमें परमेश्वर के प्रति अत्यन्त आदर, प्रेम और उनके प्रति आदरयुक्त भय दोनों ही चाहिये । अगर आपको परमेश्वर के प्रति प्यार नहीं होगा या कोई गलती या पाप करते समय परमेश्वर का भय नहीं लग रहा है, उस समय श्री कल्कि शक्ति अपने क्षोभ से सिद्ध है, सज्ज है। ....... अगर आप पाप कर रहे हैं या गलती करते हैं तो उसमें मुझसे या और किसी से छिपाने ये की ज़रूरत नहीं है। अब अपने आपको यह मालूम है कि आप ग़लत काम कर रहे है। अगर आप पाप कर रहे हो और आपके हृदय में आपको महसूस हो रहा है कि हम पाप कर रहे हैं तो कृपा करके ऐसा कुछ मत करिये। जिस समय आपका परमेश्वर के प्रति आदर, भय और प्रेम रहता है उस समय आप जानते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, वही हमारी देखभाल कर रहा है और वही हमारा उद्धार कर रहा है। वे उनकी शक्ति के कारण हमारे ऊपर कृपा एवं आशीर्वाद की वर्षा करते हैं। परमेश्वर इतने करुणामय हैं कि इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। वे करुणा के सागर हैं, पर वे जितने करुणामय हैं उतने ही वे क्रुद्ध भी हैं, अगर उनका कोप हो गया तो बचना बड़ा मुश्किल है। फिर उन्हें कोई नहीं रोक सकता। मेरे प्यार की आवाज़ भी उस समय नहीं सुनी जायेगी क्योंकि वे उस समय कह सकते हैं कि 'माँ, आपने बच्चों को छूट दे दी है और बच्चे बिगड़ गए ।' इसलिय मैं आपसे कहना चाहती हैँ कि कोई भी गलत या बुरे कृत्य मत करो। उससे मेरे, माँ के नाम पर बुराई मत लाओ। आपकी माँ का हृदय इतना प्रेम से भरा, इतना नाज़ुक है कि ये सारी बातें आपको बताते हये भी मुझे मुश्किल लगता है। मैं फिर से आपको विनती करके बताती हूँ कि अब व्यर्थ समय मत बर्बाद कीजिए क्योंकि पितामह परमेश्वर बहुत कुपित हैं। आपने अगर कोई बुरा काम किया तो वे आपको सजा देंगे। परन्तु अगर आपने उनके लिये या अपने स्वयं के आत्मसाक्षात्कार के लिये किया तब आपको परमेश्वर के राज्य में उच्च पद मिलेगा। कुछ आज आप करोड़पति होंगे, आप बहुत अमीर होंगे या बहुत बड़े पुजारी या वैसे ही कुछ होंगे परन्तु जो परमेश्वर को प्रिय है, जो मान्य है, उन्हीं को परमेश्वर के राज्य में उच्चतम पद पर विराजमान किया जायेगा। रईस या लखपति बनने पर आपको परमेश्वर के राज्य में प्रवेश है, ये अगर आपका विचार होगा तो वह बहुत ग़लत है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर प्राप्ति के लिये हम कहाँ हैं, यह देखकर प्रथम अपना परमेश्वर से सम्बन्ध घटित होना आवश्यक है। स्वयं की आत्मा कहाँ है? परमेश्वर से हम किस तरह सम्बन्धित हो सकते हैं, इन सब बातों का रहस्य आपको सहजयोग प्राप्त होने के बाद ही होता है। साधकों को सहजयोग में आकर अपना सर्वोपरि उत्कर्ष साधकर अपना कल्याण कर लेना चाहिये। प.पू.श्री माताजी, सहजयोग और कल्कि शक्ति, मराठी से अनुवाद (निर्मला योग से उद्धृत) 33 'श्री ललिता' एवं श्री चक्र' हमारे अन्दर दो (और विशेष) चक्र हैं - बायें कंधे के ज़रा नीचे श्री ललिता चक्र, दाहिने कंधे के ज़रा नीचे श्री श्रीचक्र, ये दोनों चक्र दाईं तरफ की महासरस्वती और बाईं तरफ की महाकाली शक्ति को चलाते हैं। प.पू.श्री माताजी, ४.२.१९८३ ये दोनो चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। व्यक्ति को बिना बाजू के वस्त्र नहीं पहनना चाहिये। इन चक्रों के नंगे होने से नालीब्रण (Sinus), आँखो के रोग, दोनों हाथ का पक्षाघात, और पार्किन्सन बीमारी हो सकती है। प.पू.श्री माताजी, कबैला, ८.१०.२००० आपके साथ बहुत सी चीजें घटित हो रही हैं। आपमें दिव्य परिवर्तन हो रहे हैं। मैं जानती हूँ ऐसा हो रहा है। साक्षात 'श्री चक्र' धरती पर उतर आया है और सतयुग का प्रारम्भ हो चुका है। यही कारण है कि आप इन चैतन्य लहरियों को अपनी उंगलियों पर खोज रहे हैं आरै ये जो गुरु और ऋषि जिन लोगों ने इसका वर्णन किया था, उन्होंने नहीं खोजा क्योंकि श्री चक्र के आने के बाद ही यह कार्य सम्भव था। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, २१.३.१९७७ 34 ं र े० मूलाधार के गणेश, विराट में महागणेश बन जाते हैं-वह मस्तिष्क हैं । इसका अर्थ है कि यह श्रीगणेश का आसन हैं । इसका तात्पर्य है कि श्रीगणेश अपने आसन से अबोधिती के सिद्धान्त का शासन करते हैं। आपको, जैसा कि पता है कि यह सिर के पीछे 'औद्टिक थैलेमस' के क्षेत्र में स्थित है- जैसा कि इसे 'ओप्टिक लोब कही जाती है और यह ऑखों को अबोधिता प्रदान करता है । (१९८६, श्रीमहागणेश पूजा, गणपतिपुले) प्रकाशक * निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in कभ ৫ ा। ६ यदि हम अपने श्रीगणेश तत्व का ध्यान रखेंगे:स्वयं को स्वच्छ रेखेंगे, अपनी आँखें स्वच्छ रखेंगे, सब के साथ पवित्र संबंध रखंगे, ती हमें किसी भी प्रकारकी कोई समस्यानहीं होगी। (१९९६, श्रीगणेश पूजा, कबेला) ---------------------- 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-0.txt वैतन्य लहरी हिन्दी सितंबर-अक्तूबर २०१३ 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-2.txt इस अंक में ु सहजयोग में स्त्री-पुरुष संतुलन रखना ...६ स्त्रियों और पुरुषों में अन्तर ...८ सहस्रार चक्र ...१६ श्री कल्कि ...२८ श्री ललिता एवं श्री चक्र ...३४ कে कृपया ध्यान दें : २०१४ के सभी अंकों की रेजिस्ट्रेशन सितंबर २०१३ से शुरू होकर 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-3.txt MEELD 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-4.txt सहरजयोग में स्त्री-पुरुष ेि 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-5.txt संतुलन २२खना यह संतुलन बहुत समय पूर्व से बनाया गया है : बहुत समय पूर्व, राधा और कृष्ण के अस्तित्व के समय से। राधा शक्ति थी और कृष्ण वे थे कि जो व्यक्त करते थे। यह स्थितिज और गतिज हैं। और लोग केवल कृष्ण के बारे में जानते हैं, पर राधा शक्ति थी। जब कृष्ण को कंस का वध करना था तब उन्हें राधा से कहना पड़ा ऐसा करने के लिए। वे राधा ही थी जो सब करती थीं। उन्हें नृत्य करना पड़ता था और वे उनके पाँव दबाते थे। उन्होंने कहा कि, 'अब तुम इससे थक गई होगी' । उन्होंने नृत्य क्यों किया ? क्योंकि उनके नृत्य किए बिना कार्य गतिशील नहीं हो पाते। सो, यह इतना पारस्परिक आश्रित है। यह इतना पारस्परिक आश्रित है, जितना कि बत्ती और प्रकाश- इन दो चीज़ों को आप अलग नहीं कर सकते। यदि इस बात को आप समझ सकते हैं तब यह संतुलन सम्पूर्णतया सुसंगत है। यह ईश्वर और उनकी शक्ति के बीच है। बिल्कुल एक है। आप सोच ही नहीं सकते | कि यह कैसे ईश्वर से एकरूप हैं और उनकी शक्ति। उनकी शक्ति, उनकी इच्छा एक ही है। उनमें कोई अन्तर नहीं है। पर मानव जाति में आप विघटित लोग हैं। आपकी इच्छा भिन्न है, आपकी सोच भिन्न है, आपकी माँग भिन्न है, सब कुछ ही विघटित है। इसलिये आप समझ नहीं सकते हैं। इसलिये शादियाँ भी विघटित हैं ...I" (१९८०, विवाह का महत्त्व, यू.के) आप पूरे विश्व में असंतुलन करते हैं : परन्तु आप वह सब मत करिये जो पुरुष करना चाहते हैं या आप वह सब नहीं करिये जो स्त्रियाँ करना चाहती हैं। जैसे कि पुरुष खाना बनाये और स्त्रियाँ गाड़ी चलाएं। यह गलत बात है। पुरुषों को, सब पुरुषों वाले कार्य आने चाहिए और स्त्रियों को स्त्रियों वाले कार्य। उन्होंने जरूर सीखना है। उन्हें अपना हृदय उसमें लगा देना चाहिए। मेरा कहने का अर्थ है कि स्त्रियों में भी समान रूप से बुद्धिमत्ता हो सकती है। पुरुषों 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-6.txt में भी समान रूप से बुद्धिमत्ता हो सकती है। स्त्रियाँ दायीं ओर को जा सकती हैं और पुरुष बायीं ओर जा सकते हैं, इसमें कोई शक नहीं, परन्तु इससे आप सारे विश्व में असन्तुलन पैदा कर देते हैं, यही मुख्य विषय है । ऐसा नहीं है कि, ऐसा करने से आप किसी से कम या ज़्यादा हो जाते हैं। यह सोच आपके मस्तिष्क से पूर्णतया निकल जानी चाहिए। पुरुष सोचते हैं कि, 'मैं आदमी हूँ, जो पैन्ट पहनता है। 'ठीक है, आप पैंट पहनिये, पर हम सुन्दर स्कर्ट पहनते हैं।' ठीक है, इस तरह से लेना चाहिए... १) यू.के) (१९८०, शादी का महत्त्व, एक दूसरे के साथ स्पर्धा करना गलत है : और उस सिलसिले में स्त्रियाँ भी पुरुषों के साथ मुकाबला करने लगती हैं कि क्या गलत है, वे पुरुषों की नकल करने लगती हैं, और ऐसा करने से, जब वे एक दूसरे के साथ स्पर्धा करने लगती हैं, तो पारिवारिक जीवन में बाधा आ जाती है, घर की स्त्री असन्तुष्ट हो जाती है, उसका अहंकार सन्तुष्ट नहीं होता। पूराने समय में, पुरुष जंगल में जाता था और लकड़ी काटता था, घर लाता था और र्त्री को देता था और स्त्री खाना पकाती थी। कोई समस्या नहीं थी , वस्तु विनिमय व्यवस्था थी। वह पत्नी | को गृह कार्य करते देख पाता था। आजकल पति पैसे कमाता है और स्त्री खर्चती है, मेरा तात्पर्य है कि खर्चना भी एक कार्य है, परन्तु पुरुष को लगता है कि मैं कमाने वाला सदस्य हूँ और वह खर्च करने वाली। इसलिये उसने कहा, 'ठीक है, मैं भी कमाऊंगी।' परन्तु इसमें दोनों के बीच बहुत अधिक प्रतियोगिता होती है। क्या होता है कि परिवार पीड़ित होता है, बच्चे पीड़ित होते हैं और ऐसे में, पति को पत्नी से समस्या होती है और पत्नी को पति से। इसे आप बायीं नाभि की उंगली के सैन्टर पर महसूस कर सकते हैं। यदि उस उंगली में पकड़ आ रही है तो उसका अर्थ है, कि आपके पारिवारिक सम्बन्ध में कुछ खराबी है, तो आपको समाधान करना है या पति को समाधान करना है। यह एक महत्वपूर्ण बात है...' १) (१९८१, सार्वजनिक कार्यक्रम, सिडनी) %23 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-7.txt स्त्रियों और पुरुषों में अन्ति२ भि थॉट म 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-8.txt स्त्रियाँ, स्त्रियाँ हैं और पुरुष, पुरुष हैं : उत्तम रिश्ते के लिए, पवित्र सम्बन्ध होना चाहिए और वह समझदारी से होना चाहिए, माँ, माँ हैं, पिता, पिता हैं, बहन, बहन है, भाई , भाई है, यह सब अलग हैं, भिन्न- भिन्न प्रकार के सम्बन्धों को समझना चाहिए। स्त्रियों को जरूरी है कि वे समझें कि वे स्त्रियाँ हैं और पुरुषों को समझना चाहिए कि वे पुरुष हैं। अपने स्वयं के प्रति सम्बन्ध भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। स्त्रियों को पुरुष नहीं बनना चाहिए-बन भी नहीं सकते। पुरुषों को स्त्रियाँ बनने की जरूरत नहीं है। यह गलत है। क्योंकि मूलत: वे अलग हैं। उनका जन्म अलग रूपों में हुआ है। क्या अन्तर है ? पुरुष अधिक सतर्क होते हैं, उसे मशीनों की अधिक जानकारी होती है, विस्तृत रूप से। स्त्री नमुना देखेगी। स्त्री धुन को अधिक सुनती है और पुरुष की नज़र वाद्यों की ओर अधिक होती है। इस प्रकार की प्रकृति से ईश्वर ने आपको बनाया है। आखिरकार किसी को यह देखना है और किसी को वह। दोनो ही सुन्दर हैं। कोई भी कम या ज़्यादा नहीं हैं, पर हर स्त्री को स्त्री होने का आनन्द उठाना चाहिए और हर पुरुष को पुरुष होने का आनन्द। परन्तु पुरुष होने का अर्थ यह नहीं है कि आप बेवकूफी से सोचें कि उत्क्रान्ति में आप स्त्री से ऊँचे हैं और उस पर आक्रमण करें। या स्त्रियाँ पुरुषों पर रोब जमायें , यह सोच कर कि रोब जमा कर वे उन्हें ठीक कर सकती हैं। इस तरह से वे उन्हें कभी भी ठीक नहीं कर पायीं । पुरुष एकदम बन्द गोभी के समान हो गये हैं। जहाँ भी स्त्रियाँ रोब जमाती हैं, पुरुष बन्द गोभी बन जाते हैं। उन्होंने उन्हें ठीक नहीं किया है...।' (१९८३, दिवाली पूजा, यू.के.) विशेषताओं के अन्तर को समझने की ज़रूरत है : हम एक ही पथ पर जा रहे हैं, परन्तु हमें जानना चाहिए कि कोई बायीं ओर हैं और दूसरा दायीं ओर। बाएं को बाएं में ही रहना है। यदि बायाँ, दायीं ओर जाना शुरू कर दे, तो हमारे पास एक ही पहिया बचेगा। हम इस बारे में क्या करने वाले हैं? हम सब एक ही मार्ग पर जा रहे हैं, कोई दो मार्ग नहीं हैं। संतुलन देने के लिए दो पहिये चाहिए। लोग इस बात को नहीं समझते कि हम सब एक ही पथ पर जा रहे हैं। वे सोचते हैं कि एक पहिया दायें को जाएगा और दूसरे को बायें को मुड़ना है। तो सोचिए कि ऐसे परिवार की क्या स्थिति होगी। हम एक ही पथ पर चल रहे हैं। केवल इस बात की समझ की आवश्यकता है। एक को हृदय की शक्तियों के साथ रहना है और दूसरे को विवेक बुद्धि और समझदारी से रहना है। जब विवेक बुद्धि की स्थिति होती है तो उसे हृदय की ओर झुकना पड़ता है, क्योंकि वह ऐसी स्थिति में पहुँचता है कि जिसे वह जानता नहीं है। तब, वह हृदय की ओर आता है, जब इस बात को स्त्रियाँ समझ जाती हैं कि यह उनके स्वयं के भीतर ही है। पर, आपको हृदय की शक्ति का पोषण करना चाहिए । पर आप उनके साथ हर बात में स्पर्धा करती हैं। यदि वह घोड़े पर बैठता है तो, 'मैं क्यों नहीं। 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-9.txt यदि वह गाड़ी चला सकता है तो, 'मैं भी चला सकती हूँ। आप देखिये कि इसी में बुद्धिमत्ता है कि कई कार्य आप परित्याग करें..." (१९८०, विवाह का महत्त्व, यू.के.) रथ के दो पहिये, एक बायीं ओर व एक दायीं ओर : इसी कारण इतने तलाक हो रहे हैं और समस्यायें हैं, स्त्रियाँ अपने अधिकार की माँग करती हैं। वे अपनी हद से बाहर चली जाती हैं, वे भी रोब जमाती हैं और पुरुष भी रोब जमाते हैं, इस प्रकार से हम इसका हल नहीं ढूंढ पाते। हमें यह जानना है कि , हम एक रथ के दो पहिये हैं, एक बायीं ओर व एक दायीं ओर। वे एक सम नहीं हैं, वे दो प्रकार के हैं, एक बायीं ओर व एक दायीं ओर, परन्तु वे समान हैं। वे जो भी करते हैं, वो एक सम है। उनका एक सम सम्मान करना चाहिए..." (१९८१, सार्वजनिक कार्यक्रम, सिडनी) दोनों पहिये बराबर हैं पर एक समान नहीं : सो, एक दूसरे पर कोई रोब नहीं है, परन्तु हमें समझना चाहिये कि हम एक रथ के दो पहिये हैं और दोनों पहिये बराबर के हैं पर समान नही। उदाहरणतया दायाँ, बायीं तरफ़ नहीं जोड़ा जा सकता है और बायाँ दायीं ओर नहीं जोड़ा जा सकता है। वे बराबर हैं, यदि वे बराबर नहीं हैं तो वे हिल नहीं सकते, वे केवल गोल-गोल घूमते रहेंगे, झगड़ते हुए। परन्तु एक समान नहीं हैं, सो, यदि बायाँ, दायीं ओर आने लगे तो वह कभी भी उचित तरीके से नहीं जुड़ेगा। प्रकृति ने हमें दो टाँगें दी हैं, एक नहीं। सो, हम अपनी टाँगे उस प्रकार से बदल नहीं सकते...' १) (१९८६, बैल्जियम और हौलेण्ड की भूमिका, बैल्जियम) एक स्त्री को एक स्त्री के समान ही कार्य करना चाहिए : अब श्रीराम जी के सम्बन्ध में, उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़ा। सीताजी ने भी उन्हें छोड़ दिया। पर उन्होंने उन्हें इस प्रकार छोड़ा जैसे कि एक स्त्री करती है और रामजी ने उन्हें ऐसा छोड़ा जैसे कि एक पुरुष करता है। सीताजी ने भी उन्हें ऐसे छोड़ा कि जो एक स्त्री के लिए उपयुक्त हो। रामजी ने इसे इस प्रकार से किया कि जो एक राजा के लिए उपयुक्त हो। इसी प्रकार, जब एक स्त्री कार्य करती है तो उसे एक स्त्री के समान कार्य करना चाहिए। जो एक पुरुष करता है, वही काम वह करे तो भी उसे एक स्त्री के समान होना है या पुरुष को एक पुरुष के समान होना है... (१९८७, श्रीराम पूजा, स्वित्झर्लेंड ) जो दूसरे के पास हो उसकी माँग नहीं करनी चाहिए : अब आता है प्रश्न रोब जमाने का-स्त्री पुरुष पर रोब जमा रही है या पुरुष स्त्री पर रोब जमा रहा है। 10 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-10.txt सहजयोग में इसका प्रश्न ही नहीं उठता। इसमें किसी भी प्रकार का कोई रोब नहीं होता है, पर इस बात का ख्याल रखना है कि बायीं ओर में बायीं ओर ही होना चाहिए और दायीं ओर में दायीं ओर होना चाहिए। जो दूसरों के पास है, उसकी माँग नहीं करनी चाहिए। जैसे कि यदि पुरुष कहना शुरू करे कि, 'क्यों न हमें बच्चे हों, हमें भी बच्चे होने चाहिए, स्त्रियों को ही क्यों बच्चे हों?' ऐसा नहीं हो सकता और यदि स्त्रियाँ कहने लगे कि, 'चलो, हम भी दाढ़ी रखते हैं। कल को वे कह सकती हैं, 'हमें दाढ़ी होनी चाहिए और हमें मूछें भी होनी चाहिए।' तो यदि इस प्रकार की माँग की जाए तो, ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता। यह तरीका नहीं है। इन्सान के स्तर पर ये पूर्णतया दो अलग-अलग व्यक्तित्व हैं। निम्न जानवर के स्तर पर, यदि आप हरमाफ्रोडाइट के स्तर पर जाये, तब आप देख सकते हैं कि उनमें दोनों प्रकार के लिंग मौजूद होते हैं । जिसे कि तकनीकी भाषा में कहते हैं हरमाफ्रोडाइट... (१९८७, विवाह, कोल्हापूर, भारत) स्त्रियों और पुरुषों को अपनी अपनी भूमिका सराहनी चाहिए : आप कल्पना कर सकते हैं कि जब आप को केंचुआ बनना हो, तो आपमें दोनों लिंग आ जाते हैं, आप या पुलिंग के समान कार्य कर सकते हैं या फिर स्त्रीलिंग के समान। पर जब आप अपने उत्क्रांती के मार्ग पर बढ़ने लगते हैं धीरे-धीरे, तो आप जानने लगते हैं कि मनुष्य के स्तर पर दो अलग-अलग समूह है। जब आप मनुष्य के स्तर पर आते हैं तब स्त्रियाँ स्त्रियाँ होती हैं और पुरुष पुरुष होते हैं। जितना अधिक वे स्त्रियाँ स्त्रियों के समान और पुरुष पुरुषों के समान होते हैं, तब वे प्रशंसनीय बन जाते हैं। नहीं तो ये आधे रास्ते के व्यक्ति ही रह जाते हैं, न तो वे अच्छे पति बन सकते हैं और न ही अच्छी पत्नियाँ। न ही वे अच्छा वैवाहिक जीवन पाते हैं और न ही वे किसी चीज़ का आनन्द ले पाते हैं। यह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है कि आप एक दूसरे के प्रशंसा-सूचक बनें, सहजयोग के लिए। जैसा कि मैंने कहा कि रौब जमाने का प्रश्न ही नहीं उठता, स्त्री अपना स्वयं का कर्तव्य निभाती है, को इस पुरुष बात की सराहना करनी चाहिए और पुरुष अपना स्वयं का कर्तव्य निभाता है, यह स्त्री को भी सराहना चाहिए..." १) (१९८७, विवाह, कोल्हापूर, भारत) सूर्य पृथ्वी नहीं बनना चाहता और पृथ्वी सूर्य नहीं बनना चाहती मुझे इस बात से गर्व है कि मैं एक स्त्री हूँ क्योंकि स्त्रियाँ अनेक कार्य कर सकती हैं, जो पुरुष नहीं कर सकते। स्त्री भूमि माँ के समान हैं, सो हम कह सकते हैं कि पुरुष सूर्य के समान हैं। दोनों को जुड़ना है। सूर्य को हटाया जा सकता है, पर पृथ्वी को नहीं। रात के समय सूर्य नहीं होता फिर भी हम रहते हैं। 11 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-11.txt परन्तु भूमि माता को देखिए, उसे कितना सहना पड़ता है। देखिये , वह कितनी समझदार है। वह बिना किसी शिकायत के सुन्दर फूल, सुन्दर पेड़ और सब कुछ हमारे लिये बनाती है और तो और, वह हमारा पोषण करती है, जबकि हम उसके विरोध में कितने सारे पाप करते हैं। पर सूर्य पृथ्वी नहीं बनना चाहता और पृथ्वी सूर्य नहीं बनना चाहती। वे जानते हैं कि वे विशेष कार्य के लिये स्थित हैं... (१९८८, इन्ट्यूशन अँड वीमेन, पैरिस) पुरुष राजनैतिक और आर्थिक स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं और स्त्रियाँ समाज के लिए जिम्मेदार हैं : परन्तु आजकल नये प्रकार के विचार उभर आये हैं। पुरुष भी स्त्रियों के प्रति बड़े क्रूर और आक्रामक हो गये हैं। उसके परिणाम स्वरूप हम देखते हैं कि पुरुषों के प्रति बड़ा विरोध आ गया है। एक प्रकार की बड़ी दरार स्त्री और पुरुषों के बीच में बन गई है। और जिस प्रकार पुरुष लम्पट, दुषित हो गये हैं, दूसरी खराब स्त्रियों के पास जाते हैं। अच्छी औरतों ने भी सोचा, 'हम भी क्यों न वैसे बन जाए ?' और उन्होंने भी गलत कार्य करने शुरू कर दिए, जो उन्हें नहीं करने चाहिए थे। इस प्रकार पूरा समाज बिखर गया है। अब पुरुष राजनीतिक व आर्थिक स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं और देश के प्रशासक भी, पर स्त्रियाँ समाज के लिए जिम्मेदार हैं। चाहे वह घर में हैं या बाहर, चाहे वह घर में कार्य करती हैं या बाहर कार्य करती है, वह समाज को सँभालने के लिए जिम्मेदार हैं। कभी ऐसा लगता है कि स्त्री को दबाया जा रहा है या पति पत्नी को दबा रहा है, या पति का परिवार उसे दबा रहा है, पर यह स्त्री की गुणवत्ता ही है जो समाज के स्तर को ऊपर उठाती है, न केवल स्तर, पर परिवार में भी उसकी इज्जत होती है। गृहलक्ष्मी के रूप में बड़ा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है । शायद हम कभी इसे जान नहीं पाते। अब हम देखें कि यहाँ कितनी लाईटें हैं। बिजली भी चल रही है पर इस बिजली का स्रोत क्या है? सो हम कह सकते हैं कि केवल गतिसंबंधी ऊर्जा हैं, पर शक्ति क्या है, वह घर की स्त्री है... पुरुष (१९९३, श्री फातिमा पूजा, टर्की) आपको पता होना चाहिए कि पति और बच्चों को कैसे खुश रखना चाहिए : . पुरूष का कार्य है, राजनीति, आर्थिक, पैसा कमाना। उन्होंने इन सब को बूरी तरह से चौपट कर दिया है, मैं आपके साथ सहमत हूँ, पर आपका कार्य है समाज को बनाना और समाज को बनाने के लिये, पहले आपको मालूम होना चाहिए कि बच्चों को कैसे खुश रखना है, पति को कैसे खुश रखना है, लोगों की कैसे मदद की जाए... १) (१९९७, नवरात्रि पूजा की पूर्व संध्या, कबैला) ईश्वर ने स्त्रियों को ख्त्रियों के समान और पुरुषों को पुरुषों के समान बनाया है : स्त्रियों की अपनी आदतें होती हैं, वे स्त्रिाँ हैं। स्त्रियाँ, स्त्रियाँ ही रहेगी और पुरुष, पुरुष ही रहेंगे। पुरुष अपनी घड़ियाँ दस बार देखेंगे। स्त्रियाँ शायद एक बार, या उनकी घड़ियाँ गुम गई होती हैं या फिर खराब। यदि वे असल में स्त्रियाँ हैं तो वे पुरुषों के समान उछलती नहीं रहती। वे अलग हैं, पर वे स्त्रियाँ हैं और आप पुरुष हैं और 12 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-12.txt ईश्वर ने ही पुरुष और स्त्रियाँ बनाए हैं। यदि उन्हें एकलिंग बनाना होता तो वे एकलिंग बनाते। उन्होंने ऐसा नहीं किया। आप जिस लिंग में पैदा हुए हैं, उसे श्रद्धा, इज्जत व मान के साथ स्वीकार करें, दोनों ने... (१९८८, श्री फातिमा पूजा, स्वित्झर्लंड) हमें दूसरों से उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे आपके जैसे हों : हम पति-पत्नी हैं क्योंकि हम एक दूसरे से प्रेम करते हैं, हम एक- दूसरे के प्रशंसा-सूचक हैं, स्त्री, स्त्री है व पुरुष, पुरुष है। पुरुषों ने स्त्री से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे भी उनके समान बहुत ही तेज़ हो और स्त्रियों को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि पुरुष उनके समान हों- अति उदार। स्त्रियों की कुछ विशेषतायें होती हैं व पुरुषों की कुछ अपनी...' (१९९३, श्री फातिमा पूजा, टर्की) स्त्री पृथ्वी माँ के समान है व पुरुष सूर्य के समान : आप बहुत संवेदनशील और समझदार हैं और मैंने जो भी आपसे कहा है, उसका आप बुरा नहीं मानें। मैं माँ हूँ और मुझे आप को सच्चाई बतानी है और आपको बुरा नहीं मानना चाहिए, यदि आप समझती हैं कि मैं आपकी माँ हूँ। यह माँ का कार्य है : उसे धैर्य रखना होता है, प्यार व स्नेह और बुद्धिमानी। शायद हम स्त्रियाँ यह नहीं समझ पातीं कि हम कितनी महत्त्वपूर्ण हैं। पुरुष राजनीति, आर्थिक कार्य कर सकते हैं और उन सब का चौपट भी कर सकते हैं, पर स्त्रियाँ समाज के प्रति जिम्मेदार हैं। वे समाज बना सकती हैं और समाज बिगाड़ भी सकती हैं। जब भी कहीं अच्छा समाज होता है, बच्चे जहाँ अच्छे होते हैं, परिवार अच्छे होते हैं और जहाँ शान्ति होती है, वहाँ स्त्रियाँ इनकी जिम्मेदार होती हैं। स्त्री, जिस का कार्य बच्चों को संभालना होता है, विश्व पर शासन कर सकती है । स्त्र को कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार पुरुष से कम है। स्त्री इस भूमि माता के समान है और पुरुष सूर्य के समान। भूमि माँ को देखें कि कैसे वह हमें संभालती है, हम कैसे उसे द:ख देते हैं और वह कैसे हमारा ध्यान रखती है, सो, स्त्री का सब से बड़ा गुण है, उसका धैर्य उसका प्रेम और उसकी बुद्धि। मैं आपको एक अखबार दिखाना चाहती थी, वह लाना भूल गयी। अंग्रेजी का अखबार जिसमें एक स्त्री को दिखाया गया है, जो पुरुष के समान दिख रही थी और जिसके चेहरे से पुरुष के समान बाल उग रहे हैं। मैं कभी भी पुरुष बनना पसन्द नहीं करूंगी क्योंकि पुरुष को इतने सारे मालिकों ( बौस) को प्रसन्न करना पड़ता है व जीवन में संघर्ष करना पड़ता है, जब कि स्त्री को केवल एक को ही प्रसन्न करना पड़ता है और वह है, उसका पति। अतः, समाज को स्त्रियों द्वारा ही ठीक किया जा सकता है, न कि पुरुषों १) द्वारा... (१९९४, लेडीज़ पब्लिक प्रोग्राम, ट्यूनिस) 13 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-13.txt बच्चों के विकास एवं पति की सुरक्षा के प्रति स्त्रियों की जिम्मेदारी पुरुष, पूर्ण रूप से अलग प्रकार के होते हैं, इस बात को आप समझ ले। वे दिल में कुछ नहीं रखते और जिन चीज़ों की स्त्रियाँ देख-रेख करती हैं, वे नहीं करते। कोई बात नहीं। क्योंकि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के प्रशंसा-सूचक हैं। जैसे कि अलिसाहब घर के बाहर का सब संभालते थे , जब कि फ़ातिमा घर में रहती थीं, कभी बाहर नहीं गईं पर अलि साहब को पता था कि उनकी शक्ति का स्रोत कहाँ से आ रहा था। शक्ति के रूप में माननीय नहीं थीं, वे पाश्चात्य आधुनिक विचारों की ओर झुक गईं, 'हमें पुरुषों से लड़ना है, वे समस्याओं का कारण हैं, वे हमें सता रहे हैं और हमें बदला लेना है। इस प्रकार समाज नहीं बन सकता। स्त्रियों की जिम्मेदारी पुरुषों से कई अधिक है। पुरुषों को केवल दफ़्तर क्योंकि स्त्रियाँ कभी भी जाना है, काम करना है, घर लौट आना है। स्त्रियों को जीवन भर बच्चों के विकास के लिए, पति की सुरक्षा के लिए और अन्य समझदारी के कार्यों के लिए जीवन भर ऊर्जा खर्चनी पड़ती है। इसलिये भारतवर्ष में हम कहते हैं कि, 'हमें एक स्त्री को पूर्ण रूप से सम्मान देना चाहिए और उसे भी सम्माननीय होना चाहिए। अधिकांश मैंने देखा है कि न केवल भारतवर्ष में, सब जगह ही स्त्रियाँ सदा सम्मानित की जाती हैं, अगर वे गृहलक्ष्मी होती हैं तो । उदाहरण के लिये जब मैं किसी कार्यक्रम में अपने पति के साथ जाती हूँ तो मेरा भी उतना ही सम्मान होता है, जितना कि मेरे पति का। उदाहरण के लिए, उनके डिप्टी का इतना सम्मान नहीं होता जितना कि मेरा, सेक्रेटरी भी इतना सम्मानित नहीं होता, कोई भी नहीं, मैं, एक पत्नी के रूप में सम्मानित होती हैं क्योंकि मैं उनकी पत्नी हूँ। कोई भी मुझे नीचा नहीं देखता क्योंकि मैं किसी की पत्नी हूँ। सब जगह ऐसा ही है... १) (१९९३, श्रीफ़ातिमा पूजा, टर्की) स्त्री का आदर्श स्वरूप है, "मैं दूसरों को कैसे शक्तिशाली बना सकती हूँ" : मैं यह कहूँगी, एक पुरुष सूर्य के समान होता है, पर एक स्त्री भूमि माता के समान होती है। अन्तर इस प्रकार है। सूर्य चमकता है, प्रकाश देता है और एक प्रकार से भूमि माँ को पोषण देता है और भूमि माँ सब कुछ देती है। वह बहुत सहन करती है। वह हमारे सब पापों को सहती है, सो घर की पत्नी एक भूमि माता के समान होती है, वह सब को अानन्द देती है, अपने पति को, अपने बच्चे को। वह अपने बारे में नहीं सोचती। वह यह नहीं सोचती, 'मैं अपनी सुन्दरता से, अपनी शरीर से, अपनी पढ़ाई, अपनी शक्तियों द्वारा बड़ी चीजें कैसे प्राप्त करू?' नहीं वह ऐसा नहीं करती। वह सोचती है, 'मैं दूसरों को कैसे शक्तिशाली बनाऊँ? मैं उन्हें कैसे शक्ति दूं, मैं कैसे सहायता करूँ?' यह स्त्री का आदर्श स्वरूप है। यदि ऐसा नहीं है तो वह स्त्री नहीं है। जब कोई कहता है, 'मैं आपके घर आना चाहता हूँ।' तो वह अत्यन्त प्रसन्न हो जाती है। 'अब मैं क्या पकाऊँ, मैं क्या करूँ?' यह स्त्री का तरीका होता है... (१९९३, श्रीफ़ातिमा पूजा, टर्की) 14 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-14.txt किसी को उसके कुछ अधिकारों से वंचित करना, क्योंकि वे स्त्री या पुरुष है, एकदम निरर्थक है : क्राइस्ट ने भी यही कहा है। उन्होंने यह नहीं कहा कि स्त्रियों की आत्मा नहीं होती या पुरुषों की आत्मा होती है । देखिए, ये लोग कैसी बातें करते हैं कि ये संघ-दीक्षा नहीं ले सकती हैं। वैसे संघ दीक्षा केवल एक गलत बात है, पर फिर भी मैं कहूँगी कि किसी को भी कुछ विशेष अधिकारों से वंचित करना, इसलिये कि वे स्त्री या पुरुष हैं, निरर्थक है, गलत है। इसकी धर्म से कोई सम्बद्धता नहीं है। क्योंकि धर्म का अर्थ है सन्तुलन.. (१९९२, श्रीगणेश पूजा, पर्थ) स्त्रियाँ भी एक मुख्य कार्य में हिस्सा ले सकती हैं, पर यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि वे यह न भूलें कि वे स्त्रियाँ हैं, जिन्हें माँ के प्रेम की अभिव्यक्ति करनी है। : मेरे अपने देश में एक संस्कृत की कहावत है, 'यत्र नाय्या पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवता'। इसका अर्थ है, 'जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है और खुद भी वे सम्माननीय हैं, वहाँ हमारे क्षेमकारी ईश्वर निवास करते हैं । अब हमारे लिये, इस समय, जो महान शक्ति रचयिता ने हमें दी है, उसका मूल्य जानें। पर हम क्या ढूँढते हैं? चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम, स्त्रिों ने अपनी महानता की पूरी अभिव्यक्ति नहीं की है। मैं यह नहीं बता रही हूँ कि स्त्री का कार्य समाज में केवल माँ का है, बच्चों को जन्म देना व पालना है, या पत्नी या बहन का है। स्त्रियों को पूरा अधिकार है कि वे जीवन के हर पहलु में भाग लें-सामाजिक, सांस्कृतिक, शिक्षा विभाग, राजनैतिक, आर्थिक, प्रशासन और बाकी सब । हर प्रकार के विभाग में भाग लेने के लिए उन्हें स्वयं को तैयार करना होगा, उन्हें ज्ञान के हर क्षेत्र में शिक्षा पाने का अधिकार होना चाहिए। परन्तु यदि वे माँ हैं तो उनकी बहुत अधिक जिम्मेदारी है, बच्चों के प्रति और समाज के प्रति । देश की आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं, परन्तु स्त्रियाँ समाज के प्रति जिम्मेदार हैं। स्त्रियाँ, पुरुषों को पुरुष, सहायता कर सकती हैं, किसी भी पद पर अग्रगामी भाग ले सकती हैं, पर यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि वे यह नहीं भूलें कि वे स्त्रियाँ हैं, जिन्होंने गहरा मातृत्व अभिव्यक्त करना है। यदि वे पुरुषत्वमयी व आक्रमक हो जाए, तो समाज का सन्तुलन नहीं बनाया जा सकता... (१९९५, वर्ल्ड कांनफ्रेंस ऑन वीमेन, बीजिंग) 15 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-15.txt सहसार चक्र 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-16.txt सहस्रार स्वामिनी - महामाया-माताजी श्री निर्मला देवी ..कहा गया है कि सहस्रार पर जब देवी प्रगट होंगी तो वे महामाया होंगी। आज के विश्व में इसके अतिरिक्त किसी अन्य रूप में पृथ्वी पर आना क्या सम्भव है? किसी भी अन्य प्रकार का अवतार भयंकर कठिनाइयों में फँस जाता क्योंकि इस कलियुग में अहं पर सवार मानव ही सर्वोच्च है । वे बिल्कुल मूर्ख हैं और किसी भी दैवी व्यक्तित्व को सब प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं या हिंसा पर उतर सकते हैं। महामाया के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में विश्व में अस्तित्व को बनाए रखना असम्भव है। परन्तु इनके बहुत से पक्ष हैं और यह साधकों पर भी कार्य करती हैं। .एक पहलु द्वारा यह आपके सहस्रार को आच्छादित करके रखती हैं और साधक की परीक्षा होती है। यदि आप उल्टे-सीधे लोगों से, उल्टी सीधी वेशभूषा धारण करने वालों से जो झूठ-मूठ चीज़ें दिखाते हैं, जैसा कि बहुत से कुगुरुओं ने किया है, या घटिया किस्म के लोगों से आकर्षित हैं तो आपका यह आकर्षण भी महामाया के कारण है क्योंकि महामाया ही इस प्रकार व्यक्ति की परीक्षा लेती हैं। भी हैं अपनी असलियत को दर्पण में देखते हैं .....महामाया दर्पण की तरह से हैं। आप जो दर्पण की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। यदि आप बन्दर की तरह हैं तो शीशे में बन्दर की तरह लगेंगे। यदि आप रानी जैसी हैं तो रानी जैसी ही लगेंगी। आपको गलत विचार या झूठा दिखावा देने की न तो दर्पण में कुछ शक्ति है और न ही ऐसी भावना। सत्य, जो कुछ भी हो, को यह दर्शाएगा। अत: यह कहना कि महामाया भ्रमित करती हैं, एक प्रकार से अनुचित है। इसके विपरीत शीशे में आपको अपनी वास्तविकता दिखाई पड़ती है। मान लो कि आप क्रूर व्यक्ति हों तो शीशे में भी आपका चेहरा क्रूर ही दिखाई देगा। परन्तु जब महामाया गतिशील होती हैं तब समस्या खड़ी होती है। तब आप शीशे में अपनी सूरत नहीं देखते, अपना मुँह घुमा लेते हैं-न तो आप देखना चाहते हैं न जानना। दर्पण में जब आपको कुछ भयंकर दिखाई आप पड़ता है तो मुँह घुमाकर आप सत्य को नकारते हैं। 'मैं ऐसा किस प्रकार हो सकता हूँ? मैं बहुत अच्छा हूँ, मुझमें कोई कमी नहीं, कुछ भी नहीं, मैं पूर्णतया ठीक हूँ। महामाया का तीसरा पक्ष यह है कि एक बार फिर आप इसकी ओर आकर्षित होते हैं और फिर दर्पण को देखते हैं। शीशे में आप पूरे विश्व को देखते हैं, परिणामतः आप सोचने लगते हैं कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैं कौन हूँ? यह संसार क्या है? में कहाँ जन्मा हूँ? आपकी खोज की यह शुरुआत है पर इससे आपको संतुष्टि नहीं होती। अत: यह महामाया की महान सहायता है। पहली बार जब लोग मेरे पास आते हैं और यदि वे मुझे पानी पीता देख लें तो कहते हैं कि ये कैसे कोई अवतरण हो सकती हैं? इन्हें भी पानी की आवश्यकता पडती है और अगर वे मुझे कोका-कोला वाह! ये किस प्रकार कोका-कोला पी सकती हैं, इन्हें तो बस अमृत पीना चाहिए। महामाया का एक और पक्ष भी है। लोग मुझे मिलने आते हैं उनमें से कुछ काँपने लगते हैं। वे समझते हैं कि उनमें महान शक्ति है जिसके कारण वे हिल रहे हैं। अत: अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण उन्हें गलतफहमी हो पीते देख लें तो कहेंगे - जाती है कि वाह! हम वहाँ गए, हममें इतनी शक्ति आ गई, हम कुछ महान चीज़ हैं।...... परन्तु जब उन्हें 17 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-17.txt पता चलता है कि इस प्रकार काँपने वाले लोग पागल हैं तो धीरे-धीरे वे अपेक्षाकृत रूप से चीजों को देखने लगते हैं। प्रासंगिक सूझ-बूझ आप पर पड़े उस पर्द को हटाने में सहायक होती है जिसके कारण आप सत्य का सामना नहीं करना चाहते। एक बार जब आपके साथ घटित हो जाता है तो आप दूसरे लोगों के साथ अपनी तुलना करने लगते हैं, जब आप ऐसा करने लगते हैं तो आपका उत्थान होता है तथा आप सहजयोग में स्थिर होने लगते हैं । महामाया अतिमहत्वपूर्ण हैं, उसके बिना आप मेरा सामना नहीं कर सकते, आप यहाँ बैठ नहीं सकते, मुझसे बात नहीं कर सकते। जिस गाड़ी में मैं बैठती हूँ, उसमें आप प्रवेश नहीं कर सकते और मेरी गाड़ी चला भी नहीं सकते। सभी कुछ असम्भव होता, मैं कहीं हवा में उड़ रही होती और आप सब यहाँ होते और सभी कुछ गड़बड़ होता। ..... मेरा आपके सम्मुख होना आवश्यक नहीं। निराकार रूप में भी मैं यहाँ हो सकती हूँ, पर सम्पर्क कैसे बनाया जाए और सौहार्द्र किस प्रकार बने? इसी कारण मुझे महामाया रूप में आना पड़ा ताकि न कोई भय हो, न दूरी। समीप आकर एक दूसरे को समझ सकें क्योंकि यह ज्ञान यदि देना है तो लोगों को कम से कम महामाया के सम्मुख बैठना तो पड़ेगा ही। यदि वे सब दौड़ जाएं तो सहस्रार पर इस अत्यन्त मानवीय व्यक्तित्व की सृष्टि करने का क्या लाभ? वे महामाया रूप में आयी हैं। सहस्रार सर्वशक्तिशाली चक्र है क्योंकि यह न केवल सात चक्रों की बल्कि बहत से अन्य चक्रों की भी कर सकते हैं भी पीठ है। सहस्त्रार पर आप कुछ परन्तु महामाया के माध्यम से चीजे सामान्य रूप से कार्यान्वित होती हैं और ऐसा ही होना चाहिए| उदाहरणार्थ आप कह सकते हैं कि श्री माताजी, वातावरण, पर्यावरण की समस्याओं से भरा हुआ है, आप इसे शुद्ध क्यों नहीं करतीं? यदि शुद्ध हो गया तो लोग समस्यायें ही .. बनाते रहेंगे। यह मानव की समस्या है और यदि मैं इसे ठीक कर देती हूँ तो वे इसे अपना अधिकार मान बैठेंगे। उन्हें इन समस्याओं का सामना करना होगा और अपनी आदतें बदलनी होंगी। उन्हें समझना होगा कि वे स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं अन्यथा यदि कोई अन्य व्यक्ति शुद्धिकरण के लिए होगा तो वे कभी भी परिवर्तित नहीं होंगे । . उनकी समस्याओं को सुलझा देने से ही मेरा कार्य समाप्त नहीं हो जाता और न यह लक्ष्य है। मेरा लक्ष्य तो उन्हें समर्थ बनाने का है ताकि वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा सकें। आपको अपना डॉक्टर या अपना गुरु बनना होगा परन्तु महामाया के बिना आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वही जानती हैं कि स्वतन्त्र मानव के शुद्धिकरण और नियन्त्रण में किस सीमा तक जाना है। इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण स्वतन्त्रता सहजयोगियों की नहीं होती। उन्हें तो आत्मा की स्वतन्त्रता प्राप्त है, अत: उनकी समस्याओं को सुलझाना बिल्कुल ठीक है ताकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हो सकें। जो लोग बिना सोचे-समझे पूरे विश्व को हानि पहुँचाने जा रहे हैं उन्हें स्वतन्त्र बनाने का क्या लाभ है? उनके लिए आवश्यक है कि सहजयोग में आएं-इसी कारण यह महामाया स्वरूप है। यदि मैं, माँ मेरी, राधा या ऐसे ही किसी अन्य रूप में आई होती तो हो सकता है सभी लोग यहाँ होते और सुन्दर भजन गा रहे होते, पर ऐसा नहीं है । 18 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-18.txt अब आपको परिपक्व होना है, कुछ बनाना है बनना और विकसित होना है और इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम आप सहजयोग में आएं तब आपको सहजयोग में विकसित होना होगा, नहीं तो महामाया लीला करती रहेंगी और आपको भ्रमित करती रहेंगी। सहस्रार विराट का क्षेत्र है, विराट विष्णु हैं जो राम बने फिर कृष्ण बनें। तो यह लीला है। उसकी लीला, नाटक है और नाटक को ठीक करने के लिए उसे महामाया रूप में होना होगा। बचाव के बहुत से मार्ग हैं। कभी-कभी लोग चीज़ों को सुगमता से खोज लेते हैं, उनमें से एक परम चैतन्य है। परम चैतन्य कार्य करता है, मेरे चित्र दिखाता है। आश्चर्यचकित हूँ। करने का प्रयत्न कर रहा है। यह स्वयं की अभिव्यक्ति कर रहा है। मैंने तो परम चैतन्य को ऐसा कोई कार्य ......जो पहले कभी नहीं हुआ। मैं स्वयं .......आपको महामाया के विषय में समझाने के लिए परम चैतन्य महामाया को प्रगट करने को नहीं कहा। परन्तु यह सत्य है क्योंकि यह सोचता है कि अब भी जो लोग श्री माताजी का अनुसरण कर रहे हैं उनका स्तर उतना ऊँचा नहीं जितना होना चाहिए था। .....(परम चैतन्य यह चाहता है कि) अपने विश्वास को आप दृढ़ कर लें, यह विश्वास अंधविश्वास नहीं है। सहजयोगी समझने का प्रयत्न करें कि उन्हें विकसित होना है। यह विकास भी द्विपक्षीय होना चाहिए। .....पहला आपका पक्ष है कि मैं कितना समय सहजयोग के विषय में सोचने पर लगाता हूँ और कितना अपने व्यक्तिगत जीवन पर ? सहजयोग में हमें परमात्मा की ओर झुकना पड़ेगा। कि आपके सभी विचार सहजयोग की ओर जा रहे हैं, पूरी सोच ही सहज है । सहज में सबसे मनोरंजक बात यह है कि जो भी कार्य आप करते हैं उसे देखते हैं। सहज मार्ग के विषय में आप सोचते हैं । ..आप देखें इस महामाया में आप मूल्यांकन किस प्रकार कर सकते हैं? सहज के विषय सोचते हुए आप कहाँ तक जा सकते हैं? इस व्यापार से मैं कितना धन कमा सकता हूँ? मैं कितना आनन्द ले सकता हूँ? कितनी शारीरिक समस्यायें सुलझ सकती हैं? आदि सभी लाभ सहजयोग में आपकी परिपक्वता के भी नहीं। मस्तिष्क के हाथ में बागडोर आते ही यह अत्यन्त सोच में पड़ जाता है । तुम्हारी सम्मुख कुछ पत्नी, बच्चे, घर आदि बहत सी चीज़जों पर यह मँडराया रहता है पर यदि आप सहज ढंग से सोचेंगे तो कहेंगे कि मुझे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे मेरे बच्चे सहज बनें। मुझे एक ऐसा घर चाहिए जो सहज के लिए उपयोग में आ सके। मेरा आचरण ऐसा हो जिससे लगे कि मैं सहजयोगी हूँ। आप में परिपक्वता इस प्रकार बढ़े कि आप इसे महसूस कर पायें । सर्वप्रथम शांति। अशांत व्यक्ति का मस्तिष्क अस्थिर यन्त्र के सम होता है। वह ठीक प्रकार से न तो देख सकता है, न सोच सकता है और न ही समझ सकता है। .विश्व में जिस प्रकार इस महामाया के माध्यम से हर चीज़ उलट-पुलट हो रही है। संघर्ष चल रहा है यह युद्ध नहीं है, यह शीत युद्ध नहीं है यह तो एक अजीब किस्म का युद्ध-यश है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। परमात्मा तथा आध्यात्मिकता का व्यापार हो रहा है। आज के इस पतित विश्व के लिए महामाया का होना आवश्यक है जिसके द्वारा दर्शा सकें कि इस जीवन में 19 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-19.txt आप जो कर रहे हैं उसके लिए आपको नाकों चने चबाने पड़ेंगे।........इस महामाया को हम रोकड़ा देवी कहते हैं। अर्थात हाथों हाथ फल देने वाली, नग़द भुगतान करने वाली देवी , आपने ऐसा किया, ठीक है आप ये ले लें। आपने यह कार्य किया ठीक है, आप इसका आनन्द लें। वास्तव में ये महामाया विशेष रूप से गतिशील हैं। जिस तरह से यह लोगों को दण्डित कर रही हैं, कभी - कभी तो मुझे भय प्रतीत होता है। पर वास्तविकता यही है। यदि आप कहें कि मुझे अन्धाधुन्ध गाड़ी चलानी अच्छी लगती है तो ठीक है, समाप्त। लँगड़ाती टाँग या टूटा हाथ आपका अंत है। महामाया के माध्यम से दैवी कानून कार्यरत है। आज की तरह यह कभी इतना तेज न था। मानव की स्वतन्त्र इच्छा पर अंकुश रखने के लिए महामाया अपनी स्वतन्त्र इच्छा का उपयोग कर रही हैं। यह कथित स्वतन्त्रता जिसका आनन्द लेने का हम प्रयत्न कर रहे हैं हमें हमारे अन्त तक ले आई है। ..... लोग अपने ही शिकंजे में फँस रहे हैं। यह शिकंजा ही महामाया है। आपसे ही वे इसकी रचना करती क्योंकि आप अपना सामना नहीं करना चाहते, सत्य को जानना नहीं चाहते, सत्य से आप जी चुराना चाहते हैं। यह महामाया का ही एक पक्ष है कि तुरन्त आप अपना सामना करने को विवश हो जाते हैं।........ कितनी सारी घटनायें घटीं इनका विचार कीजिए। बड़े-बड़़े पूँजीपति जेल में हैं। बड़े प्रसिद्ध लोग जेल में हैं। इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं क्यों? क्योंकि यह महामाया सबक देना चाहती हैं। एक व्यक्ति को दण्डित करने से यह हज़ारों लोगों को रास्ते पर ले आती हैं। इतना डरा हुआ विश्व है, इतनी असुरक्षा है। ......आज हर व्यक्ति व्यग्र है और अपना जीवन बचाने की सोच रहा है। ......आप सहजयोग में आ जाएं तो आप कष्ट से बच सकते हैं क्योंकि महामाया का एक पक्ष यह है कि वे रक्षा करती हैं। जब तक स्वयं न चाहे कोई सहजयोगी को मार नहीं सकता। उनकी अपनी इच्छा है, उन्हें कोई छू नहीं सकता। किस प्रकार यह महामाया सहजयोगियों की रक्षा करती हैं इसकी बहुत सी कहानियाँ .यह चेतन मस्तिष्क है परन्तु अत्यन्त गहन सुषुप्ति की अवस्था में आप हैं। स्वप्न में भी वे रक्षा करती हैं। जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत? किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं कि आपके लिए क्या ठीक है क्या गलत। किसी न किसी तरह वे जान जाते हैं। यही ज्ञान अन्तज्ज्ञान है जो कि महामाया के माध्यम से से आता है। केवल वे ही आपको अन्तज्ज्ञान देती हैं कि क्या करना आवश्यक है? किस प्रकार समस्या छुटकारा पाना है? और आप छुटकारा पा लेते है। ..... कोई यदि सहजयोगियों को परेशान करने का प्रयत्न करता है तो महामाया एक सीमा तक उसे ऐसा करने देती हैं और फिर अचानक गतिशील हो उठती हैं। लोग आश्चर्यचकित हो उठते हैं, सहजयोगी हैरान हो जाते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा किस प्रकार बन गया? यह महामाया मेरी साड़ी की तरह हैं और रक्षा कर रही हैं। वह अत्यन्त सुन्दर, दयालु, ध्यान रखने वाली, करुणामय, स्नेहमय तथा कोमल हैं। वह आपकी देख-रेख करती हैं और राक्षस तथा असुर प्रवृत्ति के लोगों, जो परमात्मा के कार्य को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं, पर क्रुद्ध होकर उनका संहार करती हैं। .महामाया का एक अन्य पक्ष यह है कि वे आपको परिवर्तित करती हैं। मानव के लिए सभी कुछ मस्तिष्क है । आप यदि कुटिल हैं तो कुटिल हैं। आप यदि दूसरों से घृणा करते हैं तो यह भी मस्तिष्क में है। आपको 20 প 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-20.txt WE EIN 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-21.txt यदि कोई व्यसन है तो वह भी मस्तिष्क में है। मस्तिष्क के बन्धन अतिजटिल हैं। अत: नि:सन्देह सहस्रार अत्यन्त महत्वपूर्ण है परन्तु विराट तथा विराटांगना की शक्ति तभी प्रभावशाली हो सकती है जब महामाया का शासन हो और वे अपने मधुर तरीकों से सहस्रार को खोलें और आपको कुरूप, भयंकर तथा क्रोधी बनाने वाले सभी बन्धनों का निवारण करें। .महामाया पृथ्वी माँ की तरह हैं, यह सभी कुछ मिलने पर आपको वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न तथा आनन्दमय बना देती हैं ताकि आप 'निरानन्द' 'केवल आनन्द' का रसपान कर सकें। आनन्द के सिवाय कुछ भी नहीं-यही सहस्रार है परन्तु यह तभी सम्भव है जब आपका ब्रह्मरंध्र खुल जाए। उसके बिना आप परमात्मा के प्रेम की सूक्ष्मता में और सदा संग रहने वाली महामाया की करुणा में प्रवेश नहीं कर सकते। बाह्य रूप से मैंने बता दिया कि महामाया कैसी हैं परन्तु अन्दर से आप इन्हें तभी जान सकते हैं जब अपने ब्रह्मरंध्र से इसमें प्रवेश करें। तब सर्वव्यापक शक्ति की अवतरण यह महामाया एक प्रकार से बिल्कुल भिन्न हो जाती हैं। वे एक ओर तो आपको सबक सिखाने का प्रयत्न करती हैं, विनाशकारी शक्तियों को समाप्त करती हैं और दूसरी ओर आपको प्रेम करती हैं, कोमलतापूर्वक आपकी रक्षा करती हैं और मार्गदर्शन करती हैं । | उसका प्रेम निर्वाज्य है। वे प्रेम करती हैं क्योंकि इसके बिना उनसे नहीं रहा जाता, तो उस प्रेम में आप सराबोर हैं और आनन्द ले रहे हैं। हर व्यक्ति जानता है कि वह उनके बहुत करीब है, बिल्कुल करीब, जहाँ भी वो हों और जब भी वो चाहें उनसे सहायता माँग सकते हैं। सहस्रार अति महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल इसी के माध्यम से हम प्रतिक्रिया करते हैं। जिस विश्व में हम रह रहे हैं यहाँ हमें अब उन कमलों की तरह होना है जिन पर दाग़ नहीं लगाया जा सकता और प्रचलित कोई बुराई जिन्हें प्रभावित नहीं कर सकती। यही परीक्षा है कि इस कठिन समय पर हम खिल सके और सुगन्ध फैला कर बहुत से अन्य लोगों को इस सुन्दर वातावरण में ला सके। नकारात्मकता के विरुद्ध यह एक प्रकार से सुन्दर और लीलामय युद्ध है। उनकी मूर्खता क्या है? इसे कोई भी देख सकता है। अत: अपने मन को, अपनी दृष्टि को विकसित करें ताकि स्पष्ट रूप से आप सब यह समझ सकें कि आप ही लोग ज़िम्मेदार हैं। इस मस्तिष्क के सहस्रार के आप ही कोशाणु हैं और सबको ही कार्य करना है। सहजयोग में आना केवल आपके निजी सीमित व्यक्तित्वों और उनकी समस्याओं के लिए ही नहीं है। एक ओर तो आपने स्वयं विकसित होना है और दूसरी ओर सबको आपके माध्यम से विकसित होना है। इस दूसरे पक्ष की देखभाल आपको करनी चाहिए-----यह सुन्दर बात है कि परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करने और स्वर्गीय आशीर्वाद का आनन्द लेने के लिए यह द्वार अब आपके लिए खुला है। मुझे विश्वास है कि बहुत बड़े स्तर पर यह कार्यान्वित होगा। पूर्ण समर्पण तथा विश्वास यदि आप पा लेंगे तो कार्यान्वित होगा । ---यह बहुत ही अच्छी तरह प.पू.श्री माताजी, ८.५.१९९४ सहस्रार चक्र सातवाँ अंतिम चक्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण चक्र है, इसे सहस्रार चक्र कहते हैं । सहजयोग के अनुसार इसके 22 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-22.txt सहस्त्र दल होते हैं। वास्तव में मस्तिष्क में एक हज़ार नाड़ियाँ हैं और यदि आप मस्तिष्क को आड़े खण्डों में कार्टें तो मस्तिष्क की ये पंखुड़ियाँ सम खण्ड सहस्र दल कमल की रचना करते हैं। आत्मसाक्षात्कार के पहले एक हज़ार पंखुड़ियों वाला यह केन्द्र मस्तिष्क के तालु भाग को कमल की बंद कली की भाँति ढके रखता है। इस चक्र को ऊपर से अहं तथा प्रति अहं के गुब्बारों सम आकारों ने ढका हुआ है। जब ये दोनों संस्थायें मिलती हैं तो सिर के तालु भाग में कठोर हड्डी बन जाती है और हम अंडे की तरह बंद एक व्यक्तित्व बन जाते हैं। हमारी जाग्रति के समय सिर के तालु भाग में यह अंडे सम व्यक्तित्व टूटता है। यही कारण है कि ईसा के पुनर्जन्म दिवस पर ईसाई लोग अंडे भेंट करते हैं । सहजयोग पुस्तक से यह सहस्रार चक्र मस्तिष्क के तालु क्षेत्र आंगिक क्षेत्र (लिम्बिक एरिया) के अन्दर होता है । हमारा सिर एक नारियल जैसा है। नारियल के ऊपर जटायें होती हैं, फिर उसका एक सख्त खोल होता है, फिर एक काला खोल और उसके अन्दर सफेद गिरी, उसके अन्दर रिक्त स्थान और पानी होता है। हमारा मस्तिष्क भी इसी प्रकार बना होता है। कुण्डलिनी नीचे सभी चक्रों को भेदकर लिम्बिक एरिया में प्रवेश करती है और मस्तिष्क में स्थित सात पीठों को, जो लिम्बिक एरिया के मध्य रेखा पर रखे गये हैं, प्रकाशित करता है। तो अगर हम पीछे से शुरू करें तो सबसे पीछे मूलाधार चक्र है, उसके चारो तरफ स्वाधिष्ठान फिर नाभि फिर अनहद् फिर विशुद्धि और उसके बाद आज्ञा चक्र होता है। इस तरह से छ: चक्र मिलकर सातवाँ चक्र सहस्रार बनता है। ये बहुत ही महत्वपूर्ण बात है जो हमें पता होती चाहिये । प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ४.२.१९८३ सहस्रार चक्र की एक हज़ार नाड़ियाँ विशुद्धि चक्र की सोलह महत्वपूर्ण नाड़ियों से जुड़ी हैं। इसी कारण कहा जाता है कि श्री कृष्ण की सोलह हज़ार (16x1000=16000) पत्नियाँ थीं। उनकी सारी शक्तियाँ पत्नियों के रूप में थीं और मेरी (सहस्रार स्वामिनी श्री माताजी की) सारी शक्तियाँ सहजयोगी बच्चों के रूप में है। उत्थान की ओर विकसित होते हुये हमें अपने सहस्रार पर जाना पड़ता है। आज के सहजयोग से सामूहिकता इतनी जुड़ गयी है, इसके पूर्व यह केवल अगन्य चक्र के स्तर तक थी। सहस्रार पर पहुँचकर कुण्डलिनी सारी नाड़ियों को प्रकाशित करती है और नाड़ियाँ शांत एवं सुंदर दीपों सम दिखायी पड़ती हैं। प.पू.श्री माताजी, मेलबो्न, १६.४.१९९१ को इस चक्र का खुलना बहुत जरुरी है। जब तक यह चक्र नहीं खुलता, जब तक सहस्रार 23 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-23.txt कुण्डलिनी नहीं भेदती तब तक आप पार नहीं हो सकते, लेकिन जब ये कुण्डलिनी इसे भेद देती है तब वह अति सूक्ष्म सर्वव्यापी शक्ति में एकाकार होती है। प.पू.श्री माताजी, न्यूयार्क, २२.३.१९७९ ब्रह्मरन्ध्र का छेदन उस जगह है जहाँ हमारा हृदय है। इसका मतलब यह है कि हमारे हृदय में जब तक परमात्मा को पाने की इच्छा नहीं होगी तब तक यह भेदन ठीक नहीं होगा। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८५ आत्मा हृदय में अभिव्यक्त होती है, हृदय में प्रतिबिम्बित होती है, या ऐसा कह सकते हैं कि आत्मा का केन्द्र हृदय में होता है लेकिन वास्तव में आत्मा का स्थान ऊपर (सहस्रार पर) है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा की आत्मा है जिसे आप, 'परवरदिगार' कहते हैं, या 'सदाशिव' या आप इसे 'रहीम' कह सकते हैं, आप इसे अनेक नाम से पुकार सकते हैं, निरंजन ......निराकार। ......सहस्रार में ब्रह्मरन्ध्र एक ऐसे बिन्दु पर है जहाँ हृदय चक्र है, अत: यह जानना आवश्यक है कि ब्रह्मरन्ध्र का आपके हृदय से सीधा सम्बन्ध है। अगर आप सहजयोग को हृदय से न करके बाहरी रूप में ही करेंगे तो आप बहुत ऊँचे नहीं उठ सकते। मुख्य बात तो यह है कि आपको इसमें पूर्ण हृदय देना है। कुण्डलिनी के सहस्रार में प्रवेश पाने के विरुद्ध में जो सबसे बड़ी रुकावट आती है वह ' एकादश रुद्र'है जो भवसागर से आता है और जो मेधा यानी मस्तिष्क की प्लेट को ढकता है, इससे कुण्डलिनी लिम्बिक क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती। जो लोग अन्धाधुन्ध गलत मार्ग पर चलते जाते हैं, उन्हें अजीब तरह के हृदय रोग, दिल धड़कना, अनिद्रा, उल्टियाँ, चक्कर आना, उल्टा-सीधा बकना आदि हो जाते हैं। गलत गुरु के पास जाना, उनके आगे सिर झुकाना बहुत ही गंभीर बात है। इस प्रकार के आदमी के लिये सहस्रार में प्रवेश निषिद्ध हो जाता है । जो लोग सहजयोग के विरुद्ध है, उनका सहस्त्रार बहुत ही कठोर होता है, एक बादाम या अखरोट के बाहरी खोल की भाँति जो तोड़ा नहीं जा सकता। सहस्रार की देखभाल करने के लिये यह बहुत आवश्यक है कि आप सर्दियों में अपना सिर ढकें ताकि मस्तिष्क ठंडक से न जमे क्योंकि मस्तिष्क भी मेधा (फैट) का बना होता है और फिर मस्तिष्क को बहुत ज़्यादा गर्मी से भी बचाना चाहिये। .....हर समय धूप में नहीं बैठे रहना चाहिये .....उससे आपका मस्तिष्क पिघल जाता है और आप एक सनकी मनुष्य बन जाते हैं जो इस बात का संकेत है कि आपके कुछ समय बाद पागल होने की संभावना है। प.पू.श्री माताजी, ४.२.१९८३ सभी चक्रों की पीठ सहस्रार में है। सातों चक्र आपके मस्तिष्क में भली - भाँति स्थापित हैं और उसी स्थान से आवश्यकता पड़ने पर चक्रों पर वे कार्य करते हैं। ये सातों चक्र एक हो जाते हैं, मैं कहँगी कि एक ताल हो जाते हैं, इनमें पूर्ण एकाकारिता घटित हो जाती है, क्योंकि इन सात मुख्य चक्रों द्वारा प्रशासित होते हैं और अन्य सभी चक्रों को चलाते हैं। ये पूर्णतः एक ताल होते हैं, इनमें पूर्ण एकाकारिता होती है इसलिये आपके सभी चक्र 24 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-24.txt सुगठित होते हैं। कुण्डलिनी द्वारा प्रकाशित तथा परमेश्वरी शक्ति द्वारा आशीर्वादित चक्र अविलम्ब सुगठित हो जाते हैं मानो एक सूत्र में पिरोये मोती हों, यह उससे भी अधिक होता है। मान लो आपका एक चक्र ठीक नहीं है, इसमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक कोई कमी है, तो अन्य चक्र इस रोगी चक्र की सहायता का प्रयत्न करते हैं और सहयोगी के रुप में मानव के व्यक्तित्व का इस प्रकार विकास करने का प्रयत्न करते हैं कि वह सुगठित हो जायें । व्यक्ति यदि अन्दर से संगठित नहीं होगा तो वह बाहर से भी संगठित नहीं हो सकता। आपके अन्दर यह संगठन सहजयोग का ऐसा आशीर्वाद है कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व साधारण व्यक्तियों से कहीं ऊँचा हो जाता है। हमारे अन्तःस्थित सातों चक्रों का पथ प्रदर्शन एक ताल बद्ध पीठ करते है, एक तालबद्धता से जो सहायता मिलती है ये सभी चक्रों को संगठित होने में सहायक होती है। साधारण स्थिति में हम संगठित नहीं होते क्योंकि हमारा मस्तिष्क एक ओर जाता है, शरीर दूसरी ओर जाता है तथा हृदय, भावनायें अन्यत्र। हम समझ नहीं पाते कि करने के लिये कौनसा कार्य ठीक है और कौनसा कार्य सर्वोत्तम परन्तु आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आत्मा के प्रकाश में आप सत्य को पा लेते हैं और जान जाते हैं कि क्या करना चाहिये। .......आपमें आत्मज्ञान आ जाता है। तो पूर्ण सत्य यह है कि सहस्रार एक विश्वव्यापी क्षेत्र है जिसमें हम प्रवेश करते हैं। इस विश्वव्यापी क्षेत्र में प्रवेश करके जब हम इसमें होते हैं तो हम विश्वव्यापी व्यक्तित्व बन जाते हैं तब आपकी जाति, देश, धर्म तथा मानव के बीच बनावटी अवरोधों जैसी छोटी-छोटी चीजें स्वत: ही समाप्त हो जाती हैं और आप एक आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति बन जाते हैं। प.पू.श्री माताजी, कबैला, १०.५.१९९८ से अगर आपका सहस्रार पूरी तरह खुला है तो यदि आप कान में उंगली डाले, पूरी तरह से आँख, कान बंद कर लें, तो भी आप सुन सकते हैं, ये पहचान है कि आपका सहस्रार खुला है। ......अगर आपका सहस्रार खुल जाये तो लिम्बिक एरिया में जो subtle points हैं उनको excite करने से वही काम होता है जो नाक, कान, मुँह आदि जितने भी शारीरिक अंग हैं, उससे होता है। उसी सहस्रार को हम जाग्रत कर लेते हैं जो सारे शरीर को यहाँ संभाले हये है। ..... आप श्वास भी यहाँ से ले सकते हैं। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, फरवरी १९७५ अन्तर्जात गुण सहस्रार का सार समग्रीकरण हैं। सहस्रार में सारे चक्र अत: सब देवी-देवताओं का १. समग्रता समग्रीकरण है और आप इनके समग्रीकरण की अनुभूति कर सकते हैं, अर्थात् जब आपकी कुण्डलिनी सहस्रार में पहुँच जाती है तो आपका मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व भी इसी में विलय हो जाता है, आपकी कोई भी समस्या नहीं रहती। 25 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-25.txt आपके व्यक्तित्व का पूर्ण समग्रीकरण आवश्यक है। ......इसके लिये सामर्थ्य अन्दर से आती है, आपकी आत्मा आपको बल प्रदान करती है, आप बस अपनी संकल्प शक्ति लगाते हैं कि 'हाँ मेरी आत्मा काम करे' और आप अपनी आत्मा के कार्य करने लगते हैं, तो आप देखने लगते हैं कि आप किसी चीज़ के दास नहीं हैं, आप समर्थ हो जाते हैं, अर्थात् सम +अर्थ, अपने अर्थ के समतुल्य। समर्थ का अर्थ शक्तिशाली व्यक्तित्व भी है, तो आप एक शक्तिशाली व्यक्तित्व बन जाते हैं जिसमें कोई भी प्रलोभन नहीं होता, कोई भी असत्य विचार नहीं होता, कोई पकड़ नहीं होती और कोई समस्या नहीं होती। अनुसार २ निरानन्द - आप ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ आप 'निरानन्द को पाते हैं, और यह निरानन्द आपको मिलता है जब आप पूर्णतया 'आत्मस्वरूप' बन जाते हैं। प.पू.श्री माताजी, दिल्ली, ४.२.१९८३ ३. शान्ति - योग होने के बाद मनुष्य का मन सब चीज़ों से हटकर परमात्मा की ओर लग जाता है, सारी प्राथमिकतायें आपकी बदलकर आप दूसरे ही आदमी हो जाते हैं, उसी शान्ति में समाये रहते हैं जो आत्मा की देन है। ... आत्मा का जो स्वरुप है उस 'सत्य' को आप जान जाते हैं। प.पू.श्री माताजी, १६.२.१९८५ सहस्रार स्वामिनी 'श्री निर्मल माँ' की भूमिका मैं घोषणा करती हूँ कि मैं ही मानवता की रक्षा के लिये अवतरित हुई हूँ। मैं न केवल मानव जाति को मोक्ष प्रदान करने के लिये अपितु परमात्मा का साम्राज्य, आनन्द तथा आशीष जिनसे परमात्मा आपको धन्य करना चाहते हैं-वो सब प्रदान करने के लिये मैं इस पृथ्वी पर आयी हूँ। प.पू.श्री माताजी, लंदन, २.१२.१९७९ आप अपने लिये आनन्द खोज रहे हैं, अपनी ही संपदा को आप खोज रहे हैं, आपकी अपनी ही छिपी हयी सम्पदा को आप युगों से खोज रहे हैं। इसी संपदा को मैंने आपके सामने अनावृत्त करना है। प.पू.श्री माताजी, डालिस हिल, १८.११.१९७९ एक नव निर्माण (सामूहिक कुंडलिनी जागरण) की बात मैं आपसे करने वाली हूँ, सिर्फ बात ही नहीं , ये इसका अविष्कार जो खोज निकाला है। ......यह सामूहिक खोज है। .. .यही सहजयोग है। सत्य है .......ये एक तथ्य है, सहजयोग में सिर्फ कुण्डलिनी की जाग्रति और परमात्मा को पाने की ही बात है और कोई नहीं। प.पू.श्री माताजी, गुरु पूर्णिमा, १.६.१९७२ 26 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-26.txt आपको 'सत्य' प्रदान करना मेरा कार्य है ......आपको आत्मसाक्षात्कार देना मेरा कार्य है, मुझे ये कार्य करना है। प.पू.श्री माताजी, यू.के., १९७९ भारत में ब्रह्माण्ड के सहस्रार खोलने का 'श्री माँ' का अद्भुत अनुभव को खोलने का अपना अनुभव में आपको बताना चाहती हूँ। ज्योंही सहस्रार खुला, पूरा सहस्त्रार वातावरण अद्भुत चैतन्य से भर गया और आकाश में तेज़ रोशनी हुई तथा सभी कुछ मूसलाधार वर्षा सा झरने की तरह पूरी शक्ति से पृथ्वी की ओर आया, मानों मैं इनके प्रति चेतन ही नहीं थी , संवेदन शून्य हो गयी। ये घटना इतनी अद्भुत थी और इतनी अनपेक्षित थी कि मैं स्तब्ध रह गयी और इसकी भव्यता ने मुझे एकदम से मौन कर दिया। आदि कुण्डलिनी को मैंने एक बहुत बड़ी भट्टी की तरह से ऊपर उठते देखा। ये भट्टी एकदम शांत थी परन्तु ये अग्नि की तरह से लाल थी मानो किसी धातु को तपाकर लाल कर लिया हो और उसमें से नाना प्रकार के रंग विकिर्णित हो रहे हों। इसी प्रकार से कुण्डलिनी भी सुरंग के आकार की भट्टी सम दिखायी दी , जैसे आप कोयला जलाकर बिजली बनाने वाले संयंत्रों में देखते हैं और यह दुर्बीन से दिखायी देने वाले दृश्य की तरह से फैलती चली गयी, एक के बाद एक विकीर्णन होता चला गया Shoot-Shoot-Shoot इस प्रकार से। देवी-देवता आए और अपने सिंहासनों पर बैठते चले गये, स्वर्णिम सिंहासनों पर और फिर उन्होंने पूरे सिर को इस तरह उठाया मानो गुम्बद हो और इसे खोल दिया। तत्पश्चात् चैतन्य की इस मूसलाधार वर्षा ने मुझे पूरी तरह से सराबोर कर दिया। यह सब देखने लगी और आनन्द मग्न हो गयी। यह सब ऐसा था मानों कोई कलाकार अपनी ही कृति को निहार रहा हो और मैंने महान सन्तुष्टि के आनन्द का अहसास किया। इस सुन्दर अनुभव के आनन्द को प्राप्त करने के बाद मैंने अपने चहूँ ओर देखा और पाया कि मानव कितने अंधकार में है, और मैं एकदम मौन हो गयी। मेरे मन में इच्छा हुयी कि मुझे कुछ ऐसे प्याले (पात्र) मिलने चाहिये जिनमें मैं यह अमृत भर सकूं, केवल पत्थरों पर इसे न डालूं। प.पू.श्री माताजी, सहस्त्रार पूजा, फ्रान्स, ५.५.१९८२ 27 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-27.txt श्री कल्कि टरी म 28 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-28.txt आज कल्कि देवता व कुण्डलिनी शक्ति इनका क्या सम्बन्ध है ये कहने का प्रयास किया है। कल्कि शब्द निष्कलंक से निर्मित हुआ है। निष्कलंक माने जिस पर कलंक या दाग़ न हो, इसका मतलब अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल है। श्री कल्कि पुराण में श्री कल्कि अवतरण के विषय में बहुत कुछ लिखा है। उसमें यह कहा जाता है कि श्री | कल्कि का अवतरण इस भूतल पर सम्भालपुर गाँव में होगा। संभाल शब्द का मतलब भाल 'कपाल' और संभाल माने भाल प्रदेश पर स्थित । अर्थात कल्कि देवता का स्थान हमारे कपाल पर है। इस शक्ति को श्री महाविष्णु (पुर ) की हनन शक्ति भी कहते हैं। श्री येशू का अवतरण व श्री कल्कि शक्ति का अवतरण, इस बीच की अवधि में को स्वयं का परिवर्तन करके परमेश्वर के साम्राज्य में प्रवेश करने का मौक़ा है। इसी को बाइबल में अन्तिम निर्णय (The last मनुष्य judgement) कहा है। इस पृथ्वी पर हर एक मनुष्य का यह अन्तिम निर्णय होने वाला है। कौन परमेश्वर के राज्य में प्रवेश के योग्य है और कौन नहीं, इसकी छँटनी होने का समय अब आया है। सहजयोग से सभी का अन्तिम निर्णय होने वाला है। हो सकता है बहुत से लोगों को ये बात अजीब लगे परन्तु यह अजीब होकर भी सत्य है। माँ के प्यार से कोई भी सहज में पार होता है और इसलिये ऊपर कही गयी बात इतनी सुन्दर नाज़ुक व सूक्ष्म बनायी गई है। उसमें किसी को भी विचलित नहीं होना है । मैं आपको कहना चाहती हूँ कि सहजयोग से ही आपका आख़िरी निर्णय होने वाला है। आप परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लायक हैं कि है। नहीं इसका निर्णय सहजयोग द्वारा ही होने वाला बहुत से लोग अलग-अलग कारणों से सहजयोग में बढ़ते हैं, इसकी ओर आते हैं। समाज में कई लोग बहुत ही साहसी वृत्ति के, कुछ जड़ वृत्ति के या सुस्त वृत्ति के होते हैं। ये लोग ईड़ा नाड़ी पर कार्यान्वित होते हैं। इसमें कुछ लोग मदिरापान अथवा इसी तरह का कुछ पीते हैं जिसके कारण ऐसे लोग सत्य से दूर भागते हैं। दूसरी तरह के कुछ लोग पिंगला नाड़ी पर कार्यान्वित होते हैं और बहुत ही महत्वाकांक्षी होते हैं। वो स्वतंत्रता चाहते हैं और उनकी अपेक्षाएं इतनी विशेष होती हैं कि उससे उनकी दूसरी साईड (ईड़ा नाड़ी) पूर्णतः खराब हो जाती है, उससे उनको अनेक दुष्कर रोग हो जाते हैं। परमेश्वर से जुड़े रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता। इस तरह दोनों प्रकार के लोग आपको समाज में मिलेंगे। लोग एक तो बहुत ही तामसी वृत्ति में रहेंगे, नहीं तो बहुत ही राजसी वृत्ति में । इसमें तामसी वृत्ति के लोग तो शराब ही पिएंगे, मतलब स्वयं को जागृत स्थिति से, सच्चाई से परे हटाकर रखेंगे । दूसरे प्रकार के लोग जो कुछ सच्चाई है, सुन्दर है उसे नकारते ही रहते हैं । ऐसे लोग अहंकार से भरे हुए होते हैं। उसी प्रकार प्रति अहंकार से भरे हुए सुस्त , जड़ व लड़ाकू प्रवृत्ति के लोग दिखायी देते हैं । सहजयोग में बड़ी कठिनाई से आ सकते हैं । .....दोनों तरह के लोग परन्तु जो लोग सात्विक वृत्ति के हैं या मध्यम वृत्ति के हैं, ऐसे लोग सहजयोग में जल्दी आ सकते हैं। इसी तरह जो लोग बहुत ही सीधे हैं वे भी सहजयोग को बिना मेहनत के प्राप्त होते हैं। वे पार भी सहज में होते हैं। इस संदर्भ में मुझे यह बात कहना जरूरी है कि सहजयोग आपको सही रास्ते पर ले जा सकता है व परमेश्वरी ज्ञान मूलतः खोलकर बता सकता है। सारे परमेश्वर को खोजने वालों को सहज ही परमेश्वरी ज्ञान 29 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-29.txt खुलकर बताया जा रहा है। ये सारा सहज में ही होता है, आपको अपना आत्मसाक्षात्कार बिना कष्ट उठाये मिलता है और बिना कोई पैसा खर्च किए। परन्तु एक बात पक्की ध्यान रखनी चाहिये। आत्मसाक्षात्कार के बाद परमेश्वर के राज्य में प्रस्थापित होने तक बहुत बाधाएँ हैं और श्री कल्की शक्ति का सम्बन्ध इसी से जुड़ा है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के बाद भी जो लोग अपनी पुरानी आदतों और प्रवृत्तियों में मग्न होते हैं उनकी स्थिति को योगभ्रष्ट स्थिति कहते हैं उदाहरण - कोई व्यक्ति पार होने के बाद भी अहंकार वृत्ति में फँसा है या पैसे कमाने में ही मग्न है, या अपनी तानाशाही प्रस्थापित करने में अतिमग्न है, तो वह व्यक्ति कोई ग्रुप बना सकता है और ऐसे ग्रुप पर वह व्यक्ति अपना बड़प्पन स्थापित कर सकता है। परन्तु इसमें थोड़े दिनों बाद ऐसा मालूम होगा कि वह व्यक्ति परमेश्वर से, सच्चाई से वंचित हो गया , और अन्त में उसका सर्वनाश हो गया। हर एक चीज़ का इस संसार में बिल्कुल सही ढंग से नियमन होता है, उसी प्रकार सहजयोग में भी है। सहजयोग में आकर आप दिखावा नहीं कर सकते। किसी बात के लिये ग्रुपबाज़ी नहीं कर सकते। सहजयोग में आने के बाद इस प्रकार के लोगों का बहत जल्दी भांडा फूटता है क्योंकि ऐसा कृत्य करने वाले लोगों के सारे चक्रों पर ज़ोरों की पकड़ आती है और उसकी जानकारी उन व्यक्तियों को नहीं रहती है। ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें चैतन्य लहरियों की सम्वेदना रह सकती है, परन्तु थोड़े समय में ही ऐसे लोगों का नाश होता है ......योग भ्रष्ट लोग, श्री कृष्ण जी के अनुसार, राक्षसयोनि में जाते हैं । जो लोग सहजयोग मे आते हैं उनको इसमें जमकर टिकना पड़ेगा नहीं तो वे योग पाए बिना किसी और योनि में जा गिरेंगे। .....श्री कल्कि देवता की शक्ति सहजयोगियों के साथ गुरुकृपा से प्रत्येक क्षण कार्यान्वित रहती है। श्री कल्कि देवता सहजयोगी की पवित्रता की रक्षा अपनी एकादश शक्ति से करते हैं। जो कोई सहजयोग के विरोध में कार्य करेगा उन सभी को बहुत परेशानी होगी । इतिहास को देखा जाए तो लोगों ने अनेक संत पुरुषों को बहुत परेशान किया। परन्तु अब आप संतो को, साधुओं को कोई परेशान नहीं कर सकता, क्योंकि श्री कल्कि देवता की शक्ति पूर्णरूप से कार्यान्वित है। जो मनुष्य सीधा- सादा है, संत है, उसे परेशान किया तो कल्कि शक्ति उन्हें कहीं का नहीं रखेगी और उस समय आपको भागने के लिये पृथ्वी भी कम पड़ेगी। | .......औरों को मत सताओ, उनकी अच्छाईयों का फायदा मत उठाओ और अपना रुतबा बड़प्पन जताकर व्यर्थ बातें मत बनाओ क्योंकि कल्कि देवता ने आपके जीवन में संहार कार्य की शुरुआत की तो आप क्या करें, क्या न करें की स्थिति में आ सकते हैं। इसी प्रकार जब आप अज्ञानता से या अनजाने में किसी दुष्ट व्यक्ति को भजते हैं या उसके सम्पर्क में होते हैं तब भी आपको इससे परेशानी उठानी पड़ती है। कितना पागलपन या अघोरीपन है? उसमें आपको लगता है कि पुजारियों को पैसा देकर आपने बहुत पुण्य कमाया। इस तरह सत्य क्या है, ये न समझकर हम अंधविश्वास से जिंदगी जीते हैं।...... परमेश्वर के नाम पर एक के पीछे एक ऐसे अनेक पाप हम करते रहते हैं । पाप क्षालन (धोना) करने के बदले पापों में वृद्धि करते हैं। ऐसे ......परमेश्वर के नाम से आपसे कोई पैसा निकालता है तो 30 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-30.txt लोगों को मैं तामसी कहती हैँ। आपके पास जो कुछ समय मिला है, वह सब आपात्काल की तरह और महत्वपूर्ण है और इसलिये आपको स्वयं आत्मसाक्षात्कार के लिये सावधान रहना चाहिये। इसमें किसी को भी दूसरों पर निर्भर नहीं रहना है। अपने आप स्वयं साधना करके परमेश्वर के हृदय में ऊँचा स्थान प्राप्त करना चाहिए, अर्थात इसके लिये सहजयोग में आकर स्वयं पार होना जरूरी है, क्योंकि पार होने के बाद ही साधना करनी है। जिस समय कल्कि शक्ति का अवतरण होगा, उस समय जिन लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति अनुकम्पा व प्रेम नहीं होगा या जिन्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं चाहिए होगा, ऐसे सभी लोगों का हनन होगा। उस समय श्री कल्कि किसी पर दया नहीं करेंगे। वे ग्यारह रुद्र शक्तियों से सिद्ध हैं। उनके पास ग्यारह अति बलशाली विनाश शक्तियाँ हैं। इसलिये व्यर्थ की बातों में अपना समय नष्ट मत करिए। चमत्कार दिखाने वाले अगुरुओं के पीछे 'भगवान - भगवान' करते मत दौड़िये। जो सही है उसी को अपनाइये नहीं तो श्री कल्कि शक्ति का अपनी सारी शक्तियों के साथ संहार करने के लिये अवतार लेकर आने का समय बहुत नज़दीक आया है। कुछ दूसरी तरह के लोग होते हैं, वे हमेशा अपनी चालाकी और बुद्धिमानी पर विचार करते हैं। उन्होंने हमेशा परमेश्वर को नकारा है । ऐसे लोग कहते हैं, परमेश्वर कहाँ है ? परमेश्वर वगैरह कुछ भी नहीं। जो कुछ गलत है वह गलत ही है। जो कुछ हमारे धर्म के विरोध में है वह सब ग़लत ही है फिर वह कल हो या आज हो या १००० साल पहले हो, कभी भी हो वह ग़लत है , ......गलत मार्ग का अवलम्बन मत कीजिए। जो आप की उत्क्रान्ति के विरोध में है वह मत करिए । ऐसा करोगे तो एक समय ऐसा आएगा जब आपके पास किये हुए कृत्यों का पछतावा करने के लिये भी समय नहीं रहेगा..... .उस समय सारा काम प्रचंड होगा। हर एक व्यक्ति अलग अलग छांटा जाएगा। कोई भी कुछ नहीं कह सकेगा। आपके कर्मों के अनुसार कार्य होगा। आपको समझना चाहिये कि आपकी माँ ये सारी बातें समझती है। अगर आपकी माँ ने कोई बात आपसे कही तो वह माननी चाहिये, इसमें वाद - विवाद नहीं करना चाहिये। क्या आपके वादविवाद से चैतन्य लहरियाँ प्राप्त होने वाली हैं ? .. जो विशेष बात मुझे आपसे कहनी है वह है श्री कल्कि देवता की विनाश शक्ति के बारे में। श्री कल्कि अवतरण बहुत कठोर है। पहले श्री कृष्ण जी का अवतरण हुआ, उनके पास हनन शक्ति थी। उन्होंने कंस और राक्षसों को मारा। बहुत छोटे से थे वे, तभी उन्होंने पूतना राक्षसी को कैसे मारा, ये आपको मालूम है। परन्तु श्री कृष्ण 'लीला' भी करते थे। वे करुणामय थे। उन्होंने लोगों को बहत बार छोड़ दिया. क्षमा किया। श्री कृष्ण क्षमाशक्ति से परिपूर्ण थे | क्षमा करना श्री कृष्णस्थित गुण-धर्म है। परन्तु उस परमेश्वर की करुणा को समझने के लिये अगर हम असमर्थ साबित हुए तो इस कल्कि शक्ति का विस्फोट होगा और पूरी क्षमाशीलता आप पर संकटों की तरह आएगी। श्री कृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि किसी समय अपने विरोध में कुछ चला लेंगे लेकिन आदिशक्ति के विरोध में एक शब्द नहीं चलेगा । 31 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-31.txt ऊपर निर्दिष्ट किया हुआ एक बहुत बड़ा अवतरण होने वाला है, ये पक्की बात है। ऐसी अवतारी शक्ति के पास श्री कृष्ण की सारी हनन शक्तियाँ, जो केवल हनन शक्ति, श्री शिव की हनन शक्ति अथ्थात ताण्डव का एक हिस्सा, ऐसी सर्वप्रकार की हनन शक्तियाँ होंगी। उस अवतारी पुरुष के पास श्री भैरव का खड़ग होगा, श्री गणेश का फरसा होगा, श्री हनुमान की गदा और विनाश की सिद्धियाँ होंगी। श्री बुद्ध की क्षमाशीलता व श्री महावीर की अहिंसा शक्ति भी उलटकर गिरेंगी, ऐसी ग्यारह शक्तियुक्त श्री कल्कि देवता का अवतरण होने वाला है। उस वक्त सर्वत्र हाहाकार मचेगा और उसी समय सबका चयन होने वाला है। उस समय सहजयोगी भी किसी को नहीं बचा सकता क्योंकि उस समय सहजयोग भी समाप्त हुआ होगा। आप सहजयोग से भी अलग किये जाओगे और प्रत्येक मनुष्य परमेश्वर को सही लगने वाला बच जाएगा बाकी के लोगों को मारा जाएगा और ये हनन ऐसा वैसा न होकर सम्पूर्ण जड़ का ही नाश होगा। पहले देवी के अनेक अवतारों ने अनेक राक्षसों का नाश किया, पर राक्षसों ने फिर जन्म ले लिया, परन्तु अब पूर्णतः सम्पूर्णतः नाश होने वाला है जिससे पुनः जन्म की भी आशा नहीं रह सकती। अभी जो स्थिति है वह भिन्न है और उसे समझने की आप कोशिश कीजिए ।..... केवल सहजयोग से ही मनुष्य की सफाई होगी और उसी से व्यक्ति परमेश्वर प्राप्ति के योग्य बनाया जा सकता है। ......इसीलिये आप अपना समय नष्ट न करके तुरन्त पूर्ण श्रद्धा से सहजयोग को स्वीकार कीजिये । यह अत्यन्त आवश्यक है। इससे भूतकाल में हुई गलतियाँ, पाप इन सबसे आपको मुक्ति मिलेगी।......आप बहुत सावधान और सजग रहिये। अपने आप से मत खेलिये। स्वयं का नाश मत करिये। तुरन्त उठिये, जागृत हो जाइये। मेरे पास आइये मैं आपकी मदद ......अपने जीवन का ज़्यादा से ज़्यादा समय सहजयोग में व्यतीत करना चाहिए। आपके लिये यह सहजयोग बहुत ही क़ीमती है, बहुत महान है। इसे प्राप्त करने के लिये और प्राप्त होने के बाद आत्मसात करने के लिये आप अपना समय उसे दीजिए।.....जिस समय नये लोगों का सहजयोग की तरफ बढ़ना बिल्कुल खत्म हो जाएगा करूंगी।.... उस समय कल्कि शक्ति का अवतरण होगा। कल्कि शक्ति का स्थान आपके कपाल के भाल प्रदेश पर है। जिस समय कल्कि चक्र पकड़ा जाता है उस समय ऐसे लोगों का पूरा सिर भारी होता है। कुण्डलिनी को अपने उस चक्र के आगे नहीं ले जा सकते। ऐसे मनुष्य कुण्डलिनी ज़्यादा से ज़्यादा आज्ञा चक्र तक आ सकती है। परन्तु फिर से कुण्डलिनी नीचे जा गिरती है। अगर आपने अपना सिर ग़लत लोगों या अगुरुओं के पाँव पर रखा होगा ते आपकी स्थिति भी ऐसी हो सकती है। में कपाल पर अगर एक दो उठाव हों तो समझना चाहिये कि कल्कि चक्र खराब है। जिस समय कल्कि चक्र की पकड़ होगी उस समय अपने हाथ की हथेली और सभी उँगलियों पर और पूरे बदन पर साधारण से ज़्यादा गर्मी लगती है। किसी व्यक्ति के श्री कल्कि शक्ति के चक्र में पकड़ होगी तो ऐसा व्यक्ति कर्करोग (कैंसर) या महारोग इस तरह की बीमारियों से पीडित होगा। .इसलिये कल्कि चक्र को साफ रखना होगा। इस चक्र में ग्यारह और चक्र हैं। यह चक्र साफ़ रखने लिये इस चक्र के ग्यारह चक्रों में ज़्यादा से ज़्यादा चक्र साफ रखना बहुत ज़रूरी है। उनकी वजह से और छोटे-छोटे 32 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-32.txt चक्र चालित कर पाते हैं। अगर पूरे के पूरे ग्यारह चक्रों की पकड होगी तो ऐसे व्यक्तियों को आत्मसाक्षात्कार देना बहुत ही कठिन होता है। अब श्री कल्कि चक्र को साफ़ करने के लिये क्या करना है वह देखते हैं। सर्वप्रथम हमें परमेश्वर के प्रति अत्यन्त आदर, प्रेम और उनके प्रति आदरयुक्त भय दोनों ही चाहिये । अगर आपको परमेश्वर के प्रति प्यार नहीं होगा या कोई गलती या पाप करते समय परमेश्वर का भय नहीं लग रहा है, उस समय श्री कल्कि शक्ति अपने क्षोभ से सिद्ध है, सज्ज है। ....... अगर आप पाप कर रहे हैं या गलती करते हैं तो उसमें मुझसे या और किसी से छिपाने ये की ज़रूरत नहीं है। अब अपने आपको यह मालूम है कि आप ग़लत काम कर रहे है। अगर आप पाप कर रहे हो और आपके हृदय में आपको महसूस हो रहा है कि हम पाप कर रहे हैं तो कृपा करके ऐसा कुछ मत करिये। जिस समय आपका परमेश्वर के प्रति आदर, भय और प्रेम रहता है उस समय आप जानते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, वही हमारी देखभाल कर रहा है और वही हमारा उद्धार कर रहा है। वे उनकी शक्ति के कारण हमारे ऊपर कृपा एवं आशीर्वाद की वर्षा करते हैं। परमेश्वर इतने करुणामय हैं कि इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। वे करुणा के सागर हैं, पर वे जितने करुणामय हैं उतने ही वे क्रुद्ध भी हैं, अगर उनका कोप हो गया तो बचना बड़ा मुश्किल है। फिर उन्हें कोई नहीं रोक सकता। मेरे प्यार की आवाज़ भी उस समय नहीं सुनी जायेगी क्योंकि वे उस समय कह सकते हैं कि 'माँ, आपने बच्चों को छूट दे दी है और बच्चे बिगड़ गए ।' इसलिय मैं आपसे कहना चाहती हैँ कि कोई भी गलत या बुरे कृत्य मत करो। उससे मेरे, माँ के नाम पर बुराई मत लाओ। आपकी माँ का हृदय इतना प्रेम से भरा, इतना नाज़ुक है कि ये सारी बातें आपको बताते हये भी मुझे मुश्किल लगता है। मैं फिर से आपको विनती करके बताती हूँ कि अब व्यर्थ समय मत बर्बाद कीजिए क्योंकि पितामह परमेश्वर बहुत कुपित हैं। आपने अगर कोई बुरा काम किया तो वे आपको सजा देंगे। परन्तु अगर आपने उनके लिये या अपने स्वयं के आत्मसाक्षात्कार के लिये किया तब आपको परमेश्वर के राज्य में उच्च पद मिलेगा। कुछ आज आप करोड़पति होंगे, आप बहुत अमीर होंगे या बहुत बड़े पुजारी या वैसे ही कुछ होंगे परन्तु जो परमेश्वर को प्रिय है, जो मान्य है, उन्हीं को परमेश्वर के राज्य में उच्चतम पद पर विराजमान किया जायेगा। रईस या लखपति बनने पर आपको परमेश्वर के राज्य में प्रवेश है, ये अगर आपका विचार होगा तो वह बहुत ग़लत है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर प्राप्ति के लिये हम कहाँ हैं, यह देखकर प्रथम अपना परमेश्वर से सम्बन्ध घटित होना आवश्यक है। स्वयं की आत्मा कहाँ है? परमेश्वर से हम किस तरह सम्बन्धित हो सकते हैं, इन सब बातों का रहस्य आपको सहजयोग प्राप्त होने के बाद ही होता है। साधकों को सहजयोग में आकर अपना सर्वोपरि उत्कर्ष साधकर अपना कल्याण कर लेना चाहिये। प.पू.श्री माताजी, सहजयोग और कल्कि शक्ति, मराठी से अनुवाद (निर्मला योग से उद्धृत) 33 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-33.txt 'श्री ललिता' एवं श्री चक्र' हमारे अन्दर दो (और विशेष) चक्र हैं - बायें कंधे के ज़रा नीचे श्री ललिता चक्र, दाहिने कंधे के ज़रा नीचे श्री श्रीचक्र, ये दोनों चक्र दाईं तरफ की महासरस्वती और बाईं तरफ की महाकाली शक्ति को चलाते हैं। प.पू.श्री माताजी, ४.२.१९८३ ये दोनो चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। व्यक्ति को बिना बाजू के वस्त्र नहीं पहनना चाहिये। इन चक्रों के नंगे होने से नालीब्रण (Sinus), आँखो के रोग, दोनों हाथ का पक्षाघात, और पार्किन्सन बीमारी हो सकती है। प.पू.श्री माताजी, कबैला, ८.१०.२००० आपके साथ बहुत सी चीजें घटित हो रही हैं। आपमें दिव्य परिवर्तन हो रहे हैं। मैं जानती हूँ ऐसा हो रहा है। साक्षात 'श्री चक्र' धरती पर उतर आया है और सतयुग का प्रारम्भ हो चुका है। यही कारण है कि आप इन चैतन्य लहरियों को अपनी उंगलियों पर खोज रहे हैं आरै ये जो गुरु और ऋषि जिन लोगों ने इसका वर्णन किया था, उन्होंने नहीं खोजा क्योंकि श्री चक्र के आने के बाद ही यह कार्य सम्भव था। प.पू.श्री माताजी, बम्बई, २१.३.१९७७ 34 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-34.txt ं र े० मूलाधार के गणेश, विराट में महागणेश बन जाते हैं-वह मस्तिष्क हैं । इसका अर्थ है कि यह श्रीगणेश का आसन हैं । इसका तात्पर्य है कि श्रीगणेश अपने आसन से अबोधिती के सिद्धान्त का शासन करते हैं। आपको, जैसा कि पता है कि यह सिर के पीछे 'औद्टिक थैलेमस' के क्षेत्र में स्थित है- जैसा कि इसे 'ओप्टिक लोब कही जाती है और यह ऑखों को अबोधिता प्रदान करता है । (१९८६, श्रीमहागणेश पूजा, गणपतिपुले) प्रकाशक * निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०- २५२८६५३७, २५२८६७२०, e-mail : sale@nitl.co.in कभ ৫ 2013_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-35.txt ा। ६ यदि हम अपने श्रीगणेश तत्व का ध्यान रखेंगे:स्वयं को स्वच्छ रेखेंगे, अपनी आँखें स्वच्छ रखेंगे, सब के साथ पवित्र संबंध रखंगे, ती हमें किसी भी प्रकारकी कोई समस्यानहीं होगी। (१९९६, श्रीगणेश पूजा, कबेला)